जब जागो तभी सवेरा- भाग 3: क्या टूट पाया अवंतिका का अंधविश्वास

संजय का इतना कहना था कि अनुकृति और अधिक रोने लगी यह देख संजय घबरा गया कि आखिर क्या बात हो गई.

तभी अनुकृति दोबारा सिसकती हुई बोली, ‘‘पापा 1 महीने के बाद मेरा फाइनल एग्जाम है और मुझे फिजिक्स, कैमिस्ट्री बिलकुल समझ नहीं आ रहे.’’

‘‘अरे तो इस में रोने वाली क्या बात है  तुम इन के लिए ट्यूशन कर लो और फिर तुम ने मुझे या अपनी मम्मी को पहले क्यों नहीं बताया? हम तुम्हारी ट्यूशन क्लास पहले ही शुरू करा देते?’’ संजय सांत्वना देते हुए बोला.

अनुकृति सुबकती हुई बोली, ‘‘पापा मैं ने मम्मी को बताया था, लेकिन मम्मी ने कहा कि ट्यूशन की कोई जरूरत नहीं है, ज्योतिषाचार्यजी के द्वारा दिया रत्न पहनने से ट्वैल्थ में मेरे अच्छे मार्क आएंगे, लेकिन पापा ऐसा कुछ नहीं हो रहा और अब लास्ट टाइम में कोई भी ट्यूशन लेने को तैयार नहीं है.’’

यह सुन संजय ने अपना सिर पकड़ लिया. अवंतिका का दिनप्रतिदिन

अंधविश्वास, ज्योतिष और रत्न के प्रति सनक बढ़ती ही जा रही थी, जो अब बच्चों के

भविष्य के लिए भी खतरे की घंटी थी क्योंकि अवंतिका न तो घर पर ध्यान दे रही थी और न ही बच्चों पर.

संजय स्वयं को संभालता हुआ अनुकृति को समझते हुए बोला, ‘‘बेटा, तुम चिंता मत करो मैं सब ठीक कर दूंगा. मैं तुम्हारे टीचर्स से बात करूंगा कि वे तुम्हें फिजिक्स और कैमिस्ट्री की ट्यूशन पढ़ाएं.’’

संजय के ऐसा कहने पर अनुकृति का रोना बंद हुआ और वह वहां से चली गई, लेकिन संजय दुविधा में पड़ गया कि वह कहां से लाएगा 4 महीने की स्कूल फीस, ट्यूशन फीस और घर खर्च के लिए रुपए, पहले ही वह कर्ज से दबा हुआ था. उस की छोटी सी प्राइवेट नौकरी में 1 महीने में इतना सब कर पाना आसान नहीं था और अवंतिका है कि बिना सोचविचार के ज्योतिष, आचार्य और रत्नों पर पैसे गंवा रही है.

संजय यदि अवंतिका से इस बारे में कुछ भी कहता या उसे रोकने की कोशिश करता तो वह उस से लड़ने पर आमादा हो जाती. संजय को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे. अवंतिका को इस अंधविश्वास के जाल से कैसे बाहर निकाले.

तभी कुछ देर में अवंतिका घर से नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने के लिए न जाने क्याक्या सामान ले कर आ गई. यह देख संजय ने अवंतिका को बहुत समझने की कोशिश की कि वह ये सब बेकार के खर्चे करना बंद करे, केवल घरपरिवार पर ध्यान दे, लेकिन अवंतिका नहीं मानी वह अपनी मनमानी करती रही.

अवंतिका की मनमानी देख संजय को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह अवंतिका के सिर से यह ज्योतिषाचार्य और रत्नों का भूत कैसे उतारे. संजय ने कर्ज ले कर दोनों बच्चों की फीस भर दी. अनुकृति की टीचर्स से अनुरोध कर  ट्यूशन पढ़ाने के लिए भी उन्हें राजी कर लिया, जिस का नतीजा यह हुआ कि जिस दिन 12वीं कक्षा का रिजल्ट घोषित हुआ अनुकृति फिजिक्स और केमिस्ट्री के साथसाथ सभी विषयों में अच्छे नंबरों के साथ पास हो गई.

अनुकृति को जब इस बात का पता चला कि वह अच्छे नंबरों से पास हो गई है तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. अनुकृति पिता के गले लग कर बोली, ‘‘थैंक्यू पापा…’’

यह देख अवंतिका थोड़ी नाराजगी जताती हुई बोली, ‘‘अरे वाह आचार्यजी के पास मैं गई, घंटों लाइन में मैं खड़ी रही और तुम अपने पापा के गले लग कर थैंक्यू बोल रही हो?’’

यह सुन अनुकृति बोली, ‘‘मम्मी, मेरा ट्वैल्थ पास होना कोई आचार्यजी का प्रताप या रत्नों का कमाल नहीं है. देखो मैं ने तो कोई रत्न पहना ही नहीं है. यह तो मेरी मेहनत और पापा

का मुझे ट्यूशन के लिए टीचर को मनाने का नतीजा है.’’

यह सुन अवंतिका बड़ी नाराज हुई और वह आचार्यजी की पैरवी करने लगी. तभी संजय का मोबाइल बजा. फोन किसी अनजान नंबर से था. संजय के फोन उठाते ही उसे फौरन पुलिस स्टेशन आने को कहा गया. यह सुन संजय भागता हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा तो उसे पता चला कि पुलिस ने अनुज को जुआ खेलने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया है.

इधर संजय पुलिस स्टेशन में अनुज को छुड़वाने के प्रयास में लगा हुआ था और उधर जब अवंतिका को इस बात का पता चला कि पुलिस ने अनुज को जुआ खेलने के जुर्म में जेल में बंद कर दिया है तो वह रोती हुई भाग कर सर्व समस्या निवारण केंद्र ज्योतिषाचार्यजी के पास अपनी समस्या के निवारण के लिए जा पहुंची, लेकिन आचार्यजी ने अवंतिका से बिना चढ़ावा चढ़ाए मिलने से इनकार कर दिया. तब जा कर आज अवंतिका को यह स्पष्ट हो पाया कि आचार्यजी के लिए उस की समस्या या उस से कोई लेनादेना नही है.

वह तो केवल एक पैसा कमाने का जरीया थी. जब तक वह चढ़ावा चढ़ाती रही आचार्यजी उस से मिलते रहे और आज उन्होंने मुंह फेर लिया. अवंतिका आचार्यजी से बिना मिले ही घर लौट आई.

संजय जब बड़ी मुश्किलों से अनुज को पुलिस से छुड़ा कर घर पहुंचा तो उस ने जो देखा उसे देख कर उस की आंखें खुली की खुली रह गईं, उस ने देखा अवंतिका घर में रखा सारे टोटकों का सामान बाहर फेंक रही थी जो उस ने स्वयं ही घर की सुखशांति, बच्चों की पढ़ाई और उस की प्रमोशन के लिए रखा था.

संजय और अनुज को देखते ही अवंतिका दौड़ कर उन के करीब आ गई और

उस ने अनुज को अपने गले से लगा लिया. उस के बाद वह अनुज की उंगलियों और गले से वे सारे रत्न निकाल कर फेंकने लगी जो ज्योतिषाचार्य के द्वारा दिए गए थे.

सारे रत्न और टोटकों के सामान फेंकने के उपरांत अवंतिका हाथ जोड़ कर संजय से बोली, ‘‘मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं भटक गई थी. जिस परिवार की सलामती के लिए सुख, शांति और खुशहाली के लिए मैं ज्योतिष, आचार्य और रत्नों को महत्त्व देती रही, उन के पीछे भागती रही वह मेरी मूर्खता थी, अज्ञानता थी. मैं अंधविश्वास में कुछ इस तरह से पागल थी कि मैं एक भ्रमजाल में फंस गई थी, लेकिन अब मैं समझ चुकी हूं कि अंधविश्वास एक ऐसा जहर है जो किसी भी खुशहाल परिवार में घुल जाए तो उस परिवार को पूरी तरह बरबाद कर देता है, तबाह कर देता और ये ज्योतिषाचार्य, साधु, संत, महात्मा, आचार्य अपना उल्लू सीधा करने के लिए, अपनी जेबें भरने के लिए हमारी भावनाओं के साथ, हमारी आस्था और विश्वास के साथ खेलते हैं. मैं आप से वादा करती हूं कि अब मैं कभी किसी ज्योतिषी, आचार्य या रत्नों के चक्कर में नहीं पड़ूंगी. केवल अपने घरपरिवार और बच्चों पर ध्यान दूंगी.’’

अवंतिका से ये सब सुन संजय ने हंसते हुए अवंतिका को गले से लगा लिया और फिर बोला, ‘‘जब जागो तभी सवेरा.’’

जब जागो तभी सवेरा- भाग 2: क्या टूट पाया अवंतिका का अंधविश्वास

यह सुन अवंतिका कुछ देर मौन खड़ी रही फिर बोली, ‘‘ठीक है भैया बना दीजिए वीआईपी पास.’’ कहते हुए अवंतिका ने अपने पर्स से रुपए निकाल कर उसे दे दिए जो संजय ने उसे दोनों बच्चों की स्कूल फीस के लिए दिए थे.

यहां इस सर्व समस्या निवारण केंद्र के प्रतीक्षालय में, कैंटिन में इतनी भीड़ था कि ऐसा लग रहा था जैसे कोई मेला लगा हो. वीआईपी पास बनाने के बाद अवंतिका प्रतीक्षालय की कैंटीन में कौफी पीने बैठ गई. करीब 1 घंटे के बाद उस का नंबर आया. आचार्यजी से मिल कर अवंतिका ने अपने घर की वे सारी समस्याएं उन के समक्ष रख दीं जो वास्तव में समस्याएं थी ही नहीं. मात्र उस के मन का भ्रम था, लेकिन उस के इस भ्रम के बीज को आचार्यजी ने बड़ा वृक्ष का रूप दे दिया.

आचार्यजी ने अवंतिका को परिवार के हर सदस्य के लिए अलगअलग रत्न दे दिए और कहा कि इन से सभी समस्याओं का निवारण हो जाएगा, साथ ही साथ ज्योतिषाचार्यजी ने अवंतिका से अच्छीखासी रकम भी ऐंठ ली. यह सर्व समस्या निवारण केंद्र पूरी तरह से अंधविश्वास, ग्रहनक्षत्रों का भय व रत्नों का बुना हुआ ऐसा माया जाल था जो व्यापार का व्यापक रूप ले कर फूलफल रहा था, जिस में लोग स्वत: फंसते चले जा रहे थे और यह खेल पूर्णरूप से भय और लोगों की अज्ञानता का प्रतिफल था.

अवंतिका दोनों बच्चों और संजय के  पहुंचने से पहले ही घर लौट आई और अनुकृति के घर आते ही उस के पीछे लग गई कि वह आचार्यजी के द्वारा दिए गए उस रत्न को पहन ले.अनुकृति नहीं पहनना चाहती थी. वह चाहती थी कि उस की मां उस की परेशानियों को समझे और उसे ट्यूशन जाने की अनुमति दे दे, लेकिन अवंतिका कुछ समझने को तैयार ही नहीं थी, वह तो बस बारबार अनुकृति को इस बात पर जोर दे रही थी कि यदि वह ज्योतिषाचार्यजी के द्वारा दिए गए रत्न को पहन लेगी तो बिना ट्यूशन जाए ही 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाएगी. हार कर आखिरकार अनुकृति ने रत्न पहन ही लिया.

शाम ढलने को थी, लेकिन अनुज अब तक स्कूल से घर नहीं लौटा था, जबकि अनुकृति की ऐक्स्ट्रा क्लास होने के बावजूद वह घर आ चुकी थी. इस बात से बेखबर अवंतिका इस उधेड़बुन में लगी थी कि वह संजय को कैसे बताएगी कि वह घर खर्च के पैसों के साथसाथ बच्चों की स्कूल फीस के रुपए भी सर्व समस्या निवारण केंद्र में दे आई है.

खाना बनाते हुए अवंतिका के मन में यह  विचार भी चल रहा था कि आचार्यजी के द्वारा दिए रत्न जरूर अपना असर दिखाएंगे और उस के घर की सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी.

उसी वक्त संजय भी दफ्तर से आ गया. अनुज को घर पर न पा कर संजय ने अवंतिका से कहा, ‘‘अनुज कहां है दिखाई नहीं दे रहा है?’’

तब जा कर अवंतिका को खयाल आया कि अनुज तो अब तक आया ही नहीं है. वह कुछ कह पाती उस से पहले अनुज आ गया. उसे देख कर लग रहा था कि वह काफी परेशान हैं.

यह देख  संजय ने अनुज से पूछा, ‘‘क्या हुआ अनुज तुम परेशान लग रहे हो?’’

‘‘नहीं पापा ऐसा कुछ नहीं है,’’ अनुज नजरें चुराता हुआ बोला और वहां से चला गया.

तभी अवंतिका बोली, ‘‘अरे आप क्यों चिंता करते हैं आज मैं ज्योतिषाचार्य परमानंद

नित्याजी के केंद्र गई थी. आचार्यजी ने हम सभी के ग्रहों के हिसाब से रत्न दिए हैं. अब आप देखना सब ठीक हो जाएगा.’’

यह सुनते ही संजय और अधिक परेशान हो गया और हड़बड़ाते हुए बोला, ‘‘तो क्या तुम ज्योतिषाचार्य के पास गई थी. सच बताओ तुम कितने रुपए फूंक कर आ रही हो और कौन से रुपए खर्च किए हैं तुम ने?’’

यह सुनते ही अवंतिका बिदक गई और कहने लगी, ‘‘तुम्हें तो बस पैसों की ही पड़ी रहती है. मेरी या घरपरिवार की तो तुम्हें कोई चिंता ही नहीं है. अनुकृति का इस साल ट्वैल्थ है, अनुज का टैंथ है तुम्हारी प्रमोशन भी अटकी पड़ी है, हमारे रिश्ते में भी कुछ सामान्य नहीं है और तुम्हें रुपयों की पड़ी है. मैं जो करती हूं तुम्हारे लिए और इस घर की भलाई के लिए ही करती हूं. ज्योतिष के पास जाती हूं, आचार्यजी के पास जाती हूं यहांवहां भटकती रहती हूं किस के लिए? तुम सब के लिए और तुम हो कि बस हाय पैसा… हाय पैसा करते रहते हो.’’

पैसे और ज्योतिष को ले कर संजय और अवंतिका के बीच बहस छिड़ गई और यह बहस उस वक्त और अधिक बढ़ गई जब संजय को पता चला कि अवंतिका घर खर्च के पैसे और बच्चों की स्कूल फीस के पैसे सब लुटा आई है. यह बात आग में घी का काम कर गई. जिस घर की शांति के लिए अवंतिका रत्न ले कर आई थी उसी घर की शांति पूरी तरह से भंग हो गई थी.

अवंतिका के पति और उस के दोनों बच्चे उस से दूर होते जा रहे थे. रोजरोज की कलह से तंग आ कर संजय ने भी वह रत्न पहन तो लिया जिसे अवंतिका ले कर आई थी और अनुज को भी पहना दिया? लेकिन घर की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया. कलह दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी.

अनुकृति अपनी पढ़ाई को ले कर परेशान थी. अवंतिका उसे ट्यूशन यह कह कर जाने नहीं दे रही थी कि आचार्यजी ने जो रत्न दिया है उस से तुम 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाओगी. संजय कर्ज से लदता जा रहा था क्योंकि अवंतिका ज्योतिष, रत्नों और बेकार के टोटकों में पैसे बरबाद कर रही थी. इधर छोटी सी उम्र में गलत संगत में पड़ कर अनुज जुआरी बन चुका था.

एक रोज अचानक अनुकृति स्कूल से रोती हुई घर पहुंची. अवंतिका किसी ज्योतिषी के पास गई हुई थी और संजय औफिस का कुछ काम कर रहा था. अनुकृति को इस प्रकार रोता देख संजय ने उस से रोने का कारण पूछा.

अनुकृति रोती हुई बोली, ‘‘पापा, पिछले 4 महीनों से मेरी और अनुज स्कूल फीस जमा नहीं हुई है. मैम ने कहा है कि यदि समय से फीस जमा नहीं हुई तो एग्जाम में अपीयर नहीं होने देगी.’’

यह सुन गुस्से से संजय की आंखें लाल हो गईं, लेकिन वह अनुकृति को शांत करते हुए बोला, ‘‘बेटा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं मैं 1-2 दिन में फीस की व्यवस्था करता हूं. तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

एक चुप, हजार सुख: सुधीर भैया हमेशा लड़ाई क्यों करते थे

कुछ लोगों की टांगें जरूरत से ज्यादा लंबी होती हैं, इतनी कि वे खुद ही जा कर दूसरों के मामले में अड़ जाती हैं. ऐसे ही अप्राकृतिक टांगों वाले व्यक्ति हैं मेरे बड़े भाई सुधीर भैया. वैसे तो लड़ने या लड़ाई के बीच में पड़ने का उन्हें कोई शौक नहीं है पर किसी दलितशोषित, जबान रहते भी खामोश, मजबूर व्यक्ति पर कुछ अनुचित होते देख कर उन का क्षत्रिय खून उबाल मारने लगता है. फिर वे उस बेचारे के उद्धार में लग जाते हैं. उन के साथ ऐसा बचपन से है. जाहिर है कि स्कूल और महल्ले में वे अपने इस गुण के कारण नेताजी के नाम से प्रसिद्ध रहे हैं.

भैया उम्र में मुझ से 2 वर्ष बड़े हैं. हम दोनों बचपन से बहुत करीब रहे हैं और एक ही स्कूल में होने के कारण हम दोनों को एकदूसरे के पलपल की खबर रहती थी. कब कौन क्लास से बाहर निकाला गया, किस लड़के ने मुझे कब छेड़ा या किस शिक्षक को देखते ही भैया के पांव कांपने लगते थे आदिआदि. जाहिर है कि भैया की अड़ंगेबाजी की नित नई कहानियां मुझे फौरन मिल जाती थीं.

चौथी कक्षा की बात है. भैया को जानकारी मिली कि उन की क्लास के एक शांत सहपाठी का बड़ी क्लास के कुछ उद्दंड छात्रों ने जीना मुश्किल कर रखा था. फिर क्या था, पूरी तफ्तीश करने के बाद लंच के दौरान बाकायदा उन बड़े लड़कों को रास्ते में रोक कर, लंबाचौड़ा भाषण दे कर और बात न मानने की स्थिति में शारीरिक नुकसान पहुंचाने की धमकी दे कर दुरुस्त किया गया.

भैया अपने समाजसेवी कार्य अपने दोस्तों से छिपा कर करते थे. उन्होंने किस बल पर अकेले ही उन लड़कों से लोहा लेने की ठानी, यह मेरे लिए आज भी रहस्य है. उन लड़कों ने भैया के सहपाठी को बिलकुल ही छोड़ दिया, पर उस दिन के बाद से अकसर ही कभी भैया की साइकिल पंक्चर मिलती या होमवर्क कौपी स्याही से रंगी मिलती या कभी बैग में से मेढक निकलते. भैया का उन लड़कों से पीछा तभी छूटा जब हम दोनों का स्कूल बदला.

इस के बाद घटनाएं तो कई हुईं किंतु सब से नाटकीय प्रकरण तब हुआ जब भैया कक्षा 9 में थे. वे गली के मुहाने पर खड़े अपने किसी दोस्त से बतिया रहे थे. सामने सड़क पर इक्कादुक्का गाडि़यां निकल रही थीं. लैंपपोस्ट की रोशनी बहुत अधिक न हो कर भी पर्याप्त थी. एक बूढ़ी दादी डंडे के सहारे मंथर गति से सड़क पार करने लगीं. एक मारुति कार गलती से एफ वन ट्रैक से भटक कर फैजाबाद रोड पर आ गई थी.

दादीजी की गति तो ऐसी थी कि बैलगाड़ी भी उन को टक्कर मार सकती थी. उस कारचालक ने बड़े जोर का ब्रेक लगाया और दादीजी बालबाल बच गईं. वह रुकी हुई कार रुकी ही रही. भैया और उन के मित्र के एकदम सामने ही बीच सड़क पर खड़ी उस कार की अगली सीट की खिड़की का शीशा नीचे गिरा और तीखे स्त्रीकंठ में ‘बुढि़या’ के बाद कुछ अपशब्दों की बौछार बाहर आई. भाईसाहब को बुरा लगना लाजिमी था, टांग अड़ाने का कीड़ा जो था.

‘‘मैडम, वे बहुत बूढ़ी हैं. जाने दीजिए, कोई बात नहीं. वैसे आप लोग भी काफी तेज आ रहे थे.’’ भैया के ये मधुरवचन सुनते ही वह महिला, गोद में बैठे 3-4 साल के बच्चे को अपनी सीट पर पटक, ‘‘तुझे तो मैं अभी बताती हूं,’’ कहते हुए, क्रोध से फुंफकारती हुई भैया की तरफ बड़े आवेश में लपकी. और फिर जो हुआ वह बड़ा अनापेक्षित था. एक जोरदार हाथ भैया के ऊपर आया जिसे उन के कमाल के रिफ्लैक्स ने यदि समय पर रोक न लिया होता तो उन की कृशकाया पीछे बहती महल्ले की नाली में से निकालनी पड़ती और पुलिस को आराम से उन के गाल से अपराधी की उंगलियों के निशान मिल जाते.

बचतेबचते भी उक्त महिला की मैनिक्योर्ड उंगली का नाखून भैया के गाल को छू ही गया. यदि गांधीजी की उस महिला से कभी भेंट हुई होती तो दूसरा गाल आगे कर लेनेदेने की बात के आगे यह क्लौज अवश्य लगा देते कि अतिरिक्त खतरनाक व्यक्ति से सामना होने पर पहले थप्पड़ के बाद उलटेपांव भाग खड़ा होना श्रेयस्कर रहेगा.

असफल हमले की खिसियाहट और छोटीमोटी भीड़ के इकट्ठा हो जाने से वह दंभी महिला क्रोध से कांपती, भैया को अपशब्दों के साथ, ‘‘देख लूंगी’’ की धमकी देते हुए कार में बैठ कर चली गई. उधर, हमारी प्यारी बूढ़ी दादी इस सब कांड से बेखबर अपनी पूर्व धीमी गति से चलते हुए कब गायब हो गईं, किसी को पता भी नहीं चला.

उस दिन भैया और मेरी लड़ाई हुई थी और बोलचाल बंद थी. इस घटना के बाद भैया सीधे मेरे पास आए और पूरी बात बताई. वे घबराए हुए थे. 15 वर्ष की संवेदनशील उम्र में दर्शकगण के सम्मुख अपरिचित से थप्पड़, चेहरे पर भले न लगा हो, अहं पर खूब छपा था. पर क्या भैया सुधरने वालों में से थे.

भैया इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में थे. घर से दूर जाने का प्रथम अनुभव, उस पर कालेज की नईनई हवा. उन की क्लास में हमारे ही शहर का एक अतिसरल छात्र था जिस पर कालेज के कुछ अतिविशिष्ट, अतिसीनियर और अतिउद्दंड लड़कों की एक टोली ने अपना निशाना साध लिया था. बेचारा दिनरात उन के असाइनमैंट पूरे करता रहता था. छुट्टी वाले दिन उन के कपड़े धोने से ले कर खाना बनाने का काम करता था. यह अगर कम था तो उस गरीब को टोली के ऊबे होने की स्थिति में अपनी नृत्यकला और संगीतकला से मनोरंजन भी करना पड़ता था.

दूरदूर तक किसी में भी उन सीनियर लड़कों को रोक सकने या डिपार्टमैंट हैड तक यह बात पहुंचा सकने की हिम्मत नहीं थी. स्थिति अजीब तो थी पर अकेले व्यक्ति के संभाले जा सकने वाली भी न थी. जान कर अपना सिर कौन शेर के मुंह में देता है? यह प्रश्न भले ही अलंकारिक है पर इस का उत्तर है ‘मेरे बड़े भैया.’ परिणाम निश्चित था. मिला भी. गनीमत यह थी कि इस कांड के तुरंत बाद ही दशहरे की छुट्टियां पड़ गईं.

किंतु भैया अब भी समझ गए होते तो यह कहानी आगे क्यों बढ़ती. जख्मों से वीभत्स बना चेहरा और प्लास्टर लगा पैर ले कर भैया, हमारे चचेरे बड़े भाईबहन, प्रियंका दीदी और आलोक भैया के साथ दिल्ली के अतिव्यस्त रेलवे स्टेशन पर लखनऊ की ट्रेन का इंतजार कर रहे थे. दीदी भैया की नासमझी (छोटी हूं इसलिए ‘मूर्खता’ कहने की धृष्टता नहीं कर सकती) से इतनी नाराज थीं कि उन से बात ही नहीं कर रही थीं. आलोक भैया भाईसाहब से पहले ही लंबीचौड़ी गुफ्तगू कर चुके थे.

स्टेशन पर इन तीनों के पास ही कुछ लड़कियों का समूह विराजमान था. वे सभी अपनी यूनिवर्सिटी की पेटभर बुराई करते हुए, स्टेशन से खरीदे अखबार व पौलिथीन में बंधे भोजन का लुत्फ उठा रही थीं. कहने की आवश्यकता नहीं कि भोज समापन पर कूड़े का क्या हुआ. मुझे रोड पर तिनका डालने के लिए भी डांटने वाले भैया का पारा चढ़ना स्वाभाविक था. अब आप सोचेंगे कि यहां कौन दलित या शोषित था. टौफी का छिलका हो या पिकनिक के बाद का थैलाभर कूड़ा, भैया या तो सबकुछ कूड़ेदान में डालते हैं या तब तक ढोते रहते हैं जब तक कोई कूड़ेदान न मिल जाए.

उन शिक्षित लड़कियों के कर्कट विसर्जन के समापन की देर थी कि भैया दनदनाते हुए (जितना प्लास्टर के साथ संभव था) गए, कूड़ा उठाया और लंगड़ाते हुए जा कर वहां रखे कूड़ेदान में डाल आए. वापस आ कर कोई वजनी बात कहना आवश्यक हो गया था. सो, उधर गए और बहुत आक्रामक मुद्रा में बोले, ‘‘बैठ कर यूनिवर्सिटी की बुराई करना आसान है पर अपनी बुराई देख पाना बहुत कठिन होता है.’’ इस डायलौग संचालन का उद्देश्य था उन युवतियों को ग्लानि से त्रस्त कर उन की बुद्धि जाग्रत करना पर हुआ इस का उलटा.

लड़कियों ने भैया की ओर ऐसे क्रोधाग्नि में जलते बाण लक्ष्य किए कि सब उन की ओर पीठ फेर कर बैठ गए भाईसाहब की कमीज में आग नहीं लगी, आश्चर्य है. उन में से एक के पिताजी, जो साथ ही थे, भैया के पास आए और ज्ञान देने की मुद्रा धारण कर बोले, ‘‘बेटा, प्यार से कहने से बात अधिक समझ आती है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने यही बात समझाई है.’’ इस के आगे भी काफी कुछ था जो भैया अवश्य सुनते यदि वे सज्जन अपनी पुत्री और उस की समबुद्धि सहेलियों को भी कुछ समझाते.

सारे प्रकरण का सिर्फ इतना हल निकला कि अगले डेढ़दो घंटे भैया को उस दल ती तीखी नजरों के अलावा बड़ी बहन का अच्छाखासा प्रवचन (जिस का सारांश कुल इतना था, ‘‘अभी भी बुद्धि में बात आई नहीं है? नेता बनना छोड़ दो.’’) और बड़े भाई के मुसकराते हुए श्रीमुख से निकले अनगिनत कटाक्ष बरदाश्त करने पड़े.

घर पहुंच कर दोनों घटनाओं के व्याख्यान के बाद, भाईसाहब की परिवार के प्रत्येक बड़े सदस्य से जम कर फटकार लगवाने और अच्छाखासा लैक्चर दिलवाने के बाद ही दीदी को शांति मिली. भैया मेरे कमरे में आए तो ग्लानि और क्रोध दोनों से ही त्रस्त थे. इस का एक ही परिणाम निकला, पूरी छुट्टियोंभर मेरे सब से अप्रिय विषय की किताब से जम कर प्रश्न हल करवाए गए और स्वयं को मिली डांट का शतांश प्रतिदिन मुझ पर निकाल कर ही भाईसाहब कुछ सामान्य हुए.

ऐसे अनेकानेक प्रकरण हैं जहां मेरे भोलेभाले भैया ने गलत को सही दिशा देने हेतु या किसी मजबूर के हिस्से की आवाज उठाते हुए, कभी रौद्र रूप अपनाया है या कभी आवाज बुलंद की है. घर, कालेज, सड़क, मंदिर, बाजार कहीं भी जहां भाईसाहब को लगा है कि यह गलत है, वहां कभी कह कर, कभी झगड़ कर, कभी डांट कर या लड़भिड़ कर उन्होंने स्थिति सुधारने की बड़ी ईमानदारी से कोशिश है, किंतु हर बार बूमरैंग की भांति उन का सारा आवेश घूम कर आ उन्हें ही चित कर गया है.

नौकरी में आ कर, कई सारे कड़वे अनुभवों के बाद आखिरकार भैया के ज्ञानचक्षु खुले. उन्हें 3 बातों का ज्ञान हुआ. पहली, चुप रहना या बरदाश्त करते रहना हमेशा सीधेसरल या कमजोर व्यक्तियों की मजबूरी नहीं होती बल्कि अकसर ही घाघ, घुन्ने और कांइयां व्यक्तियों का गुण भी होता है. दूसरी, लोगों की जिह्वा और कान दोनों को ही मीठे का चस्का होता है. तीसरी और आखिरी, बेगानी शादी में दीवाने अब्दुल्ला साहब की रेड़ पिटनी तो पहले से ही निश्चित होती है.

मेरे भैया, यह आत्मज्ञान पा जाने के बाद से बहुत ही अधिक शांत हो गए हैं. सदा ही पांव समेट कर चलते हैं. पर मैं, जो उन्हें अच्छी तरह से जानती हूं, यह समझती हूं कि उन के लिए यह कितना भारी काम है. खैर, भैया शांत भले ही हो गए हों लेकिन स्कूल और कालेज के सभी दोस्तों के बीच उन का नाम अभी भी ‘नेताजी’ ही चलता है.

जब जागो तभी सवेरा- भाग 1: क्या टूट पाया अवंतिका का अंधविश्वास

संजय के औफिस जाते ही अवंतिका चाय की गरम प्याली हाथों में ले न्यूजपेपर पर अपना राशिफल पढ़ने लगी. उस के बाद उस ने वह पृष्ठ खोल लिया जिस में ज्योतिषशास्त्रियों, रत्नों और उन से जुड़े कई तरह के विज्ञापन होते हैं. यह अवंतिका का रोज का काम था. पति संजय के जाते ही वह न्यूजपेपर और टीवी पर बस ज्योतिषशास्त्रियों और रत्नों से जुड़ी खबरें ही पढ़ती व देखती और फिर उस में सुझई गई विधि या रत्नों को पहनने, घर के बाकी सदस्यों को पहनाने और ज्योतिषों के द्वारा बताए गए नियमों पर अमल करने और सभी से करवाने में जीजान लगा देती.

अवंतिका का इस प्रकार व्यवहार करना स्वाभाविक था क्योंकि उस की परवरिश एक ऐसे परिवार में हुई थी जहां अंधविश्वास और ग्रहनक्षत्रों का जाल कुछ इस तरह से बिछा हुआ था कि घर का हर सदस्य केवल अपने जीवन में घटित हो रहे हर घटना को ग्रहनक्षत्रों एवं ज्योतिष से जोड़ कर ही देखता था. यही वजह थी कि अवंतिका पढ़ीलिखी होने के बावजूद ग्रहनक्षत्रों एवं रत्नों को बेहद महत्त्व देती थी और अपना कोई भी कार्य ज्योतिष से शुभअशुभ पूछे बगैर नहीं करती थी.

संजय और अवंतिका की शादी को करीब 20 साल हो गए थे, लेकिन आज भी अवंतिका को यही लगता था कि उस का पति संजय घर की ओर ध्यान नहीं देता है, उस की बात नहीं सुनता है. बेटी अनुकृति जो 12वीं क्लास में है, मनमानी करती है और बेटा अनुज जो 10वीं क्लास का छात्र है, बेहद उद्दंड होता जा रहा है. अवंतिका के ज्योतिषियों के चक्कर और पूरे परिवार पर कंट्रोल की चाह की वजह से पूरा घर बिखरता जा रहा था परंतु ये सारी बातें उस की समझ से परे थीं और उसे अपने सिवा सभी में दोष दिखाई देता था.

अवंतिका जरूरत से ज्यादा भाग्यवादी तो थी ही, साथ ही साथ वह अंधविश्वासी भी थी. वह ग्रहनक्षत्रों के कुप्रभावों से बचने के लिए ज्योतिषशास्त्रियों व उन के द्वारा सुझए गए तरहतरह के रत्नों पर अत्यधिक विश्वास रखती थी. यह कहना गलत न होगा कि अवंतिका की सोच करेला ऊपर से नीम चढ़ा जैसी थी.

अभी अवंतिका राशिफल पढ़ ही रही थी कि उस की बेटी अनुकृति उस के करीब आ कर बोली, ‘‘मम्मी मुझे फिजिक्स और कैमिस्ट्री विषय बहुत हार्ड लग रहे हैं. मुझे इन के लिए ट्यूशन पढ़नी है.’’

यह सुनते ही अवंतिका बोली, ‘‘अरे तुम्हें कहीं ट्यूशन जाने की जरूरत नहीं. यह देखो आज के पेपर में एड आया है सर्व समस्या निवारण केंद्र का. यहां ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंदजी सभी की समस्याओं का निवारण

करते हैं. देख इस पर लिखा है कि कैसी भी हो समस्या निराकरण करेंगे ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंद नित्या.

‘‘मम्मी लेकिन मुझे फिजिक्स और कैमिस्ट्री में प्रौब्लम है इस में ये ज्योतिषाचार्य क्या करेंगे?’’ अनुकृति चिढ़ती हुई बोली.

तभी अवंतिका न्यूजपेपर में से वह पेज  जिस पर विज्ञापन छपा था अलग करती हुई

बोली, ‘‘ज्योतिषाचार्यजी ही तो हैं जो तुम्हारी

सारी प्रौब्लम्स दूर करेंगे. आचार्यजी तुम्हें बताएंगे कि पढ़ाई में ध्यान कैसे लगाना चाहिए या फिर कोई रत्न बताएंगे जिस से तुम 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाओगी. चलो जल्दी से तैयार हो जाओ हम आज ही स्वामीजी से चल कर मिलते हैं.’’

यह सुनते ही अनुकृति पैर पटकती हुई बोली, ‘‘मम्मी अभी मुझे स्कूल जाना है. आज मेरी फिजिक्स और कैमिस्ट्री का ऐक्स्ट्रा क्लास है. मैं किसी आचार्य या बाबावाबा के पास नहीं जाऊंगी. आप को जाना है तो आप जाओ,’’ कह कर अनुकृति वहां से चली गई और अवंतिका वहीं खड़ी बड़बड़ाती रही.

थोड़ी देर में अनुकृति और अनुज स्कूल के लिए तैयार हो गए, लेकिन अवंतिका विज्ञापन पर दिए आचार्यजी का फोन नंबर मिलाने में ही लगी रही क्योंकि हर बार वह नंबर व्यस्त ही बता रहा था.

तभी अवंतिका के पास अनुज आ कर बोला, ‘‘मम्मी, टिफिन बौक्स दे दो हम लेट हो रहे हैं.’’

अनुज से टिफिन बौक्स सुन कर अवंतिका को खयाल आया कि उस ने टिफिन तो बनाया ही नहीं है. अत: वह हड़बड़ाती हुई अलमीरा से रुपए निकाल दोनों को देती हुई बोली, ‘‘टिफिन तो बना नहीं है तुम दोनों ये रुपए रख लो, वहीं स्कूल कैंटीन में कुछ खा लेना.’’

अवंतिका का इतना कहना था कि अनुकृति मुंह बनाती हुई बोली, ‘‘यह क्या है मम्मी आप रोजरोज यह राशिफल और ज्योतिषशास्त्रियों के बारे में पढ़ने के चक्कर में हमारा टिफिन ही नहीं बनाती हो और हमें कैंटीन में खाना पड़ता है,’’ कह अवंतिका के हाथों से रुपए ले कर अनुकृति गुस्से से चली गई.

तभी अनुज बोला, ‘‘मम्मी, मुझे और पैसे चाहिए. मेरा इतने पैसों से काम नहीं चलेगा. आज दीदी की ऐक्स्ट्रा क्लास है इसलिए मैं अपनी गाड़ी ले जा रहा हूं. उस में पैट्रोल भी डलवाना होगा.’’

अनुज के ऐसा कहते ही अवंतिका ने बिना कुछ कहे और पैसे उसे दे दिए क्योंकि उस का पूरा ध्यान आचार्यजी को नंबर लगा कर उन से मिलने का समय लेने में था.

दोनों बच्चों के जाते ही अवंतिका फिर से ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंद नित्याजी का नंबर ट्राई करने लगी और इस बार नंबर लग गया. अवंतिका को ज्योतिषाचार्य से आज ही मिलने का समय भी मिल गया. वह जल्दी से तैयार हो कर स्वामी के सर्व समस्या निवारण केंद्र पहुंची तो देखा काफी भीड़ लगी थी. ऐसा लग रहा था मानो आधा शहर यहीं उमड़ आया हो. जब अवंतिका ज्योतिषाचार्य के शिष्य के पास यह जानने के लिए पहुंची कि उस का नंबर कब तक आ जाएगा तो वह बड़ी विनम्रतापूर्वक लबों पर लोलुपता व चाटुकारिता के भावों संग मुसकराते हुए बोला, ‘‘बहनजी, अभी तो 10वां नंबर चल रहा है. आप का 51वां नंबर है. आप का नंबर आतेआते तो शाम हो जाएगी.आप आराम से प्रतीक्षालय में बैठिए, वहां सबकुछ उपलब्ध है- चाय, कौफी, नाश्ता, भोजन सभी की व्यवस्था है. बस आप टोकन काउंटर पर जाइए और आप को जो चाहिए उस का बिल काउंटर पर भर दीजिए आप को मिल जाएगा.’’

यह सुनने के बाद भी अवंतिका वहीं खड़ी रही. उस के माथे पर खिंचते बल को देख कर आचार्यजी के शिष्य को यह अनुमान लगाने में जरा भी वक्त नहीं लगा कि अवंतिका आचार्यजी से शीघ्र मिलना चाहती है. अवसर का लाभ उठाते हुए  शिष्य ने अपने शब्दों में शहद सी मधुरता घोलते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आचार्यजी के कक्ष के समक्ष तो सदा ही उन के भक्तों की ऐसी ही अपार भीड़ लगी रहती है क्योंकि आचार्यजी जो रत्न अपने भक्तों को देते हैं एवं जो विधि उन्हें सुझते हैं उस से उन के भक्तों का सदा कल्याण ही होता है. यदि आप ज्योतिषाचार्यजी से जल्दी भेंट करना चाहती हैं तो आप को वीआईपी पास बनाना होगा, जिस का मूल्य सामान्य पास से दोगुना है परंतु इस से आप की आचार्यजी से भेंट 1 घंटे के भीतर हो जाएगी और बाकी लोगों की अपेक्षा आचार्यजी से आप को समय भी थोड़ा ज्यादा मिलेगा. आप कहें तो वीआईपी पास बना दूं?’’

 

पंडों का चक्रव्यूह: क्या चाचाजी का दूर हुआ अंधविश्वास

’‘हम अंदर गए तो पंडितजी मंत्र का जाप कर रहे थे. पास में एक गाय खड़ी थी. चाचाजी बेसुध हो कर चारपाई पर अधमरे की स्थिति में लेटे हुए ??थे…’’

आज मैं जब अपने चाचाजी को देखने उन के घर गई तो उन्हें देख कर बहुत दुख हुआ. चाचाजी की हालत बहुत गंभीर थी. मैं ने चाचीजी से पूछा कि डाक्टर क्या कह रहा है? किस डाक्टर को दिखाया? अचानक क्या हुआ? 5 महीने पहले तो चाचाजी ठीक थे? तो चाचीजी ने बताया, ‘‘बिटिया, 4 महीने पहले तुम्हारे चाचाजी को बुखार आया था. डाक्टर की दवा से फायदा नहीं हुआ तो पड़ोसिन पंडिताइन ने एक अच्छे हकीम की दवा दिलवाई. ये कुछ दिन तो ठीक रहे फिर हालत बिगड़ती गई. फिर डाक्टर को दिखाया, पर ये ठीक नहीं हुए. बहुत दिनों तक दवा खाते रहे पर कोई फायदा नहीं हुआ. तभी एक दिन पंडिताइन ने चाचाजी की जन्मपत्री एक बहुत बड़े पंडित को दिखाई तो मालूम चला कि तुम्हारे चाचाजी ठीक कैसे होंगे. इन की तो घोर शनि और केतु की दशा चल रही है. तब से हम ने डाक्टर की दवा कम कर दी और इन के लिए जाप वगैरह करा रहे हैं.’’

सुन कर मेरा माथा ठनका. मैं ने कहा, ‘‘चाचीजी, जाप वगैरह से कुछ नहीं होगा. डाक्टर को ठीक से दिखा कर टैस्ट वगैरह कराइए. आप जो पैसा जाप में खर्च कर रही हैं, इन के खाने और दवा पर खर्च करिए.’’

चाचीजी ने कहा, ‘‘बिटिया, डाक्टर क्या पंडित से ज्यादा जाने हैं? जब पंडितजी ने बता दिया कि क्यों बीमार हैं, तो डाक्टर के पास जाने से क्या फायदा? अब हम किसी डाक्टर को नहीं दिखाएंगे,’’ और वे तमतमा कर अंदर चली गईं.

मैं ने अपनी भाभी यानी उन की बहू को समझाया. पर वे तो चाचीजी से भी ज्यादा अंधविश्वासी थीं. मैं चाचाजी से मिल कर दुखी मन से घर लौट आई. मैं समझ गई कि उस पंडित ने चाचीजी को अपने जाल में फांस लिया है.

मेरी चाचीजी को हमेशा पंडितों की बातों और उन के अंधविश्वासों पर विश्वास रहा. मैं पहले जब भी चाचीजी से मिलने जाती तो अकसर किसी पंडे या पंडित को उन के पास बैठा देखती. वे उस से घर की सुखशांति व निरोग होने के लिए उपाय पूछती दिखतीं और वह पंडा या पंडित जन्म और अगले जन्म के विषय में इस तरह से बताता जैसे सब कुछ उस के सामने घटित हो रहा हो. वह अकसर कौन सा दान करना जरूरी है, किस दान से क्या फल मिलेगा और अगर फलां दान नहीं किया तो अगले जन्म में क्या नुकसान होगा वगैरह बातें कर के चाचीजी के मस्तिष्क को अंधविश्वासों में जकड़ता जा रहा था और चाचीजी बिना किसी विरोध के उस का कहना मानती थीं.

चाचाजी उम्र बढ़ने के साथ व्याधियों से भी घिरते जा रहे थे. चाचीजी उस का कारण चाचाजी का पंडितों पर विश्वास न होना मानती थीं. चाचीजी और चाचाजी की उम्र में 12 साल का अंतर था पर चाचीजी का कहना था कि मैं इसलिए स्वस्थ हूं क्योंकि मैं पंडितजी के कहे अनुसार सारे धर्मकर्म करती हूं और चाचाजी चूंकि पंडितजी की बात नहीं मानते, इसलिए रोगों से ग्रस्त रहते हैं.उन की इस तरह की बात बारबार सुन कर उन की बहू भी अंधविश्वासी हो गई थी.

एक घर में जब 2 महिलाएं पंडितों और पंडों के चक्कर में फंस जाएं तो वे रोज नए तरह के किस्सों और कर्मकांडों द्वारा दानपुण्य से लूटने की भूमिका तैयार करते रहते हैं. वही चाचीजी के घर में हो रहा था. मैं हर दूसरे दिन फोन पर चाचाजी की खबर लेती रहती. कभी उन की तबीयत ठीक होती तो कभी ज्यादा खराब होती. 3 हफ्ते बाद मैं जब चाचाजी से मिलने गई तो पंडितजी बैठे थे और चाचीजी की बहू को कुछ सामग्री लिखा रहे थे.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या हो रहा है, चाचीजी?’’

चाचीजी बोलीं, ‘‘बिटिया, पंडितजी कह रहे हैं अगर चाचाजी का तुलादान कर दिया तो ये ठीक हो जाएंगे. तुलादान व्यक्ति के वजन के बराबर अनाज वगैरह दान करने को कहते हैं और ये उसी का सामान लिखा रहे हैं.’’

फिर वे पंडितजी से बात करने में मशगूल हो गईं. पंडितजी चाचीजी की उदारता और पतिभक्ति की भूरिभूरि प्रशंसा कर रहे थे और मैं खड़ीखड़ी पंडित के ठगने के तरीके और अंधविश्वास में लिपटे इन लोगों को देख रही थी.

2 दिन बाद मैं ने फोन किया तो पता चला कि चाचाजी की तबीयत बहुत बिगड़ गई है. घर में मेरे भाई का डाक्टर दोस्त आया हुआ था. उसे खाना खिला कर मैं ने चाचाजी को देखने का प्रोग्राम बनाया. जब उसे मैं ने अपना प्रोग्राम बताया तो वह बोला, ‘‘दीदी, मैं आप को चाचाजी के घर छोड़ता चला जाऊंगा. हम घर से निकले और चाचाजी के घर पहुंचे तो मैं ने क्षितिज से कहा, ‘‘जब तुम यहां तक आ गए हो तो एक बार चाचाजी को देख लो.’’

‘‘ठीक है दीदी, मैं देख लेता हूं,’’ क्षितिज ने कहा. हम अंदर गए तो पंडितजी मंत्र का जाप कर रहे थे. पास में एक गाय खड़ी थी. चाचाजी बेसुध से पास की चारपाई पर लेटे थे और उन के हाथ को पकड़ कर चाचीजी ने उस में फूल, पानी, अक्षत, रोली वगैरह रखे हुए थे.

पूछने पर उन की बहू ने बताया, ‘‘दीदी, गौदान हो रहा है. पंडितजी कह रहे थे कि गाय के शरीर में 33 करोड़ देवीदेवता रहते हैं. इस का दान करने से बाबूजी तुरंत ठीक हो जाएंगे.’’ ये बातें सुन कर मेरा माथा ठनका. मुझे लगा इन पंडितों का जाल इन्हीं अज्ञानी लोगों की वजह से दिन पर दिन समाज में फैलता जा रहा है. मैं अपनी सोचों में ही डूबउतरा रही थी कि पंडितजी की पूजा समाप्त हुई. उन्हें दक्षिणा का लिफाफा चाचीजी ने थमाया तो वह गाय और साथ का सामान ले कर चलने लगे. धूप, अगरबत्ती के धुएं से चाचाजी को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी और खांसतेखांसते उन का बुरा हाल था.

पंडितजी चाचीजी से बोले, ‘‘देखिए माताजी, बाबूजी का रोग कैसे बाहर निकलने के लिए लालायित है. अब ये कल तक ठीक हो जाएंगे.’’ चाचीजी बड़े आग्रह के साथ पंडितजी को खाना खिलाने ले गईं. उन्होंने चाचाजी की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया.

जब पंडितजी चले गए तो मैं चाचाजी के पास गई. उन के सिर पर हाथ रखा, सीने को सहलाया तो उन्हें कुछ आराम मिला. उन्होंने आंखें खोल कर मुझे देखा. मैं ने तभी क्षितिज को उन से मिलाया, ‘‘चाचाजी, आप ठीक हो जाएंगे, ये डाक्टर क्षितिज हैं.’’

चाचाजी की दर्द और कातरता से भरी आंखें आशा के साथ क्षितिज को देखने लगीं. क्षितिज ने चाचाजी का चैकअप किया और कुछ दवाएं लिखीं. उस ने चाचाजी को ढाढ़स बंधाया और दवा लेने चला गया.

क्षितिज ने दवा की एक खुराक उसी समय दी और अपनी क्लीनिक चला गया. मैं शाम तक वहीं रही. रात को खाना खा कर जब मैं वहां से अपने पति के साथ वापस आ रही थी, तो चाचाजी दवा की 2 डोज ले चुके थे और कुछ स्वस्थ से लग रहे थे. इधर चाचीजी और उन की बहू इस बात से आश्वस्त थीं कि गौदान करने से बाबूजी ठीक हो रहे हैं.

2 दिन बाद मैं ने फोन किया तो पता चला कि चाचाजी की तबीयत बहुत खराब है. मैं जल्दीजल्दी जब वहां पहुंची तो चाचाजी अंतिम सांसें ले रहे थे और वही पंडितजी मंत्र पढ़पढ़ कर न जाने कौन से दान और कर्मकांड करवा रहे थे. मालूम चला कि चाचीजी ने चाचाजी की दवा बंद करवा दी थी. सुन कर मुझे बहुत गुस्सा आया पर मैं क्या कर सकती थी?

मेरे देखतेदेखते चाचाजी ने अंतिम सांस ली. चाचाजी की मृत्यु को रोका जा सकता था, अगर उन की दवा बंद न की गई होती. पर चाचीजी तो पंडित के चक्कर में इतनी फंसीं कि उन्हें कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था.

फिर शुरू हुआ पंडित द्वारा भगवान की मरजी आदि बातों को बताना. थोड़ी देर बाद चाचाजी का लड़का सब को फोन कर रहा था तो चाचीजी चाचाजी के पास बैठी सुबकसुबक कर रो रही थीं. उन की बहू अगरबत्ती जलाने, बैठने का प्रबंध करने आदि में लगी थी. पंडितजी एक सज्जन के साथ सामान की लिस्ट बनवाने में व्यस्त थे. पंडितजी ने चाचाजी के जीतेजी जितनी लंबी लिस्ट बनवाई थी, यह लिस्ट उस से और लंबी हो गई थी और वे न करने या कम करने पर मरने वाले की आत्मा को कष्ट होगा, यह दुहाई देते जा रहे थे.

शाम को जब चाचाजी का शरीर अंतिम यात्रा के लिए ले जाया गया तो घाट पर फिर वही सब पंडों के आदेश और उन पर चलता व्यक्ति. न खत्म होने वाली रस्में और उन में उलझते घर के लोग.

जब दाह संस्कार कर के लोग वापस आए तो सब थक कर भरे मन से अपनेअपने घर चले गए. पर पंडितजी एक कोने में बैठ कर अगले दिन की तैयारी व लिस्ट बनवाने में व्यस्त हो गए. उन का असली किरदार तो अब शुरू हुआ था. अब 10 दिन की कड़ी तपस्या, खानपान में परहेज, जमीन में सोना, अलग रहना, अपने प्रिय की जुदाई का दुख. फिर भी पंडितजी की लिस्ट में किसी तरह की कमी नहीं थी. बल्कि ऐसे भावुक समय को भुनाने की तो पंडों की पूरी कोशिश रहती है. ऐसे समय में कुटुंब और समाज के लोग भी पंडे की बातों का समर्थन कर के, ऊंचनीच समझा कर, दुख से पीडि़त व्यक्ति के घाव को हरा ही करते हैं.

एक तो व्यक्ति दुखी वैसे ही होता है. ऐसे में अगर यह कह दिया जाए कि अगर आप इतना सब नहीं करेंगे तो आप के पिता भूखे रहेंगे, दुखी रहेंगे, तो वह उधार कर के भी उस पंडे की हर बात मानने को मजबूर हो जाता है.

9 दिन इसी तरह लूटने के बाद 10वें दिन पंडित ने एक बड़ी लिस्ट थमाई जिस में दानपुण्य की सामग्री लिखी थी. जब चाचाजी के बेटे ने प्रश्नवाचक नजरों से पंडितजी को देखा तो पंडितजी समझाने लगे, ‘‘बेटा, इस समय जो दान जाएगा, वह तो शमशान के पंडित को ही जाएगा. यह सारी सामग्री इसलिए आवश्यक है, क्योंकि 9 दिन से तुम्हारे पिता प्रेतयोनि में ही हैं और प्रेम को कोई लगाव नहीं होता. अगर प्रेत असंतुष्ट रह गया तो वह तुम्हारा, तुम्हारे बच्चों या परिवार का अहित करने से नहीं चूकेगा. इसलिए 10वें के दिन वह सभी दान करना पड़ता है जो 13वीं के दिन किया जाता है. वरना प्रेत से छुटकारा पाना बहुत कठिन हो जाता है.

अपने भविष्य व अपने बच्चों के प्रति हम इतने सशंकित रहते हैं कि पंडों या पंडितों के चक्रव्यूह में बेबस हो कर फंस जाते हैं. इस पंडित ने जिस तरह से अपराधबोध और भय की सुरंग चारों तरफ फैला दी थी, उस से निकलने का कोई रास्ता चाचाजी के बेटे को नजर नहीं आ रहा था. इसलिए जैसाजैसा पंडित कहते जा रहे थे, वह बुरे मन से ही सही सब कर रहा था.

13वीं के लिए पंडितजी ने पुन: एक बार लंबी पूजा व दान की लिस्ट चाचाजी के बेटे को पकड़ाई और समझाया, ‘‘जजमान, 13वीं को आप के पिता आप के द्वारा दिए गए दान व तर्पण से प्रसन्न हो कर प्रेतयोनि से मुक्त हो कर पितरों के साथ मिलेंगे. अत: आप इन को वस्त्र, आभूषण, बरतन और अन्य सामग्री से प्रसन्न कर के पितरों के साथ मिलने में इन की सहायता करें.’’

चाचाजी का बेटा यह सब करतेकरते थक गया था. उसे तो इन सब पर विश्वास ही नहीं था, पर मां और पत्नी के डर से कुछ कह नहीं पा रहा था. पर जब 10वां हो गया और पंडित की मांगें सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही गईं तो वह बिफर गया और 13वीं के दिन का सामान देने के लिए राजी नहीं हुआ.

पंडित का कहना था कि अगर यह सब दान नहीं किया तो मृतात्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी. और भी कई भावुक बातें उस ने कहीं. चाचाजी के बेटे का सब्र का बांध टूट गया. उस ने कहा, ‘‘मैं अगर आप के कहे अनुसार चलता रहा तो यह सच है कि मैं इस जन्म में तो कर्ज से मुक्त नहीं हो पाऊंगा और जीतेजी मर जाऊंगा. अब बहुत हो गया. कृपया लूटने का नाटक बंद करें,’’ और उस की आंखों से आंसू बहने लगे. पता नहीं ये आंसू दुख के थे या पश्चात्ताप के.

उसी समय चाचीजी बेटे को दिलासा देने आईं और बोलीं, ‘‘बेटा, इतना सब अच्छे से किया है, तो अब आखिरी काम क्यों नहीं अच्छे से कर देता है? मेरे पास जो भी है, उन का दिया है. ले मेरे हाथ की चूडि़यों को. उन्हें बेच कर तू उन की गति संवार दें. मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूं,’’ और चाचीजी सुबकने लगीं.

उस ने चूडि़यां मां को वापस कीं. निर्लिप्त भाव से वह सब करने लगा, जो पंडित उस से कह रहा था पर चिंता की लकीरें उस के माथे पर स्पष्ट दिख रही थीं, क्योंकि अभी 11 पंडितों का खाना, दक्षिणा और संबंधियों का भोज बाकी था. पर वह इन के भंवर में इतना फंस गया था कि कुछ कहना व्यर्थ था.

घर के किसी भी व्यक्ति के जाने के बाद पीछे रहा व्यक्ति दोहरी पीड़ा झेलता है. एक तो अपने प्रियजन के विछोह की तो दूसरी व्यर्थ के कर्मकांडों की. पर अंधविश्वास व पंडों द्वारा फैलाए डर तथा अनर्थ की आशंका के कारण व्यक्ति इन का अतिक्रमण नहीं कर पाता.

हम सब एकसाथ 2 तरह की दुनिया में रहते हैं. एक भौतिक साधनों से संपन्न आधुनिकता से भरी दुनिया, तो दूसरी पाखंड और पंडों के द्वारा बनाई गई भयभीत करने वाली दुनिया, जिस में सत्य का या वास्तविकता का कोई अंश नहीं होता. भगवान के नाम पर, मृतात्मा के नाम पर ये पंडे, जिस तरह से व्यक्ति को लूटते हैं उस के बारे में सब को पता है कि यह सब शायद सत्य नहीं है पर फिर भी कभी डर से, कभी मृतात्मा के प्रति उपजे प्यार और आदर से, हम सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं और इन पंडों की कुटिल चाल में फंस जाते हैं.

खैर पंडितजी ने अपना सामान बांधा, चाचाजी के बेटे को पता दिया और सामान घर पहुंचाने का आदेश दे कर चलते बने

पराया कांच

‘‘कल देर से आऊंगा, विभा. 3 साल पहले चंडीगढ़ से अवस्थीजी आए थे, वे वापस जा रहे हैं ब्रांच मैनेजर बन कर. उन का विदाई समारोह है,’’ विपिन ने सोने से पहले बताया.

‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है. बहुत खुश होंगे अवस्थीजी.’’

‘‘हां, खुश भी और परेशान भी.’’ विभा ने भवें चढ़ाईं, ‘‘परेशान क्यों?’’

‘‘क्योंकि उन की बिटिया नन्ही का यह एमबीए का अंतिम वर्ष है. कैंपस सिलैक्शन में उस का चयन भी यहीं विजन इंफोटैक में हो चुका है. ऐसे में न तो नन्ही की पढ़ाई छुड़ा सकते हैं और न ही उसे यहां अकेले छोड़ कर जा सकते हैं. बीच सत्र के कारण न तो होस्टल में जगह मिल रही है और न ही पेइंग गैस्ट रखने वालों के यहां.’’

‘‘यह तो वाकई परेशानी की बात है. पत्नी को भी तो यहां छोड़ कर नहीं जा सकते क्योंकि अवस्थीजी का परहेजी खाना तो वही बना सकती हैं, दांतों की तकलीफ की वजह से कुछ ज्यादा खा ही नहीं सकते. यहां किसी से ज्यादा मिलनाजुलना भी तो नहीं बढ़ाया उन लोगों ने…’’

‘‘सिवा कभीकभार हमारे यहां आने के,’’ विपिन ने बात काटी, ‘‘हम क्यों न उन की मदद कर दें विभा, नन्ही को अपने पास रख कर? चंद महीनों की तो बात है, नौकरी मिलने पर तो वह कंपनी के ट्रेनीज होस्टल में रहने चली जाएगी. बच्चे तो यहां हैं नहीं, सो दोनों के कमरे भी खाली हैं, घर में रौनक भी हो जाएगी.’’

‘‘वह सब तो ठीक है लेकिन जवान लड़की की हिफाजत कांच की तरह करनी होती है. जरा सी लापरवाही से पराया कांच तड़क गया तो खरोंचें तो हमें ही लगेंगी न? न बाबा न, मैं बेकार में लहूलुहान नहीं होने वाली,’’ विभा ने सपाट स्वर में कहा. विपिन चुप हो गया लेकिन विभा सोचने लगी कि बात तो विपिन ने सही कही थी. निखिल रहता तो उन के साथ ही था मगर फिलहाल किसी ट्रेनिंग पर सालभर के लिए विदेश गया हुआ था. नेहा को ग्रेजुएशन के बाद वह मामामामी के पास दिल्ली घुमाने ले गई थी लेकिन नेहा को दिल्ली इतनी पसंद आई कि उस ने वहीं मार्केटिंग का कोर्स जौइन कर लिया फिर वहीं नौकरी भी करने लगी. पहले तो मामामामी ने उस की बहुत तरफदारी की थी लेकिन कुछ महीने पहले लगा कि वे लोग नेहा के वहां रहने से खुश नहीं हैं, फिर अचानक सब ठीक हो गया और फिलहाल तो नेहा के वापस आने के आसार नहीं थे. ऐसे में नन्ही के आने से सूने घर में रौनक तो जरूर हो जाएगी लेकिन बेकार में जिम्मेदारी की टैंशन बढ़ेगी.

‘‘तुम एक रोज नन्ही की तारीफ कर रही थीं न विभा कि वह सिवा अपनी पढ़ाई के कुछ और सोचती ही नहीं है तो फिर ऐसी बच्ची को कुछ अरसे के लिए अपने यहां आश्रय देने में तुम हिचक क्यों रही हो? उसे इंस्टिट्यूट ले जाने और वहां से लाने का इंतजाम अवस्थी कर देगा, तुम्हें बस उस के रहनेखाने का खयाल रखना है, बाहर वह क्या करती है, यह हमारी जिम्मेदारी नहीं होगी, यह मैं ने अवस्थी से साफ कह दिया है,’’ विपिन ने अगले रोज फिर बात छेड़ी, ‘‘मुझ से अवस्थी की परेशानी देखी नहीं गई.’’

‘‘अब जब आप ने कह ही दिया है तो मेरे कहने के लिए रह ही क्या गया?’’ विभा हंसी, ‘‘कल नेहा की एक अलमारी खाली कर दूंगी नन्ही के लिए.’’ विपिन को डर था कि नन्ही के आने पर घर का वातावरण असहज हो जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. पहले रोज से ही नन्ही और विभा में अच्छा तालमेल हो गया. मना करने पर भी नन्ही रसोई में हाथ बंटाती थी, कुछ देर उन के साथ टीवी भी देखती थी. छुट्टी के रोज उन के साथ घूमने भी चली जाती थी लेकिन न तो कोई उस से मिलने आता था और न ही वह कहीं जाती थी. उस का मोबाइल जरूर जबतब बजता रहता था लेकिन नन्ही ज्यादा देर बात नहीं करती थी जिस से विभा को चिंता करनी पड़े. सब ठीक ही चल रहा था कि नन्ही की परीक्षा शुरू होने से कुछ रोज पहले अचानक नेहा आ गई.

‘‘मैं ने यहां अपना ट्रांसफर करवा लिया है,’’ नेहा ने उत्साह से बताया. ‘‘दिल भर गया दिल्ली से, अब यहीं रहूंगी आप के साथ. मगर आप खुश होने के बजाय इतनी सकपकाई सी क्यों लग रही हैं, मम्मी?’’

विभा ने धीरे से नन्ही के बारे में बताया. ‘‘उस का सामान निखिल के कमरे में रखवा कर तेरा कमरा खाली करवा देती हूं.’’

‘‘वह अब तक मेरे कमरे में ऐडजस्ट कर चुकी होगी मम्मी, उसे कमरा बदलवा कर डिस्टर्ब मत करो. मैं निखिल के कमरे में रह लूंगी, रात को आ कर सोना ही तो है.’’

‘‘रात को ही क्यों?’’ विभा ने चौंक कर पूछा. ‘‘क्योंकि मैं देर तक और छुट्टी के रोज भी काम करती हूं. अभी भी औफिस जाना है, शाम को कब तक लौटूंगी, कह नहीं सकती,’’ कह कर नेहा चली गई.

विभा को नेहा कुछ बदली सी तो लगी पर उस ने इसे नौकरी से जुड़ी व्यस्तता समझ कर टाल दिया. शाम को नेहा जल्दी ही लौट आई. तब तक नन्ही उस का कमरा खाली कर चुकी थी. ‘‘वह कहने लगी कि मुझे तो कुछ कपड़े और किताबें ही उठानी हैं, दीदी का तो पूरा सामान उन के कमरे में है, सो मैं ही दूसरे कमरे में चली जाती हूं,’’ विभा ने सफाई दी. परिचय के बाद कुछ बात तो करनी ही थी, सो नेहा ने नन्ही से उस की पढ़ाई के बारे में पूछा. यह सुन कर कि उस ने एमकौम तक की पढ़ाई चंडीगढ़ में की थी, नेहा चहकी, ‘‘तब तो तुम जगत सिंह चौधरी को जानती होगी?’’

‘‘ओह, जग्गी सिंह? बड़ी अच्छी तरह जानती हूं.’’

‘‘तुम्हारे क्लासफैलो थे?’’

‘‘हां, क्लासफैलो भी, सीनियर भी और फिर जूनियर भी,’’ नन्ही खिलखिला कर हंसी, ‘‘असल में उस ने बीकौम सेकंड ईयर में 3 साल लगाए थे.’’

‘‘लेकिन फिर फाइनल और मार्केटिंग डिप्लोमा में फर्स्ट क्लास ला कर पूरी कसर निकाल दी.’’

‘‘हां, सुना तो था. आप कैसे जानती हैं जग्गी को?’’ नन्ही ने पूछा.

‘‘जेएस चौधरी हमारी कंपनी में डिप्टी सेल्स मैनेजर हैं, मैनेजमैंट के ब्लू आईड बौय. जिस इलाके में बिक्री कम होती है, चौधरी साहब को भेज दिया जाता है. यहां की ब्रांच तो बंद ही होने वाली थी लेकिन चौधरी साहब की जिद पर उन्हें यहां भेजा गया और वे आज बड़ौदा में नया शोरूम खुलवाने गए हुए हैं,’’ नेहा के स्वर में गर्व था.

‘‘मार्केटिंग में लच्छेदार बातों वाला आदमी चाहिए और बातों की जलेबियां तलने में तो जग्गी लाजवाब है.’’

‘‘तुम इतनी अच्छी तरह कैसे जानती हो उन्हें?’’

‘‘चंडीगढ़ में हमारी और उस की कोठी एक ही सैक्टर में है, दोनों के परिवारों में तो मिलनाजुलना है लेकिन मम्मीपापा को हम भाईबहन का जग्गी से मेलजोल पसंद नहीं था.’’ ‘‘लेकिन अब तो तुम्हें उन से मिलना ही होगा, मेरी खातिर. मैं दिल्ली से आई ही उन के लिए हूं और सच बताऊं तो वे भी मेरे लिए ही यहां आए हैं क्योंकि दिल्ली में मामी को हमारा मिलनाजुलना खटकने लगा था, सो हम ने वहां से हटना ही बेहतर समझा,’’ कह कर नेहा ने विभा को पुकारा, ‘‘मम्मी, नन्ही मेरे बौस के परिवार को जानती है. सो, मैं सोच रही हूं कि इस से मिलने के बहाने चौधरी साहब को एक रोज घर बुला लूं. बौस से अच्छे ताल्लुकात बहुत काम आते हैं.’’

‘‘ठीक है, पापा से पूछ कर किसी छुट्टी के दिन बुला लेना,’’ विभा बोली. नेहा की नन्ही से खूब पटने लगी. एक रोज नेहा का फोन आया कि अधिक काम होने के कारण वह देर से आएगी, खाने पर उस का इंतजार न करें, न ही फिक्र. वह औफिस की गाड़ी में आ जाएगी.

नेहा 10 बजे के बाद आई.

‘‘चौधरी साहब ने कहा कि उन्हें नन्ही से मिलने तो आना ही है सो वे अपनी गाड़ी में मुझे छोड़ने आ गए,’’ नेहा ने विभा व विपिन के कमरे में आ कर कहा.

विपिन ने अपने कपड़े देखे.

‘‘ठीक हैं, या बदलूं?’’

‘‘आप लोगों को बाहर आने की जरूरत नहीं है, अभी तो वे नन्ही का हालचाल पूछ कर चले जाएंगे.’’ और फिर अकसर चौधरी साहब नेहा को छोड़ने और नन्ही को हैलो कहने आने लगे. विभा को यह सब ठीक तो नहीं लगा लेकिन नेहा ने उसे यह कह कर चुप कर दिया कि नन्ही के पड़ोसी हैं और उन के पापा चंडीगढ़ में अवस्थी अंकल की गैरहाजिरी में उन की कोठी और माली वगैरह पर नजर रखते हैं, हालांकि नन्ही ने उस से ऐसा कुछ नहीं कहा था. विभा ने नन्ही को कुछ दिन पहले फोन पर कहते सुना था कि उसे किसी चंडीगढ़ वाले से मिलने की फुरसत नहीं है. नन्ही आजकल पढ़ाई में बहुत व्यस्त रहती थी. सो, विभा ने उस से इस विषय में कुछ नहीं पूछा. वैसे भी चौधरी कुछ मिनट ही रुकता था. परीक्षा के दौरान नन्ही ने कहा कि वह रात का खाना 7 बजे खा कर कुछ घंटे लगातार पढ़ाई करेगी.

‘‘खाना तो 7 बजे ही खा लोगी लेकिन चौधरी जो ‘हैलो’ करने के बहाने खलल डालेगा उस का क्या करोगी?’’ विभा हंसी.

‘‘मैं कहना तो नहीं चाहती थी आंटी लेकिन चौधरी मुझे हैलो कहने के बहाने नेहा दीदी को छोड़ने आता है. मेरे कमरे में तो उस ने पहले दिन के बाद झांका भी नहीं. पहले रोज जब दीदी आप के कमरे में गई थीं तो मैं ने उस से कहा था कि तुम ही होने वाले सासससुर के कमरे में जा कर उन के पैर छू आओ तो उस ने बताया कि सासससुर तो मम्मी ही पसंद करेंगी, शादी तो उन की सुझाई लड़की से ही करनी है, यहां तो वह महज टाइमपास कर रहा है. मैं ने कहा कि अगर उस ने नेहा दीदी के साथ कुछ गलत किया तो मैं उस की मम्मी को ही नहीं, चंडीगढ़ में सारे पड़ोस को उस की करतूत बता दूंगी.

‘‘चौधरी ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं होगा और वैसे भी नेहा की शर्त है कि जब तक मैं उस के पापा से शादी की बात नहीं करूंगा वह मुझे हाथ भी नहीं लगाने देगी. शाम गुजारने के लिए उस के साथ कहीं बैठ कर गपशप कर लेता हूं और कुछ नहीं…’’

‘‘और तुम ने उस की बात मान ली?’’ विभा ने बात काटी, ‘‘तुम्हारा फर्ज नहीं बनता था कि तुम मुझे बतातीं यह सब?’’

‘‘नेहा दीदी ने पहले दिन ही यह शर्त रख दी थी कि अगर घर में रहना है तो जैसा वे कहेंगी वैसा ही करना होगा, उन में और चौधरी में फिलहाल रिश्ता घूमनेफिरने तक ही सीमित है, सो मैं चुप ही रही,’’ नन्ही ने सिर झुका कर कहा, ‘‘मैं यह सोच कर चुप रह गई थी कि कुछ दिनों की ही तो बात है, जाने से पहले चौधरी की असलियत दीदी को जरूर बता दूंगी.’’

‘‘मगर तब तक बहुत देर हो जाएगी. विपिन के एक दोस्त का लड़का लंदन से आया हुआ है. उस ने नेहा का रिश्ता मांगा है लेकिन नेहा उस लड़के से मिलने को तैयार ही नहीं हो रही और वह तो कुछ रोज में वापस चला जाएगा,’’ विभा ने हताश स्वर में कहा.

‘‘ऐसी बात है आंटी तो मैं कल जग्गी से मिल कर कहूंगी कि वह फौरन नेहा दीदी को अपनी असलियत बता दे.’’

‘‘जैसे वह तेरी बात मान लेगा,’’ विभा के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘माननी पड़ेगी, आंटी. जग्गी की शादी चंडीगढ़ के एक उद्योगपति की बेटी पिंकी से लगभग तय हो गई है, तगड़े दहेज के अलावा जग्गी को उन के बिजनैस में भागीदारी भी मिलेगी. पिंकी मेरी सहेली है, उसी ने मुझे फोन पर बताया यह सब. अब मैं जग्गी को धमकी दे सकती हूं कि तुरंत दीदी की जिंदगी से बाहर निकले वरना मैं पिंकी को बता दूंगी कि वह यहां क्या कर रहा है.’’

‘‘इस सब में तेरी पढ़ाई का हर्ज होगा, नन्ही.’’ ‘‘पढ़ाई तो जितनी हो सकती थी, हो चुकी है, आंटी. फिर इस सब में ज्यादा समय नहीं लगेगा. आप बेफिक्र रहिए, मैं सब संभाल लूंगी,’’ नन्ही ने आश्वासन दिया. नन्ही रोज दोपहर को घर आ जाती थी लेकिन उस दिन वह देर शाम तक नहीं लौटी. विभा ने उस के मोबाइल पर फोन किया.

‘‘मैं ठीक हूं, आंटी, आने में हो सकता है कुछ देर और हो जाए,’’ नन्ही ने थके स्वर में कहा.

‘‘तू है कहां?’’

‘‘मैं जग्गी यानी चौधरी के फ्लैट के बाहर बैठ कर उस का इंतजार कर रही हूं. वह बड़ी देर से ‘बस, अभी आया’ कह रहा है, अब मैं ने उस से कहा है कि आधे घंटे में नहीं आया तो मैं पिंकी को फोन पर जो जी चाहेगा, बता दूंगी.’’

‘‘तुझे उस के फ्लैट पर अकेले नहीं जाना चाहिए, नन्ही.’’

‘‘किसी कौफी शौप में मिलने से घर पर मिलना बेहतर है, आंटी. औफिस में मिलने पर नेहा दीदी को पता चल जाता. आप बेफिक्र रहिए, जग्गी मुझ से बदतमीजी करने की हिम्मत नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन तेरी पढ़ाई कितनी खराब हो रही है, नन्ही?’’

‘‘दीदी की जिंदगी खराब होने देने से थोड़ी पढ़ाई खराब करना बेहतर है, आंटी. रखती हूं, जग्गी आ रहा है शायद.’’ नन्ही नेहा के आने के बाद आई. सो, विभा उस से कुछ पूछ नहीं सकी. अगली सुबह उस का पेपर था, वह जल्दी चली गई. दोपहर को नन्ही के लौटने से पहले विपिन अचानक घर आ गया.

‘‘तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है, विभा. नेहा अश्विन के बेटे से मिलने को तैयार हो गई है. उस ने मुझे औफिस में अभी फोन कर के यह बताया. तुम बताओ, कब बुलाऊं उन लोगों को?’’

‘‘कभी भी बुला लो, इस में पूछने की क्या बात है.’’

‘‘बहुत सहज और खुश लग रही हो, विभा,’’ विपिन ने हैरानी से उस की ओर देखा, ‘‘क्या इसलिए कि पराया कांच सही- सलामत लौटाने का समय आ गया है?’’

‘‘नन्ही को पराया कांच मत कहो, विपिन,’’ विभा ने विह्वल स्वर में कहा, ‘‘वह तो हीरा है, अनमोल हीरा, जिस ने हमारे अपने कांच को तड़कने से बचाया है और नन्ही अब पराई नहीं हमारी अपनी है. निखिल मुझे अपने लिए लड़की पसंद करने को कह ही चुका है, सो, मैं ने नन्ही को पसंद कर लिया है.’’ विपिन उसे क्या बताता कि वह और निखिल तो कब से नन्ही को पसंद कर चुके हैं, निखिल के कहने पर ही उस ने नन्ही को घर में रहने को बुलाया था.

छंटनी- भाग 3: क्या थी रीता की असलियत

विशाल को उठ कर जाना पड़ा. उस  के जाते ही अजीत सुधा के पास आ बैठा और बोला, ‘‘सुधा, मुझे तुम से यह उम्मीद न थी.’’

‘‘पर यह जरूरी था, अजीत. हम सौरभ, गौरव की रूखी रोटी में से क्या कटौती कर सकते हैं. क्या बूआ हमारी स्थिति नहीं जानतीं? मैं ने उन्हें पत्र लिखा था, उन्होंने उत्तर तक नहीं दिया. तुम्हें भी समझना चाहिए कि मौके पर सब कैसे बच रहे हैं. मदद को कोई नहीं आया, और न ही कोई आएगा. तुम नाराज क्यों होते हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं. मैं तो यह कह रहा हूं कि तुम ने कितनी सरलता से सुलझा दिया मामला. वरना हम पर नए सिरे से कर्ज चढ़ना शुरू हो गया होता.’’

‘‘नहीं, अजीत, अब ऐसा नहीं होगा  कि जो चाहे जब चाहे चला आए और पैर पसार कर पड़ा रहे.’’

‘‘अच्छा, अगर बूआ लड़ने आ गईं तो क्या करोगी?’’

‘‘जो मुझे करना चाहिए वही करूंगी. पहले प्यार से समझाने की कोशिश करूंगी, नहीं समझेंगी तो अपनी बात कहूंगी. अपने बच्चों की मां हूं, उन का भलाबुरा तो मैं ही देखूंगी. अजीत हमें छंटनी करनी होगी…अपनेपरायों की छंटनी. दूर के रिश्तेदार ही नहीं पास वालों को भी तो आजमा कर देखा. बूआ क्या दूर की रिश्तेदार होती है? या चाची या मामी? ऐसे लोगों से आगे अब मैं नहीं निभा पाऊंगी.’’

‘‘तुम ने जितनी कठिन परिस्थितियों में मेरा साथ निभाया है इस के बाद तो मैं यही कहूंगा कि तुम लाखों में एक हो, क्योंकि मेरे गार्ड बन जाने पर भी तुम ने कोई खराब प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की.’’

‘‘यह थोड़े दिन की बात है, अजीत. वहां गेट पर खड़ेखड़े ही तुम निराश न होना. सोचना क्याक्या संभव है. कहांकहां तुम्हारी योग्यता का उपयोग हो सकता है. उस के अनुसार प्रयास करना. देखना, एक दिन तुम जरूर सफल होगे और हमारी गाड़ी फिर से पटरी पर आ जाएगी.’’

अजीत गार्ड की ड्यूटी देने के बाद बचे समय में उपयुक्त नौकरी के लिए भागदौड़ भी करता रहता. सुधा और बच्चों का पूरा सहयोग उसे मिल रहा था. अजीत और सुधा की कमाई के साथ किराए का पैसा जोड़ कर फैक्टरी के वेतन का आधा भी मुश्किल से हो पाता पर बच्चों की दुर्दशा नहीं होगी, उन्हें इतना विश्वास हो गया था. तभी एक दिन घर के आगे एक चमचमाती कार दिखी और उस से लकदक रीता उतरी. सुधा ने लपक कर रीता को गले लगाया और पूछा, ‘‘कार कब खरीदी?’’

रीता का मुंह फूला हुआ था. अंदर जाते ही वह भैया पर बरस पड़ी, ‘‘तुम ने मेरी भी नाक कटा कर रख दी, अपनी तो खैर कटाई ही कटाई.’’

‘‘कैसे कट गई तुम्हारी नाक?’’ अजीत ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, क्या जरूरत थी तुम्हें उस स्कूल में गार्ड बनने की? जानते हो वहां मेरे चाचाससुर का पोता पढ़ता है. उस ने हमारी शादी के फोटोग्राफ देखते हुए तुम्हें पहचान लिया. सब के बीच में वह बोला, ‘यह तो अपने स्कूल का गार्ड है.’ तुम्हें गार्ड ही बनना था तो कहीं और बनते. स्कूलों की कमी है क्या?’’

‘‘तो तुम भी कह देतीं कि यह फोटो वाला भाई तो मर चुका है. वह गार्ड कैसे बन सकता है? उस का भूत गार्ड बन गया हो तो बन गया हो,’’ रीता का गुस्सा और तिरस्कार भरा चेहरा देख अजीत भी उबल पड़ा था.

‘‘बुरी बातें न बोलो, अजीत,’’ सुधा ने डांटा.

‘‘मेरा खून खौल रहा है, सुधा. मुझे बोलने दो. यही बहन है जिस की फरमाइशें पूरी करने में मैं ने अपनी सारी जमापूंजी लुटा दी. आज मेरा पैसा मेरे पास होता तो काम आता कि नहीं? पिताजी ने अपनी जिम्मेदारी मेरे सिर डाल दी और इसे भी शर्म नहीं आई. रीता, तुम बड़ी इज्जतदार हो तो अपने घर में रहो, मुझ गरीब के घर क्यों आती हो. अब जा कर कह देना अपने रिश्तेदारों से कि मेरा भाई मर गया.’’

रीता भाई को आंखें तरेर कर देख रही थी.

‘‘भाभी, समझा लो भैया को,’’ आंखें तरेर कर रीता बोली, ‘‘अब मुझे ज्यादा गुस्सा न दिलाएं.’’

‘‘अब भी तुम गुस्सा दिखाने की बेशर्मी करोगी, रीता,’’ सुधा ने आश्चर्य से कहा, ‘‘सब रिश्तेदार आजमाएपरखे मैं ने, कठिन समय में सब झूठे निकले. पर तुम से मेरा मन इतना अंधा मोह रखता था कि तुम्हारी सारी बेरुखी के बावजूद भी मैं तुम से कभी नाराज नहीं हो पाई. इतने लंबे संघर्ष और कष्ट के बावजूद तुम्हारे भैया ने कभी तुम्हें नहीं कोसा और तुम ही यह भाषा बोल रही हो. अभी तो तुम्हारे भैया ने ही कहा था, अब मैं भी कह रही हूं कि समझ लो हम मर गए तुम्हारे लिए, समझी? जितना तुम अपनी विदाई में फुंकवाओगी उतने में हम अपने बच्चों के लिए नए कपड़ेजूते खरीद लाएंगे. सारी कटौती मेरे बच्चों के लिए ही क्यों हो? अब बैठीबैठी मुंहबाए क्या देख रही हो. यहां से उठो और अपनी कार में बैठो. अपने घर जाओ और इज्जतदारों की तरह रहो. हम गरीबों को अपना रिश्तेदार समझो ही मत.’’

रीता पैर पटक बड़बड़ाती चली गई, ‘‘मेरी बला से, भाड़ में जाओ सब. भीख मांगो दरवाजेदरवाजे जा कर, यही बाकी रह गया है.’’

‘‘निश्ंिचत रहो, तुम्हारे दरवाजे पर मांगने नहीं आएंगे,’’ अजीत अंदर से चीखा.

‘‘शांत हो जाओ, अजीत. अच्छा हुआ कि हमारा अंधा मोह टूट गया. देख लिया अपनों को. अपनी प्रतिष्ठा के आगे उन्हें हमारे पेट का भी कोई महत्त्व नहीं दिखता. हम भूखे मर जाएं पर उन की इज्जत न घटे. अच्छा है कि अपनेपरायों की छंटनी हो रही है. उठो, तुम्हें आज इंटरव्यू देने जाना है. नहाधो कर तरोताजा हो जाओ. अगर यह नौकरी तुम्हें मिल गई तो साथ ही रूठी हुई बहन भी मिल जाएगी.’’

‘‘टूटे हुए रिश्तों की डोरियां अगर जुड़ती भी हैं तो उन में गांठ पड़ जाती है. तुम ने इतने लंबे समय तक मुझ में कुंठा की गांठ नहीं पड़ने दी, अब दूसरी गांठों की भी बात मत करो.’’

‘‘नहीं करूंगी, मेरे लिए तुम से बढ़ कर कोई नहीं है. तुम खुश रहो मेरे बच्चे सुखी रहें, मैं बस यही चाहती हूं, और मैं हमेशा इसी कोशिश में लगी रहूंगी.’’

‘‘तुम ने इस गार्ड का मन सुकून से भर दिया है और अब इस का मन बोलता है कि यह कल के दिन से फिर नई जगह पर नए सिरे से तकनीशियन होगा. अपने हुनर और मेहनत के बलबूते, आत्म- विश्वास और आत्मसम्मान से भरापूरा.’’

‘‘तथास्तु’’, सुधा ने वरद मुद्रा बनाई और अजीत मुसकराता हुआ इंटरव्यू के लिए तैयार होने लगा.

अंधेरी आंखों के उजाले: मदन बाबू ने कैसे की मदद

खंभे की पच्चीकारी को जहां तक हाथ पहुंचता, छू कर देखते, एकदूसरे को बताते, फिर कहीं बातों मैं दूर बैठा उन्हें देख रहा था. जान गया कि वे दोनों अंधे हैं. एक तीव्र इच्छा यह जानने को जागी कि नेत्रहीन होते हुए भी इस दर्शनीय स्थल पर वे क्यों आए थे. सोच में डूबा मैं उन्हें देख रहा था.

घड़ी भर भी न बीता होगा कि बच्चों की चहक पर ध्यान चला गया. तीनों बच्चे उन दोनों के पास दौड़ कर आए थे. इसलिए थोड़ा हांफ रहे थे.

‘‘मां, चल कर देखो न, वहां पूरे मंदिर का छोटा सा एक मौडल रखा है. बिलकुल मेरी गुडि़या के घर जैसा है.’’

‘‘हांहां, बहुत अच्छा है,’’ मां ने हामी भरी.

‘‘अच्छा है? पर आप ने देखा कहां? चल कर देखो न,’’ बच्चे मचल रहे थे.

वे दोनों अपने तीनों बच्चों को समेटे मंदिर के छोटे पर अत्यंत सुघड़ मौडल को देखने चल दिए.

पास बैठ कर दोनों ने मौडल को हर कोने से छू कर देखा. मैं ने देखा, उन दोनों के हाथों में उलझी थीं उन के बच्चों की उंगलियां.

देखने के इस क्रम में आंखों की जरूरत कहां थी. मन था, मन का विश्वास था, एकदूसरे को समझनेसमझाने की चाहत थी, उल्लास था, उत्साह था. कौन कहता है कि आंखें भी चाहिए. बिना आंखों के भी दुनिया का कितना सौंदर्य देखा जा सकता है. आंखों वाले मांबाप क्या अपने बच्चों को सामीप्य का इतना सुख दे पाते होंगे? इस तरह के विचार मेरे मन में आए जा रहे थे.

हंसतेबतियाते वे पांचों फिर मंदिर में इधरउधर टहलते रहे. 3 जोड़ी आंखों से पांचों निहारते रहे, फिर वहीं बैठ

कर उन्होंने अपने नन्हेमुन्नों को गोद में समेट लिया.

उन की अंधेरी आंखों में कितने उजाले थे. मेरा मन उन से मिलने को कर रहा था. मुझ से रहा नहीं गया तो उठ कर उन के पास चला आया.

‘‘जी, नमस्ते,’’ और इस संबोधन को सुन कर अपने में डूबे वे दोनों चौंक गए.

‘‘पापा, कोई अंकल हैं, आप को नमस्ते कर रहे हैं,’’ एक बच्चे ने कहा.

‘‘हांहां समझा, कोई काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बस यों ही आप से बात करने का मन कर आया.’’

‘‘हम से क्यों? हम…मतलब कोई खास बात है क्या?’’

‘‘खास बात तो नहीं है, बस, थोड़ी देर आप से बात करना चाहता हूं.’’

एक तरफ को सरक कर उन्होंने मेरे लिए जगह बना दी.

‘‘रणकपुर देखने आए हैं?’’ अच्छी जगह है…मतलब बहुत सुंदर है… आप ने तो देखा?’’

अटपटा सा वार्त्तालाप. समझ नहीं पा रहा था कि सूत्र किधर से पकड़ूं. उन के बारे में जानने की उत्सुकता अधिक थी पर शब्द नदारद थे.

‘‘हम दोनों जन्मजात अंधे हैं.’’

क्या प्रश्न था और क्या उत्तर आया. एकदम अचकचा गया. यही तो पूछना चाहता था. कैसे एकदम ठीक जान लिया इन लोगों ने.

‘‘पर यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि हमारे तीनों बच्चे स्वस्थ व संपूर्ण हैं. छोटे हैं पर सबकुछ समझते हैं. इन्हें शिकायत नहीं कि हम देख नहीं सकते. हमें दिखा देने की भरपूर कोशिश करते हैं. इसलिए कहा कि संपूर्ण हैं.’’

‘‘आप की समझ बहुत अच्छी है वरना संपूर्ण का मतलब तो अच्छेअच्छे भी नहीं जानते.’’

‘‘ठीक कहा आप ने. पढ़ालिखा हूं, फैक्टरी में वरिष्ठ लिपिक हूं पर सच कहूं तो संपूर्ण होने का दावा करने वाली यह दुनिया… सच में बड़ी खोखली है. उस का बस चले तो मेरा यह आधार भी छीन ले.’’

कितना तल्ख स्वर हो आया उन का. चोट खाना और निरंतर खाते रहना हर किसी के बस का नहीं होता.

इतना स्नेहिल व्यक्तित्व अपनी दुनिया का सबकुछ था पर बाहर की दुनिया उसे कुछ न होने का एहसास हर पल कराती.

पत्नी का हाथ पति के कंधे तक आ गया. बच्चे उन के और करीब सिमट गए. एक अनकही सांत्वना के घेरे में वह सुरक्षित हो गए. मैं बाहर था, बाहर ही रह गया. बातचीत का सिल- सिला टूट गया. मैं फिर भी न जाने किस आशा में बैठा रहा. वे भी अपने में सिमटे गुम थे.

‘‘आप…’’ मैं ने पूछना चाहा.

‘‘महाशय, आज नहीं, फिर कभी… आज का दिन इन बच्चों का है.’’

प्रश्न अनुत्तरित रह गया. वे उठ गए. मंदिर में प्रसाद का प्रबंध हो रहा था. प्रसाद में पूरा खाना. पंगत में बैठे, खाना खाते वे परिवारजन अपने भीतर एक खुशी समाए हुए थे. सच में वे संपूर्ण थे. दुनिया उन्हें कुछ दे पाती उस की क्या बिसात थी. वे ही दुनिया को देने के काबिल थे. एक आदर्श पतिपत्नी, एक आदर्श मातापिता.

फिर भी मैं सोच रहा था कि यह तो उन का आज था. यहां तक आतेआते जीवन के कितने पड़ावों पर समय ने उन्हें कितना तोड़ा होगा? ये बच्चे ही जब छोटे होंगे तो क्याक्या कठिनाइयां न आई होंगी उन के सामने. निश्चय ही कितने दुख, दुविधाएं और असहजताएं पहाड़ बन कर टूट पड़ी होंगी.

मैं मंदिर से बाहर आ गया. घर आ कर भी कितने ही दिन तक उन को ले कर मन में विचार खुदबुदाते रहे थे.

फिर धीरेधीरे दिन बीतने लगे. वे कभीकभार याद आते थे, पर वक्त ने धीरेधीरे सबकुछ धूमिल कर दिया और मैं अपनी दुनिया में खो गया.

उन दिनों आफिस के काम से मुझे गुजरात के सांबल गांव जाना पड़ा. सांबल गांव क्या था, अच्छा शहरनुमा कसबा था. दिन तो कार्यालय में अपना काम पूरा करतेकरते बीत गया. शाम हो गई पर काम पूरा न हो पाया. लगता था कि कम से कम 2-3 दिन तो खा ही जाएगा यह काम. रुकने का मन बना लिया. स्टाफ में मदन भाई को थोड़ाबहुत जानता था क्योंकि वह भी इसी तरह टूर में 1-2 बार हमारे कार्यालय आए थे. बाकी 1-2 से काम के साथ ही जान- पहचान हुई.

मदन बाबू का घर पास ही था सो उन के आग्रह पर चाय उन के घर ही पीनी थी. दिन भर की थकान के बाद अदरक की चाय ने बदन में जान डाल दी. चुस्ती महसूस करता मैं ड्राइंगरूम का निरीक्षण करता रहा. मदन बाबू भीतर थे. 15-20 मिनट बाद की वापसी के बाद ही वे एकदम तरोताजा बदलेबदले लगे. तय हुआ कि वे मुझे डाक बंगले छोड़ देंगे.

मैं वहां जल्दी पहुंचना चाहता था. थकान व चिपचिपाहट से नहाने का मन कर रहा था.

डाक बंगले में पहुंच कर मदन बाबू ने विदा लेनी चाही. मैं ने भी यों ही पूछ लिया, ‘‘अब सवारी किधर को निकलेगी?’’

मदन बाबू हंस दिए, ‘‘जरा ब्लाइंड स्कूल तक जाऊंगा.’’

‘‘ब्लाइंड स्कूल? वहां क्यों?’’ मन में रणकपुर वाली घटना अनायास कौंध गई.

‘‘महीने में एक बार जाता हूं. इसी बहाने थोड़ा मन बहल जाता है कि कुछ तो किया.’’

उत्सुकता से सिर उठा लिया था, ‘‘यार, मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ.’’

‘‘क्या करोगे, राव? यहीं आराम कर लो. दिन भर में थके नहीं क्या? मुझे तो वहां समय लग जाता है. तुम बेकार बोर होगे.’’

‘‘नहीं…नहीं. बस, 10 मिनट,’’ मैं हड़बड़ा कर बोला, ‘‘किसी खास मकसद से जा रहे हो?’’

‘‘मकसद तो कोई नहीं…मातापिता की याद में जाना शुरू किया था. उन के नाम से खानाकपड़ा बांट आता था. फिर मुझे लगा कि उन्हें इन चीजों से भी अधिक प्यार की जरूरत है.’’

‘‘ओह, अब तो मैं जरूर ही चलूंगा, मिनटों में हाजिर हुआ.’’

मेरे दिल में रणकपुर में मिले उन लोगों ने दस्तक दी. वे न सही, वैसे ही कुछ और लोग मिलेंगे.

मैं मदन बाबू के साथ निकल पड़ा. रास्ते मेरे पहचाने न थे. कई सड़कें, मोड़, चौराहे पार कर के हम एक इमारत के सामने रुक गए. अंध स्कूल एवं बोर्डिंग आ गया था.

भीतर प्रवेश करने पर सीधे हाथ को कुछ आफिस जैसे कमरे थे. बाएं हाथ को सामने काफी बड़ा मैदान था. कुछ बच्चे वहां खेल रहे थे. कुछ पौधों में पानी दे रहे थे. कुछ आजा रहे थे. एक जगह कुछ खेल भी चल रहा था.

मदन बाबू ने किसी को आवाज दी तो सारे बच्चे मुड़ कर उन की तरफ आ गए और उन को चारों ओर से घेर लिया. किसी ने हाथ पकड़ा, किसी ने उंगली तो किसी ने बुशर्र्ट का कोना ही पकड़ लिया. एकलौते बटन की कमीज पहने एक छोटा लड़का पैरों से चिपट गया. देख कर लगा सब के सब उन के बहुत नजदीक होना चाहते थे. उन्होंने भी किसी  का गाल थप- थपाया तो किसी की पीठ पर हाथ फेर कर प्यार किया. कुछ बच्चे उन से पटाखे लाने के लिए भी कह रहे थे.

मदन बाबू ने बच्चों से उन का सामान लाने का वादा किया और हम भीतर के हिस्से में चल पड़े. अगलबगल के कमरों से गुजरते हुए मैं ने बच्चों को कुरसियां बुनते, बढ़ईगीरी का काम करते, बेंत के खिलौने बनाते देखा था. एक छोटी सी लाइब्रेरी भी देखी, जहां बच्चे ब्रेल लिपि का साहित्य पढ़ रहे थे. 5-6 बिस्तरों वाला छोटा सा अस्पताल भी देखा.

यों ही घूमते हुए हम थोड़ी खुली जगह में आ गए.

‘‘चलिए, राव साहब, अब आप को एक हीरे से मिलवाते हैं,’’ मदन बाबू मुझ से बोले.

अब हम कुछ गलियारे पार कर एक बडे़ से कमरे तक आ गए. रोशनी में डूबे इस कमरे की धड़कन कुछ अलग सी लगी, तनिक खामोश सी.

‘‘विनोद बाबू, देखिए तो कौन आया है?’’

‘‘अरे, मदनजी… किसे लाए हैं?’’ चेहरा हमारी तरफ घूम गया. मेरा दिल तेजी से धड़क उठा. आंखें पहचानने में भूल नहीं कर सकती थीं. यह वही सज्जन थे, वही रणकपुर वाले. आंखें एक बार फिर खुशी से नाच उठीं.

‘‘अपने राव साहब हैं,’’ मदन बाबू बोले, ‘‘राजस्थान से टूर पर आए हैं. आप तक ले आया इन्हें.’’

‘‘अच्छा किया,’’ और मेरी तरफ हाथ बढ़ा कर विनोद बाबू बोले, ‘‘आइए, प्रशांतजी…’’

मैं ने बढ़ कर उन का हाथ थाम लिया. दूसरे हाथ का सहारा लगाते हुए उन्होंने हाथ मिलाया.

‘‘पहली बार आए हैं गुजरात…’’ विनोद बाबू बोले.

‘‘जी…’’ बहुत इच्छा हो रही थी कि रणकपुर की याद दिलाऊं, पर इस वक्त अनजान बने रहना ठीक लगा. मैं उन्हें सचमुच जानना चाहता था. उन के हर अनछुए पहलू को, उन के व्यक्तित्व को, जीवन को, उन के संपूर्ण बच्चों को…और मेरे होंठों पर यह सोच कर हंसी तिर आई. आखिर वे मिल ही गए.

मदन बाबू उन से बातें करने लगे. बातें सामान्य थीं, अधिकतर संस्था से संबंधित.

मदन बाबू ने बताया कि वह कितना यत्न कर के इस संस्था को संभाल रहे थे और यह भी बताया कि वह अपने काम के प्रति कितने निष्ठावान, सच्चरित्र, महत्त्वाकांक्षी और मेहनती हैं.

तो मैं ने उन्हें ठीक ही भांपा था. शायद यही सब था जो मैं जानना चाहता था. उन के चेहरे पर सलज्ज आभा थी. अपनी इतनी तारीफ सुनने में उन के चेहरे पर किस कदर सकुचाहट थी. आंखें होतीं तो वे भी सपनों को पूरा होते देख भूरिभूरि सी चमक उठतीं.

अपनी शारीरिक क्षमता की सीमा के बावजूद उन के हौसलों के परिंदे कितनी ऊंची उड़ान भरना चाहते थे, वह भी सरकारी महकमे में, जहां आंख वाले तक अंधे हो जाते हैं. काम से दूर भागते, काहिल से, पीक थूकते, चाय गटकते, टिन के जंग लगे पुतलों की तरह बेवजह बजते. विनोद बाबू इन सब का अपवाद बने सामने खड़े थे.

‘‘प्रशांतजी, कैसी लगी आप को हमारी संस्था?’’

‘‘काफी व्यवस्थित सी.’’

‘‘आप तो बहुत ही कम बोलते हैं पर आप ने सही शब्द कहा है. इस व्यवस्था को बनाने में कई साल लग गए हैं. सरकारी छल तो आप जानते ही हैं. पैसों की तंगी झेलनी ही पड़ती है.’’

‘‘जानता हूं, फिर भी आप ने…’’

‘‘मैं ने नहीं, सब ने, यहां बड़ा स्टाफ है. हाथपैरों से सब करते हैं पर सुविधाएं जुटाना… पूरा दम लग जाता है.’’

‘‘कुछ ठीक से बताएंगे… आज तो मैं तल्लीन श्रोता ही हो जाता हूं.’’

खनकती हंसी हंस दिए विनोद बाबू. मदन बाबू भी बहुत उत्कंठित लगे.

‘‘प्रशांतजी, जब आया था तो सचमुच निराश था. मेरी योग्यता को ओछा बना दिया गया था. कैसे भी, कहीं भी, कोई भी काबिल, नाकाबिल सब आगे बढ़ते जाते थे. मेरी सारी शिक्षा, मेरी सारी मेहनत, मेरी इन आंखों से माप दी जाती थी. मैं ने मन मसोस कर, अंतहीन दुख पा कर बहुत समय बिताया, जगहजगह काम किया पर सब बेकार ही रहा. सब के पास आंखें थीं पर कान न थे, दिमाग न था, दिल न था. मुझे अनसुना, अनबूझा, अनजाना रहना था सो रह गया. उस कठिन घड़ी में मेरे बच्चे और मेरी पत्नी ही मेरा अंतिम सहारा थे.’’

मदन बाबू और मैं चुप थे. सन्नाटे ख्ंिचे उस प्रकाश में उन का दुख शायद अरसे बाद बाहर रिस आया था.

‘‘7-8 साल की मायूसी में डूबताउतराता मैं अंधेरे में डूब ही जाता कि रोशनी की सूरत में यह संस्थान मिल गया. प्रशांतजी, रोशनी की दुनिया का ठुकराया मेरा अस्तित्व जैसे अपनों के बीच आ मिला. जो कुछ मैं ने झेला वह ये बच्चे न झेलें, यही सोचता हूं हर दम. हौसला बांधे हुए तभी से जुटा हूं. मदनजी से बड़ी मदद है.’’

‘‘मैं नहीं विनोद बाबू, यह तो आप की यात्रा है.’’

‘‘मदन बाबू, तिनके का सहारा भी डूबते के लिए बहुत होता है. आप ने तो सब देखा ही है. कितनी बदइंतजामी थी. न खाना, न पीना, न पहनना, न जानना, न समझना. सब बेढंगा… बड़ी पीड़ा हुई थी. यहां इतना बिखराव था कि समझ में नहीं आता था कि कहां से समेटूं. बच्चों को छोड़ कर मातापिता भी जैसे भूल चुके थे.’’

‘‘क्या मतलब? इन के मातापिता हैं क्या?’’

‘‘हां, हैं न, 10-15 बच्चे अनाथ हैं यहां, पर बाकी को मांबाप की लापरवाही ने अनाथ बना दिया है. मैं ने सब से पहले यही किया. सभी बच्चों का ब्योरा बनाया. मैं भी समझ रहा था कि ये अनाथ हैं, पर राव साहब, यह अंध स्कूल है, अंध अनाथाश्रम नहीं. बच्चे दिन भर यहीं रहते हैं. खानापीना, पढ़नालिखना, रोजमर्रा के कामों की ट्रेनिंग और जो कोई कारीगरी सीख पाए तो वह भी. शाम को इन्हें घर जाना चाहिए, पर इस में नियमितता नहीं है. रात गए तक मांबाप की प्रतीक्षा करता बच्चा…क्या कहूं…कलेजा मुंह को आता है.

‘‘मांबाप को टोको तो सौ बहाने बना देते हैं. उन के लिए दुनिया के सारे काम जरूरी हैं और उन का सहारा खोजता उन का अपना बच्चा कुछ भी नहीं.

‘‘प्यार के भूखे ये बच्चे. सच इन्हें थोड़ी सी देखभाल, पर ढेर सारा प्यार चाहिए और कुछ नहीं चाहिए. ये अपनी दुनिया में संपूर्ण हैं.’’

सच में वे संपूर्ण थे. न केवल अपने परिवार के लिए वरन सामाजिक सरोकार में भी. शतरंज और लूडो खेलते, कुरसी बुनते, टाइपिंग करते, कंप्यूटर पर काम करते, एकदूसरे का कंधा थामे गणतंत्र दिवस पर परेड करते, बागबानी करते इन बालकों के जीवन में कला के कितने ही रंग, स्वर और गंध समा गई थी.

छंटनी- भाग 2: क्या थी रीता की असलियत

सत्र पूरा होते ही सुधा ने सौरभ, गौरव को पास के एक सस्ते स्कूल में डाल दिया. बच्चों के लिए यह एक बड़ा झटका था पर वे समझदार थे और अपने मातापिता के कष्ट को देखतेसमझते पैदल स्कूल आतेजाते और नए वातावरण में सामंजस्य बनाने की भरपूर कोशिश करते.

नौकरी छूटने के 6 महीने के बाद जो रकम फैक्टरी की ओर से अजीत को मिली वह नीता की शादी का कर्ज चुकाने में चली गई. नीता के पास अच्छा घरवर था. सरकारी नौकरी थी पर उस ने 100 रुपए खर्च करने के बाद 6 महीने में पीछे पलट कर भी नहीं देखा.

रीता सर्दियों में 2 दिन के लिए आई थी. सुधा को फटापुराना कार्डिगन पहना देख कर अपना एक कार्डिगन उस के लिए छोड़ गई थी और सौरभगौरव के लिए कुछ स्केच पेन और पेंसिलरबड़ खरीद कर दे गई थी.

रीता के पति पहले अकसर अपने व्यापार के सिलसिले में आते और कईकई दिनों तक अजीत, सुधा के घर में बेहिचक बिना एक पैसा खर्च किए डटे रहते थे. वह भी इन 6 महीनों में घर के दरवाजे पर पूछने नहीं आए. सुधा मन ही मन सोचती रहती, क्या रीता के पति इस बीच एक बार भी यहां नहीं आए होंगे? आए होंगे जरूर और 1-2 दिन होटल में रुक कर अपना काम जल्दीजल्दी पूरा कर के लौट गए होंगे. यहां आने पर हमारे कुछ मांग बैठने का खतरा जो था.

अजीत से छिपा कर सुधा ने हर उस रिश्तेदार को पत्र डाला जो किसी प्रभावशाली पद पर था या जिन के पास मदद करने लायक संपन्नता थी. ससुर अकसर बड़प्पन दिखाने के सिलसिले में जिन पर खूब पैसा लुटाया करते थे वे संबंधी न कभी पूछने आए और न ही उन्होंने पत्र का उत्तर देने का कष्ट उठाया.

सुधा को अपनी ठस्केदार चाची सास याद आईं जो नीता की शादी के बाद 2 महीने रुक कर गई थीं. सुधा से खूब सेवा ली, खूब पैर दबवाए उन्होंने और सौरभ, गौरव का परीक्षाफल देख कर बोली थीं, ‘‘मेरे होनहारो, बहुत बड़े आदमी बनोगे एक दिन पर इस दादी को भूल न जाना.’’

सुधा ने उन्हें भी पत्र लिखा था कि चाचीजी, अपने बड़े बेटे से कह कर सौरभ के पापा को अपनी आयुर्वेदिक दवाओं की फैक्टरी में ही फिलहाल कुछ काम दे दें. कुछ तो काम करेंगे, कुछ तो डूबने से हम बचेंगे. पर पत्र का उत्तर नहीं आया.

अजीत की बूआ तीसरेचौथे साल भतीजे के घर आतीं और कम से कम महीना भर रह कर जाती थीं. जाते समय अच्छीखासी विदाई की आशा भी रखतीं और फिर आदेश दे जातीं, ‘‘अब की जाड़ों में मेरे लिए अंगूर गुच्छा बुनाई के स्वेटर बुन कर भेज देना. इस बार सुधा, आंवले का अचार जरा बढ़ा कर डालना  और एक डब्बा मेरे लिए भिजवा देना.’’

इन बूआजी को सुधा ने पत्र भेजा कि अपने कंपनी सेक्रेटरी दामाद और आफीसर बेटे से हमारे लिए कुछ सिफारिश कर दें. इस समय हमें हर तरह से मदद की जरूरत है. बूआ का पोस्ट कार्ड आया था. अपनी कुशलता के अलावा बेटे और दामाद की व्यस्तता की बात थी पर न किसी का पता दिया था न फोन नंबर और न उन तक संदेश पहुंचाने का आश्वासन.

6 महीने में सब की परीक्षा हो गई. कितने खोखले निकले सारे रिश्ते. कितने स्वार्थी, कितने संवेदनहीन. सुधा सूरज निकलने तक घर के काम निबटा कर सिलाई मशीन की खड़खड़ में डूब जाती. जब घर पर वह अकेली होती तभी पत्र लिखती और चुपके से डाल आती.

कई महीने के बाद अजीत ने काम करना शुरू किया. मनोस्थिति और आर्थिक स्थिति के दबाव में उसे जो पहला विकल्प मिला उस ने स्वीकार कर लिया. घर आ कर जब उस ने सुधा को बताया कि वह रायल इंटर कालिज का गार्ड बन गया है तो सुधा को बड़ा धक्का लगा. चेहरे पर उस ने शिकन न आने दी लेकिन मन में इतनी बेचैनी थी कि वह रात भर सिलाई मशीन पर काम करती रही और सुबह निढाल हो कर सो गई.

नींद किसी अपरिचित स्वर को सुन कर खुली. कोठरी से निकल कर कमरे में आई तो कुरसी पर एक लड़के को बैठा देखा. तखत पर बैठे अजीत के चेहरे पर चिंता की रेखाएं गहराई हुई थीं.

‘‘सुधा, यह विशाल है. छोटी बूआ की ननद की देवरानी का बेटा. बी.ए. की प्राइवेट परीक्षा देगा यहीं से.’’

सुधा चौंकी, ‘‘यहीं से मतलब?’’

‘‘मतलब आप के घर से,’’ वह लड़का यानी विशाल बिना हिचकिचाहट के बोला.

सुधा पर रात की थकान हावी थी. उस पर सारे रिश्तेदारों द्वारा दिल खट्टा किया जाना वह भूली नहीं थी. उस का पति 2 हजार रुपए के लिए गार्ड बना सारे दिन खड़ा रहे और रिश्तेदारों के रिश्तेदार तक हमारे घर को मुफ्तखोरी का अड्डा बना लें. पहली बार उस ने महसूस किया कि खून खौलना किसे कहते हैं.

‘‘तुम्हारी परीक्षा में तो लंबा समय लगेगा, क्यों?’’ सुधा ने तीखी दृष्टि से विशाल की ओर देखा.

‘‘हां, 1 महीना रहूंगा.’’

‘‘तुम्हें हमारा पता किस ने दिया?’’

‘‘आप की बूआ सासजी ने,’’ लड़का रौब से बोला, ‘‘उन्होंने कहा कि मेरे मायके में आराम से रहना, पढ़ना, परीक्षा देना, तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.’’

‘‘उन्होंने हम से तो कुछ नहीं पूछा था. भला महीने भर कोई मेरे घर में रहेगा तो मुझे परेशानी कैसे न होगी? डेढ़ कमरे में हम 4 लोग रहते हैं और बूआजी ने तो तुम से यह भी नहीं कहा होगा कि मेरा भतीजा और उस का परिवार भूखों मरने की हालत में हैं. वह क्यों कहेंगी? उन के लिए भतीजे का घर एक आराम फरमाने की जगह है, बस.’’

लड़का अवाक् सा सुधा को देख रहा था. अजीत भी विस्मित था. उस ने सुधा का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था. वह सोच ही रहा था कि सुधा उठ कर अंदर चली गई. थोड़ी देर में सुधा चाय ले कर आई और विशाल के चाय खत्म करते ही बोली, ‘‘सुनो विशाल, हम खुद बहुत परेशानी में हैं. हम तुम्हें अपने साथ 1 महीने तो क्या 1 दिन भी नहीं रख सकते.’’

अजीत उठ कर अंदर चला गया. विशाल उलझन में भरा हुआ सुधा को देख रहा था. सुधा उसे इस तरह अपनी तरफ देखते थोड़ी पिघल उठी, ‘‘बेटा, तुम पढ़नेलिखने वाले बच्चे हो. अभी हमारी परेशानियों और कष्टों को क्या समझोगे, पर मैं हाथ जोड़ती हूं, तुम अपने रहनेखाने की व्यवस्था कहीं और कर लो.’’

हम तो हैं ही इसी लायक: साहब को किसने ठगा था

उन्होंने पूरी गंभीरता से टीवी पर ओपनली कहा कि उन की पुत्रबटी बेटावेटा कुछ नहीं देती, उस का तो कोरा शास्त्रीय नाम पुत्रजीवक है. अब समझने वाले जो समझ कर उन की दवाई खाते रहें. उसे खा देश के तमाम बेटे की चाह रखने वाले इस भ्रम में न रहें कि यह दवाईर् खाने वालों के बेटा होगा. चांस नो प्रतिशत.

मित्रो, यह सुन कर मेरे तो पैरोंतले से जमीन खिसक गई है. इतने ज्ञानी होने के बाद भी वे हम जैसों के साथ कैसे छल कर सकते हैं? सिर के ऊपर छत तो पहले ही नहीं थी, जो बचाखुचा आसमान था, अब तो वह भी सरक गया है. सिर और पैर दोनों ही जगह से आधारहीन हो कर रह गया हूं. इन्होंने तो विपक्ष वालों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए हड़बड़ाहट में सच कह दिया पर मेरे तो हाथपांव ही नहीं, मैं तो पूरा ही फूल गया हूं. यह तो कोई बात नहीं होती कि साहब, बस कह दिया, सो कह दिया. पर पैसे डूबे किस के? मेरे जैसों के ही न. और आप तो जानते हैं कि हर वर्ग के बंदे के लिए पैसे से अधिक कुछ प्यारा नहीं होता. फिर मैं तो ठहरा मिडल क्लास का बंदा. चाय के 5 रुपए भी 10 बार गिन कर देता हूं. चमड़ी चली जाए, पर दमड़ी न जाए.

कम से कम एक जिम्मेदार सिटिजन होने के नाते जनाब से यह उम्मीद कतई न थी कि आप मेरे जैसे लाखों आंखों के अंधों को बेटे का सपना दिखा हम से दवाई की डाउन पेमैंट ले राह चलते को बेटे का हाथ अंधेरे में थमाएंगे. बेटे का बाप बनाने के लालच दे हमें हरकुछ खिलाएंगे. वह भी डब्बे पर छपी पूरी कीमत पहले ले कर.

जनाब, बेटे के लिए हरकुछ ही खाना होता तो अपने महल्ले के खानदानी दवाखाने वाले से ही शर्तिया बेटा होने की दवाई क्यों न ले लेता, जो बेटा होने के बाद ही दवाई की पूरी पेमैंट लेता है, वह भी आसान किस्तों में, जितने की किस्त ग्राहक को बिठानी हो, अपनी सुविधा से बिठा ले. चाहे तो पैसे बेटा दे जब वह कमाने लग जाए. वह भी बिना किसी ब्याज के.

बेटे के नाम पर दवाई की डोज कम या अधिक लेने पर बेटी हो तो कोई पेमैंट नहीं. सारी की सारी खुराकों की पेमैंट माफ. सरकार भी ऐसा नहीं कर सकती. वह तो थोड़ीबहुत टोकन मनी लेता है, उसे भी 2 रुपया सैकड़ा की दर से बेटी होने पर ब्याज सहित सादर वापस कर देता है. पर आप के बंदों ने तो मुझ जैसों को जो भ्रम की दवाई खिलाई उस ने दिमाग का चैन भी छीना और जेब का भी. पर उस ने महल्ले के जिनजिन बापों को बेटा होने की दवाई दी, उन के, जिस की भी दया से हुए हों, बेटे ही हुए.

साहब, आप का तो जो कुछ भी होगा, भला ही होगा, पर अब मेरा क्या होगा, बाबा. मैं तो इस आस में आप की दवाई की डोज बिना नागा पूरी ईमानदारी से ले रहा था कि इधर मेरे बेटा हुआ और उधर अच्छे दिनों का द्वार खुला. पर आप ने तो मेरे लिए बुरे दिनों का द्वार भी बंद कर दिया. मैं तो पूरी आस्था से आप के डाक्टरों द्वारा बताए जाने पर एक साल से रोटी के बदले भी ये दवाई प्रसाद समझ खा रहा था.

आप भी कमाल के बंदे हो जनाब. माना आप हमारे ग्रुप के नहीं, पर फिर भी हम केवल बेटे की चाह रखने वाले मानसिक रोगियों से आप मजाक कैसे कर सकते हैं? हम बेटे की चाह रखने वाले तो समाज में हरेक के मजाक का शिकार होते रहते हैं. अपने घर में ही हमें हमारी बीवियां मजाक की दृष्टि से देखती हैं. पर एक हम ही आप जैसे के भरोसे चलने वाले हैं, जो नहीं मानते, तो नहीं मानते. आज की डेट में माना बंदा पैसे दे कर सबकुछ खरीदता है पर कम से कम मजाक तो नहीं खरीदता. मजाक तो बिन पैसे लिए सरकार हम बंदों के साथ काफी कर लेती है.

साहब, हम तो वे बंदे हैं जो दिन में बीसियों बार हर रोज किसी न किसी के हाथों ठगे जाते हैं. अब तो उस दिन हमें नींद नहीं आती जिस रोज हम ठगे न गए हों. ऐसे में, एक ठगी और सही. आखिर, हम तो हैं ही इसी लायक.

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