नई सुबह: क्या हुआ था कुंती के साथ

शाम से ही कुंती परेशान थी. हर बार तो गुरुपूर्णिमा के अवसर पर रमेशजी साथ ही आते थे पर इस बार वे बोले, ‘‘जरूरी मुकदमों की तारीखें आ गई हैं, मैं जा नहीं पाऊंगा. तुम चाहो तो चली जाओ. वृंदाजी को भी साथ ले जाओ. यहां से सीधी बस जाती है. 5 घंटे लगते हैं. वहां से अध्यक्ष मुकेशजी का फोन आया था, सब लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘पर जब तुम चल ही नहीं रहे हो तब मेरा जाना क्या उचित है?’’

‘‘तुम देख लो, बरसों से आश्रम में साल में 2 बार हम जाते ही हैं,’’ रमेशजी बोले.

तब कुंती ने वृंदाजी से बात की थी. वे तो जाने को पहले से ही तैयार थीं. वे स्वामी प्रेमानंदजी से मिलने वृंदावन पहले भी हो आई थीं. वहीं उन के बड़े गुरु महाराजजी का आश्रम था. वे बहुत गद्गद थीं, बोलीं, ‘‘ेबहुत ही भव्य आश्रम है. वहां विदेशी भी आते हैं. सुबह से ही रौनक हो जाती है. सुबह प्रार्थना होती है, भजन होते हैं फिर कीर्तन होता है. लोग मृदंग ले कर नाचते हैं. कुंती, सच एक बार तू भी मेरे साथ चलना. ये अंगरेज तो भावविभोर ही हो जाते हैं. वहीं पता लगा था, इस बार गुरुपूर्णिमा पर स्वामी प्रेमानंदजी ही वहां अपने आश्रम पर आएंगे. बड़े महाराज का विदेश का कार्यक्रम बन रहा है. स्वामी प्रेमानंदजी तो बहुत ही बढि़या बोलते हैं. क्या गला है, लगता है, मानो जीवन का सार ही उन के गले में उतर आया है,’’ वृंदाजी बहुत प्रभावित थीं. कुंती को बस में अच्छा नहीं लग रहा था. कहां तो वह हमेशा रमेशजी के साथ ही कार से जाती थी, किसी दूसरे का रत्ती भर एहसान नहीं. ठहरने की भी अच्छी जगह मिल जाती थी. सोनेठहरने की जगह अच्छी मिल जाए तो प्रवास अखरता नहीं.

पर इस बार उन्हें आते ही सब के साथ बड़े हौल में ठहरा दिया गया था. वहां, वह थी, वृंदाजी थीं तथा 10 महिलाएं और थीं. फर्श पर सब के बिस्तर लगे हुए थे. टैंटहाउस के सामान से उसे चिढ़ थी. उस ने मुकेश भाई से बात कर अपने लिए आश्रम की ही चादरें मंगवा ली थीं. उस ने अपना बिस्तर ढंग से जमाया, वहीं पास में अटैची रख ली थी. कुछ महिलाएं उज्जैन, इंदौर से आई थीं. कुछ को तो वह पहचानती थी, कुछ नई थीं. तभी रमेशजी का फोन आ गया था. पूछ रहे थे कि रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई? वह क्या कहती, कहां अपनी कार, कहां रोडवेज की बस में यात्रा, तकलीफ तो होनी ही थी, पर अब कहने का क्या मतलब. वह चुप ही रह गई. तभी बाहर से वृंदाजी ने आ कर कहा, ‘‘बाहर जानकी बाई आई हैं, तुम्हें बुला रही हैं.’’

‘‘वे कब आईं?’’

‘‘कल ही कार से आ गई थीं. वे दूर वाले कौटेज में ठहरी हैं.’’

‘‘हूं. वे कार से आई हैं, उन्हें कौटेज में ठहराया गया है, हमें इस हौल में. तभी बताने आई हैं, चलती हूं,’’ वह धीरे से बोली. बाहर कुरसियां लगी हुई थीं, जानकी बाई वहीं बैठी थीं. आश्रम में सभी उन को जानते थे. जब बड़े महाराजजी थे तब जानकी बाई का ही सिक्का चलता था. वे बड़े महाराजजी की शिष्या थीं. वे एक प्रकार से आश्रम पर अपना अधिकार समझती थीं.

कुंती को देखते ही बोलीं, ‘‘तू कब आई, कुंती?’’

‘‘अभी दोपहर में.’’

‘‘तो मेरे ही पास आ जाती, वहां बहुत जगह है.’’

‘‘पर आप के साथ…’’

‘‘सुशील है, उस के दोस्त हैं, इतनी दूर से आते हैं, तो लोग आ ही जाते हैं. पर तू तो ऐडजस्ट हो जाती.’’

‘‘आप की मेहरबानी, पर मेरे साथ वृंदाजी भी आई हैं. हम लोग बस से आए हैं. वहीं से सब पास रहेगा. आप के पास तो गाड़ी है. हमें आनेजाने में यहां से दिक्कत ही होगी, हम वहीं ठीक हैं,’’ कुंती ने कहा. तभी छीत स्वामी उधर ही आ गए थे. वे रसीद बुक ले कर भेंट राशि जमा कर रहे थे.

‘‘भाभीजी, आप आ गईं, अच्छा ही हुआ, वकील साहब का फोन आ गया था. रास्ते में कोई दिक्कत तो नहीं आई, मैं ने उन्हें बता दिया था, समाधि के पास ही बड़े हौल में ठहरा दिया है. वहां टौयलेट है, पंखे भी हैं. रसोईघर पास ही है. हम लोग वहीं हैं.’’

‘‘हां, वह सब तो ठीक है,’’ कुंती बोली.

‘‘स्वामी प्रेमानंदजी कब तक आएंगे?’’ वृंदाजी ने पूछा.

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‘‘सुबह तक तो आना ही है, उन का फोन आ गया था. वह प्रवास पर ओंकारेश्वर में थे, रास्ते में दोएक जगह रुकेंगे. इस बार कुंभ का मेला है, वहां भी अपना पंडाल लगेगा. उस की व्यवस्था भी देखते हुए आएंगे,’’ छीत स्वामी बोले. आश्रम में भारी भीड़ थी. गांव वालों में भारी उत्साह था. भंडारे में सामूहिक भोजन तो होता ही है. छोटामोटा जरूरत का सामान बिक जाता है. अब गांवों में शहर वालों के लिए और्गेनिक फूड की जरूरत को देखते हुए दुकानें भी लग जाती हैं. बाहर चाय की दुकानें लग गई थीं. बच्चों के झूले और गुब्बारे वाले भी आ गए थे. पास का दुकानदार आश्रम की और बड़े महाराज की तसवीर फ्रेम करा कर बेच रहा था. जहां कार्यक्रम होना था वहां लाउडस्पीकर पर अनूप जलोटा, हरिओम शरण के गीत बज रहे थे.

पास के स्कूल के समाजसेवी अध्यापकजी बच्चों की टोली के साथ इधर ही आ गए थे, वे झंडियां लगा रहे थे. आसपास के बुजुर्ग सुबह से ही अपनाअपना बैग ले कर आ गए थे, वे बाहर कुरसियों पर बैठे थे. वे लोग बड़े महाराजजी के जमाने से आश्रम में आ रहे थे. एक  प्रकार से आज मानो उन का यहां अधिकार ही हो गया था. वे बारबार सेवकों से चाय मंगवा रहे थे. लग रहा था, आज के वे ही स्वामी हैं. जो भी नया अतिथि आ रहा था, वह पहले उन से ही मिलता था, झुकता, उन के पांव छूता फिर आगे बढ़ता, फिर समाधि पर जाता. सब के पास अपनीअपनी बातें थीं. बड़े महाराज की ख्याति आसपास के गांवों में थी. उन के जाने के बाद यहां एक समिति बन गई थी. मुकेश भाई अध्यक्ष बने, पर वे सशंकित रहे, कल कोई आ गया तो? फिर अचानक उन को स्वामी प्रेमानंद मिल गए थे, उन्होंने निमंत्रण दे दिया. वे तब से यहां आने लग गए.

स्वामी प्रेमानंद का आश्रम वृंदावन में था. वे भक्तिमार्गी थे, जबकि यहां बड़े महाराजजी ज्ञानमार्गी थे, भक्ति मार्ग की यहां तब चर्चा ही नहीं होती थी. आश्रम में जमीन बहुत थी. बड़े महाराज के जाने के बाद स्थान खाली हो गया था. दूरदूर तक भक्त फैले हुए थे. हरिद्वार से संत आए थे, कह रहे थे बड़े महाराज उन्हीं के संप्रदाय के थे. प्रेमानंद तो दूसरे संप्रदाय का है. उस के अपने गुरु हैं. उस का यहां क्या लेनादेना? आसपास के संत, भगवाधारी प्रेमानंद के साथ थे, समिति के पदाधिकारी भी प्रेमानंद के साथ हो गए. लोगों ने प्रेमानंद को ही यहां का स्वामी मान लिया था. समिति बनी हुई थी, जो बड़े महाराज बना गए थे. पर समिति के लोग प्रेमानंद के इशारे पर नाच रहे थे. उस ने यहां आते ही यहां के कर्मचारियों में पैसा बांटा, धार्मिक कर्मकांड किए. उस का गला बहुत अच्छा था. वह बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गया. अब आश्रम में बड़े महाराजजी की समाधि थी, जहां चढ़ावा आता, उन की कुटिया थी, पर उस के बाहर स्वामी प्रेमानंद का शासन था. जहां गुड़ की भेली होती है वहां चींटे आ ही जाते हैं. यहां बहुत महंगी जमीन थी, चढ़ावा भी बहुत था. स्वामी प्रेमानंद जम गए थे. अपनी ओर से उन्होंने कई धार्मिक आयोजन किए. छीत स्वामी ग्रामसेवक थे, बहुत कमा लिया था. जब शिकायतें हुईं, वे स्वैच्छिक रिटायर हो कर मुक्त हो गए थे. वे ही यहां स्वामी प्रेमानंद के पहले गृहस्थ शिष्य बन गए थे. प्रेमानंद के वे विश्वसनीय थे, वे ही आश्रम के कैशियर हो गए थे. प्रेमानंद का मोबाइल उन के ही पास रहता था. उन्हें उन के बारे में पूरी खबर रहती थी.

रमेशजी का बड़े महाराज से बहुत स्नेह था. वे उन के समय में दोचार महीने में एक बार आ ही जाते थे. अब तो आना कम हो गया है पर उन की धार्मिक भावना उन्हें कचोटती रहती है. समिति के अध्यक्ष मुकेशजी ही स्वामी प्रेमानंद के साथ उन के घर गए थे ताकि पहले की तरह आनाजाना शुरू हो जाए. आश्रम के नए निर्माण पर उन्होंने पैसा भी लगाया था. वे जब भी आते थे, कौटेज में ही उन के ठहरने की व्यवस्था होती थी पर आज जब वे नहीं आए, उन्होंने कुंती को बस से भेज दिया. छीत स्वामी ने उन्हें सूचित कर दिया कि सभी महिलाओं को पूरी सुविधा से सुरक्षित रखा गया है. सुबह तक स्वामीजी आ जाएंगे, तभी पूजा है. 12 बजे भंडारा है, उस के बाद वापसी की बस मिल जाएगी. कोई दिक्कत नहीं होने पाएगी.

आश्रम के बाहर ही कुंती को जगन्नाथजी मिल गए थे. वे अपनी पत्नी के साथ आए हुए थे. वे बता रहे थे कि वे यहां पिछले 50 साल से आ रहे हैं. तब यहां एक छोटी सी कुटिया थी जहां बड़े स्वामीजी विराजते थे. तब वहां बहुत कम लोग आते थे. सुबह एक बस आती थी. वह आगे निमोदा तक जाती थी. वहीं से वह दोपहर में लौटती थी. वहां से आगे बस मिलती थी. पर अब तो सब बदल गया है. जमीन तो तब भी यही थी, पर अब जमीनों का भाव बहुत बढ़ गया है. अब तो एक बीघा जमीन भी 50 लाख रुपए की है. अब आश्रम में झगड़ा पूजापाठ को ले कर नहीं, संपत्ति को ले कर है. तभी उधर कौटेज से भगवा वेश में काली दाढ़ी पर हाथ फिराता हुआ एक संन्यासी पास आता दिखाई दिया. कुंती उसे देख कर चौंकी, वह उस के पांव छूने के लिए आगे बढ़ गई.

‘‘रहने दे, कुंती, रहने दे, यह साधुसंत नहीं है,’’ जगन्नाथजी धीरे से बोले.

‘‘पर यह तो…,’’ कुंती ने टोका.

‘‘यह तो प्रेमानंदजी का पुराना ड्राइवर है.’’

‘‘ड्राइवर!’’ कुंती चौंक गई.

‘‘हां, ड्राइवर क्या उन का बिजनैस पार्टनर है. मैं तो यहां 7 दिन पहले ही आ गया था, पर पता लगा कौटेज में यही एक माह से ठहरा हुआ है. एक महिला भी है, पर वह बहुत कम बाहर निकलती है. सुना यही है, इस ने या इस के बेटे ने महोबा में कोई कत्ल कर दिया है, या इस के परिवार के साथ कुछ घटना ऐसी ही घटी है. कुछ सही पता नहीं, यही यहां रुका हुआ है. आश्रम का मेहमान है.’’

‘‘किसी ने मना नहीं किया?’’ कुंती ने टोका.

‘‘मना कौन करता? समिति के सभी लोग स्वामी प्रेमानंद के हो गए हैं. मुकेश भाई को प्रेमानंद ने फोन कर दिया था. छीत स्वामी ही सारी व्यवस्था देख रहे हैं. अब तो दान भी यहां बहुत आने लग गया है. बड़े महाराज के जमाने में बहुत ही कम लोग आते थे, अब तो भीड़ रहती है.

‘‘समाधि के आसपास इमारतें बनेंगी. ठेकेदार आया है. कल भंडारा है. 10 हजार आदमी होंगे. भंडारा दिन भर चलेगा. लोगों में श्रद्धा है. चढ़ावा कल ही लाखों में आ जाएगा. खर्च है क्या, हिसाब सब प्रेमानंद ही रखते हैं. 2-4 महात्माओं को वे साथ ले आते हैं. उन्हें हजारों की भेंट दिलवा देते हैं फिर वे महात्मा उन्हें भेंट दिलवा देते हैं. अब धर्म तो रहा नहीं. धंधा ही सब जगह हो गया है.’’

‘‘पर यह ड्राइवर?’’ कुंती ने टोका.

‘‘यही बता रहा था, यह उन का बिजनैस पार्टनर है. इन की बसें चलती हैं. कह रहा था, जो नई बड़ी गाड़ी प्रेमानंद के पास है वह इसी ने दी है.’’ कुंती अवाक् थी. रमेशजी ने तो कभी यह बात उसे नहीं बताई. वे तो वकील हैं. संस्था के उपाध्यक्ष भी हैं. शायद जानते होंगे, तभी नहीं आए, फिर मुझे क्यों भेज दिया? सवाल पर सवाल उस के मन में उभर रहे थे. गांवों की औरतें गीत गाते हुए आने लग गई थीं. पास ही व्यायामशाला में जोरशोर से धार्मिक आयोजन शुरू हो गया था. लाउडस्पीकर पर कोई भक्त बारबार कह रहा था, स्वामी प्रेमानंद सुबह तक आ जाएंगे. उन के साथ उज्जैन से भी साधुसंन्यासी आ रहे हैं. लोगों में उत्सुकता थी.

‘जगन्नाथजी तो कह रहे थे, वे रात को ही आ जाएंगे. फिर माइक पर बारबार यह क्यों बोला जा रहा है, वे सुबह आएंगे,’ कुंती चौंकी. भोजन बाहर ही बड़े आंगन में हो गया था. बहुत भीड़ थी. जैसेतैसे उस हौल में आई. उस फर्श पर बिछे गदेले पर लेट गई. वृंदाजी तो लगभग सो गई थीं. घर पर बड़ा सा बैडरूम और यहां इस फर्श पर नींद थकावट के बाद भी नहीं आ रही थी. टैंटहाउस के 2 गद्दे उस ने बिछा लिए थे, बिस्तर भी पंखे के नीचे लगा लिया था. पर नींद को न आना था, न ही आई. वह उठ कर बाहर बरामदे की बैंच पर बैठ गई. दूर रसोईघर में देखा, लोग जग रहे हैं. लगा, वहां चाय बन रही है. उठी और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. वहां छीत स्वामी अब तक जगे हुए थे.

‘‘अरे, आप सोए नहीं?’’ वह बोली.

‘‘अभी कहां से, मैं तो घर चला गया था, तभी वहां स्वामीजी का फोन आ गया था. बोले, हम लोग आ रहे हैं. आधे घंटे में पहुंच जाएंगे. व्यवस्था तो पहले से ही थी, पर चायदूध का इंतजाम देखना था. चला आया, पर आप तो विश्राम करो,’’ वे हंसते हुए बोले. ‘तो जगन्नाथजी सही कह रहे थे,’ कुंती बड़बड़ाई, ‘चलो, बाद में भीड़ हो जाएगी, महाराज से अभी ही मिलना हो जाएगा.’ वह आश्वस्त सी हुई. भीतर सब सो रहे थे. वह भी भीतर आ कर लेट गई. अभी झपकी लगी ही थी कि कारों के हौर्न व शोरशराबे से उस की नींद खुल गई. लगता है स्वामीजी आ गए हैं. वह उठी और दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई. 2-4 गाडि़यां थीं. सामान था, जो उतारा जा रहा था. वहीं पेड़ के नीचे स्वामी आत्मानंद खड़ा हुआ था.

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‘‘और आत्मानंद, कैसे हो?’’ स्वामी प्रेमानंद ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘सब आप की कृपा है.’’

‘‘भदोही कहला दिया है. पुलिस कप्तान अपना ही शिष्य है. वह कह रहा था, भंडारे की परसादी सब जगह जानी होगी. घबराओ मत, वारंट अभी तामील नहीं होगा. तुम पहले वहां जा कर रामभरोसी को पुटलाओ, काबू में करो. गवाह वही है. वह फूट गया तो फिर तुम्हारा कुछ नहीं होगा. यहां तो कोई दिक्कत नहीं हुई. समिति अपनी ही है. जब झंझट निबट जाए तो यहीं आ जाना. यहां के लोग बहुत धार्मिक हैं.’’

‘‘हां महाराज, सब  आप की कृपा है.’’

‘‘और सब ठीक है, देवीजी को तकलीफ तो नहीं हुई?’’ वे मुसकराते हुए बोले.

‘‘प्रसन्न हैं, आप मिल लें, आप की ही प्रतीक्षा में हैं.’’

‘‘तभी तो आधी रात को आया हूं,’’ वे हंसे. स्वामी प्रेमानंद सीधे कौटेज की ओर बढ़ गए, वहां देवीजी उन की ही प्रतीक्षा में थीं. आत्मानंद बाहर ही पेड़ के नीचे बैठ गया था. वह बैठा हुआ निश्ंिचत भाव से बीड़ी पी रहा था. कुंती अवाक् थी, यह क्या हो गया, क्या वह कोई सपना देख रही है या कुछ और. जब बड़े महाराज थे तब आश्रम कैसा था, अब क्या हो गया है? यह आत्मानंद उस का पति है या कुछ और. उसे लगा उसे चक्कर आ जाएगा, वह निढाल सी बैंच पर ही पसर गई. सुबह पूजा होगी. प्रेमानंद के पांव पखारे जाएंगे. वह झूमझूम कर बड़े महाराज की प्रशंसा में गीत गाएंगे. लोग नाचेंगे. प्रार्थना होगी. कहा जाएगा, बड़े महाराजजी की समाधि की पूजा होगी. हजारों आदमियों का भंडारा होगा. कहा जाता है, भंडारा मुफ्त का भोजन होता है, पर गरीब से गरीब भी रोटी मुफ्त की नहीं खाता, वह भी भेंट करता है. यह भंडारा रहस्य है. हिसाब सब समिति के पास, समिति का हिसाब स्वामी प्रेमानंद के पास.

‘क्यों? तुम्हें अब भी मिलना है प्रेमानंद से?’ कुंती अपने ही सवाल पर घबरा गई थी. कौटेज के बाहर की लाइट बंद हो गई थी. अंदर हलकी नीली रोशनी थी. रोशनदान से प्रकाश बाहर आ रहा था. आत्मानंद उसी तरह बैठा हुआ बीड़ी फूंक रहा था. कुंती किस से कहे, क्या कहे, भीतर आई, वृंदा को जगाया. वृंदा गहरी नींद में थी. कुछ समझी, कुछ नहीं समझी. ‘‘तू भी कुंती…फालतू परेशान है, यह तो होता ही रहता है. इस पचड़े में हम क्यों पड़ें, चुप रह, सो जा, अब यहां नहीं आएंगे,’’ कह कर वह फिर सो गई. कुंती पगलाई सी बाहर बैठी थी. तभी उसे सामने से आते हुए छीत स्वामी दिखाई पड़े. उस ने उन्हें रोका.

‘‘भाई साहब, आप से एक बात कहनी है.’’

‘‘क्या?’’ वे चौंके.

‘‘भाई साहब, स्वामी प्रेमानंदजी आधी रात में सीधे उस कौटेज में…’’

‘‘तो क्या हुआ, वे स्वामीजी की भक्त हैं, इन दिनों परेशानी में हैं, उन की पूजा करती हैं. आप ज्यादा परेशान न हों, सोइए,’’ यह कह वे आगे बढ़ गए. सुबह उठते ही उस ने सोचा, रमेशजी को सारी बात बताई जाए पर वह फोन करती उस के पहले ही रमेशजी का फोन आ गया था.

‘‘क्या बात है, छीत स्वामी का फोन था, तुम रात भर सोईं नहीं, पागलों की तरह बाहर बैंच पर बैठी रहीं?’’

‘‘पर तुम मेरी सुनो तो सही,’’ कुंती बोली.

‘‘क्या सुनना, हर बात का गलत अर्थ ही निकालती हो, तुम नैगेटिव बहुत हो, दोपहर की बस से आ जाना, वहां सभी लोग तुम से नाराज हैं. मुकेश भाई बता रहे थे, तुम किसी पत्रकार से बात कर रही थीं. मेरी बात सुनो, चुप ही रहो, खुद परेशानी में पड़ोगी, मुझे भी परेशानी में डालोगी. उस इलाके के पचासों मुकदमे मेरे पास हैं. मुझे तंग मत करो.’’

‘‘पर वह ड्राइवर तो…तुम बात तो पूरी सुनो.’’

‘‘कह तो दिया है, जितना तुम ने जाना है वह ज्ञान अपने पास ही रखो. मैं नहीं चाहता, मैं किसी बड़ी परेशानी में पडूं. जो भी बस मिले, तुरंत वृंदाजी के साथ लौट आओ,’’ उधर से फोन कट गया था. कुंती अवाक् थी. उस के हजारों सवाल जो तारों की तरह टूटटूट कर गिर रहे थे, उसे किसी गहरे अंधेरे में खींच कर ले जा रहे थे, ‘क्या यही धर्म अब बच गया है? हम क्यों किसी दूसरे के पांवों में रेंगने वाले कीड़े की तरह हो कर रह गए हैं? बस, आलपिनों का ढेर मात्र ही हैं जो हर चुंबक की तरफ आ कर खिंचा चला जाता है. फिर हाथ में कुछ नहीं आता है, इस के विपरीत अपना आत्मविश्वास भी चला जाता है. अपनी रोशनी, अपना विवेक है, मैं कब तक किस कामना की पूर्ति के लिए मारीमारी फिरूंगी?’ वह अपने सवाल पर खुद चकित थी. यह पहले हम ने क्यों नहीं सोचा? चारों तरफ से आया हुआ अंधेरा अचानक हट गया था. वह अपनी नई सुबह की नई रोशनी में अपनेआप को देख रही थी. वह लौटने के लिए अपनी अटैची संभालने में लग गई थी.

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तभी तो कह रही हूं: क्यों आया था नीलिमा को गुस्सा

कहानी- सरोजिनी नौटियाल

लड़कियों की मकान मालकिन कम वार्डेन नीलिमा ने रोज की तरह दरवाजे पर ताला लगा दिया और बोलीं, ‘‘लड़कियो, मैं बाहर की लाइट बंद कर रही हूं. अपनेअपने कमरे अंदर से ठीक से बंद कर लो.’’

एक नियमित दिनचर्या है यह. इस में जरा भी दाएंबाएं नहीं होता. जैसे सूरज उगता और ढलता है ठीक उसी तरह रात 10 बजते ही दालान में नीलिमा की यह घोषणा गूंजा करती है.

उन का मकान छोटामोटा गर्ल्स होस्टल ही है. दिल्ली या उस जैसे महानगरों में कइयों ने अपने घरों को ही थोड़ीबहुत रद्दबदल कर छात्रावास में तबदील कर दिया है. दूरदराज के गांवों, कसबों और शहरों से लड़कियां कोई न कोई कोर्स करने महानगरों में आती रहती हैं और कोर्स पूरा होने के साथ ही होस्टल छोड़ देती हैं. इस में मकान कब्जाने का भी कोई अंदेशा नहीं रहता.

15 साल पहले नीलिमा ने अपने मकान का एक हिस्सा पढ़ने आई लड़कियों को किराए पर देना शुरू किया था. उस काम में आमदनी होने के साथसाथ उन के मकान ने अब कुछकुछ गर्ल्स होस्टल का रूप ले लिया है. आय होने से नीलिमा का स्वास्थ्य और आत्मविश्वास तो अवश्य सुधरा लेकिन बाकी रहनसहन में ठहराव ही रहा. हां, उन की बेटी के शौक जरूर बढ़ते गए. अब तो पैसा जैसे उस के सिर चढ़कर बोल रहा है. घर में ही हमउम्र लड़कियां हैंपर वह तो जैसे किसी को पहचानती ही नहीं.

सुरेखा और मीना एम.एससी.

गृह विज्ञान के फाइनल में हैं. पिछले साल जब वे रांची से आई थीं तो विचलित सी रहती थीं. जानपहचान वालों ने उन्हें नीलिमा तक पहुंचाया.

‘‘1,500 रुपए एक कमरे का…एक कमरे को 2 लड़कियां शेयर करेंगी…’’ नीलिमा की व्यावसायिकता में क्या मजाल जो कोई उंगली उठा दे.

‘‘ठीक है,’’ सुरेखा और मीना के पिताजी ने राहत की सांस ली कि किसी अनजान लड़की से शेयर नहीं करना पड़ेगा.

‘‘खाने का इंतजाम अपना होगा. वैसे यहां टिफिन सिस्टम भी है. कोई दिक्कत नहीं है,’’ नीलिमा बताती जाती हैं.

सबकुछ ठीकठाक लगा. अब तो वे दोनों अभ्यस्त हो गई हैं. गर्ल्स होस्टल की जितनी हिदायतें और वर्जनाएं होती हैं, सब की वे आदी हो चुकी हैं.

‘‘नो बौयफ्रेंड एलाउड,’’ यह नीलिमा की सब से अलार्मिंग चेतावनी है.

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सुरेखा और मीना के बगल के कमरे में देहरादून से आई दामिनी और अर्चना हैं. दोनों ग्रेजुएशन कर रही हैं. इंगलिश आनर्स कहते उन के चेहरे पर ऐसे भाव आते हैं जैसे इंगलैंड से सीधे आई हैं और सारा अंगरेजी साहित्य इन के पेट में हो.

दोनों कमरों के बीच में एक छोटा सा कमरा है जिस में एक गैस का चूल्हा, फिल्टर, फ्रिज और रसोई का छोटामोटा सामान रखा है. बस, यही वह स्थान है जहां देहरादूनी लड़कियां मात खा जाती हैं.

सुरेखा नंबर एक कुक है. जबतब प्रस्ताव रख देती है, ‘‘चाइनीज सूप पीना हो तो 20-20 रुपए जमा करो.’’

दामिनी और अर्चना बिके हुए गुलामों की तरह रुपए थमा देतीं. निर्देशों पर नाचतीं. सुरेखा अब सुरेखा दीदी बन गई है. अच्छाखासा रुतबा हो गया है. अकसर पूछ लिया करती है, ‘‘कहां रही इतनी देर तक. आंटी नाराज हो रही थीं.’’

‘‘आंटी का क्या, हर समय टोकाटाकी. अपनी बेटी तो जैसे दिखाई ही नहीं देती,’’ दामिनी भुनभुनाती.

ऊपर की मंजिल में भी कमरे हैं. वहां भी हर कमरे में 2-2 लड़कियां हैं. उन की अपनी दुनिया है पर आंटी की आवाज होस्टल के हर कोने में गूंजा करती है.

आज छुट्टी है. लड़कियां देर तक सोएंगी. जवानी की नींद जो है. नीलिमा एक बार झांक गई हैं.

‘‘ये लड़कियां क्या घोड़े बेच कर सो रही हैं,’’ बड़बड़ाती हुई नीलिमा सुरेखा के कमरे के पास से गुजरीं.

सुरेखा की नींद खुल गई. उसे उन की यह बेचैनी अच्छी लगी.

‘‘अपनी बेटी को उठा कर देखें ये… बस, यहीं घूमती रहती हैं,’’ सुरेखा ढीठ हो लेटी रही. जैसे ऐसा कर के ही वह नीलिमा को कुछ जवाब दे पा रही हो.

उधर होस्टल गुलजार होने लगा. गुसलखाने के लिए चिल्लपौं मची. फिर सबकुछ ठहर गया. कुछ कार्यक्रम बने. मीना की चचेरी बहन लक्ष्मीनगर में रहती है. वहीं लंच का कार्यक्रम था इसलिए सुरेखा और मीना भी चली गईं.

एकाएक दामिनी ने चमक कर अर्चना से कहा, ‘‘चल, बाहर से फोन करते हैं. अरविंद को बुला लेंगे. फिल्म देखने जाएंगे.’’

‘‘अरविंद को बुलाने की क्या जरूरत.’’

‘‘लेकिन अब कौन सा शो देखा जाएगा. 6 से 9 के ही टिकट मिल सकते हैं,’’ अर्चना ने घड़ी देखते हुए कहा.

‘‘तो क्या हुआ?’’ दामिनी लापरवाही से बोली.

‘‘नहीं पागल, आंटी नाराज होंगी…. लौटने में समय लग जाएगा.’’

‘‘ये आंटी बस हम पर ही गुर्राती हैं. अपनी बेटी के लक्षण इन को नहीं दिखते. रोज एक गाड़ी आ कर दरवाजे पर रुकती है… आंटी ही कौन सा दूध की धुली हैं… बड़ी रंगीन जिंदगी रही है इन की.’’

अर्चना, दामिनी और अरविंद ‘दिल से’ फिल्म देखने हाल में जा बैठे. खूब बातें हुईं. अरविंद दामिनी की ओर झुकता जाता. सांसें टकरातीं. शो खत्म हुआ.

कालिज तक अरविंद दोनों को छोड़ने आया था. वहां से दोनों टहलती हुई होस्टल के गेट तक आ गईं. गेट खोलने को हलका धक्का दिया. चूं…चूं… की आवाज हुई.

‘‘तैयार हो जाओ डांट खाने के लिए,’’ अर्चना ने फुसफुसा कर कहा.

‘‘ऊंह, क्या फर्क पड़ता है.’’

गेट खुलते ही सामने नीलिमा घूमते हुए दिखीं. सकपका गईं दोनों लड़कियां.

‘‘आंटी, नमस्ते,’’ दोनों एकसाथ बोलीं.

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‘‘कहां गई थीं?’’

‘‘बहुत मन कर रहा था, ‘दिल से’ देखने का,’’ अर्चना ने मिमियाती सी आवाज में कहा.

‘‘यही शो मिला था फिल्म देखने को?’’

‘‘आंटी, प्रोग्राम देर से बना,’’ दामिनी ने बात संभालने की कोशिश की.

‘‘मैं कुछ नहीं जानती. होस्टल का डिसीपिलिन बिगाड़ती हो. आज ही तुम्हारे घर पत्र डालती हूं,’’ नीलिमा यह कहती हुई अपने कमरे की ओर चली गईं.

दामिनी कमरे में आते ही धम से बिस्तर में धंस गई और अर्चना गुसलखाने में चली गई.

‘‘कुछ खानावाना भी है या अरविंद के सपनों में ही रहेगी,’’ अर्चना ने दामिनी को वैसे ही पड़ी देख कर पूछा.

दामिनी वैसे ही मेज पर आ गई. राजमा, भिंडी की सब्जी और चपातियां. दोनों ने कुछ कौर गले के नीचे उतारे. पानी पिया.

‘हेमलेट’ के नोट्स ले कर अर्चना दिन गंवाने का अपराधबोध कुछ कम करने का प्रयास करने लगी. उसे पढ़ता देख दामिनी भी रैक में कुछ टटोलने लगी. सभी के कमरों की लाइट जल रही है.

‘‘जाऊंगी, सौ बार कहती हूं मैं जाऊंगी,’’ आंटी के कमरे की ओर से आती आवाज सन्नाटे को चीरने लगी.

बीचबीच में ऐसा कुछ होता रहता है. इस की भनक सभी लड़कियों को है. आज संवाद एकदम स्पष्ट है.

बेटी की आवाज ऊंची होते देख आंटी को जैसे सांप सूंघ गया. वह खामोश हो गईं. बेटी भी कुछ बड़बड़ा कर चुप हो गई.

सुबह रात्रि के विषाद की छाया आंटी के चेहरे पर साफ झलक रही है. नियमत: वह होस्टल की तरफ आईं पर बिना कुछ कहेसुने ही चली गईं.

फाइनल परीक्षा अब निकट ही है. सुरेखा और मीना प्रेक्टिकल के बोझ से दबी रहती हैं. देहरादूनी लड़कियों को उन्हें देख कर ही पता चला कि गृहविज्ञान कोई मामूली विषय नहीं है. उस पर इस विषय के कई अभ्यास देखे तो आंखें खुल गईं. विषय के साथसाथ सुरेखा और मीना भी महत्त्वपूर्ण हो गईं.

आजकल दामिनी भी सैरसपाटा भूल गई है पर दिल के हाथों मजबूर दामिनी बीचबीच में अरविंद के साथ प्रोग्राम बना लेती है. पिछले दिनों उस के बर्थ डे पर अरविंद एंड पार्टी ने उसे सरप्राइज पार्टी दी. बड़े स्टाइल से उन्हें बुलाया. वहां जा कर दोनों चकरा गईं. सुनहरी पन्नियों की बौछार, हैपी बर्थ डे…हैपी बर्थ डे की गुंजार.

रात के 11 बज रहे हैं. दामिनी और अर्चना ‘शेक्सपियर इज ए ड्रामाटिस्ट’ पर नोट्स तैयार कर रही हैं. दोनों के हाथ तेजी से चल रहे हैं. बगल के कमरे से छन कर आती रोशनी बता रही है कि सुरेखा और मीना भी पढ़ रही होंगी. यहां पढ़ने के लिए रात ही अधिक उपयुक्त है. एकदम सन्नाटा रहता है और एकदूसरे के कमरे की दिखती लाइट एक प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न करती है.

बाहर से कुछ बातचीत की आवाज आ रही है. आंटी की बेटी आई होगी. धीरेधीरे सब की श्रवण शक्ति बाहर चली गई. पदचाप…खड़…एक असहज सन्नाटा.

‘‘…अब आ रही है?’’ आंटी तेज आवाज में बोलीं, ‘‘फिर उस के साथ गई थी. मैं ने तुझे लाख बार समझाया है पर क्या तेरा भेजा फिर गया है?’’

‘‘आप मेरी लाइफ स्टाइल में इंटरफेयर क्यों करती हैं? ये मेरी लाइफ है. मैं चाहे जिस तरह जिऊं.’’

‘‘तू जिसे अपना लाइफ स्टाइल कह रही है वह एक मृगतृष्णा है, जहां सिर्फ तुझे भटकाव ही मिलेगा. तू मेरी औलाद है और मैं ने दुनिया देखी है इसलिए तुझे समझा रही हूं. तू समझ नहीं रही है…’’

‘‘मैं कुछ नहीं समझना चाहती. और आप समझा रही हैं…मेरा मुंह आप मत खुलवाओ. पापा से आप की दूसरी शादी…. पता नहीं पहले वाली शादी थी भी या…’’

‘‘चुप, बेशर्म, खबरदार जो अब आगे एक शब्द भी बोला,’’ आज नीलिमा अप्रत्याशित रूप से बिफर गईं.

‘‘चुप रहने से क्या सचाई बदल जाएगी?’’

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‘‘तू क्या सचाई जानती है? पिता का साया नहीं था. 6 भाईबहनों के परिवार में मैं एकमात्र कमाने वाली थी. तब का जमाना भी बिलकुल अलग था. लड़कियां दिन में भी घर से बाहर नहीं निकलती थीं और मैं रात की शिफ्ट में काम करती थी. कुछ मजबूर थी, कुछ मैं नादान… यह दुनिया बड़ी खौफनाक है बेटी, तभी तो कह रही हूं…’’

नीलिमा रो रही हैं. वे हताश हो रही हैं. उन की व्यथा को सब लड़कियों ने जाना, समझा. सब ने फिर एकदूसरे को देखा किंतु आज वे मुसकराईं नहीं.

एक थी मालती: 15 साल बाद कौनसा खुला राज

लेखक- दीपक कुमार

यकीन करना मुश्किल था कि बीस साल पहले मैं उस कमरे में रहता था. पर बात तो सच थी. सन 1990 से 1993 तक छपरा में पढ़ाई के दौरान मैने रहने के कई ठिकाने बदले पर जो लगाव शिव शंकर पंडित के मकान से हुआ वो बहुत हद तक आज भी कायम है. छोटे छोटे आठ दस खपरैल कमरों का वो लाॅज था. उन्हीं में से एक में मैं रहता था. किराया 70 रूपये से शुरू होकर मेरे वहां से हटते हटते 110 तक पहुंचा था. यह बात दीगर है कि मैने कभी समय पर किराया दिया नहीं. पंडित का वश चले तो आज भी सूद समेत मुझसे कुछ उगाही कर लें. एक बार तो पंडित ने मेरे कुछ मित्रों से आग्रह किया था कि भाई उनसे कहिए कि उल्टा हमसे दो महीने का किराया ले लें और हमारा मकान खाली कर दें.

पंडित का होटल भी था जहां पांच रुपये में भर पेट खाने का प्रावधान था. मेरा खाना भी अक्सर वहीं होता था. पंडिताइन लगभग आधा दिन गोबर और मिट्टी में ही लगी रहती. कभी उपले बनाती कभी मिट्टी के बर्तन. जब खाने जाओ, झट से हाथ धोती और चावल परोसने लगती. सच कहूं उस वक्त बिल्कुल घृणा नहीं होती थी. बल्कि गोबर और मिट्टी की खुशबु से खाने में और स्वाद आ जाता.

उनकी एक बेटी थी.. मालती.

1993 उधर उसकी शादी हुई, इधर मैने उसका मकान खाली किया. वैसे मालती से मेरा कोई खास अंतरंग रिश्ता नहीं था. मगर उसके जाने के बाद एक अजीब सा सूनापन नजर आ रहा था. मन उचट सा गया था. इसलिए मैंने वहां से हटने का निश्चय किया. इसके पहले कि दुसरा ठिकाना खोजता, नौकरी लग गई और मैंने छपरा को अलविदा कह दिया.

बीस साल बाद छपरा में एक दिन मैं बारिश में घिर गया और मेरी मोटरसाइकिल बंद हो गई. सोचा क्यों न बाइक को पंडित के घर रख दें। कल फिर आकर ले जाएंगे.

मै बाइक को धकेलते और बारिश में भीगते वहां पहुंचा. पंडित का होटल अब मिठाई की दुकान में तब्दील हो गया था.

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पंडिताइन मुझे देखते ही पहचान गयी. चाय बनाने लगी. मैंने उनसे कहा- भौजी आप चाय बनाइए तब तक मैं अपना कमरा देखकर आता हूँ जहाँ मैं रहता था.

पीछे लाॅज की ओर गया. सारे कमरे लगभग गिर चुके थे. अपने कमरे के दरवाजे को मैं आत्मीयता से सहलाने लगा. तभी मेरी नजर एक चित्र पर गयी. दिल का रेखाचित्र और बीच में अंग्रेजी का एम. यादें ताजी हो गयी. एक दिन मैंने मालती से कहा था- अबे वो बौनी, नकचढी, नाक से बोलने वाली लडकी, तेरा ये मकान मैं तभी खाली करूंगा जब तू ससुराल चली जाएगी.

इसपर वो बनावटी गुस्से में बोली- ये मेरा मकान है। जब चाहें तब निकाल दे तुम्हे, ये लो, और उसने खुरपी से दरवाजे पर दिल का रेखाचित्र बनाया और बीच में एम लिख दिया.

मालती का कद काफी छोटा था. लाॅज के सारे लडके उसे बौनी कहते थे मगर उसके पीछे. वो जानते थे कि मालती खूंखार है, सुन लेगी तो खूरपी चला देगी. ये हिम्मत मैने की. एक दिन उससे कहा- ऐ तीनफुटिया, जरा अपनी दुकान से चाय लाकर तो दे.

उसने कहा –  चाय नहीं, जहर लाकर दूंगी भालू.

नहाने का कार्यक्रम खुले में होता था नल के नीचे और मालती ने बालों से भरा मेरा बदन देख लिया था, इसलिए मुझे वो भालू कहती थी.

मैं समझ गया कि उसे बुरा नहीं लगा था. कुछ मस्ती मै कर रहा था, कुछ वो। फिर तो मस्ती का सिलसिला चल पड़ा.

पंडित के घर के पिछले हिस्से में लाॅज था. अगले हिस्से में वो रहते थे। बीच में एक पतली गली थी.

मालती हम लोगों के लिए अलार्म का काम भी करती थी.

सुबह सुबह गाय लेकर उस गली से  गुजरती तो जोर से आवाज लगाती.. कौन कौन जिन्दा है? जो जिन्दा है, वो उठ जाए, जो मर गया उसका राम नाम सत्य.

मै जानता था कि मरने वाली बात वो मेरे लिए बोलती थी क्योंकि मैं सुबह देर तक सोता था. खैर उसके इसी डायलॉग से मेरी नींद खुलती थी। फिर भी कभी अगर नींद नहीं खुलती तो मारटन टाफी चलाकर मारती.

उन दिनों बिहार में मारटन टाफी का खूब प्रचलन था. उनका एक राशन दुकान भी था जहां उनका बेटा यानि मालती का बड़ा भाई बैठता था. उस समय मैं महज उन्नीस का था. इतनी मैच्योरिटी नहीं थी. मैंने मालती के राशन दुकान का भरपूर फायदा उठाया. जब कभी वो गली से गुजरती में अपने आप से ही जोर जोर से कहता.. यार कोलगेट खत्म हो गया, पैसे भी नहीं, मालती बहुत अच्छी लडकी है, उससे कह दो तो कोलगेट क्या पूरी दुकान लाकर दे दे. फिर क्या थोड़ी देर बाद दरवाजे पर कोलगेट पड़ा मिलता. फिर तो कभी साबुन कभी कभी चीनी कभी कुछ मै अपनी जुगत से हासिल करने लगा.

एक दिन वो गली में टकरा गयी. बोली- तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो? दिन रात जो तारीफ करते हो. क्या सचमुच मैं उतनी अच्छी और सुंदर हूँ?

मैने उससे मुस्करा कर कहा-  तुम तो बहुत सुंदर हो. सिर्फ थोड़ा कद छोटा है, नाक थोड़ी टेढ़ी है, दांत खुरपी जैसे हैं और गर्दन कबूतर जैसी. बाकी कोई कमी नहीं. सर्वांग सुंदरी हो.

वह लपकी.. तुम किसी दिन मेरी खुरपी से कटोगे. अब खा लेना मारटन टाफी.

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शरारतों का सिलसिला यूंही चलता रहा. एक दिन उसका रिश्ता आया. बाद में पता चला कि लडके वालों ने उसे नापसंद कर दिया.

यह मालती के लिए सदमे जैसा था. कई दिनों तक वो घर से निकली नहीं और जब निकली तो बदल चुकी थी. वो वाचाल और चंचल लडकी अब मूक गुडिया बन चुकी थी।. उसका ये शांत रूप मुझे विचलित करने लगा. एक दिन मैंने उसे गली में घेर लिया। पूछा-  तू आजकल इतनी शांत कैसे हो गई?

वो बोली-  तुम झूठे हो। कहते थे कि मालती सुंदरी है. लडके वाले रिजेक्ट करके चले गये.

मैने उसे समझाया- धत पगली वो लडका ही तेरे लायक नहीं था। तेरे नसीब में तो कोई राजकुमार है.

वो भोली भाली मालती फिर से मेरी बातों का यकीन कर बैठी. अब फिर वो पहले की तरह चहकने लगी और कुछ दिनों बाद सचमुच उसकी शादी तय हो गई.

उसने मुझसे पूछा- तुम मेरी शादी में आओगे न?

मैने चिर परिचित अंदाज में जवाब दिया- चाहे धरती इधर की उधर हो जाये, मैं तेरी शादी जरूर अटेंड करूंगा.

उसकी शादी हो गई. संयोग देखिए, जिस दिन शादी थी उसी दिन मेरा पटना में इम्तिहान था. मैं अटेंड नहीं कर सका. मालती चली गई थी अपने साथ समस्त उर्जा लेकर.

मालती के जाने के बाद, कुछ खाली खाली सा लगने लगा था. समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है. कहां चली गई उर्जा. ऐसा कबतक चल सकता था?

कुछ दिनों बाद मैने भी वो कमरा खाली कर दिया.

भौजी की चाय तैयार थी. मै चाय पी ही रहा था कि पंडित जी भी आ गए. बातों बातों में मैंने उनसे पूछा.. मालती कैसी है? कहां है आजकल?

तब पंडिताइन ने बताया-  मालती…. वो अब दुनिया में नहीं.

मेरे पैर तले जमीन खिसक गई. कांपते स्वर में पूछा-  कब हुआ ये सब?

पंडिताइन ने आंखें पोंछते हुए कहा-  शादी के दो साल बाद ही. डिलीवरी के दौरान जच्चा बच्चा दोनों.

ओह…… तब मैंने सोचा कितना बदनसीब हूँ मैं. एक लड़की जो मुझे बेइंतहा चाहती थी, न मैं उसकी शादी में शामिल हो सका न जनाजे में.

और तो और उसकी मौत की खबर भी मिली उसके मरने के 15 साल बाद.

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सूरजमुखी सी वह: क्यों बहक गई थी मनाली

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न्यूजर्सी की गोरी काली बहुएं : क्या खत्म हुई श्रीकांत की दोहरी मानसिकता

करीब 4 दशकों पहले बिहार के दरभंगा से अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में आए श्रीकांत के परिवार में सभी कुछ अच्छा ही चल रहा था कि अचानक दक्षिण अफ्रीका के एक मजदूर की बेटी ने उन के बेटे सुनील के जीवन में प्रवेश कर के उन के शांत परिवार में हलचल मचा दी.

श्रीकांत भले ही अमेरिकी संस्कृति में पूरी तरह से रचबस गए थे लेकिन उन की मानसिकता अभी भी भारतीय थी. सदियों से चली आ रही परंपराओं के जाल में उलझे ही रह गए थे. वही अंधविश्वास, वही पाखंड, वही रूढि़वादिता और वही आडंबरों की अमरबेल जो भारत से लाए थे उस से आज तक खुद को मुक्त नहीं कर पाए थे.

दूसरे को जीवनमुक्ति का संदेश देने वाले पंडित श्रीकांत इसे अपने दिल में कहां उतार पाए थे. यह बात और है कि उन्होंने न्यूजर्सी दुर्गा मंदिर में पूजाअर्चना करवा कर करोड़ों की संपत्ति अर्जित कर ली थी. पलक झपकते ही वे ग्रीनकार्ड हासिल कर के सालभर के बाद ही लंबी छलांग लगा कर अमेरिका के सम्मानित नागरिक भी बन गए थे. ज्यादातर लोग उन्हें पंडितजी कह कर ही बुलाते.

सभी धर्मों का यह लचीलापन ही है कि इन अकर्मण्यों का एक बड़ा समूह देशदुनिया के सभी वर्गों को अंगूठा दिखाते हुए घंटी, घंटा, बजा कर राज कर रहा है तो कहीं मीनारों से आवाज लगा कर कहर बरसाया जाता है. अंधविश्वासियों को ग्रहनक्षत्रों की तिलिस्मी दुनिया के चक्रव्यूहों में फंसा कर देखतेदेखते ही, बिना तिनका तोड़े, ये करोड़पति बन जाते हैं.

धर्मरूपी गलियारों को पार कर के कहीं सुदूर मिट्टी से जुड़े श्रीकांत आज अमेरिका के न्यूजर्सी में पैलेस औन व्हील में रह रहे हैं. सूर्योदय से रात के अंतिम पहर तक संस्कृत के कुछ गलतसलत मंत्र पढ़ कर घंटीशंख बजा कर डौलरों बटोर रहे हैं.

यही नहीं, पाश्चात्य कलेवरों में सजी, फर्राटेदार अंगरेजी बोलते युवकयुवतियां जब इन के चरणस्पर्श करते हैं तो श्रीकांतजी की आंखों की चमक देखते ही बनती है. कैमरे की आंखों से छिपा कर भक्तजन जब इन की मुट्ठी गरम करते हैं तो इन की प्रसन्नता मंदिर में चारों ओर प्रतिष्ठित देवीदेवताओं की मूर्तियों की मुसकान में प्रतिबिंबित होने लगती है.

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ऊंची आवाज में बात करने की मनाही होने पर भी जोरों का जयकारा लग ही जाता है. मेवे, मिष्ठान, फलों व उपहारों के ढेर से अगर कुछ उठा कर किसी भक्त को दे देते हैं तो वह अपनी सारी काबिलीयत भूल कर इन के चरणों में बिछ जाता है.

सूतकनातक के संस्कारों को विधिवत कराने वाले, लयबद्ध मंत्रों से ब्याह की रस्मों को संपन्न कराने वाले, ग्रह, नक्षत्रों की उलटी गति को मूंगा, मोती, हीरा, पन्ना, गोमेद आदि कीमती रत्नों को पहना कर चुटकियों में सीधा करने का दावा करने वाले, प्रसिद्धि के शीर्ष पर विराजमान पंडितजी की ऐसी नियति हो गई थी कि न मक्खी निगलते बन रही थी न उगलते. काली घटा, सारा, ही बदली बन कर पंडितजी के आंगन में बरसेगी, उन का सुपुत्र सुनील अड़ा हुआ था.

यह तो चर्चा थी पंडितजी की अद्भुत महिमा की जो बिना किसी डिगरी या शैक्षणिक योग्यता के दुनिया के सब से प्रभुत्वशाली देश अमेरिका में अपनी अल्पबुद्धि से विजयश्री का नगाड़ा बजा कर वारेन्यारे कर रहे थे. ऐसे सुख के एक छोटे तिनके के लिए भी बड़ेबड़े बुद्धिजीवी तरस कर रह जाते हैं.

4 साल पहले ही अपने बड़े बेटे सुशील का रिश्ता एक गोरी अमेरिकी किशोरी से कर के यही पंडितजी बिछेबिछे जा रहे थे तो आज जब उन का दूसरा बेटा किसी दक्षिण अफ्रीकी अश्वेत लड़की के प्रति अनुरक्त था तो उस का इतना विरोध क्यों? अब प्रेमप्रीत की कोई जातिपांति तो होती नहीं है, वह तो अचानक ही दिल में होने वाली एक अति सुंदर प्रक्रिया है, जिस में भीगने वालों को किसी तरह का होश नहीं रहता है, अब श्रीकांतजी को कौन समझाए.

रोजाना विभिन्न देवीदेवताओं के अनुरक्त होने की, कमल नयनों के टकराने की रोचक गाथा, रस ले कर सुनाने वाले पंडितजी अपने सुपुत्र की चाहत क्यों नहीं समझ पा रहे हैं.

अति गोरे पंडितजी क्या उस दक्षिण अफ्रीकी के काले रंग पर तो नहीं अटक गए हैं? अब उन्हें कौन समझाए कि वह काली ही उन के बेटे के हृदय की मल्लिका बन बैठी है. अगर वे शादी की अनुमति नहीं भी देंगे तो इस की परवा ही कौन करता है. कानून उन्हें बांध कर एक कर ही देगा. ऐसे दिनरात काले राम, कृष्ण, काली, शनि आदि अति काले देवीदेवताओं का शृंगार कर के, उन के काले रंग पर प्रकाश डाल कर महिमा गान करने वाले पंडितजी की इस दोहरी मानसिकता पर कौन उंगली उठाए?

कथनीकरनी में फर्क करने वाले श्रीकांतजी को काली रंगत वाली सारा गले से नहीं उतर रही थी. सुनील को साम, दाम, दंड, व भेद सारी नीतियों से समझा चुके थे कि उस काली सारा का भूत अपने दिमाग से उतार दे जिस की मां मुसलिम है और बाप का पता तक नहीं है. पर सुनील इन की सुनने क्यों लगा. वह तो सिर से पांव तक उस काली बदली के प्यार की बौछार में भीग गया था. भारत होता तो यही पंडितजी 2-4 खड़ाऊं उसे लगा कर मन में भड़क रहे ज्वालामुखी को शांत कर लेते, पर इस परदेस की रीत ही निराली है. जहां आपा खोया नहीं कि पुलिस पकड़ कर सीधे जेल में डाल देती है.

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अंधविश्वास, रूढि़वादिता व संकीर्णता के दलदल में फंसे रहने वालों का न्यारावारा करने वाले पंडितजी के पैर स्वयं ही धरती में धंसे जा रहे थे. उन्होंने तो सुनील को घर से निकल जाने की भी बात कह दी थी लेकिन उन की पत्नी ने ऐसी हायतोबा मचाई कि वे ऐसा नहीं कर सके. उन के दोनों बेटे तो ऐसा कुछ खास कमा नहीं रहे थे कि अलग अपनी गृहस्थी बसा लेते. फिर पंडितजी ठगीगीरी से कमाए गए अकूत धन के वारिस भी तो यही थे.

यह बात और थी कि बला की बुद्धि रखने वाले पंडितजी ने अपनी बड़ी बहू एलिस को कृष्ण की राधा की उपाधि दे कर अपने रहनसहन में ढाल लिया था. हिंदुस्तानी वेशभूषा में जब वह सज कर मंदिर के लंबेचौड़े प्रांगण में डोलती तो उस के अथाह छलकते रूप पर देखने वालों की आंखें हटाए नहीं हटती थीं. अपने टूटेफूटे शब्दों में जब वह गीता का श्लोक बोलती तो अंधविश्वास की भूलभुलैए में घूमते हिंदू चढ़ावे के साथ उस की भी चरण वंदना करने से नहीं चूकते थे. जिसे देख कर पंडितजी अपने द्वारा फेंके गए पाशे पर बलिहार जाया करते थे.

सुनील की जिद से उन की नींद का उड़ना ठीक ही था. अपने गाढ़े रंग से काली घटाओं को भी शर्माती आधी मुसलिम सारा पर पंडितजी कौन सी जादुई छड़ी घुमाते कि वह भी एलिस की तरह सफेद रोशनी सी चमचमाती. पंडितजी का वहां पर भी तो समाज था जो उन से ऊपरी सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए मन ही मन मनो लड्डू फोड़ रहा था.

सारा जैसी लड़कियों के माथे पर अब विश्व और ब्रह्मांड सुंदरी के ताज सज रहे हैं, ऐसे उदाहरणों से सुनील ने अपने व्यथित पिता को शीतल करना चाहा, पर असफल रहा. सारा को छोड़ कर किसी को भी जीवनसंगिनी बना ले, कह कर उन्होंने सुनील को समझाना चाहा पर वे उसे उस के निश्चय से डिगा नहीं सके.

निश्चित तिथि को सुनील ने सारा के साथ कोर्टमैरिज कर ली और उसे घर ले आया. पंडिताइन ने उन की आरती उतारी. पंडितजी के लाख मना करने के बावजूद हीरे, पन्ने, मोतियों आदि रत्नों से सजा अपना सतलड़ा हार सारा के गले में डाल दिया. इस असंभावित स्वागत से मुग्ध हो कर सारा ने उन्हें अपने से लिपटा लिया तो उस की विशाल काया में पंडिताइन की दुबलीपतली क्षीण काया लुप्त ही हो गई. अल्पशिक्षित पंडिताइन ने इसे अपना अच्छा समय समझा.

मन मार कर अपने मंदिर परिसर में अनेक मेहमानों को भ्रमित करते हुए पंडितजी ने सारा पर जरसी गाय का गोबर और गंगाजल छिड़क कर अग्नि के समक्ष अनगिनत मंत्रों का पाठ कर के, जो सभी की समझ से बाहर थे, उसे हिंदू बना लिया. सारा के काले, मोटे, भीमकाय रिश्तेदार पंडितजी की एकएक अदा पर झूम कर अपना वृहत मस्तिष्क झुलाते रहे थे.

न्यूजर्सी के सब से बड़े शानदार होटल में नई बहू के आगमन के उपलक्ष्य में पंडितजी ने बहुत बड़ी पार्टी दी. पार्टी में उन के अतिशिक्षित, उच्च पदस्थ भक्तजन कीमती तोहफों और बड़ेबड़े मौल के उपहारकार्डों के साथ सम्मिलित हुए. अमेरिकी भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे जो हमेशा की तरह उन की धार्मिक व सामाजिक उदारता को दर्शा रहा था. इस आयोजन में कौन, किस को अनुगृहित कर रहा था, समझ से परे था.

भारतीय दुलहन के लिबास में सारा जंच रही थी. यहां पर ही भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बेमिसालता अवर्णनीय हो जाती है जो बदसूरतों को भी कमनीय और खूबसूरत बना जाती है. सारा की रूपछटा पर जहां पंडितजी का सुपुत्र मुग्ध हुआ जा रहा था वहीं पर उस की हंसी काले बादल के बीच बिजली की तरह चमक कर पंडितजी की छाती को बेध, उन्हें भस्म किए जा रही थी.

सामूहिक पारिवारिक फोटो के लिए जब उन की दोनों बहुएं स्टेज पर एकसाथ खड़ी हुईं तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो दिनरात एकदूसरे से गले मिल रहे हों. दिखावे के लिए ही हो, पर पंडित अपनी पंडिताइन के साथ लोगों की बधाइयों के भार से दुहरे हुए जा रहे थे. मौमडैड कह कर सारा का उन दोनों से लिपटना पंडितजी के लिए असहनीय हो रहा था. रिश्तेदारों की कुटिल हंसी और चुभती नजर से आहत हो कर, विश्व बंधुत्व का राग हमेशा अलापने वाले पंडितजी उतनी ठंड में भी पसीने से भीग गए थे.

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सूरजमुखी सी वह: भाग 3- क्यों बहक गई थी मनाली

मनाली कभी उन लोगों से नहीं मिली थी इसलिए वहां जाने में हिचकिचा रही थी, मगर उस का संकोच जल्द ही दूर हो गया. आंटी, अंकल बहुत ही मिलनसार थे. उन की इकलौती संतान विशाल बीटैक करने के बाद कुछ दिन पहले ही नौकरी पर लगा था. घर की चकाचौंध देख मनाली आश्चर्यचकित हो गई. बंगले सदृश्य दिखने वाले मकान में सब प्रकार की सुविधाएं थीं. विशाल का कमरा किसी होटल के कमरे से कम नहीं लग रहा था. नक्काशीदार डबलबैड, कमरे में बिछा मोटा गद्देदार कालीन और दीवार पर लगी सुंदर पेंटिंग अपनी कीमत जैसे स्वयं ही बता रहे थे.

मनाली को अगले ही दिन जब विशाल एक रेस्टोरैंट में ले गया गया तो मैन्यू कार्ड में दाम देख मनाली की आंखें फटी रह गईं. विशाल ने कई प्रकार की डिशेज मंगवाई थीं. मनाली को समझते देर न लगी कि विशाल को मनमाना पैसा खर्च करने की छूट मिली हुई है.

खाना खाने के बाद जब वे लौटे तो विशाल के मातापिता दोनों को घुलतेमिलते देख बहुत प्रसन्न हुए. कुछ दिनों से विशाल अकेलेपन को झेल रहा था. उस का अपनी गर्लफ्रैंड से ब्रैकअप हुए 2-3 महीने ही बीते थे.

मनाली विशाल के कमरे में बैठी देर रात तक बातें करती रही. विशाल ने मनाली को सोने की वह चेन दिखाई जो उस ने अपनी गर्लफ्रैंड के लिए बनवाई थी. चेन का पेंडैंट ‘एम’ लैटर से था।

“उस का नाम मुसकान था,” विशाल बताने लगा, “इस से पहले कि मैं मुसकान को चेन गिफ्ट करता मुझे पता लगा कि वह एक और लड़के के चक्कर में पड़ी हुई है. मैं ने बिना देरी किए रिश्ता तोड़ लिया.”

चेन हाथों में ले मनाली ने विशाल की पसंद को सराहा तो विशाल ने तपाक से चेन उस के ही गले में पहना दी. मनाली की खुशी का ठिकाना न था.
मनाली का बिस्तर दूसरे कमरे में लगाया गया था, लेकिन विशाल से बातें करतेकरते ही उसे नींद आ गई और वहीं सो गई.

अगले दिन जब वह यूनिवर्सिटी से लौटी तो विशाल स्वागत में पलकें बिछाए बैठा था. अपने मम्मीपापा के सो जाने पर विशाल ने मोबाइल में मुसकान की अपने साथ ली हुईं कुछ तसवीरें मनाली को दिखाईं. दोनों को हाथों में हाथ डाले घूमते देख मनाली का मन विशाल के करीब जाने को बेताब होने लगा. विशाल को इसी पल की प्रतीक्षा थी. उस ने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया. 2 प्यासे तन एकदूसरे की बांहों के घेरे में तृप्त हो रहे थे.

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सोमवार को अपने घर जा कर मनाली को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. होमवर्क में मिली असाइनमैंट करने बैठती तो विशाल का चेहरा सामने आ जाता.

‘कितनी ठंडक है विशाल के स्पर्श में। ऐसी शीतलता क्या मुझे अभिषेक से मिली थी? बिलकुल नहीं. अब किसी सूरज की तलाश नहीं है मुझे, चांद मिल गया है न. क्यों बनूं मैं सूरजमुखी का फूल? नहींनहीं मुझे नहीं चाहिए सूरज की रोशनी. मैं तो वह जूही का फूल हूं जिसे सूरज की रोशनी बरदाश्त ही नहीं होती. जूही का फूल रात की रानी भी तो कहलाता है और चांदनी भी तो कहते हैं न उसे, क्योंकि वह चांद के प्रकाश में खिलता है. तो अब विशाल मेरा चांद होगा और सप्ताह में 3 रातें तो बिताऊंगी ही मैं उस के साथ,’ अपनेआप से कहते हुए खयालों में ही वह विशाल को चूमने लगी.

मनाली को सप्ताह के अंत की प्रतीक्षा व्याकुलता से रहती थी. वह सचमुच विशाल की रानी बन गई थी. उस की रातों को महकाने वाली रात की रानी।
कक्षा में वह न तो कुछ सुनती थी और न ही समझ पाती, क्योंकि अकसर पूरी रात विशाल के साथ जागतेजागते ही बीतती थी. कुछ अधूरी नींद तो कुछ मदहोशी के कारण मनाली को कक्षा में नींद के झोंके आते रहते, लेकिन विशाल से रिश्ते के आगे उसे कुछ भी नहीं सूझता था.

दिन पंख लगाए उड़ रहे थे. प्रत्येक सप्ताह इम्पोर्टेड परफ्यूम, ब्रैंडेड कपड़े, मोबाइल, कैमरा व पर्स जैसी महंगी वस्तुएं विशाल उसे गिफ्ट के तौर पर देता तो रात में उस के जिस्म को निचोड़ कर रख देता.

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इधर कुछ दिनों से मनाली को यूरिन पास करते समय तेज दर्द होने लगा. खुजली और जलन भी होती. बारबार टौयलेट जाने की इच्छा होती, लेकिन यूरिन बहुत ही कम होता. बुखार और थकावट भी रहने लगी थी. जब विशाल को उस ने इस विषय में बताया तो वह सांत्वना देने या मदद करने के स्थान पर कन्नी काटने लगा. सप्ताहांत में जब मनाली उस के घर आती तो वह बहाने से कहीं और चला जाता.

जब मनाली की तकलीफ बढ़ने लगी तो उस ने अपनी एक पुरानी सहेली को सब कुछ विस्तार से बताते हुए अपने साथ डौक्टर के पास चलने को कहा. यहां भी मनाली के हाथ निराशा लगी. सहेली ने न सिर्फ साफ शब्दों में इनकार कर दिया, बल्कि यह भी कहा, “तेरी करनी है, तू ही भुगत…”
जब दर्द बरदाश्त के बाहर हो गया तो मनाली मम्मी से पुस्तकें खरीदने के बहाने कुछ पैसे ले कर यूनिवर्सिटी के निकट एक नर्सिंगहोम में चली गई. डाक्टर ने कुछ दवाएं और टैस्ट लिख दिए. मनाली तब बेहद चिंतित हुई जब टैस्ट की रिपोर्ट आने पर उसे पता लगा कि उसे यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फैक्शन हुआ है. इलाज व कुछ अन्य टैस्ट करवाने के खर्च की जानकारी सुन उस के होश उड़ गए.

इन दिनों उस की एक नई मित्र बनी थी, सुमेधा. इस समय उसे सुमेधा का सहारा ही दिखाई पड़ रहा था. मनाली ने उसे अपनी शारीरिक व मानसिक पीड़ा खुल कर बता दी. सुमेधा ने कहा कि वह उस के साथ डाक्टर के पास तो नहीं जाएगी, हां उस की एक मदद अवश्य कर सकती है. सुमेधा के पिता पुरानी वस्तुओं का व्यापार करते हैं. उन से कह कर वह मनाली को उपहार में मिली वस्तुओं की अच्छी कीमत दिलवा सकती है. अंततः मनाली को अपने सभी गिफ्ट बेचने पड़े. उन से मिले रुपयों से वह इलाज करवाने लगी.

उस दिन नर्सिंगहोम में अपनी बारी आने की प्रतीक्षा में बैठी मनाली स्वयं को लुटा सा महसूस कर रही थी. परीक्षा शुरू होने वाली थी. मनाली धीरेधीरे स्वस्थ तो हो रही थी मगर यह सोच कर बहुत दुखी थी कि इस बार भी वह परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाएगी. पूरे साल तो उस का मन पढ़ाई में लगा नहीं था और अब यह मुसीबत… मनाली का जी चाह रहा था कि वह चिल्ला कर जोरजोर से रोने लगे.

“तुम्हारे घर वाले इतनी जल्दी क्यों कर देते हैं तुम्हारी शादी?” डाक्टर के कमरे से आवाज आई तो मनाली जैसे अपने में लौट आई. कुछ देर पहले एक महिला अंदर गई थी जिस के माथे पर पट्टी बंधी हुई थी. डाक्टर उस से ही मुख़ातिब थीं. महिला के शराबी पति ने नशे में उस के सिर पर कुरसी दे मारी थी. वह महिला पति के साथ रहना तो नहीं चाहती थी, लेकिन बच्चों को ले कर जाती भी कहां?

कुछ देर की चुप्पी के बाद डाक्टर की आवाज़ सुनाई पड़ी, “पढ़ालिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करने की जगह न जाने क्यों तुम्हारे मातापिता पति के पल्ले बांध लेते हैं? क्यों तुम्हें यह नहीं बताया जाता कि तुम्हारी भी अपनी एक पहचान है. शादी, ब्याह, बच्चे तो जिंदगी में आ ही जाएंगे पहले खुद की खुद से पहचान तो होने दें वे. अपने बल पर खड़ी हो जाएगी तो लड़की क्यों चाहेगी किसी का सहारा? अपने दम पर जीना कब सीखोगी?”

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मनाली को अकस्मात जैसे नई दिशा मिल गई. शायद मैं सहारा ढूंढ़ते हुए ही अपने से दूर हो गई थी. नहीं बनूंगी अब मैं सूरजमुखी, रात की रानी भी नहीं. तो क्या चंपा का फूल बन जाऊं जिस पर भंवरे नहीं बैठते कभी? चंपा के फूल में पराग नहीं होता. तो क्या मैं मन की गुनगुनी चाह, इच्छाओं और भावनाओं को निकाल बाहर करूं? नहीं मैं अपने मन से दूर तो नहीं होने दूंगी ये एहसास, लेकिन अभी मन के कोने में छिपा कर रखूंगी और पूरा तनमन एक उद्देश्य में रमा दूंगी. अपने पैरों पर खड़े होने का उद्देश्य, किसी पर निर्भर न रहने का उद्देश्य. क्यों बनूं मैं कोई फूल? शायद कोमल समझ कर यह समाज मुझ जैसी लड़कियों के कानों में सदा किसी पर निर्भर रहने का मंत्र फूंकता रहता है. क्यों प्रतीक्षा हो मुझे अपने जीवन के आकाश में किसी चांद या सूरज की? मैं तो बनूंगी खुद सूरज भी चांद भी. छू लूंगी किसी दिन छलांग लगा कर अरमानों के आसमान को.

सूरजमुखी सी वह: भाग 2- क्यों बहक गई थी मनाली

कहते हैं कि कच्ची उम्र कच्ची मिट्टी के समान होती है, उसे जो भी आकार मिल जाए उस में ही ढलने लगती है. मातापिता कुम्हार के समान होते हैं उसे सही रूप में ढालने वाले. मनाली का मन किस ओर भाग रहा है इस बात की चिंता से दूर उस के मातापिता मंदिरों में दर्शन का कार्यक्रम बना व आएदिन घर में पूजापाठ रखवा कर व्यस्त रहते. इस के अतिरिक्त उन की नजरों में संतान पर किशोर अवस्था में अंकुश लगाना ही उन को सही दिशा दिखाना था.

मनाली की मां रोजरोज सत्संग में भाग ले कर जीवन दर्शन समझने का प्रयास तो करतीं, लेकिन इस बात को समझने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया कि नाजुक उम्र के इस दौर में मनाली के मनमस्तिष्क में अनेक जिज्ञासाएं जन्म ले रही हैं. स्त्रीपुरुष संबंधों के विषय में जानने की उस की दबीछिपी उत्सुकता कौतुहल जगाने के साथ ही उस की कामभावना को भड़का सकती है और ऐसे प्रश्नों के उत्तर पाने की उत्कंठा उसे अनुचित राह का राही भी बना सकती है.

मनाली प्रतिदिन सायंकाल छत पर जा गमलों में पानी देती थी. उस दिन साथ वाले घर की छत पर बने कमरे से एक लड़के को निकलते देख मनाली को उस के विषय में जानने की उत्सुकता हुई. जानबूझ कर वह ऐसे स्थान पर खड़ी हो गई जहां से लड़के का कमरा स्पष्ट दिखाई दे रहा था. अपनी दृष्टि वहां गड़ा वह कुछ समझने का प्रयास कर ही रही थी कि लड़का कमरे से बाहर आ गया. औपचारिकता से भरी मुसकराहट के बाद उस ने मनाली को अपना परिचय दिया. अभिषेक नाम था उस का. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के साथ ही वह बीए कर रहा था. पड़ोस की छत पर बना कमरा उस ने किराए पर लिया था.

दोनों छतों की दीवारें जुड़ी हुई थीं इसलिए वे न केवल धीरे से बातचीत कर पा रहे थे बल्कि एकदूसरे की निकटता को भी महसूस कर रहे थे. दोनों ने कुछ देर में ही एकदूसरे के विषय में काफी कुछ जान लिया. अभिषेक फिल्में देखने का बहुत शौकीन था.

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अपने लैपटौप पर अकसर रात में वह इंग्लिश फिल्में व वेब सीरीज देखा करता था. मनाली से उस ने एक विशेष वेब सीरीज का जिक्र किया जो टीनएजर्स के लिए बनी थी. अभिषेक की बातें सुन मनाली का दिल भी उस सीरीज को देखने के लिए मचल उठा. अभिषेक ने उसे यह कहते हुए कि कल उस का औफ डे है, उसे अपने कमरे में अगले दिन आने का निमंत्रण दे दिया.

अभिषेक से हुई उस छोटी सी भेंट ने मनाली को अंदर तक हिला दिया. बारबार उसे वह पल गुदगुदा रहा था जब अभिषेक से बातें करते हुए दीवार पर रखे उस के हाथ अभिषेक के हाथों को छू रहे थे.

अगले दिन मम्मी के मंदिर जाते ही वह छत पर चली गई. अभिषेक तो इंतजार में पहले से ही खड़ा था. पहली बार दीवार फांदने में मनाली को थोड़ी कठिनाई हो रही थी. अभिषेक ने अपने एक हाथ से उस की बाजू को कस कर पकड़ लिया और दूसरे हाथ से पीठ को सहारा दे अपनी छत पर उतार लिया.

अभिषेक के साथ सीरीज देखते हुए मौजमस्ती करना मनाली को बहुत भा रहा था. बारबार अभिषेक उसे किसी बहाने हौले से छू लेता. वह अभिषेक की बातों का रस ले रही थी तो अभिषेक की नजरें उस की देह का. जाने का समय आया तो अभिषेक ने एक बड़ी सी चौकलेट मनाली को उपहारस्वरूप देने के लिए निकाली और पैकेट खोल एक टुकड़ा तोड़ कर मनाली के होंठों से लगा दिया.

मनाली अब सारा दिन छत पर आने की फिराक में रहती. कभी पढ़ने के बहाने तो कभी मां की निगाहों से बच कर बिना कोई बहाना बनाए. जानती थी कि मम्मी तो सीढ़ियां चढ़ कर आएंगी नहीं. अभिषेक अकसर कमरे में ही होता था. लगभग हर मुलाकात में कोई न कोई गिफ्ट पा कर मनाली स्वयं पर ही इतराने लगी थी.

अभिषेक से मिली छूअन में मनाली को ऊष्मा का एहसास होता. सर्द मन को थोड़ी राहत अवश्य मिल गई थी, लेकिन उस का जी अकुला उठा और पाने को. रात में बिस्तर पर करवटें बदलते हुए सुबह होने का इंतजार रहता उसे. अभिषेक उस के जीवन का सूरज बन रहा था. उस से मिला चुंबन और आलिंगन उसे धूप के एक टुकड़े सा लगता था.

वह अब सूरजमुखी बन जाना चाहती थी, अपने सूर्य का प्रकाश पा कर खिल जाना चाहती थी. उसे अब ऐसी धूप की चाह थी जो खिला दे उस का अंगअंग. सहला दे उस का तन, खिल जाए उस की पंखुड़ीपंखुड़ी. अभिषेक भी तो यही चाहता था.

2 दिन में ही मन का संबंध तन का रिश्ता बन गया. अपने मन में घुमड़ रहे प्रश्नों का उत्तर खोजने मनाली रिश्ते में डूबती चली गई, लेकिन दोनों के बीच अब संवाद केवल शरीर की भाषा में होने लगे. मनाली कुछ संतुष्ट थी तो कहीं असंतुष्ट भी. उसे लगने लगा था कि अभिषेक भी वही पुरुष है जो अपनी शारीरिक भूख शांत कर रहा है. वह कभी कुछ पूछना भी चाहती तो अभिषेक उत्तर ही नहीं देता था. धीरेधीरे नौबत यहां तक पहुंच गई कि कभीकभी उस की इच्छा ही नहीं होती थी अभिषेक के पास जाने की, मगर उपहारों के लोभ में वह फंसती ही गई. कभी महंगे कौस्मेटिक्स, कभी कमरा सजाने का सामान तो कभी ब्लूटूथ ईयरफोन जैसी वस्तुएं… मनाली की अलमारी भरती जा रही थी.

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एक दिन वह छत पर आई तो अभिषेक के कमरे में कोई हलचल दिखाई न दी. उस ने ध्यान से देखा तो समझ में आया कि दरवाजे पर ताला लटक रहा है, यह देख वह हक्कीबक्की रह गई. ‘न जाने क्या हुआ होगा’ वह छत पर खड़ेखड़े ही चिंता में घुली जा रही थी. तभी मकानमालिक एक व्यक्ति के साथ आया और कमरे का ताला खोल उस से बोला, “आप कल से ही आ सकते हैं यहां. वह लड़का कुछ महीनों से किराया नहीं दे रहा था. कल रात ही यहां से चुपचाप चला गया. सामान के नाम पर एक सूटकेस ही तो था. मुझे तो उस के कमरे में एक लैटर रखा हुआ मिला जिस पर लिखा था कि वह अपने गांव वापस जा रहा है, किराया न देने के लिए माफी भी मांगी थी,” सब सुन कर मनाली को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. ‘बेनाम रिश्तों का अंजाम शायद यही होता है,’ वह बुदबुदाई.

इस घटना के 2 माह बाद एक दिन बाजार में अभिषेक को एक लड़की के साथ देख मनाली आश्चर्यचकित रह गई. अभिषेक उसे देख कर सकपका गया और मुंह फेर कर चुपचाप चल दिया. मनाली भी उसे अनदेखा कर घर आ गई. अपने उदास मन को समझाते हुए सोच रही थी, ‘मैं क्यों बन गई थी सूरजमुखी, जबकि वह सूरज था ही नहीं. वह तो कमरे में जलते घासफूस के ढेर सा था जिस ने मुझे कुछ देर गरमी दी और उजाला भी, लेकिन अंत तो निश्चित ही था.’

कुछ देर बाद जब मन शांत हुआ तो हार में जीत ढूंढ़ते हुए बोली, ‘सौदा बुरा भी नहीं रहा, कितने सारे गिफ़्ट तो दिए हैं उस ने मुझे,’ अलमारी खोल कर एक दृष्टि अभिषेक द्वारा दिए उपहारों पर डाल वह मुसकरा दी.

12वीं का परीक्षा परिणाम आया तो मनाली को बहुत कम अंक प्राप्त हुए. किसी कौलेज में प्रवेश न मिल पाने के कारण उसे ओपन यूनिवर्सिटी में दाखिला लेना पड़ा. वहां प्रत्येक शनिवार और रविवार को सुबह से शाम तक कक्षाएं होती थीं. मनाली का घर यूनिवर्सिटी से दूर था. सुबह 8 बजे प्रारंभ होने वाली कक्षा में उस का जाना लगभग असंभव था. उन के दूर के एक रिश्तेदार यूनिवर्सिटी के पास रहते थे. मनाली पर सौ पाबंदियां लगाने वाले मातापिता को आखिर फैसला करना पड़ा कि मनाली शुक्रवार की शाम उन के घर चली जाएगी और 2 दिन क्लास करने के बाद सोमवार सुबह घर वापस आ जाया करेगी.

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सूरजमुखी सी वह: भाग 1- क्यों बहक गई थी मनाली

“लगता है विकास जीजू आए हैं. वाह, मजा आ गया. बाद में आ कर पढ़ लूंगी. 12वीं कक्षा है तो क्या हुआ? बोर्ड के ऐग्जाम का मतलब यह तो नहीं कि किसी से बात करना ही गुनाह है,” हाथों में पकड़ी किताब को बंद करते हुए मनाली मंदमंद मुसकरा कर अपने कमरे से निकल ड्राइंगरूम की ओर चल दी.

रिश्ते की दीदी कुमुद का विवाह लगभग 6 माह पहले हुआ था. विवाह से पहले कुमुद जब कभी उन से मिलने आती थी तो मनाली खूब नाकभौं सिकोड़ा करती. उस का साथ मनाली को कुछ देर के लिए भी नहीं सुहाता था, लेकिन कुमुद का विवाह हुआ तो विकास जीजू की कदकाठी और रंगयौवन देख मनाली के दिल में कुलबुलाहट सी होने लगी. अब कुमुद के साथ विकास के घर आते ही मनाली का मुखमंडल दमक उठता.
रात का अंधेरा भी उसे दीदी, जीजू के संबंधों की कल्पना से चकाचौंध करने लगा था.

‘जीजू की बगल में लेटी दीदी को कैसा लगता होगा? उन के प्रेम प्रदर्शित करने पर दीदी की प्रतिक्रिया क्या होती होगी…’ मन ही मन दीदी के स्थान पर स्वयं को कल्पना में रख वह अपनी सोच पर लजा जाती. दीदीजीजू के बीच हो रहे संवादों के सांकेतिक अर्थ जानने में उस की रुचि बढ़ रही थी.

‘क्या महत्त्व है जीवन में ऐसे संबंधों का? क्या अंतर होता होगा दोस्ती और ऐसे रिश्तों में…’ मन में घुमड़ते ऐसे सवालों का जवाब पाने को बेचैन वह अपनी सहेलियों से इस विषय पर चर्चा करना चाहती थी, मगर मातापिता के कठोर नियमों के कारण वह घर से निकल नहीं पाती थी. सहेलियों के घर आने पर भी वे क्षुब्ध हो जाते. मनाली स्वयं में खोई अंतर्मन में सब छिपाए व्याकुल सा जीवन जी रही थी.

मनाली के हावभाव देख मां को समझते देर न लगी कि उम्र की हलचल उस पर हावी हो रही है. अपनी संकीर्ण मानसिकता से इस का हल निकालते हुए मनाली को वे शाम को अपने साथ मंदिर ले जाने लगीं ताकि आचार्यजी से प्रवचन सुन कर मन में पल रही असामयिक इच्छाओं से मनाली का पीछा छूट जाए.

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सत्संग भवन में मां जब आंखें मूंदें भक्तिभाव में लीन होतीं तो मनाली आचार्यजी की लालसा में डूबी निगाहों को यहांवहां ताकते स्पष्ट रूप से देखती थी. बीमारी दूर करने व आशीर्वाद के नाम पर स्त्रियों के अंगों को स्पर्श करते हुए उन के चेहरे के भाव भी मनाली की आंखों से छिप न सके.

अपनी मां से पढ़ाई का बहाना बना उस ने वहां जाना तो बंद कर दिया, लेकिन इस घटना के बाद शारीरिक भूख जैसे शब्द उसे उलझाने लगे. ‘शायद जिस्म की प्यास सब को बेचैन करती है, चाहे कोई इस से दूर होने का कितना भी ढोंग कर ले. कभीकभी मेरा मन भी करता है कि कोई प्यार से सहलाता रहे. क्या यह वही भूख है? इसे शांत कैसे किया जाता होगा…’ ऐसे प्रश्न उसे लगातार झिंझोड़ रहे थे.

इस बीच पड़ोस की एक आंटी के किसी पुरुष के साथ संबंध होने की चर्चा ने उस के मन की उथलपुथल को और बढ़ा दिया. आंटी के पति विदेश में रह कर नौकरी कर रहे थे. उन की बेटी आयु में मनाली से थोड़ी ही छोटी थी. मनाली ने भी कई बार किसी अंकल को रात में कार से उतरते और सुबह वापस जाते देखा था. एक ओर इस रिश्ते के विषय में सोच कर मनाली के दिल में हलचल सी जाग रही थी, तो दूसरी ओर वह प्रेम का अर्थ खोज रही थी.

वह जानती थी कि पड़ोस में रहने वाली आंटी के पति 2 साल में 1 बार आते हैं, ऐसे में आंटी अकेलापन महसूस करती होंगी. लेकिन वह अंकल? सुना है, उन के विवाह को 3-4 वर्ष ही हुए हैं. वे खुश हैं अपने परिवार से. 2 वर्षीय बेटा भी है उन का, तो फिर यह सब क्यों? क्या वे दोनों केवल मित्र बन कर नहीं रह सकते? क्या सैक्स इतना जरूरी है कि नए संबंध बनने लगें?

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मां से मनाली ने पड़ोस वाली आंटी की बात शुरू की तो उन्होंने उसे झिड़कते हुए कहा, “खबरदार जो आइंदा ऐसी गंदी बातें की मुझ से. छोटी हो अभी बहुत, बच्चे की तरह रहो,” मनाली सहम कर चुप हो गई.

एक दिन अपने घर मिलने आए मामा को वह चाय देने कमरे में पहुंची तो मोबाइल पर उन को किसी से मीठी आवाज़ में बातें करते पाया. दरवाजे की ओर मामा की पीठ थी, इसलिए उस की उपस्थिति से अनभिज्ञ मामा नटखट अंदाज में द्विअर्थी संवाद बोलते हुए खिलखिला कर हंस रहे थे. मनाली के सामने जाते ही अचकचा कर “अभी करता हूं फोन,” कह कर उन्होंने काल काट दी. मोबाइल सामने टेबल पर रख वे निगाहें बचाते हुए हड़बड़ा कर वाशरूम में घुस गए.

‘कुछ देर पहले तो मामाजी मां से मामीजी की शिकायत कर रहे थे और अब इतनी प्यार भारी बातें? कहीं वे भी पड़ोसी आंटी की तरह…” मनाली ने झट से मोबाइल उठा कर ताजा काल का नंबर देखना चाहा. मोबाइल को टच करते ही वाट्सऐप खुल गया. शायद मामा की बातचीत वाट्सऐप काल के माध्यम से हो रही थी. सब से ऊपर की चैट में किसी महिला की डीपी लगी थी. मनाली ने झटपट चैट खोली तो इश्क में रंगी हुई बातचीत पढ़ते हुए उस का दिल धड़क उठा. मामा द्वारा ली गई एक सैल्फी भी दिखी जिस में मामा किसी होटल के बिस्तर पर उस महिला के साथ लेटे हुए थे. हैरत में पड़ी मनाली मोबाइल टेबल पर रख चुपचाप अपने कमरे में चली गई. अपनी मम्मी से इस बारे में बात करने का बहुत मन था मनाली का, लेकिन चाह कर भी वह ऐसा न कर सकी.

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उस रात मनाली को नींद नहीं आ रही थी. ‘शालिनी मामी सी खूबसूरत पत्नी के होते हुए उस महिला के चक्कर में क्यों हैं मामा? डीपी में दिखने वाली महिला तो मामी के सामने कहीं ठहरती ही नहीं. कहीं उस ने ही फुसला कर मामा को अपनी ओर तो नहीं कर लिया? लेकिन मामा क्यों मान गए? क्या शारीरिक सुख इतना अहम है कि सभी आंखें मूंदे उस रास्ते पर चलना चाहते हैं? या फिर ऐसा तो नहीं कि मामी अपने पति की इच्छाएं पूरी नहीं कर सकीं कि उन्हें किसी और से प्रेम की चाहत है? पुरुष की क्या अपेक्षाएं होती होंगी एक पार्टनर से? क्या मैं अपने साथी को वह सब दे सकूंगी जो उसे चाहिए ताकि वह भटक न पाए? कौन बताएगा यह सब? किसी पुरुष से नजदीकी हो तो शायद इस विषय में जान पाऊं…’ सोचते हुए मनाली को नींद आ गई.

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मुखौटे: क्या हुआ था इंदर के साथ

खुली खिड़की है भई मन, विचारों का आनाजाना लगा रहता है, कहती है जबां कुछ और तो करते हैं हम कुछ और कहते हैं बनाने वाले ने बड़ी लगन और श्रद्धा से हर व्यक्ति को गढ़ा, संवारा है. वह ऐसा मंझा हुआ कलाकार है कि उस ने किन्हीं 2 इंसानों को एक जैसा नहीं बनाया (बड़ी फुरसत है भई उस के पास). तन, मन, वचन, कर्म से हर कोई अपनेआप में निराला है, अनूठा है और मौलिक है. सतही तौर पर सबकुछ ठीकठीक है. पर जरा अंदर झांकें तो पता चलता है कि बात कुछ और है. गोलमाल है भई, सबकुछ गोलमाल है.

बचपन में मैं ने एक गाना सुना था. पूरे गाने का सार बस इतना ही है कि ‘नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छिपी रहे.’

कई तरह के लोगों से मिलतेमिलते, कई संदर्भों में मुझे यह गाना बारबार याद आ जाता है. आप ने अकसर छोटे बच्चों को मुखौटे पहने देखा होगा. फिल्मों में भी एक रिवाज सा था कि पार्टियों, गानों आदि में इन मुखौटों का प्रयोग होता था. दिखने में भले इन सब मुखौटों का आकार अलगअलग होता है पर ये सब अमूमन एक जैसे होते हैं. वही पदार्थ, वही बनावट, उपयोग का वही तरीका. सब से बड़ी बात है सब का मकसद एक-सामने वाले को मूर्ख बनाना या मूर्ख समझना, उदाहरण के लिए दर्शकों को पता होता है कि मुखौटे के पीछे रितिक हैं पर फिल्म निर्देशक यही दिखावा करते हैं कि कोई नहीं पहचान पाता कि वह कौन है.

इसी तरह आजकल हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पद पर हो, किसी भी उम्र का हो, हर समय अपने चेहरे पर एक मुखौटा पहने रहता है. चौबीसों घंटे वही कृत्रिम चेहरा, कृत्रिम हावभाव, कृत्रिम भाषा, कृत्रिम मुसकराहट ओढ़े रहता है. धीरेधीरे वह अपनी पहचान तक भूल जाता है कि वास्तव में वह क्या है, वह क्या चाहता है.

जी चाहता है कि वैज्ञानिक कोई ऐसा उपकरण बनाएं जिस के उपयोग से इन की कृत्रिमता का यह मुखौटा अपनेआप पिघल कर नीचे गिर जाए और असली स्वाभाविक चेहरा सामने आए, चाहे वह कितना भी कुरूप या भयानक क्यों न हो क्योंकि लोग इस कृत्रिमता से उकता गए हैं.

‘‘अजी सुनो, सुनते हो?’’

अब वह ‘अजी’ या निखिल कान का कुछ कमजोर था या जानबूझ कर कानों में कौर्क लगा लेता था या नेहा की आवाज ही इतनी मधुर थी कि वह मदहोश हो जाता था और उस की तीसरीचौथी आवाज ही उस के कानों तक पहुंच पाती थी. यह सब या तो वह खुद जाने या उसे बनाने वाला जाने. इस बार भी तो वही होना था और वही हुआ भी.

‘‘कितनी बार बुलाया तुम्हें, सुनते ही नहीं हो. मुझे लगता है एक बार तुम्हें अपने कान किसी अच्छे डाक्टर को दिखा देने चाहिए.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ मेरे कानों को? ठीक ही तो हैं,’’ अखबार से नजर हटाते हुए निखिल ने पूछा.

नेहा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि उस के स्वर की तल्खी और आंखों के रूखेपन को ताड़ कर उस ने अपनेआप को नियंत्रित किया और एक मीठी सी मुसकराहट फैल गई उस के चेहरे पर. किसी भी आंख वाले को तुरंत पता चल जाए कि यह दिल से निकली हुई नहीं बल्कि बनावटी मुसकराहट थी. जब सामने वाले से कोई मतलब होता है तब लोग इस मुसकराहट का प्रयोग करते हैं. मगर निखिल आंख भर कर उसे देखे तब न समझ पाए.

‘‘मैं इस साड़ी में कैसी लग रही हूं? जरा अच्छे से देख कर ईमानदारी से बताना क्योंकि यही साड़ी मैं कल किटी पार्टी में पहनने वाली हूं,’’ उस ने कैटवाक के अंदाज में चलते हुए बड़ी मधुर आवाज में पूछा.

‘तो मेमसाब अपनी किटी पार्टी की तैयारी कर रही हैं. यह बनावशृंगार मेरे लिए नहीं है,’ निखिल ने मन ही मन सोचा, ‘बिलकुल खड़ूस लग रही हो. लाल रंग भी कोई रंग होता है भला. बड़ा भयानक. लगता है अभीअभी किसी का खून कर के आई हो.’ ये शब्द उस के मुख से निकले नहीं. कह कर आफत कौन मोल ले.

‘‘बढि़या, बहुत सुंदर.’’

‘‘क्या? मैं या साड़ी?’’ बड़ी नजाकत से इठलाते हुए उस ने फिर पूछा.

‘साड़ी’ कहतेकहते एक बार फिर उस ने अपनी आवाज का गला दबा दिया.

‘‘अरे भई, इस साड़ी में तुम और क्या? यह साड़ी तुम पर बहुत फब रही है और तुम भी इस साड़ी में अच्छी लग रही हो. पड़ोस की सारी औरतें तुम्हें देख कर जल कर खाक हो जाएंगी.’’

नेहा को लगा कि वह उस की तारीफ ही कर रहा है. उस ने इठलाते हुए कहा, ‘‘हटो भी, तुम तो मुझे बनाने लगे हो.’’  पता नहीं कौन किसे बना रहा था.

नन्हे चिंटू ने केक काटा. तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी. अतिथि एकएक कर आगे आते और चिंटू के हाथ में अपना तोहफा रख कर उसे प्यार करते, गालों को चूमते या ऐसे शब्द कहते जिन्हें सुन कर उस के मातापिता फूले न समाते. तोहफा देते हुए वे इतना अवश्य ध्यान रखते कि चिंटू के मातापिता उन्हें देख रहे हैं या नहीं.

‘‘पारुल, तुम्हारा बेटा बिलकुल तुम पर गया है. देखो न, उस की बड़ीबड़ी आंखें, माथे पर लहराती हुई काली घुंघराली लटें. इस के बड़े होने पर दुनिया की लड़कियों की आंखें इसी पर होंगी. इस से कहना जरा बच कर रहे,’’ जब मोहिनी ने कहा तो सब ठठा कर हंस पडे़.

चिंटू बड़ा हो कर अवश्य आप के जैसा फुटबाल प्लेयर बनेगा,’’ इधरउधर भागते हुए चिंटू को देख कर रमेश ने कहा.

‘‘हां, देखो न, कैसे हाथपांव चला रहा है, बिलकुल फुटबाल के खिलाड़ी की तरह,’’ खालिद ने उसे पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा.

नरेश की बाछें खिल गईं. हिंदी सिनेमा के नायक की तरह वह खड़ाखड़ा रंगीन सपने देखने लगा.

खालिद, जो चिंटू को पकड़ने में लगा था, अपनी ही बात बदलते हुए बोला, ‘‘नहीं यार, इस के तो हीरो बनने के लक्षण हैं. इस की खूबसूरती और मीठी मुसकराहट यही कह रही है. बिलकुल भाभीजी पर गया है.’’

खालिद ने उधर से जाती हुई पारुल  को देख लिया था. उस के हाथों में केक के टुकड़ों से भरी प्लेट वाली ट्रे थी. पारुल ने रुक कर खालिद की प्लेट को भर दिया.

नरेश ने घूर कर खालिद को देखा फिर अगले ही पल माहौल देखते हुए होंठों पर वही मुसकराहट ले आया.

‘‘पारुल, चिंटू को जरा गलत नजर वालों से बचा कर रखो,’’ आशा ने जया को घूरते हुए कहा. उन दोनों की बिलकुल नहीं पटती थी. दोनों के पति एक ही दफ्तर में काम करते थे. दोनों के आपस में मिलनेजुलने वाले करीबकरीब वही लोग होते थे.इसलिए अकसर इन दोनों का मिलनाजुलना होता और एक बार तो अवश्य तूतू, मैंमैं होती.

‘‘कैसी बातें करती हो, आशा? यहां कौन पराया है? सब अपने ही तो हैं. हम ने चुनचुन कर उन्हीं लोगों को बुलाया है जो हमारे खास दोस्त हैं,’’ पारुल ने हंसते हुए कहा.

तभी अचानक उसे याद आया कि पार्टी शुरू हो चुकी है और उस ने अब तक अपनी सास को बुलाया ही नहीं कि आ कर पार्टी में शामिल हो जाएं. वह अपनी सास के कमरे की ओर भागी. यह सब सास से प्यार या सम्मान न था बल्कि उसे चिंता थीकि मेहमान क्या सोचेंगे. उस ने देखा कि सास तैयार ही बैठी थीं मगर उन की आदत थी कि जब तक चार बार न बुलाया जाए, रोज के खाने के लिए भी नहीं आती थीं. कदमकदम पर उन्हें इन औपचारिकताओं का बहुत ध्यान रहता थादोनों बाहर निकलीं तो मेहमानों ने मांजी को बहुत सम्मान दिया. औरतों ने उन से निकटता जताते हुए उन की बहू के बारे में कुरेदना चाहा.मगर वे भी कच्ची खिलाड़ी न थीं. इधर पारुल भी ऐसे जता रही थी मानो वह अपनी सास से अपनी मां की तरह ही प्यार करती है. यह बात और है कि दोनों स्वच्छ पानी में प्रतिबिंब की तरह एकदूसरे के मन को साफ पढ़ सकती थीं

पार्टी समाप्त होने के बाद सब बारीबारी से विदा लेने लगे.

‘‘पारुल, बड़ा मजा आया, खासकर बच्चों ने तो बहुत ऐंजौय किया.  थैंक्यू फौर एवरीथिंग. हम चलें?’’

‘‘हांहां, मंजू ठीक कहती है. बहुत मजा आया. मैं तो कहती हूं कि कभीकभी इस तरह की पार्टियां होती रहें तो ही जिंदगी में कोई रस रहे. वरना रोजमर्रा की मशीनी जिंदगी से तो आदमी घुटघुट कर मर जाए,’’ आशा ने बड़ी गर्मजोशी से कहा.

सब ने हां में हां मिलाई.

‘‘आजकल इन पार्टियों का तो रिवाज सा चल पड़ा है. शादी की वर्षगांठ की पार्टी, जन्मदिन की पार्टी, बच्चा पैदा होने से ले कर उस की शादी, उस के भी बच्चे पैदा होने तक, अनगिनत पार्टियां, विदेश जाने की पार्टी, वापस आने की पार्टी, कोई अंत हैइन पार्टियों का? हर महीने इन पर हमारी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा यों ही खर्च हो जाता है.

‘‘आशा की बातों का जया कोई तीखा सा जवाब देने वाली थी कि उस के पति ने उसे खींच कर रिकशे में बिठा दिया और सब ने उन को हाथ हिला कर विदा किया.‘‘तुम ठीक कहती हो, आशा. तंग आ गए इन पार्टियों से,’’ मोहिनी ने दीर्घ निश्वास लेते हुए कहा. उस का परिवार बड़ा था और खर्चा बहुत आता था

‘‘अरे, देखा नहीं उस अंगूठे भर के बच्चे को ले कर पारुल कैसे इतरा रही थी जैसे सचमुच सारे संसार में वही एक मां है और उस का बेटा ही दुनिया भर का निराला बेटा है.’’

‘‘सोचो जरा काली कजरारी आंखें, घुंघराले बाल और मस्तानी चाल, बड़ा हो कर भी यही रूप रहा तो कैसा लगेगा,’’ मोहिनी ने आंखें नचाते हुए कहा. उस का इशारा समझ कर सब ने जोरजोर से ठहाका लगाया.

‘‘भाभीजी, आप ने निखिल को देखा. वह अपने उसी अंगूठे भर के बेटे को देख कर ऐसा घमंड कर रहा था मानो वह दुनिया का नामीगिरामी फुटबाल का खिलाड़ी बन गया हो,’’ खालिद की बात पर फिर से ठहाके  गूंजे.

‘‘मगर खालिद भाई, तुम्हीं ने तो उसे चढ़ाया था कि उस का बेटा बहुत बड़ा फुटबाल प्लेयर बनेगा,’’ आनंद ने चुटकी ली. आनंद और खालिद में हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहता था. एकदूसरे को नीचा दिखाने का वे कोई भी मौका चूकते न थे.

‘‘कहा तो, क्या गलत किया. उन के यहां पेट भर खा कर उन के बच्चे की तारीफ में दो शब्द कह दिए तो क्या बुरा किया. कल किस ने देखा है,’’ रमेश भी कहां हाथ आने वाला था.

‘‘ऐसा उन्होंने क्या खिला दिया खालिद भाई कि आप आभार तले दबे जा रहे हैं?’’

रमेश की बात पर खालिद की जबान पर ताला लग गया. उस के आगे टिकने की शक्ति उस में न थी.

‘‘यह कैसा विधि का विधान है? मेरी बेटी तो अनाथ हो गई. मां तो मैं हूं पर सुशीला बहन ने उसे मां जैसा प्यार दिया. शादी के बाद तो वे ही उस की मां थीं. मेरी बेटी को मायके में आना ही पसंद नहीं था. पर आती थी तो उन की तारीफ करती नहींथकती थी. उन की कमी को कोई पूरा नहीं कर सकता. मेरी बेटी सच में दुखियारी है जो उस के सिर से ऐसी शीतल छाया उठ गई.’’

सुशीलाजी की मृत्यु की खबर मिलते ही वे (शीला) भरपेट नाश्ता कर के पति के साथ जो निकलीं तो 10 बजतेबजते बेटी की ससुराल में पहुंच गई थीं. कहने को दूसरा गांव था पर मुश्किल से40 मिनट का रास्ता था. तब से ले कर शव के घर से निकल कर अंतिम यात्रा के लिए जाने तक के रोनेधोने का यह सारांश था. कालोनी के एकत्रित लोग शीला के दुख को देख कर चकित रह गए थे. उस की आंखों से बहती अश्रुधारा ने लोगों क सहानुभूति लूट ली. सब की जबान पर एक ही बात थी, ‘दोनों में बहुत बनती थी. अपनी समधिन के लिए कोई इस तरह रोता है?

सारा कार्यक्रम पूरा होने तक शीला वहीं रहीं. पूरे घर को संभाला. दामाद सुनील तो पूरी तरह प्रभावित हो गया. उन्हें वापस भेजते समय उन के पैर छू कर बोला, ‘‘मांजी, मैं ने कभी नहीं सोचा था कि आप हम लोगों से इतना प्यार करती हैं. अब आपही हम तीनों की मां हैं. हमारा खयाल रखिएगा.’’

‘‘कैसी बातें करते हो बेटा. मेरे लिए तो जैसे सरला और सूरज हैं वैसे तुम तीनों हो. जब भी मेरी जरूरत पडे़, बुला लेना, मैं अवश्य आ जाऊंगी.’’

उसी शीला ने अकेले में अपनी बेटी को समझाया, ‘‘बेटी, यही समय है. संभाल अपने घर को अक्लमंदी से. कम से कम अब तो तुझे इस जंजाल से मुक्ति मिली. जब तक जिंदा थी, महारानी ने सब को जिंदा जलाया. कोई खुशी नहीं, कोई जलसा नहीं. यहां उस की दादागीरी में सड़ती रही. इतने सालों के बाद तू आजादी की सांस तो ले सकेगी.’’

अपने गांव जाने से पहले शीला बेटी को सीख देना नहीं भूलीं कि बहुत हो गया संयुक्त परिवार का तमाशा. मौका देख कर कुछ समय के बाद देवरदेवरानी का अलग इंतजाम करा दे. मगर उस से पहले दोनों भाई मिल कर ननद की शादी करा दो, तब तक उन से संबंध अच्छे रखने ही पड़ेंगे. तेरी ननद के लिए मैं ऐसा लड़का ढूंढूंगी कि अधिक खर्चा न आए. वैसे तेरी देवरानी भी कुछ कम नहीं है. वह बहुत खर्चा नहीं करने देगी. ससुर का क्या है, कभी यहां तो कभी वहां पडे़ रहेंगे. आदमी का कोई ज्यादा जंजाल नहीं होता.

दिखावटी व्यवहार, दिखावटी बातें, दिखावटी हंसी, सबकुछ नकली. यही तो है आज की जिंदगी. जरा इन के दिलोदिमाग में झांक कर देखेंगे तो वहां एक दूसरी ही दुनिया नजर आएगी. इस वैज्ञानिक युग में अगर कोई वैज्ञानिक ऐसी कोई मशीन खोजनिकालता जिस से दिल की बातें जानी जा सकें, एक्सरे की तरह मन के भावों को स्पष्ट रूप से हमारे सामने ला सके तो…? तब दुनिया कैसी होती? पतिपत्नी, भाईभाई या दोस्त, कोई भी रिश्ता क्या तब निभ पाता? अच्छा ही है कि कुछ लोग बातों को जानते हुए भी अनजान होने का अभिनय करते हैं या कई बातें संदेह के कोहरे में छिप जाती हैं. जरा सोचिए ऐसी कोई मशीन बन जाती तो इस पतिपत्नी का क्या हाल होता?

‘‘विनी, कल मुझे दफ्तर के काम से कोलकाता जाना है. जरा मेरा सामान तैयार कर देना,’’ इंदर ने कहा.

‘‘कोलकाता? मगर कितने दिनों के लिए?’’

‘‘आनेजाने का ले कर एक सप्ताह तो लग जाएगा. कल मंगलवार है न? अगले मंगल की शाम को मैं यहां लौट आऊंगा, मैडमजी,’’ उस ने बड़े अदब से कहा.

‘‘बाप रे, एक सप्ताह? मैं अकेली न रह पाऊंगी. उकता जाऊंगी. मुझे भी ले चलिए न,’’ उस ने लाड़ से कहा.

‘‘मैं तुम्हें जरूर साथ ले जाता मगर इस बार काम कुछ ज्यादा है. वैसे तो

10-12 दिन लग जाते मगर मैं ने एक हफ्ते में किसी तरह निबटाने का निश्चय कर लिया है. भले मुझे रातदिन काम करना पडे़. क्या लगता है तुम्हें, मैं क्या तुम्हारे बिना वहां अकेले बोर नहीं होऊंगा? अच्छा, बताओ तो, कोलकाता से तुम्हारे लिए क्या ले कर आऊं?’’

‘‘कुछ नहीं, बस, आप जल्दी वापस आ जाइए,’’ उस ने पति के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा.

इंदर ने पत्नी के गाल थपथपाते हुए उसे सांत्वना दी.अगले दिन धैर्यवचन, हिदायतें, बिदाई होने के बाद  आटोरिकशा स्टेशन की ओर दौड़ने लगा. उसी क्षण इंदर का मन उस के तन को छोड़ कर पंख फैला कर आकाश में विचरण करने लगा. उस पर आजादी का नशा छाया हुआ था

जैसे ही इंदर का आटोरिकशा निकला, विनी ने दरवाजा बंद कर लिया और गुनगुनाते हुए टीवी का रिमोट ले कर सोफे में धंस गई. जैसे ही रिमोट दबाया, मस्ती चैनल पर नरगिस आजाद पंछी की तरह लहराते हुए ‘पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में, आज मैं आजाद हूं दुनिया के चमन में’ गा रही थी. वाह, क्या इत्तेफाक है. वह भी तो यही गाना गुनगुना रही थी.

‘‘आहा, एक सप्ताह तक पूरी छुट्टी. खाने का क्या है, कुछ भी चल जाएगा. कोई टैंशन नहीं, कोई नखरे नहीं, कोई जीहुजूरी नहीं. खूब सारी किताबें पढ़ना, गाने सुनना और जी भर के टीवी देखना. यानी कि अपनी मरजी के अनुसार केवल अपने लिए जीना,’’ वह सीटी बजाने लगी, ‘ऐ मेरे दिल, तू गाए जा…’ ‘‘अरे, मैं सीटी बजाना नहीं भूली. वाह…वाह.’’

इंदर का कार्यक्रम सुनते ही उस ने अपनी पड़ोसन मंजू से कुछ किताबें ले ली थीं. मंजू के पास किताबों की भरमार थी. पतिपत्नी दोनों पढ़ने के शौकीन थे. उन में से एक बढि़या रोमांटिक किताब ले कर वह बिस्तर पर लेट गई. उस को लेट कर पढ़ने की आदत थी.

गाड़ी में चढ़ते ही इंदर ने अपने सामान को अपनी सीट के नीचे जमा लिया और आराम से बैठ गया. दफ्तर के काम के लिए जाने के कारण वह प्रथम श्रेणी में सफर कर रहा था, इसलिए वहां कोई गहमागहमी नहीं थी. सब आराम से बैठे अपनेआप मेंतल्लीन थे. सामने की खिड़की के पास बैठे सज्जन मुंह फेर कर खिड़की में से बाहर देख रहे थे मानो डब्बे में बैठे अन्य लोगों से उन का कोई सरोकार नहीं था. ऐसे लोगों को अपने अलावा अन्य सभी लोग बहुत निम्न स्तर के लगते हैं.

वह फिर से चारों ओर देखने लगा, जैसे कुछ ढूंढ़ रहा हो. गाड़ी अभीअभी किसी स्टेशन पर रुक गई थी. उस की तलाश मानो सफल हुई. लड़कियां चहचहाती हुई डब्बे में चढ़ गईं और इंदर के सामने वाली सीट पर बैठ गईं. इंदर ने सोचा, ‘चलो, आंखें सेंकने का कुछ सामान तो मिला. सफर अच्छा कट जाएगा.’ वह खयालों की दुनिया में खो गया.

‘वाह भई वाह, हफ्ते भर की आजादी,’ वह मन ही मन अपनी पीठ थपथपाते हुए सोचने लगा, ‘भई इंदर, तेरा तो जवाब नहीं. जो काम 3-4 दिन में निबटाया जा सकता है उस के लिए बौस को पटा कर हफ्ते भर की इजाजत ले ली. जब आजादी मिल ही रही है तो क्यों न उस का पूरापूरा लुफ्त उठाए. अब मौका मिला ही है तो बच्चू, दोनों हाथों से मजा लूट. सड़कों पर आवारागर्दी कर ले, सिनेमा देख ले, दोस्तों के साथ शामें रंगीन कर ले. इन 7 दिनों में जितना हो सके उतना आनंद उठा ले. फिर तो उसी जेल में वापस जाना है. शाम को दफ्तर से भागभाग कर घर जाना और बीवी के पीछे जीहुजूरी करना.’

आप अपनी आंखें और दिमाग को खुला छोड़ दें तो पाएंगे कि एक नहीं, दो नहीं, ऐसी हजारों घटनाएं आप के चारों ओर देखने को मिलेंगी. इंसान जैसा दिखता है वैसा बिलकुल नहीं होता. उस के अंदर एक और दुनिया बसी हुई है जो बाहर की दुनिया से हजारों गुना बड़ी है और रंगीन है. समय पा कर वह अपनी इस दुनिया में विचरण कर आता है, जिस की एक झलक भी वह दुनिया वालों के सामने रखना पसंद नहीं करता.

आज की  दुनिया विज्ञान की दुनिया है. विज्ञान के बल पर क्याक्या करामातें नहीं हुईं? क्या वैज्ञानिक चाहें तो ऐसी कोई मशीन ईजाद नहीं कर सकते जिसे कलाई की घड़ी, गले का लौकेट या हाथ की अंगूठी के रूप में धारण कर के सामने खड़े इंसान के दिलोदिमाग में चल रहे विचारों को खुली किताब की तरह पढ़ा जा सके? फिर चाहे वह जबान से कुछ भी क्यों न बोला करे.

मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा महान वैज्ञानिक अवश्य कहीं न कहीं पैदा हुआ होगा. उस ने ऐसी चीज बनाने की कोशिश भी की होगी. मगर यह सोच कर अपने प्रयत्नों को बीच में ही रोक दिया होगा कि कौन इस बला का आविष्कार करने का सेहरा अपने सिर बांधे? दुनिया वाले तो जूते मारेंगे ही, भला स्वयं के लिए भी इस से बढ़ कर घोर संकट और क्या होगा

नए साल का दांव: भाग-2

कपिल बच्चों पर बिना बात के चिल्लाता रहता. वंदिता की बातबात में इंसल्ट करता. खाने की थाली उठा कर फेंक देता. वंदिता ने दिल्ली में रहने वाले अपने भाई और मां से यह दुख शेयर किया तो उन्होंने फौरन कपिल को छोड़ कर आने की सलाह दी. वे बेहद नाराज हुए. उन्होंने कपिल से बात की तो कपिल ने उन की खूब इंसल्ट करते हुए जवाब दिए. संजय और साक्षी सब जान चुके थे. दोनों ने गुस्से में कपिल से बात करना बंद कर दिया था.

उस दिन वंदिता ने सारी स्थिति पर ठंडे दिमाग से सोचा. हर बात पर बारीकी से ध्यान दिया. उस ने सोचा कपिल को छोड़ कर मायके जाना तो समस्या का हल नहीं है. वह कोई नौकरी तो करती नहीं है… वहां जा कर भाई और मां कितने दिन खुशीखुशी उसे सहारा देंगे और वह स्वयं को इतनी कमजोर, मजबूर क्यों सम झ रही है? कपिल बेवफाई कर गया, इस की सजा वह क्यों परेशान, दुखी रह कर भुगते? वह क्यों अपनी हैल्थ इस धोखेबाज के लिए खराब करे और बच्चे? दोनों सुबह के गए रात को आते हैं. व्यस्त हैं, अपने पैरों पर खड़े हैं. नई जौब है. कपिल से नाराज रह कर उन का काम चल ही रहा है. कपिल अपनी ऐयाशियों में मस्त है, सिर्फ वही क्यों इस पीड़ा का दंश सहे?

वह 12वीं कक्षा तक के बच्चों को मैथ की ट्यूशन पढ़ती थी. पूरी सोसाइटी में उस के जैसी मैथ की टीचर नहीं थी. बच्चों से घिरी इतने रोचक ढंग से पढ़ाती कि बच्चों को मैथ जैसा विषय कभी मुश्किल ही न लगता उन के पेरैंट्स भी बहुत खुश रहते. मैथ की ट्यूशन की फीस भी उसे अच्छी मिलती. दिन के 4 घंटे तो उस के ट्यूशन में ही बीतते थे. अपनी जरूरतों के लिए वह इन पैसों को आराम से खर्च करती. नहीं,

वह रोरो कर तो नहीं जाएगी. यह जीवन बारबार नहीं मिलता. वह छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी,

जो गलत काम कर रहा है. वह दुखी रहे. वह खुश रहेगी.

हफ्ते में 2 दिन सुबह 6 बजे वंदिता सोसाइटी में ही चलने वाले जिम में जाती थी, वहां उस का एक अलग ही ग्रुप था. सुबह सब के साथ व्यायाम करना उस के मन को खूब भाता था. शिनी भी उस के साथ रहती थी.

अगले दिन जिम में मिलने पर वंदिता के रिलैक्स्ड चेहरे को देख कर शिनी हंसी, ‘‘वाह, क्या बात है… बड़ी खुश लग रही हो… कपिल से कुछ बात हुई क्या?’’

वंदिता खुल कर हंसी, सुबहसुबह किस का नाम ले दिया? वह तो टूर पर गया है.’’

‘‘तो इतनी रिलैक्स्ड क्यों लग रही हो?’’

‘‘बाद में बताऊंगी. आज अमायरा और सिम्मी नहीं आई हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ शिनी बोली.

वंदिता घर आई तो बच्चे औफिस के लिए तैयार हो रहे थे. मां को आज खुश देख साक्षी ने कहा, ‘‘मम्मी, पापा आजकल टूर पर जाते हैं तो अच्छा लगता है न?’’

वंदिता हंस पड़ी, ‘‘हां, बहुत.’’

संजय बोला, ‘‘मेरा मन ही नहीं होता उन से बात करने का. आप कैसे बरदाश्त कर रही हैं, मम्मा?’’

‘‘छोड़ो बच्चो, मैं अब उस पर अपनी ऐनर्जी वेस्ट करने वाली नहीं.

मैं ने सोच लिया है कि मु झे कैसे जीना है. वह चाहे कुछ भी करे, मैं अपना मैंटल पीस खत्म नहीं होने दूंगी.

मैं ने कुछ गलत नहीं किया न, फिर दुखी मैं क्यों रहूं?’’

बच्चों ने उसे गले लगा लिया, ‘‘प्राउड औफ यू मम्मी.’’ उस दिन बढि़या

वर्कआउट करने के बाद चारों सहेलियां क्लब हाउस के एक कोने में बैठ गई. सिम्मी ने कहा, ‘‘यार, तू कुछ बदलीबदली सी अच्छी लग रही है.’’

‘‘हां, मैं अब कपिल में उल झ कर दुखी नहीं रहने वाली और भी बहु कुछ है मेरी लाइफ में जिसे मैं ऐंजौय कर सकती हूं… अब बैठ कर एक बेवफा के लिए तो हरगिज नहीं रोऊंगी. जितना रोना था रो ली, अब नहीं. अब तक उस पर मेरे रोने का न असर हुआ है न होगा, उलटा वह धोखेबाज इंसान मु झे रोते देख मेरा मजाक उड़ाता है.’’

अमायरा ने खुश हो कर कहा, ‘‘प्राउड औफ यू यार, आज मोहना का लैंडलौर्ड सुधीर सुबह आया था. कुछ गुस्से में दिख रहा था. कुछ तेज आवाजें आ रही थीं,’’ अमायरा मोहना के फ्लोर के सामने वाले फ्लोर पर रहती थी.

शिनी चौंकी, ‘‘अच्छा?’’

‘‘हां, कुछ ऐसा सुना कि किराया टाइम पर नहीं दिया गया है.’’

सिम्मी ने कहा, ‘‘मु झे अभीअभी आइडिया आया है. यह मोहना ही इस सोसाइटी से चली जाए तो अच्छा रहेगा न? इसे ही भगाते हैं. अमायरा. तुम इस के लैंडलौर्ड को जानती हो?’’

‘‘हां, मोहना को फ्लैट देने के समय काम करवाने कई बार यहां आता था. हमारी उम्र का ही होगा. मेरे पति नितिन से आमनासामना होने पर अच्छी जानपहचान हो गई है. भला इंसान है.’’

‘‘उस का फोन नंबर है?’’

‘‘हां, नितिन के पास है. मेरे सामने ही उस ने अपना नंबर दिया था.’’

फिर चारों सिर जोड़े बहुत देर तक प्लानिंग करतीं रहीं. उस के बाद संतुष्ट हो कर अपनेअपने घर चली गई.

उसी रात सुधीर को नितिन ने फोन किया. दोस्ताना लहजे में हालचाल पूछा  फिर कहा, ‘‘तुम्हारा फ्लैट तो मशहूर हो गया.’’

‘‘कैसे?’’

नितिन ने उसे सब बता दिया कि मोहना का सोसाइटी के ही किसी पुरुष से संबंध हैं

और वह पुरुष रातदिन खूब आताजाता है और मोहना के फ्लैट से काफी डिस्टरबैंस सी रहने लगी हैं.

सुधीर बहुत सभ्य आदमी था, वह आजकल वैसे ही किराया समय पर न मिलने से परेशान था. विनय उस का फोन उठाता नहीं था. 2 महीने का किराया इकट्ठा हो चुका था. नितिन ने यह भी बताया कि विनय का कोई काम है ही नहीं. हर समय शराब में डूबा रहता है. मोहना ही पैसा ऐंठने का काम करती है, किसी से भी. वह तो अच्छा था, सुधीर ने ऐडवांस में डिपौजिट लिया हुआ था. सारी बात सुन कर सुधीर ने एक फैसला ले लिया.

अगले दिन सुबह ही सुधीर को घर आया देख विनय और मोहना हड़बड़ा गए. सुधीर ने कहा, ‘‘1 हफ्ते के अंदर मु झे अपना फ्लैट खाली चाहिए.’’

मोहना गुर्राई, ‘‘यह कोई रूल नहीं है… ऐडवांस नोटिस क्यों नहीं दिया?’’

‘‘रूल की बात तो करना मत तुम लोग… गैर के साथ रातदिन रंगरलियां मनाने वाली रूल की बात करेगी? विनय, आप अपने नशे में इन बातों से आंखें बचा सकते हैं, बिल्डिंग में रहने वाले इन चीजों को बरदाश्त नहीं करेंगे और मु झे इतना भी शरीफ मत सम झ लेना… 1 हफ्ते में फ्लैट खाली नहीं किया तो सामान उठवा कर बाहर फिंकवा दूंगा.’’

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