पश्चात्ताप: प्रिया अपना मां के प्रति इतनी कठोर क्यों हो गई?

‘‘मां,   मां, कहां चली गईं?’’?  रेणु की आवाज सुन कर मैं

पीछे मुड़ी.

‘‘तो यहां हैं आप. सारे घर में ढूंढ़ रही हूं और आप हैं कि यहां अंधेरे कमरे में अकेली बैठी हैं. अब तक तैयार भी नहीं हुईं. हद हो गई. हर साल आज के दिन आप के दिल पर न जाने क्यों इतनी उदासी छा जाती है,’’ रेणु अपनी धुन में बोलती जा रही थी.

आज पहली अप्रैल है. आज भला मैं

कैसे खुश रह सकती हूं? आज मेरी मृत बेटी प्रिया का जन्मदिन है. 25 वर्ष पूर्व आज ही के दिन मैं ने ‘प्रियाज हैप्पी होम’ की स्थापना की थी. आज उस की रजत जयंती का समारोह आयोजित किया गया है.

‘‘चलिए, जल्दी तैयार हो जाइए. पापा सीधे समारोह में ही पहुंच रहे हैं. अनाथाश्रम

से 2-3 बार फोन आ चुका है कि हम घर से निकले हैं या नहीं.’’

‘‘कितनी बार कहा है तुम से कि अनाथाश्रम मत कहा करो. वह भी तो अपना ही घर है, प्रिया की याद में बनाया हुआ छोटा सा आशियाना,’’ मैं खीज उठी.

‘‘अच्छा, सौरी. अब जल्दी तैयार हो जाइए. आकाश भैया भी आ गए.’’

हैप्पी होम की सहायक संचालिका

रुचि तिवारी मुझे अपने साथ स्टेज पर ले गई.

समारोह की शुरुआत मुख्य अतिथि ने दीप प्रज्वलित कर के की. प्रिया की बड़ी तसवीर पर माला पहनाते वक्त मेरी आंखें नम हो गईं.

समारोह के समापन से पहले मुझ से दो शब्द

कहने के लिए कहा गया, तो मैं ने सब का अभिवादन करने के पश्चात एक संक्षिप्त सा भाषण दिया, ‘देवियो और सज्जनो, 25 वर्ष पूर्व मैं ने जब अपने पति की सहमति से इस हैप्पी होम की नींव रख कर एक छोटा सा कदम उठाया था तब मैं ने सोचा भी न था कि इस राह पर चलतेचलते इतने लोगों का साथ मुझे मिलेगा और कारवां बनता जाएगा. आज हमारे हैप्पी होम में अलगअलग आयु के 500 से भी अधिक बच्चे हैं. 3 छात्राएं स्कालरशिप हासिल कर के डाक्टर बन चुकी हैं. 10 से अधिक छात्र इंजीनियर बन गए हैं और अच्छे पदों पर नौकरी कर रहे हैं. इस से अधिक गर्व की बात हमारे लिए और क्या हो सकती है? हैप्पी होम में पलने वाले हर बच्चे के होंठों पर मुसकान हमेशा बनी रहे, हमारी यही कोशिश आगे भी जारी रहेगी. धन्यवाद.’

समारोह में जिस तरह मेरी प्रशंसा के पुल बांधे गए, क्या मैं वाकई उस की हकदार हूं? क्या मैं अपनी प्रिया की उतनी ही ममतामयी मां बन पाई, जितना हैप्पी होम के बच्चों की हूं?

इन प्रश्नों के मेरे पास सकारात्मक उत्तर नहीं होते. अपने गरीबान में झांक कर देखने पर मैं खुद को कितना घृणित महसूस करती हूं, यह मैं ही जानती हूं.

मेरा मन पुरानी यादों के गलियारों में भटकने लगता है, जब मैं ने प्रिया को खो

दिया था. प्रिया को जब पहली बार देखा था, वह तो और भी पुरानी बात है. तब वह अपने पिता रवि और दादी के साथ हमारे पड़ोस में रहने आई थी.

पड़ोस में जब कोई नया परिवार आता है तो स्वाभाविक रूप से हर किसी को उस के बारे में जानने की उत्सुकता होती है. मां, इस का अपवाद न थीं. पहले टैक्सी से रवि, प्रिया और अपनी बूढ़ी मां के साथ आए. पीछे से उन का सामान ट्रक से पहुंचा.

शिष्टाचारवश मां और पिताजी ने उन के घर जा कर अपना परिचय दिया. घर आ कर मां  पहले उन लोगों के लिए चाय, फिर सारा खाना बना कर ले गईं. घर आ कर मां बोलीं, ‘‘बेचारे बहुत भले लोग हैं. नन्ही बिटिया का नाम प्रिया है. बेचारी बिन मां की बच्ची. 3 महीने पहले उस की मां गुजर गईं.’’

‘‘अच्छा. क्या हुआ था उन्हें, इतनी छोटी उम्र में?’’ मैं ने स्वेटर बुनते हुए पूछा.

‘‘गर्भाशय का कैंसर था. पहले बहुत रक्तस्राव हुआ. फिर डाक्टरों ने आपरेशन कर के गर्भाशय निकाल दिया, परंतु तब तक कैंसर बहुत फैल गया था,’’ मां ने बताया.

इतने में प्रिया के रोने की आवाज आई, तभी मैं ने बाहर दालान में जा कर देखा तो प्रिया की दादी उसे गोद मेें लिए हुए चिडि़या आदि दिखा कर उस का दिल बहलाने का असफल प्रयास कर रही थीं. प्रिया की रुलाई रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी.

नन्ही प्रिया ने हलके गुलाबी रंग का झालरों

वाला फ्राक पहना था. घुंघराले बालों की लट माथे पर बारबार आ रही थी, जिसे उस की दादी हाथ से पीछे कर देती थीं. मुझ से प्रिया का रोना देखा न गया. मैं ने अपने घर के बगीचे से एक गुलाब का फूल लिया और रास्ता पार कर के प्रिया के घर पहुंच गई. गेट खुलने की आवाज सुन कर प्रिया की दादी ने पीछे मुड़ कर मुझे देखा और हौले से मुसकरा दीं.

‘‘नमस्ते, आंटीजी,’’ मैं ने हाथ जोड़ते हुए कहा. मेरे पीछे मां भी आ गई थीं.

‘‘बिटिया, क्यों रो रही है? नया घर

पसंद नहीं आया क्या?’’ मां ने हंसते हुए प्रिया के गाल की चिकोटी काटी.

प्रिया ने रोना बंद कर दिया और मुंह फुला कर हमें देखने लगी. मैं ने उसे अपने पास बुलाया तो उस ने सिर हिला कर आने से इनकार किया. मैं ने गुलाब का फूल उस की ओर बढ़ाया. वह उसे लेने के लिए आगे बढ़ी, तो मैं ने उसे लपक कर पकड़ लिया. फिर मैं उसे ले कर अपने बगीचे में आ गई और उसे तरहतरह के फूल दिखाने लगी. प्रिया अब रोना बंद कर हंसने लगी.

‘‘3-4 महीने बाद पहली बार बच्ची इतना खुल कर हंसी है,’’ यह निर्मला देवी का स्वर था. उन्होंने प्रिया को पास बुला कर खाना खिलाने का आग्रह किया, परंतु उस ने अपनी बांहें मेरे गले में डाल दीं.

मैं ने निर्मला देवी के हाथ से प्लेट ले ली. वह मेरे हाथ से खुशीखुशी खाना खाने लगी. रात तक प्रिया मुझ से इतनी घुलमिल गई कि बड़ी मुश्किल से रवि के बहुत पुचकारने पर अपने घर जाने के लिए तैयार हुई.

मेरी 2 बार सगाई टूट चुकी थी. पहली बार तो लड़के वाले सगाई के बाद दहेज की मांग बढ़ाते ही जा रहे थे, इसी कारण रिश्ता टूट गया, क्योंकि पिताजी उन मांगों को पूरा करने में असमर्थ थे. दूसरा रिश्ता जिस लड़के से हुआ था, उस के बारे में पिताजी को पता चला कि वह दुश्चरित्र था.

एक रात प्रिया तेज बुखार से तप रही

थी, पर मुझे सुबह पता चला. मैं उस के घर गई और बोली, ‘‘आंटीजी, आप ने मुझे बुलाया

क्यों नहीं?’’

‘‘आकांक्षा बेटी, सवाल एक रात का नहीं

है. सारी जिंदगी का है. एक बिन मां की बच्ची को तुम ने 1 ही वर्ष में अपनी ममता की शीतल फुहारों से सराबोर कर दिया है. क्या तुम रवि की दुलहन बन कर हमेशा के लिए इस घर में आ सकती हो? बोलो बेटी, कुछ तो बोलो,’’ निर्मला देवी मेरा हाथ पकड़ कर रोने लगीं. अचानक इस प्रस्ताव को सुन कर मुझ से कुछ कहते न बना.

‘‘उफ, मां, तुम भी कमाल करती हो. एक तो इस घर में आने के बाद से आकांक्षा ने प्रिया को कितना संभाला है, तुम उन्हें क्यों किसी अनचाहे बंधन में बांधने का प्रयास कर रही हो?’’

मैं ने पहली बार रवि को इतने गुस्से में देखा था.

‘‘आकांक्षाजी, मां की बातों का बुरा मत

मानिए. मां भी उम्र के साथसाथ  सठिया गई हैं. रात को मैं ने मां से आप को बुलाने को मना किया था. देखिए, प्रिया अपने मन में अपनी मां की जगह आप को रखती है. कल को जब आप की शादी हो जाएगी, तो हमें इसे संभालना फिर से मुश्किल हो जाएगा,’’ रवि मेरी ओर मुखातिब हो कर बोले.

रवि का आशय समझ कर मैं उलटे पांव घर वापस आ गई, पर घर आने के बाद मेरा किसी काम में मन न लगा. मुझे चिंतित देख कर जब मां ने कारण पूछा, तो मैं ने उन्हें सारी बात बता दी.

आखिर एक रोज बिना कोई भूमिका

बांधे पिताजी बोले, ‘‘बेटी, तुम तो जानती हो कि हमें तुम्हारी शादी की कितनी फिक्र है.

तुम हम पर न कभी बोझ थीं, न आगे कभी रहोगी. परंतु पिता के घर कुंआरी जिंदगी में किसी भी बेटी को वह सुख नहीं मिल सकता, जो पति, बच्चों के साथ गृहस्थी में रम कर मिलता है. माना कि रवि दुहाजू है, पर उम्र

में तुम से केवल 3 साल ही बड़ा है. अच्छा कमाता है, केवल 1 ही बेटी है, जिसे तुम दिलोजान से चाहती हो. अगर तुम्हें रवि पसंद हो, तो हम तुम्हारे रिश्ते की बात रवि से

करते हैं. बेटी, सोचसमझ कर कोई फैसला करो. तुम्हारे किसी भी निर्णय में हम तुम्हारे साथ हैं,’’ इतना कह कर पिताजी कमरे से

बाहर चले गए.

सारी रात मैं ने आंखों में गुजारी. पति के रूप में मैं ने रवि जैसे शांत, गंभीर और शालीन व्यक्ति की ही मन में कल्पना की थी. सुबह मैं ने मां को अपना निर्णय बताया, तो मां के चेहरे पर सुकून था. शाम तक बात रवि तक पहुंच गई.

15 दिनों के भीतर मेरी रवि से कोर्ट मैरिज हो गई और मैं उन की दुलहन बन कर उन की जिंदगी में आ गई. प्रिया सब से ज्यादा खुश थी कि अब आंटी हमेशा उस के संग रहेंगी.

‘‘बेटी, अब से यह तुम्हारी आंटी नहीं, बल्कि मम्मी हैं,’’ मेरी सास निर्मला देवी ने प्रिया को समझाया.

‘‘तो अब से मैं इन्हें मम्मी ही कहूंगी. कितनी सुंदर लग रही हो, मम्मी,’’  3 साल की प्रिया ने मेरे गले में अपनी बांहें डाल दीं.

देखते ही देखते 1 वर्ष हंसीखुशी में बीत गया. प्रिया अब स्कूल जाने लगी थी. कुछ दिनों बात पता चला कि मेरे पैर भारी हुए हैं. घर में खुशियों की बहार आ गई.

मांजी प्रिया से कहतीं, ‘‘बिटिया, अब अकेले नहीं रहेगी. बिटिया के संग खेलने कोई आने वाला है.’’

प्रसव के कुछ वक्त बाद मैं अपने मायके आई. प्रिया की परीक्षाएं खत्म हो गई थीं. अत: रवि प्रिया को भी मेरे पास छोड़ गए.

एक दिन मैं बाहर बैठ कर प्रिया के बाल बना रही थी कि 2 महीने का आकाश दूध के लिए रोने लगा. मैं ने मां को आवाज दे कर कहा, ‘‘मां, जरा आकाश को देखना, मैं प्रिया के बाल बना कर अंदर आती हूं.’’

मां के पहुंचने तक आकाश ने रोरो कर

आसमान सिर पर उठा लिया था. मां आकाश को ले कर पुचकारते हुए बाहर आईं और बोलीं, ‘‘अरी, पहले अपने कोख जाए बच्चे का खयाल कर. क्या जिंदगी भर इसे ही सिर चढ़ाए रखेगी?’’

प्रिया, मां की बातों का अर्थ समझ पाई या नहीं, पता नहीं. परंतु मैं तत्काल बोल पड़ी, ‘‘यह क्या कह रही हैं मां? मेरे लिए प्रिया और आकाश दोनों ही बराबर हैं.’’

‘‘अरे, ये सब तो बोलने की बातें हैं. अपना खून अपना ही होता है और पराया, पराया ही होता है. देखो, तुम ने आकाश को लेने में देर कर दी तो बेचारे का रोरो कर गला ही सूख गया. जरा इसे दूध तो पिला दो,’’ कह मां ने आकाश को मेरी गोद में सुला दिया.

मेरा स्पर्श पाते ही वह पल भर में चुप हो कर दूध पीने लगा.

प्रिया का स्कूल शुरू होने के पश्चात मैं उसे व नन्हे आकाश को ले कर भोपाल यानी ससुराल आ गई. अब मैं आकाश के पालनपोषण में इतनी मशगूल हो गई कि प्रिया की ओर से मेरा ध्यान धीरेधीरे कम होता गया. प्रिया रात को मेरे पास सोने की जिद करती तो मैं उसे झिड़क कर रवि के पास भेज देती.

एक बार मैं रसोई में कुछ काम कर रही थी. चादर के झूले में सोए हुए 9 महीने के आकाश को प्रिया कोई कविता सुनाते हुए झूला झुला रही थी. अचानक जोर से कुछ गिरने की आवाज आई, फिर आकाश रोने लगा. एक ही सांस में मैं रसोई से और मांजी बैठक से लपके तो देखा कि आकाश जमीन पर गिर कर रो रहा है और प्रिया हैरान सी खड़ी है.

मैं ने आकाश को उठाया और गरजते हुए प्रिया से बोली, ‘‘यह क्या? तुम ने आकाश को कैसे गिराया?’’

प्रिया डरतेसहमते बोली, ‘‘मम्मी, मैं तो

आकाश को झुला रही थी, न जाने कैसे वह झूले से बाहर गिर पड़ा.’’

‘‘चुप रहो. तुम ने इतने जोर से झुलाया कि वह बाहर गिर पड़ा. तुम्हें इतनी अक्ल नहीं कि धीरे झुलाओ. इस के सिर में गहरी चोट आती तो? खबरदार जो आगे से कभी आकाश को हाथ भी लगाया,’’ कहते हुए तैश में आ कर मैं ने प्रिया के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया.

इस के बाद मेरे और उस के बीच दूरियां

बढ़ती गईं. मेरी डांटफटकार से प्रिया फिर से उदास और गुमसुम रहने लगी. मांजी को प्रिया की यह दशा बिलकुल अच्छी न लगती. उन की आंखों की विवशता, मौन रह कर भी न जाने कितनी बातें कह जाती, पर मैं जान कर अनजान बनी रहती.

अपने प्रति मेरी अवहेलना सहन न कर पाने के कारण प्रिया चौथी कक्षा में आतेआते पढ़ाई मेें काफी पिछड़ गई थी.

इसी बीच मैं दूसरी बार गर्भवती हो गई. रवि तीसरा बच्चा तो नहीं चाहते थे, पर मेरी इच्छा का मान रखते हुए चुप हो गए. रेणु का जन्म भोपाल में ही हुआ.

7 साल के आकाश और ढाई साल की रेणु के बीच मैं इतनी व्यस्त हो गई कि

12-13 साल की प्रिया की ओर देखने का भी मुझे होश न रहता.

प्रिया के प्रति मेरी बढ़ती नाराजगी सहना जब मांजी के लिए नामुमकिन हुआ तो उन्होंने एक दिन मुंह खोल ही दिया, ‘‘बहू, प्रिया को तुम ही उस वक्त से पाल रही हो, जब वह मात्र 3 साल की थी. उस वक्त मैं ने कभी नहीं सोचा था कि आगे चल कर तुम उस से इतनी सख्ती से पेश आओगी. उसे तुम्हारे जरा से प्यार की जरूरत है, वह तुम से ज्यादा की अपेक्षा नहीं करती. उसे अपना लो, बहू,’’ मांजी के आंसू छलछला उठे.

पर उन की भाषा ने मेरी क्रोधाग्नि को भड़काने का ही काम किया, ‘‘वाह मांजी, यह सिला दिया आप ने मेरी तपस्या का? क्या मैं प्रिया से सौतेला व्यवहार करती हूं? क्या सगी मांएं अपने बच्चों को कभी डांटती नहीं हैं? कभीकभार मैं प्रिया पर गरम हो गई तो आप ने मुझे ‘सौतेला’ करार दे दिया? सौतेली मां तो सौतेली ही होती है, चाहे वह अपनी जान ही क्यों न निछावर कर दे,’’ मैं भुनभुनाती हुई अपने कमरे में चली गई.

इस के बाद प्रिया के प्रति मेरा रवैया तटस्थ हो गया. एक बात को मैं स्वयं भी महसूस करती थी कि प्रिया को तकलीफ में देख कर मैं उफ तक न करती. जबकि आकाश व रेणु को जरा भी कष्ट होता तो मेरे दिल में हायतोबा मच जाती थी.

एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से

मांजी का निधन हो गया. 3 बच्चों में प्रिया को अपनी दादी से विशेष प्रेम था. दादी के

जाने के बाद वह स्वयं को और भी अकेला महसूस करने लगी. वह अकसर दादी की तसवीर हाथ में लिए रोती रहती. रवि के बहलाने पर भी न बहलती.

मुझे याद है वह दिन. दोपहर का वक्त

था. आकाश व रेणु छत पर खेल रहे थे. मैं काम में व्यस्त थी. अचानक मुझे रेणु के जोरजोर से रोने की आवाज सुनाई दी. मैं छत पर गई तो देखा, आकाश रेणु के हाथ से पतंग छीन कर खुद उड़ा रहा था. प्रिया एक ओर चुपचाप खड़ी क्षितिज की ओर देख रही थी.

मैं रेणु को गोद में ले कर प्रिया पर बरस

पड़ी, ‘‘छोटी बहन रो रही है, यह नहीं होता

कि उसे चुप कराओ. सब से बड़ी हो, पर

क्या फायदा?’’

तभी आकाश की पतंग कट कर 3-4 घरों के बाद की झाडि़यों में गिर गई. वह पतंग लाने के लिए सीढि़यां उतरने लगा कि उसे मैं ने टोका, ‘‘रुको, प्रिया जा कर पतंग लाएगी. जाओ प्रिया.’’

‘‘पर मम्मी, हर बार मैं ही नीचे जाजा कर पतंग लाती हूं. खेलते ये दोनों हैं, पर घर से बाहर पतंग या बौल कोई भी चीज गिरे तो मुझे लानी पड़ती है. सीढि़यां चढ़तेउतरते मेरे पांवों में दर्द हो रहा है. मैं नहीं लाती.’’

पहली बार प्रिया ने पलट कर जवाब दिया था. मेरे गुस्से का पारावार न रहा, ‘‘तुम्हारी यह मजाल. जबान लड़ाती हो? क्या तुम्हारे भाईबहन तुम से यही सीखेंगे? आज शाम को पापा से तुम्हारी ऐसी शिकायत करूंगी कि देखना. जा कर पतंग लाती हो या नहीं?’’ कहते हुए मैं ने प्रिया के गालों पर तड़ातड़

2-3 झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिए. वह फूटफूट कर रोने लगी और अपने लाल हुए गालों को सहलाते हुए सीढि़यां उतरने लगी. मैं उसे गेट खोल कर रास्ते पर नंगे पैर ही जाते हुए देख रही थी.

2-3 दिन पहले भारी बारिश हुई थी. जैसा कि अकसर होता है, बारिश का पानी सड़क के गड्ढों में जमा हुआ था. दौड़ती हुई प्रिया का एक पैर जैसे ही एक गड्ढे में पड़ा, प्रिया जोर से चिल्ला कर एक ओर लुढ़क गई.

मैं बच्चों को ले कर नीचे दौड़ी. पासपड़ोस के

लोग जमा हो गए थे. बिजली के खंभे से लाइव करंट का वायर उस गड्ढे में गिर गया था और पानी में करंट फैला हुआ था. प्रिया कीचड़ में लथपथ बेहोश पड़ी थी. किसी ने लकड़ी के डंडे की सहायता से प्रिया को बाहर निकाला और बिजली विभाग को फोन किया. प्रिया का शरीर नीला पड़ गया था. मैं उसे रिकशे में डाल कर अस्पताल ले गई. डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया.

रवि घर आए तो प्रिया की मृत देह देख कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर एक ओर बैठ गए. मुझे काटो तो खून नहीं. प्रिया का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन हमारे दिलों में इतनी वीरानी छा गई कि 2 छोटे बच्चे भी हमारे अकेलेपन को कम न कर पाए.

एक रोज आकाश प्रिया की एक कापी ले आया. मैं उसे एक नजर देख कर रखने ही वाली थी कि प्रिया की लिखाई देख कर उत्सुकतावश पढ़ने लगी. पढ़तेपढ़ते मैं बिलखबिलख कर रोने लगी.

हरेक पन्ने पर प्रिया ने अपने दिल का

दर्द बयान किया था. मेरा निष्ठुरता से बारबार उस का दिल तोड़ना, उस के कोमल मन को बर्बरता से रौंदना, उस का अकेलापन, उस की मायूसी, मां की ममता के लिए तड़पता उस

का प्यासा मन सब कुछ मेरे सामने बेपरदा

हो गया था. नन्ही सी बच्ची दिल में कितना

दर्द समाए जीती रही और मैं कितनी पत्थर

दिल बिना किसी गलती के उसे प्रताडि़त

करती रही.

शाम को रवि घर में आए तो कापी उन के हाथ में दे कर मैं बेतहाशा रोने लगी. रवि मौन हो कर पढ़ते हुए अपने आंसू पोंछ रहे थे. काफी समय बाद भी जब वह कुछ न बोले तो मुझ से रहा न गया.

‘‘मुझे मेरा घरसंसार आप जैसा शालीन और सच्चरित्र पति, यह भरीपूरी गृहस्थी जिस बच्ची की वजह से मिला उसे ही भुला कर

मैं अपने सुखों में मग्न हो गई. मैं ने प्रिया को कितना प्रताडि़त किया. मुझे मेरे अपराधों

की कोई तो सजा दीजिए. आप कुछ बोलते

क्यों नहीं? यों चुप न रहिए,’’ मैं लगातार रोती जा रही थी.

काफी समय पश्चात रवि ने मौन तोड़ा

और बोले, ‘‘तुम अपनी बात छोड़ो,

मैं ने उस के साथ कौन सा न्याय किया?

मैं ने भी उस की ओर बिलकुल ध्यान नहीं दिया. उस के अकेलेपन को न समझा. उसे वह प्यार न दिया, जिस की वह हकदार थी. शायद इसी अपराध की सजा देने के लिए कुदरत ने हम से उसे छीन लिया. अब हमारे लाख पछताने से भी क्या प्रिया वापस आ जाएगी? कभी नहीं. जब तक जीएंगे, इस अपराधबोध का भार ढोते हुए ही हमें जीना होगा, यही हमारी सजा है,’’ रवि बिलखबिलख कर रो

रहे थे.

कहते हैं वक्त हर जख्म को भर

देता है. 26-27 वर्ष हो गए हैं प्रिया की मौत को, पर आज तक हमारी आत्मग्लानि कम

नहीं हुई.

प्रिया की मृत्यु के बाद जब मेरा मन पश्चात्ताप की आग में जलने लगा, तब एक दिन पड़ोस की झुग्गी में रहने वाली रमिया

को एक नन्ही सी जान सड़क के किनारे

शाल में लिपटी हुई मिली. रमिया जब मेरे

पास बच्ची को छोड़ गई तो उस की कोमल त्वचा को न जाने कितनी चींटियां काट

चुकी थीं.

उस की प्राथमिक चिकित्सा कराने के दौरान 1 हफ्ते में उस फूल सी बच्ची के साथ

न जाने कब मेरा दिल का रिश्ता जुड़ गया. जब उसे कोई लेने न आया तो मैं ने ही उसे पालने का निर्णय लिया. इस के कुछ महीनों बाद, रिकशा चलाने वाला रामदीन सड़क पर भीख मांग रहे 2 बच्चों को छोड़ गया, जिन का

कोई न था.

देखतेदेखते 1 वर्ष के अंदर बच्चों की

संख्या बढ़तेबढ़ते 15 हो गई, तो मैं ने मदद के लिए 2 आया रख लीं और घर के बाहर ‘प्रियाज हैप्पी होम’ का बोर्ड लगा दिया. बोर्ड लगने की देर थी कि समाज के विभिन्न तबकों की

कुंआरी मांएं ‘हैप्पी होम’ के पालने में अपने बच्चों को छोड़ जातीं. बच्चों की संख्या तो

बढ़ती गई, साथसाथ मुझे अपनी संस्था के लिए विभिन्न लोगों व संस्थाओं (निजी व सरकारी) से डोनेशन भी मिलते गए व आगे का सफर आसान होता गया.

रवि ने इस सफर में मेरा हर कदम पर साथ दिया है. हर बच्चे में मुझे प्रिया का अक्स नजर आता है. पश्चात्ताप की अग्नि में जलते हुए इस मन को हर बच्चे के होंठों पर मुसकान खिलते हुए देख कर सुकून मिलता है.

नाक की लड़ाई

इन दिनों मेरा घर पानीपत का मैदान बना हुआ है. जिस ओर देखो उसी ओर एकदूसरे को चुनौती दी जा रही है. मैं ने पत्नी लक्ष्मी से पूछा, ‘‘मेरी लच्छो, इस छोटे से फ्लैट को घर समझो. यहां आराम से रहने में तुम्हें क्या परेशानी है?’’

‘‘मैं तो शांतिपूर्वक रहना चाहती हूं, मगर मांजी ही सुकून से रहना नहीं चाहतीं. जब देखो तब अपनी नाक चढ़ाए घूमती रहती हैं. आर्डर पे आर्डर देती रहती हैं, यह मत करो, वह मत करो, अपनी नाक का कुछ तो खयाल रखो,’’ लक्ष्मी ने अपनी तोता नाक पर टिका चश्मा ठीक करते हुए कहा.

मैं समझ गया कि सासबहू में नाक को ले कर तकरार हो रही है. दोनों जिद्दी स्वभाव की हैं. दोनों में से कोई भी एक अपनी नाक छोटी करना नहीं चाहतीं. मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि यदि नाक छोटी हो गई तो क्या फर्क पड़ जाएगा. मगर नहीं, लक्ष्मी बता रही थी कि विवाह पर उस की माताश्री ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, हमारा परिवार नाक वालों का है. हमारी नाक समाज में प्रतिष्ठित है. ससुराल में अपनी नाक की प्रतिष्ठा बचाए रखना. मर जाना मगर नाक पर आंच मत आने देना.’

बस, तब से अब तक लक्ष्मी चौबीसों घंटे अपनी उंगली नाक पर रखे रहती है. यहां तक कि वह अपनी नाक पर मक्खी तक बैठने नहीं देती. लक्ष्मी का नासिका मोह मुझे भी लुभा गया. जिस नारी को अपनी नाक से एक बार प्रेम हो जाए उस का पति उसे नाक में कम से कम एक बार लौंग पहना कर हमेशा के लिए उस के नखरों से बच जाता है. मैं ने देखा है, जिस संभ्रांत महिला को जब अपनी सुराहीदार गरदन से स्नेह हो जाता है उस समय उस के पति का दिवाला निकलने में देर नहीं लगती. गले के लिए नेकलेस, हार खरीदने के लिए कईकई तोले स्वर्ण भेंट चढ़ जाता है. नारी मूड की तरह ग्रीवा आभूषणों की डिजाइनें बदलती रहती हैं और हर 1-2 वर्ष में पति की नाक में पत्नी अपनी फरमाइशों की नकेल डालती रहती है.

नाक की लड़ाई घरघर में युगों से चली आ रही है और आगे भी निरंतर चलती रहेगी. कोई भी अपनी नाक को कटते हुए नहीं देख सकता. जिस की नाक एक बार कट जाती है वह दोबारा नहीं जुड़ पाती. संभ्रांत समाज में जिस की नाक कट जाती है उसे ‘नक्टा’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता है. जिस से वह बेशर्म की तरह कटे नाक का दर्द, पीड़ा, टीस, सूर्पणखा की तरह ढोता रहता है, आत्मग्लानि के बोझ तले अपनी कटी नाक हथेली में लिए रात की नींद व दिन का चैन खोता रहता है. हर कोई चाहता है कि भैया, चाहो तो मेरी गरदन काट लो, मगर मेहरबानी कर के नाक मत काटिए. नाक में ही मेरे प्राण बसते हैं. बिना नाक के जीना, कोई जीना है, लल्लू.

लोगों ने नाक को प्रतिष्ठा का प्रश्न क्यों   बनाया है, कान को क्यों नहीं बनाया, शोध का विषय है. मैं भी नाक के महत्त्व पर चिंतन कर रहा हूं. क्या सचमुच किसी की नाक देख लेने मात्र से ही उस के चरित्र का

पता लगाया जा सकता है? कहा जाता है कि जिन की नाक समकोणी होती है वे उदार, बुद्धिमान, महत्त्वाकांक्षी स्वभाव के होते हैं. मैं ने लक्ष्मी की नाक देखी, वह न्यूनकोण नसिका वाली थी.

मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘लच्छो, तुम्हारे स्वभाव का इस में कोई दोष नहीं है. दोष तो तुम्हारी नाक का है, जो तुम्हारे निराशा, द्वेष, भावुकता से भरे स्वभाव को दर्शाती है.’’

‘‘मेरी नाक ही ऐसी है तो इस में मेरा क्या दोष है. नाक का क्या है, नाक तो नाक है, श्वास लेने का माध्यम,’’ कहते हुए लच्छो ने रूमाल से अपनी नाक ढक ली.

इतिहास गवाह है, इसी नाक को समर्पित नथिनों के लिए कितने ही राजेरजवाड़े समर्पित हो गए, मर गए मिट गए. तभी तो विवाह के समय सास अपने होने वाले दामाद की नाक खींचती है. यह रिवाज क्यों बनाया गया है, विचारणीय है. सच, नाक खिंचाई की रस्म बड़ी ही लुभावनी होती है. सास ने इधर दूल्हे के भाल पर तिलक लगाया, उधर दूल्हा अलर्ट हो जाता है, सावधान हो जाता है कि कहीं उस की नाक न खींच ली जाए. नाक खिंचवाना शर्म की बात होती है. सारे रिश्तेदार, सालेसालियां इस रोमांचक रिवाज का आनंद लेते हैं.

नाक की लड़ाई का प्रभाव राजनीति में जबरदस्त रूप से देखा जा सकता है. वे राष्ट्र की प्रगति के लिए नहीं लड़ते बल्कि दोनों पक्षों के बीच नाक की लड़ाई का ही वर्चस्व होता है.

‘‘चुनाव में उन की नाक न कटवा दी तो मैं सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लूंगा,’’  टाइप की हुई भीष्म प्रतिज्ञा लेने की घोषणा होती रहती है.

यही नाक है जिस ने न जाने कितनों के सिर फुड़वा दिए, टांगें तुड़वा दीं. तब लगता है चुनाव समर में नाक ही अपनी अहम भूमिका निभाती है. नाक की लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर होती है. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक घरघर में लड़ी जाती है. अब इसे समाजवादी लड़ाई भी कहा जा सकता है. जहां नाक है वहां लड़ाई है. चाहे दफ्तर हो या घर पड़ोसियों में इसी नाक की लड़ाई को ले कर सट्टे खेले जाते हैं कि देखें कि किस की नाक बचती है.

2 की लड़ाई में बेचारी तीसरी नाक ही शहीद होती है.

तब लगता है, जहां प्रतिष्ठा है वहीं नाक की लड़ाई लड़ी जाती है. सब से रोमांचक लड़ाई सासबहू के बीच लड़ी जाती है, जो ड्रा नहीं होती. दोनों ही अपनी नाक के लिए दांवपेच के पासे फें कती हैं. पत्नी, पति के कंधे पर कान भरने की बंदूक रख कर चलती है. सास के खिलाफ बरगलाती है. फिल्मी संवाद उगलती है, ‘‘आखिर कब तक अपनी नाक की लाज बचाओगी? बुढ़ापा तो आ ही गया है, सासूमां 2-4 साल में मजबूरी की बैसाखियां ले कर हमारी चौखट पर ही आओगी, अपनी नाक रगड़ने.’’

तब टेप से सास अपनी नाक का नाप लेते हुए

कहती हैं, ‘‘बहू, गलतफहमी में मत रहना. मैं भी लंबी नाक वाली हूं. अपनी शादी में दहेज के साथ लंबी, तीखी नाक साथ ले कर आई हूं. तुम्हारी चौखट पर नाक रगड़ने जाए मेरी जूती. बहू, अब तुम भी नाक चिंतन करना शुरू कर दो. तुम भी सास बन रही हो. जितना तुम नाक का मुद्दा उछालोगी उतना ही घाटे में रहोगी. नाक तो राजा रावण की बहन की भी नहीं रही थी. जिधर देखो उधर जेबकतरों की तरह नाक काटने वाले उस्तरा हाथ में लिए घूम रहे हैं. ध्यान बंटा व नाक कटी. अब तुम ही कहो, बहू, नाक की लड़ाई में भला कौन सुखी रहा है. अपनी नाक वही बचा पाता है, जो दूसरे की नाक का सम्मान करता है. तुम्हारी यही सोच तुम्हें अपनी महफिलों, पड़ोस, क्लब, परिवार में नाक वाली बनाए रखेगी, बहू.’’

लक्ष्मी को सासूमां का नाक प्रवचन व्यावहारिक लगा. प्रसन्न मुद्रा में लच्छो ने कहा, ‘‘मांजी, सच में आप लंबी नाक वाली हैं. आप का तो हक बनता है कि परिवार को नाक की लड़ाई से बचाएं,’’ कहते हुए लक्ष्मी ने वार्डरोब में से लेडीज रूमाल निकाल कर कहा, ‘‘सासूमां, लीजिए रूमाल और पोंछ डालिए अपनी नाक का गुस्सा.’’

मैं ने संतोष की सांस ली. मेरा घर नाक की लड़ाई होने से एक बार फिर बच गया. मगर ऐसा रहेगा कब तक?

आधुनिक नारी: भाग 1- अनिता को अनिरुद्ध की खुशी पर शक क्यों हुआ?

उस दिन जब अविनाश अपने दफ्तर से लौटा तो बहुत खुश दिख रहा था. उसे इतना खुश देख कर अनिता को कुछ आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह दफ्तर से लौटे अविनाश को थकाहारा, परेशान और दुखी देखने की आदी हो चुकी थी.

अविनाश का इस कदर परेशान होना बिना वजह भी नहीं था. सब से बड़ी वजह तो यही थी कि पिछले 10 सालों से वह इस कंपनी में काम कर रहा था, पर उसे आज तक एक भी प्रमोशन न मिला था. वह कंपनी के मैनेजर को अपने काम से खुश करने की पूरी कोशिश करता, पर उसे आज तक असफलता ही मिली थी.

प्रमोशन न होने के कारण उसे वेतन इतना कम मिलता था कि मुश्किल से घर का खर्च चल पाता था. उस की कंपनी बहुत मशहूर थी और वह अपना काम अच्छी तरह से सम?ा गया था, इसलिए वह कंपनी छोड़ना भी नहीं चाहता था.

अनिता अविनाश के दुखी और परेशान रहने की वजह जानती थी, पर वह कर ही क्या सकती थी.

उस दिन अविनाश को खुश देख कर उस से रहा नहीं गया. वह चाय का कप अविनाश को पकड़ा कर अपना कप ले कर बगल में बैठ गई और उस से पूछा, ‘‘क्या बात है, आज बहुत खुश लग रहे हो?’’

‘‘बात ही खुश होने की है. तुम सुनोगी तो तुम भी खुश होगी.’’

‘‘अरे, ऐसी क्या बात हो गई है? जल्दी बताओ.’’

‘‘कंपनी का मैनेजर बदल गया. आज नए मैनेजर ने कंपनी का काम संभाल लिया. बड़ा भला आदमी है. उम्र भी ज्यादा नहीं है. मेरी ही उम्र का है. पर इतनी छोटी उम्र में मैनेजर बन जाने के बाद भी घमंड उसे छू तक नहीं गया है. आज उस ने सभी कर्मचारियों की एक मीटिंग ली. उस में सभी विभागों के हैड भी थे. उस ने कहा कि यह कंपनी हम सभी लोगों की है. इसे आगे बढ़ाने में हम सभी का योगदान है. हम सब एक परिवार के सदस्यों की तरह हैं. हमें एकदूसरे की मदद करनी चाहिए. कंपनी के किसी भी सदस्य को कोई परेशानी हो तो वह मेरे पास आए. मैं वादा करता हूं सभी की बातें सुनी जाएंगी और जो सही होगा वह किया जाएगा.

‘‘आखिर में उस ने कहा कि इस इतवार को मेरे घर पर कंपनी के सभी कर्मचारियों की पार्टी है. आप सभी अपनी पत्नियों के साथ आएं ताकि हम सब लोग एकदूसरे को अच्छी तरह से जान और सम?ा सकें. लगता है अब मेरे दिन भी बदलेंगे. तुम चलोगी न?’’

‘‘तुम ले चलोगे तो क्यों नहीं चलूंगी?’’ कह कर मुसकराते हुए अनिता वापस रसोई में चली गई.

कंपनी के कर्मचारियों की

संख्या 100 से अधिक थी, जिन के रात के खाने का प्रबंध था. मैनेजर ने अपने घर के सामने एक बड़ा सा शामियाना लगवाया था. मैनेजर अपनी पत्नी के साथ शामियाने के दरवाजे पर ही उपस्थित था और आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहा था. मेहमान एकएक कर के आ रहे

थे और मैनेजर से अपना परिचय नाम और काम के जिक्र के साथ दे रहे थे.

अविनाश ने भी मैनेजर से हाथ मिलाया और अनिता ने उन की पत्नी को नमस्कार किया. अचानक मैनेजर की निगाह अनिता पर पड़ी तो उस के मुंह से निकला, ‘‘अरे, अनिता तुम? तुम यहां कैसे?’’

अनिता भी चौंक उठी. उस के मुंह से बोल तक न फूटे.

‘‘पहचाना नहीं? मैं अनिरुद्ध…’’

‘‘पहचान गई, तुम काफी बदल गए हो.’’

‘‘हर आदमी बदल जाता है, पर तुम नहीं बदलीं. आज भी वैसी ही दिख रही हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अपनी पत्नी की तरफ संकेत किया, ‘‘अनिता, यह है अंजलि मेरी पत्नी और तुम्हारे पति कहां हैं?’’

अनिता ने अविनाश को आगे कर के इशारा किया और अंजलि को अभिवादन कर उस से बातें करने लगी.

अब तक सिमटा हुआ अविनाश सामने आ कर बोला, ‘‘सर, मैं हूं अविनाश. आप की कंपनी के ऐड विभाग में सहायक.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अंजलि से कहा, ‘‘अंजलि, यह है अनिता. बचपन में हम दोनों एक ही सरकारी कालोनी में रहते थे और एक ही स्कूल में एक ही क्लास में पढ़ते थे. इन के पिताजी पापा के बौस थे.’’

‘‘पर आज उलटा है. आप अविनाश के बौस के भी बौस हैं,’’ कह कर अनिता हंस पड़ी.

‘‘नहीं, हम लोग आज से बौस और मातहत के बजाय एक दोस्त के रूप में काम करेंगे. क्यों अविनाश, ठीक है न? खैर, और बातें किसी और दिन करेंगे, आज तो बड़ी भीड़भाड़ है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध अन्य मेहमानों की तरफ मुखातिब हुआ, क्योंकि अब तक कई मेहमान आ कर खड़े हो चुके थे.

पार्टी समाप्त होने पर अन्य लोगों की तरह अविनाश और अनिता भी वापस अपने घर लौट आए. अविनाश बहुत खुश था. उस से अपनी खुशी संभाले नहीं संभल रही थी. सोते समय अविनाश ने अनिता से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि मैनेजर साहब तुम्हारी कालोनी में रहते थे और तुम्हारी क्लास में पढ़ते थे?’’

‘‘इस में  झूठ की क्या बात है? जब पिताजी की नियुक्ति जौनपुर में थी तो हमारी कोठी की बगल में ही अनिरुद्ध का क्वार्टर था और अनिरुद्ध मेरी ही क्लास में पढ़ता था. अनिरुद्ध पढ़ने में तेज था, इसलिए वह आज तुम्हारी कंपनी में मैनेजर बन गया और मैं पढ़ने में कमजोर थी, इसलिए तुम्हारी बीवी बन कर रह गई,’’ कह कर अनिता मुसकरा तो पड़ी पर यह मुसकराहट जीवन की दौड़ में पिछड़ जाने की कसक को भुलाने के लिए थी.

अविनाश तो किसी और दुनिया में मशगूल था. उसे इस बात की बड़ी खुशी थी कि मैनेजर साहब उस की पत्नी के पुराने परिचितों में से हैं.

‘‘मैनेजर साहब इतना तो सोचेंगे ही कि मेरा प्रमोशन हो जाए.’’

‘‘पता नहीं, लोग बड़े आदमी बन कर अपना अतीत भूल जाते हैं.’’

‘‘नहीं अनिता, मैनेजर साहब ऐसे आदमी नहीं लगते. देखा नहीं, कितनी आत्मीयता से हम लोगोें से वे मिले और यह बताने में भी नहीं चूके कि तुम्हारे पिता उन के पिता के बौस थे.’’

‘‘मुझे नींद आ रही है. वैसे भी कल सुबह उठ कर प्रमोद को तैयार कर के स्कूल भेजना है,’’ कह कर अनिता ने नींद का बहाना बना कर करवट बदल ली. थोड़ी ही देर में अविनाश भी खर्राटे भरने लगा.

नींद अनिता की आंखों से कोसों दूर थी. उस ने कुशल स्त्री की भांति अविनाश को सिर्फ इतना ही बताया था कि वह अनिरुद्ध से परिचित है. वह बड़ी कुशलता से यह छिपा गई कि दोनों एकसाथ पढ़तेपढ़ते एकदूसरे को चाहने लगे थे. 12वीं कक्षा में तो दोनों ने अपने प्यार का इजहार भी कर दिया था. पर दोनों जानते थे कि उन दोनों की आर्थिक स्थिति में बहुत अंतर है और दोनों की जाति भी अलग है, इसलिए घर वाले दोनों को विवाह करने की अनुमति कभी नहीं देंगे. दोनों ने यह तय किया था कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वे दोनों नौकरी तलाशेंगे और उस के बाद अपनी मरजी से विवाह कर लेंगे.

पर आदमी का सोचा हुआ सब कुछ होता

कहां है. 12वीं कक्षा का परीक्षाफल भी नहीं निकला था कि अनिता के पिता का स्थानांतरण वाराणसी हो गया और अनिता और अनिरुद्ध द्वारा बनाया गया सपनों का महल ढह कर चूर हो गया. तब न तो टैलीफोन की इतनी सुविधा थी और न ही आनेजाने के इतने साधन. इसलिए समय बीतने के साथसाथ दोनों को एकदूसरे को भुला भी देना पड़ा.

कहते हैं कि स्त्री अपने पहले प्यार को कभी भुला नहीं पाती. आज इतने दिन बाद अनिरुद्ध को अपने सामने पा कर अनिता के प्यार की आग फिर से भड़क गई. अविनाश जितनी बार अनिरुद्ध को सर कहता अनिता शर्म से मानो गड़ जाती. आज वह अनिरुद्ध के सामने खुद को छोटा महसूस कर रही थी. उस के मन के किसी कोने में यह भी खयाल आया कि अगर उस का पहला प्यार सफल हो गया होता, तो आज वही कंपनी के मैनेजर की पत्नी होती. सभी उस का सम्मान करते और उसे छोटीछोटी चीजों के लिए तरसना न पड़ता. यही सब सोचतेसोचते अनिता की आंख लग गई.

अविनाश का सारा काम विज्ञापन विभाग तक ही सीमित था. विज्ञापन विभाग का प्रमुख उस के सारे काम देखता था. अविनाश को यह उम्मीद थी कि अनिरुद्ध अगले ही दिन उसे बुलाएगा और मौका देख कर वह उस के प्रमोशन की बात कहेगा. अनिता से अपने पुराने परिचय का इतना खयाल तो वह करेगा ही. पर धीरेधीरे 1 सप्ताह बीत गया और अनिरुद्ध का बुलावा नहीं आया तो अविनाश निराश हो गया.

लेकिन एक दिन जब अविनाश को अनिरुद्ध का बुलावा मिला तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. वह तत्काल इजाजत ले कर अनिरुद्ध के कमरे में पहुंच गया. अनिरुद्ध ने उसे बैठने के लिए इशारा किया और बोला, ‘‘उस दिन काफी भीड़ थी, इसलिए कायदे से बात न हो पाई. ऐसा करो, कल छुट्टी है अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, आराम से बातें करेंगे. एक बात और दफ्तर में किसी को भी पता न चले कि हम लोग परिचित हैं. यह जान कर लोग तुम से अपने कामों की सिफारिश के लिए कहेंगे और मुझे दफ्तर चलाने में दिक्कत आएगी. समझ रहे हो न?’’

‘‘जी सर,’’ अविनाश अभी इतना ही कह पाया था कि चपरासी कुछ फाइलें ले कर अनिरुद्ध के कमरे में आ गया. अविनाश वापस अपनी सीट पर लौट आया पर आज वह बहुत खुश था.

घर लौट कर अविनाश अनिता से बोला, ‘‘आज मैनेजर साहब ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था. कह रहे थे कि भीड़ के कारण कायदे से बातें नहीं हो पाईं, कल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, इतमीनान से बातें करेंगे.’’

पाखंड: आखिर क्या जान गई थी बहू?

‘‘दीदीजी, हमारी बात मानो तो आप भी पहाड़ी वाली माता के पास हो आओ. फिर देखना, आप के सिर का दर्द कैसे गायब हो जाता है,’’ झाड़ू लगाती रामकली ने कहा.

कल रात को लाइट न होने के कारण मैं रात भर सो नहीं पाई थी, इसलिए सिर में हलका सा दर्द हो रहा था, पर इसे कैसे समझाऊं कि दर्द होने पर दवा खानी चाहिए न कि किसी माता के पास जाना चाहिए.

‘‘रामकली, पहले मेरे लिए चाय बना लाओ,’’ मैं कुछ देर शांति चाहती थी. यहां आए हमें 3 महीने हो चुके थे. ऐसा नहीं था कि मैं यहां पहली बार आई थी. कभी मेरे ससुरजी इस गांव के सरपंच हुआ करते थे. पर यह बात काफी पुरानी हो चुकी है. अब तो इस गांव ने काफी उन्नति कर ली है.

30 साल पहले मेरी डोली इसी गांव में आई थी, पर जल्द ही मेरे पति की नौकरी शहर में लग गई और धीरेधीरे बच्चों की पढ़ाईलिखाई के कारण यहां आना कम हो गया. मेरे सासससुर की मृत्यु के बाद तो यहां आना एकदम बंद हो गया. अब जब हमारे बच्चे अपनेअपने काम में रम गए और पति रिटायर हो गए, तो फिर से एक बार यहां आनाजाना शुरू हो गया.

‘‘मेमसाहब, चाय,’’ रामकली ने मुझे चाय ला कर दी. अब तक सिरदर्द कुछ कम हो गया था. सोचा, थोड़ी देर आराम कर लूं, पर जैसे ही आंखें बंद कीं, गली में बज रहे ढोल की आवाजें सुनाई देने लगीं.

‘‘दीदीजी, आज पहाड़ी माता की चौकी लगनी है न… उस के लिए ही पूरे गांव में जुलूस निकल रहा है. आप भी चल कर दर्शन कर लो.’’

‘‘यह पहाड़ी वाली माता कौन है?’’ मैं ने पूछा, पर रामकली मेरी बात को अनसुना कर के जय माता दी कहती हुई चली गई.

थोड़ी देर बाद ढोल का शोर दूर जाता सुनाई दिया. तभी रामकली आ कर बोली, ‘‘लो दीदी, मातारानी का प्रसाद,’’ और फिर अपने काम में लग गई.

कुछ दिनों बाद रामकली ने मुझ से छुट्टी मांगी. मैं ने छुट्टी मांगने का कारण पूछा तो बोली, ‘‘दीदी, माता की चौकी पर जाना है.’’ मैं ने ज्यादा नानुकर किए बिना छुट्टी

दे दी.

मेरे पति अपना अधिकतर समय मेरे ससुरजी के खेतों पर ही बिताते. सेवानिवृत्त होने के बाद यही उन का शौक था. मैं घर पर कभी किताबें पढ़ कर तो कभी टीवी देख कर समय बिताती थी. पासपड़ोस में कम ही जाती थी. अगले दिन जब रामकली वापस आई तो बस सारा वक्त माता का ही गुणगान करती रही. शुरूशुरू में मुझे ये बातें बोर करती थीं, पर फिर धीरेधीरे मुझे इन में मजा आने लगा. मैं ने भी इस बार चौकी में जाने का मन बना लिया. सोचा, थोड़ा टाइम पास हो जाएगा.

मैं ने रामकली से कहा तो वह खुशी से झूम उठी और बोली, ‘‘दीदी, यह तो बहुत अच्छा है. आप देखना, आप की हर मुराद वहां पूरी हो जाएगी.’’

कुछ दिनों बाद मैं भी रामकली के साथ मंदिर चली गई. इस मंदिर में मैं पहले भी अपनी सास के साथ कई बार आई थी, पर अब तो यह मंदिर पहचान में नहीं आ रहा था. एक छोटे से कमरे में बना मंदिर विशाल रूप ले चुका था. जहां पहले सिर्फ एक फूल की दुकान होती थी वहीं अब दर्जनों प्रसाद की दुकानें खुल चुकी थीं और इतनी भीड़ कि पूछो मत.

रामकली मुझे सीधा आगे ले गई. मंच पर एक बड़ा सिंहासन लगा हुआ था. रामकली मंच के पास खड़े एक आदमी के पास जा कर कुछ कहने लगी, फिर वह आदमी मेरी ओर देख कर मुसकराते हुए नमस्ते करने लगा. मैं ने भी नमस्ते का जवाब दे दिया.

रामकली फिर मेरे पास आ कर बोली, ‘‘दीदी, वह मेरा पड़ोसी राजेश है. जब से माताजी की सेवा में आया है, इस के वारेन्यारे हो गए हैं. पहले इस की बीवी भी मेरी तरह ही घरों में काम करती थी, पर अब देखो माता की सेवा में आते ही इन के भाग खुल गए. आज इन के पास सब कुछ है.’’

थोड़ी देर बाद वहां एक 30-35 वर्ष की महिला आई, जिस ने गेरुआ वस्त्र पहन रखे थे. माथे पर बड़ा सा तिलक लगा रखा था और गले में रुद्राक्ष की माला पहनी हुई थी.

उस के मंच पर आते ही सब खड़े हो गए और जोरजोर से माताजी की जय हो, बोलने लगे. सब ने बारीबारी से मंच के पास जा कर उन के पैर छुए. पर मैं मंच के पास नहीं गई, न ही मैं ने उन के पैर छुए. 20-25 मिनट बाद ही माताजी उठ कर वापस अपने पंडाल में चली गईं.

माताजी के जाते ही लाउडस्पीकर पर जोरजोर से आवाजें आने लगीं, ‘‘माताजी का आराम का वक्त हो गया है. भक्तों से प्रार्थना है कि लाइन से आ कर माता के सिंहासन के दर्शन कर के पुण्य कमाएं.’’

अजीब नजारा था. लोग उस खाली सिंहासन के पाए को छू कर ही खुश थे.

‘‘दीदी चलो, राजेश ने माताजी के विशेष दर्शन का प्रबंध किया है,’’ रामकली के कहने पर मैं उस के साथ हो गई.

‘‘आओआओ, अंदर आ जाओ,’’ राजेश हमें कमरे के बाहर ही मिल गया. कमरे के अंदर से अगरबत्ती की खुशबू आ रही थी. हलकी रोशनी में माताजी आंखें बंद कर के बैठी थीं. हम उन के सामने जा कर चुपचाप बैठ गए.

थोड़ी देर बाद माताजी की आंखें खुलीं, ‘‘देवी, आप के माथे की रेखाएं बता रही हैं कि आप के मन में हमें ले कर बहुत सी उलझनें हैं…देवी, मन से सभी शंकाएं निकाल दो. बस, भक्ति की शक्ति पर विश्वास रखो.’’

उन की बातें सुन कर मैं मुसकरा दी.

कुछ देर रुक कर वह फिर बोलीं, ‘‘तुम एक सुखी परिवार से हो…तुम्हारे कर्मों का फल है कि तुम्हारे परिवार में सब कुछ ठीक चल रहा है पर देखो देवी, मैं साफसाफ देख सकती हूं कि तुम्हारे परिवार पर संकट आने वाला है. यह संकट तुम्हारे पति के पिछले जन्म के कर्मों का फल है,’’ और माताजी ने एक नजर मुझ पर डाली.

‘‘संकट…माताजी कैसा संकट?’’ मुझ से पहले ही रामकली बोल पड़ी.

‘‘कोई घोर संकट का साया है…और वह साया तुम्हारे बेटे पर है,’’ फिर एक बार माताजी ने मुझ पर गहरी नजर डाली, ‘‘पर इस संकट का समाधान है.’’

‘‘समाधान…कैसा समाधान?’’ इस बार मैं ने पूछा.

‘‘आप के बेटे की शादी को 3 साल हो गए, पर आप आज तक पोते पोतियों के लिए तरस रही हैं,’’ माताजी के मुंह से ये बातें सुन कर मैं सोच में पड़ गई.

माताजी ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘देवीजी, आप का बेटा किसी दुर्घटना का शिकार होने वाला है, पर आप घबराएं नहीं. हम बस एक पूजा कर के सब संकट टाल देंगे और आप के बेटे को बचा लेंगे…यही नहीं, हमारी पूजा से आप जल्दी दादी भी बन जाएंगी.’’

मेरी समझ काम करना बंद कर चुकी थी. मुझे परेशान देख कर रामकली बोली, ‘‘माताजी, आप जैसा कहेंगी, दीदीजी वैसा ही करेंगी…ठीक कहा न दीदी?’’ रामकली ने मुझ से पूछा पर मैं कुछ न कह पाई. बेटे की दुर्घटना वाली बात ने मुझे अंदर तक हिला दिया.

मेरी चुप्पी को मेरी हां मान कर रामकली ने माताजी से पूजा की विधि पूछी तो माताजी बोलीं, ‘‘पूजा हम कर लेंगे…बाकी बात तुम्हें राजेश समझा देगा…देवी, चिंता मत करना हम हैं न.’’

घर आ कर मैं ने सारी बात अपने पति को बताई. मैं अपने बेटे को ले कर काफी परेशान हो गई थी. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. सारी बातें सुन कर मेरे पति बोले, ‘‘शिखा, तुम पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें करती हो? ये सब इन की चालें होती हैं. भोलीभाली औरतों को कभी पति की तो कभी बेटे की जान का खतरा बता कर और मर्दों को पैसों का लालच दे कर ठगते हैं. तुम बेकार में परेशान हो रही हो.’’

‘‘पर अगर उन की बात में कुछ सचाई हुई तो…देखिए पूजा करवाने में हमारा कुछ नहीं जाएगा और मन का डर भी निकल जाएगा…आप समझ रहे हैं न?’’

‘‘हां, समझ रहा हूं…जब तुम जैसी पढ़ीलिखी औरत इन के झांसे में आ गई तो गांव के अनपढ़ लोगों को यह कैसे पागल बनाते होंगे…देखो शिखा, रामकली जैसे लोग इन माताओं और बाबाओं के लिए एजैंट की तरह काम करते हैं. तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आ रहा,’’ मेरे पति गुस्से से बोले, फिर मेरे पास आ कर बोले, ‘‘तुम इस माता को नहीं जानती. कुछ महीने पहले यह अपने पति के साथ इस गांव में आई थी. पति महंत बन गया और यह माता बन गई. मंदिर के आसपास की जमीन पर भी गैरकानूनी कब्जा कर रखा है. हम लोगों को तो इन के खिलाफ कुछ करना चाहिए और हम ही इन के जाल में फंस गए…शिखा, सब भूल जाओ और अपने दिमाग से डर को निकाल दो.’’

पति के सामने तो मैं चुप हो गई पर सारी रात सो नहीं पाई.

अगले दिन रामकली ने आ कर बताया कि पूजा के लिए 5 हजार रुपए लगेंगे. मैं ने पति के डर से उसे कुछ दिन टाल दिया. पर मन अब किसी काम में नहीं लग रहा था. 3 दिन बीत गए. इन तीनों दिनों में मैं कम से कम 7 बार अपने बेटे को फोन कर चुकी थी, पर मेरा डर कम नहीं हो रहा था.

1 हफ्ता बीत चुका था. दिल में आया कि अपने पति से एक बार फिर बात कर के देखती हूं, पर हिम्मत नहीं कर पाई. फिर एक दिन रामकली ने आ कर बताया कि माताजी ने कहा है कि कल पूर्णिमा है. पूजा कल नहीं हुई तो संकट टालना मुश्किल हो जाएगा. मेरे पास कोई जवाब नहीं था.

रामकली के जाने के बाद मन में गलत विचार आने लगे. मैं ने बिना अपने पति को बताए पैसे देने का फैसला कर लिया. मैं ने सोचा कि कल पूजा हो जानी चाहिए. इस के लिए मुझे अभी पैसे रामकली को दे देने चाहिए, यह सोच कर मैं रामकली के घर पहुंच गई. वहां पता चला कि वह मंदिर गई है.

मेरे पति के आने में अभी वक्त था, इसलिए मैं तेजतेज कदमों से मंदिर की ओर चल दी. मंदिर में आज रौनक नहीं थी, इसलिए मैं सीधी माताजी के कमरे की ओर चल दी. माता के कमरे के बाहर मेरे कदम रुक गए. अंदर से रामकली की आवाजें आ रही थीं, ‘‘मैं ने तो बहुत कोशिश की माताजी पर वह शहर की है. इतनी आसानी से नहीं मानेगी.’’

‘‘अरे रामकली, तुम नईनई इस काम में आई हो, जरा सीखो कुछ राजेश से…इस का फंसाया मुरगा बिना कटे यहां से आज तक नहीं गया,’’ यह आवाज माताजी की थी.

‘‘यकीन मानिए माताजी, मैं ने बहुत कोशिश की पर उस का आदमी नहीं माना. साफ मना कर दिया उसे.’’

अब तक मुझे समझ आ गया था कि यहां मेरे बारे में ही बातें चल रही हैं.

‘‘देख रामकली, तेरा कमीशन तो हम काम पूरा होने पर ही देंगे, तू उस से 5 हजार रुपए ले आ और अपने 500 रुपए ले जा…अगर उस का आदमी नहीं मान रहा तो तू कोई और मुरगा पकड़,’’ राजेश बोला, ‘‘हां, वह दूध वाले की बेटी की शादी नहीं हो रही…अगली चौकी पर उस की घरवाली को ले कर आ…वह जरूर फंस जाएगी.’’

बाहर खडे़खड़े सब सुनने के बाद मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था. मैं वहां से चली आई, पर अंदर ही अंदर मैं खुद को कोस रही थी कि मैं कैसे इन के झांसे में आ गई. मेरी आंखें भर चुकी थीं और खुल भी चुकी थीं कितने सही थे मेरे पति, जो इन लोगों को पहचान गए थे.

शाम को जब मेरे पति घर आए तो मैं ने उन को एक लिफाफा दिया.

‘‘यह क्या है?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘आप ने ठीक कहा था इन पाखंडियों के चक्कर में नहीं आना चाहिए. ये जाल बिछा कर इस तरह फंसाते हैं कि शिकार को पता भी नहीं चल पाता और उस की जेब खाली हो जाती है,’’ मैं ने कहा.

शुभचिंतक: क्या रूपाली को समझ आया उसका अपना कौन है?

‘‘मधुकर, रूपाली कहां है?’’ विनीलाजी ने पूछा. वे मधुकर की कार की आवाज सुन कर बाहर चली आई थीं. मधुकर के अंदर आने की प्रतीक्षा भी नहीं की थी उन्होंने.

‘‘कहां है मतलब? घर में ही होना चाहिए उसे,’’ मधुकर चकित स्वर में बोला.

‘‘लो और सुनो, सुबह तुम्हारे साथ ही तो गई थी, होना भी तुम्हारे साथ ही चाहिए था. मैं ने सोचा, तुम दोनों ने कहीं घूमनेफिरने का कार्यक्रम बनाया है. यद्यपि तुम ने हमें सूचना देने की आवश्यकता भी नहीं समझी.’’

‘‘मां, हमारा कोई कार्यक्रम नहीं था. रूपाली को कुछ खरीदारी करनी थी. मैं ने सोचा कि शौपिंग कर के वह घर लौट आई होगी,’’ मधुकर चिंतित हो उठा.

‘‘रूपाली तो दूसरे परिवार से आई है, पर तुम्हें क्या हुआ है? इस घर के नियम, कायदे तुम तो अच्छी तरह जानते हो.’’

‘‘कौन से नियम, कायदे, मां?’’ मधुकर ने प्रश्नवाचक मुद्रा बनाई.

‘‘यही कि घर से बाहर जाते समय यदि

तुम लोगों का अहं बड़ों से अनुमति लेने की औपचारिकता नहीं निभाना चाहता तो न सही, कम से कम सूचित कर के तो जा सकते हो. सुबह

9 बजे घर से निकली है रूपाली. कम से कम फोन तो कर सकती थी कि कहां गई है और घर कब तक लौटेगी,’’ विनीलाजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘सौरी, मां, भविष्य में हम ध्यान रखेंगे. मैं अभी पता लगाता हूं…’’

मधुकर ने रूपाली का नंबर मिलाया और उस का स्वर सुनते ही बरस पड़ा, ‘‘कहां हो तुम? सुबह 9 बजे से घर से निकली हो. अभी आफिस से घर पहुंचा हूं और तुम गायब हो. मां बहुत क्रोधित हैं. तुरंत घर चली आओ.’’

‘‘अरे वाह, कह दिया घर चली आओ. मैं ने तो सोचा था कि तुम आफिस से सीधे यहां मुझे लेने आओगे.’’

‘‘कहां लेने आऊंगा तुम्हें? मुझे तो यह भी पता नहीं कि तुम हो कहां.’’

‘‘मैं कहां होऊंगी, इतना तो तुम स्वयं भी सोच सकते हो. अपने मायके में हूं मैं. और कहां जाऊंगी.’’

‘‘फिर से अपने मायके में? तुम तो शौपिंग करने गई थीं, उस के बाद अपने घर आना चाहिए था,’’ मधुकर क्रोधित हो उठा.

‘‘क्यों नाराज होते हो. आज मेरे पापा का जन्मदिन है. उन के लिए उपहार खरीदने ही तो गई थी,’’ रूपाली रोंआसे स्वर में बोली.

वह अपने अभिनय और अदाओं से अपना काम निकलवाने और दूसरों को प्रभावित करने में अत्यंत कुशल थी.

लेकिन उस ने जो नहीं बताया था वह यह कि उस ने उपहार केवल अपने पापा के लिए ही नहीं, अपनी मम्मी, भाईभाभी और उन के प्यारे से 5 वर्षीय पुत्र रिंकी के लिए भी खरीदे थे. साथ ही बड़ा सा केक, मिठाई, नमकीन आदि ले कर वह अपने पापा का जन्मदिन मनाने के इरादे से अपने घर पहुंची थी और फिर सभी उपहार अपने मम्मीपापा, भाईभाभी के समक्ष फैला दिए थे.

उपहार देख कर मायके वालों ने उत्साह नहीं दिखाया तो रूपाली को निराशा हुई.

‘‘इतना सब खर्च करने की क्या आवश्यकता थी, रूपाली? तुम तो जानती हो कि मैं जन्मदिन मनाने की औपचारिकता में विश्वास नहीं रखता. क्या तुम ने कभी मुझे जन्मदिन मनाते देखा है?’’

‘‘आप विश्वास नहीं करते न सही पर मैं तो आप का जन्मदिन धूमधाम से मनाना चाहती हूं. पर देख रही हूं कि आजकल आप लोगों को मेरा यहां आना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘कैसी बातें करती है, बेटी? तू तो हमें प्राणों से भी प्यारी है. पर कुछ अन्य बातों का भी खयाल रखना पड़ता है,’’ उस के पापा हरदयालजी ने उसे सीने से लगा लिया था. उस ने अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘ऐसी किन बातों का खयाल रखना पड़ता है, पापा?’’ रूपाली ने पूछा. इस से पहले कि पापा कुछ कह पाते, मधुकर का फोन आ गया था.

फोन पर मधुकर का स्वर सुनते ही वह सकपका गई थी. उस के स्वर से ही रूपाली को उस के क्रोध का आभास हो गया था. पर हरदयालजी के जन्मदिन की बात सुन कर वह शांत हो गया था.

‘‘तुम ने बताया नहीं था कि पापा का

जन्मदिन है आज? जरा फोन दो उन्हें, मैं भी बधाई दे दूं,’’ रूपाली ने फोन उन्हें पकड़ा दिया.

‘‘रूपाली आई है, तुम भी आ जाते तो अच्छा लगता,’’ जन्मदिन की बधाई स्वीकार कर धन्यवाद देते हुए हरदयालजी बोले.

‘‘क्षमा करिए, पापा, आज नहीं आ सकूंगा. अभी आफिस से आया हूं. कल इंस्पैक्शन है. बहुत सा काम घर ले कर आया हूं. फिर कभी आऊंगा, फुरसत से.’’

‘‘ठीक है. हम वृद्धों का जन्मदिन मनाने का समय कहां है तुम युवाओं के पास,’’ हरदयालजी हंसे.

‘‘ऐसा मत कहिए, पापा. रूपाली ने पहले कहा होता तो मैं अवश्य आता. भैया से कहिएगा कि रूपाली को घर छोड़ दें,’’ मधुकर ने स्वर को भरसक मीठा बनाने का प्रयास किया था. पर हरदयालजी ने उस के स्वर की कटुता को फोन पर भी अनुभव किया था.

हरदयालजी ने केक काटा था. रूपाली की भाभी ने कुछ अन्य पकवान बना लिए थे और रूपाली और उस के भाई रतन ने मिल कर हरदयालजी के जन्मदिन को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

‘‘रतन बेटे, रूपाली को उस के घर छोड़ आओ और देर करना ठीक नहीं है.’’

‘‘15-20 मिनट रुकिए, मैं जरा बाजार तक जा कर आता हूं,’’ कह कर रतन बाहर निकल गया और रूपाली अपने मातापिता से बातचीत में व्यस्त हो गई.

तभी रिंकी, उस का 5 वर्षीय भतीजा उस का हाथ पकड़ कर खींचने लगा.

‘‘क्या है, रिंकी? कहां ले जा रहा है बूआ को?’’ हरदयालजी ने प्रश्न किया था.

‘‘दादाजी, बूआजी को मम्मी बुला रही हैं.’’

‘‘क्या बात है भाभी? आप मुझे बुला रही थीं? वहीं आ जातीं न,’’ रूपाली हैरान थी.

‘‘जो कुछ मैं तुम से कहना चाहती हूं, रूपाली, वह मां और पापा के सामने कहना संभव नहीं हो सकेगा,’’ उस की भाभी रिया बोली.

‘‘ऐसी भी क्या बात है, भाभी?’’

‘‘पहली बात तो यह कि तुम जो उपहार

अपने भैया और मेरे लिए लाई हो मैं नहीं रख सकती, रिंकी का उपहार मैं ने रख लिया है.’’

‘‘क्यों भाभी?’’

‘‘मैं तुम से बड़ी हूं, रूपाली, जो कहूंगी तुम्हारे भले के लिए ही कहूंगी. आशा है तुम मेरी बात का बुरा नहीं मानोगी.’’

‘‘आप की बात का बुरा मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. आप ने तो सदा मुझे अपनी सगी बहन जैसा दुलार दिया है.’’

‘‘तो सुनो, रूपाली, तुम्हारी नईनई शादी हुई है. अब वही तुम्हारा परिवार है. नए वातावरण में हर किसी को अपना स्थान बनाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है. इस तरह हर दूसरे दिन तुम्हारा यहां आना उन्हें शायद ही अच्छा लगे.’’

‘‘मैं समझ गई, भाभी. यह साड़ी मैं ने आप के लिए बड़े चाव से खरीदी थी. इसे तो आप रख लीजिए.’’

‘‘सही अवसर देख कर यह साड़ी तुम मधुकर की मां को भेंट कर देना, उन्हें अच्छा लगेगा. हम सब तुम से भलीभांति परिचित हैं, रूपाली. पर ससुराल में तुम्हारे नए संबंध बने हैं. उन्हें प्रगाढ़ करने के लिए तुम्हें प्रयत्न

करना पड़ेगा.’’

‘‘आप ने मुझे ठीक से समझा नहीं है, भाभी. मैं वहां भी सब को यथोचित सम्मान देती हूं पर आप सब से मिलने को मेरा मन तड़पता रहता है. इसीलिए अवसर मिलते ही दौड़ी चली आती हूं. हर पल मांपापा की याद मुझे व्याकुल करती है, भाभी. उन को समय से दवा देना, उन के स्वास्थ्य का खयाल रखना, कौन करेगा, भाभी? यह सब मैं ही तो किया करती थी,’’ रूपाली सिसकने लगी.

‘‘मैं ने तुम्हें दुखी कर दिया, रूपाली. तुम्हारी जैसी ननद और बहन पाना तो सौभाग्य की बात है पर अब अपने लिए सोचो, रूपाली. हम सब तुम्हारी सुखी गृहस्थी देखना चाहते हैं. इसीलिए तुम्हें समझाने का यत्न कर रही थीं मांपापा की चिंता करने को मैं हूं न.’’

‘‘यह क्यों नहीं कहतीं भाभी कि अब मेरा आना आप को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘गलती से भी ऐसी बात मुंह से नहीं निकालना, रूपाली. अकसर महिलाओं से ही ऐसी आशा की जाती है कि वे जिस परिवार से

20-25 वर्षों तक जुड़ी रही हैं उसे एक झटके से भूल जाएं. पर चिंता क्यों करती हो, जब मन हो, फोन कर सकती हो. मोबाइल है न तुम्हारे पास. जब मेरा विवाह हुआ था तब तो यह सुविधा भी नहीं थी. प्रियजनों से बात करने को तरस जाती थी मैं.’’

भाभी का भर्राया स्वर सुन कर चौंक गई थी रूपाली. अपनों से दूर होने की त्रासदी भोगने वाली वह अकेली नहीं है. यह तो उस जैसी हर युवती की व्यथा है पर अब वह स्वयं को इस परिवर्तन के लिए तैयार करेगी. भावुकता में बह कर सब के उपहास का पात्र नहीं बनेगी.

उस की विचारधारा तो समुद्र की तरह अविरल बहती रहती पर तभी रतन भैया लौट आए थे. वे मिठाइयों के डब्बे, मेवा, नमकीन, उस के, मधुकर तथा परिवार के अन्य सदस्यों के लिए उपहार लाए थे.

‘‘इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी, भैया?’’ रूपाली संकोच से घिर गई थी.

‘‘यह बेकार का खर्च नहीं है, पगली.

यह तो तेरे भैया के स्नेह का प्रतीक है. जब

भी इन वस्तुओं को देखोगी. भैया को याद

कर लोगी.’’

शीघ्र ही उपहारों के साथ रूपाली को ले कर रतन उस के घर पहुंचे.

‘‘यह सब क्या है, रूपाली? इस तरह बिना बताए घर से चले जाना कहां की समझदारी है. पूरे दिन चिंता के कारण हमारा बुरा हाल था,’’ रूपाली को देख कर विनीलाजी स्वयं पर संयम न रख सकीं.

‘‘भूल हो गई रूपाली से, आंटी. आज पापा

का जन्मदिन था. हर्ष के अतिरेक में आप को सूचित करना भूल गई. आज क्षमा कर दें, आगे से ऐसा नहीं होगा,’’ रतन ने रूपाली की ओर से क्षमा मांगी.

‘‘यह क्या भले घर की बहूबेटियों के लक्षण हैं? कभी सहेली के यहां चली जाती है, कभी मायके जा बैठती है. रतन बेटे, बुरा मत मानना, मैं ने रूपाली और अपनी बेटी में कभी कोई अंतर नहीं समझा पर गलती के लिए टोकना ही पड़ता है.’’

‘‘अब बस करो, मां. मैं समझा दूंगा रूपाली को. रतन भैया को चायपानी के लिए तो पूछो,’’ मधुकर ने हस्तक्षेप किया.

तभी मधुकर की छोटी बहन संगीता ने चायनाश्ता लगा दिया. अब तक विनीलाजी

का क्रोध भी शांत हो गया था. मधुकर के पिता आदित्य बाबू रतन से वार्त्तालाप में लीन हो गए.

‘‘अपने पापा को हमारी शुभकामनाएं भी देना, बेटे,’’ रतन चलने लगा तो आदित्य बाबू और विनीलाजी ने वातावरण को सामान्य करने का प्रयत्न किया.

रतन के जाते ही रूपाली के आंसुओं

का बांध टूट गया. वह देर तक फफक कर रोती रही.

‘‘यदि तुम्हारा रोने का कार्यक्रम समाप्त हो गया हो तो मैं कुछ कहूं,’’ रूपाली को धीरेधीरे शांत होते देख कर मधुकर ने प्रश्न किया.

‘‘अब भी कुछ कसर रह गई हो

तो कह डालो,’’ रूपाली सुबकते हुए बोली.

‘‘मुझे कुछ शौपिंग करनी है,

यही कह कर तुमघर से निकली थीं फिर अचानक अपने घर क्यों पहुंच गईं?’’

‘‘पापा का जन्मदिन था. वहां चली गई तो

क्या हो गया?’’

‘‘ठीक है, पर जब तुम ने यह निर्णय लिया तो मुझे या मां को सूचित करना चाहिए था या नहीं?’’

‘‘मैं क्या तुम लोगों की कैदी हूं कि अपनी इच्छा से कहीं आजा नहीं सकती?’’

‘‘रूपाली, अब तुम हमारे घर की सदस्या हो और तुम्हारे व्यवहार से हमारे परिवार की गरिमा और मानसम्मान जुड़े हुए हैं. तुम मांपापा की आशा, आकांक्षाओं का केंद्रबिंदु हो. तुम ने न केवल उन्हें, बल्कि स्वयं अपने परिवार को भी बहुत दुख पहुंचाया है. मैं भविष्य में इस घटना की पुनरावृत्ति नहीं चाहता.’’

‘‘तुम मुझे धमकी दे रहे हो?’’

‘‘यही समझ लो. सप्ताह में 3 दिन वहां जा कर पड़े रहने में तुम्हें कुछ अजीब नहीं लगता तो मुझे कुछ नहीं कहना,’’ तर्कवितर्क धीरेधीरे उग्रता की सीमा छूने लगा था.

‘‘उन लोगों पर उपकार करने नहीं जाती मैं. मेरे जाने से उन्हें असुविधा होती है, यह तो समझ में आता है. पर तुम्हें बुरा लगता है, यह मेरी समझ से परे है. आज भी देखो, रतन भैया ने कितना कुछ दिया है.’’

रूपाली लपक कर रतन द्वारा दिए गए उपहार उठा लाई. ढेर सारी मिठाई, मेवा, फल, नमकीन और घर के सदस्यों के लिए वस्त्र आदि देख कर मधुकर चकित रह गया.

‘‘रूपाली, तुम क्याक्या उपहार ले कर गई थीं वहां?’’

‘‘मां की साड़ी, पापा के लिए जैकेट, भैया और रिंकी के लिए उपहार तथा भाभी के लिए साड़ी.’’

‘‘ये उपहार नहीं थे, रूपाली, यह ऐसा बोझ तुम ने उन के सिर पर डाल दिया था जिस का प्रतिदान आवश्यक था. अत: रतन भैया को बदले में तुम्हें देने के लिए यह सब खरीदना पड़ा. दया करो उन पर और हम पर भी.’’

‘‘रतन भैया इन छोटेमोटे खर्चों की चिंता नहीं करते.’’

‘‘रूपाली, तुम्हारे छोटे भाई रमन और बहन रमोला की पढ़ाई का खर्च वे ही उठा रहे हैं. पापा की पैंशन में यह सारा खर्च नहीं उठाया जा सकता. तुम्हारे विवाह में भी सारा भार उन्हीं के कंधों पर था. तुम्हें नहीं लगता कि अब तुम्हें अधिक समझदारी से काम लेना चाहिए?’’

रूपाली चुप रह गई. भाभी ने उस के द्वारा उपहार में दी साड़ी नहीं ली, यह सोच कर वह पुन: व्यथित हो गई. शायद भाभी इसी बहाने अपनी बात कहना चाहती थीं.

हर तरफ से वही सब के निशाने पर है. वह भी कुछ ऐसा करेगी कि किसी को उंगली उठाने का अवसर न मिले.

रतन वापस पहुंचा तो घर में सभी व्यग्रता से उस की प्रतीक्षा कर रहे थे.

‘‘क्या हुआ? रूपाली के यहां सब ठीक तो है?’’ रतन को देखते ही उस की मां ने प्रश्न किया.

‘‘ठीक समझो तो सब ठीक है पर आंटी

बहुत नाराज थीं. घर में किसी को बताए बिना ही चली आई थी रूपाली. वे कह रही थीं कि यह क्या भले घर की बहूबेटियों के लक्षण हैं?’’

‘‘उत्तर में तुम ने क्या कहा?’’ हरदयालजी ने प्रश्न किया.

‘‘मैं ने तो चटपट क्षमा मांग ली और कह दिया कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा. उन के घर के झगड़े में मैं क्यों फंसूं. यह समस्या तो रूपाली को ही सुलझाने दो.’’

‘‘मैं ने तो रिया से कहा था कि रूपाली को

समझाए. हम तो ठहरे मातापिता, बेटी को अपने ही घर आने से रोक भी नहीं सकते,’’ रतन की मम्मी दुखी स्वर में बोलीं.

‘‘बड़ा कठिन काम सौंपा था आप ने मम्मी. मैं तो रूपाली की भावभंगिमा से ही समझ गई थी. मेरी बात उसे बहुत बुरी लगी थी,’’ रिया दुखी स्वर में बोली.

‘‘कोई बात नहीं, रिया. सब ठीक हो

जाएगा. रूपाली अपने घर में व्यवस्थित हो

जाए तो हम सब क्षमा मांग लेंगे उस से,’’ हरदयालजी बोले.

रात भर ऊहापोह में बिता कर रूपाली सुबह

उठी तो भैया द्वारा दिए गए उपहार उस

का मुंह चिढ़ा रहे थे. किसी ने उन को खोला

तक नहीं था.

रूपाली सारे उपहार ले कर विनीलाजी के पास पहुंची.

‘‘मम्मी, यह सब कल भैया दे गए थे,’’ वह किसी प्रकार बोली.

विनीलाजी ने एक गहरी दृष्टि उपहारों पर डाल कर लंबी नि:श्वास ली थी.

‘‘रूपाली, तुम्हारा अपने परिवार से लगाव स्वाभाविक है, बेटी, पर हमारे दोनों परिवारों

का नया बना संबंध अभी बहुत नाजुक स्थिति में है. इसे बहुत सावधानी से सींचना पड़ता

है. तुम अब केवल उस घर की बेटी ही नहीं, इस घर की बहू भी हो. उपहार लेनादेना भी उचित समय और उचित स्थान पर ही अच्छा लगता है. नहीं तो यह अनावश्यक बोझ बन जाता है.’’

‘‘मैं समझती हूं, मम्मी. मैं भावना

के आवेग में बह गई थी. अब कभी आप को शिकायत का अवसर नहीं दूंगी,’’ रूपाली क्षमायाचनापूर्ण स्वर में बोली.

‘‘यह हुई न बात. अब जरा मुसकरा

दे. उदासी के बादल इस चांद से मुखड़े पर जरा भी नहीं जंचते. कभी कोई समस्या हो तो हम से पूछ लेना. हम संबंधों को निभाने के विशेषज्ञ हैं. तुम्हारी हर समस्या को चुटकियों में सुलझा

देंगे,’’ विनीलाजी नाटकीय अंदाज में बोल कर हंस दीं.

लगभग 2 माह बाद, रूपाली स्नानघर से

निकली ही थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो,’’ रूपाली ने फोन कान से लगाया.

‘‘अरे भाभी, कहिए, आज मेरी याद कैसे आ गई?’’

‘‘ताना दे रही हो, रूपाली? अब तक नाराज हो?’’

‘‘नहीं भाभी, आप से नाराज होने का तो

प्रश्न ही नहीं उठता. मैं आभारी हूं कि आप ने मुझे सही राह दिखाई, जो स्वयं मेरे मम्मीपापा भी नहीं कर सके.’’

‘‘तो कब आ रही हो मिलने, सभी को तुम्हारी याद आ रही है?’’

‘‘मम्मी से पूछ कर बताऊंगी. तब तक आप भी यहां का एकाध चक्कर लगा ही डालिए,’’ रूपाली बोली.

पता नहीं रूपाली के स्वर में व्यंग्य था या कोरा आग्रह पर रिया मुसकराई फिर चेहरे पर असीम संतोष के भाव तैर गए.

पुनर्विवाह: पत्नी की मौत के बाद क्या हुआ आकाश के साथ?

जबसे पूजा दिल्ली की इस नई कालोनी में रहने आई थी उस का ध्यान बरबस ही सामने वाले घर की ओर चला जाता था, जो उस की रसोई की खिड़की से साफ नजर आता था. एक अजीब सा आकर्षण था इस घर में. चहलपहल के साथसाथ वीरानगी और मुसकराहट के साथसाथ उदासी का एहसास भी होता था उसे देख कर. एक 30-35 वर्ष का पुरुष अकसर अंदरबाहर आताजाता नजर आता था. कभीकभी एक बुजुर्ग दंपती भी दिखाई देते थे और एक 5-6 वर्ष का बालक भी.

उस घर में पूजा की उत्सुकता तब और भी बढ़ गई जब उस ने एक दिन वहां एक युवती को भी देखा. उसे देख कर उसे ऐसा लगा कि वह यदाकदा ही बाहर निकलती है. उस का सुंदर मासूम चेहरा और गरमी के मौसम में भी सिर पर स्कार्फ उस की जिज्ञासा को और बढ़ा गया.

जब पूजा की उत्सुकता हद से ज्यादा बढ़ गई तो एक दिन उस ने अपने दूध वाले से पूछ ही लिया, ‘‘भैया, तुम सामने वाले घर में भी दूध देते हो न. बताओ कौनकौन हैं उस घर में.’’

यह सुनते ही दूध वाले की आंखों में आंसू और आवाज में करुणा भर गई. भर्राए स्वर में बोला, ‘‘दीदी, मैं 20 सालों से इस घर में दूध दे रहा हूं पर ऐसा कभी नहीं देखा. यह साल तो जैसे इन पर कयामत बन कर ही टूट पड़ा है. कभी दुश्मन के साथ भी ऐसा अन्याय न हो,’’ और फिर फूटफूट कर रोने लगा.

‘‘भैया अपनेआप को संभालो,’’ अब पूजा को पड़ोसियों से ज्यादा अपने दूध वाले की चिंता होने लगी थी. पर मन अभी भी यह जानने के लिए उत्सुक था कि आखिर क्या हुआ है उस घर में.

शायद दूध वाला भी अपने मन का बोझ हलका करने के लिए बेचैन था.

अत: कहने लगा, ‘‘क्या बताऊं दीदी, छोटी सी गुडि़या थी सलोनी बेबी जब मैं ने इस घर में दूध देना शुरू किया था. देखते ही देखते वह सयानी हो गई और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई. सलोनी बेबी ऐसी थी कि सब को देखते ही पसंद आ जाए पर वर भी उस के जोड़ का होना चाहिए था न.

‘‘एक दिन आकाश बाबू उन के घर आए. उन्होंने सलोनी के मातापिता से कहा कि शायद सलोनी ने अभी आप को बताया नहीं है… मैं और सलोनी एकदूसरे को चाहते हैं और अब विवाह करना चाहते हैं,’’ और फिर अपना पूरा परिचय दिया.

‘‘आकाश बाबू इंजीनियर थे व मांबाप की इकलौती औलाद. सलोनी के मातापिता को एक नजर में ही भा गए. फिर उन्होंने पूछा कि क्या तुम्हारे मातापिता को यह रिश्ता मंजूर है?

‘‘यह सुन कर आकाश बाबू कुछ उदास हो गए फिर बोले कि मेरे मातापिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. 2 वर्ष पूर्व एक कार ऐक्सिडैंट में उन की मौत हो गई थी.

‘‘यह सुन कर सलोनी के मातापिता बोले कि हमें यह रिश्ता मंजूर है पर इस शर्त पर कि विवाहोपरांत भी तुम सलोनी को ले कर यहां आतेजाते रहोगे. सलोनी हमारी इकलौती संतान है. तुम्हारे यहां आनेजाने से हमें अकेलापन महसूस नहीं होगा और हमारे जीवन में बेटे की कमी भी पूरी हो जाएगी.

‘‘आकाश बाबू राजी हो गए. फिर क्या था धूमधाम से दोनों का विवाह हो गया और फिर साल भर में गोद भी भर गई.’’

‘‘यह सब तो अच्छा ही है. इस में रोने की क्या बात है?’’ पूजा ने कहा.

दूध वाले ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘एक दिन जब मैं दूध देने गया तो घर में सलोनी बिटिया, आकाश बाबू और शौर्य यानी सलोनी बिटिया का बेटा भी था. तब मैं ने कहा कि बिटिया कैसी हो? बहुत दिनों बाद दिखाई दीं. मेरी तो आंखें ही तरस जाती हैं तुम्हें देखने के लिए. पर मैं बड़ा हैरान हुआ कि जो सलोनी मुझे काकाकाका कहते नहीं थकती थी वह मेरी बात सुन कर मुंह फेर कर अंदर चली गई. मैं ने सोचा बेटियां ससुराल जा कर पराई हो जाती हैं और कभीकभी उन के तेवर भी बदल जाते हैं. अब वह कहां एक दूध वाले से बात करेगी और फिर मैं वहां से चला आया. पर अगले ही दिन मुझे मालूम पड़ा कि मुझ से न मिलने की वजह कुछ और ही थी. सलोनी बिटिया नहीं चाहती थी कि सदा उस का खिलखिलाता चेहरा देखने वाला काका उस का उदास व मायूस चेहरा देखे.

‘‘दरअसल, सलोनी बिटिया इस बार वहां मिलने नहीं, बल्कि अपना इलाज करवाने आई थी. कुछ दिन पहले ही पता चला था कि उसे तीसरी और अंतिम स्टेज का ब्लड कैंसर है. इसलिए डाक्टर ने जल्दी से जल्दी दिल्ली ले जाने को कहा था. यहां इस बीमारी का इलाज नहीं था.

‘‘सलोनी को अच्छे से अच्छे डाक्टरों को दिखाया गया, पर कोई फायदा नहीं हुआ. ब्लड कैंसर की वजह से सलोनी बिटिया की हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली गई. बारबार कीमोथेरैपी करवाने से उस के लंबे, काले, रेशमी बाल भी उड़ गए. इसी वजह से वह हर वक्त स्कार्फ बांधे रखती. कितनी बार खून बदलवाया गया. पर सब व्यर्थ. आकाश बाबू बहुत चाहते हैं सलोनी बिटिया को. हमेशा उसी के सिरहाने बैठे रहते हैं… तनमनधन सब कुछ वार दिया आकाश बाबू ने सलोनी बिटिया के लिए.’’

शाम को जब विवेक औफिस से आए तो पूजा ने उन्हें सारी बात बताई, ‘‘इस

दुखद कहानी में एक सुखद बात यह है कि आकाश बाबू बहुत अच्छे पति हैं. ऐसी हालत में सलोनी की पूरीपूरी सेवा कर रहे हैं. शायद इसीलिए विवाह संस्कार जैसी परंपराओं का इतना महत्त्व दिया जाता है और यह आधुनिक पीढ़ी है कि विवाह करना ही नहीं चाहती. लिव इन रिलेशनशिप की नई विचारधारा ने विवाह जैसे पवित्र बंधन की धज्जियां उड़ा दी हैं.’’

फिर, ‘मैं भी किन बातों में उलझ गई. विवेक को भूख लगी होगी. वे थकेहारे औफिस से आए हैं. उन की देखभाल करना मेरा भी तो कर्तव्य है,’ यह सोच कर पूजा रसोई की ओर चल दी. रसोई से फिर सामने वाला मकान नजर आया.

आज वहां काफी हलचल थी. लगता था घर की हर चीज अपनी जगह से मिलना चाहती है. घर में कई लोग इधरउधर चक्कर लगा रहे थे. बाहर ऐंबुलैंस खड़ी थी. पूजा सहम गई कि कहीं सलोनी को कुछ…

पूजा का शक ठीक था. उस दिन सलोनी की तबीयत अचानक खराब हो गई और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा. हालांकि उन से अधिक परिचय नहीं था, फिर भी पूजा और विवेक अगले दिन उस से मिलने अस्पताल गए. वहां आकाश की हालत ठीक उस परिंदे जैसी थी, जिसे पता था कि उस के पंख अभी कटने वाले ही हैं, क्योंकि डाक्टरों ने यह घोषित कर दिया था कि सलोनी अपने जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रही है. फिर वही हुआ. अगले दिन सलोनी इस संसार से विदा हो गई.

इस घटना को घटे करीब 2 महीने हो गए थे पर जब भी उस घर पर नजर पड़ती पूजा की आंखों के आगे सलोनी का मासूम चेहरा घूम जाता और साथ ही आकाश का बेबस चेहरा. मानवजीवन पर असाध्य रोगों की निर्ममता का जीताजागता उदाहरण और पति फर्ज की साक्षात मूर्ति आकाश.

दोपहर के 2 बजे थे. घर का सारा काम निबटा कर मैं लेटने ही जा रही थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. दरवाजे पर एक महिला थी. शायद सामने वाले घर में आई थी, क्योंकि पूजा ने इन दिनों कई बार उसे वहां देखा था. उस का अनुमान सही था.

‘‘मैं आप को न्योता देने आई हूं.’’

‘‘कुछ खास है क्या?’’

‘‘हां, कल शादी है न. आप जरूर आइएगा.’’

इस से पहले कि पूजा कुछ और पूछती, वह महिला चली गई. शायद वह बहुत जल्दी में थी.

वह तो चली गई पर जातेजाते पूजा की नींद उड़ा गई. सारी दोपहरी वह यही सोचती रही कि आखिर किस की शादी हो रही है वहां, क्योंकि उस की नजर में तो उस घर में अभी कोई शादी लायक नहीं था.

शाम को जब विवेक आए तो उन के घर में पैर रखते ही पूजा ने उन्हें यह सूचना दी जिस ने दोपहर से उस के मन में खलबली मचा रखी थी. उसे लगा कि यह समाचार सुन कर विवेक भी हैरान हो जाएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. वे वैसे ही शांत रहे जैसे पहले थे.

बोले, ‘‘ठीक है, चली जाना… हम पड़ोसी हैं.’’

‘‘पर शादी किस की है, आप को यह जानने की उत्सुकता नहीं है क्या?’’ पूजा ने तनिक भौंहें सिकोड़ कर पूछा, क्योंकि उसे लगा कि विवेक उस की बातों में रुचि नहीं ले रहे हैं.

‘‘और किस की? आकाश की. अब शौर्य की तो करने से रहे इतनी छोटी उम्र में. आकाश के घर वाले चाहते हैं कि यह शीघ्र ही हो जाए, क्योंकि आकाश को इसी माह विदेश जाना है. दुलहन सलोनी की चचेरी बहन है.’’

यह सुन कर पूजा के पैरों तले की जमीन खिसक गई. जिस आकाश को उस ने आदर्श पति का ताज दे कर सिरआंखों पर बैठा रखा था. वह अब उस से छिनता नजर आ रहा था. उस ने सोचा कि पत्नी को मरे अभी 2 महीने भी नहीं हुए और दूसरा विवाह? तो क्या वह प्यार, सेवाभाव, मायूसी सब दिखावा था? क्या एक स्त्री का पुरुषजीवन में महत्त्व जितने दिन वह साथ रहे उतना ही है? क्या मरने के बाद उस का कोई वजूद नहीं? मुझे कुछ हो जाए तो क्या विवेक भी ऐसा ही करेंगे? इन विचारों ने पूजा को अंदर तक हिला दिया और वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई. उसे सारा कमरा घूमता नजर आ रहा था.

जब विवेक वहां आए तो पूजा को इस हालत में देख घबरा गए और फिर उस का सिर गोद में रख कर बोले, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें? क्या ऊटपटांग सोचसोच कर अपना दिमाग खराब किए रखती हो? तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा?’’

विवेक की इस बात पर सदा गौरवान्वित महसूस करने वाली पूजा आज बिफर पड़ी, ‘‘ले आना तुम भी आकाश की तरह दूसरी पत्नी. पुरुष जाति होती ही ऐसी है. पुरुषों की एक मृगमरीचिका है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. आकाश यह शादी अपने सासससुर के कहने पर ही कर रहा है. उन्होंने ही उसे पुनर्विवाह के लिए विवश किया है, क्योंकि वे आकाश को अपने बेटे की तरह चाहने लगे हैं. वे नहीं चाहते कि आकाश जिंदगी भर यों ही मायूस रहे. वे चाहते हैं कि आकाश का घर दोबारा बस जाए और आकाश की पत्नी के रूप में उन्हें अपनी सलोनी वापस मिल जाए. इस तरह शौर्य को भी मां का प्यार मिल जाएगा.

‘‘पूजा, जीवन सिर्फ भावनाओं और यादों का खेल नहीं है. यह हकीकत है और इस के लिए हमें कई बार अपनी भावनाओं का दमन करना पड़ता है. सिर्फ ख्वाबों और यादों के सहारे जिंदगी नहीं काटी जा सकती. जिंदगी बहुत लंबी होती है.

‘‘आकाश दूसरी शादी कर रहा है इस का अर्थ यह नहीं कि वह सलोनी से प्यार नहीं करता था. सलोनी उस का पहला प्यार था और रहेगी, परंतु यह भी तो सत्य है कि सलोनी अब दोबारा नहीं आ सकती. दूसरी शादी कर के भी वह उस की यादों को जिंदा रख सकता है. शायद यह सलोनी के लिए सब से बड़ी श्रद्धांजलि होगी.

‘‘यह दूसरी शादी इस बात का सुबूत है कि स्त्री और पुरुष एक गाड़ी के 2 पहिए हैं और यह गाड़ी खींचने के लिए एकदूसरे की जरूरत पड़ती है और यह काम अभी हो जाए तो इस में हरज ही क्या है?’’

विवेक की बातों ने पूजा के दिमाग से भावनाओं का परदा हटा कर वास्तविकता की तसवीर दिखा दी थी. अब उसे आकाश के पुनर्विवाह में कोई बुराई नजर नहीं आ रही थी और न ही विवेक के प्यार पर अब कोई शक की गुंजाइश थी.

विवेक के लिए खाना लगा कर पूजा अलमारी खोल कर बैठ गई और फिर स्वभावानुसार विवेक का सिर खाने लगी, ‘‘कल कौन सी साड़ी पहनूं? पहली बार उन के घर जाऊंगी. अच्छा इंप्रैशन पड़ना चाहिए.’’

विवेक ने भी सदा की तरह मुसकराते हुए कहा, ‘‘कोई भी पहन लो. तुम पर तो हर साड़ी खिलती है. तुम हो ही इतनी सुंदर.’’

पूजा विवेक की प्यार भरी बातें सुन कर गर्वित हो उठी.

मेघमल्हार: अभय की शादीशुदा जिंदगी में किसने मचाई खलबली

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बरसात की काई: भाग 3- क्या हुआ जब दीपिका की शादीशुदा जिंदगी में लौटा प्रेमी संतोष?

अगले दिन दीपिका ने 1 नहीं 2 बार उदय से फोन पर बात की. ‘‘सुबह के समय उदय खुश था, किंतु अभी जब मैं ने बात की तो वह कुछ चुप सा था. क्या बात हो सकती है?’’

‘‘दफ्तर के किसी काम में उलझा होगा. तुम्हें यहां उदय के मूड के बारे में बात करनी थी तो आई ही क्यों?’’ उदय के जिक्र से संतोष चिढ़ने लगा था. आज का दिन भी सुस्त बीता. जैसा सोचा था, वैसे कुछ नहीं हो रहा था. जबजब संतोष दीपिका को बिस्तर पर ले जाता, उस का व्यवहार इतना शिथिल रहता मानो सब कुछ उस की इच्छा के खिलाफ हो रहा हो. जिस अल्हड़ यौवन की खुशबू में संतोष खिंचा चला आता था, वह कहीं गायब हो चुकी थी. ऊपर से होटल का खर्च अलग. अगली शाम को ही दोनों ने लौटने की सोच ली.

‘‘कह दूंगी उदय से कि आप की याद आ रही थी.’’

दीपिका के कहने पर संतोष ने उस की आंखों को भेदते हुए पूछा, ‘‘कहीं यही सच तो नहीं?’’

दीपिका चुप रही. किंतु उस की झुकी नजरों ने भेद खोल दिया था. संतोष की उदासीन भावभंगिमा उस के उदास चेहरे से मेल खा रही थी. दीपिका को उस के घर रवाना कर संतोष अपने घर निकल गया.

शाम को घर लौटने पर अचानक दीपिका को अपने समक्ष पा उदय थोड़ा हैरान हुआ.

‘‘सरप्राइज,’’ चिल्ला कर दीपिका ने उदय के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘जल्दी कैसे आ गई तुम? तुम्हें तो 2 दिन बाद आना था?’’ उदय के स्वर में कोई आवेग नहीं था.

‘‘क्यों, तुम्हें खुशी नहीं हुई क्या? अरे, तुम्हारी याद जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी, इसलिए जल्दी चली आई,’’ खाना लगाते हुए दीपिका चहक रही थी. आज उस का सुर उत्साह से लबरेज था, ‘‘इतने थके से क्यों लग रहे हो? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, थोड़ी थकान है. जल्दी सो जाऊंगा तो सुबह तक स्वस्थ महसूस करूंगा.’’

अगली सुबह जब उदय दफ्तर के लिए निकल रहा था तब संतोष को घर में आते देख पूछ बैठा, ‘‘आज इतनी जल्दी आ गए आप संतोष? लगता है मन नहीं लगता आप का दीपिका के बिना… और कितने दिन चलेगी आप की संगीत की कक्षा?’’

उदय के हावभाव देख कर संतोष और दीपिका दोनों को हैरानी हुई. अमूमन संतोष को देख उदय प्रसन्न होता था, उन की संगीत कक्षा की प्रगति के बारे में पूछता था, एक संगीत समारोह रखने की बात कहता था किंतु आज उदय उदासीन था. आज संतोष भी उदास था और दीपिका थोड़ी चिंतित कि क्यों आ गया संतोष इतनी सुबह… उदय के दफ्तर जाने का इंतजार भी नहीं किया.

उदय के चले जाने के बाद दीपिका ने कहा, ‘‘संतोष, मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूंगी. तुम मेरे जीवन में एक बार फिर लौट कर आए. तुम ने मुझे वही खुशी के पल देने चाहे, जिन के लिए शायद मैं भागती फिरती पर कभी उन्हें पाने की लालसा को शांत नहीं कर पाती. अच्छा हुआ जो पल तुम ने मेरी झोली में डाले. अब मैं समझ गई हूं कि मुझे अपने जीवन में क्या चाहिए मृगतृष्णा के वे क्षण या ठोस धरातल भरी जिंदगी.’’

‘‘संतोष, मैं शादीशुदा हूं, यह बात शायद मैं भूल गई थी. एक षोडशी की तरह मैं अपने प्रेमी की बांहों में खो कर अपना संसार तलाश रही थी. यदि तुम मुझे मेरी इस गृहस्थी से दूर, होटल के उस कमरे में नहीं ले जाते तो मुझे कभी नहीं ज्ञात होता कि मैं इस गृहस्थी में कितनी रम चुकी हूं. जब तुम इस घर में आते हो तब मुझे इस घर को छोड़ कर जाने का कोई भय नहीं होता. लेकिन इस घर के बाहर कदम रखने पर मैं ने जाना कि इस पहचान के बिना मैं कितनी अधूरी हूं.

‘‘उदय की क्या गलती है. उन्होंने हमेशा मेरा ध्यान रखा, मुझे पूरा प्यार दिया, अपने परिवार में सम्मान दिया. मैं किस हक से उन की नाक पूरे समाज में कटवा दूं? मेरी इस एक हरकत से उदय का प्यार पर से विश्वास उठ जाएगा. अपनी जिंदगी में रंग भरने हेतु मैं उन की जिंदगी को स्याह नहीं कर सकती.’’

‘‘काश, हमारी शादी हो गई होती तो मैं तुम्हें कभी खुद से अलग नहीं  होने देता पर अब… अब तुम्हारी मरजी के आगे मैं बेबस हूं,’’ पिछले दिनों के अनुभव और आज दीपिका के मत के आगे संतोष के पास चुप रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था. वह उलटे पांव लौट गया.

दीपिका सारे घर में बेचैन घूमती रही. सारा दिन सोचती रही कि कैसे उस के कदम इतनी गलत दिशा में उठ गए. सारा दिन मंथन करने के बाद उस ने निर्णय लिया कि वह उदय को सब कुछ बता देगी. बस, दिल पर इतना भारी बोझ ले कर आगे की पूरी जिंदगी तय करना बहुत मुश्किल होगा.

शाम को जब उदय घर लौटा तब दीपिका ने शांत स्वर में उसे सारी बात बता दी.

उदय मुंह नीचे किए बैठा सुनता रहा और दीपिका नजरें नीची किए सब कहती गई, ‘‘मुझे माफ कर दो उदय. मुझ से बहुत बड़ा गुनाह हो गया. आगे मेरी जिंदगी में जो होगा वह तुम्हारे निर्णय पर निर्भर करेगा.’’

उदय चुपचाप उठ कर चला गया और रात भर बैठक में ही रहा. दीपिका अपने कक्ष में चली गई. बैठक में बैठे हुए उदय विचारों के भंवर में घूमने लगा…

3 दिन पहले उदय को दफ्तर के कार्य से पास के शहर जाना पड़ा था. अपना काम पूरा करने के बाद वह मायके गई अपनी पत्नी के लिए पसंदीदा मिठाई लेने बाजार पहुंच गया. वहां घूमते हुए वह हूबहू दीपिका के हाथ से बने स्वैटर को देख स्तब्ध रह गया. ध्यान दिया तो वह स्वैटर संतोष ने पहना था और उस की बांहों में बांहें डाले उदय की पत्नी दीपिका लहरा रही थी. यह दृश्य देख कर उदय के मन में रोष, प्रतिघात, वेदना, संताप के मिलेजुले भाव तूफान मचाने लगे. उस का सिर घूमने लगा. इतना बड़ा विश्वासघात? उस की अपनी जीवनसंगिनी ने उस के साथ इतना बड़ा धोखा किया. उस समय उदय खून का घूंट पी कर रह गया था. लेकिन आज दीपिका के सब कुछ बताने पर उदय के मनमस्तिष्क में एक प्रतिद्वंद्व शुरू हो गया. अब तक वह दीपिका को सजा देने की सोच रहा था, बस इस प्रतीक्षा में था कि वह उसे कुछ बताती है या नहीं. किंतु आज दीपिका के आत्मसमर्पण करने पर उस की आंखों से बह रही प्रायश्चित्त की धारा ने उदय के मन की अग्नि पर कुछ छींटे छिड़क दिए थे.

सारी रात इसी ऊहापोह में गुजरी. वह दीपिका को सजा दे या उस के प्रायश्चित्त को देखते हुए उसे माफ कर दे. यदि दीपिका को सजा देता है तो क्या खुद उस की तपिश से बच पाएगा? अपनी गृहस्थी तोड़ बैठेगा और जग हंसाईर् होगी वह अलग. पर इतने बड़े विश्वासघात के पश्चात क्या वह अपनी पत्नी पर भरोसा कर पाएगा?

अल्लसुबह दीपिका घर के रोजमर्रा के कार्यों में लग गई. एक हिचकिचाहट अवश्य थी उस की भावभंगिमा में. चाय का प्याला थमा वह उदय के पास बैठ गई, ‘‘क्या निर्णय लिया आप ने? आप का हर निर्णय मुझे स्वीकार्य होगा.’’

‘‘दीपिका, मैं यह बात पहले से जानता हूं. जब तुम मायके का बहाना बना कर दूसरे शहर चली गई थीं तब मैं ने तुम दोनों को एकसाथ देख लिया था. उस पर तुम्हारे मायके भी मेरी बात हुई थी जहां से मुझे यकीनन पता चल गया कि तुम अपने मायके नहीं गई हो. मैं तुम्हारे बताने के इंतजार में ही था. उदय की ये बातें सुन कर दीपिका की आंखों से प्रायश्चित्त की बूंदें टपक पड़ीं.

‘‘यदि मैं ने तुम्हें माफ नहीं किया तो इस अग्नि में मैं भी सारी उम्र जलता रहूंगा. लेकिन माफ करना इतना सरल नहीं. पता नहीं मैं दोबारा तुम पर कब भरोसा कर पाऊंगा. किंतु मैं अपनी गृहस्थी नहीं तोड़ना चाहता. सारी रात सोचने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि तुम्हारी आंखों में जो प्रायश्चित्त दिखाई दे रहा है और अतीत में जो हम ने सुखद पल व्यतीत किए हैं, उन की तुलना में आज का यह धोखा कहीं हलका है. इसलिए मैं तुम्हें एक मौका और दूंगा परंतु इस मौके का भरपूर फायदा उठाना तुम्हारी जिम्मेदारी है.’’

सही तो है, यदि बरसात में हमारे आंगन में काई जम जाए तो क्या हम आंगन तोड़ बैठते हैं? नहीं, हम उस हिस्से को सुखा कर उस काई को साफ करते हैं और फिर ध्यान रखते हैं कि हमारे घर में अनचाही उपज न पनपे. बरसाती काई का उग जाना इस बात का संकेत नहीं कि हमारे आंगन में कोई कमी है, अपितु वह केवल इतना सा संदेश है कि हमारे घरआंगन को थोड़े और ध्यान की आवश्यकता है.

जमाना बदल गया: भाग 3- ऐश्वर्या के साथ ऐसा क्या किया सीनियर सुशांत ने?

अपमानित ऐश्वर्या अपनी सीट पर लौट आई. अगर वह डिसमिस कर दी गई, तो इस दाग के कारण दूसरी कंपनी में नौकरी मिलना असंभव हो जाएगा. एक ही उपाय शेष था कि वह खुद ही यह नौकरी छोड़ दे. लेकिन यह भी आसान न था. उस ने 2 साल का बौंड भर रखा था. उस से पहले नौकरी छोड़ने पर 5 लाख की क्षतिपूर्ति देनी पड़ेगी. कहां से लाएगी इतने रुपए? पापा तो 3 माह बाद रिटायर होने वाले हैं. अपनी बेबसी पर ऐश्वर्या की आंखें छलछला आईं.

‘‘ऐश्वर्या, क्या बात है, इतना परेशान क्यों  हो?’’ तभी स्नेहा ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा. इन दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई थी.

ऐश्वर्या के होंठ कांप कर रह गए. वह चाह कर भी कुछ न कह सकी. उस की आंखों से आंसू टपक पड़े.

‘‘यहां नहीं, चलो कैंटीन में चल कर बात करते हैं,’’ स्नेहा ने उस का हाथ पकड़ कर खींचा तो ऐश्वर्या उठ खड़ी हुई.

फिर स्नेहा उसे अपने औफिस की कैंटीन के बजाय दूसरी मंजिल पर बनी एक दूसरी

कैंटीन में ले गई. सुबह होने के कारण वहां सन्नाटा था. उस के काफी कुरेदने पर ऐश्वर्या ने सुबकते हुए पूरी बात बताई, जिसे सुन स्नेहा का चेहरा तमतमा उठा.

‘‘इस का मतलब वह यह घिनौना खेल तुम्हारे साथ भी खेल रहा है,’’ स्नेहा ने दांत पीसे.

‘‘तुम्हारे साथ भी का मतलब?’’ ऐश्वर्या की आंखों में आशंका के चिह्न उभर आए.

‘‘उस ने मुझे भी अमेरिका जाने का लालच दिया था. मेरे मना करने पर 2 महीने से मुझे भी बातबात पर परेशान कर रहा है,’’ स्नेहा ने रहस्योद्घाटन किया.

‘‘इस का मतलब जो 2 लड़कियां अमेरिका गई हैं उन्होंने उस की शर्त…’’ ऐश्वर्या ने जानबूझ कर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

‘‘उस की सचाई वे जानें, लेकिन सुशांत की सचाई हम लोगों के सामने है. इसे सबक सिखाना जरूरी है वरना यह लड़कियों को हमेशा इसी तरह खिलौना समझ कर खेलता रहेगा,’’ स्नेहा ने मुट्ठियां भींचते हुए कहा.

‘‘लेकिन हम कर ही क्या सकती हैं?’’

‘‘बहुत कुछ,’’ स्नेहा ने कहा और फिर अपनी योजना समझाने लगी.

उस के बाद दोनों औफिस लौट आईं. थोड़ी देर बाद ऐश्वर्या सुशांत के चैंबर में पहुंच कर बोली, ‘‘सर, मुझ से यहां काम नहीं हो पाएगा.’’

‘‘तो?’’

‘‘अगर अभी भी संभव हो तो मुझे अमेरिका भेज दीजिए. आप की बहुत मेहरबानी होगी.’’

‘‘संभव होना या न होना तो मेरे ही हाथ में है, लेकिन वहां जाने की शर्त आप जानती हैं? क्या आप को वह मंजूर है?’’ सुशांत ने अपनी नजरें ऐश्वर्या के चेहरे पर टिका दीं.

‘‘सर, मैं अभी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हूं, लेकिन शाम को आप मेरे फ्लैट पर आ जाएं. मैं वहीं सोच कर बताऊंगी.’’

‘‘ओके, बेबी, मैं 8 बजे तक पहुंच जाऊंगा,’’ सुशांत ने अपनी खुशी छिपाते हुए कहा.

ऐश्वर्या से वह दिन काटे नहीं कटा. रहरह कर उस का दिल बुरी तरह धड़कने लगता था. शाम को अपने फ्लैट पर आ गई. नहाने के बाद उस ने एक खूबसूरत साड़ी पहनी और सुशांत का इंतजार करने लगी.

ठीक 8 बजे घंटी बजी तो उस ने दरवाजा खोला. सामने सुशांत खड़ा था. उस ने भीतर आ कर दरवाजा बंद किया और ऐश्वर्या को प्रशंसात्मक नजरों से देखते हुए बोला, ‘‘साड़ी में तुम्हारी सुंदरता बहुत निखर आई है. बहुत ही दिलकश लग रही हो.’’

ऐश्वर्या ने कोई उत्तर नहीं दिया. सुशांत ने उस के करीब आते हुए कहा, आज की रात यादगार बना दो. मैं तुम्हें निश्चित तौर पर अमेरिका भिजवा दूंगा.

ऐश्वर्या अपने में सिमट कर रह गई. उस के मौन को स्वीकृत मान सुशांत की हिम्मत बढ़ गई. उस ने ऐश्वर्या को अपनी बांहों में भर कर उस पर चुंबनों की बौछार कर दी.

‘‘सर, यह क्या कर रहे हैं आप?’’ ऐश्वर्या कसमसाई.

‘‘तुम्हारे कैरियर को बनाने की तैयारी,’’ सुशांत ने उसे अपने सीने से भींचते हुए अपने अधर उस के अधरों की ओर बढ़ाए.

‘‘कैरियर बनाने की तैयार या जिंदगी बरबाद करने की तैयारी कर रहे हैं आप?’’ ऐश्वर्र्या का स्वर अचानक सख्त हो उठा.

‘‘ऐश्वर्या, इतना करीब आ कर अब लौटना मुश्किल है. मैं प्रोबेशन पीरियड पूरा होते ही तुम्हारी प्रमोशन भी कर दूंगा. बस जो हो रहा है उसे हो जाने दो,’’ सुशांत का स्वर कामवासना से कांप रहा था.

‘‘जरूर हो जाने देती अगर…’’

‘‘अगर क्या?’’

‘‘अगर, इस लैपटौप का वैब कैमरा औन न होता,’’ ऐश्वर्या ने मेज पर रखे लैपटौप की ओर इशारा किया.

लैपटौप को देख सुशांत यों उछला जैसे सांप देख लिया हो. उस ने घबराए स्वर में पूछा, ‘‘क्या इस का कैमरा औन है?’’

‘‘सिर्फ औन ही नहीं है, बल्कि इस कैमरे में हो रही हरकतों की कहीं दूर रिकौर्डिंग भी हो रही है,’’ ऐश्वर्या ने सुशांत को परे धकेलते हुए कहा.

‘‘रिकौर्डिंग हो रही है? सुशांत बुरी तरह घबरा उठा.’’

‘‘हां सुशांत, तुम लोगों को औरत के अंदर जिस्म के अलावा और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता. उस की प्रतिभा, उस की योग्यता का तुम्हारी नजरों में कोई मूल्य नहीं है. जितनी पढ़ाई और मेहनत तुम ने की है उतनी हम ने भी की है, लेकिन तुम पुरुष हो इसलिए आगे बढ़ना तुम्हारा अधिकार है, लेकिन हमें आगे बढ़ने के लिए अपनी अस्मत की कीमत चुकानी पड़ेगी,’’ ऐश्वर्या ने घबराए सुशांत के चेहरे पर एक घृणा भरी नजर डाली, ‘‘लेकिन अब जमाना बदल गया है. तुम इस तरह हमारा शोषण नहीं कर सकते. तुम्हें अपनी जलील हरकतों की कीमत चुकानी पडे़गी.’’

यह सुन सुशांत के चेहरे का रंग उड़ गया. उस ने जल्दी से लैपटौप बंद कर दिया.

‘‘इस से कोई फायदा नहीं होने वाला, क्योंकि एक और छिपा कैमरा तुम्हारी रिकौर्डिंग कर रहा है,’’ ऐश्वर्या ने दांत भींचते हुए कहा.

‘‘क्या एक कैमरा और है?’’ सुशांत बुरी तरह घबरा उठा.

‘‘तुम्हारे जैसे धूर्तों से सुरक्षित रहने के लिए क्या यह जरूरी नहीं था?’’ ऐश्वर्या व्यंग्य से मुसकराई, ‘‘तुम्हारा खेल अब पूरा हो चुका है. यह रिकौर्डिंग आज ही कंपनी के चेयरमैन के पास पहुंच जाएगी.’’

‘‘ऐसा मत करना. मेरे छोटेछोटे बच्चे हैं. उन की जिंदगी बरबाद हो जाएगी. वे सड़क पर आ जाएंगे,’’ सुशांत हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाया.

‘‘हम लोग भी तो तुम्हारे बच्चों जैसे ही हैं. तुम्हें हम पर कभी दया नहीं आई,’’ ऐश्वर्या ने मुट्ठियां भींचीं.

‘‘प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी बीवी बहुत सैंसिटिव है, उसे यह सब पता चलेगा तो वह सुसाइड कर लेगी,’’ सुशांत ने अपना सिर ऐश्वर्या के कदमों पर रख दिया.

जिस सर्वशक्तिमान सुशांत नाम से कंपनी के लोग थर्राते थे वह उस के चरणों पर पड़ा था. उस ने सुशांत पर घृणा भरी नजर डाली और फिर बोली, ‘‘मुझे इमोशनली

ब्लैकमेल करने की कोशिश दोबारा न कीजिएगा. जो किया है उस की सजा आप को भुगतनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अगर मैं नौकरी से निकाल दिया गया, तो उस की सजा मेरे छोटेछोटे बच्चों को मिलेगी. प्लीज उन के वास्ते मुझे माफ कर दो. मैं वादा करता हूं कि आज के बाद कोई गलत हरकत नहीं करूंगा. अगर तुम कहोगी तो मैं यह कंपनी छोड़ कर भी चला जाऊंगा.’’

ऐश्वर्या कोई तीखा उत्तर देने ही जा रही थी कि तभी उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. स्क्रीन पर स्नेहा का नंबर चमक रहा था. उसने मोबाइल औन किया तो उधर से स्नेहा की आवाज आई, ‘‘ऐश्वर्या, यह सही कह रहा है. इस के कुकर्मों की सजा इस के बीवीबच्चों को मिल जाएगी, जबकि उन का इस में कोई दोष नहीं है. मैं ने वैब कैमरे की रिकौर्डिंग सुरक्षित कर ली है. इसे चेतावनी दे कर सुधरने का एक मौका दे दो.’’

‘‘ओके’’ कह ऐश्वर्या ने मोबाइल औफ कर दिया.

चंद पलों तक आंखें बंद कर ऐश्वर्या ने कुछ सोचा, फिर सुशांत पर घृणा भरी नजर डालते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे कुकर्मों की सजा तुम्हारे बच्चों को न मिले, इसलिए फिलहाल हम इस रिकौर्डिंग को सुरक्षित रख रही हैं, लेकिन अगर आइंदा तुम्हारे बारे में कभी कोई गलत खबर मिली, तो यह रिकौर्डिंग फौरन सही हाथों में पहुंच जाएगी.

‘‘बहुतबहुत धन्यवाद. मैं कल ही इस कंपनी से इस्तीफा दे दूंगा,’’ सुशांत ने आभार व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘उस की जरूरत नहीं है, क्योंकि दूसरी कंपनी में जा कर तुम क्या कर रहे हो, हमें पता नहीं चल पाएगा. इसलिए तुम इसी कंपनी में रहोगे ताकि तुम्हारे जैसे आदमखोरों पर नजर रखी जा सके.’’ लेकिन अब मैं तुम्हारे साथ काम नहीं कर सकती. इसलिए बेहतर होगा कि तुम खुद अपनी टीम बदल लो. कारण जो उचित समझना मैनेजमैंट को समझा देना.

सुशांत के पास ऐश्वर्या की बातों का कोई जवाब नहीं था. बदले हुए जमाने में नारी की शक्ति का उसे भरपूर एहसास हो चुका था. वह अपने पस्त शरीर को अपने कदमों पर घसीटते हुए वहां से चल दिया.

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