विश्वास की जड़ें : जब टूटा रमन और राधा का वैवाहिक रिश्ता

सुबह से ही घर में मिलने वालों का तांता लगा था. फोन की घंटी लगातार बज रही थी. लैंड लाइन नंबर और मोबाइल अटैंड करने के लिए भी एक चपरासी को काम पर लगाया गया था. वही फोन पर सब को जवाब दे रहा था कि साहब अभी बिजी हैं. जैसे ही फ्री होते हैं उन से बात करा दी जाएगी. फिर वह सब के नाम व नंबर नोट करते जा रहा था. कोई बहुत जिद करता कि बात करनी ही है तो वह साहब की ओर देखता, जो इशारे से मना कर देते.

आखिर वे इतने लोगों से घिरे थे कि उन के लिए उन के बीच से आ कर बात करना बेहद मुश्किल था. लोग उन्हें इस तरह घेरे बैठे और खड़े थे मानो वे किसी जंग की तैयारी में जुटे हों. सांत्वना को संवदेनशीलता के वाक्यों में पिरो कर हर कोई इस तरह उन के सामने अपनी बात इस तरह रखने को उत्सुक था मानो वे ही उन के सब से बड़े हितैषी हों.

‘‘बहुत दुख हुआ सुन कर.’’

‘‘बहुत बुरा हुआ इन के साथ.’’

‘‘सर, आप को तो हम बरसों से जानते हैं, आप ऐसे हैं ही नहीं. आप जैसा ईमानदार और सज्जन पुरुष ऐसी नीच हरकत कर ही नहीं  सकता है. फंसाया है उस ने आप को.’’

‘‘और नहीं तो क्या, रमन उमेश सर को कौन नहीं जानता. ऐसे डिपार्टमैंट में होने के बावजूद जहां बिना रिश्वत लिए एक कागज तक आगे नहीं सरकता, इन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली. भ्रष्टाचार से कोसों दूर हैं और ऐसी गिरी हुई हरकत तो ये कर ही नहीं सकते.’’

‘‘सर, आप चिंता न करें हम आप पर कोई आंच नहीं आने देंगे.’’

‘‘एमसीडी इतना बड़ा महकमा है, कोई न कोई विवाद या आक्षेप तो यहां लगता ही रहता है.’’

आप इस बात को दिल पर न लीजिएगा सर. सीमा को कौन नहीं जानता कि वह किस टाइप की महिला है,’’ कुछ लोगों ने चुटकी ली.

भीड़ बढ़ने के साथसाथ लोगों की सहानुभूति धीरेधीरे फुसफुसाहटों में तबदील होने लगी थी. सहानुभूति व साथ देने का दावा करने वालों के चेहरों पर बिखरी अलग ही तरह की खुशी भी दिखाई दे रही थी.

कुटिलता उन की आंखों से साफ झलक रही थी मानो कह रही हो बहुत बोलता था हमें कि हम रिश्वत लेते हैं. तू तो उस से भी बड़े इलजाम में फंस गया. सस्पैंड होने के बाद क्या इज्जत रह जाती है, उस पर केस चलेगा वह अलग. फिर अगर दोष साबित हो गया तो बेचारा गया काम से. न घर का रहेगा न बाहर का.

रमनजी की पत्नी राधा सुबह से अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थीं. जब से उन्हें अपने पति के सस्पैंड होने और उन पर लगे इलजाम के बारे में पता चला था, उन का रोरोकर बुरा हाल था. रमन ऐसा कर सकते हैं, उन्हें विश्वास तो नहीं हो रहा था, पर जो सच सब के सामने था, उसे नजरअंदाज करना भी उन के लिए मुश्किल था. एमसीडी में इतने बड़े अफसर उन के पति रमन ऐसी नीच हरकत कर सकते हैं, यह सोच कर ही वे कांप जातीं.

दोपहर तक घर पर आए लोग धीरेधीरे रमनजी से हाथ मिला कर खिसक लिए. संडे का दिन था, इसलिए सब घर पर मिलने चले आए थे. वरना बेकार ही लीव लेनी पड़ती या न आ पाने का बहाना बनाना पड़ता. बहुत से लोग मन ही मन इस बात से खुश थे. उन के विरोधी जो सदा उन की ईमानदारी से जलते थे, वे भी उन का साथ देने का वादा कर वहां से खिसक लिए. थके, परेशान और बेइज्जती के एहसास से घिरे रमन पर तो जैसे विपदा आ गई थी.

उन की बरसों की मेहनत इस तरह पानी में बह जाएगी, शर्म से उन का सिर झुका जा रहा था. बिना कोई गलती किए इतना अपमान सहना…फिर घरपरिवार, दोस्त नातेरिश्तेदारों के सवालों के जवाब देने…वे लड़खड़ाते कदमों से बैडरूम में गए.

उन्हें देखते ही राधा, जिन के मायके वाले उन्हें वहां मोरचा संभाले बैठाए थे,

कमरे से बाहर जाने लगीं तो रमन ने उन का हाथ पकड़ लिया.

‘‘मैं राधा से अकेले में बात करना चाहता हूं. आप से विनती है आप थोड़े समय के लिए बाहर चले जाएं,’’ रमन ने बहुत ही नम्रता से अपने ससुराल वालों से कहा.

‘‘मुझे आप से कोई बात नहीं करनी है,’’ राधा ने उन का हाथ झटकते हुए कहा, ‘‘अब भी कुछ बाकी बचा है कहनेसुनने को? मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. अरे बच्चों का ही खयाल कर लेते. 45 साल की उम्र में 2 बच्चों के बाप हो कर ऐसी हरकत करते हुए आप को शर्म नहीं आई?’’ राधा की आंखों से फिर आंसू बहने लगे.

‘‘देखो, तुम खुद इतनी पढ़ीलिखी हो, जौब करती हो और फिर भी दांवपेच को समझ नहीं पा रही हो…मुझे फंसाया गया है… औरतों के लिए बने कानूनों का फायदा उठा रही है वह औरत. औरत किस तरह से आज मर्दों को झूठे आरोपों में फंसा रही हैं, यह बात तुम अच्छी तरह से जानती हो. उन की बात न मानो तो इलजाम लगाने में पीछे नहीं रहतीं. फिर तुम तो मुझे अच्छी तरह से जानती हो. क्या मैं ऐसा कर सकता हूं? तुम से कितना प्यार करता हूं, यह बताने की क्या अब भी जरूरत है? तुम मुझे समझोगी कम से कम मैं तुम से तो यह उम्मीद करता था.’’

‘‘यह सब होने के बाद क्या और क्यों समझूं मैं. तुम ही बताओ…क्यों करेगी कोई औरत ऐसा? आखिर उस की बदनामी भी तो होगी. वह भी शादीशुदा है. तुम पर बेवजह इतना बड़ा इलजाम क्यों लगाएगी? अगर गलत साबित हुई तो उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है या वह सस्पैंड भी हो सकती है. यही नहीं उस का खुद का घर भी टूट सकता है. मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो. पता नहीं अब क्या होगा. पर तुम्हारे साथ रहने का तो अब सवाल ही नहीं है. मैं बच्चों को ले कर आज ही मायके चली जाऊंगी. मेरे बरसों के विश्वास को तुम ने कितनी आसानी से चकनाचूर कर दिया, रमन,’’ राधा गुस्से में फुफकारीं.

‘‘बच्चों जैसी बात मत करो. जो गलती मैं ने की ही नहीं है, उस की सजा मैं नहीं भुगतुंगा, इन्वैस्टीगेशन होगी तो सब सच सामने आ जाएगा. कब से तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि मेरी मातहत सीमा बहुत ही कामचोर किस्म की महिला हैं. इसीलिए उन की प्रोमोशन नहीं होती. मेरे नाम से लोगों से रिश्वत लेती हैं. तुम्हें पता ही है एमसीडी ऐसा विभाग है, जो सब से भ्रष्ट माना जाता है. एक से एक निकम्मे लोग भी पैसे वाले बन कर घूम रहे हैं.

‘‘मैं ने कभी रिश्वत नहीं ली या किसी के दबाव में आ कर किसी की फाइल पास नहीं की, इसलिए मेरे न जाने कितने विरोधी बन गए हैं. बहुत दिनों से सीमा मुझे तरहतरह से परेशान कर रही थीं. जब मैं ने उन से कहा कि जो काम आप के अंतर्गत आता है उसे पहले बखूबी संभालना सीख लें, फिर प्रमोशन की बात सोचेंगे तो उन्होंने मुझे धमकी दी कि मुझे देख लेंगी. गुरुवार की शाम को वे मेरे कैबिन में आईं और फिर प्रमोशन करने की बात की.’’

‘‘जब मैं ने मना किया तो उन्होंने अपना ब्लाउज फाड़ डाला और चिल्लाने लगीं कि मैं ने उन के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की. मैं उन्हें मोलैस्ट कर रहा हूं. झूठे आंसू बहा कर उन्होंने लोगों को इकट्ठा कर लिया. तमाशा बना दिया मेरा. हमारा समाज ऐसा ही है कि पुरुष को ही हर गलती का जिम्मेदार माना जाता है. बस सच यही है. इन्वैस्टीगेशन होने दो, सब को पता चल जाएगा कि मैं निर्दोष हूं,’’ रमनजी बोलतेबोलते कांप रहे थे.

ऐसे वक्त में जब उन्हें अपनी पत्नी व परिवार की सब से ज्यादा जरूरत थी, वे ही उन्हें गलत समझ रहे थे. इस से ज्यादा परेशान व हताश करने वाली बात और क्या हो सकती थी. विश्वास की जड़ें अगर तेज हवाओं का सामना न कर पाएं और उखड़ जाएं तो रिश्ते कितने खोखले लगने लगते हैं. कहां कमी रह गई उन से… राधा और बच्चों के लिए हमेशा समर्पित रहे वे तो…

‘‘क्यों कहानी बना रहे हो. इतने बड़े अफसर हो कर एक औरत को ही बदनाम करने लगे. तुम्हें बदनाम कर के उसे क्या मिलेगा. उस की भी जगहंसाई होगी… मुझे विश्वास नहीं होता. इस से पहले क्या उस ने ऐसी हरकत किसी के साथ की है?’’ राधा तो रमन की बात सुनने को ही तैयार नहीं थीं.

‘‘बेशक न की हो, पर उन के चालचलन पर हर कोई उंगली उठाता है. कपड़े देखे हैं कैसे पहनती हैं. पल्लू हमेशा सरकता रहता है, लगता है जैसे मर्दों को लुभाने में लगी हुई है.’’

‘‘हद करते हो रमन… ऐसी सोच रखते हो एक औरत के बारे में छि:’’ राधा आगे कुछ कहतीं तभी कमरे में रमन के ससुराल वाले आ गए.

‘‘क्या सोच रही है राधा? अब भी इस आदमी के साथ रहना चाहती है. हर तरफ थूथू हो रही है. बच्चों पर इस बात का कितना बुरा असर पड़ेगा. स्कूल जाएंगे तो दूसरे बच्चे कितना मजाक उड़ाएंगे. चल हमारे साथ चल,’’ राधा के भाई ने गुस्से से कहा.

‘‘और क्या. तू चिंता मत कर. हम तेरे साथ हैं. फिर तू खुद कमाती है,’’ राधा की मां ने अपने दामाद की ओर घृणित नजरों से देखते हुए कहा, मानो उन का जुर्म जैसे साबित ही हो गया हो.

आज तक जो ससुराल वाले उन का गुणगान करते नहीं थकते थे, वे ही आज उन का तिरस्कार कर रहे थे. कौन कहता है औरत अबला है, समाज उसी का साथ देता है. उन्हें पुरुष की विडंबना पर अफसोस हुआ. बिना दोषी हुए भी पुरुष को कठघरे में खड़े होने को मजबूर होना पड़ता है.

‘‘पापाजी, आप ही समझाइए न इन्हें,’’ रमनजी ने बड़ी आशा भरी नजरों से अपने ससुर को देखते हुए कहा. वे जानते थे कि वे बहुत ही सुलझे हुए इनसान हैं और जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेते हैं.

‘‘हां बेटा, रमन की बात को समझो तो… इतने बरसों का साथ है… ऐसे अविश्वास करने से जिंदगी नहीं चलती. तुम्हें अपने पति पर भरोसा होना चाहिए.’’

‘‘अपनी बेटी का साथ देने के बजाय आप इस आदमी का साथ दे रहे हैं, जो दूसरी औरतों के साथ बदसलूकी करता है… उन की इज्जत पर हाथ डालता है… पता नहीं और क्याक्या करता हो और हमारी बेटी को न जाने कब से धोखा दे रहा हो. सादगी की आड़ में न जाने कितनी औरतों से संबंध बना चुका हो,’’ अपनी सास की बात सुन रमन हैरान रह गए.

‘‘मुझे आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी मां. मुसीबत के वक्त अपने ही साथ देते हैं और जब राधा मुझ पर विश्वास ही नहीं करना चाहती तो मैं क्या कह सकता हूं. इतने लंबे वैवाहिक जीवन में भी अगर पतिपत्नी के बीच विश्वास की दीवारें पुख्ता न हों तो फिर साथ रहना ही बेमानी है.

‘‘अब मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा. तुम मेरी तरफ से आजाद हो, पर यह घर हमेशा से तुम्हारा था और तुम्हारा ही रहेगा.’’

रमन की बात सुन पल भर को राधा को लगा कि शायद वही गलत है. सच में रमन जैसे प्यारे पति और स्नेहमयी पिता में किसी दूसरे की बात सुन कर दोष देखना क्या उचित होगा?

18 साल की शादीशुदा जिंदगी में कभी रमन ने उस का दिल नहीं दुखाया था, कभी भी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, तो फिर क्यों आज उस का विश्वास डगमगा रहा है… वे कुछ कहना ही चाहती थीं कि मां ने उन का हाथ पकड़ा और घसीटते हुए बाहर ले गईं. बच्चे हैरान और सहमे से खड़े सब की बातें सुन रहे थे.

‘‘मां, पापा की बात तो सुनो…’’  उन की 18 वर्ष की बेटी साक्षी की बात पूरी होने से पहले ही काट दी गई.

‘‘तू इन सब बातों से दूर रह. अभी बच्ची है…’’

नानी की फटकार सुन वह चुप हो गई. मां का पापा पर विश्वास न करना उसे

अखर रहा था. उस ने अपने भाई को देखा जो बुरी तरह से घबराया हुआ था. साक्षी ने उसे सीने से लगा लिया और फिर दूसरे कमरे में ले गई. बड़े भी कितने अजीब होते हैं. अपनों से ज्यादा परायों की बात पर भरोसा करते हैं. हो सकता है… नहीं उसे पक्का यकीन है कि उस के पापा को फंसाया गया है.

राधा और बच्चों के जाने के बाद रमन को घर काटने लगा था. इन्वैस्टिगेशन के दौरान सीमा बिना झिझके कहती कि रमन ने पहले भी उन के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की थी. यहां तक कि उन के सामने सैक्स संबंध बनाने का प्रस्ताव भी रखा था.

बहसों, दलीलों और रमन की ईमानदारी भी इसलिए उन्हें सच्चा साबित नहीं कर पा रही थी, क्योंकि कानून औरत का साथ देता है. खासकर तब जब बात उस के साथ छेड़छाड़ करने की हो.

रमन टूट रहे थे. परिवार का भी साथ नहीं था, दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी किनारा कर लिया था.

उस दिन शाम को रमन अकेले निराश से घर में अंधेरे में गुम से बैठे थे. रोशनी उन की आंखों को अब चुभने लगी थी, इसलिए अंधेरे में ही बैठे रहते. खाली घर उन्हें डराने लगा था. प्यास सी महसूस हुई उन्हें पर उठने का मन नहीं किया. आदतन वे राधा को आवाज लगाने ही लगे थे कि रुक गए.

फिर अचानक अपने सामने राधा को खड़े देख चौंक गए. लाइट जलाते हुए वे बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए रमन. आप पर विश्वास न कर के मैं ने खुद को धोखा दिया है. पर अब मुझे सच पता चल चुका है,’’ और फिर रमन से लिपट गईं. ग्लानि उन के चेहरे से साफ झलक रही थी. जिस पति पर वे आज तक अभिमान करती आई थीं, उस पर शक करने का दुख उन की आंखों से बह रहा था.

‘‘पर अभी तो इन्वैस्टिगेशन पूरी भी नहीं हुई है, फिर…’’ रमन हैरान थे, पर राधा को देख उन्हें लगा था मानो आसमान पर बादलों का जो झुंड इतने दिनों से मंडरा रहा था और हर ओर कालिमा बिखेर रहा था, वह यकायक हट गया है. रोशनी अब उन की आंखों को चुभ नहीं रही थी.

सीमा के पति मुझ से मिलने आए थे. उन्होंने ही मुझे बताया कि सीमा के खिलाफ वह सार्वजनिक रूप से या इन्वैस्टिगेशन अफसर को तो बयान नहीं दे सकते, क्योंकि इस से उन का घर टूट जाएगा और चूंकि वे बीमार रहते हैं, इसलिए पूरी तरह से पत्नी पर ही निर्भर हैं. लेकिन वे माफी मांग रहे थे कि उन की पत्नी की वजह से हमें एकदूसरे से अलग होना पड़ा और आप को इतनी बदनामी सहनी पड़ी.

वह बोले कि सीमा बहुत महत्त्वाकांक्षी है और जानती है कि मैं लाचार हूं, इसलिए वह किसी भी हद तक जा सकती है. उसे पैसे की भूख है. वह बिना मेहनत के तरक्की की सीढि़यां चढ़ना चाहती है.

वह रमनजी से इसी बात से नाराज थी कि वे उस की प्रमोशन नहीं करते और साथ ही उस के रिश्वत लेने के खिलाफ रहते थे. रमन सर ने शायद उसे वार्निंग भी दी थी कि वे उस के खिलाफ ऐक्शन लेंगे, इसीलिए उस ने यह सब खेल खेला. मैं उस की तरफ से आप से माफी मांगता हूं और रिक्वैस्ट करता हूं कि आप रमन सर के पास लौट जाएं

‘‘मुझे भी माफ कर दीजिए रमन. हम साथ मिल कर इस मुसीबत से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ लेंगे. मैं यकीन दिलाती हूं कि अब कभी अपने बीच की विश्वास की जड़ों को उखड़ने नहीं दूंगी.’’

कितने दिल : अंधविश्वासी रमनजी को कैसे कराया रमा ने सच्चाई से रूबरू?

‘‘किसीने क्या खूब कहा है कि जो रिश्ते बनने होते हैं बन ही जाते हैं, कुदरत के छिपे हुए आशयों को कौन जान सका है? इस का शाहकार और कारोबार ऐसा है कि अनजानों को कैसे भी और कहीं भी मिला सकता है.’’

वे दोनों भी तकरीबन 1 महीने से एकदूसरे को जानने लगे थे. रोज शाम को अपनेअपने घर से टहलने निकलते और पार्क में बतियाते.

आज भी दोनों ने एकदूसरे को देखा और मुसकरा कर अभिवादन किया.

‘‘तो सुबह से ही सब सही रहा आज,’’ रमा ने पूछ लिया, तो रमनजी ने हां में जवाब दिया.

और फिर दोनों में सिलसिलेवार मीठीमीठी गपशप भी शुरू हो गई.

रमा उन से 5 साल छोटी थी, मगर उन की बातें गौर से सुनती और अपना विचार व्यक्त करती.

रमनजी ने उस को बताया था कि वे

परिवार से बहुत ही नाखुश रहने लगे हैं, क्योंकि सब को अपनीअपनी ही सूझती है. सब की अपनी मनपसंद दुनिया और अपने मनपसंद अंदाज हैं.

रमनजी का स्वभाव ही ऐसा था कि जब

भी गपशप करते तो अचानक ही

पोंगा पंडित जैसी बातें करने लगते. वे कहते, ‘‘रमाजी पता है, तो वह तुरंत कहती ‘जी, नहीं… नहीं’ पता है तब भी वे बगैर हंसे अपनी रौ में बोलते रहते, ‘‘इस दुनिया में 2 ही पुण्य फल हैं- एक, तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा, तुम जो चाहो वह मिल जाए.’’

यह सुन कर रमाजी खूब हंसने लगतीं, तो रमनजी अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते, ‘‘प्रभु की शरण में सब समाधान मिल जाता है. परमात्मा में रमा हुआ मन और तीर्थ में दानपुण्य करने वाले को सभी तरह की शंका का समाधान मिल जाता है.’’

‘‘और हां रमाजी सुनिए, यह जो जीवन है वो भले ही कितना भी लंबा हो, नास्तिक बन कर और उस परमात्मा को भूल कर छोटा भी किया जा सकता है.’’

यह सब सुन कर रमाजी अपनी हंसी दबा कर कहतीं, ‘‘अच्छाजी, तो आप का आश्रम कहां है? जरा दीक्षा लेनी थी.’’

यह सुन कर रमनजी काफी गंभीर और उदास हो जाते, तो वे मन बदलने को कुछ लतीफे सुनाने लगतीं. वे उन से कहतीं, ‘‘गुरुजी, जो तुम को हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे…’’

उक्त गीत में नायक नायिका से क्या कहना चाहता है, संक्षेप में भावार्थ बताओ रमनजी…

रमनजी सवाल सुन कर बिलकुल सकपका ही जाते. वे बहुत सोचते, पर उन से तो उत्तर देते ही नहीं बनता था.

रमाजी कुछ पल बाद खुद ही कह देतीं, ‘‘रमनजी, इस गाने में नायक नायिका से कह

रहा है कि ठीक है, तुम से माथा फोड़ी कौन करे?’’

उस के बाद दोनों ही जोरदार ठहाके लगाते.

अकसर रमनजी उपदेशक हो जाते. वे कहते कि मेरे मन में ईश्वर प्रेम

भरा है और मैं तुम को भी यही सलाह इसलिए नहीं दे रहा कि मैं बहुत समझदार हूं, बल्कि मैं ने गलतियां तुम से ज्यादा की हैं. और इस राह में जा कर ही मुझे सुकून मिला है इसलिए.

तो रमाजी भी किसी वामपंथी की मनिंद बोल उठतीं, ‘‘रमनजी, 3 बातों पर निर्भर करता

है हमारा भरोसा. हमारा अपना सीमित विवेक, हम पर सामाजिक दबाव और आत्मनियंत्रण

का अभाव.’’

‘‘अब इस में मैं ने अपने भरोसे की चीज तो पा ली है और खुश हूं कि हां, वह कौन सी चीज ढूंढ़ी,’’ यह तो समझने वालों ने समझ ही लिया होगा, मगर रमनजी तब भी रमाजी के मन को नहीं समझ पाते थे.

रमनजी की भारीभरकम बातें सुन कर पहलेपहल रमा को ऐसा लगता था कि वे शायद बहुत बड़े कुनबे का बोझ ढो रहे होंगे. बहुत सहा होगा और इसीलिए अब उन को उदासी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है.

फिर एक दिन रमा ने जरा खुल कर ही जानना चाहा कि आखिर ये माजरा क्या है. रमा उन से बोलीं कि मैं अब 60 पूरे कर रही हूं और मैं 65, ऐसा कह कर रमनजी हंस दिए.

‘‘मेरा मतलब यह है कि मेरे बेटेबहू

मुझे कहते हैं जवान बूढे़,’’ हंसते हुए रमाजी

ने कहा.

‘‘अच्छा… अच्छा,’’ रमनजी ने गरदन

हिला कर जवाब दिया. वे जराजरा सा मुसकरा

भी दिए.

‘‘मैं जानना चाहती हूं कि आप को कितने लोग मिल कर इतना दुखी कर रहे हैं कि आप परेशान ही नजर आते हो,’’ रमाजी ने गंभीरता

से पूछा?

रमाजी मेें बहुत ही आत्मीयता थी. वे रमनजी के साथ बहुत चाहत से बात करती थीं. यही कारण था कि रमनजी ने बिना किसी संकोच के सब बता दिया कि वे सेवानिवृत्ति बस कंडक्टर रहे हैं और इकलौते बेटे को 5 साल की उम्र से उन्होंने अपने दम पर ही पाला. कभी सिगरेट, शराब, सुपारी, पान, तंबाकू किसी को हाथ तक नहीं लगाने दिया.

पिछले साल ही बेटे का विवाह

हो गया है. आज स्थिति ऐसी है कि वह और उस की पत्नी बस अपने ही हाल में मगन हैं. बहू एक स्टोर चलाती है और बेटा जूतेचप्पल की दुकान. दोनों को अलगअलग अपना काम है और बहुत अच्छा चल

रहा है.

‘‘ओह, तो यह बात

है. आप को यह महसूस हो रहा है कि अब आप की कोई पूछ ही नहीं रही है न,’’ रमा ने कहा.

‘‘मगर, पूछ तो अब

आप की नजर में भी कम ही हो गई होगी. अब आप को यह पता लग गया कि मैं बस कंडक्टर था,’’ रमनजी फिर उदास हो गए.

उन की इस बात पर रमाजी हंस पड़ीं और बोलीं कि

कोई भी काम छोटा नहीं होता. दूसरा, आप हर बात पर उदासी को अपने पास मत बुलाया कीजिए. यह थकान की जननी है और थकान बिन बुलाए ही बीमारियों को आप के शरीर में प्रवेश करा देती है.

‘‘आप को पता नहीं कि मैं खुद भी ऐसी ही हूं, मगर मेरा यह अंदाज ऐसा है कि फिर भी मेरे बेटेबहू मुझ को बहुत प्यार करते हैं, क्योंकि मैं मन की बिलकुल साफ हूं.’’

‘‘मैं ने 20 साल की उम्र में प्रेम विवाह किया और 22 साल की उम्र में पति को उस की प्रेमिका के पास छोड़ कर अपने बेटे को साथ ले कर निकल पड़ी. उस के बाद पलट कर भी नहीं देखा कि उस बेवफा ने बाकी जिंदगी क्या किया और कितनी प्रेमिकाएं बनाई, कितनों का जीना दूभर किया.

‘‘मैं मातापिता के पास आ कर रहने लगी और 22 साल की उम्र से बेटे की परवरिश के साथ ही बचत पर अपना पूरा ध्यान लगा दिया.

‘‘मेरा बेटा सरकारी स्कूल और कालेज में ही पढ़ा है. अब वह एक शिक्षक है और पूरी तरह से सुखी है.

‘‘हां, तो मैं बता रही थी कि मेरे पीहर

में बगीचे हैं, जिन में 50 आम के पेड़ हैं,

50 कटहल और इतने ही जामुन और आंवले के. मैं ने इन की पहरेदारी का काम किया और पापा

ने मुझे बाकायदा पूरा वेतन दिया.

‘‘जब मेरा बेटा 10वीं में आया, तो मेरे पास पूरी 20 लाख रुपए की पूंजी थी. मेरे भाई और भाभी ने मुझे कहीं जाने नहीं दिया.

‘‘मेरी उन से कभी अनबन नहीं हुई. वे हमेशा मुझे चाहते रहे क्योंकि उन के बच्चों को मेरे बेटे के रूप में एक मार्गदर्शक मिल रहा था. और मेरी वो पूंजी बढ़ती गई.’’

‘‘मगर, बेटे की नौकरी पक्की हो गई

थी और उस ने विवाह का इरादा कर लिया

था, इसलिए हम लोग यहां इस कालोनी में

रहने लगे. पिछले साल ही मेरे बेटे का विवाह हुआ है.

‘‘अपनी बढि़या बचत से औैर जीवनशैली के बल पर ही मैं आज करोड़पति हूं, मगर सादगी से रहती हूं. अपना सब काम खुद करती हूं और कभी भी उदास नहीं रहती.

‘‘पर, आप तो हर बात पर गमगीन हो

जाते हैं. इतने दिनों से आप की व्यथा सुन कर मुझे तो यही लगता है कि आप पर बहुत ही अत्याचार किया जा रहा है. इस तरह आप लगातार दुख में भरे रहे तो दुनिया से जल्दी ही विदा हो जाओगे.

‘‘आप हर बात पर परेशान रहते हो. यह मुझ को बहुत विचलित कर देता है. सुनो… मेरे मन में एक आइडिया आया है…

‘‘आप एक काम करो… मैं कुछ दिन के लिए आप के घर चलती हूं. वहां का माहौल बदलने की कोशिश करूंगी. मैं तो हर जगह सामंजस्य बना लेती हूं. मैं 20 साल पीहर में रही हूं.’’

‘‘मगर आप को ऐसे कैसे…? कोई तो वजह होगी ना मेरे घर चलने की. वहां मैं क्या कहूंगा?’’ रमनजी बोले.

‘‘अरे, बहुत ही आसान है. मेरी बात गौर

से सुनो. आज आप एक गरम पट्टी बांध कर

घर वापस जाओ. कह देना कि यह कलाई अचानक ही सुन्न हो गई है. कोई सहारा देने

वाला तो चाहिए ना. जो हाथ पकड़ कर जरा संभाल ले.’’

‘‘फिर मैं आप के दोस्त की कोई रिश्तेदार हूं, आप कह देना कि बुढि़या है,

मगर ईमानदार है. मेरा पूरा ध्यान रख लेगी वगैरह. वे भी सोचेंगे कि चलो, सही है बैठेबैठे सहायिका भी मिल गई.’’

‘‘कोशिश कर के देखता हूं,’’ रमनजी ने कहा और पास के मैडिकल स्टोर से गरम पट्टी खरीद कर अपने घर की तरफ जाने वाली गली में चले गए.

रमनजी का तीर निशाने पर लगा. एक सप्ताह की तैयारी कर रमाजी उन के घर पहुंच

गई थीं.

रमाजी के आने से पहले रमनजी के बेटेबहू ने उन की एक अलग ही इमेज बना रखी थी और उन को एक अति साधारण महिला समझा था, मगर जब आमनासामना हुआ तो रमाजी का आकर्षक व्यक्तित्व देख कर उन्होंने रमाजी के पैर छू लिए.

यह देख रमाजी ने भी खूब दिल से आशीर्वाद दिया. रमाजी को तो पहली नजर में रमनजी के बेटेबहू बहुत ही अच्छे लगे.

खैर, सब की अपनीअपनी समझ होती है, यह सोच कर रमाजी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचीं और सब आने वाले समय पर छोड़ दिया.

अगले दिन सुबह से ही रमाजी ने मोरचा संभाल लिया था. रमनजी अपनी

कलाई वाले दर्द पर कायम थे और बहुत ही अच्छा अभिनय कर रहे थे.

रमाजी को सुबह जल्दी उठने की आदत

थी, इसलिए सब के जागने तक वे नहाधो कर चमक रही थीं, वे खुद चाय पी चुकी थीं,

रमनजी को भी 2 बार चाय मिल गई थीं. साथ ही, वे हलवा और पोहे का नाश्ता तैयार कर

चुकी थीं.

यह देख बेटेबहू भौंचक थे. इतना लजीज नाश्ता कर के वे दोनों गदगद थे. बेटाबहू दोनों अपनेअपने काम पर निकले तो रमनजी ने हाथ चलाया औैर रसोई में बरतन धोने लगे. रमाजी ने बहुत मना किया तो वे जिद कर के मदद करने लगे, क्योंकि वे जानते थे कि 3 दिन तक बाई छुट्टी पर रहेगी.

शाम को बेटेबहू रमाजी को कह कर गए थे कि आज वे बाहर से पावभाजी ले कर आएंगे, इसलिए रमाजी भी पूरी तरह निश्चिंत रहीं और आराम से बाकी काम करती रहीं. उन्होंने आलू के चिप्स बना दिए और साबूदाने के पापड़, गमलों की सफाई कर दी.

एक ही दिन में रमाजी की इतनी मेहनत देख कर रमनजी का परिवार हैरत में था. रात

को सब ने मिलजुल कर पावभाजी का आनंद लिया.

रमनजी और रमाजी रोज शाम को लंबी

सैर पर जा रहे थे. कुछ जानने वालों ने अजीब निगाहों से देखा, मगर दोनों ने इस की परवाह नहीं की.

इसी तरह पूरा एक सप्ताह निकल गया. कहां गुजर गया, कुछ पता ही न चला.

रमनजी और उन के बेटेबहू रमाजी के

दिल से प्रशंसक हो चुके थे. वे चाहते कि

रमाजी वहां कुछ दिन और रहें. ऐसा देख रमनजी का चेहरा निखर उठा था. उन की उदासी जाने कहां चली गई थी. बेटेबहू उन से बहुत प्रेम से बात करते थे. वातावरण बहुत ही खुशनुमा हो गया था.

रमाजी अपने मकसद में कामयाब रहीं.

उन को कुछ सिल्क की साडि़यां उपहार में

मिली, क्योंकि रमाजी ने रुपए लेने से मना कर दिया था.

रमाजी वहां से चली गईं और रमनजी को शाम की सैर पर आने को कह गईं. पर, शाम को रमाजी सैर पर नहीं आ सकीं.

रमनजी को उन्होंने संदेश भेजा कि वे सपरिवार 2 दिन के लिए कहीं बाहर जा रही हैं.

रमनजी ने अपना मन संभाल, मगर तकरीबन एक सप्ताह गुजर गया और रमाजी

नहीं आईं. न ही रमनजी के किसी संदेश का जवाब ही दिया.

रमनजी को फोन करते हुए कुछ संकोच होने लगा, तो वह मनमसोस कर रह गए.

पूरा महीना ऐसे ही निकल गया. लगता था, रमनजी और बूढ़े हो गए थे. मगर वे रमाजी

के बनाए आलू के चिप्स और पापड़ खाते तो लगता कि रमाजी यहीं पर हैं और उन से बातें कर रही हैं.

एक शाम उन का मन सैर पर जाने का हुआ ही नहीं. वो नहीं गए. अचानक देखते

क्या हैं कि रमाजी उन के घर के दरवाजे पर आ कर खड़ी हो गई हैं. वे एकदम हैरान रह गए. अरे, ये क्या हुआ. पीछेपीछे उन के बेटेबहू भी आ गए. अब तो रमनजी को सदमा लगा. वे अपनी जगह से खड़े हो गए.

बहू ने कहा कि रमाजी अब यहां एक महीना रहेंगी और हम उन के गुलाम बन कर रहेंगे.

रमनजी ने कारण जानना चाहा, तो बहू ने बताया कि उस की छोटी बहन अभी होमसाइंस पढ़ रही है. उस को कालेज के अंतिम प्रोजैक्ट में अनुभवी महिलाके साथ समय बिताना है, डायरी बनानी है इसलिए…’’

‘‘ओ हो अच्छा… बहत अच्छा,’’ बहू बहुत ही सही निर्णय,’’ कहते समय रमनजी के चेहरे पर लाली आ गई. मगर उन के परिवार वालों से बात कर ली.

वे अचानक पूछ बैठे, ‘‘परिवार मना कैसे करता. मेरी बहन और रमा आंटी तो फेसबुक दोस्त हैं और रमाजी का परिवार तो समाजसेवा का शौकीन है. है ना रमा आंटी.’’

रमनजी की बहू चहक उठी. रमाजी ने अपने व्यवहार की दौलत से अपने जीवन में कितने सारे दिल जीत लिए थे.

तलाक के बाद : जब हुआ सुमिता को अपनी गलतियों का एहसास

3 दिनों की लंबी छुट्टियां सुमिता को 3 युगों के समान लग रही थीं. पहला दिन घर के कामकाज में निकल गया. दूसरा दिन आराम करने और घर के लिए जरूरी सामान खरीदने में बीत गया. लेकिन आज सुबह से ही सुमिता को बड़ा खालीपन लग रहा था. खालीपन तो वह कई महीनों से महसूस करती आ रही थी, लेकिन आज तो सुबह से ही वह खासी बोरियत महसूस कर रही थी.

बाई खाना बना कर जा चुकी थी. सुबह के 11 ही बजे थे. सुमिता का नहानाधोना, नाश्ता भी हो चुका था. झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने वाली बाइयां भी अपनाअपना काम कर के जा चुकी थीं. यानी अब दिन भर न किसी का आना या जाना नहीं होना था.

टीवी से भी बोर हो कर सुमिता ने टीवी बंद कर दिया और फोन हाथ में ले कर उस ने थोड़ी देर बातें करने के इरादे से अपनी सहेली आनंदी को फोन लगाया.

‘‘हैलो,’’ उधर से आनंदी का स्वर सुनाई दिया.

‘‘हैलो आनंदी, मैं सुमिता बोल रही हूं, कैसी है, क्या चल रहा है?’’ सुमिता ने बड़े उत्साह से कहा.

‘‘ओह,’’ आनंदी का स्वर जैसे तिक्त हो गया सुमिता की आवाज सुन कर, ‘‘ठीक हूं, बस घर के काम कर रही हूं. खाना, नाश्ता और बच्चे और क्या. तू बता.’’

‘‘कुछ नहीं यार, बोर हो रही थी तो सोचा तुझ से बात कर लूं. चल न, दोपहर में पिक्चर देखने चलते हैं,’’ सुमिता उत्साह से बोली.

‘‘नहीं यार, आज रिंकू की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है. मैं नहीं जा पाऊंगी. चल अच्छा, फोन रखती हूं. मैं घर में ढेर सारे काम हैं. पिक्चर देखने का मन तो मेरा भी कर रहा है पर क्या करूं, पति और बच्चों के ढेर सारे काम और फरमाइशें होती हैं,’’ कह कर आनंदी ने फोन रख दिया.

सुमिता से उस ने और कुछ नहीं कहा, लेकिन फोन डिस्कनैक्ट होने से पहले सुमिता ने आनंदी की वह बात स्पष्ट रूप से सुन ली थी, जो उस ने शायद अपने पति से बोली होगी. ‘इस सुमिता के पास घरगृहस्थी का कोई काम तो है नहीं, दूसरों को भी अपनी तरह फुरसतिया समझती है,’ बोलते समय स्वर की खीज साफ महसूस हो रही थी.

फिर शिल्पा का भी वही रवैया. उस के बाद रश्मि का भी.

यानी सुमिता से बात करने के लिए न तो किसी के भी पास फुरसत है और न ही दिलचस्पी.

सब की सब आजकल उस से कतराने लगी हैं. जबकि ये तीनों तो किसी जमाने में उस के सब से करीब हुआ करती थीं. एक गहरी सांस भर कर सुमिता ने फोन टेबल पर रख दिया. अब किसी और को फोन करने की उस की इच्छा ही नहीं रही. वह उठ कर गैलरी में आ गई. नीचे की लौन में बिल्डिंग के बच्चे खेल रहे थे. न जाने क्यों उस के मन में एक हूक सी उठी और आंखें भर आईं. किसी के शब्द कानों में गूंजने लगे थे.

‘तुम भी अपने मातापिता की इकलौती संतान हो सुमि और मैं भी. हम दोनों ही अकेलेपन का दर्द समझते हैं. इसलिए मैं ने तय किया है कि हम ढेर सारे बच्चे पैदा करेंगे, ताकि हमारे बच्चों को कभी अकेलापन महसूस न हो,’ समीर हंसते हुए अकसर सुमिता को छेड़ता रहता था.

बच्चों को अकेलापन का दर्द महसूस न हो की चिंता करने वाले समीर की खुद की ही जिंदगी को अकेला कर के सूनेपन की गर्त में धकेल आई थी सुमिता. लेकिन तब कहां सब सोच पाई थी वह कि एक दिन खुद इतनी अकेली हो कर रह जाएगी.

कितना गिड़गिड़ाया था समीर. आखिर तक कितनी विनती की थी उस ने, ‘प्लीज सुमि, मुझे इतनी बड़ी सजा मत दो. मैं मानता हूं मुझ से गलतियां हो गईं, लेकिन मुझे एक मौका तो दे दो, एक आखिरी मौका. मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम्हें अब से शिकायत का कोई मौका न मिले.’

समीर बारबार अपनी गलतियों की माफी मांग रहा था. उन गलतियों की, जो वास्तव में गलतियां थीं ही नहीं. छोटीछोटी अपेक्षाएं, छोटीछोटी इच्छाएं थीं, जो एक पति सहज रूप से अपनी पत्नी से करता है. जैसे, उस की शर्ट का बटन लगा दिया जाए, बुखार से तपते और दुखते उस के माथे को पत्नी प्यार से सहला दे, कभी मन होने पर उस की पसंद की कोई चीज बना कर खिला दे वगैरह.

लेकिन समीर की इन छोटीछोटी अपेक्षाओं पर भी सुमिता बुरी तरह से भड़क जाती थी. उसे इन्हें पूरा करना गुलामी जैसा लगता था. नारी शक्ति, नारी स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता इन शब्दों ने तब उस का दिमाग खराब कर रखा था. स्वाभिमान, आत्मसम्मान, स्वावलंबी बन इन शब्दों के अर्थ भी तो कितने गलत रूप से ग्रहण किए थे उस के दिलोदिमाग ने.

मल्टीनैशनल कंपनी में अपनी बुद्धि के और कार्यकुशलता के बल पर सफलता हासिल की थी सुमिता ने. फिर एक के बाद एक सीढि़यां चढ़ती सुमिता पैसे और पद की चकाचौंध में इतनी अंधी हो गई कि आत्मसम्मान और अहंकार में फर्क करना ही भूल गई. आत्मसम्मान के नाम पर उस का अहंकार दिन पर दिन इतना बढ़ता गया कि वह बातबात में समीर की अवहेलना करने लगी. उस की छोटीछोटी इच्छाओं को अनदेखा कर के उस की भावनाओं को आहत करने लगी. उस की अपेक्षाओं की उपेक्षा करना सुमिता की आदत में शामिल हो गया.

समीर चुपचाप उस की सारी ज्यादतियां बरदाश्त करता रहा, लेकिन वह जितना ज्यादा बरदाश्त करता जा रहा था, उतना ही ज्यादा सुमिता का अहंकार और क्रोध बढ़ता जा रहा था. सुमिता को भड़काने में उस की सहेलियों का सब से बड़ा हाथ रहा. वे सुमिता की बातों या यों कहिए उस की तकलीफों को बड़े गौर से सुनतीं और समीर को भलाबुरा कह कर सुमिता से सहानुभूति दर्शातीं. इन्हीं सहेलियों ने उसे समीर से तलाक लेने के लिए उकसाया. तब यही सहेलियां सुमिता को अपनी सब से बड़ी हितचिंतक लगी थीं. ये सब दौड़दौड़ कर सुमिता के दुखड़े सुनने चली आती थीं और उस के कान भरती थीं, ‘तू क्यों उस के काम करे, तू क्या उस की नौकरानी या खरीदी हुई गुलाम है? तू साफ मना कर दिया कर.’

एक दिन जब समीर ने बाजार से ताजा टिंडे ला कर अपने हाथ के मसाले वाले भरवां टिंडे बनाने का अनुरोध किया, तो सुमिता बुरी तरह बिफर गई कि वह अभी औफिस से थकीमांदी आई है और समीर उस से चूल्हे-चौके का काम करने को कह रहा है. उस दिन सुमिता ने न सिर्फ समीर को बहुत कुछ उलटासीधा कहा, बल्कि साफसाफ यह भी कह दिया कि वह अब और अधिक उस की गुलामी नहीं करेगी. आखिर वह भी इंसान है, कोई खरीदी हुई बांदी नहीं है कि जबतब सिर झुका कर उस का हुकुम बजाती रहे. उसे इस गुलामी से छुटकारा चाहिए.

समीर सन्न सा खड़ा रह गया. एक छोटी सी बात इतना बड़ा मुद्दा बनेगी, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. इस के बाद वह बारबार माफी मांगता रहा, पर सुमिता न मानी तो आखिर में सुमिता की खुशी के लिए उस ने अपने आंसू पी कर तलाक के कागजों पर दस्तखत कर के उसे मुक्त कर दिया.

पर सुमिता क्या सचमुच मुक्त हो पाई?

समीर के साथ जिस बंधन में बंध कर वह रह रही थी, उस बंधन में ही वह सब से अधिक आजाद, स्वच्छंद और अपनी मरजी की मालिक थी. समीर के बंधन में जो सुरक्षा थी, उस सुरक्षा ने उसे समाज में सिर ऊंचा कर के चलने की एक गौरवमयी आजादी दे रखी थी. तब उस के चारों ओर समीर के नाम का एक अद्भुत सुरक्षा कवच था, जो लोगों की लोलुप और कुत्सित दृष्टि को उस के पास तक फटकने नहीं देता था. तब उस ने उस सुरक्षाकवच को पैरों की बेड़ी समझा था, उस की अवहेलना की थी लेकिन आज…

आज सुमिता को एहसास हो रहा है उसी बेड़ी ने उस के पैरों को स्वतंत्रता से चलना बल्कि दौड़ना सिखाया था. समीर से अलग होने की खबर फैलते ही लोगों की उस के प्रति दृष्टि ही बदल गई थी. औरतें उस से ऐसे बिदकने लगी थीं, जैसे वह कोई जंगली जानवर हो और पुरुष उस के आसपास मंडराने के बहाने ढूंढ़ते रहते. 2-4 लोगों ने तो वक्तबेवक्त उस के घर पर भी आने की कोशिश भी की. वह तो समय रहते ही सुमिता को उन का इरादा समझ में आ गया नहीं तो…

अब तो बाजार या कहीं भी आतेजाते सुमिता को एक अजीब सा डर असुरक्षा तथा संकोच हर समय घेरे रहता है. जबकि समीर के साथ रहते हुए उसे कभी, कहीं पर भी आनेजाने में किसी भी तरह का डर नहीं लगा था. वह पुरुषों से भी कितना खुल कर हंसीमजाक कर लेती थी, घंटों गप्पें मारती थीं. पर न तो कभी सुमिता को कोई झिझक हुई और न ही साथी पुरुषों को ही. पर अब किसी भी परिचित पुरुष से बातें करते हुए वह अंदर से घबराहट महसूस करती है. हंसीमजाक तो दूर, परिचित औरतें खुद भी अपने पतियों को सुमिता से दूर रखने का भरसक प्रयत्न करने लगी हैं.

भारती के पति विशाल से सुमिता पहले कितनी बातें, कितनी हंसीठिठोली करती थी. चारों जने अकसर साथ ही में फिल्म देखने, घूमनेफिरने और रेस्तरां में साथसाथ लंच या डिनर करने जाते थे. लेकिन सुमिता के तलाक के बाद एक दिन आरती ने अकेले में स्पष्ट शब्दों में कह दिया, ‘‘अच्छा होगा तुम मेरे पति विशाल से दूर ही रहो. अपना तो घर तोड़ ही चुकी हो अब मेरा घर तोड़ने की कोशिश मत करो.’’

सुमिता स्तब्ध रह गई. इस के पहले तो आरती ने कभी इस तरह से बात नहीं की थी. आज क्या एक अकेली औरत द्वारा अपने पति को फंसा लिए जाने का डर उस पर हावी हो गया? आरती ने तो पूरी तरह से उस से संबंध खत्म कर लिए. आनंदी, रश्मि, शिल्पी का रवैया भी दिन पर दिन रूखा होता जा रहा है. वे भी अब उस से कन्नी काटने लगी हैं. उन्होंने पहले की तरह अब अपनी शादी या बच्चों की सालगिरह पर सुमिता को बुलावा देना बंद कर दिया. कहां तो यही चारों जबतब सुमिता को घेरे रहती थीं.

सुमिता को पता ही नहीं चला कि कब से उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. 4 साल हो गए उसे तलाक लिए. शुरू के साल भर तो उसे लगा था कि जैसे वह कैद से आजाद हो गई. अब वह अपनी मर्जी से रहेगी. पर फिर डेढ़दो साल होतेहोते वह अकेली पड़ने लगी. न कोई हंसनेबोलने वाला, न साथ देने वाला. सारी सहेलियां अपने पति बच्चों में व्यस्त होती गईं और सुमिता अकेली पड़ती गई. आज उसे अपनी स्वतंत्रता स्वावलंबन, अपनी नौकरी, पैसा सब कुछ बेमानी सा लगता है. अकेले तनहा जिंदगी बिताना कितना भयावह और दुखद होता है.

लोगों के भरेपूरे परिवार वाला घर देख कर सुमिता का अकेलेपन का एहसास और भी अधिक बढ़ जाता और वह अवसादग्रस्त सी हो जाती. अपनी पढ़ाई का उपयोग उस ने कितनी गलत दिशा में किया. स्वभाव में नम्रता के बजाय उस ने अहंकार को बढ़ावा दिया और उसी गलती की कीमत वह अब चुका रही है.

सोचतेसोचते सुमिता सुबकने लगी. खानाखाने का भी मन नहीं हुआ उस का. दोपहर 2 बजे उस ने सोचा घर बैठने से अच्छा है अकेले ही फिल्म देख आए. फिर वह फिल्म देखने पहुंच ही गई.

फिल्म के इंटरवल में कुछ चिरपरिचित आवाजों ने सुमिता का ध्यान आकर्षित किया. देखा तो नीचे दाईं और आनंदी अपने पति और बच्चों के साथ बैठी थी. उस की बेटी रिंकू चहक रही थी. सुमिता को समझते देर नहीं लगी कि आनंदी का पहले से प्रोग्राम बना हुआ होगा, उस ने सुमिता को टालने के लिए ही रिंकू की तबीयत का बहाना बना दिया. आगे की फिल्म देखने का मन नहीं किया उस का, पर खिन्न मन लिए वह बैठी रही.

अगले कई दिन औफिस में भी वह गुमसुम सी रही. उस की और समीर की पुरानी दोस्त और सहकर्मी कोमल कई दिनों से देख रही थी कि सुमिता उदास और बुझीबुझी रहती है. कोमल समीर को बहुत अच्छी तरह जानती है. तलाक के पहले कोमल ने सुमिता को बहुत समझाया था कि वह गलत कर रही है, मगर तब सुमिता को कोमल अपनी दुश्मन और समीर की अंतरंग लगती थी, इसलिए उस ने कोमल की एक नहीं सुनी. समीर से तलाक के बाद फिर कोमल ने भी उस से बात करना लगभग बंद ही कर दिया था, लेकिन आज सुमिता की आंखों में बारबार आंसू आ रहे थे, तो कोमल अपनेआप को रोक नहीं पाई.

वह सुमिता के पास जा कर बैठी और बड़े प्यार से उस से पूछा, ‘‘क्या बात है सुमिता, बड़ी परेशान नजर आ रही हो.’’

उस के सहानुभूतिपूर्ण स्वर और स्पर्श से सुमिता के मन में जमा गुबार आंसुओं के रूप में बहने लगा. कोमल बिना उस से कुछ कहे ही समझ गई कि उसे अब समीर को छोड़ देने का दुख हो रहा है.

‘‘मैं ने तुम्हें पहले ही समझाया था सुमि कि समीर को छोड़ने की गलती मत कर, लेकिन तुम ने अपनी उन शुभचिंतकों की बातों में आ कर मेरी एक भी नहीं सुनी. तब मैं तुम्हें दुश्मन लगती थी. आज छोड़ गईं न तुम्हारी सारी सहेलियां तुम्हें अकेला?’’ कोमल ने कड़वे स्वर में कहा.

‘‘बस करो कोमल, अब मेरे दुखी मन पर और तीर न चलाओ,’’ सुमिता रोते हुए बोली.

‘‘मैं पहले से ही जानती थी कि वे सब बिना पैसे का तमाशा देखने वालों में से हैं. तुम उन्हें खूब पार्टियां देती थीं, घुमातीफिराती थीं, होटलों में लंच देती थीं, इसलिए सब तुम्हारी हां में हां मिलाती थीं. तब उन्हें तुम से दोस्ती रखने में अपना फायदा नजर आता था. लेकिन आज तुम जैसी अकेली औरत से रिश्ता बढ़ाने में उन्हें डर लगता है कि कहीं तुम मौका देख कर उन के पति को न फंसा लो. बस इसीलिए वे सतर्क हो गईं और तुम से दूर रहने में ही उन्हें समझदारी लगी,’’ कोमल का स्वर अब भी कड़वा था.

सुमिता अब भी चुपचाप बैठी आंसू बहा रही थी.

‘‘और तुम्हारे बारे में पुरुषों का नजरिया औरतों से बिलकुल अलग है. पुरुष हर समय तुम से झूठी सहानुभूति जता कर तुम पर डोरे डालने की फिराक में रहते हैं. अकेली औरत के लिए इस समाज में अपनी इज्जत बनाए रखना बहुत मुश्किल है. अब तो हर कोई अकेले में तुम्हारे घर आने का मंसूबा बनाता रहता है,’’ कोमल का स्वर सुमिता की हालत देख कर अब कुछ नम्र हुआ.

‘‘मैं सब समझ रही हूं कोमल. मैं खुद परेशान हो गई हूं औफिस के पुरुष सहकर्मियों और पड़ोसियों के व्यवहार से,’’ सुमिता आंसू पोंछ कर बोली.

‘‘तुम ने समीर से सामंजस्य बिठाने का जरा सा भी प्रयास नहीं किया. थोड़ा सा भी धीरज नहीं रखा साथ चलने के लिए. अपने अहं पर अड़ी रहीं. समीर को समझाने का जरा सा भी प्रयास नहीं किया. तुम ने पतिपत्नी के रिश्ते को मजाक समझा,’’ कोमल ने कठोर स्वर में कहा.

फिर सुमिता के कंधे पर हाथ रख कर अपने नाम के अनुरूप कोमल स्वर में बोली, ‘‘समीर तुझ से सच्चा प्यार करता है, तभी

4 साल से अकेला है. उस ने दूसरा ब्याह नहीं किया. वह आज भी तेरा इंतजार कर रहा है. कल मैं और केशव उस के घर गए थे. देख कर मेरा तो दिल सच में भर आया सुमि. समीर ने डायनिंग टेबल पर अपने साथ एक थाली तेरे लिए भी लगाई थी.

‘‘वह आज भी अपने परिवार के रूप में बस तेरी ही कल्पना करता है और उसे आज भी तेरा इंतजार ही नहीं, बल्कि तेरे आने का विश्वास भी है. इस से पहले कि वह मजबूर हो कर दूसरी शादी कर ले उस से समझौता कर ले, वरना उम्र भर पछताती रहेगी.

‘‘उस के प्यार को देख छोटीमोटी बातों को नजरअंदाज कर दे. हम यही गलती करते हैं कि प्यार को नजरअंदाज कर के छोटीमोटी गलतियों को पकड़ कर बैठ जाते हैं और अपना रिश्ता, अपना घर तोड़ लेते हैं. पर ये नहीं सोचते कि घर के साथसाथ हम स्वयं भी टूट जाते हैं,’’ एक गहरी सांस ले कर कोमल चुप हो गई और सुमिता की प्रतिक्रिया जानने के लिए उस के चेहरे की ओर देखने लगी.

‘‘समीर मुझे माफ करेगा क्या?’’ सुमिता उस की प्रतिक्रिया जानने के लिए उस के चेहरे की ओर देखने लगी.

‘‘समीर के प्यार पर शक मत कर सुमि. तू सच बता, समीर के साथ गुजारे हुए 3 सालों में तू ज्यादा खुश थी या उस से अलग होने के बाद के 4 सालों में तू ज्यादा खुश रही है?’’ कोमल ने सुमिता से सवाल पूछा जिस का जवाब उस के चेहरे की मायूसी ने ही दे दिया.

‘‘लौट जा सुमि, लौट जा. इस से पहले कि जिंदगी के सारे रास्ते बंद हो जाएं, अपने घर लौट जा. 4 साल के भयावह अकेलेपन की बहुत सजा भुगत चुके तुम दोनों. समीर के मन में तुझे ले कर कोई गिला नहीं है. तू भी अपने मन में कोई पूर्वाग्रह मत रख और आज ही उस के पास चली जा. उस के घर और मन के दरवाजे आज भी तेरे लिए खुले हैं,’’ कोमल ने कहा.

घर आ कर सुमिता कोमल की बातों पर गौर करती रही. सचमुच अपने अहं के कारण नारी शक्ति और स्वावलंबन के नाम पर इस अलगाव का दर्द भुगतने का कोई अर्थ नहीं है.

जीवन की सार्थकता रिश्तों को जोड़ने में है तोड़ने में नहीं, तलाक के बाद उसे यह भलीभांति समझ में आ गया है. स्त्री की इज्जत घर और पति की सुरक्षा देने वाली बांहों के घेरे में ही है. फिर अचानक ही सुमि समीर की बांहों में जाने के लिए मचल उठी.

समीर के घर का दरवाजा खुला हुआ था. समीर रात में अचानक ही उसे देख कर आश्चर्यचकित रह गया. सुमि बिना कुछ बोले उस के सीने से लग गई. समीर ने उसे कस कर अपने बाहुपाश में बांध लिया. दोनों देर तक आंसू बहाते रहे. मनों का मैल और 4 सालों की दूरियां आंसुओं से धुल गईं.

बहुत देर बाद समीर ने सुमि को अलग करते हुए कहा, ‘‘मेरी तो कल छुट्टी है. पर तुम्हें तो औफिस जाना है न. चलो, अब सो जाओ.’’

‘‘मैं ने नौकरी छोड़ दी है समीर,’’ सुमि ने कहा.

‘‘छोड़ दी है? पर क्यों?’’ समीर ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘तुम्हारे ढेर सारे बच्चों की परवरिश करने की खातिर,’’ सुमि ने शर्माते हुए कहा तो समीर हंस पड़ा. फिर दोनों एकदूसरे की बांहों में खोए हुए अपने कमरे की ओर चल पड़े.

ममता की मूरत : सास के प्रति कैसे बदली सीमा की धारणा?

रात का लगभग 8 बजे का समय था. मैं औफिस से आ कर खाना बना रही थी और राकेश अपने लैपटौप पर अभी भी औफिस के ही काम में उलझे हुए थे. तभी फोन की घंटी बजी. किस का फोन है, यह उत्सुकता मुझे किचन से खींच लाई. मैं ने देखा राकेश फोन पर बात करते हुए बहुत परेशान हो उठे हैं.

‘प्लीज, आप उन्हें अस्पताल पहुंचा दीजिए. मैं फौरन निकल रहा हूं, फिर भी मुझे पहुंचने में 2-3  घंटे तो लग ही जाएंगे,’ इतना कहते हुए उन्होंने फोन रख दिया. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती उन्होंने हड़बड़ी में मुझे पूरी बात बताते हुए अपने कुछ कपड़े और जरूरी सामान बैग में रखना शुरू कर दिया.

राकेश की चाचीजी, जो मथुरा में रहती हैं अचानक बहुत बीमार हो गई थीं. उन की हालत को देखते हुए किसी पड़ोसी ने हमें फोन किया था. चाचीजी का हमारे सिवा इस दुनिया में और है ही कौन? उन की अपनी औलाद तो है नहीं और चाचाजी का कुछ वर्ष हुए देहांत हो चुका है.

हमारी शादी में चाचीजी ने ही मेरी सास की सारी रस्में की थीं. राकेश के मातापिता तो बहुत पहले एक कार ऐक्सीडैंट में मारे गए थे. तब राकेश की दीदी गरिमा तो अपनी पढ़ाई पूरी कर नौकरी की तलाश कर रही थीं, लेकिन राकेश स्कूल में पढ़ रहे थे. अपनी दीदी से 8 साल छोटे जो हैं. तब चाचाचाची ने ही दीदी की शादी की थी और राकेश को स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए होस्टल भेज दिया था. चाचाचाची ने दीदी को और मुझे अपनी औलाद की तरह प्यार दिया है, यह बात इन 2 वर्षों में राकेश मुझे कई बार बता चुके हैं.

पहले पूरा परिवार साथ ही रहता था लेकिन राकेश जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तभी इन के चाचाजी का तबादला मथुरा हो गया था. इस के बाद तो उन के तबादला कई और शहरों में भी होता रहा लेकिन मथुरा में उन्होंने अपना घर बना लिया था, इसलिए उन के देहांत के बाद चाचीजी मथुरा आ गई थीं. और वे जाती भी कहां?

मेरा चाचीजी से ज्यादा परिचय नहीं था. हमारी शादी के वक्त वे सिर्फ 5-6 दिन हमारे साथ रही थीं. दरअसल, हम दोनों बैंकाक घूमने जाना चाहते, इसलिए वे मथुरा लौट गई थीं. मैं क्याक्या सोचने लग गई थी. राकेश की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी. वे कह रहे थे कि देखो जल्दी में मैं कहीं कुछ रखना तो नहीं भूल गया.

बैग पैक हो गया तो राकेश अकेले चाचीजी को कैसे संभालेंगे यह सोच कर मैं ने भी साथ चलने की बात की तो वे बोले कि पहले जा कर स्थिति देख लूं, जरूरत हुई तो तुम्हें भी बुला लूंगा. फिर वे मथुरा के लिए रवाना हो गए.

शादी के बाद यह पहला अवसर था जब मैं रात के समय घर में अकेली थी. अजीब सा डर व बेचैनी मुझे सोने नहीं दे रही थी. रात 2 बजे के लगभग राकेश से मेरी बात हुई. पता लगा चाचीजी बेहोश हैं. कई तरह के टैस्ट हो रहे हैं, अभी कुछ ठीक से कहा नहीं जा सकता. राकेश काफी परेशान लग रहे थे.

अगली सुबह 11 बजे राकेश का फोन आया कि वे चाचीजी के इलाज तथा डाक्टरों के रवैये से संतुष्ट नहीं हैं. वे उन्हें ले कर दिल्ली आ रहे हैं. दिल्ली के एक अस्पताल से बातचीत चल रही है.

शाम होतेहोते वे चाचीजी को ले कर दिल्ली पहुंच गए. नीम बेहोशी की हालत में चाचीजी बहुत ही कमजोर लग रही थीं. रंग भी पीला पड़ा हुआ था. उन के अस्पताल पहुंचने से पहले ही मैं वहां पहुंच गई. डाक्टरों ने तत्परता से इलाज शुरू कर दिया.

5 दिनों बाद चाचीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई, लेकिन डाक्टरों ने दवा के साथसाथ परहेज और आराम करने की सख्त हिदायत दी थी. हम उन्हें घर ले आए. बीमारी कोई विशेष नहीं थी. बढ़ती उम्र, अकेलापन, चिंता, काम की थकान, उस पर ठीक से समय पर न खाना बीमारी के कारण थे.

हम दोनों के लिए अब और छुट्टियां लेना मुश्किल था. उन के लिए किसी नौकर या नर्स का प्रबंध नहीं हो पा रहा था, इसलिए हम ने घर पर काम करने वाली बाई को ही दिन भर में 2-3 चक्कर लगा कर उन्हें दूध, चाय, नाश्ता आदि देते रहने के लिए कहा और औफिस जाना शुरू कर दिया था. हां, दिन में कई बार हम फोन पर चाचीजी से बात कर लेते थे. उन का हालचाल जान लेते थे. कोई परेशानी तो नहीं? पूछते रहते थे.

राकेश की तो पता नहीं हां, मेरी परेशानियां कुछ बढ़ गई थीं. आज तक जो घर सिर्फ हमारा था वह एकाएक मुझे मेरी ससुराल लगने लगा था. अब उठनेबैठने, पहननेओढ़ने में मैं कुछ बंदिशें महसूस करने लगी थी. हालांकि चाचीजी ने इस बारे कभी कुछ कहा नहीं था, लेकिन उन का घर पर होना ही मेरे लिए काफी था.

लेकिन मैं पूरे उत्साह से यह सब कर रही थी, क्योंकि चाचीजी आशा से कहीं जल्दी स्वास्थ्य लाभ कर रही थीं. 1 सप्ताह बाद ही उन्हें कामवाली की जरूरत नहीं रही. वे अपने छोटेछोटे काम स्वयं ही उठ कर करने लगी थीं. मैं खुश थी कि वे जल्दी ही ठीक हो कर मथुरा लौट जाएंगी. कुछ ही दिनों की तो बात है.

एक दिन राकेश बोले कि अब हम चाचीजी को वापस नहीं जाने देंगे. वे अब हमारे साथ ही रहेंगी. अब इस उम्र में उन का अकेले रहना मुश्किल है. फिर बीमार हो गईं तो? फिर हमारा भी तो उन के प्रति कोई कर्तव्य है. उन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया है. राकेश ने कुछ गलत तो नहीं कहा था लेकिन मेरा मन बेचैन हो उठा.

मुझे याद है जब मेरे लिए राकेश का रिश्ता आया तो मम्मीपापा ने मेरी राय पूछी थी. राकेश दिखने में कैसे हैं? पढ़ेलिखे कितना हैं? कमाते कितना हैं? यह सब जानने की मुझे जरूरत ही महसूस नहीं हुई थी क्योंकि लगा था कि मम्मीपापा और मामाजी ने देख लिया है तो सब ठीक ही होगा. मेरे लायक ही होगा. मैं तो लड़के के परिवार के बारे में जानना चाहती थी. पूछा तो पता लगा कि घर में सासससुर नहीं हैं. बस एक बड़ी बहन है, जो शादीशुदा है. मेरे लिए इतना ही जानना काफी था क्योंकि मेरे दिमाग में सास की छवि ऐसी थी जिस से बहू हमेशा डरीसहमी रहती है. मेरी सहेली जया, जिस की शादी कुछ ही महीने पहले हुई थी, उस से जब भी बात होती थी वह अपने पति के बारे में कम सास के बारे में बात ज्यादा करती थी. हमेशा परेशान रहती थी.

उस पर मेरी दीदी जबतब मायके आतीं तो कई दिनों तक लौटने का नाम नहीं लेती थीं. हमेशा मां ही उन्हें समझाबुझा कर वापस भेजती थीं. उन्हें भी पति या देवर से नहीं सास से ही ढेरों शिकायतें होती थीं.

लेकिन हमारे यहां तो राकेश की चाचीजी रहने वाली थीं. अपनी सास की तो चलो कोई 2 बात सुन भी ले, चचियासास की बातें, ताने, उलाहने भला कोई क्यों सुने? हालांकि ऐसा सोचना बड़ा ही गलत था, स्वार्थी सोच था, लेकिन मुझे बहुत परेशान करने लगा था.

एक शाम औफिस से घर पहुंची तो देखा चाचीजी ने मशीन लगा कर घर भर के मैले कपड़े इकट्ठा कर धो डाले थे. मैं तो इतवार को ही मशीन लगा कर सप्ताह भर के कपड़े धोती हूं. पिछले दिनों चाचीजी की बीमारी के चक्कर में यह काम रह ही गया था. इतने कपड़े एकसाथ धुले देख कर मैं हैरान रह गई, ‘‘यह क्या चाचीजी, आप ने यह सब क्यों किया? आप को तो अभी आराम करना चाहिए.’’

‘‘दिन भर आराम ही तो करती हूं सीमा, फिर आजकल मशीन में कपड़े धोना भी कोई काम है?’’ कहते हुए चाचीजी हंस दीं.

अब रात के खाने के वक्त गपशप का दौर चलने लगा था. चाचीजी राकेश के बचपन की आदतों, शरारतों के बारे में बतातीं. मुझे मेरी ससुराल के बारे में बहुत सी ऐसी बातें भी बतातीं, जिन्हें बताने वाला कोई नहीं था. राकेश की चिढ़, पसंदनापसंद के बारे में भी मुझे पता लग रहा था. अब मुझे उन्हें चिढ़ाने, छेड़ने में बड़ा मजा आ रहा था. ऐसे में चाचीजी भी हंसते हुए मेरा पूरा साथ देती थीं.

हम शाम को औफिस से लौटते तो चाचीजी बढि़या सा स्वादिष्ठ नाश्ता बना कर हमारा इंतजार कर रही होतीं. अब सुबहशाम मुझे सब्जी कटी हुई मिलती, सलाद तैयार और तरहतरह की चटनियां पिसी मिलतीं. वे अकसर आटा भी गूंध दिया करती थीं. यह सब देख कर यही लगता कि वे दिन भर पल भर को भी बैठती नहीं हैं.

अब घर में कोई हर चीज अपने ठिकाने पर करीने से रखी मिलती, जिन्हें पहले हम अकसर समय की कमी के कारण यहांवहां इस्तेमाल के बाद छोड़ दिया करते थे.

एक छुट्टी के दिन हम चाचीजी को मौल घुमाने ले जा रहे थे. उन्होंने रास्ते में एक जगह गाड़ी रोकने के लिए कहा तो हम हैरान रह गए. फिर भी राकेश ने तुरंत गाड़ी रोकी तो चाचीजी फौरन उतर कर पास के एटीएम की ओर बढ़ गईं. 2 ही मिनटों बाद वे नोट हाथ में ले कर लौटीं.

हमें हैरान देख कर वे बोलीं, ‘‘हैरान मत हो. अपनी हालत को देखते हुए यह कार्ड मैं ने अस्पताल के सामान के साथ रख लिया था. वहां अस्पताल में पैसों की जरूरत तो पड़नी ही थी न? पर मुझे क्या पता था मेरी हालत इतनी बिगड़ जाएगी कि पड़ोसी को फोन कर के तुम्हें बुलाना पड़ेगा.’’

‘‘वह तो ठीक है  चाचीजी, लेकिन अब तो हम हैं. आप को पैसे निकलवाने की क्या जरूरत थी? वैसे क्षमा करना, आप को आए इतने दिन हो गए, खयाल ही नहीं आया मुझे. आप से पूछना चाहिए था आप की जरूरत के बारे में,’’ राकेश ने झेंपते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं बेटा मुझे भला पैसों का क्या करना है? लेकिन पहली बार अपने बेटेबहू के साथ बाजार जा रही हूं तो पैसे पास में होने ही चाहिए. चलोचलो देर हो रही है,’’ चाचीजी ने पूरे उत्साह से कहा.

मौल में पहुंचते ही चाचीजी रेडीमेड कपड़ों के शोरूम में चली गईं. हमें लगा वे बीमारी की हालत में इतनी जल्दी में अस्पताल आईं कि साथ में बहुत सी चीजें नहीं ला पाईं. उन्हें कपड़ों के लिए परेशानी होती होगी, इसलिए वहां गई हैं. लेकिन रेडीमेड शर्ट और जींस के काउंटर पर जा कर वे राकेश से कपड़े खरीदने के लिए कहने लगीं. राकेश ने बहुत मना किया लेकिन वे कब मानने वाली थीं.

राकेश जींस ट्राई कर रहे थे तब मुझ से बोलीं, ‘‘आजकल की सब लड़कियां जींस पहनती हैं. दफ्तर जाने वाली तो कहती हैं कि इस में उन्हें सुविधा रहती है. बहू, तुम नहीं पहनतीं?’’

उन की बात सुन कर मैं हैरान रह गई. पुरानी पीढ़ी की हो कर भी वे ऐसी बात कह रही हैं?

‘‘नहींनहीं चाचीजी मैं भी…’’ कहते हुए मैं रुक गई. लगा कहीं यों ही बातोंबातों में मुझ से कुछ उगलवाना तो नहीं चाह रहीं.

‘‘पहनती हो लेकिन मेरे कारण रोज साड़ी और सूट की बंदिशों में कैद हो गई हो. लेकिन मैं ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं,’’ चाचीजी बड़ी मासूमियत से बोलीं.

‘‘बहू, तुम भी अपने लिए एक जींस और एक बढि़या सी टौप खरीद लो. मैं भी तो देखूं मेरी बहू इन कपड़ों में कैसी लगती है,’’ कहते हुए उन्होंने मेरे लिए कपड़े पसंद करने शुरू कर दिए. मैं हैरान सी खड़ी उन्हें देखती रह गई. अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं आ रहा था, लेकिन यह सब सच था सपना नहीं.

कपड़े खरीदते ही चाचीजी बोलीं, ‘‘भई, बहुत भूख लग रही है. वैसे भी मेरे ठीक होने की खुशी में एक बढि़या सी दावत होनी ही चाहिए.’’

रेस्टोरैंट में हमारे मना करने पर भी चाचीजी ने बहुत कुछ मंगवा लिया, उस पर आइसक्रीम भी. बाद में राकेश जब वहां पैसे देने लगे तो उन्होंने तुरंत नोट उन के हाथ में पकड़ाते हुए कहा, ‘‘ये लो तुम ही दे दो. क्या फर्क पड़ता है.’’ इस पर हम तो हंस ही रहे थे, बिल लाने वाला वेटर भी अपनी हंसी नहीं रोक पाया.

घर आ कर राकेश ने कहा कि आप को इतने पैसे खर्च नहीं करने चाहिए थे तो वे बोलीं, ‘‘तुम्हारे चाचाजी के बाद अब मुझे पैंशन मिलती है. मैं अकेली जान अब इस उम्र में अपने पर कितना खर्च करूंगी?’’

वे जब से ठीक हुई हैं अकसर शाम को सैर करने चली जाती हैं. फल, सब्जियां, दूध और मिठाई न जाने क्याक्या ले कर ही लौटती हैं. खाली हाथ कभी नहीं आतीं.

सुबह हम औफिस के लिए तैयार हो रहे थे तो वे पास आ कर बोलीं, ‘‘बेटा राकेश, अब मैं बिलकुल ठीक हूं. अब मेरा वापसी का टिकट करवा दो.’’

सुनते ही हम दोनों अवाक रह गए.

‘‘क्या हुआ चाचीजी, आप को यहां कोई परेशानी है क्या?’’ हम दोनों एकसाथ बोल उठे.

‘‘नहींनहीं बेटा, अपने घर में कैसी परेशानी. फिर भी लौटना तो होगा ही न.

2 महीने हो गए हैं, मैं कब तक तुम लोगों…’’

सुनते ही मैं परेशान हो उठी, ‘‘चाचीजी, आप से इतना तो मना करते हैं फिर भी आप अपनी मरजी से दिन भर काम में लगी रहती हैं.’’

‘‘नहींनहीं सीमा, मैं काम की बात नहीं कर रही. यह भी कोई काम है. बटन दबाया कपड़े धुल गए. बटन दबाया चटनी, मसाला पिस गया. घर की सफाई और बरतन का काम तो कामवाली कर जाती है. दिन भर में काम ही कितना होता है? लेकिन बेटा 2 महीने हो गए हैं, कब तक तुम लोगों पर बोझ बनी रहूंगी?’’

बोझ शब्द सुनते ही मेरी आंखें भर आईं. मैं उन से लिपट गई. ऐसी ममता की मूरत भला बोझ कैसे हो सकती है? कितनी गलत सोच थी मेरी सास के बारे में. मुझे चाचीजी से कोई शिकायत नहीं. कितनी परेशान हो गई थी मैं जब राकेश ने उन के यहीं रहने की बात की थी. लेकिन अब मैं उन के बिना जीने की कल्पना ही नहीं कर सकती थी. उन के प्यार, आशीर्वाद और उन की उपस्थिति के बिना हमारा जीवन, हमारा घरपरिवार कितना अधूरा रह जाएगा. कौन हर शाम घर पर हमारा इंतजार करेगा? कौन भूख न होने पर भी मनुहार कर के हमें खाना खिलाएगा? कौन बिना किसी स्वार्थ के हम पर इतना निश्छल स्नेह लुटाएगा?

हम दोनों ने उन्हें साफ शब्दों में कह दिया कि वे अब कहीं नहीं जाएंगी. अब इस उम्र में हमारे होते हुए वे अकेली नहीं रहेंगी. अब यह उन की मरजी है कि वे अपने मथुरा वाले घर पर ताला लगाना चाहती हैं या उसे किराए पर उठाना चाहती हैं. हमारी जिद और हमारे प्यार के आगे उन की एक नहीं चली.

चाचीजी कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘तुम इतना कहते हो तो तुम्हारे पास ही रह जाऊंगी, लेकिन मेरी एक शर्त है.’’

मैं समझ गई कि चाचीजी क्या कहना चाहती हैं. मैं झट से बोली, ‘‘आप एक बार मथुरा जा कर अपने कुछ कपड़े, कुछ जरूरी सामान लाना चाहती हैं न? इस में शर्त की क्या बात है, अगले ही वीक ऐंड पर हम दोनों आप को मथुरा ले चलेंगे.’’

‘‘वह तो मैं जाऊंगी ही पर मेरी शर्त तो कुछ और ही है.’’

चाचीजी के इतना कहते ही मैं कुछ परेशान हो गई. सोचा, पता नहीं वे क्या शर्त रखेंगी.

तभी राकेश बोल उठे, ‘‘चाचीजी, शर्त क्यों आप तो आदेश दीजिए क्या चाहिए?’’

हमारे परेशान चेहरे को देख कर चाचीजी की हंसी निकल गई. वे हंसते हुए बोलीं, ‘‘हांहां, शर्त नहीं मेरा आदेश ही है कि यदि मुझे यहां रोकना है तो मुझे जल्दी से एक पोता देना होगा. 2 साल हो गए हैं शादी को, कब तक यों ही डोलते रहोगे?’’

सुनते ही हम दोनों शरमा गए. जिस प्यार और अधिकार से चाचीजी ने कहा है तो हमारे सोचने के लिए कुछ बचा ही कहां है. चाचीजी ने हमारे जीवन को नए माने दे दिए हैं. पता नहीं ममता की यह मूरत वर्षों बिना औलाद के कैसे रही होगी? चलो बीमारी के बहाने ही सही, वे हमारे पास अपनी ममता लुटाने तो आ गई हैं.

कहीं किसी रोज : जब जोया से मिला विमल

स्विमिंग पूल के किनारे एक तरफ जा कर विमल ने हाथ में लिए होटल के गिलास से ही सूर्य को जल चढ़ाया, सुबह की हलकीहलकी खुशनुमा सी ताजगी हर तरफ फैली थी, जल चढ़ाते हुए उस ने कितने ही शब्द होठों में बुदबुदाते हुए कनखियों से पूल के किनारे चेयर पर बैठी महिला को देखा, आज फिर वह अपनी बुक में खोई थी.

कुछ पल वहीं खड़े हो कर वह उसे फिर ध्यान से देखने लगा, सुंदर, बहुत स्मार्ट, टीशर्ट, ट्रैक पैंट में, शोल्डर कट बाल, बहुत आकर्षक, सुगठित देहयष्टि.

विमल को लगा कि वह उस से उम्र में कुछ बड़ी ही होगी, करीब चालीस की तो होगी ही, वह उसे निहार ही रहा था कि उस स्त्री ने उस की तरफ देख कर कहा, ‘‘इतनी दूर से कब तक देखते रहेंगे, आप की पूजाअर्चना हो गई हो और अगर आप चाहें तो यहां आ कर बैठ सकते हैं.‘‘

विमल बहुत बुरी तरह झेंप गया. उसे कुछ सूझा ही नहीं कि चोरी पकडे जाने पर अब क्या कहे, चुपचाप चलता हुआ उस स्त्री से कुछ दूर रखी चेयर पर जा कर बैठ गया.

स्त्री ने ही बात शुरू की, ‘‘आप भी मेरी तरह लौकडाउन में इस होटल में फंस गए हैं न? आप को रोज देख रही हूं पूजापाठ करते. और आप भी मुझे देख ही रहे हैं, यह भी जानती हूं.‘‘

विमल झेंप रहा था, बोला, ‘‘हां, यहां देहरादून में औफिस के टूर पर आया था, अचानक लौकडाउन में फंस गया, मैं लखनऊ में रहता हूं और आप…?‘‘

‘‘मैं देहरादून घूमने आई थी. मैं बैंगलोर में रहती हूं, वहीं जौब भी करती हूं.‘‘

‘‘अकेले आई थीं घूमने?‘‘ विमल हैरान हुआ.

‘‘जी, मगर आप इतने हैरान क्यों हुए?‘‘

विमल चुप रहा, महिला उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं, मेरा एक्सरसाइज का टाइम हो गया. थोड़ी रीडिंग के बाद ही मेरा दिन शुरू होता है.‘‘

विमल ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘आप का शुभ नाम?‘‘

‘‘जोया.‘‘

‘‘आगे?‘‘

‘‘आगे क्या?‘‘

‘‘मतलब, सरनेम?‘‘

‘‘मुझे बस अपना नाम अच्छा लगता है, मैं सरनेम लगा कर किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधना चाहती, सरनेम के बिना भी मेरा एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हो सकता है. आप भी मुझे अपना नाम ही बताइए, मुझे किसी के सरनेम में कभी कोई दिलचस्पी नहीं होती.‘‘

विमल का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘यह औरत है, क्या है,’’ धीरे से बोला विमल.

‘‘ओके, बाय,‘‘ कह कर जोया चली गई. विमल जैसे एक जादू के असर में बैठा रह गया.

लौकडाउन के शुरू होने पर रूड़की के इस होटल में 8-10 लोग फंस गए थे, कुछ यंग जोड़े थे जो कभीकभी दिख जाते थे, कुछ ऐसे ही टूर पर आए लोग थे, दिनभर तो विमल लैपटौप पर औफिस के काम में बिजी रहता. वह बहुत ही धर्मभीरु, दब्बू किस्म का इनसान था, उस की पत्नी और दो बच्चे लखनऊ में रहते थे, जिन से वह लगातार टच में था, जोया को वह अकसर ऐसे ही स्विमिंग पूल के आसपास खूब देखता. अकसर वह इसी तरह बुक में ही खोई रहती.

जोया एक बिंदास, नास्तिक महिला थी, बैंगलोर में अकेली रहती थी, एक कालेज में फाइन आर्ट्स की प्रोफेसर थी, विवाह किया नहीं था. पेरेंट्स भाई के पास दिल्ली रहते थे, घूमनेफिरने का शौक था, खूब सोलो ट्रैवेलिंग करती, खूब पढ़ती, हमेशा बुक्स साथ रखती, अब लौकडाउन में फंसी  थी तो बुक्स पढ़ने के शौक में समय बीत रहा था. वह बहुत इंटेलीजेंट थी, कई फिलोसोफर्स को पढ़ चुकी थी, कई दिन से देख रही थी कि विमल उसे चोरीचोरी खूब देखता है, उसे मन ही मन हंसी भी आती, विमल देखने में स्मार्ट था, पर उसे एक नजर देखने से ही जोया को अंदाजा हो गया था कि वह धर्म में पोरपोर डूबा इनसान है.

होटल में स्टाफ अब बहुत कम  था, खानेपीने की चीजें सीमित थीं, पर काम चल रहा था. विमल का आज काम में दिल नहीं लगा, आंखों के आगे जोया का जैसे एक साया सा लहराता रह गया.

शाम होते ही लैपटौप बंद कर स्विमिंग पूल की तरफ भागा, जोया अपनी बुक में डूबी थी. विमल उस के पास जा कर खड़ा हो गया, ‘‘गुड ईवनिंग, जोयाजी.”

बुक बंद कर जोया मुसकराई, ‘‘गुड ईवनिंग, आइए, फ्री हैं तो बैठिए.”

विमल तो उस के पास बैठने के लिए ही बेचैन था, जोया बहुत प्यारी लग रही थी, नेवई ब्लू, टीशर्ट में उस का गोरा सुनस
सुंदर चेहरा खिलाखिला लग रहा था. जोया ने छेड़ा, ‘‘देख लिया हो तो कोई बात करें.”

हंस पड़ा विमल, ‘‘आप बहुत स्मार्ट हैं, नजरों को खूब पढ़ती हैं.”

‘‘हां जी, यह तो सच है,” जोया ने दोस्ताना ढंग से कहा, तो दोनों में कुछ बढ़ा, जोया ने कहा, ‘‘आजकल तो यहां जितनी भी सुविधाएं मिल रही हैं, बहुत हैं, मेरी सुबहशाम तो स्विमिंग पूल पर कट रही है और दिन होटल के कमरे में. आप क्या करते रहते हैं?”

‘‘औफिस का काम काफी रहता है, बस यों ही टाइम बीत जाता है.”

जोया ने पूछा, ‘‘और आप की फैमिली में कौनकौन हैं?”

विमल ने बता कर उस से भी पूछा. जोया ने जब बताया कि वह अविवाहित है. विमल हैरानी से उस का मुंह देखता रह गया.

यह देख जोया हंस पड़ी, ‘‘आप बहुत हैरान होते हैं, बातबात पर.‘‘ विमल को अब तक जोया के जौली नेचर का अंदाजा हो गया था. जोया ने फिर कहा, “मैं अपनी लाइफ अपने तरीके से ऐंजौय कर रही हूं, पता नहीं, लोग मेरी लाइफ पर हैरान ही होते रहते हैं, जैसे मैं जीती हूं, मुझे उस पर गर्व है.”

‘‘आप को एक फैमिली की जरूरत महसूस नहीं होती?”

‘‘पेरेंट्स हैं, भाई हैं, बाकी पति, बच्चे जैसी चीजों की कमी कभी नहीं महसूस हुई. मैं तो यहां लौकडाउन में फंसा होना भी ऐंजौय कर रही हूं, आप के पास पैसा हो तो आप को लाइफ ऐसे ही ऐंजौय करनी चाहिए, डेनिस रोडमैन ने तो कह ही दिया, ‘‘इनसान के जीवन में ५० पर्सेंट सैक्स होता है और ५० पर्सेंट पैसा.”

विमल का चेहरा शर्म से लाल हो गया. पहली बार कोई महिला उस के सामने बैठी सैक्स शब्द ऐसे खुलेआम बोल रही थी, जोया ने फिर कहा, ‘‘आप को अजीब लगा न कि कोई महिला कैसे सैक्स शब्द खुलेआम बोल रही है, इस विषय पर तो आप लोगों का कौपीराइट है,‘‘ कह कर जोया बहुत प्यारी हंसी हंसी.

विमल इस हंसी में कहीं खो सा गया, बोला, ‘‘आप सब से बहुत अलग हैं.”

‘‘जी, मैं जानती हूं.”

‘‘आजकल आप क्या पढ़ रही हैं?”

‘‘कार्ल मार्क्स.”

‘‘और क्याक्या शौक हैं आप के?”

‘‘खुश रहने का शौक है मुझे, बाकी सब चीजें इस के साथ अपनेआप जुड़ती चली गईं. आज डिनर साथ करें क्या?”

‘‘आज तो मेरा फास्ट है. मंगलवार है न. मैं जरा धार्मिक किस्म का इनसान हूं.”

जोया मुसकराई, तो विमल ने पूछ लिया, ‘‘आप किस धर्म को मानती हैं?”

‘‘मैं तो धर्म के खिलाफ हूं, क्योंकि इस में मेरे तर्कों का कोई जवाब नहीं. लोगों ने मुझे हमेशा दिमाग से काम लेने की सलाह दी. मैं ने मानी, बस, मैं फिर नास्तिक हो गई, है न ये मजेदार बात. जब लोग मुझ से मेरा धर्म पूछते हैं, मैं कह देती हूं, नॉन डेलूशनल.

‘‘मैं तो यह मानता हूं कि ऊपर वाला हर वस्तु में है और सब से ऊपर भी, भगवान को अपने आसपास ही महसूस करता हूं, इसी अनुभूति से जीवन सफल हो सकता है, भगवान ही हमारी हर मुश्किल का अंत कर सकते हैं.”

‘‘और मैं कार्ल मार्क्स की इस बात को मानती हूं कि लोगों की खुशी के लिए पहली जरूरत धर्म का अंत है और धर्म लोगों का अफीम है.”

‘‘आप विदेशी लेखकों की बुक्स शायद ज्यादा पढ़ चुकी हैं.”

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है, मुझे बीआर अंबेडकर की यह बात बहुत पसंद है, जो उन्होंने कहा है कि मैं ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए.”

‘‘पर, जोयाजी.”

‘‘आप मुझे सिर्फ जोया ही कह सकते हैं, यह जी मुझे अकसर बहुत फिजूल की चीज लगती है.”

विमल थोड़ा हिचकिचाया, पर उसे अपने मुंह से निकलता सिर्फ जोया बहुत प्यारा लगा, वह इस नाम पर ही अब मरमिटा था, इस नाम ने ही उस के अंदर एक हलचल मचा दी थी, उसे लग रहा था कि सामने बैठी, उस से उम्र में बड़ी महिला सारी उम्र बस उस के सामने ऐसे ही बैठी रहे और वह उस की बातें सुनता रहे, उसे देखता रहे, ब्यूटी विद ब्रेन.

‘‘तो आज आप फास्ट में डिनर में क्या खाएंगे?”

‘‘फ्रूट्स और मिल्क,”
जोया मुसकराई, ‘‘मैं ने तो अपनी लाइफ में कभी कोई फास्ट नहीं रखा.”

‘‘मैं सचमुच हैरान हूं, आप किसी भी धर्म को नहीं मानती? अच्छा, ठीक है, चलो, मुझे यह तो बता दो कि आप के पेरेंट्स का सरनेम क्या है?”

जोया बहुत जोर से हंसी, ‘‘आप उन्ही लोगों में से हैं न, जो सामने वाले के धर्म, जाति पूछ कर आगे बात करते हैं, तरस आता है मुझे ऐसे लोगों पर, जिन की दुनिया बस इतनी ही छोटी है जिस में सरनेम ही रह सकता है. खैर, मैं हूं जोया सिद्दीकी.”

विमल का चेहरा उतर गया, मुंह से निकल ही गया, ‘‘ओह्ह्ह.”

जोया ने छेड़ा, ‘‘आया मजा? क्या हुआ? झटका लगा न? अब बात नहीं कर पाएंगे?”

‘‘नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं है.”

दोनों फिर यों ही कुछ देर बात करते रहे, विमल जोया की नौलेज से प्रभाावित था, कमाल की थी जोया, विमल अपने रूम में आ कर भी सिर्फ जोया के बारे में ही सोचता रहा, पूरी रात उस के बारे में करवटें बदल बदल कर गुजारीं, जोया को भी विमल की सादगी बहुत अच्छी लगी थी, वह भी उस के बारे में सोच कर मुसकराती रही, अगली सुबह विमल ने उसे देखते ही बेचैनी से कहा, ‘‘आज तो मैं सो ही नहीं पाया.”

जोया ने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘जानती हूं.”

‘‘अरे, आप को कैसे पता?”

‘‘अकसर लोग मुझ से मिल कर जल्दी सो नहीं पाते.”

विमल थोड़ा फ्लर्ट के मूड में आ गया, ‘‘बहुत जानती हैं आप ऐसे लोगों को?”

‘‘हां, जनाब, बहुत देखे हैं.”

दोनों ने अपनेआप को एकदूसरे के कुछ और करीब महसूस किया, दोनों स्विमिंग पूल के किनारे चहलकदमी करते हुए बातें कर रहे थे, जोया ने कहा, ‘‘आज आप ने नहाधो कर सूर्य को जल नहीं चढ़ाया.”

‘‘हां, आज मन ही नहीं हुआ, मैं ठीक से सोता नहीं तो मेरा सारा काम उलटापुलटा हो जाता है.”

‘‘आप के भगवान मुझ से गुस्सा तो नहीं हो जाएंगे कि मेरी वजह से आप सो नहीं पाए. वैसे, अच्छा ही हुआ एक गिलास पानी वेस्ट होने से बच गया. आप ने कभी सोचा नहीं कि आप के भगवान को सचमुच उस पानी की जरूरत है? मुझे इस के पीछे का लौजिक समझा दीजिए, प्लीज.”

विमल ने हाथ जोड़े, ‘‘मैं समझ चुका हूं कि मैं आप से जीत नहीं सकता, जोया. मैं आप से हार चुका हूं,” उस के इस भोले से व्यवहार पर जोया मुसकरा दी. जोया ने कहा, ‘‘फिर तो बात ही खत्म, हारे हुए इनसान को क्या कहना? आज नाश्ता साथ करें?”

‘‘बिलकुल, फ्रेश हो कर मिलते हैं, इन का रैस्टोेरैंट तो बंद ही है आजकल, औफिस की मीटिंग में एक घंटा है, मेरे रूम में आओगी?”

‘‘हां, मिलते हैं.”

घुटने तक की एक ड्रेस, शोल्डर कट बाल शैंपू किए, हलका सा मेकअप, उस के पास से आती बढ़िया परफ्यूम की खुशबू, तैयार विमल ने जब अपने रूम का दरवाजा खोला, तो जोया को देखता ही रह गया. वह बहुत सुंदर थी, उस के रूप के जादू से बचना विमल को बहुत मुश्किल सा लग रहा था. वह पूरी तरह उस के होशोहवास पर छा चुकी थी, विमल ने उस की पसंद पूछ कर नाश्ता आर्डर किया, वेटर स्टेचू सा चेहरा लिए चला गया, तो जोया हंसी, ‘‘आज तो इन लोगों को भी टाइमपास करने का हमारा टौपिक मिल गया, ये बेचारे भी लौकडाउन में ऐसी बातों के लिए तरस गए होंगे.”

विमल को बहुत जोर से हंसी आई, ‘‘क्याक्या सोच लेती हो आप भी?”

‘‘तुम भी कहोगे मुझे तो अच्छा लगेगा, आप बहुत दूर कर देता है सामने वाले को.”

‘‘पर, आप मुझ से बड़ी हैं शायद.”

‘‘शायद नहीं, बड़ी ही हूं, पर मुझे तुम से तुम ही सुनना अच्छा लगेगा, विमल, जब करीब आ ही रहे हैं तो फौर्मलिटीज क्यों?”

नाश्ता करते हुए जोया की रोचक बातों में डूबा रहा विमल. जोया बता रही थी, ‘‘तुम्हें पता है, जब मैं यूरोप से अपनी आर्ट्स की पढ़ाई खत्म कर के  लौटी, और वहां के न्यूड स्कल्प्चर के बारे में स्टूटेंड्स को  बताती, उन्हें पढ़ाती, उन के चेहरे शर्म से लाल हो जाते. मुझे बड़ा मजा आता, मैं बहुत जगह घूमी, तुम्हें पता है डेनमार्क और स्वीडन में धार्मिक लोग सब से कम हैं और वहां सब से अच्छी शिक्षा है, अपराध न के बराबर हैं. ईमानदार लोग है,” जोया और विमल ने काफी अच्छे मूड में नाश्ता खत्म किया, जोया फिर उठ गई और बोली, ‘‘अब तुम औफिस के काम करो, मैं चलती हूं.”

विमल का मन ही नहीं कर रहा था कि जोया उस के पास से जाए, पर मजबूरी थी, एक मीटिंग थी, बोला, ‘‘तुम क्या करती हो पूरा दिन होटल में जोया?”

‘‘आराम, बुक्स, एक्सरसाइज, कुछ फोन पर बातें, फोन पर नेटफ्लिक्स भी देखती हूं.”

‘‘अच्छा? कौनकौन से शोज देखे हैं अब तक?”

‘‘सेक्रेड गेम्स देख रही हूं आजकल, वैसे और भी बहुत से देख लिए.”

विमल की आंखें कुछ चौड़ी हुईं, ‘‘सेक्रेड गेम्स?”

‘‘हां, फिर हैरान हुए तुम?”

विमल हंस पड़ा, जोया चली गई.

शाम को दोनों फिर बहुत देर तक स्विमिंग पूल के किनारे बैठे रहे, चाय भी साथ पी, जोया ने शरारती स्वर में कहा, ‘‘आज डिनर मेरे रूम में?”

विमल ने हां में सिर हिला दिया. विमल अब उस से अपनी फैमिली की बातें करता रहा, अपनी वाइफ और बच्चों के बारे में बताता रहा, जोया पूरी रुचि से सुनती रही, फिर बोली, ‘‘आप अपनी वाइफ को मेरे बारे में बताएंगे?”

‘‘नहीं,” कहता हुआ विमल मुसकरा दिया, तो जोया भी हंस पड़ी, कहा, ‘‘इसलिए मैं ने शादी नहीं की.” दोनों इस बात पर एकदूसरे को छेड़ते रहे, रात को डिनर के लिए जब विमल तैयार होने लगा, मन ही मन यही सोच रहा था कि वह अपनी वाइफ को धोखा दे रहा है, भगवान उसे कभी माफ नहीं करेंगे, यह पाप है वगैरह, पर जब जोया की हसीन कंपनी याद आती, सब नैतिकता धरी की धरी रह जाती.

जोया विमल के साथ समय बिताने के लिए उत्साहित थी, उसे विमल का स्वभाव सरल, सहज लगा था, वह उस से खूब मजाक करने लगी थी, उसे अपनी बातों पर विमल का झेंपना बहुत अच्छा लगता, रात को विमल उस के रूम में आया, दोनों ने काफी सहज हो कर बहुत देर बातें कीं, डिनर आर्डर किया, खूब हंसतेहंसाते खाना खाया, वेटर सब क्लीन कर  गया, तो जोया ने कहा, ‘‘विमल, मुझे तुम से मिल कर अच्छा लगा. यह और बात है कि हम एकदूसरे से बिलकुल अलग हैं.”

‘‘जोया, मैं ने बहुत सोचा कि तुम से दूरी न बढ़ाऊं, पर दिल है कि अब मानता  नहीं,” कहतेकहते विमल ने उसे खींच कर अपनी बांहों में भर लिया. जोया भी उस के सीने से जा लगी, फिर जो होना था, वही हुआ. पूरी रात दोनों ने एक बेड पर ही बिताई. सुबह जोया ही उठ कर फ्रेश हुई पहले, विमल को झकझोर कर हिलाया, ‘‘उठो, आज क्या इरादा है?”

‘‘तुम्हारे साथ ही रातदिन बिताने का इरादा है, और क्या?”

‘‘तुम्हे पता है जौन अपड़ाईक ने कहा है, सैक्स बिलकुल पैसे की तरह होता है, जितना मिले, उतना कम.

‘‘और मुझे डीएच लौरेंस की बात भी सही लगती है कि सैक्स वास्तव में इनसान के लिए सब से करीबी स्पर्शों में से एक स्पर्श होता है, लेकिन इनसान इसी स्पर्श से डरता है.”

‘‘अब तो वही सही लगता है, जो तुम्हें सही लगता है, कभी भी नहीं सोचा था कि ऐसे किसी के करीब आऊंगा.”

जोया की संगत का ऐसा असर हुआ कि हर बात में धर्म और ईश्वर की बात आंख मूंद कर मानने वाले विमल को अब कुछ याद न आता, औफिस के पहले और बाद का सारा समय जोया के साथ होता, वेटर्स और बाकी स्टाफ से दोनों की नजदीकी छुपने वाली थी ही नहीं, पर दोनों को परवाह भी नहीं थी किसी की, विमल पूरे का पूरा बदल रहा था, न उसे सुबह जीवनभर का नियम सूरज पर जल चढ़ाना याद रहता, न कोई फास्ट, अब उसे जोया की तर्कपूर्ण बातें भातीं, दुनियाभर के दार्शनिकों की कोट्स जोया के मुंह से सुन कर उस का दिल खुश हो जाता कि आजकल वह कितनी इंटेलीजेंट महिला के साथ रातदिन बिता रहा है, अपनी फैमिली से बात करता हुआ भी वह अब परेशान न होता, बल्कि उसे फोन रखने की जल्दी होती, वह इस लौकडाउन को अब मन ही मन थैंक्स कहने लगा था. जोया, वह तो थी ही अपनी तरह की एक ही बंदी, विमल का दीवानापन देख वह हंस देती.

अचानक ट्रेनें और बाकी सेवाएं शुरू हुईं, जोया के एक स्टूडेंट ने रूड़की में अपने किसी रिश्तेदार को कह कर पास दिलवा कर जोया के टैक्सी से दिल्ली जाने का इंतजाम कर दिया, वहां से वह अपने भाई के पास रह कर फिर बैंगलोर चली जाती, उस ने यह खबर जब विमल को दी तो विमल को ऐसा झटका लगा कि उस का चेहरा देख जोया भी गंभीर हुई, ‘‘विमल, हमारे रास्ते, मंजिल तो अलग हैं ही, इस में तुम इतना उदास मत हो, मुझे दुख हो रहा है.”

विमल ने उस का हाथ पकड़ लिया. गमगीन से स्वर में वह बोला, ‘‘मैं तो भूल ही गया था कि हमे बिछुड़ना भी होगा.”

जोया अपनी पैकिंग करने लगी.  होटल वालों को इस समय ध्यान रखने के लिए विशेष रूप से थैंक्स कहा, वेटर्स को बढ़िया टिप्स दी, विमल भी टूटे दिल से जाने के रास्ते खोजने लगा. चलते समय जोया विमल के गले लग गई, अपना कार्ड दिया, बोली, ‘‘जब मन करे, फोन कर लेना. वैसे, मैं जानती हूं कि कुछ ही दिन याद आएगी मेरी, फिर अपनी लाइफ में बिजी हो कर कभीकभी ही याद करोगे मुझे.”

‘‘और तुम…?”

जोया बस मुसकरा दी, कहा कुछ नहीं. टैक्सी आ गई, जोया बैठने लगी तो विमल ने बेकरारी से पूछा, ‘‘जोया, कब मिलेंगे?”

‘‘ऐसे ही, कभी भी, कहीं किसी रोज.”

टैक्सी चली गई. विमल का दिल जैसे बहुत उदास हुआ, मन ही मन कहा, ‘‘जोया सिद्दीकी, बहुत याद आओगी तुम.”

नेकी वाला पेड़ : क्या हुआ जब यादों से बना पेड़ गिरा?

लेखिका- मंजुला अमिय गंगराड़े

टन…टन… टन… बड़ी बेसब्री से दरवाजे की घंटी बज रही थी. गरमी की दोपहर और लौकडाउन के दिनों में थोड़ा असामान्य लग रहा था. जैसे कोई मुसीबत के समय या फिर आप को सावधान करने के लिए बजाता हो, ठीक वैसी ही घंटी बज रही थी. हम सभी चौंक उठे और दरवाजे की ओर लपके.

मैं लगभग दौड़ते हुए दरवाजे की ओर बढ़ी. एक आदमी मास्क पहने दिखाई दिया. मैं ने दरवाजे से ही पूछा, ‘‘क्या बात है?’’

वह जल्दी से हड़बड़ाहट में बोला, ‘‘मैडम, आप का पेड़ गिर गया.’’

‘‘क्या…’’ हम सभी जल्दी से आंगन वाले गेट की ओर बढ़े. वहां का दृश्य देखते ही हम सभी हैरान रह गए.

‘‘अरे, यह कब…? कैसे हुआ…?’’

पेड़ बिलकुल सड़क के बीचोबीच गिरा पड़ा था. कुछ सूखी हुई कमजोर डालियां इधरउधर टूट कर बिखरी हुई थीं. पेड़ के नीचे मैं ने छोटे गमले क्यारी के किनारेकिनारे लगा रखे थे, वे उस के तने के नीचे दबे पड़े थे. पेड़ पर बंधी टीवी केबल की तारें भी पेड़ के साथ ही टूट कर लटक गई थीं. घर के सामने रहने वाले पड़ोसियों की कारें बिलकुल सुरक्षित थीं. पेड़ ने उन्हें एक खरोंच भी नहीं पहुंचाई थी.

गरमी की दोपहर में उस समय कोई सड़क पर भी नहीं था. मैं ने मन ही मन उस सूखे हुए नेक पेड़ को निहारा. उसे देख कर मुझे 30 वर्ष पुरानी सारी यादें ताजा हो आईं.

हम कुछ समय पहले ही इस घर में रहने को आए थे. हमारी एक पड़ोसिन ने लगभग 30 वर्ष पहले एक छोटा सा पौधा लगाते हुए मुझ से कहा था, ‘‘सारी गली में ऐसे ही पेड़ हैं. सोचा, एक आप के यहां भी लगा देती हूं. अच्छे लगेंगे सभी एकजैसे पेड़.’’

पेड़ धीरेधीरे बड़ा होने लगा. कमाल का पेड़ था. हमेशा

हराभरा रहता. छोटे सफेद फूल खिलते, जिन की तेज गंध कुछ अजीब सी लगती थी. गरमी के दिनों में लंबीपतली फलियों से छोटे हलके उड़ने वाले बीज सब को बहुत परेशान करते. सब के घरों में बिन बुलाए घुस जाते और उड़ते रहते. पर यह पेड़ सदा हराभरा रहता तो ये सब थोड़े दिन चलने वाली परेशानियां कुछ खास माने नहीं रखती थीं.

मैं ने पता किया कि आखिर इस पौधे का नाम क्या है? पूछने पर वनस्पतिशास्त्र के एक प्राध्यापक ने बताया कि इस का नाम ‘सप्तपर्णी’ है. एक ही गुच्छे में एकसाथ

7 पत्तियां होने के कारण इस का यह नाम पड़ा.

मुझे उस पेड़ का नाम ‘सप्तपर्णी’ बेहद प्यारा लगा. साथ ही, तेज गंध वाले फूलों की वजह से आम भाषा में इसे लोग ‘लहसुनिया’ भी कहते हैं. सचमुच पेड़ों और फूलों के नाम उन की खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं. उन के नाम लेते ही हमें वे दिखाई पड़ने लगते हैं, साथ ही हम उन की खुशबू को भी महसूस करने लगते हैं. मन को कितनी प्रसन्नता दे

जाते हैं.

यह धराशायी हुआ ‘सप्तपर्णी’ भी कुछ ऐसा ही था. तेज गरमी में जब भी डाक या कुरियर वाला आता तो उन्हें अकसर मैं इस पेड़ के नीचे खड़ा पाती. फल या सब्जी बेचने वाले भी इसी पेड़ की छाया में खड़े दिखते. कोई अपनी कार धूप से बचाने के लिए पेड़ के ठीक नीचे खड़ी कर देता, तो कभी कोई मेहनतकश कुछ देर इस पेड़ के नीचे खड़े हो कर सुस्ता लेता. कुछ सुंदर पंछियों ने अपने घोंसले बना कर पेड की रौनक और बढ़ा दी थी. वे पेड़ से बातें करते नजर आते थे. टीवी केबल वाले इस की डालियों में अपने तार बांध कर चले जाते. कभीकभी बच्चों की पतंगें इस में अटक जातीं तो लगता जैसे ये भी बच्चों के साथ पतंगबाजी का मजा ले रहा हो.

दीवाली के दिनों में मैं इस के तने के नीचे भी दीपक जलाती. मुझे बड़ा सुकून मिलता. बच्चों ने इस के नीचे खड़े हो कर जो तसवीरें खिंचवाई थीं, वे कितनी सुंदर हैं. जब भी मैं कहीं से घर लौटती तो रिकशे वाले से बोलती, ‘‘भैया,

वहां उस पेड़ के पास वाले घर पर रोक देना.’’

लगता, जैसे ये पेड़ मेरा पता बन गया था. बरसात में जब बूंदें इस के पत्तों पर गिरतीं तो वे आवाज मुझे बेहद प्यारी लगती. ओले गिरे या सर्दी का पाला, यह क्यारी के किनारे रखे छोटे पौधों की ढाल बन कर सब झेलता रहता.

30 वर्ष की कितनी यादें इस पेड़ से जुड़ी थीं. कितनी सारी

घटनाओं का साक्षी यह पेड़ हमारे साथ था भी तो इतने वर्षों से… दिनरात, हर मौसम में तटस्थता

से खड़ा.

पता नहीं, कितने लोगों को सुकून भरी छाया देने वाले इस पेड़ को पिछले 2 वर्ष से क्या हुआ कि यह दिन ब दिन सूखता चला गया. पहले कुछ दिनों में जब इस की टहनियां सूखने लगीं, तो मैं ने कुछ मोटी, मजबूत डालियों को देखा. उस पर अभी भी पत्ते हरे थे.

मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई कि अभी सब ठीक है, परंतु कुछ ही समय में वे पत्ते भी मुरझाने लगे. मुझे अब चिंता होने लगी. सोचा, बारिश आने पर पेड़ फिर ठीक हो जाएगा, पर सावनभादों सब बीत गए, वह सूखा ही बना रहा. अंदर ही अंदर से वह कमजोर होने लगा. कभी आंधी आती तो उसे और झकझोर जाती. मैं भाग कर सारे खिड़कीदरवाजे बंद करती, पर बाहर खड़े उस सूखे पेड़ की चिंता मुझे लगी रहती.

पेड़ अब पूरा सूख गया था. संबंधित विभाग को भी इस की जानकारी दे दी गई थी.

जब इस के पुन: हरे होने की उम्मीद बिलकुल टूट गई, तो मैं ने एक फूलों की बेल

इस के साथ लगा दी. बेल दिन ब दिन बढ़ती

गई. माली ने बेल को पेड़ के तने और टहनियों पर लपेट दिया. अब बेल पर सुर्ख लाल फूल खिलने लगे.

यह देख मुझे अच्छा लगा कि इस उपाय से पेड़ पर कुछ बहार तो नजर आ रही है… पंछी भी वापस आने लगे थे, पर घोंसले नहीं बना रहे थे. कुछ देर ठहरते, पेड़ से बातें करते और वापस उड़ जाते. अब बेल भी घनी होने लगी थी. उस की छाया पेड़ जितनी घनी तो नहीं थी, पर कुछ राहत तो मिल ही जाती थी. पेड़ सूख जरूर गया, पर अभी भी कितने नेक काम कर रहा था.

टीवी केबल के तार अभी भी उस के सूखे तने से बंधे थे. सुर्ख फूलों की बेल को

उस के सूखे तने ने सहारा दे रखा था. बेल को सहारा मिला तो उस की छाया में क्यारी के छोटे पौधे सहारा पा कर सुरक्षित थे. पेड़ सूख कर भी कितनी भलाई के काम कर रहा था. इसीलिए मैं इसे नेकी वाला पेड़ कहती. मैं ने इस पेड़ को पलपल बढ़ते हुए देखा था. इस से लगाव होना बहुत स्वाभाविक था.

परंतु आज इसे यों धरती पर चित्त पड़े देख कर मेरा मन बहुत उदास हो गया. लगा, जैसे आज सारी नेकी धराशायी हो कर जमीन पर पड़ी हो. पेड़ के साथ सुर्ख लाल फूलों वाली बेल भी दबी हुई पड़ी थी. उस के नीचे छोटे पौधे वाले गमले तो दिखाई ही नहीं दे रहे थे. मुझे और भी ज्यादा दुख हो रहा था.

घंटी बजाने वाले ने बताया कि अचानक ही यह पेड़ गिर पड़ा. कुछ देर बाद केबल वाले आ गए. वे तारें ठीक करने लगे. पेड़ की सूखी टहनियों को काटकाट कर तार निकाल रहे थे.

यह मुझ से देखा नहीं जा रहा था. मैं घर के अंदर आ गई, परंतु मन बैचेन हो रहा था. सोच रही थी, जगलों में भी तो कितने सूखे पेड़ ऐसे गिरे रहते हैं. मन तो तब भी दुखता है, परंतु जो लगातार आप के साथ हो वह आप के जीवन का हिस्सा बन जाता है.

याद आ रहा था, जब गली की जमीनको पक्की सड़क में तबदील किया जा रहा था, तो

मैं खड़ी हुई पेड़ के आसपास की जगह को

वैसा ही बनाए रखने के लिए बोल रही थी.

लगा, इसे भी सांस लेने के लिए कुछ जगह तो चाहिए. क्यों हम पेड़ों को सीमेंट के पिंजड़ों में कैद करना चाहते हैं? हमें जीवनदान देने वाले पेड़ों को क्या हम इतनी जमीन भी नहीं दे सकते? बड़ेबुजुर्गों ने भी पेड़ लगाने के महत्त्व को समझाया है.

बचपन में मैं अकसर अपनी दादी से कहती कि यह आम का पेड़, जो आप ने लगाया है, इस के आम आप को तो खाने को मिलेंगे नहीं.

यह सुन कर दादी हंस कर कहतीं कि यह तो मैं तुम सब बच्चों के लिए लगा रही हूं. उस समय मुझे यह बात समझ में नहीं आती थी, पर अब स्वार्थ से ऊपर उठ कर हमारे पूर्वजों की परमार्थ भावना समझ आती हैं. क्यों न हम भी कुछ ऐसी ही भावनाएं अगली पीढ़ी को विरासत के रूप में दे जाएं.

मैं ने पेड़ के आसपास काफी बड़ी क्यारी बनवा दी थी. दीवाली के दिनों में उस पर भी नया

लाल रंग किया जाता तो पेड़ और भी खिल जाता.

पर आज मन व्यथित हो रहा था. पुन: बाहर गई. कुछ देर में ही संबंधित विभाग के कर्मचारी भी आ गए. वे सब काम में जुट गए. सभी छोटीबड़ी सूखी हुई सारी टहनियां एक ओर पड़ी हुई थीं. मैं ने पास से देखा, पेड़ का पूरा तना उखड़ चुका था. वे उस के तने को एक मोटी रस्सी से खींच कर ले जा रहे थे.

आश्चर्य तो तब हुआ, जब क्यारी के किनारे रखे सारे छोटे गमले सुरक्षित थे. एक भी गमला नहीं टूटा

था. जातेजाते भी नेकी करना नहीं भूला था ‘सप्तपर्णी’. लगा, सच में नेकी कभी धराशायी हो कर जमीन पर नहीं गिर सकती.

मैं उदास खड़ी उन्हें उस यादों के दरफ्त को ले जाते हुए देख रही थी. मेरी आंखों में आंसू थे.

पेड़ का पूरा तना और डालियां वे ले जा चुके थे, पर उस की गहरी जड़ें अभी भी वहीं, उसी जगह हैं. मुझे पूरा यकीन है कि किसी सावन में उस की जड़ें फिर से फूटेंगी, फिर वापस आएगा ‘सप्तपर्णी.’

मेरी मां : आखिर क्या हुआ सुमी के साथ?

लेखक- प्रेमलता यदु
ऑफिस के लिए निकलते वक्त जब भी मोबाइल का रिंग बजता है खीझ सी महसूस होती है ऐसा लगता है जैसे इस छोटे से डिब्बे‌‌ ने सब को छका रखा है सारे फुरसत के क्षण और प्रायवेसी छीन ली है.कभी भी किसी भी वक्त बज उठता है, बड़बड़ाती और ऑफिस के लिए रेडी होती हुई, मैंने फोन रिसीव कर, स्पीकर ऑन कर दिया.मां का फोन था.
“हां मां बोलो”
 “तू कैसी है सुमी”
“मैं अच्छी हुं‌ मां.तुम बताओ तुमने फोन क्यों किया,मैंने तुम से कितनी दफा कहा है इस वक्त ‌फोन मत किया करो,मुझे बीसियों काम होते हैं.”
मेरे ऐसा कहते ही मां झुंझलाती हुई बोली-” हां तो यहां मैं कौन सा खाली बैठी हूं.वो तो तेरी बड़ी भाभी ने आज…..
मैं मां को बीच में ही टोकते हुए बोली- “मां…अब तुम सुबह सुबह बहू पुराण‌ शुरू मत करना.मुझे आज ऑफिस जल्दी पहुंचना है.मेरा आज बहुत important presentation है और उसमें अभी कुछ काम बाकी है. मुझे presentation से पहले उसे complete भी करना है.मैं ऑफिस पहुंच कर समय मिलने पर तुम्हें फोन करती हूं.ओ.के.बाय कह मैंने बिना मां की बात सुने और कुशलता पूछे फोन काट दिया.
कार की चाबी और ऑफिस बैग उठा घर से निकल पड़ी सारे रास्ते कभी मां, कभी ऑफिस और कभी presentation के विषय पर सोचती रही.
मैं ऑफिस तो वक्त पर पहुंच गई लेकिन मेरा मन मां के ही पास रह गया. मैं दो भाईयों की इकलौती बहन और अपने माता-पिता की सब से छोटी और लाड़ली बेटी हूं. मां और पापा का मुझसे विशेष स्नेह है. दोनों भैया और भाभियों की भी चहेती हूं.
हमारे बड़े भैया अनुराग जो एक बैंक में P.O.है और अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ ‌भोपाल के हमारे पैतृक मकान में मां और पापा के साथ ही ‌रहते है.बड़ी भाभी शिखा‌ होम मैनेजर है लेकिन बेचारी कुछ भी मेनेज नही कर सकती सारा मेनेजमेंट मां के हाथों ‌में‌ है, वैसे भाभी स्वभाव की बहुत अच्छी है.घर पर सभी का‌ ध्यान रखती है मां के कहे अनुसार ही सारे काम करती है लेकिन मां और भाभी की कभी बनी ही नही,मां हमेशा उनके‌ कामों में मीनमेख निकालती रहती है.
छोटे भैया अनिमेष एक  IT Company में जरनल मैनेजर है और Bangalore में अपनी पत्नी पूजा के साथ रहते है पूजा भाभी भी working है.दोनों well Settled है.अक्सर छुट्टी और तीज त्यौहार में ही घर आते है.
मां की छोटी भाभी से खूब पटती है कहते हैं ना दूर के ढोल सुहाने होते हैं .वैसे तो मां के ‌लिए सभी बच्चे एक समान होते हैं क्योंकि मां तो मां ही होती है,लेकिन हर मां को अपनी बेटियों से अत्यधिक प्रेम होता है इसलिए मां सब से ज्यादा जान मुझ पर ही छिड़कती हैं. एक दिन बात ना हो तो पूरा घर सर पर उठा लेती है,या यूं समझ लीजिए जब तक वो मुझे घर की एक एक बात की खबर रोज़ नही दे देती उन्हें चैन नही पड़ता.
मां का मुझ से विशेष लगाव है.पापा, मां की ‌बातों पर ध्यान नही देते.भाईयों के पास वक्त नही है और भाभियों से वो अपने दिल की बात कहना नही चाहती,अब बच जाती हूं मैं जिसे वो अपने दिल की हर छोटी-बड़ी बात बता कर अपना जी हल्का करती है‌ फिर चाहे भाभी की बुराई करनी हो या फिर कोई और ‌बात हो. मैं उनकी बातें कभी धैर्य से सुनती हूं और कभी कभी झुंझला भी जाती हूं उन पर.मां भी कभी मेरी बातों का‌ बुरा मान जाती है और कभी नहीं भी मानती. कुछ ऐसा है हम मां बेटी का रिश्ता.
मैंने सोचा जब तक मैं मां से बात नही ‌कर लूंगी मां परेशान रहेगी और अपना गुस्सा पापा और बड़ी भाभी पर निकालती रहेगी और मैं भी उनसे बगैर बात किये अपना presentation free mind  से नही दे पाऊंगी.फिर अभी थोड़ा वक्त भी था presentation में,इसलिए मैं ऑफिस boy को कौफी के लिए बोल मां को उनके नम्बर पर call लगाने ‌लगी.रिंग बजता रहा लेकिन मां ने फोन नही उठाया.फिर मैंने दोबारा फोन भाभी के नम्बर पर लगाया.भाभी से औपचारिक बातचीत के बाद मैंने भाभी से पूछा-” मां ‌कहां है”.
भाभी थोड़ी शिकायती लहजे में बोली-“दीदी, अम्मां जी आंगन में है ना जाने क्या हुआ है अब तक पापा जी को क‌ई बार सारा दिन केवल पेपर पढ़ते रहने का उलाहना दे चुकी है और मेरे मना करने के बावजूद खुद ही चांवल के पापड़ बनाने में लगी हुई है.
मैं समझ गई थी बात क्या है मैंने भाभी से कहा-” आप चिंता मत करो.मां से मेरी बात करा दो”.
मां फोन पर आते ही बोली-” देख सुमी मेरे पास अभी बहुत काम है. मैं घर पर खाली नहीं बैठी हूं  जल्दी बोल क्या बात है.”
“हां मां मैं जानती हूं तुम्हारे पास बहुत काम है. अभी presentation में थोड़ा वक्त है और उस समय तुम से बात नहीं हो पाई ना इसलिए फोन किया है.”
मेरा बस इतना कहना था कि मां की आवाज़ में खनक आ गई और मुझसे कहने लगी-“सुमी मैं तुझ से सुबह कह रही थी ना‌ कि आज तेरी भाभी ने…..”
 “क्या किया भाभी ने?”
“अरे कुछ नहीं किया उसने, ‌तुझे तो बस यही लगता है कि तेरी मां तेरी भौजाईयों की  शिकायत करने के लिए ही तुझे फोन करती है”
“अच्छा… अच्छा… I am sorry अब बताओ क्या बात है”.
अरे आज तेरी बड़ी भाभी मलाई कोफ्ता बनाई है. मैंने उससे कहा थोड़ी ज्यादा बना लेना.राजीव को भी पसंद हैं ना इसलिए”.
राजीव, मेरे पति, जिनका मान मेरी मां के लिए सर्वोपरि है.राजीव के आगे घर का‌ हर सदस्य नगण्य है .राजीव रेवेन्यू डिपार्टमेंट में अधिकारी है.हम दोनों पति-पत्नी यहां इसी शहर भोपाल में रहते हैं वैसे तो ‌मेरा ससुराल रतलाम है लेकिन हम दोनों की नौकरी इसी शहर में होने की वजह से हम यहीं रहते है.एक ही शहर में मायका होने के कारण मुझे कभी मायके की कमी महसूस नहीं हुई.
मां ने आगे कहा-” तुम एक काम करना  लंच ब्रेक में घर आ जाना और राजीव को भी आने का कह देना हम साथ लंच करेंगें.
“बस यही कहने को तुम मुझे फोन कर रही थी.”
“नही अरे सुमी तू सुन ना… मेरी बात, आज जैसे ही मैंने शिखा से मलाई कोफ़्ता बनाने को कहा तो उसका मुंह गुब्बारे की तरह फूल गया, और जब मैंने तेरे पापा से यह सब बात बताई तो वे कहने लगे ” तुम बहू को अपने हिसाब से बनाने दिया करो.तुम क्यों फरमाइशें करती रहती हो.अब तू ही बता क्या मैं घर में किसी से कुछ कह भी नही सकती”?.
“ऐसा कुछ नहीं है मां बस भाभी को घर पर बहुत काम होते है, इसलिए पापा ने आप से कहा होगा”.
“बस बस अब तू भी अपने पापा की भाषा बोलने लगी.मेरी बात तो किसी को सुनना ही नहीं है.अच्छा सब छोड़ तू ये बता लंच टाइम में आएगी ना?”
“नहीं मां possible नहीं है presentation खत्म होते होते समय लग जाएगा, लेकिन शाम को पक्का मैं और राजीव घर आते है.रात का खाना‌ हम सबके साथ ही खाएंगे‌.आप अपना‌ ध्यान रखना ‌और पापा से ज्यादा कुछ मत कहना, तुम बोलती ज्यादा हो, इतना कह मैंने फोन रख‌ दिया.
मैं सोचने लगी.भरा पूरा परिवार है.घर पर किसी चीज की कमी नहीं लेकिन मां और बड़ी भाभी की न जाने क्यों नहीं पटती.मां को सास होने का रौब जताना होता है यदि कभी मां भूल भी जाए कि वो सास है तो आस पड़ोस के लोग उन्हें भूलने नही देते कि वो सास है और उनका काम बहू के काम में मीनमेख निकालना है.
 “मैडम आप की कौफी “.से मेरी तन्द्रा भंग हुई.कौफी पीने के बाद मैं Presentation के लिए चली गई.
शाम को जब राजीव के संग घर पहुंची तो बड़े भैया और पापा हाल में न्यूज़ देख रहे थे.राजीव भी उनके साथ हो लिए.
 मुझे आया देख बंटी और चिंकी बुआ…. कहते हुए मुझसे लिपट ग‌ए.मैंने उन्हें अपने बैग से चिप्स और चाकलेट निकाल कर दिया,जिसे लेकर वो अपनी पढ़ाई करने लगे, और मैं सीधे किचन की ओर मुड़ गई.
किचन में मां और भाभी खाना बनाने में लगी हुई थी.मैं भाभी के कांधे पर हाथ रखती हूई बोली-” भाभी ये इतना सबकुछ क्यों बना रही हो, क्या जरूरत है इतने तामझाम की, भाभी कुछ कहती इससे पहले मां कहने लगी-“अरे वाह क्यों जरूरत नहीं है.क्या शिखा दामाद जी को दोपहर ‌का मलाई कोफ्ता ही खिलाएगी ? एक ही तो ननदोई है शिखा के, उनकी भी खातिरदारी नहीं करेगी ‌तो किसकी करेगी और कौन सा तुम लोग रोज़ रोज़ आते हो. मां के ऐसा कहने पर जब मैंने भाभी की ओर देखा तो भाभी मुस्कराने लगी जैसे आंखों ही आंखों में कह रही हो हां दीदी आप लोग कहां रोज़ आते हैं हर दो चार दिन बाद आते हैं.
सहसा ज़ोर से बड़े भैया की मां को पुकारने की आवाज आई .हम तीनों किचन से हाल की ओर दौडे.अचानक पापा की तबियत खराब हो गई थी.उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी,छाती में तेज़ दर्द उठा‌ और पापा बेहोश हो गए.हम पापा को लेकर तुरंत अस्पताल पहुंचे.जहां इमरजेंसी वार्ड में उनका ई सी जी,टी एम टी टेस्ट किया गया और फिर पापा को admit कर लिया गया.
भाभी ने बताया आज सुबह से ही पापा की छाती में हल्का हल्का जलन और दर्द था.शाम को बड़े भैया पापा‌ को check up के लिए ले जाना चाहते थे, लेकिन पापा यह कह कर टाल गए कि गैस, एसीडिटी है ठीक हो जाएगा.पापा दस दिनों तक हास्पिटल में admit रहे और मां उनके साथ हास्पिटल में ही रही.उसके बावजूद मुझे रोज फोन कर यहां वहां की बातें करती, कभी ‌कभी मैं चिढ़ भी जाती और उनसे कहती- “तुम सारा पंचायती छोड़ो पापा के स्वास्थ्य पर ध्यान दो”. कभी-कभी मैं सोचती मां ऐसे विषम परिस्थिति में भी अपने आपको इतना सहज और मजबूत कैसे रख पाती है.
पापा ये पहली बार एडमिट नही हुए थे. इससे पहले भी पापा कई बार एडमिट हो चुके थे. रिटायरमेंट के बाद पापा अक्सर बीमार ही ‌रहते हैं.पापा डरते थे कहीं उन्हें कुछ हो गया तो मां का क्या होगा.उन्हें लगता था मां और बड़ी भाभी का निभना मुश्किल है.पापा कभी कभी मां की चिंता करते हुए मुझसे कहते-“सुमी अगर मुझे कुछ हो गया तो तू अपनी मां को अपने साथ ले जाना.तेरी बड़ी भाभी तेरी मां को संभाल नही पाएगी और तेरी छोटी भाभी उसे अपने संग कभी ले के नहीं जाएगी”.
पापा की बातें सुन मैं हमेशा पापा से कहती -“आप क्यों बेफिजूल की बातें करते हैं .आप को कुछ नही होगा.ऐसा दिन कभी नही आएगा.
एक दिन अकस्मात ही सुबह सुबह बड़ी भाभी का फोन आया .भाभी रोते हुए बोली- दीदी आप जल्दी हास्पिटल आ जाईए.मां की तबियत खराब हो गई है. हास्पिटल पहुंचने पर मैंने देखा मां निश्चेत अवस्था में पड़ी हुई है.मुझे याद नहीं मैंने कभी मां को इस अवस्था में देखा हो.मैंने मां को  मुस्कुराते, खिलखिलाते, अविरल बोलते और सदा उर्जा से लबरेज ही देखा है.
आज मां को इस हालत में देख मेरी आंखें भर आईं.भाभी ने बताया मां को पैरालिसिस अटैक था.शरीर का बायां हिस्सा काम करना बंद कर चुका था.मां का मुंह टेढ़ा हो गया था.जो हरदम बड़-बड़ करती रहती थी अब बोल नही सकती‌ थी.वो पूरी ‌तरह से शांत हो गई थी. डॉक्टरों ने उन्हें घर ले जाने को कह दिया.हम उन्हें घर ले आए. मैं हर सुबह उनके फोन का इंतजार करती.उनकी बातें सुनना चाहती‌ पर अब यह संभव नही था.दिन बीतते चले गए, कैंलेंडर के पन्नें बदलते रहे,साल‌ दर साल गुजर गए लेकिन ना मां ठीक हूई ,ना दूबारा कुछ बोली और एक दिन मां हम सब को छोड़ कर हमेशा के लिए पंचतत्व में विलीन हो ग‌ई.
जब भी मां को स्मरण करती हूं, मुझे पापा से कही अपनी‌ वो बात याद आने लगती है ‌जो मैं अक्सर पापा से कहती – “पापा वो दिन कभी नहीं आएगा”. सच में अब वो दिन ‌कभी‌ नही आएगा जब मुझे मां को अपने घर ले जाना पड़ेगा.

और रिश्ते टूट गए : निशि की मौसीजी ने उसका कौनसा राज खोल दिया?

ौ‘‘सभी मौसियां राधास्वामी मत को मानने वाली बनी फिरती हैं, अक्ल धेले की नहीं है,’’ निशि, मेरी साली की बेटी के उक्त शब्द पास से गुजरते जब मेरे कानों में पड़े तो मेरे तनबदन में आग लग गई. सर्दी की इस उफनती रात में भी भीतर के कोप के कारण मैं ने स्वयं को अत्यंत उग्र पाया. इस का जवाब दिया जाना चाहिए. जैसे ही मैं पीछे को मुड़ा, मेरी पत्नी सरला मेरे मुड़ने का आशय समझ गई. सरला ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, इस समय नहीं. इस समय हम किसी के समारोह में आए हुए हैं, मैं नहीं चाहती, कुछ अप्रिय हो.’’

‘‘एक बच्ची हो कर उसे इस बात का खयाल नहीं है कि बड़ों से कैसे बात की जाती है या की जानी चाहिए, तो उसे इस बात का प्रत्युत्तर मिलना चाहिए. इस को उस की स्थिति का संज्ञान करवाना आवश्यक है. बस, तुम देखती जाओ.’’

मैं निशि के पास जा कर बैठ गया. उस के सासससुर भी बैठे हुए थे. मैं ने कहा, ‘‘निशि बेटा, क्या कहा तुम ने?’’ उस का ढीठपना तो देखो, उस ने वही बात दोहरा दी. उसे सासससुर का भी लिहाज नहीं रहा.

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मेरे स्वर में तीखापन था.

‘‘देखो न बडे़ मौसा, परसों मेरे फूफा की मृत्यु उपरांत उठाला था. कोई मौसी नहीं आई,’’ वह हमेशा मुझे बड़े मौसा कह कर बुलाती थी.

‘‘क्यों, तुम ने अपने मम्मीपापा से नहीं पूछा?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘कुछ भी कहने से पहले तुम्हें उन से पूछना चाहिए था. नहीं पूछा तो कोई बात नहीं. वैसे तो तुम बच्ची हो, तुम्हें बड़ों की बातों में नहीं पड़ना चाहिए था. अब तुम पड़ ही गई हो तो तुम्हें हमारे मन के भीतर के तीखेपन का भी अनुभव करना पड़ेगा,’’ मैं अल्प समय के लिए रुका, फिर कहा, ‘‘तुम्हें अपने मायके के परिवार के बुजुर्गों की कहां तक याद है?’’

‘‘मुझे याद है जब पापा की चाची की मृत्यु हुई थीं.’’

‘‘तो फिर तुम्हें यह भी याद होगा कि हम सब यानी तुम्हारी मौसियां, मौसा तुम्हारे पापा की चाची, चाचा और मां यानी तुम्हारी दादी की मृत्यु पर कब हाजिर नहीं हुए? यहां तक कि आजादपुर मंडी के पास डीडीए फ्लैट में, मुझे नहीं पता वे तुम्हारे पापा के क्या लगते थे, हम वहां भी हाजिर थे. नोएडा में भी पता नहीं किस की मृत्यु हुई थी, हम पूछपूछ कर वहां भी हाजिर हुए थे. इतनी दूर फरीदाबाद से इन स्थानों पर जाना कितना मुश्किल होता है, तुम जैसी लड़की को इस बात का अनुभव हो ही नहीं सकता.’’

मैं ने अपने जज्बातों को काबू में किया और फिर बोला, ‘‘पिछले वर्ष मेरी मां की मृत्यु हुई थी. अपने भाई संग हरिद्वार में उन के फूल प्रवाहित करने के बाद जब घर लौटा तो सभी जाने कहांकहां से अफसोस करने आए थे. अपने पापा से पूछना, वे आए थे? अरे, आना तो दूर अफसोस का टैलीफोन तक नहीं किया.’’

‘‘मुझे याद है, उन दिनों पापा के घुटनों में दर्द था,’’ निशि ने सफाई देनी चाही.

‘‘सब बकवास है. टैलीफोन करने में घुटनों में दर्द होता है? उस के 2 रोज बाद तुम्हारे मामा ससुर की मृत्यु हुई थी. वहां 6 घंटे का सफर कर के श्रीगंगानगर अफसोस प्रकट करने गए थे, तब उन के घुटनों में दर्द नहीं हुआ? तब ये तुम्हारे फूफाजी भी जीवित थे. क्या उन का मेरी मां की मृत्यु पर अफसोस करना नहीं बनता था? तब वे कहां गए थे? तुम्हारे मम्मीपापा ने उन को बताया ही नहीं होगा, नहीं तो वे तुम्हारी तरह, तुम्हारे मम्मीपापा की तरह असभ्य नहीं हैं. मैं उन को तुम्हारे पापा की शादी के पहले से जानता हूं.

‘‘और जिन मौसियों के लिए तुम इस प्रकार के असभ्य शब्दों का प्रयोग कर रही हो उन्होंने भी तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है. वह सब तुम भूल गईं? याद करो, तुम्हारी पंजाबी बाग वाली मौसी और मौसा, जिन को आज तुम नमस्ते करना भी गंवारा नहीं समझतीं, तुम्हारे ब्याह की सारी मार्केटिंग उन्होंने ही करवाई. घर पर बुला कर न केवल तुम्हें बल्कि तुम्हारे ससुराल वालों को खाना खिलाया, शगुन भी दिए. न केवल इस मौसी ने बल्कि सभी मौसियों ने ऐसा ही किया. उन के बहूबेटों को किस ने खाना खिलाया अथवा शगुन दिए? तुम्हारी बेटी होने पर पंजाबी बाग वाली मौसी ने 9-9 किलो की देसी घी की पंजीरी अपने पल्ले से बना कर दी. तुम इतनी जल्दी भूल गईं. एहसानफरामोश कहीं की…अपने पापा की तरह.’’

‘‘आप को मेरे और मेरे पापा के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करने का कोई अधिकार नहीं है.’’

‘‘और तुम्हें ‘धेले की अक्ल नहीं है’ कहने का अधिकार है? मैं बताता हूं, तुम्हारे पापा एहसानफरामोश कैसे हैं. तुम्हें याद होगा, तुम्हारे पापा के दिल का औपरेशन हो रहा था. नए वाल्व पड़ने थे.’’

‘‘जी, याद है.’’

‘‘औपरेशन के लिए 9 यूनिट खून चाहिए था. वह पूरा नहीं हो रहा था. तुम्हारे इसी पंजाबी बाग वाले मौसा ने और मैं ने अपना खून दे कर उस कमी को पूरा किया था. याद आया?’’

‘‘जी.’’

‘‘आज तक अनेक विसंगतियां होने के बावजूद हम मूक रहे तो केवल इसलिए कि हम खूनदान जैसे पवित्र कार्य को लज्जित नहीं करना चाहते थे. लेकिन तुम्हारे और तुम्हारे पापा के खराब व्यवहार ने हमें मजबूर कर दिया. यह नहीं है कि तुम्हारी मम्मी इस तरह के व्यवहार से अछूती हैं. जानेअनजाने में वे भी तुम्हारे पापा संग खड़ी हैं. न खड़ी हों तो मार खाएं, क्यों? यह तुम बड़ी अच्छी तरह से जानती हो.’’

निशि ने मेरी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया. शायद उस के पास कोई उत्तर था ही नहीं. परंतु मैं प्रहार करने से नहीं चूका, ‘‘अरे छोड़ो, तुम्हारे पापा को हमारे दुख से दुख तो क्या हमारी खुशी से भी कोई खुशी नहीं थी. तुम्हें याद होगा, हमारी 25वीं मैरिज ऐनीवर्सरी में तुम किस प्रकार अंतिम क्षणों में पहुंचीं. तुम्हारे पापा फिर भी न आए जबकि तुम्हें पता है, तुम्हारे पापा को स्वयं मैं ने कितने प्यार और सम्मान से बुलाया था.

‘‘तुम्हारी मम्मी ने न आने के लिए कितना घटिया बहाना बनाया था, शायद तुम्हें याद न हो? वहां चोरियां हो रही हैं, इसलिए वे नहीं आए. क्या तुम अपने समारोहों में इस प्रकार के बहाने स्वीकार कर लेतीं? सत्य बात तो यह है, वे हमारी खुशी में कभी शामिल ही नहीं होना चाहते थे. कभी हुए भी तो मन से नहीं. यह तुम भी जानती हो और हम भी. यह बात अलग है, तुम इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार न कर सको.

‘‘और मेरे बेटे सोमू की शादी में क्या हुआ? मौसा की मिलनी थी. बड़े मौसा होने के नाते मिलनी का अधिकार तुम्हारे पापा को था. कुछ समय पहले वे वहीं खड़े थे. हम ने आवाजें भी दीं परंतु वे जानबूझ कर वहां से खिसक गए. मिलनी तुम्हारे पंजाबी बाग वाले मौसा को करनी पड़ी. और उन की शराफत देखो, यह नहीं कि जो पैसे और कंबल मिला अपने पास रख लें बल्कि उस सब को तुम्हारे मम्मीपापा को दे दिया क्योंकि यह उन्हीं का अधिकार समझा गया. तुम्हारी शादी में मेरे साथ क्या हुआ? मिलनी के लिए 4 बार पगड़ी पहनाई गई, 4 बार उतारी गई और मिलनी फिर भी न करवाई गई. हम ने तो मिलनी करवाने के लिए नहीं कहा था. इस प्रकार बेइज्जत करने का अधिकार तुम्हारे मम्मीपापा को किस ने दिया?  इस प्रश्न का उत्तर है तुम्हारे मायके वालों के पास?

‘‘कालांत में सोचा था, तुम सब इस योग्य ही नहीं जिन से किसी प्रकार का संबंध रखा जाए, लेकिन तुम्हारे पापा तो अपनी हरकतों से बाज नहीं आए. क्या तुम अथवा तुम्हारी मम्मी इस के प्रति नहीं जानतीं? जानती हैं परंतु इसे दूसरों के समक्ष स्वीकार नहीं करना चाहतीं.

‘‘उसी शादी में तुम्हारे पापा ने कहा था कि मैं ने खाना ही नहीं खाया. जब वीडियो रील बन कर आई तो उस में प्लेट भर कर खाना खाते देखा गया. अपने पापा की इस हरकत को तुम किस संज्ञा का नाम दोगी? यह नहीं है कि तुम्हें, तुम्हारी मम्मी और तुम्हारे भाई को इस के प्रति पता नहीं है. बस, उक्त कारणों से तुम सब स्पष्ट स्वीकार नहीं कर पाते.’’

निशि ने फिर भी मेरी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया या मुझे यह समझना चाहिए कि वह मेरे समक्ष निरुत्तर हो गई है परंतु मेरी बात अभी समाप्त नहीं हुई थी, ‘‘तुम्हारे भाई ने कार ली, हम सब ने बधाई दी. हमारे बच्चों ने भी कारें लीं, हमें किस ने बधाई दी? यह तीखा प्रश्न आज भी मेरे समक्ष मुंहबाए खड़ा है.

‘‘पिछले दिनों मैं और सरला अमृतसर में थे, तुम्हारे नानानानी के पास. तभी तुम्हारी मम्मी का टैलीफोन आया था कि कार लेने की इन को बधाई दे दो और कहना कि वे ब्यास गए हुए थे इसलिए बधाई देने में देर हो गई. बधाई दे दी गई. सभी तो चुप रहे पर तुम्हारी मामी बोली थीं कि जब कभी निशा दीदी यानी तुम्हारी मम्मी उन के सामने होगी तो वे पूछेंगी कि उन के भाई ने जाने कैसेकैसे अपना घर बनाया, उस को बधाई किस ने दी? मैं जानता हूं, उस समय इस प्रश्न का उत्तर न तुम्हारी मम्मी के पास होगा और न तुम्हारे पापा के पास. मुझे आश्चर्य नहीं होगा, उस समय इस प्रश्न से बचने के लिए तुम्हारे पापा जानबूझ कर कहीं खिसक जाएं जैसा वे अकसर करते हैं.

‘‘मामू के गृहप्रवेश में तुम्हारे भाई के जाने तक बात नहीं बनती थी बल्कि तुम्हारे मम्मीपापा का टैलीफोन पर बधाई देना भी बनता था. पूछना, बधाई दी थी? क्या औरों से ऐसी आशा करना मूर्खता नहीं है जो वे स्वयं नहीं कर सकते?

‘‘तुम्हें याद होगा निशि, अपने पापा की एक और बेमानी हरकत का? एक मौसी की बेटी की शादी में वे नहीं आए थे. जब तुम्हारी शादी हुई, सब के समझाने पर तुम्हारी वह मौसी न केवल स्वयं उपस्थित हुईं बल्कि अपने परिवार को ले कर आईं, यह सोच कर कि यदि एक व्यक्ति गलत है तो उसे खुद को गलत नहीं होना है. जानती हो…तुम भी तो वहीं थीं, प्रसंग उठने पर किस प्रकार तुम्हारे पापा ने उन की बेइज्जती करने में एक क्षण भी नहीं लगाया था, ‘हम ने कौन सा बुलाया है.’ उस समय मेरे मन में बड़े तीखे रूप से आया था कि तुम सब ऐसे हो ही नहीं जिन से किसी प्रकार का संबंध रखा जाए.

‘‘तुम्हें अफसोस होगा कि कल तुम्हारी मैरिज ऐनीवर्सरी थी और मौसियों ने तुम्हें बधाई नहीं दी. तुम मौसियों को ‘धेले की अक्ल नहीं है’ कहती हो और तुम्हारा भाई उन के राज खोलने की बात करता है. क्या तुम समझती हो ऐसी स्थिति में तुम से, तुम्हारे भाई से, तुम्हारे मम्मीपापा से किसी प्रकार के संबंध रखे जा सकते हैं? बल्कि यह कहने की आवश्यकता है कि हमें माफ करो, भविष्य में तुम्हें हमारे दुखसुख से कुछ लेनादेना नहीं है और न ही हमें. मुझे एक कहावत स्मरण हो रही है कि सांप के बच्चे सपोलिए.’’

मैं मूक हो गया था. शायद मेरे पास और कुछ कहने को शेष नहीं था. निशि भी मूक थी. उस का मुंह खुला का खुला रह गया था. अपने मायके वालों के ऐक्सपोज हो जाने से वह अवाक् थी. निशि के सासससुर भी मूक और भावशून्य बैठे थे. शायद वे भी अपनी बहू की बदतमीजी और बदजबानी के प्रति जानते थे. मुझे नहीं लगता है कि निकट भविष्य में कोई इन टूटते रिश्तों को बचा पाएगा.

दिव्या आर्यन : जब दो अनजानी राहों में मिले धोखा खा चुके हमराही

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘पता नहीं बस और गाड़ियों में रात में भी एसी क्यों चलाया जाता है, माना कि गरमी से नज़ात पाने के लिए एसी का चलाया जाना ज़रूरी है पर तब क्यों जब ज्यादा गरमी न हो,’ बस की खिड़की से बाहर देखती हुई दिव्या सोच रही थी. मन नहीं माना तो उस ने खिड़की को ज़रा सा खिसका भर दिया, एक हवा का झोंका आया और दिव्या की ज़ुल्फों से अठखेलियाँ करते हुए गुज़र गया.

कोई टोक न दे, इसलिए धीरे से खिड़की को वापस बंद कर दिया दिव्या ने. दिव्या जो आज अपने कसबे लालपुर से शहर को जा रही थी. वहां उसे कुछ दिन रुकना था. उस ने शहर के एक होटल में एक सिंगल रूम की बुकिंग पहले से ही करा रखी थी.

चर्रचर्र की आवाज़ के साथ बस रुकी. दिव्या ने बाहर की ओर देखा तो पाया कि पुलिसचेक है. शायद स्वतंत्रता दिवस करीब है, इसीलिए पुलिस वाले हर बस को रोक कर गहन तलाशी करते हैं. हरेक व्यक्ति की तलाशी और आईडी चेक होती है. पुलिस की चेकिंग के बाद बस आगे बढ़ी.

अब भी आधा सफर बाकी था. ‘अब तो लगता है मुझे पहुंचने में काफी रात हो जाएगी. तब, बसस्टैंड से होटल तक जाने में परेशानी होगी,’ दिव्या सोच रही थी.

ऐसा हुआ भी.

बस को शहर पहुंचने में काफी रात हो गई. दिव्या ने अपना सामान उठाया और किसी रिकशे या कैब वाले को देखने लगी. कई औटो रिकशे वाले खड़े थे पर उन में से कुछ ने होटल तक जाने से मना कर दिया तो कुछ औटो में ही सो रहे थे जबकि कुछ में ड्राइवर थे ही नहीं.

परेशान हो उठी दिव्या, ‘अगर कोई सवारी नहीं मिली तो मैं होटल कैसे जाऊंगी और बाकी की रात यहां कैसे बिताऊंगी!’

तभी उस की नज़र कोने में खड़े एक औटो पर पड़ी. दिव्या उस की तरफ गई तो देखा कि ड्राइवर उस के अंदर बैठबैठे हुआ सो रहा है.

“ए औटो वाले, खाली हो, होटल रीगल तक चलोगे?” दिव्या का स्वर पता नहीं क्यों तेज़ हो गया था. उस की आवाज़ सुन कर वह उठ गया और इधरउधर देखने लगा.

“ज…जी, वह आखिरी बस आ गई क्या? मैं ज़रा सो गया था. हां, बताइए मैडम, कहां जाना है?”

“होटल रीगल जाना है मुझे,” दिव्या बोली थी.

“हां जी, बैठिए,” कह कर उस ने औटो स्टार्ट कर के आगे बढ़ा दिया.

“होटल रीगल यहां से कितनी दूर होगा?” दिव्या ने पूछा

“वह मैडम, कुछ नहीं तो 16 किलोमीटर तो पड़ ही जाएगा. बात ऐसी है न मैडम, कि यह बसस्टैंड शहर के काफी बाहर और सुनसान जगह पर बनवा दिया गया है, इसीलिए यहां से हर चीज़ दूर पड़ती है. पर, आप घबराइए मत, हम अभी पहुंचाए देते हैं,” औटो वाले ने जवाब दिया.

औटो वाले का चेहरा तो नहीं दिख रहा था पर उस के कान में एक चेन में पिरोया हुआ कोई बुंदा पहना हुआ था, जो बारबार बाहर की चमक पड़ने पर रोशनी बिखेर देता था. उस चमक से बारबार दिव्या का ध्यान औटो वाले के कानों पर चला जाता.

अचानक से औटो के अंदर रोशनी सी भर गई. औटो वाले और दिव्या दोनों का ध्यान उस रोशनी पर गया. 4 लड़के थे जो अपनी बाइक की हेडलाइट को जानबूझ कर औटो के अंदर तक पंहुचा रहे थे .

इन को भी कहीं जाना होगा, ऐसा सोच कर दिव्या ने अपना ध्यान वहां से हटा लिया पर औटो वाले की आंखें लगातार पीछे आने वाली बाइकों पर थीं और वह उन लोगों की नीयत भांप चुका था.

अचानक से औटो वाले ने अपनी गति बढ़ा दी जितनी बढ़ा सकता था और औटो को मुख्य सड़क से हटा कर किसी और सड़क पर चलाने लगा.

“क्या हुआ, यह तुम इतनी तेज़ क्यों चला रहे हो और औटो को किस दिशा में ले जा रहे हो? बात क्या है आखिर?” दिव्या ने कई सवाल दाग दिए.

“जी, कुछ नहीं मैडम, आप डरिए नहीं. दरअसल, इस शहर में कुछ भेड़िए इंसानी भेष में रोज़ रात को लड़कियों का मांस नोचने के लिए निकल पड़ते हैं और आज इन लोगों ने आप को अकेले देख लिया है. पर आप घबराइए नहीं, मैं इन के मंसूबे कामयाब नहीं होने दूंगा,” आंखों को रास्ते और साइड मिरर पर जमाए हुए औटो वाला बोल रहा था.

पीछे आती हुई बाइकों ने अपनी गति और बढ़ा दी और वे औटो के बराबर में आने लगे .

औटो वाले ने अचानक औटो को एक दिशा में लहरा दिया और औटो के लहराने से बाइक वाला संभल नहीं पाया और बाइक कंट्रोल से बाहर हो गई. और वह लहराता हुआ गिर गया.

अपने साथी को गिरा देख कर दूसरा गुस्से में भर गया और बाइक चलाते हुए अंदर बैठी दिव्या के बराबर हाथ पहुंचाया. तुरंत ही दिव्या ने अपने साथ में लाए हुए लेडीज़ छाते का एक ज़ोरदार वार उस के हेलमेट पर कर दिया. इस अप्रत्याशित वार से वह भी बाइक समेत गिर गया. अपने 2 साथियों के चोटिल होने के बाद बाकी के दोनों सवारों का हौसला टूट गया उन दोनों ने पीछे आना छोड़ कर अपनी बाइकों को मोड़ लिया.

उन गुंडों से पीछा छुड़ाने के चक्कर में औटो मुख्य सड़क से भटक कर पास में छोटी सड़क पर चलने लगा था और औटोवाला ड्राइवर बगैर इस बात का ध्यान करे औटो भगाता जा रहा था. और अब जब उसे इस बात का भान हुआ तब तक औटो शहर के किसी दूसरे हिस्से में आ गया था. वहां चारों और घुप्प अंधेरा था. बस, जितनी दूर औटो की रोशनी जाती उतना ही रास्ता दिखाई दे रहा था.

औटो चला जा रहा था. तभी अचानक औटो से खटाक की आवाज़ आई और औटो रुक गया. औटो ड्राइवर को जितनी तकनीक मालूम थी वह सबकुछ अपना लिया. पर कुछ न हो सका .

“मैडम, अफ़सोस की बात है, हम शहर के किसी बाहरी हिस्से में आ गए हैं और वापसी का कोई उपाय नहीं है. अब हमें रात यही कहीं काटनी होगी.”

“क्या मतलब, यहां कहां और कैसे?”

“अब क्या करें मैडम, मजबूरी है,” औटोवाला युवक बोला, फिर कहने लगा, “वह सामने आसमान में ऊंचाई पर एक लाल बल्ब चमक रहा है, वहां चलते हैं. ज़रूर वहां हमे सिर छिपाने लायक जगह मिल जाएगी.” अपनी उंगली दिखाते हुए उस ने कहा और एक झटके से दिव्या का बैग उठा लिया और तेज़ी से चल पड़ा.

उस का अंदाज़ा सही था. यह एक निर्माणाधीन बहुमंज़िली इमारत थी, जिस के एक हिस्से में कुछ मज़दूर सो रहे थे और बाकी की इमारत खाली थी. दोनों चलते हुए ऊपर वाले फ्लोर पर पहुंचे और एक कोने में सामान रख दिया.

यह सब दिव्या को बड़ा अजीब लग रहा था और वह यह भी सोच रही थी, एक अजनबी के साथ वह इतनी देर से है, फिर भी उसे कोई असुरक्षा का भाव क्यों नहीं आ रहा है?

“इधर आ जाइए, हवा अच्छी आ रही है,” युवक ने बालकनी में आवाज़ देते हुए कहा.

“वैसे, तुम्हारा नाम क्या है?” अचानक से दिव्या ने पूछा.

“ज जी, मेरा नाम आर्यन है,” युवक ने थोड़ा झिझकते हुए उत्तर दिया.

” भाई वाह, क्या नाम है, वैरी गुड़,” दिव्या ने अपने पर्स में रखे हुए बिस्कुट निकाल कर आर्यन की ओर बढ़ाते हुए कहा.

“जी मैडम, बात ऐसी है कि मेरी मां शाहरुख खान की बहुत बड़ी फैन थी और जब ‘मोहब्बतें’ फिल्म रिलीज़ हुई न, तब मैं उस के पेट में था और तभी उस ने सोच लिया था कि अगर बेटा पैदा हुआ तो उस का नाम आर्यन रखेगी.”

आर्यन की सरल बातें सुन कर बिना मुसकराए न रह सकी दिव्या. पानी पीते हुए घड़ी पर निगाह डाली तो अभी रात का 2 बज रहा था. अभी तो पूरी रात यहीं काटनी है, इस गरज से दिव्या ने बातचीत जारी रखी.

“दिखने में तो खूबसूरत लगते हो और पढ़े लिखे भी. फिर, यह औटो चलाने की जगह कोई नौकरी क्यों नहीं करते?” दिव्या ने पूछा.

“मैडम, मैं ने एमए किया है वह भी इंग्लिश में. पर आजकल इस पढ़ाई से कुछ नहीं होता. या तो बहुत बड़ी डिग्री हो या फिर किसी की सिफारिश. और अपने पास दोनों ही नहीं. मरता क्या न करता, इसलिए औटो लाने लगा.

“ऊं…मोहब्बतें… तो कुछ अपनी मोहब्बत के बारे में भी बताओ. किसी लड़की से प्यारव्यार भी हुआ है या फिर…?” दिव्या ने पूछा.

उस की इस बात पर पहले तो आर्यन कुछ शरमा सा गया, फिर उस की आंखों में गुस्सा उत्तर आया, बोला, “हां मैडम, मुझे भी प्यार हुआ तो था पर अफ़सोस कि लड़की ने धोखा दे दिया…एक दिन मैं औटो ले कर घर वापस जा रहा था. तभी सड़क के किनारे मैं ने देखा कि एक लड़का पड़ा हुआ है. उस के सिर से खून बह रहा है और भीड़ मोबाइल से वीडियो बना रही है. कोई उस लड़के को अस्पताल ले कर नहीं जा रहा. उस लड़के के साथ एक बदहवास सी लड़की भी थी. मुझे उन दोनों पर दया आई और इंसानियत के नाते मैं ने उन दोनों को अस्पताल पहुंचाया. “अस्पताल में उस लड़के को जब खून की ज़रूरत पड़ी तो उस लड़की ने मुझ से मदद मांगी. मुझ से कहा कि वह लड़का उस का भाई है और खून का इंतज़ाम करना है.

“मैं क्या करता, मैं ने अपना खून उस लड़के को दिया और उस की जान बचाई. उस लड़की ने मुझे शुक्रिया कहा और बदले में मेरे को अपने घर का पता व अपना मोबाइल नंबर दिया, साथ ही मेरा नंबर लिया भी. और फिर रोज़ सुबह ही उस लड़की का व्हाट्सऐप्प पर मैसेज आता और चैटिंग भी करती. वह मुझ से पूछती कि वह उसे कैसी लगती है. और इसी तरह की कई दूसरी बातें भी पूछती थी.

“एक दिन मेरे मोबाइल पर उसी लड़की का फोन आया और उस ने मुझे अपने घर पर बुलाया. मैं उस से मिलने के लिए आतुर था, इसलिए तैयार हो कर उस के घर पहुंच गया. पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा था कि वह लड़की मुझ से प्यार करने लगी है, इसलिए मैं उस के लिए एक लाल गुलाब भी ले कर गया था. जब मैं वहां पहुंचा तो उस ने मेरा खूब स्वागत भी किया. उस के घर में सिर्फ उस की मां ही रहती थी पर उस दिन वह कहीं गई हुई थी.

“जब मैं ने उस लड़की से पूछा कि उस का वह भाई कहां है तो उस ने बताया कि वह भी मां के साथ ही कहीं गया है. अकेलापन देख कर मैं ने उस लड़की को शादी का प्रस्ताव दे डाला.

“अभी तक उस लड़की ने मेरा नाम नहीं पूछा था. नाम पूछने पर जब मैं ने उसे अपना नाम आर्यन डिसूजा बताया तब उस ने मेरे ईसाई होने पर सवाल खड़ा कर दिया और निराश हो कर कहने लगी, ‘मुझे भूल जाओ. मैं शादी तुम से नहीं कर सकती क्योंकि मेरी मां और पापा कट्टर हिंदू हैं, वे किसी गैरधर्म वाले लड़के से मेरी शादी नहीं करेंगे.’ हालांकि उस के भाई को खून देने को ले कर किसी को कोई एतराज नहीं था पर शादी की बात आते ही जातिधर्म सब आ गया. बस मैडम, मेरी पहली और आखिरी कहानी यही थी,” यह कह कर आर्यन चुप हो गया.

“काफी अजीब कहानी है तुम्हारे प्यार की. पर है बहुत ही इमोशनल और नई सी. इस पर कोई फिल्म वाला एक फिल्म बना सकता है,” दिव्या ने हंसते हुए कहा.

“हां जी, हो सकता है. पर आप ने कुछ अपने बारे में नहीं बताया, मसलन आप के मांबाप?” आर्यन भी दिव्या की प्रेमकथा ही जानना चाहता था, पर वह बात कहने की हिम्मत नहीं कर पाया, इसलिए मांबाप का नाम ले लिया.

“मेरे बाप एक फार्मा कंपनी में काम करते थे. उन का सेल्स का काम था, तो अकसर घर के बाहर रहते. घर में सबकुछ था, ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं. जब वे घर आते तो हम सब को खूब समय और तोहफे भी देते…” कहतेकहते चुप हो गई दिव्या.

“जी, और आप की मां?”

“मां, अब उस के बारे में क्या बताऊं. उस का पेट हर तरह से भरा हुआ था- रुपए से, पैसे से. पर कुछ औरतों को अपने जिस्म की भूख मिटाने के लिए रोज़ एक नया मर्द चाहिए होता है न, कुछ ऐसी ही थी मेरी मां. वह कहीं भी जाती तो अपने लिए गुर्गा तलाश ही लेती और उसे अपना फोन नंबर दे देती. और जब वह आदमी घर तक आ जाता तो मुझे किसी बहाने से घर के बाहर भेज देती और उस आदमी के साथ जिस्मानी ताल्लुकात बनाती.

“धीरेधीरे उस की बेशर्मी इतनी बढ़ गई थी कि वह मेरे सामने ही किसी भी गैरमर्द के साथ प्रेम की अठखेलियां करने लगती. उस की ये हरकतें पापा को पता चलीं, तो उन्होंने तुरंत ही उसे तलाक़ दे दिया और मुझे मां के पास ही छोड़ दिया. तलाक़ के बाद मां को सम्भल जाना चाहिए था, पर वह और भी निरंकुश हो गई. “अब तो आदमी आते और घर पर ही पड़े रहते, बल्कि आदमी लोग शिफ्टों में आने लगे थे और मेरी मां जीभर सेक्स का मज़ा लेती थी. मां की हरकतें देख कर मैं ने अपने घर की छत पर जा कर आत्महत्या करने की कोशिश की, पर तभी मेरे पड़ोस में रहने वाले लड़के ने अपनी जान पर खेलते हुए मेरी जान बचाई.

“मुझे किसी का सहारा चाहिए था. मैं उस लड़के के कंधे पर सिर रख कर खूब रोई. मैं सिसकियों में बंध सी गई थी.

उस लड़के ने मुझे ऐसे वक्त में सहारा दिया कि मुझे उस से प्यार हो जाना स्वाभाविक ही था. प्यार तो उस को भी मुझ से हो गया था पर हमारी शादी के बीच मेरी मां का दुष्चरित्र आ गया और उस लड़के ने मुझ से साफ कह दिया कि उस के मांबाप किसी ऐसी लड़की से उस की शादी नहीं कराना चाहते जिस की तलाकशुदा मां कई मर्दों से सम्बन्ध रखती हो,” इतना कह कर चुप हो गई थी दिव्या.

दोनों चुप थे. रात का सन्नाटा भी बखूबी उन का साथ दे रहा था. हवा आआ कर अब भी कभीकभी दिव्या की ज़ुल्फों को उड़ा दे रही थी, जिन्हें वह परेशान हो कर बारबार संभालती थी.

“पर मैडम, मेरी कहानी कुछ नई लग सकती है आप को पर आप की कहानी में तो दर्द के अलावा कुछ नहीं है” पास में बैठे हुए आर्यन ने कहा.

प्रतिउत्तर में कोई जवाब नहीं आया, सिर्फ एक छोटी सी सिसकी ही आई जिसे चाह कर भी दिव्या छिपा न सकी थी.

“क्या तुम रो रही हो?” आर्यन ने पूछा.

बिना कोई उत्तर दिए ही आर्यन के सीने से लिपट गई दिव्या…रोती रही…शायद बचपन से ले कर अब तक कोई कंधा नहीं नसीब हुआ था उसे जिस पर वह सिर रख सके. रोती रही वह जब तक उस का मन हलका नहीं हो गया.

और आर्यन ने भी अपनी मज़बूत बांहों का घेरा दिव्या के गिर्द डाल दिया था. और दिव्या के माथे पर चुम्बन अंकित कर दिया. वह खामोश इमारत अब उन के मिलन की गवाह बन रही थी.

सूरज की पहली किरण फूटी पर वे दोनों अब भी किसी लता की तरह एकदूसरे से लिपटे हुए थे.

तभी दूर से एक दुग्ध वाहन आता हुआ दिखाई दिया. दिव्या ने आर्यन का हाथ पकड़ा और आर्यन ने बैग उठाया और दोनों ने दौड़ कर उस वाहन में लिफ्ट मांगी.

“हम कहां जा रहे हैं …और मेरा औटो तो वहीं रह गया मैडम,” आर्यन ने पूछा.

“अगर तुम्हें कोई और काम मिले तो क्या तुम करोगे ?” दिव्या ने आर्यन की आंखों में झांकते हुए कहा.

“हां मैडम, क्यों नहीं करूंगा.”

“पर हो सकता है तुम्हें उम्रभर मेरा साथ देना पड़े?”

“हां, पर तुम्हें साथ देना होगा तो ही करूंगा मैडम.”

“मैडम नहीं, दिव्या नाम है मेरा,” दिव्या ने कहा.

बदले में आर्यन सिर्फ मुसकरा कर रह गया.

शहर आ गया था. दोनों पूछतेपाछते होटल रीगल पहुंच गए.

रिसेप्शन पर जा कर दिव्या ने मैनेजर से कहा, “जी, मैं ने अपने लिए एक सिंगल बैडरूम बुक कराया था. मुझे आने में देर हो गई. पर, अब मुझे सिंगल नहीं बल्कि डबल बैडरूम चाहिए.”

“जी मैडम, किस नाम से रूम बुक था?” मैनेजर ने पूछा.

“मेरा कमरा दिव्या नाम से बुक था. पर अब आप रजिस्टर में मेरे पति आर्यन डिसूजा और दिव्या डिसूजा का नाम लिख सकते हैं,” दिव्या ने आर्यन की तरफ देखते हुए कहा.

प्रिया : क्या था प्रिया के खुशहाल परिवार का सच?

जैसे ही प्लेन के पहियों ने रनवे को छुआ, विकास के दिल की धड़कनें तेज हो गईं. वह 3 साल बाद मां के बेहद जोर देने पर अपनी बहन के विवाह में शामिल होने के लिए इंडिया आया था. इस से पहले भी कितने मौके आए, लेकिन वह काम का बहाना बना कर टालता रहा. लेकिन इस बार वह अपनी बहन नीलू को मना नहीं कर सका. दिल्ली से उसे पानीपत जाना था, वहां फिर उस की याद आएगी. वह सोच रहा था कि यह कैसी मजबूरी है? वह उसे भूल क्यों नहीं जाता? क्यों आखिर क्यों? कोई किसी से इतना प्यार करता है कि अपना वजूद तक भूल जाता है? प्रिया अब किसी और की हो चुकी थी. लेकिन विकास उस की जुदाई सह नहीं पाया था, इसलिए पहले उस ने शहर और फिर एक दिन देश ही छोड़ दिया. भूल जाना चाहता था वह सब कुछ. उस ने खुद को पूरी तरह बिजनैस में लगा दिया था.

पलकों पर नमी सी महसूस हुई तो उस ने इधरउधर देखा. सभी अपनीअपनी सीट पर अपने खयालों में गुम थे. विकास एक गहरी सांस लेते हुए खुद को नौर्मल करने की कोशिश करने लगा.

बाहर आ कर उस ने टैक्सी ली और ड्राइवर को पता समझा कर पिछली सीट पर सिर टिका कर बाहर देखने लगा. दिल्ली की सड़कों पर लगता है जीवन चलता नहीं, बल्कि भागता है. तभी उस का मोबाइल बज उठा. विकास अमर का नाम देख कर मुसकराया और बोला, ‘‘बस, पहुंच ही रहा हूं.’’

विकास जब अपने सभी अरमानों को दफना कर खामोशी से लंदन आया था, तो कुछ ही दिनों बाद उस की मुलाकात अमर से हुई थी, जो अपनी कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के सिलसिले में लंदन आया हुआ था. दोनों के फ्लैट पासपास ही थे. दोनों में दोस्ती हो गई थी. इसी बीच अमर का ऐक्सिडैंट हुआ तो विकास ने दिनरात उस का खयाल रखा, जिस कारण दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त बन गए.

अमर ट्रेनिंग पूरी कर के भारत लौट आया. फिर कुछ दिनों बाद उस का विवाह भी हो गया. अब दोनों फोन पर बातें करते थे. दोस्ती का रिश्ता कायम था. अमर के बारबार कहने पर विकास ने उस से मिलते हुए पानीपत जाने का प्रोग्राम बनाया था. अमर के बारे में सोचते हुए उस ने टैक्सी ड्राइवर को पैसे दे कर डोरबैल बजा दी.

कुछ ही पलों में अमर का मुसकराता चेहरा गेट पर नजर आया, ‘‘सौरी यार, तुम्हें लेने एअरपोर्ट नहीं आ पाया.’’

‘‘कोई बात नहीं, बस अचानक आने का प्रोग्राम बना. मम्मी की जिद थी कि बहन की शादी में जरूर आऊं. एअरपोर्ट से ही मैं ने तुम्हें फोन किया था. सोचा तुम से मिलता जाऊं. सच पूछो तो घर वालों के साथसाथ मुझे तुम्हारी दोस्ती, तुम्हारा प्यार भी खींच लाया है.’’

अमर मुसकराता हुआ विकास के गले लग गया. फिर बातें करतेकरते विकास को ड्राइंगरूम में ले कर आया.

‘‘कैसा लगा घर?’’ अमर ने पूछा.

‘‘बहुत शांति है तुम्हारे घर में, लगता है स्वर्ग में रह रहे हो?’’

‘‘औफकोर्स, लेकिन बस एक ही अप्सरा है इस स्वर्ग में,’’ और फिर दोनों के की हंसी से ड्राइंगरूम गूंज उठा.

थोड़ी देर बाद अमर उठ कर अंदर गया और फिर गोद में एक बच्चे को ले कर आया और बोला, ‘‘विकास, इस से मिलो. सनी है यह.’’

विकास ने उठ कर सनी को गोद में लिया. बच्चा था ही ऐसा कि देख कर उस पर प्यार आ जाए.

‘‘अमर, खाना तैयार है,’’ कहते हुए वह गुलाबी साड़ी में अंदर आई तो विकास को लगा जैसे दिल की धड़कनें अभी बंद हो जाएंगी. और फिर वह अचानक उठ खड़ा हुआ.

‘‘विकास, यह प्रिया है, तुम्हारी भाभी,’’ प्रिया की नजरों में पहचान का कोई भाव नहीं था.

‘‘आप बैठिए न, अमर आप को बहुत याद करते हैं. और आज तो आप के फोन के बाद से आप की ही बातें चल रही हैं.’’

बेवफा, धोखेबाज, विकास मन ही मन उस के अनजान बनने पर कुढ़ कर रह गया.

प्रिया मुसकराते हुए अमर के पास बैठ गई. फिर कहने लगी, ‘‘अमर, खाना मैं ने टेबल पर लगा दिया है, सनी के सोने का टाइम हो रहा है. मैं इसे सुला कर आती हूं,’’ और वह बच्चे को ले कर चली गई.

अमर कहने लगा, ‘‘विकास, इस घर की सारी खूबसूरती और शांति प्रिया से है.’’

उधर विकास सोचने लगा कि इस बेवफा को वह एक पल में गलत साबित कर सकता है. विकास के दिल में प्रिया के खिलाफ नफरत का तूफान उठ रहा था. कुछ जख्म ऐसे होते हैं, जो दिखाई देते हैं, लेकिन दिखाई न देने वाले जख्म ज्यादा तकलीफ देते हैं. बीते दिनों का एहसास एक बार फिर विकास के मन में जाग उठा. यकीनन मेरा डर प्रिया के दिल में उतर चुका होगा, फिर वह बोला, ‘‘अमर, भाभी हमारे साथ खाना नहीं खाएंगी?’’

‘‘तुम शुरू करो, मैं बुलाता हूं,’’ लेकिन अमर के बुलाने से पहले ही वह आ गई और आते ही कहने लगी, ‘‘मैं सनी को सुलाने गई थी, वैसे मुझे भी बड़ी जोर की भूख लगी है,’’ और वह कुरसी खींच कर विकास के सामने बैठ गई.

विकास सोच रहा था यह प्यार भी अजीब चीज है. हम हमेशा उसी चीज से प्यार करते हैं, जो हमारे बस में नहीं होती. सब जानते हुए भी मजबूर हो जाते हैं. प्रिया का चेहरा आज भी खिलते गुलाब जैसा था. आज भी उस पर नजरें टिक नहीं रही थीं. जब तक लड़कियों की शादी नहीं हो जाती तब तक उन्हें लगता है वे अपने प्यार के बिना मर जाएंगी, लेकिन फिर वही लड़कियां अपने पति के प्यार में इतना आगे निकल जाती हैं कि उन्हें अपना अतीत किसी बेवकूफी से कम नहीं लगता.

विकास के मन में आया कि वह उस के हंसतेबसते घर को बरबाद कर दे… अगर वह बेचैन है तो प्रिया को भी कोई हक नहीं है चैन से रहने का…

‘‘विकास, तुम खा कम और सोच ज्यादा रहे हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं,’’ अमर के कहने पर वह चौंका.

‘‘लगता है खाना पसंद नहीं आया आप को,’’ प्रिया कहते हुए मुसकराई.

‘‘नहीं, खाना तो बहुत टेस्टी है.’’

‘‘प्रिया खाना बहुत अच्छा बनाती है,’’ अमर ने कहा तो वह हंस दी, फिर उठते हुए बोली, ‘‘आप लोग बातें करो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

कुछ ही देर में प्रिया ट्रे उठाए आ गई. और बोली, ‘‘आप बता रहे थे आप के दोस्त शाम को चले जाएंगे… कम से कम 1 दिन तो आप को इन्हें रोकना चाहिए…’’

विकास उस की बातों से हैरान रह गया. उस के हिसाब से तो प्रिया उस से पीछा छुड़ाने की कोशिश करती.

‘‘अरे, मैं कहां जाने दूंगा इसे… कम से कम 1 दिन तो इसे यहां ठहरना ही पड़ेगा.’’

फिर विकास ने भी ज्यादा नानुकर नहीं की. वह मन में प्रिया से सारे हिसाब बराबर करने का फैसला कर चुका था. चाय के बाद अमर उसे थोड़ी देर आराम करने के लिए दूसरे रूम में छोड़ गया.

नर्म बैड, ठंडा कमरा, अभी लेट कर आंखें बंद की ही थीं कि प्रिया एक बार फिर सामने आ गई जिसे वर्षों बाद भी मन भुला नहीं पाया था…

उन के पड़ोस में जो नया परिवार आया था वह प्रिया का ही था. जल्द ही विकास की बहन नीलू की प्रिया से दोस्ती हो गई. अकसर उस की प्रिया से मुलाकात हो जाती थी. कभीकभी विकास भी उन दोनों की बातों में शामिल हो जाता था. गपशप के दौरान विकास को लगता कि प्रिया भी उसे पसंद करती है. उस की आंखों के पैगाम प्रिया के दिल तक पहुंच जाते. पता नहीं किस पल, किस वक्त वह इस तिलिस्म में कैद हुआ था, जिसे प्यार कहते हैं. लेकिन उस के दिल की बात कभी जबान तक नहीं आई थी.

घर में बड़ा बेटा होने के कारण विकास मांबाप का दुलारा था. उस ने एमबीए करने के बाद जब बिजनैस शुरू किया तो उस की इच्छा देखते हुए उस की मम्मी ने प्रिया की जन्मपत्री मंगा ली थी. लेकिन जब वह नहीं मिली तो दोनों के परिवार वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. विकास के तनबदन में आग लग गई. वह इस अंधविश्वास के कारण प्रिया से दूर नहीं रह सकता था. अत: उस ने मन की तसल्ली के लिए नीलू को प्रिया के मन का हाल जानने के लिए भेजा. हालांकि अब तक प्रिया से उस की कोई ऐसी गंभीर बात नहीं हुई थी फिर भी अगर वह विकास का साथ दे तो वे कोर्ट मैरिज कर सकते हैं.

लेकिन प्रिया के जवाब से विकास के दिल को बहुत ठेस पहुंची थी. उस का कहना था कि वह विकास की भावनाओं की कद्र करती है. वह उसे पसंद करती है, लेकिन वह विवाह मातापिता की सहमति से ही करेगी. विकास का बुरा हाल था. वह सोचता, वह सब कुछ क्या था? वह उसे देख कर मुसकराना, उस से बातें करना, क्या प्रिया उस की भावनाओं से खेलती रही? विकास को एक पल चैन नहीं आ रहा था. उसे लगा प्रिया ने उस के साथ धोखा किया है. उस के बाद प्रिया से बात नहीं हुई.

धीरेधीरे प्रिया ने घर आना भी छोड़ दिया. अब विकास का यहां दम घुटने लगा था. कुछ दिनों बाद वह लंदन आ गया. कभीकभी उसे लगता कि शायद यह एक दिमागी कमी है, जिसे इश्क कहते हैं. अतीत में खोए विकास को कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

जागने पर नहाने के बाद विकास ने स्वयं को फ्रैश महसूस किया. सारी थकान खत्म हो चुकी थी. दरवाजा खोल कर वह बाहर आया, प्रिया चाय की ट्रे मेज पर रख ही रही थी. हलके मेकअप ने उस के चेहरे को और भी निखार दिया था. विकास की नजर प्रिया के चेहरे पर जम कर रह गई. फिर उस ने पूछा, ‘‘अमर कहां है?’’

‘‘कुछ सामान लेने गए हैं, आते ही होंगे.’’

‘‘तुम चाय में साथ नहीं दोगी?’’ विकास का बेचैन दिल एक बार फिर उस की कंपनी के लिए मचलने लगा.

‘‘आप लीजिए, मैं किचन में बिजी हूं,’’ कह कर वह किचन की तरफ बढ़ गई.

विकास सोचने लगा, आखिर थी न बेवफा औरत, कैसे टिक सकती थी मेरे सामने. मगर मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं प्रिया, यह तुम्हें जल्द ही पता चल जाएगा. और फिर अंदर की ईर्ष्या ने उसे ज्यादा देर बैठने नहीं दिया.

प्रिया किचन में थी और वह किचन के दरवाजे पर खड़ा उसे देख रहा था. समय ने उस के सौंदर्य में कमी के बजाय वृद्धि ही की थी.

‘‘क्या देख रहे हैं आप?’’ प्रिया लगी तो काम में थी, लेकिन ध्यान विकास पर ही था.

विकास बोला, ‘‘तुम जैसी लड़कियां प्यार किसी से करती हैं और शादी किसी और से, कैसे बिताती हैं ऐसा दोहरा जीवन?’’

प्रिया काम करते हुए ही बोली, ‘‘आप मुझ से क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘तुम इतनी अनजान क्यों बन रही हो? तुम मुझे क्यों बेवकूफ बनाती रहीं? क्या मैं इतना पागल नजर आता था?’’

विकास की तेज आवाज पर प्रिया ने हैरान हो कर उस की तरफ देखा, फिर आंच धीमी की और विकास की आंखों में देखती हुई बोली, ‘‘विकास, आप की पहली गलतफहमी यह है कि मैं ने आप को बेवकूफ बनाया. मैं ने आप से कभी थोड़ीबहुत जो बातें कीं वह मेरी गलती थी, लेकिन वे बातें प्यारमुहब्बत की तो थीं नहीं, आप ने अपनेआप को किसी भ्रम में डाल लिया शायद… जब मेरे मम्मीपापा ने आप के रिश्ते को मना किया तो मुझे दुख हुआ था, लेकिन ऐसा नहीं कि मैं खुद को संभाल न सकूं. मैं ने फिर आप के बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘तुम झूठ बोल रही हो. तुम ने नीलू से क्यों कहा था कि मैं तुम्हें अच्छा लगता हूं, लेकिन तुम ने मेरा साथ नहीं दिया… जब मैं पूरी तरह तुम्हारे प्यार में डूब गया तो तुम ने मेरा दिल तोड़ दिया… अमर के जीवन में आने से पहले तुम ने यह खेल न जाने कितनों के साथ खेला होगा.’’

‘‘विकास,’’ प्रिया गुस्से से बोली, ‘‘शायद आप जानते होंगे कि रिश्ते तो हर लड़की के लिए आते हैं. आप का भेजा हुआ प्रपोजल कोई अनोखा नहीं था फर्क सिर्फ इतना था कि मैं आप को जानती थी.

‘‘मैं ने नीलू को बताया था कि आप मुझे बुरे नहीं लगते. आप बुरे थे भी नहीं. एक अच्छे इंसान में जो खूबियां होनी चाहिए वे सब आप में थीं. लेकिन जब मेरे मम्मीपापा की मरजी नहीं थी तो मैं आप का साथ देने की सोच भी नहीं सकती थी. अगर मैं मांबाप की मरजी के खिलाफ आप का साथ देती तो एक भागी हुई लड़की कहलाती और ऐसे प्यार का क्या फायदा जो इज्जत न दे सके? मैं ने आप के बारे में सोचा जरूर था, लेकिन आप से प्यार कभी नहीं किया. आप शायद एकतरफा मेरे लिए अपने दिल में जगह बना चुके थे, इसलिए मेरी शादी को आप ने बेवफाई माना. कुछ समय बाद मेरी अमर के साथ शादी हो गई, यकीन करें मैं ने आप के साथ कोई मजाक नहीं किया था. उस के बाद मैं ने कभी आप के बारे में सोचा भी नहीं. अमर का प्यार मुझे उन के अलावा कुछ और सोचने भी नहीं देता.’’

प्रिया की आवाज में अमर के लिए प्यार भरा हुआ था और विकास सोच रहा था, वह कितना बेवकूफ था अपने एकतरफा प्यार में… अपने जीवन का इतना लंबा समय बरबाद करता रहा.

‘‘क्या सोचने लगे, विकास?’’ किचन की तपिश ने उस के चेहरे को और खूबसूरत बना दिया था.

‘काश, तुम मेरी प्रिया होतीं. तुम्हारी यह खूबसूरती मेरे जीवन में होती, मेरा प्यार एकतरफा न होता,’ फिर अचानक शर्मिंदगी के एहसास ने विकास को घेर लिया कि यह सब वह अपने दोस्त की पत्नी के बारे में सोच रहा है.

प्रिया ध्यान से उस के चेहरे के उतारचढ़ाव को देख रही थी. वह उसे चुप देख कर बोली, ‘‘आप ड्राइंगरूम में बैठिए, यहां गरमी है, मैं अभी आती हूं.’’

विकास चुपचाप हारे कदमों से ड्राइंगरूम में आ गया, जहां सनी अभी तक खेल रहा था. कुछ देर में प्रिया भी आ गई और वहीं बैठ गई. दोनों काफी देर चुप रहे.

दिल ने एक बार फिर उकसाया तो विकास बोल उठा, ‘‘अगर मैं अमर को बता दूं कि मैं तुम्हें जानता हूं, बल्कि प्रपोज भी कर चुका हूं तो?’’ कह कर विकास ने उस के चेहरे पर नजरें जमा दीं.

प्रिया की गहरी आंखों में पल भर के लिए उलझन छाई, फिर धीरे से बोली, ‘‘यह जो पुरुष होता है न बड़ा अजीब होता है. अच्छाई पर आए तो फरिश्तों को भी मात कर दे और बुराई पर आए तो शैतान भी पनाह मांगे. आप का दिल जो चाहे, वह करो. आप अपने अधूरे प्यार का गुस्सा मेरे शांत जीवन को खत्म कर के उतारना चाहते हैं, अमर के सामने मेरा अपमान करना चाहते हैं जबकि आप का और मेरा ऐसा कोई रिश्ता था ही नहीं. क्या मेरा अपराध यही है कि मैं ने अपने मम्मीपापा की इच्छा के बिना आप का साथ नहीं दिया,’’ कहतेकहते प्रिया की आंखें भर आईं.

वह ठीक कह रही थी. विकास के दिमाग को उस की बातें स्वीकार्य थीं, लेकिन उस का दिल अब भी नहीं मान रहा था. और फिर दिमाग दिल पर हावी हो गया. विकास ने महसूस किया कि दिल और दिमाग में रस्साकशी चले तो दिमाग की बात मान लेनी चाहिए. इसीलिए शायद कुदरत ने बुद्धि को हृदय के ऊपर बैठाया है.

प्रिया की बातों ने विकास को शर्मिंदा सा कर दिया था. उस का मन ग्लानि से भर उठा. उस ने प्रिया को देखा तो उस के उदास चेहरे के घेरे में कैद सा हो गया. अपनी छोटी सोच पर उसे कुछ बोला ही नहीं गया, फिर हिम्मत कर के बोला, ‘‘आई एम सौरी, प्रिया, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए. मैं गलत सोच रहा था,’’ फिर दोनों थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे.

कुछ ही देर में अमर आ गया. फिर सब ने खाना खाया, दोनों दोस्त बीते दिनों की बातें दोहराते रहे. प्रिया काम समेटती रही.

विकास के चलने का समय आया तो अमर गाड़ी निकालने लगा. प्रिया बोली, ‘‘आप फिर कब आएंगे?’’

‘‘शायद अब कभी नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हें मुझे अपने घर बुलाते हुए डर नहीं लग रहा है?’’

‘‘वह क्यों?’’ प्रिया ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं तुम्हारा कोई नुकसान कर दूं तो?’’

‘‘मुझे पता है आप ऐसा कभी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह क्यों?’’ अब हैरान होने की बारी विकास की थी.

‘‘इसलिए कि आप बहुत अच्छे इंसान हैं. आप अमर के दोस्त हैं, जब चाहें आ सकते हैं.’’

‘‘प्रिया बहुत शांति है तुम्हारे घर में, तुम्हारे जीवन में, मेरी कामना है कि यह हमेशा रहे,’’ विकास मुसकराया.

‘‘आप घर बसा लें ऐसी शांति आप को भी मिल जाएगी,’’ प्रिया की आंखों में खुशी दिखाई दे रही थी.

विरोधी भावों के तूफान से जूझने के

बाद विकास का मन पंख सा हलका हो गया था. मन का बोझ उतरने पर बड़ी शांति मिल रही थी, यही विकल्प था दीवाने मन का. विकास को लगा इतने वर्षों की थकान जैसे खत्म हो गई है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें