Pyaar Ki Kahani : बेइंतहा मोहब्बत की कहानी

Pyaar Ki Kahani : दिसंबर का पहला पखवाड़ा चल रहा था. शीतऋतु दस्तक दे चुकी थी. सूरज भी धीरेधीरे अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहा था और उस की किरणें आसमान में लालिमा फैलाए हुए थीं. ऐसा लग रहा था मानो ठंड के कारण सभी घर जा कर रजाई में घुस कर सोना चाहते हों. पार्क लगभग खाली हो चुका था, लेकिन हम दोनों अभी तक उसी बैंच पर बैठे बातें कर रहे थे. हम एकदूसरे की बातों में इतने खो गए थे कि हमें रात्रि की आहट का भी पता नहीं चला. मैं तो बस, एकाग्रचित्त हो अखिलेश की दीवानगी भरी बातें सुन रही थी.

‘‘मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं रीमा, मुझे कभी तनहा मत छोड़ना. मैं तुम्हारे बगैर बिलकुल नहीं जी पाऊंगा,’’ अखिलेश ने मेरी उंगलियों को सहलाते हुए कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो अखिलेश, मैं तो हमेशा तुम्हारी बांहों में ही रहूंगी, जिऊंगी भी तुम्हारी बांहों में और मरूंगी भी तुम्हारी ही गोद में सिर रख कर.’’

मेरी बातें सुनते ही अखिलेश बौखला गया, ‘‘यह कैसा प्यार है रीमा, एक तरफ तो तुम मेरे साथ जीने की कसमें खाती हो और अब मेरी गोद में सिर रख कर मरना चाहती हो? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं तुम्हारे बिना जी कर क्या करूंगा? बोलो रीमा, बोलो न.’’ अखिलेश बच्चों की तरह बिलखने लगा.

‘‘और तुम… क्या तुम उस दूसरी दुनिया में मेरे बगैर रह पाओगी? जानती हो रीमा, अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो क्या कहता,’’ अखिलेश ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘यदि तुम इस दुनिया से पहले चली जाओगी तो मैं तुम्हारे पास आने में बिलकुल भी देर नहीं करूंगा और यदि मैं पहले चला गया तो फिर तुम्हें अपने पास बुलाने में देर नहीं करूंगा, क्योंकि मैं तुम्हारे बिना कहीं भी नहीं रह सकता.’’

अखिलेश का यह रूप देख कर पहले तो मैं सहम गई, लेकिन अपने प्रति अखिलेश का यह पागलपन मुझे अच्छा लगा. हमारे प्यार की कलियां अब खिलने लगी थीं. किसी को भी हमारे प्यार से कोई एतराज नहीं था. दोनों ही घरों में हमारे रिश्ते की बातें होने लगी थीं. मारे खुशी के मेरे कदम जमीन पर ही नहीं पड़ते थे, लेकिन अखिलेश को न जाने आजकल क्या हो गया था. हर वक्त वह खोयाखोया सा रहता था. उस का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था. शरीर भी काफी कमजोर हो गया था.

मैं ने कई बार उस से पूछा, लेकिन हर बार वह टाल जाता था. मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता था, जैसे वह मुझ से कुछ छिपा रहा है. इधर कुछ दिनों से वह जल्दी शादी करने की जिद कर रहा था. उस की जिद में छिपे प्यार को मैं तो समझ रही थी, मगर मेरे पापा मेरी शादी अगले साल करना चाहते थे ताकि मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर लूं. इसलिए चाह कर भी मैं अखिलेश की जिद न मान सकी.

अखिलेश मुझे दीवानों की तरह प्यार करता था और मुझे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. यह बात मुझे उस दिन समझ में आ गई जब शाम को अखिलेश ने फोन कर के मुझे अपने घर बुलाया. जब मैं वहां पहुंची तो घर में कोई भी नहीं था. अखिलेश अकेला था. उस के मम्मीपापा कहीं गए हुए थे. अखिलेश ने मुझे बताया कि उसे घबराहट हो रही थी और उस की तबीयत भी ठीक नहीं थी इसलिए उस ने मुझे बुलाया है.

थोड़ी देर बाद जब मैं उस के लिए कौफी बनाने रसोई में गई, तभी अखिलेश ने पीछे से आ कर मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया, मैं ने घबरा कर पीछे हटना चाहा, लेकिन उस की बांहों की जंजीर न तोड़ सकी. वह बेतहाशा मुझे चूमने लगा, ‘‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता रीमा, जीना तो दूर तुम्हारे बिना तो मैं मर भी नहीं पाऊंगा. आज मुझे मत रोको रीमा, मैं अकेला नहीं रह पाऊंगा.’’

मेरे मुंह से तो आवाज तक नहीं निकल सकी और एक बेजान लता की तरह मैं उस से लिपटती चली गई. उस की आंखों में बिछुड़ने का भय साफ झलक रहा था और मैं उन आंखों में समा कर इस भय को समाप्त कर देना चाहती थी तभी तो बंद पलकों से मैं ने अपनी सहमति जाहिर कर दी. फिर हम दोनों प्यार के उफनते सागर में डूबते चले गए और जब हमें होश आया तब तक सारी सीमाएं टूट चुकी थीं. मैं अखिलेश से नजरें भी नहीं मिला पा रही थी और उस के लाख रोकने के बावजूद बिना कुछ कहे वापस आ गई.

इन 15 दिन में न जाने कितनी बार वह फोन और एसएमएस कर चुका था. मगर न तो मैं ने उस के एसएमएस का कोई जवाब दिया और न ही उस का फोन रिसीव किया. 16वें दिन अखिलेश की मम्मी ने ही फोन कर के मुझे बताया कि अखिलेश पिछले 15 दिन से अस्पताल में भरती है और उस की अंतिम सांसें चल रही हैं. अखिलेश ने उसे बताने से मना किया था, इसलिए वे अब तक उसे नहीं बता पा रही थीं.

इतना सुनते ही मैं एकपल भी न रुक सकी. अस्पताल पहुंचने पर मुझे पता चला कि अब उस की जिंदगी के बस कुछ ही क्षण बाकी हैं. परिवार के सभी लोग आंसुओं के सैलाब को रोके हुए थे. मैं बदहवास सी दौड़ती हुई अखिलेश के पास चली गई. आहट पा कर उस ने अपनी आंखें खोलीं. उस की आंखों में खुशी की चमक आ गई थी. मैं दौड़ कर उस के कृशकाय शरीर से लिपट गई.

‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं अखिलेश, सिर्फ ‘कौल मी’ लिख कर सैकड़ों बार मैसेज करते थे. क्या एक बार भी तुम अपनी बीमारी के बारे में मुझे नहीं बता सकते थे? क्या मैं इस काबिल भी नहीं कि तुम्हारा गम बांट सकूं?‘‘

‘‘मैं हर दिन तुम्हें फोन करता था रीमा, पर तुम ने एक बार भी क्या मुझ से बात की?’’

‘‘नहीं अखिलेश, ऐसी कोई बात नहीं थी, लेकिन उस दिन की घटना की वजह से मैं तुम से नजरें नहीं मिला पा रही थी.’’

‘‘लेकिन गलती तो मेरी भी थी न रीमा, फिर तुम क्यों नजरें चुरा रही थीं. वह तो मेरा प्यार था रीमा ताकि तुम जब तक जीवित रहोगी मेरे प्यार को याद रख सकोगी.’’

‘‘नहीं अखिलेश, हम ने साथ जीनेमरने का वादा किया था. आज तुम मुझे मंझधार में अकेला छोड़ कर नहीं जा सकते,’’ उस के मौत के एहसास से मैं कांप उठी.

‘‘अभी नहीं रीमा, अभी तो मैं अकेला ही जा रहा हूं, मगर तुम मेरे पास जरूर आओगी रीमा, तुम्हें आना ही पड़ेगा. बोलो रीमा, आओगी न अपने अखिलेश के पास’’,

अभी अखिलेश और कुछ कहता कि उस की सांसें उखड़ने लगीं और डाक्टर ने मुझे बाहर जाने के लिए कह दिया.

डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद अखिलेश को नहीं बचाया जा सका. मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई थी. मेरा तो सुहागन बनने का रंगीन ख्वाब ही चकनाचूर हो गया. सब से बड़ा धक्का तो मुझे उस समय लगा जब पापा ने एक भयानक सच उजागर किया. यह कालेज के दिनों की कुछ गलतियों का नतीजा था, जो पिछले एक साल से वह एड्स जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहा था. उस ने यह बात अपने परिवार में किसी से नहीं बताई थी. यहां तक कि डाक्टर से भी किसी को न बताने की गुजारिश की थी.

मेरे कदमों तले जमीन खिसक गई. मुझे अपने पागलपन की वह रात याद आ गई जब मैं ने अपना सर्वस्व अखिलेश को समर्पित कर दिया था.

आज उस की 5वीं बरसी है और मैं मौत के कगार पर खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही हूं. मुझे अखिलेश से कोई शिकायत नहीं है और न ही अपने मरने का कोई गम है, क्योंकि मैं जानती हूं कि जिंदगी के उस पार मौत नहीं, बल्कि अखिलेश मेरा बेसब्री से इंतजार कर रहा होगा.

मैं ने अखिलेश का साथ देने का वादा किया था, इसलिए मेरा जाना तो निश्चित है परंतु आज तक मैं यह नहीं समझ पाई कि मैं ने और अखिलेश ने जो किया वह सही था या गलत?

अखिलेश का वादा पक्का था, मेरे समर्पण में प्यार था या हम दोनों को प्यार की मंजिल के रूप में मौत मिली, यह प्यार था. क्या यही प्यार है? क्या पता मेरी डायरी में लिखा यह वाक्य मेरा अंतिम वाक्य हो. कल का सूरज मैं देख भी पाऊंगी या नहीं, मुझे पता नहीं.

Short Stories In Hindi 2025 : अर्धांगिनी होने का एहसास

Short Stories In Hindi 2025 : आज सुधीर की तेरहवीं है. मेरा चित्त अशांत है. बारबार नजर सुधीर की तसवीर की तरफ चली जाती. पति कितना भी दुराचारी क्यों न हो पत्नी के लिए उस की अहमियत कम नहीं होती. तमाम उपेक्षा, तिरस्कार के बावजूद ताउम्र मुझे सुधीर का इंतजार रहा. हो न हो उन्हें अपनी गलतियों का एहसास हो और मेरे पास चले आएं. पर यह मेरे लिए एक दिवास्वप्न ही रहा. आज जबकि वह सचमुच में नहीं रहे तो मन मानने को तैयार ही नहीं. बेटाबहू इंतजाम में लगे हैं और मैं अतीत के जख्मों को कुरेदने में लग गई.

सुधीर एक स्कूल में अध्यापक थे. साथ ही वह एक अच्छे कथाकार भी थे. कल्पनाशील, बौद्धिक. वह अकसर मुझे बड़ेबड़े साहित्यकारों के सारगर्भित तत्त्वों से अवगत कराते तो लगता अपना ज्ञान शून्य है. मुझ में कोई साहित्यिक सरोकार न था फिर भी उन की बातें ध्यानपूर्वक सुनती. उसी का असर था कि मैं भी कभीकभी उन से तर्कवितर्क कर बैठती. वह बुरा न मानते बल्कि प्रोत्साहित ही करते.

उस दिन सुधीर कोई कथा लिख रहे थे. कथा में दूसरी स्त्री का जिक्र था. मैं ने कहा, ‘यह सरासर अन्याय है उस पुरुष का जो पत्नी के होते हुए दूसरी औरत से संबंध बनाए,’ सुधीर हंस पड़े तो मैं बोली, ‘व्यवहार में ऐसा होता नहीं.’

सुधीर बोले, ‘खूबसूरत स्त्री हमेशा पुरुष की कमजोरी रही. मुझे नहीं लगता अगर सहज में किसी को ऐसी औरत मिले तो अछूता रहे. पुरुष को फिसलते देर नहीं लगती.’

‘मैं ऐसी स्त्री का मुंह नोंच लूंगी,’ कृत्रिम क्रोधित होते हुए मैं बोली.

‘पुरुष का नहीं?’ सुधीर ने टोका तो मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

कई साल गुजर गए उस वार्त्तालाप को. पर आज सोचती हूं कि मैं ने बड़ी गलती की. मुझे सुधीर के सवाल का जवाब देना चाहिए था. औरत का मौन खुद के लिए आत्मघाती होता है. पुरुष इसे स्त्री की कमजोरी मान लेता है और कमजोर को सताना हमारे समाज का दस्तूर है. इसी दस्तूर ने ही तो मुझे 30 साल सुधीर से दूर रखा.

सुधीर पर मैं ने आंख मूंद कर भरोसा किया. 2 बच्चों के पिता सुधीर ने जब इंटर की छात्रा नम्रता को घर पर ट्यूशन देना शुरू किया तो मुझे कल्पना में भी भान नहीं था कि दोनों के बीच प्रेमांकुर पनप रहे हैं. मैं भी कितनी मूर्ख थी कि बगल के कमरे में अपने छोटेछोटे बच्चों के साथ लेटी रहती पर एक बार भी नहीं देखती कि अंदर क्या हो रहा है. कभी गलत विचार मन में पनपे ही नहीं. पता तब चला जब नम्रता गर्भवती हो गई और एक दिन सुधीर अपनी नौकरी छोड़ कर रांची चले गए.

मेरे सिर पर तब दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. 2 बच्चों को ले कर मेरा भविष्य अंधकारमय हो गया. कहां जाऊं, कैसे कटेगी जिंदगी? बच्चों की परवरिश कैसे होगी? लोग तरहतरह के सवाल करेंगे तो उन का जवाब क्या दूंगी? कहेंगे कि इस का पति लड़की ले कर भाग गया.

पुरुष पर जल्दी कोई दोष नहीं मढ़ता. उन्हें मुझ में ही खोट नजर आएंगे. कहेंगे कि कैसी औरत है जो अपने पति को संभाल न सकी. अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मैं ने स्त्री धर्म का पालन किया.

बनारस रहना मेरे लिए मुश्किल हो गया. लोगों की सशंकित नजरों ने जीना मुहाल कर दिया. असुरक्षा की भावना के चलते रात में नींद नहीं आती. दोनों बच्चे पापा को पूछते. इस बीच भैया आ गए. उन्हें मैं ने ही सूचित किया था. आते ही हमदोनों को खरीखोटी सुनाने लगे. मुझे जहां लापरवाह कहा, वहीं सुधीर को लंपट. मैं लाख कहूं कि मैं ने उन पर भरोसा किया, अब कोई विश्वासघात पर उतारू हो जाए तो क्या किया जा सकता है. क्या मैं उठउठ कर उन के कमरे में झांकती कि वह क्या कर रहे हैं? क्या यह उचित होता? उन्होंने मेरे पीठ में छुरा भोंका. यह उन का चरित्र था पर मेरा नहीं जो उन पर निगरानी करूं.

‘तो भुगतो,’ भैया गुस्साए.

भैया ने भी मुझे नहीं समझा. उन्हें लगा मैं ने गैरजिम्मेदारी का परिचय दिया. पति को ऐसे छोड़ देना मूर्ख स्त्री का काम है. मैं रोने लगी. भैया का दिल पसीज गया. जब उन का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने रांची चलने के लिए कहा.

‘देखता हूं कहां जाता है,’ भैया बोले.

हम रांची आए. यहां शहर में मेरे एक चचेरे भाई रहते थे. मैं वहीं रहने लगी. उन्हें मुझ से सहानुभूति थी. भरसक उन्होंने मेरी मदद की. अंतत: एक दिन सुधीर का पता चल गया. उन्होंने नम्रता से विवाह कर लिया था. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. सुधीर इतने नीचे तक गिर सकते हैं.

उस रोज भैया भी मेरे साथ जाना चाहते थे. पर मैं ने मना कर दिया. बेवजह बहसाबहसी, हाथापाई का रूप ले सकता था. घर पर नम्रता मिली. देख कर मेरा खून खौल गया. मैं बिना इजाजत घर में घुस गई. उस में आंख मिलाने की भी हिम्मत न थी. वह नजरें चुराने लगी. मैं बरस पड़ी, ‘मेरा घर उजाड़ते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई?’

उस की निगाहें झुकी हुई थीं.

‘चुप क्यों हो? तुम ने तो सारी हदें तोड़ दीं. रिश्तों का भी खयाल नहीं रहा.’

‘यह आप मुझ से क्यों पूछ रही हैं? उन्होंने मुझे बरगलाया. आज मैं न इधर की रही न उधर की,’ उस की आंखें भर आईं. एकाएक मेरा हृदय परिवर्तित हो गया.

मैं विचार करने लगी. इस में नम्रता का क्या दोष? जब 2 बच्चों का पिता अपनी मर्यादा भूल गया तो वह बेचारी तो अभी नादान है. गुरु मार्गदर्शक होता है. अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है. पर यहां गुरु ही शिष्या का शोषण करने पर तुला है. सुधीर से मुझे घिन आने लगी और खुद पर शर्म भी. कितना फर्क था दोनों की उम्र में. सुधीर को इस का भी खयाल नहीं आया. इस कदर कामोन्मत्त हो गया था कि लाज, शर्म, मानसम्मान सब को लात मार कर भाग गया. कायर, बुजदिल…मैं ने मन ही मन उसे लताड़ा.

‘तुम्हारी उम्र ही क्या है,’ कुछ सोच कर मैं बोली, ‘बेहतर होगा तुम अपने घर चली जाओ और नए सिरे से जिंदगी शुरू करो.’

‘अब संभव नहीं.’

‘क्यों?’ मुझे आश्चर्य हुआ.

‘मैं उन के बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

‘तो क्या हुआ. गर्भ गिराया भी तो जा सकता है. सोचो, तुम्हें सुधीर से मिलेगा क्या? उम्र का इतना बड़ा फासला. उस पर रखैल की संज्ञा.’

‘मुझे सब मंजूर है क्योंकि मैं उन से प्यार करती हूं.’

यह सुन कर मैं तिलमिला कर रह गई पर संयत रही.

‘अभीअभी तुम ने कहा कि सुधीर ने तुम्हें बरगलाया है. फिर यह प्यारमोहब्बत की बात कहां से आ गई. जिसे तुम प्यार कहती हो वह महज शारीरिक आकर्षण है. एक दिन सुधीर का मन तुम से भी भर जाएगा तो किसी और को ले आएगा. अरे, जिसे 2 अबोध बच्चों का खयाल नहीं आया वह भला तुम्हारा क्या होगा,’ मैं ने नम्रता को भरसक समझाने का प्रयास किया. तभी सुधीर आ गया. मुझे देख कर सकपकाया. बोला, ‘तुम, यहां?’

‘हां मैं यहां. तुम जहन्नुम में भी होते तो खोज लेती. इतनी आसानी से नहीं छोड़ूंगी.’

‘मैं ने तुम्हें अपने से अलग ही कब किया था,’ सुधीर ने ढिठाई की.

‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे,’ मैं बोली.

‘इन सब के लिए तुम जिम्मेदार हो.’

‘मैं…’ मैं चीखी, ‘मैं ने कहा था इसे लाने के लिए,’ नम्रता की तरफ इशारा करते हुए बोली.

‘मेरे प्रति तुम्हारी बेरुखी का नतीजा है.’

‘चौबीस घंटे क्या सारी औरतें अपने मर्दों की आरती उतारती रहती हैं? साफसाफ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा मन मुझ से भर गया.’

‘जो समझो पर मेरे लिए तुम अब भी वैसी ही हो.’

‘पत्नी.’

‘हां.’

‘तो यह कौन है?’

‘पत्नी.’

‘पत्नी नहीं, रखैल.’

‘जबान को लगाम दो,’ सुधीर तनिक ऊंचे स्वर में बोले. यह सब उन का नम्रता के लिए नाटक था.

‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने बड़े पाखंडी हो. तुम्हारी सोच, बौद्धिकता सिर्फ दिखावा है. असल में तुम नाली के कीड़े हो,’ मैं उठने लगी, ‘याद रखना, तुम ने मेरे विश्वास को तोड़ा है. तुम इस के साथ कभी सुखी नहीं रहोगे,’ भर्राए गले से कहते हुए मैं ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा और भरे कदमों से घर आ गई.

इस बीच मैं ने परिस्थितियों से मुकाबला करने का मन बना लिया था. सुधीर मेरे चित्त से उतर चुका था. रोनेगिड़गिड़ाने या फिर किसी पर आश्रित रहने से अच्छा है मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हूं. बेशक भैया ने मेरी मदद की. मगर मैं ने भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए भरपूर मेहनत की. इस का मुझे नतीजा भी मिला. बेटा प्रशांत सरकारी नौकरी में आ गया और मेरी बेटी सुमेधा का ब्याह हो गया.

बेटी के ब्याह में शुरुआती दिक्कतें आईं. लोग मेरे पति के बारे में ऊलजलूल सवाल करते. पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. एक जगह बात बन गई. उन्हें हमारे परिवार से रिश्ता करने में कोई खोट नहीं नजर आई. अब मैं पूरी तरह बेटेबहू में रम गई. सुधीर नहीं रहे तो क्या सारे रास्ते बंद हो गए. एक बंद होगा तो सौ खुलेंगे. इस तरह कब 60 की हो गई पता ही न चला.

एक रोज भैया ने खबर दी कि सुधीर आया है. वह मुझ से मिलना चाहता है. मुझे आश्चर्य हुआ. भला सुधीर को मुझ से क्या काम. मैं ने ज्यादा सोचविचार करना मुनासिब नहीं समझा. वर्षों बाद सुधीर का आगमन मुझे भावविभोर कर गया. अब मेरे दिल में सुधीर के लिए कोई रंज न था. मैं जल्दीजल्दी तैयार हुई. बाल संवार कर जैसे ही मांग भरने के लिए हाथ ऊपर किया कि प्रशांत ने रोक लिया.

‘मम्मी, पापा हमारे लिए मर चुके हैं.’

‘नहीं,’ मैं चिल्लाई, ‘वह आज भी मेरे लिए जिंदा हैं. वह जब तक जीवित रहेंगे मैं सिं?दूर लगाना नहीं छोड़ूंगी. तू कौन होता है मुझे यह सब समझाने वाला.’

‘मम्मी, उन्होंने क्या दिया है हमें, आप को. एक जिल्लत भरी जिंदगी. दरदर की ठोकरें खाई हैं हम ने तब कहीं जा कर यह मुकाम पाया है,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘वह तेरे पिता हैं.’

‘सिर्फ नाम के.’

‘हमारे संस्कारों की जड़ें अभी इतनी कमजोर नहीं हैं बेटा कि मांबाप को मांबाप का दर्जा लेखाजोखा कर के दिया जाए. उन्होंने तुझे अपनी बांहों में खिलाया है. तुझे कहानी सुना कर वही सुलाते थे, इसे तू भूल गया होगा पर मैं नहीं. कितनी ही रात तेरी बीमारी के चलते वह सोए नहीं. आज तू कहता है कि वह सिर्फ नाम के पिता हैं,’ मैं कहती रही, ‘अगर तुझे उन्हें पिता नहीं मानना है तो मत मान पर मैं उन्हें अपना पति आज भी मानती हूं,’ प्रशांत निरुत्तर था.

मैं भरे मन से सुधीर से मिलने चल पड़ी.

सुधीर का हुलिया काफी बदल चुका था. वह काफी कमजोर लग रहे थे. मानो लंबी बीमारी से उठे हों. मुझे देखते ही उन की आंखें नम हो गईं.

‘मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम सब को बहुत दुख दिए.’

जी में आया कि उन के बगैर गुजारे एकएक पल का उन से हिसाब लूं पर खामोश रही. उम्र के इस पड़ाव पर हिसाबकिताब निरर्थक लगे.

सुधीर मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े थे. इतनी सजा काफी थी. गुजरा वक्त लौट कर आता नहीं पर सुधीर अब भी मेरे पति थे. मैं अपने पति को और जलील नहीं देख सकती. बातोंबातों में भैया ने बताया कि सुधीर के दोनों गुरदे खराब हो गए हैं. सुन कर मेरे कानों को विश्वास नहीं हुआ.

वर्षों बाद सुधीर आए भी तो इस स्थिति में. कोई औरत विधवा होना नहीं चाहती. पर मेरा वैधव्य आसन्न था. मुझ से रहा न गया. उठ कर कमरे में चली आई. पीछे से भैया भी चले आए. शायद उन्हें आभास हो गया था. मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘इन आंसुओं को रोको.’

‘मेरे वश में नहीं…’

‘नम्रता दवा के पैसे नहीं देती. वह और उस के बच्चे उसे मारतेपीटते हैं.’

‘बाप पर हाथ छोड़ते हैं?’

‘क्या करोगी. ऐसे रिश्तों की यही परिणति होती है.’

भैया के कथन पर मैं सुबकने लगी.

‘भैया, सुधीर से कहो, वह मेरे साथ ही रहें. मैं उन की पत्नी हूं…भले ही हमारा शरीर अलग हुआ हो पर आत्मा तो एक है. मैं उन की सेवा करूंगी. मेरे सामने दम निकलेगा तो मुझे तसल्ली होगी.’

भैया कुछ सोचविचार कर बोले, ‘प्रशांत तैयार होगा?’

‘वह कौन होता है हम पतिपत्नी के बीच में एतराज जताने वाला.’

‘ठीक है, मैं बात करता हूं…’

सुधीर ने साफ मना कर दिया, ‘मैं अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मुझे जितना तिरस्कार मिलेगा मुझे उतना ही सुकून मिलेगा. मैं इसी का हकदार हूं,’ इतना बोल कर सुधीर चले गए. मैं बेबस कुछ भी न कर सकी.

आज भी वह मेरे न हो सके. शांत जल में कंकड़ मार कर सुधीर ने टीस, दर्द ही दिया. पर आज और कल में एक फर्क था? वर्षों इस आस से मांग भरती रही कि अगर मेरे सतीत्व में बल होगा तो सुधीर जरूर आएंगे. वह लौटे. देर से ही सही. उन्होंने मुझे अपनी अर्धांगिनी होने का एहसास कराया तो. पति पत्नी का संबल होता है. आज वह एहसास भी चला गया.

Sachi Kahaniyan : कारीगरी

Sachi Kahaniyan : ‘‘नहीं अम्मी, बिलकुल नहीं. अपने निकाह में मैं तुम्हें साउथहौल की दुकान के कपड़े नहीं पहनने दूंगी’’, नाहिद काफी तल्ख आवाज में बोली, ‘‘जानती भी हो ज्योफ के घर वाले कितने अमीर हैं? उन का महल जितना बड़ा तो घर है.’’

‘‘हांहां, मैं समझती हूं. जैसा तू चाहेगी,

वैसा ही होगा,’’ जोया ने दबी आवाज में जवाब दिया.

‘‘और हां, प्लीज उन लोगों से यह मत कह डालना कि तुम उस फटीचर दुकान को चलाती हो. मैं ने उन से कहा है कि तुम फैशन डिजाइनिंग की दुनिया से सरोकार रखती हो.’’

नाहिद के कथन पर जोया ने सिर्फ एक आह भरी. 20 बरस पहले जिस दुकान ने उन की लड़खड़ाती गृहस्थी को संभाला था, वही आज उस के बच्चों के लिए शर्मिंदगी का कारण बन गई थी. आज भी वे उन दिनों को भुला नहीं पातीं जब उन की शादी इरफान से हुई थी. सहारनपुर की लड़की का निकाह लंदन में कार्यरत लड़के के साथ होना सभी के लिए फख्र की बात थी. बड़े धूमधाम से निकाह होने के बाद इरफान 15 दिन जोया के पास रह कर लंदन चला गया था और जोया के पिता उस का पासपोर्ट, वीजा बनवाने में जुट गए थे. पड़ोस की लड़कियां जोया से रश्क करने लगी थीं.

लंदन आ कर जोया को वहां की भाषा और संस्कृति को अपनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था. एबरडीन में एक छोटे से घर से उन्होंने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी. इरफान की तनख्वाह लंदन की महंगी जिंदगी में गुजारा करने लायक नहीं थी, किंतु जोया की कुशलता से इरफान की गृहस्थी ठीकठाक चलने लगी थी.

2  लोगों का गुजारा तो हो जाता था लेकिन तीसरे से तंगी बढ़ सकती थी. नाहिद के जन्म के बाद जब ऐसा ही हुआ तो इरफान कुछ उदास रहने लगा. उस की अपनी तनख्वाह पूरी नहीं पड़ती थी और जोया दूसरे मर्दों के साथ काम करे, यह उसे बरदाश्त न था.

नाहिद जब 3 वर्ष की थी और ओमर 8 महीने का, तभी इरफान यह कह कर चला गया कि घरगृहस्थी का झंझट उस के बस की बात नहीं. कुल 5 वर्ष ही तो हुए थे जोया को वहां बसे और फिर इरफान कहां गया, इस की उन्हें आज तक खबर नहीं हुई. उन दिनों घर का सामान बेचबेच कर जोया ने काम चलाया था. पर ऐसा कब तक चलता? यदि नौकरी करने की सोचतीं तो दोनों बच्चों को किस के सहारे छोड़तीं?

‘‘ज्योफ की मां एक कंप्यूटर कंपनी में काम करती हैं, डैरीफोर्ड रोड पर’’, नाहिद बोली, ‘‘और उस के पिता सहकारी दफ्तर में अधीक्षक हैं.’’

जोया ने कोई उत्तर न दिया. ‘यदि उन की साउथहौल वाली दुकान न होती तो नाहिद ज्योफ से कहां टकराती? 6 महीने पहले नाहिद दुकान आई थी तो वहीं उसे ज्योफ मिला था. वह पास की दुकान में पड़े ताले की पूछताछ करने आया था.’

‘‘यह दुकान आप की है?’’ उस ने काफी अदब से नाहिद से पूछा था.

‘‘नहींनहीं, मैं तो यहां बस यों ही…’’, नाहिद फौरन बात टाल गई थी.

दुकान से जाते वक्त ज्योफ ने नाहिद से अपनी गाड़ी में चलने का प्रस्ताव रखा था, जिसे नाहिद ने स्वीकार कर लिया था.

‘‘उस के दादा पुरानी चीजों की दुकान चलाते हैं,’’ नाहिद ने कहा.

‘‘पुरानी चीजों की दुकान तो मैं भी चलाती हूं,’’ नाहिद की बात पर जोया बोल पड़ी, ‘‘पुराने कपड़े…’’

‘‘बेवकूफी की बात मत करो, अम्मी.’’

बरसों पहले जब गृहस्थी खींचने के जोया के सभी तरीके खत्म हो चुके थे और वे इसी उधेड़बुन में रहती थीं कि क्या करें, तभी एक दिन एक पड़ोसिन के साथ वे यों ही फैगन बाजार चली गई थीं अपनी पड़ोसिन के लिए ईवनिंग ड्रैस लेने. वहां पहुंच कर वे तो जैसे हतप्रभ रह गई थीं. इस कबाड़ी बाजार में क्याक्या नहीं बिकता. बिना इस्तेमाल किए हुए तोहफे, पहने जूते, कपड़े, स्वैटर वगैरह. इस के अलावा और भी बहुत कुछ.

बस फिर क्या था जोया ने साउथहौल में एक दुकान किराए पर ले ली. हर शाम वे फैगन बाजार से कपड़े खरीद लातीं, फिर उन कपड़ों को घर ला कर धोतीं, सुखातीं और प्रैस कर के नया बना देतीं. जोया की इस कारीगरी का अंजाम यह होता कि कौडि़यों के दाम की चीजें कई पौंड की हो जातीं.

‘‘और हां, तुम्हें उन का घर देखना चाहिए. हमारा पूरा घर उन की बैठक में समा जाएगा,’’ नाहिद बोली.

उस के स्वर के उतारचढ़ाव ने जोया को यह सोचने पर विवश कर दिया कि आज तक उन्होंने हजारों कपड़े सिर्फ इसलिए खरीदे बेचे थे कि नाहिद और ओमर को अपने दोस्तों को घर लाने में शर्मिंदगी न महसूस हो. और सिर्फ अपनी बेटी की खुशी के लिए जोया ने उस के एक ईसाई से शादी करने के फैसले पर कोई आपत्ति नहीं की थी. शादी भी ईसाई ढंग से हो रही थी और शादी की दावत ज्योफ के घर ही निश्चित हुई थी. ज्योफ की मां ने एक पत्र द्वारा जोया से यह पूछा था कि इस पर उन्हें कोई एतराज तो नहीं? इस पर जोया का उत्तर था कि दावत भले ही वहां हो, भोजन का खर्च वे उठाएंगी.

‘‘अब इस छोटे से घर में तुम्हें अधिक दिन तो रहना नहीं है,’’ जोया ने नाहिद से कहा.

‘‘नहीं अम्मी, यह बात नहीं है. आप ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है. वह तो बस…’’

‘‘बस मुझे अपनी मां कहने में तुम्हें शर्म आती है,’’ जोया बीच में ही बोल पड़ीं.

‘‘अम्मी, ऐसी बात नहीं है,’’ कह कर नाहिद ने जोया के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘तुम तो सब से अच्छी अम्मी हो, ज्योफ की मां से कहीं ज्यादा खूबसूरत. बस वह दुकान…’’

‘‘दुकान क्या घटिया है?’’

‘‘हां,’’ कह कर नाहिद हंसने लगी.

‘‘जोया की दुकान से बहुत सी मध्यवर्गीय परिवार की स्त्रियां कपड़े खरीदती थीं. मैडम ग्रांच तो वहां जब भी किसी धारियों वाली ड्रैस को देखतीं, फौरन खरीद लेतीं. इतने वर्षों में अपनी ग्राहकों की नाप, चहेते रंग और पसंद जानने के बाद जोया ऐसी ही पोशाकें लातीं जिन्हें वे पसंद करतीं. उन में से कुछ किसी जलसे या पार्टी से पहले जोया को अपने लिए अच्छी डै्रस लाने को कह जातीं. एक बार तो अखबार में शहर के मेयर के घर हुए जलसे की तसवीर में उन की एक ग्राहक का चित्र भी था, जिस ने उन्हीं की दुकान की डै्रस पहनी हुई थी. वह ड्रैस जोया केवल 15 पैन्स में लाई थीं और उस पर थोड़ी मेहनत के बाद वही पोशाक 10 पौंड की थी.’’

सहारनपुर में जब भी कोई निकाह होता तो सभी सहेलियों के कपड़ों पर सजावट जोया ही तो करतीं. फिर चाहे वह तल्हा का शरारा हो या समीना की कुरती, सभी को जरीगोटे से सुंदर बनाने की कला सिर्फ जोया ही दिखातीं. और इतनी मेहनत के बाद भी जो कारीगरी जोया के कपड़ों पर होती, वही नायाब होती.

‘‘वे लोग ईसाई हैं और शादी भी ईसाई ढंग से होगी. यह तुम जानती ही हो. इसलिए मैं चाहती हूं कि तुम कोई बढि़या सा ईवनिंग गाउन खरीद लो अपने लिए. सभी औरतें अच्छी से अच्छी पोशाकों में होंगी. आखिर इतने अमीर लोग हैं वे. ऐसे में तुम्हारा सूट या शरारा पहनना कितना खराब लगेगा.’’

नाहिद की हिदायत पर जोया ने अपने लिए एक विदेशी गाउन तैयार करने की सोची. नाहिद को बताए बिना ही जोया ने अपनी दुकान की एक पोशाक चुनी. वे जानती थीं कि नाहिद कभी उन्हें अपनी दुकान की पोशाक नहीं पहनने देगी. लेकिन सिर्फ एक शाम के लिए पैसे बरबाद करने के लिए जोया कतई तैयार न थीं. और फिर जब उन जैसे अमीर घरों की औरतें उन की दुकान से पोशाकें खरीदती हैं, तो यह कहां की अक्लमंदी होगी कि वे खुद दूसरी दुकान से पोशाक खरीदें.

काफी सोचविचार के बाद उन्होंने अपने लिए एक नीली ड्रैस चुनी, जो कुछ महीने पहले फैगन बाजार से ली थी. पर वह इतनी घेरदार थी कि तंग कपड़ों का फैशन की वजह से उसे किसी ने हाथ तक न लगाया था. जोया ने उसे काट कर काफी छोटा और अपने नाप का बनाया. फिर बचे हुए कपड़े की दूधिया सफेदी हैट के चारों तरफ छोटी झालर लगा दी.

शादी के बाद जोया दावत के लिए ज्योफ के घर पहुंचीं. वहां की चमकदमक देख वे काफी प्रभावित हुईं. भव्य, आलीशान बंगले के चारों तरफ खूबसूरती व करीने से पेड़ लगे हुए थे. उन पर बल्बों की झालर यों पड़ी थी मानो नाहिद के साथसाथ आज उन की भी शादी हो.

जोया अपनी बेटी की पसंद पर खुश हो ही रही थीं कि ज्योफ की मां मौरीन वहां आ पहुंचीं, ‘‘जोया, क्या खूब शादी थी न. नाहिद कितनी खूबसूरत लग रही है. आप को गर्व होता होगा अपने बच्चों पर. बच्चों को अकेले ही पालपोस लेना कोई छोटी बात नहीं. नाहिद से पता चला कि आप के पति सालों पहले ही… मुझे खेद है.’’

मौरीन बातचीत और हावभाव से एक बड़े घराने की सभ्य स्त्री मालूम पड़ती थीं, ‘‘मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती विदेश में अपने पति की गैरमौजूदगी में बच्चों को अकेले पालने की. मैं वाकई आप से बहुत प्रभावित हूं. कैसे संभाल लिया आप ने सब कुछ? आप के बच्चे आप की कुशलता के तमगे हैं.’’

‘‘शुक्रिया मौरीन’’, जोया खुश अवश्य थीं किंतु कुछ असंतुष्ट भी. कहीं न कहीं उन का मन यह मना रहा था कि उन की कोई ग्राहक ज्योफ की रिश्तेदार निकल आए. ऐसे में वे अपने कार्य के प्रति नाहिद के दृष्टिकोण को बदल पातीं. किंतु ऐसा हुआ नहीं.

तभी मौरीन जोया की बांह में बांह डालते हुए कहने लगीं, ‘‘नाहिद ने मुझे बताया था कि आप फैशन की दुनिया से सरोकार रखती हैं. कितना आकर्षक लगता है यह सब. यह ड्रैस जो आप ने पहनी है ‘हिलेयर बैली’ से ली है न?’’

जोया ने खामोशी से सिर हिला हामी भर दी.

‘‘क्या खूब फब रही है आप पर. मुझे नहीं पता था कि वे घेरदार के अलावा तंग नाप की भी ड्रैसेज बेचते हैं या इस के साथ हैट भी मिलती है. कितने आश्चर्य की बात है कि मेरे पास भी ऐसी एक घेरदार ड्रैस थी, रंग भी बिलकुल यही. लेकिन वह इतनी घेरदार थी कि आजकल उसे पहनना मुमकिन नहीं था. आप से क्या कहना, आजकल का फैशन आप से बेहतर भला कौन जानेगा,’’ फिर कुछ सोचते हुए मौरीन बोलीं, ‘‘पता नहीं मैं ने उस ड्रैस के साथ क्या किया.’’

‘‘हां, पता नहीं…’’ जोया ने अपनी भोलीभाली आंखों को मटकाते हुए कहा

और इतना कह कर अपनी कारीगरी पर मुसकरा उठीं.

Online Hindi Story 2025 : तिकड़ी और पंच

Online Hindi Story 2025 : आज कालेज का पहला दिन था. चारों तरफ चहलपहल और गहमागहमी का माहौल एहसास करा रहा था कि आज से कालेज का नया सत्र शुरू हो गया है. छात्रछात्राएं एकदूसरे का इंट्रोडक्शन लेने में व्यस्त थे.

स्कूल से निकल कर कालेज लाइफ में प्रवेश करने पर जहां छात्रछात्राओं में एक अलग ही आत्मविश्वास और उत्साह नजर आ रहा था, वहीं पुराने छात्र खुद को सीनियर्स की श्रेणी में पा कर फूले नहीं समा रहे थे.

‘‘हाय, आई एम दिवाकर…दिवाकर सक्सेना… ऐंड यू?’’ उस ने एक खूबसूरत छात्रा की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘आई एम केपी… केपी, आई मीन कुनिका पांडे. फर्स्ट ईयर कौमर्स,’’ जवाब आया.

‘‘आई एम फर्स्ट ईयर इंगलिश औनर्स,’’ दिवाकर ने हाथ मिलाते हुए कहा.

वहीं इसी कालेज के कुछेक छात्र पिछले 4-5 साल से सीनियर्स का तमगा गले में लटकाए अपनी सीनियौरिटी की धौंस जमाते फिर रहे थे, दरअसल, पढ़ाई से उन का कोई लेनादेना नहीं था. वे अमीरजादे थे इसलिए मांबाप की दौलत पर ऐश कर रहे थे.

विशाल, कमल और मुन्ना की तिकड़ी ने अपने गैंग का नाम रखा था त्रिशंकु और तीनों के गले में टी आकार का लौकेट लटका रहता था. कालेज परिसर में मोटरसाइकिलें धड़धड़ाते हुए घुसना, छेड़छाड़ करना, मारपीट, छीनाझपटी, मुफ्तखोरी कर घर चले जाना यही इन का सिलेबस था.

कालेज प्रशासन, अभिभावक, छात्रछात्राएं, स्टाफ, कैंटीनकर्मी सभी इन से परेशान थे. चिकने घड़े पर गिरे पानी की तरह इन पर किसी की बात का असर ही नहीं होता था.

आज कालेज का पहला दिन होने के कारण यह तिकड़ी रैगिंग के मूड में छटपटा रही थी. कालेज लौन में लगे बरगद के घने छायादार पेड़ के नीचे बैठे ये माहौल को कुछ गरमाने की ताक में थे. ये गिद्ध दृष्टि लगाए सोच रहे थे कि शुरुआत कहां और किस से की जाए.

त्रिशंकु के इन गिद्धों को पता नहीं था कि उन की टक्कर का और शायद उन से अधिक खुर्राट कोई और भी कालेज में आ चुका है. इसी साल तिकड़ी के सरकिट विशाल की छोटी बहन अनुष्का ने भी बीए फर्स्ट ईयर में ऐडमिशन लिया था.

त्रिशंकु के कौमेडियन मुन्ना ने ठहाका लगाते हुए विशाल से कहा, ‘‘बौस, एक बात और भी है, जिस की तरफ अभी तक हमारा ध्यान ही नहीं गया.’’

‘‘वह क्या है?’’ विशाल ने अपने चिरपरिचित दादागीरी वाले अंदाज में पूछा.

‘‘बौस, इस साल हमें संभल कर चलना होगा, क्योंकि तुम्हारी बहन ने भी तो कालेज में ऐडमिशन लिया है.’’

‘‘तो फिर?’’ विशाल उसे घूरता हुआ बोला.

‘‘यार, तुम समझते क्यों नहीं कि तुम्हारी हरकतों का आंखों देखा हाल तुम्हारे मम्मीपापा को अब हर शाम मिलेगा,’’ मुन्ना अचानक समझदार हो गया था.

‘‘अरे, तू घबरा मत, कुछ नहीं होगा. उन्हें सब पता है. अपना तो बस, एक ही फंडा है और रहेगा, खाओपीओ, मौज करो, पेमैंट करेंगे जूनियर्स,’’ खोखली सी हंसी हंसता हुआ वह बोला.

उधर नए छात्र दिवाकर की भी 4 लोगों की एक टीम थी, जो स्कूल से ही उस के साथ आई थी यानी 5 का पंच. ये सभी पढ़ाकू, मेहनती, ईमानदार और मध्यवर्गीय परिवारों से आए थे, जिन का लक्ष्य था पढ़ाई के अलावा परिसर में किसी किस्म की बदतमीजी और गुंडागर्दी नहीं चलने देना और किसी के साथ हो रही ज्यादती को रोकना. पहले प्यार से और फिर मार से. इन्हें त्रिशंकु दल की खुराफातों के बारे में सबकुछ पता था.

दरअसल, त्रिशंकु की इस दादागीरी के पीछे एक राज था और वह यह कि विशाल के पिता कालेज के ट्रस्टीज में से  एक थे, जिस का वह नाजायज फायदा उठा रहा था.

तभी इंटरवल का सायरन बजा, जैसा होता आया था तिकड़ी कैंटीन में घुसी और एक टेबल पर बैठे फ्रैशर्स को देख कर हुक्म दिया, ‘‘अबे, देखते नहीं सीनियर्स आए हैं, टेबल खाली करो और हमारे लिए 3 कौफी और आमलेट ले कर आओ.’’

‘‘अरे, सीनियर्स हैं तो क्या हुआ, इन्होंने कैंटीन का फर्नीचर खरीद लिया है?’’ नए आए छात्र अशफाक ने कहा.

‘तड़ाक,’ उसे शायद थप्पड़ की उम्मीद नहीं थी. वह कुरसी से गिर पड़ा. बाकी बैठे छात्र भी टेबल छोड़ कर खड़े हो गए.

‘‘अरे…अरे, खड़े क्यों हो गए बैठोबैठो. वाकई कैंटीन का फर्नीचर किसी के बाप की बपौती नहीं है. बैठ जाओ,’’ पीछे से आई रौबदार आवाज की ओर सभी का सिर घूमा.

कैंटीन के दरवाजे पर दिवाकर अपने साथियों के साथ खड़ा था. उस ने आगे बढ़ कर अशफाक को सहारा दे कर उठाया और उसी टेबल पर बैठा दिया जहां न बैठने की धौंस तिकड़ी दे रही थी. वह विशाल की ओर देख कर मुसकराया. इस पर तिकड़ी आगबबूला हो गई. विशाल ने दिवाकर को ललकारते हुए कहा, ‘‘अबे, ओ चिकने, हम से मत उलझ, तू मुझे जानता नहीं.’’

बजाय उस की बात पर ध्यान देने के दिवाकर ने नए आए छात्रों को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘आज के बाद या कहूं अभी से इन लफंगों को कोई अपनी सीट नहीं देगा, कोई इन के लिए कौफी, ठंडा या आमलेट नहीं लाएगा. अब तक जो होता आया है वह आगे नहीं होगा. आप सब लोग अपनीअपनी जगह पर बैठें और ऐंजौय करें. वैसे भी लंच टाइम के 15 मिनट बचे हैं,’’ दिवाकर ने समझाया.

तभी तिकड़ी का कौमेडियन मुन्ना चहका, ‘‘बौस, इस ने तो आप का हुक्म मानने से इनकार कर दिया. कहो तो धो दूं.’’

इस से पहले कि कोई कुछ समझ पाता एक झन्नाटेदार थप्पड़ ने उसे 5 फुट दूर फेंक दिया. फिर क्या था, पंच ने तिकड़ी को जम कर धोया.

‘‘तू समझता है कि हाथ सिर्फ तेरे पास ही हैं. जो कुछ तू करता आया है, वह हम भी कर सकते हैं. मगर न तो ये हमारी फितरत है और न आदत. अपनी इज्जत का खयाल नहीं तो अपनी बहन की इज्जत का खयाल कर ले,’’ विशाल को कौलर से पकड़ कर उठाते हुए दिवाकर ने कहा.

विशाल की बहन अनुष्का यह सब दूर खड़ी देख रही थी. उस के चेहरे पर संतोष के भाव थे कि चलो, ‘सेर को कोई तो सवा सेर मिला.’

‘‘कोई तेरी बहन को तंग करे तो तुझे कैसा लगेगा,’’ दिवाकर ने चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘कोई उसे कुछ कह कर तो देखे, अपने पैरों से चल कर घर नहीं जा पाएगा,’’ पिट कर भी उस के तेवर ज्यों के त्यों थे.

‘‘अरे, तो इस में बड़ी बात क्या है, हम ही उसे कुछ कहे देते हैं,’’ कह कर दिवाकर ने अनुष्का को अपने पास बुलाते हुए कहा, ‘‘हैलो, अनु आई एम दिवाकर… दिवाकर सक्सेना, फ्रौम इंगलिश औनर्स,’’ दोनों ने हाथ मिलाया.

उस ने एक बार भाई की तरफ देखा और अपना हाथ खींच लिया. ‘‘घबराओ मत, मैं ऐंगेज्ड हूं, मेरी सगाई हो चुकी है. यों भी मुझे आप से दोस्ती या अफेयर में कोई दिलचस्पी नहीं है. ये सब इस सिरफिरे को सबक सिखाने के लिए जरूरी था. तुम मेरी भी बहन की तरह हो. मेरी तुम पर पूरे 3 साल नजर रहेगी. कोई प्रौब्लम हो तो बताना.’’

विशाल चुपचाप उठ कर कैंटीन से बाहर जाने लगा तो दिवाकर ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘विशाल, मेरी तुम से कोई दुश्मनी नहीं है, लेकिन ये समझ लो कि तुम्हारी दादागीरी के दिन लद गए. तुम पढ़ो या न पढ़ो, मुझे इस से कोई मतलब नहीं, मगर आज से सबकुछ बंद.’’

विशाल सचाई समझ चुका था. अगले 3 साल तिकड़ी और पंच दोस्त बन कर रहे. इस दौरान कालेज में न तो कोई मारपीट हुई और न ही रैगिंग.

Best Story : उतरन

लेखिका- कात्यायनी सिंह

Best Story : रहरहकर उस का दिल धड़क रहा था. मन में उठते कई सवाल उस के सिर पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. यह क्या हो गया? भूल किस से हुई? या भूल हुई भी तो क्यों हुई? मन में उभरते इन सवालों का दंश झेल पाना मुश्किल हो रहा था. अभी बेटी के होस्टल में पहुंचने में तकरीबन 3 घंटे का समय था. बस का झेलाऊ सफर और उस पर होस्टल से किया गया फोन कि आप की बेटी ने आत्महत्या करने की कोशिश की है…

अपने अंदर झांकने की हिम्मत नहीं हुई. स्मृति पटल पर जमी कई परतें, परत दर परत सामने आने और ओझल होने लगीं. दिल बैठा जा रहा था. अवसाद गहरा होता जा रहा था. तन का बोझ भी सहना मुश्किल और आंखों से बहती अविरल धारा…

वह खिड़की के सहारे आंखें मूंदे, दिल

और दिमाग को शांत करने की कोशिश करने लगी. पर एकएक स्मृति आंखों में चहलकदमी करती हुई सजीव होने लगी. वह घबरा कर खिड़की से बाहर देखने लगी. आंखों की कोरों पर बांधा गया बांध एकाएक टूट कर प्रचंड धारा बन गया. यों तो जिंदगी करवट लेती है, पर इस तरह की उस का पूरा वजूद दूसरी शादी के नाम पर स्वाह हो जाए. क्योंकि उस ने दूसरी शादी? क्या मिला उसे? स्वतंत्र वजूद की चाहत भी तो अस्तित्वहीन हो गई?

पर समाज का तो एक अलग ही नजरिया होता है. तलाकशुदा स्त्री को देख लोगों की

आंखों में हिकारत का कांटा चुभ सा जाता है. और उस कांटे को निकालने के लिए ही तो रूपा ने दूसरी शादी की.

पहली शादी और तलाक को याद कर मन कसैला नहीं करना चाहती

अब. पर न चाहने से क्या होता है. तलाक के 10 साल पहले ही बेटी उस की गोद में आ चुकी थी. शादी के 2 दिन बाद ही सपने बिखरने की आहट सुनाई देने लगी थी. सुनहरे दिन और सपनों में नहाई रात, सब इतनी भयावह कैसे हो गई? वह आज तक समझ नहीं पाई.

हर रोज की मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना उसे जिंदगी से बेजार करने लगी थी और उस के नीचे कराहता उमंगों भरा मन. पहलेपहल भरपूर विरोध किया रूपा ने. पर दिन, महीने और 7 साल बीतते चले गए और उस का धैर्य क्षीण होता रहा. पर एक दिन… उसी विरोध के महीन परतों के नीचे ज्वालामुखी के असंख्य कण फूट पड़े. और अंतत: उसे तलाक की पहल भी करनी पड़ गई…

2 साल लगे इस अनचाही पीड़ादायी परिस्थिति से नजात पाने में. तलाक के बाद बेटी को साथ ले कर वो एक अनजान सफर पर निकल गई. मंजिल उस को पता नहीं थी. इस असमंजस की स्थिति के बावजूद वह तनावमुक्त महसूस कर रही थी खुद को. आखिर

2 सालों के संघर्ष ने नारकीय जीवन से मुक्ति जो दिलाई थी. कुदरत ने मेहरबानी दिखाई और 1 हफ्ते में ही रेडियो स्टेशन में नौकरी लग जाने के कारण

उसे कोई आर्थिक तंगी का एहसास नहीं हुआ. और फिर मायके का सहारा भी संबल बना.

उगते सूरज की लालिमा उस के गालों पर उतरने लगती थी, जब रेडियो स्टेशन में उसे एक पुरुष प्यार से देखता था. अच्छा लगता था उसे यों किसी का देखना. 2 वर्ष का अकेलापन ही था, जो अनजान पुरुष को देख कर पिघलने लगा.

पिछली यादों में तड़पता उस का मन कहता कि मुझे इस सुख की आशा नहीं करनी चाहिए अब. मेरे हिस्से में कहां है सुख… और अजीब सी उदासी मन को उद्वेलित करने लगती.

उफ्फ, यह अचानक आज मुझे क्या हो रहा है? 2 सालों के अकेलेपन में कभी भी इस तरह का खयाल नहीं आया. अकेलापन, उदासी, सबकुछ अपनी बेटी की मुसकान तले दब चुकी थी. फिर आज क्यों? जबकि उस ने तलाक के बाद किसी भी पुरुष को अपने दायरे के बाहर ही रखा. अंदर आने की इजाजत नहीं दी किसी को. पर आज इस पुरुष को देख कर क्यों तपते रेगिस्तान में बारिश की बूंदों जैसा महसूस हो रहा है.

‘क्या ये कोई स्वप्न है या फिर पिछले जन्म का साथ. क्यों मेरी नजरें बारबार उस की ओर उठ रही हैं? क्यों वह उसे अनदेखा नहीं कर पा रही है? मन में एक सवाल- क्या कुदरत को कुछ और खेल खेलना है? इसी उधेड़बुन में शाम हो गई,’ उस ने अपने बैग को कंधे पर लटकाया और बाहर निकल आई.

पूस की सर्दी में भी उस के माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला रही थीं. चेहरे पर शर्म भरी मुसकराहट खिल उठी. तो क्या उसे प्यार हो गया है? एकाएक उस की मुद्रा ने गंभीरता का आवरण ओढ़ लिया. सोचने लगी, ‘उस का मकसद तो सिर्फ और सिर्फ अपनी बेटी का भविष्य बनाना है. नहींनहीं, वह इन फालतू के बातों में नहीं पड़ेगी.’

तभी उसे एक आवाज ने चौंका दिया, ‘‘चलिए मैं आप को घर छोड़ देता हूं. कब तक यहां खड़ी रह कर रिकशे का इंतजार करेंगी. अंधेरा भी तो गहरा रहा है.’’

पलट कर देखा तो वही पुरुष था, जो उस के दिलोदिमाग पर छाया हुआ था. वैसे अंधेरे की आशंका तो उस के मन में भी थी. वह बिना कुछ जवाब दिए उस की कार में बैठ गई. मध्यम स्वर में गाना बज रहा था-

धीरेधीरे से मेरी जिंदगी में आना

धीरेधीरे से दिल को चुराना…

वह चुपचाप बैठ बाहर के अंधेरे में झांकने की असफल कोशिश रही थी. तभी उस ने हंस कर पूछा, ‘‘अंधेरे से लड़ रही हैं या मुझे अनदेखा कर रही हैं?’’

वह भी मुसकरा दी, ‘‘अपने वजूद को तलाश रही हूं. आप घुसपैठिए की तरह

जबरदस्ती घुस आए हैं, इसी समस्या के निवारण में जुटी हूं.’’

खिलखिला कर हंस पड़ा वह. लगा जैसे चारों तरफ हरियाली बिखर गई हो. इन्हीं बातों के दरमियान घर आ गया और वह बिना कुछ कहे गाड़ी से उतर कर जाने लगी. तभी उस ने विनती भरे स्वर में उस का मोबाइल नंबर मांगा. पहले तो वह झिझकी, लेकिन फिर कुछ सोच कर नंबर दे दिया.

दिन बीतने के साथ बातों का और फिर मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. वह नहीं चाहती थी कि रचित हर शाम उस से मिलने आए. क्योंकि एक तो बदनामी का डर और दूसरी तरफ बेटी जिस की नजरों का सामना करना मुश्किल होता. मन की आशंकाएं उसे परेशान करती कि उस के जानने के बाद, क्या वह बेझिझक उस के सामने जा पाएगी? पर दफ्तर के बाद का खाली समय उसे काटने दौड़ता. झिझक और असमंजस के बीच वह मिलने का समय होते ही उस के आने की राह भी देखती.

तेरे वादों पर हम एतबार कर बैठे

ये क्या कर बैठे, हाय क्या कर बैठे

एक बार मुसकरा कर देख क्या लिए

सारी जिंदगी हम तेरे नाम कर बैठे…

सपनों के साये तले रात और दिन बीतते रहे. समय पंख लगा कर उड़ रहा

था. पर उस के दिमाग में रहरह कर यही सवाल कौंधता कि कौनकौन होगा उस के घर में… सोचती… पूछूं या नहीं?

परएक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘‘रचित, हम एकदूसरे के इतने करीब आ गए हैं, पर अभी तक मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानती. अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न?’’

‘‘क्या जानना चाहती हो? यही न कि मैं शादीशुदा हूं या नहीं, बच्चे हैं या नहीं…? हां बच्चे हैं. पर शादीशुदा होते हुए भी मैं अकेला हूं, क्योंकि पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है. मेरे साथ मेरी मां और मेरा बेटा रहता है.’’

रूपा ने आंखें बंद कर लीं. यह सुख का क्षण था. सपने अभी जिंदा हैं… कुछ देर की मौन के बाद रचित ने पूछा, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

‘‘क्या तुम्हें पता है कि मेरी भी एक बेटी है? मैं एक तलाकशुदा हूं. क्या तुम्हारी फैमिली मुझे और मेरी बेटी को स्वीकार करेगी? सपनों की दुनिया बहुत कोमल होती है रचित. पर वास्तविकता का धरातल बहुत कठोर. अच्छी तरह सोच लो. फिर कोई निर्णय लेना,’’ इतना कहती गई, पर मन के किसी कोने में कुछ नया जन्म लेती महसूस कर रही थी रूपा.

कुछ तेरी कहानी है, कुछ मेरी कहानी है

हर बात खयाली है, हर बात रूहानी है

मिल जाए कभी जो हम, तो हर बात सुहानी है…

रूपा के गोरे से मुखड़े पर अठखेलियां करती लटों को हाथों हटाते हुए रचित ने उस के गालों को अपनी हथेलियों में समेट लिया और उस की मदभरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं अब तुम्हारे बगैर नहीं रह सकता रूपा. मैं सब ठीक कर दूंगा. बस तुम हां कर दो.’’

महीनों से चल रही मुलाकातों की फुहारें रूपा को आश्वासन की मधुर चासनी में सराबोर कर चुकी थीं. वह अपनेआप से अजनबी होती जा रही थी. कभी तो मन मचलता कि बारिश की बूंदों को अपनी हथेली में समेट ले. और कभी समंदर की लहरों के साथ विलीन हो जाने की विकलता. भावनाएं तूफान की तरह प्रचंड, उद्वेलित अंतर्मन की छटपटाहट ने आंखों में पानी का उबाल ला दिया. सामान्य गति से बीतते वक्त की चाल बहुत धीमी लग रही थी रूपा को, और सांसें धौंकनी की तरह तेज.

सांसों में बसे हो तुम

आंखों में बसे हो तुम

छूओ तो मुझे एकबार

धड़कन में बसे हो तुम…

समय गुजरते देर नहीं लगती. दोनों ने शादी कर ली. हालांकि रचित की मां बहुत मानमनुहार के बाद राजी हुई थीं और इस शर्त पर कि रूपा की बेटी कभी इस घर में नहीं आएगी. रूपा को बहुत बड़ा झटका लगा था. एक बार फिर से पुराने घावों का दर्द हरा हो गया था.

अचानक ही आए इस झंझावात ने रूपा के सपनों को चकनाचूर कर दिया. विचलित सी वह सन्न रह गई. पर रचित ने यह समझा कर शांत कर दिया कि वक्त के साथ सब बदल जाते हैं. मां को हम दोनों मिल कर मना लेंगे. रूपा ने गहरी सांस ली. उस ने बड़ी मुश्किल से दिल को समझाया, होस्टल से तो बच्ची महफूज है ही. जब मन करेगा जा कर उस से मिल लूंगी. सुखद भविष्य की कामना लिए रूपा को क्या पता था कि नियति क्याक्या रंग दिखाने वाली है.

डूबता हुआ सुर्ख लाल सूरज उसे माथे की बिंदिया सी लग रही थी. एक बार फिर से सब भूल कर उस ने रचित के प्यार भरोसा कर लिया. सुख की अनुभूतियां वक्त का पता ही नहीं चलने देती. सपनों के हिंडोले में झूलते 10 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला.

‘‘कल घर लौटने का दिन है रूपा,’’ रचित ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘प्यार ने हम दोनों को बांध रखा है, वरना हम तो नदी के दो किनारे थे.’’

रूपा आसमान की ओर देखती हुई बुदबुदाई.

रचित उस की आंखों में देखता कुछ पढ़ने की कोशिश करता रहा. फिर उस ने मन में अंदर चल रहे द्वंद्व को परे झटक कर रूपा की खूबसूरती को निहारने लगा. पलभर के लिए तो लगा कि काश, यह वक्त यही ठहर जाता. पर वक्त भी कभी ठहरता है भला.

साथ तुम्हारे चल कर यह अहसास हुआ

दरमियां हमारे सिर्फ प्यार, और कुछ नहीं…

अंधेरा चढ़ता गया और दोनों महकते एहसास के साथ सपनों सरीखे पलों की नशीली मादकता में विलीन. थकान से चूर कब दोनों की आगोश में समा गए, महसूस भी न हुआ. सुबह का सूरज नया दिन ले कर हाजिर हो गया. जल्दीजल्दी तैयार हो कर दोनों गाड़ी में बैठ गए और चल दिए घर की ओर.

घर पहुंचते ही सब से पहला सामना रचित के बेटे प्रथम से हुआ. उस की नजरें क्रोध और हिकारत से भरी हुई थीं. दोनों को देखते ही वह अंदर के कमरे में चला गया. रूपा के चेहरे पर सोच की लकीरें उभर आईं. तो क्या प्रथम की रजामंदी के बगैर शादी हुई है? जबकि मैं ने तो अपनी बेटी को बताया था कि रचित की मम्मी शादी के लिए तैयार हैं, पर शर्त रखी है कि तुम मेरे साथ उन लोगों के साथ नहीं रहोगी. ये सुन कर भी मेरी बेटी ने तो नाराजगी नहीं जताई. बल्कि उम्मीद से कहीं आगे बढ़ कर बोली, ‘‘मां, अभी भी तो हम साथ नहीं रहते. तुम मुझ से मिलने होस्टल तो वैसे भी आती रहती हो.’’

बच्ची को याद कर के रूपा की आंखें भर आईं. धीरेधीरे खुद को सामान्य कर सास के पास गई. लेकिन सास की बेरुखी ने तो दिल ही बैठा दिया. एक बार फिर से रूपा ने दिल को बहलाया. कोई बात नहीं. रचित तो समझता है न मुझे. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.

रूपा एक सपना देख रही है. वह है, उस की बच्ची है, रचित और प्रथम है. एक बहुत ही प्यारा सा, रंगीन सा प्रथम और बच्ची गोद में सोई है. रचित और मां उस के बगल में बैठे हैं. सभी बहुत खुश हैं.

अचानक नींद से जग जाती है रूपा. चारों तरफ देखती है…

ऐसा सपना, जिस का जाग्रत अवस्था से कोई संबंध नहीं. लेकिन सपने की खुशी उस के चेहरे पर झलक आती है. कभी न कभी यह सपना भी सच होगा, जरूर होगा.

देखती है पलट कर रचित को. नींद में बच्चों सा मासूम, प्यार से अपने गुलाबी होंठ उस के माथे पर टिका देती है. रचित के माथे पर भावनाओं का गुलाबी अंकन देख कर खुद शरमा भी जाती है रूपा. फिर उठ कर चल देती है किचन की ओर. नजदीक पहुंचते ही बरतनों की आवाज सुन कर चौंक गई. अंदर घुसते ही देखती है कि रचित की मां नाश्ता बना रही हैं.

‘‘मां, मैं बना देती हूं न…’’ सुनते ही सास किचन से बाहर निकल गई. सब समझते हुए भी रूपा ने खुद को संयत रख कर बाकी काम निबटाया और नाश्ता ले कर प्रथम के कमरे में दाखिल हुई. बेखबर सो रहे प्रथम को कुछ देर अपलक देखती रही. फिर बड़े प्यार से धीरेधीरे बाल सहलाते हुए बोली, ‘‘उठो प्रथम बेटा, स्कूल नहीं जाना क्या आज?’’ रूपा की आवाज कानों में पड़ते ही वह घबरा कर जाग गया और अजीब सी नजरों से घूरने लगा. पता नहीं क्यों इतना असहज कर रहा था उस का इस तरह घूरना? नफरत ऐसी कि आंखों में अंगारे दहक रहे हों.

‘‘आप फिर से मेरे कमरे में आ गईं? एक बात हमेशा याद रखिए कि आप सिर्फ पापा की पत्नी हैं, मेरी मम्मी नहीं. मेरी मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता. कोई भी नहीं.’’

स्तब्ध रह गई थी रूपा. रात का सुनहरा सपना ताश के पत्तों की तरह बिखरता नजर आ रहा था उसे. लगभग दौड़ती हुई वह कमरे से बाहर निकल गई.

ऊपर से सब कुछ सामान्य दिख रहा था, पर समय के साथ रचित में भी बदलाव आने लगा. दिनभर औफिस और घर के काम से थक कर चूर हो जाने के बावजूद रात में बिस्तर पर नींद का नामोनिशान तक नहीं. रचित से भी वो अब कुछ नहीं कहती. बस अपनी एक बात उसे अचंभित कर जाती थी. जिस घुटन और प्रताड़ना के विरुद्ध वह महीनों लड़ी, वह घुटन और प्रताड़ना अब उसे उतना विचलित नहीं करती थी. समय और उम्र समझौता करना सिखा देता है शायद.

आज सुबह से मन उद्विग्न हो रहा था बारबार. रहरह कर दिल में एक अजीब सी टीस महसूस हो रही थी. जैसेतैसे काम खत्म कर के चाय पीने बैठी ही थी कि दीया के होस्टल से फोन आ गया. चकोर को चांद मिल जाने खुशी मिल गई हो जैसे.

लेकिन यह क्या, मोबाइल से बात करते हुए उस के चेहरे पर दर्द का प्रहार महसूस कर सकता था कोई भी. कुछ देर के लिए तो वह मोबाइल लिए हतप्रभ सी बैठी रही. फिर अचानक बदहवास सी उठी और निकल गई बस स्टैंड की ओर.

होस्टल के गेट पर पहुंची तो काफी भीड़ दिखी. अनहोनी की आशंका उस के दिलोदिमाग को आतंकित करने लगी. अंदर जा कर देखा तो बेटी को जमीन पर लिटाया गया था. बेसब्री के साथ पास में बैठ गई और बड़े प्यार से पुकारी,

‘‘दीया बेटे.’’

कोई जवाब नहीं…

शरीर पकड़ कर हिलाया.

रूपा को तो जैसे करंट लग गया हो. इतना ठंडा और अकड़ा हुआ क्यों लग रहा है दीया का बदन. तो क्या?

नहीं…

ऐसा कैसे हो सकता है?

क्यों…?

किंतु अशांत धड़कता दिल आश्वस्त नहीं हो पा रहा था. वह निर्निमेष भाव से अपनी प्यारी परी को देखे जा रही थी. वही मोहक चेहरा…

तभी किसी ने उस के हाथों में एक कागज का टुकड़ा थमा दिया. यह कह कर कि आप की बेटी ने आप के नाम पत्र लिखा है.

डबडबाई आंखों से पत्र पढ़ने लगी-

‘दुनिया की सब से प्यारी ममा…’

आप को खूब सारा प्यार

आप को खूब सारी खुशियां मिले. सौरी ममा, मैं आप से मिले बगैर जा रही हूं. ये दुनिया बहुत खराब है ममा. तुम्हारे तलाक और शादी को ले कर बहुत गंदीगंदी बातें करते थे स्कूल के स्टूडैंट्स. कहते थे तेरी मां… छोड़ न मां.

मैं जानती हूं तुम्हारे बारे में.

लेकिन मां, मैं तंग आ गई थी उन के तानों से.

तुझ से नहीं बताया कि तू इतनी खुश है, परेशान हो जाओगी ये सब जान कर. मां, अब मुझे कोई परेशान नहीं करेगा. और तुम भी शांति से रह पाओगी.

हमेशा खुश रहना मां.

‘-तुम्हारी परी दीया.’

वह अपनेआप को रोक नहीं पाई. अचेत हो कर लुढ़क गई रूपा. पर उस अर्ध चेतनावस्था में भी वह मंदमंद मुसकरा रही थी.

वह अचानक उठ कर बैठ गई और खूब जोर से हंस पड़ी. उसे लगा वह तो न नए पति और उस के बच्चे की बन पाई न ही अपनी वाली को संभाल पाई. मां बनने की इतनी बड़ी कीमत देनी होगी इस का अंदाजा नहीं था.

दिल चिथड़े कर डालने वाली हंसी…

अगला दिन…

दुनिया के लिए एक सामान्य दिन जैसा ही सवेरा था.

सिवाय रूपा के…

Stories 2025 : मेरी मां का नया प्रेमी

Stories 2025 : श्वेता ने मां को फोन लगाया तो फोन पर किसी पुरुष की आवाज सुन कर वह चौंक गई…कौन हो सकता है? एक क्षण को उस के दिमाग में सवाल कौंधा. अमन अंकल तो होने से रहे. मां ने ही एक दिन बताया था, ‘तुम्हारे अमन अंकल को बे्रन स्ट्रोक हुआ था. अचानक ब्लडप्रेशर बहुत बढ़ गया था. आधे धड़ को लकवा मार गया. उन के लड़के आए थे, अपने साथ उन्हें हैदराबाद लिवा ले गए.’

‘‘हैलो…बोलिए, किस से बात करनी है आप को?’’ सहसा वह अपनी चेतना में वापस लौटी. संयत आवाज में पूछा, ‘‘आप…आप कौन? मां से बात करनी है. मैं उन की बेटी श्वेता बोल रही हूं.’’ स्थिति स्पष्ट कर दी.

‘‘पास के जनरल स्टोर तक गई हैं. कुछ जरूरी सामान लाना होगा. रोका था मैं ने…कहा भी कि लिख कर हमें दे दो, ले आएंगे. पर वह कोई स्पेशल डिश बनाना चाहती हैं शाम को. तुम्हें तो पता होगा, पास में ही सब्जी की दुकान है. वहां वह अपनी स्पेशल डिश के लिए कुछ सब्जियां लेने गई हैं…पर यह सब मैं तुम से बेकार कह रहा हूं. तुम मुझे जानती नहीं होगी. इस बीच कभी आई नहीं तुम जो मुझे देखतीं और हमारा परिचय होता… बस, इतना जान लो…मेरा नाम प्रभुनाथ है और तुम्हारी मां मुझे प्रभु कहती हैं. तुम चाहो तो प्रभु अंकल कह सकती हो.’’

‘‘प्रभु अंकल…जब मां आ जाएं, बता दीजिएगा…श्वेता का फोन था.’’ और इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. न स्वयं कुछ और कहा, न उन्हें कहने का अवसर दिया.

श्वेता की बेचैनी उस फोन के बाद बहुत बढ़ गई. कौन हो सकते हैं यह महाशय? क्या अमन अंकल की तरह मां ने किसी नए…आगे सोचने से खुद हिचक गई श्वेता. कैसे सोचे? मां आखिर मां होती है. उन के बारे में हमेशा, हर बार, हर पुरुष को ले कर हर ऐसीवैसी बात कैसे सोची जा सकती है?

फिर भी यह सवाल तो है ही कि प्रभुनाथ अंकल कौन हैं? कैसे होंगे? कितनी उम्र होगी? मां से कब, कहां, कैसे, किन हालात में मिले होंगे और उन का संबंध मां से इतना गहरा कैसे बन गया कि मां अपना पूरा घर उन के भरोसे छोड़ कर पास के जनरल स्टोर तक चली गईं… सामान और स्पेशल डिश के लिए सब्जियां लेने…

इस का मतलब हुआ प्रभु अंकल मां के लिए कोई स्पेशल व्यक्ति हैं…लेकिन यह नाम पहले तो कभी मां से सुना नहीं. अचानक कहां से प्रकट हो गए यह अंकल? और इन का मां से क्या संबंध होगा…जिन के लिए मां स्पेशल डिश बनाती हैं…कह रहे थे कि जब वह आते हैं तो मां जरूर कोई न कोई स्पेशल डिश बनाती हैं…इस का मतलब हुआ यह महाशय वहां नहीं, कहीं और रहते हैं और कभीकभार ही मां के पास आते हैं.

अड़ोसपड़ोस के लोग अगर देखते होंगे तो मां के बारे में क्या सोचते होंगे? कसबाई शहर में इस तरह की बातें पड़ोसियों से कहां छिपती हैं? मां ने क्या कह कर उन का परिचय पड़ोसियों को दिया होगा? और उस परिचय पर क्या सब ने यकीन कर लिया होगा?

स्थिति पर श्वेता जितना सोचती जाती, उतने ही सवालों के घेरे में उलझती जाती. पिछली बार जब वह मां से मिलने गई थी तो उन की लिखनेपढ़ने की मेज पर एक नई डायरी रखी देखी थी. मां को डायरी लिखने का शौक है और महिला होने के नाते उन की वह डायरी अकसर पत्रपत्रिकाओं में छपती भी रहती है, अखबारों के साहित्य संस्करणों से ले कर साहित्यिक पत्रिकाओं तक में उन के अंश छपते हैं. चर्चा भी होती है. शहर में सब इसलिए भी उन्हें जानते हैं कि वहां के महाविद्यालय में हिंदी की प्रवक्ता थीं. लंबी नौकरी के बाद वहीं से रिटायर हुईं. मकान पिता ही बना गए थे. अवकाश प्राप्त जिंदगी आराम से वहीं गुजार रही हैं. भाई विदेश में है. श्वेता के पास आ कर वह रहना नहीं चाहतीं. बेटीदामाद के पास आ कर रहना उन्हें अपनी स्वतंत्रता में बाधक ही नहीं लगता बल्कि अनुचित भी लगता है.

इंतजार करती रही श्वेता कि मां अपनी तरफ से फोन करेंगी पर उन का फोन नहीं आया. मां की डायरी में एक अंगरेजी कवि का वाक्य शुरू में ही लिखा हुआ पढ़ा था ‘इन यू ऐट एव्री मोमेंट, लाइफ इज अबाउट टू हैपन.’ यानी आप के भीतर हर क्षण, जीवन का कुछ न कुछ घटता ही है…जीवन घटनाविहीन नहीं होता.

महाविद्यालय में पढ़ते समय भी श्वेता अपनी सहेलियों से मां की प्रशंसा सुनती थी. बहुत अच्छा बोलती हैं. उन की स्मृति गजब की है. ढेरों कविताओं के उदाहरण वह पढ़ाते समय देती चली जाती हैं. भाषा पर जबरदस्त अधिकार है. कालिज में शायद ही कोई उन जैसे शब्दों का चयन अपने व्याख्यान में करता है. पुरुष अध्यापक प्रशंसा में कह जाते हैं कि प्रो. कुमुदजी पता नहीं कहां से इतना वक्त निकाल लेती हैं यह सब पढ़नेलिखने का?

कुछ मुंहफट जड़ देते कि पति रेलवे में स्टेशन मास्टर हैं. अकसर इस स्टेशन से उस स्टेशन पर फेंके जाते रहते हैं. बाहर रहते हैं और महीने में दोचार दिन के लिए ही आते हैं. इसलिए पति को ले कर उन्हें कोई व्यस्तता नहीं है. रहे बच्चे तो वे अब बड़े हो गए हैं. बेटा आई.आई.टी. में पढ़ने बाहर चला गया है. कल को वहां से निकलेगा तो विदेश के दरवाजे उसे खुले मिलेंगे. लड़की पढ़ रही है. योग्य वर मिलते ही उस की शादी कर देंगी. फुरसत ही फुरसत है उन्हें…पढ़ेंगीलिखेंगी नहीं तो क्या करेंगी?

श्वेता एम.ए. के बाद शोधकार्य करना चाहती थी पर पिता को अपने एक मित्र का उपयुक्त लड़का जंच गया. रिश्ता तय कर दिया और श्वेता की शादी कर दी. बी.एड. उस ने शादी के बाद किया और पति की कोशिशों से उसे दिल्ली में एक अच्छे पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई. पति एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर थे. व्यस्तता के बावजूद श्वेता अपने संबंध और कार्य से खुश थी. छुट्टियों में जबतब मां के पास हो आती, कभी अकेली, कभी बच्चों के साथ, तो कभी पति भी साथ होते.

आई.आई.टी. के तुरंत बाद भाई अमेरिका चला गया था. इधर मंदी के चलते अमेरिका से भारत आना उस के लिए अब संभव न था. कहता है अगर नौकरी से महीने भर बाहर रहा तो कंपनी समझ लेगी कि बिना इस आदमी के काम चल सकता है तो क्यों व्यर्थ में एक आदमी की तनख्वाह दी जाए. वैसे भी अमेरिका में जौब की बहुत मारामारी चल रही है.

फिर भी भाई को पिता की एक हादसे में हुई मृत्यु के बाद आना पड़ा था और बहुत जल्दी क्रियाकर्म कर के वापस चला गया था. पिता उस दिन अपने नियुक्ति वाले स्टेशन से घर आ रहे थे लेकिन टे्रन को एक छोटे स्टेशन पर भीड़ ने आंदोलन के चलते रोक लिया था. टे्रन पर पत्थर फेंके गए तो कुछ दंगाइयों ने टे्रन में आग लगा दी. जिस डब्बे में पिताजी थे उस डब्बे को लोगों ने आग लगा दी थी. सवारियां उतर कर भागीं तो उन पर दंगाइयों ने ईंटपत्थर बरसाए.

पत्थर का एक बड़ा टुकड़ा पिता के सिर में आ कर लगा तो वह वहीं गिर पड़े. साथ चल रहे अमन अंकल ने उन्हें उठाया. सिर से खून बहुत तेजी से बह रहा था. लोगों ने उन्हें ले कर अस्पताल तक नहीं जाने दिया. रास्ता रोके रहे. हाथपांव जोड़ कर अमन अंकल ने किसी तरह पिताजी को कहीं सुरक्षित जगह ले जाने का प्रयास किया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और उन की मृत्यु हो गई थी.

भाई ने पिता के फंड, पेंशन आदि की सारी जिम्मेदारी अमन अंकल को ही सौंप दी थी, ‘‘अंकल आप ही निबटाइए ये सरकारी झमेले. आप तो जानते हैं, इन कामों को निबटाने में महीनों लगेंगे, अगर मैं यहां रुक कर यह सब करता रहा तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’’

‘‘तुम चिंता न करो. अपनी नौकरी पर जाओ. यहां मैं सब संभाल लूंगा. इसी रेलवे विभाग में हूं. जानता हूं. ऊपर से नीचे तक लेटलतीफी का राज कायम है.’’

अमन अंकल ने ही फिर सब संभाला था. बाद में उन का ट्रांसफर वहीं हो गया तो काम को निबटाने में और अधिक सुविधा रही. तब से अमन अंकल का हमारे परिवार से संबंध जुड़ा. वह अरसे तक जारी रहा. उन का एक ही लड़का था जो आई.टी. इंजीनियर था. पहले बंगलौर में नौकरी पर लगा था. बाद में ऊंचे वेतन पर हैदराबाद चला गया.

अमन अंकल की पत्नी की मृत्यु कैंसर से हो गई थी. नौकरी शेष थी तो अमन अंकल वहीं रह कर नौकरी निभाते रहे. इस बीच उन का हमारे परिवार में आनाजाना जारी रहा. मां की उन्होंने बहुत देखरेख की. पिता की मृत्यु का सदमा वह उन्हीं के कारण सह सकीं. यह उन का हमारे परिवार पर उपकार ही रहा. बाकी मां से उन के क्या और कैसे संबंध रहे, वह अधिक नहीं जानती.

कुछकुछ आभास श्वेता को उन की डायरी से ही हुआ था. एक बार उन की डायरी में कुछ कविताओं के अंश नोट किए हुए मिले थे.

‘तुम चले जाओगे पर थोड़ा सा यहां भी रह जाओगे, जैसे रह जाती है पहली बारिश के बाद हवा में धरती की सोंधी सी गंध.’

एक पृष्ठ पर लिखी ये पंक्तियां पढ़ कर तो श्वेता भौचक ही रह गई थी…सब कुछ बीत जाने के बाद भी बचा रह गया है प्रेम, प्रेम करने की भूख, केलि के बाद शैया में पड़ गई सलवटों सा… सबकुछ नष्ट हो जाने के बाद भी बचा रहेगा प्रेम, …दीपशिखा ही नहीं, उस की तो पूरी देह ही बन गई है दीपक, प्रेम में जलती हुई अविराम…

मम्मी अचानक ही आ गई थीं और डायरी पढ़ते देख एक क्षण को सिटपिटा गई थीं. बात को टालने और स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए श्वेता खिसियायी सी हंस दी थी, ‘‘यह कवि आप को बहुत पसंद आने लगे हैं क्या, मम्मी?’’

‘‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो,’’ मम्मी ने व्यर्थ हंसने का प्रयत्न किया था, ‘‘एक छात्रा को शोध करा रही हूं नए कवियों पर…उन में इस कवि की कविताएं भी हैं. उन की कुछ अच्छी पंक्तियां नोट कर ली हैं डायरी में. कभी कहीं भाषण देने या क्लास में पढ़ाने में काम आती हैं ऐसी उजली और दो टूक बात कहने वाली पंक्तियां.’’ फिर मां ने स्वयं एक पृष्ठ खोल कर दिखा दिया था, ‘‘यह देखो, एक और कवि की पंक्तियां भी नोट की हैं मैं ने…’’ वह बोली थीं.

उस पृष्ठ को वह एक सांस में पढ़ गई थी, ‘‘धीरेधीरे जाना प्यार की बहुत सी भाषाएं होती हैं दुनिया में, देश में और विदेश में भी लेकिन कितनी विचित्र बात है प्यार की भाषा सब जगह एक ही है और यह भी जाना कि वर्जनाओं की भी भाषा एक ही होती है…प्यार की भाषा में शब्द नहीं होते सिर्फ अक्षर होते हैं और होती हैं कुछ अस्फुट ध्वनियां और उन्हीं को जोड़ कर बनती है प्यार की भाषा…’’

मां के उत्तर से वह न सहमत हुई थी, न संतुष्ट पर वह व्यर्थ उन से और इस मसले पर उलझना नहीं चाहती थी. शायद यह सोच कर चुप लगा गई थी कि मां भी आखिर हैं तो एक स्त्री ही और स्त्री में प्रेम पाने की भूख और आकांक्षा अगर आजीवन बनी रह जाए तो इस में आश्चर्य क्या है?

पिता के साथ मां ने एक लंबा वैवाहिक जीवन जिया था. उस दुर्घटना में वह अचानक मां को अकेला छोड़ कर चले गए थे. शरीर की कामनाएंइच्छाएं तो अतृप्त रह ही गई होंगी…55-56 साल की उम्र थी तब मम्मी की. इस उम्र में शरीर पूरी तरह मुरझाता नहीं है. फिर पिता महीने 2 महीने में ही घर आ पाते थे. पूरा जीवन तो मां ने एक अतृप्ति के साथ बियाबान रेगिस्तान में प्यासी हिरणी की तरह मृगतृष्णा में काटा होगा…आगे और आगे जल की तलाश में भटकी होंगी…और वह जल उन्हें मिला होगा अमन अंकल में या हो सकता है मिल रहा हो प्रभु अंकल में.

एक शहर के महाविद्यालय में किसी व्याख्यान माला में भाषण देने गई थीं मम्मी. उन के परिचय में जब वहां बताया गया कि साहित्य में उन का दखल एक डायरी लेखिका के रूप में भी है तो उन के भाषण के बाद एक सज्जन उन से मिलने उन के निकट आ गए, ‘‘आप ही

डा. कुमुदजी हैं जिन की डायरियों के कई अंश…’’ मम्मी उठ कर खड़ी हो गई थीं, ‘‘आप का परिचय?’’

‘‘यहां निकट ही एक नेशनल पार्क है… मैं उस में एक छोटामोटा अधिकारी हूं.’’ इसी बीच महाविद्यालय के एक प्राध्यापकजी टपक पड़े थे, ‘‘हां, कुमुदजी यह छोटे नहीं मोटे अधिकारी हैं. वन्य जीवों पर इन्होंने अनेक शोध कार्य किए हैं. हमारे जंतु विज्ञान विभाग में यह व्याख्यान देने आते रहते हैं. यह विद्यार्थियों को जानवरों से संबंधित बड़ी रोचक जानकारियां देते हैं. अगर आप के पास समय हो तो आप इन का नेशनल पार्क अवश्य देखने जाएं… आप को वहां कई नए अनुभव होंगे.’’

श्वेता को मां ने बताया था, ‘‘यह महाशय ही प्रभुनाथ हैं.’’

मां की डायरी में बाद में श्वेता ने पढ़ा था.

‘किसीकिसी आदमी का साथ कितना अपनत्व भरा होता है और उस के साथ कैसे एक औरत अपने को भीतर बाहर से भरीभरी अनुभव करती है. क्या सचमुच आदमी की उपस्थिति जीवन में इतनी जरूरी होती है? क्या इसी जरूरीपन के कारण ही औरत आदमी को आजीवन दुखों, परेशानियों के बावजूद सहती नहीं रहती?’

खालीपन और अकेलेपन, भीतर के रीतेपन को भरने के लिए जीवन में क्या सचमुच किसी पुरुष का होना नितांत आवश्यक नहीं है…कहीं कोई आदमी आप के जीवन में होता है तो आप को लगता रहता है कि कहीं कोई है जिसे आप की जरूरत है, जो आप की प्रतीक्षा करता है, जो आप को प्यार करता है…चाहता है, तन से भी, मन से भी और शायद आत्मा से भी…

प्रभुनाथ के साथ पूरे 7 दिन तक नेशनल पार्क के भीतर जंगल के बीच में बने आरामदेय शानदार हट में रही… तरहतरह के जंगली जंतु तो प्रभुनाथ ने अपनी जीप में बैठा कर दिखाए ही, थारू जनजाति के गांवों में भी ले गए और उन के बारे में अनेक रोचक और विचित्र जानकारियां दीं, जिन से अब तक मैं परिचित नहीं थी.

‘दुनिया में कितना कुछ है जिसे हम नहीं जानते. दुनिया तो बहुत बड़ी है, हम अपने देश को ही ठीक से नहीं जानते. इस से पहले हम ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि यह नेशनल पार्क…यह मनोरम जंगल, जंगल में जानवरों, पेड़पौधों की एक भरीपूरी विचित्र और अद्भुत आनंद देने वाली एक दुनिया भी होती है, जिसे हर आदमी को जीवन में जरूर देखना और समझना चाहिए.’

प्रभुनाथ ने चपरासी को मोटर- साइकिल से भेज कर भोजन वहीं उसी आलीशान हट में मंगा लिया था. साथ बैठ कर खाया. खाने के बाद प्रभुनाथ उठे और बोले, ‘‘तो ठीक है मैडम…आप यहां रातभर आराम करें. हम अपने क्वार्टर में जा कर रहेंगे.’’

‘‘नहीं. मैं अकेली हरगिज इस जंगल में नहीं रहूंगी,’’ मैं हड़बड़ा गई थी, ‘‘रात हो आई है और जानवरों की कैसी डरावनीभयावह आवाजें रहरह कर आ रही हैं. कहीं कोई आदमखोर यहां आ गया और उस ने इस हट के दरवाजे को तोड़ कर मुझ पर हमला कर दिया तो?’’

‘‘क्या आप को इस हट का कोई दरवाजा टूटा या कमजोर नजर आता है? हर तरह से इसे सुरक्षित बनाया गया है. इस में देश और प्रदेश के मंत्री, सचिव और आला अफसर, उन के परिवार आ कर रहते हैं. मैडम, आप चिंता न करें. बस रात को कोई जानवर या आदमी दरवाजे को धक्का दे, पंजों से खरोंचे तो आप दरवाजा न खोलें. यहां आप को पीने के लिए पानी बाथरूम में मिलेगा. चाय-कौफी बनाना चाहेंगी तो उस के लिए गैसस्टोव और सारी जरूरी क्राकरी व सामग्री किचन में मिलेगी. बिस्तर आरामदेय है. हां, रात में सर्दी जरूर लगेगी तो उस के लिए 2 कंबल रखे हुए हैं.’’

‘‘वह सब ठीक है प्रभु…पर मैं यहां अकेली नहीं रहूंगी या तो आप साथ रहें या फिर हमें भी अपने क्वार्टर की तरफ के किसी क्वार्टर में रखें.’’

‘‘नहीं मैडम,’’ वह मुसकराए, ‘‘आप डायरी लेखिका हैं. हिंदी की अच्छी वक्ता और प्रवक्ता हैं. हम चाहते हैं कि आप यहां के वातावरण को अपने भीतर तक अनुभव करें. देखें कि कैसा लगता है. बिलकुल नया सुख, नया थ्रिल, नया अनुभव होगा…और वह नया थ्रिल आप अकेले ही महसूस कर पाएंगी…किसी के साथ होने पर नहीं.

‘‘आप देखेंगी, जीवन जब खतरों से घिरा होता है…तो कैसाकैसा अनुभव होता है…जान बचे, इस के लिए ऐसेऐसे देवता आप को मनाने पड़ते हैं जिन की याद भी शायद आप को अब तक कभी न आई हो…बहुत से लेखक इस अनुभव के लिए ही यहां इस हट में आ कर रहना पसंद करते हैं.’’

‘‘वह तो सब ठीक है…पर आप को मैं यहां से जाने नहीं दूंगी.’’ फिर कुछ सोच कर पूछ बैठीं, ‘‘बाहर गेट के क्वार्टरों में आप की प्रतीक्षा पत्नीबच्चे भी तो कर रहे होंगे? अगर ऐसा है तो आप जाएं पर हमें भी वहीं किसी क्वार्टर में रखें.’’

गंभीर बने रहे काफी देर तक प्रभुनाथ. फिर एक लंबी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘अपने बारे में किसी को मैं कम ही बताता हूं. यहां बाईं तरफ जो छोटा कक्ष है उस में एक अलमारी में जहां वन्य जीवजंतुओं से संबंधित पुस्तकें हैं वहीं मेरे द्वारा लिखी गई और शोध के रूप में तैयार पुस्तक भी है. अकसर यहां मंत्री लोग और अफसर अपनी किसी न किसी महिला मित्र को ले कर आते हैं और 2-3 दिन तक उस का जम कर देह सुख लेते हैं. उन के लिए हम लोग यहां हर सुविधा जुटा कर रखते हैं. क्या करें, नौकरी करनी है तो यह सब भी इंतजाम करने पड़ते हैं…’’

झेंप गईं डा. कुमुद, ‘‘खैर, वह सब छोडि़ए. आप अपने परिवार के बारे में बताइए.’’

‘‘एक बार हम पिकनिक मनाने यहां इसी हट पर अपने परिवार के साथ आए हुए थे. अधिक रात होने पर पता नहीं पत्नी को क्या महसूस हुआ कि बोली, ‘यहां से चलिए, बाहर के क्वार्टरों में ही रहेंगे. यहां न जाने क्यों आज अजीब सा भय लग रहा है.’ हम जीप में बैठ कर वापस बाहर की तरफ चल दिए. पत्नी, लड़की और लड़का. हमारे 2 ही बच्चे थे. अभी कुछ ही दूर चले होंगे कि खतरे का आभास हो गया. एक शेर बेतहाशा घबराया हुआ भागता हमारे सामने से गुजरा. पीछे कुछ बदमाश, जिन्हें हम लोग पोचर्स कहते हैं. जंगली जानवरों का चोरीछिपे शिकार करने वाले उन पोचरों से हमारा सामना हो गया.’’

‘‘निहत्थे नहीं थे हम. एक बंदूक साथ थी और साहसी तो मैं शुरू से रहा हूं इसीलिए यह नौकरी कर रहा हूं. बदमाशों को ललकारा कि अगर किसी जानवर को तुम लोगों ने गोली मारी तो हम आप को गोली मार देंगे. जीप को चारों ओर घुमा कर हम ने उस की रोशनी में बदमाशों की पोजीशन जाननी चाही कि तभी उन्होंने हम पर अपने आधुनिक हथियारों से हमला बोल दिया. हम संभल तक नहीं पाए… पत्नी और बेटी की मौत गोली लगने से हो गई. लड़का बच गया क्योंकि वह जीप के नीचे घुस गया था.

‘‘मैं उन्हें ललकारता हुआ अपनी बंदूक से फायर करने लगा. गोलियों की आवाज ने गार्डों को सावधान कर दिया और वे बड़ीबड़ी टार्चों और दूसरी गाडि़यों को ले कर तेजी से इधर की तरफ हल्ला बोलते आए तो बदमाश नदी में उतर कर अंधेरे का लाभ उठा कर भाग गए.’’

‘‘फिर दूसरी शादी नहीं की,’’ उन्होंने पूछा.

‘‘लड़के को हमारी ससुराल वालों ने इस खतरे से दूर अपने पास रख कर पाला…साली से मेरी शादी उन लोगों ने तय की पर एकांत में साली ने मुझ से कहा कि वह किसी और को चाहती है और उसी से शादी भी करना चाहती है. मैं बीच में न आऊं तो ही अच्छा है. मैं ने शादी से इनकार कर दिया…’’

‘‘लड़का कहां है आजकल?’’

डा. कुमुद ने पूछा.

‘‘बस्तर के जंगलों में अफसर है. उस की शादी कर दी है. अपनी पत्नी के साथ वहीं रहता है.’’

‘‘मैं ने तो सुना है कि बस्तर में अफसर अपनी पत्नी को ले कर नहीं जाते. एक तो नक्सलियों का खतरा, दूसरे आदिवासियों की तीरंदाजी का डर… तीसरे वहां आदमी को बहुत कम पैसों में औरत रात भर के लिए मिल जाती है.’’ इतना कह कर डा. कुमुद मुसकरा दीं.

‘‘जेब में पैसा हो तो औरत सब जगह उपलब्ध है…यहां भी और कहीं भी… इसलिए मैं ने शादी नहीं की. जरूरत पड़ने पर कहीं भी चला जाता हूं.’’ प्रभु मुसकराए.

‘‘हां, पुरुष होने के ये फायदे तो हैं ही कि आप लोग बेखटके, बिना किसी शर्म के, बिना लोकलाज की परवा किए, कहीं भी देहसुख के लिए जा सकते हैं…पैसों की कमी होती नहीं है आप जैसे बड़े अफसरों को…अच्छी से अच्छी देह आप प्राप्त कर सकते हैं. मुश्किल तो हम संकोचशील औरतों की है. हमें अगर देह- सुख की जरूरत पड़े तो हम बेशर्मी लाद कर कहां जाएं? किस से कहें?’’

‘‘वक्त बहुत बदल गया है कुमुदजी…अब औरतें भी कम नहीं हैं. वह बशीर बद्र का शेर है न… ‘जी तो बहुत चाहता है कि सच बोलें पर क्या करें हौसला नहीं होता, रात का इंतजार कौन करे आजकल दिन में क्या नहीं होता.’’’

मुसकराती रहीं कुमुद देर तक, ‘‘बड़े दिलचस्प इनसान हैं आप भी, प्रभुनाथजी.’’

श्वेता डायरी के अगले पृष्ठ को पढ़ कर अपने धड़कते दिल को मुश्किल से काबू में कर पाई थी…

मां ने लिख रखा था… ‘7 दिन रही उस नेशनल पार्क में और जो देहसुख उन 7 दिनों में प्राप्त किया शायद अगले 7 जन्मों में प्राप्त न हो सके. आदमी का सुख वास्तव में अवर्णनीय, अव्याख्य और अव्यक्त होता है…इस सुख को सिर्फ देह ही महसूस कर सकती है…उम्र और पदप्रतिष्ठा से बहुत दूर और बहुत अलग…’.

True Story : मां जल्दी आना

 True Story : औफिस से आ कर जैसे ही मैं ने घर में प्रवेश किया एक सोंधी सी महक मेरे पूरे तनमन में फैल गई. बैग को सोफे पर पटक हाथमुंह धो कर मैं सीधे किचन में जा घुसी. कड़ाही में सिक रहे समोसों को देख कर पीछे से मां के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘अरे वाह मां, आज तो आप ने समोसे बना कर मोगैंबो को खुश कर दिया. बोलिए आप को क्या चाहिए.’’

‘‘तू खुद मां बन गई है पर अभी भी बचपना नहीं गया तेरा, ले जल्दी से खा कर बता कैसे बने हैं.’’ प्लेट में 2 समोसे और धनिया की चटनी डाल कर देते हुए मां ने हलकी सी चपत मेरे गाल पर लगा दी.

‘‘मां बन गई तो क्या मैं आप की बच्ची नहीं रही,’’ कहते हुए मैं समोसे खाने लगी. सर्दियों में मां के हाथ के समोसों के हम सब दीवाने थे. मुझे याद है मां किलोकिलो मैदा के समोसे बनातीं पर हम भाईबहन खाने में प्रतियोगिता सी करते और सारे समोसों को चट कर जाते थे. मां को कुकिंग का बहुत शौक था इसीलिए शायद हम भाईबहन बहुत चटोरे हो गए थे. मैं बचपन की सुनहरी यादों में कुछ और खोती उस से पहले मेरे पतिदेव अमन ने घर में प्रवेश किया और आते ही फरमान जारी किया.

‘‘विनू, जल्दी से कड़क चाय पिला दो सिर में तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बेटा तुम हाथमुंह धो कर आ जाओ मैं ने तुम्हारी पसंद के पनीर के समोसे बनाए हैं और कड़क चाय बस तैयार होने ही वाली है.’’

‘‘अरे मां, आप क्यों परेशान होती हो इतनी बार आप से कहा है कि आप बस आराम किया करिए पर नहीं आप मान नहीं सकतीं.’’

‘‘बेटा हाथपैर चलते रहेंगे तो बुढ़ापा आराम से कट जाएगा पर अगर जाम हो गए तो मेरे साथसाथ तुम लोग भी परेशान हो जाओगे. इसलिए हलकाफुलका काम तो करने ही देते रहो… जिंदगीभर तो काम में कोल्हू के बैल की तरह जुते रहे और अब तुम आराम करने को कह रहे हो तो बताओ कैसे हो पाएगा…’’ मां ने मुसकराते हुए कहा तो अमन निशब्द से हो गए.

हमें खिला कर मां अपनी प्लेट लगा कर ले आईं और टीवी देखते हुए स्वयं भी खाने लगीं. मां की शुरू से आदत है कि जब तक घर के एकएक सदस्य को खिला नहीं लेंगी तब तक स्वयं नहीं खाएंगी.

मैं चेंज कर के कुछ देर आराम करने के उद्देश्य से बिस्तर पर लेट गई. लेटते ही मन आज से 2 वर्ष पूर्व जा पहुंचा जब एक दिन सुबहसुबह मेरे भाई अनंत का मेरे पास फोन आया. मां और बाबूजी उस समय अनंत के ही पास थे. मेरे फोन उठाते ही वह बोला, ‘‘मैं तो परेशान हो गया हूं इन दोनों से, जब भी घर में आओ तो लगता है मानो 2 जासूस बैठे हैं घर में, हमारा इन के साथ एडजस्ट करना बहुत मुश्किल हो रहा है. दीदी आप ही कोई तरीका बताओ जिस से ये दोनों यहां से चले जाएं,’’ अनंत की बातें सुन कर मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया था.

उस से उम्र में 10 वर्ष बड़ी होने के बावजूद समझ नहीं पाई कि उस के प्रश्न का क्या जवाब दूं. जिस बेटे के जन्म के लिए मांबाबूजी ने न जाने कितनी मन्नतें मांगी, कितने मंदिर मस्जिद के दरवाजे खटखटाए और जिस के जन्म होने पर लगा मानो उन के जीवन के समस्त दुखों का हरण हो गया हो वही बेटा आज उन्हें जासूस कह रहा था. अपनी संतान की प्रगति से खुश होने वाले मातापिता अपने ही बेटे के घर में जासूस कैसे हो सकते हैं. भारतीय संस्कृति में पुत्र को मोक्ष के द्वार तक पहुंचाने वाला कहा गया है.

हमारे धर्मरक्षकों ने इस पर और चाशनी चढ़ाई कि मरणोपरांत पुत्र के द्वारा दी गई मुखाग्नि से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है अन्यथा तो मानव बस नरक में ही जाता है बस इसी मानसिकता के शिकार धर्मभीरू मांबाबूजी इस कमर तोड़ती महंगाई में भी एक के बाद एक तीन बेटियों की कतार लगाते गए. इस बीच मां के गर्भ में पल रहीं कुछ बेटियों को तो जन्म ही नहीं लेने दिया गया. खैर इंतजार का फल मीठा होता है यह कहावत हमारे घर में भी चरितार्थ हुई और अंत में जब बेटा हुआ तो लगा मानो साक्षात स्वर्ग के द्वार खुल गए हों.

मांबाबूजी को उन का वह अनमोल हीरा मिल गया था जो उन की वृद्धावस्था को तारने वाला था. अपने हीरेमोती जैसे भाई को पा कर हम बहनों की खुशी का भी कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि हर रक्षाबंधन और भाईदूज पर हमें ताऊजी के बेटों की राह देखनी पड़ती थी. अब वह औपचारिकता समाप्त हो गई थी. समय अपनी गति से बढ़ रहा था. हम तीनों बहनों की शादियां हो गईं. दोनों बड़ी बहनें अपने परिवार के साथ विदेश जा बसीं थी सो सालदोसाल में एक बार ही आ पातीं थी. न केवल भाई अनंत बल्कि हम बहनों को पढ़ाने लिखाने में भी मांबाबूजी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अब तक अनंत भी इंजीनियरिंग कर के दिल्ली में एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी करने लगा था. मैं भी यहां मुंबई में एक बैंक में कार्यरत थी.

भारतीय समाज में लड़केकी नौकरी लगते ही उस की बोली लगनी प्रारंभ हो जाती है सो अनंत के लिए भी रिश्तों की लाइन लगी थी. जब भी किसी लड़की का फोटो आता तो मांबाबूजी की खुशी देखते ही बनती थी. अपने बुढ़ापे का सुखमय होने का सपना देख रहे मांबाबूजी को उस समय तगड़ा झटका लगा जब एक बार अनंत छुट्टियों में घर आया और मांबाबूजी की लड़की देखने की तैयारी देख कर घोषणा की.

‘‘मां मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और उसी से विवाह करूंगा. आप लोग

नाहक परेशान न हों.’’ अनंत एक वाक्य में अपनी बात कह कर घर से बाहर निकल गया.

‘‘मांबाबूजी को काटो तो खून नहीं. मां कभी उस दरवाजे को देखतीं जहां से अभी अनंत निकल कर गया था और कभी बाबूजी को. अपने कानों सुनी बात पर वे भरोसा ही नहीं कर पा रहीं थीं. अचानक किए गए अनंत के इस विस्फोट से वे बुरी तरह घबरा गईं और फूटफूट कर रोने लगीं और बोली,’’ इसी दिन के लिए पैदा किया था इसे.

इसे पता भी है कि कितने बलिदानों के बाद हम ने इसे पाया है. क्याक्या सपने संजोए थे बहू को ले कर, इस ने एक बार भी नहीं सोचा हमारे बारे में. बाबूजी शायद मामले की गंभीरता को भांप नहीं पाए थे या अपने बेटे पर अतिविश्वास को सो वे मां को दिलासा देते हुए बोले, ‘‘मैं समझाऊंगा उसे, बच्चा है, समझ जाएगा. सब ठीक हो जाएगा. यह सब क्षणिक आवेश है. मेरा बेटा है अपने पिता की बात अवश्य मानेगा.’’

मां को भी बाबूजी की बातों पर और उस से भी ज्यादा अपने बेटे पर भरोसा था. सो बोलीं, ‘‘हां तुम सही कह रहे हो मुझे लगता है मजाक कर रहा होगा. ऐसा नहीं कर सकता वह. हमारे अरमानों पर पानी नहीं फेरेगा हमारा बेटा.’’

चूंकि अगले दिन अनंत वापस दिल्ली चला गया था सो बात आईगई हो गई पर अगली बार जब अनंत आया तो बाबूजी ने एक लड़की वाले को भी आने का समय दे दिया. अनंत ने उन के सामने बड़ा ही रूखा और तटस्थ व्यवहार किया और लड़की वालों के जाते ही मांबाबूजी पर बिफर पड़ा.

‘‘ये क्या तमाशा लगा रखा है आप लोगों ने, जब मैं ने आप को बता दिया कि मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और शादी भी उसी से करूंगा फिर इन लोगों को क्यों बुलाया. वह मेरे साथ मेरे ही औफिस में काम करती है. और यह रही उस की फोटो,’’ कहते हुए अनंत ने एक पोस्टकार्ड साइज की फोटो टेबल पर पटक दी.

अपने बेटे की बातों को किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी सुन रहीं मां ने लपक कर टेबल से फोटो उठा ली. सामान्य से नैननक्श और सांवले रंग की लड़की को देख कर उन की त्यौरियां चढ़ गईं और बोलीं, ‘‘बेटा ये तो हमारे घर में पैबंद जैसी लगेगी. तुझे इस में क्या दिखा जो लट्टू हो गया.’’

‘‘मां मेरे लिए नैननक्श और रंग नहीं बल्कि गुण और योग्यता मायने रखते हैं और यामिनी बहुत योग्य है. हां एक बात और बता दूं कि यामिनी हमारी जाति की नहीं है,’’ अनंत ने कुछ सहमते हुए कहा.

‘‘अपनी जाति की नहीं है मतलब???’’ बाबूजी गरजते स्वर में बोले.

‘‘मतलब वह जाति से वर्मा हैं’’ अनंत ने दबे से स्वर में कहा.

‘‘वर्मा!!! मतलब!! सुनार!!! यही दिन और देखने को रह गया था. ब्राह्मण परिवार में एक सुनार की बेटी बहू बन कर आएगी… वाहवाह इसी दिन के लिए तो पैदा किया था तुझे. यह सब देखने से पहले मैं मर क्यों न गया. मुझे यह शादी कतई मंजूर नहीं,’’ बाबूजी आवेश और क्रोध से कांपने लगे थे. किसी तरह मां ने उन्हें संभाला.

‘‘तो ठीक है यह नहीं तो कोई नहीं. मैं आप लोगों की खुशी के लिए आजीवन कुंआरा रहूंगा.’’ अनंत अपना फैसला सुना कर घर से बाहर चला गया था. उस दिन न घर में खाना बना और न ही किसी ने कुछ खाया. प्रतिपल हंसीखुशी से गुंजायमान रहने वाले हमारे घर में ऐसी मनहूसियत छाई कि सब के जीवन से उल्लास और खुशी ने मानो अपना मुंह ही फेर लिया हो. विवाहित होने के बावजूद हम बहनों को भी इस घटना ने कुछ कम प्रभावित नहीं किया. मांबाबूजी का दुख हम से देखा नहीं जाता था और भाई अपने पर अटल था पर शायद समय सब से बड़ा मरहम होता है. कुछ ही माह में पुत्रमोह में डूबे मांबाबूजी को समझ आ गया था कि अब उन के पास बेटे की बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं है. जिस घर की बेटियों को उन की मर्जी पूछे बगैर ससुराल के लिए विदा कर दिया गया था उस घर में बेटे की इच्छा का मान रखते हुए अंतर्जातीय विवाह के लिए भी जोरशोर से तैयारियां की गईं.

अनंत मांबाबूजी की कमजोर नस थी सो उन के पास और कोई चारा भी तो नहीं था. खैर गाजेबाजे के साथ हम सब यामिनी को हमारे घर की बहू बना कर ले आए थे. सांवली रंगत और बेहद साधारण नैननक्श वाली यामिनी गोरेचिट्टे, लंबे कदकाठी और बेहद सुंदर व्यक्तित्व के स्वामी अनंत के आसपास जरा भी नहीं ठहरती थी पर कहते हैं न कि ‘‘दिल आया गधी पे तो परी क्या चीज है?’’

एक तो बड़ा जैनरेशन गैप दूसरे प्रेम विवाह तीसरे मांबाबूजी की बहू से आवश्यकता

से अधिक अपेक्षा, इन सब के कारण परिवार के समीकरण धीरेधीरे गड़बड़ाने लगे थे. बहू के आते ही जब मांबाबूजी ने ही अपनी जिंदगी से अपनी ही पेटजायी बेटियों को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका था तो बेटेबहू के लिए तो वे स्वत: ही महत्वहीन हो गई थी. कुछ ही समय में बहू ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे.

अनंत और उस की पत्नी यामिनी को परिवार के किसी भी सदस्य से कोई मतलब नहीं था. कुछ समय पूर्व ही यामिनी की डिलीवरी होने वाली थी तब मांबाबूजी गए थे अनंत के पास. नवजात पोते के मोह में बड़ी मुश्किल से एक माह तक रहे थे दोनों तभी अनंत ने मुझ से उन्हें वापस भोपाल आने का उपाय पूछा था. मैं ने भी येनकेन प्रकारेण उन्हें दिल्ली से भोपाल वापस आने के लिए राजी कर लिया था.

अभी उन्हें आए कुछ माह ही हुए थे कि अचानक एक दिन बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा और वे इस दुनिया से ही कूच कर गए पीछे रह गई मां अकेली. लोकलाज निभाते हुए अनंत मां को अपने साथ ले तो गया परंतु वहां के दमघोंटू वातावरण और यामिनी के कटु व्यवहार के कारण वे वापस भोपाल आ गईं और अब तो पुन: दिल्ली जाने से साफ इंकार कर दिया. सोने पे सुहागा यह कि अनंत और यामिनी ने भी मां को अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई. मनुष्य का जीवन ही ऐसा होता है कि एक समस्या का अंत होता है तो दूसरी उठ खड़ी होती है.

अचानक एक दिन मां बाथरूम में गिर गईं और अपना हाथ तोड़ बैठीं. अनंत ने इतनी छोटी सी बात के लिए भोपाल आना उचित नहीं समझा बस फोन पर ही हालचाल पूछ कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली. दोनों बड़ी बहनें तो विदेश में होने के कारण यूं भी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त थीं. बची मैं सो अनंत का रुख देख कर मेरे अंदर बेटी का कर्त्तव्य भाव जाग उठा. फ्रैक्चर के बाद जब मां को देखने गई तो उन्हें अकेला एक नौकरानी के भरोसे छोड़ कर आने की मेरी अंतआर्त्मा ने गवाही नहीं दी और मैं मां को अपने साथ मुंबई ले कर आ गई. मैं कुछ और आगे की यादों में विचरण कर पाती तभी मेरे कानों में अमन का स्वर गूंजा.

‘‘कहां हो भाई खानावाना मिलेगा… 9 बजने जा रहे हैं.’’ मैं ने अपने खुले बालों का जूड़ा बनाया और फटाफट किचन में जा पहुंची. देखा तो मां ने रात के डिनर की पूरी तैयारी कर ही दी थी बस केवल परांठे बनाने शेष थे. मैं ने फुर्ती से गैस जलाई और सब को गरमागरम परांठे खिलाए. सारे काम समाप्त कर के मैं अपने बैडरूम में आ गई. अमन तो लेटते ही खर्राटे लेने लगे थे पर मैं तो अभी अपने विगत से ही बाहर नहीं आ पाई थी. आज भी वह दिन मुझे याद है जब मां को देखने गई मैं वापस मां को अपने साथ ले कर लौटी थी. मुझे एअरपोर्ट पर लेने आए अमन ने मां के आने पर उत्साह नहीं दिखाया था बल्कि घर आ कर तल्ख स्वर में बोले,’’ ये सब क्या है विनू मुझ से बिना पूछे इतना बड़ा निर्णय तुम ने कैसे ले लिया.

‘‘कैसे मतलब… अपनी मां को अपने साथ लाने के लिए मुझे तुम से परमीशन लेनी पड़ेगी.’’ मैं ने भी कुछ व्यंग्यात्मक स्वर में उतर दिया था.

‘‘क्यों अब क्यों नहीं ले गया इन का सगा बेटा इन्हें अपने साथ जिस के लिए इन्होंने बेटी तो क्या दामादों तक को सदैव नजरंदाज किया.’’

‘‘अमन आखिर वे मेरी मां हैं… वह नहीं ले गया तभी तो मैं ले कर आई हूं. मां हैं वो मेरी ऐसे ही तो नहीं छोड़ दूंगी.’’ मेरी बात सुन कर अमन चुप तो हो गए पर कहीं न कहीं अपनी बातों से मुझे जता गए कि मां का यहां लाना उन्हें जंचा नहीं. इस के बाद मेरी असली परीक्षा प्रारंभ हो गई थी. अपने 20 साल के वैवाहिक जीवन में मैं ने अमन का जो रूप आज तक नहीं देखा था वह अब मेरे सामने आ रहा था.

घर आ कर सब से बड़ा यक्षप्रश्न था हमारे 2 बैडरूम के घर में मां को ठहराने का. 10 वर्षीय बेटी अवनि के रूम में मां का सामान रखा तो अवनि एकदम बिदक गई. अपने कमरे में साम्राज्ञी की भांति अब तक एकछत्र राज करती आई अवनि नानी के साथ कमरा शेयर करने को तैयार नहीं थी. बड़ी मुश्किल से मैं ने उसे समझाया तब कहीं मानी पर रात को तो अपना तकिया और चादर ले कर उस ने हमारे बैड पर ही अपने पैर पसार लिए कि ‘‘आज तो मैं आप लोगों के साथ सोउंगी भले ही कल से नानी के साथ सो जाउंगी.’’

पर जैसे ही अमन सोने के लिए कमरे में आए तो अवनि को बैडरूम में देख कर चौंक गए.

‘‘लो अब प्राइवेसी भी नहीं रही.’’

‘‘आज के लिए थोड़ा एडजस्ट कर लो कल से तो अवनि नानी के साथ ही सोएगी.’’ मैं ने दबी आवाज में कहा कि कहीं मां न सुन लें.

‘‘एडजस्ट ही तो करना है, और कर भी क्या सकते हैं.’’ अमन ने कुछ इस अंदाज में कहा मानो जो हो रहा है वह उन्हें लेशमात्र भी पसंद नहीं आ रहा पर उन्हें इग्नोर करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. मां को सुबह जल्दी उठने की आदत रही है सो सुबह 5 बजे उठ कर उन्होंने किचन में बर्तन खड़खड़ाने प्रारंभ कर दिए थे. मैं मुंह के ऊपर से चादर तान कर सब कुछ अनसुना करने का प्रयास करने लगी. अभी मेरी फिर से आंख लगी ही थी कि अमन की आवाज मेरे कानों में पड़ी.

‘‘विनू ये मम्मी की घंटी की आवाज बंद कराओ मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’ मैं ने लपक कर मुंह से चादर हटाई तो मां की मंदिर की घंटी की आवाज मेरे कानों में भी शोर मचाने लगी. सुबह के सर्दी भरे दिनों में भी मैं रजाई में से बाहर आई और किसी तरह मां की घंटी की आवाज को शांत किया. जब से मां आईं मेरे लिए हर दिन एक नई चुनौती ले कर आता. 2 दिन बाद रात को जैसे ही मैं सोने की तैयारी कर रही थी कि अवनि ने पिनपिनाते हुए बैडरूम में प्रवेश किया.

‘‘मम्मी मैं नानी के पास तो नहीं सो सकती, वे इतने खर्राटे लेती हैं कि

मैं सो ही नहीं पाती.’’ और वह रजाई तान कर सो गई. अमन का रात का कुछ प्लान था जो पूरी तरह चौपट हो गया था और वे मुझे घूरते हुए करवट ले कर सो गए थे बस मेरी आंखों में नींद नहीं थी. अगले दिन अमन को जल्दी औफिस जाना था पर जैसे ही वे सुबह उठे तो बाथरूम पर मां का कब्जा था उन्हें सुबह जल्दी नहाने का आदत जो थी. बाथरूम बंद देख कर अमन अपना आपा खो बैठे.

‘‘विनू मैं लेट हो जाऊंगा मम्मी से कहो हमारे औफिस जाने के बाद नहाया करें उन्हें कौन सा औफिस जाना है.’’

‘‘अरे औफिस नहीं जाना है तो क्या हुआ बेटा चाय तो पीनी है न और तुम जानते हो कि मैं बिना नहाए चाय भी नहीं पीती.’’ मां ने बाथरूम से बाहर निकल कर सफाई देते हुए कहा. जिंदगीभर अपनी शर्तों पर जीतीं आईं मां के लिए स्वयं को बदलना बहुत मुश्किल था और अमन मेरे साथ कोऔपरेट करने को तैयार नहीं थे. इस सब के बीच मैं खुद को तो भूल ही गई थी. किसी तरह तैयार हो कर लेटलतीफ बैंक पहुंचती और शाम को बैंक से निकलते समय दिमाग में बस घर की समस्याएं ही घूमतीं. इस से मेरा काम भी प्रभावित होने लगा था. मेरी हालत ज्यादा दिनों तक बैंक मैनेजर से छुपी नहीं रह सकी और एक दिन मैनेजर ने मुझे अपने केबिन में बुला ही भेजा.

‘‘बैठो विनीता क्या बात है पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं तुम कुछ परेशान सी लग रही हो. यदि कोई ऐसी समस्या है जिस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं तो बताओ. अपने काम में सदैव परफैक्शन को इंपोर्टैंस देने वाली विनीता के काम में अब खामियां आ रही हैं इसीलिए मैं ने तुम्हें बुलाया.’’

‘‘नहीं मैम ऐसी कोई बात नहीं है बस कुछ दिनों से तबियत ठीक नहीं चल रही है. सौरी अब मैं आगे से ध्यान रखूंगी.’’ कह कर मैं मैडम के केबिन से बाहर आ गई. क्या कहूं मैडम से कि बेटियां कितनी भी पढ़ लिख लें, आत्मनिर्भर हो जाएं पर अपने मातापिता को अपने साथ रखने या उन की जिम्मेदारी उठाने के लिए पति का मुंह ही देखना पड़ता है.

एक पति अपनी पत्नी से अपने मातापिता की सेवा करवाना तो पसंद करता है परंतु सासससुर की सेवा करने में अपनी हेठी समझता है. समाज की इस दोहरी मानसिकता से अमन भी अछूता नहीं था. यदि वह चाहता तो मां के साथ भलीभांति तालमेल बैठा कर नित नई उत्पन्न होने वाली समस्याओं को काफी हद तक कम कर सकता था. यों भी हम दोनों मिल कर अब तक के जीवन में आई प्रत्येक समस्या का सामना करते ही आए थे परंतु जब से मां आई हैं अमन ने उसे अकेला कर दिया. बीती यादों को सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह बैड के बगल की खिड़की के झीने परदों से आती सूरज की मद्धिम

रोशनी और चिडि़यों की चहचहाहट से उस की नींद खुल गई. तभी अमन ने चाय की ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया, ‘‘उठिए मैडम मेरे हाथों की चाय से अपने संडे का आगाज कीजिए.’’

‘‘ओह क्या बात है आज तो मेरा संडे बन गया,’’ मैं फ्रैश हो कर चाय का कप ले कर अमन के बगल में बैठ गई.

‘‘तो आज संडे का क्या प्लान है मैडम, मम्मी और अवनि भी आते ही होंगे.’’

‘‘मम्मा आज हम लोग वंडरेला पार्क चलेंगे फोर होल डे इंजौयमैंट. चलोगे न मम्मा और नानी भी हमारे साथ चलेंगी.’’ मां के साथ वाक करके  लौटी अवनि ने हमारी बातें सुन कर संडे का अपना प्लान बताया.

‘‘हांहां हम सब चलेंगे. चलो जल्दी से ब्रेकफास्ट कर के सब तैयार हो जाओ.’’ मेरे बोलने से पहले ही अमन ने घोषणा कर दी. पूरे दिन के इंजौयमैंट के बाद लेटनाइट जब घर लौटे तो सब थक कर चूर हो चुके थे सो नींद के आगोश में चले गए. मुझे लेटते ही वह दिन याद आ गया जब मां के आने के बाद एक दिन यूएस से अमन की मां ने फोन कर के बताया कि अगले हफ्ते वे इंडिया वापस आ रहीं हैं. 4 साल पहले अमन के पिता का एक बीमारी के चलते देहांत हो गया था. उस के बाद से उन की मां ने ही अपने दोनों बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया. अमन 2 ही भाई बहन हैं जिन में दीदी की शादी एक एनआरआई से हुई तो वे विवाह के बाद से ही अमेरिका जा बसीं थी. पिछले दिनों उन की डिलीवरी के समय मम्मीजी वहां गई थीं और अब उन का वापसी का समय हो गया था सो आ रही थीं. दोनों बच्चे अपनी मां से बहुत अटैच्ड हैं. उस दिन मैं बैंक से वापस आई तो अमन का मुंह फूला हुआ था. जैसे ही मां सोसाइटी के मंदिर में गईं थी वे फट पड़े.

‘‘अब बताओ मेरी मां कहां रहेंगी? क्या सोचेंगी वे कि मेरे बेटे के घर में तो मेरे लिए जगह तक नहीं है. आखिर इंडिया में है ही

कौन मेरे अलावा जो उन्हें पूछेगा. तुम्हारे तो

और भाईबहन भी हैं मैं तो एक ही हूं न मेरी मां के लिए.’’

‘‘अमन थोड़ी शांति तो रखो, आने दो मम्मीजी को सब हो जाएगा. मैं ने कहां मना किया है उन की जिम्मेदारी उठाने से पर अपनी मां की जिम्मेदारी भी है मेरे ऊपर. यह कह कर कि और भाईबहन उन्हें रखेंगे अपने पास मैं कैसे अकेला छोड़ दूं उन्हें. आखिर मेरा भी पालनपोषण उन्होंने ही किया है.’’

मेरी इतनी दलीलों में से एक भी शायद अमन को पसंद नहीं आई थी और वे अपने

फूले मुंह के साथ बैडरूम में जा कर टीवी देखने लगे थे. एक सप्ताह बाद जब सासू मां आईं तो मैं बहुत डरी हुई थी कि अब न जाने किन नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. यद्यपि मैं अपनी सास की समझदारी की शुरू से ही कायल रही हूं. परंतु मेरी मां को यहां देख कर उन की प्रतिक्रिया से तो अंजान ही थी.

मैं ने सासूमां के रहने का इंतजाम भी मां के कमरे में ही कर दिया था जो अमन को पसंद तो नहीं आया था परंतु 2 बैडरूम में फ्लैट में और कोई इंतजाम होना संभव भी नहीं था. मेरी मां की अपेक्षा सासू मां कुछ अधिक यंग, खुशमिजाज समझदार और सकारात्मक विचारधारा की थीं. मेरी भी उन से अच्छी पटती थी. इसीलिए तो उन के आने के दूसरे दिन अवसर देख कर अपनी सारी परेशानियां बयां करते हुए रो पड़ी थी मैं.

उन्होंने मुझे गले लगाया और बोलीं, ‘‘तू चिंता मत कर मैं कोई समाधान निकालती हूं. सब ठीक हो जाएगा.’’ उन की अपेक्षा मेरी मां का जीवन के प्रति उदासीन और नकारात्मक होना स्वाभाविक भी था क्योंकि पहले बेटे की चाह में बेटियों की कतार फिर बेटेबहू की उपेक्षा आखिर इंसान की सहने की भी सीमा होती है. परिस्थितियों ने उन्हें एकदम शांत, निरुत्साही बना दिया था. वहीं सासूमां के 2 बच्चे और दोनों ही वैल सैटल्ड.

दोचार दिन सब औब्जर्व करने के बाद उन्होंने अपने साथ मां को भी

मौर्निंग वाक पर ले जाना प्रारंभ कर दिया था. वापस आ कर दोनों एकसाथ पेपर पढ़ते हुए चाय पीतीं थी जिस से अमन और मुझे अपने पर्सनल काम करने का अवसर प्राप्त हो जाता था. दोनों किचन में आ कर मेड की मदद करतीं जिस से मेरा काम बहुत आसान हो जाता. जब तक मैं और अमन तैयार होते मां और सासूमां मेड के साथ मिल कर नाश्ता टेबल पर लगा लेते. हम चारों साथसाथ नाश्ता करते और औफिस के लिए निकल जाते. अपनी मां को यों खुश देख कर अमन भी खुश होते. कुल मिला कर सासूमां के आने से मेरी कई समस्याओं का अंत होने लगा था. सासूमां को देख कर मेरी मां भी पौजिटिव होने लगीं थी. एक दिन जब हम सुबह नाश्ता कर रहे थे तो सासूमां बोलीं, ‘‘विनीता आज से अवनि अपनी दादीनानी के साथ सोएगी. कितनी किस्मत वाली है कि दादीनानी दोनों का प्यार एक साथ लेगी क्यों अवनि.’’

‘‘हां मां, अब से मैं आप दोनों के नहीं बल्कि दादीनानी के बीच में सोऊंगी. उन्होंने मुझे रोज एक नई कहानी सुनाने का प्रौमिस किया है.’’ अवनि ने भी चहकते हुए कहा.

इस बात से अमन भी बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें उन का पर्सनल स्पेस वापस जो मिल गया था. सासूमां के आने के बाद मैं ने भी चैन की सांस ली थी. और बैंक पर वापस ध्यान केंद्रित कर लिया था. अब 3 माह तक हमारे बीच रह कर सासूमां वापस कुछ दिनों के लिए दिल्ली चलीं गई थीं. पर इन 3 महीनों में उन्होंने मेरे लिए जो किया वह मैं ताउम्र नहीं भूल सकती. सच में इंसान अपनी सकारात्मक सोच और समझदारी से बड़ी से बड़ी समस्याओं को भी चुटकियों में हल कर सकता है जैसा कि मेरी सासूमां ने किया था. मां के मेरे साथ रहने पर भी उन्होंने खुशी व्यक्त करते हुए कहा था.

‘‘जब मेरी बेटी मेरा ध्यान रख सकती है तो मेरी बहू अपनी मां का ध्यान क्यों नहीं रख सकती और मुझे फक्र है अपनी बहू पर कि अपने 3 अन्य भाईबहनों के होते हुए भी उस ने अपनी जिम्मेदारी को समझा और निभाया.’’ तभी तो उन के जाने के समय मैं फफकफफक कर रो पड़ी थी और उन के गले लग के बोली थी, ‘‘मां जल्दी आना.’’

Best Short Story : जब एक नवयौवना ने थामा नरोत्तम का हाथ

Best Short Story : ‘‘आप के सामान में ड्यूटी योग्य घोषित करने का कुछ है?’’ कस्टम अधिकारी नरोत्तम शर्मा ने अपने आव्रजन काउंटर के सामने वाली चुस्त जींस व स्कीवी पहने खड़ी खूबसूरत बौबकट बालों वाली नवयौवना से पूछा.

नवयौवना, जिस का नाम ज्योत्सना था, ने मुसकरा कर इनकार की मुद्रा में सिर हिलाया. नरोत्तम ने कन्वेयर बैल्ट से उतार कर रखे सामान पर नजर डाली.

3 बड़ेबड़े सूटकेस थे जिन की साइडों में पहिए लगे थे. एक कीमती एअरबैग था. युवती संभ्रांत नजर आती थी.

इतना सारा सामान ले कर वह दुबई से अकेली आई थी. नरोत्तम ने उस के पासपोर्ट पर नजर डाली. पन्नों पर अनेक ऐंट्रियां थीं. इस का मतलब था वह फ्रीक्वैंट ट्रैवलर थी.

एक बार तो उस ने चाहा कि सामान पर ‘ओके’ मार्क लगा कर जाने दे. फिर उसे थोड़ा शक हुआ. उस ने समीप खड़े अटैंडैंट को इशारा किया. एक्सरे मशीन के नीचे वाली लाल बत्तियां जलने लगीं. इस का मतलब था सूटकेसों में धातु से बना कोई सामान था.

‘‘सभी अटैचियों के ताले खोलिए,’’ नरोत्तम ने अधिकारपूर्ण स्वर में कहा.

‘‘इस में ऐसा कुछ नहीं है,’’ प्रतिवाद भरे स्वर में युवती ने कहा.

‘‘मैडम, यह रुटीन चैकिंग है. अगर इस में कुछ नहीं है तब कोई बात नहीं है. आप जल्दी कीजिए. आप के पीछे और भी लोग खड़े हैं,’’ कस्टम अधिकारी ने पीछे खड़े यात्रियों की तरफ इशारा करते हुए कहा.

विवश हो युवती ने बारीबारी से सभी ताले खोल दिए. सभी सूटकेसों में ऊपर तक तरहतरह के परिधान भरे थे. उन को हटाया गया तो नीचे इलैक्ट्रौनिक वस्तुओं के पुरजे भरे थे.

सामान प्रतिबंधित नहीं था मगर आयात कर यानी ड्युटीएबल था.

नरोत्तम ने अपने सहायक को इशारा किया. सारा सामान फर्श पर पलट दिया गया. सूची बनाई गई. कस्टम ड्यूटी का हिसाब लगाया गया.

‘‘मैडम, इस सामान पर डेढ़ लाख रुपए का आयात कर बनता है. आयात कर जमा करवाइए.’’

‘‘मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं हैं,’’ युवती ने कहा.

‘‘ठीक है, सामान मालखाने में जमा कर देते हैं. ड्यूटी अदा कर सामान ले जाइएगा,’’ नरोत्तम के इशारे पर सहायकों ने सारे सामान को सूटकेसों में बंद कर सील कर दिया. बाकी सामान नवयुवती के हवाले कर दिया.

ज्योत्सना ने अपने वैनिटी पर्स से एक च्युंगम का पैकेट निकाला. एक च्युंगम मुंह में डाला, एअरबैग कंधे पर लटकाया और एक सूटकेस को पहियों पर लुढ़काती बड़ी अदा से एअरपोर्ट के बाहर चल दी, जैसे कुछ भी नहीं हुआ था.

सभी यात्री और अन्य स्टाफ उस की अदा से प्रभावित हुए बिना न रह सके. नरोत्तम पहले थोड़ा सकपकाया फिर वह चुपचाप अन्य यात्रियों को हैंडल करने लगा.

नरोत्तम शर्मा चंद माह पहले ही कस्टम विभाग में भरती हुआ था. वह वाणिज्य में स्नातक यानी बीकौम था. कुछ महीने प्रशिक्षण केंद्र में रहा था. फिर बतौर अंडरट्रेनी कस्टम विभाग के अन्य विभागों में रहा था.

उस के अधिकांश उच्चाधिकारी उस को सनकी या मिसफिट पर्सन बताते थे. वह स्वयं को हरिश्चंद्र का आधुनिक अवतार समझता था, न रिश्वत खाता था न खाने देता था.

शाम को रिटायरिंग रूम में कौफी पीते अन्य कस्टम अधिकारी आज की घटना की चर्चा कर रहे थे. आव्रजन काउंटर पर अघोषित माल या तस्करी का सामान पकड़ा जाना नई बात नहीं थी. असल बात तो नरोत्तम जैसे असहयोगी या मिसफिट पर्सन नेचर वाले व्यक्ति की थी. ऐसा अधिकारी कभीकभार महकमे में आ ही जाता था.

‘‘यह नया पंछी शर्मा चंदा लेता नहीं है या इस को चंदा लेना नहीं आता?’’ सरदार गुरजीत सिंह, वरिष्ठ कस्टम अधिकारी ने पूछा.

‘‘लेता नहीं है. यह इतना भोंदू नजर नहीं आता कि चंदा कैसे लिया जाता है, न जानता हो,’’ वधवा ने कहा.

‘‘एक बात यह भी है कि लेनादेना सब के सामने नहीं हो सकता,’’ रस्तोगी की इस बात का सब ने अनुमोदन किया.

‘‘एअरपोर्ट पर आने से पहले यह कहां था?’’

‘‘कंपनियों को चैक करने वाले स्टाफ में था.’’

‘‘वहां क्या परेशानी थी?’’

‘‘वहां भी ऐसा ही था.’’

‘‘इस का मतलब यह इस लाइन का नहीं है. कितने समय तक यहां टिक पाएगा?’’ गुरजीत सिंह के इस सवाल पर सब हंस पड़े.

ज्योत्सना अपनी सप्लायर मिसेज बख्शी के सामने बैठी थी.

‘‘आज माल कैसे फंस गया?’’

‘‘एक नया कस्टम अधिकारी था, उस ने माल चैक कर मालखाने में जमा करवा दिया.’’

‘‘बूढ़ा है या नौजवान?’’

‘‘कड़क जवान है. लगता है अभी कालेज से निकला है.’’

‘‘शादीशुदा है?’’

‘‘यह उस के माथे पर तो नहीं लिखा है? वैसे कुंआरा है या शादीशुदा, आप को क्या करना है?’’ एक आंख दबाते हुए ज्योत्सना ने कहा.

‘‘मेरा मतलब है जब उस ने तेरे रूप और जवानी का रोब नहीं खाया तो, या तो शादीशुदा है या…’’ मिसेज बख्शी ने भी उसी की तरह आंख दबाते हुए कहा.

‘‘क्यों, क्या शादीशुदा लाइन नहीं मारते?’’

‘‘मारते हैं लेकिन उन का स्टाइल जरा पोलाइट होता है जबकि कुंआरे सीधी बात करते हैं.’’

‘‘आप को बड़ा तजरबा है इस लाइन का.’’

‘‘आखिर शादीशुदा हूं. तुम से सीनियर भी हूं,’’ बड़ी अदा के साथ मिसेज बख्शी ने कहा.

दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

‘‘आजकल बख्शी साहब की नई सहेली कौन है?’’

‘‘कोई मिस बिजलानी है.’’

‘‘और आप का सहेला कौन है?’’

‘‘यह पता लगाना बख्शी साहब का काम है,’’ इस पर भी जोरदार ठहाका लगा.

‘‘और तेरा अपना क्या हाल है?’’

‘‘आजकल तो अकेली हूं. पहले वाले की शादी हो गई. दूसरे को कोई और मिल गई है. तीसरा अभी कोई मिला नहीं,’’ बड़ी मासूमियत के साथ ज्योत्सना ने कहा.

‘‘इस नए कस्टम अधिकारी के बारे में क्या खयाल है?’’

‘‘हैंडसम है, बौडी भी कड़क है. बात बन जाए तो चलेगा.’’

‘‘ट्राई कर के देख. वैसे अगर मैरिड हुआ तो?’’

‘‘तब भी चलेगा. शादीशुदा को ट्रेनिंग नहीं देनी पड़ती.’’

फिर इस तरह के भद्दे मजाक होते रहे. ज्योत्सना अपने केबिन में चली गई. मिसेज बख्शी ने अपने फिक्स्ड अफसर को फोन कर दिया. मालखाने में जमा माल थोड़ी खानापूर्ति और थोड़ा आयात कर जमा करवाने के बाद छोड़ दिया गया.

मिसेज बख्शी कीमती इलैक्ट्रौनिक उपकरणों का कारोबार करती थीं. वे विदेशों से पुरजे आयात कर, उन को एसेंबल करतीं और उपकरण तैयार कर अपने ब्रैंड नेम से बेचती थीं.

उपकरणों का सीधा आयात भी होता था मगर उस में एक तो समय लगता था दूसरे, पूरा एक कंटेनर या कई कंटेनर मंगवाने पड़ते थे. जमा खर्च भी होता था. पूंजी भी फंसानी पड़ती थी.

दूसरा तरीका डेली पैसेंजर के किसी एक व्यक्ति को या दोचार व्यक्तियों को एक समूह में दुबई, बैंकौक, सिंगापुर, टोकियो, मारीशस या अन्य स्थलों पर भेज कर 3-4 बड़ीबड़ी अटैचियों में ऐसा सामान मंगवा लिया जाता था.

रेलवे की तरह कई एअरलाइनें भी अब मासिक पास बनाती थीं. अकसर विदेश जाने वाले पैसेंजर ऐसे मासिक पास बनवा लेते थे. ज्योत्सना भी ऐसी ही पैसेंजर थी. वह महीने में कई दफा दुबई, सिंगापुर, बैंकौक चली जाती थी. सामान ले आती थी. पहले से अधिकारियों के साथ सैटिंग होने से माल सुविधापूर्वक एअरपोर्ट से बाहर निकल आता था. कभीकभी नरोत्तम जैसा अफसर होने से कोई पंगा पड़ जाता जिस से उस के एंप्लायर निबट लेते थे.

नरोत्तम घर पहुंचा. उस को देख उस की पत्नी रमा ने मुंह बिचकाया. फिर फ्रिज से पानी की बोतल निकाल उस के सामने रख दी. मतलब साफ था, खुद ही पानी गिलास में डाल कर पी लो.

नरोत्तम अपनी पत्नी के इस रूखे व्यवहार का कारण समझता था. वह घर में भी मिसफिट था. उस की पत्नी के मातापिता ने उस से अपनी बेटी का विवाह यह सोच कर किया था कि लड़का ‘कस्टम’ जैसे मलाईदार महकमे में है, लड़की राज करेगी. मगर बाद में पता चला कि लड़का सूफी या संन्यासी किस्म का था.

रिश्वत लेनादेना पाप समझता है, तो उन के अरमान बुझ गए. बढ़े वेतनों के कारण अब नौकरीपेशाओं का जीवनस्तर भी काफी ऊंचा हो गया था. घर में वैसे कोई कमी न थी. पतिपत्नी 2 ही लोग थे. विवाह हुए चंद महीने हुए थे. मगर ऊपर की कमाई का अपना मजा था. कस्टम अधिकारी की पत्नी और वह भी तनख्वाह में गुजारा करना पड़े. कैसा आदमी या पति पल्ले पड़ गया था. कस्टम जैसे महकमे में ऐसा बंदा कैसे प्रवेश पा गया था?

‘‘आज मल्होत्रा साहब शिफौन की साड़ी का पूरा सैट लाए हैं. हर महीने बंधेबंधाए लिफाफे भी पहुंच जाते हैं,’’ चाय का कप सैंटर टेबल पर रखते हुए रमा ने कहा.

रमा का यह रोज का ही आलाप था. मतलब साफ था कि उसे भी अन्य के समान रिश्वतखोर बन रिश्वत लेनी चाहिए.

ज्योत्सना अनेक बार कस्टम अधिकारी नरोत्तम के समक्ष आई. कई बार घोषित किया सामान सही निकला. कई बार सही नहीं निकला. पहले पकड़ा गया सामान मालखाने से किस तरह छूटता था, इस की कोई खबर नरोत्तम को नहीं हुई.

एक दिन नरोत्तम अपनी पत्नी को सैरसपाटे के लिए ले गया. वे एक रेस्तरां पहुंचे जहां बार भी था और डांसफ्लोर भी. पत्नी के लिए ठंडे का और अपने लिए हलके डिं्रक का और्डर दे बैठ गया.

सामने डांसफ्लोर पर अनेक जोड़े नाच रहे थे. थोड़ी देर बाद डांस का दौर समाप्त हुआ. एक जोड़ा समीप की मेज पर बैठने लगा. तभी नरोत्तम की नजर लड़की पर पड़ी. वह चौंक पड़ा. वह ज्योत्सना थी. ज्योत्सना ने भी उसे देख लिया. वह लपकती हुई उस की तरफ आई.

‘‘हैलो हैंडसम, हाऊ आर यू?’’

उस के इस बेबाक व्यवहार पर नरोत्तम सकपका गया. उस को हाथ मिलाना पड़ा.

‘‘साथ में कौन है?’’ नरोत्तम की पत्नी की तरफ हाथ बढ़ाते हुए ज्योत्सना ने कहा.

‘‘मेरी वाइफ है.’’

‘‘वैरी गुड मैच इनडीड,’’ शरारत भरे स्वर में ज्योत्सना ने कहा.

नरोत्तम इस व्यवहार का अपनी पत्नी को क्या मतलब समझाता. वह समझ गया कि ज्योत्सना खामखां उस के समक्ष आई थी. उस का मकसद उस की पत्नी को भरमाना था.

‘‘एंजौय हैंडसम, फिर मिलेंगे,’’ शोखी से मुसकराती वह अपनी मेज की तरफ बढ़ गई.

वेटर और्डर लेने आ गया. पत्नी गहरी नजरों से पति की तरफ देख रही थी. किसी तरह खाना खाया. ज्योत्सना चहकचहक कर अपने साथी के साथ खापी रही थी.

घर आते ही, जैसे कि नरोत्तम को आशा थी, रमा उस पर बरस पड़ी.

‘‘सामने बड़े सीधेसादे बनते हो. घर से बाहर हैंडसम बन चक्कर चलाते हो.’’

‘‘मेरा उस लड़की से चक्कर तो क्या परिचय भी नहीं है,’’ अपनी सफाई देते हुए नरोत्तम ने कहा.

‘‘चक्कर नहीं है, परिचय भी नहीं है, पर मिलने का ढंग तो ऐसा था मानो बरसों से जानते हो. एकांत स्थान होता तो शायद वह आप से लिपट कर चूमने लगती,’’ पत्नी ने हाथ नचा कर कहा.

नरोत्तम ने अपना सिर धुन लिया. वह बारबार कहता रहा कि हवाई अड्डे पर उस का अघोषित सामान पकड़ा था उसी से वह उस को जानती है. और अब जानबूझ कर मजे लेने के लिए ड्रामा कर रही थी. मगर पत्नी को कहां विश्वास करना था.

‘‘सर, नरोत्तम की वजह से कोई भी सहजता से काम नहीं कर पाता,’’ डिप्टी डायरैक्टर, कस्टम ने अपने बौस से कहा.

नरोत्तम को कोई भी विभाग अपने यहां लेने को तैयार नहीं था. एक तो उस का स्वभाव ही ऐसा था, दूसरे, उस के कर्म खोटे थे. वह जहां जाता वहां कोई न कोई पंगा हो जाता था.

कार्गो कौम्प्लैक्स, कस्टम विभाग में सुरक्षा महकमा समझा जाता था. इस विभाग में ऊपर की कमाई के अवसर काफी कम थे. नरोत्तम को इस विभाग में भेज दिया गया.

नरोत्तम कर्तव्यनिष्ठ अफसर था. उस को कहीं भी ड्यूटी करने में संकोच नहीं था.

एक रोज एक शिपमैंट की चैकिंग के दौरान एक पेटी मजदूर के हाथों से गिर कर टूट गई. पेटी में फ्रूट जूस की बोतलें भरी थीं. कुछ बोतलें टूट गईं. उन में से छोटीछोटी पाउचें निकल कर बिखर गईं. सब चौंक पड़े. नरोत्तम ने पाउचें उठा लीं और एक को फाड़ कर सूंघा. उन में सफेद पाउडर भरा था, जो हेरोइन थी.

मामला पहले पुलिस, फिर मादक पदार्थ नियंत्रण ब्यूरो के हवाले हो गया. शिपमैंट भेजने वाले निर्यातक की शामत आ गई. उस के बाद हर कंटेनर को खोलखोल कर देखा जाने लगा. निर्यात में देरी होने लगी. कई अन्य घपले भी सामने आ गए. कार्गो कौम्प्लैक्स भी अब निगाहों में आ गया.

जिस निर्यातक की शिपमैंट में नशीला पदार्थ पकड़ा गया था उस ने नरोत्तम को मारने के लिए गुंडेबदमाशों को ठेका दे दिया. नरोत्तम नया रंगरूट था. उस को हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी मिला था और साथ ही सुरक्षा हेतु रिवौल्वर भी. एनसीसी कैडेट भी रह चुका था. वह दक्ष निशानेबाज था.

एक दिन वह ड्यूटी समाप्त कर अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हुआ. मेन रोड पर आते ही उस के पीछे एक काली कार लग गई. बैक व्यू मिरर से उस की निगाहों में वह पीछा करती कार आ गई.

वह चौकस हो गया. उस ने कमर से बंधे होलेस्टर का बटन खोल दिया. शाम का धुंधलका अंधेरे में बदल रहा था. सड़क पर ट्रैफिक बढ़ रहा था. दफ्तरों से, दुकानों से घर लौटते लोग अपनेअपने वाहन तेजी से चलाते जा रहे थे.

कार लगातार पीछे चलती बिलकुल समीप आ गई. फिर साथसाथ चलने लगी. नरोत्तम ने देखा, कार में 4 आदमी सवार थे.

एक ने हाथ उठाया, उस के हाथ में रिवौल्वर थी. नरोत्तम ने मोटरसाइकिल को एक झोल दिया. एक फायर हुआ, झोल देने से निशाना चूक गया. कार आगे निकल गई. उस ने फुरती से अपनी रिवौल्वर निकाली. निशाना साध कर फायर किया.

कार का पिछला एक पहिया बर्स्ट हो गया. कार डगमगाती हुई रुक गई. नरोत्तम ने मोटरसाइकिल रोक कर सड़क के किनारे खड़ी कर दी. सड़क के किनारे थोड़ीथोड़ी दूरी पर बिजली के खंभे थे. उन के साथ कूड़ा डालने के ड्रम थे. वह लपक कर डम के पीछे बैठ गया. कार रुक गई. 4 साए अंधेरे में आगे बढ़ते उस की तरफ आए. रेंज में आते ही उस ने एक के बाद एक 3 फायर किए. 2 साए लहरा कर नीचे गिर पड़े. नरोत्तम फुरती से उठा और दौड़ कर पीछे वाले खंभे की ओट में जा छिपा.

जैसी उम्मीद थी वैसा हुआ. 2 रिवौल्वरों से ड्रम पर गोलियां बरसने लगीं. मगर नरोत्तम पहले से जगह छोड़ कर पीछे पहुंच गया था. उस ने निशाना साध गोली चलाई. एक साया हाथ पकड़ कर चीखा, फिर दोनों भाग कर कार की तरफ जाने लगे.

नरोत्तम मुकाबला खत्म समझ छिपने के स्थान से बाहर निकल आया. तभी भागते दोनों सायों में से एक मुड़ा और नरोत्तम पर फायर कर दिया. गोली नरोत्तम के कंधे पर लगी. वह कंधा पकड़ कर बैठ गया.

सड़क पर चलता ट्रैफिक लगातार होती गोलीबारी से रुक गया. टायर बर्स्ट हुई कार में बैठ कर चारों बदमाश भाग निकले. नरोत्तम पर बेहोशी छाने लगी. तभी 2 जनाना हाथों ने उसे थाम लिया. पुलिस की गाडि़यों के सायरन गूंजने लगे. नरोत्तम बेहोश हो गया.

नरोत्तम की आंख खुली तो उस ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. उस के कंधे और छाती पर पट्टियां बंधी थीं. उस के साथ स्टूल पर उस की पत्नी बैठी थी. दूसरी तरफ उस के मातापिता और संबंधी थे.

होश में आने पर पुलिस उस का औपचारिक बयान लेने आई. नरोत्तम फिर सो गया. शाम को उस की आंख खुली तो उस ने अपने सामने ज्योत्सना को हाथ में छोटा फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ा पाया.

‘‘हैलो हैंडसम, हाऊ आर यू?’’ मुसकराते हुए उस ने पूछा.

उस ने आश्चर्य से उस की तरफ देखा. वह यहां कैसे?

‘‘उस शाम संयोग से मैं आप के पीछेपीछे ही अपनी कार पर आ रही थी. मैं ने ही पुलिस को फोन किया था.’’

तब नरोत्तम को याद आया, बेहोश होते समय 2 जनाना हाथों ने उसे थामा था.

ज्योत्सना चली गई.

नरोत्तम 3-4 दिन बाद घर आ गया. उस का कुशलक्षेम पूछने बड़ेछोटे अधिकारी भी आए. ज्योत्सना भी हर शाम आने लगी. उस के यों रोज आने से उस की पत्नी का चिढ़ना स्वाभाविक था.

पतिपत्नी में बनती पहले से ही नहीं थी. नरोत्तम के ठीक होते पत्नी मायके जा बैठी. उस के मातापिता, दामाद के मिसफिट नेचर की वजह से पहले ही क्षोभ में थे और अब उस की इस खामखां की प्रेयसी के आगमन ने आग में घी का काम किया. पतिपत्नी में संबंधविच्छेद यानी तलाक की प्रक्रिया शुरू हो गई.

बौयफ्रैंड को कमीज के समान बदलने वाली ज्योत्सना को कड़क जवान नरोत्तम जांबाजी के कारण भा गया था. वह अब उस के यहां नियमित आने लगी.

असमंजस में पड़ा नरोत्तम इस सोचविचार में था कि त्रियाचरित्र को क्या कोई समझ सकता था? रिश्वतखोर न होने के कारण उस की पत्नी उस को छोड़ कर चली गई थी. और अब एक तेजतर्रार नवयौवना उस के पीछे पड़ गई थी. एक तरफ जबरदस्ती के प्यार का चक्कर था तो दूसरी तरफ उस की नियति. दोनों पता नहीं भविष्य में क्या गुल खिलाएंगे?

Painful Divorce Story : तलाक के कागजात

Painful Divorce Story : “क्या बात है, आजकल बहुत मेकअप कर के ऑफिस जाने लगी हो. पहले तो कुछ भी पहन कर चल देती थी. पर अब तो रोज लेटेस्ट फैशन के कपड़े खरीदे जा रहे हैं,” व्यंग से सुधीर ने कहा तो आकांक्षा ने एक नजर उस पर डाली और फिर से अपने मेकअप में लग गई.

सुधीर आकांक्षा के इस रिएक्शन से चढ़ गया और एकदम उस के पास जा कर बोला,” आकांक्षा में जानना चाहता हूं कि तुम्हारी जिंदगी में चल क्या रहा है?”

आकांक्षा ने भंवे चढ़ाते हुए उस की तरफ देखा और फिर अपने बॉब कट बालों को झटकती हुई बोली,” चलना क्या है, मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम कर रही हूं, लोग मेरी इज्जत कर रहे हैं, मेरे काम की सराहना हो रही है और क्या?”

“सराहना हो रही है या पीठ पीछे तुम्हारा मजाक बन रहा है आकांक्षा?”

“खबरदार जो ऐसी बात की सुधीर. तुम्हें क्या पता सफलता का नशा क्या होता है. तुम ने तो बस जिस कुर्सी पर काम संभाला था आज तक वहीँ चिपके बैठे हो.”

“क्योंकि मुझे तुम्हारी तरह गलत तरीके से प्रमोशन लेना नहीं आता. पति के होते हुए भी प्रमोशन के लिए इमीडिएट बॉस की बाहों में समाना नहीं आता.”

सुधीर का इल्जाम सुन कर आकांक्षा ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ मिरर जमीन पर फेंक दिया और चीख पड़ी,” मेरे कैरेक्टर की समीक्षा करने से पहले अपने अंदर झांको सुधीर. तुम्हारे जैसा फेलियोर इंसान मेरे लायक है ही नहीं. न तो तुम मुझे वह प्यार और खुशियां दे सके जो मैं चाहती थी और न खुद को ही किसी काबिल बना सके. तुम्हारे बहाने हमारी खुशियों के आड़े आते रहे. अब यदि मुझे किसी से प्यार हुआ है तो मैं क्या कर सकती हूं.”

“शादीशुदा मर्द से प्यार का नाटक करने वाली चालाक औरत हो तुम. तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं आकांक्षा. बस मेरी जिंदगी से हमेशा के लिए दूर चली जाओ. तलाक दे दो मुझे.”

“मैं तैयार हूं सुधीर. तुम कागज बनवाओ. हम आपसी सहमति से तलाक ले लेंगे. अब तक मैं यह सोच कर डरती थी कि हमारी बच्चियों का क्या होगा. पर अब फिक्र नहीं. दोनों इतनी बड़ी और समझदार हो गई हैं कि इस सिचुएशन को आसानी से हैंडल कर लेंगी. बड़ी को हॉस्टल भेज देंगे और छोटी मेरे साथ रह जाएगी.”

“तो ठीक है आकांक्षा. मैं तलाक के कागज तैयार करवाता हूँ. फिर तुम अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते.”

इस बात को अभी तीनचार दिन भी नहीं हुए थे कि सुधीर और आकांक्षा की बड़ी बेटी रानू की तबीयत अचानक बिगड़ गई. आकांक्षा उसे अस्पताल ले कर भागी. छोटी बेटी रोरो कर कह रही थी,” मम्मा आप जब ऑफिस चले जाते हो तो पीछे में कई दफा रानू दी सर दर्द की गोली खाती हैं. एकदो बार तो मैं ने इन्हें चक्कर खा कर गिरते भी देखा था. रानू दी हमेशा मुझे आप लोगों से कुछ न बताने को कह कर चुप करा देती थीं. एक दिन उन की सहेली ने फोन कर बताया था कि वे स्कूल में बेहोश हो गई हैं. ”

मेरी बच्ची इतना कुछ सहती रही पर मुझे कानोंकान खबर भी न होने दिया. यह सोच कर आकांक्षा की आंखों में आंसू आ गए. तब तक भागाभागा सुधीर भी अस्पताल पहुंचा.

आकांक्षा ने सवाल किया,” आज तुम्हें इतनी देर कैसे हो गई ? मैं ऑफिस छोड़ कर नहीं भागती तो पता नहीं रानू का क्या होता.”

“वह दरअसल तलाक के कागज फाइनल तैयार करा रहा था. ”

“जाओ तुम पहले डॉक्टर से बात कर के पता करो कि मेरी बच्ची को हुआ क्या है? बेहोश क्यों हो गई मेरी बच्ची?”

अगले दिन तक रानू की सारी रिपोर्ट आ गई. रानू को ब्रेन ट्यूमर था. यह खबर सुन कर सुधीर और आकांक्षा के जैसे पैरों तले जमीन खिसक गई थी. फिर तो अस्पतालबाजी का ऐसा दौर चला कि दोनों को और किसी बात का होश ही नहीं रहा.

रानू के ब्रेन का ऑपरेशन करना पड़ा. काट कर ट्यूमर निकाल दिया गया. रेडिएशन थेरेपी भी दी गई. आकांक्षा ने इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी. रुपए पानी की तरह बहाए. रानू को काफी लंबा वक्त अस्पताल में रहना पड़ा. घर लौटने के बाद भी अस्पताल आनाजाना लगा ही रहा. करीब डेढ़दो साल बाद एक बार फिर से ट्यूमर का ग्रोथ शुरू हुआ तो तुरंत उसे अस्पताल में एडमिट कर के थेरेपी दी गई.

इतने समय में रानू काफी कमजोर हो गई थी. सुधीर और आकांक्षा का पूरा ध्यान रानू को पहले की तरह बनाने में लगा हुआ था. आकांक्षा का रिश्ता अभी भी अपने प्रेमी मयंक के साथ कायम था. सुधीर अभी भी आकांक्षा से नाराज था. दोनों के दिल अभी भी टूटे हुए थे. मगर दोनों ने झगड़ना छोड़ दिया था. दोनों के लिए ही रानू की तबीयत पहली प्राथमिकता थी.

ऑफिस के बाद दोनों घर लौटते तो रानू की देखभाल में लग जाते. आपस में उन की कोई बात नहीं होती. दिल से दोनों का रिश्ता पूरी तरह टूट चुका था. एक ही घर में अजनबियों की तरह रहते. इस तरह तीनचार साल बीत गए. अब तक रानू नॉर्मल हो चुकी थी. उस ने कॉलेज भी ज्वाइन कर लिया था. सुधीर और आकांक्षा कि जिंदगी भी पटरी पर लौटने लगी थी. मगर दोनों के दिल में जो फांस चुभी हुई थी उस का दर्द कम नहीं हुआ था.

इस बीच सुधीर के जीवन में एक परिवर्तन जरूर हुआ था. उस ने अपने दर्द को गीतों के जरिए बाहर निकालना शुरू किया. उस की गायकी लोगों को काफी पसंद आई और देखते ही देखते उस की गिनती देश के काबिल गायकों में होने लगी. सुधीर को अब स्टेज परफॉर्मेंस के साथसाथ टीवी और फिल्मों में भी छोटेमोटे ऑफर मिलने लगे. नाम के साथसाथ पैसे भी मिले और आकांक्षा के तेवर कमजोर हुए. मगर मयंक के साथ उस का रिश्ता वैसे ही कायम रहा और यह बात सुधीर को गवारा नहीं थी.

इसलिए एक बार फिर दोनों ने तलाक लेने का फैसला किया. सुधीर ने फिर से तलाक के कागज बनने को दे दिए. मगर दूसरे ही दिन आकांक्षा की मां का फोन आ गया. आकांक्षा की मां अकेली मेरठ में रहती थीं. बड़ी बेटी आकांक्षा के अलावा उन की एक बेटी और थी जो रंगून में बसी हुई थी. पति की मौत हो चुकी थी. ऐसे में आकांक्षा ही उन के जीवन का सहारा थी.

बड़े दर्द भरे स्वर में उन्होंने आकांक्षा को बताया था,’ बेटा डॉक्टर कह रहे हैं कि मुझे पेट का कैंसर हो गया है जो अभी सेकंड स्टेज में है.”

” मां यह क्या कह रही हो आप?”

“सच कह रही हूँ बेटा. आजकल बहुत कमजोरी रहती है. ठीक से खायापिया भी नहीं जाता. कल ही रिपोर्ट आई है मेरी.”

“तो मम्मा आप वहां अकेली क्या कर रही हो? आप यहां आ जाओ मेरे पास. मैं डॉक्टर से बात करूंगी. यहां अच्छे से अच्छा इलाज मिल सकेगा आप को.”

“ठीक है बेटा. मैं कल ही आ जाती हूं.”

इस तरह एक बार फिर अस्पतालबाजी का दौर शुरू हो गया. सुधीर अपनी सास की काफी इज्जत करता था और जानता था कि उस की सास अपनी बेटी को तलाक की इजाजत कभी नहीं देंगी. इसलिए तलाक का मसला एक बार फिर पेंडिंग हो गया. वैसे भी सुधीर अब खुद ही काफी व्यस्त हो चुका था. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि आकांक्षा कहां है और क्या कर रही है.

आकांक्षा ने एक अच्छे अस्पताल में मां का इलाज शुरू करा दिया. वह खुद मां को अस्पताल ले कर जाती. इस वजह से मयंक के साथ वह अधिक समय नहीं बिता पाती थी. ऐसे में मयंक ही दोतीन बार घर आ कर आकांक्षा से मिल चुका था.

मां समझ गई थीं कि मयंक के साथ आकांक्षा का रिश्ता कैसा है और यह बात उन्हें बहुत ज्यादा अखरी थी. मगर वह कुछ बोल नहीं पाती थीं. सुधीर के लिए उन के मन में सहानुभूति थी. मगर वह यह सोच कर चुप रह जातीं कि सुधीर और आकांक्षा दोनों ही इतने बड़े पद पर हैं और इतना पैसा कमा रहे हैं. इन्हें जिंदगी कैसे जीनी है इस का फैसला भी इन का खुद का होना चाहिए.

सुधीर को संगीत के सिलसिले में अक्सर दूसरेदूसरे शहरों में जाना पड़ता और इधर पीछे से मां की देखभाल के साथसाथ आकांक्षा मयंक के और भी ज्यादा करीब होती गई.

करीब 3 साल के इलाज के बाद आखिर मां ने दम तोड़ दिया. उन्हें बचाया नहीं जा सका. उस दिन आकांक्षा बहुत रोई पर सुधीर एक प्रोग्राम के सिलसिले में मुंबई में था. आकांक्षा ने अकेले ही मां का क्रियाकर्म कराया. मयंक ने जरूर मदद की उस की. आकांक्षा को इस बात का काफी मलाल था कि खबर सुनते ही सब कुछ छोड़ कर सुधीर दौड़ा हुआ आया क्यों नहीं.

सुधीर के आते ही वह उस से इस बात पर झगड़ने लगी तो सुधीर सीधा वकील के पास निकल गया. जल्द से जल्द तलाक के कागज बनवा कर वह इस कड़वाहट भरे रिश्ते से आजाद होना चाहता था. दूसरे दिन शाम में जब वह तलाक के कागजात ले कर लौटा तो अंदर से आ रही आवाजें सुन कर ठिठक गया.

उस ने देखा कि ड्राइंग रूम में उस की बड़ी बेटी रानू अपने बॉयफ्रेंड के साथ खड़ी है और आकांक्षा चीख रही है,” नहीं रानू तू ऐसा नहीं कर सकती. अभी उम्र ही क्या है तेरी? आखिर तू एक शादीशुदा और दो बच्चों के बाप से ही शादी करना क्यों चाहती है? दुनिया के बाकी लड़के मर गए क्या?”

“पर मम्मा आप यह क्यों भूलते हो कि आप खुद पापा के होते हुए एक शादीशुदा मर्द से प्यार करते हो. हम ने तो कुछ नहीं कहा न आप को. आप की जिंदगी है. आप के फैसले हैं. फिर मेरे फैसले पर आप इस तरह का रिएक्शन क्यों दे रहे हो मम्मा? ”

“मुझ से तुलना मत कर मेरी बच्ची. मेरी उम्र बहुत है. पर तेरी पहली शादी होगी. वह भी एक विवाहित से?”

“मयूर विवाहित है मम्मा पर मेरी खातिर अपनी बीवी और बच्चों को छोड़ देगा. दोतीन महीने के अंदर उसे तलाक मिल जाएगा. तलाक के कागजात उस ने सबमिट करा दिए हैं. ”

“पर बेटा यह तो समझने की कोशिश कर, तू एक ऊंचे कुल की खानदानी लड़की है और तेरा मयूर एक दलित युवक.
नहींनहीं यह संभव नहीं मेरी बच्ची. शादी के लिए समाज में हैसियत और दर्जा एक जैसा होना जरूरी है. मयूर का परिवार और रस्मोरिवाज सब अलग होंगे. तू नहीं निभा पाएगी.”

“पर मम्मा आप की और पापा की जाति तो एक थी न. एक हैसियत, एक दर्जा, एक से ही रस्मोरिवाज मगर आप दोनों तो फिर भी नहीं निभा पाए न. तो आप मेरी चिंता क्यों कर रहे हो?”

बेटी का जवाब सुन कर आकांक्षा स्तब्ध रह गई थी. सुधीर को भी कुछ सूझ नहीं रहा था. हाथों में पकड़े हुए तलाक के कागजात शूल की तरह चुभ रहे थे. समझ नहीं आ रहा था कि कब उस की बच्चियां इतनी बड़ी हो गईं थीं कि उन दोनों की भूल समझने लगी थीं और सिर्फ समझ ही नहीं रही थीं बल्कि उसी भूल का वास्ता दे कर खुद भी भूल करने को आमादा थीं.

सुधीर अचानक लडख़ड़ा सा गया. जल्दी से दरवाजा पकड़ लिया. रानू और मयूर घर से बाहर निकल गए थे. आकांक्षा अकेली बैठी रो रही थी.

सुधीर धीरेधीरे कदमों से चलता हुआ उस के पास आया और फिर तलाक के कागजात उस के आगे टेबल पर रख दिए. आकांक्षा ने कांपते हाथों से वे कागज उठाए और अचानक ही उन को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिए.

वह लपक कर सुधीर के सीने से लग गई और रोती हुई बोली,” सुधीर शायद मैं ही गलत थी. मेरी बेटी ने मेरे आगे रिश्तों का सच खोल कर रख दिया. मैं मानती हूं बहुत देर हो चुकी है. फिर भी मैं समझ गई हूं कि हमें अपने बच्चों के आगे गलत नहीं बल्कि सही उदाहरण पेश करना चाहिए ताकि वे अपना रास्ता न भटक जाए.”

आकांक्षा की बात सुन कर सुधीर ने भी सहमति में सिर हिलाया और तलाक के कागजात के टुकड़े उठा कर डस्टबिन में फेंक आया. उस ने भी जिंदगी को नए तरीके से जीने का मन बना लिया था.

Happy New Year 2025 : चलो एक बार फिर से

Happy New Year 2025 : समर्थको कविताओं का बहुत शौक था. कविताएं पढ़ता, कुछ लिखता, लेकिन एक कविता उसे खास पसंद थी. वह अकसर गोपालदास ‘नीरज’ की कविता मीनल को सुनाया करता-

‘‘छिपछिप अश्रु बहाने वालो, मोती व्यर्थ बहाने वालो,

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है,

कुछ दीपों के बुझ जाने से आंगन नहीं मरा करता है…’’

उस के चले जाने के बाद मीनल ने इसी कविता को अपने जीवन का मंत्र बना लिया.

माना कि समर्थ उसे बीच जीवन की मझदार में अकेला छोड़ गया, ऊपर से उस की बुजुर्ग मां और 2 नन्हें बच्चों की जिम्मेदारी भी आन पड़ी. मगर कौन खुशी से इस दुनिया को अलविदा कहना चाहता है?

समर्थ भी नहीं चाहता था. जो हुआ उस पर किसी का जोर न था. समर्थ की मजबूरी थी. बिगड़ते स्वास्थ्य के आगे हार मानना और मीनल की मजबूरी थी अपनी एक मजबूरी छवि कायम रखना. यदि वह भी बिखर जाती तो इस अधूरी छूटी गृहस्थी को कौन पार लगाता? तब बच्चे केवल 8 व 10 साल के थे. कर्मठता और दृढ़निश्चय से लबरेज मीनल ने उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ा. बीए, बीएड, एनटीटी तो वह शादी से पहले ही कर चुकी थी. पहले नर्सरी टीचर, फिर सैंकडरी और फिर धीरेधीरे अपने अथक परिश्रम के बल पर वह आज वाइस प्रिंसिपल बन चुकी थी.

नौकरी करते हुए उस ने एमएड की शिक्षा उत्तीर्ण की. अध्यापन के अलावा प्रशासनिक कार्यभार संभालने के अवसर मिलने से उस की तरक्की का मार्ग प्रशस्त होता गया. कार्यकारी जीवन में परिश्रम करने से वह कभी पीछे नहीं हटी. उस की सास सुनयना देवी ने घर व बच्चों की जिम्मेदारी बखूबी निभाई. बच्चों के प्रति उसे कभी कोई चिंता नहीं करनी पड़ी. सासबहू की ऐसी जोड़ी कम ही देखने को मिलती है.

अब बच्चे किशोरावस्था में आ चुके थे. बेटी अनिका 16 और बेटा विराट

14 साल हो चुका था. दादी को भी काफी जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल चुकी थी. दोनों बच्चे अपने कार्य स्वयं ही संभाल लिया करते. कर्मठ और जीवट मां व दादी की जोड़ी ने बच्चों में भी उच्चाकांक्षा और आगे बढ़ने की प्रेरणा का संचार किया था. अपने परिवार में एकता और सहयोग देखने के कारण अनिका और विराट में भी संवेदना व प्रेमपूर्ण भावों की कमी न थी. वे मां और दादी दोनों का भरपूर खयाल रखना चाहते थे. दोनों ने जीवन में जिन कठिनाइयों का सामना किया था, उन से वे परिचित थे और यही चाहते थे कि बड़े हो कर उन्हें सुख प्रदान कर सकें. सकारात्मक वातावरण में पलने का प्रभाव पूर्णरूप से उन के व्यक्तित्व में झलकने लगा था.

‘‘मम्मा, कल हमारे स्कूल से जो ऐजुकेशनल ऐक्सकर्शन में जा रहे हैं, उन्हें पिकअप करने पेरैंट्स को म्यूजियम पहुंचना होगा. आप याद से आ आना,’’ रात को याद दिला कर सोए थे अनिका और विराट.

अगले जब मीनल म्यूजियम के गेट पर प्रतीक्षारत थी, तो उसे आभास हुआ

जैसे कोई उस का नाम पुकार रहा हो. संशय में उस ने मुड़ कर देखा. एक बलिष्ठ पुरुष माथे पर कुछ बल लिए खड़ा उसी को ताक रहा था, ‘‘मीनल?’’

‘‘जी? पर आप?’’ मीनल के प्रश्न पर वह कुछ सकुचा गया.

‘‘पहचाना नहीं… मैं आहाद. हम दोनों एक ही क्लास में थे कालेज में.’’

‘‘ओह एय, आहाद, औफ कौर्स… अरे वाह, इतने सालों बाद… कैसे हो? यहां कैसे?’’ पुराने मित्र के यों अचानक मिल जाने से मीनल पुलकित हो उठी.

‘‘मेरी भतीजी यहां ऐजुकेशनल ऐक्सकर्शन के लिए आई है. उसी को लेने आया हूं. और तुम? कैसी हो? कहां हो आजकल?’’

आहाद के पूछने पर मीनल ने उसे अपनी स्थिति बताई और अपने घर आमंत्रित किया, ‘‘इसी वीकैंड आना होगा. कोई बहाना नहीं चलेगा. और परीजाद कैसी है? तुम दोनों ने तो शादी कर ली थी न…उसे जरूर ले कर आना…’’

वह आगे कहती तभी अनिका और विराट आ गए. उधर आहद की भतीजी भी आ गई, जो अनिका की क्लास में पढ़ती थी. बच्चों को यह जान कर बहुत खुशी हुई कि उन के बड़ी भी क्लासमेट थे. संडे की दुपहर को मिलना तय हो गया.

संडे की सुबह से ही मीनल काफी उल्लसित लग रही थी. खुशी से लंच की तैयारी की.

‘‘आज न जाने कितने समय बाद अपने किसी मित्र से मिलूंगी, मां,’’ सुनयना देवी द्वारा बहू को खुशदेख इस का कारण पूछने पर मीनल ने बताया.

अपनी बहू को खुश देख भी खुश थीं. तय समय पर आहाद पहुंच गया, हाथों में एक गुलदस्ता लिए. बच्चों के लिए चौकलेट और कुकीज भी लाया था.

‘‘अरे, लंच पर मैं ने बुलाया है और तुम इतना सामान ले आए… इस सब की क्या जरूरत थी?’’ उस के हाथ में उपहारों के पैकेट देख मीनल ने टोका, ‘‘और अकेले क्यों आए…परीजाद कहां रह गई?’’

‘‘अंदर तो आने दो, सब बताता हूं,’’ आहाद ने सुनयना देवी का अभिवादन किया और फिर लिविंगरूम में विराजमान हो गया. पानी पीने के बाद उस ने बताया कि परीजाद का उन की शादी के केवल 2 साल बाद एक कार ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. यह कहते हुए आहाद की नजरें शून्य में अटक कर रह गईं.

बिना किसी की ओर देखे, भावशून्य ढंग से कही इस बात ने कमरे में शोक बिखेर दिया. आहाद के चेहरे से साफ झलक रहा था कि वह इतने सालों बाद भी परीजाद की यादों से बाहर नहीं आ सका है. कमरे में उपस्थित सभी चुप हो गए.

सुनयना देवी ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘मीनल, चाय नहीं पिलाएगी अपने मेहमान को?’’

मीनल चायनाश्ता ले कर आई तब तक आहाद बच्चों से उन की क्लास, उन की रुचियां आदि पूछने लगा. माहौल थोड़ा लाइट हो चुका था. कैसी अजीब बात है, मीनल सोचने लगी, जीवनसाथी से कितनी उम्मीदों से जुड़ते हैं, किंतु जीवनसफर में वह भी कितनी जल्दी अकेली रह गई और उस का दोस्त भी. अकेलापन भी एक प्रकार का सहचर बन सकता है, यह बात इन दोनों से बेहतर कौन जान सकता था. इसी साझे तार ने मीनल और आहाद को पुन: जोड़ दिया. अनिका और विराट भी आहाद अंकल को बहुत पसंद करने लगे.

मीनल के घर में कोई पुरुष नहीं था और आहाद के घर में कोई स्त्री. गृहस्थी के ऐसे कार्य जो मर्दऔरत के हिस्सों में बंटे रहते हैं, अब ये एकदूसरे के लिए सहर्ष करने लगे. आहाद, मीनल की कई क्षेत्रों में सहायता करने लगा. मसलन, बिजलीपानी गैस जैसी छोटीछोटी मरम्मतें, कोई खास वस्तु किसी खास बाजार से खरीद लाना, मां के लिए किसी खास दवा का इंतजाम करना आदि.

इसी प्रकार मीनल भी आहद की किचन में जरूरी सामान भरवा देती, कभी उस के लिए मेड खोज कर उसे काम समझा देती, तो कभी उस की अलमारी ही संवार देती.

अनिका और विराट इस तालमेल से बेहद प्रसन्न थे. उन की याद में उन्होंने अपने पापा नहीं देखे थे. पापा का सुख, एक पुरुष की गृहस्थी में उपस्थिति उन्हें बहुत भा रही थी. एक रात सोने से पहले थोड़ी गपशप लगाते हुए विराट बोला पड़ा, ‘‘कितना अच्छा होता न अगर आहाद अंकल ही हमारे पापा होते. वैसे उन की फैमिली तो है नहीं.’’

‘‘क्या तू भी वही सोचता है जो मैं?’’ उस की बात सुन अनिका बोली और फिर दोनों ने गुपचुप योजना बनानी शुरू कर दी. जब भी घर में कुछ अच्छा पकता तो अनिका जिद करती कि वे उस डिश को आहाद तक पहुंचा कर आएं.

‘‘कम औन मम्मा, आहाद अंकल आपके फ्रैंड हैं और आप उन के लिए इतना भी नहीं कर सकतीं?’’

एक दिन खेलते समय विराट के पैर की हड्डी टूट गई. मीनल उस दिन अपने

स्कूल में थी, किंतु उसे फोन पर बताने के बजाय विराट ने झट आहाद को फोन मिला दिया. ‘‘अंकल, मेरे पैर में काफी चोट लग गई है, आप प्लीज आ जाओ न… मम्मी भी नहीं हैं घर पर.’’

आहाद फौरन उन के घर पहुंचा और अस्पताल ले जा कर विराट को पलस्तर चढ़वाया. जब बाद में मीनल को सारा प्रकरण पता चला तो विराट और अनिका दोनों ही आहाद अंकल के गुणगान करते नहीं थके, ‘‘देखा मम्मा, कितने ज्यादा अच्छे हैं आहाद अंकल.’’

‘‘हांहां, मुझे पता है कि तुम दोनों आजकल आहाद अंकल के फैन बने हुए हो,’’ हंसते हुए मीनल बोली.

‘‘काश, आहाद अंकल ही हमारे पापा होते,’’ विराट के मुंह से निकल गया. लेकिन मीनल ने ऐसे बरताव किया जैसे उस ने यह बात सुनी नहीं. विराट भी फौरन चुप हो गया.

मीनल समझने लगी थी कि बच्चों के मन में क्या चल रहा है, परंतु अपने मन में ऐसी किसी भावना को वह हवा नहीं देना चाहती थी. ऐसा नहीं है कि वह आहाद को पसंद नहीं करती थी. आहाद पहले से ही एक सुलझे हुए शांत व्यक्तित्व का स्वामी था. इतने वर्षोंपरांत पुन: मिलने पर मीनल ने पाया कि समय के अनुभवों ने उस के स्वभाव को और भी चमका दिया है.

आहाद भी मीनल के जीवट व्यक्तित्व, सकारात्मक स्वभाव व बौद्धिक क्षमता से प्रभावित था. कह सकते हैं कि पारस्परिक प्रशंसा दोनों में आकर्षण को जन्म देने लगी थी, किंतु यह बात अभी यहीं पर विराम थी. यह एक बेहद जटिल विषय था. न जाने कितने समय बाद मीनल की जिंदगी में एक मित्र का आगमन हुआ था. ऐसी किसी भी एकतरफा भावना से वह इस दोस्ती को खोना नहीं चाहती थी और फिर पुनर्विवाह, वह भी बच्चों के बाद… हमारे संस्कार ऐसी बात सोचते समय ही मनमस्तिष्क की लगाम कसने लगते हैं.

औरतों को शुरू से ही संस्कार के नाम पर कमजोर करने वाले विचार सौंपे जाते हैं जो उन की शक्ति कम और बेडि़यां अधिक बनते हैं. आत्मनिर्भर सोच रखने वाली लड़की भी कठोर कदम उठाने से पहले परिवार तथा समाज की प्रतिक्रिया सोचने पर विवश हो उठती है. एक ओर जहां पुरुष पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी राय देता है, पूरी बेबाकी से आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत रखता है, वहीं दूसरी ओर एक स्त्री छोटे से छोटे कार्य से पहले भी अपने परिवार की मंजूरी चाहती है.

उस शाम आहाद मीनल के घर आया हुआ था, ‘‘इस फ्राइडे ईवनिंग को

मूवी का प्रोग्राम बनाएं तो कैसा रहे? बच्चों को पसंद आएगी ‘एमआईबी’ वह भी ‘थ्री डी’ में.’’ आहाद के पूछने पर दोनों बच्चे तालियां बजा कर अपना उल्लास दर्शाने लगे तो मीनल और सुनयना देवी भी हंस पड़ीं.

आहाद ने सभी के लिए टिकट बुक करवा दिए. तय हुआ कि आहाद और मीनल अपनेअपने कार्यस्थल से और बच्चे और उन की दादी घर से सीधा मूवीहौल पहुंचेंगे.

मगर हुआ कुछ और ही. जब मीनल और आहाद मूवीहौल के बाहर बच्चों की प्रतीक्षा करते हुए थक गए तब उन्होंने सुनयना देवी को फोन कर के पूछा कि आने में और कितनी देर लगेगी?

‘‘बच्चे कह रहे हैं कि तुम दोनों अंदर चल कर बैठो, कहीं पिक्चर न निकल जाए. हमारे पास अपने टिकट हैं, हम आ कर तुम्हें जौइन कर लेंगे,’’ सुनयना देवी के कहने पर मीनल और आहाद मूवीहौल के अंदर चले गए.

पिक्चर शुरू हो गई पर बच्चों का कोई अतापता न था. कुछ देर में दोबारा फोन करने पर पता चला कि अनिका का पेट खराब हो गया है, इसलिए थोड़ी देरी से आ पाएंगे.

‘‘न… न… तुम्हें वापस आने की कोई जरूरत नहीं है. तुम अपनी पिक्चर क्यों खराब करते हो, यहां मैं संभाल रही हूं,’’ दादी ने आश्वासन दिया.

इधर घर में अनिका को ले कर सुनयना देवी काफी परेशान हो रही थीं, ‘‘क्या डाक्टर के पास ले चलूं?’’

उन के प्रश्न पर अनिका और विराट का एकदूसरे की ओर देख कर आंखोंआंखों में की गई इशारेबाजी सुनयना देवी ने देख ली. बोली, ‘‘अब तुम दोनों यह बेकार की उलझन खत्म करो और असली मुद्दे पर आओ. आखिर मैं ने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किए. क्या खिचड़ी पका रहे हो तुम दोनों.’’

दादी के वर्षों के अनुभव तथा पारखी नजर पर दोनों बच्चे हैरान रह गए. फिर खिसियानी हंसी के साथ उन्होंने बात आगे बढ़ाई, ‘‘दादी, हम जानबूझ कर आज मूवी देखने नहीं गए. हम चाहते थे कि मम्मी और आहाद अंकल को अकेले पिक्चर देखने भेजें,’’ फिर कुछ रुक कर बच्चे आगे कहने लगे, ‘‘दादी, हमें आहाद अंकल बहुत अच्छे लगते हैं. और हम सोच रहे हैं कि कितना अच्छा हो अगर अंकल हमारे पापा बन जाएं.’’

बच्चों का हर्षोल्लास देख दादी ने उन्हें टोका नहीं. नन्हें बच्चों के अबोध मन में अपने पिता के रिक्त स्थान में आहाद की छवि दिखने लगी थी.

‘‘बोलो न दादी, हम सही सोच रहे हैं न? ऐसा हो सकता है क्या?’’ अनिका पूछने लगी.

विराट भी उत्साहित था. बोला, ‘‘कितना मजा आएगा न. मम्मा की शादी… हमारे फ्रैंड्स की तरह हमारे भी पापा होंगे. व्हाट अ थ्रिल,’’ बच्चे अपनी मासूमियत में अपने मन की बात कहे जा रहे थे. न कोई झिझक, न कोई संकोच.

मूवी खत्म होने पर मीनल और आहाद घर की ओर निकलने को थे कि आहाद ने कौफी पीने की गुजारिश की, ‘‘मैं समझता हूं मीनल कि तुम्हें अनिका के पास जाने की जल्दी हो रही होगी पर आज हम दोनों अकेले हैं तो… दरअसल, कई दिनों से तुम से कुछ कहना चाह रहा हूं पर हिम्मत साथ नहीं दे रही…’’

‘‘ऐसी क्या बता है, आहाद? चलो, पास के कैफे में कुछ देर बैठ लेते हैं,’’ कहते हुए मीनल ने अपने घर फोन कर निश्चित कर लिया कि अनिका की तबीयत अब ठीक है.

कैफे में आमनेसामने बैठ कर कुछ न बोल कर आहाद बस चुपचाप मीनल को देखता रहा. आज उस की नजरों में एक अजीब सा आकर्षण था, एक खिंचाव था जिस ने मीनल को अपनी नजरें झुकाने पर विवश कर दिया.

बात को सहज बनाने हेतु वह बोल पड़ी, ‘‘आहाद, परीजाद को गए इतना वक्त गुजर गया… इतने सालों में तुम ने पुनर्विवाह के बारे में क्यों नहीं सोचा?’’

‘‘तुम से मुलाकात जो नहीं हुई थी.’’

आहाद के कहते ही मीनल अचकचा कर खड़ी हो गई. ऐसा नहीं था कि उसे आहाद के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. संभवत: उस का मन यही बात आहाद से सुनना चाहता था. वह तो यह भी जानती थी कि उस के बच्चे भी ऐसा ही चाहते हैं. पर आज यों अचानक आहाद के मुंह से ऐसी बात सुनने की अपेक्षा नहीं थी. खैर, मन की बात कब तक छिप सकती है. भला. आहाद की बात सुन कर मीनल के नयनों में लज्जा और अधरों पर मुसकराहट खेल गई. दोनों की नजरों ने एकदूसरे को न्योता दे दिया.

मीनल की हंसी के कारण आहाद की हिम्मत थोड़ी और बढ़ी, ‘‘मैं तुम्हें पसंद करने लगा हूं और लगता है कि अनिका और विराट भी मुझे स्वीकार लेंगे. वे मुझ से अच्छी तरह हिलमिल गए हैं. बस एक बात की टैंशन है कि हमारे धर्म अलग हैं. यह बात मेरे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है… लेकिन हो सकता है कि तुम्हारे लिए हो. मेरे लिए धर्म बाद में आता है और कर्म पहले… हम इस जीवन में क्या करते हैं, किसे अपनाते हैं, किस से सीखते हैं, इन सभी बातों में धर्म का कोई स्थान नहीं है. हमारे गुरु, हमारे मित्र, हमारे अनुभव, हमारे सहकर्मी, जब सभी अलगअलग धर्म का पालन करने वाले हो सकते हैं तो हमारा जीवनसाथी क्यों नहीं… मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के कारण आकर्षित हुआ हूं और धर्म के कारण मैं एक अच्छी संगिनी को खोना नहीं चाहता. आगे तुम्हारी इच्छा.’’

हालांकि मीनल भी आहाद के व्यक्तित्व और आचारविचार से बहुत प्रभावित थी, किंतु धर्म एक बड़ा प्रश्न था. जीवन के इस पड़ाव पर आ कर मिली इस खुशी को वह खोना नहीं चाहती थी. खासकर यो जानने के बाद कि आहाद भी उसे पसंद करता है. मगर इतना बड़ा निर्णय वह अकेली नहीं ले सकती थी. सुनयना देवी से पूछने की बात कह मीनल घर लौट आई.

अगले दिन मीनल ने स्कूल से छुट्टी ले ली. जब बच्चे स्कूल चले

गए तब नाश्ते की टेबल पर मीनल ने सुनयना देवी से बात की. इतने सालों में इन दोनों का रिश्ता सासबहू से बढ़ कर हो गया था. मीनल ने जिस सरलता से आहाद के मन की बात बताई उसी रौ में अपने दिल क बात भी साझा की. आहाद द्वारा कही अंतरधर्म की शंका भी बांटी, ‘‘आप क्या सोचतीं इस विषय में मां?’’

कुछ क्षण दोनों के दरमियान चुप्पी छाई रही. मुद्दा वाकई गंभीर था. दूसरे प्रांत या दूसरी जाति नहीं वरन दूसरे धर्म का प्रश्न था. कुछ सोच कर मां ने प्रतिउत्तर में प्रश्न किया, ‘‘क्या तुम आहाद से प्यार करती हो?’’

मनील की चुप्पी में मां को उत्तर दे दिया. बोली, ‘‘देखो मीनल,समर्थ के जाने के बाद तुम ने किन परिस्थितियों का सामना किया यह मुझे भी पता है और तुम्हें भी. अब तक तुम अकेली ही जूझती आई. मैं चाहती हूं कि तुम्हारा घर बसे, तुम्हारा जीवन भी प्रेम से सराबोर हो, तुम एक बार फिर से गृहस्थी का सुख भोगो. तुम जो भी निर्णय लोगी, मैं तुम्हारे साथ हूं.’’

सुनयनादेवी के लिए मीनल के प्रति उन का प्यार हर मुद्दे से ऊपर आता था, ‘‘चलो, कल तुम्हारे मातापिता से मिल कर आगे की बात तय कर लेते हैं.’’

अगले दिन आहाद ने बच्चों को मूवी और मौल घुमाने का कार्यक्रम बनाया और मीनल व सुनयना देवी चल दीं उस के मायके.

‘‘भाईसाहब और बहनजी, हमारी मीनल के जीवन में एक बार फिर से बहार दस्तक दे रही है. इसी के कालेज में पढ़ा एक लड़का इस से शादी करना चाहता है. हम इस विषय में आप की राय चाहते हैं. मोहम्मद आहाद नाम है उस का. मुझे और बच्चों को भी वह लड़का बहुत पसंद आया. सब से अच्छी बात यह है कि धर्म की दीवार इन दोनों के प्यार के आढ़े नहीं आई. दोनों को अपने संस्कारों, अपनी संस्कृतियों पर गर्व है. कितना सुदृढ़ होगा वह परिवार जिस में 2-2 धर्मों, भिन्न संस्कृतियों का मेल होगा.’’

सुनयना देवी के कहते ही मीनल के मायके वालों ने हंगामा खड़ा कर डाला.

‘‘शर्म नहीं आई अपनी ही दूसरी शादी की बात करते और वह भी एक अधर्मी से.’’ बस इतना ही प्यार था समर्थ जीजाजी से? अरे, डायन भी 7 घर छोड़ देती है पर तुम ने ही घर वालों को नहीं बख्शा, मीनल का भाई गरजने लगा.

भाभी भी कहां पीछे रहने वाली थीं, ‘‘मैं क्या मुंह दिखाऊंगी अपने समाज में? मेरे मायके में मेरी छोटी बहन कुंआरी है अभी. उस की शादी कैसी होगी यह बात खुलने पर.’’

धम्म से जमीन पर गिरते हुए मां अपने पल्लू से अपने आंसू पोंछने में व्यस्त हो गई. तभी मीनल की बड़ी विवाहित बहन पास के अपने घर से आ पहुंची. उसे भाई ने फोन कर बुलवाया था. बहन ने आ कर मां के आंसू पोंछने शुरू कर दिए,‘‘अरे, ऐसी कुलच्छनी के लिए क्यों रोती हो, मां? एक को खा कर इस का पेट नहीं भरा शायद… इस उम्र में ऐसी जवानी फूट रही है कि जो सामने आया उसी से शादी करने को मचलने लगी? यह भी नहीं सोचा कि एक मुसलमान लड़का है वह. ऐसे लोग ही लव जिहाद को हवा देते हैं’’, कहते हुए बहन ने घूणास्पद दृष्टि मीनल पर डाली.

उस का मन हुआ कि वह इसी क्षण यहां से कहीं लुप्त हो जाए.

‘‘सौ बात की एक बात मीनल कि यह शादी होगी तो मेरी लाख के ऊपर से होगी. अब तेरी इच्छा है. अपनी डोली चाहती है या अपनी मां की मांग का सिंदूर’’, पिता की दोटूक बात पर मां का रुदन और बढ़ गया.

मीनल बेचारी सिर झुकाए चुपचाप रोती रही.

इतने कुहराम और कुठाराघात की मारी मीनल धम से सोफे पर गिर पड़ी. ठंड में भी उस के माथे से पसीना टपकने लगा. उस के पैर कंपकंपाने लगे, गला सूख गया, आंखें छलछला गईं. ऐसा लग रहा था कि उस के मन की कमजोरी उस के तन पर भी उतर आई है, ‘‘पापा, प्लीज अब रहने दीजिए’’, पता नहीं मीनल की आवाज में कंपन मौसम के कारण था या मनोस्थिति के कारण. इस बेवजह के तिरस्कार से वह थक गई. ‘‘गलती हो गई जो मैं ने ऐसा सोचा. मुझे कोई शादीवादी नहीं करनी है.’’

अपेक्षा विपरीत मीनल के पुनर्विवाह न करने का निर्णय उस के मायके वालों को स्वीकार्य था, लेकिन दूसरे धर्म के नेक, प्यार करने वाले लड़के से शादी नहीं.

अचानक सुनयना देवी खड़ी हो गईं, ‘‘मीनल एक शिक्षित, सुसंस्कारी, समझदार स्त्री है. जब से इस की शादी समर्थ से हुई, तब से यह मेरे परिवार का हिस्सा है. यह मेरी जिम्मेदारी है… हम कब तक अपनी मार्यादाओं के संकुचित दायरों में रह कर अपने ही बच्चों की खुशियों का गला घोंटते रहेंगे? जब हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षादीक्षा प्रदान करते हैं तो उन के निर्णयों को मान क्यों नहीं दे सकते?’’ फिर मीनल की ओर रुख करते हुए कहने लगीं, ‘‘मीनल, तुम मन में कोई चिंता मत रखो. तुम आज तक बहुत अच्छी बहूबेटी बन कर रहीं. अब हमारी बारी है. आज यदि तुम्हें कोई ऐसा मिला है जिस से तुम्हारा मन मिला है तो हम तुम्हारी खुशी में रोड़े नहीं अटकाएंगे. मैं तुम्हारे हर निर्णय में तुम्हारे साथ हूं.’’

फिर कुछ देर रुक कर मीनल का हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए सुनयना देवी बोली, ‘‘मीनल, याद है वह कविता जिसे समर्थ अकसर सुनाया करता था-’’

‘‘कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पण नहीं मरा करता है,

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है.’’

मां के अडिग, अटल समर्थन ने सब को चुप करवा दिया.

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