जन्मदिन का तोहफा भाग-1

लेखक- स्मिता टोके 

‘‘कितनी लापरवाही से काम करती हो तुम,’’ रमेश के स्वर की कड़वाहट पिघले सीसे की तरह कानों में उतरती चली गई.

सुबहसुबह काम की हड़बड़ी में रमेश के लिए रखा दूध का गिलास मेज पर लुढ़क गया था. सुमन बेजबान बन कर अपमान के घूंट पीती रही, फिर खुद को संयत कर बोली, ‘‘टिफिन तो रख लो.’’

‘‘भाड़ में जाए तुम्हारा टिफिन. बच्चा रो रहा है और तुम्हें टिफिन की पड़ी है.’’

‘‘ले रही हूं विनय को, लेकिन आप के खानेपीने की चिंता भी तो मुझे ही करनी पडे़गी न.’’

‘‘छोड़ो ये बड़ीबड़ी बातें,’’ रोज की तरह सुमन को शर्मिंदा कर रमेश जूते खटखटाते हुए आफिस निकल गए और सुमन ठगी सी खड़ी रह गई. नन्हे विनय को गोद में उठा कर वह जब तक आंगन में पहुंचती, रमेश गाड़ी स्टार्ट कर फुर्र से निकल गए, न मुड़ कर देखा, न परवा की.

‘‘अच्छा, भूख लगी है राजा बेटे को. हांहां, हम बिट्टू को दूध पिलाएंगे…’’ सुमन के हाथ यंत्रवत बोतल में दूध भरने लगे. मुंह में दूध की बोतल लगते ही विनय का रोना थम गया. लेकिन सुमन तो जैसे झंझावात से घिर गई थी. अंतर्मन में घुमड़ रहे बवंडर पर उस का खुद का भी बस न था.

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वह सोच रही थी, आखिर उस की गलती क्या है? क्या समर्पण का यही फल मिलेगा उसे. 22 साल की उम्र में उस ने अपनी भावनाओं का गला घोंट दिया. दीदी के उजड़े परिवार को बसाने की खातिर खुद का बलिदान दे दिया तो क्या गलती हो गई उस से. यह ठीक है कि दीपिका दीदी के असमय बिछोह ने रमेश को अस्तव्यस्त कर दिया है, लेकिन क्या इस के लिए वह सुमन पर जबतब व्यंग्य बाण चलाने का हकदार बन जाते हैं?

दूसरे दिन आने वाले अपने जन्मदिन पर सुमन ने अपनी सहेलियों को घर पर आमंत्रित किया. मधु, रीना, वाणी, महिमा सब कितनी बेताब थीं उस के घर आने को. सुमन की अचानक हुई शादी में शामिल न होने की कसर वे उस का जन्मदिन मना कर ही पूरी कर लेना चाहती थीं. सुबह की घटना को भूल कर सुमन ने रमेश के सामने बात छेड़ी, ‘‘सुनिए, कल मैं ने कुछ सहेलियों को घर पर बुलाया है. आप भी 6 बजे तक आ जाएंगे न.’’

‘‘क्यों, कल क्या है?’’ रमेश ने आंखें तरेरते हुए पूछा.

‘तो जनाब का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ है,’ सुमन मन ही मन सोचते हुए चुहल के मूड में बोली, ‘‘जैसे आप को मालूम ही नहीं है?’’

‘‘हां, नहीं मालूम मुझे, क्या है कल?’’ कहते हुए रमेश के माथे पर बल पड़ गए.

रमेश के तेवर देख कर सुमन का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. वह मायूसी से बोली, ‘‘मधु, वाणी वगैरह कल मेरा बर्थडे मनाना चाहती थीं. इसी बहाने मिलना भी हो जाएगा और हम सहेलियां मिल कर गपशप भी कर लेंगी.’’

‘‘बर्थडे और तुम्हारा? ओह, कम आन सुमन. एक बच्चे की मां हो तुम और बर्थडे मनाओगी, सहेलियों को बुलाओगी. यह बचकानापन छोड़ो और थोड़ी मैच्योर हो जाओ,’’ रमेश की बातें सुन कर उस के धैर्य का बांध टूटने लगा.

‘‘इस में बचकानेपन की क्या बात है? आप नहीं आ पाएंगे क्या?’’ वह संयत स्वर में बोली.

‘‘देखूंगा. वैसे तुम्हारी सहेलियों से मिलने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है. और तुम तो जानती हो कि दीपिका के बाद कोई भी फंक्शन, भले ही वह छोटा क्यों न हो, मैं उस में शामिल होना पसंद नहीं करता. फिर क्यों जोर दे रही हो तुम?’’ रमेश की आवाज में उपेक्षा साफ झलक रही थी.

शादी के बाद इस दिन के लिए कितनी कल्पनाएं की थीं सुमन ने पर वे सारी कल्पनाएं धराशायी हो गईं. वह मन ही मन आशाएं लगा रही थी कि उस दिन रमेश सुबहसुबह उसे उठा कर कोई अच्छा सा गिफ्ट देंगे और वह सारे गिलेशिकवे भुला कर उन्हें माफ कर देगी. सारी कड़वाहट भुला देगी. रमेश उसे सरप्राइज देते हुए, एक दिन की छुट्टी ले लेंगे. उस की सहेलियों के घर में आने पर सारे लोग मिल कर खूब मौजमस्ती करेंगे. विनय भी खूब खुश होगा. सब को हंसीखुशी देख कर बाबूजी को बहुत संतोष होगा कि उन का निर्णय गलत नहीं था. क्या कुछ नहीं सोचा था उस ने, पर सब धरा का धरा रह जाएगा.

‘मैच्योर होने की ही तो सजा भुगत रही हूं रमेश. आज मैं किसी दूसरे घर में होती तो मुझे यों उलाहने न सुनने पड़ते. दूसरी बीवी हूं न इसलिए मेरे किए का, मेरी भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है आप के लिए,’ वह तड़प कर बुदबुदाई.

लेकिन उस की बुदबुदाहट सुनने के लिए रमेश वहां थे कहां? वह तो कब के मामले का पटाक्षेप कर के अपने कमरे में बैठे टेलीविजन देख रहे थे.

दूसरे दिन सुबह उठ कर जब बाबूजी को प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद की झड़ी लगा दी, ‘‘खुश रहो बेटा. तुम्हारे आने से यह घर बस गया है बेटी. अच्छा सुनो, आज मां के यहां भी सहेलियों के आने से पहले हो आना. वे दोनों भी तो राह देखते होंगे. रमेश चला गया न, नहीं तो तुम तीनों ही चले जाते.’’

‘‘कोई बात नहीं, बाबूजी. मैं आटो कर लूंगी,’’ इतना कह कर वह धीरे से मुसकराई.

नए कपड़ों में 5 माह का गोलमटोल विनय और भी प्यारा लग रहा था. सुनहरी किनारी वाला रानी कलर का सूट सुमन पर खूब फब रहा था.

आटो रुकते ही मां दौड़ी चली आईं. उस ने विनय को अपनी मम्मी की गोद में दे कर मम्मीपापा दोनों को झुक कर प्रणाम किया.

पापा बोले, ‘‘बेटा, रमेश आते तो अच्छा होता.’’

‘‘वह तो चाहते थे, लेकिन छुट्टी ही नहीं मिली,’’ अपनी प्रतिष्ठा बचाने और मम्मीपापा को दिलासा देने की खातिर झूठ बोलने में कितनी कुशल हो गई थी सुमन.

थोड़ी देर बाद पापा विनय को घुमाने ले गए. उन के निकलते ही मां को टोह लेने का मौका मिल गया.

‘‘सच बता सुमी, तू खुश तो है न? रमेश का व्यवहार कैसा है?’’

‘‘सब ठीक है, मां,’’ वह उदास स्वर में बोली.

‘‘सब ठीक है तो फिर तू उदास, खोईखोई सी क्यों लगती है?’’

‘‘मां, विनय रात में सोने कहां देता है. नींद पूरी नहीं हो पाती, इसी से सुबह भी थकी हुई लगती हूं.’’

‘‘बेटी, वह तो ठीक है. पर…’’ मां की आवाज का प्रश्नचिह्न बहुत कुछ कह गया.

‘‘पर क्या, मां? मैं ने कभी कुछ कहा क्या?’’ वह झुंझलाई.

‘‘बोला नहीं तभी तो सुमी. यह जो तेरी कुछ न बोलने की आदत है न, उसी से तो डर लगता है. तू शुरू से ही ऐसी है. मन की बात भीतर दबा कर रखने वाली. तू घुटघुट कर जी लेगी, लेकिन अपनी पीड़ा कहेगी नहीं. बेटी, क्या हम नहीं समझते कि यह शादी तुम ने सिर्फ हमारी इच्छा रखने की खातिर की है.’’

‘‘अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उस का शुष्क स्वर उभरा.

मां लगभग चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्योंकि तू अभी जिंदा है और तू अपने परिवार के साथ हंसतीखेलती रहे यही हमारी हसरत है. एक बेटी को तो हम खो ही चुके हैं. आगे कुछ भलाबुरा सहन नहीं…’’ मां की आवाज तर हो गई. मां ने हथेलियों से आंसू छिपाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहीं.

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सुमन मां के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘सौरी मां, मैं ने तुम्हें रुला दिया. मैं ने कहा न सब ठीक है, तुम बेकार ही परेशान होती हो. अच्छा, मां, बोलो तो मेरे लिए क्या बनाया है?’’

मां आंसू पोंछते हुए नाश्ते की थाली लगाने लगीं. पापा भी विनय को ले कर लौट आए. मां ने सुमन की सहेलियों के लिए भी केक, मटर कचौरी, नमकीन और गाजर का हलवा रखवा दिया.

पापा उसे घर तक छोड़ने गए. फिर दोनों समधी देर तक बरामदे में बैठ कर बतियाते रहे.

महीनों बाद सुमन खुल कर हंस रही थी, वरना शादी के बाद तो उस का जीवन जैसे दुस्वप्न बन गया था. उस की बड़ी बहन दीपिका की सड़क दुर्घटना में हुई आकस्मिक मौत ने जैसे सभी के जीवन से खुशियों के रंग छीन लिए थे. मम्मी, पापा और बाबूजी की समझ से परे था कि दीपिका की मौत का गम करें या विनय और रमेश के बचने के लिए नियति को धन्यवाद दें.

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सर्वभक्ष अभियान

बैंक के पास से निकल रहा था कि गुरुजी दिख गए. वहरुपए गिनने में व्यस्त थे और अपने इस काम में इतने तल्लीन थे कि अपने आसपास का उन्हें ध्यान ही नहीं था. अत: उन्हें छेड़ते हुए हम ने कहा, ‘‘गुरुजी, अगर नोट गिनने में परेशानी हो रही हो तो हम भी कुछ मदद करें.’’

गुरुजी ने एक नजर हम पर डाली और बोले, ‘‘अरे, कहां? ये तो बस, थोड़े से ही नोट हैं,’’ फिर अफसोस करते हुए बोले, ‘‘वैसे भी इस माह छुट्टियों के कारण महीने के 12 दिन तो स्कूल बंद ही रहा है. ऐसे में दोपहर भोजन कार्यक्रम का बिल बने भी तो कहां से.’’

मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘चलिए, कोई बात नहीं, इस माह कम छुट्टियां हैं तो मध्याह्न भोजन का बिल ठीकठाक होगा. वैसे भी आप परेशान क्यों हो रहे हैं? यह तो मध्याह्न

भोजन कार्यक्रम का पैसा है, कम हो

या ज्यादा, आप को क्या फर्क पड़ता है?’’

‘‘वह तो है, लेकिन ज्यादा नोट गिनने का अपना ही मजा है, भले ही वह नोट सरकारी ही क्यों न हों,’’ गुरुजी बोले.

‘‘आप भी गुरुजी कहां सरकारी और गैरसरकारी के चक्कर में पड़ गए. जब तक नोट आप की जेब में हैं तब तक तो वह आप की ही संपत्ति हैं अब क्या नोटों पर छपा हुआ है कि वह आप के हैं या सरकारी हैं? और फिर यदि नोट सरकारी हैं तो आप भी तो सरकारी आदमी ही हैं. अब सरकार के आदमी के पास सरकारी संपत्ति नहीं रहेगी तो क्या किसी ऐरेगैरे के पास रहेगी?

वैसे भी यह जिम्मेदारी भरा काम है इसीलिए तो सरकार ने यह जिम्मेदारी आप को सौंपी है,’’ हम ने अपनी ओर से गुरुजी को प्रसन्न करने की कोशिश की.

वह बोले, ‘‘कह तो तुम सही रहे हो.’’

हम ने उन्हें और चढ़ाते हुए कहा, ‘‘वैसे देखा जाए तो अपना कार्य करने के साथसाथ आप लोग तो इस योजना को संचालित कर के समाजहित में एक बड़ा कार्य कर रहे हैं. एक बड़ी जिम्मेदारी निभा रहे हैं.’’

‘‘जिम्मेदारी क्या है, व्यर्थ की परेशानी है,’’ फिर सिर झटकते हुए बोले, ‘‘ढेरों हिसाबकिताब रखो, दाल बनवाओ, सब्जी बनवाओ, रोटियां बनवाओ. सुबह से इसी में लगे रहना पड़ता है. ऊपर से बिलवाउचर बनवाओ, कैश बुक मेंटेन करो, आडिट करवाओ. इतना सबकुछ करने पर भी जांच पार्टी आ कर ऐसे जांच करती है जैसे हम ने कितना बड़ा गबन कर लिया हो.

उन्हें संतुष्ट करो, सब को खुश करतेकरते तो यहां जान निकली जा रही है.’’

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‘‘यह सब को खुश क्यों करना पड़ता है?’’ हम चकराए. मेरे इस सवाल पर उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई बेवकूफी भरा प्रश्न कर दिया हो. फिर बोले, ‘‘अब सब तो यहां पीछे पड़े हैं. हर कोई अपना हिस्सा चाहता है. जिसे न दो उसी से बुराई. मध्याह्न भोजन न हुआ मास्टरों को तंग करने का एक नया हथियार हो गया. कभी जिले के शिक्षा विभाग से कोई जांच पार्टी आ रही है, तो कभी ब्लाक से…और कहीं से नहीं तो स्कूल से तो पार्टी कभी भी आ धमकती है. सिर्फ आती ही नहीं है बल्कि ऐसी बारीकी से जांच व पूछताछ करती है कि उन्हें जवाब से संतुष्ट करतेकरते सिर दुखने लगता है. हर दिन हर समय जांच रूपी तलवार सिर पर लटकी ही रहती है.’’

‘‘तो इस में परेशानी की क्या बात है? आप जांच और पूछताछ से इतना घबराते क्यों हैं? अरे, यदि आप सही हैं, आप के काम में कोई खोट नहीं है, तो लाख जांच होने पर भी कोई आप का कुछ नहीं बिगाड़ सकता. जब आप सबकुछ ठीक कर रहे हैं तो सिरदर्द का तो प्रश्न ही नहीं उठता.’’

गुरुजी थोड़ा ढीले हुए, ‘‘नहीं समझे आप. अरे भाई, जब इतनी बड़ी योजना है और हम इतनी मेहनत कर रहे हैं तो थोड़ीबहुत ऊंचनीच, थोड़ाबहुत पतलागाढ़ा तो चलता ही है…और चलाना भी पड़ता है. अब उस में ही आप छानबीन करने लग जाएं कि दाल इतनी पतली क्यों है या सब्जी में आलू इतने कम क्यों हैं, तो यह तो कोई बात नहीं हुई. अरे भाई, जब सरकार ने भरोसा कर के यह योजना हम शिक्षकों के सुपुर्द की है, तो आप भी तो थोड़ा विश्वास करो, थोड़ा भरोसा करो.’’

हम ने भी मजा लेते हुए पूछा, ‘‘लेकिन गुरुजी, यह पतलेगाढ़े का चक्कर है क्या? जहां तक मुझे पता है कि सारा भोजन एक स्पष्ट दिशानिर्देश के तहत बनाया जाता है, तो फिर उस का पालन करने से भोजन अपनेआप ही स्तरीय बनेगा, पौष्टिक बनेगा और ऐसे में एक बार नहीं लाख बार चैकिंग हो जाए, तो भी कोई आप का कुछ भी गलत नहीं कर सकता.’’

हमारे व्यंग्य को न समझते हुए गुरुजी बोले, ‘‘भैया, दिशानिर्देश तो हमें भी मालूम हैं. हमारे पास सबकुछ लिखित में है, लेकिन आप ही बताइए, कोई कहां तक उन नियमों का पालन करे. वेसे भी व्यावहारिकता में इन का पालन संभव है क्या?’’

‘‘क्यों, क्या दिक्कत है. जहां तक मुझे मालूम है, सबकुछ एकदम साफ, एकदम पारदर्शी है. फिर कानून के पालन में बुराई भी क्या है?’’

हमारे यह कहने पर वह भड़क कर बोले, ‘‘कानूनों के पालन की आप ने अच्छी चलाई. आप ही बताइए, आज कानूनों का पालन कर कौन रहा है? जिसे जहां मौका मिल रहा है वहीं वह कानूनों को तोड़मरोड़ कर उन की अपने हिसाब से व्याख्या कर रहा है. आज जब हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है तो फिर आप शिक्षकों से ही कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे नियमों का पालन करें? और वे करें भी तो क्यों करें. आखिर वे भी तो इसी समाज का एक अंग हैं. अब आज यदि उन्हें प्रगति करने, आगे बढ़ने का एक मौका मिला है तो दूसरों के पेट में मरोड़ क्यों हो रही है?’’

उन की बातों का मतलब समझते हुए मैं ने कहा, ‘‘लेकिन उन्नति का यह तो कोई रास्ता नहीं हुआ. वैसे भी समाज आप शिक्षकों से कुछ और ही उम्मीद करता है. आप हमारे पथप्रदर्शक हैं, भावी पीढ़ी के निर्माता हैं. आप लोगों से एक आदर्श प्रस्तुत करने की उम्मीद तो समाज कर ही सकता है. यदि वह भी वही सब करने लगे तो उन में और दूसरों में अंतर ही क्या रह जाएगा?’’

‘‘इन्हीं लच्छेदार बातों से हमें सदियों से बेवकूफ बनाया जाता रहा है,’’ गुरुजी बोले, ‘‘लेकिन अब शिक्षक जागरूक हो गया है. अब वह अपने अधिकारों के प्रति जागृत है. उसे अपने अच्छेबुरे का ज्ञान है. ऐसी बातें कर के उसे अब और बरगलाया नहीं जा सकता.’’

गुरुजी शांत होने का नाम ही नहीं ले रहे थे, अत: बातों का रुख मोड़ने के लिए हम ने प्रश्न किया, ‘‘और सुनाइए, सर्वशिक्षा अभियान तो इन दिनों बड़े जोरशोर से चल रहा है. सब ओर इसी अभियान के चर्चे हैं.’’

वही हुआ जो हम चाहते थे. गुरुजी कुछ शांत हुए, ‘‘हां, इस अभियान के नतीजतन हमारे यहां वर्ग, संख्या में उल्लेखनीय प्रगति हुई है. शाला भवन का निर्माण और रसोईघर (किचिन शेड) निर्माण भी उसी अभियान के अंतर्गत हुआ है. वैसे इस अभियान से बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुझान बढ़ा है… हर कक्षा में छात्र संख्या में वृद्धि हुई है.’’

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अब यह वृद्धि कैसे हुई और क्यों हुई इस का असली कारण समझते हुए भी हम ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना उचित नहीं समझा. उन की मनोस्थिति भांपते हुए हम ने उन के मुताबिक ही एक प्रश्न किया, ‘‘15 अगस्त से तो हर छात्र बजट बढ़ा कर 1.50 से 2.00 रुपए प्रतिदिन कर दिया गया है. अब तो योजना का संचालन और भी आसान हो गया होगा.’’

गुरुजी बोले, ‘‘आप ऐसा सोचते हैं पर यह क्यों नहीं देखते कि यदि बजट बढ़ाया गया है तो मीनू में तो दोनों चीजें (दाल व सब्जी) देना अनिवार्य कर दिया गया है. बात तो आखिर वहीं की वहीं रही,’’ फिर सुझाव देते हुए बोले, ‘‘मेरे हिसाब से तो बढ़ती हुई महंगाई को देखते हुए सरकार को इस बजट को और बढ़ाना चाहिए.’’

मन में आया कह दें कि सरकार यदि बजट बढ़ा कर 2 से 5 रुपए प्रति छात्र भी कर दे तो न तो आप का पेट भरेगा और न ही आप संतुष्ट होंगे, क्योंकि स्वार्थ और बेईमानी का गहरा चश्मा आप की आंखों पर चढ़ा हुआ है और जिस के चलते सभी तरह की गलत और अनैतिक गतिविधियों को भी सीना ठोक कर आप जायज बता रहे थे. गरीब बच्चों का पेट काट कर भी अपना पेट और घर भरने की कोशिश कर रहे थे. पर उन से कुछ कहना उन के द्वारा रचित सुख में विघ्न डालना ही होता और ऐसा कह कर हम गुरुजी की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहते.

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लेखक- अनिल चाचरा

अर्चना ने अपने को छुड़ाने की कोई खास कोशिश नहीं की, पर नवीन को फौरन ही अपनी बांहों के घेरे से उसे मुक्त करने को मजबूर होना पड़ा.

2 सादी वरदी में पुलिस वाले एक घनी झाड़ी के पीछे से अचानक उन के सामने प्रकट हुए और शिकारी की नजरों से घूरते हुए पास आ गए.

‘‘शर्म नहीं आती तुम दोनों को सार्वजनिक स्थल पर अश्लील हरकतें करते हुए. समाज में गंदगी फैलाने के लिए तुम जैसे लोगों का मुंह काला कर के सड़कों पर घुमाना चाहिए,’’ लंबे कद का पुलिस वाला नवीन को खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था.

‘‘बेकार में हमें तंग मत करो,’’ नवीन ने अपने डर को छिपाने का प्रयास करते हुए तेज स्वर में कहा, ‘‘हम कोई गलत हरकत नहीं कर रहे थे.’’

‘‘अब थाने चल कर सफाई देना,’’ दूसरे पुलिस वाले ने उन्हें फौरन धमकी दे डाली.

‘‘मैं पुलिस स्टेशन बिलकुल नहीं जाऊंगी,’’ अर्चना एकदम से रोंआसी हो उठी.

‘‘यह इस की पत्नी नहीं हो सकती,’’ लंबे कद का पुलिस वाला अपने साथी से बोला.

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं, सर?’’ उस के साथी ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘अरे, अपनी बीवी के साथ कौन इतने जोश से गले मिलने की कोशिश करता है?’’

‘‘इस का मतलब यह किसी और की बीवी के साथ ऐश करने यहां आया है. गुड, हमारा केस इस कारण मजबूत बनेगा, सर.’’

‘‘नवीन, कुछ करो, प्लीज,’’ अर्चना के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

‘‘देखिए, आप दोनों को जबरदस्त गलतफहमी हुई है. हम कोई अश्लील हरकत…’’

‘‘कर ही नहीं सकते क्योंकि इन के बीच गलत रिश्ता है ही नहीं मिस्टर पुलिसमैन,’’ अचानक झाड़ी के पीछे से निकल कर उन का एक और सहयोगी मनोज उन के सामने आ गया.

उस के साथ विकास भी था. इन्हें देख कर पुलिस वाले ज्यादा सतर्क  और गंभीर से नजर आने लगे.

‘‘आप इन दोनों को जानते हैं?’’ लंबे पुलिस वाले ने सख्त स्वर में सवाल किया.

‘‘जानते भी हैं और इन के साथ भी हैं. यह हैं हमारी अर्चना दीदी,’’ विकास ने परिचय दिया.

‘‘और यह साहब?’’ उस ने नवीन की तरफ उंगली उठाई.

‘‘यह हमारे नवीन भैया हैं, क्योंकि उम्र में सब से बड़े हैं. अब आप ही बताइए कि कहीं भाईबहन अश्लील हरकत…छी, छी, छी,’’ विकास ने बुरी सी शक्ल बना कर दोनों पुलिस वालों को शर्मिंदा करने का प्रयास किया.

‘‘अगर ये भाईबहन हैं तो यह इसे गले लगाने की क्यों कोशिश कर रहा था?’’ दूसरे  पुलिस वाले ने अपने माथे पर बल डाल कर प्रश्न किया.

‘‘जवाब दीजिए, नवीन भाई साहब,’’ मनोज ने उसे हिंटदेने की कोशिश की, ‘‘अर्चना दीदी आजकल जीजाजी की सेहत के कारण चिंतित चल रही हैं. कहीं आप उन्हें हौसला बंधाने को तो गले से नहीं लगा रहे थे?’’

‘‘बिलकुल, बिलकुल, यही बात है,’’ नवीन अपनी सफाई देते हुए उत्तेजित सा हो उठा, ‘‘मेजर साहब, यानी कि मेरे जीजा की तबीयत ठीक नहीं चल रही है. इसलिए यह दुखी थी और मैं इसे सांत्वना…’’

‘‘क्या आप के पति फौज में मेजर हैं?’’ लंबे पुलिस वाले ने नवीन को नजरअंदाज कर अर्चना से अचानक अपना लहजा बदल कर बड़े सम्मानित ढंग से पूछा.

‘‘जी, हां,’’ अर्चना ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘यह आप की बहन हैं?’’ दूसरे ने नवीन से पूछा.

‘‘जी, हां.’’

‘‘असली बहन हैं?’’

‘‘जी, नहीं. ये आफिस वाली बहन हैं,’’ मनोज बीच में बोल पड़ा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि  हम सब एक आफिस में साथसाथ काम करते हैं और वहां सब के बीच भाईबहन का रिश्ता है.’’

‘‘आप को विश्वास नहीं हो रहा है तो नवीन भैया से पूछ लीजिए,’’ विकास बोला था.

दोनों पुलिस वालों ने नवीन को पैनी निगाहों से घूरा तो उस ने फौरन हकलाते हुए कहा, ‘‘हांहां, हम सब वहां भाईबहन की तरह प्यार से रहते हैं.’’

‘‘आप को परेशान किया इसलिए माफी चाहते हैं, मैडम,’’ लंबे कद के पुलिस वाले ने अर्चना से क्षमा मांगी और अपने साथी के साथ वहां से चला गया.

जहां वे बैठे थे वहां से सड़क नजर आती थी. वहां खड़ी एक सफेद रंग की कार में बैठे ड्राइवर ने अचानक जोरजोर से हार्न बजाना शुरू कर दिया.

‘‘मुझे वह बुला रहे हैं,’’ ऐसी सूचना दे कर अर्चना अचानक उठ खड़ी हुई.

‘‘कौन बुला रहा है?’’ नवीन ने चौंकते हुए पूछा.

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‘‘थैंक यू, नवीन भैया, लंच और फिल्म दिखाने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद,’’ उस के सवाल का कोई जवाब दिए बिना अर्चना उस सफेद कार की तरफ चल पड़ी.

‘‘नवीन भैया,’’ मनोज ने ये 2 शब्द मुंह से निकाले और अचानक ठहाका मार कर हंसने लगा.

‘‘सर, वैलकम टू दी अर्चना दीदी क्लब,’’ विकास ने भी अपने सहयोगी का हंसने में साथ दिया.

‘‘देखो, ये बात किसी को आफिस में मत बताना,’’ अपने गुस्से को पी कर नवीन ने उन दोनों से प्रार्थना की.

दोनों ने मुंह पर उंगली रख कर उन्हें अपने खामोश रहने के प्रति आश्वस्त किया, पर वे दोनों अपनी हंसी रोकने में असफल रहे.

नवीन ने जब कार के ड्राइवर को बाहर निकलते देखा तो जोर से चौंका. ड्राइवर वही बड़ीबड़ी मूंछों वाला शख्स था जिसे उन्होंने सिनेमा हाल के बाहर अर्चना को घूरते हुए देखा था और जो अंदर हाल में उस की बगल में बैठा था.

‘‘यह कौन है?’’ नवीन ने उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘यह मेजर साहब हैं…अर्चना के पति,’’ विकास ने जवाब दिया.

‘‘पर…पर अर्चना ने मुझे सच क्यों नहीं बताया?’’

‘‘सर, हमें भी नहीं बताया था और हम बन गए अर्चना दीदी क्लब के पहले 2 सदस्य. अपने फौजी जवानों की मदद से…होटल व सिनेमा हाल के मालिक से उन की दोस्ती है और उन दोनों की मदद से मेजर साहब अपनी छुट्टियों में अर्चना दीदी को तंग करने वाले हमारेतुम्हारे जैसे किसी रोमियो को अर्चना दीदी क्लबका सदस्य बनवा जाते हैं.’’

‘‘और ये दोनों पुलिस वाले नकली थे?’’

‘‘नहीं, सर, ये मिलिटरी पुलिस के लोग थे.’’

‘‘किसी को यों बेवकूफ बनाने का तरीका बिलकुल गलत है,’’ नवीन अपनी कमीज के टूटे बटनों को छू कर उस घटना को याद कर रहा था जब 2 युवकों ने, जो यकीनन फौजी सिपाही थे, उस पर हाथ उठाया था.

‘‘सर, आप के साथ जो गुस्ताखी हुई है, यह उस गुस्ताखी की सजा है जो आप ने यकीनन अर्चना दीदी के साथ की होगी. वैसे मेजर साहब दिल के अच्छे इनसान हैं और उन का एक संदेशा है आप के लिए.’’

‘‘क्या संदेशा है?’’

‘‘आर्मी क्लब में आप सपरिवार उन के डिनर पर मेहमान बन सकते हैं. आज वह दोनों पारिवारिक मित्र हैं और आप  चाहें तो उसी श्रेणी में शामिल हो सकते हैं.’’

‘‘सर, आप को क्लब जरूर आना चाहिए. अपनी भूल को सुधारने व क्षमा मांगने का यह अच्छा मौका साबित होगा,’’ बहुत देर से खामोश मनोज ने नवीन को सलाह दी.

कुछ पलों तक नवीन खामोश रह कर सोचविचार में डूबे रहे. फिर अचानक उन्होंने अपने कंधे उचकाए और मुसकरा पडे़.

‘‘दोस्तो, हम अर्चना दीदी क्लबके सदस्यों को मिलजुल कर रहना ही चाहिए. मैं सपरिवार क्लब में पहुंचूंगा.’’

नवीन की इस घोषणा को सुन कर विकास और मनोज कुछ हैरान हुए और फिर उन तीनों के सम्मिलित ठहाके से पार्क का वह कोना गूंज उठा.

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लेखक- अनिल चाचरा

नवीन ने दाईं तरफ घूम कर मूंछों वाले लंबेचौड़े पुरुष की तरफ देखा. वह वास्तव में अर्चना को घूर रहा था. नवीन ने माथे पर बल डाल कर उस की तरफ गुस्से से देखा, तो उस व्यक्ति ने अपनी नजरें घुमा लीं.

‘‘लो, डरा दिया उसे,’’ नवीन ने नाटकीय अंदाज में अपनी छाती फुलाई.

‘‘थैंक यू. चलो, अंदर चलें.’’

अर्चना ने हाल में प्रवेश करने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि एक युवक से टकरा गई.

उस युवक के साथी ने अर्चना का मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘जमाना बदल गया है, दोस्त. आज की लड़कियां खुलेआम लड़कों को टक्कर मारने लगी हैं.’’

‘‘शटअप,’’ अर्चना ने नाराज हो कर उसे डांट दिया.

‘‘इतनी खूबसूरत आंखों के होते हुए देख कर क्यों नहीं चल रही हो तुम?’’ पहले वाले युवक ने अर्चना का मजाक उड़ाते हुए सवाल किया.

‘‘शटअप, यू बास्टर्ड, लेडीज से बात करने की तमीज…’’

नवीन अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि युवक ने फौरन उस का कालर पकड़ कर झकझोरते हुए पूछा, ‘‘क्या है, मुझे गाली क्यों दी तू ने?’’

‘‘मेरा कालर छोड़ो,’’ नवीन को गुस्सा आ गया.

‘‘नहीं छोडं़ूगा. पहले बता कि गाली क्यों दी?’’

नवीन ने झटके से उस युवक से अपना कालर छुड़ाया तो उस की शर्ट के बटन टूट गए. उस का उस युवक पर गुस्सा बढ़ा तो हाथ छोड़ने की गलती कर बैठा.

इस से पहले कि भीड़ व अर्चना उन में बीचबचाव कर पाते, उन दोनों युवकों ने नवीन पर 8-10 हाथ जड़ दिए.

खिसियाया नवीन पुलिस बुलाना चाहता था पर अर्चना उसे खींच कर हाल के अंदर ले गई.

कोने वाली सीट पर अर्चना के साथ बैठ कर नवीन का मूड जल्दी ही ठीक हो गया. उस ने दोचार रोमांटिक संवाद बोले, फिर उस के कंधे से सटा और झटके से अर्चना का हाथ पकड़ कर उसे चूम लिया.

‘‘भाइयो, आज तो डबल मजा आएगा. एक टिकट में 2-2 फिल्में देखेंगे. एक दूर स्क्रीन पर और दूसरी बिलकुल सामने. पहली एक्शन और दूसरी सेक्स और रोमांस से भरपूर होगी,’’ बिलकुल पीछे वाली सीट से एक युवक की आवाज उभरी और उस के 3 दोस्त ठहाका मार कर हंसे.

अर्चना झटके से नवीन की दूसरी दिशा में झुक कर बैठ गई. नवीन ने पीछे घूम कर देखा तो चारों युवक एकदूसरे की तरफ देख कर हंस रहे थे. उन में 2 युवक वही थे जिन के साथ उस का बाहर झगड़ा हुआ था.

नवीन की बगल में 1 मिनट पहले आ कर बैठे आदमी ने उसे बिन मांगी सलाह दी, ‘‘जनाब, आजकल का यूथ बदतमीज हो गया है. उन से उलझना मत. अपनी पत्नी के साथ घर जा कर प्यार मोहब्बत की बातें कर लेना.’’

नवीन ने गरदन मोड़ कर देखा तो पाया कि बाहर अर्चना को घूरने वाला बड़ीबड़ी मूंछों वाला व्यक्ति ही उस की बगल में बैठा था.

नवीन कोई प्रतिक्रिया दर्शाता, उस से पहले ही अर्चना फुसफुसा कर बोली, ‘‘सर, इस हाल का मैनेजर मेरे पति का परिचित है. मैं उस के सामने नहीं जाना चाहती हूं. आप समझदारी दिखाते हुए शांत हो कर बैठें.’’

नवीन मन मसोस कर सीधा बना बैठा रहा. वह जरा भी हिलताडुलता तो पीछे से फौरन आवाज आती, ‘‘अब चालू होगी दूसरी फिल्म.’’

पिक्चर हाल के अंधकार का तनिक भी फायदा न उठा सकने और 4-5 सौ रुपए यों ही बेकार में खर्च करने का अफसोस मन में लिए नवीन 3 घंटे बाद अर्चना के साथ पिक्चर हाल से बाहर आ गया.

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अर्चना ने कुछ खाने की फरमाइश की तो फिर से उत्साह दर्शाते हुए नवीन उसे उस के मनपसंद होटल में ले आया.

दुर्भाग्य ने यहां भी नवीन का साथ नहीं छोड़ा और अर्चना के साथ जी भर कर दिल की बातें करने का मौका उसे नहीं मिला.

हुआ यों कि वेटर उन के लिए जो डोसासांभर ले कर आया उस में अर्चना की सांभर वाली कटोरी में लंबा सा बाल निकल आया.

‘‘आज इस होटल के मालिक की खटिया खड़ी कर दूंगी मैं,’’ नवीन को बाल दिखाते हुए अर्चना की आंखों से गुस्से की चिंगारियां उठ रही थीं.

‘‘तुम जा कहां रही हो?’’ उसे कुरसी छोड़ कर उठते देख नवीन परेशान हो उठा.

‘‘मालिक से शिकायत करने…और कहां?’’ अर्चना झटके से उठी तो एक और लफड़ा हो गया.

मेज को धक्का लगा और उस पर रखा खाने का सामान व प्लेटेंगिलास फर्श पर गिर कर टूट गए.

3 वेटर उन की मेज की तरफ बढ़े और अर्चना मालिक के कक्ष की तरफ. हाल में बैठे दूसरे लोगों के ध्यान का केंद्र वही बनी हुई थी.

अर्चना ने होटल के मालिक को खूब खरीखोटी सुनाई. उसे बोलने का मौका ही नहीं दिया उस ने. वह बेचारा मिमियाता सा मैडम, मैडमसे आगे कोई सफाई नहीं दे पाया.

अर्चना के चीखनेचिल्लाने व धमकियां देने से परेशान होटल मालिक ने अपने सामने दोबारा उन की मेज लगवाई. डोसासांभर इस बार आन दी हाउसउन के सामने पेश किया गया, पर अर्चना का मूड ज्यादा नहीं सुधरा. वह वेटरों को लगातार गुस्से से घूरती रही. नवीन ने उसे समझाने की कोशिश की, तो वह भी अर्चना के गुस्से का शिकार हो गया.

जब वे दोनों होटल के बाहर आए तो नवीन ने दबी जबान में कुछ देर बाजार में घूमने की बात कही. अर्चना ने साफ मना कर दिया.

‘‘कुछ देर सामने सुंदर पार्क में चल कर बैठते हैं. मेरा दिमाग शायद वहीं बैठ कर ठंडा होगा,’’ अर्चना के इस प्रस्ताव का नवीन ने मुसकरा कर स्वागत किया.

‘‘आज न जाने किस मनहूस का मैं ने सुबह मुंह देखा, जो इतना अच्छा दिन खराब गुजर रहा है? तुम जैसी सुंदरी के साथ पार्क में घूमना मेरे लिए तो गर्व की बात है.’’

नवीन की बात सुन कर अर्चना मुसकराई, तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

पार्क काफी बड़ा था. अर्चना की मांग पर वे दोनों बातें करते हुए उस का चक्कर लगाने लगे.

पार्क के पीछे का हिस्सा सुनसान व ज्यादा घने पेड़पौधों वाला था. यहीं एकांत में पड़ी बैंच पर अर्चना बैठ गई तो नवीन भी उस की बगल में बैठ गया.

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बातें करतेकरते अचानक नवीन ने अर्चना को कंधे से पकड़ा और अपने नजदीक कर अपनी बांहों में भरने की कोशिश की.

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क्लब: भाग-1

लेखक- अनिल चाचरा

नए सहायक प्रबंधक नवीन कौशिक को उस शाम विश्वास हो गया कि अर्चना नाम की सुंदर चिडि़या जल्दी ही पूरी तरह उस के जाल में फंस जाएगी.

सिर्फ महीने भर पहले ही नवीन ने इस आफिस में अपना कार्यभार संभाला था. खूबसूरत, स्मार्ट और सब से खुल कर बातें करने वाली अर्चना ने पहली मुलाकात में ही उस के दिल की धड़कनें बढ़ा दी थीं.

जरा सी कोशिश कर के नवीन ने अर्चना के बारे में अच्छीखासी जानकारी हासिल कर ली.

बड़े बाबू रामसहायजी ने उसे बताया, ‘‘सर, अर्चना के पति मेजर खन्ना आजकल जम्मूकश्मीर में पोस्टेड हैं. अपने 5 वर्ष के बेटे को ले कर वह यहां अपने सासससुर के साथ रहती हैं. सास के पैरों को लकवा मारा हुआ है. पूरे तनमन से सेवा करती हैं अर्चना अपने सासससुर की.’’

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बड़े बाबू के कक्ष से बाहर जाने के बाद नवीन ने मन ही मन अर्चना से सहानुभूति जाहिर की कि मन की खुशी और सुखशांति के लिए जवान औरत की असली जरूरत एक पुरुष से मिलने वाला प्यार है. मेजर साहब से दूर रह कर तुम सासससुर की सेवा में सारी ऊर्जा नहीं लगाओ तो पागल नहीं हो जाओगी, अर्चना डार्लिंग.

करीब 30 साल की उम्र वाली अर्चना को मनोज और विकास के अलावा सभी सहयोगी नाम से पुकारते थे. वे दोनों उन्हें अर्चना दीदीक्यों कहते हैं, इस सवाल को उन से नवीन ने एक दिन भोजनावकाश में पूछ ही लिया.

‘‘सर, वह हमारी कोई रिश्तेदार नहीं है. बस, मजबूरी में उसे बहन बनाना पड़ा,’’ विकास ने सड़ा सा मुंह बना कर जवाब दिया.

‘‘कैसी मजबूरी पैदा हो गई थी?’’ नवीन की उत्सुकता फौरन जागी.

विकास के जवाब देने से पहले ही मनोज बोला, ‘‘सर, इनसानियत के नाते मजबूर हो कर उसे बहन कहा. उस का कोई असली भाई नहीं है. उस का दिल रखने को काफी लोगों की भीड़ के सामने हम ने उसे बहन बना लिया एक दिन.’’

‘‘आप उस के चक्कर में मत पडि़एगा, सर,’’ विकास ने अचानक उसे बिन मांगी सलाह दी, ‘‘किसी सुंदर औरत का अनिच्छा से भाई बनना मुंह का स्वाद खराब कर देता है.’’

‘‘वैसे मेरा कोई खास इंटरेस्ट नहीं है अर्चना में, पर पति से दूर रह रही इस तितली का किसी से तो चक्कर चल ही रहा होगा?’’ नवीन ने अपने मन को बेचैन करने वाला सब से महत्त्वपूर्ण सवाल विकास से पूछ लिया.

‘‘फिलहाल तो किसी चक्कर की खबर नहीं उड़ रही है, सर.’’

‘‘फिलहाल से क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘सर, अर्चना पर दोचार महीने के बाद कोई न कोई फिदा होता ही रहता है, पर यह चक्कर ज्यादा दिन चलता नहीं.’’

‘‘क्यों? मुझे तो अर्चना अच्छी- खासी फ्लर्टनजर आती है.’’

‘‘सर, जैसे हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती वैसे ही शायद यह फ्लर्टचरित्र की कमजोरी न हो.’’

‘‘छोड़ो, हम क्यों उस के चरित्र पर चर्चा कर के अपना समय खराब करें,’’ और इसी के साथ नवीन ने वार्त्तालाप का विषय बदल दिया था.

अर्चना का कोई प्रेमी नहीं है, इस जानकारी ने नवीन के अंदर नया उत्साह भर दिया और वह डबल जोश के साथ उस पर लाइन मारने लगा.

‘‘सर, हम सब यहां आफिस में काम करने के लिए आते हैं और इसी की हमें तनख्वाह मिलती है. हंसीमजाक भी आपस में चलता रहना चाहिए, पर शालीनता की सीमाओं के भीतर,’’ अर्चना ने गंभीरता से नवीन को कई बार इस तरह से समझाने का प्रयास किया, पर कोई फायदा नहीं हुआ.

‘‘अपने दिल को काबू में रखना अब मेरे लिए आसान नहीं है,’’ ऐसे संवाद बोल कर नवीन ने उस को अपने जाल में फंसाने की कोशिश लगातार जारी रखी.

फिर उस शाम नवीन ने जोखिम उठा कर अपने आफिस के कमरे के एकांत में अचानक पीछे से अर्चना को अपनी बांहों में भर लिया.

नवीन की इस आकस्मिक हरक त से एक बार को तो अर्चना का पूरा शरीर अकड़ सा गया. उस ने अपनी गरदन घुमा कर नवीन के चेहरे को घूरा.

‘‘मैं तुम से दूर नहीं रह सकता हूं…तुम बहुत प्यारी, बहुत सुंदर हो,’’ अपने मन की घबराहट को नियंत्रित रखने के लिए नवीन ने रोमांटिक लहजे में कहा.

‘‘सर, प्लीज रिलेक्स,’’ अर्चना अचानक मुसकरा उठी, ‘‘आप इतने समझदार हैं, पर यह नहीं समझते कि फूलों का आनंद जोरजबरदस्ती से लेना सही नहीं.’’

‘‘मैं क्या करूं, डियर? यह दिल है कि मानता नहीं,’’ नवीन का दिल बल्लियों उछल रहा था.

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‘‘अपने दिल को समझाइए, सर,’’ नवीन से अलग हो कर अर्चना ने उस का हाथ पकड़ा और उसे छेड़ती हुई बोली, ‘‘बिना अच्छा दोस्त बने प्रेमी बनने के सपने देखना सही नहीं है, सर.’’

‘‘अगर ऐसी बात है, तो हम अच्छे दोस्त बन जाते हैं.’’

‘‘तो बनिए न,’’ अर्चना इतरा उठी.

‘‘कैसे?’’

‘‘यह भी मैं ही बताऊं?’’

‘‘हां, तुम्हारी शागिर्दी करूंगा तो फायदे में रहूंगा.’’

‘‘कुछ उपहार दीजिए, कहीं घुमाने ले चलिए, कोई फिल्म, कहीं लंच या डिनर हो…चांदनी रात हो, हाथ में हाथ हो, फूलों भरा पार्क हो…सर, पे्रमी हृदय को प्यार की अभिव्यक्ति के लिए कोई मौकों की कमी है?’’

‘‘बिलकुल नहीं है. अभी तैयार करते हैं, कल इतवार को बिलकुल मौजमस्ती से गुजारने का कार्यक्रम.’’

‘‘ओके,’’ अर्चना ने नवीन को उस की कुरसी पर बिठाया और फिर मेज के दूसरी तरफ पड़ी कुरसी पर बैठ कर बड़ी उत्सुकता दर्शाते हुए उस के बोलने का इंतजार आंखें फैला कर करने लगी.

रविवार साथसाथ घूम कर बिताने के उन के कार्यक्रम की शुरुआत फिल्म देखने से हुई. सिनेमाघर के सामने दोनों 11 बजे मिले.

नवीन अच्छी तरह तैयार हो कर आया था. महंगे परफ्यूम की सुगंध से उस का पूरा बदन महक रहा था.

‘‘सर, मुझे यह सोचसोच कर डर लग रहा है कि कहीं कोई आप के साथ घूमने की खबर मेरे सासससुर तक न पहुंचा दे,’’ अर्चना ने घबराए अंदाज में बात की शुरुआत की, ‘‘कल को कुछ गड़बड़ हुई तो आप ही संभालना.’’

‘‘कैसी गड़बड़ होने से डर रही हो तुम?’’

‘‘क ल को भेद खुला और मेरे पति ने मुझे घर से बाहर कर दिया तो मैं आप के घर आ जाऊंगी और आप की श्रीमती जी घर से बाहर होंगी.’’

‘‘मुझे मंजूर है, डार्लिंग.’’

‘‘इतनी हिम्मत है जनाब में?’’

‘‘बिलकुल है.’’

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‘‘तब उस मूंछों वाले को हड़का कर आओ जो मुझे इतनी देर से घूरे जा रहा है.’’

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फाल के बाद: भाग-1

स्कूल बस से उतरते ही नेहल की नजर आसपास खड़े पेड़ों पर गई. पतझड़ का मौसम आ चुका है. पत्तों के बिना पेड़ कितने उदास और अकेले लगते हैं. ठीक वैसे ही जैसे मम्मी के मरने के बाद नई जूलियन मौम, पापा और छोटी बहन स्नेहा के होने के बावजूद, घर बेहद सूना और उदास लगता है.

जूलियन मौम के आते ही 8 वर्ष की नेहल, अचानक बड़ी बना दी गई. हर बात में उसे जताया जाता कि वह बड़ी हो गई है. शी इज नो मोर ए बेबी. 4 साल की स्नेहा की तो वह मां ही बन गई है. पहली बार स्नेहा को शावर देती नेहल के आंसू शावर के पानी के साथ बह रहे थे. मम्मी जब दोनों बहनों को टब में बबल बाथ देती थीं तो कितना मजा आता था. पूरी तरह से भीगी नेहल को देख, जूलियन मौम ने डांट लगाई, ‘‘सिली गर्ल, इतनी बड़ी हो गई, छोटी बहन को ढंग से शावर भी नहीं दे सकती. तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें कुछ नहीं सिखाया है. इन फैक्ट, स्नेहा को भी खुद बाथ लेना चाहिए.’’

मम्मी के नाम पर नेहल की आंखें फिर बरसने लगीं.

‘‘डोंट बिहेव लाइक ए चाइल्ड. गो टु योर रूम एंड क्राई देयर,’’ जूलियन मौम ने झिड़का था.

नियमानुसार 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को घर में अकेले नहीं छोड़ा जा सकता. जूलियन मौम से उन की बार की नौकरी छोड़ने के लिए पापा ने रिक्वेस्ट की थी. पापा को अच्छा वेतन मिलता था. नौकरी छोड़ कर जूलियन ने पापा पर एहसान किया था. फें्रड््स के साथ दिन बिता कर घर जरूर आ जातीं, पर नेहल के स्कूल से लौटने का वक्त, उन के आराम का होता. उन के आराम में खलल न पड़े, इसलिए नेहल को घर की चाबी थमा दी गई. उसे सख्त हिदायत थी कि वह बिना शोर किए घर में आए और जूलियन मौम को परेशान न करे.

अकसर नेहल को रोता देख कर स्नेहा भी रो पड़ती थी. अचानक नेहल चैतन्य हो जाती… सोचती, प्यार करने वाली मम्मी अब नहीं हैं तो क्या वह तो स्नेहा को मां जैसा प्यार दे सकती है. आंसू पोंछ नेहल जबरन हंस देती.

घर का बंद दरवाजा खोलती नेहल को याद आता, मम्मी उसे लेने बस स्टैंड आती थीं. कई कोशिशों के बावजूद मम्मी कार ड्राइव नहीं कर पाईं. मजबूरी में नेहल को स्कूल बस से आना पड़ता. मम्मी अपनी इस कमी के लिए दुखी होतीं. काश, वह अपनी बेटियों को खुद कार से ला पातीं. ड्राइविंग के प्रति उन के मन का भय कभी नहीं छूट पाया.

स्कूल से लौटी नेहल को मम्मी हमेशा उस का मनपसंद स्नैक कितने प्यार से खिलाती थीं. स्नेहा तो उन की गोद में बैठ कर ही खाना खाती. पनीली आंखों से ब्रेड और जैम गले से उतारती नेहल को याद आया कि आज स्नेहा की छुट्टी जल्दी होती है. अधखाई ब्रेड किचन ट्रैश में डाल, नेहल बस स्टैंड तक दौड़ती गई. अगर वह वक्त पर नहीं पहुंची तो बस से उतरी स्नेहा कितनी डर जाएगी. मम्मी कहा करती थीं, ‘यह अजनबी देश है. यहां कभी भी कोई हादसा हो सकता है. बस स्टैंड से घर के सूने रास्ते में भी कोई दुर्घटना हो सकती है.’

पहली बार अकेले घर तक आनेजाने में नेहल को सचमुच डर लगा था, पर छोटी बहन को बस स्टैंड तक पहुंचाने और लाने के दायित्व ने उस का डर दूर कर दिया.

पापा के साथ भारत से आते समय मम्मी कितनी उत्साहित थीं. नए घर को सजाती, गुनगुनाती मम्मी के साथ घर में खुशी का संगीत बिखर जाता. नन्हेनन्हे हाथों से मम्मी की मदद करती 4 वर्ष की नेहल का मुंह चूमते मम्मी थकती नहीं थीं. एक दिन पापा ने मम्मी को समझाया, ‘कभी भी कोई जरूरत हो, खतरा हो, फोन पर 911 डायल कर देना. तुरंत पुलिस मदद को आ जाएगी.’

पापामम्मी के साथ नेहल और स्नेहा डिजनीलैंड गई थीं. डिजनीलैंड की सैर करतीं राजकुमारियों के परिधान में सजीं नेहल और स्नेहा की सिंडरेला, एरियल और बेल के साथ पापा ने ढेर सारी फोटो ली थीं. उन चित्रों में नेहल और स्नेहा राजकुमारी जैसी दिखतीं. मम्मी गर्व से कहतीं, ‘मेरी दोनों बेटियां सच में राजकुमारी ही लगती हैं. इन के लिए राजकुमार खोजने होंगे.’

‘अरे, देखना, हमारी राजकुमारियों को लेने खुद राजकुमार दौड़े आएंगे.’

सबकुछ कितना अच्छा था, पर अब तो वह सब सपना ही लगता है.

पापा के प्रमोशन के साथ आफिस की पार्टियां बढ़ गई थीं. कभीकभी पापा बार भी जाने लगे थे. मम्मी देर रात तक उन के इंतजार में जागती रहतीं. इस के बाद ही मम्मी बेहद उदास रहने लगी थीं. मां को रोते देख, नेहल मां से चिपट जाती.

‘मम्मी, तुम रो क्यों रही हो?’

‘कुछ नहीं, आंखों में कुछ चला गया था, बेटी.’

‘तुम्हारी आंखों में हमेशा कुछ क्यों चला जाता है, मम्मी?’

‘अब नहीं जाएगा. आदत पड़ जाएगी.’

मां के इस जवाब से संतुष्ट नेहल, उन के आंसू पोंछ देती.

अब पापा के पास घर के लिए जैसे समय ही नहीं था. नेहल और स्नेहा घर के बाहर जाने को तरस जातीं. अकसर रात में मम्मीपापा की बातें नेहल को जगा देतीं. ऐसी ही एक रात नेहल ने मम्मी को कहते सुना था :

‘मेरा नहीं तो इन बच्चियों का तो खयाल कीजिए. नेहल बड़ी हो रही है. अगर उसे सचाई का पता लगा तो सोचिए, उस पर क्या बीतेगी?’

‘वह आसानी से सचाई स्वीकार कर लेगी. यह अमेरिका है. यहां तलाक बहुत कामन बात है. उस के कई साथियों की सौतेली मां या पिता होंगे.’

‘पर हम तो अमेरिकी नहीं हैं. जरा सोचो, तुम इतने ऊंचे ओहदे पर हो, एक बार में काम करने वाली औरत के साथ संबंध जोड़ना क्या ठीक है?’

‘जूलियन बहुत अच्छी है. हालात की वजह से उसे बार में काम करना पड़ रहा है. उस का पति उसे पैसा कमाने के लिए मजबूर करता है. उस ने वादा किया है कि शादी के बाद वह काम छोड़ देगी.’

‘उस का वादा आप को याद है पर अपना वादा आप भूल गए? हमेशा मेरा साथ निभाने का वादा किया था. इन्हीं बच्चियों पर आप जान देते थे,’ मम्मी का गला रुंध गया.

‘तुम जो चाहो, करने को आजाद हो. मैं अब और साथ नहीं निभा सकता,’ रुखाई से पापा ने कहा.

‘तुम्हारे विश्वास पर ही मैं अपने पापा से रिश्ता तोड़ कर तुम्हारे साथ आई थी. मां तो पहले ही नहीं थीं. अब पापा भी साथ नहीं देंगे,’ बात पूरी करतीकरती मम्मी रो पड़ी थीं.

‘अपना रोनाधोना छोड़ो. तुम्हें हर महीने तुम्हारे खर्च के पैसे मिलते रहेंगे. जूलियन के बिना मैं नहीं जी सकता. उसे अपने पति से तलाक लेने में कुछ समय लगेगा. इस बीच तुम्हारे लिए अपार्टमेंट का इंतजाम कर दूंगा.’

‘नहींनहीं, आप ऐसा मत कहो. इन छोटी बच्चियों के साथ अकेली इस अनजाने देश में जिंदगी कैसे काटूंगी.’

‘वक्त पड़ने पर इनसान और उस की आदतें बदल जाती हैं. तुम भी हालात से एडजस्ट कर लोगी. मुझे और परेशान मत करो. अगर ज्यादा तंग किया तो कल से होटल में शिफ्ट कर जाऊंगा. मुझे नींद आ रही है.’

उस के बाद मम्मी की सिसकियां धीमी पड़ गई थीं.

सुबह मम्मी का उदास चेहरा देख, नेहल जैसे सब जान गई कि मम्मी की आंखों में अकसर कुछ क्यों पड़ जाता है. शंका मिटाने के लिए पूछ बैठी :

‘मम्मी, जूलियन कौन है?’

‘तुझे जूलियन का नाम किस ने बताया, नेहल?’

‘रात को सुना था…’

‘देख नेहल, अगर कभी तेरी मम्मी न रहे तो स्नेहा के साथ अपने नाना के पास भारत चली जाना.’

‘तुम क्यों नहीं रहोगी, मम्मी? हम ने तो नाना को कभी देखा भी नहीं है. हम तुम्हारे साथ रहेंगे,’ नेहल डर गई थी.

‘डर मत, बेटी. मैं कहीं नहीं जाऊंगी,’ डरी हुई नेहल को मां ने सीने से चिपटा लिया.

मम्मी अब अकसर बीमार रहने लगीं. असल में उन के अंदर जीने की इच्छा ही खत्म हो गई थी. डाक्टर को कहते सुना था कि बीमारी से लड़ने के लिए विल पावर का मजबूत होना जरूरी है. आप की पत्नी कोआपरेट नहीं करतीं. उन्होंने तो पहले ही हार मान ली है.

बीमारी की वजह से मम्मी और बच्चियों की मदद के लिए जरीना को बुलाया गया था. विधवा जरीना पाकिस्तान से अपने इकलौते बेटे और बहू के पास हमेशा के लिए रहने आई थीं. बहू जूलियन को सास का हमेशा के लिए आना कतई बरदाश्त नहीं था. बहू की हर बेजा बात जरीना सह जातीं. बहू के साथ बेटा भी पराया हो चुका था, यह बात जल्दी ही उन की समझ में आ गई थी. एक दिन बहू ने साफसाफ कहा, ‘इस देश में कोई मुफ्त की रोटियां नहीं तोड़ता. आप दिन भर बेकार बैठी रहती हैं. किसी के घर खाना पकाने का काम शुरू कर दें तो दिल लग जाएगा. हाथ में चार पैसे भी आ जाएंगे.’

‘क्या मैं मिसरानी का काम करूं? तुम्हारी इज्जत को बट्टा नहीं लग जाएगा?’

‘किसी भी काम को नीची नजर से नहीं देखा जाता. आप के बेटे के बौस की बीवी बीमार हैं. घर में 2 छोटी लड़कियां हैं. आप उन की मदद कर देंगी तो उन पर हमारा एहसान होगा. शायद आप के बेटे को जल्दी प्रमोशन भी मिल जाए.’

जरीना बहू को फटीफटी आंखों से देखती रह गईं. इंजीनियर बेटे की मां दूसरे के घर खाना पकाने का काम करेगी. मां के आंसुओं को नकार, एक सुबह बेटा उन्हें नेहल के घर पहुंचा आया.

संकुचित जरीना को मम्मी ने अपने प्यार और आदर से ऐसा अपनाया कि जरीना को मम्मी के रूप में एक बेहद प्यार करने वाली बेटी मिल गई. मम्मी उन्हें अम्मां पुकारतीं और बेटियों से उन का परिचय नानी कह कर कराया था. जरीना नानी का प्यार पा कर नेहल और स्नेहा खुश रहने लगीं. अच्छीअच्छी कहानियां सुना कर नानी उन का मन बहलातीं. उन की हर फरमाइश पूरी करतीं. मम्मी कहतीं, ‘आप इन्हें बिगाड़ रही हैं, अम्मां. आने वाले समय में जाने इन्हें क्या दिन देखने पड़ें.’

‘ऐसा क्यों कहती हो, बेटी. यह तो मेरी खुशकिस्मती है, जो इन की फरमाइशें पूरी कर पाती हूं. अपने पोते के लिए तो मैं….’ गहरी सांस लेती नानी आंचल से आंसू पोंछ लेतीं.

शायद मम्मी की बीमारी की वजह से पापा ने जूलियन का नाम लेना बंद कर दिया था. नेहल सोचती अगर मम्मी बीमार ही रहें तो शायद पापा जूलियन को भूल जाएं. मम्मी का उदास चेहरा देख, उसे अपने सोच पर गुस्सा आता. काश, मम्मी अच्छी हो जातीं.

अचानक एक रात पापा ने उसे यह कहते हुए उठाया था, ‘तुम्हारी मम्मी को अस्पताल ले जाना है. स्नेहा को भी उठा दो.’

स्लीपिंग पार्टनर- आखिर ऐसा क्या था खत में?

पिछला भाग पढ़ने के लिए- स्लीपिंग पार्टनर

‘तेरी बात का क्या जवाब दूं, यही सोच रहा हूं. आज तक किसी ने उस के और मेरे मन की व्यथा को महसूस नहीं किया. धीरेधीरे उस व्यथा पर वक्त ने ऐसी चादर डाली कि अब कुछ महसूस ही नहीं होता. आज तू ने जो सवाल पूछा है, किसी दिन उस का उत्तर ढूंढ़ सका तो जरूर दूंगा, पर इतने सारे लोगों और घर के इतने सदस्यों के होते हुए भी वह अब सुरक्षित है, तू कुछ कर सके या नहीं पर उस की तकलीफ को समझेगी यही उस के लिए बहुत बड़ी बात होगी. बस, किसी तरह उसे यह बात समझा देनी होगी…’

बाहर भैया के नाम की आवाजें लगने लगी थीं, सो वह बात को बीच में ही छोड़ कर चले गए थे…

शादी ठीकठाक तरह से बीत गई थी.

प्रमिला दीदी विदा हो कर चली गईं. उस के बाद तो जैसे जाने वालों का तांता ही लग गया. धीरेधीरे कर के सभी लोग चले गए. किसी तरह की कृतज्ञता  की उम्मीद तो उन की ओर से किसी ने की भी नहीं थी पर जातेजाते भी बाबूजी पर सब आरोप लगा ही गए. कुछ दिन तो लग गए घर के ढांचे को ठीक करने में, फिर सबकुछ स्वाभाविक गति से चलने लगा.

फिर एक दिन एक बड़ा सा लिफाफा आया, वह भी मेरे नाम. आज के दौर की लड़कियां मेरी स्थिति का अनुभव नहीं लगा सकेंगी कि संयुक्त परिवार में किसी कुंआरी लड़की के नाम का लिफाफा आना कितने आश्चर्य की बात होती है. गनीमत यह रही कि वह लिफाफा मां के हाथ लगा. नीचे का पता देख कर मां खुश हो गईं, ‘अरे, यह तो अनुपम का पत्र है पर उस ने तुझे क्यों पत्र लिखा है?’

‘जब तक मैं खोल कर पढ़ूंगी नहीं तो कैसे बता सकती हूं कि उन्होंने मुझे पत्र क्यों लिखा है.’

मेरे हाथ में लिफाफा दे कर मां अपने घरेलू कामों में व्यस्त हो गईं.

मैं भी अपनी किताब बंद कर के लिफाफा खोल कर पढ़ने लगी.

‘मनु,

ताज्जुब होगा, मेरा पत्र देख कर, पर मेरी बहन, इतने दिनों बाद बहुत सोच कर तुझे लिखने की हिम्मत जुटा पाया हूं. तेरा सवाल मुझे वहां उस व्यस्तता  में भी मथता रहा और यहां आ कर भी. उसे मन से निकाल नहीं पाया हूं. अपने इस अपराधबोध से उबरना चाहता हूं पर तुझे भी विश्वास दिलाना होगा कि मेरे मन के गुबार को किसी और तक नहीं पहुंचने देगी क्योंकि कैसी भी है वह मेरी मां हैं और मौसी मेरी मां की बहन है, जो अपनी बहन के खिलाफ कुछ भी सहन नहीं कर पाएंगी. हां, तुझे मैं वह सब बताना चाहता हूं जो आजतक मैं किसी से भी नहीं कह पाया.

अपनी मां से तू ने मेरी मां के बारे में कितना कुछ सुना है, मैं नहीं जानता पर मैं और मेरे दूसरे सभी भाईबहन उन के अंधभक्त हैं. हम सभी मां के कहे हुए कटु वचनों को भी अमृत की तरह ग्रहण करते हैं. बहुत संघर्षों और कठिनाइयों के बीच मां ने अपने परिवार को संभाला है. बाबूजी ने आर्थिक रूप से कभी कोई सहायता नहीं की इसलिए उन पर मां के आक्रोश का अंत नहीं था. घर की गरीबी का जिम्मेदार मां बाबूजी को ही मानती थीं और उन्हें नकारा, बेगैरत जैसे शब्दों से हर दम चोट पहुंचातीं, जिसे गुजरते समय के साथ बाबूजी ने ओढ़ लिया था.

बचपन से मां को कठिनाइयां झेलते देख कर ही मैं बड़ा हुआ सो मन में एक उत्साह था कि किसी लायक हुआ तो मां के साथ ही इस आर्थिक भार को अपने कंधों पर ले लूंगा. बड़ा हूं, यही मेरा कर्तव्य है, पर मेरे उत्साह पर मां ने तब पानी फेर दिया जब 10वीं करते ही भागदौड़ कर के अपनी पहुंच का पूरा इस्तेमाल कर उन्होंने मुझे एक दफ्तर में क्लर्क की नौकरी दिलवा दी.

कच्ची उम्र में इतने बड़े बोझे को संभालना मेरे लिए तो खासा मुश्किल था पर मैं ने महसूस किया कि मां किसी को भी मेरी सहायता का काम करने को कोई खास महत्त्व नहीं देना चाहती थीं. कभी कोई पड़ोसिन कहती कि अरी, काहे की चिंता करती है, अब तो तेरा बेटा कमाऊ हो गया तो झल्ला कर मां कहतीं कि तो मुझे कौन से सोने के कौर खिलाएगा, अब तक हाड़ तोड़ कर इन सब का पेट पालती आई हूं, अब भी कर लूंगी.

मैं समझ गया था कि मां अब तक अपनी आत्मप्रशंसा की इतनी आदी हो गई थीं कि अपने बेटे की प्रशंसा से उन्हें ईर्ष्या होने लगी थी. इसीलिए उन्होंने मेरा विवाह ठेठ ग्रामीण लड़की से किया ताकि कभी भी वह सिर उठा कर उन के सामने बोल न सके. अपनी सत्ता के प्रति उन की सतर्कता देख सकने में समर्थ होते हुए भी मैं उन का विरोध नहीं कर सका.

शुरू से ही उस के फूहड़पन, बेवकूफी की बातों को ले कर मां के साथ छोटे भाईबहन भी व्यंग्यपूर्वक हंसते, मजाक उड़ाते और बेवजह उस को अपमानित कर के नीचा दिखाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते.

मनु, मुझे शायद शुरू से ही इतना दबा कर रखा गया था कि मैं दब्बू प्रवृत्ति का हो गया. स्वभाव में किसी प्रकार की तेजी या अपने अस्तित्व का आभास मुझे था ही नहीं, फिर भी मैं ने एकआध बार अपने छोटे भाईबहनों को समझाने की कोशिश की थी पर उस का नतीजा जान कर तू चकित रह जाएगी.

मां ने सभी के सामने मुझे अपने ही छोटे भाईबहनों से माफी मांगने को मजबूर किया था, वरना वह खाने को हाथ नहीं लगाएंगी. मां खाना नहीं खाएंगी, यह बात मुझे मंजूर नहीं थी, मुश्किल से तो कोशिश की थी अपनी केंचुल से बाहर निकलने की, पर जल्दी ही फिर उसी केंचुल में घुस गया.

जिंदगी फिर उसी ढर्र्रे पर चल निकली. रजनी भी इस अपमान की आदी हो गई. मेरी विवशता को वह शायद समझ गई थी. आज घर में मेरे सभी भाईबहन अच्छे पदों पर हैं और मां इस का सारा के्रडिट गर्व से खुद ले लेती हैं. वह भूल जाती हैं कि एक कम उम्र लड़के ने भी उन के कंधे का जुआ उठाने में उन की मदद की थी या उस लड़की को जिस के योगदान का एहसास किसी को नहीं है.

एक शब्द है मनु ‘स्लीपिंग पार्टनर’ यानी वह साझीदार जिस कोएहसास ही न हो कि इस तरक्की में उस का भी कोई योगदान है और न जानने वाले जान सके कि उन्होंने उस का कितना फायदा उठाया है. सो रानी बहन, ऐसी ही है तेरी भाभी, एक ‘स्लीपिंग पार्टनर.’

तेरा भाई, अनुपम.’

मनु ने कितनी बार वह पत्र पढ़ा पर अंत तक वह यह नहीं समझ पाई कि किसे दोषी माने, अपनी मौसी को, जो किसी रूप में भी मौसी जैसी स्नेहमयी नहीं लगती थीं. अपनी ही अनुशंसा से अभिभूत वह किसी को भी अपनी सत्ता के आसपास नहीं फटकने देती थीं, जिस से भी उन्हें यह भय हुआ उसी को अपनी कूटनीति द्वारा सब की निगाहों में नकारा साबित करने में एक पल भी देर नहीं लगाई, चाहे वह उन के पति रहे हों या उन्हीं की संतान या बहू. बच्चों की मातृभक्ति का भी दुरुपयोग किया उन्होंने.

दूसरे अभियोगी खुद अनुपमभैया हैं, जो पराए घर से लाई हुई लड़की को उस का उचित मानसम्मान नहीं दिला सके, मां की छत्रछाया में एक दब्बू, डरपोक मातृभक्त पुत्र बन सके, पर एक अच्छे पति नहीं बने.

तीसरी अभियोगी तो स्वयं भाभी ही थीं, जिन्होंने बारबार अपने पर लगने वाले आरोपों को सिरमाथे लगाया कि खुद को फूहड़, नकारा समझने लगीं. उन के मन में ये बातें इतने गहरे तक बैठ गईं कि उन्हें बारबार उन के अस्तित्व के प्रति सचेत कराना नामुमकिन ही था और यही सब सोचतेसोचते मैं ने पत्र रख दिया था.

इनसान चाहे कितना कुछ भूल जाए, पर वक्त अपनी चाल चलना नहीं भूलता. कितना पानी गुजर गया पुल के नीचे से. अब मैं खुद भी एक विवाहिता और बालबच्चों वाली औरत हूं. घर परिवार में हर पल व्यस्त रहते मैं रजनी भाभी के अस्तित्व को भी भूल गई थी.

आज इस पत्र ने कितनी बीती बातों को आंखों के सामने चलचित्र की भांति ला खड़ा किया और सचमुच ही उन रजनी भाभी के लिए मेरी आंखों में आंसू उमड़ पडे़.

विदा भाभी अलविदा, तुम्हें मेरी श्रद्धांजलि स्वीकार हो.

स्लीपिंग पार्टनर

पूर्व कथा

मनु को एक दिन पत्र मिलता है जिसे देख कर वह चौंक जाती है कि उस की भाभी यानी अनुपम भैया की पत्नी नहीं रहीं. वह भैया, जो उसे बचपन में ‘डोर कीपर’ कह कर चिढ़ाया करते थे.

पत्र पढ़ते ही मनु अतीत के गलियारे में भटकती हुई पुराने घर में जा पहुंचती है, जहां उस का बचपन बीता था, लेकिन पति दिवाकर की आवाज सुन कर वह वर्तमान में लौट आती है. वह अनुपम भैया के पत्र के बारे में दिवाकर को बताती है और फिर अतीत में खो जाती है कि उस की मौसी अपनी बेटी की शादी के लिए कुछ दिन सपरिवार रहने आ रही हैं. और सारा इंतजाम उन्हें करने को कहती हैं.

आखिर वह दिन भी आ जाता है जब मौसी आ जाती हैं. घर में आते ही वह पूरे घर का निरीक्षण करना शुरू कर देती हैं और पूरे घर की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले लेती हैं. पूरे घर में उन का हुक्म चलता है.

बातबात पर वह अपनी बहू रजनी (अनुपम भैया की पत्नी) को अपमानित करती हैं, जबकि वह दिनरात घर वालों की सेवा में हाजिर रहती है और मौसी का पक्ष लेती है. एक दिन अचानक बड़ी मौसी, रजनी को मनु की मां के साथ खाना खाने पर डांटना शुरू कर देती है तो रजनी खाना छोड़ कर चली जाती है. फिर मनु की मां भी नहीं खाती. मौसी, मां से खाना न खाने का कारण पूछती है, और अब आगे…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

मां की आवाज भर्रा गई थी, ‘दीदी, मेरी रसोई से कोई रो कर थाली छोड़ कर उठ जाए, तो मेरे गले से कौर कैसे उतरेगा?’

‘पागल है तू भी, उस की क्या फिक्र करनी, वह तो यों ही फूहड़ मेरे पल्ले पड़ी है, मैं ही जानती हूं कि कैसे इसे निभा रही हूं.’

शादी के दिन पास आते जा रहे थे. मां ने मुझे सब के कपड़े एक अटैची में रखने को कहा तो मैं बक्सों की कोठरी में कपड़े छांटने के लिए बैठ गई. कोठरी से लगा हुआ बड़ा कमरा था. अनजाने ही मेरे कानों में फुसफुसाहट के स्वर आने लगे.

प्रमिला दीदी का दांत पीसते हुए स्वर सुनाई पड़ा, ‘बड़ी भली बनने की कोशिश कर रही हो न? सब जानती हूं मैं, मौसी तो गुस्से से आग हो रही थीं, क्यों सब के सामने बेचारी बनने का नाटक करती हो, क्या चाहती हो, सब के सामने हमारी बदनामी हो? खुश हो जाओगी न तब? जबान खोली तो खींच लूंगी.’

मुझे लगा कि वहां काफी लोग खडे़ हैं, जो इस बात से अनजान हैं कि मैं वहां हूं, थोड़ा झांक कर देखने की कोशिश की तो अनुपम भैया भी वहीं खडे़ थे. एक के बाद एक आश्चर्य के द्वार मेरे सामने खुल रहे थे कि किसी घर के लोग अपनी बहू का इतना अपमान कर सकते हैं और वहीं खड़ा हुआ उस का पति इस अपमान का साक्षी बना हुआ है. छि:, घृणा से मेरा तनबदन जलने लगा पर मैं वहां से उठ कर बाहर आने का साहस नहीं जुटा सकी और घृणा, क्रोध, आक्रोश की बरसात उस एक अकेली जान पर न जाने कब तक चलती रहती अगर तभी निर्मला दीदी न आ गई होतीं.

‘क्या हो गया है तुम सब को? वहां मेरे सासससुर ने अगर इस झगडे़ की जरा सी भी भनक पा ली तो मेरा ससुराल में जीना मुश्किल हो जाएगा. इन्हें पहले से ही समझाबुझा कर लाना चाहिए था मां, अब तमाशा करने से क्या फायदा?’

सब चुपचाप कमरे से चले गए थे. यह सोच कर मैं अंदर के कमरे से बाहर निकल आई, पर रजनी भाभी वहां अभी भी आंसू बहाती बैठी हैं, यह मुझे पता नहीं था. अचानक मुझे देख कर वह चौंक उठीं. कोई एक जब उन के इतने अपमान का साक्षी बन गया, यह उन की सोच से बाहर की बात थी. ‘आप? आप कहां थीं दीदी.’

पर मेरा सवाल दूसरा था, ‘क्यों सहती हैं आप इतना?’

‘क्या?  सहना कैसा? मैं तो हूं ही इतनी बेककूफ, क्या करूं? मुझ से अपने बच्चे तक नहीं संभलते. अम्मांजी जैसी होशियार तो बहुत कम औरतें होती हैं, पर छोडि़ए, यह सब तो चलता ही रहता है, कह कर वह बाहर निकल गईं.

आज की घटना ने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया था. बारबार मन में यह सवाल उठ रहा था, छि:, इतने बडे़ शहर के लोग, और इतनी संकीर्ण सोच?

सब से ज्यादा खीज मुझे अनुपम भैया पर आ रही थी, उन का स्वभाव घर के सब सदस्यों से अलग था. कभी वह रसोई में व्यस्त मां को बाहर बैठा कर गप्पें मारने लगते. मेरी तो हरपल की उन्हें खबर रहती. अचानक ही कहीं से आ कर मेरे सिर पर स्नेह से हाथ रख देते, ‘चाय पिएगी? या खाना नहीं खाया अभी तक, चल साथसाथ खाएंगे.’

मेरा ही मन अनुपम भैया से ज्यादा बात करने को नहीं होता. यही लगता कि जो आदमी दूसरों से अपनी पत्नी को अपमानित होते हुए देखता रह सकता है वह कैसे एक अच्छा इनसान हो सकता है. पर वह सचमुच एक अच्छे इनसान थे, जो व्यस्त रहने के बावजूद समय निकाल कर अपने उपेक्षित पिता से भी कुछ बातें कर लेते, होने वाले प्रबंध के बारे में भी उन्हें जानकारी दे देते थे.

घर का आर्थिक ढांचा पूरी तरह चरमरा रहा था. मां किसी हद तक खुद को ही दोषी मान रही थीं पर वह अपनी कृष्णा बहन से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थीं. जिंदगी में संघर्षों को झेलते हुए मौसी इतनी कठोर हो गई थीं कि मां की भावुकता और संवेदनशीलता को वह बेकार की सोच समझती थीं.

शादी के स्थान और बाकी सबकुछ का प्रबंध बाबूजी से उन के बेटों ने समझ लिया था और पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी. अब यहां पर बाबूजी एक महत्त्वहीन मेहमान बन कर रह गए थे. मां को तो यहां आ कर भी रसोई से मुक्ति नहीं मिली थी और हम भाईबहन अपने में ही व्यस्त रहने लगे थे.

बहुत हिम्मत कर के एक दिन मैं ने अनुपम भैया को तब पकड़ लिया जब वह अपनी छिपी हुई बिटिया को ढूंढ़ते हुए हमारे कमरे में आ गए थे. मुझे देख कर खुश हो गए और बोले, ‘अब प्रमिला की शादी से छुट्टी पा कर तेरे लिए देखता हूं कोई अच्छा लड़का…’

‘मुझे नहीं करनी शादीवादी,’ गुस्से से भड़क उठी मैं.

चेहरे पर बेहद हैरानी का भाव आ गया, फिर नकली गंभीरता दिखाते हुए बोले, ‘हां, ठीक है…मत करना, वैसे भी तेरी जैसी लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ना होगा भी खासा मुश्किल काम.’

‘मुझ से फालतू बात मत कीजिए, मैं आप से कुछ गंभीर बात करना चाहती हूं, मुझे यह बताइए कि आप रजनी भाभी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं?’ मैं जल्दीजल्दी उन से अपनी बात कह देना चाहती थी.

‘कैसा व्यवहार?’

‘मुझ से मत छिपाइए, क्यों, आप के सामने ही सब आप की पत्नी की इस तरह बेइज्जती करते हैं, क्या उन के लिए आप की कोई जिम्मेदारी नहीं है? मौसी तो खैर बड़ी हैं, उन का सम्मान करना आप का कर्तव्य है, पर आप से छोटे अजय भैया, सुधीर भैया और प्रमिला दीदी भी जब चाहें उन्हें डांटफटकार देती हैं. क्या वह कोई नौकरानी हैं?’ मेरा चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था.

वह कुछ देर तक मुझे गौर से देखते रहे, ‘लगता है, बड़ी हो गई है मेरी नन्ही- मुन्नी बहन.’

‘बात को टालिए मत…’ मैं ने बीच में ही बात काट कर कहा.

आगे पढ़िए-तेरी बात का क्या जवाब दूं, यही सोच रहा हूं…

हाय रे पर्यटन

लेखक- शरद उपाध्याय

आजकल पर्यटन पर खास जोर है. जिसे देखो वही कहीं न कहीं जा रहा है. कोई शिमला, कोई मनाली, कोई ऊटी. पत्नी भी कहां तक सब्र रखती, आखिर एक दिन कह ही दिया, ‘‘देखो, बहुत हो गया. इतने साल हो गए हमारी शादी को, आप कहीं नहीं ले जाते. ले दे कर पीहर और रिश्तेदारों के अलावा आप की डायरी में दूसरी कोई जगह ही नहीं है. अब तो किटी में भी लोग मुझ से पूछते हैं, ‘मिसेज शर्मा, आप कहां जा रही हो.’ अब मैं क्या जवाब दूं. मैं ने भी उन से कह दिया कि हम भी इस बार हिल स्टेशन जा रहे हैं.

‘‘इस बार आप पक्की तरह सुन ही लो. हमें इस बार किसी न किसी हिल स्टेशन पर जाना ही है, चाहे लोन ही क्यों न लेना पड़े. मेरी नाक का सवाल है,’’ यह कह कर वह कोपभवन में चली गईं.

हमारे जैसे शादीशुदा लोग पत्नी के कोप से अच्छी तरह परिचित हैं. वे जानते हैं कि एक बार निर्णय लेने के बाद पत्नियों को कोई नहीं समझा सकता, सो मैं ने समझौतावादी नीति अपनाई और उन्हें बातचीत के लिए आमंत्रित किया. एकतरफा बातचीत के बाद मैं ने मान लिया कि इस बार शिमला जाना ही हमारी नियति है.

रेलवे टाइमटेबिल में से कुछ गाडि़यां नोट कर मैं रिजर्वेशन कराने रेलवे के आरक्षण कार्यालय पहुंचा. कार्यालय बिलकुल खाली पड़ा था. मैं मन ही मन खुश हो उठा कि चलो अच्छा हुआ, अभी 5 मिनट में रिजर्वेशन हो जाएगा.

चंद मिनटों में मेरा नंबर भी आ गया.

‘‘लाइए,’’ यह कहते हुए आरक्षण क्लर्क ने मेरा फार्म पकड़ा और उस पर अपनी पैनी नजर फिरा कर मुझे वापस पकड़ा दिया.

‘‘क्या हुआ?’’ मैं ने चौंक कर पूछा, ‘‘आप ने फार्म वापस क्यों दे दिया?’’

वह क्लर्क हंस कर बोला, ‘‘भाईसाहब, गाड़ी में नो रूम है यानी कि अब जगह नहीं है.’’

‘‘तो कोई बात नहीं, दूसरी गाड़ी में दे दीजिए.’’

‘‘इस समय इस ओर जाने वाली किसी भी गाड़ी में कोई जगह नहीं है.’’

‘‘कैसी बात करते हैं. सारे काउंटर खाली पड़े हैं और आप हैं कि…’’

‘‘ऐसा है, आप तैश मत खाइए. सारी गाडि़यां 2 महीने पहले ही बुक हो गई हैं. अब कहें तो जुलाई का दे दें.’’

एकाएक मुझे खयाल आया कि मैं भी कैसा बेवकूफ हूं. नहीं मिला तो अच्छा ही हुआ. अब कम से कम इस बहाने जाने से तो बचा जा सकता है.

मैं खुशीखुशी घर लौट आया और जैसे ही घर में प्रवेश किया तो यह देख कर हैरान रह गया कि वहां महल्ले की किटी कार्यकारिणी की सभी महिला पदाधिकारी अपने बच्चों सहित मौजूद थीं.

‘‘भाईसाहब, बधाई हो, आप ने शिमला का निर्णय ठीक ही लिया, पर लगे हाथ कुल्लूमनाली भी हो आइएगा,’’ मिसेज वर्मा बोलीं.

‘‘अरे, जब वहां जा रहे हैं तो कुल्लूमनाली को कैसे छोड़ देंगे,’’ श्रीमतीजी चहक कर बोलीं.

‘‘और भाईसाहब, रिजर्वेशन ए.सी. में ही करवाइएगा, नहीं तो आप पूरे रास्ते परेशान हो जाएंगे.’’

‘‘अरे भाभीजी, हमारे साहब के स्वभाव में तकलीफ उठाना तो बिलकुल नहीं है. हम ने तो ए.सी. में ही रिजर्वेशन करवाया है. इन्होंने तो होटल में भी ए.सी. रूम ही बुक करवाए हैं.’’

मुझे काटो तो खून नहीं. केवल स्टेटस सिंबल के लिए श्रीमतीजी झूठ पर झूठ बोलती जा रही थीं.

चायनाश्ते के दौर के बाद जब महिला ब्रिगेड विदा हुई तो मैं धम से सोफे पर पड़ गया.

उन्हें छोड़ कर वे अंदर आईं तो मेरा हाल देख कर घबरा गईं, ‘‘क्या हो गया, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न.’’

मैं ने श्रीमतीजी को रिजर्वेशन की असलियत बताई तो वह बिफर उठीं, ‘‘तुम कैसे आदमी हो, तुम से एक रिजर्वेशन नहीं हुआ. मैं नहीं जानती. मुझे इस बार शिमला जरूर जाना है. अब तो मेरी नाक का सवाल है,’’ कह कर वह अंदर चली गईं.

बेटी, मां की बात सुन कर मुसकराई, ‘‘देखो पापा, मम्मी की नाक का सवाल बहुत बड़ा होता है. इस सवाल में अच्छेअच्छों के कान भी कट जाते हैं. ऐसा करते हैं, गाड़ी कर के चलते हैं.’’

अब इस फैसले को मानने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था.

सीने पर पत्थर रख कर मैं गाड़ी की बात करने गया. गाड़ी का रेट सुन कर मेरे होश उड़ गए, पर क्या करता, श्रीमतीजी की नाक का सवाल सब से बड़ा था. मुझे लगा, जितने पैसे में घूम कर आ जाते, उतना तो गाड़ी ही खा जाएगी, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था.

देखतेदेखते वह दिन भी आ गया. सोसायटी की सभी महिलाएं विदा करने आईं. श्रीमतीजी फूली नहीं समा रही थीं. वह मेरी तरफ ऐसे देख रही थीं जैसे कह रही हों, देखो, मेरी इज्जत. हां, बात करतेकरते सभी महिलाएं अपने लिए शिमला से कुछ न कुछ लाने की फरमाइश कर रही थीं, जिसे श्रीमतीजी सहर्ष स्वीकार करती जा रही थीं. इन फरमाइशों की सूची सुन कर मेरा दिल घबराने लगा था.

अंतत: गाड़ी रवाना हुई तो श्रीमतीजी ने प्रधानमंत्री की तरह हाथ हिला कर सोसायटी वालों से विदा ली. थोड़ी देर में सूरज सिर पर आ गया. लू के थपेड़े चलने लगे. गाड़ी बुरी तरह तप रही थी. जहां हाथ लगाओ वहीं ऐसा लगता था जैसे गरम सलाख दाग दी गई हो. कुछ देर में पत्नी, फिर बेटी धराशायी हो गई.

बेटा मां से लड़ने लगा, ‘‘यह कौन सा हिल स्टेशन है? हम सहारा मरुस्थल में चल रहे हैं क्या?’’

श्रीमतीजी कराहती हुई बोलीं, ‘‘अरे बेटा, यह तेरे पापा की कंजूसी से ऐसा हुआ है. मैं ने तो ए.सी. गाड़ी लाने को कहा था.’’

जवाब में बेटा और बेटी अपने कलियुगी पिता को घूरने लगे. मैं क्या करता, मैं ने निगाहें नीचे कर लीं.

दवाइयां खाते, उलटियां करते जैसेतैसे कर के शिमला तक पहुंचे. शिमला तक का रास्ता आलोचनाओं में अच्छी तरह कटा. उन की आलोचनाओं का केंद्र मैं जो था.

शिमला पहुंच कर सब ने चैन की सांस ली. ड्राइवर ने सड़क के एक ओर गाड़ी लगा दी.

बेटा अचानक गाड़ी को रुकते देख बोला, ‘‘क्यों पापा, होटल आ गया?’’

‘‘हां, बेटा, तेरे पापा ने फाइव स्टार होटल बुक करा रखा है,’’ श्रीमतीजी व्यंग्य से बोलीं.

ड्राइवर भी हैरान रह गया, ‘‘क्या साहब, आप ने होटल भी बुक नहीं करवाया? सीजन का टाइम है. क्या पहली बार घूमने आए हो?’’

‘‘हां, भैया, पहली बार ही आए हैं. हमारी तकदीर में बारबार घूमने आना कहां लिखा है,’’ श्रीमतीजी लगातार वार पर वार कर रही थीं, ‘‘जा बेटा, उठ और होटल ढूंढ़, मेरे तो बस की नहीं है.’’

फिर बेटे और बेटी को ले कर गलीगली घूमने लगा. ज्यादातर होटल भरे हुए थे, हार कर एक बहुत महंगा होटल कर लिया. अब सब बहुत खुश थे.

उस दिन आराम किया. शाम को माल रोड घूमने निकले. मैं उन्हें बता रहा था, ‘‘देखो, रेलिंग के नीचे घाटी कितनी सुंदर लग रही है,’’ पर घाटी को निहारने के बाद अपना सिर घुमाया तो पाया मैं अकेला था. ये तीनों अलगअलग दुकानों में घुसे हुए थे.

थोड़ी देर बाद बेटी आई और हाथ पकड़ कर दुकान में ले गई, ‘‘देखो पापा, कितनी सुंदर ड्रेस है.’’

‘‘अच्छा भई, कितने की है?’’ लाचारी में मुझे पूछना पड़ा.

‘‘बस सर, सस्ती है. आप को डिस्काउंट में दे देंगे. मात्र 2 हजार रुपए.’’

मुझे मानो करंट लगा, ‘‘अरे भई, तुम तो दिन दहाड़े लूटते हो. यह डे्रस तो कोटा में 300-400 से ज्यादा की नहीं मिलती है.’’

दुकानदार ने डे्रस मेरे हाथ से छीन ली, ‘‘कोई दूसरी दुकान देखिए साहब, हमारा टाइम खराब मत कीजिए.’’

बेटी को भारी धक्का पहुंचा. बाहर निकलते ही वह रोने लगी, ‘‘आप भी बस पापा, कितना अपमान करवाते हैं.’’

तभी श्रीमतीजी भी बेटे के साथ आ गईं. बेटी को रोते देख उन्होंने मेरी जो क्लास ली कि मेरी जेब का अच्छाखासा पोस्टमार्टम हो गया.

दूसरे दिन कूफरी घूमने का प्रोग्राम बना. कूफरी में घोड़े वाले पीछे पड़ गए कि साहब, ऊपर पहाड़ी पर चलें. मुझे घुड़सवारी में कोई दिलचस्पी नहीं है और फिर रेट इतने कि मैं ने साफ मना कर दिया.

‘‘तुम ऊपर चले चलोगे तो बच्चों का मन बहल जाएगा. बच्चों का मन रखने के लिए क्या इतना भी नहीं कर सकते.’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं कर सकता,’’ मुझे पत्नी पर गुस्सा आ गया, ‘‘एक बार घर वालों का मन रखने के लिए घोड़ी पर चढ़ा था जिस का मजा आज तक भोग रहा हूं… अब और रिस्क नहीं ले सकता.’’

मेरे इस व्यंग्य को सुन कर श्रीमतीजी ने रौद्र रूप धारण कर लिया. फिर क्या था, मुझे सपरिवार घोड़े की सवारी करनी ही पड़ी. लेकिन जिस बात का डर था, वही हुआ. घोड़े पर से उतरते वक्त मैं संतुलन खो बैठा और धड़ाम से नीचे जा गिरा. मेरे पांव में मोच आ गई. मेरा उस दिन का सफर गाड़ी में बैठेबैठे ही पूरा हुआ. वे बाहर घूमतेफिरते, मजे करते रहे और मैं अंदर बैठाबैठा कुढ़ता रहा.

शाम को वहीं एक डाक्टर को दिखाया. उस ने कहा, ‘‘कोई चिंता की बात नहीं है. एकदो दिन आराम करोगे तो ठीक हो जाएगा.’’

दूसरे दिन सुबह मैं पलंग पर लेटा रहा. तीनों सदस्य अर्थात श्रीमतीजी, पुत्र व पुत्री तैयार होते रहे. थोड़ी देर बाद वे तीनों एकसाथ आ कर मेरे सामने बैठ गए.

मैं बोला, ‘‘कोई बात नहीं. चोट लग गई तो लग गई. तुम लोग परेशान मत हो. जा कर घूम आओ.’’

‘‘हम क्यों परेशान होंगे. हम तो पैसे के लिए बैठे हैं.’’

पैसे ले कर तीनों सुबह के निकले तो रात तक ही लौट कर आए. उन्होंने इतना सामान लाद रखा था कि बड़ी मुश्किल से उठा पा रहे थे.

धीरेधीरे उन्होंने एकएक सामान का रेट बताना शुरू किया तो मेरा दिल बैठ गया. मैं ने खर्च का हिसाब लगाया तो सिर्फ इतने ही रुपए बचे थे कि बस होटल का बिल चुका कर हम जैसेतैसे घर पहुंच सकें.

रात को बैठ कर सारी पैकिंग की गई. कुल्लूमनाली न जाने की बाबत अफसोस जाहिर किया गया और यह चिंता जतलाई गई कि अब श्रीमतीजी घर पहुंच कर कैसे मुंह दिखाएंगी.

दूसरे दिन उदासी भरे चेहरों को ले कर वे शिमला से रवाना हुए और साथ में मुझे लेना भी नहीं भूले.

कुछ घंटों बाद जब हमारी कार पहाड़ों को छोड़ कर मैदानों में पहुंची तो गरमी अपना विकराल रूप दिखाने लगी. लू के थपेड़े खाते हुए जब हम घर पहुंचे तो श्रीमतीजी के आगमन पर पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया. श्रीमतीजी रास्ते की थकान भूल गईं.

वह बढ़ाचढ़ा कर शिमला का बखान सुनाने लगीं. सब लोग धैर्य से सुनते रहे. फिर समापन के समय वस्तुवितरण समारोह हुआ. श्रोताओं का धैर्य टूट गया. वे सामानों की आलोचना करने लगे.

‘‘अरे, मिसेज शर्मा, यह शाल थोड़ा आप हलका ले आई हैं.’’

‘‘हां, कपड़े भी ठीक नहीं आए. फुटपाथ से लेने में क्वालिटी हलकी आ ही जाती है.’’

‘‘मिसेज शर्मा, आप ने तो बस घूमने का नाम ही किया, कुल्लूमनाली हो कर आतीं तो कुछ बात भी थी.’’

थोड़ी देर बाद सब चले गए. घर की 3 सदस्यीय ज्यूरी के सामने मैं अपराधी बैठा था. अपराध सिद्ध करने के लिए महल्ले के सभी गवाह पर्याप्त थे.

मुझे दोषी माना गया और सजा दी गई कि अब क्रिसमस की छुट्टियों में गोवा घूमने चलेंगे, जिस का सब इंतजाम बेटा पहले से ही कर लेगा और मुझे सिर्फ एक काम करना होगा, एक भारी राशि का चेक साइन करना होगा ताकि सबकुछ अच्छी तरह से निबट सके.

बरसों की साध-आखिर क्या था रूपमती का फैसला?

पहले भाग में आपने पढ़ा…

प्रशांत भाभी का मुंह उत्सुकता से ताकता रहा. वह मन ही मन खुश था कि उस की भाभी गांव में सब से सुंदर है. मजे की बात वह दसवीं तक पढ़ी थी. बैलगाड़ी गांव की ओर चल पड़ी. गांव में प्रशांत की भाभी पहली ऐसी औरत थीं. जो विदा हो कर ससुराल आ गई थीं. लेकिन उस का वर तेलफुलेल लगाए उस की राह नहीं देख रहा था.

इस से प्रशांत को एक बात याद आ गई. कुछ दिनों पहले मानिकलाल अपनी बहू को विदा करा कर लाया था. जिस दिन बहू को आना था, उसी दिन उस का बेटा एक चिट्ठी छोड़ कर न जाने कहां चला गया था.

उस ने चिट्ठी में लिखा था, ‘मैं घर छोड़ कर जा रहा हूं. यह पता लगाने या तलाश करने की कोशिश मत करना कि मैं कहां हूं. मैं ईश्वर की खोज में संन्यासियों के साथ जा रहा हूं. अगर मुझ से मिलने की कोशिश की तो मैं डूब मरूंगा, लेकिन वापस नहीं आऊंगा.’

इस के बाद सवाल उठा कि अब बहू का क्या किया जाए. अगर विदा कराने से पहले ही उस ने मन की बात बता दी होती तो यह दिन देखना न पड़ता. ससुराल आने पर उस के माथे पर जो कलंक लग गया है. वह तो न लगता. सब सोच रहे थे कि अब क्या किया जाए. तभी मानिकलाल के बडे़ भाई के बेटे ज्ञानू यानी ज्ञानेश ने आ कर कहा, ‘‘दुलहन से पूछो, अगर उसे ऐतराज नहीं हो तो मैं उसे अपनाने को तैयार हूं.’’

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आगे पढ़िए…

दुर्भाग्य के भंवरजाल में फंसी नवोदा के लिए ज्ञानू का यह कथन डूबते को तिनके का सहारा की तरह था. उस ने ज्ञानू से शादी कर ली थी. प्रशांत का भी मन ज्ञानू बनने का हो रहा था. लेकिन अभी वह छोटा था. उस की उम्र महज 13 साल थी. दुलहन को घर में बैठा कर पिया का इंतजार करने के लिए छोड़ दिया गया.

अगले दिन इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं. ईश्वर भैया शाम की गाड़ी से आ गए. लेकिन आते ही उन्होंने फरमान सुना दिया कि वह इस दुलहन को नहीं रखेंगे. लोगों ने समझायाबुझाया पर वह किसी की नहीं माने.

पति का फरमान सुन कर भाभी रोने लगीं. सुबह भाभी का चेहरा उतरा हुआ था. आंखें इस तरह लाल और सूजी थीं, जैसे वह रात भर रोई थीं. प्रशांत ने इस बारे में पूछा तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. रूपमती की चुप्पी पर प्रशांत ने अगला सवाल किया, ‘‘भाभी, दिल्ली से भैया आप के लिए क्या लाए हैं?’’

‘‘मौत.’’ रूपमती ने प्रशांत को संक्षिप्त सा जवाब दिया.

भाभी के इस जवाब पर प्रशांत को गहरा आघात लगा. उस ने कहा, ‘‘लगता है भाभी आप रात में बहुत रोई हैं. क्या हुआ है, कुछ बताओ तो सही.’’

‘‘भैया, अभी यह सब तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. दूसरे के दुख में आप क्यों दुखी हो रहे हैं. मेरे भाग्य में जो है वही होगा.’’ कह कर भाभी फफक कर रो पड़ी. दिल का बोझ थोड़ा हलका हुआ तो आंचल से मुंह पोंछ कर बोली, ‘‘आप के भैया बहुत बड़े अधिकारी हैं. मैं उन के काबिल नहीं हूं. उन्हें खूब पढ़ीलिखी पत्नी चाहिए. इसीलिए वह मुझे साथ रखने को तैयार नहीं हैं.’’

रूपमती के साथ जो हुआ था. वह ठीक नहीं हुआ था. लेकिन प्रशांत कुछ नहीं कर सकता था. उसी दिन ईश्वर चला गया. जाने से पहले उस ने प्रशांत के पिता से कहा, ‘‘काका, मुझे यह औरत नहीं चाहिए. इस देहाती गंवार औरत को मैं अपने साथ हरगिज नहीं रख सकता.’’

ईश्वर के जाने के बाद रूपमती ननद के गले लग कर रोते हुए कहने लगी, ‘‘अगर इस आदमी को ऐसा ही करना था तो मुझे विदा ही क्यों कराया गया. विदा करा कर मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की गई. अब कौन मुझे कुंवारी मानेगा. मैं न इधर की रही न उधर की.’’

अब सवाल था रूपमती को मायके पहुंचाने का. मामला तलाक का था. इसलिए घर का कोई बड़ा रूपमती को मायके ले जाने के लिए राजी नहीं था. जब कोई बड़ाबुजुर्ग रूपमती को ले जाने के लिए राजी नहीं हुआ तो उसे मायके ले जाने की जिम्मेदारी प्रशांत की आ गई.

रेलवे स्टेशन से रूपमती का घर ज्यादा दूर नहीं था. कोई संदेश मिला होता तो शायद स्टेशन पर कोई लेने आ जाता. प्रशांत और रूपमती पैदल ही घर की ओर चल पडे़. सामान स्टेशन पर ही एक परिचित की दुकान पर रख दिया गया था.

राह चलते हुए अपनी व्यथा व्यक्त करने की खातिर गांव के ज्ञानेश उर्फ ज्ञानू के बारे में बता कर प्रशांत ने कहा, ‘‘आज मुझे अपने देर से पैदा होने पर अफसोस हो रहा है भाभी. अगर मैं 8-10 साल पहले पैदा हुआ होता तो…’’

दुख की उस घड़ी में भी रूपमती के चेहरे पर मुसकान आ गई. मासूम देवर के कंधे पर हाथ रख कर उस ने कहा, ‘‘तो फिर मैं तुम्हारे बड़े होने की राह देखूं?’’

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प्रशांत झेंप गया. गांव आया, फिर घर. गौने गई लड़की के चौथे दिन मायके आने पर उसे देखने के लिए आसपड़ोस की औरतें इकट्ठा हो गईं. उस समय दिल पर पत्थर रख कर रूपमती मुसकराती रही. उस के इस भोलेभाले देवर को ताना न सुनना पड़े, इस के लिए उस ने किसी से कुछ नहीं बताया.

प्रशांत उसी दिन शाम की गाड़ी से लौट आया. रूपमती गांव के बाहर तक उसे छोड़ने आई. विदा करते समय उस ने कहा, ‘‘इस जन्म में फिर कभी मुलाकात हो, तो देवरजी पहचान जरूर लेना. इन चार दिनों में तुम ने जो दिया,’’ प्रशांत का हाथ पकड़ कर सीने पर रख कर कहा, ‘‘इस में समाया रहेगा.’’

इतना कहते हुए रूपमती की आंखों में जो आंसू आए थे, देवनाथ उन्हें आज तक नहीं भूल सका था. इस के बाद से देवनाथ को हमेशा लगता रहा कि जिंदगी में कहीं कुछ छूटा हुआ है, जो तमाम तलाशने पर भी नहीं मिल रहा है.

धीरेधीरे यह प्रसंग मन के किसी कोने में दबता गया और इस के मुख्य पात्रों की स्मृति धुंधली होती गई. इस की मुख्य वजह यह थी कि दोनों ओर से संबंध लगभग खत्म हो गए थे. बदल रही जीवन की घटनाओं के बीच यह दु:सह याद उस ने अंतरात्मा के किसी कोने में डाल दी थी.

प्रशांत को सोच में डूबा देख कर रूपमती ने कहा, ‘‘आप बड़े तो हो गए, पर किया गया वादा भूल गए, निभा नहीं पाए.’’

‘‘भाभी, आप ने भी तो मेरी राह कहां देखी.’’

‘‘देखी देवरजी, बिलकुल देखी. बहुत दिनों तक देखी. आप का इंतजार आज तक करती रही. राह आंख से नहीं, दिल से देखी जाती है देवरजी.’’

प्रशांत आगे कुछ कहता, उस के पहले ही रूपमती ने उठते हुए बहुओं से कहा, ‘‘सुधा बेटा, तुम्हारे यह चाचाजी, मेरे सगे देवर हैं, तुम इन के पास बैठो. इन के लिए आज मैं खुद खाना बनाऊंगी और सामने बैठ कर खिलाऊंगी. बरसों की अधूरी साध आज पूरी करूंगी.’’

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