Serial Story: न जानें क्यों (भाग- 3)

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‘‘तू मेरी बैस्ट फ्रैंड है या राघव की? रुखसाना मेरे पास घर छोड़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था. शायद अब राघव की अक्ल ठिकाने आ जाएगी और वह मेरी कद्र करने लगेगा. भैयाभाभी का भी यही कहना है कि मैं ने बिलकुल ठीक किया.’’

‘‘रास्ता ढूंढ़ने से मिलता है मानसी. तूने तो बगैर सोचेसमझे वही किया जो भैयाभाभी ने तुझे करने के लिए कहा. तूने सोचा है कि तू कब तक अपने भैयाभाभी के घर में रहेगी? अभी तो वे तेरे फैसले को सही कह रहे हैं, लेकिन अगर राघव और तेरे बीच जल्दी सुलह न हुई, तो क्या तब भी वे तेरा साथ देंगे?’’

‘‘साथ क्यों नहीं देंगे? वे अब भी तो मेरा साथ दे ही रहे हैं. रुखसाना तुझे यहां आ कर देखना चाहिए भैयाभाभी और उन के दोनों बेटे किस तरह मुझ पर और मुसकान पर जान छिड़कते हैं. इस से ज्यादा मैं उन से और क्या उम्मीद करूं?’’ मानसी ने अपने मायके की तारीफ करते हुए कहा.

‘‘देखेंगे कि यह खातिरदारी और दिखावा कितने दिनों तक चलता है. एक बात याद रखना मानसी, मेहमानों की तरह मायके आई बेटी सब को अच्छी लगती, लेकिन अपना घर छोड़ कर मायके आ कर बैठी बेटी किसी को अच्छी नहीं लगती है. मेरी बात कड़वी बेशक है, मगर सच है. फिर जहां तक तेरा सवाल है, तूने तो शादी भी अपने घर वालों की मरजी के खिलाफ जा कर की थी. मैं कामना करूंगी कि तुझे सही और गलत के बीच का फर्क जल्दी समझ आए,’’ कह रुखसाना ने मानसी की बात सुने बिना फोन काट दिया.

मानसी को रुखसाना पर गुस्सा आ रहा था. उस ने सोच लिया था कि अगर उसे अकड़ दिखानी है तो दिखाती रहे. अब वह उसे भी फोन नहीं करेगी.

मानसी को अपने मायके आए कई दिन हो गए थे. इतने दिनों में राघव ने एक बार भी उस से मिलने या बात करने की कोशिश नहीं की. उस के मन में कई बार यह खयाल आया कि रुखसाना उसे बेकार में ही डरा रही थी. भैयाभाभी का व्यवहार उस के साथ बहुत अच्छा है.

लेकिन मानसी का यह भ्रम उस दिन टूट गया जब भैयाभाभी के बेटों रौकी

और रौनी ने खेलते समय लड़ाई हो जाने पर मुसकान को धक्का दे दिया और वह 2-3 सीढि़यों से नीचे जा गिरी. मुसकान के चीखने की आवाज सुन कर मानसी वहां पहुंची तो देखा कि मुसकान जमीन पर पड़ी रो रही है और उस के घुटने से काफी खून बह रहा है.

मानसी ने उसे फौरन डाक्टर के यहां ले जा कर उस की मरहमपट्टी करवाई और फिर घर आ कर रौकी और रौनी को डांट दिया. भाभी उस दौरान शौपिंग करने गई हुई थीं. जब भाभी घर आईं तो रौकी और रौनी ने बात को मिर्चमसाला लगा कर कहा कि बूआ ने उन्हें बहुत मारा.

‘‘मानसी… मानसी…’’ भाभी को इस तरह अपना नाम ले कर चिल्लाते सुन कर मानसी फौरन अपने कमरे से बाहर आई. तब तक भैया भी औफिस से घर आ गए थे.

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‘‘क्या हुआ भाभी?’’ मानसी ने पूछा.

‘‘तुम्हारी मेरे बच्चों पर हाथ उठाने की हिम्मत कैसे हुई?’’ भाभी ने गुस्से से पूछा.

मानसी भाभी का लगाया इलजाम सुन कर चौंक गई. बोली, ‘‘भाभी, मैं ने बच्चों पर हाथ नहीं उठाया, उलटे इन्होंने ही मुसकान को धक्का दे कर नीचे गिरा दिया था. उसे बहुत चोट आई है. डाक्टर के यहां ले जा कर पट्टी करानी पड़ी. बस इसीलिए मैं ने बच्चों को डांट दिया था.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहती हो कि मेरे बच्चे झूठ बोल रहे हैं? क्या मैं इन्हें झूठ बोलना सिखाती हूं?’’ शालिनी का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था.

‘‘भाभी, मेरा यह मतलब नहीं था. अगर मैं ने बच्चों को गलती करने पर डांट दिया तो क्या गलत किया? क्या मेरा इन पर इतना भी हक नहीं है?’’ मानसी ने नरमाई से अपनी बात रखी.

‘‘नहीं, तुम्हें मेरे बच्चों को डांटने का कोई हक नहीं है. यह इन का घर है, इन के मन में जो आएगा ये वही करेंगे. इन्हें सही और गलत का पाठ पढ़ाने वाली तुम कौन होती हो? एक बात कान खोल कर सुन लो मानसी, अगर तुम्हें और तुम्हारी बेटी को मेरे घर में रहना है तो अपनी हद में रहो. अगर आज के बाद मेरे बच्चों से कुछ भी कहा तो मुझ से बुरा कोई न होगा,’’ भाभी ने मानसी को चेतावनी दी और फिर पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई. भैया भी शौपिंग के बैग उठा कर भाभी के पीछेपीछे चल दिए.

मानसी अपने कमरे में आ कर धम्म से बिस्तर पर बैठ गई. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि शालिनी भाभी ने उस से किस तरह बात की. भैया वहीं खड़े सारी बातें सुन रहे थे, फिर भी उन्होंने एक बार भी भाभी को उस से इस तरह बात करने से नहीं रोका. रोकना तो दूर किसी ने एक बार यह तक नहीं पूछा कि मुसकान कैसी है.

अगले दिन से घर का माहौल बिलकुल बदल गया था. भाभी और बच्चे मानसी और मुसकान को देख कर भी अनदेखा कर रहे थे. मां तो पहले ही उस से कटीकटी सी रहती थीं. भैया भी बिना कुछ कहे औफिस चले गए. मानसी को चुप रहना ही ठीक लगा. उस ने सोचा कि शायद 1-2 दिन में सब पहले की तरह सामान्य हो जाएगा. लेकिन मानसी की यह गलतफहमी भी जल्दी दूर होने वाली थी.

कुछ ही दिनों के बाद नीरज ने नाश्ते की मेज पर उस से पूछ लिया, ‘‘मानसी, तुम ने क्या सोचा है? अब तुम्हें आगे क्या करना है?’’

‘‘भैया मैं कुछ समझी नहीं?’’

‘‘देखो मानसी, अब तुम राघव और उस के घर को तो छोड़ ही चुकी हो. फिर

बिना वजह अपने नाम के साथ उस का सरनेम जोड़े रखने का क्या फायदा. मैं ने वकील से बात कर ली है. तुम राघव से तलाक ले लो,’’ नीरज ने बड़ी सहजता से कहा.

मानसी को तो जैसे अपने भाई की बात सुन कर करंट लग गया. वह फौरन कुरसी से उठ खड़ी हुई, ‘‘तलाक, भैया यह आप क्या कह रहे हैं?’’

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‘‘इस में इतना हैरान होने वाली क्या बात है मानसी? तुम्हारे भैया ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ शालिनी ने अपने पति की बात का समर्थन किया.

‘‘पर भाभी तलाक एक बहुत बड़ा कदम है. मैं ने इस बारे में कभी नहीं सोचा,’’ मानसी ने अपनी बात रखी.

‘‘तो अब सोच लो. वैसे भी इस रिश्ते का कोई मतलब नहीं है. तुम कितने दिनों से राघव का घर छोड़ कर हमारे घर में रह रही हो. ऐसा कब तक चलेगा? राघव से तलाक ले कर ऐलीमनी यानी निर्वाह खर्च लो और अपनी जिंदगी में आगे बढ़ो,’’ शालिनी ने मानसी पर दबाव बनाते हुए कहा. नीरज चुपचाप दोनों की बातें सुनता रहा.

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‘‘मैं इतनी जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं ले सकती हूं. मुझे सोचने के लिए थोड़ा समय चाहिए,’’ मानसी ने नजरें चुराते हुए कहा और फिर अपने कमरे की ओर जाने लगी. वह तलाक की बात को वहीं खत्म कर देना चाहती थी.

‘‘ठीक है, कुछ दिन सोच लो. फिर हमें अपना फैसला बता देना,’’ नीरज ने कहा.

मानसी अपने कमरे में आ कर खूब रोई. वह राघव को सबक सिखाना चाहती थी, लेकिन उस ने कभी तलाक के बारे में नहीं सोचा था. भैयाभाभी ने कितनी आसानी से तलाक लेने के लिए कह दिया, उसे राघव पर गुस्सा आने लगा, जिस ने उसे लेने आना तो दूर, एक फोन भी नहीं किया. अगर राघव को अपनी गलती का एहसास हो जाता और वह मानसी से माफी मांग कर उसे घर ले जाता, तो बात इस हद तक बढ़ती ही नहीं. अच्छा हुआ जो उस ने उन से सोचने के लिए समय मांग लिया. अब वह अपने तरीके से उन से तलाक के लिए इनकार कर देगी. फिलहाल तो बात कुछ दिनों के लिए टल ही गई है.

उस दिन के बाद भैयाभाभी ने मानसी से तलाक का जिक्र नहीं किया. भैया अपने औफिस के कामों में व्यस्त रहे और भाभी को अपनी शौपिंग, किट्टी पार्टी व ब्यूटीपार्लर से फुरसत नहीं थी. मानसी को लगा शायद वे दोनों समझ गए होंगे कि मानसी राघव से तलाक नहीं लेना चाहती है. इसलिए उस ने भी इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा.

एक सुबह तीनों बच्चों के स्कूल जाने के बाद मानसी अपने कमरे में बैठी मैगजीन के पन्ने पलट रही थी. तभी शालिनी ने उसे आवाज दे कर बाहर आने के लिए कहा.

मानसी बाहर आई तो देखा लिविंगरूम में शालिनी भाभी अपने ममेरे भाई कौशिक के साथ बैठी थीं. यह वही कौशिक था, जिस के साथ भाभी कभी उस की शादी करवाना चाहती थीं. मानसी उस के गर्ममिजाज और बुरी आदतों से अच्छी तरह वाकिफ थी. वह उसे बिलकुल पसंद नहीं करती थी. लेकिन अब जब उन का सामना हो ही गया है तो वह कर भी क्या सकती है. जब शालिनी ने उसे वहां बैठने के लिए कहा तो उस ने कौशिक से औपचारिकतावश नमस्ते की और उन के पास बैठ गई.

शालिनी ने उन दोनों को बातें करने के लिए कहा और खुद काम का बहाना बना कर वहां से उठ कर चली गई. कौशिक मानसी को ऊपर से नीचे तक निहारने लगा. मानसी उस के सामने बहुत ही असहज महसूस कर रही थी. उस ने अपना पूरा ध्यान मेज पर रखे फूलदान पर केंद्रित कर दिया.

‘‘दीदी बता रही थीं कि तुम आजकल अपने पति का घर छोड़ कर यहीं

रह रही हो. अब आगे क्या करने का इरादा है?’’ कौशिक ने मानसी को इस प्रकार देखते हुए पूछा मानो उस का आंकलन कर रहा हो.

मानसी कुछ कह पाती उस से पहले ही शालिनी वहां आ गई और मानसी की ओर से कौशिक को उत्तर देने लगीं, ‘‘करना क्या है, सब से पहले तो उस राघव को इस की जिंदगी से बाहर निकालना है. इस के भैया ने तो वकील से बात कर के उसे तलाक के पेपर्स तैयार करने के लिए भी कह दिया है.’’

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मानसी का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि भैयाभाभी समझ गए होंगे कि वह राघव से तलाक नहीं लेना चाहती है. लेकिन वे तो वकील से तलाक के कागजात तैयार करवा रहे हैं.

उस ने अपने जज्बातों पर काबू करते हुए कहा, ‘‘लेकिन भाभी मैं ने तो इस बारे में अभी कुछ सोचा ही नहीं है. मैं ने भैया से कहा भी था कि मुझे फैसला लेने के लिए थोड़ा वक्त चाहिए.’’

‘‘और कितना वक्त चाहिए? तुम पहले भी राघव से शादी करने का गलत फैसला ले कर अपनी जिंदगी बरबाद कर चुकी हो. तुम्हारी वजह से हमें भी लोगों की कितनी बातें सुननी पड़ीं. अब तुम्हें उस से तलाक ले कर अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करने का मौका मिल रहा है, तो उस मौके को अपने हाथ से क्यों गंवाना चाहती हो?

वैसे भी तुम अपनी मरजी से ही राघव का घर छोड़ कर हमारे यहां रह रही हो. न वह तुम्हें लेने आया और न ही तुम्हारा वापस जाने का कोई इरादा है. जब तुम और राघव साथ रहना ही नहीं चाहते हो तो बेकार में इस रिश्ते का बोझ क्यों ढोना? तलाक लो और बात को खत्म करो,’’ शालिनी ने मानसी से दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘भाभी, यहां बात सिर्फ मेरी और राघव की नहीं है. हमें कोई भी फैसला लेने से पहले मुसकान के बारे में भी सोचना होगा,’’ मानसी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा.

‘‘मुसकान के बारे में तुम क्यों सोचोगी? वह राघव की जिम्मेदारी है. उस के बारे में जो भी सोचना होगा राघव सोचेगा. वैसे भी तलाक के बाद मुसकान उसी के साथ तो रहने वाली है,’’ शालिनी ने सहजतापूर्वक कहा.

‘‘क्या? भाभी यह आप क्या कह रही हो? मुसकान मेरी बेटी है. मैं उसे खुद से अलग करने के बारे में सोच भी नहीं सकती हूं. मैं मुसकान के बिना मर जाऊंगी,’’ मानसी शालिनी की बात सुन कर बौखला गई.

‘‘वाह, यह वैसे ही न जैसे तुम राघव के बिना जी नहीं सकती थीं. मानसी यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. तुम्हें राघव से तलाक ले कर अपनी जिंदगी में आगे बढ़ना है. मुसकान तुम्हारे साथ रहेगी तो तुम्हें मूव औन करने में दिक्कत आएगी. कौन पति अपनी पत्नी की पहली शादी से पैदा हुई बेटी को पालना चाहेगा,’’ शालिनी ने नाटकीय ढंग से आंखें घुमाते हुए कहा.

‘‘दूसरी शादी? आप और भैया मेरी दूसरी शादी करवाना चाहते हैं?’’

‘‘हां, इसीलिए तो कौशिक यहां आया है.’’

‘‘मुझे यकीन नहीं आ रहा है कि आप और भैया मेरी पीठ पीछे इतना कुछ कर रहे हैं.’’

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‘‘इस में इतनी हैरानी वाली क्या बात है? राघव से तलाक के बाद तुम्हें किसी न किसी से दूसरी शादी तो करनी ही है, तो कौशिक क्यों नहीं? मैं ने कौशिक से बात भी कर ली है. इसे तुम से शादी करने में कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

‘‘प्रौब्लम माई फुट. न तो मैं राघव से तलाक लूंगी और न ही आप के भाई से शादी करूंगी,’’ मानसी ने 1-1 शब्द पर जोर देते हुए शालिनी को अपना फैसला सुना दिया और अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया.

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Serial Story: न जानें क्यों (भाग- 1)

राघव कमरे में दाखिल हुआ तो देखा मानसी अपने मायके से मिले तोहफों को अलमारी में संभाल कर रख रही थी. वह बिना कुछ कहे पलंग पर बैठ कर तिरछी नजरों से अपनी पत्नी की ओर देखने लगा. शायद मानसी का मूड अब भी खराब ही था. आज अपने भतीजे की बर्थडे पार्टी के दौरान भी उस का मूड उखड़ाउखड़ा ही था. चेहरे पर जबरदस्ती की मुसकराहट रख कर वह बाकी सब को तो मूर्ख बना सकती थी, लेकिन उसे नहीं. राघव ने इस वक्त यह सोच कर चुप रहना ठीक समझा कि शायद सुबह तक उस का मूड अपनेआप ठीक हो जाएगा. अत: चुपचाप लाइट बंद कर सोने की कोशिश करने लगा.

राघव के लाइट बंद कर सोते ही मानसी की आंखों से आंसू बह निकले. उसे महसूस हुआ जैसे राघव को उस के दुखी या नाराज होने से कोई फर्क ही नहीं पड़ता है. वह अच्छी तरह से जानता है कि उस का मूड कितना खराब है. फिर भी उस से इतना नहीं हुआ कि एक बार मूड खराब होने की वजह पूछे. शायद अब वह पहले वाला राघव नहीं रहा, जिस के लिए मानसी ही उस की पहली प्राथमिकता हुआ करती थी. समय के साथ कितना कुछ बदल जाता है. यही सोचतेसोचते मानसी भी नींद के आगोश में समा गई.

मानसी सुबह उठ कर चुपचाप घर के कामों में लग गई. राघव ने 1-2 बातें करने की कोशिश भी की, लेकिन उस ने हांहूं में उत्तर दे कर टाल दिया. फिर अपनी 4 वर्षीय बेटी मुसकान को तैयार कर के स्कूल छोड़ने के लिए चली गई. हार कर राघव भी चुपचाप औफिस चला गया. मुसकान को स्कूल छोड़ कर आने के बाद मानसी ने अपनी सब से प्रिय सहेली रुखसाना का नंबर डायल किया. कुछ ही देर बाद रुखसाना ने डोरबैल बजा दी.

‘‘क्या हुआ मानसी आज तेरा मूड इतना खराब क्यों है?’’ रुखसाना ने मानसी

का उतरा चेहरा देख कर पूछा.

‘‘आजकल मेरा मूड खराब होने की एक ही वजह है और वह है मेरा पति,’’ मानसी ने उखड़े मन से कहा.

‘‘तुम दोनों के बीच फिर कोई झगड़ा हुआ है क्या?’’ रुखसाना ने सोफे पर बैठते हुए पूछा.

‘‘अब तो यह रोज का ड्रामा है रुखसाना,’’ मानसी भी रुखसाना के सामने बैठ गई.

‘‘तुम दोनों को क्या हो गया है मानसी? कालेज में सब तुम्हारे प्यार की मिसाल देते थे और अब,’’ रुखसाना ने चिंतित हो कर कहा तो मानसी की रुलाई फूट पड़ी.

रुखसाना उठ कर मानसी के निकट जा बैठी और उसे चुप कराने लगी.

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रुखसाना का सहारा पा कर मानसी ने अपने दिल का गुबार निकाल दिया, ‘‘ये सब राघव की वजह से हो रहा है रुखसाना. शादी से पहले मैं ने जितने सपने देखे थे, वे सब टूट गए. पता है कल हम नीरज भैया के बेटे की बर्थडे पार्टी में गए थे. वहां सभी लोग एक से बढ़ कर एक महंगे उपहार ले कर आए थे. केवल हम ही थे जो सस्ता सा खिलौना पकड़ा कर आ गए. तू तो मेरे मायके वालों का स्टेटस जानती है. मुझे इतनी शर्म आ रही थी कि मैं क्या बताऊं.’’

‘‘तो क्या हो गया अगर तुम लोग औरों की तरह ज्यादा महंगा तोहफा नहीं ले जा पाए? मानसी, हर इंसान को अपनी जेब देख कर खर्च करना चाहिए, चाहे तुम्हारे नीरज भैया हों या कोई और, तुम कितनी भी कोशिश कर लो हर किसी की हर किसी से बराबरी तो नहीं कर पाओगी,’’ रुखसाना ने तर्क दिया.

‘‘बात दूसरों से बराबरी करने की नहीं है रुखसाना. कभीकभी मुझे लगता है कि शायद राघव खुद ही नहीं चाहता है कि समाज में उस का कद और हैसियत बढ़े. तुझे पता है राघव से नीचे काम करने वाले प्रमोशन पा कर उस से ऊपर पहुंच गए हैं. लेकिन वह पहले जहां था आज भी वहीं है. तू शोएब भाई  को ही देख ले, उन्होंने एक छोटी सी दुकान से अपना बिजनैस शुरू किया था और आज वे कितने बड़े शोरूम के मालिक हैं. कल तो पार्टी में शालिनी भाभी ने मुझे ताना मारते हुए पूछ भी लिया कि राघव का प्रमोशन क्यों नहीं होता है,’’ मानसी ने रुखसाना को उसी के शौहर का उदाहरण दे कर उस का तर्क काटने का प्रयास किया.

‘‘मानसी, क्या तू भूल गई है कि शोएब को अपना काम जमाने के लिए कितनी जद्दोजहद करनी पड़ी थी? जगहजगह से कर्जा उठाया, दिनरात भागदौड़ की, तब कहीं जा कर हमारा काम चला. राघव एक ईमानदार और मेहनती इंसान है. जब उस का वक्त आएगा तो वह भी बहुत ऊपर तक जाएगा. कभी तू भी उस की इन्हीं खूबियों की तारीफ किया करती थी. और तू कहां शालिनी भाभी की बातों को दिल से लगा कर बैठ गई है. क्या मुझे तेरी भाभी की आदत नहीं पता है? तू उन की बातों में आ कर अपने घर में कलह मत कर बैठना,’’ रुखसाना ने मानसी को समझाने के लिहाज से कहा.

‘‘शोएब भाई ने तरक्की की, क्योंकि उन के इरादे मजबूत थे. लेकिन मुझे नहीं लगता है कि राघव का ऐसा कोई इरादा है. मुझे लगता है कि मैं एक दिन इसी तरह तंगहाली और मुश्किलों में ही एडि़यां घिसघिस कर मर जाऊंगी. अपनी मुसकान को वह भविष्य नहीं दे पाऊंगी जो मैं ने सोचा था और मैं ये सब शालिनी भाभी की बातों में आ कर नहीं कह रही हूं. रुखसाना कभीकभी मुझे भी लगता है कि…’’ मानसी बोलतेबोलते रुक गई.

‘‘क्या लगता है?’’ मानसी ने पूछा.

‘‘कभीकभी मुझे भी महसूस होता है कि शायद मैं ने राघव से शादी कर के अपनी जिंदगी की सब से बड़ी गलती कर दी,’’ मानसी ने रुखसाना से नजरें चुराते हुए कहा.

‘‘मानसी, तुझे जरा भी अंदाजा है कि तू क्या बोल रही है,’’ रुखसाना मानसी की बात सुन कर चौंक गई.

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Serial Story: न जानें क्यों (भाग- 5)

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मानसी को हैरानी हो रही थी कि भाभी ने खुद एक मां होने के बावजूद कितनी आसानी से मुसकान को उस से दूर करने की बात कह दी.

उस दिन रौकी और रौनी के झूठ बोलने पर कि मानसी ने उन पर हाथ उठाया है, उन का दिल तड़प उठा था. लेकिन आज वह मानसी से उस की बच्ची को दूर कर देना चाहती थीं. तलाक और दूसरी शादी की बात सुन कर उसे यह एहसास हुआ कि वह आज भी राघव से बहुत प्यार करती है. उसे भाभी के साथसाथ राघव पर भी गुस्सा आ रहा था. क्या वह जिद छोड़ कर उसे लेने नहीं आ सकता था. मानसी फूटफूट कर रो पड़ी.

जैसाकि मानसी को अंदेशा था, शालिनी ने नीरज को फोन कर के घर आने के लिए कह दिया था. नीरज के घर आने पर शालिनी ने सारा घर सिर पर उठा लिया. नीरज ने नौकर को भेज कर मानसी को बाहर बुलवा लिया. मानसी चुपचाप एक कोने में जा कर खड़ी हो गई. उसे यकीन था कि भैया उस की बात जरूर समझेंगे. शोरशराबा सुन कर मां भी वहां आ गई थीं.

‘‘आप को अंदाजा नहीं है नीरज, आज आप की बहन ने मेरी और मेरे भाई की कितनी बेइज्जती की है. इस की वजह से मुझे अपने भाई के सामने कितना शर्मिंदा होना पड़ा,’’ मानसी ने टेढ़ी नजर से मानसी को देखते हुए कहा.

‘‘तुम्हारी भाभी क्या कह रही हैं मानसी?’’ नीरज ने मानसी से सवाल किया.

‘‘ऐसा कुछ नहीं हुआ था भैया. भाभी मेरा तलाक करवा कर मेरी शादी अपने भाई कौशिक से करवाना चाहती हैं. मैं ने इनकार कर दिया तो इन्हें बुरा लग गया. ये तो मुसकान को भी मुझ से दूर करने की बात कह रही थीं,’’ मानसी ने अपना पक्ष रखा.

‘‘तो इस में गलत क्या है? शालिनी ठीक कह रही है. हम जो भी करेंगे तुम्हारे भले के लिए ही करेंगे.’’

नीरज को अपनी पत्नी का पक्ष लेते देख कर मानसी को बहुत दुख हुआ. अपने बड़े भाई से सवाल पूछे बिना उस से रहा नहीं गया, ‘‘राघव से तलाक ले कर अपनी बेटी से दूर होने में मेरी कौन सी भलाई है भैया? और उस कौशिक से शादी करने में मेरा क्या भला होगा?’’

‘‘क्यों, मेरे भाई में ऐसी क्या बुराई है, जो तुम उस से शादी नहीं कर सकतीं? पहले भी तुम ने उसे ठुकरा कर उस फटीचर राघव से शादी कर ली थी. वह तो मेरे भाई की शराफत है कि इस सब के बावजूद वह तुम से शादी करने के लिए तैयार है,’’ शालिनी ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा.

‘‘आप को सुनना है तो सुनिए… आप का भाई एक नंबर का आवारा है. क्या मैं नहीं जानती हूं कि उस की नजर कितनी खराब है. जब आप मेरे लिए उस का रिश्ता ले कर आई थीं उस वक्त भी वह एक लड़की से बदसलूकी करने के आरोप में जेल की हवा खा कर आया था. क्या मैं ऐसे घटिया आदमी से शादी करती? मेरे राघव के पास आप के भाई जितनी दौलत भले न हो, लेकिन वह उस से हर लिहाज से बेहतर और शरीफ इंसान है,’’ मानसी ने गुस्से में कहा.

‘‘एक तो हम ने तुम्हें और तुम्हारी बेटी को अपने घर में रख कर एहसान किया, ऊपर से तुम हमें ही आंखें दिखा रही हो. मेरे जिस भाई के बारे में तुम बकवास कर रही हो, उसी ने तुम्हारे भाई के नए बिजनैस में लाखों रुपए इनवैस्ट किए हैं. अगर तुम्हारा पति इतना ही अच्छा और शरीफ आदमी है, तो तुम उसे छोड़ कर यहां क्यों हो? मुफ्त की रोटियां क्यों तोड़ रही हो? चली जाओ अपने घर,’’ शालिनी चीख पड़ी.

मानसी की आंखों से आंसू बहने लगे. उस ने नीरज की ओर देखा तो वह दूसरी ओर देखने लगा. मां की ओर देखा तो उन्हें लगा कि जैसे उन की आंखें उसे चुनौती दे रही हों. तभी मुसकान नौकर के साथ स्कूल से वापस आ गई और भाग कर मानसी की टांगों से लिपट गई.

‘‘मम्मी आप रो रही हो?’’ मुसकान ने सवाल किया तो मानसी ने आंसू पोंछे और अपनी बेटी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में चली गई.

कमरे में जाते ही मानसी ने अपना सारा सामान समेटना शुरू कर दिया. अपना बैग पैक करने के बाद उस ने रुखसाना को फोन किया और उस के फोन उठा कर हैलो कहते ही कहा, ‘‘मैं अपने घर वापस जा रही हूं रुखसाना. वह घर भले ही छोटा है, लेकिन मेरा अपना है.’’

रुखसाना मानसी की भर्राई आवाज सुन कर सब समझ गई थी. उस ने केवल इतना कहा, ‘‘तू बिलकुल ठीक कर रही है मानसी.’’

कुछ ही देर बाद मानसी औटो से अपने और राघव के घर के बाहर उतर रही थी.

मानसी ने हिम्मत कर के डोरबैल बजाई. राघव ने दरवाजा खोला तो उसे व मुसकान को सामने पा कर चौंक गया. मुसकान पापापापा कहते हुए उस से लिपट गई.

मानसी ने देखा कि राघव कुछ ही दिनों में काफी कमजोर हो गया था. उस की दाढ़ी बढ़ी हुई थी. आंखें देख कर लग रहा था कि वह कई दिनों से ठीक से सोया नहीं है. मानसी का दिल आत्मग्लानि से भर गया.

उस ने राघव से कहा, ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे?’’

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राघव बिना कुछ कहे एक तरफ हट गया. मानसी ने अंदर आ कर मुसकान को खेलने के लिए उस के कमरे में भेज दिया. राघव सोफे पर जा कर बैठ गया. मानसी राघव के पास जा कर नीचे बैठ गई और उस का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘आई एम सौरी राघव. मेरा दिमाग खराब हो गया था जो मैं ने भैयाभाभी की बातों में आ कर तुम्हारे प्यार पर शक किया और अपना घर छोड़ कर चली गई. मैं आइंदा कभी ऐसी गलती नहीं करूंगी. मुझे तुम्हारे साथ और प्यार के अलावा और कुछ नहीं चाहिए. प्लीज मुझे माफ कर दो.’’

राघव बिना कुछ कहे उस के चेहरे को ध्यान से देखता रहा. कोई जवाब न मिलने पर मानसी ने लगभग रोते हुए कहा, ‘‘राघव प्लीज कुछ तो बोलो. मुझ से झगड़ा कर लो, मुझे डांटो, अपना सारा गुस्सा मुझ पर निकाल लो, मगर प्लीज मुझे इस तरह से न देखो.’’

‘‘मैं तुम से और मुसकान से बहुत प्यार करता हूं मानसी. अगर तुम फिर से मुझे छोड़ कर चली गई तो मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ राघव ने मानसी की आंखों में देख कर लगभग फुसफुसाते हुए कहा.

‘‘मैं भी तुम से बहुत प्यार करती हूं राघव. मैं वादा करती हूं कि मैं आज के बाद तुम्हें और अपने घर को छोड़ कर कभी नहीं जाऊंगी. आई एम सौरी राघव,’’ मानसी राघव की गोद में सिर रख कर फूटफूट कर रो रही थी. राघव की आंखों से भी आंसुओं की बूंदें लुढ़क गईं. वह आंखें बंद कर मानसी का सिर सहलाने लगा.

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Latest Hindi Stories : दीवार – क्या आनंद अंकल सच में जया और राहुल के अपने थे?

Latest Hindi Stories : आस्ट्रेलिया में 6 सप्ताह बिताने के बाद जया और राहुल जब वापस आए तो घर खोलते ही उन्हें हलकी सी गंध महसूस हुई. यह गंध इतने दिनों तक घर बंद होने के कारण थी.  सफर की थकान के कारण राहुल और जया का मन चाय पीने को कर रहा था, जया बोली, ‘‘जानकी कल शाम पूजा के फ्रिज में दूध रख गई होगी, तुम खिड़कियां व दरवाजे खोलो राहुल, मैं तब तक दूध ले कर आती हूं.’’

‘‘दूध ले कर या चाय का और्डर कर के?’’ राहुल हंसा.

‘‘आस तो नाश्ते की भी है,’’ कह कर जया बाहर निकल गई.  बराबर के फ्लैट में रहने वाले कपिल और पूजा से उन की अच्छी दोस्ती थी.  कुछ देर बाद जया सकपकाई सी वापस आई और बोली, ‘‘कपिल और पूजा ने यह फ्लैट किसी और को बेच दिया है. मैं ने घंटी बजाई तो दरवाजा एक नेपाली लड़के ने खोला और पूजा के बारे में पूछा तो बोला कि वे तो अब यहां नहीं रहतीं, यह फ्लैट हमारे साहब ने खरीद लिया है.’’

जया अभी राहुल को नए पड़ोसी के बारे में बता ही रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. जया ने जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा कि जानकी दूध के पैकेट लिए खड़ी थी.

‘‘माफ करना मैडम, आने में थोड़ी देर हो गई, पूजा मैडम का नया फ्लैट…’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ जया ने बात काटी, ‘‘यह बता, पूजा मैडम कहां गईं?’’

‘‘7वें माले पर, मगर क्यों, यह नहीं मालूम,’’ जानकी ने रसोई में जाते हुए कहा.

‘‘चलो, है तो सोसायटी में ही, मिलने पर पूछेंगे कि तीसरे माले से 7वें माले पर क्यों चढ़ गई? चाय तो जानकी पिला देगी मगर नाश्ता तो खुद ही बनाना पड़ेगा,’’ जया ने राहुल से कहा.

‘‘नाश्ते के लिए इडलीसांभर और फल ला दूंगा.’’

राहुल के बाजार जाने के बाद दरवाजा बंद कर के जया मुड़ी ही थी कि फिर घंटी बजी. जया ने दरवाजा खोला. बराबर वाले फ्लैट का वही नेपाली लड़का एक ढकी हुई टे्र लिए खड़ा था.  ‘‘साहब ने नाश्ता भिजवाया है,’’ कह कर उस ने बराबर वाले फ्लैट की ओर इशारा किया जहां एक संभ्रांत प्रौढ़ सज्जन दरवाजे पर ताला लगा रहे थे. ताला लगा कर वे जया की ओर मुड़े और मुसकरा कर बोले, ‘‘मैं आप का नया पड़ोसी आनंद हूं. मुझे पूजा और कपिल से आप के बारे में सब मालूम हो चुका है. आस्टे्रलिया की लंबी यात्रा के बाद आप थकी हुई होंगी इसलिए पूजा की जगह मैं ने आप के लिए नाश्ता बनवा दिया है.’’

‘‘आप ने तकलीफ क्यों की? राहुल गए हैं न नाश्ता लाने…’’

‘‘तो यह आप लंच में खा लेना,’’ आनंद नौकर की ओर मुड़े. ‘‘मुरली, टे्र अंदर टेबल पर रख दो.’’

मुरली ने लपक कर टे्र अंदर टेबल पर रख दी और फिर आनंद का ब्रीफकेस उठा कर लिफ्ट की ओर चला गया.  ‘‘इतना संकोच करने की जरूरत नहीं है, बेटी,’’ आनंद ने प्यारभरे स्वर में कहा, ‘‘अब हम पड़ोसी हैं, एकदूसरे का सुखदुख बांटने वाले.’’

जया भावविह्वल हो गई, ‘‘थैंक यू, अंकल…’’

‘‘साहब, लिफ्ट आ गई,’’ मुरली ने पुकारा.

‘‘शाम को मिलते हैं, टेक केयर,’’ आनंद ने लिफ्ट की ओर जाते हुए कहा.

तभी राहुल आ गया और खुशबू सूंघते हुए बोला, ‘‘मैं गया तो था न नाश्ता लाने फिर तुम ने क्यों बना लिया?’’  ‘‘मैं ने नहीं बनाया, हमारे नए पड़ोस से आया है,’’ जया ने राहुल के मुंह में परांठे का टुकड़ा रखते हुए कहा, ‘‘खा कर देखो, क्या लाजवाब स्वाद है.’’

‘‘सच में मजा आ गया,’’ राहुल बैठते हुए बोला, ‘‘अब तो यही खाएंगे. परांठे तो बढि़या हैं, आनंद साहब कैसे हैं?’’

‘‘तुम्हें उन का नाम कैसे मालूम?’’ जया ने चौंक कर पूछा.

‘‘नीचे सोसायटी का सेके्रटरी श्रीनिवास मिल गया था. उसी ने बताया कि अमेरिकन बैंक के उच्चाधिकारी आनंद विधुर हैं, बच्चे भी कहीं और हैं. बस एक नौकर है जो उन की गाड़ी भी चलाता है इसलिए अकेलापन काटने के लिए ऐसा फ्लैट चाहते थे जिस की बालकनी से वे मेन रोड की रौनक देख सकें. अपनी बिल्ंिडग में जो फ्लैट बिकाऊ हैं उन से मेन रोड नजर नहीं आती. श्रीनिवास के कहने पर उन्होंने 7वें माले का फ्लैट ले तो लिया पर उस में रहने नहीं आए. बाद में श्रीनिवास को बगैर बताए उन्होंने कपिल से अपना फ्लैट बदल लिया. इस अदलाबदली का कमीशन न मिलने से श्रीनिवास बहुत चिढ़ा हुआ है.’’

जया हंसने लगी, ‘‘कपिल से या आनंद अंकल से?’’

‘‘अरे वाह, तुम ने उन्हें अंकल भी बना लिया?’’

‘‘जब उन्होंने मुझे बेटी कहा तो मुझे भी उन्हें अंकल कहना पड़ा. वैसे भी उन की उम्र के व्यक्ति को तो अंकल ही कहना चाहिए.’’  पेट भर नाश्ता करने के बाद दोनों आराम करने लगे. अगले रोज से काम पर जाना था इसलिए दोनों कुछ देर बाद उठे और घर का सामान लाने बाजार चले गए. लौटते समय लिफ्ट में आनंद मिल गए. अपने फ्लैट का ताला खोलने से पहले राहुल ने कहा, ‘‘अंकल, आज हमारे साथ चाय पीजिए.’’

‘‘जरूर पीऊंगा बेटा, मगर फिर कभी.’’

‘‘वह फिर कभी न जाने कब आए, अंकल,’’ जया बोली, ‘‘कल से काम पर जाने के बाद घर लौटने का कोई सही वक्त नहीं रहेगा.’’  आनंद अपने फ्लैट की चाबी मुरली को पकड़ा कर राहुल और जया के साथ अंदर आ गए. उन के चेहरे से लगा कि वे घर की सजावट से बहुत प्रभावित लग रहे हैं.

‘‘आस्ट्रेलिया का ट्रिप कैसा रहा?’’ आनंद ने बातचीत के दौरान पूछा.

‘‘बहुत बढि़या. मेरे छोटे भाई साहिल ने हमें खूब घुमाया. बहुत मजा आया. वैसे भी आस्टे्रलिया बहुत सुंदर है,’’ राहुल ने कहा.

‘‘वहां जा कर बसने का इरादा तो नहीं है?’’

‘‘अरे नहीं अंकल, रहने के लिए अपना देश ही सब से बढि़या है.’’

‘‘यह बात छोटे भाई को नहीं समझाई?’’

‘‘ऐसी बातें किसी के समझाने से नहीं, अपनेआप ही समझ आती हैं, अंकल.’’

‘‘यह बात तो है. मुझे भी औरों की बात समझ नहीं आई थी और जब आई तो बहुत देर हो चुकी थी,’’ आनंद ने लंबी सांस ले कर कहा.

‘‘कौन सी बात, अंकल?’’ जया ने पूछा.

‘‘यही कि अपना देश विदेशों से अच्छा है,’’ आनंद ने सफाई से बात बदली, ‘‘लंबे औफिस आवर्स हैं आप दोनों के?’’

‘‘मेरे तो फिर भी ठीक हैं लेकिन जया रायजादा गु्रप के चेयरमैन की पर्सनल सेके्रटरी है इसलिए यह अकसर देर से आती है,’’ राहुल ने बताया.

‘‘खानेवाने का कैसे चलता है फिर?’’

‘‘जानकी रात का खाना बना कर रख जाती है, सवेरे मैं देर से जाती हूं इसलिए आसानी से कुछ बना लेती हूं.’’

‘‘फिर भी कभी कुछ काम हो तो मुरली से कह देना, कर देगा.’’

‘‘थैंक्यू, अंकल. आप को भी जब फुरसत हो यहां आ जाइएगा. मैं तो 7 बजे तक आ जाता हूं,’’ राहुल ने कहा.  आनंद के जाने के कुछ देर बाद कपिल आया. बोला, ‘‘माफ करना भाई, फ्लैट बदलने के चक्कर में तुम्हारे आने की तारीख याद…’’

‘‘लेकिन बैठेबिठाए अच्छाभला फ्लैट बदलने की क्या जरूरत थी यार?’’ राहुल ने बात काटी.

‘‘जब उस बालकनी की वजह से जिसे इस्तेमाल करने की हमें फुरसत ही नहीं थी, आनंद साहब मुझे उस फ्लैट की मार्केट वैल्यू से कहीं ज्यादा दे रहे थे तो मैं फ्लैट क्यों न बदलता?’’  राहुल ने खुद को कहने से रोका कि हमें तो अभी तुम्हारी कमी महसूस नहीं हुई और शायद होगी भी नहीं. उसे न जाने क्यों आनंद अंकल अच्छे या यह कहो अपने से लगे थे. सब से अच्छी बात यह थी कि उन का व्यवहार बड़ा आत्मीय था.

अगली सुबह जया ने कहा, ‘‘आनंद अंकल के नाश्ते के बरतन मैं जानकी से भिजवाना भूल गई. तुम शाम को जानकी से कहना, दे आएगी.’’

लेकिन शाम को राहुल खुद ही बरतन लौटाने के बहाने आनंद के घर चला गया. आनंद बालकनी में बैठे थे, उन्होंने राहुल को भी वहीं बुला लिया.  ‘‘स्वच्छ तो खैर नहीं कह सकते लेकिन खुली हवा यहीं बैठ कर मिलती है और चलतीफिरती दुनिया भी नजर आ जाती है वरना तो वही औफिस के वातानुकूलित कमरे या घर के बैडरूम, ड्राइंगरूम और टैलीविजन की दुनिया, कुछ अलग सा महसूस होता है यहां बैठ कर,’’ आनंद ने कहा, ‘‘सुबह का तो खैर कोई मुकाबला ही नहीं है. यहां की ताजी हवा में कुछ देर बैठ जाओ तो दिनभर स्फूर्ति और चुस्ती बनी रहती है.’’  ‘‘तभी आप ने बहुत ऊंचे दामों में कपिल से यह फ्लैट बदला है,’’ राहुल बोला.  आनंद ने उसे गहरी नजरों से देखा और बोले, ‘‘कह सकते हो वैसे बालकनी के सुख देखते हुए यह कीमत कोई ज्यादा नहीं है. चाहो तो आजमा कर देख लो. सुबह अखबार तो पढ़ते ही होगे?’’

‘‘जी हां, चाय भी पीता हूं.’’

‘‘तो कल यह सब बालकनी में बैठ कर करो, सारा दिन ताजगी महसूस करोगे.’’

अगले दिन जया और राहुल सवेरे ही आनंद अंकल की बालकनी में आ कर बैठ गए. आनंद की बात ठीक थी, राहुल और जया अन्य दिनों की अपेक्षा दिन भर खुश रहे इसलिए रोज सुबह बालकनी में बैठने और आनंद के साथ खबरों पर टिप्पणियां करने का सिलसिला शुरू हो गया.  एक रविवार की सुबह आनंद ने जया  को आराम से अखबार पढ़ते देख कर पूछा, ‘‘आज संडे स्पैशल बे्रकफास्ट बनाने का मूड नहीं है क्या?’’

जया ने इनकार में सिर हिलाया, ‘‘संडे को हम ब्रेकफास्ट करते ही नहीं अंकल, चलतेफिरते फल, नट्स आदि खाते रहते हैं.’’

‘‘मैं तो भई संडे को हैवी ब्रेकफास्ट करता हूं, भरवां परांठे या पूरीभाजी का और फिर उसे पचाने के लिए जी भर कर गोल्फ खेलता हूं. तुम्हें गोल्फ का शौक नहीं है, राहुल?’’  राहुल ने उन की ओर हसरत से देखा और कहा, ‘‘है तो अंकल, लेकिन कभी खेलने का या यह कहिए देखने का मौका भी नहीं मिला.’’

‘‘समझो मौका मिल गया. चलो मेरे साथ.’’ और आनंद ने मुरली को आवाज दे कर राहुल और जया के लिए भी नाश्ता बनाने को कहा. नाश्ता कर आनंद और राहुल गोल्फ क्लब पहुंचे.  राहुल और आनंद के जाने के बाद मुरली गाड़ी में जया को ब्यूटी पार्लर ले गया. आज उस ने रिलैक्स हो कर पार्लर में आने का मजा लिया.  राहुल की तो बरसों पुरानी गोल्फ क्लब जाने की तमन्ना पूरी हो गई. खेलने के बाद अंकल के दोस्तों के साथ बैठ कर बीयर पीना और लंच लेना, फिर घर आ कर कुछ देर इतमीनान से सोना.  यह प्रत्येक रविवार का सिलसिला बन गया. जया भी इस सब से बहुत खुश थी, मुरली बगैर कहे सफाई के अलावा भी कई और काम कर देता था. मुरली के साथ जा कर वह अपने उन रिश्तेदारों या परिचितों से भी मिल लेती थी जिन से मिलने में राहुल को दिलचस्पी नहीं थी. शाम वह और राहुल इकट्ठे गुजारते थे. संक्षेप में आनंद अंकल के पड़ोस में आने से उन की जिंदगी में बहार आ गई थी. जया अकसर उन की पसंद का गाजर का हलवा या नाश्ता बना कर उन्हें भिजवाती रहती थी, कभी पिक्चर या सांस्कृतिक कार्यक्रम में जाने के लिए बगैर पूछे अंकल का टिकट भी ले आती थी.

कुछ अरसे तक तो सब ठीक चला फिर राहुल को लगने लगा कि जया का झुकाव अंकल की तरफ बढ़ता ही जा रहा है. औफिस से जल्दी लौटने पर वह अंकल को जबरदस्ती घर पर बुला लेती थी, कभी उन्हें अपनी शादी का वीडियो दिखाती थी, कभी साहिल की शादी का या राहुल के बचपन की तसवीरें.  अंकल भी उसे खुश करने के लिए दिलचस्पी से सब देखते रहते थे. तभी राहुल को प्रमोशन मिल गया. जाहिर है, जया ने सब से पहले यह खबर आनंद अंकल को सुनाई और उन्होंने उसी रात इस खुशी में क्लब में पार्टी दी जिस में कपिल, पूजा और अपार्टमैंट में रहने वाले कुछ और लोगों को भी बुलाया. जब राहुल के औफिस वालों ने दावत मांगी तो राहुल ने किसी रेस्तरां में दावत देने की सोची लेकिन खर्च बहुत आ रहा था. जया ने कहा कि दावत घर पर ही करेंगे. मुरली भी साथ रहेगा.  ‘‘लेकिन अंकल शाम को गाड़ी नहीं चलाते. अगर मुरली यहां रहेगा तो वे क्लब कैसे जाएंगे, शनिवार की शाम उन्हें घर में गुजारनी पड़ेगी,’’ राहुल ने कहा.

‘‘कमाल करते हो, राहुल. हमारी पार्टी छोड़ कर अंकल क्लब जाएंगे या अपने घर में शाम गुजारेंगे, यह तुम ने सोच भी कैसे लिया?’’

‘‘यानी अंकल पार्टी में आएंगे?’’ राहुल ने हैरानी से पूछा, ‘‘तुम ने यह भी सोचा है जया कि यह जवान लोगों की पार्टी है. उस में अंकल को बुलाने से हमारा मजा किरकिरा हो जाएगा.’’

जया चौंक गई. उस ने आहत स्वर में पूछा, ‘‘हर रविवार को अंकल के साथ गोल्फ क्लब जाने या कभी शाम को जिमखाना क्लब जाने में तुम्हारा मजा किरकिरा नहीं होता?’’  खैर, पार्टी बढि़या रही, अंकल ने पार्टी के मजे में खलल डालने के बजाय जान ही डाली और औफिस के लोग राहुल के उच्चकुलीन वर्ग के लोगों से संपर्क देख कर प्रभावित भी हुए. लेकिन राहुल को जया का अंकल से इतना लगाव चिढ़ की हद तक कचोटने लगा था.

एक शाम वह औफिस से लौटा तो जया को देख कर हैरान रह गया.

‘‘तुम आज औफिस से जल्दी कैसे आ गईं, जया?’’

‘‘मैं आज औफिस गई ही नहीं,’’ जया ने बताया, ‘‘जा ही रही थी कि मुरली हड़बड़ाया हुआ आया कि अंकल अपने औफिस की लिफ्ट में फंस गए हैं. केबल टूटने की वजह से 9वीं मंजिल से लिफ्ट नीचे गड्ढे में जा कर गिरी है…’’

‘‘ओह नो, अब अंकल कैसे हैं, जया?’’ राहुल ने घबरा कर पूछा.

‘‘खतरे से बाहर हैं, आईसीयू से निजी कमरे में शिफ्ट कर दिए गए हैं लेकिन  1-2 रोज अभी औब्जरवेशन में रखेंगे.’’

‘‘और मुरली भी रहेगा ही…’’

‘‘मुरली नहीं, रात को अंकल के पास तुम रहोगे राहुल. अंकल को नौकर की नहीं किसी अपने की जरूरत है.’’

‘‘मुझे दूसरी जगह सोना अच्छा नहीं लगता इसलिए मैं तो जाने से रहा,’’ राहुल ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘तो फिर मैं चली जाती हूं. अंकल को किराए के लोगों के भरोसे तो छोड़ने से रही. वैसे भी औफिस से तो मैं ने छुट्टी ले ही ली है इसलिए जब तक अंकल अस्पताल में हैं मैं वहीं रहूंगी,’’ जया ने अंदर जाते हुए कहा, ‘‘मुरली आए तो उसे रुकने को कहना है, मैं अपने कपड़े ले कर आती हूं.’’

राहुल ने लपक कर उस का रास्ता रोक लिया.  ‘‘मगर क्यों? क्यों जया, उन के लिए इतना दर्द क्यों?’’ राहुल ने व्यंग्य से पूछा, ‘‘क्या लगते हैं वह तुम्हारे?’’

‘‘मेरे ससुर लगते हैं क्योंकि वह तुम्हारे बाप हैं,’’ जया के स्वर में भी व्यंग्य था, ‘‘आनंद उन की जाति नहीं नाम है और डीए आनंद का पूरा नाम असीम आनंद धूत है.’’  राहुल हतप्रभ रह गया. हलके से दिया गया झटका भी जोर से लगा था.

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘अचानक ही पता चल गया. 7-8 सप्ताह पहले अहमदाबाद से लौटते हुए प्लेन में मेरी बराबर की सीट पर एक प्रौढ़ दंपती बैठे थे, वार्तालाप तो होना ही था. यह सुन कर मैं स्टार टावर्स में रहती हूं, महिला ने अपने पति से कहा, ‘तुम्हारे धूर्तानंद भी तो अब वहीं रहते हैं.’

‘‘पति रूठे अंदाज में बोला, ‘तुम सब की इस धूर्तानंद कहने की आदत से चिढ़ कर असीम डीए आनंद बन गया मगर तुम ने अपनी आदत नहीं बदली.’  ‘‘‘वह तो उन्होंने विदेश जा कर उपनाम पहले लिखने का चलन अपनाया था और यहां लौट कर गुस्साए ससुराल वालों और बीवीबच्चों से छिपने के लिए वही अपनाए रखा लेकिन एक बात समझ नहीं आई, मेफेयर गार्डन में बैंक से मिली बढि़या कोठी छोड़ कर वे स्टार टावर्स के फ्लैट में रहने क्यों चले गए?’ पत्नी ने पूछा.

‘‘‘जिन बीवीबच्चों से बचने को नाम बदला था अब जीवन की सांध्य बेला में उन की कमी महसूस हो रही है इसलिए यह पता चलते ही कि एक बेटा स्टार टावर्स में रहता है, ये भी वहीं रहने चला गया, कहता है कि अपनी असलियत उसे नहीं बताएगा, दूर से ही उसे आतेजाते देख कर खुश हो लिया करेगा.’

‘‘‘खुशी मिल रही है कि नहीं?’

‘‘‘क्या पता, मेफेयर गार्डन में रहता था तो गाहेबगाहे मुलाकात हो जाती थी. स्टार टावर्स से न उसे आने की और न हमें जाने की फुरसत है.’

‘‘मेरे लिए इतना जानना ही काफी था और तब से मैं उन का यथोचित खयाल रखने लगी हूं.’’

‘‘लेकिन तुम ने मुझ से यह क्यों छिपाया?’’

‘‘क्योंकि सुनते ही तुम अंकल की खुशी को नष्ट कर देते. अभी भी मजबूरी में बताया है. एकदम असहाय और असमर्थ से लग रहे अंकल के चेहरे पर मुझे देख कर जो राहत और खुशी आई थी, वह मैं उन से कदापि नहीं छीनूंगी और न ही अपने और तुम्हारे बीच में शक या नफरत की दीवार को आने दूंगी,’’ जया ने दृढ़ स्वर में कहा.  ‘‘अब तुम्हारेमेरे बीच शक की कोई दीवार नहीं रहेगी जया और न ही बापबेटे के बीच नफरत की…’’

‘‘और न इन दोनों फ्लैट को अलग करने वाली यह दीवार,’’ जया ने बात काटी.  ‘‘हां, यह भी नहीं रहेगी, बिलकुल, पर अभी तो मैं पापा के साथ अस्पताल में रहूंगा और वहां से आने के बाद पापा हमारे साथ ही रहेंगे,’’ राहुल का स्वर भी दृढ़ था.

विषपायी: पत्नी के गैर से शारीरिक संबंधों की बात पर भी क्यों चुप रहा आशीष?

Serial Story: विषपायी (भाग-1)

10 साल का वक्त कम नहीं होता कि किसी को भुलाया न जा सके, परंतु जब यादों में कड़वाहट का जहर घुला हो तो किसी को भुलाना भी आसान नहीं होता. आशीष ने पूरे 10 साल तक यह कड़वा जहर धीरेधीरे पिया था और अब जब उस की कड़वाहट थोड़ी कम होने लगी थी, तो अचानक उस जहर की मात्रा दोगुनी हो गई. वे स्वयं डाक्टर थे, परंतु इस जहर का इलाज उन के पास भी न था.

दोपहर डेढ़ बजे का समय डा. आशीष के क्लीनिक के बंद होने का होता है. उस समय पूरे डेढ़ बज रहे थे, परंतु उन का एक मरीज बाकी था. उन्होंने अपने सहायक को मरीज को अंदर भेजने के लिए कहा और खुद मेज पर पड़े अखबार को देखने लगे.

जब मरीज दरवाजा खोल कर अंदर आया तब भी वे मेज पर पड़े अखबार को ही देख रहे थे. उन के इशारे पर जब मरीज दाहिनी तरफ रखे स्टील के स्टूल पर बैठ गया तो उन्होंने निगाहें उठा कर उस की तरफ देखा तो देखते ही जैसे उन के दिमाग में एक भयानक धमाका हुआ.

चारों तरफ आंखों को चकाचौंध कर देने वाली रोशनी उठी और वे संज्ञाशून्य बैठे के बैठे रह गए. उन के चेहरे पर हैरत के भाव थे. वे अवाक अपने सामने बैठी महिला को अपलक देख रहे थे. फिर जब उन की चेतना लौटी तो उन के मुंह से निकला, ‘‘तुम? मेरा मतलब आप?’’

‘‘हां मैं,’’  महिला ने स्थिर स्वर में कहा. फिर वह चुप हो गई और एकटक डाक्टर आशीष का मुंह ताकने लगी. दोनों चुप एकदूसरे को ताक रहे थे. डाक्टर आशीष की समझ में नहीं आ रहा था कि वे आगे क्या पूछें?

 

कुछ देर तक यों ही ताकते रहने के बाद अपने दिमाग से अनचाहे विचारों को झटक कर उन्होंने स्वयं को संभाला और एक प्रोफैशनल डाक्टर की तरह पूछा, ‘‘बताइए, क्या तकलीफ है आप को?’’

आशीष की इस बात से वह महिला सहम गई. उस के स्वर में एक अजीब सा कंपन आ गया. बोली, ‘‘मुझे कोईर् बीमारी नहीं है. मैं केवल आप से मिलने आई हूं. बता कर आती तो आप मिलते नहीं, इसलिए मरीज बन कर आई हूं. क्या मेरी बात सुनने के लिए आप कुछ वक्त दे सकेंगे?’’ उस के स्वर में याचना का भाव था.

डाक्टर नर्मदिल आदमी थे. गुस्सा बहुत कम करते थे. गलत बात पर उत्तेजित अवश्य होते थे, परंतु अपने गुस्से को पी जाते थे. कभी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे. आज भी वे उस महिला को देख कर विचलित हो गए थे. पुरानी यादें उन के मन में जहर की तरह पिघलने लगी थीं, परंतु उस महिला पर उन्हें गुस्सा नहीं आ रहा था, जबकि उस महिला ने ही उन के जीवन में

10 साल पूर्व जहर का समुद्र भर दिया था और वे धीरेधीरे उस जहर को पी रहे थे और न जाने कब तक पीते रहते.

मगर आज अचानक वह स्वयं उन के सामने उपस्थित हो गई थी, फिर से उन के जहर भरे जीवन में हलचल मचाने के लिए. क्या मकसद था उस का? वह क्यों आई थी लौट कर उन के पास, जबकि अब उन का उस महिला से कोई वास्ता नहीं रह गया था. मन में एक बार आया कि मना कर दें, परंतु फिर सोचा, बिना बात किए उस के मकसद का पता नहीं चलेगा.

उन्होंने किसी तरह अपने मन को शांत किया और बोले, ‘‘यह मेरे घर जाने का समय है. क्या आप शाम को मिल सकती हैं?’’

‘‘कितने बजे?’’ उस महिला के स्वर में अचानक उत्साह आ गया.

‘‘मैं आज शाम को क्लीनिक में ही रहूंगा. आप 6-7 बजे आ जाइएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ उस महिला के मुंह पर पहली बार हलकी सी मुसकराहट आई, ‘‘मैं ठीक 6 बजे आ जाऊंगी,’’ कह वह उठ खड़ी हुई.

उस महिला के जाने के बाद डाक्टर फिर से विचारों के जंगल में खो गए. पल भर के लिए उन्हें याद ही नहीं रहा कि उन्हें घर भी जाना है. अटैंडर ने याद दिलाया तो वे अपनी यादों की खोह से बाहर आए और फिर घर के लिए रवाना हो गए.

घर पर पत्नी उन का इंतजार कर रही थी. बोली, ‘‘आज कुछ देर हो गई?’’

‘‘हां, डाक्टर के पेशे में ऐसा हो जाता है. कभी अचानक कोई मरीज आ जाता है, तो देखना ही पड़ता है,’’ उन्होंने सामान्य ढंग से जवाब

दिया और फिर हाथमुंह धो कर खाने की मेज पर जा बैठे.

पत्नी के सामने वे भले ही सामान्य ढंग से व्यवहार कर रहे थे, परंतु उन का मन सामान्य नहीं था, उस में हलचल मची थी. कई सालों बाद शांत झील की सतह पर किसी ने पत्थर फेंक दिया था. यह पत्थर का कोई छोटा टुकड़ा नहीं था, उन्हें लग रहा था जैसे पानी के नीचे किसी ने पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा ही लुढ़का दिया हो.

खाना खा कर डाक्टर आशीष ने पत्नी से कहा, ‘‘आज मैं कुछ थका हुआ हूं, आराम करूंगा. तुम डिस्टर्ब मत करना.’’

पत्नी ने संशय से उन के चेहरे की तरफ देखा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या? सिरदर्द हो तो बाम लगा दूं?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, बस आराम करना चाहता हूं?’’ कह कर वे बैडरूम में घुस गए.

पत्नी को उन के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से अचंभा हुआ, पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. वह अपने काम में लग गई. बहुत सारे काम बाकी थे. लड़का स्कूल से आने वाला था. कामवाली भी शाम तक आती. दिन में उसे आराम करने का समय ही नहीं मिल पाता है. बेटे को खिलापिला कर उस का होम वर्क कराने बैठ जाती. शाम को जब डाक्टर अपने क्लीनिक चले जाते और बच्चा खेलनेकूदने लगता तब उसे कुछ आराम करने का मौका मिलता. वह थोड़ी देर के लिए लेट जाती है. बस…

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बैडरूम में जा कर डाक्टर ने बिस्तर पर लेट आंखें बंद कर लीं, परंतु नींद कहां आनी थी. उन के दिलोदिमाग में बहुत सारी यादें अचानक नींद से जाग उठी थीं और करवटें बदलबदल कर उन्हें परेशान कर रही थीं… उन की यादों का कारवां चलता हुआ धीरेधीरे 10 साल पूर्व के जंगल में पहुंच गया. वह जंगल ऐसा था, जहां वे दोबारा कभी नहीं जाना चाहते थे, परंतु समय इतना बलवान होता है कि आदमी को न चाहते हुए भी अपने विगत को याद करना पड़ता है.

आशीष एक जहीन और गंभीर किस्म के विद्यार्थी थे. उन्होंने लखनऊ के केजीएमयू से एमबीबीएस किया था और वहीं से इंटर्नशिप कर के एमडी की डिग्री प्राप्त की थी. वे अब नौकरी की तलाश कर रहे थे. शीघ्र ही उन्हें गुड़गांव के एक प्राइवेट अस्पताल में जौब मिल गई. हालांकि वे इस से संतुष्ट नहीं थे. सरकारी नौकरी के लिए परीक्षाएं दे रहे थे.

तभी उन के लिए रिश्ते आने आरंभ हो गए. उन के पिता प्रदेश सेवा में एक उच्च अधिकारी थे और मां लखनऊ आकाशवाणी में वरिष्ठ उद्घोषिका थीं. बहुत छोटा परिवार था. उन की शादी के पहले मांबाप ने उन की इच्छा पूछ ली थी. आजकल के चलन के अनुसार यह आवश्यक भी था.

आशीष गंभीर आचरण के व्यक्ति थे, परंतु हर व्यक्ति के जीवन में प्यार और रोमांस के क्षण आते हैं. ये ऐसे क्षण होते हैं, जब उसे चाहेअनचाहे प्यार की डगर पर चलना ही पड़ता है और इस के खूबसूरत रंगों से रूबरू होना ही पड़ता है. उन्हें भी रोमांस हुआ था. कई लड़कियां उन की तरफ आकर्षित हुई थीं, परंतु अपने जीवन को एक गति प्रदान करने चक्कर में उन का प्रेम प्रसंग किसी गंभीर परिणाम तक नहीं पहुंचा.

उन के जीवन में प्रेम वर्षा की हलकी फुहार की तरह आया और उन के मन को भिगो कर चला गया. एक मोड़ पर आ कर सभी एकदूसरे से जुदा हो गए. उन्होंने न तो लड़कियों से कोई शिकायत की और न लड़कियों ने ही उन से कोई गिला किया. सभी बारीबारी से बिछुड़ते हुए अपने रास्ते चलते गए. यही जीवन है और जो प्राप्यअप्राप्य का लेखाजोखा नहीं करता, वही सुखी रहता है.

आशीष की अपनी कोई पसंद नहीं थी. उन्होंने सब कुछ मातापिता पर छोड़ दिया था. चूंकि वे गुड़गांव में नौकरी कर रहे थे, इसलिए घर वालों ने सोचा कि दिल्ली राजधानी क्षेत्र की कोई लड़की उन के लिए ज्यादा उपयुक्त रहेगी. उन के लिए मैडिको लड़की मिल सकती थी, परंतु आशीष ने इस बारे में भी साफ कह दिया था कि मातापिता की जो पसंद होगी, वही उन की पसंद होगी.

अंत में एक लड़की सभी को पसंद आई. उस ने एमबीए किया था और गुड़गांव की ही एक बड़ी कंपनी में एचआर डिपार्टमैंट में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्य कर रही थी.

देखने दिखाने की औपचारिकता के बाद आशीष और नंदिता की शादी हो गई. शादी के कुछ दिनों बाद ही उन्हें लगा कि नंदिता के प्यार में कोई ऊष्मा नहीं है, दांपत्य जीवन के प्रति कोई उत्साह नहीं है. बिस्तर पर वह बर्फ की चट्टान की तरह पड़ी रहती, जिस में कोई धड़कन, गरमी और जोश नहीं होता था.

आशीष एक डाक्टर थे और वे शारीरिक संरचना के बारे में बहुत अच्छी तरह जानते थे. परंतु वे आधुनिक जीवन में आई अनावश्यक स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बारे में भी अच्छी तरह जानते थे, इसलिए पत्नी से उस संबंध में कोई प्रश्न नहीं किया था.

परंतु वे कोई मनोवैज्ञानिक भी नहीं थे कि नंदिता के मन की उदासी और जीवन के प्रति उस की निराशा को समझ सकते. जब तक अपने मन की परतें वह न खोलती, तब तक आशीष को उस की उदासी का कारण समझ में नहीं आ सकता था. परंतु नंदिता उन के साथ रहते हुए भी जैसे अकेली होती थी, उन से बहुत कम बात करती थी और घर के कामों में भी कोई रुचि नहीं लेती.

घर में केवल वही 2 प्राणी थे. वैसे तो नौकरानी थी और घर के ज्यादातर काम वही करती थी. पतिपत्नी के पास पर्याप्त समय होता था कि एकदूसरे से दिल की बात करते, एकदूसरे को समझते, परंतु नंदिता उन से बातें करने में भी कोई रुचि नहीं लेती थी.

औफिस से आने के बाद हताशनिराश बिस्तर पर लेट जाती जैसे सैकड़ों मील की यात्रा कर के आई हो. चेहरा बुझा होता, आंखों की रोशनी पर जैसे काला परदा पड़ा होता, हाथपैर ढीले होते और रात में उस के साथ संसर्ग करते समय आशीष को ऐसे ठंडेपन का एहसास होता जैसे वे मुरदे के साथ संभोग कर रहे हों.

डाक्टर आशीष मनुष्य के प्रत्येक अंग की जानकारी रखते थे. वे इस बात को अच्छी तरह समझ गए थे कि नंदिता केवल उन की नहीं, शादी के बाद भी नहीं. पहले भी वह किसी और की थी और आज भी उस के किसी और से शारीरिक संबंध हैं. वह दिन में उसी के साथ रह कर आती थी. यह बात आशीष से छिपी नहीं रह सकती थी. ऐसी बातें किसी साधारण व्यक्ति से भी छिपी नहीं रह सकती थीं.

 

इतना तो आशीष की समझ में आ गया था कि नंदिता की उदासी का वास्तविक कारण क्या है, परंतु वह उन से दूर क्यों रहना चाहती, क्यों उन के साथ अपने संबंधों को मधुर बना कर नहीं रह सकती, यह समझ से परे था.

दोनों पतिपत्नी थे. अगर उसे इस संबंध से इतनी घृणा थी तो उस ने शादी के लिए हां क्यों की थी? क्या उस के ऊपर उस के घर वालों का कोई दबाव था? और अगर वह पहले से ही किसी व्यक्ति के साथ प्यार के खेल में लिप्त थी, तो उसी के साथ शादी क्यों नहीं की? क्या वह शादीशुदा था? अगर हां, तो अब तक उस के साथ अपने संबंधों को क्यों नहीं तोड़ा? वह भी तो अब शादीशुदा थी. दांपत्य जीवन के प्रति उसे अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए.

आशीष जानते थे, नंदिता स्वयं कुछ नहीं बताएगी. उन्हें ही पहल करनी होगी. इस में देर करना ठीक नहीं होगा. वे क्यों उस आग में जलते रहें, जिसे लगाने में उन का कोई हाथ नहीं.

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एक शाम उन्होंने शांत और गंभीर स्वर में कहा, ‘‘नंदिता, न तो मैं तुम से तुम्हारे विगत के बारे में पूछूंगा, न आज के बारे में, परंतु मैं इतना अवश्य चाहता हूं कि तुम जिस आग में जल रही हो, उस में मुझे जलाने का उपक्रम मत करो. मैं ने कोई अपराध नहीं किया है. मेरा अपराध केवल इतना है कि मैं ने तुम से शादी की है, परंतु इस छोटे से अपराध के लिए मैं कालापानी की सजा नहीं भोग सकता. तुम मुझे साफसाफ बता दो, तुम क्या चाहती हो?’’

नंदिता खोईखोई आंखों से देखती रही. वह विचारमग्न थी. उस की आंखों में हलका गीलापन आ गया. फिर ऐसा लगा जैसे वह रो पड़ेगी. उस ने अपनी आंखें झुका लीं और लरजते स्वर में बोली, ‘‘मैं जानती थी, एक दिन यही होगा. मैं आप का जीवन बरबाद नहीं करना चाहती थी, परंतु समाज और परिवार के रीतिरिवाज कई बार हमें वह नहीं करने देते जो हम चाहते हैं. हमें उन की इच्छा और दबाव के आगे झुकना पड़ता है, तब हम एक ऐसा जीवन जीते हैं, जो न हमारा होता है, न समाज और परिवार का…’’

‘‘तुम्हारी क्या मजबूरी है, मुझे नहीं पता. बता सकती हो तो हम कोई समाधान ढूंढ़ सकते हैं.’’

‘‘नहीं, मेरी समस्या का कोई समाधान

नहीं है. यह मत समझना कि मैं जानबूझ कर

आप को उपेक्षित करती रही हूं. वास्तव में मैं अपने अपराधबोध से इतना अधिक ग्रस्त रहती

हूं कि आप के साथ सामान्य व्यवहार नहीं कर पाती. मेरा अपराध मुझे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है.’’

‘‘अगर तुम ने कोई अपराध किया है, तो उस का प्रायश्चित्त कर सकती हो.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. मेरा अपराध मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा है.’’

आशीष की समझ में कुछ नहीं आया. उन्होंने नंदिता की तरफ इस तरह देखा कि वह चाहे तो बता सकती है.

नंदिता ने कहा, ‘‘आप से कुछ छिपाने का कोई कारण नहीं है. मैं आप को बता सकती हूं. कम से कम मेरा अपराधबोध कुछ हद तक कम हो जाएगा. परंतु मैं जानती हूं, जो गलती मैं कर रही हूं, वह किसी भी प्रकार क्षम्य नहीं है. मैं चाह कर भी इस से पीछा नहीं छुड़ा सकती. वह भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा है.’’

‘‘तो तुम मेरा पीछा छोड़ कर उस से विवाह कर लो. मैं तुम्हें आजाद करता हूं.’’

यह सुन कर नंदिता सन्न रह गई. उस का बदन कांप गया, आंखों में भय की एक गहरी छाया व्याप्त हो गई. वह लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘नहीं, वह पहले से ही विवाहित है. मेरे साथ शादी नहीं कर सकता.’’

आशीष के दिमाग की नसें फटने लगीं. नंदिता कौन सा खेल खेल रही है. वह अपने पति से सामान्य संबंध बना कर नहीं रख रही है और जिस के साथ उस की शादी नहीं हुई है, वह उस का सर्वस्व है.

उस के साथ अपने अनैतिक संबंध नहीं तोड़ सकती. वह नंदिता के जीवन के साथ ही नहीं, उस के बदन के साथ भी खिलवाड़ कर रहा है, अपने देहसुख के लिए वह व्यक्ति अपने परिवार को नहीं छोड़ सकता, परंतु उस की खातिर नंदिता अपने वैवाहिक जीवन में जहर घोल रही है. वह अपने विवेक से काम नहीं ले रही है. वह भावुकता और मोह में फंसी है, जो गलती पर गलती करती जा रही थी और उस की समझ में नहीं आ रहा कि किस रास्ते पर चल कर वह अपने जीवन को सुखी बना सकती थी.

डाक्टर आशीष की समझ में नहीं आया कि आखिर वह चाहती क्या है. मन में तमाम तरह के प्रश्न थे, परंतु उन्होंने नंदिता से कुछ नहीं पूछा.

नंदिता ही बता रही थी, ‘‘वह मेरा पहला प्यार था. मैं भावुक थी, वह चालाक था. उस ने मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया. मैं बहक गई. अपना शरीर उसे सौंप बैठी. बाद में पता चला कि वह विवाहित है. फिर भी मैं उस से अपना संबंध नहीं तोड़ पाई. जब भी उसे देखती हूं पागल हो जाती हूं. पता नहीं उस में ऐसी क्या बात है, उस की बातों में कौन सा ऐसा जादू है जो मैं उस की तरफ खिंची चली जाती हूं.

‘‘शादी के बाद मैं ने न जाने कितनी बार कोशिश की कि उस से न मिलूं, उस के सामने

न पडं़ू परंतु जब वह मेरे सामने नहीं होता तो मैं उसी के बारे में सोचती रहती हूं, उस से मिलने

के लिए तड़पती हूं. उस के अलावा मैं किसी

और के बारे में सोच ही नहीं पाती. आप के बारे में भी नहीं.

मैं आप को अपना शरीर सौंपती हूं, परंतु तब मेरा मन उस के पास होता है. मैं जानती हूं कि मैं आप के प्रति निष्ठावान नहीं हूं, विवाहित जीवन की ईमानदारी से परे मैं आप के साथ

छल कर रही हूं, परंतु मेरा अपने मन पर कोई नियंत्रण नहीं है. मैं एक कमजोर नारी हूं, यह

मेरा अपराध है.’’

‘‘कोई भी पुरुष या नारी कमजोर नहीं होता. हम केवल भावुकता और प्रेम का बहाना बनाते रहते हैं. दुनिया में हम बहुत सारी चीजें छोड़ देते हैं. हम मांबाप को त्याग देते हैं, अपने सगेसंबंधियों को छोड़ देते हैं और भी बहुत सी प्रिय चीजों को जीवन में त्याग देते हैं. तब फिर किसी बुराई को हम क्यों नहीं छोड़ सकते? क्या बुराई में ज्यादा आकर्षण होता है इसलिए? मैं नहीं जानता, तुम्हारे साथ क्या कारण था? शादी के बाद तुम ने उस से दूर रहने की कोशिश क्यों नहीं की?’’

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‘‘बहुत की, परंतु मन उसी की तरफ भागता है. वह मेरे साथ मेरे औफिस में काम भी नहीं करता है, कहीं और काम करता है. वह मुझे ज्यादा फोन भी नहीं करता है, परंतु जब उस का फोन नहीं आता तो मैं बेचैन हो जाती हूं. स्वयं उसे फोन कर के बुलाती हूं. मैं क्या करूं?’’

आशीष के पास उस के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था. परंतु वे अच्छी तरह समझ गए कि नंदिता दृढ़ चरित्र की लड़की नहीं है. वह भावुक है, नासमझ है और समयानुसार अपने विवेक का प्रयोग नहीं कर पाती है. वह परिस्थितियों की दास है. भलाबुरा वह समझती है, परंतु बुराई से दूर रहना नहीं चाहती. उस में उसे आनंद मिल रहा है. वह आनंद चाहती है, भले ही वह अनैतिक तरीके से मिल रहा हो.

– क्रमश:   

Serial Story: विषपायी (भाग-2)

अब तक आप ने पढ़ा:

आशीष पेशे से एक डाक्टर थे. उन की शादी नंदिता नाम की एक लड़की से हुई, जो खुद एक अच्छी कंपनी में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्य कर रही थी. शादी के बाद आशीष पत्नी नंदिता की उदासी से परेशान थे. बिस्तर पर भी नंदिता एक संपूर्ण स्त्री की तरह आशीष से बरताव नहीं करती थी. एक दिन आशीष ने नंदिता से जोर दे कर कारण पूछा, तब नंदिता ने बताया कि वह एक व्यक्ति से प्रेम करती है और उस के प्यार में पागल है. आश्चर्य की बात तो यह थी कि जिस व्यक्ति से नंदिता प्रेम करती थी वह शादीशुदा था. यह सुन कर आशीष के पैरों तले जमीन खिसक गई. एक दिन क्लीनिक पर उस से एक महिला मिलने आई.

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आशीष ने काफी सोचविचार किया. ऐसी परिस्थिति में उन के पास बस 2 ही विकल्प थे-नंदिता को पूरी तरह से आजाद कर दें ताकि वह अपने ढंग से अपनी जिंदगी निर्वाह कर सके या फिर उसे अपने साथ रख कर उस का किसी मनोवैज्ञानिक से इलाज करवाएं. यह स्थिति उन के लिए काफी कठिन और यंत्रणादायी होती.  वे तिलतिल कर घुटते और नंदिता का छल उन के मन में एक कांटे की तरह आजीवन खटकता रहता. फिर भी नंदिता को सुधरने का मौका दे कर वे महान बन सकते थे. वे इतने दयालु तो थे ही, परंतु सब कुछ करने के बाद भी अगर वह नहीं ठीक हुई तो… तब वे अपनेआप को किस प्रकार संभाल पाएंगे. यह क्या कम दुखदाई है कि उन की पत्नी किसी परपुरुष के साथ पूरी ऊष्मा के साथ पूरा दिन बिताने के बाद उन के साथ रात में बर्फ की सिला की तरह लेट जाती है जैसे उस का कोई वजूद ही नहीं है, पति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है.

इस स्थिति को क्या वे अधिक दिन तक बरदाश्त कर पाएंगे? और जब कभी उन के बच्चे होंगे, तो क्या वे अपनेआप को समझा पाएंगे कि वे बच्चे उन के ही वीर्य से उत्पन्न हुए हैं? यह जांचने के लिए वे डीएनए तो नहीं करवाते फिरेंगे? जीवन भर वे संशय और अनजानी चिंता के भंवर में डूबतेउतराते रहेंगे.

पत्नी के परपुरुष से संबंध कितने कष्टदाई होते हैं, यह केवल डाक्टर आशीष समझ रहे थे. यह एक ऐसी सजा होती है, जो मनुष्य को न तो मरने देती है और न ही जीने.  आशीष ने कहा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? सब कुछ मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूं. अगर तुम अपने को सुधार सको, तो मैं तुम्हें अपने साथ रखने को तैयार हूं. अगर नहीं तो तुम मेरी तरफ से स्वतंत्र हो. जो चाहे कर सकती हो.’’  नंदिता ने निर्णय लेते हुए कहा, ‘‘मैं प्रयास करती हूं. हालांकि आप से रिश्ता तय होने के बाद भी मैं ने प्रयास किया था और आप से शादी होने के बाद भी मैं उस के साथ अपना संबंध तोड़ने की जद्दोजहद करती रही हूं. यही कारण था कि मैं घर में आप से सामान्य व्यवहार न कर सकी. देखती हूं, शायद मैं उस से छुटकारा  पा सकूं.

दोनों का रिश्ता कुछ दिन तक टूटने से बच गया. नंदिता ने अपने औफिस से लंबी छुट्टी ले ली ताकि वह उस व्यक्ति से दूर रह सके. परंतु आधुनिक युग के संचार माध्यमों के कारण आदमी की निजता काफी हद तक समाप्त हो गई है. नंदिता ने कोशिश की कि वह घर के कामों में अपने को व्यस्त रखे. टीवी देख कर अपने मन को इधरउधर भटकने से रोके और पुस्तकें पढ़ कर समय गुजारे, परंतु मोबाइल की दुनिया में उस के लिए यह संभव नहीं था.  उस व्यक्ति का पहली बार फोन आया तो उस ने नहीं उठाया, उस ने एसएमएस किया, तो भी ध्यान नहीं दिया, परंतु कब तक? लगातार कोई फोन करे, एसएमएस करे, तो दूसरा व्यक्ति उस से बात करने के लिए बाध्य हो ही जाता है.

उस ने बात की तो उधर से आवाज आई, ‘‘क्या बात है? क्या हो गया है तुम्हें? न फोन उठाती हो न स्वयं फोन करती हो? कोई जवाब नहीं? आखिर हो क्या गया है तुम्हें? स्वर में अधिकार भाव था.  ‘‘प्रजीत, तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते? अब मैं शादीशुदा हूं. मेरे लिए अब इस संबंध को आगे कायम रख सकना संभव नहीं है.’’

उधर कुछ देर चुप्पी रही. फिर स्वर उभरा, ‘‘अच्छा, एक बार मिल लो, फिर मैं सोचूंगा.’’

‘‘पक्का, तुम मेरा पीछा छोड़ दोगे?’’ नंदिता चहक कर बोली.

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‘‘हां,’’ उधर से भी प्रसन्नता भरी आवाज आई, ‘‘मैं तुम्हें इसी तरह चहकते हुए देखना चाहता हूं.’’

दिन का समय था. आशीष अपने अस्पताल में थे. नंदिता के पास काफी समय था. वह तैयार हो कर गई, परंतु जब उस व्यक्ति से मिल कर लौटी, तो वह खुश नहीं थी. वह अंदर से टूट गई थी. रो रही थी, परंतु उस का रोना किसी को दिखाई नहीं दे रहा था. रात में आशीष को बिना बताए पता चल गया कि नंदिता के साथ दिन में बहुत कुछ घट  चुका है. उस रात आशीष ने उस के साथ संबंध बनाते हुए अपने को रोक लिया. वह शौक जैसी स्थिति में थी. पूछा, ‘‘तुम उस के पास गई थीं?’’  नंदिता खुद को रोक नहीं सकी. फफक कर रो पड़ी, ‘‘आप जो चाहें मुझे सजा दें. मैं आप की गुनहगार हूं, परंतु सच यह है कि मैं उसे नहीं छोड़ सकती और न ही वह मुझे छोड़ सकता है.’’

‘‘तो फिर तुम मुझे छोड़ दो,’’ आशीष ने अंतिम निर्णय लेते हुए कहा.

नंदिता ने कोई उत्तर नहीं दिया. बस भीगी आंखों से आशीष के चेहरे को देखती रही. आशीष समझ नहीं पा रहा था, नंदिता किस तरह की औरत है और उस के मन में क्या है? क्यों वह जानबूझ कर आग में कूद रही है? कोई इस तरह अपने जीवन को बरबाद करता है क्या?

‘‘ठीक है,’’ अंत में नंदिता ने कहा. उस के स्वर में कोई अपराधबोध नहीं था. संभवतया उस ने स्वयं आशीष से पीछा छुड़ाने का निर्णय ले लिया, परंतु उसे आशा नहीं थी कि आशीष इतनी आसानी से उसे छोड़ने पर मान जाएंगे.

उन दोनों ने आपस में सलाह ली और परिजनों एवं खास रिश्तेदारों की मौजूदगी में बिना वास्तविक कारण बताए तलाक की सहमति पर मुहर लगा दी.  नंदिता से अलग हो आशीष टूटे नहीं, परंतु जहर का एक लंबा कड़वा घूंट पी कर रह गए. नंदिता के जहर को वे पी तो गए, परंतु उस का असर उन के दिलोदिमाग में अभी तक छाया था. बहुत कोशिश की उबरने की, परंतु उबर नहीं पाए. वे गुड़गांव की नौकरी छोड़ कर लखनऊ चले आए. कुछ दिन तक घर पर बिना किसी काम के रहे. मातापिता ने भी उन्हें कुछ करने की सलाह नहीं दी, परंतु कोई भी व्यक्ति निष्क्रिय रह कर जीवन नहीं गुजार सकता, चाहे कितना ही साधनसंपन्न क्यों न हो. निष्क्रियता मनुष्य को बीमार बना देती है.

आशीष कुछ सामान्य हुए तो मातापिता की सलाह पर अपना एक क्लीनिक खोल लिया. वह चल निकला तो फिर दूसरी शादी के लिए मातापिता जोर देने लगे. वे दूसरी बार जहर पीने के लिए तैयार नहीं थे, परंतु मातापिता ने उन्हें दुनिया की ऊंचनीच समझाई. समाज में रहते हुए व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता. पेड़ केवल तने के सहारे नहीं जी सकता. उसे सहारे के लिए चारों तरफ फैली शाखाएं,  पत्ते और फूल चाहिए. उसी तरह मनुष्य का जीवन है. उसे अपने जीवन में खुशियों के लिए आमदनी के साथसाथ परिवार भी चाहिए, जिस में पत्नी के साथसाथ हंसतेखिलखिलाते बच्चे भी चाहिए. संसार में सभी जीवजंतुओं का यही जीवनचक्र है.

आशीष स्वभाव के पेचीदे नहीं थे. जीवन को सरल और सहज भाव से जीना जानते थे. मातापिता की सलाह से उन्होंने दोबारा शादी कर ली. इस बार इतना ध्यान रखा कि लड़की कामकाजी न हो, बस पढ़ीलिखी हो.  दिव्या उस समय एलएलबी कर रही थी जब आशीष के लिए उस के रिश्ते की मांग किसी रिश्तेदार के माध्यम से पहुंची. दिव्या को आशीष के साथ रिश्ते में कोई एतराज नहीं था. बस वह चाहती थी कि कभी जरूरत पड़ी तो उसे वकालत की प्रैक्टिस करने से मना न किया जाए. यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं था. जरूरत पर पतिपत्नी एकदूसरे का साथ देते हैं और पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथसाथ आर्थिक जिम्मेदारी भी वहन करते हैं.

आज आशीष अपनी पत्नी और एक बेटे के साथ खुश हैं. बेटा लगभग 5 साल का है और स्कूल जाने लगा है. दिव्या परिवार और बच्चे की जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभा रही है. आशीष के मातापिता लखनऊ में ही अपने पुश्तैनी मकान में अलग रहते हैं. जबकि आशीष अपनी पत्नी और बच्चे के साथ गोमती नगर में अपने बनाए मकान में रहते हैं.  वे सभी एकसाथ रह सकते थे और इस में किसी को कोई एतराज भी नहीं था, परंतु आशीष के मम्मीपापा चाहते थे कि बड़े हो कर बच्चे अपने ढंग से स्वतंत्र रूप से रहें तो उन में आत्मविश्वास और जीवन के प्रति सजगता आती है. पर किसी मुसीबत की घड़ी में वे सब  एकसाथ होते.

दिव्या के साथ 8 साल के उन के दांपत्य जीवन में कभी कटुता के क्षण नहीं आए थे. दिव्या से शादी के 2 वर्ष पूर्व उन्होंने जो जहर पीया था, उस का असर धीरेधीरे कम हो गया था, परंतु आज 10 साल बाद जब वे अपने सुखमय जीवन में पत्नी और बेटे के साथ खुश और प्रसन्न थे कि अचानक वह जहर की शीशी फिर से उन के हाथ में आ गई थी.  नंदिता आज उन से मिलने आई थी, किसलिए…? क्या चाहती है वह उन से? उन  का अब एकदूसरे से क्या संबंध है? किस  कारण उस ने उन के पास आने की हिम्मत  बटोरी है? कोई न कोई खास बात अवश्य होगी. जब तक नंदिता के मन को वे फिर से नहीं पढ़ेंगे, उन के मन में उठने वाले सवालों के जवाब नहीं मिल पाएंगे.

वे चाहते तो नंदिता से मिलने के लिए साफसाफ मना कर देते, परंतु वे इतने कोमल मन हैं कि अपने कातिल का भी दिल नहीं दुखा सकते. वे साफ मन से नंदिता से मिलने के लिए तैयार थे, उस की बात सुनना चाहते थे और जानना चाहते थे कि वह उन से क्या चाहती है? शाम को 6 बजे जब आशीष अपने क्लीनिक पहुंचे तो नंदिता वहां पहले से मौजूद  थी. उन्हें देखते ही उस के चेहरे पर अनोखी चमक आ गई. वे भी हलके से मुसकराए और अपने कैबिन में चले गए. पीछेपीछे नंदिता को आने का इशारा किया.

वे अपनी कुरसी पर बैठ गए तो नंदिता भी बेतकल्लुफी से उन के सामने वाली कुरसी पर बैठ गई. इस समय उस के चेहरे पर उदासी की कोई छाया नहीं थी. वह बनसंवर कर भी आई  थी और सुंदर लग रही थी. उस की चमकती आंखों में एक प्यास सी जाग उठी थी. यह कैसी प्यास थी, डाक्टर आशीष समझ न पाए. वे समझना भी नहीं चाहते थे. अत: उन्होंने उस के चेहरे से नजरें हटा कर पूछा, ‘‘हां, कहो कैसी हो?’’

नंदिता ने एक ठंडी सांस ली और फिर कशिश भरी आवाज में बोली, ‘‘अभी भी आप को मेरी चिंता है?’’  नंदिता का यह प्रश्न व्यर्थ था. उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हें मेरा पता कहां से मिला?’’ अब वे अनौपचारिक हो गए थे और नंदिता को तुम कह कर बुलाने लगे थे.

‘‘आज के जमाने में यह कोई मुश्किल काम नहीं है. लगभग हर पढ़ालिखा व्यक्ति सोशल मीडिया में घुसा हुआ है. फेसबुक से आप का पता मिला और फिर…’’

‘‘अच्छा बताओ, क्यों मिलना चाहती थी?’’ उन्होंने बिना किसी लागलपेट के पूछा.

नंदिता ने अपनी आंखें झुका कर कहा, ‘‘आप अन्यथा मत लेना, परंतु मेरे पास और कोई चारा नहीं था. मैं ने आज यह समझ लिया है, जो व्यक्ति अपनी जवानी में अनैतिक कार्य करता है, समाज के नियमों के विपरीत कदम उठाता है, परिवार और दांपत्य जीवन की निष्ठा को नहीं समझ पाता, वह एक न एक दिन अवश्य घोर कष्ट उठाता है.

‘‘अपनी जवानी के नशे में चूर मैं जिसे सोना समझती थी, वह मिट्टी का ढेला निकला. जिस के लिए मैं ने आप को, अपने मम्मीपापा और सभी रिश्तों को ठुकरा दिया, वही एक दिन मुझे ठुकरा कर चला गया. क्यों गया, यह कहना बेमानी है.

इस जगत में जिन रिश्तों का कोई आधार नहीं होता, वे बहुत जल्दी टूट जाते हैं. उसे लगा कि उस ने मेरे सौंदर्य और यौवन का सारा रस चूस लिया है, तो वह मुझ से अलग होने के तमाम बहाने गढ़ने लगा और एक दिन ऐसा आया कि उस ने साफसाफ कह दिया कि वह मुझ से कोई संबंध नहीं रखना चाहता. आज मेरे पास नौकरी नहीं है, पैसा नहीं है. उस के चक्कर में सब कुछ गंवा बैठी. बताओ, अब मैं कहां जाती?’’

आशीष ने उस के विगत जीवन के बारे में नहीं पूछा था. न वे पूछना चाहते थे. नंदिता के जीवन से उन्हें क्या लेनादेना था. वह उन की कौन थी. कोई भी तो नहीं, बस देखा जाए तो उन के बीच मानवीय संबंधों के अलावा और कोई संबंध नहीं था.  नंदिता अपने विगत के बारे में स्वयं बता रही थी, यह उस की इच्छा थी. उन्होंने चुपचाप सुन लिया, कोई टिप्पणी नहीं की. नंदिता को ठोकर लगने के बाद अगर अक्ल आई है, तो इस का अब कोई मतलब नहीं है.  एक बार रिश्ते बिगड़ जाते हैं, तो वे बनते नहीं हैं. अगर बनते भी हैं, तो कोई न कोई गांठ उन के बीच में पड़ जाती है, जो निरंतर खटकती रहती है. क्या नंदिता उन के पास पुराने रिश्तों को जोड़ने आई थी या ठोकर खा कर सहानुभूति प्राप्त करने? उन की सहानुभूति से वह क्या हासिल करना चाहती?

उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया, नंदिता स्वयं बताती रही, ‘‘अपनी परेशानियों के बारे में बहुत ज्यादा बता कर मैं आप को परेशान नहीं करूंगी. बस इतना कहने के लिए आई हूं कि अब मैं इस भरे संसार में अकेली हूं. मम्मीपापा ने तभी मुझ से संबंध तोड़ लिया था, नातेरिश्तेदार मुझे फूटी आंख नहीं देखना चाहते. यारदोस्त भी अलग हो गए. उस ने मेरी नौकरी भी छुड़वा दी थी.

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दिल्ली में चारों तरफ मुझे अंधेरे के सिवा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वहां जब मुझे कोई किनारा नहीं मिला तो मुझे आप की याद आई. मैं मानती हूं कि मैं ने आप को बहुत दुख दिया, इतना बड़ा दुख पा कर कोई किसी को माफ नहीं कर सकता, परंतु मुझे आप के मन की विशालता का पता है. आप ने भले ही मेरे कृत्यों के लिए मुझे माफ न किया हो, परंतु आप के दिल में मेरे प्रति कोई कटुता नहीं हो सकती. इसीलिए मैं हिम्मत कर के आप से मिलने आई हूं.’’  आशीष का दिल कराह उठा. क्या सचमुच नंदिता के मन में कोई अफसोस का भाव है? वह अपनी गलती का प्रायश्चित्त करने के लिए आई है? उन्होंने नंदिता को देखा जैसे कह रहे हों कि कहीं भी जाती, परंतु मेरे पास क्यों? प्रायश्चित्त  तो कहीं भी किया जा सकता है?  पर प्रत्यक्ष में कहा, ‘‘मुझे नहीं पता तुम्हारे मन में क्या है, परंतु दिल्ली बहुत बड़ी है. वहां प्रतिदिन लाखों लोग बिना किसी सहारे के अपनी आंखों में उम्मीदों के चिराग जला कर आते हैं. उन का कोई ठिकाना नहीं होता, शहर में कोई परिचित नहीं होता, फिर भी वे अपने लिए कोई न कोई ठिकाना ढूंढ़ लेते हैं.

तुम तो दिल्ली में पैदा हुई. न जाने कितने परिचित, दोस्त और रिश्तेदार हैं. सारे परिचित और रिश्तेदार इतने क्रूर और कठोर नहीं हो सकते कि तुम्हें सहारा न दे सकें. न भी देते तो तुम स्वयं इतनी पढ़ीलिखी हो, सक्षम हो कि अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी.’’

नंदिता ने आशीष को कुछ इस तरह देखा जैसे वे उस पर अविश्वास कर रहे हों. वह बोली, ‘‘आप शायद मेरा विश्वास न करें, परंतु मैं जानबूझ कर आप के पास आई हूं.’’

‘‘इस का कोई न कोई कारण अवश्य होगा?’’

‘‘हां, फिलहाल तो मुझे एक सहारे की जरूरत है. इस शहर में कहीं मेरा ठिकाना नहीं है. मैं आप को बहुत ज्यादा तकलीफ नहीं दूंगी. मैं स्वयं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं. आप को मेरी थोड़ी मदद करनी होगी. दूसरा कोई मेरी मदद नहीं कर सकता. मुझे विश्वास है, आप मेरी जरूर मदद करेंगे.’’

‘‘कैसी मदद?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘बस, रहने के लिए एक छोटा सा फ्लैट या मकान और जीविका के लिए एक

नौकरी? मैं अकेले अपना जीवन गुजार लूंगी.’’

‘‘अकेले गुजार लोगी?’’ वे शंकित थे.

‘‘कोशिश करूंगी, शादी नाम की संस्था मेरे लिए नहीं है और पुरुषों पर से मेरा विश्वास उठा चुका है.’’

आशीष ने उस की इस बात का कोईर् जवाब नहीं दिया, परंतु वे अच्छी तरह जानते थे कि पुरुषों पर से उस का विश्वास नहीं उठना चाहिए. उस ने तो स्वयं किसी पुरुष का विश्वास तोड़ा है, वह भी अपने पति का. अब वह पुरुषों पर अविश्वास का दोष नहीं लगा सकती. इतना आत्मबल कहां से लाएगी?

‘‘अभी कहां रुकी हो?’’

‘‘कहीं नहीं, मैं आज ही लखनऊ आई हूं.’’

‘‘कहां रुकोगी?’’

‘‘नहीं जानती. आप मेरे लिए कोई व्यवस्था कर दीजिए,’’ नंदिता के स्वर में अधिकारभाव था जैसे वह अभी भी उन की पत्नी हो या पूर्व पत्नी के नाते वह अपने अधिकार का प्रयोग करने आई हो अथवा आशीष के सरल स्वभाव का फायदा उठाने आई हो. कहा नहीं जा सकता था कि उस के मन में कौन सा अधिकारभाव था.

आशीष ने एक पल उसे देखा, उस की आंखों में याचना से अधिक प्रतिवेदन का भाव था. नंदिता के किसी भाव से वे प्रभावित नहीं हुए. उन के मन में बस यही बात थी कि नंदिता मुसीबत में है और उन्हें उस की मदद करनी है.  इस बात की सचाई जानने की उन्होंने कोई कोशिश नहीं की कि वह सचमुच मुसीबत में है या जानबूझ कर उन के सामने अपनी मजबूरी की कोई कहानी गढ़ रही है. इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उन का दयालु स्वभाव सभी तरह के तर्कों और वितर्कों से उन्हें दूर रखता.  उस दिन उन्होंने नंदिता के रहने की व्यवस्था अपने एक मित्र के गैस्ट हाउस में करवा  दी. फिर अगले कई दिनों तक वह नंदिता के लिए मकान और नौकरी की व्यवस्था में लगे रहे. इस वजह से उन का क्लीनिक लगभग उपेक्षित रहा और घर की तरफ भी ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए.

बेटा शिकायत करता, ‘‘पापा, आप इतना ज्यादा काम क्यों करते हैं? हमारे लिए भी आप के पास समय नहीं है.’’

दिव्या समझदार थी. वह जानती थी, मैडिकल एक ऐसा पेशा है जिस में समयअसमय नहीं देखा जाता. फिर भी उन दिनों आशीष के चिंतित चेहरे को देख कर उस ने शिकायत की, ‘‘इतना काम भी क्यों करते हैं कि आप को आराम करने का मौका न मिले?’’ ‘‘दिव्या, कोई खास बात नहीं है. बस कुछ दिनों की बात है, फिर सब सामान्य हो जाएगा.’’

‘‘क्या कोई खास बात है, जो आप को परेशान कर रही है?

‘‘नहीं,’’ उन्होंने टालने के लिए कह दिया, ‘‘तुम परेशान न हो. कोई बात होती तो मैं तुम्हें जरूर बताता.’’

‘‘दिव्या आश्वस्त हो जाती. पति पर शंका करने का कोई कारण उस के पास नहीं था.’’

गोमती नगर में ही एक एलआईजी मकान मिल गया. नंदिता के लिए पर्याप्त था. जब अग्रिम किराया और डिपौजिट देने की बात आई तो आशीष ने उस की तरफ देखा. नंदिता ने मुंह झुका लिया. कुछ बोली नहीं तो आशीष को पूछना ही पड़ा, ‘‘तुम्हारे पास पैसे हैं?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने धीमे स्वर में कहा.

आशीष को बहुत आश्चर्य हुआ. नंदिता एक बड़ी कंपनी में काम करती थी. उस की तनख्वाह भी अच्छीखासी थी. फिर उस की तनख्वाह का पैसा कहां गया?  नंदिता जैसे आशीष का मंतव्य समझ गई, ‘‘आप को मैं कैसे बताऊं? उस ने न केवल मेरा शरीर चूसा है, बल्कि मेरी कमाई पर भी खूब ऐश की. उस ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा.’’  आशीष ने बिना कोई प्रश्न किए पैसे भर दिए. यही नहीं, घर का सारा सामान भी भरवाया, फर्नीचर से ले कर बरतन और राशन तक. इस में कई लाख रुपए खर्च हो गए उन के. परंतु कोईर् मलाल नहीं था उन्हें. बस एक कचोट थी कि ये सब वे अपनी पत्नी से छिपा कर कर रहे.

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इस के बाद अपने रसूख और पेशे का  कुछ लाभ लेते हुए उन्होंने नंदिता को एक  होटल में असिस्टैंट मैनेजर की जौब दिलवा दी. हालांकि होटल मैनेजमैंट का कोई अनुभव उस के पास नहीं था, परंतु मैनेजमैंट की डिग्री उस के पास थी और एक कंपनी में काम करने का पिछला अनुभव था. इसी आधार पर उसे नौकरी मिल गई.  जिस दिन उसे नौकरी मिली, नंदिता ने आशीष से कहा, ‘‘क्या मिठाई खाने के  लिए शाम को घर आ सकते हो.’’

‘‘घर पर क्यों? मिठाई तो कहीं भी खाई जा सकती है,’’ उन्होंने हलकेफुलके मूड में कहा.

‘‘तो फिर किसी रैस्टोरैंट में चलते हैं,’’ नंदिता ने तपाक से कहा.

वे सोच में पड़ गए. फिर बोले, ‘‘यह संभव नहीं होगा. मरीजों को देखतेदेखते काफी समय निकल जाता है. रात में देर हो जाएगी… समय नहीं मिल पाएगा.’’

‘‘तो फिर आप क्लीनिक से सीधे घर आ जाइए,’’ उस ने जोर दे कर कहा.

‘‘देखता हूं, शाम को ज्यादा मरीज नहीं हुए तो आ जाऊंगा.’’

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’ उस के स्वर से लग रहा था कि उसे विश्वास था, आशीष अवश्य आएंगे और सचमुच वे आए. नंदिता उस दिन बहुत खुश लग रही थी. वह आशीष के स्वागत के लिए बिलकुल तैयार थी. उस ने एक विवाहिता की तरह शृंगार किया था. बस बिंदी नहीं लगाई थी.

साड़ी में उस का नैसर्गिक सौंदर्य निखर रहा था. मनुष्य के जीवन में जब खुशियां आती हैं, तो उस के अन्य गुण भी दिखाई देने लगते हैं.

– क्रमश:

Serial Story: विषपायी (भाग-3)

अब तक आप ने पढ़ा:

आशीष पेशे से एक डाक्टर थे. उन की शादी नंदिता नाम की एक लड़की से हुई, जो खुद एक अच्छी कंपनी में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्य कर रही थी. शादी के बाद आशीष पत्नी नंदिता की उदासी से परेशान थे. बिस्तर पर भी नंदिता एक संपूर्ण स्त्री की तरह आशीष से बरताव नहीं करती थी. एक दिन आशीष ने नंदिता से जोर दे कर कारण पूछा, तब नंदिता ने बताया कि वह एक व्यक्ति से प्रेम करती है और उस के प्यार में पागल है. आश्चर्य की बात तो यह थी कि जिस व्यक्ति से नंदिता प्रेम करती थी वह शादीशुदा था. यह सुन कर आशीष के पैरों तले जमीन खिसक गई. एक दिन क्लीनिक पर उस से एक महिला मिलने आई.

नंदिता से तलाक के बाद आशीष ने दिव्या से दूसरी शादी कर ली थी. दिव्या के साथ 8 साल के उन के दांपत्य जीवन में कभी कटुता के क्षण नहीं आए थे. पर 8 साल बाद जब अचानक नंदिता उन से मिलने क्लीनिक पहुंची तो सीधेसादे आशीष नंदिता की बातों में आ गए. वह अब खुद को दीनहीन और असहाय बता रही थी और बारबार आशीष से अपनी गलती के लिए माफी मांग कर खुद के लिए सहानुभूति चाह रही थी. नंदिता के बारबार अनुरोध करने पर आशीष उस की मदद को तैयार हो गए. आशीष ने नंदिता को न सिर्फ पैसे दिए, किराए पर एक फ्लैट भी दिला दिया.

एक दिन नंदिता ने आशीष को अपने फ्लैट पर अकेले आने को कहा. बारबार आग्रह करने पर आशीष शाम को नंदिता के पास पहुंचा तो नंदिता सजधज कर उसी का इंतजार कर रही थी.

-अब आगे पढ़ें:

उसके सौंदर्य से आशीष अभिभूत हो गए. यह सौंदर्य कभी उन का था और अगर नंदिता ने थोड़ी समझदारी और संयम से काम लिया होता तो आज भी वह उन की होती, परंतु नंदिता अब उन की नहीं है. सच तो यह है कि अब वह किसी की नहीं है और देखा जाए तो वह स्वतंत्र है और जिसे चाहे पसंद कर सकती है, प्यार कर सकती है. उस के जीवन में किसी भी पुरुष के लिए उतनी ही जगह है, जितनी प्यार करने के लिए किसी को हो सकती है.

‘‘आइए, मुझे विश्वास था, आप अवश्य आएंगे,’’ वह इठलाती हुई बोली. उस के चेहरे की चंचलता से अधिक उस के शरीर की

चंचलता बोल रही थी. उस का बदन मछली की तरह तड़प रहा था. वह जानबूझ कर ऐसा कर रही थी या आशीष के आने की खुशी में भावविह्वल हुई जा रही थी, समझ नहीं आ रहा था. उस के व्यवहार से ऐसा नहीं लग रहा था जैसे उन के संबंधों के बीच में कभी दरार आई हो और वे हमेशा के लिए एकदूसरे से जुदा हो गए हों. जो भी देखता, यही कहता नंदिता उन की पत्नी है. नंदिता के खुलेपन से आशीष के मन में कुछ डोल गया. वे पुरुष थे और किसी भी पुरुष का मन नारी की सुंदरता और चंचलता देख कर डोल जाता है. इस में अस्वाभाविक कुछ भी नहीं था. नंदिता उन की पूर्व पत्नी थी और उन्होंने उस के प्रत्येक अंग को देखा था. अब इतने अंतराल के बाद उन्होंने उसे फिर सौंदर्य के रंग बिखेरते देखा था तो क्यों न मन में लहरें उठतीं?

उन्होंने ऊपर से कुछ जाहिर नहीं किया और नजरें चुराते हुए अंदर आ कर बैठ गए. नंदिता ने अपने घर को बहुत सुंदर तरीके से सजा दिया था. घर छोटा था, पर अगर गृहिणी में समझ हो तो छोटी सी जगह को भी सुंदर बनाया जा सकता है. नंदिता का यह गुण आशीष को पता नहीं था, क्योंकि दोनों की शादी के बाद नंदिता मन से उन के घर में थी ही नहीं, बस उस का तन मौजूद रहता था. वह दूसरी ही दुनिया में विचरण कर रही थी, तो आशीष के घर की तरफ कैसे ध्यान देती? चाय पी कर आशीष घर चलने लगे तो नंदिता ने उन का हाथ पकड़ लिया और उत्साह से बोली, ‘‘किन शब्दों में आप का धन्यवाद करूं?’’

आशीष के शरीर में एक झनझनी सी दौड़ गई. नंदिता का स्पर्श उन के लिए अनचाहा नहीं था, परंतु उन्हें लगा जैसे नंदिता उन्हें पहली बार स्पर्श कर रही हो और यह स्पर्श अनोखा ही नहीं उत्तेजित कर देने वाला था. 10 साल बाद नंदिता के सौंदर्य में अगर कोई कमी आई थी तो वह उम्र की थी, जिस में 10 साल बढ़ गए थे वरना वह आज भी वैसी ही सुंदर और दिलकश थी. आज भी वह किसी मर्द के दिल को घायल करने का सौंदर्य अपने अंदर समेटे थी.

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आशीष ने बिना उस की तरफ देखे अपने हाथ को छुड़ा लिया और कहा, ‘‘इस में धन्यवाद की कोई बात नहीं है. मनुष्य ही मनुष्य के काम आता है.’’ मनुष्य सौंदर्य प्रेमी होता है. हर तरह का सौंदर्य उसे प्रभावित करता है, आकर्षिक करता है. भोगा हुआ भी और नया भी. नंदिता का सौंदर्य आशीष के लिए नया नहीं था, परंतु आज वह बिलकुल नई और अलग दिख रही थी. नारी का सौंदर्य इसीलिए मनुष्य को आकर्षित करता है, क्योंकि वह प्रतिपल अपने नए रूप और नए अंदाज में दिखती है.

आशीष थोड़ा विचलित हो गए थे. घर आ कर उन्होंने दिव्या को भरपूर निगाहों से देखा. वह भी उन्हें बिलकुल नईनई सी लगी. सुबह की नर्म धूम में नहाई सी, खिलते फूलों की रंगत लिए. एक बच्चे की मां थी, फिर भी उस के सौंदर्य में कोई कमी नहीं आई थी. वह एक डाक्टर की पत्नी थी. उस ने अपने को संभाल कर रखा था. वह तुलना करने लगे नंदिता और दिव्या में. दोनों का सौंदर्य एकदूसरे से अलग था. एक अपने परिवार के प्रति पूरी तरह समर्पित थी तो दूसरी स्वच्छंद उड़ने वाली तितली… परंतु दोनों ही मनमोहक थीं. नंदिता को उन्होंने एक स्थायित्व प्रदान किया था, इस बात से उन्हें संतुष्टि प्राप्त होती थी, परंतु इस एहसान का बदला लेने का उन के मन में कोई विचार कभी नहीं आया था. वे उसे अपनी तरफ से फोन भी नहीं करते थे, परंतु नंदिता जब तक दिन में 3-4 बार उन्हें फोन न कर लेती, उसे चैन न पड़ता. वह मीठीमीठी बातें करती, कई बार पुरानी बातें खोद कर उन से माफी मांगती, यह जताने की कोशिश करती कि वह उन के प्रति ऋणी है और उन के एहसानों का बदला चुकाना चाहती है. वे हंस कर टाल जाते और अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया जाहिर न करते जिस से कि नंदिता को यह लगे कि वे उस से प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं.

नंदिता लगभग रोज उन्हें अपने घर आमंत्रित करती. उस की बातों में कुछ ऐसा इसरार होता कि आशीष मना न कर पाते या वे उस का दिल दुखाना नहीं चाहते थे. नंदिता अकेली है, इस शहर में उस का कोई सगासंबंधी नहीं है, इस नाते वे उसे खुश करने के लिए रोज तो नहीं, परंतु दूसरेतीसरे दिन उस के घर चले जाते. नंदिता गर्मजोशी से उन का स्वागत करती, चायकौफी के साथ कुछ खाने के लिए बना लेती. वे कुछ देर बैठ कर उस की बकबक सुनते और चले आते.

एक दिन नंदिता उन की बगल में सोफे पर बैठ गई. वह चौंक से गए और हलका सा खिसक कर अपने बदन को सिकोड़ लिया. वह हंस कर बोली, ‘‘आप मुझ से इतना दूर क्यों जा कर बैठ गए? आखिर मैं आप की पत्नी रह चुकी हूं… अभी भी हमारे रिश्ते में आत्मीयता है… इतनी दूरी क्यों?’’

आशीष उस की बात का क्या जवाब देते. बस इतना कहा, ‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘परंतु मैं ठीक नहीं हूं,’’ वह फिर से उन की तरफ खिसक गई, ‘‘मेरे मन में अपराधबोध है. मैं ने आप को कितने दुख दिए, आप ने कभी मुझे न तो डांटा, न मारापीटा. सहज भाव से आप सब कुछ सहते गए. मैं तब भी इस बात को नहीं समझ पाई कि आप जैसे शरीफ इनसान को कष्ट दे कर मैं अपने जीवन को नर्क बना रही हूं. तब अगर आप ने मेरे साथ सख्ती की होती, डांटा होता तो संभवतया मैं आप को छोड़ने की गलती कभी नहीं करती. मैं अपने अपराधबोध से कैसे छुटकारा पाऊं?’’

उन्हें क्या पता वह अपने अपराधबोध से कैसे छुटकारा पा सकती थी. यह उस का निजी मामला था. इस में वे नंदिता की क्या मदद कर सकते थे?

‘‘मैं लखनऊ इसलिए नहीं आई थी कि आप के माध्यम से कोई नौकरी प्राप्त कर लूं और हंसीखुशी जीवन व्यतीत करूं … यह काम तो मैं दिल्ली में रह कर भी कर सकती थी… जो नौकरी छोड़ दी थी वही प्राप्त कर लेती या दूसरी कर लेती… इस में कोई परेशानी नहीं थी.’’

आज उस ने अपने दिल की बात कही थी. आशीष चौंक गए, तो क्या वह केवल उन के लिए यहां आई थी. उसे कोई दुख और परेशानी नहीं थी?

‘‘अच्छा… तो फिर…’’ उन्होंने असहज भाव से पूछा. वे आगे बहुत कुछ पूछना चाहते थे, पर नहीं पूछा. वे जानते थे कि उन के बिना पूछे ही वह सब कुछ उन्हें बता देगी. नंदिता का स्वभाव बहुत चंचल था. वह बहुत दिनों तक कोई बात अपने मन में छिपा कर नहीं रख सकती थी. नंदिता ने अपना दायां हाथ उन की बाईं जांघ पर रख दिया और उसे हौलेहौले सहलाने लगी. आशीष को संभवतया इस बात का भान नहीं हुआ था. वे अन्य विचारों में खोए थे.

‘‘जब तक आदमी को दुख नहीं मिलता वह दूसरों के दुख को नहीं महसूस कर पाता… जब उस ने मुझे ठुकरा दिया तो मुझे एहसास हुआ कि मेरी बेवफाई से आप को कितना मानसिक कष्ट हुआ होगा. जब मेरा दिल तारतार हुआ और मैं दुनिया को मुंह दिखाने लायक नहीं रही तो लगा जैसे मेरे लिए डूब मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.

‘‘फिर मैं ने सोचा मेरे कारण आप ने इतना दुख सहा, मेरा दिया सारा जहर पी गए, विषपायी बन गए, तो फिर मैं जी कर दूसरों के दिए जहर को क्यों नहीं पी सकती. मैं ने तय किया कि अगर आप मिल गए और आप ने मुझे क्षमा कर दिया तो मेरा दुख कम हो जाएगा. अब आप मुझे मिल गए हैं और मैं देख रही हूं कि मेरे प्रति आप के मन में कोई कटुता नहीं. इस से न केवल मेरा दुख कम हुआ है, बल्कि मैं सुख के सागर में डूबनेउतराने लगी हूं. जीवन के प्रति मेरा मोह बढ़ गया है. मैं बहुत कुछ पा लेना चाहती हूं… वह भी जो बहुत पहले मेरी नादानी के कारण मेरे हाथों से फिसल गया था.’’

आशीष चुपचाप उस की बातें सुनते जा रहे थे.

‘‘आप ने मेरे अपराध क्षमा कर दिए, मेरे दुख हर लिए, परंतु मेरा प्रायश्चित्त अभी बाकी है.’’

‘वह क्या?’ आशीष ने अपनी निगाहों को उठा कर नंदिता की आंखों में देखा. उस की आंखें भीगी थीं, इस के बावजूद उन में अनोखी चमक थी जैसे उसे विश्वास था कि उस की कोई बात आशीष नहीं टालेंगे.

नंदिता ने भावुक हो कर उन के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मैं जानती हूं, आप बहुत बड़े दिल के आदमी हैं. इसीलिए आप से याचना कर रही हूं. मेरा प्रायश्चित्त यही है कि मैं जीवन भर आप के साथ रहूं?’’

आशीष को एक झटका सा लगा. उन्होंने अपने हाथ छुड़ा लिए और उठ कर खड़े हो गए, ‘‘क्या?’’

वह भी उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘आप इस तरह क्यों चौंक गए? मैं ने कोई अनहोनी बात नहीं कही है. इस दुनिया में बहुत सारे लोग बिना शादी के एकदूसरे के साथ रहते हैं, मैं तो आप की परित्यक्ता पत्नी हूं. मेरा आप पर कोई हक नहीं है, परंतु मैं अपना पूरा जीवन आप के लिए समर्पित करना चाहती हूं.’’

आशीष की आवाज लड़खड़ा गई, ‘‘यह कैसे संभव हो सकता है?’’

‘‘सब कुछ संभव है, बस मन को समझाने की बात है.’’

‘‘परंतु मैं शादीशुदा हूं, घर में पत्नी और 1 बेटा है. मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता हूं?’’

‘‘जिस प्रकार आप मेरे दिए कष्ट का जहर पी कर रह सकते हैं, उसी प्रकार खुशीखुशी मेरे साथ रह सकते हैं. मैं आप के प्रति समर्पण चाहती हूं. किसी और चीज की मुझे आप से अपेक्षा नहीं है. मैं आप से कोईर् और हक नहीं मांगूंगी, न बच्चों की कामना न संपत्ति का अधिकार. मुझे बस आप का साथ चाहिए, कभीकभी संसर्ग चाहिए और कुछ नहीं…’’ आशीष का दिमाग चकरा गया. वे 1 डाक्टर थे, सुलझे हुए व्यक्ति थे. कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी नहीं घबराते थे. जब परपुरुष के साथ नंदिता के संबंधों का उन्हें एहसास हुआ था तब भी वे इतना विचलित नहीं हुए थे. सोचा था कि इस स्थिति से किसी तरह निबट लेंगे. परंतु आज उन्हें लग रहा था कि इस स्थिति से कुदरत भी नहीं निबट सकती.

नंदिता जो चाहती थी, वह कभी पूरा नहीं हो सकता था. कम से कम उन के लिए यह असंभव था. एक बार उन्होंने विष पीया था, परंतु दूसरी बार नहीं पी सकते थे, जानबूझ कर तो कतई नहीं. नंदिता उन के बदन से सट गई. लगभग उन्हें अपनी बांहों में समेटती हुई बोली, ‘‘देखिए मना मत कीजिएगा. मैं बड़ी उम्मीदों से आप के पास आईर् हूं. मेरा यहां आने का यही एक मकसद था कि पूरा जीवन आप के चरणों में समर्पित कर के मैं अपनी गलतियों से छुटकारा पा सकूंगी. मेरे अपराधों का प्रायश्चित्त हो जाएगा. ‘‘आप के सिवा अब मैं किसी और को नहीं चाह सकती. अगर आप मुझे नहीं स्वीकार करेंगे, तो भी मैं जीवन भर अविवाहित रह कर आप का इंतजार करूंगी,’’ उस की आवाज में बेबसी की गिड़गिड़ाहट भरती जा रही थी और ऐसा लग रहा था जैसे नंदिता जमाने भर की सताई हुई औरत हो. आशीष ने उसे नहीं संभाला तो वह टूट जाएगी, बरबाद हो जाएगी.

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परंतु आशीष को नंदिता की गिड़गिड़ाहट, उस का रोना प्रभावित नहीं कर पा रहा था. उन के दिमाग की नसें फट रही थीं. उन्हें लग रहा था, चारों ओर धमाके हो रहे थे. यह दीवाली या किसी शादीब्याह के मौके पर होने वाले आतिशबाजी के धमाके नहीं थे. यह उन के जीवन को तहसनहस करने वाले धमाके थे. हड़बड़ाहट में वे बाहर जाने के लिए मुड़े. नंदिता ने उन्हें पकड़ लिया. वे ठिठक गए.

‘‘आप जा रहे हैं, मैं आप को नहीं रोकूंगी, पर यह वादा करती हूं कि इसी शहर में रह कर आप की प्रतीक्षा करूंगी. आप का जो निर्णय हो बता दीजिएगा.’’ वे बिना कुछ कहे बाहर निकल आए. बाहर घना अंधेरा पसरा था जैसे पूरे शहर की बिजली चली गई हो. परंतु ऐसा नहीं था, सभी घरों में बिजली थी. बस सड़क की बत्तियां नहीं जल रही थीं. सड़कें अंधेरी थीं, परंतु उन्हें लग रहा था जैसे पूरे शहर में अंधेरे की लंबीलंबी गुफाएं फैली हैं. जिस के अंदर से वे गुजर रहे हैं. इन कालीअंधेरी गुफाओं का कोई अंत नहीं था और उन की यात्रा का भी कोई अंत नहीं था.

उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा था. दुख को चुपचाप सहन करना क्या दुखों को निमंत्रण देना होता है? वे किसी को कष्ट नहीं देते हैं, परंतु बदले में उन्हें क्यों कष्ट झेलने पड़ते हैं? नंदिता के घर के बाहर खड़ी अपनी गाड़ी को जब उन्होंने स्टार्ट किया तब भी उन्हें होश नहीं था और जब गाड़ी मुख्य सड़क पर ला कर अपने घर की तरफ मोड़ी तब भी उन्हें कुछ होश नहीं था. उन का शरीर कांप रहा था, परंतु हाथपैर काम कर रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे कोई अन्य व्यक्ति रिमोट कंट्रोल से उन के अंगों को संचालित कर रहा है. उन की अपनी सोच कहीं गुम हो गई थी. वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन के दिमाग को संचालित करने वाला यंत्र उन के नियंत्रण में क्यों नहीं है?

वे गाड़ी चला रहे थे, परंतु उन्हें स्वयं पता नहीं था कि वह किस शक्ति से नियंत्रित हो रही है. सामने से आ रही गाडि़यों का प्रकाश उन की आंखों में आतिशबाजी की रोशनी की तरह चुभ रहा था और वे बारबार अपनी आंखें झपक रहे थे. घर पहुंचतेपहुंचते उन्होंने स्वयं को काफी हद तक संयत कर लिया था. दिमाग की झनझनाहट कम हो गई थी. शरीर का कंपन बंद हो गया था. मन संयत हो चुका था, परंतु चेहरे की उड़ी रंगत उन के अंदर अभीअभी गुजरे तूफान की कहानी बयां कर रही थी.

वे चुपचाप घर के अंदर प्रवेश कर गए. वे चाहते थे कि एकदम से दिव्या का सामना न हो, परंतु वह उन्हीं का इंतजार कर रही थी. रात काफी हो चुकी थी. बेटा सो चुका था. दिव्या के पास उन के इंतजार के सिवा और कोई काम नहीं था. उन की पस्त हालत देख कर दिव्या तत्काल उठी और उन को सहारा दे कर सोफे तक लाई, ‘‘आप बहुत थक गए हैं.’’

उस की आवाज में चिंता झलक रही थी. उस ने पति को सोफे पर बैठा दिया. आशीष ने एक नजर दिव्या के चेहरे पर डाली और फिर आंखें बंद कर के सोफे पर सिर टिका दिया. दिव्या दौड़ कर उन के लिए पानी ले आई. पानी का गिलास उन के हाथ में थमाते हुए बोली, ‘‘लीजिए, पानी पी लीजिए. आप किसी की नहीं सुनते हैं. कितनी बार कहा कि कम मेहनत किया करो. मरीजों का आना कभी खत्म नहीं हो सकता, आप चाहे सारी रात क्लीनिक खोल कर बैठे रहें… क्या उन के चक्कर में खुद मरीज बन जाएंगे? आप की सेहत ठीक नहीं रहेगी, तो मरीजों को कैसे ठीक करेंगे और फिर हम लोग कैसे खुश रह सकते हैं?’’ वह उन के माथे को सहला रही थी. आशीष को अच्छा लग रहा था.

‘‘देखिए तो चेहरे पर कैसी मुर्दनी छाई हुई है जैसे 10 दिनों से खाना न खाया हो.’’ आशीष चुपचाप आंखें मूंदे रहे. दिव्या की 1-1 बात उन के कानों में पड़ रही थी. वे उस की बातों को सुन सकते थे, परंतु उत्तर नहीं दे सकते थे. उस बेचारी को क्या पता कि आशीष ने अभीअभी कौन सा तूफान अपने सीने के अंदर झेला? वह कभी नहीं समझ पाएगी, क्योंकि जो कुछ उन के साथ हुआ था, उस के बारे में दिव्या को बता कर वह उस की खुशी नहीं छीन सकते थे.

दिव्या का इस प्रसंग में कहीं कोई हाथ नहीं था. दूसरों की करनी की सजा वह क्यों भुगते? जो जहर वे पी रहे थे, उस की 1 बूंद भी वह दिव्या के होंठों पर नहीं रख सकते थे. उन्हीं को सारी उम्र जहर पीना था. वे विषपायी हो गए थे. उन के अंदर अब इतना जहर समा चुका था कि किसी और जहर का उन के अंदर असर नहीं होने वाला था. वह रात किसी तरह गुजर गई. अगली सुबह पहले जैसी सामान्य थी जैसे पिछली रात कहीं कुछ नहीं हुआ. आशीष निश्चिंत भाव से उठ कर तैयार हुए. ऊपर से वे बहुत शांत और गंभीर थे, पर अंदर ही अंदर उन के मन में एक मंथन चल रहा था. उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें क्या करना है. आज ही सब कुछ तय हो जाना है. वे इंतजार नहीं कर सकते और न ही किसी और को दुविधा में रख सकते.

दिव्या किचन में व्यस्त थी. वे नहाधो कर तैयार हो गए. क्लीनिक जाने में अभी देर थी. वे अपने कमरे से मोबाइल ले कर बैठक में आए. रात उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन के फोन पर बहुत सारे मैसेज आए थे. उन्होंने खोल कर देखा. उन में से एक मैसेज नंदिता का था. उस ने लिखा था, ‘‘आप घर पहुंच गए? ठीक तो हैं? मुझे आप की चिंता है?’’

उन्होंने उसी मैसेज पर उत्तर दिया, ‘‘मैं ठीक हूं और उम्मीद करता हूं कि तुम भी ठीक होगी. नंदिता मैं ने अपने जीवन में बहुत जहर पीया है. मैं सचमुच विषपायी हूं. यह जहर किस के कारण मैं ने पीया, इन सब बातों पर जाने का अब कोई औचित्य नहीं है. मैं तुम से केवल इतना कहना चाहता हूं कि अब और ज्यादा जहर पीने की क्षमता मुझ में नहीं है. मेरी सहनशीलता समाप्त हो चुकी है. अब अगर मैं ने 1 भी बूंद जहर पीया तो मैं मर जाऊंगा. आशा है, तुम मेरा आशय समझ गई होगी. मुझे अपनी बीवी और बेटे से प्यार है और शांतिपूर्वक उन के साथ जीना चाहता हूं, मुझे जीने दो. मेरी तुम्हारे लिए नेक सलाह है कि अब तुम भी भागना छोड़ दो और किसी अच्छे लड़के के साथ घर बसा कर खुशी से जीवन व्यतीत करो. अब मुझ से मिलने का प्रयास न करना. आशीष!’’

नंदिता को मैसेज भेजने के बाद एक भारी बोझ उन के मन से उतर गया. उन के मन में अब कोई संशय और चिंता नहीं थी. उन को ऐसा लग रहा था जैसे उन के अंदर जो विष का घड़ा 10 साल से रिसरिस कर बह रहा था, वह अचानक फूट कर बह गया और उस का जहर उन के शरीर से बाहर फैल गया. अब वह उन के शरीर पर असर नहीं कर रहा था. तभी मुसकराती हुई दिव्या नाश्ता ले कर आ गई. बोली, ‘‘आइए, नाश्ता कर लीजिए.’’

वह नहाधो चुकी थी. साधारण कपड़ों में भी किसी परी सी लग रही थी. उन्होंने एक प्यारी मुसकराहट के साथ दिव्या को देखा. फिर मन ही मन खुश होते हुए डाइनिंग टेबल पर जा बैठे.

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आईना: क्यों नही होता छात्रों की नजर में टीचर का सम्मान?

आईने के सामने खड़े हो कर गाना गुनगुनाते हुए डा. रत्नाकर ने अपने बालों को संवारा, फिर अपनेआप को पूर्ण संतुष्टि के साथ निहारते हुए बड़े मोहक अंदाज में अपनी पत्नी को आवाज लगाई, ‘‘सोनू, अरे सोना, मैं तो रेडी हो गया, अब तुम जरा गाड़ी में दोनों पैकेट रखवा दो…प्रिंसिपल साहब का स्पैशल वाला और स्टाफरूम के लिए बड़ा वाला मिठाई का डब्बा. मेरे सारे दोस्त मिठाई के इंतजार में होंगे, सभी के बधाई के फोन आ रहे हैं. आखिर मेरी ड्रीम कार आ ही गई.’’

‘‘पैकेट कार में पहले ही रखवा दिए, प्रिंसिपल साहब की मैडम के लिए कांजीवरम सिल्क की साड़ी भी रख दी है. चाहे कुछ कहो, प्रिंसिपल साहब साथ न दें तो हमारे सपने कैसे पूरे हों. अगर मैडम को भी खुश कर दो तो सबकुछ आसान हो जाता है. ठीक है न,’’ सोनू ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘यू आर ग्रेट,’’ परफ्यूम स्प्रे करतेकरते डा. रत्नाकर ने अपनी पत्नी की दूरदर्शिता की दाद देते हुए कहा, ‘‘जानती हो, स्टाफ में एक शख्स ऐसा भी है जिस ने न तो अभी तक मुझे बधाई नहीं दी. उस का नाम शैलेंद्र है. जलता है वह मेरी तरक्की से और कुछ कहो तो आदर्श शिक्षक की विशेषताएं बता कर सारा मजा किरकिरा कर देता है…सोच रहा हूं, आज उसे इग्नोर ही कर दूं वरना मूड खराब हो जाएगा.’’

सोनू ने भी इस बात पर पूर्ण सहमति जताते हुए सिर हिलाया. डा. रत्नाकर और सोनू गेट की ओर बढ़े. ड्राइवर ने दौड़ कर गाड़ी का दरवाजा खोला.

‘‘बाय,’’ हाथ हिलाते हुए डा. रत्नाकर ने सोनू से विदा ली और कार कालेज की ओर चली. आज उन्हें अपनेआप पर बहुत गर्व हो रहा था. हो भी क्यों न? मात्र 3-4 साल में पहले निजी फ्लैट और अब गाड़ी खरीद ली थी. कहां खटारा स्कूटर…किराए का मकान…मकानमालिक की किचकिच… सब से मुक्ति. जब से अपना कोचिंग सैंटर खोला है तब से रुपयों की बरसात ही तो हो रही है. सोनू भी पढ़ीलिखी है. वह कोचिंग का पूरा मैनेजमैंट देख लेती है और डा. रत्नाकर शिफ्ट में व्यावसायिक कोर्स की कोचिंग करते हैं. प्रिंसिपल साहब को भी किसी न किसी बहाने कीमती गिफ्ट पहुंच जाते हैं तो कालेज का समय भी कोचिंग में लगाने की सुविधा हो जाती है. एक बेटा है जो दिल्ली के एक महंगे स्कूल से 12वीं कर रहा है.

‘ट्रिन…ट्रिन,’ मोबाइल की घंटी से डा. रत्नाकर अपने सुखद विचारों से बाहर निकले. शौर्य का फोन था.

‘‘क्या बात है?’’ रत्नाकर ने पूछा.

‘‘पापा, आप अपनी किताबें व रजिस्टर घर पर ही भूल गए,’’ शौर्य ने कहा, ‘‘सोचा, आप को बता दूं. आप परेशान हो रहे होंगे.’’

‘‘अरे,’’ रत्नाकर सोच ही नहीं पाए कि क्या जवाब दें. फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘बेटा, असल में आज एक मीटिंग है, इसलिए कालेज में पढ़ाई नहीं होगी,’’ इतना कहते ही उन्होंने फोन रख दिया.

गाड़ी से उतर कर रत्नाकर तेज चाल से सीधे प्रिंसिपल के कमरे की ओर बढ़े. प्रिंसिपल साहब गाड़ी की आवाज सुन कर पहले ही खिड़की से डा. रत्नाकर की ड्रीम कार की झलक देख चुके थे, जिसे देख कर उन का मूड औफ हो गया था. अत: डा. रत्नाकर के कमरे में घुसने पर वे चाह कर भी मुसकरा न सके.

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‘‘सर, आप के आशीर्वाद से नई गाड़ी ले ली है…और इस खुशी में यह छोटी सी भेंट आप के लिए लाया था. सोनू ने भाभीजी के लिए कांजीवरम की साड़ी भी भेजी है,’’ कह कर डा. रत्नाकर ने बोझिल वातावरण को महसूस करते हुए उसे हलका करने के उद्देश्य से प्रिंसिपल साहब के पैर छूने का उपक्रम किया.

‘‘रहने दो. इस सब की जरूरत नहीं. वैसे भी मैं तुम को फोन करने वाला था क्योंकि आजकल कई अभिभावक तुम्हारे विरुद्ध शिकायतें ले कर आ रहे हैं कि लंबे समय से क्लास नहीं हुई. मेरे लिए भी संभालना मुश्किल हो रहा है,’’ प्रिंसिपल साहब ने थोड़ी बेरुखी दिखाते हुए कहा.

‘‘सर, मुझे पूरा विश्वास है कि आप तो संभाल ही लेंगे. वैसे भी भाभीजी की कुछ और खास पसंद हो तो बताइएगा,’’

डा. रत्नाकर ने ढिठाई से मुसकराते हुए कहा.

प्रिंसिपल साहब भी मुसकरा दिए.

अब दोनों खुश थे क्योंकि दोनों का दांव सही जगह लगा था.

 

प्रिंसिपल साहब से आज्ञा ले कर रत्नाकर खुशी से उतावले हो कर स्टाफरूम की ओर बढ़े. ‘अब असली मजा आएगा…गाड़ी खरीदने का. सब के चेहरे देखने में एक अजब ही सुख मिलेगा, जिस की प्रतीक्षा मुझे न जाने कब से थी,’ रत्नाकर मन में सोच कर प्रसन्न हो रहे थे.

‘‘बधाई हो,’’ कई स्वर एकसाथ उभरे. रत्नाकर भी खुशी से फूल गए. चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देखा तो कोने की टेबल पर डा. शैलेंद्र एक किताब पढ़ने में लीन थे. चाह कर भी रत्नाकर अपनेआप को रोक न सके. अत: शैलेंद्र की प्रतिक्रिया जानने के लिए मिठाई खिलाने के बहाने उन के पास पहुंचे.

‘‘शैलेंद्र, लो, मिठाई खाओ भई. कभीकभी दूसरों की खुशी में भी अपनी खुशी महसूस कर के देखो, अच्छा लगेगा,’’ थोड़े तीखे व ऊंचे स्वर में रत्नाकर ने कहा.

‘‘जरूरी नहीं कि मिठाई बांट कर या शोर मचा कर ही खुशी प्रकट की जाए. मुझे किताब पढ़ने में खुशी मिलती है तो मैं वही कर रहा हूं और खुश हो रहा हूं,’’ शांत भाव से शैलेंद्र ने जवाब दिया.

‘‘वही तो, कई लोगों को हमेशा पुराने ढोल की आवाज ही अच्छी लगती है तो वे बेचारे क्या तरक्की करेंगे. मैं ने अपनी सोच बदली, नए जमाने की दौड़ के साथ दौड़ा तो आज तुम जैसे लोगों को पीछे छोड़ दिया. असल में मुझे बहुत जल्दी ही इस सच का एहसास हो गया कि पहले जैसे विद्यार्थी रहे ही नहीं तो उन के साथ माथापच्ची क्यों करूं? इसलिए जो वास्तव में पढ़ना चाहते हैं उन्हें अलग से पढ़ाऊं…अलग पढ़ाने की फीस लूं…वे भी खुश हम भी खुश,’’ रत्नाकर ने तीखे स्वर में तर्क देते हुए कहा. क्योंकि वे अपनी उपलब्धि सभी पर प्रकट कर अपनेआप को सब से ऊंचा साबित करना चाह रहे थे.

‘‘गलत, एकदम गलत. अगर इसी बात को सही शब्दों में कहें तो हम शिक्षक अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए शिक्षा को व्यवसाय बना रहे हैं तथा ऐसा करने में जो अपराधबोध है उसे विद्यार्थियों के सिर मढ़ रहे हैं,’’ दोटूक उत्तर दे कर शैलेंद्र खड़े हुए और बिना मिठाई खाए स्टाफरूम से बाहर जाते हुए बोले, ‘‘आज भी अच्छे अध्यापक के सभी विद्यार्थी बहुत अच्छे होते हैं और वे ऐसे अध्यापक को वैसे ही सम्मान देते हैं जैसे अपने मातापिता को.’’

स्टाफरूम में सन्नाटा छा गया.

डा. रत्नाकर भी निरुत्तर हो कर बैठ गए.

‘‘दिन कैसा रहा?’’ दरवाजा खोलते हुए खुश हो कर सोनू ने उत्सुकता प्रकट करते हुए रत्नाकर से पूछा.

‘‘बहुत अच्छा, बस शैलेंद्र ने ही थोड़ा बोर कर दिया पर सोनू, सच कहूं तो उस की बात का बिलकुल बुरा नहीं लगा क्योंकि मुझे अपनी उपलब्धि पर भरपूर सुख का एहसास हो रहा था,’’ डा. रत्नाकर बोले.

‘‘अरे पापा, आप कब आए?’’ कहते हुए शौर्य उन के पास आ कर बैठ गया.

‘‘अभीअभी, बड़ी जरूरी मीटिंग थी, इसीलिए थोड़ा थक गया पर कल तुम को वापस जाना है इसलिए आज हम सब लोग डिनर करने बाहर चलेंगे. शौर्य, तुम अपने टीचर्स के लिए मिठाई और गिफ्ट्स ले जाना, वे खुश हो जाएंगे,’’ रत्नाकर ने शौर्य से कहा.

‘‘पापा, कोई टीचर इस लायक है ही नहीं कि उन को कुछ देने का मन करे, सब पैसे के पीछे भागते हैं, ‘डाउट्स क्लीयर’ करने के बहाने घर बुला कर अच्छीखासी फीस लेते हैं…कुछ तो न जाने कब से कालेज ही नहीं आए… केवल एक राजन सर ऐसे हैं जिन के मैं हमेशा पैर छूता हूं और उन के लिए सच्चे मन से कुछ ले जाना चाहता हूं पर वे लेंगे ही नहीं. उन का कहना है कि हमारा अच्छा रिजल्ट ही उन की उपलब्धि है,’’ कहतेकहते शौर्य भावुक हो उठा.

डा. रत्नाकर की निगाहें झुक गईं. उन का बेटा उन्हीं को ऐसा आईना दिखा रहा था जिस में वे अपना अक्स देखने की स्थिति में ही नहीं थे.

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