छत: क्या शकील ने दीबा की वजह से छोड़ा घर

‘‘सुनते हो जी,’’ दीबा ने धीरे से उस के हाथों को छूते हुए पुकारा.

‘‘क्या है,’’ वह इस कदर थक चुका था कि उसे दीबा का उस समय इतने प्रेम से आवाज देना और स्पर्श करना भी बुरा लगा.

उस का मन चाह रहा था कि वह बस यों ही आंखें बंद किए पलंग पर लोटपोट करता रहे और अपने शरीर की थकान दूर करता रहे.

उस दिन स्थानीय रेलगाड़ी में कुछ अधिक ही भीड़ थी और उसे साइन स्टेशन तक खड़ेखड़े आना पड़ा था और वह भी इस बुरी हालत में कि शरीर को धक्के लगते रहे और लगने वाले हर धक्के के साथ उसे अनुभव होता था, जैसे उस के शरीर की हड्डियां भी पिस रही हैं.

उस के बाद पैदल सफर, दफ्तर के काम की थकान, इन सारी बातों से उस का बात करने तक का मन नहीं हो रहा था.

बड़ी मुश्किल से उस ने कपड़े बदल कर मुंह पर पानी के छींटे मार कर स्वयं को तरोताजा करने का प्रयत्न किया था. इस बीच दीबा चाय ले आई थी. उस ने चाय कब और किस तरह पी थी, स्वयं उसे भी याद नहीं था.

पलंग पर लेटते समय वह सोच रहा था कि यदि नींद लग गई तो वह रात का भोजन भी नहीं करेगा और सवेरे तक सोता रहेगा.

‘‘दोपहर को पड़ोस में चाकू चल गया,’’ दीबा की आवाज कांप रही थी.

‘‘क्या?’’ उसे लगा, केवल एक क्षण में ही उस की सारी थकान जैसे कहीं लोप हो गई और उस का स्थान भय ने ले लिया है. उसे अपने हृदय की धड़कनें बढ़ती अनुभव हुईं, ‘‘कैसे?’’

‘‘वह अब्बास भाई हैं न…उन का कोई मित्र था. कभीकभी उन के घर आता था. आज शायद शराब पी कर आया था और उस ने अब्बास भाई की पत्नी पर हाथ डालने का प्रयत्न किया. पत्नी सहायता के लिए चीखी…उसी समय अब्बास भाई भी आ गए. उन्होंने चाकू निकाल कर उसे घोंप दिया…उस के पेट से निकलने वाला वह खून का फुहारा…मैं वह दृश्य कभी नहीं भूल सकती,’’ दीबा का चेहरा भय से पीला हो गया था.

‘‘फिर?’’

‘‘किसी ने पुलिस को सूचना दी. पुलिस आ कर उस घायल को उठा कर ले गई. पता नहीं, वह जिंदा भी है या नहीं. अब्बास भाई फरार हैं. पुलिस उन्हें ढूंढ़ रही है. पुलिस वाले पड़ोसियों से भी पूछने लगे कि सबकुछ कैसे हुआ. मुझ से भी पूछा… परंतु मैं ने साफ कह दिया कि मैं उस समय सोई हुई थी.’’

दीबा की सांसें तेजी से चल रही थीं. उस के चेहरे का रंग पीला पड़ गया था, जैसे वह दृश्य अब भी उस की आंखों के सामने नाच रहा हो. स्वयं उस के माथे पर भी पसीने की बूंदें उभर आई थीं. उस ने जल्दी से उन्हें पोंछा कि कहीं दीबा उस की स्थिति से इस बात का अनुमान न लगा ले कि वह इस बात को सुन कर भयभीत हो उठा है. वह यही कहेगी, ‘आप सुन कर इतने घबरा गए हैं तो सोचिए, मेरे दिल पर क्या गुजर रही होगी. मैं ने तो वह दृश्य अपनी आंखों से देखा है.’

‘‘पड़ोसी कह रहे थे,’’ दीबा आगे बताने लगी, ‘‘अब्बास भाई ने जो किया, अच्छा ही किया था. वह आदमी इसी सजा का हकदार था. शराब पी कर अकसर वह लोगों के घरों में घुस जाता था और घर की औरतों से छेड़खानी करता था. अब्बास भाई का तो वह दोस्त था, परंतु उस ने उन की पत्नी के साथ भी वही व्यवहार किया…’’ उस ने दीबा का अंतिम वाक्य पूरी तरह नहीं सुना क्योंकि उस के मस्तिष्क में एक विचार बिजली की तरह कौंधा था. ‘अब्बास भाई के पड़ोस में ही उस का घर था. दीबा घर में अकेली थी… अगर वह आदमी…’

‘‘आप कहीं और खोली नहीं ले सकते क्या?’’ दीबा की सिसकियों ने उस के विचारों की शृंखला भंग कर दी. वह उस के सीने पर अपना सिर रख कर सिसक रही थी.

‘‘आप सुबह दफ्तर चले जाते हैं और शाम को आते हैं. मुझे दिन भर अकेले रहना पड़ता है. अकेले घर में मुझे बहुत डर लगता है. दिन भर आसपास लड़ाईझगड़े, मारपीट होती रहती है. कभी चाकू निकलते हैं तो कभी लाठियां. पुलिस छापे मार कर कभी शराब, अफीम बरामद करती है तो कभी तस्करी का सामान. कभी कोई गुंडा किसी औरत को छेड़ता है तो कभी किसी खोली में कोई वेश्या पकड़ी जाती है. हम कब तक इस गंदगी से बचते रहेंगे. कभी न कभी तो हमारे दामन पर इस के छींटे पड़ेंगे ही… और कभी इस गंदगी का एक छींटा भी मेरे दामन पर पड़ गया तो मैं दुनिया को अपना मुंह दिखाने के बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझूंगी,’’ उस के सीने पर सिर रख कर दीबा सिसक रही थी.

उस की नजरें छत पर जमीं थीं. मस्तिष्क कहीं और भटक रहा था, उस का एक हाथ दीबा की पीठ पर जमा था और दूसरा हाथ उस के बालों से खेल रहा था.

दीबा ने जो सवाल उस के सामने रखा था, उस ने उसे इतना विवश कर दिया था कि वह चाह कर भी उस का उत्तर नहीं दे सकता था. न वह दीबा से यह कह सकता था कि ‘ठीक है, हम किसी दूसरे घर का प्रबंध करेंगे और न ही यह कह सकता था कि यहां से कहीं और जाना हमारे लिए संभव नहीं है.

इस बात का पता दीबा को भी था कि कितनी मुश्किल से यह घर मिला था.

शकील का एक जानपहचान वाला था जो पहले यहीं रहता था. उस ने अपने वतन जाने का इरादा किया था. उसे पता था कि शकील मकान के लिए बहुत परेशान है. उस ने पूरी सहानुभूति से उस की सहायता करने की कोशिश की थी.

‘‘यह खोली मैं ने 8 हजार रुपए पगड़ी पर ली थी और 100 रुपए महीना किराया देता हूं. फिलहाल कोई भी मुझे इस के 10 से 15 हजार रुपए दे सकता है, परंतु यदि तुम्हें जरूरत हो तो मैं केवल 8 हजार रुपए ही लूंगा. यदि लेना हो तो मुझे 10-12 दिन में उत्तर दे देना.’’

‘8 हजार रुपए’ मित्र की बात सुन कर शकील सोच में पड़ गया था, ‘मेरे पास इतने रुपए कहां से आएंगे… फिलहाल तो मुश्किल से 2 हजार रुपए होंगे मेरे पास. यदि कमरा लेना तय भी किया तो बाकी 6 हजार रुपए का प्रबंध कहां से होगा.’

उस के बाद 2 दिन की छुट्टी ले कर वह घर गया तो दीबा ने उस से पहला प्रश्न यही किया था, ‘‘क्या कमरे का कोई प्रबंध किया?’’

‘‘देखा तो है, परंतु पगड़ी 8 हजार रुपए है. 10-12 दिन में 6 हजार रुपए का प्रबंध संभव भी नहीं है.’’

उस की बात सुन कर दीबा का चेहरा उतर गया था.

बहुत देर सोचने के बाद दीबा ने उस से कहा था, ‘‘क्यों जी, मुझे जो विवाह में अपने मायके से सोने के बुंदे मिले थे, यदि हम उन्हें बेच दें तो 6 हजार रुपए तो आ ही जाएंगे और इस तरह हमारे लिए कमरे का प्रबंध हो जाएगा.’’

‘‘तुम पागल तो नहीं हो गई हो. कमरा लेने के लिए मैं तुम्हारे बुंदे बेचूं… यह मुझ से नहीं हो सकता. फिर तुम्हारे घर वाले मुझ से या तुम से पूछेंगे कि बुंदों का क्या हुआ तो क्या जवाब दोगी?’’

‘‘वह मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उन्हें समझा दूंगी. यदि उन के कारण हमारी कोई समस्या हल हो सकती है तो हमारे लिए इस से बढ़ कर और क्या बात हो सकती है. देखिए, जो परिस्थितियां हैं, उन को देखते हुए हम कभी मुंबई में अपने लिए किराए के एक कमरे का भी प्रबंध नहीं कर पाएंगे. तो क्या आप सारा जीवन अपने मित्रों के साथ एक कमरे में सामूहिक रूप से रह कर गुजार देंगे? जीवन भर होटलों का बदमजा खाना खा कर जीएंगे? जीवन भर आप अकेले मुंबई में रहेंगे? हमारे जीवन में महीने दो महीने में एकदो दिन के लिए मिलना ही लिखा रहेगा?’’ दीबा ने डबडबाई आंखों से पति की ओर देखा.

दीबा की किसी भी बात का वह उत्तर नहीं दे पाया था. सचमुच जो परिस्थितियां थीं, उन से तो ऐसा लगता था कि उन का जीवन इसी तरह से चलता रहेगा. कभीकभी उसे अम्मी और घर वालों पर बहुत क्रोध आता था.

‘‘मैं बारबार कहता था कि जब तक बंबई में एक कमरे का प्रबंध न कर लूं, विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता, परंतु उन्हें तो मेरे विवाह का बड़ा अरमान था. इस विवाह से उन्हें क्या मिला? उन का केवल एक अरमान पूरा हुआ, परंतु मेरे लिए तो जीवन भर का रोग बन गया.’’

वह डिगरी ले कर बंबई आया था. उस समय भी बंबई में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था. परंतु उसे अपने ही शहर के कुछ मित्र मिल गए, उन्हीं ने उस के लिए प्रयत्न और मार्गदर्शन किया, कुछ उस की योग्यताएं भी काम आईं. उसे एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई. वेतन कम था, परंतु आगे बढ़ने की आशा थी और काम उस की रुचि का था.

उस के बाद उस का जीवन उसी तरह गुजरने लगा, जिस तरह बंबई का हर व्यक्ति जीता है. उस के मित्रों ने कुर्ला में एक छोटा सा कमरा ले रखा था. उस छोटे से कमरे में वे 5 मित्र मिल कर रहते थे. वह छठा उन में शामिल हुआ था.

कमरा थोड़ी देर आराम करने और सोने के ही काम आता था क्योंकि सभी सवेरे से ही अपनेअपने काम पर निकल जाते थे और रात को ही वापस आते थे.

सभी होटल के खाने पर दिन गुजारते थे. कभीकभी मन में आ गया तो छुट्टी के किसी दिन हाथ से खाना पका कर उस का आनंद ले लिया. बहुत कंजूसी करने के बाद वह घर केवल 200 या 300 रुपए भेज पाता था.

जब भी वह घर जाता, घर वाले उस पर विवाह के लिए दबाव डालते. उन के इस दबाव से वह झल्ला उठता था, ‘‘यह सच है कि मेरे विवाह की उम्र हो गई है और आप लोगों को मेरे विवाह का भी बहुत अरमान है. मैं नौकरी भी करने लग गया हूं, परंतु मैं विवाह कर के क्या करूंगा. अभी बंबई में मेरे पास सिर छिपाने का ठिकाना नहीं है. विवाह के बाद पत्नी को कहां रखूंगा? फिर बंबई में इतनी आसानी से मकान नहीं मिलता है, उस पर बंबई के खर्चे इतने अधिक हैं कि विवाह के बाद मुझे जो वेतन मिलता है, उस में मेरा और मेरी पत्नी का गुजारा मुश्किल से होगा. मैं आप लोगों को एक पैसा भी नहीं भेज पाऊंगा.’’

‘‘हमें तुम एक पैसा भी न भेजो तो चलेगा, परंतु तुम विवाह कर लो. दीबा बहुत अच्छी लड़की है. अगर वह हाथ से निकल गई तो फिर ऐसी लड़की मुश्किल से मिलेगी. तुम विवाह तो कर लो…जब तक तुम किसी कमरे का प्रबंध नहीं कर लेते दीबा हमारे पास रहेगी. तुम महीने में एकदो दिन के लिए आ कर उस से मिल जाया करना. जैसे ही कमरे का प्रबंध हो जाए उसे अपने साथ ले जाना.’’

घर वालों के बहुत जोर देने पर भी वह केवल इसलिए विवाह के लिए राजी हुआ था कि दीबा सचमुच बहुत अच्छी लड़की थी और वह उसे पसंद थी. जिस तरह की जीवन संगिनी की वह कल्पना करता था, वह बिलकुल वैसी ही थी.

विवाह के बाद वह कुछ दिनों तक दीबा के साथ रहा, फिर बंबई चला आया. बंबई में वही बंधीटिकी दिनचर्या के सहारे जिंदगी गुजरने लगी, लेकिन उस में एक नयापन शामिल हो गया था और वह था, दीबा की यादें और उस के सहयोग का एहसास.

वह जब भी घर जाता, दीबा को अपने समीप पा कर स्वयं को अत्यंत सुखी अनुभव करता. दीबा भी खुशी से फूली नहीं समाती. घर का प्रत्येक सदस्य दीबा की प्रशंसा करता.

कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरते, लेकिन फिर वही वियोग, फिर वही उदासी दोनों के जीवन में आ जाती.

दोनों की मनोदशा घर वाले भी समझते थे. इसलिए वे भी दबे स्वर में उस से कहते रहते थे, ‘‘कोई कमरा तलाश करो और दीबा को ले जाओ. तुम कब तक वहां अकेले रहोगे?’’

वह बंबई आने के बाद पूरे उत्साह से कमरा तलाश करने भी लगता, परंतु जब 20-25 हजार पगड़ी सुनता तो उस का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता. वह सोचता, कमरा किराए पर लेने के लिए वह इतनी रकम कहां से लाएगा? मुश्किल से वह महीने में 300-400 रुपए बचा पाता था. इस बीच जितने पैसे जमा किए थे, सब शादी में खर्च हो गए बल्कि अच्छाखासा कर्ज भी हो गया था. वह और घर वाले मिल कर उस कर्ज को अदा कर रहे थे.

परंतु दीबा के अनुरोध और फिर जिद के सामने उसे हथियार डालने ही पड़े. बुंदे बेचने के बाद जो पैसे आए और उन के पास जो पैसे जमा थे, उन से उन्होंने वह कमरा किराए पर ले लिया.

पहलेपहल कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरे. उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं हुआ कि वे धारावी की झोंपड़पट्टी के एक कमरे में रहते हैं. उन्हें तो ऐसा अनुभव होता था, जैसे वे किसी होटल के कमरे में रहते हैं.

परंतु धीरेधीरे वास्तविकता प्रकट होने लगी. आसपास का वातावरण, अच्छेबुरे लोग, चारों ओर फैला शराब, अफीम, जुए, तस्करी और वेश्याओं का कारोबार, गुंडे, उन के आपसी झगड़े, बातबात पर चाकूछुरी और लाठियों का निकलना, गोलियों का चलना, खून बहना, पुलिस के छापे, दंगेफसाद, पकड़धकड़ आदि देख कर वे दोनों अत्यंत भयभीत हो गए थे. तब उन्हें महसूस हुआ कि वे एक दलदल पर खड़े हैं और कभी भी, किसी भी क्षण उस में धंस सकते हैं. वह जब भी दफ्तर से आता, दीबा उसे एक नई कहानी सुनाती, जिसे सुन कर वह आतंकित हो उठता था.

कभी मन में आता था कि वह दीबा से कह दे कि वह वापस घर चली जाए क्योंकि उस का यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. परंतु दीबा के बिना न उस का मन लगता था और न ही उस के बिना दीबा का.

उस रात वह एक क्षण भी चैन से सो नहीं सका. बारबार उस के मस्तिष्क में एक ही विचार आता था कि उसे यह जगह छोड़ देनी चाहिए तथा कहीं और कमरा लेना चाहिए.

परंतु उसे कमरा कहां मिलेगा? कमरे के लिए पगड़ी के रूप में पैसा कहां से आएगा? क्या दूसरी जगह इस से अच्छा वातावरण होगा?

उस दिन दफ्तर में भी उस का मन नहीं लग रहा था. उसे खोयाखोया देख कर उस का मित्र आदिल पूछ ही बैठा, ‘‘क्या बात है शकील, बहुत परेशान हो?’’

‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘कुछ तो है, जिस की परदादारी है,’’ उसे छेड़ते हुए जब आदिल ने उस पर जोर दिया तो उस ने उसे सारी कहानी कह सुनाई.

उस की कहानी सुन कर आदिल ने एक ठंडी सांस ली और बोला, ‘‘यह सच है कि बंबई में छत का साया मिलना बहुत मुश्किल है. यहां लोगों को रोजीरोटी तो मिल जाती है, परंतु सिर छिपाने के लिए छत नहीं मिल पाती. फिर तुम ने छत ढूंढ़ी भी तो धारावी जैसी खतरनाक जगह पर, जहां कोई शरीफ आदमी रह ही नहीं सकता.

‘‘इस से तो अच्छा था, तुम बंबई से 60-70 किलोमीटर दूर कमरा लेते. वहां तुम्हें आसानी से कमरा भी मिल जाता और इन बातों का सामना भी नहीं करना पड़ता. हां, आनेजाने की तकलीफ अवश्य होती.’’

‘‘मैं हर तरह की तकलीफ सहने को तैयार हूं. परंतु मुझे उस वातावरण से मुक्ति चाहिए और सिर छिपाने के लिए छत भी.’’

‘‘यदि तुम आनेजाने की हर तरह की तकलीफ सहन करने को तैयार हो तो मैं तुम्हें परामर्श दूंगा कि तुम मुंब्रा में कमरा ले लो. मेरे एक मित्र का एक कमरा खाली है. मैं समझता हूं, धारावी का कमरा बेचने से जितने पैसे आएंगे, उन में थोड़े से और पैसे डालने के बाद तुम वह कमरा आसानी से किराए पर ले सकोगे. कष्ट यही रहेगा कि तुम्हें दफ्तर जाने के लिए 2 घंटा पहले घर से निकलना पड़ेगा और 2 घंटा बाद घर पहुंच सकोगे,’’ आदिल ने समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे यह स्वीकार है. मैं एक ऐसी छत चाहता हूं जिस के नीचे मैं और मेरी पत्नी सुरक्षित रह सकें. ऐसी छत से क्या लाभ जो आदमी को सुरक्षा भी नहीं दे सके. यदि थोड़े से कष्ट के बदले में सुरक्षा मिल सकती है तो मैं वह कष्ट झेलने को तैयार हूं.’’

‘‘ठीक है,’’ आदिल बोला, ‘‘मैं अपने मित्र से बात करता हूं. तुम अपना धारावी वाला कमरा छोड़ने की तैयारी करो.’’

शकील का पड़ोसी उस कमरे को 12 हजार में लेने को तैयार था. उन्होंने वह कमरा उसे दे दिया. आदिल के दोस्त ने अपने कमरे की कीमत 15 हजार लगाई थी. कमरा अच्छा था.

2 हजार रुपया 2 मास बाद अदा करने की बात पर भी वह राजी हो गया था.

जब वे मुंब्रा के अपने नए घर में पहुंचे तो उन्हें अनुभव हुआ कि अब वे इस घर की छत के नीचे सुरक्षित हैं.

वह नई जगह थी. आसपास क्या हो रहा है, एकदो दिन तक तो पता ही नहीं चल सका. दिन भर दीबा घर का सामान ठीक तरह से लगाने और साफसफाई में लगी रहती.

वह भी दफ्तर से आ कर उस का हाथ बंटाता. इसलिए आसपास के लोगों और वहां के वातावरण को जानने का अवसर ही नहीं मिल सका. वैसे भी बंबई में बरसों पड़ोस में रहने के बाद भी लोग एकदूसरे को नहीं जान पाते.

एक दिन वह दफ्तर से आया तो अपने कमरे से कुछ दूरी पर पुलिस की भीड़ देख कर चौंक पड़ा.

उस ने जल्दी से कमरे में कदम रखा तो दीबा को अपनी राह देखता पाया. वह भयभीत स्वर में बोली, ‘‘सुनते हो जी, हम फिर बुरी तरह फंस गए हैं. पुलिस ने इस जगह छापा मारा है. इस चाल के एक कमरे में वेश्याओं का अड्डा था और एक कमरे में जुआखाना.

‘‘सिपाही हमारे घर भी आए थे. मुझे धमका रहे थे कि हमारा भी संबंध इन लोगों से है. बड़ी मुश्किल से मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि नएनए यहां आए हैं. इस पर वे कहने लगे कि हम ने इस बदनाम जगह कमरा क्यों लिया?’’

‘‘क्या?’’ यह सुनते ही उस के मस्तिष्क को झटका लगा. आंखों के सामने तारे से नाचने लगे और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

Raksha Bandhan 2024 – सीमा रेखा: जब भाई के लिए धीरेन भूल गया पति का फर्ज

‘‘सोमू, उठ जाओ बाबू…’’ धीरेन दा लगातार आवाज दिए जा रहे थे जिस से रूपल की नींद में बाधा पड़ने लगी तो वह कसमसाती हुई सोमेन के आगोश से न चाहते हुए भी अलग हो गई और पति सोमेन को लगभग धकियाती हुई बोली, ‘‘अब जाओ, उठो भी, नहीं तो तुम्हारे दादा सुबहसुबह पूरे घर को सिर पर उठा लेंगे. छुट्टी वाले दिन भी आराम नहीं करने देते.’’

सोमेन अंगड़ाई लेता हुआ उठ बैठा और ‘आया दादा’ कहता हुआ बाथरूम की ओर लपका. जब फे्रश हो कर जोगिंग करने के लिए टै्रकसूट और जूते पहन कर कमरे से बाहर निकला तो दादा रोज की तरह गरम चाय लिए उस का इंतजार करते मिले.

उसे देखते ही मुसकरा कर प्यालों में चाय डालते हुए बोले, ‘‘सोमू, रूपल और बच्चों से भी क्यों नहीं कहता कि सुबह जल्दी उठ कर कुछ देर व्यायाम कर लें. सुबह की ताजा हवा से दिन भर तरावट महसूस होती है और साथ में स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है.’’

‘‘दादा, रोज तो उन्हें जल्दी जागना ही पड़ता है, सो कम से कम रविवार को उन्हें नींद का मजा लेने दीजिए. चलिए, हम दोनों जोगिंग पर चलते हैं,’’ कहता हुआ सोमेन चाय की खाली प्याली रख कर उठ खड़ा हुआ. दोनों भाइयों ने नजदीक के पार्क में धीमी गति से जोगिंग की. फिर धीरेन दा बैंच पर बैठ कर हाथपांव हिलाने लगे और उन के पास ही सोमेन एक्सरसाइज करने लगा. धीरेन दा 55 से ऊपर के हो चले थे और सोमेन भी 34 बसंत पार कर चुका था. लेकिन धीरेन दा हरपल सोमेन का ऐसे खयाल रखते जैसे वह कोई नादान बालक हो.

धीरेन दा की दुनिया सोमेन से शुरू हो कर उसी पर खत्म हो जाती थी. कुदरत की इच्छा के आगे किसी का बस नहीं चलता. धीरेन दा के जन्म के बाद काफी कोशिशों के बावजूद उन के मातापिता की कोई दूसरी संतान नहीं हुई फिर भी वे डाक्टर की सलाह पर दवा लेते रहे और फिर 16 साल बाद अचानक सोमेन का जन्म हुआ. सोमेन के जन्म से धीरेन दा बहुत खुश थे मानो सोमेन के रूप में उन्हें कोई जीताजागता खिलौना मिल गया हो. उन के बाबूजी की माली हालत कुछ खास अच्छी नहीं थी इसलिए मां को ही घर का हर काम करना पड़ता था. ऐसे में मां का हाथ बंटाने के लिए धीरेन दा ने सोमेन की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी.

सोमेन ज्यादातर समय धीरेन दा की गोद में होता या जहां वह पढ़ते थे उन के पास ही पालने में सोया या खेलता रहता. देखतेदेखते सोमेन 4 साल का हो गया. धीरेन दा उस दिन बहुत खुश थे क्योंकि बी. काम. फाइनल में उन्होंने अपने विश्वविद्यालय में टाप किया था. घर आ कर जब उन्होंने यह खबर मांबाबूजी को सुनाई तो वे बहुत खुश हुए. इस खुशी को अपने पड़ासियों के साथ बांटने के लिए वे दोनों मिठाई लेने ऐसे निकले कि कफन ओढ़ कर घर वापस आए.

रास्ते में एक बस ने उन्हें बुरी तरह से कुचल दिया था. एक पल को धीरेन दा को यों लगा मानो उन का सबकुछ खत्म हो गया. पर मासूम सोमेन को बिलखते देख उन्हें भाई से पिता रूप में परिवर्तित होने में तनिक भी वक्त नहीं लगा. उसी वक्त उन्होंने मन ही मन प्रण किया कि वह न सोमेन को अनाथ होने देंगे और न ही कभी उसे मातापिता की कमी महसूस होने देंगे. इस घटना के कुछ महीनों बाद ही धीरेन दा की बैंक में नौकरी लग गई. नौकरी मिलने के 1 साल बाद उन्होंने रजनी के साथ विवाह रचा लिया. रजनी के गृहप्रवेश करते ही धीरेन दा की दुनिया बदल गई.

सोमेन को भी रजनी भाभी कम और मां ज्यादा लगतीं. 2 साल का प्यार भरा समय कैसे गुजर गया, पता ही न चला. एक दिन रजनी को अपने भीतर एक नवजीवन के पनपने का एहसास हुआ तो धीरेन दा की खुशियों की सीमा न रही. सोमेन को भी चाचा बनने की बेहद खुशी थी. पर उन लोगों की सारी खुशियां रेत के घरौंदे की तरह पलक झपकते ही बिखर गईं. एक दिन रजनी बारिश में भीगते कपड़ों को समेटने गई और फिसल कर गिर पड़ी. अंदरूनी चोट इतनी गहरी थी कि लाख कोशिशों के बावजूद डाक्टर मां और बच्चे में से किसी को नहीं बचा सके.

रजनी की मौत के बाद धीरेन दा ने किसी भी स्त्री के लिए अपने दिल के दरवाजे हमेशाहमेशा को बंद कर लिए. अब उन के जीने का मकसद सिर्फ और सिर्फ सोमेन था. अब वह सोमेन की नींद सोते और जागते थे. उस की हर जरूरत का ध्यान रखना, उसे खुश रखना और उस के विकास के बारे में चिंतनमनन करना ही जैसे उन का एकमात्र ध्येय रह गया था. कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म होते ही जब सोमेन को एक बड़ी इंटरनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई तो सोमेन से कहीं ज्यादा खुशी धीरेन दा को हुई. सोमेन के प्रति उन की बस आखिरी जिम्मेदारी बाकी रह गई थी और वह जिम्मेदारी थी सोमेन की शादी.

साल भर बाद धीरेन दा ने अपने मित्र रमेशजी की मदद से आखिर रूपल जैसी गुणवती, सुंदर और मासूम लड़की को अपने अनुज के लिए तलाश ही लिया. रूपल के रूप में उन्हें एक बेटी का ही रूप नजर आता. रूपल थी भी इतनी प्यारी और नेकदिल कि सोमेन और धीरेन दा के दिलों में बसने के लिए उसे जरा भी वक्त नहीं लगा. सबकुछ ठीक चल रहा था. रूपल को कुछ अखरता था तो वह धीरेन दा का सोमेन को ले कर जरूरत से ज्यादा पजेसिव होना.

भाई के प्यार में वह इस कदर डूबे हुए थे कि अकसर रूपल की उपस्थिति को नजरअंदाज कर जाते. वह भूल जाते कि उन की तरह रूपल भी सुबह से सोेमेन का इंतजार कर रही है. पति को देखने को व्याकुल उस नवविवाहिता की आंखें शाम से ही दरवाजे पर टिकी हुई हैं. सोमेन भी घर आते ही रूपल को बांहों में ले कर प्यार की बौछार कर देने को आतुर रहता पर घर में प्रवेश करते ही धीरेन दा को अपना इंतजार करते बैठा देखता तो मर्यादा के तहत मन को वश में कर वहीं बैठ जाता और उन से वार्तालाप में मस्त हो जाता. बीच में कभी कपड़े बदलने के बहाने से तो कभी बाथरूम जाने के बहाने से अंदर जा कर झुंझलाईबौखलाई रूपल पर ऐसे तेज गति से चुंबनों की झड़ी लगा देता कि रूपल सारा गुस्सा भूल कर कह उठती, ‘‘अब बस भी करो मेरे सुपर फास्ट राजधानी एक्सप्रेस, बाहर भैया चाय के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं.’’

फिर दोनों भाई शतरंज खेलते. इस बीच खाना बना कर रूपल बेमन से टीवी का चैनल बदलती रहती. कभी सोमेन आवाज लगाता तो चाय या पानी दे जाती. उस की मनोस्थिति से सर्वथा अनजान धीरेन दा शतरंज की बिसात पर नजरें जमाए हुए कहते, ‘‘रूपल, तुम भी शतरंज खेलना सीख जाओ तो मजा आ जाए.’’ ‘‘जी दादा, सीखूंगी,’’ संक्षिप्त सा उत्तर दे कर वह वापस अंदर की ओर मुड़ जाती. तब सोमेन का मन शतरंज छोड़ कर उठ जाने को करता. वह चाहता कि रूठी हुई रूपल को हंसाए, गुदगुदाए पर दादा का एकाकीपन अकसर उस के मन पर अंकुश लगा देता.

रात को अपने अंतरंग क्षणों में वह रूपल को मना लेता और समझा भी देता कि धीरेन दा ने सिर्फ मेरे लिए अपनी सारी खुशियों की आहुति दे दी. अब हमारे किसी काम से उन्हें यह एहसास नहीं होना चाहिए कि हम उन की परवा या कद्र नहीं करते. रूपल ने भी धीरेधीरे यह सोच कर नाराज होना छोड़ दिया कि जब बच्चे हो जाएंगे तब सब ठीक हो जाएगा पर वैसा कुछ हुआ नहीं.

पिंकी व बंटी के होने के बाद भी धीरेन दा की वजह से सोमेन रूपल को वक्त नहीं दे पाता. यों ही और 8 साल बीत गए. अब तो पिंकी 10 और बंटी 8 साल के हो गए थे. अगर बच्चे कहते, ‘‘पापा, हमें किसी बच्चों के पार्क में या चिडि़याघर दिखाने ले चलिए,’’ तो सोमेन का जवाब होता कि बेटे, हम वहां जाएंगे तो ताऊजी अकेले हो जाएंगे. ‘‘तो फिर ताऊजी को भी साथ में ले चलिए न,’’ पिंकी ठुनकती हुई कहती. इस पर सोमेन प्यार से उसे समझाते हुए कहता, ‘‘बेटे, इस उम्र में ज्यादा चलनाफिरना ताऊजी को थका देता है. हम फिर कभी जाएंगे,’’ और वह दिन बच्चों के लिए कभी नहीं आया था.

यह सब देखसुन कर रूपल कुढ़ कर रह जाती. उस ने अपनी सारी इच्छाएं दफन कर डालीं पर अब बच्चों के चेहरों पर छाई मायूसी उस के मन में धीरेन दा के लिए आक्रोश भर देती. इन सब का परिणाम यह हुआ कि धीरेधीरे रूपल के व्यवहार में अंतर आने लगा और बोली में भी कड़वापन झलकने लगा. धीरेन दा कुछ महीनों से रूपल के व्यवहार में आए परिवर्तन को देख रहे थे पर बहुत सोचने पर भी उस की तह तक नहीं पहुंच पाए. अंत में हार कर उन्होंने अपने मित्र रमेश से परामर्श करने की सोची.

रमेश से उन का कोई दुराव- छिपाव न था. एक बार फिर रमेश ने उन्हें मर्यादा और व्यावहारिक ज्ञान से रूबरू कराया. रमेश ने धीरेन दा की कही हरेक बातें ध्यान से सुनीं और उन से उन के और घर के हर सदस्यों की दिनचर्या के बारे में विस्तार से जानकारी हासिल की, फिर थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए. पल भर के मौन के बाद धीरेन दा को समझाने के लहजे में बोले, ‘‘देख, धीरेन, ऐसा नहीं है कि रूपल अब तुम्हें बड़े भाई का मान नहीं देती. पर मेरे यार, तुम एक बात भूल गए कि कोई भी इनसान किसी एक का नहीं होता.

‘‘सोमेन की शादी से पहले की बात और थी. तब तुम्हारे सिवा उस का कोई नहीं था लेकिन विवाह के बाद वह किसी का पति और किसी का पिता बन गया. तुम्हारी ही तरह पिंकी, बंटी और रूपल को सोमेन से विभिन्न अपेक्षाएं हैं जो वह सिर्फ इसलिए पूरी नहीं कर पा रहा कि कहीं तुम स्वयं को उपेक्षित न समझ बैठो. उलटे तुम्हें हमेशा खुश रखने के प्रयास में वह न तो अच्छा पति साबित हो रहा है और न ही एक अच्छा पिता. हर रिश्ता एक मर्यादा और सीमारेखा से बंधा होता है जिस का अतिक्रमण बिखराव और ऊब की स्थिति ला देता है.

‘‘मेरे यार, अनजाने ही सही, तुम भी रिश्तों की सीमारेखा को लांघने लगे हो. माना कि तुम्हारी नीयत में कोई खोट नहीं पर कौन सी ऐसी पत्नी होगी जो कुछ वक्त अपने पति के साथ अकेले बिताना नहीं चाहेगी या फिर कौन से बच्चे अपने पापा के साथ कहीं घूमने नहीं जाना चाहेंगे. कहते हैं न, जब आंख खुली तभी सवेरा समझो. अब भी देर नहीं हुई है. तुम्हारे घर की खोती हुई खुशियां और रूपल की निगाहों में तुम्हारे प्रति सम्मान फिर से वापस आ सकता है. बस, तुम अपने और सोमेन के रिश्ते को थोड़ा विस्तृत कर लो. खुले मन से अपने साथ रूपल और बच्चों को समाहित कर लो…’’

सहसा धीरेन दा के चेहरे पर एक चमक आ गई और वह रमेशजी को बीच में ही टोकते हुए बोले, ‘‘बस यार, मेरी आंखें खोलने के लिए तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद. अब मैं चलता हूं, पहले ही बहुत देर हो चुकी है…अब मैं और देर नहीं करना चाहता,’’ फिर तेजतेज कदमों से वह घर की ओर चल पड़े मानो भागते हुए समय को खींच कर पीछे ले जाएंगे. रमेशजी ने जाते हुए अपने मित्र को और रोकना उचित नहीं समझा और मुसकरा पड़े.

अगले दिन रविवार था. सालों के नियम को भंग करते हुए धीरेन दा अकेले ही सुबहसुबह कहीं गायब हो गए. रूपल की नींद खुली तो सुबह के 8 बज रहे थे. वह उठ कर पूरे घर का एक चक्कर लगा आई. बाहर का दरवाजा भी यों ही उढ़का हुआ था. घबरा कर उस ने सोमेन को जगाया, ‘‘सुनोसुनो, जल्दी उठो, 8 बज गए हैं और दादा का कहीं पता नहीं है. दरवाजा भी खुला हुआ है.’’ सोमेन घबरा कर उठ बैठा. बच्चे भी मम्मीपापा के बीच का होहल्ला सुन कर जाग गए. सब मिल कर सोचने लगे कि धीरेन दा कहां जा सकते हैं?

आखिर 10 बजे घर के बाहर आटो रुकने की आवाज आई. पिंकी व बंटी दरवाजे से बाहर झांक कर चिल्लाए, ‘‘ताऊजी आ गए, ताऊजी आ गए.’’ सोमेन और रूपल ने चैन की सांस ली. धीरेन दा के घर में घुसते ही रूपल ने सवालों की झड़ी लगा दी, ‘‘दादा, आप कहां चले गए थे? कह कर क्यों नहीं गए? हम से नाराज हैं क्या? क्या हम से कोई गलती हो गई?’’ धीरेन दा मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तो अपनी गलती सुधारने गया था.’’

कुछ न समझने की स्थिति में सोमेन और रूपल एकदूसरे का मुंह देखने लगे. धीरेन दा बोले, ‘‘अरे, बाबा, मैं तुम लोगों को सरप्राइज देना चाहता था इसलिए ‘सिंह इज किंग’ की 2 टिकटें लाया हूं. आइनोक्स में यह फिल्म लगी है, आज तुम दोनों देख आना.’’ रूपल की आंखें आश्चर्य और खुशी से भर गईं. आज तक उसे आइनोक्स में फिल्म देखने का मौका जो नसीब नहीं हुआ था. वह तो कहीं भी आनेजाने की उम्मीद ही छोड़ बैठी थी.

‘‘पर दादा, बच्चे और आप…’’ ‘‘उस की तुम चिंता मत करो. हम तीनों आज ‘एडवेंचर आइलैंड’ जाएंगे, बाहर खाना खाएंगे और खूब मस्ती करेंगे. क्यों बच्चो?’’ ‘‘दादाजी, आप कितने अच्छे हैं?’’ यह कहते हुए दोनों बच्चे धीरेन दा के पैरों से लिपट गए तो धीरेन दा भावुक हो उठे. इधर सोमेन और रूपल की आंखों से छलका हुआ अनकहा ‘धन्यवाद’ भी…

बाढ़ : बिंदास अनीता ने जब फंसाया अपने सीधेसादे डाक्टर पति अमित को?

लेखिका- नमिता दुबे

अनिता बचपन से मनमौजी, महत्त्वाकांक्षी और बिंदास थी. दोस्तों के साथ घूमना, पार्टी करना और उपहार लेनादेना उसे बहुत पसंद था. बहुतकुछ करना चाहती थी, किंतु वह अपने लक्ष्य पर कभी केंद्रित न हो सकी. बमुश्किल वह एमबीए कर सकी थी, तब उस के मातापिता अच्छे दामाद की खोज मे लग गए.

उस समय अनिता मानसिकतौर पर शादी के लिए तैयार नहीं थी. अपनी लाड़ली की मंशा से अनजान पिता जब सीधेसादे अमित से मिले तो उन्हें मुराद पूरी होती दिखी.

अमित डाक्टर था. वह प्रैक्टिस करने के साथ ही एमएस की तैयारी कर रहा था. अमित के पिता की 7 वर्षों पहले एक दुर्घटना में मौत हो गई थी. अमित का बड़ा भाई अमेरिका मे डाक्टर था, वह विदेशी लड़की से शादी कर वहीं बस गया था. घर में सिर्फ मां थी जो बहुत ही शालीन महिला थी और गांव के घर में रहती थी. इस विश्वास के साथ कि उस घर में उन की लाड़ली सुकून से रह सकती है, उन्होंने अमित से अनिता की शादी तय कर दी. अमित पहले तो शादी के लिए तैयार ही नहीं था किंतु अनीता के पापा में अपने पापा की छवि की अनुभूति ने उसे राजी कर लिया.

डाक्टर अमित को जीवन के थपेड़ों ने बचपन में ही बड़ा बना दिया था. पिता की मृत्यु के बाद मां को संभालते हुए डाक्टरी की पढ़ाई करना आसान न था. अमित आधुनिकता से दूर, अपने काम से काम रखने वाला अंतर्मुखी लड़का था. उस की दुनिया सिर्फ मां तक ही सीमित थी.

शादी के बाद अमित पत्नी अनिता को ले कर भोपाल आ बसा. उस ने अनिता को असीम प्यार और विश्वास से सराबोर कर दिया. अल्हड़ अनिता आधुनिकता के रंग में रंगी अतिमहत्त्वाकांक्षी लड़की थी. वह खुद भी नहीं जानती थी कि वह चाहती क्या है? अनिता अपने पिता के इस निर्णय से कभी खुश नहीं हुई, किंतु परिवार के दबाव में आ कर उसे अमित के साथ शादी के लिए हां कहना पड़ा.

अमित अपनी एमएस की तैयारी में लगे होने से अनिता को ज्यादा समय नहीं दे पा रहा था. वह उस की भावनाओं का सम्मान तो करता था लेकिन वक्त की नज़ाकत को देख उस ने अनिता को समझाया कि, बस, 2 वर्षों की बात है, उस का एमएस पूरा हो जाए, फिर उस के पास समय की कमी नहीं होगी. तब दोनों जीवन का भरपूर आनंद लेंगे.

क्लब, दोस्तों और पार्टियों मे समय बिताने वाली अनिता को अमित के साथ चल रही नीरस ज़िंदगी रास नहीं आ रही थी. अमित का पूरा फोकस पढ़ाई पर था. वह चाहता था अनिता भी आगे पढ़े. उस ने उसे प्रोत्साहित भी किया. उस की हर इच्छा पूरी करता, उस के सारे नखरे उठाता था क्योंकि कहीं न कहीं उसे समय न दे पाने की मजबूरी उसे परेशान करती थी.

अमित की भावनाओं से बेखबर अनिता बहुत मनमौजी होती जा रही थी. वह कई रातें अपनी दोस्तों के साथ होस्टल मे बिताने लगी. उसे पता ही नहीं चला वह कब गलत संगत मे फंस चुकी थी. उस की सहेलियां अमित को ले कर ताने भी मारतीं. अब उसे भी अमित से नफरत होने लगी थी. इस के लिए अब वह अपने मांपिता को जिम्मेदार समझने लगी. जितना अमित उस के प्यार को समेटने की कोशिश करता, उतनी ही उस में नफरत की आग भड़क उठती.

अमित की परीक्षा नजदीक आ गई थी. इधर अनीता का व्यवहार पल में तोला पल में माशा होता. कभी तो वह अमित को मोहब्बत के सुनहरे सब्जबाग दिखाती, कभी सीधे मुंह बात भी न करती.

एक दिन अमित की नाइट ड्यूटी थी. तब अनिता ने अपनी दोस्त सारिका को अपने घर बुला लिया. दोनों ने दिनभर पिक्चर देखी और खूब गपें मारीं. रात में बहुतरात तक लैपटौप पर पिक्चर देखती रहीं. सुबह जब अमित हौस्पिटल से लौटा तब दोनों नींद से उनींदी हो रही थीं.

नाइट ड्यूटी से लौटा अमित थका हुआ था. अनिता पति अमित को वहीं खीच लाई जहां सारिका सो रही थी. पलभर के लिए तो अमित सकपका गया, फिर संभलते हुए कहा कि तुम आराम करो, मैं बाहर सोफे पर सो जाऊंगा. उसे समझ पाना अमित के लिए मुश्किल हो रहा था.

उस दिन अनिता अपनी पहली वैडिंग एनिवर्सरी की तैयारी में जुटी थी. उस ने अमित के लिए इम्पोर्टेड महंगी घडी और्डर कर दी थी. अमित भी बहुत खुश था और मन ही मन एक रोमांटिक डिनर प्लान कर चुका था. अमित जल्दी से अपना काम निबटा कर हौस्पिटल से निकल गया. हालांकि परीक्षा होने में सिर्फ 10 दिन थे लेकिन आज वह अपना पूरा दिन अनिता को देना चाहता था, इसलिए ही उस ने नाइट ड्यूटी की थी.

लाल शिफौन की साड़ी पर खुली हुईं घुंघराली व लहराती काली जुल्फ़ें अनिता की सुंदरता में चारचांद लगा रही थीं. अमित जैसे ही घर आया, अनिता की बला की खूबसूरती और उसे बेसब्री से अपना इंतज़ार करते देख मंत्रमुग्ध हो गया. घर में हर सामान बहुत सलीके से रखा था. पूरा घर रजनीगंधा की महक से महक रहा था. अमित के आते ही अनिता बांहों का हार डाल उस से लिपट गई, धीरे से कान में फुसफुसाई, ‘आय लव यू अमित. रियली, आय मिस यू अमित. मिस यू वेरी मच माय डियर.’

अमित इस बदलाव से आश्चर्यचकित था, मन ही मन सोच रहा था कहीं गलती से वह दूसरे घर में तो नहीं आ गया. उस ने खुद को चिकोटी काटी. तभी अनीता ने उसे प्यार से धक्का देते हुए कहा, “अब यों ही बुत बने खड़े रहोगे या…?” “ओह, मैं अभी आया फ्रेश हो कर.” अमित को आज पहली बार अनिता के निश्च्छल प्रेम की अनुभूति हुई थी और वह उस में पूरी तरह डूब जाना चाहता था. अनिता ने जल्दी से 2 गिलास शरबत तैयार किया. जब तक अमित फ्रेश हो कर आया तब तक अनिता अपना शरबत ख़त्म कर चुकी थी. अमित के आते ही उस ने अपने हाथों से उसे शरबत पिलाया. फिर दोनों ने मिल कर केक काटा, साथ ही, अपना वीडियो भी बनाया. और फिर गिफ्ट में अनिता ने अमित को सुंदर घड़ी पहना दी. अमित भी कहां मौका चूकने वाला था, उस ने भी हीरे के लौकेट की प्लेटिनम चेन अनिता को पहना दी.

लेकिन, यह क्या… थोड़ी देर बाद ही अमित उलटियां करने लगा. पूरा कमरा उलटी से भर चुका था. फिर वह धीरेधीरे होश खोते फर्श पर गिर पड़ा. कुछ देर बाद खुद को जख्मी कर, अनिता पड़ोस में रहने वाली आंटी को बता रही थी कि आज अमित नशा कर के आया और देखो आंटी, उस ने मुझे मारा भी!

“अरे, ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ. कहां है वो? मैं उस से जा कर बात करती हूं, कहती हुई आंटी उठ खड़ी हुईं.

“अरे नहीं आंटी, वह तो उलटियां कर के औंधा पड़ा है,” कहती हुई अनिता ने आंटी को रोक दिया.

अमित की ऐसी बदसलूकी पर कोई यकीन नहीं कर रहा था. थोड़ी देर बाद अमित को अस्पताल ले जाया गया जहां इलाज़ के दौरान पता चला कि यह ज्यादा मात्रा में नींद की गोली का परिणाम है.

अनिता का एक नया रूप सामने आ चुका था. अमित की सज्जनता से सभी परिचित थे, इसलिए अनिता द्वारा लगाए आरोपों को किसी ने भी सच नहीं माना, यहां तक कि अनिता के मांबाप ने भी अमित की खूबियां बताते हुए अनिता को समझाने का असफल प्रयास किया.

बौखलाई अनिता की नफ़रत अब अपने चरम पर थी. अमित कुछ समझ पाता, इस से पहले ही अनिता ने अमित के विरुद्ध मोरचा तान दिया. थाने में घरेलू हिंसा, प्रताड़ना, दहेज़ के केस दायर हो चुके थे. पढ़ाई छोड़ अमित कोर्ट और थाने के चक्करों में उलझ कर रह गया. 10 दिनों बाद होने वाली परिक्षा को पास करने में उसे 2 वर्ष लग गए.

3 वर्षों बाद 15 लाख रुपए दे कर आपसी सुलह से जैसेतैसे केस निबटा कर अमित जब घर आया तो मां की सूनीनिरीह आंखों से अश्रुधारा बह निकली. आखिर क्या दोष था अमित का? अमित तो जैसा कल था वैसा ही आज भी है, फिर यदि अनिता को अमित उस के ख्वाबों का राजकुमार नहीं लगा था तो अनिता शादी के लिए तैयार ही क्यों हुई? क्या अनिता की महत्त्वाकांक्षा से उस के मांबाप परिचित न थे? आज अमित की मां भी इसी निष्कर्ष पर थी कि लड़की की इच्छाओं को, उस की महत्त्वाकांक्षाओं को समझना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि मांबाप योग्य लड़का देख, अपनी बेटी की शादी कर, अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें और उधर लड़की की उछलती महत्त्वाकांक्षाओं की लहरें बाढ़ बन कर, न जाने कितनों को हताहत कर जाएं.

एक दिन का बौयफ्रैंड : अजनबी प्रिया मयंक की जिंदगी में कैसे आई ?

‘‘क्या तुम मेरे एक दिन के बौयफ्रैंड बनोगे?’’ उस लड़की के कहे ये शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे. मैं हक्काबक्का सा उस की तरफ देखने लगा. काली, लंबी जुल्फों और मुसकराते चेहरे के बीच चमकती उस की 2 आंखें मेरे दिल को धड़का गईं. एक अजनबी लड़की के मुंह से इस तरह का प्रस्ताव सुन कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मुझ पर क्या बीत रही होगी.

मैं अच्छे घर का होनहार लड़का हूं. प्यार और शादी को ले कर मेरे विचार बिलकुल स्पष्ट हैं. बहुत पहले एक बार प्यार में पड़ा था पर हमारी लव स्टोरी अधिक दिनों तक नहीं चल सकी. लड़की बेवफा निकली. वह न सिर्फ मुझे, बल्कि दुनिया छोड़ कर गई और मैं अकेला रह गया.

लाख चाह कर भी मैं उसे भुला नहीं सका. सोच लिया था कि अब अरेंज्ड मैरिज करूंगा. घर वाले जिसे पसंद करेंगे, उसे ही अपना जीवनसाथी मान लूंगा.

अगले महीने मेरी सगाई है. लड़की को मैं ने देखा नहीं है पर घर वालों को वह बहुत पसंद आई है. फिलहाल मैं अपने मामा के घर छुट्टियां बिताने आया हूं. मेरे घर पहुंचते ही सगाई की तैयारियां शुरू हो जाएंगी.

‘‘बोलो न, क्या तुम मेरे साथ..,’’ उस ने फिर अपना सवाल दोहराया.

‘‘मैं तो आप को जानता भी नहीं, फिर कैसे…’’ में उलझन में था.

‘‘जानते नहीं तभी तो एक दिन के लिए बना रही हूं, हमेशा के लिए नहीं,’’ लड़की ने अपनी बड़ीबड़ी आंखों को नचाया. ‘‘दरअसल,

2-4 महीनों में मेरी शादी हो जाएगी. मेरे घर

वाले बहुत रूढि़वादी हैं. बौयफ्रैंड तो दूर कभी मुझे किसी लड़के से दोस्ती भी नहीं करने दी. मैं ने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया है. घर

वाले मेरे लिए जिसे ढूंढ़ेंगे उस से आंखें बंद कर शादी कर लूंगी. मगर मेरी सहेलियां कहती हैं कि शादी का मजा तो लव मैरिज में है, किसी को बौयफ्रैंड बना कर जिंदगी ऐंजौय करने में है. मेरी सभी सहेलियों के बौयफ्रैंड हैं. केवल मेरा ही कोई नहीं है.

‘‘यह भी सच है कि मैं बहुत संवेदनशील लड़की हूं. किसी से प्यार करूंगी तो बहुत गहराई से करूंगी. इसी वजह से इन मामलों में फंसने से डर लगता है. मैं जानती हूं कि मैं तुम्हें आजकल की लड़कियों जैसी बिलकुल नहीं लग रही होऊंगी. बट बिलीव मी, ऐसी ही हूं मैं. फिलहाल मुझे यह महसूस करना है कि बौयफ्रैंड के होने से जिंदगी कैसा रुख बदलती है, कैसा लगता है सब कुछ, बस यही देखना है मुझे. क्या तुम इस में मेरी मदद नहीं कर सकते?’’

‘‘ओके, पर कहीं मेरे मन में तुम्हारे लिए फीलिंग्स आ गईं तो?’’

‘‘तो क्या है, वन नाइट स्टैंड की तरह हमें एक दिन के इस अफेयर को भूल जाना है. यह सोच कर ही मेरे साथ आना. बस एक दिन खूब मस्ती करेंगे, घूमेंगेफिरेंगे. बोलो क्या कहते हो? वैसे भी मैं तुम से 5 साल बड़ी हूं. मैं ने तुम्हारे ड्राइविंग लाइसैंस में तुम्हारी उम्र देख ली है. यह लो. रास्ते में तुम से गिर गया था. यही लौटाने आई थी. तुम्हें देखा तो लगा कि तुम एक शरीफ लड़के हो. मेरा गलत फायदा नहीं उठाओगे, इसीलिए यह प्रस्ताव रखा है.’’

मैं मुसकराया. एक अजीब सा उत्साह था मेरे मन में. चेहरे पर मुसकराहट की रेखा गहरी होती गई. मैं इनकार नहीं कर सका. तुरंत हामी भरता हुआ बोला, ‘‘ठीक है, परसों सुबह 8 बजे इसी जगह आ जाना. उस दिन मैं पूरी तरह तुम्हारा बौयफ्रैंड हूं.’’

‘‘ओके थैंक्यू,’’ कह कर मुसकराती हुई वह चली गई.

घर आ कर भी मैं सारा समय उस के बारे में सोचता रहा.

2 दिन बाद तय समय पर उसी जगह पहुंचा तो देखा वह बेसब्री से मेरा इंतजार कर रही थी.

‘‘हाय डियर,’’ कहते हुए वह करीब आ गई.

‘‘हाय,’’ मैं थोड़ा सकुचाया.

मगर उस लड़की ने झट से मेरा हाथ थाम लिया और बोली, ‘‘चलो, अब से तुम मेरे बौयफ्रैंड हुए. कोई हिचकिचाहट नहीं, खुल कर मिलो यार.’’

मैं ने खुद को समझाया, बस एक दिन. फिर कहां मैं, कहां यह. फिर हम 2 अजनबियों ने हमसफर बन कर उस एक दिन के खूबसूरत सफर की शुरुआत की. प्रिया नाम था उस का. मैं गाड़ी ड्राइव कर रहा था और वह मेरी बगल में बैठी थी. उस की जुल्फें हौलेहौले उस के कंधों पर लहरा रही थीं. भीनीभीनी सी उस की खुशबू मुझे आगोश में लेने लगी थी. एक अजीब सा एहसास था, जो मेरे जिस्म को महका रहा था. मैं एक गीत गुनगुनाने लगा. वह एकटक मुझे निहारती हुई बोली, ‘‘तुम तो बहुत अच्छा गाते हो.’’

‘‘हां थोड़ाबहुत गा लेता हूं… जब दिल को कोई अच्छा लगता है तो गीत खुद ब खुद होंठों पर आ जाता है.’’

मैं ने डायलौग मारा तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी. दूधिया चांदनी सी छिटक कर उस की हंसी मेरी सांसों को छूने लगी. यह क्या हो रहा है मुझे. मैं मन ही मन सोचने लगा.

तभी उस ने मेरे कंधे पर अपना सिर रख दिया, ‘‘माई प्रिंस चार्मिंग, हम जा कहां रहे हैं?’’

‘‘जहां तुम कहो. वैसे मैं यहां की सब से रोमांटिक जगह जानता हूं, शायद तुम भी जाना चाहोगी,’’ मेरी आवाज में भी शोखी उतर आई थी.

‘‘श्योर, जहां तुम चाहो ले चलो. मैं ने तुम पर शतप्रतिशत विश्वास किया है.’’

‘‘पर इतने विश्वास की वजह?’’

‘‘किसीकिसी की आंखों में लिखा होता है कि वह शतप्रतिशत विश्वास के योग्य है. तभी तो पूरी दुनिया में एक तुम्हें ही चुना मैं ने अपना बौयफ्रैंड बनाने को.’’

‘‘देखो तुम मुझ से इमोशनली जुड़ने की कोशिश मत करो. बाद में दर्द होगा.’’

‘‘किसे? तुम्हें या मुझे?’’

‘‘शायद दोनों को.’’

‘‘नहीं, मैं प्रैक्टिकल हूं. मैं बस 1 दिन के लिए ही तुम से जुड़ रही हूं, क्योंकि मैं जानती हूं हमारे रिश्ते को सिर्फ इतने समय की ही मंजूरी मिली है.’’

‘‘हां, वह तो है. मैं अपने घर वालों के खिलाफ नहीं जा सकता.’’

‘‘अरे यार, खिलाफ जाने को किस ने कहा? मैं तो खुद पापा के वचन में बंधी हूं. उन के दोस्त के बेटे से शादी करने वाली हूं. 6-7 महीनों में वह इंडिया आ जाएगा और फिर चट मंगनी पट विवाह. हो सकता है मैं हमेशा के लिए पैरिस चली जाऊं,’’ उस ने सहजता से कहा.

‘‘तो क्या तुम भी ‘कुछकुछ होता है’ मूवी की सिमरन की तरह किसी अजनबी से शादी करने वाली हो, जिसे तुम ने कभी देखा भी नहीं है?’’ कहते हुए मैं ने उस की आंखों में झांका. वह हंसती हुई बोली, ‘‘हां, ऐसा ही कुछ है. पर चिंता न करो. मैं तुम्हें शाहरुख यानी राज की तरह अपनी जिंदगी में नहीं आने दूंगी. शादी तो मैं उसी से करूंगी जिस से पापा चाहते हैं.’’

‘‘तो फिर यह सब क्यों? मेरे इमोशंस के साथ क्यों खेल रही हो?’’

‘‘अरे यार, मैं कहां खेल रही हूं? फर्स्ट मीटिंग में ही मैं ने साफ कह दिया था कि हम केवल 1 दिन के रिश्ते में हैं.’’

‘‘हां वह तो है. ओके बाबा, आई ऐम सौरी. चलो आ गई हमारी मंजिल.’’

‘‘वैरी नाइस. बहुत सुंदर व्यू है,’’ कहते हुए उस के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई.

थोड़ा घूमने के बाद वह मेरे पास आती हुई बोली, ‘‘लो अब मुझे अपनी बांहों में भरो जैसे फिल्मों में करते हैं.’’

वह मेरे और करीब आ गई. उस की जुल्फें मेरे कंधों पर लहराने लगीं. लग रहा था जैसे मेरी पुरानी गर्लफ्रैंड बिंदु ही मेरे पास खड़ी है. अजीब सा आकर्षण महसूस होने लगा. मैं अलग हो गया, ‘‘नहीं, यह नहीं होगा मुझ से. किसी गैर लड़की को मैं करीब क्यों आने दूं?’’

‘‘क्यों, तुम्हें डर लग रहा है कि मैं यह वीडियो बना कर वायरल न कर दूं?’’ वह शरारत से खिलखिलाई. मैं ने मुंह बनाया, ‘‘बना लो. मुझे क्या करना है? वैसे भी मैं लड़का हूं. मेरी इज्जत थोड़े ही जा रही है.’’

‘‘वही तो मैं तुम्हें समझा रही हूं. तुम्हें क्या फर्क पड़ता है, तुम तो लड़के हो,’’ वह फिर से मुसकराई, ‘‘वैसे तुम आजकल के लड़कों जैसे बिलकुल नहीं.’’

‘‘आजकल के लड़कों से क्या मतलब है? सब एकजैसे नहीं होते.’’

‘‘वही तो बात है. इसीलिए तो तुम्हें चुना है मैं ने, क्योंकि मुझे पता था तुम मेरा गलत फायदा नहीं उठाओगे वरना किसी और लड़के को ऐसा मौका मिलता तो उसे लगता जैसे लौटरी लग गई हो.’’

‘‘तुम मेरे बारे में इतनी श्योर कैसे हो कि वाकई मैं शरीफ ही हूं? तुम कैसे जानती हो कि मैं कैसा हूं और कैसा नहीं हूं?’’

‘‘तुम्हारी आंखों ने सब बता दिया मेरी जान, शराफत आंखों पर लिखी होती है. तुम नहीं जानते?’’

इस लड़की की बातें पलपल मेरे दिल को धड़काने लगी थीं. बहुत अलग सी थी वह. काफी देर तक हम इधरउधर घूमते रहे. बातें करते रहे.

एक बार फिर वह मेरे करीब आती हुई बोली, ‘‘अपनी गर्लफ्रैंड को हग भी नहीं करोगे?’’ वह मेरे सीने से लग गई. लगा जैसे वह पल वहीं ठहर गया हो. कुछ देर तक हम ऐसे ही खड़े रहे. मेरी बढ़ी हुई धड़कनें शायद वह भी महसूस कर रही थी. मैं ने भी उसे आगोश में ले लिया. उस पल को ऐसा लगा जैसे आकाश और धरती एकदूसरे से मिल गए हों. कुछ पल बाद उस ने खुद को अलग किया और दूर जा कर खड़ी हो गई.

‘‘बस, कुछ और हुआ तो हमारे कदम बहक जाएंगे. चलो वापस चलते हैं,’’ वह बोली. मैं अपनेआप को संभालता हुआ बिना कुछ कहे उस के पीछेपीछे चलने लगा. मेरी सांसें रुक रही थीं. गला सूख रहा था. गाड़ी में बैठ कर मैं ने पानी की पूरी बोतल खाली कर दी.

सहसा वह हंस पड़ी, ‘‘जनाब, ऐसा लग रहा था जैसे शराब की बोतल एक बार में ही हलक के नीचे उतार रहे हो.’’

उस के बोलने का अंदाज कुछ ऐसा था कि मुझे हंसी आ गई. ‘‘सच, बहुत अच्छी हो तुम. मुझे डर है कहीं तुम से प्यार न हो जाए,’’ मैं ने कहा.

‘‘छोड़ो भी यार. मैं बड़ी हूं तुम से, इस तरह की बातें सोचना भी मत.’’

‘‘मगर मैं क्या करूं? मेरा दिल कुछ और कह रहा है और दिमाग कुछ और.’’

‘‘चलता है. तुम बस आज की सोचो और यह बताओ कि हम लंच कहां करने वाले हैं?’’

‘‘एक बेहतरीन जगह है मेरे दिमाग में. बिंदु के साथ आया था एक बार. चलो वहीं चलते हैं,’’ मैं ने वृंदावन रैस्टोरैंट की तरफ गाड़ी मोड़ते हुए कहा, ‘‘घर के खाने जैसा बढि़या स्वाद होता है यहां के खाने का और अरेंजमैंट देखो तो लगेगा ही नहीं कि रैस्टोरैंट आए हैं. गार्डन में बेंत की टेबलकुरसियां रखी हुई हैं.’’

रैस्टोरैंट पहुंच कर उत्साहित होती हुई प्रिया बोली, ‘‘सच कह रहे थे तुम. वाकई लग रहा है जैसे पार्क में बैठ कर खाना खाने वाले हैं हम… हर तरफ ग्रीनरी. सो नाइस. सजावटी पौधों के बीच बेंत की बनी डिजाइनर टेबलकुरसियों पर स्वादिष्ठ खाना, मन को बहुत सुकून देता होगा.

है न?’’

मैं खामोशी से उस का चेहरा निहारता रहा. लंच के बाद हम 2-1 जगह और गए. जी भर कर मस्ती की. अब तक हम दोनों एकदूसरे से खुल गए थे. बातें करने में भी मजा आ रहा था. दोनों ने ही एकदूसरे की कंपनी बहुत ऐंजौय की थी, एकदूसरे की पसंदनापसंद, घरपरिवार, स्कूलकालेज की कितनी ही बातें हुईं.

थोड़ीबहुत प्यार भरी बातें भी हुईं. धीरेधीरे शाम हो गई और उस के जाने का समय आ गया. मुझे लगा जैसे मेरी रूह मुझ से जुदा हो रही है, हमेशा के लिए.

‘‘कैसे रह पाऊंगा मैं तुम से मिले बिना? नहीं प्रिया, तुम्हें अपना नंबर देना होगा मुझे,’’ मैं ने व्यथित स्वर में कहा.

‘‘आर यू सीरियस?’’

‘‘यस आई ऐम सीरियस,’’ मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘मुझे नहीं लगता कि अब मैं तुम्हें भूल सकूंगा. नो प्रिया, आई थिंक आई लाइक यू वैरी मच.’’

‘‘वह डील न भूलो मयंक,’’ प्रिया ने याद दिलाया.

‘‘मगर दोस्त बन कर तो रह सकते हैं न?’’

‘‘नो, मैं कमजोर पड़ गई तो? यह रिस्क मैं नहीं उठा सकती.’’

‘‘तो ठीक है. आई विल मैरी यू,’’ मैं ने जल्दी से कहा. उस से जुदा होने के खयाल से ही मेरी आंखें भर आई थीं. एक दिन में ही जाने कैसा बंधन जोड़ लिया था उस ने कि दिल कर रहा था हमेशा के लिए वह मेरी जिंदगी में आ जाए.

वह मुझ से दूर जाती हुई बोली, ‘‘गुडबाय मयंक, मैं शादी वहीं करूंगी जहां पापा चाहते हैं. तुम्हारा कोई चांस नहीं. भूल जाना मुझे.’’ वह चली गई और मैं पत्थर की मूर्त बना उसे जाते देखता रहा. दिल भर आया था मेरा. ड्राइविंग सीट पर अकेला बैठा अचानक फफकफफक कर रो पड़ा. लगा जैसे एक बार फिर से बिंदु मुझे अकेला छोड़ कर चली गई है. जाना ही था तो फिर जरूरत क्या थी मेरी जिंदगी में आने की. किसी तरह खुद को संभालता हुआ घर लौटा. दिन का चैन, रात की नींद सब लुट चुकी थी. जाने कहां से आई थी वह और कहां चली गई थी? पर एक दिन में मेरी दुनिया पूरी तरह बदल गई थी. देवदास बन गया था मैं. इधर घर वाले मेरी सगाई की तैयारियों में लगे थे. वे मुझे उस लड़की से मिलवाने ले जाना चाहते थे, जिसे उन्होंने पसंद किया था. पर मैं ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘मैं शादी नहीं करूंगा,’’ मेरा इतना कहना था कि घर में कुहराम मच गया.

‘‘क्यों, कोई और पसंद आ गई?’’ मां ने अलग ले जा कर पूछा.

‘‘हां.’’ मैं ने सीधा जवाब दिया.

‘‘तो ठीक है, उसी से बात करते हैं. पता और फोन नंबर दो.’’

‘‘मेरे पास कुछ नहीं है.’’

‘‘कुछ नहीं, यह कैसा प्यार है?’’ मां ने कहा.

‘‘क्या पता मां, वह क्या चाहती थी? अपना दीवाना बना लिया और अपना कोई अतापता भी नहीं दिया.’’

फिर मैं ने उन्हें सारी कहानी सुनाई तो वे खामोश रह गईं. 6 माह बीत गए. आखिर घर वालों की जिद के आगे मुझे झुकना पड़ा. लड़की वाले हमारे घर आए. मुझे जबरन लड़की के पास भेजा गया. उस कमरे में कोई और नहीं था. लड़की दूसरी तरफ चेहरा किए बैठी थी. मैं बहुत अजीब महसूस कर रहा था.

लड़की की तरफ देखे बगैर मैं ने कहना शुरू किया, ‘‘मैं आप को किसी भ्रम में नहीं रखना चाहता. दरअसल मैं किसी और से प्यार करने लगा हूं और अब उस के अलावा किसी से शादी का खयाल भी मुझे रास नहीं आ रहा. आई एम सौरी. आप इस रिश्ते के लिए न कह दीजिए.’’

‘‘सच में न कह दूं?’’ लड़की के स्वर मेरे कानों से टकराए तो मैं हैरान रह गया. यह तो प्रिया के स्वर थे. मैं ने लड़की की तरफ देखा तो दिल खुशी से झूम उठा. यह वाकई प्रिया ही थी.

‘‘तुम?’’

‘‘हां मैं, कोई शक?’’ वह मुसकराई.

‘‘पर वह सब क्या था प्रिया?’’

‘‘दरअसल, मैं अरेंज्ड नहीं, लव मैरिज करना चाहती थी. अत: पहले तुम से प्यार का इजहार कराया, फिर इस शादी के लिए रजामंदी दी. बताओ कैसा लगा मेरा सरप्राइज.’’

‘‘बहुत खूबसूरत,’’ मैं ने पल भर भी देर नहीं की कहने में और फिर उसे बांहों में भर लिया.

अंतहीन : कौनसी अफवाह ने बदल दी गुंजन और उसके पिता की जिंदगी?

रामदयाल क्लब के लिए निकल ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी. उन के फोन पर ‘हेलो’ कहते ही दूसरी ओर से एक महिला स्वर ने पूछा, ‘‘आप गुंजन के पापा बोल रहे हैं न, फौरन मैत्री अस्पताल के आपात- कालीन विभाग में पहुंचिए. गुंजन गंभीर रूप से घायल हो गया है और वहां भरती है.’’

इस से पहले कि रामदयाल कुछ बोल पाते फोन कट गया. वे जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचना चाह रहे थे पर उन्हें यह शंका भी थी कि कोई बेवकूफ न बना रहा हो क्योंकि गुंजन तो इस समय आफिस में जरूरी मीटिंग में व्यस्त रहता है और मीटिंग में बैठा व्यक्ति भला कैसे घायल हो सकता है?

गुंजन के पास मोबाइल था, उस ने नंबर भी दिया था मगर मालूम नहीं उन्होंने कहां लिखा था. उन्हें इन नई चीजों में दिलचस्पी भी नहीं थी… तभी फिर फोन की घंटी बजी. इस बार गुंजन के दोस्त राघव का फोन था.

‘‘अंकल, आप अभी तक घर पर ही हैं…जल्दी अस्पताल पहुंचिए…पूछताछ का समय नहीं है अंकल…बस, आ जाइए,’’ इतना कह कर उस ने भी फोन रख दिया.

ड्राइवर गाड़ी के पास खड़ा रामदयाल का इंतजार कर रहा था. उन्होंने उसे मैत्री अस्पताल चलने को कहा. अस्पताल के गेट के बाहर ही राघव खड़ा था, उस ने हाथ दे कर गाड़ी रुकवाई और ड्राइवर की साथ वाली सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘सामने जा रही एंबुलैंस के पीछे चलो.’’

‘‘एम्बुलैंस कहां जा रही है?’’ रामदयाल ने पूछा.

‘‘ग्लोबल केयर अस्पताल,’’ राघव ने बताया, ‘‘मैत्री वालों ने गुंजन की सांसें चालू तो कर दी हैं पर उन्हें बरकरार रखने के साधन और उपकरण केवल ग्लोबल वालों के पास ही हैं.’’

‘‘गुंजन घायल कैसे हुआ राघव?’’ रामदयाल ने भर्राए स्वर में पूछा.

‘‘नेहरू प्लैनेटोरियम में किसी ने बम होने की अफवाह उड़ा दी और लोग हड़बड़ा कर एकदूसरे को रौंदते हुए बाहर भागे. इसी हड़कंप में गुंजन कुचला गया.’’

‘‘गुंजन नेहरू प्लैनेटोरियम में क्या कर रहा था?’’ रामदयाल ने हैरानी से पूछा.

‘‘गुंजन तो रोज की तरह प्लैनेटोरियम वाली पहाड़ी पर टहल रहा था…’’

‘‘क्या कह रहे हो राघव? गुंजन रोज नेहरू प्लैनेटोरियम की पहाड़ी पर टहलने जाता था?’’

अब चौंकने की बारी राघव की थी इस से पहले कि वह कुछ बोलता, उस का मोबाइल बजने लगा.

‘‘हां तनु… मैं गुंजन के पापा की गाड़ी में तुम्हारे पीछेपीछे आ रहा हूं…तुम गुंजन के साथ मेडिकल विंग में जाओ, काउंटर पर पैसे जमा करवा कर मैं भी वहीं आता हूं,’’ राघव रामदयाल की ओर मुड़ा, ‘‘अंकल, आप के पास क्रेडिट कार्ड तो है न?’’

‘‘है, चंद हजार नकद भी हैं…’’

‘‘चंद हजार नकद से कुछ नहीं होगा अंकल,’’ राघव ने बात काटी, ‘‘काउंटर पर कम से कम 25 हजार तो अभी जमा करवाने पड़ेंगे, फिर और न जाने कितना मांगें.’’

‘‘परवा नहीं, मेरा बेटा ठीक कर दें, बस. मेरे पास एटीएम कार्ड भी है, जरूरत पड़ी तो घर से चेकबुक भी ले आऊंगा,’’ रामदयाल राघव को आश्वस्त करते हुए बोले.

ग्लोबल केयर अस्पताल आ गया था, एंबुलैंस को तो सीधे अंदर जाने दिया गया लेकिन उन की गाड़ी को दूसरी ओर पार्किंग में जाने को कहा.

‘‘हमें यहीं उतार दो, ड्राइवर,’’ राघव बोला.

दोनों भागते हुए एंबुलैंस के पीछे गए लेकिन रामदयाल को केवल स्ट्रेचर पर पड़े गुंजन के बाल और मुंह पर लगा आक्सीजन मास्क ही दिखाई दिया. राघव उन्हें काउंटर पर पैसा जमा कराने के लिए ले गया और अन्य औपचारिकताएं पूरी करने के बाद दोनों इमरजेंसी वार्ड की ओर चले गए.

इमरजेंसी के बाहर एक युवती डाक्टर से बात कर रही थी. राघव और रामदयाल को देख कर उस ने डाक्टर से कहा, ‘‘गुंजन के पापा आ गए हैं, बे्रन सर्जरी के बारे में यही निर्णय लेंगे.’’

डाक्टर ने बताया कि गुंजन का बे्रन स्कैनिंग हो रहा है मगर उस की हालत से लगता है उस के सिर में अंदरूनी चोट आने की वजह से खून जम गया है और आपरेशन कर के ही गांठें निकालनी पड़ेंगी. मुश्किल आपरेशन है, जानलेवा भी हो सकता है और मरीज उम्र भर के लिए सोचनेसमझने और बोलने की शक्ति भी खो सकता है. जब तक स्कैनिंग की रिपोर्ट आती है तब तक आप लोग निर्णय ले लीजिए.

यह कह कर और आश्वासन में युवती का कंधा दबा कर वह अधेड़ डाक्टर चला गया. रामदयाल ने युवती की ओर देखा, सुंदर स्मार्ट लड़की थी. उस के महंगे सूट पर कई जगह खून और कीचड़ के धब्बे थे, चेहरा और दोनों हाथ छिले हुए थे, आंखें लाल और आंसुओं से भरी हुई थीं. तभी कुछ युवक और युवतियां बौखलाए हुए से आए. युवकों को रामदयाल पहचानते थे, गुंजन के सहकर्मी थे. उन में से एक प्रभव तो कल रात ही घर पर आया था और उन्होंने उसे आग्रह कर के खाने के लिए रोका था. लेकिन प्रभव उन्हें अनदेखा कर के युवती की ओर बढ़ गया.

‘‘यह सब कैसे हुआ, तनु?’’

‘‘मैं और गुंजन सूर्यास्त देख कर पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे कि अचानक चीखतेचिल्लाते लोग ‘भागो, बम फटने वाला है’ हमें धक्का देते हुए नीचे भागे. मैं किनारे की ओर थी सो रेलिंग पर जा कर गिरी लेकिन गुंजन को भीड़ की ठोकरों ने नीचे ढकेल दिया. उसे लुढ़कता देख कर मैं रेलिंग के सहारे नीचे भागी. एक सज्जन ने, जो हमारे साथ सूर्यास्त देख कर हम से आगे नीचे उतर रहे थे, गुंजन को देख लिया और लपक कर किसी तरह उस को भीड़ से बाहर खींचा. तब तक गुंजन बेहोश हो चुका था. उन्हीं सज्जन ने हम लोगों को अपनी गाड़ी में मैत्री अस्पताल पहुंचाया.’’

‘‘गुंजन की गाड़ी तो आफिस में खड़ी है, तेरी गाड़ी कहां है?’’ एक युवती ने पूछा.

‘‘प्लैनेटोरियम की पार्किंग में…’’

‘‘उसे वहां से तुरंत ले आ तनु, लावारिस गाड़ी समझ कर पुलिस जब्त कर सकती है,’’ एक युवक बोला.

‘‘अफवाह थी सो गाड़ी तो खैर जब्त नहीं होगी, फिर भी प्लैनेटोरियम बंद होने से पहले तो वहां से लानी ही पड़ेगी,’’ राघव ने कहा.

‘‘मैत्री से गुंजन का कोट भी लेना है, उस में उस का पर्स, मोबाइल आदि सब हैं मगर मैं कैसे जाऊं?’’ तनु ने असहाय भाव से कहा, ‘‘तुम्हीं लोग ले आओ न, प्लीज.’’

‘‘लेकिन हमें तो कोई गुंजन का सामान नहीं देगा और हो सकता है गाड़ी के बारे में भी कुछ पूछताछ हो,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘तुम्हें भी साथ चलना पड़ेगा, तनु.’’

‘‘गुंजन को इस हाल में छोड़ कर?’’ तनु ने आहत स्वर में पूछा.

‘‘गुंजन को तुम ने सही हाथों में सौंप दिया है तनु और फिलहाल सिवा डाक्टरों के उस के लिए कोई और कुछ नहीं कर सकता. तुम्हारी परेशानी और न बढ़े इसलिए तुम गुंजन का सामान और अपनी गाड़ी लेने में देर मत करो,’’ राघव ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं दोनों काम कर के 15-20 मिनट में आ जाऊंगी.’’

‘‘यहां आ कर क्या करोगी तनु? न तो तुम अभी गुंजन से मिल सकती हो और न उस के इलाज के बारे में कोई निर्णय ले सकती हो. अपनी चोटों पर भी दवा लगवा कर तुम घर जा कर आराम करो,’’ राघव ने कहा, ‘‘यहां मैं और प्रभव हैं ही. रजत, तू इन लड़कियों के साथ चला जा और सीमा, मिन्नी तुम में से कोई आज रात तनु के साथ रह लो न.’’

‘‘उस की फिक्र मत करो राघव, मगर तनु को गुंजन के हाल से बराबर सूचित करते रहना,’’ कह कर दोनों युवतियां और रजत तनु को ले कर बगैर रामदयाल की ओर देखे चले गए.

गुंजन की चिंता में त्रस्त रामदयाल सोचे बिना न रह सके कि गुंजन के बाप का तो खयाल नहीं, मगर उस लड़की की चिंता में सब हलकान हुए जा रहे हैं. उन के दिल में तो आया कि वह राघव और प्रभव से भी जाने को कहें मगर इन हालात में न तो अकेले रहने की हिम्मत थी और फिलहाल न ही किसी रिश्तेदार या दोस्त को बुलाने की, क्योंकि सब का पहला सवाल यही होगा कि गुंजन नेहरू प्लैनेटोरियम की पहाड़ी पर शाम के समय क्या कर रहा था जबकि गुंजन ने सब को कह रखा था कि 6 बजे के बाद वह बौस के साथ व्यस्त होता है इसलिए कोई भी उसे फोन न किया करे.

रामदयाल तो समझ गए थे कि कहां किस बौस के साथ, वह व्यस्त होता था मगर लोगों को तो कोई माकूल वजह ही बतानी होगी जो सोचने की मनोस्थिति में वह अभी नहीं थे.

तभी उन्हें वरिष्ठ डाक्टर ने मिलने को बुलाया. रौंदे जाने और लुढ़कने के कारण गुंजन को गंभीर अंदरूनी चोटें आई थीं और उस की बे्रन सर्जरी फौरन होनी चाहिए थी. रामदयाल ने कहा कि डाक्टर, आप आपरेशन की तैयारी करें, वह अभी एटीएम से पैसे निकलवा कर काउंटर पर जमा करवा देते हैं.

प्रभव उन्हें अस्पताल के परिसर में बने एटीएम में ले गया. जब वह पैसे निकलवा कर बाहर आए तो प्रभव किसी से फोन पर बात कर रहा था… ‘‘आफिस के आसपास के रेस्तरां में कब तक जाते यार? उन दोनों को तो एक ऐसी सार्वजनिक मगर एकांत जगह चाहिए जहां वे कुछ देर शांति से बैठ कर एकदूसरे का हाल सुनसुना सकें. नेहरू प्लैनेटोरियम आफिस के नजदीक भी है और उस के बाहर रूमानी माहौल भी. शादी अभी तो मुमकिन नहीं है…गुंजन की मजबूरियों के कारण…विधुर पिता के प्रति इकलौते बेटे की जिम्मेदारियां और लगाव कुछ ज्यादा ही होता है…हां, सीमा या मिन्नी से बात कर ले.’’

उन्हें देख कर प्रभव ने मोबाइल बंद कर दिया.

पैसे जमा करवाने के बाद राघव और प्रभव ने उन्हें हाल में पड़ी कुरसियों की ओर ले जा कर कहा, ‘‘अंकल, आप बैठिए. हम गुंजन के बारे में पता कर के आते हैं.’’

रामदयाल के कानों में प्रभव की बात गूंज रही थी, ‘शादी अभी तो मुमकिन नहीं है, गुंजन की मजबूरियों के कारण. विधुर पिता के प्रति इकलौते बेटे की जिम्मेदारियां और लगाव कुछ ज्यादा ही होता है.’ लगाव वाली बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता था लेकिन प्रेमा की मृत्यु के बाद जब प्राय: सभी ने उस से कहा था कि पिता और घर की देखभाल अब उस की जिम्मेदारी है, इसलिए उसे शादी कर लेनी चाहिए तो गुंजन ने बड़ी दृढ़ता से कहा था कि घर संभालने के लिए तो मां से काम सीखे पुराने नौकर हैं ही और फिलहाल शादी करना पापा के साथ ज्यादती होगी क्योंकि फुरसत के चंद घंटे जो अभी सिर्फ पापा के लिए हैं फिर पत्नी के साथ बांटने पड़ेंगे और पापा बिलकुल अकेले पड़ जाएंगे. गुंजन का तर्क सब को समझ में आया था और सब ने उस से शादी करने के लिए कहना छोड़ दिया था.

तभी प्रभव और राघव आ गए.

‘‘अंकल, गुंजन को आपरेशन के लिए ले गए हैं,’’ राघव ने बताया. ‘‘आपरेशन में काफी समय लगेगा और मरीज को होश आने में कई घंटे. हम सब को आदेश है कि अस्पताल में भीड़ न लगाएं और घर जाएं, आपरेशन की सफलता की सूचना आप को फोन पर दे दी जाएगी.’’

‘‘तो फिर अंकल घर ही चलिए, आप को भी आराम की जरूरत है,’’ प्रभव बोला.

‘‘हां, चलो,’’ रामदयाल विवश भाव से उठ खड़े हुए, ‘‘तुम्हें कहां छोड़ना होगा, राघव?’’

‘‘अभी तो आप के साथ ही चल रहे हैं हम दोनों.’’

‘‘नहीं बेटे, अभी तो आस की किरण चमक रही है, उस के सहारे रात कट जाएगी. तुम दोनों भी अपनेअपने घर जा कर आराम करो,’’ रामदयाल ने राघव का कंधा थपथपाया.

हालांकि गुंजन हमेशा उन के लौटने के बाद ही घर आता था लेकिन न जाने क्यों आज घर में एक अजीब मनहूस सा सन्नाटा फैला हुआ था. वह गुंजन के कमरे में आए. वहां उन्हें कुछ अजीब सी राहत और सुकून महसूस हुआ. वह वहीं पलंग पर लेट गए.

तकिये के नीचे कुछ सख्त सा था, उन्होंने तकिया हटा कर देखा तो एक सुंदर सी डायरी थी. उत्सुकतावश रामदयाल ने पहला पन्ना पलट कर देखा तो लिखा था, ‘वह सब जो चाह कर भी कहा नहीं जाता.’ गुंजन की लिखावट वह पहचानते थे. उन्हें जानने की जिज्ञासा हुई कि ऐसा क्या है जो गुंजन जैसा वाचाल भी नहीं कह सकता?

किसी अन्य की डायरी पढ़ना उन की मान्यताआें में नहीं था लेकिन हो सकता है गुंजन ने इस में वह सब लिखा हो यानी उस मजबूरी के बारे में जिस का जिक्र प्रभव कर रहा था. उन्होंने डायरी के पन्ने पलटे. शुरू में तो तनूजा से मुलाकात और फिर उस की ओर अपने झुकाव का जिक्र था. उन्होंने वह सब पढ़ना मुनासिब नहीं समझा और सरसरी निगाह डालते हुए पन्ने पलटते रहे. एक जगह ‘मां’ शब्द देख कर वह चौंके. रामदयाल को गुंजन की मां यानी अपनी पत्नी प्रेमा के बारे में पढ़ना उचित लगा.

‘वैसे तो मुझे कभी मां के जीवन में कोई अभाव या तनाव नहीं लगा, हमेशा खुश व संतुष्ट रहती थीं. मालूम नहीं मां के जीवनकाल में पापा उन की कितनी इच्छाआें को सर्वाधिक महत्त्व देते थे लेकिन उन की मृत्यु के बाद तो वही करते हैं जो मां को पसंद था. जैसे बगीचे में सिर्फ सफेद फूलों के पौधे लगाना, कालीन को हर सप्ताह धूप दिखाना, सूर्यास्त होते ही कुछ देर को पूरे घर में बिजली जलाना आदि.

‘मुझे यकीन है कि मां की इच्छा की दुहाई दे कर पापा सर्वगुण संपन्न और मेरे रोमरोम में बसी तनु को नकार देंगे. उन से इस बारे में बात करना बेकार ही नहीं खतरनाक भी है. मेरा शादी का इरादा सुनते ही वह उत्तर प्रदेश की किसी अनजान लड़की को मेरे गले बांध देंगे. तनु मेरी परेशानी समझती है मगर मेरे साथ अधिक से अधिक समय गुजारना चाहती है. उस के लिए समय निकालना कोई समस्या नहीं है लेकिन लोग हमें एकसाथ देख कर उस पर छींटाकशी करें यह मुझे गवारा नहीं है.’

रामदयाल को याद आया कि जब उन्होंने लखनऊ की जायदाद बेच कर यह कोठी बनवानी चाही थी तो प्रेमा ने कहा था कि यह शहर उसे भी बहुत पसंद है मगर वह उत्तर प्रदेश से नाता तोड़ना नहीं चाहती. इसलिए वह गुंजन की शादी उत्तर प्रदेश की किसी लड़की से ही करेगी. उन्होंने प्रेमा को आश्वासन दिया था कि ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि उन के परिवार की संस्कृति और मान्यताएं तो उन की अपनी तरफ की लड़की ही समझ सकती है.

गुंजन का सोचना भी सही था, तनु से शादी की इजाजत वह आसानी से देने वाले तो नहीं थे. लेकिन अब सब जानने के बाद वह गुंजन के होश में आते ही उस से कहेंगे कि वह जल्दीजल्दी ठीक हो ताकि उस की शादी तनु से हो सके.

अगली सुबह अखबार में घायलों में गुंजन का नाम पढ़ कर सभी रिश्तेदार और दोस्त आने शुरू हो गए थे. अस्पताल से आपरेशन सफल होने की सूचना भी आ गई थी फिर वह अस्पताल जा कर वरिष्ठ डाक्टर से मिले थे.

‘‘मस्तिष्क में जितनी भी गांठें थीं वह सफलता के साथ निकाल दी गई हैं और खून का संचार सुचारुरूप से हो रहा है लेकिन गुंजन की पसलियां भी टूटी हुई हैं और उन्हें जोड़ना बेहद जरूरी है लेकिन दूसरा आपरेशन मरीज के होश में आने के बाद करेंगे. गुंजन को आज रात तक होश आ जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा, ‘‘आप फिक्र मत कीजिए, जब हम ने दिमाग का जटिल आपरेशन सफलतापूर्वक कर लिया है तो पसलियों को भी जोड़ देंगे.’’

शाम को अपने अन्य सहकर्मियों के साथ तनुजा भी आई थी. बेहद विचलित और त्रस्त लग रही थी. रामदयाल ने चाहा कि वह अपने पास बुला कर उसे दिलासा और आश्वासन दें कि सब ठीक हो जाएगा लेकिन रिश्तेदारों की मौजूदगी में यह मुनासिब नहीं था.

पसलियों के टूटने के कारण गुंजन के फेफड़ों से खून रिसना शुरू हो गया था जिस के कारण उस की संभली हुई हालत फिर बिगड़ गई और होश में आ कर आंखें खोलने से पहले ही उस ने सदा के लिए आंखें मूंद लीं.

अंत्येष्टि के दिन रामदयाल को आएगए को देखने की सुध नहीं थी लेकिन उठावनी के रोज तनु को देख कर वह सिहर उठे. वह तो उन से भी ज्यादा व्यथित और टूटी हुई लग रही थी. गुंजन के अन्य सहकर्मी और दोस्त भी विह्वल थे, उन्होंने सब को दिलासा दिया. जनममरण की अनिवार्यता पर सुनीसुनाई बातें दोहरा दीं.

सीमा के साथ खड़ी लगातार आंसू पोंछती तनु को उन्होंने चाहा था पास बुला कर गले से लगाएं और फूटफूट कर रोएं. उन की तरह उस का भी तो सबकुछ लुट गया था. वह उस की ओर बढ़े भी लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर दूसरी ओर मुड़ गए.

कुछ दिनों के बाद एक इतवार की सुबह राघव गुंजन का कोट ले कर आया.

‘‘इस की जेब में गुंजन की घड़ी और पर्स वगैरा हैं. अंकल, संभाल लीजिए,’’ कहते हुए राघव का स्वर रुंध गया.

कुछ देर के बाद संयत होने पर उन्होंने पूछा, ‘‘यह तुम्हें कहां मिला, राघव?’’

‘‘तनु ने दिया है.’’

‘‘तनु कैसी है?’’

‘‘कल ही उस की बहन उसे अपने साथ पुणे ले गई है, जगह और माहौल बदलने के लिए. यहां तो बम होने की अफवाहों को सुन कर वह बारबार उन्हीं यादों में चली जाती थी और यह सिलसिला यहां रुकने वाला नहीं है. तनु के बहनोई उस के लिए पुणे में ही नौकरी तलाश कर रहे हैं.’’

‘‘नौकरी ही नहीं कोई अच्छा सा लड़का भी उस के लिए तलाश करें. अभी उम्र नहीं है उस की गुुंजन के नाम पर रोने की?’’

राघव चौंक पड़ा.

‘‘आप को तनु और गुंजन के बारे में मालूम है, अंकल?’’

‘‘हां राघव, मैं उस के दुख को शिद्दत से महसूस कर रहा था, उसे गले लगा कर रोना भी चाहता था लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, अंकल? क्यों नहीं किया आप ने ऐसा? इस से तनु को अपने और गुंजन के रिश्ते की स्वीकृति का एहसास तो हो जाता.’’

‘‘मगर मेरे ऐसा करने से वह जरूर मुझ से कहीं न कहीं जुड़ जाती और मैं नहीं चाहता था कि मेरे जरिए गुंजन की यादों से जुड़ कर वह जीवन भर एक अंतहीन दुख में जीए.’’

अंकल शायद ठीक कहते हैं.

 

मरीचिका: बेटी की शादी क्यों नहीं करना चाहते थे मनोहरलाल?

रूपाली के पांव जमीन पर कहां पड़   रहे थे. आज उसे ऐसा लग रहा था मानो सारी खुशियां उस की झोली में आ गिरी थीं. स्कूलकालेज में रूपाली को बहुत मेधावी छात्रा नहीं समझा जाता था. इंजीनियरिंग में दाखिला भी उसे इसलिए मिल गया क्योंकि वहां छात्राओं के लिए आरक्षण का प्रावधान था. हां, दाखिला मिलने के बाद रूपाली ने पढ़ाई में अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी. अंतिम वर्ष आतेआते उस की गिनती मेधावी छात्रों में होने लगी थी.

कालेज के अंतिम वर्ष में कैंपस चयन के दौरान अमेरिका की एक मल्टीनैशनल कंपनी ने उसे चुन लिया तो उस के हर्ष की सीमा न रही. कंपनी ने उसे प्रशिक्षण के लिए अमेरिका के अटलांटा स्थित अपने कार्यालय भेजा. वहां से प्रशिक्षण ले कर लौटने पर रूपाली को कंपनी ने उसी शहर में स्थित अपने कार्यालय में ही नियुक्त कर दिया. आसपास की कंपनियों में उस के कई मित्र व सहेलियां काम करते थे. कुछ ही दिनों बाद रूपाली का घनिष्ठ मित्र प्रद्योत भी उसी कंपनी में नियुक्ति पा कर आ गया तो उसे लगा कि जीवन में और कोई चाह रह ही नहीं गई है. 23 वर्ष की आयु में 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष का वेतन तथा अन्य सुविधाएं. प्रद्योत जैसा मित्र तथा मित्रों व संबंधियों द्वारा प्रशंसा की झड़ी. ऐसे में रूपाली के मातापिता भी कुछ कहने से पहले कई बार सोचते थे.

‘‘हमारी रूपाली तो बेटे से बढ़ कर है. पता नहीं लोग क्यों बेटी के जन्म पर आंसू बहाते हैं,’’ पिता गर्वपूर्ण स्वर में रूपाली की गौरवगाथा सुनाते हुए कहते. कंपनी 8 लाख रुपए सालाना वेतन देती थी तो काम भी जम कर लेती थी. रूपाली 7 बजे घर से निकलती तो घर लौटने में रात के 10 बज जाते थे. सप्ताहांत अगले सप्ताह की तैयारी में बीत जाता. फिर भी रूपाली और प्रद्योत सप्ताह में एक बार मिलने का समय निकाल ही लेते थे. मां वीणा और पिता मनोहर लाल को रूपाली व प्रद्योत के प्रेम संबंध की भनक लग चुकी थी. इसलिए उन्हें दिनरात यही चिंता सताती रहती थी कि कहीं ऐसा न हो कि कोई कुपात्र लड़का उन की कमाऊ बेटी को ले उड़े और वे देखते ही रह जाएं.

उधर अच्छी नौकरी मिलते ही विवाह के बाजार में रूपाली की मांग साधारण लड़कियों की तुलना में कई गुना बढ़ गई थी. अब उस के लिए विवाह प्रस्तावों की बाढ़ सी आने लगी थी. वीणा और मनोहर लाल का अधिकांश समय उन प्रस्तावों की जांचपरख में ही बीतता. समस्या यह थी कि जो भी प्रस्ताव आते उन की तुलना, जब वे अपनी बेटी के साथ करते तो तमाम प्रस्ताव उन्हें फीके जान पड़ते. ऐसे में रूपाली ने जब प्रद्योत के साथ  विवाह करने की बात उठाई तो मां  वीणा के साथ पिता मनोहर लाल भी भड़क उठे. ‘‘माना कि कालेज के समय से तुम प्रद्योत को जानती हो, पर तुम ने उस में ऐसा क्या देखा जो उस से विवाह करने की बात सोचने लगीं?’’ मनोहर लाल ने गरज कर पूछा.

‘‘पापा, उस में क्या नहीं है? वह सभ्य, सुसंस्कृत परिवार का है. उस का अच्छा व्यक्तित्व है. सब से बड़ी बात तो यह है कि वह हर क्षण मेरी सहायता को तत्पर रहता है और हम एकदूसरे को बहुत चाहते भी हैं.’’

‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अपने बारे में इस प्रकार के निर्णय लेने की? कान खोल कर सुन लो, यदि तुम ने मनमानी की तो समझ लेना कि हम तुम्हारे लिए मर गए,’’ मनोहर लाल के तीखे स्वर ने रूपाली को बुरी तरह डरा दिया.

‘‘पापा, आप एक बार प्रद्योत से मिल तो लें, मुझे पूरा विश्वास है कि आप उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे.’’

‘‘इतना समझाने के बाद भी तुम ने प्रद्योत के नाम की रट लगा रखी है? वह न हमारी भाषा बोलता है न हमारे क्षेत्र का है. हमारे रीतिरिवाजों तक को नहीं जानता. एक साधारण से परिवार के प्रद्योत में तुम्हें बड़ी खूबियां नजर आ रही हैं. कमाता क्या है वह? तुम से आधा वेतन है उस का. हम तुम्हारी खुशी के लिए तुम्हारे छोटे भाईबहन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकते,’’ मनोहर लाल का प्रलाप समाप्त हुआ तो रूपाली फूटफूट कर रो पड़ी. पिता का ऐसा रौद्ररूप उस ने पहले कभी नहीं देखा था.

मांदेर तक उस की पीठ पर हाथ फेर कर उसे चुप कराती रहीं, ‘‘तू तो मेरी बहुत समझदार बेटी है. ऐसे थोड़े ही रोते हैं. तेरे पापा तेरी भलाई के लिए ही कह रहे हैं. कल ही कह रहे थे कि हमारी रूपाली ऐसीवैसी नहीं है. 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष वेतन पाती है. वे तो ऐसा वर ढूंढ़ रहे हैं जो कम से कम 20 लाख प्रतिवर्ष कमाता हो.’’

‘‘मां, मैं भी पढ़ीलिखी हूं, अपने पैरों पर खड़ी हूं. जब आप ने मुझे हर क्षेत्र में स्वतंत्रता दी है तो अपना जीवनसाथी चुनने में क्यों नहीं देना चाहतीं?’’ रूपाली बिलख उठी थी.

‘‘क्योंकि हम तुम्हारा भला चाहते हैं. विवाह के बारे में उठाया गया तुम्हारा एक गलत कदम तुम्हारा जीवन तबाह कर देगा,’’ मां ने पुन: उसे समझाया.

मनोहर लाल ने भी पत्नी की हां में हां मिलाई.

‘‘आप का निर्णय सही ही होगा, इस का भरोसा आप दिला सकते हैं?’’ रूपाली आंसू पोंछ उठ खड़ी हुई.

‘‘देखा तुम ने?’’ मनोहर लाल बोले, ‘‘कितनी ढीठ हो गई है तुम्हारी बेटी. यह इस का ऊंचा वेतन बोल रहा है. अपने सामने तो किसी को कुछ समझती ही नहीं. पर मैं एक बात पूर्णतया स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अपनी इच्छा से इस ने विवाह किया तो मेरा मरा मुंह देखेगी.’’

‘‘रूपाली, मैं तुझ से अपने सुहाग की भीख मांगती हूं. तू ने कुछ ऐसावैसा किया तो तेरे छोटे भाईबहन अनाथ हो जाएंगे,’’ मां वीणा ने बड़े नाटकीय अंदाज में अपना आंचल फैला दिया.

उस दिन बात वहीं समाप्त हो गई. अब दोनों ही पक्षों को एकदूसरे की चाल की प्रतीक्षा थी. रूपाली अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. यों उस ने प्रद्योत को सबकुछ बता दिया था. अब प्रद्योत को अपने परिवार की चिंता सताने लगी थी. हो सकता है वे भी इस विवाह को स्वीकार न करें.

‘‘यदि मेरे मातापिता ने भी इस विवाह का विरोध किया तो हम क्या करेंगे, रूपाली?’’ प्रद्योत ने प्रश्न किया.

‘‘विवाह नहीं करेंगे और क्या. तुम्हें नहीं लगता कि अभी हमें 4-5 वर्ष और प्रतीक्षा करनी चाहिए. शायद तब तक हमारे मातापिता भी हमारी पसंद को स्वीकार करने को तैयार हो जाएं,’’ रूपाली ने स्पष्ट किया.

‘‘तुम ठीक कहती हो. सच कहूं, तो मैं ने अभी तक विवाह के बारे में सोचा ही नहीं है,’’ प्रद्योत ने उस की हां में हां मिलाई तो रूपाली एक क्षण के लिए चौंकी अवश्य थी फिर एक फीकी सी मुसकान फेंक कर उठ खड़ी हुई.

उस के मातापिता का वरखोजी अभियान पूरे जोरशोर से चल रहा था. उन की 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष वेतन पाने वाली बेटी के लिए योग्य वर जुटाना इतना सरल थोड़े ही था. अधिकतर तो उन के मापदंडों पर खरे ही नहीं उतरते थे. जो उन्हें पसंद आते उन के समक्ष इतनी शर्तें रख दी जातीं कि वे भाग खड़े होते. कोई 1-2 ठोकबजा कर देखने पर खरे उतरते तो उन्हें ई-मेल, पता आदि दे कर रूपाली से संपर्क करने की अनुमति मिलती.

अपने एक दूर के संबंधी के पुत्र मधुकर को मनोहर लाल ने भावी वरों की सूची में सब से ऊपर रखा था. इस बीच प्रद्योत को एक अन्य कंपनी में नौकरी मिल गई थी और वह शहर छोड़ कर चला गया था.

मनोहर लाल ने मधुकर के मातापिता से स्पष्ट कह दिया था कि उन की लाड़ली बेटी रूपाली हैदराबाद छोड़ कर मुंबई नहीं जाएगी. मधुकर को ही मुंबई छोड़ कर हैदराबाद आना पड़ेगा. मधुकर और उस के मातापिता के लिए यह आश्चर्य का विषय था. उन्होंने तो यह सोच रखा था कि रूपाली विवाह के बाद मधुकर के साथ रहने आएगी. पर मनोहर लाल ने साफ शब्दों में बता दिया था कि इतनी अच्छी नौकरी छोड़ कर रूपाली कहीं नहीं जाएगी. मधुकर ने रूपाली को समझाने का प्रयत्न अवश्य किया था पर उस ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह चाह कर भी मातापिता की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करेगी. बात आईगई हो गई थी. दोनों ही पक्ष एकदूसरे की ओर से पहल की आशा लगाए बैठे थे. दूसरे पक्ष की शर्तें मानने में उन का अहं आड़े आता था. फिर तो यह सिलसिला चल निकला, सुयोग्य वर ढूंढ़ा जाता. शुरुआती बातचीत के बाद फोन नंबर, ई-मेल आईडी आदि रूपाली को सौंप दिए जाते. विचारों का आदानप्रदान होता. घंटों फोन पर बातचीत होती पर बात न बनती.

अब मनोहर बाबू जेब में रूपाली का फोटो और जन्मपत्रिका लिए घूमते. अब उन की शर्तें कम होने लगी थीं. स्तर भी घटने लगा था. अब उन्हें रूपाली से कम वेतन वाले वर को स्वीकार करने में भी कोई एतराज नहीं था.

इसी प्रकार 4 साल बीत गए पर कहीं बात नहीं बनती देख मनोहर लाल ने रूपाली के छोटे भाई व बहन के विवाह संपन्न करा दिए. अब रूपाली के लिए वर खोजने की गति भी धीमी पड़ने लगी थी. न जाने क्यों उन्हें लगने लगा था कि रूपाली का विवाह असंभव नहीं पर कठिन अवश्य है.

उस दिन सारा परिवार छुट्टी मनाने के मूड में था. मां वीणा ने रात्रिभोज का उत्तम प्रबंध किया था. मनोहर लाल नई फिल्म की एक सीडी ले आए थे.

फिल्म शुरू ही हुई थी कि दरवाजे की घंटी बजी.

‘‘कौन?’’ मां वीणा ने झुंझलाते हुए दरवाजा खोला तो सामने एक आकर्षक युवक खड़ा था.

‘‘कहिए?’’ मां ने युवक से प्रश्न किया.

‘‘जी, मैं रूपाली का मित्र, 2 दिन पहले ही आस्ट्रेलिया से लौटा हूं.’’

अपना नाम सुनते ही रूपाली दरवाजे की ओर लपकी थी.

‘‘अरे, प्रद्योत तुम? कहां गायब हो गए थे. मैं ने कई मेल भेजे पर सब व्यर्थ.’’

‘‘अब तो मैं स्वयं आ गया हूं मिलने. रूपाली, मेरी नियुक्ति इसी शहर में हो गई है,’’ प्रद्योत का उत्तर था.

कुछ देर बैठने के बाद उस ने जाने की अनुमति मांगी तो मनोहर लाल और वीणा ने उसे रात्रि भोज के लिए रोक लिया.

‘‘कहां रहे इतने दिन? और आज इस तरह अचानक यहां आ टपके?’’ एकांत मिलते ही रूपाली ने आंखें तरेरीं.

‘‘तुम ने खुद ही प्रतीक्षा करने के लिए कहा था. पर अब मैं और प्रतीक्षा नहीं कर सकता इसलिए तुम्हारा हाथ मांगने स्वयं ही चला आया,’’ प्रद्योत बोला तो रूपाली की आंखें डबडबा आईं.

‘‘मेरे मातापिता नहीं मानेंगे,’’ किसी प्रकार उस ने वाक्य पूरा किया.

‘‘मैं ने सब सुन लिया है. हम से पूछे बिना ही तुम ने कैसे सोच लिया कि हम नहीं मानेंगे,’’ दोनों का वार्त्तालाप सुन कर मनोहर लाल बोले थे.

‘‘पता नहीं मेरा वेतन रूपाली के वेतन से अधिक है या कम. हमारी भाषाक्षेत्र सब अलग है. पर मैं आप को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मैं आप की बेटी को सिरआंखों पर बिठा कर रखूंगा,’’ प्रद्योत ने हाथ जोड़ कर कहा तो मनोहर लाल ने उसे गले लगा लिया.

‘‘मैं भी न जाने किस मृगमरीचिका में भटक रहा था. बहुत देर से समझ में आया कि मन मिले हों तो अन्य किसी वस्तु का कोई महत्त्व नहीं होता,’’ मनोहर लाल बोले.

रूपाली कभी प्रद्योत को तो कभी अपने मातापिता को देख रही थी. उस की आंखों में सैकड़ों इंद्रधनुष झिल- मिला उठे थे.

एक नई शुरुआत : क्या परिवार के रिजेक्शन के बावजूद समर ने की निधि से शादी?

रोज रोज के ट्रैफिक जाम, नेताओं की रैलियां, वीआईपी मूवमैंट्स और अकसर होने वाले फेयर की वजह से दिल्ली में ट्रैवल करना समस्या बनता जा रहा है. अब अगर आप किसी बड़ी पोस्ट पर हैं तो कार से ट्रैवल करना आप की अनिवार्यता बन जाता है. बड़े शहरों में प्रैस्टिज इश्यू भी किसी समस्या से कम नहीं है. ड्राइवर रखने का मतलब है एक मोटा खर्च और फिर उस के नखरे. भीड़ भरी सड़कों पर जहां आधे से ज्यादा लोगों में गाड़ी चलाने की तमीज न हो, गाड़ी चलाना किसी चुनौती से कम नहीं है और ऐसी सूरत में ड्राइविंग को ऐंजौय कर पाना तो बिलकुल ही संभव नहीं है.

समर को ड्राइविंग करना बेहद पसंद है. पर रोजरोज की परेशानी से बचने के लिए उस ने सोचा कि अब अपने ओहदे को भूल उसे मैट्रो की शरण ले लेनी चाहिए. कहने दो, लोग या उस के जूनियर जो कहें. पैट्रोल का खर्चा जो कंपनी देती है, उसे बचाने के चक्कर में बौस मैट्रो से आनेजाने लगे हैं, ऐसी बातें उस के कानों में भी अवश्य पड़ीं, पर सीधे उस के मुंह पर कहने की तो किसी की हिम्मत नहीं थी.  आरंभ के कुछ दिन तो उसे भी दिक्कत महसूस हुई. मैट्रो में कार जैसा  आराम तो नहीं मिल सकता था, पर कम से कम वह टाइम पर औफिस पहुंच रहा था और वह भी सड़कों पर झेलने वाले तनाव के बिना. हालांकि मैट्रो में इतनी भीड़ होती थी कि कभीकभी उसे झुंझलाहट हो जाती थी. धीरेधीरे उसे मैट्रो के सफर में मजा आने लगा.

दिल्ली की लाइफलाइन बन गई मैट्रो में किस्मकिस्म के लोग. लेडीज का अलग डब्बा होने के बावजूद उन का कब्जा तो हर डब्बे में होना और पुरुषों का इस बात को ले कर खीजते रहना देखना और उन की बातों का आनंद लेना भी मानो उस का रूटीन बन गया. पुरुषों के डब्बे में भी महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें होती हैं. लेकिन वह उन पर कम ही बैठता था. उस दिन मैट्रो अपेक्षाकृत खाली थी. सरकारी छुट्टी थी. वह कोने की सीट पर बैठ गया.  वह अखबार पढ़ने में तल्लीन था कि  तभी एक मधुर स्वर उस के कानों में पड़ा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी.’’

उस ने नजरें उठाईं. लगभग 30-32 साल की कमनीय काया वाली एक महिला उस के सामने खड़ी थी. एकदम परफैक्ट फिगर… मांस न कहीं कम न कहीं ज्यादा. उस ने पर्पल कलर की शिफौन की प्रिंटेड साड़ी और स्लीवलैस ब्लाउज पहना था. गले में मोतियों की माला थी और कंधे पर डिजाइनर बैग झूल रहा था. होंठों पर लगी हलकी पर्पल लिपस्टिक क अलग ही लुक दे रही थी. नफासत और सौंदर्य दोनों एकसाथ. कुछ पल उस पर नजरें टिकी ही रह गईं.

‘‘ऐक्सक्यूज मी, यह लेडीज सीट है. इफ यू डौंट माइंड,’’ उस ने बहुत ही तहजीब से कहा.

‘‘या श्योर,’’ समर एक झटके से उठ गया.

अगले स्टेशन के आने की घोषणा हो रही थी यानी वह खान मार्केट से चढ़ी थी. समर की नजरें उस के बाद उस से हटी ही नहीं. बारबार उस का ध्यान उस पर चला जाता था. बहुत चाहा उस ने कि उसे न देखे, पर दिल था कि जैसे उसी की ओर खिंचा जा रहा था. लेकिन यों एकटक देखते रहने का मतलब था कि उस के जैसे भद्र पुरुष का बदतमीजों की श्रेणी में आना और इस समय तो वह कतई ऐसा नहीं करना चाहता था. अपनी खुद की 35 साला जिंदगी में किसी के प्रति इस तरह का आकर्षण या किसी को लगातार देखते रहने की चाह इस से पहले कभी उस के अंदर इतनी तीव्रता से उत्पन्न नहीं हुई थी. वैसे भी सफर लंबा था और वह उस में किसी तरह का व्यवधान नहीं चाहता था.

वैल सैटल्ड और पढ़ीलिखी व कल्चर्ड फैमिली का होने के बावजूद न जाने क्यों उसे अभी तक सही लाइफ पार्टनर नहीं मिल पाया था. कभी उसे लड़की पसंद नहीं आती तो कभी उस के मांबाप को. कभी लड़की की बैकग्राउंड पर दादी को आपत्ति होती. ऐसा नहीं था शादी को ले कर उस ने सैट रूल्स बना रखे थे पर पता नहीं क्यों फिर भी 25 साल की उम्र से शादी के लिए लड़की पसंद करने की कोशिश 35 साल तक भी किसी तरह के निर्णय पर नहीं पहुंच पाई थी.

धीरेधीरे चौइस भी कम होने लगी थी और रिश्ते भी आने कम हो गए थे.  उस ने भी अपनी इस एकाकी जिंदगी को ऐंजौय करना शुरू कर दिया था. अब तो मम्मीपापा और भाईबहन भी उस से यह पूछतेपूछते थक गए थे कि उसे कैसे लड़की चाहिए. वह अकसर कहता लड़की कोई फोटो फ्रैम तो है नहीं, जो परफैक्ट आकार व डिजाइन की मिल जाएगी. मेरे मन में कोई इमेज तो नहीं है उस की, बस जैसी मुझे चाहिए जब वह सामने आएगी तो मैं खुद ही आप लोगों को बता दूंगा.

उस के बाद से घर वाले भी शांत हो कर बैठ गए थे और वह भी मस्त रहने लगा था. वह सीट से उठी तो एक बार उस ने फिर से उसे गहरी नजरों से देखा. एक स्वाभाविक मुसकान मानो उस के चेहरे का हिस्सा ही बन गई थी.

गालों पर डिंपल पड़ रहे थे. समर को सिहरन सी महसूस हुई. क्या है यह… क्यों उस के भीतर जलतरंग सी बज रही है. वह कोई 20-21 साल का नौजवान तो नहीं, एक मैच्योर इनसान है… फिर भी उस का रोमरोम तरंगित होने लगा था. अजीब सी फीलिंग हुई… अनजानी सी… इस से पहले किसी लड़की को देख कर ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ था. मानो मिल्स ऐंड बून्स का कोई किरदार पन्नो में से निकल कर उस के भीतर समा गया हो और उसे आंदोलित कर रहा हो. यह खास फीलिंग उसे लुभा रही थी.  उस के नेहरू प्लेस उतरने के बाद जब तक मैट्रो चली नहीं वह उसे जाते देखता रहा. मन तो कर रहा था कि वहीं उतर जाए और पता करे कि वह कहां काम करती है. पर यह उसे शिष्ट आचरण नहीं लगा. उसे आगे ओखला जाना था. लेकिन मैट्रो से उतरने के बाद भी उसे लगा कि जैसे उस का मन तो उस कोने वाली सीट पर ही जैसे जा कर अटक गया है.

औफिस में भी वह बेचैन ही रहा. काम कर रहा था पर कंसनट्रेशन जैसे गायब हो चुकी थी. वह बारबार खुद से यही सवाल कर रहा था कि आखिर उस महिला के बारे में वह इतना क्यों सोच रहा है. क्यों उस के अंदर एक समुद्र उफान ले रहा है, क्यों वह चाहता है कि उस से दोबारा मुलाकात हो… बहुत बार उस ने अपने खयालों पर फाइलों के बोझ को डालना चाहा, बहुत बार कंप्यूटर स्क्रीन पर आंखें गड़ाने की कोशिश की पर नाकामयाब रहा. खुद को धिक्कारा भी कि किसी के बारे में यों मन में खयाल लाना अच्छी बात नहीं है. फिर भी घर लौटने के बाद और रात भर वह अपने अंदरबाहर फैली सिहरन को महसूस करता रहा.

सुबह बारबार यह सोच रहा था कि आज भी मैट्रो में उस से मुलाकात हो जाए. फिर खुद पर ही उसे हंसी आ गई. मान लो उस ने वही मैट्रो पकड़ी तब भी क्या गारंटी है कि वह आज भी उसी डब्बे में चढ़ेगी जिस में वह हो. उसे लग रहा था कि अगर उस का यही हाल रहा तो कहीं वह स्टौकर न बन जाए. समर खुद को संभाल… उस ने अपने को हिदायत दी. मैच्योर इनसान इस तरह की हरकतें करते अच्छे नहीं लगते… सही है पर खान मार्केट आते ही नजरें उसे ढूंढ़ने लगीं. पर नहीं दिखी वह.

अब तो जैसे सुबहशाम उसे तलाशना ही उस का रूटीन बन गया था. उसे लगा कि हो सकता है वह रोज ट्रैवल न करती हो. मायूस रहने लगा था समर… कोई इस तरह दिमाग पर हावी रहने लग सकता है. उस ने कभी सोचा नहीं था. क्या इसे ही लव ऐट फर्स्ट साइट कहते हैं. किताबी और फिल्मी बातें जिन का कभी वह मजाक उड़ाया करता था आज उसे सच लग रही थीं. काश, एक बार तो वह कहीं दिख जाए.

खान मार्केट से समर को कुछ शौपिंग करनी थी. वैलेंटाइनडे की वजह से खूब चहलपहल थी. बाजार रोशनी से जगमगा रहे थे, खरीदारी करने के बाद वह कौफी कैफे डे में चला गया. कौफी पी कर सारी थकान उतर जाती है उस की. एक सिप लिया ही था कि सामने से वह अंदर आती दिखी. हाथों में बहुत सारे पैकेट थे. आज मैरून कलर का कुरता और क्रीम कलर की लैगिंग पहन रखी थी उस ने. कानों में डैंगलर्स लटक रहे थे जो बीचबीच में उस की लटों को चूम लेते थे.

चांस की बात है कि सारी टेबलें भरी हुई थीं. वह बिना झिझक उस के सामने वाली कुरसी पर आ कर बैठ गई. समर को लगा जैसे उस की मनचाही मुराद पूरी हो गई. कौफी का और्डर देने के बाद वह अपने मोबाइल पर उंगली घुमाने लगी. फिर अचानक बोली, ‘‘आई होप मेरे यहां बैठने से आप को कोई प्रौब्लम नहीं होगी… और कोई टेबल खाली नहीं है…’’

उस की बात पूरी होने से पहले ही तुरंत समर बोला, ‘‘इट्स माई प्लैजर.’’

‘‘ओह रियली,’’ उस ने कुछ इस अंदाज में कहा कि समर को लगा जैसे उस ने व्यंग्य सा कसा हो. कहीं उस के चेहरे पर आए भावों का वह कोई गलत मतलब तो नहीं निकाल रही… कहीं यह सोचे कि वह उस पर लाइन मारने की कोशिश कर रहा है.

‘‘वैसे आप को कोने वाली सीट ही पसंद है… डिस्टर्बैंस कम होती है और आप को वैसे भी पसंद नहीं कि कोई आप की लाइफ में आप को डिस्टर्ब करे… अपने हिसाब से फैसले लेने पसंद करते हैं आप.’’  हैरानी, असमंजस… न जाने कैसेकैसे भाव उस के चेहरे पर उतर आए.

‘‘आप परेशान न हों, समर… मैं ने उस दिन मैट्रो में ही आप को पहचान लिया था. संयोग देखिए फिर आप से मुलाकात हो गई तो सोच रही हूं आज बरसों से दबा गुबार निकाल ही लूं. आप की हैरानी जायज है. हो सकता है आप ने मुझे पहचाना न हो. पर मैं आप को भूल नहीं पाई. अब तक तो आप को अपना परफैक्ट लाइफ पार्टनर मिल ही गया होगा. अच्छा ही है वरना बेवजह लड़कियों को रिजैक्ट करने का सिलसिला नहीं रुकता.’’

‘‘हम पहले कहीं मिल चुके हैं क्या?’’ समर ने सकुचाते हुए पूछा.  समर कहां तो इस से मुलाकात हो जाने की कामना कर रहा था और कहां अब  वही कह रही थी कि वह उसे जानती है और इतना ही नहीं उसे एक तरह से कठघरे में ही खड़ा कर दिया था.

‘‘हम मिले तो नहीं हैं, पर हमारा परिवार अवश्य एकदूसरे से मिला है. थोड़ा दिमाग पर जोर डालें तो याद आ जाए शायद कि एक बार आप के घर वाले मेरे घर आए थे. यहीं शाहजहां रोड पर रहते थे तब हम. पापा आईएएस अफसर थे. हमारी शादी की बात चली थी. आप के घर वालों को मैं पसंद आ गई थी. आप का फोटो दिखाया था उन्होंने मुझे. वे तो जल्दी से जल्दी शादी की डेट तक फिक्स करने को तैयार हो गए थे. फिर तय हुआ कि आप के और मेरे मिलने के बाद ही आगे की बात तय की जाएगी.

मैं खुश थी और मेरे मम्मीपापा भी कि इतने संस्कारी और ऐजुकेटेड लोगों के यहां मेरा रिश्ता तय हो रहा है. हम मिल पाते उस से पहले ही पापा पर किसी ने फ्रौड केस बना दिया. आप की दादी ने घर आ कर खूब खरीखरी सुनाई कि ऐसे घर में जहां बाप बेईमानी का पैसा लाता हो हम रिश्ता नहीं कर सकते हैं. पापा ने बहुत समझाया कि उन्हें फंसाया गया है पर उन्होंने एक न सुनी.

‘‘मुझे दुख हुआ पर इसलिए नहीं कि आप से रिश्ता नहीं हो पाया, बल्कि इसलिए कि बिना सच जाने इलजाम लगा कर आप की दादी ने मेरे पापा का अपमान किया था. उस के बाद मैं ने तय कर लिया था कि शादी करूंगी ही नहीं. पापा तो खैर बेदाग साबित हुए पर मेरा रिश्ता टूटने का गम सह नहीं पाए और चले गए इस दुनिया से.  ‘‘हमारे समाज में किसी लड़की को रिजैक्ट कर देना आम बात है पर कोई एक बार भी यह नहीं सोचता कि इस से उस के मन पर क्या बीतती होगी, उस के घर वालों की आशा कैसे बिखरती होगी… आप को कोई रिजैक्ट करे तो कैसा लगेगा समर?’’

‘‘मेरा यकीन करो…’’

‘‘मेरा नाम निधि है.’’

नाम सुन कर समर को लगा कि जैसे घर में उस ने कई बार इस नाम को सुना था. मम्मीपापा, भाईबहन यहां तक कि दादी के मुंह से भी. वह भी कई बार कि लड़की तो वही अच्छी थी पर उस का बाप… दादी उन से शादी हो जाती तो भैया अब तक कुंआरे न होते, बहन को भी उस ने कहते सुना था कई बार. पर आप की जिद ने सब गड़बड़ कर दिया… पापा भी उलाहना देते थे कई बार दादी को. अब तक जितनी लड़कियां देखी थीं, समर के लिए वही मुझे सब से अच्छी लगी थी. मम्मी के मुंह से भी वह यह बात सुन चुका था. जिसे देखा न हो उस के बारे में वह क्या कहता. इसलिए चुप ही रहता था.

‘‘निधि, सच में मुझे कोई जानकारी नहीं है. हालांकि घर में  अकसर तुम्हारी बात होती थी पर तुम मेरे लिए किसी अनजान चेहरे की तरह थीं. आई एम सौरी… मेरे परिवार वालों की वजह से तुम्हें अपने पापा को खोना पड़ा और इतना अपमान सहना पड़ा. पर…’’ कहतेकहते रुक गया समर. आखिर कैसे कहता कि जब से उसे देखा है वही उस के दिलोदिमाग पर छाई हुई है. अपने दिल की बात कह कर कहीं वह उस का दिल और न दुखा दे और फिर अब उस ने ही उसे रिजैक्ट कर दिया तो क्या होगा…

‘‘समर मुझे आप की सौरी नहीं चाहिए. यह तो आम लड़की की विडंबना है जिसे वह सहती आ रही है, उस के हर तरह से काबिल होने के बावजूद. एनी वे चलती हूं. आई होप फिर हमारी मुलाकात…’’

‘‘हो…’’ समर जल्दी से बोला, ‘‘एक मौका भूल सुधार का तो हर किसी को मिलता है. यह मेरा कार्ड है. फेसबुक पर आप को ढूंढ़ कर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजूंगा, प्लीज निधि ऐक्सैप्ट कर लेना… विश्वास है कि आप रिजैक्ट नहीं करेंगी… कोने वाली सीट नहीं चुनूंगा अब से,’’ समर ने अपना विजिटिंग कार्ड उसे थमाते हुए कहा, ‘‘पुराना सब कुछ भुला कर नई शुरुआत की जा सकती है.’’

कार्ड लेते हुए निधि ने अपने शौपिंग बैग उठाए. बाहर जाने के लिए पलटी तभी उस के डैंगलर ने उस की बालों की लटों को यों छुआ और लटें इस तरह हिलीं मानो कह रही हों इस बार ऐक्सैप्ट आप को करना है.

डायन का कलंक : क्या दीपक बसंती की मदद कर पाया?

लेखक- सचिंद्र शुक्ल

आज पूरे 3 साल बाद दीपक अपने गांव पहुंचा था, लेकिन कुछ भी तो नहीं बदला था उस के गांव में. पहले अकसर गरमियों की छुट्टियों में वह अपने मातापिता और अपनी छोटी बहन प्रतिभा के साथ गांव आता था, लेकिन 3 साल पहले उसे पत्रकारिता पढ़ने के लिए देश के एक नामी संस्थान में दाखिला मिल गया था और कोर्स पूरा होने के बाद एक बड़े मीडिया समूह में नौकरी भी.

दीपक की बहन प्रतिभा को मैडिकल कालेज में एमबीबीएस के लिए दाखिला मिल गया था. इस वजह से उन का गांव में आना नहीं हो पाया था. पिताजी और माताजी भी काफी खुश थे, क्योंकि पूरे 3 साल बाद उन्हें गांव आने का मौका मिला था.

दीपक का गांव शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर बड़ी सड़क के किनारे बसा हुआ था, लेकिन सड़क से गांव में जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था. गरमी के दिनों में तो लोग पंडितजी के बगीचे से हो कर आतेजाते थे, मगर बरसात हो जाने पर किसी तरह खेतों से गुजर कर सड़क पर आते थे.

जब वे गांव पहुंचे, तो ताऊ और ताई ने उन का खूब स्वागत किया. ताऊ तो घूमघूम कर कहते फिरे, ‘‘मेरा भतीजा तो बड़ा पत्रकार हो गया है. अब पुलिस भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी.’’ दीपक के ताऊ की एक ही बेटी थी, जिस का नाम कुमुद था.

ताऊजी नजदीक के एक गांव में प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे. आराम की नौकरी. जब मन किया पढ़ाने गए, जब मन किया नहीं गए. वे इस इलाके में ‘बड़का पांडे’ के नाम से मशहूर थे. वे जिस गांव में पढ़ाते थे, वहां ज्यादातर दलित जाति के लोग रहते थे, जो किसी तरह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट पालते थे.

उन बेचारों की क्या मजाल, जो इलाके के ‘बड़का पांडे’ के खिलाफ कहीं शिकायत करते. शायद इसी का नतीजा था कि उन की बेटी कुमुद 10वीं जमात में 5 बार फेल हुई थी, पर ताऊ ने नकल कराने वाले एक स्कूल में पैसे दे कर उसे 10वीं जमात पास कराई थी.

दीपक का सारा दिन लोगों से मिलनेजुलने में बीत गया. अगले दिन शाम को वह अपने एक चचेरे भाई रमेश के साथ गांव में घूमने निकला. उस ने कहा कि चलो, अपने बगीचे की तरफ चलते हैं, तो रमेश ने कहा कि नहीं, शाम के समय वहां कोई नहीं जाता, क्योंकि वहां बसंती डायन रहती है.

दीपक को यह सुन कर थोड़ा गुस्सा आया कि आज विज्ञान कहां से कहां पहुच गया है, लेकिन ये लोग अभी भी भूतप्रेतों और डायन जैसे अंधविश्वासों में उलझे हुए हैं.

दीपक ने रमेश से पूछा ‘‘यह बसंती कौन है?’’

उस ने बताया, ‘‘अपने घर पर जो चीखुर नाम का आदमी काम करता था, यह उसी की पत्नी है.’’

चीखुर का नाम सुन कर दीपक को झटका सा लगा. दरअसल, चीखुर दीपक के खेतों में काम करता था और ट्रैक्टर भी चलाता था. उस की पत्नी बसंती बहुत सुंदर थी. हंसमुख स्वभाव और बड़ी मिलनसार. लोगों की मदद करने वाली. गांव के पंडितों के लड़के हमेशा उस के आगेपीछे घूमते थे.

दीपक ने रमेश से पूछा, ‘‘बसंती डायन कैसे बनी?’’ उस ने बताया, ‘‘उस के कोई औलाद तो थी नहीं, इसलिए वह दूसरे के बच्चों पर जादूटोना कर देती थी. वह हमारे गांव के कई बच्चों की अपने जादूटोने से जान ले चुकी है.’’

बसंती के बारे सुन कर दीपक थोड़ा दुखी हो गया, लेकिन उस ने मन ही मन ठान लिया कि उसे डायन के बारे में पता लगाना होगा.

जब थोड़ी रात हुई, तो दीपक शौच के बहाने लोटा ले कर घर से निकला और अपने बगीचे की तरफ चल पड़ा. बगीचे के पास एक कच्ची दीवार और उस के ऊपर गन्ने के पत्तों का छप्पर पड़ा था, जिस में एक टूटाफूटा दरवाजा भी था.

दीपक ने बाहर से आवाज लगाई, ‘‘कोई है?’’

अंदर से किसी औरत की आवाज आई, ‘‘भाग जाओ यहां से. मैं डायन हूं. तुम्हें भी जादू से मार डालूंगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘दरवाजा खोलो. मैं दीपक हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘कौन दीपक?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मैं रामकृपाल का बेटा दीपक हूं.’’

वह औरत रोते हुए बोली, ‘‘दीपक बाबू, आप यहां से चले जाइए. मैं डायन हूं. आप को भी मेरी मनहूस छाया पड़ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम बाहर आओ, वरना मैं दरवाजा तोड़ कर अंदर आ जाऊंगा.’’

तब वह औरत बाहर आई. वह एकदम कंकाल लग रही थी. फटी हुई मैलीकुचैली साड़ी, आंखें धंसी हुईं. उस के भरेभरे गाल कहीं गायब हो गए थे. उन की जगह अब गड्ढे हो गए थे.

उस औरत ने बाहर निकलते ही दीपक से कहा, ‘‘बाबू, आप यहां क्यों आए हैं? अगर आप की बिरादरी के लोगों ने आप को मेरे साथ देख लिया, तो मेरे ऊपर शामत आ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम्हें कुछ नहीं होगा. लेकिन तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?’’

वह औरत रोने लगी और बोली, ‘‘क्या करोगे बाबू यह जान कर?’’

दीपक ने उसे बहुत समझाया, तो उस औरत ने बताया, ‘‘तकरीबन 2 साल पहले मेरे पति की तबीयत खराब हुई थी. जब मैं ने अपने पति को डाक्टर को दिखाया, तो उन्होंने कहा कि इस के दोनों गुरदे खराब हो गए हैं. इस का आपरेशन कर के गुरदे बदलने पड़ेंगे, लेकिन पैसे न होने के चलते मैं उस का आपरेशन नहीं करा पाई और उस की मौत हो गई.

‘‘पति की दवादारू में मेरे गहने बिक गए थे और हमारी एक बीघा जमीन जगनारायण पंडित के यहां गिरवी हो गई. अपने पति का क्रियाकर्म करने में जो पैसा लगाया था, वह सारा जगनारायण पंडित से लिया था. उन पैसों के बदले उस ने हमारी जमीन अपने नाम लिखवा ली, पर मुझे तो यह करना ही था, वरना गांव के लोग मुझे जीने नहीं देते. पति तो परलोक चला गया था. सोचा कि मैं किसी तह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट भर लूंगी.

‘‘फिर मैं आप के खेतों में काम करने लगी, लेकिन जगनारायण पंडित मुझे अकसर आतेजाते घूर कर देखता रहता था. पर मैं उस की तरफ कोई ध्यान नहीं देती थी.

‘‘एक दिन मैं खेतों से लौट रही थी. थोड़ा अंधेरा हो चुका था. तभी खेतों के किनारे मुझे जगनारायण पंडित आता दिखाई दिया. वह मेरी तरफ ही आ रहा था.

‘‘मैं उस से बच कर निकल जाना चाहती थी, लेकिन पास आ कर उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘कहां इतना सुंदर शरीर ले कर तू दूसरों के खेतों में मजदूरी करती है. मेरी बात मान, मैं तुझे रानी बना दूंगा. आखिर तू भी तो जवान है. तू मेरी जरूरत पूरी कर दे, मैं तेरी जरूरत पूरी करूंगा.’

‘‘मैं ने उस से अपना हाथ छुड़ाया और उसे एक तमाचा जड़ दिया. मैं अपने घर की तरफ दौड़ पड़ी. पीछे से उस की आवाज आई, ‘तू ने मेरी बात नहीं मानी है न, इस थप्पड़ का मैं तुझ से जरूर बदला लूंगा.’

‘‘कुछ महीनों के बाद रामजतन का बेटा और मंगरू की बेटी बीमार पड़ गई. शहर के डाक्टर ने बताया कि उन्हें दिमागी बुखार हो गया है, लेकिन जगनारायण पंडित और उस के चमचे कल्लू ने गांव में यह बात फैला दी कि यह सब किसी डायन का कियाधरा है.

‘‘उन बच्चों को अस्पताल से निकाल कर घर लाया गया और एक तांत्रिक को बुला कर झाड़फूंक होने लगी. लेकिन अगले दिन ही दोनों बच्चों की मौत हो गई, तो जगनारायण पंडित ने उस तांत्रिक से कहा कि बाबा उस डायन का नाम बताओ, जो हमारे बच्चों को खा रही है.

‘‘उस तांत्रिक ने मेरा नाम बताया, तो भीड़ मेरे घर पर टूट पड़ी. मेरा घर जला दिया गया. मुझे मारापीटा गया. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए और सिर मुंड़वा कर पूरे गांव में घुमाया गया.

‘‘इतने से भी उन का मन नहीं भरा और उन लोगों ने मुझे गांव से बाहर निकाल दिया. तब से मैं यहीं झोंपड़ी बना कर और आसपास के गांवों से कुछ मांग कर किसी तरह जी रही हूं’’.

उस औरत की बातें सुन कर दीपक की आंखें भर आईं. उस ने कहा, ‘‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा करना. मैं तुम्हारे माथे से डायन का यह कलंक हमेशा के लिए मिटा दूंगा.’’

दीपक ने उसे धीमी आवाज में समझाया, तो वह राजी हो गई. दीपक ने गांव में यह बात फैला दी कि बसंती को कहीं से सोने के 10 सिक्के मिल गए हैं. पूरा गांव तो डायन से डरता था, लेकिन एक दिन जगनारायण पंडित उस के घर पहुंचा और बोला, ‘‘क्यों री बसंती, सुना है कि तुझे सोने के सिक्के मिले हैं. ला, सोने के सिक्के मुझे दे दे, नहीं तो तू जानती है कि मैं क्या कर सकता हूं.

‘‘जब पिछली बार तू ने मेरी बात नहीं मानी थी, तो मैं ने तेरा क्या हाल किया था, भूली तो नहीं होगी?

‘‘मेरी वजह से ही तू आज डायन बनी फिर रही है. अगर इस बार तू ने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं तेरा पिछली बार से भी बुरा हाल करूंगा.’’

वह बसंती को मारने ही वाला था कि दीपक गांव के कुछ लोगों के साथ वहां पहुंच गया. इतने लोगों को वहां देख कर जगनारायण पंडित की घिग्घी बंध गई. वह बड़बड़ाने लगा. इतने में बसंती ने अपने छप्पर में छिपा कैमरा निकाल कर दीपक को दे दिया.

जगनारायण पंडित ने कहा, ‘‘यह सब क्या?है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मेरा यह प्लान था कि डायन के डर से गांव का कोई आदमी यहां नहीं आएगा, लेकिन तुझे सारी हकीकत मालूम है और तू सोने के सिक्कों की बात सुन कर यहां जरूर आएगा, इसलिए मैं ने बसंती को कैमरा दे कर सिखा दिया था कि इसे कैसे चलाना है.

‘‘जब तू दरवाजे पर आ कर चिल्लाया, तभी बसंती ने कैमरा चला कर छिपा दिया था और जब तू इधर आ रहा था, मैं ने तुझे देख लिया था. अब तू सीधा जेल जाएगा.’’

यह बात जब गांव वालों को पता चली, तो वे बसंती से माफी मांगने लगे. जगनारायण पंडित को उस के किए की सजा मिली. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. भीड़ से घिरी बसंती दीपक को देख रही थी, मानो उस की आंखें कह रही हों, ‘मेरे सिर से डायन का कलंक उतर गया दीपक बाबू.’

दीपक ने अपने नाम की तरह अंधविश्वास के अंधेरे में खो चुकी बसंती की जिंदगी में उजाला कर दिया था.

हैलोवीन: गौरव ने कद्दू का कौनसा राज बताया

लेखक- अनीता सक्सेना

गौरव जब सुबह सो कर उठा तो देखा, बड़े पापा गांव जाने को तैयार हो चुके थे. वे गौरव को देखते ही बोले, ‘‘क्यों बरखुरदार, चलोगे गांव और खेत देखने? दीवाली इस बार वहीं मनाएंगे.’’

दादी बोलीं, ‘‘अरे, उस बेचारे को सुबहसुबह क्यों परेशान कर रहा है. थक जाएगा वहां तक आनेजाने में.’’

गौरव हंस कर बोला, ‘‘नहीं दादी, मैं जाऊंगा गांव. मैं तो यहां आया ही इसलिए हूं. मुझे अच्छा लगता है, वहां की हरियाली देखने में और आम के बगीचे घूमने में.’’

‘‘आम तो बेटा इस मौसम में नहीं होंगे, हां, खेतों में गेहूं की फसल लगी मिलेगी. दीवाली पर नई फसल आती है न.’’

‘‘तब फिर चाय पी कर और नाश्ता कर के जाना,’’ दादी बोलीं.

‘‘अच्छा गौरव, तुम्हारे यहां दीवाली कैसे मनाई जाती है?’’ बड़े पापा ने पूछा. ताईजी तब तक सब के लिए चाय ले आई थीं, वे भी वहीं बैठ गईं.

‘‘दीवाली तो हम सब क्लब में मनाते हैं, लेकिन बड़े पापा अमेरिका में एक त्योहार सब मिल कर मनाते हैं, वह है हैलोवीन डे.’’

‘‘अच्छा, हमें भी तो बताओ क्या है हैलोवीन?’’ सौरभ भी निकल कर बाहर आ गया. ताईजी ने उसे भी चाय दी.

गौरव बोला, ‘‘जिस तरह हमारे देश में दीवाली का त्योहार मनाया जाता है उसी तरह अमेरिका में 31 अक्तूबर की रात को हैलोवीन का त्योहार मनाया जाता है. इस को मनाने की तैयारी भी दीवाली की तरह कई दिन पहले से शुरू कर दी जाती है.’’

‘‘अच्छा, यह क्या अमेरिका में ही मनाया जाता है?’’ दादी ने पूछा.

‘‘नहीं दादी, हैलोवीन डे आयरलैंड गणराज्य, ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया सहित समस्त पश्चिमी देशों में मनाया जाता है. कहा जाता है कि बुरी आत्माओं को घरों से दूर रखने के लिए इसे मनाया जाता है इसलिए लोग कई दिन पहले से ही घर के बाहर एक बड़ा सा कद्दू ला कर रख देते हैं साथ ही घर के बाहर चुड़ैल, भूत, झाड़ू, मकड़ी और मकड़ी के जाले आदि खिलौने रख देते हैं.’’

‘‘कद्दू? कद्दू तो सब्जी के काम आता है?’’ सौरभ ने कहा.

‘‘नहीं सौरभ, ये कद्दू खाने वाले कद्दू नहीं होते बल्कि बीज बनने को छोड़े हुए बड़ेबड़े कद्दू होते हैं जो पके व सूख चुके होते हैं. कद्दू के अंदर का सारा गूदा निकाल कर उसे खोल बना देते हैं फिर ऊपर से खूबसूरत तरीके से चाकू से काट कर उस की आंखें, मुंह इत्यादि बनाते हैं और इस के अंदर एक दीपक जला कर रख देते हैं. दूर से देखने में ऐसा लगता है मानो किसी का चेहरा हो, जिस में से आंखें चमक रही हैं. बाजार में इन कद्दुओं के अंदर छेद करने और आंख इत्यादि बनाने के लिए कई औजार भी मिलते हैं. बच्चों के लिए इन हैलोवीन कद्दुओं की प्रतियोगिताएं भी आयोजित होती हैं.’’

‘‘पर जब भूतप्रेत होते ही नहीं, तो उन के लिए ये कद्दू क्यों?’’ दादी बोलीं.

‘‘नहीं दादी, दरअसल, हजारों साल पहले केल्ट जाति के लोग यहां आए थे. जो फसलों की खुशहाली के लिए प्रकृति की शक्तियों को पूजा करते थे. मूलत: यह त्योहार अंधेरे की पराजय और रोशनी की जीत का उत्सव है. नवंबर की पहली तारीख को केल्ट जाति का नया साल शुरू होता था. नए साल में कटी हुई फसल की खुशी मनाई जाती थी. उस के एक दिन पहले यानी 31 अक्तूबर को ये लोग ‘साओ इन’ नामक त्योहार मनाते थे. इन का मानना था कि इस दिन मरे हुए लोगों की आत्माएं धरती पर विचरने आती थीं और उन्हें खुश करने के लिए उन की पूजा होती थी. इस के लिए वे ‘द्रूइद्स’ नामक पहाड़ी पर जा कर आग जलाते थे. फिर इस आग का एकएक अंगारा लोग अपनेअपने घर ले जाते थे और नए साल की नई आग जलाते थे.’’

‘‘नए साल की आग का क्या मतलब हुआ?’’ बड़े पापा ने पूछा.

‘‘बड़े पापा, उस जमाने में माचिस का आविष्कार नहीं हुआ था. घर में जली आग को लगातार बचा कर रखना पड़ता था. इस रोज पहाड़ी पर अलाव जलाया जाता था और उस में कटी फसल का भाग जलाया जाता था. इस अलाव की आग का अंगारा घर तक ले जाने के लिए तथा हवा बारिश में बुझने से बचाने के लिए उसे किसी फल में छेद कर के उस में सहेज कर ले जाया जाता था. आग को हाथ में देख कर बुरी आत्माएं वार नहीं करेंगी ऐसी मान्यता थी. इस के लिए कद्दू के खोल में जलता दीया रख कर ले जाया जाता था. रात के अंधेरे में कद्दू में आंखें और मुंह काट कर दीया रखने से एकदम राक्षस के सिर जैसा लगता था. कहीं पर इसे पेड़ पर टांग दिया जाता था और कहीं खिड़की पर रख दिया जाता था. आजकल घर के बाहर रख देते हैं.

‘‘जिस तरह से हमारे देश में बहुरूपिए बनते हैं ठीक उसी तरह से यहां लोग हैलोवीन पर बहुरूपिया बनते हैं. 31 अक्तूबर की रात को बच्चेबड़े सभी तरहतरह की ड्रैसेज पहनते हैं और चेहरे पर मुखौटे लगाते हैं. ये ड्रैसेज और मुखौटे काल्पनिक या भूतप्रेतों के होते हैं जो काफी डरावने दिखते हैं. ये ड्रैसेज व मुखौटे बाजारों में कई दिन पहले से बिकने शुरू हो जाते हैं, कई लोग मुखौटा पहनने की जगह चेहरे पर ही पेंट करा लेते हैं.

‘‘हैलोवीन के दिन बच्चे घरघर जाते हैं. हर बच्चा अपने साथ एक बैग या पीले रंग का कद्दू के आकार का डब्बा लिए रहता है. ये बच्चे घरों के अंदर नहीं जाते बल्कि लोग घरों के बाहर बहुत सारी चौकलेट्स एक बड़े से डब्बे में रख कर इन के आने का इंतजार करते हैं. हर बच्चा बाहर बैठे व्यक्ति के पास आता है और कहता है, ‘ट्रिक और ट्रीट’ उसे जवाब मिलता है ‘ट्रीट’ (ट्रिक यानी जादू और ट्रीट यानी पार्टी), बच्चे जोकि हैलोवीन बन कर आते हैं वे घर वालों को डरा कर पूछते हैं कि आप मुझे पार्टी दे रहे हो या नहीं? नहीं तो मैं आप के ऊपर जादू कर दूंगा.

‘‘घर वाले हंस कर ‘ट्रीट’ कहते हुए उन के आगे चौकलेट का डब्बा बढ़ा देते हैं. बच्चे खुश हो कर बाउल में से एकएक चौकलेट उठाते हैं और थैंक्स कह कर आगे बढ़ जाते हैं. देर रात तक बच्चों के बैग में बहुत सी चौकलेट्स इकट्ठी हो जाती हैं.’’

‘‘वाह गौरव, तुम ने तो आज बड़ी रोचक कहानी सुनाई और एक नए त्योहार के बारे में भी बताया, मजा आ गया,’’ दादी बोलीं तो सब ने उन की हां में हां मिलाई.

गौरव हंस पड़ा, सब चाय भी पी चुके थे. ताईजी लंबी सांस लेती हुई बोलीं, ‘‘बस, अब जल्दी से नाश्ता बनाती हूं, खा कर गांव जाना और सुनो, वहां से कद्दू मत ले आना,’’ उन्होंने कहा तो सब जोरजोर से हंसने लगे.

भरमजाल : रानी के जाल में कैसे फंस गया रमेश

आज पार्क जा कर जौगिंग करने में मेरा बिलकुल भी मन नहीं लगा. हालांकि, रमेश को छोड़ कर बाकी सभी दोस्त थे, मगर रमेश से मेरी कुछ ज्यादा ही पटती थी. 25 सालों से हम दोनों एकसाथ इस पार्क में जौगिंग करने आते रहे हैं. कुछ तो वैसे ही रमेश का न होना मुझे एक अधूरेपन का एहसास करा रहा था और कुछ दोस्तों ने जब उस के बारे में उलटीसीधी बात करनी शुरू की, तो मेरा मन और भी परेशान हो गया.

‘‘4 महीने बाद 60वां जन्मदिन होने वाला था रमेश का. उम्र के इस पड़ाव पर ऐसा काम करते हुए उसे जरा भी शर्म नहीं आई. देखने में कितना धार्मिक लगता था और काम देखो कैसा किया. सारा समाज थूथू कर रहा है उस पर,’’ एक दोस्त ने कहा. दूसरे दोस्त ने नाकभौं सिकोड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे तो भाभीजी पर तरस आ रहा है. अच्छा हुआ दोनों लड़कों ने घर से निकाल दिया ऐसे बाप को…’’

इस से ज्यादा सुनने की ताकत मुझ में नहीं थी. ‘‘कुछ काम है…’’ कह कर मैं वापस घर आ गया और रमेश के बारे में सोचने लगा. रमेश और मेरी कारोबार के सिलसिले में एकदूसरे से जानपहचान हुई थी. यह जानपहचान कब दोस्ती और फिर गहरी दोस्ती में बदल गई, पता ही नहीं चला.

रमेश बहुत ही साफदिल, अपने काम में ईमानदार और सामाजिक इनसान था. उस के इन्हीं गुणों के चलते हमारी दोस्ती इतनी बढ़ी कि 25 साल तक हम रोजाना एकसाथ जौगिंग करने जाते रहे. हम दोनों अपनी सारी बातें जौगिंग के दौरान ही कर लेते थे. कई बार तो दूसरे दोस्त हमें लैलामजनू कह कर चिढ़ाते थे.

इतने सालों में रमेश ने अपना कारोबार काफी बढ़ा लिया था. ट्रांसपोर्ट के कारोबार के साथ ही अब उस ने दिल्ली के पौश इलाके में पैट्रोल पंप भी खोल लिया था. एक तरफ लक्ष्मी उस पर पैसा बरसा रही थी, वहीं दूसरी तरफ उस की सुंदर सुशील पत्नी ने 2 बेटे उस की गोद में दे कर दुनिया का सब से अमीर इनसान बना दिया था.

जिंदगी ने अच्छी रफ्तार पकड़ ली थी, मगर सब से अमीर आदमी सुखी भी हो, ऐसा जरूरी नहीं होता. वह लालच के ऐसे दलदल में धंसता चला जाता है कि जब तक उसे एहसास होता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है. 2 साल पहले बाजार में गिरावट आई, तो सभी के कारोबार ठप हो गए. रमेश किसी भी तरह कारोबार को चलाना चाहता था. उस ने अपने पैट्रोल पंप पर पैट्रोल भरने के लिए लड़कियां रख लीं और वाकई उस के पैट्रोल पंप की कमाई पहले से काफी ज्यादा बढ़ गई.

ग्राहक वहां पैट्रोल लेने के बहाने लड़कियां देखने ज्यादा आने लगे. अब रमेश हर तीसरे महीने पहली लड़की को हटा कर किसी नई और खूबसूरत लड़की को काम पर रखता. मुझे उस की इस सोच से नफरत हुई. मैं ने उसे समझाने की कोशिश भी की, तो उस ने कहा ‘आल इज फेयर इन बिजनेस’.

मैं अपनी आंखों से देख रहा था कि पैसा कैसे एक सीधेसादे इनसान की अक्ल मार देता है. ज्यादातर उस के मैनेजर ही इन लड़कियों को काम पर रखते थे. पर वे लड़कियां काम कैसा कर रही हैं, यह देखने के लिए रमेश कभीकभार अपने पैट्रोल पंप पर ही पैट्रोल भरवाने चला जाया करता था.

उन्हीं दिनों एक लड़की रानी, उस के पैट्रोल पंप पर काम करने आई. एक शाम को मैं उसी की गाड़ी में काम के सिलसिले में उस के साथ गया था. उस दिन रमेश ने पहली बार रानी को देखा था. गठे हुए बदन की लंबीपतली थोड़ी सांवली सी थी वह, उम्र यही होगी कोई 23-24 साल यानी रमेश के बेटे से भी छोटी उम्र की थी.

रमेश ने मैनेजर को बुला कर पूछा, तो उस ने बताया कि यह नई लड़की है रानी, अपना काम भी बखूबी कर रही है. उस के बाद रमेश और मैं वापस आ गए. 3 महीने बाद मैनेजर का रमेश के पास फोन आया कि रानी आप से मिलना चाहती है. वह काम से हटने को तैयार नहीं है. उसे समझाने की बहुत कोशिश की, मगर कहती है कि एक बार मालिक से मिलवा दो, फिर चली जाऊंगी.

रमेश ने कहा, ‘‘उसे मेरे दफ्तर भेज देना.’’

दफ्तर आते ही रानी रमेश के पैरों में गिर गई और लगी जोरजोर से रोने, ‘‘मालिक, मुझे काम से मत निकालो. मेरे घर में कमाने वाली सिर्फ मैं ही हूं. बाप शराबी है. वह पैसे के लिए मुझे बेच देगा. 3 महीने से आधी तनख्वाह उस के हाथ में रख देती थी, तो शांत रहता था. बड़ी मुश्किल से अच्छी नौकरी और अच्छे लोग मिले थे. मैं आप के सब काम कर दिया करूंगी, ओवरटाइम भी करूंगी. उस के पैसे भी चाहे मत देना, पर मुझे काम से मत निकालो.’’ रमेश ने 1-2 बार उस से कहा भी कि उठो, ऐसे पैरों में मत गिरो, मगर वह पैरों को पकड़े रोती रही. आखिरकार रमेश को ही उसे उठाना पड़ा और मानना पड़ा कि वह उसे काम से नहीं निकालेगा.

ऐसा सुनते ही रानी ने रमेश का हाथ चूम लिया. 60 साल के बूढ़े रमेश के अंदर कमसिन रानी के चुंबन से एक सिहरन सी दौड़ गई. रानी के जाने के बाद भी रमेश उसी के बारे में सोचता रहा. वह खुद को उस की तरफ खिंचता हुआ महसूस कर रहा था. 1-2 बार उस ने अपने इन विचारों को झटका भी कि वह यह क्या सोच रहा है. मगर रानी का गठीला बदन और उस का चुंबन रहरह कर उसे उस से मिलने को बेचैन कर रहे थे.

उस दिन के बाद से रमेश अकसर अपने पैट्रोल पंप पर जाने लगा. पहले वह वहां बैठता नहीं था. अब उस ने वहां बैठना भी शुरू कर दिया था. रानी के दफ्तर आने वाली बात रमेश ने मुझे बताई थी और जब उस ने अपनी उस सोच के बारे में मुझे बताया, तभी मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, ‘‘तुम रानी से दूर ही रहो. फिसलने की कोई उम्र नहीं होती. कीचड़ में कितना धंस जाओगे, खुद तुम्हें भी पता नहीं चलेगा.’’

मेरे समझाने के बाद से रमेश ने मुझ से रानी के बारे में बातें करना बंद कर दिया, मगर मैं बरसों पुराना दोस्त था उस का, उस की बदलती हरकतों को बखूबी देख पा रहा था. अगले 3 महीने का समय भी इसी तरह निकल गया. अब रमेश ने रानी को बुला कर कहा, ‘‘देखो, अब मुझे तुम्हें यहां से हटाना होगा, नहीं तो बाकी की लड़कियां भी यही मांग करेंगी कि हमें भी काम से मत हटाओ.’’

‘‘मगर, मैं कहां जाऊंगी मालिक?’’ ‘‘शहर से बाहर निकल कर हमारा एक फार्म हाउस है, वहां उस घर की देखभाल के लिए किसी की जरूरत है. मैं तुम्हें वहां नौकरी दे सकता हूं. चौबीस घंटे वहीं रहना होगा. खानापीना सब हम देंगे और तनख्वाह अलग.’’

रानी ने खुशीखुशी हां भर दी. अब रानी फार्म हाउस में काम करने लगी. कभीकभी रमेश अपने दोस्तों को वहां ले जाता, तो रानी खाना भी बना देती थी सब के लिए.

रानी हर काम में माहिर थी. फार्म हाउस पूरा चमका दिया था उस ने. रमेश को यह देख कर बहुत अच्छा लगा. एक बार कहीं बाहर से आते हुए रमेश फार्म हाउस पर चला गया. वहां जा कर पता चला कि चौकीदार छुट्टी पर है. तब रानी ही गेट खोलने आई. चायपानी, नाश्ता सब दे दिया और जाने लगी, तो रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हें यहां कोई दिक्कत तो नहीं है?’’

‘‘जितना चाहा था, उस से भी ज्यादा मिल गया मालिक. आप की वजह से ही मैं आज इज्जत की जिंदगी जी रही हूं, नहीं तो मेरा बाप कब का मुझे बेच देता,’’ कहतेकहते वह रोने लगी. रमेश ने उस के आंसू पोंछे, तो रानी ने रमेश का हाथ पकड़ लिया, ‘‘सर, आप बहुत ही अच्छे इनसान हैं. आजकल अपने कर्मचारियों के बारे में कौन सोचता है.’’ और फिर से उस का हाथ चूमने लगी और बोली, ‘‘आप तो मेरे लिए सबकुछ हैं.’’

उस चुंबन की सिहरन ने रमेश के हाथों वह काम करवा दिया, जो रानी उस से कराना चाहती थी. उस के बाद से तो रमेश का हर हफ्ते का यही काम हो गया. वह हर हफ्ते काम का बहाना बना कर फार्म हाउस आ जाता. रानी ने उसे अपनी बातों में इस कदर उलझा लिया था कि अब रमेश को अपने घर और बीवीबच्चों की भी चिंता नहीं थी. इस बीच रमेश ने मुझ से मिलनाजुलना बंद कर दिया था. फिर अचानक एक दिन भाभी (रमेश की पत्नी) का फोन आया कि रमेश ने दूसरी शादी कर ली है.

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यह सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. मुझे यह तो अंदाजा था कि कुछ गलत हो रहा है, मगर इस हद तक होगा, यह नहीं सोचा था. शादी की उम्र तो उस के बेटों की थी, ऐसे में जब उन्हें अपने बाप की करतूत का पता चला, तो उन्होंने उन्हें घर से निकाल दिया.

रमेश ने पार्क आना बंद कर दिया. आता भी किस मुंह से. इतने सालों से कमाई इज्जत पल में मिट्टी में मिल गई. सारा समाज रमेश पर थूथू कर रहा था. शादी के 6 महीने बाद ही रानी ने एक बच्चे को जन्म दे दिया. रमेश रानी के साथ फार्म हाउस में ही रह रहा था. एक दिन अचानक रात में रमेश मुझ से मिलने आया. वह जानता था कि उस की हरकत से मैं भी बहुत नाराज हूं.

मेरे कुछ कहने से पहले ही वह बोला, ‘‘मुझे मालूम है कि तुम मेरी शक्ल भी नहीं देखना चाहते, पर एक बार मेरी बात सुन लो. मैं यही चाहता हूं और कुछ नहीं. तुम्हारी माफी भी नहीं.’’ फिर रमेश ने शुरू से आखिर तक सारी बातें मुझे बताईं. रमेश ने यह भी बताया कि यह बच्चा उस का है ही नहीं. मगर रमेश ने रानी के साथ संबंध बनाए थे, उस का वीडियो रानी के आशिक ने चुपके से बना लिया था. रमेश पर शादी करने का दबाव डाला गया.

‘‘शादी के बाद ही उसे सारी सचाई का पता चल गया था. रानी ने सिर्फ पैसों के लिए उसे फंसाया था. यह उस की और उस के आशिक की सोचीसमझी चाल थी,’’ यह सब कह कर रमेश फूटफूट कर रोने लगा और मेरे घर से चला गया. मैं तो यह सुन कर सन्न सा बैठा रह गया. अपने दोस्त की जिंदगी अपनी आंखों के सामने बरबाद होते हुए देख रहा था. जिसे रमेश प्यार समझ रहा था, वह केवल एक भरमजाल था. उस ने अपनी इज्जत, परिवार, दोस्तों को तो खोया ही, साथ ही उस प्यार से भी इतना बड़ा धोखा खाया.

काश, वह पहले ही समझ जाता, तो इतने सालों से कमाई हुई उस की इज्जत पर इतना बड़ा कलंक तो नहीं लगता. वह इतना समझता कि 60 साल की उम्र प्यार करने के लिए नहीं, बल्कि अपने परिवार के लिए होती है.

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