लघु कथा: सॉरी… सना

दफ्तर में आज सिर्फ सना के ही चर्चे थे. सना ने सेल्स टीम में ज्वाइन किया था. लड़कों में उसकी खूबसूरती और लड़कियों में एटिट्यूट के चर्चे थे. एचआर असिस्टेंट ने पूरे फ्लोर पर एक-एक एम्लॉई से उसे मिलवाया. संभवत: ये पहला ऐसा मौका था जब दफ्तर में हर कोई हाथ मिलाकर नए एम्पालॉइ का स्वागत करना चाह रहा था. वैसे इसमें गलत भी क्या है, ये तो कॉरपोरेट कल्चर है. लेकिन उसकी बला की खूबसूरती एक बार तो उसे छूकर देख लेने की हसरत पूरी करा ही रही थी.

लंच ब्रेक में नई तरह की चर्चा ऑफिस में शुरू हो गई. ऑफिस की कैंटीन से दिखने वाली बाहर की चाय की थड़ी पर सना सिगरेट पी रही थी. अब चर्चा उसके सौन्दर्य की कम, उसके बोल्ड होने की ज्यादा होने लगी. कहीं ‘जज’ करने सरीखे व्यंग्य, कहीं ‘बायगॉड की कसम, तेरी भाभी मिल गई’ जैसी मजाक.

सना कैंटीन के रास्ते ऊपर फिर से फ्लोर पर लौट ही रही थी, कि पंचिंग गेट पर रौनक अपना कंधा उसे छूते हुए निकला. ‘ओह सॉरी’ बोल कर रौनक आगे बढ़ गया.

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सना को ये ‘सॉरी’ आर्टीफिशियल सा लगा. वो बार-बार सोच रही थी कि कंधा टकराना नॉर्मल हो सकता है लेकिन पूरे हाथ को छूते हुए निकलना और सॉरी बोलते वक्त उसका आंखों की बजाये शरीर की ओर घूरना, एक सामान्य घटना नहीं थी. कुछ मिनट तक इस पर सोचने के बाद वो इस घटना को इग्नोर करते हुए फिर से एचआर विंग में जाकर बैठ गई. वहां पहुंचते ही रूमा ने उसे कहा- ‘छू गया तुम्हें भी वो हरामी ?’

‘सॉरी, क्या कहा आपने’, सना ने चौंक कर रूमा की ओर देखा. ‘देख रही थी मैं, गेट पर वो तुमसे कैसे टकरा कर गया.’

‘हां, वो सॉरी बोल रहे थे, हू इस ही ?’  सना ने रूमा की बात का जवाब दिया.

रूमा बोली- ‘वो रौनक है, बास्टर्ड साला… बस मौका चाहिए उसे टकराने का. तीन साल में कभी एक बार भी उसकी आंखे शरीर की तांक झांक से हटते नहीं देखी मैंने. इस फ्लोर पर कोई ऐसी लड़की नहीं, जिससे वो एक्सीडेंटली टकराता नहीं. बॉस का खास चमचा है, सब्जी पहुंचाने से लेकर बच्चों को टूशन ले जाने तक का जिम्मा इसी का है, इसलिए इसे कुछ बोल नहीं सकते. बस सहना पड़ता है.’

सना की ज्वाइनिंग और उस टक्कर को आज दो साल बीत चुके हैं. सना तीन दिन पहले रिजाइन भी कर चुकी है. रौनक वहीं उसी दफ्तर में रौनक फैला रहे हैं. अब भी वो किसी से भी टकरा जाते हैं.

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न किसी ने उसे कुछ कहा, न किसी ने उसके ऊपर वालों से कुछ कहा. रौनक का प्रमोशन हो चुका है.  कैबिन मिल गया है. आते-जाते आजकल वो कंधे की बजाये सीधे-सीधे टकरा जाते हैं. ऑफिस फीमेल स्टाफ थोड़ा संभल कर चलता है तो वो फीमेल विजिटर्स से टकरा जाते हैं. पर हां, शराफत बरकरार है, ‘सॉरी’ जरूर बोलते हैं.

3 सखियां: भाग-3

अब तक आप ने पढ़ा:

आभा, शालिनी और रितिका पक्की सहेलियां थीं. स्कूल के दिनों से ही उन का साथ था. तीनों सहेलियां खुले विचारों वाली थीं. जिंदगी से जुड़ी हर बात ये सहेलियां एकदूसरे से शेयर करती थीं. इत्तफाक से तीनों की शादी ऐसे लड़कों से हुई जो अमेरिका में सैटल थे. शादी के बाद जब तीनों सहेलियां अमेरिका पहुंचीं तो वहां भी अपनी दोस्ती बिखरने नहीं दी. वहां आपस में होती बातचीत से पता चला कि उन सहेलियों के विचार तो लगभग एकजैसे थे पर उन के पतियों के विचारों में भिन्नता थी.

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कुछदिन बाद आभा ने शालिनी को फिर फोन लगाया. लेकिन जब कई बार फोन करने पर भी शालिनी ने फोन नहीं उठाया, तो आभा के मन में खलबली मच गई. अपनी सखी के लिए तरहतरह की दुश्चिंताएं उस के मन में उठने लगीं. आखिरकार एक दिन शालिनी ने फोन उठाया.

‘‘अरी कहां मर गई थी तू?’’ आभा झुंझलाई, ‘‘मैं 2 घंटे से तुझे फोन लगा रही हूं.’’

‘‘मैं यहीं पड़ोस में  गई थी. आज हम लोगों के क्लब की मीटिंग थी.’’

‘‘अरे वाह, तू ने कोई क्लब जौइन कर लिया है क्या? इस का मतलब तू घर से बाहर निकलने लगी है. चलो देरसवेर तुझे कुछ अक्ल तो आई. अब बता यह कैसा क्लब है?’’

‘‘यह एक पीडि़त स्त्रियों का क्लब है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘यह क्लब उन स्त्रियों के लिए है जिन के पति उन्हें मारतेपीटते हैं या उन्हें अन्य तरीकों से प्रताडि़त करते हैं. हम सब महीने में एक बार मिलती हैं और एकदूसरे को अपने दुखड़े सुनाती हैं. एकदूसरे को ढाढ़स भी बंधाती हैं, एकदूसरे से सलाहमशविरा भी करती हैं और अपनी परेशानियों का समाधान खोजती हैं.’’

‘‘शालिनी, तुझे यह सब करने की क्या जरूरत पड़ गई?’’ आभा चकित हुई, ‘‘क्या तू उन पीडि़त औरतों में से एक है?’’

‘‘हां.’’

‘‘मुझे विश्वास नहीं होता. क्या तेरा पति तुझ पर हाथ भी उठाता है?’’

‘‘हां,’’ शालिनी फफक उठी, ‘‘उन्होंने मुझे कई बार मारा है. छोटीछोटी बात को ले कर भी उन का हाथ मुझ पर उठ जाता है. कौफी ठंडी हुई तो या लंच पैक करने में देरी हुई तो एक थप्पड़. कपड़े धुल कर तैयार नहीं मिले तो एक धौल. एक रोज हम शौपिंग मौल गए थे तो मेरे माथे और बदन पर पड़े नील के निशान देख कर एक अमेरिकन युवती चुपके से मेरे पास आई. उस ने मुझे अपना कार्ड दिया और कहा कि वह पीडि़त स्त्रियों का एक क्लब चलाती है. उस ने आग्रह किया कि मैं उस के क्लब की मीटिंग में आऊं. उस ने यहां तक कहा कि वह मुझे आ कर ले जाएगी और वापस छोड़ भी देगी. इत्तफाक से पार्थ उस समय अपने सैलफोन पर बातें कर रहे थे, इसलिए उन की निगाह हम पर नहीं पड़ी. नहीं तो घर लौट कर वे मुझे और मारते. उन्होंने सख्त ताकीद की है कि मैं बाहर बिना वजह किसी से बातचीत न करूं और न किसी से कोई संपर्क रखूं.’’

‘‘शालिनी तू किस मिट्टी की बनी है?’’ आभा ने बिफर कर कहा, ‘‘तू ये सब क्यों बरदाश्त कर रही है बता तो? क्या तुझ में जरा भी स्वाभिमान नहीं है? क्या तू पढ़ीलिखी और सबल नहीं है? क्या तेरे भेजे में थोड़ी सी भी अक्ल नहीं है? क्या तू इतना भी नहीं जानती कि औरतों पर हाथ उठाना एक जुर्म है. पुलिस में रिपोर्ट लिखाने भर की देर है, तेरे पतिदेव सलाखों के पीछे होंगे.’’

‘‘जानती हूं पर इस से फायदा?’’

‘‘बेवकूफों की तरह बात न कर. फायदा यह होगा कि तेरे मियां को उन के किए की सजा मिलेगी. उन की अक्ल ठिकाने आ जाएगी. उन्हें झक मार कर अपना रवैया बदलना होगा. तुझे नई जिंदगी मिलेगी.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. एक बार वे सजा काट कर आएंगे तो फिर वही सिलसिला शुरू होगा. उन का स्वभाव बदलने वाला नहीं है. और अगर उन्हें सजा हुई तो मेरा क्या होगा? मेरा गुजारा कैसे होगा? न मेरे पास कोई नौकरी है और न मेरे में कोई काबिलीयत है. हाथ में एक दमड़ी भी नहीं है. पिताजी ने जो डौलर घर से चलते समय थमाए थे वे खर्च हो गए. मैं अकेली कैसे निर्वाह करूंगी, यह सोच कर ही कलेजा कांपता है.’’

‘‘अकेली क्यों है तू, तेरे साथ हम सब हैं. तेरा परिवार है, नारी कल्याण केंद्र है, सोशल वर्कर हैं जो तुझे हर तरह की मदद पहुंचाएंगे. अच्छा यह बता क्या तू ने अपने मातापिता से इस बारे में बात की है?’’

‘‘नहीं. मेरे मातापिता मेरे बारे में जानेंगे तो रोरो कर मर जाएंगे. मैं ने उन से सिर्फ इतना ही कहा है कि मुझे अपना वैवाहिक जीवन रास नहीं आया. मैं घर लौटना चाहती हूं.’’

‘‘तब वे क्या बोले?’’

‘‘वे क्या कहते. उन्होंने मुझे एक लंबा लैक्चर पिला दिया. तुम तो जानती ही हो कि वे कितने रूढिवादी हैं. वे बोले कि बेटी हरेक के वैवाहिक जीवन में कुछ न कुछ कठिनाइयां आती हैं. तुझे अपने पति से तालमेल बैठाना होगा. अपनी जिंदगी से समझौता करना ही होगा. हिंदू नारी का यही धर्म है. और जरा सोच, अगर तू ने तलाक लिया तो हम तेरी दूसरी शादी कैसे कर पाएंगे? पहली शादी ही इतनी मुश्किल से हुई. और बड़ी बहन तलाकशुदा हो कर घर में बैठी रही तो समाज क्या कहेगा? तेरी छोटी बहनों की शादी कैसे हो पाएगी? वगैरहवगैरह…’’

‘‘ओहो, तुम्हारे मम्मीपापा तो बड़े दकियानूसी निकले. मैं उन से बात करूंगी.’’

‘‘नहीं आभा, इस से कुछ हासिल नहीं होगा. मेरे मातापिता तो पहले से ही अपनी समस्याओं से परेशान हैं. पिताजी रिटायर हो चुके हैं और दिल के मरीज भी हैं. मैं उन को अपना दुखड़ा सुना कर दुखी नहीं करना चाहती और खोटे सिक्के की तरह घर लौट कर उन पर बोझ नहीं बनना चाहती. यह मेरी समस्या है, मैं ही इस से निबटूंगी.’’

‘‘ठीक है, पर मुझ से एक वादा कर. तू मुझे बराबर फोन कर के अपनी खोजखबर देती रहेगी.’’

‘‘अवश्य.’’

शालिनी की बातें याद कर आभा मन ही मन उफनती रही. शालिनी ने यह क्यों कहा कि वह अपने मातापिता पर बोझ नहीं बनना चाहती? क्या हम लड़कियां अपने मातापिता पर बोझ होती हैं? उस ने कुढ़ कर सोचा. जब से आभा ने होश संभाला तब से वह हमेशा सुनती आई थी कि बेटियां पराया धन हैं, दूसरे की अमानत हैं, 2 दिन की मेहमान हैं, वगैरहवगैरह. सुनसुन कर वह चिढ़ती थी. पर नहीं, वह तो अपने मांबाप की आंखों का तारा थी. उन की बेहद लाडली बिटिया थी. उन्होंने कभी उस में और उस के भाई में भेदभाव नहीं किया. आभा को याद आया कि कैसे जब वह स्कूल से लौटती थी, तो अपनी मां को घर में न पा कर रोने बैठ जाती थी. रूठ जाती थी और खाना भी न खाती थी. उस की मां लौटतीं तो उस का मनुहार करतीं, उसे अपनी गोद में बैठा कर उस के मुंह में कौर देतीं तब जा कर वह खाना खाती थी. मांबाप से बिछड़ने पर उसे असहाय पीड़ा हुई थी. उसे हमेशा घर की याद सताती रहती थी.

बेटियां ससुराल जा कर भी अपने मायके से जीवनपर्यंत जुड़ी रहती हैं. उन का जी अपने मांबाप के लिए कलपता रहता है. मांबाप जब बूढ़े और लाचार हो जाते हैं, तो अकसर बेटियां ही उन की सारसंभाल करती हैं. वे संवेदनशील होती हैं, स्नेहमयी होती हैं. तिस पर भी वे पराया धन मानी जाती हैं. और बेटे, वे बड़े हो कर चाहे मांबाप की बात न सुनें, उन्हे मांबाप का सहारा, उन के बुढ़ापे की लाठी आदि विशेषणों से नवाजा जाता है.

आभा को अचानक याद आया कि 2 दिन बाद शालिनी का जन्मदिन था. उस ने एक मोबाइल फोन खरीद कर उसे तोहफा भेज दिया. फिर कुछ दिन बाद उसी मोबाइल से उस के पास फोन आया तो उस ने फोन उठाया.

‘‘हैलो, आप आभाजी बोल रही हैं?’’ एक अनजान पुरुष स्वर सुनाई दिया.

‘‘हां मैं बोल रही हूं. कहिए आप कौन?’’

‘‘मैं शालिनी का पति पार्थ बोल रहा हूं. यह मोबाइल गिफ्ट आप ने भेजा है?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मैं इसे वापस कर रहा हूं. आइंदा आप हमें कोई चीज नहीं भेजेंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मुझे आप की और शालिनी की दोस्ती पसंद नहीं. मुझे पता चला है कि आप मेरी पत्नी को बिना वजह मेरे खिलाफ भड़का रही हैं, उसे बरगला रही हैं. बेहतर होगा कि आप हमारे व्यक्तिगत मामलों में दखल न दें.

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यह रिश्ता प्यार का: भाग-2

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रामलाल से पूछने पर उस ने बताया कि किरण मेम साहब रख गई हैं. कह रही थीं साहब को अच्छा लगेगा. उन्हें बता देना कि मैं आई थी. मैं ने मोबाइल पर किरण को धन्यवाद कहा तो वह बोली, ‘‘कांतजी, जिस दिन आप गुलदस्ता उस टेबल पर रखा देखो समझ लेना मेरी तरफ से संकेत है कि उमेशजी को घर लौटने में देर लगेगी. आप बेफिक्र मेरे पास आ सकते हो.’’ थोड़ी देर में ही मैं किरण के पास पहुंच गया. हलके आसमानी रंग की साड़ी में वह बहुत सुंदर लग रही थी. खुली बांहों में भर कर स्वागत करते हुए मेरा हाथ पकड़ कर ड्राइंगरूम में सोफे तक ले गई, ‘‘कांत, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि जब से तुम से मित्रता हुई है मेरी खुशी कितनी बढ़ गई है.’’

‘‘तुम बहुत ब्यूटीफुल लग रही हो. लगता है आज तुम ने मेकअप में बहुत समय लगाया है. अगर मेकअप न भी करो तो भी तुम सुंदर लगती हो.’’

‘‘तारीफ करने की कला तो कोई तुम से सीखे. तुम तारीफ करते हुए बहुत अच्छे लगते हो. बैठो जब तक मैं चाय बना कर लाती हूं तुम टीवी पर कोई मनपसंद चैनल लगा लो,’’ कहते हुए उस ने रिमोट मुझे पकड़ा दिया. थोड़ी देर में वह ट्रे में 2 कप चाय और प्लेट में बिसकुट ले आई. फिर मेरे पास बैठ गई, ‘‘कांतजी, अब मैं आप को बता रही हूं कि उमेशजी दुकान के लिए माल लेने दिल्ली गए हैं. कल लौटेंगे. हमारे पास मौजमस्ती के लिए पर्याप्त समय है. जी भर कर मेरे पास रहिए और जो मन में इच्छा हो उसे पूरी कर लीजिए. मैं पूरा सहयोग दूंगी. मैं सच्चे दिल से आप से प्यार करती हूं’’

‘‘मैं आज सीरियस मूड में हूं और तुम्हें कुछ समझाना चाहता हूं. मैं शादीशुदा हूं. वीना मुझे बहुत प्यार करती है. और मैं नहीं चाहूंगा कि उमेश की गैरमौजूदगी का मैं फायदा उठाऊं. वे मेरे अच्छे दोस्त हैं. यह तो तुम्हारे प्यार का रिस्पौंस था जो मैं मित्रता की हद से बाहर तुम्हें कभीकभी ‘हग’ कर लेता था या तुम्हें ‘हग’  करने देता था. मेरी तुम्हें सलाह है, अब हमें खुद पर नियंत्रण लगा लेना चाहिए…’’

इस से पहले कि मैं अपनी बात पूरी कर पाती उलटे उस ने ही मुझे समझाना शुरू कर दिया, ‘‘कांतजी, बी प्रैक्टिकल. मैं आप और आप की पत्नी के बीच में आए बगैर भी तो प्यार कर सकती हूं. यदि हमारा संबंध गुप्त रहे तो हरज क्या है?’’ कहने को वह यह सब कह तो गई, फिर कुछ सोच कर मुसकराते हुए बोली, ‘‘आप मुझ से उम्र में काफी बड़े हो. मुझे अभी तक इस तरह समझाने वाला कोई नहीं मिला है. आप से मित्रता और प्यार मेरी जरूरत है. पत्नी का फर्ज मैं उमेशजी के साथ पूरी ईमानदारी से निभा रही हूं और निभाती रहूंगी, लेकिन उन से प्यार कभी नहीं हो पाया है. वे सीधेसरल अवश्य हैं, लेकिन प्यार करने के लिए न तो उन के पास समय है और न ही उन की सोच में प्यार का कोई महत्त्व है. सुखसुविधाओं के अलावा एक स्त्री को शारीरिक सुख की भी चाह होती है,’’ कहती हुई वह भावुक हो गई. आंखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली.

मैं ने उसे गले लगा कर पीठ थपथपाते हुए आश्वासन दिया, ‘‘मेरी मित्रता और प्यार जितना संभव होगा बना रहेगा.’’ वीना की डिलिवरी के समय मैं 1 सप्ताह की छुट्टी ले कर उस के मायके पहुंच गया. उस ने एक प्यारी सी गुडि़या को जन्म दिया. चंडीगढ़ लौट कर पुन: मैं अपने कामकाज में व्यस्त हो गया. किरण और मेरा एकदूसरे के घर आनाजाना पहले जैसा ही था. लगभग डेढ़ माह बाद वीना को उस का भाई चंडीगढ़ मेरे पास छोड़ गया. अभी वीना को देखभाल की जरूरत थी. किरण दिन के समय वीना के पास आ जाती थी और हर काम में उस की मदद करती थी. वीना को भी किरण बहुत अच्छी लगी, तो दोनों जल्दी ही पक्की सहेलियां बन गईं. किरण ने उसे बताया कि उस की शादी 20 की होतेहोते ही हो गई थी. पुरुषों के साथ संबंध में उसे कोई अनुभव नहीं था. उस ने वीना से मेरे बारे में बेबाक तरीके से कहा, ‘‘मुझे कांतजी बहुत अच्छे लगते हैं. कुदरत ने तुम्हारी जोड़ी बहुत अच्छी बनाई है. तुम सुंदर और सरल हो. वे भी प्यार पाने और देने के लिए जल्द ही लोगों की ओर आकर्षित हो जाते हैं…एक बात बताऊं वीना भाभी…कांत का दिल बहुत सहानुभूति और दूसरों की कद्र करने वाला है.’’

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वीना ने संक्षेप में बस इतना ही कहा, ‘‘मेरे कर्म अच्छे थे जो वे मुझे मेरे जीवनसाथी के रूप में मिले.’’ वीना के साथ परिचय होने के बाद हम दोनों मित्र परिवारों में मिठाई और उपहारों के आदानप्रदान का सिलसिला शुरू हो चुका था. बर्थडे और शादी की सालगिरह हम दोनों परिवार एकसाथ एक उत्सव की भांति मनाते थे. कभी किरण हमारे घर आ कर किचन में वीना की खाना बनाने में सहायता करती तो कभी घर के सामान की झाड़पोंछ में उस की मदद करती. वह चाहती थी घर के कामकाज का बोझ वीना पर न पड़े. डिलिवरी के बाद धीरेधीरे वीना का स्वास्थ्य बेहतर होता जा रहा था. इस विषय में वह किरण की तारीफ उमेश के सामने करने से नहीं चूकती थी. एक दिन उमेश बोले, ‘‘किरण है ही ऐसी. सब की मदद करने में उसे बहुत खुशी मिलती है. हमेशा मुसकरा कर मदद करने का एहसान भी नहीं जताती है.’’ पहली बार उमेश के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर किरण की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने मुझ से कहा, ‘‘आज पहली बार उमेशजी ने मेरी तारीफ में कुछ शब्द कहे हैं, तो पार्टी तो बनती ही है. आज शाम की चाय हम लोग मेरे घर पर पीएंगे,’’ मैं मान गया.

एक दिन शाम के समय जब मैं औफिस से घर लौटा तो देखा ड्राइंगरूम में टेबल पर गुलदस्ता रखा था. वीना ने बताया, ‘‘किरण यह गुलदस्ता लाई थी. कह रही थी उस का मन मेरे साथ चाय पीने का था. अभी 1 घंटा पहले ही अपने घर गई है.’’ मैं किरण की सांकेतिक भाषा समझ गया. किरण मुझ से अपने घर में मिलना चाहती है. वीना के साथ चाय पीने के बाद मैं ने वीना से कहा, ‘‘मैं औफिस के काम से 1 घंटे के लिए बाहर जा रहा हूं. 7 बजे तक आऊंगा.’’  मैं किरण के घर पहुंचा तो देखा वह मुख्यद्वार पर मेरा इंतजार कर रही थी. बड़ी बेसब्री के साथ मुझे बांहों में भर कर मेरा स्वागत किया.

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3 सखियां: भाग-2

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‘‘अरे रितिका तू?’’ आभा चीखी, ‘‘कहां से बोल रही है?’’

‘‘न्यूयार्क से.’’

‘‘इधर अमेरिका कब आई, कैसे आई?’’

‘‘बस जहां चाह वहां राह. एक मालदार आंख का अंधा गांठ का पूरा मिल गया. मैं ने उस पर धावा बोल दिया और 3 ही महीने में वह चित्त हो गया. हम ने फौरन शादी की और चूंकि वह न्यूयार्क में काम करता है, हम यहां आ गए.’’

‘‘अरे वाह, यह तो कमाल हो गया. लेकिन शादी में बुलाना तो था न यार.’’

‘‘यह सब कुछ इतनी जल्दबाजी में हुआ कि कुछ न पूछो. मुझे खुद नहीं विश्वास होता कि मेरी शादी हो गई है.’’

‘‘चल ये तो बड़ा अच्छा हुआ. देख हम तीनों सखियां बचपन से साथ हैं और अब भी साथ रहने का मौका मिल गया. रितिका, तू मुझ से वादा कर कि चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए हम तीनों हमेशा मिलती रहेंगी. ज्यादा नहीं तो कम से कम साल में 1-2 बार, बारीबारी से एकदूसरे के घर में.’’

‘‘जरूर. लेकिन तू पहले यह बता कि अपनी सखी शालिनी के क्या हाल हैं?’’

‘‘वह भी मजे में है. पर उस से ज्यादा बात नहीं हो पाती. तू यहां आएगी तो उसे भी बुला लेंगे.’’

‘‘जरूर. तू कुछ खानावाना बना लेती है या नहीं?’’

‘‘क्यों नहीं. शादी तय होते ही मेरी मां ने मुझे एक कुकरी क्लास जौइन करवा दी. वही पाक कला आज काम आ रही है. थोड़ाबहुत तो बना ही लेती हूं.’’

‘‘अरे वाह, मैं तो अपने घर का खाना खाने के लिए तरस जाती हूं. जब से शादी हुई रोज डिनर पार्टी होती रहती है. कभी चाइनीज, कभी जापानी, कभी थाई तो कभी वियतनामीज. मैं तो खाखा कर बोर हो गई.’’

‘‘तू मेरे यहां आ. मैं तुझे पक्का इंडियन खाना बना कर खिलाऊंगी, दालचावल, खिचड़ी, कढ़ी.’’

‘‘जल्दी ही प्रोग्राम बनाती हूं.’’

‘‘अपने मियां को भी साथ लाना.’’

‘‘उन को छोड़ो. उन के जैसा बिजी आदमी इस दुनिया में न होगा. जरा सोच, जब हमारे सोने का समय होता है तो वे महाशय जागते रहते हैं. रात के 3 बजे तक काम कर के सोते हैं और दिन में 2 बजे सो कर उठते हैं.’’

‘‘अरे ऐसा क्यों?’’

‘‘उन का काम ही कुछ इस तरह का है. इनवैस्टमैंट बैंकर का नाम सुना है न, वही काम करते हैं. जब अमेरिका में रात होती है तो बाकी दुनिया जागती है और बिजनैस की खातिर उस समय उन्हें भी जागना पड़ता है.’’

‘‘तब तू सारा दिन क्या करती रहती है?’’

‘‘मेरी कुछ न पूछो. घर के कामकाज और खाना बनाने के लिए एक नौकरानी है, इसलिए मैं तो ऐश करती हूं, खूब घूमती हूं. दिन भर शौपिंग मौल के चक्कर काटती हूं और कुछ न कुछ खरीदती भी रहती हूं. इसीलिए मेरा घर दुनिया भर की अलाबला से अटा पड़ा है. इस बात को ले कर मेरे मियां और मुझ में तनातनी रहती है पर क्या करूं मेरी यह आदत नहीं छूटती.’’

‘‘तू कोई नौकरी क्यों नहीं कर लेती?’’

‘‘वाह, नौकरी क्यों करूं? शादी किसलिए की है? मेरा मियां मुझे कमा कर खिलाएगा और मैं हाथ पर हाथ धरे ऐश करूंगी.’’

‘‘यहां तो सभी स्त्रीपुरुष नौकरी करते हैं. कोई घर में निठल्ला बैठा नहीं रहता. हम इंडियन लोग तो बेहद लगन से काम करते हैं.’’

‘‘उंह, मैं उन लोगों में से नहीं हूं. मैं रानी बन कर रहना चाहती हूं, नौकरानी बन कर नहीं.’’

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जब आभा ने शालिनी से ये बातें दोहराईं तो वह खूब हंसी फिर बोली, ‘‘इस रितिका का भी जवाब नहीं. लेकिन पट्ठी ने जो कुछ चाहा था वह सब उसे मिल गया. अपनी पसंद का लड़का, पैसे वाला. उसे अपनी मनमानी करने की पूरी आजादी भी मिली है. मुझे देखो इतने दिन यहां आए हो गए पर अभी तक मैं ने घर की चौखट तक नहीं लांघी है.’’

‘‘अरे क्या कहती है तू?’’ आभा ने आश्चर्य किया, ‘‘भला ऐसा क्यों?’’

‘‘मेरे पतिदेव को मेरा घर से बाहर स्वच्छंद घूमना पसंद नहीं. वे चाहते हैं कि मैं हिंदुस्तानी परदाशीन औरतों की तरह घर में ही रहूं. घर का काम करूं और इसी में खुश रहूं.’’

‘‘क्या बकवास कर रही है तू? ये तेरे पति की कैसी सोच है भला? क्या वे 18वीं सदी के रहने वाले हैं?’’

‘‘मैं ने भी उन से इस बारे में बहुत बहस की पर वे टस से मस नहीं हुए. उन्होंने कार ले कर देना तो दूर मुझे कार चलाना तक नहीं सिखाया है. शौपिंग मौल भी गई हूं तो एकाध बार उन के साथ. अकेले घर से बाहर निकलने का सवाल ही नहीं. वे मेरे हाथ पर एक डौलर भी नहीं रखते कि कभी अपनी जरूरत की चीज खरीद सकूं. अच्छा उन के आने का समय हो गया है, फोन रखती हूं.’’

‘‘अरे ठहर…’’

‘‘नहीं उन्हें मेरा किसी से फोन पर बात करना अच्छा नहीं लगता. अपने घर वालों से भी महीने में एक बार फोन करने की इजाजत है. वे कहते हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते. और मैं फोन भी करती हूं तो अपने मन की बात मातापिता से नहीं कह पाती, क्योंकि पार्थ दूसरे रूम के फोन से मेरी बातें सुनते रहते हैं और 5 मिनट बाद फोन काट देते हैं. वे कहते हैं कि ऐसी कौन सी जरूरी बात है जो चिट्ठी लिख कर कही नहीं जा सकती?’’

‘‘कमाल है. क्या हमारा मन अपनों की आवाज सुनने को नहीं करता?’’

‘‘अब इन मर्दों को कौन समझाए. रोज बहस करकर के मैं तो थक गई. अच्छा फोन रखती हूं.’’

‘‘अगली बार तू मुझे फोन करना.’’

‘‘मैं फोन नहीं कर सकती भाई.’’

‘‘भला क्यों?’’

‘‘तुझे बताया न कि पति महाशय ने उस पर भी बंदिश लगा रखी है. कहते हैं 1-1 पैसा जोड़ कर एक बड़ी रकम जमा कर के जल्द से जल्द वापस इंडिया लौटना है, इसलिए यथासंभव हर तरह से किफायत करना जरूरी है.’’

‘‘तो क्या इस के लिए जीना छोड़ देंगे? भई बुरा न मानना, तेरे मियां कुछ खब्ती से लगते हैं या परले सिरे के कंजूस हैं. खैर जब मिलेंगे तो इस के बारे में विस्तार से बात करेंगे.’’

आगे पढ़ें- कुछदिन बाद आभा ने शालिनी को फिर फोन लगाया.

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3 सखियां: भाग-1

आभा,शालिनी और रितिका पक्की सहेलियां थीं. स्कूल के दिनों से ही उन का साथ था. कालेज में भी वे नियमित रूप से एकदूसरे से मिलती रहती थीं. जब अल्हड़ उम्र की थीं तब अकसर उन की बातचीत का विषय होता लड़के. कालेज के लड़के, पासपड़ोस के लड़के, गलीमहल्ले के लड़के. फिर जब शादी की उम्र हुई तो भावी पति को ले कर अटकलें लगाई जाने लगीं.

‘‘भई तुम लोगों की मैं नहीं जानती,’’ शालिनी आह भर कर कहती, ‘‘पर मेरे साथ जो होने वाला है उसे मैं जानती हूं. जहां मेरी बी.ए. की पढ़ाई समाप्त हुई, मेरी शादी कर दी जाएगी. मेरे मातापिता तो दिन गिन रहे हैं. उन्होंने तो लड़का भी तलाश कर लिया है.’’

‘‘अरे ऐसे कैसे तेरी शादी कर देंगे? अच्छी जबरदस्ती है,’’ रितिका बोली.

‘‘लड़का कौन है? तेरी पसंद का है या नहीं?’’ आभा ने पूछा.

‘‘मेरी पसंद की परवा किसे है भई. कई साल से मेरी बूआ हमारे पीछे पड़ी हुई हैं अपने बेटे के लिए, शायद उसी से…’’

‘‘अरे तेरा कजन? यह तो कुछ अच्छा नहीं लगता. इतना करीबी रिश्ता, तुझे कुछ अटपटा नहीं लगता?’’

‘‘लगता तो है पर मेरी सुनने वाला कौन है? हम दक्षिण भारतीयों में भाईबहन के बच्चों की शादियां होती रहती हैं. इस में कोई बुराई नहीं समझी जाती है. फिर एक तो भतीजी बहू बन कर आती है, तो उस से लगाव होना स्वाभाविक है. वह परिवार में रचबस जाती है. और दूसरी बात यह कि दानदहेज का बखेड़ा नहीं.’’

‘‘हां एक तरह से यह भी ठीक ही लगता है,’’ आभा बोली, ‘‘पहचान की ससुराल हो तो इतमीनान रहता है. पर मुझे देखो, पिताजी इंटरनैट पर मेरे लिए जोरशोर से वर तलाश रहे हैं. जवाब में तरहतरह के नमूनों की अर्जियां आ रही हैं. उन के फोटो देखो तो किसी हीरो से कम नहीं लगते. और उन के विवरण पढ़ो तो लगता है सब के सब जीनियस हैं. एकाध को पिताजी बहुत आशान्वित हो कर देखने भी गए पर बहुत मायूस हो कर लौटे. मैं तो मन ही मन मना रही हूं कि मुझे शादी कर के अमेरिका न जाना पड़े. वहां घर और बाहर का काम करतेकरते तो मिट्टी पलीद हो जाती है और सालों बीत जाते हैं अपनों की शक्ल देखे. ऐसा लगता है जैसे अज्ञातवास कर रहे हों. मैं तो कहती हूं कि अमेरिका के डाक्टर या इंजीनियर के बजाय इंडिया में एक साधारण हैसियत वाले से ब्याह कर के रहना ज्यादा अच्छा है.’’

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‘‘क्या कह रही है तू?’’ रितिका ने उसे झिड़का, ‘‘भला अमेरिका जाने में क्या बुराई है? तुझ में जरा भी हौसला नहीं है. अरे यही तो उम्र है अपने खोल से निकल कर दुनिया देखने की, जगहजगह की सैर करने की. मैं तो इसी ताक में हूं कि कोई मालदार आसामी फंसे और मैं उस से ब्याह कर इंडिया को बायबाय बोल विदेश का रास्ता नापूं. फिर विदेश घूमूं, दुनिया के अजूबे देखूं, तरहतरह की चीजें खरीदूं और भांतिभांति के व्यंजन चखूं. ओह सोच कर ही बदन में झुरझुरी उठती है.’’

‘‘अपनाअपना नजरिया है,’’ आभा ने सर हिलाया, ‘‘मेरे विचार में लड़का अपनी पसंद का होना चाहिए. वह अमीर हो या गरीब उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. जहां मन न मिले उस व्यक्ति के साथ पूरा जीवन बिताना एक सजा से कम नहीं है. तू ही बता बिना प्यार के एक अजनबी के साथ बंध कर उम्र भर कलपने का क्या तुक है?’’

‘‘इतनी भावुक न बन मेरी बन्नो, जरा प्रौक्टिकल बन. पैसा बड़ी चीज है. बिना पैसे के जीना मुहाल हो जाता है. जब पेट भर खाना नसीब न हो तो प्यारव्यार सब धरा रह जाता है. अभाव की जिंदगी जीना भी क्या जीना? पैसा पास हो तो जिंदगी की हर खुशी, हर नेमत खरीदी जा सकती है. मैं तो यह चाहती हूं कि जीवनसाथी ऐसा हो जो मुझ पर अपनी दौलत निछावर करे. मुझे  जिंदगी की हर खुशी दे ताकि मैं जीवन भरपूर जी सकूं, गुलछर्रे उड़ाऊं. कल किस ने देखा है,’’ रितिका जोश से उस से बोली.

‘‘वह सब तो ठीक है,’’ शालिनी उदास भाव से बोली, ‘‘अच्छा घर व वर कौन लड़की नहीं चाहेगी भला, पर ये सब अपने बस में तो नहीं है न.’’

‘‘क्यों नहीं है. मैं ने तो तय कर लिया है कि मैं एयरलाइंस जौइन करूंगी. सैर की सैर होती रहेगी और एक मालदार पुरुष से मिलने का चांस भी मिलेगा. अगर तू चाहे तो मैं तुझे उन विमान सुंदरियों के नाम गिना सकती हूं जिन्होंने अमीरजादों को अपने प्रेमजाल में फंसाया और आज ऐशोआराम की जिंदगी बसर कर रही हैं,’’ रितिका ने उस से भी बड़े जोश से कहा.

‘‘जरूरत नहीं है उन सुंदरियों का नाम गिनाने की. हम तेरी बात पर विश्वास करती हैं. हम भी मानती हैं कि दुनिया में पैसे की बड़ी अहमियत है. पर दौलत के साथसाथ मनचाहा पति भी मिल जाए तो सोने में सुहागा हो जाए,’’ शालिनी बुझे मन से बोली. परीक्षा समाप्त होते ही शालिनी की शादी की तैयारियां होने लगीं. लेकिन ऐन वक्त पर उस के कजन ने शादी से मना कर दिया. शायद उस का किसी और लड़की से चक्कर चल रहा था. उस ने शालिनी के लिए अपने एक दोस्त का नाम सुझाया जो अमेरिका में नौकरी रहा था. फिर आननफानन शालिनी की शादी हो गई और वह अमेरिका के लिए रवाना हो गई. कुछ दिनों बाद आभा के लिए भी एक अच्छा वर मिल गया. इत्तफाक से वह भी अमेरिका में नौकरी करता था. सुनते ही आभा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मैं ने आप लोगों से एक ही शर्त रखी थी कि मैं ब्याह कर अमेरिका नहीं जाना चाहती और आप लोगों ने मेरी इतनी सी बात नहीं रखी,’’ उस ने आंसू बहाते हुए अपने मातापिता से कहा.

‘‘बेटी,’’ उन्होंने उसे समझाया, ‘‘यह तो संयोग की बात है. और चाहे वर अमेरिका में हो या कहीं और इस से क्या फर्क पड़ता है? पहली बात तो यह देखने की है कि वह तेरे योग्य है कि नहीं. हम ने इस लड़के के बारे में बहुत कुछ सुना है. लड़का क्या है हीरा है. ऐसा लड़का सब को नसीब नहीं होता. और तेरे मांबाप तेरा भला ही तो चाहते हैं. फिर आजकल तो जिसे देखो वही अमेरिका का रास्ता नाप रहा है और तू पगली है कि वहां जाने से घबरा रही है.’’ आभा की शादी के 1 साल बाद अचानक एक दिन उस के पास रितिका का फोन आया.

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यह रिश्ता प्यार का: भाग-1

बात उन दिनों की है जब मैं प्रोमोशन और ट्रांसफर पर पंजाब के नंगल शहर से चंडीगढ़ पहुंचा था. कंपनी ने मेरे लिए सैक्टर 8 में एक अच्छे मकान की व्यवस्था कर दी थी. मकान में कारपेट ग्रास का लौन था, खूबसूरत फूलों की क्यारियां थीं. नए मकान में पहुंचने पर सामने की कोठी से लगभग 30 वर्ष की महिला किरण मुझ से मिलने आई, ‘‘मुझे जब से पता चला था कि इस मकान में आप रहने आ रहे हैं तो आप से मिलने की बहुत उत्सुकता थी. आप का इस शहर में स्वागत है. मैं सामने वाली कोठी में अपने पति और 1 छोटी बच्ची राखी के साथ रहती हूं.’’ मैं खुश था कि कोई साथ तो मिला. मेरी पत्नी वीना गर्भवती होने के कारण अपने मायके नंगल में ही रुक गई थी.

मैं ने किरण को बताया, ‘‘मेरी पत्नी अभी नंगल में ही है. डिलिवरी के बाद चंडीगढ़ ले आऊंगा.’’ किरण थर्मस में चाय ले कर आई थी. चाय को 2 कपों में डालते हुए बोली, ‘‘आशा है आप को चाय पसंद आएगी. मैं चाय अच्छी बना लेती हूं. मेरे पति उमेश को मेरे हाथों की बनी चाय बहुत अच्छी लगती है,’’ यह कहते हुए वह जिस सोफे पर मैं बैठा था उसी पर मेरे पास बैठ गई, ‘‘कांतजी, मैं ने आप का नाम बाहर लगी नेमप्लेट पर पढ़ लिया है. बहुत सुंदर नाम है आप का. मैं औपचारिकता में बिलकुल यकीन नहीं रखती हूं, इसीलिए बिना किसी हिचकिचाहट के आप के साथ बैठ गई हूं. इस से अपनेपन का एहसास होता है. हम साथसाथ चाय पीते हैं और एकदूसरे के साथ जानपहचान बनाते हैं.’’

‘‘थैंक्यू. मुझे भी आप का इस बेबाक तरीके से आना अच्छा लगा. वीना भी आप से मिल कर बहुत खुश होगी,’’ मैं ने किरण की ओर निहारते हुए कहा. किरण जाने से पहले मुझे अपने घर आने का निमंत्रण दे गई, ‘‘कल रविवार है. उमेश घर पर ही होंगे. कल लंच हमारे साथ ही करिएगा.’’ मैं ने हामी भर दी. मुझे अपनी पत्नी की गैरमौजूदगी खल रही थी. इसलिए किरण के परिवार से मेलजोल ने सोने में सुहागा का काम किया. किरण भी मेरी मौजूदगी में बेहद खुश रहती थी.  दूसरे दिन लंच पर मेरा उमेश से परिचय हुआ. सीधे, सरल और मिलनसार स्वभाव के उमेश शीघ्र ही मेरे घनिष्ठ मित्र बन गए. उन के घर मैं उन की गैरमौजूदगी में भी आताजाता रहता. उन्हें इस बात पर कोई एतराज नहीं था. उन्हें मालूम था किरण ऐसी है ही. किरण अपने चंचल स्वभाव से किसी को भी खासकर अपने हमउम्र पुरुषों को आकर्षित कर लेती थी. सजनेसंवरने में वह काफी समय बिताती थी और परपुरुषों के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर उसे बहुत अच्छा लगता था. इस विषय में उमेश रूखे थे. तभी तो किरण के इतना सजनेसंवरने के बावजूद कभी उन के मुंह से उस के लिए तारीफ के शब्द नहीं निकल पाते थे. किरण को यह बहुत खलता था.

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मैं ने किरण की इस कमजोरी का पूरा फायदा उठाया. जब भी वह शृंगार कर मेरे सामने आती मेरे मुंह से यह वाक्य अनायास ही फूट पड़ता, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

खुश हो कर वह थैंक्यू कहती, ‘‘बस, कांतजी ऐसे ही तारीफ करते रहना.’’ जब भी वह मेरे घर आती नई साड़ी में सजीसंवरी होती. उस के पास हर रंग की साडि़यां थीं. हर बार वह अच्छा पोज देती और मैं मुसकराते हुए मोबाइल में उस के विलक्षण रूप को कैद कर लेता. उस ने मुझ से वादा लिया था कि जब कई सारे फोटो शूट हो जाएं तो मैं उन सब की 1-1 कौपी उसे भेंट कर दूं. मैं ने मुसकरा कर हामी भर दी थी.

एक दिन किरण ने मांग की, ‘‘कांतजी, अपनी पत्नी वीना का फोटो दिखाएंगे?’’

मैं ने अपने मोबाइल पर वीना का फोटो दिखाया तो बोली, ‘‘हां, सुंदर है,’’ फिर कुछ क्षण रुक कर बोली, ‘‘लेकिन मुझ से थोड़ी कम.’’ मैं ने यह मानते हुए कहा, ‘‘हां, वह सीधी और सरल है. शृंगार तो बहुत कम करती है,’’ मैं ने नोट किया कि इस बात पर वह बहुत खुश हुई. मेरी कोठी में रामलाल नामक नौकर काम करता था. अकसर किरण दिन के समय मेरे घर आ कर रामलाल से सफाई का काम करवा देती थी. दिन का खाना मैं औफिस में ही खाता था. रामलाल द्वारा रात का खाना तैयार होने के बावजूद कई बार किरण अपने घर से खाना भिजवा देती थी. किरण ने अपने बेटी राखी के लिए आया रखी थी. मैं जब भी शाम के समय उस के घर फोन कर के जाता था वह आया को बाजार कुछ खरीदने के लिए भेज चुकी होती थी. उस का कहना था हम दोनों की प्राइवेसी बनी रहे तो अच्छा होगा. वैसे भी उमेश का मार्केट में कपड़ों का शोरूम था. वे सवेरे 9 बजे जा कर रात 8 बजे के बाद ही लौटते थे. मेरा किरण से मिलनाजुलना और काफी समय साथ बिताना आसान होता चला गया. जब भी मैं उस के घर पहुंचता वह मुख्यद्वार पर इंतजार करती मिलती. मेरे पहुंचते ही कभी वह मुझे ‘हग’ कर के प्यार करती तो कभी मैं उसे प्यार करने की पहल करता. संबंध प्रगाढ़ होने के बावजूद हम दोनों ने ही कभी मर्यादा के बाहर जा कर दैहिक संबंध बनाने की चेष्टा नहीं की. इस बात को शायद किरण ने भी भविष्य की संभावनाओं के लिए स्थगित कर रखा था. मेरी ओर से इस बात की उत्सुकता अवश्य थी, क्योंकि वीना की डिलिवरी में अभी समय बाकी था. पति द्वारा नजरअंदाज होने के कारण किरण मुझ से मित्रता बढ़ाने में जोरशोर से लगी थी. जब भी उसे कोई बहाना मेरे घर आने का मिलता था तो उसे कतई छोड़ती नहीं थी. वैसे भी मेरी सेवा के द्वारा मुझे लुभाने का प्रयत्न उस की ओर से जारी था.

मुझे अपनी कंपनी के कार की सुविधा प्राप्त थी. किरण के पति उमेश के पास बाइक थी. एक बार जब कार इस्तेमाल करने के लिए किरण ने अनुरोध किया तो मैं ने उसे साफ शब्दों में समझाया, ‘‘देखो मेरी अच्छी किरण मेरी बात को अन्यथा मत लेना. मैं अपनी औफिस की कार तुम्हें अकेले कहीं जाने के लिए नहीं दे पाऊंगा. हां, कभी जरूरी हुआ तो मैं तुम्हें कार में अपने साथ ले जाऊंगा.’’ वह शीघ्र ही मेरी बात समझ गई थी. दोबारा कभी उस ने कार के लिए अनुरोध नहीं किया. एक दिन शाम के समय जब मैं औफिस से लौटा तो मैं ने देखा ड्राइंगरूम में सैंट्रल टेबल  पर एक गुलदस्ता रखा था.

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अदने आदमी का सूट

वाह,क्या किस्मत पाई है मोदीजी के सूट ने. बस 1 बार पहना और ओबामाजी के गले लगा और रातोंरात 10 लाख से साढ़े चार करोड़ रूपए का हो गया. वैसे ऐसा ही भाग्यशाली सूट हम सब के पास होता है. जी हां, वही शादी वाला सूट जिसे हम सहेज कर रखते हैं अच्छी या बुरी यादों की तरह. जितनी देखभाल उस सूट की एक आम आदमी करता है उतनी शायद मोदीजी ने भी न की होगी. असल में उन्हें टाइम कम मिला. हम ने तो अपनी इस फैमिली धरोहर को 20 सालों से संभाला हुआ है.

चलो, मोदीजी को क्वसाढ़े चार करोड़ मिल गए एक नेक काम के लिए. हमें तो कोई हमारे सूट की असल कीमत ही दे दे तो हम भी उस पैसे को दान में दे देंगे. सच्ची बिलकुल सच्ची. हम इतने में ही खुश हो जाएंगे. उस समय पूरे 5 हजार का था. 1 तोला सोने की कीमत के बराबर. चलो, आज सोना करीब क्व27 हजार है पर हमें इतना नहीं चाहिए. बस 5 हजार ही मिल जाएं तो काफी हैं. हम भी उन्हें नेक काम में लगा देंगे.

फिर दिमाग के घोड़े दौड़ने लगे कि आखिर इसे खरीदेगा कौन? तो 1-1 कर उन सब के चेहरे आंखों के आगे से गुजरने लगे जिन के हम शादी में गले मिले थे. जब हम ने झुकझुक कर चाचा, मामा, फूफा आदि के पैर छुए थे तो कमर कितनी अकड़ गई थी. अब क्या उन में से कोई भी इसे न खरीदेगा?

अब छूने की बात से याद आई अपने 2 सालों की जो हमें घोड़ी से उतार कर स्टेज तक लाए थे. तब वे दोनों ही तो थे, जो इस सूट के अंगसंग रहे थे. अब उन से ज्यादा इस सूट की कीमत कौन जानता होगा? आखिरकार यह सूट उन के एकमेव जीजा का जो है.

मन ही मन संतुष्ट हो कर हम ने श्रीमतीजी को अपना खयाल ज्यों का त्यों कह सुनाया. उन्होंने पहले तो सारी बातें ध्यान से सुनीं और फिर हमें ऐसी खरीखरी सुनाई कि हम ने तोबा कर ली कि सूट तो क्या हम तो कभी रूमाल बेचने की भी नहीं सोचेंगे. श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘मेरे भाई क्या इतने गएगुजरे हैं, जो आप का उतारा हुआ सूट पहनेंगे? अगर गले लगने से कीमत बढ़ जाती है तो सब से ज्यादा तो हकदार इस के आप के जीजाजी हैं, जो शराब के नशे में शादी वाले दिन से ले कर रिसैप्शन तक आप को गले लगालगा कर नाच रहे थे. जैसे कह रहे हों कि बच्चू अब तुझे पता चलेगा शादी क्या होती है. अपनी ऐसी

बहन मेरे पल्ले बांधी है कि आज तक सांस नहीं आई है. ‘‘मेरे भाइयों ने तो सिर्फ 1 बार गले लगाया होगा और वह भी रीतिरिवाजों के चलते पर तुम्हारे जीजाजी तो सारी खुंदस इस सूट पर ही उतार रहे थे… उन्हें क्यों नहीं बेच देते यह सूट और फिर क्व5 हजार उन के लिए कोई बड़ी बात नहीं है. वे भले ही इटैलियन सूट पहनते हों पर गले तो उन्हीं के लगा था न आप का यह पुश्तैनी सूट.’’

हम ने अपना थूक गिलते हुए जवाब दिया, ‘‘न बाबा न, जीजाजी के बारे में तो सोचना भी मत… उन के तो ड्राइवर तक इस से बढि़या सूट पहनते हैं.’’ यह सुनते ही श्रीमतीजी का गुस्सा कुकर की सीटी की तरह फट पड़ा. ‘‘तो क्या मेरे भाई उन के ड्राइवर से भी गएगुजरे हैं? क्या उन के पास सूटों का अकाल है, जो आप से खरीदें?’’

इतनी खरीखरी सुन कर हम ने सोच चलो जब इतने साल संभाला तो और कुछ साल संभाल लेते हैं. पर मोदीजी के सूट की नीलामी सोने नहीं देती थी. एक दिन श्रीमतीजी को पता नहीं कैसे दया आ गई. बोलीं, ‘‘अच्छा, चलो मैं बाई को दिखाती हूं. गरीब है पैसे नहीं दे पाएगी. पर अपनी तनख्वाह में से कटवाती रहेगी.’’ मुझे उन का सुझाव पसंद आ गया. चलो, कैश न सही ऐसे ही सही. पर यह क्या? श्रीमतीजी ने जैसे ही लक्ष्मी को सूट दिखाया तो वह नाकभौं सिकोड़ कर बोली, ‘‘बीबीजी, आजकल कौन पहनता है ऐसा सूट… यह तो कब का आउट औफ फैशन हो गया है. मेरा मर्द न पहने ऐसा सूट कभी…’’ श्रीमतीजी बड़बड़ाते हुए बोलीं, ‘‘ठीक है… ठीक है… नहीं लेना है तो मत ले पर कम से कम इतनी बेइज्जती भी तो न कर.’’

जाने क्या चोट लगी श्रीमतीजी के अहं को कि उन्होंने कमर कस ली हमारे अति प्रिय सूट से छुटकारा पाने की. दूसरा निशाना उन्होंने बरतन वाली को बनाया. हम खुश हो गए कि चलो एकाध डिनर सैट तो आ ही जाएगा. उसे बेटी को शादी में दे देंगे. चलो कैश न सही ढेर सारे बरतन ही सही. मगर बरतन वाली ने सूट देख कर कहा, ‘‘बीबीजी, यह कहां से लिया आप ने? क्या रघुवीर नगर में जहां पुराने कपड़ों को धोसाफ कर प्रैस कर के बेचा जाता है वहां से लाई हैं? इसे तो कोई भिखारी भी न लेगा.’’

हमें श्रीमती समेत गुस्सा तो बहुत आया पर हम ने उसे कुछ कहे बिना बाहर का रास्ता दिखाया. इतनी बेकदरी हमारे इतने अजीज सूट की. श्रीमतीजी का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया. वे गुस्से से बोलीं, ‘‘आइंदा इस घर में पैर भी मत रखना. रोज मेरा सिर खाती थी कि कोई पुराना कपड़ा हो तो दे दीजिए. और अब तुझे मैं ने इन की जिंदगी का सब से महंगा सूट दिखाया तो तू इसे भिखारियों वाला बोल रही है… दफा हो जा यहां से.’’

हम ने पूछा, ‘‘अब क्या करेंगे?’’

‘‘आप दिल छोटा न करो… कोई बात नहीं हम जमादार को दे देंगे. वह पैसे तो नहीं देगा पर दुआ तो देगा और फिर दुआ की कोई कीमत नहीं होती है,’’ श्रीमतीजी बोलीं.

हम इतने में ही खुश थे कि चलो मोदीजी के सूट की तरह हमारा सूट भी शान से इस घर से निकलेगा. पर यह क्या? श्रीमतीजी सूट के साथ कुछ और भी जमादार को दे रही थीं और कह रही थीं कि इस मनहूस सूट को मेरी नजरों से दूर ले जा. मानों शादी का अभी तक का सारा गुस्सा/खुंदस इसी सूट पर निकाल रही थीं. और जमादार क5 सौ यह कहते हुए मांग रहा था कि बीबीजी इतना भारी सूट उठा कर नहीं ले जा पाऊंगा. घर तक औटो करना पड़ेगा और फिर घर जा कर बीवी की डांट सहनी पड़ेगी वह अलग.

श्रीमतीजी ने 2 सौ दे कर हमारे नीलामी वाले सपने को मटियामेट कर दिया. अब तक हम समझ गए थे कि बड़े लोगों की बड़ी बातें, हम तो अदना आदमी हैं और वह भी शादीशुदा. जमादार खुशीखुशी 2 सौ जेब में डाल कर सूट उठा कर चलता बना. सूट घर से बाहर जा रहा था और हमें हसरत भरी निगाहों से देख रहा था जैसे कह रहा हो कि बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले.

ज्ञानवर्धक पत्रिका

आजमुझे घर जाने की जल्दी थी. मैं ने अपनी 24 साल पुरानी श्रीमतीजी से मूवी दिखाने का वादा जो किया था. इन 24 सालों में यह मेरा 7वां वादा था जिसे मैं तनमनधन से पूरा करना चाहता था. जल्दीजल्दी सारा काम निबटा कर मैं बौस के कैबिन में गया और उन से घर जाने की अनुमति मांगी.

‘‘क्यों?’’ बौस ने गोली सी दागी.

‘‘जी… पत्नी को मूवी दिखाना है,’’ मैं हकला गया.

‘‘शादी की सालगिरह है क्या?’’

‘‘जी नहीं, शादी की 25वीं सालगिरह आने वाली है. इसलिए…’’

वे ठहाका मार कर के हंसे और फिर मुझे अनुमति मिल गई. मैं ने स्कूटर निकाला और फुल स्पीड पर चलाने लगा. मैं अपनी श्रीमतीजी का प्रसन्न चेहरा (जो कभीकभी ही देखने को मिलता था) मन में बसाए चला जा रहा था कि अचानक मेरी खुशी को बे्रक लग गया. टायर पंक्चर हो चुका था. जैसेतैसे स्कूटर घसीटता वर्कशौप तक लाया.

‘‘कितना समय लगेगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी, लगभग 1 घंटा.’’

मेरा सारा जोश ठंडा हो गया. अब हम मूवी नहीं जा सकते थे. मरता क्या न करता, पास की दुकान पर पत्रिकाएं देखने लगा. सोचा अच्छी सी पत्रिका दे कर अपनी श्रीमतीजी को मना लूंगा. मैं ने पत्रिका ली और दुकान पर आ गया. थोड़ी देर में पंक्चर बन गया तो मन ही मन पत्नी को खुश करने के नएनए तरीके सोचता मैं घर चल दिया. घर पहुंचा तो डरतेडरते कमरे में प्रवेश किया. सामने का नजारा देखने लायक था. पलंग की चादर आधी ऊपर आधी नीचे झूल रही थी और तकियों की आधी रुई बाहर निकली हुई थी. इधरउधर नेलपौलिश की बिखरी टूटी शीशियां व लिपस्टिक, पाउडर अपनी कहानी अलग सुना रहे थे. मेरे कपड़े और श्रीमतीजी की साडि़यां भी इधरउधर बिखरी पड़ी थीं.

मेरा मन किसी अनजानी आशंका से कांप उठा. अलमारी खोल कर देखी तो पाया कि बैंक से निकाले गए रुपए सुरक्षित थे. फिर मैं भगताभागता किचन में गया. वहां का तो हाल और भी बुरा था. पूरे किचन में उलटेसीधे पड़े जूठे, साफ बरतन, टूटी प्यालियां, इधरउधर बिखरी सब्जियां और सिंक से टपकता पानी. ऐसा लग रहा था जैसे भूकंप और बाढ़ साजिश रच कर एकसाथ हमारे घर आए हैं. हम बुद्धिमान थे, जल्दी ही समझ गए कि मूवी न देख पाने का क्रोध श्रीमतीजी ने घर पर उतारा है और यह उन के द्वारा किया गया अद्भुत इंटीरियर डैकोरेशन है. हम अपनी पत्नी की इस प्रतिभा के कायल हो गए.

डरतेडरते हम फैले सामान को समेट ही रहे थे कि काली का रूप धारण किए एक महिला मूर्ति ने प्रवेश किया. बिखरे बाल, लाल आंखें, हाथ में बेलन आदि… अभी हम इस दानवी रूप को पूरी तरह निहार भी नहीं पाए थे कि एक भयानक गर्जना सुनाई दी, ‘‘कितने बजे हैं?’’

आप भी पहचान गए न? जी हां ये हमारी प्राणप्रिया ही थीं.

‘‘वह मेरा स्कूटर…’’

‘‘भाड़ में जाओ तुम और साथ में तुम्हारा स्कूटर भी,’’ कहते हुए उन्होंने हमारा कौलर पकड़ कर झटका तो हम जमीन पर और हाथ की पत्रिका पलंग पर. वाह, पत्रिका ने तो कमाल ही कर दिया, हमें छोड़ कर वे पत्रिका पर झपटीं और उस का नाम पढ़ कर उन की आंखें चमक उठीं. वह था- करवाचौथ विशेषांक. वे पलटीं और बोलीं, ‘‘सुनो, हम ने माफ किया.’’

हम उन की इस अदा पर निढाल हो गए, ‘‘तो फिर चाय…’’ हम बोले तो वे बोलीं, ‘‘हांहां बरतन धो कर फटाफट बना लो और पास की दुकान से समोसे भी ले आना. तब तक मैं जरा इस पत्रिका के पन्ने पलट लूं.’’

और वह पत्रिका में ऐसे डूब गईं जैसे चाशनी में रसगुल्ला. अपनी गलती का फल तो मुझे ही भुगतना था, इसलिए शाम की चाय बनाने के साथ घर की सफाई भी मैं ने की और डिनर भी मैं ने ही बनाया. अगली सुबह मैं बिना नाश्ता किए ही औफिस चला गया. वे देर रात तक पत्रिका पढ़ने के कारण सो रही थीं. शाम को श्रीमतीजी हमें दरवाजे पर ही मिल गईं और बोलीं, ‘‘चाय लौट कर पीना अभी हम बाजार चल रहे हैं.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘पत्रिका में लिखे अनुसार हमें साड़ी, चूड़ी, मेकअप का सामान, ज्वैलरी आदि लानी है.’’

एक ही दिन में हम लुट चुके थे. यही नहीं 2 दिन की छुट्टी ले कर श्रीमतीजी को पार्लर भी ले जाना पड़ा. आखिर करवाचौथ का वह सुहाना दिन आ ही गया. मैं ने सोचा आज के मुख्य अतिथि तो हम ही हैं. लेकिन अपनी ऐसी किस्मत कहां? उस दिन सुबह श्रीमतीजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘सुनो, दूध गरम कर लेना और अपनी चाय के साथ मेरी भी बना लेना.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा तो निर्जल व्रत है.’’

‘‘इस बार नहीं है. पत्रिका में लिखा है कि शारीरिक रूप से कमजोर होने पर आप चायदूध ले सकते हैं और हां, दोपहर को मुझे दूध गरम कर के दे देना, उस के बाद मैं नहा लूंगी.’’

हम ने अपनी श्रीमतीजी के भारीभरकम कमजोर शरीर को देखा और किचन में चल दिए. लंच के लिए हम बेफिक्र थे कि उसे तो श्रीमतीजी बना ही लेंगी, लेकिन अपनी ऐसी किस्मत कहां? लंच के वक्त श्रीमतीजी दोनों हाथों में मेहंदी लगाए नए फरमान के साथ खड़ी थीं, ‘‘हम पैरों में मेहंदी लगवा रहे हैं, इसलिए लंच में तुम कुछ भी उलटासीधा खा लेना. हम ये सारी मेहनत आप के लिए ही तो कर रहे हैं.’’

कुछ बनाने की हिम्मत अब हमारे अंदर नहीं थी, इसलिए हम ने व्रत रखना ही उचित समझा. अभी पत्रिका के कुछ पन्ने शेष थे, अत: उस के अनुसार हम शाम को श्रीमतीजी को पार्लर ले कर गए. वहां ब्यूटीशियन ने 4,000 का चूना लगा कर श्रीमतीजी को देखने लायक खूबसूरत बना ही दिया. पानी में हाथ डालने से मेहंदी खराब न हो इसलिए डिनर भी बाहर ही किया. गिफ्ट में हमें सोने की अंगूठी भी देनी पड़ी क्योंकि सोना गिफ्ट में देने से पतिपत्नी में प्यार बढ़ता है, यह भी पत्रिका में लिखा था. अब हमें पत्रिका दे कर अपनी श्रीमतीजी प्रसन्न करने के अपने विचार पर बहुत अफसोस हो रहा था और इस के पहले श्रीमतीजी पत्रिका के बाकी पन्ने पढ़ कर हमारी ऐसीतैसी करतीं, हम ने इस प्रण के साथ लाइट बंद कर दी कि गिफ्ट में श्रीमतीजी को जान भले ही दे दूं पर पत्रिका कभी नहीं दूंगा.

नशा

आगंतुकों के स्वागत सत्कार के चक्कर में बैठक से मुख्य दरवाजे तक नीरा के लगभग 10 चक्कर लग चुके थे, लेकिन थकने के बजाय वे स्फूर्ति ही महसूस कर रही थीं, क्योंकि आगंतुकों द्वारा उन की प्रशंसा में पुल बांधे जा रहे थे. हुआ यह था कि नीरा की बहू पूर्वी का परीक्षा परिणाम आ गया था. उस ने एम.बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. लेकिन तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे नीरा के. पूर्वी तो बेचारी रसोई और बैठक के बीच ही चक्करघिन्नी बनी हुई थी. बीचबीच में कोई बधाई का जुमला उस तक पहुंचता तो वह मुसकराहट सहित धन्यवाद कह देती. आगंतुकों में ज्यादातर उस की महिला क्लब की सदस्याएं ही थीं, तो कुछ थे उस के परिवार के लोग और रिश्तेदार. नीरा को याद आ रहा था इस खूबसूरत पल से जुड़ा अपना सफर.

जब महिला क्लब अध्यक्षा के चुनाव में अप्रत्याशित रूप से उन का नाम घोषित हुआ था, तो वे चौंक उठी थीं. और जब धन्यवाद देने के लिए उन्हें माइक थमा दिया गया था, तो साथी महिलाओं को आभार प्रकट करती वे अनायास ही भावुक हो उठी थीं, ‘‘आप लोगों ने मुझ पर जो विश्वास जताया है उस के लिए मैं आप सभी की आभारी हूं. मैं प्रयास करूंगी कि अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरी उतरूं.’’

लेकिन इस तरह का वादा कर लेने के बाद भी नीरा का पेट नहीं भरा था. वे चाहती थीं कुछ ऐसा कर दिखाएं कि सभी सहेलियां वाहवाह कर उठें और उन्हें अपने चयन पर गर्व हो कि अध्यक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण पद के लिए उन्होंने सर्वथा उपयुक्त पात्र चुना है. बहुत सोचविचार के बाद नीरा को आखिर एक युक्ति सूझ ही गई. बहू पूर्वी को एम.बी.ए. में प्रवेश दिलवाना उन्हें अपनी प्रगतिशील सोच के प्रचार का सर्वाधिक सुलभ हथियार लगा. शादी के 4 साल बाद और 1 बच्चे की मां बन जाने के बाद फिर से पढ़ाई में जुट जाने का सास का प्रस्ताव पूर्वी को बड़ा अजीब लगा. वह तो नौकरी भी नहीं कर रही थी.

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उस ने दबे शब्दों में प्रतिरोध करना चाहा तो नीरा ने मीठी डांट पिलाते हुए उस का मुंह बंद कर दिया, ‘‘अरे देर कैसी? जब जागो तभी सवेरा. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है? मेरे दिमाग में तो तुम्हें आगे पढ़ाने की बात शुरू से ही थी. शुरू में 1-2 साल तो मैं ने सोचा मौजमस्ती कर लेने दो फिर देखा जाएगा. पर तब तक गोलू आ गया और तुम उस में व्यस्त हो गईं. अब वह भी ढाई साल का हो गया है. थोड़े दिनों में नर्सरी में जाने लगेगा. घर तो मैं संभाल लूंगी और ज्यादा जरूरत हुई तो खाना बनाने वाली रख लेंगे.’’

‘‘लेकिन एम.बी.ए. कर के मैं करूंगी क्या? नौकरी? मैं ने तो कभी की नहीं,’’ पूर्वी कुछ समझ नहीं पा रही थी कि सास के मन में क्या है?

‘‘पढ़ाई सिर्फ नौकरी के लिए ही नहीं की जाती. वह करो न करो तुम्हारी मरजी. पर इस से ज्ञान तो बढ़ता है और हाथ में डिगरी आती है, जो कभी भी काम आ सकती है. समझ रही हो न?’’

‘‘जी.’’

‘‘मैं ने 2-3 कालेजों से ब्रोशर मंगवाए हैं. उन्हें पढ़ कर तय करते हैं कि तुम्हें किस कालेज में प्रवेश लेना है.’’

‘‘मुझे अब फिर से कालेज जाना होगा? घर बैठे पत्राचार से…’’

‘‘नहींनहीं. उस से किसी को कैसे पता चलेगा कि तुम आगे पढ़ रही हो?’’

‘‘पता चलेगा? किसे पता करवाना है?’’ सासूमां के इरादों से सर्वथा अनजान पूर्वी कुछ भी समझ नहीं पा रह थी.

‘‘मेरा मतलब था कि पत्राचार से इसलिए नहीं क्योंकि उस की प्रतिष्ठा और मान्यता पर मुझे थोड़ा संदेह है. नियमित कालेज विद्यार्थी की तरह पढ़ाई कर के डिगरी लेना ही उपयुक्त होगा.’’

पूर्वी के चेहरे पर अभी भी हिचकिचाहट देख कर नीरा ने तुरंत बात समेटना ही उचित समझा. कहीं तर्कवितर्क का यह सिलसिला लंबा खिंच कर उस के मंसूबों पर पानी न फेर दे.

‘‘एक बार कालेज जाना आरंभ करोगी तो खुदबखुद सारी रुकावटें दूर होती चली जाएंगी और तुम्हें अच्छा लगने लगेगा.’’

वाकई फिर ऐसा हुआ भी. पूर्वी ने कालेज जाना फिर से आरंभ किया और आज उसे डिगरी मिल गई थी. उसी की बधाई देने नातेरिश्तेदारों, पड़ोसियों, पूर्वी  की सहेलियों और नीरा के महिला क्लब की सदस्याओं का तांता सा बंध गया था. पूर्वी से ज्यादा नीरा की तारीफों के सुर सुनाई पड़ रहे थे.

‘‘भई, सास हो तो नीरा जैसी. इन्होंने तो एक मिसाल कायम कर दी है. लोग तो अपनी बहुओं की शादी के बाद पढ़ाई, नौकरी आदि छुड़वा कर घरों में बैठा लेते हैं. सास उन पर गृहस्थी का बोझ लाद कर तानाशाही हुक्म चलाती है. और नीरा को देखो, गृहस्थी, बच्चे सब की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले कर बहू को आजाद कर दिया. ऐसा कर के उन्होंने एक आदर्श सास की भूमिका अदा की है. हम सभी को उन का अनुसरण करना चाहिए.’’

‘‘अरे नहीं, आप लोग तो बस ऐसे ही…’’ प्रशंसा से अभिभूत और स्नेह से गद्गद नीरा ने प्रतिक्रिया में खींसे निपोर दी थीं.

‘‘नीरा ने आज एक और बात सिद्ध कर दी है,’’ अपने चिरपरिचित रहस्यात्मक अंदाज में सुरभि बोली.

‘‘क्या? क्या?’’ कई उत्सुक निगाहें उस की ओर उठ गईं.

‘‘यही कि अपने क्लब की अध्यक्षा के रूप में उन का चयन कर के हम ने कोई गलती नहीं की. ये वास्तव में इस पद के लिए सही पात्र थीं. अपने इस प्रगतिशील कदम से उन्होंने अध्यक्षा पद की गरिमा में चार चांद लगा दिए हैं. हम सभी को उन पर बेहद गर्व है.’’ सभी महिलाओं ने ताली बजा कर अपनी सहमति दर्ज कराई. ये ही वे पल थे जिन से रूबरू होने के लिए नीरा ने इतनी तपस्या की थी. गर्व से उन की गरदन तन गई.

‘‘आप लोग तो एक छोटी सी बात को इतना बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत कर रहे हैं. सच कहती हूं, यह कदम उठाने से पहले मेरे दिल में इस तरह की तारीफ पाने जैसी कोई मंशा ही नहीं थी. बस अनायास ही दिल जो कहता गया मैं करती चली गई. अब आप लोगों को इतना अच्छा लगेगा यह तो मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. खैर छोडि़ए अब उस बात को…कुछ खानेपीने का लुत्फ उठाइए. अरे सुरभि, तुम ने तो कुछ लिया ही नहीं,’’ कहते हुए नीरा ने जबरदस्ती उस की प्लेट में एक रसगुल्ला डाल दिया. शायद यह उस के द्वारा की गई प्रशंसा का पुरस्कार था, जिस का नशा नीरा के सिर चढ़ कर बोलने लगा था.ॉ

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‘‘मैं आप लोगों के लिए गरमगरम चाय बना कर लाती हूं,’’ नीरा ने उठने का उपक्रम किया.

‘‘अरे नहीं, आप बैठो न. चाय घर जा कर पी लेंगे. आप से बात करने का तो मौका ही कम मिलता है. आप हर वक्त घरगृहस्थी में जो लगी रहती हो.’’

‘‘आप बैठिए मम्मीजी, चाय मैं बना लाती हूं,’’ पूर्वी बोली.

‘‘अरे नहीं, तू बैठ न. मैं बना दूंगी,’’ नीरा ने फिर हलका सा उठने का उपक्रम करना चाहा पर तब तक पूर्वी को रसोई की ओर जाता देख वे फिर से आराम से बैठ गईं और बोली, ‘‘यह सुबह से मुझे कुछ करने ही नहीं दे रही. कहती है कि हमेशा तो आप ही संभालती हैं. कभी तो मुझे भी मौका दीजिए.’’

पूर्वी का दबा व्यक्तित्व आज और भी दब्बू हो उठा था. सासूमां के नाम के आगे जुड़ती प्रगतिशील, ममतामयी, उदारमना जैसी एक के बाद एक पदवियां उसे हीन बनाए जा रही थीं. उसे लग रहा था उसे तो एक ही डिगरी मिली है पर उस की एक डिगरी की वजह से सासूमां को न जाने कितनी डिगरियां मिल गई हैं. कहीं सच में उसे कालेज भेजने के पीछे सासूमां का कोई सुनियोजित मंतव्य तो नहीं था?…नहींनहीं उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए.

‘‘पूर्वी बेटी, मैं कुछ मदद करूं?’’ बैठक से आवाज आई तो पूर्वी ने दिमाग को झटका दे कर तेजी से ट्रे में कप जमाने आरंभ कर दिए, ‘‘नहीं मम्मीजी, चाय बन गई है. मैं ला रही हूं,’’ फिर चाय की ट्रे हाथों में थामे पूर्वी बैठक में पहुंच कर सब को चाय सर्व करने लगी. विदा लेते वक्त मम्मीजी की सहेलियों ने उसे एक बार फिर बधाई दी.

‘‘यह बधाई डिगरी के लिए भी है और नीरा जैसी सास पाने के लिए भी, सुरभि ने जाते वक्त पूर्वी से हंस कर कहा.’’

‘‘जी शुक्रिया.’’

अंदर लौटते ही नीरा दीवान पर पसर गईं और बुदबुदाईं, ‘‘उफ, एक के बाद एक…हुजूम थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. थक गई मैं तो आवभगत करतेकरते.’’ जूठे कपप्लेट उठाती पूर्वी के हाथ एक पल को ठिठके पर फिर इन बातों के अभ्यस्त कानों ने आगे बढ़ने का इशारा किया तो वह फिर से सामान्य हो कर कपप्लेट समेटने लगी.

‘‘मीनाबाई आई नहीं क्या अभी तक?’’ नीरा को एकाएक खयाल आया.

‘‘नहीं.’’

‘‘ओह, फिर तो रसोई में बरतनों का ढेर लग गया होगा. इन बाइयों के मारे तो नाक में दम है. लो फिर घंटी बजी…तुम चलो रसोई में, मैं देखती हूं.’’

फिर इठलाती नीरा ने दरवाजा खोला, तो सामने पूर्वी के मातापिता को देख कर बोल उठीं, ‘‘आइएआइए, बहुतबहुत बधाई हो आप को बेटी के रिजल्ट की.’’

‘‘अरे, बधाई की असली हकदार तो आप हैं. आप उसे सहयोग नहीं करतीं तो उस के बूते का थोड़े ही था यह सब.’’

‘‘अरे आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं. मैं ने तो बस अपना फर्ज निभाया है. आइए, बैठिए. मैं पूर्वी को भेजती हूं,’’ फिर पूर्वी को आवाज दी, ‘‘पूर्वी बेटा. तुम्हारे मम्मीपापा आए हैं. अब तुम इन के पास बैठो. इन्हें मिठाई खिलाओ, बातें करो. अंदर रसोई आदि की चिंता मुझ पर छोड़ दो. मैं संभाल लूंगी.’’

नीरा ने दिखाने को यह कह तो दिया था. पर अंदर रसोई में आ कर जो बरतनों का पहाड़ देखा तो सिर पकड़ लिया. मन ही मन बाई को सौ गालियां देते हुए उन्होंने बैठक में नाश्ता भिजवाया ही था कि देवदूत की तरह पिछले दरवाजे से मीनाबाई प्रकट हुई.

‘‘कहां अटक गई थीं बाईजी आप? घर में मेहमानों का मेला सा उमड़ आया है और आप का कहीं अतापता ही नहीं है. अब पहले अपने लिए चाय चढ़ा दो. हां साथ में मेहमानों के लिए भी 2 कप बना देना. मैं तो अब थक गई हूं. वैसे आप रुक कहां गई थीं?’’

‘‘कहीं नहीं. बहू को साथ ले कर वर्माजी के यहां गई थी इसलिए देर हो गई.’’

‘‘अच्छा, काम में मदद के लिए,’’ नीरा को याद आया कि अभी कुछ समय पूर्व ही मीनाबाई के बेटे की शादी हुई थी.

‘‘नहींनहीं, उसे इस काम में नहीं लगाऊंगी. 12वीं पास है वह. उसे तो आगे पढ़ाऊंगी. वर्माजी के यहां इसलिए ले गई थी कि वे इस की आगे की पढ़ाई के लिए कुछ बता सकें. उन्होंने पत्राचार से आगे पढ़ाई जारी रखने की कही है. फौर्म वे ला देंगे. कह रहे थे इस से पढ़ना सस्ता रहेगा. मेरा बेटा तो 7 तक ही पढ़ सका. ठेला चलाता है. बहुत इच्छा थी उसे आगे पढ़ाने की पर नालायक तैयार ही नहीं हुआ. मैं ने तभी सोच लिया था कि बहू आएगी और उसे पढ़ने में जरा भी रुचि होगी तो उसे जरूर पढ़ाऊंगी.’’

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‘‘पर 12वीं पास लड़की तुम्हारे बेटे से शादी करने को राजी कैसे हो गई?’’ बात अभी भी नीरा को हजम नहीं हो रही थी. 4 पैसे कमाने वाली बाई उसे कड़ी चु़नौती देती प्रतीत हो रही थी.

‘‘अनाथ है बेचारी. रिश्तेदारों ने किसी तरह हाथ पीले कर बोझ से मुक्ति पा ली. पर मैं उसे कभी बोझ नहीं समझूंगी. उसे खूब पढ़ाऊंगीलिखाऊंगी. इज्जत की जिंदगी जीना सिखाऊंगी.’’

‘‘और घर बाहर के कामों में अकेली ही पिसती रहोगी?’’

‘‘उस के आने से पहले भी तो मैं सब कुछ अकेले ही कर रही थी. आगे भी करती रहूंगी. मुझे कोई परेशानी नहीं है, बल्कि जीने का एक उद्देश्य मिल जाने से हाथों में गति आ गई है. लो देखो, बातोंबातों में चाय तैयार भी हो गई. अभी जा कर दे आती हूं. मैं ने कड़क चाय बनाई है. आधा कप आप भी ले लो. आप की थकान उतर जाएगी,’’ कहते हुए मीनाबाई ट्रे उठा कर चल दी. नीरा को अपना नशा उतरता सा प्रतीत हो रहा था.

फीनिक्स: भाग-3

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कहानी- मेहा गुप्ता

‘‘जिस समाज में और जिन लोगों के बीच उठनाबैठना है हमारा. हमें यह

स्टेटस मैंटेन करना पड़ता है. अब तुझ से क्या छिपाना है. मानसम्मान, दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक बार लत लग जाए तो आसानी से छूटती नहीं है. सुनील की यह लत तो बहुत पुरानी है. इस जन्म में तो छूटेगी नहीं’’

‘‘जब से शादी हुई है यह आर्थिक उतारचढ़ाव मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है. शादी में चढ़े मेरे जेवर भी 1-1 कर के सारे बिक गए. कभी तो ऐसा होता है हम लोग बिलकुल रोड पर आ जाते हैं और कभी अरबों में खेलने लगते हैं. यह घर, गाड़ी, मेरा बुटीक सभी कुछ लोन पर है. बच्चे भी अपने पापा की भाषा में बात करते हैं. घूमनाफिरना, लेटैस्ट गैजेट्स, शौपिंग बस यही उन की जिंदगी का ध्येय बन गया है.’’

‘‘बच्चे भी? पर उन्हें सही मार्ग दिखाना तो तेरे हाथ में है न? तू बदलेगी तभी तो तुझे देख कर तेरे बच्चे तेरा अनुसरण करेंगे.’’

‘‘छोड़ न मैं बच्चों का दिल नहीं दुखाना चाहती और सुनील को भी पसंद नहीं है कि

मैं बातबात पर रोकटोक करूं,’’ उस ने बड़ी सहजता से कहा जैसे उस के लिए ये सब बहुत सामान्य है.

‘‘12 बज गए हैं. चल अब हमें सोना चाहिए. गुड नाइट,’’ कहते हुए वह सो गई पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी की फ्लाइट थी. मैं समय से काफी पहले ही उठ गई ताकि सलोनी को कुछ सांत्वना और आर्थिक सलाहकार के रूप में कुछ नेक सलाह दे पाऊं. पर मुझे एहसास हुआ कि उसे मेरी राय की विशेष आवश्यकता नहीं है. चलते हुए उस ने मुझे आकर्षक या यों कहूं महंगी पैकिंग में ढेरों उपहार दिए. उस की कल रात की बातों में और लेनदेन के व्यवहार में कोई सामंजस्य नहीं था. मुझे अपने द्वारा दिए उपहार इन सब के सामने बहुत तुच्छ लग रहे थे. एकदूसरे के संपर्क में रहने का वादा कर मैं मुंबई आ गई. अपने काम की व्यस्तताओं में से भी समय निकाल मैं उस से चैट कर लिया करती थी.

सोशल मीडिया भी एक लत है. एक बार लग जाए तो इंसान उस से दूर नहीं रह सकता. फेसबुक अकाउंट खोलते ही मुझे पता होता था उस में सलोनी का कोई न कोई नई और रोमांचक पोस्ट अवश्य होगी. इस बार उस ने स्विट्जरलैंड के बहुत ही खूबसूरत फोटो अपडेट किए थे पर इस बार मुझे रोमांच नहीं हैरानी हुई थी. हर बार की तरह मैं ने उस की पोस्ट पर लाइक्स या कमैंट्स नहीं किए. मेरी इच्छा हुई कि उसे फोन कर झंझोड़ कर पूछूं कि अचानक तेरे हाथ में क्या कुबेर का खजाना लग गया जो तू फिर घूमनेफिरने पर इतना उड़ाने लगी? मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था. गलत बात को मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाती हूं.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पति का जयपुर में तबादला हो गया. पर मैं ने यह बात सलोनी से छिपा कर रखी. बच्चों का स्कूल में ऐडमिशन, घर ढूंढ़ने जैसी जरूरतों के चलते मेरा कई बार जयपुर जाना हुआ पर मैं ने उस से संपर्क नहीं किया. कुछ समय का भी अभाव था. महीनेभर बाद हम जयपुर रहने आ गए. धीरेधीरे मेरी जिंदगी फिर से पटरी पर आने लगी. मैं ने अपना तबादला भी अपने बैंक की जयपुर शाखा में करवा लिया.

एक दिन मेरे पास सलोनी का फोन आया, ‘‘तू जयपुर आ गई है और तूने मुझे

बताना भी जरूरी नहीं समझा?’’

एक बार तो मैं हक्कीबक्की रह गई कि कहीं उस ने मुझे किसी मौल या रास्ते में देख तो नहीं लिया… मैं उस से झूठ नहीं बोल सकती थी, इसलिए मैं ने धीरे से कहा, ‘‘हम लोग जयपुर ही शिफ्ट हो गए हैं,’’ मेरे स्वर में अपराधभाव था.

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‘‘क्या? तूने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा?’’

मैं कोई जवाब न दे पाई.

‘‘तू मुझे अपना पता सैंड कर. मैं घंटेभर में तेरे पास पहुंचती हूं… मिल कर बात करते हैं.’’

करीब घंटेभर बाद सलोनी घर पर थी. हम जब भी मिलते वह हर बार एक नई डिजाइनर ड्रैस में होती थी और वह भी लेटैस्ट और मैचिंग फुटवियर, पर्स और ऐक्सैसरीज के साथ.

‘‘अच्छा यह तो बता तुझे यह कैसे पता चला कि मैं जयपुर आ गई हूं?’’

‘‘पिछले हफ्ते मैं मुंबई आई थी. मेरी स्विट्जरलैंड की फ्लाइट वहीं से थी. मैं अचानक तेरे घर आ कर तुझे सरप्राइज देना चाहती थी पर वाचमैन ने बताया तुम जयपुर शिफ्ट हो गई हो. तू सच बता कि शिफ्ट हो जाने की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’

‘‘अरे तू भी न… जरा भी नहीं बदली है. सच कहूं सलोनी जब से हम दोनों मिले हैं मुझे कुछ सही नहीं लग रहा है,’’ मैं बोलने में थोड़ा हिचक रही थी, ‘‘तुझे नहीं लगता तूने जिंदगी को मजाक बना कर रख दिया है… जिंदगी को जिंदादिली से जीना अच्छी बात है पर इतनी जिंदादिली कि सारे आदर्श, सारी नीतियां ताक पर रख दो… तू थोड़ा दूरदर्शी बन कर देख. इस से तेरे बच्चों पर कितना खराब असर पड़ेगा. तू मां है उन की, उन्हें अच्छेबुरे का फर्क समझाना फर्ज है तेरा. अगर तू उन का पोषण ही सड़ी खाद से करेगी तो उन में स्वस्थ फलों का पल्लवन कैसे होगा?’’

‘‘तू गलत समझ रही है सलोनी. सुनील ने ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का नया व्यवसाय शुरू किया है और वह अच्छा चल पड़ा है. क्या पैसा कमाना गुनाह है? सुनील रिस्क लेना जानता है. फिर कौन सा ऐसा बिजनैस है जो शतप्रतिशत ईमानदारी से होता है?’’

मैं उस की नादानी पर मुसकरा भर दी. मैं समझ गई थी सलोनी को कुछ भी समझाना बेकार है. वह पूरी तरह से सुनीलमय हो गई थी. पैसों की चकाचौंध ने उस की नैतिकअनैतिक के बीच के फर्क को समझने की शक्ति खत्म कर दी थी. ऐसा कौन सा बिजनैस है, जिस में आदमी रातोंरात अमीर हो जाता है?

दूसरे दिन अमन औफिस के लिए थोड़ा जल्दी निकल गए. पर घर से निकलते ही लगातार बजते हौर्न की आवाज से मैं समझ गई जनाब आज फिर कुछ भूल रहे हैं. मैं घर से बाहर निकलती उस से पहले मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी.

‘‘हैलो सोना, मेरी स्टडीटेबल पर नीले रंग की फाइल रह गई है. जल्दी दे जाओ.’’

मैं भुनभुनाते हुए फाइल लेने ही जा रही थी कि मेरी नजर फाइल पर लिखे नाम सुनील पर पड़ी. मेरे दिमाग में बिजली का झटका सा लगा.

‘‘मैं इस केस के बारे में आप से कुछ पूछना चाहती थी.’’

‘‘क्यों इस ने तुम्हारे बैंक को भी बेवकूफ बनाया है क्या?’’

‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है…’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने गाड़ी बढ़ा दी. पर मेरे दिल को कहां चैन था. मैं ने तुरंत इन्हें फोन लगाया, ‘‘हैलो अमन, मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि सुनील मेरी सब से प्यारी सहेली सलोनी का पति है. क्या आप इन के केस के बारे में कुछ बता सकते हो? ’’

‘‘सोना मैं तुम्हें ज्यादा नहीं बता सकता. यू नो, ये सब बहुत कौन्फिडैंशियल होता है. बस इतना जान लो कि हम सीधे उस के घर रेड डालने जा रहे हैं.’’

फिर थोड़ा रुक कर अमन ने पूछा, ‘‘पर तुम क्यों इतनी चिंता कर रही हो? वह आदमी इन सब बातों का आदी है.’’

मुझे कैसे भी चैन नहीं पड़ रहा था. मुझे सलोनी के लिए बहुत बुरा लग रहा था. यदि उसे पता चल गया अमन मेरे पति हैं तो उसे कितना बुरा लगेगा. मेरी प्यारी सलोनी, उस का एक नंबर भी मुझ से कम आ जाता तो उस से ज्यादा मैं दुखी हो जाती थी. आज इतने बड़े दर्द से कैसे उबर पाएगी. मेरा पूरा दिन पहाड़ सा निकला. रात को अमन के घर आते ही मैं ने प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘अमन क्या हुआ आज वहां पर?’’

‘‘तुम्हारी सहेली के पति के नाम करोड़ों की बेनाम संपत्ति है. मेरे पहुंचते ही उस ने मुझे क्व1 करोड़ की रिश्वत औफर की. किसी भी तरह से कौपरेट करने को तैयार नहीं था. वह तो मेरे साथ पुलिस थी… हमें उस के साथ सख्ती बरतनी पड़ी. मुझे शर्म आ रही है मेरी बीवी कैसे लोगों से संबंध रखती है.’’

मुझे रोना आ रहा था. इच्छा हुई कि सलोनी को फोन कर उस का हालचाल पूछूं. उस पर क्या बीत रही होगी… उन लोगों ने कुछ खायापीया होगा या नहीं. सलोनी ने तो रोरो कर अपना बुरा हाल बना लिया होगा.

मैं ने खुद को सामान्य करने की कोशिश की. मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं. कुछ दिनों बाद मैं इस बारे में भूल गई. एक दिन ऐसे ही फुरसत के क्षणों में फेसबुक अकाउंट खोलने पर सब से ऊपर सलोनी का फोटो था. किसी पांचसितारा होटल में पार्टी की थी, साथ में कैप्शन लिखी थी. ‘नेवर ऐंडिंग फन.’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. सलोनी का वही खिलता चेहरा, बेफिक्र आंखें और उन में झलकते नित नए ख्वाब. उसे तो जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ा था. मैं ही पागल थी जो उस के लिए अपना खून जला रही थी.

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पहले की बात और थी. अगर किसी के यहां रेड पड़ती थी तो यह उस व्यक्ति की इज्जत पर बहुत बड़ा दाग माना जाता था. वह व्यक्ति महीनों तक किसी को मुंह नहीं दिखाता था. इंसान की गांठ में क्व100 होते थे तो वह 75 खर्च करता था पर अब तो लोग आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपया की तर्ज पर चलते हैं. आज की पीढ़ी अपने भविष्य की चिंता किए बिना सिर्फ वर्तमान में जीती है और 1-1 पल जीती है. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उस की बेवकूफियों पर उसे एक तमाचा रसीद करूं या जिंदादिली पर उस की पीठ थपथपाऊं .

मुझे आज एक ग्रीक लोककथा में पढ़े फिनिक्स पक्षी की याद आ गई जो मरने के बाद भी अपनी राख से फिर जी उठता था. सलोनी भी तो ऐसी ही है. हालात के थपेड़ों से चोट खाने के बावजूद हर बार जी उठती है. एक नई सैल्फी और स्टेटस के साथ. ‘यह नहीं सुधरेगी. लैट हर लिव लाइफ.’ सोच इस बार मुझे उस की पोस्ट देख कर गुस्सा नहीं आया. मन ही मन मुसकरा उसे किस वाली स्माइली के साथ लाइक दे दिया.

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