उलझन: भाग 2- टूटती बिखरती आस्थाओं और आशाओं की कहानी

लेखक-  रानी दर

प्रतीक्षा से बोझिल वातावरण एकाएक हलका हो गया था. बातचीत आरंभ हुई तो इतनी सहज और अनौपचारिक ढंग से कि देखतेदेखते अपरिचय और दूरियों की दीवारें ढह गईं. रमाशंकरजी का परिवार जितना सभ्य और सुशिक्षित था, उन के बहनबहनोई का परिवार उतना ही सुसंस्कृत और शालीन लगा.

चाय पी कर नलिनीजी ने पास रखी अटैची खोल कर सामान मेज पर सजा दिया. मिठाई के डब्बे, साड़ी का पैकेट, सिंदूर रखने की छोटी सी चांदी की डिबिया. फिर रश्मि को बुला कर अपने पास बिठा कर उस के हाथों में चमचमाती लाल चूडि़यां पहनाते हुए बोलीं, ‘‘यही सब खरीदने में देर हो गई. हमारे नरेशजी का क्या है, यह तो सिर्फ बातें बनाना जानते हैं. पर हम लोगों को तो सब सोचसमझ कर चलना पड़ता है न? पहलीपहली बार अपनी बहू को देखने आ रही थी तो क्या खाली हाथ झुलाती हुई चली आती?’’

‘‘बहू,’’ मैं ने सहसा चौंक कर खाने के कमरे से झांका तो देखती ही रह गई. रश्मि के गले में सोने की चेन पहनाते हुए वह कह रही थीं, ‘‘लो, बेटी, यह साड़ी पहन कर आओ तो देखें, तुम पर कैसी लगती है. तुम्हारे ससुरजी की पसंद है.’’

रश्मि के हाथों में झिलमिलाती हुई चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी, गले में सोने की चेन…यह सब क्या हो रहा है? हम स्वप्न देख रहे हैं अथवा सिनेमा का कोई अवास्तविक दृश्य. घोर अचरज में डूबी रश्मि भी अलग परेशान लग रही थी. उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि उसे कोई देखने आ रहा है.

हाथ की प्लेटें जहां की तहां धर मैं सामने आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्षमा कीजिए, नलिनीजी, हमें भाईसाहब ने इतना ही कहा था कि आप लोग रश्मि को देखने आएंगे, पर आप का निर्णय क्या होगा, उस का तो जरा सा भी आभास नहीं था, सो हम ने कोई तैयारी भी नहीं की.’’

‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, सरला बहन? बेटी तो आप की है ही, अब हम ने बेटा भी आप को दे दिया. जी भर के खातिर कर लीजिएगा शादी के मौके पर,’’ उन का चेहरा खुशी के मारे दमक रहा था, ‘‘अरे, आ गई रश्मि बिटिया. लो, रमाशंकर, देख लो साड़ी पहन कर कैसी लगती है तुम्हारी बहूरानी.’’

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‘‘हम क्या बताएंगे, दीदी, आप और जीजाजी बताइए, हमारी पसंद कैसी लगी आप को? हम ने हीरा छांट कर रख दिया है आप के सामने. अरे भई, अनुपम, ऐसे गुमसुम से क्यों बैठे हो तुम? वह जेब में अंगूठी क्या वापस ले जाने के इरादे से लाए हो?’’ रमाशंकरजी चहके तो अनुपम झेंप गया.

‘‘हमारी अंगूठी के अनुपात से काफी दुबलीपतली है यह. खैर, कोई बात नहीं. अपने घर आएगी तो अपने जैसा बना लेंगे हम इसे भी,’’ नलिनीजी हंस दीं.

पर मैं अपना आश्चर्य और अविश्वास अब भी नियंत्रित नहीं कर पा रही थी, ‘‘वो…वो…नलिनीजी, ऐसा है कि आजकल लड़के वाले बीसियों लड़कियां देखते हैं…और इनकार कर देते हैं…और आप…?

‘‘हां, सरला बहन, बड़े दुख की बात है कि संसार में सब से महान संस्कृति और सभ्यता का दंभ भरने वाला हमारा देश आज बहुत नीचे गिर गया है. लोग बातें बहुत बड़ीबड़ी करते हैं, आदर्श ऊंचेऊंचे बघारते हैं, पर आचरण ठीक उस के विपरीत करते हैं.

‘‘लेकिन हमारे घर में यह सब किसी को पसंद नहीं. लड़का हो या लड़की, अपने बच्चे सब को एक समान प्यारे होते हैं. किसी का अपमान अथवा तिरस्कार करने का किसी को भी अधिकार नहीं है. हमारे अनुपम ने पहले ही कह दिया था, ‘मां, जो कुछ मालूम करना हो पहले ही कर लेना. लड़की के घर जा कर मैं उसे अस्वीकार नहीं कर सकूंगा.’

‘‘इसलिए हम रमाशंकर और भाभी से सब पूछताछ कर के ही मुंबई से आए थे कि एक बार में ही सब औपचारिकताएं पूरी कर जाएंगे और हमारी भाभी ने रश्मि बिटिया की इतनी तारीफ की थी कि हम ने और लड़की वालों के समस्त आग्रह और निमंत्रण अस्वीकार कर दिए. घरघर जा कर लड़कियों की नुमाइश करना कितना अपमानजनक लगता है, छि:.’’

उन्होंने रश्मि को स्नेह से निहार कर हौले से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘बेटी का बहुत चाव था हमें, सो मिल गई. अब तुम्हें 2-2 मांओं को संभालना पड़ेगा एकसाथ. समझी बिटिया रानी?’’ हर्षातिरेक से वह खिलीखिली जा रही थीं.

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‘‘अच्छा, बहनजी, अब आप का उठने का विचार है या अपनी लाड़ली बहूरानी को साथ ले कर जाने का ही प्रण कर के आई  हैं?’’ रमाशंकरजी अपनी चुटकियां लेने की आदत छोड़ने वाले नहीं थे, ‘‘बहुत निहार लिया अपनी बहूरानी को, अब उस बेचारी को आराम करने दीजिए. क्यों, रश्मि बिटिया, आज तुम्हारी जबान को क्या हो गया है? जब से आए हैं, तुम गूंगी बनी बैठी हो. तुम भी तो कुछ बोलो, हमारे अनुपम बाबू कैसे लगे तुम्हें? कौन से हीरो की झलक पड़ती है इन में?’’

रश्मि की आंखें उन के चेहरे तक जा कर नीचे झुक गईं तो वह हंस पड़े, ‘‘भई, आज तो तुम बिलकुल लाजवंती बन गई हो. चलो, फिर किसी दिन आ कर पूछ लेंगे.’’

तभी इन्होंने एक लिफाफा नरेशजी के हाथों में थमा दिया, ‘‘इस समय तो बस, यही सेवा कर सकते हैं आप की. पहले से मालूम होता तो कम से कम अनुपमजी के लिए एक अंगूठी और सूट का प्रबंध तो कर ही लेते. जरा सा शगुन है बस, ना मत कीजिएगा.’’

हम लोग बेहद संकोच में घिर आए थे. अतिथियों को विदा कर के आए तो लग रहा था जैसे कोई सुंदर सा सपना देख कर जागे हैं. चारों तरफ रंगबिरंगे फूलों की वादियां हैं, ठंडे पानी के झरझर झरते झरने हैं और बीच में बैठे हैं हम और हमारी रश्मि. सचमुच कितना सुखी जीवन है हमारा, जो घरबैठे लड़का आ गया था. वह भी इंजीनियर. भलाभला सा, प्यारा सा परिवार. कहते हैं, लड़की वालों को लड़का ढूंढ़ने में वर्षों लग जाते हैं. तरहतरह के अपमान के घूंट गले के भीतर उड़ेलने पड़ते हैं, तब कहीं वे कन्यादान कर पाते हैं.

क्या ऐसे भले और नेक लोग भी हैं आज के युग में?

नलिनीजी के परिवार ने लड़के वालों के प्रति हमारी तमाम मान्यताओं को उखाड़ कर उस की जगह एक नन्हा सा, प्यारा सा पौधा रोप दिया था, मानवता में विश्वास और आस्था का. और उस नन्हे से झूमतेलहराते पौधे को देखते हुए हम अभिभूत से बैठे थे.

‘‘अच्छा, जीजी, चुपकेचुपके रश्मि बिटिया की सगाई कर डाली और शहर के शहर में रहते भी हमें हवा तक नहीं लगने दी?’’ देवरानी ने घुसते ही बधाई की जगह बड़ीबड़ी आंखें मटकाते हुए तीर छोड़ा.

‘‘अरे मंजु, क्या बताएं, खुद हमें ही विश्वास नहीं हो रहा है कि कैसे रश्मि की सगाई हो गई. लग रहा है, जैसे सपना देख कर जागे हैं. उन लोगों ने देखने आने की खबर दी थी, पर आए तो पूरी सगाई की तैयारी के साथ. और हम लोग तो समझो, पानीपानी हो गए एकदम. लड़के के लिए न अंगूठी, न सूट, न शगुन का मिठाईमेवा. यह देखो, तुम्हारी बिटिया के लिए कितना सुंदर सेट और साड़ी दे गए हैं.’’

मंजु ने सामान देखा, परखा और लापरवाही से एक तरफ धर कर, फिर जैसे मैदान में उतर आई, ‘‘अरे, अब हमें मत बनाइए, जीजी. इतनी उमर हो गई शादीब्याह देखतेदेखते, आज तक ऐसा न देखा न सुना. परिवार में इतना बड़ा कारज हो जाए और सगे चाचाचाची के कान में भनक भी न पड़े.’’

‘‘मंजु, इस में बुरा मानने की क्या बात है. ये लोग बड़े हैं. जैसा ठीक समझा, किया. उन की बेटी है. हो सकता है, भैयाभाभी को डर हो, कहीं हम लोग आ कर रंग में भंग न डाल दें. इसलिए…’’

‘‘मुकुल भैया, आप भी…हम पर इतना अविश्वास? भला शुभ कार्य में अपनों से दुरावछिपाव क्यों करते?’’ छोटे भाई जैसे देवर मुकुल से मुझे ऐसी आशा नहीं थी.

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‘‘अच्छा, रानीजी, जो हो गया सो तो हो गया. अब ब्याह भी चुपके से न कर डालना. पहलीपहली भतीजी का ब्याह है. सगी बूआ को न भुला देना,’’ शीला जीजी दरवाजे की चौखट पर खड़ेखड़े तानों की बौछार कर रही थीं.

‘‘हद करती हैं आप, जीजी. क्या मैं अकेले हाथों लड़की को विदा कर सकती हूं? क्या ऐसा संभव है?’’

‘‘संभवअसंभव तो मैं जानती नहीं, बीबी रानी, पर इतना जरूर जानती हूं कि जब आधा कार्य चुपचाप कर डाला तो लड़की विदा करने में क्या धरा है. अरे, मैं पूछती हूं, रज्जू से तुम ने आज फोन करवाया. कल ही करवा देतीं तो क्या घिस जाता? पर तुम्हारे मन में तो खोट था न. दुरावछिपाव अपनों से.’’

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रस्मे विदाई: क्यों विदाई के दिन नहीं रोई मिट्ठी

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धारा के विपरीत: भाग 1- निष्ठा के कौनसे निर्णय का हो रहा था विरोध

कैसे भूले जा सकते हैं वे दिन जब कोरोना महामारी के कारण देश में आपातकालीन लौकडाउन लगा दिया गया था. मानो तेज रफ्तार गाड़ी में अचानक हैंडब्रैक लगा दिया हो. हर तरफ अफरातफरी का माहौल था. एक तो अनजान बीमारी, दूसरे इलाज का अतापता नहीं. भय तो फैलना ही था. सब अंधेरे में तीर चला रहे थे. दवाओं के अलावा कोई काढ़ा-आसव तो कोई कुछ… जिसे जो समझ में आ रहा था वह वही आजमा कर देख रहा था.

न रेल चल रही थी, न ही बस. स्कूल, कालेज, कोचिंग और अन्य दूसरे होस्टल खाली करवाए जा रहे थे. ऐसे में उन लोगों को परेशानी हो गई जो किसी कारण से अपने ठिकाने से दूर थे.

निष्ठा के साथ भी यही हुआ. कहां तो वह अपना वीकैंड मृदुल के साथ बिताने आई थी और कहां इस झमेले में फंस गई. नहींनहीं, यह कोई पहली बार नहीं था जब वे दोनों इस तरह से एक साथ थे. वे अकसर इस तरह के शौर्ट ट्रिप प्लान करते रहते थे.

चूंकि दोनों ही अपनेअपने घरों से दूर यहां पुणे में जौब करते हैं, इसलिए कोई रोकटोक भी नहीं थी. भविष्य में शादी करेंगे या नहीं, इस फिक्र से दूर दोनों वर्तमान को जी रहे थे.

जनता कर्फ्यू की घोषणा के साथ ही आगामी दिनों में लौकडाउन लगने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी. निष्ठा और मृदुल ने भी सोचा कि कौन जाने कितने दिन एकदूसरे से दूर रहना पड़े, इसलिए क्यों न खुल कर जी लिया जाए. निष्ठा चूंकि वर्किंग वुमन होस्टल में रहती थी और मृदुल कहीं पेइंगगैस्ट, इसलिए दोनों ने पणजी में मृदुल के दोस्त अभय के घर जाना तय किया. अभय अपने दोस्तों के साथ कहीं बाहर था, इसलिए उस का घर खाली था. मौके का फायदा उठाते हुए वे दोनों 2 दिन की अपनी जमा की हुई लीव ले कर पणजी चले गए.

अभी दोनों इस वीकैंड को एंजौय कर ही रहे थे कि देशव्यापी लौकडाउन घोषित कर दिया गया. खबर सुनते ही मृदुल की आंखें चमक उठीं.

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“हम तुम एक कमरे में बंद हों, और चाबी खो जाए…” वह शरारत से आंख दबाते हुए गुनगुनाया.

“तुम्हें बड़ा मजाक सूझ रहा है. क्या तुम्हें अंदाजा भी है कि हम किस मुश्किल में फंस चुके हैं?” निष्ठा ने उसे सीरियस करने की कोशिश की.

“इस में कौन सी मुसीबत हुई भला? जैसे हम यहां फंसे हैं वैसे अभय भी फंसा हुआ है. घर में राशन तो रखा ही हुआ है. बस, बनाओ और खाओ. अच्छा ही है, इस बहाने तुम्हारे हाथ के बने पकवान खाने को मिलेंगे.” मृदुल ने उसे बेफिक्र करना चाहा लेकिन निष्ठा तो दूसरी ही चिंता में घुली जा रही थी.

“एकसाथ एक घर में रहने का मतलब तुम समझ रहे हो न, वह भी बिना किसी सुरक्षा उपाय के.” निष्ठा ने कुछ संकोच के साथ कहा तो मृदुल खिलखिला दिया.

“तो क्या हुआ? नन्हा सा गुल खिलेगा, अंगना… सूनी बैंया सजेगी सजना.” गाते हुए उस ने निष्ठा को छेड़ा. वह गुस्से में पांव पटकती हुई वहां से हट गई.

यह पूरे 21 दिन का लौकडाउन था. जब तक थे तब तक तो सुरक्षा उपाय अपनाए गए, फिर मन मार कर कुछ दिन संयम भी रखा गया. जब धैर्य चूक गया तो महीने के सुरक्षित दिनों का हिसाब रखते हुए भी दोनों ने संबंध बनाए लेकिन उस में कोई आनंद न था.

एकएक दिन चिंता में गुजर रहा था. किसी को लौकडाउन खुलने का इंतजार होगा, लेकिन निष्ठा तो अपने मासिकधर्म के आने का इंतजार कर रही थी. आखिर जिस दिन उसे अपनी पैंटी पर कत्थई निशान दिखे, उस ने सुकून की सांस ली. जिंदगी में पहली बार अपना मासिकधर्म आने पर निष्ठा खुश हुई थी. इस से पहले तो यह पीरियड उसे बहुत ही असहज कर दिया करता था.

खैर, किसी तरह पहले लौकडाउन के 21 दिन बीते. हालांकि लौकडाउन को आगे भी बढ़ा दिया गया लेकिन पाबंदियों में कुछ ढील भी मिली. मृदुल और निष्ठा भी किसी तरह पणजी से निकले और पुणे आए. निष्ठा ने राहत महसूस की. बेशक निष्ठा आधुनिक विचारधारा की लड़की है लेकिन समाज में बिनब्याही मां की स्थिति से भी बखूबी वाकिफ है, इसलिए लौकडाउन में वह किसी मुसीबत में नहीं फंसी, इसी बात से वह बहुत राहत महसूस कर रही थी.

कहते हैं कि एक बार वर्जनाएं टूट जाएं तो उन के बारबार टूटने का अंदेशा बना रहता है. लौकडाउन की पाबंदियों के बीच फिर से जिंदगी न्यू नौर्मल होने लगी थी. यातायात के साधन खुलने लगे थे. इस बीच कहींकहीं पर्यटन उद्योग भी फिर से पटरी पर आने लगा था. निष्ठा और मृदुल की जिंदगी में पुराने समय के दौर ने फिर से गति पकड़ ली. दोनों फिर से हर वीकैंड में एकसाथ दिखने लगे. लेकिन इस कठिन समय ने निष्ठा को अपने रिश्ते के लिए अवश्य ही संजीदा कर दिया था. उस ने और मृदुल ने शादी करने का फैसला कर लिया.

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यों तो आजकल प्रेम विवाह टैबू नहीं रहे लेकिन फिर भी अलग जातिधर्म के व्यक्ति को अपनी बिरादरी में शामिल करने से पहले पुराने लोग आज भी हिचकते हैं. शुरूआती आपत्ति के बाद दोनों परिवार इस रिश्ते के लिए राजी हो गए. नवंबर के महीने में जब सबकुछ बिलकुल ठीक सा लग रहा था तब कुछ निजी लोगों की उपस्थिति में निष्ठा और मृदुल की मंगनी हो गई.

हमारे समाज में मंगनी होने को शादी की गारंटी मान लिया जाता है. ऐसी स्थितियों में समाज और संस्कार दोनों ही लड़कालड़की के मिलन पर एतराज नहीं करते. ये दोनों तो वैसे भी खूब मिलतेजुलते थे, अब थोड़े से अधिक बेपरवाह होने लगे थे.

यह शादी अप्रैल के महीने में होने वाली थी लेकिन इस से पहले ही एक मनचाही समस्या सामने आ खड़ी हुई. निष्ठा ने इस बार अपना पीरियड मिस कर दिया. यह बात जब उस ने मृदुल को बताई तो उस ने आदतन लापरवाही से निष्ठा की फिक्र को हवा में उड़ा दिया.

“अरे यार, क्यों टैंशन ले रही हो. अब तो शादी होने ही वाली है न. वैसे, तुम चाहो तो एबौर्शन करवा सकती हो.” फ़िक्रमुक्त करने के साथ ही मृदुल ने उसे सलाह भी दे डाली.

“नहीं. कहते हैं, पहला बच्चा प्रकृति का उपहार होता है. पहले ही गर्भ को गिरवा दिया जाए तो बाद में गर्भ धारण करने में समस्याएं होने लगती हैं. मैं यह बच्चा नहीं गिरवाऊंगी,” कहते हुए निष्ठा ने एबौर्शन करवाने से इनकार कर दिया.

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उलझन: भाग 1- टूटती बिखरती आस्थाओं और आशाओं की कहानी

लेखक-  रानी दर

आश्चर्य में डूबी रश्मि मुझे ढूंढ़ती हुई रसोईघर में पहुंची तो उस की नाक ने उसे एक और आश्चर्य में डुबो दिया, ‘‘अरे वाह, कचौरियां, बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है. किस के लिए बना रही हो, मां?’’

‘‘तेरे पिताजी के दोस्त आ रहे हैं आज,’’ उड़ती हुई दृष्टि उस के थके, कुम्हलाए चेहरे पर डाल मैं फिर चकले पर झुक गई.

‘‘कौन से दोस्त?’’ हाथ की किताबें बरतनों की अलमारी पर रखते हुए उस ने पूछा.

‘‘कोई पुराने साथी हैं कालिज के. मुंबई में रहते हैं आजकल.’’

जितनी उत्सुकता से उस के प्रश्न आ रहे थे, मैं उतनी ही सहजता से और संक्षेप में उत्तर दिए जा रही थी. डर रही थी, झूठ बोलते कहीं पकड़ी न जाऊं.

गरमागरम कचौरी का टुकड़ा तोड़ कर मुंह में ठूंसते हुए उस ने एक और तीर छोड़ा, ‘‘इतनी बढि़या कचौरियां आप ने हमारे लिए तो कभी नहीं बनाईं.’’

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उस का फूला हुआ मुंह और उस के साथ उलाहना. मैं हंस दी, ‘‘लगता है, तेरे कालिज की कैंटीन में आज तेरे लिए कुछ नहीं बचा. तभी कचौरियों में ज्यादा स्वाद आ रहा है. वरना वही हाथ हैं और वही कचौरियां.’’

‘‘अच्छा, तो पिताजी के यह दोस्त कितने दिन ठहरेंगे हमारे यहां?’’ उस ने दूसरी कचौरी तोड़ कर मुंह में ठूंस ली थी.

‘‘ठहरे तो वह रमाशंकरजी के यहां हैं. उन से रिश्तेदारी है कुछ. तुम्हारे पिताजी ने तो उन्हें आज चाय पर बुलाया है. तू हाथ तो धो ले, फिर आराम से प्लेट में ले कर खाना. जरा सब्जी में भी नमक चख ले.’’

उस ने हाथ धो कर झरना मेरे हाथ से ले लिया, ‘‘वह सब चखनावखना बाद में होगा. पहले आप बेलबेल कर देती जाइए, मैं तलती जाती हूं. आशु नहीं आया अभी तक स्कूल से?’’

‘‘अभी से कैसे आ जाएगा? कोई तेरा कालिज है क्या, जो जब मन किया कक्षा छोड़ कर भाग आए? छुट्टी होगी, बस चलेगी, तभी तो आएगा.’’

‘‘तो हम क्या करें? अर्थशास्त्र के अध्यापक पढ़ाते ही नहीं कुछ. जब खुद ही पढ़ना है तो घर में बैठ कर क्यों न पढ़ें. कक्षा में क्यों मक्खियां मारें?’’ उस ने अकसर कक्षा छोड़ कर आने की सफाई पेश कर दी.

4 हाथ लगते ही मिनटों में फूलीफूली कचौरियों से परात भर गई थी. दहीबड़े पहले ही बन चुके थे. मिठाई इन से दफ्तर से आते वक्त लाने को कह दिया था.

‘‘अच्छा, ऐसा कर रश्मि, 2-4 और बची हैं न, मैं उतार देती हूं. तू हाथमुंह धो कर जरा आराम कर ले. फिर तैयार हो कर जरा बैठक ठीक कर ले. मुझे वे फूलवूल सजाने नहीं आते तेरी तरह. समझी? तब तक तेरे पिताजी और आशु भी आ जाएंगे.’’

‘‘अरे, सब ठीक है मां. मैं पहले ही देख आई हूं. एकदम ठीक है आप की सजावट. और फिर पिताजी के दोस्त ही तो आ रहे हैं, कोई समधी थोड़े ही हैं जो इतनी परेशान हो रही हो,’’ लापरवाही से मुझे आश्वस्त कर वह अपनी किताबें उठा कर रसोई से निकल गई. दूर से गुनगुनाने की आवाज आ रही थी, ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे, महके यों ही जीवन में…’

मैं अवाक् रह गई. अनजाने में वह कितना बड़ा सत्य कह गई थी, वह नहीं जानती थी. सचमुच इन के कोई दोस्त नहीं वरन दफ्तर के साथी रमाशंकर की बहन और बहनोई आ रहे थे रश्मि को देखने.

लेकिन बेटे वालों के जितने नाजनखरे होते हैं, उस के हिसाब से कितनी बार यह नाटक दोहराना पड़ेगा, कौन जानता है. और लाड़दुलार में पली, पढ़ीलिखी लड़कियों का मन हर इनकार के साथ विद्रोह की जिस आग से भड़क उठता है, मैं नहीं चाहती थी, मेरी सीधीसादी सांवली सी बिटिया उस आग में झुलस कर अभी से किसी हीनभावना से ग्रस्त हो जाए.

इसी वजह से वह जितनी सहज थी, मैं उतनी ही घबरा रही थी. कहीं उसे संदेह हो गया तो…

भारतीय परंपरा के अनुरूप हमारे माननीय अतिथि पूरे डेढ़ घंटे देर से आए. प्रतीक्षा से ऊबे रश्मि और आशु अपने पिता पर अपनी खीज निकाल रहे थे, ‘‘रमाशंकर चाचाजी ने जरूर आप का अप्रैल फूल बनाया है. आप हैं भी तो भोले बाबा, कोई भी आप को आसानी से बुद्धू बना लेता है.’’

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‘‘नहीं, बेटा, रमाशंकरजी अकेले होते तो ऐसा संभव था, क्योंकि वह अकसर ऐसी हरकतें किया करते हैं. पर उन के साथ जो मेहमान आ रहे हैं न, वे ऐसा नहीं करेंगे. नए शहर में पहली बार आए हैं इसलिए घूमनेघामने में देर हो गई होगी. पर वे आएंगे जरूर…’’

‘‘मान लीजिए, पिताजी, वे लोग न आए तो इतनी सारी खानेपीने की चीजों का क्या होगा?’’ रश्मि को मिठाई और मेहनत से बनाई कचौरियों की चिंता सता रही थी.

‘‘अरे बेटा, होना क्या है. इसी बहाने हमतुम बैठ कर खाएंगे और रमाशंकरजी और अपने दोस्त को दुआ देंगे.’’

बच्चों को आश्वस्त कर इन्होंने खिड़की का परदा सरका कर बाहर झांका तो एकदम हड़बड़ा गए.

‘‘अरे, रमाशंकरजी की गाड़ी तो खड़ी है बाहर. लगता है, आ गए हैं वे लोग.’’

‘‘माफ कीजिए, राजकिशोरजी, आप लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी, जिस के लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं,’’ क्षमायाचना के साथसाथ रमाशंकरजी ने घर में प्रवेश किया, ‘‘पर यह औरतों का मामला जहां होता है, आप तो जानते ही हैं, हमें इंडियन स्टैंडर्ड टाइम पर उतरना पड़ता है.’’

वह अपनी बहन की ओर कनखियों से देख मुसकरा रहे थे, ‘‘हां, तो मिलिए मेरी बहन नलिनीजी और इन के पति नरेशजी से, और यह इन के सुपुत्र अनुपम तथा अनुराग. और नलिनी बहन, यह हैं राजकिशोरजी और इन का हम 2, हमारे 2 वाला छोटा सा परिवार, रश्मि बिटिया और इन के युवराज आशीष.’’

‘‘रमाशंकरजी, हमारे बच्चों को यह गलतफहमी होने लगी थी कि कहीं आप भूल तो नहीं गए आज का कार्यक्रम,’’ सब को बिठा कर यह बैठते हुए बोले.

रमाशंकरजी ने गोलगोल आंख मटकाते हुए आशु की तरफ देखा, ‘‘वाह, मेरे प्यारे बच्चो, ऐसी शानदार पार्टी भी कोई भूलने की चीज होती है भला? अरे, आशु बेटा, दरवाजा बंद कर लो. कहीं ऐसा न हो कि इतनी अच्छी महक से बहक कर कोई राह चलता अपना घर भूल इधर ही घुस आए,’’ अपने चिरपरिचित हास्यमिश्रित अभिनय के साथ जिस नाटकीय अदा से रमाशंकरजी ने ये शब्द कहे उस से पूरा कमरा ठहाकों से गूंज गया.

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धारा के विपरीत: भाग 2- निष्ठा के कौनसे निर्णय का हो रहा था विरोध

मार्च का महीना शुरू हो चुका था. निष्ठा के पेट पर हलका उभार दिखने लगा था जिसे वह ढीले कपड़ों में छिपाने की कोशिश करती रहती थी. अब उसे इंतजार था अगले महीने का जब मृदुल से उस की शादी हो जाएगी और यह बच्चा, जो अभी तक नाजायज है, फेरे पड़ते ही जायज हो जाएगा.

किसी का सोचा हुआ अक्षरशः कभी हुआ है क्या, जो निष्ठा का सोचा हुआ होता. मार्च का अंतिम सप्ताह आते-आते एक बार फिर से पूरा देश लौकडाउन की स्थिति में आ गया. कहीं पूर्ण तो कहीं आंशिक रूप से शहर और कसबे बंद होने लगे. घबराहट के मारे निष्ठा का बुरा हाल था.

महामारी को रोकने के प्रयास में सख्ती बढ़ाते हुए सरकार ने हर तरह के समारोहों पर रोक लगा दी. बहुत जरूरी होने पर केवल 11 लोगों की उपस्थिति में विवाह समारोह आयोजित किया जा सकता है. मृदुल के घर वालों ने विवाह की तिथि आगे खिसकाने की बात की जिसे निष्ठा के घर वालों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. आखिर सभी चाहते थे कि शादी धूमधाम से और सभी मित्रों, परिजनों की उपस्थिति में ही संपन्न हो.

निष्ठा ने सुना तो उस के पांवों तले से जमीन खिसक गई. अगली तारीख कम से कम तीनचार महीने बाद ही तय होगी. तब तक वह अपना पेट कैसे छिपा सकेगी?

पहले तो निष्ठा और मृदुल ने तय तिथि पर ही शादी करने की जिद की लेकिन जब उन की बात नहीं सुनी गई तो हिम्मत कर के निष्ठा ने अपनी मां से फोन पर बात की. जैसा कि खुद निष्ठा को अंदेशा था, उस के बिनब्याही मां बनने की खबर ने मां के भी होश उड़ा दिए.

“हाय, इतनी समझदार हो कर भी यह कैसी भूल कर बैठी लड़की,” मां ने माथा पीट लिया लेकिन अब हो भी क्या सकता था. अब तो, बस, एक ही उपाय है. किसी तरह 11 लोगों की गवाही में ही सही, लड़की को नदी पार लगा दिया जाए वरना नाक तो कट ही चुकी है.

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मां ने पापा को विश्वास में ले कर इस विपदा की सूचना दी. पापा ने बहुत सोचविचार कर समधियों को वस्तुस्थिति से अवगत करवाना सही समझा. समधी भी सुलझे हुए विचारों के थे. वे भी अवसर की नजाकत समझ कर पहले से तय तिथि पर ही शादी करने को राजी हो गए. सब ने राहत की सांस ली. समस्या का समाधान तो हो गया था लेकिन जरूरी नहीं कि हर कहानी का अंत उतना ही सुखद और समस्या का समाधान उतना ही आसान हो जैसा दिखाई दे रहा हो. निष्ठा के हिस्से अभी बहुत सी परीक्षाएं देनी शेष थीं.

इधर शादी में कुछ ही दिन शेष रह गए थे और उधर कोरोना था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. हर रोज नए मरीजों के आने और बीमारी से होने वाली मौतों का आंकड़ा नया रिकौर्ड बना रहा था. कहीं लौकडाउन तो कहीं कर्फ्यू लगा था. यहां तक कि निष्ठा का शादी वाला लहंगा और मृदुल की शेरवानी भी उन्हें नहीं मिल पा रहे थे क्योंकि टेलर की दुकान अनिश्चित समय के लिए बंद कर दी गई थीं.

यह कोरोना की दूसरी लहर थी जो धीरेधीरे अपना प्रचंड रूप दिखा रही थी. कोई ऐसा घर, महल्ला नहीं बचा था जहां कोई मौत न हुई हो. ऊपर से औक्सीजन और दवाओं की कमी अलग. न अस्पतालों में जगह न डाक्टरों को फुरसत. एक बार जो इस वायरस की चपेट में आ कर अस्पताल में भरती हो गया, उस के वापस जिंदा लौटने के चांस बहुत ही कम देखे गए. कौन जाने वहां अस्पताल में क्या हो रहा था. न परिजनों को मिलने दिया जा रहा था और न ही अंदर की कोई खबर बाहर आ पा रही थी. ऐसे लग रहा था जैसे अस्पताल नहीं, कोई ब्लैकहोल हैं जिस में एक बार जो गया, उस की वापसी का कोई रास्ता शेष नहीं रहता.

निष्ठा और मृदुल के घर वाले तमाम सावधानियां रखते हुए शादी की तैयारियों में जुटे थे. हर दिन विकट होते हालात के मध्य, हालांकि यह आसान काम नहीं था लेकिन फिर भी, सब चाहते थे कि किसी तरह यह शादी निर्विघ्न निबट जाए क्योंकि निष्ठा अब गर्भपात करवाने वाली स्थिति में भी नहीं थी.

शादी में अब केवल सप्ताहभर बाकी था. बाहर से मेहमान तो कोई आने वाला नहीं था, बस, दोनों परिवारों और पंडित जी को मिला कर कुल 11 लोग ही इस शादी में शामिल होने वाले थे. निष्ठा और मृदुल किसी तरह किराए पर गाड़ी ले कर अपनेअपने घर पहुंचे.

कहते हैं कि भविष्य में घटित होने वाली किसी भी अप्रिय घटना का आभास हमारी छठी इंद्रिय को पहले ही हो जाता है. यह अलग बात है कि उन संकेतों को हम कितना पकड़ पाते हैं. 2 दिन हुए, निष्ठा का दिल किसी अनिष्ट की आशंका से बैठा जा रहा था. आज शाम को उस की आशंका यकीन में बदलने लगी जब मृदुल ने उसे फोन पर हरारत महसूस होने की बात कही. निष्ठा ने अपने मन को यह कह कर लाख भुलावे में रखने की कोशिश की कि यह सफर की थकान के अतिरिक्त कुछ नहीं है लेकिन मन उस के भुलावे में आने को राजी ही नहीं हुआ.

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विवाह के 3 दिनों पहले बुखार न उतरने की स्थिति में मृदुल की कोरोना जांच करवाई गई जो कि पौजिटिव आई. रिपोर्ट का पता चलते ही निष्ठा बेहोश होतेहोते बची. अनजाने ही उस के हाथ पेट पर चले गए जहां एक नन्हा सा जीव भी अपने जायज होने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.

सब एकदूसरे को दिलासा दे रहे थे कि 90 प्रतिशत लोग अस्पताल जाए बिना ही ठीक हो जाते हैं, इसलिए घबराने की कोई बात नहीं. लेकिन निष्ठा खुद को उन 10 प्रतिशत अभागे लोगों में शुमार कर रही थी जिन की स्थिति इस वायरस के कारण घातक हो जाती है. और हुआ भी यही. अगले ही दिन औक्सीजन लैवल में कमी आने के कारण मृदुल को अस्पताल ले जाना पड़ा. उस के बाद क्या हुआ, क्या नहीं, कुछ पता नहीं चला. ऐन शादी वाले दिन की सुबह मृदुल के न होने का समाचार आ गया. एक दुनिया बसने से पहले ही उजड़ गई.

निष्ठा की तो सोचने की शक्ति ही चुक गई. अपनी होने वाली संतान, जिसे वह प्रेम की निशानी समझ कर किसी भी कीमत पर बचाना चाह रही थी, उसे अपने शरीर का ऐसा रोगग्रस्त हिस्सा लगने लगी जिसे काट कर फ़ेंकना मात्र ही इलाज शेष है.

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एक मौका और : भाग 4- हमेशा होती है अच्छाई की जीत

लेखिका- मरियम के. खान

सूटकेस में 10 हजार डौलर और अहम कागजात थे. कार उस ने क्लिनिक के गेट पर ही खड़ी कर दी. वह राहिल के साथ क्लिनिक के औफिस में आया तो ठिठक गया. सामने नर्सें, कंपाउंडर और गार्ड नीचे फर्श पर पड़े थे. डाक्टर ने राहिल की तरफ मुड़ना चाहा तो उसे कमर में चुभन का अहसास हुआ. कुछ ही देर में वह बेहोश हो गया. उस के बाद राहिल बाहर आया. बाहर वाले गार्ड को भी वह बेहोश कर के अंदर ले गया.

प्लान के मुताबिक शमा भी वहां पहुंच गई. उस ने पूछा, ‘‘सब ठीक है?’’

राहिल ने जवाब दिया, ‘‘सब पूरी तरह काबू में हैं.’’

उस ने मास्क लगा कर लोगों को एक जगह जमा कर लिया. ये वे जालिम और कातिल लोग थे, जिन्होंने मजबूर और बेबस लोगों को तड़पातड़पा कर मारा था. शमा ने पूछा, ‘‘अब इन के साथ क्या करोगे?’’

‘‘वही, जो इन्होंने दूसरों के साथ किया है,’’ राहिल आगे बोला, ‘‘चलो शमा, जल्दी आओ. हमें बाकी लोगों को यहां से आजाद करना है.’’

चाबियां राहिल के पास थीं. पहले उस ने ऊपर के कमरों के लोगों को एकएक कर आजाद किया और उन्हें धीमी आवाज में सारे हालात समझा दिए. उन्हें सलाह दी कि अपने रिश्तेदारों से बच कर किसी टीवी चैनल में चले जाओ. जब चैनल वाले तुम्हारी कहानी प्रसारित करेंगे, पुलिस खुदबखुद मदद को आ जाएगी.

सभी 17 मरीज आजाद हो गए. इन में नूर और सोहेल भी थे. सारे मरीज डरेसहमे जरूर थे लेकिन आजादी पर खुश नजर आ रहे थे. फिर राहिल औफिस में आया, जहां डा. काशान और उस के साथी बेहोश पड़े थे. उस ने सब की तलाशी ली. उन के पास हजारों रुपए मिले. वह सब उस ने अपने पास रख लिए. डा. काशान के सूटकेस से 10 हजार डौलर निकले जो उस ने सुरक्षित रख लिए. बाकी की सारी लोकल करेंसी मरीजों में बांट दी.

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सभी मरीजों के क्लिनिक से निकल जाने के बाद वह औफिस के पास वाले कमरे में आया, जहां बड़ेबड़े डिब्बे रखे थे, जिन से एक सुतली निकल कर बाहर जा रही थी. सुतली को आग दिखा कर राहिल शमा का हाथ पकड़ कर फौरन इमारत से बाहर आ गया. क्योंकि इमारत को जला कर खाक करने का इंतजाम वह पहले ही कर चुका था.

बाहर डा. काशान की कार खड़ी थी. उस ने सूटकेस उठा कर आग में फेंक दिया. कार की चाबी वह पहले ही ले चुका था. जैसे ही वे दोनों कार में बैठ कर कुछ दूर पहुंचे, बड़े जोर का धमाका हुआ. पूरी इमारत आग की लपटों में घिर गई.

नूर और सोहेल साथसाथ बाहर आए और एक तरफ चल पड़े. सोहेल ने नूर से कहा, ‘‘तुम अभी मेरे साथ चलो. दोनों सोचसमझ कर कोई कदम उठाएंगे.’’

बाकी के 15 लोग बस में बैठ कर एक टीवी चैनल के स्टूडियो की तरफ रवाना हो गए. सोहेल ने एक टैक्सी रोकी. रास्ते से कुछ खानेपीने का सामान लिया और एक शानदार बिल्डिंग के सामने उतरे. इस बिल्डिंग की दूसरी मंजिल पर सोहेल का एक शानदार फ्लैट था.

दरवाजे पर सोहेल ने कुछ नंबर बोल कर अनलौक कहा. दरवाजा क्लिक की आवाज के साथ खुल गया. यह आवाज से खुलने वाला दरवाजा था. दोनों ने फ्रैश हो कर खाना खाया. वहां पहुंच सोहेल ने नूर को अपनी कहानी सुनाई. पिता की जमीन पर सोहेल ने एक हौजरी की फैक्ट्री लगाई थी. धीरेधीरे उस का बिजनैस अच्छी तरह चल निकला. उस ने अपने दोनों भाइयों को भी पढ़ालिखा कर अपने साथ लगा लिया.

सोहेल आमदनी का एक चौथाई हिस्सा गरीब और मजबूर लोगों में बांट देता था और एक चौथाई अपने भाइयों को देता था, जो एक बड़ी रकम थी. पर भाइयों की नीयत बिगड़ गई. बिजनैस पर कब्जा करने के लिए उन्होंने सोहेल को नशीली चीज पिला कर उसे डा. काशान के क्लिनिक में भरती करा दिया.

उस दिन सोहेल ने इतने सालों के बाद नूर से अपनी मोहब्बत का इजहार किया. नूर ने शरमा कर सिर झुका लिया.

सारे मरीज टीवी चैनल के स्टूडियो पहुंचे और जब उन्होंने अपनी दास्तान सुनाई तो पूरे शहर में हंगामा मच गया. आईजी पुलिस ने मीडिया में खबर आते ही उन में से कुछ मरीजों के रिश्तेदारों के भागने से पहले ही दबिश डलवा कर हिरासत में ले लिया. हजारों की संख्या में लोग टीवी चैनल के स्टूडियो के सामने जमा हो गए.

आईजी ने वहां पहुंच कर वादा किया, ‘‘इन मजबूर और बेबस लोगों को जरूर इंसाफ मिलेगा. जो बीमार हैं, उन का इलाज कराया जाएगा. आरोपियों को हिरासत में लिया जा चुका है और उन के खिलाफ सख्त काररवाई की जाएगी.’’

दूसरे दिन यह सारी कहानी आम हो गई. पुलिस डा. काशान के क्लिनिक पर भी पहुंची. वहां राख और हड्डियों के अलावा कुछ नहीं मिला. क्या हुआ? कैसे हुआ? क्यों हुआ? यह किसी भी मरीज को पता नहीं था.

नूर जब दूसरे दिन भी घर नहीं पहुंची तो सफदर, असगर और हुमा बेहद परेशान हो गए. डर से उन का बुरा हाल था. तीसरे दिन उन्हें नूर का फोन आया. उस ने उन्हें एक होटल में मिलने के लिए बुलाया.

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नूर को सहीसलामत देख कर उन तीनों की हालत खराब हो गई. वे सब रोरो कर माफी मांगने लगे. नूर ने कहा, ‘‘तुम मेरी औलाद हो. मैं तुम्हें माफ करती हूं पर एक शर्त पर. कंपनी के 55 प्रतिशत शेयर मेरे पास रहेंगे और 45 प्रतिशत तुम तीनों के. अगर तुम्हें मंजूर है तो मैं घर भी तुम्हारे नाम कर देती हूं. नहीं तो अगली मुलाकात अदालत में होगी. सोचने के लिए 2 दिन का टाइम दे रही हूं.’’ यह सब सोहेल का प्लान था.

2 दिन बाद उन लोगों ने इनकार में जवाब दिया. क्योंकि 55 प्रतिशत शेयर नूर के पास होने से वह उन्हें किसी भी बात के लिए मजबूर कर सकती थी. नूर ने पूरी तैयारी की.

नूर ने सीनियर मनोचिकित्सक से दिमागी तौर पर सही होने का सर्टिफिकेट भी ले लिया. इस के बाद उस ने अदालत में केस डाल दिया. सोहेल पूरी तरह से उस के साथ था. उस के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. एक अच्छा वकील भी उस ने कर लिया.

उस दिन अदालत में बहुत हुजूम था. नूर बहुत अच्छे से तैयार हो कर आई थी. अदालत में एक घंटे बहस चलती रही. सबूतों और दलीलों पर जज ने फैसला सुनाया कि नूर पूरी तरह से सेहतमंद है और अपनी कंपनी बहुत अच्छे से चला सकती हैं. इसलिए तीनों औलादें फैक्ट्री से बेदखल की जाती हैं. एक बात और ध्यान रखी जाए कि नूर की शिकायत पर उन्हें जेल भेज दिया जाएगा.

तीनों नाकाम हो कर अदालत से बाहर निकले. पहले ही उन का इतना पैसा खर्च हो चुका था. वे पैसेपैसे को मोहताज हो गए. नूर सोहेल के साथ उस के फ्लैट में चली गई.

सोहेल ने भी अपने भाइयों को 5-5 करोड़ और घर दे कर अपने बिजनैस से अलग कर दिया. वे लोग तो इतने डरे हुए थे कि पता नहीं सोहेल उन के साथ क्या करेगा. पैसे ले कर खुशीखुशी वे अलग हो गए. दूसरे दिन शाम को चंद दोस्तों की मौजूदगी में नूर और सोहेल ने निकाह कर लिया. नूर और सोहेल की बरसों की आरजू पूरी हुई.

नूर को एक चाहने वाला जीवनसाथी मिल गया. नूर ने सोहेल से कहा, ‘‘सोहेल मेरे बच्चे अब बहुत भुगत चुके हैं. उन्हें बहुत सजा मिल चुकी है. इसलिए वह फैक्ट्री में उन के नाम कर के सुकून की जिंदगी जीना चाहती हूं.’’

फिर नूर ने उन्हें बुला कर फैक्ट्री उन के सुपुर्द कर दी. पुराने मैनेजर को बहाल कर दिया और शर्त लगा दी कि चौथाई आमदनी गरीब लोगों में बांटी जाएगी. अगर इस में जरा सी भी गलती हुई तो अंजाम के वे खुद जिम्मेदार होंगे. सारी बातें पक्के तौर पर लिखी गईं. नूर ने एक धमकी और दे दी कि कभी भी उस की और सोहेल की अननेचुरल डेथ होती है तो उस की जिम्मेदारी उन तीनों की ही होगी.

दूसरे दिन नूर और सोहेल हनीमून मनाने के लिए एक हिल स्टेशन की तरफ निकल गए. वहां पर नूर के मोबाइल में कुछ खराबी आ गई थी. माल रोड पर घूमते हुए दोनों एक मोबाइल की दुकान पर पहुंचे. दुकानदार को देख कर दोनों चौंक गए. दुकानदार का भी चेहरा उतर गया. वह जल्दी से बोला, ‘‘मैं आप की क्या खिदमत कर सकता हूं?’’

‘‘कोई अच्छा सा मोबाइल दिखाइए.’’ सोहेल ने कहा.

एक अच्छा सा मोबाइल पसंद कर के सोहेल ने पैसे देते हुए कहा, ‘‘आप हमारे एक पहचान वाले से बहुत मिल रहे हैं. क्या मैं आप नाम जान सकता हूं?’’

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‘‘मेरा नाम नजीर हसन है.’’

नूर ने सोहेल का हाथ दबाते हुए कहा, ‘‘मेरा खयाल है यह वो नहीं है. आइए चलें. शायद आप को गलतफहमी हुई है.’’

सोहेल ने बाहर निकल कर कहा, ‘‘नूर वह राहिल था.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं. पर उसी ने तो हम सब को बचाया है. अब वह बहुत बदल गया है.’’ सोहेल ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘सच कह रही हो. उसे भी तो एक मौका मिलना चाहिए.’’

नूर और सोहेल पुरसकून हो कर वहां से चले गए एक लंबी और खुशहाल जिंदगी गुजारने के लिए.

धारा के विपरीत: भाग 3- निष्ठा के कौनसे निर्णय का हो रहा था विरोध

दोनों घरों में कुहराम मच गया. लेकिन दोनों के दुख अलगअलग थे. एक परिवार ने अपना जवान बेटा खोया था तो दूस के का मानसम्मान और प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. बेटी के भविष्य के बारे में सोचसोच कर निष्ठा के मांपापा घुले जा रहे थे. मृदुल के तीये की बैठक के बहाने वे उस के घर गए.

“अब क्या सांत्वना दें आप को. हम एक ही नाव के सवार हैं,” कहते हूए निष्ठा के पापा लगभग रो दिए. मां के शब्द तो पहले ही आंसुओं में बह गए थे.

“क्या करूं बहन जी, कोई दूसरा बेटा भी तो नहीं वरना निष्ठा बिटिया को बीच राह न छोड़ते,” मृदुल की मम्मी ने निष्ठा को कस कर अपने से सटा लिया.

“हम तो जीते जी मर गए. छठे महीने में बच्चा गिरवाएंगे तो बेटी से भी हाथ धो बैठेंगे,” कहती हुई निष्ठा की मां फिर से सुबकने लगी. तभी मृदुल की चचेरी भाभी वनिता सामने आई.

“बड़े पापा, यदि आप सब को ठीक लगे तो निष्ठा और मृदुल का यह बच्चा हम अपना लें. वैसे भी, हम लोग अपने बच्चे के लिए प्रयास करतेकरते थक चुके हैं और लौकडाउन खुलने के बाद कोई बच्चा गोद लेने का प्लान ही कर रहे थे.” वनिता ने अपने पति रमन की तरफ़ देखते हुए अपनी बात रखी. रमन ने भी सहमति में गरदन हिलाई तो निष्ठा की मां के चेहरे पर उम्मीद की हलकी सी रोशनी चिलकी. सब इस बदली हुई परिस्थिति पर विचार करने लगे.

अंत में तय हुआ कि निष्ठा कुछ समय अपने जौब से ब्रैक लेगी और वनिता तथा रमन के साथ बेंगलुरु जाएगी. वहीं वह अपनी संतान को जन्म देगी और एक महीने के बाद बच्चे को कानूनन वनिता को गोद दे दिया जाएगा. गोद लेने के लिए ‘सेमी ओपन अडौप्शन’ प्रक्रिया का चयन किया जाएगा जिस में बच्चे को सौंपने के बाद निष्ठा उस से नहीं मिलेगी.

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तय कार्यक्रम के अनुसार निष्ठा बेंगलुरु आ गई. उस ने मन ही मन ठान लिया था कि अब वह अपनी कोख में आकार ले रहे शिशु के प्रति किसी प्रकार की आत्मीयता नहीं रखेगी. वह अपने बढ़े हुए पेट को शरीर में पनप रही एक बड़ी गांठ के रूप में ही देखेगी जिस का कुछ समय बाद औपरेशन होना है और गांठ निकलने के बाद वह वापस अपनी सामान्य अवस्था में आ जाएगा.

वनिता और रमन निष्ठा का पूरा खयाल रख रहे थे. वे उसे खुश रखने का प्रयास करते लेकिन निष्ठा कैसे खुश हो? जबकि वह जानती थी कि इस बच्चे पर उस का अधिकार सिर्फ उसे जन्म देने तक ही है. निष्ठा इस सच को स्वीकार कर चुकी थी, शायद, इसलिए भी वह धीरेधीरे बच्चे के मोह से छूट रही थी.

डिलीवरी का समय पास आ रहा था. रमन ने एक अच्छे मैटर्निटी होम में प्रसव की व्यवस्था कर रखी थी. डाक्टर भी निष्ठा के शरीर में हो रहे परिवर्तनों पर निगाह रखे हुए थी. इन सब व्यवस्थाओं से विलग निष्ठा हर समय बालकनी में खुलने वाली खिड़की के पास बैठी बाहर शून्य में ताकती रहती.

एक दिन सुबह निष्ठा की आंख बिल्ली के शोर से खुली. उस ने उत्सुकता से बाहर देखा तो पाया कि बालकनी में एक बिल्ली अपने 3 नवजात बच्चे ले कर आई है. वे बच्चे इतने छोटे थे कि उन की आंखें तक नहीं खुली थीं. बिल्ली बारीबारी से तीनों बच्चों को चाट रही थी. वह कभी उन बच्चों को अपनी बांहों के घेरे में ले लेती तो कभी उन्हें अपनी छाती से सटा कर दूध पिलाने लगती. एक बार जब वह उन्हें अपने मुंह में दबा कर दूसरी जगह ले जाने की कोशिश कर रही थी, तो निष्ठा का दिल धक से रह गया.

‘अरे, संभाल के. कहीं चोट न लग जाए,’ सोचती हुई निष्ठा के हाथ यंत्रवत खिड़की से बाहर निकल आए. वह बिल्ली के नन्हे बच्चों को हाथ में थामने को लालायित हो उठी. फिर कुछ सोच कर खुद ही संभल गई.

उन बच्चों की धीमी सी म्याऊं इतनी प्यारी थी कि निष्ठा उस आवाज में कहीं खो सी गई. अचानक उसे लगा मानो उस के स्तनों में दूध उतर आया. इस के साथ ही उस के हाथ अपने पेट को सहलाने लगे और आंखों से पानी बहने लगा. उस की आंखें तो खिड़की से हट गईं लेकिन उस के कान वहां से नहीं हट सके. रहरह कर बालकनी से आती म्याऊं की सुरीली मोहक आवाजें उसे बेचैन किए जा रही थीं. निष्ठा ने अपने लिए रखा दूध एक कटोरे में उंडेल कर बालकनी में रख दिया.

उसी रात निष्ठा को प्रसव पीड़ा उठी. वनिता और रमन भी तो इसी घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे. वे फ़ौरन निष्ठा को ले कर मैटर्निटी होम गए. 2 ही घंटे बाद एक नन्ही शिशु वनिता की गोद में थी. निष्ठा अभी दवाओं के असर से नीम बेहोशी में थी लेकिन उस के हाथ अपनी बगलों में इधरउधर घूमते हुए कुछ टटोल रहे थे. वनिता उस की पीड़ा समझ गई. उस ने निष्ठा के हाथों को नवजात से छुआया. निष्ठा उस कोमल स्पर्श को पाते ही स्थिर हो गई और उस छुअन को महसूस करने लगी.

शाम को जब निष्ठा को कुछ होश आया तो नर्स ने उसे बच्ची को अपना दूध पिलाने को कहा. थोड़ी कोशिश के बाद बच्ची ने अपनी मां का दूध खींचना शुरू किया. निष्ठा एक अलौकिक सुख में डूब गई. एक ऐसा अनुभव जिसे वह शब्द नहीं दे सकती थी. निष्ठा के हाथ बेटी का सिर सहलाने लगे. दूध पीते समय बच्ची के मुंह से आ रही चुसड़चुसड़ की आवाजें कमरे में बांसुरी सी बजा रही थीं. वनिता मन ही मन इस सुख की कल्पना में डूब-उतर रही थी.

4 दिनों बाद निष्ठा घर आ गई. कमरे में आते ही उस ने सब से पहले बिल्ली के कटोरे में दूध डाला. अब तक निष्ठा की मां भी अपनी बेटी की देखभाल करने के लिए बेंगलुरु आ गई थी. पूरा घर एक छोटे से शिशु के इर्दगिर्द सिमट गया. देखते ही देखते महीना होने को आया. निष्ठा के बच्ची से अलग होने का समय नजदीक आ गया. रमन गोद लेने की प्रक्रिया पूरे जोशोखरोश से निबटा रहा था. एक शाम वह औफिस से घर लौटा तो बहुत खुश मूड में था.

“मैं ने सभी आवश्यक औपचारिकताएं पूरी कर ली हैं. अब एकदो दिन में हमारे घर का सर्वे किया जाएगा. संतुष्टिजनक रिपोर्ट के बाद कुछ ही दिनों में यह प्यारी सी गुड़िया कानूनन वनिता की हो जाएगी.” रमन ने बच्ची को गोद में उठा कर उस का मुंह चूम लिया. सुनते ही वनिता भी खिल गई. बच्ची की नानी मुसकरा दी. किसी ने भी निष्ठा की प्रतिक्रिया की तरफ ध्यान नहीं दिया. अचानक निष्ठा उठी और उस ने रमन के हाथों से बच्ची को छीन लिया.

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“मैं अपनी बच्ची किसी को नहीं दूंगी,” निष्ठा ने कहा. उस की बात सुनते ही सब सकते में आ गए.

“क्या बकवास कर रही हो. यह सब तो पहले से ही तय था. इसी शर्त पर तो तुम्हें यहां भेजा गया था,” मां ने निष्ठा को झिंझोड़ा.

“आंटी सही कह रही हैं. यह सब तुम्हारी सहमति से ही तो हुआ है,” वनिता ने उसे याद दिलाया.

“हां, लेकिन अब मैं अपनी बच्ची को खुद पालना चाहती हूं,” निष्ठा ने बच्ची को कंधे से लगाते हुए कहा.

“पागल हो गई हो क्या? क्या तुम जानती नहीं कि तुम्हारा यह फैसला समाज के नियमों के खिलाफ है. आत्मघाती है,” मां ने उसे चेताया लेकिन निष्ठा तो कुछ भी सुनने को तैयार न थी. उस ने अपना फैसला बदलने से इनकार कर दिया. वह सब को असमंजस में छोड़ कर अपने कमरे में जा कर अपना और बेटी का सामान पैक करने लगी.

तभी बालकनी से वही मधुर म्याऊं सुनाई दी. निष्ठा ने देखा, बिल्ली के तीनों बच्चे कटोरे में रखा दूध पी रहे हैं. बिल्ली बारीबारी से तीनों को चाट रही है. निष्ठा ने भी बच्ची का माथा चूम लिया.

वह जानती थी कि उस के निर्णय का पुरजोर विरोध होगा लेकिन वह अपनी नाव को धारा के विपरीत बहाने के निर्णय पर अटल थी.

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वापस: क्यों प्रभाकर के बच्चे की मां बनना चाहती थी प्रभा

लेखक- विनय कुमार पाठक

“मिस्टर प्रभाकर की स्थिति बहुत नाजुक है. हम ने बहुत कोशिश की उन्हें ठीक करने की. पर किसी प्रकार के अंधेरे में आप को रखना उचित नहीं होगा. अब वे शायद 1-2 दिनों से ज्यादा जिंदा न रह सकें,” डाक्टर ने प्रभा से कहा.

प्रभा सन्न रह गई. प्रभा और प्रभाकर की जोड़ी क्या सिर्फ 1 वर्ष के लिए थी? बीते लमहे उस के मस्तिष्क में कौंधने लगे. पर अभी उन लमहों को याद करने का समय नहीं था. प्रभाकर को बचाने में डाक्टर अपनी असमर्थता जता चुके थे. पर प्रभा अपने पति प्रभाकर को किसी भी हाल में वापस पाना चाहती थी,“मैं प्रभाकर के बच्चे की मां बनना चाहती हूं, डाक्टर. क्या आप मेरी मदद करेंगे?” प्रभा ने अनुरोध भरे स्वर में कहा.

“देखिए, मैं आप की भावना को समझ सकता हूं. पर यह संभव नहीं है,” डाक्टर ने असमर्थता जताई.

“क्यों संभव नहीं है? वह मेरा पति है. मैं उस के बच्चे की मां बनना चाहती हूं. अब क्या मैं आप को बताऊं कि आज के उन्नत तकनीक के जमाने में यह संभव है कि आप प्रभाकर के स्पर्म को इकट्ठा कर सुरक्षित रख दें. बाद में ऐसिस्टैड रीप्रोडक्टिव तकनीक से मैं मां बन जाऊंगी,” प्रभा ने मायूस होते हुए कहा.

“यह मुझे पता है प्रभाजी. पर प्रभाकर अभी अचेत हैं. बगैर उन की मरजी के उन का स्पर्म हम नहीं ले सकते. यह कानूनी मामला है,” डाक्टर ने असमर्थता जताई.

“कोई तो उपाय होगा डाक्टर?” प्रभा तड़प कर बोली.

“एक ही उपाय है, कोर्ट और्डर,” डाक्टर ने कहा,”पर इस के लिए समय चाहिए और शायद प्रभाकर 1-2 दिनों से अधिक जीवित नहीं रह सकें.

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“मैं कोर्ट और्डर ले कर आऊंगी,”कहते हुए प्रभा उठ खड़ी हुई. उस ने आईसीयू में जा कर एक बार प्रभाकर को देखा. वह अचेत पड़ा था. तरहतरह के उपकरण उस के शरीर में लगे हुए थे.

“तुम मेरे पास वापस आओगे प्रभाकर,” उस ने प्रभाकर के सिर को सहलाते हुए कहा,“पति के रूप में नहीं तो संतान के रूप में,” और आंसू पोंछती वह बाहर निकल गई.

उस ने अपना मोबाइल निकाला. नेहा उस की परिचित थी और ऐडवोकेट थी. उस ने उसे कौल किया तो उधर से आवाज आई,“हैलो प्रभा, कैसी हो?” वह जानती थी कि प्रभा अभी किस मानसिक संताप से गुजर रही है.

“कैसी हो सकती हूं, नेहा. एक अर्जेंट काम है तुम से,” प्रभा ने उदास स्वर में कहा.

“बोलो न,” नेहा ने आत्मीयता से कहा.

“आज ही कोर्ट और्डर ले लो, प्रभाकर के स्पर्म को कलैक्ट कर प्रिजर्व करने का. मैं प्रभाकर के बच्चे का मां बनना चाहती हूं,” प्रभा ने कहा.

“आज ही? मगर यह मुश्किल है. कोर्ट के मामले तो तुम जानती ही हो,” नेहा ने असमर्थता जताते हुए कहा.

“जानती हूं. पर तुम जान लो कि डाक्टर ने कहा है कि प्रभाकर 1-2 दिनों से ज्यादा जीवित नहीं रह सकता और उस के जाने के पहले मैं उस का स्पर्म प्रिजर्व करवाना चाहती हूं ताकि मैं ऐसिस्टैड रीप्रोडक्टिव तकनीक से प्रभाकर के बच्चे की मां बन सकूं. कोर्ट में कैसे और क्या करना है यह तुम मुझ से बेहतर जान सकती हो. प्लीज नेहा, पूरा जोर लगा दो. जरूर कोई रास्ता होगा,” प्रभा ने कहा.

“ठीक है. मैं सारे काम छोड़ इस काम में लगती हूं. मैं राजेंद्र अंकल को तुम्हारे दस्तखत लेने भेजूंगी. तुरंत दस्तखत कर पेपर भेज देना,” नेहा प्रभा के पड़ोस में ही रहती थी और उस के ससुर राजेंद्रजी से परिचित थी.

“ठीक है,” प्रभा ने फोन बंद कर दिया.

सबकुछ समाप्त हो चुका था. प्रभा हौस्पिटल के वेटिंग लाउंज में बैठ गई. चारों ओर मरीजों के परिचित व रिश्तेदार बैठे थे. कुछ के मरीज सामान्य रूप से बीमार थे तो कुछ के गंभीर. कोविड के दूसरे लहर की अफरातफरी समाप्त हो चुकी थी. हौस्पिटल के कर्मचारी अपने काम में व्यस्त थे. कोई कैश काउंटर में काम कर रहा था तो कोई कैशलैस काउंटर पर. इतने लोगों के होते हुए भी चारों ओर अजीब किस्म का सन्नाटा था. ऐसा प्रतीत होता था मानों जीवन पर आशंका का ग्रहण लगा हुआ है.

प्रभा ने पर्स से पानी की बोतल निकाल एक घूंट लिया और आंखें बंद कर बैठ गई. प्रभाकर के साथ बिताए 1-1 पल उस की आंखों के सामने आते चले गए…

पतिपत्नी के रूप में वे 1-2 माह ही सही तरीके से रह पाए थे. शादी के 1-2 सप्ताह के बाद से ही कोरोना कहर बरपाने लगा था. शादी के 1 माह बाद पिछले वर्ष वह कुछ काम से बैंगलुरू गया था. उस समय समाचारपत्रों में काफी सुर्खियां थीं उस अपार्टमैंट की जिस में वह ठहरा हुआ था. देश में कोरोना के कुछ मामले आने लगे थे. कोई कोविड पैशंट मिला था उस सोसाइटी में. सोसाइटी को सील कर दिया गया था. किसी प्रकार वह वापस आ पाया था.

कोरोना से वह बैंगलुरू में ही संक्रमित हो गया था या फिर रास्ते में या फिर दिल्ली वापस आने के बाद, कहा नहीं जा सकता था पर बुरी तरह संक्रमित हो गया था. गले में खराश और बुखार से काफी परेशान था वह. उस ने खुद को एक कमरे में आइसोलेट कर रखा था. प्रभा चाहती तो थी उस के पास जाने को पर प्रभाकर ने सख्त हिदायत दे रखी थी,“अभी तुम ठीक हो तो मेरी देखभाल कर रही हो, मुझे खानापानी दे रही हो। तुम भी संक्रमित हो जाओगी तो फिर कौन तुम्हारी देखभाल करेगा? लौकडाउन के कारण कोई दोस्तरिश्तेदार भी नहीं आ पाएगा. हौस्पिटल भरे हुए हैं और फिर इस का कोई इलाज भी नहीं है.”

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दोनों एक ही औफिस में काम करते थे और इस दौरान उन की मुलाकात हुई थी. दोनों के नाम मिलतेजुलते थे इसलिए कई बार गलतफहमी भी होती थी. एक बार प्रभाकर की चिट्ठी उस के पास आ गई थी. वह चिट्ठी प्रभाकर को देने गई थी. उस चिट्ठी ने दोनों के बीच सेतु का काम किया था. दोनों के नाम मिलतेजुलते ही नहीं थे, सोचविचार में भी तालमेल था. पहले दोनों अच्छे दोस्त बने, फिर प्रेमी और फिर दंपती. मगर जिंदगी को शायद कुछ और ही गंवारा था. संयोग से वह कोरोनाग्रस्त होने से बच गई और प्रभाकर भी धीरेधीरे ठीक हो गया. कोविड से ठीक होने के बाद लगा था कि जिंदगी पटरी पर वापस आ रही है. पर कोविड के पोस्ट कंप्लीकैशंस के कारण प्रभाकर की स्थिति बिगड़ने लगी. निमोनिया और मल्टी और्गन फेलियर के कारण प्रभाकर का बचना मुश्किल हो गया.

एकाएक प्रभा की तंद्रा भंग हुई. उस का मोबाइल बज रहा था. उस ने स्क्रीन पर देखा ‘न्यू पापा कौलिंग’ मैसेज स्क्रीन पर फ्लैश हो रहा था. उस ने प्रभाकर के पिताजी का नंबर न्यू पापा के नाम से सेव कर रखा था. प्रभाकर के पापा राजेंद्रजी काफी सहयोगात्मक व्यवहार वाले थे. पहले उस ने उन का नाम ‘फादर इन ला’ के नाम से सेव कर रखा था. पर उन के स्नेह को देखते हुए उस ने उन्हें ‘न्यू पापा’ का पद दे दिया था.

“हैलो पापा,” उस ने कौल रिसीव कर क्षीण स्वर में कहा.

“कहां हो बेटा? ऐडवोकेट नेहा ने एक डौक्यूमैंट भेजा है तुम्हारे दस्तखत के लिए,” राजेंद्रजी ने कहा.

“पापा मैं मैन ऐंट्री पर वेटिंग लाउंज में कोने…” बोलतेबोलते रुक गई प्रभा. उस ने देखा प्रभाकर के पिताजी उस के सामने आ गए थे।

“इस पेपर पर दस्तखत कर दो. नेहा ने मांगा है,” राजेंद्रजी ने उसे पेपर देते हुए कहा. उन के चेहरे पर उदासी पसरी हुई थी. उन्होंने डौक्यूमैंट पढ़ लिया था और प्रभा की स्थिति को समझ सकते थे.

प्रभा ने दस्तखत कर पेपर उन्हें वापस कर दिया,”पापा, चाय पीना चाहेंगे?” उस ने पूछा. वह जानती थी कि घर में किसी को खानेपीने की कोई रूचि फिलहाल नहीं है.

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“इच्छा तो नहीं हो रही. जीवन ने तो जहर पिला रखा है. नेहा ने तुरंत पेपर मांगा है. चलता हूं,” और वे चलते बने.

शाम तक नेहा कोर्ट और्डर ले कर आ गई. कोर्ट ने विशेष परिस्थिति को देखते हुए मामले पर विचार किया और अंतरिम राहत दे दी. कोर्ट ने स्पष्ट आदेश हौस्पिटल के डाइरैक्टर को दिया था. प्रभा कोर्ट और्डर ले कर सीधे डाइरैक्टर के पास गई. डाइरैक्टर को उस ने कोर्ट और्डर दिखाया. उस में साफसाफ यह उल्लेख था कि चूंकि मरीज अचेत है और उस की सहमति पाना असंभव है, विशेष परिस्थिति को देखते हुए न्यायालय अस्पताल प्रशासन को आदेश देता है कि आईवीएफ/एआरटी प्रोसीजर से मरीज के स्पर्म को सुरक्षित रखे.

हौस्पिटल ने सही प्रोसीजर अपना कर स्पर्म सुरक्षित रख लिया. प्रभा के मन में संतोष हो गया. प्रभाकर को बचाना तो संभव नहीं है पर वह उस के बच्चे की मां जरूर बनेगी और वह उस के पास दूसरे रूप में वापस आएगा.

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