कुछ लोगों को नींद में खर्राटे लेने की आदत होती है, तो वहीं कुछ लोगों को नींद में बड़बड़ाने की आदत होती है. ऐसे लोग नींद में खर्राटे लेकर या फिर बड़बड़ाकर चैन की नींद सोते हैं लेकिन इनके आसपास के लोगों की नींद हराम हो जाती है.
हालांकि नींद में बड़बड़ाने की आदत के कई कारण हो सकते हैं लेकिन इससे छुटकारा पाने के लिए लोगों को डॉक्टर के पास जाना पड़ता है, क्योंकि उनके सामने इसके सिवा और कोई दूसरा रास्ता नहीं नजर आता है.
यहां हम आपको बता दें कि आप कुछ घरेलू नुस्खों का इस्तेमाल करके भी, इस समस्या से निजात पा सकती हैं. तो चलिए हम आपको बताते हैं वो 5 आसान घरेलू नुस्खे जिनकी मदद से आप नींद में बड़बड़ाने की आदत से छुटकारा पा सकती हैं.
1. आराम करें और भरपूर नींद लें
कई बार थकान की वजह से लोग नींद में बड़बड़ाने लगते हैं. इसलिए इससे बचने के लिए आराम करना बेहद जरूरी है. इसके साथ ही आपको भरपूर नींद लेनी चाहिए और अगर आपको ऐसी कोई बीमारी है तो दिन में समय मिलते ही कम से कम आधे घंटे की नींद लेने की आदत डालनी चाहिए.
2. शराब की आदत को कहें अलविदा
शराब पीने की आदत से भी नींद में बड़बड़ाने की समस्या हो सकती है इसलिए अगर आप शराब पीने की आदी हैं तो फिर आपको इस आदत से छुटकारा पाना होगा. अगर आप अपनी इस आदत को एकदम से नहीं छोड़ पा रही हैं तो धीरे-धीरे इसका सेवन कम कर दें.
3. तनाव मुक्त रहने की कोशिश करें
कई बार तनाव की वजह से भी लोग नींद में बड़बड़ाने लगते हैं. इसलिए अगर आप अपनी इस समस्या से छुटकारा पाना चाहती हैं तो आपको तनाव मुक्त रहने की कोशिश करनी चाहिए. अपने ऑफिस की टेंशन को ऑफिस में ही छोड़ आएं और घर पर मेडिटेशन या योगा का सहारा लें इसके अलावा ऐसा काम करें जिससे आपको खुशी महसूस होती है.
4. रात में चाय-कॉफी ना पिएं
नींद में बोलने की समस्या से छुटकारा पाने के लिए आपको रात में कैफीन वाली चीजें जैसे चाय या कॉफी का सेवन करने से बचना चाहिए. रात के वक्त चाय या कॉफी पीने से नींद में बाधा आती है और थकान महसूस होती है.
5. डॉक्टर की सलाह जरूर लें
तमाम कोशिशों और उपायों को आजमान के बाद भी अगर आपको इस समस्या से छुटकारा नहीं मिल रहा है तो फिर आपको डॉक्टर से परामर्श जरूर लेना चाहिए. डॉक्टरी सलाह से भी आप अपनी इस समस्या को काफी हद तक दूर कर सकती हैं.
ये घरेलू नुस्खे एकदम तेजी से दवा की तरह असर नहीं दिखाते बल्कि इनका असर धीरे-धीरे दिखाई देता है. इसलिए अगर आपको जल्दी ही इस समस्या से छुटकारा पाना है तो फिर इन घरेलू उपायों के साथ डॉक्टर की राय लेना ना भूलें.
मैं 20 वर्षीया और अनाथ हूं. 3 सालों से अपने 42 वर्षीय प्रेमी के घर में रह रही हूं. चूंकि मेरे कई लोगों से प्रेम संबंध हैं, इसलिए वह मुझ से विवाह नहीं करना चाहता. मैं स्वयं को काफी असुरक्षित महसूस कर रही हूं. कृपया मार्गदर्शन करें?
जवाब
यदि आप का प्रेमी गंभीर है और आप से शादी न करने के पीछे आप का अन्य लोगों से संबंध ही वजह है तो आप को उन लोगों से किनारा कर लेना चाहिए. यदि वह बिना विवाह किए आप को यों ही इस्तेमाल करना चाहता है तो अच्छा होगा कि आप अपने लिए कोई ऐसा व्यक्ति तलाश लें जो आप से शादी करने को राजी हो. उस स्थिति में भी आप को भटकाव का यह रास्ता जो किसी भी नजरिए से आप के हित में नहीं है, छोड़ना होगा.
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बुढ़ापे का इश्क : चंपा ने पूरी की मदन की हर इच्छा
संजय वर्मा का परिवार दिल्ली के हुमायूंपुर में रहता था, लेकिन उस के पिता मदनमोहन वर्मा रिटायरमेंट के बाद उत्तरपूर्वी दिल्ली के भजनपुरा में अकेले ही रहते थे. पिता और पुत्र अपनीअपनी दुनिया में मस्त थे.
22 जुलाई, 2017 की सुबह भजनपुरा में मदनमोहन के पड़ोस में रहने वाले विजय ने संजय वर्मा को फोन कर के बताया, ‘‘आप के पिता के कमरे का कल सुबह से ताला बंद है. उन के कमरे से तेज बदबू आ रही है.’’
विजय की बात सुन कर संजय वर्मा को पिता की चिंता हुई. उन्होंने उसी समय पिता का नंबर मिलाया, तो उन का फोन स्विच्ड औफ मिला. फोन बंद मिलने पर उन की चिंता और बढ़ गई. इस के बाद वह भजनपुरा के सी ब्लौक स्थित अपने पिता के तीसरी मंजिल स्थित कमरे पर पहुंच गए.
संजय को भी पिता के कमरे से तेज दुर्गंध आती महसूस हुई. उस के मन में तरहतरह की आशंकाएं आने लगीं. कहीं उन के साथ कोई अनहोनी तो नहीं घट गई, यह सोच कर उस ने अपने मोबाइल फोन से दिल्ली पुलिस के कंट्रोलरूम को फोन कर के पिता के बंद कमरे से आ रही बदबू की सूचना दे दी. यह क्षेत्र थाना भजनपुरा के अंतर्गत आता था, इसलिए पुलिस कंट्रोलरूम से यह सूचना थाना भजनपुरा को प्रेषित कर दी गई.
सूचना पा कर एएसआई हरकेश कुमार हैडकांस्टेबल सतेंदर कुमार को अपने साथ ले कर घटनास्थल के लिए रवाना हो गए. जैसे ही वह भजनपुरा के सी ब्लौक स्थित मकान नंबर 412 की तीसरी मंजिल पर पहुंचे, वहां बालकनी पर कुछ लोगों की भीड़ लगी दिखाई दी. उन्हीं के बीच संजय परेशान हालत में मिला.
एएसआई हरकेश कुमार को अपना परिचय देते हुए संजय ने बताया, ‘‘सर, मैं ने ही पीसीआर को फोन किया था.’’
जिस कमरे से बदबू आ रही थी, उस के बाहर ताला लगा था. इस से उन्होंने सहज ही अनुमान लगा लिया कि जरूर कोई अप्रिय घटना घटी है. इसलिए उन्होंने इस की जानकारी थानाप्रभारी अरुण कुमार को दे दी.
कुछ ही देर में थानाप्रभारी अन्य स्टाफ के साथ वहां आ पहुंचे. कमरे के बाहर लटके ताले की चाबी संजय के पास नहीं थी, इसलिए पुलिस ने ताला तोड़ दिया. दरवाजा खुलते ही दुर्गंध का झोंका आया. पुलिस कमरे में दाखिल हुई तो पूरब दिशा की ओर की दीवार से सटे दीवान के अंदर एक अधेड़ आदमी की सड़ीगली लाश एक कार्टून में बंद मिली.
लाश देख कर संजय रोने लगा, क्योंकि वह लाश उस के पिता मदनमोहन वर्मा की थी. अरुण कुमार ने मौके पर क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम को भी बुला लिया. क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम का काम निपट गया तो पुलिस लाश का निरीक्षण करने लगी. मृतक के सिर के पीछे चोट का गहरा निशान था.
दीवान के बौक्स में और उस के नीचे कमरे के फर्श पर खून फैला था, जो सूख चुका था. इस से अनुमान लगाया कि यह हत्या 2-3 दिन पहले की गई थी. कमरे में मौजूद सारा सामान अपनी जगह मौजूद था. इस से इस बात की पुष्टि हो गई कि हत्यारे का मकसद लूटपाट नहीं था.
हत्या क्यों की गई, यह जांच के बाद ही पता चल सकता था. पुलिस ने मौके की जरूरी काररवाई निपटाने के बाद लाश को पोस्टमार्टम के लिए जीटीबी अस्पताल भेज दिया. इस के बाद थाने आ कर अज्ञात हत्यारों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया. इस मामले की जांच अतिरिक्त थानाप्रभारी राजीव रंजन को सौंपी.
इंसपेक्टर राजीव रंजन ने इस हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने के लिए संभावित सुराग की तलाश में दोबारा घटनास्थल का निरीक्षण किया. उन्होंने मृतक के बेटे संजय वर्मा और वहां रहने वाले पड़ोसियों से काफी देर तक पूछताछ की. पड़ोसी विजय ने बताया कि उन्होंने आखिरी बार मदनमोहन वर्मा को 20 जुलाई की रात साढ़े 10 बजे कमरे के बाहर देखा था.
संजय ने उन्हें बताया था कि उस के पिता शुरू से ही अलग मिजाज के व्यक्ति थे. घर के लोगों में वह ज्यादा रुचि नहीं लेते थे. रिटायरमेंट के बाद बेटे और बहुओं के होते हुए भी वह यहां भजनपुरा में अलग रहते थे. उन की देखभाल करने नौकरानी चंपा आती थी. वह घर की साफसफाई, खाना बनाने के साथ उन के कपड़े भी धोती थी.
नौकरानी चंपा का जिक्र आते ही इंसपेक्टर राजीव रंजन उस में रुचि लेने लगे. उन्होंने विजय को थाने में बुला कर पुन: पूछताछ की. उन्होंने नौकरानी के स्वभाव और उस के मदनमोहन के यहां आने और घर जाने के समय के बारे में पूछा. विजय ने बताया कि चंपा मदनमोहन वर्मा के काफी करीब थी. जिस दिन से उन के दरवाजे के बाहर ताला लगा था, पिछली रात को नौकरानी चंपा के जवान बेटे प्रेमनाथ को एक अन्य लड़के के साथ मकान के नीचे टहलते देखा था.
इंसपेक्टर राजीव रंजन विजय से चंपा का पता हासिल कर वह करावलनगर स्थित उस के घर पहुंच गए. चंपा और उस का पति कल्लन घर पर ही मिल गए.
इंसपेक्टर राजीव रंजन ने चंपा से पूछताछ की तो उस ने बताया, ‘‘कल सुबह मदनमोहन वर्मा के यहां काम करने गई थी, लेकिन कमरे का दरवाजा बंद होने के कारण लौट आई थी.’’
उस वक्त चंपा का बेटा प्रेमनाथ घर पर मौजूद नहीं था. राजीव रंजन चंपा से उस के बेटे का मोबाइल नंबर ले कर थाने आ गए.
अगले दिन जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई तो पता चला कि मदनमोहन का पहले गला घोंटा गया था, उस के बाद में सिर पर घातक चोट पहुंचाई गई थी. इस से इंसपेक्टर राजीव रंजन सोचने लगे कि ऐसी क्रूर हरकत तो कोई दुश्मन ही कर सकता है. यह दुश्मन कौन हो सकता है?
जांच में पुलिस को पता चला था कि सरकारी नौकरी के रिटायर होने के बाद का सारा पैसा मदनमोहन के बैंक एकाउंट में जमा था. वह किसी से पैसा न तो उधार लेते थे और न ही किसी को देते थे. और तो और, बेटों को भी उन्होंने उस में से कोई रकम नहीं दी थी.
राजीव रंजन ने चंपा के बेटे प्रेमनाथ का नंबर मिलाया तो वह स्विच्ड औफ मिला. इस से उन्हें उस पर शक हुआ. उस का नंबर सर्विलांस पर लगाने और काल डिटेल्स रिपोर्ट निकलवाने पर पता चला कि घटना वाली रात उस के फोन की लोकेशन उसी इलाके की थी, जहां मदनमोहन वर्मा रहते थे.
फिलहाल उस की लोकेशन उत्तर प्रदेश के मथुरा शहर की थी. प्रेमनाथ के बारे में गुप्तरूप से पता किया गया तो जानकारी मिली कि वह नशेड़ी होने के साथसाथ एक बार जेल भी जा चुका था. भजनपुरा थाने की एक पुलिस टीम प्रेमनाथ की तलाश में मथुरा भेजी गई. पुलिस टीम मथुरा पहुंची तो खबर मिली कि प्रेमनाथ दिल्ली चला गया है. पुलिस ने 24 जुलाई को मुखबिर की सूचना पर प्रेमनाथ को करावलनगर, दिल्ली के कजरी चौक से हिरासत में ले लिया.
थाने में जब उस से सख्ती से पूछताछ की गई तो उस ने स्वीकार कर लिया कि उसी ने अपने एक दोस्त के साथ मिल कर मदनमोहन वर्मा की हत्या की थी. उस ने हत्या की जो वजह बताई, वह इस प्रकार थी—
मदनमोहन वर्मा सपरिवार दिल्ली के सफदरजंग एनक्लेव के पास हुमायूंपुर में रहते थे. उन का भरापूरा परिवार था. उन के परिवार में पत्नी यशोधरा के अलावा 3 बेटे और एक बेटी थी. बड़ा बेटा संजय वर्मा है, जो दिल्ली की एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करता है.
मदनमोहन वर्मा मिंटो रोड स्थित गवर्नमेंट प्रैस में नौकरी करते थे. अच्छे पद पर होने की वजह से उन के घर की आर्थिक स्थिति ठीकठाक थी. घर में सब कुछ होने के बावजूद वह परिवार के सदस्यों में कम रुचि लेते थे. पत्नी यशोधरा से भी उन का रिश्ता बहुत अच्छा नहीं था. दांपत्य जीवन में पति की बेरुखी यशोधरा को हमेशा परेशान करती रही.
वह चाहती थीं कि पति घरपरिवार की जरूरतों को समझें. बेटों के सुखदुख के मौके पर उन का साथ दें. पर उन की यह ख्वाहिश कभी पूरी नहीं हो सकी. आखिरकार पति की बेजा हरकतों और दांपत्य जीवन की कड़वाहट से तंग आ कर 4 साल पहले उन्होंने अपने कमरे में पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली.
उन की मौत के बाद मदनमोहन वर्मा ने घरेलू कामकाज के लिए नौकरानी चंपा को 9 हजार रुपए वेतन पर रख लिया. गोरे रंग और भरे बदन की चंपा की उम्र करीब 35 साल थी. वह सुबह 9 बजे उन के घर आती और सारा काम निपटा कर शाम को अपने घर चली जाती.
चंपा के काम से घर के सारे सदस्य संतुष्ट थे. कभीकभार चंपा को रुपएपैसों की जरूरत होती तो मनमोहन उस की मदद कर देते थे. बाद में वह चंपा पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गए. वह उस से कुछ ज्यादा ही हमदर्दी जताने लगे. चंपा भी अपने मालिक के दयालु स्वभाव से खुश थी.
जिस दिन मदनमोहन औफिस से जल्दी घर आ जाते या उन की छुट्टी होती तो चंपा बहुत खुश रहती. वह पूरे दिन उन के आसपास ही मंडराती रहती. घर के सदस्यों को चंपा की ये हरकतें नागवार गुजरने लगीं. संजय ने चंपा से साफ कह दिया कि वह पापा के कमरे में ज्यादा न जाया करे.
चंपा को नौकरी करनी थी, इसलिए उस ने संजय की बात मानते हुए उन के कमरे में आनाजाना कम कर दिया. मदनमोहन को इस बात का पता नहीं था कि चंपा को उन के कमरे में आने के लिए रोक दिया गया है.
जब मदनमोहन को महसूस हुआ कि चंपा उन से दूर रहने लगी है तो एक दिन उन्होंने उस से पूछ लिया. तब चंपा ने बताया, ‘‘आप के बेटे और बहुओं की नाराजगी की वजह से मैं ने यह दूरी बनाई है.’’
चंपा की बात सुन कर मदनमोहन वर्मा को अपने परिवार वालों पर गुस्सा बहुत आया. वह अपने घर वालों के प्रति और कठोर हो गए. करीब 1 साल पहले जब वह रिटायर हुए तो उन्होंने घर में यह कह कर सब को चौंका दिया कि अब वह उन लोगों से अलग भजनपुरा में अकेले ही रहेंगे.
उन्होंने भजनपुरा में किराए पर कमरा ले भी लिया. रिटायरमेंट के बाद उन्हें करीब 20 लाख रुपए मिले थे. इस में से उन्होंने अपने बेटों को कुछ भी नहीं दिया, जबकि तीनों बेटों और बहुओं को उम्मीद थी कि ससुर के रिटायरमेंट के बाद जो पैसे मिलेंगे, उस में से कुछ उन्हें भी मिलेंगे.
मदनमोहन का तुगलकी फैसला सुन कर बेटों ने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर उन के दिमाग में तो कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी. दरअसल, उन के दिमाग में चंपा का यौवन मचल रहा था. अब वह अपनी बाकी की जिंदगी चंपा के साथ गुजारना चाहते थे. चंपा की खातिर उन्होंने खून के सभी रिश्तेनातों को दूर कर दिया.
इस उम्र में मदनमोहन के इस फैसले से उन के बेटों की कितनी बदनामी होगी, इस बात की भी उन्हें परवाह नहीं थी. उन्होंने किसी की एक नहीं सुनी और बेटों का साथ छोड़ कर भजनपुरा के सी-ब्लौक में कमरा ले कर अकेले रहने लगे.
चंपा भजनपुरा के पास स्थित करावलनगर में रहती थी. उस के परिवार में पति कल्लन के अलावा बेटे भी थे. मूलरूप से मथुरा का रहने वाला कल्लन कामचोर प्रवृत्ति का था. हरामखोर कल्लन बीवी की कमाई पर ऐश कर रहा था. जब कभी उसे पैसों की जरूरत होती, वह चंपा को ही मालिक से कर्ज मांगने के लिए उकसाता था.
अब चंपा रोज सुबह मदनमोहन के भजनपुरा स्थित कमरे पर आती और सारा दिन वहां का काम निपटा कर शाम को घर जाती थी. कुछ दिनों तक तो ऐसे ही चला, पर जब वह रात में भी वह मदनमोहन के कमरे में रुकने लगी तो आसपड़ोस के लोगों के बीच उन के रिश्तों को ले कर तरहतरह की चर्चाएं होने लगीं.
कुछ लोगों ने उस के पति कल्लन को भी उस की हरकतों की जानकारी दी, पर कल्लन को तो पहले से ही सब कुछ पता था. इसलिए उस ने लोगों की बातों को अनसुना कर दिया. इस तरह चंपा और मदनमोहन मौजमस्ती करते रहे.
धीरेधीरे चंपा के पड़ोसियों को भी पता चल गया कि चंपा ने किसी बुड्ढे को फांस लिया है. इस के बाद चंपा और मदनमोहन की चर्चा चंपा के मोहल्ले में होने लगी. चंपा का बेटा प्रेमनाथ 21 साल का हो चुका था. वह अब कोई बच्चा नहीं था, जो मोहल्ले के लोगों की बातों को न समझता.
कोईकोई तो उसे यह तक कह देता कि तेरे 2-2 बाप हैं. प्रेमनाथ कुछ करताधरता नहीं था. साथियों के साथ गांजा और कई अन्य नशे करता था. वह अपनी मां के मदनमोहन वर्मा की रखैल होने के ताने सुनसुन कर परेशान रहने लगा था. धीरेधीरे बात बरदाश्त से बाहर होती जा रही थी.
एक दिन तो एक दोस्त ने उस पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘अरे तुझे कामधंधे की क्या चिंता है, तेरे तो 2-2 बाप हैं. तुझे भला किस बात की कमी है?’’
दोस्त की यह बात प्रेमनाथ के कलेजे में नश्तर की तरह चुभी. जवानी का खून उबाल मारने लगा. उस ने अपने एक नाबालिग दोस्त सुमित (बदला हुआ नाम) को अपना सारा दर्द बताते हुए कहा, ‘‘सारे फसाद की जड़ बुड्ढा मदनमोहन वर्मा है. उसी के कारण लोग मुझे ताना देते हैं. अगर तुम मेरा साथ दो तो मैं आज ही उसे ठिकाने लगा दूं.
इस उम्र की दोस्ती बड़ी खतरनाक होती है. दोस्त का दुख अपना दुख होता है. प्रेमनाथ की बात सुन कर सुमित उस का साथ देने को तैयार हो गया. 20 जुलाई, 2017 की रात दोनों दोस्त पूर्व नियोजित योजना के अनुसार, मदनमोहन के घर के आसपास तब तक चक्कर लगाते रहे जब तक कि वहां लोगों की लाइटें बंद नहीं हो गईं.
सड़क से मदनमोहन का कमरा साफ दिखाई देता था. जब मदनमोहन के पड़ोसी कमरा बंद कर के सोने चले गए तो दोनों नशा कर के सीढि़यों से तीसरी मंजिल स्थित मदनमोहन के कमरे के सामने पहुंच गए. उस रात अत्याधिक गरमी होने के कारण मदनमोहन ने कमरे का दरवाजा खोल दिया था. वह सोने की तैयारी में थे.
वह प्रेमनाथ को जानते थे, क्योंकि 2-3 बार वह मां के साथ उन के कमरे पर आ चुका था. इतनी रात को प्रेमनाथ को अपने कमरे के बाहर देख कर मदनमोहन कांप उठे. हिम्मत जुटा कर उन्होंने उसे बाहर जाने के लिए को कहा. लेकिन प्रेमनाथ और सुमित ने 61 साल के मदनमोहन वर्मा को संभलने का मौका दिए बगैर साथ लाया अंगौछा उस की गरदन में लपेट कर दोनों ने पूरी ताकत से कस दिया.
मदनमोहन ने बचने के लिए हाथपांव मारे, लेकिन उन की कोशिश नाकाम रही. कुछ ही देर में उन की मौत हो गई. वह जीवित न बच जाएं, इसलिए प्रेमनाथ ने वहां पड़ा डंडा उठा कर उन के सिर पर मारा, जिस से सिर से खून बहने लगा.
इतना करने के बाद उन्होंने लाश को कमरे में रखे एक कार्टून में बंद कर के उसे दीवान के बौक्स में रख दिया और बाहर आ गए. प्रेमनाथ ने दरवाजे में ताला लगाया और नीचे उतर कर दोनों फरार हो गए.
अतिरिक्त थानाप्रभारी राजीव रंजन ने पूछताछ के बाद प्रेमनाथ को 25 जुलाई को अदालत में पेश कर एक दिन के रिमांड पर लिया. रिमांड अवधि में उस से वह अंगौछा भी बरामद कर लिया गया, जिस से मदनमोहन वर्मा का गला घोंटा गया था. रिमांड अवधि समाप्त होने के बाद उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. अगले दिन पुलिस ने उस के साथी सुमित को भी गिरफ्तार कर उसे बाल न्यायालय में पेश कर उसे बाल सुधार गृह भेज दिया.
– कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित
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इडियट बॉक्स पर चलने वाले डेली सोप में आपको रोमांस, ड्रामा, सास बहु की नोंक-झोंक के साथ कई बार सुपर एक्शन्स भी देखने मिलते हैं. और ऐसा भी कई बार हुआ है कि ये सारी ऑनस्क्रीन चीजें इन्हें निभाने वाले कलाकारों की रियल लाइफ में भी उतर जाती हैं.
टीवी इंडस्ट्री के ये झगड़े भी तरह-तरह के होते हैं, कभी खुलकर सुर्खियां बन जाते हैं तो कभी इनके बीच चलता है कोल्ड वॉर जो किसी को आसानी से नजर नहीं आता. कैट फाइट भी होती हैं और ऑनस्क्रीन भाई-भाई का किरदार निभा रहे एक्टर्स के बीच भी बढ़ जाती है दुश्मनी. टीवी इंडस्ट्री के कुछ कहे-अनकहे झगड़ों की कहानी.
हिना खान और करण मेहरा
टीवी इंडस्ट्री के सबसे पॉपुलर शो ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ के लीड रहे अक्षरा (हिना खान) और नैतिक (करण मेहरा) के बीच ऑनस्क्रीन तो गजब की केमिस्ट्री थी मगर, रियल लाइफ में दोनों एक दुसरे से बात तक नहीं करते थे. सेट्स पर एक दुसरे को हाय-हेलो तो दूर की बात है.
दीपिका सिंह और अनस रशीद
इनके बीच की लड़ाई ने खूब सुर्खियां बटोरी थी. एक दुसरे के दिया बाती बने सूरज(अनस) और संध्या(दीपिका) रियल लाइफ में बिल्कुल ओपोजिट थे. इनके बीच मनमुटाव की खबरें तो आम थी मगर, सुर्खियां तब गर्म हुई जब दीपिका ने एक दिन अनस को जोरदार तमाचा मार दिया. दीपिका का कहना था की सूरज उन्हें शॉट के दौरान गलत तरीके से छू रहे थे.
कपिल शर्मा और सुनील ग्रोवर
शो ‘कॉमेडी नाइट्स विद कपिल’ के कॉमेडियन कपिल शर्मा और सुनील ग्रोवर के बीच की कहानी किसी से छुपी नहीं है. कपिल सुनील और अपनी टीम के साथ फ्लाइट में थे और दोनों के बीच किसी बात को लेकर बहस शुरू हो गई और यह बहस इतनी बढ़ गई कि सुनील ने कपिल के शो को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दिया.
कुशाल टंडन और करण टैकर
कुशाल टंडन और करण टैकर की जोड़ी ने शो ‘एक हजारों में मेरी बहना है’ से सबका दिल जीत लिया था. लेकिन इन ‘भाईयों’ के बीच भी आई थी गजब की दरार. स्क्रीन शेयर करने के अलावा ये दोनों एक दुसरे से कभी बात नहीं करते थे. मीडिया इंटरव्यूज के दौरान भी दोनों साथ नहीं आते थे और तो और सेट्स पर जो भी करण से बात करता था कुशाल उनसे बात करना बंद कर देते थे.
कृतिका देसाई और अनन्या खारे
ऐसा नहीं है कि इस लिस्ट में सारे यंगस्टर्स हैं, कई सीनियर कलाकार भी इसमें शामिल हैं. जैसे, शो ‘मेरे अंगने में’ में मां-बेटी का किरदार निभाने वाली अनन्या खरे और कृतिका देसाई. आपको बता दें कि इनके बीच भी कैट फाइट हुई है और वो भी फ्री एडवाइस के चलते. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार कृतिका ने एक दिन अनन्या को डायलोग डिलीवरी पर एक सलाह दे दी, फिर क्या अनन्या को आ गया गुस्सा और इसके बाद दोनों ने कभी एक दुसरे से बात नहीं की. स्क्रीन शेयर करने के बाद दोनों बिल्कुल अलग-अलग जाकर बैठ जाती थी. और तो और साथ में रिहर्सल भी नहीं करती थीं.
कपड़े आपके व्यक्तित्व को उभारने में अहम भूमिका निभाते हैं, इसलिए इन्हें लंबे समय तक सहेज कर रखने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है. सफेद कपड़ों को अलग से धोएं.
कपड़ों का बंटवारा
कपड़ों की अलमारी के हर भाग में रूटीन के हिसाब से इस्तेमाल में लाए जाने वाले कपड़े रखें, जैसे रोजाना पहने जाने वाले कपड़े अलग हिस्से में रखें, स्पोर्ट्सवेयर, शाम को पहने जाने वाले या पर्टी में पहने जाने वाले और रात को पहने जाने वाले कपड़े अलग हिस्से में रखें.
कपड़ों को लंबे समय तक बनाए बेहतर
कपड़ों को लंबे समय तक बेहतर स्थिति में बनाए रखने के लिए उन्हें फैब्रिक के हिसाब से धोएं. ऊनी और सिल्क के कपड़ों को सिर्फ ड्राई क्लीन कराएं और इन्हें उचित तापमान पर प्रेस करें.
कपड़ो को कैसे धोएं
सूती और लिनेन के कपड़ों को हाथ से धोकर छाया में सुखाना चाहिए. बुने हुए कपड़ों को सपाट सुखाना चाहिए. इन कपड़ों को टांगने से नेकलाइन के पास इनकी शेप बिगड़ सकती है.
सफेद कपड़े
सफेद कपड़ों को हमेशा अन्य रंग के कपड़ों से अलग धोएं, क्योंकि इन पर दूसरे रंग के कपड़े का रंग चढ़ जाने की संभावना रहती हैं.
कपड़ों का फैब्रिक
अच्छे फैब्रिक वाले कपड़े खरीदें, जिससे ये ज्यादा दिन तक टिके रहें. फैशन की चमक-दमक में कुछ भी न खरीद लें, क्योंकि ये ज्यादा दिन नहीं टिकते.
कपड़े हो सूती कवर में
चाहे साड़ी हो, लहंगा, दुपट्टा या ब्लाउज, इन कपड़ों को सफेद सूती कवर में सहेज कर रखें.
मशहूर फिल्मकार सुनील दर्शन के बेटे शिव दर्शन अपने करियर की दूसरी फिल्म ‘एक हसीना थी एक दीवाना था’ को लेकर काफी उत्साहित हैं, जो कि 30 जून को सिनेमाघरों में पहुंच रही है. वैसे उनकी पहली फिल्म ‘कर ले प्यार कर ले’ तीन वर्ष पहले आयी थी और बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नहीं मांगी थी.
शिव दर्शन ने अपनी पिछली फिल्म के समय की कमियों का विश्लेषण कर इस बार अपने पिता सुनील दर्शन के निर्देशन में ‘एक हसीना थी, एक दीवाना था’ में अभिनय किया है. वह खुद कहते हैं, ‘‘फिल्म की सफलता व असफलता दोनों के विश्लेषण काफी किए जाते हैं. हम जितना विश्लेषण करते हैं, उतनी ही ज्यादा कमियां नजर आती हैं. मुझे जो बात समझ में आयी, उस पर वर्कआउट किया और आगे बढ़ गया. पर इस बीच मेरे पास फिल्मों के जो ऑफर आ रहे थें, उनमें मुझे मेरा किरदार पसंद नहीं आ रहा था. तो कभी मुझे फिल्म से जुड़ी टीम समझ में नहीं आयी. इसलिए मैंने वे फिल्में नहीं की. एक फिल्म की असफलता के बाद मैं अपने करियर को बहुत सोच समझकर आगे ले जाना चाहता था.’’
शिव दर्शन बहुत ज्यादा सोच विचार करने में यकीन नहीं रखते हैं. वह कहते हैं, ‘‘मैं बहुत ज्यादा सोचता नही हूं. पटकथा पढ़ते समय मुझे लगा कि किरदार सही है, तो मैनें सोचा कि इसे करना चाहिए. इसके बाद निर्देशक ने मुझे जैसा समझाया वैसा मैंने किया. इस किरदार के लिए फिजीकली फिट होना जरूरी था, तो उसके लिए मैंने जिम वगैरह किया. देवधर शायराना अंदाज का इंसान है. इसके लिए मुझे अपनी जबान साफ करने के लिए उर्दू भाषा सीखनी पड़ी.’’
शिव दर्शन आगे कहते हैं, ‘‘मैं स्पष्ट कर दूं कि मेरे पिता ने यह फिल्म मेरे लिए नहीं लिखी. बल्कि किसी घटनाक्रम से प्रेरित होकर उन्होंने यह कहानी लिखी थी. मुझे पढ़ने के लिए दी. मुझे कहानी व किरदार पसंद आया. मुझे याद है कि उन्होंने 4 घंटे में पूरी पटकथा लिख डाली थी.’’
फिल्म में शिव दर्शन के साथ नई हीरोईन नताशा फर्नांडिश हैं. जबकि उनके पिता तमाम बड़े कलाकारों को निर्देशित कर चुके हैं? इस पर शिव दर्शन ने कहा, ‘‘इसका सही जवाब तो निर्देशक दे सकते हैं. मुझे लगता है कि निर्देशक ने प्रेम कहानी में नए चेहरे को पेश करने की बात सोची. मैंने तो अपने पिता यानी कि निर्देशक के वीजन के अनुसार काम किया है. उनका जो ट्रैक रिकॉर्ड है, उसके अनुसार उनकी फिल्मों में कंटेंट महत्वपूर्ण होता है. तभी तो उन्होंने लारा दत्ता, प्रियंका चोपड़ा, जुही चावला, करिश्मा कपूर, करीना कपूर सहित कई अभिनेत्रियों को अपनी फिल्मों में ब्रेक दिया. उन्हें कला की परख है. मैं उनके रचनात्मकता के क्षेत्र में दखलंदाजी नहीं करता.’’
फिल्म की सबसे बड़ी खासियत बताते हुए शिव दर्शन ने कहा, ‘‘इस फिल्म के गीतों को संगीत से संवारा हैं नदीम सैफी ने. फेरीटेल जैसी लोकेशन पर शूटिंग की है.’’
यों तो सालभर देशभर में कहीं न कहीं से भयानक आग लगने की खबरें आती रहती हैं लेकिन गरमी के मौसम में आग लगने के हादसों की तादाद बढ़ जाती है. इस साल अप्रैल में आग लगने की 2 दर्जन बड़ी घटनाएं हुईं जिन में सब से ज्यादा दिल दहला देने वाला हादसा मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के हर्रई ब्लौक के गांव बारगी में हुआ.
22 अप्रैल की शाम 4 बजे चिलचिलाती धूप में बारगी गांव के सैकड़ों लोग राशन की दुकान के सामने लाइन में लगे थे. यह राशन की दुकान ठीक वैसी ही है, जैसी देशभर में होती हैं कि एकाधदो कमरे राशन की सहकारी दुकान चलाने वाला किराए पर ले लेता है. इन में बांटा जाने वाला अनाज और राशन के दूसरे आइटम ठूंसठूंस कर भरे रहते हैं. एक तरह से राशन की इन सस्ती दुकानों को छोटेमोटे गोदाम कहना ज्यादा बेहतर होगा.
बारगी में गांव वालों को बांटने के लिए कैरोसिन का तेल इस दिन आया था. यह खबर आग की तरह गांवभर में फैली तो देखते ही देखते तेल लेने वालों की भीड़ इकट्ठी हो गई. बाहर लाइन लगी तो दुकानदार भीतर अनाज बांटने लगा. चूंकि कैरोसिन चाहने वालों की तादाद ज्यादा थी, इसलिए दुकानदार ने दरवाजे पर कैरोसिन का ड्रम रख लिया. जिन्हें अनाज चाहिए था वे दुकान के भीतर रह गए और जिन्हें कैरोसिन चाहिए था वे बाहर लाइन में खड़े हो गए.
सैकड़ों लोगों को उन की मांग के मुताबिक कैरोसिन का तेल बांटने में देर लग रही थी. लाइन में लगे गांव वालों में से किसी ने आदतन बीड़ी सुलगा ली और पीने के बाद आदत के मुताबिक ही उस का ठूंठ फेंक दिया. इसी दौरान एक और गांव वाले ने बीड़ी सुलगा कर तीली फेंकी तो वह कैरोसिन के ड्रम के पास जा गिरी. कैरोसिन ने आग पकड़ी तो देखते ही देखते हाहाकार मच गया.
बचने के बजाय फंसे
कैरोसिन ने आग पकड़ी तो भगदड़ मच गई. बाहर लाइन में खड़े लोग तो खुले की तरफ जान बचाने के लिए भाग गए पर जो लोग अंदर कमरे में बंद थे, उन की हालत चूहेदानी में फंसे चूहे जैसी हो गई थी. आग अंदर तक फैली और अनाज के बारदानों तक जा पहुंची. अंदर फंसे लोगों में से किसी को नहीं सूझा कि क्या करे.
हरेक की हर मुमकिन कोशिश खुद की जान बचाने की थी. इस से हुआ उलटा, कि जरा से कमरे से भागादौड़ी के चलते इनेगिने लोग ही बाहर आ पाए और 13 लोग आग की भेंट चढ़ गए यानी जिंदा जल मरे.
मंजर यह था कि महज 5 मिनट में ही आग ने पूरी दुकान को अपनी गिरफ्त में ले लिया. भीतर वाले कमरे में रखा सामान और अनाज के बारदाने भी जलने लगे तो छोटा सा कमरा धुंए से भर गया. नतीजतन, वहां मौजूद लोगों का दम भी घुटने लगा. जान बचाने के लिए लोगों को कुछ नहीं सूझा तो वे बारदानों के ऊपर चढ़ गए पर वहां भी आग की लपटों ने उन का पीछा नहीं छोड़ा.
हादसे के गवाह रहे एक घायल मनोज कुमार मालवीय का कहना है कि उसे और दूसरे लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. बाहर निकलने के लिए एक ही दरवाजा था और लोग उस की तरफ भाग रहे थे. चूंकि कैरोसिन या खाने वाला तेल फर्श पर फैल गया था, इसलिए लोग उस पर से फिसलने लगे थे. इस आपाधापी और भागादौड़ी में कुल 4 लोग ही बाहर निकल पाए.
आग जब शबाब पर आई तो 200 लिटर से भरे ड्रमों में से भड़ामभड़ाम की आवाजें आने लगीं जिस से लोग और दहशत से भर उठे. देखते ही देखते सोसाइटी की दुकान का यह कमरा श्मशान घाट बन गया. बाहर खड़े चिल्लाते लोग बेबसी से मौत का यह मंजर देखते रहे, जिसे शायद ही वे जिंदगीभर भुला पाएं.
आग के इस हादसे की खबर भी आग की तरह फैली और जिलेभर से फायरब्रिगेड आईं. दुकान की दीवार तोड़ कर आग बुझाई गई पर जब तक जो होना था वह हो चुका था.
बच सकते थे
मनोज की बातों से जाहिर होता है कि घबराए लोगों ने वही गलती की जो आमतौर पर ऐसे हादसों के वक्त लोग करते हैं वह थी भगदड़ मचा कर पहले भागने की.
लोग चाहते थे तो एकएक कर बाहर निकल सकते थे पर हर एक को अपनी जान की पड़ी थी, इसलिए भीतर फंसे लोगों में से कोई नहीं बच सका. मरने वालों में 5 औरतें भी थीं.
साफ दिख रहा है कि लोग आग से कम, भगदड़ से ज्यादा मरे. हो यह रहा था कि लोग एकदूसरे को धकिया कर पहले बाहर निकलने के लिए दरवाजे की तरफ भाग रहे थे और आगेवाले पीछे वालों को धक्का दे रहे थे. इस गफलत में कोई बाहर नहीं निकल पाया और आग ने उन्हें बख्शा नहीं.
यह ठीक है कि हमारे देश में आग और दूसरी कुदरती आफतों से बचने के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती है जो कि अब आग की बढ़ती घटनाओं को देख जरूरी लगने लगी है.
छिंदवाड़ा की आग के बाद हफ्तेभर में ही अकेले मध्य प्रदेश के ही भोपाल, इंदौर, मंडला और बैतूल में लगी आग से 6 लोग और मारे गए.
इंदौर में पटाखों की दुकान में आग लगी तो भोपाल में रिहायशी इलाके सोनागिरि की एक बिल्ंिडग को आग ने अपनी गिरफ्त में ले लिया. बैतूल और मंडला में खेतखलिहानों में आग लगी थी. यानी आग से कहीं कोई महफूज नहीं है, वह बंद और खुली दोनों जगहों में लग सकती है.
खुली जगहों मसलन, मैदान, खेत और खलिहान में आग से बचने के मौके ज्यादा होते हैं लेकिन बंद जगहों में समझदारी से ही अपनी जान बचाई जा सकती है.
ऐसे बचें हादसे से
जिस तेजी से आग लगने के हादसे बढ़ रहे हैं, उन से लगने लगा है कि लोगों को खुद अपना बचाव करना आना चाहिए जिस से ऐसे बुरे वक्त में वे अपनी और औरों की जान बचा पाएं. इस के लिए इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
– अगर यंत्र का इस्तेमाल करना न आता हो तो आसपास देखें कि शायद कोई ऐसी चीज मिल जाए जिस आग पर फेंक देने से उसे रोका जा सके. मसलन, रेत या पानी, ये चीजें अगर मिल जाएं तो इन्हें तुरंत तेजी से आग पर फेंकना चाहिए पर अगर आग बिजली के तारों या शौर्ट सर्किट की वजह से लगी दिखे तो उसे बुझाने के लिए पानी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. इस से करंट लगने का डर बना रहता है.
– आजकल तकरीबन हर जगह आग बुझाने के अग्निशामक यंत्र रखे जाते हैं, पर अफसोस की बात यह है कि इन्हें चलाना हर कोई नहीं जानता. इसलिए नजदीकी फायर ब्रिगेड दफ्तर से इन्हें चलाने का तरीका सीखने में हर्ज नहीं, क्योंकि पता नहीं, कब कहां ऐसी नौबत आ जाए.
– आग में फंसने पर ऊपर के कपड़े उतार कर फेंक देना चाहिए क्योंकि ये जल्दी आग पकड़ते हैं. इन के जरिए ही शरीर जलता है और बचने का मौका नहीं मिल पाता.
– आग कहीं से भी उठती दिखे, तुरंत बिजली के खटकों और हो सके तो मेनस्विच को बंद कर देना चाहिए क्योंकि बिजली के तार जल्द आग पकड़ते हैं.
– आग कहीं भी, कैसे भी लगे, उस से धुआं जरूर फैलता है. इसलिए रूमाल, गमछा, दुपट्टा जो भी मिले, उस से मुंह ढक लेना चाहिए ताकि दम न घुटे.
– आग कपड़ों तक आ जाए तो जमीन पर लेट कर लुढ़कना चाहिए. इस से आग बुझने में मदद मिलती है. चादर, कंबल या दूसरा बड़ा कपड़ा मिल जाए तो उसे शरीर पर लपेट लेना चाहिए. फिल्मों में अकसर इसी तरह आग से जलते आदमी को बचाते हुए दिखाया जाता है.
– किसी बड़ी इमारत में आग लगे तो भागने के लिए लिफ्ट के बजाय सीढि़यों का इस्तेमाल करना चाहिए.
– आग जहां से उठती दिखे, उस के आसपास की चीजों को हटा देना चाहिए क्योंकि उन से आग को फैलने का मौका मिलता है.
छिंदवाड़ा के बारगी गांव के हादसे से एक बात साफ और उजागर यह हुई कि लोगों ने समझ खो दी थी. अगर पीछे वाले, आगे वाले लोगों को दरवाजे से बाहर निकल जाने देते तो उन्हें भी अपनी जान बचाने का मौका मिल सकता था. आगे वाले की तो जान बच ही जाती.
बीड़ी और जलती तीली फेंकने वाले तो गुनहगार हैं ही, लेकिन जब आग लग ही गई थी तो लोग सब्र का दामन न छोड़ते, समझ से काम लेते तो हादसा इतना भयानक नहीं होता.
जलने पर यह करें
– आग में थोड़ा जलें या ज्यादा, बेहतर यह होता है कि जब तक जलन कम न हो, तब तक आप जख्म पर ठंडे पानी का छोटा कपड़ा रखें.
– जहां आग लगी है वहां की खिड़कियां खोलने की कोशिश करनी चाहिए.
– जली हुई जगह पर चूना, हलदी या टूथपेस्ट न लगाएं, इस से घाव ठीक नहीं होता, उलटे डाक्टर को घाव साफ करने में परेशानी पेश आती है.
– जली हुई जगह पर पानी डालने से जख्म गहरा नहीं हो पाता.
– तुरंत ऐंबुलैंस को फोन करें.
एहतियात जरूरी
आग अकसर लापरवाही से लगती और फैलती है. बागरी गांव में लोग जलती बीड़ी या तीली नहीं फेंकते तो एक बड़े हादसे और 13 मौतों से बच सकते थे. अगर ये एहतियात बरती जाएं तो आग लगने की घटनाओं को रोका जा सकता है-
– आग लगने के आधे से ज्यादा हादसे बिजली के तारों और शौर्ट सर्किट होने के चलते होते हैं. गरमी में बिजली की खपत ज्यादा होती है, इसलिए बिजली के तारों पर जोर ज्यादा पड़ता है और वे जलने लगते हैं. इसलिए बेहतर यह होता है कि घटिया किस्म के बिजली के तारों का इस्तेमाल न किया जाए, हमेशा ब्रैंडेड तार ही इस्तेमाल किए जाएं.
– झुग्गी-झोंपडि़यों और कच्चे मकानों में आमतौर पर सीधे खंबे से बिजली ले ली जाती है, यह बेहद जोखिम वाला काम है, इस से बचना चाहिए. मकान
चूंकि कच्चे होते हैं और उन में लकड़ी, घासफूस वगैरा का ज्यादा इस्तेमाल होता है, इसलिए बिजली के तारों से आग लगने का खतरा ज्यादा रहता है.
– हर दूसरेतीसरे साल में घर की बिजली फिटिंग की जांच कराते रहना चाहिए और खराब व गले तारों को हटवा देना चाहिए.
– आमतौर पर घरों में बिजली का एक ही मेनस्विच रखा जाता है जिस पर बिजली का सारा लोड पड़ता है. इस से उस के जलने का खतरा बना रहता है. इस से बचने के लिए 2 मेनस्विच लगवाने चाहिए.
– इलैक्ट्रिक और इलैक्ट्रौनिक आइटमों में जरा सी भी खराबी आ जाने पर उन की रिपेयरिंग करवानी चाहिए.
– एसी, फ्रिज, कंप्यूटर, टीवी, टुल्लू पंप और ओवन जैसे आइटमों
के लिए पावरस्विच लगवाना चाहिए. साधारण खटके से चलाने पर वे जल्द गरम होते हैं और आग लगने का खतरा बढ़ जाता है.
– रात को सोने से पहले गैस सिलैंडर की नौब बंद कर देनी चाहिए.
– घर में बेवजह की रद्दी व कचरा नहीं रखना चाहिए, ये आइटम जल्द आग पकड़ते हैं.
– खेतखलिहानों में सूखी घास, लकडि़यां आदि महफूज जगह पर रखनी चाहिए और नरवाई में आग नहीं लगानी चाहिए. गांवदेहातों में आजकल आग नरवाई लगाने से ज्यादा लग रही है, इसलिए इसे कानूनी जुर्म भी घोषित कर दिया गया है.
इन बातों पर अमल किया जाए तो आग से बचा जा सकता है. बेहतर तरीका यह है कि आग से बचाव पर ध्यान दिया जाए वरना आग लगने में देर नहीं लगती.
कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता, उनको सिर्फ महसूस किया जा सकता है. अगर आप उनके बारे में सोचते हैं तो आपको कोई चित्र नहीं दिखता बल्कि, उस शब्द के एहसास से मन के अन्दर भावनाओं का एक तूफान उमड़ पड़ता है. ऐसा ही एक शब्द है ‘पापा’.
हम बचपन में कई बार उनकी सख्ती की वजह से पापा से गुस्सा भी होते हैं, उन्हें गलत भी समझ लेते हैं, मगर जब भी कोई परेशानी सामने आती है तो, ‘पापा’ सुनते ही दिल में ख्याल आता है कि सब ठीक हो जाएगा. इस शब्द के साथ ही सुरक्षा की भावना जुड़ी होती है.
बॉलीवुड में रिश्तों की नाजुक डोर से बंधी फिल्में एक समय का हिट फार्मूला थीं. आज भी ऐसी फिल्में दर्शकों को इमोशनल कर देती हैं. आज हम आपको बताएंगे ऐसी ही कुछ फिल्में जिनमें एक पापा और बेटी के रिश्ते को खूबसूरती से दिखाया गया है.
1. पीकू
फिल्म पीकू की कहानी पिता-पुत्री के रिश्ते को खूबसूरती के साथ फिल्मी परदे पर दिखाती है. एक चिड़चिड़े, बूढ़े और बचकानी हरकतों वाले पिता (अमिताभ बच्चन) को उसकी बेटी (दीपिका पादुकोण) किस तरह संभालती है, इसी के इर्द-गिर्द इस फिल्म की कहानी रची गई है. कभी-कभी मॉडर्न बेटी बूढ़े पिता की हरकतों पर झल्लाती भी है, इसके बाद भी पिता की फ़िक्र के आगे बेटी को ऑफिस और दुनियादारी नहीं दिखती.
2. मैं ऐसा ही हूं
इस फिल्म में अजय देवगन ने एक ऐसे पिता का रोल निभाया, जो मानसिक रोगी हैं. वो अपनी बेटी की कानूनी कस्टडी के लिए कानूनी लड़ाई लड़ते हैं और ये साबित करते हैं कि वो अपनी बेटी की ज़िम्मेदारी उठाने वाले एक जिम्मेदार पिता हैं. फिल्म में बाप-बेटी के मासूम रिश्ते पर एक गाना भी है ‘पापा मेरे पापा’ जो आपको भावुक कर देगा.
3. चाची 420
ये फिल्म 1977 में आई थी. इसमें चाची का किरदार कमल हसन ने निभाया है. फिल्म में एक पिता अपनी बेटी का ध्यान रखने के लिए नौकरानी बन जाते हैं. बाप-बेटी के रिश्ते के साथ-साथ बेहतरीन कॉमेडी के लिए भी इस फिल्म को देखा जा सकता है.
4. डैडी
साल 1989 में आई ये फिल्म बाप-बेटी के रिश्ते की कहानी है. फिल्म में पूजा भट्ट और अनुपम खेर हैं और इसका निर्देशन, महेश भट्ट ने किया था. फिल्म में पूजा 17 साल की एक लड़की का किरदार निभाती हैं. फिल्म में जब सारा जमाना पिता के खिलाफ होता है तब बेटी सिर्फ इस विश्वास पर उसके साथ खड़ी होती है कि उसका पिता इंसान बुरा हो सकता है मगर पिता बुरा नहीं हो सकता. इस फिल्म की एक गजल ‘आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत न मांग’ आज भी मशहूर है.
5. पिता
साल 2002 में आई फिल्म ‘पिता’ में संजय दत्त मुख्य भूमिका में हैं. फिल्म में दिखाया गया है कि एक पिता, जिसकी 9 साल की मासूम बच्ची को बुरी तरह पीटकर उसका रेप किया जाता है, किस तरह अपनी बेटी के लिए भ्रष्ट व्यवस्था और धूर्त लोगों से लड़ता है.
आम तौर पर पिता और पुत्री के रिश्ते पर बनी हर फिल्म में एक बात समान होती है कि पिता शुरुआत में भले नायक की भूमिका में हो या खलनायक की, मगर अंत में उसे अपने अपने बच्चों या बेटी का भरोसा और प्यार दोनों ही मिल जाते हैं.
सुनील दर्शन निर्देशित फिल्म ‘एक हसीना थी एक दीवाना था’ से अभिनय करियर की शुरुआत कर रही अभिनेत्री नताशा फर्नांडिस की निजी जिंदगी में प्यार के बड़े मायने हैं.
वह कहती हैं, ‘‘मेरे लिए प्यार बहुत मायने रखता है. निजी जिंदगी में मुझे पता है कि मुझे एक इंसान में क्या चाहिए. प्यार में मुझे न अपनी जिंदगी बर्बाद करनी है और न ही किसी और की.’’
प्यार की चर्चा करते हुए नताशा आगे कहती हैं, ‘‘दो तरह का प्यार होता है. एक ‘सेल्फ लव’ होता है. दूसरा वह प्यार होता है, जो हम हर किसी से करते हैं. मैं उपदेश नहीं देना चाहती.
मगर मेरा मानना है कि आज की तारीख में ‘सेल्फ लव’ बहुत मायने रखता है. जब हम खुद से प्यार करेंगे, तभी हम दूसरों के बीच प्यार बांट सकेंगे. हम अंदर से दुखी हों, तो हम किसी अन्य को खुशी या प्यार कैसे दे सकते हैं. मेरे लिए निजी जिंदगी में ‘सेल्फ लव’ बहुत जरुरी है.’’
वैसे तो हम सभी ये बात जानते हैं कि बारिश में किन छोटी छोटी चीजों का ध्यान रखना चाहिए, फिर भी हम कई बार गलतियां कर बैठते हैं और बिमारियों के शिकार हो जाते हैं.
हम आज आपको कुछ ऐसी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण बातें बताने जा रहे हैं जो आपको इस बारिष में स्वस्थ्य रहने में मदद करेंगी.
ये बात तो आप देखते ही होंगे कि बरसात आते ही या इन दिनों आपके स्वास्थ्य से लेकर रहन-सहन और आपके खानपान में भी बहुत परिवर्तन आता है और इसलिए इस मौसम में सतर्कता भी बेहद जरूरी होती है.
विशेष तौर पर इस मौसम में डाइट का सही चयन आपकी सेहत को बरकरार रख सकता है, इसलिए जानिए आहार संबंधी 8 जरुरी बातें…
1. अधिक से अधिक पानी पिएं
2. कोल्ड ड्रिंक्स पीने से बचें
3. हल्का और पौष्टिक खाना खाएं.
4. बहुत ठंडा तरल पदार्थ न पिएं.
5. भारी फल-सब्जियां जैसे पालक, मूली, प्याज, लहसुन आदि न खाएं.
पंकज त्रिपाठी और पत्रलेखा अभिनीत शौर्ट फिल्म ‘एल’ (एल फौर लर्निंग) मात्र डेढ़ मिनट में महिला सशक्तीकरण पर वह प्रभावोत्पादक टिप्पणी कर जाती है जो अब तक ढेरों सरकारी योजनाएं और नेताओं के छद्म वादोंभरे भाषण नहीं कर पाए.
किस्सा कुछ यों है. मिडिल क्लास फैमिली को करीने से संभालती एक महिला को साइकिल चलानी नहीं आती. जब वह अपने पति से साइकिल चलाना सिखाने के लिए कहती तो वह उस का उपहास करते हुए कहता कि इस उम्र में यह क्या नया शौक चढ़ा है, लोग देखेंगे तो हंसेंगे. पति से मिले मीठे इनकार के बाद जब वह अपने बच्चे की साइकिल ले कर पार्क में खुद ही सीखने की कोशिश करते हुए लड़खड़ाती है तो उस के बेटे को अपने दोस्तों के सामने काफी शर्मिंदगी होती है.
घर आ कर वह अपनी मां से उस की साइकिल दोबारा न छूने की हिदायत देता है. घर में अपने पति और बेटे के हतोत्साहित करते इन रवैयों से वह हार नहीं मानती और अंत में घर का सारा काम निबटा कर दोनों को बताए बगैर वह अपने ही दम पर साइकिल सीखने निकल पड़ती है.
सतही तौर पर देखें तो लगता है कोई बड़ी बात नहीं है. साइकिल तो कोई भी चला सकता है. लेकिन साइकिल का इस्तेमाल यहां प्रतीकात्मक तरीके से हुआ है. सिर्फ साइकिल ही नहीं, आज की महिला जब भी कोई नया काम सीखना चाहती है या फिर किसी पुरानी कमतरी से उबरना चाहती है तो उसे समाज से प्रोत्साहन के बजाए उपहास और उलाहना ही मिलता है. समाज की बात क्या करें, खुद के परिवार में भाई, बहन, पिता या पति भी महिलाओं को घर पर बैठने की हिदायत दे कर उन्हें कुछ नया सीखने से दूर रखते हैं.
याद कीजिए, श्रीदेवी की फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश.’ इस फिल्म में संभ्रांत परिवार का किस्सा था. जहां घर में सब अंगरेजी बोल लेते हैं सिवा शशि गोडबोले के. उस की इस कमतरी पर पति और बच्चे तक उसे जलील करने का मौका नहीं छोड़ते. आखिर में उसे भी खुद ही पहल करनी पड़ती है. वह अपने दम पर बगैर अपनी उम्र की परवा किए इंग्लिश कोचिंग क्लास में न सिर्फ दाखिला लेती है बल्कि इंग्लिश सीख कर अपना खोया आत्मविश्वास भी हासिल करती है.
हौसला और हुनर उम्र के मुहताज नहीं
फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ की शशि गोडबोले और ‘एल’ की मिडिल क्लास वाइफ जैसी न जाने कितनी महिलाएं हैं हमारे देश में जिन में कइयों को कार ड्राइविंग करनी है, कई पाइलट बन कर प्लेन उड़ाना चाहती हैं, कोई अंतरिक्ष में जाना चाहती है तो किसी को शूटर बना है. किसी का सपना है कि वह एवरेस्ट की चढ़ाई करे तो कोई शादी के बाद मौडलिंग करना चाहती है.
किसी को डांस का शौक है तो कोई सिंगर बनना चाहती है. किसी को दंगल में धोबीपछाड़ लगानी है तो कोई अपनी अधूरीछूटी पढ़ाई को पूरा कर के डाक्टर या टीचर बनना चाहती है. लेकिन सब अपने परिवार की जिम्मेदारियां निभाने में कहीं पीछे छूट गईं. लेकिन जब आज वे फिर से अपने अधूरे ख्वाबों के परवाजों को पंख देना चाहती हैं तो समाज और परिवार उन्हें उम्र का हवाला दे कर उड़ने से रोकता है. कहता है कि इस उम्र में अब काहे जगहंसाई करवाओगी. चुपचाप घर में बैठो और बच्चे पालो.
जिन के हौसलों में दम होता है वे इन अड़चनों को आसानी से पार करने के लिए उम्र और अपनों के हतोत्साहन को रौंदते हुए न सिर्फ अपने सपनों को पूरा करती हैं बल्कि समाज और महिलाओं को यह संदेश भी दे जाती हैं कि हौसला और हुनर उम्र के मुहताज नहीं होते.
इस देश में कई मिसालें हैं जब महिलाओं की उम्र जान कर उन्हें कमजोर अांकने की गलती की गई. उन्होंने अपने साहस, लगन और बहादुरी से नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया. उन्होंने साबित कर दिया कि अगर कुछ करने का जज्बा हो तो आप शिखर पर पहुंच सकते हैं. आइए मिलते हैं कुछ ऐसी ही महिलाओं से, जो प्रेरणा हैं हम सब के लिए.
101 साल की गोल्ड मैडलिस्ट धावक
24 अप्रैल को जब 101 वर्षीय एक महिला ने उम्र को मात देते हुए अमेरिकन मास्टर्स टूर्नामैंट में भारत की तरफ से गोल्ड मैडल जीता तो देखने वाले दांतों तले उंगली दबा कर रह गए. यह महिला कोई और नहीं, बल्कि भारतीय धावक मान कौर थीं जो 101 साल की उम्र में यह कारनामा कर दुनिया को बता रही हैं कि उम्र को बहाना बनाना छोड़ो और कर डालो जो भी हासिल करना है.
आश्चर्य की बात तो यह है कि मान कौर ने 93 वर्ष की उम्र से दौड़ना शुरू किया था. जिस उम्र में अधिकतर महिलाएं अपने बुढ़ापे का हवाला दे कर कभी नातीपोतों के साथ समय गुजारती हैं या फिर बिस्तर पर पड़ेपड़े मौत का इंतजार करती हैं, उस उम्र में मान कौर 100 मीटर की दौड़ पूरी करती हैं. पिछले साल भी उन्होंने इसी प्रतियोगिता में गोल्ड जीता था.
न्यूजीलैंड के औकलैंड शहर में आयोजित स्पर्धा में मान कौर ने 100 मीटर रेस में यह मैडल जीता है. मान ने अपने कैरियर में यह 17वां गोल्ड मैडल हासिल किया है. मान ने 1 मिनट 14 सैकंड्स में यह दूरी तय की, जो उसेन बोल्ट के 64.42 सैकंड के रिकौर्ड से कुछ सैकंड ही कम है. उसेन बोल्ट ने 2009 में 100 मीटर की रेस में यह रिकौर्ड कायम किया था. न्यूजीलैंड के मीडिया में ‘चंडीगढ़ का आश्चर्य’ कही जा रहीं मान कौर के लिए इस स्पर्धा में भाग लेना ही सब से बड़ा लक्ष्य था.
मान कौर कहती हैं कि उम्र की ढलान में अपने सपनों को दफन करना ठीक नहीं है. हम किसी भी उम्र में खेल सकते हैं. महिलाओं को खेलों में आना चाहिए, इस के लिए खानपान पर नियंत्रण रखना चाहिए. बढ़ती उम्र में चलतेफिरते रहने से बीमारियां दूर होती हैं. इस प्रतिस्पर्धा में मान की ऊर्जा अन्य प्रतिभागियों के लिए प्रेरणास्रोत बन गई. इस से पहले उन्होंने भाला फेंक और शौट पुट में भी मैडल जीते थे. दुनियाभर के मास्टर्स खेलों में मान कौर अब तक 20 मैडल अपने नाम कर चुकी हैं.
80 साल में निशानेबाजी
मान कौर अगर 101 साल की उम्र में ऐथलीट हो सकती हैं तो वहीं 80 साल की दादियां भी हैं जो इस उम्र में निशानेबाजी का हुनर दिखा रही हैं. बागपत के जोहड़ी गांव जाएंगे तो आप को स्थानीय लोगों से यहां की निशानेबाज दादियों के दिलचस्प किस्से सुनने को मिलेंगे.
इस गांव में 81 साल की चंद्रो तोमर और 76 साल की प्रकाशी तोमर ने उस वक्त निशाना साधना सीखा जब लोगों के हाथ कांपने लगते हैं, नजर कमजोर पड़ने लगती है. आज दोनों दुनियाभर में अपने इसी कारनामे की वजह से मशहूर हैं. निशानेबाज बनने की इन की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है.
चंद्रो तोमर के मुताबिक, वे अपनी पोती सेफाली को वर्ष 2002 में निशाना लगाना सिखवाने गई थीं. पड़ोस में शूटिंग रेंज खुली थी. लड़के निशाना लगा रहे थे. तो उन्हें लगा कि इस में कौन सी बड़ी बात है. बस, फिर क्या था, उन्होंने भी बंदूक उठाई और मार दिया 10 मीटर के टारगेट पर. छर्रा सटीक निशाने पर लगा. सब लोग उन्हें ही देखने लगे. वहां के ट्रेनर भी यह देख कर ताज्जुब करते रहे.
कुछ दिनों बाद उन्होंने अपनी देवरानी प्रकाशी तोमर से भी निशानेबाजी सीखने के लिए कहा. एक से भले दो. अब दोनों जेठानीदेवरानी तड़के उठ कर पहले साफसफाई, खानापीना और चारासानी करतीं, फिर निकल पड़तीं बंदूक चलाने.
घर वालों ने खूब हंसी उड़ाई. बाहर वालों ने खूब मजाक बनाया. लेकिन उन्होंने सिर्फ अपने मन की सुनी और आज उन का परिवार और पूरा गांव उन पर गर्व करता है. अगर 80 साल की उम्र में ये दादियां निशानेबाज बन सकती हैं तो दुनिया की कोई भी औरत किसी भी उम्र में कुछ भी कर सकती है. हौसला है अगर, तो दुनिया का कोई काम नामुमकिन नहीं हो सकता है.
फिटनैस का हौआ
उम्र को मात दे कर किस तरह हौसलों का शिखर पार किया जाता है, इस के 2 बड़े उदाहरण हैं. एक तरफ तेलंगाना से बेहद आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से ताल्लुक रखती सिर्फ 13 साल की उम्र की मामलावत पूर्णा अपनी लगन से सब से कम उम्र की महिला पर्वतारोही बनने का गौरव हासिल करती है तो दूसरी तरफ प्रेमलता अग्रवाल हैं जो एवरेस्ट फतह करने वाली अब तक भारत की सब से उम्रदराज महिला हैं. उन्होंने उपलब्धि 48 साल की उम्र में हासिल की.
अब यह खिताब अपने नाम करने की कोशिश 52 साल की संगीता एस बहल कर रही हैं. पर्वतारोहण का शौक संगीता के लिए ज्यादा पुराना नहीं है. उन्होंने लगभग 47 साल की उम्र में पहली बार किलिमंजारो पर चढ़ाई की.
वे 2011 में संगीता किलिमंजारो, 2013 में एलब्रस, 2014 में विंसन, 2015 में अंकाकागुआ और कोसियुस्जको शिखर फतह कर चुकी हैं. 2015 में उत्तरी अमेरिका के डेनाली पर्वत पर वे दुर्घटना का शिकार हुईं. चढ़ाई के दौरान उन का घुटना टूट गया जिस के बाद सर्जन ने उन्हें पर्वतारोहण छोड़ने की सलाह दी. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और इसे एक चुनौती की तरह लिया. उन का घुटना दोबारा जोड़ा गया. कई महीनों तक फिजियोथेरैपी ली. और उन की हिम्मत देखिए, चोट लगने के 6 महीने से भी कम समय में वे अंकाकागुआ पर्वत पर थीं.
उन की जगह कोई और होता तो आसानी से हार मान जाता और अपनी चोट व फिटनैस का हवाला दे कर घर बैठ जाता लेकिन जिसे कुछ करने की बेचैनी और जनून होता है वह हार नहीं मानता बल्कि औरों के लिए मिसाल बन जाता है.
कई बार महिलाएं या पुरुष यह सोच कर अपने कैरियर या सपने को पूरा करने में सकुचाते हैं कि अब उम्र हो गई है या फिर शरीर साथ नहीं देता. कम ही ऐसे होते हैं जो बढ़ती उम्र और फिटनैस से जुड़ी चुनौतियों का मजबूती से सामना कर कामयाबी हासिल कर पाते हैं.
महू के गोल्फर मुकेश कुमार ऐसे ही अपवाद हैं. उन्होंने 51 साल की उम्र में एशियन टूर जीत कर किसी उम्रदराज खिलाड़ी द्वारा विश्वस्तरीय गोल्फ टूर्नामैंट जीतने का रिकौर्ड अपने नाम किया है. कुछ साल पहले तक मुकेश भीतर से इतने मजबूत नहीं थे. उन्हें लगता था कि युवा खिलाडि़यों की तरह लंबे हिट लगाना अब उन के बस की बात नहीं. लगातार प्रैक्टिस और उस से मिले आत्मविश्वास के बल पर मुकेश को यह सफलता मिली.
अक्षमता पर भारी दृढ़ इरादे
इरादा पक्का हो तो अक्षमता की हर खाई लांघी जा सकती है. यह कर दिखाया बहराइच की पुष्पा ने. दिव्यांग पुष्पा सिंह हाथों से अक्षम हैं लेकिन उन्होंने इसे कभी भी इस अक्षमता को अपने पैशन के आड़े नहीं आने दिया. वे अपने पैरों से लिखती हैं. जब वे पीसीएस लोअर की परीक्षा देने पहुंचीं तो उन की हिम्मत देख कर सभी हैरान रह गए. पुष्पा स्कूलटीचर हैं, लेकिन उन का सपना प्रशासनिक अधिकारी बनने का है. प्रशासनिक अधिकारी बन कर पुष्पा समाज में बदलाव लाना चाहती हैं.
अभिनेत्री सुधा चंद्रन ने भी तब हार नहीं मानी थी जब एक दुर्घटना में उन की एक टांग काटनी पड़ी थी. मशहूर नृत्यांगना के लिए पैरों की क्या अहमियत होती है, इसे सिर्फ एक डांसर ही समझ सकता है. सुधा की हिम्मत ही थी कि उन्होंने कृत्रिम पैर के साथ न सिर्फ अपने डांस और अभिनय के जनून को जिंदा रखा बल्कि फिल्म ‘नाचे मयूरी’ में नृत्य प्रतिभा से सब को सकते में डाल दिया.
पैरा ओलिंपिक प्रतियोगिताओं में देखिए, किस तरह से दिव्यांग खिलाड़ी अपनी लगन और प्रैक्टिस से दुनियाभर के खेलों में अपने देश का नाम रोशन कर रहे हैं.
शादी के बाद एक नई शुरुआत
कई बार महिलाओं के सपने इस बात पर दम तोड़ देते हैं कि अब वे मां बन गई हैं और शरीर में वह बात नहीं रही जो शादी से पहले होती है. जबकि यह तथ्य बिलकुल फुजूल है. हैल्थ एक्सपर्ट मानते हैं कि शादी के बाद या मां बनने के बाद एक औरत का शरीर कमजोर नहीं होता बल्कि और मजबूत हो जाता है.
उत्तर प्रदेश के मथुरा की ताइक्वांडो चैंपियन नेहा की कहानी उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है जो शादी के बाद यह मान लेती हैं कि उन का कैरियर ही खत्म हो गया है. नेहा ने न सिर्फ शादी के बाद पढ़ाई की, बल्कि अपनी मेहनत के दम पर नैशनल ताइक्वांडो प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल भी हासिल किया. अगर नेहा शादी के बाद ताइक्वांडो चैंपियन हो सकती है तो कोई भी महिला शादी के बाद जो चाहे, वह कर सकती है.
दरअसल, शादी के बाद एक नई शुरुआत हो सकती है अपना हर वह हुनर आजमाने के लिए, जो शादी के पहले किन्हीं कारणों से अधूरा रह गया था. केरल की 70 वर्षीय दिलेर और जुझारू मीनाक्षी अम्मा को ही देख लीजिए. इस उम्र में औरतें अपने नातीपोतों के साथ घर पर अपना बुढ़ापा गुजारती हैं जबकि मीनाक्षी अम्मा मार्शल आर्ट कलारीपयटूट का निरंतर अभ्यास करती हैं.
कलारीपयटूट तलवारबाजी और लाठियों से खेला जाने वाला केरल का एक प्राचीन मार्शल आर्ट है. इस कला में वे इतनी पारंगत हैं कि अपने से आधी उम्र के मार्शल आर्ट योद्घाओं के छक्के छुड़ाने का दम रखती हैं.
वे कहती हैं, ‘‘आज जब लड़कियों के देररात घर से बाहर निकलने को सुरक्षित नहीं समझा जाता और इस पर सौ सवाल खड़े किए जाते हैं, कलारीपयटूट ने उन में इतना आत्मविश्वास पैदा कर दिया है कि उन्हें देररात भी घर से बाहर निकलने में किसी प्रकार की झिझक या डर महसूस नहीं होता.’’ उन्हें प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है.
फैसला होने से पहले क्यों हार मानूं
उपरोक्त महिलाओं की उपलब्धिभरे आंकड़े और मिसालोंभरे प्रेरणादायक किस्से इस तथ्य को पुष्ट कर रहे हैं कि उत्साह, लगन, संकल्प बना रहे तो किसी भी उम्र या स्थिति में कोई भी हुनर सीखा और उस में निपुण हुआ जा सकता है. कुछ पाने की तमन्ना हो, सकारात्मक सोच हो तो हम अपने जीवन को सफल व सार्थक बना सकते हैं. फिर चाहे पति, पिता और बेटे सपोर्ट करें या उपहास करें, महिलाओं को जो करना है उन्हें करने से कोई नहीं रोक सकता.
उम्र को थामना किसी के भी वश में नहीं है, इसलिए बढ़ती उम्र का हवाला दे कर अपने सपनों को बीच राह में छोड़ना तार्किक नहीं है. इन तमाम महिलाओं की तरह अपनी हर अक्षमता, उम्रदराजी, हालात और मजबूरियों के पहाड़ों को पार कर के ही महिला सशक्तीकरण के नए आयाम रचे जा सकते हैं. और इस चुनौती में अगर घर, समाज, परिवार उपहास करता है, राह में कांटे बिछाता है तो बिना किसी के सहारे भी आप अकेली काफी हैं.
‘फैसला होने से पहले, मैं भला क्यों हार मानूं. जग अभी जीता नहीं है, मैं अभी हारा नहीं हूं…’ ये पंक्तियां इशारा करती हैं कि हमें लोग क्या कहेंगे और इस उम्र में हम क्या करेंगे, जैसे बहानों को पीछे छोड़ कर तब तक संघर्ष और मेहनत करो जब तक अपनी मंजिल न पा लो.
सफलता के उम्रदराज उदाहरण
– महात्मा गांधी 45 वर्ष की उम्र के बाद ही एक क्रांतिकारी नेता के रूप में उभर कर सामने आए थे.
– दादा भाई नौरोजी 61 वर्ष की उम्र में कांग्रेस के सभापति बने.
– यूनानी नाटककार साफाप्लाज ने 90 वर्ष की उम्र में अपना प्रसिद्घ नाटक औडीपस लिखा था.
– कवि मिल्टन 44 वर्ष की उम्र में अंधे हो गए थे. 50 वर्ष की उम्र में ‘पैराडाइज लास्ट’ लिखी.
– जरमन कवि गेटे ने अपनी प्रसिद्घ कृति ‘फास्ट’ 80 वर्ष की उम्र में लिखी थी.
– 92 वर्षीय अमेरिकी दार्शनिक जानडेवी ने 60 वर्ष की उम्र में दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश किया.
– जौर्ज बर्नाड शा 93 वर्ष की अवस्था में भी खूब साहित्य लिखते थे.
– दार्शनिक वैनदित्तो क्रोचे 80 वर्ष की अवस्था में भी नियमित रूप से 10 घंटे काम करते थे.
– कांट को 74 वर्ष की अवस्था में उन की एक रचना के आधार पर दर्शन के क्षेत्र में प्रतिष्ठा मिली.
– विश्वविजय के अभियान पर निकलते समय सिकंदर की उम्र मात्र 20 वर्ष की थी