लेखिका: नीलम राकेश
Emotional Story In Hindi : मेरी शादी क्या तय हुई घर जैसे खुशियों से खिल उठा. जिसे देखो वह शादी की ही बातें करता दिखाई देता. मां तो जैसे खुशी से बौखला ही गई थीं. पिताजी खुशी के साथसाथ तनाव में थे कि जमींदारों के घर रिश्ता जुड़ रहा है कहीं कोई चूक न हो जाए. सब कुछ उन की हैसियत के अनुरूप करना चाहते थे. बाहर की तैयारियों की भागदौड़ के बीच भी मां को बताना नहीं भूले, “देखो, अपनी लाड़ली को पारंपरिक भोजन बनाने की खूब प्रैक्टिस करा दो. हमारी लाडो किसी परीक्षा में असफल नहीं होनी चाहिए.”
पति की ओर देख कर मां मुसकराईं, “आप अपनी तैयारियां ठीक से करो जी, हमारी बिट्टो को पा कर समधियाने के लोग बेहद खुश होंगे. आप चिंता मत करो. यों तो उसे सबकुछ आता है फिर भी मैं रोज उस से कुछ न कुछ बनवाती रहूंगी.”
शादी की तैयारियां जोरों पर थीं और मेरे मन में धुकधुक हो रही थी. बचपन से लखनऊ में जन्मी, पलीबड़ी मैं अचानक से जौनपुर में जा कर कैसे बस जाऊंगी? यह कैसा शहर होगा? कैसे लोग होंगे? जमींदार परिवार का क्या अर्थ है? मैं मन ही मन समझने की कोशिश करती. पर किसी से कुछ पूछ नहीं पाती. सोचती कि यदि भाई की शादी हो गई होती तो कम से कम भाभी से मन की बात तो कर सकती थी. मेरे मन में जौनपुर, जौनपुर वासियों और होने वाले परिजनों को ले कर अनेक प्रश्न सिर उठा रहे थे.
इतिहास मेरा पसंदीदा विषय कभी नहीं रहा फिर भी उस के पन्ने पलट कर जानने की कोशिश की तो पता चला जौनपुर मध्यकालीन भारत का एक स्वतंत्र राज्य था. जो शर्की शासकों की राजधानी हुआ करता था. यह कलकल बहती गोमती नदी के तट पर बसा है.
इसी सब उधेड़बुन के बीच विवाह की तिथि भी आ गई. एक शानदार आयोजन के साथ मैं विवाह बंधन में बंध कर विदा हो गई.
कार एक झटके के साथ रुकी तो मेरी तंद्रा टूट गई. हड़बड़ा कर मैं ने सिर से सरका अपना पल्लू संभाला. बगल में बैठे पति धीरे से फुसफुसाए, “हम घर पहुंच गए गए हैं.”
मैं ने कार की खिड़की के बाहर नजर दौड़ाई. चारों और दुकानें ही दुकानें दिखाई दीं. मेरे मन के दौड़ते घोड़े को लगाम लगी. यह कैसा रजवाड़ा, यह तो कसबे की बाजार सा लग रहा है. बस दुकानें बड़ीबड़ी लग रही थीं.
तभी औरतों का एक झुंड आया और जाने कौनकौन सी रस्में होने लगीं. रबर की गुड़िया की मानिंद मैं उन के आदेशों का पालन करती जाती.
“बहू जीने पर ऊपर चलो,” कहने के साथ भद्र महिला ने मेरा लहंगा संभाला और मैं धीरेधीरे जीने पर बढ़ने लगी. ऊपर पहुंच कर मैं ने नज़रे चारों ओर घुमाईं. बड़ा सा चौड़ा दालान था. दालान के अंत में सामने नक्काशीदार बड़ा सा विशालकाय दरवाजा था. मैं नजर झुकाए धीरेधीरे उस दरवाजे तक पहुंची. द्वार के बीचोबीच चौक बना कर उस के बीच रखे कलश को देख कर लगा हां, आई तो मैं किसी रजवाड़े में ही हूं. बड़ा सा चांदी का कलश जो बेलबूटों से सजा था, चावलें भरकर नई बहू के गृहप्रवेश हेतु रखा गया था.
चावलें लुढ़का कर मैं एक हौल में आ गई. मुझे एक सोफे पर बैठाया गया. शानदार नक्काशी वाला सोफा, सोफा कम सिंहासन ज्यादा लग रहा था. उस विशाल हौल में कई सोफे रखे थे जिन के हत्थे शेर या हाथी जैसे थे. मुझे अपने मायके का इकलौता नक्काशीदार सैंटर टेबल याद आया, जो पिताजी सहारनपुर से लाए थे और हम उसे कितना सहेजते रहते थे. यहां तो फर्नीचर, दरवाजे सब नक्काशी के शानदार नमूने लग रहे थे.
3 दालान पार कर थोड़ी देर बाद मुझे एक कमरे में पहुंचाया गया. “भाभी, यह मेरा कमरा है. आप यहां आराम कीजिए. आप का कमरा अभी सज रहा है,” कह कर मेरी ननद तारा शरारत से मुसकराई.
“यह घर तो बहुत बड़ा है. आप लोग खो नहीं जाते इस में?” मुसकान के साथ मैं ने पूछा.
तारा खनकती हुई प्यारी हंसी के साथ खिलखिलाई फिर मेरा हाथ पकड़ कर बोली,”भाभी, पहला वाला दालान और बैठक मेहमानों के लिए है. दूसरा दालान और उस के चारों ओर बने कमरों में रसोई, खाने का कमरा, मेहमान खाना और कुछ फालतू कमरे हैं. इस तीसरे दालान के चारों और हम सब के कमरे हैं. पर तीसरे दालान में आने की इजाजत केवल चमेली और इन्ना को ही है. धीरेधीरे आप सब जान जाएंगी. आप आराम करिए मैं मेहमानों को देख लूं. थोड़े दिनों में यहां की कमान आप के ही हाथों में ही होगी.”
शाम से ही मेरी ननदें मुझे सजाने में लग गईं. उन की चुलबुली छेड़छाड़ मन को गुदगुदाती तो मैं मुसकरा देती. वे निहाल हो जातीं. मेरी लंबी चोटी खोल कर वे मेरे केशों की तारीफ में कसीदे पढ़ने लगीं.
“हाय भाभी, भैया तो इन केशों में खो ही जाएंगे.” एक ने मुझे कुहनी मारी, “हां, भैया के काम का क्या होगा? इन से बंधे वे तो कहीं जा ही नहीं पाएंगे.” और कमरा उन की खिलखिलाहटों से भर गया.
तभी सासूमां आईं. उन के पीछेपीछे चमेली एक बड़ा सा थाल थामी हुई थी. वह साटन के लाल गोटेदार कपड़े से ढका था. “बहुरानी, यह हमारा खानदानी लहंगा है. सच्चे काम का, मतलब सोनेचांदी के तारों से काम है इस में. थोड़ा भारी है पर हमारे घर की परंपरा है. आज के दिन इस परिवार की कुलवधू इसे ही पहनती हैं.”
“जी,” मेरे उत्तर के साथ ही वे जितने ठसके के साथ आई थीं, उतनी ही ठसक से चली गईं. लहंगे को देख कर तो मेरी आंखें चुंधिया गईं. उस प्राचीन लहंगे की क्या बेहतरीन कारीगरी थी. शादी के लिए लखनऊ जैसे शहर में कितने ही लहंगे देखे थे मैं ने, पर इस के आसपास भी कोई टिक जाए ऐसा एक लहंगा मेरी नजरों के सामने नहीं आया था.
“भाभी, ऐसे क्या देख रही हैं? थोड़ा भारी तो है पर पहनना तो पड़ेगा ही.” तारा ने मुझे हिलाया.
“हां बहुत सुंदर है.” मैं ने आंखें झपकाईं तो सब फिर खिलखिला उठीं.
तैयार हो कर जब आदमकद आईने में स्वयं को देखा तो एक पल को तो भ्रम ही हो गया कि आईने में कोई महारानी खड़ी है. बिन बोले ही मैं मुसकरा दी. थोड़ी देर में सब मुझे मेरे कमरे में पहुंचा कर चली गईं. उन के जाते ही मैं ने अपने कमरे को निहारा. कमरा, नहींनहीं उसे हौल ही कहना सही होगा. ‘यह विशाल हौल मेरा है’ सोच कर ही मैं रोमांचित हो उठी. ऐसा तो कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी. बीच कमरे में लकड़ी का विशाल नक्काशीदार पलंग पड़ा हुआ था, जिस के सिरहाने पर नक्काशी की हुई थी.
पलंग को फूलों से सजाया गया था. कमरे में एक और बड़ा सा सोफा पड़ा हुआ था जिस पर सुंदर कारीगरी से कमल के फूल उकेरे गए थे. जमीन पर मोटी पर्शियन कालीन बिछी हुई थी. अचानक मेरी निगाह छत पर गई और मेरी आंखें फटी की फटी की रह गईं. पूरी छत काले, नीले, सफेद रंग की चित्रकारी से सजी हुई थी. 2 विशाल झाड़फानूस लटक रहे थे. अभी मैं देख ही रही थी कि कमरे के दरवाजे पर आहट हुई और मैं संभल कर बैठ गई.
नीले रंग की शेरवानी पर नारंगी साफा बांधे, गले में मोती की माला पहने, मेरे पति कमरे में दाखिल हुए. ‘यह पुरुष अब मेरा है’ सोच कर मन प्रसन्नता से खिल उठा.
कुछ दिन यों ही गहमागहमी रही फिर एक दिन सासूमां बोलीं, “तारा, अभी तक बहुरानी ने अपना पूरा घर नहीं देखा है. इसे पूरा घर दिखा दो.”
मैं और तारा हवेली भ्रमण पर निकल गईं. जितना तारा उत्साहित थीं उस से ज्यादा मैं उत्सुक थी. जिसे तारा ड्योढ़ी कह रही थी वह कलाकारी का उत्कृष्ट नमूना था. मैं पूर्वजों की कला के आगे नतमस्तक थी.
“तारा हम ऊपर नहीं जाएंगे?” मैं ने तारा से पूछा.
“भाभी, ऊपर की मंजिल को हम ने किराए पर दे रखा है. हमारी पहली मंजिल पर 3 किराएदार हैं. ऐसे जाना ठीक नहीं होगा.”
“किराएदार? लेकिन क्यों?” बरबस मेरे मुंह से निकला.
“भाभी, इतने बड़े घर का रखरखाव आसान नहीं होता.” आश्चर्य से मेरी ओर देख कर तारा बोली.
“मेरा मतलब वह नहीं था.” मैं बुरी तरह हड़बड़ा गई थी.
“कोई बात नहीं भाभी. वह स्वाभाविक प्रश्न था.” मेरे कंधे पर हाथ रख कर तारा मुझे आश्वस्त करते हुए बोली, “इस के ऊपर भी एक मंजिल है. पर मैं वहां नहीं जाती . आप भैया के साथ जा कर देख लीजिएगा.”
“आप नहीं जातीं, मतलब?”
“भाभी, आप तो जानती ही हैं, पुरानी हवेलियों के साथ कितने किस्से जुड़े रहते हैं. तो हमारी हवेली भी इस का अपवाद नहीं है.” तारा ने समझाया.
“मतलब…भ…भूत…”
“हां ऐसा ही कुछ…” तारा की आंखों में शरारत थी.
“सच बताइए न?”
“हां सच…” तारा ने अपनी बात पर जोर दिया और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पीछे की बगिया में ले गई और एकएक कर हर पेड़ से मेरा परिचय कराने लगी कि कौन सा पेड़ कब और किस ने लगाया था.
उसी समय चमेली आई,”भाभी, आप को भैया बुला रहे हैं.”
“भैया बुला रहे हैं” दोहराते हुए तारा ने मुझे शरारत से कुहनी मारी.
मैं लजाईलजाई सी चमेली के पीछे चल दी. पतिदेव तो जैसी मेरी प्रतीक्षा में ही बैठे थे. देखते ही बोले, “चलो तुम्हें गोमती नदी की सैर कराता हूं. वहां सूर्यास्त का नजारा देखना मजा आ जाएगा.”
कुछ ही समय में हम कलकल बहती गोमती नदी के ऊपर बने शाही पुल पर थे. लाल रंग का ऐतिहासिक पुल अपनी पूरी भव्यता से मेरा मन मोह रहा था. पतिदेव गर्व से बता रहे थे कि इसे अकबर के आदेश पर मुनइन खानखाना ने बनवाया था. और मां और तारा के साथ तुम जिस शाही किले को देखने गई थीं उस का निर्माण फिरोजशाह ने कराया था.”
अचानक मेरे मुंह से निकला, “मुझे अपनी कोठी की ऊपरी मंजिल कब दिखाएंगे आप?”
पतिदेव कुछ पल मुझे निहारते रहे फिर बोले, “तुम्हें ऊपरी मंजिल देखनी है?”
“हां”
“ठीक है दिखा दूंगा. चलो घर चलते हैं.”
परिवार का हर सदस्य किसी न किसी बहाने से मुझे ऊपर की मंजिल दिखाने से कतरा जाता था. ऐसा मुझे लग रहा था. मैं भी बारबार नहीं कह पा रही थी. पर मेरा डर और जिज्ञासा दोनों ही बढ़ती जा रही थी.
उस दिन सुबहसुबह मैं बीच के दालान में आई तो पहली मंजिल पर रहने वाली लीना मिल गई. “भाभी, मैं आप को ही बुलाने आ रही थी. आज आप लंच मेरे साथ करिएगा तो मुझे खुशी होगी. जब से
आप की शादी हुई है मैं आप को बुलाना चाह रही थी.”
“मैं मां से…”
मेरी बात बीच में काट कर लीना बोली, “आंटीजी से व तारा से मेरी बात हो गई है. मैं आप की प्रतीक्षा करूंगी. मैं ने आप के लिए कुछ खास बनाया है.”
“ठीक है.” मैं मुसकराई.
हम तीनों गपशप के साथ पिज्जा का आनंद ले रहे थे कि कमरे का दरवाजा अचानक धीरे से खुला और एक हाथ जिस में एक डब्बा और फूलों का गुलदस्ता था दिखाई दिया. मेरी तो सांस ही अटक गई. लीना और तारा ने एकदूसरे की ओर देखा. तब तक उस हाथ से जुड़ा शरीर भी सामने आ गया और लीना व तारा दोनों एक साथ बोलीं, “ओह तुम हो. डरा ही दिया था.”
सौम्य, जो कि इसी मंजिल पर दूसरी ओर रहता था हड़बड़ाया सा खड़ा था.
“यह…मैं…” वह कुछ बोल नहीं पा रहा था.
“हां, हां, सौम्य लाओ. भाभी यह गुलदस्ता मैं ने आप के लिए मंगाया था. आप पहली बार आई हैं न.” लीना ने बात संभाली और आगे बढ़ कर सौम्य से सामान ले लिया.
“ये…इमरती…” अटकता हुआ सौम्य बोला.
दोनों की हड़बड़ाहट छिपाए नहीं छिप रही थी.
“आओ बैठो सौम्य.” तारा बोली.
“भाभी, यहां की इमरती मशहूर है. इसलिए खास आप के लिए मंगवाई है.” कहते हुए लीना ने दोनों चीजें मुझे पकड़ा दीं.
हम चारों थोड़ी देर बातें करते रहे. पर सौम्य सामान्य नहीं हो पा रहा था . उस की नजर मेरे पास रखे गुलदस्ते पर बारबार जा कर अटक रही थी. चलती हुई जब मैं ने गुलदस्ता उठाया तो उस से लटकता हुआ छोटा सा कार्ड उन की चुगली कर गया, जिसे मैंने धीरे से निकाल लिया और लीना को गले लगा कर धीरे से सब की नजर बचा कर उस के हाथ में पकड़ा कर बोली, “यह तुम्हारे लिए है.”
कार्ड पर लिखा था, फौर माई लव.”
धीरेधीरे तीनों किराएदार मुझ से खुलने लगे थे. लीना और सौम्य तो अपनेअपने हिस्से में अकेले ही रहते थे और उन के बीच पक रही खिचड़ी अब मेरे सामने थी. दूसरी मंजिल पर ही एक बड़े हिस्से में मोहन रहता था जो किसी बैंक में काम करता था. उस के साथ उस की माताजी रहती थीं.
दिन के खाली समय में मैं अब अकसर उन के पास थोड़ी देर के लिए चली जाती. सासूमां आजाद खयाल की थीं. ज्यादा टोकाटाकी नहीं करती थीं. बस अपने काम से काम . राजसी ठसक में ही रहती थीं. घर में भी जेवरों से लदी रहती थीं. तारा कालेज चली जाती और मांजी आराम करने तो मैं ऊपर वाली माताजी के पास जा धमकती. उन के पास ढेरों किस्से थे.
“बहु तुम तीसरी मंजिल पर गईं कभी?” एक दिन अचानक उन्होंने पूछा.
“नहीं माताजी. कोई ले ही नहीं जाता मुझे.” मेरा लहजा शिकायती भरा था.
“जाना भी मत बहू.”
“ऐसा क्या है वहां?” मैं ने पूछा तो वे अजीब निगाहों से मुझे देखने लगीं.
“बताइए न,” मैं ने जोर दिया.
“फिर कभी बताऊंगी बहू, अभी तो मुझे आराम करना है.”
मैं चली तो आई पर मुझे ऊपरी मंजिल का रहस्य जानने का रास्ता मिल गया था.
मेरे बारबार कुरेदने पर उस दिन माताजी बोलीं, “देखो बहू, किसी से कहोगी नहीं तो तुम्हें बताऊं.”
“नहीं माताजी, आप की बात मैं किसी को क्यों बताने लगी भला.” मैं उत्साहित थी.
“जानती हो ऊपर की मंजिल पर न, रात में कुछ लोग आते हैं.”
“कौन लोग? और क्यों आते हैं माताजी?”
“पता नहीं पर आते तो हैं.” माताजी बोलीं.
“आप ने देखा है?’ मैं सीधे माताजी की आंखों में देख रही थी.
“और क्या, यहां सब ने देखा है. तुम्हें भी दिख जाएंगे जल्दी ही.” माताजी के स्वर में विश्वास था.
उसी समय लीला के कमरे की खुलने की आवाज आई.
“सुन बहू, यह लीना तुम्हें कैसी लगती है?”
“बहुत मस्त लड़की है. मुझे अच्छी लगती है.”
“बता तो जरा मेरे मोहन के लिए कैसी रहेगी?” अब माताजी मेरी आंखों में देख रही थीं.
“माता जी, आजकल शादीब्याह में बच्चों की पसंद का ध्यान रखना चाहिए. उन से ही पूछना चाहिए. आप मोहन से बात करिए. क्या पता उसे कोई लड़की पसंद हो.”
“पसंद है, तभी तो तुम से पूछ रही हूं.” माता जी बोलीं.
“मतलब, मोहन ने आप को बताया है कि उसे लीना पसंद है? उन दोनों के बीच कुछ चल रहा है?” मैं ने आश्चर्य से पूछा.
“नहीं, ऐसे कौन बताता है. मां हूं न. उस का मन पढ़ सकती हूं.” स्नेह उन की आंखों में तैर रहा था.
“फिर…?”
“तुम तो अभी बच्ची हो. पता है मोहन को हमेशा लीना की फिक्र रहती है. कुछ भी फलवल लाता है तो लीना को देने को कहता है. और यह जो दूसरा लड़का रहता है न, मुझे तो फूटी आंख नहीं भाता. जाने क्या नाम है.”
“सौम्य…”
“हां, जो भी है.” रोष स्पष्ट था.
मैं उठने लगी तो माताजी बोलीं, “सुनो, अपनी सास से कह कर इस सौम्य को निकलवा दो. मैं न बहुत अच्छा किराएदार दिलवा दूंगी. किराया भी मोटी देगा. तुम बात करो उन से.”
“अरे मैं क्या कहूंगी?” मैं चकित थी.
“कहना क्या है. कह देना तारा को गलत नजर से देखता है. तुरंत हटा देंगी.”
“पर यह सच नहीं है. बरसों से तारा से राखी बंधवाता है. बहुत मानता है उसे. सुना भी है और देखा भी है मैं ने.” मैं ने स्पष्ट किया.
“अरे तो तुम झूठ कहां बोलेगी. बस लीना की जगह तारा का नाम बदल देना.” माताजी फिर से बोलीं.
“नहींनहीं यह मुझ से नहीं होगा. मैं चलती हूं.” मैं झटके से उठ भागी और हड़बड़ाहट में सामने से आ रहे पतिदेव से टकरा गई. पूरी बात सुन कर वे बोले, “अच्छा चलो तुम्हें तीसरी मंजिल दिखाता हूं.”
मैं काफी डरीडरी ऊपर पहुंची. मेरा चेहरा देख कर पतिदेव खिलखिलाए, “इतना डरती हो, तो देखने की जिद क्यों?”
“सच बताइए इस में भूत है क्या?”
“नहीं यार, सब बकवास है. भूत होता तो मैं तुम्हें यहां लाता? भूतवूत कुछ नहीं होता…” कहते हुए उन्होंने कमरे के विशाल दरवाजे को धक्का दिया. दरवाजा आवाज के साथ खुल गया. घबराहट में मैं ने पति की कमीज पीछे से पकड़ ली. वे मुसकराए और मेरा हाथ थाम कर अंदर बढ़े. अंदर आते ही आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. मैं एक बड़ी लाइब्रेरी के अंदर खड़ी थी. लकड़ी की नक्काशीदार अलमारियों के ऊपर खूबसूरत फ्रेम में महान क्रांतिकारियों की अनेक फोटो लगी थीं.
कुछ को मैं पहचान रही थी और ज्यादातर को नहीं. एक किनारे पर मोटा गद्दा बिछा था जिस पर खूबसूरत कालीन बिछी थी और कई तकिए रखे हुए थे. मैं कल्पना कर सकती थी कि यहीं पर सब बैठते और बातचीत करते होंगे. आगे बढ़ कर पतिदेव ने एक अलमारी का दरवाजा खोल दिया. अंदर किताबें भरी पड़ी थीं.
“यह हमारे परिवार का गौरवपूर्ण इतिहास का पन्ना है जिस पर हम सब को गर्व है. यह वह स्थान है जहां नेहरू, गांधी, पटेल सरीखे महान नेता आते थे और आजादी की योजना बनाते थे. हमारे पर बाबा आजादी की लड़ाई के एक सैनिक थे. इस कमरे में कैद उन की यादें हमारी बेशकीमती धरोहर हैं.”
“और यह भूत वाली बात?”
“सब बकवास है. पहले सामने वाले भाग में दूसरे किराएदार थे. बहुत पुराने. पर उन की नियत में खोट आ गया था. लोगों को डराने के लिए वही ऐसी अनर्गल बातें फैलाते रहते थे कि सफेद धोतीकुरते में कुछ लोग रात में तीसरी मंजिल पर आते हैं. जब पानी सिर के ऊपर हो गया तब हम ने उन्हें निकाल दिया. जब से लीना और सौम्य आए हैं सब ठीक है.”
“पर माता जी…” मैं ने बात अधूरी छोड़ दी.
“हां माताजी थोड़ा इधरउधर की बातें करती हैं. पर उन का ज्यादा किसी से मिलनाजुलना नहीं है और उन का बेटा मोहन बहुत नेक इंसान है. सब की मदद को हमेशा तैयार रहता है. और उस के पिता, बाबूजी के अच्छे मित्र थे इसलिए…”
मैं सबकुछ ध्यान से सुन रही थी.
“अच्छा श्रीमतीजी, आप का डर और भ्रम दूर हुआ या फिर भूत को बुलाऊं?” हंसते हुए वे बोले.
“मैं यहां से किताबें ले कर पढ़ सकती हूं न?” अपनी झेंप छिपाते हुए मैं ने पूछा.
“हांहां, तुम मालकिन हो यहां की. सुना था तुम्हें पढ़ने का शौक है. खूब पढ़ो. चाहो तो यहां की सफाई करा के यहीं बैठ कर पढ़ो.”
“नहीं,अपने कमरे में ही पढ़ूंगी. यहां ज्यादा एकांत है.”
“ठीक है. हां एक बात याद रखना. यह सौम्य, लीना और मोहन की प्रेम कहानी उन्हें ही सुलझाने देना, तुम बीच में मत पड़ना.”
और हम एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले नीचे की ओर चल दिए, डर का भूत भाग गया था.