जीवित रहना और उन्नति- स्तन कैंसर के शारीरिक और भावनात्मक प्रभावों को हराने की कहानी

किसी रोगी को कैंसर होने का पता चलने पर सबसे पहले मन में यही सवाल आता है कि ‘जीवन का कितना समय बाकी है? क्या मु?ो अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने का पर्याप्त समय मिल पाएगा? अपने परिवार के साथ और कितने दिन रह पाऊंगी? ’

ब्रेस्ट कैंसर से महिलाओं का केवल स्वास्थ्य ही प्रभावित नहीं होता बल्कि इसका असर उनके स्वाभिमान, दैनिक जीवन और प्रतिष्ठा पर भी होता है. सामान्य व्यवस्था में रोगी नसों के माध्यम से (इंट्रावेनस) उपचार लेने के लिए भीड़-भाड़ वाले भर्ती वार्ड में काफी समय बिताती हैं. समय लेने वाली यह प्रक्रिया रोगियों के रोजमर्रा के जीवन को मुश्किल बना देती है. कुछ रोगियों को नस में दवा चढ़ाने (इन्फ्यूजन) के लिए काफी लंबी दूरी तय करके आना पड़ता है. ब्रेस्ट कैंसर के रोगी के लिए समय का बहुत महत्त्व होता है क्योंकि उसे काम, परिवार और उपचार के बीच भाग-दौड़ करनी पड़ती है.

स्वास्थ्य देखभाल में नई खोजों का लक्ष्य जीवन को सहज और सरल बनाना है. हाल के वर्षों में अनेक नए-नए अणुओं (मॉलिक्यूल्स) को स्वीकृति मिली है जिन्हें जैविक उपचार पद्धतियां कहते हैं. इनका प्रयोग ब्रेस्ट कैंसर की शुरुआती और शरीर के दूसरे अंगों में फैल चुके (मेटास्टैटिक), दोनों अवस्था के लिए किया जा सकता है. इन उपचार-पद्धतियों से इलाज की गुणवत्ता बढ़ गई है और लंबे समय तक जीवित रहने में मदद मिली है.

[1] दवा देने में नवाचार के कारण रोगी अब मिनटों में उपचार प्राप्त कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, फेस्गो (पर्ट्युजुमैब, ट्रेस्ट्युजुमैब और हेल्युरोनीडेज) जो एक स्वीकृत नुसखा औषधि (प्रेस्क्रिप्तिओन्क मेडिसिन) है, अध:त्वचीय (त्वचा में) सूई के रूप में जांघ की त्वचा के नीचे दिया जा सकता है. [2] उपचार के इन नजरियों से एक मां को अपने बच्चों के साथ खूबसूरत पल तैयार करने में, महिलाओं को अपने शौक पूरे करने और कॅरियर में प्रगति करने तथा परिवारों को एक-साथ अपने खास अवसरों का जश्न मनाने में मदद मिल सकती है.

वेदांत, अहमदाबाद के परामर्शी कैंसर विशेषज्ञ और हीमैटोऑन्कोलॉजी क्लिनिक के निदेशक, डॉ. चिराग देसाई ने कहा कि परंपरागत कीमोथेरैपी के दौरान ट्रेस्ट्युजुमैब और पर्ट्युजुमैब चढ़ाने ने लिए कम-से-कम

1-1 घंटा समय लगता है. लेकिन फेस्गो द्वारा दोनों मोनोक्लोनल ऐंटीबॉडीज को आधे घंटे के भीतर में सूई से त्वचा के नीचे दिया जा सकता है. इस प्रकार इससे रोगी के समय की बचत होती है और उसे कम चीरा लगता है.

भर्ती वार्ड में रहना, जहां अलग-अलग तरह के कैंसर के लिए अनेक रोगियों का उपचार हो रहा हो, सदमे से भरा हो सकता है. इसलिए फेस्गो जैसे नवीन उपचार भर्ती वार्ड में रहने के समय और सदमे में कमी करने में सहायक हो सकते हैं.

41 वर्षीय हितेश्वरीबा जडेजा को शरीर के दूसरे अंगों तक फैल चुके ब्रेस्ट कैंसर (मेटास्टैटिक ब्रेस्ट कैंसर) के बारे में पता चला तो पूरी उपचार अवधि के दौरान हर समय और हर जगह डर उन पर हावी रहा था. लेकिन फेस्गो के चलते उन्हें समय मिल गया है. वे कहती हैं, ‘‘मैं अपने बच्चों के साथ ज्यादा समय बिता सकती हूं क्योंकि मु?ो अब पूरा दिन अस्पताल में नहीं बिताना पड़ता है. फेस्गो देने में लगभग 20 से 30 मिनट का समय लगता है. पहले मु?ो लगभग एक हफ्ते तक भूख नहीं लगती थी. लेकिन फेस्गो से मु?ो काफी मदद मिली है.’’

डॉ. देसाई ने कहा कि हितेश्वरीबा के कैंसर में लगभग 2 वर्षों से कोई वृद्धि नहीं हुई है और वे एक अच्छा जीवन जी रही हैं. लेकिन शुरुआत में यह भरोसा करना मुश्किल था, उन्होंने उपचार लेने से इनकार कर दिया था. उन्हें मौत का डर था. उन्हें आगे उपचार कराने के लिए प्रोत्साहित करने में मु?ो कुछ समय लगा.

जिन महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर होने का पता चलता है, वे सदमे का शिकार हो जाती हैं. लोगों को न चाहते हुए भी गहरे डर का सामना करना पड़ता है. उन्हें सामने मौत खड़ी दिखने लगती है और वे भविष्य के बारे में जबरदस्त अनिश्चितता में उल?ा जाती हैं. उपचार कराने के बाद हितेश्वरीबा को जीने का एक नया उत्साह मिला है और वे जामनगर में अपने परिवार के साथ रह रही हैं.

हितेश्वरीबा की तरह ही अनेक रोगी उम्मीद खो देने के कारण उपचार नहीं कराना चाहती हैं. इसलिए कैंसर के उपचार में परामर्श एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है. हैदराबाद की 50 वर्षीय माधवी वाराल्वर परामर्शदाताओं की वकालत करती हैं. उनके मेटास्टैटिक ब्रेस्ट कैंसर की पहचान एक संयोग से हुई थी. उनके डॉक्टर ने हर जरूरी ध्यान और सहायता दी, लेकिन उन्हें लगता है कि परामर्शदाता कैंसर रोगियों के डर को दूर करने में और ज्यादा मददगार हो सकते हैं.

उन्होेंने कहा कि पूरे दिन कई-कई रोगियों को हैंडल करने के कारण डॉक्टरों पर भी बहुत ज्यादा बो?ा रहता है. इसलिए रोगियों को सलाह देने, उन्हें साइड इफेक्ट की जानकारी देने और इलाज के प्रति उनके मन में भरोसा जगाने के लिए एक सपोर्ट ग्रुप होना चाहिए.

डॉ. देसाई का भी कुछ ऐसा ही मानना है. उनके अनुसार हमारे हॉस्पिटल में परामर्शदाता हैं, लेकिन उन्हें  कैंसर रोगियों की सहायता करने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया है. फिर भी साइको-ऑन्कोलॉजी नामक एक नई शाखा विकसित हो रही है.

ब्रेस्ट कैंसर के रोगियों के लिए समय उनका महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान साथी होता है. खासकर जब वे बीमारी के डायग्नोसिस, उपचार और स्वास्थ्य लाभ के कठिन दौर से गुजरते हैं. भले ही उनके लिए समय मायने रखता है, अत्याधुनिक चिकित्सीय और सहयोगी हस्तक्षेपों से रोगियों को उनकी भावनात्मक सेहत और निजी ग्रोथ के लिए अवसर प्राप्त हो सकता है. ब्रेस्ट कैंसर का सदमा ?ोलना भारी लग सकता है. फिर भी इसी में उम्मीद, हौसला और वापसी करने तथा बीमारी से रिकवर होने के लिए मानवीय भावना की मजबूत क्षमता का प्रमाण भी छिपा होता है. उपचार में इन प्रगति की बदौलत आशा- जीवित रहने वालों के लिए जीवन की बेहतर गुणवत्ता के लिए उम्मीद की किरण हमेशा बनी रहती है.

 

‘‘मैं विद्रोही हूं इसलिए मैं आगे बढ़ी’’ मृणालिनी देशप्रभु बिजनैस वूमन

एक ऐसा समाज जहां पुरुष बहुलता में हों, वहां एक स्त्री का कुछ हट कर करना सब को चौंका देता है. मृणालिनी देशप्रभु की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. उन की कहानी न सिर्फ पुरुषों की सोच में बदलाव लाने का दम रखती है बल्कि यंग जैनरेशन को अपने जीवन में कुछ कर गुजरने की प्रेरणा भी देती है.

मृणालिनी गोवा की रहने वाली है. उस के पास विंटेज कार का बड़ा और बेहतरीन कलैक्शन है जिस में तरहतरह की कारें शामिल हैं. मृणालिनी देशप्रभु पेशे से एक बिजनैस वूमन है. उस के पास एक गैरेज है, जिस में एक औस्टिन सैवन आरपी सैलून, औस्टिन आठ, औस्टिन अटलांटिक और औस्टिन मिनी कारें हैं. यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि उस के पास औस्टिन ब्रैंड का एक परिवार है. इस के अलावा उस के पास एक फोर्ड मौडल ए और जेफिर कार भी है. उस का गैरेज विंटेज और क्लासिक कारों से भरा हुआ है. उस के पास एक वोक्सवैगन बस है और दूसरी औस्टिन बस भी है.

बचपन की यादें

मृणालिनी औस्टिन की एक कार दिखाते हुए कहती है, ‘‘यह औस्टिन का पहला मौडल था. इसे बेहद लोकप्रिय 50 के प्रतिस्पर्धी के रूप में देखा था. वहीं मौरिस लाइट, व्लोच की कंपनी, जिसे लार्ड औस्टिनज ने खरीदा था. इसे एक एलियमटेबल फैमिली कार के रूप में देखा गया था. यह यह एक युद्धपूर्व डिजाइन था, जिसे थोड़ा मौडर्न टच भी दिया गया था.

‘‘इस में 900 मिलीग्राम मैकोंग, 24 एचपी, एक प्रीमैटल ग्रैबेक्स, स्वतंत्र सस्पैंशन और लेड्रौलिक ब्रेक ट्रैक्स भी था. इस का कैबिन काफी बड़ा था. इस की अधिकतम गति लगभग 90 किलोमीटर प्रति घंटा थी.’’

मृणालिनी ने आगे बताया, ‘‘देशप्रभु परिवार 48 साल से भी अधिक पुराना है. एक सदी, हमारा परिवार गोवा में कार खरीदने वाला पहला परिवार था. यह समय था 1904 का और साथ ही एक टैलीफोन भी.’’

मृणालिनी अपने बचपन के बारे में बताते हुए कहती है, ‘‘जब हम लगभग 13 या 14 साल के थे, तो हम बच्चे घर के चारों ओर दौड़ते थे और कंपाउंड के चारों ओर जीप. गाड़ी चला कर अपने मातापिता को पागल कर देते थे. मेरा पहला प्यार हमेशा से मोटरबाइक ही था. सवारी करना बहुत महिलाओं जैसा नहीं माना जाता था. लेकिन मैं विद्रोही हूं, इसलिए मैं आगे बढ़ी और नतीजों की परवाह किए बिना ऐसा किया. मेरी 20 की उम्र में ही कारों में दिलचस्पी हो गई थी और उस के तुरंत बाद एक दुर्घटना हो गई, शुक्र है कि इस से मु?ो उसे डर नहीं लगा. हालांकि उस के बाद मु?ो ये कारें दोबारा चलाने का मौका नहीं मिला क्योंकि मेरे दिवंगत पिता जितेंद्र ने नहीं सोचा था कि मैं ऐसा कर सकती हूं.

‘‘काश मैं ने उन्हें दिखाया होता कि यह मु?ा में है और मु?ो कारें सचमुच बहुत पसंद हैं.  उन्होंने अपने दोस्त से औस्टिन मिनी खरीदी और मु?ो बताया कि यह मेरे लिए है. लेकिन मु?ो इसे चलाने का मौका कभी नहीं मिला क्योंकि उस गैरेज में सालों से मरम्मत का काम चल रहा था और फिर मैं स्टडी करने के लिए यूएसए चली गई. मु?ो उम्मीद है कि मैं जल्द ही उस कार को चला लूंगी.’’

बेजबानों से प्यार

जिस कार को मृणालिनी नियमित रूप से चलाती है वह औस्टिन 8 है. यह छोटी सी कार वह नहीं है जिसे अकसर कौनकोर्स स्थिति में सम?ा जाता है. मृणालिनी देशप्रभु डौग लवर भी है. उस के पास अलगअलग बिरीड के डौग भी हैं जैसे वुलडौग. ये हमेशा उस के आसपास ही रहते हैं.

देशप्रभु फैमिली को उस की सर्विसेज के लिए धन्यवाद के रूप में पुर्तगालियों ने ‘विस्काउंट डी पेरनेम’ की उपाधि भी दी. यह सम्मान पाने वाली वह एकमात्र हिंदू फैमिली है. मोटर चालित परिवहन और देशप्रभु परिवार के बीच संबंध पुराना है लेकिन अब यह संबंध टूटता जा रहा है.

 

एम्पथेटिक कम्युनिकेशन डेवलपमेंट है पर्सनालिटी का अहम हिस्सा, जानिए क्यों है ये जरूरी

जिंदगी में सफल, सुखी और खुश रहने के लिए करोड़ों के बैंक बैलेंस की नहीं सच्चे रिश्तों की जरूरत होती है। रिश्तों को समझना और समय देना खुशियों की नींव है। आपके रिश्ते समझदारी के साथ ही सहानुभूति की मजबूत डोर से बंधे होते हैं। यह बात सच है कि दूसरों के प्रति सहानुभूति दिखाकर आप बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं। आमतौर पर एम्पथी यानी सहानुभूति के महत्व को लोग समझते नहीं हैं, लेकिन यह जिंदगी का सार है। जब आप दूसरों की परेशानियों, उलझनों, परिस्थितियों का अनुभव करने लगेंगे तो आपकी इस सहानुभूति से सामने वाले को न सिर्फ संबल मिलेगा, बल्कि आपके रिश्तों को भी मजबूती मिलेगी।

डॉक्टर स्वाति मित्तल, साइकैटरिस्ट, मैक्स हॉस्पिटल से बातचीत के अनुसार एम्पथेटिक कम्युनिकेशन डेवलप करना आपके व्यवहार के साथ ही पर्सनालिटी के लिए भी पॉजिटिव कदम होगा। आप दूसरों के प्रति कैसे सहानुभूति रख सकते हैं, आइए जानते हैं।

1. धैर्य से सुनें बातें

दूसरों के प्रति सहानुभूति दिखाने का पहला नियम है उन्हें धैर्यपूर्वक सुनना। जब आप दूसरे व्यक्ति की पूरी बात बिना उसे बीच में टोके या निष्कर्ष निकाले सुनेंगे तो उन्हें अपनापन महसूस होगा। उन्हें यह विश्वास रहेगा कि आप उन्हें समझते हैं और उनका साथ देंगे। इससे आपके व्यवहार में एम्पथेटिक कम्युनिकेशन डेवलप होगा।

2. दूसरों की भी सुनें

“जो मैं कह रहीं हूं तुम मेरी सुनो.. मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं कि तुम क्या सोच रही हो..”मीनल के कहे ये शब्द सुनते ही सीमा सोच में पड़ गई और नाराजगी के साथ बोली,”रिश्ता एक तरफा नहीं दो तरफ होता है। आप सिर्फ अपनी बात रखें और दूसरे की ना सुने ऐसे रिश्ते नहीं चलते..”

बात तो सही है क्योंकि हर व्यक्ति की अपनी राय होती है। ऐसे में अपनी राय को सही साबित करने के लिए आप दूसरों के विचारों को दबाने की कोशिश न करें। उनकी राय, अनुभवों और विचारों के प्रति भी संवेदनशील रहें। ऐसा करने से आप न सिर्फ बेहतर रिश्ते बना पाएंगे, बल्कि बेहतर इंसान भी बनेंगे।

3. दूसरों की स्थिति को समझें

जब भी आपको कोई अपनी परेशानी शेयर करे तो निर्णय पर पहुंचने से पहले उसकी जगह पर खुद को रहकर परेशानियों को समझने की कोशिश करें। इससे न सिर्फ आप परिस्थितियों को ठीक से समझ पाएंगे, बल्कि इससे आप सही निष्कर्ष पर भी पहुंच पाएंगे। यह रिलेशनशिप को बिल्ड करने के लिए महत्वपूर्ण कदम होगा।

4. निर्णय पर तुरंत न पहुंचें

आमतौर पर लोग इस बात को नहीं समझते, लेकिन दूसरे की पूरी बात सुने और समझे बिना खुद निर्णय सुना देना अक्सर बहुत ही असंवेदनशील लगता है। किसी भी समझदार शख्स को इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए। दूसरों की आलोचना करने या उसके विचारों को नकाराने से पहले उसके तर्क और दृष्टिकोण को जानना जरूरी है।

5. बड़ा दिल रखें

खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को दोयम दर्जे का समझना लोगों की सबसे बड़ी गलतियों में से एक है। हर एक व्यक्ति के पास अपनी राय, अनुभव और दृष्टिकोण होता है। इसलिए अपने दिल और दिमाग को हमेशा दूसरों के विचार जानने के लिए खुला रखें। उन्हें भरोसा दिलाएं कि जो वो बोल रहे हैं, वह भी सही है। अगर आपको कोई बात सही नहीं लगती है तो भी उस पर धैर्यपूर्वक प्रतिक्रिया दें। कभी भी दूसरों पर हावी होने की कोशिश न करें।

 

 

मिलन: जयति के सच छिपाने की क्या थी मंशा

Family Story in hindi

खामोश जिद: क्या हुआ था रुकमा के साथ

‘‘शहीद की शहादत को तो सभी याद रखते हैं, मगर उस की पत्नी, जो जिंदा भी है और भावनाओं से भरी भी. पति के जाने के बाद वह युद्ध करती है समाज से और घर वालों के तानों से. हर दिन वह अपने जज्बातों को शहीद करती है.

‘‘कौन याद रखता है ऐसी पत्नी और मां के त्याग को. वैसे भी इतिहास गवाह है कि शहीद का नाम सब की जबान पर होता है, पर शहीद की पत्नी और मां का शायद जेहन पर भी नहीं,’’ जैसे ही रुकमा ने ये चंद लाइनें बोलीं, तो सारा हाल तालियों से गूंज गया.

ब्रिगेडियर साहब खुद उठ कर आए और रुकमा के पास आ कर बोले, ‘‘हम हैड औफिस और रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे, जिस से वे तुम्हारे लिए और मदद कर सकें,’’ ऐसा कह कर रुकमा को चैक थमा दिया गया और शहीद की पत्नी के सम्मान समारोह की रस्म अदायगी भी पूरी हो गई.

चैक ले कर रुकमा आंसू पोंछते हुए स्टेज से नीचे आ गई. पतले काले सफेद बौर्डर वाली साड़ी, माथे पर न बिंदी और काले उलझे बालों के बीच न सुहाग की वह लाल रेखा. पर बिना इन सब के भी उस का चेहरा पहले से ज्यादा दमक रहा था. थी तो वह शहीद की बेवा. आज उस के शहीद पति के लिए सेना द्वारा सम्मान समारोह रखा गया था. समारोह के बाद बुझे कदमों से वह स्टेशन की तरफ चल दी.

ट्रेन आने में अभी 7-8 घंटे बाकी थे. सोचा कि चलो चाय पी लेते हैं. नजरें दौड़ा कर देखा कि थोड़ी दूर पर रेलवे की कैंटीन है. सोचा, वहीं पर चलते हैं दाम भी औसत होंगे.

रुकमा पास खड़े अपने पापा से बोली, ‘‘पापा, चलो कुछ खा लेते हैं. अभी तो ट्रेन आने में बहुत देर है.’’

बापबेटी अपना पुराना सा फटा बैग समेट कर चल दिए.

चाय पीतेपीते पापा बोले, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि वे बात करेंगे या ऐसे ही बोल रहे हैं कि रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे.’’

‘‘पता नहीं पापा, कुछ भी कह पाना मुश्किल है.’’

‘‘रुकमा, तुम आराम करो. मैं जरा ट्रेन का पता लगा कर आता हूं,’’ कहते हुए पापा बाहर चले गए.

रुकमा ने अपने पैरों को समेट कर ऊपर सीट पर रख लिया और बैग की टेक लगा कर लेट गई और धीरे से सौरभ का फोटो निकाल कर देखने लगी.

देखतेदेखते रुकमा भीगी पलकों के रास्ते अपनी यादों के आंगन में उतरती चली गई. कितनी खुश थी वह जब पापा उस का रिश्ता ले कर सौरभ के घर गए थे. पूरे रीतिरिवाज से उस की शादी भी हुई थी. मां ने अपनी बेटी को सदा सुहागन बने रहने के लिए कोई भी रिवाज नहीं छोड़ा था. यहां तक कि गांव के पास वाले मन्नत पेड़ पर जा कर पूर्णमासी के दिन दीया भी जलाया था. शादी भी धूमधाम से हुई थी.

सौरभ को पा कर रुकमा धन्य हो गई थी. सजीला, बांका, जवान, सांवला रंग, लंबा गठा शरीर, चौड़ा सीना, जो देखे उसे ही भा जाए. रुकमा भी कम सुंदर न थी. हां, मगर लंबाई उतनी न थी.

सौरभ हर समय उसे उस की लंबाई को ले कर छेड़ता था. जब सारा परिवार एकसाथ बैठा हो तो तब जरूर ‘जिस की बीवी छोटी उस का भी बड़ा नाम है…’ गाना गा कर उसे छेड़ता था. वह मन ही मन खीजती रहती थी, मगर ज्यादा देर नाराज न हो पाती थी क्योंकि सौरभ झट से उसे मना लेना जानता था.

पर यह सुख कुछ ही समय रह पाया. उसी समय सीमा पर युद्ध शुरू हो गया था और सौरभ की सारी छुट्टियां कैंसिल हो गई थीं. उसे वापस जाना पड़ा था.

उस रात रुकमा कितना रोई थी. सुबह तक आंसू नहीं थमे थे, सौरभ उस को समझाता रहा था. उस की सुंदर आंखें सूज कर लाल हो गई थीं. सौरभ के जाने में अभी 2 दिन बाकी थे.

सौरभ कहता था, ‘ऐसे रोती रहोगी तो मैं कैसे जाऊंगा.’

घर में सभी लोग कहते हैं कि ये 2 दिन तुम दोनों खुश रहो, घूमोफिरो, पर जैसे ही कोई जाने की बात करता तो अगले ही पल रुकमा की आंखों से आंसू लुढ़कने लगते.

सौरभ उसे छेड़ता, ‘यार, तुम्हारी आंखों में नल लगा है क्या, जो हमेशा टपटप गिरता रहता है.’

सौरभ की इस बचकानी हरकत से रुकमा के चेहरे पर कुछ देर के लिए हंसी आ जाती, मगर अगले ही पल फिर चेहरे पर उदासी छा जाती.

जिस दिन सौरभ को जाना था, उस रात रुकमा सौरभ के सीने पर सिर रख कर रोती ही रही और अब तो सौरभ भी अपने आंसू न रोक पाया. आखिर सिपाही के अंदर से बेइंतिहा प्यार करने वाला पति जाग ही गया जो अपनी नईनवेली दुलहन के आगोश में से निकलना नहीं चाहता था, पर छुट्टी की मजबूरी थी, वापस तो जाना ही था.

‘‘रुकमा, उठ…’’ पापा ने हिलाते हुए रुकमा को जगाया और कहा, ‘‘ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 2 पर आ रही है.’’

पापा की आवाज से रुकमा अपनी यादों से बाहर आ गई. आंखों को हाथों से मलते हुए वह उठ खड़ी हुई, जैसे किसी ने उस की चोरी पकड़ ली हो.

‘‘क्या बात है बेटी… तुम फिर से…’’

‘‘नहीं पापा… ऐसा कुछ भी नहीं…’’

थोड़ी देर में ट्रेन आ गई और रुकमा ट्रेन में बैठते ही फिर यादों में खो गई. कैसे भूल सकती है वह दिन, जब सौरभ को खुशखबरी देने को बेकरार थी लेकिन सौरभ से बात ही न हो पाई. शायद लाइन और किस्मत दोनों ही खराब थीं और तभी कुछ दिन में ही खबर आ गई कि सौरभ सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो गए हैं. उस वक्त रुकमा ड्राइंगरूम में बैठी थी, तभी सौरभ के दोस्त उस का सामान ले कर आए थे.

आंखों और दिल ने विश्वास ही नहीं किया. रुकमा को लगा, वह भी आ रहा होगा. हमेशा की तरह मजाक कर रहा होगा. होश में ही नहीं थी. मगर होश तो तब आया जब ससुर ने पापा से कहा था, ‘रुकमा को अपने साथ वापस ले जाएं. मेरा बेटा ही चला गया तो इसे रख कर क्या करेंगे.’

उस ने अपने सासससुर को समझाया था कि वह सौरभ के बच्चे की मां बनने वाली है लेकिन उन्होंने तो उसे शाप समझ कर घर से निकाल दिया.

तभी सिर के ऊपर रखा बैग रुकमा के सिर से टकराया और वह चीख पड़ी. बाहर झांक कर देखा कि कोई स्टेशन आने वाला है. कुछ ही देर में वह झांसी पहुंच गए.

घर पहुंचते ही मां बोलीं, ‘‘बड़ी मुश्किल से यह सोया है. कुछ देर इसे गोद में ले कर बैठ जा.’’

रुकमा कुछ ही महीने पहले पैदा हुए अपने बेटे को गोद में ले कर प्यार करने लगी.

मां ने पूछा, ‘‘वहां सौरभ के घर वाले भी आए थे क्या?’’

‘‘नहीं मां,’’ रुकमा बोली.

शाम को खाने में साथ बैठते हुए पापा ने रुकमा से पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है? तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

रुकमा ने लंबी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘हां पापा, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. मेरे बेटे ने अपने फौजी पिता को नहीं देखा, इसलिए मैं फौज में ही जाऊंगी.’’

रुकमा के मातापिता हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे. बेटे को मां के पास छोड़ कर रुकमा दिल्ली में एमबीए करने आ गई और नौकरी भी करने लगी.

रुकमा को यह भी चिंता थी कि कार्तिक बड़ा हो रहा था. उसे भी स्कूल में दाखिला दिलाना होगा.

रुकमा यह सब सोच ही रही थी कि मां की अचानक हुई मौत से वह फिर बिखर गई और अब तो कार्तिक की भी उस के सिर पर जिम्मेदारी आ गई. उसे अब नौकरी पर जाना मुश्किल हो गया.

बेटा अभी बहुत छोटा था और घर पर अकेले नहीं रह सकता था. पापा भी अभी रिटायर नहीं हुए थे.

जब कोई रास्ता नजर नहीं आया, तभी सहारा बन कर आए गुप्ता अंकल यानी उस के साथ में काम कर रही दोस्त अर्चना के पिताजी.

अर्चना ने कहा, ‘‘रुकमा, आज मेरे भतीजे का बर्थडे है. तू कार्तिक को ले कर जरूर आना, कोई बहाना नहीं चलेगा और तू भी थोड़ा अच्छा महसूस करेगी.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ रुकमा ने हंस कर हां कर दी और औफिस से बाहर आ गई.

घर आ कर कार्तिक से कहा, ‘‘आज मेरा बाबू घूमने चलेगा. वहां पर तेरे बहुत सारे फ्रैंड्स मिलेंगे.’’

‘‘हां मम्मी…’’ कार्तिक खुशी से मां के गले लग गया.

मां बेटे खूब तैयार हो कर पार्टी में पहुंचे. पार्टी क्या थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई शादी हो. शहर की सारी नामीगिरामी हस्तियां मौजूद थीं. तभी किसी ने पीछे से पुकारा. रुकमा ने पीछे पलट कर देखा कि उस के औफिस का सारा स्टाफ मौजूद था.

केक वगैरह काटने के बाद अर्चना ने उसे अपने पिताजी से मिलवाया. वे बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारे बारे में सुन कर बड़ा दुख हुआ कि आज भी ऐसी सोच वाले लोग हैं. बेटी, जो सज्जन सामने आ रहे हैं, वे उसी रैजीमैंट में पोस्टेड हैं जिस में तुम्हारे पति थे. मुझे अर्चना ने सबकुछ बताया था.

‘‘कर्नल साहब, ये रुकमा हैं. फौज में जाना चाहती हैं. अगर आप की मदद मिल जाती तो अच्छा होता,’’ और फिर उन्होंने रुकमा के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया.

‘‘बेटी, तुम मुझे 1-2 दिन में फोन कर लेना. मुझ से जो बन पड़ेगा, मैं जरूर मदद करूंगा.’’

कर्नल के सहयोग से रुकमा देहरादून जा कर एसएसबी की कोचिंग लेने लगी और वहीं आर्मी स्कूल में पार्टटाइम बच्चों को पढ़ाने भी लगी. बेटे कार्तिक का दाखिला भी एक अच्छे स्कूल में करा दिया.

मगर मंजिल आसान न थी. हर रोज सुबह 4 बजे उठ कर फौज जैसी फिटनैस लाने के लिए दौड़ने जाती, फिर 20 किलोमीटर स्कूटी से बेटे को स्कूल छोड़ती और लाती, फिर शाम को वह फिजिकल ट्रेनिंग लेने जाती, लौट कर बच्चे का होमवर्क और घर का पूरा काम करती.

रोज की तरह रुकमा एक दिन जब बच्चे को सुलाने जा ही रही थी तभी पापा का फोन आया और फिर से वही राग ले कर बैठ गए, ‘रुकमा, मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम क्यों इतना सब बेकार में कर रही हो. दीपक का फिर फोन आया था. वह तुम्हें और तुम्हारे बेटे को खूब खुश रखेगा. मेरी बात मान जा बेटी, तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है, मेरा क्या भरोसा. मैं भी तेरी मां की तरह कब चला जाऊं, तो तेरा क्या होगा.’

‘‘पापा, मैं अपने बेटे कार्तिक और सौरभ की यादों के साथ बहुत खुश हूं. मैं किसी और को प्यार कर ही न पाऊंगी, यह उस रिश्तों के साथ उस से बेईमानी होगी. मैं सौरभ की जगह किसी और को नहीं दे सकती.

‘‘मुझे सौरभ से बेइंतिहा मुहब्बत करने के लिए सौरभ की जरूरत नहीं है, उस की यादें ही मेरी मुहब्बत को पूरी कर देंगी. मैं जज्बात में उबलती हुई नसीहतों की दलीलें नहीं सुनना चाहती.’’

पापा ने कहा, ‘क्या कोई इस तरह जाने के बाद पागलों सी मुहब्बत करता है.’

‘‘सौरभ मेरे दिलोदिमाग पर छाया हुआ है. एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ ऐसी होती है कि वह रिश्तों की तरह 2 लोगों में बंटता नहीं है. उस में फिर मेरा हक होता है,’’ यह कहते हुए रुकमा ने फोन काट दिया, फिर प्यार से सो रहे पास लेटे बेटे कार्तिक का सिर सहलाने लगी.

तभी रुकमा ने फौज में भरती का इश्तिहार अखबार में पढ़ा. रुकमा और भी खुश हो गई कि एक सीट शहीद की विधवाओं के लिए आरक्षित है. अब उसे सौरभ के अधूरे ख्वाब पूरे होते नजर आने लगे.

इन सब मुश्किल तैयारियों के बाद फौज का इम्तिहान देने का समय आ गया. मेहनत रंग लाई. लिखित इम्तिहान के बाद उस ने एसएसबी के भी सभी राउंड पास कर लिए. लेकिन यहां तक पहुंचने के बाद एक नई परेशानी खड़ी हो गई, वहां पर एक और शहीद की पत्नी थी पूजा और उस ने भी सारे टैस्ट पास कर लिए थे और सीट एक थी.

आखिरी फैसले के लिए सिलैक्शन अफसर ने अगले दिन की तारीख दे दी और कहा कि पास होने वाले को इत्तिला दे दी जाएगी.

उदास मन से रुकमा वापस आ गई, लेकिन इतने पर भी वह टूटी नहीं. उसे अपने ऊपर विश्वास था. उस का दुख बांटने अर्चना आ जाती थी और दिलासा भी देती थी. तय तारीख भी निकल चुकी थी.

रुकमा को यकीन हो गया कि उस का सिलैक्शन नहीं हुआ इसलिए फिर उस ने उसी दिनचर्या से एक नई जंग लड़नी शुरू कर दी.

तभी एक दिन औफिस से लौट कर उसे सिलैक्शन अफसर की चिट्ठी मिली जिस में उसे हैड औफिस बुलाया गया था. सिलैक्शन का कोई जिक्र न होने के चलते रुकमा उदास मन से बुलाए गए दिन पर हैड औफिस पहुंच गई. वहां जा कर देखा कि साहब के सामने पूजा भी बैठी थी.

साहब ने दोनों को बुला कर पूछा कि तुम दोनों की काबिलीयत और जज्बे को देखते हुए हम ने रक्षा मंत्रालय से 2 वेकैंसी की मांग की थी. रक्षा मंत्रालय ने एक की जगह 2 वेकैंसी कर दी हैं और तुम दोनों ही सिलैक्ट हो गई हो. बाहर औफिस से अपना सिलैक्शन लैटर ले लो.

रुकमा यह सुनते ही शून्य सी हो गई. सौरभ को याद कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. लैटर ले कर उस ने सब से पहले अर्चना को फोन कर शुक्रिया अदा किया.

पापा उस समय देहरादून में बेटे कार्तिक के पास थे. घर पहुंच कर रुकमा पापा से लिपट गई और खुशखबरी दी.

पापा बोले, ‘‘तू बचपन से ही जिद्दी थी, पर आज तू ने अपने प्यार को ही जिद में तबदील कर दिया. और अपने बेटे को उस के फौजी पिता कैसे थे, यह बताने के लिए तू खुद फौजी बन गई. हम सभी तेरे जज्बे को सलाम करते हैं.’’

रुकमा ने देखा कि अर्चना और उस के स्टाफ के लोग बाहर दरवाजे पर खड़े थे. रुकमा इस खुशी का इजहार करने के लिए अर्चना से लिपट गई.

हेयर रिमूवल क्रीम के हैं कई साइड इफेक्‍ट्स, पढ़ें खबर

मार्केट में इन दिनों ढ़ेर सारी हेयर रिमूवल क्रीम्‍स अवेलेबल हैं, जिनके प्रचार धड़ल्‍ले से टीवी पर आते रहते हैं. हर एक कंपनी अलग कंपनियों से बेहतर होने का दावा करती हैं, पर अगर त्वचा विशेषज्ञ की मानें तो त्‍वचा पर इसके ढ़ेर सारे साइड इफेक्‍ट हो सकते हैं.

उनका कहना है कि हेयर रिमूवल क्रीम खरीदने से पहले हमेशा एक पैच टेस्‍ट कर के देखना चाहिये कि कहीं त्‍वचा को तकलीफ तो नहीं हो रही है.

कैसे काम करती है हेयर रिमूवल क्रीम

बालों को हटाने वाली क्रीम, त्वचा में मौजूद प्रोटीन को तोड़ देती है. इससे बालों की जड़ें कमजोर हो कर आसानी से निकल आती हैं, लेकिन इससे भी त्‍वचा पर असर होता है. तभी तो त्‍वचा में जलन और खुजली होने लगती है.

हेयर रिमूवल क्रीम के साइड इफेक्‍ट

हेयर रिमूवल क्रीम में कैमिकल मौजूद होने की वजह से त्‍वचा में जलन होती है. यदि इसे चेहरे, प्राइवेट एरिया और संवेदनशील त्‍वचा पर लगाया गया तो, हो सकता है कि आपको रियेएक्‍शन भी हो जाए.

क्या होगा अगर ज्‍यादा देर इस क्रीम को त्‍वचा पर लगे रहने दिया तो

ऐसा करने से त्‍वचा में जलन, खुजली, सूजन या लाल रंग के रैश भी पड़ सकते हैं. यह ज्‍यादातर संवेदनशील त्‍वचा वालों को ही नुकसान पहुंचाती

क्‍या इससे त्‍वचा का रंग काला पड़ सकता है लगातार

हेयर रिमूवल क्रीम के प्रयोग से त्‍वचा का रंग काला भी पड़ सकता है.

क्‍या इसकी वजह से हेयर ग्रोथ ज्‍यादा होने लगती है

जी हां, इसके प्रयोग से बालों की ग्रोथ बढ़ती तो है ही साथ में बाल पहले से भी ज्‍यादा मोटे आना शुरु हो जाते हैं.

हेयर रिमूवल क्रीम का प्रयोग कितनी बार करना सही है

हर इंसान की बालों की ग्रोथ अलग अलग होती है, इसलिये इसकी जरुरत भी अलग ही होनी चाहिये. कई लोगों को हर हफ्ते ही इसकी आवश्‍यकता पड़ती है तो कुछ को महीने के केवल एक बार. अगर आप इसे बार बार यूज करेंगी तो आपकी स्‍किन जल सकती है.

लौटते हुए: क्यों बिछड़े थे दो प्रेमी

राइटर- अंजुला श्रीवास्तव

रेल पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी, सबकुछ पीछे छोड़ते हुए, तेज बहुत तेज. अचानक ही उस की स्पीड धीरेधीरे कम होने लगी. कोई छोटा सा स्टेशन था. रेल वहीं रुक गई. भीड़ का एक रेला सा मेरे डब्बे में चढ़ आया. मु झे हंसी आने को हुई यह सोच कर कि इन यात्रियों का बस चले तो शायद एकदूसरे के सिर पर पैर रख कर भी चढ़ जाएं.

अचानक एक चेहरे को देख कर मैं चौंकी. वह अरुण था. वह भी दूसरे यात्रियों के साथ ऊपर चढ़ आया था. उसे देखते ही दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में भी मुझे पसीना आ गया. शायद उस ने मुझे अभी नहीं देखा था, यह सोच कर मैं ने राहत की सांस ली ही थी कि अचानक वह पलटा. डब्बे में सरसरी दृष्टि फिराते हुए जैसे ही उस की नजर मुझ पर पड़ी, वह चौंक कर बोला, ‘‘रेखा, तुम?’’

मैं अपनेआप को संयत करने की कोशिश करने लगी. इस तरह कभी अरुण से मिलना होगा, इस की तो मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. मुझे लगने लगा, दुनिया बहुत छोटी है जहां बिछड़े हुए साथी कहीं न कहीं आपस में मिल ही जाते हैं.

अरुण भी खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था. बोला, ‘‘सौरी, मैं ने आप को देखा नहीं था, वरना मैं इस डब्बे में न चढ़ता. खैर, अगला स्टेशन आने पर मैं डब्बा बदल लूंगा.’’

उस के मुंह से अपने लिए ‘आप’ सुनते ही मु झे एक धक्का सा लगा. मैं सोचने लगी, ‘घटनाएं आदमी को कितना बदल देती हैं. समय की धारा में संबंध, रिश्तेनाते, यहां तक कि संबोधन भी बदल जाते हैं. कल तक मैं अरुण के लिए ‘तुम’ थी और आज?’ मेरे मुंह से एक सर्द आह निकलतेनिकलते  रह गई.

‘‘यह रेल मेरी बपौती नहीं है,’’ मैं ने स्वर को यथासंभव सहज बनाते हुए कहा. लेकिन अपने हावभाव को छिपाने में मैं असमर्थ रही.

अरुण के साथ ही डब्बे में 2-4 बदमाश टाइप के लड़के भी चढ़ आए थे. पहले उन की तरफ मेरा ध्यान नहीं गया था. अरुण को देखते ही मैं अपने होश खो बैठी थी. लाल कमीज पहने एक युवक मु झ से सट कर बैठ गया. अरुण ने भी उसे देखा था, लेकिन उस ने फौरन ही मेरी तरफ से मुंह फेर लिया था. शायद उसे उस युवक का मेरे साथ इस तरह सट कर बैठना बरदाश्त नहीं हुआ था.

लेकिन मैं चाहती थी कि अरुण मेरी तरफ देखे. उस ने अखबार के पीछे अपना चेहरा छिपा लिया था. लेकिन मैं जानती थी कि वह अखबार नहीं पढ़ रहा होगा, चोर नजरों से मुझे ही देख रहा होगा. 2 साल अरुण के साथ रही हूं, सबकुछ भूल कर, सिर्फ उसी की बन कर. शायद अरुण अपनी आदत भूल चुका हो, मुझे किसी और के साथ बात करते देखते ही उसे गुस्सा आ जाता था. जिद्दी बच्चे जैसा ही तो व्यवहार रहा है उस का. जो आदत उस की 26 साल में बनी थी वह 2 साल में

अपने को संभाल मैं कैब का इंतजार करने लगी. अचानक अरुण मेरे पास आया और बोला, ‘‘सुनिए, मैं यहां के बारे में कुछ नहीं जानता. आप को अगर कोई परेशानी न हो तो मु झे यहां के किसी होटल तक पहुंचा दीजिए.’’

मैं देख रही थी कि अरुण यह सबकुछ कहते हुए हिचकिचा रहा था. पहले की तरह उस के स्वर में न अपनापन था, न बेफिक्री.

मैं उस के साथ ही कैब में बैठ गई. फिर मैं सोचने लगी कि अरुण को मैं अपने घर ले चलूं तो शायद उसे दोबारा पा सकूं. लेकिन… लेकिन अगर अरुण ने मना कर दिया तो इस ‘तो’ ने सारी बात पर फुलस्टौप लगा दिया.

लेकिन न जाने कैसे मेरी दबी इच्छा बाहर निकल ही आई. मैं कह बैठी, ‘‘आप को परेशानी न हो तो मेरे घर पर रुक जाइए.’’

‘‘तुम्हारे घर,’’ अरुण ने आश्चर्यचकित हो कर कहा. उस की स्वीकृति पा कर मैं ने कैब वाले को अपने घर की तरफ चलने  का इशारा किया. मेरे दिल से एक बो झ सा उतर गया. 15 मिनट में ही कैब मेरे घर तक पहुंच गई. अपने कमरे की अस्तव्यस्त हालत के कारण मु झे अरुण के सामने शर्म आने लगी. अरुण कमरे का निरीक्षण कर रहा था, बोला, ‘‘कमरा तो तुम्हें अच्छा मिल गया है.’’

‘‘हां, 5,000 रुपए किराया है इस का. इस से कम में तो मिल ही नहीं सकता,’’ मैं कह गई.

तरोताजा होने के लिए अरुण बाथरूम में चला गया. इतनी देर में मैं ने सब चीजें करीने से लगा दीं. नाश्ते का इंतजाम भी कर लिया. अरुण को क्याक्या पसंद है, यह सब मु झे अभी तक याद था. उसे नाश्ता करा कर मैं भी नहाने चली गई.

‘‘क्या खाइएगा?’’ बहुत दिनों बाद मैं ने किसी से पूछा था. अरुण अपने सामने 4 साल पहले वाली रेखा को देख कर चौंक गया था. वह रेखा भी तो उस से सबकुछ पूछ कर बनाती थी.

‘‘जो रोज बनाती हो,’’ अरुण ने कहा. फिर मेरे जी में आया कि कह दूं, ‘अरुण, रोज मैं खाना बनाती ही कहां हूं. औरत सिर्फ अपना पेट भरने के लिए खाना नहीं बनाती. उस की कला तो दूसरों को तृप्त करने के लिए होती है. जब कोई खाने वाला ही नहीं तो मैं खाना किस के लिए बनाती?’

लेकिन मैं कुछ भी न कह पाई. चुपचाप मैं ने अरुण की पसंद की चीजें बना लीं. लेकिन हम दोनों में से कोई भी एक कौर भी आराम से नहीं खा पाया. हर कौर के साथ कुछ न कुछ घुटता जा रहा था.

रात हो चुकी थी. अरुण भी इधरउधर टहल कर लौट आया था.

‘‘मैं ने आप का बिस्तर लगा दिया है. बगल में मेरी सहेली रहती है. मैं वहां सो जाऊंगी,’’ मैं ने कहा तो अरुण आहत हो कर बोला, ‘‘रेखा, आदमी को कुछ तो विश्वास करना ही चाहिए. मैं इतना नीच तो नहीं हूं.’’

इस से आगे सुनने की मेरी हिम्मत नहीं थी. मैं ने वहीं बिस्तर लगा लिया. सारी रात जागते हुए ही बीती. अरुण भी जागता रहा और हम दोनों ही एकदूसरे की नजर बचा कर एकदूसरे को देखते रहे.

रोज की तरह सूरज निकल आया था अपनी अंजलि में ढेर सारी आस्थाएं लिए, विश्वास लिए. मैं ने सोचा, ‘मेरा रोज का काला सूरज आज क्या मेरे लिए भी नई आशाएं ले कर आया है?’

मैं ने जल्दीजल्दी खाना बनाया औफिस जो जाना था. अरुण चुपचाप लेटा हुआ था. न जाने वह क्या सोच रहा था.

मैं ने तैयार हो कर चाबी उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘खाना बना हुआ है, खा लेना.’’

‘‘औफिस से जल्दी आ सको, तो अच्छा है,’’ अरुण ने कहा तो मेरी इच्छा हुई कि काश, अरुण यही कह देता, ‘रेखा, आज तुम औफिस मत जाओ.’

लेकिन मैं जानती थी, अरुण ऐसा नहीं कह पाएगा. उस समय भी तो वह ऐसा नहीं कह पाया था जब मैं हमेशाहमेशा के लिए उस का घर छोड़ रही थी. तब आज कैसे कह सकता था जबकि मैं वापस लौटने के लिए ही जा रही थी.

औफिस में भी अरुण को नहीं भूल पाई. कितना परेशान हो रहा होगा वह. शायद पहचान का नया सिरा ढूंढ़ने की कोशिश में हो. इसी उधेड़बुन में मैं जल्दी ही घर लौट आई.

मैं खाने के लिए मेज साफ करने लगी. अरुण का बैलेट वहीं रखा था. उसे हटा कर मेज साफ करने की सोच जैसे ही मैं ने बैलेट हटाया, उस में से एक फोटो नीचे गिर पड़ी.

एकाएक मैं चौंक पड़ी. किसी बच्चे का फोटो था. सहसा मु झे एक धक्का सा लगा. मैं नीचे, बहुत नीचे गिरती जा रही हूं और अरुण लगातार ऊपर चढ़ता जा रहा है. अब मैं अरुण को कभी नहीं पा सकूंगी. पहले एक छोटी सी आशा थी कि शायद उसे दोबारा कभी पा लूंगी. लेकिन आज उस आशा ने भी दम तोड़ दिया था. अरुण का बच्चा है, तो पत्नी भी होगी. जो बात पिछले 24 घंटों में मैं अरुण से नहीं पूछ पाई थी, उस का उत्तर अपनेआप ही सामने आ गया था. अरुण के पास सबकुछ था. पत्नी, बेटा, लेकिन मेरे पास…

‘‘बहुत प्यारा बच्चा लग रहा है. क्या नाम है इस का?’’ मैं ने किसी तरह पूछा.

‘‘अंशुक,’’ कहते हुए अरुण के चेहरे पर अपराधबोध उतर आया था.

मेरे गले में फिर से कुछ अटकने लगा था. अरुण का भी शायद यही हाल था. कभी हम दोनों ने यही नाम अपने बच्चे के लिए सोचा था. आज अंशुक अरुण का पुत्र है, लेकिन मेरा पुत्र क्यों नहीं है? अंशुक मेरा पुत्र भी तो हो सकता था.

मैं मन ही मन कुलबुलाने लगी, ‘अरुण, क्या तुम ने हमारे उस घर में लिपटी धूल को पोंछने के साथसाथ मु झे भी पोंछ डाला है? क्या तुम मु झे अपने दिल से निकाल सके हो? तुम ने अपने पुत्र का नाम अंशुक क्यों रखा?’

मैं ढेरों सवाल पूछना चाहती थी, लेकिन कुछ भी पूछने की मेरी हिम्मत एक बार फिर जवाब दे गई. अब तो शायद मेरी जिंदा रहने की ताकत भी खत्म हो जाएगी. अभी तक  झूठी ही सही, लेकिन फिर भी आशा तो थी ही पीछे लौटने की. लेकिन अब तो सब दरवाजे बंद हो चुके हैं और आगे भी रास्ता बंद दिखाई दे रहा है. अब मैं कहां जाऊंगी? हार… हार… इस हार ने तो मु झे अंदर तक तोड़ डाला है.

फिर भी मैं शीघ्र ही संभल गई. इन  4 सालों के एकाकीपन ने मु झे इतना तो सिखा ही दिया था कि परिस्थितियों के अनुसार अपने को किस तरह काबू में रखना चाहिए.

‘‘कहां चलना है?’’ मैं  सहज हो कर तैयार हो गई थी. अब तक मैं सम झ चुकी थी कि अरुण अब मेरा केवल परिचित मात्र रह गया है. लेकिन फिर भी मैं ने लाल बौर्डर वाली पीली साड़ी पहनी थी. अरुण अपनी पसंद की साड़ी में मु झे देखता ही रह गया था. मैं ने फिर मन ही मन कहा, ‘क्या देख रहे हो, अरुण? मैं वही रेखा हूं. कुछ भी, कहीं भी नहीं बदला है. फिर, किस वजह से हम एकदूसरे से इतनी दूर हो गए हैं?’

मैं ने सिर  झटक दिया. सीढि़यां उतरते ही हम भीड़भरी सड़क का एक अंग बन गए.

उस दिन मैं थक कर चूर हो गई थी. पर मेरी आंखों में नींद कहां थी. अरुण भी पिछला कुछ नहीं भूला था. वह लगातार सिगरेट पीता रहा. फिर अचानक बोला, ‘‘रेखा, वैसे तो अब तुम पर मेरा कोई हक नहीं लेकिन तब भी कह रहा हूं, इतनी दूर अकेली मत रहो. लौट आओ, वापस लखनऊ. नौकरी करना इतना जरूरी तो नहीं?’’

मेरे गले में कुछ अटकने लगा. अरुण को औरतों का नौकरी करना कभी पसंद नहीं आया. मैं ने फिर कहना चाहा, ‘अरुण, नौकरी करना उन के लिए जरूरी नहीं जिन के पास सबकुछ हो, मेरे पास तो कुछ भी नहीं. फिर पिछला सब भुलाने के लिए ही तो मैं इतनी दूर आई हूं. वरना नौकरी तो मु झे वहां भी मिल जाती. लखनऊ वापस लौट कर मैं क्या जिंदा भी रह पाऊंगी? जब अतीत बुरे सपने की तरह पीछा करेगा तो उस से मैं कैसे बचूंगी? कहांकहां भागूंगी? किसकिस से बचूंगी? नहीं अरुण, मु झे वापस लौटने को मत कहो. मु झे  झूठी मृगतृष्णा में मत फंसाओ. जानते हो, रेतीली चट्टानों के पीछे भागने वाले को प्यासा ही भटकना पड़ता है.’

मेरी आह निकल गई. मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया.

अपनी पीड़ा को मैं किस से कहती? जिसे मैं ने तनमन से पागलपन की हद तक प्यार किया था उसी ने मु झे गलत सम झा था. मु झ पर अविश्वास किया था. इसी वजह से मेरा दबा आत्मसम्मान सिर उठा चुका था और फिर मैं ने कठोर फैसला कर ही लिया था. तब मैं अरुण से यह कह कर चली आई थी, ‘अरुण, अविश्वास करना तुम्हारी आदत में शामिल हो चुका है. इसलिए तुम मेरी किसी बात पर अब विश्वास नहीं कर पाओगे. मैं जा रही हूं.

यकीन मानो, अब कभी मैं तुम्हारे दरवाजे पर लौट कर नहीं आऊंगी.’

मु झे याद आया, अरुण उस वक्त अचकचा रहा था. लेकिन कुछ कह नहीं पाया था और तब मेरा सबकुछ लखनऊ में ही छूट गया था. फिर कोलकाता ने ही मु झे नई जिंदगी दी थी.

‘‘राकेश कहां है आजकल?’’ अचानक मेरे मुंह से निकल गया.

अरुण ने कंधे सीधे कर सिगरेट  ली. मैं ने महसूस किया, वह कुछ ज्यादा ही सिगरेट पीने लगा है. मुंह से धुआं निकालते हुए उस ने कहा, ‘‘अमेरिका में है. वहीं उस ने किसी बंगाली लड़की से शादी कर ली है.’’

मु झे चक्कर सा आने लगा. यानी, सब आगे बढ़ गए हैं. राकेश अमेरिका में है अपनी पत्नी के पास. मु झ पर अविश्वास करने वाला मेरा पति भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ है. तो क्या मैं ही अभिशप्त हूं? क्या मेरा कारावास कभी खत्म नहीं होगा?

अपने लिए निर्णय पर अब मु झे पछतावा होने लगा.  झूठे आत्मसम्मान के चक्कर में मु झे क्या मिला? अतीत के चंद सुखद पन्ने और अंधकारमय एकाकी भविष्य ही न, जहां भटक जाने पर भी अब मु झे कोई पुकारने वाला नहीं. अभी तक कभी रोई नहीं थी. फिर इस वक्त ही क्यों मु झे पछतावा हो रहा है? तब मैं खुद ही तो उन सारे दरवाजों को बंद कर आई थी हमेशाहमेशा के लिए.

एक सवाल ने मेरे मन में हलचल मचा दी थी. अरुण से उस समय नहीं पूछ पाई थी, सोचा था, अरुण खुद पूछेगा और मैं  झूठा आत्मसम्मान छोड़ कर उस के पास वापस चली जाऊंगी. लेकिन उस का भी तो आत्मसम्मान बाधक बना हुआ था. इसीलिए तो मेरे इस सवाल का जवाब मु झे नहीं मिल पाया था,  ‘अरुण, तुम ने मु झ पर अविश्वास क्यों किया? मैं ने तो तुम्हें हमेशा ही चाहा. एक ही छत के नीचे, एक ही बिस्तर पर लेटे हम क्या एकदूसरे से इतना दूर हो गए थे कि एकदूसरे को सम झ नहीं सकते थे या सम झा नहीं सकते थे?’ मु झे याद है, 4 साल पूर्व की घटना, लग रहा था जैसे अभी कल ही घटी है.

‘आज राकेश आया था. हम कितनी देर बातें करते रहे, पता ही न चला.’

मेरी आवाज पर अरुण कुछ चौंक सा गया था, बोला था, ‘अच्छा, कब आया था? मु झ से मिला नहीं.’ लेकिन मैं ने अरुण की बात पर ध्यान नहीं दिया था. तब अरुण अपने अंदर एक वहम पाल बैठा था. फिर वह उसे पालता ही रहा था. जानेअनजाने मैं ने भी उस वहमरूपी पौधे को और सींच दिया था, कहा था, ‘तुम से अच्छा ही है वह.’

उस वक्त उम्र के उस मोड़ पर रंगीन दुनिया में विचरते हुए मैं ने यथार्थ के धरातल पर उतरने की जरूरत नहीं सम झी थी. प्यार के आवेश में मैं सबकुछ भूल गई थी. प्यार के साथ सम झदारी भी चाहिए. अरुण पर अगाध विश्वास के कारण ही तो मैं सब से हंसती हुई बोलती रहती थी.

लेकिन तभी मैं ने महसूस किया था कि अरुण बदलता जा रहा है. हमारे संबंधों में अजीब सा ठंडापन आ गया है. जब हम दोनों बैठते तो बीच में एक निशब्द सन्नाटा पसरा रहता. पहले दूर रहते हुए भी एकदूसरे के सुखद स्पर्श का एहसास होता रहता था, लेकिन अब स्थिति में एक अजीब सा अंतर आ गया था.

मैं अरुण के पास जाने की कोशिश करती तो लगता, अरुण मेरी आंखों में किसी और को तलाश रहा है. अरुण ऊपर से अब ठंडी राख की तरह लगने लगा था, लेकिन उस का अंतर जल रहा था, क्रोध से या फिर ईर्ष्या से. और फिर एक दिन ठंडी राख के अंदर जलते अंगारों से मन जल उठा था, बुरी तरह  झुलस गया था.

अब अरुण लौट रहा था अपने बच्चे और पत्नी के पास, जो व्याकुलता से उस का इंतजार कर रहे होंगे. मैं अरुण को स्टेशन छोड़ने गई थी. मेरा पल्ला हवा में लहरा कर अरुण के कंधे से लिपट गया था, जो शायद मेरे लौट जाने की इच्छा को प्रकट कर रहा था.

हम दोनों ही चुप थे. कितने अनपूछे प्रश्न हमारे बीच तैर रहे थे. रेल आ गई. 2-3 मिनट बाकी थे. मैं पूछना चाह रही थी, ‘अरुण, क्या सारा दोष मेरा ही था, तुम निर्दोष थे? तब फिर मु झे ही क्यों सजा भुगतनी पड़ रही है? क्या इसलिए कि मैं तुम्हें आज भी भुला नहीं पाई हूं?’ रेल ने सीटी दे दी. अरुण लपक कर डब्बे में चढ़ गया. बंद मुट्ठी से कुछ फिसलने लगा था. खिड़की पर रखे मेरे कांपते हाथ पर अरुण ने हौले से अपना हाथ रख दिया था और फिर धीरे से बोला था, ‘‘अपना खयाल रखना.’’

रेल चल चुकी थी. 2-3 दिन का सुखद वर्तमान  झटके से फिसल गया था. अरुण लौट रहा था अपने परिवार के पास और मु झे… मु झे इन फिसले हुए कणों को सहेज कर रखना था. मैं सिसक पड़ी थी मन ही मन बड़बड़ाते हुए, ‘अरुण, तुम्हारा तो इंतजार हो रहा होगा, लेकिन मेरा अब कौन इंतजार करेगा?

‘तुम्हारी कहानी शायद यहीं समाप्त हो जाएगी, लेकिन मेरी कहानी तो यहीं से शुरू हो रही है, नए सिरे से.’

और मेरे पैर उस रास्ते पर बढ़ चले जिसे मैं खुद भी नहीं जानती.

मेरी शादी को 8 साल हो चुके हैं, लेकिन अभी तक कंसीव नहीं कर पाई हूं?

सवाल

मेरी उम्र 35 साल है. मेरी शादी को 8 साल हो चुके हैं, लेकिन अभी तक कंसीव नहीं कर पाई हूं. मुझे धूम्रपान की भी आदत है. क्या कोई तरीका है, जिस से मैं मां बन सकूं?

जवाब-

इस उम्र में कंसीव करने में समस्या आना आम बात है, लेकिन इस का सब से बड़ा कारण धूम्रपान है. यदि आप मां बनना चाहती हैं तो धूम्रपान को पूरी तरह छोड़ना होगा. यदि आप के पति भी स्मोकिंग करते हैं, तो उन्हें भी इस आदत को छोड़ने के लिए कहें. आप की उम्र अधिक है, इसलिए जल्दी गर्भधारण करना जरूरी है, वरना वक्त के साथ समस्या और बढ़ सकती है. इस के लिए पहले आप किसी डाक्टर से परामर्श लें. यदि इलाज से फायदा न हो तो आप आईवीएफ ट्रीटमैंट की मदद ले सकती हैं.

ये भी पढ़ें- 

आईवीएफ प्रक्रिया के माध्यम से हर साल हजारों बच्चे जन्म लेते हैं. जो महिलाएं बांझपन जैसी समस्या से जूझ रही हैं उन के लिए आईवीएफ प्रक्रिया की यह जानकारी काफी फायदेमंद हो सकती है:

पहला चरण: मासिकधर्म के दूसरे दिन आप के ब्लड टैस्ट एवं अल्ट्रासाउंड के माध्यम से आप के अंडाशय की जांच होती है. फिर यह अल्ट्रासाउंड सुनिश्चित करता है कि आप को कितनी मात्रा में स्टिम्युलेशन दवा दी जानी चाहिए. मासिकधर्म के दौरान डाक्टर जांच के तहत हो रही प्रक्रिया पर निगरानी करते हैं. फिर जांच के बाद आप के फौलिकल्स यानी रोम को मौनिटर करते हैं. जैसे ही आप का रोम एक निश्चित आकार में पहुंच जाता है तो फिर आप उसे रोज मौनिटर कर सकते हैं. मौनिटरिंग के बाद आप को दूसरी दवा दी जाती है, जो ट्रिगर शौट के रूप में जानी जाती है.

घर की बची नमकीन से बनाएं स्वादिष्ट मसाला समोसा

हमारे घरों में चाय नाश्ते के साथ अक्सर नमकीन खाई जाती है इनमें विविध प्रकार के सेव, आलू भुजिया, मूंगफली  और मिक्सचर शामिल होता है. बाजार से इन्हें लाने के बाद कुछ दिनों तक तो घर के सभी सदस्य बड़े स्वाद से खाते हैं परन्तु कुछ समय बाद नए नमकीन के आ जाने या दूसरा कुछ नाश्ता बन जाने पर घर के सदस्य इन्हें खाना बंद कर देते हैं. यही नहीं अक्सर घरों में भांति भांति की जरा जरा सी नमकीन और मिक्सचर डिब्बों की तली में पड़ी रह जाती है. इतने महंगे दामों पर मिलने वाली इन नमकीनों को फेंकने का भी मन नहीं करता. आज हम घर की इन्हीं बची नमकीनों से स्वादिष्ट समोसे बनाना बताएगें. इन्हें आप किसी पर्व या अवसर पर पहले से बनाकर रख सकतीं हैं क्योंकि ये 10-12 दिन तक खराब नहीं होते. होली आने वाली है तो आप इन्हें ट्राई कर सकतीं हैं.

कितने लोंगों के लिए         12

बनने में लगने वाला समय   30 मिनट

मील टाइप                       वेज

सामग्री

मैदा                          1 कप

गेहूं का आटा              1/2 कप

नीबू का रस                1 टीस्पून

नमक                         1/2 टीस्पून

अजवाइन                    1/4 टीस्पून

मोयन के लिये तेल         1 टेबलस्पून

तलने के लिए पर्याप्त मात्रा में तेल

सामग्री (भरावन के लिए)

आलू भुजिया              4 टेबलस्पून

मिक्सचर                     2 टेबलस्पून

सेंव                             2 टेबलस्पून

रोस्टेड मूंगफली            2 टेबलस्पून

काजू                           2 टेबलस्पून

किशमिश                     1 टेबलस्पून

चाट मसाला                  1/4 टीस्पून

सौंफ पाउडर                 1/4 टीस्पून

शेजवान सॉस (ऐच्छिक) 1 टीस्पून

विधि

मैदा में गेंहू का आटा, मोयन, नीबू का रस, अजवाइन और नमक मिलाकर पानी की सहायता से कड़ा गूंथकर आधे घण्टे के लिए सूती कपड़े से ढककर रख दें.

अब भरावन के लिए आलू भुजिया, मिक्सचर, सेंव, मूंगफली और काजू को मिक्सी में दरदरा पीस लें. ध्यान रखें कि मिश्रण एकदम पाउडर न हो जाये. इसे एक बाउल में निकालकर चाट मसाला, सौंफ पाउडर, किशमिश और शेजवान सॉस मिलाएं. तैयार मिश्रण से रोटी की लोई से छोटे बॉल्स तैयार करें. अब थोड़ी मैदा लेकर चकले पर बड़ी सी रोटी बनाएं. चाकू की सहायता से काजू कतली जैसे टुकड़े काटकर अलग कर लें. इन कटे टुकड़ों पर चारों ओर ब्रश या चम्मच से पानी लगाएं. बीच में मिश्रण की बॉल रखकर ऊपरी

सतह को फोल्ड करके दोनों कोनों को मिलाकर चारों ओर से उंगली से दबा दें ताकि किनारे चिपक जाएं. कांटे से किनारों को हल्का सा दबा दें. इसी प्रकार सारे समोसे तैयार करें. मध्यम गर्म तेल में मंदी आंच पर इन्हें सुनहरा होने तक तलकर बटर पेपर पर निकाल कर एयरटाइट जार में भरें और इच्छानुसार प्रयोग करें.

सप्ताह का एक दिन: रिचा की क्या थी गलती

अजय अभी भी अपनी बात पर अडिग थे, ‘‘नहीं शोभा, नहीं… जब बेटी के पास हमारे लिए एक दिन का भी समय नहीं है तब यहां रुकना व्यर्थ है. मैं क्यों अपनी कीमती छुट्टियां यहां रह कर बरबाद करूं…और फिर रह तो लिए महीना भर.’’

‘‘पर…’’ शोभा अभी भी असमंजस में ही थीं.

‘‘हम लोग पूरे 2 महीने के लिए आए हैं, इतनी मुश्किल से तो आप की छुट्टियां मंजूर हो पाई हैं, फिर आप जल्दी जाने की बात कहोगे तो रिचा नाराज होगी.’’

‘‘रिचा…रिचा…अरे, उसे हमारी परवा कहां है. हफ्ते का एक दिन भी तो नहीं है उस के पास हमारे लिए, फिर हम अभी जाएं या महीने भर बाद, उसे क्या फर्क पड़ता है.’’

अजय फिर बिफर पड़े थे. शोभा खामोश थीं. पति के मर्म की चोट को वह भी महसूस कर रही थीं. अजय क्या, वह स्वयं भी तो इसी पीड़ा से गुजर रही थीं.

अजय को तो उस समय भी गुस्सा आया था जब फोन पर ही रिचा ने खबर दी थी, ‘‘ममा, जल्दी यहां आओ, आप को सौरभ से मिलवाना है. सच, आप लोग भी उसे बहुत पसंद करेंगे. सौरभ मेरे साथ ही माइक्रोसौफ्ट में कंप्यूटर इंजीनियर है. डैशिंग पर्सनैलिटी, प्लीजिंग बिहेवियर…’’ और भी पता नहीं क्याक्या कहे जा रही थी रिचा.

अजय का पारा चढ़ने लगा, फोन रखते ही बिगड़े थे, ‘‘अरे, बेटी को पढ़ने भेजा है. वह वहां एम.एस. करने गई है या अपना घर बसाने. दामाद तो हम भी यहां ढूंढ़ लेंगे, भारत में क्या अच्छे लड़कों की कमी है, कितने रिश्ते आ रहे हैं. फिर हमारी इकलौती लाड़ली बेटी, हम कौन सी कमी रहने देंगे.’’

बड़ी मुश्किल से शोभा अजय को कुछ शांत कर पाई थीं, ‘‘आप गुस्सा थूक दीजिए…देखिए, पसंद तो बेटी को ही करना होगा, तो फिर यहां या वहां क्या फर्क पड़ता है. अब हमें बुला रही है तो ठीक है, हम भी देख लेंगे.’’

‘‘अरे, हमें तो वहां जा कर बस, उस की पसंद पर मुहर लगानी है. उसे हमारी पसंद से क्या लेनादेना. हम तो अब कुछ कह ही नहीं सकते हैं,’’ अजय कहे जा रहे थे.

बाद में रिचा के और 2-3 फोन आए थे. बेमन से ही सही पर जाने का प्रोग्राम बना. अजय को बैंक से छुट्टी मंजूर करानी थी, पासपोर्ट, वीजा बनना था, 2 महीने तो इसी में लग गए…अब इतनी दूर जा रहे हैं, खर्चा भी है तो कुछ दिन तो रहें, यही सब सोच कर 2 महीने रुकने का प्रोग्राम बनाया था.

पर यहां आ कर तो महीना भर काटना भी अजय को मुश्किल लगने लगा था. रिचा का छोटा सा एक कमरे का अपार्टमेंट. गाड़ी यहां अजय चला नहीं सकते थे, बेटी ही कहीं ले जाए तो जाओ…थोड़ेबहुत बस के रूट पता किए पर अनजाने देश में सभी कुछ इतना आसान नहीं था.

फिर सब से बड़ी बात तो यह कि रिचा के पास समय नहीं था. सप्ताह के 5 दिन तो उस की व्यस्तता के होते ही थे. सुबह 7 बजे घर से निकलती तो लौटने में रात के 8 साढे़ 8 बजते. दिन भर अजय और शोभा अपार्टमेंट में अकेले रहते. बड़ी उत्सुकता से वीक एंड का इंतजार रहता…पर शनिवार, इतवार को भी रिचा का सौरभ के साथ कहीं जाने का कार्यक्रम बन जाता. 1-2 बार ये लोग भी उन के साथ गए पर फिर अटपटा सा लगता. जवान बच्चों के बीच क्या बात करें…इसलिए अब खुद ही टाल जाते, सोचते, बेटी स्वयं ही कुछ कहे पर रिचा भी तो आराम से सौरभ के साथ निकल जाती.

‘‘सबकुछ तो बेटी ने तय कर ही लिया है. बस, हमारी पसंद का ठप्पा लगवाना था उसे, पर बुलाया क्यों था हमें जब सप्ताह का एक दिन भी उस के पास हमारे लिए नहीं है,’’ अजय का यह दर्द शोभा भी महसूस कर रही थीं, पर क्या कहें?

अजय ने तो अपना टिकट जल्दी का करवा लिया था. 1 ही सीट खाली थी. कह दिया रिचा से कि बैंक ने छुट्टियां कैंसल कर दी हैं.

‘‘मां, तुम तो रुक जातीं, ठीक है, पापा महीना भर रह ही लिए, छुट्टियां नहीं हैं, और अभी फिलहाल तो सीट भी 1 ही मिल पाई है.’’

शोभा ने चुपचाप अजय की ओर देखा था.

‘‘भई, तुम्हारी तुम जानो, जब तक चाहो बेटी के पास रहो, जब मन भर जाए तो चली आना.’’

अजय की बातों में छिपा व्यंग्य भी वह ताड़ गई थीं, पर क्या कहतीं, मन में जरूर यह विचार उठा था कि ठीक है रिचा ने पसंद कर लिया है सौरभ को, पर वह भी तो अच्छी तरह परख लें, अभी तो ठीक से बात भी नहीं हो पाई है और फिर उस के इस व्यवहार से अजय को चोट पहुंची है. यह भी तो समझाना होगा बेटी को.

अजय तीसरे दिन चले गए थे.

अब और अकेलापन था…बेटी की तो वही दिनचर्या थी. क्या करें…इधर सुबह टहलने का प्रोग्राम बनाया तो सर्दी, जुकाम, खांसी सब…

जब 2-3 दिन खांसते हो गए तो रिचा ने ही उस दिन सुबहसुबह मां से कह दिया, जब वह चाय बना रही थीं, ‘‘अरे, आप की खांसी ठीक नहीं हो रही है, पास ही डा. डेनियल का नर्सिंग होम है, वहां दिखा दूं आप को…’’

‘‘अरे, नहीं,’’ शोभा ने चाय का कप उठाते हुए कहा, ‘‘खांसी ही तो है. गरम पानी लूंगी, अदरक की चाय तो ले ही रही हूं. वैसे मेरे पास कुछ दवाइयां भी हैं, अब यहां तो क्या है, हर छोटीमोटी बीमारी के लिए ढेर से टेस्ट लिख देते हैं.’’

‘‘नहीं मां, डा. डेनियल ऐसे नहीं हैं. मैं उन से दवा ले चुकी हूं. एक बार पैर में एलर्जी हुई थी न तब…बिना बात में टेस्ट नहीं लिखेंगे, और उन की पत्नी एनी भी मुझे जानती हैं, अभी मेरे पास टाइम है, आप को वहां छोड़ दूं. वैसे क्लिनिक पास ही है. आप पैदल ही वापस आ जाना, घूमना भी हो जाएगा.’’

रिचा ने यह सब इतना जोर दे कर कहा था कि शोभा को जाना ही पड़ा.

डा. डेनियल का क्लिनिक पास ही था… सुबह से ही काफी लोग रिसेप्शन में जमा थे. नर्स बारीबारी से सब को बुला रही थी.

यहां सभी चीजें एकदम साफसुथरी करीने से लगी हुई लगती है और लोग कितने अनुशासन में रहते हैं.

शोभा की विचार शृंखला शुरू हो गई थी, उधर रिचा कहे जा रही थी, ‘‘मां, डा. डेनियल ने अपनी नर्स से विवाह कर लिया था और अस्पताल तो वही संभाल रही हैं, किसी डाक्टर से कम नहीं हैं, अभी पहले डा. डेनियल की मां आप का बायोडाटा लेंगी…75 से कम उम्र क्या होगी, पर सारा सेके्रटरी का काम वही करती हैं.’’

‘‘अपने बेटे के साथ ही रहती होंगी,’’ शोभा ने पूछा.

‘‘नहीं, रहती तो अलग हैं. असल में बहू से उन की बनती नहीं है, बोलचाल तक नहीं है पर बेटे को भी नहीं छोड़ पाती हैं, तो यहां काम करती हैं.’’

शोभा को रिचा की बातें कुछ अटपटी सी लगने लगी थीं. उधर नर्स ने अब शोभा का ही नाम पुकारा था.

‘‘अच्छा, मां, मैं अब चलूं, आप अपनी दवा ले कर चली जाना, रास्ता तो देख ही लिया है न, बस 5 मिनट पैदल का रास्ता है, यह रही कमरे की चाबी,’’ कह कर रिचा तेजी से निकल गई थी.

नर्स ने शोभा को अंदर जाने का इशारा किया.

अंदर कमरे में बड़ी सी मेज पर कंप्यूटर के सामने डा. मिसेज जौन बैठी थीं.

‘‘हाय, हाउ आर यू,’’ वही चिर- परिचित अंदाज इस देश का अभिवादन करने का.

‘‘सो, मिसेज शोभा प्रसाद…व्हाट इज योर प्रौब्लम…’’ और इसी के साथ मिसेज जौन की उंगलियां खटाखट कंप्यूटर पर चलने लगी थीं.

शोभा धीरेधीरे सब बताती रहीं, पर वह भी अभिभूत थीं, इस उम्र में भी मिसेज जौन बनावशृंगार की कम शौकीन नहीं थीं. करीने से कटे बाल, होंठों पर लाल गहरी लिपस्टिक, आंखों में काजल, चुस्त जींस और जैकेट.

हालांकि उन के चेहरे से उम्र का स्पष्ट बोध हो रहा था, हाथ की उंगलियां तक कुछ टेढ़ी हो गई थीं, क्या पता अर्थराइटिस रहा हो. फिर भी कितनी चुस्ती से सारा काम कर रही थीं.

‘‘अब आप उधर जाओ…

डा. डेनियल देखेंगे आप को.’’

शोभा सोच रही थीं कि मां हो कर भी यह महिला यहां बस, जौब के एटीकेट्स की तरह  ही व्यवहार कर रही हैं…कहीं से पता नहीं चल रहा है कि     डा. डेनियल उसी के बेटे हैं.

डा. डेनियल की उम्र भी 50-55 से कम क्या होगी…लग भी रहे थे, एनी भी उसी उम्र के आसपास होगी…पर वह काफी चुस्त लग रही थी और उस की उम्र का एहसास नहीं हो रहा था. बनावशृंगार तो खैर यहां की परंपरा है.

‘‘यू आर रिचाज मदर?’’ डा. डेनियल ने देखते ही पूछा था.

शायद रिचा ने फोन कर दिया होगा.

खैर, उन्होंने कुछ दवाइयां लिख दीं और कहा, ‘‘आप इन्हें लें, फिर फ्राइडे को और दिखा दें…आप को रिलीफ हो जाना चाहिए, नहीं तो फिर मैं और देख लूंगा.’’

‘‘ओके, डाक्टर.’’

शोभा ने राहत की सांस ली. चलो, जल्दी छूटे. दवाइयां भी बाहर फार्मेसी से मिल गई थीं. पैदल घर लौटने से घूमना भी हो गया. दिन में कई बार फिर मिसेज जौन का ध्यान आता कि वह भी तो मां हैं पर रिचा ने कैसे इतनी मैकेनिकल लाइफ से अपनेआप को एडजस्ट कर लिया है. वहां देख कर तो लगता ही नहीं है कि मां की बेटेबहू से कोई बात भी होती होगी. रिचा भी कह रही थी कि मां अकेली हैं, अलग रहती हैं. अपने टाइम पर आती हैं, कमरा खोलती हैं, काम करती हैं.

पता नहीं, शायद इन लोगों की मानसिकता ही अलग हो.

जैसे दर्द इन्हें छू नहीं पाता हो, तभी तो इतनी मुस्तैदी से काम कर लेते हैं.

शोभा को फिर रिचा का ध्यान आया. इस वीक एंड में वह बेटी से भी खुल कर बात करेंगी. भारत जाने से पहले सारी मन की व्यथा उड़ेल देना जरूरी है. वह थोड़े ही मिसेज जौन की तरह हो सकती हैं.

वैसे डा. डेनियल की दवा से खांसी में काफी फायदा हो गया था. फिर भी रिचा ने कहा, ‘‘मां, आप एक बार और दिखा देना…चाहो तो इन दवाओं को और कंटीन्यू करा लेना.’’

वह भी सोच रही थीं कि फ्राइडे को जा कर डाक्टर को धन्यवाद तो दे ही दूं. पैदल घूमना भी हो जाएगा.

सब से रहस्यमय व्यक्तित्व तो उन्हें मिसेज जौन का लगा था. इसलिए उन से भी एक बार और मिलने की इच्छा हुई थी…आज अपेक्षाकृ त कम भीड़ थी, नर्स ने बताया कि आज एनी भी नहीं आई हैं, डाक्टर अकेले ही हैं,…

‘‘क्यों…’’

‘‘एनी छुट्टी रखती हैं न फ्राइडे को.’’

‘‘अच्छा, पर सेक्रेटरी,’’

‘‘हां, आप इधर चली जाओ, पर जरा ठहरो, मैं देख लूं.’’

मिसेज जौन के कमरे के बाहर अब शोभा के भी पैर रुक गए थे. शायद वह फोन पर बेटे से ही बात कर रही थीं.

‘‘पर डैनी…पहले ब्रेकफास्ट कर लो फिर देखना पेशेंट को…यस, मैं ने मफी बनाए थे…लाई हूं और यहां काफी भी बना ली है…यस कम सून…ओके.’’

‘‘आप जाइए…’’

नर्स ने कहा तो शोभा अंदर गईं… वास्तव में आज मिसेज जौन काफी अच्छी लग रही थीं…आज जौन वाला एटीट्यूड भी नहीं था उन का.

‘‘हलो, मिसेज शोभा, यू आर ओके नाउ,’’ चेहरे पर मुसकान फैल गई थी मिसेज जौन के.

‘‘यस…आय एम फाइन…’’ डाक्टर साहब ने अच्छी दवाइयां दीं.’’

‘‘ओके, ही इज कमिंग हिअर… यहीं आप को देख लेंगे. आप काफी लेंगी,’’ मिसेज जौन ने सामने रखे कप की ओर इशारा किया.

‘‘नो, थैंक्स, अभी ब्रेकफ ास्ट कर के ही आई हूं.’’

शोभा को आज मिसेज जौन काफी बदली हुई और मिलनसार महिला लगीं.

‘‘यू आर आलसो लुकिंग वेरी चियरफुल टुडे,’’ वह अपने को कहने से रोक नहीं पाई थीं.

‘‘ओह, थैंक्स…’’

मिसेज जौन भी खुल कर हंसी थीं.

‘‘बिकौज टुडे इज फ्राइडे…दिस इज माइ डे, मेरा बेटा आज मेरे पास होगा, हम लोग नाश्ता करेंगे, आज एनी नहीं है इसलिए, यू नो मिसेज शोभा, वीक का यही एक दिन तो मेरा होता है. दिस इज माई डे ओनली डे इन दी फुल वीक,’’ मिसेज जौन कहे जा रही थीं और शोभा अभिभूत सी उन के चेहरे पर आई चमक को देख रही थीं.

शब्द अभी भी कानों में गूंज रहे थे …ओनली वन डे इन ए वीक…

फिर अजय याद आए, बेटी के पास सप्ताह भर में एक दिन भी नहीं है हमारे लिए …अजय का दर्द भरा स्वर…और आज उसे लगा, मानसिकता कहीं भी अलग नहीं है.

वही मांबाप का हृदय…वही आकांक्षा फिर अलग…कहां हैं हम लोग.

ओनली डे इन ए वीक…वाक्य फिर ठकठक कर दिमाग पर चोट करने लगा था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें