Emotional Story In Hindi : देहरी के भीतर

लेखिका: नीलम राकेश

Emotional Story In Hindi : मेरी शादी क्या तय हुई घर जैसे खुशियों से खिल उठा. जिसे देखो वह शादी की ही बातें करता दिखाई देता. मां तो जैसे खुशी से बौखला ही गई थीं. पिताजी खुशी के साथसाथ तनाव में थे कि जमींदारों के घर रिश्ता जुड़ रहा है कहीं कोई चूक न हो जाए. सब कुछ उन की हैसियत के अनुरूप करना चाहते थे. बाहर की तैयारियों की भागदौड़ के बीच भी मां को बताना नहीं भूले, “देखो, अपनी लाड़ली को पारंपरिक भोजन  बनाने की खूब प्रैक्टिस करा दो. हमारी लाडो किसी परीक्षा में असफल नहीं होनी चाहिए.”

पति की ओर देख कर मां मुसकराईं, “आप अपनी तैयारियां ठीक से करो जी, हमारी बिट्टो को पा कर समधियाने के लोग बेहद खुश होंगे. आप चिंता मत करो. यों तो उसे सबकुछ आता है फिर भी मैं रोज उस से कुछ न कुछ बनवाती रहूंगी.”

शादी की तैयारियां जोरों पर थीं और मेरे मन में धुकधुक हो रही  थी. बचपन से लखनऊ में जन्मी, पलीबड़ी मैं अचानक से जौनपुर में जा कर कैसे बस जाऊंगी? यह कैसा शहर होगा? कैसे लोग होंगे? जमींदार परिवार का क्या अर्थ है? मैं मन ही मन समझने की कोशिश करती. पर किसी से कुछ पूछ नहीं पाती. सोचती कि यदि भाई की शादी हो गई होती तो कम से कम भाभी से मन की बात तो कर सकती थी. मेरे मन में जौनपुर, जौनपुर वासियों और होने वाले परिजनों को ले कर अनेक प्रश्न सिर उठा रहे थे.

इतिहास मेरा पसंदीदा विषय कभी नहीं रहा फिर भी उस के पन्ने पलट कर जानने की कोशिश की तो पता चला जौनपुर मध्यकालीन भारत का एक स्वतंत्र राज्य था. जो शर्की शासकों की राजधानी हुआ करता था. यह कलकल बहती गोमती नदी के तट पर बसा है.

इसी सब उधेड़बुन के बीच विवाह की तिथि भी आ गई. एक शानदार आयोजन के साथ मैं विवाह बंधन में बंध कर विदा हो गई.

कार एक झटके के साथ रुकी तो मेरी तंद्रा टूट गई. हड़बड़ा कर मैं ने सिर से सरका अपना पल्लू संभाला. बगल में बैठे पति धीरे से फुसफुसाए, “हम घर पहुंच गए गए हैं.”

मैं ने कार की खिड़की के बाहर नजर दौड़ाई. चारों और दुकानें ही दुकानें दिखाई दीं. मेरे मन के दौड़ते घोड़े को लगाम लगी. यह कैसा रजवाड़ा, यह तो कसबे की बाजार सा लग रहा है. बस दुकानें बड़ीबड़ी लग रही थीं.

तभी औरतों का एक झुंड आया और जाने कौनकौन सी रस्में होने लगीं. रबर की गुड़िया की मानिंद मैं उन के आदेशों का पालन करती जाती.

“बहू जीने पर ऊपर चलो,” कहने के साथ भद्र महिला ने मेरा लहंगा संभाला और मैं धीरेधीरे जीने पर बढ़ने लगी. ऊपर पहुंच कर मैं ने नज़रे चारों ओर घुमाईं. बड़ा सा चौड़ा दालान था. दालान के अंत में सामने नक्काशीदार बड़ा सा विशालकाय दरवाजा था. मैं नजर झुकाए धीरेधीरे उस दरवाजे तक पहुंची. द्वार के बीचोबीच चौक बना कर उस के बीच रखे कलश को देख कर लगा हां, आई तो मैं किसी रजवाड़े में ही हूं. बड़ा सा चांदी का कलश जो बेलबूटों से सजा था, चावलें भरकर नई बहू के गृहप्रवेश हेतु रखा गया था.

चावलें लुढ़का कर मैं एक हौल में आ गई. मुझे एक सोफे पर बैठाया गया. शानदार नक्काशी वाला सोफा, सोफा कम सिंहासन ज्यादा लग रहा था. उस विशाल हौल में कई सोफे रखे थे जिन के हत्थे शेर या हाथी जैसे थे. मुझे अपने मायके का इकलौता नक्काशीदार सैंटर टेबल याद आया, जो पिताजी सहारनपुर से लाए थे और हम उसे कितना सहेजते रहते थे. यहां तो फर्नीचर, दरवाजे सब नक्काशी के शानदार नमूने लग रहे थे.
3 दालान पार कर थोड़ी देर बाद मुझे एक कमरे में पहुंचाया गया. “भाभी, यह मेरा कमरा है. आप यहां आराम कीजिए. आप का कमरा अभी सज रहा है,” कह कर मेरी ननद तारा शरारत से मुसकराई.
“यह घर तो बहुत बड़ा है. आप लोग खो नहीं जाते इस में?” मुसकान के साथ मैं ने पूछा.

तारा खनकती हुई प्यारी हंसी के साथ खिलखिलाई फिर मेरा हाथ पकड़ कर बोली,”भाभी, पहला वाला दालान और बैठक मेहमानों के लिए है. दूसरा दालान और उस के चारों ओर बने कमरों में रसोई, खाने का कमरा, मेहमान खाना और कुछ फालतू कमरे हैं. इस तीसरे दालान के चारों और हम सब के कमरे हैं. पर तीसरे दालान में आने की इजाजत केवल चमेली और इन्ना को ही है. धीरेधीरे आप सब जान जाएंगी. आप आराम करिए मैं मेहमानों को देख लूं. थोड़े दिनों में यहां की कमान आप के ही हाथों में ही होगी.”

शाम से ही मेरी ननदें मुझे सजाने में लग गईं. उन की चुलबुली छेड़छाड़ मन को गुदगुदाती तो मैं मुसकरा देती. वे निहाल हो जातीं. मेरी लंबी चोटी खोल कर वे मेरे केशों की तारीफ में कसीदे पढ़ने लगीं.
“हाय भाभी, भैया तो इन केशों में खो ही जाएंगे.” एक ने मुझे कुहनी मारी, “हां, भैया के काम का क्या होगा? इन से बंधे वे तो कहीं जा ही नहीं पाएंगे.” और कमरा उन की खिलखिलाहटों से भर गया.

तभी सासूमां आईं. उन के पीछेपीछे चमेली एक बड़ा सा थाल थामी हुई थी. वह साटन के लाल गोटेदार कपड़े से ढका था. “बहुरानी, यह हमारा खानदानी लहंगा है. सच्चे काम का, मतलब सोनेचांदी के तारों से काम है इस में. थोड़ा भारी है पर हमारे घर की परंपरा है. आज के दिन इस परिवार की कुलवधू इसे ही पहनती हैं.”

“जी,” मेरे उत्तर के साथ ही वे जितने ठसके के साथ आई थीं, उतनी ही ठसक से चली गईं. लहंगे को देख कर तो मेरी आंखें चुंधिया गईं. उस प्राचीन लहंगे की क्या बेहतरीन कारीगरी थी. शादी के लिए लखनऊ जैसे शहर में कितने ही लहंगे देखे थे मैं ने, पर इस के आसपास भी कोई टिक जाए ऐसा एक लहंगा मेरी नजरों के सामने नहीं आया था.

“भाभी, ऐसे क्या देख रही हैं? थोड़ा भारी तो है पर पहनना तो पड़ेगा ही.” तारा ने मुझे हिलाया.
“हां बहुत सुंदर है.” मैं ने आंखें झपकाईं तो सब फिर खिलखिला उठीं.

तैयार हो कर जब आदमकद आईने में स्वयं को देखा तो एक पल को तो भ्रम ही हो गया कि आईने में कोई महारानी खड़ी है. बिन बोले ही मैं मुसकरा दी. थोड़ी देर में सब मुझे मेरे कमरे में पहुंचा कर चली गईं. उन के जाते ही मैं ने अपने कमरे को निहारा. कमरा, नहींनहीं उसे हौल ही कहना सही होगा. ‘यह विशाल हौल मेरा है’ सोच कर ही मैं रोमांचित हो उठी. ऐसा तो कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी. बीच कमरे में लकड़ी का विशाल नक्काशीदार पलंग पड़ा हुआ था, जिस के सिरहाने पर नक्काशी की हुई थी.

पलंग को फूलों से सजाया गया था. कमरे में एक और बड़ा सा सोफा पड़ा हुआ था जिस पर सुंदर कारीगरी से कमल के फूल उकेरे गए थे. जमीन पर मोटी पर्शियन कालीन बिछी हुई थी. अचानक मेरी निगाह छत पर गई और मेरी आंखें फटी की फटी की रह गईं. पूरी छत काले, नीले, सफेद रंग की चित्रकारी से सजी हुई थी. 2 विशाल झाड़फानूस लटक रहे थे. अभी मैं देख ही रही थी कि कमरे के दरवाजे पर आहट हुई और मैं संभल कर बैठ गई.

नीले रंग की शेरवानी पर नारंगी साफा बांधे, गले में मोती की माला पहने, मेरे पति कमरे में दाखिल हुए. ‘यह पुरुष अब मेरा है’ सोच कर मन प्रसन्नता से खिल उठा.

कुछ दिन यों ही गहमागहमी रही फिर एक दिन सासूमां बोलीं, “तारा, अभी तक बहुरानी ने अपना पूरा घर नहीं देखा है. इसे पूरा घर दिखा दो.”

मैं और तारा हवेली भ्रमण पर निकल गईं. जितना तारा उत्साहित थीं उस से ज्यादा मैं उत्सुक थी. जिसे तारा ड्योढ़ी कह रही थी वह कलाकारी का उत्कृष्ट नमूना था. मैं पूर्वजों की कला के आगे नतमस्तक थी.
“तारा हम ऊपर नहीं जाएंगे?” मैं ने तारा से पूछा.

“भाभी, ऊपर की मंजिल को हम ने किराए पर दे रखा है. हमारी पहली मंजिल पर 3 किराएदार हैं. ऐसे जाना ठीक नहीं होगा.”

“किराएदार? लेकिन क्यों?” बरबस मेरे मुंह से निकला.

“भाभी, इतने बड़े घर का रखरखाव आसान नहीं होता.” आश्चर्य से मेरी ओर देख कर तारा बोली.
“मेरा मतलब वह नहीं था.” मैं बुरी तरह हड़बड़ा गई थी.

“कोई बात नहीं भाभी. वह स्वाभाविक प्रश्न था.” मेरे कंधे पर हाथ रख कर तारा मुझे आश्वस्त करते हुए बोली, “इस के ऊपर भी एक मंजिल है. पर मैं वहां नहीं जाती . आप भैया के साथ जा कर देख लीजिएगा.”
“आप नहीं जातीं, मतलब?”

“भाभी, आप तो जानती ही हैं, पुरानी हवेलियों के साथ कितने किस्से जुड़े रहते हैं. तो हमारी हवेली भी इस का अपवाद नहीं है.” तारा ने समझाया.

“मतलब…भ…भूत…”

“हां ऐसा ही कुछ…” तारा की आंखों में शरारत थी.

“सच बताइए न?”

“हां सच…” तारा ने अपनी बात पर जोर दिया और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पीछे की बगिया में ले गई और एकएक कर हर पेड़ से मेरा परिचय कराने लगी कि कौन सा पेड़ कब और किस ने लगाया था.

उसी समय चमेली आई,”भाभी, आप को भैया बुला रहे हैं.”

“भैया बुला रहे हैं” दोहराते हुए तारा ने मुझे शरारत से कुहनी मारी.

मैं लजाईलजाई सी चमेली के पीछे चल दी. पतिदेव तो जैसी मेरी प्रतीक्षा में ही बैठे थे. देखते ही बोले, “चलो तुम्हें गोमती नदी की सैर कराता हूं. वहां सूर्यास्त का नजारा देखना मजा आ जाएगा.”

 

कुछ ही समय में हम कलकल बहती गोमती नदी के ऊपर बने शाही पुल पर थे. लाल रंग का ऐतिहासिक पुल अपनी पूरी भव्यता से मेरा मन मोह रहा था. पतिदेव गर्व से बता रहे थे कि इसे अकबर के आदेश पर मुनइन खानखाना ने बनवाया था. और मां और तारा के साथ तुम जिस शाही किले को देखने गई थीं उस का निर्माण फिरोजशाह ने कराया था.”

अचानक मेरे मुंह से निकला, “मुझे अपनी कोठी की ऊपरी मंजिल कब दिखाएंगे आप?”

पतिदेव कुछ पल मुझे निहारते रहे फिर बोले, “तुम्हें ऊपरी मंजिल देखनी है?”

“हां”

“ठीक है दिखा दूंगा. चलो घर चलते हैं.”

परिवार का हर सदस्य किसी न किसी बहाने से मुझे ऊपर की मंजिल दिखाने से कतरा जाता था. ऐसा मुझे लग रहा था. मैं भी बारबार नहीं कह पा रही थी. पर मेरा डर और जिज्ञासा दोनों ही बढ़ती जा रही थी.
उस दिन सुबहसुबह मैं बीच के दालान में आई तो पहली मंजिल पर रहने वाली लीना मिल गई. “भाभी, मैं आप को ही बुलाने आ रही थी. आज आप लंच मेरे साथ करिएगा तो मुझे खुशी होगी. जब से

आप की शादी हुई है मैं आप को बुलाना चाह रही थी.”

“मैं मां से…”

मेरी बात बीच में काट कर लीना बोली, “आंटीजी से व तारा से मेरी बात हो गई है. मैं आप की प्रतीक्षा करूंगी. मैं ने आप के लिए कुछ खास बनाया है.”

“ठीक है‌.” मैं मुसकराई.

हम तीनों गपशप के साथ पिज्जा का आनंद ले रहे थे कि कमरे का दरवाजा अचानक धीरे से खुला और एक हाथ जिस में एक डब्बा और फूलों का गुलदस्ता था दिखाई दिया. मेरी तो सांस ही अटक गई. लीना और तारा ने एकदूसरे की ओर देखा. तब तक उस हाथ से जुड़ा शरीर भी सामने आ गया और लीना व तारा दोनों एक साथ बोलीं, “ओह तुम हो. डरा ही दिया था.”

सौम्य, जो कि इसी मंजिल पर दूसरी ओर रहता था हड़बड़ाया सा खड़ा था.

“यह…मैं…” वह कुछ बोल नहीं पा रहा था.

“हां, हां, सौम्य लाओ. भाभी यह गुलदस्ता मैं ने आप के लिए मंगाया था. आप पहली बार आई हैं न.” लीना ने बात संभाली और आगे बढ़ कर सौम्य से सामान ले लिया.

“ये…इमरती…” अटकता हुआ सौम्य बोला.

दोनों की हड़बड़ाहट छिपाए नहीं छिप रही थी.

 

“आओ बैठो सौम्य.” तारा बोली.

“भाभी, यहां की इमरती मशहूर है. इसलिए खास आप के लिए मंगवाई है.” कहते हुए लीना ने दोनों चीजें मुझे पकड़ा दीं.

हम चारों थोड़ी देर बातें करते रहे. पर सौम्य सामान्य नहीं हो पा रहा था . उस की नजर मेरे पास रखे गुलदस्ते पर बारबार जा कर अटक रही थी. चलती हुई जब मैं ने गुलदस्ता उठाया तो उस से लटकता हुआ छोटा सा कार्ड उन की चुगली कर गया, जिसे मैंने धीरे से निकाल लिया और लीना को गले लगा कर धीरे से सब की नजर बचा कर उस के हाथ में पकड़ा कर बोली, “यह तुम्हारे लिए है.”

कार्ड पर लिखा था, फौर माई लव.”

धीरेधीरे तीनों किराएदार मुझ से खुलने लगे थे. लीना और सौम्य तो अपनेअपने हिस्से में अकेले ही रहते थे और उन के बीच पक रही खिचड़ी अब मेरे सामने थी. दूसरी मंजिल पर ही एक बड़े हिस्से में मोहन रहता था जो किसी बैंक में काम करता था. उस के साथ उस की माताजी रहती थीं.

दिन के खाली समय में मैं अब अकसर उन के पास थोड़ी देर के लिए चली जाती. सासूमां आजाद खयाल की थीं. ज्यादा टोकाटाकी नहीं करती थीं. बस अपने काम से काम . राजसी ठसक में ही रहती थीं. घर में भी जेवरों से लदी रहती थीं. तारा कालेज चली जाती और मांजी आराम करने तो मैं ऊपर वाली माताजी के पास जा धमकती. उन के पास ढेरों किस्से थे.

“बहु तुम तीसरी मंजिल पर गईं कभी?” एक दिन अचानक उन्होंने पूछा.

“नहीं माताजी. कोई ले ही नहीं जाता मुझे.” मेरा लहजा शिकायती भरा था.

“जाना भी मत बहू.”

“ऐसा क्या है वहां?” मैं ने पूछा तो वे अजीब निगाहों से मुझे देखने लगीं.

“बताइए न,” मैं ने जोर दिया.

“फिर कभी बताऊंगी बहू, अभी तो मुझे आराम करना है.”

मैं चली तो आई पर मुझे ऊपरी मंजिल का रहस्य जानने का रास्ता मिल गया था.

मेरे बारबार कुरेदने पर उस दिन माताजी बोलीं, “देखो बहू, किसी से कहोगी नहीं तो तुम्हें बताऊं.”

“नहीं माताजी, आप की बात मैं किसी को क्यों बताने लगी भला.” मैं उत्साहित थी.

“जानती हो ऊपर की मंजिल पर न, रात में कुछ लोग आते हैं.”

“कौन लोग? और क्यों आते हैं माताजी?”

“पता नहीं पर आते तो हैं.” माताजी बोलीं.

“आप ने देखा है?’ मैं सीधे माताजी की आंखों में देख रही थी.

“और क्या, यहां सब ने देखा है. तुम्हें  भी दिख जाएंगे जल्दी ही.” माताजी के स्वर में विश्वास था.

उसी समय लीला के कमरे की खुलने की आवाज आई.

“सुन बहू, यह लीना तुम्हें कैसी लगती है?”

“बहुत मस्त लड़की है. मुझे अच्छी लगती है.”

“बता तो जरा मेरे मोहन के लिए कैसी रहेगी?” अब माताजी मेरी आंखों में देख रही थीं.

“माता जी, आजकल शादीब्याह में बच्चों की पसंद का ध्यान रखना चाहिए. उन से ही पूछना चाहिए. आप मोहन से बात करिए. क्या पता उसे कोई लड़की पसंद हो.”

“पसंद है, तभी तो तुम से पूछ रही हूं.” माता जी बोलीं.

“मतलब, मोहन ने आप को बताया है कि उसे लीना पसंद है? उन दोनों के बीच कुछ चल रहा है?” मैं ने आश्चर्य से पूछा.

“नहीं, ऐसे कौन बताता है. मां हूं न. उस का मन पढ़ सकती हूं.” स्नेह उन की आंखों में तैर रहा था.
“फिर…?”

“तुम तो अभी बच्ची हो. पता है मोहन को हमेशा लीना की फिक्र रहती है. कुछ भी फलवल लाता है तो लीना को देने को कहता है. और यह जो दूसरा लड़का रहता है न, मुझे तो फूटी आंख नहीं भाता. जाने क्या नाम है.”

“सौम्य…”

“हां, जो भी है.” रोष स्पष्ट था.

मैं उठने लगी तो माताजी बोलीं, “सुनो, अपनी सास से कह कर इस सौम्य को निकलवा दो. मैं न बहुत अच्छा किराएदार दिलवा दूंगी. किराया भी मोटी देगा. तुम बात करो उन से.”

“अरे मैं क्या कहूंगी?” मैं चकित थी.

“कहना क्या है. कह देना तारा को गलत नजर से देखता है. तुरंत हटा देंगी.”

“पर यह सच नहीं है. बरसों से तारा से राखी बंधवाता है. बहुत मानता है उसे. सुना भी है और देखा भी है मैं ने.” मैं ने स्पष्ट किया.

“अरे तो तुम झूठ कहां बोलेगी. बस लीना की जगह तारा का नाम बदल देना.” माताजी फिर से बोलीं.
“नहींनहीं यह मुझ से नहीं होगा. मैं चलती हूं.” मैं झटके से उठ भागी और हड़बड़ाहट में सामने से आ रहे पतिदेव से टकरा गई. पूरी बात सुन कर वे बोले, “अच्छा चलो तुम्हें तीसरी मंजिल दिखाता हूं.”
मैं काफी डरीडरी ऊपर पहुंची. मेरा चेहरा देख कर पतिदेव खिलखिलाए, “इतना डरती हो, तो देखने की जिद क्यों?”
“सच बताइए इस में भूत है क्या?”
“नहीं यार, सब बकवास है. भूत होता तो मैं तुम्हें यहां लाता? भूतवूत कुछ नहीं होता…” कहते हुए उन्होंने कमरे के विशाल दरवाजे को धक्का दिया. दरवाजा आवाज के साथ खुल गया. घबराहट में मैं ने पति की कमीज पीछे से पकड़ ली. वे मुसकराए और मेरा हाथ थाम कर अंदर बढ़े. अंदर आते ही आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. मैं एक बड़ी लाइब्रेरी के अंदर खड़ी थी. लकड़ी की नक्काशीदार अलमारियों के ऊपर खूबसूरत फ्रेम में महान क्रांतिकारियों की अनेक फोटो लगी थीं.

कुछ को मैं पहचान रही थी और ज्यादातर को नहीं. एक किनारे पर मोटा गद्दा बिछा था जिस पर खूबसूरत कालीन बिछी थी और कई तकिए रखे हुए थे. मैं कल्पना कर सकती थी कि यहीं पर सब बैठते और बातचीत करते होंगे. आगे बढ़ कर पतिदेव ने एक अलमारी का दरवाजा खोल दिया. अंदर किताबें भरी पड़ी थीं.

“यह हमारे परिवार का गौरवपूर्ण इतिहास का पन्ना है जिस पर हम सब को गर्व है. यह वह स्थान है जहां नेहरू, गांधी, पटेल सरीखे महान नेता आते थे और आजादी की योजना बनाते थे. हमारे पर बाबा आजादी की लड़ाई के एक सैनिक थे. इस कमरे में कैद उन की यादें हमारी बेशकीमती धरोहर हैं.”

“और यह भूत वाली बात?”

“सब बकवास है. पहले सामने वाले भाग में दूसरे किराएदार थे.  बहुत पुराने. पर उन की नियत में खोट आ गया था. लोगों को डराने के लिए वही ऐसी अनर्गल बातें फैलाते रहते थे कि सफेद धोतीकुरते में कुछ लोग रात में तीसरी मंजिल पर आते हैं. जब पानी सिर के ऊपर हो गया तब हम ने उन्हें निकाल दिया. जब से लीना और सौम्य आए हैं सब ठीक है.”

“पर माता जी…” मैं ने बात अधूरी छोड़ दी.

“हां माताजी थोड़ा इधरउधर की बातें करती हैं. पर उन का ज्यादा किसी से मिलनाजुलना नहीं है और उन का बेटा मोहन बहुत नेक इंसान है. सब की मदद को हमेशा तैयार रहता है. और उस के पिता, बाबूजी के अच्छे मित्र थे इसलिए…”

मैं सबकुछ ध्यान से सुन रही थी.

“अच्छा श्रीमतीजी, आप का डर और भ्रम दूर हुआ या फिर भूत को बुलाऊं?” हंसते हुए वे बोले.

“मैं यहां से किताबें ले कर पढ़ सकती हूं न?” अपनी झेंप छिपाते हुए मैं ने पूछा.

“हांहां, तुम मालकिन हो यहां की. सुना था तुम्हें पढ़ने का शौक है. खूब पढ़ो. चाहो तो यहां की सफाई करा के यहीं बैठ कर पढ़ो.”

“नहीं,अपने कमरे में ही पढ़ूंगी. यहां ज्यादा एकांत है.”

“ठीक है. हां एक बात याद रखना. यह सौम्य, लीना और मोहन की प्रेम कहानी उन्हें ही सुलझाने देना, तुम बीच में मत पड़ना.”

और हम एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले नीचे की ओर चल दिए, डर का भूत भाग गया था.

New Year Special : अपनेपन की एक सोंधी खुशबू

New Year Special : ‘‘नेहा बेटा, जरा ड्राइंगरूम की सेंटर टेबल पर रखी मैगजीन देना. पढ़ूंगा तो थोड़ा टाइम पास हो जाएगा,’’ उमाशंकर ने अपने कमरे से आवाज लगाई.

आरामकुरसी पर वह लगभग लेटे ही हुए थे और खुद उठ कर बाहर जाने का उन का मन नहीं हुआ. पता नहीं, क्यों आज इतनी उदासी हावी है…खालीपन तो पत्नी के जाने के बाद से उन के अंदर समा चुका है, पर कट गई थी जिंदगी बच्चों को पालते हुए.

शांता की तसवीर की ओर उन्होंने देखा… बाहर ड्रांगरूम में नहीं लगाई थी उन्होंने वह तसवीर, उसे अपने पास रखना चाहते थे, वैसे ही जैसे इस कमरे में वह उन के साथ रहा करती थी, जाने से पहले.

नेहा तो उन की एक आवाज पर बचपन से ही दौड़दौड़ कर काम करने की आदी है. शांता के गुजर जाने के बाद वह उस पर ही पूरी तरह से निर्भर हो गए थे. बेटा तो शुरू से ही उन से दूर रहा था. पहले पढ़ाई के कारण होस्टल में और फिर बाद में नौकरी के कारण दूसरे शहर में.

एक सहज रिश्ता या कहें कंफर्ट लेवल उस के साथ बन नहीं पाया था. हालांकि वह जब भी आता था, पापा की हर चीज का खयाल रखता था, जरूरत की चीजें जुटा कर जाता था ताकि पापा और नेहा को कोई परेशानी न हो.

बेटे ने जब भी उन के पास आना चाहा, न जाने क्यों वह एक कदम पीछे हट जाते थे- एक अबूझ सी दीवार खींच दी थी उन्होंने. किसी शिकायत या नाराजगी की वजह से ऐसा नहीं था, और कारण वह खुद भी समझ नहीं पाए थे और न ही बेटा.

शांता की मौत की वजह वह नहीं था, फिर भी उन्हें लगता था कि अगर वह उन छुट्टियों में घर आ जाता तो शांता कुछ दिन और जी लेती. होस्टल में फुटबाल खेलते हुए उस के पांव में फ्रैक्चर हो गया था और उस के लिए यात्रा करना असंभव सा था…छोटा ही तो था, छठी क्लास में. घर से दूर था, इसलिए चोट लगने पर घबरा गया था. बारबार उसे बुखार आ रहा था और अकेले भेजना संभव नहीं था, और उमाशंकर शांता को ऐसी हालत में नन्ही नेहा के भरोसे उसे लेने भी नहीं जा सकते थे.

यह मलाल भी उन्हें हमेशा सताता रहा कि काश, वह चले जाते तो मां जातेजाते अपने बेटे को देख तो लेती. वह 2 साल से कैंसर जूझ रही थी, तभी तो तरुण को होस्टल भेजने का निर्णय लिया गया था. यही तय हुआ था कि 2 साल बाद जब नेहा 5वीं जमात में आ जाएगी, उसे भी होस्टल भेज देंगे.

आखिरी दिनों में नेहा को सीने से चिपकाए शांता तरुण को ही याद करती रही थीं.

तरुण ने भी बड़े होने के बाद नेहा से कहा था, “पापा मुझे लेने आ जाते या किसी को भेज देते तो मैं मां से मिल तो लेता.”

नेहा जो समय से पहले ही बड़ी हो गई थी, इस प्रकरण से हमेशा बचने की ही कोशिश करती थी. बेकार में दुख को और क्यों बढ़ाया जाए, किस की गलती थी, किस ने क्या नहीं किया… इसी पर अगर अटके रहोगे तो आगे कैसे बढ़ोगे. मां को तो जाना ही था…दोष देने और खुद को दोषी मानना फिजूल है. तभी से वह उन दोनों के बीच की कड़ी बन गई थी…चाहे, अनचाहे.

पापा को ले कर हालांकि तरुण ने कभी भी विरोधात्मक रवैया नहीं रखा था और न ही नेहा को ले कर कोई द्वेष था मन में. भाईबहन में खूब प्यार था और एक सहज रिश्ता भी. रूठनामनाना, लड़ाईझगड़ा और अपनी बातें शेयर करना…जैसा कि आम भाईबहन के बीच होता है. लेकिन पापा और भाई की यही कोशिश रहती कि उस के द्वारा एकदूसरे तक बात पहुंच जाए.

यह कहना गलत न होगा कि नेहा पापा और भाई के बीच एक सेतु का काम करती थी. उस के माध्यम से अपनीअपनी बात एकदूसरे तक पहुंचाना उन दोनों को ही आसान लगता था. कभीकभी नेहा को लगता था कि उस की वजह से ही पितापुत्र दो किनारों पर छिटके रहे, वह ऐसी नदी बन गई, जिस की लहरें दोनों किनारों पर जा कर बहाव को यहांवहां धकेलती रहती हैं. लेकिन दोनों किनारों के बहाव को चाह कर भी आपस में एक कर पाने में असमर्थ रही है.

बचपन की बात अलग है, तब उसे उन दोनों के बीच माध्यम बनने में बहुत आनंद आता था, लगता था कि वह बहुत समझदार है. मां भी बहुत हंसा करती थी कि देखो छुटकी को बड़ा बनने में कितना आनंद आता है. अरे, अभी से क्यों इन पचड़ों में पड़ती है, बड़े होने पर तो जिम्मेदारियों के भारीभारी बोझ उठाने ही पड़ते हैं, वह अकसर कहती. लेकिन उसे तो पापा और भाई दोनों पर रोब झाड़ने में बहुत मजा आता था.

पर, अब जिंदगी और रिश्तों के मर्म को समझने के बाद उसे एहसास हो चुका था कि उस का माध्यम बने रहना कितना गलत है. दूरियां तभी खत्म होंगी, जब वह बीच में नहीं होगी. पर उस के बिना जीने की कल्पना दोनों ही नहीं करना चाहते थे. नदी बस निर्विघ्न बहती रहे तो रिश्ता रीतेगा नहीं, सूखेगा नहीं.

आवाज लगाने के बाद उमाशंकर को अपनी भूल का एहसास हुआ. नेहा तो अब है ही नहीं यहां.

‘‘ये लीजिए पापाजी,’’ अनुभा ने जैसे ही उन की आवाज सुनी, मैगजीन ले कर तुरंत उन के कमरे में उपस्थित हो गई.

‘‘पापाजी, और कुछ चाहिए…?’’ उस ने बहुत ही शालीनता से पूछा.

‘‘नहीं. कुछ चाहिए होगा तो खुद ले लूंगा. भूल गया था पलभर को कि नेहा नहीं है,’’ तिरस्कार, कटुता, क्रोध मिश्रित तीक्ष्ण स्वर और चेहरे पर फैली कठोरता… इस तरह की प्रतिक्रिया और व्यवहार की अनुभा को आदत हो गई है अब. पापा उस से सीधे मुंह बात नहीं करते… कोई बात नहीं, पर वह अपना फर्ज निभाने में कभी पीछे नहीं हटती.

अनुभा समझती है कि नेहा की कमी उन्हें खलती है, इसलिए बहुत खिन्न रहने लगे हैं. आखिर बरसों से नेहा पर निर्भर रहे हैं, वह उन की हर आदत से परिचित है, जानती है कि उन्हें कब क्या चाहिए.

रिटायर होने के बाद से तो वे छोटीछोटी बातों पर ज्यादा ही उखड़ने लगे हैं. शुरुआत में अनुभा को बुरा लगता था, पर अब नहीं.

शादी हुए डेढ़ साल ही हुए हैं, और एक साल से नेहा यहां नहीं है. पता नहीं, क्यों दूसरे शहर की नौकरी को उस ने प्राथमिकता दी, जबकि यहां भी औफर थे उस के पास नौकरी के. कुछकुछ तो वह इस की वजह समझती थी, नेहा कोई भी फैसला बिना सोचेसमझे नहीं करती थी.

अनुभा ने तब मन ही मन उसे सराहा भी था, पर उस के जाने की बात वह सहम भी गई थी. कैसे संभालेगी वह घर को…पितापुत्र के बीच पसरे ठंडेपन को… कितने कम शब्दों में संवाद होता है, बाप रे, वह तो अपने पापा से इतनी बातें करती थी कि सब उसे चैटरबौक्स कहते हैं. उस का भाई भी तो पापा से ही चिपका रहता है और मां दिखावटी गुस्सा करती हैं कि मां से तो तुम दोनों को कोई लगाव ही नहीं है… पर भीतर ही भीतर बहुत खुशी महसूस करती है.

बच्चों का पिता से लगाव होना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि मां से प्यार और आत्मीयता का संबंध सहज और स्वाभाविक ही होता है, उस के लिए प्रयत्न नहीं करने पड़ते.

उस पर ठहरी वह एक विजातीय लड़की. बेटे ने लवमैरिज की, यह बात भी पापा को बहुत खटकती है, अनुभा जानती है.

वह तो नेहा ने स्थिति को संभाल लिया था, वरना तरुण उसे ले कर अलग हो जाने पर आमादा हो गया था. दोनों के बीच सेतु बन रिश्तों पर किसी तरह पैबंद लगा दिया था.

अनुभा भी शादी के बाद नेहा पर बिलकुल निर्भर थी. ननदभाभी से ज्यादा उन के बीच दोस्त का रिश्ता अधिक था. जब उस ने तरुण से शादी करने का फैसला लिया था तो मां के मन में आशंकाएं थीं, ‘इतने समय से नेहा ही घर संभालती आ रही है. पूरा राज है उस का. कहीं वह तुम्हें तुम्हारे अधिकारों से वंचित न कर दे. तरुण भी तो उस की कोई बात नहीं टालता है, जबकि है उस से छोटी. कहीं सास बनने की कोशिश न करे, संभल कर रहना और अपने अधिकार न छोड़ना. कुंआरी ननद वैसे भी जी का जंजाल होती है.’

अनुभा को न तो अपने अधिकार पाने के लिए लड़ना पड़ा और न ही उसे लगा कि नेहा निरंकुश शासन करना चाहती है.

हनीमून से जब वे लौट कर आए थे और सहमे कदमों से जब अनुभा ने रसोई में कदम रखा था तो घर की चाबियों का गुच्छा उसे थमाते हुए नेहा ने कहा था, ‘‘भाभी संभालो अपना घर. बहुत निभा लीं मैं ने जिम्मेदारियां. थोड़ा मैं भी जी लूं.

“अरुण को, पापा को जैसे चाहे संभालो, पर मुझे मुक्ति दे दो. आप की सहायता करने को हमेशा तत्पर रहूंगी. ऐसे टिप्स भी दूंगी, जिन से आप इन 2 मिसाइलों से निबट भी लेंगी. बचपन से बड़े पैतरे अपनाने पड़े हैं तो सब दिमाग में रजिस्टर्ड हो चुके हैं. सब आप को दे दूंगी, ताकि मेरा दिमाग खाली हो और उस में कुछ नई और फ्रेश चीजें भरें,’’ मुसकराते हुए जिस अंदाज से नेहा ने कहा था, उस से अनुभा को जहां हंसी आ गई थी, वहीं सारा भय भी दूर हो गया था. नाहक ही कुंआरी ननदों को बदनाम किया जाता है… उन से अच्छी सहेली और कौन हो सकती है ससुराल में.

उस के बाद नेहा ने जैसे एक बैक सीट ले ली थी और अनुभा ने मोरचा संभाल लिया था.

पापा को अनुभा को दिल से स्वीकारने और बेटी जैसा सम्मान व स्नेह मिलने के लिए नेहा को यही सही लगा था कि वह एक दूरी बना ले. इस से नेहा पर पापा की निर्भरता कम होगी, साथ ही अनुभा को वह समझ पाएंगे और तरुण को भी. सेतु नहीं होगा तो खुद ही संवाद स्थापित करना होगा उन दोनों को.

‘‘भाभी, आप उन दोनों के बीच सेतु बनने की गलती मत करना. आप को बहुतकुछ नजरअंदाज करना होगा. बेशक इन लोगों को लगे कि आप उन की उपेक्षा कर रही हैं,’’ नेहा ने कहा था तो अनुभा ने उस का माथा चूम लिया था.

2-3 साल ही तो छोटी है उस से, पर एक ठोस संबल उसे भी चाहिए होता ही होगा.

‘‘लाओ, तुम्हारे बालों में तेल लगा देती हूं,’’ अनुभा ने कहा था, तो नेहा झट से अपने लंबे बालों को खोल कर फर्श पर बैठ गई थी.

‘‘कोई पैम्पर करे तो कितना अच्छा लगता है,’’ तब अनुभा ने उसे अपनी गोदी में लिटा लिया था.

‘‘भाभी, लगता है मानो मां की गोद में लेटी हूं. तरस गई थी इस लाड़ के लिए. लोगों को लगता है कि घर की सत्ता मेरे हाथ में है, इसलिए मैं खुशनसीब हूं, किसी की हिम्मत नहीं कि रोकेटोके, पर उन्हें कौन समझाए कि रोकनाटोकना, प्रतिबंध लगाना या डांट सुनना कितना अच्छा लगता है, तब यह नहीं लगता कि हम किसी जिम्मेदारी के नीचे दबे हैं.’’

दूरियां कभीकभी कितनी अच्छी हो सकती हैं, अनुभा को एहसास हो रहा था. नेहा के जाने के बाद उसे बहुत दिक्कतें आईं.

पितापुत्र के बीच अकसर छाया रहने वाला मौन और बातबात पर पापा का उसे अपमानित करना, उस की गलतियां निकालना और विजातीय होने के कारण उस की सही बात को भी गलत ठहराना.

अनुभा ने भी ठान लिया था कि वह कभी पापा की बात को नहीं काटेगी, अपमान का घूंट पीना उस के लिए कोई आसान नहीं था, पर तरुण और नेहा के सहयोग से उस ने धैर्य की कुछ घुट्टी यहां पी ली थी और कुछ वह अपने साथ सहनशीलता को एक तरह से दहेज में ही ले कर आई थी.

मां ने यह पाठ बचपन से पढ़ाया था, क्योंकि वह इतना तो जानती थी कि चाहे आप कितना ही क्यों न पढ़लिख जाएं, कितने ही पुरुषों से आगे क्यों न निकल जाएं, सहनशीलता की आवश्यकता हर मोड़ पर पड़ती है गृहस्थी चलाने के लिए. शायद इसे वह परंपरा ही मानती थी.

वह चुपचाप पापा के सारे काम करती, समय पर उन को खाना देती, दवा देती और सुबहशाम सैर करने के लिए जिद कर के भेजती.

वह कुछ अलग नहीं कर रही थी, ऐसा तो वह अपने मायके में भी करती थी. केवल रिश्ते का नाम यहां अलग था, पर रिश्ता तो वही था, पिता का.
उस से गलतियां होती थीं, स्वाभाविक ही है, तो क्या हुआ, नेहा कहती, ‘‘ज्यादा मत सोचो भाभी, बहुत गड़बड़ हुई तो मैं अपनी जिम्मेदारी से भागूंगी नहीं.

“यह मत सोचना कि मैं ने अपनी आजादी पाने के लिए यह कदम उठाया… मैं तो केवल आप को उस घर में आप का अधिकार दिलाना चाहती हूं.

“पापा को थोड़ा सक्रिय भी होना पड़ेगा, वरना जंग लग जाएगी उन के शरीर में और फिर मन में. असहाय और अकेले होने की भावना से खुद को ही आहत करते रहेंगे और दूसरे पर निर्भर हो जाएंगे हर काम के लिए. उन्हें मन की उदासी से निकल कर पहले खुद के लिए और फिर दूसरों के लिए जीना सीखना होगा.

“अपने को दोषी मान कर और आत्मप्रताड़ना और स्वयं पर दया करते रहना, उन का स्वभाव सा बन गया है. हम केवल मदद कर सकते हैं, पर निकलना उन्हें खुद ही होगा…फिर चाहे उन्हें कुछ झटके ही क्यों न देने पड़ें.

“आसान नहीं है. पर भाभी, अब तो मुझे भी वह फोन पर बहुतकुछ सुना देते हैं. मजा आता है, कम से मुझे पैडस्टल से तो उतार रहे हैं.

“अब थोड़ी कम थकान महसूस करती हूं. पर, आप को थकाने के लिए सौरी. चलो भैया से थकान उतरवा लेना,’’ हंसी थी वह जोर से, तो अनुभा के चेहरे पर लाली छा गई थी.

जब रोज एक ही स्थिति से गुजरना पड़े तो वह आदत बन जाती है और फिर खलती नहीं है. उमाशंकर के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था. देख रहे थे कि बेटाबहू उन का कितना ध्यान रखते हैं. बेटे के साथ संवाद बढ़ गया था, क्योंकि अनुभा ने सेतु बनने से साफ मना कर दिया था. फिर नाराजगी करें तो भी किस बात पर, कब तक बेवजह नुक्स निकालते रहेंगे.

जब वह पार्क में सैर करने जाते हैं तो देखतेसुनते तो हैं कि बूढ़े मांबाप के साथ कितना बुरा व्यवहार करते हैं बेटाबहू… कुछ तो खाने के लिए तरसते रहते हैं. न समय पर खाना मिलता है, न दवा. और पैसे के लिए भी हाथ फैलाते रहो. महानगरीय जीवन की त्रासदी से अवगत हैं वह… भाग्यशाली हैं कि उन की दशा सुखद है. पेंशन का पैसा बैंक में ही पड़ा रहता है. जब जो चाहे खरीद लेते हैं, खर्च कर लेते हैं. तरुण तो एक बार कहने पर ही सारी चीजें जुटा देता है.

नेहा नहीं है तब भी जिंदगी मजे से कट रही है उन की. जब इनसान आत्ममंथन करने लगता है तो दिमाग में लगे जाले साफ होने लगते हैं.

पितापुत्र के बीच खिंची दीवार धीरेधीरे ही सही दरकने लगी थी. बहू बेटी नहीं बन सकती, यह मानने वाले उमाशंकर उसे  बहू का दर्जा देने लगे थे, उस के विजातीय होने के बावजूद.

नेहा ने जो दूरियां बनाई थीं, वे अनुभा को, तरुण को उन के पास ला रही थीं.

‘‘नेहा…’’ उमाशंकर ने जैसे ही आवाज लगाई तो उसे गले में ही रोक लिया. कमरे के भीतर ही सिमट गया नेहा का नाम.

‘‘अनुभा, मैं आज शाम को खिचड़ी ही खाऊंगा, साथ में सूप बना देना, अगर दिक्कत न हो तो…’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े उमाशंकर ने धीमे स्वर में कहा. झिझक थी उन के स्वर में. समझती है अनुभा, वक्त लगेगा दूरियां खत्म होने में. एकएक कदम की दूरी ही बेशक तय हो, पर शुरुआत तो हो गई है.

वह इंतजार करेगी, जब पापा उसे बहू नहीं बेटी समझेंगे.

नेहा भी तो कब से उस दिन का इंतजार कर रही है. वह जानबूझ कर आती नहीं है मिलने भी कि कहीं पापा उसे देख फिर अनुभा के प्रति कठोर न हो जाएं.

‘‘बहुत ग्लानि होती है कई बार भाभी, मेरी वजह से आप को इतना सब झेलना पड़ रहा है,’’ कल जब अनुभा से बात हुई थी, तो नेहा ने कहा था.

‘‘गिल्टफीलिंग से बाहर निकलो, नेहा. सब ठीक हो जाएगा. आ जाओ थोड़े दिनों के लिए. तरुण भी मिस कर रहे हैं तुम्हें.’’

अनुभा ने सोचा कल ही नेहा को फोन कर के कहेगी कि उसे आ जाना चाहिए मिलने, बेटी है वह घर की. अनुभा को अधिकार दिलाने के चक्कर में अपना हक और अपने हिस्से के प्यार को क्यों छोड़ रही है वह…वह तो कितना तड़प रही है सब से मिलने के लिए. फोन पर चाहे जितनी बात कर लो, पर आमनेसामने बैठ कर बात करने का मजा ही कुछ और होता है. सारी भावनाएं चेहरे पर दिखती हैं तब.

‘‘अरे पापा बिलकुल बन जाएगा, मैं भी आज खिचड़ी ही खाऊंगा और साथ में सूप… वाह मजा आ जाएगा,’’ तरुण उन के साथ आ कर खड़ा हो गया था. दोनों साथसाथ खड़े थे. अपनेपन की एक सोंधी खुशबू खिचड़ी के लिए बनाए तड़के के साथ उठी और अनुभा को लगा जैसे आज देहरी पार कर उस ने सचमुच अपने घर में प्रवेश किया है.

Hindi Story Collection: प्यार का खेल

Hindi Story Collection: आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.

पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’

‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.

‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’

‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.

कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.

मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.

बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.

इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,

इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए. जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर, भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें, भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर, पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो, आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.

अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

Latest Hindi Stories : कमाऊ मुरगी

Latest Hindi Stories : ‘‘मां,भैया देखो मैं किसे आप से मिलाने लाई हूं,’’ धैर्या ने कमरे में घुसते ही खुशी से अपने परिवार के लोगों को पुकारा. ‘‘अरे कौन है भई जो इतनी खुश नजर आ रही है मेरी बहना?’’ भाई अमन पत्नी के साथ अपने कमरे से बाहर आते हुए बोला.

अब तक मां भी ड्राइंगरूम में आ चुकी थीं. ‘‘मां, ये हैं मेजर वीर प्रताप सिंहजी.

इन की पूना में पोस्टिंग है,’’ धैर्या ने चकहते हुए अपने साथ आए एक लंबे कद के

आकर्षक पर्सनैलिटी वाले व्यक्ति से सब का परिचय कराया. ‘‘नमस्ते,’’ कह कर मेजर ने सब का अभिवादन किया.

चायनाश्ते के दौरान मेजर ने बताया कि वे हरियाणा के करनाल के रहने वाले हैं और अपने मातापिता के इकलौते बेटे हैं. वे जाट परिवार से हैं और अभी तक कुंआरे हैं. चायनाश्ता कर के मेजर धैर्या की ओर मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘अच्छा धैर्या अब मैं चलता हूं, कल मिलते हैं.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह धैर्या उन्हें बाहर तक छोड़ने गई. ‘‘2-4 दिनों में तुम्हें अपने मातापिता से मिलवाने की कोशिश करता हूं,’’ मेजर ने अपनी कार में बैठते हुए कहा.

जब धैर्या अंदर आई तो मां, भाई और भाभी सभी को अपनी ओर गुस्से से देखते हुए पाया. ‘‘कौन थे ये जनाब दीदी और हम से मिलवाने का क्या मतलब था?’’ भाभी व्यंग्यात्मक स्वर में बोलीं.

‘‘मां, ये सेना में अधिकारी हैं. उम्र में मुझ से 10 साल बड़े हैं, इसलिए आप से मिलवाने लाई थी,’’ एक सांस में सारी बात कह कर धैर्या अपने कमरे में चली गई. यह सुन कर घर के तीनों सदस्यों को जैसे सांप सूंघ गया. सब हैरान से एकदूसरे को देखने लगे.

‘‘दिमाग खराब हो गया है इस लड़की का. अब इस उम्र में शादी करेगी और वह भी गैरजाति के लड़के से… हमारी तो बिरादरी में नाक ही कट जाएगी,’’ मां अपना सिर पकड़ कर बोलीं. ‘‘बाहर आने दो, मैं बात करता हूं इस से,’’ भाई अमन बोला.

‘‘ननद रानी का तो दिमाग ही फिर गया है… शादी वह भी इतनी बड़ी उम्र के इंसान से?’’ भाभी धारिणी भला कहां चुप रहने वाली थी. ‘‘भाभी, क्या बुरा कर रही हूं मैं? इस संसार में सभी तो शादी करते हैं… आप भी तो शादी कर के ही इस घर में आई हैं. फिर उम्र से क्या फर्क पड़ता है? मेरी उम्र भी कौन सी कम है?’’ कमरे से बाहर आते हुए धैर्या बोली.

‘‘अच्छीभली तो चल रही है तेरी जिंदगी… क्यों उस में आग लगा रही है? एक तो पिछड़ी जाति का लड़का और फिर उम्र में भी तुझ से 10 साल बड़ा… न शक्ल न सूरत, तुझे उस में क्या दिखा, जो शादी करने की सोच ली. तेरे आगे कहीं नहीं लगता वह,’’ मां ने समझाने की कोशिश की. ‘‘ठीक है न मां, सारी जिंदगी तो आप सब के हिसाब से ही चली. अब कुछ अपने मन का भी करने दें,’’ कह धैर्या नहाने चली गई.

उस दिन से घर में जैसे तूफान आ गया. सुबह उस से किसी ने बात नहीं की. वह चुपचाप नाश्ता कर के औफिस चल दी. तभी मेजर का फोन आ गया, ‘‘हैलो गुड मौर्निंग डियर, हाऊ आर यू? नींद आई थी भी

या नहीं?’’ ‘‘मैं ठीक हूं,’’ धैर्या ने उत्तर दिया.

‘‘क्या हुआ कुछ मूड ठीक नहीं है. ऐनी प्रौब्लम?’’ धैर्या को रोना आ गया. बोली, ‘‘घर में कल आप के जाने के बाद जम कर कुहराम मचा… कोई मेरी शादी नहीं करना चाहता… ऐसा मैं ने क्या कर दिया,’’ वह रोंआसे स्वर में बोली.

‘‘कोई बात नहीं, तुम उदास न हो… ये सब हम बाद में हल कर लेंगे. कल मम्मीपापा आ रहे हैं अपनी लाड़ली बहू से मिलने, तुम तैयार रहना,’’ मेजर ने उत्साह से कहा. यह सुन धैर्या एकदम चौंक कर अपने आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘कल… क… ल… मैं कैसे कर पाऊंगी सब?’’ ‘‘तुम्हें करना ही क्या है. बस तैयार हो कर कल 11 बजे होटल ताज पहुंच जाना. मैं वहीं मिलूगा.’’

‘‘जी वे सब तो ठीक है, पर मैं बहुत नर्वस फील कर रही हूं,’’ धैर्या ने थोड़ा घबराते हुए कहा. ‘‘अरे, इस में नर्वस होने की क्या बात है. मेरे मातापिता बेहद सीधे हैं. वे कब से अपनी बहू के लिए तरस रहे हैं. बस मैं ही शादी के लिए तैयार नहीं था… उन का बस चले तो आज ही शादी कर के तुम्हें घर ले जाएं. ठीक है तो कल मिलते हैं,’’ कह कर मेजर ने फोन काट दिया.

शाम को औफिस से घर आ कर धैर्या कौफी का मग ले कर बालकनी में आ खड़ी

हुई. उस का मन आज से 6 माह पहले मेजर से हुई पहली मुलाकात पर चला गया था. होश संभालते ही घर की जिम्मेदारियों को निभातेनिभाते वह अपने बारे में सोचना ही भूल गई थी. बस मां, भाई, भाभी, भतीजा ही उस की दुनिया थे. पर पिछले कुछ दिनों से घर वालों का बर्ताव और कुछ कानों में पड़ी बातों ने उस के मन को बुरी तरह आहत कर दिया था. तभी उसे समझ आया कि घर में सब अपनेअपने में मसरूफ हैं… सभी को उस के पैसे से मतलब है न कि उस से. वह तपड़ उठी थी जब मौसी ने मां से उस की शादी के बारे में बात की थी. तब मां बोली थीं, ‘‘अरे जीजी धैर्या का ब्याह हो गया तो हमारी जिंदगी तो नर्क हो जाएगी. अमन की तो नौकरी लगतीछूटती रहती है… शादी के बाद ससुराल वाले मायके की मदद तो नहीं करने देंगे न.’’

मां की बातें सुन कर धैर्या के पैरों तले की जमीन जिसक गई. 1 सप्ताह के गंभीर मंथन के बाद वह किसी नतीजे पर पहुंचती, तभी उसे एक दिन औफिस जाते समय मैट्रो में अपनी बचपन की सहेली निशा मिल गई. धैर्या की आपबीती सुन कर निशा गुस्से से भर कर बोली, ‘‘तू अभी तक उन सब को ढो रही है. अंकल थे तब तू कमाऊ पूत थी और अंकल के जाने के बाद सब के लिए मात्र सोने के अंडे देने वाली कमाऊ मुरगी बन कर रह गई है, जिसे तेरे घर वाले शादी कर हलाल नहीं करना चाहते हैं. अब मैं तेरी एक नहीं सुनूंगी. बस तू अभी मेरे साथ चल,’’ कह कर वह उसे अपने एक जानपहचान के मैरिज ब्यूरो ले गई और फिर उस का वहां शादी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा दिया.

मैरिज ब्यूरो से 1 माह बाद ही धैर्या के पास फोन आ गया और तब उस की मेजर सिंह से मुलाकात हुई. वे उसे पहली मुलाकात में ही भा गए थे. बिना लागलपेट के उन्होंने धैर्या को बताया कि वे 42 साल के हो कर भी सिर्फ इसलिए कुंआरे हैं कि वे अपनी नौकरी में मसरूफ थे. अपनी पोस्टिंग पर उन्हें परिवार को ले जाने की मनाही थी. छुट्टी भी बहुत कम मिलती थी. मातापिता की देखभाल के लिए किसी भी लड़की को ब्याह कर ससुराल में छोड़ना उन्हें पसंद नहीं था. अब उन की पोस्टिंग पूना में है और वे परिवार को अपने साथ रख सकते हैं. इसीलिए शादी को तैयार हो गए. धैर्या के बारे में सब सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘आप जैसी जिम्मेदार लड़की से कौन शादी नहीं करना चाहेगा… आप को अपने घर ला कर मैं और मेरे मातापिता खुद को धन्य समझेंगे.’’

मेजर साहब से होटल में मिलने के बाद धैर्या ने वहीं से निशा को उन के बारे में बताया तो वह खुशी से बोली, ‘‘अब देर मत कर, भले ही तुझ से उम्र में 10 साल बड़े हैं, जाति और कल्चर अलग हैं, पर उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. तुम दोनों समझदार हो. तू अपना सबकुछ लुटा कर भी परिवार वालों की सगी नहीं हो सकती… वे सिर्फ अपना मतलब निकाल रहे हैं. शादी कर के अपना घरपरिवार बसा और अपनी जिंदगी जी.’’ मेजर सिंह से कुछ मुलाकातों में ही उस की समझ में आने लगा कि जीवनसाथी के साथ जिंदगी बिताने का आनंद क्या होता है. खुद को अंदर से मजबूत कर के और शादी का पक्का मन बनाने के बाद ही उस ने मेजर सिंह को अपने परिवार वालों से मिलवाया.

अगले दिन सुबह धैर्या फीरोजी रंग की शिफौन की साड़ी पर हैदराबादी मोतियों का सैट पहन कर घर से निकली तो मां और भाभी उसे खा जाने वाली नजरों से देख रही थीं.

ताज होटल के कमरा नं. 403 के बाहर पहुंच कर घंटी पर हाथ रखते समय उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. उसे लग रहा था मानो वह जिंदगी का सब से बड़ा इम्तिहान देने जा रही हो.

जैसे ही दरवाजा खुला मेजर सिंह सामने खड़े थे. वे उस का हाथ पकड़ कर उसे अंदर तक ले गए. उसे देखते ही उन के मातापिता खड़े हो गए. उस ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया. मेजर सिंह की मां ने उसे अपने गले से लगा लिया और फिर बोलीं, ‘‘कुदरत का लाखलाख शुक्र है जो उस ने हमें इतनी प्यारी लड़की बहू के रूप में दी. इस दिन के लिए मेरी आंखें कब से तरस रही थीं.’’

‘‘बैठो, बेटा आराम से बैठो,’’ मेजर सिंह के पिता ने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा. धैर्या लजाते हुए सामने रखे सोफे पर बैठ गई.

‘‘बेटा, हम तुम से कुछ नहीं पूछना चाहते. हमें प्रताप ने सब बता दिया है. हम बस तुम्हें एक बार देखना चाहते थे, अब बस हम तुम्हारे परिवार वालों से मिल कर शादी की डेट तय करना चाहते हैं. शाम को हम तुम्हारे घर आ रहे हैं,’’ मेजर सिंह के पिता ने कहा. ‘‘जी, जैसा आप ठीक समझें,’’ धैर्या सिर नीचा किए शरमाते हुए बोली.

हलकेफुलके चायनाश्ते के बाद वह घर आ गई. फ्रैश हो कर चाय पीतेपीते वह गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मां, भैया, मेजर साहब के मातापिता आज शाम को आ कर आप दोनों से मिल कर हमारी शादी की तारीख तय करना चाहते हैं.’’ ‘‘शादी? कैसी शादी? हमें यह शादी मंजूर नहीं और न हम ऐसी किसी शादी में शामिल होंगे… हम ऐसी गैरजाति की बेमेल शादी नहीं होने देंगे.’’

भाई अमन तो मानो अपना आपा ही खो बैठा था. ‘‘पर मैं ने तय कर लिया है भैया कि मैं मेजर साहब से ही शादी करूंगी,’’ धैर्या दृढ़ता से बोली.

यह सुन कर अमन भी तेज आवाज में बोला, ‘‘मैं बरसों से पापा की बनीबनाई

इज्जत को मिट्टी में नहीं मिलने दूंगा.’’ ‘‘कुछ तो बोलो मां, आप क्यों चुप बैठी हो?’’ धैर्या ने शांति से तमाशा देख रहीं मां की ओर देख कर कहा.

मां पहले से ही कुढ़ी बैठी थीं. अत: गुस्से से बोलीं, ‘‘अरे मैं क्या बोलूं, जब तुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा.’’ ‘‘क्या समझ नहीं आ रहा मां? शादी ही तो कर रही हूं कोई गलत काम तो नहीं कर रही,’’ धैर्या ने लगभग रोंआसे स्वर में कहा.

‘‘ननद रानी आप तो बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम वाली बात कर रही हैं. शादी वह भी इस उम्र में?’’ भाभी ने भी अपनी औकात दिखा ही दी. ‘‘क्यों भाभी कल तक जब आप के लिए महंगे सूट, साडि़यां और गहने लाती थी, तब तो बड़ी प्यारी ननद और बहन कहतेकहते नहीं थकती थीं आप और आज मैं बूढ़ी घोड़ी हो गई? असल में आप तीनों ही मेरी शादी करना नहीं चाहते, क्योंकि मैं आप के लिए महज एक कमाऊ मुरगी हूं. मेरी कमाई से ही तो आप सब अपने शौक पूरे कर रहे हैं. आप सब अपनी दुनिया में मस्त हैं, कभी किसी ने मेरे बारे में सोचा है?’’

‘‘देख बेटा अब तू अपनी सीमाएं लांघ रही है. उस मेजर ने लगता है तेरा दिमाग खराब कर दिया है,’’ मां गुस्से से बोलीं. ‘‘नहीं मां मेरा दिमाग तो अब तक खराब था. आज ही ठिकाने आया है. याद है पिछले महीने जब मौसी ने मेरी शादी की बात आप से की थी तो आप ही कह रही थीं कि धैर्या की शादी कर दी तो हम कैसे रहेंगे? उसी से तो घर चलता है. बताइए, इसीलिए तो आप ने कभी मेरी शादी के बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘छोटी बस कर, बहुत बोल ली तू… इस उम्र में ये शादीवादी के सपने देखना छोड़ दे. चैन से नौकरी कर और सब के साथ रह जैसे अब तक रहती आई है,’’ अमन ने थोड़ा नर्म होते हुए कहा. ‘‘भैया आप को याद है, आप और भाभी हमेशा हर नई फिल्म का पहला शो देखते हो. पिछली बार जब आप कोई फिल्म देख कर आए थे और भाभी से मेरी शादी की बात कर रहे थे, तब भाभी ने कहा था कि दीदी की शादी हो गई तो हमारा खर्चा नहीं चलेगा. इसलिए जैसा चल रहा है चलने दो और आप ने कहा था, यह तो है. मेरी तनख्वाह से तो हमारा घर का गुजारा नहीं हो सकता. फिल्म देखना तो दूर की बात है.’’

‘‘भैया आप अपनी दुनिया में इतने व्यस्त हो गए कि मुझ से 5 साल बड़े हो कर भी आप ने कभी मेरे बारे में नहीं सोचा,’’ धैर्या ने गुस्से में कहा तो भैया और भाभी निरुत्तर हो कर एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘देख बेटा अब इस उम्र में शादी के सपने देखना छोड़ दे. एक तो गैरजाति का लड़का ऊपर से उम्र में 10 साल बड़ा. ये लोग बड़े चालाक होते हैं. लड़कियों की कोई इज्जत नहीं होती इन के यहां. मुझे तो लगा वे बस तेरे पैसे के लालच में शादी करने की बात कर रहे हैं… तू पछताएगी,’’ मां ने अपना आखिरी दांव चला.

‘‘नहीं मांजी, आप गलत सोच रही हैं. मेरे परिवार को पैसों का कोई लालच नहीं है. हमारा परिवार तो धैर्या जैसी लड़की को अपने परिवार की बहू बना कर अपने को धन्य समझेगा. मैं उसे जीवन की वह हर खुशी दूंगा जिस पर एक लड़की और एक पत्नी का अधिकार होता है. शादी के बाद भी यह आप लोगों पर खर्च करना चाहे, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी,’’ मेजर सिंह की आवाज सुन कर धैर्या चौंक गई, जो दरवाजे की ओट में खड़े न जाने कब से घर के सदस्यों की बातें सुन रहे थे. ‘‘आप… आप यहां कब आए?’’ धैर्या ने अचकचाते हुए पूछा.

‘‘धैर्या, तुम जल्दीबाजी में अपना मोबाइल होटल में ही भूल आई थीं… मैं इसे देने यहां चला आया. अब मुझे लगता है कि मेरे मम्मीपापा को शादी तय करने के लिए यहां आने की जरूरत नहीं है.’’‘और मैं आप सब से भी कहना चाहता हूं कि आज से बल्कि अभी से इस के जीवन का हर सुखदुख मेरा है. मैं ने आप सब लोगों की सारी बातें सुन ली हैं और अब मैं इसे यहां आप लोगों के बीच एक पल भी नहीं रहने दूंगा. धैर्या, चलो मेरे साथ.’’ हम दोनों शादी कर रहे हैं. आप लोगों को यदि उचित लगे तो आशीर्वाद देने आ जाइएगा. शादी 1 माह बाद अदालत में होगी. उतने दिन धैर्या मेरे घर में मेहमान की तरह रहेगी. धैर्या के घर वालों को अपना फैसला सुना कर मेजर सिंह धैर्या का हाथ पकड़ कर उसे बाहर अपनी गाड़ी तक ले गए.

धैर्या तब तक अपना सामान पैक कर चुकी थी. परिवार के तीनों सदस्य धूल उड़ती गाड़ी को चुपचाप जाते देखते रह गए. धैर्या ने मेजर सिंह के कंधे पर सिर टिका कर अपनी आंखें मूंद लीं मानो जीवन में आने वाले नए उजाले के सपने देखने की कोशिश कर रही हो.

Romantic Hindi Stories : तिकोनी डायरी

नागेश की डायरी

Romantic Hindi Stories : कई दिनों से मैं बहुत बेचैन हूं. जीवन के इस भाटे में मुझे प्रेम का ज्वार चढ़ रहा है. बूढ़े पेड़ में प्रेम रूपी नई कोंपलें आ रही हैं. मैं अपने मन को समझाने का भरपूर प्रयत्न करता हूं पर समझा नहीं पाता. घर में पत्नी, पुत्र और एक पुत्री है. बहू और पोती का भरापूरा परिवार है, पर मेरा मन इन सब से दूर कहीं और भटकने लगा है.

शहर मेरे लिए नया नहीं है. पर नियुक्ति पर पहली बार आया हूं. परिवार पीछे पटना में छूट गया है. यहां पर अकेला हूं और ट्रांजिट हौस्टल में रहता हूं. दिन में कई बार परिवार वालों से फोन पर बात होती है. शाम को कई मित्र आ जाते हैं. पीनापिलाना चलता है. दुखी होने का कोई कारण नहीं है मेरे पास, पर इस मन का मैं क्या करूं, जो वेगपूर्ण वायु की भांति भागभाग कर उस के पास चला जाता है.

वह अभीअभी मेरे कार्यालय में आई है. स्टेनो है. मेरा उस से कोई सीधा नाता नहीं है. हालांकि मैं कार्यालय प्रमुख हूं. मेरे ही हाथों उस का नियुक्तिपत्र जारी हुआ है…केवल 3 मास के लिए. स्थायी नियुक्तियों पर रोक लगी होने के कारण 3-3 महीने के लिए क्लर्कों और स्टेनो की भर्तियां कर के आफिस का काम चलाना पड़ता है. कोई अधिक सक्षम हो तो 3 महीने का विस्तार दिया जा सकता है.

उस लड़की को देखते ही मेरे शरीर में सनसनी दौड़ जाती है. खून में उबाल आने लगता है. बुझता हुआ दीया तेजी से जलने लगता है. ऐसी लड़कियां लाखों में न सही, हजारों में एक पैदा होती हैं. उस के किसी एक अंग की प्रशंसा करना दूसरे की तौहीन करना होगा.

पहली नजर में वह मेरे दिल में प्रवेश कर गई थी. मेरे पास अपना स्टाफ था, जिस में मेरी पी.ए. तथा व्यक्तिगत कार्यों के लिए अर्दली था. कार्यालय के हर काम के लिए अलगअलग कर्मचारी थे. मजबूरन मुझे उस लड़की को अनुराग के साथ काम करने की आज्ञा देनी पड़ी.

मुझे जलन होती है. कार्यालय प्रमुख होने के नाते उस लड़की पर मेरा अधिकार होना चाहिए था, पर वह मेरे मातहत अधिकारी के साथ काम रही थी. मुझ से यह सहन नहीं होता था. मैं जबतब अनुराग के कमरे में चला जाता था. मेरे बगल में ही उस का कमरा था. उन दोनों को आमनेसामने बैठा देखता हूं तो सीने पर सांप लोट जाता है. मन करता है, अनुराग के कमरे में आग लगा दूं और लड़की को उठा कर अपने कमरे में ले जाऊं.

अनुराग उस लड़की को चाहे डिक्टेशन दे रहा हो या कोई अन्य काम समझा रहा हो, मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. तब थोड़ी देर बैठ कर मैं अपने को तसल्ली देता हूं. फिर उठतेउठते कहता हूं, ‘‘नीहारिका, जरा कमरे में आओ. थोड़ा काम है.’’

मैं जानता हूं, मेरे पास कोई आवश्यक कार्य नहीं. अगर है भी तो मेरी पी.ए. खाली बैठी है. उस से काम करवा सकता हूं. पर नीहारिका को अपने पास बुलाने का एक ही तरीका था कि मैं झूठमूठ उस से व्यर्थ की टाइपिंग का काम करवाऊं. मैं कोई पुरानी फाइल निकाल कर उसे देता कि उस का मैटर टाइप करे. वह कंप्यूटर में टाइप करती रहती और मैं उसे देखता रहता. इसी बहाने बातचीत का मौका मिल जाता.

नीहारिका के घरपरिवार के बारे में जानकारी ले कर अपने अधिकारों का बड़प्पन दिखा कर उसे प्रभावित करने लगा. लड़की हंसमुख ही नहीं, वाचाल भी थी. वह जल्द ही मेरे प्रभाव में आ गई. मैं ने दोस्ती का प्रस्ताव रखा, उस ने झट से मान लिया. मेरा मनमयूर नाच उठा. मुझ से हाथ मिलाया तो शरीर झनझना कर रह गया. कहां 20 साल की उफनती जवानी, कहां 57 साल का बूढ़ा पेड़, जिस की शाखाओं पर अब पक्षी भी बैठने से कतराने लगे थे.

नीहारिका से मैं कितना भी झूठझूठ काम करवाऊं पर उसे अनुराग के पास भी जाना पड़ता था. मुझे डर है कि लड़की कमसिन है, जीवन के रास्तों का उसे कुछ ज्ञान नहीं है. कहीं अनुराग के चक्कर में न आ जाए. वह एक कवि और लेखक है. मृदुल स्वभाव का है. उस की वाणी में ओज है. वह खुद न चाहे तब भी लड़की उस के सौम्य व्यक्तित्व से प्रभावित हो सकती थी.

क्या मैं उन दोनों को अलग कर सकता हूं?

अनुराग की डायरी

नीहारिका ने मेरी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया है. वह इतनी हसीन है कि बड़े से बड़ा कवि उस की सुंदरता की व्याख्या नहीं कर सकता है. गोरा आकर्षक रंग, सुंदर नाक और उस पर चमकती हुई सोने की नथ, कानों में गोलगोल छल्ले, रस भरे होंठ, दहकते हुए गाल, पतलीलंबी गर्दन और पतला-छरहरा शरीर, कमर का कहीं पता नहीं, सुडौल नितंब और मटकते हुए कूल्हे, पुष्ट जांघों से ले कर उस के सुडौल पैरों, सिर से ले कर कमर और कूल्हों तक कहीं भी कोई कमी नजर नहीं आती थी.

वह मेरी स्टेनो है और हम कितनी सारी बातें करते हैं? कितनी जल्दी खुल गई है वह मेरे साथ…व्यक्तिगत और अंतरंग बातें तक कर लेती है. बड़े चाव से मेरी बातें सुनती है. खुद भी बहुत बातें करती है. उसे अच्छा लगता है, जब मैं ध्यान से उस की बातें सुनता हूं और उन पर अपनी टिप्पणी देता हूं. जब उस की बातें खत्म हो जाती हैं तो वह खोदखोद कर मेरे बारे में पूछने लगती है.

बहुत जल्दी मुझे पता लग गया कि वह मन से कवयित्री है. पता चला, उस ने स्कूलकालेज की पत्रिकाओं के लिए कविताएं लिखी थीं. मैं ने उस से दिखाने के लिए कहा. पुराने कागजों में लिखी हुई कुछ कविताएं उस ने दिखाईं. कविताएं अच्छी थीं. उन में भाव थे, परंतु छंद कमजोर थे. मैं ने उन में आवश्यक सुधार किए और उसे प्रोत्साहित कर के एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज दिया. कविता छप गई तो वह हृदय से मेरा आभार मानने लगी. उस का झुकाव मेरी तरफ हो गया.

शीघ्र ही मैं ने मन की बात उस पर जाहिर कर दी. वस्तुत: इस की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि बातोंबातों में ही हम दोनों ने अपनी भावनाएं एकदूसरे पर प्रकट कर दी थीं. उस ने मेरे प्यार को स्वीकार कर के मुझे धन्य कर दिया.

काम से समय मिलता तो हम व्यक्तिगत बातों में मशगूल हो जाते परंतु हमारी खुशियां शायद हमारे ही बौस को नागवार गुजर रही थीं. दिन में कम से कम 5-6 बार मेरे कमरे में आ जाते, ‘‘क्या हो रहा है?’’ और बिना वजह बैठे रहते, ‘‘अनुराग, चाय पिलाओ,’’ चाय आने और पीने में 2-3 मिनट तो लगते नहीं. इस के अलावा वह नीहारिका से साधिकार कहते, ‘‘मेरे कमरे से सिगरेट और माचिस ले आओ.’’

मेरा मन घृणा और वितृष्णा से भर जाता, परंतु कुछ कह नहीं सकता था. वे मेरे बौस थे. नीहारिका भी अस्थायी नौकरी पर थी. मन मार कर सिगरेट और माचिस ले आती. वह मन में कैसा महसूस करती थी, मुझे नहीं मालूम क्योंकि जब भी वह सिगरेट ले कर आती, हंसती रहती थी, जैसे इस काम में उसे मजा आ रहा हो.

एक छोटी उम्र की लड़की से ऐसा काम करवाना मेरी नजरों में न केवल अनुचित था, बल्कि निकृष्ट और घृणित कार्य था. उन का अर्दली पास ही गैलरी में बैठा रहता है. यह काम उस से भी करवा सकते थे पर वे नीहारिका पर अपना अधिकार जताना चाहते थे. उसे बताना चाहते थे कि उस की नौकरी उन के ही हाथ में है.

सिगरेट का बदबूदार धुआं घंटों मेरे कमरे में फैला रहता और वह परवेज मुशर्रफ की तरह बूट पटकते हुए नीहारिका को आदेश देते मेरे कमरे से निकल जाते कि तुम मेरे कमरे में आओ.

मैं मन मार कर रह जाता हूं. गुस्से को चाय की आखिरी घूंट के साथ पी कर थूक देता हूं. कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं, जिन पर मनुष्य का वश नहीं रहता. लेकिन मैं कभीकभी महसूस करता हूं कि नीहारिका को नागेश के आधिकारिक बरताव पर कोई खेद या गुस्सा नहीं आता था.

नीहारिका कभी भी इस बात की शिकायत नहीं करती थी कि उन की ज्यादतियों की वजह से वह परेशान या क्षुब्ध थी. वह सदैव प्रसन्नचित्त रहती थी. कभीकभी बस नागेश के सिगरेट पीने पर विरोध प्रकट करती थी. उस ने बताया था कि उस के कहने पर ही नागेश ने तब अपने कमरे में सिगरेट पीनी बंद कर दी, जब वह उन के कमरे में काम कर रही होती थी.

मुझे अच्छा नहीं लगता है कि घड़ीघड़ी भर बाद नागेश मेरे कमरे में आएं और बारबार बुला कर नीहारिका को ले जाएं. इस से मेरे काम में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था पर मैं चाहता था कि नीहारिका जब तक आफिस में रहे मेरी नजरों के सामने रहे.

नीहारिका की डायरी

मैं अजीब कशमकश में हूं…कई दिनों से मैं दुविधा के बीच हिचकोले खा रही हूं. समझ में नहीं आता…मैं क्या करूं? कौन सा रास्ता अपनाऊं? मैं 2 पुरुषों के प्यार के बीच फंस गई हूं. इस में कहीं न कहीं गलती मेरी है. मैं बहुत जल्दी पुरुषों के साथ घुलमिल जाती हूं. अपनी अंतरंग बातों और भावनाओं का आदानप्रदान कर लेती हूं. उसी का परिणाम मुझे भुगतना पड़ रहा है. हर चलताफिरता व्यक्ति मेरे पीछे पड़ जाता है. वह समझता है कि मैं एक ऐसी चिडि़या हूं जो आसानी से उन के प्रेमजाल में फंस जाऊंगी.

इस दफ्तर में आए हुए मुझे 1 महीना ही हुआ और 2 व्यक्ति मेरे प्रेम में गिरफ्तार हो चुके हैं. एक अपने शासकीय अधिकार से मुझे प्रभावित करने में लगा है. वह हर मुमकिन कोशिश करता है कि मैं उस के प्रभुत्व में आ जाऊं. दूसरा सौम्य और शिष्ट है. वह गुणी और विद्वान है. कवि और लेखक है. उस की बातों में विलक्षणता और विद्वत्ता का समावेश होता है. वह मुझे प्रभावित करने के लिए ऐसी बातें नहीं करता है.

पहला जहां अपने कर्मों का गुणगान करता रहता है. बड़ीबड़ी बातें करता है और यह जताने का प्रयत्न करता है कि वह बहुत बड़ा अधिकारी है. उस के अंतर्गत काम करने वालों का भविष्य उस के हाथ में है. वह जिसे चाहे बना सकता है और जिसे चाहे पल में बिगाड़ दे. अपने अधिकारों से वह सम्मान पाने की लालसा करता है. वहीं दूसरी ओर अनुराग अपने व्यक्तित्व से मुझे प्रभावित कर चुका है.

नागेश से मुझे भय लगता है, अत: उस की किसी बात का मैं विरोध नहीं कर पाती. मुझे पता है कि मेरी किसी बात से अगर वह नाखुश हुआ तो मुझे नौकरी से निकालने में उसे एक पल न लगेगा. ऐसा उस ने संकेत भी दिया है. वह गंदे चुटकुले सुनाता और खुद ही उन पर जोरजोर से हंसता है. अपने भूतकाल की सत्यअसत्य कहानियां ऐसे सुनाता है जैसे उस ने अपने जीवन में बहुत महान कार्य किए हैं और उस के कार्यों में अच्छे संदेश निहित हैं.

मेरे मन में उस के प्रति कोई लगाव या चाहत नहीं है. वह स्वयं मेरे पीछे पागल है. मेरे मन में उस के प्रति कोई कोमल भाव नहीं है. वह कहीं से मुझे अपना नहीं लगता. मेरी हंसी और खुलेपन से उसे गलतफहमी हो गई है. तभी तो एक दिन बोला, ‘‘तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. शायद मैं तुम्हें चाहने लगा हूं. क्या तुम मुझ से दोस्ती करोगी?’’

मेरे घर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है. घर में 3 बहनों में मैं सब से बड़ी हूं. घर के पास ही गली में पिताजी की किराने की दुकान है. बहुत ज्यादा कमाई नहीं होती है. बी.ए. करने के बाद इस दफ्तर में पहली अस्थायी नौकरी लगी है. अस्थायी ही सही, परंतु आर्थिक दृष्टि से मेरे परिवार को कुछ संबल मिल रहा है. अभी तो पहली तनख्वाह भी नहीं मिली थी. ऐसे में काम छोड़ना मुझे गवारा नहीं था.

मन को कड़ा कर के सोचा कि नागेश कोई जबरदस्ती तो कर नहीं सकता. मैं उस से बच कर रहूंगी. ऊपरी तौर पर दोस्ती स्वीकार कर लूंगी, तो कुछ बुरा नहीं है. अत: मैं ने हां कह दिया. उस ने तुरंत मेरा दायां हाथ लपक लिया और दोस्ती के नाम पर सहलाने लगा. उस ने जब जोर से मेरी हथेली दबाई तो मैं ने उफ कर के खींच लिया. वह हा…हा…कर के हंस पड़ा, जैसे पौराणिक कथाओं का कोई दैत्य हंस रहा हो.

‘‘बहुत कोमल हाथ है,’’ वह मस्त होता हुआ बोला तो मैं सिहर कर रह गई.

दूसरी तरफ अनुराग है…शांत और शिष्ट. हम साथ काम करते हैं परंतु आज तक उस ने कभी मेरा हाथ तक छूने की कोशिश नहीं की. वह केवल प्यारीप्यारी बातें करता है. दिल ही दिल में मैं उसे प्यार करने लगी हूं. कुछ ऐसे ही भाव उस के भी मन में है. हम दोनों ने अभी तक इन्हें शब्दों का रूप नहीं दिया है. उस की आवश्यकता भी नहीं है. जब दो दिल खामोशी से एकदूसरे के मन की बात कह देते हैं तो मुंह खोलने की क्या जरूरत.

हमारे प्यार के बीच में नागेश रूपी महिषासुर न जाने कहां से आ गया. मुझे उसे झेलना ही है, जब तक इस दफ्तर में नौकरी करनी है. उस की हर ज्यादती मैं अनुराग से बता भी नहीं सकती. उस के दिल को चोट पहुंचेगी.

नागेश के कमरे से वापस आने पर मैं हमेशा अनुराग के सामने हंसती- मुसकराती रहती थी, जिस से उस को कोई शक न हो. यह तो मेरा दिल ही जानता था कि नागेश कितनी गंदीगंदी बातें मुझ से करता था.

अनुराग मुझ से पूछता भी था कि नागेश क्या बातें करता है? क्या काम करवाता है? परंतु मैं उसे इधरउधर की बातें बता कर संतुष्ट कर देती. वह फिर ज्यादा नहीं पूछता. मुझे लगता, अनुराग मेरी बातों से संतुष्ट तो नहीं है, पर वह किसी बात को तूल देने का आदी भी नहीं था.

अब धीरेधीरे मैं समझने लगी हूं कि 2 पुरुषों को संभाल पाना किसी नारी के लिए संभव नहीं है.

नागेश को मेरी भावनाओं या भलाई से कुछ लेनादेना नहीं. वह केवल अपना स्वार्थ देखता है. अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए मुझे अपने सामने बिठा कर रखता है. मुझे उस की नीयत पर शक है. हठात एक दिन बोला, ‘‘मेरे घर चलोगी? पास में ही है. बहुत अच्छा सजा रखा है. कोई औरत भी इतना अच्छा घर नहीं सजा सकती. तुम देखोगी तो दंग रह जाओगी.’’ मैं वाकई दंग रह गई. उस का मुंह ताकती रही…क्या कह रहा है? उस की आंखों में वासना के लाल डोरे तैर रहे थे. मैं अंदर तक कांप गई. उस की बात का जवाब नहीं दिया.

‘‘बोलो, चलोगी न? मैं अकेला रहता हूं. कोई डरने वाली बात नहीं है,’’ वह अधिकारपूर्ण बोला.

मैं ने टालने के लिए कह दिया, ‘‘सर, कभी मौका आया तो चलूंगी.’’

वह एक मूर्ख दैत्य की तरह हंस पड़ा.

आफिस प्रमुख नागेश अपने आफिस के एक अधिकारी अनुराग के लिए स्टेनो नीहारिका की अस्थायी नियुक्ति कर देते हैं. नागेश को स्थायी पी.ए. मिली हुई है. ये तीनों अपनीअपनी पर्सनल डायरी मेनटेन करते हैं. 57 साल के नागेश अपनी डायरी में 20 साल की नीहारिका की खूबसूरती के बारे में बयान करते हैं और अपनी सीट से उठउठ कर अपने कनिष्ठ अफसर अनुराग के कमरे में जाते हैं. कुछ देर बैठ कर नीहारिका को अपने कमरे में आने का निर्देश दे कर चले जाते हैं. वे आगे लिखते हैं कि एक दिन उन्होंने दोस्ती का प्रस्ताव रखा तो नीहारिका ने झट से मान लिया. वहीं नागेश को यह डर भी था कि नीहारिका कहीं अनुराग से प्रभावित न हो जाए.

उधर, अनुराग की डायरी बताती है कि नीहारिका ने उस की रात की नींद और दिन का चैन छीन लिया है. एक दिन बातोंबातों में हम दोनों ने अपनी भावनाएं प्रकट कर दी थीं. उस ने मेरे आग्रह को स्वीकार कर के मुझे धन्य कर दिया.

उधर, अपनी डायरी में नीहारिका लिखती है कि मैं अजीब कशमकश में हूं. मैं 2 पुरुषों के प्यार के बीच फंस गई हूं. एक अपने शासकीय अधिकार से प्रभावित करने में लगा है तो दूसरा अपने व्यक्तित्व से मुझे प्रभावित कर चुका है. नागेश से मुझे डर लगता है. अत: उस की किसी भी बात का मैं विरोध नहीं कर पाती. मेरी हंसी और खुलेपन से उसे गलतफहमी हो गई है. एक दिन वह बोला, ‘तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. मैं तुम्हें चाहने लगा हूं. क्या तुम मुझ से दोस्ती करोगी?’ मेरे घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है. अस्थायी नौकरी ही सही, घर की कुछ तो मदद हो जाएगी. ये सोच कर मैं ने ‘हां’ कर दी. दूसरी तरफ अनुराग है…शांत और शिष्ट. वह केवल प्यारीप्यारी बातें करता है. दिल ही दिल में मैं उस से प्यार करने लगी हूं. कुछ ऐसे ही भाव उस के मन में भी हैं. हम दोनों ने इन्हें अभी शब्दों का रूप नहीं दिया है. आफिस में नागेश के निर्देश पर उस के कमरे में जाती फिर वहां से ड्यूटी रूम में आने पर मैं हमेशा अनुराग के सामने हंसतीमुसकराती रहती थी ताकि उसे किसी तरह की तकलीफ न पहुंचे.अब आगे…

नागेश की डायरी

2 महीने बीत चुके हैं. बात आगे बढ़ती नहीं दिखाई पड़ रही है. मैं अच्छी तरह जानता हूं. नीहारिका के प्रति मेरे मन में कोई प्यार नहीं. ढलती उम्र में प्यार की चोंचलेबाजी नहीं की जा सकती है. मैं नीहारिका को प्रेमपत्र नहीं लिख सकता, उस की गली के चक्कर नहीं लगा सकता, हाथ में हाथ डाल कर बागों में टहलना अब मेरे लिए संभव नहीं है. मैं केवल नीहारिका के सुंदर शरीर के प्रति आसक्त हूं. फिर उसे प्राप्त करने का क्या तरीका अपनाया जाए?

कितनी बार उस से कहा कि मेरे घर चले, पर वह हंस कर टाल देती है. क्या उसे मेरे कुटिल मनोभावों का पता चल चुका है. जवान लड़की, पुरुष की आंखों की भाषा समझ सकती है. फिर क्यों वह तिलतिल कर, जला कर मार रही है मुझे…परवाने जल जाते हैं, शमा को पता भी नहीं चलता.

नीहारिका के साथ ऐसी बात नहीं है. वह अच्छी तरह जानती है कि मैं उसे दिलोजान से चाहने लगा हूं और उस का सान्निध्य चाहता हूं. वह भी तो यही चाहती है, वरना मेरी दोस्ती क्यों कबूल करती. मेरी किसी बात का बुरा नहीं मानती है. मैं कितनी खुली बातें करता हूं, वह हंसती रहती है. क्या यह संकेत नहीं करता कि उस का दिल भी मुझ पर आ गया है?

मुझे लगता है कि अनुराग भी नीहारिका पर आसक्त हो चुका है. वह युवा है और अविवाहित भी. नीहारिका मेरी तुलना में उस को ज्यादा पसंद करेगी. उस के साथ ही रहती है. नीहारिका को हासिल करने के लिए मुझे शीघ्र ही कोई कदम उठाना पड़ेगा. कार्यालय में उस के साथ कुछ करना संभव नहीं है. बवाल मच सकता है. एक बार वह मेरे घर चलने के लिए राजी हो जाए, तो फिर कुछ किया जा सकता है. वह मेरे हाथों से बच नहीं सकती.

नीहारिका के हावभाव से तो नहीं लगता कि वह अनुराग को चाहती है. कई बार उस से कह चुका हूं कि प्यार में लड़के ही नहीं लड़कियां भी बरबाद हो जाती हैं. अपनी प्रतियोगी परीक्षाओं की तरफ ध्यान दे, ताकि स्थायी नौकरी लग सके. पर मेरे बरगलाने से क्या वह मान जाएगी? जवान लड़की क्या किसी बूढ़े व्यक्ति के चक्कर में अपना जीवन और भविष्य बरबाद करेगी? क्या वह नहीं समझती कि मैं उसे चक्कर में लेने का प्रयत्न कर रहा हूं? मेरी बातों से वह कैसे इस तरह प्रभावित हो सकती है कि किसी जवान लड़के का चक्कर छोड़ दे? वह अनुराग के साथ काम करती है, क्या उस से प्रभावित नहीं हो सकती? हां…अवश्य.

अनुराग के रहते मेरा काम बनने वाला नहीं है. मुझे नीहारिका को उस से अलग करना होगा. दोनों साथसाथ रहेंगे तो आपस में लगाव बढ़ेगा. उन्हें कोई ऐसा मौका नहीं देना कि मैं अपना ही मौका चूक जाऊं. मैं उसे एक पत्नी की तरह अपनाना चाहता हूं पर यह कैसे संभव हो सकता है? वह किसी और पुरुष के सान्निध्य में न आए तब…हां, उसे अनुराग से दूर करना ही होगा. मैं उसे किसी और के साथ लगा देता हूं. किस के साथ…इस बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है. हरीश के साथ अनिल काम कर रहा है. उसे हटा कर मैं अनुराग के साथ लगा देता हूं और नीहारिका को हरीश के साथ…अनुराग की तुलना में वह उम्रदराज है. भोंडे दांतों वाला है. आंखों पर मोटा चश्मा लगाता है. बात करता है तो टेढ़ेमेढ़े दांत बाहर निकल आते हैं. मुंह से झाग के छींटे फेंकता रहता है. देख कर उबकाई आती है. नीहारिका उस से अंतरंग नहीं हो सकती.

यह आदेश निकालने के बाद मुझे लगा कि मैं ने नीहारिका को प्राप्त कर लिया है. इस परिवर्तन से कार्यालय में क्या प्रतिक्रिया हुई, मुझे पता नहीं चला. न अनुराग ने मुझ से कुछ कहा न नीहारिका ने कोई शिकायत की. मैं मन ही मन खुश होता रहा.

नीहारिका को मैं पहले की तरह काम के लिए अपने कमरे में बुलाता रहा. वह आती और हंसतीमुसकराती काम करती. मैं अपनी कुरसी छोड़ उस के पीछे खड़ा हो जाता. उस का मुंह कंप्यूटर की तरफ होता. मैं डिक्टेशन देने के बहाने उस की कुरसी की पीठ से सट कर खड़ा हो जाता. फिर अनजान बनता हुआ थोड़ा झुक कर भी उस के कंधे पर, कभी पीठ पर हाथ रख देता.

नीहारिका न तो मेरी तरफ देखती, न कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करती. मेरा हौसला बढ़ता जाता और मैं उस की पीठ सहलाने लगता. तब वह उठ कर खड़ी हो जाती. कहती, ‘‘मैं 2 मिनट में आती हूं.’’ और वह चली जाती. फिर उस दिन उसे नहीं बुलाता. पता नहीं, उस के मन में क्या हो? यह जानने के लिए मैं थोड़ी देर में हरीश के कमरे में जाता तो वहां नीहारिका को प्रफुल्लित देखता. मतलब उस ने मेरी हरकतों का बुरा नहीं माना. मैं आगे बढ़ सकता हूं.

मैं दूसरे दिन का इंतजार करता. दूसरा दिन, फिर तीसरा दिन…दिन पर दिन बीतते जा रहे थे, पर बात शारीरिक स्पर्श से आगे नहीं बढ़ पा रही थी. नीहारिका पत्थर की तरह बन गई थी. मेरी हरकतों पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती. मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. शरीर में उफान सा आता, पर उसे ज्वार का रूप देना मेरे हाथ में नहीं था.

नीहारिका मेरा साथ नहीं दे रही थी. जब मैं उस के साथ कोई हरकत करता, वह बाहर चली जाती, दोबारा बुलाने पर भी जल्दी मेरे कमरे में नहीं आती थी. मुझे अर्दली को 2-3 बार भेजना पड़ता. तब कहीं आती और तबीयत ठीक न होने का बहाना बनाती. पर मैं प्रेमरोग से पीडि़त उस की बात की तरफ ध्यान न देता. उस की भावनाओं से मुझे कोई लेनादेना नहीं था.

पर एक दिन बम सा फट गया. मैं ने उस के साथ हरकत की और वह हो गया, जिस की मैं ने कभी उम्मीद नहीं की थी. मैं उस घटना के बारे में यहां नहीं लिख सकता. मैं इतना चकित और हैरान हूं कि ऐसा कैसे हो गया? क्या नीहारिका जैसी कमजोर लड़की मेरे साथ ऐसा कर सकती है?

अब नारी जाति से मेरा विश्वास उठ गया है. ऊपर से वह कुछ और दिखती है, मन में उस के कुछ और होता है. आसानी से उस के मन को पढ़ पाना या समझ पाना संभव नहीं है. मैं उस की हंसी और प्रेमिल व्यवहार से सम्मोहित हो गया था. समझ बैठा था कि वह मुझे प्रेम करने लगी है. परंतु नहीं…खूबसूरत पंछी सूने वीरान पेड़ पर कभी नहीं बैठता. नीहारिका के बारे में मैं ने बहुत गलत सोचा था. कभी नीहारिका से आप की मुलाकात होगी तो वह अवश्य इस बात का जिक्र करेगी.

मेरा प्रेम का ज्वर जिस तीव्रता से उठा था उसी तीव्रता के साथ झाग की तरह बैठ गया. नीहारिका मेरे सामने से चली गई. मैं उसे चाह कर भी नहीं रोक सकता था. रोकता भी तो वह नहीं रुकती. मेरे अंदर का सांप मर गया.

नागेश की ज्यादतियां बढ़ती जा रही हैं. नीहारिका को अब वह ज्यादा समय अपने कमरे में ही बिठा कर रखता है. काम क्या करवाता होगा, गप्पें ही मारता होगा. नीहारिका से पूछता हूं तो उस के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताती है. मैं मन मसोस कर रह जाता हूं. नागेश क्या मेरे और नीहारिका के बीच दूरियां बनाने का प्रयत्न कर रहा है? लेकिन वह इस में सफल नहीं होगा. नीहारिका और मेरे बीच अब कोई दूरी नहीं रह गई है. उस ने मेरे शादी के प्रस्ताव को मान लिया है. मैं जल्द ही उस के मांबाप से मिलने वाला हूं.

नीहारिका मेरी मनोदशा समझती है. इसीलिए वह नागेश के बारे में भूल कर भी बात नहीं करती है. मैं खोदखोद कर पूछता हूं…तब भी नहीं बताती. मैं खीझ कर कहता हूं, ‘‘वह हरामी कोई ज्यादती तो नहीं करता तुम्हारे साथ?’’

वह हंस कर कहती, ‘‘तुम को मेरे ऊपर विश्वास है न. तो फिर निश्ंिचत रहो. अगर ऐसी कोई स्थिति आई तो मैं स्वयं उस से निबट लूंगी. तुम चिंता न करो.’’

‘‘क्यों न करूं? तुम एक नाजुक लड़की हो और वह विषधर काला नाग. कमीना आदमी है. पता नहीं, कब कैसी हरकत कर बैठे तुम्हारे साथ? उस के साथ कमरे में अकेली जो रहती हो.’’

नीहारिका के चेहरे पर वैसी ही मोहक मुसकान है. आंखों में चंचलता और शैतानी नाच रही है. निचले होंठ का दायां कोना दांतों से दबा कर कहती है, ‘‘वैसी हरकत तो तुम भी कर सकते हो मेरे साथ. तुम्हारे साथ भी एकांत कमरे में रहती हूं.’’ उस ने जैसे मुझे निमंत्रण दिया कि मैं चाहूं तो उस के साथ वैसी हरकत कर सकता हूं. वह बुरा नहीं मानेगी. हम दोनों इंडिया गेट पर भीड़भाड़ से दूर एकांत में टहल रहे थे. अंधेरा घिरने लगा था. मैं ने इधरउधर देखा. कहीं कोई साया नहीं, आहट नहीं. मैं ने नीहारिका को अपनी बांहों में समेट लिया. वह फूल की तरह मेरे सीने में सिमट गई. नागेश रूपी सांप हमारे बीच से गायब हो चुका था.

नीहारिका ने जिस भाव से अपने को मेरी बांहों में सौंपा था, मुझे उस के प्रति कोई अविश्वास न रहा. मैं नागेश की तरफ से भी आश्वस्त हो गया कि नीहारिका उस की किसी भी बेजा हरकत से निबट लेगी. दोनों को ले कर मेरी चिंता निरर्थक है.

इधर लगता है, नागेश को नीहारिका के साथ मेरे प्यार को ले कर शक हो गया है. तभी तो उस ने आदेश पारित किया है कि अब वह हरीश के साथ काम करेगी. मुझे इस से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला. नीहारिका मेरे इतने करीब आ चुकी है कि उसे मुझ से जुदा करना नागेश के बूते की बात नहीं है. मुझे इंतजार उस दिन का है जब नीहारिका ब्याह कर मेरे घर आएगी.

नीहारिका की डायरी

बहुत कुछ बरदाश्त के बाहर होता जा रहा है. नागेश ने मुझे अपनी संपत्ति समझ लिया है. इसी तरह की बातें भी करता है और व्यवहार भी.

पता नहीं…शायद नागेश को शक हो गया है कि अनुराग और मेरे बीच अंतरंगता बढ़ती जा रही है. शायद शक न भी हो, पर उसे डर लगता है कि मैं या अनुराग एकदूसरे के ऊपर आसक्त हो जाएंगे. इसी डर की वजह से उस ने मुझे हरीश के साथ लगा दिया है.

मुझे इस से कोई अंतर नहीं पड़ता. दिन में न सही, शाम को हम दोनों मिलते हैं. अनुराग और मेरे दिलों के बीच क ी दूरी समाप्त हो चुकी है. बस, शादी के बंधन में बंधना है. इस में थोड़ी सी रुकावट है. मेरी पक्की नौकरी नहीं है. उम्र भी अभी कम है. मैं ने अनुराग से कह दिया है. कम से कम 1 साल उसे इंतजार करना पड़ेगा. वह तैयार है. तब तक कोई नौकरी मिल ही जाएगी. तब हम दोनों शादी के बंधन में बंध जाएंगे.

अब नागेश खुले सांड की तरह खूंखार होता जा रहा है. जब से हरीश के साथ लगाया है, एक पल के लिए पीछा नहीं छोड़ता या तो अपने कमरे में बुला लेता है या खुद हरीश के कमरे में आ कर बैठ जाता है और अनर्गल बातें करता है. उस के चक्कर में न तो हरीश कोई काम कर पाता है न वह मुझ से कोई काम करवा पाता है.

नागेश की वजह से पूरे दफ्तर में मैं बदनाम होती जा रही हूं. सब मुझे एसी वाली लड़की कहने लगे हैं. नागेश के कमरे में एसी जो लगा है. लोग जब मुझे एसी वाली लड़की कहते हैं मैं हंस कर टाल जाती हूं. किसी बात का प्रतिरोध करने का मतलब उस को बढ़ावा देना है, कहने वालों की सोच बेलगाम हो जाती और फिर मेरे और नागेश के बारे में तरहतरह की बातें फैलतीं, चर्चाएं होतीं. इस में मेरी ही बदनामी होती. नागेश का क्या जाता? उस से कोई कुछ भी न कहता. मैं अस्थायी थी. लोग सोचते, मैं नागेश को फंसा कर अपनी नौकरी की जुगाड़ में लगी हूं. सचाई किसी को पता नहीं है.

नागेश का मुंह तो चलता ही रहता है, अब उस के हाथ भी चलने लगे हैं. वह मेरे पीछे आ कर खड़ा हो जाता है और कंप्यूटर पर काम करवाने के बहाने कभी सर, कभी कंधे और कभी पीठ पर हाथ रख देता है. मुझे उस का हाथ मरे हुए सांप जैसा लगता है. कभीकभी मरा हुआ सांप जिंदा हो जाता है. उस का हाथ अधमरे सांप की तरह मेरी पीठ पर रेंगने लगता है. वह मेरी पीठ सहलाता है. मुझे गुदगुदी का एहसास होता है, परंतु उस में लिजलिजापन होता है.

मन में एक घृणा उपजती है, कोई प्यार नहीं. नागेश के प्रति मैं एक आक्रोश से भर जाती हूं, परंतु इसे बाहर नहीं निकाल सकती. मैं बरदाश्त करने की कोशिश करती हूं. देखना चाहती हूं कि वह किस हद तक जा सकता है. मेरी तय हुई हद के बाहर जाते ही वह परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे…मैं ने मन ही मन तय कर लिया था. जैसे ही उस ने हद पार की, मेरा रौद्र रूप प्रकट हो जाएगा. अभी तक उस ने मेरी हंसी और प्यारी मुसकराहट देखी है. बूढ़े को पता नहीं है कि लड़कियां आत्मरक्षा और सम्मान के लिए चंडी बन सकती हैं.

जब वह मेरी पीठ सहलाता है मैं बहाना बना कर बाहर निकल जाती हूं. कोशिश करती हूं कि जल्दी उस के कमरे में न जाना पड़े. पर वह शैतान की औलाद…कहां मानने वाला है. बारबार बुलाता रहता है. मैं देर करती हूं तो वह खुद उठ कर हरीश के कमरे में आ जाता है…न खुद चैन से बैठता है न मुझे बैठने देता है.

उस दिन हद हो गई. उस ने सारी सीमाएं तोड़ दीं. उस का बायां हाथ अधमरे सांप की तरह मेरी पीठ पर रेंग रहा था. मैं मन ही मन सुलग रही थी. अचानक उस का हाथ आगे बढ़ा और मेरी बांह के नीचे से होता हुआ कुछ ढूंढ़ने का प्रयास करने लगा. मैं समझ गई, वह क्या चाहता था? मैं थोड़ा सिमट गई परंतु उस ने घात लगा कर मेरे बाएं वक्ष को अपनी हथेली में समेट लिया. उसी तरह जैसे चालाक सांप बेखबर मेढक को अपने मुंह में दबोच लेता है.

यह मेरी तय की हुई हद से बाहर की बात थी. मैं अपना होश खो चुकी थी. अचानक खड़ी हो गई. उस का हाथ छिटक गया. पर मेरा दायां हाथ उठ चुका था. बिजली की तरह उस के बाएं गाल पर चिपक गया, मैं ने जो नहीं सोचा था वह हो गया. जोर से तड़ाक की आवाज आई और वह दाईं तरफ बूढे़ बैल की तरह लड़खड़ा कर रह गया.

मैं ने उस के मुंह पर थूक दिया और किटकिटा कर कहा, ‘‘मैं ने दोस्ती की थी…शादी नहीं.’’ और तमतमाती हुई बाहर निकल गई.

फिर मैं वहां नहीं रुकी. नागेश के कमरे से बाहर आते ही मैं बिलकुल सामान्य हो गई. अनुराग को चुपके से बुलाया और कार्यालय के बाहर चली गई. बाहर आ कर मैं ने अनुराग को सबकुछ बता दिया. वह हैरानी से मेरा मुंह ताकने लगा, जैसे उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं ऐसा भी कर सकती हूं. वह मुझे बच्ची समझता था…20 वर्ष की अबोध बच्ची. परंतु मैं अबोध नहीं थी.

अनुराग ने चुपचाप मुझे एक बच्ची की तरह सीने से लगा लिया, जैसे उसे डर था कि कहीं खो न जाऊं. परंतु मैं खोने वाली नहीं थी क्योंकि मैं इस बेरहम और स्वार्थी दुनिया के बीच अकेली  नहीं थी, अनुराग के प्यार का संबल जो मुझे थामे हुए था.

Hindi Stories Online : यक्ष प्रश्न

Hindi Stories Online : अनुभा ने अस्पताल की पार्किंग में बमुश्किल गाड़ी पार्क की. ‘उफ, इतनी सारी गाडि़यां… न सड़क में जगह, न पार्किंग स्पेस में. गाड़ी रखना भी एक मुसीबत हो गई है. कहीं भी जगह नहीं है. अब तो लोग फुटपाथों पर भी गाडि़यां पार्क करने लगे हैं. सरकारी परिसर हो या निजी आवासीय क्षेत्र, हर जगह एकजैसा हाल. इस के बावजूद लोग गाडि़यां खरीदना बंद नहीं कर रहे हैं,’ यही सब सोचती वह अस्पताल की सीढि़यां चढ़ रही थी.

दूसरी मंजिल पर सेमीप्राइवेट वार्ड में अनुभा की सहेली कम सहकर्मी भरती थी. उसे किडनी में पथरी थी. उसी के औपरेशन के लिए भरती थी. कल उस का औपरेशन हुआ था. अनुभा आज उसे देखने जा रही थी.

सहेली से मिलने और उस का हालचाल पूछने के बाद जब अनुभा उस के बिस्तर पर बैठी तो उस ने कमरे में इधरउधर निगाह डाली. सेमीप्राइवेट वार्ड होने के कारण उस में 2 मरीज थे. दूसरी मरीज भी महिला ही थी. उस ने गौर से दूसरी मरीज को देखा, तो उसे वह कुछ जानीपहचानी लगी. उस ने दिमाग पर जोर दे कर सोचा. वह मरीज भी उसे गौर से देख रही थी. उस की बुझी आंखों में एक चमक सी आ गई जैसे कई बरसों बाद वह अपने किसी आत्मीय को देख रही हो.

दोनों की आंखें एकदूसरे के मनोभावों को पढ़ रही थीं और फिर जैसे अचानक  एकसाथ दोनों के मन से दुविधा और संकोच की बेडि़यां टूट गई हों अनुभा चौंकती सी उस की तरफ लपकी, ‘‘निमी…’’

मरीज के सूखे होंठों पर फीकी सी मुसकराहट फैल गई, ‘‘तुम ने मुझे पहचान लिया?’’

निम्मी के स्वर से ऐसा लग रहा था जैसे इस दुनिया में उस का कोई जानपहचान वाला नहीं है. अनुभा अचानक आसमान से आ टपकी थी, वरना वह इस संसार में असहाय और अनाथ जीवन व्यतीत कर रही थी.

‘‘निमी, तुम यहां और इस हालत में?’’ अनुभा ने उस के हाथों को पकड़ कर कहा.

निमी का नाम निमीषा था, परंतु उस के दोस्त और सहेलियां उसे निमी कह कर बुलाते थे.

अनुभा एक पल को चुप रही, फिर बोली,  ‘‘तुम्हें क्या हुआ है? मैं ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन तुम्हें इस हालत में देखूंगी. तुम्हारी सुंदर काया को क्या हुआ… चेहरे की कांति कहां चली गई?  ऐसा कैसे हुआ?’’

निमी ने पलंग से उठ कर बैठने का प्रयास किया, परंतु उस की सांस फूलने लगी. अनुभा ने उसे सहारा दिया. पलंग को पीछे से उठा दिया, जिस से निमी अधलेटी सी हो गई.

‘‘तुम ने इतने सारे सवाल कर दिए… समझ में नहीं आता कैसे इन के जवाब दूं. एक दिन में सबकुछ बयां नहीं किया जा सकता… मैं ज्यादा नहीं बोल सकती… हांफ जाती हूं… फेफड़े कमजोर हैं न. ’’

‘‘तुम्हें हुआ क्या है?’’ अनुभा ने पूछा.

‘‘एक रोग हो तो बताऊं… अब तुम मिली हो, तो धीरेधीरे सब जान जाओगी. क्या तुम्हारे पास इतना समय है कि रोज आ कर मेरी बातें सुन सको.’’

‘‘हां, मैं रोज आऊंगी और सुनूंगी,’’ अनुभा को निमी की हालत देख कर तरस नहीं, रोना आ रहा था जैसे वह उस की जान हो, जो उसे छोड़ कर जा रही थी. उस ने कस कर निमी का हाथ पकड़ लिया.

निमी के बदन में एक सुरसुरी सी दौड़ गई. उस के अंदर एक सुखद एहसास ने अंगड़ाई ली. वह तो जीने की आस ही छोड़ चुकी थी, परंतु अनुभा को देख कर उसे लगा कि उसे देखनेसमझने वाला कोई है अभी इस दुनिया में. फिर कोई जब चाहने वाला पास हो, तो जीने की लालसा स्वत: बढ़ जाती है.

‘‘तुम्हारे साथ कोई नहीं है?’’ अनुभा ने आंखें झपकाते हुए पूछा, ‘‘कोई देखभाल करने वाला… तुम्हारे घर का कोई?’’

निमी ने एक ठंडी सांस लेते हुए कहा,  ‘‘नहीं, कोई नहीं.’’

‘‘क्यों, घर में कोई नहीं है क्या?’’

‘‘जो मेरे अपने थे उन्हें मैं ने बहुत पहले छोड़ दिया था और जीवन के पथ पर चलते हुए जिन्हें मैं ने अपना बनाया वे बीच रास्ते छोड़ कर चलते बने. अब मैं नितांत अकेली हूं. कोई नहीं है मेरा अपना. आज वर्षों बाद तुम मिली हो, तो ऐसा लग रहा है जैसे मेरा पुराना जीवन फिर से लौट आया हो. मेरे जीवन में भी खुशी के 2 फूल खिल गए हैं, जिन की सुगंध से मैं महक रही हूं. काश, यह सपना न हो… तुम दोबारा आओगी न?’’

‘‘हांहां, निमी, मैं आऊंगी. तुम से मिलने ही नहीं, तुम्हारी देखभाल करने के लिए भी… तुम्हारा अस्पताल का खर्चा कौन उठा रहा है?’’

निमी ने फिर एक गहरी सांस ली, ‘‘है एक चाहने वाला, परंतु उस ने मेरी बीमारियों के कारण मुझ से इतनी दूरी बना ली है कि वह मुझे देखने भी नहीं आता. कभीकभी उस का नौकर आ जाता है और अस्पताल का पिछला बिल भर कर कुछ ऐडवांस दे जाता है ताकि मेरा इलाज चलता रहे. बस मेरे प्यार के बदले में इतनी मेहरबानी वह कर रहा है.’’

उस दिन अनुभा निमी के पास बहुत देर नहीं रुक पाई, क्योंकि वह औफिस से आई थी. शाम को आने का वादा कर के वह औफिस आ गई, परंतु वहां भी उस का मन नहीं लगा. निमी की दुर्दशा देख कर उसे अफसोस के साथसाथ दुख भी हो रहा था. उसे कालेज के दिन याद आने लगे जब वे दोनों साथसाथ पढ़ती थीं…

निमीषा और अनुभा दोनों ही शिक्षित परिवारों से थीं. अनुभा के पिता आईएएस अफसर थे, तो निमी के पिता वरिष्ठ आर्मी औफिसर. दोनों एक ही क्लास में थीं, दोस्त थीं, परंतु दोनों के विचारों में जमीनआसमान का अंतर था. अनुभा पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों व मान्यताओं को मानने वाली लड़की थी, तो निमी को स्थापित मूल्य तोड़ने में मजा आता था. परंपराओं का पालन करना उसे नहीं भाता था. नैतिकता उस के सामने पानी भरती थी, तो मूल्य धूल चाटते नजर आते थे. संभवतया सैनिक जीवन की अति स्वछंदता और खुलेपन के माहौल में जीने के कारण उस के स्वभाव में ऐसा परिवर्तन आया हो.

निमीषा बहुत बड़ी अफसर बनना चाहती थी, परंतु अनुभा को पता नहीं था

कि वह क्या बन गई? हां, वह शादी भी नहीं करना चाहती थी. उस का मानना था शादी का बंधन स्त्री के लिए एक लिखित आजीवन कारावास का अनुबंध होता है. तब युवाओं के बीच लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ने लगा था. निमी ऐसे संबंधों की हिमायती थी. कालेज के दौरान ही उस ने लड़कों के साथ शारीरिक संबंध बना लिए थे.

इस का पता चलने पर अनुभा ने उसे समझाया था, ‘‘ये सब ठीक नहीं है. दोस्ती तक तो ठीक है, परंतु शारीरिक संबंध बनाना और वह भी शादी के पहले व कई लड़कों के साथ को मैं उचित नहीं समझती.’’

निमी ने उस का उपहास उड़ाते हुए कहा,  ‘‘अनुभा, तुम कौन से युग में जी रही हो? यह मौडर्न जमाना है, स्वछंद जीवन जीने का. यहां व्यक्तिगत पसंद से रिश्ते बनतेबिगड़ते हैं, मांबाप की पसंद से नहीं. इट्स माई लाइफ… मैं जैसे चाहूंगी जीऊंगी.’’

अनुभा के पास तर्क थे, परंतु निमी के ऊपर उन का कोई असर न होता. कालेज के बाद दोनों सहेलियां अलग हो गईं. अनुभा के पिता केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति से वापस लखनऊ चले गए. अनुभा ने वहां से सिविल सर्विसेज की तैयारी की और यूपीएससी की गु्रप बी सेवा में चुन ली गई. कई साल लखनऊ, इलाहाबाद और बनारस में पोस्टिंग के बाद अब उस का दिल्ली आना हुआ था. इस बीच उस की शादी भी हो गई. पति केंद्र सरकार में ग्रुप ए अफसर थे. दोनों ही दिल्ली में तैनात थे. उस की 10 वर्ष की 1 बेटी थी.

अनुभा को निमी के जीवन के पिछले 15 वर्षों के बारे में कुछ पता नहीं था. उसे उत्सुकता थी, जल्दी से जल्दी उस के बारे में जानने की. आखिर उस के साथ ऐसा क्या हुआ था कि उस ने अपने शरीर का सत्यानाश कर लिया… तमाम रोगों ने उस के शरीर को जकड़ लिया. वह शाम होने का इंतजार कर रही थी. प्रतीक्षा में समय भी लंबा लगने लगता है. वह बारबार घड़ी देखती, परंतु घड़ी की सूइयां जैसे आगे बढ़ ही नहीं रही थीं.

किसी तरह शाम के 5 बजे. अभी भी 1 घंटा बाकी था, परंतु वह अपने सीनियर को अस्पताल जाने की बात कह कर बाहर निकल आई. गाड़ी में बैठने से पहले उस ने अपने पति को फोन कर के बता दिया कि वह अस्पताल जा रही है. घर देर से लौटेगी.

अनुभा को देखते ही निमी के चेहरे पर खुशी फैल गई जैसे उस के अंदर असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार होने लगा हो.

अनुभा उस के लिए फल लाई थी. उन्हें सिरहाने के पास रखी मेज पर रख कर वह निमी के पलंग पर बैठ गई. फिर उस का हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘अब कैसा महसूस हो रहा है?’’

निमी के होंठों पर खुशी की मुसकान थी, तो आंखों में एक आत्मीय चमक… चेहरा थोड़ा सा खिल गया था. बोली, ‘‘लगता है अब मैं बच जाऊंगी.’’

रात में अनुभा ने अपने पति हिमांशु को निमी के बारे में सबकुछ बता दिया. सुन कर उन्हें भी दुख हुआ. अगले दिन सुबह औफिस जाते हुए वे दोनों ही निमी से मिलने गए. हिमांशु ने डाक्टर से मिल कर निमी की बीमारियों की जानकारी ली. डाक्टर ने जो कुछ बताया, वह बहुत दर्दनाक था. निमी के फेफड़े ही नहीं, लिवर और किडनियां भी खराब थीं. वह शराब और सिगरेट के अति सेवन से हुआ था. अनुभा को पता नहीं था कि वह इन सब का सेवन करती थी. हिमांशु ने जब उसे बताया, तो वह हैरान रह गई. पता नहीं किस दुष्चक्र में फंस गई थी वह?

खैर, हिमांशु और अनुभा ने यह किया कि रात में निमी के पास अपनी नौकरानी को देखभाल के लिए रख दिया. हिमांशु नियमित रूप से उस के इलाज की जानकारी लेते. उन के कारण ही अब डाक्टर विशेषरूप से निमी का ध्यान रखने लगे थे. वह बेहतर से बेहतर इलाज उसे मुहैया करा रहे थे.

इस सब का परिणाम यह हुआ कि निमी 1 महीने के अंदर ही इतनी ठीक हो गई कि अपने घर जा सकती थी. हालांकि दवा नियमित लेनी थी.

जिस दिन उसे अस्पताल से डिस्चार्ज होना था वह कुछ उदास थी. उस का सौंदर्य पूर्णरूप से तो नहीं, परंतु इतना अवश्य लौट आया था कि वह बीमार नहीं लगती थी.

अनुभा ने पूछा, ‘‘तुम खुश नहीं लग रही हो… क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि ठीक हो कर घर जा रही हो?’’

निमी ने खाली आंखों से अनुभा को देखा और फिर फीकी आवाज में कहा, ‘‘कौन सा घर? मेरा कोई घर नहीं है.’’

‘‘अपने दोस्त के यहां, जो तुम्हारा इलाज करवा रहा था…’’

एक फीकी उदास हंसी निमी के होंठों पर तैर गई, ‘‘जो व्यक्ति मुझ से मिलने अस्पताल में कभी नहीं आया, जिसे पता है कि मेरे शरीर के महत्त्वपूर्ण अंग बेकार हो चुके हैं. वह मुझे अपने घर रखेगा?’’

‘‘फिर वह तुम्हारा इलाज क्यों करवा रहा था?’’

‘‘बस एक यही एहसान उस ने मेरे ऊपर किया है. मेरे प्यार का कुछ कर्ज उसे अदा करना ही था. वह बहुत पैसे वाला है, परंतु एक बीमार औरत को घर में रखने का फैसला उस के पास नहीं है. उसे रोज अनगिनत सुंदर और कुंआरी लड़कियां मिल सकती हैं, तो वह मेरी परवाह क्यों करेगा. वैसे मैं स्वयं उस के पास नहीं जाना चाहती हूं. मैं किसी भी मर्द के पास नहीं जाना चाहती. मर्दों ने ही मुझे प्यार की इंद्रधनुषी दुनिया में भरमा कर मेरी यह दुर्गति की है… मैं किसी महिला आश्रम में जाना चाहूंगी,’’ उस के स्वर में आत्मविश्वास सा आ गया था.

अनुभा सोच में पड़ गई. उस ने हिमांशु से सलाह ली. फिर निमी से बोली, ‘‘तुम कहीं और नहीं जाओगी, मेरे घर चलोगी.’’

‘‘तुम्हारे घर?’’ निमी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘हां, और अब इस के बाद कोई सवाल नहीं, चलो.’’

अनुभा और हिमांशु को मोतीबाग में टाइप-5 का फ्लैट मिला था. उस में पर्याप्त कमरे थे. 1 कमरा उन्होंने निमी को दे दिया. निमी अनुभा और हिमांशु की दरियादिली, प्रेम और स्नेह से अभिभूत थी. उस के पास धन्यवाद करने के लिए शब्द नहीं थे.

निमी के पिता आर्मी औफिसर थे. मां भी उच्च शिक्षित थीं. आर्मी में रहने के कारण उन्हें तमाम सुविधाएं प्राप्त थीं. पिता रोज क्लब जाते थे और शराब पी कर लौटते थे. मां भी कभीकभार क्लब जातीं और शराब का सेवन करतीं. उन के घर में शराब की बोतलें रखी ही रहतीं. कभीकभार घर में भी महफिल जम जाती. निमी के पिता के यारदोस्त अपनी बीवियों के साथ आते या कोई रिश्तेदार आ जाता, तो महफिल कुछ ज्यादा ही रंगीन हो जाती.

निमी बचपन से ही ये सब देखती आ रही थी. उस के कच्चे मन में वैसी ही संस्कृति और संस्कार घर कर गए. उसे यही वास्तविक जीवन लगता. 15 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते उस ने शराब का स्वाद चोरीछिपे चख लिया था और सिगरेट के सूट्टे भी लगा लिए थे.

ग्रैजुएशन करने के बाद निमी ने मम्मीपापा से कहा, ‘‘मैं यूपीएसी का ऐग्जाम देना चाहती हूं.’’

‘‘तो तैयारी करो.’’

‘‘कोचिंग करनी पड़ेगी. अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट डीयू के आसपास मुखर्जी नगर में हैं.’’

‘‘क्या दिक्कत है? जौइन कर लो.’’

‘‘परंतु इतनी दूर आनेजाने में बहुत समय बरबाद हो जाएगा. मैं चाहती हूं कि यहीं आसपास बतौर पीजी रह लूं और सीरियसली कंपीटिशन की तैयारी करूं… तभी कुछ हो पाएगा,’’ निमी ने कहा.

मम्मीपापा ने एकदूसरे की आंखों में एक पल के लिए देखा, फिर पापा ने उत्साह से कहा,  ‘‘ओके माई गर्ल. डू व्हाटएवर यू वांट.’’

‘‘किंतु यह अकेले कैसे रहेगी?’’ मम्मी ने शंका व्यक्त की.

‘‘क्या दकियानूसी बातें कर रही हो. शी इज ए बोल्ड गर्ल. आजकल लड़कियां विदेश जा रही हैं पढ़ने के लिए. यह तो दिल्ली शहर में ही रहेगी. जब मरजी हो जा कर मिल आया करना. यह भी आतीजाती रहेगी.’’

‘‘यस मौम,’’ निमी ने दुलार से कहा. जब बापबेटी राजी हों, तो मां की कहां चलती है. उसे परमीशन मिल गई. उस ने 1 साल का कन्सौलिडेटेड कोर्स जौइन कर लिया और मुखर्जी नगर में ही रहने लगी.

जैसाकि निमी का स्वभाव था, वह जल्दी लड़कों में लोकप्रिय हो गई. कोचिंग में पढ़ने वाले कई लड़के उस के दोस्त बन गए. सभी धनाढ्य घरों के थे. उन के पास अनापशनाप पैसे आते थे. आएदिन पार्टियां होतीं. निमी उन पार्टियों की शान समझी जाती थी.

लड़के उस के सामीप्य के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा देते. दिन, महीनों में नहीं बदले, उस के पहले ही निमी कई लड़कों के गले का हार बन गई. उस के बदन के फूल लड़कों के बिस्तर पर महकने लगे.

बहुत जल्दी उस के मम्मीपापा को उस की हरकतों के बारे में पता चल गया. मम्मी ने समझाया, ‘‘बेटा, यह क्या है? इस तरह का जीवन तुम्हें कहां ले जा कर छोड़ेगा, कुछ सोचा है? हम ने तुम्हें कुछ ज्यादा ही छूट दे दी थी. इतनी छूट तो विदेशों में भी मांबाप अपने बच्चों को नहीं देते. चलो, अब तुम पीजी में नहीं रहोगी… जो कुछ करना है हमारी निगाहों के सामने घर पर रह कर करोगी.’’

‘‘मम्मी, मेरी कोचिंग तो पूरी हो जाने दो,’’  निमी ने प्रतिरोध किया.

‘‘जो तुम्हारे आचरण हैं, उन से क्या तुम्हें लगता है कि तुम कोचिंग की पढ़ाई कर पाओगी… कोचिंग पूरी भी कर ली, तो कंपीटिशन की तैयारी कर पाओगी? पढ़ाई करने के लिए किताबें ले कर बैठना पड़ता है, लड़कों के हाथ में हाथ डाल कर पढ़ाई नहीं होती,’’ मां ने कड़ाई से कहा.

‘‘मम्मी, प्लीज. आप पापा को एक बार समझाओ न,’’ निमी ने फिर प्रतिरोध किया.

‘‘नहीं, निमी. तुम्हारे पापा बहुत दुखी और आहत हैं. मैं उन से कुछ नहीं कह सकती. तुम अपने मन की करोगी, तो हम तुम्हें रुपयापैसा देना बंद कर देंगे. फिर तुम्हें जो अच्छा लगे करना.’’

निमी अपने घर आ तो गई, परंतु अंदर से बहुत अशांत थी. घर पर ढेर सारे प्रतिबंध थे. अब हर क्षण मां की उस पर नजर रहती.

शराब, सिगरेट और लड़कों से वह भले ही दूर हो गई थी, परंतु मोबाइल फोन के माध्यम से उस के दोस्तों से उस का संपर्क बना हुआ था.

जब फोन करना संभव न होता, फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप के माध्यम से संपर्क हो जाता. लड़के इतनी आसानी से सुंदर मछली को फिसल कर पानी में जाने देना नहीं चाहते.

लड़कों ने उसे तरहतरह से समझाया. वे सभी उस का खर्चा उठाने के लिए तैयार थे. रहनेखाने से ले कर कपड़ेलत्ते और शौक तक… सब कुछ… बस वह वापस आ जाए. प्रलोभन इतने सुंदर थे कि वह लोभ संवरण न कर सकी. मांबाप के प्यार, संरक्षण और सलाहों के बंधन टूटने लगे.

निमी ने बुद्धि के सारे द्वार बंद कर दिए. विवेक को तिलांजलि दे दी और एक दिन घर से कुछ रुपएपैसे और कपड़े ले कर फरार हो गई. दोस्तों ने उस के खाने व रहने के लिए एक फ्लैट का इंतजाम कर रखा था. काफी दिनों तक वह बाहरी दुनिया से दूर अपने घर में बंद रही.

पता नहीं उस के मांबाप ने उसे ढूंढ़ने का प्रयत्न किया था या नहीं. उस ने अपना फोन नंबर ही नहीं, फोन सैट भी बदल लिया था. मांबाप अगर पुलिस में रिपोर्ट लिखाते तो उस का पता चलना मुश्किल नहीं था. उस के पुराने फोन की काल डिटेल्स से उस के दोस्तों और फिर उस तक पुलिस पहुंच सकती थी, परंतु संभवतया उस के मांबाप ने पुलिस में उस के गुम होने की रिपोर्ट नहीं लिखाई थी.

निमी का जीवन एक दायरे में बंध कर रह गया था. खानापीना और ऐयाशी, जब तक वह नशे में रहती, उसे कुछ महसूस न होता, परंतु जबजब एकांत के साए घेरते उस के दिमाग में तमाम तरह के विचार उमड़ते, मांबाप की याद आती.

न तो समय एकजैसा रहता है, न कोई वस्तु अक्षुण्ण रहती है. निमी ने धीरेधीरे महसूस किया, उस के जो मित्र पहले रोज उस के पास आते थे, अब हफ्ते में 2-3 बार ही आते थे. पूछने पर बताते व्यस्तता बढ़ रही है. दूसरे काम आ गए हैं. मगर सत्य तो यह था उन के जीवन में एकरसता आ गई थी. अनापशनाप पैसा खर्च हो रहा था. मांबाप सवाल उठाने लगे थे. निमी की तरह बेवकूफ तो थे नहीं, उन्हें अपना कैरियर बनाना था. कुछ की कोचिंग समाप्त हो गई, तो वे अपने घर चल गए. जो दिल्ली के थे, वे कभीकभार आते थे, परंतु अब उन के लिए भी निमी का खर्चा उठाना भारी पड़ने लगा था.

निमी वरुण को अपना सर्वश्रेष्ठ हितैषी समझती थी. एक दिन उसी से पूछा, ‘‘वरुण, एक बात बताओ, मैं ने तुम लोगों की दोस्ती के लिए अपना घरपरिवार और मांबाप छोड़ दिए, अब तुम लोग मुझे 1-1 कर छोड़ कर जाने लगे हो. मैं तो कहीं की न रही… मेरा क्या होगा?’’

वरुण कुछ पल सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘निमी, मेरी बात तुम्हें कड़वी लगेगी, परंतु सचाई यही है कि तुम ने हमारी दोस्ती नहीं अपने स्वार्थ और सुख के लिए घर छोड़ा था. यहां कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता, सब अपने लिए करते हैं. अपनी स्वार्थ सिद्धि के बाद सब अलग हो जाते हैं, जैसा अब तुम्हारे साथ हो रहा है.

यह कड़वी सचाई तुम्हें बहुत पहले समझ जानी चाहिए थी. हम सभी अभी बेरोजगार हैं, मांबाप के ऊपर निर्भर हैं, कैरियर बनाना है. ऐसे में रातदिन हम  भोगविलास में लिप्त रहेंगे, तो हमारा भविष्य चौपट हो जाएगा.’’

अपनी स्थिति पर उसे रोना आ रहा था, परंतु वह रो नहीं सकती थी. आगे आने वाले दिनों के बारे में सोच कर उस का मन बैठा जा रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे?

‘‘मैं क्या करूं, वरुण?’’ वह लगभग रोंआसी हो गई थी, ‘‘नासमझी में मैं ने क्या कर डाला?’’

‘‘बहुत सारी लड़कियां जवानी में ऐसा कर गुजरती हैं और बाद में पछताती हैं.’’

‘‘तुम ने भी मुझे कभी नहीं समझाया, मैं तो तुम्हें सब से अच्छा दोस्त समझती थी.’’

वरुण हंसा, ‘‘कैसी बेवकूफी वाली बातें कर रही हो. तुम कभी एक लड़के के प्रति वफादार नहीं रही. तुम्हारी नशे की आदत और तुम्हारी सैक्स की भूख ने तुम्हारी अक्ल पर परदा डाल दिया था. तुम एक ही समय में कई लड़कों के साथ प्रेमव्यवहार करोगी, तो कौन तुम्हारे साथ निष्ठा से प्रेमसंबंध निभाएगा… सभी लड़के तुम्हारे तन के भूखे थे और तुम उन्हें बहुत आसान शिकार नजर आई. बिना किसी प्रतिरोध के तुम किसी के भी साथ सोने के लिए तैयार हो जाती थी. ऐसे में तुम किसी एक लड़के से सच्चे और अटूट प्रेम की कामना कैसे कर सकती हो?’’

वरुण की बातों में कड़वी सचाई थी. निमी ने कहा, ‘‘मैं ने जोश में आ कर अपना सब कुछ गवां दिया. दोस्त भी 1-1 कर चले गए. तुम तो मेरा साथ दे सकते हो.’’

वरुण ने हैरान भरी निगाहों से उसे देखा, ‘‘तुम्हारा साथ कैसे दे सकता हूं? मैं तो स्वयं तुम से दूर जाने वाला था. 1 साल मेरा बरबाद हो गया. इस बार प्री ऐग्जाम भी क्वालिफाई नहीं कर पाया. तुम्हारे चक्कर में पढ़ाईलिखाई हो ही नहीं पाई. घर में मम्मीपापा सभी नाराज हैं. ऐयाशी और मौजमस्ती छोड़ कर मैं ईमानदारी से तैयारी करना चाहता हूं. मैं तुम से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता. वरना मेरा जीवन चौपट हो जाएगा.’’

निमी ने उस के दोनों हाथों को पकड़ कर अपने सीने पर रख लिया, ‘‘वरुण, मैं जानती हूं मैं ने गलती की है. मछली की तरह एक से दूसरे हाथ में फिसलती रही, परंतु सच मानो मैं ने तुम्हें सच्चे मन से प्यार किया है. जब कभी मन में अवसाद के बादल उमड़े मैं ने केवल तुम्हें याद किया. मुझे इस तरह छोड़ कर न जाओ.’’

‘‘निमी, तुम समझने का प्रयास करो, मैं ने अगर तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा, तो मेरा भविष्य मेरे रास्ते से गायब हो जाएगा. मुझे कुछ बन जाने दो.’’

‘‘मैं तुम से प्यार की भीख नहीं मांगती. प्यार और सैक्स को पूरी तरह से भोग लिया है मैं ने परंतु पेट की भूख के आगे मनुष्य सदा लाचार रहता है. मेरे पास जीविका का कोई साधन नहीं है. जहां इतना सब कुछ किया, मेरे प्यार के बदले इतना सा उपकार और कर दो. रहने के लिए 1 कमरा और पेट की रोटी के लिए दो पैसे का इंतजाम कर दो. मैं वेश्यावृत्ति नहीं अपनाना चाहती,’’ निमी की आवाज दुनियाभर की बेचारगी और दीनता से भर गयी थी.

वरुण अपने दोस्तों की तरह कठोर नहीं था. उस के अंदर सहज मानवीय भाव थे. वह काफी संवेदनशील था और निमी के प्रति दयाभाव भी रखता था, परंतु उस के लिए वह अपना भविष्य दांव पर नहीं लगा सकता था. अत. कुछ सोच कर बोला, ‘‘तुम प्राइवेट नौकरी कर सकती हो?’’

‘‘हां, मेरे पास और चारा भी क्या है?’’

‘‘तो फिर ठीक है, तुम इसी फ्लैट में रहो. इस का किराया मैं दे दिया करूंगा. मैं अपने पिता से बात कर के तुम्हें किसी कंपनी में काम दिलवा दूंगा, जिस से तुम्हारा गुजारा चल सके.’’

‘‘मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी.’’

वरुण ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘या तुम अपने घर चली जाओ.’’

निमी ने आश्चर्य से उसे देखा. फिर बोली, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? क्या बताऊंगी उन्हें कि मैं ने इतने दिन क्या किया है? नहीं वरुण, मैं उन के पास जा कर उन्हें और परेशान नहीं करना चाहती.’’

वरुण के पिता सरकारी विभाग में अच्छे पद थे. उस ने पिता से कह कर निमी को एक प्राइवेट कंपनी में लगवा दिया. 20 हजार महीने पर. निमी का जो लाइफस्टाइल था, उस के हिसाब से उस की यह सैलरी ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर थी, परंतु मुसीबत की घड़ी में मनुष्य को तिनके का सहारा भी बहुत होता है.

निमी ने उन्मुक्त यौन संबंधों से तो छुटकारा पा लिया, परंतु वह शराब और सिगरेट से छुटकारा नहीं पा सकी. एकांत उसे परेशान करता, पुरानी यादें उसे कचोटतीं, मांबाप की याद आती, तो वह पीने बैठ जाती.

वरुण जब भी उस से मिलने आता, वह उस की बांहों में गिर कर रोने लगती. वह समझाता, ‘‘मत पीया करो इतना, बीमार हो जाओगी.’’

‘‘वरुण, एकाकी जीवन मुझे बहुत डराता है,’’ वह उस से चिपक जाती.

‘‘मातापिता के पास वापस चली जाओ. वे तुम्हें माफ कर देंगे,’’

वह कई बार निमी से यह बात कह चुका था, पर हर बार निमी का यही जवाब होता, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? वे मुझे क्या बनाना चाहते थे और मैं क्या बन बैठी… माफ तो कर देंगे, परंतु समाज को क्या जवाब देंगे.’’

‘‘वही, जो अभी दे रहे होंगे.’’

‘‘अभी वे मुझे मरा समझ कर माफ कर देंगे, परंतु उन के पास रह कर मैं उन्हें बहुत दुख दूंगी.’’

‘‘एक बार जा कर तो देखो.’’

‘‘नहीं वरुण, तुम मेरे मांबाप को नहीं जानते. वे मुझे माफ नहीं करेंगे. अगर उन्हें माफ करना होता, तो अब तक मुझे ढूंढ़ लिया होता. यह बहुत मुश्किल नहीं था. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं की होगी,’’ वरुण के समझाने का उस पर कोई प्रभाव न पड़ता.

यथास्थिति बनी रही. बस वरुण सिविल सर्विसेज की तैयारी में निरंतर जुटा रहा. इस का परिणाम यह रहा कि वह यूपीएससी परीक्षा पास कर गया.

जब वरुण ट्रेनिंग के लिए जाने लगा तो निमी ने कहा, ‘‘अब तुम पूरी तरह से मुझ से दूर चले जाओगे.’’

‘‘वह तो जाना ही था,’’ वरुण ने उसे समझाते हुए कहा.

निमी के मन में बहुत कुछ टूट गया. वह जानती थी, वरुण उस का नहीं हो सकता है,

फिर भी उस के दिल में कसक सी उठी. वह खोईखोई आंखों से वरुण को देख रही थी. वरुण ने उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘देखो, निमी, मेरा कहना मानो, अब भटकने से कोई फायदा नहीं. तुम ने अपने जीवन को जितना गिराना था, गिरा लिया. अब सावधानी से उठने की कोशिश करो. तुम्हारी तनख्वाह बढ़ गई है. कुछ बचा कर पैसे जोड़ लो और किसी लड़के से शादी कर के घर बसा लो. मेरी तरफ से जो हो सकेगा मैं मदद करूंगा.’’

निमी ने जवाब नहीं दिया. अगले कुछ दिनों में वरुण मसूरी चला गया. निमी पूरी तरह टूट गई. उस ने अपनी सोच पर ताले लगा लिए. जैसे वह सुधरना ही नहीं चाहती थी.

1 साल की ट्रेनिंग के दौरान वरुण उस से मिलने केवल एक बार आया और रातभर उस के साथ रुका. तब भी उस ने निमी को घर बसाने की सलाह दी. परंतु वह चुप ही रही.

कई साल बीत गए. वरुण की पोस्टिंग हो गई थी. वह एक जिले का कलैक्टर बन गया था. उसे छुट्टी नहीं मिलती थी या दिल्ली आ कर भी वह उस से मिलना नहीं चाहता था, परंतु हर माह वह एक अच्छी राशि निमी के खाते में जमा करा देता था.

निमी ने तय कर लिया था कि वह शादी नहीं करेगी. वरुण उस का नहीं है, फिर भी उस का इंतजार करती थी. इंतजार जितना लंबा हो रहा था, उस के शराब पीने की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जा रही थी. फिर पता चला कि वरुण की शादी किसी चीफ सैक्रेटरी की आईएएस बेटी से हो गई है. निमी के अंदर जो थोड़ी सी आस बची थी, वह पूर्णरूप से टूट गई. उस की शराब की मात्रा इतनी ज्यादा हो गई कि अब वह दफ्तर भी नहीं जा पाती थी.

वरुण से उस का कोई सीधा संपर्क नहीं था. कभीकभी वरुण के पिता का नौकर उस के हालचाल पूछ जाता था. वही वरुण के बारे में बताता था और उस के बारे में वही वरुण को खबर करता होगा.

अत्यधिक शराब के सेवन से उस की तबीयत खराब रहने लगी. वरुण के पिता का नौकर लगभग रोज उस के पास आने लगा था. एक दिन उसी के सामने निमी को खून की उलटी हुई. उसे आननफानन में अस्पताल में भरती करवाया गया.

मैडिकल रिपोर्ट से यह साबित हो गया था कि अत्यधिक शराब के सेवन से उस के सारे अंदरूनी अंग खराब हो गए हैं. वरुण ने अपने नौकर के माध्यम से उसे सेमी प्राइवेट वार्ड में भरती करवा दिया था. इलाज का सारा खर्च वह भेज रहा था, परंतु कभी मिलने नहीं आया.

उस के इलाज में कोई कमी नहीं थी, परंतु उस का दुख उसे खाए जा रहा था जैसे वह किसी बीमारी से नहीं, अपने दुख से ही मरेगी, परंतु इसी बीच संयोग से अस्पताल में अनुभा प्रकट हुई और उस के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आ गया. अब वह ठीक हो कर घर आ गई थी. घर तो आ गई थी, परंतु किस के  घर? उस का अपना घर, संसार कहां था?

यक्ष प्रश्न अभी भी उस के सामने खड़ा था. अब आगे क्या? 35 वर्ष की अवस्था में अब वह कोई युवती नहीं थी. बीमारी ने उस की सुंदरता को काफी हद तक क्षीण कर दिया था. नौकरी हाथ से जा चुकी थी, वरुण से भी व्यक्तिगत संपर्क टूट चुका था.

हिमांशु केंद्र सरकार में उच्च अधिकारी थे. उन्होंने अपने प्रयासों से निमी को एक संस्था से जोड़ दिया. यह संस्था अनाथ बच्चों की देखभाल और उन्हें शिक्षा प्रदान करती थी. कुछ दिन तक निमी अनुभा के घर पर रही. फिर उस की संस्था ने उसे एक घर लीज पर दिलवा दिया. साफसफाई के बाद जिस दिन निमी ने अपने घर में प्रवेश किया, तब अनुभा और उस के पति के कुछ दोस्त मौजूद थे. छोटी सी पार्टी रखी गई थी.

शाम को पार्टी के बाद जब अनुभा निमी को छोड़ कर जाने लगी, तो निमी ने कहा, ‘‘मैं फिर अकेली हो जाऊंगी.’’

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं हो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. पहले जो लोग तुम से जुड़े थे, वे स्वार्थवश जुड़े थे. इसीलिए तुम पतन की राह पर चल पड़ी थी. अब तुम्हारे सामने एक लक्ष्य है, बच्चों का भविष्य सुधारने का. इस लक्ष्य को ध्यान में रखोगी और अपनी पिछली जिंदगी के बारे में विचार करोगी, तो तुम एकाकी जीवन जीते हुए भी कभी गलत रास्ते पर नहीं चलोगी.’’

निमी ने शरमा कर सिर झुका लिया. अनुभा ने उस का चेहरा ऊपर उठाया. उस की आंखों में आंसू थे. कई वर्षों बाद उस की आंखों में खुशी के आंसू आए थे.

Famous Hindi Stories : जाएं तो जाएं कहां

Famous Hindi Stories : हमारे एक बुजुर्ग थे. वे अकसर हमें समझाया करते थे कि जीवन में किसी न किसी नियम का पालन इंसान को अवश्य करना चाहिए. कोई भी नियम, कोई भी उसूल, जैसे कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं हर किसी से हिलमिल नहीं सकता या मैं हर किसी से हिलमिल जाता हूं, हर चीज का हिसाबकिताब रखना चाहिए या हर चीज का हिसाबकिताब नहीं रखना चाहिए.

नियम का अर्थ कि कोई ऐसा काम जिसे आप अवश्य करना चाहें, जिसे किए बिना आप को लगे कुछ कमी रह गई है. मैं अकसर आसपास देखता हूं और कभीकभार महसूस भी होता है कि पक्का नियम जिसे हम जीतेमरते निभाते हैं वह हमें बड़ी मुसीबत से बचा भी लेता है. हमारे एक मित्र हैं जिन की पत्नी पिछले 10 साल से सुबह सैर करने जाती थीं. 2-3 पड़ोसिनें भी कभी साथ होती थीं और कभी नहीं भी होती थीं.

‘‘देखा न कुसुम, भाभी रोज सुबह सैर करने जाती हैं तुम भी साथ जाया करो. जरा तो अपनी सेहत का खयाल रखो.’’

‘‘सुबह सैर करने जाना मुझे अच्छा नहीं लगता. सफाई कर्मचारी सफाई करते हैं तो सड़क की सारी मिट्टी गले में लगती है. जगहजगह कूड़े के ढेरों को आग लगाते हैं…गली में सभी सीवर भर जाते हैं. सुबह ही सुबह कितनी बदबू होती है.’’  बात शुरू कर के मैं तो पत्नी का मुंह ही देखता रह गया. सुबह की सैर के लाभ तो बचपन से सुनता आया था पर नुकसान पहली बार समझा रही थी पत्नी.

‘‘ताजी हवा तब शुरू होती है जब आबादी खत्म हो जाती है और वहां तक पहुंचतेपहुंचते सन्नाटा शुरू हो जाता है. खेतों की तरफ निकल जाओ तो न आदमी न आदमजात. इतने अंधेरे में अकेले डर नहीं लगता क्या कुसुम भाभी को.’’

‘‘इस में डरना क्या है. 6 बजे तक वापस आतेआते दिन निकल आता है. अपना ही इलाका है, डर कैसा.’’

‘‘नहीं, शाम की सैर ठीक रहती है. न बच्चों को स्कूल भेजने की चिंता और न ही अंधेरे का डर. भई, अपनेअपने नियम हैं,’’ पत्नी ने अपना नियम मुझे बताया और वह क्यों सही है उसे प्रमाणित करने के कारण भी मुझे समझा दिए. सोचा जाए तो अपनेअपने स्थान पर हर इंसान सही है. पुरानी पीढ़ी के पास नई पीढ़ी को कोसने के हजार तर्क हैं और नई पीढ़ी के पास पुरानी को नकारने के लाख बहाने. इसी मतभेद को दिल से लगा कर अकसर हम अपने अच्छे से अच्छे रिश्ते से हाथ धो लेते हैं.

मेरी बड़ी बहन, जो आगरा में रहती हैं, का एक नियम बड़ा सख्त है. कभी किसी का गहना या कपड़ा मांग कर नहीं पहनना चाहिए. कपड़ा तो कभी मजबूरी में पहनना भी पड़ सकता है क्योंकि तन ढकना तो जरूरत है, लेकिन गहनों के बिना प्राण तो नहीं निकल जाएंगे.

हम किसी शादी में जाने वाले थे. दीदी भी उन दिनों हमारे पास आई हुई थीं. जाहिर है, भारी गहने साथ ले कर नहीं आई थीं. मेरी पत्नी ने अनुरोध किया कि वे उस के गहने ले लें, तो दीदी ने साफ मना कर दिया. मेरी पत्नी को बुरा लगा.

‘‘दीदी ने ऐसा क्यों कहा कि वे कभी किसी के गहने नहीं पहनतीं. मैं कोई पराई हूं क्या? कह रही हैं अपनेअपने उसूल हैं, ऐसे भी क्या उसूल…’’

दीदी शादी में गईं पर उन्हीं हल्केफुल्के गहनों में जिन्हें पहन कर वे आगरा से आई थीं. घर आ कर भी मेरी पत्नी अनमनी सी रही जिसे दीदी भांप गई थीं.

‘‘बुरा मत मानना भाभी और तुम भी अपने जीवन में यह नियम अवश्य बना लो. यदि तुम्हारे पास गहना नहीं है तो मात्र दिखावे के लिए कभी किसी का गहना मांग कर मत पहनो. अगर तुम से वह गहना खो जाए तो पूरी उम्र एक कलंक माथे पर लगा रहता है कि फलां ने मेरा हजारों का नुकसान कर दिया था. जिस की चीज खो जाती है वह भूल तो नहीं पाता न.’’

‘‘अगर मुझ से ही खो जाए तो?’’

‘‘तुम चाहे अपने हाथ से जितना बड़ा नुकसान कर लो…चीज भी तुम्हारी, गंवाई भी तुम ने, अपना किया बड़े से बड़ा नुकसान इंसान भूल जाता है पर दूसरे द्वारा किया सदा याद रहता है.

‘‘मुझे याद है 10वीं कक्षा में हमारी अंगरेजी की किताब में एक कहानी थी ‘द नैकलेस’ जिस में नायिका मैगी मात्र अपनी एक अमीर सखी के घर पार्टी पर जाने के लिए दूसरी अमीर सखी का हीरों का हार उधार मांग कर ले जाती है. हार खो जाता है. पतिपत्नी नया हार खरीदते हैं और लौटा देते हैं. और फिर पूरी उम्र उस कर्ज को उतारते रहते हैं जो उन्होंने लाखों का हार चुकाने को लिया था.

‘‘लगभग 15 साल बाद बहुत गरीबी में दिन गुजार चुकी मैगी को वही सखी बाजार में मिल जाती है. दोनों एकदूसरे का हालचाल पूछती हैं और अमीर सखी उस की गिरी सेहत और बुरी हालत का कारण पूछती है. नायिका सच बताती है और अमीर सखी अपना सिर पीट लेती है, क्योंकि उस ने जो हार उधार दिया था वह तो नकली था.

‘‘नकली ले कर असली चुकाया और पूरा जीवन तबाह कर लिया. क्या पाया उस ने भाभी? इसी कहानी की वजह से मैं कई दिन रोती रही थी.’’

दीदी ने प्रश्न किया तो मुझे भी वह कहानी याद आई. सच है, दीदी अकसर किस्सेकहानियों को बड़ी गंभीरता से लेती थीं. यही एक कहानी गहरी उतर गई होगी मन में.

‘‘दोस्ती हमेशा अपने बराबर वालों से करो, जिन के साथ उठबैठ कर आप स्वयं को मखमल में टाट की तरह न महसूस करो. क्या जरूरत है जेब फाड़ कर तमाशा दिखाने की. अपनी औकात के अनुसार ही जिओ तो जीवन आसान रहता है. मेरा नियम है भाभी कि जब तक जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, सगे भाईबहन से भी कुछ मत मांगो.’’

चुप रहे हम पतिपत्नी. क्या उत्तर देते, अपनेअपने नियम हैं. उन्हें कभी भी नहीं तोड़ना चाहिए. अप्रत्यक्ष में दीदी ने हमें भी समझा दिया था कि हम भी इसी नियम पर चलें. ऐसे नियमों से जीवन आसान हो जाता है, यह सच है क्योंकि हम पूरा का पूरा वजन अपने उस नियम पर डाल देते हैं जिसे सामने वाला चाहेअनचाहे मान भी लेता है. भई, क्या करें नियम जो है.

‘‘रवि साहब, किसी का जूठा नहीं खाते, क्या करें भई, नियम है न इन का. वैसे एक घूंट मेरे गिलास से पी लेते तो हमारा मन रह जाता.’’

‘‘अब कोई इन से पूछे कि जूठा पानी अगर रवि साहब पी लेते तो इन का मन क्यों रह जाता. इन का मन हर किसी के नियम तोड़ने को बेचैन भी क्यों है. इन का जूठा अमृत है क्या, जिसे रविजी जरूर पिएं. संभव है इन्हें खांसी हो, जुकाम हो या कोई मुंह का संक्रमण. रविजी इन का मन रखने के लिए मौत के मुंह में क्यों जाएं? सत्य है, रविजी का नियम उन्हें बीमार होने से तो बचा ही गया न.’’

मेरे एक अन्य मित्र हैं. एक दिन हम ने साथसाथ कुछ खर्च किया. उन्होंने झट से 20 रुपए लौटा दिए.

‘‘20 रुपए हों या 20 लाख रुपए मेरे लिए दोनों की कीमत एक ही है. सिर पर कर्ज नहीं रखता मैं और दोस्ती में तो बिलकुल भी नहीं. दोस्त के साथ रिश्ते साफसुथरे रहें, उस के लिए जब हिसाब करो तो पैसेपैसे का करो. अपना नियम है भई, उपहार चाहे हजारों का दो और लो, कर्ज एक पैसे का भी नहीं. यही पैसा दोस्ती में जहर घोलता है.’’

चुप रहा मैं क्योंकि उन का यह पक्का नियम मुझे भी तोड़ना नहीं चाहिए. सत्य भी यही है कि अपनी जेब से बिना वजह लुटाना भी कौन चाहता है. हमारी एक मौसी बड़ी हिसाब- किताब वाली थीं. वे रोज शाम को खर्च की डायरी लिखती थीं. बच्चे अकसर हंसने लगते. वे भी हंस देती थीं. घर में एक ही तनख्वाह आती थी. कंजूसी भी नहीं करती थीं और फुजूल- खर्ची भी नहीं. रिश्तेदारी में भी अच्छा लेनदेन करतीं. कभी बात चलती तो वे यही कहती थीं :

‘‘अपनी चादर में रहो तो क्या मजाल कि मुश्किल आए. रोना तभी पड़ता है जब इंसान नियम से न चले. जीवन में नियम का होना बहुत आवश्यक है.’’

हमारे एक बहनोई हैं. हम से दूर रहते हैं इसलिए कभीकभार ही मिलना होता है. एक बार शादी में मिले, गपशप में दीदी ने उलाहना सा दे दिया.

‘‘सब से मिलना इन्हें अच्छा ही नहीं लगता,’’ दीदी बोलीं, ‘‘गिनेचुने लोगों से ही मिलते हैं. कहते हैं कि हर कोई इस लायक नहीं जिस से मेलजोल बढ़ाया जाए.’’

‘‘ठीक ही तो कहता हूं सोम भाई, अब आप ही बताइए, बिना किसी को जांचेपरखे दोस्त बनाओगे तो वही हाल होगा न जो संजय दत्त का हुआ. दोस्तीयारी में फंस गया बेचारा. अब किसी के माथे पर लिखा है क्या कि वह चोरउचक्का है या आतंकवादी.

‘‘अपना तो नियम है भाई, हाथ सब से मिलाते चलो लेकिन दिल मिलाने से पहले हजार बार सोचो.’’

आज शाम मैं घर आया तो विचित्र ही खबर मिली. ‘‘आप ने सुना नहीं, आज सुबह कुसुम भाभी को किसी ने सराय के बाहर जख्मी कर दिया. उन के साथ 2 पड़ोसिनें और थीं. कानों के टौप्स खींच कर धक्का दे दिया. सिर फट गए. तीनों अस्पताल मेें पड़ी हैं. मैं ने कहा था न कि इतनी सुबह सैर को नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘क्या सच?’’ अवाक् रह गया मैं.

‘‘और नहीं तो क्या. सोना ही दुश्मन बन गया. नशेड़ी होंगे कोई. गंड़ासा दिखाया और अंगूठियां उतरवा लीं. तीनों से टौप्स उतारने को कहा. तभी दूर से कोई गाड़ी आती देखी तो कानों से खींच कर ही ले गए…आप कहते थे न, अपना ही इलाका है, तुम भी जाया करो.’’

निरुत्तर हो गया मैं. मेरी नजर पत्नी के कानों पर पड़ी. सुंदर नग चमक रहे थे. उंगली में अंगूठी भी 10 हजार की तो होगी ही. अगर इस ने अपना नियम तोड़ कर मेरा कहा मान लिया होता तो इस वक्त शायद यह भी कुसुम भाभी के साथ अस्पताल में होती.

आज के परिवेश में क्या गलत और क्या सही. सुबह की सैर का नियम जहां कुसुम भाभी को मार गया, वहीं शाम की सैर का नियम मेरी पत्नी को बचा भी गया. सोना इतना महंगा हो गया है कि जानलेवा होने लगा है. सोच रहा हूं कि एक नियम मैं भी बना लूं. चाहे जो भी हो जाए पत्नी को गहने पहन कर घर से बाहर नहीं जाने दूंगा. परेशान हो गई थी पत्नी.

‘‘नकली गहने पहने तो कौन सा जान बच गई. कुसुम भाभी के टौप्स तो नकली थे. अंगूठी भी सोने की नहीं थी. उन्होंने कहा भी कि भैया, सोना नहीं पहना है.’’

‘‘तो क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘बोले, यह देखने का हमारा काम है. ज्यादा नानुकर मत करो.’’

क्या जवाब दूं मैं. आज हम जिस हाल में जी रहे हैं उस हाल में जीना वास्तव में बहुत तंग हो गया है. खुल कर सांस कहां ले पा रहे हैं हम. जी पाएं, उस के लिए इतने नियमों का निर्माण करना पड़ेगा कि हम कहीं के रहेंगे ही नहीं. सिर्फ नियम ही होंगे जो हमें चलाएंगे, उठाएंगे और बिठाएंगे.

रात में हम दोनों पतिपत्नी अस्पताल गए. कुसुम भाभी के सिर की चोट गहरी थी. दोनों कान कटे पड़े थे. होश नहीं आया था. उन के पति परेशान थे, सीधासादा जीवन जीतेजीते यह कैसी परेशानी चली आई थी.

‘‘यह बेचारी तो सोना पहनती ही नहीं थी. पीतल भी पहनना भारी पड़ गया. अब इन हालात में इंसान जिए तो कैसे जिए, सोम भाई. कभी किसी का बुरा नहीं किया इस ने. इसी के साथ ऐसा क्यों?’’

वे मेरे गले से लग कर रोने लगे थे. मैं उन का कंधा थपथपा रहा था. उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है. कैसे जिएं हम. जाएं तो जाएं कहां. कितना भी संभल कर चलो, कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है कि सब धरा का धरा रह जाता है.

Hindi Fiction Stories : एकदूसरे की पूरक थी मानसी और अनुजा

Hindi Fiction Stories : मानसी और अनुजा बचपन से ही अच्छी सहेलियां थीं. हमेशा से मनु और अनु की जोड़ी उन की पूरी मित्रमंडली में मशहूर थी. नर्सरी से एक ही स्कूल में गईं और जब कालेज चुनने की बात आई तो दोनों ने कालेज भी एक ही चुना. कालेज घर से दूर होने के कारण दोनों पास ही एक रूम ले कर उस में एकसाथ रहने लगीं.

बचपन से साथ खेलने और पढ़ने के बावजूद दोनों के स्वभाव में काफी अंतर था. एक ओर अनुजा सीधीसादी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी, तो दूसरी ओर मानसी बेहद स्मार्ट और आकर्षक. अनुजा को पढ़ाई में रुचि थी तो मानसी को खेलकूद में. मानसी तो बस पास होने के लिए पढ़ाई करती जबकि अनुजा पढ़ाई में इस कदर खो जाती कि उसे अपने आसपास की दीनदुनिया की खबर ही नहीं रहती. दोनों एकदूसरे की पूरक बन अपनी मित्रता निभाती आई थीं.

कालेज के दिनों में दोनों से टकराया विपुल, जोकि एक छैलछबीले लड़के के रूप में सामने आया. ऊंची कदकाठी, ऐथलैटिक बौडी, पढ़ाई में अच्छे नंबर लाने वाला. बौस्केटबौल चैंपियन को पूरे कालेज का दिल मोह लेने में अधिक समय नहीं लगा.

सब से पहले विपुल पर मानसी की नजर पड़ी. गरमी के दिनों पसीने से तरबतर विपुल बौस्केटबौल कोर्ट में प्रैक्टिस किया करता, क्योंकि मानसी को स्वयं भी बौस्केटबौल में रुचि थी. उस ने विपुल से दोस्ती करने में अधिक देर न लगाई. कुछ ही हफ्तों में वह विपुल से बौस्केटबौल खेलने के पैंतरे सीखने लगी. अनुजा अकसर दोनों का खेल देखा करती.

महीना बीततेबीतते विपुल उन के रूम पर आने लगा जो उन्होंने कालेज के पास ले रखा था. जब वह रूम पर आता तो मानसी उस से पढ़ाई से संबंधित नोट्स शेयर करती, नएनए गुर सीखती. विपुल उसे पूरे मन से सिखाता.

“न जाने कब इस पढ़ाई से पीछा छूटेगा. एक बार कालेज खत्म हो जाए तो मैं इन किताबों को हाथ भी नहीं लगाऊंगी. इन को तो क्या मैं किसी भी किताब को हाथ नहीं लगाऊंगी”, मानसी बोली.

“कैसी बातें करती हो तुम? किताबों के अलावा दुनिया के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकती”, उस की बात सुन कर अनुजा से चुप न रहा गया.

“तुम्हें भी पढ़ने में रुचि है? मुझे भी. बिना पढ़े तो मुझे 1 दिन भी नींद नहीं आती”, विपुल ने कहा.

*उस* दिन के बाद से विपुल की दोस्ती अनुजा से भी हो गई. अब तीनों केवल कालेज में ही नहीं बल्कि उन के रूम पर भी बतियाया करते. मानसी विपुल के लुक्स और अदाओं की दीवानी थी तो विपुल अनुजा के सामान्य ज्ञान और पढ़ने के प्रति रुचि का. कुछ ही हफ्तों में वे एक तिगड़ी के रूप में पहचाने जाने लगे. तीनों अच्छे दोस्त बन गए थे. साथ पढ़ते, साथ घूमने जाते और समय व्यतीत करते.

“विपुल आता ही होगा”, फटाफट तैयार हो लिपस्टिक को फ्रैश करती मानसी ने कहा.

“ओहो, तो यह सारी तैयारी विपुलजी के लिए हो रही है?”अनुजा ने उस की टांग खींची.

“हां यार, क्या करूं, दिल है कि मानता नहीं…”, अचानक ही मानसी गुनगुनाने लगी और दोनों सहेलियां हंसने लगीं.

आज फिर पढ़ते समय मानसी धीरेधीरे अपने मन में उठ रहे विचारों की पर्चियां बना कर विपुल की ओर पास करने लगी. विपुल ने पर्चियां खोलकर पढ़ीं. पहली पर्ची में लिखा था, ‘कितना सुहाना मौसम है.’

दूसरी पर्ची में लिखा था,’आज तो लौंग ड्राइव पर जाना बनता है.’

तभी मानसी ने तीसरी पर्ची उस की ओर सरकाई तो वह कुछ चिढ़ गया, “तुम्हारा मन पढ़ाई में क्यों नहीं लगता, मानसी?” विपुल ने कहा तो मानसी बस खिसिया कर हंस पड़ी.

“अरे, यह तो बचपन से ऐसी ही है. पर्चियों से इस का नजदीकी रिश्ता है. आखिर, उन्हीं के बल पर पास होती आई है”, अनुजा ने राज खोला.

“अच्छा, तो पर्चियों से पुराना नाता है. देखो न, अभी भी पढ़ते समय न जाने क्या कुछ पर्चियों पर लिख कर मेरी ओर सरकाती रहती है”, विपुल की बात पर तीनों हंस पड़े.

“और यह मैडम न जाने क्या कुछ पढ़ने में मगन रहती हैं”, कहते हुए मानसी से अनुजा के हाथ से किताब छीनी.

“अरे, मुझे तो पढ़ने दो. बहुत अच्छा आलेख प्रकाशित हुआ है इस पत्रिका में. जानते हो, हम सब की आदर्श कार मर्सिडीज का नाम कैसे पड़ा? जरमनी के एक उद्योगपति ऐमिल येलेनेक कारों को बेचने का व्यापार करते थे. उन्होंने डाइमर मोटर्स की कई गाड़ियां खरीदीं और बेचीं. गाड़ियों की इस कंपनी को लिखे कई खतों में उन्होंने यह शर्त रखी कि अपनी स्पोर्ट्स कार का नाम ऐमिल की बड़ी बेटी मर्सिडीज येलेनैक के नाम पर रखा जाए, क्योंकि उन के साथ व्यापार करने से कंपनी को काफी लाभ होता था. कंपनी ने उन की शर्त मान ली. उस वक्त मर्सिडीज केवल 11 वर्ष की थीं जब दुनिया इस दौर को ‘मर्सिडीज इरा’ पुकारने लगी.

बड़ी होने पर मर्सिडीज की 2 शादियां हुईं मगर एक भी सफल नहीं रही. अपने 2 बच्चों को पालने के लिए उन्हें लोगों के आगे हाथ पसारने पड़े. फिर उन्हें कैंसर हो गया और केवल 39 वर्ष की आयु में उन की मृत्यु हो गई. सोचो जरा, जिस कार का नाम समृद्धि और सफलता का पर्याय बन गया है, वह जिस व्यक्ति के नाम पर रखी गई उस का अपना जीवन कितना संघर्ष में बीता. है न यह कितनी बड़ी विडंबना.”

“तुम भी न जाने क्या कुछ ढूंढ़ कर पढ़ती रहती हो”, अनुजा की बात पूरी होने पर मानसी बोली.

“मेरी बकेट लिस्ट में दुनिया घूमना शामिल है”, विपुल बोला, “ऐसी रोचक जानकारियों को जानने के बाद मेरी इन जगहों को देखने की इच्छा और प्रबल हो जाती है. अब मर्सिडीज कार को देखने का मेरा नजरिया बदल जाएगा. तुम ने इतनी अच्छी जानकारी दी, उस के लिए धन्यवाद, अनुजा”, विपुल अनुजा के पढ़ने के शौक से प्रभावित हुआ. उसे भी अनुजा की तरह इतिहास, भूगोल और सामान्य ज्ञान में बेहद रूचि थी.

*शाम* को तीनों बाहर रेस्तरां में खाना खाने गए. तीनों ने अपनीअपनी पसंद का भोजन और्डर किया.

“कमाल है, तुम दोनों के खाने की पसंद भी कितनी मिलती है”, अनुजा और विपुल के साउथ इंडियन खाना और्डर करने पर मानसी ने कहा, “मैं तो मुगलई खाना मंगवाऊंगी.”

कालेज की अन्य सहेलियां मानसी की नजरों में विपुल के प्रति उठ रहे जज्बातों को पढ़ने में सक्षम होने लगी थीं. वे अकसर मानसी को विपुल के नाम से छेड़तीं. कुछ लड़कियां विपुल को मानसी का बौयफ्रेंड तक बुलाने लगी थीं. ऐसी संभावना की कल्पना मात्र से ही मानसी का मन तितली बन उड़ने लगता. चाहती तो वह भी यही थी मगर कहने में शरमाती थीं. सहेलियों को धमका कर चुप करा देती. बस चोरीछिपे मन ही मन फूट रहे लड्डुओं का स्वाद ले लिया करती.

“कल मूवी का कार्यक्रम कैसा रहेगा?”, मानसी के प्रश्न उछालने पर अनुजा इधरउधर झांकने लगी.

विपुल बोला, “कौन सी मूवी चलेंगे? मुझे बहुत ज्यादा शौक नहीं है फिल्म  देखने का.”

“लगता है तुम दोनों पिछले जन्म के भाईबहन हो. अनुजा को भी मूवी का शौक नहीं. उसे तो बस कोई किताबें दे दो, तुम्हारी तरह. लेकिन कभीकभी दोस्तों की खुशी के लिए भी कुछ करना पड़ता है तो इसलिए इस शनिवार हम तीनों फिल्म देखने जाएंगे, मेरी खुशी के लिए”, इठलाते हुए मानसी ने अपनी बात पूरी की.

विपुल के चले जाने के बाद अनुजा, मानसी से बोली, “तुम दोनों ही चले जाना फिल्म देखने. तुम्हारे साथ होती हूं तो लगता है जैसे कबाब में हड्डी बन रही हूं.”

“कैसी बातें करती हो? ऐसी कोई बात नहीं है. हम दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त हैं,” मानसी ने उसे हंस कर टाल दिया.

जब तक विपुल के मन की टोह न ले ले, मानसी अपने मन की भावनाएं जाहिर करने के लिए तैयार नहीं थी.

“जो कह रही हूं, कुछ सोचसमझ कर कह रही हूं. तेरी आंखों में विपुल के प्रति आकर्षण साफ झलकता है. पता नहीं उसे कैसे नहीं दिखा अभी तक”, अनुजा की इस बात सुन कर मानसी के अंदर प्यार का वह अंकुर जो अब तक संकोचवश उस के दिल की तहों के अंदर दब कर धड़क रहा था, बाहर आने को मचलने लगा.

विपुल को देख कर उसे कुछ कुछ होता था, पर यह बात वह विपुल को कैसे कहे, इसी उधेड़बुन में उस का मन भटकता रहता.

‘अजीब पगला है विपुल. इतने हिंट्स देती हूं उसे पर वह फिर भी कुछ समझ नहीं पाता. क्या मुझे ही शुरुआत करनी पड़ेगी…’, मानसी अकसर सोचा करती.

*आजकल* मानसी का मन प्रेम हिलोरे खाने लगा था. विपुल को देखते ही उस के गालों पर लालिमा छा जाती. अब तो उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल भी न लगता. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ प्यारभरी मीठी बातें करे. जब भी वह विपुल से मिलती, चहक उठती. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ ही रहे, छोड़ कर न जाए. आजकल वह प्रेमभरे गीत सुनने लगी थी और अपने कमजोर शब्दकोश की सहायता से प्यार में डूबी कविताएं भी लिखने लगी थी. लेकिन यह सारे राज उस ने अपनी निजी डायरी में कैद कर रखे थे. विपुल तो क्या, अनुजा भी इन गतिविधियों से अनजान थी.

*उस* शाम जब अनुजा किसी काम से बाहर गई हुई थी तो विपुल रूम पर आया. मानसी तभी सिर धो कर आई थी और उस के गीले बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे. मानसी अकसर अपने बालों को बांध कर रखा करती थी मगर आज उस के सुंदर केश बेहद आकर्षक लग रहे थे.

“आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो. अपने बालों को खोल कर क्यों नहीं रखतीं?” विपुल ने मुसकराते हुए कहा.

“केवल मेरे बाल अच्छे लगते हैं, मैं नहीं?”, मानसी ने खुल कर सवाल पूछे तो उत्तर में विपुल शरमा कर हंस पड़ा.

दोनों नोट्स पूरे करने बैठ गए.

“ओह, कितनी सर्दी हो रही है आजकल. यहां बैठना असहज हो रहा है. चलो, अंदर हीटर चला कर बैठते हैं”, कहते हुए मानसी विपुल को बैडरूम में चलने का न्योता देने लगी.

“आर यू श्योर?”, विपुल इस से पहले कभी अंदर नहीं गया था. जब भी आया बस लिविंगरूम में ही बैठा.

“हां.. हां…. चलो अंदर आराम से बैठ कर पढ़ेंगे. फिर मैं तुम्हें गरमगरम कौफी पिलाऊंगी.”

विपुल और मानसी दोनों बिस्तर पर बैठ कर पढ़ने लगे. मानसी ने तह कर रखी रजाई पैरों पर खींच लीं. दोनों सट कर बैठे पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली कड़कने लगी. हलकी सी एक चीख के साथ मानसी विपुल से चिपक गई, “मुझे बिजली से बहुत डर लगता है. जब तक अनुजा वापस नहीं आ जाती प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाना.”

“ठीक है, नहीं जाऊंगा. डरती क्यों हो? मैं हूं न”, विपुल उस की पीठ सहलाते हुए बोला.

फिर एक बात से दूसरी बात होती चली गई. बिना सोचे ही विपुल और मानसी एकदूसरे की आगोश में समाते चले गए. कुछ ही देर में उन्होंने सारी लक्ष्मणरेखाएं लांघ दीं. बेखुदी में दोनों जो कदम उठा चुके थे उस का होश उन्हें कुछ समय बाद आया.

बाहर छिटपुट रोशनी रह गई थी. सूरज ढल चुका था. कमरे में अंधेरा घिर आया. मानसी धीरे से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. विपुल भी चुपचाप बाहर आया और कुरसी खींच कर बैठ गया. दोनों एकदूसरे से कुछ कह पाते इस से पहले अनुजा वापस आ गई. उस के आते ही विपुल “देर हो रही है,” कह कर अपने घर चला गया. जो कुछ हुआ वह अनजाने में हुआ था मगर फिर भी मानसी आज बेहद खुश थी. उसे अपने प्यार का सानिध्य प्राप्त हो गया था. आगे आने वाले जीवन के सुनहरे स्वप्न उस की आंखों में नाचने लगे. आज देर रात तक उस की आंखों में नींद नहीं झांकी, केवल होंठों पर मुस्कराहट  तैरती रही.

“क्या बात है, आज बहुत खुश लग रही हो?” अनुजा ने पूछा तो मानसी ने अच्छे मौसम की ओट ले ली.

*अगले* दिन विपुल मानसी के रूम पर उसे पढ़ाने नहीं आया बल्कि कालेज में भी कुछ दूरदूर ही रहा. करीब 4 दिनों के बाद मानसी कालेज कैंटीन में बैठी चाय पी रही थी कि अचानक विपुल आ कर सामने बैठ गया. उसे देखते ही मानसी का चेहरा खिल उठा.

“हाय, कैसे हो?”, मानसी ने धीरे से पूछा.

पर विपुल को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह पतला हो गया हो.

‘तो क्या विपुल बीमार था, इस वजह से दिखाई नहीं दिया’, मानसी सोचने लगी, ‘और मैं ने इस का हालतक नहीं पूछा. मन ही मन मान लिया कि उस दिन की घटना के कारण शायद विपुल सामना करने में असहज हो रहा हो.’

“मानसी, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं. उस शाम हमारे बीच जो कुछ हुआ वह… मैं ने ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था. बस यों ही अकस्मात हालात ऐसे बनते चले गए. प्लीज, हो सके तो मुझे माफ कर दो और इस बात को यहीं भूल जाओ. मैं भी उस शाम को अपनी याददाश्त से मिटा दूंगा.”

‘तो इस कारण विपुल पिछले कुछ दिनों से रूम पर नहीं आया.’ मानसी का शक सही निकला. उस दिन की घटना के कारण ही विपुल मिलने नहीं आ रहा था.

उस शाम मानसी को विपुल का साथ अच्छा लगा था. वह पहले से ही विपुल की ओर आकर्षित थी. अब यदि उस का और विपुल का रिश्ता आगे बढ़ता है तो मानसी को और क्या चाहिए. वह खुश थी मगर आज विपुल की इस बात पर उस ने ऊपर से केवल यही कहा, “मैं ने बुरा नहीं माना, विपुल. मैं तो उस बात को एक दुर्घटना समझ कर भुला भी चुकी हूं. तुम भी अपने मन पर कोई बोझ मत रखो.”

मानसी चाहती थी कि अब उसका और विपुल का प्यार आगे बढ़े, पहली सोपान चढ़े और धीरेधीरे गहराता जाए. इसलिए विपुल को किसी भी तनाव में रख कर इस रिश्ते के बारे में सोचा नहीं जा सकता, यह बात वह अच्छी तरह समझ चुकी थी. प्यार की क्यारी को पनपने के लिए जो कोमल मिट्टी मन के आंगन में चाहिए उसे अब वह अपनी सहज बातों और मीठे व्यवहार की खुरपी से रोपना चाहती थी.

इस घटना का जिक्र मानसी ने केवल अपनी डायरी में किया. अनुजा को उस शाम के बारे में कुछ नहीं पता था.

तीनों एक बार फिर पुराने दोस्तों की तरह मिलनेजुलने लगे. विपुल फिर सै रूम पर आने लगा. तीनों घूमनेफिरने जाने लगे. अब तक विपुल और अनुजा की भी अच्छी निभने लगी. एक तरफ विपुल के लिए मानसी की चाहत तो दूसरी तरफ विपुल से अनुजा की बढ़ती मित्रता, इस तिगड़ी में सभी बेहद प्रसन्न रहने लगे.

*एक* शाम जब अनुजा रूम पर आई तो मानसी ने हड़बड़ा कर अपनी डायरी जिस में वह कुछ लिख रही थी, बंद कर किताबों के पीछे छिपा दी.

“मुझे सब पता है क्या लिखती रहती हो तुम इस डायरी में”, अनुजा ने चुटकी ली.

“ऐसा कुछ नहीं है. तुम न जाने क्याक्या सोचती रहती हो…” मानसी हंसी और कमरे से बाहर निकल गई. अनुजा उस के पीछेपीछे आई और कहने लगी, “मानसी, अगर विपुल आगे नहीं बढ़ पा रहा तो तुम्हें शुरुआत करनी चाहिए. मुझे लगता है अब समय आ गया है. हम तीनों की दोस्ती को 1 साल होने को आया है. हम एकदूसरे को अच्छी तरह समझने लगे हैं. अब ज्यादा सोचविचार में और समय मत गंवाओ. विपुल जैसा अच्छा लड़का सब को नहीं मिलता…आगे बढ़ो और अपने मन की बात विपुल से कह डालो.”

अनुजा ने मानसी को समझाया तो वह विपुल से अपने दिल की बात करने को राजी हो गई. अनुजा ने सुझाव दिया कि निकट आते वैलेंटाइन डे पर मानसी विपुल से अपने दिल की बात कह दे, मगर  वैलेंटाइन डे से पहले रोज डे पर विपुल ने अनुजा को लाल गुलाब दे कर अचानक प्रपोज कर दिया. ऐसे किसी कदम की उसे उम्मीद न थी. अनुजा हक्कीबक्की रह गई. कुछ कहते न बना. बस खामोशी से गुलाब हाथ में लिए वह रूम पर लौट आई. जब मानसी को इस घटना के बारे में पता लगा तो उसे अनुजा से भी ज्यादा ठेस लगी. वह तो विपुल को अपना बनाने की ख्वाब संजो रही थी लेकिन विपुल ने तो बाजी ही पलट दी.

अनुजा जानती थी कि मानसी के मन में विपुल को ले कर आकर्षण पनप रहा है. वह तो स्वयं ही मानसी को विपुल की ओर धकेल रही थी. मगर विपुल ने आज जो किया उस के बाद अनुजा मानसी से नजरें मिलाने में भी सकुचाने लगी.

‘न जाने मेरी सहेली मेरे बारे में क्या सोचेगी?’ अनुजा मन ही मन परेशान होने लगी. उस की बेचैनी उस के चेहरे पर साफ झलकने लगी.

मानसी ने अनुजा के अंदर उठ रहे तूफान को पढ़ लिया. आखिर दोनों बचपन से एकदूसरे का साथ निभाती आई थीं. भावनाएं बांटती आई थीं. अनुजा के चेहरे पर उठ रहे व्यग्रता के भावों को देख मानसी ने अपने चेहरे पर जरा भी व्याकुलता नहीं आने दी. एक सच्ची सहेली की तरह उस ने अनुजा के सामने स्वयं को उस की खुशी में प्रसन्न दर्शाया. उस ने अनुजा को यह कह कर समझाया कि जो कुछ वह सोच रही थी, ऐसा कुछ नहीं था. वे तीनों अच्छे मित्र हैं और मानसी के मन की भावनाएं केवल अनुजा की कल्पना मात्र हैं. विपुल की तरफ से कभी भी इस प्रकार का न तो कोई संदेश आया, न ही इशारा. वह दोनों केवल अच्छे दोस्त रहे.

“तुम्हें गलतफहमी हो गई थी, मेरी जान. विपुल मुझे नहीं तुम्हें पसंद करता है और इस का साक्षी है उस का दिया यह गुलाब का फूल. अब खुशी से फूल को अपनाओ और विपुल के साथ एक सुखी जीवन बिताओ. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं”, मानसी ने कहा तब जा कर अनुजा को थोड़ी शांति मिली.

मानसी ने यह सब केवल अनुजा को शांत करने के लिए कहा, मगर उस के अंदर जो ज्वालामुखी फट रहे थे उस का सामना करना उस के लिए कठिन हो रहा था. विपुल ने उसे धोखा दिया है. वह उस के साथ ऐसा कैसे कर सकता है? क्या मानसी की आंखों में विपुल ने कभी कुछ नहीं पढ़ा? और उस शाम का क्या जो उन दोनों ने एकदूसरे की बांहों में गुजारीं? मानसी को इन सभी सवालों के दैत्य घेरने लगे. वह भीतर ही भीतर सुलगने लगी. अपनी सब से प्यारी सहेली की खुशी में वह बाधा नहीं बनना चाहती पर दिल का क्या करे.

अगला पूरा हफ्ता इसी उहापोह में बीता. अनुजा के समक्ष ऊपर से शांत और प्रसन्न दिखने वाली मानसी अंदर ही अंदर घुल रही थी.

आखिर दिल पर दिमाग हावी हो ही गया. इतने दिनों से चल रही मगजमारी में मानसी का शैतानी मन उस के शांत मन से जीत गया. उस ने ठान लिया कि वह विपुल को सबक सिखा कर रहेगी और उस की सचाई अनुजा के सामने खोल देगी. इसी आशय से उस ने सुबूत के तौर पर अपनी डायरी उठाई और तैयार हो कर कालेज चली गई. आज वह इस डायरी में बंद हर राज को अनुजा के समक्ष रख देगी.

*कालेज* में हर जगह लाल रंग की लाली छाई हुई थी. आज वैलेंटाइन डे था. हर ओर लाल गुब्बारे, दिल की शेप के कटआउट, लाल रिबन, लड़कियां भी लाललाल पोशाकों में सजी हुईं अपने अपने बौयफ्रैंड के साथ इठलाती घूम रही थीं. कहां आज ही के दिन मानसी ने विपुल से अपने दिल की बात कहने की सोची थी और कहां आज वह विपुल और अनुजा के बनते हुए रिश्ते को तोड़ने जा रही है.

मानसी ने कैफेटेरिया में विपुल और अनुजा को एकसाथ बैठे देख लिया. उस की तरफ उन दोनों की पीठ थी. सधे हुए तेज कदमों से बढ़ती हुई वह उन की तरफ लपकी. इस से पहले कि वह उन्हें आड़े हाथों लेती उस के कानों में उनका वार्तालाप सरक गया.

“अनुजा, तुम मुझे पहले ही दिन से पसंद आ गई थीं. तुम्हारा मितभाषी स्वभाव मेरे अपने अंतर्मुखी स्वभाव से मेल खाता है”, विपुल बोला.

“हां, और देखो न हमारे स्वाद, हमारी इच्छाएं और आकांक्षाएं भी कितनी मिलतीजुलती हैं. सच कहूं तो मैं ने तुम्हें कभी उस नजर से देखा नहीं था”, अनुजा कह रही थी, “बल्कि मैं तो कुछ और ही समझती रही थी अब तक,” संभवतया अनुजा का इशारा मानसी की ओर था.

“समझने में मुझे भी कुछ समय जरूर लगा. कभीकभी मन में कुछ संशय भाव भी उभरे. पर यह निर्णय मैं ने बहुत सोचसमझ कर किया है. जीवन में गलती सभी से हो जाती है मगर समझदार वही व्यक्ति है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़ता है”, विपुल ने अपनी बात पूरी की.

पीछे खड़ी मानसी सब सुन रही थी. ‘सच ही तो कह रहे हैं दोनों. एकदूसरे के लिए यही बने हैं. दोनों के स्वभाव एकदूसरे के अनुकूल हैं. क्या एक बार सोने से प्यार हो जाता है? नहीं न… विपुल और उस के बीच जो हुआ वह प्यार का नहीं जवानी के आकर्षण व जोश का परिणाम था, जो शायद किसी के भी साथ हो सकता है. एक बार हुई ऐसी घटना के बलबूते पूरे जीवन के निर्णय नहीं लिए जा सकते और न ही लेने चाहिए. विपुल ने सही निर्णय लिया जो सोचसमझ कर अपने अनुरूप साथी का चयन किया. दोनों साथ में कितने खुश हैं. मेरे दोस्त हैं. क्या इन की खुशी पर वज्रपात कर के मैं खुश रह पाऊंगी? क्या ऐसा करने के बाद मैं स्वयं को कभी माफ कर पाऊंगी? निर्णय वही लेना चाहिए जिस से जीवन सुखी हो. आज भावेश में आ कर मैं यह क्या करने जा रही थी…’, मानसी ने अपने कदम रोक लिए. अपनी डायरी को उस ने वापस अपने बैग में छिपा दिया. अब इसकी जरूरत कभी नहीं पड़ेगी.

नभ में छाई घटाएं खुलने लगीं. बसंत के मध्यम सूरज की सुहानी किरणें हर ओर उजाले की बौछारें करने लगीं. मानसी के मन के अंदर भी यह उजाला उतरने लगा. उस के चेहरे पर मुसकराहट आने लगी.

“अच्छा बच्चू, मुझ से गुपचुप यहां अकेले पार्टी करने का प्रोग्राम है. तुम दोनों भले ही एक कपल बन गए हो पर मैं कबाब में हड्डी बनने से संकोच नहीं करूंगी. मुझे भी तुम्हारे साथ पार्टी करनी है”, कहते हुए मानसी ने अपनी दोनों बांहें पसार दीं.

अनुजा और विपुल ने भी हंसते हुए उसे अपनी बांहों में ले लिया. तीनों ने कौफी और केक का और्डर दिया. अनगिनत बातों का पिटारा फिर खुलने लगा.

Inspirational Hindi Stories : हिजड़ा

Inspirational Hindi Stories : पिछले कई दिनों से बस स्टैंड के दुकानदार उस हिजड़े से परेशान थे जो न जाने कहां से आ गया था. वह बस स्टैंड की हर दुकान के सामने आ कर अड़ जाता और बिना कुछ लिए न टलता. समझाने पर बिगड़ पड़ता. तालियां बजाबजा कर खासा तमाशा खड़ा कर देता.

एक दिन मैं ने भी उसे समझाना चाहा, कुछ कामधंधा करने की सलाह दी. जवाब में उस ने हाथमुंह मटकाते हुए कुछ विचित्र से जनाने अंदाज में अपनी विकलांगता (नपुंसकता) का हवाला देते हुए ऐसीऐसी दलीलें दे कर मेरे सहित सारे जमाने को कोसना प्रारंभ किया कि चुप ही रह जाना पड़ा. कई दिनों तक उस की विचित्र भावभंगिमा के चित्र आंखों के सामने तैरते रहते और मन घृणा से भर उठता.

फिर एकाएक उस का बस स्टैंड पर दिखना बंद हो गया तो दुकानदारों ने राहत की सांस ली, लेकिन उस के जाने के 2-3 दिन बाद ही न जाने कहां से एक अधनंगी मैलीकुचैली पगली बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती नजर आने लगी थी. अस्पष्ट स्वर में वह न जाने क्या बुदबुदाती रहती और हर दुकान के सामने से तब तक न हटती जब तक कि उसे कुछ मिल न जाता.

जब कोई कुछ खाने को दे देता तो कुछ दूर जा कर वह सड़क पर बैठ कर खाने लगती. जबकि पैसों को वह अपनी फटी साड़ी के आंचल में बांध लेती, कोई दया कर के कपड़े दे देता तो उसे अपने शरीर पर लपेट लेती. कभी वह बड़ी ही विचित्र हंसी हंसने लगती तो कभी सिसकियां भरभर कर रोने लगती. उस का हास्य, उस का रुदन, सब उस के जीवन के रहस्य की तरह ही अबूझ पहेली थे.

कभी किसी ने उसे नहाते न देखा था, मैल की परतों से दबे उस के शरीर से ऐसी बदबू का भभका उठता कि दुकान में उस के आते ही दुकानदार जल्दी से उस के पास 1-2 रुपए का सिक्का फेंक कर उसे दूर भगाने का प्रयास करते. लेकिन इन सब के बावजूद वह उम्र के लिहाज से जवान थी और यह जवानी ही शायद उस दिन कामलोलुप, शराब के नशे में धुत्त युवकों की नजरों में चढ़ गई.

दिनभर बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती यह पगली रात्रि को किसी भी दुकान के बरामदे पर या बस स्टैंड के होटलों के दालानों में बिछी बैंच पर सो जाया करती थी. उस दिन भी वह इन होटलों में से किसी एक होटल की लावारिस पड़ी बैंच पर रात के अंधियारे में दुबक कर सोई हुई थी.

रात्रि को 12 बजे के लगभग मैं अपना पीसीओ बंद कर ही रहा था कि तभी सामने बस स्टैंड के इन होटलों में से किसी एक होटल के बरामदे से वह पगली अस्तव्यस्त हालत में भागती हुई बाहर निकली. उस के पीछे महल्ले के ही 2 अपराधी प्रवृत्ति के शराब के नशे में धुत्त युवक बाहर निकल कर उसे पकड़ने का प्रयास कर रहे थे. वह उन से पीछा  छुड़ाने के प्रयास में भागते हुए पीठ के बल गिर पड़ी, उस के मुंह से विचित्र तरह की चीख निकली.

मैं पूरी घटना को देखते हुए अपनी दुकान के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा था. मैं उन दोनों युवकों के आपराधिक कृत्यों से भलीभांति परिचित था. अभी कुछ माह पूर्व ही उन लोगों ने कसबे के एक वकील को गोली मार कर घायल कर दिया था. उन की पीठ पर कसबे के कुख्यात कोलमाफिया का हाथ है. फलस्वरूप कुछ माह में ही जमानत पर वे लोग बाहर आ गए. एक पहल में ही उन के आपराधिक कृत्यों का इतिहास मेरी आंखों के सामने कौंध गया और मैं उन को रोकने का साहस न जुटा सका लेकिन बिना प्रतिरोध किए रह भी नहीं पा रहा था.

सो, उन्हें तेज आवाज में डांटना चाहा लेकिन मेरे मुंह से ऐसी सहमी, मरी हुई आवाज में प्रतिरोध का स्वर निकला कि मैं खुद सहम गया. जबकि जवाब में उन युवकों ने गुर्रा कर डपटा, ‘‘गुलशन चाचा, अपने काम से काम रखो नहीं तो…’’ फिर उस के बाद गालियों, धमकियों का ऐसा रेला उन्होंने मेरी तरफ उछाल दिया कि मैं भयभीत हो गया, डर से घबरा कर जल्दी से दुकान का शटर बंद कर घर में दुबकते हुए चोर नजर से उन की तरफ देखा तो… लगभग घसीटते हुए वे उस पगली को होटल के अंधेरे बरामदे में पड़ी बैंच की ओर ले जा रहे थे.

वह पगली विचित्र अस्पष्ट स्वर में सिसक रही थी, उस के प्रतिरोध का प्रयास भी शिथिल हो गया था, शायद उस ने बचने की कोई सूरत न देख कर आत्मसमर्पण कर दिया था. मैं शटर बंद कर घर में दुबक गया था. बस स्टैंड पर सन्नाटा पसर गया था और शायद काफी गहराई तक मेरे अंदर भी वह सन्नाटा उतरता चला गया.

अगले दिन से फिर वह पगली बस स्टैंड तो क्या पूरे कसबे में ही कहीं नजर नहीं आई. वे 2 युवक जब भी मुझे देखते उन के चेहरे पर व्यंग्य, उपहासभरी मुसकान कौंध जाती और न जाने क्यों मेरा चेहरा पीला पड़ जाता. उस दिन की घटना के बाद मेरा पीसीओ भी रात्रि 8 बजे बंद होने लगा. न जाने क्यों मैं देर रात तक पीसीओ खुले रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. मैं अपनेआप को अकसर समझाता रहता कि अरे इस तरह से लावारिस घूमने वाली पगली व भिखारिन औरतों के साथ ऐसी घटनाओं का होना कोई नई बात नहीं है. ऐसा तो होता ही रहता है.

मैं भला सक्रिय रूप से उन्हें रोकने का प्रयास कर के भी क्या कर लेता? यही न कि उन युवकों की मारपीट का शिकार हो कर घायल हो जाता, और कहीं वे प्रतिशोध में मेरे घर पर न रहने पर घर में घुस कर मेरी पत्नी के साथ जोरजबरदस्ती कर बैठते तो…कल्पना कर के ही सिहर उठता. न बाबा न, उन से दुश्मनी न मोल ले कर मैं ने ठीक ही किया. लेकिन उस घटना के बाद न जाने मुझे क्या होता जा रहा है.

Hindi Stories Online : खोई हुई संपत्ति

लेखक- डा. रमेश यादव

Hindi Stories Online : “मुन्ना के पापा सुनो तो, आज मुन्ना नया घर तलाशने की बात कर रहा था. वह काफी परेशान लग रहा था. मुझ से बोला कि मैं आप से बात कर लूं.”

“मगर, मुझ से तो वह कुछ नहीं बोला. बात क्या है मुन्ने की अम्मां? खुल कर बोलो. कई वर्षों से बिल्डिंग को ले कर समिति, किराएदार, मालिक और हाउसिंग बोर्ड के बीच लगातार मीटिंग चल रही है. ये तो मैं जानता हूं, पर आखिर में फैसला क्या हुआ?”

“वह कह रहा था कि हमारी बिल्डिंग अब बहुत पुरानी और जर्जर हो चुकी है, इसलिए बरसात के पहले सभी किराएदारों को घर खाली करने होंगे. सरकार की नई योजना के अनुसार इसे फिर से बनाया जाएगा. पर तब तक सब को अपनीअपनी छत का इंतजाम खुद करना होगा. वह कुछ रुपयों की बात कर रहा था. जल्दी में था, इसलिए आप से मिले बिना ही चला गया.”

गंगाप्रसाद तिवारी अब गहरी सोच में डूब गए. इतने बड़े शहर में बड़ी मुश्किल से घरपरिवार का किसी तरह से गुजारा हो रहा था. बुढ़ापे के कारण उन की अपनी नौकरी भी अब नहीं रही. ऐसे में नए सिर से फिर से नया मकान ढूंढ़ना, उस का किराया देना, नाको चने चबाने जैसा है. गैलरी में कुरसी पर बैठेबैठे तिवारीजी शून्य में खो गए थे. उन की आंखों के सामने तीस साल पहले का वह मंजर किसी चलचित्र की तरह चलने लगा.

‘दो छोटेछोटे बच्चे और मुन्ने की मां को ले कर जब वे पहली बार इस शहर में आए थे, तब यह शहर अजनबी सा लग रहा था. पर समय के साथ वे यहीं के हो कर रह गए.

‘सेठ किलाचंदजी एंड कंपनी में मुनीमजी की नौकरी, छोटा सा औफिस, एक टेबल और कुरसी. मगर व्यापार करोड़ों का था, जिस का मैं एकछत्र सेनापति था. सेठजी की ही मेहरबानी थी कि उस कठिन दौर में बड़ी मुश्किल से लाखों की पगड़ी का जुगाड़ कर पाया और अपने परिवार के लिए एक छोटा सा आशियाना बना पाया, जो ऊबदार घर कब बन गया, पता ही नहीं चला. दिनभर की थकान मिटाने के लिए अपने हक की छोटी सी जमीन, जहां सुकून से रात गुजर जाती थी और सुबह होते ही फिर वही रोज की आपाधापी भरी तेज रफ्तार वाली शहर की जिंदगी.

‘पहली बार मुन्ने की मां जब गांव से निकल कर ट्रेन में बैठी, तो उसे सबकुछ अविश्वसनीय सा लग रहा था. दो रात का सफर करते हुए उसे लगा, जैसे वह विदेश जा रही हो. धीरे से वह कान में फुसफुसाई, “अजी, इस से तो अच्छा अपना गांव था. सभी अपने थे वहां. यहां तो ऐसा लगता है जैसे हम किसी पराए देश में आ गए हों? कैसे गुजारा होगा यहां?”

“चिंता मत करो मुन्ने की अम्मां, सब ठीक हो जाएगा. जब तक मन करेगा यहां रहेंगे और जब घुटन होने लगेगी तो गांव लौट जाएंगे. गांव का घर, खेत, खलिहान इत्यादि सब है. अपने बड़े भाई के जिम्मे सौंप कर आया हूं. बड़ा भाई पिता समान होता है.”

इन तीस सालों में इस अजनबी शहर में हम ऐसे रचबस गए, मानो यही अपनी तपस्वी कर्मभूमि है. आज मुन्ने की मां भी गांव में जा कर बसने का नाम नहीं लेती. उसे इस शहर से प्यार हो गया है. उसे ही क्यों, खुद मेरे और दोनों बच्चों के रोमरोम में यह शहर बस गया है. माना कि अब मैं थक चुका हूं, मगर अब बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई है. उन्हें ढंग की नौकरी मिल जाएगी तो उन के हाथ पीले कर दूंगा और जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर अपनी रफ्तार से दौड़ने लगेगी. अचानक किसी की आवाज ने तिवारीजी की तंद्रा भंग की. देखा तो सामने मुन्ने की मां थी.

“अजी किस सोच में डूबे हो? सुबह से दोपहर हो गई. चलो, अब भोजन कर लो. मुन्ना भी आ गया है. उस से पूरी बात कर लो और सब लोग मिल कर सोचो कि आगे क्या करना है ? आखिर कोई समाधान तो निकालना ही पड़ेगा.”

भोजन के बाद तिवारीजी का पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर विमर्श करने लगा. मुन्ने ने बताया, “पापा, हमारी बिल्डिंग का हाउसिंग बोर्ड द्वारा रिडेवलपमेंट किया जा रहा है. सबकुछ अब फाइनल हो गया है. एग्रीमेंट के मुताबिक हमें मालिकाना अधिकार का 250 स्क्वेयर फीट का फ्लैट मुफ्त में मिलेगा. मगर वह काफी छोटा पड़ेगा. इसलिए यदि कोई अलग से या मौजूदा कमरे से जोड़ कर एक और कमरा लेना चाहता हो, तो उसे एक्स्ट्रा कमरा मिलेगा, पर उस के लिए बाजार भाव से दाम देना होगा.”

”ठीक कहते हो मुन्ना, मुझे तो लगता है कि यदि हम गांव की कुछ जमीन बेच दें तो हमारा मसला हल हो जाएगा और एक कमरा अलग से मिल जाएगा. अधिक रुपयों का इंतजाम हो जाए तो यह बिलकुल संभव है कि हम अपना एक और फ्लैट खरीद लेंगे.” तिवारीजी बोले.

बरसात से पहले तिवारीजी ने सरकारी डेवलपमेंट बोर्ड को अपना रूम सौंप दिया और पूरे परिवार के साथ अपने गांव आ गए.

गांव में प्रारंभ के दिनों में बड़े भाई और भाभी ने उन की काफी आवभगत की, पर जब उन्हें पूरी योजना के बारे में पता चला तो वे लोग पल्ला झाड़ने लगे. यह बात गंगाप्रसाद तिवारी की समझ में नहीं आ रही थी. उन्हें कुछ शक हुआ. धीरेधीरे उन्होंने अपनी जगह जमीन की खोजबीन शुरू की. हकीकत का पता चलते ही उन के पैरों तले की जमीन ही सरक गई, मानो उन पर आसमान टूट पड़ा हो.

“अजी क्या बात हैं? खुल कर बताते क्यों नहीं, दिनभर घुटते रहते हो? यदि जेठजी को हमारा यहां रहना भारी लग रहा है, तो वे हमारे हिस्से का घर, खेत और खलिहान हमें सौंप दें, हम खुद अपना बनाखा लेंगे.”

“धीरे बोलो भाग्यवान, अब यहां हमारा गुजारा नहीं हो पाएगा. हमारे साथ धोखा हुआ है. हमारे हिस्से की सारी जमीनजायदाद उस कमीने भाई ने जालसाजी से अपने नाम कर ली है. झूठे कागजात बना कर उस ने दिखाया है कि मैं ने अपने हिस्से की सारी जमीनजायदाद उसे बेच दी है. हम बरबाद हो गए मुन्ने की अम्मां… अब तो एक पल के लिए भी यहां कोई ठौरठिकाना नहीं है. हम से सब से बड़ी भूल यह हुई कि साल दो साल में एकाध बार यहां आ कर अपनी जमीनजायदाद की कोई खोजखबर नहीं ली.”

“अरे दैय्या, ये तो घात हो गया. अब हम कहां रहेंगे? कौन देगा हमें सहारा? कहां जाएंगे हम अपने इन दोनों बच्चों को ले कर? बच्चों को इस बात की भनक लग जाएगी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा,” विलाप कर के मुन्ने की मां रोने लगी. पूरा परिवार शोक में डूब गया. न चाहते हुए भी तिवारीजी के मन में घुमड़ती पीड़ा की गठरी आखिर खुल ही गई थी.

इस के बाद तिवारी परिवार में कई दिनों तक वादविवाद, विमर्श होता रहा. सुकून की रोटी जैसे उन के नसीब की परीक्षा ले रही थी.

अपने ही गांवघर में अब गंगाप्रसादजी का परिवार बेगाना हो चुका था. उन्हें कोई सहारा नहीं दे रहा था. वे लोग जान चुके थे कि उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी. पर इस समय गुजरबसर के लिए छोटी सी झुग्गी भी उन के पास नहीं थी. गांव की जमीन के हिस्से की पावर औफ एटोर्नी बड़े भाई को दे कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी. उसी के चलते आज वे दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर थे.

उसी गांव में मधुकर चौहान नामक संपन्न दलित परिवार था. गांव में उन की अपनी बड़ी सी किराने की दुकान थी. बड़ा बेटा रामकुमार पढ़ालिखा और आधुनिक खयालात का था. जब उसे छोटे तिवारीजी के परिवार पर हो रहे अन्याय के बारे में पता चला तो उस का खून खौल उठा, पर वह मजबूर था. गांव में जातिबिरादरी की राजनीति से वह पूरी तरह परिचित था. एक ब्राह्मण परिवार को मदद करने का मतलब, अपनी बिरादरी से रोष लेना था. पर दूसरी तरफ उसे शहर से आए उस परिवार के प्रति लगाव भी था.

उस दिन घर में उस के पिताजी ने तिवारीजी को ले कर बात छेड़ी, “जानते हो तुम लोग, हम वही दलित परिवार हैं, जिस के पुरखे किसी जमाने में उसी तिवारीजी के यहां पुश्तों से हरवाही किया करते थे. तिवारीजी के दादाजी बड़े भले इनसान थे. जब हमारा परिवार रोटी के लिए मुहताज था, तब इस तिवारीजी के दादाजी ने आगे बढ़ कर हमें गुलामी की दास्तां से मुक्ति दे कर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला दिया था. उस अन्नदाता परिवार के एक सदस्य पर आज विपदा की घड़ी आई है. ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उन के लिए कुछ करना चाहिए. आज उसी परिवार की बदौलत गांव में हमारी दुकान है और हम सुखी हैं.”

”हां बाबूजी, हमें सच का साथ देना चाहिए. मैं ने सुना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद जब बैंक के दरवाजे सामान्य लोगों के लिए खुले, तब बड़े तिवारीजी ने हमें राह दिखाई थी. यह उसी परिवर्तन के दौर का नतीजा है कि कभी दूसरों के टुकड़ों पर पलने वाला गांव का यह दलित परिवार आज संपन्न परिवार में गिना जाता है और शान से रहता है,” रामकुमार ने अपनी जोरदार हुंकारी भरी.

रामकुमार ताल ठोंक कर अब छोटे तिवारीजी के साथ खड़ा हो गया था. काफी सोचसमझ कर चौहान परिवार ने छोटे तिवारीजी से गहन विचारविमर्श किया.

“हम आप को दुकान खुलवाने और सिर पर छत के लिए जगह, जमीन, पैसा इत्यादि की हर संभव मदद करने को तैयार हैं. आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे, तो यह लड़ाई आसान हो जाएगी. एक दिन आप को आप का हक जरूर मिलेगा.”

चौहान परिवार का भरोसा और साथ मिल जाने से तिवारी परिवार का हौसला बढ़ गया था. रामकुमार के सहारे अंकिता अपनी दुकानदारी को बखूबी संभालने लगी थी. इस से घर में पैसे आने लगे थे. धीरेधीरे उन के पंखों में बल आने लगा और वे अपने पैरों पर खड़े हो गए.

तिवारीजी की दुकानदारी का भार उन की बिटिया अंकिता के जिम्मे था, क्योंकि तिवारीजी और उन का बड़ा बेटा अकसर कोर्टकचहरी और शहर के फ्लैट के काम में व्यस्त रहते थे.

इस घटना से गांव के ब्राह्मण घरों में जातिबिरादरी की राजनीति जन्म लेने लगी. कुंठित दलित बिरादरी के लोग भी रामकुमार और अंकिता को ले कर साजिश रचने लगे. चारों ओर तरहतरह की अफवाहें रंग लेने लगीं, पर बापबेटे ने पूरे गांव को खरीखोटी सुनाते हुए अपने हक की लड़ाई जारी रखी. इस काम में रामकुमार तन, मन और धन से उन के साथ था. उस ने जिले के नामचीन वकील से तिवारीजी की मुलाकात कराई और उस की सलाह पर ही पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई.

छोटीमोटी इस उड़ान को भरतेभरते अंकिता और रामकुमार कब एकदूसरे को दिल दे बैठे, इस का उन्हें पता ही नहीं चला. इस बात की भनक पूरे गांव को लग जाती है. लोग इस बेमेल प्यार को जाति का रंग दे कर तिवारी और चौहान परिवार को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. इस काम में अंकिता के ताऊजी अग्रणी भर थे.

गंगाप्रसादजी के परिवार को जब इस बात की जानकारी होती है, तो वे राजीखुशी इस रिश्ते को स्वीकार कर लेते हैं. इतने वर्षों तक बड़े शहर में रहते हुए उन की सोच भी बड़ी हो चुकी होती है. जातिबिरादरी के बजाय सम्मान, इज्जत और इनसानियत को वे तवज्जुह देना जानते थे. जमाने के बदलते दस्तूर के साथ परिवर्तन की आंधी अब अपना रंग जमा चुकी थी.

अंकिता ने अपना निर्णय सुनाया, “बाबूजी, मैं रामकुमार से प्यार करती हूं और हम शादी के पवित्र बंधन में बंध कर अपनी नई राह बनाना चाहते हैं.”

“बेटी, हम तुम्हारे निर्णय का स्वागत करते हैं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है. अपना भलाबुरा तुम अच्छी तरह जानती हो. चौहान परिवार के हम पर बड़े उपकार हैं.”

आखिर में चौहान और तिवारी परिवार आपसी रजामंदी से उसी गांव में विरोधियों की छाती पर मूंग दलते हुए अंकिता और रामकुमार की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न करा दी.

एक दिन वह भी आया, जब गंगाप्रसादजी अपनी जमीनजायदाद की लड़ाई जीत गए और उन की खोई हुई संपत्ति उन्हें वापस मिल गई. जालसाजी के केस में उन के बड़े भाई को जेल जाने की नौबत आ गई.

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