उधर से गुजरती एक नर्स की दृष्टि उस पर पड़ी तो वह पास आ कर सुरभि को सांत्वना देने लगी. जब उस ने देखा कि बिना पूरे गरम कपड़ों के वह ठंड से कांप रही है तो उस ने तुरंत वार्ड बौय को आवाज लगाई और एक कंबल मंगवाया. उस के लिए एक कप कौफी मंगवा कर जबरदस्ती पिलाई. फिर धीरे से बोली, ‘‘मैडम, सर ठीक हो जाएंगे. आप चिंता मत करो. मैं देख रही हूं कि आप कब से अकेले ही भागदौड़ कर रही हैं. आप अपने बच्चों और रिश्तेदारों को फोन कर दो. फोन है न आप के पास. नहीं तो मैं दूं.’’
नर्स द्वारा पहुंचाई गई बाह्य उपकरणों की गरमी और उस की स्नेहमयी सांत्वना की गरमाई ने पत्थर बनी सुरभि को पिघला दिया. उस की आंखों में आंसू आ गए. कानपुर में होते तो एक फोन करने की देर थी, सारा शहर एकत्र हो जाता पर मास्टरजी के इस ‘अपने’ अनजान शहर में उसे एक भी व्यक्ति याद न आया जिस को संकट की इस घड़ी में वह सहायतार्थ बुला सके. 8 महीने हो गए थे यहां आए. पर अड़ोसपड़ोस से सामान्य परिचय से अधिक संबंध बनाने का अवसर ही न मिला था. बस्ती के कई व्यक्तियों, मीडिया व नाट्य अकादमी के कई छात्रों के फोन नंबर थे उस के पास. पर वह निश्चय न कर पा रही थी कि क्या कार्य संबंधी कुछ मुलाकातों में उन लोगों से इतना रिश्ता जुड़ गया है कि अपनी निजी आवश्यकताओं के समय उन्हें सहायता के लिए बुलाया जा सके.
सुरभि को एक बार फिर से उन अपनों की कमी खलने लगी थी जिन का अस्तित्व कभी था ही नहीं. मास्टरजी के मातापिता उन्हें किशोरावस्था में ही अकेला छोड़ कर इस दुनिया से चले गए थे. मास्टरजी अपने मातापिता के इकलौते पुत्र थे. मातृपितृविहीन बालक से धीरेधीरे सभी सगेसंबंधियों ने दूरी बना ली थी. सभी को डर था
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कि कहीं अनाथ हो गए बालक का उत्तरदायित्व उन पर न आ पड़े. दूसरी ओर सुरभि ने अपने मातापिता को कभी देखा
ही न था. उस का पालनपोषण उस के चाचाचाची ने किया था. मास्टरजी के साथ ब्याह कर उन्होंने फिर कभी उन की ओर पलट कर भी न देखा था. इन दोनों ने विवाह के बाद जब अपना छोटा सा नीड़ बसाया तो उसे प्रेम, मधुरता, स्नेह और आपसी समर्पण से ऐसे सजाया कि किसी अन्य रिश्ते के अभाव की ओर उन का ध्यान ही न गया. 10 साल यों ही बीत गए थे. फिर धीरेधीरे उन्हें अपने आंगन में किलकारियों की कमी सताने लगी.
शादी के इतने बरस बाद भी वे इस सुख से वंचित थे. सारे चिकित्सकीय प्रयास भी जब निष्फल रहे तो सुरभि ने मास्टरजी के विरोध और अपनी स्वयं की अवधारणाओं के विपरीत जा कर पूजापाठ, व्रत, मन्नत, पंडित, मौलवी कुछ भी न छोड़ा लेकिन सब व्यर्थ के पाखंड सिद्ध हुए. धीरेधीरे सुरभि की मां बनने की संभावना क्षीण होती जा रही थी. अब वह बच्चा गोद लेने का मन बना रही थी पर मास्टरजी के आदर्श कुछ और ही थे. उन के अनुसार, एक बच्चे को गोद ले कर उसे अपना वारिस बनाने से उत्तम है उस हर बच्चे में प्रेम बांटना, जो उन के पास पढ़ने आता है. एक बालक को अपना नाम देने से बेहतर है सब को ज्ञान देना. एक को ‘मेरा’ कहने से बेहतर है सब को अपना कहना. सुरभि ने सदा की भांति इस विषय में भी मास्टरजी का विरोध न किया था और अपने मातृत्व की धारा को उसी ओर मोड़ दिया था जिस ओर मास्टरजी चाहते थे. पर आज… आज कहां हैं वे सब अपने? कहां हैं वे?
अचानक रिसैप्शन की ओर कुछ हलचल सी हुई. 15-20 लोग हड़बड़ाए हुए तेजी से भीतर घुसे और रिसैप्शन को घेर कर कुछ पूछताछ करने लगे. रिसैप्शनिस्ट ने उन्हें इशारे से कुछ बताया और भीड़ तेजी से औपरेशन थिएटर की ओर लपक पड़ी. कुछ पास आने पर सुरभि ने देखा कि भीड़ में सब से आगे मीडिया केंद्र के कुछ लड़केलड़कियां थे. कुछ लोग नाट्य अकादमी के थे. उन के साथ पड़ोस में रहने वाले राजीवजी और उन की पत्नी थीं. कुछ और लोग भी थे जिन्हें सुरभि ने अकसर बस्ती में नुक्कड़ पर अड्डेबाजी करते देखा था.
‘‘अम्मा…’’ कहते हुए वृंदा दौड़ कर सुरभि के पास पहुंची और उस से लिपट गई. वे लोग पता नहीं क्याक्या कहनेपूछने लगे. सुरभि को बस एक ही आवाज सुनाई दे रही थी. क्या कहा था उस लड़की ने, ‘अम्मा…’
सुरभि को अम्मा कहा था उस लड़की ने.
ये सब विद्यार्थी अकसर उस के घर आते थे. कभीकभी किचन में भी घुस जाते थे चायकौफी या नाश्ता बनाने. मास्टरजी स्वयं बच्चों के साथ बच्चा हो जाते थे. पर सुरभि के साथ वे सब कभी अनौपचारिक न हो पाए थे. उस के गुरुगंभीर चेहरे को और भी गुरुता प्रदान करती बालों में
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चांदी की चंद तारें और आंखों पर चढ़ा मोटे शीशों वाला चश्मा, कलफ लगी सिलवटविहीन सूती साड़ी और सदा कसे रहने वाले होंठों के कोर, ये सबकुछ मिला कर उस का व्यक्तित्व जैसे एक अदृश्य प्रभामंडल से घिरा रहता था जिस पर मानो प्रवेश निषेध की तख्ती लगी रहती थी. इन सब के साथ सुरभि की आत्मीयता थी, पर वह उद्दंड बरसाती झरने सी न हो कर शांत गंभीर मानसरोवर सी थी.
ऐसे में वह आदर और सम्मान की औपचारिकता में बंधे विद्यार्थियों व अन्य बस्ती वालों के लिए ‘मैम’ ही थी. पर आज यह क्या हुआ. शुष्क वर्जनाओं को ध्वस्त करता यह कौन सा झोंका था जो सुरभि को विभोर कर गया या वह स्वयं ही कोई और थी इस समय. बीती रात्रि का एकएक पल उस के चेहरे पर चिंता की झुर्रियां बन कर बिछा हुआ था. झुकी कमर और दुख से कातर आंखों में न जाने वह कौन सा खिंचाव था जो वृंदा उस के गले आ लगी थी. विकास, तरुण, तारा, सुबोध, रुचि सब ने उसे घेर लिया.
‘‘अम्मा, आप ने हमें फोन क्यों नहीं किया?’’ अरुण बोला.
‘‘वह तो अच्छा हुआ कि भूरा चाचा को मेज पर रखा मास्टरजी का फोन मिल गया. आप दरवाजे जो खुले छोड़ आई थीं. तब भूरा चाचा ने हमें ढूंढ़ कर सबकुछ बताया,’’ रुचि बोलतेबोलते रोंआसी हो आई थी.
उस के बाद किसी ने डाक्टरों और नर्सों से मास्टरजी के औपरेशन के विषय में जानकारी लेनी आरंभ कर दी, तो कोई नर्स द्वारा थमाया गया दवाओं का परचा ले कर कैमिस्ट की दुकान की ओर भागा. रुचि ने उस की पीठ के पीछे एक तकिया लगाया और उस के पांव बैंच के ऊपर कर दिए. फिर ठीक से कंबल ओढ़ा दिया. मालती शर्मा ने तुरंत थर्मस में से चाय निकाल कर उन्हें स्नेहपगी जिद के साथ पिलाई. अधिक खून की आवश्यकता न पड़ जाए, इसलिए सब बच्चों ने तुरंत अपने खून के सैंपल दिए जांच के लिए. बस्ती के टैक्सी ड्राइवर ने अपनी गाड़ी अस्पताल के बाहर ही खड़ी कर दी थी कि कहीं भागदौड़ की आवश्यकता न पड़ जाए. भूरा ने बताया कि वह दुलारी और अपनी घरवाली को मास्टरजी के घर बिठा कर आया है, इसलिए सुरभि को घर की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है.
सुरभि भौचक्की सी कभी एक की सूरत देखती कभी दूसरे की. कितने प्यारे, कितने अपने लग रहे थे आज ये सब. सुरभि ने पहली बार अपने भीतर मातृत्व को अंगड़ाई लेते महसूस किया था. उस ने बांहें फैला कर बच्चों को सीने से लगा लिया.