Famous Hindi Stories : लुकाछिपी

Famous Hindi Stories : एकतरफ दाल का तड़का तैयार करते और दूसरी तरफ भिंडी की सब्जी चलाते हुए मेरा ध्यान बारबार घड़ी की तरफ जा रहा था. मन ही मन सोच रही थी कि जल्दी से रोटियां सेंक लेती हूं. याद है मुझे जतिन के स्कूल से लौटने से पहले मैं रोटियां सेंक कर रख लेती थी फिर हम मांबेटे साथ में लंच करते. जिस दिन घर में भिंडी बनती वह खुशी से नाचता फिरता.

एक दिन तो बालकनी में खड़ा हो चिल्लाचिल्ला कर अपने दोस्तों को बताने लगा, ‘‘आज मेरी मां ने भिंडी बनाई है.’’

आतेजाते लोग भी उस की बात पर हंस रहे थे और मेरा बच्चा बिना किसी की परवाह किए खुश था कि घर में भिंडी बनी है. यह हाल तब था जब मैं हफ्ते में 3 बार भिंडी बनाती थी. खुश होने के लिए बड़ी वजह की जरूरत नहीं होती, यह बात मैं ने जतिन से सीखी.

अब साल में एक ही बार आ पाता है और वह भी हफ्तेभर के लिए. इतने समय में न आंखें भरती हैं उसे देख कर और न ही कलेजा. कितना कहता है कि मेरे साथ चलो. मैं तो चली भी जाऊं लेकिन नरेंद्र तैयार नहीं होते. कहते हैं कि अपने घर में जो सुकून है वह और कहीं नहीं, कोई पूछे इन से बेटे का घर अपना घर नहीं होता क्या. किसी तरह के बदलाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते.

खाना बन गया, खुशबू अच्छी आ रही थी. शिप्रा को मेरी बनाई दाल बहुत पसंद है इसलिए जब बच्चे आते हैं तो मैं दोनों की पसंद का खयाल रखते हुए खाना बनाती हूं. उम्र के साथ शरीर साथ नहीं देता मगर बच्चों के लिए काम करते हुए थकान महसूस ही नहीं होती. सारा काम निबटा डाइनिंगटेबल पर जा बैठी और शाम के लिए मटर छीलने लगी. नरेंद्र बाहर बरामदे में उस अखबार को फिर से पढ़ रहे थे जिसे वे सुबह से कम से कम 4 बार पढ़ चुके थे. सच तो यह है कि यह अखबार सिर्फ बहाना है वे बरामदे में बैठ कर बच्चों का इंतजार कर रहे थे. पिता हैं न, खुल कर अपनी भावना जता नहीं सकते.

जब जतिन छोटा था तो एक खास आदत थी मेरी, जतिन के स्कूल से लौटने से पहले मेन डोर खोल कर घर के किसी कोने में छिप जाती.

‘‘मां. कहां हो मां?’’ कहता हुआ जतिन घर में दाखिल होता. बैग एक तरफ रख मुझे खोजता और मैं… मैं बेटे की आवाज सुन तृप्त हो जाती… एक सुकून मिलता कि मेरे बच्चे को घर में घुसते ही सब से पहले मेरी याद आती है.

जतिन मुझे देखता और गले लग जाता, ‘‘मैं तुम्हें ढूंढ़ रहा था मां, तुम्हारे बिना मेरा कहीं मन नहीं लगता.’’

‘‘मेरा भी तेरे बिना मन नहीं लगता मेरे बच्चे.’’

उस एक पल में हम मांबेटे एकदूसरे के प्यार को कहीं गहराई में महसूस करते. यह हमारा रूटीन था. जब से जतिन ने स्कूल जाना शुरू किया तब से कालेज में आने तक. बहुत बार नरेंद्र, मांबेटे को इस खेल के लिए चिढ़ाते, ‘‘अब भी तुम मांबेटे वही बचकाना खेल खेलते हो… पागल हो दोनों.’’

उन की बात पर मैं बस मुसकरा कर रह जाती और जतिन प्यार से मेरे गले में लग जाता. यह सिर्फ खेल नहीं हम दोनों का एकदूसरे के लिए प्यार जताने का तरीका था.

जतिन बचपन से ही दूसरे बच्चों से अलग था. पढ़ने में तेज, सम?ादार और उम्र से ज्यादा जिम्मेदार. उस ने कभी न तो दूसरे बच्चों की तरह जिद की और न ही कभी परेशान किया. मांबेटे की कुछ अलग ही बौंडिंग थी, बिना कहे एकदूसरे की बात समझ जाते. पढ़ीलिखी होने के बावजूद मैं ने जतिन को अच्छी परवरिश देने के लिए नौकरी न करने का फैसला लिया था और अपना सौ प्रतिशत दिया भी.

जतिन के स्कूल से लौटने के बाद मेरा सारा वक्त उसी के लिए था. साथ खाना और खाते हुए स्कूल की 1-1 बात जब तक नहीं बता लेता जतिन को चैन नहीं मिलता.

अपनी टीनऐज में भी दोस्तों के साथ होने वाली बातें मुझसे साझा करता और मैं बिना टोके सुनती. बाद में उन्हीं बातों में क्या सही है और क्या गलत, उसे बता देती. वह मेरी हर बात मानता भी था.

‘‘बात हुई क्या जतिनशिप्रा से?’’ नरेंद्र की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी.

‘‘हां, शिप्रा से बात हुई थी 3 बज जाएंगे उन्हें आतेआते. आप खाना खा लो.’’

‘‘नहीं, बच्चों के साथ ही खाऊंगा. अच्छा सुनो. तुम ने अपने छिपने की जगह तो सोच ली होगी न. आज भी तुम्हारा लाड़ला तुम्हें ढूंढ़ेगा?’’

नरेंद्र की बात में एक तरह का तंज था जिस का जवाब मेरे पास नहीं था. क्या हम मांबेटे का प्यार इस उम्र में प्रमाण मांगता है? पता नहीं मैं खुद को तर्क दे रही थी या सचाई से मुंह मोड़ रही थी. जानती हूं कि वह उस का बचपन था, अब वह एक जिम्मेदार पति और पिता बन चुका है.

शिप्रा, जतिन के साथ कालेज में पढ़ती थी. कालेज के आखिरी ऐग्जाम के बाद जतिन ने अपने खास दोस्तों को लंच पर बुलाया. शिप्रा भी आई थी. इस से पहले मैं ने जतिन से बाकी दोस्तों की तरह ही शिप्रा का जिक्र सुना था.

जब बाकी सब मस्ती कर रहे थे, शिप्रा मेरे पास किचन में आ गई, ‘‘आंटी, कुछ हैल्प करूं?’’

उस की आवाज में अनजाना सा अपनापन लगा.

‘‘नहीं बेटा, सब हो गया तुम चलो सब के साथ ऐंजौय करो.’’

मगर वो मेरे साथ रुकी रही.

खापी कर, मस्ती कर के सब चले गए. मैं रसोई समेट रही थी. जतिन मेरे साथ कांच के बरतन पोंछने लगा.

‘‘हां बोल.’’

‘‘मां वह…’’

‘‘करती हूं पापा से बात, वैसे मुझे पसंद

है शिप्रा.’’

‘‘मां… आप कैसे समझाऊं?’’

‘‘मां हूं, तेरी आंखों में देख तेरे मन का हाल जान लेती हूं. कल ही जान गई थी कि किसी खास दोस्त को बुलाया है तूने मुझ से मिलवाने के लिए.’’

‘‘मां तुम दुनिया की सब से अच्छी मां हो… मुझे सब से ज्यादा जानती और समझती हो,’’ जतिन की बात सुन पहली बार मुझे कुछ खटका.

‘‘सब से ज्यादा प्यार मैं करती हूं,’’ यह बात शिप्रा को कैसी लगेगी? वैसे भी आजकल की लड़कियों को सिर्फ पति चाहिए होता है मम्माज बौय बिलकुल नहीं. मेरा जतिन तो सच में मम्माज बौय था.

अचानक कुछ दिन पहले बड़ी बहन की कही बात याद आ गई, ‘‘देख सुधा, जतिन तुझे बेहद प्यार करता है, ऐसे में जब उस की शादी होगी तब वह अपनी पत्नी को हर वक्त या तो तुझ से कंपेयर करेगा या तुझे तवज्जो ज्यादा देगा. दोनों ही हालात में उस की गृहस्थी खराब होगी. ध्यान रखना, तेरा प्यार उस की गृहस्थी न बरबाद कर दे.’’

बहन के कहे शब्द मेरे कलेजे में फांस की तरह चुभ गए. कहीं सच में मैं अपने बच्चे की गृहस्थी में दरार का कारण न बन जाऊं.

कालेज पूरा हो चुका था और जल्द ही जतिन को अच्छी नौकरी मिल गई. सैकड़ों मील दूर बैंगलुरु में. वहां से जतिन जब आता तो मैं दरवाजा खुद खोलती जिस से वह न मझे पुकार पाता और न ही खोजने की जरूरत पड़ती. इस तरह मैं ने खुद ही लुकाछिपी का खेल बंद कर दिया था.

शिप्रा के साथ जतिन की शादी हो गई. शिप्रा की समझदारी और रिश्तों के लिए सम्मान देख मेरे मन का संशय जाता रहा. मेरी कोई बेटी नहीं थी शायद इसलिए मैं जतिन से ज्यादा शिप्रा को महत्त्व देने लगी.

मेरे मन में एक बात और बैठी हुई थी कि जतिन तो मेरा अपना बेटा है ही, शिप्रा के साथ मु?ो रिश्ता मजबूत करना है. मैं कब शिप्रा को पहले और जतिन को बाद में रखने लगी, पता ही नहीं चला.

सब ठीक चल रहा है. बच्चे अपनी जिंदगी में खुश हैं, तरक्की कर रहे हैं. हमारा पूरा ध्यान रखते हैं. कहीं, किसी भी तरह की शिकायत की गुंजाइश नहीं है फिर भी मन का कोई कोना खाली है.

घड़ी पर नजर गई. 2 बज गए थे. एक बार शिप्रा को फिर फोन करती हूं.

‘‘हैलो मां, आप को ही कौल करने वाली थी, अभी 1 घंटा लग जाएगा हमें. आप दोनों खाना खा लो. मैडिसिन भी लेनी होती है न.’’

उस की आवाज में बेटी जैसा प्यार और मां जैसा अधिकार था.

‘‘अच्छा ठीक है.’’

‘‘दादी… दादी, मुझे पास्ता खाना है.’’

3 साल की वृंदा पीछे से बोली.

‘‘ नो वृंदा… दादी ने दालराइस और भिंडी बनाई है, हम वही खाएंगे,’’ जतिन की बात सुन मैं चौंक गई.

‘‘तुझे कैसे पता चला?’’

‘‘मां, बेटा हूं तुम्हारा. यह बात अलग है कि अब तुम मुझ से ज्यादा शिप्रा और वृंदा को प्यार करती हो और…’’ कहता हुआ जतिन चुप हो गया.

‘‘और क्या?’’

‘‘कुछ नहीं मां, तुम और पापा खाना खा लो.’’

बच्चों के बिना खाना खाने का जरा मन नहीं था लेकिन दवाई लेनी थी तो 2 बिस्कुट खा कर ले ली. मैसेज डाल दिया कि दवा ले ली है पर खाना साथ ही खाएंगे.

मन था कि एक जगह रुकता ही नहीं था, कभी जतिन कभी शिप्रा तो कभी वृंदा तक पहुंच रहा था. कहते हैं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है बस ऐसे ही मुझे मेरी वृंदा प्यारी है. कोई दिन नहीं जाता जब वह मु?ा से वीडियो कौल पर बात नहीं करती. अब तो साफ बोलने लगी है, जब तुतलाती थी और टूटे शब्दों में अपनी बात सम?ाती थी तब भी हम दादीपोती देर तक बातें करते थे.

शिप्रा हंसा करती कि ‘‘कैसे आप इस की बात झट से समझ लेती हो, हम दोनों तो समझ ही नहीं पाते.’’

वृंदा के जन्म के वक्त हम बच्चों के पास ही चले गए थे. 4 महीने की थी वृंदा जब मैं उसे छोड़ कर वापस आई थी. एअरपोर्ट तक रोती चली आई थी. जतिन ने बहुत जिद की थी रुकने के लिए लेकिन नरेंद्र नहीं माने.

दरवाजे की घंटी से ध्यान टूटा. लगता है बच्चे आ गए. तेज चलने की कोशिश में पैर मुड़ गया और मैं लड़खड़ा कर वहीं की वहीं बैठ गई. नरेंद्र के दरवाजा खोलते ही वृंदा उन की गोद में चढ़ न जाने क्याक्या बताने लगी. सफेद रंग के टौप और छोटी सी लाल स्कर्ट में बिलकुल गुडि़या लग रही थी.

‘‘पड़ोस वाले अंकल मिल गए. जतिन उन से बात कर रहे हैं.’’  शिप्रा ने आगे बढ़ पैर छूए.

‘‘शिप्रा देखना जरा अपनी मां को… पैर में ज्यादा तो नहीं लगी, दरवाजा खोलने आते हुए पैर मुड़ गया.’’

पैर हिलाया भी नहीं जा रहा था.

‘‘अरे मां, आप के पैर पर स्वैलिंग आने लगी है. चलो, अंदर बैडरूम में पैर फैला कर बैठो. मैं स्प्रे कर देती हूं. फिर भी आराम नहीं मिला तो डाक्टर के पास चलेंगे.’’

मैं अंदर नहीं जाना चाहती थी, जतिन नहीं आया था न अब तक और मैं उस की एक झलक के लिए उतावली थी. लेकिन शिप्रा के सामने मेरी एक नहीं चली.

शिप्रा ने जैसे ही मुझे बैड पर बैठा स्प्रे किया, तभी बाहर से जतिन की आवाज आई…

‘‘मां… कहां हो मां.’’

एक पल के लिए वक्त रुक गया. मेरा जतिन मुझे पुकार रहा था. वही मेरा छोटा सा बेटा. आज भी उसे घर में घुसते ही सब से पहले मेरी याद आई थी. मेरा मातृत्व तृप्त हो गया. बिना जवाब दिए चुपचाप बैठी रही. शिप्रा सम?ा गई, उस ने भी जवाब नहीं दिया.

‘‘मैं तुम्हें ढूंढ़ रहा था मां, तुम्हारे बिना मेरा कहीं मन नहीं लगता.’’

‘‘मेरा भी तेरे बिना मन नहीं लगता मेरे बच्चे,’’ मैं ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं और जतिन मुझ से लिपट गया.

‘‘मेरा बच्चा. तू कितना भी बड़ा हो जाए, मेरे लिए वही स्कूल से लौटता मेरा बेटा रहेगा हमेशा.’’

‘‘फिर तुम ने मेरे साथ लुकाछिपी खेलना क्यों बंद कर दिया? जानती हो मैं कितना मिस करता हूं. ऐसा लगता है कि मेरी मां मुझे भूल गई, अब बस शिप्रा की मां और वृंदा की दादी बन कर रह गई हो. मां मैं कितना भी बड़ा हो जाऊं तुम्हारी ममता का पहला हकदार मैं ही रहूंगा. जानती हो न यह लुकाछिपी सिर्फ खेल नहीं था.’’

‘‘बेटा मैं डरने लगी थी कि कहीं मेरी जरूरत से ज्यादा ममता तेरे और शिप्रा के रिश्ते के बीच न आ जाए लेकिन यह नहीं सोचा कि मेरे बच्चे को कैसा लगेगा.’’

‘‘किसी रिश्ते का दूसरे रिश्ते से कोई कंपेरिजन नहीं है. मां तो तुम ही हो न मेरी. तुम ने अच्छी सास और दादी बनने के लिए अपने बेटे को इग्नोर कर दिया. कितने साल तरसा हूं मैं… ऐसा लगता था सच में मेरी मां कहीं खो गई है. प्रौमिस करो आज के बाद हमारा लुकाछिपी का खेल कभी बंद नहीं होगा,’’ जतिन ने मेरी तरफ अपनी हथेली बढ़ा दी और मैं ने अपना हाथ उस के हाथ पर रख दिया.

राइटर-  संयुक्ता त्यागी

Inspirational Hindi Stories : अपना वजूद

Inspirational Hindi Stories : पानीपत शहर की मिडल क्लास परिवार की छोटी बेटी सुहानी (छोटी इसलिए कि भाई इस से बड़ा है) ने 1978 में एमबीए पास कर लिया था. लास्ट सैमेस्टर में ही दिल्ली की एक अच्छी कंपनी द्वारा नौकरी का औफर भी मिल गया. पढ़ीलिखी और अच्छी नौकरी के साथसाथ खूबसूरती ऐसी कि जो देखे वह पलक झपकना ही भूल जाए. गहरी नीली आंखें, पतले कमान से होंठ, सुराहीदार गरदन, तीखी नाक. उस पर कयामत ढा रहे गोरे रंग के गालों पर छोटा सा काला तिल, सीना कामदेव को आमंत्रण देता. उफ…

क्या कहने उस के हुस्न के. जो देखे बस दिल हार दे.

रिश्ते तो अनगिनत आए मगर अकसर कहीं न कहीं दहेज का लालच दिखता जो सुहानी के मातापिता दे नहीं सकते थे क्योंकि सुहानी के पिता की पोस्टऔफिस में पोस्ट मास्टर की नौकरी थी और जायदाद के नाम पर बस लेदे कर 2 कमरों का छोटा सा घर. मोटे दहेज की डिमांड कहां से पूरी करें? इस तरह से 2 साल बीत गए कहीं कोई बात जमती नजर न आई.

खैर, कुदरत भी कभीकभी कोई चमत्कार करती है. आखिर 2 साल के बाद 1980 में सुहानी की भाभी के किसी दूर के रिश्तेदार ने स्वयं इस रिश्ते की मांग की. दहेज लेना तो दूर की बात वे एक पैसा भी इन का खर्च न कराने को तैयार. भाई भी भाभी के कहने पर इस रिश्ते के लिए जोर देने लगा.

मांपापा ने हां कर दी. सुहानी चुप. जो मांपापा कहें सब ठीक, लड़के को बिन देखे शादी के लिए तैयार. भाईभाभी भी सिर से बोझ उतारना चाहते थे सो सुहानी को बताया, ‘‘सुहानी, हम ने लड़का देखा है, अच्छा है और उस पर देखो सरकारी नौकरी है और वह भी दिल्ली में ही है. उस पर दिल्ली जैसे शहर में अपना अच्छाखासा घर है, साथ में तेरी भी अच्छीखासी नौकरी दिल्ली में ही है. छोटा सा परिवार है अर्थात तुम दोनों और केवल मांबाप हैं. तुझे कोई कमी नहीं रहेगी वहां पर, सुखी रहेगी.’’

सुहानी ने बस हां में सिर हिला दिया. शादी के समय जब सुहानी ने नजर उठा कर दूल्हे अनीश को देखा तो काला रंग, पेट बाहर को निकला हुआ, सिर पर बालों के नाम पर चांद चमकता हुआ. बस चुप हो कर रह गई. क्या कहती आज के समय में बिना दहेज कोई बात ही नहीं करता और ये तो शादी का खर्च भी खुद के सिर ले रहे थे. मांपापा के बारे में सोच कर चुप रही. भाई तो पहले ही भाभी की भाषा बोलने लगा था.

शादी के बाद ससुराल में रिसैप्शन बहुत शानदार की गई. जो भी आता यही फुसफुसाता लंगूर को हूर मिल गई. लड़की तो परियों की रानी है, न जाने क्या मजबूरी रही होगी बेचारी की.

शादी के 2 महीने बाद ही सास को अचानक पैरालिसिस का अटैक आया. अब घर की देखभाल कौन करे. पति ने हुक्म सुनाया, ‘‘सुहानी, तुम नौकरी छोड़ दो, घर पर मां की देखभाल करो.’’

सुहानी सारा दिन घर का कामकाज करती. सास की सेवा में लगी रहती. 6 महीने बीते लेकिन सास की तबीयत में कोई सुधार नहीं लग रहा था ताकि कुछ उम्मीद हो उस के ठीक हो जाने की, उलटा तबीयत गिरती जा रही थी. उस पर ससुरजी बहुत परेशान करने लगे. थोड़ीबहुत पीने की आदत थी जो अब और बढ़ गई. वैसे भी ससुरजी खानेपीने के शौकीन होने के साथ कुछ रंगीन मिजाज के भी थे. जीवनसंगिनी तो चुप्पी लगा चुकी थी किस से मस्तीमजाक करते? बेटे ने कह दिया था कि जब भी कुछ खाने का मन करे आप सुहानी से कह दिया कीजिए.

अब तो ससुरजी,बहू से खुल चुके थे इसलिए जब भी कुछ खाने का मन हो ?ाट से बहू से बोल देते, ‘‘सुहानी, कल मेरे लंच में फलां चीज पैक कर देना या कभी सुहानी आज औफिस से आते हुए मैं चिकन लेता आऊंगा तुम मसाला वगैरा तैयार कर के रखना अर्थात नित नई डिमांड होने लगी. कभी सुहानी से कोई स्नैक्स, कभी चिकन, कभी कुछ, कभी कुछ डिमांड करते रहते. सुहानी इन सब में अनीश को समय न दे पाती.

आखिर एक दिन अनीश भड़क पड़ा, ‘‘सुहानी, तुम सारा दिन क्या करती हो?

जो काम इस समय हो रहा है वह दिन में क्यों नहीं कर लेती? मेरे लिए तुम्हारे पास समय ही नहीं है और

अपनी शक्ल तो देखो, तुम से तो कामवाली ही अच्छी लगती है. कभी ढंग से भी रहना सीखो.’’

सुहानी चुपचाप हां में सिर हिला देती. अगर कुछ कहती तो अनीश का पारा 7वें आसमान पर चढ़ जाता कि मेरे पापा के लिए तुम इतना सा काम भी नहीं कर सकती, मां ठीक थी तो सब मां ही करती थी न, अब तुम से इतना भी नहीं हो पाता कि इंसान घर में ढंग से खाना खा सके.

समय बीतता गया. शादी को 2 साल हो गए. अनीश औफिस के काम में व्यस्त और सुहानी घर के काम और सासससुर की तीमारदारी में. नतीजा यह कि सुहानी और अनीश में दूरियां बढ़ती गईं.

एक दिन तो हद ही हो गई. ससुरजी ने 2 पैग ज्यादा लगा लिए और चढ़ गई उन्हें. उन्होंने हाथ पकड़ कर सुहानी को खींच लिया अपनी तरफ. जैसेतैसे हाथ छुड़ा कर भागी. अनीश टूर पर गए हुए थे किस से कहे. अनीश के आने पर कुछ कहने की हिम्मत करने लगी मगर फिर चुप कि अनीश अपने पिता के बारे में नहीं मानेंगे ऐसी बात, उलटा उस पर ही दोष न लग जाए यह सोच कर चुप रह गई क्योंकि आजकल अनीश उसे बातबात पर ताने देता या कभी गुस्सा करता.

इस तरह सुहानी का अनीश को समय न देने से अनीश को स्त्री सुख की कमी खली तो वह स्त्री सुख की तलाश में बाहर भटकने लगा. इस से शराब की लत भी पड़ गई. अकसर पी कर आने लगा और सुहानी से गालीगलौच करता. कभीकभी तो हाथ भी उठा देता मगर सुहानी सब चुपचाप सहती.

सुहानी की शादी के 1 साल बाद ही उस के मांपापा तीर्थ यात्रा पर सुहानी की शादी के लिए मानी गई मन्नत देने जा रहे थे कि वापस आते समय बस गहरी खाई में पलटने की वजह से गुजर गए. अपना दुखड़ा वह किस से कहती, बस सब चुपचाप सहती रहती.

शादी को 5 साल बीत जाने पर भी कुदरत ने अभी तक गोद सूनी रखी थी वरना कोई तो सहारा बन जाता जीने का. गोद भरती भी तो कैसे? पति तो किसी और के साथ सो कर आता. जब बीज ही नहीं तो फल कहां से आएगा?

अधिक शराब के कारण पति को लंग कैंसर हो गया और शादी के केवल 5 साल बाद ही गुजर गया. भाईभाभी सार्वजनिक रूप में आ कर अफसोस कर के चले गए. बहन का एक बार भी हालचाल न पूछा. सुहानी चुपचाप सब अकेले ?ोलती रही.

मगर अब ससुर के लिए खुला रास्ता था. बेटा रहा नहीं, पत्नी बैड पर. किसी न किसी बहाने सुहानी को छूता रहता. बेचारी चुपचाप कन्नी काट लेती.

पति की सरकारी नौकरी थी, इसलिए उस के स्थान पर सुहानी को नौकरी मिल गई. अब सुहानी की जिम्मेदारी भी बढ़ गई. घर भी संभालना और नौकरी भी. सुहानी का औफिस ससुरजी के औफिस के रास्ते में था तो ससुर जाते हुए छोड़ देते और आते हुए ले लेते और रास्ते में कभीकभी सुहानी से गंदेगंदे मजाक करते सुहानी चुपचाप सहती रहती.

सुहानी सोचती कोई भी तो नहीं उस का अपना. न मायके में और न ही ससुराल में. हां लेकिन कभीकभी जब मन हद से ज्यादा भरा होता तो सासूमां के पास बैठ उन से बातें करती मानो वह इस की बातें सुन रही हो. जानती थी कि वे जवाब नहीं देंगी. मगर फिर भी वह बोल कर अपना दिल हनका कर लेती थी. लेकिन सुहानी यह नहीं जानती थी कि पैरालिसिस का मरीज बेशक बोल नहीं सकता, रिस्पौंस नहीं कर सकता लेकिन वह महसूस कर सकता है और यही हालात सुहानी की सास की थी. वह सब सुन कर महसूस करती थी लेकिन रिस्पौंस नहीं कर पाती थी. अंदर ही अंदर घुलती थी इस कारण जब उसे पता चला कि अनीश और उस का पति सुहानी के साथ कैसा बरताव करते हैं और उस के बाद अनीश की मृत्यु की खबर, तो वह पूरी तरह से टूट चुकी थी. हर पल मन में कुदरत से मृत्यु मांगती.

सुहानी की कोई सखीसहेली भी नहीं बनी थी यहां पर. सारा दिन पहले घर से फुरसत नहीं मिलती थी, अब घर के साथ नौकरी भी ही गई. उसे तो इतना तक पता न था कि महल्ले के तीसरे घर में कौन रहता है. लेकिन उसे लगा कि उस का बौस बहुत नेक इंसान है, कितने अपनेपन से बात करता है. घर से तो कम से कम औफिस का समय तो अच्छा निकलता है. इसी में वह संतुष्ट रहती.

सुहानी के बौस नीरज अकसर कोई भी इंपौर्टैंट काम होता तो सुहानी को ही सौंपते. कहते, ‘‘सुहानी, तुम्हारे सिवा मैं किसी पर भी इतना भरोसा नहीं कर सकता जितना तुम पर. इसलिए इस काम को तुम ही अंजाम दोगी.’’

वैसे भी सुहानी मेहनत और लगन से काम करती थी. कभी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया उस ने.

धीरेधीरे नीरज की मीठीमीठी बातों का असर सुहानी पर होने लगा. कभी जब नीरज पूरे स्टाफ की छुट्टी कर के उसे ऐक्स्ट्रा काम के लिए रोक लेते तो औफिस के बाहर ससुरजी पहरा दिए खड़े रहते.

सुहानी लाख कहती कि मुझे देर हो जाएगी, आप जाओ मैं बस से आ जाऊंगी लेकिन ससुरजी कहां मानने वाले, खड़े रहते वहीं अड़ कर.

उधर नीरज तो कुछ और ही मंशा रखते थे जिस से सुहानी अनजान थी. आखिर एक दिन नीरज बोले, ‘‘सुहानी, यहां तुम्हारे ससुरजी पहरेदार बने ऐसे खड़े रहते हैं जैसे हम कोई उन के कोहिनूर हीरे को चुरा कर कहीं ले जाएंगे. उन के इस तरह सिर पर खड़े रहने से काम में न तो मैं कंस्ट्रेट कर पाता हूं, न ही तुम. मुझे लगता है हमें कहीं और ठिकाना बनाना होगा, अपने काम की बेहतरी के लिए,’’ और फिर कुछ दिनों बाद नीरज ने सुहानी को प्रोजैक्ट फाइल ले कर अपने घर चलने को कहा ताकि उन के घर पर काम किया जा सके.

नीरज की उम्र को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता था कि अगर उन के बच्चों की शादी नहीं हुई तो शादी लायक तो अवश्य हो गए होंगे. अब भला ऐसी उम्र और परिवार वाले आदमी पर कौन शक कर सकता है कि उस का इरादा गलत हो सकता है. वैसे भी सुहानी को वहां जौब किए लगभग डेढ़ साल बीत चुका था. नीरज सर पर उसे विश्वास हो चला था कि वे अच्छे इंसान हैं. पहले कभीकभी अनीश भी नीरज सर की बहुत तारीफ किया करता था.

यह सोच सुहानी उन के साथ चली गई और नीरज ने सुहानी के ससुर को पता न बताते हुए कौन्फिडैंशल प्रोजैक्ट का बहाना बना दिया और सुहानी को खुद उस के घर तक छुड़वाने की जिम्मेदारी दे ली.

मगर सुहानी नीरज के घर जैसे ही पहुंची, उस के होश उड़ गए क्योंकि घर पर परिवार का कोई सदस्य न होने पर भी आते ही नीरज ने नौकर को फिल्म देखने भेज दिया. सुहानी यह सब देख हैरानपरेशान कुछ न कह सकी, मगर दिल ही दिल घबरा अवश्य गई.

और वही हुआ नीरज ने आते ही उसे किचन में चाय बनाने के बहाने भेज कर घर को अंदर से लौक कर दिया और कपड़े बदल कर केवल नाइट गाऊन में उस के पास किचन में आ कर पीछे से उसे पकड़ कर उस की गरदन पर चुंबन लेने लगे.

सुहानी हड़बड़ा कर मुड़ी तो नीरज का यह रूप देख कर हैरान रह गई.

‘‘स… स… सर यह… आप क्या कर रहे हैं? आप होश में तो हैं?’’ डरतेडरते सुहानी के मुंह से ये लफ्ज निकले.

‘‘होश ही तो नहीं रहता जब तुम सामने आती हो. जब से तुम्हें देखा है सच दिल बेकाबू हो गया है. हर पल सिर्फ तुम्हें पाने को बेचैन रहता है. औफिस में तो मौका मिलता नहीं था. इतने दिनों बाद बड़ी मुश्किल से परिवार वालों को टूर पर भेज कर आज मन की इच्छा पूरी होने का वक्त आया है. बस डार्लिंग अब और न सताओ, जल्दी से इस दिल की प्यास बु?ा दो.’’

‘‘सर प्लीज मुझे यों जलील मत कीजिए, मैं कहीं की नहीं रहूंगी, मु?ो जाने दे सर, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं, मैं आप की बेटी समान हूं.’’

‘‘छोड़ो न यार, क्या ऊलजलूल बातें करती हो, भला इस भरी जवानी में इस तरह अकेले उम्र कटती है क्या? फिर तुम्हारे हुस्न को देख कर तो न जाने कितनों के दिलों पर छुरियां चलती होंगी. देखो तुम चुपचाप मेरे पास आ जाया करो, मेरे मन की और तुम्हारे तन की, दोनों की आग को शांत करने का यही तरीका है. तुम बेकार में रातों में अकेले तड़पती होगी,’’ कहते हुए नीरज ने उसे बलपूर्वक गोद में उठा लिया और बैडरूम में ले गया.

उधर ससुरजी ने भी एक दिन तो हद ही कर दी. 28 दिसंबर, 1987. उस दिन उसका जन्मदिन होता है. शादी से पहले तो पापा हर साल इतने अच्छे से जन्मदिन मनाया करते थे, मगर शादी के बाद पहला जन्मदिन ही अनीश से सैलिब्रेट किया था. उस के बाद तो हर जन्मदिन साधारण सा ही बीतता, कोई चाव न रहता उसे.

उस दिन ससुरजी जब पीने बैठे तो 1 नहीं 2 पैग बनाए और सुहानी को पीने के लिए जबरदस्ती करने लगे और उस के मुंह से गिलास लगाते हुए बोले, ‘‘आज तो जश्न मनाने का दिन है, आज हमारी जान का जन्मदिन जो है. इसी बात पर आज तो 2 घूंट भर ही लो यार.’’

ऐसे लगा जैसे जहर का घूंट भर लिया हो. सिर चकराने लगा. कोई घटना घटती उस से पहले ही कुदरत ने खेल खेला. उस की सास की तबीयत अचानक बिगड़ गई. सुहानी को तो नशा हो गया, उसे कुछ पता नहीं. ससुरजी ने ही सास की रातभर देखभाल तो की मगर तबीयत ऐसी बिगड़ी कि अगले ही दिन वह सदा के लिए सो गई. 13वीं तक तो दोनों ससुरबहू ने छुट्टियां ले कर बड़ी शांति से सबकुछ करवाया. सब शांति से निबट गया और अगले दिन से फिर वही रूटीन सुहानी का. बहुत परेशान रहती थी हर समय.

उधर औफिस में नीरज सर और इधर घर पर ससुरजी अकसर उस से छेड़छाड़ करते रहते. किस से कहे और क्या कहे कुछ समझ न आता. बस चुप रहती हर पल, औफिस में भी ज्यादा बात न करती किसी से, एक आलोक ही था जिस से वह कभीकभी अपने दिल की बात कह देती थी. मगर उस का भी तबादला हो गया.

दिनेश इंडिया की ब्रांच में आए तो उन का सब ने खुले दिल से स्वागत किया. उन को भी अच्छा लगा. वे अकेले ही थे क्योंकि पत्नी का तो देहांत हो गया था और बच्चा अभी कोई था नहीं. लेकिन उन्हें अपनी पत्नी से इतनी मुहब्बत थी कि उन्होंने दोबारा शादी नहीं की. लगभग 14-15 सालों बाद उन्हें इंडिया आ कर बहुत अच्छा लग रहा था खासकर सुहानी के मेहनती और मिलनसार स्वभाव के तो वे कायल हो गए.

रोजरोज बाजार का या नौकर के हाथ का खाना न खाएं इसलिए कभीकभी सुहानी अपने लंच के साथ बौस के अर्थात कंपनी के ओनर दिनेश का लंच भी ले आती. जब सुहानी उन्हें उन का लंच परोसती तो वे सुहानी को भी वहीं बैठ कर खाने को कहते. इस तरह धीरेधीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ती गईं. दिनेश की उम्र बेशक 40-42 की थी पर दिल तो अभी जवान है. उन्हें सुहानी का साथ अच्छा लगता. सुहानी को भी कुछ समय के लिए नीरज से छुटकारा मिल जाता. इधर ससुरजी से तो छुटकारा मिलना मुश्किल था लेकिन नीरज से तो कुछ राहत मिलने लगी क्योंकि अब सुहानी दिनेश साहब के साथ ही रहती और घर जाते भी कभीकभी वे छोड़ देते.

मगर एक दिन ससुर ने सारी हदें पार कर दी. पत्नी को मरे 6 महीने बीत चुके थे बेटा तो पहले ही गुजर चुका था. वैसे भी पत्नी कितने ही सालों से बैड पर थी. लगभग 7-8 साल से तन की विरह वेदना में तड़प रहे थे. उस रात तो ससुरजी ने ठान ही लिया कि आज अपनी पिपासा को शांत कर के ही दम लेंगे. इत्तफाक से 15 जून का दिन था. सुहानी की शादी का दिन. हां… आज से 8 साल पहले यानी 15 जून, 1980 रविवार को आज के ही दिन सुहानी की अनीश से शादी हुई थी.

सुहानी को आज उस समय की बहुत याद आ रही थी. वह बीते पलों में खोई सोच रही थी कि उस की जिंदगी क्या से क्या हो गई, किस तरह तिलतिल कर के उस की जिंदगी सुलगती रही अब तक. इन खयालों में खोई नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. तभी ससुरजी ने आधी रात को अचानक सुहानी को जगाया, ‘‘सुहानी मेरे सिर में बहुत दर्द है, थोड़ी सी मसाज कर दो.’’

सुहानी ने देखा तो वे केवल अंडरवियर में ही थे. उस ने शर्म से मुंह फेर लिया.

ससुरजी बोले, ‘‘अरे गरमी बहुत है न और उस पर दर्द की वजह से भी बेचैनी हो रही है इसलिए… तुम तो जानती हो मुझ से ज्यादा गरमी बरदाश्त नहीं होती,’’ कहते हुए उन के चेहरे पर कुटिल मुसकान आ गई.

तीसरे दिन ससुर ने रोब दिखा कर कहा, ‘‘औफिस जाना शुरू करो, सरकारी नौकरी है, छूट गई तो खाना भी नहीं मिलेगा, मैं ने तुम्हें पालने का ठेका नहीं ले रखा.’’

सुहानी चुपचाप उठी और औफिस के लिए तैयार हो कर चल दी.

कुछ दिनों बाद जब माहवारी का समय आया और वह नहीं आई तो सुहानी को घबराहट होने लगी. चैक कराने पर पता चला कि उम्मीद से है अर्थात प्रैगनैंट है. मरने की ठान ली. क्या करती? जिंदा रह कर कैसे दुनिया का सामना करती? 2-4 दिन परेशानी से बीते तो एक दिन न जाने सुहानी को क्या सू?ा कि औफिस से हाफ डे ले कर चल पड़ी अकेली अनजान राहों पर. दिनेश को 2-4 दिन से ही सुहानी कुछ अपसैट लग रही थी. कुछ पूछने पर भी नहीं बता रही थी. इसलिए वे चुपके से सुहानी के पीछे हो लिए.

दिनेश ने देखा सुहानी नदी की तरफ जा रही. जैसे ही सुहानी नदी में छलांग लगाने लगी दिनेश ने उस की बांह पकड़ ली, ‘‘सुहानी, यह क्या कर रही हो तुम? जिंदगी से हार कर हम जिंदगी को खत्म कर लें यह किसी समस्या का हल नहीं. हमें हर समस्या का डट कर मुकाबला करना है, तुम्हें जो भी परेशानी है मु?ा से कहो, मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं.’’

सुहानी दिनेश के गले लग कर फफकफफक कर रो पड़ी. काफी देर रोने के बाद उस ने अपने को संभाला और दिनेश साहब को शुरू से ले कर अब तक की सारी व्यथा सुना दी.

‘‘सुहानी यह दुनिया ऐसी ही है जो जितना झुकता है उसे उतना झुकाती है, जो जितना सहता है उस पर उतने ही ज़ुल्म करती है. यहां बिन मांगे या बिन छीने हक नहीं मिलता. आज के समय में जीने का हक भी छीनना पड़ता है. तुम्हें अपनी परेशानियों से खुद लड़ना होगा, अपना वजूद तुम्हें खुद ढूंढ़ना होगा,’’ दिनेश साहब ने सांत्वना देते हुए कहा

सुहानी दिनेश साहब की बातें ध्यान से सुन रही थी. वह एक दृढ़ निश्चय के साथ बोली, ‘‘सर, आप सही कह रहे हैं अब मैं चुप नहीं रहूंगी, यह चुप्पी तोड़नी होगी अब मुझे. अब मैं और सहन नहीं करूंगी, मुझे अपना वजूद ढूंढ़ना है.’’

‘‘सुहानी मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं और मैं तुम्हारे इस बच्चे को अपना नाम दूंगा. मैं कल ही तुम से शादी कर लूंगा.’’

‘‘नहीं सर अभी नहीं. अभी मुझे अपने ससुर नाम के दुश्मन का हिसाब चुकाना है.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम कहो. लेकिन नीरज को मैं बताऊंगा कि कैसे किसी मजलूम की इज्जत से खेला जाता है.’’

एक दिन रात को जब सुहानी का ससुर पैग बनाने लगा तो सुहानी सलाद, ड्राई फू्रट्स तथा फू्रट्स इत्यादि प्लेटों में डाल कर, बर्फ ले कर आई तो ससुरजी हैरानी से उसे देखने लगे.

‘‘अरे इस तरह क्या देख रहे हैं. अब जब इस जीवन को अपना ही लिया है तो खुशी से रहें. रोधो कर क्या करना है,’’ सुहानी हंसते हुए बोली.

‘‘अरे वाह. आज तो फिर खूब मजा आएगा. इसी खुशी में आज लार्ज पैग बनाते हैं,’’ कहते हुए ससुरजी ने अपने गिलास में थोड़ी और शराब डाल ली.

इस तरह बातोंबातों में सुहानी ने ससुर को अत्याधिक शराब पिला दी और नशे की हालत में उस से घर के कागजात पर हस्ताक्षर करवा कर अपने नाम करा लिया. इधर नीरज को औफिस से निकाल दिया गया.

1 सप्ताह के बाद सुहानी ने ससुरजी को साफ शब्दों में बता दिया कि वह दिनेश से शादी कर रही है. जब ससुर ने एतराज जताया तो उस ने घर के कागजात दिखा कर कहा कि वे अपना इंतजाम कहीं और कर लें क्योंकि घर सुहानी का है.

आखिर आज 8 सालों के दर्द के बाद सुहानी को सुकून मिला है. सुहानी और दिनेश साहब ने कोर्ट में शादी कर ली. दिनेश साहब के पिता अजीत भी बेटे का घर बसता देख प्रसन्न थे.

बेशक सुहानी कंपनी के मालिक की पत्नी है लेकिन उस ने जौब नहीं छोड़ी क्योंकि उसे अपने वजूद के साथ जीना है न कि किसी दूसरे की परछाईं के नाम पर.

Hindi Story Collection : राहत की सांस

Hindi Story Collection : बड़ी ही पेशोपेश में पड़ गई विभा. आज पार्टी में धीरज भी था और कपिल भी. जब कभी दोनों साथ होते थे तो विभा के लिए बड़ी असहज स्थिति हो जाती थी. धीरज उस का बौयफ्रैंड था और कपिल धीरज का फ्रैंड था.

स्थिति असहज होने का कारण यह था कि धीरज विभा का बौयफ्रैंड जरूर था पर कपिल के ऊपर उस का क्रश था. ऐसा भी नहीं था कि वह धीरज से कम प्यार करती थी. पर उसे लगता था कि कपिल के साथ उस के विचार और शौक अधिक मिलते हैं. कपिल के साथ

बातें करने में उसे अधिक आनंद आता था. उस की रुचि क्रिकेट और संगीत में थी और कपिल की भी. क्रिकेट की काफी रोचक जानकारी वह उस के साथ साझा करता था. संगीत का तो वह चलताफिरता ऐनसाइक्लोपीडिया ही था. न सिर्फ संगीत की जानकारी रखता था बल्कि गाता भी अच्छा था और सब से बड़ी बात यह थी कि जरा भी शरमाता नहीं था और फरमाइश होते ही शुरू हो जाता था. आवाज तो अच्छी थी ही कपिल की, सुर और ताल पर भी उस का बेहतर नियंत्रण था. इन कारणों से उस का कपिल पर गहरा क्रश था.

दूसरी ओर धीरज की रुचि साहित्य में थी. विशेषकर वह कविताओं और गजलों का दीवाना था, जबकि विभा को कविताएं तो बिलकुल समझ में नहीं आती थीं. गजल से भी उस का कोई खास लेनादेना नहीं था. इन कारणों से उसे लगता था कि धीरज की अपेक्षा कपिल के साथ उस का जीवन अधिक आनंददायक रहेगा.

मगर अपने इन विचारों के कारण उस के मन में अपराधबोध भी था. चूंकि धीरज उस का बहुत खयाल रखता था,कपिल के बारे में सोच कर उसे ऐसा लगता था कि वह स्वार्थी बन रही है और धीरज के साथ बेवफाई कर रही है. पर इस दुविधा से निकलना तो होगा उस ने सोचा. पर कैसे, वह सम?ा नहीं पा रही थी. मामला ऐसा था कि किसी और से इस की चर्चा भी नहीं की जा सकती था. धीरज से पूछने का प्रश्न ही नहीं था. उस का दिल टूट जाता इस से. कपिल से पूछने पर न जाने वह उस के बारे में क्या सोचे, यह डर था.

एकाएक विभा को खयाल आया जसलीन का. उस से उस की अच्छी दोस्ती थी. साथ ही वह धीरज और कपिल की भी अच्छी दोस्त थी. जसलीन इस में कुछ मदद कर सकती है, उस ने सोचा. पार्टी में जसलीन भी थी. उस ने समय निकाल कर जसलीन से कहा, ‘‘तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं. कब आऊं तुम्हारे पास?’’

‘‘वैसे तो हमेशा स्वागत है तुम्हारा. रविवार को आओ तो बढि़या रहेगा. फुरसत में बातें होंगी,’’ जसलीन ने कहा.

‘‘ठीक है, रविवार को शाम 5 बजे आऊंगी,’’ विभा ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ जसलीन ने सहमति दी.

पार्टी समाप्त होने पर सभी अपने घर चले गए. विभा प्रतीक्षा कर रही थी रविवार का जब वह जसलीन से अपने दिल की बात कहेगी.

रविवार को विभा जसलीन से मिलने पहुंची. जसलीन उसे देख कर चहक उठी. काफी देर ताकि इधरउधर की बातें होती रहीं. चायस्नैक्स का आनंद लिया दोनों ने. विभा अपनी बात रखने की सोचती पर सोचसमझ कर कवश रुक जाती. शायद जसलीन के ध्यान में भी वह बात ही नहीं थी. वह तो विभा से बातें करने में काफी आनंद ले रही थी. काफी देर के बाद जसलीन को इस बात का ध्यान आया तो बोली, ‘‘तुम ने कहा था, कुछ जरूरी बातें करनी है.’’

जसलीन की बात सुन कर विभा शरमा सी गई.

जसलीन ने उस के चेहरे की सुर्खी देख कर पूछा, ‘‘कोई प्यारव्यार का मामला है क्या?’’

अब तक विभा संभल चुकी थी. बोली, ‘‘हां, तभी तो तुम्हारी सलाह चाहती हूं.’’

‘‘बोलो क्या बात है? धीरज से तो तुम्हारी बातें होती ही रहती हैं. मेरी क्या आवश्यकता है?’’ जसलीन विभा और धीरज की दोस्ती के बारे में जानती थी.

‘‘बात धीरज से नहीं करनी है किसी और से करनी है इसलिए तुम्हारी सहायता चाहिए,’’ विभा बोली.

‘‘क्या?’’ जसलीन चौंक गई.

‘‘सलीन, मुझे लगता है कि मैं कपिल के ज्यादा करीब हूं, हमारे विचार अधिक मिलते हैं. पर कपिल मेरे बारे में क्या खयाल रखता है मुझे नहीं मालूम. तुम्हें जासूसी करनी होगी और पता करना होगा कि कपिल मेरे बारे में क्या विचार रखता है,’’ विभा ने कहा.

‘‘और धीरज? उस का क्या होगा,’’ जसलीन ने पूछा.

‘‘तुम्हारी बात सही है. धीरज से मेरी काफी अच्छी दोस्ती है. पर मैं ने बहुत सोचविचार कर देखा कि मैं कपिल के साथ बेहतर जिंदगी जी सकती हूं. धीरज से कोई वादा भी नहीं किया है मैं ने. न उस ने कभी इस बारे में बात की है. दोस्ती भले ही काफी वर्षों से है हमारे बीच,’’ विभा ने अपना पक्ष रखा.

‘‘चलो, मैं कपिल से बात करूंगी. पर मुझे लगता है मामला गंभीर होने वाला है. या तो तुम्हारा दिल टूटने वाला है या फिर धीरज का और इन दोनों स्थितियों में कोई भी अच्छी नहीं है,’’ जसलीन ने चिंतित स्वर में कहा.

थोड़ी देर चुप्पी रही फिर जसलीन बोली, ‘‘तुम्हारी दोस्ती धीरज के साथ कई वर्षों से है. यदि तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम दोनों के बीच सम?ा की कुछ कमी है तो उस के बारे में धीरज से बात करो. फिलहाल कपिल के बारे में मत सोचो. हो सकता है तुम धीरज से किसी कारण से असंतुष्ट हो और इस कारण कपिल या किसी और के बारे में सोच रही हो और फिर कपिल के मन में क्या है तुम जानती भी तो नहीं हो. हो सकता है वह किसी और से प्यार करता हो. हो सकता है वह तुम्हें सिर्फ अपने दोस्त की गर्लफ्रैंड के रूप में देखता हो.’’

जसलीन की बातों में उसे दम नजर आया. बोली, ‘‘तुम्हारा कहना ठीक है. मैं सोचती हूं. बाय.’’

जसलीन के घर से वापस आ कर विभा सोचने लगीं. उसे जसलीन की बातें सही लगी. यदि कपिल उस के साथ आने के लिए तैयार हो भी गया तो इतने वर्षों से धीरज का साथ एकदम से छोड़ना सही नहीं होगा. जो भी कमियां हैं हमारे बीच उन पर काम करना जरूरी है. और सच पूछा जाए तो कोई कमी नहीं है हमारे बीच. हां, कपिल और मेरे शौक भले मिलते हैं पर और मामलों में उस के साथ पटेगी या नहीं यह कैसे कहा जा सकता है. धीरज के साथ मेरे शौक भले नहीं मिलते पर हम कई वर्षों से बड़ी आत्मीयता के साथ रह रहे हैं. इन बातों को सोच कर उस ने जसलीन को फोन कर फिलहाल कपिल से इस बारे में कोई भी बात करने से मना कर दिया.

समय बीतता रहा. कुछ ही सप्ताह के बाद धीरज ने विभा से कहा, एक बहुत बड़ी उलझन में फंसा दिया है कपिल ने मुझे.’’

‘‘क्या हुआ?’’ विभा का दिल धड़क गया. क्या जसलीन ने कपिल से उस की बात बता दी है, उस ने सोचा.

धीरज ने जवाब दिया, ‘‘कपिल को सरिता से प्यार हो गया है और वह चाहता है कि मैं यह बात सरिता तक पहुंचाऊं.’’

एकदम से सन्न रह गई विभा. अगर जसलीन ने कपिल से उस के क्रश के बारे में बता दिया होता तो उस के हाथ बहुत बड़ी निराशा लगती और धीरज से भी शायद उस का वैसा रिश्ता नहीं रहता.

‘‘करो मित्र की मदद हमेशा, तन से, मन से खुश हो कर,’’ विभा ने अपनी उदासी छिपा कर बचपन में पढ़ी कविता की पंक्तियों से धीरज को सम?ा दिया कि उसे कपिल के प्रस्ताव को सरिता तक पहुंचा देना चाहिए.

‘‘मित्र की मदद तो जरूर करूंगा पर इस के लिए उचित अवसर ढूंढ़ना होगा,’’ धीरज ने कहा.

विभा कुछ बोल पाती उस से पहले ही धीरज झिझकते हुए बोला, ‘‘एक और बड़ी उलझन है.’’

‘‘अब क्या है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘मुझे भी किसी से बेहद प्यार हो गया है और जिस से प्यार हो गया है उसे बताना भी नहीं आसान और उस से छिपाना भी नहीं आसान,’’ धीरज बोला.

विभा समझ गई कि वह उस की ही

बात कर रहा है पर अनजान बन कर पूछा,

‘‘किस से?’’

धीरज विभा को अर्थ भरी मुसकान के साथ देखने लगा.

विभा ने उस के कंधे पर अपना सिर रख दिया. ‘एक बहुत बड़ी अनहोनी से बच गई,’ उस ने सोचा.

Family Drama : एक और अध्याय – आखिर क्या थी दादी मां की कहानी

Family Drama :  वृद्धाश्रम के गेट से सटी पक्की सड़क है, भीड़भाड़ ज्यादा नहीं है. मैं ने निकट से देखा, दादीमां सफेद पट्टेदार धोती पहने हुए वृद्धाश्रम के गेट का सहारा लिए खड़ी हैं. चेहरे पर  झुर्रियां और सिर के बाल सफेद हो गए हैं. आंखों में बेसब्री और बेबसी है. अंगप्रत्यंग ढीले हो चुके हैं किंतु तृष्णा उन की धड़कनों को कायम रखे हुए है.

तभी दूसरी तरफ से एक लड़का दौड़ता हुआ आया. कागज में लिपटी टौफियां दादीमां के कांपते हाथों में थमा कर चला गया. दादीमां टौफियों को पल्लू के छोर में बांधने लगीं. जैसे ही कोई औटोरिकशा पास से गुजरता, दादीमां उत्साह से गेट के सहारे कमर सीधी करने की चेष्टा करतीं, उस के जाते ही पहले की तरह हो जातीं.

मैं ने औटोरिकशा गेट के सामने रोक दिया. दादीमां के चेहरे से खुशी छलक पड़ी. वे गेट से हाथ हटा कर लाठी टेकती हुई आगे बढ़ चलीं.

‘‘दादीमां, दादीमां,’’ औटोरिकशा से सिर बाहर निकालते हुए बच्चे चिल्लाए.

‘‘आती हूं मेरे बच्चो,’’ दादीमां उत्साह से भर कर बोलीं, औटोरिकशा में उन के पोतापोती हैं, यही समय होता है जब दादीमां उन से मिलती हैं. दादीमां बच्चों से बारीबारी लिपटीं, सिर सहलाया और माथा चूमने लगीं. अब वे तृप्त थीं. मैं इस अनोखे मिलन को देखता रहता. बच्चों की स्कूल से छुट्टी होती और मैं औटोरिकशा लिए इसी मार्ग से ही निकलता. दादीमां इन अमूल्य पलों को खोना नहीं चाहतीं. उन की खुशी मेरी खुशी से कहीं अधिक थी और यही मुझे संतुष्टि दे जाती. दादीमां मुझे देखे बिना पूछ बैठीं, ‘‘तू ने कभी अपना नाम नहीं बताया?’’

‘‘मेरा नाम रमेश है, दादी मां,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब तुझे नाम से पुकारूंगी मैं,’’ बिना मेरी तरफ देखे ही दादीमां ने कहा.

स्कूल जिस दिन बंद रहता, दादीमां के लिए एकएक पल कठिन हो जाता. कभीकभी तो वे गेट तक आ जातीं छुट्टी के दिन. तब गेटकीपर उन्हें समझ बुझा कर वापस भेज देता. दादीमां ने धोती की गांठ खोली. याददाश्त कमजोर हो चली थी, लेकिन रोज 10 रुपए की टौफियां खरीदना नहीं भूलतीं. जब वे गेट के पास होतीं, पास की दुकान वाला टौफियां लड़के से भेज देता और तब तक मुझे रुकना पड़ता.

‘‘आपस में बांट लेना बच्चो…आज कपड़े बहुत गंदे कर दिए हैं तुम ने. घर जा कर धुलवा लेना,’’ दादीमां के पोपले मुंह से आवाज निकली और तरलता से आंखें भीग गईं.

मैं मुसकराया, ‘‘अब चलूं, दादी मां, बच्चों को छोड़ना है.’’

‘‘हां बेटा, शायद पिछले जनम में कोईर् नेक काम किया होगा मैं ने, तभी तू इतना ध्यान रखता है,’’ कहते हुए दादीमां ने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर दिया था.

‘‘कौन सा पिछला जनम, दादी मां? सबकुछ तो यहीं है,’’ मैं मुसकराया.

दादीमां की आंखों में घुमड़ते आंसू कोरों तक आ गए. उन्होंने पल्लू से आंखें पोंछ डालीं. रास्तेभर मैं सोचता रहा कि इन बेचारी के जीवन में कौन सा तूफान आया होगा जिस ने इन्हें यहां ला दिया.

एक दिन फुरसत के पलों में मैं दादीमां के हृदय को टटोलने की चेष्टा करने लगा. मैं था, दादीमां थीं और वृद्धाश्रम. दादीमां मुझे ले कर लाठी टेकतेटेकते वृद्धाश्रम के अपने कमरे में प्रवेश कर गईं. भीतर एक लकड़ी का तख्त था जिस में मोटा सा गद्दा फैला था. ऊपर हलके रंग की भूरी चादर और एक तह किया हुआ कंबल. दूसरी तरफ बक्से के ऊपर तांबे का लोटा और कुछ पुस्तकें. पोतापोती की क्षणिक नजदीकी से तृप्त थीं दादीमां. सांसें तेजतेज चल रही थीं. और वे गहरी सांसें छोड़े जा रही थीं.

लाठी को एक ओर रख कर दादीमां बिस्तर पर बैठ गईं और मुझे भी वहीं बैठने का इशारा किया. देखते ही देखते वे अतीत की परछाइयों के साथसाथ चलने लगीं. पीड़ा की धार सी बह निकली और वे कहती चली गईं.

‘‘कभी मैं घर की बहू थी, मां बनी, फिर दादीमां. भरेपूरे, संपन्न घर की महिला थी. पति के जाते ही सभी चुकने लगा…मान, सम्मान और अतीत. बहू घर में लाई, पढ़ीलिखी और अच्छे घर की. मुझे लगा जैसे जीवन में कोई सुख का पौधा पनप गया है. पासपड़ोसी बहू को देखने आते. मैं खुश हो कर मिलाती. मैं कहती, चांदनी नाम है इस का. चांद सी बहू ढूंढ़ कर लाई हूं, बहन.

‘‘फिर एकाएक परिस्थितियां बदलीं. सोया ज्वालामुखी फटने लगा. बेटा छोटी सी बात पर ? झिड़क देता. छाती फट सी जाती. मन में उद्वेग कभी घटता तो कभी बढ़ने लगता. खुद को टटोला तो कहीं खोट नहीं मिला अपने में.

‘‘इंसान बूढ़ा हो जाता है, लेकिन लालसा बूढ़ी नहीं होती. घर की मुखिया की हैसियत से मैं चाहती थी कि सभी मेरी बातों पर अमल करें. यह किसी को मंजूर न हुआ. न ही मैं अपना अधिकार छोड़ पा रही थी. सब विरोध करते, तो लगता मेरी उपेक्षा की जा रही है. कभीकभी मुझे लगता कि इस की जड़ चांदनी है, कोई और नहीं.

‘‘एक दिन मुझे खुद पर क्रोध आया क्योंकि मैं बच्चों के बीच पड़ गई थी. रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था. हर्ष बरामदे में खड़ा चांदनी की राह देख रहा था. झुंझलाहट और बेचैनी से वह बारबार ? झल्ला रहा था. रात गहराई और घड़ी की सुइयां 11 के अंक को छूने लगीं. तभी एक कार घर के सामने आ कर रुकी. चांदनी जब बाहर निकली तब सांस में सांस आई.

‘‘‘ओह, कितनी देर कर दी. मुझे तो टैंशन हो गई थी,’ हर्ष सिर झटकते हुए बोला था. चांदनी बता रही थी देर से आने का कारण जिसे मैं समझ नहीं पाई थी.

‘‘‘यह ठीक है, लेकिन फोन कर देतीं. तुम्हारा फोन स्विचऔफ आ रहा था,’ हर्ष फीके स्वर में बोला था.

‘‘‘इतने लोगों के बीच कैसे फोन करती, अब आ गई हूं न,’ कह कर चांदनी भीतर जाने लगी थी.

‘‘मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने इतना ही कहा कि इतनी रात बाहर रहना भले घर की बहुओं को शोभा नहीं देता और न ही मुझे पसंद है. देखतेदेखते तूफान खड़ा हो गया. चांदनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई. हर्र्ष भी उस पर बड़बड़ाता रहा और दोनों ने कुछ नहीं खाया.

‘‘मुझे दुख हुआ, मुझे इस तरह चांदनी को नहीं डांटना चाहिए था. ? झिड़कने के बजाय समझना चाहिए था. लेकिन बहू घर की इज्जत थी, उसे इस तरह सड़क पर नहीं आने देना चाहती थी. एक मुट्ठीभर उपलब्धि के लिए अपने दायित्वों को भूलना क्या ठीक है? नारी को अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए हमेशा ही जूझना पड़ा है.

‘‘हर्ष मेरे व्यवहार से कई दिनों तक उखड़ाउखड़ा सा रहा. लेकिन मैं ने बेटे की परवा नहीं की. हर्ष हर बात पर चांदनी का पक्ष लेता. मां थी मैं उस की, क्या कोई मां अपने बच्चों का बुरा चाहेगी? कई बार मुझे लगता कि बेटा मेरे हाथ से निकला जा रहा है. मैं हर्ष को खोना नहीं चाहती थी.

‘‘यह मेरी कमजोरी थी. मैं हर्ष को समझने की कोशिश करती तो वह अजीब से तर्क देने लग जाता. वह नहीं चाहता कि चांदनी घर में चौकाचूल्हा करे. घर के लिए बाई रखना चाहता था वह, जो मुझे नापसंद था. मैं साफसफाई पसंद थी जबकि सभी अस्तव्यस्त रहने के आदी थे. मूर्ख ही थी मैं कि बच्चों के आगे जो जी में आता, बक देती थी. कभी धैर्य से मैं ने नहीं सोचा कि सामंजस्य किसे कहते हैं.

‘‘चांदनी भी कई दिनों तक गुमसुम रही. बहूबेटा मेरे विरोध में खड़े दिखाई देने लगे थे. एक दिन चांदनी खाना रख कर मेरे सामने बैठ गई. खाना उठाते ही मेरे मुंह से न चाह कर भी अनायास छूट गया, ‘तुम्हारे मायके वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं. भूख ही मर जाती है खाना देख कर.’

‘‘चांदनी का मुंह उतर गया, लेकिन कुछ न बोली. आज सोचती हूं कि मैं ने क्यों बहू का दिल दुखाया हर बार. क्यों मेरे मुंह से ऐसे कड़वे बोल निकल जाते थे. अब उस का दंड भुगत रही हूं. आज पश्चात्ताप में जल रही हूं, बहुत पीड़ा होती है, बेटा.’’ दादीमां रोंआसी हो गईं.

‘‘जो हुआ, सो हुआ, दादी मां. इंसान हैं सभी. कुछ गलतियां हो जाती हैं जीवन में,’’ मैं ने अपना नजरिया पेश किया.

दादी आगे कहने लगीं, ‘‘हर्ष को भी न जाने क्या हुआ कि वह मुझ से दूरदूर होता रहा. न जाने मुझ से क्या चूक हो रही थी, वह मैं तब न समझ सकी थी. एक स्त्री होने की वेदना, उस पर वैधव्य. विकट परिस्थिति थी मेरे लिए. लगता था कि मैं दुनिया में अकेली हूं और सभी से बहुत दूर हो चुकी हूं.

‘‘कुछ सालों बाद चांदनी की गोद भर गई. बड़ा संतोष हुआ कि शायद बचीखुची जिंदगी में खुशी आई है. कुछ माह और बीते, चांदनी का समय क्लीनिकों में व्यतीत होता या फिर अपने कमरे में. चांदनी की छोटी बहन नीना आ गई थी. नीना सारा दिन कमरे में ही गुजार देती. देर तक सोना, देर रात तक बतियाते रहना. घर का काफी काम बाई के जिम्मे सौंप दिया गया था.

‘‘एक दिन हर्ष औफिस से जल्दी आया और सीधे रसोई में जा कर डिनर बनाने लगा. इतने में नीना रसोई में आ गई, ‘अरे…अरे जीजू, यह क्या हो रहा है? मुझ से कह दिया होता.’

‘‘मुझ से रहा नहीं गया, सो, बोल पड़ी कि इंसान में समझ हो तो बोलना जरूरी नहीं होता. हर्ष का पारा चढ़ गया और देर तक मुझ पर चीखताचिल्लाता रहा.

‘‘खाना पकाना, कपड़े धोना और छोटेमोटे काम बाई के जिम्मे सौंप कर सभी निश्ंचित थे. मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता? बाई व्यवहार की अच्छी थी. मेरा भी खयाल रखने लगी. न जाने क्यों मैं सारी भड़ास बाई पर ही निकाल देती. तंग आ कर एक दिन बाई ने काम ही छोड़ दिया. मेरे पास संयम नाम की चीज ही नहीं थी और चांदनी व हर्ष के लिए यह मुश्किल घड़ी थी. यह अब समझ रही हूं.

‘‘समय बीता और चांदनी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. बहुत खुशी हुई, जीने की आस बलवती हो गई. चांदनी की बहन नीना कब तक रहती, वह भी चली गई. इस बीच, एक आया रख ली गई. बिस्तर गीला है तो आया, दूध की दरकार है तो आया. हर्ष जब घर में होता, बच्चों की देखभाल में सारा दिन गुजार देता. औफिस का तनाव और घर की जिम्मेदारी ने हर्ष को चिड़चिड़ा बना दिया. हर्ष मेरे सामने छोटीछोटी बात पर भड़क उठता.

‘‘नोक झोक और तकरार में 3 वर्ष बीत गए. मुझ से रहा नहीं गया. एक दिन मैं ने बहू से कह ही दिया कि वह बच्चों को खुद संभाले, दूसरे पर निर्भर होना ठीक नहीं है. हमारे जमाने में यह सब कहां था, सब खुद ही करना पड़ता था.

‘‘जब पता लगा कि चांदनी का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब है तो मुझे दुख हुआ. वहीं, इस बात से भी दुख हुआ कि किसी ने मुझे नहीं बताया. क्या मैं सब के लिए पराई हो गई थी?

‘‘पराए होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन हर्ष ने मुझे ऐसा आघात दिया जिसे सुन कर मैं तड़प गई थी. वह था, वृद्धाश्रम में रहने का. उस दिन हर्ष मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘मां, तुम्हें यहां न आराम है और न ही मानसिक शांति. मैं चाहता हूं कि तुम वृद्धाश्रम में सुखशांति से रहो.’

‘‘मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं. मैं जिस मुगालते में थी, वह एक फरेब निकला. संभावनाओं की घनी तहें मेरी आंखों से उतर गईं. कैसे मैं ने अपनेआप को संभाला, यह मैं ही जानती हूं. विचार ही किसी को भला और बुरा बनाते हैं. मेरे विचारव्यवहार बेटाबहू को रास नहीं आए. मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया. महीनों तक मैं बिन पानी की मछली सी तड़पती रही. आंसू तो कब के सूख चुके थे.

‘‘वृद्धाश्रम की महिलाएं मुझे समझती रहीं, कहतीं, ‘मोह त्याग कर भक्ति का सहारा ले लो. यही भवसागर पार कराएगा. यहां कुछ अपनों के सताए हुए हैं, कुछ अपने कर्मों से.’ मैं ने तो अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी. बुजुर्गों को आदर अपने व्यवहार से मिलता है जिस की मैं हकदार नहीं थी.’’दादीमां कुछ देर के लिए चुप हो गईं, फिर मेरी ओर कातर दृष्टि से देखती हुई बोलीं, ‘‘बस, यही है कहानी, बेटा.’’

मैं दादीमां की कहानी से कुछ समझने की कोशिश में था. समझ तो एक ही कारण, बुढ़ापा और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाना.

‘‘5 महीने वृद्धाश्रम में काट दिए हैं, बेटा. बेटाबहू कभीकभार मिलने आ जाते हैं. मोहमाया से कौन बच पाया है, न ऋषिमुनी, न योगी. मैं भी एक इंसान हूं. बहूबेटे की अपराधिन हूं. बच्चों की जिंदगी में दखल देना बड़ी भूल थी जिस का पश्चात्ताप कर रही हूं.’’

तभी कमरे की कुंडी किसी ने खड़खड़ाई. विचारों के साथसाथ बातों की शृंखला टूट गई. दादीमां के खाने का वक्त हो गया है, मैं उठ खड़ा हुआ. दादीमां का शाम का समय आपसी बातों में कट जाएगा जबकि लंबी रात व्यर्थ के चिंतन और करवटें बदलने में. सुबह का समय व्यायाम को समर्पित है तो दोपहर का बच्चों की प्रतीक्षा में.

3 दिन बीते, तब लगा कि दादीमां से मिलना चाहिए. मैं तैयार हो कर सीधे वृद्धाश्रम जा पहुंचा. दादीमां नहानेधोने से फ्री हो चुकी थीं. मुझे देख कर उत्साह से भर गईं और कमर सीधी करते हुए बोलीं, ‘‘बच्चों की छुट्टियां कब तक हैं, बेटा? राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गई हैं.’’

‘‘क्या कहूं दादी मां, उन बच्चों को उन के मातापिता ने बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया, अब वहीं रह कर पढ़ेंगे,’’ मैं ने बु?ो मन से कहा. अब तो मैं वह काम ही नहीं करता. आप को बच्चों से मिलाने के लिए मैं ने यह रूट पकड़ा था.

‘‘क्या? बच्चों को मु?ा से दूर कर दिया. यह अच्छा नहीं किया उन के मातापिता ने. तू ही बता, अब मैं किस के सहारे जिऊंगी? इस से तो अच्छा है कि जीवन को त्याग दूं,’’ दादीमां फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘दादी मां, मन छोटा मत करो. छुट्टी के दिन बोर्डिंग स्कूल से लाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली है. मैं बच्चों से मिलवा दिया करूंगा,’’ मैं दिलासा देता रहा, जब तक दादीमां शांत न हुईं.

‘‘तू ने बहुत उपकार किए हैं मुझ पर. ऋण नहीं चुका पाऊंगी मैं.’’

‘‘कौन सा?ऋण? क्या आप मेरी दादीमां नहीं हैं, बताइए?’’ मैं ने कहा.

दादीमां ने आंखें पोंछीं और आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘हां, तेरी भी दादीमां हूं, मैं धन्य हो गई, बेटा.’’

‘‘फिर ठीक है, कल रविवार है, मैं सुबह आऊंगा आप को लेने.’’

‘‘झूठ तो नहीं कह रहा है, बेटा? अब मुझे डर लगने लगा है,’’ दादीमां ने शंकित भाव से कहा.

‘‘सच, दादी मां, होस्टल से लौट कर रमा से भी मिलवाऊंगा, चलोगी न?’’

‘‘कौन रमा,’’ दादीमां चौंकी.

‘‘मेरी पत्नी, आप की बहू. वह बोली थी कि दोपहर का खाना बना कर रखूंगी, दादीमां को लेते आना.’’

‘‘ना रे, बमुश्किल 2 रोटी खाती हूं,’’ दादीमां थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर आंखें बंद कर बुदबुदाईं, ‘‘ठीक है, बहू को नेग देने तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘कौन सा नेग?’’

‘‘यह तू नहीं समझेगा,’’ दादीमां ने अपने गले में पड़ी सोने की भारी चेन को बिना देखे टटोला, फिर निस्तेज आंखों में एक चमक आ कर ठहर गई.

तभी बाहर कुछ आहट होने लगी. दादीमां ने बिना मुड़े लाठी टटोलतेटटोलते बाहर ?ांका. हर्ष और चांदनी बच्चों के साथ खड़े थे. वे आवाक रह गईं.

‘‘मां, तुम्हें लेने आए हैं हम. बच्चे आप के बिना नहीं रह सकते,’’ हर्ष सिर ?ाकाए बोल रहा था.

घरवालों के बीच मैं क्या करता. अब मेरा क्या काम रह गया था. मैं वहां से चलने लगा, तो दादीमां ने रोक लिया.

‘‘तू कहां जा रहा है,’’ और मुझे हर्ष से मिलवाया. उस ने मुझे धन्यवाद कहा और मां से फिर चलने को कहा.

दादीमां को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, आतुर हो कर पूछ बैठीं, ‘‘यह सच बोल रहा है न, चांदनी?’’

‘‘सच कह रहे हैं मांजी, हम से जो गलतियां हुईं उन्हें क्षमा कर दीजिए, प्लीज,’’ चांदनी गिड़गिड़ाई.

‘‘क्या गलतियां मुझ से नहीं हुईं, लेकिन अभी एक काम बाकी रह गया है…’’ दादीमां सोच में डूब गईं.

‘‘कौन सा काम, मांजी?’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘पहले मैं अपनी छोटी बहू से मिलूंगी. तुम्हें पता है, मुझे एक बेटाबहू और मिले हैं.’’

दादीमां के कहने का मंतव्य सब की समझ में आ गया. सभी की निगाहें मेरी तरफ मुड़ गईं. उधर दादीमां खुशी के मारे बिना लाठी लिए खड़ी थीं मानो कहानी का एक और अध्याय प्रारंभ करने वाली हों. हर्ष बोला, ‘‘ठीक है, हम सब रमेश के यहां चलेंगे. मैं ड्राइवर को कह देता हूं, गाड़ी वहीं ले आए.’’ हर्ष बिना हिचक मां व अपनी पत्नी के साथ मेरी गाड़ी में बैठ गया.

  लेखक: यदु जोशी ‘गढ़देशी’

Hindi Story : चुनौती – नीता क्यों बेहोश हो गई?

Hindi Story : स्टाफरूम से आती आवाजों ने नीता के कदम बाहर ही रोक दिए. तेजतेज उभरते स्वर कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे, ‘‘अरे, इतनी चालाक हो गई है आजकल की लड़कियां कि दोनों हाथों में लड्डू चाहिए उन्हें. बराबरी भी करेंगी और आरक्षण भी चाहिए. जहां लंबी लाइन देखी वहीं अपनी लाइन अलग बना लेंगी और यदि ऐक्स्ट्रा पीरियड लेने की बात आए तो लड़कियां शाम को ज्यादा देर नहीं रुक सकती कह कर पल्लू झाड़ लेंगी. फिर जैसे ही विभागाध्यक्ष बनाने की बात आई पुरुषमहिला सब बराबर. सब को समान अवसर मिलने चाहिए, इसलिए हमारे नाम पर भी गहराई से विचार किया जाए.’’

मुकुल की तेज आवाज में व्यंग्य के पुट से नीता की कनपटियों में दर्द सा उठने लगा. उस के लिए अब और खड़े रहना मुश्किल हो गया तो वह धीरे से अंदर दाखिल हुई और एक कुरसी खींच कर बैठ गई.

जैसाकि नीता को उम्मीद थी उस के अंदर घुसते ही कमरे में पूर्णतया शांति छा गई. उस ने चुपचाप कापियां जांचना आरंभ कर दिया मानो कुछ सुना ही न हो. चपरासी चाय ले आया था और इस के साथ  ही वातावरण सामान्य होने लगा था. नीता ने राहत की सांस ली. स्कूलकालेज के दिनों से ही उसे बहस, वादविवाद आदि से घबराहट सी होने लगती थी. इसीलिए निबंध प्रतियोगिता में सदैव अव्वल आने वाली लड़की वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेना तो दूर हौल में बैठ कर सुनना भी गवारा नहीं समझती थी.

वैसे देखा जाए तो मुकुल के आक्षेप गलत भी नहीं थे. हमेशा से ही किसी भी वर्ग के कुछ प्रतिष्ठित लोगों की वजह से ही वह पूरा वर्ग बदनाम होता है. लेकिन कुछ प्रतिष्ठित लोगों के प्रयास ही उस वर्ग को रसातल से ऊपर भी खींच ले आते हैं नीता. मन में उठ रहा विचारों का अंतर्द्वंद्व फिर गंभीर वादविवाद में तबदील न हो जाए इस आश से घबरा कर नीता ने फटाफट चाय की चुसकियां लेनी आरंभ कर दीं.

तभी साथी अध्यापक विनय अपनी शादी का कार्ड ले आया, ‘‘लीजिए, आप ही बची थीं. बाकी सब को तो दे चुका हूं.’’

‘‘विनय, तुम्हारी सगाई हुए तो काफी अरसा हो गया न?’’ अपने हाथ के कार्ड को उलटपुलट कर देखते हुए मुकुल ने राय जाहिर की.

‘‘हां, सालभर से ज्यादा ही हो गया है. विनीता भी सरकारी स्कूल में सीनियर टीचर है तो इसलिए उस के यहां तबादले का प्रयास कर रहे थे पर नहीं हो पाया.’’

‘‘फिर अब?’’

‘‘अब उस ने रिजाइन कर दिया है. यहीं कहीं प्राइवेट में कर लेगी.’’

‘‘उफ, खैर किसी एक को तो एडजस्ट करना ही था,’’ मुकुल ने गहरी सांस भरी तो नीता की चुभती नजरें उस पर टिक गईं जैसे कहना चाह रही हो किसी एक को नहीं मुकुल, लड़की को ही एडजस्ट करना था. इसी से तो आप पुरुषों का ईगो तुष्ट होता है. हुंह, स्त्रियों पर दोगला होने का आरोप लगाते हैं. पहले अपने गरीबान में तो ?ांक कर देख लें. मन में कुछ और ऊपर से कुछ.

विद्यालय का वार्षिकोत्सव समीप था. तैयारी कराने वाली समिति में नीता और मुकुल का भी नाम था. नीता जितना जल्दीजल्दी काम कर शाम को जल्दी फारिग होने का प्रयास करती मुकुल उतनी ही देर लगाता. नीता उस का मंतव्य समझ रही थी. मगर उस ने भी ठान लिया था कि वह बहसबाजी में नहीं पड़ेगी बल्कि कुछ कर के दिखाएगी. वह परेशानियां झेलती रही. लेकिन एक बार भी अपनी स्त्रीसुलभ मजबूरियां बखान कर उस ने किसी की सहानुभूति उपार्जित करने का प्रयास नहीं किया.

वार्षिकोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हुआ तो नीता ने संतोष की सांस ली. साथी अध्यापिकाओं की प्रशंसा के बीच मुकुल के चेहरे के असंतोष को वह आसानी से पढ़ पा रही थी.

‘‘कितना मुश्किल होता है इन पुरुषों के लिए हमारी प्रशंसा को पचाना. हम इन से सहायता की गुहार किए बिना कोई कार्य कर लें, वह इन के अहं को इतना नागवार क्यों गुजरता है?’’ नीता मन ही मन सोच रही थी. पहली ही जीत ने नीता में गजब का उत्साह भर दिया था. उसे इस लड़ाई में एक आनंद सा आने लगा था.

विद्यालय की ओर से लड़केलड़कियों का एक गु्रप शैक्षणिक भ्रमण के लिए भेजा जा रहा था, जिस में नेतृत्व की कमान 3 अध्यापकों को सौंपी जानी थी. इसी संदर्भ में प्रिंसिपल ने मीटिंग बुलाई थी. टूर काफी लंबा और कठिनाइयों भरा था, इसलिए प्रिंसिपल को आशंका थी कि कोई भी अध्यापिका इस के लिए सहर्ष तैयार नहीं होगी. मगर चूंकि लड़कियां भी टूर में शामिल थीं इसलिए एक अध्यापिका को तो भेजना ही था. दुविधा में फंसे प्रिंसीपल ने अभी अपनी इस मजबूरी की भूमिका बांधना आरंभ ही किया था कि नीता ने हाथ उठा कर उन्हें हैरत में डाल दिया.

‘‘मैं टूर की कमान संभालने को तैयार हूं. आप 2 असिस्टैंट टीचर नियुक्त कर दें.’’

नीता की हिमाकत पर वैसे ही मुकुल का खून खौल रहा था और जब प्रिंसिपल ने 2 असिस्टैंट टीचर्स में एक नाम मुकुल का लिया तो मानो आग में घी पड़ गया.

मुकुल ने तुरंत किसी व्यक्तिगत मजबूरी का बहाना बना कर पीछे हटना चाहा तो प्रिंसिपल ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘नीता मैडम से सीखिए कुछ. वे महिला हो कर अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भागतीं और आप…’’

नीता ने एक कुटिल मुसकान मुकुल की ओर फेंकी तो मुकुल तिलमिला उठा.

हालांकि मन ही मन नीता जानती थी कि यह मुसकान उसे बहुत भारी पड़ने वाली है पर इस शह और मात के खेल में पीछे हटना अब उसे मंजूर नहीं था.

जैसाकि नीता को उम्मीद थी मुकुल ने साथी अध्यापक के साथ मिल कर उस की राह में पलपल परेशानियां खड़ी करने का प्रयास किया. यह तो विद्यार्थी लड़कों और लड़कियों का सहयोग था कि नीता हर बाधा लांघ कर सकुशल टूर लौटा लाई. मगर इस चूहादौड़ से अब वह पूरी तरह ऊब और थक चुकी थी.

कुछकुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उसे अब मुकुल की ओर से भी अनुभव होने लगी थी. पहले वह बातबात में उसे काटने और नीचा दिखाने का प्रयास करता था लेकिन इधर काफी समय से वह गौर कर रही थी कि वह अब न केवल मूक दर्शक बना उसे देखता और सुनता रहता बल्कि कई अवसरों पर तो उस ने मुकुल की आंखों में अपने लिए प्रशंसा के भाव भी देखे. नीता के लिए यह एहसास सर्वथा नया और चौंकाने वाला था.

जब दूसरी ओर से कोई प्रतिप्रहार न करे तो भला इंसान इकतरफा लड़ाई कब तक जारी रख सकता है? नीता सम?ा नहीं पा रही थी कि मुकुल किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में है या उस की मानसिकता बदल गई है? वह इस परिवर्तन को अपनी जीत के रूप में ले या हार के रूप में?

इसी दौरान विद्यालय में प्रातकालीन योग कक्षाएं आरंभ हो गईं, जिन में नियम से 2-2 अध्यापकों को ड्यूटी देनी थी. इसे संयोग कहें या दुर्योग लेकिन नीता की ड्यूटी फिर मुकुल के संग ही लगी. सवेरे जल्दी उठ कर तैयार हो कर टिफिन पैक कर निकलना नीता के लिए बेहद सिरदर्दी साबित हो रहा था. घर से स्कूल इतना दूर था कि वह बीच में समय मिलने पर आराम के लिए भी नहीं लौट सकती थी. लौटते में बाजार से सब्जी, आवश्यक सामान आदि खरीदने में अकसर शाम हो आती थी. नीता में अपने लिए खाना बनाने की ताकत भी शेष नहीं रहती थी. 2 दिनों से तो वह दूधब्रैड खा कर ही बिस्तर पर पड़ जाती थी. वापस सवेरे अलार्म से ही आंख खुल पाती.

इसी दौरान माहवारी आरंभ हो जाने से उस की हालत और भी पस्त हो गई. मगर नीता ने ठान रखी थी कि वह स्त्री होने का कोई भी लाभ उठा कर मुकुल को जबान खोलने का अवसर नहीं देगी. हकीकत तो यह थी कि मुकुल के छोड़े व्यंग्यबाणों से वह इतनी आहत हुई थी कि उन्हें उस ने एक चुनौती के रूप में ले लिया था. मगर समय के अंतराल के साथ यह चुनौती एक जिद में तबदील होती जा रही थी. नीता को मानो हर वह काम कर के दिखाना था जिसे सामान्यतया एक स्त्री करना टालती है. अपनी जिद और जनून के आगे न तो उसे अपने स्वास्थ्य की परवाह रह गई थी और न ही किसी खतरे की आशंका. चाहे भोर का धुंधलका हो या स्याह रात की वीरानगी, वह अपनी स्कूटी ले कर कभी भी, कहीं भी निकल पड़ती.

नीता महसूस कर रही थी कि उस के गिरते स्वास्थ्य ने मुकुल को उस के प्रति अनायास ही बहुत मृदु और सहृदय बना दिया है. उस के चेहरे से झलकता अपराधबोध दर्शाता कि उसे विगत के अपने व्यवहार पर शर्मिंदगी है. मुकुल के चेहरे के ये सब भाव तो नीता को सुकून प्रदान कर रहे थे. लेकिन इधर कुछ दिनों से वह उस के व्यवहार में, मनोभावों में जो कुछ परिवर्तन महसूस कर रही थी उसे स्वीकारने में उसे बेहद हिचकिचाहट महसूस हो रही थी. पर हकीकत से कब तक भागा जा सकता था?

हां, निसंदेह यह प्यार ही था और कुछ नहीं. मुकुल यानी जिस शख्स की उसे शक्ल देखना भी गवारा नहीं था, जो शख्स उस पर छींटाकशी का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता था वही शख्स उस से प्यार करने लगा है? वह कैसे विश्वास करे इस शख्स का? प्यार का इजहार करना तो दूर की बात है, उस ने तो आज तक कभी उस से खुल कर अपने गलत व्यवहार के लिए शर्मिंदगी भी व्यक्त नहीं की है.

विचारों में उलझन नीता स्कूल पहुंच कर योगा तो करवाने लग गई लेकिन कमजोरी और थकान के मारे उस का बुरा हाल हो रहा था. मुकुल ने 1-2 बार उस से यह कह कर आराम करने का आग्रह किया कि वह अकेला दोनों गु्रप संभाल लेगा लेकिन नीता पर इस आग्रह का विपरीत असर हुआ. मुकुल के प्रस्ताव को सिरे से नकार कर वह और भी जोश से हाथपांव चलाने लगी. कुछ ही देर में उस की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा और फिर उसे कुछ होश न रहा.

जब होश आया तो नीता अस्पताल में थी और उसे ग्लूकोस चढ़ रहा था. मुकुल पास ही टकटकी बांधे उसे देख रहा था. पूछा, ‘‘अब कैसी तबीयत है आप की?’’

नीता ने ठीक है में सिर हिला दिया.

‘क्यों अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं आप?’’ मुझ पर गुस्सा है तो चिल्लाइए न मुझ पर, गालियां दीजिए, हाथ उठाइए पर प्लीजप्लीज, अपनेआप पर अब और जुल्म मत कीजिए. मैं अपनी गलती मानता हूं. 1-2 महिलाओं के व्यवहार से ही पूरी नारी जाति का आंकलन कर बैठा था. नारी हमेशा से ही सम्माननीय थी, है और रहेगी. उस की शारीरिक दुर्बलताएं उस की कमजोरियां नहीं वरन शक्तियां हैं. जो उस सहित पूरे परिवार को एक संबल प्रदान करती हैं. उस के त्याग, ममता और सहानुभूति के गुण न केवल उस में वरन हम पुरुषों में भी एक नई ऊर्जा का संचार करते हैं. कुदरत की यह अनुपम कृति उपहास उड़ाने योग्य नहीं वरन सहेजने योग्य है. अपनी अल्पबुद्धि के कारण मैं उन के महत्त्व को कमतर आंक बैठा, इस के लिए मैं शर्मिंदा हूं. बहस में शायद मैं आप से पराजित नहीं होता, मगर आप के स्वयंसिद्धा रूप ने मुझे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है.’’

‘‘नहींनहीं. गलती मेरी भी है. जिन आक्षेपों को चुनौती की तरह ले कर संघर्ष आरंभ किया था वह संघर्ष धीरेधीरे कब जिद का रूप ले बैठा ध्यान ही नहीं रहा. मगर आप ने तो खुद को झुक कर मुझे मौका दिया है.’’

अपनीअपनी हार को स्वीकार करते हुए भी दोनों के मन में जीत का उन्माद हिलोरें ले रहा था.

Family Drama : थैंक्यू अंजलि – क्यों अपनी सास के लिए फिक्रमंद हो गई अंजलि

Family Drama : सुबह-सुबह मीता का फोन आया, “भैया जी, अम्मा को बुखार हो रहा है. कल से कुछ खापी नहीं रहीं हैं.”

“यह क्या कह रही हो मीता? ऐसा था तो कल ही क्यों नहीं बताया? राकेश ने हड़बड़ा कर कहा.

“असल में अम्मां जी ने ही मना किया था.”

“अम्मां ने मना किया और तुम मान गईं? जानती हो आजकल कैसी बीमारी फैली हुई है? कोरोना का कितना डर है? अच्छा रुको मैं आ रहा हूं.”

बदहवास से राकेश निकलने लगे तो मैं ने पीछे से टोका,” सुनो पहले मास्क पहनिए. पाकेट में सैनिटाइजर रखिए और देखिए प्यार में होश खोने की जरूरत नहीं. चेहरे से मास्क बिल्कुल भी मत हटाना. अगर अम्मां जी को कोरोना हुआ तो फिर इस का खतरा आप को भी हो सकता है न. अम्मां को छूने के बाद याद कर के सैनिटाइजर लगाना और हां अम्मां से थोड़ी दूर ही बैठना.”

राकेश ने थोड़ी नाराजगी से मेरी तरफ देखा तो मैं ने सफाई दी,” अपनी या मेरी नहीं तो कम से कम बच्चों की चिंता तो करो.”

“ओके. चलो मैं आता हूं.” कहते हुए राकेश चले गए.

मैं जानती हूं कि राकेश कहीं न कहीं अम्मा के मसले पर मुझ से नाराज रहते हैं. दरअसल मेरा अपनी सास के साथ हमेशा से 36 का आंकड़ा रहा है. वैसे तो अमूमन सभी घरों में सासबहू के बीच इसी तरह का रिश्ता होता है. मगर मेरे साथ कुछ ज्यादा ही था.

मैं जिस दिन से घर में बहू बन कर आई उसी दिन से अपनी सास के खिलाफ मोर्चा खोल लिया था. सास ने मुझे सर पर पल्लू रखने को कहा पर मैं ने उन की नहीं सुनी. सास ने मुझे नॉनवेज से दूर रहने को कहा मगर मैं ने यह बात भी स्वीकार नहीं की क्यों कि मैं अपने घर में अंडा मछली खाती रही हूं. सास पूजापाठ में लिप्त रहतीं और मुझे यह सब अंधविश्वास लगता. सास जरूरत से ज्यादा सफाई पसंद थीं जबकि मैं बेफिक्र सी रहने की आदी थी. मैं खुद को एक प्रगतिशील स्त्री मानती थी जबकि सासू मां एक रूढ़िवादी महिला थीं. इन सब के ऊपर हमारे बीच विवाद की एक वजह राकेश भी थे. हम दोनों ही राकेश से बहुत प्यार करते थे और इसी उलझन में रहते थे कि राकेश किसे अधिक प्यार करते हैं.

मैं मानती हूं कि अम्मां जी ने बचपन से राकेश को पालापोसा और प्यार दिया. इसलिए उन के प्यार पर पहला हक अम्मां का ही है. मगर कहीं न कहीं मेरा यह मानना भी है कि शादी के बाद पति को अपनी मां का पल्लू छोड़ देना चाहिए और उस स्त्री के प्रति अपना दायित्व निभाना चाहिए जो उस के लिए अपना घरपरिवार छोड़ कर आई है.

मुझे सास की हर बात में टोकाटाकी भी पसंद नहीं थी. हमारी शादी के 2 साल बाद मोनू हो गया और फिर गुड्डी. गुड्डी उस वक्त करीब 3 साल की थी जब मैं ने राकेश से अलग घर लेने की जिद की.

राकेश ने बहुत समझाया ,”देखो अंजलि, बड़े भैया बरेली में हैं और छोटे भैया मुंबई में. अम्मां बाबूजी के पास में ही हूं. ऐसे में हमारा इन दोनों को अकेला छोड़ कर जाना उचित नहीं.”

मगर मैं अड़ी रही,” अरे वाह दोनों बड़े भाइयों को अपने मांबाप की नहीं पड़ी. केवल तुम ही श्रवण कुमार बनते फिरते हो. तुम्हारी दोनों भाभियां ऐश कर रही हैं और बीवी घुटघुट कर मरने को विवश है. देखो तुम ने मेरी बात नहीं मानी न तो मैं हमेशा के लिए अपनी मां के घर चली जाऊंगी.  फिर संभालते रहना अपने बच्चों को.”

मेरी धमकी का असर हुआ. राकेश ने पुराने घर के पास ही एक नया घर खरीदा. अम्मां बाबूजी को पुराने घर में छोड़ कर हम यहां शिफ्ट हो गए.

भले ही राकेश ने मेरी बात मान ली मगर हम दोनों के बीच एक अदृश्य दीवार भी खड़ी हो गई थी. राकेश के दिल में मेरे लिए पहले जैसा प्यार नहीं रह गया था. वह केवल पति का दायित्व निभा रहा थे.

इस बात को 4 साल बीत चुके हैं. पिताजी भी दो साल पहले गुजर गये. अब अम्मां उस घर में नौकरानी मीता के साथ अकेली रहती हैं. मुझे इस बात का एहसास है कि अम्मां के लिए अकेले रहना काफी कठिन होता होगा. मगर न मैं ने कभी उन्हें लाने की बात की और न कभी अम्मां ने ही कोई शिकायत की.

राकेश अंदर ही अंदर अम्मां के प्रति खुद को अपराधी महसूस करते हैं पर इस संदर्भ में मुझ से कुछ कहते नहीं.

आज अम्मां की बीमारी के बारे में सुन कर जैसे राकेश ने मुझे भेजती नजरों से देखा था इस से जाहिर था कि वे इन सारी बातों के लिए मुझे ही कसूरवार मान रहे थे.

मैं बेसब्री से राकेश के लौटने का इंतजार कर रही थी. कहीं न कहीं अम्मां को ले कर मुझे भी चिंता होने लगी थी. आखिर वे बुजुर्ग हैं और बुजुर्गों के लिए कोरोना ज्यादा घातक सिद्ध हो रहा था.

मैं ने राकेश को फोन कर अम्मां के बारे में जानना चाहा तो राकेश ने संक्षेप में जवाब दिया,” अम्मां को तेज बुखार है. मैं ने एंबुलेंस वाले को फोन कर दिया है. बस वे आने ही वाले हैं. फिर मैं अम्मा को ले कर हॉस्पिटल निकल जाऊंगा. सारा इंतजाम कर के और कोरोना का टेस्ट करवा कर ही लौटूंगा. मीता ने बताया है कि अम्मां से मिलने शर्मा जी का लड़का आया था जो कुछ दिन पहले विदेश से लौटा था. ”

“ठीक है मगर जरा ध्यान से. प्लीज अपना भी ख्याल रखना.”

“हूं ठीक है.” कह कर राकेश ने फोन काट दिया. मेरे दिल में खलबली मची हुई थी, अम्मां को सच में कोरोना निकला तो? उन्हें कुछ हो गया तो ? राकेश तो मुझे कभी भी माफ नहीं करेंगे. इधर मुझे यह डर भी लग रहा था कि कहीं अम्मां के कारण कहीं राकेश भी बीमारी ले कर घर न आ जाएं.

शाम ढले राकेश वापस लौटे.

“क्या हुआ? अम्मां कैसी हैं और आप ने अपना ध्यान तो रखा? मास्क हटाया तो नहीं ? हाथों में सैनिटाइजर तो लगाते रहे न? अम्मां की रिपोर्ट कब तक आएगी?किस हॉस्पिटल में एडमिट किया है?”

मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी तो वे मुंह बनाते हुए बाथरूम में नहाने चले गए.

मैं ने खुद को शांत किया और फिर एकएक कर के सवाल पूछे. राकेश ने बताया कि रिपोर्ट 36 घंटे में आ जाएगी और तब तक अम्मां एडमिट रहेगीं.

रात में सोते समय राकेश ने मुझ से सवाल किया,”दोतीन महीने पहले तुम ने अम्मां से उन का पुश्तैनी सोने का हार मांगा था?”

सवाल सुन कर मैं सकते में आ गई,” हां मैं ने तो बस सुरक्षा के लिहाज से कहा था. असल में मुझे लगा कि बाबूजी भी नहीं हैं और अम्मा अकेली रहती हैं. ऐसे में कहीं हार चोरी न हो जाए.”

“क्या बात है अंजलि, हार के जाने का डर है तुम्हें पर अम्मां के जाने का कोई डर नहीं? “कह कर राकेश उठ कर दूसरे कमरे में चले गए.

मैं अम्मां को मन ही मन बुराभला कहने लगी, कैसी हैं अम्मा भी? बीमारी में भी मेरे खिलाफ अपने बेटे के कान भरने से बाज नहीं आईं. मैं ने बुरा सा मुंह बनाया और लेट गई.

तब तक राकेश एक ज्वैलरी बॉक्स ले कर अंदर आए,” यह लो अंजलि, अम्मा ने यह हार तुम्हारे बर्थडे के लिए तैयार कराया था. अपने पुश्तैनी हार मेंअपने अब तक के बचाए हुए रुपए लगा कर यह भारी हार बनवाया है तुम्हारे लिए. यह हीरे की अंगूठी मेरे लिए, यह कंगन गुड्डी और यह घड़ी मोनू के लिए.”

कहते कहते राकेश फफकफफक कर रोने लगे थे. मेरी आंखों में भी आंसू छलक आए. तोहफे में हार दे कर अम्मां ने मुझे हरा दिया था.

तभी राकेश ने रुंधे हुए स्वर में फिर कहा,” जानती हो अम्मां ने यह सब देते हुए क्या कहा? वे बोलीं कि बेटा क्या पता मुझे कहीं कोरोना हो और मैं लौट कर न आ सकूं. ऐसे में अंजलि को जन्मदिन पर अपने हाथों से नहीं दे पाऊंगी इसलिए तू ही उसे दे देना. आखिर वह भी है तो मेरी बच्ची ही न.”

मैं निशब्द जमीन को एकटक निहार रही थी. शायद अम्मा के प्रति आज तक के अपने व्यवहार पर शर्मिंदा थी. राकेश सोने चले गए मगर मैं रात भर करवटें बदलती रही. मेरी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. मैं सोचती रही अम्मां मेरा इतना ख्याल रखती हैं और मैं ही हमेशा उन के बारे में गलत सोचती रही हूं. यह बात मुझे अंदर से बेधे जा रही थी.

किसी तरह 36 घंटे बीते. राकेश ने फोन कर के बताया कि अम्मां को कोरोना नहीं है. सिंपल बुखार है जो अब लगभग ठीक हो चुका है.”

मेरी आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. मैं ने राकेश से कहा, सुनो अम्मां जैसे ही हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हों तो उन्हें हमारे घर ले कर आना. उन्हें देखभाल की जरूरत है और फिर कोरोना फैल रहा है. वे खुद अपनी सुरक्षा का ख्याल नहीं कर पाएंगी. मैं उन का ख्याल रखना चाहती हूं हमेशा. … वैसे भी आखिर मैं हूं तो उन की बच्ची ही न. ” कहते कहते मैं रो पड़ी थी.

राकेश गदगद स्वर में इतना ही बोल पाए,” थैंक्यू अंजलि.”

Family Drama : ‘मां’ तो ‘मां’ है

Family Drama : बेटा पारुल 3 बजने को है खाना खाया कि नहीं ओह! माँ नही खाया आप चिंता ना करो अभी खा लेती हूँ, ठीक है 15 मिनट में फिर फोन करती हूँ सब काम छोड़ पहले खाना खा. कहने को तो निर्मला जी पारुल की सास हैं पर शादी के बाद उसकी हर इच्छा का ध्यान रखते हुए भरपूर प्यार दिया हर जरूरत का ख्याल रखा फटाफट टिफिन खोल खाना खाने बैठी ताकि माँ को तसल्ली हो जाए, खा-पी 10-15 मिनट आराम करने की सोच किसी को कमरे में ना आने के लिए चपरासी को बोल दिया.

आँख बंद कर बैठी ही थी कि एक साल पुरानी यादों ने आ घेरा, उसकी और साहिल की जोड़ी को जो कोई देखता यही कहता एक-दूसरे के लिए ही बने हैं परस्पर इतना आपसी प्रेम कि शादी के

24 साल बाद भी एक साथ घूमते-फिरते यही कोशिश रहती हर क्षण साथ ही रहें पल भर को भी अलग ना होना पड़े, बेहद प्यार करने वाले दो बेटे अंकुर व नवांकुर कहने का मतलब हंसता-मुस्कुराता सुखी परिवार. किंतु विधाता के मन की कोई नहीं जानता, पिछले साल नए साल की पार्टी का जश्न मना खुशी-खुशी सोए रात को अचानक साहिल की छाती में तेज़ दर्द उठा जब तक पारुल या घरवाले कुछ समझ हॉस्पिटल पहुंचाते तब तक साहिल का साथ छूट चुका था पारुल की दुनिया वीरान हो चुकी थी.

‌सुबह से ही लोगों का आना-जाना शुरू हो गया, साहिल थे ही इतने मिलनसार-ज़िंदादिल कि कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था वो अब नहीं है अनंत यात्रा के लिए निकल चुके हैं. पारुल को समझ नहीं आ रहा था या यूं कहलें समझना नहीं चाह रही थी ये क्या हो रहा है? एकाएक जिंदगी में कैसा तूफान आ गया? जिससे सारा घर बिखर गया तहस-नहस हो गया, बच्चों का सास-ससुर का मुँह देख अपने को हिम्मत देने लगती फिर अगले ही पल साहिल की याद संभलने ना देती.

खैर! जाने वाला चला गया, अब तो रीति-रिवाज़ निभाने ही थे तीसरे दिन उठावनी की रस्म हुई
विधि-विधान से सब  होने के बाद निर्मला जी पारुल की तरफ देख बोलीं, जल्दी से अच्छी सी साड़ी पहन तैयार हो जा आज ऑफिस खोलने जाना है. पारुल क्या किसी को भी समझ नहीं आया निर्मला जी कह क्या रही हैं? कुछ देर से फिर बोलीं, जा पारुल तैयार होकर आ तुझे आज से ही साहिल का सपना पूरा करना है जो उसका मोटरपार्ट्स का काम है जिन ऊंचाइयों तक वो ले जाना चाहता था अब तुझे ही पूर्ण करना है, उठ! मेरी बिटिया देर ना कर अपने साहिल की इच्छा पूरी करने का प्रण कर.

‌पारुल जानती-समझती थी माँ जो कुछ भी कहेंगी या करेंगी उसमे कहीं ना कहीं भलाई होगी हित ही छुपा होगा, इसलिये सवाल-जवाब किए बिना तैयार हो शॉप के लिए चल दी साथ में ससुर और दोनों बेटे अंकुर-नवांकुर थे. शॉप खोल काम शुरू करने की रस्म निभाई किंतु घर आकर उसके सब्र का बांध फिर टूट गया, निर्मला जी ने तो अपना दिल पत्थर का बना लिया था क्योंकि उनकी आंखों को पारुल व बच्चों का भविष्य जो दिख रहा था.

निर्मला जी ने अपने पति की ओर देखा फिर दोनों जन पारुल के पास आए, सिर पर हाथ रख ढाढस बांधने लगे. निर्मला जी उसका सिर अपनी गोदी में रख पुचकारते हुए बोलीं, हमारा प्यारा साहिल हमसे बहुत दूर चला गया जीवन का कटु सत्य है अब कभी ना लौटकर आएगा, परंतु यह भी उतना ही कटु सत्य है कि जाने वाले के करीबी या जो पारिवारिक सदस्य होते हैं उनकी बाकी जिंदगी सिर्फ रो-रोकर शोक करते रहने से तो नहीं बीत सकती. जिंदा रहने के लिए खाना-पीना और घरेलू-बाहरी सभी काम करना अत्यंत जरूरी रहता है, यह तो जीवन है बेटा जिसके नियम-कायदे हम इंसानों को मानने ही पड़ते हैं हमारी इच्छा या अनिच्छा मायने नहीं रखती. बेटा अब साहिल तो नहीं है लेकिन तुझसे जुड़े दोनों बच्चे तथा हमारा परिवार है, हम सभी को एक-दूसरे का सहारा बन रहना होगा एक-दूजे के लिए ख़ुशीपूर्वक ज़िंदगानी बितानी होगी.

सबसे अहम बात जीने के लिए आत्मनिर्भर होना पड़ेगा बेटा पारुल जो भी तुझे समझा अथवा कह रही हूँ वो हमेशा अपनी माँ की सीख मान याद रखना, अब से मैं तेरी सासू माँ नहीं माँ हूँ और
माँ तो माँ होती है.

साहिल को गए अभी तीन दिन हुए हैं ऐसे ही 30 दिन फिर 3 महीने और साल दर साल होते जाएंगे, ये नाते-रिश्तों का तू सोच रही हो कि तेरा व तेरे बच्चों का संग-साथ देते रहेंगे तो अभी से इस भ्रम में ना रह, भूल जा कोई साथ देता रहेगा. वो तो जब तक हम माँ-पिता हैं तब तक तुझे किसी तरह की परेशानी ना होने देंगे लेकिन बाद में मेरी बिटिया को किसी पर भी निर्भर ना होना पड़े अभी से इस बारे में सोचना होगा, हम अपने अनुभवों व तज़ुर्बे से बता रहे हैं कोई जीवन में ज्यादा दिन साथ नहीं दे सकता एकाध दिन की बात अलग है. उठ! बेटा पारुल आगे की सोच, जो होना था हो गया हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते अब अपने और बच्चों के भविष्य की सोच बाकी का जीवन कैसे बिताना है ध्यान दे.

माँमाँ यह क्या कह रही हो आप, क्या करूं कैसे करूं? मुझे तो कुछ नहीं आता सब तो साहिल ही संभालते थे, आप सब मेरी चिंता ना करो मेरी जिंदगी कैसे ना कैसे बीत ही जाएगी.

कैसी बात कर रही है? सिर्फ भावनाओं के सहारे नहीं रहा जा सकता, समय के साथ-साथ प्रैक्टिकल होना पड़ता है जिंदगी बसर करने के लिए बहुत कुछ सहना और फिर करना भी पड़ता है. साहिल तो यादों में हम सबके साथ हमेशा रहेगा, अब तेरहवीं की रस्म के बाद ऑफिस जा व साहिल ने जो बिजनेस शुरू किया है उसको किसी के भी भरोसे ना छोड़ते हुए स्वयं के बलबूते आगे बुलंदियों तक ले जा, यह काम तुझे ही पूरा करना है बेटा. अब कुछ और ना सोच, कुछ दिनों बाद तू ऑफिस की जिम्मेदारी संभाल घर और बच्चों को मैं देख लिया करूंगी फिर कह रही हूँ, साहिल की यादों के संग आगे बढ़ अपनी जिंदगी हंसते-मुस्कुराते बच्चों व अपनों के साथ बिता.

किन्तु…पर कैसे माँ मुझे तो बिजनेस का कुछ भी अता-पता नहीं, अकेले नहीं संभाल सकती मैं.

कितनी बार हंसकर ही सही पर साहिल से कहती थी अपने साथ कभी तो मुझे भी ऑफिस ले चला करो जानना-समझना चाहती हूँ तो पता है माँ, साहिल बोला करते थे तू तो घर की रानी बनकर रह किसी बात की चिंता ना कर मैं हूं ना सब संभालने के लिए, अब तुम्हीं बताओ ऐसा कहकर फिर क्यूँ छोड़कर चले गए मुझे अब कैसे संभालूं?

कोई बात नहीं मेरी बच्ची, होनी का किसी को नहीं पता कब क्या हो जाए? कोई नही जानता यहां तक कि अगले पल की खैर-खबर नहीं रहती. तू समझदार हैं पढ़ी-लिखी है इसलिए काम के बारे में जल्दी सीख जाएगी, तेरे पापा को भी थोड़ी बहुत बिज़नेस की जानकारी व समझ है. वैसे तो साहिल अपने पापा को भी ऑफिस ना आने देता था यही कहता रहता था, घर पर रह आराम करो बहुत काम कर लिया किंतु फिर भी कुछेक जानकारी तो है जिससे काफी हद तक तुझे स्वनिर्भर होने में अपना योगदान दे सकेंगे.

हाँ बेटा! तू बिलकुल चिंता मत कर, अभी तेरा पापा जिंदा है नई राह पर हर कदम तेरे साथ है बस! मानसिक तौर पर खुद को मजबूत कर ले ज़रा हिम्मत ना हार, हम सबकी खुशियों का एकमात्र सहारा तू ही है. अंकुर तथा नवांकुर के जीवन की अभी शुरुआत हुई है उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए उन्हें खुशियों की सौगात देने का स्वयं से वादा करते हुए घर-बाहर की जिम्मेदारी निष्ठा से पूर्ण करने का निश्चय कर, तेरे मम्मी-पापा सिर्फ और सिर्फ तेरे संग हैं.

पारुल अब हम दोनों की बात का मान रखते हुए स्वाभिमान के साथ अपने उद्देश्य को हर हाल में पूरा करना, हिम्मत कर एक और बात मन की कहना चाहूँगी, बिटिया यदि जीवन के किसी मोड़ या रास्ते में दूसरा साहिल मिलने लगे तो इधर-उधर की परवाह किए बिना निःसंकोच उसका हाथ थाम लेना, इससे सफर जीवन का आसानी से कट जाएगा समय का ज्यादा मालुम ना पड़ेगा.

माँमाँ…..आगे के शब्द नही मुँह से निकल सके निःशब्द हो चुकी थी पारुल, सिर्फ अपने
माँ-पिताजी तुल्य सास-ससुर को निहार रही थी. तभी मैडम-मैडम की आवाज से पारुल का ध्यान भंग हुआ चेतना में वापिस लौटी, हाँ-हाँ बोलो क्या कहना चाहते हो? वो मीटिंग के लिए आपका सभी इंतज़ार कर रहे हैं बता दें कब शुरू करनी है? ओह! तुम सभी मेंबर्स को जाकर कह दो 10 मिनट से बातचीत करते हैं.

पारुल उठी, एक गिलास पानी पिया और अपनी सासू माँ यानी अपनी माँ को मन ही मन हाथ जोड़ तहे दिल से धन्यवाद दिया, क्योंकि उन्हीं के स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन से प्रेरित हो कुछ ही समय में आत्मनिर्भर बन अपना आत्मसम्मान अपनी खुद की पहचान बनाने में कामयाब हो सकी थी.

Meri Bitiya : प्यारी सी बिटिया केशवी

Meri Bitiya : केशवी… यथा नाम तथा रूप… कमर तक लहराते बाल. गेहुआं रंग, तीखे नैननक्श. छरहरी काया और आवाज तो मानो वीणा झंकृत होती हो. मंदिम स्वर कुछ सांचे तो कुदरत तराश कर ही बनाती है.

‘‘मैं आई कम इन सर,’’ धीमा सा, डरा सा स्वर, सहसा कक्षा में गूंजा.

‘‘यस कम इन… लेकिन तुम लेट कैसे हो गई और तुम्हें पहले कभी देखा भी नहीं?’’ सर की आवाज के साथ सारी कक्षा का ध्यान उस मनमोहक चेहरे पर था.

‘‘वह सर मेरा न्यू एडमिशन है और मुझे सही समय का पता नहीं था इसलिए आने में देरी हो गई,’’ केशवी का कंपित स्वर सुन कर बच्चों की दबी हंसी मानो गुंजित हो रही हो.

‘‘बैठ जाओ आगे से समय का ध्यान रखना,’’ सर ने सीट की तरफ इशारा करते हुए कहा और उपस्थिति लेने में मशगूल हो गए.

बच्चों को तो मानो कुतूहल का विषय मिल गया हो. मानो उस का ऐक्स रे ही निकाल रहे हो. उपस्थिति के बाद जब सर ने पढ़ाना शुरू किया तो भला आज कहां किसी को समझ में आने वाला था. एक नया अध्याय जो क्लास में आ गया था. जब तक उस की तहकीकात नहीं हो जाती कहां चैन आने वाला था? किशोर मन बड़ा जिज्ञासु होता. अधूरा ज्ञान अधूरा मन. जिस में संभावनाओं की अनंत डगर… ऐसा लग रहा था आज पीरियड खत्म ही नहीं हो रहा. शायद चपरासी घंटी बजाना भूल गया? जैसे ही घंटी बजे और केशवी का नाम तो पूछ ही लें.

इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और सर ने प्रस्थान किया. इस से पहले कि दूसरे सर का आगमन हो कुछ तहकीकात तो कर ही लेते हैं. कुछ किशोर चंचलाएं फुरती से उठ कर उस के पास पहुंचीं और पता होने के बाद भी उस का नाम पूछने लगीं.

‘‘कहां से आई हो तुम?’’ एक लड़की ने पूछा.

‘‘मैं… मैं गुना से आई हूं, मेरे पापा का ट्रांसफर हुआ है.’’

मानो केशवी की पुलिस पूछताछ हो रही हो, ‘‘कल से समय से आना. स्कूल का समय 7 बजे का है,’’ कुछ और हिदायतें भी सुनाई दे रही थीं.

इतने में कक्षा में नए सर का आगमन हो गया और किशोर मन का कुतूहल शांत नहीं हो पाया.

ऐसे ही पीरियड पूरी हो गई और कुछ ज्यादा जिज्ञासु बच्चों की कुछ जिज्ञासा भी शांत हो गई. धीरेधीरे दिन निकलने लगे और केशवी भी क्लास के रंग में ढल गई.

एक दिन अचानक केशवी मेरी सीट पर बैठ गई और धीरे से उस ने मेरा नाम पूछा.

चूंकि मुझे पता था कि सब उस से नाम ही पूछते हैं इसलिए मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारा नाम बहुत प्यारा है, क्या मैं तुम्हें केशू पुकार सकती हूं?’’

उस ने कहा, ‘‘हां… हां क्यों नहीं. मुझे घर में केशू ही बुलाते हैं.’’

अच्छा… तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘मेरी मम्मी, पापा 2 बहनें और 1 भाई है.’’

उस की मधुर आवाज मानो कोयल कूहूक रही हो. लेकिन स्वर इतना धीमा कि अपने कानों पर ही संदेह होने लगे. खैर, बातचीत आगे बढ़ाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’’

‘‘मेरे पापा बैंक में हैं. उन का ट्रांसफर हुआ है,’’ केशू ने कहा.

‘‘पता है इस क्लास में मुझे तुम सब से अच्छी लगीं. मैं तुम्हें ही देखती रहती हूं और तुम से दोस्ती करने की कब से इच्छुक हूं.’’

उस के धीमे स्वर से मुझे अपनी तारीफ के शब्द बहुत स्पष्ट सुनाई दे रहे थे. पता नहीं प्रशंसा हम सब की जन्मजात क्यों कमजोरी होती है. प्रशंसा से हमारी इंद्रियां भी सचेत हो जाती हैं.

‘‘अच्छा,’’ मैं ने गर्वित मुसकान के साथ कहा, ‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं तुम भी बहुत प्यारी हो.’’

‘‘बोर्ड का ऐग्जाम है तुम्हें कोई परेशानी आए तो मुझ से पूछ सकती हो,’’ मैं ने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उस से कहा.

अब नित्य का यह क्रम बन गया और हम दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ होती गई.

दोस्ती का आलिंगन भी तब ही होता है जब कुछ समानताएं होती हैं और धीरेधीरे हम दोनों कब एकदूसरी से सारी बातें करने लगे पता ही नहीं चला. कैरियर … फिर विवाह और जाने कितने भविष्य के कैनवास. जिन पर मन मुताबिक रंग भरने लगे. ऐसे ही बातों में मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम लव मैरिज करोगी या अरेंज्ड मैरिज?’’

‘‘लव मैरिज? न बाबा यह मेरे बस का रोग नहीं. मैं तो अपने पापा के राजकुमार के साथ ही खुश हूं,’’ केशू ने कहा.

‘‘सही कह रही है. तेरी हिम्मत तो नाम बताने की भी नहीं. लव भी कैसे करेगी… हां बाल के केश और चेहरा जरूर किसी को दीवाना बना सकता है. लेकिन जब वह तुम्हारी आवाज सुनेगा न तो उसे संदेह ही हो जाएगा. लड़की बोलती भी है या नहीं,’’ मैं ने उस की चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘हठ पगली लववव मैं नहीं करने वाली,’’ केशू ने कहा.

एक संकोची स्वभाव की सौंदर्य से भरपूर किशोरी है जिस के पापा का हाल ही में स्थानांतरण हुआ है, उस की नए विद्यालय में एक सखी बनती है जिस से वह अपना सब साझा करती है. अब आगे मार्च का महीना है. पूरे सहपाठी जोश से पढ़ाई में लगे हुए हैं. पढ़ाई में सामान्य केशू भी अपनी पूरी ताकत से जुटी हुई है. चूंकि 12वीं कक्षा का ऐग्जाम है इसलिए अथक प्रयास है कि अच्छे अंक अर्जित किए जाएं.

मैं और केशू अकसर साथ पढ़ाई करते थे. साथ ही भावी योजनाएं भी बनाते थे. बोर्ड की परीक्षा में हम दोनों ने ही अच्छे अंक अर्जित किए और भविष्य की ऊंची उड़ानों के साथ महाविद्यालय में दाखिला लिया.

महाविद्यालय, शैक्षणिक जीवन का दूसरा व अंतिम पड़ाव. जहां भविष्य की उड़ान के साथसाथ आंखों में रंगीन सपने भी तैरते हैं. सब की एक अंतरंग ख्वाहिश कि काश कोई सपनोंका सौदागर मिल जाए. प्यार, एक एहसास जिस को सब महसूस तो करना ही चाहते हैं, प्यार की कशिश ही ऐसी होती है. यह बात अलग है कि प्यार हर किसी के हिस्से में नहीं होता.

कालेज में हम गर्ल्स का गु्रप अकसर हंसीठिठोली करता रहता था. उसी में केशू जो हंसने में माहिर थी और उस की उस निश्छल हंसी पर कब समीर फिदा हो गया, पता ही नहीं चला.

कहते हैं इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. लैब में एक दिन समीर ने केशू से मिलने को कहा. केशू में मानो काटो तो खून नहीं. बिना जवाब दिए केशू का चेहरा गुलाबी हो गया. उस के बाद दोनों में कोई बात नहीं हुई.

मूक मिलन का सिलसिला कक्षा में चलता रहा और हम द्वितीय वर्ष में प्रवेश कर गए. एक दिन मैं और केशू कालेज जा रहे थे तो समीर रास्ते में दिखा.

मैं ने केशू की चुटकी लेते हुए कहा कि तुम दोनों की लव स्टोरी कहां तक पहुंची? गानेबाने हुए कि नहीं. उस ने कहा कि कौन सी लव स्टोरी. कोई प्यार नहीं है मेरा तो…

मैं ने कहा कि झूठ मत बोलो. तुम न कहो तो क्या है तुम्हारा गुलाबी चेहरा सब कह रहा है. सचसच बताओ तुम्हें भी पसंद है न समीर?

उस ने मुसकराते हुए कहा कि हां बुरा भी नहीं. लेकिन मैं प्यार के चक्कर में पड़ने वाली नहीं. मेरे लिए तो मेरे पापा ही राजकुमार ढूंढ़ेंगे.

धीरेधीरे समीर का आकर्षण बढ़ता जा रहा था और केशू का संकोची स्वभाव दोनों के मिलने में बाध्य बन रहा था.

एक दिन समीर ने मु?ो एक कागज केशू को देने को कहा. जानते हुए भी मेरा किशोर मन कहां उसे पढ़े बिना रह सकता था. फिर मैं ने वह केशू को दे दिया. मैं ने केशू से कहा, ‘‘अब तो हां कर दे.’’

वह शरमाते हुए बोली, ‘‘नहीं, मुझे नहीं मिलना.’’

मगर उस के चेहरे का रंग बता रहा था कि वह भी समीर को पसंद करने लगी है.

प्यार पाना हर किसी को अच्छा लगता है लेकिन उस में आगे बढ़ना साहस का ही काम है. पहली बात तो प्यार के खरेपन को पहचानना, फिर जमाने से रूबरू होना. केशू जैसी अनेक लड़कियों की चाहतें पलकों में ही दफन हो जाती हैं, उन्हें लफ्ज ही नहीं मिल पाते.

समीर पढ़ने में तेज था, साथ ही अच्छे घर का लड़का भी था. केशू की सौम्यता उस को भा गई थी. चूंकि केशू शरमीले स्वभाव की थी इसलिए समीर भी आगे नहीं बढ़ पा रहा था. वह पढ़ाई में भी केशू की सहायता करता था और दोनों में थोड़ी नजदीकी हो गई.

एक दिन समीर ने केशू से कह ही दिया कि मैं तुम्हें पसंद करता हूं और जीवनभर इस रिश्ते को कायम रखना चाहता हूं.

केशू जवाब तो नहीं दे पाई लेकिन उस रात नींद उस की आंखों से कोसों दूर रही. रातभर इस कशमकश में रही कि समीर को क्या जवाब दे. दिल तो हां कहना चाहता था लेकिन संस्कार विवश कर रहे थे कि घर में कैसे बताएगी.

कहते हैं कुछ फैसले अपनेआप हो जाते हैं. हम अपनेआप को उलझाए रखते हैं और उन का हल स्वत: निकल आता है.

ऐसा ही हुआ. प्यार के रंग में रंगी केशू सुबह उठी तो पापा के स्थानांतरण ने मानो सारे प्रश्नपत्र ही हल कर दिए हों… जिंदगी हमारे सामने प्रश्नपत्र तो रखती ही है. कुछ प्रश्न अनिवार्य भी होते हैं लेकिन उन के हल भी स्वत: उत्तरित होते हैं. लेकिन जब फैसला लेना होता है तो हम अपनी पूरी योग्यता लगा देते हैं. ऐसे ही सुनहरी सपनों और संस्कारों के बीच पलती केशवी को अपने झंझावात से मुक्ति मिल गई और इश्क का सूफियाना रंग एक पल में फीका पड़ गया.

परिवर्तन संसार का नियम हैं… इस परिवर्तनशील संसार में स्थैत्व बनाना हमारी नियति. केशू के पापा के स्थानांतरण के साथ केशू की भी नई जिंदगी शुरू हो गई.

ग्वालियर शहर में नया महाविद्यालय, नए लोग. नए चेहरों में केशू की निगाहें अकसर समीर को ढूंढ़ती रहती थीं.

केशू के पापा ने केशू की बहन का विवाह निर्धारित कर दिया. विवाह की तैयारियों में पूरा परिवार जुट गया. केशू भी अपने जीजू से मिलने के लिए बेहद उत्साहित थी.

समीर अपने कैरियर को ले कर गंभीर हो गया था. वह कई प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया. विवाह की खरीदारी में व्यस्त केशू को एक दिन समीर जैसा चेहरा दिखाई दिया. उस के कदम ठिठक गए और वह उस के नजदीक आने का प्रयास करने लगी. अचानक उस के मुंह से निकल गया, ‘‘समीर तुम?’’

‘‘हां केशू… तुम कैसी हो?’’

समीर की आवाज सुन कर केशू मानो उसे रिकौर्ड करना चाहती हो.

‘‘मगर तुम कैसे हो?’’ बस वह इतना ही पूछ पाई.

तभी उस के पापा उसे बुलाने आ गए.

रात भर केशू की आंखों में समीर का चेहरा घूमता रहा. मन को रक्स के लिए आजाद छोड़ते हुए केशू बहन के विवाह की तैयारियों में जुट गई.

विवाह होते ही बहन अपनी ससुराल में रम गई और नवविवाह की अठखेलियों का लुत्फ केशू अपनी बहन से बड़े चाव से सुनती और मन ही मन अपने भावी राजकुमार को भी देखती.

समय तो ठहरता ही नहीं. अपनी गति से चलता है और धीरेधीरे केशू को अपने विवाह के चर्चे भी घर में सुनाई देने लगे.

पता नहीं क्यों विवाह का स्वप्न आंखों में चमक ला ही देता है. जीवन का एक रंगीन ख्वाब जो बिना तालीम के ही महसूस होने लगता है. ऐसे ही राजकुमार के सपने देखती केशू ने अपने पिता को उस की मां से बात करते हुए सुना था. एक पल को केशू की आंखों में समीर का भी चेहरा सामने आ रहा था. लेकिन सारी चाहतें कहां पूरी होती हैं, यह सोचते हुए केशू अपने पापा की बातों को ध्यान से सुन रही थी. पास ही के शहर ?ांसी का रहने वाला परिवार था.

‘‘2 भाई और 1 बहन है. लंबीचौड़ी जमीनजायदाद है, नौकरी की तो उन को जरूरत ही नहीं. हमारी केशू राज करेगी. लड़का देखने में भी अच्छा है, पढ़ालिखा भी अच्छा है,’’ पापा को कहते सुना केशू ने, ‘‘रईस लोग हैं इसलिए हमें थोड़ा पैसा अच्छा लगाना पड़ेगा पर हमारी केशू अच्छे घर में चली जाएगी.’’

केशू के पापा फिर पैसों की जुगाड़ बताने लगे. केशू की मां भी अपनी बेटी को रानी बनते देखने लगी और धीरेधीरे बात आगे बढ़ने लगी.

‘‘सोमवार को केशू को देखने आ रहे हैं,’’ एक दिन केशू को पापा की आवाज सुनाई दी.

कंपित हृदय से केशू अपने भावी राजकुमार का डीलडौल सोचने लगी और अपनेआप को तैयार भी करने लगी.

मेरा और केशू का संबंध सिर्फ खतों का रह गया था तो कभीकभी हम दोनों एकदूसरे की कुशलता पूछ लिया करते थे.

धीरेधीरे सोमवार आ गया और सुबह से ही केशू को दिखाने की तैयारियां जोरों पर थीं.

घर का कोनाकोना करीने से व्यवस्थित था. रसोई से अनेक व्यंजनों की महक आ रही थी.

घंटी बजी और प्रतीक्षित मेहमान आ गए. पूरा घर उन की खिदमत में लग गया, फिर केशू को भी बुलाया गया. सहमी सी केशू सब के सामने आ कर बैठ गई. औपचारिक प्रश्नों के बाद केशू और भावी राजकुमार को साथ समय बिताने को कहा.

कंपित हृदय से केशू ने जब लड़के से बात की तो केशू को उस की बातों में प्यार की महक न आ कर दंभ की बूआ रही थी. लेकिन वह छोटी सी मुलाकात से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई.

मेहमानों के जाने के बाद सब ने एकदूसरे की राय जाननी चाही और सब से अहम केशू की राय, जिस में केशू, कशमकश में थी.

‘‘पापा ने देखा है तो अच्छा ही होगा और मैं कहां किसी को समझ पाती हूं,’’ खयालों में डूबी केशू के मन में विचारों का मंथन चल रहा था. एक खयाल आ रहा था दौलत अपनी जगह है और जीवनसाथी अपनी जगह…हां के लिए अपनेआप को तैयार तो कर रही थी लेकिन पूर्णतया हां भी नहीं कर पा रही थी. अनकही चाहत की कशिश लिए केशू ने अपने मन को समझाया कि जिंदगी लंबी है, क्या पता फिर मुलाकात हो जाए.

कालेज में हौट न्यूज बना केशू का स्थानांतरण समीर के कानो तक भी पहुंच गया और अपनी बेबसी का इजहार न कर सका.

देखते ही देखते केशू के जाने का समय नजदीक आ गया और उस के लिए हम सब ने एक विदाई पार्टी भी दी, जिस में समीर भी आया मानो उस के चेहरे का नूर ही चला गया हो. भारी मन से सब ने फोटो लिए गिफ्ट भी दिए और केशू को विदाई दी.

समीर ने बस इतना कहां, ‘‘जहां भी रहो खुश रहो, याद करती रहना,’’ छलकती आंखों से समीर ने केशू को विदा किया.

एक हां से जीवन का फैसला बहुत मुश्किल ही होता है, इसीलिए कहा जाता है विवाह तो लौटरी है. ऐसी ही जद्दोजहद में उलझ केशू का मन. एक तरफ तो भविष्य की उड़ान भर रहा था तो दूसरी ओर लड़के के व्यवहार से थोड़ा आशंकित भी था. लेकिन कुछ फैसले हमारे नहीं होते. हम तो निमित्त मात्र होते हैं और पूरी इबारत लिखी होती है.

केशू ने पापा के चुनाव को निस्संदेह देखते हुए विवाह के लिए हां कर दी. दबा सा एक मलाल जबतब समीर  के लिए आंखों में तैर जाता था. लेकिन हम मध्यवर्गीय लोगों के ख्वाब कहां मुकम्मल होते हैं. यह सोचते हुए केशू भविष्य के रंगीन सपनों में खो गई.

समीर ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया था. ग्रैजुएशन के बाद उस ने कंपीटिटिव ऐग्जाम की तैयारी में अपनी जान लगा दी. उस की मेहनत रंग लाई और उस ने उच्च पद हासिल कर लिया. लंबे अरसे के बाद केशू के पास खत आया मानो उस को उस का राजकुमार मिल गया हो. उस ने लिखा देख में अपने पापा के ढूंढे़ राजकुमार के साथ ही विवाह करने जा रही हूं और साथ ही उस ने विवाह के लिए आमंत्रणपत्र भी भेजा था.

रंगीन भावी योजनाओं के बीच केशू को अपने मंगेतर का व्यवहार कभीकभी व्यथित कर देता था लेकिन वह सोचती मैं अपने प्यार से सब सही कर दूंगी.

बेशक प्यार में बहुत ताकत होती है. वह इंसान को बदल भी देता है. मगर प्रेम का बीज होता है जब. जिस हृदय की मिट्टी गीली होगी प्रेम का अंकुर वहीं स्फुटित होगा. कुछ हृदय बंजर ही होते हैं वहां प्रेम की आशा ही निरर्थक है.

धीरेधीरे विवाह की तिथि भी नजदीक आती जा रही थी और केशू और उस का परिवार अपनी चादर से ज्यादा पैर फैला रहा था. बिटिया के सुनहरे भविष्य के लिए केशू के पापा ने लोन भी लिया कि बड़े लोगों से रिश्ता जोड़ा है तो विवाह उन के अनुरूप ही होना चाहिए.

अपनी प्रिय सखी के विवाह आमंत्रण को मैं भी नहीं ठुकरा पाई और बिना बताए ही ग्वालियर पहुंच गई. केशू की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस ने कहा कि मुझे पूरी उम्मीद थी तुम जरूर आओगी. धीरेधीरे अपनी ससुराल के ऐशोआराम का भी बखान करने लगी. हम भारतीय नारी होती ही ऐसी हैं. उन्हें मायके मैं ससुराल के गुणगान और ससुराल में मायके के गुणगान करना अच्छा लगता है.

मेहंदी की रस्म हुई जिस में केशू के हाथों पर उस के भावी पति का नाम सुनील भी लिखा गया. सूर्ख रंग मेहंदी का देख कर मैं ने केशू से कहा कि जीजू तो बहुत प्यार करेंगे तुम्हें… तुम्हारी मेहंदी का रंग बता रहा है. करेंगे क्यों नहीं हमारी सखी है ही इतनी प्यारी. और विवाह की खुशियां गूंजने लगीं. शादी बहुत भव्य स्तर की लग रही थी और उतनी ही खूबसूरत दुलहन. अच्छा खानापीना, सबकुछ उच्चस्तरीय और 7 फेरों के बंधन में बंध गई केशू.

डोली में बैठी केशू अपने मांबाप से विदा होते हुए बहुत रोई और अपने भाई को तो छोड़ना ही नहीं चाह रही थी. नई गाड़ी में साजन के साथ हम सब को छोड़ कर विदा हो गई केशू.

बहुत पैसे वाले लोग हैं. केशू राज करेगी. रिश्तेदारों का विश्लेषण शुरू हो गया. मैं ने भी अपनी सखी के जाने के बाद विदा होना उचित समझ.

आलिशान बंगला और सुंदर सजावट मानो खूबसूरती माहौल के कणकण में व्याप्त हो.

दैहिक सौंदर्य बेशक नैसर्गिक होता है और समय से वह धूमिल भी होता है लेकिन विवाह के समय तो सौंदर्य न केवल एक पैमाना होता है वरन खूबसूरत दूल्हा या दुलहन एक आकर्षण का केंद्र तो होते ही हैं. ऐसी ही खूबसूरत वधू सब की नजरों का केंद्र बनी हुई थी.

रस्मोरिवाज के बाद अंतत: वह घड़ी भी आ गई जब स्त्री अपना संपूर्ण अस्तित्व एक अजनबी को सौंप देती है. जिस अस्मत की हिफाजत वह सालों से करती है विवाह उसी समर्पण की स्वीकृति है.

शर्म से लाल केशू और उस के लंबे केश मानो उस के सौंदर्य में चार चांद लगा रहे हों और फिर दोनों के मिलन की बेला थकी हुई केशू प्यार की प्रतीक्षा में शर्म से छुईमुई हो रही थी.

सुहाग सेज पर बैठी केशू… मध्यम रोशनी. कमरे की भव्य सजावट मानो वातावरण में असीम सुकून घुला हो. बैठेबैठे यों ही इस सुकून में मन को रक्स के लिए आजाद छोड़ते हुए कब आंख लग गई पता ही नहीं चला.

‘‘समीर तुम?’’

‘‘हां, मैं केशू…’’ समीर की आवाज से केशू चौंक गई.

‘‘जिस को शिद्दत से चाहो वह मिल ही जाता है,’’ कहते हुए समीर ने केशू को बांहों में भर लिया. छुईमुई सी केशू मानो पिघल ही जाएगी.

समीर ने केशू के बालों को सहलाते हुए प्यार की निशानी गुलाब उस के सुंदर बालों में लगा दिए. दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए.

अपने अस्तित्व का समर्पण आसान नहीं होता और समर्पण के बिना स्त्री की पूर्णता भी नहीं होती. जैसे नदिया सागर में जा कर मिलती है वैसे ही स्त्री भी पुरुष के समागम में ही पूर्ण होती है. पुरुष जो प्रकृति से ही बलिष्ठ है और स्त्री प्रकृति से कोमल. तो वह एक सशक्त बाहुबल चाहती है जिस को वह अपना वजूद सौंप सके. ऐसे ही बाहुबल की चाहत में केशवी की तंद्रा टूटी और वह तन और मन दोनों से तरबतर हो गई. मैं यह क्या सोच रही हूं. मुझे समीर के बारे में खयाल में भी नहीं सोचना चाहिए. मुझे सुनील को अपनेआप को समर्पित करना है और अचानक उस की नजर घड़ी पर पड़ी. रात्रि के 3 बज चुके थे सुनील अब तक नहीं आए? आशंकाओं से घिरा उस का मन अचानक आहट सुनता है तो अपनेआप को संभालती केशू जैसे धड़कनों को भी सुना देगी.

रात के अंधेरे में ही मन की तहें खुलती हैं. कायनात के रोशन उजाले तो दिमाग को रोशन करते हैं. रात्रि यों तो स्याह होती है लेकिन जीवन पल्लवन इस स्याह रात्रि में ही होता है, मन मिले या न मिले तन के मिलन की यही बेला है. ऐसी बेला की आस में बैठी केशू को जब सुनील की गंध महसूस हुई तो भयभीत केशु मानो चीख पड़ेगी.

सुनील ने शराब पी रखी थी और उस ने केशू के मन को पढ़ना उचित नहीं सम?ा और सिर्फ तन को अनावरत कर वह केशू का पति बन गया.

बेसुध केशू की कब नींद लग गई उसे होश ही नहीं रहा.

बदहवास केशू सुबह उठी तो अपनेआप को व्यवस्थित करने लगी. अपनेआप पर गुस्सा आ रहा था कि ससुराल में पहला दिन और इतनी लेट? नींद को भी आज ही लगना था, सोच रही थी और जल्दबाजी में उस के हाथ से पानी का गिलास फैल गया. बेसुध पड़े सुनील को कुछ पता ही नहीं चला लेकिन डरीसहमी केशू ने पहले पानी समेटा फिर कमरे से बाहर जाने लगी. इतने में एक फ्लौवर पौट गिर गया और तेज आवाज हुई. सकपकाई कैशू ने पौट को सही किया और सुनील की ओर देखा. लेकिन सुनील तो गहरी नींद में था.

केशू ने घड़ी की ओर देखा सुबह के 9 बज चुके थे. केशू अपनी साड़ी और बाल संवार रही थी. इतने में दरवाजे की ठकठक ने केशू की सांसों को और तेज कर दिया. सोच रही थी, सब लोग मेरे लिए क्या सोच रहे होंगे. नवविवाहिता का ससुराल वालों से सामंजय वैवाहिक जीवन की महत्त्वपूर्ण कड़ी होता है और ऐसे में यदि शुरुआत ही सही नहीं हो तो स्थिति मुश्किल हो जाती है.

संस्कारी केशू रिश्तों को दिलों से बांधना चाहती थी लेकिन न चाहते हुए भी उस से गलती हो रही थी. उस ने जल्दी से अपना आंचल संभाला और केश बांधते हुए दरवाजे की ओर बढ़ने लगी सोच रही थी काश, सुनील उसे आ कर बांहों में भर ले और वह उस के आगोश में खो जाए. लेकिन सारी चाहते कहां पूरी होती हैं और बढ़ती सांस और बढ़ते कदम से केशू ने दरवाजा खोला.

नवविवाहिता केशवी देर से सोने के कारण सुबह उठने में भी लेट हो गई. ससुराल में पहला दिन और देर से उठना उस को अपनेआप में लज्जित कर रहा था. उस के कमरे का दरवाजा बजा तो वह बौखलाई सी बाहर आई. बाहर ननद सीमा को खड़े देख कर कुछ बोलती उस के पहले ही सीमा का व्यंग्यात्मक स्वर सुनाई दिया, ‘‘भाभी सुबह हो गई है. क्या भैया ने रातभर सोने नहीं दिया जो अब तक नहीं उठीं?’’

‘‘नहींनहीं वे मुझे,’’ लज्जा से गठरी बनी केशु संयत कंठ से मृदुता से बोली. फिर उस ने नई ससुराल में चुप रहना ही उचित समझो.

कमरे से आगे आई तो सासूमां ने थोड़े सख्त स्वर में कहा, ‘‘हम लोग जल्दी उठते हैं.’’

‘‘जी मम्मीजी,’’ केशू ने कंपित स्वर में कहा.

‘‘अरे बहू का आज पहला ही दिन है उसे चाय तो पिला देते,’’ ससुरजी के स्नेहसिंचित स्वर ने केशू की धड़कनों को कुछ राहत दी.

कहते हैं स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. पता नहीं क्यों वह उन कसौटियों पर अपनी बहू को भी परखना चाहती है जो उस ने स्वयं पास की होती हैं.

केशू ने अपनेआप को संयत करते हुए घर के लोग व कुछ मेहमानों से बातचीत की. वह बारबार अपने कमरे के द्वार की ओर देख रही थी कि सुनील उठ कर आ जाए.

करीब 12 बजे सुनील उठ कर कमरे से बाहर आया. आते ही उसे चाय दी गई. मां ने बड़े प्यार से बेटे को नाश्ता कराया. नवविवाहिता केशू कनखियों से अपने पति को देख रही थी. एक आस मन में कि सुनील उस के पास आएगा लेकिन कहते हैं न प्रेम नम हृदय में ही अंकुरित होता है. रिश्तों की बुनियाद हमेशा प्रेम ही होती है चाहे वह कैसा ही पाषाण हृदय हो जब प्रेम का अंकुरण हृदय में स्फुटित होता है तो जीवन को नए आयाम देता है. ऐसी नववधू प्रेम की आस लिए अपने घर वालों और पति के प्रेम में सिंचित हो जाना चाहती है.

मेहमानों के आवागमन में दिन बीता और हर किसी ने केशू के रूपसौंदर्य की प्रशंसा की. सभी ने नवदंपती को भरभर के आशीर्वाद दिए. ऐसे ही पहर बीतते गए और रात्रि भोजन का समय आ गया. केशू रात्रि भोजन के समय सुनील को तलाश रही थी लेकिन वह नजर नहीं आया.

नवविवाहिता केशू अपने पति के इंतजार में पलक पावड़े बिछा कर बैठी थी. जैसे ही सुनील के आने की आहट हुई वह चौकस हो गई. इंतजार की घडियां समाप्त हुईं और सुनील उस के शयनकक्ष में आया. वह अपना तन और मन दोनों समर्पित करना चाहती थी. सुनील के मन को भी पढ़ना चाहती थी लेकिन उस की सोच के विपरीत सुनील उस से औपचारिक बात कर के उस का पति बन जाता है. मानो केशवी के सारे सपनों पर पानी फिर गया हो. केशू जीवनसाथी के रूप में ऐसा साथी चाहती थी जो कुछ अपनी कहे और कुछ केशू की सुने. रात्रि के अंधकार में दोनों के मन की परतें खुलें लेकिन सारी चाहतें कहां मुकम्मल होती हैं.

केशू उच्च घराने की वधू तो बन गई थी लेकिन उस के ख्वाबों का शहजादा शायद नहीं मिला था. प्रात: जल्दी स्नान कर के वह कमरे से बाहर आ गई थी. वह कल की गलती को दोहराना नहीं चाहती थी. करीब सभी मेहमान घर से विदा हो गए थे. उस की ननद को उस का समान जमवाने की जिम्मेदारी दी गई थी. ननद ने जब भाभी की साड़ी देखी तो मुंह बना बर बोली, ‘‘भाभी, इतने लाइट शेड हम नहीं पहनते. आगे से शोख रंग खरीदना.’’

केशू मानो अपनेआप को दोष दे रही हो. फिर उस ने सासूमां को उस की मां के यहां से आई साड़ी दी तो सास का मुंह देख कर केशू तो पानीपानी हो गई,

‘‘अपनी मां को कहना ऐसी साड़ी मैं नहीं पहनती हूं.’’

केशू ने वह साड़ी तुरंत अपने समान में रख ली.

विवाह स्त्री के जीवन की नई शुरुआत होता है. यदि दोनों पक्षों का मेल न हो तो विवाहिता के लिए एक चुनौती हो जाती है. ऐसे में यदि पति का प्यार मिल जाए तो वह एक बूटी का काम करता है लेकिन इस प्यार से महरूम केशू का दम घुटने लगा था और वह जल्द से जल्द अपने मायके जाना चाहती थी.

अगले दिन उस का भाई और उस के मामा, बूआ के लड़के उसे लेने आ गए. केशू का मन मानो उड़ान भर रहा हो और वह जल्द से जल्द यहां से जाना चाहती थी.

आलीशान घर में अपनी बहन को देख कर उस के भाई भी खूब खुश नजर आ रहे थे. केशू के मायके जाने का समय भी आ गया और वह सुनील को देख रही थी. फिर सुनील नजर आया और उस ने हलकी सी मुसकान के साथ सुनील को देखा और फिर चल दी अपने भाइयों के साथ.

मायके जा कर केशू अपनी मां के गले मिली और उस की बेतहाशा रुलाई फूट पड़ी.

‘‘अरे पगली आज के समय में कोई ऐसे रोता है क्या?’’ उस के पापा ने उस के सिर पर स्नेहसिंचित हाथ फेरा.

मां की अनुभवी आंखें कुछ भांप गई थीं. भाई ने दीदी के आलीशान बंगले की तारीफ करते हुए कुछ माहौल को हलका करने की कोशिश की.

सांझ पड़े केशू कि सखियां उस से मिलने आईं और उस से मसखरी करते हुए उस के और जीजाजी के मध्य हुई बातचीत पूछने लगीं. लेकिन केशू और सुनील के बीच गिनेचुने ही संवाद हुए थे इसलिए केशू ने बात को टाल दिया.

केशू की बहन ने भी केशू से पूछा, ‘‘कैसी लगी हमारी बहना को ससुराल और पतिदेव?’’

केशू ने कहा, ‘‘सब अच्छा है.’’

मगर केशू का उदास चेहरा किसी से भी छिपा नहीं था.

‘‘दामादजी कल लेने आ रहे हैं,’’ केशू के पापा ने केशू की मम्मी से कहा और केशू की विदाई की तैयारी के साथ ही दामादजी के स्वागत की तैयारी भी जोरों से घर में होने लगी.

केशू का चेहरा सफेद पड़ रहा था. मां की अनुभवी आंखें समझ गई थीं कि दामादजी के आने का समाचार सुन कर केशू के चेहरे की तो रौनक बढ़नी चाहिए लेकिन केशू का चेहरा उदास क्यों? उन्होंने बेटी को कलेजे से लगा कर पूछा, ‘‘बिटिया सब ठीक तो है?’’

केशू की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘हां मां, सब ठीक है.’’

‘‘बेटी थोड़ीबहुत उन्नीसबीस तो हर घर में होती है तुझे ही दोनों कुलों की लाज रखनी है. ससुराल और मायके दोनों का सेतू है तू,’’ मां ने हिदायत भरे स्वर में कहा.

सुनील आ गया और उस का ससुराल में भव्य स्वागत किया गया. महंगे तोहफों के साथ केशू और सुनील को विदा किया गया.

केशवी मायके से विदा हो कर ससुराल में आ गई. सुनील का अजीब व्यवहार उसे परेशान कर रहा था. ससुराल में आ कर सासूमां भी उस के मायके से आए हुए समान में मीनमेख निकालने लगी तो केशू और  सहमी सी हो जाती है. ससुरजी का स्नेहसिंचित हाथ मानो रेगिस्तान में पानी की बूंद सा प्रतीत होता. ननद भी केशू की हमउम्र हो कर भी एक दूरी ही बनाए रखती थी.

रात्रि के नीरव पहर में केशू, निशिकर की ज्योत्सना में सुनील से घंटों बतियाना चाहती थी लेकिन सुनील का देर रात तक आना और कम बात करना केशू को बेचैन कर देता था.

विवाह सौंदर्य को निखार देता है लेकिन केशू दिनबदिन सूखती जा रही थी. एक दिन केशू सुबह उठने का प्रयास कर रही थी लेकिन उस का शरीर साथ नहीं दे रहा था, उसे बुखार महसूस हुआ. थर्मामीटर से नापा तो उसे तेज बुखार था, उस ने सुनील को जगाया लेकिन सुनील की बेरुखी बुखार से ज्यादा उस के मन की तपन बढ़ा गई. कुछ मरहम प्यार का, बीमार तन और मन दोनों को ठीक कर देता है लेकिन उपेक्षा ज्वर की तीव्रता को बढ़ा भी देती है.

कुछ समय बाद सासूमां केशू के कमरे में आई. थोड़ी देर रुक कर बोली, ‘‘सुनील इसे इस के मायके भेज दो. इस के मायके वाले ही इस का इलाज करवाएंगे.’’

सासूमां के शब्द सुन कर केशू के पैरों तले की जमीन खिसक गई. अविरल अश्रुधारा बहने लगी. रोतेरोते कब उस की आंख लग गई पता ही नहीं चला.

रात में सुनील कमरे में आया और बोला, ‘‘कल तुम्हें तुम्हारी मां के यहां छोड़ आता हूं.’’

सुन कर केशू ने कहा, ‘‘क्यों?’’

सुनील ने कहा, ‘‘वहीं तुम्हारा इलाज हो जाएगा और वहीं देखभाल भी हो जाएगी.’’

तीर की तरह लगने वाले शब्द केशू के अंतर्मन को भेद गए. वह सोच रही थी इस घर में वापस कदम रखना ही नहीं. वह रातभर सो नहीं सकी.

देर तक सोने वाला सुनील अल सुबह उठ गया और केशू को साथ ले जाने की तैयारी करने लगा. सासूमां के उलहानो से आहत केशू का मन सुनील के व्यवहार से तारतार हो गया.

केशू को यों अचानक आया देख केशू की मां आश्चर्यचकित हो गई. केशू की बेतहाशा रुलाई फूट पड़ी. सुनील की उपस्थिति ने संवादों को रोक रखा था लेकिन भावों का अविरल प्रवाह बह चुका था. भावहीन सुनील कुछ समय पश्चात वहां से रवाना हो गया.

केशू ने अपने मन का ज्वार हलका किया. तन के ज्वर से ज्यादा उस के मन का ज्वार ज्यादा उफान ले रहा था. पूरे घर में मानो सन्नाटा पसर गया होे.

हम भारतीय बेशक संस्कारों को आत्मसात किए हुए हैं लेकिन कहींकहीं हम इन्हें थोपना भी चाहते हैं खासकर समाज का डर हमारे लिए हमारे अपनो से बढ़ कर है. हम अपनी बेशकीमती वस्तु भी समाज की खातिर दांव पर लगा देते हैं.

केशू को उस के मांबाप ने यही सम?ाया, ‘‘बेटा, कुछ कमी हर घर में होती है. हम

तुम्हारा इलाज करवाएंगे. तुम ठीक हो जाओगी

तो वहीं जाना.’’

डाक्टर को दिखाया. केशू को बुखार के साथ पता चला वह गर्भ से है.

कहते हैं कुछ बंधन हम छोड़ भी नहीं सकते और उन्हें निभा भी नहीं सकते. केशू स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी. ऐसे में दूसरी जान का आ जाना उसे बेहद पीड़ादायक लग रहा था.

केशू स्वस्थ हुई तो उसे उस के भाई के साथ उस की ससुराल में भेजा गया. उम्मीद पर कायनात कायम है. केशू ने सोचा मेरा नहीं तो नए मेहमान के आगमन से मुझे इस घर में स्थान मिल जाएगा.

भावहीन सुनील को नए मेहमान के आगमन की कोई खुशी नहीं हुई. सिसकियां लेता केशू का मन उस बच्चे को ही दुनिया में नहीं लाना चाहता था लेकिन जन्म और मृत्यु तो जीवन के अटल सत्य हैं. धीरेधीरे सासूमां का शासन बढ़ता ही जा रहा था. सुनील की उपेक्षा भी केशू से छिपी नहीं थी. केशू का इस घर में दम घुटने लगा था. वह किसी भी कीमत में मायके जाना चाहती थी. वह अपना और अपने आने वाले बच्चे को भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाहती थी.

गर्भवती केशू अपने भाई के साथ अपनी ससुराल आ गई. वहां जब अपने पति सुनील को यह खबर सुनाई तो सुनील की बेरुखी केशू को और आहत कर देती है. उस की सास ने उस के आने के बाद कामवाली को भी हटा दिया. केशू की गर्भावस्था ऊपर से घर का काम और सब की बेरुखी केशू को अंदर तक ?ाक?ोर देती है. उस के सारे सपने कहीं खो गए. वह यहां रहना ही नहीं चाहती थी. घर का सारा काम करतेकरते वह थक जाती थी, वह सोचती थी सुनील एक आवरण ले कर जन्मा है. भावहीन आवरण जिस में प्यार का कोई स्थान नहीं. हम दोनों संग रहित साथी हैं जिस में दोनों निर्निमेष नत नयनों से साथ रात्रि बिता देते हैं.

एक दिन बरसात में रात्रि को बारिश हुई और निशीकर ने दर्शन दिए. उस यामिनी को देखने केशू ?ारोखे के पास जा बैठी. बारिश की सुगंध और ?ांगुरों की ध्वनि ने उस के मनोराज्य में एक प्रकार की अराजकता व्याप्त कर दी. वह सोच रही थी आज सुनील से फैसला करवा कर रहेगी. उस ने सुनील को उठाया उस समय सुनील निद्रालोक की सैर कर रहा था.

केशू ने कहा, ‘‘मैं यहां अब और नहीं रह सकती मेरा दम घुटता है यहां. आप मु?ो अपने होने वाले बच्चे की खातिर ही मुझे मेरे मायके छोड़ आओ.’’

सुनील ने कहा, ‘‘सुबह मां से बात करेंगे,’’ और वह सो गया.

चिरगमन के लिए प्रतीक्षित केशु भोर होने की प्रतीक्षा में रातभर सो नहीं पाई केशू सुबह के नित्यप्रति कार्य कर रही थी लेकिन उसे अपनी तबीयत सही नहीं लग रही थी. उस ने अपनी सासूमां से कहा तो उन्होंने कहा, ‘‘ऐसी तबीयत तो इस समय में यों ही चलती रहती है.’’

थोड़ी देर बाद केशु का बदन बुखार से तपने लगा तो उस ने सुनील से कहा. फिर केशु की सासूमां आई और बोली, ‘‘इस के इलाज के पैसे इस के मायके से मंगवा लो और कहो कि वे अपनी बेटी को ले जाएं. यहां कौन इस की सेवा करेगा.’’

केशू मानो चीख दे कर कहने को आतुर कि मायके से मेरे इलाज के पैसे क्यों आएंगे? लेकिन वह कुछ विद्रोह न कर सकी. सुनील की मूक सहमती उस का दर्द दोगुना कर रही थी.

फिर सुनील ने अपनी मां से केशु के जाने की बात की तो मां ने कहा, ‘‘इस को अभी छोड़ आओ. इस के मायके वाले ही इस का इलाज करवा लेंगे और वे ही इस की डिलिवरी करवा देंगे.’’

सुनील तो मानो रिमोट कंट्रोल रोबोट हो जिस का रिमोट मां के हाथ था. वह केशु को छेड़ने जाने की तैयारी करने लगा.

बुखार से तपन और तारतार हुआ केशू का मन अपनेआप को पूरा टूटा हुआ महसूस हो रहा था. उस का दिमाग शून्य हो गया और वह सुनील के साथ चल पड़ी.

मायके पहुंचते ही केशू को यों अचानक आया देख केशू की मां का मन आशंकाओं से घिर गया. वह कुछ न बोलते हुए स्थिति को भांप गई थी.

सुनील के जाने के बाद केशु ने सारा हाल कह सुनाया और कहा, ‘‘मैं उस घर में नहीं जाना चाहती.’’

मां ने आलिंगन कर के बेटी को समझाया कि कोई राह निकालेंगे.

समय अपनी गति से जा रहा था केशू का अधीर मन एक प्रतीक्षा में कि सुनील लेने आएगा. लेकिन वह नहीं आया और केशु के मां बनने का समय भी आ गया.

कुछ एहसास दिलों के होते हैं. नि:शब्द का नाद होता है जिसे हम सांसारिक सुख कहते हैं. इसीलिए ब्रह्मांड में संतानोत्पत्ति का कार्य स्त्रीपुरुष के संयोजन से ही किया है लेकिन जब केशु ने अपने समीप सुनील को नहीं पाया तो उस की मां बनने की सारी खुशी काफूर हो गई.

‘‘बेटा हुआ है,’’ दर्द की अनंत गहराई को महसूस कर के जब उस ने सुना तो केशू के चेहरे पर सौंदर्यमयी मुसकान आ गई.

नवजात का आलिंगन सूखी भूमि पर अमृत की मानिंद प्रतीत होता है.

सुनील और उस की मां बेटे को देखने आए. केशु उन के साथ जाना चाहती थी लेकिन जब दूरियां होती हैं संवादहीनता भी आ जाती है और कहनेसुनने का जरीया भी खत्म हो जाता है.

बेटे का नाम सृजन रखा था केशू ने. वह उस के साथ ही अपनी जिंदगी सृजित करना चाहती थी. 2 महीने का हो गया था सृजन तो केशू के मांबाप ने केशु को ससुराल भेजना मुनासिब सम?ा. हालांकि केशू वहां नहीं जाना चाहती थी. लेकिन वह वहां भी नहीं रहना चाहती थी.

फोन करने पर भी जब सुनील  नहीं आया तो केशू ने सुनील से अलग हो जाना बेहतर समझ लेकिन उस के पापा एक आखिरी सुलह करवाने के लिए अपनी बेटी को साथ ले गए.

केशू बोझिल मन से अपने पापा के साथ अपनी ससुराल चली गई. अपने बेटे की खातिर वह जीवन से समझौता करना चाहती थी. वह अपने शुष्क हृदय को ममता से तृप्त करना चाहती थी. उस के पापा उसे ससुराल छोड़ आए.

इतने बड़े घर में शादी होने के बावजूद केशू सारा काम हाथ से करती. नन्हा सृजन रोता रहता सासननद दोनोें केशू के काम में हाथ नहीं बंटातीं न ही नन्हे सृजन को लेतीं. सुनील की उदासीनता केशू की तकलीफ को असहनीय कर देती थी.

एक दिन सृजन की तबीयत खराब हो गई. केशू ने अपनी सासूमां को बताया तो बोली, ‘‘सृजन के इलाज के लिए अपने मायके चली जाओ वो ही इस का खर्चा भी उठा लेंगे.’’

आहत केशू का मन सिसकियां भर रहा था. उस ने कहा, ‘‘यह इस घर का वारिस है तो इस का इलाज भी यहीं होना चाहिए.’’

इस पर उस की सासूमां ने कहा, ‘‘बहुत जवान चलती है सुनील इस को अभी इस के घर छोड़ कर आओ.’’

केशू ने कहा, ‘‘मेरा घर तो यही है.’’

सुनील बोला, ‘‘नहीं तुम अपने घर ही रहो. अभी चलो,’’ और सुनील केशू को ले गया.

मायके पहुंच कर केशू ने अपने मांबाप से कहा, ‘‘मैं कभी उस घर में कदम नहीं रखूंगी. मेरा तलाक करवा दो.’’ केशू के पापा ने अब यही  बेहतर समझा और वकील से बात की.

जिंदगी कभी ऐसे मोड़ पर ले आती है कि हमें कड़े फैसले लेने ही पड़ते हैं. ऐसे ही मंझधार में खड़ी केशू को समाज की अवहेलना के साथ यहां भी सुनील की बेरुखी से भुगतना पड़ा. सुनील तलाक देने को भी तैयार नहीं था और रहना उस के साथ संभव नहीं था.

संकोची केशवी ने हिम्मत से काम लेते हुए तलाक का फैसला अटल रखा. केस लड़ती रही और उस ने एक स्कूल में नौकरी भी जौइन कर ली. नन्हा सृजन अपनी नानी के पास रह जाता. केशू स्कूल चली जाती.

करीब 1 साल केशू का केस चला और अंतत: फैसला केशू के पक्ष में हुआ और सुनील का तलाक हो गया.

केशवी अपने बेटे के सहारे जीवन जीना चाहती थी. उस की नीरस जिंदगी में वही आशा की किरण था. कहते हैं यह समाज भी हमें जीने न देता. केशू के पास अभी भी कोई भी रिश्ता ले कर आ जाता मानो केशू कोई बेनाम चिट्ठी हो जिसे हरकोई पढ़ना चाहता हो. केशू ने साफ इनकार कर दिया कि वह अकेले ही जीवन जीना चाहती है. उसे दोबारा शादी नहीं करनी.

एक दिन केशवी बाजार गई. वहां उसे एक चेहरा परिचित सा लगा लेकिन उस ने नजरअंदाज कर दिया. फिर एक परिचित आवाज आई, ‘‘केशु तुम?’’

अचानक समीर की आवाज सुन कर केशू की धड़कनें तेज हो गईं वह उस से बचना चाहती थी लेकिन उस की आवाज ने उस के दिल के तारों को ?ांकृत कर दिया. वह सहमी सी बोली, ‘‘हां में केशू.’’

‘‘तुम बहुत बदल गई हो सब ठीक तो है?’’ समीर ने पूछा तो केशू मानो वहां से भाग ही जाना चाहती थी. लेकिन उस ने औपचारिकता दिखाते हुए कहा कि हां सब ठीक है और वह जाने लगी तो समीर ने उस का फोन नंबर मांगा. नंबर दे कर केशू वहां से चल दी. उस ने समीर की खैरियत भी नहीं पूछी और वहां से भाग ली. घर आ कर वह सामान्य होने का प्रयास कर रही थी लेकिन रहरह कर उस के जेहन में समीर का चेहरा घूम रहा था.

समय का पहिया घूम रहा था. केशू का सुबह का समय स्कूल में और शाम सृजन के साथ व्यतीत हो जाती थी लेकिन एक खामोशी सी जिंदगी में पसार गई थी. वह सृजन के भविष्य को सुरक्षित करना चाहती थी.

एक दिन शाम को फोन की घंटी बजी. उधर से आवाज आई, ‘‘हेलो केशू, मैं समीर. तुम से मिलना चाहता हूं. प्लीज मना मत कहना. संडे को किसी कैफे में मिलते हैं.’’

केशू ने कहा, ‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से.’’

समीर ने कहा, ‘‘एक बार मिल लो. मैं इंतजार करूंगा.’’

केशू ने फोन रख दिया. लेकिन कुछ लमहे ऐसे होते हैं जिंदगी के जो जब भी मिलते हैं हलचल पैदा कर देते हैं.

केशू उस फूल के समान हो गई जिस पर भ्रमर आ बैठा हो, वह उस भ्रमर को बुलाना भी चाहती है और उसे ही वह उड़ा भी रही है.

रविवार का दिन था सुबह फोन की घंटी बजी तो जैसे केशू के दिल की वीणा झंकृत हो गई हो. एक प्रतीक्षित फोन जिस की केशू उम्मीद कर ही रही थी.

‘‘मैं समीर, तुम शाम को आ रही हो न कैफे में.’’

केशू ने कहा, ‘‘हां.’’

कभीकभी दिल के जज्बात दिमाग पर प्रभावी हो जाते हैं. अत: बिना समय गंवाय केशू ने स्वीकृति दे दी.

जख्म कितना भी गहरा हो. दिल कब तक अपने अंतस की अंतर्मुखी बातें खुद में छिपाए रहता? केशू ने समीर से मिलना ही बेहतर समझा.

एक अरसे के बाद केशू ने अपनेआप को दर्पण में निहारा. फिर करीने से तैयार हो कर बेटे को अपनी मां को देते हुए कहा, ‘‘मां, मुझे अपनी फ्रैंड से मिलने जाना है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ मां ने कहा.

दोनों नियत समय पर आ गए. समीर ने कौफी और्डर की. फिर पूछा, ‘‘कैसी चल रही है तुम्हारी मैरिड लाइफ?’’

केशू ने कहा, ‘‘सब खत्म हो गया. मेरी लाइफ में तो एक बेटा है. अब सबकुछ वही है.’’

‘‘कुछ डिटेल में बताओगी? मैं जानना चाहता हूं?’’ समीर ने कहा.

‘‘मैं अतीत को भूल जाना चाहती हूं. वर्तमान मैं ने तुम्हें बता दिया है. तुम बताओ अपनी लाइफ के बारे में?’’

‘‘शादी नहीं की,’’ समीर ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘क्यों?’’ केशू ने हैरानी से पूछा.

‘‘प्यार अनंत है. फिर दिल जिसे चाहे, दिल को जो भा जाए, फिर चाहे लाख समरंगी, समरूपी चीजें हों पर दिल किसी अन्य को चाहता ही नहीं है.

‘‘लंबे समय से अकेलेपन की आज जा कर समाधि टूटी जब तुम्हारे द्वार पर आज दिल ने दस्तक दी है. मैं तुम से विवाह करना चाहता हूं. तुम स्वीकार करो या अस्वीकार. मरजी तुम्हारी है.’’

‘‘कैसी बात करते हो समीर. मैं तलाकशुदा, समाज से अवहेलित तुम इतने बड़े अफसर और कुंआरे… तुम्हारे लिए तो लड़कियों की कतार लग जाएगी,’’ फिर मैं ने कहा न कि मेरा भविष्य तो मेरा बेटा है. तुम्हें नए सिरे से अपनी वैवाहिक जिंदगी शुरू करनी चाहिए. तुम मेरे साथ अपना भविष्य क्यों खराब करना चाहते हो?’’ केशू ने लंबी सांस भरते हुए कहा.

‘‘बात दिलों की है, नि:शब्द के नाद की है, अनंत की अनंत से पुकार है. इस में मैं कर भी क्या सकता हूं?

‘‘मानता हूं और सम?ाता भी हूं कि तुम्हारा शादी का अनुभव अच्छा नहीं रहा. लेकिन जिंदगी रुकने का नाम तो नहीं. एक नई शुरुआत करनी ही पड़ती है. हर काली रात के बाद उजली सुबह आती है. एक नूतन सवेरा तुम्हारे सामने बांहें फैला कर खड़ा है. मेरे दिल के दरवाजे तुम्हारे लिए सदैव प्रतीक्षारत रहेंगे,’’ समीर ने कहा.

‘‘मुझे समय चाहिए. मैं अतीत, वर्तमान और भविष्य में सामंजस्य नहीं बैठा पा रही हूं. मैं सृजन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकती,’’ केशू ने कहा.

‘‘सृजन आज से मेरा बेटा है. मैं उसे किसी तरह की परेशानी नहीं होने दूंगा. तुम विश्वस्त रहो केशू.’’ समीर ने केशू का हाथ पकड़ लिया. वह उन हाथों को हमेशा के लिए अपने हाथों में लेना चाहता था.

‘‘मुझे कुछ समय चाहिए,’’ कह कर केशवी ने समीर से विदा ले ली.

समीर आंखों से ओझल होने तक उसे देखता रहा.

घर आ कर केशू ने सब से पहले नन्हे सृजन को गले से लगाया और वह बहुत जोरजार से रोने लगी. वह सोच रही थी कि ममता बेमानी नहीं हो सकती. वह अपनी खुशी की खातिर सृजन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकती. कशमकश में पलता केशू का मन और मन के कई हिस्से हुए जा रहे थे. एक तरफ ममता का आंचल, एक तरफ समाज और एक तरफ मृदु समीर का आर्द्र स्पर्श जो उसे पुकारता है. समीर का अनंत प्यार. अनंत इंतजार. छू लेता है केशू का मन. इसी ऊहापोह में उस की नींद लग जाती है.

सुबह जब नींद खुलती है तो फिर वही कुरुक्षेत्र बना उस का मन. सब पहलुओं को विचारने लगा. उस के अंतस की आवाज आई कि समाज को तो मुझे दरकिनार कर ही देना चाहिए बल्कि मुझे एक सुरक्षाकवच मिलेगा. सृजन को भी एक पूर्णता मिलेगी. सुनील जैसे व्यक्ति के लिए क्या अफसोस जैसे अपनी कटी पूंछ के लिए नहीं रोती गोधिका, जानती है नियत है उस का पुन: बढ़ जाना. ऐसे ही मुझे सारे असमंजस त्याग कर समीर को हां कह देनी चाहिए.

नित्यप्रति के काम निबटा कर केशू स्कूल चली गई. वहां भी उस का मन एक बेचैनी महसूस करता रहा. शाम को जब घर लौट कर आई तो उस ने सोचा अपने मांपिताजी से बात कर ली जाए.

संकोची केशू ने हिम्मत जुटा कर सारी बात अपने मांपिताजी को बताई तो मां ने कहा, ‘‘बेटा, समीर हमारी बिरादरी का भी नहीं तो लोग क्या कहेंगे. तुम्हारा एक फैसला हमारे परिवार की इज्जत धूमिल कर देगा.’’

मगर केशू के पिता केशू का अकेलापन महसूस कर रहे रहे. वे केशू की आंखों में समीर के लिए प्यार भी देख रहे थे. अत: उन्होंने कहा, ‘‘जो लड़का केशू को इतना प्यार करता है, जिस ने शादी ही नहीं कि वह हमारी केशू को जान से ज्यादा प्यार करेगा.’’

फिर थोड़ी देर रुक कर उन्होंने केशू की मां से कहा, ‘‘रही बिरादरी की बात तो सुनील हमारे समाज का ही लड़का है फिर भी उस ने रिश्तों को नहीं समझा रिश्ते और प्यार किसी जाति से नहीं बंधे. वे तो हर इंसान का अपना व्यक्तित्व है. हमें देर न करते हुए अपनी केशवी का हाथ समीर के हाथों में सौंप देना चाहिए.’’

केशवी की मां को भी यह बात कुछ सही लगी. फिर कहा, ‘‘सृजन का क्या होगा?’’

तब केशू नू कहा, ‘‘समीर ने कहा है सृजन आज से उस का ही बेटा है.’’

सुन कर केशवी की मां का मन खुशी से प्रफुल्लित हो गया. वो अपनी बेटी की वीरान जिंदगी में बहार देखना चाहती थी.

अगले दिल सुबह केशवी के पापा समीर से मिलने गए. समीर की सौम्यता और व्यावहारिकता केशू के पिता के दिल को छू गई. उन्होंने कहा, ‘‘समीर, मैं अपनी केशू का हाथ आप के हाथों में सौंपना चाहता हूं.’’

समीर ने कहा, ‘‘आज मेरी चिर प्रतीक्षा खत्म हुई. केशू और सृजन आज से मेरे जीवन का हिस्सा हैं.’’

केशू के पापा ने घर लौट कर सब को खुशखबरी सुनाई. लंबी उदासी के बाद एक बार फिर घर में खुशी की लहर दौड़ गई.

सादगीपूर्ण तरीके से दोनों का विवाह हुआ. नन्हा सृजन भी विवाह का हिस्सा था.

सुहाग सेज पर बैठी केशू समीर को अपने पास पा कर छुईमुई हुई जा रही थी.

समीर ने कहा, ‘‘अपने नाम के अक्षर पहन में तुम्हारा आलिंगन करता हूं. तुम्हारे बिना मेरा जीवन क्षितिज की भांति था जिस का कोई अस्तित्व नहीं. तुम्हें पा कर आज मुकम्मल हुआ हूं मैं.’’

केशवी ने कहा, ‘‘काश, हम पहले मिल पाते.’’

समीर ने कहा, ‘‘अतीत का कोई मलाल न करो. कब किस को मिलना है यह हम तय नहीं करते. कुछ कम कुदरत अपने हाथ में ही रखती है.’’

केशवी जैसे अपनी पूर्णता को प्राप्त कर गई हो.

Hindi Love Stories : स्वीकृति नए रिश्ते की

Hindi Love Stories : परफ्यूम की लुभावनी खुशबू उड़ाता एक बाइकचालक सुमेधा की बिलकुल बगल से तेजी से गुजर गया.

‘‘उफ, गाड़ी चलाने की जरा भी तमीज नहीं है लोगों में,’’ सुमेधा गुस्से में बोली. उस की गाड़ी थोड़ी सी डगमगाई, लेकिन किसी तरह बैलेंस बना ही लिया उस ने.

वाकई रोड पर जबरदस्त ट्रैफिक था. अगर वह बाइक वाला फुरती से न निकला होता, तो आज 2 गाडि़यों में टक्कर हो ही जाती. शाम के समय कलैक्ट्रेट के सामने के रास्ते पर भीड़ बहुत बढ़ जाती है. धूप ढलते ही लोग खरीदारी करने निकल पड़ते हैं और फिर औफिसों के बंद होने का समय भी लगभग वही होता है.

थोड़ी दूर पहुंची थी सुमेधा कि वह बाइकचालक उस की बाईं ओर फिर से प्रकट हो गया और रुकते हुए बोला, ‘‘सौरी मैडम.’’

‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ सुमेधा हलकी सी खीज के साथ बोली. फिर बुदबुदाई कि अब यह क्या तुक है कि बीच रास्ते रुक कर सौरी बोले जा रहा है.

‘‘सौरी तो बोल दिया न आंटी,’’ सुमेधा ने आवाज की तरफ नजर उठा कर देखा तो बाइक की टंकी पर बैठी नन्ही सी बच्ची भोलेपन से उस की ओर ही देख रही थी.

‘सुबोध,’ हां सुबोध ही तो था वह, जो उस बच्ची की बात सुन कर उसे ही देख रहा था.

‘‘पापा, आंटी अभी भी गुस्से में हैं. आंटी ने क्या बांधा है?’’ सुमेधा को नकाब की तरह दुपट्टा बांधे देख कर बच्ची फिर से बोली.

‘‘बेटा, मैं गुस्से में नहीं हूं. अब जाओ,’’ इतना कह कर सुमेधा फुरती से आगे बढ़ गई.

घर पहुंची तो उस पर अजीब सी खुमारी छाई हुई थी. आज सालों बाद स्कूल के दिन याद आने लगे. सारी सखियां मिल कर कितनी अठखेलियां किया करती थीं. पता नहीं 11वीं में नए विषय पढ़ने की उमंग थी या उम्र के नए पड़ाव का प्रभाव, सब कुछ धुलाधुला और रंगीन लगता था. डाक्टर बनना सपना था उस का. इसी सपने को पूरा करने के लिए वह पढ़ाई में जीजान से जुटी हुई थी. सभी शिक्षिकाएं सुमेधा से बहुत खुश थीं, क्योंकि विज्ञान के साथसाथ साहित्य में भी खास दिलचस्पी रखती थी वह. हिंदी में उस का प्रदर्शन गजब का था.

उस की चित्रकला में रुचि होने की वजह से उस की फाइलें भी अन्य सहपाठियों के लिए उदाहरण बन गई थीं. किसी भी शिक्षिका को जब अच्छी फाइलें बनाने की बात विद्यार्थियों को बतानी होती, तो वे सुमेधा की फाइलें मंगवा लेतीं.

‘‘कोएड स्कूल में मत पढ़ाओ इसे. लड़कियां बिगड़ जाती हैं,’’ मां ने ऐडमिशन के समय बाबूजी से कहा था.

‘‘तुम चिंता मत करो. देखना, हमारी बेटी ऐसा कोई काम नहीं करेगी. यह तो हमारा नाम रौशन करेगी,’’ बाबूजी ने सुमेधा के पक्ष में निर्णय सुनाया था.

सिर झुका कर बैठी सुमेधा ने बाबूजी के शब्दों को दिमाग में अच्छी तरह बैठा लिया था. स्कूल में वह लड़कियों के ही ग्रुप में रहती थी. हालांकि सहपाठी लड़कों से थोड़ीबहुत बातचीत हो जाती थी, लेकिन वह उन से कटीकटी ही रहती थी. कई लड़के उस के इस व्यवहार से उसे घमंडी कहते या फिर उस की कठोरता को देख कर बातचीत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.

एक दिन सुमेधा के एक सहपाठी रमेश ने उस के नाम प्रेमपत्र लिख कर नोटबुक में रख दिया. पत्र किसी तरह नंदिनी के हाथ में पड़ गया तो क्लास की सारी लड़कियां सुमेधा को छेड़ने से बाज नहीं आईं.

‘‘लाली, तुम बनती तो बड़ी भोली हो, लेकिन एक दिन यह गुल खिलाओगी हमें पता न था,’’ नंदिनी गंभीर स्वर में बोली तो सारी लड़कियां हंस पड़ीं.

सुमेधा आगबबूला हो गई और उस ने तुरंत रमेश का प्रेमपत्र प्रिंसिपल के समक्ष प्रस्तुत कर दिया. उस के बाद रमेश की ऐसी पेशी हुई कि भविष्य में स्कूल और कोचिंग के किसी भी लड़के का सुमेधा के सामने कोई प्रस्ताव रखने का साहस ही न हुआ.

लड़कों के ग्रुप में अकसर कहा जाता कि झांसी की रानी के आगे न जाना, नहीं तो अपनी जान से हाथ धोने पड़ सकते हैं.

इस घटना के बाद सुमेधा ने स्वयं को पढ़ाई में व्यस्त कर लिया. सुमेधा और नंदिनी में गहरी छनती थी. दोनों के व्यक्तित्व बिलकुल अलगअलग नदी के 2 किनारों की तरह थे, लेकिन एकदूसरे से प्यार की तरल धारा दोनों को जोड़े रखती थी. सुमेधा जहां शांत सरोवर की तरह थी, वहीं नंदिनी बरसात में उफनती हुई नदी की तरह थी. दोनों की पारिवारिक स्थितियों में भी जमीनआसमान का अंतर था. सुमेधा सरकारी स्कूल के टीचर की बेटी थी, तो नंदिनी एक बिजनैसमैन की बेटी. नंदिनी का सुबोध के प्रति आकर्षण किसी से छिपा नहीं रह सका था, लेकिन किताब का कीड़ा कहे जाने वाले सुबोध की नंदिनी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हां, अनु और मनोज, प्रीति और रजत आदि कई जोडि़यां बन गई थीं स्कूल में, जो आगे चल कर साथसाथ पढ़ने और उस के बाद सैटल होने पर एकदूजे का हो जाने के सपने देखा करती थीं.

एक बार बायोलौजी की लैक्चरर सारिका ने बातों ही बातों में कह दिया, ‘‘यह तुम लोगों के पढ़नेलिखने की उम्र है. बेहतर है कि रोमांस का भूत अपनेअपने दिमाग से उतार दो.’’

क्लास के भावी जोड़ों ने सारिका मैडम को खूब कोसा. उन की बात में छिपे तथ्य को वे अपरिपक्व मस्तिष्क नहीं समझ पाए थे.

‘कितने सुहाने दिन थे वे,’ सुमेधा मुसकराते हुए सोचने लगी.

सुमेधा बालकनी में आ गई. गुनगुनाते हुए सामने के ग्राउंड में खेलते बच्चों को देखना उसे बहुत अच्छा लग रहा था. आज सुमेधा को न जाने क्या हो गया था. न उस ने हवा में उड़ते केशों को संवारने की कोशिश की, न उड़ान भरने को आतुर दुपट्टे को हमेशा की तरह काबू में करने का प्रयत्न.

‘‘बिट्टू, चाय ले ले,’’ मां की आवाज सुनते ही सुमेधा चौंक गई जैसे किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो.

‘‘अरे मां, मैं अंदर ही आ जाती,’’ सुमेधा कुछ झेंपते हुए बोली.

‘‘तो क्या हुआ. दिन भर तो तुम भागदौड़ करती रहती हो. इसी बहाने मैं भी थोड़ी देर ताजा हवा में बैठ लूंगी,’’ मां ने कुरसी खींच ली और चाय की चुसकियां लेने लगीं.

सुमेधा भी बेमन से कुरसी पर बैठ गई. आज किसी से भी बात करने का मन नहीं हो रहा था उस का. दिल चाह रहा था कि वह अकेली रहे. किसी से बात न करे.

‘‘बिट्टू, आज तो तू बड़ी खुश दिख रही है. तुझे ऐसा देखने के लिए तो आंखें तरस जाती हैं,’’ मां बोलीं.

‘‘नहीं मां ऐसा कुछ नहीं है,’’ कह बात टाल गई सुमेधा.

रात को सोने लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. वह लुभावनी खुशबू और तरल आवाज जेहन को सराबोर किए जा रही थी. लेकिन एक पल बाद सुमेधा ने रोमानी विचारों को झटक दिया. सुबोध, जिसे आज वर्षों बाद देखा, अब किसी और की अमानत है. उसका इस तरह की कल्पनाएं करना भी गलत है. और वह अबोध बच्ची कितनी प्यारी है. कौन होगी उस की मां? अब तो पुराने परिचय के तार कहां रहे, जो किसी से संपर्क कर के पूछताछ की जा सके. पुराने साथी न जाने कहां गुम हो गए. एक नंदिनी थी, लेकिन वह भी दिल्ली चली गई और गई भी ऐसी कि पीछे सुध लेने का होश तक न रहा. वह खुद भी तो एक नए लक्ष्य को पाने के लिए किसी तीरंदाज की तरह भिड़ गई थी. 1-2 बार पत्रों का आदानप्रदान कर दोनों ने अपनेअपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली और संपर्क के सूत्र ओझल होते गए.

‘‘बाबूजी, मां, यह देखिए मैं फौर्म ले आई,’’ सुमेधा आंगन से ही चिल्लाते हुए घर में घुसी और बाबूजी के सामने सोफे पर बैठ गई.

कुछ पल बाबूजी खामोश रहे, फिर एकएक शब्द सोचते हुए बोलने लगे, ‘‘बेटी, तुम्हारी जिद की खातिर बायोलौजी सब्जैक्ट तुम्हें दिला दिया था. लेकिन मैं तुम्हें ज्यादा से ज्यादा बी.एससी. करा सकता हूं. डाक्टरी कराने की हैसियत नहीं है मेरी.’’

बाबूजी की बेबस आवाज आज भी कानों में गूंजती रहती है. बाबूजी की हैसियत सुमेधा से छिपी कहां थी, लेकिन यौवन की उमंगों ने उन्हें अनदेखा कर कई सपने पाल लिए थे.

‘‘बाबूजी, आप ने मेरे सपने तोड़े हैं. मैं आप को कभी माफ नहीं करूंगी,’’ सुबकते हुए सुमेधा ने कहा और पी.एम.टी. प्रवेश परीक्षा के फौर्म के टुकड़ेटुकड़े कर हवा में उछाल दिए.

‘‘मुझे समझने की कोशिश कर बेटी,’’ बाबूजी के अंतिम शब्द थे वे. उस के बाद उन्हें लकवा मार गया, जो उन की वाणी ले गया.

‘‘सौरी बाबूजी, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था. आप अपनेआप को संभालिए बाबूजी, मुझे नहीं बनना डाक्टर. मां तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?’’ न जाने क्याक्या कह गई सुमेधा, लेकिन तीर कमान से निकल कर सुनने वाले को जख्मी कर चुका था और वह जख्म लाइलाज था.

उस दिन के बाद तो सुमेधा की जिंदगी ही बदल गई. उस ने बी.ए. में दाखिला ले लिया.

परिचित कई बार हंसी भी उड़ाते, ‘‘अरे डाक्टर बनना हर किसी के बूते की बात नहीं. 2 साल साइंस पढ़ कर ही पसीने छूट गए, तभी तो आर्ट्स कालेज में अपना नाम लिखवा लिया है.’’

सुमेधा ऐसी बातों को अनसुना कर जाती. अब घर के 3 प्राणियों की जिम्मेदारी भी उसी की थी. उस ने पार्टटाइम जौब कर ली. बाबूजी की थोड़ी जमापूंजी और मां के गहने कितने दिन काम आते. बी.ए. की परीक्षा में वह पूरी यूनिवर्सिटी में अव्वल आई. बाबूजी की खुशी से चमकती आंखें देख सुमेधा की आत्मग्लानि कुछ कम होने लगी. फिर एम.ए., पीएच.डी. और कालेज में लैक्चररशिप. कालेज में जौब के बाद उसे महसूस हुआ कि अब कुछ विराम मिला है भटकती हुई जिंदगी को. लेकिन इस प्रयत्न में उम्र का पक्षी फरफर करता हुआ 32वें वर्ष की दहलीज पर पहुंचा गया.

बाबूजी उस के सैटल होते ही एक दिन खुली आंखों से उसे आशीर्वाद देते हुए चल बसे जैसे सुमेधा को सक्षम और सफल देखने के लिए ही उन के प्राण अटके पड़े थे.

अब सुमेधा और मां 2 ही प्राणी बचे थे घर में. 1-2 बार उस के विवाह की बात चली, लेकिन सुमेधा ने शर्त रख दी, ‘‘मां भी विवाह के बाद मेरे साथ ही रहेंगी.’’

धन के लालची युवक एक बूढ़े जीव को दहेज के रूप में अपनाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, इसलिए ऐसे भागते जैसे गधे के सिर से सींग. धीरेधीरे 35वें साल तक पहुंचतेपहुंचते सुमेधा ने जीवनसाथी की आस को तिलांजलि दे दी. लेकिन आज की घटना ने उसे अच्छी तरह वाकिफ करा दिया कि चाहे वह ऊपर से कितनी भी कठोर क्यों न बने, एक साथी की आकांक्षा उसे अब भी है. कोमल भावों के अंकुर अब भी उस के हृदय की मरुभूमि में फूटते हैं.

सोचतेसोचते उसे नींद आ गई. सुबह उठ कर फिर कालेज जाने का रूटीन चालू हो गया.

एक दिन शाम को मां के साथ पास के ही गार्डन में टहलने गई, तो वहां बाइकचालक की उसी प्यारी बच्ची को देख कर खुद को रोक न सकी. पूछा, ‘‘बेटी, कैसी हैं आप?’’

‘‘आप कौन हैं आंटी?’’ बच्ची ने भोलेपन से पूछा.

‘‘मैं वही, उस दिन वाली आंटी, जिस ने चेहरे पर स्कार्फ बांधा था.’’

बच्ची कुछ देर सोचती रही, फिर प्यार से मुसकरा दी.

सुमेधा का मातृत्व उमड़ पड़ा. बच्ची

के गाल थपथपा कर बोली, ‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए?’’ बच्ची

द्वारा किए गए प्रश्न पर सुमेधा खिलखिला कर हंस पड़ी.

फिर बच्ची ‘‘पापापापा…’’ चिल्लाते हुए सुबोध को खींच लाई.

उसे देख कर चौंक पड़ा सुबोध, ‘‘अरे, सुमेधा तुम?’’

‘‘पापा, ये तो वही आंटी हैं जिन को हम ने सौरी कहा था.’’

‘‘उस दिन तुम्हीं थीं, आई मीन आप ही थीं?’’

‘‘ठीक है, मुझे तुम भी कह सकते हो,’’ सुमेधा मुसकराते हुए बोली.

सुबोध कुछ झेंप सा गया.

‘‘नमस्ते डाक्टर साहब. बच्ची को घुमाने लाए हैं?’’

‘‘अरे मांजी आप भी यहां, अब कैसी तबीयत है आप की?’’

‘‘तुम लोग एकदूसरे को पहचानते हो?’’

सुबोध कुछ हंसते हुए बोला, ‘‘दरअसल, हम सभी लोग एकदूसरे को जानते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि हम एकदूसरे को जानते हैं.’’

‘‘पापा, पापा, आप क्या बोल रहे हो मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है,’’ बच्ची मासूमियत से बोली तो तीनों हंस पड़े.

सुबोध जान गया कि बुजुर्ग महिला जो 4 दिन पहले इलाज के लिए आई थीं, सुमेधा की मां हैं और सुमेधा भी जान गई कि मां जिन डाक्टर साहब का बखान करते हुए नहीं थक रही थीं, वह डाक्टर साहब और कोई नहीं, बल्कि सुबोध ही है.

मां ने तुरंत सुबोध को घर आने का निमंत्रण दे डाला. परिचय की कडि़यां कुछ इस तरह जुड़ीं कि सारे दायरे खत्म होते से नजर आने लगे. सुबोध की बेटी कनु सुमेधा को चाहने लगी थी. बिन मां की बच्ची कनु पर सुमेधा का प्यार कुछ ज्यादा ही उमड़ता था. एक दिन सुमेधा, कनु के जिद करने पर सुबोध के घर गई. वहां नंदिनी की तसवीर पर फूलों की माला देख कर सुमेधा का चेहरा फक पड़ गया. आंखें डबडबा आईं.

‘‘क्या नंदिनी ही…?’’

‘‘हां.’’

सुमेधा सोफे पर बैठ गई. अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था उसे.

कुछ ही देर में सुबोध 2 कप कौफी बना लाया. प्याला थामते हुए बड़ा असहज महसूस कर रही थी सुमेधा. कनु पड़ोस के घर में खेलने चली गई थी.

कौफी पीते हुए सुबोध कह रहा था, ‘‘एम.बी.बी.एस. करने के बाद दिल्ली में ही एक अस्पताल में मैं ने प्रैक्टिस चालू कर दी थी. नंदिनी के मौसाजी हमारे डिपार्टमैंट के हैड थे. उन्हीं की पहल पर हमारी शादी हो गई. मेरे ख्वाबों में तो कोई और ही बसी थी. मैं राजी नहीं था, लेकिन मां की जिद के आगे मेरी एक न चली.

‘‘नंदिनी बहुत प्यारी लड़की थी, लेकिन मेरे स्वभाव के बिलकुल विपरीत. हम लोगों के दिल ज्यादा जुड़ नहीं पाए. उसे हर वक्त मुझ से शिकायत रहती थी कि मैं उसे समय नहीं देता हूं, उस के साथ शौपिंग पर और पार्टियों में नहीं जाता हूं. उस के शौक कुछ अलग ही थे मुझ से. न वह मुझे समझ पाई और न मैं उसे संतुष्ट कर पाया. सोचा था, बच्चे के आने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन डिलीवरी में ही कौंप्लिकेशन पैदा हो गया. लाख कोशिशों के बावजूद हम नंदिनी को बचा नहीं पाए. तब से मैं ही मां और बाप दोनों की भूमिका निभा रहा हूं कनु के लिए,’’ कहतेकहते सुबोध का गला रुंध गया.

किन शब्दों में सांत्वना देती सुमेधा. बड़ी देर तक बुत बनी बैठी रही.

‘‘मैं तो सोच भी नहीं सकती कि नंदिनी अब इस दुनिया में नहीं है. और इस मासूम कनु का क्या कुसूर है जो इसे बिन मां के रहना पड़ रहा है,’’ कहते हुए सुमेधा की आवाज कांप रही थी.

वह जैसे ही उठने को हुई, सुबोध की आवाज ने चौंका दिया, ‘‘तुम चाहो तो कनु को मां मिल सकती है.’’

‘‘मैं समझी नहीं?’’ उस ने चौंक कर पूछा.

‘‘कई दिनों से पूछना चाह रहा था सुमेधा मैं… मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’’

‘‘सुबोध, क्या कह रहे हो तुम? कुछ होश है तुम्हें?’’

‘‘मैं तो होश में हूं, लेकिन निर्णय तुम्हें लेना है,’’ सुबोध मुसकराते हुए अधिकार भाव से बोला.

सुबोध का अधिकार भाव से भरा स्वर सुमेधा को अपने अहं पर प्रहार सा ही लगा. उस का अप्रत्याशित सवाल सुमेधा के दिल में हलचल मचा गया. वह फिर सोफे पर बैठ गई.

‘‘मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. अभी मैं कुछ नहीं कह सकती,’’ न चाहते हुए भी सुमेधा के स्वर में हलकी सी कड़वाहट घुल गई.

‘‘ठीक है, आखिर फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ सुबोध कोमलता से बोला.

घर वापस आई तो देखा मां अपने काम में व्यस्त थीं. सुमेधा मन ही मन बोली, ‘अच्छा हुआ, नहीं तो तरहतरह के सवालों से हैरान कर देतीं मुझे. पता नहीं कैसे मेरे मन की थाह मिल जाती है मां को.’

कुरसी पर बैठी सुमेधा के सामने टेबल पर दूसरे दिन के लैक्चर से संबंधित किताब थी, लेकिन दिल जरा भी नहीं लग रहा था. उसे एकएक पंक्ति पढ़ना भारी लग रहा था.

‘मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’ आखिर सुबोध के यह पूछने का मतलब क्या है? क्या मेरा अपना कोई अस्तित्व नहीं? क्या सहचर की आवश्यकता सुबोध को नहीं है या सिर्फ अपनी बेटी के लिए मां की प्राप्ति से उस की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाएगी? मैं कनु की मां बन सकती हूं, तो तुम्हारे जीवन में मेरा क्या स्थान होगा? लगता है, सुबोध अभी भी नंदिनी को भुला नहीं पाया है. साथ ही, उस के मन में बिन मां की कनु को देख कर अपराधभाव भी है. तभी तो उस ने प्रस्ताव अपने विवाह का नहीं, बल्कि कनु की मां बनने का रखा है. पर मेरी मां का क्या होगा? उस का तो इस दुनिया में कोई भी नहीं. कल अगर मैं विवाह के लिए हामी भर देती हूं, इस शर्त पर कि मां शादी के बाद मेरे साथ ही रहेगी, तो क्या सुबोध स्वीकारेगा इसे?

तरहत रह के सवालों ने सुमेधा के दिमाग को मथ दिया. दूसरे दिन अनमने भाव से वह कालेज पहुंची. क्लास में रोज की तरह उमंग और उत्साह नहीं था. थोड़ी ही देर में सिरदर्द का बहाना बना कर उस ने लड़कियों को फ्री कर दिया. कुछ ही पलों में सारी लड़कियां चहकती हुई चली गईं.

‘‘भई, आज हमारी संयोगिता कहां खोई है?’’ अनीता की जोशीली आवाज ने स्टाफरूम में बैठी सुमेधा का ध्यान भंग कर दिया. यों तो उम्र में वह सुमेधा से 3-4 साल बड़ी और सीनियर भी थी, फिर भी सुमेधा को अपने दोस्ताना व्यवहार की वजह से हमउम्र भी लगती थी.

‘‘रिलैक्स यार, किसी बात का इतना टैंशन ले लेती हो तुम कि पूछो मत. और तुम्हें टैंशन में देखती हूं न, तो मेरी भी तबीयत बिगड़ने लगती है,’’ अनीता, सुमेधा के कंधे पर हाथ रखते हुए बड़ी अदा से बोली.

अनीता की बात सुन कर सुमेधा की हंसी छूट गई.

‘‘आ गईं वापस मैडम आप?’’

‘‘हां बच्चू. तुम्हें तनहा छोड़ कर मैं कहां जाऊंगी?’’

‘‘मजाक छोड़ो यार. मैं अभी मजाक के मूड में बिलकुल नहीं हूं,’’ सुमेधा गंभीरता से बोली.

‘‘अभी क्या, तुम तो कभी भी मजाक के मूड में नहीं होतीं. क्यों संयोगिता, मैं ने कुछ गलत तो नहीं कहा?’’

‘‘यह क्या संयोगितासंयोगिता लगा कर रखा है?’’ सुमेधा परेशान हो कर बोली.

‘‘भई, जब हमारे पृथ्वीराज तुम पर जान छिड़कते हैं, तो तुम संयोगिता ही हुईं न,’’ अनीता मसखरी करती हुई बोली.

अनीता सुबोध की मुंहबोली बहन थी और उस से भी बढ़ कर दोस्त और सलाहकार. और जब से उसे सुबोध और सुमेधा के पूर्व परिचय के बारे में पता चला था वह दोनों का मेल कराने में बड़ी उत्सुक थी. कनु की प्यारी बातों और सुमेधा के प्रति उस के स्नेह ने, उस की इस चाहत को और बढ़ा दिया था. एक बार तो वह सुमेधा की मां के सामने ही यह किस्सा छेड़ बैठी. उन्होंने अनीता की बात सुनी तो उन्हें जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. लेकिन सुमेधा ने अपने स्वाभिमान का वास्ता दे कर मां को कभी भी यह बात करने से रोक दिया.

लेकिन सुमेधा मां के मन और उस के प्यार भरे दिल की हसरतों को कैसे रोकती?

एक दिन फिर वे यह बात करने लगीं तो वह बोली, ‘‘मां, बातचीत करना एक बात है और घरपरिवार बसाना दूसरी. पहले भी तुम 2-3 लड़कों को देख चुकी हो न, जो मेरी नौकरी के आकर्षण से शादी के लिए राजी हुए थे. लेकिन शादी के बाद तुम्हारे भी साथ रहने की बात सुन कर ऐसे गायब हुए कि दोबारा शक्ल न दिखाई.’’

‘‘मेरा क्या देखती है तू? मैं तो अकेली भी रह लूंगी,’’ मां सहमते हुए बोलीं.

‘‘तुम्हें अकेला छोड़ कर शादी करना इतना जरूरी नहीं है, मेरे लिए. और हां, यह

बात आज के बाद इस घर में नहीं होगी,’’ सुमेधा ने कड़े स्वर में मां की जबान पर ताला लगा दिया.

अनीता से विदा ले कर सुमेधा घर की तरफ रवाना हुई तो विचारों के चक्र में उलझी हुई थी. उसे जब होश आया, तब तक उस का स्कूटर विपरीत दिशा से तेज गति से आती कार की चपेट में आ चुका था. टक्कर होते ही सुमेधा उछल कर रोड पर जा गिरी.

राहगीरों ने सहारा दे कर उसे उठाया. फिर जब सामान्य हुई तो उसे आटोरिकशा में बैठा कर रवाना कर दिया. स्कूटर को पास ही के गैराज में खड़ा कर दिया.

मां सुमेधा को देखते ही सुधबुध खो बैठीं. बमुश्किल अपनेआप को संभाल कर उन्होंने सब से पहले सुबोध को ही फोन लगाया.

‘‘बेटा, सुमेधा का ऐक्सिडैंट हो गया है. आप जल्दी आ जाओ.’’

सुबोध आते ही बोला, ‘‘क्या हो गया? किस से भिड़ गईं?’’ फिर मां की तरफ पलट कर बोला, ‘‘चलिए मांजी, मेरे दोस्त डा. आकाश का क्लीनिक पास ही है. मैडम की ड्रैसिंग करवा लाते हैं.’’

सुमेधा मंत्रमुग्ध सी दोनों के साथ चलती रही. कब चलते हुए उस ने सुबोध का सहारा लिया और ड्रैसिंग कराते वक्त दर्द बढ़ने पर कब उस का हाथ थाम लिया, ध्यान न रहा. लेकिन इन लमहों ने अपनों के महत्त्व से

सुमेधा को परिचित करवा दिया. आज मां अकेली होतीं तो क्या करतीं? कोई न कोई मदद तो कर ही देता, लेकिन ऐसा अपनत्व भरा सहयोग, मदद का हाथ मिलना क्या संभव था?

शाम को सुबोध कनु को ले आया. सुमेधा को देख कर कनु उस से लिपट गई. सुमेधा असहनीय दर्द से कराह उठी. सुबोध ने आहिस्ता से कनु को अलग कर के बैठाया.

‘‘बेटा, आंटी को चोट लगी है न, उन को परेशान नहीं करना,’’ सुबोध ने समझाते हुए कहा.

‘‘ठीक है, पापा. पापा, आंटी को दवा दो न.’’

‘‘हां बेटा, दवा देंगे.’’

‘‘अगर आंटी ने नहीं ली तो?’’ कनु ने मासूमियत से पूछा.

‘‘तो हम उन से कुट्टी कर लेंगे,’’ सुबोध मुसकरा कर बोला.

सुबोध की बात सुन कर कनु और मां खिलखिला कर हंस पड़ीं. माहौल में ताजगी भरी खुशबू फैल गई.

रात खाना खा कर सो गई सुमेधा. सुबह उठ कर देखा तो मां और सुबोध बतिया रहे थे. दोनों की आंखों के लाल डोरे बता रहे थे कि उन्होंने रात जाग कर काटी है. इस का मतलब सुबोध घर वापस नहीं गया. यानी कल से क्लीनिक भी बंद ही है. कोई किसी अपने के लिए ही ये सब कर सकता है. मैं बेकार की शंका में फंसी रही.

सुमेधा को जागा हुआ देख कर मां लपक कर आ गईं और सहारा दे कर बैठाया. हाथ और पैर की चोटों में दर्द बराबर बना हुआ था. मां सुमेधा को सहारा दे कर मुंह धुला लाईं. तब तक सुबोध चाय और बिस्कुट ले आया. कनु होमवर्क करने में व्यस्त थी. बगल के कमरे से उस के पढ़ने की आवाज आ रही थी. थोड़ी देर बाद कनु उन के पास पहुंच गई.

सुबोध बोला, ‘‘मांजी, अब मैं इजाजत चाहूंगा. कनु को तैयार कर स्कूल भेजना है और मेरे मरीज राह देखते होंगे. हां, मैं शाम को आऊंगा. अच्छा सुमेधा, मैं चलूं?’’

‘‘ठीक है, बाय कनु बेटा,’’ मां और सुमेधा ने दोनों को विदा दी.

शाम को 4 बजे अनीता कालेज से सीधे सुमेधा से मिलने चली आई.

‘‘मैं बोलती थी न, बेकार की चिंता मत पालो. कहां ध्यान रहता है और कैसे गाड़ी चलाती हो तुम?’’ अनीता आते ही बनावटी रोष में बरस पड़ी.

‘‘देखो, मेरा तो वैसे ही बुरा हाल है. तुम मुझे और तंग मत करो,’’ सुमेधा धीमी आवाज में बोली.

6 बजे तक सुबोध भी कनु को ले कर आ गया. बूआ को देख कर कनु चहक उठी.

अनीता बोली, ‘‘हम अपनी कनु बिटिया को अपने घर ले जाएंगे.’’

‘‘नहीं, जब तक आंटी ठीक नहीं हो जातीं हम कहीं नहीं जाएंगे,’’ कनु इतराते हुए बोली और सुमेधा के गले लग गई.

कनु का प्यार देख कर मां, सुबोध और अनीता की आंखें गीली हो गईं. सुमेधा भी इस से अछूती नहीं रह पाई.

‘‘चलिए मांजी, नाश्ते की तैयारी करें. चलो कनु, तुम भी हमारी हैल्प करो,’’ अनीता मांजी और कनु को किचन में ले गई.

सुबोध पास की कुरसी खींच कर बैठते हुए बोला, ‘‘सुमेधा, पता नहीं उस दिन की मेरी बात का क्या मतलब निकाला तुम ने. आज तुम्हारे लिए एक खास चीज लाया हूं. और हां, अनीता ने मुझे सब बता दिया है. मांजी की जितनी चिंता तुम्हें है, उतनी ही मुझे भी. यदि तुम ने इस नए रिश्ते को स्वीकार किया तो मांजी को अपने साथ पा कर मुझे बेहद खुशी होगी. तुम्हारे बाबूजी की असमय बीमारी और उन के गुजरने के बाद इतने सालों की तपस्या से तुम ने जिस स्वाभिमान की शिला को रचा है, मैं उसे भी ठेस नहीं पहुंचाना चाहता. हां, उस शिला में कोई दरवाजा निकल सके तो मैं और कनु जरूर उस से गुजर कर तुम्हारे करीब पहुंचना चाहेंगे.’’

सब सुन कर सुमेधा सिमट सी गई.

सुबोध ने एक पुरानी डायरी उस की ओर बढ़ा दी.

पहले ही पन्ने पर लिखी थी छोटी सी कविता-

‘‘सरस्वती कहूं तुम्हें कि तुम्हें मैं परी कहूं

कह दो तुम्हीं क्या मैं तुम्हें सुंदरी कहूं.

तुम को कुंतला पुकारूं या कहूं शकुंतला

या फिर तुम को मैं कादंबरी कहूं.

चित्रा कहूं या सुमित्रा चंदा या सितारा

अथवा सावित्री सत्य से तुम्हें भरी कहूं.’’

नीचे लिखा था- सुमेधा के लिए, जो इन पंक्तियों को कभी नहीं पढ़ेगी. उस में तारीख थी उस साल की जब वे 12वीं कक्षा में थे.

डायरी बंद कर सुमेधा ने सुबोध की ओर देखा. फिर हौले से बोली, ‘‘सुबोध, सुमेधा ने अपने लिए लिखी पंक्तियों को पढ़ लिया है,’’ और अपनी स्वीकृति देते हुए सुबोध के हाथों को अपनी हथेलियों में छिपा लिया.

उस पल दर्द के बावजूद सुमेधा के चेहरे पर मुसकान थी, नए रिश्ते को अपना कर मिली मुसकान. सुबोध की आंखों में खुशहाल परिवार के सपने झिलमिलाने लगे.

Best Family Drama : अपने हिस्से की धूप

 Best Family Drama : कुहरे में लिपटी एक नई सुबह नए जीवन में नूपुर का स्वागत कर रही थी. खेतों की तरफ किसान राग मल्हार गाते चले जा रहे थे. गेहूं और सरसों की फसलें फरवरी की इस गुलाबी ठंड में हलकीहलकी बहती शीतल, सुगंधित बयार के स्पर्श को पा कर खिलखिलाने लगी थीं. नूपुर की आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं. इन सब के बीच 2 मन आपस में चुपकेचुपके कार की पहली सीट पर लगे बैक मिरर में एकदूसरे को देख आंखों ही आंखों में बतियाने  का प्रयास कर रहे थे. शरीर थकान से टूट रहा था, विदाई का मुहूर्त सुबह का ही था. ससुराल में पहला दिन था उस का. टिटपुट रीतिरिवाजों के बाद उसे कमरे में बैठा दिया गया था. उस की आंखें उनींदी हो रही थीं. कितने दिन हो गए थे उसे मन भर सोए हुए. सोती भी कैसे घर रिश्तेदारों से जो भरा हुआ था.

‘‘नूपुर. सो जा वरना चेहरा सोयासोया लगेगा. फोटो अच्छे नहीं आएंगे,’’ कहते सब जरूर थे पर कैसे? इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था. जिसे देखो वही हाथ में ढोलक ले कर उस के सिर पर आ कर बैठ जाता.

‘‘इन्हें देखो महारानी की खुद की शादी है और यह फुर्रा मार कर सो रही हैं. अरे भाई शादीब्याह रोजरोज थोड़े होता है. अभी मजे ले लो फिर तो बस यादें ही रह जाती हैं.’’

मन मार कर उसे भी शामिल होना ही पड़ता. अभी तो ससुराल के रीतिरिवाज बाकी थे.

उस ने खिड़की के बाहर झंक कर देखा, सड़कें सो रही थीं और वह जाग रही थी. दबेदबे पांवों से वह हौलेहौले एक नई जिंदगी में प्रवेश कर रही थी. एक ही मासमज्जा से बने हर इंसान की देह में एक अलग खुशबू होती है जो उसे दूसरों से अलग करती है. शायद घरों की भी अपनी एक देह और एक अलग खुशबू होती है जो उन्हें दूसरों से अलग करती है. नूपुर इस खुशबू से बिलकुल अपरिचित और अनजान थी. उस के घर खुशबू उस के पीहर से बिलकुल अलग थी जिसे उसे अपनाना और अपना बनाना था.

‘‘अरे भई कोई अपनी भाभी का सामान कमरे में पहुंचा दो,’’ सासूमां ने आवाज लगाई.

नूपुर की आंखें तेजी से अपने सामान को ढूंढ़ रही थीं. कल रात से 15 किलोग्राम का लहंगा पहनेपहने अब तो उस का शरीर भी जवाब देने लगा था. कितने शौक से लिया था उस ने.

‘‘जितना तेरा खुद का वजन नहीं है जितना लहंगे का है. कैसे संभालेगी?’’ पापा ने चिंतित स्वर में कहा था.

‘‘अरे पापा लेटैस्ट फैशन है.’’

‘‘लेटैस्ट… यह भी कोई रंग है. मरामरा सा रंग लाई हो. अरे लेना ही था तो लालमैरून लेती, दुलहन का रंग. तुम्हारी मां ने भी अपनी शादी में लाल रंग की साड़ी पहनी थी,’’ पापा ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘अब ये सब रंग कौन पहनता है… यह एकदम लेटैस्ट और ट्रैडी कलर है. आलिया भट्ट ने भी यही रंग अपनी शादी में पहना था.’’

‘‘वे सब हीरोइनें हैं, कुछ भी पहनें सब अच्छा लगता है पर अपने समाज में तो दुलहन का रंग वही सब माना जाता है.’’

‘‘पापा शादी कोई रोजरोज थोड़ी होती है.’’

‘‘मैं भी तो नहीं कह रहा हूं कि शादी रोजरोज होती है. कम से कम शादी के दिन सुहाग का रंग तो पहनना चाहिए.’’

‘‘इतना महंगा लहंगा सिर्फ एक दिन के लिए तो नहीं खरीद सकती थी. ऐसा रंग लिया है कि आगे भी यूज में आ जाए,’’ नूपुर ने दलील दी.

‘‘सुन रही हो नूपुर की मां तुम्हारी बिटिया की पंचवर्षीय योजना है. यहां जिंदगी का भरोसा नहीं और यह आगे तक की योजना बना कर चल रही है.’’

मम्मी चुपचाप बापबेटी की चिकचिक सुनती रही. जानती थी कुछ भी बोलने का कोई फायदा नहीं है. अभी आपस में लड़ेंगे, बहस करेंगे और फिर खुद ही एक हो जाएंगे और वह विलेन बन कर रह जाएगी.

तभी किसी के कदमों की आहट से नूपुर का ध्यान टूटा. उस के दोनों देवर हाथ में ब्रीफकेस ले कर कमरे में घुसे.

‘‘कितना भारी है भाभी, पत्थर भर कर लाई है क्या?’’

नूपुर मुसकरा दी. क्या कहती महीनों से खरीदारी की थी. कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर सामान इकट्ठा किया था. उस ने तेजी से सामान को

गिनना शुरू किया. 3 ब्रीफकेस, 1 एअर बैग और 1 वैनिटी बैग और वह गुलाबी वाला ब्रीफकेस. वह नदारद था. पापा से कहा तो था कि उसे भी अपने साथ ले कर जाएगी. जीवन की नई शुरुआत हुई थी, हर तरह के रंग और स्वाद से भर गई थी उस की जिंदगी. सबकुछ तो ले कर आई थी वह पर क्या सबकुछ पीछे बहुत कुछ छूट गया था.

‘‘भैया एक पिंक कलर का ब्रीफकेस भी होगा.’’

‘‘पिंक?’’

छोटे देवरों के चेहरे पर शरारत उभर आई,

‘‘आप को भी पिंक कलर पसंद है? वह तो पापा की परियों को पसंद होता है?’’

‘‘तुम लोग फिर से शुरू हो गए,’’ मम्मीजी ने दोनों की मीठी ?िड़की देते हुए कहा.

‘‘भाभी. उस पर बार्बी डौल बनी हुई थी क्या?’’

‘‘हांहां वही. देखा क्या आप ने?’’ उस की आंखों में जुगनू चमक उठे.

‘‘कब से पूरे घर में टहल रहा था समझ ही नहीं आ रहा था कि पता नहीं किस का सामान भाभी के सामान के साथ चला आया है.’’

‘‘जी, वह मेरा ही है,’’ नूपुर ने संकुचाते हुए कहा.

वे दोनों उस भीड़ में कहीं खो गए और थोड़ी देर में अलादीन के चिराग की तरह उस का वह पिंक ब्रीफकेस ले कर हाजिर हो गए.

‘‘यह लीजिए आप की अमानत और कोई आदेश?’’ दोनों ने सीने पर हाथ रख बांएं पैर को पीछे मोड़ सिर को हलका सा झुका कर बड़ी अदा से कहा.

‘‘भाभी को बड़ा मक्खन लगाया जा रहा है. इन की सेवा करोगे तभी तुम्हारा कल्याण होगा,’’ सिद्धार्थ ने कमरे में घुसते हुए कहा.

वैसे तो सिद्धार्थ से शादी से पहले नूपुर की 2-4 बार ही मुलाकात और टेलीफोन पर बातें हुई थीं पर उन अनजान चेहरों के बीच नूपुर को वह चेहरा बहुत अपना सा लगा.

‘‘अपनी भाभी को कुछ खाने को पूछा या बस बातें ही बना रहे हो,’’ सिद्धार्थ ने शेरवानी उतारते हुए कहा, ‘‘इन से बातें बनवा लो, काम धेले भर का नहीं करते.’’

मम्मीजी ने कहा, ‘‘नूपुर तुम जल्दी से नहा लो. मेहमानों का आना शुरू हो जाएगा, कुछ रीतिरिवाज भी करने हैं और यह मायके से जो तुम्हारे लिए सामान आया है उसे भी दो.’’

‘‘क्या मां आप से कहा था न मुझे यह सब पसंद नहीं. उस का सामना है, किसी से क्या मतलब है. नूपुर के घर वालों ने दिया उस ने लिया, उस से हमें क्या?’’ सिद्धार्थ के चेहरे पर नाराजगी साफ झलक रही थी.

नुपुर चुपचाप मांबेटे की बहस सुन रही थी. ‘‘बात तुम्हारी पसंद या नापसंद की नहीं, परंपरा की है. तुम्हारी दादी और बूआ को तुम्हारी बातें समझ आएंगी. कौन नूपुर से कुछ ले लेगा, बस मान देने की बात है. नूपुर तुझे कोई दिक्कत तो नहीं? यह तो कुछ समझता ही नहीं. चार अक्षर क्या पढ़ लिए मां को ही पढ़ाने लगे.’’

नूपुर ने मम्मीजी की आवाज में एक खलिश महसूस की थी. वह समझ नहीं पा रही थी. वह अपनी नईनवेली सास और नएनवेले पति के बीच फंस गई थी.

‘‘नूपुर, इस की छोड़ इसे दुनियादारी समझ नहीं आती. तू तो समझदार है तुझे कोई दिक्कत तो नहीं?’’

‘‘जी कोई बात नहीं,’’ नूपुर ने मद्धिम स्वर में कहा.

सिद्धार्थ नूपुर के इस फैसले से कुछ खास खुश नजर नहीं आ रहा था. बोला, ‘‘जो मन में आए करो फिर मुझ से कोई कुछ मत कहना.’’

‘‘नूपुर मैं सब को इसी कमरे में बुला लूंगी, तुम नहाधो कर तैयार हो जाओ. रात में रिसैप्शन भी है. सिद्धार्थ तू मेरे कमरे में नहा ले, बहू को तैयार होने दे,’’ मम्मीजी कमरे से बाहर जाने लगी, तभी उन्हें कुछ याद आया. बोली, ‘‘आज दिनभर पूजापाठ और रीतिरिवाज में ही निकल जाएगा. हलवाई को अभी सब का नाश्ता बनाने में समय लगेगा. तुम कुछ खा लो, तुम्हारे लिए चायनाश्ता भेजती हूं.’’

‘‘जी,’’ नूपुर ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

अब कमरे में सिद्धार्थ और नूपुर ही रह गए थे. उस की चूडि़यों की खनखनाहट के अलावा कोई आवाज नहीं आ रही थी. नूपुर ने पर्स खोला और ब्रीफकेस की चाबी निकाली.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’ सिद्धार्थ ने कहा.

नूपुर कुछ कहती उस से पहले ही सिद्धार्थ ने ब्रीफकेस उठा कर बैड पर रख दिया. नूपुर ने ब्रीफकेस खोला और घाटचोला की साड़ी, उसी का मैचिंग ब्लाउज और पेटीकोट निकाला. फिर उस ने धीरे से सिद्धार्थ की ओर देख कर वाशरूम पूछा.

सिद्धार्थ ने उंगली से इशारा किया. वाशरूम से ताजा पेंट और सीमेंट की खुशबू आ रही थी. उस ने वाशरूम में कदम बढ़ाया ही था कि सिद्धार्थ ने पीछे से आवाज दी, ‘‘एक मिनट रुको,’’ सिद्धार्थ ने उस का रास्ता रोक लिया और वाशरूम में घुस गया, ‘‘नूपुर इधर आओ यह गीजर का पौइंट है, यहां से औन होगा.’’

सबकुछ नयानया सा लग रहा था जिसे नूपुर को अपना बनाना था. नया टूथपेस्ट, 2 टूथब्रश, शैंपू, तेल की शीशी, क्रीम, कपड़े धोने और नहाने के नए साबुन के पैकेट. उस ने हाथ में पकड़े शैंपू और साबुन के पैकेट को अपने कपड़ों में छिपा लिया, मैं ने 1-1 चीज याद करकर के रखी है. ससुराल में किस से मांगने जाएगी, खुद इंतजाम कर के चलो. धीरेधीरे जब समझ में आने लगेगा, तब मंगवा लेना.’’

मां ने 1-1 चीज वैनिटी बौक्स में कितने जतन से सजो कर रखी थी. मां को याद कर उस का मन भारी हो गया. नए घर में अपना कहने वाला कोई नहीं था पर उन नए लोगों को अब अपना बनाना था.

‘‘तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, मैं भी नहा कर आता हूं. कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लेना कोई तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करेगा,’’ सिद्धार्थ ने बड़ी सहजता से कहा.

नूपुर के चेहरे पर एक मुसकान आ गई. उस ने दरवाजा बंद करने के लिए ऊपर की ओर हाथ बढ़ाया. वहां चिटकनी नहीं थी. ओह, आदत भी कितनी खराब चीज है… नूपुर तू ससुराल में है उस ने आप से कहा. सागौन की पौलिश से दरवाजे पर औटोमैटिक लौक लगा हुआ था. एक, दो और तीन उस ने 3 बार उस के कान उमेठ दिए और बैड पर आ कर बैठ गई. कितनी देर से गला सूख रहा था. रात में खाना खाते वक्त ही पानी पीया था. उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई, बैड के सिरहाने जग और स्टील के

2 गिलास उलटे रखे थे. बहुत तेज प्यास लगी थी. उस ने गिलास को झट से भर लिया और होंठों को तेजी से लगाया. जितना तेजी से उस ने होंठों को गिलास से लगाया था उतनी ही तेजी से उस ने गिलास से हटा भी लिए. उस के चेहरे का रंग बदल गया था, ‘‘कैसा स्वाद है इस का.’’

2 घूंट पानी पीने के बाद नूपुर ने गिलास वैसे ही छोड़ दिया. जीवन के साथसाथ अब उसे उस पानी के साथ भी एडजस्ट करना था. उस ने कपड़े समेटे और वाशरूम की ओर बढ़ गई.

नूपुर ने वाशरूम में कपड़े टांगने के लिए खूंटी ढूंढ़ी, किसी नामी कंपनी की रैक वाली स्टील की खूंटी टाइल्स पर चमचमा रही थी. ऊपरी हिस्से पर नरम, नए और मुलायम 2 तौलिए रखे थे. उसे अपना वाशरूम याद आ गया, बुध बाजार से वह पूरे घर के वाशरूम के लिए कार्टून और दिल के आकार की कई चिपकाने वाली खूंटियां ले आई थी तब पापा ने कितना डांटा था, ‘‘ताड़ की तरह बड़ी हो गई पर अभी बचपना नहीं गया. तुम ही लगाओ अपने वाशरूम में कीड़ेमकोड़े वाली खूंटियां हमारे लिए तो ये स्टील वाली ही ठीक हैं.’’

न जाने क्या सोच कर नूपुर की आंखें मुसकराने लगीं. अब सिद्धार्थ की पसंद ही उस की पसंद है. एक अपरिचित लड़के का हाथ पकड़ेपकड़े वह दूसरे संसार में प्रवेश कर गई थी इस उम्मीद के साथ कि अब जीवन भर उस के साथ रहना है. उस के सुख और दुख मेरे होंगे और मेरे सुख और दुख उस के  वह शावर के नीचे खड़ी हो गई. शावर की तेज धार से उस के मनमस्तिष्क की सारी उलझनें सुलझती चली गईं.

अब यही घर उस का है. अब इस घर में ही उसे रहना है और इस घर को भी उस घर की तरह अपनाना, सजाना और संवारना है. कमरे में ड्रैसिंग टेबल रखी थी. उस पर गिनती का कुछ सामान था. उस के चेहरे पर मुसकान आ गई. सिद्धार्थ भी और लड़कों की तरह ही थे. एक महीन दांत वाली कंघी, एक डिओड्रैंट, क्रीम और तेल की शीशी उन के वैनिटी बौक्स के नाम पर बस इतनी ही जमा पूंजी थी.

वह सोच रही थी कि शृंगार के नाम पर उस ने न जाने कितनी चीजें जुटाई थीं इन 6 महीनों में. लिपस्टिक के न जाने कितने शेड और न जाने कितने प्रकार थे. उस की पिटरिया में लिक्विड, मैट, पैंसिल, क्रीम बेस्ड. इसी तरह कंघियां भी विभिन्न प्रकार और साइज की थीं. महीन दांत वाली, बाल सुलझने के लिए चौड़े दांत वाली ब्रश, रोलर और नोक वाली.

नूपुर ने ड्रैसिंग टेबल के शीशे के सामने अपनेआप पर एक भरपूर नजर डाली. मांग में लाल सिंदूर चमक रहा था. कितनी सुंदर दिख रही थी वह शायद यह सिंदूर का ही कमाल था. खिड़की पर मोटेमोटे परदे पड़े थे. नूपुर ने इधरउधर देखा और परदे को खींच कर एक तरफ कर दिया. खिड़की के शीशों पर हलकी गुलाबी धूप चमक रही थी. उस ने हाथों का दबाव दे शीशे को पीछे की तरफ धकेल दिया. शायद खिड़कियां काफी दिनों से नहीं खुली थीं.

कमरे की खिड़कियों को खोल उस ने धूप को आने दिया जैसे वह अपने हिस्से की धूप को इकट्ठा कर लेना चाहती हो. कहीं न कहीं जिंदगी का फलसफा भी तो नहीं है. खुशियां भी तो कुछ ऐसी ही होती हैं अपनेअपने हिस्से की खुशियां. उस ने एक गहरी सांस ली और साफ हवा को अपने मनमस्तिष्क में भरने दिया. कितनी अलग थी इस कमरे की दीवारें एकदम शांत नए रंगरूटों की तरह जिन की उंगलियां कुछ करने को छटपटा रही हों.

नूपुर ने दीवारों पर हाथ फेर कर अपनेपन की खुशबू को महसूस करने की कोशिश की. कितना अलग था उस का यह कमरा उस के पीहर के कमरे से. उस ने औनलाइन अपने कमरे की दीवार के लिए स्टिकर मंगवाए थे. पिंजरे से निकल कर उड़ती ढेर सारी चिडि़यांएं. अजीब सी खुशी मिलती थी उसे उन्हें देख कर. पापा हमेशा कहते हैं लड़कियां भी तो चिडि़यों की तरह होती हैं. एक दिन उड़ जाती हैं. तू भी उड़ जाएगी इन की तरह छत पर रेडियम के चमकते सितारे अंधेरे में कितने टिमटिमाते थे मानो खुले आसमान के नीचे सो रहे हों. कभीकभी लगता जैसे वह खुली आंखों से सपने देख रही हो.

नूपुर ने एक गहरी सांस ली. पीछे बगीचा था. हलवाई के बरतनों के आवाज उसे अब साफसाफ सुनाई दे रही थी. उस ने खिड़की को खुला ही रहने दिया और परदों को खींच कर हलका बंद कर दिया.

तभी दरवाजे पर किसी ने धीरे से खटखटाया, ‘‘नूपुर… नूपुर.’’

‘‘कौन?’’ नूपुर ने पूछा और यह सवाल कर के वह खुद ही अचकचा गई. वह इस वक्त सिद्धार्थ के घर में थी और वह उन्हीं से पूछ रही थी.

‘‘नूपुर मैं हूं सिद्धार्थ,’’ एक भारी आवाज आई. आवाज में नूपुर के लिए हक था.

‘‘जी, आती हूं,’’ वह खुद ही कह कर शरमा गई, उस ने अपनेआप को समझाया कि अब उसे इन सब चीजों की आदत डालनी होगी.

‘‘तैयार हो गई तुम?’’ सिद्धार्थ ने एक भरपूर नजर उस पर डाली. उस की आंखों में ऐसा कुछ था कि नूपुर की आंखें नीचे गईं.

‘‘ये परदे किस ने खोल दिए?’’ सिद्धार्थ का ध्यान परदों की ओर गया.

‘‘वह बड़ा स्फोकेशन हो रहा था. मैं ने खिड़कियां खोल दी थीं. औक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रौस वैंटिलेशन भी तो जरूरी है. मुझे उलझन होने लगती है,’’ नूपुर एक सांस में बोल गई.

‘‘तुम दोनों तैयार हो गए? लो जल्दीजल्दी नाश्ता कर लो दादी और बूआजी तुम लोगों को पूछ रही थी,’’ मम्मीजी हाथ में चायनाश्ते की ट्रे ले कर कमरे में घुसीं, ‘‘कुछ हुआ है क्या? तुम दोनों ऐसे शांत क्यों खड़े हो?’’

‘‘कुछ नहीं मम्मी नूपुर को बंद कमरे में उल?ान हो रही थी. उस ने खिड़की खोल दी, कह रही थी औक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रौस वैंटिलेशन भी तो जरूरी है. उसे उलझन होने लगती है.’’

मम्मी ठहाका मार कर हंस पड़ी, ‘‘अब इस घर में एक नहीं 2 लोग हो गए खिड़की खोल कर सोने वाले मैं और नूपुर.’’

नूपुर को मांबेटे की बात समझ नहीं आ रही थी.

‘‘जानती हो नूपुर सिद्धार्थ और उस के पापा को खिड़की खोलना बिलकुल पसंद नहीं कहते हैं बाहर का शोर अंदर आता है. मुझे तो बंद कमरे में बिलकुल नींद नहीं आती. लगता है सांस घुट रही है. अब तो तेरी बीवी भी मां के रंग में रंगी आ गई है. अब तू क्या करेगा सिद्धार्थ?’’ मम्मी मंदमंद मुसकरा रही थी और उन की बात सुन नूपुर भी मुसकराने लगी.

‘‘चलो अब समय बरबाद मत करो और जल्दी से नाश्ता कर लो. तेरी बूआ और दादी भी उठ गए हैं. तुम लोग कमरा ठीक कर लो. मैं भी काम देख कर आती हूं, हलवाई ने नाश्ता बनाना शुरू किया या नहीं.’’

‘‘मम्मी आप ने नाश्ता किया या नहीं. अभी बीपी लो हो जाएगा, तबीयत खराब हो जाएगी,’’ सिद्धार्थ के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ पढ़ी जा सकती थीं.

‘‘सुन रही हो नूपुर इस की बात. अभी पूरा घर मेहमानों से भरा पड़ा है और सब से पहले मैं ही नाश्ता करने बैठ जाऊं लोग क्या कहेंगे.’’

सिद्धार्थ ने मम्मीजी का हाथ पकड़ कर उन्हें जबरदस्ती अपने पास बैठा लिया, ‘‘कोई कुछ नहीं कहेगा. नूपुर तुम भी जल्दी से नाश्ता कर लो. मम्मी तुम भी साथ खा लो, कौन देखने आ रहा है सब सो रहे हैं.’’

मम्मीजी ने कैशरोल से पोहा निकाल कर प्लेट में परोस दिया और सिद्धार्थ ने चाय का प्याला नूपुर की ओर बढ़ा दिया. नूपुर बैड के एक कोने में बैठ चाय पीने लगी.

‘‘चाय ठीक बनी है न? मीठा ज्यादा तो नहीं हो गया? इतना सामान फैला हुआ है कुछ मिल ही नहीं रहा था.’’

‘‘जी ठीक है मैं थोड़ा चीनी हलकी पीती हूं,’’ कहने को तो नूपुर ने कह दिया पर वह कशमकश में पड़ गई कि पता नहीं उसे यह बात कहनी भी चाहिए थी या नहीं. मम्मी ने कितनी बार समझाया था वह ससुराल है कुछ भी मुंह में आए तो बोल मत देना पर वह भी तो आदत से मजबूर थी. कहने से पहले एक बार भी नहीं सोचती.

‘‘ओह? मुझे पता नहीं था बेटा दूसरी बना देती हूं.’’

‘‘नहींनहीं आंटीजी. इस की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘आंटी नहीं मम्मी कहना सीखो,’’ मम्मीजी की आवाज में एक मनुहार के साथ एक आदेश भी था. नूपुर का चेहरा उतर गया. बोली, ‘‘मुश्किल है पर धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी,’’ मां के अलावा कभी किसी को मां नहीं कहा तो़…’’ मां को याद कर उस की आंखें सजल हो आईं.

‘‘समझ सकती हूं कि इतना आसान नहीं है पर धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी,’’ मम्मीजी ने धैर्य बंधाया, ‘‘तुम लोग जल्दी से नाश्ता खत्म कर लो और अपना सामान बैड पर सजा दो. मैं पहले देख लूंगी, उस के बाद दादी और सारे लोगों को भी बुला कर दिखा देती हूं.’’

सिद्धार्थ के चेहरे पर अभी भी नाराजगी थी पर अब वह इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाह रहा था.

‘‘सिद्धार्थ जरा नूपुर की मदद कर दे, मुझे और भी काम हैं.’’

सिद्धार्थ की मदद से नूपुर ने सारे ब्रीफकेस के सामान को बैड पर सजा दिया.

‘‘नूपुर, क्या इस अटैची का सामान भी सजाना है?’’ सिद्धार्थ ने पिंक ब्रीफकेस की ओर इशारा करते हुए कहा.

नूपुर समझ नहीं पा रही थी सिद्धार्थ की बात का वह क्या जवाब दे.

उसे असमंजस में देख सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘क्या हुआ कुछ खास है क्या इस में कुछ कीमती?’’

‘‘खास. मेरे दिल के बहुत करीब है पर क्या इसे भी लगाना जरूरी है?’’

तभी मम्मीजी ने कमरे में प्रवेश किया, ‘‘क्या हुआ सब लगा दिया न बेटा?’’

‘‘मम्मी बस यह एक ब्रीफकेस रह गया है. शायद कुछ पर्सनल सामान है नूपुर का.’’

‘‘नहीं पर्सनल जैसा कुछ भी नहीं है पर…’’ नूपुर की आवाज में संकोच उभर आया.

मम्मीजी की आंखों में प्रश्न तैर रहे थे. नूपुर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे. शायद इसी स्थिति से बचाने के लिए पापा ने उसे इस ब्रीफकेस को ले जाने के लिए मना किया था. क्या नए घर में नए लोगों के बीच इस ब्रीफकेस को खोलना ठीक होगा पर अगर नहीं खोला तो उन की आंखों में उग आए प्रश्नों के जवाब उन्हें कैसे मिलेंगे.

‘‘मम्मी रहने दो. अगर नूपुर नहीं चाहती है कि इस ब्रीफकेस को खोला जाए तो हरज क्या है?’’

मम्मीजी खुद असमंजस की स्थिति में थीं. बात बिगड़ते देख नूपुर ने उस ब्रीफकेस को खोल दिया और एक किनारे खड़ी हो गई. अटैची में कुछ किताबें, हाथ से बनी हुई गुडि़या, टैडी बियर, दिल के आकार का पैन स्टैंड, मम्मीपापा का फोटो, कुछ गुलाबी लिफाफे और एक फीरोजी दुपट्टा मुसकरा रहा था.

सिद्धार्थ उस के सामान को देख कर हंसने लगा, ‘‘बहुत कीमती सामान है इस में, सच कहा था तुम ने.’’

मम्मीजी घुटने के बल बैठ गईं और उन्होंने उस सामान पर बड़े प्यार से हाथ फेरा. वे भी तो अपने ब्याह के समय एक ऐसा ही ब्रीफकेस ले कर आई थीं.

‘‘सिद्धार्थ सचमुच बहुत कीमती सामान है

इस अटैची में. इस में नूपुर की नादानियां हैं, खामियां हैं, चुलबुलापन है. बेबाकपन है और हां अल्हड़पन है. सच कहूं तो वह इस ब्रीफकेस में अपने साथ अपने अंदर की लड़की को ले कर भी आई है. नूपुर अपने हिस्से की धूप ले कर आई है,’’ मां बोली.

नूपुर की आंखों में खुशी के आंसू थे. खुली खिड़कियों से धूप बैडरूम के फर्श पर दस्तक दे रही थी. धूप की इस कुनकुनी गरमाहट में सारे सवाल और गलतफहमियां भाप बन कर उड़ रही थीं.

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