फीनिक्स: भाग-3

पिछला भाग- फीनिक्स: भाग-2

कहानी- मेहा गुप्ता

‘‘जिस समाज में और जिन लोगों के बीच उठनाबैठना है हमारा. हमें यह

स्टेटस मैंटेन करना पड़ता है. अब तुझ से क्या छिपाना है. मानसम्मान, दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक बार लत लग जाए तो आसानी से छूटती नहीं है. सुनील की यह लत तो बहुत पुरानी है. इस जन्म में तो छूटेगी नहीं’’

‘‘जब से शादी हुई है यह आर्थिक उतारचढ़ाव मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है. शादी में चढ़े मेरे जेवर भी 1-1 कर के सारे बिक गए. कभी तो ऐसा होता है हम लोग बिलकुल रोड पर आ जाते हैं और कभी अरबों में खेलने लगते हैं. यह घर, गाड़ी, मेरा बुटीक सभी कुछ लोन पर है. बच्चे भी अपने पापा की भाषा में बात करते हैं. घूमनाफिरना, लेटैस्ट गैजेट्स, शौपिंग बस यही उन की जिंदगी का ध्येय बन गया है.’’

‘‘बच्चे भी? पर उन्हें सही मार्ग दिखाना तो तेरे हाथ में है न? तू बदलेगी तभी तो तुझे देख कर तेरे बच्चे तेरा अनुसरण करेंगे.’’

‘‘छोड़ न मैं बच्चों का दिल नहीं दुखाना चाहती और सुनील को भी पसंद नहीं है कि

मैं बातबात पर रोकटोक करूं,’’ उस ने बड़ी सहजता से कहा जैसे उस के लिए ये सब बहुत सामान्य है.

‘‘12 बज गए हैं. चल अब हमें सोना चाहिए. गुड नाइट,’’ कहते हुए वह सो गई पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी की फ्लाइट थी. मैं समय से काफी पहले ही उठ गई ताकि सलोनी को कुछ सांत्वना और आर्थिक सलाहकार के रूप में कुछ नेक सलाह दे पाऊं. पर मुझे एहसास हुआ कि उसे मेरी राय की विशेष आवश्यकता नहीं है. चलते हुए उस ने मुझे आकर्षक या यों कहूं महंगी पैकिंग में ढेरों उपहार दिए. उस की कल रात की बातों में और लेनदेन के व्यवहार में कोई सामंजस्य नहीं था. मुझे अपने द्वारा दिए उपहार इन सब के सामने बहुत तुच्छ लग रहे थे. एकदूसरे के संपर्क में रहने का वादा कर मैं मुंबई आ गई. अपने काम की व्यस्तताओं में से भी समय निकाल मैं उस से चैट कर लिया करती थी.

सोशल मीडिया भी एक लत है. एक बार लग जाए तो इंसान उस से दूर नहीं रह सकता. फेसबुक अकाउंट खोलते ही मुझे पता होता था उस में सलोनी का कोई न कोई नई और रोमांचक पोस्ट अवश्य होगी. इस बार उस ने स्विट्जरलैंड के बहुत ही खूबसूरत फोटो अपडेट किए थे पर इस बार मुझे रोमांच नहीं हैरानी हुई थी. हर बार की तरह मैं ने उस की पोस्ट पर लाइक्स या कमैंट्स नहीं किए. मेरी इच्छा हुई कि उसे फोन कर झंझोड़ कर पूछूं कि अचानक तेरे हाथ में क्या कुबेर का खजाना लग गया जो तू फिर घूमनेफिरने पर इतना उड़ाने लगी? मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था. गलत बात को मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाती हूं.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पति का जयपुर में तबादला हो गया. पर मैं ने यह बात सलोनी से छिपा कर रखी. बच्चों का स्कूल में ऐडमिशन, घर ढूंढ़ने जैसी जरूरतों के चलते मेरा कई बार जयपुर जाना हुआ पर मैं ने उस से संपर्क नहीं किया. कुछ समय का भी अभाव था. महीनेभर बाद हम जयपुर रहने आ गए. धीरेधीरे मेरी जिंदगी फिर से पटरी पर आने लगी. मैं ने अपना तबादला भी अपने बैंक की जयपुर शाखा में करवा लिया.

एक दिन मेरे पास सलोनी का फोन आया, ‘‘तू जयपुर आ गई है और तूने मुझे

बताना भी जरूरी नहीं समझा?’’

एक बार तो मैं हक्कीबक्की रह गई कि कहीं उस ने मुझे किसी मौल या रास्ते में देख तो नहीं लिया… मैं उस से झूठ नहीं बोल सकती थी, इसलिए मैं ने धीरे से कहा, ‘‘हम लोग जयपुर ही शिफ्ट हो गए हैं,’’ मेरे स्वर में अपराधभाव था.

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‘‘क्या? तूने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा?’’

मैं कोई जवाब न दे पाई.

‘‘तू मुझे अपना पता सैंड कर. मैं घंटेभर में तेरे पास पहुंचती हूं… मिल कर बात करते हैं.’’

करीब घंटेभर बाद सलोनी घर पर थी. हम जब भी मिलते वह हर बार एक नई डिजाइनर ड्रैस में होती थी और वह भी लेटैस्ट और मैचिंग फुटवियर, पर्स और ऐक्सैसरीज के साथ.

‘‘अच्छा यह तो बता तुझे यह कैसे पता चला कि मैं जयपुर आ गई हूं?’’

‘‘पिछले हफ्ते मैं मुंबई आई थी. मेरी स्विट्जरलैंड की फ्लाइट वहीं से थी. मैं अचानक तेरे घर आ कर तुझे सरप्राइज देना चाहती थी पर वाचमैन ने बताया तुम जयपुर शिफ्ट हो गई हो. तू सच बता कि शिफ्ट हो जाने की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’

‘‘अरे तू भी न… जरा भी नहीं बदली है. सच कहूं सलोनी जब से हम दोनों मिले हैं मुझे कुछ सही नहीं लग रहा है,’’ मैं बोलने में थोड़ा हिचक रही थी, ‘‘तुझे नहीं लगता तूने जिंदगी को मजाक बना कर रख दिया है… जिंदगी को जिंदादिली से जीना अच्छी बात है पर इतनी जिंदादिली कि सारे आदर्श, सारी नीतियां ताक पर रख दो… तू थोड़ा दूरदर्शी बन कर देख. इस से तेरे बच्चों पर कितना खराब असर पड़ेगा. तू मां है उन की, उन्हें अच्छेबुरे का फर्क समझाना फर्ज है तेरा. अगर तू उन का पोषण ही सड़ी खाद से करेगी तो उन में स्वस्थ फलों का पल्लवन कैसे होगा?’’

‘‘तू गलत समझ रही है सलोनी. सुनील ने ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का नया व्यवसाय शुरू किया है और वह अच्छा चल पड़ा है. क्या पैसा कमाना गुनाह है? सुनील रिस्क लेना जानता है. फिर कौन सा ऐसा बिजनैस है जो शतप्रतिशत ईमानदारी से होता है?’’

मैं उस की नादानी पर मुसकरा भर दी. मैं समझ गई थी सलोनी को कुछ भी समझाना बेकार है. वह पूरी तरह से सुनीलमय हो गई थी. पैसों की चकाचौंध ने उस की नैतिकअनैतिक के बीच के फर्क को समझने की शक्ति खत्म कर दी थी. ऐसा कौन सा बिजनैस है, जिस में आदमी रातोंरात अमीर हो जाता है?

दूसरे दिन अमन औफिस के लिए थोड़ा जल्दी निकल गए. पर घर से निकलते ही लगातार बजते हौर्न की आवाज से मैं समझ गई जनाब आज फिर कुछ भूल रहे हैं. मैं घर से बाहर निकलती उस से पहले मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी.

‘‘हैलो सोना, मेरी स्टडीटेबल पर नीले रंग की फाइल रह गई है. जल्दी दे जाओ.’’

मैं भुनभुनाते हुए फाइल लेने ही जा रही थी कि मेरी नजर फाइल पर लिखे नाम सुनील पर पड़ी. मेरे दिमाग में बिजली का झटका सा लगा.

‘‘मैं इस केस के बारे में आप से कुछ पूछना चाहती थी.’’

‘‘क्यों इस ने तुम्हारे बैंक को भी बेवकूफ बनाया है क्या?’’

‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है…’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने गाड़ी बढ़ा दी. पर मेरे दिल को कहां चैन था. मैं ने तुरंत इन्हें फोन लगाया, ‘‘हैलो अमन, मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि सुनील मेरी सब से प्यारी सहेली सलोनी का पति है. क्या आप इन के केस के बारे में कुछ बता सकते हो? ’’

‘‘सोना मैं तुम्हें ज्यादा नहीं बता सकता. यू नो, ये सब बहुत कौन्फिडैंशियल होता है. बस इतना जान लो कि हम सीधे उस के घर रेड डालने जा रहे हैं.’’

फिर थोड़ा रुक कर अमन ने पूछा, ‘‘पर तुम क्यों इतनी चिंता कर रही हो? वह आदमी इन सब बातों का आदी है.’’

मुझे कैसे भी चैन नहीं पड़ रहा था. मुझे सलोनी के लिए बहुत बुरा लग रहा था. यदि उसे पता चल गया अमन मेरे पति हैं तो उसे कितना बुरा लगेगा. मेरी प्यारी सलोनी, उस का एक नंबर भी मुझ से कम आ जाता तो उस से ज्यादा मैं दुखी हो जाती थी. आज इतने बड़े दर्द से कैसे उबर पाएगी. मेरा पूरा दिन पहाड़ सा निकला. रात को अमन के घर आते ही मैं ने प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘अमन क्या हुआ आज वहां पर?’’

‘‘तुम्हारी सहेली के पति के नाम करोड़ों की बेनाम संपत्ति है. मेरे पहुंचते ही उस ने मुझे क्व1 करोड़ की रिश्वत औफर की. किसी भी तरह से कौपरेट करने को तैयार नहीं था. वह तो मेरे साथ पुलिस थी… हमें उस के साथ सख्ती बरतनी पड़ी. मुझे शर्म आ रही है मेरी बीवी कैसे लोगों से संबंध रखती है.’’

मुझे रोना आ रहा था. इच्छा हुई कि सलोनी को फोन कर उस का हालचाल पूछूं. उस पर क्या बीत रही होगी… उन लोगों ने कुछ खायापीया होगा या नहीं. सलोनी ने तो रोरो कर अपना बुरा हाल बना लिया होगा.

मैं ने खुद को सामान्य करने की कोशिश की. मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं. कुछ दिनों बाद मैं इस बारे में भूल गई. एक दिन ऐसे ही फुरसत के क्षणों में फेसबुक अकाउंट खोलने पर सब से ऊपर सलोनी का फोटो था. किसी पांचसितारा होटल में पार्टी की थी, साथ में कैप्शन लिखी थी. ‘नेवर ऐंडिंग फन.’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. सलोनी का वही खिलता चेहरा, बेफिक्र आंखें और उन में झलकते नित नए ख्वाब. उसे तो जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ा था. मैं ही पागल थी जो उस के लिए अपना खून जला रही थी.

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पहले की बात और थी. अगर किसी के यहां रेड पड़ती थी तो यह उस व्यक्ति की इज्जत पर बहुत बड़ा दाग माना जाता था. वह व्यक्ति महीनों तक किसी को मुंह नहीं दिखाता था. इंसान की गांठ में क्व100 होते थे तो वह 75 खर्च करता था पर अब तो लोग आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपया की तर्ज पर चलते हैं. आज की पीढ़ी अपने भविष्य की चिंता किए बिना सिर्फ वर्तमान में जीती है और 1-1 पल जीती है. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उस की बेवकूफियों पर उसे एक तमाचा रसीद करूं या जिंदादिली पर उस की पीठ थपथपाऊं .

मुझे आज एक ग्रीक लोककथा में पढ़े फिनिक्स पक्षी की याद आ गई जो मरने के बाद भी अपनी राख से फिर जी उठता था. सलोनी भी तो ऐसी ही है. हालात के थपेड़ों से चोट खाने के बावजूद हर बार जी उठती है. एक नई सैल्फी और स्टेटस के साथ. ‘यह नहीं सुधरेगी. लैट हर लिव लाइफ.’ सोच इस बार मुझे उस की पोस्ट देख कर गुस्सा नहीं आया. मन ही मन मुसकरा उसे किस वाली स्माइली के साथ लाइक दे दिया.

फीनिक्स: भाग-2

पिछला भाग- फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

मुझे, इसलिए नहीं कि वह सुंदर नहीं था, बल्कि मेरी नजर में पर्फैक्ट मैच नहीं था वह मेरी सलोनी के लिए.

करीब 20 मिनट बाद मेरी भेजी रिक्वैस्ट पर उस का रिप्लाई आया ‘ऐक्सैप्टेड.’ उस ने कीबोर्ड पर खटखट कर चैट करने के बजाय तुरंत मुझे वीडियो कौल की.

‘‘कहां खो गई थी मेरी स्वीटी, कितना ढूंढ़ा मैं ने तुझे?’’

‘‘मैं फेसबुक पर नहीं थी और मेरा मोबाइल खो जाने के कारण सारे कौंटैक्ट्स डिलीट हो गए थे,’’ मैं जानती थी कि मैं ने बड़ा घिसापिटा सा बहाना बनाया है.

‘‘तू अभी मुंबई में ही है औरकभी मुझ से संपर्क करने की कोशिश नहीं की. इतना पराया कर दिया अपनी सलोनी को?’’ उस की बातें जारी थीं. वही अदाएं, चेहरे पर वही नूर, शब्दों को जल्दीजल्दी बोलने की उस की आदत, उत्साह से लबरेज.

‘‘मैं अगले हफ्ते जयपुर आ रही हूं. मिल के बात करते हैं,’’ बस इतना कह पाई मैं. आंसुओं ने मेरे स्वर को अवरुद्ध कर दिया था.

फोन रखने के बाद भी मेरा मन उस में ही अटका रहा. शाम को भी मैं फिर उस के अकाउंट पर गई. उस ने ढेरों फोटो अपलोड कर रखे थे. उस के घूमने के, पार्टियों के, शादी समारोहों के. कुल मिला कर ये सब फोटो उस की संपन्नता और खुशी को बयां कर रहे थे.

‘‘कहां अटकी हुई है आज तू? कितनी देर से गाड़ी में तेरा इंतजार कर रही हूं,’’ मेरी कुलीग जो मेरी पूल पार्टनर भी है की आवाज ने मेरी तंद्रा को भंग किया.

‘‘तू निकल जा… मैं मार्केट से थोड़ा काम निबटाते हुए आऊंगी,’’ कह मैं ने घड़ी की तरफ नजर डाली. 5 बज रहे थे. मैं ने सलोनी के बच्चों के लिए चौकलेट्स, उस के लिए पर्स आदि लिया. घर लौटते हुए मैं ने एक थैला सब्जी भी खरीद ली, क्योंकि मुझे 2 दिनों के लिए बाहर जाना था. ऐसे में मैं कई ग्रेवी वाली सब्जियां बना कर जाती थी. रोटी अमन बना लेते थे. इस से मेरे पति और बेटे का मेरे पीछे से काम निकल जाता था.

अगले दिन मैं सुबह की फ्लाइट से जयपुर के लिए निकल गई. जयपुर एअरपोर्ट से बाहर निकलते ही अपने वादे के अनुसार सलोनी एक बड़े से गुलदस्ते के साथ खड़ी थी, जिस में मेरी पसंद के सफेद गुलाब थे. जब भी हम दोनों में अनबन हो जाती थी तो हम दोनों में से कोई भी बिना दंभ के दूसरी को सफेद गुलाब उपहार में दे अपनी लड़ाई का अंत करती थी.

‘‘सोनाली मेरी जानेमन… बिलकुल नहीं बदली है तू,’’ उस ने लगभग चिल्ला कर कहा. आसपास खड़े सभी लोग उस की तरफ देखने लगे पर दुनिया की उस ने कभी परवाह नहीं की थी. जो उसे जंचता वही करती.

वही गरमाहट थी आज भी उस के व्यवहार में. जब वह बोलती थी तो उस की जबान ही नहीं हर अंग बोल उठता था.

‘‘बिलकुल नहीं बदली सैक्सी तू तो,’’ हमेशा इस तरह के उपनामों से बुलाती थी वह मुझे. मुझ से यह कहते हुए वह मुझ से लिपट गई. अपने कंधों पर उस के आंसुओं को महसूस कर रही थी मैं.

उस ने अपनी काली चमचमाती गाड़ी निकाली, एअरपोर्ट की पार्किंग की भीड़ को चीरती हुई गाड़ी मालवीय रोड पर आगे बढ़ने लगी. जयपुर के चप्पेचप्पे से परिचित थी मैं. समय के साथ कितना कुछ बदल गया था.

गाड़ी एक बड़े बंगले के एहाते में आ कर रुकी. सफेद रंग के लैदर के आरामदायक सोफे, चमकते पीतल और कांसे के बड़ेबड़े आर्टइफैक्ट्स, दीवारों पर लगी पेंटिंग्स और परदों का चयन उस के वैभव का बखान तो कर ही रहा था, साथ में मकानमालिक की कला के प्रति रुचि और हुनर को भी दर्शा रहा था.

‘‘तूने अपने घर को बहुत ही मन से सजाया है. मुझे खुशी है कि तुझ में यह हुनर अभी भी जिंदा है.’’

सलोनी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में अपना कौलर ऊपर कर कंधे उचका दिए. शायद वह मेरे कहने का मंतव्य नहीं समझ पाई थी.

चायनाश्ते के बाद उस ने अपनी मेड को खाने का मेन्यू बताया और उस के बाद हम उस के घर के बाहर बगीचे में लगी कुरसियों पर

बैठ गए.

हमारी बातों का सिलसिला शुरू हो गया. उस ने कानों और हाथों में बड़े से सौलिटेर और हाथों में अपेक्षाकृत छोटे आकार के डायमंड के कंगन पहन रखे थे.

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‘‘तू तो जैसे किसी डायमंड की ब्रैंड ऐंबैसेडर हो… कितना चमक रही है… मैं बहुत खुश हूं तुझे देख कर. जो तूने अपनी जिंदगी से चाहा था तुझे सब

मिल गया.’’

‘‘तूने भी तो अपने सपनों को जीया है. आज अपनी मेहनत के दम पर तू इस मुकाम पर पहुंची है. एक प्रतिष्ठित बैंक में इतने उच्च पद पर कार्यरत है तू.’’

‘‘मुझे भी बहुत खुशी है तेरा यह रूप देख कर. वही आत्मविश्वास से दीप्त मुखमंडल, देहयष्टि में वही कमनीयता… कोई बोलेगा तुझे देख कर

कि एक जवान बेटे की

मां हो.’’

‘‘पर तू इतनी बेडौल क्यों हो गई है?’’

‘‘लगना चाहिए न कि खातेपीते घर के हैं. अरे भई यह तो हम मारवाडि़यों की शान है. लाखों की भीड़ में भी पहचान लिए जाते हैं,’’ उस ने अपने पेट पर हाथ फिराते हुए ऐसे नाटकीय अंदाज में कहा कि मैं खुद को हंसने से न रोक पाई.

‘‘चल अंदर चल कर बैठते हैं. अंधेरा गहराने को है और फिर सुनील भी आते ही होंगे… एसी औन कर दूं. इन्हें आने से पहले हौल चिल्ड चाहिए नहीं तो गरमी के मारे दिमाग का तापमान बढ़ जाता है.’’

कुछ ही पलों में सुनील भी घर आ गया. हम लोगों के बीच कुछ औपचारिक बातचीत हुई. डिनर के दौरान भी उस के हाथ में महंगा मोबाइल सैट था और उस की फोन कौल्स लगातार चालू थीं. वह खाना खाते हुए भी तेज आवाज में फोन पर बातें कर रहा था. मैं मन ही मन अमन की तुलना सुनील से करने लगी. अमन की आवाज इतनी धीमी होती कि पास बैठा व्यक्ति भी न सुन पाए. यही तो फर्क है कम पढ़े और पढ़ेलिखे व्यक्ति में… जाने क्या देखा सलोनी ने इस में और जाने कैसे वह इस की हरकतों को बरदाश्त करती है. मैं मन ही मन खीज उठी.

मगर मैं ने महसूस किया कि सलोनी बहुत खुश थी. उस ने मीठे में गुलाबजामुन मंगवा रखे थे. सुनील के नानुकुर करने पर भी एक गुलाबजामुन अपने हाथ से उस के मुंह में डाल दिया. शायद पैसा इंसान की सारी कमियों को ढक देता है.

सलोनी ने आज स्वयं के सोने की व्यवस्था भी गैस्टरूम में कर ली थी. करीब 9 बजे वह

2 कप कौफी के लिए कमरे में आई. कपों में कौफी और शक्कर डली थी, ‘‘चल फेंटी हुए कौफी बना कर पीते हैं. जब से तेरा साथ छूटा है मैं तो जैसे कौफी का स्वाद ही भूल गई हूं,’’ हम चम्मच से कौफी घोलते हुए पुराने दिनों को याद करने लगे.

‘‘तेरी पसंद तो बहुत लाजवाब हो गई है,’’ मैं ने उस के सुंदर मगों को देखते हुए कहा,  ‘‘तू सारा समय शौपिंग में ही लगी रहती है क्या?’’

‘‘कहां यार… बुटीक से समय ही नहीं मिल पाता है.’’

‘‘तेरा बुटीक भी है?’’ मैं उछल पड़ी.

‘‘हां, और सच पूछो तो अभी तो उस का ही सहारा है,’’ मैं ने पूरे दिन में पहली बार उस के चेहरे पर हलकी सी उदासी देखी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं सलोनी?’’

‘‘हाल ही में चल रही टी-20 सीरीज में लगाए गए सट्टे में सुनील को करोड़ों का घाटा हो गया है.’’

‘‘पर तू सुनील को सट्टा क्यों खेलने देती है? तू जानती है न सट्टा खेलने वालों का क्या हाल होता है? जानबूझ कर अपना और अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा रही हो. यह तो जुआ है. इस से तो इज्जत की दो सूखी रोटियां खानी ज्यादा बेहतर है.’’

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फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

सूर्यकी पीली रेशमी किरणों ने पेड़ों के पत्तों के बीच से छनछन कर मेरी बालकनी में आना शुरू कर दिया है. यह मेरे लिए दिन का सब से खूबसूरत वक्त होता है. बालकनी में खड़ी हो सामने पार्क में देखती हूं तो कोई वहां बने जौगिंग पाथ पर दौड़ लगा कर पिछले दिन खाए जंक फूड से पाई कैलोरी को जलाने में जुटा है तो कोई सांसों को अंदरबाहर ले अपने जीवन की तमाम विसंगतियों से झूझने के लिए खुद को सक्षम बनाने में.

मेरी मां ने इन गतिविधियों को अमीरों के चोंचले नाम दे रखा है. कहती हैं छोटीछोटी जरूरतों के लिए अगर नौकरों पर निर्भर न रहें तो ये सब करने की नौबत ही न आए. हम लोग जब कुएं से पानी खींच कर लाया करती थीं तो वही हमारे लिए जौगिंग होती थी और चूल्हे की लौ को तेज करने के लिए जोर से फूंक देतीं तो वही प्राणायाम.

अब मां को कैसे समझाऊं कि जमाना बदल गया है, जमाने की सोच बदल गई है.जबकि मैं खुद कई मामलों में जमाने से बहुत पीछे हूं. मसलन, खाने के मामले में मैं रैस्टोरैंट जा कर पिज्जाबर्गर खाने से बेहतर घर की दालरोटी खाना पसंद करती हूं. बाहर का खाना मुझे सेहत और पैसे की बरबादी लगता है.

वैस्टर्न आउटफिट्स न पहन कर सलवारकमीज वह भी दुपट्टे के साथ पहनती हूं और सब से मुख्य बात सोशल मीडिया से गुरेज करती हूं. अब तक मुझे यह निहायत दिखावा, छलावा और समय की बरबादी लगता था पर इस बार अपनी सोलमेट से मिलने के लालच ने मुझे फेसबुक के गलियारों में भटकने को मजबूर कर ही दिया.

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मैं ने फेसबुक पर अपना अच्छा सा फोटो लगा अपना प्रोफाइल डाल दिया और सलोनी, जयपुर टाइप कर के क्लिक कर दिया. क्लिक करते ही सलोनी नाम से लगभग 50 प्रोफाइल स्क्रीन पर आ गए. मैं 1-1 कर के सारे फोटो जूम कर देखने लगी. लगभग 15वां प्रोफाइल मेरी सलोनी का था.

मैं ने बिना समय गंवाए फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी और उस के जवाब का इंतजार करने लगी. जब से मेरा जयपुर जाने का प्लान बना था मेरा मन सलोनी से मिलने को तड़प उठा था.

जयपुर का पर्याय है मेरे लिए सलोनी… सिर्फ सहेली ही नहीं सोलमेट थीं हम दोनों. जयपुर के महारानी कालेज में मेरा ऐडमिशन

हुआ था और मैं सुमेरपुर जैसे छोटे कसबे की देशी गर्ल वहां आ गई. अजनबियों की भीड़ में सलोनी ने ही मेरा संबल बन मेरा हाथ थामा था. उस की मम्मी ने कई रूम, पेइंगगैस्ट के तौर पर लड़कियों को दे रखे थे, इसलिए मैं भी होस्टल

के अत्याधुनिक माहौल को अलविदा कह वहीं रहने चली गई थी. वहीं पर सलोनी द्वारा मेरी ग्रूमिंग भी हुई थी.

सादी नहीं बोलो शादी, मैडम नहीं मैम, इस दुपट्टे को दोनो कंधों पर के दोनों तरफ नहीं, बल्कि एक पर डालो, और भी न जाने क्याक्या…

मुझ में बहुत जल्दी इतना बदलाव आया कि मेरे इस नए रूप को देख कर मुझ से ज्यादा वह प्रसन्न थी. गुरुदक्षिणा में मैं उसे फुजूलखर्ची से परहेज कर थोड़ा सेविंग करने के लिए कहती थी पर वह मेरी कही हर बात हवा में उड़ा देती थी. मुझे नहीं लगता उस ने मुझे कभी सीरियसली लिया हो. सदा एकदूसरे का साथ देने को तत्पर थीं हम, पर कोई गलत कदम उठाने पर एकदूसरे को समझाने या डांटने का पूरा हक भी दे रखा था हम ने एकदूसरे को.

नाम के अनुरूप ही वह रूप और गुणों की स्वामिनी थी. हर वक्त चहकती फिरती. फिर हम दोनों के बीच दूरी आ गई. शायद मैं ने स्वयं ही सलोनी से खुद को दूर कर लिया था. उस के लिए एक बहुत ही संभ्रांत परिवार से रिश्ता आया था. वह थी ही इतनी सुंदर कि कोई भी उस पर फिदा हो जाए. लड़का सिर्फ 12वीं कक्षा तक पढ़ा था और श्यामवर्णी होने के साथसाथ बेडौल भी था.

कितना समझाया था मैं ने उसे, ‘‘कहां गए तेरे सारे सपने? तू अपनी इंटीरियर डिजाइनर की डिगरी उस के पीछे लगाई अपनी अपार मेहनत सब यों ही बरबाद कर देगी? वहां तेरे टेलैंट की कोई कद्र नहीं होगी.’’

मगर तब शायद सुनील की चकाचौंध ने, उस की महंगी गाडि़यों ने, उस के ठाटबाट ने सलोनी और उस के परिवार वालों की अकल पर परदा डाल दिया था. हम दोनों ही साधारण परिवार से थीं पर मेरे और उस के जिंदगी के

प्रति दृष्टिकोण, खुशियों की परिभाषा में बहुत अंतर था.

‘‘सलोनी तुझे लगता है तू शादी के बाद नौकरी कर पाएगी? कितने अरमान थे तेरे अपने भविष्य को ले कर,’’ एक दिन शादी की तैयारियों के बीच उस की साडि़यों की पैकिंग करते हुए मैं ने उस से पूछा था.

‘‘इसे नौकरी करने की जरूरत क्यों पड़ेगी भला… लाखों में खेलेगी मेरी लाडो…

नौकरी तो मध्य परिवार के लोग अपनी बहुओं से करवाते हैं. ये तो खानदानी लोग हैं. शहर में नाम है इन के परिवार का. भला ये लोग अपनी नाक क्यों कटवाएंगे अपने घर की बहूबेटियों से नौकरी करवा कर.’’

मैं आंटी से कहना चाहती थी कि जरूरी नहीं है औरत आर्थिक जरूरतों के चलते कमाए. उसे अपने आत्मसम्मान के लिए, आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए, समाज में अपना वजूद बनाए रखने के लिए भी आत्मनिर्भर बनना चाहिए पर मुझे पता था आंटी के लिए इन बातों का कोई अर्थ नहीं… और सलोनी वह तो जैसे स्वप्नलोक में विचरण कर रही थी.

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मेरी शादी अपनी पसंद के इनकम टैक्स औफिसर से हुई थी. पर मेरे पति अमन अपने उसूलों के बहुत पक्के और सादा जीवन उच्च विचारों के साथ जीने में विश्वास रखते थे. हमारी शादी भी बहुत साधारण तरीके से हुई थी. शादी में आई सलोनी ने अमन से मिल कर मुझे छेड़ा भी था कि वाह, क्या जोड़ी है… अच्छा है दोनों की खूब जमेगी.

मैं विचारों में खोई स्क्रीन को स्क्रोल कर उस के नएपुराने सभी फोटो देखने में जुटी थी. उस के स्टेटस पर कपल फोटो लगा था. मुझे उस के कंधे पर हाथ रखे हुए सुनील कांटे सा चुभा था कि हु बंदर के गले में मोतियों की माला, बड़बड़ाते हुए मैं ने अपना मुंह बिचकाया. वह आदमी पहली नजर में ही बेहद नापसंद था.

आगे पढ़ें- मेरी नजर में पर्फैक्ट मैच नहीं था वह मेरी सलोनी के लिए….

प्यार का एहसास

  व्यंग्य- सुनीता चंद्रा

 मैंअकेली पत्नी बेचारी, मुझे धुन चढ़ी कि प्रेम का एहसास पाऊं. इस एहसास को पाने के लिए मैं ने क्याक्या नहीं किया. अब आप पूछेंगे कि मुझे यह धुन चढ़ी क्यों? तो हुआ यों कि मैं बाल धो कर सजसंवर कर अपनी बालकनी में खड़ी थी तो युवकयुवती मेरी बालकनी के नीचे खड़े बातें कर रहे थे. अब कोई इतनी जोरजोर से बातें करेगा, तो मैं कान तो बंद नहीं कर सकती. बातें कुछ रोमांटिक थीं तो मैं भी ध्यान से सुनने लगी.

युवती कह रही थी कि भई, यह प्यार का एहसास भी क्या एहसास है, सबकुछ भुला देता है. सब नयानया लग रहा है. अपने पराए हो जाते हैं और जिसे कुछ दिन पहले मिले उस के लिए दुनिया भी छोड़ देने को तैयार…

अब मैं उन्हें सुनना छोड़ कर प्यार का एहसास क्या होता है, यह सोचने लग गई. भई, इतने साल हो गए मुझे क्यों नहीं यह एहसास हुआ अभी तक? अब मैं ने भी ठाना कि यह एहसास तो कर के ही रहूंगी.

अब मैं सजसंवर कर शाम को पति के आने का इंतजार करने लगी. पति आए और मैं झट से पेड़ की लता की माफिक उन से लिपट गई. पति बेचारे घबरा कर दूर हटे. मैं बेचारी प्यार के एहसास से महरूम उलटे पति के पसीने से तरबतर शरीर से आती बदबू से चकरा गई. मैं ने झट से अच्छा सा अपना मनपसंद परफ्यूम नथुनों से लगाया और सोचा, कोई बात नहीं, किला तो फतह कर के ही रहूंगी.

मैं ने अगले दिन रात के खाने में अच्छेअच्छे व्यंजन बनाए और फिर से पति का इंताजर करने लगी. पतिदेव आए, लेकिन साथ में ढेर सारे दोस्तों को ले कर और दरवाजे से ही आवाज लगाई, ‘‘अरे भई, देखो मेरे साथ कौनकौन आया है… ये सब आज तुम्हारे हाथों का बना खाना खा कर जाएंगे.’’

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मैं अब अकेली पत्नी बेचारी. लंबी सांस भर कर रह गई. खैर, खाना बनाया गया. सब ने खाना खा कर खूब तारीफ की, डकार मारी और देर शाम तक खूब मस्ती की और फिर चले गए. मैं फिर प्यार के एहसास से कोसों दूर उलटे किचन में चारों तरफ बिखरे जूठे बरतन देख परेशान हो उठी.

अगले दिन मैं ने तय किया कि कुछ शौपिंग की जाए पति के साथ जा कर. हो सकता है वहीं कुछ प्यार का एहसास हो जाए. अब पतिदेव से कहा, ‘‘शाम को शौपिंग के लिए जाना है. कुछ जरूरी सामान लेना है. आप के साथ ही चलूंगी, इसलिए जल्दी आ जाना.’’

अभी महीने की शुरुआत थी, नईनई तनख्वाह आई थी हाथ में. सो उसे समेटा और अपनी जमापूंजी भी ली और चल पड़ी शौपिंग करने. मैं बड़े प्यार से इन की बांहो में बांह डाल कर पूरे बाजार से कुछ न कुछ खरीदती रही.

बाद में घर आ कर अपनी खरीदारी को देखा. मैं जो खरीद कर लाई थी उस की तो बिलकुल भी जरूरत नहीं थी. सोचा अब घर का बाकी खर्च कैसे चलेगा पर अगले ही पल मन को समझा लिया कि कोई बात नहीं. प्यार का एहसास तो करना ही था. फिर कुछ दिन शांत हो कर सोचा कि ऐसा क्या करूं कि मुझे भी प्यार का एहसास हो जाए. फिर एक आइडिया आया. पति के औफिस जाते ही एक बड़ा सा फूलों का गुलदस्ता पति के औफिस भेजा और एक प्यारा सा कार्ड भी. उस पर भी न जाने क्याक्या लिख डाला. फिर यह सोच कर बेसब्री से पति का इंतजार करने लगी कि वे आ कर जरूर अपनी खुशी का इजहार करेंगे और मुझे फिर प्रेम का एहसास हो ही जाएगा.

मगर यह क्या. पति आए, न कोई बात, न चेहरे पर कोई मुसकान, उलटे रोनी सूरत.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

बोले, ‘‘पता नहीं किस ने आज औफिस में गुलदस्ता भेजा और साथ में एक कार्ड भी. कार्ड पर भी न जाने क्याक्या लिखा था. मेरे सपनों का राजा, मेरे जानू, वगैरहवगैरह.

‘‘2-4 बातें बौस के बारे में भी लिखी थीं कि खड़ूस? तुम से ओवरटाइम करवाता है, फालतू के काम भी लेता है. इसलिए मेरे लिए तुम्हारे पास वक्त ही नहीं है… और भी न जाने क्याक्या…

‘‘मेरे बौस मेरी मेज पर गुलदस्ता देख उस में से कार्ड निकाल कर सब के सामने चिल्लाचिल्ला कर पढ़ने लगे. शुक्र है उस पर भेजने वाले का नाम नहीं था, वरना आज मेरी नौकरी चली जाती.’’

अब मैं रोंआसी हो गई. यह देख पतिदेव बोले, ‘‘भई, तुम क्यों उदास होती हो? मेरी नौकरी थोड़ी ही चली गई है. फिर वह गुलदस्ता तुम ने थोड़े ही भेजा था.’’

मैं संभल कर कुछ देर बाद धीरे से बोली, ‘‘वह मैं ने ही भेजा था. मैं अपना नाम लिखना भूल गई थी.’’

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इतना सुनना था कि वे चिल्लाने के लिए तत्पर हुए, पर

फिर शांत हो कर पूछा तो मैं ने सब उगल दिया.

सुन कर जोर से हंसे और बोले, ‘‘तो यह बात है. तभी मैं सोचूं कि तुम यह कैसा व्यवहार कर रही हो. मैं ने तो सोच लिया था कि तुम्हें डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा.’’

वे और भी न जाने क्याक्या बोलते रहे और मैं प्यार का एहसास पाने के अगले नुसखे के बारे में सोच रही हूं. पाठको, आप को भी यदि कोई उपाय सूझे तो मुझे जरूर लिखना.

अधूरी कहानी: भाग-3

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कहानी- नज्म सुभाष

अचानक उस के मन ने उसे धिक्कारा… वाह माधवी वाह… मधुमालती से माधवी बन गई तुम, केवल नाम बदल दिया… मगर स्त्रीत्व… उसे कैसे बदलोगी? अगर तुम उसे नहीं जानती तो फिर तुम्हारे गले में मंगलसूत्र, मांग में लगा सिंदूर किसलिए और किस के लिए? उतार फेंको यह मंगलसूत्र, पोंछ डालो सिंदूर… अरुण कुमार के नाम के ये बंधन भी किसलिए? लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकती… भले ही ऊपर से चाहे जो कुछ कहो माधवी, लेकिन तुम्हारा मन क्या कभी उसे भूला… नहीं कभी नहीं… तुम्हारी गजलों में मुखर पीड़ आखिर किस की है? फिर तुम ने उसे पहचानने से कैसे इनकार कर दिया?

‘‘चुप हो जाओ… मैं अब कुछ भी नहीं सुन सकती,’’ वह चीखते हुए रो पड़ी.

उस की चीख सुन कर अदिति जग गई. किसी तरह सम झाबु झा कर उस ने फिर से सुला दिया. लेकिन खुद न सो सकी… पुराने दिनों की यादें उस के जेहन को मथती रहीं…

रात का करीब 1 बज रहा था जब फोन की घंटी घनघना उठी. वैसे तो वह सोई नहीं थी, किंतु उस का मन फोन उठाने का नहीं था, लेकिन घंटी जब काफी देर तक बजती रही तो उसे फोन उठाना पड़ा.

‘‘हैलो, कौन?’’ उस ने पूछा.

‘‘मैं निर्मल बोल रहा हूं, उधर से खोईखोई सी आवाज आई.’’

‘‘इतनी रात गए सर… सर सब ठीक तो है न?’’ उस ने बड़ी हैरत से पूछा.

‘‘मैं जो कुछ पूछ रहा हूं सचसच बताना. क्या आप अरुण कुमार को जानती हैं?’’

उस के कानों में जैसे विस्फोट हुआ… लेकिन जल्द ही संभल कर बोली, ‘‘आज इतनी रात गए आप ये सब क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘पहले यह बताओ उसे जानती हो या नहीं?’’

‘‘हां… कभी मेरे पति हुआ करते थे,’’ ‘थे’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया.

‘‘करते नहीं थे, आज भी हैं, क्योंकि तुम दोनों का तलाक नहीं हुआ है.’’

‘‘मगर सर बात क्या है?’’

‘‘शायद अब वे जिंदा न बचें. कल जब वे तुम्हारे घर आए थे तो तुम ने दरवाजा नहीं खोला. काफी देर तक वहीं बैठे रहे, मगर दरवाजा नहीं खुला. फिर वे इसी उम्मीद में बारबार घर की तरफ देखते हुए बढ़ रहे थे. अचानक सड़क पर जा रहे एक ट्रक ने उन्हें टक्कर मार दी. वे इस वक्त शकीरा नर्सिंगहोम में जिंदगी और मौत के बीच सांसें गिन रहे हैं. डाक्टरों ने उन के बचने की आशा छोड़ दी है. वे एक बार आप से मिलना चाहते हैं.’’

‘‘मगर आप को ये सब कैसे पता चला?’’ उस की आवाज रुंध गई थी.

‘‘दरअसल, आप प्रोग्राम से बिना बताए ही रोते हुए चली गईं. फिर वे भी आप के पीछेपीछे भागे. मु झे कुछ शक हुआ, क्योंकि जब भी तुम्हारा इस नाम से सामना होता तुम बेचैन हो जाती थीं. बस इन्हीं सब बातों की याद आते ही मैं भी गाड़ी से उन के पीछे लग लिया. तुम्हारे घर के पास आ कर वे उतर गए. तब तक तुम घर के अंदर जा चुकी थीं और मैं थोड़ी दूर खड़ा प्रतीक्षा करने लगा. बाद में जब वे सड़क पर आए तो ऐक्सीडैंट हो चुका था. मैं उन्हें अपनी गाड़ी से नर्सिंगहोम ले आया. डाक्टरों का कहना है कि उन का बचना मुश्किल है.’’

‘‘मैं…मैं… अभी पहुंचती हूं,’’ रिसीवर रख दिया था उस ने.

माधवी ने एक नजर मंगलसूत्र पर डाली, जिस की एक लड़ी टूट चुकी थी. उस में जरा भी आभा न थी… अभी कुछ देर पहले तक चमकने वाला मंगलसूत्र अब कांतिहीन हो गया था. उस ने जल्दी से बेटी को जगाया… थोड़ी ही देर में गाड़ी नर्सिंगहोम की तरफ चल पड़ी.

‘‘मम्मी, इतनी रात को हम कहां जा रहे हैं?’’ बेटी ने पूछा.

‘‘तुम्हारे पापा से मिलने.’’

‘‘ झूठ…  झूठ… आप तो हमेशा कहती थीं कि पापा कहीं खो गए हैं,’’ वह जोर से चिल्लाई.

‘‘हां कहती थी, मगर आज मिल गए हैं.’’

‘‘तो क्या अब वे हमारे साथ रहेंगे?’’

‘‘हां… शायद.’’

‘‘तब तो बड़ा मजा आएगा,’’ बेटी खुश थी.

‘‘हां, लेकिन अभी चुप रहो. मेरे सिर में दर्द हो रहा है.’’

ज्यों ही वह शकीरा नर्सिंगहोम पहुंची, सामने निर्मलजी दिख गए, जो बाहर बैंच पर बैठे ऊंघ रहे थे. पदचाप की आवाज सुन कर उन्होंने आंखें खोलीं. पूछा, ‘‘आ गईं तुम… मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था.’’

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‘‘कहां हैं वे?’’ उस ने पूछा.

‘‘इमरजैंसी वार्ड में हैं… जा कर मिल लो. सामने वाला कमरा है,’’ उन्होंने इशारा किया.

वह जल्दी उस कमरे में पहुंची. बेटी भी साथ थी.

सामने बैड पर पड़े जिस्म को देख कर सिहर उठी. पूरा शरीर खून से लथपथ था. माधवी को देख कर उस ने उठना चाहा, लेकिन माधवी ने हाथ के सहारे से लिटा दिया.

‘‘यह क्या… हा… ल बना लिया तुम ने?’’ उस ने रोते हुए पूछा.

‘‘सब मेरे कर्मों का परिणाम है… जो जुल्म मैं ने तुम पर ढाए यह उन्हीं का प्रतिफल है. मु झे इस सजा पर कोई आपत्ति नहीं है. अब तो बस चंद सांसें बची हैं. मैं चाहता वे भी तुम्हारे सामने टूट जाएं,’’ बोलते हुए उस ने आह भरी.

‘‘नहीं तुम्हें कुछ नहीं होगा… मैं…मैं बचाऊंगी तुम्हें.’’

‘‘अब मु झे कोई भी नहीं बचा सकता,’’ फिर अचानक अदिति पर नजर पड़ते ही इशारे से पूछा, ‘‘यह बेटी?’’

‘‘मेरी है… गोद ली है मैं ने.’’

‘‘अच्छा किया मालती जो इसे गोद ले लिया नहीं तो… नहीं तो मेरी चिता को आग कौन देता… मैं पूरी जिंदगी इसी सोच में डूबा रहा कि मेरे मरने के बाद मेरा क्या होगा… लेकिन अब नहीं सोचना है… अब मैं आराम से मर सकता हूं,’’ कह कर उस ने अदिति की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा.

कितना सुखद एहसास था. वैसे भी मृत्यु के समय क्या अपना क्या पराया,

2

मिनट के बाद तो सबकुछ यों भी…

‘‘काश, तुम ने पहले ही मेरी बात मान ली होती तो आज हम सब साथ होते… लेकिन आज…’’ आगे के शब्द होंठों पर आतेआते दम तोड़ चुके थे.

‘‘मैं तुम्हारी नजरों में गिरना नहीं चाहता था मालती… मगर वक्त ने मु झे ऐसा गिराया कि उठने लायक भी नहीं बचा… फिर भी खुश हूं मैं… मरते वक्त ही सही तुम मेरे करीब तो आईं… मैं ने आदर्शों को अपनी रचनाओं में खूब जीया… लेकिन हकीकत में एक भी आदर्श अपनी जिंदगी में नहीं अपना सका… काश, मैं तुम्हें खुश रख सकता मालती… मैं बहुत शर्मिंदा हूं माफ करना मु झे मालती… मेरी सांसें उखड़ रही हैं…’’

माधवी जब तक कुछ सम झ पाती उस का हाथ उस के मंगलसूत्र में फंस कर नीचे आ गया, जिस के फलस्वरूप मंगलसूत्र टूट कर गिर गया.

दूसरे दिन हजारों साहित्यकारों के बीच अदिति ने उसे मुखाग्नि दी. माधवी कुछ पल चिता को निहारती रही. अचानक उसे लगा लपटें रुक गईं और उस में से एक चेहरा उभरा जो हंसते हुए उस से कह रहा था कि तुम ने मेरी आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दी जो वर्षों से मेरे मन में फांस की तरह चुभ रही थी… मेरी अधूरी कहानी पूरी हो गई मालती… अब मैं जा रहा हूं सदासदा के लिए.’’

माधवी ने अपने आंसू दुपट्टे से पोंछ डाले हमेशाहमेशा के लिए, क्योंकि उसे अदिति के लिए मुसकराना था.

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ऐंटरटेनमैंट

‘‘क्यातुम ने प्रैस के कपड़ों में अंडरवियर भी डाल दिया था?’’ शिखा ने पति शेखर से पूछा.

‘‘शायद… गलती से कपड़ों के साथ चला गया होगा,’’ शेखर बोला.

‘‘प्रैस वाले ने उस के भी क्व5 लगा लिए

हैं. अब ऐसा करना कि कल अंडरवियर पहनो

तो उस पर पैंट मत पहनना क्व5 जो लगे हैं,’’

शिखा बोली.

‘‘तुम भी बस… हर समय मजाक के मूड में रहती हो. कभीकभी सीरियस भी हो जाया करो.’’

‘‘अरे, हम तो हैं ही ऐसे… इसीलिए तो आज भी 50 की उम्र में भी हम से कोई शादी

कर ले.’’

बेटी नेहा बोली, ‘‘तो पापा आप मेरे लिए बेकार में लड़का ढूंढ़ रहे हो… मम्मी की शादी करवा दो. वैसे भी मु झे शादी नहीं करनी.’’

शेखर ने पूछा, ‘‘क्यों बेटा?’’

‘‘पापा, मैं ने अब तक की जो जिंदगी जी है उस में ऐसा महसूस किया है… मैं शादी कर के अपनी आजादी को खो दूंगी… शादी एक बंधन है और मैं बंधन में नहीं बंध सकती. इस बारे में मैं मम्मी से सारी बात शेयरकर लूंगी,’’ नेहा ने स्पष्ट सा जवाब दिया.

तभी शेखर की नजर दरवाजे पर पड़ी. एक कुत्ता घुस आया था. शेखर ने शिखा से कहा, ‘‘तुम ने बाहर का दरवाजा भी ठीक से बंद नहीं किया. देखो कुत्ता घुस आया.’’

‘‘अरे, ठीक से तो देख लिया करो. यह कुत्ता नहीं कुतिया है. शायद तुम से मिलने आई है. मिल लो. फिर इसे बाहर का रास्ता दिखा देना,’’ शिखा बोली.

‘‘तुम तो हर समय मेरे पीछे ही पड़ी रहती हो,’’ शेखर ने तुनक कर कहा.

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‘‘तुम्हारे पीछे नहीं तो क्या पड़ोसी के पीछे पड़ूंगी? वह भी तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा और ऐसा तो होता ही आया है कि पति आगेआगे और पत्नी पीछेपीछे,’’ शिखा ने झट जवाब दिया.

‘‘खैर, छोड़ो मै तुम से जीत नहीं सकता.’’

‘‘शादी भी एक जंग है. उस में जीत कर ही तो तुम मु झे लाए हो. यही सब से बड़ी जीत है…ऐसी पत्नी ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगी,’’ शिखा बोली.

‘‘अच्छा छोड़ो, अपने गुण बहुत बखान कर लिए तुम ने. अब मेरी सुनो,’’ शेखर ने कहा.

‘‘तुम्हारी ही तो सुन रही हूं अब तक.’’

‘‘अपनी नेहा के लिए रिश्ता आया है… नेहा ने मु झ से कहा था कि वह शादी नहीं करना चाहती. तुम जरा उस से बात कर लेना.’’

‘‘ठीक है श्रीमानजी जो आप की आज्ञा… शादी की इस जंग में पत्नी को जीत लाए थे. तब से अब तक आप के ही इशारों पर नाच रही हूं,’’ शिखा बोली.

‘‘अच्छा बहुत जोर की भूख लगी है. अब कुछ खिलाओपिलाओ,’’ शेखर ने कहा.

‘‘देखोजी, खिलानेपिलाने की नौकरी मैं ने नहीं बजाई. अब तुम नन्हे बच्चे तो हो नहीं… लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हो. वह उम्र तो तुम्हारी निकल चुकी.’’

‘‘ठीक है मेरी मां तू दे तो सही.’’

‘‘देखो मां शब्द का इस्तेमाल मत करो. घाटे में रहोगे. सोच लो फिर कुछ मिलने वाला नहीं. बस मां के प्यार पर ही आश्रित रहोगे.’’

‘‘अरे यार तेरे मांबाप ने तु झे क्या खा कर जना था?’’ शेखर के मुंह से निकला.

‘‘पूछूंगी जा कर उन से कि आप के दामाद को आप का राज पता करना है… इतने सालों बाद आज कुरेदन हो रही है उन को.’’

‘‘ठीक है, ठीक है. बस अब बहुत हो गया,’’ शेखर बोला.

‘‘अरे नेहा, बेटी मेरा चश्मा कहां है?’’ शेखर ने बेटी को आवाज दी.

‘‘अरे पापा, चश्मा आप के सिर पर ही

रखा है. इधरउधर क्यों ढूंढ़ रहे हो?’’ नेहा हंसते हुए बोली.

‘‘इन का हिसाब तो यह है कि बगल में छोरा शहर में ढिंढोरा,’’ शिखा बोली.

‘‘पूछूंगा बच्चू…’’ शेखर ने मुंह बनाते

हुए कहा.

‘‘वाहवाह, कभी बच्चू, कभी अम्मां, कभी मां. अरे जो रिश्ता है, उसी में रहो न?’’

‘‘तुम नहीं सम झोगी… वैसे भी चिराग तले अंधेरा… पूरी दुनिया में भी ढूंढ़ती, तो ऐसा पति नहीं मिलता. कल की ही बात लो. चीनी का डब्बा फ्रिज में रख दिया और जमाने में ढूंढ़ते हुए परेशान हो रही थी… बात करती है कि मैं जवान हूं…ये बुढ़ापे के लक्षण नहीं हैं तो और क्या है?’’

‘‘चलो, छोड़ो अब. बहुत हो गया. 1 कप चाय मिलेगी?’’

‘‘1 कप नहीं, एक बालटी भर लो,’’ शिखा ने कहा.

‘‘बस बहुत हो गया. शेर जब जख्मी हो जाता है न, तो ज्यादा खूंख्वार हो जाता है,’’ मेरी सहनशक्ति का इम्तिहान मत लो. जबान में मिस्री है ही नहीं.’’

‘‘हांहां, मेरी जबान में तो जहर घुला है.

कुएं के मेढक की तरह टर्रटर्र किए जाएंगे,’’ शिखा बोली.

‘‘कभी नहीं सम झोगी तुम… ये शब्द ही हैं, जो जिंदगी  में उल झन पैदा करते हैं. मुसकराहट जिंदगी को सुल झाती है, सम झी?’’

‘‘अरे बेटी नेहा 1 कप चाय बना दे. 1 कप चाय मांगना गुनाह हो गया.’’

‘‘हांहां, चाय तो नेहा ही बनाएगी… सारी जिंदगी छाती पर बैठा कर रखना इसे… मेरे हाथों में तो जहर है,’’ शिखा हाथ नचाते हुए बोली.

‘‘न… न… तुम्हारे हाथों में नहीं, तुम्हारी जवान में जहर है,’’ शेखर ने कहा.

‘‘मेरे लिए तो प्यार के 2 बोल भी नहीं… अब क्या मैं इतनी बुरी हो गई?’’

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‘‘मैं ने कब कहा? अरे पगली, तेरे से अच्छी तो दुनिया में कोई हो ही नहीं सकती… बस थोड़ा सा ज्यादा नहीं चुप रहना सीख ले. हर बात पर पलट कर वार मत किया कर… पगली अब इस उम्र में मैं कहां जाऊंगा?’’ शेखर बोला.

‘‘चाय पीयोगे?’’ शिखा ने दबे शब्दों में पूछा.

‘‘अरे, मैं तो कब से चाय के लिए तरस

रहा हूं.’’

‘‘अरे बेटी नेहा जरा आलू छीलना… सोच रही हूं चाय के साथ पकौड़े भी बना लेती. क्योंजी?’’ शिखा ने पूछा.

‘‘देर आए दुरुस्त आए,’’ शेखर ने हंसते

हुए कहा.

अधूरी कहानी: भाग-2

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कहानी- नज्म सुभाष

आज 14 साल बाद फिर से वही नाम उस की आंखों के सामने तैर गया. इन सालों में उस ने कितने संघर्ष किए, क्याक्या परेशानियां नहीं उठाईं… सब याद है उसे. किस तरह उस ने लोगों के घर काम कर के अपना जीवन काटा. यह तो अच्छा हुआ कि उसे निर्मलजी जैसे श्रेष्ठ साहित्यकार का आशीर्वाद प्राप्त हुआ. उन्हीं की प्रेरणा से उस ने एक किताब ‘स्त्रीवजूद’ लिखी जो पूरे भारत साहित अन्य देशों में भी अनुवादित हो कर हाथोंहाथ ली गई. उस ने अपना नाम बदल कर माधवी कर लिया. पुस्तकों से प्राप्त होने वाली धनराशि से उस ने एक घर खरीदा. अनाथाश्रम से उस ने एक बेटी को गोद लिया. उस की जिंदगी में हर तरफ खुशियां ही खुशियां थीं. लेकिन आज अतीत ने जख्मों को फिर से ताजा कर दिया.

‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता… हो सकता है यह कोई दूसरा इनसान हो. आजकल तो एक नाम के कई लोग मिल जाते हैं,’ उस ने सोचा.

करीब 10 दिन बाद उस के पास निर्मलजी का फोन आया. उन्होंने उसे बताया कि साहित्यकार मंडल ने अरुण कुमार को पुरस्कार प्रदान करने के लिए तुम्हें चुना है. यह सुन कर वह अवाक रह गई. वह जिस तरह जाने से बचती है, लोग उसे उसी तरफ क्यों धकेल देते हैं… उस ने साफ मना कर दिया कि वह नहीं आ पाएगी. मगर निर्मलजी ने बताया कि यह बात लेखक को डाक द्वारा बताई जा चुकी है कि उसे पुरस्कार प्रदान करने के लिए तुम आ रही हो.

‘‘लेकिन इतना सब करने से पहले आप ने मु झ से पूछा क्यों नहीं?

‘‘अरे, यह भी कोई बात हुई… आजकल तो लोग प्रसिद्धि पाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों की फिराक में रहते हैं और एक आप हैं कि…’’

‘‘सौरी सर मैं नहीं आ सकती.’’

‘‘यानी मेरी इज्जत मिट्टी में मिलाने का पूरा इरादा है… अब तो कार्ड भी बांटे जा चुके हैं, खैर, ठीक है आप की मरजी,’’ एक लंबी सांस खींचते हुए वे बोले. उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे लंबी रेस जीतने से पहले ही वे थक गए हों.

‘‘ठीक है सर मैं आ जाऊंगी… मगर केवल पुरस्कार प्रदान करने के तुरंत बाद चली जाऊंगी.’’

निर्मलजी उस की जिंदगी में एक आदर्श की तरह थे… उसे बेटी की तरह प्यार करते थे. लिहाजा उन की बात काटने की उस में हिम्मत न थी.

शाम के 7 बज रहे थे जब निर्मलजी ने तमाम लेखकों और बुद्धिजीवियों से भरे हौल

में अरुण कुमार को पुरस्कार प्रदान करने के लिए माधवी के नाम की घोषणा की. माधवी ने ज्यों ही सम्मानित होने वाले शख्स को देखा, उस के पैर थम गए. उस शख्स ने भी एक नजर उसे देख कर अपनी नजरें  झुका लीं. उफ, वही शख्स… कितना दुखद दृश्य था वह… इसी दृश्य से तो वह बचना चाहती थी… मगर अब…

जो इनसान अब तक यह सम झता आया था कि उस से दूर होने के बाद मधुमालती ने अपना वजूद गिरवी रख दिया होगा या फिर मरखप गई होगी आज वही मधुमालती उसे पुरस्कार प्रदान करेगी और वह पुरस्कार ग्रहण करेगा… इस से बड़ा नियति का क्रूर मजाक और क्या होगा…

उस से नजरें मिलते ही अरुण कुमार का सारा अहंकार शीशे के माफिक टूट कर उस के मन में चुभने लगा. माधवी ने पुरस्कार निर्मलजी के हाथ से ले कर उसे पकड़ा दिया. औपचारिक रूप से उस ने धन्यवाद किया. किसी से कुछ कहने के बजाय वह धम्म से कुरसी पर बैठ गया. जैसे उस का सम्मान न किया गया हो, बल्कि सैकड़ों जूते मारे गए हों.

माधवी वहीं खड़ी रही. अचानक वहां बैठे साहित्यकार माधवी से अपनी पसंद की गजल सुनाने की फरमाइश करने लगे. तब तक निर्मलजी ने भी सभी साहित्यकारों का दिल रखने के लिए उसे एक छोटी सी रचना सुनाने को कह दिया.

अंदर से हूक उठ रही थी. बस मन यही कर रहा था कि वह तुरंत यहां से चली जाए. मगर निर्मलजी की बात कैसे ठुकराती. अत: उस ने माइक संभाल लिया

यों तो मेरे लब पर आई, अब तक कोई आह नहीं,

तेरी जफाओं पर चुप हूं तो इस का मतलब चाह नहीं.

तू कहता था तेरी मंजिल, नजरों में वाबस्ता है,

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सचसच कहना मेरी तरह ही, तू भी तो गुमराह नहीं.

पत झड़ का मौसम काबिज है, दिल में पूरे साल इधर,

कितनी बार कैलेंडर पलटा, उस में फागुन माह नहीं.

अश्कों का था एक समंदर, जिस के पार उतरना था,

डूब गई मैं जिस के गम में, उस को है परवाह नहीं.

तु झ से मिल कर मेरी धड़कन, बेकाबू हो जाती थी,

अब ये बर्फ सरीखे रिश्ते, मिलने का उत्साह नहीं.

जीना मुश्किल कर देती है, बेचैनी को बढ़ा कर जो,

अपनी यादें ले जा मु झ से, होगा अब निर्वाह नहीं.

आज माधवी की आवाज में दर्द का एहसास अधिक गहरा था. लोग मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहे थे. गजल खत्म होते ही हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मगर माधवी बदहवासी में  झट से मंच से उतर कर बाहर खड़ी कार में जा बैठी. सब हैरान थे.

घर पहुंचने के बाद माधवी का मन चाह रहा था कि फूटफूट कर रोए. मगर गले में जैसे

कुछ धंस गया था. वह इन्हीं खयालों में गुम थी कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘कौन है?’’ आंसू पोंछ कर  झुं झलाते हुए उस ने दरवाजे की जगह खिड़की खोल दी. सामने वही चेहरा था जिस से उसे नफरत हो चुकी थी.

‘‘तुम… अब यहां क्या करने आए हो?’’

‘‘मैं… मैं तुम से माफी मांगने आया हूं मालती.’’

‘‘कौन मालती…? मालती को तो मरे 14 साल हो चुके हैं. मैं माधवी हूं, मैं तुम्हें नहीं जानती, चले जाओ यहां से,’’ अंतिम शब्द तक आतेआते वह चीख पड़ी थी.

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‘‘चला जाऊंगा, लेकिन बस… एक बार… बस एक बार कह दो कि तुम ने मु झे माफ कर दिया,’’ घुटनों के बल बैठ कर गिड़गिड़ा उठा था वह.

‘‘मैं ने कहा न मैं तुम्हें नहीं जानती… अब तुम शराफत से जाते हो या मैं शोर मचाऊं,’’ कह कर उस ने खिड़की बंद कर दी.

करीब 15 मिनट तक कोई आहट नहीं हुई. उसे लगा वह जा चुका है… अच्छा है… जब उस से कोई वास्ता नहीं तो फिर किसलिए माफी… मेरी जिंदगी नर्क बना कर आज मु झ से माफी मांगने आया है.

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अधूरी कहानी: भाग-1

कहानी- नज्म सुभाष

राष्ट्रीयस्तर पर आयोजित कहानी प्रतियोगिता में इस बार निर्णायक मंडल ने अरुण कुमार की कहानी को चुना था. प्रथम पुरस्कार के लिए जो कहानी चुनी गई वह एक ऐसे बच्चे पर आधारित थी, जिस के मांबाप बचपन में ही काल के गाल में समा जाते हैं और वह बच्चा तमाम उतारचढ़ाव के बाद आगे चल कर देश का प्रधानमंत्री बनता है. जजों में शामिल माधवी जोकि 3 साल पहले इसी संस्थान से सम्मानित की गई थी, जब उस ने इस कहानी को पढ़ा तो बहुत प्रभावित हुई. मगर जब उस ने लेखक का नाम पढ़ा तो उस के चेहरे के भाव बदलने लगे. अरुण कुमार… कहीं यह वही तो नहीं… मन में अजीब सी उथलपुथल शुरू हो गई.

‘‘सर,’’ उस ने अपने साथ बैठे वरिष्ठ साहित्यकार निर्मल से कहा.

‘‘हां बोलो माधवी.’’

‘‘मैं इस लेखक का फोटो देखना चाहती हूं.’’

‘‘लेकिन तुम्हें तो पता होगा प्रतियोगिता में फोटो भेजने का प्रावधान नहीं है नहीं तो प्रतियोगिता की पारदर्शिता पर लोग प्रश्नचिह्न लगा सकते हैं.’’

‘‘सौरी सर. मैं भूल गई थी,’’ उस ने जल्दी में अपनी बात संभाली.

‘‘लेकिन बात क्या है?’’

‘‘कोई बात नहीं सर… बस ऐसे ही पूछा था.’’

माधवी घर आ चुकी थी, लेकिन उस के मन पर न जाने कैसा बो झ महसूस हो रहा था, जिसे वह उतार फेंकना चाहती थी, मगर उतारे कैसे? उस के घर पहुंचते ही अदिति उस से लिपट कर प्यार जताने लगी. मगर आज उस का मन उचाट था. इतने दिनों से दबी चिनगारी को इस नाम ने आ कर फिर से हवा दे दी… आखिर क्यों?

माधवी तो भूल चुकी थी हर बात… हां हर बात… लेकिन आज फिर इस नाम ने जख्मों को कुरेद डाला. उस का सिर भारी होने लगा… अनचाहा दर्द सीने में टीस मारने लगा. उसे ऐसा लग रहा था जैसे भूतकाल उस के सामने प्रकट हो गया. वह भूतकाल जिसे वह वर्तमान में कभी याद नहीं करना चाहती… लेकिन वह तो सामने आ चुका था दृश्य रूप में उस के मानसपटल पर…

दीवार घड़ी ने रात के 12 बजने का संकेत दे दिया था. मधुमालती अब भी उस शख्स का इंतजार कर रही थी जो सिर्फ उस का था, मगर वह न जाने कहां होगा. इधर कुछ दिनों से उस का रूटीन बन गया था यों ही घड़ी देखते हुए उस का इंतजार करने का और वह निर्माेही उसे कोई फिक्र ही नहीं थी उस की.

माधवी इन्हीं खयालों में गुम बारबार घड़ी देखती, फिर खिड़की खोल कर सड़क… शायद वह दिख जाए. मगर उस की अभिलाषाओं की तरह सड़क भी एकदम सूनी थी. दूरदूर तक कोई नहीं…

करीब 1 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई. उस ने  झट से दौड़ कर दरवाजा खोला तो सामने का दृश्य देख कर उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. जिस के इंतजार में उस ने इतनी रात जाग कर काट दी थी वह शख्स लड़खड़ाता हुआ अंदर आया.

‘‘आज आप फिर पी कर आए हैं?’’ उस ने रोते हुए पूछा.

‘‘हां पी कर आया हूं… तेरे बाप का क्या जाता है?’’ कहते हुए उस ने एक गाली उछाली.

‘‘क्यों अपनी जिंदगी बरबाद करने पर तुले हो?’’

‘‘जिंदगी बर…बाद…’’ कहते हुए पागलों की तरह हंसा वह.

‘‘मैं… मैं… आबाद ही कब रहा हूं? जब से… जब से तुम ने इस घर में कदम रखा है मेरी जिंदगी नर्क बन गई है.’’

‘‘ऐसा क्या किया है मैं ने?’’ वह हैरान थी.

‘‘तुम बहुत अच्छी तरह जानती हो कि मैं क्या चाहता हूं.’’

‘‘मगर उस के लिए मैं क्या कर सकती हूं. मैं ने क्लीनिक में अपना चैकअप कराया था. मैं मां बनने के लिए पूरी तरह सक्षम हूं. उन्होंने कहा था दोनों का चैकअप…’’

तड़ाक… वह अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही एक जोरदार थप्पड़ उस के गालों पर आ पड़ा, ‘‘तू यह कहना चाहती है कि मैं नामर्द हूं? मु झ में बच्चा पैदा करने की क्षमता नहीं?’’

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा… मैं… तो…’’

‘‘सफाई देती है. सा… ली…’’ वह जोर से दहाड़ा.

‘‘तू अगर चाहती है कि मैं ठीक से रहूं तो मेरी मुराद पूरी कर दे… 5 साल हो चुके हैं शादी को… अभी तक बच्चे की किलकारी तक नहीं गूंजी घर में… यारदोस्त मजाक उड़ाते हैं. बहुत हो चुका… मैं अब बरदाश्त नहीं कर सकता.’’

‘‘तुम चैकअप भी न कराओगे और मु झ से बच्चा भी चाहिए… क्या यह अकेले मेरे बस का है?’’

‘‘मु झे कुछ नहीं सुनना… जो कहा है उसे गांठ बांध लो,’’ वह दहाड़ा.

‘‘सुनो, क्यों न हम एक बच्चा अनाथाश्रम से गोद ले लें?’’ वह सिसकते हुए बोली.

‘‘क्या कहा… जरा फिर से बोल… अनाथाश्रम का बच्चा?’’

‘‘तो इस में गलत क्या है?’’

फिर क्या था. वह उस पर लातघूंसे बरसाने लगा. वह चीखतीचिल्लाती रही. इस पर भी उस का गुस्सा शांत न हुआ तो हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ घर के बाहर ले गया और फिर पीठ पर एक लात जड़ते हुए बोला, ‘‘आज के बाद इस घर के दरवाजे बंद हो चुके हैं तुम्हारे लिए… जा तु झे जहां जाना है. मेरा तु झ से कोई वास्ता नहीं. बां झ कहीं की…’’

उस के इन शब्दों ने जैसे माधवी के कानों में गरम सीसा उड़ेल दिया था. अभी तक वह जमीन पर पड़ी रो रही थी. फिर अचानक न जाने उस में कहां से शक्ति आ गई. शेरनी की तरह दहाड़ते हुए बोली, ‘‘वाहवाह बहुत खूब… अच्छा लगा सुन कर स्त्रीवादी लेखक… मगर घर की स्त्री की कोई वैल्यू नहीं… अरे, तुम तो वे इंसान हो जो अपने 1 1 आंसू की कीमत वसूलते हो कागज के पन्नों पर लिख कर… तुम्हें तो हर दिन एक नई कहानी की तलाश रहती है… इस कहानी को भी लिख लेना, बहुत प्रसिद्धि मिलेगी. वैसे भी औरत एक कहानी से ज्यादा कब रही इस पुरुषप्रधान देश में… एक कहानी और सही. लेकिन एक बात याद रखना अरुण कुमार, तुम्हें बच्चों का सुख कभी नहीं मिलेगा… चाहे तो एक बार जा कर चैकअप करवा लेना. तुम नामर्द हो… और हां, तुम क्या निकालोगे मु झे घर से, मैं खुद ही जा रही हूं इस दलदल से दूर. इतनी दूर कि जहां तुम्हारे कदमों के निशान तक न पहुंचें.’’

वह मूर्तिवत खड़ा रहा. उस ने उसे रोका नहीं और वह सुनसान सड़क की खामोशी को तोड़ने के लिए एक अनजान मंजिल की तरफ बढ़ती चली गई.

आगे पढ़ें  आज 14 साल बाद फिर से वही नाम उस की आंखों के सामने…

मां मां होती है: भाग-3

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दोनों बहनों में केवल फोन से ही बातें होतीं. कुसुम मां की खाने की फरमाइशें देख कर हैरान हो जाती. अगर कुछ कहो तो मां वही पुराना राग अलापतीं, ‘तुम्हारे पापा होते तो आज मेरी यह गत न होती.’ यह सब सुन कर वह भी चुप हो जाती. मगर रमेश उबलने लगा था. उस ने पीना शुरू कर दिया. अकसर देररात गए घर आता और बिस्तर पर गिरते ही सो जाता.

कुसुम कुछ समझानाबुझाना चाहती भी, तो वह अनसुना कर जाता. दोनों के बीच का तनाव बढ़ने लगा था. मगर आंटी को सिर्फ समय से अपनी सफाई, पूजा, सत्संग और भोजन से मतलब था. इन में कोई कमी हो जाए, तो चीखचीख कर वे घर सिर पर उठा लेतीं. अब हर वक्त प्रज्ञा को याद करतीं कि वह ऐसा करती थी, महेश मेरी कितनी सेवा करता था आदिआदि.

यह सब सुन कर रमेश का खून खौल जाता. असल में महेश अपने भाइयों में सब से छोटा होने के कारण सब की डांट सुनने का आदी था. लेकिन रमेश 2 बहनों का एकलौता भाई होने के कारण लाड़ला पुत्र था. उस के बरदाश्त की सीमा जब खत्म हो गई तो एक रात वह वापस घर ही नहीं आया.

सब जगह फोन कर कुसुम हाथ पर हाथ धर कर बैठ गई. सुबह ननद

का फोन आया कि वह हमारे घर में

है. कानपुर से लखनऊ की दूरी महज

2-3 घंटे की तो है, सारी रात वह कहां था? इस का कोई जवाब ननद के पास भी नहीं था. फिर तो वह हर 15 दिन में बिना बताए गायब हो जाता और पूछने पर तलाक की धमकी देने लगा. कभी कहता, ‘कौन सा सुख है इस शादी से, अंधी लड़ाका सास और बेवकूफ बीवी, न दिन में चैन न रात में.’

कुसुम के शादीशुदा जीवन में तलाक की काली छाया मंडराने लगी थी. वह अकसर मेरे सामने रो पड़ती. आंटी किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं थीं. उस दिन उन की चीखपुकार सुन कर मैं उन से मिलने चली गई. पता चला कुसुम की छोटी बेटी रिनी की गेंद उछल कर उन के कमरे में चली गई. बस, इतने में ही उन्होंने घर सिर पर ले रखा था. पूरा कमरा धोया गया. दरवाजे, खिड़की, परदे, चादर सब धुलने के बाद ही उन्हें संतुष्टि हुई.

कुसुम ने बताया, ‘वह अपनी बेटियों को सिर्फ सोते समय ही मां के कमरे में ले जाती है. बाकी समय वह अपना कमरा बंद कर बैठी रहती है ताकि रिनी और मिनी उन के सामान को हाथ न लगा सकें. वैसे, मिनी 6 साल की हो गई है और बहुत समझदार भी है. वह दिन में तो स्कूल चली जाती है और शाम को दूसरे कमरे में ही बैठ कर अपना होमवर्क करती है, या फिर बाहर ही खेलती रहती है. लेकिन रिनी थोड़ी शैतान है. उसे नानी का बंद कमरा बहुत आकर्षित करता है. वह उस में घुसने के मौके तलाश करती रहती है.

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‘रिनी दिनभर घर में ही रहती है और स्कूल भी नहीं जाती है. आज जब मां रसोई तक उठ कर गईं तो दरवाजा खुला रह गया. रिनी ने अपनी गेंद उछाल कर नानी के कमरे में डाल दी. फिर भाग कर उठाने चली गई. क्या कहूं इसे? 3 साल की छोटी बच्ची से ऐसा क्या अपराध हो गया जो मेरी मां ने हम दोनों को इतने कटु वचन सुना दिए.’

तभी आंटी कमरे से निकल कर मुझ से उलझ पड़ीं, ‘तुम्हारी मां ने तो तुम लोगों को कोई साफसफाई सिखाई नहीं है. मैं ने प्रज्ञा और कुसुम को कैसे काम सिखाया, मैं ही जानती हूं. मगर अपनी औलादों को यह कुछ न सिखा सकी. मैं मर क्यों नहीं जाती. क्या यही दिन देखने बाकी रह गए थे. बेटियों के रहमोकरम पर पड़ी हूं. इसी बात का फायदा उठा कर सब मुझे परेशान करते हैं. कुसुम, तेरी भी 2 बेटियां हैं. तू भी जब मेरी स्थिति में आएगी न, तब तुझे पता चलेगा.’

मैं यह सब सुन कर सन्न रह गई. ऐसा अनर्गल प्रलाप, वह भी अपनी बेटी के लिए. कुसुम अपनी बेटी को गोद में ले कर मुझे छोड़ने गेट तक आ गई.

‘ऐसी मां देखी है कभी जो सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जी रही हो?’

मैं क्या जवाब देती?

‘रमेश भी परेशान हो चुका है इन की हरकतों से, हमारे दांपत्य जीवन में भी सन्नाटा पसरा रहता है. जरा भी आहट पा, कमरे के बाहर मां कान लगा कर सुनने को खड़ी रहती हैं कि कहीं हम उन की बुराई तो नहीं कर रहे हैं. ऐसे माहौल में हमारे संबंध नौर्मल कैसे रह सकते हैं? अब तो रमेश को भी घर से दूर भागने का बहाना चाहिए. पता नहीं अपनी बहनों के घर जाता है या कहीं और? किस मुंह से उस से जवाब तलब करूं. जब अपनी मां ही ऐसी हो तो दूसरे से क्या उम्मीद रखना.’

आंटी का सनकीपन बढ़ता ही जा रहा था. उस दिन रिनी का जन्मदिन था, जिसे मनाने के लिए कुसुम और उस की मां में पहले ही बहुत बहस हो चुकी थी. आंटी का कहना था, ‘घर में बच्चे आएंगे तो यहांवहां दौड़ेंगे, सामान छुएंगे.’

कुसुम ने कहा, ‘तुम 2-3 घंटे अपने कमरे को बंद कर बैठ जाना, न तुम्हें कोई छुएगा न ही तुम्हारे सामान को.’

जब आंटी की बात कुसुम ने नहीं सुनी तो वे बहुत ही गुस्से में आ गईं. जन्मदिन की तैयारियों में जुटी कुसुम की उन्होंने कोई मदद नहीं की. मैं ही सुबह से 2-3 बार उस की मदद करने को जा चुकी थी. शाम को सिर्फ 10-12 की संख्या में बच्चे एकत्रित हुए और दोढाई घंटे में लौट गए.

आंटी कमरे से बाहर नहीं आईं. 8 बज गए तो कुसुम ने आंटी को डिनर के लिए पुकारा. तब जा कर वे अपने कोपभवन से बाहर निकलीं. शायद, उन्हें जोरों की भूख लग गई थी. वे अपनी कुरसी ले कर आईं और बरामदे में बैठ गईं. तभी रमेश अपने किसी मित्र को साथ ले कर घर में पहुंचा. उन्हें अनदेखा कर कुसुम से अपने मित्र का परिचय करा कर वह बोला, ‘यह मेरा बचपन का मित्र जीवन है. आज अचानक गोल मार्केट में मुलाकात हो गई. इसीलिए मैं इसे अपने साथ डिनर पर ले कर आ गया कि थोड़ी गपशप साथ में हो जाएगी.’

कुसुम दोनों को खाना परोसने को उठ कर रसोई में पहुंची ही थी कि बरामदे से पानी गिराने और चिल्लाने की आवाज आने लगी. आंटी साबुन और पानी की बालटी ले कर अपनी कुरसी व बरामदे की धुलाई में जुट गई थीं.

दरअसल, जीवन ने बरामदे में बैठ कर सिगरेट पीते समय आंटी की कुरसी का इस्तेमाल कर लिया था. आंटी रसोई से खाना खा कर जब निकलीं तो जीवन को अपनी कुरसी पर बैठा देख आगबबूला हो गईं. और फिर क्या था. अपने रौद्र रूप में आ गईं. जीवन बहुत खिसियाया, रमेश और कुसुम भी मेहमान के आगे शर्म से गड़ गए. दोनों ने जीवन को मां की मानसिक स्थिति ठीक न होने का हवाला दे कर बात संभाली.

दरअसल, आंटी अपने पति की मृत्यु के बाद से खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी थीं. वे ज्यादा पढ़ीलिखी न होने के कारण हीनभावना से ग्रस्त रहतीं. दूसरे लोगों से यह सुनसुन कर कि तुम्हारा कोई बेटा ही नहीं है, उन्होंने अपनी पकड़ बेटियों पर बनाए रखने के लिए जो चीखपुकार और धौंस दिखाने का रास्ता अख्तियार कर लिया था, वह बेटियों को बहुत भारी पड़ रहा था.

एक दिन आंटी रात में टौर्च जला कर घूम रही थीं कि किसी सामान में उलझ कर गिर पड़ीं. उन के सिर में अंदरूनी चोट आ गई थी. उस दिन से जो बिस्तर में पड़ीं तो उठ ही न पाईं. 6 महीने गुजर गए, लगता था कि अब गईं कि तब गईं. इसी बीच रमेश का भी तबादला दिल्ली हो गया. कुसुम ने अपनी मां को ऐंबुलैंस में दिल्ली ले जाने का फैसला कर लिया. जब वे जा रही थीं तब यही कह रही थीं, ‘पता नहीं वे दिल्ली तक सहीसलामत पहुंच भी पाएंगी या नहीं.’

मौका पाते ही मैं ने कुसुम को फोन लगाया और हालचाल पूछे. उस ने बताया, ‘‘यहां दीदी के ससुराल वालों का बहुत बड़ा पुश्तैनी घर है. मैं ने भी इसी में एक हिस्से को किराए पर ले लिया है. अब हम दोनों बहनें मिल कर उन की देखभाल कर लेती हैं अपनीअपनी सुविधानुसार.’’

‘‘और तुमहारे पति का मिजाज कैसा है?’’

‘‘उन की तो एक ही समस्या रहती थी हमारी प्राइवेसी की, वह यहां आ कर सुलझ गई. मैं भी अपने पति और बच्चों को पूरा समय दे पाती हूं.’’ उस की आवाज की खनक मैं महसूस कर रही थी.

‘‘और आंटी खुश हैं कि नहीं? या हमेशा की तरह खीझती रहती हैं?’’

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‘‘मां को तो अल्जाइमर रोग लग गया है. वे सबकुछ भूल जाती हैं. कभीकभी कुछ बातें याद भी आ जाती हैं तो थोड़ाबहुत बड़बड़ाने लगती हैं. वैसे, शांत ही रहती हैं. अब वे ज्यादा बातें नहीं करतीं. बस, उन का ध्यान रखना पड़ता है कि वे अकेले न निकलें घर से. यहां दीदी के ससुराल वालों का पूरा सहयोग मिलता है.’’

‘‘तुम्हारी मां धन्य हैं जो इतनी समझदार बेटियां मिली हैं उन को.’’

‘‘मैं तो हमेशा मां की जगह पर खुद को रख कर देखती थी और इसीलिए शांत मन से उन के सारे काम करती थी. मेरी भी 2 बेटियां हैं. मां पहले ऐसी नहीं थीं. पापा का अचानक जीवन के बीच भंवर में छोड़ जाना वे बरदाश्त न कर सकीं और मानसिक रूप से निर्बल होती चली गईं. शायद वे अपने भविष्य को ले कर भयभीत हो उठी थीं. चलो, अब सब ठीक है, जैसी भी हैं आखिर वे हमारी मां हैं और मां सिर्फ मां होती है.’’

और मैं उस की बात से पूरी तरह सहमत हूं.

मां मां होती है: भाग-2

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दामाद तानाशाही से जब ऊब जाता तो 2-4 दिनों को अपने घरपरिवार, जोकि दिल्ली में था, से मिलने को चल देता. प्रज्ञा अपनी मां को समझाए या पति को, समझ न पाती. किसी तरह अपनी गृहस्थी बचाने की कोशिश में जुटी रहती. इन 4 सालों में वह 2 बच्चों की मां बन गई. खर्चे बढ़ने लगे थे और मां अपनी पैंशन का एक पैसा खर्च करना नहीं चाहतीं. वे उलटा उन दोनों को सुनाती रहतीं, ‘यह तनख्वाह जो प्रज्ञा को मिलती है अपने बाप की जगह पर मिलती है.’ उन का सीधा मतलब होता कि उन्हें पैसे की धौंस न देना.

आंटी आएदिन अपने मायके वालों को दावत देने को तैयार रहतीं. वे खुद भी बहुत चटोरी थीं, इसीलिए लोगों को घर बुला कर दावत करातीं. जब भी उन्हें पता चलता कि इलाहाबाद से उन के भाई या बनारस से बहन लखनऊ किसी शादी में शामिल हो रहे हैं तो तुरंत अपने घर पर खाने, रुकने का निमंत्रण देने को तैयार हो जातीं.

घर में जगह कम होने की वजह से जो भी आता, भोजन के पश्चात रुकने के लिए दूसरी जगह चला जाता. मगर उस के लिए उत्तम भोजन का प्रबंध करने में प्रज्ञा के बजट पर बुरा असर पड़ता. वह मां को लाख समझाती, ‘देखो मम्मी, मामा, मौसी लोग तो संपन्न हैं. वे अपने घर में क्या खाते हैं क्या नहीं, हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है. मगर वे हमारे घर आए हैं तो जो हम खाते हैं वही तो खिलाएंगे. वैसे भी हमारी परेशानियों में किस ने आर्थिक रूप से कुछ मदद की है जो उन के स्वागत में हम पलकपांवड़े बिछा दें.’ लेकिन आंटी के कानों में जूं न रेंगती. उन्हें अपनी झूठी शान और अपनी जीभ के स्वाद से समझौता करना पसंद नहीं था.

आंटी को आंखों से कम दिखने लगा था. एक दिन रिकशे से उतर कर भीतर आ रही थीं, तो पत्थर से ठोकर खा कर गिर पड़ीं. अब तो अंधेरा होते ही उन का हाथ पकड़ कर अंदरबाहर करना पड़ता. अब उन्होंने एक नया नाटक सीख लिया. दिनरात टौर्च जला कर घूमतीं. प्रज्ञा अपने कमरे में ही अपने छोटे बच्चों को भी सुलाती क्योंकि उस की मां तो अपने कमरे में बच्चों को घुसने भी न देतीं, अपने तख्त पर सुलाना तो दूर की बात थी. आंटी को फिर भी चैन न पड़ता. रात में उन के कमरे का दरवाजा खटका कर कभी दवा पूछतीं तो कभी पानी मांगतीं.

आंटी के कमरे की बगल में ही रसोईघर है, मगर रसोईघर से पानी लेना छोड़, वे प्रज्ञा और महेश को डिस्टर्ब करतीं. ऐसा वे उस दिन जरूर करतीं जब उन्हें उन के कमरे से हंसीमजाक की आवाज सुनाई देती. प्रज्ञा अपनी मां को क्या कहती, लेकिन महेश का मूड औफ हो जाता. आंटी उन की शादीशुदा जिंदगी में सेंध लगाने लगी थीं. इस बीच आंटी की दोनों आंखों के मोतियांबिंद के औपरेशन भी हुए. उस समय भी दोनों पतिपत्नी ने पूरा खयाल रखा. फिर भी आंटी का असंतोष बढ़ता ही गया.

उधर, कुसुम के बीमार ससुर जब चल बसे तब जा कर उस के मायके  के फेरे बढ़ने लगे. ऐसे में आंटी कुसुम से, प्रज्ञा की खूब बुराई करतीं और अपना रोना रोतीं, ‘वे दोनों अपने कमरे में मग्न रहते हैं. मेरा कोई ध्यान नहीं रखता. मेरी दोनों आंखें फूट गई हैं.’ कुसुम समझाबुझा कर चली जाती. इधर महेश का मन ऊबने लगा था. एक तो उस की आमदनी व काम में कोई इजाफा नहीं हो रहा था, ऊपर से सास के नखरे. प्रज्ञा और उस के बीच झगड़े बढ़ने लगे थे. प्रज्ञा न तो मां को छोड़ सकती थी, न ही पति को. दोनों की बातें सुन वह चुप रहती.

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प्रज्ञा का प्रमोशन और ट्रांसफर जब दिल्ली हो गया तो उस ने चैन की सांस ली और अपनी मां से भी दिल्ली चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया. वे अपनी सत्संग मंडली छोड़ कर कहीं जाना नहीं चाहती थीं. प्रज्ञा के खर्चे दिनोंदिन बढ़ ही रहे थे. महेश की कोई निश्चित आमदनी नहीं थी. प्रज्ञा ने कुसुम को बुलाया कि वह मां को समझाबुझा कर साथ में दिल्ली चलने को तैयार करे. मगर वे अपना घर छोड़ने को तैयार ही न हुईं. अंत में यह फैसला हुआ कि प्रज्ञा अपने परिवार के साथ दिल्ली चली जाए और कुसुम अपने पति के साथ मायके रहने आ जाएगी. अपनी ससुराल के एक हिस्से को कुसुम ने किराए पर चढ़ा दिया और अपनी मां के संग रहने को चली आई. आखिर वे दोनों अपनी मां को अकेले कैसे छोड़ देतीं, वह भी 70 साल की उम्र में.

कुसुम मायके में रहने आ गई. किंतु अभी तक तो वह मां से प्रज्ञा की ढेरों बुराइयों को सुन दीदी, जीजाजी को गलत समझती थी. अब जब ऊंट पहाड़ के नीचे आया तो उसे पता चला कि उस की मां दूसरों को कितना परेशान करती हैं. उस की 2 छोटी बेटियां भी थीं और घर में केवल 2 ही कमरे, इसीलिए वह अपनी बेटियों को मां के साथ सुलाने लगी.

मां को यह मंजूर नहीं था, कहने लगीं, ‘प्रज्ञा के बच्चे उस के साथ ही उस के कमरे में सोते थे, मैं किसी को अपने साथ नहीं सुला सकती.’ कुसुम ने 2 फोल्ंिडग चारपाई बिछा कर अपनी बेटियों के सोने का इंतजाम कर दिया और बोली, ‘पति को, बच्चों को अपने संग सुलाना पसंद नहीं है. और अगर कोई तुम्हारा सामान छुएगा तो मैं घर में ही हूं, जितनी बार कहोगी मैं उतनी बार धो कर साफ कर दूंगी.’ उस की मां इस पर क्या जवाब देतीं.

आंटी प्रज्ञा को तो अनुकंपा नौकरी के कारण खरीखोटी सुना देती थीं, मगर कुसुम से जब पैसों को ले कर बहस होती तो उस के सामने पासबुक और चैकबुक ले कर खड़ी हो जातीं और पूछतीं, ‘कितना खर्चा हो गया तेरा, बोल, अभी चैक काट कर देती हूं.’ कुसुम उन का नाटक देख वहां से हट जाती.

प्रज्ञा तो अपनी जौब की वजह से शाम को ही घर आती थी और घर में बच्चे महेश के संग रहते थे. शाम को थकीहारी लौटने के बाद किसी किस्म की बहस या तनाव से बचना चाहती. सो, वह अपनी मां की हर बात को सुन कर, उन्हें शांत रखने की कोशिश करती. मगर कुसुम घरेलू महिला होने के कारण दिनभर मां की गतिविधियों पर नजर रखती. वह आंटी की गलत बातों का तुरंत विरोध करती. आंटी ने प्रज्ञा को परेशान करने के लिए जो नाटक शुरू किए थे, अब वे उन की आदत और सनक में बदल चुके थे.

कुछ दिन तो आंटी शांत रहीं, मगर फिर कुसुम के सुखी गृहस्थ जीवन में आग लगाने में जुट गईं. कुसुम रात में आंटी को दवा खिला व सिरहाने पानी रख और अपनी बेटियों को सुला कर ही अपने कमरे में जाती. लेकिन आंटी को कहां चैन पड़ता. रात में टौर्च जला कर पूरे घर में घूमतीं. कभी अचानक ही दरवाजा खटका देतीं और अंदर घुस कर टौर्च से इधरउधर रोशनी फेंकतीं. उन से पूछो, तो कहतीं, ‘मुझे कहां दिखता हैं, मैं तो इसे रसोईघर समझ रही थी.’

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रमेश को अपनी निजी जिंदगी में

दखलंदाजी बिलकुल पसंद नहीं थी.

अपनी बीवी के कहने से वह यहां रहने तो आ गया था मगर उस का छोटे से घर में दम घुटता था. साथ ही, उसे दिनभर सास के सौ नखरे सुनने को मिलते ही, रात में भी वे उन्हें चैन से सोने न देतीं. कुसुम मां को छोड़ नहीं सकती थी और प्रज्ञा से भी क्या कहती. अब तक वह ही तो इतने वर्षो तक मां को संभाले रही थी.

आगे पढ़ें- दोनों बहनों में केवल फोन से ही बातें…

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