वापसी की राह: भाग 1- बल्लू की मदद लेना क्या सही फैसला था

लेखक- विनय कुमार सिंह

रोरो कर जरीना का बुरा हाल था. बेटी कल से वापस नहीं लौटी थी. शाम जैसेजैसे रात की तरफ बढ़ रही थी, उस का दिल बैठा जा रहा था. रोज की ही तरह वह घर से कालेज के लिए निकली थी. घर से कालेज वैसे तो ज्यादा दूर नहीं था लेकिन औटो और बस दोनों लेने पड़ते थे उसे वहां पहुंचने के लिए. उस ने बेटी को गेट तक छोड़ा था और जब वह औटो में बैठ गई थी तो जरीना वापस आ गई थी.

तकरीबन रोजाना ही अखबार में अपहरण और ह्यूमन ट्रैफिकिंग की खबरें छपती रहती थीं. पढ़ कर जरीना कई बार बहुत दुखी भी हो जाती थी और अकसर उसे गुस्सा भी आ जाता था. कोसने लगती थी सब को, कानून व्यवस्था, समय, लड़कों और सब से ज्यादा अपनेआप को. वजह थी, उस का लड़की की मां होना और ऐसी लड़की की जिस का पिता नहीं है.

यह इंसानी फितरत ही है जिस में कमजोर व्यक्ति अकसर अपनेआप को सब से पहले कारण मान लेता है किसी घटना के लिए, चाहे वह उस के लिए जिम्मेदार हो या न हो. यह स्वभावगत कमजोरी होती है, खासतौर से महिलाओं की, क्योंकि उन के पास ज्यादा विकल्प नहीं होते. और यही वजह थी कि जरीना भी अपनेआप को इस का जिम्मेदार मानने लगी थी.

रात आंखों में ही बीती और हर खटके पर उसे लगता जैसे बेटी आ गई हो. लेकिन सुबह की रोशनी ने जब उस के कमरे में प्रवेश किया. वह कुरसी पर ही औंधी पड़ी हुई थी. अब तक पड़ोसियों को भी खबर हो चुकी थी और हर कोईर् अपने हिसाब से कयास लगा रहा था. सब की अपनीअपनी राय और अलगअलग सलाह.

जरीना को कुछ समझ नहीं आ रहा था. आखिरकार, लोगों के कहने पर वह पुलिस स्टेशन गई. आज पहला अवसर था वहां जाने का और उस का अंतस बुरी तरह कांप रहा था. वैसे भी किसी भी सामान्य व्यक्ति को अगर पुलिस स्टेशन जाना पड़े तो उस की मनोदशा दयनीय हो जाती है. यही कुछ हुआ था जरीना के साथ भी. कहने को तो पड़ोसी इस्माइल साथ था, लेकिन जरीना से ज्यादा वह खुद भी घबराया हुआ था.

जैसे ही वह थाने के गेट पर पहुंची, बेहद अजीब निगाहों से उस को गेट पर खड़े संतरी ने घूरा. उसे देख कर वह उस की हालत समझ गया था.

‘‘क्या हुआ, क्यों चली आई यहां,’’ उस के सवाल के लहजे और उस की बंदूक पर उस के कसे हुए हाथ को देख कर जरीना थर्रा गई.

‘‘साहब, बेटी कल से कालेज से वापस नहीं लौटी है,’’ किसी तरह घबराते हुए उस ने कहा. ‘‘अपनी रिश्तेदारी में पूछा सब जगह?’’ उस ने बेहद रूखे तरीके से कहा.

‘‘हां साहब, सब जगह फोन कर लिया है, कहीं भी नहीं है.’’

‘‘अच्छा, क्या उम्र थी उस की,’’ अभी भी वह संतरी सवाल दागे जा रहा था. इस्माइल बिलकुल खामोशी से थोड़ी दूर पर खड़ा था. उसे अब समझ में आ गया था कि सब बात उस को ही करनी है.

‘‘साहब, 18 साल की है, मुझे रिपोर्ट लिखवानी है, किस से मिलूं,’’ बोलते हुए वह अंदर की तरफ चली.

‘‘18 साल की है, तो अपनी मरजी से कहीं भाग गई होगी. जाओ, अंदर साहब बैठे हैं.’’ संतरी की आंखों और चेहरे पर अजीब सा लिजलिजापन था और अंदर जाते समय उसे उस की निगाह अपना पीछा करती लग रही थी.

अंदर एक टेबल के सामने एक पुलिस वाला बैठा था. टोपी उस ने टेबल पर ही रखी थी और उस के शर्ट के सामने के बटन खुले हुए थे. अब हिम्मत जवाब दे गई जरीना की, यह आदमी उस की मदद क्या करेगा जो खुद ही किसी मवाली जैसा लग रहा हो. उस पुलिस वाले ने आंखों से उस के सारे बदन का एक्सरे किया औैर बेहद भद्दे अंदाज में दांत को एक सींक से खोदते हुए बोला, ‘‘क्या हुआ, किसलिए आई यहां पर?’’

जरीना ने फिर से वही सब दोहराया और इस ने भी वही सवाल पूछा. उस की ज्यादा दिलचस्पी जरीना को घूरने में थी. जब जरीना ने एक बार फिर हाथ जोड़ कर कहा कि उस की रपट लिख ले, तो उस ने टरका दिया.

‘‘उस की कोई फोटो लाई है, तो दे जा और उस के सब यारदोस्तों से पूछ. ऐसी उम्र में कोई प्यारवार का चक्कर ही होता है, भाग गई होगी किसी यार के साथ. कुछ दिन देख ले, अगर नहीं लौटी तो हम लोग पता लगाएंगे,’’ कहते हुए वह वापस अपने दांत खोदने लगा.

जरीना ने उसे बेटी की एक फोटो दी और एक कागज पर अपना नाम व फोन नंबर लिख कर दिया. फिर टूटे कदमों से बाहर निकली. आज तक उस की जो भी धारणा पुलिस के प्रति थी, वह पुख्ता हो गई थी. वहीं एक दीवार पर लिखा एक वाक्य, ‘‘पुलिस आप की मित्र है,’’ उसे अपना भद्दा मजाक उड़ाता लगा.

वापसी के समय इस्माइल बोल रहा था कि अपने एरिया के नेता के पास चलेंगे, वे जरूर मदद करेंगे. जरीना ने सुन के भी अनसुना कर दिया, पता नहीं कितने सवाल वहां भी पूछे जाएं और आंखों से उस के जिस्म का एक्सरे फिर से हो.

घर वापस आ कर उस ने एक बार फिर सब रिश्तेदारों के यहां फोन किया, जवाब हर जगह से नकारात्मक ही था. शाम तक वह लगभग हर परिचित और उस की सब सहेलियों के यहां हो आईर् थी, कहीं कुछ पता नहीं चल रहा था. अब करे तो क्या करे. पति था नहीं और इकलौती लड़की गायब थी.

अब तो एक ही उम्मीद लगी थी कि शायद कोई फोन आए फिरौती के लिए और वह सबकुछ बेच कर भी उसे छुड़ा ले.

3 दिन बीत गए, फिरौती के लिए कोई फोन नहीं आया, हां सब रिश्तेदार और परिचित जरूर फोन करते और कहते कि कोई जरूरत हो तो बताना. सब को पता था कि अभी उसे किस चीज की जरूरत है लेकिन उस के लिए कोईर् भी मदद नहीं कर पा रहा था. चौथे दिन फिर वह पुलिस स्टेशन गई. लेकिन टका सा जवाब मिला कि कुछ पता नहीं चला है, जब पता चलेगा, खबर कर देंगे.

खानापीना सब छूट गया था, पूरीपूरी रात जाग कर बीत रही थी उस की. जहां भी उम्मीद होती, भागती चली जाती कि शायद कुछ पता चले. जब भी बाहर निकलती, लोग सहानुभूतिपूर्वक ही पूछते कि कुछ पता चला, लेकिन उन के लहजे से लगता जैसे व्यंग्य ज्यादा कर रहे हों. और पीछे से कई बार वह सुन चुकी थी कि बेटी को ज्यादा पढ़ाने का नतीजा देख लिया, भाग गई किसी के साथ. कुछ लोगों ने कहा कि अखबार भी देखते रहो, कभीकभी कोई खोया इस में भी मिल जाता है.

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वापसी की राह: भाग 2- बल्लू की मदद लेना क्या सही फैसला था

लेखक- विनय कुमार सिंह

कुछ तो इतने बेरहम थे कि उन्होंने कह दिया कि कभीकभी लावारिस लाश की भी फोटो छपती है अखबार में. यह सुन कर उस का कलेजा कांप गया था. लेकिन मजबूरी में वह अखबार भी देख लेती थी, शायद कोई खबर मिल ही जाए. इन्हीं उलझनों में उलझी हुई थी कि अचानक उस की नजर अखबार की एक खबर पर गई. खबर बल्लू के बारे में थी. किसी कत्ल के केस में उस का नाम उछल रहा था अखबार में. उसे ध्यान आया कि बल्लू तो कभी उस के ही क्लास में साथ पढ़ता था.

शुरू से ही बल्लू की संगत खराब थी और वह पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाया. उस के कदम जरायम की दुनिया की ओर मुड़ गए थे और आज अखबार में उस की गुंडागर्दी की खबर पढ़ कर उसे कुछ अजीब नहीं लगा. उस ने क्लास में कभी बल्लू से ज्यादा बातचीत नहीं की थी, वैसे भी वह लड़कों से खुद को दूर ही रखती थी. लेकिन बल्लू की हरकतों के चलते सब उसे जानते थे और कभीकभी बात भी करनी पड़ जाती थी.

जरीना सोच में पड़ गई, क्या वह बल्लू से मिले, शायद वह कुछ मदद कर पाए. लेकिन उस ने अपने विचार को ही झटक दिया, कहीं कोई गुंडा भी किसी की मदद कर सकता है, वह तो सिर्फ लोगों को परेशान ही कर सकता है.

कुछ कहानियों में उस ने पढ़ा भी था कि कुछ ऐसे बदमाश भी होते हैं जो जरूरतमंदों की मदद करते हैं. रातभर उस के दिमाग में ये सब विचार अंधड़ मचाते रहे. क्या वह बल्लू के पास जाए? किसी से पूछने की न तो इच्छा थी उस की और उसे उम्मीद भी नहीं थी कि कोई इस में सही राय दे पाएगा. रात बीती, सुबह होने तक उस ने एक फैसला कर लिया था. पुलिस का हाल वह देख ही चुकी थी और नेताओं से कोई उम्मीद वैसे भी नहीं थी. तो अब बल्लू को आजमाने के अलावा और कोई चारा उसे नजर नहीं आ रहा था. 4 दिनों में ही रिश्तेदार और परिचित अब बहाने बनाने लगे थे. बेटी को पाने की कम होती उम्मीद ने उसे अब बल्लू के पास जाने के लिए मजबूर कर दिया.

ऐसे लोगों का पता लगाना पुलिस के अलावा हर किसी के लिए बहुत आसान होता है. जरीना हैरान भी थी कि कितनी आसानी से उसे बल्लू का अड्डा पता चल गया जबकि पुलिस उसे नहीं ढूंढ़ पा रही है. वह पता पूछते हुए उस के अड्डे पर पहुंची, अंधेरे घर में शराब की बदबू और सिगरेट के धुएं की गंध चारों ओर फैली हुई थी.

वहां के लोगों की चुभती निगाहों ने उसे पस्त कर दिया और उसे पुलिस स्टेशन की याद आ गई. लेकिन उस अनुभव ने उस की मदद की और वह उन नजरों को बरदाश्त करती बल्लू के पास पहुंची. उस ने तो बल्लू को पहचान लिया, अखबार में उस की तसवीर देखी थी उस ने, लेकिन बल्लू उसे पहचान नहीं पाया. उस की निगाहों में उभरे प्रश्न को समझते हुए उस ने पहले अपने स्कूल की बात बताई तो वह चौंक गया. अभी भी कुछ लिहाज बचा था बल्लू में, वह तुरंत उसे ले कर अंदर के कमरे में गया और जब तक बल्लू कुछ पूछे, जरीना फूटफूट कर रो पड़ी.

ऐसी स्थिति से बल्लू का पाला बहुत कम ही पड़ता था, इसलिए पहले तो उसे समझ में ही नहीं आया कि वह क्या करे, फिर उस ने किसी तरह जरीना को शांत कराया और आने का कारण पूछा. जरीना ने सारा किस्सा एक सांस में कह डाला और उस के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. बल्लू के चेहरे पर कई भाव आजा रहे थे. कुछ तय नहीं कर पा रहा था वह. समझ में तो उसे आ गया था कि किसी गिरोह ने ही अगवा किया है जरीना की बेटी को, लेकिन वह कुछ कह नहीं पा रहा था.

अब तो जरीना को लगा कि शायद यहां भी उस का आना व्यर्थ ही हुआ, लेकिन वह बल्लू को लगातार आशाभरी निगाहों से देखे जा रही थी. एक बार तो बल्लू की भी इच्छा हुई कि जरीना को टरका दे. लेकिन फिर जरीना के जुड़े हुए हाथों ने उसे कशमकश में डाल दिया. आखिर वह उस के साथ पढ़ी थी और बहुत उम्मीद के साथ आईर् थी. उस ने जरीना के जुड़े हुए हाथों को अपने हाथों में ले कर दृढ़ शब्दों में कहा, ‘‘जाओ जरीना, अपने घर जाओ. बस, बेटी की एक फोटो देती जाओ. मैं हर तरह से कोशिश करूंगा कि किसी भी हालत में उसे तुम्हारे पास वापस ले आऊं.’’

जरीना ने कृतज्ञता से उस की ओर देखा और फोटो के साथ नंबर उसे थमा कर बाहर निकली. घर लौटते हुए जरीना के कदमों में एक दृढ़ता आ गई थी. आज पहली बार वह सोच रही थी कि लोग जिन्हें बुरा कहते हैं, क्या सचमुच वे बुरे होते हैं या उन्हें बुरा कहने वाले समाज के ये तथाकथित शरीफ और सभ्य लोग? उस के दुख में काम आना तो दूर की बात, गलत बातें बनाना और उस से मुंह चुराने लगे थे लोग. क्या एक इंसान का फर्ज अदा करने वाला बल्लू बेहतर इंसान नहीं है भले ही वह गुंडागर्दी करता है. अब वह कुछ और सोच नहीं पा रही थी. बस, उसे तो बल्लू के रूप में एक ही आसरा दिखाई पड़ रहा था जो उस की बेटी को ढूंढ़ सकता था.

जरीना के जाने के बाद बल्लू सिर पकड़ कर बैठ गया. अब क्या करे. एक बार तो उस ने सोचा कि एकदो दिनों बाद वह फोन कर के बता देगा कि उसे कोई खबर नहीं मिली, लेकिन जैसे ही उसे जरीना के जुड़े हुए हाथ और उस की आंखें याद आईं, वह सोच में पड़ गया. एक तरफ तो बेमतलब का सिरदर्द लग रहा था, दूसरी तरफ उसे किसी की आस दिख रही थी. कहीं न कहीं उस के मन में भी यह बात तो थी ही कि वह भी कुछ अच्छा करे. आखिर दिल से तो वह एक इंसान ही था जिस में कुछ अच्छी चीजें भी थीं. उस ने फोटो और कागज उठा कर अलमारी में रख दिए और कुरसी पर पसर गया.

अब बल्लू का दिमाग काफी साल पहले के स्कूल के दिनों की ओर चला गया था. वह जरीना को स्कूल में याद करने की कोशिश करने लगा. बहुत धुंधला सा कुछ उसे याद आया और उस के चेहरे पर मुसकराहट छा गई. यही एक पल था जब उस ने जरीना की बेटी का पता लगाने का निश्चय कर लिया.

उस ने फोन उठाया और अपने लोगों से पता लगाना शुरू किया कि जरीना की बेटी को किस ने उठाया होगा. रात तक उसे खबर मिल गईर् कि जरीना की बेटी को जिस्फरोशी के धंधे में डालने के लिए अगवा किया गया है. लेकिन जिस्मफरोशों ने उसे इस जगह से कई सौ किलोमीटर दूर पहुंचा दिया था. अब उसे वहां से छुड़ा कर लाना बहुत टेढ़ी खीर थी.

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मीठी अब लौट आओ: भाग 1- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

चुनाव आयोग द्वारा मुझे मणिपुर में विधानसभा चुनाव कराने के लिए बतौर पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया था. मणिपुर में आतंकवादी गतिविधियां होने के कारण ज्यादातर अधिकारियों ने वहां पर चुनाव ड्यूटी करने से मना कर दिया था पर चूंकि मैं ने पहले कभी मणिपुर देखा नहीं था इसलिए इस स्थान को देखने की उत्सुकता के कारण चुनाव ड्यूटी करने के लिए हां कर दी थी.

चुनाव आयोग द्वारा मुझे बताया गया कि वहां पर सेना के साथ ही केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल भी तैनात है, जो ड्यूटी के समय हमेशा मेरे साथ रहेगा. यह जानने के बाद मेरे मन से डर बिलकुल ही निकल गया था और मैं चुनाव ड्यूटी करने के लिए मणिपुर चला आया था.

चुनाव के समय मेरी ड्यूटी चंदेल जिले के तेंगनौपाल इलाके में थी, जो इंफाल से लगभग 70 किलोमीटर दूर है. यहां आने के लिए सारा रास्ता पहाड़ी था और बेहद दुरूह भी था. इस इलाके में आतंकवादी गतिविधियां भी अधिक थीं, रास्ते में जगहजगह आतंकवादी लोगों को रोक लेते थे या अगवा कर लेते थे.

मैं केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की टुकड़ी के साथ पूरी सुरक्षा में नामांकन समाप्ति वाले दिन जिला मुख्यालय पहुंच गया था. जिला मुख्यालय पर जरूरी सुविधाओं का अभाव था. रास्ते टूटेफूटे थे, भवनों की मरम्मत नहीं हुई थी और बिजली बहुत कम आती थी. ऐसे में काम करना मुश्किल था पर डाक बंगले से अकेले बाहर जाना संभव ही नहीं था क्योंकि इलाके में आतंकवादी  गति- विधियां चरम पर थीं. ऐसे में 20 दिन वहां पर बिताना मुश्किल था और समय बीतता ही नहीं था.

दूसरे दिन मैं ने उस विधानसभा क्षेत्र के ए.डी.एम. से विस्तार के साथ इलाके के बारे में विचारविमर्श किया और पूरे विधानसभा क्षेत्र के सभी 36 पोलिंग स्टेशनों को देखने की इच्छा जाहिर की. ए.डी.एम. ने मुझे जरूरी नक्शों के साथ एक जनसंपर्क अधिकारी, जो उस क्षेत्र के नायब तहसीलदार थे, को मेरे साथ दौरे पर जाने के लिए अधिकृत कर दिया था. इस क्षेत्र में यह मेरा पहला दौरा था इसलिए अनजान होने के कारण बिना किसी सहयोगी के इस क्षेत्र का दौरा किया भी नहीं जा सकता था. एक सप्ताह में ही मुझे इस क्षेत्र के सभी मतदान केंद्रों को देखना था और मतदाताओं से उन की मतदान संबंधी समस्याएं पूछनी थीं.

अगले दिन मैं क्षेत्र के दौरे पर जाने के लिए तैयार बैठा था कि मुझे वहां के स्टाफ से सूचना मिली कि जो जनसंपर्क अधिकारी मेरे साथ जाने वाले थे वह अचानक अस्वस्थ होने के कारण आ नहीं पाएंगे और वर्तमान में उन के अलावा कोई दूसरा अधिकारी उपलब्ध नहीं है. ऐसी स्थिति में मुझे क्षेत्र का भ्रमण करना अत्यंत मुश्किल लग रहा था. मैं इस समस्या का हल सोच ही रहा था कि तभी चपरासी ने मुझे किसी आगंतुक का विजिटिंग कार्ड ला कर दिया.

कार्ड पर किसी महिला का नाम ‘शर्मिला’ लिखा था और उस के नीचे सामाजिक कार्यकर्ता लिखा हुआ था. चपरासी ने बताया कि यह महिला एक बेहद जरूरी काम से मुझ से मिलना चाहती है. मैं ने उस महिला को मिलने के लिए अंदर बुलाया और उसे देखा तो देखता ही रह गया. वह लगभग 35 वर्ष की एक बेहद खूबसूरत महिला थी और बेहद वाक्पटु भी थी. उस ने मुझ से कुछ औपचारिक परिचय संबंधी बातें कीं और बताया कि इस क्षेत्र में लोगों को, खासकर महिलाओं को जागरूक करने का कार्य करती है.

बातचीत का सिल- सिला आगे बढ़ाते हुए वह महिला बोली, ‘‘तो आप इलेक्शन कमीशन के प्रतिनिधि हैं और यहां पर निष्पक्ष चुनाव कराने आए हैं?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप ने यहां के कुछ इलाके तो देखे ही होंगे?’’

‘‘नहीं, आज तो जाने के लिए तैयार था पर मेरे जनसंपर्क अधिकारी अस्वस्थ होने के कारण आ नहीं पाए इसलिए समझ में नहीं आ रहा है कि इलाके का दौरा किस प्रकार किया जाए.’’

‘‘आप चाहें तो मैं आप को पूरा इलाका दिखा सकती हूं.’’

‘‘यह तो ठीक है पर क्या आप के पास इतना समय होगा?’’

‘‘हां, मेरे पास पूरा एक सप्ताह है. मैं आप को दिखाऊंगी.’’

शर्मिला का उत्तर सुन कर मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या बोलूं. अलग कमरे में जा कर वहां के ए.डी.एम. से फोन पर बात की और शर्मिला के साथ क्षेत्र का दौरा करने की अपनी इच्छा जाहिर की.

पहले तो ए.डी.एम. ने मना किया क्योंकि यह एक आतंकवादी इलाका था और किसी अधिकारी को किसी अजनबी के साथ जाने की इजाजत नहीं थी. क्योंकि पहले कई अधिकारियों का सुंदर लड़कियों द्वारा अपहरण किया जा चुका था और बाद में उन की हत्या भी कर दी गई थी. यह सब जानते हुए भी पता नहीं क्यों मैं शर्मिला के साथ जाने का मोह छोड़ नहीं पा रहा था और मैं ने ए.डी.एम. से अपने जोखिम पर उस के साथ इलाके के भ्रमण की दृढ़ इच्छा जाहिर कर दी थी.

ए.डी.एम. ने मेरी जिद को देखते हुए आखिर में केंद्रीय रिजर्व बल के साथ जाने की इजाजत दे दी थी और साथ में यह शर्त भी थी कि शर्मिला अपनी गाड़ी में आगेआगे चलेगी और मेरे साथ नहीं बैठेगी.

शर्मिला ने मुझ से कहा था कि वह सब से पहले मुझे क्षेत्र का सब से दूर वाला हिस्सा दिखाना चाहेगी, जहां मतदान केंद्र संख्या 36 है. मैं ने उसे सहमति दी और हम उस केंद्र की ओर चल दिए. यह केंद्र तहसील मुख्यालय से 36 किलोमीटर दूर था.

हम दलबल के साथ इस मतदान केंद्र की ओर चले तो रास्ते में अनेक पहाड़ आए और 3 जगहों पर फौज के चेकपोस्ट आए जहां रुक कर हमें अपनी पूरी पहचान देनी पड़ी थी. साथ ही केंद्रीय बल के सभी जवानों से पूछताछ की गई और उस के बाद ही हमें आगे जाने की अनुमति मिली. आखिर में लगभग ढाई घंटे की कठिन यात्रा के बाद हम अंतिम पोलिंग स्टेशन पहुंच पाए, जो एक प्राइमरी स्कूल में स्थित था. यह स्कूल 1949 में बना था.

इस पड़ाव पर पहुंच कर हम ने राहत की सांस ली. शर्मिला ने थोड़ी देर में गांव वालों को बुला लिया. वह मेरे और उन के बीच संवाद के लिए दुभाषिए का काम करने लगी. थोड़ी देर बाद गांव वाले चले गए और केंद्रीय रिजर्व बल के जवान व ड्राइवर खाना खाने में व्यस्त हो गए. मुझे अकेला पा कर शर्मिला ने बातें करनी शुरू की.

‘‘आप को यहां आना कैसा लगा?’’

‘‘ठीक लगा, पर थोड़ा थकान देने वाला है.’’

‘‘आप ने यहां आने वाले रास्तों को देखा?’’

‘‘हां.’’

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मीठी अब लौट आओ: भाग 2- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

‘‘क्या आप ने देखा कि यहां आना कितना मुश्किल है. तमाम सड़कें टूटी हैं. पुल टूटे हैं. वर्षों से लगता है कि इन की मरम्मत नहीं हुई है.’’

‘‘यह बारिश के कारण भी तो हो सकता है. इस क्षेत्र में तो भारत में सब से अधिक बारिश होती है.’’

‘‘नहीं, यह मरम्मत न किए जाने के कारण है. उत्तराखण्ड व हिमाचल में भी तो खूब बारिश होती है पर वहां तो सड़कों और पुलों की स्थिति ऐसी नहीं है. यह स्थिति क्या क्षेत्र के लिए सरकार की उपेक्षा नहीं दिखाती है?’’

‘‘हो सकता है, पर इस बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है.’’

‘‘आप एक आम आदमी की नजर से यहां के रहने वालों की नजर से सोचिए कि यदि किसी गर्भवती महिला को या एक बीमार व्यक्ति को इन सड़कों से हो कर 3 घंटे की यात्रा कर के तहसील स्थित अस्पताल पहुंचना हो तो क्या उस महिला का या उस व्यक्ति का जीवन बच सकेगा? महिला का तो रास्ते में ही गर्भपात हो सकता है और व्यक्ति अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देगा. सोचिए कि कितनी पीड़ा, कितना दर्द यहां के लोग सहते हैं.’’

शर्मिला के इस कथन पर मैं निरुत्तर हो गया था. समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं, क्योंकि इस सवाल का कोई उत्तर मेरे पास था ही नहीं.

अगले दिन शर्मिला ने मुझे मतदान केंद्र संख्या 26 और 27 दिखाने को कहा. यहां जाने के लिए हमें 10 किलोमीटर जीप से जाने के बाद 5 घंटे नदी में नाव से जाना था. हम 3 नावों में बैठ कर उन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर पहुंचे. रास्ते कितने परेशानी भरे होते हैं और आदमी का जीवन कितना कष्टों से भरा होता है, यह मैं ने पहली बार 5 घंटे नाव की सवारी करने पर जाना.

इन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर शर्मिला ने सभी गांव वालों को बुला कर उन की समस्याएं उन की जबानी मुझे सुनाई थीं. उस ने बताया था कि इन गांवों तक पहुंचना कितना मुश्किल है, बीमार का इलाज होना, शिक्षा व रोजगार पाना लगभग असंभव है. सारा जीवन अंधेरे में उजाले की उम्मीद लिए काटने जैसा है. ये लोग रोज सोचते हैं कि कल नई जिंदगी मिलेगी पर आज तक सिर्फ अंधेरा ही साथ रहा है. इन गांवों में 1949 का बना हुआ प्राइमरी स्कूल है जो आजादी के लगभग 60 वर्ष बाद भी प्राइमरी ही है. यहां पर शिक्षक भी नहीं आते हैं और बच्चे कक्षा 5 से आगे पढ़ ही नहीं पाते.

तीसरे दिन शर्मिला मुझे पोलिंग स्टेशन संख्या 13, 14 की ओर ले गई. इस तरफ भी वही स्थिति थी, खराब सड़कें, टूटे पुल, टूटे स्कूल, बेरोजगार लोग और बंद पड़े चाय के कारखाने…मैं समझ नहीं पा रहा था कि शर्मिला मुझे क्या दिखाना चाह रही थी. एक ऐसा सच, जिस के बारे में दिल्ली में किसी को पता नहीं और हम लोग ‘इंडिया शाइनिंग’ कहते रहते हैं पर सच तो यह है कि आधी से ज्यादा आबादी के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. इन स्थितियों को देख कर लगता है कि हम आम आदमी के लिए संवेदनशील नहीं हैं और उसे अच्छी जिंदगी देना ही नहीं चाहते.

चौथे दिन शर्मिला मुझे पास के भारत-म्यांमार की सीमा पर स्थित 2 शहरों, मोरे और तामू में ले गई. दोनों सटे शहर हैं. मोरे भारत की सीमा में है तो तामू म्यांमार की सीमा में. इसलिए यहां आने के लिए सरकार से अनुमति की आवश्यकता नहीं थी. वहां उस ने मुझे तामू का छोटा सा बाजार दिखाया था. बाजार चीनी सामानों से पटा हुआ था और सारी वस्तुएं बहुत खूबसूरत और कम दाम में उपलब्ध थीं. शर्मिला ने बातचीत प्रारंभ की :

‘‘आप को इन सामानों को देख कर क्या लगता है?’’

‘‘लगता है कि चीन ने बहुत तरक्की कर ली है, तभी तो इतनी तरह की वस्तुएं, इतनी अच्छी और कम दाम में यहां पर उपलब्ध हैं. दिल्ली और मुंबई के बाजारों में भी चीनी सामान की भरमार है.’’

‘‘क्या आप को नहीं लगता कि चीन की सरकार ने लोगों के लिए ऐसा जीवन दिया है जिस में आदमी अपनी समस्त सृजन क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सके?’’

‘‘हां, लगता तो है.’’

‘‘क्या हम लोग अपने लोगों को ऐसी जिंदगी नहीं दे सकते कि हमारे लोग भी अपनी क्षमताओं का उपयोग कर दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकें, विश्व की एक महाशक्ति बन सकें?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. यह तो संभव है पर लगता है कि हम लोगों में स्थितियों को बदलने की इच्छाशक्ति नहीं है.’’

‘‘वह तो है ही नहीं क्योंकि हम प्रगति की वह गति पकड़ ही नहीं पाए जो चीन ने पकड़ ली और अब आगे ही बढ़ता जा रहा है. हम से 2 साल बाद आजाद हुआ चीन आज कहां है और हम कहां हैं.’’

इसी तरह बाकी के 3 दिन भी शर्मिला के साथ अलगअलग क्षेत्रों का दौरा करते हुए बीत गए. इन 7 दिनों में मैं ने  सभी पोलिंग स्टेशनों को देखने का काम शर्मिला के साथ ही किया था और सच तो यह है कि मैं उस के मोहक व्यक्तित्व में खोया रहता था और बिना उस के कहीं जाने की कल्पना नहीं कर पाता था. वह उम्र में मुझ से लगभग 15 साल छोटी थी इसलिए उस के लिए मेरे मन में सदैव स्नेह रहता था, पर मैं उस के गुणों से बेहद प्रभावित था.

अंतिम दिन शर्मिला मुझ से विदा लेने आई. वह अकेली थी तथा उस ने मुझ से अपने पास से सभी को हटाने का अनुरोध किया था. उस की इस बात को मान कर मैं ने सभी को वहां से हटाया था. लोगों के हटने के बाद हम ने कुछ औपचारिक बातें शुरू की थीं.

‘‘शर्मिला, तो तुम आज के बाद नहीं आओगी?’’

‘‘हां, मैं जा रही हूं. मुझे म्यांमार जाना है, कुछ जरूरी काम है. वहां मेरे कुछ सहयोगी रहते हैं.’’

‘‘तुम्हारे ऐसे कौन से सहयोगी हैं जिन के लिए तुम देश के बाहर जा रही हो?’’

‘‘हम लोग वहां से लोकतंत्र की बहाली के लिए युद्ध लड़ रहे हैं. छोडि़ए, आप नहीं समझेंगे इसे. आप लोग दिल्ली में बैठ कर नहीं महसूस कर पाते कि यहां के अंधेरों में आदमी का जीवन कैसा है? किस प्रकार पुलिस निर्दोष लड़केलड़कियों को मात्र शक के आधार पर पकड़ ले जाती है और तरहतरह की यातनाएं देती है. कैसे बच्चे पढ़लिख नहीं पाते और उन्हें आजादी के इतने साल बाद भी अच्छी जिंदगी नहीं मिलती…कैसे कारखाने बंद रहते हैं और मजदूर भूखों जीवन गुजारते हैं…आप को क्याक्या बताऊं? आप को इसलिए मैं सब कुछ दिखाना चाहती थी ताकि आप महसूस कर सकें कि असली जिंदगी होती क्या है.’’

शर्मिला की बातें सुन कर मुझे अजीब सा लगने लगा था. उस के सवालों का क्या उत्तर था मेरे पास? मैं चुपचाप उस की ओर देखता रह गया था.

थोड़ी देर बाद उस से पूछा था, ‘‘शर्मिला, तो तुम दिल्ली वालों को अपना, अपने समाज का दुश्मन समझती हो?’’

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मीठी अब लौट आओ: भाग 3- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

इस पर उस ने कहा था, ‘‘सर, आप का मुझ पर बहुत अधिकार है. अगर आप मेरे सिर पर सौगंध खा कर मुझे वचन दें कि मैं जो कुछ आप को बताने वाली हूं वह आप किसी और को नहीं बताएंगे तो मैं आप को सबकुछ बता सकती हूं.’’

उस के इस कथन पर मैं ने उस के सिर पर हाथ रख कर उसे आश्वासन दिया था. उस ने मेरे पैर छू कर कहा था, ‘‘आप जानना चाहते हैं कि मैं कौन हूं?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं एक आतंकवादी हूं और मेरा काम अपने समाज के लोगों का अहित चाहने वालों को जान से मार देना है. मुझे आप को मारने के काम पर मेरे संगठन ने लगाया था.’’

शर्मिला की बात सुन कर मैं अवाक्रह गया पर पता नहीं क्यों उस से मुझे डर नहीं लगा.

मैं ने कहा, ‘‘शर्मिला, मैं भी दूसरों की तरह यहां दिल्ली के प्रतिनिधि के रूप में ही हूं और तुम लोगों की दृष्टि में मैं भी तुम्हारा दुश्मन हूं. आर्म्ड फोर्सेस, स्पेशल पावर एक्ट का सहारा ले कर तुम लोगों पर एक तरह से शासन ही करने आया हूं. यह सब जानते हुए भी और अनेक मौकों के होते हुए भी तुम ने मुझे नहीं मारा, आखिर क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप मेरे अंशू जीजाजी हैं. जीजाजी, मैं तनुश्री दीदी की छोटी बहन हूं. आप को याद होगा, आप तनु दीदी, जो आप के साथ दिल्ली में पढ़ती थी, की शादी में शिलांग आए थे . उन की मौसी की 2 छोटी लड़कियां थीं. एक 12 साल की और दूसरी 10 साल की. आप उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें खट्टीमीठी कहते थे. आप खट्टीमीठी को भूल गए होंगे पर हम लोग आप को कभी नहीं भूले.’’

‘‘मैं आप की मीठी हूं जीजाजी. मैं अपने जीजाजी को कैसे मार सकती थी, जिन का दिया हुआ नाम आज 25 वर्ष बाद भी मेरा परिवार और मैं प्रयोग करते हैं? मैं अपने उस आदर्श जीजाजी को कैसे मार देती जिन के जैसा मैं खुद बनना चाहती थी?’’

इतना कहतेकहते मीठी की आंखों में आंसुओं की अविरल धार बहने लगी थी. वह बहुत देर बाद चुप हुई थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं मीठी से क्या बोलूं. बहुत संयत हो कर बोला था, ‘‘मीठी, मेरी बच्ची, तुम कहां जा रही हो. लौट आओ न.’’

वह संयत हो कर बोली थी, ‘‘जीजाजी, आप की तैनाती 5 वर्ष के लिए योजना आयोग में है. यदि आप इन 5 वर्षों में मेरे प्रदेश के लोगों को नई जिंदगी दे देंगे तो मैं जरूर लौट आऊंगी पर यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं नहीं जानती कि मैं क्या कर बैठूंगी.’’

इतना कह कर मीठी चली गई थी और मैं अवाक् सा उसे जाते देखता रह गया था.

दिल्ली वापस आ कर मैं ने मणिपुर के विकास की योजनाओं की समीक्षा की तो पाया कि इस प्रदेश के लिए धनराशि देने में हर स्तर पर आनाकानी की जाती है. धनराशि देने के लिए तो सब से बड़ी प्राथमिकता सांसदों के क्षेत्र विकास की योजना होती है जिस में हर सांसद को हर साल उन के क्षेत्र के विकास के लिए 2 करोड़ रुपए की धनराशि दी जाती है और इस प्रकार एक पंचवर्षीय योजना में 8,500 करोड़ रुपए सांसदों को दे दिए जाते हैं पर इस से क्षेत्र का कितना विकास होता है यह तो वहां की जनता और सांसद ही बता सकते हैं.

मैं ने प्रयास कर मणिपुर की जरूरी सुविधाओं के विकास के लिए लगभग 5 हजार करोड़ रुपए की योजनाएं शर्मिला के सहयोग से बनवाईं और उन के लिए धनराशि की मांग की तो हर स्तर से मुझे न सुनने को मिला. सोचता रहा कि यदि सांसद निधि जैसी धनराशि का एकचौथाई हिस्सा भी किसी छोटे प्रदेश में अवस्थापना सुविधाएं बनाने में व्यय कर दिया जाए तो यह प्रदेश स्वर्ग बन सकता है पर वह प्राथमिकता में नहीं है न.

अंत में मजबूर हो कर मैं ने यह योजना विश्व बैंक से सहयोग के लिए भेजी तो वहां यह योजना स्वीकार कर ली गई. इन सभी योजनाओं को पूरा कराने में शर्मिला का अथक प्रयास था. उस ने खुद सभी योजनाओं का सर्वे किया था और हर स्तर पर दिनरात लग कर उस ने यह योजनाएं बनवाई थीं. अंतत: हम सफल हुए थे और योजनाएं चालू हो गई थीं.

6 साल बाद मुझे फिर मणिपुर में भारत म्यांमार सीमा से संबंधित एक बैठक में भाग लेने के लिए इंफाल आना पड़ा. उत्सुकतावश मैं ने इस प्रदेश के कई मुख्य मार्गों पर लगभग 1 हजार कि.मी. यात्रा की और अनेक स्कूल, अस्पताल, सड़कें, कागज और चाय के कारखाने देखे.

मैं यह देख कर आश्चर्यचकित था कि सभी मुख्य सड़कें अब डबल लेन हो गई थीं, नए पुल बन गए थे, स्कूल भवन नए थे, जहां शिक्षा दी जा रही थी, नए अस्पताल, नए बिजलीघर बन गए थे और चालू थे तथा पहले के बंद कारखाने चल रहे थे. जगहजगह सड़क पर वाहनों की गति जीवन की गति की तरह तेज हो गई थी और प्रदेश से आतंकवाद खत्म हो गया था. छात्रछात्राएं पढ़ाई में व्यस्त थे. नए इंजीनियरिंग कालिज, मेडिकल कालिज, महिला पालिटेक्निक और कंप्यूटर केंद्र खुल गए थे और चल रहे थे. मुझे वहां की हर अवस्थापना में शर्मिला की छाया दिखाई पड़ रही थी. मेरे इंफाल प्रवास के दौरान वह मुझ से मिलने आई थी और बोली थी.

‘जीजाजी, हम जीत गए न.’

मैं ने कहा था, ‘हां बेटी, हम जीत गए पर अभी रास्ता लंबा है. बहुत कुछ पाना है.’

वह बोली थी, ‘जीजाजी, आप ने मुझ से कहा था कि मैं लौट आऊं और मैं लौट आई न जीजाजी… आप ने जो रास्ता दिखाया, एक आज्ञाकारी बेटी की तरह उसी रास्ते पर चल रही हूं.’

मैं ने कहा था, ‘बेटी, मैं यह तो नहीं कहूंगा कि जिस रास्ते पर तुम चल रही थीं वह रास्ता गलत था पर इतना अवश्य कहूंगा कि समस्याओं के समाधान के अलगअलग रास्ते होते हैं पर हिंसा से समाधान ढूंढ़ने के रास्ते कभी सफल नहीं होते. मेरा कहा याद रखोगी न?’

‘आप मेरे पिता हैं न जीजाजी और क्या कोई बेटी पिता का अनादर कर या उस की बात टाल कर कभी खुश रह सकती है?’

इतना कह कर वह हंसती ही गई. मुझे ऐसा लगा जैसे कि उस की हंसी ब्रह्मपुत्र नदी की तरह विशाल और अपरिमेय है, जो सभी को जीवन और खुशियां बांटती है. मीठी जैसी बेटियां समाज को नया जीवन देती हैं.

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छोटी जात की लड़की: क्यों हिचक रही थी उषा

‘पजामा पार्टी के नाम पर घर को होस्टल बना कर रख दिया इन लड़कियों ने. रिया भी पता नहीं कब समझदार बनेगी. जब देखो तब ले आती है इन लड़कियों को. जरा भी नहीं सोचती कि मेरा सारा शेड्यूल गड़बड़ा जाता है. अपने कमरे को कूड़ाघर बना दिया. खुद तो सब चली गईं मूवी देखने और मां यहां इन के फैलाए कचरे को साफ करती रहे.’ बेटी रिया के बेतरतीब कमरे को देखते ही उषा की त्योरियां चढ़ आईं. एक बारगी तो मन किया कि कमरे को जैसा है वैसा ही छोड़ दें, रिया से ही साफ करवाएं. तभी उसे एहसास होगा कि सफाई करना कितना मुश्किल काम है. मगर फिर बेटी पर स्वाभाविक ममता उमड़ आई, ‘पता नहीं और कितने दिन की मेहमान है. क्या पता कब ससुराल चली जाए. फिर वहां यह मौजमस्ती करने को मिले न मिले. काम तो जिंदगीभर करने ही हैं.’ यह सोचते हुए उषा ने दुपट्टा उतार कर कमरे के दरवाजे पर टांग दिया और फैले कमरे को व्यवस्थित करने में जुट गई.

2 दिन पहले ही रिया के फाइनल एग्जाम खत्म हुए हैं. कल रात से ही बेला, मान्यता और शालू ने रिया के कमरे में डेरा डाल रखा है. रातभर पता नहीं क्या करती रहीं ये लड़कियां कि सुबह 10 बजे तक बेसुध सो रही थीं. अब उठते ही तैयार हो कर सलमान खान की नई लगी मूवी देखने चल दीं. खानापीना सब बाहर ही होगा. पता नहीं क्या सैलिब्रेट करने में लगी हैं.

अरे, एग्जाम ही तो खत्म हुए हैं, कोई लौटरी तो नहीं लगी. उषा बड़बड़ाती हुई एकएक सामान को सही तरीके से सैट कर के रखती जा रही थी कि अचानक शालू के बैग में से एक फोल्ड किया हुआ कागज का टुकड़ा नीचे गिरा. उषा उसे वापस शालू के बैग में रखने ही जा रही थी कि जिज्ञासावश खोल कर देख लिया. कागज के खुलते ही जैसे उसे बिच्छू ने काट लिया. उस फोल्ड किए हुए कागज के टुकड़े में इस्तेमाल किया हुआ कंडोम था. देख कर उषा के तो होश ही उड़ गए. उस में अब वहां खड़े रहने का भी साहस नहीं बचा था.

‘क्या हो गया आज की पीढ़ी को. शादी से पहले ही यह सब. इन के लिए संस्कारों का कोई मोल ही नहीं. कहीं मेरी रिया भी इस रास्ते पर तो नहीं चल रही. नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है. वह शालू की तरह चरित्रहीन नहीं हो सकती.’ हक्कीबक्की सी उषा किसी तरह अपनेआप को घसीट कर अपने कमरे तक लाई और धम्म से बिस्तर पर ढेर हो गई.

शाम को चारों लड़कियां चहकती हुई घर में घुसीं तो उन की हंसी से घर एक बार फिर गुलजार हो उठा. मगर थोड़ी ही देर में चुप्पी सी छा गई. उषा ने सोचा शायद लड़कियां चली गईं. उस ने अपनेआप पर काबू रखते हुए रिया को आवाज लगाई.

‘‘गईं क्या सब?’’ उषा ने पूछा.

‘‘बाकी दोनों तो चली गईं, शालू अभी यहीं है. वह आज रात और यहां रुकेगी,’’ रिया ने मां के पास बैठते हुए कहा.

‘‘रिया, तू शालू का साथ छोड़ दे, वह लड़की चरित्रहीन है. मैं नहीं चाहती कि उस के साथ रहने से लोग तेरे बारे में भी गलत धारणा बनाएं,’’ उषा ने रिया को समझाते हुए कहा.

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‘‘यह आप कैसी बातें कर रही हो मां. आप उसे जानती ही कितना हो? और बिना किसी पुख्ता सुबूत के यों किसी पर आरोप लगाना आप को शोभा नहीं देता.’’

मां के मुंह से अचानक यह बातें सुन कर रिया कुछ समझी नहीं. मगर अपनी जिगरी दोस्त पर यह बेहूदा इलजाम सुन कर उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘यह रहा सुबूत. आज तुम्हारे रूम की सफाई करते समय मुझे शालू के बैग से मिला था,’’ कहते हुए उषा ने वह कागज का टुकड़ा रिया के सामने खोल कर रख दिया. एकबारगी तो रिया से कुछ भी बोलते नहीं बना, बस, इतना भर कहा, ‘‘मां, किसी के व्यक्तित्व का सिर्फ एक पहलू उस के चरित्र को नापने का पैमाना नहीं हो सकता. शालू के बैग से इस का मिलना यह कहां साबित करता है कि इस का इस्तेमाल भी शालू ने ही किया है. यह भी तो हो सकता है कि किसी ने उस के साथ जानबूझ कर यह शरारत की हो.’’

‘‘शरारत, सिर्फ उसी के साथ क्यों? तुम्हारे या किसी और के साथ क्यों नहीं? तुम तो अपनी सहेली का पक्ष लोगी ही. मगर सुनो रिया, यह लड़की मेरी नजरों से उतर चुकी है. यह तुम्हारे आसपास रहे, यह मुझे पसंद नहीं,’’ उषा ने अपना दोटूक फैसला रिया को सुना दिया.

‘‘मां, शालू एक सुलझी हुई और समझदार लड़की है. वह अच्छी तरह जानती है कि उसे जिंदगी से क्या चाहिए. देखना, आप को एक दिन उस के बारे में अपनी राय बदलनी पड़ेगी.’’

‘‘हां, वह तो उस के लक्षणों से पता चल ही रहा है कि वह क्या चाहती है. पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं. अरे, ये छोटी जात की लड़कियां होती ही ऐसी हैं. ऊंचा उठने के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर सकती हैं,’’ कहते हुए उषा ने मुंह बिचका दिया. रिया भी उठ कर चल दी.

कालेज तो खत्म हो चुके थे. अब कैरियर बनाने का वक्त था. रिया के पापा चाहते थे कि वह सरकारी नौकरी को चुने. मगर रिया किसी अच्छी मल्टीनैशनल कंपनी में जाना चाहती थी. जब तक कोई ढंग का औफर नहीं मिलता तब तक रिया ने अपने पापा का मन रखने के लिए एक कोचिंग में ऐडमिशन ले लिया ताकि पढ़ाई से जुड़ाव बना रहे.

उषा को बहुत बुरा लगा जब उसे पता चला कि शालू भी उसी कोचिंग में जा रही है. रिया को समझाने का कोई मतलब नहीं था, वह अपनी सहेली के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी. उषा की नाराजगी से बेखबर शालू का उस के घर आनाजाना बदस्तूर जारी था. हां, उषा के व्यवहार का रूखापन वह साफसाफ महसूस कर रही थी. वह देख रही थी कि पहले की तरह अब आंटी उस से हंसहंस कर बात नहीं करतीं बल्कि उसे देखते ही अपने कमरे में घुस जाती हैं. कभी आमनासामना हो भी जाए तो बातबेबात उसे टारगेट कर के ताने सुनाने लगती हैं. उस के लिए तो चायपानी भी रिया खुद ही बनाती है. शालू ने कई बार पूछना भी चाहा मगर रिया ने हमेशा यह कह कर टाल दिया, ‘छोड़ न, मां थक जाती होंगी. वैसे भी हमें अब अपने काम खुद करने की आदत डाल लेनी चाहिए.’ और दोनों मुसकरा कर चाय बनाने में जुट जाती थीं.

इधर उषा ने रिया पर कुछ ज्यादा ही कड़ाई से नजर रखनी शुरू कर दी. वह जबतब रिया का मोबाइल ले कर उस के मैसेज, व्हाट्सऐप, फेसबुक अकांउट, आदि चैक करने लगी. कभीकभी छिप कर उस की बातें भी सुनने की कोशिश करती. यह सब रिया को बहुत बुरा लगता था, मगर वह मां के मन की उथलपुथल को समझ रही थी. ऐसे में उस का कुछ भी बोलना उन्हें आहत कर सकता था. उन्हें डिप्रैशन में ले जा सकता था या फिर हो सकता था कि गुस्से में आ कर मां उस के बाहर आनेजाने पर ही रोक लगा दें. यही सोच कर रिया चुपचाप मां की हर बात सहन कर रही थी.

सर्दी के दिन थे. रात के 8 बज रहे थे. रिया अभी तक कोचिंग से नहीं लौटी थी. रोज तो 7 बजे तक आ जाती है. क्या हुआ होगा. घड़ी की सुइयों के साथसाथ उषा की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. तभी बदहवास सी रिया ने घर में प्रवेश किया. उस की हालत देखते ही उषा का कलेजा कांप उठा. बिखरे हुए बाल, मिट्टी से सने हाथपांव, कंधे से फटा हुआ कुरता. ‘‘क्या हुआ? ऐक्सिडैंट हो गया था क्या? फोन तो कर देतीं,’’ उषा ने एक ही सांस में कई प्रश्न पूछ डाले.

‘‘हां, ऐक्सिडैंट ही कह सकती हो. कोचिंग के बाहर औटो का इंतजार कर रही थी कि अचानक कुछ लड़कों ने मुझे घेर लिया.’’ रिया सुबकते हुए अपने साथ हुए हादसे के बारे में बता ही रही थी कि उषा बीच में ही बोल पड़ी. ‘‘आखिर वही हुआ न जिस का मुझे डर था. अरे शालू जैसी छोटी जात की लड़की के साथ रहोगी तो यह दिन तो आना ही था. कितना समझाया था मैं ने कि उस से दूर रहो, मगर मेरी सुनता कौन है.’’

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‘‘बस करो मां. आज शालू के कारण ही मैं सहीसलामत आप के सामने खड़ी हूं. उस ने वक्त पर आ कर मेरी मदद नहीं की होती तो आज मैं कहीं की न रहती. उसी छोटी जात की लड़की ने आज आप की लाडली के चरित्र पर दाग लगने से बचाया है,’’ रिया ने रोते हुए कहा और उषा को विचारों के जाल में उलझा छोड़ कर सुबकती हुई अपने कमरे में चली गई.

लगभग 6 महीने की कोचिंग में शालू और रिया ने कई प्रतियोगी परीक्षाएं दीं और आखिरकार छोटी जात के विशेष कोटे में शालू का चयन वन विभाग में सुपरवाइजर के पद पर हो गया. रिया का चयन न होने से उस के पापा काफी निराश हुए. मगर उषा बहुत खुश थी. वह सोच रही थी, ‘चलो, कैसे भी कर के आखिर उस शालू से पीछा तो छूटा.’

कुछ ही महीनों में रिया ने भी अच्छे औफर पर एक मल्टीनैशनल कंपनी जौइन कर ली. हालांकि अब दोनों सहेलियों का प्रत्यक्ष मिलना कम ही होता था मगर फिर भी फोन और सोशल मीडिया पर दोनों का साथ बराबर बना हुआ था. रोज रात को दोनों एकदूसरे से दिनभर की बातें शेयर किया करती थीं. कभीकभार शालू लंचटाइम में आ कर? उस से मिल जाया करती थी.

रिया की कंपनी अपनी शाखाओं का विस्तार गांवों और कसबों तक करना चाह रही थी. इसी सिलसिले में कंपनी के सीईओ ने उसे प्रोजैक्ट हेड बना कर एक छोटे कसबे में भेजने के आदेश दे दिए. हमेशा महानगर में रही रिया के लिए यह काम आसान नहीं था. उसे तो अपना कोई काम हाथ से करने की आदत ही नहीं थी.

‘‘एक दिन की बात तो है नहीं, प्रोजैक्ट तो लंबा चलेगा. कसबों में रहनेखाने की कहां और कैसे व्यवस्था होगी. सोचसोच कर रिया परेशान थी. उषा ने तो सुनते ही उसे यह प्रोजैक्ट लेने से मना कर दिया और नौकरी छोड़ने तक की सलाह दे डाली, मगर रिया समझती थी कि उस का यह प्रोजैक्ट करना कितना जरूरी है क्योंकि इनकार करने का मतलब नईनई नौकरी से हाथ धोना तो है ही, साथ ही, यह उस की इमेज का भी सवाल था.

यों परेशानियों से घबरा कर अपने पांव पीछे हटाना उस के आगे के कैरियर पर भी सवाल खड़े कर सकता है. उस ने शालू से अपनी परेशानी का जिक्र किया तो शालू ने उसे हिम्मत से काम लेने को कहा. उसे समझाया कि जिंदगी में आने वाली परेशानियों से ही आगे बढ़ने के रास्ते खुलते हैं. फिर शालू ने उस कसबे में अपने विभागीय रैस्ट हाउस में रिया के रहने की व्यवस्था करवाई और साथ ही, वहां के अटेंडैंट को हिदायत दी कि रिया को किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.

रिया का नया प्रोजैक्ट मुंबई से लगभग 500 किलोमीटर की दूरी पर था. छोटा कसबा होने के कारण यातायात के साधन सीमित थे और इंटरनैट की उपलब्धता न के बराबर ही थी. हां, फोन की कनैक्टिविटी ठीकठाक होने से उस की परेशानी कुछ कम जरूर हुई थी.

अभी रिया को वहां गए महीनाभर भी नहीं हुआ था कि उषा की तबीयत अचानक खराब हो गई. उसे हौस्पिटल में भरती करवाया गया तो जांच में पता चला कि उस के गर्भाशय में बड़ी गांठ है. गांठ को निकालने की कोशिश से उषा की जान को खतरा हो सकता है, इसलिए औपरेशन कर के गर्भाशय ही निकालना पड़ेगा. खबर मिलते ही रिया तुरंत छुट्टी ले कर मुंबई आ गई. उषा का औपरेशन सफल रहा और 10 दिनों तक औब्जर्वेशन में रखने के बाद उसे हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया.

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उषा को एक महीना बैड रैस्ट की सलाह दी गई थी. चूंकि रिया का प्रोजैक्ट और नौकरी दोनों ही नए थे, इसलिए उसे ज्यादा छुट्टी नहीं मिली और अब उस के सामने 2 ही विकल्प थे- या तो वह नौकरी छोड़े या फिर मां को अकेले छोड़ कर जाए. रिया कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रही थी. शालू को जब यह बात पता चली तो उस ने तुरंत एक महीने की छुट्टी ली और अपना सामान ले कर रिया के घर पहुंच गई. पूरा एक महीना वह साए की तरह उषा के साथ बनी रही. उषा के खानेपीने से ले कर वक्त पर दवाएं देने और उस के नहानेधोने तक का शालू ने पूरा खयाल रखा.

उषा उस के इस दूसरे रूप को देख कर हैरान थी. एक छोटी जात की लड़की के बड़प्पन का यह दूसरा पहलू सचमुच उसे चौंकाने वाला था. कभी शालू को चरित्रहीन समझने वाली उषा को आज अपनी सोच पर बहुत पछतावा हो रहा था. मगर न जाने क्या था जो अब भी उसे शालू को गले लगाने और उसे अपनी देखभाल करने के लिए थैंक्यू कहने से रोक रहा था.

कल शालू की छुट्टी का आखिरी दिन था. उषा भी अब लगभग स्वस्थ हो चुकी थी. रात को खाना ले कर शालू उषा के कमरे में गई तो उस की आंखों में आंसू देख कर चौंक गई. ‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ परेशानी है क्या?’’ शालू ने पूछा. उषा ने कोई जवाब नहीं दिया मगर दो बूंदों ने ढुलक कर उस के दिल का सारा हाल बयान कर दिया. शालू उस के पास गई. धीरे से उस का सिर अपने सीने से सटा लिया. उषा से अब अपनेआप को रोका नहीं गया और वह शालू से लिपट कर रो पड़ी.

‘‘मुझे माफ कर देना शालू, मैं ने तुम्हारे बारे में बहुत ही गलत राय बना रखी थी. अपने बचकाना व्यवहार के लिए मैं तुम से बहुत शर्मिंदा हूं.’’

‘‘आप कैसी बातें करती हो आंटी? आप ने मेरे बारे में जैसी भी राय बनाई है, मैं ने तो हमेशा ही आप पर अपना अधिकार समझा है और इसी अधिकार के चलते मैं बेहिचक यहां आतीजाती रही हूं. सच कहूं, मुझे आप के तानों का जरा भी बुरा नहीं लगता था. कहीं न कहीं आप के दिल में मेरे लिए फिक्र ही तो थी जो आप को ऐसा करने के लिए मजबूर करती थी. इसलिए अब पिछली सारी कड़वी बातों को भूल जाइए. कल रिया आने वाली है न, हमसब मिल कर फिर से पहले की तरह मस्ती करेंगे,’’ शालू ने चहकते हुए कहा और उषा से लिपट गई.

उषा आज अपनी भूल पर बहुत पछता रही थी. वह शिद्दत से महसूस कर रही थी कि किसी व्यक्ति का सिर्फ एक ही पहलू देख कर उस के बारे में अपनी पुख्ता धारणा बना लेना कितना गलत हो सकता है. और यह भी कि यह फोर्थ जेनरेशन कितनी प्रैक्टिकल सोच रखने वाली पीढ़ी है. सचमुच वह कागज का टुकड़ा, जो उसे शालू के बैग से मिला था, उस के चरित्र का प्रमाणपत्र नहीं था.

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जूही: क्या हुआ था आसिफ के साथ

लेखक- जमशेद अख्तर

आसिफ दुकान बंद कर के जब अपने घर पहुंचा, तो ड्राइंगरूम के दरवाजे पर जा कर ठिठक गया. अंदर से उस के अम्मीअब्बा के बोलने की आवाजें आ रही थीं. ‘‘दुलहन तो मुश्किल से 16-17 साल की है और मास्टर साहब 40-50 के. बेचारी…’’

इतना सुनते ही आसिफ जल्दी से दीवार की आड़ में हो गया और सांस रोक कर सारी बातें बड़े ध्यान से सुनने लगा. ‘‘ऐसी शादी से तो बेहतर होता कि लड़की के मांबाप उसे जहर दे कर ही मार डालते,’’ आसिफ की अम्मी सलमा ने कहा.

‘‘तुम नहीं जानती सलमा, लड़की के मांबाप तो बचपन में ही चल बसे थे. गरीब मामामामी ने ही उस की परवरिश की है. 4-4 लड़कियां ब्याहने को हैं,’’ अब्बा ने बताया. ‘‘यह भी कोई बात हुई. कम से कम उस की जोड़ का लड़का तो ढूंढ़ लेते.

‘‘इतनी हसीन और कमसिन लड़की को इस बूढ़े के पल्ले बांधने की क्या जरूरत आ पड़ी थी, जिस के पहले ही 4-4 बच्चे हैं. ‘‘हाय, मुझे तो उस की जवानी पर तरस आ रहा है. कैसे देख रही थी वह मेरी तरफ. इस समय उस पर क्या बीत रही होगी,’’ अम्मी ने कहा.

आसिफ इस से आगे कुछ और सुनने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. वह धीरे से अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गया. आसिफ आंखें मूंद कर सोने लगा, ‘क्या वाकई वह 16-17 साल की है? क्या सचमुच वह हसीन है? अगर वह खूबसूरत लगती होगी तो क्या मास्टर साहब की कमजोर आंखें उस के हुस्न की चमक बरदाश्त कर पाएंगी? आज की रात क्या वह… क्या मास्टर साहब…’ यह सोचतेसोचते उस का सिर चकराने लगा और वह कुरसी से उठ कर कमरे में टहलने लगा.

थोड़ी देर बाद आसिफ की अम्मी खाना रख गईं, मगर उस से खाया न गया. बड़ी मुश्किल से वह थोड़ा सा पानी पी कर बिस्तर पर लेट गया, पर उसे नींद भी नहीं आई. रातभर करवटें बदलते हुए वह न जाने क्याक्या सोचता रहा. सुबह हुई तो आसिफ मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ गया और बेकरारी से टहलटहल कर मास्टर साहब के आंगन में झांकने लगा. कुछ ही देर में आंगन में एक परी दिखाई दी.

उसे देख कर आसिफ अपने होशोहवास खो बैठा. फिर कुछ संभलने के बाद उस की खूबसूरती को एकटक देखने लगा. परी को भी लगा कि कोई उसे देख रहा है. उस ने निगाहें ऊपर उठाईं तो आसिफ को देख कर वह शरमा गई और छिप गई. लेकिन आसिफ उस का मासूम चेहरा आंखों में लिए देर तक उस के खयालों में डूबा रहा. उस की धड़कनें तेज हो गई थीं. दिल में नई चाहत सी उमड़ पड़ी थी. वह फिर उस परी को देखना चाहता था, पर वह नजर न आई.

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इस के बाद आसिफ रोज सुबहसुबह मुंह में दातुन दबाए छत पर चढ़ जाता. परी आंगन में आती. उस की निगाह आसिफ की निगाह से टकराती. फिर वह शरमा कर छिप जाती. लेकिन एक दिन आसिफ को देख कर उस की निगाह झुकी नहीं. वह उसे देखती रही. आसिफ भी उसे देखता रहा. फिर उन के चेहरे पर मुसकराहटें फूटने लगीं और बाद में तो उन में इशारेबाजी भी होने लगी.

अब उन दोनों के बीच केवल बातें होनी बाकी थीं. पर इस के लिए आसिफ को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. मास्टर साहब सुबहसवेरे घर से निकलते थे तो स्कूल से शाम को ही लौटते थे. उन के बच्चे भी स्कूल चले जाते थे. घर में केवल मास्टर साहब की अंधीबहरी मां रह जाती थीं.

एक दिन उस परी का इशारा पा कर आसिफ नजर बचा कर उन के घर में घुस गया. वह उसे बड़े प्यार से अपने कमरे में ले गई और पलंग पर बैठने का इशारा कर के खुद भी पास बैठ गई. थोड़ी घबराहट के साथ उन में बातचीत शुरू हुई. उस ने अपना नाम जूही बताया. आसिफ ने भी उसे अपना नाम बताया. फिर दोनों ने यह जाहिर किया कि वे एकदूसरे पर दिलोजान से मरते हैं.

आसिफ ने जूही के हाथों पर अपना हाथ रख दिया. वह सिहर उठी. उस पर नशा सा छाने लगा. आसिफ उस के जिस्म पर हाथ फेरने लगा. वह खामोश रही और खुद को आसिफ के हवाले करती चली गई. कुछ देर बाद जब वे दोनों एकदूसरे से अलग हुए तो जूही अपना दुखड़ा ले कर बैठ गई. ऐसा दुख जिस का आसिफ को पहले से अंदाजा था. लेकिन उस के मुंह से सुन कर आसिफ को पूरा यकीन हो गया. इस से उस का हौसला और भी बढ़ गया.

वह जूही को बांहों में भरते हुए बोला, ‘‘अब मैं तुम्हें कभी दुखी नहीं होने दूंगा.’’ उस के बाद तो उन के इस खेल का सिलसिला सा चल पड़ा. इस चक्कर में आसिफ अब सुबह के बजाय दोपहर को दुकान पर जाने लगा. वह रोज सुबह 10 बजे तक मास्टर साहब और उन के बच्चों के स्कूल जाने का इंतजार करता. जब वे चले जाते तो जूही का इशारा पा कर वह उस के पास पहुंच जाता. एक दिन वह मास्टर साहब के बैडरूम में पलंग पर लेट कर रेडियो पर गाने सुन रहा था. जूही उस के लिए रसोईघर में चाय बना रही थी. दरवाजा खुला हुआ था, जबकि रोज वह अंदर से बंद कर देती थी.

अचानक मास्टर साहब आ गए. उन का कोई जरूरी कागज छूट गया था. आसिफ को अपने पलंग पर आराम से पसरा देख मास्टर साहब के तनबदन में आग लग गई, पर उन्होंने सब्र से काम लिया और फाइल से कागज निकाल कर चुपचाप रसोईघर में चले गए.

‘‘आसिफ यहां क्या कर रहा है?’’ उन्होंने जूही से पूछा. अचानक मास्टर साहब की आवाज सुन कर जूही का पूरा जिस्म कांप गया और चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. लेकिन जल्दी ही वह संभलते हुए बोली, ‘‘जी, कुछ नहीं. जरा रेडियो का तार टूट गया था. मैं ने ही उसे बुलाया है.’’

मास्टर साहब फिर कुछ न बोले और चुपचाप घर से बाहर निकल गए. मास्टर साहब के बाहर जाने के बाद ही जूही की जान में जान आई. वह चाय छोड़ कर कमरे में आ गई. आसिफ अभी तक पलंग पर सहमा हुआ बैठा था.

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आसिफ ने कांपती आवाज में पूछा, ‘‘वे गए क्या…?’’ ‘‘हां,’’ जूही ने कहा.

‘‘दरवाजा बंद नहीं किया था क्या?’’ आसिफ ने पूछा. ‘‘ध्यान नहीं रहा,’’ जूही बोली.

‘‘अच्छा हुआ कि हम…’’ वह एक गहरी सांस ले कर बोला. ‘‘लगता है, उन्हें शक हो गया है,’’ जूही चिंता में डूबते हुए बोली.

‘‘कुछ नहीं होगा…’’ आसिफ ने उस का कंधा दबाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए,’’ इतना कह कर वह दुकान पर चला गया. उस के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक मिलने से परहेज किया. जब वे मास्टर साहब की तरफ से पूरी तरह बेफिक्र हो गए, तो यह खेल फिर से

चल पड़ा और हफ्तोंमहीनों नहीं, बल्कि सालों तक चलता रहा. उस दौरान जूही 2 बच्चों की मां भी बन गई. एक दिन मास्टर साहब काफी गुस्से में घर में दाखिल हुए. किसी ने जूही के खिलाफ उन के कान भर दिए थे.

जूही को देखते ही मास्टर साहब उस पर बरस पड़े, ‘‘क्या समझती हो अपनेआप को. जो तुम कर रही हो, उस का मुझे पता नहीं है. आज के बाद अगर आसिफ यहां आया तो उसे जिंदा न छोड़ूंगा.’’

यह सुन कर जूही डर गई और कुछ भी नहीं बोली. फिर मास्टर साहब गुस्से में आसिफ के अब्बा के पास जा कर चिल्लाने लगे, ‘‘अपने लड़के को समझा दीजिए, मेरी गैरमौजूदगी में वह मेरे घर में घुसा रहता है. आज के बाद उसे वहां देख लिया तो गोली मरवा दूंगा.’’

आसिफ के अब्बा निहायत ही शरीफ इनसान थे, इसलिए उन्होंने अपने बेटे को खूब डांटाफटकारा. इस का नतीजा यह हुआ कि एक दिन आसिफ ने मास्टर साहब को रास्ते में रोक लिया. ‘‘अब्बा से क्या कहा तुम ने? मुझे गोली मरवाओगे? तुम्हारी खोपड़ी उड़ा दूंगा, अगर उन से कुछ कहा तो,’’ आसिफ ने मास्टर साहब का गरीबान पकड़ कर धमकी दी.

उस के बाद न तो मास्टर साहब ने आसिफ को गोली मरवाई और न ही आसिफ ने मास्टर साहब की खोपड़ी उड़ाई. धीरेधीरे बात पुरानी हो गई. जिस्मों का खेल बंद हो गया. लेकिन आंखों का खेल जारी रहा और आसिफ इंतजार करता रहा जूही के बुलावे का.

पर जूही ने उसे फिर कभी नहीं बुलाया. हां, उस ने एक खत जरूर आसिफ को भिजवा दिया जिस में लिखा था:

‘तुम तो जानते हो कि मैं अपनी किस मजबूरी के चलते इस अधेड़ आदमी से ब्याही गई हूं. अगर यह भी मुझे छोड़ देंगे तो फिर मुझे कौन अपनाएगा? अब मेरे बच्चे भी हैं, उन्हें कौन सहारा देगा? यह सब सोच कर डर सा लगता है. उम्मीद है, तुम मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश करोगे.’ खत पढ़ने के बाद आसिफ ने दरवाजे पर खड़ेखड़े बड़ी बेबसी से जूही की तरफ देखा और भारी कदमों से दुकान की तरफ बढ़ गया.

ऐसे रिश्ते का यह खात्मा तो होना ही था. वह तो मास्टर साहब की भलमनसाहत थी कि जूही और आसिफ सहीसलामत रह गए.

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किस गुनाह की सजा: रजिया आपा ने क्यों मांगी माफी

मुझे लगा कि मुझे देखते ही वह गुस्से से भर कर उलाहना देगी, लेकिन उलाहना तो दूर शिकायत करना भी उस की फितरत में नहीं था. मैं उसे तब से जानता हूं, जब वह फ्रौक पहन कर पीठ पर बस्ता टांगे उछलतीकूदती स्कूल जाती थी.

इस दुनिया में नहीं रहे मेरे दोस्त की एकलौती बहन रिया पोस्ट ग्रेजुएट होते ही शादी के रेशमी धागे में बांध दी गई.

रिया नई दुनिया के मीठे सपनों को पलकों पर सजा भी नहीं पाई थी कि एक राज खुला. उस का पति मैट्रिक फेल ही नहीं था, बल्कि शराबी और सट्टेबाज भी था.

रिया 6 साल से तंग गली के झोंपड़ेनुमा मकान में आंसुओं से भीगती रही और अपने गरम गोश्त को नुचते हुए देख कर भी अपनी जबान पर सौ ताले लगा लेती.

जुल्म के मुंह में लंबी जबान होती है न, पति का मुंह खुलता तो रिया के मरहूम भाई और मांबाप के लिए गालियों का भभका फूटता.

2 बच्चे, भूख का जमघट और चुभते शब्दों का जहर उस समय कहर बन कर टूटा, जब तलाक का भयानक धमाका गोली की तरह रिया के कानों में धंस गया. वह किरचियों में बिखर गई.

रिया की सिसकियां सुन कर मैं यादों से बाहर लौट आया.

‘‘क्या बात है? आज तुम बहुत परेशान लग रही हो रिया?’’ मैं ने हमारे बीच खिंची खामोशी की लंबी लकीर को चीरते हुए पूछा.

कुछ देर तक तो वह अपनी बड़ीबड़ी आंखों की पलकों में आंसुओं की लडि़यां समेटे मुझे बड़ी बेबसी से देखती रही, फिर इतना ही बोल पाई, ‘‘कैलाश भाई, जिया साहब का इंतकाल हो गया.’’

यह सुन कर मैं सन्न रह गया.

‘‘कब?’’

‘‘8 दिन पहले.’’

‘‘तुम्हें कब और कैसे पता चला?’’ मैं ने बौखला कर पूछा.

‘‘आज ही मुमताज भाभी का फोन आया था,’’ कहते ही रिया की सिसकियां बंध गईं.

‘‘कैलाश भैया, मुझ से बरदाश्त नहीं हो रहा है. मैं क्या करूं?’’ रिया छाती को कस के दबा कर फर्श पर बैठ गई.

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‘‘खबर देर से मिली, मगर मिली तो सही… रिया, तुम्हें हिम्मत रखनी होगी, बरदाश्त करना होगा.’’

‘‘कैसे करूं बरदाश्त भैया…’’ रिया दर्द से बिलबिला पड़ी.

‘‘रिया, तुम्हें जिया साहब के घर जरूर जाना चाहिए,’’ मैं ने उस का ध्यान बांटने के लिए कहा.

‘‘कैसे जाऊं वहां, रजिया आपा तो मुझे ही जिया साहब की मौत का जिम्मेदार ठहराएंगी न. यह भी तो हो सकता है कि वे मुझे अपने घर में घुसने ही न दें. तब मैं तमाशा बन कर रह जाऊंगी.

‘‘मैं ने जिया साहब के सहारे रजिया आपा की नफरत को झेला है… उन के बिना… रजिया आपा का गुस्सा…?’’

‘‘रिया, मैं जानता हूं कि कि इस वक्त तुम्हारे सीने में मजबूरी के भंवर उठ रहे हैं. लेकिन बहन, जिया साहब की मौत पर भी उन के घर न जाना तुम्हें निहायत खुदगर्ज साबित कर देगा.

‘‘मैं जानता हूं कि दर्द को चुपचाप सहना तुम्हारी फितरत में है. लोगों की हमदर्दी हासिल करना तुम्हारे मिजाज में नहीं, लेकिन कभीकभी एहसास का इजहार भी लोगों की संतुष्टि के लिए बहुत जरूरी होता है. रस्में निभाने के लिए ही जाओ रिया.

‘‘अगर तुम वहां अभी नहीं गईं, तो पूरी जिंदगी तुम्हारा दिल तुम्हें कोसता रहेगा. तुम्हारे बहनोई जिया साहब के साथ तुम्हारे बेगरज रिश्तों पर लगाई गई तोहमतों की मुहर तुम्हारी सचाई को रुसवा कर देगी. वक्त हाथ से निकल जाएगा और जिंदगीभर तुम पछतावे की आग में झुलसती रहोगी.

‘‘चलो, चलो, उठो. वहां चलने की तैयारी कर लो. मैं ले चलता हूं तुम्हें जबलपुर. रजिया आपा की हर बात चुपचाप सुन लेना. बहन, इस नाजुक दौर में तुम्हारी चुप्पी ही किला बन कर तुम्हारी हिफाजत करेगी,’’ मैं ने रिया को समझाया.

उसी शाम रिया मेरे साथ जबलपुर के लिए रवाना हो गई. वह रास्तेभर यादों की खोहों में भटकती, भविष्य की पलपल टूटती तसवीर को अपने आंसुओं भरी आंखों में समेटने की कोशिश करती रही.

वहां पहुंच कर मैं ने कहा, ‘‘रिया, तुम वहां चली जाओ. मैं तुम्हारा वेटिंग रूम में इंतजार करता हूं.’’

आटोरिकशा वाले को जिया साहब का पता समझा कर रिया को उसे रजिया आपा के पास भेज तो दिया, मगर उस के जाने और आने के बीच मेरी सांस गले में ही अटकी रही.

कहीं रजिया आपा की 2 बेटियां… दामाद, 2 बेटे… बहुएं कोई बदतमीजी न कर बैठें रिया के साथ. कमजोर तो वह है ही, कहीं सदमे से बेहोश या कुछ… तब कौन संभालेगा उसे?

मुझे अपनेआप पर गुस्सा आने लगा. क्या जरूरत थी रिया को उस दहकती भट्ठी में झोंकने की? क्या जरूरत थी टूटे रिश्तों की लाश को कब्र से बाहर निकाल कर हमदर्दी जतलाने की? क्या इतना जरूरी है रस्मेदुनिया निभाना?

3 घंटे बाद रिया वेटिंग रूम में लौट आई. चेहरा बुझा हुआ, जैसे किसी ने खून चूस लिया हो. रोरो कर उस की आंखें सूज गई थीं और नीले पड़े होंठों पर जमी चुप्पी की पपड़ी.

मैं ने पानी की बोतल उस की तरफ बढ़ा दी. पानी का घूंट गटकने में भी उसे जबरदस्त तकलीफ हो रही थी. वह निढाल सी पड़ गई. आधे घंटे बाद अपनी आदत के मुताबिक वह धीमी आवाज में बतलाने लगी कि फ्लैट की घंटी बजते ही रजिया आपा की अम्मी यानी रिया की सगी फूफी से सामना हो गया. पूरे 20 साल बाद फूफी ने रिया को देखा था. चश्मा साफ कर उसे पहचानने की कोशिश की, फिर भी पहचान नहीं सकीं.

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‘‘जी, मैं रिया हूं,’’ याददाश्त पर जोर दे कर पहचानते हुए गर्मजोशी से रिया बोली, ‘‘आदाब फूफीजान.’’

‘‘जीती रहो…’’ ममता से भरा बूढ़ा हाथ रिया के सिर पर आ टिका.

‘‘रजिया देख तो सही, रिया आई है. मुन्नू, नन्हू, पप्पू देखो तो तुम्हारी खाला आई हैं…’’ लहक कर बोलीं फूफी. कमरे के परदे के पीछे रिया को हिलतीडुलती परछाइयां दिख रही थीं, मगर अंदर घुटन भरा सन्नाटा तैर रहा था.

‘‘आ बैठ बेटी इधर मेरे पास…’’ और रिया के दोनों हाथों को छाती से भींच कर फूफी हिचकियों से रो पड़ीं, ‘‘दामाद चला गया रिया… यह सदमा बरदाश्त करने के लिए खुदा ने मुझे क्यों जिंदा रखा है आज तक?

‘‘3 साल पहले ही तो तुम्हारे फूफा का इंतकाल हुआ था और अब तुम्हारे बहनोई का सदमा… सहा नहीं जाता मेरी बच्ची… सहा नहीं जाता…’’ सब्र का बांध टूट गया और आंसुओं का सैलाब बह निकला.

रिया फूफी से लिपट कर दहाड़ मार कर रो पड़ी.

रजिया आपा ने रिया को देख तो लिया, मगर वे मुखातिब नहीं हुईं. अंदर वाले कमरे में वे सोफे पर मूर्ति की तरह बैठी रहीं.

रिया को याद आ गई मरने से पहले जिया साहब के साथ हुई आखिरी मुलाकात… तना हुआ चेहरा… हाथ का निवाला हाथ में, मुंह का निवाला भी जस का तस.

‘कुछ परेशान से नजर आ रहे हैं आप… क्या बात है दूल्हा भाई?’ हमेशा मुसकराती रहने वाली जिंदगी से भरी उन की आंखों में आंसू छलछला गए, ‘जब से हम आप के पास आने लगे हैं, आप की बहन हम से बोलती नहीं हैं. न तो वे हमारे कमरे में आती हैं और न ही कोई रिश्ता…’ शब्द उन के गले में अटकने लगे.

‘लेकिन क्यों…?’ हैरत से रिया की आंखें फैल गईं.

‘हमें आप की और बच्चों की फिक्र करते देख वे समझती हैं कि हम ने आप से…’

‘ओह, इतनी बड़ी गलतफहमी. आप ने समझाया क्यों नहीं?’ रिया ने कहा.

‘अगर उन्होंने सिर्फ हम से कहा होता तो हम बरदाश्त कर लेते, मगर उन्होंने तो पूरे खानदान को यही बतला रखा है. हम जिस से भी मिलते हैं, वह पहले तुम्हारी खैरियत पूछ कर हमें तंज कसता है.’

‘तो आप ने सफाई क्यों नहीं दी? सच क्यों नहीं बतलाया?’ रिया बेचैन हो गई.

‘रिया, हम सफाई दें? हम सच बतलाएं? रजिया ने इतना ही समझा है हमें… 30 साल की हर सांस हम ने उन के नाम कर दी, फिर भी उन्हें अपने शौहर पर एतबार नहीं…

‘उन्होंने ऐसा सोच भी कैसे लिया… बस, यही दर्द घुन बन कर हमें खाए जा रहा है,’ दूल्हा भाई की टूटन ने रिया को भीतर तक आहत कर दिया.

‘आप कहें, तो मैं बात करूं रजिया आपा से…’

‘कोई फायदा नहीं… मैं ने उन्हें हर तरह से समझाया, तुम्हारी और बच्चों की मजबूरी का हवाला दे कर बड़ी बहन के फर्ज की भी याद दिलाई, मगर… वह पत्थरदिल औरत जरा भी नहीं पसीजी. शक… और सिर्फ शक…

‘शायद जीतेजी तो अब कभी यह खाई नहीं भरेगी… हम ने भी सोच लिया है, जिस दिन उन्हें हम पर एतबार हो जाएगा… वे खुद पछतावा करेंगी… और खुद हमारे पास…’ सिसक पड़े दूल्हा भाई.

‘मैं खुद उन से मिल कर… सारी बात साफ करूं,’ रिया का आत्मसम्मान सिर उठाने लगा.

‘रिया, आप की जिद्दी बहन आप की शक्ल तो क्या, नाम तक सुनना नहीं चाहतीं… छोड़ो… सचाई खुद ब खुद सामने आ जाएगी… मेरा और आप का दिल साफ है न…’

घर वापस लौटने के बाद पहला दिल का दौरा पड़ा था जिया साहब को.

बेटेबहुओं, बच्चों से भरापूरा घर, मगर कोई भी रिया से मिलने बाहर नहीं आया.

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रिया ने सागर में रजिया आपा के घर रह कर ही पोस्ट ग्रेजुएशन किया था. ये वही बच्चे थे, जो बचपन में रिया के साथ ही सोने, उस के ही हाथ से नहाने और खाने की जिद किया करते थे. जरा सा बुखार हो या सर्दी, खांसी हो जाती, तो रिया कालेज की छुट्टी ले कर दिनरात उन्हें छाती से लगाए रहती थी. रजिया आपा बेफिक्री से जिया साहब के चौड़े सीने पर सिर रख कर चैन की नींद सोती थीं.

एक बार 5 साल के नन्हू ने घूमने न ले जाने पर रिया के कंधे पर इतनी जोर से दांत गड़ा दिए थे कि छलछला गया. बरसों गुजर गए, जख्म भर गया, मगर हाथ ऊपर उठाने पर दर्द की टीस आज भी महसूस होती है. उन्हीं जान से ज्यादा अजीज बच्चों के लिए रिया आज अजनबी बन गई. गलतफहमी के फूस पर लालच की चिनगारी ने आग लगा दी. रिश्ते धूधू कर जलने लगे…

लेकिन, वक्त की बेरहम आंधी के थपेड़ों से दूर फूफी जान के चेहरे पर रिया से शिकायत की हलकी सी लकीर भी न थी. प्यार और ममता को आंचल में समेटे बरसों बाद भी फूफी अम्मां पुरइन के पत्तों पर ठहरी शबनम की तरह रिया की हथेलियां अपने हाथों में लिए मुहब्बतों और दुआ के खजाने लुटा रही थीं.

‘‘चल उठ रिया… हाथमुंह धो ले… कब चली थी… अकेली क्यों आई है…? बच्चों को साथ क्यों नहीं लाई…? चल, कुछ खापी ले…’’ एकसाथ कई सवालों के जवाबों का इंतजार किए बिना ही फूफी ने आवाज लगाई… ‘‘अरे नूरजहां, रिया खाला के लिए चायनाश्ता ले कर आ बेटी,’’ मगर अंदर का सन्नाटा पहले जैसा बना रहा.

फूफी का हाथ आंखों से लगा कर सिसक पड़ी रिया, ‘‘फूफी, यह सब कैसे हुआ? कब हुआ फूफी?’’

‘‘जाने कौन सा गम खाए जा रहा था जिया साहब को. चुप रहने लगे थे,

2 बार तो दिल का दौरा पड़ चुका था. इलाज चल रहा था कि 8 दिन पहले सो कर उठ ही रहे थे कि सीने से दबाए चीख मार कर ऐसे गिरे कि फिर उठ न सके,’’ कह कर फूफी सिसकने लगीं.

रिया का जी चाहा कि भीतर जा कर रजिया आपा के कंधे को झकझोर कर पूछे, ‘दूल्हा भाई की मौत की खबर मुझे क्यों नहीं दी गई? क्या मेरा उन से कोई रिश्ता नहीं था…? क्या उन के आखिरी दीदार का हक मुझे नहीं था?’ लेकिन सीमा न लांघने और हर बरताव झेलने का कौल कैसे तोड़ सकती थी भला? सब्र की हद छूती मुंह में आंचल ठूंसे रोती रही रिया.

‘‘तुम्हें इस हादसे की खबर कब और कैसे मिली?’’ फूफी का सवाल चाबुक की तरह सीने पर पड़ा. नजरें फूफी के भाव टटोलने लगीं, मगर उन के झुर्रियों भरे चेहरे पर किसी मक्कारी भरी साजिश की झलक तक न थी.

‘‘कल मुमताज भाभी ने फोन पर बतलाया,’’ यह सुन कर फूफी ठंडी सांस भर कर रह गईं.

फूफी ने ही तो बचपन में गोद में खिलाया था रिया को. अम्मी की तबीयत अकसर खराब रहती थी.

फूफी उसे चम्मच से दूध पिलातीं, दिनरात उस की देखभाल में लगी रहतीं. घर में सभी मजाक करते, ‘दूसरी बेटी कब हुई… कहीं दावत न देनी पड़े, इसलिए बतलाया नहीं.’

‘भाई की बेटी मेरी ही तो बेटी हुई न,’ फूफी चुटकी का जवाब मुस्कुरा कर देतीं.

अम्मी के इंतकाल के बाद फूफी ने रिया और उस के बड़े भाई को पालपोस कर पढ़ायालिखाया.

फूफी के बरताव में कोई कड़वाहट नहीं… कोई छलकपट नहीं… फरेब नहीं, आखिर किस रिश्ते से… फूफीभतीजी… या मांबेटी… या फिर इनसानी रिश्ता… कहना मुश्किल था.

रिया परदा उठा कर भीतर के कमरे में पहुंच गई, जहां जिया साहब का पूरा कुनबा मूर्ति सा खड़ा उसे जहरीली नजरों से घूर रहा था.

रजिया आपा पत्थर की तरह खामोश बैठी थीं. कौन कहता है औरत कमजोर है. डरपोक है. अपने हक छीनने वाली औरत को और खुद के शौहर को उन्होंने सिरे से नकार दिया था. कोई बहस नहीं, कोई जिरह नहीं, कोई लड़ाईझगड़ा नहीं. अपना अहम, अपनी खुद्दारी की सीढि़यां चढ़ कर अपना मुकाम खुद बनाने का हौसला पालती रहीं. अपनी बेइज्जती की सजा देती रही उस शख्स को, जो एक लमहा भी उन के खयाल से कभी दूर न रहा… गलतफहमी… एक… पूरा परिवार उजाड़ देगी… रिया कांपने लगी…

‘‘रजिया आपा, मैं जा रही हूं,’’ रिया की आवाज तैर कर उसी के कानों से टकराने लगी.

‘‘पता नहीं, अब कभी मुलाकात हो या न हो… इसलिए जाने से पहले बतलाना चाहती हूं कि दूल्हा भाई मेरे लिए फरिश्ता थे. मेरे और बच्चों की फिक्र कर उन्होंने रिश्ते को इनसानियत की बुलंदी तक पहुंचाया. आप ने उन के साथ बहुत ज्यादती की. अपनी बहन पर कभी यकीन नहीं किया. यही दर्द उन्हें ले डूबा.

‘‘रजिया आपा, यह पूरी कायनात गवाह है कि उन्होंने मुझ से निकाह नहीं किया था. आप ने मुझ से मेरा मसीहा छीन कर मेरे बच्चों को फिर से यतीम बना दिया.’’

रजिया आपा ने पहली बार नजर उठा कर रिया की तरफ देखा. बेनूर आंखों में सैकड़ों रेगिस्तानों की वीरानी और होंठों पर अनगिनत बयाबानों की जानलेवा खामोशी.रिया के फ्लैट से बाहर निकलते ही रजिया आपा धड़ाम से कुरसी से गिर कर फर्श पर बिखर गईं, ‘‘जिया साहब, मुझे माफ कीजिए… माफ कर दीजिए मुझे…’’ एक चीख उभरी और फिर गहरी चुप्पी छा गई.

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ऐसा ही होता है: लक्ष्मी का क्या था फैसला

जब से यह पता चला कि गंगूबाई धंधा करते हुए पकड़ी गई है,  तब से लक्ष्मी की बस्ती में हड़कंप मच गया. क्यों?  ‘‘सुनती हो लक्ष्मी…’’ मांगीलाल ने आ कर जब यह बात कही, तब लक्ष्मी बोली, ‘‘क्या है… क्यों इतना गला फाड़ कर चिल्ला रहे हो?’’

‘‘गंगूबाई के बारे में कुछ सुना है तुम ने?’’

‘‘हां, उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…’’ लक्ष्मी ने सीधा सपाट जवाब दिया, ‘‘अब क्यों ले गई, यह मत पूछना.’’

‘‘मु झे सब मालूम है…’’ मांगीलाल ने जवाब दिया, ‘‘कैसा घिनौना काम किया. अपने मरद के साथ ही धोखा किया.’’

‘‘धोखा तो दिया, मगर बेशर्म भी थी. उस का मरद कमा रहा था, तब धंधा करने की क्या जरूरत थी?’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘उस की कोई मजबूरी रही होगी,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘अरे, कोई मजबूरी नहीं थी. उसे तो पैसा चाहिए था, इसलिए यह धंधा अपनाया. उस का मरद इतना कमाता नहीं था, फिर भी वह बनसंवर के क्यों रहती थी? अरे, धंधे वाली बन कर ही पैसा कमाना था, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ जाती. महल्ले की सारी औरतों को बदनाम कर दिया,’’ लक्ष्मी ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी.

‘‘उस का पति ट्रक ड्राइवर है. बहुत लंबा सफर करता है. 8-8 दिन तक घर नहीं आता है. ऐसे में…’’

‘‘अरे, आग लगे ऐसी जवानी को…’’ बीच में ही बात काट कर लक्ष्मी  झल्ला पड़ी, ‘‘मैं उस को अच्छी तरह जानती हूं. वह पैसों के लिए धंधा करती थी. अच्छा हुआ जो पकड़ी गई, नहीं तो बस्ती की दूसरी औरतों को भी बिगाड़ती. न जाने कितनी लड़कियों को अपने साथ इस धंधे में डालने की कोशिश करती वह बदचलन औरत.’’

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‘‘उस के साथ तो और भी औरतें होंगी?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘हांहां, होंगी क्यों नहीं, बेचारा मरद तो ट्रक ड्राइवर है. देश के न जाने किसकिस कोने में जाता रहता है. कभीकभार तो 15-15 दिन तक घर नहीं आता है. तब गंगूबाई की जवानी में आग लगती होगी… बु झाने के बहाने यह धंधा अपना लिया.’’

‘‘क्या करें लक्ष्मी, जवानी होती ऐसी है…’’ मांगीलाल ने जब यह बात कही, तब लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘तू क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है?’’

‘‘पूरी बस्ती में गंगूबाई की थूथू जो हो रही है,’’ मांगीलाल ने बात पलटते हुए कहा.

लक्ष्मी बोली, ‘‘दिन में कैसी सती सावित्री बन कर रहती थी.’’

‘‘मगर, तू उसे बारबार कोस क्यों रही है?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘कोसूं नहीं तो क्या पूजा करूं उस बदचलन की,’’ उसी गुस्से से फिर लक्ष्मी बोली, ‘‘करतूतें तो पहले से दिख रही थीं. उसे मेहनत कर के कमाने में जोर आता था, इसलिए नासपीटी ने यह धंधा अपनाया.’’

‘‘अब तू लाख गाली दे उसे, उस ने तो कमाई का साधन बना रखा था. अरे, कई औरतें कमाई के लिए यह धंधा करती हैं…’’ मांगीलाल ने जब यह कहा, तब लक्ष्मी आगबबूला हो कर बोली,

‘‘तू क्यों बारबार दिलचस्पी ले रहा है? तेरा क्या मतलब? तु झे काम पर नहीं जाना है क्या?’’

‘‘जा रहा हूं बाबा, क्यों नाराज हो रही हो?’’ कह कर मांगीलाल तो चला गया, मगर लक्ष्मी न जाने कितनी देर तक गंगूबाई की करतूतों को ले कर बड़बड़ाती रही, फिर वह भी बरतन मांजने के लिए कालोनी की ओर बढ़ गई.

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इस कालोनी में लक्ष्मी 4-5 घरों में बरतन मांजने का काम करती है. मांगीलाल किराने की दुकान पर मुनीमगीरी करता है. उस के एक बेटा और एक बेटी है. छोटा परिवार होने के बावजूद घर का खर्च मांगीलाल की तनख्वाह से जब पूरा नहीं पड़ा, तब लक्ष्मी भी घरघर जा कर बरतनबुहारी करने लगी. वह कालोनी वालों के लिए एक अच्छी मेहरी साबित हुई. वह रोजाना जाती थी. कभी जरूरी काम से छुट्टी भी लेनी होती थी, तब वह पहले से सूचना दे देती थी.

गंगूबाई लक्ष्मी की बस्ती में ही उस के घर से 5वें घर दूर रहती है. उस का मरद ट्रक ड्राइवर है, इसलिए आएदिन बाहर रहता है. उस के 2 बेटे अभी छोटे हैं, इसलिए उन्हें घर छोड़ कर गंगूबाई रात में कमाई करने जाती है.

पूरी बस्ती में यही चर्चा चल रही थी. गंगूबाई पर सभी थूथू कर रहे थे.

छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. उसे कई बार आधीआधी रात को घर आते हुए देखा था. वह कई बार किसी अनजाने मरद को भी अपने घर में बुला लेती थी, फिर बस्ती वालों को भनक लग गई. उन्होंने एतराज किया कि अनजान मर्दों को घर में बुला कर दरवाजा बंद करना अच्छी बात नहीं है.

तब गंगूबाई ने गैरमर्दों को घर बुलाना बंद कर दिया. तब से उस ने कमाने के लिए किसी होटल को अड्डा बना लिया था. पुलिस ने जब उस होटल पर छापा मारा, तब उस के साथ 3 औरतें और पकड़ी गई थीं. मतलब, होटल वाला पूरा गिरोह चला रहा था.

बस्ती वालों को शक तो बहुत पहले से था, मगर जब तक रंगे हाथ न पकड़ें तब तक किसी पर कैसे इलजाम लगा सकें. छोटे बच्चे जब पूछते थे, तब गंगूबाई कहती थी, ‘‘मैं ने नौकरी कर ली है. तुम्हारा बाप तो 10-15 दिन तक ट्रक पर रहता है, तब पैसे भी तो चाहिए.’’

ऐसी ही बात गंगूबाई बस्ती वालों से कहती थी कि वह नौकरी करती है.

बस्ती वाले सवाल उठाते थे कि नौकरी तो दिन में होती है, भला रात में ऐसी कौन सी नौकरी है, जो वह करती है?

मगर, गंगूबाई ऐसी बातों को हंसी में टाल देती थी. मगर जब भी उस का मरद घर पर होता था, तब वह शहर नहीं जाती थी. तब बस्ती वाले सवाल उठाते, ‘जब तेरा मरद घर पर रहता है, तब तू क्यों नहीं नौकरी पर जाती है?’

तब वह हंस कर कहती, ‘‘मरद 10-15 दिन बाद सफर कर के थकाहारा आता है. तब उस की सेवा में लगना पड़ता है.’’

तब बस्ती वाले कहते, ‘तू जोकुछ कह रही है, उस में जरा भी सचाई नहीं है. कभीकभी आधी रात को आना शक पैदा करता है. लगता है कि नौकरी के बहाने…’

‘‘बसबस, आगे मत बोलो. बिना देखे किसी पर इलजाम लगाना अपराध है. आप मेरी निजी जिंदगी में  झांक रहे हैं. क्या पेट भरने के लिए नौकरी करना भी गुनाह है?’’

तब बस्ती वालों ने गंगूबाई को अपने हाल पर छोड़ दिया. मगर वे सम झ गए थे कि गंगूबाई धंधा करती है.

‘‘लक्ष्मी, कहां जा रही है?’’ लक्ष्मी की सारी यादें टूट गईं. यह उस की सहेली कंचन थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बरतन मांजने जा रही हूं साहब लोगों के बंगले पर.’’

‘‘धत तेरे की, कुछ गंगूबाई से सबक सीख,’’ कंचन मुसकराते हुए बोली.

‘‘किस नासपीटी का नाम ले लिया तू ने,’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘बिस्तर पर सो कर कमा रही थी और तू उसे नासपीटी कह रही है?’’

‘‘उस ने औरत जात को बदनाम कर दिया है. मरद तो बेचारा परदेश में पड़ा रहता है और वह छोटे बच्चों को घर छोड़ कर गुलछर्रे उड़ा रही थी. उस के बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘अरे, पुलिस उस के बच्चों को भी अपने साथ ले गई है…’’ कंचन ने जवाब दिया, ‘‘गंगूबाई पर शक तो बहुत पहले से था.’’

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‘‘मगर, किसी ने उसे आज तक रंगे हाथ नहीं पकड़ा है,’’ लक्ष्मी ने जरा तेज आवाज में कहा.

‘‘हां, पकड़ा तो नहीं…’’ कंचन ने कहा, फिर वह आगे बोली, ‘‘अरे, तु झे काम पर जाना है न, जा बरतन मांज कर अपनी हड्डियां गला.’’

लक्ष्मी साहब के बंगले की तरफ बढ़ चली. आज उसे देर हो गई, इसलिए वह जल्दीजल्दी जाने लगी. सब से पहले उसे त्रिवेदीजी के बंगले पर जाना था.

जब लक्ष्मी त्रिवेदीजी के बंगले पर पहुंची, तब मेमसाहब उसी का इंतजार कर रही थीं. वे नाराजगी से बोलीं, ‘‘आज देर कैसे हो गई लक्ष्मी?’’

‘‘क्या करूं मेमसाहब, आज बस्ती में एक लफड़ा हो गया.’’

‘‘अरे, बस्ती में लफड़ा कब नहीं होता. वहां तो आएदिन लफड़ा होता रहता है.’’

‘‘बात यह नहीं है मेमसाहब. गंगूबाई नाम की औरत धंधा करती हुई पकड़ी गई है.’’

‘‘इस में भी कौन सी नई बात है. बस्ती की गरीब औरतें यह धंधा करती हैं. गंगूबाई ने ऐसा कर लिया, तब तो उस की कोई मजबूरी रही होगी.’’

‘‘अरे मेमसाहब, यह बात नहीं है. वह शादीशुदा है और 2 बच्चों की मां भी है.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां होना गुनाह है क्या? पैसा कमाने के लिए ज्यादातर औरतें यह धंधा करती हैं…’’ मेम साहब बोलीं, ‘‘औरतें इस धंधे में क्यों आती हैं? इस की जड़ पैसा है. इन गरीब घरों में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मेमसाहब, आप पढ़ीलिखी हैं, इसलिए ऐसा सोचती हैं. मगर, मैं इतना जरूर जानती हूं कि छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. अब आप से कौन बहस करे… यहां से मु झे गुप्ताजी के घर जाना है. अगर देर हो गई तो वहां भी डांट पड़ेगी,’’ कह कर लक्ष्मी रसोईघर में चली गई.

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इजाबेला: गंगूबाई ने क्यों की उसकी मदद

कहानी- अनिता सभरवाल

इजाबेला, 13 साल की दुबलीपतली लड़की को एनीपौल और आर्थर दंपती ने बड़ी शान से गोद लिया. उस की दयनीय नजरें कई सवाल पैदा करती थीं. लेकिन उस की मासूम जबान उन सवालों का जवाब देने की हिम्मत नहीं कर पाती थी.

‘‘इजाबेला नाम है इस का,’’ एनी पौल ने बड़े प्यार से एक दुबलीपतली लड़की को अपने से सटाते हुए कहा, ‘‘हमारी बेटी.’’

यद्यपि किसी को उन की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था लेकिन जब वह कह रही हैं तो मानना ही पड़ेगा. अत: सभी ने गरमागरम पकौड़े खाते हुए उन की और उन के पति की मुक्तकंठ से प्रशंसा की.

दरअसल मद्रास से लौटने के बाद उसी दिन शाम को एनी ने अपनी पड़ोसिनों को चाय पर बुलाया और सूचना दी कि उन्होंने एक लड़की गोद ली है.

उस 13 साल की दुबलीपतली लड़की को देख कर नहीं लगता था कि उस का नाम इजाबेला भी हो सकता है. एनी ने ही रखा होगा यह खूबसूरत नाम. उस की सेहत ही बता रही थी कि उस ने शायद ही कभी भरपेट भोजन किया हो.

इस अप्रत्याशित सूचना से पड़ोस की महिलाएं हैरान थीं. सब मन ही मन एनी पौल की घोषणा पर अटकलें लगा रही थीं कि आखिर समीरा ने झिझकते हुए पूछ ही लिया, ‘‘एनी, तुम्हारे 2 बेटे तो हैं ही, फिर आज की महंगाई में…’’

उस की बात को बीच में काटती हुई एनी बोलीं, ‘‘अरे, बेटे हैं न, बेटी कहां है. और तुम तो जानती हो कि बेटी के बिना भी घर में रौनक होती है क्या? आर्थर को एक बेटी की बहुत चाहत थी. हम ने 2 साल बहुत सोचविचार किया और खुद को बड़ी मुश्किल से मानसिक रूप से तैयार किया. सोचा, यदि गोद ही लेनी है तो क्यों न किसी गरीब परिवार की बच्ची को लिया जाए.’’

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अपनी बात को खत्म करतेकरते एनी की आंखों में प्यार के आंसू उमड़ आए. इस दृश्य और बातचीत के अंदाज से सब का संदेह कुछकुछ दूर हो गया. कुछकुछ इसलिए क्योंकि ज्यादातर लोगों की सोच यह थी कि कामकाज के लिए एनी बेटी गोद लेने के बहाने नौकरानी ले आई हैं.

इजाबेला अब कभीकभी नए कपड़ों में दिखाई देने लगी. लेकिन उस के नए कपड़े ऐसे नहीं थे कि वह एनी पौल की बेटी लगे. एनी के बेटे आपस में खेलते नजर आते पर उन की दोस्ती इजाबेला से नहीं हुई थी. वह बरामदे के एक कोने में खड़ी रहती. उदास या खुश, पता नहीं चलता था. हां, सेहत जरूर कुछ सुधर गई थी…शायद ढंग से नहानेधोने के कारण रंग भी कुछ निखरानिखरा सा लगता था.

धीरेधीरे सब अपने कामों में मशगूल हो गए. फिर कभी वह लौन में से पत्तियां उठाती दिखाई देती तो कभी पौधों में पानी देती. एक बार झाड़ू लगाती भी नजर आई थी. घर में काम करने वाली गंगूबाई से कालोनी की औरतों को यह भी पता चला कि इजाबेला अब खाना भी बनाने लगी है.

महिलाओं की सभा जुड़ी और सब के चेहरे पर एक ही भाव था कि मैं ने कहा था न…

महिलाओं की यह सुगबुगाहट एनी तक पहुंच गई थी और उन्होंने सोने के टौप्स दिखा कर सब का शक दूर कर दिया. सभी उस के सामने एनी की तारीफ तो करती थीं पर मन एनी के दिखावे को सच मानने को तैयार न था.

समय धीरेधीरे सरकता रहा. एनी और इजाबेला की खबरें कालोनी की औरतों को मिलती रहती थीं. लगभग 10 माह बाद एक दिन मीरा मौसी ने कहा, ‘‘मुझे तो लगता है कि घर का सारा काम इज्जु ही करती है.’’

‘‘कौन इज्जु?’’ एक महिला ने पूछा.

‘‘अरे, वही इज्जाबेला.’’

‘इज्जाबेला नहीं मौसी, इजाबेला… और समीरा एनी उसे इजू कहती हैं, न कि इज्जु,’’ लक्ष्मी ने बात स्पष्ट की.

‘‘कुछ भी कह लक्ष्मी, अगर बेटी होती तो क्या स्कूल नहीं जाती? यदि गोद लिया है तो अपनी औलाद की तरह भी तो पालना चाहिए न. काम के लिए नौकरानी लानी थी तो इतना नाटक करने की क्या जरूरत थी. ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं एनी पौल को,’’ मौसी ने कहा.

कभी कोई महिला इस लड़की के मांबाप पर गुस्सा निकालती कि कितनी दूर भेज दिया है लड़की को. ये लोग उसे कभी बाहर नहीं आने देते. किसी से बात नहीं करने देते. घर जाओ तो उसे दूसरे कमरे में भेज देते हैं. क्यों? मीरा मौसी को कुछ ही नहीं सबकुछ गड़बड़ लगता था. एक दिन एनी से पूछ ही लिया, ‘‘एनी, साल भर होने को आया, अभी तक अपनी बेटी का किसी स्कूल में एडमीशन नहीं करवाया.’’

एनी बड़ी नजाकत से बोली थीं, ‘‘मौसी, अब किसी ऐसेवैसे स्कूल में तो बेटी को भेजेंगे नहीं. जहां इस के भाई जाते हैं वहीं जाएगी न? और वहां दाखिला इतनी आसानी से कहां मिलता है. आर्थर प्रिंसिपल से मिला था. उम्र के हिसाब से इसे 9वीं में होना चाहिए. 14 की हो गई है. पर इसे कहां कुछ आता है. एकाध साल घर में ही तैयारी करवानी पड़ेगी. आर्थर पढ़ाता तो है.’’

मौसी कुछ और जानने की इच्छा लिए अंदर आतेआते बोलीं, ‘‘तो वहां कुछ नहीं पढ़ासीखा इस ने?’’

‘‘वहां सरकारी स्कूल में जाती थी. 5वीं तक पढ़ी है. फिर मां ने काम पर लगा दिया. अब यही तो कमी है न इन लोगों में. मुफ्त की आदत पड़ी हुई है फिर मैनर्स भी तो चाहिए. वैसे मौसी, इजाबेला चाय बहुत अच्छी बनाने लगी है,’’ फिर आवाज दे कर बोलीं, ‘‘इजू बेटे, मौसी को बढि़या सी चाय बना कर पिलाओ.’’

जब वह चाय बना कर लाई तो मौसी ने देखा कि उस ने बहुत सुंदर फ्राक पहनी हुई थी और करीने से बाल संवारे हुए थे. मौसी खुश हो गईं और संतुष्ट भी. उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ रखा तो एनी संतुष्ट हो गई.

‘‘इजू, शाम को बाहर खेला करो न. मेरी पोती भी तुम्हारी उम्र की है.’’

वह कुछ कहती उस से पहले एनी बोल उठीं, ‘‘मौसी, यह हिंदी, अंगरेजी नहीं जानती है. सिर्फ तमिल बोलती है. टूटीफूटी हिंदी की वजह से झिझकती है.’’

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इजू अब सारा दिन घर में इधरउधर चक्कर काटती दिखाई देती और एनी घर से निश्चिंत हो कर बाहर घूमती रहती. महल्ले की औरतों की हैरानी तब और बढ़ गई जब गंगूबाई छुट्टी पर थी और एनी ने एक बार भी किसी से कोई शिकायत नहीं की. मस्त थी वह. तो काम कौन करता है? पर अब कोई नहीं पूछता कुछ उस से क्योंकि जिन की बेटी है उन्हें ही कुछ परवा नहीं तो महल्ले वाले क्यों सोचें.

अब मौसी भी कुछ नहीं कह सकतीं. भई, जब बेटी बनाया है, घर दिया है तो वह कुछ काम तो करेगी ही न? और सब लोगों के बच्चे भी तो करते हैं. अब समीरा की बेटी को ही देख लो. 7वीं में पढ़ती है पर सुबह स्कूल जाने से पहले दूध ले कर आती है, डस्टिंग करती है और कोई घर पर आता है तो चाय वही बनाती है.

मीरा मौसी की पोती भी कुछ कम है क्या? टेबल लगाती है, दादीदादा को कौन सी दवा कब देनी है आदि बातों के साथसाथ मम्मी के आफिस से आने से पहले कितना काम कर के रखती है तो इजू क्यों नहीं अपने घर में काम कर सकती?

गंगूबाई बीमारी से लौट कर काम पर आई तो सब से पहले एनी के ही घर गई थी. लौट कर बाहर आई तो जोरजोर से बोलने लगी. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. फिर समीरा के घर पर हाथ  नचानचा कर कहने लगी, ‘‘सब जानती हूं मैं, 1,500 रुपए में खरीद कर लाए हैं, काम करने के वास्ते.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता, गंगूबाई?’’ समीरा ने पूछा.

‘‘अब कामधंधे पर निकलो तो सब की जानकारी रहती ही है. आप लोगों जैसे घर के अंदर बैठ कर बतियाते रहने से कहां कुछ पता चलता है,’’ फिर थोड़ा अकड़ कर गंगूबाई बोली, ‘‘मेरा भाई, आर्थर साहब के चपरासी का दोस्त है,’’ कह कर गंगूबाई मटकती हुई चली गई.

अब एनी पौल को घर और महल्लेवालों की परवा नहीं थी. वह नौकरी करने लगीं और इजू बिटिया घर की देखभाल. दत्तक बेटी से इजू नौकरानी बन गई थी. नौकरानी तो वह शुरू से ही थी पर पहले प्रशिक्षण चल रहा था अत: पता नहीं चलता था, अब फुल टाइम जौब है तो पता चल रहा है. इस तरह यह मुद्दा खत्म हो गया था कि बेटी है या नौकरानी. अब मुद्दा यह था कि उस के पास फुल टाइम मेड क्यों है? धीरेधीरे यह मुद्दा भी ठंडा पड़ने लगा.

इजाबेला ने नया माहौल स्वीकार कर लिया था. उस के पास और कोई चारा भी तो नहीं था. हंसतीमुसकराती इजाबेला सुबह काम में जुटती तो रात को 11-12 बजे ही बिस्तर पर जाने को मिलता. किसी दिन मेहमान आ जाते तो बस…

अपने कमरे में जा कर लेटती तो बोझिल पलकें लिए ‘रानी’ बन सुदूर गांव के अपने मांबाप के पास पहुंच जाती. सागर के किनारे खेलती रानी, रेत में घर बनाती रानी, छोटे भाईबहनों को संभालती रानी. बीमार मां की जगह राजश्री मैडम के घर बरतन मांजती… मां ने एक दिन उस के शराबी बाप से रोतेरोते कहा था, ‘शराब के लिए तू ने अपनी बेटी को बेच दिया है.’ उसे याद है एनी पौल का छुट्टियों में राजश्री के घर आना.

वह आंखें बंद कर मां के गले लग कर रोती. उसे इस तरह रोते 3 साल हो गए हैं. एनी मैडम ने कहा था कि हर साल छुट्टी पर उसे घर भेजेगी. कल वह जरूर बात करेगी.

अगली सुबह एडी को तेज बुखार था और वह सब भूल गई. एडी से तो उसे बहुत लगाव था. वह भी उस से खूब बातें करता था. इजाबेला पूरीपूरी रात एडी के कमरे में बैठ कर काट देती. पलक तक न झपकाती थी.

तीसरी रात जाने कैसे उसे नींद आ गई. और जब नींद खुली तो देखा आर्थर उस के ऊपर झुका हुआ था. वह जोरों से चीख पड़ी. पता नहीं किसी ने सुना या नहीं. अब इजाबेला आर्थर को जब भी देखती तो उस में अपने बाप का चेहरा नजर आता. इसीलिए वह बड़ी सहमी सी रहने लगी और फिर एक भरी दोपहरी में इजू बड़ी जोर से चीखी थी पर महानगरीय शिष्टता में उस की चीख किसी ने नहीं सुनी.

सुघड़, हंसमुख इजू अब सूखती जा रही थी. वह हर किसी को ऐसे देखती जैसे कुछ कहना चाह रही हो पर किसे क्या बताए, एनी को? वह मानेगी? और किसी से बात करे? पर ये लोग जिंदा नहीं छोड़ेंगे. ऐसे कई सवाल उस के मन में उमड़तेघुमड़ते रहे और ताड़ती निगाहों ने जो कुछ अनुमान लगाया उस की सुगबुगाहट घर के बाहर होने लगी. चर्चा में कालोनी की औरतें कहती थीं, ‘‘गंगूबाई पक्की खबर लाई थी.’’

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‘‘कैसे?’’

‘‘क्या आर्थर के चपरासी ने बताया?’’

‘‘नहीं, कल घर में कोई नहीं था. इजाबेला ने खुद ही बताया.’’

‘‘एनी मेम साहब को नहीं पता? आर्थर जबरदस्ती पैसे दे देता है और साथ में धमकी भी.’’

‘‘मैं बताऊंगी एनी मेम साहब को,’’ गंगूबाई बोली.

‘‘नहीं, गंगूबाई. वह बेचारी पिट जाएगी,’’ हमदर्दी जताते हुए समीरा बोली.

और एक दिन एनी ने भी देख लिया. उस का पति इतना गिर सकता है? उस ने अब ध्यान से बड़ी होती इजू को देखा. रंग पक्का होने पर भी आकर्षक लगती थी. एनी ने आर्थर को आड़े हाथों लिया. फिर अपने घर की इज्जत बखूबी बचाई थी. अगली सुबह ‘इजू बिटिया’ को पीटपीट कर बरामदे में लाया गया.

‘‘जिस थाली में खाती है उसी में छेद करती है,’’ गुस्से से एनी बोलीं, ‘‘हम इतने प्यार से रखते रहे और इसे देखो… यह ले अपना सामान, यह रहे तेरे पैसे… अब कभी मत आना यहां…’’

तभी गंगूबाई जाने कहां से आ पहुंची.

‘‘क्यों मार रही हो बेचारी को?’’

‘‘बेचारी? जानती हो क्या गुल खिला रही है?’’

‘‘गुल इस ने खिलाया है या तुम्हारे साहब ने?’’

‘‘गंगूबाई, यह मेरी बच्ची की तरह है. गलती करने पर पेट जाए को भी मारते हैं या नहीं? इस ने चोरी की है,’’ कहतेकहते उस की नजर इजू पर पड़ी.

इजू ने बस यही कहा, ‘‘मैं ने चोरी नहीं की.’’

गंगूबाई चिल्ला पड़ी थी, ‘‘मुझे पता है क्या बात है? ऐसे बाप होते हैं… सगी बेटी होती तो उसे देख कर भी लार टपकाता क्या?’’

जिन लोगों ने यह सुना सकते में आ गए.

‘‘एनी,’’ आर्थर का कहना था, ‘‘ऐसे ही होते हैं यह लोग. घटिया, जितना प्यार करो उतना ही सिर पर चढ़ते हैं. बदनाम करा दिया मुझे न,’’ आर्थर देख रहा था कि गंगूबाई की बात का लोगों ने लगभग यकीन कर लिया था.

और वे लोग जो उस के बेटी या नौकरानी होने के मुद्दे को ले कर कल तक परेशान थे, आज चुप थे. कल को उन के नौकरनौकरानी भी कुछ ऐसा कह सकते हैं न. भई, इन लोगों का क्या भरोसा? ये तो होते ही ऐसे हैं, झट से नई कहानी गढ़ लेते हैं. कल को कुछ भी हो सकता है, सच भी, झूठ भी. अगर इजू का साथ देते हैं तो कल उन का साथ कौन देगा.

एनी को लगा कि सभी उसे देख रहे हैं और उस का मजाक बना रहे हैं. इसलिए दरवाजा बंद करते हुए और जोर से बोली थीं, ‘‘शुक्र है पुलिस में नहीं दिया.’’

अपने ट्रंक पर बैठी इजाबेला गेट के बाहर रो रही थी.

गंगूबाई आगे आई थी.

‘‘चल मेरे साथ. पैसा नहीं दे सकती पर सहारा तो दे सकती हूं. सब से बड़ी बात मर्द नहीं है मेरे घर में. जो खाती हूं वही मिलेगा तुझे भी. एकदूसरे की मदद करेंगे हम दोनों. चल, पर मैं इज्जाबेला न कहूंगी. ये कोई नाम हुआ भला? या तो इज्जा या बेला… बेला ठीक है न?’’

बेला धीरेधीरे गंगूबाई के पीछेपीछे चल पड़ी. अपने जैसे लोगों के साथ रहना ही ठीक है.

कुछ दिन बाद सब ने देखा कि बेला अपनी नई मां गंगूबाई के साथ काम पर जाने लगी थी.

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