#coronavirus: थाली का थप्पड़

ओफ़ ! कैसी विकट परिस्थति सामने आ गयी थी. लग रहा था जैसे प्रकृति स्वयं से छीने गये समय का जवाब मांगने आ गयी थी. स्कूल-कॉलेज सब बंद, सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ था. सब अपने-अपने घरों में दुबके हुये थें. आदमी को हमेशा से ही आदमी से खतरा रहा है. स्वार्थ, लालच, घृणा, वासना, महत्वकांक्षा और क्रोध, यह आदमी के वो मित्र है जो उन्हें अपनी ही प्रजाति को नष्ट करने के लिये कारण देते हैं. अधिक पाने की मृगतृष्णा में प्रकृति का दोहन करते हुये, वे यह भूल जाते हैं कि वे खुद अपने लिये मौत तैयार कर रहे हैं. जब मौत सामने नजर आती है, तब भागने और दफ़न होने के लिये जमीन कम पड़ जाती है.

आजकल डॉ आरती के दिमाग में यह सब ही चलता रहता था. वे दिल्ली के एक बड़े सरकारी अस्पताल में कार्यरत थी. वे पिछली कई रातों से घर भी नहीं जा पायी थीं. घर वालों की चिंता तो थी ही, अस्पताल का माहौल भी मन को विचलित कर दे रहा था. उनकी नियुक्ति कोरोना पॉजिटिव मरीजों के मध्य थी. हर घंटे कोरोना के संदेह में लोगों को लाया जा रहा था. उनकी जांच करना, फिर क्वारंटाइन में भेजना. यदि रिपोर्ट पाज़िटिव आती तो फिर आगे की कार्यवाही करना.

मनुष्य सदा यह सोचता है कि, बुरा उसके साथ नहीं होगा. किसी और घर में, किसी और के साथ होगा. वह तो हर दुःख, हर पीड़ा से प्रतिरक्षित है, यदि उसके पास धन है. जब उसके साथ अनहोनी हो जाती है, वह रोता है, कष्ट झेलता है. लेकिन फिर देश के किसी और कोने में एक दूसरा मनुष्य उसकी खबर पढ़ रहा होता है और वही सब सोच रहा होता है कि, यह सब मेरे साथ थोड़े ही ना होगा ! हम स्थिति की गंभीरता को तब तक नहीं समझते जब तक पीड़ा हमारे घर का दरवाजा नहीं खटखटाती. धर्म, जाति, धन और रंग के झूठे घमंड में दूसरे लोगों के जीवन को पददलित करने से भी नहीं हिचकतें. किंतु जब मौत महामारी की चादर ओढ़कर आती है तो, वह कोई भेद नहीं करती. उसे कोई सीमा रोक नहीं पाती. वह न आदमी की जाति पूछती है और ना उसका धर्म, न उसका देश पूछती है और ना उसका लिंग. मौत निष्पक्ष होती है. जीवन एक कोने में खड़ा मात्र रोता रहता है. जब आदमी विषाणु बोने में व्यस्त था, वह जीवन के महत्व को भूलकर धन जोड़ता रहा. आज धन बैंकों में बंद उसकी मौत पर हंस रहा था.

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जिन कोरोना पाज़िटिव लोगों को क्वारंटाइन में रखा गया था, उनके कमरों से भिन्न-भिन्न प्रकार की आवाजें आतीं. कोई रो रहा होता, कोई अचानक ही हंसने लगता. वहाँ के अन्य डॉक्टर, नर्स और सफाई कर्मचारी भी अवसाद का शिकार हो रहे थें. आरंभ में डॉ आरती ने वहाँ आ रहे लोगों की आँखों में देखना छोड़ दिया था. उनके पास रोगियों के आँखों में तैरते भय और प्रश्नों के लिये कोई उत्तर नहीं था. परंतु धीरे-धीरे आरती के भीतर कुछ पनपने लगा. अस्पताल को जो दीवार पीड़ा, कष्ट, भय और अनिश्चय के रंगों से रंग गयी थी, उसे उन्होंने कल्पना और आशा के रंगों से रंगना आरंभ कर दिया. यह सब आसान नहीं था. उन सभी को पता था कि वे एकजंग लड़ रहे हैं. आरती ने बस उनके भीतर जंग को जितने का हौसला भर दिया. आपस में मजाक करना, रोगियों को ठीक हो गये मरीजों को कहानियाँ सुनाना, कभी-कभी कुछ गा लेना और रोगियों के साथ एक दूसरे के हौसलें को भी बढ़ाते रहना.

पिछली दसदिनों में कोरोना के संदेह में लाये गये मरीजों की संख्या भी बढ़ गयी थी. इस कारण उसका घर बात कर पाना भी कम हो गया था. घर पर पति अमोल और उनकी दस साल की बेटी सारा थी. अमोल कमर्शियल पायलट थें. वैसे तो बेटी का ध्यान रखने के लिये हाउस-हेल्प आती थी.किंतु दिल्ली में लॉक डाउन की स्थिति होने के बाद, उसे भी उन्होंने आने से मना कर दिया था. इस वजह से अमोल को छुट्टी लेनी पड़ी थी. वे दिल्ली के एक रिहायशी इलाके में बने एक अपार्टमेंट में किराये पर रहते थें. उनका टू बी एच के बिल्डिंग के चौथे फ्लोर पर था. अथक परिश्रम से पैसे जोड़कर और लोन लेकर पिछले वर्ष ही उन्होंने एक डूप्लेक्स खरीद लिया था. इसका पज़ेशन उन्हें इसी वर्ष मार्च में मिलना था, लेकिन इस वैश्विक महामारी ने सभी के साथ उनकी योजनाओं को भी बेकार कर दिया था.

पिछली रात वीडियो कॉल में भी उनके बीच यह ही बात हो रही थी.

“थक गयी होगी ना !?” अमोल के स्वर में प्रेम भी था और चिंता भी.

“हाँ ! पर थकान से ज्यादा बेचैनी है. आस-पास जैसे दुःख ने डेरा डाल रखा है.”

अमोल की आँखों ने मास्क से छुपे आरती के चेहरे पर चिंता और पीड़ा की लकीरों को देख लिया था. आरती एक भावुक और संवेदनशील स्त्री थी. पहले भी अपने पेसेंटस के दर्द को घर लेकर आ जाया करती थी, और अब तो स्थिति भयावह थी. अपनी पत्नी की पीली पड़ गयी आँखों को देखकर अमोल का हृदय कट के रह गया.

“कल घर आने की कोशिश करो !” उसने झिझकते हुये कहा तो आरती हंस पड़ी.

“सब समझती हूँ, आजकल सभी काम अकेले करने पड़ रहे हैं तो बीवी याद आ रही है. मैं नहीं आने वाली.”

“और नहीं तो क्या ! अरे भाई, इकुवालटी का मतलब काम बांटना होता है. हम तो यहाँ अकेले ही लगे हुये हैं.” अमोल ने भी हँसते हुये जवाब दिया और बड़े लाड से अपनी पत्नी को देखने लगा था. परेशानी में भी मुस्कुराते रहना, कष्ट में रोकर फिर हंस देना और अपने आस-पास सकरात्मकता को जीवित रखना, ऐसी ही थी आरती. उसके इन्ही गुणों पर रीझकर तो अमोल उससे प्यार कर बैठा था.

“क्या देख रहे हो ?” अमोल को अपनी ओर अपलक देखते रहने पर आरती ने पूछा था.

“तुम्हें !”

“और क्या देखा !”

“एक निःस्वार्थ, निडर और जीवंत स्त्री !”

“अमोल, तुम भी ना !”

“तुम भी तो घर बैठ सकती थी, पर तुमने बाहर जाना चुना. तुम बाहर निकली ताकि, लोगों के अपने घर लौट सकें. तुम बाहर निकली ताकि, अन्य लोग घरों में सुरक्षित रह सकें. प्राउड ओफ़ यू !”

आरती ने अमोल को प्रेम से देखा और बोली, “तुम्हें याद है जब तुमने मुझे बताया था कि इटली से भारतीयों को लाने वाली फ्लाइट तुम उड़ाने वाले हो तो मैंने क्या कहा था !”

“हाँ, तुम डर गयी थी !”

“उस समय तुमने कहा था कि अगर सब डरकर घर बैठ गये तो जिंदगी मौत से हार जायेगी ! डरना स्वभाविक है, लेकिन उससे लड़ना ही जीत है ! मैं हर दिन डरती हूँ, पर फिर उसे हराकर जीत लेती हूँ !”

“आरती !”

“अमोल, मुझे भी तुम पर गर्व है. इस संकट के समय जो भी अपना-अपना कर्म पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं उन सभी पर गर्व है.”

अमोल और आरती की आँखें एक दूसरे में डूब गयी. हृदय में चिंता भी थी, प्रेम भी और गर्व भी.

“मम्मा !” पता नहीं कब सारा अपने पापा के कंधे से लगकर खड़ी हो गयी थी.

“मेरा बच्चा !” आरती की पीली आँखें थोड़ी पनीली हो गयी थीं.

“आप कब आओगी !” उस प्रश्न की मासूमियत ने आरती के आँखों पर लगे बांध को तोड़ दिया और वो बहने लगीं.

“बेटा, मैंने आपको कहा था ना कि मम्मा हेल्थ सोल्जर हैं और वो …”

“गंदे वायरस को हराने गयी हैं ! आई नो पापा ! पर आई मिस यू मम्मा !” सारा की आँखें भी बहने लगी थीं.

अमोल कभी सारा के आँसू पोंछता, कभी आरती को समझाता.

“मम्मा, सब कहते हैं कि पापा गंदे वायरस को लाये हैं और सब ये भी कहते हैं कि गंदे वायरस से लड़कर आप भी गंदी हो गयी हो ! ईशान कह रहा था कि गंदे मम्मा-पापा की बेटी भी गंदी !” इतना कहकर वो फिर रोने लगी थी.

आरती के दिल पर जैसे किसी ने तेज मुक्का मारा हो, दर्द का एक सागर उमड़ आया था. मनुष्य अन्य जीवों से श्रेष्ठ माना जाता है, जिसका कारण है, बुद्धि. जानवर हेय हैं, क्योंकि उनके पास सोचने के लिये बुद्धि नहीं होती, मात्र एक भावुक हृदय होता है. लेकिन यह बात क्या सत्य है ! क्या सभी मनुष्यों के पास बुद्धि है ! संवेदना की तो अपेक्षा मूर्खता ही है ! इंसान जब इंसानियत छोड़ दे तो उसे क्या कहना चाहिये ! दानव ! जब वो घर से दूर कोरोना जैसे दानव के संक्रमण को रोकने के प्रयास में लगी हुयी थी. घर के बाहर लोगों के दिमाग पर नफरत का संक्रमण फैल रहा था, जिसने उनसे उनकी मनुष्यता को छीन लिया था. वह यह सोचकर सिहर उठी कि उसका परिवार दानवों से घिर गया था.

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अमोल आरती के मन की उथल-पुथल को समझ रहा था. वह उसे यह सब बताकर परेशान नहीं करना चाहता था. अपार्टमेंट के लोगों की छींटाकशी कुछ अधिक ही बढ़ गयी थी. कल जब अमोल और सारा सब्जियां लेकर आ रहे थें, लिफ्ट में ईशान अपने पापा के साथ मिल गया था. उन्हें देखकर वे दोनों लिफ्ट से निकाल गये. उस समय तो अमोल कुछ समझ नहीं पाया था. उसे लगा, शायद उन्हें कुछ काम याद आ गया होगा. फिर जब रात में ईशान की बॉल उनकी बालकोनी में आ गयी, तो सारा ने आदतन बॉल को उसकी तरफ उछाल दिया था. लेकिन ईशान ने उसे ऐसा करने से मना कर दिया. जब सारा ने इसका कारण पूछा तो वो रुखाई से बोला, “गंदे मम्मी पापा की बेटी गंदी !” इतना सुनते ही सारा की आँखें बरसने लगी थीं. अमोल के लिये उसे चुप कराना मुश्किल हो गया था. अब तो किराने वाला समान देने में भी आनाकानी करने लगा था. डॉक्टर होना जैसे स्वयं एक संक्रमण हो गया था. लेकिन अभी वो आरती को इन परेशानियों से दूर रखना चाहता था. वैसे भी वो अत्यधिक तनाव में काम कर रही थी.

“सारा ! छोड़ो यह सब ! तुमने मम्मा को बताया कि पी एम ने क्या कहा है ?” अमोल ने सफाई से बात बदल दी थी.

यह सारा तो नहीं समझ पायी लेकिन आरती समझ गयी थी. वह गुस्से में थी और कुछ कहने ही वाली थी कि अमोल ने उसे इशारे से चुप रहने को कहा. सारा सब कुछ भूल कर अपनी मम्मा को प्रधानमंत्री के देश के नाम किये सम्बोधन के बारे में बताने लगी थी. उस समय आरती का मन उचाट हो गया था, लेकिन सारा की खुशी देखकर उसने अपना गुस्सा दबा लिया था.

वह बोल रही थी, “मम्मा, कल शाम पाँच बजे सभी लोग अपने घरों की बालकोनी में या खिड़की में आकर आपको थैंकस बोलने के लिये थाली, ड्रम या शंख बजायेंगे ! सब लोग बाहर नहीं आ सकतें ना इसलिये अपने-अपने घरों में रहकर ही करेंगे ! कितना कूल है ना !”

आरती और अमोल ने एक दूसरे को देखा. उन्होंने कहा कुछ नहीं, पर उनकी नजरों के मध्य संवाद हो गया था. जिन्हें थाली बजाने को कहा गया था, उनमें से कितने वास्तव में मानव रह गये थें और कितने मात्र

आरती अभी पिछली रात के बारे में सोच ही रही थी कि सिस्टर सुनंदा की आवाज उसे वर्तमान में ले आयी थी.

“मैम, मास्क खत्म हो गये हैं !”

“अरे ! कल ही तो फोन किया था !” आरती की आवाज में गुस्सा था.

“जी मैम, पर अभी तक कोई जवाब नहीं आया !”

“सो रहे हैं क्या वे लोग ! उन्हें पता नहीं कि इन्फेक्शन फैलने में समय नहीं लगता !” आरती का गुस्सा अब बढ़ गया था.

“जी मैम !” सुनंदा ने सर झुका लिया था. वह कर भी क्या सकती थी. आरती ने भी सोचा उस पर गुस्सा करके क्या होगा. वह उठी और मास्क भिजवाने के लिये फोन करने लगी. तभी उसकी नजर सामने लगे टी वी के स्क्रीन पर गयी. लोग अपने=अपने घरों में थालियाँ और शंख बजा रहे थें.

“ये सब क्या हो रहा है !” आरती के होंठों से फिसल गया.

“मैम, सब हमारा धन्यवाद कर रहे हैं ! आज इतना गर्व हो रहा है ! जंग में खड़े सिपाही जैसा लग रहा है !” उसका चेहरा हर्ष और गर्व से दमक रहा था. उसके चेहरे को देखकर आरती ने सोचा “यदि इस सब से  इन सभी का मनोबल बढ़ रहा है तो यह प्रयास भी बुरा नहीं है. इस कठिन समय में हम सभी को मानसिक ताकत की बहुत आवश्यकता है.”

“हैं ना मैम !” आरती को चुप देखकर सुनंदा ने पूछ लिया था.

“हम सब सैनिक ही हैं, जो एक अनदेखे अनजान दुश्मन से लड़ रहे हैं; वो भी बिना किसी हथियार के ! तुम्हें गर्व होना ही चाहिये !” आरती ने प्रत्यक्ष में कहा था. तभी आरती जिसे फोन कर रही थी, उसने फोन उठा लिया था. उसने सुनंदा को चुप रहने का इशारा किया और बात करने लगी थी.

“क्या सर सो रहे थें क्या !?”

“अरे नहीं ! नींद कहाँ !” उधर से उस आदमी ने कहा था.

“मैं तो सोच रही थी कि इस बार अगर आपने फोन नहीं उठाया तो थाली लेकर पहुँच जाऊँगी आपके पास.” इतना कहकर आरती ने सुनंदा की तरफ देखकर आँख मार दी. सुनंदा भी मुस्कुरा दी थी.

“अरे क्या डॉक्टर मैडम आप भी !” वह खिसियानी हंसी हँसते हुये बोल था.

“अब आप हमें मारने पर तुले हैं तो, थाली ही बजानी पड़ेगी !”

“क्या गलती हो गयी डॉक्टर साहब ?”

“हमने मास्क के लिये कल ही फोन कर दिया था और अभी तक कुछ नहीं पता” आरती का स्वर गंभीर हो गया था.

“एक घंटे पहले ही भेज दिया है, पहुँचने वाला ही होगा !”

“आभार आपका !” आरती के स्वर में व्यंग्य था.

“अरे-अरे कैसी बात कर रही हैं ! आप तो बस हुक्म करो !”

“बस आप स्थिति की गंभीरता को समझो और समय पर सब कुछ भेजते रहो. बस इतना करो !” इतना कहकर आरती ने फोन पटक दिया था. सामने खड़ी सुनंदा उसके जवाब का इंतजार कर रही थी.

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“आने वाला है !” आरती की बात सुनकर सुनंदा चली गयी थी.

आरती ने सोचा कि थोड़ी देर में वो व्यस्त हो जायेगी, इसलिये सारा को विडिओ कॉल कर लेना चाहिये. वो कल ड्रम बजाने को लेकर कितनी उत्साहित थी. घर से अपने कुछ कपड़े भी मंगाने थें. आरती ने कॉल लगा लिया. कुछ देर तक फोन बजता रहा. किसी ने फोन नहीं उठाया. दो-तीन बार फोन करने पर भी जब अमोल ने फोन नहीं उठाया, वह परेशान हो गयी. थोड़ी देर बाद अमोल का फोन आ गया था.

“अमोल ! कहाँ थें तुम ! फोन क्यों नहीं उठा रहे थें !” आरती लगातार बोलती जा रही थी.

“आरती, आरती, आरती शांत हो जाओ !” अमोल ने उसे शांत कराया.

“यहाँ एक समस्या हो गयी थी.” अमोल को आवाज के कंपन को आरती ने सुन लिया था.

“कैसी समस्या? क्या हुआ अमोल !” आरती काँप रही थी.

“अपार्टमेंट के कुछ लोग ..” अमोल की आवाज की झिझक ने आरती को और परेशान कर दिया.

“कुछ लोगों ने क्या ?” वो लगभग चीख उठी थी.

“वे हमें घर खाली करने को कह रहे थें !”

“व्हाट ! क्यों ! हाउ डेयर दें !” आरती का क्रोध बढ़ गया था.

“इडियट्स का कहना था कि तुम कोरोना के रोगियों का इलाज कर रही हो तो पूरी बिल्डिंग को संक्रमण का खतरा है. मैं और सारा भी कोरोना को अपने कपड़ों में लिये घूम रहें हैं.”

“मैं आ रही हूँ ! मैं अभी आ रही हूँ ! देखती हूँ कैसे ..”

“अरे यार ! तुम चिंता मत करो. अभी सभी ठीक है. मैंने पुलिस को फोन कर दिया था. उन्होंने इन सभी की खबर ली है. डॉक्टर कह देने भर से, पुलिस वाले काफी मान दे रहे हैं. बिल्डिंग के सभी लोग ऐसे नहीं हैं. तुम चिंता मत करो. बहुत बड़ा काम कर रही हो. इन कीड़ों की वजह से अपने काम पर से ध्यान मत हटाओ.”

“अमोल ! मेरा मन नहीं लगेगा !” आरती की आवाज में डर सुनकर अमोल ने उसे विडिओ कॉल किया.

अमोल के पास बिल्डिंग के कुछ लोग बैठे थें. सारा विमला आंटी की गोद में बैठी दूध पी रही थी. आरती को देखते ही सब एक साथ चिल्लाकर बोलें, “थैंक यू”.

सारा और अमोल से कुछ देर बात करने के बाद, निश्चिंत होकर आरती ने फोन रख दिया था. किसी ने सही कहा था कि इस दुनिया का अंत अनपढ़ लोगों के कारण नहीं बल्कि पढ़े-लिखे मूर्ख अनपढ़ों के कारण होगा.

सामने लगे टी वी स्क्रीन पर सभी चैनलों में लोगों का धन्यवाद करना दिखाया जा रहा था. आरती सोच रही थी कि इन थाली पीटने में लगें लोगों में से कई तो वो भी होंगे जो अपने आस-पास रह रहें डॉक्टरों और अन्य जो इस महामारी से बचाव के काम में लगें हैं, उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते होंगे. आरती का मन वितृष्णा से भर गया.

यह थाली की आवाज थप्पड़ बन कर कान पर लग रही थी. आरती ने आगे बढ़ कर टीवी ऑफ कर दिया.

मजाक: कोरोना ने उतारी, रोमांस की खुमारी

मैंने बर्तन धोते धोते टाइम देखा , एक घंटा हो गया था , मुझे बर्तन धोते हुए. मुझे अचानक  नीतू की पायल की आवाज सुनाई दी, मैं डर गया, आजकल उसकी पायल की आवाज से मैं पहले की  तरह रोमांस से नहीं भर उठता  , डर लगता है कि कोई काम बताने ही आयी होगी , हुआ भी वही , मुझे उन्ही प्यार भरी नजरों से देखा जिनसे मुझे आजकल डर लगता है , बोली ,” सुनो , जरा.”

ये वही दो शब्द हैं जिनसे आजकल मैं वैसे ही घबरा जाता हूँ , जैसे एक आदमी  ,”मित्रों ” सुनकर डर जाता है.

” बर्तन धोकर जरा थोड़ी सी भिंडी काट दोगे?”

मेरे जवाब देने से पहले नीतू  ने मेरे गाल पर किस कर दिया , मझे यह किस आज कांटे की तरह चुभा , बोली ,” काट दोगे न ?”

मैंने हाँ में सर हिला दिया. बर्तन धोकर भिंडी देखी , ये थोड़ी सी भिंडी है ? एक किलो होगी यह !फिर आयी , चार प्याज और लहसुन भी रख गयी , ‘जरा ये भी’, ये इसका ‘जरा’ है न , ‘मित्रों’ जितना खतरनाक है. कौन सी मनहूस घडी थी जब कोरोना के चलते घर में बंद होना पड़ा , घर के कामों और , दोनों बच्चों की धमाचौकड़ी को हैंडल करती नीतू को मैंने प्यार से तसल्ली  दी थी , डरो मत , नीतू , मैं हूँ न ,घर पर ही तो रहूँगा अब , मिलकर काम कर लेंगें , बच्चे तो छोटे हैं , वे तो तुम्हारी हेल्प कर नहीं पायेंगें , तुम्हे जो भी हेल्प चाहिए हो , मुझे बताना ,”कहकर मैंने मौके का फ़ायदा उठाकर उसे बाहों में भर लिया था , पर मुझे उस टाइम यह नहीं पता था कि मैंने अपने पैरों पर कितनी बड़ी कुल्हाड़ी मार ली है.कोरोना के चलते मेरी आँखों के  सामने हर समय छाया रोमांस का पर्दा  हट गया है , मुझे समझ आ गया है कि सेल्स का आदमी होने के बाद भी जैसी बातें करके काम निकलवाना नीतू को आता है , मैं तो कहीं भी नहीं ठहरता उसके आगे.  बंदी घर में रहती है , पर सारे गुण हैं इसमें.और यह जो इसकी भोली शकल देखकर मैं दस सालों से इस पर कुर्बान होता रहा हूँ , यह बिलकुल भी नहीं इतनी सीधी.

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पिंकी , बबलू , हमारे दो बच्चे , जिन्हे इस बात से जरा मतलब नहीं कि क्या बोलना है , क्या नहीं , जो पापा को भारी न पड़े. कल सब्जी काटते हुए मैं फ़ोन देखने लगा , जोर से बोले , ”पापा ,फ़ोन बाद में देख लेना , कहीं आपका हाथ न कट जाए.” पोंछा लगाती नीतू ने झट से हाथ धोकर मेरा फ़ोन उठा कर दूर रख दिया , ” डिअर , बच्चे ठीक कह रहे हैं , तुम्हारा ध्यान इधर उधर होगा तो मुश्किल हो जाएगी ,”कहकर उसने बच्चों से छुपा कर मुझे आँख भी मार दी , मैं घुट कर रह गया , मुझे उसकी ये आँख मारने की अदा कल पहली बार जरा नहीं भाई , चिंता मेरे हाथ की इतनी नहीं है , जितनी इस बात की है कि काम कौन करेगा.

और मैं इसे समझा नहीं पा रहा हूँ कि वर्क फ्रॉम होम का मतलब , घर का काम नहीं होता.मेरी माँ अब तो इस दुनिया  में नहीं है, होती , और देखती कि उनका राज दुलारा प्यार में क्या से क्या बन गया है , रो पड़तीं. नीतू के भोलेपन के कई राज मेरे सामने उजागर हो रहे हैं , वह अक्सर जब यह समझ जाती है कि मैं कोई काम मना कर सकता हूँ , तो वह कुछ इस तरह बच्चों के सामने  थोड़ा दुखी सी होकर बोलती है ,सीमा का फ़ोन आया था ,बता रही थी कि आजकल उसके पति ही बाथरूम धो रहे हैं , उसकी कमर में भी मेरी तरह दर्द रहता है न. ”

बस , दोनों बच्चे मेरे गले लटक जाते हैं कि पापा , आप भी धोओ न बाथरूम .”

फिर मुझे कहाँ मौका मिलता है , खुद ही कहती है ,”बच्चों , पापा को परेशान नहीं करना है , चलो , हटो , पापा अपने आप ही मम्मी की हेल्थ का ध्यान रखते हैं.”

लो , हो गया सब अपने आप तय. मेरे बोलने की गुंजाइश है क्या ?

रात को जब सोने लेटे, हालत ऐसी हो गयी है ,नीतू ने जब मुझे प्यार से देखा , मैंने डर कर करवट बदल ली , और दिन होते तो मैंने उसके ऐसे देखने पर उसे बाहों में भर लिया होता , पर आजकल बहुत सहमा सहमा रहता हूँ कि कहीं कोई काम न बोल दे , मुझे सचमुच डर लगा कि कहीं यह न कह दे कि रात के बर्तन भी अभी कर लोगे , जरा. उसने कहा , सुनो.”

मेरे मुँह से आवाज ही नहीं निकली , वह मेरे पास खिसक आयी तो भी मैंने उसकी तरफ करवट ही किये रखी, बोली , अरे , डिअर , सुनो न.”

मैंने कहा ,”बोलो.”

”नींद आ रही है ?”

मुझे समझ नहीं आया कि क्या बोलूं , कहीं मैं गलत समझ रहा होऊं , और नीतू मेरे पास कहीं रोमांस के मूड से तो नहीं आयी है ,मैंने मन ही मन हिसाब लगाया , नहीं , इस टाइम कोई काम न होगा , बच्चे सो चुके हैं , खाना , बर्तन सब हो तो चुके हैं , अब क्या काम बोल सकती है ! हो सकता है मेरी पत्नी का इरादा नेक हो.

मन में थोड़ी सी आशा लिए मैं उसकी तरफ मुड़ ही गया ,”बोलो.”

उसने मेरे गले में अपनी बाहें डाल दी ,” सुनो , आज सारा दिन काम करते करते इस समय पैरों में बहुत दर्द हो रहा है , थोड़ा सा दबा दोगे क्या ? नींद आ रही हो तो रहने दो.”

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मेरी हालत अजीब थी , ऐसे में कौन अच्छा पति मना कर सकता है ,मैं उठ कर बैठ गया , नाइटी से झांकते उसके पैर खिड़की से आती मंद मंद रौशनी में  सैक्सी से लगे , मन कितनी ही भावनाओं में डोल डोल गया , पर उसके पैरों में दर्द था , मुझे तो उसके पैर दबाने थे , मन हुआ कल से रोज शाम को पांच बजे बालकनी में थाली , ताली नहीं , चीन और कोरोना को गाली दूंगा. कोरोना , तुम्हे मुझ जैसे शरीफ पतियों की हाय लगेगी , तुमने हमारी रोमांस  की सारी खुमारी उतार दी , तुम नहीं बचोगे. मैंने देखा , नीतू सो चुकी थी , उसके चेहरे की सुंदरता और सरलता मुझे इस समय  अच्छी  लग रही थी , पर नहीं , मैंने खुद को अलर्ट किया , नहीं , इसके चेहरे पर मत जाओ ,आनंद , यह कल सुबह फिर , सुनो जरा , कहकर तुम्हे दिन भर नचाने वाली है.मैं भी उससे कुछ दूरी रख कर लेट गया , रोमांस की कोई खुमारी दूर दूर तक नहीं थी.

ज़िन्दगी-एक पहेली: भाग-6

पिछला भाग- ज़िन्दगी–एक पहेली:  भाग-5

अनु की मम्मी हॉस्पिटल के बाहर खड़ी रो रहीं थी लेकिन उन्हें पता नहीं था कि एमरजेन्सी वार्ड में क्या चल रहा है.अनु के पापा बाहर आए और अपने ड्राइवर से कहा कि अनु की  मम्मी को लेकर घर चले जाओ और अपनी पत्नी  से बोले,”  अनु कि तबियत  ज्यादा खराब है तो दिल्ली ले जाने की  तैयारी करो”.अनु कि मम्मी उनका चेहरा देखकर समझ तो गयी थी कि कुछ गलत है उन्होने जिद की तो उन्होने डांटकर वापस घर भेज दिया. अविरल दरवाजे पर खड़ा अपनी दीदी का इंतज़ार  कर रहा था. जैसे ही गाड़ी दिखाई दी उसे लगा अनु आ गयी है पर जब मम्मी को रोकर गाड़ी से उतरते हुए देखा तो उसे डर  लगा उसने तुरंत पूंछा… “मम्मी दीदी कहाँ है?” लेकिन उन्होने कहा कि उसे लेकर दिल्ली जाना है, तैयारी करो.फिर ड्राईवर गाड़ी लेकर हॉस्पिटल चला गया.अंदर अनु की  मम्मी रो रही थी और बाहर अविरल एकटक गाड़ी का इंतज़ार कर रहा था.

अब आसपास के लोग भी घर में जुटने शुरू हो गए थे.अविरल को बहुत डर लग रहा था.थोड़ी देर बाद गाड़ी फिर दिखाई दी.अविरल वही खड़ा हो गया.अविरल के पापा ने कहा कि बेटा अनु बेहोश है दिल्ली लेकर चलना है.अविरल वहीं खड़ा रहा .आसपास के कुछ लोग आए और अनु को उठाकर अंदर ले आए और जमीन में चादर बिछाने को बोले तो अविरल तुरंत लड़ गया कि दीदी को जमीन में क्यूँ लिटा रहे हो, ऊपर बेड पर लिटाओ न.लेकिन अनु को जमीन में लिटा दिया गया.आसपास के लोगो ने अविरलको चिपका लिया और बोले कि अनु तुम्हें छोड़कर बहुत दूर चली गयी.अविरल ने अनु को देखा और तेजी से भागकर अंदर भागा और सारी रात बाहर नहीं आया.

अविरल के पापा के तो जैसे सारे आँसू सूख से गए थे. वो एकदम पत्थर के बुत कि तरह अनु को एकटक देखते रहे .उनके मुंह से बस एक ही शब्द निकला “अब मेरा इलाज़ कौन करेगा ‘बिट्टी’ “.

अविरल की  माँ भी एकदम बेसुध हो चुकी थी.कुछ ही समय में अविरल की  मौसी जो दिल्ली में रहती थी अपने पूरे परिवार के साथ आ गयी थी.सब एकदम सदमे में थे .

सुबह हो चुकी थी.जैसे- जैसे लोगों को पता चला लोग भागते हुए पहुंचे.आसू  और अमित भी अविरल के घर पहुंचे.सुमि को जब पता चला तो वह अविरल के घर जाने को हुई लेकिन सामाजिक बंधनों के कारण वह तड़प कर रह गयी और अपने भाई को संभालने नहीं आ पाई.

अब अनु की बॉडी ले जाने का समय आ चुका था.अविरल अपनी  दीदी से चिपक गया .बोला,” दीदी ठीक हो जाएगी ,इसको कहाँ ले जा रहे हो? सबने गाड़ी में उसकी बॉडी रख ली.सब लोग गाड़ी में बैठ गए.लेकिन अविरल के पापा उनके साथ नहीं गए.उन्होने कहा,” मैंने अपनी बिट्टी को अपनी गोद में खिलाया है.मै उसे पानी में कैसे बहा सकता हूँ? (एक माँ बाप के लिए इससे बड़ा कोई दुःख नहीं होता की उसकी संतान उनके आँखों के सामने ही दम तोड़ दे )

अविरल अपनी दीदी की बॉडी के पास गाड़ी में बैठ गया था.वो बार- बार कह रहा था की ..”दीदी को इतनी कसके क्यों बांध रखा है ?इसका दम घुट रहा होगा”.

अब सब लोग नदी के किनारे पहुँच गए थे .अब अविरल को अनु को अंतिम विदाई देनी थी.जब अनु को पानी में बहाया जा रहा था तो अविरल ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था .वह बार- बार कह रहा था की,”दीदी को पानी  से बहुत डर लगता है ,ये मत करो.ये सुन कर वहाँ मौजूद सब लोगों की आंखे भर आई.अविरल के चचेरे भाइयों ने उसको संभाला और कहा,” अब दीदी को जाने दो“.

शायद ही इस दिन से ज्यादा मनहूस दिन किसी के जीवन में कभी आता होगा.सब लोग अनु को  हमेशा के लिए  विदा करके घर आ गए .

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उसी रात अविरल की मौसी लोगों को वापस दिल्ली भी जाना था .अविरल रो-रोकर उन सबसे मिन्नते कर रहा था की आप लोग मत जाओ ,लेकिन उन्होने किसी जरूरी काम का कहकर उसे समझा दिया.वो उससे बोले अभी 4-5 दिन में हम फिर आ जाएंगे.और फिर वो सब उसी रात वापस दिल्ली लौट गए.

अविरल और उसका परिवार बहुत अकेला हो चुका था.उसे अपने साथ साथ अपने माँ-बाप का ख्याल भी रखना था.अनु की कही हुई बाते उसे रह-रहकर याद आ रही थी .उसके आँसू तो जैसे सूखने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

कुछ समय बाद शुद्धि का दिन आ गया.घर में पूजा थी.दिल्ली से भी मौसी लोग देहारादून आ गईं.जब अविरल की मौसी ने उनकी हालत देखी  तो उन्होने अविरल के परिवार को अपने साथ दिल्ली ले जाने का निश्चय किया.

और अगले ही दिन अविरल की मौसी उन सबको अपने साथ  दिल्ली ले आई.मौसी के 6 लड़के थे जिसमें बड़े लड़के का नाम कार्तिक था और छोटे का नाम अमन था.दोनों ही अविरल और अनु से उम्रमें काफी बड़े थे.उन चारों में आपस में सगे भाई – बहनों सा प्यार था.अविरल, कार्तिक आपस में काफी घुले मिले थे और अमन और अनु आपस में.बचपन से ही हर गर्मियों की छुट्टियों में अविरल और अनु घूमने के लिए मौसी के घर जरूर आते थे.

कार्तिक और अमन अनु के कॉलेज गए इन्फॉर्म करने के लिए तो किसी को भी अनु के छोड़ जाने का विश्वास नहीं हुआ.उसकी रूममेट्स रोने लगीं.थोड़ी देर बाद वो अनु का सारा समान लेकर आई जिसमे अनु का कॉलेज वाला बैग  और कुछ कपड़े थे.

अनु का सारा सामान लेकर अमन और कार्तिक घर वापस आ गए  और सारा समान अनु के मम्मी-पापा को दे दिया.अविरल अनु का बैग  लेकर अलग कमरे में चला गया और बैग  से चिपककर फूट- फूट कर रोने लगा.तभी कार्तिक ने आकर अविरल को संभाला और साथ बाहर ले आए.1-6 दिनों बाद अविरल ने अनु का बैग  खोलकर देखा तो उसमे अविरल को एक  डायरी मिली.जब उसने डायरी पढ़ना शुरू किया तो उसे अपनी आँखों पर  विशवास ही नहीं हुआ.

अगले पार्ट में हम जानेंगे कि अनु ने डायरी में ऐसा क्या लिखा था जिसे पढ़कर अविरल के चेहरे का रंग ही उड़ गया?

लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-7)

पिछला भाग- लंबी कहानी: कुंजवन (भाग-6)

दादू को आखिर लंदन जाना ही पड़ा. शिखा उन को भेजना नहीं चाहती थी, स्वयं ही जाती. लंदन उस की परिचित जगह है. जानने वाले भी कम नहीं हैं पर यहां जैकेटों के सप्लाई को ठीक समय पर भेजना है, उन की क्वालिटी पर नजर रखना है दुश्मनों की कमी नहीं इतना बोझ दादू के लिए संभालना जरा कठिन था और जब से बंटी को साफ मना कर आई है तब से उसे पूरा विश्वास है कि वो चुप नहीं बैठेगा, कहीं से ना कहीं से नुकसान पहुंचाने की कोशिश तो करेगा ही, ऐसे में दादू को अकेले छोड़ना…लंदन पार्टी से बातचीत पूरी हो चुकी है. पावर आफ एटौर्नी ले कर गए हैं काम हो जाएगा. शिखा अब बाहर की पार्टियों में ज्यादा रुचि ले रही है. इधर बंटी की तरफ से उस के मन में आशंका बढ़ी है बहुत सतर्क रहना पड़ रहा है. वो सोच रही थी दुर्गा मौसी के घर की घटना को हफ्ता बीता पर बंटी चुप क्यों है? सुलह करने की कोशिश क्यों नहीं की? रविवार का दिन था थोड़ी देर से उठी वो. रात देर तक काम किया था. दादू से बात भी हुई काम बन गया, साईन हो गए कल सुबह चले आएंगे. यह भी बड़ी डील है शिखा घबरा रही थी पर दादू ने साहस जुटाया, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं, हम सोचते हैं हम कर रहे हैं पर करने वाला तो कोई और है.’’

लच्छो मौसी ने आज उस के पसंद का नाश्ता बनाया है, आलू परांठा, मूली के लच्छे, बूंदी का रायता. वो शाकाहारी नहीं है पर मांस अंडा ज्यादा पसंद नहीं करती.

दादू तो पूरी तरह शाकाहारी हैं. शिखा मेज पर बैठी ही थी कि दुर्गा मौसी आ धमकी. शिखा को उन का आना बुरा नहीं लगा. अकेली बैठ खाना अच्छा नहीं लगता. उस ने मौसी का हार्दिक स्वागत किया.

‘‘आओ मौसी. नाश्ता करो.’’

तभी लच्छो गरम परांठा ले कर आई. सुगंध से कमरा महक उठा.

‘‘मौसी, एक और प्लेट ला दो.’’

दुर्गा मौसी तुरंत बैठ कर गोद में नैपकिन बिछाते बोली, ‘‘तेरे दादू नाश्ता नहीं करेंगे आज?’’

सतर्क हुई शिखा, मौसी उस की सगी है पर निकटता है मेहता परिवार से क्योंकि रुचि और सोच उन लोगों से ही मिलती है इन की. एक प्लेट में परांठा डाल कर ही लाई लच्छो रख गई मौसी के सामने. वो तुरंत टूट पड़ी प्लेट के ऊपर.

‘‘तेरे दादू क्या दिल्ली से बाहर गए हैं?’’

‘‘नहीं. द्वारका में उन के गुरुभाई के घर कुछ पूजा प्रवचन है.’’

‘‘हूं.’’

पूरी कटोरी भर रायता पी फिर से कटोरी भरती बोलीं, ‘‘कामकाज, जिम्मेदारी कुछ है नहीं तो यह सब फालतू काम करो.’’

‘‘यह फालतू काम तो है मौसी पर साफ शुद्ध भगवान का नाम तो है. जिम्मेदार कामकाजी लोग तो शराब की पार्टी करते चार सौ बीवी का प्लान बनाते उस से तो अच्छा है.’’

मौसी इतनी भी मूर्ख नहीं कि व्यंग के तीर की दिशा ना समझे पर इस समय अपने मिजाज पर कंट्रोल करना बहुत जरूरी है. तुरंत प्रसंग टाल दिया.

‘‘बेबी, बंटी की ओर देख कर छाती फटती है मेरी.’’

‘‘अरे क्या हुआ? हाथपैर टूट गए क्या? हां गाड़ी बड़ी तेज चलाता है. असल में पीने के बाद कंट्रोल नहीं कर पाता. एक ड्राइवर रखने को कहो उसे.’’

गुस्सा पी लिया मौसी ने.

‘‘तू समझती क्यों नहीं, तू ने बड़ा दुख दिया है उसे. बचपन से उस ने तुझे अपना समझ, प्यार किया.’’

‘‘अपना समझा होगा, क्योंकि किसी भी चीज को कोई भी उस की अपनी चीज समझ सकता है पर प्यार का नाम मत लो इस शब्द का मतलब भी नहीं पता उसे.’’ नरम स्वर में दुर्गा मौसी ने कहा.

‘‘उन को आस थी कि तू बंटी की दुलहन बनेगी और यह कोई खयाली पुलाव भी नहीं. मेरे सामने मंजरी ने वचन दिया था तभी तो…’’

‘‘मौसी, उस समय तुम तीनों ही नशे में धुत् थीं शायद बंटी भी गिलास ले साथ दे रहा था.’’

‘‘पर वचन तो दिया ही था.’’

‘‘बारबार तुम ‘वचन’ शब्द को मत दोहराओ तुम्हारे मुख से शोभा नहीं देता. यह बड़ा पवित्र शब्द है उसे गंदे शराब के गिलास में मत बोलो. सुनो नशे के धुन में किए काम को कानून भी मान्यता नहीं देती. मैं ने तो साफ कह दिया है कि मैं इस बात को नहीं मानती.’’

‘‘पर अपनी मां का तो मान रख.’’

‘‘मां. नहीं मां के प्रति मेरे मन में कोई भी अनुभूति नहीं है और मां ने कभी बेटी का प्यार दिया है मुझे.’’

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‘‘गुस्सा मत कर मैं तो यों ही कह रही थी. ठीक है बंटी ना सही कोई दूसरा लड़का.’’

‘‘चुना एक बार ही जाता मौसी बारबार नहीं.’’

‘‘बेटा तू ही सोच वो अनाथ, गरीब आश्रम में पला लड़का तेरे स्तर, तेरे परिवार में बेमेल नहीं था?’’

‘‘बंटी किस बात से मेल खा रहा, शराबी, चरित्रहीन, सड़क पर आ कर खड़े होने वाले भ्रष्ट व्यापारी परिवार…’’

मौसी के शब्द ही खो गए. जाते समय बोल गई, ‘‘बेबी, तू माने या ना माने पर मुझे तेरे लिए बड़ी चिंता है.’’

‘‘इस का सीधा मतलब है कि तुम भी बंटी को विश्वास नहीं करती वो अपने मतलब के लिए मेरे साथ कुछ भी गलत कर सकता है. हद से नीचे जा सकता है. मौसी के पास इस का कोई उत्तर नहीं था. वो थोड़ी देर चुप रह कर बोली, पर बेबी, तेरे दादू और कितने दिन के… तू अकेली कैसे?’’

‘‘तब सोचूंगी कुछ.’’

‘‘वो…वो लड़का… मिलता है कभी?’’

‘‘सुकुमार? नहीं वो वचन का पक्का है.’’

‘‘मैं चाहती हूं तू अकेली ना रहे?’’

‘‘कल किसी को नहीं पता पर जो भी हो बंटी नहीं.’’

दुर्गा मौसी चुप हो गई.

‘‘लंदन’’ का आर्डर मिल गया. काम बढ़े पहले सोचा था हाथ का काम निबटा दूसरे काम में हाथ डालेगी पर ऐसा हुआ नहीं समय सीमा इन की भी कम है, टैंडर बुलाना पड़ा. दादू ने लौट कर पूरी घटना सुनी तो बहुत तनाव में आ गए, ‘‘बेटा, मुझे डर लग रहा है.’’

‘‘नहीं दादू, अगर चार दुश्मन हैं तो आठ दोस्त भी हैं.’’

‘‘समय पर कोई पास ना हुआ तो?’’

‘‘आप क्या सोच रहे हैं?’’

‘‘यही इस समय वो बौखलाए हुए हैं, डेसपरेट हैं.’’

‘‘कितना बड़ा कारोबार था. हमारे साथ टक्कर लेने वाले थे. सब बरबाद कर दिया.’’

‘‘उस के पीछे एक कारण है दादू.’’

‘‘क्या?’’

‘‘अय्याश तो यह लोग पहले से ही थे, दिमाग में मुफ्त में कंपनी को पाने का सपना पाल बैठे.’’ जानकीदास को चिंता थी शिखा की सुरक्षा की.

‘‘बेबी, एक गार्ड रख दूं?’’

‘‘क्या दादू? इतना भी क्या डरना.’’

‘‘यह अच्छे लोग नहीं हैं. बंटी की संगत बहुत बुरी है.’’

‘‘मैं अपनी गाड़ी में रहती हूं.’’

‘‘उसी का डर है. औफिस गार्ड को मना कर दूंगा कि बंटी अंदर ना आने पाए.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझो.’’

‘‘सोच रहा था एक बार जोशीमठ हो आता पर.’’

‘‘जोशीमठ’’ के थोड़ा नीचे गंगा किनारे एक गांव में अति मनोरम स्थान पर पापा ने चार एकड़ जमीन ली थी. कहते थे.

‘‘तेरी शादी के बाद मैं वहां चला जाऊंगा. यहां तो मैं बस तेरे लिए पड़ा हूं. फिर वहां मैं फूलों की खेती करूंगा और शांति से रहूंगा.’’

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वहां एक सुंदर आरामदेह काटेज भी बनवाया था. कभीकभी जा कर रहते भी थे. उसे भी साथ लाना चाहते पर मम्मा के डर से कभी नहीं ले जा पाए. अब दादू महीना दो महीना में जाते हैं. फूलों का बगीचा भी लगाया है. माली है एक केयर टेकर परिवार सहित आउट हाउस में रहता है. झड़ाईसफाई करते हैं और दादू जब रहते हैं तब सेवा करते हैं. नई उम्र का जोड़ा है, सीधेसादे भले लोग.

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#coronavirus: Work From Home का लड्डू

कल रात औफ़िस से ‘वर्क फ़्रौम होम’ का  मेल मिला तो खुशी से मेरा दिल यूं बाग-बाग हो गया, मानो सुबह दफ़्तर जाते हुए मैट्रो में चढ़ते ही खाली सीट मिल गयी हो. एक तो पिछले कुछ दिनों से धर्मपत्नी, दिव्या का कोरोना पर कर्णभेदी भाषण और फिर हाल-चाल पूछने के बहाने मेरे औफ़िस पहुंचने से पहले ही लगातार कौल करने का नया ड्रामा ! उस पर आलम यह कि मुझे हल्की सी खांसी हुई नहीं कि क्वारंटिन का हवाला दे मेरी सांसों को अटका देना ! मेरी हालत किसी बौलीवुड हीरोइन की ज़ीरो फ़िगर से भी पतली हो गयी थी. वैसे वर्क फ़्रौम होम मेरे लिए भी उस गुलाबजामुन की तरह था, जिसे किसी दूसरे की प्लेट में देखकर मैं हमेशा लार टपकाता रहता था. इस और्डर से मेरे भीतर की प्रसन्नता उछल-उछल कर बाहर आ रही थी.

सुबह की बैड-टी के बाद आज के काम पर विचार कर ही रहा था कि “प्लीज़ आज ब्रैकफ़ास्ट आप बनाओ न!” कहते हुए दिव्या ने मधुर मुस्कान के साथ एक फ्लाइंग किस मेरी ओर उछाल दिया. यह बात अलग है कि मुझे वह चुम्मा ज़हर बुझे तीर सा लगा और घनी पीड़ा देता हुआ सीने में चुभ गया. अच्छा बहाना कि रोज़ एक वर्षीय बेटे नोनू की नींद टूट जाने के डर से पांच मिनट में नहाकर आ जाती हूं, आज फुल बौडी एक्सफोलिएशन करते हुए नहाऊंगी तो कम से कम आधा घंटा तो लग ही जायेगा.

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औफ़िस में बौस के आगे सिर झुकाने की आदत का लाभ हुआ और मैं बिना किसी ना-नुकुर के नाश्ता बनाने को राज़ी हो गया. मैंने औफ़िस में हर काम शोर्टकट में निपटा डालने वाला अपना दिमाग यहां भी लगाया और कम से कम परिश्रम और समय में तैयार रेसिपीज़ खोजने के लिए इंटरनैट खंगालना शुरू कर दिया. मेरी मेहनत रंग ले ही आयी और पोहा बनाने की विधि देख मेरी आंखें ऐसे चमक उठीं जैसे किसी छात्र के प्रश्न-पत्र में वही प्रश्न आये हों, जिसकी चिट बनाते हुए उसने पूरी रात नैनों में काट दी हो.

नाश्ते के बाद लैपटौप लेकर दूसरे कमरे में बैठा ही था कि मेरे बौस का फ़ोन आ गया. आवाज़ सुन दिव्या उस कमरे में चली आई और कुछ देर वहां ठहरने के बाद माथे पर त्योरियां चढ़ा मुझे घूरती हुई वापिस निकल ली. ढेर सारा काम देकर बौस ने फ़ोन काट दिया. मुझे मदद के लिए अपने असिस्टेंट को फ़ोन करना था. बेग़म डिस्टर्ब न हों इसलिए मैंने दरवाज़े को आधा बंद कर दिया, लेकिन वह भी अपने कान मेरे कमरे में लगाये थी. फ़ौरन कमरे का दरवाज़ा खोल भीतर झांकती हुई बोली, “काम कर लो न ! क्यों गप्पें मारकर अपना समय ख़राब कर रहे हो?”

“अरे, काम की ही बात कर रहा हूं.” मोबाइल को अपने मुंह से दूर करते हुए मैं बोला.

तिरछी नज़रों से मेरी और देखते हुए अपनी हथेली मुंह पर रख खी-खी करती हुई वह कमरे से चली गयी. उसकी भाव-भंगिमाएं कह रही थीं कि ‘आज पता लगा आप औफ़िस में भी कुछ काम नहीं करते !’

फ़ोन पर असिस्टेंट को काम समझाते हुए अपना दिमाग आधा खाली करवाने के बाद मैं लैपटौप में खो गया. दोपहर हुई और पेट में चूहे मटरगश्ती करने लगे. दिव्या को पुकारा तो वह गोदी में नोनू को लिए अन्दर घुसी. न जाने क्यों नोनू मुझे देख ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा. मैंने पुचकारते हुए अपने हाथ उसकी और बढ़ाये तो दिव्या बोल उठी, “आपको इस समय घर पर देख नोनू डर गया है.”

“क्यों सन्डे को भी तो होता हूं घर पर.”

“इस समय आप कुछ ज़्यादा ही टैंशन में हो, शक्ल तो बिल्कुल ऐसी लग रही है जैसे डेली सोप की किसी संस्कारी बहू की सास के चिल्लाने पर हो जाती है. ऐसा करो, या तो लंच आप तैयार करो या फिर मैं जब तक खाना बनाती हूं आप नोनू के खिलौनों में से किसी कार्टून करैक्टर का मास्क लेकर लगा लो. तभी खुश होकर खेलेगा यह आपके साथ !”

मरता क्या न करता ! दौड़कर बैडरूम में गया और दरवाज़े के पीछे लगे खूंटों से शिनचैन का मास्क उतराकर चेहरे पर लगा लिया.

खाना खाकर जितनी देर दिव्या किचन समेटती रही मैं मास्क पहनकर शिनचैन की आवाज़ में नोनू को हंसाता रहा. नोनू को मैंने अपने असली चेहरे की ओर इतने अपनेपन से ताकते हुए कभी नहीं देखा था. उसकी खिलखिलाहट देख जी चाह रहा था कि अब से मैं शिनचैनी पापा ही बनकर रहूं.

घड़ी की सुई तीन पर आने ही वाली थी. याद आया कि मैनेजर ने वीडियो-कौनफ्रैंस रखी थी, जिसमें मुझे अपनी प्रेज़ेन्टेशन दिखानी थी. किचन में जाकर नोनू को दिव्या की गोद में दे मैं हांफते हुए कमरे में आ गया और लैपटौप खोल मीटिंग के लिए लौग-इन कर लिया. मैनेजर और बाकी दो साथी पहले ही आ चुके थे. मेरे जौइन करते ही सब ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे. ‘यह औफ़िस की मीटिंग है या लौफ्टर क्लब की?’ सोचकर सिर खुजलाते हुए हंसी के इस सैशन में मैं उनका साथ देने ही वाला था कि मैनेजर बोल पड़ा, “राहुल, बाज़ार से मास्क खरीद लाते. वैसे घर में रहते हुए मास्क लगाना इतना ज़रूरी भी नहीं कि तुम शिनचैन का मास्क लगाकर बैठ गये!” सब लोगों का मुझ पर हंसना जारी था. पूरी मीटिंग में मैं खिसियानी सूरत लेकर बैठा रहा.

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मीटिंग ख़त्म होने पर आते-जाते बैडरूम में झांक बैड को ललचाई दृष्टि से देखता रहा, लेकिन मजाल कि दो घड़ी भी चैन से लेटने को मिले हों.

रात को सोते हुए जहां रोज़ अगले दिन की प्रेज़ेन्टेशन के विषय में सोचा करता था, आज सोच रहा हूं कि कल नाश्ते में क्या बनाऊंगा? यह वर्क फ़्रौम होम का लड्डू भी शादी जैसा ही है, जिसने खाया वह भी पछताया और नहीं खाने वाले को इसने ख़ूब तरसाया !

पिंजरे वाली मुनिया: भाग-1

लेखक- उषा रानी 

मरा हुआ मन भी कभीकभी कुलबुलाने लगता है. आखिर मन ही तो है, सो पति के आने पर उन्होंने हिम्मत कर ही डाली.

‘‘आज चलिए ‘मन मंदिर’ में चल कर परिणीता देख आते हैं. नई ऐक्ट्रेस का लाजवाब काम है. अच्छी ‘रीमेक’ है. मैं ने टिकट मंगवा लिया है.’’

‘‘टिकट मंगवा लिया? यह तुम्हारा अच्छाखासा ठहरा हुआ दिमाग अचानक छलांगें क्यों लगाने लगता है? पता है न कि पिक्चर हाल की भीड़भाड़ में मेरा दम घुटता है. मंगा लो सीडी, देख लो. इतना बड़ा ‘प्लाज्मा स्क्रीन’ वाला टीवी किस लिए लिया है? हाल के परदे से कम है क्या? तुम भी न तरंग, अपने ‘मिडिल क्लास टेस्ट’ से ऊपर ही नहीं उठ पातीं.’’

वह चुप हो गईं. पति से बहस करना, उन की किसी बात को काटना तो उन्होंने सीखा ही नहीं है. बात चाहे कितनी भी कष्टकारी हो, वह चुप ही लगा जाती हैं. वैसे यह भी सही है कि जितनी सुखसुविधा, आराम का, मनोरंजन का हर साधन यहां उपलब्ध है, इस की तो वह कभी कल्पना कर ही नहीं सकती थीं.

वह स्वयं से कई बार पूछती हैं कि इतना सबकुछ पा कर भी वह प्रसन्न क्यों नहीं? तब उन का अंतर्मन चीत्कार कर उठता है.

‘तरंग, क्या जीवन जीने के लिए, खुश रहने के लिए शारीरिक सुख- सुविधाएं ही पर्याप्त हैं? क्या इनसान केवल एक शरीर है? तो फिर मनुष्य और पशुपक्षी में क्या अंतर हुआ? तुम तो स्वच्छंद विचरती चिडि़या से भी बदतर हो. पिंजरे वाली मुनिया में और तुम में अंतर क्या है? तुम भी तो अपना मुंह तभी खोलती हो जब कहा जाए. ठीक वही बोलती हो जो सिखाया गया हो, न एक शब्द कम, न एक शब्द अधिक.’

और अपने अंतर्मन की इस आवाज को सुन कर उन का मन हाहाकार कर उठा. लेकिन घर आने वाला हर मेहमान, रिश्तेदार उन की तारीफ करते नहीं थकता कि तरंग अपनी बातों में शहद घोल देती हैं, सब का मन मोह लेती हैं.’’

वह सोचने लगीं कि सब का मन वह मोह लेती है, तो कोई कभी उन का मन मोहने की कोशिश क्यों नहीं करता?

एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार की असाधारण लड़की. तीखे नाकनक्श, गोरा रंग, लंबा छरहरा शरीर. पढ़ने में जहीन, क्लास में हमेशा फर्स्ट. कभी पापा की सीमित आय में उसे सेंध नहीं लगानी पड़ी. फेलोशिप, स्कालरशिप, बुकग्रांट, बचपन से खुशमिजाज, हमेशा गुनगुनाती, लहराती, बलखाती लड़की को दादी कहतीं, ‘यह लड़की आखिर है क्या? कभी इसे रोते नहीं देखा, चोट लग जाए तो भी खिलखिला कर हंसना, दूसरों को हंसाना. इस का नाम तो तरंग होना चाहिए.’

और पापा ने सचमुच उन का नाम विजया से बदल कर तरंग कर दिया. वह ऐसी ही थीं. पूरी गंभीरता से पढ़ाई करते हुए गाने गुनगुनाना. चलतीं तो लगता दौड़ रही हैं, सीढि़यां उतरतीं तो लगता छलांगें लगा रही हैं. स्कूलकालिज में सब कहते, ‘तुम्हारा नाम बड़ा सोच कर रखा गया है. हमेशा तुम तरंग में ही रहती हो.’

और उस दिन उन की ननद कह रही थीं, ‘समझ में नहीं आता भाभी, आप का नाम आप के स्वभाव से एकदम उलटा क्यों रखा अंकलआंटी ने? आप इतनी शांत, दबीदबी और नाम तरंग.’

क्या कहतीं वह? कैसे कहतीं कि यहां, इस घर में आ कर तरंग ने हिलोरें लेना बंद कर दिया है.

बी.काम. के पहले साल में वह बहुत बीमार हो गई थीं. सब के मुंह यह सोच कर लटक गए थे कि तरंग का क्या हाल होगा, लेकिन वह सामान्य थीं बल्कि उन्होंने पापा को धीरज बंधाया, ‘पापा, क्या हो गया? यह सब तो चलता रहता है. मेरे पास 2 वर्ष हैं अभी तो, आप देखिएगा, गोल्ड मेडल मैं ही लूंगी.’

पापा आत्मविश्वास से ओतप्रोत उस नन्हे से चेहरे को निहारते ही रह गए थे. उन की बेटी थी ही अलग. उन्हें गर्व था उन पर. ड्रामा, डांस सब में आगे और पढ़ाई तो उन की मिल्कीयत, कालिज की शान थीं, प्रिंसिपल की जान थीं वह.

आई.आई.एम. कोलकाता के सालाना जलसे में स्टेज पर उर्वशी बनी तरंग सीधी सिद्धांत के दिल में उतर गईं. सारा अतापता ले कर सिद्धांत घर लौटे और रट लगा दी कि जीवनसंगिनी बनाएंगे तो उसी को.

मां ने समझाया, ‘देख बेटा, इतने साधारण परिवार की लड़की भला हमारे ऊंचे खानदान में कहां निभेगी? इन लोगों में ठहराव नहीं होता.’

जवाब जीभ पर था. ‘सब हो जाता है मां. आएगी तो हमारे तौरतरीकों में रम जाएगी. तेज लड़की है, बुद्धिमती है, सब सीख जाएगी.’

‘यह भी एक चिंता की ही बात है बेटा. इतनी पढ़ीलिखी, इतनी लायक है तो महत्त्वाकांक्षिणी भी होगी. आगे बढ़ने की, कुछ करने की ललक होगी. कहां टिक पाएगी हमारे घर में?’ पापा ने दबाव डालना चाहा.

‘पापा, आप भी…जब उसे घर बैठे सारा कुछ मिलेगा, हर सुखसुविधा उस के कदमों में होगी तो वह रानीमहारानी की गद्दी छोड़ कर भला चेरी बनने बाहर क्यों जाएगी?’

हर तर्क का जवाब हाजिर कर के सिद्धांत ने सब का मुंह ही बंद नहीं किया, उन्हें समझा भी दिया.

तरंग ब्याह कर आ गईं. तरंग के घर वालों की तो जैसे लाटरी खुल गई. भला कभी सपने में सोच सकते थे, बेटी के लिए ऐसा घर जुटाना तो दूर की बात थी. घर बैठे मांग कर ले गए लड़की.

तरंग भी बहुत खुश थी. सिद्धांत कद में उस के बराबर और जरा गोलमटोल हैं तो क्या हुआ. इतने बड़े ‘बिजनेस हाउस’ की वह अब मालकिन बन गई थीं.

मेहमानों के जाने, लोगों का आतिथ्य ग्रहण करने और मधुयामिनी से लौटते 2 महीने निकल गए. ऐसे खुशगवार दिन तो इसी तरह पंख लगा कर उड़ते हैं. माउंट टिटलस पर बर्फ के गोले एकदूसरे पर मारतेमरवाते स्विट्जरलैंड की सैर, तो कभी रोशनी से जगमगाते सुनहरे ‘एफिल टावर’ को निहारता पेरिस का कू्रज. वेनिस के जलपथ में अठखेलियां करते वे दोनों कब एकदूसरे के दिलों में ही नहीं शरीर में भी समा गए, पता ही नहीं चला. वे दो बदन एक जान बन चुके थे. ऐसे में कोई छोटीमोटी बात चुभी भी तो तरंग ने उसे गुलाब का कांटा समझ कर झटक दिया.

उस दिन पेरिस का मशहूर ‘लीडो शो’ देखने के लिए तरंग अपनी वह सुनहरी बेल वाली काली साड़ी ‘मैचिंग ज्वेलरी’ के साथ पहन कर इठलाती निकली तो सिद्धांत ने एकदम टोक दिया, ‘बदलो जा कर, यह क्या पहन लिया है? वह आसमानी रंग वाली शिफान पहनो, मोती वाले सेट के साथ.’

आगे पढ़ें- चुपचाप तरंग ने गुलाबी सिल्क पहन ली, लेकिन…

पिंजरे वाली मुनिया: भाग-2

पहला भाग पढ़ने के लिए- पिंजरे वाली मुनिया: भाग-1

लेखक- उषा रानी 

चुपचाप उन्होंने अपने वस्त्र बदल तो लिए थे पर कुछ समझ में नहीं आया कि इस में क्या बुराई थी. लेकिन उन सुनहरे पलों में वह कटुता नहीं लाना चाहती थीं. इसलिए चुप रहीं.

अब उस दिन कोकाकोलाके एम.डी. के यहां जाने के लिए उन्होंने बड़े शौक से मोतियोंके बारीक झालर वाली ड्रेस निकाल कर रखी थी, मोतियों के ही इटेलियन सेट के साथ. बाथरूम से बाहर निकलीं तो देखा सिद्धांत बड़े ध्यान से उस ड्रेस को देख रहे थे. खुश हो कर वह बोलीं, ‘अच्छी है न यह डे्रस?’

‘अच्छी है? मुझे तो यह समझ में नहीं आता कि तुम हमेशा यह मनहूस रंग लादने को क्यों तैयार रहती हो?’ सिद्धांत की आवाज में बेहद खीज थी.

चुपचाप तरंग ने गुलाबी सिल्क पहन ली, लेकिन अपनी छलछलाई आंखों को छिपाने के लिए उन्हें दोबारा बाथरूम में घुसना पड़ा था. उस के बाद उन्होंने सभी काले कपड़े अपने वार्डरोब से निकाल ही दिए. कभीकभी उन्हें अपने होने का जैसे एहसास ही नहीं होता. जब उन की अपनी कोई इच्छा ही नहीं तो उन का तो पूरा का पूरा अस्तित्व ही निषेधात्मक हो गया न? कितने सपने थे आंखों में, कितनी योजनाएं थीं मन में. विवाह के बाद तो उन योजनाओं ने और भी वृहद् रूप धर लिया था. इतने बड़े व्यवसाय का स्वामित्व तो सारी की सारी पढ़ाई को सार्थक कर देगा. पर हुआ क्या?

मन में उमंग और तरंग लिए मुसकरा कर जब उन्होंने सिद्धांत से कहा था, ‘अब बहुत हो चुकी मौजमस्ती, आफिस में मेरा केबिन तैयार करवा दीजिए. कल से ही मैं शुरू करती हूं. महीना तो काम समझने में ही लग जाएगा.’

सिद्धांत अवाक् उन का मुंह देखने लगे.

‘क्या हुआ? ऐसे क्या देख रहे हैं आप?’

‘तुम आफिस जाओगी? पागल हो गई हो क्या? हमारे खानदान की औरतें आफिस में?’

‘अरे, तो क्या इतनी मेहनत से अर्जित एम.बी.ए. की डिगरी बरबाद करूं घर बैठ कर? बोल क्या रहे हैं आप?’ वह सचमुच हैरान थीं.

‘हां, डिगरी ली, बहुत मेहनत की, ठीक है. पढ़ीलिखी हो, घर के बच्चों को पढ़ाओ, अखबार पढ़ो, पत्रिकाएं पढ़ो, टीवी देखो,’ इतना बोल कर सिद्धांत उठ कर चल दिए.

तरंग को काटो तो खून नहीं. मम्मीपापा की दी हुई सीख और पारिवारिक संस्कारों ने उन की जबान पर ताला जड़ दिया था. छटपटाहट में कई रातें आंखों में ही कट गईं. पर करें तो क्या करें? सोने का पिंजरा तोड़ने की तो हिम्मत है नहीं. और जैसा होता है, धीरेधीरे रमतेरमते वह उसी वातावरण की आदी हो गईं.

विद्रोह का सुर तो कभी नहीं उठा था पर अब भावना भी लुप्त हो गई. दिनमहीने इसी तरह बीतते गए. 4 साल में प्यारी सी पुलक और गुड्डा सा श्रीष तनमन को लहरा गए. अधूरे जीवन में संपूर्णता आ गई. पूरा दिन बच्चों में बीतने लगा. उन का पढ़नापढ़ाना और उसी में व्यस्त तरंग को देख सिद्धांत ने भी चैन की सांस ली. वरना तरंग का मूक विद्रोह और सूनी अपलक दृष्टि को झेलना कभीकभी सिद्धांत के लिए कठिन हो जाता.

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वह कई बार संकल्प करती हैं कि जिस तरह उन के सपने चकनाचूर हुए, सारी कामनाएं राख हो गईं, ऐसा पुलक के साथ नहीं होने देंगी. पर विद्रोह की चिनगारी भड़कने से पहले ही राख हो जाती है. विदाई के समय दी गई मम्मी की नसीहत एकदम याद जो आ जाती है :

‘बेटी, तू हमेशा अपनी इच्छा की मालिक रही है. अपनी तरंग में कभी किसी को कुछ नहीं समझा तू ने. पर ससुराल में संभल कर रहना. हर बात को काटना, अपनी मरजी चलाना यह सब यहीं छोड़ जा. वैसे भी वे बड़े लोग हैं, उन का रखरखाव और तरह का है. तेरी किसी भी हरकत से उन की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने पाए. जैसा वे कहें वैसा ही करना, जो वे चाहें वही चाहना, जितना वे सोचें उतना ही सोचना.’

और तरंग मम्मी की बात मान कर पिंजरे वाली मुनिया बन गईं. कितनी विचित्र होती हैं न इन भारतीय संस्कारी परिवारों की कन्याएं. पिता के घर से विदा होते समय हाथ से पीछे की ओर धान उछालती हुई अपनी प्रकृति, आदतें, प्रवृत्तियां सबकुछ छोड़ आती हैं. इसीलिए उन्हें दुहिता कहते हैं शायद. लेकिन एक जगह दिक्कत आ गई कि वह अपनी भावनाओं को, अपनी सोच को, ससुराली सांचे में नहीं ढाल पाईं. करतींकहतीं उन के मन की पर सोचतींमहसूसतीं उन से अलग. इसी अंतराल ने उन्हें अकसर झिंझोड़ा है, निचोड़ा है.

दिनों को महीनों में और महीनों को सालों में बदलने में भला देर कब लगती है? पुलक ने 12वीं कर ली है. एकदम मां जैसी वह भी बहुत जहीन है. उस ने जे.ई.ई. की स्क्रीनिंग पार कर ली है. सिद्धांत तो उस के प्रतियोगिता में बैठने के ही पक्ष में नहीं थे, तरंग ने ही जैसेतैसे मना लिया था. अब बारी आई है ‘मेन्स’ में बैठने की. पुलक ने अपने स्तर से भरपूर तैयारी की है और तरंग ने पूरी जान लगा दी है. फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स को नए सिरे से रात भर जाग कर पढ़ा है तरंग ने. बेटी कहीं अटकी और समाधान ले कर मां तैयार. सिद्धांत सब देख रहे हैं और उन के पागलपन पर हंस रहे हैं.

घर के सभी लोगों ने कह दिया कि ‘मेन्स’ में बैठने की कोई जरूरत नहीं. जिस दर जाना नहीं वहां का पता क्या पूछना? लेकिन पुलक ने हार नहीं मानी. उस ने पापा से लाड़ लगाया, ‘पापा, मुझे सिर्फ जरा अपनी क्षमता मापने दीजिए. कौन सा मैं आ जाऊंगी? मैं ने तो कोचिंग वगैरह भी नहीं ली है, न ‘पोस्टल’ न ‘रेगुलर’. मेरी क्लास के बच्चों ने तो 2-2 कोचिंग ली हैं. दिल्ली जा कर टेस्ट दिए हैं, क्लासें की हैं. मैं जानती हूं पापा, आना मुश्किल ही नहीं, असंभव है. मैं तो बस, अपने आप को आजमाने के लिए बैठना चाहती हूं. प्लीज, पापा, प्लीज.’

और सिद्धांत पसीज गए. उन्होंने सोचा, आना तो है नहीं, करने दो पागलपन. बोले, ‘चल, कर ले शौक पूरा. तू भी क्या याद करेगी अपने पापा को.’

आगे पढ़ें- ऐसा तो सचमुच न पुलक ने सोचा था और न ही तरंग ने. अब?

पिंजरे वाली मुनिया: भाग-3

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लेखक- उषा रानी 

हंसती खिलखिलाती पुलक ‘मेन्स’ में बैठ गई. और यह क्या? शायद निषेध संघर्ष करने की क्षमता में एकदम वृद्धि कर देता है. व्यक्ति को अधिक गहनता से उत्साहित करता है. पुलक की तो रैंक भी 400 की आ गई है. आराम से दिल्ली में प्रवेश मिल जाएगा. ऐसा तो सचमुच न पुलक ने सोचा था और न ही तरंग ने. अब? मांबेटी दोनों ऐसी सकते में हैं जैसे कोई अपराध कर डाला हो. पुलक की इतनी बड़ी उपलब्धि इस परिवार के घिसेपिटे विचारों या पता नहीं झूठी मानमर्यादा के कारण एक पाप बन गई है. दूसरे परिवारों में तो बच्चे के 3-4 हजार रैंक लाने पर भी उस की पीठ ठोंकी जा रही होगी, जश्न मनाया जा रहा होगा. बेचारी पुलक का हफ्ता इसी उलझन में निकल गया कि बताए तो कैसे बताए?

तरंग भी हैरान हैं. वह मौके की तलाश में हैं कि यह खुशखबरी कैसे दें, कब दें. बात तो सचमुच हैरानी की है. दुनिया कहां से कहां छलांग लगा रही है. करनाल जैसे छोटे से शहर की कल्पना चावला ऐसी ऊंचाइयां छू सकती है तो उसी भारत के महानगर कोलकाता का यह परिवार इतना दकियानूसी? आज भी परिवार की मानमर्यादा के नाम पर पत्नी का, कन्या का ऐसा मानसिक शोषण? असल में पारिवारिक संस्कारों और परंपराओं का बरगद जब अपनी जड़ें फैला लेता है तो उसे उखाड़ फेंकना प्राय: असंभव हो जाता है. वही यहां भी हो रहा है.

‘काउंसलिंग’ की तारीख नजदीक आती जा रही है. घर में तूफान आया हुआ है, पुलक सब को मनाने की कोशिश में लगी हुई है लेकिन वे टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. लड़की को इंजीनियर बनाने के लिए होस्टल भेज कर पढ़ाना कोई तुक नहीं है.

‘लड़की को इंजीनियर बना कर करना क्या है? नौकरी करानी है? साल 2 साल में शादी कर के अपना घर बसाएगी,’ दादाजी का तर्क है.

‘बेटा, इतनी ऊंची पढ़ाई करना, लड़के वाले सपने देखना कोई बुद्धिमानी नहीं. अब देख, तेरी मां ने भी तो आई.आई.एम. से एम.बी.ए. किया. क्या फायदा हुआ? एक सीट बरबाद हुई न? कोई लड़का आता, उस पर नौकरी करता तो सही इस्तेमाल होता उस सीट का. तू तो बी.एससी. कर के कालिज जाने का शौक पूरा कर ले,’ सिद्धांत ने बड़े प्यार से पुलक का सिर सहलाया.

तरंग ने सब सुना. उन्हें लगा, जैसे आरे से चीर कर रख दिया सिद्धांत के तर्क ने. खुद चोर ही लुटे हुए से प्रश्न कर रहा था. विवाह के 22 साल बीत चुके हैं. आज तक कभी उन्होंने सिद्धांत की कोई बात काटी नहीं है. तर्कवितर्क नहीं किया है. आज भी चुप लगा गईं. सहसा यादों की डोर थामे वह 24 साल पहले के अतीत में पहुंच गईं. आई.आई.एम. से तरंग के प्रवेश का कार्ड आने के बाद पापा परेशान थे.

‘क्या करूं कल्पना, कुछ समझ नहीं पा रहा हूं. लड़की के रास्ते की रुकावट बनना नहीं चाहता और उस पर उसे चलाने का साधन जुटाने की राह नहीं दिख रही. शान से सिर ऊंचा हो रहा है और शर्म से डूब मरने को मन कर रहा है,’ पापा सचमुच परेशान थे.

‘अरे, तो सोच क्या रहे हैं? भेजिए उसे.’

‘हां, भेजूं तो. पर होस्टल का खर्च उठाने की औकात कहां है हमारी?’

‘ओह, यह समस्या है? वह प्रबंध मैं ने कर लिया है. शकुंतला चाची की लड़की सुहासिनी कोलकाता में है. पिछले साल ही अभिराम का तबादला हुआ है. मेरी बात हो गई है सुहास से.’

‘लेकिन इतना बड़ा एहसान… बात एकदो दिन की नहीं पूरे 2 साल की है.’

‘हां, वह भी बात हो गई है मेरी. बड़ी मुश्किल से मानी. 1 हजार रुपया महीना हम किट्टू के नाम जमा करते रहेंगे.’

‘किट्टू?’

‘अरे, भई, उस की छोटी बेटी. बस, बाकी तरंग समझदार है. मौसी पर बोझ नहीं, सहारा ही बनेगी.’

बहुत बड़ा बोझ उतरा था पापा के सिर से, वरना वह तो पी.एफ. पर लोन लेने की सोच रहे थे. बेटी के उज्ज्वल भविष्य को अंधकार में बदलने की तो वह सोच ही नहीं सकते थे. एक वह पिता थे और एक यह सिद्धांत हैं. बेचारी पुलक आज्ञाकारिणी है, उन की तरह जिद्दी नहीं है. वह अपने पापा की आंखों में आंखें डाल कर कभी बहस नहीं करेगी. बस, मम्मी का आंचल पकड़ कर रो सकती है या घायल हिरणी की तरह कातर दृष्टि उन पर टिका सकती है.

अचानक तरंग को लगा कि वह अपने और पुलक के पापा की तुलना कर रही है, तो दोनों की मम्मियों की क्यों नहीं? उस की अनपढ़ मम्मी ने उपाय निकाला था और वह स्वयं इतनी शिक्षित हो कर भी असहाय हैं, मूक हैं, क्यों? कहीं उन की अपनी कमजोरी ही तो बेटी की सजा नहीं बन रही. उन की बेजबानी ने बेटी को लाचार बना दिया है. कुछ निश्चय किया उन्होंने और रात में सिद्धांत से बात कर डाली.

‘सिद्धांत, आप ने पुलक को मेरा उदाहरण दिया. पर जमाना अब बदल गया है. आज लड़कियां लड़कों की तरह अलगअलग क्षेत्रों में सक्रिय हैं और फिर जरूरी तो नहीं कि सब के विचार आप लोगों की ही तरह हों. समय के साथ विचारों में भी परिवर्तन आता है. हो सकता है उस की डिगरी मेरी तरह बरबाद न हो और डिगरी तो एक पूंजी है, जो मौका पड़ने पर सहारा बन सकती है. आप क्यों अपनी बेटी के पंख कतरने पर तुले हैं?’

जलती आंखों से देखा सिद्धांत ने, कि इस मुंह में जबान कैसे आ गई? फिर तुरंत मुसकरा पड़े. तीखे स्वर में बोले, ‘आ गया आंधी का झोंका तुम पर भी. ‘वुमेन इमैन्सिपेशन’? बेटी है न? तो सुनो, तुम्हारे बाप ने तुम्हें इसलिए पढ़ा दिया, क्योंकि उन्हें अपनी हैसियत का पता था. पढ़लिख कर नौकरी करेगी, अफसर बनेगी. उन्हें पता था कि वह किसी ऊंचे घराने में बेटी ब्याहने की हैसियत नहीं रखते. पर मुझे पता है कि मेरी औकात है अपनी बेटी को ऐसे ऊंचे खानदान में देने की, जहां वह बिना दरदर की खाक छाने राज करेगी. यह तो तुम्हारी किस्मत ने जोर मारा और तुम मुझे पसंद आ गईं, वरना इतने नीचे गिर कर भला हम लड़की उठाते? अब इस विषय में कोई बात नहीं होगी. दिस चैप्टर इस क्लोज्ड. बारबार एक ही बात दोहराना मुझे बिलकुल पसंद नहीं,’ और वह करवट बदल कर सो गए. तरंग की वह रात आंखों में कटी.

तीसरे दिन जिम से लौटने पर सिद्धांत बाहर टैक्सी खड़ी देख हैरान रह गए. पूछने ही वाले थे कि कमरे से तरंग को निकलते देखा. काले रंग की बालूचरी साड़ी में लिपटी उन की कोमल काया थोड़ी कठोर लग रही थी. हैरान होने की आज उन की बारी थी.

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‘कहां जा रही हो? सुनीता के यहां, लेकिन इतनी सुबह?’

तरंग अपनी बचपन की सहेली सुनीता के यहां कभीकभी चली जाती हैं. वह सीधी आगे बढ़ कर सिद्धांत से मुखातिब हुईं.

‘नहीं, सुनीता के यहां नहीं. साढ़े 9 वाली फ्लाइट से दिल्ली जा रही हूं. किस लिए, यह आप समझ ही गए होंगे. वहां मैं रमण अरोड़ा के घर रुकूंगी. यह रहा उन का पता.’

उन्होंने सिद्धांत के हाथ में कार्ड पकड़ा दिया. तब तक पुलक हाथ में अटैची पकड़े अपने कमरे से बाहर आ चुकी थी. सिद्धांत तो इस कदर अकबका गए कि बोल ही बंद हो गए.

मांजी बाहर ही खड़ी थीं, उन्होंने चुप्पी तोड़ी, ‘लेकिन जा ही रही हो तो मौसी के घर रुक जातीं. गैरों के घर इस तरह…’

‘नहीं मम्मीजी, मौसी के घर रुकने में परिवार की बदनामी होगी. अकेली जा रही हूं न बेटी के साथ. क्या बहाना बनाऊंगी? और फिर कौन गैर, कौन अपना…’

सब के मुंह पर ताले लग गए. तरंग ने मांबाबूजी के पैर छुए. एक हाथ में पोर्टफोलियो और दूसरे से पुलक का हाथ पकड़ सीधे निकल गईं. मुड़ कर देखा तक नहीं.

अपनी सारी महत्त्वाकांक्षाएं, अरमान, मानसम्मान के पंखों को कतर कर पिंजरे में सिमटी वह मुनिया अपनी नन्ही चुनमुन के नए उगते पंखों को फैलाने से पहले ही कटते नहीं देख सकी और चल दी.

#coronavirus: ताजी हवा का झौंका

पहले जनता कर्फ्यू… फिर लॉकडाउन… और अब ये पूरा कर्फ्यू… समझ में नहीं आता कि टाइमपास कैसे करें…” निशिता ने पति कमल से कहा.

“पहले तो रोना ये था कि समय नहीं मिल रहा… अब मिल रहा है तो समस्या है कि इसे बिताया कैसे जाये…” कमल ने हाँ में हाँ मिलाई.

निशिता और कमल मुंबई की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करते हैं. सुबह से लेकर रात तक घड़ी की सुइयों को पकड़ने की कोशिश करता यह जोड़ा आखिर में समय से हार ही जाता है. पैसा कमाने के बावजूद उसे खर्च न कर पाने का दर्द अक्सर उनकी बातचीत का मुख्य भाग होता है.

मुंबई में अपना फ्लैट… गाड़ी… और अन्य सभी सुविधाएं होने के बाद भी उन्हें आराम करने का समय नहीं मिल पाता… टार्गेट पूरे करने के लिए अक्सर ऑफिस का काम भी घर लाना पड़ जाता है. ऐसे में प्यार भला कैसे हो… लेकिन यह भी एक भौतिक आवश्यकता है. इसलिए इन्हें प्यार करने के लिए वीकेंड निर्धारित करना पड़ रहा है. लेकिन पिछले दिनों फैली इस महामारी यानी कोरोना के कहर ने दिनचर्या एक झटके में ही बदल कर रख दी. अन्य लोगों की तरह निशिता और कमल भी घर में कैद होकर रह गए.

“क्या करें… कुछ समझ में नहीं आ रहा. पहाड़ सा दिन खिसके नहीं खिसकता…” निशिता ने लिखा.

“अरे तो बेबी! समय का सदुपयोग करो… प्यार करो ना…” सहेली ने आँख दबाती इमोजी के साथ रिप्लाइ किया.

“अब एक ही काम को कितना किया जाये… कोई लिमिट भी तो हो…” निशिता ने भी वैसे ही मूड में चैट आगे बढ़ाई.

“सो तो है.” इस बार टेक्स्ट के साथ उदास इमोजी आई.

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“ये तो शुक्र है कि बच्चे नहीं हैं. वरना अपने साथ-साथ उन्हें भी व्यस्त रखने की कवायद में जुटना पड़ता.” निशिता ने आगे लिखा.

“बात तो तुम्हारी सौ टका सही है यारा… अच्छा एक बात बता… एक ही आदमी की शक्ल देखकर क्या तुम बोर नहीं हो रही?” सहेली ने ढेर सारी इमोजी के साथ लिखा तो निशिता ने भी जवाब में ढेरों इमोजी चिपका दी.

सहेली से तो चैट खत्म हो गई लेकिन निशिता के दिमाग में कीड़ा कुलबुलाने लगा. अभी तो महज तीन-चार दिन ही बीते हैं और वह नोटिस कर रही है कि कमल से उसकी झड़प होते-होते बस किसी तरह रुकी है लेकिन एक तनाव तो उनके बीच पसर ही जाता है.

कहते हैं कि बाहरी कारक दैनिक जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं. शायद यही कारण है कि लॉकडाउन और कर्फ्यू का तनाव उनके आपसी रिश्तों को प्रभावित कर रहा है. लेकिन इस समस्या का अभी निकट भविष्य में तो कोई समाधान दिखाई नहीं दे रहा.

“कहीं ऐसा न हो कि समस्या के समाधान से पहले उनका रिश्ता ही कोई समस्या बन जाये… दिन-रात एक साथ रहते-रहते कहीं वे अलग होने का फैसला ही न कर बैठें.” निशिता का मन कई तरह की आशंकाओं से घिरने लगा.

“तो क्या किया जाए… घर में रहने के अलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं… क्यों न जरा दूरियाँ बनाई जाएँ… थोड़ा स्पेस लिया जाए… लेकिन कैसे?” निशिता ने इस दिशा में विचार करना शुरू किया तो टीवी देखना… गाने सुनना… बुक्स पढ़ना… कुकिंग करना… जैसे एक के बाद एक कई सारे समाधान विकल्प के रूप में आने लगे.

“फिलहाल तो सोशल मीडिया पर समय बिताया जाए.” सोचकर निशिता ने महीनों पहले छोड़ा अपना फ़ेसबुक अकाउंट लोगइन किया. ढेरों नोटिफ़िकेशन आए हुये थे और दर्जनों फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट… एक-एककर देखना शुरू किया तो मेहुल नाम की रिक्वेस्ट देखकर चौंक गई. आईडी खोलकर प्रोफ़ाइल देखी तो एक मुस्कान होठों पर तैर गई.

“कहाँ थे जनाब इतने दिन… आखिर याद आ ही गई हमारी…” मन ही मन सोचते हुये निशिता ने उसकी दोस्ती स्वीकार कर ली.

मेहुल… उसका कॉलेज फ्रेंड… जितना हैंडसम… उतना ही ज़हीन… कॉलेज का हीरो… लड़कियों के दिलों की धड़कन… लेकिन कोई नहीं जानता था कि मेहुल के दिल का काँटा किस पर अटका है. निशिता अपनेआप को बेहद खास समझती थी क्योंकि वह मेहुल के बहुत नजदीकी दोस्तों में हुआ करती थी. हालाँकि मेहुल ने कभी इकरार नहीं किया था और निशिता कि तो पहल का सवाल ही नहीं था लेकिन चाहत की चिंगारी तो दोनों के दिल में सुलग ही रही थी.

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“कहीं वह इस राख़ में दबी चिंगारी को हवा तो नहीं दे रही…” निशिता ने एक पल को सोचा लेकिन अगले ही पल चैट हैड पर मेहुल को एक्टिव देखकर उसने अपने दिमाग को झटक दिया.

“लॉकडाउन में कुछ तो अच्छा हुआ.” मेहुल का मैसेज स्क्रीन पर उभरा. निशिता का दिल धड़क उठा. ऐसा तो कॉलेज के समय भी नहीं धड़कता था.

इसके बाद शुरू हुआ चैट का सिलसिला जो कॉलेज की चटपटी बातों से होता हुआ जीवनसाथी की किटकिटी पर ही समाप्त हुआ और वह भी तभी थमा जब कमल ने लंच का याद दिलाया. निशिता बेमन से उठकर रसोई में गई और जैसा-तैसा कुछ बना… खाकर… वापस मोबाइल पर चिपक गई.

बहुत देर इंतज़ार के बाद भी जब मेहुल ऑनलाइन नहीं दिखा तो वह निराश होकर लेट गई. खाने का असर था, जल्दी ही नींद भी आ गई. उठी तो कमल चाय का कप हाथ में लिए खड़ा था. निशिता ने एक हाथ में कप और दूसरे में मोबाइल थाम लिया. मेहुल का मैसेज देखते ही नींद कि खुमारी उड़ गई.

फिर वही देर शाम तक बातों का सिलसिला. मेहुल उससे नंबर माँग रहा था बात करने के लिए लेकिन निशिता ने उसे लॉकडाउन पीरियड तक टाल दिया. वह नहीं चाहती थी कि कमल को इस रिश्ते का जरा सा भी आभास हो. यूं भी इस तरह के रिश्ते तिजोरी में सहेजे जाने के लिए ही होते हैं. इनका खुले में जाहिर होना चोरों को आमंत्रण देने जैसा ही होता है. यानी आ बैल मुझे मार… निशिता यह खतरा नहीं उठाना चाहती थी. वह तो इस कठिन समय को आसानी से बिताने के लिए कोई रोमांचक विकल्प तलाश रही थी जो उसे सहज ही मिल गया था. लेकिन इस आभासी रिश्ते के चक्कर में वह अपनी असल जिंदगी में कोई दूरगामी तूफान नहीं चाहती थी.

निशिता नहीं जानती थी कि आने वाले दिनों में ऊँट किस करवट बैठगा… लेकिन हाल फिलहाल वह बोरिंग हो रही जिंदगी में अनायास आए इस ताजी हवा के झौंके का स्वागत करने का मानस बना चुकी थी.

#coronavirus: ये कोरोना-वोरोना कुछ नहीं होता

आज नेहा बहुत खुश हैं क्यू कि उसका बचपन का ख्वाब जो पूरा होने जा रहा है.. शादी के बाद वो पहली बार इटली जा रही थी.. उसके सास ससुर ने मुंह दिखाई में इटली घूमने और हनीमून मनाने के लिए टिकट बुक किया था. वैसे तो वो कई बार पापा के साथ बिजनेस ट्रिप पर विदेश गयी थी मगर शेड्यूल टाइट होने से अपनी मन की शॉपिंग और घूमना फिरना नहीं हो पाया था. ये बात जब उसने मंगनी के बाद सृजन को बतायी तो झट से उसने उसे विदेश घुमाने, शॉपिंग कराने और खूब मस्ती करने के लिए प्रॉमिस कर डाली. वो जब धूमधाम से शादी के बाद ससुराल आई तो उसे मुंह दिखाई में ही सरप्राइज मिल गया.

अगले दिन से ही उसने पैकिंग करनी शुरू कर दी.. उसने अपनी सारी मनपसंद ड्रेस पैक कर ली ताकि वो अच्छी अच्छी फोटो भी ले सकें और उसे अपने दोस्तों को दिखाकर, सोशल मीडिया पर डालकर तारीफ बटोर सकें.. अगले ही दिन की फ्लाइट थी.. उन्होंने समय से निकल तो लिया था एयरपोर्ट के लिए, मगर ट्रैफिक जाम के चलते फ्लाइट टेक ऑफ होने से आधा घंटा पहले ही पहुंचे… उनको एयरपोर्ट पर चेक इन करने में वक़्त लग रहा था क्यू कि लैगेज ज्यादा था.. सृजन बार बार काउन्टर पर जल्दी करने को दबाव डाल रहा था.. जबकि स्टाफ उससे कोआपरेट करने को कह रहा था.. इस बीच उसने सभी को नौकरी से बाहर कराने की धमकी भी दे डाली.. जैसे तैसे दोनों अपनी अपनी सीट पर पहुँच गए. सृजन बहुत गुस्से में था और उसने नेहा को बोला “देखना तुम, मैं इनकी नौकरी ले कर रहूँगा.. इन्हें कम से कम हमारा स्टैंडर्ड देखकर तो काम करना चाहिए था”.

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इस पर नेहा बोली कि “नियम तो सब पर लागू होते हैं न.. वो हमारा सामान पहले कैसे चेक कर सकते थे जबकि पहले से लोग लाइन में थे”.

सृजन ने भड़कते हुए कहा कि “तो फिर क्या जरूरत थी इतनी जांच की? हम कोई बम लेकर थोड़े ही जा रहे हैं.. आखिर पैसे वालों की इज्जत भी करनी चाहिए न “?

इस पर नेहा ने चुप रहने में ही भलाई समझी और बाहर की ओर देखने लगी.

फ्लाइट लैंड होते ही वो बाहर निकले तो टैक्सी उन्हें इंतजार करते मिली तो सृजन ने लंबी साँस लेकर कहा कि” Thank God! इसने इंतज़ार नहीं कराया .. और बातें करते दोनों होटल पहुँच गए.. वहां पर काउन्टर पर फारमेल्टी करने के बाद जब सर्विस बॉय उनका लैगेज ले जा रहा था तो उसने यू ही पूछ लिया कि “Sir! Why you have carry heavy language? Every one on trip should carry…” बात पूरी करने से पहले ही नेहा जोर से चिल्ला पड़ी.. “Mind your business”..

सर्विस बाॅय Sorry Madam.. कहकर चुप हो गया.

दोनों ने अपने हनीमून ट्रिप को खूब इंजॉय किया.. आखिरी दिन जब वो खाना खाने प्रसिद्ध रेस्त्रां जा रहे थे तो होटल से उन्हें कॉल आई कि “कृपया करके आप होटल में ही रहे और वापस जाने तक कहीं बाहर न निकले.. क्यू कि इस समय कोई रहस्मय बीमारी फैल रही है जिससे जान जाने का खतरा है और डाक्टर अभी तक बीमारी का न तो नाम जानते हैं और न ही इसका इलाज़..” मगर भला दोनों कहाँ किसी की बात मानने वाले थे.. दोनों को जैसे सभी नियम तोड़ने की जिद्द थी.. खाना खाने के बाद सारा दिन खूब मस्ती की.. मगर आज हर जगह लोग उन्हें कम दिखाई दिए रोज की अपेक्षा…

अगले दिन वो अपने शहर वापस बैंगलोर वापस आ गए.. एयरपोर्ट पर भी कुछ डॉक्टर्स लोगों की जांच कर रहे थे और पूछ रहे थे कि किसी को सर्दी जुकाम तो नहीं है.. सृजन उन्हें अनदेखा करते हुए साइड से निकलने लगा तो एक डॉक्टर ने रोक लिया.. हालांकि सृजन को हल्का बुखार था फिर भी उसने कहा कि वो दोनों स्वस्थ्य है.. दोनों को एक पेपर दिया गया.. जिस पर उसी रहस्मय बीमारी के जिक्र के साथ लक्षण लिखे थे और 14 दिन तक परिवार से अलग रहकर जांच कराने की बात लिखी थी… नेहा ने पढ़ते ही कहा कि “ये तो वही बीमारी लिखी है जिसका जिक्र इटली के होटल में किया गया था और बाहर न जाने की सलाह दी थी.. और तुम्हें बुखार के साथ जुकाम भी है तो तुमने एयरपोर्ट पर मना क्यू किया?”

सृजन ने पेपर छीनकर विंडों से बाहर फेंकते हुए कहा कि “डार्लिंग ये सर्दी जुकाम तो लगा रहता है और तुम भी किन छोटे लोगों की बातों में आती हो? मैं इन लोगों को मुंह नहीं लगाता ”

दोनों सीधे ही अपने फ्लैट में गए जिसे नेहा के पिता ने शादी में दहेज में दिया था.. उनके आने से पहले ही अच्छे से फ्लैट को सजा दिया गया था…

दो दिन ही बीते थे कि सृजन को आज सुबह से ही तेज बुखार के साथ खांसी भी आने लगी.. उसने अपने पास रखी कुछ दवा खा ली और फोन पर ऑफिस की अपडेट लेने लगा तो बातों ही बातों में उसने अपने मैनेजर को बताया कि उसे कई दिनों से सर्दी, जुकाम, खांसी और बुखार आ रहा है और आज नेहा को भी हल्का बुखार है.. इस पर मैनेजर ने उसे डॉक्टर के पास जाने को कहा और उसी रहस्मय बीमारी के बारें में बताया तो सृजन झल्ला पड़ा.. “तुम भी क्या उन लोगों की तरह अनाप शनाप बोलने लगे.. ये सब बीमारी मुझे नहीं हो सकती है” कहकर फोन रख दिया.. और जाने के लिए तैयार होने लगा.. कुछ ही देर बाद डोर बैल बजी.. दरवाजे खोलते ही वो हक्का बक्का रह गया.. क्यू कि मैनेजर और डाक्टर दोनों ही मास्क पहने खड़े थे.. वो आग बबूला होने लगा.. डाक्टर की तेज आवाज पर उसे अंदर आना पड़ा.. थोड़े देर की पूछताछ के बाद ही डॉक्टर ने कॉल करके एम्बुलेंस लाने को बोला.. इससे पहले कि वो, नेहा कुछ समझ पाते…उसे और नेहा को मास्क लगाने को कहा गया और सृजन को दो कवर्ड लोगों ने एम्बुलेंस में बैठने को कहा.. सुनकर नेहा रोने लगी और डॉक्टर की सख्ती के आगे सृजन का रौब न काम आया और उसे एम्बुलेंस में लेकर डॉक्टर चले गए.. साथ आई टीम ने नेहा को उस बीमारी के बारें में बताया और कुछ दवाईयां खाने के लिए दी और साथ ही बताया कि वो 14 दिन तक होम क्वेरेनटाइन (Quarantine) में रहेगी और जांच के बाद स्वस्थ्य पायी गयी तो वो कहीं भी जा सकती है.. जब तक उसे बाहर नहीं निकलना है.. उसका फ्लैट बंद रहेगा.. समय समय पर नर्स आएगी और उसे कोई जरूरत होगी तो बता सकती है या फोन पर बात कर सकती है… इतना बताने के बाद टीम चली गई और नेहा का फ्लैट बाहर से बंद कर दिया गया.

उनके जाते ही नेहा ने अपने पापा को कॉल लगायी और रोते हुए बताया.. आधी अधूरी बात सुनकर वो भावुक हो गए और बेटी को चुपचाप घर आने को कह दिया.. उन्होंने खुद ही नेहा के लिए बंगलौर से दिल्ली तक कि फ्लाइट और दिल्ली से मथुरा तक की बस बुक करा दी और कहा कि रात होते ही चुपचाप पीछे के दरवाजे से निकल कर रात आठ बजे की फ्लाइट पकड़ ले.. नेहा की मां ने आज ही ख़बर देखी थी इस बीमारी को लेकर जिसे डॉक्टर ” कोरोना वायरस” कह रहे थे.. बात सुनते ही वो बीच में बोल पड़ी कि अगर 14 दिन अलग रहने को बोला गया है तो रह ले.. डॉक्टरों ने कुछ सोच कर ही बोला होगा और इटली से आए भी है जहां ये बीमारी फैल रही है.. उसने आज ही न्यूज सुनी है.. इस पर नेहा के पिता बात करते वक्त ही चिल्ला पड़े कि अपने काम से मतलब रखों बस..

नेहा चुपचाप फ्लाइट से होती हुई बस पकड़ कर मथुरा पहुँच गई.. रास्ते में उसे खांसी और छींक भी आ रही थी.. बस में पास बैठी महिला ने टोका तो बोली तो उसने रूखे अंदाज में कहा कि अपनी सीट बदल ले.. अगली सुबह वो अपने पिता के घर थी और जब मेडिकल टीम उसका चेक अप करने घर पहुंची तो उन्हें नेहा नहीं मिली.. उधर सृजन की रिपोर्ट आ चुकी थी और वो इस बीमारी “कोरोना” से संक्रमित था.. सृजन से पूछताछ पर पता चला कि नेहा अपने पिता के घर मथुरा जा सकती है.. सृजन की रिपोर्ट पाॅजिटिव आने के बाद नेहा के भी संक्रमित होने की संभावना बढ़ रही थी..

ये एक ऐसी बीमारी थी जिसकी शुरुआत सर्दी, खांसी, जुकाम, बुखार से हो रही थी और साँस लेने में तकलीफ के साथ लोगों की मृत्यु हो जा रही थी.. ये एक वायरस से फैल रहा था जिसे नोबेल कोरोना covid 19 नाम दिया गया था और डाक्टर अभी तक इसका इलाज़ ढूंढ नहीं पाए थे.. WHO ने मेडिकल इमर्जेंसी घोषित कर दी थी और इसे महामारी का नाम दिया गया था.. भारत में अभी तक इसका संक्रमण नहीं फैला था.. लेकिन विदेश से वापस लौटे लोगों के संक्रमित होने के चलते धीरे धीरे संख्या बढ़ रही थी.. अब विदेश से आने वाले लोगों की जांच की जा रही थी.. स्टाफ और डाक्टर कम पड़ रहे थे और कुछ लोग अपने रसूख दिखा कर बिना जांच निकल रहे थे..

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उधर नेहा के घर पर पूछताछ के लिए लोकल पुलिस गई तो उनके पिता ने सीधे तौर पर इंकार कर दिया कि नेहा से उनकी कोई बात तक नहीं हुई है और इंस्पेक्टर पर धौंस जमाते हुए उनकी शिकायत SP से करने को कहा.. मगर गेट के बाहर आते ही उसने गॉर्ड से पूछा तो उसने बताया कि “आज बिटिया सवेरे ही अकेली ही आई है.. दामाद जी साथ नहीं थे तो इंस्पेक्टर ने फौरन मेडिकल टीम को सूचित किया.. और एसपी ने शहर में अलर्ट जारी किया क्यू कि अगर नेहा संक्रमित पायी गयी तो उसका परिवार और जिनके भी नजदीकी संपर्क में आई होगी सभी संक्रमित हो सकते हैं.. मेडिकल टीम को भी उसके पिता नेहा को सौपने के लिए तैयार न थे.. टीम ने उन्हें विश्वास में लेने की बहुत कोशिश की.. जबकि नेहा की हालत खराब हो रही थी.. उन्हें न जाने किस बात का डर सता रहा था.. एसपी के हस्तक्षेप करने के बाद जबरन मेडिकल टीम उसे जांच के लिए अस्पताल ले गई और उसके माता पिता को भी अकेले रहने (isolation) और बाहर न जाने की सलाह दी.. साथ ही 14 दिन मानिटर करने को कहा.. जांच में नेहा भी संक्रमित निकली.. उसके माता पिता के भी संक्रमित होने की संभावना है और साथ ही नेहा की लापरवाही के चलते फ्लाइट में, बस में उसके संपर्क में आए लोगों के भी संक्रमित होने की संभावना है.. इस तरह डॉक्टर की सलाह न मानकर.. जांच न कराकर.. संक्रमित लोगों के भीड़ में जाने से मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है.. सरकार ने स्पष्ट गाइड लाइन जारी कर दी है लेकिन इसी बीच एक दूसरे शहर में अमेरिका से आयी बालीवुड स्टार के बिना जांच निकलने और आते ही पार्टी आयोजित करने के बाद उसके “कोरोना वायरस के संक्रमण” होने की ख़बर आते ही शहर में डर का माहौल है.. उनके पार्टी में शहर के नामचीन हस्तियों, नेता के आगमन के बाद उनका संसद में प्रवेश से इसके काफी लोगों के बीच पहुंचने का अंदेशा है.. ये तो पढ़े लिखे और पैसे की रौब ज़माने वाले का हाल है.. अभी मेडिकल टीम छोटे छोटे शहर, गाँव और कस्बों में पहुंची ही नहीं है.. सरकार और सभी जिम्मेदार लोग सोशल डिस्टेंस मेनटेन करने की अपील कर रहे हैं क्यू कि डॉक्टर, दवा, मास्क की मात्रा बहुत ही कम मात्रा में है….

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