Short Stories in Hindi : मुझे बेबस न समझो

Short Stories in Hindi : नेहा शूटिंग के उस सीन को याद कर सिहर उठती थी. वह ओलिशा की बौडी डबल थी, सो सारे रेप सीन या उघड़े बदन वाले सीन उस पर ही फिल्माए जाते थे. वैसे तो अब उसे इन सब की आदत पड़ चुकी थी पर आज रेप सीन को विभिन्न कोणों से फिल्माने के चक्कर में वह काफी टूटी व थकी महसूस कर रही थी. फिर देर रात तक नींद उस से कोसों दूर रही. अपनी ही चीखें, चाहे डायलौग ही थे, उस के कानों में गूंज कर उस के अपने ही अस्तित्व पर सवाल खड़े कर रहे थे जिस के कारण उसे शारीरिक थकावट से ज्यादा दिमागी थकावट महसूस हो रही थी.

कब तक वह ऐसे दृश्यों पर अभिनय करती रहेगी, यह सवाल उस के सिर पर हथौड़े की तरह वार कर रहा था. विचारों के भंवर से बाहर निकलने के लिए वह कौफी का मग हाथ में पकड़ खिड़की के पास आ खड़ी हुई. बाहर आसपास की दुनिया देख उसे कुछ सुकून मिला ही था कि उसे देख 1-2 लोगों ने हाथ हिलाया और फिर आपस में कोई भद्दा मजाक कर खीखी कर हंसने लगे. सब को पता है कि वह छोटीमोटी फिल्मी कलाकार है. पर शुक्र है यह नहीं पता कि वह किसी का बौडी डबल करती है. नहीं तो उसे वेश्या ही समझ लेते. खैर, दिमाग से यह कीड़ा बाहर फेंक वह कालेज जाने की तैयारी करने लगी. बस पकड़ने के लिए स्टौप पर खड़ी थी तो देखा कि 2-4 आवारा कुत्ते एक कुतिया के पीछे लार टपकाते उसे झपटने जा रहे थे. वह कुतिया जान बचा उस के पैरों के आसपास चक्कर लगाने लगी. तभी, एक पत्थर उठा उस ने कुत्तों को भगाया. कुतिया भाग कर एक नाले में छिप गई.

बाहर आवारा कुत्ते उस कुतिया के आने का इंतजार करने लगे. किसी ने भी कुत्तों को वहां से नहीं भगाया. शायद मन ही मन इस कुतिया का तमाशा देखने की चाह रही होगी भीड़ की. तभी उस की बस आ गई और वह अपना बसपास दिखा सीट खाली होने का इंतजार करने लगी. सीट का इंतजार करतेकरते आत्ममंथन भी करने लगी. शूटिंग के समय तो वह भी इस निरीह कुतिया की तरह लार टपकाते साथी सदस्यों से इसी तरह बचती फिरती रहती है क्योंकि उन की निगाह में ऐसे सीन देने वाली युवती का अपना कोई चरित्र नहीं होता. तभी तो सीन फिल्माते समय जानबूझ कर एक ही सीन को बीसियों बार रीटेक करवाया जाता है.

कभी ऐंगल की बात तो कभी कपड़े ज्यादा नहीं उघड़े, क्याक्या बहाने नहीं बनाए जाते उस की बेचारगी का फायदा उठाने के लिए. इसी कारण वह भी हर सीन के बाद चुपचाप एक कोने में बैठ जाती है. एक बार उस ने छूट दे दी तो गरीब की जोरु बन रह जाएगी. उस की अपनी बेबसी, शूटिंग पर उपस्थित लोगों की कुटिल मुसकान भेदती निगाहें व अश्लील इशारे उस के अंतर्मन को क्षतविक्षत कर देते हैं पर वह भी क्या करे. बड़ेबड़े सपने ले कर वह चंडीगढ़ आई थी. उच्च शिक्षा के साथसाथ मौडलिंग व फिल्मों में काम करने के लिए. सब कहते थे कि वह फिल्मी सितारा लगती है, एकदम परफैक्ट फिगर है, कोई भी डायरैक्टर उसे देखते ही फिल्मों में हीरोईन साइन कर लेगा.

उच्च शिक्षा का सपना ले कर चंडीगढ़ आई नेहा की मुंबई तो अकेले जाने की व रहने की हिम्मत न पड़ी. पर यहां पढ़ाई के दौरान ही चंडीगढ़ में थोड़ी जानपहचान के बलबूते पर उसे मौडलिंग के काम मिलने लगे थे. मांबाप के मना करने के बावजूद वह इस आग के दरिया में कूद पड़ी. मौडलिंग से संपर्क बने तो इक्कादुक्का टीवी सीरियल में काम भी मिल गया. उसे इतनी जल्दी मिलती शोहरत कुछ नामीगिरामी कलाकारों को रास नहीं आई. पालीवुड में उन को नेहा का आना खतरे की घंटी लगने लगा. उन्होंने उस की छोटीछोटी कमियों को बढ़ाचढ़ा कर दिखा उस के यहां पैर ही न टिकने दिए. मांबाप ने भी सहारा देने की जगह खरीखोटी सुना दी. वह तो भला हो उस के पत्रकार मित्र साहिल का जिस ने उसे फिल्मों में ओलिशा का बौडी डबल बनने की सलाह दी और फिल्मों में काम दिलवा उसे आर्थिक व मानसिक संकट से उबार लिया. अब तो यही काम उस की रोजीरोटी है.

आज कोई रिश्तेदार उस का अपना नहीं, सभी ने उस से मुंह मोड़ लिया है. इसी वजह से पढ़ाई दोबारा शुरू कर वह कुछ बनना चाहती है ताकि इस से छुटकारा पा सके. पर क्या करे, कहां जाए, मांबाप तो स्वीकारने से रहे. ‘नहीं, नहीं, ऐसे बेचारगी वाले नैगेटिव विचारों को वह फन नहीं उठाने देगी. यही कमजोरी औरों को फायदा उठाने का मौका देगी और वह उस बसस्टौप वाली निरीह कुतिया की तरह किसी के पैरों पर गिड़गिड़ाएगी नहीं.’ इस सोच ने उसे संबल प्रदान किया. वर्तमान से रूबरू होते ही वह समझ गई कि आज भीड़ से भरी बस में उसे सीट मिलने से तो रही, इसलिए यूनिवर्सिटी तक खड़े हो कर ही जाना पड़ेगा. चलो, केवल 20 मिनट का ही सफर रह गया है, वह भी बस आराम से कट जाए. वैसे भी गली के आवारा कुत्तों से ज्यादा अश्लील व खूंखार तो कई बार सहयात्री होते हैं. सीट मिली तो विचारों की तंद्रा भी टूटी और नेहा को चैन भी आया क्योंकि आज नकारात्मक विचारों की कड़ी टूट ही नहीं रही थी.

बगल की सीट खाली हुई तो लाठी पकड़े बूढ़े ने जानबूझ कर उस पर अपना भार डाल दिया. वह किनारे खिसकी तो वृद्ध व्यक्ति ने हद ही कर दी. बैठतेबैठते उस के हिप्स पर च्यूंटी काट दी. उस ने घूर कर देखा तो खींसे निपोर सौरीसौरी बोलने लगा कि गलती से हाथ लग गया था.

जैसे ही बस रुकी, सीट बदल ली. पर यह तो दिन की शुरुआत थी. तभी अचानक बस रुकी और पीछे खड़ा व्यक्ति उस पर झूल पड़ा. वह झटके से उस वृद्ध के ऊपर लुढ़क गई. उस ने खड़े हो कर बाकी सफर करना तय करना ही सही समझा. और अपनी सीट से खड़ी हो आगे दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी. अभी वह खड़ी ही हुई थी कि तभी उसे पीछे कुछ गड़ता सा महसूस हुआ. पीछे खड़ा 17-18 साल का भारी सा लड़का उस के साथ सट कर गंदी हरकत करने लगा. उस ने उसे धकियाते हुए लताड़ा तो खींसें निपोरते उस ने नेहा पर कटाक्ष किया, ‘‘इतनी ही नाजुक है तो अपनी सवारी पर आया कर.’’

वह मुंह फेर खड़ी हो गई. कौन इन कुत्तों के मुंह लगे. इन कुत्तों का शिकार नहीं बनना उसे. उस के जवाब न देने के कारण उस लड़के की हिम्मत बढ़ गई. वह कभी पीठ पर हाथ फेरता तो कभी उस के हिप्स पर. उस की घुटन देख एक बुजुर्ग सरदारजी ने उसे अपनी सीट सौंप दी. वैसे तो उस का स्टौप आने ही वाला था फिर भी उस ने बैठने में ही भलाई समझी और सिमट कर अपनी सीट पर बैठ गई. पता नहीं, उस की इस बात को उस लड़के ने कैसे लिया क्योंकि स्टौप आने पर जैसे ही वह उठी तो उस लड़के ने उस के रास्ते में पैर अड़ा दिया. वह गिरतेगिरते बची. इस हरकत से जब उस बुजुर्ग सरदारजी ने उस लड़के को टोका तो उस ने भरी बस में उन्हें 2 मुक्के मार, पीछे सीट पर धकेल दिया. उन्हें बचाने के लिए कोई न उठा. ड्राइवर, कंडक्टर व सारी सवारियां मूकदर्शक बन तमाशा देखती रहीं जिस से उस लड़के की हिम्मत और बढ़ गई.

इस सब तमाशे की वजह से नेहा अपने स्टौप पर उतर ही नहीं पाई. लगा कौरवों की सभा में फंस कर रह गई है. तभी लालबत्ती पर बस रुकी. नेहा ने वहीं उतरने में भलाई समझी. पर यहां भी मुसीबत ही हाथ लगी. सोचने और कूदने में समय लग गया और उस के कूदतेकूदते ही बस चल पड़ी और वह सीधा सड़क पर गिरी. ज्यादा चोट नहीं लगी. हां, कुछ गाड़ी वालों ने गालियां जरूर सुना दीं. तभी, जैसे ही वह खड़ी हुई तो 2 मजबूत हाथों ने उसे घुमा कर अपनी तरफ कर लिया और फुटपाथ की तरफ खींच कर ले आए.

जैसे ही उस अनाम व्यक्ति को धन्यवाद करने के लिए उस ने उस की तरफ देखा तो उस की चीख गले में ही घुट कर रह गई. यह तो वही दुष्ट था और भरी सड़क से किनारे ला उस की इज्जत पर हमला करना चाहता था. चलतीदौड़ती सड़क को देख नेहा ने हिम्मत जुटाई और 2 करारे थप्पड़ उस दुष्ट के मुंह पर जड़ दिए.

नेहा ने कड़क लहजे में पूछा, ‘‘क्या बदतमीजी है, तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो?’’

‘‘ओ मेरी रानी, तुम्हें तो पा कर ही रहूंगा. पहले मेरे इन गालों पर चुंबन दे, इन्हें सहलाओ, तभी तुम्हें जाने दूंगा. कब तक तड़पाओगी, मेरी जान.’’ वह वहशी ठहाका मार कर हंसा और उसे अपनी तरफ खींचने लगा. नेहा समझ गई कि कोई बड़ी मुसीबत आन पड़ी है, अपनी रक्षा स्वयं ही करनी होगी. सो, उस ने कस कर पकड़े अपने बैग में से अपने सुरक्षा कवच लालमिर्च पाउडर और मोबाइल को निकालने के लिए जद्दोजेहद शुरू की. आज तक कभी जरूरत नहीं पड़ी थी मिर्चपाउडर की. इस मुसीबत में हड़बड़ाहट में न तो उसे मिर्चपाउडर मिल रहा था और न ही मोबाइल. बेबस हो उस ने बढ़ती भीड़ की तरफ झांका. कई लोग उस की सहायता करने के बजाय अपनेअपने मोबाइल से इस सारे कांड का वीडियो बना रहे थे. उस ने सहायता के लिए गुहार लगाई. इक्कादुक्का लोग उस की सहायता को आगे बढ़े भी तो भीड़ ने उन के कदम थाम लिए, यह कह कर कि ‘देखते नहीं, शूटिंग चल रही है. कल भी यहीं एक शूटिंग चल रही थी, किसी ने ऐसे ही हस्तक्षेप करने की कोशिश की तो बाउंसरों ने उस की खासी पिटाई कर दी थी.’ सारी भीड़ शूटिंग का मजा लेने के लिए घेरा बना खड़ी हो गई. यह सब सुनदेख नेहा का दिमाग पलभर के लिए सुन्न हो गया. क्या करे? वहां कोई भी मौके की नजाकत नहीं समझ रहा था. लगता था सभी बहती गंगा में हाथ धोना चाहते थे.

वैसे भी आजकल तो सजा बलात्कारी नहीं, बलात्कार होने वाली नारी को भुगतनी पड़ती है. लोगबाग तो बलात्कारी, आतंकवादी और हत्यारों के साथ सैल्फी ले हर्षित महसूस करते हैं. नहीं, वह दूसरी ‘निर्भया’ नहीं बनेगी. निर्बल नहीं, निर्भय होना है उसे, इस सोच के साथ जैसे ही वह अपने बैग में हाथ डाल अपने ‘हथियार’ निकालने लगी तो उस शख्स ने मौका पाते ही उसे जमीन पर गिरा दिया. स्वयं नेहा की छाती पर बैठ गया और बोला, ‘‘करती है, किस या नहीं. मैं चंडीगढ़ का किसर बौय हूं. देखता हूं तुम मुझे कैसे इनकार करती हो.’’

उस की इस हरकत पर भीड़ ने तालियां बजानी शुरू कर दीं. एक ने फिकरा कसा, ‘‘क्या बढि़या डायलौग है. पिक्चर सुपरहिट है, मेरे भाई. जारी रखो. बिलकुल असली सा मजा आ रहा है.’’

एक के बाद दूसरी आवाजें आ रही थीं. तब तक वह लड़का अपने होंठों को उस के होंठों तक ले आया. नेहा ने हिम्मत जुटा उसे परे धकेला. जैसे ही वह पीछे हटा तो दूर गिरा नेहा का बैग उस लड़के के पैरों से लग कर नेहा के हाथों पर आ गिरा. आननफानन नेहा ने लालमिर्च का पैकेट ढूंढ़ने की कोशिश की. उस के हाथ में पैकेट आता, उस से पहले ही वह लड़का अपनी जींस की जिप खोल उस की तरफ बढ़ा और…

भीड़ इस सब का पूरा लुत्फ उठा रही थी. लोगों के हाथ मोबाइल पर और आंखें उन दोनों पर टिकी थीं ताकि कोई भी पल ‘मिस’ न हो जाए.

भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘अजी, वाह, यह तो ब्लू फिल्म की शूटिंग चल रही है.’ नेहा समझ गई वासना से लिप्त भीड़ उस की कोई सहायता नहीं करेगी. क्या पता 1-2 लोग और इस मौके का फायदा उठाने को आ जाएं. उसे अपनी रक्षा खुद करनी होगी. हिम्मत जुटा उस ने हाथ में आए मिर्च के पैकेट को बाहर निकाला और उस दुष्ट की आंखों में झोंक दिया.

जब तक वह आंखें मलता तब तक नेहा ने अपने मिर्च वाले हाथों से उस का ‘वही’ अंग जिप में से निकाल कर दांतों में भींच लिया. खून का फौआरा फूट पड़ा. लड़का दर्द से बिलबिला, सड़क पर लोटने लगा.

सारी भीड़ हक्कीबक्की रह गई. वीरांगना के समान नेहा उठ खड़ी हुई. कपड़े झाड़ उस ने मिर्च का पैकेट हाथ में ले नपुंसक भीड़ पर छिड़क दिया, ‘‘लो, अब खींचों फोटो अपना व अपने इस साथी दरिंदे का.’’ और पिच्च से भीड़ पर थूक दिया. वह आगे बढ़ गई. भीड़ ने उस के लिए खुद ही रास्ता बना दिया.

Eid Mubarak 2025 : ईद का चांद- क्यों डूबा हिना का अस्तित्व

Eid Mubarak 2025 : उस दिन रमजान की 29वीं तारीख थी. घर में अजीब सी खुशी और चहलपहल छाई हुई थी. लोगों को उम्मीद थी कि शाम को ईद का चांद जरूर आसमान में दिखाई दे जाएगा. 29 तारीख के चांद की रोजेदारों को कुछ ज्यादा ही खुशी होती है क्योंकि एक रोजा कम हो जाता है. समझ में नहीं आता, जब रोजा न रखने से इतनी खुशी होती है तो लोग रोजे रखते ही क्यों हैं?

बहरहाल, उस दिन घर का हर आदमी किसी न किसी काम में उलझा हुआ था. उन सब के खिलाफ हिना सुबह ही कुरान की तिलावत कर के पिछले बरामदे की आरामकुरसी पर आ कर बैठ गई थी, थकीथकी, निढाल सी. उस के दिलदिमाग सुन्न से थे, न उन में कोई सोच थी, न ही भावना. वह खालीखाली नजरों से शून्य में ताके जा रही थी.

तभी ‘भाभी, भाभी’ पुकारती और उसे ढूंढ़ती हुई उस की ननद नगमा आ पहुंची, ‘‘तौबा भाभी, आप यहां हैं. मैं आप को पूरे घर में तलाश कर आई.’’

‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ हिना ने उदास सी आवाज में पूछा.

‘‘खास बात,’’ नगमा को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या कह रही हैं आप? कल ईद है. कितने काम पड़े हैं. पूरे घर को सजानासंवारना है. फिर बाजार भी तो जाना है खरीदारी के लिए.’’

‘‘नगमा, तुम्हें जो भी करना है नौकरों की मदद से कर लो और अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी के लिए बाजार चली जाना. मुझे यों ही तनहा मेरे हाल पर छोड़ दो, मेरी बहना.’’

‘‘भाभी?’’ नगमा रूठ सी गई.

‘‘तुम मेरी प्यारी ननद हो न,’’ हिना ने उसे फुसलाने की कोशिश की.

‘‘जाइए, हम आप से नहीं बोलते,’’ नगमा रूठ कर चली गई.

हिना सोचने लगी, ‘ईद की कैसी खुशी है नगमा को. कितना जोश है उस में.’

7 साल पहले वह भी तो कुछ ऐसी ही खुशियां मनाया करती थी. तब उस की शादी नहीं हुई थी. ईद पर वह अपनी दोनों शादीशुदा बहनों को बहुत आग्रह से मायके आने को लिखती थी. दोनों बहनोई अपनी लाड़ली साली को नाराज नहीं करना चाहते थे. ईद पर वे सपरिवार जरूर आ जाते थे.

हिना के भाईजान भी ईद की छुट्टी पर घर आ जाते थे. घर में एक हंगामा, एक चहलपहल रहती थी. ईद से पहले ही ईद की खुशियां मिल जाती थीं.

हिना यों तो सभी त्योहारों को बड़ी धूमधाम से मनाती थी मगर ईद की तो बात ही कुछ और होती थी. रमजान की विदाई वाले आखिरी जुम्मे से ही वह अपनी छोटी बहन हुमा के साथ मिल कर घर को संवारना शुरू कर देती थी. फरनीचर की व्यवस्था बदलती. हिना के हाथ लगते ही सबकुछ बदलाबदला और निखरानिखरा सा लगता. ड्राइंगरूम जैसे फिर से सजीव हो उठता. हिना की कोशिश होती कि ईद के रोज घर का ड्राइंगरूम अंगरेजी ढंग से सजा न हो कर, बिलकुल इसलामी अंदाज में संवरा हुआ हो. कमरे से सोफे वगैरह निकाल कर अलगअलग कोने में गद्दे लगाए जाते. उस पर रंगबिरंगे कुशनों की जगह हरेहरे मसनद रखती.

एक तरफ छोटी तिपाई पर चांदी के गुलदान और इत्रदान सजाती. खिड़की के भारीभरकम परदे हटा कर नर्मनर्म रेशमी परदे डालती. अपने हाथों से तैयार किया हुआ बड़ा सा बेंत का फानूस छत से लटकाती.

अम्मी के दहेज के सामान से पीतल का पीकदान निकाला जाता. दूसरी तरफ की छोटी तिपाई पर चांदी की ट्रे में चांदी के वर्क में लिपटे पान के बीड़े और सूखे मेवे रखे जाते.

हिना यों तो अपने कपड़ों के मामले में सादगीपसंद थी, मगर ईद के दिन अपनी पसंद और मिजाज के खिलाफ वह खूब चटकीले रंग के कपड़े पहनती. वह अम्मी के जिद करने पर इस मौके पर जेवर वगैरह भी पहन लेती. इस तरह ईद के दिन हिना बिलकुल नईनवेली दुलहन सी लगती. दोनों बहनोई उसे छेड़ने के लिए उसे ‘छोटी दुलहन, छोटी दुलहन’ कह कर संबोधित करते. वह उन्हें झूठमूठ मारने के लिए दौड़ती और वे किसी शैतान बच्चे की तरह डरेडरे उस से बचते फिरते. पूरा घर हंसी की कलियों और कहकहों के फूलों से गुलजार बन जाता. कितना रंगीन और खुशगवार माहौल होता ईद के दिन उस घर का.

ऐसी ही खुशियों से खिलखिलाती एक ईद के दिन करीम साहब ने अपने दोस्त रशीद की चुलबुली और ठठाती बेटी हिना को देखा तो बस, देखते ही रह गए. उन्हें लगा कि उस नवेली कली को तो उन के आंगन में खिलना चाहिए, महकना चाहिए.

अगले दिन उन की बीवी आसिया अपने बेटे नदीम का पैगाम ले कर हिना के घर जा पहुंची. घर और वर दोनों ही अच्छे थे. हिना के घर में खुशी की लहर दौड़ गई. हिना ने एक पार्टी में नदीम को देखा हुआ था. लंबाचौड़ा गबरू जवान, साथ ही शरीफ और मिलनसार. नदीम उसे पहली ही नजर में भा सा गया था. इसलिए जब आसिया ने उस की मरजी जाननी चाही तो वह सिर्फ मुसकरा कर रह गई.

हिना के मांबाप जल्दी शादी नहीं करना चाहते थे. मगर दूसरे पक्ष ने इतनी जल्दी मचाई कि उन्हें उसी महीने हिना की शादी कर देनी पड़ी.

हिना दुखतकलीफ से दूर प्यार- मुहब्बत भरे माहौल में पलीबढ़ी थी और उस की ससुराल का माहौल भी कुछ ऐसा ही था. सुखसुविधाओं से भरा खातापीता घराना, बिलकुल मांबाप की तरह जान छिड़कने वाले सासससुर, सलमा और नगमा जैसी प्यारीप्यारी चाहने वाली ननदें. सलमा उस की हमउम्र थी. वे दोनों बिलकुल सहेलियों जैसी घुलमिल कर रहती थीं.

उन सब से अच्छा था नदीम, बेहद प्यारा और टूट कर चाहने वाला, हिना की मामूली सी मामूली तकलीफ पर तड़प उठने वाला. हिना को लगता था कि दुनिया की तमाम खुशियां उस के दामन में सिमट आई थीं. उस ने अपनी जिंदगी के जितने सुहाने ख्वाब देखे थे, वे सब के सब पूरे हो रहे थे.

किस तरह 3 महीने गुजर गए, उसे पता ही नहीं चला. हिना अपनी नई जिंदगी से इतनी संतुष्ट थी कि मायके को लगभग भूल सी गई थी. उस बीच वह केवल एक ही बार मायके गई थी, वह भी कुछ घंटों के लिए. मांबाप और भाईबहन के लाख रोकने पर भी वह नहीं रुकी. उसे नदीम के बिना सबकुछ फीकाफीका सा लगता था.

एक दिन हिना बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी कि नदीम बाहर से ही खुशी से चहकता हुआ घर में दाखिल हुआ. उस के हाथ में एक मोटा सा लिफाफा था.

‘बड़े खुश नजर आ रहे हैं. कुछ हमें भी बताएं?’ हिना ने पूछा.

‘मुबारक हो जानेमन, तुम्हारे घर में आने से बहारें आ गईं. अब तो हर रोज रोजे ईद हैं, और हर शब है शबबरात.’

पति के मुंह से तारीफ सुन कर हिना का चेहरा शर्म से सुर्ख हो गया. वह झेंप कर बोली, ‘मगर बात क्या हुई?’

‘मैं ने कोई साल भर पहले सऊदी अरब की एक बड़ी फर्म में मैनेजर के पद के लिए आवेदन किया था. मुझे नौकरी तो मिल गई थी, मगर कुछ कारणों से वीजा मिलने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मैं तो उम्मीद खो चुका था, लेकिन तुम्हारे आने पर अब यह वीजा भी आ गया है.’

‘वीजा आ गया है?’ हिना की आंखें हैरत से फैल गईं. वह समझ नहीं पाई थी कि उसे खुश होना चाहिए या दुखी.

‘हां, हां, वीजा आया है और अगले ही महीने मुझे सऊदी अरब जाना है. सिर्फ 3 साल की तो बात है.’

‘आप 3 साल के लिए मुझे छोड़ कर चले जाएंगे?’ हिना ने पूछा.

‘हां, जाना तो पड़ेगा ही.’

‘मगर क्यों जाना चाहते हैं आप वहां? यहां भी तो आप की अच्छी नौकरी है. किस चीज की कमी है हमारे पास?’

‘कमी? यहां सारी जिंदगी कमा कर भी तुम्हारे लिए न तो कार खरीद सकता हूं और न ही बंगला. सिर्फ 3 साल की तो बात है, फिर सारी जिंदगी ऐश करना.’

‘नहीं चाहिए मुझे कार. हमारे लिए स्कूटर ही काफी है. मुझे बंगला भी नहीं बनवाना है. मेरे लिए यही मकान बंगला है. बस, तुम मेरे पास रहो. मुझे छोड़ कर मत जाओ, नदीम,’ हिना वियोग की कल्पना ही से छटपटा कर सिसकने लगी.

‘पगली,’ नदीम उसे मनाने लगा. और बड़ी मिन्नतखुशामद के बाद आखिर उस ने हिना को राजी कर ही लिया.

हिना ने रोती आंखों और मुसकराते होंठों से नदीम को अलविदा किया.

अब तक दिन कैसे गुजरते थे, हिना को पता ही नहीं चलता था. मगर अब एकएक पल, एकएक सदी जैसा लगता था. ‘उफ, 3 साल, कैसे कटेंगे सदियों जितने लंबे ये दिन,’ हिना सोचसोच कर बौरा जाती थी.

और फिर ईद आ गई, उस की शादीशुदा जिंदगी की पहली ईद. रिवाज के मुताबिक उसे पहली ईद ससुराल में जा कर मनानी पड़ी. मगर न तो वह पहले जैसी उमंग थी, न ही खुशी. सास के आग्रह पर उस ने लाल रंग की बनारसी साड़ी पहनी जरूर. जेवर भी सारे के सारे पहने. मगर दिल था कि बुझा जा रहा था.

हिना बारबार सोचने लगती थी, ‘जब मैं दुलहन नहीं थी तो लोग मुझे ‘दुलहन’ कह कर छेड़ते थे. मगर आज जब मैं सचमुच दुलहन हूं तो कोई भी छेड़ने वाला मेरे पास नहीं. न तो हंसी- मजाक करने वाले बहनोई और न ही वह, दिल्लगी करने वाला दिलबर, जिस की मैं दुलहन हूं.’

कहते हैं वक्त अच्छा कटे या बुरा, जैसेतैसे कट ही जाता है. हिना का भी 3 साल का दौर गुजर गया. उस की शादी के बाद तीसरी ईद आ गई. उस ईद के बाद ही नदीम को आना था. हिना नदीम से मिलने की कल्पना ही से पुलकित हो उठती थी. नदीम का यह वादा था कि वह उसे ईद वाले दिन जरूर याद करेगा, चाहे और दिन याद करे या न करे. अगर ईद के दिन वह खुद नहीं आएगा तो उस का पैगाम जरूर आएगा. ससुराल वालों ने नदीम के जाने के बाद हिना को पहली बार इतना खुश देखा था. उसे खुश देख कर उन की खुशियां भी दोगुनी हो गईं.

ईद के दिन हिना को नदीम के पैगाम का इंतजार था. इंतजार खत्म हुआ, शाम होतेहोते नदीम का तार आ गया. उस में लिखा था :

‘मैं ने आने की सारी तैयारी कर ली थी. मगर फर्म मेरे अच्छे काम से इतनी खुश है कि उस ने दूसरी बार भी मुझे ही चुना. भला ऐसे सुनहरे मौके कहां मिलते हैं. इसे यों ही गंवाना ठीक नहीं है. उम्मीद है तुम मेरे इस फैसले को खुशीखुशी कबूल करोगी. मेरी फर्म यहां से काम खत्म कर के कनाडा जा रही है. छुट्टियां ले कर कनाडा से भारत आने की कोशिश करूंगा. तुम्हें ईद की बहुतबहुत मुबारकबाद.’       -नदीम.

हिना की आंखों में खुशी के जगमगाते चिराग बुझ गए और दुख की गंगायमुना बहने लगी.

नदीम की चिट्ठियां अकसर आती रहती थीं, जिन में वह हिना को मनाता- फुसलाता और दिलासा देता रहता था. एक चिट्ठी में नदीम ने अपने न आने का कारण बताते हुए लिखा था, ‘बेशक मैं छुट््टियां ले कर फर्म के खर्च पर साल में एक बार तो हवाई जहाज से भारत आ सकता हूं. मगर मैं ऐसा नहीं करूंगा. मैं पूरी वफादारी और निष्ठा से काम करूंगा, ताकि फर्म का विश्वासपात्र बना रहूं और ज्यादा से ज्यादा दौलत कमा सकूं. वह दौलत जिस से तुम वे खुशियां भी खरीद सको जो आज तुम्हारी नहीं हैं.’

नदीम के भेजे धन से हिना के ससुर ने नया बंगला खरीद लिया. कार भी आ गई. वे लोग पुराने घर से निकल कर नए बंगले में आ गए. हर साल घर आधुनिक सुखसुविधाओं और सजावट के सामान से भरता चला गया और हिना का दिल खुशियों और अरमानों से खाली होता गया.

वह कार, बंगले आदि को देखती तो उस का मन नफरत से भर उठता. उसे  वे चीजें अपनी सौतन लगतीं. उन्होंने ही तो उस से उस के महबूब शौहर को अलग कर दिया था.

उस दौरान हिना की बड़ी ननद सलमा की शादी तय हो गई थी. सलमा उस घर में थी तो उसे बड़ा सहारा मिलता था. वह उस के दर्द को समझती थी. उसे सांत्वना देती थी और कभीकभी भाई को जल्दी आने के लिए चिट््ठी लिख देती थी.

हिना जानती थी कि उन चिट्ठियों से कुछ नहीं होने वाला था, मगर फिर भी ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसी थी सलमा उस के लिए.

सलमा की शादी पर भी नदीम नहीं आ सका था. भाई की याद में रोती- कलपती सलमा हिना भाभी से ढेरों दुआएं लेती हुई अपनी ससुराल रुखसत हो गई थी.

शादी के साल भर बाद ही सलमा की गोद में गोलमटोल नन्ही सी बेटी आ गई. हिना को पहली बार अपनी महरूमी का एहसास सताने लगा था. उसे लगा था कि वह एक अधूरी औरत है.

नदीम को गए छठा साल होने वाला था. अगले दिन ईद थी. अभी हिना ने नदीम के ईद वाले पैगाम का इंतजार शुरू भी नहीं किया था कि डाकिया नदीम का पत्र दे गया. हिना ने धड़कते दिल से उस पत्र को खोला और बेसब्री से पढ़ने लगी. जैसेजैसे वह पत्र पढ़ती गई, उस का चेहरा दुख से स्याह होता चला गया. इस बार हिना का साथ उस के आंसुओं ने भी नहीं दिया. अभी वह पत्र पूरा भी नहीं कर पाई थी कि अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी को गई नगमा लौट आई.

हिना ने झट पत्र तह कर के ब्लाउज में छिपा लिया.

‘‘भाभी, भाभी,’’ नगमा बाहर ही से पुकारती हुई खुशी से चहकती आई, ‘‘भाभी, आप अभी तक यहीं बैठी हैं, मैं बाजार से भी घूम आई. देखिए तो क्या- क्या लाई हूं.’’

नगमा एकएक चीज हिना को बड़े शौक से दिखाने लगी.

शाम को 29वां रोजा खोलने का इंतजाम छत पर किया गया. यह हर साल का नियम था, ताकि लोगों को इफतारी (रोजा खोलने के व्यंजन व पेय) छोड़ कर चांद देखने के लिए छत पर न जाना पड़े.

अभी लोगों ने रोजा खोल कर रस के गिलास होंठों से लगाए ही थे कि पश्चिमी क्षितिज की तरफ देखते हुए नगमा खुशी से चीख पड़ी, ‘‘वह देखिए, ईद का चांद निकल आया.’’

सभी खानापीना भूल कर चांद देखने लगे. ईद का चांद रोजरोज कहां नजर आता है. उसे देखने का मौका तो साल में एक बार ही मिलता है.

हिना ने भी दुखते दिल और भीगी आंखों से देखा. पतला और बारीक सा झिलमिल चांद उसे भी नजर आया. चांद देख कर उस के दिल में हूक सी उठी और उस का मन हुआ कि वह फूटफूट कर रो पड़े मगर वह अपने आंसू छिपाने को दौड़ कर छत से नीचे उतर आई और अपने कमरे में बंद हो गई.

उस ने आंखों से छलक आए आंसुओं को पोंछ लिया, फिर उबल आने वाले आंसुओं को जबरदस्ती पीते हुए ब्लाउज से नदीम का खत निकाल लिया और उसे पढ़ने लगी. उस की निगाहें पूरी इबारत से फिसलती हुई इन पंक्तियों पर अटक गईं :

‘‘हिना, असल में शमा सऊदी अरब में ही मुझ से टकरा गई थी. वह वहां डाक्टर की हैसियत से काम कर रही थी. हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. फिर ऐसा कुछ हुआ कि हम शादी पर मजबूर हो गए.

‘‘शमा के कहने पर ही मैं कनाडा आ गया. शमा और उस के मांबाप कनाडा के नागरिक हैं. अब मुझे भी यहां की नागरिकता मिल गई है और मैं शायद ही कभी भारत आऊं. वहां क्या रखा है धूल, गंदगी और गरीबी के सिवा.

‘‘तुम कहोगी तो मैं यहां से तुम्हें तलाकनामा भिजवा दूंगा. अगर तुम तलाक न लेना चाहो, जैसी तुम्हारे खानदान की रिवायत है तो मैं तुम्हें यहां से काफी दौलत भेजता रहूंगा. तुम मेरी पहली बीवी की हैसियत से उस दौलत से…’’

हिना उस से आगे न पढ़ सकी. वह ठंडी सांस ले कर खिड़की के पास आ गई और पश्चिमी क्षितिज पर ईद के चांद को तलाशने लगी. लेकिन वह तो झलक दिखा कर गायब हो चुका था, ठीक नदीम की तरह…

हिना की आंखों में बहुत देर से रुके आंसू दर्द बन कर उबले तो उबलते ही चले गए. इतने कि उन में हिना का अस्तित्व भी डूबता चला गया और उस का हर अरमान, हर सपना दर्द बन कर रह गया.

Best Hindi Stories : पासा पलट गया

Best Hindi Stories :  आभा गोरे रंग की एक खूबसूरत लड़की थी. उस का कद लंबा, बदन सुडौल और आंखें बड़ीबड़ी व कजरारी थीं. उस की आंखों में कुछ ऐसा जादू था कि उसे जो देखता उस की ओर खिंचा चला जाता. विक्रम भी पहली ही नजर में उस की ओर खिंच गया था.

उन दिनों विक्रम अपने मामा के घर आया हुआ था. उस के मामा का घर पटना से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर एक गांव में था.

विक्रम तेजतर्रार लड़का था. वह बातें भी बहुत अच्छी करता था. खूबसूरत लड़कियों को पहले तो वह अपने प्रेमजाल में फंसाता था, फिर उन्हें नौकरी दिलाने का लालच दे कर हुस्न और जवानी के रसिया लोगों के सामने पेश कर पैसे कमाता था. इसी प्लान के तहत उस ने आभा से मेलजोल बढ़ाया था.

उस दिन जब आभा विक्रम से मिली तो बेहद उदास थी. विक्रम कई पलों तक उस के उदास चेहरे को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘क्या बात है आभा, आज बड़ी उदास लग रही हो?’’

‘‘हां,’’ आभा बोली, ‘‘विक्रम, मैं अब आगे पढ़ नहीं पाऊंगी और अगर पढ़ नहीं पाई तो अपना सपना पूरा नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘कैसा सपना?’’

‘‘पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होने का सपना ताकि अपने मांबाप को गरीबी से छुटकारा दिला सकूं.’’

‘‘बस, इतनी सी बात है.’’

‘‘तुम बस इसे इतनी सी ही बात समझते हो?’’

‘‘और नहीं तो क्या…’’ विक्रम बोला, ‘‘तुम पढ़लिख कर नौकरी ही तो करना चाहती हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘वह तो तुम अब भी कर सकती हो.’’

‘‘लेकिन, भला कम पढ़ीलिखी लड़की को नौकरी कौन देगा? मैं सिर्फ इंटर पास हूं,’’ आभा बोली.

‘‘मैं कई सालों से पटना की एक कंपनी में काम करता हूं, इस नाते मैनेजर से मेरी अच्छी जानपहचान है. अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारे बारे में उस से बात कर सकता हूं.’’

‘‘तो फिर करो न…?’’ आभा बोली, ‘‘अगर तुम्हारे चलते मुझे नौकरी मिल गई तो मैं हमेशा तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी.’’

आभा विक्रम के साथ पटना आ गई थी. एक होटल के कमरे में विक्रम ने एक आदमी से मिलवाया. वह तकरीबन 45 साल का था.

जब विक्रम ने उस से आभा का परिचय कराया तो वह कई पलों तक उसे घूरता रहा, फिर अपने पलंग के सामने पड़ी कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

आभा ने एक नजर कुरसी के पास खड़े विक्रम को देखा, फिर कुरसी पर बैठ गई.

उस के बैठते ही विक्रम उस आदमी से बोला, ‘‘सर, आप आभा से जो कुछ पूछना चाहते हैं, पूछिए. मैं थोड़ी देर में आता हूं,’’ कहने के बाद विक्रम आभा को बोलने का कोई मौका दिए बिना जल्दी से कमरे से निकल गया.

उसे इस तरह कमरे से जाते देख आभा पलभर को बौखलाई, फिर अपनेआप को संभालते हुए तथाकथित मैनेजर को देखा.

उसे अपनी ओर निहारता देख वह बोला, ‘‘तुम मुझे अपने सर्टिफिकेट दिखाओ.’’

आभा ने उसे अपने सर्टिफिकेट दिखाए. वह कुछ देर तक उन्हें देखने का दिखावा करता रहा, फिर बोला, ‘‘तुम्हारी पढ़ाईलिखाई तो बहुत कम है. इतनी कम क्वालिफिकेशन पर आजकल नौकरी मिलना मुश्किल है.’’

‘‘पर, विक्रम ने तो कहा था कि इस क्वालिफिकेशन पर मुझे यहां नौकरी मिल जाएगी.’’

‘‘ठीक है, मैं विक्रम के कहने पर तुम्हें अपनी फर्म में नौकरी दे तो दूंगा, पर बदले में तुम मुझे क्या दोगी?’’ कहते हुए उस ने अपनी नजरें आभा के खूबसूरत चेहरे पर टिका दीं.

‘‘मैं भला आप को क्या दे सकती हूं?’’ आभा उस की आंखों के भावों से घबराते हुए बोली.

‘‘दे सकती हो, अगर चाहो तो…’’

‘‘क्या…?’’

‘‘अपनी यह खूबसूरत जवानी.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हैं आप?’’ आभा झटके से अपनी कुरसी से उठते हुए बोली, ‘‘मैं यहां नौकरी करने आई हूं, अपनी जवानी का सौदा करने नहीं.’’

‘‘नौकरी तो तुम्हें मिलेगी, पर बदले में मुझे तुम्हारा यह खूबसूरत जिस्म चाहिए,’’ कहता हुआ वह आदमी पलंग से उतर कर आभा के करीब आ गया. वह पलभर तक भूखी नजरों से उसे घूरता रहा, फिर उस के कंधे पर हाथ रख दिया.

उस आदमी की इस हरकत से आभा पलभर को बौखलाई, फिर उस के जिस्म में गुस्से और बेइज्जती की लहर दौड़ गई. वह बोली, ‘‘मुझे नौकरी चाहिए, पर अपने जिस्म की कीमत पर नहीं,’’ कहते हुए आभा दरवाजे की ओर लपकी.

पर दरवाजे पर पहुंच कर उसे झटका लगा. दरवाजा बाहर से बंद था. आभा दरवाजा खोलने की कोशिश करती रही, फिर पलट कर देखा.

‘‘अब यह दरवाजा तभी खुलेगा जब मैं चाहूंगा,’’ वह आदमी अपने होंठों पर एक कुटिल मुसकान बिखेरता हुआ बोला, ‘‘और मैं तब तक ऐसा नहीं चाहूंगा जब तक तुम मुझे खुश नहीं कर दोगी.’’

उस आदमी का यह इरादा देख कर आभा मन ही मन कांप उठी. वह डरी हुई आवाज में बोली, ‘‘देखो, तुम जैसा समझते हो, मैं वैसी लड़की नहीं हूं. मैं गरीब जरूर हूं, पर अपनी इज्जत का सौदा नहीं कर सकती. प्लीज, दरवाजा खोलो और मुझे जाने दो.’’

‘‘हाथ आए शिकार को मैं यों ही कैसे जाने दूं…’’ बुरी नजरों से आभा के उभारों को घूरता हुआ वह बोला, ‘‘तुम्हारी जवानी ने मेरे बदन में आग लगा दी है और मैं जब तक तुम्हारे तन से लिपट कर यह आग नहीं बुझा लेता, तुम्हें जाने नहीं दे सकता,’’ कहते हुए वह झपट कर आगे बढ़ा, फिर आभा को अपनी बांहों में दबोच लिया.

अगले ही पल वह आभा को बुरी तरह चूमसहला रहा था. साथ ही, वह उस के कपड़े भी नोच रहा था. ऐसे में जब आभा का अधनंगा बदन उस के सामने आया तो वह बावला हो उठा. उस ने आभा को गोद में उठा कर पलंग पर डाला, फिर उस पर सवार हो गया.

आभा रोतीछटपटाती रही, पर उस ने उसे तभी छोड़ा जब अपनी मनमानी कर ली. ऐसा होते ही वह हांफता हुआ आभा पर से उतर गया.

आभा कई पलों तक उसे नफरत से घूरती रही, ‘‘तू ने मुझे बरबाद कर डाला. पर याद रख, मैं इस की सजा दिला कर रहूंगी. तेरी काली करतूतों का भंडाफोड़ पुलिस के सामने करूंगी.’’

‘‘तू मुझे सजा दिलाएगी, पर मैं तुझे इस लायक छोड़ूंगा ही नहीं,’’ कहते हुए उस ने झपट कर आभा की गरदन पकड़ ली और उसे दबाने लगा.

आभा उस के चंगुल से छूटने की भरपूर कोशिश कर रही थी, पर थोड़ी ही देर में उसे यह अहसास हो गया कि वह उस से पार नहीं पा सकती और वह उसे गला घोंट कर मार डालेगा.

ऐसा अहसास करते ही उस ने अपने हाथपैर पटकने बंद कर दिए, अपनी सांसें रोक लीं और शरीर को शांत कर लिया.

जब तथाकथित मैनेजर को इस बात का अहसास हुआ तो उस ने आभा की गरदन छोड़ दी और फटीफटी आंखों से आभा के शरीर को देखने लगा. उसे लगा कि आभा मर चुकी है. ऐसा लगते ही उस के चेहरे से बदहवासी और खौफ टपकने लगा.

तभी दरवाजा खुला और विक्रम कमरे में आया. ऐसे में जैसे ही उस की नजर आभा पर पड़ी, उस के मुंह से घुटीघुटी सी चीख निकल गई. वह कांपती हुई आवाज में बोला, ‘‘यह क्या किया आप ने? इसे तो जान से मार डाला आप ने?’’

‘‘नहीं,’’ वह आदमी डरी हुई आवाज में बोला, ‘‘मैं इसे मारना नहीं चाहता था, पर यह पुलिस में जाने की धमकी देने लगी तो मैं ने इस का गला दबा दिया.’’

‘‘और यह मर गई…’’ विक्रम उसे घूरता हुआ बोला.

‘‘जरा सोचिए, मगर इस बात का पता होटल वालों को लगा तो वह पुलिस बुला लेंगे. पुलिस आप को पकड़ कर ले जाएगी और आप को फांसी की सजा होगी.’’

‘‘नहीं…’’ वह आदमी डरी हुई आवाज में बोला, ‘‘ऐसा कभी नहीं होना चाहिए.’’

‘‘वह तो तभी होगा जब चुपचाप इस लाश को ठिकाने लगा दिया जाए.’’

‘‘तो लगाओ,’’ वह आदमी बोला.

‘‘यह इतना आसान नहीं है,’’ कहते हुए विक्रम की आंखों में लालच की चमक उभरी, ‘‘इस में पुलिस में फंसने का खतरा है और कोई यह खतरा यों ही नहीं लेता.’’

‘‘फिर…?’’

‘‘कीमत लगेगी इस की.’’

‘‘कितनी?’’

‘‘5 लाख?’’

‘‘5 लाख…? यह तो बहुत ज्यादा रकम है.’’

‘‘आप की जान से ज्यादा तो नहीं,’’ विक्रम बोला, ‘‘और अगर आप को कीमत ज्यादा लग रही है तो आप खुद इसे ठिकाने लगा दीजिए, मैं तो चला,’’ कहते हुए विक्रम दरवाजे की ओर बढ़ा.

‘‘अरे नहीं…’’ वह हड़बड़ाते हुए बोला, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हें 5 लाख रुपए दूंगा, पर इस मामले में तुम्हारी कोई मदद नहीं करूंगा. तुम्हें सबकुछ अकेले ही करना होगा.’’ड्टविक्रम ने पलभर सोचा, फिर हां में सिर हिलाता हुआ बोला, ‘‘कर लूंगा, पर पैसे…?’’

‘‘काम होते ही पैसे मिल जाएंगे.’’

‘‘पर याद रखिए, अगर धोखा देने की कोशिश की तो मैं सीधे पुलिस के पास चला जाऊंगा.’’

‘‘मैं ऐसा नहीं करूंगा,’’ कहते हुए वह कमरे से निकल गया.

इधर वह कमरे से निकला और उधर उस ने बेसुध पड़ी आभा को देखा. वह उसे ठिकाने लगाने के बारे में सोच ही रहा था कि आभा उठ बैठी.

अपने सामने आभा को खड़ी देख विक्रम की आंखें हैरानी से फटती चली गईं. उस के मुंह से हैरत भरी आवाज फूटी, ‘‘आभा, तुम जिंदा हो?’’

‘‘हां,’’ आभा बोली, ‘‘पर, अब तुम जिंदा नहीं रहोगे. तुम भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का झांसा दे कर जिस्म के सौदागरों को सौंपते हो. मैं तुम्हारी यह करतूत लोगों को बतलाऊंगी, तुम्हारी शिकायत पुलिस में करूंगी.’’

आभा का यह रूप देख कर पहले तो विक्रम बौखलाया, फिर उस के सामने गिड़गिड़ाता हुआ बोला, ‘‘ऐसा मत करना.’’

‘‘क्यों न करूं मैं ऐसा, तुम ने मेरी जिंदगी बरबाद कर दी और कहते हो कि मैं ऐसा न करूं.’’

‘‘क्योंकि, तुम्हारे ऐसा न करने से मेरे हाथ एक मोटी रकम लगेगी जिस में से आधी रकम मैं तुम्हें दे दूंगा.’’

‘‘मतलब…?’’

विक्रम ने उसे पूरी बात बताई.

‘‘सच कह रहे हो तुम?’’

‘‘बिलकुल.’’

‘‘अपनी बात से तुम पलट तो नहीं जाओगे?’’

‘‘ऐसे में तुम बेशक पुलिस में मेरी शिकायत कर देना.’’

‘‘अगर तुम ने मुझे धोखा नहीं दिया तो मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो मैं ऐसा करूंगी.’’

तीसरे दिन आभा के हाथ में ढाई लाख की मोटी रकम विक्रम ने ला कर रख दी. उस ने एक चमकती नजर इन नोटों पर डाली, फिर विक्रम की आंखों में झांकते हुए बोली, ‘‘अगर दोबारा कोई ऐसा ही मोटा मुरगा फंसे तो मुझ से कहना. मैं फिर से यह सब करने को तैयार हो जाऊंगी,’’ कहते हुए आभा मुसकराई.

‘‘जरूर,’’ कहते हुए विक्रम के होंठों पर भी एक दिलफरेब मुसकान खिल उठी.

Hindi Moral Tales : कार पूल – कौनसी नादानी कर बैठी थी श्रेया

Hindi Moral Tales :  अर्पित अहमदाबाद एक संभ्रांत परिवार का लड़का था. लड़का क्या, नवयुवक था. सरकारी नौकरी करते हुए 6 माह हो चुके थे. उस के पास स्वयं की कार थी, लेकिन वह पूल वाली कैब से औफिस जाना पसंद करता था. शहर में कैब की सर्विस बहुत अच्छी थी.

अर्पित खुशमिजाज इनसान था. कैब में सहयात्रियों और कैब चालक से बात करना उस को अच्छा लगता था.

उस दिन भी वह औफिस से घर वापसी आते हुए रोज की तरह शेयरिंग वाली कैब से आ रहा था. रास्ते में श्रेया नाम की एक और सवारी उस कैब में सवार होनी थी.

अर्पित की आदत थी कि शेयरिंग कैब में वह पीछे की सीट पर जिस तरफ बैठा होता था, उस तरफ का गेट लौक कर देता था. उस दिन भी ऐसा ही था. श्रेया को लेने जब कैब पहुंची, तो उस ने अर्पित वाली तरफ के गेट को खोल कर बैठने की कोशिश की, पर गेट लौक होने के कारण उस का गेट खोलने में असफल रही श्रेया झल्ला कर कार की दूसरी तरफ से गेट खोल कर बैठ गई. युद्ध की स्थिति तुरंत ही बन गई और सारे रास्ते अर्पित और श्रेया लड़ते हुए गए.

घर आने पर अर्पित उतर गया. श्रेया के लिए ये वाकिआ बरदाश्त के बाहर था. असल में श्रेया को अपने लड़की होने का बहुत गुरूर था. आज तक उस ने लड़को को अपने आसपास चक्कर काटते ही देखा था. कोई लड़का इतनी बुरी तरह से उस से पहली बार उलझा था. श्रेया के तनबदन में आग लगी हुई थी.

अर्पित का घर श्रेया ने उस दिन देख ही लिया था. नामपते की जानकारी से श्रेया ने अर्पित के बारे में सबकुछ पता कर लिया और तीसरे ही दिन अर्पित के घर से 50 मीटर दूर आ कर लगभग उसी समय के अंदाजे के साथ कैब बुकिंग का प्रयास किया. जब अर्पित सुबह औफिस के लिए निकलता था.

श्रेया का भाग्य कहिए या अर्पित का दुर्भाग्य, श्रेया को अर्पित वाली कैब में ही बुकिंग मिल गई, एक कुटिल मुसकान कैब वाले एप पर ‘‘अर्पित के साथ पूल्ड‘‘ देख कर श्रेया के चेहरे पर तैर गई.

जिस तरफ श्रेया खड़ी थी, उसी तरफ कैब आती होने के कारण श्रेया को पिक करती हुई कैब अर्पित के घर के सामने रुकी. अर्पित बेखयाली में ड्राइवर के बगल वाली सीट पर सवार हो गया, तभी उसे पीछे से खनकती हुई आवाज आई, ‘‘कैसे हो अर्पितजी ?”

अर्पित ने चैंकते हुए पीछे मुड़ कर देखा, तो श्रेया सकपका गई, क्योंकि 3 दिन पुराना वाकिआ उसे याद आ गया लेकिन आज श्रेया के बात की शुरुआत करने का अंदाज ही अलग था, सो धीरेधीरे श्रेया और अर्पित की बातचीत दोस्ती में बदल गई.

दोनों का गंतव्य अभी बहुत दूर था. अर्पित कैब को रुकवा कर पीछे वाली सीट पर श्रेया के बगल में जा कर बैठ गया. एकदूसरे के फोन नंबर लिएदिए गए. अर्पित अपना औफिस आने पर उतर गया और श्रेया ने गरमजोशी से हाथ मिला कर उस को विदा किया.

अर्पित के मानो पंख लग गए. औफिस में अर्पित सारे दिन चहकाचहका रहा. दोपहर में श्रेया का फोन आया, तो अर्पित का तनबदन झूम उठा. श्रेया ने उस को लंच साथ करने का प्रस्ताव रखा, जो उस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया.

दोपहर तकरीबन 1 बजे दोनों अर्पित के औफिस से थोड़ी दूर एक रेस्तरां में मिले और साथ लंच लिया.

अब तो यह लगभग रोज का ही किस्सा बन गया. औफिस के बाद शाम को भी दोनों मिलने लगे और साथसाथ घूमतेफिरते दोनों के बीच में जैसे प्यार के अंकुर फूट के खिलने लगे.

एक दिन श्रेया ने अंकुर को दोपहर में फोन कर के बताया कि शाम तक वह घर में अकेली है और अगर अर्पित उस के घर आ जाए, तो दोनों ‘अच्छा समय‘ साथ बिता सकते हैं. अर्पित के सिर पर प्यार का भूत पूरी तरह से चढ़ा हुआ था. अपने बौस को तबीयत खराब का बहाना बना कर अर्पित श्रेया के घर के लिए निकल पड़ा.

आने वाले किसी भी तूफान से बेखबर, मस्ती और वासना में चूर अर्पित श्रेया के घर पहुंचा और डोरबैल बजाई. एक मादक अंगड़ाई लेते हुए श्रेया ने अपने घर का दरवाजा खोला.

श्रेया के गीले और खुले बाल और नाइट गाउन में ढंका बदन देख कर अर्पित की खुमारी और परवान चढ़ गई. श्रेया ने अर्पित को अंदर ले कर गेट बंद कर दिया.

कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के आगोश में आ गए और एक प्यार भरे रास्ते पर निकल पड़े.

अर्पित ने श्रेया के बदन से कपड़े जुदा करने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई. उस ने श्रेया के पूरे बदन पर मादकता से फोरप्ले करते हुए समूचे जिस्म को प्यार से सहलाया.

धीरेधीरे अब अर्पित श्रेया के बदन से कपड़े जुदा करने लगा. एकाएक ही श्रेया जोरजोर से चिल्लाने लगी. अर्पित को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह चिल्ला क्यों रही है. कुछ ही पलों में अड़ोसपड़ोस के बहुत से लोग जमा हो गए और श्रेया के घर के अंदर आ गए.

श्रेया ने चुपचाप मेन गेट पहले ही खोल दिया था. श्रेया ने सब को बताया कि अर्पित जबरदस्ती घर में घुस कर उस का बलात्कार करने की कोशिश कर रहा था. उन मे से एक आदमी ने पुलिस को फोन कर दिया. ये सब इतनी जल्दी हुआ कि अर्पित को सोचनेसमझने का मौका नहीं मिला. थोड़ी ही देर बाद अर्पित सलाखों के पीछे था.

श्रेया ने उस दिन की छोटी सी लड़ाई का विकराल बदला ले डाला था.

जेल में 48 घंटे बीतने के साथ ही अर्पित को नौकरी से सस्पैंड किया जा चुका था. अर्पित को अपना पूरा भविष्य अंधकरमय नजर आने लगा और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.

कोर्ट में कई बार पेश किए जाने के उपरांत आज जज ने उस के लिए सजा मुकर्रर करने की तारीख रखी थी. अंतिम सुनवाई के उपरांत जज साहिबा जैसे ही अपना फैसला सुनाने को हुईं, अचानक ही इंस्पैक्टर प्रकाश ने कोर्ट मे प्रवेश करते हुए जज साहिबा से एक सुबूत पेश करने की इजाजत मांगी. मामला संगीन था और जज साहिबा बड़ी सजा सुनाने के मूड में थीं, इसलिए उन्होंने इंस्पैक्टर प्रकाश को अनुमति दे दी.

इंस्पैक्टर प्रकाश के साथ अर्पित का सहकर्मी विकास था और विकास के मोबाइल में अर्पित और श्रेया के बीच हुए प्रेमालाप की और श्रेया के मादक आहें भरने और अर्पित की वासना को और भड़काने के लिए प्रेरित करने की समूची औडियो रिकौर्डिंग मौजूद थी. दरअसल, जिस समय दोनों का प्रेमालाप शुरू होने वाला था, उसी समय विकास ने अर्पित की तबीयत पूछने के लिए उस को फोन मिलाया था और अर्पित ने गलती से फोन काटने के बजाय रिसीव कर के बेड के एक तरफ रख दिया था. विकास ने सारी काल रिकौर्ड कर ली थी.

श्रेया और अर्पित के बीच हुआ सारा वार्तालाप और श्रेया की वासना भरी आहें व अर्पित को बारबार उकसाने का प्रमाण उस सारी रिकौर्डिंग से सर्वविदित हो गया.

अदालत के निर्णय लिए जाने वाले दिन पूर्व में श्रेया द्वारा रूपजाल में फंसाए हुए अनिल ने भी अदालत में श्रेया के खिलाफ बयान दिया, जिस से श्रेया का ऐयाश होना और पुख्ता हो गया.

अदालत ने तमाम सुबूतों को मद्देनजर रखते हुए यह संज्ञान लिया कि श्रेया एक ऐयाश लड़की थी और भोलेभाले नौजवानों को अपने रूपजाल में फंसा कर उन के पैसों पर मौजमस्ती और ऐश करती थी. एक बेगुनाह नौजवान की जिंदगी बरबाद होने से बच गई. श्रेया को चरित्रहीनता और झूठे आरोप लगा कर युवक को बरबाद करने का प्रयास करने का आरोपी करार देते हुए जज ने जम कर फटकार लगाई. जज ने श्रेया को भविष्य में कुछ भी गलत करने पर सख्त सजा की चेतावनी देते हुए अर्पित को बाइज्जत बरी करने के आदेश दिए.

अर्पित ने मन ही मन ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करते हुए भविष्य में एक सादगी भरी जिंदगी जीने का निर्णय लिया.

लेखक- पवन सिंघल

Best Hindi Stories : एस्कॉर्ट और साधु

Best Hindi Stories :  मानस डाइनिंग टेबल पर बैठा हुआ नाश्ते का इंतजार कर रहा था, पर विद्या की पूजा थी कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. घर के मंदिर से घंटी की आवाजें लगातार मानस के कानों से टकरा रही थीं, पर इन सब से मानस को कोफ्त हो रही थी.

‘‘लगता है, आज भी औफिस की कैंटीन में ही नाश्ता करने पड़ेगा… और फिर मेरे लिए तो यह रोज का ही किस्सा है,’’ बुदबुदाते हुए उठा था मानस.

रोज बाहर नाश्ता करना मानस के रूटीन में आ गया था. इस सब की वजह उस की पत्नी विद्या ही थी. वह पूजापाठ में इतनी तल्लीन रहती कि सवेरे जल्दी उठने के बाद भी वह अपने पति को नाश्ता नहीं दे पाती थी.

विद्या का मानना था कि पूजापाठ इनसान को जीवन में जरूर करना चाहिए, क्योंकि इस से उस की अगली जिंदगी तय होती है और अगले जन्म में इनसान को पैसा, गाड़ी, मकान वगैरह का भरपूर सुख मिलता है.

ऐसा नहीं था कि विद्या कोई अनपढ़गंवार थी, बाकायदा उस ने यूनिवर्सिटी से बीए तक की पढ़ाई की थी, पर अपने घर के माहौल का उस पर ऐसा गहरा असर पड़ा था, जिस ने उसे धर्मभीरु बना दिया था.

अपने और मानस के कपड़ों के रंग के चुनाव विद्या दिन के मुताबिक करती थी, मसलन सोमवार को सफेद, मंगलवार को लाल से ले कर शनिवार को काले कपड़े पहनने तक के टाइम टेबल के मुताबिक ही चलती थी.

इतने तक तो कोई बात नहीं थी, मानस सहन कर लेता था, पर असली समस्या जब आती, जब मानस औफिस के काम से थका हुआ घर आता और रात को अपनी पत्नी से उस की देह की डिमांड कर के अपनी थकान मिटाना चाहता था, पर अकसर विद्या का कोई न कोई व्रत होता, कहीं एकादशी या कहीं किसी मन्नत पूरी करने के लिए व्रत या कहीं कोई साप्ताहिक व्रत.

अगर जानेअनजाने में मानस का हाथ भी उसे छू जाता, तो विद्या तुरंत ही जा कर गंगाजल पी लेती थी. कोई भी मर्द अपने पेट की आग को तो मार सकता है, पर अगर कई दिनों तक सैक्स का सुख नहीं मिले तो उसे अपने जिस्म की गरमी को सहन कर पाना उस के लिए नामुमकिन सा हो जाता है. ऐसा ही हाल मानस का था. विद्या के बहुत ज्यादा धार्मिक होने के चलते वह अनदेखा सा महसूस करता था.

प्यार में साथ नहीं मिलने पर कभीकभी बेचारा मानस अपने शरीर के उफान को दबा कर रह जाता और रातभर करवटें बदलता रहता. लिहाजा, अगले दिन औफिस में भी वह सुस्त रहता और कभीकभी काम लेट हो जाने के चलते उसे डांट भी पड़ जाती थी.

औफिस के बाकी साथियों का चेहरा जहां खिला हुआ रहता था, वहीं मानस का चेहरा बुझाबुझा सा रहता था.

‘‘क्या बात है मानस? आजकल तुम बुझेबुझे से रहते हो?’’ मानस के साथ काम करने वाली लिली ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं लिली… बस थोड़ी घरेलू समस्याएं हैं… इसीलिए थोड़ा परेशान रहता हूं.’’

‘‘कोई बात नहीं, धीरेधीरे सब सही हो जाएगा,’’ लिली ने कहा.

लिली का इस तरह से मानस के बारे में हालचाल पूछना, मानस को बहुत अच्छा लगा था.

अगले दिन औफिस से छुट्टी के समय मानस के मोबाइल पर लिली का फोन आया.

‘‘अरे मानस… अगर तुम मुझे लिफ्ट दे दो, तो मुझे घर जाने में आसानी रहेगी… दरअसल, मेरी स्कूटी पंक्चर हो गई है.’’

‘‘क्यों नहीं… बाहर आ जाओ… मैं तो पार्किंग स्टैंड पर ही खड़ा हूं.’’

मानस जब लिली को घर छोड़ने जा रहा था, तब लिली का साथ उसे बहुत अच्छा लग रहा था, ‘‘आओ… मानस अंदर आओ…

एकएक कप चाय हो जाए,’’ लिली ने मुसकरा कर जब चाय का औफर दिया, तो मानस उस के साथ अंदर ड्राइंगरूम में आ गया.

ड्राइंगरूम में लिली का पति पहले से बैठा हुआ था.

‘‘इन से मिलो… ये हैं मेरे पति राकेश. और राकेश, ये हैं मेरे औफिस के साथी मानस गोस्वामी,’’ लिली ने एकदूसरे का परिचय कराया.

‘‘आप लोग बैठो… मैं आप लोगों के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर लिली चाय बनाने चली गई और मानस और राकेश बैठ कर बातें करते रहे.

कुछ देर बाद मानस ने लिली के घर से विदा ली. वापसी में वह सोच रहा था कि लिली का पति कितना खुशकिस्मत है, जो इतनी मौडर्न और खूबसूरत बीवी मिली है और एक मैं हूं, औफिस से घर आओ तो भी मैडम पूजापाठ में या सत्संग में बिजी होती हैं, रात में भी उस के ध्यान करने का समय होता है… मेरी भी कोई जिंदगी है…’’

मानस ने औफिस में भी लोगों को अपनी पत्नी की तारीफ करते हुए सुना था कि कैसे उन की पत्नियां उन के खानेपीने का खयाल रखती हैं और खुद भी सजसंवर कर रूमानी मूड में रहती हैं.

जब मर्द को घर से प्यार नहीं मिलता, तब वह बाहर की दुनिया में प्यार तलाशता है. ऐसा ही हाल मानस का हो गया था और पिछले कुछ दिनों में लिली ने जो उस से निकटता बढ़ाई थी, उस से तो मानस को यह ही महसूस होने लगा था कि लिली उस से प्यार करती है.

‘पर भला वह क्यों मुझ से प्यार करने लगी… लिली के पास तो खुद ही एक  हैंडसम पति है,’ अपनेआप से बात करता हुआ मानस सोच रहा था.

‘तो क्या हुआ… आजकल तो नाजायज संबंध बनाना आम बात है और फिर लिली भी तो मुझ से निकटता दिखाती है. अगर मेरे हाथ उस के नाजुक अंगों से छू भी जाएं, तो भी वह बुरा नहीं मानती है… यह प्यार ही तो है… अब मैं इस वैलेंटाइन डे पर लिली से अपने प्यार का इजहार कर ही दूंगा,’ मन ही मन सोच रहा था मानस और जब वैलेंटाइन डे आया, तो एक प्यार भरा मैसेज टाइप कर के मानस ने लिली के मोबाइल पर भेज दिया और लिली के जवाब का इंतजार करने लगा.

जवाब तो नहीं आया, उलटा लिली जरूर आई और सब औफिस वालों के सामने मानस को खूब खरीखोटी सुनाई.

‘‘मैं तो आप को शरीफ आदमी समझ कर आप से बात करने लगी थी… मुझे क्या पता था कि आप किसी और ताक में हैं… आज के बाद मेरी तरफ नजर उठा कर भी मत देखिएगा, नहीं तो ठीक नहीं होगा,’’ गुस्से में लाल होती हुई लिली ने कहा.

जब मानस ने बहाना बनाया कि गलती से किसी दूसरे का मैसेज लिली पर फौरवर्ड हो गया था, तब जा कर बात शांत हुई थी.

उसी औफिस में मानस और लिली का एक कौमन दोस्त रहता था. विजय नाम का वह इनसान भी कभी लिली से प्यार किया करता था, पर लिली की शादी हो जाने के बाद से उस का लिली से अफेयर चलाने का कोई भी चांस खत्म हो गया था.

लिली को इस तरह से मानस द्वारा मैसेज किया जाना विजय को रास नहीं आया और उस ने मन ही मन मानस को सबक सिखाने की बात सोची.

औफिस के बाद विजय ने मानस का हमराज बनना चाहा कि क्यों मानस ने ऐसी हरकत की है, तो मानस गुस्से से फट गया, ‘‘अरे यार, किसी चीज की भी हद होती है…

अब भूखा आदमी अगर खाना ढूंढ़ने बाहर जाए, तो भला इस में क्या गलत है, मुझे घर में शारीरिक संतुष्टि नहीं मिलती, इसलिए मुझे लगा कि बाहर कहीं दांव आजमाना चाहिए… इसीलिए भावनाओं में बह गया मैं और उसे मैसेज कर बैठा.’’

‘‘यार, मेरी पत्नी भी कुछ इसी तरह की थी… आएदिन नखरे किया करती थी… मैं भी परेशान हुआ… फिर मैं ने इस समस्या का एक हल निकाल लिया,’’ तिरछी मुसकराहट के साथ विजय कह रहा था.

‘‘हल निकाला… क्या बीवी ही बदल दी तू ने क्या?’’ मानस ने पूछा.

‘‘बीवी नहीं बदली… पर खुद को बदल लिया…’’ विजय ने मोबाइल पर एक फोन नंबर दिखाते हुए कहा.

‘यह एक मसाज सैंटर चलाने वाले दलाल का नंबर है… जब मुझे मजा करना होता है, तब मैं इस नंबर पर फोन लगाता हूं और यह एक ऐस्कौर्ट को एक तय जगह या होटल या कभीकभी कार में ही भेज देता है…’’

‘‘ऐस्कौर्ट यानी… तू मुझे धंधे वाली के पास जाने को कह रहा है?’’

‘‘अरे नहीं… आजकल बड़े घर की लड़कियां अपने मजे और शौक के लिए ऐस्कौर्ट का काम करती हैं…’’ विजय ने अपना ज्ञान बघारा.

शाम को जब थका हुआ मानस घर आया, तो विद्या धार्मिक चैनल देख रही थी और जब मानस ने उस से चाय बना लाने के लिए कहा, तो वह बोली, ‘‘अरे, अभी थोड़ा रुक जाओ… देखते नहीं कि गुरुजी ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ का तरीका बता रहे हैं… ऐसा करो, तुम खुद ही बना लो और एक कप मुझे भी दे देना.’’

झक मार कर मानस बैडरूम में चला गया.

रात हुई तो मानस ने बढि़या खुशबू वाला इत्र लगाया. दुकानदार ने दावा किया था कि इसे इस्तेमाल करेंगे, तो औरत आप से किसी बेल की तरह चिपकी रहेगी…

मानस ने विद्या के होंठों को चूमना चाहा, तो वह तुरंत ही पीछे हट गई और बोली, ‘‘नहीं, मुझे तंग मत करो… कल मेरा व्रत है… इसलिए यह सब आज नहीं. और सुनो… परसों मैं ने ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ का आयोजन किया है, जिस के लिए मैं ने एक आचार्यजी से बात कर ली है. वे सुबह ही आ जाएंगे और 4-5 घंटे कार्यक्रम चलेगा… आप भी घर में ही रहना.’’

विद्या की बातें सुन कर मानस को गुस्सा आ गया, ‘‘नहीं, मैं तो घर में नहीं रुक पाऊंगा. तुम्हें जो करना है, करो. और अब जो मुझे करना है, वह मैं करूंगा,’’ और यह कह कर वह मुंह फेर कर सोने लगा.

अगली सुबह औफिस में जैसे ही विजय से मुलाकात हुई, वैसे ही मानस ने उस से कहा, ‘‘भाई मेरे शरीर में बहुत दर्द हो रहा है. लग रहा है, मुझे भी मसाज कराना पड़ेगा… जरा वह मसाज सैंटर वाला नंबर मुझे भी देना… मैं भी ऐंजौय करना चाहता हूं.’’

विजय ने शरारती ढंग से देखते हुए मानस को नंबर दिया और मानस ने उस नंबर पर बात की.

दलाल ने मानस को बताया कि कल उसे ठीक 12 बजे एक मैसेज आएगा, जिस पर पहुंचने का पता होगा और साथ ही एक अकाउंट नंबर भी लिखा होगा, जिस पर उसे एडवांस पेमेंट करनी होगी, तभी मसाज की सुविधा मिल पाएगी.

मानस ने सारी बात मान ली और अगले दिन बेसब्री से 12 बजने का इंतजार करने लगा.

उधर, विद्या ने भी ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ रखवाया था. सुबह होते ही वह उसी की तैयारी करने में बिजी हो गई, जबकि मानस के अंदर बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ठीक 12 बजे मानस के मोबाइल पर एक मैसेज आया, जिस में एक एकाउंट नंबर था और एक होटल का नाम भी था, जहां पहुंचने पर उसे पहले से बुक एक कमरे में जाना था, जहां उसे मसाज की सुविधा दी जानी थी.

मानस को होटल के कमरे तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई और वह बेसब्री से ऐस्कौर्ट का इंतजार करने लगा.

वह समय भी आ गया, जब कमरे के अंदर एक लड़की आई. उसे देख कर मानस के पसीने छूट गए.

‘‘भला इतनी खूबसूरत लड़की भी ऐसा काम कर सकती है… पर, मुझे क्या, मैं ने भी तो पूरे 10,000 रुपए दिए हैं इस के लिए… अब तो मुझे वसूलना भर है,’’ ऐसा सोच कर मानस किसी भूखे भेडि़ए की तरह उस लड़की पर टूट पड़ा.

अभी मजा लेते हुए मानस को कुछ ही समय हुआ था कि होटल के कमरे का दरवाजा अचानक से खुल गया और 2 आदमी अंदर घुंस आए, जिन में से एक के हाथ में मोबाइल था और वे लगातार मानस और उस लड़की का वीडियो बनाने में लगा हुआ था.

मानस चौंक पड़ा था और वह लड़की अपने कपड़े पहनने लगी थी.

‘‘तुम ने ठीक पहचाना… इस मोबाइल में तुम्हारी पूरी फिल्म बन गई है… अब ये हम पर है कि इसे हम किसकिस को दिखाएं… इंटरनैट पर डालें या तुम्हारे घरपरिवार वालों को दे दें… या तुम्हारे औफिस में इसे सब के मोबाइलों पर भेज दें… फैसला तुम्हारे हाथ में है,’’ उन में से एक आदमी बोला.

अचानक से मानस का माथा ठनका, ‘‘आखिरकार ऐसा क्यों कर रहे हो तुम लोग…’’ मानस चीखा.

‘‘एक लाख रुपए के लिए… नहीं तो यह वीडियो अभी वायरल कर दिया जाएगा… पैसे दो और यह वीडियो हम तुम्हारे सामने ही डिलीट कर देंगे.’’

मानस ने देखा कि कमरे में सिर्फ वे 2 आदमी ही खड़े थे. वह लड़की वहां से जा चुकी थी. मानस को समझते देर नहीं लगी कि यह पूरा एक ही गैंग है और इन्हें बिना पैसे दिए इन से छुटकारा पाना मुमकिन नहीं होगा, इसलिए उस ने बिना देर किए पूरे 50,000 रुपए नैटबैंकिंग की मदद से उन दोनों द्वारा बताए गए अकाउंट नंबर पर ट्रांसफर कर दिए और बाकी के 50,000 रुपए का चैक काट दिया.

उन दोनों आदमियों ने भी शराफत दिखाते हुए वह वीडियो मानस के सामने ही डिलीट कर दिया.

अपना पैसा लुटा कर भारी मन से घर लौटने लगा था मानस. जब वह घर पहुंचा, तो वहां का दृश्य देख कर उस के हाथपैर फूल गए.

कमरे में चारों तरफ धुआं फैला हुआ था और विद्या एक कोने में सिर नीचे किए बैठी थी.

मानस ने विद्या से पूछा, तो पता चला कि जो साधु ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ कराने के लिए घर में आया था, उस ने यज्ञ के बहाने घर में नशीला धुआं भर दिया, जिस से विद्या बेहोश होने लगी और तब वह साधु घर में रखी हुई कीमती चीजें, नकदी और गहने ले कर चंपत हो गया.

विद्या रो रही थी. मानस भी दुखी था और सोच रहा था कि अति हर चीज की बुरी होती है.

विद्या की पूजा की अति ने ही आज हम दोनों को इस मुकाम तक पहुंचा दिया है.

पर भला अपने लुटने की बात मानस विद्या से कैसे कहता, सो दोनों एकदूसरे के आंसू पोंछते रहे.

विद्या ने इतना जरूर कहा कि आज के बाद वह किसी साधु को घर में नहीं घुसाएगी. उस की आंखों पर तना हुआ अंधविश्वास का परदा हट रहा था.

Hindi Stories Online : शरणार्थी – मीना ने कैसे दिया अविनाश को धोखा

Hindi Stories Online :  वह हांफते हुए जैसे ही खुले दरवाजे में घुसी कि तुरंत दरवाजा बंद कर लिया. अपने ड्राइंगरूम में अविनाश और उन का बेटा किशन इस तरह एक अनजान लड़की को देख कर सन्न रह गए.

अविनाश गुस्से से बोले, ‘‘ऐ लड़की, कौन है तू? इस तरह हमारे घर में क्यों घुस आई है?’’

‘‘बताती हूं साहब, सब बताती हूं. अभी मुझे यहां शरण दे दो,’’ वह हांफते हुए बोली, ‘‘वह गुंडा फिर मुझे मेरी सौतेली मां के पास ले जाएगा. मैं वहां नहीं जाना चाहती हूं.’’

‘‘गुंडा… कौन गुंडा…? और तुम सौतेली मां के पास क्यों नहीं जाना चाहती हो?’’ अविनाश ने जब सख्ती से पूछा, तब वह लड़की बोली, ‘‘मेरी सौतेली मां मुझ से देह धंधा कराना चाहती है. उदय प्रकाश एक गुंडे के साथ मुझे कोठे पर बेचने जा रहा था, मगर मैं उस से पीछा छुड़ा कर भाग आई हूं.’’

‘‘तू झूठ तो नहीं बोल रही है?’’

‘‘नहीं साहब, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं. सच कह रही हूं,’’ वह लड़की इतना डरी हुई थी कि बारबार बंद दरवाजे की तरफ देख रही थी.

अविनाश ने पूछा, ‘‘ठीक है, पर तेरा नाम क्या है?’’

‘‘मीना है साहब,’’ वह लड़की बोली,

अविनाश ने कहा, ‘‘घबराओ मत मीना. मैं तुम्हें नहीं जानता, फिर भी तुम्हें शरण दे रहा हूं.’’

‘‘शुक्रिया साहब,’’ मीना के मुंह से निकल गया.

‘‘एक बात बताओ…’’ अविनाश कुछ सोच कर बोले, ‘‘तुम्हारी मां तुम से धंधा क्यों कराना चाहती है?’’

मीना ने कहा, ‘‘जन्म देते ही मेरी मां गुजर गई थीं. पिता दूसरी शादी नहीं करना चाहते थे, मगर रिश्तेदारों ने जबरदस्ती उन की शादी करा दी.

‘‘मगर शादी होते ही पिता एक हादसे में गुजर गए. मेरी सौतेली मां विधवा हो गई. तब से ही रिश्तेदार मेरी सौतेली मां पर आरोप लगाने लगे कि वह पिता को खा गई. तब से मेरी सौतेली मां अपना सारा गुस्सा मुझ पर उतारने लगी.

‘‘इस तरह तानेउलाहने सुन कर मैं ने बचपन से कब जवानी में कदम रख दिए, पता ही नहीं चला. मेरी सौतेली मां को चाहने वाले उदय प्रकाश ने उस के कान भर दिए कि मेरी शादी करने के बजाय किसी कोठे पर बिठा दे, क्योंकि उस के लिए वह कमाऊ जो थी.

‘‘मां का चहेता उदय प्रकाश मुझे कोठे पर बिठाने जा रहा था. मैं उस की आंखों में धूल झोंक कर भाग गई और आप का मकान खुला मिला, इसी में घुस गई.’’

अविनाश ने पूछा, ‘‘कहां रहती हो?’’

‘‘शहर की झुग्गी बस्ती में.’’

‘‘तुम अगर मां के पास जाना चाहती हो, तो मैं अभी भिजवा सकता हूं.’’

‘‘मत लो उस का नाम…’’ मीना जरा गुस्से से बोली.

‘‘फिर कहां जाओगी?’’ अविनाश ने पूछा.

‘‘साहब, दुनिया बहुत बड़ी है, मैं कहीं भी चली जाऊंगी?’’

‘‘तुम इस भेडि़ए समाज में जिंदा रह सकोगी.’’

‘‘फिर क्या करूं साहब?’’ पलभर सोच कर मीना बोली, ‘‘साहब, एक बात कहूं?’’

‘‘कहो?’’

‘‘कुछ दिनों तक आप मुझे अपने यहां नहीं रख सकते हैं?’’ मीना ने जब यह सवाल उठाया, तब अविनाश सोचते रहे. वे कोई जवाब नहीं दे पाए.

मीना ही बोली, ‘‘क्या सोच रहे हैं आप? मैं वैसी लड़की नहीं हूं, जैसी आप सोच रहे हैं.’’

‘‘तुम्हारे कहने से मैं कैसे यकीन कर लूं?’’ अविनाश बोले, ‘‘और फिर तुम्हारी मां का वह आदमी ढूंढ़ता हुआ यहां आ जाएगा, तब मैं क्या करूंगा?’’

‘‘आप उसे भगा देना. इतनी ही आप से विनती है,’’ यह कहते समय मीना की सांस फूल गई थी.

मीना आगे कुछ कहती, तभी दरवाजे के जोर से खटखटाने की आवाज आई. कमरे में तीनों ही चुप हो गए. इस वक्त कौन हो सकता है?

मीना डरते हुए बोली, ‘‘बाबूजी, वही गुंडा होगा. मैं नहीं जाऊंगी उस के साथ.’’

‘‘मत जाना. मैं जा कर देखता हूं.’’

‘‘वही होगा बाबूजी. मेरी सौतेली मां का चहेता. आप मत खोलो दरवाजा,’’ डरते हुए मीना बोली.

एक बार फिर जोर से दरवाजा पीटने की आवाज आई.

अविनाश बोले, ‘‘मीना, तुम भीतर जाओ. मैं दरवाजा खोलता हूं.’’

मीना भीतर चली गई. अविनाश ने दरवाजा खोला. एक गुंडेटाइप आदमी ने उसे देख कर रोबीली आवाज में कहा, ‘‘उस मीना को बाहर भेजो.’’

‘‘कौन मीना?’’ गुस्से से अविनाश बोले.

‘‘जो तुम्हारे घर में घुसी है, मैं उस मीना की बात कर रहा हूं…’’ वह आदमी आंखें दिखाते हुए बोला, ‘‘निकालते हो कि नहीं… वरना मैं अंदर जा कर उसे ले आऊंगा.’’

‘‘बिना वजह गले क्यों पड़ रहे हो भाई? जब मैं कह रहा हूं कि मेरे यहां कोई लड़की नहीं आई है,’’ अविनाश तैश में बोले.

‘‘झूठ मत बोलो साहब. मैं ने अपनी आंखों से देखा है उसे आप के घर में घुसते हुए. आप मुझ से झूठ बोल रहे हैं. मेरे हवाले करो उसे.’’

‘‘अजीब आदमी हो… जब मैं ने कह दिया कि कोई लड़की नहीं आई है, तब भी मुझ पर इलजाम लगा रहे हो? जाते हो कि पुलिस को बुलाऊं.’’

‘‘मेरी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं. मैं ने मीना को इस घर में घुसते हुए देखा है. मैं उसे लिए बिना नहीं जाऊंगा…’’ अपनी बात पर कायम रहते हुए उस आदमी ने कहा.

अविनाश बोले, ‘‘मेरे घर में आ कर मुझ पर ही तुम आधी रात को दादागीरी कर रहे हो?’’

‘‘साहब, मैं आप का लिहाज कर रहा हूं और आप से सीधी तरह से कह रहा हूं, फिर भी आप समझ नहीं रहे हैं,’’ एक बार फिर वह आदमी बोला.

‘‘कोई भी लड़की मेरे घर में नहीं घुसी है,’’ एक बार फिर इनकार करते हुए अविनाश उस आदमी से बोले.

‘‘लगता है, अब तो मुझे भीतर ही घुसना पड़ेगा,’’ उस आदमी ने खुली चुनौती देते हुए कहा.

तब एक पल के लिए अविनाश ने सोचा कि मीना कौन है, वे नहीं जानते हैं, मगर उस की बात सुन कर उन्हें उस पर दया आ गई. फिर ऐसी खूबसूरत लड़की को वे कोठे पर भिजवाना भी नहीं चाहते थे.

वह आदमी गुस्से से बोला, ‘‘आखिरी बार कह रहा हूं कि मीना को मेरे हवाले कर दो या मैं भीतर जाऊं?’’

‘‘भाई, तुम्हें यकीन न हो, तो भीतर जा कर देख लो,’’ कह कर अविनाश ने भीतर जाने की इजाजत दे दी. वह आदमी तुरंत भीतर चला गया.

किशन पास आ कर अविनाश से बोला, ‘‘यह क्या किया बाबूजी, एक अनजान आदमी को घर के भीतर क्यों घुसने दिया?’’

‘‘ताकि वह मीना को ले जाए,’’ छोटा सा जवाब दे कर अविनाश बोले, ‘‘और यह बला टल जाए.’’

‘‘तो फिर इतना नाटक करने की क्या जरूरत थी. उसे सीधेसीधे ही सौंप देते,’’ किशन ने कहा, ‘‘आप ने झूठ बोला, यह उसे पता चल जाएगा.’’

‘‘मगर, मुझे मीना को बचाना था. मैं उसे कोठे पर नहीं भेजना चाहता था, इसलिए मैं इनकार करता रहा.’’

‘‘अगर मीना खुद जाना चाहेगी, तब आप उसे कैसे रोक सकेंगे?’’ अभी किशन यह बात कह रहा था कि तभी वह आदमी आ कर बोला, ‘‘आप सही कहते हैं. मीना मुझे अंदर नहीं मिली.’’

‘‘अब तो हो गई तसल्ली तुम्हें?’’ अविनाश खुश हो कर बोले.

वह आदमी बिना कुछ बोले बाहर निकल गया.

अविनाश ने दरवाजा बंद कर लिया और हैरान हो कर किशन से बोले, ‘‘इस आदमी को मीना क्यों नहीं मिली, जबकि वह अंदर ही छिपी थी?’’

‘‘हां बाबूजी, मैं अगर अलमारी में नहीं छिपती, तो यह गुंडा मुझे कोठे पर ले जाता. आप ने मुझे बचा लिया. आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी,’’ बाहर निकलते हुए मीना बोली.

‘‘हां बेटी, चाहता तो मैं भी उस को पुलिस के हवाले करा सकता था, मगर तुम्हारे लिए मैं ने पुलिस को नहीं बुलाया,’’ समझाते हुए अविनाश बोले, ‘‘अब तुम्हारा इरादा क्या है?’’

‘‘किस बारे में बाबूजी?’’

‘‘अब इतनी रात को तुम कहां जाओगी?’’

‘‘आप मुझे कुछ दिनों तक अपने यहां शरणार्थी बन कर रहने दो.’’

‘‘मैं तुम को नहीं रख सकता मीना.’’

‘‘क्यों बाबूजी, अभी तो आप ने कहा था.’’

‘‘वह मेरी भूल थी.’’

‘‘तो मुझे आप एक रात के लिए अपने यहां रख लीजिए. सुबह मैं खुद चली जाऊंगी,’’ मीना बोली.

‘‘मगर, कहां जाओगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘नहीं बाबूजी, इसे अभी निकाल दो,’’ किशन विरोध जताते हुए बोला.

‘‘किशन, मजबूर लड़की की मदद करना हमारा फर्ज है.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर कहीं इसी इनसानियत में हैवानियत न छिपी हो बाबूजी.’’

‘‘आप आपस में लड़ो मत. मैं तो एक रात के लिए शरणार्थी बन कर रहना चाहती थी. मगर आप लोगों की इच्छा नहीं है, तो…’’ कह कर मीना चलने लगी.

‘‘रुको मीना,’’ अविनाश ने उसे रोकते हुए कहा. मीना वहीं रुक गई.

अविनाश बोले, ‘‘तुम कौन हो, मैं नहीं जानता, मगर एक अनजान लड़की को घर में रखना खतरे से खाली नहीं है. और यह खतरा मैं मोल नहीं ले सकता. तुम जो कह रही हो, उस पर मैं कैसे यकीन कर लूं?’’

‘‘आप को कैसे यकीन दिलाऊं,’’ निराश हो कर मीना बोली, ‘‘मैं उस सौतेली मां के पास भी नहीं जाना चाहती.’’

‘‘जब तुम सौतेली मां के पास नहीं जाना चाहती हो, तो फिर कहां जाओगी?’’

‘‘नहीं जानती. मैं रहने के लिए एक रात मांग रही थी, मगर आप को एतराज है. आप का एतराज भी जायज है. आप मुझे जानते नहीं. ठीक है, मैं चलती हूं.’’

अविनाश उसे रोकते हुए बोले, ‘‘रुको, तुम कोई भी हो, मगर एक पीडि़त लड़की हो. मैं तुम्हारे लिए जुआ खेल रहा हूं. तुम यहां रह सकती हो, मगर कल सुबह चली जाना.’’

‘‘ठीक है बाबूजी,’’ कहते हुए मीना के चेहरे पर मुसकान फैल गई… ‘‘आप ने डूबते को तिनके का सहारा दिया है.’’

‘‘मगर, सुबह तुम कहां जाओगी?’’ अविनाश ने फिर पूछा.

‘‘सुबह मौसी के यहां उज्जैन चली जाऊंगी?’’

अविनाश ने यकीन कर लिया और बोले, ‘‘तुम मेरे कमरे में सो जाना.’’

‘‘आप कहां साएंगे बाबूजी?’’ मीना ने पूछा.

‘‘मैं यहां सोफे पर सो जाऊंगा,’’ अविनाश ने अपना फैसला सुना दिया और आगे बोले, ‘‘जाओ किशन, इसे मेरे कमरे में छोड़ आओ.’’

काफी रात हो गई थी. अविनाश और किशन को जल्दी नींद आ गई. सुबह जब देर से नींद खुली. मीना नहीं थी. सामान बिखरा हुआ था. अलमारियां खुली हुई थीं. उन में रखे गहनेनकदी सब साफ हो चुके थे.

अविनाश और किशन यह देख कर हैरान रह गए. उम्रभर की कमाई मीना ले गई. उन का अनजान लड़की पर किया गया भरोसा उन्हें बरबाद कर गया. जो आदमी रात को आया था, वह उसी गैंग का एक सदस्य था, तभी तो वह मीना को नहीं ले गया. चोरी करने का जो तरीका उन्होंने अपनाया, उस तरीके पर कोई यकीन नहीं करेगा.

मीना ने जोकुछ कहा था, वह झूठ था. वह चोर गैंग की सदस्य थी. शरणार्थी बन कर अच्छा चूना लगा गई.

Short Stories in Hindi : गुड गर्ल : ससुराल में तान्या के साथ क्या हुआ

Short Stories in Hindi : कई पीढ़ियों के बाद माहेश्वरी खानदान में रवि और कंचन की सब से छोटी संतान के रूप में बेटी का जन्म हुआ था. वे दोनों फूले नहीं समा रहे थे, क्योंकि रवि और कंचन की बहुत इच्छा थी कि वे भी कन्यादान करें क्योंकि पिछले कई पीढ़ियों से उन का परिवार इस सुख से वंचित था.

आज 2 बेटों के जन्म के लगभग 7-8 सालों बाद फिर से उन के आंगन में किलकारियां गूंजी थीं और वह भी बिटिया की.

बिटिया का नाम तान्या रखा गया. तान्या यानी जो परिवार को जोड़ कर रखे. अव्वल तो कई पीढ़ियों के बाद घर में बेटी का आगमन हुआ था, दूसरे तान्या की बोली एवं व्यवहार में इतना मिठास एवं अपनापन घुला हुआ था कि वह घर के सभी सदस्यों को प्राणों से भी अधिक प्रिय थी.

सभी उसे हाथोहाथ उठाए रखते. यदि घर में कभी उस के दोनों बड़े भाई झूठमूठ ही सही जरा सी भी उसे आंख भी दिखा दें या सताएं तो फिर पूछो मत, उस के दादादादी और खासकर उस के प्यारे पापा रण क्षेत्र में तान्या के साथ तुरंत खड़े हो जाते.

दोनों भाई उस की चोटी खींच कर उसे प्यार से चिढ़ाते कि जब से तू आई है, हमें तो कोई पूछने वाला ही नहीं है.

जिस प्रकार एक नवजात पक्षी अपने घोंसले में निडरता से चहचहाते रहता है, उसे यह तनिक भी भय नहीं होता कि उस के कलरव को सुन कर कोई दुष्ट शिकारी पक्षी उन्हें अपना ग्रास बना लेगा. वह अपने मातापिता के सुरक्षित संसार में एक डाली से दूसरी डाली पर निश्चिंत हो कर उड़ता और फुदकता रहता है. तान्या भी इसी तरह अपने नन्हे पंख फैलाए पूरे घर में ही नहीं अड़ोसपड़ोस में भी तितली की तरह अपनी स्नेहिल मुसकान बिखेरती उड़ती रहती थी. सब को सम्मान देना और हरेक जरूरतमंद की मदद करना उस का स्वभाव था.

समय के पंखों पर सवार तान्या धीरेधीरे किशोरावस्था के शिखर पर पहुंच गई, लेकिन उस का स्वभाव अभी भी वैसा ही था बिलकुल  निश्छल, सहज और सरल. किसी अनजान से भी वह इतने प्यार से मिलती कि कुछ ही क्षणों में वह उन के दिलों में उतर जाती. भोलीभाली तान्या को किसी भी व्यक्ति में कोई बुराई नहीं दिखाई देती थी.

पूरे मोहल्ले में गुड गर्ल के नाम से मशहूर सब लोग उस की तारीफ करते नहीं थकते थे और अपनी बेटियों को भी उसी की तरह गुड गर्ल बनाना चाहते थे.

हालांकि तान्या की मां कंचनजी काफी प्रगतिशील महिला थीं, लेकिन थीं तो वे भी अन्य मांओं की तरह एक आम मां ही, जिन का हृदय अपने बच्चों के लिए सदा धड़कता रहता था. उन्हें पता था कि लडकियों के लिए घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया घर के सुरक्षित वातावरण की दुनिया से बिलकुल अलग होती है.

बड़ी हो रही तान्या के लिए वह अकसर चिंतित हो उठतीं कि उसे भी इस निर्मम समाज, जिस में स्त्री को दोयम दरजे की नागरिकता प्राप्त है, बेईमानी और भेदभाव के मूल्यों का सामना करना पड़ेगा.

एक दिन मौका निकाल कर बड़ी होती तान्या को बङे प्यार से समझाते हुए वे बोलीं,”बेटा, यह समाज लड़की को सिर्फ गुड गर्ल के रूप में जरूर देखना चाहता है लेकिन अकसर मौका मिलने पर उन्हें गुड गर्ल में सिर्फ केवल एक लङकी ही दिखाई देती है जो अनुचित को अनुचित जानते हुए भी उस का विरोध न करे और खुश रहने का मुखौटा ओढ़े रहे. यह समाज हम स्त्रियों से ऐसी ही अपेक्षा रखता है.”

तान्या बोलती,”ओह… इतने सारे अनरियलिस्टिक फीचर्स?”

तब कंचनजी फिर समझातीं, “हां, पर एक बात और, आज का समय पहले की तरह घर में बंद रहने का भी नहीं है. तुम्हें भी घर के बाहर अनेक जगह जाना पड़ेगा, लेकिन अपने आंखकान सदैव खुले रखना.”

तान्या आश्चर्य से बोली,”मगर क्यों?”

“बेटा, यह समाज लड़कियों को देवी की तरह पूजता तो है पर मौका पाने पर हाड़मांस की इन जीतीजागती देवियों की भावनाओं और इच्छाओं अथवा अनिच्छाओं को कुचलने से तनिक भी गुरेज नहीं करता.”

समाज के इस निर्मम चेहरे से अनजान तान्या ने कंचन जी से पूछा,”मां, लेकिन ऐसा क्यों? मैं भी तो भैया जैसी ही हूं. मैं भी एक इंसान हूं फिर मैं अलग कैसे हुई?”

“बेटा, पुरुष के विपरीत स्त्री को एक ही जीवनचक्र में कई जीवन जीना पड़ता है. पहले मांबाप के नीड़रूपी घर में पूर्णतया लाङप्यार और सुरक्षित जीवन और दूसरा घर के बाहर भेदती हुई हजारों नजरों वाले समाज के पावरफुल स्कैनर से गुजरने की चुभती हुई पीड़ा से रोज ही दोचार होते हुए सीता की तरह अग्नि परीक्षा देने को विवश.

“बेटा, एक बात और, विवाह के बाद अकसर यह स्कैनर एक नया स्वरूप धारण कर लेता है, जिस की फ्रीक्वैंसी कुछ अलग ही होती है.”

“लेकिन हम लड़कियां ही एकसाथ इतने जीवन क्यों जिएं?”

“बेटा, निश्चित तौर पर यह गलत है और हमें इस का पुरजोर विरोध जरूर करना चाहिए. लेकिन स्त्री के प्रति यह समाज कभी भी सहज या सामान्य नहीं रहा है. या तो हमें रहस्य अथवा अविश्वास से देखा जाता है या श्रद्धा से लेकिन प्रेम से कभी नहीं, क्योंकि हम स्त्रियों की जैंडर प्रौपर्टीज समाज को हमेशा से भयाक्रांत करती रही है. सभी को अपने लिए एक शीलवती, सच्चरित्र और समर्पित पत्नी चाहिए जो हर कीमत पर पतिपरायण बनी रहे लेकिन दूसरे की पत्नी में अधिकांश लोगों को एक इंसान नहीं बल्कि एक वस्तु ही दिखाई पड़ती है.”

“लेकिन मां, यह तो ठीक बात नहीं, ऐसा क्यों?”

“बेटा, हम स्त्रियों के मामले में पुरुष हमेशा से इस गुमान में जीता आया है कि यदि कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ जरा सा भी हंसबोल ले तो कुछ न होते हुए भी वह इसे उस के प्रेम और शारीरिक समर्पण की सहमति मान लेता है.”

“तो क्या मैं किसी के साथ हंसबोल भी नहीं सकती?”

“नहीं बेटा, मेरे कहने का अभिप्राय यह बिलकुल भी नहीं है. मैं तो तुम्हें सिर्फ आगाह करना चाहती हूं कि समाज के ठेकेदारों ने हमारे चारो ओर नियमकानूनों का एक अजीब सा जाल फैला रखा है, जिस में काजल का गहरा लेप लगा हुआ है. लेकिन हमें भी अपनेआप को कभी कमजोर या कमतर नहीं आंकना चाहिए जबकि उन्हें यह एहसास करा देना चाहिए कि हम न केवल इस जाल को काट फेंकने का सामर्थ्य रखते हैं बल्कि हमारे इर्दगिर्द फैलाए गए इसी काजल को अपने व्यक्तित्व की खूबसूरती का माध्यम बना उसे आंखों में सजा लेना जानते हैं, ताकि हम सिर उठा कर खुले आकाश में उड़ सकें और अपनी खुली आंखों से अपने सपनों को पूरा होते देख सकें.”

“मां, यह हुई न झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वाली बात.”

अपनी फूल सी बिटिया को सीने से लगाती हुईं कंचनजी बोलीं,”बेटा, मैं तुम्हें कतई डरा नहीं रही थी. बस समाज की सोच से तुम्हें परिचित करा रही थी ताकि तुम परिस्थितियों का मुकाबला कर सको. तुम वही करना जो तुम्हारा दिल कहे. तुम्हारे मम्मीपापा सदैव तुम्हारे साथ हैं और हमेशा रहेंगे.”

समय अपनी गति से पंख लगा कर उड़ता रहा और देखतेदेखते एक दिन छोटी सी तान्या विवाह योग्य हो गई. संयोग से रवि और कंचनजी को उस के लिए एक सुयोग्य वर ढूंढ़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी.

एक पारिवारिक शादी समारोह में दिनकर का परिवार भी आया हुआ था. तान्या की निश्छल हंसी और मासूम व्यवहार पर मोहित हो कर दिनकर उसे वहीं अपना दिल दे बैठा. शादी की रस्मों के दौरान जब कभी तान्या और दिनकर की नजरें आपस में एक दूसरे से मिलतीं तो तान्या दिनकर को अपनी ओर एकटक देखता हुआ पाती. उस की आंखों में उसे एक अबोले पर पवित्र प्रस्ताव की झलक दिखाई पड़ रही थी. उस ने भी मन ही मन दिनकर को अपने दिल में जगह दे दिया.

दिनकर की मां को छोड़ कर और किसी को इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी. दरअसल, दिनकर की मां शांताजी अपने दूर के रिश्ते की एक लड़की को अपनी बहू बनाना चाहती थी जो कनाडा में रह रही थी और पैसे से काफी संपन्न परिवार की थी, दूसरे उन्हें तान्या का सब के साथ इतना खुलकर बातचीत करना पसंद नहीं था. लेकिन बेटे के प्यार के आगे उन्हें झुकना ही पड़ा और कुछ ही समय के अंदर तान्या और दिनकर विवाह के बंधन से बंध गए.

सरल एवं बालसुलभ व्यवहार वाली तान्या ससुराल में भी सब के साथ खूब जी खोलकर बातें करती, हंसती और सब को हंसाती रहती.

पति दिनकर बहुत अच्छा इंसान था. उस ने तान्या को कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह मायके में नहीं ससुराल में है. उस ने तान्या को अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने की पूरी आजादी दी.

दिनकर की मां शांताजी कभी तान्या को टोकतीं तो वह उन्हें बड़े प्यार से समझाता, “मां, तुम अपने बहू पर भरोसा रखो. वह इस घर का मानसम्मान कभी कम नहीं होने देगी. वह एक परफैक्ट गुड गर्ल ही नहीं एक परफैक्ट बहू भी है.”

लेकिन कुछ ही दिनों मे तान्या को यह एहसास हो गया कि उस के ससुराल में 2 लोगों का ही सिक्का चलता है, पहला उस की सास और दूसरा उस के ननदोई राजीव का.

दरअसल, उस के ननदोई राजीव काफी अमीर थे. जब तान्या के ससुर का बिजनैस खराब चल रहा था तो राजीव ने रूपएपैसे से उन की काफी मदद की थी. इसलिए राजीव का घर में दबदबा था और उस की सास तो अपने दामाद को जरूरत से ज्यादा सिरआंखों पर बैठाए रखती थी.

राजीव का ससुराल में अकसर आना होता रहता था. अपनी निश्छल प्रकृति के कारण तान्या राजीव के घर आने पर उस का यथोचित स्वागतसत्कार करती. जीजासलहज का रिश्ता होने के कारण उन से खूब बातचीत भी करती थी. लेकिन धीरेधीरे तान्या ने महसूस किया कि राजीव जरूरत से ज्यादा उस के नजदीक आने की कोशिश कर रहा है.

उस के सहज, निश्छल व्यवहार को वह कुछ और ही समझ रहा है. पहले तो उस ने संकेतों से उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उस की बदतमीजियां मर्यादा की देहरी पार करने लगी तो उस ने एक दिन दिनकर को हिम्मत कर के सबकुछ बता दिया.

दिनकर यह सुन कर आपे से बाहर हो गया. वह राजीव को उसी समय फोन पर ही खरीखोटी सुनाने वाला था लेकिन तान्या ने उसे उस समय रोक दिया.

वह बोली,”दिनकर, यह उचित समय नहीं है. अभी हमारे पास अपनी बात को सही साबित करने का कोई प्रमाण भी नहीं है. मांजी इसे एक सिरे से नकार कर मुझे ही झूठा बना देंगी. तुम्हें मुझ पर विश्वास है, यही मेरे लिए बहुत है. मुझ पर भरोसा रखो, मैं सब ठीक कर दूंगी.”

दिनकर गुस्से में मुठ्ठियां भींच कर तकिए पर अपना गुस्सा निकालते हुए बोला, “मैं जीजाजी को छोङूंगा नहीं, उन्हें सबक सिखा कर रहूंगा.”

कुछ दिनों बाद राजीव फिर उस के घर आया और उस रात वहीं रूक गया. संयोग से दिन कर को उसी दिन बिजनैस के काम से शहर से बाहर जाना पड़ गया. राजीव के घर में मौजूद होने की वजह से उसे तान्या को छोड़ कर बाहर जाना कतई अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन बिजनैस की मजबूरियों की वजह से उसे जाना ही पड़ा. पर जातेजाते वह तान्या से बोला,”तुम अपना ध्यान रखना और कोई भी परेशानी वाली बात हो तो मुझे तुरंत बताना.”

“आप निश्चिंत रहिए. आप का प्यार और सपोर्ट मेरे लिए बहुत है.”

रात को डिनर करने के बाद सब लोग अपनेअपने कमरों में चले गए. तान्या भी अपने कमरे का दरवाजा बंद कर बिस्तर पर चली गई. दिनकर के बिना खाली बिस्तर उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था, खासकर रात में उस से अलग रहना उसे बहुत खलता था. जब दिनकर सोते समय उस के बालों में उंगलियां फिराता, तो उस की दिनभर की सारी थकान छूमंतर हो जाती. उस की यादों में खोईखोई कब आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

अचानक उसे दरवाजे पर खटखट की आवाज सुनाई पड़ी. पहले तो उसे लगा कि यह उस का वहम है पर जब खटखट की आवाज कई बार उस के कानों में पड़ी तो उसे थोड़ा डर लगने लगा कि इतनी रात को उस के कमरे का दरवाजा कौन खटखटा सकता है? कहीं राजीव तो नहीं. फिर यह सोच कर कि हो सकता है कि मांबाबूजी में से किसी की तबियत खराब हो गई होगी, उस ने दरवाजा खोल दिया तो देखा सामने राजीव खड़ा मुसकरा रहा है.

“अरे जीजाजी, आप इतनी रात को इस वक्त यहां? क्या बात है?”

“तान्या, मैं बहुत दिनों से तुम से एक बात कहना चाहता हूं.”

कुदरतन स्त्री सुलभ गुणों के कारण राजीव का हावभाव उस के दिल को कुछ गलत होने की चेतावनी दे रहा था. उस की बातें उसे इस आधी रात के अंधेरे में एक अज्ञात भय का बोध भी करा रही थी. लेकिन तभी उसे अपनी मां की दी हुई वह सीख याद आ गई कि हमें कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए बल्कि पूरी ताकत से कठिन से कठिन परिस्थितियों का पुरजोर मुकाबला करते हुए हौसले को कम नहीं होने देना चाहिए.”

उस ने हिम्मत कर के राजीव से पूछा, “बताइए क्या बात है?”

“तान्या, तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. आई लव यू. आई कैन डू एनीथिंग फौर यू…”

“यह आप क्या अनापशनाप बके जा रहे हैं? अपने कमरे में जाइए.”

“तान्या, आज चाहे जो कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हे अपना बना कर ही रहूंगा,” इतना कहते हुए वह तान्या का हाथ पकड़ कर उसे बैडरूम में अंदर ले जाने लगा कि तान्या ने एक जोरदार थप्पड़ राजीव के मुंह पर मारा और चिल्ला पड़ी,”मिस्टर राजीव, आई एम ए गुड गर्ल बट नौट ए म्यूट ऐंड डंब गर्ल. शर्म नहीं आती, आप को ऐसी हरकत करते हुए?”

तान्या के इस चंडी रूप की कल्पना राजीव ने सपने में भी नहीं किया था. वह यह देख कर सहम उठा, पर स्थिति को संभालने की गरज से वह ढिठाई से बोला,”बी कूल तान्या. मैं तो बस मजाक कर रहा था.”

“जीजाजी, लड़कियां कोई मजाक की चीज नहीं होती हैं कि अपना टाइमपास करने के लिए उन से मन बहला लिया. आप के लिए बेशक यह एक मजाक होगा पर मेरे लिए यह इतनी छोटी बात नहीं है. मैं अभी मांपापा को बुलाती हूं.”

फिर अपनी पूरी ताकत लगा कर उस ने अपने सासससुर को आवाज लगाई, मांपापा…इधर आइए…”

रात में उस की पुकार पूरे घर में गूंज पङी. उस की चीख सुन कर उस के सासससुर फौरन वहां आ गए.

गहरी रात के समय अपने कमरे के दरवाजे पर डरीसहमी अपनी बहू तान्या और वहीं पास में नजरें चुराते अपने दामाद राजीव को देख कर वे दोनों भौंचक्के रह गए.

कुछ अनहोनी घटने की बात तो उन दोनों को समझ में आ रही थी लेकिन वास्तव में क्या हुआ यह अभी भी पहेली बनी हुई थी.

तभी राजीव बेशर्मी से बोला, “मां, तान्या ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था.”

“नहीं मां, यह झूठ है. मैं तो अपने कमरे में सो रही थी कि अचानक कुंडी खड़कने पर दरवाजा खोला तो जीजाजी सामने खड़े थे और मुझे बैडरूम में जबरन अंदर ले जा रहे थे.”

“नहीं मां, यह झूठी है, इस ने ही…”

अभी वह अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाया था कि अकसर खामोश रहने वाले तान्या के ससुर प्रवीणजी की आवाज गूंज उठी,”राजीव, अब खामोश हो जाओ, तुम ने क्या हम लोगों को मूर्ख समझ रखा है? माना हम तुम्हारे एहसानों के नीचे दबे हैं, लेकिन तुम्हारी नसनस से वाकिफ हैं. तुम ने आज जैसी हरकत किया है, उस के लिए मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगा. तुम ने मेरी बहू पर बुरी नजर डाली और अब उलटा उसी पर लांछन लगा रहे हो…” इतना कह कर तान्या के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,”बेटा, तुम्हारा बाप अभी जिंदा है. मैं तुम्हें  कुछ नहीं होने दूंगा. मैं अभी पुलिस को बुला कर इस को जेल भिजवाता हूं.”

अपने पिता समान ससुर का स्नेहिल स्पर्श पा कर तान्या उन से लिपट कर रो पड़ी जैसे उस के अपने बाबूजी उसे फिर से मिल गए हों. फिर थोड़ा संयत हो कर बोली, “पापा, आप का आर्शीवाद और विश्वास मेरे लिए सब कुछ है लेकिन पुलिस को मत बुलाइए. जीजाजी को सुधरने का एक मौका हमें देना चाहिए और फिर दीदी और बच्चों के बारे में सोचिए, इन के जेल जाने पर उन्हें कितना बुरा लगेगा.”

दिनकर के पिता प्रवीणजी कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले,”बेटा, तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारा नाम तान्या कुछ सोचसमझ कर ही रखा होगा. ये तुम जैसी बेटियां ही हैं, जो अपना मानसम्मान कायम रखते हुए भी परिवार को सदा जोड़े रखती हैं. जब तक तुम्हारी जैसी बहूबेटियां हमारे समाज में हैं, हमारी संस्कृति जीवित रहेगी.”

फिर अपनी पत्नी से बोले,”शांता, देखिए ऐसी होती हैं हमारे देश की गुड गर्ल. जो न अपना सम्मान खोए न घर की बात को देहरी से बाहर जाने दे.”

शांताजी के अंदर भी आज पहली बार तान्या के लिए कुछ गौरव महसूस हो रहा था. पति से मुखातिब होते हुए दामाद राजीव के विरूद्ध वे पहली बार बोलीं,”आप ठीक कहते हैं. घर की इज्जत बहूबेटियों से ही होती है. पता नहीं एक स्त्री होने के बावजूद मेरी आंखें यह सब क्यों नहीं देख पाईं…” फिर तान्या से बोलीं,”बेटा, मुझे माफ कर देना.”

“राजीव, तुम अब यहां से चले जाओ. मैं तुम्हारा पाईपाई चुका दूंगा पर अपने घर की इज्जत पर कभी हलकी सी भी आंच नहीं आने दूंगा. तान्या हमारी बहू ही नहीं, हमारी बेटी भी है और सब से बढ़ कर इस घर का सम्मान है,” प्रवीणजी बोल पङे.

सासससुर का स्नेहिल आर्शीवाद पा कर आज तान्या को उस का ससुराल उसे सचमुच अपना घर लग रहा था बिलकुल अपना जिस के द्वार पर एक सुहानी भोर मीठी दस्तक दे रही थी.

लेखक-चिरंजीव नाथ सिन्हा

Hindi Fiction Stories : तहखाने – क्या अंशी इस दोहरे तहखाने से आजाद हो पाई?

Hindi Fiction Stories :  रंगों को मुट्ठी में भर कर झुके हुए आसमान को पाना मुश्किल है क्या? या बदरंग चित्रों की कहानी दोहराव के लिए परिपक्व है? इन चित्रों की दहशत अब उस के मन की मेड़ों से फिसलने लगी है.

दौड़ते विचारों के कालखंड अपनी जगह पाने को अधीर हो डरा रहे हैं कि अंशी ने आईने को अपनी तरफ मोड़
लिया है. पूरी ताकत से वह उस कालखंड़ के टुकड़े करना चाहती है. अब चेहरा साफ दिखाई दे रहा है.
साहस और आत्मविश्वास से ओतप्रोत. खुद को भरपूर निहार कर जीन्स को ठीक किया है. नैट के टौप के अंदर पहनी स्पैगिटी को चैक किया. ठुड्डी को गले से लगा कर भीतर की तरफ झांका. सधे हुए उभारों और कसाब में रत्तीभर ढील की गुंजाइश नहीं है. संतुष्टि के पांव पसारते ही होंठों को सीटीनुमा आकृति में मोड़ कर सीधा किया.

लिपिस्टिक का रंग कपड़ों से मेल खा रहा है. ‘ वो ‘ के आकार में आईब्रो फैलाने और सिकोड़ने की कोई खास वजह नहीं है, फिर भी बेवजह किए गए कामों की भी वजह हुआ करती है.

कलाई पर गोल्डन स्टोन की घड़ी को कसते हुए अंशी ने पैर से ड्रायर खोल कर सैंडिल निकाले, उन्हें पहनने का असफल प्रयास जानबूझ कर किया गया. पहनने तक ये प्रयास जारी रहा. इस के पीछे जो भी वजह रही हो, मगर पुख्ता वजह तो व्यस्तता प्रदर्शित करना ही है.

सुरररर… सुररररर कर बौडी
स्प्रे कंधों के नीचे, बांहों पर छिड़का और फिर उस के धुएं से ऊपर से नीचे तक नहा ली है.

इस बार आईने ने खुद उसे निहारा, “गजब, क्या लग रही हो यार?”

सामने लगा ड्रेसिंग टेबल का आईना बुदबुदा उठा… जो भी हो, ऐसा तो होना ही था.

अंशी एक मौडर्न गर्ल है. मौडर्निटी का हर गुण उस के भीतर समाया हुआ है, यही जरूरी है. छोटे कपड़े, परंपरावादी सोच से इतर खुले विचार, मनपसंद कामों की सक्रियता, दबाव के बगैर जिंदगी को जीना और सब से महत्वपूर्ण खुद को पसंद करना, हर बौल पर छक्का जड़ने की काबिलीयत. बौस तो क्या, पूरा स्टाफ चारों खाने चित्त. खुद की आइडियल खुद,
दफ्तर का आकर्षण और दूसरा खिताब झांसी की रानी का. किसी की हिम्मत नहीं कि अंशी को उस की मरजी के बगैर उसे शाब्दिक या अस्वीकारिए नजरिए से छू भी ले. हां, जब मन करे तो वह छू सकती है, खरौंच सकती है सदियों से पड़ी दिमाग में धूल की परतों को.

बोलने की नजाकत और चाल की अदायगी में माहिर हो कर आधुनिकता की सीढ़ियों पर चढ़ना बेहद
आसान है. हालात मुट्ठी में करना कौन सा बड़ा काम है? अपनी औकात का फंदा गले में लगा कर क्यों
मरती हैं औरतें? ढील देती हुई बेचारगी को चौतरफा से घेरे रहती हैं, ताकि ये उन के हाथ में रहे और वह
जूझती रहें ताउम्र अपने ही बुने फंदों में. औरत बेचारी, अबला सब कोरी बकवास. सब छलावा है जंग में उतरने की पीड़ा से बचने का. और फिर कौन सा बच पाती हैं? एक पूरा तानेबानों का दरिया उन के इर्दगिर्द फैला होता है, जिस में फंसी निकलने की झटपटाहट ताउम्र जीने देती है उन्हें. वाह री औरत… कौन
सी मिट्टी की बनी है रे तू? शिकायत है तुझे उस समाज से, जिस की सृजनकर्ता है तू और उस की डोर को तू ने ही ढीली छोड़ कर अपनी ऊंचाइयों में उड़ने दिया और बैठीबैठी देखती रही हवाओं का रुख.

अब जितना जी चाहे रोपीट ले, कोई मसीहा नहीं आने वाला, बेचारगी को कौन पसंद करता है भला, एक जोरदार ठहाका लगा कर बैड पर पड़ा सफेद फैंसी पर्स उठा कर उस ने कंधे पर टांग लिया और लैपटौप बैग
हाथ में ले कर चल दी.

ड्राइविंग सीट पर बैठते ही अंशी ने अपने लहराते बालों को हाथों से संवारा और बालों में फंसेबड़े फ्रेम के ब्रांडेड गौगल्स को आंखों पर चढ़ा लिया. कार स्टार्ट करते ही पहले म्यूजिक औन किया है… नौटी… नौटी.. नौटी.. नौटी… ऐ जी नौटी सिरमौर बालिए… हिमाचली लोकसंगीत की धुन पर झूमते, गुनगुनाते हुए उस ने क्लिच दबा कर गाड़ी का एक्सीलेटर दे दिया है. गाड़ी अपनी स्पीड से दौड़ रही है.

दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ते समय 6 गज की साड़ी में लिपटी दिव्या से उस का आमनासामना हो गया है. सादगी को ओढ़े, दायरों का बौर्डर जिस्म से चिपका, उपस्थित हो कर भी सब से अलग, मुंह में जबान न के
बराबर. हमेशा डरीसहमी सी जैसे दफ्तर न हो कर कोई कब्रगाह हो. इशारों पर नाचती दिव्या से बौस ने
कहा, “ओवर टाइम.”

“यस सर,” उस ने कहा. किसी और की टेबल का काम करने को तो न चाहते हुए भी उसे कहना पड़ा, “यस सर,” फिर भी नौकरी जाने और बौस की नजरों से उतरने का डर.

अंशी ने गर्मजोशी से “हाय” कह कर पहल की और बोली, °बहुत सुंदर साड़ी है आप की, मगर रोजरोज कैसे संभालती हो आप इसे?”

“आदत हो गई है अब तो…”

“दिव्याजी, आप को देख कर मुझे अपनी मम्मा याद आ जाती हैं। बिलकुल आप की हूबहू तसवीर, सेम
पहनावा, सेम व्यक्तित्व और…”

“और… और क्या?”
जवाब में हंस दी वह.

“आदर्शवादी, संस्कारी महिला,” दिव्या अब उत्साहित हो मुसकराई, “हम ने साड़ी को जीवित रखा है आज भी और संस्कारों को भी…” नाक सिकोड़ते हुए अंशी ने लापरवाही से उस की भावनाओं को सहमति दी है.

“चलिए, आ गया हमारा
स्थायी पड़ाव.”

“स्थायी…?”

“हां, कम से कम दफ्तर तो स्थायी ही रहना है रिटायरमेंट तक, बाकी का मुझे भरोसा नहीं.”

“भरोसा तो जिंदगी का भी नहीं है, बस सब जिए जा रहे हैं. या यों कहो, लाठी से हांके जा रहे हैं,” ठहाका लगाते हुए अंशी ने दिव्या को कंधे से पकड़ लिया, “टूटी हुई बातें, बुझा हुआ निराश चेहरा… सब के सब गहने हैं आप जैसी औरतों के, जो एक दिन सांप बन कर न डसे तो कहना.”

“तो और क्या करें? समाज में रहना है, मर्यादा में न रहें तो कौन इज्जत देगा.”

“कौन सी इज्जत दिव्याजी, बताओ तो जरा… बुरा न मानना… कौन इज्जत देता है आप को? या परवाह
करता है घर में या दफ्तर में? आप के बच्चे? आप के पति? या दफ्तर में बौस? क्या कमी छोड़ी है आप ने? फिर भी…”

अंशी की बातों से उस के होंठों ने खामोशी को अख्तयार कर लिया और वह सकपका कर अपनी टेबल की ओर बढ़ गई है. अंशी का बिंदास नजरिया दिव्या को कभी न भाया. उस का पहनावा, देह भाषा और निडरता कुछ भी नहीं, भला शोभा देती है क्या भले घर की औरतों को मर्दों जैसी हरकतें? मन ही मन
बुदबुदा कर दिव्या ने अपना काम संभाला, मगर कहीं न कहीं उस की बातें आज उसे झकझोर रही हैं. सही तो कह रही है वह, क्या गलत कहा अंशी ने? क्या पाया आज तक उस ने? दिनभर पिलने के बाद घर
में सब की जीहुजूरी, बच्चों को लाड़दुलार करते और दूसरों की पसंद पूछतेपूछते भूल ही गई है कि उसे
क्या पसंद है? और किसी ने पूछा भी कहां कभी? न किसी ने उस की इच्छाएं पूछीं, न सपने. सपने तो
होते ही कहां हैं औरतों के, वह तो परिवार के सपनों पर जीती हैं. सुबह से खटतेखटते आई हूं और
जा कर भी आराम कहां? न बनाव, न श्रंगार, जरा सा हंस लूं तो जवाब देही… रो लूं तो उपेक्षा झेलूं… उफ्फ…
जरा भी सलीका न सीखा हम ने, हाथों के नाखूनों से जमे आटे को चोरी से साफ करने लगी है.

अखिल की निगाहें बराबर अंशी पर लगी हैं. वह कई बार उठ कर खुद उस के पास आयागया और इन 4-5 घंटों में 6 बार उसे अपने केबिन में बुला चुका है. शायद उसे आज के ड्रेसप के लिए कोई
काम्पलीमैंट भी दिया है.

अंशी ने इतरा कर अपनी अदा से उसे कोई खास महत्व नहीं दिया है. वह ऐसी गंभीरता का अभिनय कर रही है, जैसे इस दफ्तर की सिलेब्रिटी है और अखिल उस का बौस न हो कर कोई कुलीग है.

दफ्तर के उस हाल में एक धुंध सी है, जिस में सब साफ दिखाई नहीं दे रहा है, मगर ये तय है कि अंशी
अपनी जिंदगी को जी रही है अपनी शर्तों पर, अपनी सुविधा से अपने बनाए नियमों से अपने रास्ते खुद तय कर रही है. वह खुश है, किसी से शिकायत भी नहीं. कभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में मजबूरियों का
दुखड़ा रोते भी नहीं सुना है. जिंदगी इसी का नाम तो नहीं? नहीं… नहीं… ये सभ्यता नहीं, हमारी परंपराएं इसे आदर से नहीं देखतीं, मर्दों के कंधे पर हाथ रख कर बात करना, बातबात पर ठहाके लगा कर हंस देना… छोटेछोटे कपड़ों से झांकते आमंत्रित करते अंग… लाज का नामोनिशान नहीं… उफ्फ… बेशर्मी को आधुनिकता नहीं कहा जा सकता. अगर यही है परिवर्तन तो नहीं चाहिए ऐसा बदलाव… अपनों की नजर में न सही, पर अपनी नजर में तो सम्माननीय हूं न, नहीं मिला जीने का सुख तो क्या? आत्मसम्मान से तो धनी हूं मैं… नहीं चाहिए मुझे अंशी जैसी जिंदगी… क्या सचमुच अंशी की जिंदगीखराब है? क्या वह खुश नहीं? या लोग उस से खुश नहीं? सब तो बैलेंस कर के चलती है वह… फिर
क्यों आपत्ति है मुझे या किसी को…? विचारों के झूले पर झूलते मन को दिव्या ने अपने तर्कवितर्क से रोक दिया है और अपने काम में लग गई है.

शाम को अंशी अखिल की गाड़ी में सवार हो कर निकली है. अपनी गाड़ी को उस ने पोर्च में लगा दिया है.
बहुत स्टाइल से वह अखिल के बराबर वाली सीट पर बैठी है और पर्स पीछे वाली सीट पर फेंक दिया है.

दिनभर की थकान से अनमनी सी अंशी जैसे अखिल की गोद में लुढ़क ही जाएगी. अखिल ने उस के हाथ को कस कर पकड़ लिया है और गाड़ी में ही एक जबरदस्त किस अंकित कर दिया. उस की इस हरकत से अंशी बनावटी नाराजगी जाहिर करते हुए कहने लगी है, “इतने बेसब्र मर्द मुझे बिलकुल पसंद नहीं अखिल.”

“ये तो रोमांस का टेलर है मेरी…” बात को अधूरा ही छोड़ दिया है.”

“यही तो कमी है तुम मर्दों में, कि मिल जाए तो औरत को समूचा ही खा लेना चाहते हो तुम लोग?”

“अंशी, नाराज क्यों होती हो जान…”

“माइंड योर लैंग्वेज, मैं कोई जानवान नहीं हूं अखिल… ये सब छलावा है… मैं इसे नहीं मानती.”

“मेरे साथ मेरा रूम शेयर कर सकती हो? ये छलावा नहीं है?”

“मैं अपनी इच्छाओं की मालिक हूं अखिल, जो चाहूं कर सकती हूं. न तुम मुझे रोक सकते हो और न ये
जमाना.”

“मैं तुम्हे चाहने लगा हूं अंशी… बाई गौड…”

“हा… हा… हा… चाहत… किसी से भी… इतनी सस्ती होती है क्या?”

“तुम सस्ती कहां हो अंशी? मेरे दिल से पूछो, कितनी कीमती हो तुम मेरे लिए?”

“अच्छा… कितनी कीमत लगाई है तुम ने मेरी?”

“ओह्ह, बस कर दी न दिल तोड़ने वाली बात…”

“सचाई हकीकत से बहुत अलग होती है.”

“तुम मेरी बगल वाली सीट पर बैठी हो, ये सचाई नहीं है क्या?”

“हां, यह सचाई है, मगर ये पूरी सचाई है कि मैं तुम्हें या तुम मुझे नहीं चाहते हो.”

“अब कैसे दिखाऊं तुम्हें? अंशी, मैं सोतेजागते बस तुम्हारे ही बारे में ही सोचता रहता हूं, यकीन करो
मुझ पर…”

“हा… हा… हा… दूसरा छलावा… कोई शादीशुदा मर्द अपनी खूबसूरत बीवी की गैरहाजिरी में किसी लड़की को घर में लाता है. उस के साथ अय्याशी करता है. बीवी के आते ही चूहे की तरह दुबक जाता है और कहता है कि वह चाहने लगा है… हा… हा… हा.”

“तुम भी तो अपने पति को धोखा दे रही हो अंशी… तुम भी तो शादीशुदा हो… बताओ… मैं झूठ बोल रहा हूं क्या?”

“तुम बेवकूफ हो अखिल… जरूरत को चाहत समझ बैठे हो… तुम्हारा साथ, तुम्हारी कंपनी. मेरी जरूरत है बस और कुछ नहीं… मैं सतीसावित्री नहीं बनना चाहती… न ही बिना अपराध रोज सूली पर चढ़ना चाहती हूं…”

“ये झूठ है, मैं ने तो कभी अपनी पत्नी को सूली पर नहीं चढ़ाया… न ही कोई इलजाम लगाया उस पर.”

“हा… हा… हा… एक संस्कारी औरत का खिताब उस के माथे पर लगा कर बिंदास जिंदगी जी रहे हो और क्या चाहते हो… वो बेचारी अबला तो तुम्हें पति परमेश्वर ही समझती होगी न?”

“यार, तुम भी ये क्या बातें ले कर बैठ गईं?” हारे हुए अखिल को इस गरमाहट के खत्म होने का डर सताने
लगा, तो वह झुंझला उठा.

“अच्छा नहीं करती… बस… सुनो अखिल, रास्ते से बियर की बोतल ले लेना प्लीज…”

“यस डार्लिंग… मुझे याद है…”

“ठंडी बियर…”

“हां.”

शौप से 2 बोतल गाड़ी की पिछली सीट पर डाल कर अखिल ने ड्राइविंग सीट को संभाल लिया है.

घर आने तक बहस की गहमागहमी फिर से रोमांस में तबदील हो चुकी है. चुप्पी ने माहौल को रोमांटिक कर दिया है.

अंशी के स्टैपकट बाल उस के टौप पर पड़े अखिल को अधीर कर रहे हैं. इस बात
से बेखबर अंशी गाड़ी के बाहर लगातार चलती गाड़ियों को देख रही है, जो रुकेंगी नहीं… दौड़ती
रहेंगी… लगातार… यही जिंदगी है… अपनी धुन में दौड़ना… संतुष्टि तक दौड़ते रहना…

14वें माले पर लिफ्ट से पहुंच कर अखिल ने जेब से चाबी निकाल कर दरवाजे का लौक खोला. अंदर आ कर उसी तरह वापस से लौक भी कर दिया.

“तुम्हें शावर लेना है अंशी? चाहो तो फ्रेश हो जाओ… प्रिया की नाइटी ले लेना.”

“तुम जाओ अखिल… मैं देखती हूं,” अंशी ने मोबाइल को स्विच औफ मोड पर डाल दिया है और बैड पर
पर्स फेंक कर पसर गई है.

6 इंची मोटे डनलप के गद्दों ने उस की थकान को छूमंतर कर दिया है.
अखिल ने बाशरूम से आ कर म्यूजिक औन कर दिया. उस का मूड एकदम अलग सा दिख रहा है. अब
अंशी भी शावर लेने के बाद ब्लैक कलर की औफ शोल्डर नाइटी में है. अखिल ने सारी लाइट औफ कर
दी है और रूम स्प्रे से कमरे को महका दिया है. बैडरूम में हलकीहलकी सी रोशनी है, जो रोमांस में डूबने
को मचल रही है. एक रंगीन मोमबत्ती डिजाइनर वाल की सीध में जल रही है, जो हजारों सितारों की तरह
रोशनी दे रही है.

अखिल कांच के गिलास में पैग बना रहा है. अंशी उस के करीब आ कर बैठ गई है, बिलकुल करीब. उस की सांसों की गरमाहट अखिल महसूस कर रहा है. चीयर्स कर पहला पैग खत्म किया
है… फिर दूसरा… तीसरा… और चौथा… नशा गहराने लगा है… उस ने अंशी को बांहों में भर लिया. उस की आंखें बंद हैं. उस ने उस की दोनों बंद आंखों पर एकएक चुम्बन अंकित कर दिया है.

अंशी ने अपनी बांहों को उस के गले में डाल कर उस का चेहरा अपने करीब कर लिया है. अखिल के हाथ उस की पीठ पर रेंग रहे हैं.
इसी मुद्रा में लिपटे दोनों बैठे हैं, जरूरत के साधनमात्र… न प्रेम, न चाहत, न कसक, न भावनाएं…

डुबोने के बाद पूरा समंदर एकदम शांत है. अंशी ने हौले से अपने सीने पर रखा अखिल का हाथ हटाया. नाईटी पहन कर वह ड्राइंगरूम में आ गई है. पर्स से सिगरेट निकाल कर सुलगाई है और सोफे पर
बैठ कर पैर टेबल पर फैला लिए हैं. एक गहरा कश लिया है… “लक्ष्य, मेरे पति.. हा… हा… हा… तुम्हारे हाथों की कठपुतली नहीं हूं मैं, अपनी मरजी से जीना आता है मुझे… और तुम्हारी औकात ही क्या है? मुझ
जैसी लड़की को शिकंजे में जकड़ने की? नहीं… लक्ष्य ये कभी नहीं होगा… जाओ, चले जाओ… देखती हूं… कौन तुम्हें अपने दिल में जगह देगी? यहां से वहां चाटते रहना सब की जूतियां… एक दिन सब की
सब छोड़ के चली जाएंगी… फिर मैं भी थूक दूंगी तुम्हारे मुंह पर… देखो, मैं ने थूक ही दिया है तुम्हारे पूरे मुंह पर… तुम्हारी औकात यही है लक्ष्य… तुम ने मेरा जीना दुश्वार किया है न… अब मेरी भी इच्छाओं के तहखाने खुल गए हैं, जो कब के बंद पड़े थे. मेरे भी सपने हैं, जो उन तहखानों से झांक रहे हैं, खुली हवा में सांस लेने को मचल रहे हैं. अब ये तहखाने कभी बंद नहीं होंगे. मेरे हौसले की किरणें इस की सीलन को खत्म कर देंगी. घुटघुट कर जीना मेरे हिस्से में नहीं, अब तुम्हारे हिस्से में होगा… अब तुम मेरा इंतजार करोगे… मेरे लिए अपनी सारी सांसें न्योछावर करोगे और बदले में कुछ नहीं मिलेगा. राहत,
हमदर्दी का एक लफ्ज भी नहीं… तुम मेरी मौजूदगी को घर के कोनेकोने में तलाशोगे और मैं अपनी
रंगीन दुनिया में ऐश करूंगी… मैं परंपरावादी, संस्कारी, आश्रित और बेचारी नही हूं… सुना तुम ने…? ऐश के रास्ते जितना तुम्हारे लिए खुले हैं, उतना मेरे लिए भी… मैं… मैं हूं… अब मैं नहीं, तुम मुझ से डरोगे… दहशत खाओगे… जैसे मैं खाती हूं… लक्ष्य, मैं नहीं हूं अब… तुम ने मुझे खो दिया है.

लेखिका- छाया अग्रवाल

Hindi Story : सैंडल – क्या हुआ था गुड्डी के साथ

Hindi Story : अपने बैडरूम के पीछे से किसी बच्ची के जोरजोर से रोने की आवाज सुन कर मैं चौंका. खिड़की से झांकने पर पता चला कि किशन की बेटी गुड्डी दहाड़ें मारमार कर रो रही थी.

मैं ने खिड़की से ही पूछा, ‘‘अरी लीला, छोरी क्यों रो रही?है?’’ इस पर गुड्डी की मां ने जवाब दिया, ‘‘क्या बताएं सरकार, छोरी इस दीवाली पर बहूरानी जैसे सैंडल की जिद कर रही है…’’ वह कुछ रुक कर बोली, ‘‘इस गरीबी में मैं इसे सैंडल कहां से ला कर दूं?’’

मैं अपनी ठकुराहट में चुप रहा और खिड़की का परदा गिरा दिया. मैं ने जब से होश संभाला था, तब से किशन के परिवार को अपने खेतों में मजदूरी करते ही पाया था. जब 10वीं जमात में आया, तब जा कर समझ आया कि कुछ नीची जाति के परिवार हमारे यहां बंधुआ मजदूर हैं.

सारा दिन जीतोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से इन्हें दो जून की रोटी व पहनने के लिए ठाकुरों की उतरन ही मिल पाती थी. इस में भी बेहद खुश थे ये लोग. गुड्डी किशन की सब से बड़ी लड़की थी. भूरीभूरी आंखें, गोल चेहरा, साफ रंग, सुंदर चमकीले दांत, इकहरा बदन. सच मानें तो किसी ‘बार्बी डौल’ से कम न थी. बस कमी थी तो केवल उस की जाति की, जिस पर उस का कोई वश नहीं था. वह चौथी जमात तक ही स्कूल जा सकी थी.

अगले ही साल घर में लड़का पैदा हुआ तो 13 साल की उम्र में स्कूल छुड़वा दिया गया और छोटे भाई कैलाश की जिम्मेदारी उस के मासूम कंधों पर डाल दी गई. दिनभर कैलाश की देखभाल करना, उसे खिलानापिलाना, नहलानाधुलाना वगैरह सबकुछ गुड्डी के जिम्मे था. कैलाश के जरा सा रोने पर मां कहती, ‘‘अरी गुड्डी, कहां मर गई? एक बच्चे को भी संभाल नहीं सकती.’’

बेचारी गुड्डी फौरन भाग कर कैलाश को उठा लेती और चुप कराने लग जाती. इस काम में जरा सी चूक होने पर लीला उसे बड़ी बेरहमी से पीटती. फिर भी वह सारा दिन चहकती रहती. शायद बेटी होना ही उस का जुर्म था. मेरी शादी के बाद ‘ऊंची एड़ी के सैंडल’ पहनना गुड्डी का सपना सा बन गया था. गृहप्रवेश की रस्म के समय उस ने मेरी बीवी के पैरों में सैंडल देख लिए थे. बस, फिर क्या था, उस ने मन ही मन ठान लिया था कि अब तो वह सैंडल पहन कर ही दम लेगी.

उस की सोच का दायरा बस सैंडल तक ही सिमट कर रह गया था. गुड्डी कभीकभार हमारी कोठी में आया करती थी. एक बार की बात है कि वह अपने हाथ में मुड़ातुड़ा अखबार का टुकड़ा लिए इठलाती हुई जा रही थी.

मैं ने पूछ लिया, ‘‘गुड्डी, क्या है तेरे हाथ में?’’ वह चुप रही. मैं ने मांगा तो कागज का टुकड़ा मुझे थमा दिया. मैं ने अखबार का पन्ना खोल कर देखा तो पाया कि वह सैंडल का इश्तिहार था, जिसे गुड्डी ने सहेज कर अपने पास रखा था.

मैं ने अखबार का टुकड़ा उसे वापस दे दिया. वह लौट गई. इस से पहले भी कमरे में झाड़ू लगाते समय मैं ने एक बार उसे अपनी बीवी के सैंडल पहनते हुए देख लिया था. मेरे कदमों की आहट सुन कर गुड्डी ने फौरन उन्हें उतार कर एक ओर सरका दिया. मैं ने भी बचकानी हरकत जान कर उस से कुछ नहीं कहा.

गुड्डी की जिद को देख कर मन तो मेरा भी बहुत हो रहा था कि उसे एक जोड़ी सैंडल ला दूं. मगर मां बाबूजी के आगे हिम्मत न पड़ती थी, अपने मजदूरों पर एक धेला भी खर्च करने की. बाबूजी इतने कंजूस थे कि एक बार गांव के कुछ लोग मरघट की चारदीवारी के लिए चंदा मांगने आए थे तो उन्हें यह कह कर लौटा दिया, ‘‘अरे बेवकूफों, ऐसी जगह पर चारदीवारी की क्या जरूरत है, जहां जिंदा आदमी तो जाना नहीं चाहता और मरे हुए उठ कर आ नहीं सकते.’’

बेचारे गांव वाले अपना सा मुंह ले कर लौट गए. गुड्डी को कुछ ला कर देना तो दूर की बात है, हमें उस से बात करने तक की इजाजत नहीं थी. हमारे घरेलू नौकरों तक को नीची जाति के लोगों से बात करने की मनाही थी. गांव में उन के लिए अलग कुआं, अलग जमीन पर धान, सागसब्जी उगाने का इंतजाम था.

वैसे तो किशन की झोंपड़ी हमारी कोठी से कुछ ही दूरी पर थी, मगर उस के परिवार में कितने लोग हैं, इस का मुझे भी अंदाजा नहीं था. मैं राजस्थान यूनिवर्सिटी से बीकौम का इम्तिहान पास कर वकालत पढ़ने विलायत चला गया. वहां भी गुड्डी मेरे लिए एक सवाल बनी हुई थी.

देर रात तक नींद न आने पर जब घर के बारे में सोचता तो गुड्डी के सैंडल की याद ताजा हो उठती. मैं मन ही मन उसे अपने परिवार का सदस्य मान चुका था.

4 साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. मैं ने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली थी. अब बात आगे काम सीखने की थी, जो मैं यहां अपने देश में ही करना चाहता था. इधर पिताजी ने जोधपुर हाईकोर्ट में अपने वकील दोस्त भंडारी से मेरे बारे में बात कर ली थी इसलिए मैं भारत लौट रहा था.

चंद रोज बाद ही मैं मुंबई एयरपोर्ट पर था. एयरपोर्ट से रेलवे स्टेशन करीब डेढ़ किलोमीटर दूर था. 4 साल तक विदेश में रहने के बावजूद भी मैं मांबाबूजी के खिलाफ जाने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाया था, फिर भी किसी तरह उन्हें मनाने का मन बना लिया था. ट्रेन के आने में अभी 5 घंटे का समय था, इसलिए रिकशे वाले को जूतों की किसी अच्छी सी दुकान पर ले चलने को कहा. वहां से गुड्डी के लिए एक जोड़ी सैंडल खरीदे और रेलवे स्टेशन पहुंच गया.

कुली ने सारा सामान टे्रन में चढ़ा दिया. मैं ने सैंडल वाली थैली अपने हाथ में ही रखी. यह थैली मुझे अपने मन की पोशाक जान पड़ती थी, जिस के सहारे मैं ऊंचनीच का भेद भुला कर पुण्य का पापड़ सेंकने की फिराक में था. मेरा गांव रायसिंह नगर मुंबई से तकरीबन 800 किलोमीटर दूर था. आज बड़ी लाइन के जमाने में भी वहां तक पहुंचने में 20 घंटे लग जाते हैं और

3 बार ट्रेन बदलनी पड़ती है. आजादी से 2 साल पहले तो 3 दिन और 2 रातें सफर में ही गुजर जाती थीं. अगले दिन शाम तकरीबन 5 बजे मैं थकाहारा गांव पहुंचा.

गांव में त्योहार का सा माहौल था. पूरा गांव मेरे विदेश से लौटने पर खुश था. गांवभर में मिठाइयां बांटी जा रही थीं. सभी के मुंह पर एक ही बात थी, ‘‘छोटे सरकार विदेश से वकालत पढ़ कर लौटे हैं.’’ मैं बीकानेर इलाके का पहला वकील था. उस जमाने में वकील को लोग बड़ी इज्जत से देखते थे.

घर पहुंचने पर बग्घी से उतरते ही मैं ने किशन की झोंपड़ी की ओर एक नजर डाली, मगर वहां गुड्डी नहीं दिखाई दी. रात 9 बजे के बाद माहौल कुछ शांत हुआ. पर मेरा पूरा बदन टूटा जा रहा था. खाना खाया और दर्द दूर करने की दवा ले कर सो गया.

अगले दिन सुबह 9 बजे के आसपास मेरी आंख खुली. श्रीमतीजी मेरा सूटकेस व दूसरा सामान टटोल रही थीं. उस ने अपने मतलब की सभी चीजें निकाल ली थीं, जो मैं उस के लिए ही लाया था. यहां तक कि मां की साड़ी, पिताजी के लिए शाल, छोटे भाईबहनों के कपड़े वगैरह सबकुछ मेरे जगने से पहले ही बंट चुके थे. पर सैंडल वाली थैली नदारद थी. मैं ने सोचा कि सुधा ने अपना समझ कर कहीं रख दी होगी.

दोपहर के खाने के बाद मैं ने सोचा कि अब गुड्डी के सैंडल दे आऊं. उसे बड़ी खुशी होगी कि बाबूजी परदेश से मेरे लिए भी कुछ लाए हैं. मैं ने अपनी बीवी से पूछा, ‘‘सुधा, वह लाल रंग की थैली कहां रख दी, जिस में सैंडल थे?’’

सुधा ने जवाब दिया, ‘‘ऐसी तो कोई थैली नहीं थी आप के सामान में.’’ मैं ने फिर कहा, ‘‘अरे यार, मुंबई से लाया था. यहींकहीं होगी. जरा गौर से देखो.’’

सुधा ने सारा सामान उलटपुलट कर दिया, मगर वह लाल रंग की थैली कहीं नहीं मिली. काफी देर के बाद याद आया कि अजमेर रेलवे स्टेशन पर एक आदमी बड़ी देर से मेरे सामान पर नजर गड़ाए था, शायद वही मौका पा कर ले गया होगा. यह बात मैं ने सुधा को बताई

तो वह बोली, ‘‘चलो अच्छा ही हुआ. किसी जरूरतमंद के काम तो आएगी. वैसे भी मेरे पास तो 6-7 जोड़ी सैंडल पड़े हैं.’’ इस पर मैं ने कहा, ‘‘अरी सुधा, वह मैं तुम्हारे लिए नहीं गुड्डी के लिए लाया था.’’ गुड्डी का नाम सुनते ही सुधा सिसकने लगी. उस की आंखें भीग गईं. वह बोली, ‘‘किसे पहनाते, गुड्डी को मरे तो 4 महीने हो गए.’’

सुधा की पूरी बात सुन कर मैं भी रो पड़ा. सुधा ने बताया कि मेरे जाने के एक साल बाद ही बेचारी गरीब को एक ऐयाश शराबी के साथ ब्याह दिया गया. उम्र में भी वह काफी बड़ा था. गुड्डी लोगों के घरों में झाड़ूपोंछा कर जो भी 2-4 रुपए कमा कर लाती, उसे भी वह मारपीट कर ले जाता. चौबीसों घंटे वह शराब पी कर पड़ा रहता था. बहुत दुखी थी बेचारी. फिर भी उस ने अपने सपने को ज्यों का त्यों संजो कर रखा था. करीब 4 महीने पहले बड़ी मुश्किल से छिपछिपा कर बेचारी ने 62 रुपए जोड़ लिए थे.

करवाचौथ के दिन गांव में हाट लगा था, जहां से गुड्डी अपना सपना खरीद कर लाई थी. उसे क्या पता था कि यह सपना ही उस के लिए काल बन जाएगा. गुड्डी ने हाट से वापस आ कर सैंडल ऊपर के आले में रखे थे. एक बार पहन कर देखे तक नहीं कि कहीं मैले न हो जाएं.

शाम को न जाने कहां से उस के पति की नजर सैंडल पर पड़ गई. कहने लगा, ‘‘बता चुड़ैल, कहां से लाई इतने पैसे? किस के साथ गई थी?’’ और लगा उसे जोरजोर से पीटने. गुड्डी पेट से थी. उस ने एक लात बेचारी के पेट पर दे मारी. वही लात उस के लिए भारी पड़ गई. उस की मौत हो गई. उस का पति आजकल जेल में पड़ा सड़ रहा है.

यही थी गुड्डी की दर्दभरी कहानी, जिसे सुन कर कोई भी रो पड़ता था. पर अब न गुड्डी थी, न गुड्डी का सपना.

लेखक- जितेंद्र छंगाणी

Hindi Kahani : अंत – क्या हुआ था मंगल के साथ

Hindi Kahani : मेरे घर वालों को जिस बात का डर था, अंत में वही हुआ- मंगल पांडे हत्याकांड के सिलसिले में पुलिस पूछताछ करने के लिए मेरे घर भी आ धमकी थी- मंगल पांडे से मेरा कोई विशेष वास्ता न था, सिवा इस के कि वह मेरा बचपन का दोस्त और सहपाठी था- बाद में हम नदी के दो किनारों की तरह हो गए- मैं नियमित पढा़ई करता हुआ एक कालिज में प्राध्यापक हो गया और वह माफिया गिरोहों के साथ लग कर करोडों में खेलने लगा था- तथापि यह कहना गलत नहीं होगा कि मेरी उस से यदाकदा भेंट हो ही जाती थी- मगर मैं ने यह नहीं सोचा था कि यही यदाकदा की मुलाकात एक दिन मेरे गले की फांस बन जाएगी-

मैं पहले ही कहती थी कि उस मंगल से ज्यादा मेलजोल ठीक नहीं, मां बड़बडा़ रही थीं, खुद तो मर गया पर हमारी जान को सांसत में डाल गया-

अब चुप भी रहो, मैं झुंझला कर कमीज बदलते हुए मां से बोला, फ्घर में पुलिस आई है तो क्या हुआ- थोडी़बहुत पूछताछ की औपचारिकता पूरी करेगी और क्या- हमारे घर में कोई हीरेजवाहरात हैं या नोटों की गड्डियां भरी पडी़ हैं, जो डरने की जरूरत है-

घर में पुलिस आ धमकी और तू कहता है कि डरने की क्या जरूरत, मां गुर्राईं, पुलिस हमारे घर की तलाशी लेगी- हमारी महल्ले में क्या इज्जत रह जाएगी?

इस समय घर में हीलहुज्जत न करना ठीक था- पुलिस इंस्पेक्टर के पास पूछताछ करने और घर की तलाशी लेने का वारंट भी था- उस ने सब से पहले मुझ पर एक गहरी नजर डाली और फिर बैठक का सरसरी नजरों से मुआयना किया- मैं ने देखा उस की जीप बाहर खडी़ थी, जिस में ड्राइवर बैठा था- 2 सिपाही अंदर खडे़ थे, जबकि 3 अपनी राइफलों को साथ लिए बाहर खडे़ थे- पहले तो उन्हें देख कर मुझे पसीना आ गया- फिर मैं ने खुद को अंदर से संयत और मजबूत किया- यह सोच कर कि जब मैं कहीं से भी गलत नहीं, तो फिर डरने की क्या बात- फिर भी जरा सी भी ढिलाई अथवा प्रश्नोत्तरों में गड़बडी़ होते ही मैं फंस सकता हूं, इस का अंदाजा मुझे था- पुलिस इंस्पेक्टर ने छूटते ही सवाल दागा, फ्आप मंगल पांडे को कब से जानते थे?

फ्वह मेरे बचपन का दोस्त और सहपाठी था, मैं ने शांत रहने की कोशिश करते हुए कहा, फ्वह मेरे महल्ले का ही रहने वाला था- बाद में हमारे रास्ते अलगअलग हो गए थे-

उस का आप से क्या व्यावसायिक संबंध था?

फ्मुझ से, मेरा मुंह खुला का खुला रह गया, फ्उस से भला मेरा क्या व्यावसायिक संबंध हो सकता था- वह किसी भी तरीके से अमीर और प्रभावशाली आदमी बनना चाहता था, जबकि मैं थोडे़ में ही खुश रहने वाला आदमी हूं- क्या आप को ऐसा नहीं लगता?

लगता तो है, इंस्पेक्टर व्यंग्य से बैठक के कोने में रखी खटारा मोपेड को देख कर मुसकराया, फ्आप को पता है कि हमारे पास आप के घर की तलाशी का वारंट भी है और हम आप को गिरपतार भी कर सकते हैं- लेकिन अगर आप सचसच जवाब देंगे, तो आप इन से बच सकते हैं- वैसे भी यह आप का फर्ज है कि आप भारतीय नागरिक होने के नाते हमारी खोजबीन में मदद करें-

घर की तलाशी के नाम पर मेरा माथा घूम गया- फौरन ही आंखों के सामने एक दृश्य आया, जिस में पुलिस मुझे हथकडी़ पहना कर ले जा रही है और सारा महल्ला मुझे घूरघूर कर देखते हुए कह रहा है, ‘देख लो, मंगल पांडे का एक और साथी पकडा़ गया-’ मगर यह इंस्पेक्टर दोहरी बात क्यों कर रहा है- एक तरफ धमकी भी दे रहा है, दूसरी तरफ मदद की बात भी कह रहा है- मुझे लगा कि शायद इंस्पेक्टर को भी यह अजीब लगता हो कि मंगल मेरा कैसा दोेस्त था, जिस के घर की हालत बस, औसत दरजे की है- इस से मुझ में थोडा़ साहस का संचार हुआ-

फ्आप मुझ से जो मदद चाहेंगे, वह मैं अवश्य करूंगा- फिर भी मंगल जैसे माफिया को मैं ठीक से नहीं जानता- माफिया शब्द का सही अर्थ क्या है, आप विश्वास करें, मैं ठीक से नहीं जानता- मैं तो उसे बस, एक साधारण दोस्त के रूप में ही जानता रहा-

आप उस से आखिरी बार कब मिले थे?

यह सवाल थोडा़ गड़बडा़ने वाला था और मैं गड़बडा़या भी- अपनी स्मृति पर जोर देते हुए मैं ने बताया कि लगभग 3 महीने पहले एक साधारण होटल के पास उस से मुलाकात हुई थी और वहीं होटल की बेंच पर बैठ कर साथसाथ चाय पी थी- वह भी मुझे इस कारण याद है, क्योंकि वह दुकान वाला तो मुझे अच्छी तरह जानता था, मगर मारुति से उतरे लकदक कपडे़ पहने उस मनमोहक मंगल को देख कर अवाक था जो 4 निजी सुरक्षादस्तों से घिरा था और मुझ जैसे अदना आदमी के साथ सड़क की पटरी पर ही खडे़खडे़ कांच के साधारण गिलास में चाय पीने लगा था- मैं ने इस बात को हलके रूप में लिया था- मगर उस चाय वाले की नजर में मेरी इज्जत बढ़ गई थी-

आप की उस से क्या बातें हुईं?

कुछ खास नहीं- भला मैं उस से क्या बात करता, वह भी सड़क के फुटपाथ पर- हां, वह मेरे मध्यवर्गीय जीवन जीने पर व्यंग्य अवश्य कर रहा था- कुछ हंसीमजाक की बात हुई- बाद में चाय के पैसे चुकाने को कहा-

फ्और उस ने एक नोटों की गड्डी भी दी-

मैं अंदर से थोडा़ भयभीत तो था ही मगर अब चौंकने की बारी थी- तो इस इंस्पेक्टर को सबकुछ जानकारी है- फिर यह पूछताछ क्यों कर रहा है- मैं ने थोडा़ कडे़ लहजे में कहा, फ्दी नहीं, देना चाहता था- मगर मैं ने ली नहीं-

फ्क्यों?

फ्क्योंकि मैं मुपत की कमाई को हाथ नहीं लगाता-

फ्खूब फिलासफी झाड़ लेते हो-

फ्अपनीअपनी सोच है-

फ्हम आप से ज्यादा छेड़छाड़ न कर के वापस जा रहे हैं, इंस्पेक्टर उठते हुए बोला, फ्वैसे तो हमें नियमतः आप के घर की तलाशी लेनी थी, मगर फिलहाल, आप पर संदेह करने का कोई कारण नहीं बनता- तथापि आप को यह भी बता दें कि आजकल तथाकथित शरीफ और सफेदपोश लोग ही ज्यादा गड़बडि़यां करते हैं- मुझे ऐसा लग रहा है कि आप मंगल पांडे के बारे में कुछ खास बातें जानते हैं- फिर भी बताना नहीं चाहते. घ्यह आप की मरजीघ्है. घ्मगर जब भी मैं आप को तपतीश के लिए थाने बुलाऊं, आप अवश्य आएंगे-

फ्मुझे आप से सहयोग कर खुशी होगी इंस्पेक्टर साहब, मैं पिजरे से मुक्त पक्षी की तरह मुक्ति का एहसास करते हुए बोला, फ्वैसे मैं आप से फिर कहता हूं कि मंगल के बारे में मेरी जानकारी सिर्फ अखबारों और पत्रिकाओं तक ही सीमित है-

इंस्पेक्टर मेरी बात अनसुनी करता हुआ जीप में बैठ गया- जीप के जाते ही मैं ने महल्ले में नजर दौडा़ई- उधर घरों के दरवाजों और खिड़कियों के पास से मेरे घर की ओर निगाह टिकाए उत्सुक आंखों में कुछ न देख पाने का गम महसूस किया- मुझे देख मेरे घर के लोग इस तरह से संतोष की सांस ले रहे थे मानो मैं फांसी पर चढ़तेचढ़ते बालबाल बच गया हूं-

मगर मेरे मन में पुलिस इंस्पेक्टर के आनेजाने का आतंक जैसे अभी तक कायम था- अगर वह नहीं मानता और अनापशनाप सवाल ही करता तो मैं क्या करता- भले ही घर में कुछ न मिलता, मगर तलाशी के बहाने पूरे घर की उलटपलट कर देता तो क्या होता- हथकडी़ न भी पहनाता, पर सिर्फ जीप में बैठा कर पूछताछ के लिए थाने ले जाता, तो भी महल्ले में क्या कुछ नहीं अफवाह फैलती. और यह सब किस की वजह से हुआ, उस मंगल पांडे की वजह से, जो संयोग से मेरा सहपाठी था और माफिया गिरोह का मुखिया बन गया था-

ऐसी बात न थी कि मेरा मंगल पांडे से बिलकुल ही मेलजोल और उठनाबैठना न था- एकाध माह में तो मैं उस से मिल ही लिया करता था- उस का एक खास कारण यह था कि मुझे सिर्फ उस के कारण अपने ऐसे किराएदार से मुक्ति मिली थी जो हमारे घर के आधे हिस्से पर लगभग कब्जा ही जमा चुका था- बाद में मैं ने उस के खानेपीने का इंतजाम एक होटल में किया था-

उस का मकान हमारे महल्ले में मेरे घर से थोडी़ ही दूर पर उस जगह था, जहां सड़क और गली मिलती थी- उस के पिता एक साधारण सिपाही थे- 4 भाईबहनों में वह सब से छोटा था- शुरू से ही वह सीधासादा था- फिर भी जब कभी वह कोई बात ठान लेता तो वह उस के लिए पत्थर की लकीर के समान हो जाती थी- इसलिए उस के पिताजी अकसर कहा करते, ‘ऐसी सूखी हड्डी ले कर इतना गुस्सा करेगा तो कैसे काम चलेगा-’

कदकाठी में ही नहीं, बल्कि पढा़ईलिखाई में भी हम दोनों साधारण थे- हम दोनों के घर की माली हालत भी ठीक न थी- बस, घर किसी तरह चल रहा था और हम पढ़ रहे थे- फिर भी एक सीधासादा लड़का, जिस की पारिवारिक पृष्ठभूमि और संस्कार अच्छे रहे हों, आखिर अपराध की दुनिया में चला कैसे गया, यह आश्चर्य की बात थी- और फिर मंगल पांडे वहां गया नहीं बल्कि वहां का शहंशाह भी बन गया, यह घोर आश्चर्य की बात थी-

अपने छोटे से आपराधिक जीवनकाल में वह फटाफट सफलता की सीढि़यां चढ़ते दौलत से खेलने लगा- हत्याएं और अपहरण करनेकरवाने लगा और सत्ता की सीढि़यां चढ़ने केघ्मंसूबे बांधने लगा- यह सब सोचना काफी अजीब सा लगता है, मगर फिर भी यह सच तो था ही-

बात सिर्फ छोटी सी थी- पर उस छोटी सी घटना ने मंगल की जीवनधारा को बदल दिया था-

उस वक्त हम इंटर के छात्र थे- नई उम्र थी इसलिए जोश से सराबोर रहते थे- उन्हीं दिनों हमें गली के चाय एवं पान की दुकानों पर घूमनेबैठने और गप्पें मारने का शौक भी चर्राया हुआ था- हम अपनी आधीअधूरी जानकारियों का आदानप्रदान कर परमज्ञानी होने का दंभ भी पाले हुए थे- उसी समय की घटना थी वह-

घटना कुछ यों हुई कि मंगल पांडे की बहन के साथ महल्ले के एक दादानुमा लड़के ने छेड़छाड़ कर दी थी- मंगल उस से भिड़ गया था- उस झगडे़ में मंगल उस से पिट गया था- दूसरे दिन उस लड़के ने उस पर कुछ फब्तियां भी कसीं- पूरे दिन मंगल गुस्से में उबलता रहा-

शाम को उस ने उस लड़के को एक दुकान के पास घेरा और जाने कहां से जुगाड़ किया गया चाकू उस के पेट में उतार दिया- तमाशबीन भाग खडे़ हुए- मंगल ने उस लड़के को ताबड़तोड़ कई चाकू मारे और गलियों के रास्ते गुम हो गया-

घटना कुछ इस तेजी से घटी कि हम सभी ठगे से देखते रह गए- इस के बाद हम दोनों परिवारों में बढ़ते तनाव और पुलिसकर्मियों का आनाजाना देखते रहे- मंगल पांडे का कोई अतापता न था- फिर धीरेधीरे सभी कुछ सामान्य होने लगा था-

उस घटना के बाद स्थानीय अखबारों की सुर्खियों में रहने वाला मंगल पांडे एक बार फिर तब अखबारों की सुर्खियों में आया जब पडो़सी प्रदेश के एक मंत्री के मारे जाने में उस का हाथ बताया गया- उस का बडा़ भाई अब प्राइवेट फर्म की नौकरी छोड़ कर सड़क और रेलवे की ठेकेदारी लेने लगा था और इसी के साथ मंगल का वह साधारण सा घर देखतेदेखते आलीशान कोठी में बदल गया- महल्ले में यह आम चर्चा थी कि वह एक स्थानीय माफिया गिरोह से जुड़ गया है और वह अपने घर भी आताजाता है- वह अब ‘शेर सिह’ के नाम से कुख्यात हो गया था, जिस के पीछे पुलिस लगी थी- मगर वह अब राजनीतिबाजों के संरक्षण में उन का संरक्षक था-

जब मेरी प्राध्यापक की नौकरी लगी तो मैं ने खुद ही मिठाई ले कर पूरे महल्ले में घरघर जा कर बांटी थी- उसी क्रम में मैं जब उस के भी घर गया तो वहां की साजसज्जा देख कर अवाक रह गया- मंगल पांडे का मकान एक भव्य भवन के रूप में बदल गया है, यह हम सभी जानते थे- मगर वह अंदर से इतना आकर्षक और ठाटबाट वाला होगा, इस का हमें पता न था- उस के घर में गाडी़ थी और उस के भाइयों के पास दरजन भर ट्रकों का बेडा़ था- उस की बहन मुझे अंदर के एक कमरे में बैठा गई- थोडी़ देर में जो मेरे सामने खडा़ था, उसे देख कर मैं हतप्रभ था- वह मंगल पांडे था-

उस से हाथ मिलाते वक्त मेरे हाथ कांप से गए. क्या यह वही साधारण हाथ है जिस ने हत्या की है- भड़कीली पोशाक में सजा वह मुझे देख मुसकरा रहा था.

‘यह कौन सी मास्टरी की नौकरी कर ली- मुझ से कहा होता यार, तो मैं तुझे कोई अच्छी सी नौकरी दिलवाता,’ मंगल ने कहा था।

‘तुम मुझे नौकरी दिलवाते,’ मैं हंस पडा़, ‘तुम कौन सेे मंत्री बन गए हो-’

‘इन तथाकथित मंत्रियों को तो मैं अपनी जेब में रखता हूं,’ वह लापरवाही भरे अंदाज में बोला, ‘और बडे़बडे़ अधिकारियों को तो मैं चुटकी बजाते एक कोने से दूसरे कोने में स्थानांतरित करा सकता हूं-’

अचानक उस कमरे में उस के पिताजी आए और उसे देखते ही चीखे, ‘तू यहां फिर आ गया- क्यों आया यहां? मैं तेरी सूरत नहीं देखना चाहता-’

‘चला जाऊंगा,’ वह बेरुखी भरे शब्दों में बोला, ‘आप इतना चिल्लाते क्यों हैं?’

‘नहीं, जाओ यहां से- नहीं तो मैं खुद फोन कर पुलिस द्वारा तुम्हें पकड़वा दूंगा-’

‘पुलिस, और वह मुझे पकडे़गी,’ वह व्यंग्य से मुसकराया, ‘उसे मैं पैसा देता हूं- कहिए तो मैं ही उसे बुलवा दूं,’ उस ने जेब से मोबाइल फोन निकाला- तब तक उस के पिताजी जा चुके थे- उस ने फोन पर किसी को कार भेजने को कहा- फिर फोन बंद कर मुझ से बोला, ‘तुम मुझे सिविल लाइंस वाले घर पर मिलना- यहां पिताजी अब भी मुझ से चिढ़ते हैं- यह रहा मेरा पता। और तुम्हें कोई जरूरत हो तो मुझ से मिलना- अरे हां, मैं ने तुम्हारी खुशी की मिठाई तो खाई ही नहीं,’ और उस ने मिठाई का एक टुकडा़ अपने मुंह में रख लिया था-

कुछ दिन बाद ही उस का एक आदमी मुझे उस के घर ले गया, जहां वह अकेला रहता था- मगर वह वहां अकेला नहीं था- वहां उस के कुछ नौकरों, आदमियों के साथ उस की रखैल पूजा भी थी- उस के कमरे की अलमारियां विभिन्न ब्रांडों वाले शराब से सजी थीं-

‘आज तुम मेरी सफलता का स्वाद चखो,’ डाइनिग टेबल के पास मुझे ले जा कर वह बोला, ‘यहां वह सबकुछ है जिसे तुम खा सकते हो और पी भी सकते हो-’

उस ने एक उन्मुक्त ठहाका लगाया, तो मैं सहम गया- अजीबोगरीब हथियारों से लैस अपने आदमियों से घिरा और अपनी जेब में एक विदेशी रिवाल्वर रखे अपनी रखैल के साथ जो बैठा है, क्या यह वही मंगल पांडे है जिसे मैं बचपन से जानता हूं, जो कभी मेरा दोस्त था और जिसे मैं देखना चाहता था- मजबूरन मुझे उस के साथ भोजन करना ही पडा़- इस आधे घंटे के दौरान उस ने अपनी उपलब्धियों और सफलताओं का कच्चा चिट्ठा मेरे सामने रख दिया था- उस की पहुंच किनकिन राजनेताओं और उच्चाधिकारियों तक थी और कैसेकैसे वह काम करता था, यह जानना मेरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं था- इसी बीच उस के एक आदमी ने एक अटैची उस के पास रख दी, जो रुपयों से भरी थी- उस ने लापरवाही से अटैची खोली- रुपयों के 2-3 बंडलों को देखा और अटैची को बंद कर दिया-

‘इतना कुछ पा कर भी क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि कहीं कोई चीज खो भी गई है,’ मैं शांत स्वर में बोला, ‘मंगल, सच बताना, क्या ऐसा नहीं लगता?’

‘मैं ने अपनी सामाजिकता खोई है- अपना निजत्व खोया है,’ उस के स्वर में थोडा़ रूखापन था, ‘सब से बडी़ बात, मैं ने अपने पिताजी को खो दिया- मगर तुम्हीं बताओ, जब यह समाज ही ऐसा है कि सभी मुखौटे लगाए बैठे हैं तो मैं क्या करता- अपने बचाव का रास्ता सभी अख्तियार करते हैं और मैं ने भी किया, तो क्या बुरा किया.’

‘मगर यह कैसा रास्ता चुना तुम ने, जो अपराध की अंधेरी सुरंग से हो कर गुजरता है और आगे का तुम्हारा क्या भविष्य है?’

‘मेरा भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है,’ वह गर्व से बोला, ‘अगले चुनाव में मैं भी एक उम्मीदवार बन कर तुम्हारे सामने आऊंगा, तब तुम देखना- मगर उस के लिए कुछ रुपयों का जुगाड़ तो कर लूं-’

‘रुपया तो तुम्हारे पास बहुत है,’ मैं उस की तिजोरी की ओर इशारा कर बोला, ‘और कितना चाहिए?’

‘करोडों़ रुपए,’ वह हंस पडा़, ‘तुम नहीं जानते, और जानने की कोशिश भी न करना- बहुत बुरा है यह रास्ता- इस रास्ते का अंत सिर्फ मौत है- चूंकि मैं इस रास्ते पर चल पडा़ हूं, पीछे हटने का मतलब सिर्फ मौत ही है-’

‘और आगे क्या है?’

‘सुरक्षा, सफलता और सत्ता का स्वाद है-’

वापसी के वक्त मैं यही सोचता रह गया कि अपनी इज्जत बचाने की खातिर अपनी बहन के साथ छेड़खानी करने वाले जिस गुंडे की मंगल हत्या करता है, आज वही रखैलें रखने और गुंडागर्दी करने पर उतर आया है- गाडि़यों और रखैलों को कपडों़ की तरह बदलता और शाही ठाट से रहता है- इस शहर के 3 घरों पर कब्जा जमाए हुए है और ऊंची पहुंच रखता है- मगर फिर याद आता है उस के पिता और बहन का चेहरा- चाहे वह कितनी भी सफलता की सीढि़यां तय कर ले, वह उन तक पहुंच नहीं सकता। और यहीं उस की पराजय है-

बाद में अपनी नई नौकरी और पारिवारिक परेशानियों में मैं उलझ कर रह गया- हम अपने ही एक ऐसे किराएदार से उलझे थे जो दबंग तो था ही, मुकदमेबाजी में भी उलझा कर रख दिया था- अंततः जब मुझे समझ में आ गया कि मकान का वह हिस्सा, जिस में वह रहता है, हमारे हाथ से निकल जाएगा, तो मैं ने मंगल पांडे की शरण ली और उस ने उस मकान को दूसरे ही दिन खाली करवा लिया, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा था-

‘जो व्यक्ति ठेके पर हत्याएं करता हो, उस के लिए यह मामूली बात है,’ वह मुसकरा कर बोला था, ‘कभी जरूरत हो तो आना- यह काम तो मैं ने दोस्ती के नाते मुपत में कर दिया और यह तो मेरे बाएं हाथ का खेल है-’

मैं सिहर पडा़- उस किराएदार को निकालने के लिए मैं ने जो तरीका अपनाया था उसी से मैं अपराधबोध से ग्रस्त था- आज तो उस ने उसे भगा दिया, मगर कल मंगल पांडे नहीं रहा और वह आ जाए, तो क्या होगा- यही मैं सोचता था- वैसे अनुभव ने मुझे यह तो सिखाया ही कि अपनी सुरक्षा आप करनी चाहिए- मगर क्या मेरे लिए यह संभव है?

क्या बात है, आज कालिज नहीं जाना क्या?

मैं ने चौंक कर पीछे देखा- पीछे मां खडी़ पूछ रही थीं, अब उस की चिता क्या करना, जो मर गया- जैसी करनी, वैसी भरनी- मौत से खेलेगा तो मौत ही तो मिलेगी- इस पर इतना सोचविचार क्या करना.

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