मां, पराई हुई देहरी तेरी: भैया की शादी होते ही कितना पराया हो गया मीनू का मायका

लेखिका- नीलम कुलश्रेष्ठ 

कमरे में पैर रखते ही पता नहीं क्यों दिल धक से रह जाता?है. मां के घर के मेरे कमरे में इतनी जल्दी सब- कुछ बदल सकता है मैं सोच भी नहीं सकती थी. कमरे में मेरी पसंद के क्रीम कलर की जगह आसमानी रंग हो गया है. परदे भी हरे रंग की जगह नीले रंग के लगा दिए गए हैं, जिन पर बड़ेबड़े गुलाबी फूल बने हुए हैं.

मैं अपना पलंग दरवाजे के सामने वाली दीवार की तरफ रखना पसंद करती थी. अब भैयाभाभी का दोहरा पलंग कुछ इस तरह रखा गया है कि वह दरवाजे से दिखाई न दे. पलंग पर भाभी लेटी हुई हैं. जिधर मेरी पत्रिकाओं का रैक रखा रहता था, अब उसे हटा कर वहां झूला रख दिया गया?है, जिस में वह सफेद मखमली सा शिशु किलकारियां ले रहा है, जिस के लिए मैं भैया की शादी के 10 महीने बाद बनारस से भागी चली आ रही हूं.

‘‘आइए दीदी, आप की आवाज से तो घर चहक रहा था, किंतु आप को तो पता ही है कि हमारी तो इस बिस्तर पर कैद ही हो गई है,’’ भाभी के चेहरे पर नवजात मातृत्व की कमनीय आभा है. वह तकिए का सहारा ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘आप पलंग पर मेरे पास ही बैठ जाइए.’’

मुझे कुछ अटपटा सा लगता है. मेरी मां के घर में मेरे कमरे में कोई बैठा मुझे ही एक पराए मेहमान की तरह आग्रह से बैठा रहा है.

‘‘पहले यह बताइए कि अब आप कैसी हैं?’’ मैं सहज बनने की कोशिश करती हूं.

‘‘यह तो हमें देख कर बताइए. आप चाहे उम्र में छोटी सही, लेकिन अब तो हमें आप के भतीजे को पालने के लिए आप के निर्देश चाहिए. हम ने तो आप को ननद के साथ गुरु  भी बना लिया है. सुना है, तनुजी ‘बेबी शो’ में प्रथम आए?थे.’’

मैं थोड़ा सकुचा जाती हूं. भैया मुझ से 3 वर्ष ही तो बड़े थे, लेकिन उन्हीं की जिद थी कि पहले मीनू की शादी होगी, तभी वह शादी करेंगे. मेरी शादी भी पहले हो गई और बच्चा भी.

भाभी अपनी ही रौ में बताए जा रही हैं कि किस तरह अंतिम क्षणों में उन की हालत खराब हो गई थी. आपरेशन द्वारा प्रसव हुआ.

‘‘आप तो लिखती थीं कि सबकुछ सामान्य चल रहा है फिर आपरेशन क्यों हुआ?’’ कहते हुए मेरी नजर अलमारी पर फिसल जाती है, जहां मेरी अर्थशास्त्र की मोटीमोटी किताबें रखी रहती थीं. वहां एक खाने में मुन्ने के कपड़े, दूसरे में झुनझुने व छोटेमोटे खिलौने. ऊपर वाला खाना गुलदस्तों से सजा हुआ है.

‘‘सबकुछ सामान्य ही था लेकिन आजकल ये प्राइवेट नर्सिंग होम वाले कुछ इस तरह ‘गंभीर अवस्था’ का खाका खींचते हैं कि बच्चे की धड़कन कम हो रही है और अगर आधे घंटे में बच्चा नहीं हुआ तो मांबच्चे दोनों की जान को खतरा है. घर वालों को तो घबरा कर आपरेशन के लिए ‘हां’ कहनी ही पड़ती है.’’

‘‘अब तो जिस से सुनो, उस के ही आपरेशन से बच्चा हो रहा है. हमारे जमाने में तो इक्कादुक्का बच्चे ही आपरेशन से होते थे,’’ मां शायद रसोई में हमारी बात सुन रही हैं, वहीं से हमारी बातों में दखल देती हैं.

मेरी टटोलती निगाह उन क्षणों को छूना चाह रही है जो मैं ने अपनी मां के घर के इस कमरे में गुजारे हैं. परीक्षा की तैयारी करनी है तो यही कमरा. बाहर जाने के लिए तैयार होना है तो शृंगार मेज के सामने घूमघूम कर अपनेआप को निखारने के लिए यही कमरा. मां या पिताजी से कोई अपनी जिद मनवानी हो तो पलंग पर उलटे लेट कर रूठने के लिए यही कमरा या किसी बात पर रोना हो तो सुबकने के लिए इसी कमरे का कोना. मेरा क्या कुछ नहीं जुड़ा था इस कमरे से. अब यही इतना बेगाना लग रहा है कि यह अपनी उछलतीकूदती मीनू को पहचान नहीं पा रहा.

‘‘तू यहीं छिपी बैठी है. मैं तुझे कब से ढूंढ़ रहा हूं,’’ भैया आते ही एक चपत मेरे सिर पर लगाते हैं. भाभी के हाथ में कुछ पैकेट थमा कर कहते हैं, ‘‘लीजिए, बंदा आप के लिए शक्तिवर्धक दवाएं व फल ले आया है.’’ फिर मुन्ने को गोद में उठा कर अपना गाल उस के गाल से सटाते हुए कहते हैं, ‘‘देखा तू ने इसे. मां कह रही थीं बचपन में तू बिलकुल ऐसी ही लगती थी. अगर यह तुझ पर ही गया तो इस के नखरे उठातेउठाते हमारी मुसीबत ही आ जाएगी.’’

‘‘मारूंगी, ऐसे कहा तो,’’ मैं तुनक कर जवाब देती हूं. मुझे यह दृश्य भला सा लग रहा है. अपने संपूर्ण पुरुषत्व की पराकाष्ठा पर पहुंचा पितृत्व के गर्व से दीप्त मुन्ने के गाल से सटा भैया का चेहरा. सबकुछ बेहद अच्छा लगने पर भी, इतनी खुश होते हुए भी एक कतरा उदासी चुपके से आ कर मेरे पास बैठ जाती है. मैं भैया की शादी में भी कितनी मस्त थी. भैया की शादी की तैयारी करवाने 15 दिन पहले ही चली आई थी. मैं ने और मां ने बहुत चाव से ढूंढ़ढूंढ़ कर शादी का सामान चुना था. अपने लिए शादी के दिन के लिए लहंगा व स्वागत समारोह के लिए तनछोई की साड़ी चुनी थी. बरात में भी देर तक नाचती रही थी.

मां व मैं घर पर सारी खुशियां समेट कर भाभी का स्वागत करने के लिए खड़ी थीं. भैया भाभी के आंचल से अपने फेंटे की गांठ बांधे धीरेधीरे दरवाजे पर आ रहे थे.

‘‘अंदर आने का कर लगेगा, भैया.’’ मैं ने अपना हाथ फैला दिया था.

‘‘पराए घर की छोकरी मुझ से कर मांग रही है, चल हट रास्ते से,’’ भैया मुझे खिजाने के लिए आगे बढ़ते आए थे.

‘‘मैं तो नहीं हटूंगी,’’ मैं भी अड़ गई थी.

‘‘कमल, झिकझिक न कर, नेग तो देना ही होगा,’’ मां और एक बुजुर्ग महिला ने बीचबचाव किया था.

‘‘तुम्हीं बताओ, इसे कितनी बख्शीश दें?’’ भैया ने स्नेहिल दृष्टि से भाभी को देखते हुए पूछा था.

भाभी तो संकोच से आधे घूंघट में और भी सिमट गई थीं. किंतु मुझे कुछ बुरा लगा था. मुझे कुछ देने के लिए भैया को अब किसी से पूछने की जरूरत महसूस होने लगी है.

अपनी शादी के बाद पहले विनय का फिर तनु का आगमन, सच ही मैं भी अपनी दुनिया में मस्त हो गई थी. मुझे खुश देखती मां, पिताजी व भैया की खुशी से उछलती तृप्त दृष्टि में भी एक कातर रेखा होती थी कि मीनू अब पराई हो गई. मां तो मुझ से कितनी जुड़ी हुई थीं. घर का कोई महत्त्वपूर्ण काम होता है तो मीनू से पूछ लो, कुछ विशेष सामान लाना हो तो मीनू से पूछ लो. शायद मेरे पराए हो जाने का एहसास ही उन के लिए मेरे बिछोह को सहने की शक्ति भी बना होगा.

‘‘संभालो अपने शहजादे को,’’ भैया, मुन्ने को भाभी के पास लिटाते हुए बोले, ‘‘अब पड़ेगी डांट. मैं यह कहने आया था कि मेज पर मां व विनयजी तेरा इंतजार कर रहे हैं.’’

खाने की मेज पर तनु नानी की गोद में बैठा दूध का गिलास होंठों से लगाए हुए है.

मेरे बैठते ही मां विनय से कहती हैं, ‘‘विनयजी, मैं सोच रही हूं कि 3 महीने बाद हम लोग मुन्ने का मुंडन करवा देंगे. आप लोग जरूर आइए, क्योंकि बच्चे के उतरे हुए बाल बूआ लेती है.’’

मैं या विनय कुछ कहें इस से पहले ही भैया के मुंह से निकल पड़ता है, ‘‘अब ये लोग इतनी जल्दी थोड़े ही आ पाएंगे.’’

मैं जानती हूं कि भैया की इस बात में कोई दुराव नहीं है पर पता नहीं क्यों मेरा चेहरा बेरौनक हो उठता है.

विनय निर्विकार उत्तर देते हैं, ‘‘3 महीने बाद तो आना नहीं हो सकता. इतनी जल्दी मुझे छुट्टी भी नहीं मिलेगी.’’

मां जैसे बचपन में मेरे चेहरे की एकएक रेखा पढ़ लेती थीं, वैसे ही उन्होंने अब भी मेरे चेहरे की भाषा पढ़ ली है. वह भैया को हलकी सी झिड़की देती हैं, ‘‘तू कैसा भाई है, अपनी तरफ से ही बहन के न आ सकने की मजबूरी बता रहा है. तभी तो हमारे लोकगीतों में कहा गया है, ‘माय कहे बेटी नितनित आइयो, बाप कहे छह मास, भाई कहे बहन साल पीछे आइयो…’’’ वह आगे की पंक्ति ‘भाभी कहे कहा काम’ जानबूझ कर नहीं कहतीं.

‘‘मां, मेरा यह मतलब नहीं था.’’ अब भैया का चेहरा देखने लायक हो रहा है, लेकिन मैं व विनय जोर से हंस कर वातावरण हलकाफुलका कर देते हैं.

मैं चाय पीते हुए देख रही हूं कि मां का चेहरा इन 10 महीनों में खुशी से कितना खिलाखिला हो गया है. वरना मेरी शादी के बाद उन की सूरत कितनी बुझीबुझी रहती थी. जब भी मैं बनारस से यहां आती तो वह एक मिनट भी चुप नहीं बैठती थीं. हर समय उत्साह से भरी कोई न कोई किस्साकहानी सुनाने में लगी रहती थीं.

‘‘मां, आप बोलतेबोलते थकती नहीं हैं.’’ मैं चुटकी लेती.

‘‘तू चली जाएगी तो सारे घर में मेरी बात सुनने वाला कौन बचेगा? हर समय मुंह सीए बैठी रहती हूं. मुझे बोलने से मत मना कर. अकेले में तो सारा घर भांयभांय करता रहता है.’’

‘‘तो भैया की शादी कर दीजिए, दिल लग जाएगा.’’

‘‘बस, उसी के लिए लड़की देखनी है. तुम भी कोई लड़की नजर में रखना.’’

कभी मां को मेरी शादी की चिंता थी. उन दिनों तो उन के जीवन का जैसे एकमात्र लक्ष्य था कि किसी तरह मेरी शादी हो. लेकिन वह लक्ष्य प्राप्त करने के बाद उन का जीवन फिर ठिठक कर खड़ा हो गया था. कैसा होता है जीवन भी.  एक पड़ाव पर पहुंच कर दूसरे पड़ाव पर पहुंचने की हड़बड़ी स्वत: ही अंकुरित हो जाती है.

‘‘मां, लगता है अब आप बहुत खुश हैं?’’

‘‘अभी तो तसल्ली से खुश होने का समय भी नहीं है. नौकर के होते हुए भी मैं तो मुन्ने की आया बन गई हूं. सारे दिन उस के आगेपीछे घूमना पड़ता है,’’ वह मुन्ने को रात के 10 बजे अपने बिस्तर पर लिटा कर उस से बातें कर रही हैं. वह भी अपनी काली चमकीली आंखों से उन के मुंह को देख रहा है. अपने दोनों होंठ सिकोड़ कर कुछ आवाज निकालने की कोशिश कर रहा है. तनु भी नानी के पास आलथीपालथी मार कर बैठा हुआ है. वह इसी चक्कर में है कि कब अपनी उंगली मुन्ने की आंख में गड़ा दे या उस के गाल पर पप्पी ले ले.

‘‘मां, 10 बज गए,’’ मैं जानबूझ कर कहती हूं क्योंकि मां की आदत है, जहां घड़ी पर नजर गई कि 10 बजे हैं तो अधूरे काम छोड़ कर बिस्तर में जा घुसेंगी क्योंकि उन्हें सुबह जल्दी उठने की आदत है.

‘‘10 बज गए तो क्या हुआ? अबी अमाला मुन्ना लाजा छोया नहीं है तो अम कैसे छो जाएं?’’ मां जानबूझ कर तुतला कर बोलते हुए स्वयं बच्चा बन गई हैं.

थोड़ी देर में मुन्ने को सुला कर मां ढोलक ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘चल, आ बैठ. 5 जच्चा शगुन की गा लें, आज दिन भर वक्त नहीं मिला.’’

मैं उबासी लेते हुए उन के पास नीचे फर्श पर बैठ जाती हूं. उन्हें रात के 11 बजे उत्साह से गाते देख कर सोच रही हूं कि कहां गया उन का जोड़ों या कमर का दर्द. मां को देख कर मैं किसी हद तक संतुष्ट हो उठी हूं, अब कभी बनारस में अपने सुखद क्षणों में यह टीस तो नहीं उठेगी कि वह कितनी अकेली हो गई हैं. मेरा यह अनुभव तो बिलकुल नया है कि मां मेरे बिना भी सुखी हो सकती हैं.

नामकरण संस्कार वाले दिन सुबह तो घरपरिवार के लोग ही जुटे थे. भीड़ तो शाम से बढ़नी शुरू होती है. कुछ औरतों को शामियाने में जगह नहीं मिलती, इसलिए वे घर के अंदर चली आ रही हैं. खानापीना, शोरशराबा, गानाबजाना, उपहारों व लिफाफों को संभालते पता ही नहीं लगता कब साढ़े 11 बज गए हैं.

मेहमान लगभग जा चुके हैं. कुछ भूलेभटके 7-8 लोग ही खाने की मेज के इर्दगिर्द प्लेटें हाथ में लिए गपशप कर रहे हैं. बैरों ने तंग आ कर अपनी टोपियां उतार दी हैं. वे मेज पर रखे डोंगों, नीचे रखी व शामियाने में बिखरी झूठी प्लेटों व गिलासों को समेटने में लगे हुए हैं.

तभी एक बैरा गुलाब जामुन व हरी बरफी से प्लेट में ‘शुभकामनाएं’ लिख कर घर के अंदर आ जाता?है. लखनऊ वाली मामी बरामदे में बैठी हैं. वह उन्हीं से पूछता है, ‘‘बहूजी कहां हैं, जिन के बच्चे की दावत है?’’

तभी सारे घर में बहू की पुकार मच उठती है. भाभी अपने कमरे में नहीं हैं. मुन्ना तो झूले में सो रहा है. मैं भी उन्हें मां, पिताजी के कमरे में तलाश आती हूं.

तभी मां मुझे बताती हैं, ‘‘मैं ने ही उसे ऊपर के कमरे में कपड़े बदलने भेजा है. बेचारी साड़ी व जेवरों में परेशान हो रही थी.’’

मैं ऊपर के कमरे के बंद दरवाजे पर ठकठक करती हूं, ‘‘भाभी, जल्दी नीचे उतरिए, बैरा आप का इंतजार कर रहा है.’’

भाभी आहिस्ताआहिस्ता सीढि़यों से नीचे उतरती हैं. अभी उन्होंने जेवर नहीं उतारे हैं. उन के चलने से पायलों की प्यारी सी रुनझुन बज रही है.

‘‘बहूजी, हमारी शुभकामनाएं लीजिए,’’ बैरा सजी हुई प्लेट लिए आंगन में आ कर भाभी के आगे बढ़ाता?है. भाभी कुछ समझ नहीं पातीं. मामी बरामदे में निक्की की चोटी गूंथते हुए चिल्लाती हैं, ‘‘बहू, इन को बख्शीश चाहिए.’’

‘‘अच्छा जी,’’ भाभी धीमे से कह कर अपने कमरे में से पर्स ले आती हैं.

अब तक मां के घर के हर महत्त्वपूर्ण काम में मुझे ही ढूंढ़ा जाता रहा है कि मीनू कहां है? मीनू को बुलाओ, उसे ही पता होगा. मैं…मैं क्यों अनमनी हो उठी हूं. क्या सच में मैं यह नहीं चाह रही कि बैरा प्लेट सजा कर ढूंढ़ता फिरे कि इस घर की बेटी कहां है?

‘‘21 रुपए? इतने से काम नहीं चलेगा, बहूजी.’’

भाभी 51 रुपए भी डालती हैं लेकिन वह बैरा नहीं मानता. आखिर भाभी को झुकना पड़ता है. वह पर्स में से 100 रुपए निकालती हैं. बैरे को बख्शीश देता हुआ उन का उठा हुआ हाथ मुझे लगता है, जिस घर के कणकण में मैं रचीबसी थी, जिस से अलग मेरी कोई पहचान नहीं थी, अचानक उस घर की सत्ता अपनी समग्रता लिए फिसल कर उन के हाथ में सिमट आई है. न जाने क्यों मेरे अंदर अकस्मात कुछ चटखता है.

सच्चा प्यार: उर्मी की शादीशुदा जिंदगी में मुसीबत बना उसका प्यार

‘‘उर्मी, अब बताओ मैं लड़के वालों को क्या जवाब दूं? लड़के के पिताजी 3 बार फोन कर चुके हैं. उन्हें तुम पसंद आ गई हो… लड़का मनोहर भी तुम से शादी करने के लिए तैयार है… वे हमारे लायक हैं. दहेज में भी कुछ नहीं मांग रहे हैं. अब हम सब तुम्हारी हां सुनने के लिए बेचैनी से इंतजार कर रहे हैं. तुम्हारी क्या राय है?’’ मां ने चाय का प्याला मेरे पास रखते हुए पूछा.

मैं बिना कुछ बोले चाय पीने लगी. मां मेरे जवाब के इंतजार में मेरी ओर देखती रहीं. सच कहूं तो मैं ने इस बारे में अब तक कुछ सोचा ही नहीं था. अगर आप सोच रहे हैं कि मैं कोई 21-22 साल की युवती हूं तो आप गलतफहमी में हैं. मेरी उम्र अब 33 साल है और जो मुझ से ब्याह करना चाहते हैं उन की 40 साल है.

अगर आप मन ही मन सोच रहे हैं कि यह शादी करने की उम्र थोड़ी है तो आप से मैं कोई शिकायत नहीं करूंगी, क्योंकि मेरे मन में भी यह सवाल उठ चुका है और इस का जवाब मुझे भी अब तक नहीं मिला. इसलिए मैं चुपचाप चाय पी रही हूं.

सभी को अपनीअपनी जिंदगी से कुछ उम्मीदें जरूर होती हैं, इस बात को कोई नकार नहीं सकता. हर चीज को पाने के लिए सही वक्त तो होता ही है. जैसे पढ़ाई के लिए सही समय होता है उसी तरह शादी करने के लिए भी सही समय होता है. मेरे खयाल से लड़कियों को 20 और 25 साल की उम्र के बीच शादी कर लेनी चाहिए. तभी तो वे अपनी शादीशुदा जिंदगी का पूरा आनंद उठा सकेंगी. प्यारमुहब्बत आदि जज्बातों के लिए यही सही उम्र है. इस उम्र में दिमाग कम और दिल ज्यादा काम करता है और फिर प्यार को अनुभव करने के लिए दिमाग से ज्यादा दिल की ही जरूरत होती है.

लेकिन मेरी जिंदगी की परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि मेरे जीवन में 20 से 25 साल की उम्र संघर्षों से भरी थी. हम खानदानी रईस नहीं थे. शुक्र है कि मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. यदि एक से अधिक बच्चे होते तो हमारी जिंदगी और मुश्किल में पड़ जाती. मेरे पापा एक कंपनी में काम करते थे और मां स्कूल अध्यापिका थीं. दोनों की आमदनी को मिला कर हमारे परिवार का गुजारा चल रहा था.

एक विषय में मेरे मातापिता दोनों ही बड़े निश्चिंत थे कि मेरी पढ़ाई को किसी भी हाल में रोकना नहीं. मैं भी बड़ी लगन से पढ़ती रही. लेकिन हमारी और कुदरत की सोच का एक होना अनिवार्य नहीं है न? इसीलिए मेरी जिंदगी में भी एक ऐसी घटना घटी, जिस से जिंदगी से मेरा पूरा विश्वास ही उठ गया.

एक दिन दफ्तर में दोपहर के समय मेरे पिताजी अचानक अपनी छाती पकड़े नीचे गिर गए. साथ काम करने वालों ने उन्हें अस्पताल में भरती करा कर मेरी मां के स्कूल फोन कर दिया. मेरे पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था. मेरे पिताजी किसी भी बुरी आदत के शिकार नहीं थे, फिर भी उन्हें 40 वर्ष की उम्र में यह दिल की बीमारी कैसी लगी, यह मैं नहीं समझ पाई.

3 दिन आईसीयू में रह कर मेरे पिताजी ने अपनी आंखें खोलीं और फिर मेरी मां और मुझे देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए. मेरा हाथ पकड़ कर उन्होंने बहुत ही धीमी आवाज में कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो बेटी… मैं अपना फर्ज पूरा किए बिना जा रहा हूं… मगर तुम अपनी पढ़ाई को किसी भी कीमत पर बीच में न छोड़ना… वही कठिन समय में तुम्हारे काम आएगी,’’ वे ही मेरे पिताजी के अंतिम शब्द थे.

पिताजी की मौत के बाद मैं और मेरी मां दोनों बिलकुल अकेली पड़ गईं. मेरी मां इकलौती बेटी थीं. उन के मातापिता भी इस दुनिया से चल बसे थे. मेरे पापा के एक भाई थे, मगर वे भी बहुत ही साधारण जीवन बिता रहे थे. उन की 2 बेटियां थीं. वे भी हमारी कुछ मदद नहीं कर सके. अन्य रिश्तेदार भी एक लड़की की शादी का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं थे. मैं उन्हें दोषी नहीं ठहराना चाहती, क्योंकि एक कुंआरी लड़की की जिम्मेदारी लेना आज कोई आसान काम नहीं है.

मेरी मां ने अपनी कम तनख्वाह से मुझे अंगरेजी साहित्य में एम.ए. तक पढ़ाया. मैं ने एम.ए. अव्वल दर्जे में पास किया और उस के बाद अमेरिका में स्कौलरशिप के साथ पीएच.डी. की. उसी दौरान मेरी पहचान शेखर से हुई. अमेरिका में भारतवासियों की एक पार्टी में पहली बार मेरी सहेली ने मुझे शेखर से मिलवाया. पहली मुलाकात में ही शेखर ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया. वह बहुत ही सरलता से मुझ से बात करने लगा. जैसे मुझे बहुत दिनों से जानता हो. पूरी पार्टी में उस ने मेरा साथ दिया.

मुझे शेखर के बोलने का अंदाज बहुत पसंद आया. वह लड़कियों से बातें करने में माहिर था और कई लड़कियां इसी कारण उस पर फिदा हो गई थीं, क्योंकि जब वह मुझ से बातें कर रहा था, तो उस 2 घंटे के समय में कई लड़कियां खुद आ कर उस से बात कर गई थीं. सभी उसे डार्लिंग, स्वीट हार्ट आदि पुकार कर उस के गाल पर चुंबन कर गईं. इस से मुझे मालूम हुआ कि वह लड़कियों के बीच बहुत मशहूर है.

वह काफी सुंदर था… लंबाचौड़ा और गोरे रंग का… उस की आंखों में शरारत और होंठों में हसीन मुसकराहट थी. हमारे ही विश्वविद्यालय से एमबीए कर रहा था. उस के पिताजी भारत में दिल्ली शहर के बड़े व्यवसायी थे. शेखर एमबीए करने के बाद अपने पिताजी के कार्यालय में उच्च पद पर बैठने वाला था. ये सब उसी ने मुझे बताया था.

मैं विश्वविद्यालय के होस्टल में रहती थी और वह किराए पर फ्लैट ले कर रहता था. उसी से मुझे मालूम हुआ कि उस के पिता कितने बड़े आदमी हैं. हमारे एकदूसरे से विदा लेते समय शेखर ने मेरा सैल नंबर मांग लिया.

सच कहूं तो उस पार्टी से वापस आने के बाद मैं शेखर को भूल गई थी. मेरे खयाल से वह बड़े रईस पिता की औलाद है और वह मुझ जैसी साधारण परिवार की लड़की से दोस्ती नहीं करेगा.

उस शुक्रवार शाम 6 बजे मेरे सैल फोन की घंटी बजी.

‘‘हैलो,’’ मैं ने कहा.

‘‘हाय,’’ दूसरी तरफ से एक पुरुष की आवाज सुनाई दी.

मैं ने तुरंत उस आवाज को पहचान लिया. हां वह और कोई नहीं शेखर ही था.

‘‘कैसी हैं आप? उम्मीद है आप मुझे याद करती हैं?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘कोई आप को भूल सकता है क्या? बताइए, क्या हालचाल हैं? कैसे याद किया मुझे आप ने अपनी इतनी सारी गर्लफ्रैंड्स में?’’

‘‘आप के ऊपर एक इलजाम है और उस के लिए जो सजा मैं दूंगा वह आप को माननी पड़ेगी. मंजूर है?’’ उस की आवाज में शरारत उमड़ रही थी. ‘‘इलजाम? मैं ने ऐसी क्या गलती की जो सजा के लायक है… आप ही बताइए,’’ मैं भी हंस कर बोली.

शेखर ने कहा, ‘‘पिछले 1 हफ्ते से न मैं ठीक से खा पाया हूं और न ही सो पाया… मेरी आंखों के सामने सिर्फ आप का ही चेहरा दिखाई देता है… मेरी इस बेकरारी का कारण आप हैं, इसलिए आप को दोषी ठहरा कर आप को सजा सुना रहा हूं… सुनेंगी आप?’’

‘‘हां, बोलिए क्या सजा है मेरी?’’ ‘‘आप को इस शनिवार मेरे फ्लैट पर मेरा मेहमान बन कर आना होगा और पूरा दिन मेरे साथ बिताना होगा… मंजूर है आप को?’’ ‘‘जी, मंजूर है,’’ कह मैं भी खूब हंसी.

उस शनिवार मुझे अपने फ्लैट में ले जाने के लिए खुद शेखर आया. मेरी खूब खातिरदारी की. एक लड़की को अति महत्त्वपूर्ण महसूस कैसे करवाना है यह बात हर मर्द को शेखर से सीखनी चाहिए. शाम को जब वह मुझे होस्टल छोड़ने आया तब हम दोनों को एहसास हुआ कि हम एकदूसरे को सदियों से जानते… यही शेखर की खूबी थी.

उस के बाद अगले 6 महीने हर शनिवार मैं उस के फ्लैट पर जाती और फिर रविवार को ही लौटती. हम दोनों एकदूसरे के बहुत करीब हो गए थे. मगर मैं एक विषय में बहुत ही स्पष्ट थी. मुझे मालूम था कि हम दोनों भारत से हैं. इस के अलावा हमारे बीच कुछ भी मिलताजुलता नहीं. हमारी बिरादरी अलग थी. हमारी आर्थिक स्थिति भी बिलकुल भिन्न थी, जो बड़ी दीवार बन कर हम दोनों के बीच खड़ी रहती थी.

शुरू से ही जब मैं ने इस रिश्ते में अपनेआप को जोड़ा उसी वक्त से मेरे मन में कोई उम्मीद नहीं थी. मुझे मालूम था कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है. मगर जो समय मैं ने शेखर के साथ व्यतीत किया वह मेरे लिए अनमोल था और मैं उसे खोना नहीं चाहती थी. इसलिए मुझे हैरानी नहीं हुई जब शेखर ने बड़ी ही सरलता से मुझे अपनी शादी का निमंत्रण दिया, क्योंकि उस रिश्ते से मुझे यही उम्मीद थी. अगले हफ्ते ही वह भारत चला गया और उस के बाद हम कभी नहीं मिले. कभीकभी उस की याद मुझे आती थी, मगर मैं उस के बारे में सोच कर परेशान नहीं होती थी. मेरे लिए शेखर एक खत्म हुए किस्से के अलावा कुछ नहीं था.

शेखर के चले जाने के बाद मैं 1 साल के लिए अमेरिका में ही रही. इस दौरान मेरी मां भी अपनी अध्यापिका के पद से सेवानिवृत्त हो चुकी थीं. उन्हें अमेरिका आना पसंद नहीं था, क्योंकि वहां का सर्दी का मौसम उन के लिए अच्छा नहीं था. इसलिए मैं अपनी पीएच.डी. खत्म कर के भारत लौट आई.

अमेरिका में जो पैसे मैं ने जमा किए और मेरी मां के पीएफ से मिले उन से मुंबई में 2 बैडरूम वाला फ्लैट खरीद लिया. बाद में मुझे क्व30 हजार मासिक वेतन पर एक कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई.

मेरे मुंबई लौटने के बाद मेरी मां मेरी शादी करवाना चाहती थीं. उन्हें डर था कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो मैं इस दुनिया में अकेली हो जाऊंगी. मगर शादी इतनी आसान नहीं थी. शादी के बाजार में हर दूल्हे के लिए एक तय रेट होता था. हमारे पास मेरी तनख्वाह के अलावा कुछ भी नहीं था. ऊपर से मेरी मां का बोझ उठाने के लिए लड़के वाले तैयार नहीं थे.

जब मैं अमेरिका से मुंबई आई थी तब मेरी उम्र 25 साल थी. शादी के लिए सही उम्र थी. मैं भी एक सुंदर सा राजकुमार जो मेरा हाथ थामेगा उसी के सपने देखती रही. सपने को हकीकत में बदलना संभव नहीं हुआ. दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में और महीने सालों में बदलते हुए 3 साल निकल गए.

मेरी जिंदगी में दोबारा एक आदमी का प्रवेश हुआ. उस का नाम ललित था. वह भी अंगरेजी का लैक्चरर था. मगर उस ने पीएचडी नहीं की थी. सिर्फ एमफिल किया था. पहली मुलाकात में ही मुझे मालूम हो गया कि वह भी मेरी तरह मध्यवर्गीय परिवार का है और उस की एक मां और बहन है. उस ने कहा कि उस के पिता कई साल पहले इस दुनिया से जा चुके हैं और मां और बहन दोनों की जिम्मेदारी उसी पर है.

पहले कुछ महीने हमारे बीच दोस्ती थी. हमारे कालेज के पास एक अच्छा कैफे था. हम दोनों रोज वहां कौफी पीने जाते. इसी दौरान एक दिन उस ने मुझे अपने घर बुलाया. वह एक छोटे से फ्लैट में रहता था. उस की मां ने मेरी खूब खातिरदारी की और उस की बहन जो कालेज में पढ़ती थी वह भी मेरे से बड़ी इज्जत से पेश आई.

इसी दौरान एक दिन ललित ने मुझ से कहा, ‘‘उर्मी, क्या आप मेरे साथ कौफी पीने के लिए आएंगी?’’

उस का इस तरह पूछना मुझे थोड़ा अजीब सा लगा, मगर फिर मैं ने हंस कर पूछा, ‘‘कोई खास बात है जो मुझे कौफी पीने को बुला रहे हो?’’

उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हां, बस ऐसा ही समझ लीजिए.’’

शाम कालेज खत्म होने के बाद हम दोनों कौफी शौप में गए और एक कोने में जा कर बैठ गए. मैं ने उस के चेहरे को देख कर कहा, ‘‘हां, बोलो ललित क्या बात करनी है मुझ से?’’ ललित ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा, ‘‘उर्मी, मैं बातों को घुमाना नहीं चाहता हूं. मैं तुम से प्यार करता हूं. अगर तुम्हें भी मंजूर है, तो मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर मुझे सच में झटका लगा. मुझे जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि ललित इस तरह मुझ से पूछेगा.

मैं ने ललित के बारे में बहुत सोचा. मुझे तब तक मालूम हो चुका कि मेरे पास जो पैसे हैं वे मेरी शादी के लिए बहुत कम हैं और फिर मेरी मां को भी अपनाने वाला दूल्हा मिलना लगभग नामुमकिन ही था. इस बारे में मेरे दिल ने नहीं दिमाग ने निर्णय लिया और मैं ने ललित को अपनी मंजूरी दे दी.

उस के बाद हर हफ्ते हम रविवार को हमारे घर के सामने वाले पार्क में मिलते. इसी बीच यकायक ललित 3 दिन की छुट्टी पर चला गया. ललित चौथे दिन कालेज आया. उस का चेहरा उतरा हुआ था. शाम को हम दोनों पार्क में जा कर बैठ गए. मुझे मालूम था कि ललित मुझ से कुछ कहना चाह रहा, मगर कह नहीं पा रहा.

फिर उस ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो उर्मी… मैं ने खुद ही तुम से प्यार का इजहार किया था और अब मैं ही इस रिश्ते से पीछे हट रहा हूं. तुम्हें मालूम है कि मेरी एक बहन है. वह किसी लड़के से प्यार करती है और उस लड़के की एक बिन ब्याही बहन है. उन लोगों ने साफ कह दिया कि अगर मैं उन की लड़की से शादी करूं तो ही वे मेरी बहन को अपनाएंगे. मेरे पास अब कोई रास्ता नहीं रहा.’’

मैं 1 मिनट के लिए चुप रही. फिर कहा, ‘‘फैसला ले ही लिया तो अब किस बात का डर… शादी मुबारक हो ललित,’’ और फिर घर चली आई. 1 महीने में ललित और उस की बहन की शादी धूमधाम से हो गई. अब ललित कालेज की नौकरी छोड़ कर अपनी ससुराल की कंपनी में काम करने लगा.

अब मनोहर से मेरी शादी हुए 1 महीना हो गया है. मेरी ससुराल वालों ने मेरे पति को मेरे साथ मेरे फ्लैट में रहने की इजाजत दे दी ताकि मेरी मां को भी हमारा सहारा मिल सके. इस नई जिंदगी से मुझे कोई शिकायत नहीं. मेरे पति एक अच्छे इनसान हैं. मुझे किसी भी बात को ले कर परेशान नहीं करते हैं. मेरी बहुत इज्जत करते हैं. औरतों को पूरा सम्मान देते हैं. उन का यह स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा.

‘‘उर्मी जल्दी से तैयार हो जाओ. हमारी शादी के बाद तुम पहली बार मेरे दफ्तर की पार्टी में चल रही हो. आज की पार्टी खास है, क्योंकि हमारे मालिक के बेटे दिल्ली से मुंबई आ रहे हैं. तुम उन से भी मिलोगी.’’

जब हम पार्टी में पहुंचे तो कई लोग आ चुके थे. मेरे पति ने मुझे सब से मिलवाया. इतने में किसी ने कहा चेयरमैन साहब आ गए. उन्हें देख कर एक क्षण के लिए मेरी सांस रुक गई. चेयरमैन कोई और नहीं शेखर ही था.

तभी सभी को नमस्कार कहते हुए शेखर मुझे देख कर 1 मिनट के लिए चौंक गया.

मेरे पति ने उस से कहा, ‘‘मेरी बीवी है सर.’’

शेखर ने हंसते हुए कहा, ‘‘मुबारक हो… शादी कब हुई?’’

मेरे पति उस के सवालों के जवाब देते रहे और फिर वह चला गया.

कुछ देर बाद शेखर के पी.ए. ने आ कर कहा, ‘‘मैडम, चेयरमैन साहब आप को बुला रहे हैं अकेले.’’ मैं ने चुपके से अपने पति के चेहरे को देखा. पति ने भी सिर हिला कर मुझे जाने का इशारा किया.

शेखर एक बड़ी मेज के सामने बैठा था. मैं उस के सामने जा कर खड़ी हो गई.

शेखर ने मुझे देख कर कहा, ‘‘आओ उर्मी, प्लीज बैठो.’’

मैं उस के सामने बैठ गई.

शेखर ने कहा, ‘‘मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं. मैं सीधे मुद्दे पर आ जाऊंगा… मैं हमारी पुरानी दोस्ती को फिर से शुरू करना चाहता हूं बिलकुल पहले जैसे. मैं तुम्हारे पति का दिल्ली में तबादला कर दूंगा. अगर तुम चाहती हो तो तुम्हें दिल्ली के किसी कालेज में लैक्चरर की नौकरी दिला दूंगा.’’

वह ऐसे बोलता रहा जैसे मैं ने उस की बात मान ली. मगर मैं उस वक्त कुछ नहीं कह सकी. चुपचाप लौट कर पति के सामने आ कर बैठ गई. कुछ भी नहीं बोली. टैक्सी से लौटते समय भी कुछ नहीं पूछा उन्होंने.

घर लौटने के बाद मेरे पति ने मुझ से कुछ भी नहीं पूछा. मगर मैं ने उन से सारी बातें कहने का फैसला कर लिया. पति ने मेरी सारी बातें चुपचाप सुनीं. मैं ने उन से कुछ नहीं छिपाया.

मेरी आंखों से आंसू आने लगे. मेरे पति ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘उर्मी, तुम ने कुछ गलत नहीं किया. हम सब के अतीत में कुछ न कुछ हुआ होगा. अतीत के पन्नों को दोबारा खोल कर देखना बेकार की बात है. कभीकभी न चाहते हुए भी हमारा अतीत हमारे सामने खड़ा हो जाता है, तो हमें उसे महत्त्व नहीं देना चाहिए. हमेशा आगे की सोच रखनी चाहिए. शेखर की बातों को छोड़ो. उस का रुपया बोल रहा है… हम कभी उस का मुकाबला नहीं कर सकते… मैं कल ही अपना इस्तीफा दे दूंगा. दूसरी नौकरी ढूंढ़ लूंगा. तुम चिंता करना छोड़ो और सो जाओ. हर कदम मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ और फिर मुझे बांहों में भर लिया. उन की बांहों में मुझे फील हुआ कि मैं महफूज हूं. इस के अलावा और क्या चाहिए एक पत्नी को?

वे तीन शब्द: क्या आरोही को अपना हमसफर बना पाया आदित्य ?

दीवाली की उस रात कुछ ऐसा हुआ कि जितना शोर घर के बाहर मच रहा था उतना ही शोर मेरे मन में भी मच रहा था. मुझे आज खुद पर यकीन नहीं हो रहा था. क्या मैं वही आदित्य हूं, जो कल था… कल तक सब ठीक था… फिर आज क्यों मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था… आज मैं अपनी ही नजरों में गुनाहगार हो गया था. किसी ने सही कहा है, ‘आप दूसरे की नजर में दोषी हो कर जी सकते हैं, लेकिन अपनी नजर में गिर कर कभी नहीं जी सकते.’

मुझे आज भी आरोही से उतना ही प्यार था जितना कल था, लेकिन मैं ने फिर भी उस का दिल तोड़ दिया. मैं आज बहुत बड़ी कशमकश में गुजर रहा हूं. मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं? मैं गलत नहीं हूं, फिर भी खुद को गुनाहगार मान रहा हूं. क्या दिल सचमुच दिमाग पर इतना हावी हो जाता है? प्यार की शुरुआत जितनी खूबसूरत होती है उस का अंत उतना ही डरावना होता है.

मैं आरोही से 2 साल पहले मिला था. क्यों मिला था, इस का मेरे पास कोई जवाब नहीं है, क्योंकि उस से मिलने की कोई वजह मेरे पास थी ही नहीं, जहां तक सवाल है कैसे मिला था, तो इस का जवाब भी बड़ा अजीब है. मैं एटीएम से पैसे निकाल रहा था, उस के हाथ में पहले से ही इतना सारा सामान था कि उस को पता ही नहीं चला कि कब उस का एक बैग वहीं रह गया. मैं ने फिर उस को ‘ऐक्सक्यूज मी’ कह कर पुकारा और कहा, ‘‘आप का बैग वहीं रह गया था.’’

बस, यहां हुई थी हमारी पहली मुलाकात. अपने बैग को सहीसलामत देख कर वह खुशी से ऐसे उछल पड़ी मानो किसी ने आसमान से चांद भले ही न सही, लेकिन कुछ तारे तोड़ कर ला दिए हों. लड़कियों का खुशी में इस तरह का बरताव करने वाला फंडा मुझ को आज तक समझ नहीं आया. उस की मधुर आवाज में ‘थैंक्यू’ के बदले जब मैं ने ‘इट्स ओके’ कहा तो बदले में जवाब नहीं सवाल आया और वह सवाल था, ‘‘आप का नाम?’’

मैं ने भी थोड़े स्टाइल से, थोड़ी शराफत के साथ अपना नाम बता दिया, ‘‘जी, आदित्य.’’ ‘‘ओह, मेरा नाम आरोही है,’’ उस ने मेरे से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘भैया, कनाटप्लेस चलोगे?’’ मैं ने आश्चर्य से उस की तरफ देखा. यह सवाल उस ने मुझ से नहीं बल्कि साथ खड़े औटो वाले से किया था.

‘‘नहीं मैडमजी, मैं तो यहां एक सवारी को ले कर आया हूं. यहां उन का 5 मिनट का काम है, मैं उन्हीं को ले कर वापस जाऊंगा.’’ ‘‘ओह,’’ मायूसी से आरोही ने कहा.

‘‘अम्म…’’ मैं ने मन में सोचा ‘पूछूं या नहीं, अब जब इनसानियत निभा रहा हूं तो थोड़ी और निभाने में मेरा क्या चला जाएगा?’ ‘‘जी दरअसल, मैं भी कनाटप्लेस ही जा रहा हूं, लेकिन मुझे थोड़ा आगे जाना है. अगर आप कहें तो मैं आप को वहां तक छोड़ सकता हूं,’’ मैं ने आरोही की तरफ देखते हुए कहा.

उस का जवाब हां में था. यह उस की जबान से पहले उस की आंखों ने कह दिया था. मैं ने उस का बैग कार में रखा और उस के लिए कार का दरवाजा खोला.

रास्ते में हम ने एकदूसरे से काफी बातचीत की. ‘‘ क्या आप यहीं दिल्ली से हैं?’’ मैं ने आरोही से पूछा.

‘‘नहीं, यहां तो मैं अपने चाचाजी के घर आई हूं. उन की बेटी यानी मेरी दीदी की शादी है इसलिए आज मैं शौपिंग के लिए आई थी,’’ आरोही ने मुसकान के साथ कहा. ‘‘कमाल है, दिल्ली जैसे शहर में अकेले शौपिंग जबकि आप दिल्ली की भी नहीं हैं,’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, नहींनहीं, दिल्ली मेरे लिए बिलकुल भी नया शहर नहीं है. मैं दिल्ली कई बार आ चुकी हूं. मेरी स्कूल की छुट्टियों से ले कर कालेज की छुट्टियां यहीं बीती हैं इसलिए न दिल्ली मेरे लिए नया है और न मैं दिल्ली के लिए.’’ मैं ने और आरोही ने कार में बहुत सारी बातें कीं. वैसे मेरे से ज्यादा उस ने बातें की, बोलना भी उस की हौबी में शामिल है. यह उस के बिना बताए ही मुझे पता चल गया था.

उस के साथ बात करतेकरते पता ही नहीं चला कि कब कनाटप्लेस आ गया. ‘‘थैंक्यू सो मच,’’ आरोही ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘प्लीज यार, मैं ने कोई बड़ा काम नहीं किया है. मैं यहां तक तो आ ही रहा था तो सोचा आप भी वहां तक जा रही हैं तो क्यों न लिफ्ट दे दूं, और आप के साथ तो बात करते हुए रास्ते का पता ही नहीं चला कि कब क्नाटप्लेस आ गया,’’ मैं ने उस की तरफ देखते हुए कहा. ‘‘चलिए, मुझे भी दिल्ली में एक दोस्त मिला,’’ आरोही ने कहा.

‘‘अच्छा, अगर हम अब दोस्त बन ही गए हैं तो मेरी अपनी इस नई दोस्त से कब और कैसे बात हो पाएगी?’’ मैं ने आरोही की तरफ देखते हुए पूछा. वह कुछ देर के लिए शांत हो गई. उस ने फिर कहा, ‘‘अच्छा, आप मुझे अपना नंबर दो, मैं आप को फोन करूंगी.’’

मैं ने उसे अपना नंबर दे दिया. आरोही ने मेरा नंबर अपने मोबाइल में सेव कर लिया और बाय कह कर चली गई.

मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि मैं भी तो आरोही से उस का नंबर ले सकता था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो… ‘चलो, कोई बात नहीं,’ मैं ने स्वयं को सांत्वना दी.

उस दिन मेरे पास जो भी फोन आ रहा था मुझे लग रहा था कि यह आरोही का होगा, लेकिन किसी और की आवाज सुन कर मुझे बहुत झुंझलाहट हो रही थी. मुझे लगा कि आरोही सच में मुझे भूल गई है. वैसे भी किसी अनजान शख्स को कोई क्यों याद रखेगा और अगर उसे सच में मुझ से बात करनी होती तो वह मुझे भी अपना नंबर दे सकती थी.

अगले दिन सुबह मैं औफिस के लिए तैयार हो रहा था कि अचानक मेरे मोबाइल पर एक मैसेज आया, ‘‘हैलो, आई एम आरोही.’’ मैसेज देख कर मेरी खुशी का तो ठिकाना ही नहीं रहा. मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि उस ने मुझे मैसेज किया है.

मैं ने तुरंत उसे मैसेज का जवाब दिया, ‘‘तो आखिर आ ही गई याद आप को अपने इस नए दोस्त की.’’ उधर से आरोही का मैसेज आया, ‘‘सौरी, दरअसल, कल मैं काम में बहुत व्यस्त थी और जब फ्री हुई तो बहुत देर हो चुकी थी तो सोचा इस वक्त फोन या मैसेज करना ठीक नहीं है.’’

मैं ने आरोही को मैसेज किया, ‘‘दोस्तों को कभी भी डिस्टर्ब किया जा सकता है.’’ आरोही का जवाब आया, ‘‘ओह, अब याद रहेगा.’’

बस, यहीं से शुरू हुआ हमारी बातों का सिलसिला. जहां मुझे अभी कुछ देर पहले तक लगता था कि अब शायद ही उस से दोबारा मिलना होगा. लेकिन कभीकभी जो आप सोचते हैं उस से थोड़ा अलग होता है. आरोही की बड़ी बहन की शादी मेरे ही औफिस के सहकर्मी से थी. जब औफिस के मेरे दोस्त ने मुझे शादी का कार्ड दिया तो शादी की बिलकुल वही तारीख और जगह को देख कर मैं समझ गया कि हमारी दूसरी मुलाकात का समय आ गया है.

पहले तो शायद मैं शादी में न भी जाता, लेकिन अब सिर्फ और सिर्फ आरोही से दोबारा मिलने के लिए जा रहा था. मैं ने झट से उसे मैसेज किया, ‘‘मैं भी तुम्हारी दीदी की शादी में आ रहा हूं.’’

आरोही का जवाब में मैसेज आया, ‘‘लेकिन आदित्य, मैं ने तो तुम्हें बुलाया ही नहीं.’’ उस का मैसेज देख कर मुझे बहुत हंसी आई, मैं ने ठिठोली करते हुए लिखा, ‘‘तो?’’

उस का जवाब आया, ‘‘तो क्या… मतलब तुम बिना बुलाए आओगे, किसी ने पूछ लिया तो?’’ मुझे बड़ी हंसी आई, मैं ने अपनी हंसी रोकते हुए उसे फोन किया, ‘‘हैलो, आरोही,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम बिना बुलाए आओगे शादी में,’’ आरोही ने एक सांस में कहा, ‘‘हां, तो मैं डरता हूं्र्र क्या किसी से, बस, मैं आ रहा हूं,’’ मैं ने थोड़ा उत्साहित हो कर कहा. ‘‘लेकिन किसी ने देख लिया तो,’’ आरोही ने बेचैनी के साथ पूछा.

‘‘मैडम, दिल्ली है दिल वालों की,’’ यह कह कर मैं हंस दिया. लेकिन मेरी हंसी को उस की हंसी का साथ नहीं मिला तो मैं ने सोचा, ‘अब राज पर से परदा हटा देना चाहिए.’ मैं ने कहा, ‘‘अरे बाबा, डरो मत, मैं बिना बुलाए नहीं आ रहा हूं, बाकायदा मुझे निमंत्रण मिला है आने का.’’

‘‘ओह,’’ कह कर आरोही ने गहरी सांस ली. ‘‘तो अब तो खुश हो तुम,’’ मैं ने आरोही से पूछा.

‘‘हां, बहुत…’’ आरोही की आवाज में उस की खुशी साफ झलक रही थी. उस दिन बरात के साथ जैसे ही मैं मेनगेट पर पहुंचा तो बस मेरी निगाहें एक ही शख्स को ढूंढ़ रही थीं. वहां पर बहुत सारे लोग मौजूद थे, लेकिन आरोही नहीं थी.

काफी देर तक जब इधरउधर देखने के बाद भी मुझे आरोही नहीं दिखाई दी तो मैं ने उस के मोबाइल पर कौल की, ‘‘कहां हो तुम…, मैं कब से तुम को इधरउधर ढूंढ़ रहा हूं,’’ मैं ने बेचैनी से पूछा. ‘‘ओह, पर क्यों… हम्म…’’ उस ने चिढ़ाते हुए कहा.

मैं ने भी उस को चिढ़ाते हुए कहा, ‘‘ओह, ठीक है फिर लगता है हमारी वह मुलाकात पहली और आखिरी थी.’’ ‘‘अरे, क्या हुआ, बुरा लग गया क्या, अच्छा बाबा, मैं आ रही हूं,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

‘‘लेकिन तुम हो कहां?’’ मैं ने आरोही से पूछा. ‘‘जनाब, पीछे मुड़ कर देखिए,’’ आरोही ने हंसते हुए कहा.

मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो बस देखता ही रह गया. हलकी गुलाबी रंग की साड़ी में एक लड़की मेरे सामने खड़ी थी. हां, वह लड़की आरोही थी. उस के खुले हुए बाल, हाथों में साड़ी की ही मैचिंग गुलाबी चूडि़यां, आज वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. आज मुझे 2 बातों का पता चला, पहला यह कि लोग यह कहावत क्यों कहते हैं कि मानो कोई अप्सरा जमीन पर उतर आई हो, और दूसरी बात यह कि शादी में क्यों लोग दूल्हे की सालियों के दीवाने हो जाते हैं.

मैं ने उसी की तरफ देख कर कहा, ‘‘जी, आप कौन, मैं तो आरोही से मिलने आया हूं, आप ने देखा उस को.’’ उस ने बड़ी बेबाकी से कहा, ‘‘मेरी शक्ल भूल गए क्या, मैं ही तो आरोही हूं.’’

मैं ने उस की तरफ अचरज भरी निगाहों से देख कर कहा, ‘‘जी, आप नहीं, आप झूठ मत बोलिए, वह इतनी खूबसूरत है ही नहीं जितनी आप हैं.’’ आरोही ने गुस्से से घूरते हुए कहा, ‘‘ओह, तो तुम मेरी बुराई कर रहे हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘नहींनहीं, मैं तो आप की तारीफ कर रहा हूं.’’ वह दिन मेरे लिए बहुत खुशी का दिन था, मैं ने आरोही के साथ बहुत ऐंजौय किया. उस ने मुझे अपने मम्मीपापा और भाईबहन से मिलवाया. पूरी शादी में हम दोनों साथसाथ ही रहे.

जातेजाते वह मुझे बाहर तक छोड़ने आई. मैं ने आरोही की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘अच्छा सुनो, मैं उस समय मजाक कर रहा था. तुम जितनी मुझे आज अच्छी लगी हो न उतनी ही अच्छी तुम मुझे उस दिन भी लगी थी जब हम पहली बार मिले थे,’’ यह सुन कर वह शरमा गई. अब हम दोनों घंटों फोन पर बातें करते. वह अपनी शरारतभरी बातों से मुझे हंसाती और कभी चिढ़ा दिया करती थी. मैं कभी बहुत तेज हंसता तो कभीकभी मजाक में गुस्सा कर दिया करता. हम दोनों के मन में एकदूसरे के लिए इज्जत और दिल में प्यार था. जिस की वजह से हम दोनों बिना एकदूसरे से सवाल किए बात करते थे. कुछ चीजों के लिए कभीकभी शब्दों की जरूरत ही नहीं पड़ती. आप की निगाहें ही आप के दिल का हाल बयां कर देती हैं. फिर भी वे 3 शब्द कहने से मेरा दिल डरता है.

अब मुझे रोमांटिक फिल्में देखना अच्छा लगता है. उन फिल्मों को देख कर मुझे ऐसा नहीं लगता था कि क्या बेवकूफी है. जहन में आरोही का नाम आते ही चेहरा एक मुसकान अपनेआप ओढ़ लेता था और बहुत अजीब भी लगता था, जब कोई अनजान शख्स मुझे इस तरह मुसकराता देख पागल समझता था. अपनी मुसकान को रोकने की जगह मैं उस जगह से उठ जाना ज्यादा अच्छा समझता था. ‘‘हाय, गुडमौर्निंग,’’ आज यह मैसेज आरोही की तरफ से आया.

हमेशा की तरह आज भी मैं ने आरोही को फोन किया, लेकिन आज पहली बार उस ने मेरा फोन नहीं उठाया. मैं पूरे दिन उस का नंबर मिलाता रहा, लेकिन उस ने मेरा फोन नहीं उठाया. आज दीवाली है और आरोही मुझे जरूर फोन करेगी, लेकिन आज भी जब उस का कोई फोन नहीं आया तो मैं ने उस को फिर फोन किया. आज आरोही ने फोन उठा लिया.

‘‘कहां हो आरोही, कल से मैं तुम्हारा फोन मिला रहा हूं, लेकिन तुम फोन ही नहीं उठा रही थी,’’ मैं ने गुस्से में आरोही से कहा. ‘‘यह सब परवा किसलिए आदित्य,’’ आरोही ने रोते हुए पूछा.

‘‘परवा, क्या हो गया तुम्हें, सब ठीक तो है न… और तुम रो क्यों रही हो?’’ मैं ने बेचैनी से आरोही से पूछा. ‘‘प्लीज आदित्य, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. कानपुर मेरी शादी की बात चल रही थी इसलिए बुलाया गया था, लेकिन तुम्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ता. तुम्हें तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा था जब मैं उस दिन रेस्तरां में तुम्हें घर वापस आने की बात कहने आई थी,’’ आरोही एक सांस में बोले जा रही थी. मानो कई दिन से अपने दिल पर रखा हुआ बोझ हलका कर रही हो.

‘‘तुम्हारे लिए मैं कभी कुछ थी ही नहीं आदित्य, शायद यह सब बोलने का कोई हक नहीं है मुझे… और न ही कोई फायदा, शायद अब हम कभी नहीं मिल पाएंगे, अलविदा…’’ यह कह कर आरोही ने फोन रख दिया. मैं एकटक फोन को देखे जा रहा था, जो आरोही हमेशा खिलखिलाती रहती थी आज वही फूटफूट कर रो रही थी. इसलिए आज मैं खुद को गुनाहगार मान रहा था, लेकिन अब मैं ने फैसला कर लिया था कि मैं अपनी आरोही को और नहीं रुलाऊंगा, मैं जान चुका हूं कि आरोही भी मुझे उतना ही प्यार करती है जितना कि मैं उसे करता हूं.

मैं ने फैसला कर लिया कि मैं कल सुबह ही टे्रन से कानपुर जाऊंगा. आज की यह रात बस किसी तरह सुबह के इंतजार में गुजर जाए. मैं ने अगली सुबह कानपुर की टे्रन पकड़ी. 10 घंटे का यह सफर मेरे लिए, मेरे जीवन के सब से मुश्किल पल थे. मैं नहीं जानता था कि आरोही मुझे देख कर क्या कहेगी, कैसा महसूस करेगी, इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं, मैं ने जैसे ही आरोही के घर पहुंच कर उस के घर के दरवाजे की घंटी बजाई तो आरोही ने ही दरवाजा खोला. आरोही मुझे देख कर चौंक गई.

मैं ने आरोही को गले लगा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो आरोही… सारी मेरी ही गलती है. मुझे हमेशा यही लगता था कि अगर मैं तुम से अपने दिल की बात कहूंगा तो तुम को हमेशा के लिए खो दूंगा. मैं भूल गया था कि मैं कह कर नहीं बल्कि खामोश रह कर तुम्हें खो दूंगा.’’ आरोही की आंखों में आंसू थे. उस के घर के सभी लोग वहां मौजूद थे. मैं ने आरोही की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘कल तक मुझ में हिम्मत नहीं थी, लेकिन आज मैं तुम्हारे प्यार की खातिर यहां आया हूं, आई लव यू आरोही, बोलो, तुम दोगी मेरा साथ…’’ मैं ने अपना हाथ आरोही की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

आरोही ने अपना हाथ मेरे हाथ में रखते हुए कहा, ‘‘आई लव यू टू.’’ आज आरोही और मेरे इस फैसले में उस के परिवार वालों का आशीर्वाद भी शामिल था.

जीजाजी का पत्र: दीदी के उदास चेहरे के पीछे क्या था सच?

घर में सालों बाद सफेदी होने जा रही थी. मां और भाभी की मदद के लिए मैं ने 2 दिन के लिए कालेज से छुट्टी कर ली. दीदी के जाने के बाद उन का कमरा मैं ने हथिया लिया था. किताबों की अलमारी के ऊपरी हिस्से में दीदी की किताबें थीं. मैं कुरसी पर चढ़ कर किताबें उतार रही थी कि अचानक हाथ से 3-4 किताबें गिर पड़ीं.

1-2 किताबें जमीन पर अधखुली पड़ी थीं. उन को उठाने के लिए झुकी तो देखा, 3-4 पेज का एक पत्र पड़ा था. अरे, यह तो जीजाजी का पत्र है जो उन्होंने दीदी को इंगलैंड से लिखा था. पत्र पर एक नजर डालते हुए मैं ने सोचा, ‘दीदी का पत्र मुझे नहीं पढ़ना चाहिए.’

परंतु मन में पत्र पढ़ने की उत्सुकता हुई. मां अभी रसोई में ही थीं. भाभी बंटी को स्कूल छोड़ने गई थीं. जीजाजी के पत्र ने मुझे झकझोर कर रख दिया और अतीत के आंगन में ला कर खड़ा कर दिया.

दीदी हम तीनों में सब से बड़ी हैं. भैया दूसरे नंबर पर हैं. दीदी और मुझ में फर्क भी 12 साल का है. मां और पिताजी को घर में बहू लाने की बहुत इच्छा थी. इसलिए भैया की शादी जल्दी ही हो गई… वैसे भी दीदी की शादी की प्रतीक्षा करते तो भैया कुंआरे ही रह जाते.

उस दिन सवेरे से ही सब लोग काम में लगे हुए थे. पूरे घर की अच्छी तरह से सफाई की जा रही थी. मां और भाभी रसोई में लगी थीं. दीदी को देखने के लिए कुछ लोग दिल्ली से आ रहे थे. वे दोपहर 12 बजे तक हमारे घर पहुंचने वाले थे. दिल्ली से चलने से पहले उन का 10 बजे के लगभग फोन आ गया था. दीदी नहाधो कर तैयार हो रही थीं.

इस बार दीदी को देखने आने वाले लोग जरा दूसरी ही किस्म के थे. लड़का इंगलैंड में नौकरी करता था. शादी कराने भारत आया हुआ था और उसे 2 हफ्ते से भी कम समय में वापस लौट जाना था.

पिछले 5 वर्ष से दीदी को न जाने कितनी बार दिखाया जा चुका था. हमारे पड़ोस में ही दीदी की एक साथी प्राध्यापिका रहा करती थीं. वे हमेशा ही हमारे घर में होने वाली गतिविधियों से जान जातीं कि कोई दीदी को देखने आ रहा है. हर बार जब निराशा हाथ लगती तो दीदी को उन के सामने लज्जित होना पड़ता था. वैसे वे बेचारी दीदी को कुछ नहीं कहती थीं, परंतु दीदी ही हर बार अपने को हीन और अपमानित महसूस करती थीं.

पिछले कुछ महीनों में तो दीदी ने कई बार घर में काफी क्लेश किया था कि वे भेड़बकरी की तरह नहीं दिखाई जाएंगी, परंतु पिताजी की एक डांट के आगे बेचारी झुक जातीं. हां, अपनी जिद, हीनभावना और अपमान के कारण वह खूब रोतीं.

वे लोग ठीक समय पर ही आ गए थे. उन सब की खूब खातिरदारी की गई. वे खुश नजर आ रहे थे. लड़के के भैया- भाभी, छोटी बहन, मातापिता, 2 छोटे भाई और बड़े भाई के 3 बच्चे सभी बैठक में बैठे थे. लड़के की मां, भाभी, छोटी बहन तो पहले ही अंदर जा कर दीदी से मिल चुकी थीं. जिस प्यार से लड़के की मां दीदी को देख रही थीं उस से तो लगता था कि उन्हें दीदी बहुत पसंद आई हैं.

खाने के पश्चात दीदी को बैठक में लाया गया, जहां सब लोग बैठे थे. लड़के के पिता और बड़े भाई दीदी को बड़े गौर से देख रहे थे. लड़का बेचारा चुप ही था. उस की शायद समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? वह दीदी से आंख मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. लगभग आधे घंटे बाद लड़के के पिता ने कहा, ‘‘इन दोनों को कुछ देर के लिए अकेला छोड़ देते हैं. एकदूसरे से एकांत में कुछ पूछना हो तो पूछ सकते हैं.’’

उन की बात सुन कर सब लोग वहां से उठ गए.  लगभग 20 मिनट पश्चात दीदी अंदर आ गईं. उन के आने पर लड़के के घर की महिलाएं बैठक में चली गईं. उन्होंने अपने परिवार के पुरुषों को भी वहीं बुला लिया. वे आपस में सलाहमशवरा कर रहे थे. लगभग आधे घंटे पश्चात लड़के के पिता ने मेरे पिताजी को बुलाया और उन के बैठक में पहुंचते ही कहा, ‘‘मुबारक हो, हमें आप की बेटी बहुत पसंद आई है.’’  पिताजी ने मां और भैया को वहीं बुला लिया. कुछ ही क्षणों में वहां का माहौल ही बदल गया. कुछ देर पहले का तनावपूर्ण वातावरण अब आत्मीयता में परिवर्तित हो चुका था.

जब दीदी ने सुना कि उन को आखिर किसी ने पसंद कर ही लिया है तब उन्होंने चैन की सांस ली. वे लाज की चादर ओढ़े बैठी थीं. बैठक में पिताजी उन लोगों से सारी बातें तय कर रहे थे. मां और भाभी महिलाओं से बातें कर रही थीं.  थोड़ी देर बाद अंदर आ कर लड़के की मां ने अपने गले से सोने की चेन उतार कर दीदी को पहना दी. पहले तो उन सब का 4-5 बजे तक दिल्ली लौट जाने का कार्यक्रम था परंतु अब रात का खाना खाए बिना कैसे जा सकते थे. मां और भाभी खाने की तैयारी में लग गईं. मुझे भी मन मार कर रसोई में उन दोनों की मदद करने जाना पड़ा.  खाने के तुरंत पश्चात ही वे लोग जाने की तैयारी करने लगे. दीदी अपने कमरे से नहीं आईं. मैं जिद कर के होने वाले जीजाजी को दीदी के कमरे में ले गई और उन दोनों को अकेले छोड़ दिया, परंतु वे कुछ देर बाद ही बाहर आ गए. उन्होंने दीदी से क्या कहा? यह तो दीदी ने मुझे बाद में कुरेदने पर भी नहीं बताया था.

3 दिन बाद पिताजी और भैया जा कर सगाई की रस्म पूरी कर आए. उन लोगों ने दीदी के लिए साडि़यां और सोने का एक सैट भेजा. घर में कुछ नजदीकी रिश्तेदार आ गए थे. समय कम था, फिर भी परिवार के सब लोगों की दिनरात की मेहनत से सारी तैयारियां हो ही गईं.

खूब धूमधाम से शादी हुई. किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि लड़के वालों ने 6 दिन पहले ही हमारे यहां आ कर पहली बार दीदी को देखा था. सवेरे 8 बजे बरात विदा हो गई. दीदी हमारा घर सूना कर गई थीं.

दीदी को जीजाजी अगले ही दिन ब्रिटेन के हाईकमीशन ले गए. उन के लिए वीजा मिलने में कुछ दिन तो लग ही जाने थे. दिल्ली में दीदी से हम मुश्किल से 40 घंटे बाद मिले थे, परंतु ऐसा लगा कि जैसे मुद्दतों के बाद मिले हों. दीदी बहुत थकीथकी नजर आ रही थीं. कुछ उदास भी थीं, आखिर जीजाजी लंबी हवाई यात्रा पर जो जा रहे थे.  जीजाजी के विमान के चले जाने पर हम लोग मोदीनगर रवाना हो गए. दीदी की सास ने तो घर चलने की काफी जिद की, पर मांपिताजी नहीं माने. 1-2 दिन बाद तो भैया दीदी को लिवाने के लिए उन के यहां जाने ही वाले थे. दीदी भी घर जल्दी आने को इच्छुक थीं. उन्होंने अभी अपनी नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया था.

2 दिन बाद भैया दीदी को लिवा लाए. घर में जैसे बहार आ गई. दीदी का कालेज जाने का वह आखिरी दिन था. उन्होंने सवेरे ही अपना इस्तीफा लिख लिया था.  वे रिकशा वाले की प्रतीक्षा कर रही थीं, तभी दरवाजे की घंटी बजी. दीदी ने जल्दी से दरवाजा खोला. उन के ही नाम रजिस्ट्री थी. जीजाजी ने ही रजिस्ट्री पत्र भेजा था.  दीदी पत्र को उत्सुकता से खोलने लगीं. उन के हवाई टिकट के साथ एक पत्र भी था. दीदी ने हवाई टिकट पर एक नजर डाली.

‘‘अरे, अगले इतवार की ही हवाई उड़ान है,’’ मैं ने टिकट दीदी के हाथ से ले लिया.

दीदी पत्र पढ़ने लगीं. अचानक मुझे उन के चेहरे का रंग उड़ता सा नजर आया, ‘‘जीजाजी ठीक हैं न?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘हां, ठीक हैं,’’ दीदी ने बस यही कहा. उन का चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया था. वे मुझे वहीं छोड़ कर स्नानघर में चली गईं.

मैं जीजाजी का भेजा हवाई टिकट मां को दिखाने के लिए रसोई में चली गई. कुछ ही देर में भाभी भी आ गईं. रिकशा वाला बाहर घंटी बजा रहा था. हम लोग हवाई टिकट देख कर इतने उत्साहित हो गए कि दीदी की अनुपस्थिति का एहसास ही नहीं हुआ. दीदी जब स्नानघर से निकलीं तो सीधी रिकशा की ओर जाने लगीं. भाभी ने रोका तो बस यही कह दिया, ‘‘भाभीजी, मुझे देर हो रही है.’’

दीदी के चेहरे की बस एक ही झलक मैं देख पाई थी. उन्होंने चाहे भाभी के मन में कोई शक न पैदा किया हो, पर मुझे विश्वास हो गया कि दीदी स्नानघर में जरूर ही रोई होंगी. शायद वे इतनी जल्दी हम सब को छोड़ कर विदेश जाने से घबरा रही थीं. जीजाजी के साथ उन्होंने कितना कम समय बिताया था. वे दोनों एकदूसरे के लिए लगभग अजनबी ही तो थे दीदी का उसी दिन से मन खराब रहने लगा. 2-3 बार तो रोई भी थीं. मां और पिताजी उन्हें समझाने के अलावा और कर भी क्या सकते थे. इंगलैंड जाने से 2 दिन पहले वे अपनी ससुराल चली गईं.  दीदी को हवाई अड्डे पर विदा करने के लिए उन की ससुराल के लोगों के साथसाथ हम सब भी पहुंचे हुए थे. तब दीदी में काफी परिवर्तन सा नजर आ रहा था. विदा लेते समय दीदी की जेठानी ने उन से कहा, ‘‘अब तो हमें जल्दी से जल्दी खुशखबरी देना.’’

दीदी चली गईं. हम लोग भी वापस मोदीनगर आ गए. जीजाजी ने दीदी के लंदन पहुंचने का तार उन के वहां पहुंचते ही भेज दिया. तार पा कर घर में सब को बहुत राहत मिली. दीदी का पत्र भी आ गया. मां ने उन का पत्र न जाने कितनी बार पढ़ा होगा. दीदी के जाने के बाद कई सप्ताह तो घर कुछ सूनासूना लगा, परंतु बाद में सब सामान्य हो गया.

जीजाजी और दीदी के पत्र हमेशा नियमित रूप से आते रहते थे. दीदी ने मांपिताजी को तसल्ली दे रखी थी कि उन की बेटी वहां बहुत खुश है. उन को इंगलैंड गए 2 साल होने जा रहे थे. मां ने कभी दीदी को भारत आने के लिए नहीं लिखा था. सोचा था, उचित समय आने पर ही आग्रह करेंगी. मां की नजरों में उचित समय मेरी शादी का ही अवसर था, जिस के लिए मांपिताजी दौड़धूप कर रहे थे.

मां ने रसोई से आवाज दी, ‘‘सफेदी करने वाले आते ही होंगे…सामान जल्दी से निकाल कर कमरा खाली करो.’’

‘‘अच्छा मां,’’ मैं ने उत्तर दिया. पता नहीं उसी क्षण मुझे अपनी दीदी पर क्यों इतना स्नेह उमड़ आया. भावावेश में मेरी आंखें भीग गईं. फिर मुझे जीजाजी का ध्यान आया. उन्होंने अपने प्यार से दीदी के अधूरे जीवन में शायद कुछ पूर्णता सी ला दी है. यह तो हमें कभी शायद पता नहीं चल पाएगा कि दीदी वास्तव में खुश हैं या नहीं. परंतु उन के पत्रों से इस बात का जबरदस्त एहसास होता कि जीजाजी उन को बहुत प्यार करते हैं.

भाभी बंटी को विद्यालय छोड़ कर घर आ गई थीं. इस से पहले कि वे मुझे जीजाजी का पत्र पढ़ते हुए देख पातीं, मैं ने पत्र की कुछ खास पंक्तियों पर आखिरी नजर डाली. जीजाजी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि घर वालों की जिद के आगे झुक कर ही उन्होंने शादी की थी. उन की इस भूल के लिए वे स्वयं ही उत्तरदायी हैं. घर वालों में से किसी को भी नहीं मालूम था कि वे अपनी पत्नी को एक पति का सुख देने में असमर्थ हैं. वे अपनी इस शारीरिक असमर्थता को अपने परिवार वालों के सामने स्वीकार नहीं कर सके. इस के लिए वे अत्यंत दुखी हैं.

जीजाजी के पत्र के छोटेछोटे टुकड़े कर के मैं उसे घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक आई थी.

दीवारें बोल उठीं: घर के अंदर ऐसा क्या किया अमन ने

परेशान इंद्र एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगा रहे थे. गुस्से में बुदबुदाए जाने वाले शब्दों को शिल्पी लाख चाहने पर भी सुन नहीं पा रही थी. बस, चेहरे के भावों से अनुमान भर ही लगा पाई कि वे हालात को कोस रहे हैं. अमन की कारस्तानियों से दुखी इंद्र का जब परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं रहता था तो वह आसपास मौजूद किसी भी व्यक्ति में कोई न कोई कारण ढूंढ़ कर उसे ही कोसना शुरू कर देते. यह आज की बात नहीं थी. अमन का यों देर रात घर आना, घर आ कर लैपटाप पर व्यस्त रहना, अब रोज की दिनचर्या बन गई थी. कान से फोन चिपका कर यंत्रवत रोबोट की तरह उस के हाथ थाली से मुंह में रोटी के कौर पहुंचाते रहते. उस की दिनचर्या में मौजूद रिश्तों के सिर्फ नाम भर ही थे, उन के प्रति न कोई भाव था न भाषा थी.

औलाद से मांबाप को क्या चाहिए होता है, केवल प्यार, कुछ समय. लेकिन अमन को देख कर यों लगता कि समय रेत की मानिंद मुट्ठी से इतनी जल्दी फिसल गया कि मैं न तो अमन की तुतलाती बातों के रस का आनंद ले पाई और न ही उस के नन्हे कदम आंखों को रिझा पाए. उसे किशोर से युवा होते देखती रही. विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने वाले अमन के दिल पर मैं भी हाथ कहां रख पाई. वह जब भी स्कूल की या दोस्तों की कोई भी बात मुझे बताना चाहता तो मैं हमेशा रसोई में अपनी व्यस्तता का बहाना बना कर उसे उस के पापा के पास भेज देती और इंद्र उसे उस के दादा के पास. समय ही नहीं था हमारे पास उस की बातें, शिकायतें सुनने का.

आज अमन के पास समय नहीं है अपने अधेड़ होते मांबाप के पास बैठने का. आज हम दोनों अमन को दोषी मानते हैं. इंद्र तो उसे नई पीढ़ी की संज्ञा दे कर बिगड़ी हुई औलाद कहते हैं, लेकिन वास्तव में दोषी कौन है? हम दोनों, इंद्र या मैं या केवल अमन. लेकिन सप्ताह के 6 दिन तक रूखे रहने वाले अमन में शनिवार की रात से मैं प्रशंसनीय परिवर्तन देखती. तब भी वह अपना अधिकतर समय यारदोस्तों की टोली में ही बिताना पसंद करता. रविवार की सुबह घर से निकल कर 4-5 घंटे गायब रहना उस के लिए मामूली बात थी.

‘न ढंग से नाश्ता करता है, न रोटी खाता है.’ अपने में सोचतेसोचते मैं फुसफुसा रही थी और मेरे फुसफुसाए शब्दों की ध्वनि इतनी साफ थी कि तिलमिलाए इंद्र अपने अंदर की कड़वाहट उगलने से खुद को रोक नहीं पाए. जब आवेग नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो तबाही निश्चित होती है. बात जब भावोंविचारों में आवेग की हो और सद्व्यवहार के बंधन टूटने लगें तो क्रोध भी अपनी सीमाएं तोड़ने लगता है. मेरी बुदबुदाहट की तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इंद्र ने कहा, ‘‘हां हां, तुम हमेशा खाने की थाली सजा कर दरवाजे पर खड़ी रह कर आरती उतारो उस की. जबजब वह घर आए, चाहो तो नगाड़े पीट कर पड़ोसियों को भी सूचित करो कि हमारे यहां अतिविशिष्ट व्यक्ति पधारे हैं. कहो तो मैं भी डांस करूं, ऐसे…’’

कहतेकहते आवेश में आ कर इंद्र ने जब हाथपैर हिलाने शुरू किए तो मैं अचंभित सी उन्हें देखती रही. सच ही तो था, गुस्सा इनसान से सही बात कहने व संतुलित व्यवहार करने की ताकत खत्म कर देता है. मुझे इंद्र पर नहीं खामखा अपने पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों मैं ने अमन की बात शुरू की.

इंद्र का स्वभाव जल्दी उखड़ने वाला रहा है, लेकिन उन के गुस्से के चलते मैं भी चिड़चिड़ी होती गई. इंद्र हमेशा अमन के हर काम की चीरफाड़ करते रहते. शुरू में अपनी गलती मान कर इस काम में सुधार करने वाले अमन को भी लगने लगा कि उस के काम की, आलोचना सिर्फ आलोचना के लिए की जा रही है और इसे ज्यादा महत्त्व देना बेकार है.

यह सब सोचतेसोचते मैं ने अपने दिमाग को झटका. तभी विचार आया कि बस, बहुत हो गया. अब इन सब से मुझे खुद को ही नहीं, इंद्र को भी बाहर निकालना होगा. आज सुबह से माहौल में पैदा हो रही तल्खियां और तल्ख न हों, इसलिए मैं ने इंद्र को पनीर परोसते हुए कहा, ‘‘आप यों तो उस के कमरे में जा कर बारबार देखते हो कि वह ठीक से सोया है या नहीं, और वैसे छोटीछोटी बातों पर बच्चों की तरह तुनक जाते हो. आप के दोस्त राजेंद्र भी उस दिन समझा रहे थे कि गुस्सा आए तो बाहर निकल जाया करो.

‘‘बस, अब बहुत हो गया बच्चे के पीछे पुलिस की तरह लगे रहना. जीने दो उसे अपनी जिंदगी, ठोकर खा कर ही तो संभलना जानेगा’’ मैं ने समझाने की कोशिश की. ‘‘ऐसा है शिल्पी मैडम, जब तक जिंदा हूं, आंखों देखी मक्खी नहीं निगली जाती. घर है यह, सराय नहीं कि जब चाहे कोई अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक मुंह उठाए चला आए और देहरी पर खड़े दरबान की तरह हम उसे सैल्यूट मारें,’’ दोनों हाथों को जोर से जोड़ते हुए इंद्र जब बोले तो मुझे उन के उस अंदाज पर हंसी आ गई.

रविवार को फिर अमन 10 बजे का चाय पी कर निकला और 1 बजने को था, पर वह अभी तक नदारद था. बहुत मन करता है कि हम सब एकसाथ बैठें, लेकिन इस नीड़ में मैं ने हमेशा एक सदस्य की कमी पाई. कभी इंद्र की, कभी अमन की. इधर हम पतिपत्नी व उधर मेरे बूढ़े सासससुर की आंखों में एकदूसरे के साथ बैठ कर भरपूर समय बिताने की लालसा के सपने तैरते ही रह जाते. अपनी सास गिरिजा के साथ बैठी उदास मन से मैं दरवाजे की ओर टकटकी लगाए देख रही थी. आंखों में रहरह कर आंसू उमड़ आते, जिन्हें मैं बड़ी सफाई से पोंछती जा रही थी कि तभी मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, मन को भीगी लकड़ी की तरह मत बनाओ कि धीरेधीरे सुलगती रहो. अमन के नासमझ व्यवहार से जी हलका मत करो.’’

‘‘मांजी, अभी शादी होगी उस की. आने वाली बहू के साथ भी अमन का व्यवहार…’’ शिल्पी की बात को बीच में ही रोक कर समझाते हुए मांजी बोलीं, ‘‘आने वाले कल की चिंता में तुम बेकार ही नई समस्याओं को जन्म दे रही हो. कभी इनसान हालात के परिणाम कुछ सोचता है लेकिन उन का दूसरा ही रूप सामने आता है. नदी का जल अनवरत बहता रहता है लेकिन वह रास्ते में आने वाले पत्थरों के बारे में पहले से सोच कर बहना तो रोकता नहीं न. ठीक वैसे ही इनसान को चलना चाहिए. इसलिए पहले से परिणामों के बारे में सोच कर दिमाग का बोझ बेकार में मत बढ़ाओ.’’

‘‘पर मांजी, मैं अपने को सोचने से मुक्त नहीं कर पाती. कल अगर अपनी पत्नी को भी समय न दिया और इसी तरह से उखड़ाउखड़ा रहा तो ऐसे में कोई कैसे एडजस्ट करेगा? ‘‘मैं समझ नहीं पा रही, वह हम से इतना कट क्यों रहा है. क्या आफिस में, अपने फें्रड सर्कल में भी वह इतना ही कोरा होगा? मांजी, मैं उस के दोस्त निखिल से इस का कारण पूछ कर ही रहूंगी. शायद उसे कुछ पता हो. अभी तक मैं टालती आ रही थी लेकिन अब जानना चाहती हूं कि कुछ साल पहले तक जिस के हंसीठहाकों से घर गुलजार रहता था, अचानक उस के मुंह पर ताला कैसे लग गया?

‘‘इंद्र का व्यवहार अगर उसे कचोट रहा है बेटी, तो इंद्र तो शुरू से ही ऐसा रहा है. डांटता है तो प्यार भी करता है,’’ अब मां भी कुछ चिंतित दिखीं, ‘‘शिल्पी, अब जब तुम ने ध्यान दिलाया है तो मैं भी गौर कर रही हूं, नहीं तो मैं भी इसे पढ़ाई की टेंशन समझती थी…’’ बातों के सिलसिले पर डोरबेल ने कुछ देर के लिए रोक लगा दी.

लगभग 3 बजे अमन लौट कर आया था. ‘‘आप लोग मुझे यों घूर क्यों रहे हो?’’ अमन ने कमरे में घुसते हुए दादी और मां को अपनी ओर देखते हुए पा कर पूछा.

अमन के ऐसा पूछते ही मेरा संयम फिर टूट गया, ‘‘कहां चले गए थे आप? कुछ ठौरठिकाना होता है? बाकी दिन आप का आफिस, आज आप के दोस्त. कुछ घर वालों को बताना जरूरी समझते हैं आप या नहीं?’’ मैं जबजब गुस्से में होती तो अमन से बात करने में तुम से आप पर उतर आती. लेकिन बहुत ही संयत स्वर में मुझे दोनों कंधों से पकड़ कर गले लगा कर अमन बोला, ‘‘ओ मेरी प्यारी मां, आप तो गुस्से में पापा को भी मात कर रही हो. चलोचलो, गुस्सागुस्सी को वाशबेसिन में थूक आएं,’’ और हंसतेहंसते दादी की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘दादी, गया तो मैं सैलून था, बाल कटवाने. सोचा, आज अच्छे से हेड मसाज भी करवा लूं. पूरे हफ्ते काम करते हुए नसें ख्ंिचने लगती हैं. एक तो इस में देर हो गई और ज्यों ही सैलून से निकला तो लव मिल गया.

‘‘आज उस की वाइफ घर पर नहीं थी तो उस ने कहा कि अगर मैं उस के साथ चलूं तो वह मुझे बढि़या नाश्ता बना कर खिलाएगा. मां, तुम तो जानती हो कि कल से वही भागादौड़ी. हां, यह गलती हुई कि मुझे आप को फोन कर देना चाहिए था,’’ मां के गालों को बच्चे की तरह पुचकारते हुए वह नहाने के लिए घुसने ही वाला था कि पापा का रोबीला स्वर सुन कर रुक गया. ‘‘बरखुरदार, अच्छा बेवकूफ बना रहे हो. आधा दिन यों ही सही तो आधा दिन किसी और तरह से, हो गया खत्म पूरा दिन. संडे शायद तुम्हें किसी सजा से कम नहीं लगता होगा. आज तुम मुंह खोल कर सौरी बोल रहे हो, बाकी दिन तो इस औपचारिकता की भी जरूरत नहीं समझते.’’

अमन के चेहरे पर कई रंग आए, कई गए. नए झगड़े की कल्पना से ही मैं भयभीत हो गई. दूसरे कमरे से निकल आए दादा भी अब एक नए विस्फोट को झेलने की कमर कस चुके थे. दादी तो घबराहट से पहले ही रोने जैसी हो गईं. इतनी सी ही देर में हर किसी ने परिणाम की आशा अपनेअपने ढंग से कर ली थी.

लेकिन अमन तो आज जैसे शांति प्रयासों को बहाल करने की ठान चुका लगता था. बिना बौखलाए पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें बिठाते हुए बोला, ‘‘पापा, जैसे आप लोग मुझ से, मेरे व्यवहार से शिकायत रखते हो, वैसा ही खयाल मेरा भी आप के बारे में है. ‘‘मैं बदला तो केवल आप के कारण. मुझे रिजर्व किया तो आप ने. मोबाइल चेपू हूं, लैपटाप पर लगा रहता हूं वगैरावगैरा कई बातें. पर पापा, मैं ऐसा क्यों होता गया, उस पर आप ने सोचना ही जरूरी नहीं समझा. फें्रड सर्कल में हमेशा खुश रहने वाला अमन घर आते ही मौन धारण कर लेता है, क्यों? कभी सोचा?

‘‘आफिस से घर आने पर आप हमेशा गंभीरता का लबादा ओढ़े हुए आते. मां ने आप से कुछ पूछा और आप फोन पर बात कर रहे हों तो अपनी तीखी भावभंगिमा से आप पूछने वाले को दर्शा देते कि बीच में टोकने की जुर्रत न की जाए. पर आप की बातचीत का सिलसिला बिना कमर्शियल बे्रक की फिल्म की भांति चलता रहता. दूसरों से लंबी बात करने में भी आप को कोई प्रौब्लम नहीं होती थी लेकिन हम सब से नपेतुले शब्दों में ही बातें करते. ‘‘आप की कठोरता के कारण मां अपने में सिमटती गईं. जब भी मैं उन से कुछ पूछता तो पहले तो लताड़ती ही थीं लेकिन बाद में वह अपनी मजबूरी बता कर जब माफी मांगतीं तो मैं अपने को कोसता था.

‘‘इस बात में कोई शक नहीं कि आप घर की जरूरतें एक अच्छे पति, पिता और बेटे के रूप में पूरी करते आए हैं. बस, हम सब को शिकायत थी और है आप के रूखे व्यवहार से. मेरे मन में यह सोच बर्फ की तरह जमती गई कि ऐसा रोबीला व्यक्तित्व बनाने से औरों पर रोब पड़ता है. कम बोलने से बाकी लोग भी डरते हैं और मैं भी धीरेधीरे अपने में सिमटता चला गया. ‘‘मैं ने भी दोहरे व्यक्तित्व का बोझ अपने ऊपर लादना शुरू किया. घर में कुछ, बाहर और कुछ. लेकिन इस नाटक में मन में बची भावुकता मां की ओर खींचती थी. मां पर तरस आता था कि इन का क्या दोष है. दादी से मैं आज भी लुकाछिपी खेलना चाहता हूं,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो कर दादी से लिपट गया.

‘‘अच्छा, मैं ऐसा इनसान हूं. तुम सब मेरे बारे में ऐसी सोच रखते थे और मेरी ही वजह से तुम घर से कटने लगे,’’ रोंआसे स्वर में इंद्र बोले. ‘‘नहीं बेटा, तुम्हारे पिता के ऐसे व्यवहार के लिए मैं ही सब से ज्यादा दोषी हूं,’’ अमन को यह कह कर इंद्र की ओर मुखातिब होते हुए दादा बोले, ‘‘मैं ने अपने विचार तुम पर थोपे. घर में हिटलरशाही के कारण तुम से मैं अपेक्षा करने लगा कि तुम मेरे अनुसार उठो, बैठो, चलो. तुम्हारे हर काम की लगाम मैं अपने हाथ में रखने लगा था.

‘‘छोटे रहते तुम मेरा हुक्म बजाते रहे. मेरा अहं भी संतुष्ट था. यारदोस्तों में गर्व से मूंछों पर ताव दे कर अपने आज्ञाकारी बेटे के गुणों का बखान करता. पर जैसेजैसे तुम बड़े होते गए, तुम भी मेरे प्रति दबे हुए आक्रोश को व्यक्त करने लगे. ‘‘तुम्हारी समस्या सुनने के बजाय, तुम्हारे मन को टटोलने की जगह मैं तुम्हें नकारा साबित कर के तुम से नाराज रहने लगा. धीरेधीरे तुम विद्रोही होते गए. बातबात पर तुम्हारी तुनकमिजाजी से मैं तुम पर और सख्ती करने लगा. धीरेधीरे वह समय भी आया कि जिस कमरे में मैं बैठता, तुम उधर से उठ कर चल पड़ते. मेरा हठीला मन तुम्हारे इस आचरण को, तुम्हारे इस व्यवहार को अपने प्रति आदर समझता रहा कि तुम बड़ों के सामने सम्मानवश बैठना नहीं चाहते.

‘‘लेकिन आज मैं समझ रहा हूं कि स्कूल में विद्यार्थियों से डंडे के जोर पर नियम मनवाने वाला प्रिंसिपल घर में बेटे के साथ पिता की भूमिका सही नहीं निभा पाया. ‘‘पर जितना दोषी आज मैं हूं उतना ही दोष तुम्हारी मां का भी रहा. क्यों? इसलिए कि वह आज्ञाकारिणी बीवी बनने के साथसाथ एक आज्ञाकारिणी मां भी बन गई? एक तरफ पति की गलतसही सब बातें मानती थी तो दूसरी तरफ बेटे की हर बात को सिरमाथे पर लेती थी.’’

‘‘हां, आप सही कह रहे हैं. कम से कम मुझे तो बेटे के लिए गांधारी नहीं बनना चाहिए था. जैसे आज शिल्पी अमन के व्यवहार के कारण भविष्य में पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में सोच कर चिंतित है, उस समय मेरे दिमाग में दूरदूर तक यह बात ही नहीं थी कि इंद्र का व्यवहार भविष्य में कितना घातक हो सकता है. हम सब यही सोचते थे कि इस की पत्नी ही इसे संभालेगी लेकिन शिल्पी को गाड़ी के पहियों में संतुलन खुद ही बिठाना पड़ा,’’ प्रशंसाभरी नजरों से दादी शिल्पी को देख कर बोलीं. ‘‘हां अमन, शिल्पी ने इंद्र के साथ तालमेल बिठाने में जो कुछ किया उस की तो तेरी दादी तारीफ करती हैं. यह भी सच है कि इस दौरान शिल्पी कई बार टूटी भी, रोई भी, घर भी छोड़ना चाहा, इंद्र से एक बारगी तो तलाक लेने के लिए भी अड़ गई थी लेकिन तुम्हारी दादी ने उस के बिखरे व्यक्तित्व को जब से समेटा तब से वह हर समस्या में सोने की तरह तप कर निखरती गई,’’ ससुरजी ने एक छिपा हुआ इतिहास खोल कर रख दिया.

‘‘यानी पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस झूठे अहम की दीवारों को अब गिराना एक जरूरत बन गई है. जीवन में केवल प्यार का ही स्थान सब से ऊपर होना चाहिए. इसे जीवित रखने के लिए दिलों में एकदूसरे के लिए केवल सम्मान होना चाहिए, हठ नहीं,’’ अमन बोला. ‘‘अच्छा, अगर तुम इतनी ही अच्छी सोच रखते थे तो तुम हठीले क्यों बने,’’ पापा की ओर से दगे इस प्रश्न का जवाब देते हुए अमन हौले से मुसकराया, ‘‘तब क्या मैं आप को बदल पाता? और दादा क्या आप यह मानते कि आप ने अपने बेटे के लिए कुशल पिता की नहीं, पिं्रसिपल की ही भूमिका निभाई? यानी दादा से पापा फिर मैं, इस खानदानी गुंडागर्दी का अंत ही नहीं होता,’’ बोलतेबोलते अमन के साथ सभी हंस पड़े.

मेरी खुशी का तो ओरछोर ही न था, क्योंकि आज मेरा मकान वास्तव में एक घर बन गया था.

मुट्ठी भर प्यार : बूआजी का प्यार आखिर किस वजह से था

‘‘धरा, मम्मी गुजर गईं. मैं निकल रही हूं अभी,’’ सुबकते हुए बूआजी ने बताया.

मैं उन से एक शब्द भी नहीं बोल पाई. बोल ही कहां पाती…सूचना ही इतनी अप्रत्याशित थी. सुन कर जैसे यकीन ही नहीं आया और जब तक यकीन हुआ फोन कट चुका था. इतना भी नहीं पूछ पाई कि यह सब कैसे और कब हुआ.

वे मानें या न मानें पर यह सच है कि जितना हम बूआ के प्या

र को तरसे हैं उतनी ही हमारी कमी बूआजी ने भी महसूस की होगी. हमारे संबंधों में लक्ष्मण रेखाएं मम्मीपापा ने खींच दीं. इस में हम दोनों बहनें कहां दोषी हैं. कहते हैं कि मांबाप के कर्मों की सजा उन के बच्चों को भोगनी पड़ती है. सो भोग रहे हैं, कारण चाहे कुछ भी हों.

कितनाकितना सामान बूआजी हम दोनों बहनों के लिए ले कर आती थीं. बूआजी के कोई बेटी नहीं थी और हमारा कोई भाई नहीं था. पापा के लिए भी जो कुछ थीं बस, बूआजी ही थीं. अत: अकेली बूआजी हर रक्षाबंधन पर दौड़ी चली आतीं. उमंग और नमन भैया के हम से राखी बंधवातीं और राखी बंधाई में भैया हमें सुंदर ड्रेसें देते, साथ में होतीं मैचिंग क्लिप, रूमाल, चूडि़यां, टौफी और चौकलेट.

हम बूआजी के आगेपीछे घूमते. बूआजी अपने साथ बाजार ले जातीं, आइसक्रीम खिलातीं, कोक पिलातीं, ढेरों सामान से लदे जब हम घर में घुसते तो दादीमां बूआजी को डांटतीं, ‘इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी? इन दोनों के पास इतना सामान है, खिलौने हैं, पर इन का मन भरता ही नहीं.’

बूआजी हंस कर कहतीं, ‘मम्मी, अब घर में शैतानी करने को ये ही 2 बच्चियां हैं. घर कैसा गुलजार रहता है. ये हमारा बूआभतीजी का मामला है, कोई बीच में नहीं बोलेगा.’

थोडे़ बड़े हुए तो मुट्ठी में बंद सितारे बिखर गए. बूआजी को बुलाना तो दूर पापाजी ने उन का नाम तक लेने पर पाबंदी लगा दी. बूआजी आतीं, भैया आते तो हम चोरीचोरी उन से मिलते. वह प्यार करतीं तो उन की आंखें नम हो आतीं.

पापामम्मी ने कभी बूआजी को अपने घर नहीं बुलाया. भैया से भी नहीं बोले, जबकि बूआजी हम पर अब भी जान छिड़कती थीं. राखियां खुल गईं. रिश्ते बेमानी हो गए. कैसे इंतजार करूं कि कभी बूआजी बुलाएंगी और कहेंगी, ‘धरा और तान्या, तुम अपनी बूआजी को कैसे भूल गईं? कभी अपनी बूआ के घर आओ न.’

कैसे कहतीं बूआजी? उन के आगे रिश्तों का एक जंगल उग आया था और उस के पार बूआजी आ नहीं सकती थीं. जाने ऐसे कितने जंगल रिश्तों के बीच उग आए जो वक्तबेवक्त खरोंच कर लहूलुहान करते रहे. बूआजी के एक फोन से कितना कुछ सोच गई मैं.

मैं अतीत से बाहर आ कर अपने कर्तव्य की ओर उन्मुख हुई. तान्या को मैं ने फौरन फोन मिलाया तो वह बोली, ‘‘दीदी, फिलहाल मैं नहीं निकल पाऊंगी. बंगलौर से वहां पहुंचने में 2 दिन तो लग ही जाएंगे. फ्लाइट का भी कोई भरोसा नहीं, टिकट मिले न मिले. फिर ईशान भी यहां नहीं हैं. मैं तेरहवीं पर पहुंचूंगी. प्लीज, आप निकल जाइए,’’ फिर थोड़ा रुक कर पूछने लगीं, ‘‘दीदी, आप को खबर किस ने दी? कैसे हुआ ये सब?’’ पूछतेपूछते रो दी तानी.

‘‘तानी, मुझे कुछ भी पता नहीं. बस, बूआजी का फोन आया था. कितना प्यार करती थीं हमें दादी. तानी, क्या मेरा जाना मम्मीपापा को अच्छा लगेगा? क्या मम्मीपापा भी उन्हें अंतिम प्रणाम करेंगे?’’

‘‘नहीं, दीदी, यह समय रिश्तों को तोलने का नहीं है. मम्मीपापा अपने रिश्ते आप जानें. हमें तो अपनी दादी के करीब उन के अंतिम क्षणों में जाना चाहिए. दादी को अंतिम प्रणाम के लिए मेरी ओर से कुछ फूल जरूर चढ़ा देना.’’

मैं ने हर्ष के आफिस फोन मिलाया और उन्हें भी इस दुखद समाचार से अवगत कराया.

‘‘तुम तैयार रहना, धरा. मैं 15 मिनट में पहुंच रहा हूं.’’

फोन रख मैं ने अलमारी खोली और तैयार होने के लिए साड़ी निकालने लगी. तभी दादी की दी हुई कांजीवरम की साड़ी पर नजर पड़ी. मैं ने साड़ी छुई तो लगा दादी को छू रही हूं. उन का प्यार मुझे सहला गया. दादी की दी हुई एकएक चीज पर मैं हाथ फिरा कर देखने लगी. इतना प्यार इन चीजों पर इस से पहले मुझे कभी नहीं आया था.

आंखें बहे जा रही थीं. दादी की दी हुई सोने की चेन, अंगूठी, टौप्स को देने का उन का ढंग याद आ गया. लौटते समय दादी चुपचाप मुट्ठी में थमा देतीं. उन के देने का यही ढंग रहा. अपना मुट्ठी भर प्यार मुट्ठी में ही दिया.

हर्ष को भी जब चाहे कुछ न कुछ मुट्ठी में थमा ही देतीं. 1-2 बार हर्ष ने मना करना चाहा तो बोलीं, ‘‘हर्ष बेटा, इतना सा भी अधिकार तुम मुझे देना नहीं चाहते. तुम्हें कुछ दे कर मुझे सुकून मिलता है,’’ और इतना कहतेकहते उन की आंखें भर आई थीं.

तभी से हर्ष दादी से मिले रुपयों पर एक छोटा सा फूल बना कर संभाल कर रख देते और मुझे भी सख्त हिदायत थी कि मैं भी दादी से मिले रुपए खर्च न करूं.

मुझे नहीं पता कि मम्मीपापा का झगड़ा दादादादी से किस बात पर हुआ. बस, धुंधली सी याद है. उस समय मैं 6 साल की थी. पापादादी मां से खूब लड़ेझगड़े थे और उसी के बाद अपना सामान ऊपर की मंजिल में ले जा कर रहने लगे थे.

इस के बाद ही मम्मीपापा ने दादी और दादा के पास जाने पर रोक लगा दी. यदि हमें उन से कुछ लेते देख लेते तो छीन कर कूड़े की टोकरी में फेंक देते और दादी को खूब खरीखोटी सुनाते. दादी ने कभी उन की बात का जवाब नहीं दिया.

जब पापा कहीं चले जाते और मम्मी आराम करने लगतीं तो हम यानी मैं और तानी चुपके से नीचे उतर जातीं. दादी हमें कलेजे से लगा लेतीं और खाने के लिए हमारी पसंद की चीजें देतीं. बाजार जातीं तो हमारे लिए पेस्ट्री अवश्य लातीं जिसे पापामम्मी की नजरें बचा कर स्कूल जाते समय हमें थमा देतीं.

मम्मी पापा से शिकायत करतीं. पापा चांटे लगाते और कान पकड़ कर प्रामिस लेते कि अब नीचे नहीं जाएंगे. और हम डर कर प्रामिस कर लेतीं लेकिन उन के घर से निकलते ही मैं और तानी आंखोंआंखों में इशारा करतीं और खेलने का बहाना कर दादी के पास पहुंच जाते. दादी हमें खूब प्यार करतीं और समझातीं, ‘‘अच्छे बच्चे अपने मम्मीपापा का कहना मानते हैं.’’

तानी गुस्से से कहती, ‘‘वह आप के पास नहीं आने देते. हम तो यहां जरूर आएंगे. क्या आप हमारे दादादादी नहीं हो? क्या आप के बच्चे आप की बात मानते हैं जो हम मानें?’’

दादी के पास हमारे इस सवाल का कोई उत्तर नहीं होता था.

दादी के एक तरफ मैं लेटती दूसरी तरफ तानी और बीच में वह लेटतीं. वह रोज हमें नई कहानियां सुनातीं. स्कूल की बातें सुनातीं और जब पापा छोटे थे तब की ढेर सारी बातें बतातीं. हमें बड़ा आनंद आता.

दादाजी की जेब की तलाशी में कभी चुइंगम, कभी जैली और कभी टौफी मिल जाती, क्योंकि दादाजी जानते थे कि बच्चों को जेबों की तलाशी लेनी है और उन्हें निराश नहीं होने देना है. उन के मतलब का कुछ तो मिलना चाहिए.

दादी झगड़ती हुई दादाजी से कहतीं, ‘तुम ने टौफी, चाकलेट खिलाखिला कर इन की आदतें खराब कर दी हैं. ये तानी तो सारा दिन चीज मांगती रहती है. देखते नहीं बच्चों के सारे दांत खराब हो रहे हैं.’

दादाजी चुपचाप सुनते और मुसकराते रहते.

तानी दादी की नकल करती हुई घुटनों पर हाथ रख कर उन की तरह कराहती. कभी पलंग पर चढ़ कर बिस्तर गंदा करती.

‘तानी, तू कहना नहीं मानेगी तो तेरी मैडम से शिकायत करूंगी,’ दादी झिड़कती हुई कहतीं.

‘मैडम मुझ से कुछ कहेंगी ही नहीं क्योंकि वह मुझे प्यार करती हैं,’ तानी कहती जाती और दादी को चिढ़ाती जाती. दादी उसे पकड़ लेतीं और गाल चूम कर कहती, ‘प्यार तो तुझे मैं भी बहुत करती हूं.’

सर्दियों के दिनों में दादी हमारी जेबों में बादाम, काजू, किशमिश, पिस्ता, रेवड़ी, मूंगफली कुछ भी भर देतीं. स्कूल बस में हम दोनों बहनें खुद भी खातीं और अपने दोस्तों को भी खिलातीं.

तानी और मुझे साड़ी बांधने का बड़ा शौक था. हम दादी की अलमारी में से साड़ी निकालतीं और खूब अच्छी सी पिनअप कर के साड़ी बांधतीं हम शीशे में अपने को देख कर खूब खुश होते.

‘दादी, हमारे कान कब छिदेंगे? हम टौप्स कब पहनेंगे?’

‘तुम थोड़ी और बड़ी हो जाओ, मेरे कंधे तक आ जाओ तो तुम्हारे कान छिदवा दूंगी और तुम्हारे लिए सोने की बाली भी खरीद दूंगी.’

दादी की बातों से हम आश्वस्त हो जातीं और रोज अपनी लंबाई दादी के पास खड़ी हो कर नापतीं.

एक बार दादाजी और दादी मथुरा घूमने गए. वहां से हमारे लिए जरीगोटे वाले लहंगे ले कर आए. हम लहंगे पहन कर, टेप चला कर खूब देर तक नाचतीं और वह दोनों तालियां बजाते.

‘दादी, ऊपर छत पर चलो, खेलेंगे.’

‘मेरे घुटने दुखते हैं. कैसे चढ़ पाऊंगी?’

‘दादी, आप को चढ़ना नहीं पड़ेगा. हम आप को ऊपर ले जाएंगी.’

‘वह कैसे, बिटिया?’ उन्हें आश्चर्य होता.

‘एक तरफ से दीदी हाथ पकड़ेगी, एक तरफ से मैं. बस, आप ऊपर पहुंच जाओगी.’ तानी के ऐसे लाड़ भरे उत्तर पर दादी उसे गोद में बिठा कर चूम लेतीं.

दादी का कोई भी बालपेन तानी न छोड़ती. वह कहीं भी छिपा कर रखतीं तानी निकाल कर ले जाती. दादी डांटतीं, तब तो दे जाती. लेकिन जैसे ही उन की नजर बचती, बालपेन फिर गायब हो जाती. वह अपने बालपेन के साथ हमारे लिए भी खरीद कर लातीं, पर दादी के हाथ में जो कलम होती हमें वही अच्छी लगती.

हम उन दोनों के साथ कैरम व लूडो खेलतीं. खूब चीटिंग करतीं. दादी देख लेतीं और कहतीं कि चीटिंग करोगी तो नहीं खेलूंगी. हम कान पकड़ कर सौरी बोलतीं. दादाजी, इतनी अच्छी तरह स्ट्रोक मारते कि एकसाथ 4-4 गोटियां निकालते.

‘हाय, दादाजी, इस बार भी आप ही जीतेंगे,’ माथे पर हाथ मार कर मैं कहती, तभी तान्या दादाजी की गोटी उठा कर खाने में डाल देती.

‘चीटिंगचीटिंग दादी,’ कहतीं.

‘ओह दादी, अब खेलने भी दो. बच्चे तो ऐसे ही खेलेंगे न,’ सभी तानी की प्यारी सी बात पर हंस पड़ते.

‘दादी, आप के घुटने दबाऊं. देखो, दर्द अभी कैसे भागता है?’ तानी अपने छोटेछोटे हाथों से उन के घुटने सहलाती. वह गद्गद हो उठतीं.

‘अरे, बिटिया, तू ने तो सचमुच मेरा दर्द भगा दिया.’

तानी की आंखें चमक उठतीं, ‘मैं कहती न थी कि आप को ठीक कर दूंगी, अब आप काम मत करना. मैं आप का सारा काम कर दूंगी,’ और तानी झाड़न उठा कर कुरसीमेज साफ करने लगती.

‘दादी, आप के लिए चाय बनाऊं?’ पूछतेपूछते तानी रसोई में पहुंच जाती.

लाइटर उठा कर गैस जलाने की कोशिश करती.

दादी वहीं से आवाज लगातीं, ‘चाय रहने दे, तानी. एक गिलास पानी दे जा और दवा का डब्बा भी.’

तानी पानी लाती और अपने हाथ से दादी के मुंह में दवा डालती.

एक बार मैं किसी शादी में गई थी. वहां बच्चों का झूला लगा था. मैं भी बच्चों के साथ झूलने लगी. पता नहीं कैसे झूले में मेरा पैर फंस गया. मुश्किल से सब ने खींच कर मेरा पैर निकाला. बहुत दर्द हुआ. पांव सूज गया. चला भी नहीं जा रहा था. मैं रोतेरोते पापामम्मी के साथ घर आई. पापा ने मुझे दादी के पास जाने नहीं दिया. जब पापामम्मी गए तब मैं चुपके से दीवार पकड़ कर सीढि़यों पर बैठबैठ कर नीचे उतरी. दादी के पास जा कर रोने लगी.

उन्होंने मेरा पैर देखा. मुझे बिस्तर पर लिटाया. पैर पर मूव की मालिश की. हीटर जला कर सिंकाई की और गोली खाने को दी. थोड़ी देर बाद दादी की प्यार भरी थपकियों ने मुझे उन की गोद में सुला दिया. कितनी भी कड़वी दवा हम दादी के हाथों हंसतेहंसते खा लेती थीं.

मेरा या तानी का जन्मदिन आता तो दादी पूछतीं, ‘क्या चाहिए तुम दोनों को?’

हम अपनी ढेरों फरमाइशें उन के सामने रखते. वह हमारी फरमाइशों में से एकएक चीज हमें ला देतीं और हम पूरा दिन दादी का दिया गिफ्ट अपने से अलग न करतीं.

बचपन इसी प्रकार गुजरता रहा.

नानी के यहां जाने पर हमारा मन ही न लगता. हम चाहती थीं कि हम दादी के पास रह जाएं, पर मम्मी हमें खींच कर ले जातीं. हम वहां जा कर दादाजी को फोन मिलाते, ‘दादाजी, हमारा मन नहीं लग रहा, आप आ कर ले जाइए.’

‘सारे बच्चे नानी के यहां खुशीखुशी जाते हैं. नानी खूब प्यार करती हैं, पर तुम्हारा मन क्यों नहीं लग रहा?’ दादाजी समझाते हुए पूछते.

‘दादाजी, हमें आप की और दादी की याद आ रही है. हमें न तो कोई अपने साथ बाजार ले कर जाता है, न चीज दिलाता है. नानी कहानी भी नहीं सुनातीं. बस, सारा दिन हनी व सनी के साथ लगी रहती हैं. हम क्या करें दादाजी?’

दादाजी रास्ता सुझाते, ‘बेटा, धरा और तानी सुनो, तुम अपने पापा को फोन लगाओ और उन से कहो कि हम आप को बहुत मिस कर रहे हैं. आप आ कर ले जाओ.’

दादाजी की यह तरकीब काम कर जाती. हम रोरो कर पापा से ले जाने के लिए कहते और अगले दिन पापा हमें ले आते. हम दोनों लौट कर दादी और दादाजी से ऐसे लिपट जाते जैसे कब के बिछुड़े हों.

पापा ने हमें पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया. हम लौटते तो दादाजी और दादी को इंतजार करते पाते. उन की अलमारी हमारे लिए सौगातों से भरी रहती. हाईस्कूल पास करने के बाद दादाजी ने मुझे घड़ी दी थी.

हम बड़े हुए तो पता चला कि दादाजी केवल पेंशन पर गुजारा करते हैं. हमारा मन कहता कि हमें अब उन से उपहार नहीं लेने चाहिए, लेकिन जब दादी हमारी मुट्ठियों में रुपए ठूंस देतीं तो हम इनकार न कर पाते. होस्टल जाते समय लड्डूमठरी के डब्बे साथ रखना दादी कभी न भूलतीं.

दोनों बहनों का कर्णछेदन एकसाथ हुआ तो दादी ने छोटेछोटे कर्णफूल अपने हाथ से हमारे कानों में पहनाए. और जब मेरी शादी पक्की हुई तो दादी हर्ष को देखने के लिए कितना तड़पीं. जब नहीं रहा गया तो मुझे बुला कर बोली थीं, ‘धरा बेटा, अपना दूल्हा मुझे नहीं दिखाएगी.’

‘अभी दिखाती हूं, दादी,’ कह कर एक छलांग में ऊपर पहुंच कर हर्ष का फोटो अलमारी से निकाल दादी की हथेली पर रख दिया था. दादी कभी मुझे तो कभी फोटो को देखतीं, जैसे दोनों का मिलान कर रही हों. फिर बोली, ‘हर्ष बहुत सुंदर है बिलकुल तेरे अनुरूप. दोनों में खूब निभेगी.’

मैं ने हर्ष को मोबाइल मिलाया और बोली, ‘हर्ष, दादी तुम से मिलना चाहती हैं, शाम तक पहुंचो.’

शाम को हर्ष दादी के पैर छू रहा था.

मेरी शादी मैरिज होम से हुई. शादी में पापा ने दादादादी को बुलाया नहीं तो वे गए भी नहीं. विवाह के बाद मैं अड़ गई कि मेरी विदाई घर से होगी. विवश हो मेरी बात उन्हें रखनी पड़ी. मुझे तो अपने दादाजी और दादी का आशीर्वाद लेना था. दुलहन वेश में उन्हें अपनी धरा को देखना था. उन से किया वादा कैसे टालती.

मेरी विदाई के समय दादाजी और दादी उसी प्रकार बाहरी दरवाजे पर खड़े थे जैसे स्कूल जाते समय खड़े रहते थे. मैं दौड़ कर दादी से लिपट गई. दादाजी के पांव छूने झुकी तो उन्होंने बीच में ही रोक कर गले से लगा लिया. दादी ने सोने का हार मेरी मुट्ठी में थमा दिया और सोने की एक गिन्नी हर्ष की मुट्ठी में.

जब भी मायके जाती, दादी से सौगात में मिले कभी रिंग, कभी टौप्स, कभी साड़ी मुट्ठी में दबाए लौटती. दादी ने मुझे ही नहीं तानी को भी खूब दिया. उन्होंने हम दोनों बहनों को कभी खाली हाथ नहीं आने दिया. कैसे आने देतीं, उन का मन प्यार से लबालब भरा था. वह खाली होना जानती ही न थीं. उन के पास जो कुछ अपना था सब हम पर लुटा रही थीं. मम्मीपापा देखते रह जाते. हम ने उन की बातों को कभी अहमियत नहीं दी, बल्कि मूक विरोध ही करते रहे.

‘‘अरे धरा, तुम अभी तक तैयार नहीं हुईं. अलमारी पकड़े  क्या सोच रही हो?’’ हर्ष बोले तो मैं जैसे सोते से जागी.

‘‘हर्ष, मेरी दादी चली गईं, मुट्ठी भरा प्यार चला गया. अब कौन मेरी और तुम्हारी मुट्ठियों में सौगात ठूंसेगा? कौन आशीर्वाद देगा? मैं दादी को निर्जीव कैसे देख पाऊंगी,’’ हर्ष के कंधे पर सिर रख कर रोने लगी.

मैं जब हर्ष के साथ वहां पहुंची तो लगभग सभी रिश्तेदार आ चुके थे. दादी के पास बूआजी तथा अन्य महिलाएं बैठी थीं. मैं बूआजी को देख लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही पूछा, ‘‘बूआजी, मम्मीपापा?’’

बूआजी ने ‘न’ में गरदन हिला दी. मैं दनदनाती हुई ऊपर जा पहुंची. मेरा रोदन क्षोभ और क्रोध बन कर फूट पड़ा, ‘‘आप दोनों को मम्मीपापा कहते हुए आज मुझे शर्म आ रही है. पापा, आप ने तो अपनी मां के दूध की इज्जत भी नहीं रखी. एक मां ने आप को 9 महीने अपनी कोख में रखा, आज उसी का ऋण आप चुका देते और मम्मी, जिस मां ने अपना कोख जाया आप के आंचल से बांध दिया, अपना भविष्य, अपनी उम्मीदें आप को सौंप दीं, उन्हीं के पुत्र के कारण आज आप मां का दरजा पा सकीं. एक औरत हो कर औरत का दिल नहीं समझ सकीं. आप आज भी उन्हीं के घर में रह रही हैं. कितने कृतघ्न हैं आप दोनों.

‘‘पापा, क्या आप अपनी देह से उस खून और मज्जा को नोच कर फेंक सकते हैं जो आप को उन्होंने दिया है. उन का दिया नाम आप ने आज तक क्यों नहीं मिटाया? आप की अपनी क्या पहचान है? यह देह भी उन्हीं के कारण धारण किए हुए हो. यदि आप अपना फर्ज नहीं निभाओगे तो क्या दादी यों ही पड़ी रहेंगी. आप सोचते होंगे कि इस घड़ी में दादाजी आप की खुशामद करेंगे. नहीं, उमंग भैया किस दिन काम आएंगे.

‘‘यदि आज आप दोनों ने अपना फर्ज पूरा नहीं किया तो इस भरे समाज में मैं आप का त्याग कर दूंगी और दादाजी को अपने साथ ले जाऊंगी’’

चौंक पडे़ दोनों. सोचने लगे, तो ऐसी नहीं थी, आज क्या हुआ इसे.

‘‘सुनो धरा, तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए था.’’

‘‘क्यों नहीं आती? मेरी दादी गई हैं. उन्हें अंतिम प्रणाम करने का मेरा अधिकार कोई नहीं छीन सकता. आप लोग भी नहीं.’’

‘‘होश में आओ, धरा.’’

‘‘अभी तक होश में नहीं थी पापा, आज पहली बार होश आया है, और अब सोना नहीं चाहती. आज उस मुट्ठी भर प्यार की कसम, आप दोनों नीचे आ रहे हैं या नहीं?’’

धारा की आवाज में चेतावनी की आग थी. विवश हो दोनों को नीचे जाना ही पड़ा.

घूंघट में घोटाला: दुल्हन का चेहरा देख रामसागर को क्यों लगा झटका

रामसागर बड़ा खुश था. उसका दिल बल्लियों उछल रहा था. बात खुशी की ही थी, उसकी शादी जो तय हो गयी थी. आखिरकार इतनी दुआओं और मन्नतों के बाद जीवन में यह शुभ अवसर आया था. वरना उसने तो अब शादी के विषय में सोचना ही छोड़ दिया था. मां-बाप जल्दी गुजर गये थे. रामसागर घर में सबसे बड़ा था. उसके बाद दो बहनें और दो भाई थे, जिनकी पूरी जिम्मेदारी उस अकेले के कंधे पर थी. थोड़ी खेतीबाड़ी थी और एक किराने की दुकान भी.

अट्ठारह बरस की उम्र रही होगी जब मां-बाप साथ छोड़ गये. रामसागर ने बड़ी मेहनत की. चारों भाई-बहनों की देखभाल और उनकी शादी-ब्याह की जिम्मेदारी उसने मां-बाप बन कर उठाये. अब उसकी बयालीस बरस की उम्र हो आयी थी. इस उम्र के उसके दोस्त अपने बच्चों की शादी की चिन्ता में मग्न थे और वो अभी तक छुट्टे बैल की तरह घूम रहा था…! छोटे भाई-बहनों की नय्या पार लगाते-लगाते कब रामसागर के बालों में सफेदी झलकने लगी थी, उसे पता ही नहीं चला. सबका घर बसाने के चक्कर में उसका अपना घर अब तक नहीं बस पाया था.

चलो देर आये दुरुस्त आये. रिश्ते की बुआ ने आखिरकार उसकी सगाई तय करा ही दी. उसका मन बुआ को दुआएं देते नहीं थक रहा था. लड़की पास के गांव की थी. छह बहनों में तीसरे नंबर की. रामसागर अपनी बुआ के साथ लड़की देखने पहुंचा तो शर्म के मारे गर्दन ही नहीं उठ रही थी. लड़की चाय की ट्रे लिए सामने खड़ी थी. रामसागर नजरें नीचे किए बस उसके कोमल पैरों को निहार रहा था. गोरे-गोरे पैर पतली पट्टी की सस्ती सी सैंडिल में चमक रहे थे. नाखूनों पर लाल रंग की नेलपौलिश चढ़ी थी. रामसागर तो उसके पैरों को देखकर ही रीझ गया. बुआ ने कोहनी मारी, ‘जरा नजर उठा कर निहार ले… बाद में न कहना कि कैसी लड़की से ब्याह करवा दिया.’

रामसागर ने बमुश्किल नजरें उठायीं. लड़की के सिर पर गुलाबी पल्ला था. आधा चेहरा ही रामसागर को नजर आया. चांद सा. बिल्कुल गोरा-गोरा. रामसागर ने धीरे से गर्दन हिला कर अपनी रजामंदी जाहिर कर दी. शादी की तारीख महीने भर बाद की तय हुई थी. रामसागर घर की एक-एक चीज साफ करने में जुटा था. घर में उसके सिवा कोई था ही कहां, जो सब संवारे-बुहारे. सब उसे ही करना था. बहनें ब्याह कर अपने घरों की हो गई थीं. दोनों भाई रोजगार के चक्कर में दिल्ली गये तो वहीं के होकर रह गये. एक-एक करके अपनी पत्नियों और बच्चों को भी ले गये कि वहां बच्चों की अच्छी परवरिश और पढ़ाई हो सकेगी. पीछे रह गया रामसागर. अकेला.

एक महीने में रामसागर ने घर का कायाकल्प कर डाला. अपनी पत्नी के स्वागत में वह जो कुछ भी कर सकता था उसने किया. आखिरकार शादी का दिन भी आ पहुंचा. घोड़ी पर सवार रामसागर कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों से घिरा गाजे-बाजे के साथ धड़कते दिल से अपनी होने वाली ससुराल पहुंचा. लड़की वालों ने स्वागत-सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी. जयमाल, फेरे सब हो गये. रामसागर बस एक नजर अपनी पत्नी के चेहरे को देख लेना चाहता था. मगर चांद पर लंबा घूंघट पड़ा था. आगे पीछे उसकी बहनें, सहेलियां और रिश्ते की बहुएं. सुबह विदाई के वक्त भी लंबा सा घूंघट. विदा की बेला आ गयी. रामसागर घूंघट में जार-जार रोती अपनी दुल्हन को लेकर अपने गांव पहुंच गया. सारा दिन रीति रिवाज निभाते बीत गये. दुल्हन भीतर कमरे में औरतों के बीच दुबकी बैठी रही और वह बाहर मर्दों में. आखिरकार सुहागरात की बेला आ गयी. औरतों ने आकर रामसागर को पुकारा और धक्का देकर कमरे के भीतर धकेल दिया.

चांद पर अब भी घूंघट पड़ा था. रामसागर झिझकते हुए पलंग पर बैठा तो उसका चांद और ज्यादा सिमट गया. काफी देर खामोशी छाई रही. आखिर हिम्मत जुटा कर रामसागर ने घूंघट के पट खोले तो जैसे उसको सांप सूंघ गया. घूंघट का चांद वो चांद नहीं था जो उस दिन नजर आया था. ये तो कुछ फीका-फीका सा था.  बेसाख्ता उसके मुख से निकला, ‘तुम कौन हो?’ वह धीरे से बोली, ‘अनीता’. रामसागर ने कहा, ‘मगर मेरी शादी तो सुनीता से तय हुई थी.’

अनीता ने गर्दन झुका ली. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सकते में डूबे रामसागर ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने बुआ खड़ी थी. वह झपट कर अंदर आयीं और दरवाजा बंद करके पलंग पर बैठ गयीं. रामसागर हैरानी से उनकी ओर देख रहा था. कुछ पूछना ही चाहता था कि बुआ बोल पड़ी, ‘रामसागर ये अनीता है. सुनीता की बड़ी बहन. तेरी शादी सुनीता से तय हुई थी, मगर वह किसी और से प्रेम करती थी. उसके साथ भाग गयी. वह उम्र में भी तुझसे काफी छोटी थी. चंचल थी. तू उसे संभाल नहीं पाता. इसके पिता तो बड़े दुखी थे. मुझे बुला कर सब सच-सच बता दिये थे. माफी मांगते थे. मिन्नतें करते थे. फिर मैंने तेरे लिए अनीता को पसन्द कर लिया. सब विधि का विधान है. यह भी शायद तेरे लिए ही अब तक कुंवारी बैठी थी. छोटी बहनों की शादियां पहले हो गयीं. देख रामसागर, अनीता रूप में भले सुनीता से थोड़ी दबी हो, मगर गुणों की खान है. अपना पूरा घर इसी ने अकेले संभाल रखा था. इसको अपना ले. तेरा ब्याह इसी के साथ हुआ है. अब यही तेरी पत्नी है.’ बुआ रामसागर पर दबाव बनाते हुए बोली.

रामसागर सिर पकड़े नीचे बैठ गया. बुआ और अनीता एकटक उसका चेहरा देख रही थीं कि पता नहीं इस खुलासे का क्या अंजाम सामने आये. चंद सेकेंड बाद रामसागर ने सिर उठाया और बोला, ‘बुआ, घूंघट में घोटाला हो गया… मगर कोई बात नहीं… नुकसान ज्यादा न हुआ.’

बुआ हंस पड़ी, साथ में रामसागर भी ठठा पड़ा और चांद के चेहरे पर भी मुस्कुराहट तैर गयी.

ऊपर तक जाएगी : ललन ने कैसे करवाया अपना काम

लेखक- विनोद कुमार श्रीवास्तव

‘‘बाबूजी, मुझ से खेती न होगी. थोड़े से खेत में पूरा परिवार लगा रहे, फिर भी मुश्किल से सब का पेट भरे.

‘‘मैं यह काम नहीं करूंगा. मैं तो हरि काका के साथ मछली पकड़ूंगा,’’ कहता हुआ ललन मछली रखने की टोकरी सिर पर रख कर घर से बाहर निकल गया.

ललन के बाबा बड़बड़ाए, ‘नालायक, कभी नदी में डूब कर मर न जाए.’

‘पहाडि़यों से उतरती नदी की धारा. नदी के किनारे देवदार के पेड़, कलकल करती नदियों का मधुर संगीत… कितना अच्छा नजारा है यह,’ ललन बड़बड़ाया, ‘अभी एक धमाका होगा और ढेर सारी मछलियां मेरी टोकरी में भर जाएंगी. एक घंटे में सारी मछलियां मंडी में बेच कर घर पहुंच जाऊंगा और मोबाइल फोन पर फिल्में देखूंगा… मगर यह ओमप्रकाश कहां मर गया…’

तभी ललन ने ओमप्रकाश को ढलान पर चढ़ते देखा तो वह खुश हो गया. ललन ने जल्दी से थैले में से कांच की एक बोतल निकाली और उस में कुछ बारूद जैसी चीज भरी. दोनों नदी के किनारे पहुंच कर एक बड़े से पत्थर पर बैठ गए और पानी में चारा डाल कर मछलियों के आने का इंतजार करने लगे.

दरअसल, दोनों बोतल बम बना कर जहां ढेर सारी मछलियां इकट्ठा होतीं, वहीं पानी में फेंक देते, जिस से तेज धमाका हो जाता और मछलियां घायल हो कर किनारे पर आ जातीं. दोनों झटपट उन्हें इकट्ठा कर मंडी में बेच देते, जिस से तुरंत अच्छी आमदनी हो जाती.

‘‘जब मछलियां इकट्ठा हो जाएंगी, तो मैं इशारा कर दूंगा… तू बम फेंक देना,’’ ओमप्रकाश बोला.

हरि काका इसे कुदरत के खिलाफ मानते थे. उन्हें जाल फैला कर मछली पकड़ना पसंद था, इसीलिए ललन उन के साथ मछली पकड़ने नहीं जाता था. उसे ओमप्रकाश का तरीका पसंद था.

अभी भी इक्कादुक्का मछलियां ही चारा खाने पहुंची थीं. शायद बम वाले तरीके को मछलियों ने भांप लिया था.

नदी के किनारे एक बड़ा सा पत्थर था, जिस का एक हिस्सा पानी में डूबा हुआ था. ओमप्रकाश मछलियों के न आने से निराश हो कर पत्थर पर लेट गया और आसमान की ओर देखने लगा.

ललन थोड़ी दूरी पर दूसरे पत्थर पर खड़ा था एक बोतल बम हाथ में लिए. वह ओमप्रकाश के इशारे का इंतजार कर रहा था.

तभी ओमप्रकाश को सामने की पहाड़ी की तरफ से आता एक बाज दिखा, जिस के पंजों में कुछ दबा था.

‘‘अरे, बाज के पंजों में तो सांप है,’’ ज्यों ही बाज ओमप्रकाश के ऊपर पहुंचा, उस ने पहचान लिया. वह  चिल्लाया, ‘‘ललन, बाज के पंजों में सांप…’’

ललन ने तुरंत ऊपर निगाह उठाई तो देखा कि वह सांप बाज के पंजों से छूट कर नीचे गिर रहा था. जब तक वह कुछ समझ पाता, सांप ओमप्रकाश पर गिर गया और उसे डस लिया.

डर के मारे ललन की चीख निकल गई. वह संभलता, इस से पहले बोतल बम उस के हाथ से छूट कर गिर पड़ा.

तभी जोर का धमाका हुआ. ललन को उस धमाके से एक तेज झटका लगा और ललन का बायां हाथ उस के शरीर से टूट कर दूर जा गिरा.

जब होश आया तो ललन ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. बोतल बम ने उस का हाथ छीन लिया था.

ललन ने ओमप्रकाश के बारे में पूछा. पता चला कि वह सांप के डसने से मर चुका था.

ललन के घाव भरने में महीनाभर लग गया. लेकिन अपना एक हाथ और अपने दोस्त ओमप्रकाश को खोने का दुख उसे बहुत सताता था.

‘मैं कुदरत के खिलाफ काम कर रहा था, उसी की सजा है यह. हरि काका ठीक कहते थे. मैं जिंदा बच गया. मुझे गलतियां सुधारने का मौका मिल गया. लेकिन बेचारा ओमप्रकाश…’ एक सुबह ललन यह सब सोच रहा था कि उस के बाबा उस से बोले, ‘‘ललन, घर में खाने को नहीं है. तुम्हारे इलाज में सब पैसा खर्च हो गया. अब कुछ कामधंधे की सोचो, नहीं तो एक दिन हम सब भूख से मर जाएंगे.’’

बाबा की बात से ललन को ध्यान आया कि कोई कामधंधा शुरू किया जाए, लेकिन एक हाथ से वह क्या कर सकता था?

एक दिन गांव के मुखिया से ललन को मालूम हुआ कि सरकार विकलांग लोगों को कामधंधा शुरू करने के लिए आसानी से कम ब्याज पर लोन देती है. उस ने विकलांगता का प्रमाणपत्र बनवा कर लोन के लिए अर्जी दे दी.

एक दिन बैंक से ललन को बुलावा आया. वह खुश हो गया कि उसे आज लोन मिल जाएगा और वह 2 भैंसें खरीद कर दूध बेचने का धंधा शुरू कर देगा.

‘‘लोन का 10 फीसदी मुझे पहले देना होगा तभी लोन मिलेगा,’’ बैंक मुलाजिम ने उस के कान में कहा.

‘‘यह क्या अंधेरगर्दी है, तुम लोगों को तनख्वाह नहीं मिलती क्या…’’ ललन को गुस्सा आ गया.

‘‘यहां का यही कायदा है,’’ बैंक मुलाजिम ललन को समझाने लगा, ‘‘भैया, गुस्सा क्यों करते हो? मैं कोई अकेला थोड़े ही न यह पैसा लूंगा. सब का हिस्सा बंटा होता है.’’

मायूस ललन घर की ओर लौट पड़ा. अगले दिन ललन ने कुछ पैसों का जुगाड़ किया और कलक्टर के दफ्तर पहुंच गया.

‘‘मुझे साहब से जरूरी बात करनी है,’’ ललन ने संतरी से कहा.

संतरी ने बारी आने पर ललन को साहब के कमरे में भेज दिया.

‘‘कहो, क्या बात है?’’ कलक्टर साहब ने ललन की ओर देख कर पूछा.

ललन ने तुरंत अपने गमछे में बंधे रुपयों को निकाल कर टेबल पर रख दिया और बोला, ‘‘साहब, मैं गरीब हूं. आप अपना यह हिस्सा रख लीजिए और मेरा लोन पास कर दीजिए.’’

‘‘किस ने कहा कि मैं काम कराने के बदले पैसे लेता हूं?’’ कलक्टर ने पूछा.

ललन ने बैंक मुलाजिम की बात बताते हुए कहा, ‘‘साहब, उस ने कहा था कि पैसा ऊपर तक जाएगा. इसीलिए मैं आप का हिस्सा देने आ गया.’’

‘‘ठीक है, तुम ये पैसे उठा लो और घर जाओ. तुम्हें लोन मिल जाएगा,’’ कलक्टर ने कहा.

‘‘अच्छा साहब,’’ कह कर ललन  कमरे से बाहर निकल गया.

तीसरे दिन एक सूटबूट वाला आदमी ललन को खोजता हुआ उस के घर आया. ललन को रुपयों का पैकेट पकड़ाते हुए बोला, ‘‘ऊपर से आदेश है, लोन के रुपए सीधे तुम्हारे घर पहुंचाने का, इसीलिए मैं आया हूं. ये पैसे लो.

‘‘और हां, बैंक का कोई भी काम हो तो मुझ से मिलना. मैं बैंक मैनेजर हूं. मैं ही तुम्हारा काम कर दूंगा.’’

वह बैंक मुलाजिम, जिस ने ललन से घूस मांगी थी, अब जेल में था. ललन कुछ समझ नहीं पा रहा था कि ऊपर के लोगों ने बिना रुपए लिए उस का काम कैसे कर दिया?

अंतिम स्तंभ: बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

‘‘तू यह बात किसी को मत बताना’’, वह मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर चिरौरी सी कर रही थी, ‘‘मेरी इतनी बात मान लेना.’’

मेरा मुंह उतर गया. ‘‘क्या रे, तू तो मेरा दिमाग ही खराब कर रही है. मैं तो तेरी दी यह साड़ी पहन कर दुनियाभर में मटकती फिरती हूं कि देखोदेखो सब लोग, मेरी प्यारी सहेली ने कितनी सुंदर साड़ी दी है. और तू कह रही है कि किसी को मत बताना.’’

‘‘तू मेरा नाम मत बताना, बस.’’

‘‘वाह, यह तो कोईर् भी पूछेगा कि इतनी सुंदर साड़ी किस सहेली ने दी, किस खुशी में दी.’’

‘‘तू तो जानती है रे, कितनी मुसीबत हो जाएगी मेरी.’’

‘‘जिंदगीभर मुसीबत ही रही तेरी तो…’’

मेरा मन सच में खराब हो गया. असल में मुझे याद आ गया. 35 बरस पहले भी सुमेधा ने मुझे साड़ी दी थी. ऐसे ही छिपा कर. ऐसे ही कहा था,  ‘किसी को मत बताना.’ अवसर था इस की पहली संतान, ‘पुत्र’ के जन्म का. सासससुर, जेठजेठानी, देवरदेवरानी, ढेर सारे रिश्तेदारों व अतिथियों से भरा घर. पूरे घर में आनंदोत्सव की धूम. वह मुझे अपने कमरे में ले गई थी. अपनी अलमारी खोल एक साड़ी निकाल कर मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘जल्दी से इसे अपने पर्स के भीतर डाल ले. अपने पैसे से खरीद कर लाई हूं. गुलाबी रंग तुझ पर बहुत खिलता है. जरूर पहनना इसे.’

‘तेरे पास पैसा ही कितना बचता है. सारी तनख्वाह तो तू अपनी सासुमां को देती है. अगर साड़ी देने का इतना ही मन था तो आज तो तोहफे में तुझे ढेरों साडि़यां मिली हैं. उन्हीं में से कोई मुझे दे देती.’

‘वे सब साडि़यां, तोहफे तो सासुमां को मिले हैं.’

‘बेटा तेरा हुआ है. लोगों ने तोहफे तुझे दिए हैं?’

और आज, आज गृहप्रवेश का शुभ अवसर है. उसी बेटे ने बनवाया है शानदार मकान. मकान क्या है, शानदार शाही बंगला है. जाने कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर लाया है एक से एक बेशकीमती साजोसामान. भीतर से बाहर, हर ओर जगमगाते टाइल्स वाले फर्श. दमकती दीवारें. सामने अहाते में रंगबिरंगे फूलों से महकता बगीचा. पोर्टिको में खड़ी नईनवेली चमचमाती कार. बाजू में 2 दमदार दुपहिया वाहन दोनों पतिपत्नी के. रोबदार अलसेशियन कुत्ता. वैभव ही वैभव.

और मुझे याद आ रहा है उस का वह छोटा सा घर. ससुराल का संयुक्त परिवार वाला घर छूटने के बाद पति की नौकरी में जब वह घर बसाने आईर् थी, तो उसे यही घर मिला था. 2 छोटेछोटे कमरे, एक किचन. छोटा सा बरामदा. उसी से लगा निहायत छोटा सा बाथरूमटौयलेट. बरतन मांजने की जगह नहीं. न ही कपड़े सुखाने की.

हम सभी सहेलियों के वे दिन बड़ी भागदौड़ वाले थे. अपनी गृहस्थी से किसी तरह समय निकाल कर दोचार बार गई थी मैं उस के घर. एकदम अकबका जाती थी. इतने बड़े घर की लड़की, कैसे रहती है इस दड़बे जैसे छोटे से फ्लैट में. मगर वह खुश नजर आती.

तड़के सुबह से रात गए फुरसत ही नहीं उसे तो. मुंहअंधरे ही अपने नित्यकर्म से निबट, नाश्ता तैयार करना, चाय बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना. पति की तैयारी में मदद करना, रूमाल, पेन, डायरी रखना, सब के बैग में टिफिन रखना. सब से अंत में अपने पर्स में टिफिन बौक्स डाल मामूली सी साड़ी लपेट चप्पल फटकारती स्कूल भागना. शाम ढेर सारी कौपियों व सब्जीभाजी के थैलों से लदीफंदी जल्दीजल्दी घर लौटना.

पति, बच्चे सब उस का ही इंतजार करते बारबार दरवाजे पर आ रहे हैं. बाहर निकल कर ताक रहे हैं. उस की छाती खुशी से भर जाती. बच्चों को छाती से लगा झट से काम में जुट जाती. चायनाश्ता खाना. बीचबीच में बरतन साफ करना, पोंछा लगाते जाना. जिस पर सब की अलगअलग फरमाइशें. किसी को पकौड़े चाहिए, किसी को गुलगुले. सब की फरमाइशें पूरी करती सुख सागर में मगन.

ऐसे में कभी कोई सहेली, कोई रिश्तेदार, अतिथि आ जाए तो क्या पूछना. पति उस के भारी मजाकिया. छका डालते अपने मजाकों से सब को. नहले पर दहले भी पड़ते उन पर. वह देखदेख कर विभोर होती.

गृहस्थी का आनंददायक सुख. सुखों से भरे दिन बीतते गए. बच्चे बड़े होते गए. स्कूल, कालेज, नौकरीचाकरी, कामधंधे, शादीब्याह निबटते गए. नातीपोते भी आते गए.

व्यस्तताओं के इस दौर में हमारा संपर्क लंबे अरसे तक नहीं हो पाया. बरसों बाद उसे अपने ही शहर में, अपने ही दरवाजे पर देख कर मेरी तो चीख निकल गई. भरपूर गले मिल कर हम रो लिए. आंसू पोंछ कर मैं पूछने लगी, ‘कैसे आ गई तू अचानक यहां?’

‘मैं तो पिछले कई महीनों से यहां हूं. तेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी.’

‘मेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी? तेरा तो बचपन ही इन्हीं गलियों में बीता है. इसी सामने वाले घर में तो रहते थे तुम लोग.’

‘वह घर तो मेरे नानाजी का था न. शुरू में हम लोग नानाजी के घर में ही रहते थे. बाद में पिताजी भी नौकरी के साथ जगह बदलते रहे. नानाजी की मृत्यु के बाद यह घर बेच दिया गया. हमारा यहां आना भी छूट गया. एकदो बार तुम्हारे ही घर के शादीब्याह के कार्यक्रम में आए थे, तो तुम्हारे ही घर ठहरे थे.

‘अब तो पूरी गली बदल गई है. बिल्ंिडग ही बिल्ंिडग नजर आती हैं. पूरा शहर ही बदल गया है. मुझे तो अपनी गली ही पकड़ में नहीं आ रही थी. एक बुजुर्ग सज्जन से तेरे पिताजी का नाम ले कर पूछा तो वे बेचारे तेरे दरवाजे तक पहुंचा गए. यह भी बता गए कि यह घर तो एक अरसे से सूना पड़ा था, अब उन की लड़की आ कर रहने लगी है. अच्छा किया जो पति का साथ छूटने के बाद यहां आ गई. पिता के उजाड़ सूने घर में दिया जला दिया तूने तो. मगर यहां पुरानी यादें तो सताती होंगी.’

‘खूब. मगर तू बता रही थी कि तू पिछले कई महीने से यहां है. कहां ठहरी है?’

‘खैरागढ़ रोड पर. एक फ्लैट किराए पर लिया है. मेरा लड़का अब उसी तरफ मकान भी बनवा रहा है.’

‘मकान बनवा रहा है? इस शहर में, क्यों?’

‘बहू यहीं शिक्षाकर्मी हो गई है.’

‘और बेटा?’

‘बेटे का काम तो भागमभाग का है. बहू यहीं रहेगी. वह आताजाता रहेगा, यह सोच कर यहीं मकान बनवा रहा है.’

‘करता क्या है लड़का?’

‘कंप्यूटर से संबंधित कुछ काम करता है. मैं आजकल के कामधंधे ठीक से समझती नहीं. महीने में 25 दिन तो दौरे पर रहता है. कभी कोलकाता, कभी लखनऊ, कभी धनबाद. जाने कहांकहां. घर आता है तो इतना थका रहता है कि मुझ से तो दो बोल भी नहीं बतिया पाता. अब मकान बनाने में भिड़ गया है तो और दम मारने की फुरसत नहीं.’

फिर वह मेरे घर अकसर ही आने लगी. हम बातें करते रहते. बचपन की, कालेज के दिनों की, अपनीअपनी गृहस्थी की. उस के पति अवकाशप्राप्ति के बाद ही सिधार गए थे. बताने लगी, ‘कह गए थे कि उन के भविष्य निधि वगैरह का पैसा दोनों बेटियों में बांट दिया जाए. मगर लड़के ने उन पैसों से मकान के लिए प्लौट खरीद लिया. कह दिया, बहनों को बाद में कमा कर दे देगा सारा पैसा. युद्ध स्तर पर चल रहा है मकान का काम. सारा पैसा उसी में झोंक रहा है. मुझ से स्पष्ट कह दिया, घर का खर्च तो अभी तुम्हें ही चलाना है, मां. वह नहीं कहता तो भी तो मैं करती ही थी अपनी खुशी से. महीनेभर का राशन, शाकसब्जियां, बच्चों की फरमाइशें, अभी तो पूरी पैंशन इसी सब में जा रही है.’

‘और बहू का पैसा?’

‘बाप रे, मैं उन पैसों के बारे में मुंह से नहीं बोल सकती. जाने क्या सोच कर बेटे ने जमीन का प्लौट भी उसी के नाम लिया है. सोचा होगा कुछ.’

और मैं गृहप्रवेश पर उस के घर गई तो दंग रह गई. यह तो राजामहाराजाओं का शाही बंगला लगता है. आखिर इतना पैसा इस के पास आया कहां से.

मगर वह गदगद थी, बोली, ‘‘बच्चा मेरा जिंदगीभर छोटे से दड़बे में रहा है न. सो, अपने सपनों का महल बनाया है. मेरे लिए इस से बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है. आज मेरा बहुत मन हो रहा है कि तुझे तेरी पसंद की साड़ी पहनाऊं.’’

मैं ने फिर वही बात कही कि तेरा इतना ही मन है तो जो इतनी साडि़यां तोहफे में आई हैं, मैं उन्हीं में से एक पसंद कर लेती हूं.

‘‘वे सब तो बहू को तोहफे  में मिली हैं. घर बहू का है. मैं तुझे अपनी तरफ से देना चाहती हूं. अपने पैसों से.’’

अगली शाम वह मुझे जिद कर दुकान ले गई. उस का मन रखने के लिए मैं ने एक साड़ी पसंद कर ली. अब वह कहने लगी कि, ‘‘किसी को बताना मत.’’

उस की इस बात से मेरा मन खराब हो गया. इधर जब से वह वहां आई थी, उस की स्थिति देख कर मेरा मन खराब ही हो जाता था. उस का घर मेरे घर से काफी दूर था. उस तरफ रिकशा या कोई सवारी मिलती ही न थी. घर में 2 दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती. पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती. मेरे घर में बैठेबैठे घंटों हो जाते, न कोई उसे लेने आता, न खोजखबर लेता. बेटा घर में हो, तब भी नहीं. उलटे, मां को व्यंग्य करता, ‘तुम ही दौड़दौड़ कर सहेली के घर जाती हो. तुम्हारी सहेली तो कभी दर्शन ही नहीं देती.’

मुझे सच में उन के घर जाना सुखद न लगता. मेरे जाते ही पोतेपोती अपना वीडियो गेम छोड़ कर आ कर जम जाते दादी के कमरे में. कान लगाए सुनते रहते हमारी बातें. बच्चों की आंखों में कहीं बालसुलभ मासूमभाव नहीं. अजीब उपेक्षा और हिकारतभरा भाव होता. दादी के कंधे पर चढ़ रहे हैं… ‘दादी, चलो, हम को होमवर्क कराओ.’ दादी की हिम्मत नहीं कि झिड़क सकें, ‘जाओ, बाहर खेलो,’ उन के शातिरपने का किस्सा भी सुन चुकी हूं मैं.

कुछ दिनों पहले सहेली की छोटी बेटी की लड़की हुई थी. मैं घर आई तो बोली, ‘‘बच्ची की छठी में जाना है. छोटी सी सोने की चेन देने का मन है. किसी अच्छे ज्वैलर की दुकान से दिलवा दे.’’ मैं उसे अपने परिचित ज्वैलर की दुकान में ले गई. उस ने एक चेन पसंद की. मगर जैसा लौकेट वह चाहती थी, वैसा दुकान में था नहीं. दुकानदार ने कहा, ‘‘4 दिनों में वह वैसा लौकेट बनवा देगा.’’

4 दिनों बाद वह दुकान में गई, अकेले ही. लौकेट लिया. घर लौटी. बेटाबहू, बच्चे सामने अहाते में ही कुरसियां डाले बैठे थे. बेटा बोला, ‘कहां गई थी मां?’

उस ने मेरा नाम बता दिया.

10 वर्षीय पोता आंखें तरेर कर बोला, ‘‘इतना झूठ क्यों बोलती हो, दादी. तुम तो ज्वैलर की दुकान से लौकेट ले कर आ रही हो.’’

सहेली का चेहरा फक पड़ गया, ‘‘कैसे कह रहा है तू यह?’’

‘‘मैं गया था न तुम्हारे पीछेपीछे. जब तुम लौकेट पसंद कर रही थीं, मैं तुम्हारे ही तो पीछे बैठा था सोफे पर.’’

सारा किस्सा सुन कर मैं अवाक रह गई, ‘‘उस लड़के को यह कैसे पता चला कि तू ज्वैलर की दुकान जा रही है?’’

‘‘मैं मोबाइल पर ज्वैलर से पूछ रही थी, क्या लौकेट बन कर आ गया? लड़के ने सुन लिया होगा. उस ने मां को बताया होगा. और मां ने बेटे को मेरे पीछे लगा दिया होगा.’’

यह मोबाइल का किस्सा भी अजीब है. वह अपने जमाने की अच्छी पढ़ीलिखी अध्यापिका, मगर अब जैसे एकदम पिछड़ी हुई, मूर्खगंवार. मोबाइल में फोन करना तक नहीं आता था उसे. जब मैं उस से कहूं, ‘तू इतनी दूर से मेरे घर आती है पैदल, तो मुझे फोन कर दिया कर, ताकि मैं घर पर ही रहूं.’ तो बोली, ‘मुझे तो फोन करना ही नहीं आता. बड़ी बेटी अपना पुराना मोबाइल छोड़ गईर् है. जिस से मैं किसी का फोन आए तो बात कर लेती हूं, बस.’

फोन करना उसे किसी ने नहीं सिखाया, न बेटे ने, न बेटी ने. न उन नातीपोतों ने जिन की मोबाइल पर महारत देखदेख कर वह चमत्कृत होती रहती है.

मैं ने उसे फोन करना, रिचार्ज करना सब सिखा दिया. वह गदगद होने लगी, ‘‘तू ने मुझ पर बड़ी कृपा की. अब मैं खुद भी अपनी बेटियों से बात कर सकती हूं.’’

अब वह जब भी फोन करे, पोतापोती कहीं भी हों, आ कर डट जाते.

उस के पोतापोती के सामने तो बात करना भी मुश्किल. सो, मैं ऐसे समय उस के घर जाती, जब बच्चेबहू सब स्कूल में हों. शहर से दूर उस एकांत शाही बंगले में वह अकेली और उन का भयानक कुत्ता. फाटक पर मुझे देखते ही उन का भयानक कुत्ता भूंकना शुरू कर देता. वह पगली सी फाटक पर आती और मुझे अंक में भर कर भीतर ले जाती.

मैं कहती, शांति से बैठ कर गपशप कर, मगर वह पगलाई सी जल्दीजल्दी नाश्ता बनाने लगती, हलवा, पकौड़े, चीले, जो सूझता वही. फिर बारबार कहने लगती…खा न रे, गरमगरम. देख, मैं नाश्ता भूली तो नहीं हूं.

चायनाश्ता खत्म होते ही फौरन सारे बरतन मांजधो कर चिकन में पूर्ववत सजा कर अपार संतुष्टि से बैठ जाती. मेरा मन और खराब होने लगता. याद आ जाता. ठीक ऐसा ही वह तब भी करती थी जब अपनी सासुमां के साथ रहती थी. हम उस से मिलने गए और अगर सासुमां घर में न हों तो उस की चपलता देखते ही बनती थी. फटाफट नाश्ता तैयार कर लेती. जल्दीजल्दी खाने के लिए चिरौरी करने लगती. खाना खत्म होते ही बरतन मांजधो कर सजा कर रख देती.

तब सासुमां का आतंक था. अब बहू का. तब ननददेवर की जासूसी अब पोतेपोती की. आतंक से भीतर ही भीतर आक्रांत. मगर उन्हीं लोगों की सेवा में तत्पर, मगन.

अजब समानता दिखती मुझे 35 साल पहले देखी उस सास में और अब शानदार पोशाक में सजी, काला चश्मा लगाए खुले केश उड़ाती धड़ल्ले से बाइक दौड़ाती इस आधुनिक बहू में. सास का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता, यह हमेशा मिमियाती ही दिखती. अब बहू का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता है. यह मिमियाती ही दिखती है.

सबकुछ जानतेसमझते हुए भी इधर शायद मुझ से ही कुछ बेवकूफी हो गई. हुआ यह कि मेरे घर अचानक हमारी कुछ पुरानी सहेलियां आ गईं. मैं ने उसे फोन किया कि तू मिलने आ सकती है क्या. वह एकदम तड़प गई, ‘घर में कोई है नहीं. बहू और बच्चे स्कूल में, बेटा दौरे पर. घर सूना छोड़ कर कैसे आऊं?’

मैं सहेलियों को ले कर उस के घर ही पहुंच गई. हमें देखते ही वह मारे खुशी के बेहाल. खूब गले मिलना, रोनाधोना हुआ. सब को अपने कमरे में बैठा वह दौड़ी किचन की ओर. सहेलियां चिल्लाईं, ‘बैठ न रे. बोलबतिया. नाश्ता बनाने में समय बरबाद मत कर. कितनी मुश्किल से तो हम लोग आ पाए हैं. वह बैठ गई. ढाई बजतेबजते बच्चे आ गए. वह बच्चों को खाना देने के लिए किचन को दौड़ी. हम आपस में बतियाने लगे.

काफी देर हो गई. हार कर मैं किचन में गई. देखा, उस ने बच्चों के लिए ताजा भात बनाया था और अब रोटियां सेंक रही थी. नवाब बच्चे डब्बे में रखी सुबह की रोटी नहीं खा सकते थे. सहेलियों को देख कर और चिढ़ गए, ‘‘दादी, ये कैसी रोटियां दे रही हो. फूलीफूली दो.’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘ताजी रोटियां हैं, चुपचाप खाओ.’’ उस ने फौरन मेरे मुंह पर हाथ रख दिया ओर बच्चों को पुचकारने लगी, ‘‘लो, आज दादी को माफ कर दो. कर दोगे न?’’

बच्चों को खिला कर जैसे ही उस ने चाय का पानी चूल्हे पर चढ़ाया, मैं ने मना कर दिया, ‘‘सहेलियां जल्दी मचा रही हैं, अब चाय बनाने में समय बरबाद मत कर.’’ मन मार कर वह सहेलियों के बीच आ कर बैठ गई. बातचीत में अब वह रस नहीं आ रहा था. मन ही मन सब को कुछ कचोट रहा था. सहेलियों को उस की स्थिति और उसे सहेलियों का ठीक से स्वागत न कर पाने की विवशता. तिस पर दोनों शातिर जासूस हमारे ही बीच आ कर खड़े हो गए, ‘‘दादी, मेरा रैकेट कहां है? मेरा कलरबौक्स कहां है?’’

तभी बहू भी आ गई. तीखी नजरों से सास के कमरे को देखती बाथरूम की ओर चली गई. वहां से लौटी तो उस के ट्यूशन वाले लड़के आ गए. ट्यूशन पढ़ाना यानी पैसे बनाना. सो, लड़कों को देखते ही वह सामने बैठक में ही पढ़ाने बैठ गई.

सहेली की स्थिति अतिथियों के बीच अत्यंत दयनीय. आती हूं, कह कर गई और शायद बहू से चिरौरी की कि मेरी कुछ सहेलियां आ गई हैं, कुछ चायनाश्ता बना दो. बहू तमतमाई हुई किचन की ओर जाती दिखी. काफी देर हो गई. मगर न चाय आई, न नाश्ता. वह इतनी देर से सहेलियों को चायनाश्ते के लिए रोके हुए थी.

हार कर वह किचन की ओर गई. उस के पीछे मैं भी. बहू ने एक भारीभरकम भगोने में कनस्तर का सारा बेसन उड़ेल कर घोल बना लिया था और तेवर में तनी धड़ाधड़ पकौड़े छाने जा रही थी. बड़ी सी परात में पकौड़ों का पहाड़ लगा हुआ था.

दुख और क्षोभ में भरी सहेली कुछ पल खामोश खड़ी देखती रही. आंखों में पानी उतर आया. आंखें पोंछ कर प्लेटों में पकौड़े डाले. चटनी निकाली. ले जा कर सहेलियों को परोसा और हाथ जोड़ कर आग्रह किया, ‘‘यही स्वागत कर पा रही हूं तुम लोगों का.’’ फिर किचन में जा कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘कृपा कर के अब बनाना बंद करो. माफी चाहती हूं मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब किया.’’

सहेलियां तो दुखी मन से उस की चर्चा करते शाम की ट्रेन से चली गईं अपनेअपने शहर, पर मैं परेशान ही रही. अगली शाम को वह खुद आ गई मेरे घर. वैसे ही जर्जर शरीर ढोते, हांफतेहांफते. बोली, ‘बच्चे स्कूल से आ गए, बहू भी. तब आ पाई हूं. चाय पिला.’

मैं ने जल्दी से चाय बनाई. नाश्ता बनाने के लिए चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाई कि वह बोली, ‘‘बनाना छोड़, घर में कुछ हो तो वही दे दे.’’

मुझे संकोच हो आया, ‘‘सवेरे मेथी के परांठे बनाए थे. जल्दी काम निबटाने के चक्कर में आखिरी लोइयों को मसल कर 2 मोटेमोटे परांठे बना लिए थे. वही हैं. तू दो मिनट रुक न. मैं बढि़या सा कुछ बनाती हूं.’’

एकदम अधीर सी वह कहने लगी, ‘‘मुझे मेथी के मोटे परांठे ही अच्छे लगते हैं. तू दे तो सही.’’

उस की बेताबी देख मैं ने वही मोटेमोटे परांठे परोस दिए. चटनी थी. वह धड़ल्ले से खाने लगी. खा कर चाय पीने लगी तो मैं ने पूछा, ‘‘तू भूखी थी क्या?’’

उस की आंख में पानी उतर आया, बोली, ‘‘हां.’’

‘‘हो क्या गया?’’

उस का गला भर आया. कुछ रुक कर बोली, ‘‘कांड ही हो गया था. मेरे हाथ जोड़ कर माफी मांगने के बाद बहू अपने कमरे में जा कर मुंह लपेट कर औधेमुंह पलंग पर पड़ गई. मैं ने जा कर चौका समेटा. बचे हुए ढेर सारे घोल में से कुछ फ्रिज में रखा. बाकी कामवाली को दे दिया. पकौड़ों में से भी कुछ रखा, बाकी कामवाली को दिया. रात का खाना बना कर बच्चों को खिलाया.

‘‘उसे खाने के लिए बुलाया तो भड़क गई, ‘मुझे चैन से जीने देना है कि नहीं. नम्रता का आवरण ओढ़े मुझे टौर्चर करती रहती है धूर्त बुढि़या.’ मैं भी पगला गई, ‘तुम चाहती हो कि मैं मर जाऊं. मौत आएगी तभी न मरूंगी.’

‘‘अपनी दयनीय विवशता पर मैं रोती जाऊं और लड़ती जाऊं. वह भी रोती जाए और लड़ती जाए. उस का मुख्य आरोप था कि मैं पाखंडी हूं. अपने को श्रेष्ठ समझती हूं और उसे हमेशा नीचा दिखाने के चक्कर में रहती हूं. दुख से मेरा कलेजा फटा जा रहा था. मैं भी अपने कमरे में जा कर बिस्तर में रोती पड़ी रही. रातभर नींद नहीं आई. मुझ से कहां गलती होती है, यही समझ में नहीं आया.

‘‘आधी रात के करीब बेटा आया. सीधे अपने कमरे में गया. मैं सहमीसटकी आहट लेती रही, क्या खाना परोसने जाऊं. मगर कुछ देर बाद बेटा खुद कमरे में आ गया, बोला, ‘मां, तुम लोग मुझे जीने दोगी कि नहीं. मैं तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि उस में सहनशक्ति नहीं है. उसे डिस्टर्ब मत किया करो. वह भूखीप्यासी स्कूल से आई कि लड़के चले आए. किसी तरह लड़कों को पढ़ा रही थी कि तुम ने अपनी सहेलियों के लिए नाश्ता बनाने का फरमान सुना दिया. मां, आखिर तुम चाहती क्या हो? तुम हम को छोड़ कर तो रह नहीं सकतीं, तुम खुद जानती हो. तुम समय से पिछड़ चुकी हो. तुम्हें तो एटीएम से पैसा निकालना तक नहीं आता.’

‘‘तुझे एटीएम से पैसा निकालना नहीं आता सुमेधा?’’ मैं हैरान हो गई.

‘‘मैं कभी गई ही नहीं. तेरे जीजाजी के बाद से बैंक वगैरह के सारे कागजात बेटे के पास ही रहते हैं. मुझ से सिर्फ दस्तखत लेता रहा है. एटीएम से पैसा निकाल कर वही देता रहा है. वह न हो, तो बहू ला देती है.’’

‘‘तुझे पता है वे कितना निकालते हैं, तुझे कितनी पैंशन मिलती है?’’

‘‘वे मेरे हाथ में वही रकम थमा देते हैं, जो मुझे शुरू में मिलती थी.’’

मैं सिर पकड़ कर बैठ गई, बोली, ‘‘वह सब मैं तुझे सिखा दूं. मगर यह बता, क्या तू इन को छोड़ कर कहीं अलग सच में नहीं रह सकती?’’

‘‘फायदा क्या है. यहां मैं बेटे की सूरत तो देख सकती हूं. पोतेपोती से बोलबतिया तो लेती हूं. मैं जानती हूं, ये लोग मुझे मूर्ख, गंवार और अवांछित प्राणी समझ कर अपमानित करते रहते हैं. कुत्ता भी इन का अपना है, दुलारा है. मगर मैं नहीं. मैं क्या करूं. मुझ में इन के लिए ही प्रेम उमड़ता है. फिर बीचबीच में बेटियां आ जाती हैं. दामाद और बच्चे भी. मेरी छाती भर आती है. बेहद सुख लगता है. कभी देवरजेठभतीजेभतीजी वगैरह भी आ जाते हैं.

‘‘बहू अपने मायके वालों के अतिरिक्त किसी का आना पसंद नहीं करती. कई बार अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलती. मगर ये लोग बहुत समझदार हैं. उस के कमरे में जा कर खुद बोलबतिया लेते हैं. बेटियां तो अकसर भाभी के लिए तोहफे ले कर आती हैं. भरेपूरे मायके में आने से उन का भी तो ससुराल में मान बढ़ता है. इन्हीं सब से इस परिवार की प्रतिष्ठा बनी हुई है.

‘‘बहू को तो परिवार की प्रतिष्ठा की समझ नहीं है. शायद आजकल की अधिकतर युवतियों को ही नहीं है. अपना पति, अपने बच्चे, अपनी शानशौकत से भरी जिंदगी, अपना अधिकार, अपनी सत्ता. इन सब के लिए चाहिए पैसा. बटोर सको तो बटोरो. इसी में चौंधियाई हुई हैं. प्रतिष्ठा की फिक्र तो हम जैसों को होती है. सच तो यह है, मुझे जितना प्रेम अपने बेटेबेटी, नातीपोते से है, उतना ही परिवार की प्रतिष्ठा से है. बल्कि कुछ ज्यादा ही. अपने जीतेजी तो मैं इस प्रतिष्ठा को बचाए ही रखूंगी.’’

उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

परिवार की प्रतिष्ठा. अच्छे से जानती हूं कि यह तो उस की घुट्टी में रही है. याद आया, कालेज के दूसरे साल में थी कि वह पड़ोस के एक लड़के से प्रेम कर बैठी थी. लड़का एमए का छात्र था. यह कुछकुछ पूछने उस के पास जाती थी. भीतर ही भीतर प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था. मगर बातें हो पातीं सिर्फ पढ़ाई की. मुझ से कहने लगी, ‘तू उस से पूछ न, क्या वह मुझे चाहता है.’

लड़का पहले ही मुझे अपने जज्बात बता चुका था, मैं बोली, ‘अगर वह ‘हां’ में जवाब दे तो क्या तू उस से शादी कर सकेगी?’ वह एकदम खामोश हो गई. फिर बोली, ‘मैं ऐसा नहीं कर सकती. वह दूसरी बिरादरी का है. बाबूजी को बहुत दुख होगा. समाज में हमारे परिवार की बदनामी होगी.’ उस की आंखें छलछलाने लगी थीं, आगे बोली, ‘मैं इस दारुण दुख को चुपचाप पी लूंगी, मगर परिवार की प्रतिष्ठा कलंकित नहीं कर सकती.’

और आज…?

आज भी उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

भीगे नेत्रों से देखती रह गई मैं. परिवार की प्रतिष्ठा का भारी बोझ उठाए उस जर्जर अंतिम स्तंभ को. घर में दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती, पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती.

यह भी खूब रही. मेरे बेटे का मित्र आशीष, दिल्ली के इंदिरागांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर यूरोप के एक देश की एयरलाइंस कार्यालय में नौकरी करता है. यह एयरलाइंस अपने कर्मचारियों को अपने देश में घूमने के लिए डिस्काउंट टिकट और होटल में ठहरने की सुविधा भी देती है.

इसी सुविधा के अंतर्गत जब वह पहली बार यूरोप में उन के देश घूमने गया तो होटल के कमरे में अपना समान रख कर बालकनी की तरफ लगे शीशे के दरवाजे के हैंडल को नीचे की ओर शीघ्रता से घुमा कर खोलने लगा तो ऊपर की ओर से पूरा का पूरा दरवाजा दोनों ओर से खुल गया और उस के ऊपर गिरने लगा. उस ने दरवाजे को कई बार टिकाना चाहा लेकिन जैसे ही वह उसे छोड़ने का प्रयास करता वह तेजी से उस के ऊपर गिरने लगता.

अपने दोनों हाथों से उस ने दरवाजों को संभाल रखा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, तभी किसी ने मुख्य दरवाजे की घंटी बजाई. आशीष ने जोर से चिल्लाते हुए उसे अंदर आने को कहा. जैसे ही दरवाजा खुला तो होटल का वह कर्मचारी भीतर का दृश्य देख कर चौंक गया. वह कर्मचारी उस के पास आया और उस ने आशीष का हाथ पकड़ कर उसे वहां से हटाया और उसे दरवाजे की तकनीक समझाई.

नया व्यक्ति, जो इस तकनीक को नहीं जानता है, वह आम दरवाजे जैसे ही हैंडल नीचे की ओर कर, दरवाजे को खोलने की कोशिश करता है, तो उसे पूरा का पूरा दरवाजा खुल कर नीचे गिरने जैसा लगता है. आज भी यूरोप घूमने जाने पर ऐसे दरवाजेखिड़कियां खोलते ही यह वाकेआ ताजा हो जाता है और सब आशीष का नाम ले कर खूब ठहाके लगाते हैं.

मेरे एक बहुत ही घनिष्ठ मित्र हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं. उन का क्लिनिक घर के पास ही है. उन की नईनई शादी हुई थी. कुछ दिनों बाद उन की पत्नी की मौसी उन के यहां आईं. जब भी वे मरीजों के प्लास्टर चढ़ाते तो घर पास में होने के कारण घर आ जाते और स्नान वगैरह करते. जब वे घर आते तो उन के कपड़े चूने से सने होते थे. उन्हें ऐसी हालत में मौसी रोज देखतीं.

लौट कर मौसी अपनी बहन के घर जा कर बोलीं, ‘‘तुम तो कहती हो कि लड़का डाक्टर है, पर मुझे तो लगता है वह सफेदी करने वाला है. घर में जब भी आता है, सारे कपड़े चूने से सने रहते हैं.’’

आज भी डाक्टर साहब इस बात को याद कर के हंस पड़ते हैं.

आधी तस्वीर: भैया के लिए मनशा के मन में था कैसा शक?

वह दरवाजे के पास आ कर रुक गई थी. एक क्षण उन बंद दरवाजों को देखा. महसूस किया कि हृदय की धड़कन कुछ तेज हो गई है. चेहरे पर शायद कोई भाव हलकी छाया ले कर आया. एक विषाद की रेखा खिंची और आंखें कुछ नम हो गईं. साड़ी का पल्लू संभालते हुए हाथ घंटी के बटन पर गया तो उस में थोड़ा कंपन स्पष्ट झलक रहा था. जब तक रीता ने आ कर द्वार खोला, उसे कुछ क्षण मिल गए अपने को संभालने के लिए, ‘‘अरे, मनशा दीदी आप?’’ आश्चर्य से रीता की आंखें खुली रह गईं.

‘‘हां, मैं ही हूं. क्यों यकीन नहीं हो रहा?’’

‘‘यह बात नहीं, पर आप के इधर आने की आशा नहीं थी.’’

‘‘आशा…’’ मनशा आगे नहीं बोली. लगा जैसे शब्द अटक गए हैं.

दोनों चल कर ड्राइंगरूम में आ गईं. कालीन में उस का पांव उलझा, तो रीता ने उसे सहारा दे दिया. उस से लगे झटके से स्मृति की एक खिड़की सहसा खुल गई. उस दिन भी इसी तरह सूने घर में घंटी पर रवि ने दरवाजा खोला था और अपनी बांहों का सहारा दे कर वह जब उसे ड्राइंगरूम में लाया था तो मनशा का पांव कालीन में उलझ गया था. वह गिरने ही वाली थी कि रवि ने उसे संभाल लिया था. ‘बस, इसी तरह संभाले रहना,’ उस के यही शब्द थे जिस पर रवि ने गरदन हिलाहिला कर स्वीकृति दी थी और उसे आश्वस्त किया था. उसे सोफे पर बैठा कर रवि ने अपलक निशब्द उसे कितनी देर तक निहार कर कहा था, ‘तुम्हें चुपचाप देखने की इच्छा कई बार हुई है. इस में एक विचित्र से आनंद का अनुभव होता है, सच.’

मनशा को लगा 20-22 वर्ष बाद रीता उसी घटना को दोहरा रही है और वह उस की चुप्पी और सूनी खाली नजरों को सहन नहीं कर पा रही है. ‘‘क्या बात है, रीता? इतनी अजनबी तो मत बनो कि मुझे डर लगे.’’

‘‘नहीं दीदी, यह बात नहीं. बहुत दिनों से आप को देखा नहीं न, वही कसर पूरी कर रही थी.’’ फिर थोड़ा हंस कर बोली, ‘‘वैसे 20-22 वर्ष अजनबी बनने के लिए काफी होते हैं. लोग सबकुछ भूल जाते हैं और दुनिया भी बदल जाती है.’’

‘‘नहीं, रीता, कोई कुछ नहीं भूलता. सिर्फ याद का एहसास नहीं करा पाता और इस विवशता में सब जीते हैं. उस से कुछ लाभ नहीं मिलता सिवा मानसिक अशांति के,’’ मनशा बोली.

‘‘अच्छा, दीदी, घर पर सब कैसे हैं?’’

‘‘पहले चाय या कौफी तो पिलाओ, बातें फिर कर लेंगे,’’ वह हंसी.

‘‘ओह सौरी, यह तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा,’’ और रीता हंसती हुई उठ कर चली गई.

मनशा थोड़ी राहत महसूस करने लगी. जाने क्यों वातावरण में उसे एक बोझिलपन महसूस होने लगा था. वह उठ कर सामने के कमरे की ओर बढ़ने लगी. विचारों की कडि़यां जुड़ती चली गईं. 20 वर्षों बाद वह इस घर में आई है. जीवन का सारा काम ही तब से जाने कैसा हो गया था. ऐसा लगता कि मन की भीतरी तहों में दबी सारी कोमल भावनाएं समाप्त सी हो गई हैं. वर्तमान की चढ़ती परत अतीत को धीरेधीरे दबा गई थी. रवि संसार से उठ गया था और भैया भी. केवल उन से छुई स्मृतियां ही शेष रह गई थीं.

रवि के साथ जीवन को जोड़ने का सपना सहसा टूट गया था. घटनाएं रहस्य के आवरण में धुंधलाती गई थीं. प्रभात के साथ जीवन चलने लगा-इच्छाअनिच्छा से अभी भी चल ही रहा है. उन एकदो वर्षों में जो जीवन उसे जीना था उस की मीठी महक को संजो कर रखने की कामना के बावजूद उस ने उसे भूलना चाहा था. वह अपनेआप से लड़ती भी रही कि बीते हुए उन क्षणों से अपना नाता तोड़ ले और नए तानेबाने में अपने को खपा कर सबकुछ भुला दे, पर वह ऊपरी तौर पर ही अपने को समर्थ बना सकी थी, भीतर की आग बुझी नहीं. 20 वर्षों के अंतराल के बाद भी नहीं.

आज ज्वालामुखी की तरह धधक उठने के एहसास से ही वह आश्चर्यचकित हो सिहर उठी थी. क्या 20 वर्षों बाद भी ऐसा लग सकता है कि घटनाएं अभीअभी बीती हैं, जैसे वह इस कमरे में कलपरसों ही आ कर गई है, जैसे अभी रवि कमरे का दरवाजा खोल कर प्रकट हो जाएगा. उस की आंखें भर आईं. वह भारी कदमों से कमरे की ओर बढ़ गई.

कोई खास परिवर्तन नहीं था. सामने छोटी मेज पर वह तसवीर उसी फ्रेम में वैसी ही थी. कागज पुराना हो गया था पर रवि का चेहरा उतनी ही ताजगी से पूर्ण था. जनता पार्क के फौआरे के सामने उस ने रवि के साथ यह फोटो खिंचवाई थी. रवि की बांह उस की बांह से आगे आ गई थी और मनशा की साड़ी का आंचल उस की पैंट पर गया था. ठीक बीच से जब रवि ने तसवीर को काटा था तो एक में उस की बांह का भाग रह गया और इस में उस की साड़ी का आंचल रह गया.

2-3 वाक्य कमरे में फिर प्रतिध्वनित हुए, ‘मैं ने तुम्हारा आंचल थामा है मनशा और तुम्हें बांहों का सहारा दिया है. अपनी शादी के दिन इसे फिर जोड़ कर एक कर देंगे.’ वह कितनी देर तक रवि के कंधे पर सिर टिका सपनों की दुनिया में खोई रही थी उस दिन.

उन्होंने एमए में साथसाथ प्रवेश किया था. भाषा विज्ञान के पीरियड में प्रोफैसर के कमरे में अकसर रवि और मनशा साथ बैठते. कभी उन की आपस में कुहनी छू जाती तो कभी बांह. सिहरन की प्रतिक्रिया दोनों ओर होती और फिर धीरेधीरे यह अच्छा लगने लगा. तभी रवि मनशा के बड़े भैया से मिला और फिर तो उस का मनशा के घर में बराबर आनाजाना होने लगा. तुषार से घनिष्ठता बढ़ने के साथसाथ मनशा से भी अलग से संबंध विकसित होते चले गए. वह पहले से अधिक भावुक और गंभीर रहने लगी, अधिक एकांतप्रिय और खोईखोई सी दिखाई देने लगी.

अपने में आए इस परिवर्तन से मनशा खुद भी असुविधा महसूस करने लगी क्योंकि उस का संपर्क का दायरा सिमट कर उस पर और रवि पर केंद्रित हो गया था. कानों में रवि के वाक्य ही प्रतिध्वनित होते रहते थे, जिन्होंने सपनों की एक दुनिया बसा दी थी. ‘वे कौन से संस्कार होते हैं जो दो प्राणियों को इस तरह जोड़ देते हैं कि दूसरे के बिना जीवन निरर्थक लगने लगता है. ‘तुम्हें मेरे साथ देख कर नियति की नीयत न खराब हो जाए. सच, इसीलिए मैं ने उस चित्र के 2 भाग कर दिए.’ रवि के कंधे पर सिर रखे वह घंटों उस के हृदय की धड़कन को महसूस करती रही. उस की धड़कन से सिर्फ एक ही आवाज निकलती रही, मनशा…मनशा…मनशा.

वे क्षण उसे आज भी याद हैं जैसे बीते थे. सामने बालसमंद झील का नीला जल बूढ़ी पहाडि़यों की युवा चट्टानों से अठखेलियां कर रहा था. रहरह कर मछलियां छपाक से छलांग लगातीं और पेट की रोशनी में चमक कर विलीन हो जातीं. झील की सारी सतह पर चलने वाला यह दृश्य किसी नववधू की चुनरी में चमकने वाले सितारों की झिलमिल सा लग रहा था. बांध पर बने महल के सामने बड़े प्लेटफौर्म पर बैंचें लगी हुई थीं. मनशा का हाथ रवि के हाथ में था. उसे सहलातेसहलाते ही उस ने कहा था, ‘मनशा, समय ठहर क्यों नहीं जाता है?’

मनशा ने एक बहुत ही मधुर दृष्टि से उसे देख कर दूसरे हाथ की उंगली उस के होंठों पर रख दी थी, ‘नहीं, रवि, समय के ठहरने की कामना मत करो. ठहराव में जीवन नहीं होता, शून्य होता है और शून्य-नहीं, वहां कुछ नहीं होता.’

रवि हंस पड़ा था, ‘साहित्य का अध्ययन करतेकरते तुम दार्शनिक भी हो गई हो.’

न जाने ऐसे कितने दृश्यखंड समय की भित्ती पर बनते गए और अपनी स्मृतियां मानसपटल पर छोड़ते गए. बीते हुए एकएक क्षण की स्मृति में जीने में इतना ही समय फिर बीत जाएगा और जब इन क्षणों का अंत आएगा तब? क्या फिर से उस अंत को झेला जा सकता है? क्या कभी कोई ऐसी सामर्थ्य जुटा पाएगा, जीवन के कटु और यथार्थ सत्य को फिर से जी सकने की, उस का सामना करने की? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इसीलिए जीवन की नियति ऐसी नहीं हुई. चलतेचलते ही जीवन की दिशा और धारा मुड़ जाती हैं या अवरुद्ध हो जाती हैं. हम कल्पना भी नहीं कर पाते कि सत्य घटित होने लगता है.

मनशा के जीवन के सामने कब प्रश्नचिह्न लग गया, उसे इस का भान भी नहीं हुआ. घर के वातावरण में एक सरसराहट होने लगी. कुछ सामान्य से हट कर हो रहा था जो मनशा की जानकारी से दूर था. मां, बाबूजी और भैया की मंत्रणाएं होने लगीं. तब आशय उस की समझ में आ गया. मां ने उस की जिज्ञासा अधिक नहीं रखी. उदयपुर का एक इंजीनियर लड़का उस के लिए देखा जा रहा था. उस ने मां से रोषभरे आश्चर्य से कहा, ‘मेरी शादी, और मुझ से कुछ कहा तक नहीं.’

‘कुछ निश्चित होता तभी तो कहती.’

‘तो निश्चित होने के बाद कहा जा रहा है. पर मां, सिर्फ कहना ही तो काफी नहीं, पूछना भी तो होता है.’

‘मनशा, इस घर की यह परंपरा नहीं रही है.’

‘जानती हूं, परंपरा तो नई अब बनेगी. मैं उस से शादी नहीं करूंगी.’

‘मनशा.’

‘हां, मां, मैं उस से शादी नहीं करूंगी.’

जब उस ने दोहराया तो मां का गुस्सा भड़क उठा, ‘फिर किस से करेगी? मैं भी तो सुनूं.’

‘शायद घर में सब को इस का अंदाजा हो गया होगा.’

‘मनशा,’ मां ने उस का हाथ कस कर पक लिया, ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है. जातपांत, समाज का कोई खयाल ही नहीं है?’

मनशा हाथ छुड़ा कर कमरे में चली गई. घर में सहसा ही तनाव व्याप्त हो गया. शाम को तुषार के सामने रोरो कर मां ने अपने मन की व्यथा कह सुनाई. बाबूजी को सबकुछ नहीं बताया गया. तुषार इस समस्या को हल करने की चेष्टा करने लगा. उसे विश्वास था वह मनशा को समझा देगा, और नहीं मानेगी तो थोड़ी डांटफटकार भी कर लेगा. मन से वह भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि मनशा पराई जाति के लड़के रवि से ब्याह करे. वह जानता था, कालेज के जीवन में प्रेमप्यार के प्रसंग बन ही जाते हैं पर…

‘भैया, क्या तुम भी मेरी स्थिति को नहीं समझ सकते? मां और बाबूजी तो पुराने संस्कारों से बंधे हैं लेकिन अब तो सारा जमाना नईर् हवा में नई परंपराएं स्थापित करता जा रहा है. हम पढ़लिख कर भी क्या नए विचार नहीं अपनाएंगे?’

‘मनशा,’ तुषार ने समझाना चाहा, ‘मैं बिना तुम्हारे कहे सब जानता हूं. यह भी मानता हूं कि रवि के सिवा तुम्हारी कोई पसंद नहीं हो सकती. पर यह कैसे संभव है? वह हमारी जाति का कहां है?’

‘क्या उस के दूसरी जाति के होने जैसी छोटी सी बात ही अड़चन है.’

‘तुम इसे छोटी बात मानती हो?’

‘भैया, इस बाधा का जमाना अब नहीं रहा. उस में कोई कमी नहीं है.’

‘मनशा…’ तुषार ने फिर प्रयास किया, ‘‘आज समाज में इस घर की जो प्रतिष्ठा है वह इस रिश्ते के होते ही कितनी रह जाएगी, यह तुम ने सोचा है? यह ब्याह होगा भी तो प्रेमविवाह अधिक होगा अंतर्जातीय कम. मैं सच कहता हूं कि बाद में तालेमल बैठाना तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा. तुम एकसाथ दोनों समाजों से कट जाओगी. मां और बाबूजी बाद में तुम्हें कितना स्नेह दे सकेंगे? और उस घर में तुम कितना प्यार पा सकोगी? इस की कल्पना कर के देखो तो सही.’

मनशा ने सिर्फ भैया को देखा, बोली कुछ नहीं. तुषार ही आगे बोलता रहा, ‘व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर जीवन के सारे पहलुओं पर जरा ठंडे दिल से सोचने की जरूरत है, मनशा. जल्दी में कुछ भी निर्णय ठीक से नहीं लिया जा सकता. फिर सभी महापुरुषों ने यही कहा है कि प्रेम अमर होता है, किसी ने ब्याह अमर होने की बात नहीं कही, क्योंकि उस का महत्त्व नहीं है.’ अपने अंतिम शब्दों पर जोर दे कर वह कमरे से बाहर चला गया.

मनशा सबकुछ सोच कर भी भैया की बात नहीं मान सकती थी. किसी और से ब्याह करने की कल्पना तक उस के मस्तिष्क में नहीं आ पाती थी. घर के वातावरण में उसे एक अजीब सा खिंचाव और उपेक्षा का भाव महसूस होता जा रहा था जो यह एहसास करा रहा था मानो उस ने घर की इच्छा के विरुद्ध बहुत बड़ा अपराध कर डाला हो. भैया से अगली बहस में उस ने जीवन का अंत करना अधिक उपयुक्त मान लिया था. उसे इस सीमा तक हठी देख तुषार को बहुत क्रोध आया था, पर उस ने हंस कर इतना ही कहा, ‘नहीं, मनशा, तुम्हें जान देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.’

घर के तनाव में थोड़ी ढील महसूस होने लगी, जैसे प्रसंग टल गया हो. तुषार भी पहले की अपेक्षा कम खिंचा हुआ सा रहने लगा. पर न अब रवि आता और न मनशा ही बाहर जाती थी. मनशा कोई जिद कर के तनाव बढ़ाना नहीं चाहती थी.

तभी सहसा एक दिन शाम को समाचार मिला कि रवि सख्त बीमार है और उसे अस्पताल में भरती किया गया है. मांबाप के मना करने पर भी मनशा सीधे अस्पताल पहुंच गई. देखा इमरजैंसी वार्ड में रवि को औक्सीजन और ग्लूकोज दिया जा रहा है. उस का सारा चेहरा स्याह हो रहा था. चारों ओर भीड़ में विचित्र सी चर्चा थी. मामला जहर का माना जा रहा था. रवि किसी डिनर पार्टी में गया था.

नाखूनों का रंग बदल गया था. डाक्टरों ने पुलिस को इत्तला करनी चाही पर तुषार ने समय पर पहुंच कर अपने मित्र विक्टर की सहायता से केस बनाने का मामला रुकवा दिया. यह पता नहीं चल पा रहा था कि जहर उसे किसी दूसरे ने दिया या उस ने स्वयं लिया था. रवि बेहोश था और उस की हालत नाजुक थी.

मनशा के पांव तले से धरती खिसकती जा रही थी. एकएक क्षण काटे नहीं कट रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा क्यों और कैसे हो गया. फिर सहसा बिजली की तरह मस्तिष्क में विचार कौंधा. कल शाम को भैया भी तो उस पार्टी में गए थे. फिर तबीयत इन्हीं की क्यों खराब हुई? बहुत रात गए वह लौट आई.

डाक्टर पूरी रात रवि को बचाने का प्रयत्न करते रहे पर सुबह होतेहोते वे हार गए. दाहसंस्कार बिना किसी विलंब के तुरंत कर दिया गया. मनशा गुमसुम सी कमरे में बैठी रही. न बोल सकी और न रो सकी. रहरह कर कुछ बातें मस्तिष्क की सूनी दीवारों से टकरा जातीं और उन के केंद्र में तुषार भैया आ जाते.

‘तुम्हें जान देने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’ कोई महीनेभर पहले उन्होंने कहा था, फिर पार्टी में तुषार के साथ रवि का होना उस की उलझन बढ़ा रहा था. वहां क्या हुआ? क्या भैया से कोई बहस हुई? क्या भैया ने उसे मेरा खयाल छोड़ने की धमकी दी? क्या इसीलिए उस ने आत्महत्या कर ली कि मुझे नहीं पा सकता था? एक बार उस ने कहा भी था, ‘तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता, मनशा.’ क्या यह स्थिति उस ने मान ली थी कि बिना उस से पूछे? या…उसे… नहीं…नहीं…कौन कर सकता है यह काम…क्या भैया… ‘नहीं…नहीं…’ वह जोर से चीखी. मां हड़बड़ा कर कमरे में आईं. देखा वह बेहोश हो गई है. थोड़ीथोड़ी देर में होश आता तो वह कुछ बड़बड़ाने लगती.

धीरेधीरे वह सामान्य होने लगी. उस ने महसूस किया, भैया उस से कतरा रहे हैं और इसी आधार पर उन के प्रति संदेह का जो सांप कुंडली मार कर उस के मन में बैठा वह भैया के जीवनपर्यंत वैसा ही रहा. उन की मृत्यु के बाद भी मन की अदालत में वह उन्हें निर्दोष घोषित नहीं कर सकी.

दुनिया और जीवन का चक्र जैसा चलना था चला. प्रभात से ही उस का ब्याह हुआ. बच्चे हुए और अब उन का भी ब्याह होने जा रहा था.

न जाने आंखों से कितने आंसू बह गए. रीता दरवाजे पर ही खड़ी रही. मनशा ने ही मुड़ कर देखा तो उस के गले लग कर फिर रो पड़ी. रवि की मृत्यु के बाद वह आज पहली बार रोई है. रीता कुछ समझ नहीं पा रही थी. हम सचमुच जीवन में कितना कुछ बोझ लिए जीते हैं और उसे लिए ही मर भी जाते हैं. यह रहस्य कोई कभी नहीं जान पाता है, केवल उस की झलक मात्र ही कोई घटना कभी दे जाती है.

वे दोनों ड्राइंगरूम में आ कर बैठ गईं. मनशा ने स्थिर हो कौफी पी और अपने बेटे की शादी का कार्ड रीता की ओर बढ़ा दिया. वह बेहद प्रसन्न हुई यह देख कर कि लड़की दूसरी जाति की है. रीता की जिज्ञासा फूट पड़ी, ‘दीदी, जो आप जीवन में नहीं कर सकीं उसे बेटे के जीवन में करते समय कोईर् दिक्कत तो नहीं हो रही है?’

‘हुई थी…भैया ने जैसे सामाजिक स्तर की बातचीत की थी वैसा तो आज भी पूरी तरह नहीं, फिर भी हम इतना आगे तो बढ़े ही हैं कि इतना कर सकें…प्रभात नहीं चाहते थे. बड़ेबुजुर्ग भी नाराज हैं, पर मैं ने मनीष और दीपा के संबंध में संतोषजनक ढंग से सब जाना तो फिर अड़ गई. मैं बेटा नहीं खोना चाहती थी. किसी तरह का खतरा नहीं उठाने की ठान ली. सोच लिया अपनी जान दे दूंगी पर इस को बचा लूंगी, मन का बोझ इस से हलका हो जाएगा.’ उस के चेहरे पर हंसी की रेखा उभर कर विलीन हो गई.

घरपरिवार की कितनी ही बातें कर मनशा चलने को उद्यत हुई तो बैग से एक कागज का पैकेट सा रीता के हाथ में थमा कर कहा, ‘इसे भी रख लो.’

‘यह क्या है दीदी?’

‘आधी तसवीर, जिसे तुम्हारे रवि भैया जोड़ना चाहते थे. जब कभी तुम सुनो कि मनशा दीदी नहीं रहीं तो उस तसवीर से इसे जोड़ देना ताकि वह पूरी हो जाए. यह जिम्मेदारी तुम्हें ही सौंप सकती हूं, रीता.’ वह डबडबाती आंखों के साथ दरवाजे से बाहर निकल गई. अतीत को मुड़ कर दोबारा देखने की हिम्मत उस में नहीं बची थी.

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