पश्चात्ताप : आज्ञाकारी पुत्र घाना को किस बात की मिली सजा?

लेखक- धीरज कुमार

ट्रेन से उतर कर टैक्सी किया और घर पहुंच गया. महीनों बाद घर वापस आया था. मुझे व्यापार के सिलसिले में अकसर बाहर रहना पड़ता है. मैं लंबी यात्रा के कारण थका हुआ था, इसलिए आदतन सब से पहले नहाधो कर फ्रेश हुआ. तभी  पत्नी आंगन में चायनाश्ता ले आई. चाय पीते हुए मां से बातें कर रहा था. अगर मैं घर से बाहर रहूं और कुछ दिनों बाद वापस आता हूं तो  मां  घर की समस्याएं और गांवघर की दुनियाभर की बातें ले कर बैठ जाती है. यह उस की पुरानी आदत है. इसलिए कुछ उस की बातें सुनता हूं. कुछ बातों पर ध्यान नहीं देता हूं. परंतु इस प्रकार अपने गांवघर के बारे में बहुतकुछ जानकारी मिल जाती है.

मां ने बातोंबातों में बताया कि, “उस ने अपने बिसेसर चाचा की हत्या  डंडे से पीटपीट कर  कर दी है. उसे  जेल हो गई है.”

“कौन, मां, तुम किस के बारे में कह रही हो?” मैं ने हत्या और जेल के बारे में सुन कर जरा चौकन्ना होते हुए पूछा.

” घाना…ना…, घाना के बारे में बता रही हूं,” मां जोर देते हुए बोली.

” घाना ने किस की हत्या कर दिया, मां? ” मैं ने ज़रा आश्चर्य से पूछा था.

“अरे, वह अपने बिसेसर चाचा की, बउआ,” वह दृढ़ता से बोली थी.

यह सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ. एक पल को लगा, शायद यह झूठ है. किंतु सच तो सच होता है न, कई दिनों तक उस के बारे में मेरे मन में विचार उमड़तेघुमड़ते रहे.

मुझे आज भी याद है. हम दोनों एकसाथ बचपन में खेलते थे. साथसाथ बगीचे से आम चुराते थे. खेतों से मटर ककी फलियां तोड़ना, एकसाथ पगडंडियों पर दौड़ना… दोनों साथ साथ खेलते हुए बड़े हुए थे.

आज मैं व्यापार के सिलसिले में अपने गांव से दूर रहता हूं और कभीकभार ही आ पाता हूं. समयाभाव के कारण मिलनाजुलना हम दोनों का कम हो गया था. किंतु आज भी हमदोनों की पटती है. जब भी मैं गांव  आता हूं, हम दोनों की घंटों बातें होती हैं.

उस के परिवार के लोगों की विसेसर चाचा से पुरानी रंजिश थी क्योंकि वे उस के गोतिया थे. मैं एक बार किसी काम से उस के घर जा रहा था. उस की चाची से उस की मां की तूतूमैंमैं हो रही थी. उस की मां जोरजोर से गालियां दे रही थी.

उस की चाची व उस की चचेरी बहनें भी उस की मां को  गालियां देने लगीं.

उस की मां  जोरजोर से चिल्लाने लगी, “दौड़ रे घाना…” इतना सुनते ही घाना अंदर से दौड़ पड़ा था. ऐसा लग रहा था, अभी वह चाची पर टूट पड़ेगा. वह भी मां की तरह से अनापशनाप बोलने लगा. मैं ने उस को डांटा और शांत किया. वह मेरी बात मानता था. मैं ने उस को समझाया, “छोटीछोटी बातों पर गुस्सा क्यों करते हो, आखिर, वह तुम्हारी चाची ही तो है.”

कुछ देर बाद मामला रफादफा हो गया था.

कुछ दिनों बाद उस ने बताया कि, “चाचा के परिवार से परेशान हो गया हूं. वे लोग जमीनजायदाद के बंटवारे को उलझा कर रखे हैं. उन्होंने बंटवारे में ज्यादा जमीन रख ली है. इसलिए हम दोनों परिवारों में झगड़ा और तनाव रहता है. वे दोबारा बंटवारे के लिए  तैयार नहीं हो रहे हैं.”

यह कहते हुए वह गंभीर हो गया था.

मैं ने उस को समझाया, “क्यों नहीं तुम लोग सहूलियत से ही  मांग लेते हो.”

“वे कभी नहीं देंगे. वे बहुत अड़ियल हैं,” वह निराश होते हुए बोला था.

वह मेरा बचपन का दोस्त था. मैं उस को भलीभांति जानता हूं. वह कभीकभी उखड़ जाता है, गुस्से पर नियंत्रण नहीं कर पाता है. परंतु वह इतना कठोर नहीं है कि हत्या जैसे अपराध में लिप्त हो जा.

गांव के लोगों से मालूम हुआ कि जब वह केस हार गया और उसे सजा मिल गई तो उस ने अपने मांबाबूजी से भी मिलने से इनकार कर दिया.

सभी लोग उसे अपराधी मान रहे थे. लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था. इसलिए मैं ने समय निकाल कर उस से मिलने के लिए सोचा.

मैं जेल के सामने खड़ा था. वह कुछ देर बाद  सलाखों के पीछे आ चुका था. मुझे देखते ही उस की आंखों में आंसू आ गए. उस के आंसू रुक नहीं रहे थे. मैं बारबार उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था.

“घाना,  मैं तुम से जानने आया हूं  कि आखिर यह सब कैसे हो गया?” मैं ने उस से सीधा सवाल किया था.

वह बहुत देर तक अपने आंसुओं पर काबू पाने की कोशिश करता रहा. जब आंसू रुके तो उस ने बोलना शुरू किया, “भैया, आप जानते हैं…”

मैं उस की उम्र से थोड़ा बड़ा हूं और गांवघर के रिश्ते में भाई भी लगता हूं, इसलिए वह मुझे भैया ही कहता है. फिर भी, वह मेरा दोस्त है.

एक बार फिर रुक कर उस ने बोला शुरू किया, “मैं गुस्से के आवेग में ऐसा कर गया. वहां मांबाबूजी और मेरी बहन  भी थी. मां मारोमारो की आवाज लगा रही थी. बहन ने आग में घी डालने का काम कर दिया. मैं आगेपीछे नहीं सोच पाया. किसी ने एक बार भी मुझ से यह नहीं कहा कि मत मारो. अगर  किसी ने एक बार भी रोका होता,  तो शायद मैं उन की हत्या न करता और कारावास का दंड न मिलता.”

मैं ने तसल्ली देने की कोशिश की, “अब जो हो गया,  हो गया. अब पछताने से कोई फायदा नहीं है.”

कुछ देर मुझ से नज़रें नहीं मिला पा रहा था वह. अपना चेहरा इधरउधर घुमा रहा था. वह स्वयं को अपराधी महसूस कर रहा था, ऐसा मुझे महसूस हो रहा था.

वह कुछ सोचते हुए अपना हाथ मलने लगा था. वह बारबार अपनी उन हथेलियों को देख रहा था जिन से उस ने हत्या की थी. भले ही वह हत्या के लिए पश्चात्ताप कर रहा था, यह बात तो स्पष्ट थी कि वह गुनाहगार और अपराधी तो बन ही गया. मैं कुछ देर तक गांवघर के बारे में इधरउधर की बातें कर उस का मन बहलाता रहा.

“मैं ने सुना है कि तुम अपने मांबाबूजी से अब नहीं मिलते हो. शायद, तुम ने  उन को मिलने से मना कर दिया है. लेकिन क्यों ?” मैं ने उस से सवाल किया.

उस का चेहरा कठोर हो गया था. उस ने बताया, “भैया, आप जानते हैं,  मांबाबूजी की आकांक्षाओं के कारण ही तो यह महाभारत हुआ है. अब मैं जिंदगीभर जेल में रहूंगा. इस के पीछे मेरे मांबाबूजी ही जिम्मेदार हैं. वे जमीन के कुछ टुकड़ों के लिए जिंदगीभर जहर भरते रहे. वे लोग एक बार भी रोके  होते तो शायद मैं  कारावास में जीवन नहीं भोगता.”

मैं सचाई सुन कर घाना के प्रति द्रवित हो रहा था. लेकिन इस परिस्थिति में मदद नहीं कर पा रहा था. मैं ने महसूस किया कि इन सहानुभूतियों का भी कोई फायदा नहीं है. मैं भारीमन से फिर मिलने का वादा कर के निकल गया.

उस ने कहा, “आते रहिएगा भैया, आप के सिवा अब मेरा कोई अपना नहीं है. अब मेरे मांबाबूजी अपने नहीं रहे जिन्होंने मुझे गुनाह के रास्ते पर धकेल दिया है.”

“ऐसा नहीं कहते मेरे भाई, वे तुम्हारे ही मांबाबूजी हैं. वे तुम्हारे ही रहेंगे,” मैं ने समझाने की कोशिश की.

उस की आंखों में घृणा और पश्चात्ताप के आंसू स्पष्ट दिख रहे थे.

मैं तो कुछ नहीं खाती

लेखक- प्रदीप मेहता

अपना देश उपवासों का देश है. हर माह, हर सप्ताह, हर रोज कोई न कोई त्योहार आते ही रहते हैं. दीपावली, होली जैसे कुछ खास त्योहारों को छोड़ दिया जाए, जिन में मिठाइयां,  चटपटे नमकीन पकवानों का छक कर उपयोग किया जाता है तो शेष त्योहारों में महिलाओं द्वारा उपवास रख कर पर्वों की इतिश्री कर दी जाती है.

कुछ उपवास तो निर्जला होते हैं. ये उपवास औरतों के लिए चुनौतीपूर्ण होते हैं. साथ ही सहनशीलता का जीताजागता उदाहरण भी हैं. आम औरतें तो बिना अन्न खाए रह सकती हैं मगर बिना पानी के रहना सच में साहस भरा कदम है. यह उपवास हरेक के बूते का रोग नहीं होता. घर में पानी से भरे मटके हों, फ्रिज में पानी से भरी ठंडी बोतलें हों, गरमी अपना रंग दिखा रही हो, गला प्यास से सूख रहा हो और निर्जला व्रत रखने वाली महिलाएं इन से अपना मुंह मोड़ लें. है न कमाल की बात. ठंडी लस्सी, शरबत, केसरिया दूध की कटोरी को छूना तो दूर वे इस सुगंधित स्वादिष्ठ पेय की ओर देखती तक नहीं हैं. धन्य है आर्य नारी, सच में ऐसी त्यागमयी मूर्ति की चरण वंदना करने को मन करता है.

ऐसा निर्जला उपवास करने वाली औरतों की संख्या उंगलियों पर होती है मगर खापी कर उपवास करने वाली घरेलू औरतें हर घर में मिल जाती हैं जो परिवार के स्वास्थ्य, सुखसमृद्धि के लिए गाहे- बगाहे उपवास करती रहती हैं. उपवास के नाम पर वे अन्न त्याग करने में अपनी जबरदस्त आस्था रखती हैं.

प्रात:काल स्नान कर घोषणा करती हैं कि उन का आज उपवास है. वह अन्न ग्रहण नहीं करेंगी. मगर फलाहार के नाम पर सब चलता है. मौसमी फलों की टोकरियां इस बात का प्रमाण होती हैं कि परिवार की महिलाएं कितनी सात्विक हैं. श्रद्धालु हैं, त्यागी हैं.

ऐसे तीजत्योहार में वे अनाज की ओर देखती तक नहीं हैं. बस, फल के नाम पर कुछ केले खा लिए. पपीता या चीकू की कुछ फांकें डकार लीं. कोई पूछता तो गंभीरता से कहती, ‘‘मैं तो कुछ खाती नहीं बस, थोड़े से भुने काजू ले लिए. कुछ दाने किशमिश, बादाम चबा लिए. विश्वास मानिए, मैं तो कुछ खाती नहीं. खापी कर उपवास किया तो उपवास का मतलब ही क्या रह गया.’’

‘‘आप सच कहती हैं, बहनजी. स्वास्थ्य की दृष्टि से सप्ताह में एक दिन तो अन्न छोड़ ही देना चाहिए. क्या फर्क पड़ता है यदि हम एक दिन अनाज न खाएं?’’ एक ही थैली की चट्टीबट्टी दूसरी महिला ने हां में हां मिलाते हुए कहा.

उपवास वाले दिन परिवार का बजट लड़खड़ा कर औंधेमुंह गिर जाता है. सिंघाड़े की सेव कड़ाही के तेल में तली जाने लगती है. कद्दू की खीर शुद्ध दूध में बनाई जाने लगती है. फलाहारी व्यंजन के नाम पर राजगीरा के बादशाही रोल्स बनने लगते हैं. फलाहार का दिन हो और किचन में सतरंगी चिवड़ा न बने, ऐसा कैसे हो सकता है? फलाहारी पकवान ही तो संभ्रांत महिलाओं को उपवास करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.

नएनए फलाहारी पकवान सुबह से दोपहर तक बनते रहते हैं. घरेलू औरतों के मुंह चलते रहते हैं. पड़ोस में फलाहारी पकवानों की डिश एक्सचेंज होती रहती हैं. एकदूसरे की रेसिपी की जी खोल कर प्रशंसा होती है, ‘‘बड़ा गजब का टेस्ट है. आप ने स्वयं घर पर बनाया है न?’’ एक उपवासव्रता नारी पूछती है.

‘‘नहीं, बहनजी, आजकल तो नएनए व्यंजनों की विधियां पत्रपत्रिकाओं में हर माह प्रकाशित होती रहती हैं. अखबारों के संडे एडीशन तो रंगीन चित्रों के साथ रेसिपीज से पटे रहते हैं. इसी बहाने हम लोग किचन में व्यस्त रहती हैं. आप को बताऊं हर टीवी चैनल वाले दोपहर को किचन टिप्स के नाम पर व्यंजन प्रतियोगिताएं आयोजित करते रहते हैं. ऊपर से पुरस्कारों की भी व्यवस्था रहती है. हम महिलाओं के लिए दोपहर का समय बड़े आराम से व्यंजन बनाने की विधियां देखने में बीत जाता है.

‘‘मैं तो कहती हूं, अच्छा भी है जो ऐसे रोचक व उपयोगी कार्यक्रम हमें व्यस्त रखते हैं, नहीं तो आपस में एकदूसरे की आलोचना कर हम टाइम पास करती रहती थीं. जब से मैं ने व्यंजन संबंधी कार्यक्रम टीवी पर देखने शुरू किए हैं विश्वास मानिए, पड़ोसियों से बिगड़े रिश्ते मधुर होने लगे हैं. मैं भी उपवास के नाम पर अब किचन में नएनए प्रयोग करती रहती हूं ताकि स्वादिष्ठ फलाहारी व्यंजन बनाए जा सकें.’’

विशेष पर्वों पर फलाहारी व्यंजन के कारण बाजार में सिंघाड़े, मूंगफली, राजगिरा, सूखे मेवे, तिल, साबूदाना और आलू जैसी फलाहारी वस्तुओं के भाव आसमान छूने लगते हैं. उपवास की आड़ में तेल की धार घर में बहने लगती है. नए परिधान में चहकती हुई महिलाएं जब उपवास के नाम पर फलाहारी वस्तुएं ग्रहण करती हैं, सच में वे काफी सौम्य लगती हैं. उन का दमकता चेहरा दर्शाता है कि उपवास रहने में सच संतोष व आनंद की अनुभूति होती है. बस, दुख इसी बात का रहता है कि हर नए व्यंजन का निराला स्वाद चटखारे के साथ लेते हुए कहती रहती हैं, ‘‘मैं तो कुछ खाती नहीं.’’

राज को राज रहने दो

आज का युग घोटाले, फिक्सिंग, ठगी, बाबागीरी और भ्रष्टाचार की ओर तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है. ऊपर से जब से मेरे दिलोदिमाग में क्रिकेट में होने वाले स्पौट फिक्ंिसग का मामला घुसा है, मुझे तो बारबार गांधीजी का यह कथन याद आए बिना चैन ही नहीं मिल रहा, ‘‘हमारी धरती प्रत्येक मनुष्य की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन प्रत्येक मनुष्य के लालच को कभी पूरा नहीं कर सकती.’’

इशारों से खेलों में होने वाला भ्रष्टाचार अब सभी के सामने खुल कर आ चुका है. खेलों में तरहतरह के डोपिंग, स्कैंडल और मैच फिक्ंिसग की खबरें आएदिन आती रहती हैं. यहां पर यह कहना भी उचित होगा कि जब लोगों के पास ज्यादा रुपया आता है तो उन के अंदर इस को और अधिक पाने की ललक अनायास ही पैदा हो जाती है. कुछ ही लोग होते हैं जो खुद को संयमित रख पाते हैं. तेज बुखार को पैरासिटामौल यानी बुखार नियंत्रक दवा खा कर नियंत्रित किया जा सकता है मगर किसी व्यक्ति के दिमाग में यदि रुपया कमाने का फुतूर चढ़ जाए तो वह अकसर कारागार की सलाखों के पीछे जा कर ही नियंत्रित होता हुआ देखा गया है.

कहते हैं कि अति तो किसी भी चीज की हो, बुरी ही होती है. फिर भी लोग मानते नहीं. नएनए तरीके निकाल ही लेते हैं घोटाले, फिक्ंसिंग और भ्रष्टाचार करने के. चलना भी नियति का नियम है, सो, हमारे क्रिकेट खिलाड़ी भी चल दिए फिक्ंसिंग जैसी राह पर और खेल के मध्य ही इशारेबाजी कर बैठे. वैसे देखा जाए तो क्रिकेट के इतिहास में इशारों का संबंध  बहुत पुराना रहा है, क्योंकि क्रिकेट के अंपायर इस कला में माहिर होते थे. उन के एक इशारे पर पूरी की पूरी टीम आउट घोषित कर दी जाती थी यानी पूरी टीम की हारजीत व नोबौल का निर्णय हो जाता था.

लेकिन आजकल अंपायर का काम इलैक्ट्रौनिक कैमरों ने भलीभांति संभाल लिया है, इसलिए इस से बच कर अब कुछ नया करने और पाने की चाह में हमारे क्रिकेट खिलाड़ी खुद ही इशारों की कला में पारंगत होना चाहते हैं और लोगों की आंखों में धूल झोंक कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. वैसे, इशारा कर के सामने वाले को प्रभावित करना व उचित मार्गदर्शन देना किसी ऐरेगैरे नत्थूखैरे के वश की बात भी नहीं है. जरूरत से ज्यादा समझदार लोग ही इस कला में पारंगत हो पाते हैं.

आजकल ‘आसमान से गिरे खजूर पर अटके’ वाला दौर नहीं है. अब तो है परछाईं देख आसमान में पहुंच जाने का युग. यदि इस धरती पर कहीं रुपयों के वृक्ष का बीज होता तो उसे भी बड़ी मेहनत से ही लगाया जाता. उसे लगाने, अंकुरित हो कर वृक्ष बनने तथा उस में रुपया लद कर आने में समय लगता. परिणामस्वरूप उस की भी जबरदस्त सुरक्षा करनी पड़ती. वहां भी कोई चमत्कार नहीं हो जाता कि इशारा किया और रुपयों का वृक्ष लद गया ढेर सारे रुपयों से. मगर जब आजकल खेलखेल में खेलों के अंदर इशारों से ही धनवर्षा हो रही हो तो इस से बेहतर और आसान बात कोई हो ही नहीं सकती. भला ऐसे में कौन ‘इशारा’ करने से वंचित रहना चाहेगा. जो पीछे रह जाएगा वह आखिर में पश्चात्ताप ही करेगा और सोचेगा कि यदि किसी ने मेरे इशारे भी समझ लिए होते या मुझे भी एक इशारा करने का मौका दिया जाता तो मैं भी मालामाल हो जाता, लेकिन छप्परफाड़ कर धनवर्षा सभी के यहां नहीं होती है, इसलिए मन मार कर संतुष्ट होना ही पड़ता है.

आजकल क्रिकेट में भी लोगों ने जाना कि खिलाडि़यों के एक इशारे पर अब रनवर्षा की जगह धनवर्षा भी होती है. इसलिए अब मेरी रायनुसार ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ का नाम बदल कर ‘स्पौट फिक्ंिसग मनी गारंटी क्रिकेट मैच’ यानी एसएफएमजीसीएम रख दिया जाना चाहिए. इस प्रकार के मनी गारंटी क्रिकेट खेल के लिए दिशाओं में बैटबौल घुमाने से ज्यादा, खिलाडि़यों को इशारा करने और इशारे पहचानने की ट्रेनिंग दिए जाने की जरूरत पड़ेगी यानी जम कर धन पाने की तैयारी के लिए उन्हें नएनए इशारों द्वारा हार कर भी शानदार से शानदार कहे जाने वाले नतीजे सामने लाने में योग्य होना पड़ेगा.

माना कि लालच बुरी बला होती है मगर धनवर्षा के समय तो सभी भूल जाते हैं कि ज्यादा धनवर्षा की लूटखसोट में सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने का डर भी बना रहता है. फिर भी इस एसएफएमजीसीएम खेल में यही कहा जाएगा, ‘इशारों को अगर समझो तो राज को राज रहने दो…’ और इस से अधिक कुछ नहीं.

कभीकभी इशारे भी खतरनाक सिद्ध होते हैं. इस बात को हम अपने जीवन में भुगत चुके हैं. यहां आपबीती के तौर पर आप को बता रहे हैं. दरअसल, अपनी जवानी में अपने घर के सामने वाली बिल्ंिडग में रहने वाली रंजना को अपना दिल दे बैठे थे और हम ने उसे समझा रखा था कि जब भी घर में तुम्हारे मम्मीपापा न हों तो अपनी बालकनी में लाल रंग का रूमाल टांग दिया करना तो उसे देख कर मैं समझ जाया करूंगा कि तुम्हारे मम्मीपापा घर पर नहीं हैं. बस, तुम ही घर पर अकेली हो. और मैं तुम से मिलने तुम्हारे घर बेधड़क आ जाया करूंगा.

कई बार ऐसा हुआ. लेकिन एक बार मुझे उस की बालकनी में एक लाल रंग के रूमाल की जगह तौलिया टंगा दिखा तो भी रंजना के प्यार में अंधे हो चुके मेरे दीवाने दिल को वह लाल रूमाल ही लगा और प्यार में दीवाना हो कर मैं ने जैसे ही उस के घर की घंटी बजाई, दरवाजा खुलते ही मुझे सामने उस के पिताजी दिखाई दिए और मुझे देख कर वे तेज आवाज में बोले, ‘‘कमबख्त, कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम अपने घर से मेरे घर की बालकनी में ही टकटकी लगाए हुए देखते रहते हो और अब तुम्हारी यह हिम्मत कि मेरे घर पर ही आ धमके. अभी लो, पुलिस को बुला कर तुम्हारा हुलिया ठीक करवा देता हूं.’’

उन का तेजतर्रार चेहरा व बातें सुन कर मैं एकदम उन के पैरों में गिर पड़ा और बोला, ‘‘अंकलजी, गलती हो गई. अब कभी ऐसा नहीं करूंगा. मुझे माफ कर दें.’’ मेरे माफी मांगने और गिड़गिड़ाने के संपूर्ण कार्यक्रम को रंजना भी अपने पिताजी के पीछे खड़ी हो कर देख रही थी. परिणामस्वरूप उस ने मेरे डरपोक किस्म के मूल स्वभाव को अच्छी तरह से पहचान लिया. इसलिए फिर उस ने कभी भी लाल रूमाल अपनी बालकनी में नहीं टांगा और मैं ने भी कभी अपनी बदनामी व पिटाई के डर से उस के घर के अंदर दौड़ कर जाने व अपने प्यार की पेंगें बढ़ाने की हिम्मत फिर कभी नहीं जुटा पाई.

कुल मिला कर प्रेम हो, खेल हो या कोई और क्षेत्र, इशारे तो सभी क्षेत्र की जान होते हैं. कोई इन इशारों से सफल होता है, तो कोई असफल. किसी को यश मिलता है, तो किसी को अपयश. फिर भी इशारों का अस्तित्व होता है और सदा रहेगा.

जिन लोगों को लगता है कि इशारों का गणित समझना जरूरी है और वे भविष्य में इशारों की कला में पारंगत होना चाहते हैं, उन्हें इशारों का गणित समझाने वाले गुरु की तलाश करनी चाहिए ताकि अगली बार कलाईबैंड घुमाने, बालकनी में लाल रूमाल टांगने या तौलिया लटकाने या फिर खेल के मैदान में अपनी कमीज उतार कर बारबार लहराने जैसे इशारों पर किसी थानेदार की सख्त व बुरी नजर न पड़ सके.

सहारे की तलाश: क्या प्रकाश को जिम्मेदार बना पाई वैभवी?

दिल आज फिर दिमाग से विद्रोह कर बैठा. क्या ऐसी ही जिंदगी की उम्मीद की थी उस ने? क्या ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने? खुद वह कितनी संभावनाओं से भरी हुई थी, अपना रास्ता तलाश कर मंजिल तक पहुंचना वह जानती है, रिश्तों के तारों के छोर सहला कर उन्हें जोड़ना भी उसे आता है. जीवनसाथी ऐसा हो जिस पर नाज कर सके. उस का कोई तो रूप ऐसा हो, वह शारीरिक रूप से ताकतवर हो या मानसिक रूप से परिपक्व हो, खुला व्यक्तित्व हो या फिर आर्थिक रूप से हर सुख दे सके या फिर भावनात्मक रूप से इतना प्रेमी हो कि उस के माधुर्य में डूब जाओ. कोई तो कारण होना चाहिए किसी पर आसक्ति का. प्यार सिर्फ साथ रहने भर से हो सकता है, एकदूसरे की कुछ मूलभूत जरूरतें पूरी करने से हो सकता है. लेकिन आसक्ति, बिना काण नहीं हो सकती.

छलकपट से भरा दिमाग, कभी किसी को निस्वार्थ प्यार नहीं कर सकता और न पा सकता है. ऐसे इंसान पर प्यार लुटाना लुटने जैसा प्रतीत होता है. दिमाग समझता है जिंदगी को नहीं बदल सकते हम. इंसान को नहीं बदल सकते. पति की काबिलीयत, स्वभाव या क्षमता को घटाबढ़ा नहीं सकते, सबकुछ ले कर चालाकी से अपनी टांग ऊपर रखने की आदत को नहीं बदल सकते. पर खुद को बदल सकते हैं, खुद के नजरिए को बदल सकते हैं. दिमाग की यह घायल समझ दिल से आंसुओं के सैलाब में बह जाती है जब दिल नहीं सुन पाता है किसी की, जब दिल खुद से ही तर्क करने लग जाता है. पूरी जिंदगी रीत गई, अब क्या समेटना है. अब तक जिंदगी के हर पहलू को अपने सकारात्मक नजरिए से देखती रही. पर कब तक दिल में उठ रही नफरत को दबाती रहती. क्या किसी ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने जो सिर्फ बिस्तर पर ही रोमांटिक प्रणयी हो.

आज वैभवी के दिल के तार झनझना गए थे. उस के पिताजी ने अपनी छोटी सी जायदाद के 2 हिस्से कर अपने दोनों बच्चों में बांट दिए थे. भैया का परिवार मुंबई में रहता था. उस की नौकरी वहीं पर थी. वह खुद दिल्ली में रहती थी और मांपिताजी चंडीगढ़ में रहते थे. डाक्टर ने पिताजी को हर्निया का औपरेशन कराने के लिए कह दिया था. पिताजी काफी समय से तकलीफ में थे. जब वह पिछली बार चंडीगढ़ गई थी तो मां ने पिताजी की तकलीफ के बारे में उसे बताया था. वह विचलित हो गई थी. उस ने भैया से फोन पर बात की तो भाई ने यह कह कर मजबूरी जता दी थी कि इतनी छुट्टी उसे एकसाथ नहीं मिल सकती कि वह चंडीगढ़ जा कर औपरेशन करा सके और साथ ही मां से तेरी भाभी की बिलकुल नहीं बनती, इसलिए मुंबई ला कर भी औपरेशन की बात नहीं सोच सकता.

‘‘वैसे भी तू जानती है वैभवी, छोटा सा फ्लैट, पढ़ने वाले बच्चे, बीमार आदमी के साथ बडे़ शहर में बहुत मुश्किल हो जाती है,’’ भैया ने मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘तो फिर क्या पिताजी को ऐसे ही तकलीफ में मरने के लिए छोड़ दें,’’ वैभवी के स्वर में तल्खी आ गई थी.

‘‘तो फिर तू चली जा या फिर प्रकाश चला जाए. उस की तो सरकारी नौकरी है, छुट्टी मिलने में इतनी दिक्कत भी नहीं होगी,’’ उस के स्वर की तल्खी भांप कर वह भी चिढ़ गया था.

‘‘लेकिन भैया, बेटे के होते हुए दामाद का एहसान लेना क्या ठीक है?’’ वह अपने को संयमित कर लाचारी से बोली थी.

‘‘क्यों? जब हिस्सा मिला तब तो बेटीदामाद जैसी कोई बात नहीं हुई और जब जिम्मेदारी निभाने की बात आई तो वह दामाद हो गया,’’ भैया भुन्नाता हुआ बोला.

वह दुखी हो गई थी. दिल किया कि कोई तीखा सा जवाब दे दे. पर चुप रह गई. आखिर गलत भी नहीं कहा था. पर यह सब कहने का अधिकार भी भैया को तब ही था जब वह अपने कर्तव्य का हर समय पालन करता.

वह तो जायदाद में हिस्सा बिलकुल भी नहीं चाहती थी. उस ने पिताजी को बहुत मना भी किया था पर एक तो मांपिताजी की जिद और दूसरे, प्रकाश की चाहत भांप कर उस ने हां बोल दी. सोचा, जायदाद पा कर ही सही, प्रकाश उस के मांपिताजी के लिए नरम रुख अपना ले. इस के अलावा जरूरत पड़ने पर उसे चंडीगढ़ जाने में भी आसानी हो जाएगी. एकदम मना नहीं कर पाएगा प्रकाश उसे. पर भैया के व्यवहार में तब से तटस्थता आ गई थी. भाभी तो हमेशा से ही तटस्थ थीं. पर भैया का व्यवहार वैसे सामान्य था. उसे अपनी परवा नहीं थी. बस, मांपिताजी का ध्यान रख ले भैया, इसी से वह खुश रहती. पर भैया के जवाब से उस का दिल टूट गया था. भैया का अगर जवाब ऐसा है तो प्रकाश का जवाब तो वह पहले से ही जानती है. फिर भी उस ने सोचा एक बार तो प्रकाश से बात कर के देख ले. उस से और मां से पिताजी के औपरेशन का तामझाम नहीं संभलेगा. कोई भी परेशानी खड़ी हो गई तो एक पुरुष का साथ तो होना ही चाहिए औपरेशन के समय. प्रकाश का मूड ठीक सा भांप कर एक दिन उस ने प्रकाश से बात कर ही ली.

‘‘पिताजी की तकलीफ बढ़ती ही जा रही है प्रकाश, कल भी बात हुई थी मां से. डाक्टर कह रहे हैं कि समय से औपरेशन करवा लो.’’

‘‘हां तो करवा लें,’’ प्रकाश के चेहरे के भाव एकदम से बदल गए थे.

‘‘तुम चलोगे चंडीगढ़, कुछ दिन की छुट्टी ले कर?’’

‘‘क्यों, उन के बेटे का क्या हुआ?’’

‘‘किस तरह से बोल रहे हो, प्रकाश. बात की थी मैं ने भैया से, छुट्टी नहीं मिल रही उन्हें. थोड़े दिन की छुट्टी तुम ले लो न. औपरेशन करवा कर तुम आ जाना. फिर कुछ दिन मैं रह लूंगी. फिर थोड़े दिन के लिए भैया भी आ जाएंगे. तो पिताजी की देखभाल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे भी छुट्टी नहीं मिलेगी अभी,’’ कह कर प्रकाश उठ कर बैडरूम की तरफ चल दिया, ‘‘और हां,’’ वह रुक कर बोला, ‘‘तुम भी वहां लंबा नहीं रह सकती हो, यहां खानेपीने की दिक्कत हो जाएगी मुझे,’’ इतना कह कर प्रकाश चला गया.

उस ने भी हार नहीं मानी. और उस के पीछे चल दी, चलतेचलते उस ने कहा, ‘‘प्रकाश, उन्होंने हम दोनों भाईबहन को अपना सबकुछ बांट दिया है तो हमारा भी तो उन के प्रति फर्ज बनता है.’’

‘‘तो,’’ प्रकाश तल्खी से बोला, ‘‘बेटी को ही दिया है क्या, बेटे को नहीं दिया, वह क्यों नहीं आ जाता?’’

‘‘उफ,’’ वैभवी का सिर भन्ना गया. प्रकाश के तर्क इतने अजीबोगरीब होते हैं कि जवाब में कुछ भी कहना मुश्किल है. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक चला जाता है. दिल घायल हो गया. पिताजी के 2 अपंग सहारे प्रकाश और भैया जिन पर पिताजी ने अपना सबकुछ लुटा दिया, जिन्हें पिताजी ने अपना आधार स्तंभ समझा, आज कैसा बदल गए हैं. इस के बाद उस ने प्रकाश से कोई बात नहीं की. चुपचाप अपना रिजर्वेशन करवाया और जाने की तैयारी करने लगी. प्रकाश के तने हुए चेहरे की परवा किए बिना वह चंडीगढ़ चली गई. उस की बेटी इंजीनियर थी और जौब कर रही थी. 2 दिन बाद वह कुछ दिनों की छुट्टी में घर आ रही थी. वैभवी ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत करवाया और चंडीगढ़ चली गई. मां ने वैभवी को देखा तो उन्हें थोड़ा सुकून मिला.

वैभवी को देख मां ने कहा, ‘‘दामाद जी नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारा बेटा आया जो दामाद आता,’’ वह चिढ़ कर बोली, ‘‘बेटी काफी नहीं है तुम्हारे लिए?’’

मां चुप हो गईं. एक वाक्य से ही सबकुछ समझ में आ गया था. पिताजी ने कुछ नहीं पूछा. दुनिया देखी थी उन्होंने. फिर कुछ पूछना और उस पर अफसोस करने का मतलब था पत्नी के दुख को और बढ़ाना. सबकुछ समझ कर भी ऐसा दिखाया जैसे कुछ हुआ ही न हो. पिताजी का जिस डाक्टर से इलाज चल रहा था उन से जा कर वह मिली. औपरेशन का दिन तय हो गया. उस ने प्रकाश व भाई को औपचारिक खबर दे दी. डरतेडरते उस ने पिताजी का औपरेशन करवा दिया. मन ही मन डर रही थी कि कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा. पर पिताजी का औपरेशन सहीसलामत हो गया, उस की जान में जान आई. पिताजी को जिस दिन अस्पताल से घर ले कर आई, मन में संतोष था कि वह उन के कुछ काम आ पाई. पिताजी को बिस्तर पर लिटा कर, लिहाफ उढ़ा कर उन के पास बैठ गई. उन के चेहरे पर उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे जो शायद बेटे के लिए नहीं होते. आज समाज में बेटी को पिता की जायदाद में हक जरूर मिल गया था लेकिन मातापिता अपना अधिकार आज भी बेटे पर ही समझते हैं.

पिताजी ने आंखें बंद कर लीं. वह चुपचाप पिताजी के निरीह चेहरे को निहारने लगी. दबंग पिताजी को उम्र ने कितना बेबस व लाचार बना दिया था. भैया व प्रकाश, पिताजी के 2 सहारे कहां हैं? वह सोचने लगी, उसे व भैया को पिताजी ने कितने प्यार से पढ़ायालिखाया, योग्य बनाया, वह लड़की होते हुए भी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता की जरूरत पर आ गई. लेकिन भैया, वह पुरुष होते हुए भी अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता के काम नहीं आ पाए. सच है रिश्ते तो स्त्रियां ही संभालती हैं, चाहे फिर वह मायके के हों या ससुराल के. लेकिन पुरुष, वह ससुराल के क्या, वह तो अपने सगे रिश्ते भी नहीं संभाल पाता और उस का ठीकरा भी स्त्री के सिर फोड़ देता है. पिताजी कुछ दिन बिस्तर पर रहे. उन की तीमारदारी मां और वह दोनों मिल कर कर रही थीं. भैया ने पापा की चिंता इतनी ही की थी कि एक दिन फुरसत से मां व पिताजी से फोन पर बातचीत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘कुछ जरूरत हो तो बता देना, कुछ रुपए भिजवा देता हूं.’’

‘‘उस की जरूरत नहीं है, भैया,’’ रुपए का तो पिताजी ने भी अपने बुढ़ापे के लिए इंतजाम किया हुआ है. उन्हें तो तुम्हारी जरूरत थी. उस ने कुछ कहना चाहा पर रिश्तों में और भी कड़वाहट घुल जाएगी, सोच कर चुप्पी लगा गई और तभी फोन कट गया.

वैभवी 15 दिन रह कर घर वापस आ गई. प्रकाश का मुंह फूला हुआ था. उस ने परवा नहीं की. चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. प्रकाश ने पिताजी की कुशलक्षेम तक नहीं पूछी पर उस की सास का फोन उस के लिए भी और उस के मांपिताजी के लिए भी आया, उसे अच्छा लगा. सभी बुजुर्ग शायद एकदूसरे की स्थिति को अच्छी तरह से समझते हैं. उस की बेटी वापस अपनी नौकरी पर चली गई थी. पिताजी की हालत में निरंतर सुधार हो रहा था, इसलिए वह निश्ंिचत थी. उस के सासससुर देहरादून में रहते थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि तभी एक दिन उस की सास का बदहवास सा फोन आया. उस के ससुरजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा था. वे दोनों तुरंत देहरादून के लिए निकल पड़े. प्रकाश का भाई अविनाश, जो पुणे में रहता था, अपनी पत्नी के साथ देहरादून पहुंच गया. पता चला कि प्रकाश के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. एंजियोग्राफी से पता चला कि उन की धमनियों में रुकावट थी. अब एंजियोप्लास्टी होनी थी.

अविनाश की पत्नी छवि स्कूल में पढ़ाती थी, वह 2-4 दिन की छुट्टी ले कर आई थी. पापा को तो एंजियोप्लास्टी और उस के बाद की देखभाल के लिए लंबे समय की जरूरत थी. प्रकाश के पापा अभी अस्पताल में ही थे. छवि की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. वह वापस जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘मैं भी चलता हूं, भैया,’’ अविनाश बोला, ‘‘छवि अकेले कैसे जाएगी?’’

‘लेकिन अविनाश, पापा को लंबी देखभाल और इलाज की जरूरत है. कुछ दिन हम रुक लेते हैं, कुछ दिन तुम छुट्टी ले कर आ जाओ,’’ प्रकाश बोला.

‘‘भैया, हम दोनों की तो प्राइवेट नौकरी है, इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिल पाएंगी और मम्मीपापा को पुणे भी नहीं ले जा सकता, छवि भी नौकरी करती है,’’ कह कर उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना दोनों पतिपत्नी पुणे के लिए निकल गए.

अब प्रकाश पसोपेश में पड़ गया. बड़ा भाई होने के नाते वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकता था. उस ने सहारे के लिए वैभवी की तरफ देखा. पर वहां तटस्थता के भाव थे. मौका पा कर धीरे से बोला, ‘‘वैभवी, मम्मीपापा को अपने साथ ले चलते हैं, वहां आराम से इलाज और देखभाल हो जाएगी. यहां तो हम इतना नहीं रुक पाएंगे. या फिर एंजियोप्लास्टी करवा कर मैं चला जाता हूं, तुम रुक जाओ, मैं आताजाता रहूंगा.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों रुकूं, फालतू हूं क्या? नौकरी नहीं कर रही हूं? तो क्या मेरी ही ड्यूटी हो गई, छवि या अविनाश नहीं रह सकता यहां?’’

‘‘लेकिन जब वे दोनों जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाह रहे हैं तो पापा को ऐसे तो नहीं छोड़ सकते हैं न. किसी को तो जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां तो, जिम्मेदारी उठाने के लिए सिर्फ हम ही रह गए. और सेवा करने के लिए सिर्फ मैं. कल को पापा की संपत्ति तो दोनों के बीच ही बंटेगी, सिर्फ हमें तो नहीं मिलेगी, मुझ से नहीं होगा.’’ कह कर पैर पटकती हुई वैभवी कमरे से बाहर निकल गई. बाहर लौबी में सास बैठी हुई थीं, उदास सी. उन का हाथ पकड़ कर किचन में ले गई वैभवी. उन्होंने सबकुछ सुन लिया था, उन के चेहरे से ऐसा लग रहा था. आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. चेहरे पर घोर निराशा थी.

‘‘मां,’’ वह उन का चेहरा ऊपर कर के बोली, ‘‘खुद को कभी अकेला मत समझना, हम हैं आप के साथ और आप की यह बेटी आप की सेवा करने के लिए है, मुझ पर विश्वास रखना, मैं प्रकाश के साथ सिर्फ नाटक कर रही थी, मैं उन्हें कुछ एहसास दिलाना चाहती थी, मुझे गलत मत समझना. आप के पास कुछ भी न हो, तब भी आप के बच्चों के कंधे बहुत मजबूत हैं, वे अपने मातापिता का सहारा बन सकते हैं.’’

सास रो रही थीं. उस ने उन्हें गले लगा लिया. सास को सबकुछ मालूम था, इसलिए सबकुछ समझ गई थीं. मांबेटी जैसा रिश्ता कायम कर रखा था वैभवी ने अपनी सास के साथ. और हर प्यारे रिश्ते का आधार ही विश्वास होता है. उस की सास को उस पर अगाध विश्वास था.

‘‘मां, चलने की तैयारी कर लो चुपचाप. यहां लंबा रहना संभव नहीं हो पाएगा. आप और पापा हमारे साथ चलिए, दिल्ली में अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाएगी और पापा की देखभाल भी हो जाएगी, आप बिलकुल भी फिक्र मत करो, मां. सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर डाल कर निश्ंिचत रहो. पापा की देखभाल हमारी जिम्मेदारी है.’’ सास का मन बारबार भर रहा था. वे चुपचाप अपने कमरे में आ गईं. वैभवी भी अपने कमरे में गई और अटैची में कपड़े डालने लगी. प्रकाश सिटपिटाया सा चुपचाप बैठा था. वह स्वयं जानता था कि वह वैभवी को कुछ भी बोलने का अधिकार खो चुका है. अटैची पैक करतेकरते वैभवी चुपचाप प्रकाश को देखती रही. अपनी अटैची पैक कर के वैभवी प्रकाश की तरफ मुखातिब हुई, ‘‘तुम्हारी अटैची भी पैक कर दूं.’’

‘‘वैभवी, एक बार फिर से सोच लो, पापा को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकते हम. मुझे तो रुकना ही पड़ेगा, लेकिन नौकरी से इतनी लंबी छुट्टी मेरे लिए भी संभव नहीं है. मांपापा को साथ ले चलते हैं, वरना कैसे होगा उन का इलाज?’’

प्रकाश का गला भर्राया हुआ था. वह प्रकाश की आंखों में देखने लगी, वहां बादलों के कतरे जैसे बरसने को तैयार थे. अपने मातापिता से इतना प्यार करने वाला प्रकाश, आखिर उस के मातापिता के लिए इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है?

पिताजी की याद आते ही उस का मन एकाएक प्रकाश के प्रति कड़वाहट और नकारात्मक भावों से भर गया. लेकिन उस के संस्कार उसे इस की इजाजत नहीं देते थे. वह अपने सासससुर के प्रति ऐसी निष्ठुर नहीं हो सकती. कोई भी इंसान जो अपने ही मातापिता से प्यार नहीं कर सकता, वह दूसरों से क्या प्यार करेगा. और जो अपने मातापिता से प्यार करता हो, वह दूसरों के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? उसे अपनेआप में डूबा देख कर प्रकाश उस के सामने खड़ा हो गया, ‘‘बोलो वैभवी, क्या सोच रही हो, पापा को साथ ले चलें न? उस ने प्रकाश के चेहरे पर पलभर नजर गड़ाई, फिर तटस्थता से बोली, ‘‘टैक्सी बुक करवा लो जाने के लिए.’’

कह कर वह बाहर निकल गई. प्रकाश कुछ समझा, कुछ नहीं समझा पर फिर घर के माहौल से सबकुछ समझ गया. पर वैभवी उसे कुछ भी कहने का मौका दिए बगैर अपने काम में लगी हु थी. तीसरे दिन वे मम्मीपापा को ले कर दिल्ली चले गए. पापा की एंजियोप्लास्टी हुई, कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद पापा घर आ गए. उन की देखभाल वैभवी बहुत प्यार से कर रही थी. प्रकाश उस के प्रति कृतज्ञ हो रहा था. पर वह तटस्थ थी. उस के दिल का घाव भरा नहीं था. प्रकाश को तो उस के पिताजी की सेवा करने की भी जरूरत नहीं थी. उस ने तो सिर्फ औपरेशन के वक्त रह कर उन को सहारा भर देना था, जो वह नहीं दे पाया था. उस के भाई के लिए भलाबुरा कहने का भी प्रकाश का कोई अधिकार नहीं था. जबकि उस ने अपना भी हिस्सा ले कर भी अपना फर्ज नहीं निभाया था. ये सब सोच कर भी वैभवी के दिल के घाव पर मरहम नहीं लग पा रहा था. पापा की सेवा वह पूरे मनोयोग से कर रही थी, जिस से वह बहुत तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. उस के सासससुर उस के पास लगभग 3 महीने रहे. उस के बाद सास जाने की पेशकश करने लगीं पर उस ने जाने नहीं दिया, कुछ दिनों के बाद उन्होंने जाने का निर्णय ले लिया. प्रकाश और वैभवी उन्हें देहरादून छोड़ कर कुछ दिन रुक कर, बंद पड़े घर को ठीकठाक कर वापस आ गए.

सबकुछ ठीक हो गया था पर उस के और प्रकाश के बीच का शीतयुद्ध अभी भी चल रहा था, उन के बीच की वह अदृश्य चुप्पी अभी खत्म नहीं हुई थी. प्रकाश अपराधबोध महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कैसे बताए वैभवी को कि उसे अपनी गलती का एहसास है. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई थी. वह समझ रहा था कि इस तरह बच्चे मातापिता की जिम्मेदारी एकदूसरे पर डालेंगे तो उन की देखभाल कौन करेगा. कल यही अवस्था उन की भी होगी और तब उन के बेटाबेटी भी उन के साथ यही करें तो उन्हें कैसा लगेगा. एकाएक वैभवी की तटस्थता को दूर करने का उसे एक उपाय सूझा. वह वैभवी को टूर पर जाने की बात कह कर चंडीगढ़ चला गया. प्रकाश को गए हुए 2 दिन हो गए थे. शाम को वैभवी रात के खाने की तैयारी कर रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उस ने जा कर दरवाजा खोला. सामने मांपिताजी खड़े थे.

‘‘मांपिताजी आप, यहां कैसे?’’ वह आश्चर्यचकित सी उन्हें देखने लगी.

‘‘हां बेटा, दामादजी आ गए और जिद कर के हमें साथ ले आए, कहने लगे अगर मुझे बेटा मानते हो तो चल कर कुछ महीने हमारे साथ रहो. दामादजी ने इतना आग्रह किया कि आननफानन तैयारी करनी पड़ी.’’

तभी उस की नजर टैक्सी से सामान उतारते प्रकाश पर पड़ी. वह पैर छू कर मांपिताजी के गले लग गई. उस की आंखें बरसने लगी थीं. पिताजी के गले मिलते हुए उस ने प्रकाश की तरफ देखा, प्रकाश मुसकराते हुए जैसे उस से माफी मांग रहा था. उस ने डबडबाई आंखों से प्रकाश की तरफ देखा, उन आंखों में ढेर सारी कृतज्ञता और धन्यवाद झलक रहा था प्रकाश के लिए. प्रकाश सोच रहा था उस के सासससुर कितने खुश हैं और उस के खुद के मातापिता भी कितने खुश हो कर गए हैं यहां से. जब अपनी पूरी जवानी मातापिता ने अपने बच्चों के नाम कर दी तो इस उम्र में सहारे की तलाश भी तो वे अपने बच्चों में ही करेंगे न, फिर चाहे वह बेटा हो या बेटी, दोनों को ही अपने मातापिता को सहारा देना ही चाहिए.

मार्मिक बदला: रौनक से कौनसा बदला लेना चाहती थी रागिनी

अखिलभारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के वार्षिक सम्मेलन में कई विषयों पर संगोष्ठियां हो रही थीं. एक शाम ऐसी ही एक संगोष्ठी के समाप्त होने पर कुछ डाक्टर उसी विषय पर बात करते हुए परिसर में बने अतिथिगृह में अपनेअपने कमरे की ओर जा रहे थे.

‘‘डा. रंजन ने ठीक कहा है कि सब बीमारियों की जड़ मिलावट और कुपोषण है,’’ एक डाक्टर कह रहा था, ‘‘जिस के चलते आधुनिक चिकित्सा कोई चमत्कार नहीं दिखा सकती.’’

‘‘सही कह रहे हैं डा. सतीश. ये दोनों चीजें जीवन का विनाश कर सकती हैं. मिलावटखोरों को मानवता का दुश्मन घोषित कर देना चाहिए.’’

‘‘मिलावटखोर ही नहीं आतंकवादी भी मानवता के दुश्मन हैं डा. चंद्रा. कितने ही खुशहाल घरों को पलभर में उजाड़ कर रख देते हैं, लेकिन आज तक उन पर ही कोई रोक नहीं लग सकी तो मिलावटखोरों पर कहां लगेगी? आज रोज कुपोषण की रोकथाम के लिए अनेक छोटेबड़े क्लब पांच सितारा होटलों में मिलते हैं  झुग्गी झोंपडि़यों में रहने वाले बच्चों को कितना दूध दिया जाए इस पर विचारविमर्श करने को…’’

‘‘आप ठीक कहते हैं डा. कबीर हम सिर्फ विचारविमर्श और बातें ही कर सकते हैं. इस से पहले की हम बातों में उल झ जाएं और डाइनिंगरूम में बैठने की जगह भी न मिले, चलिए अपनेअपने कमरे में जाने से पहले खाना खा लें,’’ डा. चंद्रा ने कहा.

सब लोग डाइनिंगरूम में चले गए. खाना खा कर जब सब बाहर निकले तो डा. चंद्रा ने कहा, ‘‘मैं तो फैमिली के लिए शौपिंग करने जा रहा हूं, आप लोग चलेंगे?’’

‘‘अभी से कमरे में बैठ कर भी क्या करेंगे, चलिए शौपिंग ही करते हैं. आप भी चलिए न डा. रौनक,’’ डा. कबीर ने बेमन से खड़े व्यक्ति की ओर देख कर कहा.

‘‘धन्यवाद डा. कबीर, लेकिन मु झे किसी चीज की जरूरत नहीं है.’’

‘‘हम अपनी जरूरत के लिए नहीं फैमिली के लिए शौपिंग करने जा रहे हैं.’’

‘‘लेकिन मेरी फैमिली भी नहीं है,’’ डा. रौनक का स्वर संयत होते हुए भी भीगा सा लग रहा था.

‘‘यानी आप घरगृहस्थी के चक्कर में नहीं पड़े हैं.’’

‘‘ऐसा तो नहीं है डा. चंद्रा,’’ डा. रौनक ने उसांस ले कर कहा, ‘‘जैसाकि कुछ देर पहले डा. कबीर ने कहा था कि आतंकवादी पलभर में एक खुशहाल परिवार को उजाड़ देते हैं. मेरी जिंदगी की खुशियां भी आतंकवाद की आंधी उड़ा ले गई. खैर छोडि़ए, ये सब. आप लोग चलिए, देर कर दी तो मार्केट बंद हो जाएगी,’’ किसी को कुछ कहने का मौका दिए बगैर डा. रौनक तेजी से अपने कमरे की ओर बढ़ गए.

‘‘मु झे यह आतंकवाद वाली बात करनी ही नहीं चाहिए थी. इसे सुनने के बाद ही डा. रौनक एकदम गुमसुम हो गए थे, खाना भी ठीक से नहीं खाया,’’ डा. कबीर बोले.

‘‘आप को मालूम थोड़े ही था कि डा. रौनक आतंकवाद के शिकार हैं,’’ डा. चंद्रा ने कहा.

‘‘हरेक शै के अच्छेबुरे पहलु होते हैं. डा. रौनक आतंकवाद का शिकार हैं और मेरे एक मित्र डा. भुपिंदर सिंह आतंकवाद के बैनिफिशियरी,’’ डा. सतीश ने कहा, ‘‘भुपिंदर की माताजी एक समाजसेविका हैं. उन्होंने आतंकवाद की शिकार एक युवती से उस की शादी करवा दी और भुपिंदर शादी के बाद बेहद खुश हैं.’’

‘‘अरे वाह, पहली बार सुना कि कोई समाजसेविका किसी हालात की मारी को अपनी बहू बना ले और बेटा भी मान जाए.’’

‘‘हम ने भी ऐसा पहली बार ही सुना और देखा था. असल में भुपिंदर की माताजी बहुत ही कड़क और अनुशासनप्रिय हैं और भुपिंदर ने सोचा था कि सुख से जीना है तो शादी मां की पसंद की लड़की से ही करनी होगी, चाहे अच्छी हो या बुरी. लेकिन मां ने तो उसे एक नायाब हीरा थमा दिया है…’’

‘‘यानी लड़की सुंदर और पढ़ीलिखी है?’’ कबीर ने बात काटी.

‘‘डाक्टर है और बेहद खूबसूरत. व्यस्त गाइनौकोलौजिस्ट होने के बावजूद सासूमां की समाजसेवा में समय लगाती है सो वे उस से बहुत खुश रहती हैं और भुपिंदर के घरसंसार में सुखशांति,’’ डा. चंद्रा ने बताया.

‘‘आप लोग जाइए शौपिंग के लिए, मैं डाक्टर रौनक के साथ कुछ समय बिताना चाहूंगा. उन की दुखती रग छेड़ने के बाद उन का ध्यान बंटाना तो बनता है,’’ डा. कबीर ने कहा.

डा. रौनक उन्हें गैस्टहाउस के लौन में ही टहलते हुए मिल गए, उन्होंने धीरे से उन के कंधे पर हाथ रख दिया.

‘‘अरे, आप डा. कबीर?’’ डा. रौनक ने चौंक कर कहा, ‘‘आप तो शौपिंग के लिए गए थे?’’

‘‘मगर यहां परदेश में आप को अकेले उदास छोड़ना अच्छा नहीं लगा सो लौट आया, शौपिंग कल कर लेंगे.’’

‘‘मेरे लिए इतना सोचने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद कबीर भाई,’’ डा. रौनक नम्रता से बोले, ‘‘मेरी उदासी तो मेरी परछाईं है, देशपरदेश की साथिन उस के लिए आप अपना प्रोग्राम खराब मत करिए.’’

‘‘काहे का प्रोग्राम यार,’’ डा. कबीर भी अनौपचारिक हो गए, ‘‘हर जगह हर चीज मिलती है, लेकिन चाहे 2 रोज को भी अपने शहर से दूर जाओ फैमिली के लिए वापसी में कुछ ले कर आने का रिवाज बन गया है. बस इसीलिए भाई लोग बाजार चले गए हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, बहुत पुराना रिवाज है यह. पापा जब भी दौरे पर जाते थे तो मां और बहनें अटकलें लगाने लगती थीं कि वे क्याक्या ले कर आएंगे.’’

‘‘और आप की पत्नी?’’

‘‘कह नहीं सकता, क्योंकि उस समय तो मेरी शादी ही नहीं हुई थी और शादी के बाद रागिनी को छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं हुआ. बहुत ही कम समय मिला उस के साथ रहने को,’’ डा. रौनक ने गहरी सांस ले कर कहा.

‘‘उफ, आई एम सो सौरी,’’ डा. कबीर का स्वर भीग गया, ‘‘वैसे हुआ कैसे ये सब?’’

‘‘डाक्टर बनते ही पहली पोस्टिंग जम्मू के एक सीमावर्ती गांव में हुई थी. जगह सुंदर थी, खानेपीने की दिक्कत भी नहीं थी, लेकिन अकेलापन बहुत था और उसे ही बांटने के लिए मैं ने रागिनी से शादी कर ली. बहुत मजे में गुजर रही थी जिंदगी.

‘‘एक रात घंटी बजने पर जब मैं ने दरवाजा खोला तो मुंहसिर लपेटे 6-7 लोग

एकदम अंदर घुस आए. उन में से एक बुरी तरह जख्मी था. उन की वेशभूषा से ही मैं सम झ गया कि वे सब सीमापार के घुसपैठिए हैं. एक ने मु झ पर बंदूक तान कर कहा कि मैं उन के जख्मी साथी का इलाज करूं. उसे देखने के बाद मैं ने कहा कि उस के जख्म बहुत गहरे हैं और इलाज की दवाइयां मेरे पास नहीं हैं. मेरे पास तो तुरंत खून रोकने के लिए बांधने को पट्टी भी नहीं थी.

‘‘बीवी का दुपट्टा फाड़ कर बांधा और अपनी मोटरसाइकिल पर जा कर तुरंत जरूरी दवाइयां लाने को तैयार हो गया.

‘‘रागिनी जो गले से दुपट्टा खींचे जाने पर तिलमिलाई हुई थी चिल्ला कर बोली कि ये कहीं नहीं जाएंगे.’’

‘‘इस का तो बाप भी जाएगा और तेरी तो मैं अभी ऐसी की तैसी करता हूं,’’ दांत किटकिटाता एक बंदूकधारी रागिनी की ओर लपका.

‘‘इसे मारना नहीं हिरासत में रखना है असलम, तभी तो यह डाक्टर दवाइयां ले कर जल्दी से लौटेगा,’’ दूसरे बंदूकधारी ने उसे रोका.

‘‘ठीक कहते हो उस्ताद, तब तक इस औरत से हम खिदमत करवाते हैं. भूखे हैं कब से. चल, डाक्टर फौरन इलाज का सामान ले कर आ और देख पुलिसवुलिस को बुलाने की हिमाकत करी तो तेरी बीवी जिंदा नहीं बचेगी.’’

‘‘मेरे जिंदा रहने की फिक्र मत करना रौनक…’’ रागिनी चिल्लाई.

यही उस की गलती थी. घुसपैठिए सर्तक

हो गए और उन्होंने अपने एक साथी अकरम

को मेरे कपड़े पहना कर मेरी कमर में पिस्तौल सटा कर मेरे पीछे मोटरसाइकिल पर बैठा दिया. इस बीच रागिनी चिल्लाती रही कि मेरी परवाह मत करना.

‘‘उस के चिल्लाने से शायद मेरी हिम्मत बढ़ी और दवा की दुकान पर कई लोगों को देखते ही मैं चिल्ला पड़ा कि यह आतंकवादी है मु झे इस से बचाओ.’’

इस से पहले कि अकरम कुछ कर पाता कुछ लोगों ने उसे दबोच कर उस की पिस्तौल छीन ली. उस के बाद पुलिस और फिर मिलिटरी ने हमारे घर को घेर लिया. घर में चारों तरफ खिड़कियां थी जिन से घुसपैठिए गोलियां दाग कर किसी को घर के पास नहीं फटकने दे रहे थे और घर के करीब न कोईर् दूसरा घर था और न ही कोई पेड़, जिस पर चढ़ कर सिपाही छत पर पहुंच सकते.

‘‘रागिनी ने जिद कर के यह घर लिया ही इसलिए था कि ताक झांक का डर न होने से हम उन्मुक्त हो कर जीया करेंगे. कई घंटों तक अंदर से गोलाबारी बंद होने यानी घुसपैठियों के असले के खत्म होने का इंतजार करने के बाद हार कर हैलिकौप्टर के जरीए कमांडो छत पर उतारे गए. सब घुसपैठियों ने खुद को गोली मार दी.

‘‘रागिनी रसोई के फर्श पर बेसुध पड़ी थी. थोड़े से उपचार के बाद वह ठीक हो गई. उस ने बताया कि पहले तो घुसपैठिए उस से लगातार चाय, खाना बनवाते रहे, लेकिन मकान की घेराबंदी के बाद उन्होंने उस पर लातघूसें बरसाने शुरू कर दिए कि इसी के उकसाने पर डाक्टर पुलिस ले कर आया है. उस का कहना था कि इस के अलावा उन्होंने उस के साथ कुछ गलत नहीं किया. मु झे उस का यह कहना बिलकुल अविश्वसनीय लगा. इतनी खूबसूरत अकेली जवान औरत को कौन ऐसे ही छोड़ेगा और यह कहने के बाद कि यह हमारी खिदमत करेगी, हम भूखे हैं.

‘‘रागिनी का कहना था कि असलम का मतलब सिर्फ खाना बनवाने

और खाने से था. टीवी पर खबर देख कर मेरे और रागिनी के परिवार के लोग भी आ गए थे. रागिनी के घर वालों का तो पता नहीं, लेकिन मैं और मेरे घर वाले रागिनी की बात को मानने को तैयार नहीं थे कि रागिनी का बलात्कार नहीं हुआ है. जब रागिनी के मम्मीपापा जाने लगे तो रागिनी भी उन के साथ जाने को तैयार हो गई. मैं ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की.’’

‘‘उस के बाद तो संपर्क किया होगा?’’ डा. कबीर ने पूछा.

‘‘डा. रौनक खिसिया गए कि उसी ने संपर्क किया था यह बताने को कि वह मां बनने वाली है… मैं ने छूटते ही कहा कि फिर तो पक्का हो गया कि उस के साथ बलात्कार हुआ था, क्योंकि मेरा बच्चा होने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं तो बेहद एहतियात बरतता था. सुन कर उस ने फोन रख दिया. उस के बाद आपसी सम झौते से हमारा तलाक हो गया. इसी बीच मु झे एमडी में दाखिला मिल गया और मैं ने खुद को पढ़ाई और फिर काम में  झोंक दिया.’’

‘‘रागिनी का हालचाल मालूम नहीं किया?’’

डा. रौनक ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘जिस गांव जाना नहीं उस की राह क्यों पूछता और पूछता भी किस से? एमडी करने वैल्लोर गया था, फिर वहीं से स्पैशलाइजेशन करने विभिन्न देशों में घूमता रहा सो किसी ऐसे से संपर्क ही नहीं रहा जो रागिनी के संपर्क में हो.’’

‘‘घर वालों ने शादी के लिए नहीं कहा?’’

‘‘पहली शादी के लिए ही जल्दी मचाते हैं सब लोग जो मैं ने खुद ही जल्दी मचा कर करवा ली थी. एमडी करने के दौरान ही मम्मीपापा चल बसे थे. रिश्तेदारों को दूसरी शादी करवाने का उत्साह नहीं होता और अपने को तो अकेले रहने की आदत पड़ चुकी है. बहुत देर हो गई है डा. कबीर, कमरे में चल कर आराम करना चाहिए शुभ रात्रि,’’ कह कर डा. रौनक ने हाथ मिलाया और अपने कमरे की ओर बढ़ गए.

डा. कबीर को उन का रवैया बहुत गलत लगा और उन की सहानुभूति अवहेलना में बदल गई. अगले रोज सिवा औपचारिक अभिवादन के उन्होंने डा. रौनक से कोई बात नहीं की. सम्मेलन खत्म होने के बाद सब अपनेअपने शहर लौट गए. प्राय सालभर बाद डा. कबीर को अपने भतीजे आलोक की शादी में अमृतसर जाना पड़ा. वहां शादी से पहले एक समारोह में उन के भाई ने उन्हें अपने पड़ोसी डा. भुपिंदर सिंह से मिलवाया. डा. कबीर को नाम कुछ जानापहचाना सा लगा. इस से पहले कि वे कुछ सोच पाते, उन की भतीजी ने डा. भुपिंदर सिंह से पूछा, ‘‘और सब नहीं आए अंकल?’’

‘‘सासबहू तो अपनी समाजसेवा से लौटने के बाद ही आएंगी, रूपिंदर टैनिस खेल कर आ गया है अभी कपड़े बदल कर आता होगा.’’

सासबहू और समाजसेवा… तार जुड़ते से लगे… डा. सतीश के दोस्त

भुपिंदर सिंह ही लगते हैं आतंकवाद के बैनिफिशियरी डा. कबीर दिलचस्पी से उन के पास ही बैठ गए. औपचारिक बातचीत खत्म भी नहीं हुई थी कि एक किशोर को देख कर डा. कबीर को जैसे करंट छू गया. हूबहू डा. रौनक की फोटोकौपी.

‘‘मेरा बेटा रूपिंदर, टैनिस की अंडर नाइनटीन प्रतियोगिता में भाग लेने की तैयारी कर रहा है,’’ डा भुपिंदर सिंह ने गर्व से बताया.

‘‘आई सी. और कितने बच्चे हैं आप के?’’

‘‘बस यही है जी, सवा लाख के बराबर एक. असल में इस के जन्म के बाद मम्मी ने इस की मां को अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने में लगा दिया. एमबीबीएस तो कर ही चुकी थी, एमडी करने में व्यस्त हो गई और फिर स्पैशलाइजेशन के लिए हम दोनों ही विदेश चले गए और इन्हीं व्यस्तताओं के चलते रूपिंदर को भाईबहन दिलवाने का समय निकल गया.’’

हालांकि डा. रौनक ने यह नहीं बताया था कि उन की पत्नी भी डाक्टर थी. डा. कबीर को यकीन था कि वह रागिनी है और यह यकीन कुछ ही देर में पक्का हो गया जब किसी फैशन मैगजीन में छपी महिला की तसवीर से डा. भुपिंदर सिंह ने उन का परिचय करवाया, ‘‘मेरी पत्नी रागिनी और रागिनी ये आलोक के चाचा डा. कबीर पाल हैं.’’

रागिनी ने शालीनता से हाथ जोड़े और कहा, ‘‘आलोक के चाचा होने के नाते आप का हमारे घर आना भी बनता है भाई साहब, जाने से पहले आप जरूर आइएगा.’’

‘‘जी, जरूर. पत्नी यहीं कहीं होगी भाभीजी के आसपास, उन से मिलने पर सब तय कर लीजिएगा,’’ डा. कबीर ने विनम्रता से कहा और मन ही मन सोचा कि आप से तो मु झे अकेले में मिलना ही है… पिछले वर्र्ष सुनी एकतरफा कहानी का दूसरा पहलू जानने को.

पड़ोस में रहने वाली डाक्टर रागिनी कहां काम करती हैं यह पता लगाना मुश्किल नहीं था और यह भी कि किस समय वे अपेक्षाकृत कम व्यस्त होती हैं.

शादी के अगले रोज लंच के बाद डा. कबीर रागिनी के हस्पताल पहुंच गए. रागिनी लंच के बाद अपनी कुरसी पर ही सुस्ता रही थी. डा. कबीर को देख कर चौंकना स्वाभाविक था. डा. कबीर ने बगैर किसी भूमिका के बताया कि कैसे पिछले वर्ष एक मैडिकल कौन्फ्रैंस में उन की मुलाकात डा. रौनक से हुई थी और उन्होंने अपने को आतंकवाद का शिकार बताया था. उस के बाद डा. सतीश ने अपने एक दोस्त के बारे में बताया, जो आंतकवाद की शिकार युवती से शादी कर के बहुत खुश था.

‘‘डा. रौनक की कहानी सुन कर मु झे लगा कि वे आतंकवाद के शिकार नहीं अपने वहम और पूर्वाग्रहों के शिकार हैं,’’ डा. कबीर ने कहा, ‘‘यहां आने पर रूपिंदर को देख कर मैं सम झ गया कि आतंकवाद के जिस बैनिफिशियरी का जिक्र डा. सतीश कर रहे थे वे आप के पति ही हैं. बस, जिज्ञासावश डा. रौनक से सुनी कहानी का दूसरा पहलू सुनने चला आया हूं. अगर आप को बुरा लगा हो तो धृष्टता के लिए क्षमा मांग कर चला जाता हूं.’’

‘‘अरे नहीं भाई साहब, आप पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने मु झ से बगैर मिले रौनक को गलत कहा है सो अब तो आप न भी चाहें तो भी मैं आप को अपनी कहानी सुनाऊंगी ही,’’ रागिनी हंसी.

‘‘एलकेजी से एमबीबीएस तक का सफर मैं ने और रौनक ने साथ ही तय किया था, जाहिर है ंिंजदगी का सफर भी साथ ही तय करना था, लेकिन एमडी करने के बाद जब तक एमडी में दखिला नहीं मिलता तब तक तो नौकरी करनी ही थी. मु झे संयोग से अपने शहर में ही नौकरी मिल गई, लेकिन रौनक को जम्मू के एक सीमावर्ती गांव में हालांकि उस गांव में मेरे लिए कोई काम नहीं था फिर भी रौनक के अकेलेपन के रोने से द्रवित हो कर मैं ने मम्मीपापा को शादी के लिए मना लिया. उस रात जो हुआ वह अप्रत्याशित था, लेकिन उस से भी ज्यादा अप्रत्याशित था रौनक का व्यवहार.

‘‘रौनक के जाते ही घुसपैठियों ने मु झे चाय और फिर दालचावल बनाने को कहा. वे लोग खाना खा ही रहे थे कि पुलिस आ गई और खाना छोड़ कर उन्होंने खिड़कियों पर मोरचा संभाल लिया और आतेजाते मु झ पर लातघूसों की बौछार करते रहे. उन्हें इतना समय ही कहां मिला कि मेरे साथ कुछ करते, इस का सुबूत अधखाया खाना और चाय के जूठे बरतन थे.

‘‘उसी रौनक ने जिस ने यह कह कर शादी की थी कि वह मेरे बिना जीने की

कल्पना भी नहीं कर सकता, मु झ पर और सुबूतों पर यकीन करने से इनकार कर दिया. एक डाक्टर होने के नाते क्या रौनक को मालूम नहीं है कि कोई भी गर्भनिरोधक उपाय शतप्रतिशत सुरक्षित नहीं होता. खैर, सब के सम झाने के बावजूद मैं ने गर्भपात नहीं करवाया.

‘‘उस हालत में न तो नौकरी कर सकती थी न ही पढ़ाई, मगर खाली घर बैठना भी नहीं चाहती थी सो मैं ने समय काटने के लिए एक एनजीओ जौइन कर लिया. वहां की संचालिका स्नेहदीप कौर ने मु झे अपने पुत्र के लिए पसंद कर लिया और पुत्र ने भी यह कह कर किसी का भी बच्चा होने दो, कहलाएगा तो यह मेरा बच्चा ही और मैं इसे इतना अच्छा इनसान बनाऊंगा. मु झे शादी के लिए मना लिया. संयोग से रूपिंदर पासपड़ोस में भी सभी का चहेता है.

‘‘वैसे तो मैं रौनक को भूल चुकी हूं और मन ही मन उन घुसपैठियों का भी धन्यवाद करती हूं, जिन के कारण मु झे भुपिंदर जैसे पति और स्नेहदीप जैसी सास मिलीं, जिन के सहयोग से मैं आज एक जानीमानी गाइनौकोलौजिस्ट हूं, मगर अभी भी यदाकदा रौनक का व्यवहार याद कर के तिलमिला जाती हूं और उस से बदला लेने को जी चाहता है. आप के पास रौनक का पता है?’’

‘‘संपर्क तो नहीं रखा उस से, लेकिन यह तो जानता ही हूं कि कहां काम करता है. मिलना चाहेंगी उस से?’’

‘‘कदापि नहीं. बस उस से मूक बदला लेने को रूपिंदर की तसवीर भेजना चाहूंगी यह सिद्ध करने को कि न तो गर्भनिरोधक उपायों पर विश्वास करना चाहिए और न ही बचपन के प्यार पर जो करने की भूल मैं ने करी थी.’’

डा. कबीर ने चुपचाप एक कागज पर डा. रौनक का पता लिख दिया.

मेरा संसार: अतीत और वर्तमान के अंतर्द्वंद्व में उलझे व्यक्ति की कहानी

प्यार की किश्ती में सवार मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरा साहिल कौन है, रचना या ज्योति? एक तरफ रचना जो सिर्फ अपने बारे में सोचती थी. दूसरी ओर ज्योति, जिस की दुनिया मुझ तक और मेरी बेटी तक सीमित थी.

आज पूरा एक साल गुजर गया. आज के दिन ही उस से मेरी बातें बंद हुई थीं. उन 2 लोगों की बातें बंद हुई थीं, जो बगैर बात किए एक दिन भी नहीं रह पाते थे. कारण सिर्फ यही था कि किसी ऐसी बात पर वह नाराज हुई जिस का आभास मुझे आज तक नहीं लग पाया. मैं पिछले साल की उस तारीख से ले कर आज तक इसी खोजबीन में लगा रहा कि आखिर ऐसा क्या घट गया कि जान छिड़कने वाली मुझ से अब बात करना भी पसंद नहीं करती?

कभीकभी तो मुझे यह भी लगता है कि शायद वह इसी बहाने मुझ से दूर रहना चाहती हो. वैसे भी उस की दुनिया अलग है और मेरी दुनिया अलग. मैं उस की दुनिया की तरह कभी ढल नहीं पाया. सीधासादा मेरा परिवेश है, किसी तरह का कोई मुखौटा पहन कर बनावटी जीवन जीना मुझे कभी नहीं आया. सच को हमेशा सच की तरह पेश किया और जीवन के यथार्थ को ठीक उसी तरह उकेरा, जिस तरह वह होता है.

यही बात उसे पसंद नहीं आती थी और यही मुझ से गलती हो जाती. वह चाहती है दिल बहलाने वाली बातें, उस के मन की तरह की जाने वाली हरकतें, चाहे वे झूठी ही क्यों न हों, चाहे जीवन के सत्य से वह कोसों दूर हों. यहीं मैं मात खा जाता रहा हूं. मैं अपने स्वभाव के आगे नतमस्तक हूं तो वह अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहती. विरोधाभास की यह रेखा हमारे प्रेम संबंधों में हमेशा आड़े आती रही है और पिछले वर्ष उस ने ऐसी दरार डाल दी कि अब सिर्फ यादें हैं और इंतजार है कि उस का कोई समाचार आ जाए.

जीवन को जीने और उस के धर्म को निभाने की मेरी प्रकृति है अत: उस की यादों को समेटे अपने जैविक व्यवहार में लीन हूं, फिर भी हृदय का एक कोना अपनी रिक्तता का आभास हमेशा देता रहता है. तभी तो फोन पर आने वाली हर काल ऐसी लगती हैं मानो उस ने ही फोन किया हो. यही नहीं हर एसएमएस की टोन मेरे दिल की धड़कन बढ़ा देती हैं, किंतु जब भी देखता हूं मोबाइल पर उस का नाम नहीं मिलता.

मेरी इस बेचैनी और बेबसी का रत्तीभर भी उसे ज्ञान नहीं होगा, यह मैं जानता हूं क्योंकि हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपनी तरह के विचारों से अपना वातावरण तैयार करता है व उसी की तरह जीने की इच्छा रखता है. मेरे लिए मेरी सोच और मेरा व्यवहार ठीक है तो उस के लिए उस की सोच और उस का व्यवहार उत्तम है. यही एक कारण है हर संबंधों के बीच खाई पैदा करने का. दूरियां उसे समझने नहीं देतीं और मन में व्यर्थ विचारों की ऐसी पोटली बांध देती है जिस में व्यक्ति का कोरा प्रेममय हृदय भी मन मसोस कर पड़ा रह जाता है.

जहां जिद होती है, अहम होता है, गुस्सा होता है. ऐसे में बेचारा प्रेम नितांत अकेला सिर्फ इंतजार की आग में झुलसता रहता है, जिस की तपन का एहसास भी किसी को नहीं हो पाता. मेरी स्थिति ठीक इसी प्रकार है. इन 365 दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उस की याद न आई हो, उस के फोन का इंतजार न किया हो. रोज उस से बात करने के लिए मैं अपने फोन के बटन दबाता हूं किंतु फिर नंबर को यह सोच कर डिलीट कर देता हूं कि जब मेरी बातें ही उसे दुख पहुंचाती हैं तो क्यों उस से बातों का सिलसिला दोबारा प्रारंभ करूं?

हालांकि मन उस से संपर्क करने को उतावला है. बावजूद उस के व्यवहार ने मेरी तमाम प्रेमशक्ति को संकुचित कर रख दिया है. मन सोचता है, आज जैसी भी वह है, कम से कम अपनी दुनिया में व्यस्त तो है, क्योंकि व्यस्त नहीं होती तो उस की जिद इतने दिन तक तो स्थिर नहीं रहती कि मुझ से वह कोई नाता ही न रखे. संभव है मेरी तरह वह भी सोचती हो, किंतु मुझे लगता है यदि वह मुझ जैसा सोचती तो शायद यह दिन कभी देखने में ही नहीं आता, क्योंकि मेरी सोच हमेशा लचीली रही है, तरल रही है, हर पात्र में ढलने जैसी रही है, पर अफसोस वह आज तक समझ नहीं पाई.

मई का सूरज आग उगल रहा है. इस सूनी दोपहर में मैं आज घर पर ही हूं. एक कमरा, एक किचन का छोटा सा घर और इस में मैं, मेरी बीवी और एक बच्ची. छोटा घर, छोटा परिवार. किंतु काम इतने कि हम तीनों एक समय मिलबैठ कर आराम से कभी बातें नहीं कर पाते. रोमी की तो शिकायत रहती है कि पापा का घर तो उन का आफिस है. मैं भी क्या करूं? कभी समझ नहीं पाया. चूंकि रोमी के स्कूल की छुट्टियां हैं तो उस की मां ज्योति उसे ले कर अपने मायके चली गई है.

पिछले कुछ वर्षों से ज्योति अपनी मां से मिलने नहीं जा पाई थी. मैं अकेला हूं. यदि गंभीरता से सोच कर देखूं तो लगता है कि वाकई मैं बहुत अकेला हूं, घर में सब के रहने और बाहर भीड़ में रहने के बावजूद. किंतु निरंतर व्यस्त रहने में उस अकेलेपन का भाव उपजता ही नहीं. बस, महसूस होता है तमाम उलझनों, समस्याओं को झेलते रहने और उस के समाधान में जुटे रहने की क्रियाओं के बीच, क्योंकि जिम्मेदारियों के साथ बाहरी दुनिया से लड़ना, हारना, जीतना मुझे ही तो है.

गरमी से राहत पाने का इकलौता साधन कूलर खराब हो चुका है जिसे ठीक करना है, अखबार की रद्दी बेचनी है, दूध वाले का हिसाब करना है, ज्योति कह कर गई थी. रोमी का रिजल्ट भी लाना है और इन सब से भारी काम खाना बनाना है, और बर्तन भी मांजना है. घर की सफाई पिछले 2 दिनों से नहीं हुई है तो मकडि़यों ने भी अपने जाले बुनने का काम शुरू कर दिया है.

उफ…बहुत सा काम है…, ज्योति रोज कैसे सबकुछ करती होगी और यदि एक दिन भी वह आराम से बैठती है तो मेरी आवाज बुलंद हो जाती है…मानो मैं सफाईपसंद इनसान हूं…कैसा पड़ा है घर? चिल्ला उठता हूं.

ज्योति न केवल घर संभालती है, बल्कि रोमी के साथसाथ मुझे भी संभालती है. यह मैं आज महसूस कर रहा हूं, जब अलमारी में तमाम कपडे़ बगैर धुले ठुसे पडे़ हैं. रोज सोचता हूं, पानी आएगा तो धो डालूंगा. मगर आलस…पानी भी कहां भर पाता हूं, अकेला हूं तो सिर्फ एक घड़ा पीने का पानी और हाथपैर, नहाधो लेने के लिए एक बालटी पानी काफी है.

ज्योति आएगी तभी सलीकेदार होगी जिंदगी, यही लगता है. तब तक फक्कड़ की तरह… मजबूरी जो होती है. सचमुच ज्योति कितना सारा काम करती है, बावजूद उस के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी. यहां तक कि कभी उस ने मुझ से शिकायत भी नहीं की. ऊपर से जब मैं दफ्तर से लौटता हूं तो थका हुआ मान कर मेरे पैर दबाने लगती है. मानो दफ्तर जा कर मैं कोई नाहर मार कर लौटता हूं. दफ्तर और घर के दरम्यान मेरे ज्यादा घंटे दफ्तर में गुजरते हैं. न ज्योति का खयाल रख पाता हूं, न रोमी का. दायित्वों के नाम पर महज पैसा कमा कर देने के कुछ और तो करता ही नहीं.

फोन की घंटी घनघनाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ.

‘‘हैलो…? हां ज्योति…कैसी हो?…रोमी कैसी है?…मैं…मैं तो ठीक हूं…बस बैठा तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था. अकेले मन नहीं लगता यार…’’

कुछ देर बात करने के बाद जब ज्योति ने फोन रखा तो फिर मेरा दिमाग दौड़ने लगा. ज्योति को सिर्फ मेरी चिंता है जबकि मैं उसे ले कर कभी इतना गंभीर नहीं हो पाया. कितना प्रेम करती है वह मुझ से…सच तो यह है कि प्रेम शरणागति का पर्याय है. बस देते रहना उस का धर्म है.

ज्योति अपने लिए कभी कुछ मांगती नहीं…उसे तो मैं, रोमी और हम से जुडे़ तमाम लोगों की फिक्र रहती है. वह कहती भी तो है कि यदि तुम सुखी हो तो मेरा जीवन सुखी है. मैं तुम्हारे सुख, प्रसन्नता के बीच कैसे रोड़ा बन सकती हूं? उफ, मैं ने कभी क्यों नहीं इतना गंभीर हो कर सोचा? आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है? इसलिए कि मैं अकेला हूं?

रचना…फिर उस की याद…लड़ाई… गुस्सा…स्वार्थ…सिर्फ स्वयं के बारे में सोचनाविचारना….बावजूद मैं उसे प्रेम करता हूं? यही एक सत्य है. वह मुझे समझ नहीं पाई. मेरे प्रेम को, मेरे त्याग को, मेरे विचारों को. कितना नजरअंदाज करता हूं रचना को ले कर अपने इस छोटे से परिवार को? …ज्योति को, रोमी को, अपनी जिंदगी को.

बिजली गुल हो गई तो पंखा चलतेचलते अचानक रुक गया. गरमी को भगाने और मुझे राहत देने के लिए जो पंखा इस तपन से संघर्ष कर रहा था वह भी हार कर थम गया. मैं समझता हूं, सुखी होने के लिए बिजली की तरह निरंतर प्रेम प्रवाहित होते रहना चाहिए, यदि कहीं व्यवधान होता है या प्रवाह रुकता है तो इसी तरह तपना पड़ता है, इंतजार करना होता है बिजली का, प्रेम प्रवाह का.

घड़ी पर निगाहें डालीं तो पता चला कि दिन के साढे़ 3 बज रहे हैं और मैं यहां इसी तरह पिछले 2 घंटों से बैठा हूं. आदमी के पास कोई काम नहीं होता है तो दिमाग चौकड़ी भर दौड़ता है. थमने का नाम ही नहीं लेता. कुछ चीजें ऐसी होती हैं जहां दिमाग केंद्रित हो कर रस लेने लगता है, चाहे वह सुख हो या दुख. अपनी तरह का अध्ययन होता है, किसी प्रसंग की चीरफाड़ होती है और निष्कर्ष निकालने की उधेड़बुन. किंतु निष्कर्ष कभी निकलता नहीं क्योंकि परिस्थितियां व्यक्ति को पुन: धरातल पर ला पटकती हैं और वर्तमान का नजारा उस कल्पना लोक को किनारे कर देता है. फिर जब भी उस विचार का कोना पकड़ सोचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो नईनई बातें, नएनए शोध होने लगते हैं. तब का निष्कर्ष बदल कर नया रूप धरने लगता है.

सोचा, डायरी लिखने बैठ जाऊं. डायरी निकाली तो रचना के लिखे कुछ पत्र उस में से गिरे. ये पत्र और आज का उस का व्यवहार, दोनों में जमीनआसमान का फर्क है. पत्रों में लिखी बातें, उन में दर्शाया गया प्रेम, उस के आज के व्यवहार से कतई मेल नहीं खाते. जिस प्रेम की बातें वह किया करती है, आज उसी के जरिए अपना सुख प्राप्त करने का यत्न करती है. उस के लिए पे्रेम के माने हैं कि मैं उस की हरेक बातों को स्वीकार करूं. जिस प्रकार वह सोचती है उसी प्रकार व्यवहार करूं, उस को हमेशा मानता रहूं, कभी दुख न पहुंचाऊं, यही उस का फंडा है.

भूल का अंत : जब बहन के कारण खतरे में पड़ी मीता की शादीशुदा जिंदगी

पूरे घर में हलचल मची हुई थी. कोई परदे बदल रहा था तो कोई नया गुलदस्ता सजा रहा था. अम्मा की आवाज रहरह कर पूरे घर में गूंज उठती, ‘‘किसी भी चीज पर धूल नहीं दिखनी चाहिए. बाजार से मिठाई आ गई या नहीं?’’

नित्या को यह हलचल, ये आवाजें बहुत भली लग रही थीं. फिर भी हृदय में विचित्र सी उथलपुथल थी. उस ने द्वार पर खड़े हो कर एक दृष्टि घर में हो रही सजावट पर डाली, और वह मीता को खोजने लगी. थोड़ी देर पहले तक तो उसी के साथ थी. उस की उंगलियों के नाखून सजाते हुए लगातार बोलती जा रही थी, ‘‘अब हाथ नहीं सजेंगे तो भला उन के सामने प्लेट बढ़ाती तुम्हारी उंगलियों पर ध्यान कैसे जाएगा जीजाजी का,’’ नित्या के दिमाग में पूरी घटना एकबारगी दौड़ गई.

मीता कैसे उसे चिढ़ाती हुई बोली, ‘‘क्या दहीबड़े बनाए हैं मैं ने. आने दो जरा, सजावट में इतनी लाल मिर्च डालूंगी कि ‘सीसी’ न कर उठें हमारे होने वाले जीजाजी तो कहना.’’

नित्या के मन में तो मीठीमीठी गुदगुदी हो रही थी पर ऊपर से क्रोध का दिखावा कर वह उसे डांटती भी जा रही थी, ‘‘चुप, मीतू, अभी वे कौन लगते हैं हम दोनों के?’’

‘‘हां भई, अभी कौन लगते हैं. अभी तो केवल देखनादिखाना हो रहा है.’’

फिर उस की हथेलियां छोड़ बोली, ‘‘तू भी दीदी, एकदम बोर है. वही पुराना जमाना लिए जी रही है. अपना तमाशा बनवाना,’’ यह कहने के साथ ही वह स्तब्ध सी हो उठी. नजरें झुकाए एकदम कमरे से बाहर निकल गई.

‘उफ, अब जाने कहां जा कर रो रही होगी, पगली,’ नित्या ने स्मृतियों को झटकते हुए सोचा तभी बड़ी ताई दनदनाती हुई उस के कमरे में आ गईं, ‘‘मीता कहां है?’’

‘‘पता नहीं,’’ उस ने कहा.

‘‘हूं…बता नहीं रहे तो ठीक है,’’ उन्होंने होंठ सिकोड़ कर कहा, ‘‘मैं ने तो सुबह ही छोटी को कह दिया था कि मीता को लड़के वालों के सामने न आने देना.’’

‘‘लेकिन ताई…’’ उस ने टोकना चाहा.

‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं. उस के कारण तू कब तक भुगतती रहेगी?’’

नित्या का मन अवसाद से भर उठा. पता नहीं ताई की बात में कितना सत्य है? मीता की एक छोटी सी भूल क्या उस के साथसाथ पूरे घर के लिए भी दुखों का पहाड़ बन गई है?

नित्या की आंखों में मीता की मस्तमौला छवि घूम गई. बचपन से ही अलमस्त सी हिरणी की तरह कुलांचें भरती. झूठे आडंबरों के विरुद्ध ऊंचीऊंची आवाज में बहस करती. जीवन के प्रति सदा अलग दृष्टिकोण अपनाकर चलने की धुन ने ही शायद उस से वह भूल हो जाने दी, जिस का पछतावा उस के जीवन से सारी उमंगें ही छीन ले गया.

कुछ देर को सब भूलभाल कर यदि वह खुश होती भी है तो ताई या मां सरीखी महिलाएं उसे पुरानी बातें याद दिला कर फिर से दुख के सागर में डूब जाने को विवश कर देती हैं.

नित्या को तैयार कराने की जिम्मेदारी ताई की बड़ी बहू पर थी. इस बीच नित्या ने कई बार मीता के बारे में जानना चाहा पर उसे टाल दिया गया. वह समझ गई कि मां ने मीता को एकांत में बैठने का आदेश दे दिया होगा ताकि लड़के वालों के सामने वह न पड़ने पाए.

लड़के वाले आ चुके थे और गहमागहमी बढ़ गई थी. सब के चेहरों पर नित्या के पसंद किए जाने की चिंता से अधिक संभवत: मीता का डर व्याप्त था. कहीं इन लोगों को भी भनक न लग गई हो कि लड़की की छोटी बहन अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गई थी. हां, यही शब्द तो सब दोहराते हैं.

कितना भोंडा सा लगता है यह सब. क्या उस समय कोई भी मीता के हृदय में झांकना चाहता है? क्या बीतती होगी उस के मन पर. कैसी कोमल उमंगों के साथ सारे आडंबरों को अंगूठा दिखाती हुई वह अपने प्रेमी के साथ ब्याह रचाने गई थी.

वह भी इसलिए विवश हुई थी क्योंकि घर के सारे सदस्य एक विजातीय के साथ उस का विवाह करने को तैयार नहीं थे. कैसे उस ने अपने अरमानों का खयाली सेहरा उस व्यक्ति के सिर बांधा होगा और आर्य समाज मंदिर में चंद लोगों के समक्ष विवाह किया होगा.

इधर, हर तरफ उस की खोज के बाद पुलिस तक बात पहुंच गई थी. जब वह अपने पति के साथ स्कूटर पर घर वालों से मिलने आ रही थी, तभी पुलिस की जीप उन के पीछे लग गई.

मीता जल्दी से सीधे घर पहुंचना चाह रही थी कि तभी अचानक तेज रफ्तार के कारण घटी दुर्घटना में वह अपने सारे सपनों, सारे अरमानों से हाथ धो बैठी थी.

मीता अपने पति के शव पर ढंग से रो भी न पाई थी कि उसे घर वाले जबरदस्ती पकड़ कर ले आए थे.

मीता के ससुर ने एक पत्र द्वारा अपनी बहू को घर ले जाने का अनुरोध भी किया था पर उस के मातापिता ने उस विवाह को मान्यता देने से ही इनकार कर दिया था.

कई माह तक मीता एकदम गुमसुम हो गई थी. तब चुपकेचुपके नित्या ही उसे समझाती थी. लेकिन घर के शेष सदस्य उसे इस सब से बाहर निकलने ही नहीं दे रहे थे. एक भूल की उसे इतनी कठोर सजा मिलेगी, यह तो उस ने सोचा भी नहीं था. वह अपने ही घर में एक कैदी बना दी गई थी.

पढ़ाई बंद हो गई. समाज की दृष्टि से छिपा कर उसे घर के कार्यों में लगा दिया गया. अभी उस की बड़ी बहन कुंआरी थी. यदि मीता पर कठोर अनुशासन न बैठाया जाता तो नित्या का जीवन भी अंधकारमय हो जाता. हालांकि तमाम सावधानियों के बाद भी नित्या के विवाह में निरंतर बाधाएं आ रही थीं. इसलिए अब लड़के वालों से मीता को छिपाया जाता था.

मेज पर कई प्रकार की मिठाइयां, नमकीन और मेवे सजाए जा रहे थे. ताई की बहू अतिथियों को शीतल पेय पेश कर रही थी.

ताई, मां व पिताजी लड़के वालों के सामने जम कर बैठ गए. मीता को रसोई में चाय बनाने में व्यस्त कर दिया गया था. थोड़ी ही देर में नित्या चाय की ट्रे ले कर भाभी के साथ बैठक में आई तो सब की दृष्टि उस की तरफ उठ गई. मां व पिताजी की आंखें अतिथियों की नजरों की टोह लेने में जुट गईं.

मेहमानों में लड़का, उस के मातापिता, विवाहित बहन व छोटा भाई भी था. सभी उत्सुकता से नित्या को देख रहे थे. मातापिता नित्या से उस की पढ़ाई आदि के बारे में प्रश्न कर रहे थे.

नित्या से अधिक उन के प्रश्नों का उत्तर ताई दे रही थीं. तभी अचानक जैसे धमाका हुआ. लड़के के पिता ने नित्या से कहा, ‘‘बेटी, हम ने सुना था कि तुम 2 बहनें हो. तुम्हारी छोटी बहन दिखाई नहीं दे रही.’’

नित्या ने घबरा कर मां व पिताजी को देखा. ताई सहित सभी के चेहरे का रंग उड़ गया.

पिताजी ने स्थिति को संभालने के लिए कहा, ‘‘जी हां, वह बहुत शरमीली है. रसोई में व्यस्त है.’’

‘‘वाह, बहुत अच्छी चाय बनी है,’’ लड़के के पिता ने कहा. शेष मेहमान मुसकरा कर उन का साथ दे रहे थे.

तभी लड़के की मां ने कहा, ‘‘बुलाइए न उसे भी, मिल तो लें.’’

पिताजी, मां तथा ताई आदि मन ही मन पिता को कोसने लगे कि आखिर वह घड़ी आ ही गई जिस का डर था. सब एकदूसरे का मुंह देख कर जैसे आंखों ही आंखों में पूछ रहे थे कि अब क्या करें.

‘‘जाओ बेटी, तुम बुला लाओ अपनी बहन को. आखिर अपने होने वाले जीजाजी से उसे भी तो मिलना चाहिए.’’

उन की इस बात पर घर वालों की आंखों में जहां यह संकेत पा कर चमक आ गई थी कि नित्या उन्हें पसंद आ गई है, वहीं आगे अब क्या होगा, यह सोच कर उन का सिर चकराने लगा.

ये लोग कुछ कहते, उस से पहले ही नित्या उठ कर अंदर चली गई. उस की आंखों में प्रसन्नता की लहर थी कि उसे पसंद कर लिया गया है. पीछे से ताई उठने लगीं तो लड़के की मां ने कहा, ‘‘आप बैठिए, वह ले आएगी.’’

ताई को मन मार कर बैठना पड़ा. नित्या ने मीता को पहले यह समाचार सुनाया कि उसे शायद पसंद कर लिया गया है. सुनते ही मीता की आंखों में प्रसन्नता के आंसू आ गए पर बाहर चलने के नाम पर उस के मन में भय की लहर दौड़ गई.

थोड़ी देर बाद लड़के की बहन जब भाभी के साथ वहीं आ गई तो मीता को बाहर जाना ही पड़ा.

मां और पिताजी के चेहरों का रंग बुरी तरह उड़ा हुआ था, जैसे सुख हाथ में आतेआते छीना जा रहा हो. मीता को उन लोगों ने अपने बीच में ही बैठा लिया.

लड़के की मां ने हंसते हुए कहा, ‘‘भई, छोटी बहनें तो सब से पहले बड़ी बहन के होने वाले पति को पसंद करने आती हैं. तुम तो अंदर ही छिपी बैठी थीं.’’

मीता ने मुसकरा कर गरदन झुका ली, लेकिन इस से पहले एक भयभीत दृष्टि मातापिता पर डाल ली.

वे लोग नित्या को छोड़ मीता से ही बातें करने लगे तो मां ने उन का ध्यान भंग करते हुए कहा, ‘‘आप लोग मेज तक चलें, नाश्ता ठंडा हो रहा है.’’

‘‘हांहां, वहां भी चलेंगे,’’ लड़के के पिता ने कहा, ‘‘लेकिन पहले अपने घर की सब से बड़ी बहू से कुछ बातें तो कर लें.’’

उन्होंने स्नेहपूर्वक मीता को देखा तो मां व पिताजी भय व आश्चर्य से एकदूसरे का मुख देखने लगे. सोचने लगे कि शायद इन लोगों ने नित्या की जगह मीता को पसंद कर लिया है.

तभी लड़के के पिता ने कहा, ‘‘आप लोग मेरी बात पर इतना परेशान न हों. हमें मालूम है कि आप की छोटी बेटी ने विवाह किया था. जिस घर की यह बहू है वह हमारे अभिन्न मित्र ही नहीं, सगे भाई से भी बढ़ कर हैं.’’

मीता की आंखों में सोया हुआ दर्द जाग उठा था. मातापिता की समझ में नहीं आ रहा था कि अब उन्हें क्या करना चाहिए.

तभी लड़के की मां ने कहा, ‘‘हम मानते हैं कि मीता ने कुछ जल्दबाजी की, पर एक भूल आप से भी हुई. अगर उस सत्य को आप स्वीकार कर लेते तो उस घर का इकलौता दीपक इस तरह बुझने से शायद बच जाता.’’

उन लोगों की आंखें नम थीं. लड़के के पिता बोले, ‘‘जो हुआ सो हुआ, अब हम अपनी बहू को पूरी मानमर्यादा से लेने आए हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ अचानक नित्या के पिता ने चौंक कर कहा.

मीता के सिर पर हाथ फेरते हुए लड़के के पिता बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारा खोया सुख तो वापस नहीं दे पाएंगे हम लेकिन दुख भी नहीं देंगे कभी. हमारा छोटा बेटा यदि तुम्हें पसंद हो तो हम दोनों बहनों को एक ही दिन विदा करवा कर ले जाएंगे.’’

मीता ने धीरेधीरे पलकें उठा कर उधर देखा. एक सलोना युवक मंदमंद मुसकरा रहा था. जैसे इतनी घुटन के बीच शीतल हवा का एक झोंका उस की राह में खुशियां बिखेरने को उत्सुक हो रहा हो.

मीता ने मातापिता की ओर देखा और दुख व संकोच से गरदन झुका ली. नहीं, अब कोई निर्णय वह स्वयं नहीं करेगी. मालूम नहीं, फिर कौन सी भूल कर बैठे.

लेकिन उस के मातापिता कदाचित अपनी सोच से बाहर निकल चुके थे. अनायास ही पिता ने उठ कर लड़के के पिता के दोनों हाथ थाम लिए, ‘‘हमें अपनी भूल का बहुत पछतावा है.’’

मां ने भी खुशी के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘हम अपनी दोनों बेटियों का रिश्ता आज ही करने को तैयार हैं.’’

घर में अचानक ही चारों ओर खुशियां बिखर गई थीं. शगुन की रस्म से पहले साडि़यां पहनते हुए नित्या ने अचानक मीता के कान में कहा, ‘‘मीतू, तेरे ‘उस’ की प्लेट में कितनी मिर्च डालूं कि जन्मभर ‘सीसी’ करता रहे…?’’

तुम्हारे हिस्से में : पत्नी के प्यार में क्या मां को भूल गया हर्ष?

बाइक ‘साउथ सिटी’ मौल के सामने आ कर रुकी तो एक पल के लिए दोनों के बदन में रोमांच से गुदगुदी हुई. मौल का सम्मोहित कर देने वाला विराट प्रवेशद्वार. द्वार के दोनों ओर जटायु के विशाल डैनों की मानिंद दूर तक फैली चारदीवारी. चारदीवारी पर फ्रेस्को शैली के भित्तिचित्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय उत्पादों की नुमाइश करते बड़ेबड़े आदमकद होर्डिंग्स और विंडो शोकेस. सबकुछ इतना अचरजकारी कि देख कर आंखें बरबस फटी की फटी रह जाएं.

भीतर बड़ा सा वृत्ताकार आंगन. आंगन के चारों ओर भव्यता की सारी सीमाओं को लांघते बड़ेबड़े शोरूम. बीच में थोड़ीथोड़ी दूर पर आगतों को मासूमियत के संग अपनी हथेलियों पर ले कर ऊपर की मनचाही मंजिलों तक ले जाने के लिए तत्पर एस्केलेटर.

‘‘कैसा लग रहा है, जेन?’’ नाम तो संजना था, पर हर्ष उसे प्यार से जेन पुकारता. शादी के पहले संजना मायके में ‘संजू’ थी. शादी के बाद हर्ष उसे बांहों में भरते हुए ठुनका था, ‘संजू कैसा देहाती शब्द लगता है. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सबकुछ ग्लोबल होना चाहिए, नाम भी. इसलिए आज से मैं तुम्हें जेन कहूंगा, माय जेन फोंडा.’

‘‘अद्भुत,’’ संजना के होंठों की लिपस्टिक में गर्वीली ठनक घुल गई. चेहरा ओस में नहाए गुलाब सा खिल गया, ‘‘लगता है, पेरिस का मिनी संस्करण ही उतर आया हो यहां.’’

‘‘एक बात जान लो. यहां हर चीज की कीमत बाहर के स्टोरों की तुलना में दोगुनी मिलेगी,’’ हर्ष चहका.

संजना खिलखिला कर हंस पड़ी तो लगा जैसे छोटीछोटी घंटियां खनखना उठी हों. होंठों की फांक के भीतर करीने से जड़े मोतियों से दांत चमक उठे. वह शरारत से आंखें नचाती बोली, ‘‘कुछ हद तक बेशक सही है तुम्हारी बात. पर जनाब, इस तरह के मौल में खरीदारी का रोमांच ही कुछ और है. इस रोमांच को हासिल करने के लिए थोड़ा त्याग भी करना पड़ जाए तो सौदा बुरा नहीं.’’

‘‘लगता है, इस क्रैडिट कार्ड का कचूमर निकाल देने का इरादा है आज,’’ हर्ष ने जेब से आयताकार क्रैडिट कार्ड निकाल कर संजना के आगे लहराते हुए कहा. संजना फिर से खिलखिला पड़ी. इस बार उस की हंसी में रातरानी सी महक घुली थी. हंसने से देह में थिरकन हुई तो बालों की एक महीन लट आंखों के पास से होती हुई होंठों तक चली आई.

‘‘तुम औरतों में बचत की आदत तो बिल्कुल नहीं होती,’’ होंठों पर लोटते लट को मुग्ध भाव से देखता हर्ष मुसकराया.

‘‘न, ऐसा नहीं कह सकते तुम. उचित जगह पर भरपूर किफायत और बचत भी किया करती हैं हम औरतें. विश्वास करो, तुम्हारे इस क्रैडिट कार्ड पर जो भी खरोंचें लगेंगी आज, उन पर जल्द ही बचत की पौलिश भी लगा दूंगी. ठीक? पर अभी स्टेटस सिंबल…’’

दोनों एस्केलेटर की ओर बढ़ गए.

‘‘जानते हो हर्ष, पड़ोस के 402 नंबर वाले गुप्ताजी तुम से जूनियर हैं न? उन की मिसेज इसी मौल से खरीदारी कर गई हैं कल,’’ संजना हाथ नचानचा कर बता रही थी, ‘‘आज मैं खबर लूंगी उन की.’’

‘‘नारीसुलभ डाह,’’ हर्ष ने चुटकी ली.

‘‘नहीं, केवल स्टेटस सिंबल,’’ दोनों की आंखों में दुबके शरारत के नन्हे चूजे पंचम स्वर में चींचीं कर रहे थे.

पहली मंजिल. मौल का सब से मशहूर शोरूम ‘अप्सरा’. दोनों शोरूम के भीतर चले आए. अंदर का माहौल तेज रोशनी से जगमगा रहा था. चारों ओर बड़ीबड़ी शैल्फें. वस्त्र ही वस्त्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय ब्रांड. फैशन व डिजाइनों के नवीनतम संग्रह. जीवंत से दिखने वाले पुतले खड़े थे, तरहतरह के डिजाइनर कपड़ों को प्रदर्शित करते हुए.

शोरूम का विनम्र व कुशल सेल्समैन उन्हें खास काउंटर पर ले आया. साडि़यां, जींसटौप, पैंटशर्ट, अंडरगार्मेंट्स…रंगों के अद्भुत शेड्स. एक से बढ़ कर एक कसीदाकारी की नवीनतम बानगी. मनपसंद को चुन लेने की प्रक्रिया 3 घंटे तक चली. आखिरकार चुने हुए वस्त्र ढेर से अलग हुए और आकर्षक भड़कीले पैकेटों में बंद हो कर आ गए. पेमेंट काउंटर पर बिल पेश हुआ, 18,500 रुपए का. क्रैडिट कार्ड पर कुछ खरोंचें लगीं और भुगतान हो गया.

संजना के चेहरे पर संतुष्टि के भाव झलक रहे थे. पैकेटों को चमगादड़ की तरह हाथों में झुलाए कैप्सूल लिफ्ट से नीचे उतरे ही थे कि संजना के पांव थम गए.

‘‘दीवाली के इस मौके पर जींसटौप का एक सैट बुलबुल के लिए भी ले लिया जाए तो कैसा रहेगा, हर्ष? जीजू की ओर से गिफ्ट पा कर तो वह नटखट बौरा ही जाएगी.’’

‘‘अरे, वंडरफुल आइडिया, यार,’’ बुलबुल के जिक्र मात्र से ही हर्ष रोमांच से भर गया.

बुलबुल संजना की इकलौती बहन थी. शोख व चंचल. रूप और लावण्य में संजना से दो कदम आगे. 12वीं कक्षा में कौमर्स की छात्रा. शादी की गहमागहमी में तो परिचय बस औपचारिक ही रहा था, पर सप्ताह भर बाद ‘पीठफेरी’ पर संजना को लिवाने हर्ष गया तो संकोचों की बालुई दीवार को ढहते देर नहीं लगी. 3 दिनों का प्रवास था. एक दिन मैथान डैम की सैर का प्रोग्राम बना. डैम देख चुकने के बाद तीनों समीप के पार्क में चले गए. अचानक संजना की नजर दूर खड़े आइसक्रीम के ठेले पर पड़ी तो वह उठ कर आइसक्रीम लाने चली गई. बरगद की ओट. रिश्ते की अल्हड़ता और बुलबुल की आंखों से झरती महुआ की मादक गंध. हर्ष ने आगे बढ़ कर बुलबुल के होंठों पर चुंबन जड़ दिया.

हर्ष की उंगलियां अनायास ही होंठों पर चली गईं. बुलबुल के होंठों का गीलापन अभी भी कुंडली मारे बैठा था वहां. सिहरन से लरज कर हर्ष चहका, ‘‘जींसटौप के साथसाथ एक साड़ी भी ले लो. अपनी जैसी प्राइस रेंज की लेना, ठीक?’’

दोनों वापस एस्केलेटर पर सवार हो कर ऊपर की ओर बढ़ गए.

रमा सिलाई मशीन से उठ कर बाहर बरामदे में आ गई. मशीन पर लगातार 5 घंटे बैठने से पीठ और कमर अकड़ गई थी. सूई की ओर लगातार नजरें गड़ाए रखने से आंखें जल रही थीं. रात के 11 बज रहे थे. बाहर रात की काली चादर पर आधे चांद की धूसर चांदनी झर रही थी. अंधेरे के अदृश्य कोनों से झींगुरों का समवेत रुदन सन्नाटे को रहस्यमय बना रहा था.

चैन नहीं पड़ा तो वापस कोठरी में लौट आई. कोठरी के भीतर बिखरे सामान को देख कर हंसी छूट गई. मरम्मत की हुई पुरानी सिलाई मशीन. पास ही कपड़ों के ढेर, जो महाजनों के यहां से रफू के लिए आए थे. मरम्मत की हुई पुरानी खड़खड़ करती टेबल. बरतनभांडे, दीवार, छत, कपड़ेलत्ते, खाटखटोले सब के सब जैसे रफूमय हों, मरम्मत किए हुए.

रमा ब्याह कर पहली बार आई थी यहां तो उम्र 16 साल थी. रमेसर एक एल्युमिनियम कारखाने में लेबर था. जिंदगी की गाड़ी सालभर ठीकठाक चली. उस के बाद श्रमिक संगठनों व प्रबंधन के आपसी मल्लयुद्ध में लहूलुहान हो कर एशिया का यह सब से बड़ा संयंत्र भीष्म पितामह की तरह शरशय्या पर ऐसा पड़ा कि फिर उठ नहीं सका. हजारों श्रमिक बेकारी की अंधी सुरंग में धकेल दिए गए.

रमेसर ने काम के लिए बहुत हाथपांव मारे पर कहीं भी जुगाड़ नहीं बैठ पाया. अंत में वह रिकशा चलाने लगा. पर दमे का पुराना मरीज होने के कारण कितनी सवारियां खींच पाता भला? खाने के लाले पड़ने लगे. तब बचपन में सीखा सिलाई और रफूगीरी का शौकिया हुनर काम आया. रमा ने पुरानी सिलाई मशीन का जुगाड़ किया. धैर्य रखते हुए पास के रानीगंज व आसनसोल शहर के व्यापारियों से संपर्क साधा और इस तरह सिलाई व रफूगीरी के पेशे से जिंदगी की फटी चादर पर रफू लगाने की कवायद शुरू हुई.

फिर हर्ष पेट में आया. तबीयत ढीली रहने लगी. डाक्टरों के पास जाने की औकात कहां? देशी टोटकों को देह पर सहेजा. देखतेदेखते 9वां महीना आ गया. फूले पेट के भीतर हर्ष की कलाबाजियों से मरणासन्न रमा वेदना को दांत पर दांत जमा कर बर्दाश्त करने की नाकाम कोशिश करती रही, तभी डाक्टर ने ऐलान किया, ‘केस सीरियस हो गया है और जच्चा या बच्चा दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है.’

रमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, पर दूसरे ही पल उस ने दृढ़ता के साथ डाक्टर से कहा, ‘सिर्फ और सिर्फ बच्चे को बचा लेना हुजूर. रमेसर की गोद में हमारे प्यार की निशानी तो रह जाएगी जो इस सतरंगी दुनिया को देख सकेगी.’

डाक्टर ने हर्ष को जीवनदान दे दिया. रमा कोमा में चली गई. कोमा की यह स्थिति 15 दिनों तक बनी रही. डाक्टरों ने उस की जिंदगी की उम्मीद छोड़ दी थी. पर मौत के संग लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार रमा बच ही गई.

हर्ष पढ़नेलिखने में औसत था. पढ़ने से जी चुराता. स्कूल के नाम पर घर से निकल जाता और स्कूल न जा कर आवारा लड़कों के संग इधरउधर मटरगश्ती करता रहता. राजमार्ग के पास वाली पुलिया पर बैठ कर आतीजाती लड़कियों को छेड़ा करता. इन सब बातों को ले कर रमेसर अकसर उस की पिटाई कर देता.

‘तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं रे,’ रमा उसे प्यार से समझाती, ‘पढ़लिख लेगा तो इज्जत की दो रोटियां मिलने लगेंगी, नहीं तो अभावों और जलालत की जिंदगी ही जीनी पड़ेगी.’

किसी तरह मैट्रिक पास हो गया तो रमा ने उसे कोलकाता भेज देने का निश्चय कर लिया. पुराने आवारा दोस्तों का साथ छूटेगा, तभी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो सकेगा.

‘पर वहां का खर्च क्या आसमान से आएगा?’ रमेसर ने शंका जाहिर की तो रमा के चेहरे पर आत्मविश्वास की पुखराजी धूप खिल आई, ‘आसमान से कभी कोई चीज आई है जो अब आएगी? खर्चा हम पूरा करेंगे. आधा पेट खा कर रह लेंगे. जरूरतों में और कटौती कर लेंगे. चाहे जैसे भी हो, हर्ष को पढ़ाना ही होगा. उस की जिंदगी संवारनी होगी.’

रमा की जीवटता देख कर रमेसर चुप हो गया. हर्ष को कोलकाता भेज दिया गया. एक सस्ते से पीजी होम में रहने का इंतजाम हुआ. नए दोस्तों की संगत रंग लाने लगी. रमा पैसे लगातार भेजती रही. इन पैसों का जुगाड़ किन मुसीबतों से गुजर कर हो रहा है, हर्ष को कोई मतलब नहीं था. पहले इंटर, फिर बीए और फिर एमबीए. एकएक सीढि़यां तय करता हुआ हर्ष अपनी मंजिल तक पहुंच ही गया.

एमबीए की डिगरी का झोली में आ जाना टर्निंग पौइंट साबित हुआ हर्ष के लिए. पहले ही प्रयास में एक बड़ी स्टील कंपनी में जौब मिल गया. फिर सुंदर और पढ़ीलिखी संजना से ब्याह हो गया. कोलकाता में पोस्ंिटग और अलीपुर में कंपनी के आवासीय कौंप्लैक्स में शानदार फ्लैट. अरसे से दानेदाने को मुहताज किसी वंचित को जैसे अथाह संपदा के ढेर पर ही बैठा दिया गया हो. एकबारगी ढेर सारी सुविधाएं, ढेर सारा वैभव. सबकुछ छोटे से आयताकार क्रैडिट कार्ड में कैद.

उस स्टील कंपनी में जौब लगे 3 साल हो गए. जौब लगते ही हर्ष ने कहा था, ‘नई जगह है मम्मी, सैट होने में हमें वक्त लगेगा. सैट होते ही तुम्हें यहां अपने पास बुला लेंगे. इस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे.’

सुन कर अच्छा लगा. रफूगीरी का काम करतेकरते तन और मन पर इतने सारे रफू चस्पां हो गए हैं कि घिन्न आने लगी है इन से. अब वह भी सामान्य जिंदगी जीना चाहती है, जिस दिन भी हर्ष कहेगा, चल देगी. यहां कौन सी संपत्ति पड़ी है? सारी गृहस्थी एक छोटी सी गठरी में ही समा जाएगी.

लेकिन 3 साल गुजर गए. इसी बीच हर्ष कई बार आया यहां. 2 दिनों के प्रवास के डेढ़ दिन ससुराल में बीतते. फिर बिना कुछ कहे लौट जाता. ‘मम्मी, इस बार तुम्हें भी साथ चलना है,’ इस एक पंक्ति को सुनने के लिए तड़प कर रह जाती रमा.

‘तो क्या अपने साथ ले चलने के लिए हर्ष के आगे हाथ जोड़ते हुए, गिड़गिड़ाते हुए विनती करनी होगी? मां की तनहाइयों और मुसीबतों का एहसास खुद ही नहीं होना चाहिए उसे? न, वह ऐसा नहीं कर सकती. उस के जमीर को ऐसा कतई मंजूर नहीं होगा. सिर्फ एक बार, कम से कम एक बार तो हर्ष को मनुहार करनी ही होगी. अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो न करे. वह भी कहीं जाने के लिए मरी नहीं जा रही.’

शोरूम में आधे घंटे का वक्त और लगा. जींसटौप के साथ सीक्वेंस वर्क की खूबसूरत साड़ी भी खरीद ली. क्रैडिट कार्ड पर एक और गहरी खरोंच. हाथों में झूलते चमगादड़ों के गुच्छों में एक चमगादड़ और जुड़ गया. लिफ्ट से नीचे उतर कर दोनों शाही अंदाज से चलते हुए मुख्यद्वार तक आए ही थे कि हर्ष एकाएक चौंक पड़ा.

‘‘मम्मी को तो भूल ही गए. उन के लिए साड़ी,’’ हर्ष मिमियाया.

‘‘ओह,’’ संजना भी थम गई.

‘‘एक बार फिर वापस अप्सरा,’’ हर्ष हंसा और हड़बड़ा कर वापस भीतर जाने को मुड़ा तो संजना ने उसे बांह से पकड़ कर रोक लिया, ‘‘अब उतर ही आए हैं तो चलो न, बाहर के किसी स्टोर से ले लेंगे.’’

‘‘बाहर के स्टोर से?’’ हर्ष सकपका गया.

‘‘ऐनी प्रौब्लम?’’ संजना ने आंखें मटकाईं, ‘‘मां ही तो हैं, मैडम मिशेल ओबामा जैसी बड़ी तोप तो नहीं कि साउथ मौल की साड़ी न हुई तो शान में गुस्ताखी हो जाएगी. हुंह…वैसे भी उन जैसी कसबाई महिला को क्या फर्क पड़ेगा कि साड़ी कहां से खरीदी गई है. बाहर के स्टोर से खरीदने पर सस्ती भी तो मिलेगी, आखिर बचत ही तो होगी.’’

‘‘सचमुच, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं. यू आर रियली जीनियस, जेन,’’ हर्ष संजना के तर्क पर मुग्ध हो उठा, ‘‘पर लेनी तो प्योर सिल्क ही है यार.’’

‘‘प्योर सिल्क?’’ संजना चौंक पड़ी, ‘‘प्योर सिल्क के माने जानते भी हो?’’

‘‘पिछली बार वहां गया था तो दीवाली पर प्योर सिल्क देने का वादा कर के आया था,’’ हर्ष अपराधबोध से भर गया.

‘‘उफ, तुम भी न…’’ संजना बड़बड़ाई, ‘‘इस तरह के उलटेसीधे वादे करने से पहले थोड़ा तो सोचना चाहिए था न.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता, जेन. वादा कर आया हूं न. नहीं दी तो मम्मी क्या सोचेंगी?’’

‘‘ठीक है. कोई उपाय करते हैं,’’ संजना सोच में पड़ गई.

बाइक अलीपुर की ओर दौड़ने लगी. पीछे बैठी संजना ने बायां हाथ आगे ले जा कर हर्ष की कमर को लपेट लिया. संजना की सांसों की मखमली खुशबू हर्ष को सनसनी से भर दे रही थी.

रासबिहारी मैट्रो स्टेशन के पास एक ठीकठाक शोरूम के आगे बाइक रुकी. दोनों भीतर चले आए. उन के हाथों में भारीभरकम भड़कीले पैकेट्स देख कर काउंटर के पीछे बैठे मुखर्जी बाबू मन ही मन चौंके. ऐसे हाईफाई ग्राहक का उन के साधारण से शोरूम में क्या काम?

‘‘वैलकम मैडम, क्या सेवा करें?’’ हड़बड़ा कर खड़े हो गए मुखर्जी बाबू.

‘‘प्योर सिल्क की एक साड़ी लेनी है हमें. कुछ बढि़या डिजाइनें दिखाइए.’’

मुखर्जी बाबू ने सहायक को संकेत दिया. देखते ही देखते काउंटर पर दसियों साडि़यां आ गिरीं. मुखर्जी बाबू उत्साहपूर्वक एकएक साड़ी खोल कर डिजाइन व रंगों की प्रशंसा करने लगे. संजना ने साड़ी पर चिपके प्राइस टैग पर नजर डाली, 3 से 4 हजार की थीं साडि़यां. उस ने हर्ष की ओर देखा.

‘‘तनिक कम रेंज की दिखाइए दादा,’’ संजना धीमे से बोली.

‘‘मैडम, इस से कम प्राइस में अच्छी क्वालिटी की प्योर सिल्क नहीं आएगी. सिंथेटिक दिखा दें?’’ मुखर्जी बाबू सोच रहे थे, ‘इतना मालदार आसामी प्राइस देख कर हड़क क्यों रहा है?’

‘‘प्योर सिल्क ही लेनी है,’’ संजना रुखाई से बोली. फिर तमतमाई आंखों से हर्ष की ओर देखा. दोनों अंगरेजी में बातें करने लगे.

‘‘तुम्हारी मम्मी का दिमाग सनक गया है. माना 40-45 की ही हैं अभी, पर हमारे समाज में विधवा स्त्री को ज्यादा कीमती और फैशनेबल साड़ी पहनना वर्जित है. यह बात उन्हें सोचनी चाहिए. मुंह उठाया और प्योर सिल्क मांग लिया, हुंह. प्योर सिल्क का दाम भी पता है? प्योर सिल्क पहनने का चाव चढ़ा है.’’

‘‘आय एम सौरी, जेन. वायदा कर चुका हूं न. अब कोई उपाय नहीं,’’

हर्ष ने भूल स्वीकारते हुए अफसोस जाहिर किया.

उसे अच्छी तरह याद है. उस दिन दोस्तों के संग घूमफिर कर घर लौटा तो रात के 10 बज रहे थे. मम्मी बिना खाए उस का इंतजार कर रही थीं. दोनों ने साथ भोजन किया. फिर वह मम्मी की गोद में सिर रख कर लेट गया. नीचे मम्मी की गोद की अलौकिक ऊष्मा. ऊपर चेहरे पर उस के ममता भरे हाथों का शीतल स्पर्श. न जाने कैसा सम्मोहन घुला था इन में कि झपकी आ गई. काफी दिनों के बाद एक सुकून भरी नींद. 3 घंटे बाद अचानक नींद टूटी तो देखा, मम्मी ज्यों की त्यों बैठी बालों में उंगलियां फिरा रही हैं.

उन्हीं क्षणों के दौरान उस के मुंह से निकल गया, ‘इस बार दीवाली पर अच्छी सी प्योर सिल्क की साड़ी दूंगा तुम्हें.’ यह सुन कर मम्मी सिर्फ मुसकरा भर दी थीं.

हर्ष और जेन के बीच बातचीत भले ही अंगरेजी में हो रही थी और मुखर्जी बाबू को अंगरेजी की समझ कम थी, फिर भी उन्हें ताड़ते देर नहीं लगी.

‘‘मैडम,’’ मुखर्जी बाबू ने सिर खुजलाते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘यदि बुरा न मानें तो क्या हम पूछ सकते हैं कि साड़ी किस के लिए ले रही हैं?’’

इस के पहले कि इस अटपटे प्रश्न पर दोनों हत्थे से उखड़ जाते, मुखर्जी बाबू ने झट से स्पष्टीकरण भी पेश कर दिया, ‘‘न, न, मैडम, अन्यथा न लें, सिर्फ इसलिए पूछा कि हम उस के अनुकूल दूसरा किफायती औप्शन बता सकें.’’

संजना ने हिचकिचाते हुए मन की गांठ खोल दी, ‘‘साहब की विडो (विधवा) मदर के लिए.’’

पलक झपकते मुखर्जी बाबू के जेहन में पूरा माजरा बेपरदा हो गया. मैडम ने साहब की मां को ‘मम्मी’ नहीं कहा, ‘सासूमां’ भी नहीं कहा, बल्कि ‘साहब की विडो मदर’ कहा और साहब कार्टून की तरह खड़ा दुम हिलाता ‘खीखी’ करता रहा.

‘‘आप का काम हो गया,’’ उन्होंने सहायक को कुछ अबूझ से संकेत दिए. थोड़ी देर में ही काउंटर पर प्योर सिल्क का नया बंडल दस्ती बम की तरह आ गिरा. एक से एक खूबसूरत प्रिंट. एक से एक लुभावने कलर.

‘‘वैसे तो ये साडि़यां भी 4 हजार से ऊपर की ही हैं मैडम, पर हम इन्हें सिर्फ 800 रुपए में सेल कर रहे हैं. लोडिंगअनलोडिंग के समय हुक लग जाने से या चूहे के काट देने से माल में छोटामोटा छेद हो जाता है. हमारा ट्रैंड कारीगर प्लास्टिक सर्जरी कर के उस नुक्स को इस माफिक ठीक करता है कि साड़ी एकदम नई हो जाती है. सरसरी नजर से देखने पर नुक्स बिलकुल भी पता नहीं चलेगा.’’

‘‘यानी कि रफू की हुई,’’ संजना हकला उठी.

‘‘रफू नहीं मैडम, प्लास्टिक सर्जरी बोलिए. रफू तो देहाती शब्द है. आप खुद देखिए न.’’

सचमुच, बिलकुल नई और बेदाग साडि़यां. जहांतहां छोटेछोटे डिजाइनर तारे नजर आ रहे थे जो साड़ी की खूबसूरती को बढ़ा ही रहे थे. सरसरी तौर पर कोई भी नुक्स नहीं दिख रहा था साडि़यों में, दोनों की बाछें खिल उठीं. आंखों में ‘यूरेकायूरेका’ के भाव उभर आए, मन तनावमुक्त हो गया जैसे जेन का.

आननफानन ढेर में से एक साड़ी चुनी गई और पैक हो कर आ गई. यह नया पैकेट मौल के पैकेटों के बीच ऐसा लग रहा था जैसे प्राइवेट स्कूल के बच्चों के बीच किसी सरकारी स्कूल का बच्चा आ घुसा हो.

‘‘मैं ने कहा था न, सही मौका आते ही क्रैडिट कार्ड की खरोंचों पर रफू लगा दूंगी. देख लो, तुम्हारा वादा भी पूरा हो गया और चिराग पर पूरे 3 हजार का रफू भी लग गया.’’

‘‘यू आर जीनियस, जेन,’’ हर्ष की प्रशंसा सुन कर संजना खिलखिलाई तो बालों की कई महीन लटें पहले की ही तरह आंखों के सामने से होती हुई होंठों तक चली आईं. बाइक की ओर बढ़ते हुए दोनों के चेहरे खिले हुए थे.

प्रायश्चित्त : तनीषा से शादी टूटने के बाद क्या सुधर पाया शराबी पवन?

बरात लड़की वालों के दरवाजे पर पहुंच चुकी थी. लड़की की मां दूल्हे की अगवानी के लिए आरती की थाली लिए पहले से ही दरवाजे पर खड़ी थीं. दूल्हे को घोड़ी से उतारने के लिए दुलहन के पिता और भाईर् आगे बढ़े. घोड़ी से उतरते ही दूल्हा लड़खड़ा गया तो उन्होंने सोचा बहुत देर से घोड़ी पर बैठा था, इसलिए ऐसा हुआ होगा. लेकिन स्टेज तक पहुंचतेपहुंचते उन को सारा माजरा समझ में आ गया. दूल्हे साहब ने जम कर शराब पी रखी थी, इसलिए उस से चला भी नहीं जा रहा था. किसी तरह उसे स्टेज पर ले जा कर कुरसी पर बैठाया गया. दोनों बापबेटे ने आंखोंआंखों में ही बात की.

बेटे ने अपने पिता के चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर उन के कान में कहा, ‘‘कोई बात नहीं पापा, खुशी में ज्यादा पी ली होगी.’’

इस से पहले कि आपस में कुछ और कहते दुलहन के रूप में सजी तनीषा अपनी सहेलियों के साथ स्टेज पर पहुंच गई, वरमाला की रस्म अदायगी के लिए. लेकिन जैसे ही दूल्हे को कुरसी से उठने को कहा गया, वह जरा सा उठ कर फिर कुरसी पर धम्म से बैठ गया. इस बार 2 लोगों की मदद से उसे उठाया गया. उस ने तनीषा के गले में वरमाला डालने के लिए अपने दोनों हाथ हवा में लहराए, लेकिन यह क्या उस के हाथ बिना वरमाला डाले लहरा कर वापस आ गए. जब 2-3 बार ऐसा हुआ तो आसपास के लोग आपस में कानाफूसी करने लगे.

दुलहन के लिबास में लजाईशरमाई तनीषा ने सारा माजरा समझते ही उग्र रूप धारण कर लिया और जयमाला को स्टेज पर पटक कर बोली, ‘‘नहीं करनी मुझे इस शराबी से शादी,’’ और पैर पटकते स्टेज से जाने लगी, तो उस की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से सभी मेहमान सकते में आ गए.

इस से पहले कि कोई उसे रोके, वह अपने कमरे में गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. दोनों पक्षों में हलचल मच गई.

तनीषा के मातापिता ने उसे दरवाजा खोलने के लिए कहा, तो वह इस शर्त पर खोलने को राजी हुई कि उस के निर्णय का विरोध नहीं होगा. दरवाजा खुलते ही सब यह देख कर हैरान रह गए कि उस ने दुलहन के कपड़े बदल कर साधारण कपड़े पहन लिए थे.

उस की मां यह देखते ही चीख पड़ी, ‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है… ऐसे कोई बरात दरवाजे से वापस करता है… कितने इंतजार के बाद तो यह दिन आया है और तू सब बरबाद करने पर तुली हुई है… तू ने यह सोचा कि कितने पैसों की बरबादी होगी? तेरे पापा कहां से लाएंगे इतने पैसे? बिरादरी में हम क्या मुंह दिखाएंगे? कितनी दूरदूर से लोग आए हैं, शादी में शामिल होने के लिए. तेरे इस बरताव के कारण कोई दूसरा रिश्ता होना भी मुश्किल हो जाएगा… बाद में सब ठीक हो जाता है, लेकिन तू किसी की सुने तब न…’’

‘‘नहीं, इस का निर्णय ठीक है, मैं अपनी बेटी को कुएं में नहीं धकेल सकता. वह जब ऐसे खास मौके पर भी इतनी पी कर आया है, तो उस का क्या विश्वास है कि उसे शराब की लत नहीं होगी… मेरी बेटी पढ़ीलिखी है, उसे अपने जीवन के निर्णय लेने का पूरा हक है… मैं लड़के वालों से सारी स्थिति का पता करता हूं, उस के बाद जो यह चाहेगी, वही होगा,’’ तनीषा के पिता ने अपनी पत्नी की बात काटते हुए कहा.

‘‘इस के साथ आप की बुद्धि पर भी पत्थर पड़ गए हैं… यह तो नासमझ है, आप को तो समझदारी से काम लेना चाहिए…’’ पत्नी ने आक्रोश में कहा.

‘‘मैं अपनी जान दे दूंगी, लेकिन ऐसे पियक्कड़ से शादी नहीं करूंगी. अपनी सहेलियों के सामने मेरा सिर शर्म से झुक गया… मेरा कितना मजाक बनाएंगी. आप को नहीं पता, कितनी बार मैं ने उन के सामने नशे में धुत्त व्यक्ति की ऐक्टिंग कर के उन्हें हंसाया है… उन के विरोध में बोला है, आज मेरा पति… मैं कल्पना भी नहीं कर सकती…’’ तनीषा ने रोतेरोते अपना निर्णय सुनाया.

यह सुन उस की मां उस के पापा की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘और चढ़ाओ बेटी को सिर… मैं ने कितनी बार समझाया कि बेटी को इतना मत पढ़ाओ, लेकिन मेरी सुनता कौन है… अब भुगतो, एक हमारा जमाना था…’’

वे कुछ और बोलतीं उस से पहले ही दूल्हे का भाई उन्हें यह कह कर बुलाने आया कि उस के मम्मीपापा उन से मिलना चाह रहे हैं. अभी तक तनीषा का भाई तथा और लोग मूक दर्शक बने खड़े थे. वे इधरउधर चले गए.

तनीषा के पापा ने अपनी पत्नी को साथ ले जाना उचित नहीं समझा और अपने

बेटे तथा उस के मामा के साथ उन से मिलने पहुंच गए. बैठने के बाद थोड़ी देर चुप्पी छाई रही. दुल्हे के मातापिता के चेहरों से शर्मिंदगी के भाव साफ झलक रहे थे. फिर पिता ने कहा, ‘‘माफ कर दीजिए, हमारे बेटे ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा… उसे पीने की थोड़ीबहुत आदत है, लेकिन ऐसे मौके पर भी इतना पी कर आएगा, मैं सोच भी नहीं सकता था. असल में उस के दोस्तों ने ही उसे इस हाल में पहुंचाया. आप तो जानते हैं आज के बच्चों का लाइफस्टाइल, लेकिन मैं वादा करता हूं कि शादी के बाद आप को कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा, कृपया रिश्ता स्वीकार कर लीजिए. इसी में दोनों परिवारों की भलाई है.’’

‘‘रमेशजी, मेरे परिवार की किस में भलाई है, इस के लिए आप को सोचने की आवश्यकता नहीं है. मैं ऐसे नशेड़ी दामाद को कभी स्वीकार नहीं कर सकता. आप ने मुझे धोखा दिया है. पहले क्यों नहीं बताया कि उसे नशे की लत है? यह तो अच्छा हुआ कि फेरों के पहले भेद खुल गया, नहीं तो मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो जाती. अब हमारे धन और मानसम्मान की भरपाई कैसे होगी? मेरी बेटी को आप के बेटे के कुकृत्य से जो सदमा लगा है, उस के लिए आप के पास कोई समाधान है?’’

‘‘भाई साहब, मैं आप से दोबारा माफी मांगता हूं. असल में मैं ने सोचा था कि एक बार शादी हो जाएगी तो वह सुधर जाएगा…’’

उन की बात बीच में ही काटते हुए तनीषा के मामा बोले, ‘‘सुधारने के लिए हमारी ही बेटी मिली थी? अपने स्वार्थ के लिए हमारी बेटी के सपने चूरचूर करने का आप को क्या अधिकार था? अब यह शादी नहीं हो सकती और जो भी अभी तक कपड़े और गहनों का लेनदेन हुआ है, उस का हिसाब कर लीजिए.’’

दूल्हे को अब तक होश आ गया था, वह दूर सिर झुकाए बैठा था. उस के पिता भारी मन से उठे और उस के पास जा कर उसे कंधे से पकड़ कर उठाते हुए गाड़ी में बैठा कर चले गए. पीछेपीछे बाकी बराती भी अपमानित होने के कारण झल्लाए से लौट गए.

थोड़ी देर पहले जिस जगह चारों ओर सजेसंवरे लोगों की चहलपहल थी, बैंडबाजे की धुन पर बच्चे, जवान और बूढ़े थिरक रहे थे, वहां सन्नाटा पसरा था. किराए पर जो भी सामान आया था, उन्हें समेटने के लिए आए लोग प्रश्नवाचक दृष्टि से सारे वातावरण को घूर रहे थे. कमरे में एक ओर तनीषा घुटनों में मुंह छिपाए बैठी थी, तो दूसरी तरफ उस के मातापिता नि:शब्द पलंग पर लुढ़के थे. छोटा भाई आशीष बाहर सामान ढोने वालों को निर्देश दे रहा था.

सच में समय अपना कब क्या रंग दिखा दे, हम कल्पना भी नहीं कर सकते. हमें उस के आगे घुटने टेकने ही पड़ते हैं. अब इस परिवार को तनीषा के भविष्य के लिए नए सिरे से सोचना पड़ेगा. गलती किसी की और भुगतना पड़ेगा किसी और को. लोगों की यह धारणा कब बदलेगी कि विवाह कोई जादू की छड़ी है कि उस के होते ही कोई इनसान बदल जाएगा? मांबाप जब अपने बेटे की नशे की लत नहीं छुड़ा पाए, तो किसी अनजानी लड़की से कैसे उम्मीद कर सकते हैं और उस के लिए हम कैसे किसी दूसरे परिवार की लड़की को बली का बकरा बना सकते हैं?

दूल्हे पवन को इस घटना से बहुत बड़ा झटका लगा था. वह पढ़ालिखा था, एक अच्छी कंपनी में काम करता था. दोस्तों की गलत संगत से उसे पीने की लत लग गई थी, लेकिन ऐसे मौके पर भी उस के दोस्त ऐसी घटिया हरकत करेंगे, यह उस के लिए बहुत अप्रत्याशित था. सारे घटनाचक्र ने उस को झकझोर दिया था. उसे अपनेआप से घृणा होने लगी. उस के मनमस्तिष्क में आंदोलन चलने लगा कि उसे क्या हक था अपने कुकृत्य से मातापिता और किसी दूसरे परिवार को तबाह करने का. उसे आत्मग्लानि हुई और वह पश्चात्ताप की आग में जलने लगा. फिर मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वह इस का प्रायश्चित्त कर के रहेगा.

यह सचाई है कि जब हम कुछ ठान लेते हैं, तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता. उस ने मन ही मन शराब और शराबी दोस्तों से किनारा करने की ठान ली. वह अपने मातापिता के पास जा कर उन के पैरों से लिपट कर खूब रोया और माफी मांगते हुए बोला कि वह अब कभी शराब को हाथ नहीं लगाएगा. वे लोग अपमानित हो कर इतने सकते में थे कि कुछ भी नहीं बोले.

पवन की तनीषा के घर जाने की हिम्मत नहीं थी, लेकिन उस ने मोबाइल पर माफी मांगने का मैसेज छोड़ा और लिखा कि अपने कुकृत्य के लिए वह बहुत शर्मिंदा है और उस का प्रायश्चित्त कर के रहेगा. हो सके तो उस के लिए वह इंतजार करे. तनीषा ने कोई उत्तर नहीं दिया.

पवन ने अपने सभी दोस्तों से किनारा कर लिया और डाक्टर के पास अपने पीने की समस्या को ले कर गया. उस का इलाज शुरू हो गया. उस ने औफिस के बाद अधिकतर समय जिसे वह अपने दोस्तों के साथ बिताता था, अपने परिवार के साथ बिताने लगा. पार्टियों में जाना बंद कर दिया.

आरंभ में उसे काफी बेचैनी हुई, लेकिन धीरेधीरे उस में परिवर्तन आने लगा. पवन के मातापिता उस की इस अप्रत्याशित प्रवृत्ति को देख कर दंग रह गए. मन ही मन तनीषा को धन्यवाद देने लगे कि उस के द्वारा विवाह को ठुकरा देने के कारण ही उस में यह परिवर्तन आया है. वे उस के सुखद भविष्य के लिए आशान्वित हो गए. अत: तनीषा को अपनी बहू के रूप में देखने की कल्पना करने लगे, लेकिन अगले ही पल फिर यह सोच कर उन का मन बुझ जाता कि यदि उस ने स्वीकार नहीं किया तो?

तनीषा के घर में जब भी उस के विवाह की चर्चा होती, तो वह उठ कर चली जाती. उसे बहुत मानसिक आघात लगा था. उसे वे दिन याद आते थे जब वह सगाई के बाद कई बार पवन से मिली थी और फोन पर तो उस से उस की लगभग प्रतिदिन बात होती थी. उसे पहले ही पता होता कि वह पियक्कड़ है, तो कभी उस से रिश्ता नहीं रखती. उस ने अपने मातापिता से कह दिया कि वह अभी मानसिक रूप से विवाह के  लिए बिलकुल तैयार नहीं है, इसलिए उसे उस के हाल पर छोड़ दें. नौकरी तो वह करती ही थी, व्यस्त रहने के लिए उस ने हौबी क्लास जौइन कर ली.

समय बीतता गया. करीब 1 साल बाद हिम्मत कर के पवन तनीषा के औफिस पहुंच गया. उसे अचानक देख कर वह अचकचा गई और फिर बोली, ‘‘तुम यहां किसलिए आए हो? मैं तुम से कोई संपर्क नहीं रखना चाहती.’’

‘‘प्लीज एक बार मेरी बात सुन लो, मैं बदल गया हूं, अपनी बुरी आदत मैं ने छोड़ दी है.’’

लेकिन तनीषा ने उस की एक न सुनी पवन उस की इस प्रतिक्रिया के लिए पहले से

ही तैयार था. 1 हफ्ते बाद वह फिर उस से मिला और बोला, ‘‘मैं प्रायश्चित्त करना चाह रहा हूं, प्लीज माफ कर दो.’’

लेकिन इस बार भी तनीषा ने उस की बातों को अनसुना कर दिया और पहले वाला ही जवाब दिया.

मगर पवन निराश नहीं हुआ. उस ने अपना प्रयत्न जारी रखा. धीरेधीरे उस के मिलते रहने से तनीषा का दिल पिघलने लगा. एक दिन जब पवन ने उस से कहा कि वह उस से बहुत प्यार करता है और उस के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता, तो उस के दिमाग में हलचल मच गई और वह सकारात्मक रूप से सोचने पर मजबूर हो गई.

अब वह उस से मिलने लगी. जब उसे पवन पर पक्का विश्वास हो गया, तो उस ने अपने मातापिता को सारी स्थिति से अवगत कराया और बोली, ‘‘यदि वे ठीक समझें तो उस के घर जा कर उस के मातापिता से मिल लें और सारी स्थिति पता करें.’’

उस के पिता बोले, ‘‘लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि वह शादी के बाद दोबारा नहीं पीना आरंभ कर देगा?’’

‘‘पापा, हम आज की स्थिति देख कर ही निर्णय ले सकते हैं, भविष्य को किस ने जाना है. ऐसा भी तो हो सकता है कि कोई शादी के पहले न पीता हो, बाद में पीने लग जाए.’’ बेटी की यह बात सुन कर उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और फिर पवन के मातापिता से मिलने का  प्रोग्राम बना लिया.

जब उन्होंने पवन के मातापिता को अपने आने की सूचना दी, तो वे इस अप्रत्याशित मिली खुशी से फूले नहीं समाए और उन की अगवानी की तैयारी में जुट गए.

पवन को भी लगा कि उस का प्रायश्चित्त करना सफल हो गया. दोनों परिवार जब आपस में मिले, तो खुशी से एकदूसरे के गले लग गए.

पवन के पिता बोले, ‘‘मैं आप की बेटी का कर्जदार हूं, हम अपने बेटे को नहीं बदल पाए, लेकिन आप की बेटी ने बदल दिया.’’

‘‘हां भई, अब देर किस बात की, जल्दी से इन की शादी करवाओ.’’

‘‘देर आए दुरुस्त आए,’’ तनीषा के पापा बोले.

‘‘लेकिन मेरी एक शर्त है,’’ यह सुन कर तनीषा के पिता हैरान से रह गए.

तनीषा के पिता को हैरान खड़ा देख पवन के पिता बोले, ‘‘इस बार शादी का सारा खर्च मेरी तरफ से…’’

तनीषा और पवन कनखियों से एकदूसरे को देखते हुए मुसकरा रहे थे.

नहीं बदली हूं मैं : क्यों सुनयना का पति उसे लेस्बियन समझने लगा?

‘‘चलो कहीं घूमने चलते हैं. राघव भी अपने दोस्तों के साथ 15 दिनों के लिए सिंगापुर जा रहा है. कितने दिन हो गए हमें कहीं गए हुए,’’ सुनयना ने अपने पति जय से बहुत ही मनुहार करते हुए कहा.

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना. कोफ्त होती है मुझे कहीं जाने की सुन कर. मिलता क्या है कहीं बाहर जा कर? वापस घर ही तो आना होता है. ट्रेन में सफर करो, थको और फिर किसी होटल में रहो और बेवकूफों की तरह उस जगह की सैर करते रहो. बेकार में इतना पैसा खर्च हो जाता है और वापस आ कर फिर थकान उतारने में 2 दिन लग जाते हैं. सारा शैड्यूल बिगड़ जाता है वह अलग. पता नहीं क्यों तुम्हें हमेशा घूमने की लगी रहती है. तुम्हें पता है मुझे कहीं बाहर जाना पसंद नहीं, फिर भी कहती रहती हो,’’ जय ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘पता है मुझे तुम्हें नहीं पसंद पर कभी मेरी खुशी की खातिर तो जा सकते हो? शादी को 22 साल हो गए पर कभी कहीं ले कर नहीं गए. राघव को भी नहीं ले जाते थे. शुक्र है वह तुम्हारे जैसा खड़ूस नहीं है और घूमने का शौक रखता है. शादी के बाद हर लड़की का ख्वाब होता है कि उस का पति उसे घुमाने ले जाए. बंधीबंधाई रूटीन जिंदगी से निकल कुछ समय अगर रिलैक्स कर लिया जाए तो स्फूर्ति आ जाती है और फिर नएनए लोगों और जगहों को जानने का भी अवसर मिलता है. दुनिया पागल नहीं जो देशविदेश की सैर पर जाती है. केवल तुम ही अनोखे इनसान हो. असल में पैसा खर्चते हुए मुसीबत होती है तुम्हें. अव्वल दर्जे के कंजूस जो ठहरे… कभी दूसरे की भावना का भी सम्मान करना सीखो. छोटीछोटी खुशियों को तरसा देते हो,’’ सुनयना के अंदर भरा गुबार जैसे बाहर आने को बेताब था.

‘‘ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है. रही बात राघव की तो अभी उस की शादी नहीं हुई है. हो जाने दो अपनेआप सारे शौक खत्म हो जाएंगे जब पैसे खर्चने पड़ेंगे. अभी तो बाप के पैसों पर ऐश कर रहा है.’’

‘‘बेकार की बातें न करो. तुम्हारी जेब से कहां निकलते हैं पैसे. उस के ट्रिप का सारा खर्च मैं ने ही दिया है,’’ सुनयना गुस्से से बोली.

‘‘हां, तो कौन सा एहसान कर दिया. कमाती हो तो खर्च करना ही पड़ेगा वरना क्या सारा पैसा अपने ऊपर ही खर्च करने का इरादा है?’’

दोनों के बीच बहस बढ़ती जा रही थी. यह कोई एक दिन की बात नहीं थी. अकसर उन में मतभेद पैदा हो जाते थे. जय का स्वभाव ही ऐसा था. पता नहीं उसे खुश रहने से क्या ऐलर्जी थी. बस सुनयना की हर बात को काटना, उस में दोष देखना… जैसे उसे मजा आता था इस सब में.

‘‘मैं ने भी सोच लिया है कि कहीं घूमने जाऊंगी,’’ उस ने जैसे जय को चुनौती दी. उसे पता था कि इन दिनों वूमन ओनली ट्रैवल जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं, जिन में औरतें चाहें तो अकेले या फिर ग्रुप में ट्रैवल कर सकती हैं. सारा अरेंजमैंट वही करते हैं, इसलिए सेफ्टी की भी चिंता नहीं रहती.

उस ने गूगल पर ऐसे अरेंजमैंट करने वाले देखने शुरू किए. ‘वूमन ऐंजौय विद ट्रैवलर्स ग्रुप’ नामक साइट पर क्लिक करने पर जब उस ने संस्थापक का नाम पढ़ा तो जानापहचाना लगा. उस का प्रोफाइल पढ़ते ही उस की आंखें चमक उठीं. मानसी उस की कालेज फ्रैंड. शादी के बाद दोनों का संपर्क टूट गया था, जैसेकि अकसर लड़कियों के साथ होता है. जय को तो वैसे भी उस का किसी से मिलना या किसी के घर जाना पसंद नहीं था खासकर दोस्तों के तो बिलकुल भी नहीं. इसलिए शादी के बाद उस ने अपने सारे फ्रैंड्स से नाता ही तोड़ लिया था खासकर पुरुष मित्रों से.

साइट से मानसी का फोन नंबर ले कर सुनयना ने जैसे ही उसे फोन कर अपना परिचय दिया वह चहक उठी. बोली, ‘‘हाय सुनयना, कितने दिनों बाद तुम्हारी आवाज सुन रही हूं… यार कहां गायब हो गई थी? बता कैसा चल रहा है?’’

फिर तो जो उन के बीच बातों का सिलसिला चला तो रुका ही नहीं. उसे पता चला कि मानसी के साथ इस वूमन ऐंजौय विद ट्रैवलर्स ग्रुप में उन के कालेज की 2 फै्रंड्स भी शामिल हैं.

‘‘अब तुम्हारा नैक्स्ट ट्रिप कब और कहां जा रहा है? मैं भी जाना चाहती हूं.’’

‘‘अरे, तो चल न. 4 दिन बाद ही लद्दाख का 10 दिन का ट्रिप प्लान किया है. सारा अरेंजमैंट हो चुका है. 10 लेडीज का ग्रुप ले कर जाते हैं, पर मैं तुझे शामिल कर लूंगी. मजा आएगा. चलेगी न? लैट्स हैव फन… इसी बहाने पुरानी यादों को ताजा भी कर लेंगे… तू बस हां कर दे… मैं बाकी सारी व्यवस्था कर लूंगी और हां तुझे डिस्काउंट भी दे दूंगी.’’

‘‘बिलकुल… मैं तैयारी कर लेती हूं. ऐसा मौका कौन गंवाना चाहेगा,’’ सुनयना ने चहकते हुए कहा.

पर जय को जैसे ही उस ने यह बात बताई उस का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया. बोला, ‘‘दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा… इतना पैसा बरबाद करोगी… फिर ऐसी औरतें जिन के साथ तुम जा रही हो न सब फ्रस्ट्रेटेड होती हैं… या तो इन की शादी नहीं हुई होती है या फिर तलाकशुदा होती हैं अथवा पति से अलग रह रही होती हैं वरना क्यों बनातीं वे ऐसा ग्रुप, जो केवल औरतों के लिए हो? न जाने ये औरतें क्याक्या करती हैं… घूमने के बहाने क्या गुल खिलाती हैं… कोई जरूरत नहीं है तुम्हें जाने की. पुरुषों के लाइफ में न होने पर आपस में ही संबंध बना लेती होंगी तो भी कोई बड़ी बात नहीं… पुरुषों की न सही, औरतों की ही कंपनी सही… यही फंडा होता है इन का. सब की सब बेकार की औरतें होती हैं. ऐक्सपैरिमैंट करने के चक्कर में यहांवहां घूमती हैं और स्वयं को इंटेलैक्चुअल कह समाज को दिखाती हैं कि अकेले भी वे बहुत कुछ कर सकती हैं. ऐसी औरतें सैक्सुअल प्लैजर को तरसने वाले वर्ग में आती हैं. तुम्हें तो नहीं है न मुझ से कोई ऐसी शिकायत?’’ जय ने व्यंग्य कसा.

‘‘छि:… तुम्हारी इस तरह की सोच पर मुझे हैरानी होती है जय. तुम्हें क्या लगता है कि जो औरतें अकेले बिना पति के या बिना किसी पुरुष के फिर चाहे वह उन का पिता हो या पुत्र अथवा भाई अकेले कुछ करती हैं तो उन में

कोई खोट होता है या वे फ्रस्ट्रेट होती हैं? अपनी खुशी से कुछ पल गुजारना क्या इतने प्रश्नचिन्ह लगा सकता है, मैं ने कभी सोचा न था… और यह सैक्सुअल प्लैजर की बात कहां से आ गई… मुझे तुम से किसी तरह की बहस नहीं करनी है. मैं नहीं जाती… लेकिन तब तुम्हें मुझे ले कर जाना होगा.’’

सुनयना की बात सुन तिलमिला गया जय. चुपचाप दूसरे कमरे में चला गया.

मानसी और अन्य 2 फ्रैंड्स से मिल सुनयना बहुत अच्छा महसूस कर रही थी. जय की रूढि़वादी मानसिकता और रोकटोक से मुक्त वह 1-1 पल ऐंजौय कर रही थी. लद्दाख की प्राकृतिक सुंदरता अभिभूत करने वाली थी. वहां जा कर ऐसा महसूस होता है मानो पूरी दुनिया की छत पर घूम रहे हैं. लद्दाख की ऊंचाई इतनी है मानो हम धरती और आकाश के बीच खड़े हैं. लद्दाख का नीला पानी और ताजा हवा उस पर जादू सा असर कर रही थी. मानसी ने उसे बताया कि लद्दाख भारत का ऐसा क्षेत्र है जो आधुनिक वातावरण से बिलकुल अलग है. वास्तविकता से जुड़ी पुरानी परंपराओं को समेटे हुए है यहां का जीवन. जो पर्यटक यहां आते हैं उन्हें लद्दाख का जनजीवन, संस्कृति और लोग दुनिया से अलग लगते हैं. महान बुद्ध की परंपरा को वहां के लोगों ने आज भी सहेज रखा है. इसी कारण लद्दाख को छोटा तिब्बत भी कहा जाता है. छोटा तिब्बत कहने का एकमात्र कारण यह है कि यहां तिब्बती संस्कृति का प्रभाव दिखाईर् देता है. यह अपनेआप में इतना अद्भुत है कि हर किसी को आकर्षित करता है. पहाड़ों के बीच बने यहां के गांव, आकाश छूते स्तूप और खड़ी व पथरीली चट्टानों पर बने मठ ऐसे दिखाई देते हैं जैसे हवा में झूल रहे हों.

सुनयना को लग रहा था कि वह बहुत लंबे समय के बाद अपने हिसाब से जी रही है. उस ने तय कर लिया कि वह अब मानसी के साथ अकसर ऐसे ट्रिप में आया करेगी.

10 दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला मानसी को. एकदम रिलैक्स हो कर जब वह लौटी तब तक राघव भी वापस आ चुका था. दोनों एकदूसरे के साथ अपने ट्रिप के अनुभवों को शेयर कर रहे थे कि अचानक जय भड़क गया, ‘‘पता नहीं दोनों क्या तीर मार कर आए हैं, जो इतने खुश हो रहे हैं… और तुम सुनयना जरूरत से ज्यादा खिली हुई लग रही हो. क्या बात है? उन औरतों का साथ कहीं ज्यादा तो नहीं भा गया तुम्हें? कहीं उन औरतों का रंग तो नहीं चढ़ गया है तुम पर?’’

मानसी जो जय के व्यवहार व सोच से पहले ही दुखी रहती थी, अब उस से कटीकटी रहने लगी. उस की बातें, उस के कटाक्ष सीधे उस के दिल पर चोट करते थे. उस के बाद दोनों के बीच तनाव बहुत बढ़ गया. कैसेकैसे इलजाम लगाता है जय. वह जब भी उस के साथ सैक्स संबंध बनाने की कोशिश करता वह उस का हाथ झटक देती… हद होती है, किसी बात की. इतने ताने सुनने के बाद कैसे वह जय के करीब जा सकती थी… थोड़ी देर पहले किसी का दिल दुखाओ और फिर उस के शरीर को पाना चाहो, आखिर कैसे संभव है यह? मन खुश न हो तो तन कैसे साथ देगा?

जय की तिलमिलाहट सुनयना के  इस व्यवहार से और बढ़ गई. एक रात उस के करीब आने की कोशिश में जब सुनयना ने उसे धक्का दे दिया तो वह चिल्लाने लगा, ‘‘सब समझ रहा हूं मैं तुम में आए इस बदलाव की वजह…

औरतों के साथ रहोगी तो पति का साथ कैसे अच्छा लगेगा? स्वाद जो बदल गया है तुम्हारा अब…. देख रहा हूं मानसी से भी खूब मिलने लगी हो तुम.’’

सुनयना यह सुन सकते में आ गई, ‘‘क्या कहना चाहते हो तुम? साफसाफ कहो.’’

‘‘साफसाफ क्यों सुनना चाहती हो, समझ जाओ न खुद ही,’’ जय ने ताना मारा.

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती हूं. जब से घूम कर लौटी हूं तुम कुछ न कुछ मुझे सुनाते ही रहते हो… आखिर ऐसा क्या बदल गया मुझ में?’’ सुनयना का चेहरा लाल हो गया था.

‘‘तुम तो पूरी ही बदल गई हो. मुझे तो लगता है कि तुम लेस्बियन बन गई हो. इसलिए मेरे स्पर्श से भी दूर भागती हो.’’

सुनयना अवाक खड़ी रह गई. कैसे जय ने इतनी आसानी से रिश्ते की सारी गरिमा को कलंकित कर दिया था… अगर महिला दोस्तों के साथ कोई महिला घूमने जाए तो लेस्बियन कहलाती है और पुरुष मित्रों के साथ घूमे तो चरित्रहीन… समाज की खोखली परिभाषाएं उसे परेशान कर रही थीं.

अब जय रात को देर से घर लौटने लगा. वह कुछ पूछती तो कहता कि घूमता रहता हूं दोस्तों के साथ, पर जान लो मैं गे नहीं हूं. बीचबीच में उस के कानों में यह बात जरूर पहुंच रही थी कि जय आजकल बहुत सी औरतों से मिलता है. उन्हें घुमाने ले जाता है, मूवी भी देखता है और शायद उन के साथ संबंध भी बनाता है. सुनयना इन सब बातों पर विश्वास नहीं करना चाहती थी पर एक दिन जय की शर्ट पर लिपस्टिक के निशान देख उस का शक यकीन में बदल गया. हालांकि पहले भी उस के कई दोस्तों ने उसे चेताया था कि जय के कदम डगमगा रहे हैं, पर उन की बातों को नजरअंदाज कर देती थी.

रात को जब जय लौटा तो नशे की हालत में था. शराब की बदबू कमरे में फैल गई थी. सुनयना ने गुस्से में जब जय से सवाल किया

तो वह चिल्लाया, ‘‘मेरी जासूसी करने लगी हो. खुद लद्दाख में ऐय्याशी कर के आई हो और मुझ से सवाल कर रही हो. तुम तो एकदम ही बदल गई हो. जब तुम मुझे सैक्स सुख नहीं दोगी तो कहीं तो जाऊंगा या नहीं. हां, मेरे संबंध हैं कई औरतों से तो इस में गलत क्या है? कम से कम पुरुषों से तो नहीं हैं… तुम लेस्बियन बन गई हो पर मैं….’’

‘‘जय मेरी बात सुनो, मैं नहीं बदली हूं. मुझे तुम्हारा साथ, स्पर्श अच्छा लगता है, पर तुम्हारा व्यवहार कचोटता है मुझे… एक बार मुझे समझने की कोशिश तो करो…’’

मगर सुनयना की बात ठीक से सुने बिना ही जय बिस्तर पर लुढ़क गया था. सुनयना को समझ नहीं आ रहा था कि जय ने उस पर अपने दोष छिपाने के लिए इतना बड़ा इलजाम लगाया था ताकि उसे और औरतों से संबंध बनाने का लाइसैंस मिल जाए या फिर उसे उस के  ट्रिप पर जाने की सजा दे रहा था.

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