Short Story In Hindi : सब दिन रहत न एक समान

Short Story In Hindi  : बात कोरोना के आने के एक साल पहले की है. हम अपने एटीएम कार्ड का पिन सेट करने के लिए भटक रहे थे. बैंकों में दौड़दौड़ कर, सरकारी बैंक के नखरे उठाउठा कर थक गए थे. डिजिटल इंडिया कहने और व्यावहारिक रूप से होने में जरा फर्क होता है. दिन को समय मिल नहीं पाता था, सो रात को हम 2 सहेलियां और हमारे 2 पुरुष सहयोगी एटीएम में पहुंचे.

उस समय रात के करीब 8 बजे होंगे. पर एटीएम का सिक्योरिटी गार्ड अपनी कुरसी पर लुढ़का हुआ खर्राटे मार रहा था.

मेरी सहेली और एक पुरुष सहयोगी बाहर खड़े थे, जबकि मैं और दूसरा पुरुष सहयोगी एटीएम के भीतर आ गए थे.

यह कोरोना काल तो नहीं, परंतु पराली काल जरूर था और दिल्ली में पराली के कहर से तो हर कोई वाकिफ है. सो, वायु में घुले पौल्यूशन के कहर और पराली के जहर से बचने के लिए हम ने अपनी नाक पर स्कार्फ बांधा हुआ था. डब्ल्यू के फैशनेबल स्कार्फ को सिर्फ नाक पर बांधना उस के ब्रांड और खूबसूरती का अपमान करना है. सो, मैं ने अपने स्कार्फ को हिजाब स्टाइल में सिर पर भी बांध रखा था, जिस से केवल मेरा फोरहेड और आंखें ही हिजाब की जद से बाहर थे, जहरीली हवा और जहरीली नजर से बचाव के लिए प्रदूषण पीड़ित शहरों में स्कार्फ का यह स्टाइल काफी पोपुलर है.

खैर, चूंकि हम औफिस से ही इस तरफ आ गए थे, सो मेरे सहयोगी के हाथ में एक बैग था, जिसे उन्होंने साइड में रखा और इसी के साथ सिक्योरिटी गार्ड की नींद खुल गई. आंखें खुलते ही उस की नजर हम पर पड़ी. डर, संशय और विस्मय के मिलेजुले भावों के साथ वह कुरसी से कूद कर खड़ा हो गया. तनिक कांपती हुई आवाज में यत्नपूर्वक गरजते हुए वह हम से स्कार्फ हटाने के लिए कहने लगा. मुंह और नाक से स्कार्फ हटाने पर भी उस की तसल्ली नहीं हुई और इतनी मेहनत से नेट पर से सीख कर बांधा हुआ हिजाब मुझे उस डरपोक सिक्योरिटी गार्ड की वजह से हटाना पड़ा.

खैर, जिस काम के लिए एटीएम गए थे, वह काम नहीं हुआ और अगले दिन फिर हमें सरकारी बैंक जाना पड़ा. सुबह के सवा दस बज रहे थे और धूप ऐसी चिलचिला रही थी मानो समूचे ओजोन परत को खुरच कर सारी दुनिया की बिजली आसमान पर टांग दी गई हो. मौसम का तकाजा था, सो सनग्लास जरूरी था.

हां, रात वाले हादसे की वजह से स्कार्फ को मैं ने पहले ही पर्स में मोड़ कर रख दिया था. पर उस से क्या, सरकारी जगहों पर पब्लिक को परेशान करने वाले फालतू के चोंचले न हों, तो उस के सरकारी होने पर शक होने लगता है. वही हुआ भी, ज्यों ही हम गेट पर पहुंचे, सिक्योरिटी गार्ड ने घड़ी दिखा कर कहा कि आधे घंटे बाद बैंक खुलेगा. हमें उस चिलचिलाती धूप में खड़ा कर के वह गार्ड पूरी तन्मयता के साथ चेयर से सोफे और सोफे से चेयर पर तशरीफ रखता रहा. ठीक 11 बजे ग्रिल सरका कर आंखों में सरकारी काम को पूरी मुस्तैदी से अंजाम देने के लिए खुद को ही शाबाशी देने का भाव लिए अहसान करने वाली आवाज में उस ने हमें भीतर आने को कहा. अभी हम ने पांव बढ़ाए भी नहीं थे कि उस ने सनग्लास उतार कर आंखें देखने की इच्छा जाहिर कर दी. क्योंकि ऐसे में हम कुछ और नहीं कर सकते. सो, हम ने वह भी किया. अब वह कुछ और फरमाता, उस के पहले ही हम जल्दी से भीतर की तरफ हो लिए और कई घंटों तक इस टेबल से उस टेबल, उस टेबल से इस टेबल, को होते रहे और सरकारी व्यवस्था के अत्याचार पर मन ही मन रोते रहे.

इस दौड़भाग का अंत फिर वही हुआ, जो हम सब के साथ होता है कि निरंकुश नौकरशाही भ्रष्टाचरण में आम पब्लिक केवल रोता है. पब्लिक को जितनी ज्यादा परेशानी हो, सरकारी मुलाजिम उतनी गहरी नींद सोता है. सच तो यह है कि जब तक चार दिन न दौड़ो, यहां कोई काम नहीं होता है.

और अब जरा एक नज़र कोरोना काल पर – हमें पैसे निकालने उसी एटीएम में जाना पड़ा, जहां सिक्योरिटी गार्ड ने स्कार्फ उतरवाया था. हम ने स्कार्फ, मास्क, ग्लव्स सबकुछ डाला हुआ था थैले में, सैनिटाइजर भी था, सारे सीन वही थे, पर सिक्योरिटी गार्ड न डरा, न घबड़ाया, अपनी कुरसी पर पड़ेपड़े सोता रहा. अपनी ड्यूटी के महत्त्व पर मूल्यहीनता के खर्राटे बोता रहा. हम ने बिना किसी रोकटोक के अपना काम किया और मन ही मन सोचा कि कोरोना ने चाहे जितनी तकलीफ दी हो, पर कई लोगों को निडर जरूर बना दिया. कितने आम को खास, कितने खास को आम बना दिया… कहीं पर जीवन मुश्किल तो कहीं पर आसान बना दिया.

Hindi Story : पन्नूराम का पश्चात्ताप

सांप के आकार वाली पहाड़ी सड़क ढलान में घूमतेघूमते रूपीन और सुपीन नदियों के संगम पर बने पुल को पार करते हुए एक मोड़ पर पहुंचती है. वहां सदानंद की चाय की दुकान है, जहां आतेजाते पथिक बैठ कर चाय पीते हुए दो पल का विश्राम ले लेते हैं. दुकान पर आने वाले ग्राहकों के लिए पन्नूराम दिनभर बैंच पर बैठा रहता. उस के बाएं हाथ की कलाई से हथेली और पांचों उंगलियां गायब थीं.

चाय पीते राहगीर पन्नूराम से उस के बाएं हाथ के बारे में पूछते तो वह अपने पर घटी दुर्घटना की आपबीती सुनाता.

दोनों नदियों के संगम से निकला हुआ सोता चट्टानों के बीच तंग हो कर नीचे की तरफ बहता है. उसी के बाएं किनारे पर खड़े सेमल के पेड़ की ओर इशारा करते हुए पन्नूराम बोलता :

‘‘उस सेमल के नीचे बैठ कर मैं कंटिया से दिनभर मछली पकड़ता था. तरहतरह की मछलियां, महाशीर, टैंगन, शोल, काली ट्राउट आदि सोते के पानी की विपरीत दिशा में आती थीं. दिनभर कंटिया में मछलियों का चारा लगा कर बैठा रहता और मछलियों का अच्छाखासा शिकार कर लेता था. परिवार वाले बहुत प्रसन्न थे. रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों का स्वाद ही कुछ अलग था.’’

एक हाथ से पकड़ी चाय की प्याली से घूंट भरते हुए पन्नूराम अपनी कहानी जारी रखता :

‘‘तब गांव में आबादी काफी कम थी. आहिस्ताआहिस्ता सभी को रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों के अनोखे स्वाद के बारे में पता लग चुका था. चूंकि वर्षाकाल आते ही मछलियों के पेट अंडे से भर जाते थे और वर्षा ऋतु की समाप्ति तक मछलियां पानी के अंदर उगे घास, पत्ते व पत्थरों के बीच अंडे देती थीं, इसलिए उन दिनों गांव के लोग मछलियों के वंश की रक्षा के लिए उन्हें खाना बंद रखते थे. मैं भी मछली का शिकार बंद कर देता था.’’

गले की खराश को बाहर थूकते हुए पन्नूराम अपनी कहानी जारी रखता…

‘‘5 साल पहले मल्ला गांव के ऊपरी ढलान पर, जहां रूपीन नदी का स्रोत ढलान से बहते हुए झरने के रूप में गिरता है, वहां पनबिजली संयंत्र लगाने के लिए सरकारी योजना बनी. पहाडि़यों के ऊपर कृत्रिम जलाशय बनाने के लिए चीड़ के जंगल की कटाई शुरू हो गई तो इलाके में लकड़ी के ठेकेदार, लकडि़यों की ढुलाई के लिए ट्रक चालकों और लकड़ी काटने व चीरने में लगे मजदूरों की चहलपहल बढ़ती गई. बाहरी लोगों को भी स्थानीय लोगों से रूपीन व सुपीन नदियों की मछलियों के अनोखे स्वाद के बारे में जानकारी मिली.

‘‘अब आएदिन पकड़ी हुई मछलियों का सौदा करने के लिए लोग मेरे पास आने लगे. अपनी जरूरत से अधिक पकड़ी हुई मछलियों को मैं ने बेचना शुरू कर दिया. कुछ पैसे मिले तो घर की आमदनी बढ़ने लगी. इस तरह हर रोज मछलियों की मांग बढ़ती गई. कंटिया से पकड़ी मछलियों से मांग पूरी नहीं हो पाती थी. अच्छीखासी कमाई होने की संभावना को देखते हुए मैं अधिक मछली पकड़ने के उपाय की तलाश में था.’’

इसी बीच रामानंद ने कहानी सुनने वाले ग्राहकों के आदेश पर उन्हें और पन्नूराम को गरम चाय की एकएक प्याली और थमाई. गरम चाय की चुस्की लगाते हुए पन्नूराम ने अपनी कहानी जारी रखी…

‘‘एक दिन लकड़ी के ट्रकों में आतेजाते एक ठेकेदार ने कंटिया के बजाय जाल का इस्तेमाल करने की सलाह दी. यही नहीं उस ठेकेदार ने मछली पकड़ने का जाल भी शहर से ला दिया. जाल देते समय उस की शर्त यह थी कि मैं रोजाना उस को मुफ्त की मछली खिलाता रहूं.

‘‘जहां पर चट्टानों के बीच संकरा रास्ता था वहां मैं ने संगम से निकले सोते में खूंटों के सहारे जाल को इस प्रकार से डाला जिस से पानी से कूदती हुई मछलियां जाल में फंस जाएं. यह तरीका अपनाने के बाद पहले से दोगुनी मछलियां पकड़ में आने लगीं. परिवार की कमाई भी बढ़ गई.’’

चाय के प्याले से अंतिम घूंट लेते हुए पन्नूराम ने फिर से कहना शुरू किया :

‘‘जाल से मछली पकड़ना आसान हो गया. परिवार का कोई भी सदस्य बीचबीच में जा कर फंसी हुई मछलियों को पकड़ लाता. रोजगार बढ़ाने की इच्छा से पहाडि़यों के ऊपर डायनामाइट से पत्थरों को तोड़ कर मैं रूपीन नदी में कृत्रिम जलाशय बनाने के काम में लग गया. धीरेधीरे विद्युत परियोजना के कार्यों के लिए मल्लागांव में लोगों की भीड़ जमा होती गई और इसी के साथ रूपीन व सुपीन की स्वादिष्ठ मछलियों की मांग बढ़ती गई. मछलियों की मांग इतनी बढ़ी कि उसे जाल से पूरा करना संभव नहीं था.

‘‘मैं और अधिक मछली पकड़ने के तरीके की तलाश में था. इसी बीच जल विद्युत परियोजना के लिए बड़ेबड़े ट्रकों और संयंत्रों के आवागमन, पहाड़ी सड़क की चौड़ाई बढ़ाने और डामरीकरण में लगे पूरब से आए मजदूरों में से रामदीन के साथ मेरी दोस्ती हो गई. बातोंबातों में एक दिन मैं ने रामदीन को अपनी समस्या बताई. सब सुन कर वह बोला, ‘यार, यह तो काफी आसान कार्य है. जाल से नहीं… डायनामाइट से मछली मारो. देखना, मछली का शिकार कई गुना अधिक हो जाएगा.’

‘‘रामदीन की बात सुनते ही मेरे पूरे शरीर में सिहरन सी होने लगी. मैं डायनामाइट से पत्थर तोड़ने के काम में लगा ही था. अत: एकआध डायनामाइट चुरा कर मछली मारना मुझे खासा आसान लगा था. फिर एक दिन शाम को काम से छुट्टी के बाद मैं रामदीन के साथ चुराए हुए डायनामाइट को ले कर मछली के शिकार के लिए चल पड़ा.

‘‘एक समतल जगह पर चट्टानों के बीच नदी का पानी फैल कर तालाब सा बन गया था. वहां किनारे पर खड़े हम मछलियों के झुंड की प्रतीक्षा कर रहे थे. तालाब का पानी इतना स्वच्छ था कि तलहटी तक सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था. जैसे ही मछलियों का एक झुंड बहते पानी से स्रोत के विपरीत दिशा में तैरता हुआ दिखाई दिया रामदीन ने डायनामाइट में लगी हुई सुतली में आग लगाई और झुंड के नजदीक आने का इंतजार करने लगा. मुझे तो डर लग रहा था कि डायनामाइट कहीं हाथ में ही न फट जाए लेकिन रामदीन ने ठीक समय पर जलते हुए डायनामाइट को पानी में फेंका और देखते ही देखते एक विकट सी आवाज के साथ ऊपर की ओर पानी को उछालते हुए डायनामाइट फटा.

‘‘धमाका इतना तेज था कि चट्टानों के पत्थरों के बीच से कंपन का अनुभव होने लगा. तालाब में छोटी, बड़ी और मझोली सभी तरह की मछलियां, यहां तक कि पानी की तलहटी में रहने वाले केकड़े, घोंघा आदि भी पानी की सतह पर तड़पते नजर आने लगे. तालाब में तड़पती मछलियों का ढेर देख कर मैं खुशी से भर उठा. रामदीन की सहायता से तड़पती हुई मछलियों को पकड़ लिया. उस दिन मछलियों से आमदनी पहले की अपेक्षा दस गुना अधिक हो गई.’’

एक लंबी सांस लेने के बाद पन्नूराम ने कहना शुरू किया :

‘‘रामदीन भी अच्छा मछुआरा था. उस को मछलियों की काफी जानकारी थी. मछली मारने के लिए नईनई जगह की तलाश करना तथा मछलियों के आवागमन के प्रति नजर रखने का काम रामदीन ही करता था. मैं डायनामाइट ले कर रामदीन के इशारे का इंतजार करता था और इशारा मिलते ही सुलगते हुए डायनामाइट को ऐसा फेंकता कि पानी की सतह स्पर्श करते ही फट जाए. बहुत खतरनाक कार्य था, लेकिन अधिक पैसा कमाने के इरादे से खतरे को नजरअंदाज कर दिया.

‘‘उन दिनों जब मछलियां गर्भधारण से ले कर प्रजनन का कार्य करती हैं, उन का शिकार बंद नहीं किया. इस से मछलियों के छोटेछोटे बच्चे समाप्त होते गए. एक बार काफी बड़ी महाशीर मछली डायनामाइट से घायल हो कर पकड़ी गई. मैं ने जब उसे उठाया तो उस का पेट अंडों से भरा था. मुझे लगा कि मछली मुझे बताने की कोशिश कर रही थी, ‘मेरे साथसाथ हजारों बच्चों का भी तुम लोग विनाश कर रहे हो. हम तो उजड़ ही जाएंगे, तुम्हारा भविष्य भी खतरे में है.’ तब मैं मन ही मन सोच रहा था कि महाशीर के स्वादिष्ठ अंडों से भी अच्छीखासी कमाई हो जाएगी.’’

दुकान पर बैठे ग्राहकों की ओर तिरछी नजरों से देखते हुए पन्नूराम ने महसूस किया कि वे मछलियों के कत्लेआम से कातर हो रहे थे. अपने द्वारा मछलियों पर किए गए अत्याचार को सही साबित करते हुए पन्नूराम कहता, ‘‘क्या करें, हमें भी तो पेट पालना था. गांव में रोजीरोजगार का दूसरा कोई भी जरिया नहीं था जिस से हम मछलियों के ऊपर रहम करते हुए जीविका का कोई और साधन अपना लें. मछली मारने से हुई मेरी आर्थिक तरक्की को देख कर अन्य गांव वालों ने भी डायनामाइट के जरिए मछली मारना शुरू कर दिया. देखते ही देखते रूपीन व सुपीन नदियां रणक्षेत्र बन गईं. मछलियां कम होती गईं. अंत में तो ऐसा हुआ कि स्रोतों में कीड़े तक नहीं दिखाई देते थे. मछली से आमदनी कम होती गई तो मैं चिंतित हो उठा. अब घर चलाने का जरिया क्या होगा? मछलियों के झुंड ढूंढ़ने के लिए नदी के किनारेकिनारे मुझे मीलों तक जाना पड़ता था. कमाई कम होते ही रामदीन अपने गांव वापस चला गया.

‘‘सावन के महीने में एक दिन बारिश की धारा अनवरत बह रही थी. दिनभर की खोज के बाद शाम के समय काफी दूर से मछलियों का एक झुंड आता दिखाई दिया. अपनी उत्तेजना को वश में रखने के लिए मैं दाएं हाथ में जलती बीड़ी से कश मारते हुए बाएं हाथ में सुलगता डायनामाइट पकड़े मौके का इंतजार करता रहा. महीनों बाद पानी के स्रोत में तैरती मछलियों का झुंड देख कर मैं इतना खुश हुआ था कि मानो खुली आंख से कोई सपना देख रहा हूं. हिसाब लगा रहा था कि इतने बड़े झुंड से कितनी कमाई होगी. परिवार की आवश्यकताएं तो पूरी हो जाएंगी साथ ही कुछ पैसा भविष्य के लिए भी बच जाएगा. थोड़ी देर में जब देखा तो मछली का झुंड आ चुका है. मैं ने त्वरित गति से अपनी कार्यवाही की… लेकिन डायनामाइट का धमाका नहीं निकला. परेशान हो कर अपनी बंद आंखें खोल कर जब देखा तब तक डायनामाइट मेरे बाएं हाथ को धम से उड़ा कर ले जा चुका था. सपने में लीन मैं अपने दाहिने हाथ की सुलगती हुई बीड़ी को फेंक कर समझ रहा था कि मैं ने डायनामाइट फेंक दिया.’’

अपनी पूरी कहानी सुनाने के बाद स्वाभाविक होने पर पन्नूराम दोहराता, ‘‘मछलियों की आंसू भरी कातर आखें मुझे सताती रहती हैं. मैं अपने सीने में एक असहनीय पीड़ा अनुभव करते हुए आज भी मूर्छित हो जाता हूं. अपराधबोध से अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए रोजाना मैं सहृदय पथिक को आपबीती कहानी सुना कर पश्चात्ताप करता रहता हूं…कम से कम सुनने वाला पथिक ऐसे कुकृत्य से बचा रहे.’’

सदानंद को पन्नूराम की कहानी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उस के फायदे की बात यह थी कि सुनने वाले राहगीर कहानी सुनतेसुनते एक के बजाय कई प्याली चाय पी जाया करते थे…पन्नूराम की कहानी से सदानंद की आमदनी में बढ़ोतरी होती रही और…सदानंद ने पन्नूराम की दिनभर की चाय मुफ्त कर दी.

Online Hindi Story- रैड लाइट: क्या बिगड़े बेटे को सुधार पाई मां

Online Hindi Story : शाम की क्लासेज और शाम भी जाड़े की. बर्फ नहीं पड़ रही थी वरना और मुसीबत होती. अमेरिका के विस्कौन्सिन एवेन्यू और ट्वैंटी फोर्थ स्ट्रीट का चौराहा पार करते ही दिल में धुकधुकी इतनी तेज हो जाती है कि ड्राइविंग पर ध्यान बनाए रखना दूभर हो जाता है. ट्वैंटी फोर्थ स्ट्रीट का इलाका रैड लाइट एरिया कहलाया जाने लगा है. रैड लाइट एरिया का खौफ सुमि के मन में बालपन से ही बैठा हुआ है. सुमि के पापा के दूर के कुछ रिश्तेदार पुरानी दिल्ली में दशकों पुराने जमेजमाए कारोबार के चलते वहीं हवेलियों में रहते रहे हैं. मां बताती थीं कि वहां के बड़े चावड़ी बाजार के पास एक इलाका वेश्याओं और गुंडों की वजह से बदनाम ‘रैड लाइट’ एरिया हुआ करता था जिस के आसपास महल्लों में पलक झपकते लड़कियां गायब किए जाने की वारदातें सुनने में आया करती थीं. इस कारण वहां रहने वाले परिवारों की औरतें अपने घरों से बहुत कम निकलती थीं. मजबूरी में जब भी उन्हें बड़े चावड़ी बाजार के पास से गुजरना पड़ता तो उस ओर देखे बिना झट कन्नी काट कर बच्चों, विशेषकर बच्चियों को अपनी लंबी चादर के भीतर दबोचे ऐसे लंबे डग भरतीं मानो कोई चोरउचक्का पीछे पड़ा हो.

अमेरिका के शहर मिडवैस्टर के बीचोंबीच डाउनटाउन इलाके में देश की प्रख्यात और महंगी यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म के तेज रफ्तार रिफ्रैशर इवनिंग कोर्स के लिए फुल स्कौलरशिप का मौका विरलों को मिलता है. सुमि इसे हर हाल में पूरा करने को कटिबद्ध है. रैग्युलर कोर्स की गुंजाइश  नहीं, दिन की नौकरी छोड़े तो गुजारा कैसे हो?

जितनी प्रख्यात यूनिवर्सिटी है डाउनटाउन का यह इलाका उतना ही बदनाम होता जा रहा है. वहां की समृद्ध फार्मर्स (किसान) पीढ़ी वृद्ध हो चुकी है और उन की संतानों को सीधा उत्तराधिकार प्राप्त नहीं. प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण उन के वृहद् फार्म्स खरीद कर डैवलपर्स वहां आलीशान घर, मौल और आधुनिक सुविधाओं से लैस उपनगर बनाते जा रहे हैं. नतीजतन, शहरी आबादी वहीं उमड़ी जा रही है. बीच शहर में बंद दुकानें, खाली घर ड्रग डीलर्स और बदनाम पेशों के अड्डे हो गए हैं जिस के चलते महंगी यूनिवर्सिटी में प्रवेशातुर रईस परिवारों की संतानों की सुरक्षा बड़ी चुनौती बन गई है. 5 मील के घेरे के भीतर रहने वाले सभी छात्रों के लिए सुबह 7 बजे से रात के 12 बजे तक निशुल्क वैन सर्विस है. इस के अलावा, यूनिवर्सिटी ने पूरे इलाके के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया है और इस के पुनर्वास के लिए नियत फैडरल सरकार भी भरपूर सहयोग कर रही है. जरूरतमंदों के लिए उदार छात्रवृत्तियां, डैंटिस्ट्री और नर्सिंग डिपार्टमैंट्स की ओर से फ्री क्लीनिक्स, लौ डिमार्टमैंट की ओर से मुफ्त कानूनी सलाह के सैशंस की सुविधाएं उपलब्ध हैं.

कोर्स के एक असाइनमैंट के लिए अन्य सहपाठियों ने सामयिक घटनाओं को चुना जिन के लिए तथ्य रेडियो, टीवी और पत्रपत्रिकाओं से जुटाना सहज होता है. भारत की प्रमुख पत्रिकाओं, पत्रों में प्रकाशित सुमि का शौकिया लेखन मुख्यतया मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण भोगा हुआ यथार्थ ही रहा था. ऐसी 2 प्रविष्टियों और प्रमाणित पूर्व प्रकाशनों के बल पर ही इस तेज रफ्तार कोर्स में उसे प्रवेश मिला जिस के पूर्ण होने पर स्थानीय अखबार के फीचर सैक्शन में उस की सह संपादक की नियुक्ति की संभावना बन सकती थी.

ट्वैंटी फोर्थ स्ट्रीट के खस्ताहाल इलाके पर सुमि के ह्यूमन इंटै्रस्ट स्टोरी के चयन पर प्रोफैसर को आश्चर्य था पर मौन अनुमोदन दे दिया शायद इसलिए कि यह यूनिवर्सिटी की वर्तमान नीति के अनुरूप हो. बहरहाल, इलाके के गली, महल्ले छानने और इंटरव्यूज कर के तथ्य बटोरने के लिए वहां वीकेंड पर दिन का समय ही सुरक्षित होगा. यह उन्होंने पहले ही बता दिया. सिटी गजट अखबार की पुरानी प्रतियों में डाउनटाउन के इतिहास में ऐतिहासिक घरों, इमारतों का प्रचुर विवरण है. हैरत की बात यह कि ऐसे कुछ घर ठीक ट्वैंटी फोर्थ स्ट्रीट पर हैं. हिस्टौरिकल सोसाइटी से संपर्क कर के सुमि ने गृहस्वामियों के नामपते लिए और फोन कर के इंटरव्यू का समय तय किया. नियत समयानुसार मिस्टर गौर्डन रैल्फ के पते पर ठिठक कर अपनी लिस्ट फिर पढ़नी पढ़ती है. गलीचे से लौन के आगे संतरी सरीखे खड़े ऊंचे दरख्तों और तराशी हुई झाडि़यों से घिरे छोटे मगर शानदार मैन्शन का इस इलाके में क्या काम? ईंटपत्थर के मकान पुराने स्थापत्य शिल्प के नामलेवा भर रह गए हैं. रैल्फ मैन्शन का एकएक पत्थर जैसे समय के बहाव को रोके अविचल खड़ा. सामने की दीवार पर खूबसूरत स्टैंड ग्लास की बड़ी गोल खिड़की जैसे उन्नत भाल पर टीका हो. हस्तनिर्मित ऐसी नायाब कृतियां तो यूरोप के पुरातन गिरजाघरों में ही मिलें.

पूर्वनियत इंटरव्यू की औपचारिकता परे रख गृहस्वामी गौर्डन चाव से सुमि को घर दिखाते हैं, अपने बारे में बताते हैं. पत्नी का देहांत हो चुका है, बेटेबेटियां सुदूर प्रांतों और देशों में हैं. दशकों पूर्व जरमनी से अमेरिका आए उद्यमियों को लेक मिशिगन के तट पर बसा शहर बियर उद्योग की स्थापना के लिए सर्वथा उपयुक्त लगा था. बे्रवरीज लगाई गईं, रिहाइश के लिए घर बनाए गए. शहरी इलाकों में भी तब सड़कें कच्ची हुआ करती थीं जिन पर घोड़े और बग्घियां चलती थीं. गैराज के बजाय घरों के आगे घोड़े या छोटीबड़ी बग्घी के लिए शेड होते थे.

जरमन बियर और इंजीनियरिंग का दुनिया में आज भी मुकाबला नहीं. उन  के घरों की पुख्ता नींवें बहुत गहरी हैं और सारी प्लंबिंग तांबे की. समयोपरांत ब्रेवरीज के रईस मालिक लेकड्राइव का रुख करते गए और बीच शहर में उन के घर ब्रेवरीज के इंजीनियर और ब्रियूमास्टर्ज खरीदते गए. मिशिगन लेक को छूती एकड़ों जमीन पर आज भी खड़े कुछ आलीशान मैन्शंज और उन के अपने गैस्टहाउस, केयरटेकर्ज कौटेजेज, ग्रीनहाउस, अस्तबल, बग्घीखाने उस युग के प्रतीक हैं. आज के युग में ऐसी इमारतों का रखरखाव लगभग असंभव है. जिन मैन्शंज के मालिक या वारिस नहीं रहे और जो नींवों में लेक का पानी रिसने से खंडहर हो चले, उन्हें डैवलपर्ज ने ढहा कर आधुनिक बंगले, बहुमंजिले मकान जिन्हें यहां कौन्डोज कहा जाता, बना डाले. गौर्डन के परनाना ब्रियूमास्टर थे और शहर के भीतर पुराने घर का विस्तार कर के उसे छोटे मैन्शन का रूप दिया था. उन्नत भाल पर टीके सी खूबसूरत खिड़की का अलग ही एक किस्सा सुनाते हैं.

गौर्डन के नाना इकलौती संतान थे और मैन्शन के उत्तराधिकारी. मैन्शन का विस्तार किया लेकिन उन के पुत्र यानी गौर्डन के मामा ने पादरी बनने का निर्णय ले लिया. मैन्शन पुत्री को मिला और उन के बाद नाती गौर्डन को. ईंटपत्थर की दोहरी दीवारों के बीच एअर स्पेस, लकड़ी के फर्श, मजबूत लकड़ी के डबल फ्रेम वाली खिड़कियां, दरवाजे और हर कमरे में फायर प्लेस व रेडिएटर हीटर्ज भीषण जाड़े में भी घर को आरामदेह रखते हैं. खुले, हवादार घर में एअरकंडीशनिंग की जरूरत भी नहीं पड़ती लेकिन बैठक की एक दीवार गरमी में बेहद गरम हो जाती थी. अधिक आराम के लिए गौर्डन ने एअरकंडीशनर भी लगाए. दीवार फिर भी गरम रहती. एअरकंडीशनर को कई बार जांचने पर भी कारण समझ नहीं आया तो प्लास्टर तोड़ा गया. नीचे दीवार में जड़ी मिली स्टैंडग्लास ही हस्तनिर्मित नायाब गोल खिड़की जिस से तेज धूप अंदर आती रही थी इसीलिए वहां पर प्लास्टर मढ़ दिया गया होगा. गौर्डन ने शीशे की वह खूबसूरत खिड़की निकाल कर घर में ऊपर के बैडरूम को जाती सीढि़यों में लैंडिंग की उस दीवार में फिर जड़वा दी जिस तरफ धूप का रुख नहीं रहता.

वही खिड़की खूबसूरती और ऐंटीक वैल्यू की वजह से उन के घर की पहचान बन गई. रैल्फ मैन्शन यदि लेक के निकट और इलाके में होता तो हैरिटेज होम्ज में शुमार किया जाता जिन की सालाना नुमाइश यानी परैड औफ होम्ज की महंगी टिकटें समाज कल्याण के कई कार्यों के लिए हजारों डौलर जुटाती हैं. अपनी स्टोरी में लगाने के लिए सुमि रैल्फ मैन्शन और खिड़की की फोटो लेती है. खूबसूरती से तराशी झाडि़यों से घिरे लौन में टहलते हुए गौर्डन अगलबगल के  घरों की खस्ता हालत के बारे में पूछने पर बताते हैं कि उन के वृद्ध मालिक या तो नर्सिंग होम में हैं या कब्रगाह में. जो वारिस नौकरियों के सिलसिले में अन्य शहरों में हैं वे घरों को किराए पर चढ़ा गए. मैन्यूफैक्चरिंग का सारा काम चीन क्या गया कि डाउनटाउन का खुशहाल इलाका अब खस्ताहाल है. बढ़ती गुंडागर्दी के कारण किराएदार घर छोड़ कर जाने लगे हैं. खाली घर खुराफात के अड्डे बन रहे हैं. कितने घर तो सरकार ने तालाबंद करवा दिए हैं. नोट्स लेने के साथसाथ सुमि उन की भी फोटोज लेती चलती है.

तालाबंद घरों को फिर आबाद करने की एक स्कीम के तहत मेहनतकश लोग केवल एक डौलर में ऐसे घर खरीद सकते हैं, बशर्ते कि वे उन की मरम्मत कर के कम से कम 5 वर्ष तक अमनचैनपूर्वक उन में खुद रहने और नियम से प्रौपर्टी टैक्स भरने का कौंट्रैक्ट साइन करें. उद्यमी और साहसी नए प्रवासियों के लिए सुनहरा अवसर. ऐसे आबाद घरों से कानून और व्यवस्था में बेहतरी की भी उम्मीद है. संभ्रांत इलाकों में तो घरों को झाडि़यों वगैरा से घेरना लगभग अशिष्टता समझा जाता है लेकिन गौर्डन मजबूर हैं. नशाखोरों की टोलियां ऊंची आवाज में शोरशराबे के साथ किसी के भी घर के आगे हुल्लड़ मचाती मंडराती हैं. पुलिस बुलाओ, उन्हें भगाओ लेकिन अगली रात फिर वही तमाशा. झाडि़यों की सीमा खुराफातियों को कुछ हद तक थोड़ी दूर रखती है. गौर्डन अपने मैन्शन के आगे झाडि़यों की कतार का रोज सुबहसवेरे मुआयना करते हैं. चरसियों, नशाखोरों की रातभर की कारस्तानियों की निशानियां सिरिंजेज, सुइयां, कंडोम बीनते हैं वरना पड़ोस के छोटे बच्चे उन से डाक्टरडाक्टर खेलते हैं. कंडोम को नन्हे गुब्बारे समझ कर फुलाते हैं, उन में पानी भरभर कर एकदूसरे पर फेंकते हैं.

जर्जर हालत में कुछ घरों में सिंगल मदर्स अलगअलग बौयफ्रैंड्स से अपने बच्चों के साथ रह रही हैं. यह वह तबका है जो सरकार को दुधारी गाय मान कर उसे दुहे जाता है. ब्याह, शादी कर के तो आम गृहस्थी की तरह मेहनतमशक्कत से रोटी कमानी पड़ेगी. कोई बौयफ्रैंड अपनी संतान की परवरिश के लिए नियमित राशि दे तो भला, वरना अविवाहित मातापिता संतान को सरकार से मिलने वाले फूड स्टैंप्स और अन्य सहायता के सहारे पालते हैं. ऐसी मानसिकता वालों के कारण इलाके की छवि धूमिल होती है. गौर्डन अपनी दृष्टि घुमा कर सड़कपार कुछ दूरी पर उन घरों की ओर इशारा करते हैं जिन का हाल ही में पुनरुद्धार हुआ लगता है. एक घर के दोमंजिले पोर्च में स्विंगसोफे  या आरामकुरसी पर बैठी कुछ युवतियां मैगजीन पढ़ने या बातचीत करने में तल्लीन दिखती हैं. घर के मालिक अधेड़ आयु के निसंतान दंपती हैं, टायरोल और ऐग्नेस कार्सन. सोशल डैवलपमैंट कमीशन उन के घर की ऊपर मंजिल को किराए पर ले कर जरूरतमंदों के अस्थायी आवास के रूप में इस्तेमाल करता है. फिलहाल वहां रह रही युवतियां यूनिवर्सिटी के सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्कौलरशिप स्टूडैंट्स हैं जो पार्टटाइम काम भी करती हैं, जिस की वजह से उन्हें वक्तबेवक्त जानाआना पड़ता है. यूनिवर्सिटी जानेआने के लिए वैन सर्विस है और काम के लिए वे बस से जातीआती हैं.

सुमि कुछ कहती नहीं, लेकिन उस ने अलग से यह भी सुना है कि उस इलाके में गाडि़यां दिन में कई चक्कर मारती हैं. उन में ‘जौन्ज’ यानी ग्राहक होते होंगे. इसी कारण इस इलाके के रैड लाइट एरिया होने की अफवाह धुएं से चिंगारी बनने लगी है. गौर्डन सुमि को महल्ले के दौरे पर ले चलते हैं. 100 गज ही आते हैं कि बस से उतर कर एक अधेड़ महिला थैलों से लदीफंदी सामने से आती दिखती है. गौर्डन आगे बढ़ कर कुछ थैले पकड़ लेते हैं और उन्हें उन के दरवाजे तक छोड़ आते हैं. बारबार थैंक्स कहतीकहती जब वे अंदर चली जाती हैं तब नीची आवाज में सुमि को उन के बारे में गौर्डन बताते हैं कि हो न हो, खून बेच कर आई हैं तभी खरीदारी के थैले अकेले पकड़े थीं. सरकारी फूड स्टैंप्स से ग्रोसरी खरीदने या फूड बैंक से मुफ्त सामान लाने के लिए वे बच्चों को साथ ले जाती हैं. ड्रग ऐडिक्ट बेटी डीटौक्स सैंटर में है. बेटी का बौयफ्रैंड फरार है. उस से और पिछले एकदो बौयफ्रैंड्स से बेटी के 5 बच्चे हैं जिन्हें ये पाल रही हैं. सब को नियम से स्कूल की बस पर चढ़ा कर आती हैं, तीसरे पहर बस स्टौप से लिवा कर लाती हैं और घर में अनुशासित रखती हैं ताकि अच्छी अभिभावक होने का सुबूत दे सकें और बच्चों को अलगअलग फौस्टर होम्ज में न भेजा जाए. इन का पति नशेबाज था, सो उस से तलाक लिया और घरों, दफ्तरों की सफाई के सहारे गुजारा किया. टूटीफूटी हालत में छोटा घर एक डौलर में मिल गया जिसे हैबिटैट वालों ने रहने लायक बना दिया.

बेटी इकलौती संतान है और उसी के बच्चों की वजह से इन्हें कई जगह काम छोड़ना पड़ा. सब से बड़ी नातिन 12 साल की हो जाए तब उस की निगरानी में उस के भाईबहन को कुछ समय के लिए छोड़ कर सफाई वगैरह का ज्यादा काम पकड़ लेंगी. फिलहाल तो स्टेट इमदाद पर गुजारा कर रही हैं लेकिन मजबूरीवश. वे जानती हैं कि इस तरह से पलने वाले बच्चे जीवनभर हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं. जैसे और जितना बन पड़े बिन ब्याही मां के नाजायज बच्चों का भविष्य गर्त में जाने से बचाए रखना चाहती हैं गौर्डन और सुमि टहलतेटहलते आगे निकल आते हैं, तो एक पुराना दोमंजिला मकान दिखता है जिस का हाल ही में पुनरुद्धार हुआ लगता है. पोर्च में खड़ी एक अफ्रीकन अमेरिकी वृद्धा मुसकरा कर हाथ हिलाती हैं.

‘‘हाय,’’ गौर्डन गर्मजोशी से अभिवादन का उत्तर देतेदेते उन की तरफ बढ़ते हैं, ‘‘मीट माय न्यू फैं्रड,’’ कहते हुए सुमि का परिचय मिल्ड्रेड से करवाते हैं, ‘‘शी इज डूइंग अ स्टोरी औन अवर नेबरहुड.’’

मिल्ड्रेड की निगाहें अनायास उन घरों की तरफ जाती हैं जिन के कारण महल्ले की छवि धूमिल है, ‘ओहओह’ कहते ही तुरंत संभल जाती हैं.

‘‘कम इन, कम इन,’’ कहते हुए मिल्ड्रेड गौर्डन और सुमि के स्वागत में अपने पोर्च से नीचे उतर आती हैं. उन के साथ भीतर जाते हुए सुमि देखती है कि पोर्च में एक बैंच पर सामान से भरे कागज के खाकी थैले सजे हैं और उन के आगे गत्ते के टुकड़े पर लिखा है, ‘‘हैल्प योरसैल्फ ऐंड ऐंजौय.’’

‘‘आह, सो यू फाउंड गुड डील्ज ऐट द फार्मर्स मार्केट.’’

सुमि की ओर मुड़ कर गौर्डन समझाते हैं कि घर के पीछे अपने छोटे से किचन गार्डन में सागसब्जी उगाना और फार्मर्स मार्केट जा कर खेत से आई ताजी सागसब्जी, फल खरीदना मिल्ड्रेड की हौबी है. खुद तो पकातीखाती हैं ही, बुजुर्ग पड़ोसियों को भी भिजवाने के अलावा कागज के खाकी थैलों में डाल कर पोर्च में रख देती हैं ताकि कोई भी जरूरतमंद ले जाए.मिल्ड्रेड हारपोल रिटायर्ड नर्स हैं. इराक के साथ औपरेशन डेजर्ट स्टौर्म में पति की शहादत के बाद 7 बेटों और 2 बेटियों के पालनपोषण की

जिम्मेदारी अकेले नर्सिंग के सहारे संभालना कठिन था. पति की मृत्यु के बाद मिली राशि और मामूली पैंशन में  भी गुजारा न होता, सो सिलाई, बुनाई, कपड़ों पर इस्तरी और छोटीमोटी कैंटरिंग का काम भी ढूंढ़ा. ड्राईक्लीनिंग की दुकान खोली.

राशनपानी, सागसब्जी की भरसक उम्दा खरीदारी के हुनर के साथ मिल्डे्रड ने गृहस्थी सुचारु रूप से चलाई. बड़ बच्चों ने पढ़ाई के साथसाथ बिजनैस संभालने में हाथ बंटाना सिखाया. 50 साल से महल्ले के बच्चों की क्रौसिंग गार्ड हैं. सुबहशाम स्कूल बसस्टौप तक जिन बच्चों को सावधानी से सड़क पार करवा पहुंचाने/लाने जाती हैं उन में से एक भी कम होता है तो उस की कुशलक्षेम पूछने उस के घर पहुंच जाती हैं. यदि बच्चे की गैरहाजिरी का कारण अभिभावक का देर रात तक नशे में धुत रहने के बाद सुबह समय से न उठ पाना या ऐसी ही कोई गफलत होती है तो अभिभावक की भी अच्छी खबर लेती हैं. आज 7 बेटों में से एक आर्मी के ट्रांसपोर्ट डिवीजन का हैड इंजीनियर है, एक फिजिकल मैडिसन का डाक्टर. शेष 5 में कोई डैंटिस्ट है, कोई कंप्यूटर स्पैशलिस्ट, कोई म्यूजिक सिम्फनी का डायरैक्टर और कोई फुटबौल टीम का हैड कोच. सब से छोटे अविवाहित बेटे ने इंजीनियरिंग में मास्टर्स करने के बाद किसी नामी मैन्युफैक्चरिंग कंपनी में नौकरी के बजाय हाईस्कूल में फिजिक्स और मैथ्स पढ़ाना और स्पोर्ट्स कोचिंग करना पसंद किया है. मिल्ड्रेड की बहुएं भी प्रोफैशनल्स हैं. 2 सीनियर नर्सेज हैं, एक पब्लिक स्कूल सिस्टम में सीनियर पिं्रसिपल, एक म्यूजियम में सीनियर क्यूरेटर, एक स्पोर्ट्स मैडिसिन में थैरेपिस्ट व पति के साथ हैल्थ फिटनैस क्लीनिक की मालिक है और एक पुलिस औफिसर है.

मिल्ड्रेड की आयु के 75 वर्ष पूरे होने पर उन की प्लैटिनम ऐनिवर्सरी के सम्मानस्वरूप सब बेटों ने मिल कर उन के पुराने जर्जर घर का पुनरुद्धार किया. बड़ी बेटी वीरता पदक प्राप्त आर्मी मेजर की विधवा है और आर्मी हौस्पिटल में औपरेशन रूम नर्स. उसे इंटीरियर डैकोरेशन का शौक है और उस ने घरों की रंगाईपुताई का प्रोफैशनल कोर्स भी कर रखा है. अपने युवा बेटेबेटी सहित वह मां के घर की ऊपरी मंजिल में बाकायदा किराया दे कर रहती है. कौन्सर्ट पियानिस्ट सब से छोटी, अविवाहित बेटी और सब से छोटा बेटा भी मां के साथ रहते हैं. बड़ी और छोटी, दोनों बेटियों, छोटे बेटे और नातीनातिन ने दोमंजिले पूरे घर के रखरखाव की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है. बड़ी बेटी ने बहुत शौक से घर के अंदरबाहर की पूरी पेंटिंग खुद की. छोटे बेटे और नाती ने छत की खपरैलें बदलीं. गरमी में घर के आगेपीछे लौन की घास काटना, पतझड़ में आसपास से उड़ कर जमा पत्तों के ढेर उठाना और जाड़ों में बर्फ साफ करना, ये सब वे लोग ही करते हैं. बेटियों, बहुओं की लाख कोशिशों के बावजूद घर की रोजमर्रा सफाई और थोड़ीबहुत बागबानी मिल्डे्रड स्वयं करती हैं.

जो बेटे अपनेअपने बीवीबच्चों सहित अलग रहते हैं वे भी रविवार को मिल्डे्रड के घर पर इकट्ठे हो कर एकसाथ घूमने जाते हैं जिस के बाद पूरा परिवार साथ बैठ कर लंच करता है. सारी खरीदफ रोख्त खुद ही कर के पूरा खाना मिल्ड्रेड अकेले बनाती हैं और खाने की मेज भी बिलकुल फौर्मल तरीके से सुबहसुबह सजा कर तैयार करती हैं. सालों के अपने नियम में सिर्फ इतनी ढील देने लगी हैं कि बेटियां, बहुएं खाने के बाद मेज और खाना समेटें और कौफी सर्व करें.फार्मर्स मार्केट से ताजे फल, सब्जी खरीदते समय मिल्ड्रेड बखूबी याद रखती हैं कि परिवार में किस को क्या पसंद है. कभी कच्ची, कभी पका कर पहुंचा भी आती हैं. उन की पैनी निगाहें भांप लेती हैं कि अत्यधिक व्यस्तता के  कारण किस के यहां धुला ई के कपड़ों का ढेर हो गया है, किस का फ्रिज साफ कर के चीजें ला कर स्टौक करना है. लाख मना करने पर भी नखशिख से सब दुरुस्त कर के ही लौटती हैं.

‘‘हैल्प योरसैल्फ ऐंड ऐंजौय’’ लिखे गत्ते के टुकड़े के पीछे खड़ी मिल्ड्रेड पर कैमरा क्लिक कर के सुमि उन से विदा लेती है.

लगभग 2 सप्ताह बाद मुलाकात में गौर्डन सुमि को अपने महल्ले में उसी उत्साह से फिर घुमाते हैं जितने चाव से पहली भेंट में अपना रैल्फ मैन्शन दिखाया था. अपनी रनिंग कमैंट्री के साथ टहलते हुए वे इस बार उसे इलाके के उस हिस्से में ले जाते हैं जहां अधिकांश घर तालाबंद हैं और एकाध में मरम्मत चल रही है. मिल्ड्रेड के घर जैसे तो नहीं लेकिन रहने काबिल बनाए गए एकमंजिले घर के दरवाजे पर गौर्डन दस्तक देते हैं. गौरवर्ण एक वृद्धा द्वार खोलती हैं और गौर्डन को देख कर खिल उठती हैं.

‘‘मीट कौंस्टेंस स्टेहमायेर,’’ गौर्डन सुमि से कहते हैं और गृहस्वामिनी से मिलवाते हैं. वृद्धा बड़े प्रेम से स्वागत करती हैं.

कौंस्टेंस को सुमि के प्रोजैक्ट के बारे में समझा कर गौर्डन पूछते हैं, ‘‘हाउ इज माय पिं्रसैस?’’ वृद्धा घर के पीछे लौन में पेड़ पर बंधे हैमौक की तरफ इशारा करती हैं, ‘‘लौस्ट इन हर म्यूजिक, ऐज औलवेज बट शी विल बी डिलाइटेड टू सी यू, औल्सो ऐज औल्वेज.’’ हैमौक के निकट खड़ी उसे हलकेहलके झोटे देती एक युवती का चेहरा सुमि को जानापहचाना सा लगता है.

‘‘आय विल लीव यू लेडीज टु टौक व्हाइल आई जौइन माय यंग फ्रैंड,’’ कहते हुए गौर्डन पीछे की तरफ बढ़ जाते हैं. कौंस्टेंस तलाकशुदा हैं, वयस्क पुत्रों और पुत्री की मां. ‘पिं्रसैस’ कौंस्टेंस की 25 वर्षीया बेटी है, गे्रटा, जो मानसिक तौर पर बाधित है. पति रिचर्ड स्टेहमायेर एक औल अमेरिकन ट्रक कंपनी के सीनियर ड्राइवर हैं जिस कारण उन्हें दूरदराज शहरोें तक जाना पड़ता था. कौंस्टेंस एक छोटे बिजनैस के लिए अकाउंटिंग करती थीं. हर महीने 2-2, 3-3 हफ्तों की पति की लंबी गैरहाजिरियों की वजह से घर का सारा दायित्व भी उन्हें अकेले ही संभालना पड़ता था. पिता का अंकुश न होने के कारण बेटे उद्दंड हो गए थे.

दोनों के जन्म के वर्षों बाद शरीर से स्वस्थ और बेहद खूबसूरत बेटी के आगमन की खुशी पर तुषारापात हुआ जब डाक्टरों ने बताया कि वह आजन्म मंदबुद्धि ही रहेगी. सब से बड़ा सदमा तो तब लगा जब रिचर्ड ने साफ इल्जाम लगाया कि मंदबुद्धि बच्ची उन की संतान हो ही नहीं सकती बल्कि उन की लंबी गैरहाजिरी में किसी के साथ कौंस्टेंस के अफेयर का नतीजा है. उन्हें तलाक चाहिए. उस समय डीएनए जैसे प्रमाण की जानकारी नहीं थी. बेटों को सदमे से बचाने के लिए कौंस्टेंस ने तलाक की कार्यवाही को लंबा नहीं खींचा. मामूली से सैटलमैंट में उन्हें घर तो मिला लेकिन बाधित बच्ची की चौबीसों घंटे देखभाल के लिए कौंस्टेंस को नौकरी छोड़नी पड़ी. खर्चे की किल्लत की वजह से आखिरकार घर भी बेचना पड़ा और फूड स्टैंप्स पर गुजर की नौबत आ गई. वैलफेयर हाउसिंग कौंप्लैक्स के तंग अपार्टमैंट में शरण लेनी पड़ी. वैलफेयर हाउसिंग यानी सबस्टैंडर्ड लिविंग कंडीशंस. दीवारों से पपड़ी बन उतरता पेंट, नलों से लीक होता पानी, आए दिन चोक होती नालियां. बदबूदार गलियारों में चूहे, काक्रोच, गालीगलौज वाला पड़ोस. गंदी गुडि़या सी ग्रेटा बावली घूमती, दीवारों से उतरती पपडि़यां चाटती और जहांतहां गंदगी करती. दलदल में फंसी कौंस्टेंस डिप्रैशन में डूबती गई थीं और खैरात पर पलने वालों की मानसिकता उन पर हावी होती गई. बिना मेहनत सरकार से जो भी खींच सको, भला. डिप्रैशन के लिए गोलियां लेतेलेते नौबत नशे तक आ गई थी.

हाउसिंग कौंप्लैक्स में मुद्दा उठा कि मकानमालिक सरकार से बस पैसे ऐंठते हैं और अपार्टमैंट्स के रखरखाव पर धेला नहीं खर्च करते. एक शातिर वकील ने मुद्दे को तूल दिया कि अपार्टमैंट्स की दीवारों पर मकानमालिक सस्ता पेंट करवाता है जिस में सीसा मिला होता है. घटिया पेंट बहुत जल्दी पपडि़यां बन कर उतरता है जिसे गे्रटा जैसे छोटे बच्चे अकसर मुंह में रख लेते हैं और बहुतों को मिरगी के दौरे पड़ने लगे हैं. ऐसे दौरे गे्रटा को भी पड़ने लगे तो कौंस्टेंस के दिमाग में खयाल कौंधा. वे शिकायती दल की प्रतिनिधि बन गईं और वकील की मदद से मकानमालिक व पेंट कंपनी, दोनों पर सामूहिक मुकदमा ठोंक दिया. अखबारों ने मामले को खूब उछाला. नतीजतन दावेदारों को भारी मुआवजा मिला जिस का लगभग आधा भाग वकील की जेब में गया. इलाके में सक्रिय राजनीतिक दल और सोशल डैवलपमैंट कमीशन ने हस्तक्षेप कर के सब दावेदारों को मकानमालिक के बेहतर हाउसिंग कौंप्लैक्स में अपार्टमैंट्स दिलवाए. पेंट कंपनी से भी भारी हर्जाना वसूल कर गे्रटा जैसे बाधित बच्चों के ताउम्र इलाज के लिए एक ट्रस्ट बनाया गया.

मां की अत्यधिक व्यस्तता और तंगदस्ती की वजह से बेटे बिलकुल बेकाबू हो गए. वयस्क होते ही बड़ा बेटा अलग रहने लगा. कद्दावर शरीर के बल पर उसे एक नाइट क्लब में बाउंसर यानी दंगाफसाद करने वालों से निबटने की नौकरी मिल गई. कुछ समय बाद वह कैलिफोर्निया चला गया जहां वह फिल्मों में स्टंटमैन है. अपनी डांसर बीवी के साथ एक  छोटीमोटी टेलैंट एजेंसी चला रहा है जो फिल्म और टीवी की दुनिया में मौका पाने को आतुर भीड़ के लिए छोटेमोटे रोल जुटाती है. छोटे बेटे ने जैसेतैसे हाईस्कूल पास किया और कम्युनिटी कालेज से अकाउंटिंग और कंप्यूटर कोर्सेज पूरे कर के एक कार डीलर के यहां अकाउंटैंट बन गया. काम में होशियार था. अच्छा वेतन और बोनस कमाने लगा तो मां और बहन को छोड़ कर वह भी अलग हो लिया. जो भी कमाता वह गर्लफ्रैंड्स, कैसीनो और पब में उड़ा देता. खर्चीली आदतें बढ़ती गईं तो कर्ज लेने लगा और आखिरकार गबन करते पकड़ा गया.

कौंस्टेंस को जबरदस्त झटका लगा. रिचर्ड को खबर की. वे मिलने तो आए लेकिन जमानत से हाथ खींच लिया. बड़े बेटे से मदद मांगी तो उस ने मां को खरीखरी सुनाईं कि यदि खैरात के बजाय ईमानदारी व इज्जत से बेटे पाले होते तो ऐसी नौबत ही क्यों

बेटों के दिए सदमे से उबरने का अप्रत्याशित अवसर भी प्रकृति ने दिया. बड़े बेटेबहू के यहां लंबे इंतजार के बाद संतान हुई जिस के बारे में उन्हें बहुत समय बाद पता लगा. वह भी तब जब बरसों बाद रिचर्ड को अचानक अपने सामने पाया. उन से जाना के दोनों का पहला पौत्र मंदबुद्धि जन्मा है. कौंस्टेंस पर लगाए लांछन के लिए शर्मिंदा रिचर्ड स्वयं को क्षमा नहीं कर पा रहे थे. बडे़ बेटे ने भी कहलवाया कि मां को घोर विपत्ति से अकेले जूझने को छोड़ देने के लिए वह उन्हें अपना मुंह दिखाने के काबिल नहीं है. बापबेटे ने मिल कर प्रायश्चित करने की याचना की और गौर्डन के महल्ले में एक तालाबंद घर कौंस्टेंस को खरीदवा कर उस का पुनरुद्धार कर डाला जिस में वे रहती हैं. संबंधों के बीच बरसों पुरानी गहरी दरार पटनी मुश्किल है लेकिन रिचर्ड अब लगभग हर महीने मिलने आते हैं. बड़े बेटे ने भी पत्नी और बच्चे के साथ आने की इच्छा प्रकट की है. पिता और दोनों भाई ग्रेटा के हितचिंतक बने रहें, कौंस्टेंस इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहतीं. गुजारे लायक कमा लेती हैं. बढ़ती आयु के कारण गे्रटा की पूरी देखभाल अकेले करने में कठिनाई होने लगी तो उसे स्पैशल नीड्ज वालों के होम में डाल दिया जिस का खर्च ट्रस्ट उठाता है. बेटी की मैडिकल और रिक्रिएशनल जरूरतों के प्रति अब बेफिक्री है लेकिन वीकेंड पर उसे घर ले आती हैं और पड़ोस में रहने वाली सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्टूडैंट्स में से किसी न किसी को मदद के लिए बुला लेती हैं. सुमि सोचती है कि तभी गे्रटा को झोटे देती युवती का चेहरा जानापहचाना लगा.

छोटे बेटे ने भी जिंदगी से सबक सीखा. जेलयाफ्ताओं को मिलने वाली शैक्षणिक सुविधा का लाभ उठा कर उस ने कंप्यूटर सौफ्टवेयर डैवलपमैंट में मास्टर्स कर लिया. अच्छे आचरण के लिएउस की सजा की मियाद घटा दी गई है और जल्दी ही रिहाई के बाद उसे वहीं जेल में एजुकेटर की नौकरी भी मिल जाएगी. भाई और पिता की तरह वह भी अपने व्यवहार के लिए शर्मिंदा है. पिछली विजिट में वे उसे अपने साथ आ कर रहने के लिए लगभग राजी कर आई हैं. सुमि सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्टूडैंट्स से भेंट करने के बारे में गौर्डन से मशविरा करती है तो वे उसे कौंस्टेंस की मदद लेने की सलाह देते हैं. एक फोटो लेने और इंटरव्यू के लिए सुमि कौंस्टेंस से पूछती है तो वे चौंक कर पीछे लौन पर नजर डालती हैं, ‘‘अनेदर टाइम,’’ कह कर टाल देती हैं. असमंजस से भरी सुमि उन से विदा ले कर गौर्डन के साथ बाहर आ जाती है.

असाइनमैंट सबमिट करने की डैडलाइन से पहले सुमि गौर्डन को फोन करती है कि स्टोरी लगभग पूरी है, सिर्फ सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्टूडैंट्स से इंटरव्यू और एकाध फोटो लेना बाकी है. वे कौंस्टेंस से मशविरा कर के वापस फोन करने का आश्वासन देते हैं. 2 दिन बाद वे सुमि को रैल्फ मैन्शन बुलाते हैं.वहां पहुंचने पर कौंस्टेंस भी मिलती हैं. गंभीर मुद्रा में वे सुमि से वचन लेती हैं कि जो कुछ भी उसे बताया जाएगा उसे वह अपने तक सीमित रखेगी, असाइनमैंट सबमिट करने से पहले उन्हें दिखाएगी और ऐसा भी हो सकता है कि वे स्टोरी के किसी अंश को सैंसर करना चाहें.

कौंस्टेंस बहुत मुलायम स्वर में कहना शुरू करती हैं कि मामला एक पुराने संभ्रांत महल्ले का है जो समय की मार से बुरी तरह घायल हुआ. उस के अच्छे समय की स्मृतियां संजोए गौर्डन, टायरोल और ऐग्नेस, मिल्ड्रेड और कौंस्टेंस जैसे कुछ लोग इलाके को रैड लाइट एरिया के नाम से बदनाम किए जाने से तिलमिलाए हुए हैं. इसीलिए समाज उद्धार पर कटिबद्ध सोशल डैवलपमैंट कमीशन से जुड़े हैं. सुमि की स्टोरी उन के प्रयास को बल देगी, इस आस्थावश सब ने उसे पूर्ण सहयोग दिया. अपने जीवन के अंतरंग पक्ष उस के साथ साझा किए. टायरोल और ऐग्नेस सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स की स्टूडैंट्स के महज मकानमालिक ही नहीं, सोशल डैवलपमैंट कमीशन द्वारा नियुक्त उन के अभिभावक भी हैं. वे युवतियां वयस्क हैं लेकिन उन के अतीत को एक रहस्य ही रहना होगा. वे बस बहुत कच्ची आयु से ही घोर प्रताड़ना और त्रासदी के भंवर में घिर कर आत्महत्या के कगार तक पहुंच गई थीं.

अवैध तरीकों से देश में लाई गई उन जैसी लड़कियां वेश्यावृत्ति करवाने वाले गिरोहों के चंगुल में फंसी गर्त में गिरती जाती हैं. कई मार दी जाती हैं या नशाखोरी अथवा एड्स की शिकार हो कर दर्दनाक मौत का शिकार बनती हैं. अलगअलग शहरों में पुलिस के छापों में पकड़ी गई ऐसी युवतियों को इमिग्रेशन वालों की सहायता से तत्काल नया रूपरंग, नई पहचान दे कर दूर भेज दिया जाता है और समाजसेवी संस्थाएं उन का पुनर्वास करती हैं.कौंस्टेंस के यहां पीछे बगीचे में गे्रटा को झूला झुलाती जो युवती सुमि को पहचानी सी लगी, वह प्योनी है. गौर्डन के साथ महल्ले में घूमते हुए सुमि ने दोमंजिले पोर्च में बैठी, बतियाती युवतियों के बीच उसे देखा होगा.

सर्टिफाइड नर्सिंग असिस्टैंट कोर्स पूरा होते ही इन युवतियों को फिर रीलोकेट कर दिया जाएगा ताकि उन के पिछले पदचिह्न मिटते रहें जब तक पिछला कोई भी सुराग बाकी न बचे. कार्सन दंपती का घर उन का स्थायी पुनर्वास नहीं, बल्कि एक कड़ी मात्र है. कुछ अन्यत्र कहीं नर्सिंग कालेज में डिगरी कोर्स पूरा करेंगी और आर्मी में जाएंगी. कुछ की अलगअलग शहरों में वृद्धों के नर्सिंग होम्स में नौकरी लगभग पक्की है. अन्य को शहरशहर घूमतेघूमते कोई ठिकाना मिल ही जाएगा जिस में वे बेखौफ रह सकेंगी. जिस घर में 10 युवतियां रहती हों उस का असामाजिक तत्त्वों की नजरों से बचना मुश्किल होता है. टायरोल और ऐग्नेस के घर के चक्कर लगाने वाली बिना पहचान की गाडि़यां पुलिस के विशेष सुरक्षा दस्ते की हैं. सुमि की स्टोरी को डिस्टिंक्शन ग्रेड मिलता है. स्टोरी में सुमि ने यूनिवर्सिटी और सोशल डैवलपमैंट कमीशन के साझे इनीशिएटिव का संक्षिप्त वर्णन ही दिया जिस के तहत जरूरतमंद वर्ग छात्रवृत्तियों और रिहाइश जैसी अन्य सुविधाओं का लाभ उठा कर अपना भविष्य संवार रहा है. निष्ठावान निवासियों द्वारा इलाके की धूमिल छवि को सुधारने के लिए किए गए अथक प्रयासों के सजीव चित्रण के लिए जर्नलिज्म डिपार्टमैंट का अखबार उसे मुख्य फीचर बनाता है. शहर के प्रमुख दैनिक में उस का प्रचुर विवरण छपता है.

सुमि अखबार की कई प्रतियां गौर्डन, कौंस्टेंस, मिल्डे्रड और टायरोल के यहां पोस्ट कर देती है. यूनिवर्सिटी और सोशल डैवलपमैंट कमीशन की ओर से जर्नलिज्म डिपार्टमैंट का अखबार शहर के मुख्य दैनिक के साथ मुफ्त वितरित किया जाता है. ग्रैजुएशन डे पर सुमि को बधाई देने वालों में गौर्डन, कौंस्टेंस, मिल्ड्रेड, टायरोल और ऐग्नेस के साथ प्योनी और उस की साथिनें भी आती हैं. सब के साथ फोटो सुमि को बैस्ट अवार्ड लगता है. स्थानीय अखबार में सह संपादक सुमि अब डाउनटाउन के चप्पेचप्पे से वाकिफ हो चुकी है. विस्कौन्सिन एवेन्यू और ट्वैंटी फ ोर्थ स्ट्रीट का चौराहा पार करते हुए सुमि पुराने भय को याद कर के हंसे बिना नहीं रह पाती. उस इलाके में प्रौपर्टी डैवलपमैंट जोर पकड़ने लगा है और जमीन के भाव बढ़ रहे हैं

आती? सजायाफ्ता बेटे से मिलने जेल गई तो उस ने मुंह फेर लिया और कड़वे शब्दों में आइंदा मिलने आने के लिए मना कर दिया. मां ने बेटे से मिलने जाना नहीं छोड़ा. भले ही वह बात न करता था लेकिन दूर बैठ उसे जीभर देख कर वे लौट आती थीं.अपने ही खून से ऐसे घोर अपमान से कौंस्टेंस हिल गईं. उन्होंने अपनी शेष जिंदगी का रुख मोड़ने का निश्चय किया और विपन्न स्थिति में अपने जैसे हताश लोगों की मानसिकता बदलने के इरादे से सोशल डैवलपमैंट कमीशन के प्रयासों से जुड़ने की ठान  ली. आर्थिक सहायता के दावेदारों को सही और वाजिब अर्जियां दाखिल करने में मदद करने लगीं. अब अपने हाउसिंग कौंप्लैक्स की मुखिया हैं और इलाके में सक्रिय राजनीतिक दल की कार्यकर्त्ता.

Hindi Story- पतझड़ में झांकता वसंत: कैसे गुजरी थी रूपा की जिंदगी

‘‘हैलो सर, आज औफिस नहीं आ पाऊंगी, तबीयत थोड़ी ठीक नहीं है,’’ रूपा ने बुझीबुझी सी आवाज में कहा. ‘‘क्या हुआ रूपाजी, क्या तबीयत ज्यादा खराब है?’’ बौस के स्वर में चिंता थी.

‘‘नहींनहीं सर, बस यों ही, शायद बुखार है.’’ ‘‘डाक्टर को दिखाया या नहीं? इस उम्र में लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए, टेक केयर.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं सर,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया. 55 पतझड़ों का डट कर सामना किया है रूपा सिंह ने, अब हिम्मत हारने लगी है. हां, पतझड़ का सामना, वसंत से तो उस का साबका नहीं के बराबर पड़ा है. जब वह 7-8 साल की थी, एक ट्रेन दुर्घटना में उस के मातापिता की मृत्यु हो गई थी. अपनी बढ़ती उम्र और अन्य बच्चों की परवरिश का हवाला दे कर दादादादी ने उस की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया. नानी उसे अपने साथ ले आई और उसे पढ़ायालिखाया. अभी वह 20 साल की भी नहीं हुई थी कि नानी भी चल बसी. मामामामी ने जल्दी ही उस की शादी कर दी.

पति के रूप में सात फेरे लेने वाला शख्स भी स्वार्थी निकला. उस के परिवार वाले लालची थे. रोजरोज कुछ न कुछ सामान या पैसों की फरमाइश करते रहते. वे उस पर यह दबाव भी डालते कि नानी के घर में तुम्हारा भी हिस्सा है, उन से मांगो. मामामामी से जितना हो सका उन्होंने किया, फिर हाथ जोड़ लिए. उन की भी एक सीमा थी. उन्हें अपने बच्चों को भी देखना था. उस के बाद उस की ससुराल वालों का जुल्मोसितम बढ़ता गया. यहां तक कि उन लोगों ने उसे जान से मारने की भी प्लानिंग करनी शुरू कर दी. श्वेता और मयंक अबोध थे. रूपा कांप उठी, बच्चों का क्या होगा. वे उन्हें भी मार देंगे. उन्हें अपने बेटे की ज्यादा दहेज लेने के लिए दोबारा शादी करनी थी. बच्चे राह में रोड़ा बन जाते. एक दिन हिम्मत कर के रूपा दोनों बच्चों को ले कर मामा के यहां भाग आई. ससुराल वालों का स्वार्थ नहीं सधा था. वे एक बार फिर उसे ले जाना चाहते थे, लेकिन उस घर में वह दोबारा लौटना नहीं चाहती थी. मामा और ममेरे भाईबहनों ने उसे सपोर्ट किया और उस का तलाक हो गया.

उसे ससुराल से छुटकारा तो मिल गया लेकिन अब दोनों बच्चों की परवरिश की समस्या मुंहबाए खड़ी थी. बस, रहने का ठिकाना था. उस के लिए यही राहत की बात थी. मामा ने एक कंपनी में उस की नौकरी लगवा दी. उस के जीवन का एक ही मकसद था, श्वेता और मयंक को अच्छे से पढ़ानालिखाना. दोनों बच्चों को वह वैल सैटल करना चाहती थी. वह जीतोड़ मेहनत करती, कुछ मदद ममेरे भाईबहन भी कर देते. उस के मन में एक ही बात बारबार उठती थी कि जैसी जिंदगी उसे गुजारनी पड़ी है, बच्चों पर उस की छाया तक न आए. रूपा ने दोनों बच्चों का दाखिला अच्छे स्कूल में करवा दिया. उन्हें हमेशा यही समझाती रहती कि पढ़लिख कर अच्छा इंसान बनना है. बच्चे होनहार थे. हमेशा कक्षा में अव्वल आते. वक्त सरपट दौड़ता रहा. मयंक ने आईआईटी में दाखिला ले लिया. श्वेता ने फैशन डिजाइनिंग में अपना कैरियर बनाया. श्वेता बैंगलुरु में ही जौब करने लगी थी. उस ने अपने जीवनसाथी के रूप में देवेश को चुना. दोनों ने साथसाथ कोर्स किया और साथसाथ स्टार्टअप भी किया. रूपा और मयंक को भी देवेश काफी पसंद आया. मयंक ने भी अपने पसंद की लड़की से शादी की. रूपा काफी खुश थी कि उस के दोनों बच्चों की गृहस्थी अच्छे से बस गई. उन्हें मनपसंद जीवनसाथी मिले. मयंक पहले हैदराबाद में कार्यरत था. पिछले साल कंपनी ने उसे अमेरिका भेज दिया. वह कहता, ‘मम्मा, यदि मैं यहां सैटल हो गया, तो फिर तुम्हें भी बुला लूंगा.’

रूपा हंस कर कहती, ‘बेटा, मैं वहां आ कर क्या करूंगी भला. तुम लोग लाइफ एंजौय करो. मामामामी की भी उम्र काफी हो गई है. ऐसे में उन्हें छोड़ कर मैं कैसे जाऊंगी.’

मयंक भी इस बात को समझता था लेकिन फिर भी वीडियो चैटिंग में यह बात हमेशा कहता. मामामामी भी रूपा से कहते, ‘अब हमारी उम्र हो गई. जाने कब बुलावा आ जाए. इसलिए तुम मयंक के पास चली जाओ.’ श्वेता और देवेश बीचबीच में आते और बेंगलुरु में सैटल होने के लिए कहते. बच्चों को हमेशा मां की चिंता सताती रहती. उन्होंने बचपन से मां को कांटों पर चलते, चुभते कांटों से लहूलुहान होते और सारा दर्द पीते हुए देखा था. वे चाहते थे कि अब मां को खुशी दें. उन्हें अब काम करने की क्या जरूरत है. लेकिन वह कहती, ‘जब तक यहां हूं, काम करने दो. इसी काम ने हम लोगों को सहारा दिया और हमारा जीवन जीने लायक बनाया है. जब थक जाऊंगी, देखा जाएगा.’

कुछ समय बाद मामामामी की मृत्यु हो गई. रूपा अब निपट अकेली हो गई. इधर कुछ दिनों से बारबार उस की तबीयत भी खराब हो रही थी. इस वजह से वह थोड़ी कमजोर हो गई थी. 6 महीने पहले उस के औफिस में नए बौस आए थे, रूपेश मिश्रा. वे कर्मचारियों से बहुत अच्छे से पेश आते, उन के साथ मिल कर काम करते. उन की उम्र 60 साल के आसपास होगी. कुछ साल पहले एक लंबी बीमारी से उन की पत्नी का साथ छूट गया था. 2 बेटियां थीं, दोनों की शादी हो गई थी. वे अकेलेपन से जूझते हुए खुद को काम में लगाए रहते. कर्मचारियों में अपनापन ढूंढ़ते रहते. वे उदार और खुशदिल थे. कभीकभी रूपा से अपने दिल की बात शेयर करते थे. जब वे अपनी पत्नी की बीमारी का जिक्र करते तब उन की आंखें भर आतीं. वे पत्नी को बेहद प्यार करते थे. वे कहते, ‘हम ने रिटायरमैंट के बाद की जिंदगी की प्लानिंग कर रखी थी, लेकिन वह बीच में ही छोड़ कर चली गई. मेरी बेटियां बहुत केयरफुल हैं, लेकिन इस मोड़ पर तनहा जीवन बहुत सालता है.’

तनहाई का दर्द तो रूपा भी झेल रही थी. उसे भी रूपेश से दिल की बात करना अच्छा लगता था. जल्दी ही दोनों अच्छे दोस्त बन गए. वे दोनों जब अपनी आगे की जिंदगी के बारे में सोचते, तब मन कसैला हो जाता. यह भी कि यदि कभी बीमार पड़ गए तो कोई एक गिलास पानी पिलाने वाला भी न होगा. उस पर आएदिन अकेले बुजुर्गों की मौत की खबर उन में खौफ पैदा करती. जब भी ऐसी खबर पढ़ते या टीवी पर ऐसा कुछ देखते कि मौत के बाद कईकई दिनों तक अकेले इंसान की लाश घर में सड़ती रही, तो उन के रोंगटे खड़े हो जाते. मौत एक सच है. यदि उस की बात छोड़ भी दें तो भी शेष जीवन अकेले बिताना आसान नहीं था. न कोई बात करने वाला, न कोई दुखदर्द बांटने वाला. बंद कमरा और उस की दीवारें. कैसे गुजरेंगे उन के दिन? रात की तनहाई में जब वे सोचते, सन्नाटा राक्षस बन कर उन्हें निगलने लगता. रूपा ने बातोंबातों में मयंक और श्वेता को अपने बौस रूपेश मिश्रा के बारे में बता दिया था. यह भी कि वे एक अच्छे इंसान हैं और सब के सुखदुख में काम आते हैं. वह बच्चों से वैसे भी कुछ नहीं छिपाती थी. बच्चों के साथ शुरू से ही उस का ऐसा तारतम्य है कि वह जितना बताती उस से ज्यादा वे दोनों समझते.

रूपा बिस्तर पर लेटीलेटी जिंदगी के पन्ने पलट रही थी. एकएक दृश्य चलचित्र बन उस की आंखों में उभर आए थे. उस की बीती जिंदगी पर लगाम तब लगी जब कौलबैल बजी. उस ने घड़ी देखी तो शाम के साढ़े 6 बज रहे थे. इस वक्त कौन होगा? वह अनमनी सी बालों का जूड़ा बनाते हुए उठी. की-होल से देखा, सामने रूपेश मिश्रा खड़े थे. उस ने झटपट दरवाजा खोल दिया, ‘‘अरे आप?’’

‘‘आप की तबीयत कैसी है? मुझे फिक्र हो रही थी, इसलिए चला आया’’, रूपेश ने खुशबूदार फूलों का बुके उस की तरफ बढ़ाया. बहुत दिनों बाद कमरा भीनाभीना महक उठा. इस महक ने रूपा को भी सराबोर कर दिया, ‘‘सर, बैठिए न मैं ठीक हूं.’’ उस के होंठों पर प्यारी सी मुसकराहट आ गई.

‘‘आप ने डाक्टर को दिखाया?’’ ‘‘अरे, बस यों ही मामूली बुखार है, ठीक हो जाएगा.’’

‘‘देखिए, ऐसी लापरवाही ठीक नहीं होती. चलिए, मैं साथ चलता हूं,’’ रूपेश मोबाइल निकाल कर डाक्टर का नंबर लगाने लगा. ‘‘नहीं सर, मैं ठीक हूं. यदि बुखार कल तक बिलकुल ठीक नहीं हुआ, तो मैं चैकअप करा लूंगी.’’ उस की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे. उसे इस बात का थोड़ा भी अंदाजा नहीं था कि रूपेश घर आ जाएंगे.

‘‘यह सरसर क्या लगा रखा है आप ने, यह औफिस नहीं है,’’ उस ने प्यार से झिड़की दी, ‘‘मैं कुछ नहीं सुनूंगा, डाक्टर को दिखाना ही होगा. बस, आप चलिए.’’ यह कैसा हठ है. रूपा असमंजस में पड़ गई. उसी समय मयंक का वीडियोकौल आया. उसे जैसे एक बहाना मिल गया. उस ने कौल रिसीव कर लिया. मयंक ने भी वही सवाल किया, ‘‘मम्मी, तुम ने डाक्टर को दिखाया? तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि तुम सारा दिन कष्ट सहती रही.’’

‘‘अब तुम मुझे डांटो. तुम लोग तो मेरे पीछे ही पड़ गए. अरे, कुछ नहीं हुआ है मुझे.’’ ‘‘मम्मी, तुम अपने लिए कितनी केयरफुल हो, यह मैं बचपन से जानता हूं. अरे, अंकल आप, नमस्ते,’’ मयंक की नजर वहीं सोफे पर बैठे रूपेश पर पड़ी.

‘‘देखो न बेटे, मैं भी यही कहने आया हूं, पर ये मानती ही नहीं. वैसे तुम ने मुझे कैसे पहचाना?’’ ‘‘मम्मी से आप के बारे में बात होती रहती है. अंकल, आप आ गए हो तो मम्मी को डाक्टर के पास ले कर ही जाना. आप को तो पता ही है कि अगले महीने हम लोग आ रहे हैं, फिर मम्मी की एक नहीं चलेगी.’’

मयंक ने रूपेश से भी काफी देर बात की. ऐसा लगा जैसे वे लोग एकदूसरे को अच्छे से जानते हों. दोनों ने मिल कर रूपा को राजी कर लिया. मयंक ने कहा, ‘‘अब आप लोग जल्दी जाइए. आने के बाद फिर बात करता हूं.’’ साढ़े 8 बजे के करीब वे लोग डाक्टर के यहां से लौटे. रूपेश ने उसे दरवाजे तक छोड़ जाने की इजाजत मांगी, लेकिन रूपा ने उन्हें अंदर बुला लिया. इस भागदौड़ में चाय तक नहीं पी थी किसी ने. वह 2 कप कौफी ले आई. साथ में ब्रैड पीस सेंक लिए थे. अब वीडियोकौल पर श्वेता थी, अपने बिंदास अंदाज में, ‘‘चलो मम्मी, तुम ने किसी की बात तो मानी. मयंक ने मुझे सब बता दिया है. मम्मी और अंकल, हम लोगों ने आप दोनों के लिए कुछ सोचा है…’’

दोनों आश्चर्य में पड़ गए. अब ये दोनों क्या गुल खिला रहे हैं? श्वेता ने बिना लागलपेट के दोनों की शादी का प्रस्ताव रख दिया. उन लोगों की समझ में नहीं आया कि कैसे रिऐक्ट करें, गुस्सा दिखाएं, इग्नोर करें या…दोनों ने कभी इस तरह सोचा ही नहीं था. लेकिन बात यह भी थी कि दोनों को एकदूसरे की जरूरत और फिक्र थी. श्वेता देर तक मां और दोस्त की भूमिका में रही. आखिर, उस ने कहा कि आप लोगों को अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का पूरा हक है. अगर आप दोनों दोस्त हो तो क्या साथसाथ नहीं रह सकते. हमारा समाज इस दोस्ती को बिना शादी के कुबूल नहीं करेगा और इस से ज्यादा की परवा करने की हमें जरूरत भी नहीं. आप की शादी के गवाह हम बनेंगे. रूपेश के मन में हिचक थी, बोले, ‘‘मेरी बेटियों को भी रूपा के बारे में पता है, लेकिन उतना नहीं जितना तुम दोनों भाईबहनों को.’’ ‘‘अंकल, आप फिक्र मत कीजिए. उन लोगों का नंबर मुझे दे दीजिए. मैं बात करूंगी. सब ठीक हो जाएगा. और मम्मी ब्रैड से काम नहीं चलेगा. आप खाना और्डर कर दो. अंकल को खाना खिला कर ही भेजना. और हां, डाक्टर ने जो दवा लिखी है, उसे समय पर लेना और कल सारा चैकअप करवा लेना.’’

दोनों अवाक थे. बच्चों को यह क्या हो गया है? उन के दिल में कब से कुछ घुमड़ रहा था, वह आंखों के रास्ते छलक आया. रूपेश ने रूपा का हाथ थाम लिया, ‘‘और कुछ नहीं तो उम्र के इस पड़ाव पर हमें सहारे की जरूरत तो है ही.’’

रूपा ने उस के कंधे पर सिर रख दिया. इतना सुकून शायद जीवन में उसे पहली बार महसूस हुआ. वह सोच रही थी, जब वसंत की उम्र थी, उस ने पतझड़ देखे. अब पतझड़ के मौसम में वसंत आया है…लकदक लकदक.

Golden Woman : फैशन मौडल कैसे बनी दुल्हन

दिल्ली के होटल ताज के बाहर काले रंग की एक चमचमाती कार आ कर रुकती है. लेटैस्ट मौडल की इस कार का दरवाजा खुलता है और उस में से हाई हील्स और स्टाइलिश पार्टीवियर ड्रैस में साधना बाहर निकलती है. उस के बालों में गोल्डन कलरिंग की हुई है. डायमंड जड़े सुनहरे पर्स और गौगल्स को संभालती साधना होटल के अंदर प्रवेश करती है.

रिसैप्शन एरिया में ही उस की सहेली निभा उस का इंतजार कर रही थी. साधना को गौर से देखते हुए उस ने कहा,”हाय साधना, न्यू हेयरस्टाइल. नाइस यार… तेरी तो ड्रैस भी नायाब है.”

“अरे निभा, तुझे याद नहीं पिछली दफा जब पार्टी के बाद मैं तन्वी के साथ बाजार गई थी, वहीं यह ड्रैस मुझे पसंद आ गई थी. जानती है इस के किनारों पर गोल्ड का काम है. इस ड्रैस के फ्रंट पर भी सीक्वैंस, स्टोंस, बीड्स और गोल्ड का काम किया हुआ है.”

“गौर्जियस यार. वैसे भी यू आर अ गोल्डन वूमन. गोल्ड बहुत पसंद हैं न तुझे. तेरी ज्यादातर ड्रैस में गोल्ड का काम जरूर होता है. वैसे कितने की है यह ड्रैस ?”

“ज्यादा की नहीं है यार. बस यही कोई ₹1 लाख की है. बट आई मस्ट से, इट्स वैरी कंफरटेबल. फील ही नहीं हो रहा कि कुछ पहना भी है,” कह कर साधना हंस पड़ी, फिर निभा की तरफ देखती हुई बोली,” वैसे तुम्हारी ड्रैस भी बहुत प्रिटी है यार.”

इसी तरह बातें करतीं एकदूसरे का हाथ थामे दोनों आगे बढ़ गईं.

साधना अपनी 20-25 क्लोज फ्रैंड्स के साथ शाम तक शानदार पार्टी का मजा लेती रही. पार्टी साधना की तरफ से ही थी. दरअसल, साधना ने अपने बेटे अभिनव की 10वीं में बेहतरीन प्रदर्शन की खुशी में अपनी सहेलियों को दावत दी थी. दावत भी ऐसीवैसी नहीं थी. इस दावत में सर्व किए गए 1-1 प्लेट की कीमत हजारों रूपए थी.

दरअसल, साधना एक अरबपति इंडस्ट्रियलिस्ट सुधाकर की पत्नी थी. देशविदेश में इन के खानदान के चर्चे थे. सुधाकर के पिता भी नामी इंडस्ट्रियलिस्ट थे और उन्हीं से विरासत में सुधाकर को यह साम्राज्य मिला था. वैसे, सुधाकर के 2 बड़े भाई और हैं. समय के साथ भाइयों में मनमुटाव हुआ तो संपत्ति और कारोबार का बंटवारा कर दिया गया. सुधाकर ने बंटवारे में अपनी पसंद की इंडस्ट्री हासिल की और अब वह स्वतंत्र रूप से पूरे परिश्रम के साथ कारोबार बढ़ाने के प्रयासों में जुटा हुआ था.

सलाहकारों और सहयोगियों का हुजूम हमेशा उस के साथ चलता था. इधर कुछ दिनों से सुधाकर कुछ परेशान रहने लगा था. साधना समझती थी कि इस की वजह कारोबार में आ रही समस्याएं होंगी. सुधाकर कभी भी साधना से अपनी बिजनैस संबंधित समस्याएं शेयर नहीं करता था और साधना कभी उस के काम में कोई दखल देती भी नहीं थी.

साधना ने सुधाकर से लव मैरिज की थी. दरअसल, साधना एक मौडल थी और राजस्थानी परिवार से जुड़ी थी. वहीँ सुधाकर भी मूल रूप से राजस्थानी ही था. दोनों के ही परिवार वाले अब दिल्ली में बसे हुए थे. साधना का फैशन सैंस और स्टाइलिश लुक सुधाकर के मन में समा गया था.

एक फैशन शो ईवेंट के दौरान उस ने साधना से अपने दिल की बात पूरे राजस्थानी अंदाज में कही और वहीं दोनों ने एकदूसरे को जीवनसाथी के रूप में चुन लिया.

वैसे सुधाकर के घर वालों ने साधना को सहजता से स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे एक मौडल को बहू बनाने के पक्ष में नहीं थे. मगर जब उन्होंने करीब से उस के मृदुल स्वभाव और परिपक्व सोच को परखा तो तुरंत तैयार हो गए.

दोनों अपनी गृहस्थी में बहुत खुश थे. साधना के 2 बच्चे थे. पहला बेटा अभिनव था जो 10वीं पास कर चुका था जबकि बेटी अभी छोटी थी.

साधना अपने पैशन को जिंदा रखना चाहती थी मगर शादी के बाद अपनी जिम्मेदारियां देखते हुए उस ने फैशन मौडल के बजाय फैशन इंफ्लुऐंसर और फैशन मोटीवेटर के रूप में घर से ही काम करना शुरू किया था.

पार्टी खत्म कर साधना ने अपनी सभी सहेलियों से विदा ली और अपने शानदार बंगले में कदम रखा तो यह देख कर दंग रह गई की ड्राइंगरूम में बहुत से लोग मौजूद हैं. पति सामने मुंह लटकाए एक अपराधी की तरह खड़े हैं. घर के सभी नौकरचाकर भी एक कोने में दुबके हुए हुए हैं.

घबराते हुए साधना अंदर दाखिल हुई और पति के पास जाती हुई बोली,”क्या हुआ सुधाकर और ये लोग कौन हैं? ”

सुधाकर टूट गया और साधना के कंधे पर सिर रख कर रोता हुआ बोला,”सब खत्म हो गया साधना. हम कंगाल हो गए. ये बैंक वाले हैं और अपनी लोन की रकम उगाहने के लिए आए हैं. ये हमारे मकान और गाड़ियों पर कब्जा लेने के लिए खड़े हैं.”

साधना सन्न रह गई मगर पति को दिलासा देती हुई बोली,”परेशान मत हो सुधाकर, सब ठीक हो जाएगा.”

“मैं भी अब तक यही तो सोचता रहा कि सब ठीक हो जाएगा. एक के बाद एक बिजनैस डूबते रहे मगर मैं लोन लेले कर नए सपने बुनता रहा. तुम्हें भी कभी एहसास नहीं होने दिया कि आजकल हमारी कंपनियां नफा देने के बजाय नुकसान दे रही हैं. मेरे बैंक लोन इतने ज्यादा बढ़ गए हैं कि अब मैं सब कुछ गंवा देने की हालत में पहुंच गया हूं. बस मुझे एक साइन करना है और फिर यह बंगलागाड़ी, यह शानोशौकत सबकुछ खत्म हो जाएगा.”

“तो क्या हुआ सुधाकर, अब हम एक सामान्य जीवन जी लेंगे. सालों शानोशौकत का अनुभव किया है तो कुछ समय साधारण जीवन का भी अनुभव होना चाहिए न और कौन जाने तुम बहुत जल्द ही सब कुछ वापस खड़ा कर लोगे. मुझे पूरा विश्वास है तुम पर. कर दो साइन सुधाकर ज्यादा मत सोचो.”

मनमसोस कर सुधाकर ने सबकुछ बैंक वालों को सौंप दिया और इस तरह एक झटके में अरबपति दंपत्ति का परिवार साधारण मध्यवर्गीय परिवार में तबदील हो गया. सुधाकर और साधना ने तो फिर भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया मगर असल मुसीबत बच्चों की थी जिन्होंने बचपन से एक लग्जीरियस लाइफ जी थी और अब अचानक आए इस बदलाव से वे हतप्रभ थे.

बेटी पायल तो इस छोटे से नए घर में आ कर फफकफफक कर रो पड़ी थी. बेटा अभिनव भी समान्य नहीं रह पाया. वह अपने दोस्तों से कतराने लगा क्योंकि वे लोग उस से हजारों सवाल करने लगे थे. साधना खुद भी अंदर से बहुत परेशान थी मगर उसे पति और बच्चों को इस सदमे से उबारना था. साधना ने पहले अपने मन को समझाया और फिर शांत मन से बच्चों को समझाने में जुट गई.

बेटी को अपने पास बैठा कर साधना ने पूछा,”आप क्यों रो रहे हो?”

“मम्मा हम गरीब हो गए. अब हमें बहुत कठिन दिन गुजारने होंगे न. हम अपने मन का कुछ नहीं कर पाएंगे…”

“ऐसा क्यों कह रही हो मेरी बच्ची? अमीरीगरीबी तो जिंदगी में लगी ही रहती है. यह जिंदगी का एक हिस्सा है, एक फेज की तरह है बिलकुल वैसे ही जैसे रोज सुबह होती है, शाम होती है फिर रात हो जाती है. अगला दिन आता है और फिर से सुबह हो जाती है. यह सब तो चलता रहता है. अब देखो न, कभी ठंड, कभी गरमी और कभी बारिश. मौसम बदलते रहते हैं न. जानते हो गरमी के बाद बारिश न आए तो फसलें सूख जाएंगी और हमें खाने की चीजें नहीं मिलेंगी. इसी तरह जिंदगी भी रंग बदलती है.”

“पर मम्मा, यह फेज अच्छा नहीं है न?”

“किस ने कहा बेटे? हर फेज अच्छा होता है. हमें कुछ सिखा कर जाता है. कोशिश करो तो जिंदगी के इस फेज से बहुत कुछ सीख सकते हो.”

“वह क्या मम्मा?”

“देखो बेटे, जीवन में कठिनाइयां आती हैं तभी इंसान उस से लड़ना सीखता है, मजबूत बनता है. जो लोग हमेशा अमीरी में जीते हैं उन के अंदर कठिन परिस्थितियों से निबटने की ताकत नहीं आ पाती. अमीर बच्चों को सब कुछ आसानी से मिल जाता है. इसलिए उन के अंदर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं आती. मगर साधारण लोग सबकुछ अपनी मेहनत के बल पर हासिल करते हैं. इसी में असली खुशी है.”

पायल मां को देखती रही. वह कोशिश कर रही थी कि मां के तर्कों को मान ले मगर बच्ची के मन अंदर कुछ टूट गया था. अभिनव भी काफी गुमसुम रहने लगा था.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. बच्चे अभी भी इस नई जिंदगी में सामान्य नहीं थे.

एक दिन बेटा जब स्कूल से वापस लौटा तो साधना हैरान रह गई. उस के कपड़े कई जगह से फटे हुए थे. बाल बिखरे थे और कई जगह चोट भी लगी थी. उस के साथ आए लड़के ने बताया कि स्कूल में दूसरे लड़कों से मारपीट की वजह से यह हालत हुई है. उस लड़के के जाने के बाद साधना ने जल्दीजल्दी पहले तो बेटे को नहलाया और फिर उस की मरहमपट्टी की. सिर पर ठंडे पानी की फुहारें पड़ीं तो अभिनव थोड़ा सामान्य हुआ.

अब बेटे को पास बैठा कर और उस की आंखों में देखते हुए साधना ने पूछा,”यह सब क्या है अवि? अपने दोस्तों से लड़ने की वजह क्या थी? ऐसा क्या हो गया जो तुम ने मारपीट की?”

अभिनव अचानक रोता हुआ उस की गोद में सिर रख कर लेट गया और बोला,”मां, स्कूल का एक लड़का पापा को कंगाल और दिवालिया कह रहा था. उस ने मुझे कंगला का बेटा कहा. इसी बात पर मुझे गुस्सा आ गया. मैं सह नहीं सका और उस पर टूट पड़ा.”

“बेटे, ऐसा क्या गलत कह दिया था उस ने? और यदि गलत कहा भी तो तुम्हें क्या फर्क पड़ता है जबकि बात ही गलत है? देखो बेटा, तुम्हारे पापा दिवालिया हुए थे. उन की संपत्ति जब्त कर ली गई थी. इस की खबर न्यूज चैनल और अखबारों में भी आई थी. ऐसे में संभव है कि उस लड़के के घर में भी इस बात पर चर्चा हुई होगी. वह लड़का किसी बात पर तुम से नाराज होगा इसलिए उस ने तुम्हें उकसाने के लिए इस बात को गलत तरीके से कहा और तुम सचमुच भड़क उठे.

“तुम ने उस की योजना को सफल बना दिया. यह रवैआ सही नहीं है बेटे. खुद को कमजोर नहीं मजबूत बनाओ. कोई कुछ भी कहे तुम्हें फर्क नहीं पड़ना चाहिए.”

“पर मौम, वह सब के सामने ऐसी बातें कर रहा था तो मैं भला क्या करता? चुपचाप आगे बढ़ जाता?”

“या तो चुपचाप आगे बढ़ जाते या फिर मुसकरा कर कहते कि डोंट वरी हम फिर से पहले जैसे बन जाएंगे,” साधना ने समझाया.

सुन कर अभिनव को हंसी आ गई. वह मां के हाथ चूमता हुआ बोला,”मौम यू आर ग्रेट. कहां से लाते हो आप इतना पैशेंस?”

साधना ने हंस कर कहा,” यह पैशेंस अब तुम्हें भी अपने अंदर पैदा करना है बेटे. तभी तुम जिंदगी की हर जंग जीत सकोगे.”

“ओके मौम मैं ऐसा कर के दिखाऊंगा.”

बेटे का माथा प्यार से सहलाते हुए साधना एक खुशनुमा भविष्य की उम्मीद में खो गई.

2-3 साल इसी तरह बीत गए. साधना अपने बच्चों को कम में जीने का प्रशिक्षण देती रहती. जब बेटा दोस्तों को पार्टी देने की बात कर रूपए मांगता तो वह अपने दोस्तों को घर पर बुला लेने की बात करती और अपने हाथों का बना खाना खिलाती. जब वह जिम जौइन करने की बात करता तो साधना उसे घर पर ही योगा और व्यायाम कर के फिट रहने के उपाय समझाती. उसे बेवजह के स्कूल टूअर या फंक्शन में शामिल होने के बजाय उस समय का उपयोग पढ़ाई करने और भविष्य संवारने में लगाने को कहती. वह अपनी बिटिया को भी पैसे बरबाद करने के बजाय बचत करने के तरीके समझाती.

उस दिन साधना की बेटी पायल का बर्थडे था. साधना के कहने पर पायल इस बार अपनी बर्थडे पार्टी साधारण तरीके से मनाने की बात तो मान गई मगर एक खूबसूरत नई ड्रैस के लिए अड़ गई. साधना ने उस का मन रखने के लिए ड्रैस खरीद दी.

3-4 दिन बाद ही पायल फिर से एक नई ड्रैस के लिए मिन्नतें करने लगी.

“मगर क्यों? अभी तो लाई थी मैं नई ड्रैस,” साधना ने पूछा तो वह बोली,”मम्मा, मेरी बैस्ट फ्रैंड का बर्थडे है. उस के बर्थडे पर मैं अपनी बर्थडे वाली ड्रैस रिपीट कैसे करूं? इस के अलावा कोई नई ड्रैस है भी नहीं मेरे पास.”

“ओके बेटा. परेशान न हो. आप शाम को स्कूल से आओगे तब तक आप की नई ड्रैस आ चुकी होगी.”

“थैंक यू मम्मा,” कह कर पायल हंसतीमुसकराती चली गई.

पायल के जाने के बाद साधना सोचने लगी कि बेटी के लिए एक नई पार्टीवियर ड्रैस का इंतजाम कैसे किया जाए. तभी उस के दिमाग में एक आईडिया आया. उस ने बेटी की एक पुरानी ड्रैस निकाली और उस पर अपने फैशन डिजाइनर दिमाग का इस्तेमाल करते हुए सितारे, स्टोंस, बीड्स और नेट आदि का काम कर और स्टाइलिश कटिंग दे कर उस ड्रैस को एक खूबसूरत पार्टीवियर ड्रैस बना दिया. शाम को जब पायल लौटी और मम्मी के हाथों में प्यारी सी ड्रैस देखी तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

रात में जब साधना ने सुधाकर को सारी बात बताई तो साधना का हाथ पकड़ कर वह बोला,”मैं हमेशा कहता था न यू आर अ गोल्डन वूमन. आज तुम ने यह साबित कर दिया. तुम्हारे गोल्डन कलर्ड हेयर, गोल्डन ड्रैस, गोल्डन ऐक्सेसरीज ही तुम्हें गोल्डन नहीं बनाते बल्कि तुम्हारा दिल भी गोल्डन है. सच सोने का दिल रखती हो तुम. मेरी जिंदगी में इतनी तकलीफें आईं मगर तुम ने अपनी समझदारी और धैर्य से न केवल मुझे हिम्मत दी बल्कि बच्चों को भी हर हाल में खुश हो कर जीना सिखा दिया. थैंक्स साधना.”

साधना ने मुसकराते हुए कहा,”मैं तुम्हारी जीवनसाथी हूं. सुख हो या दुख हो, सम्पन्नता हो या परेशानी, मुझे तुम्हारे साथ हौसला बन कर चलना है. मैं न खुद टूटूंगी और न तुम्हें टूटने दूंगी.”

सुधाकर के चेहरे पर मुसकान और आंखों में प्यार झलक उठा था.

Gunda Story In Hindi- गुंडा: क्या सच में चंदू बन गया गुंडा?

तेज रफ्तार से आती बाइक को देख कर लोग तितरबितर हो गए.

‘‘अरे ओ, रुक जाओ. कैसे चला रहे हो गाड़ी? ऊपर चढ़े जा रहे हो, दिखता नहीं है क्या? थोड़े में बच गई, वरना आज तो रामप्यारी हो जाती.’’ हाथ नचाती जोरजोर से चिल्लाती लड़की को साथ चलने वाली लड़की ने हाथ पकड़ कर कुछ समझाना चाहा, मगर उस ने अपना हाथ छुड़ा लिया. बाइक वाला अचानक ब्रेक मार कर सर्र से पीछे मुड़ा और इन के सामने आ कर एक पैर जमीन पर रख कर रुक गया.

‘‘अरे, रामप्यारी मैडम, दूसरों को कुछ कहने से पहले जरा खुद को देखो. बीच सड़क पर ऐसे चल रही हो जैसे पियक्कड़ चलते हैं. यह आम रास्ता है, आप की खुद की जागीर नहीं.’’

‘‘हां, यह हमारी ही जागीर है. तुम कौन होते हो मना करने वाले, चोरी और सीना जोरी.’’

‘‘सही कहा मेरीरानी. तुम ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली. अच्छा, यह सब छोड़ो. यह तो बताओ कि तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? आज क्लास नहीं है, फिर क्यों सड़क नाप रही हो?’’

‘‘तुम्हें इस से क्या? मैं चाहे पढूं या सड़कें नापूं, मेरी मरजी. तुम्हें इस से क्या लेनादेना मिस्टर चंदूलाल?’’

‘‘ठीक है, समझ गया. लगता है बहुत दिन से शाहरुख खान की कोई फिल्म नहीं देखी. इसलिए आग उगल रही हो.’’

‘‘अरे जा, ऐसा कभी हो सकता है कि शाहरुख की फिल्म लगी हो और मैं न देखूं. अभी पिछले हफ्ते तो ‘माई नेम इज खान’ लगी थी और तुरंत मैं ने देख ली.’’

‘‘कैसी लगी? अच्छी है न?’’

‘‘अच्छी… महाबोर. उस की सारी फिल्में एक से एक हैं, मगर ये…’’

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ उस ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘बिलकुल थर्ड क्लास. नहीं देखती तो अच्छा था, अब पछता रही हूं.’’

‘‘ऐसा क्या?’’ उस की हंसी छिपाए नहीं छिप रही थी, मगर मेरी अपनी ही धुन में बोले जा रही थी.

‘‘और क्या? बिलकुल शाहरुख की पिक्चर नहीं लगी. इतनी बोर तो उस की कोई पिक्चर नहीं है.’’

‘‘समझा. लड़कियों की आंखों में आंखें डाल कर रोमांटिक डायलौग्स बोलता हुआ, नाचतागाता, उन के दिलों पर राज करते रोमांटिक हीरो की छवि इस फिल्म में नहीं है. शायद इसलिए यह तुम्हें पसंद नहीं आई,’’ वह हंसता हुआ बोला.

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई. यह मेरी सहेली नीरजा है. इस शहर और कालेज में नई आई है. मेरी ही कक्षा में है,’’ उस ने अपने साथ खड़ी लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘जी, हां. मेरे पापा बैंक में हैं. इसलिए 3-4 साल से ज्यादा हम एक जगह रह ही नहीं सकते.’’

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं. मेरी क्लास है बाय,’’ कह कर वह चला गया.

‘‘बड़ी अच्छी लगी आप लोगों की चुहलबाजी, बिलकुल बच्चों जैसी. तकरार तो है ही साथ में अपनापन भी है,’’ नीरजा ने हंसते हुए कहा.

‘‘ठीक कहा तुम ने नीरजा. देखा नहीं, कितने हक से वह इसे मेरीरानी कह रहा था,’’ पता नहीं रूमा कब आ गई थी साथ चलते हुए बोली, ‘‘अच्छा, यह तो बता मेरीरानी की च…’’

‘‘बस, रूमा बहुत हुआ. सीधीसादी बात को गोलगोल घुमाना, उस में अपने मन से रंग भर कर रंगीला, चटकीला बनाना कोई तुझ से सीखे.’’ लाख कोशिश करने पर भी मेरी अपने गुस्से पर परदा नहीं डाल सकी.

‘‘इस में इतना भड़कने की क्या जरूरत है? क्या केवल वही मेरीरानी कह सकता है, हम नहीं.’’ उस के स्वर में व्यंग्य नहीं था. वह हंसते हुए चली गई.

‘‘क्या हुआ मेरी? रूमा तो मजाक कर रही थी. तुम बुरा क्यों मान गई?’’ नीरजा उसे समझाने के अंदाज में बोली.

‘‘तुम नहीं जानती नीरू कि रूमा कितनी खतरनाक है. तुम अभी नई हो. यहां सबकुछ इतना सीधा नहीं है जितना दिखता है. वास्तव में यह रूमा चंदू के पीछे पड़ी थी.’’

‘‘पड़ी क्या थी, वह तो अब भी उस की दीवानी है. चंदू हां करे तो वह उस के पैरों में बिछ जाए, मगर वह ऐसी लड़कियों को भाव ही नहीं देता, तो यह चिढ़ती है और उसे बदनाम करने की कोशिश करती है,’’ मेरी बोली.

‘‘यह तो लड़केलड़कियों में आम बात है. यहां से निकलते ही सब लोग पिछली बातें भूल कर अपनीअपनी जिंदगी जीते हैं, लेकिन तुम पर वह क्यों व्यंग्यबाण चला रही थी?’’ नीरजा ने कहा.

‘‘उस की आदत है. छोटी सी बात को ले कर भी उसे लोगों की खिंचाई करना अच्छा लगता है. वास्तव में चंदू मेरे स्कूल का सहपाठी है. हम दोनों साथ खेलतेकूदते और लड़तेझगड़ते बड़े हुए हैं. एक बात बताऊं? स्कूल में मेरा नाम मेरीरानी ही था. कालेज में मैं ने रानी हटा कर मेरी रखा.’’

‘‘अच्छा, यह बात है? मगर रानी क्यों हटा लिया? मेरीरानी अच्छा तो लग रहा है.’’

‘‘तुम तो मुझे बनाने लगी. यह नाम बंगालियों में अकसर सुनने में आता है, मगर मुझे बड़ा अटपटा लगता था, क्योंकि स्कूल में मुझे सब लोग मेरीरानी कह कर चिढ़ाया करते थे, खासकर लड़के. इसीलिए मैं ने अपने नाम से रानी हटा लिया, केवल चंदू जानता है, इसीलिए कभीकभी अकेले में छेड़ता है.’’

‘‘और उस का नाम चंदूलाल… आज के जमाने में…’’

‘‘अबे, नहीं. उस का नाम तो चंद्रभान है.’’

‘‘यानी चांद और सूरज साथसाथ.’’

‘‘अरे हां, सच है. मैं ने तो आज तक गौर ही नहीं किया. सब उसे बचपन में चंदू कह कर बुलाते थे. हम जब लड़ते थे तब वह गाता था, ‘मेरीरानी बड़ी सयानी…’ और मैं गाती ‘चंदूलाल चने की दाल…’’ दोनों सहेलियां हंस पड़ीं.

 

नीरजा ने कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा और उछल पड़ी. 5 मिनट की देरी हो चुकी थी. ‘‘अरे, बाप रे, अंगरेजी की मैम तो बहुत स्ट्रिक्ट हैं. वे तो कक्षा में घुसने नहीं देंगी. मेरी, जल्दी चलो.’’ दोनों कक्षा की ओर भागीं. अभी मैडम क्लास में नहीं आई थीं. क्लास में काफी शोर हो रहा था. दोनों बैठ गईं.

पीछे बैठी शीतल ने ‘हाय’ किया, लेकिन जवाब देने से पहले ही मैडम आ गईं. पीरियड समाप्त होते ही मेरी फ्रैंच क्लास में चली गई.

नीरजा की अब कोई क्लास नहीं थी. इसीलिए वह किताबें समेट कर घर जाने के लिए निकल पड़ी. शीतल भी साथ चलते हुए बोली, ‘‘चलो, नीरजा कैंटीन में चाय पीते हैं.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे जाना होगा. मम्मी राह देखती होंगी, बाय,’’ कह कर वह निकल गई. इतने दिन में वह समझ गई थी कि शीतल की पढ़ाई में कम और कालेज में भीड़ इकट्ठी करने, पार्टियों और फिल्म देखने में ज्यादा रुचि थी. शायद वह किसी करोड़पति से शादी कर के ऐशोआराम की जिंदगी जीने के इंतजार में थी.

उस दिन तो नीरू का मूड ही खराब हो गया. आखिर उस के मुंह से निकल गया, ‘‘सर, कितने दिन से मैं इस किताब के लिए लाइब्रेरी के चक्कर लगा रही हूं. किस के पास है यह किताब?’’

‘‘बेटा, मुझे याद नहीं है कि किस के पास है, जरा 2 मिनट रुक जाओ. मैं देख कर बताता हूं.’’

‘‘सर, यह किताब मेरे पास है. कल लौटा दूंगा,’’ सामने से आवाज आई. नीरू ने पलट कर देखा तो कोई लड़का पास ही मेज पर बैठा कुछ पढ़ रहा था. उस ने इस की बातें सुन ली थीं.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. आप पढ़ने के बाद ही उसे वापस कीजिए. मैं सर से ले लूंगी,’’ नीरू ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘मैं ने पढ़ ली है. मैं वापस देने ही वाला था, पर जरा लापरवाही हो गई. आई एम सौरी. कल ला दूंगा. आप ले लीजिएगा.’’

इस प्रकार हुआ था उस का आनंद से परिचय. बाद में पता चला कि वह शीतल का भाई है. कितना अंतर था उन दोनों में. शीतल जहां एक चंचल तितली की तरह थी, वहीं वह चरित्रवान आदर्श व्यक्ति का स्वरूप.

ऐसे व्यक्ति के पास लड़कियां अपनेआप को बिलकुल सुरक्षित महसूस करती हैं. वह नीरू को भा गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

उस दिन क्लास खत्म होने के बाद जब नीरजा घर जाने के लिए निकली तो आकाश काले बादलों से ढका हुआ था.

4 बजे ही अंधेरा छा गया था. बूंदाबांदी शुरू हो गई थी. पता नहीं क्यों आज मेरी भी नहीं आई थी. हमेशा दोनों पैदल ही जाती हैं, क्योंकि दोनों के घर कालेज से ज्यादा दूर नहीं थे. वह जल्दीजल्दी घर की ओर जाने लगी. इतने में एक बाइक उस के पास आ कर रुकी.

‘‘बहुत तेज बरसात होने वाली है. आप को एतराज न हो तो मैं आप को घर छोड़ दूं?’’ यह चंदू की आवाज थी.

‘‘जी, नहीं. मैं चली जाऊंगी. घर पास में ही है,’’ वह दनदनाती हुई आगे बढ़ गई. अभी दो कदम भी नहीं  चली थी कि तेज बरसात हो गई.

‘अब क्या करूं?’ नीरजा सोचने लगी, ‘चंदू के साथ चली जाती तो अच्छा था. किताबें भीग रही हैं.’ चंदू के बारे में लोगों की विरोधाभासी बातें सुन कर वह अब तक अपनी कोई राय नहीं बना पाई थी. पीछे से जोरजोर से कार के हौर्न की आवाज सुन कर वह पलटी.

‘‘नीरू, जल्दी अंदर आ जाओ,’’ शीतल ने आवाज दी. कार का दरवाजा खुला और वह लपक कर कार में बैठ गई. उस ने देखा अंदर रूमा भी बैठी थी. कार आनंद चला रहा था.

‘‘क्या कह रहा था हीरो,’’ रूमा ने हंसते हुए पूछा.

नीरू ने कहा, ‘‘यही कि आइए, तेज बरसात होने वाली है. आप भीग जाएंगी. मैं अपने खटारे पर आप को घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘लड़कियां पटाना तो कोई इस से सीखे,’’ दोनों जोरजोर से हंस पड़ीं. सामने लगे आईने में आनंद की मंदमंद मुसकराहट भी नीरू देख रही थी.

‘‘देखो नीरू, इस भंवरे से दूर ही रहना. चंदू मवाली, गुंडा और आवारा है. तुम्हारी सहेली मेरी तो उस की हिमायती है. कभी उस की बातों में न आना,’’ रूमा ने बड़ी आत्मीयता जताते हुए कहा.

‘‘बरसात बढ़ रही है, हम ने आप का घर देख लिया है फिर कभी जरूर आएंगे,’’ कह कर आनंद ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

2 दिन बाद मेरी कालेज आई. बहुत कमजोर हो गई थी. उसे मलेरिया हो गया था. वह आ तो गई थी मगर बैठ नहीं पा रही थी. बड़ी मुश्किल से 2 पीरियड निकालने के बाद उस ने घर जाने का निश्चय कर लिया. नीरू उसे रिकशे में बैठाने साथ गई. कालेज के मुख्य फाटक पर पहुंचने से पहले ही नीरू ने देखा कि एक पेड़ के नीचे चंदू, रूमा और अन्य 2-3 लड़कियां जोरजोर से हंस रही थीं. इतने में रूमा ने अपने हाथ से चंदू के बाल बिखेर दिए और उस का हाथ पकड़ कर जब चंदू ने उसे रोकना चाहा तो रूमा ने दूसरे हाथ से चिकोटी काट ली और सब  हंसने लगे. नीरू ने सोचा, ‘अजीब लड़का है. कालेज में कृष्ण कन्हैया बना फिरता है. पढ़ता कब होगा.’

कालेज का युवा सम्मेलन कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है. उस में तरहतरह के रंगारंग कार्यक्रम होते हैं. मेरी ने एक अंगरेजी नाटक में मुख्य भूमिका निभाई. शीतल, रूमा और कुछ अन्य लड़कियों ने मिल कर एक पश्चिमी नृत्य पेश किया. इसी कार्यक्रम में घोषणा की गई कि आनंद ने कालेज के पुस्तकालय के लिए 10 हजार रुपए का अनुदान दिया है.

पिछले वर्ष विभिन्न विभागों में प्रथम और द्वितीय स्थान प्राप्त करने वालों को इनाम दिए गए. अंत में खेल विभाग का नंबर आया. सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और खेल सचिव के रूप में चंद्रभान शर्मा का नाम घोषित किया गया. जितनी तालियां उस के लिए बजीं उतनी तो शायद किसी और के लिए नहीं बजी थीं.

भीड़ को चीरते हुए चंद्रभान आगे आ रहा था. नीरू ने देखा, वह हमेशा की तरह बिंदास था. बाल बिखरे, कमीज कुछ अंदर, कुछ बाहर. हवा के झोंके की तरह चला आ रहा था वह.

एक अध्यापक ने उसे पकड़ा. उस की कमीज ठीक की, बाल संवारे और कहा, ‘‘तुम कहां रह गए थे? स्टेज के पीछे रहने को कहा गया था न? बाकी सारे इनाम के हकदार वही हैं.’’

‘‘जी, सर पीछे बैठा एक वृद्ध व्यक्ति बेहोश हो गया था. उसे अस्पताल पहुंचा कर आ रहा हूं,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘सर, यह हमारे कालेज का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और खेल सचिव है. हमें दोतिहाई पुरस्कार इसी की वजह से मिले हैं,’’ प्रिंसिपल साहब ने मुख्य अतिथि से परिचय कराते हुए कहा.

 

शीतल के बुलावे पर 3-4 बार नीरू को उस के घर जाना पड़ा. शीतल कालेज के चुनावों में सांस्कृतिक सचिव के पद के लिए चुनाव लड़ रही थी. वह यह कह कर नीरू को अपने घर ले जाती कि तेरे आइडियाज बहुत अच्छे हैं, तेरी प्लानिंग भी अच्छी है. चुनाव में जीतने के लिए तुम्हारी मदद की मुझे काफी जरूरत है.

नीरू किसी को भी ना नहीं कर सकती थी. मगर शीतल के नीरू को पटाने के और भी कारण थे, क्योंकि नीरू पढ़ने में अच्छी थी. वह चुनाव में व्यस्त होने के बहाने उस के नोट्स ले कर फोटोकौपी करवा लेती. दूसरा और जरूरी कारण यह था कि वह जानती थी कि आनंद की नीरू में रुचि है और आनंद ने ही उन दोनों की दोस्ती को प्रोत्साहित किया था.

पहली बार उन के घर को देख कर नीरू चकित रह गई. वे बहुत पैसे वाले लोग थे. सब के अलगअलग कमरे, अलगअलग गाडि़यां, अलग जीने के तरीके थे. किसी को दूसरे के बारे में पता नहीं, न ही वे एकदूसरे के जीवन में दखल देते थे. नीरू जब भी वहां जाती आनंद से अवश्य मिलती. वैसे भी आनंद का शालीन, संतुलित व्यवहार उसे भाने लगा था.

आजकल नीरू को शीतल के साथ चुनाव प्रचार के लिए कालेज के छात्रछात्राओं के घर जाना पड़ता था. दोनों कार से जाते, वापसी में शीतल उसे घर छोड़ देती. उस दिन शीतल की कार खराब हो गई थी इसलिए आनंद ने शीतल को एक घर के सामने छोड़ दिया.

‘‘यह किस का घर है?’’ नीरू ने पूछा.

‘‘मेघा का.’’

‘‘मेघा… हां, याद आया. परिचय तो नहीं है पर शायद आर्ट फैकल्टी में है.’’

‘‘हां, ठीक पहचाना. क्या करें, जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है,’’ कार लौक करते हुए शीतल ने कहा.

‘‘क्या?’’

‘‘कुछ नहीं. चलोचलो. आज हमें 3 घर निबटाने हैं.’’

कार की आवाज सुन कर कोई बाहर आया. नीरू ने सोचा यही मेघा है, वह मुसकरा दी.

‘‘मेघा, यह नीरजा है, मेरी ही क्लास में है.’’

‘‘जानती हूं और मैं मेघा, जर्नलिज्म की छात्रा हूं. मैं आप को अकसर शीतल के साथ देखती हूं या पुस्तकालय में,’’ नीरू मुसकराते हुए सुन तो रही थी मगर उस का दिमाग तेजी से विचारों में उलझा हुआ था. इसे तो मैं अच्छी तरह जानती हूं. यह मेरी आंखों में बसी हुई है. कालेज में तो कई छात्र हैं उस लिहाज से नहीं. फिर… अचानक उसे याद आया, ‘‘हां, यह तो अकसर चंदू के स्कूटर पर नजर आती है.’’

‘‘आइए न अंदर,’’ उस के पीछे शीतल और नीरजा अंदर चल दीं. वहां एक प्रौढ़ा कुछ पढ़ रही थीं. मेघा ने अपनी मां से दोनों का परिचय कराया. उन्होंने बड़े प्यार से दोनों लड़कियों से बात की. थोड़ी देर बाद एक स्कूटर घर के आगे रुका, जिस से चंदू उतरा और घर के अंदर आ गया.

नीरजा देखती रह गई, ‘‘चंदू यहां…’’

‘‘नीरजा, यह मेरा भाई चंद्रभान है. मैं इन की छोटी बहन हूं, कोई मुझे जाने या न जाने इन्हें तो हर कोई जानता है.’’

‘‘शीतल आज तुम यहां… हमारा घर पवित्र हो गया. अरे, भई मेघा, इन लोगों को कुछ खिलायापिलाया या नहीं?’’

‘‘नहीं भैया, अभीअभी तो आए हैं,’’ इतने में मेघा की मां एक ट्रे ले कर आईं, जिस में पकौडे़ थे.

‘‘मां, मुझे बुला लेतीं. आप अब बैठिए, मैं चाय बना लूंगी.’’

‘‘ठीक है, ठीक है, पहले इन्हें खाने तो दे,’’ मां ने कहा.

मेघा ने उठ कर पकौड़ों की प्लेट शीतल के आगे बढ़ाई.

चंदू बोला, ‘‘लो शीतल, मां बहुत स्वादिष्ठ पकौड़े बनाती हैं. एक बार खाओगी तो बारबार मेरे घर आओगी, इन्हें खाने के लिए.’’

‘‘नहीं मेघा, पहले ही मेरा गला बहुत खराब है. ऐसावैसा कुछ खा लिया तो हालत और खराब हो जाएगी.’’

चंदू पकौड़ों की प्लेट ले कर खुद खाने लगा. ‘‘अरे भैया, नीरजा को दो,’’ मेघा ने टोका.

‘‘नहीं मेघा, क्यों उन्हें परेशान करती हो. जैसे ध्यानचंद वैसे मूसर चंद. मुझे अच्छे लगते हैं इसलिए मैं खा रहा हूं.’’

कालेज चुनाव में शीतल जीत गई थी. जीत की पार्टी वह अपने सारे दोस्तों को कैंटीन में दे कर लौटी थी. नीरू के लिए विशेष निमंत्रण था. वैसे भी अब वह उन के घर  लगी थी, क्योंकि उन के साथ एक अनकहा सा रिश्ता बन गया था. आनंद का व्यवहार ऐसा होता जैसे उस का उस पर कोई हक हो.

शीतल भी ऐसा ही व्यवहार करती थी, क्योंकि वह समझ गई थी कि उस का भाई नीरू को बहुत पसंद करता है. तीनों कार की ओर जा ही रहे थे कि इतने में जोर की चीख सुनाई पड़ी. चारों ओर से सारे विद्यार्थी उस ओर दौड़ पड़े. माली का बेटा जो अकसर अपने पिता के साथ काम करने आया करता था जोरजोर से रो रहा था. कुदाल लग जाने से उस का पैर लहूलुहान हो गया था. घाव कुछ ज्यादा ही गहरा था. सभी लोग तरहतरह के सुझाव दे रहे थे. कोई आटो बुलाने जा रहा था, कोई प्रिंसिपल के कमरे की ओर दौड़ रहा था तो कोई कह रहा था कि डाक्टर को ही यहां बुला लो.

नीरू को लगा आनंद उसे अपनी कार से डाक्टर के पास ले जाएगा, मगर वह मौन खड़ा तमाशा देख रहा था. पता नहीं कहां से चंदू आया उस ने माली के सिर का साफा निकाला और बच्चे के पैर में बांध दिया. फिर 10-12 साल के बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और कहा, ‘‘चलो यार, कोई मेरे साथ. मेरी जेब से मेरी बाइक की चाबी निकाल कर गाड़ी चलाओ. मैं इसे ले कर पीछे बैठता हूं.’’ फाटक काफी दूर था अगर कोई आटो ले कर आता तो तब तक काफी खून बह जाता.

इस के बाद शीतल के घर जा कर भी नीरू अनमनी सी ही रही. न उसे वहां पैस्ट्रीज अच्छी लगीं न कोल्डड्रिंक्स.

‘‘क्या हो गया नीरू तुम्हें, क्या तुम मेरी जीत से खुश नहीं हो?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है…’’

‘‘शायद माली के बेटे वाली घटना से विचलित है. दिल इतना कमजोर होगा तो कैसे चलेगा. यह तो उन के जीवन का भाग है,’’ आनंद हंसा.

उसे लगा वह उस की हिम्मत नहीं बंधा रहा है बल्कि हंसी उड़ा रहा है.

‘‘मैं तो उस घटना को वहीं भूल गई. नीरू तुम्हें सख्त होना पड़ेगा, नहीं तो तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होगी,’’ शीतल ने कहा.

‘‘सख्त, यह तो संवेदनहीनता है. एक गरीब, निसहाय आदमी को भी बच्चा उतना ही प्यारा होता है जितना एक करोड़पति को. ऊपर से अस्पताल का खर्च. कैसे झेल पाएगा वह?’’ उस का हृदय भीग गया.

‘‘छोड़ो यार, तुम तो ऐसे डिस्टर्ब हो जैसे वह तुम्हारा अपना हो. यह सब तो चलता रहता है. ठीक है तुम्हारा मूड ठीक करने का उपाय मैं जानती हूं.’’

‘‘अच्छा शीतल, मुझे कुछ काम है. अभी आता हूं,’’ कह कर आनंद वहां से

चला गया.

‘‘सुनो नीरू, पापा बाहर गए हुए हैं. शायद 2-3 दिन में वापस आएंगे. उन के वापस आते ही भैया तुम्हारी बात चलाएंगे,’’ उस ने बड़ी अपेक्षा से नीरू की ओर देखा. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह स्वयं बोली, ‘‘अरे यार, मैं तो समझी थी कि तुम खुशी से उछल पड़ोगी. भैया को तो कोई पसंद ही नहीं आती थी. कितनी लकी हो तुम, जिस के पीछे लड़कियां लाइन लगाती हों, वे स्वयं तुम्हारे पीछे हैं.’’

नीरू का वहां और रुकने का मन नहीं हुआ. वह जाने को उठी, तो शीतल ने कहा, ‘‘अरे रुको, भैया पहुंचा देंगे. यहींकहीं गए हैं, आ जाएंगे.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे एक जगह और जाना है, अच्छा बाय.’’

‘‘मगर भैया…’’ शीतल पुकारती रह गई. उस रात उसे नींद नहीं आई. खून से लथपथ माली के बेटे का पांव, उस का आसुंओं से भीगा चेहरा और माली की दैन्य स्थिति उसे कचोट रही थी. बारबार एक ही सवाल उस के मन में उठ रहा था, ‘क्या आनंद की परिपक्वता, शालीनता, बड़प्पन केवल एक ढकोसला है? सब के सामने अपनेआप को कितना अच्छा दिखाता है. गाड़ी है, पैसा है, मगर दिल में…’ नीरू का मन खट्टा हो गया.

नीरू सुबह तैयार हो कर कालेज जाने को निकल तो पड़ी पर उस का जाने का मन न हुआ. मेरी ने तो कल ही कह दिया था कि अब कम से कम 4-5 दिन पढ़ाई नहीं होगी, इसलिए वह अपनी दीदी के यहां चली जाएगी. उस के मन में विचार आया कि क्यों न माली के बेटे को देख आऊं. माली का घर उस के कालेज के रास्ते में ही पड़ता था. छोटी सी झोंपड़ी थी उस की. वह सकुचाती हुई उस की झोंपड़ी में घुस गई.

माली शायद काम पर जा चुका था और लड़का एक पुरानी सी खाट पर गुदडि़यों में लिपटा पड़ा था. किसी की आहट सुन कर उस ने आंखें खोलीं. नीरू ने उसे अपना परिचय दिया और उस की खाट पर बैठ कर उस से बातें करने लगी. पहले तो वह बहुत सकुचाया पर बाद में नीरू से प्रोत्साहन और अपनेपन से खुल कर बातें करने लगा.

उस ने बताया कि उस की मां 4-5 घरों में बरतनचौका करती हैं, इसलिए इस समय वहीं गई हुई हैं. पौलीथिन बैग में से नीरू ने बड़ा सा फ्रूट ब्रैड और बिस्कुट का पैकेट निकाला और खोल कर उस के सामने रख दिया.

‘‘आप यह सब क्यों लाई हैं, अभी अम्मां आएंगी तो हम लोग खाना खा लेंगे.’’

‘‘मुझे पता है भैया, अभी थोड़ा खा लो. बाकी बाद में सब मिल कर खाना.’’

उस ने एक ब्रैड का पीस उस की ओर बढ़ाया, जिस तरह से उस ने उसे खाया उस से पता चल गया कि वह वास्तव में भूखा था. उस का मन भर आया. कितना आत्मसम्मान है इस बच्चे में. उसे 2 बिस्कुट खिला कर पानी पिलाया. फिर आने का वादा कर के वह बाहर निकल ही रही थी कि चंदू और मेघा ने अंदर प्रवेश किया. वे एकदूसरे को देख कर चौंके.

उन से 2 मिनट बातें कर के नीरू निकलने ही वाली थी कि मेघा ने कहा, ‘‘नीरूजी, 2 मिनट रुक जाइए. मंगल की मां आती ही होगी. उस से मिल कर हम भी चलते हैं.’’ दूसरा तो कोई काम था नहीं, वह रुक गई.

वे लोग अभी बातें ही कर रहे थे कि मंगल की मां और एक 9-10 साल की लड़की आ गई. मेघा ने बताया कि यह लड़की मंगल की छोटी बहन लक्ष्मी है. मेघा ने एक थैला उस स्त्री के हाथ में दिया और बोली, ‘‘खाना है, सब लोग खा लेना और हां, डब्बों की चिंता मत करो, हम बाद में ले जाएंगे.’’

वह महिला नहीं मानी और बोली, ‘‘नहीं बेटा, रुक जाओ, 2 मिनट का काम है,’’ कहती हुई उस ने फटाफट डब्बों को खाली किया. नीरू ने देखा सब के लिए खाने के साथसाथ मिठाई और समोसे भी थे.

‘‘इतना सारा खाना क्यों ले आए बेटा? रूखासूखा खाने वाले गरीब आदमी हैं हम,’’ उस की आंखें भर आईं. वह डब्बे धोने बाहर चली गई. मेघा को जैसे कुछ याद आया.

‘‘अरे भैया, दवाइयां…’’

‘‘हां, वे तो डिक्की में रह गईं. मैं ले आता हूं.’’

‘‘रुको, बहुत सारे पैकेट्स हैं. मुझे आना ही पड़ेगा.’’ दोनों बाहर चले गए.

दवाइयों के पैकेट के साथ जब वापस आए तो मेघा कह रही थी, ‘‘क्यों बताया आप ने?’’ वह कुछ नाराज लग रही थी.

‘‘नहीं बताता तो निवाला उस के गले से नहीं उतरता. अब जल्दी कर. ये दवाइयां कब, कैसे लेनी हैं, 2 बार अच्छे से समझा कर चल. मां राह देख रही होंगी.’’ नीरू को उन की बातें समझ में नहीं आईं.

दोनों ने अच्छी तरह से दवाइयों के बारे में समझाया और फिर से आने को कह कर बाहर निकल आए.

मेघा ने कहा, ‘‘नीरू एतराज न हो तो थोड़ी देर के लिए मेरे घर चलो, मुझे अच्छा लगेगा. चाहो तो मैं घर आ कर आंटी को बता दूंगी.’’

‘‘तुम कभी भी मेरे घर आ सकती हो, मुझे भी अच्छा लगेगा. इस वक्त केवल मां की इजाजत के लिए आने की जरूरत नहीं है. मैं घर जा कर बताने ही वाली थी कि मैं कालेज नहीं गई थी. रास्ते में मन बदल गया था और मंगल के घर चली गई थी,’’ नीरू ने हंसते हुए कहा.

‘‘मेघा, तुम मां से कह देना कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं. आधे घंटे में घर पहुंच जाऊंगा.’’ चंदू उछल कर गाड़ी में बैठ गया. मेघा नीरू के साथ आटो में बैठ गई.

नीरू को देख कर मेघा की मां बहुत खुश हुई, ‘‘अच्छा किया बेटा, जो अपनी सहेली को साथ ले आई, मंगल कैसा है?’’

‘‘ठीक हो रहा है मां, नीरू भी वहीं थी. हम लोग उस की मां और छोटी बहन से भी मिले.’’

‘‘नीरू बेटे, मुझे बहुत अच्छा लगा. इस के पिता के जाने के बाद इस ने अपना जन्मदिन मनाना ही छोड़ दिया. आज सालों बाद इस ने जन्मदिन पर कम से कम अपनी एक सहेली को तो बुलाया है. मैं तुम्हें यों ही नहीं जाने दूंगी.

‘‘मेघा बेटी, जरा आंटीजी को फोन कर के बता दे कि नीरू आज यहां तुम्हारे साथ खाना खाएगी, वे इस का इंतजार न करें.’’

‘‘नहीं आंटीजी, मुझे मीठा खिला दीजिए, मैं कालेज जाने के लिए घर से खाना खा कर निकली थी, मगर मैं कालेज न जा कर मंगल को देखने चली गई थी.’’

‘‘मेघा, तुम ने मुझे बताया ही नहीं कि आज तुम्हारा जन्मदिन है,’’ नीरू ने कहा.

‘‘इस में जन्मदिन वाली कोई बात नहीं है और कोई दिन होता तो भी मैं यही करती. मंगल के यहां हमारा मिलना एक सुखद संयोग है.’’

उस दिन मेघा के घर से लौटने के बाद नीरू का मन बिलकुल स्थिर और शांत हो गया था. उस ने सोचा, ‘कितना प्यारा घर है, शांत और सुकून देने वाला. कितना प्यार और अपनापन था वहां. उस की सारी बेचैनी दूर हो गई थी.’

इस के बाद उस का मेघा से मेलजोल बढ़ा. वे दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करती थीं. मेघा बहुत कम बोलती थी, मगर जो बोलती थी उस में सार, समझदारी, कोमलता, आर्द्रता आदि होती थी. वह बिना बोले दूसरों की बात समझ जाती थी और उसी के अनुसार काम करती थी. उस के पास आ कर लोगों का आत्मबल बढ़ता था.

धीरेधीरे नीरू को महसूस होने लगा कि उस घर में जब भी जाती है उसे एक शीतल, सुगंध छू जाती है. मन को सुकून मिलता है जैसे वहां स्नेह का मलयानिल बह रहा हो.

आनंद के साथ नीरू की सगाई तय हो गई. एक बार आनंद के कहने पर मेघा ने नीरू की मां को फोन किया कि वह आनंद की बहन है.

नीरू और आनंद एकदूसरे को पसंद करते हैं, पर दोनों इस बात को घर बताने में शरमाते हैं. वे लोग उस के घर आ कर रिश्ते की बात उस के मम्मीपापा से करें.

वह अपने भाई से बहुत प्यार करती है. इसलिए फोन कर रही है. यह बात वे किसी से न कहें, यहां तक कि नीरजा या आनंद से भी नहीं.

‘अंधा क्या चाहे दो आंखें,’ ऐसा रईस और शहर में प्रतिष्ठित खानदान नीरजा को मिले, इस से बढ़ कर उन्हें क्या चाहिए था, वह भी बिना प्रयास के. उस की पढ़ाई भी अब समाप्त होने वाली है. बात आगे बढ़ी और तारीख भी पक्की हो गई. फिर तो आएदिन नीरू के लिए तोहफे आने लगे. कभी कपड़े, कभी सैंडल तो कभी सौंदर्य प्रसाधन.

एक बार नीरू ने आनंद से कहा, ‘‘आप लोग बातबेबात मुझे तोहफे क्यों भेजते हैं? मुझे बड़ा संकोच होता है. प्लीज…’’

‘‘इस बारे में तुम बहुत मत सोचा करो. ऐसे छोटेमोटे तोहफे देना हमारे लिए बहुत बड़ी बात नहीं है. धीरेधीरे तुम्हें आदत पड़ जाएगी,’’ आनंद ने कहा.

उस दिन उन के कालेज के सहपाठी अनुरूप का जन्मदिन था. वह भी शहर के बहुत बड़े उद्योगपति का बेटा था. नीरू अपने मित्रों के साथ शीतलपेय लेते हुए बातें कर रही थी कि पीछे से कंधे पर हाथ पड़ा. उस दबाव से उसे पीड़ा हुई. वह गुस्से से पलटी, सामने आनंद खड़ा था.

‘‘वन मिनट प्लीज,’’ उस के मित्रों से कह कर आनंद उसे हाथ पकड़ कर एक ओर ले गया.

‘‘क्या अजीब से कपड़े पहन लिए हैं तुम ने, इसीलिए तो तोहफे भेजता हूं कि कुछ ढंग का पहनो,’’ उस ने फुसफुसाते हुए कहा.

वह जानती थी कि सारी सहेलियों की नजरें उन्हीं पर टिकी हुई थीं. वह स्तब्ध रह गई. चेहरा लाल हो गया. तोहफों का यह अर्थ उस ने कभी नहीं लगाया था. उसे तो लगा था कि अपना प्यार जताने के लिए वह तोहफे देता है.

उसे क्या पता था कि वह अपने साथ खड़े होने के लायक बनाने के लिए उसे तोहफे देता है. उस ने आंखों में आने को आतुर आंसुओं को रोका. उसे घिन आ रही थी अपनेआप पर कि इंसान को पहचानने में इतनी बड़ी गलती कैसे

हो गई?

वापस आने पर जीना ने कहा, ‘‘अरे वाह, सब के बीच रोमांस?’’

‘‘नहीं यार, वे लोग अपनी शादी के बाद की पार्टी का प्लान कर रहे थे.’’ यह रूमा थी.

‘‘ठीक कहा तू ने. आनंद कोई भी काम करता है तो सब देखते रह जाते हैं. भई, अपनी नीरू भी तो लकी है.’’ कौन थी ये जो उस के भाग्य की हंसी उड़ा रही थी.

मेरी ने उस का हाथ थामा, ‘‘नीरू, मुझे घर जाना है, जरूरी काम है. तू चलेगी क्या मेरे साथ?’’ मेरी अब उस की बहुत अच्छी दोस्त बन चुकी थी.

रास्ते में मेरी ने कहा, ‘‘नीरू, मैं बहुत दिन से एक बात कहना चाह रही थी, मगर डर रही थी कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ. मेरा विचार है कि सगाई से पहले एक बार आनंद के बारे में पुनर्विचार कर लो. उस के और तुम्हारे स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. वह जो दिखता है वह है नहीं और तुम्हारा मन बिलकुल साफ है.’’

‘‘जिसे मैं शांत, गंभीर और नेक व्यक्ति मानती थी उस में अब मुझे पैसोें का गरूर, अपनेआप को सब से श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ समझने की प्रवृत्ति, दूसरों के दुखदर्द के प्रति संवेदनशून्यता आदि खोट क्यों दिखाई दे रहे हैं? शायद यह मेरी ही नजरों का फेर हो.’’ नीरू की आंखों में आंसू आ गए. उसे मंगल की याद आई. उस ने आंसू पोंछे.

मेरी समझ गई. उस ने मन में सोचा, ‘अब तुम ने आनंद को ठीक पहचाना.’

‘‘मेरी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि जब बात सगाई तक पहुंच गई है अब मैं क्या कर क्या सकती हूं?’’

‘‘सगाई तो क्या, बात अगर शादी के मंडप तक भी पहुंच जाती है और तुझे लगता है कि तू उस के साथ सुखी नहीं रह सकती, तेरा स्वाभिमान कुचला जाएगा, तो ऐसे रिश्ते को ठुकराने का तुझे पूरा हक है,’’ मेरी उसे घर छोड़ कर चली गई.

2 दिन तक नीरजा कालेज नहीं गई. उसे कुछ भी करने की इच्छा नहीं हो रही थी. अगले दिन तो वह और भी बेचैन हो उठी थी. उस का दम घुट रहा था. शाम होतेहोते वह और भी बेचैन हो उठी.

‘‘मां, थोड़ी देर वाकिंग कर के आती हूं.’’

‘‘मैं साथ चलूं?’’

‘‘नहीं मां, यों ही जरा चल के आऊंगी तो थोड़ा ठीक लगेगा,’’ वह चप्पल पहन कर निकल गई.

नीरू की मां जानती थी कि उसे कोई चीज बेचैन कर रही है. छोटीमोटी बात होगी तो वापस आ कर ठीक हो जाएगी. ऐसीवैसी कोई बात होगी तो वह अवश्य उस के साथ चर्चा करेगी. वे अपने काम में लग गईं.

थोड़ी देर चलते रहने के बाद उस ने देखा कि वह किसी जानेपहचाने रास्ते से जा रही है. वह रुक गई. उसे अचानक ध्यान आया कि वह मेघा के घर के आसपास खड़ी है. उस के कदम मेघा के घर की ओर बढ़ गए. फाटक खोल कर उस ने अंदर प्रवेश किया. चारों ओर शांति थी. वहां चंदू की बाइक नहीं थी. ‘चलो, अच्छा है घर पर नहीं है. मेघा और उस की मां से थोड़ी देर बात कर के उस की मनोस्थिति में थोड़ा बदलाव आएगा.’

‘तनाव मुक्त हो कर आज रात वह मां से खुल कर बात कर सकेगी.’ दरवाजा बंद था. उस ने घंटी बजाने को हाथ उठाया ही था कि अंदर से आवाज आई, ‘‘नहीं मेघा, यह नहीं हो सकता.’’ अरे, यह तो चंदू की आवाज है.

‘‘क्यों भैया, क्यों नहीं हो सकता? मैं जानती हूं कि तुम उस से बहुत प्यार करते हो.’’

‘‘हांहां, तू तो सब जानती है, दादी है न मेरी.’’

‘‘हंसी में बात को मत उड़ाओ भैया. अगर तुम नीरू से नहीं कह सकते तो बोलो, मैं बात करती हूं.’’

‘‘नहींनहीं मेघा, खबरदार ऐसा कभी न करना. मैं जानता हूं कि वह किसी और की अमानत है तो फिर मैं कैसे…’’

‘‘चलो, एक बात तो साफ है कि आप उस से…’’

‘‘मगर इस से क्या होता है मेघा? वह किसी और से प्यार करती है, दोचार दिन में उस की सगाई होने वाली है और फिर शादी.’’

अब नीरू की समझ में आ रहा था कि शायद वे लोग उस की बात कर रहे थे.

‘‘भैया, आप से किस ने कह दिया कि नीरजा आनंद से प्यार करती है. यह तो केवल घटनाओं का क्रम है. वह उस के साथ खुश नहीं रह पाएगी.’’

‘‘यह तू कैसे कह सकती है?’’ चंदू ने झुंझलाते हुए कहा.

‘‘दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. आनंद स्वार्थी और अहंभावी है. वह वह नहीं है जो दिखता है. वह और भी खतरनाक है.’’

‘‘मैं सब जानता हूं मेघा, मगर अब कुछ नहीं हो सकता. सब से बड़ी बात यह है कि मैं कालेज में बदनाम हूं. धनवान भी नहीं हूं.’’

‘‘मगर मैं जानती हूं कि तुम कितने अच्छे हो. दूसरों की भलाई के लिए कुछ भी कर सकते हो.’’

‘‘मैं तेरा भाई हूं न, इसलिए तुझे ऐसा लगता है. मेघा अब छोड़ न यह सब. उस को शांति से आनंद के साथ आनंदपूर्वक जीने दे. इस समय तू मुझे जाने दे. मेरी गाड़ी अब तक ठीक हो गई होगी,’’ चंदू ने कहा.

घर की खिड़की से बचती हुई नीरू घर के पिछवाड़े की तरफ चली गई.

घर पहुंचने के बाद मां ने देखा कि अब वह तनावमुक्त थी, पर किसी आत्ममंथन में अभी भी उलझी हुई है. उन्होंने कुछ नहीं कहा. नीरू चुपचाप रात का खाना खाने के बाद अपने कमरे की बत्ती बुझा कर बालकनी में आ कर बैठ गई. बाहर चांदनी बिछी हुई थी.

वह जैसे किसी तंद्रा में थी. उस की आंखों के सामने तरहतरह की घटनाएं आ रही थीं, जिन में वह कभी आनंद को देख रही थी तो कभी चंदू को. जिसे सीधा, सरल, उत्तम और सहृदय मानती रही वह किस रूप में सामने आया और जिसे गुंडा, मवाली, फूलफूल पर मंडराने वाला भंवरा मानती आई है उस का स्वभाव कितना नरमदिल, दयालु और मददगार है, मगर उस ने चंदू को कभी उस नजरिए से नहीं देखा.

मेरी ने कई बार उसे समझाया भी कि चंदू साफ दिल का इंसान है जो अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता.

कोई लड़कियों को छेड़ता है, किसी बच्चे या बूढ़े को सताता है तो उस से लड़ाई मोल लेता है. वह लड़कियों के पीछे नहीं भागता, बल्कि उस के शक्तिशाली व्यक्तित्व और चुलबुलेपन से आकर्षित हो कर लड़कियां ही उसे घेरे रहती हैं. आज क्या बात हो गई उस के सामने सबकुछ साफ हो गया. शायद उस की आंखों पर लगा आनंद की नकली शालीनता का चश्मा उतर गया था.

‘ये क्या किया मैं ने. क्या मेरी पढ़ाई मुझे इतना ही ज्ञान दे पाई? मेरे संस्कार क्या इतने ही गहरे थे? मुझे सही और गलत की पहचान क्यों नहीं है? क्या मेरी ज्ञानेंद्रियां इतनी कमजोर हैं कि वे हीरे और कांच में फर्क नहीं कर पातीं? क्या मैं इतनी भौतिकवादी हो गई हूं कि मुझे आत्मा की शुद्धता और पवित्रता के बजाय बाहरी चमकदमक ने अधिक प्रभावित कर दिया.

‘मेघा सही कहती थी कि वह आनंद के साथ कभी खुश नहीं रह पाएगी. न वह ऐश्वर्य में पलीबढ़ी है, न उसे पाना चाहती है. वह ऐसी सीधीसादी साधारण लड़की है जो एक शांतिपूर्ण, तनावमुक्त जिंदगी जीना चाहती है. वह अपने पति और परिवार से ढेर सारा प्यार पाना चाहती है.’

अचानक उस ने जैसे कुछ निश्चय कर लिया कि वह उस व्यक्ति से हरगिज शादी नहीं करेगी, जिस में संवेदनशीलता नहीं है, आर्द्रता नहीं है, जो भौतिकवादी है. फिर चाहे वह करोड़पति हो या अरबपति, उस का पति कदापि नहीं बन सकता. वह उस गुंडे, मवाली से ही शादी करेगी जो दिल का सच्चा है, नरमदिल और मानवतावादी है. वह जितना बिंदास दिखता है उतना ही परिपक्व और जीवन के प्रति गंभीर है. उसे पूरा विश्वास है कि उस की जिंदगी ऐसे व्यक्ति की छत्रछाया में बड़ी शांति से गुजर जाएगी. ऐसा निश्चय करने के बाद नीरजा को बड़े चैन की नींद आई.

Online Hindi Story : यह कैसा सौदा

जैसे ही उस नवजात बच्चे ने दूध के लिए बिलखना शुरू किया वैसे ही सब सहम गए. हर बार उस बदनसीब का रोना सब के लिए तूफान के आने की सूचना देने लगता है, क्योंकि बच्चे के रोने की आवाज सुनते ही संगीता पर जैसे पागलपन का दौरा सा पड़ जाता है. वह चीखचीख कर अपने बाल नोचने लगती है. मासूम रिया और जिया अपनी मां की इस हालत को देख कर सहमी सी सिसकने लगती हैं. ऐसे में विक्रम की समझ में कुछ नहीं आता कि वह क्या करे? उस 10 दिन के नवजात के लिए दूध की बोतल तैयार करे, अपनी पत्नी संगीता को संभाले या डरीसहमी बेटियों पर प्यार से हाथ फेरे.

संगीता का पागलपन हर दिन बढ़ता ही जा रहा है. एक दिन तो उस ने अपने इस नवजात शिशु को उठा कर पटकने की कोशिश भी की थी. दिन पर दिन स्थिति संभलने के बजाय विक्रम के काबू से बाहर होती जा रही थी. वह नहीं जानता था कि कैसे और कब तक वह अपनी मजदूरी छोड़, घर पर रह कर इतने लोगों के भोजन का जुगाड़ कर पाएगा, संगीता का इलाज करवा पाएगा और दीक्षित दंपती से कानूनी लड़ाई लड़ पाएगा. आज उस के परिवार की इस हालत के लिए दीक्षित दंपती ही तो जिम्मेदार हैं.

विक्रम जानता था कि एक कपड़ा मिल में दिहाड़ी पर मजदूरी कर के वह कभी भी इतना पैसा नहीं जमा कर पाएगा जिस से संगीता का अच्छा इलाज हो सके और इस के साथ बच्चों की अच्छी परवरिश, शिक्षा और विवाह आदि की जिम्मेदारियां भी निभाई जा सकें. उस पर कोर्टकचहरी का खर्चा. इन सब के बारे में सोच कर ही वह सिहर उठता. इन सब प्रश्नों के ऊपर है इस नवजात शिशु के जीवन का प्रश्न, जो इस परिवार के लिए दुखों की बाढ़ ले कर आया है जबकि इसी नवजात से उन सब के जीवन में सुखों और खुशियों की बारिश होने वाली थी. पता नहीं कहां क्या चूक हो गई जो उन के सब सपने टूट कर ऐसे बिखर गए कि उन टूटे सपनों की किरचें इतनी जिंदगियों को पलपल लहूलुहान कर रही हैं.

कोई बहुत पुरानी बात नहीं है. अभी कुछ माह पहले तक विक्रम का छोटा सा हंसताखेलता सुखी परिवार था. पतिपत्नी दोनों मिल कर गृहस्थी की गाड़ी बखूबी चला रहे थे. मिल मजदूरों की बस्ती के सामने ही सड़क पार धनवानों की आलीशान कोठियां हैं. उन पैसे वालों के घरों में आएदिन जन्मदिन, किटी पार्टियां जैसे छोटेबड़े समारोह आयोजित होते रहते हैं. ऐसे में 40-50 लोगों का खाना बनाने के लिए कोठियों की मालकिनों को अकसर अपने घरेलू नौकरों की मदद के लिए खाना पकानेवालियों की जरूरत रहती है. संगीता इन्हीं घरेलू अवसरों पर कोठियों में खाना बनाने का काम करती थी. ऐसे में मिलने वाले खाने, पैसे और बख्शिश से संगीता अपनी गृहस्थी के लिए अतिरिक्त  सुविधाएं जुटा लेती थी.

पिछले साल लाल कोठी में रहने वाले दीक्षित दंपती ने एक छोटे से कार्यक्रम में खाना बनाने के लिए संगीता को बुलाया था. संगीता सुबहसुबह ही रिया और जिया को अच्छे से तैयार कर के अपने साथ लाल कोठी ले गई थी. उस दिन संगीता और उस की बेटियां ढेर सारी पूरियां, हलवा, चने, फल, मिठाई, पैसे आदि से लदी हुई लौटी थीं. तीनों की जबान श्रीमती दीक्षित का गुणगान करते नहीं थक रही थी. उन की बातें सुन कर विक्रम ने हंसते हुए कहा था, ‘‘सब पैसों का खेल है. पैसा हो तो दुनिया की हर खुशी खरीदी जा सकती है.’’

संगीता थोड़ी भावुक हो गई. बोली, ‘‘पैसे वालों के भी अपने दुख हैं. पैसा ही सबकुछ नहीं होता. पता है करोड़ों में खेलने वाले, बंगले और गाडि़यों के मालिक दीक्षित दंपती निसंतान हैं. शादी के 15 साल बाद भी उन का घरआंगन सूना है.’’

‘‘यही दुनिया है. अब छोड़ो इस किस्से को. तुम तीनों तो खूब तरमाल उड़ा कर आ रही हो. जरा इस गरीब का भी खयाल करो. तुम्हारे लाए पकवानों की खुशबू से पेट के चूहे भी बेचैन हो रहे हैं,’’ विक्रम ने बात बदलते हुए कहा.

संगीता तुरंत विक्रम के लिए खाने की थाली लगाने लगी और रिया और जिया अपनेअपने उपहारों को सहेजने में लग गईं.

अगले ही दिन श्रीमती दीक्षित ने अपने नौकर को भेज कर संगीता को बुलवाया था. संदेश पाते ही संगीता चल दी. वह खुश थी कि जरूर कोठी पर कोई आयोजन होने वाला है. ढेर सारा बढि़या खाना, पैसे, उपहारों की बात सोचसोच कर उस के चेहरे की चमक और चाल में तेजी आ रही थी.

संगीता जब लाल कोठी पहुंची तो उसे मामला कुछ गड़बड़ लगा. श्रीमती दीक्षित बहुत उदास और परेशान सी लगीं. संगीता ने जब बुलाने का कारण पूछा तो वे कुछ बोली नहीं, बस हाथ से उसे बैठने का इशारा भर किया. संगीता बैठ तो गई लेकिन वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर तक कमरे में चुप्पी छाई रही. फिर धीरे से अपने आंसू पोंछते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताना शुरू किया, ‘‘हमारी शादी को 15 साल हो गए लेकिन हमें कोई संतान नहीं है. इस बीच 2 बार उम्मीद बंधी थी लेकिन टूट गई. विदेशी डाक्टरों ने बहुत इलाज किया लेकिन निराशा ही हाथ लगी. अब तो डाक्टरों ने भी साफ शब्दों में कह दिया कि कभी मां नहीं बन पाऊंगी. संतान की कमी हमें भीतर ही भीतर खाए जा रही है.’’

संगीता को लगा श्रीमती दीक्षित ने अपना मन हलका करने के लिए उसे बुलवाया है. संगीता तो उन का यह दर्द कल ही उन की आंखों में पढ़ चुकी थी. वह सबकुछ चुपचाप सुनती रही.

‘‘संगीता, तुम तो समझ सकती हो, मां बनना हर औरत का सपना होता है. इस अनुभव के बिना एक औरत स्वयं को अधूरा समझती है.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं बीबीजी, आप तो पढ़ीलिखी हैं, पैसे वाली हैं. कोई तो ऐसा रास्ता होगा जो आप के सूने जीवन में बहार ले आए?’’ श्रीमती दीक्षित के दुख में दुखी संगीता को स्वयं नहीं पता वह क्या कह रही थी.

‘‘इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है,’’ कह कर श्रीमती दीक्षित चुप हो गईं.

‘‘मैं…मैं…भला आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’ संगीता असमंजस में पड़ गई.

‘‘तुम अपनी छोटी बेटी जिया को मेरी झोली में डाल दो. तुम्हें तो कुदरत ने 2-2 बेटियां दी हैं,’’ श्रीमती दीक्षित एक ही सांस में कह गईं.

यह सुनते ही जैसे संगीता के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई. उस का दिमाग जैसे सुन्न हो चला था. वह बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाई, ‘‘बीबीजी, आप मुझ गरीब से कैसा मजाक कर रही हैं?’’

‘‘नहींनहीं, संगीता, यह कोई मजाक नहीं. हम सचमुच तुम्हारी जिया को पूरी कानूनी कार्यवाही के साथ अपनी बेटी बनाना चाहते हैं.’’

संगीता के सामने कीमती कपड़ों और गहनों से लदी एक धनवान औरत आज अपनी झोली फैलाए बैठी थी लेकिन वह न तो उस की खाली झोली भर सकती थी और न ही अपनी झोली पर गुमान ही कर सकती थी. उस की आंखों से आंसू बह चले.

श्रीमती दीक्षित जानती हैं कि उन्होंने एक मां से उस के दिल का टुकड़ा मांगा है लेकिन वे भी क्या करें? अपने सूने जीवन और सूने आंगन में बहार लाने के लिए उन्हें मजबूर हो कर ऐसा फैसला लेना पड़ा है. वरना सालों से वे (दीक्षित दंपती) किसी दूसरे का बच्चा गोद लेने के लिए भी कहां तैयार हो रहे थे. कल जिया को देख कर पता नहीं कैसे उन का मन इस के लिए तैयार हो गया था.

उन्होंने संगीता की गरीबी पर एक भावुकता भरा पैंतरा फेंका, ‘‘संगीता, क्या तुम नहीं चाहोगी कि तुम्हारी बेटी बंगले में पहुंच जाए और राजकुमारी जैसा जीवन जिए?’’

‘‘हम गरीब हैं बीबीजी, हमारे जैसे साधन, वैसे ही सपने. हमें तो सपनों में भी फांके और अभाव ही आते हैं,’’ संगीता अपने आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘इसलिए कहती हूं कि कीमती सपने देखने का एक अवसर मिल रहा है तो उस का लाभ उठा और अपनी छोटी बेटी मेरी झोली में डाल दे,’’ श्रीमती दीक्षित ने फिर अपना पक्ष रखा.

‘‘कोई कितना भी गरीब क्यों न हो बीबीजी, अपनी जरूरत के वक्त गहना, जमीन, बरतन आदि बेचेगा, पर औलाद तो कोई नहीं बेचता न?’’ कहते हुए संगीता उठ कर चल दी.

‘‘ऐसी कोई जल्दी नहीं है संगीता, तू अपने आदमी से भी बात कर, हो सकता है उसे हमारी बात समझ में आ जाए,’’ श्रीमती दीक्षित ने संगीता को रोकते हुए कहा.

‘‘नहीं बीबीजी, मरद से क्या पूछना है? हमारी बेटियां हमारी जिम्मेदारी बेशक हैं, बोझ नहीं हैं. मैं तो कुछ और ही सोच कर आई थी,’’ कहते हुए संगीता तेज कदमों से बाहर निकल गई.

घर पहुंचते ही संगीता रिया और जिया को सीने से चिपटा कर फूटफूट कर रो पड़ी. विक्रम को समझ नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है. वह कुछ पूछता इस से पहले संगीता ने ही उसे सारी कहानी सुना दी.

सब सुन कर विक्रम को अपनी गरीबी पर झुंझलाहट हुई. फिर भी अपने को संयत कर उस ने संगीता को समझाया कि जब वह अपनी जिया को देने के लिए तैयार ही नहीं है तो कोई क्या कर लेगा. लेकिन मन ही मन वह डर रहा था कि पैसे वालों का क्या भरोसा. कहीं जिया को अगवा कर विदेश ले गए तो वह कहां फरियाद करेगा और कौन सुनेगा उस गरीब की?

वह रात संगीता और विक्रम पर बहुत भारी गुजरी. कितने ही बुरेबुरे खयाल रात भर उन्हें परेशान करते रहे. उन का प्यार और जिया का भविष्य रात भर तराजू में तुलता रहा. रात भर आंखें डबडबाती रहीं, दिल डूबता रहा.

सुबह होते ही दीक्षित साहब ने विक्रम को कोठी पर बुलवाया. बुलावे के नाम पर तिलमिला गया और वहां पहुंचते ही चिल्लाया, ‘‘नहीं दूंगा मैं अपनी बेटी. नहीं चाहता मैं कि मेरी बेटी राजकुमारी सा जीवन जिए. आप इतने ही दयावान हैं तो दुनिया भरी है गरीबों से, अनाथों से, हम पर ही इतनी मेहरबानी क्यों?’’

उस की बात सुन कर दीक्षित दंपती को जरा भी बुरा नहीं लगा. बड़े प्यार से उस का स्वागत किया और उसे अपने बराबर सोफे पर बिठाया. बड़ी सहजता से उन्होंने पूरी बात समझाते हुए अपनी याचना उस के सामने रखी, लेकिन विक्रम बारबार मना ही करता रहा. तब उन्होंने विक्रम के सामने एक ऐसा प्रस्ताव रख दिया जिसे सुन कर वह हैरान रह गया. उस ने तो पहले इस बारे में कभी सुना ही नहीं था.

दीक्षित दंपती ने विक्रम के सामने संगीता की कोख किराए पर लेने का प्रस्ताव रखा था. विक्रम का चेहरा बता रहा था कि वह कुछ नहीं समझा है तो उन्होंने विक्रम को समझाया कि जैसे आजकल हम जरूरतमंदों को अपना खून, आंखें, दान करते हैं वैसे ही किसी निसंतान दंपती को संतान का सुख देने के लिए कोख का भी दान किया जा सकता है. ऐसे निसंतान मातापिता को किसी की संतान गोद नहीं लेनी पड़ती बल्कि वे अपनी ही संतान पा सकते हैं.

विक्रम तब भी कुछ नहीं समझा तो दीक्षित साहब ने उसे फिर समझाया, ‘‘बस, तुम इतना समझो कि ऐसे में डाक्टरों की मदद से संतान के इच्छुक पिता का बीज किराए की कोख में रोप दिया जाता है जिसे 9 महीने तक गर्भ में रख कर शिशु का रूप देने वाली मां, सैरोगेट मां कहलाती है. हमारी सरकार ने इसे कानूनी तौर पर वैध भी घोषित कर दिया है.’’

इतना ही नहीं उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि इस दौरान वे संगीता के इलाज, दवाइयों, अस्पताल के खर्च के अलावा उस की खुराक आदि का पूरा खयाल रखेंगे. संगीता भले ही लड़के को जन्म दे या लड़की को उन्हें वह बच्चा स्वीकार्य होगा और वे उसे ले कर विदेश जा बसेंगे. यह सब पूरी लिखापढ़ी और कानूनी कार्यवाही के साथ होगा. संगीता जिस दिन डाक्टरी प्रक्रिया से गुजर कर गर्भवती हो जाएगी उन्हें पहली किस्त के रूप में 50 हजार रुपए दे दिए जाएंगे. उस के बाद बच्चे के जन्म पर उन्हें 2 लाख रुपए और दिए जाएंगे.

दीक्षित साहब ने सबकुछ विक्रम को कुछ इस तरह समझाया कि उस ने संगीता को इस काम के लिए राजी कर लिया. एक परिवार का सूना आंगन बच्चे की किलकारियों से गूंज उठेगा और उन का अपना जीवन अभावों की दलदल से निकल कर खुशियों से भर जाएगा. जल्दी ही पूरी डाक्टरी प्रक्रिया और कागजी कार्यवाही से गुजर कर विक्रम और संगीता अपनी बेटियों के साथ दीक्षित की कोठी के पीछे नौकरोें के क्वार्टर में रहने को आ गए. उन्हें पहली किस्त के रूप में 50 हजार रुपए भी मिल गए थे.

समय सपनों की तरह बीतने लगा था. संगीता की हर छोटीबड़ी खुशी का खयाल दीक्षित दंपती रखने लगे थे. संगीता की सेवा के लिए अलग से एक आया रखी गई थी. रिया और जिया अच्छी तरह रहने लगी थीं. विक्रम यह सब देख कर खुश था कि उस का परिवार सुखों के झूले में झूलने लगा था.

संगीता अपनी बेटियों के खिले चेहरों को देख कर, अपने पति को निश्चिंत देख कर खुश थी लेकिन अपने आप से खुश नहीं हो पाती थी. पता नहीं क्यों, अपने अंदर पल रहे जीव से वह जुड़ नहीं पा रही थी. उसे वह न अपना अंश लगता था न उस के प्रति ममता ही जाग रही थी. उसे हर पल लगता कि वह एक बोझ उठाए ड्यूटी पर तैनात है और उसे अपने परिवार के सुनहरे भविष्य के लिए एक निश्चित समय तक यह बोझ उठाना ही है.

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भले ही अपनी दोनों बेटियों के जन्म के दौरान संगीता ने बहुत कष्ट व कठिनाइयां झेली थीं. तब न डाक्टरी इलाज था और न अच्छी खुराक ही थी. उस पर घर का सारा काम भी उसे करना पड़ता था फिर भी उसे वह सब सुखद लगता था, लेकिन अब कदमकदम पर बिछे फूल भी उसे कांटों जैसे लगते थे. अपने भीतर करवट लेता नन्हा जीव उसे रोमांचित नहीं करता था. उस के दुनिया में आने का इंतजार जरूर था लेकिन खुशी नहीं हो रही थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जिस का दीक्षित दंपती को बहुत बेसब्री से इंतजार था. सुबह लगभग 4 बजे का समय था, संगीता प्रसव पीड़ा से बेचैन होने लगी. घबराया सा विक्रम दौड़ कर कोठी में खबर करने पहुंचा. संगीता को तुरंत गाड़ी में बिठा कर नर्सिंगहोम ले जाया गया. महिला डाक्टरों की एक पूरी टीम लेबररूम में पहुंच गई जहां संगीता दर्द से छटपटा रही थी.

प्रसव पूर्व की जांच पूरी हो चुकी थी. अभी कुछ ही क्षण बीते थे कि लेबर रूम से एक नर्स बाहर आ कर बोली कि संगीता ने बेटे को जन्म दिया है. यह खबर सुनते ही दीक्षित दंपती के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई जबकि विक्रम का चेहरा लटक गया कि काश, 2 बेटियों के बाद संगीता की कोख से जन्म लेने वाला यह उन का अपना बेटा होता, लेकिन पराई अमानत पर कैसी नजर? विक्रम अपने मन को समझाने लगा.

गुलाबी रंग के फरवाले बेबी कंबल में लपेट कर लेडी डाक्टर जैसे ही बच्चे को ले कर बाहर आई श्रीमती दीक्षित ने आगे बढ़ कर उसे गोद में ले लिया. संगीता ने आंखों में आंसू भर कर मुंह मोड़ लिया. दीक्षित साहब ने धन्यवादस्वरूप विक्रम के हाथ थाम लिए. जहां दीक्षित साहब के चेहरे पर अद्भुत चमक थी वहीं विक्रम का चेहरा मुरझाया हुआ था.

तभी श्रीमती दीक्षित चिल्लाईं, ‘‘डाक्टर, बच्चे को देखो.’’

डाक्टरों की टीम दौड़ती हुई उन के पास पहुंची. बच्चे का शरीर अकड़ गया. नर्सें बच्चे को ले कर आईसीयू की तरफ दौड़ीं. डाक्टर भी पीछेपीछे थे. बच्चा ठीक से सांस नहीं ले पा रहा था. पल भर में ही आईसीयू के बाहर खड़े चेहरों पर दुख की लकीरें खिंच गईं.

एक डाक्टर ने बाहर आ कर बड़े ही दुख के साथ बताया कि बच्चे की दोनों टांगें बेकार हो गई हैं. बहुत कोशिश के बाद उस की जान तो बच गई है लेकिन अभी यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह सामान्य बच्चे की तरह होगा या नहीं क्योंकि अचानक उस के दिमाग में आक्सीजन की कमी से यह सब हुआ है.

डाक्टर की बात सुनते ही दीक्षित दंपती के चेहरे पर प्रश्नचिह्न लग गया. विक्रम को वहां छोड़ कर वे वहां से चले गए. एक पल में आया तूफान सब की खुशियां उड़ा ले गया था. 3 दिन बाद संगीता की नर्सिंगहोम से छुट्टी होनी थी. नर्सिंगहोम का बिल और संगीता के नाम 2 लाख रुपए नौकर के हाथ भेज कर दीक्षित साहब ने कहलवाया था कि वे आउट हाउस से अपना सामान उठा लें.

पैसे वालों ने यह कैसा सौदा किया था? पत्नी की कोख का सौदा करने वाला विक्रम अपने स्वाभिमान का सौदा न कर सका. उसे वे 2 लाख रुपए लेना गवारा न हुआ. उस ने पैसे नौकर के ही हाथ लौटा कर अमीरी के मुंह पर वही लात मारी थी जो दीक्षित परिवार ने संगीता की कोख पर मारी थी.

नर्सिंगहोम से छुट्टी के समय नर्स ने जब बच्चा संगीता की गोद में देना चाहा तो वह पागलों की तरह चीख उठी, ‘‘यह मेरा नहीं है.’’ 9 महीने अपनी कोख में रख कर भी इस निर्जीव से मांस के लोथड़े से वह न तो कोई रिश्ता जोड़ पा रही थी और न तोड़ ही पा रही थी. उस की छाती में उतरता दूध उसे डंक मार रहा था. उस के परिवार के भविष्य पर अंधकार के काले बादल छा गए थे.

उस दिन जब विक्रम आउट हाउस से अपना सामान उठाने गया तो कोठी के नौकरों से पता लगा कि दीक्षित दंपती तो विदेश रवाना हो गए हैं.

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Best Short Story: जन्मकुंडली का चक्कर

उस दिन सुबह ही मेरे घनिष्ठ मित्र प्रशांत का फोन आया और दोपहर को डाकिया उस के द्वारा भेजा गया वैवाहिक निमंत्रणपत्र दे गया. प्रशांत की बड़ी बेटी पल्लवी की शादी तय हो गई थी. इस समाचार से मुझे बेहद प्रसन्नता हुई और मैं ने प्रशांत को आश्वस्त कर दिया कि 15 दिन बाद होने वाली पल्लवी की शादी में हम पतिपत्नी अवश्य शरीक होेंगे.

बचपन से ही प्रशांत मेरा जिगरी दोस्त रहा है. हम ने साथसाथ पढ़ाई पूरी की और लगभग एक ही समय हम दोनों अलगअलग बैंकों में नौकरी में लग गए. हम अलगअलग जगहों पर कार्य करते रहे लेकिन विशेष त्योहारों के मौके पर हमारी मुलाकातें होती रहतीं.

हमारे 2-3 दूसरे मित्र भी थे जिन के साथ छुट्टियों में रोज हमारी बैठकें जमतीं. हम विभिन्न विषयों पर बातें करते और फिर अंत में पारिवारिक समस्याओं पर विचारविमर्श करने लगते. बढ़ती उम्र के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और बच्चों की शादी जैसे विषयों पर हमारी बातचीत ज्यादा होती रहती.

प्रशांत की दोनों बेटियां एम.ए. तक की शिक्षा पूरी कर नौकरी करने लगी थीं जबकि मेरे दोनों बेटे अभी पढ़ रहे थे. हमारे कई सहकर्मी अपनी बेटियों की शादी कर के निश्ंिचत हो गए थे. प्रशांत की बेटियों की उम्र बढ़ती जा रही थी और उस के रिटायर होेने का समय नजदीक आ रहा था. उस की बड़ी बेटी पल्लवी की जन्मकुंडली कुछ ऐसी थी कि जिस के कारण उस के लायक सुयोग्य वर नहीं मिल पा रहा था.

हमारे खानदान में जन्मकुंडली को कभी महत्त्व नहीं दिया गया, इसलिए मुझे इस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. एक बार कुछ खास दोस्तों की बैठक में प्रशांत ने बताया था कि पल्लवी मांगलिक है और उस का गण राक्षस है. मेरी जिज्ञासा पर वह बोला, ‘‘कुंडली के 1, 4, 7, 8 और 12वें स्थान पर मंगल ग्रह रहने पर व्यक्ति मंगली या मांगलिक कहलाता है और कुंडली के आधार पर लोग देव, मनुष्य या राक्षस गण वाले हो जाते हैं. कुछ अन्य बातों के साथ वरवधू के न्यूनतम 18 गुण या अंक मिलने चाहिए. जो व्यक्ति मांगलिक नहीं है, उस की शादी यदि मांगलिक से हो जाए तो उसे कष्ट होगा.’’

किसी को मांगलिक बनाने का आधार मुझे विचित्र लगा और लोगों को 3 श्रेणियों में बांटना तो वैसे ही हुआ जैसे हिंदू समाज को 4 प्रमुख जातियों में विभाजित करना. फिर जो मांगलिक नहीं है, उसे अमांगलिक क्यों नहीं कहा जाता? यहां मंगल ही अमंगलकारी हो जाता है और कुंडली के अनुसार दुश्चरित्र व्यक्ति देवता और सुसंस्कारित, मृदुभाषी कन्या राक्षस हो सकती है. मुझे यह सब बड़ा अटपटा सा लग रहा था.

प्रशांत की बेटी पल्लवी ने एम.एससी. करने के बाद बी.एड. किया और एक बड़े स्कूल में शिक्षिका बन गई. उस का रंगरूप अच्छा है. सीधी, सरल स्वभाव की है और गृहकार्य में भी उस की रुचि रहती है. ऐसी सुयोग्य कन्या का पिता समाज के अंधविश्वासों की वजह से पिछले 2-3 वर्ष से परेशान रह रहा था. जन्मकुंडली उस के गले का फंदा बन गई थी. मुझे लगा, जिस तरह जातिप्रथा को बहुत से लोग नकारने लगे हैं, उसी प्रकार इस अकल्याणकारी जन्मकुंडली को भी निरर्थक और अनावश्यक बना देना चाहिए.

प्रशांत फिर कहने लगा, ‘‘हमारे समाज मेें पढ़ेलिखे लोग भी इतने रूढि़वादी हैं कि बायोडाटा और फोटो बाद में देखते हैं, पहले कुंडली का मिलान करते हैं. कभी मंगली लड़का मिलता है तो दोनों के 18 से कम गुण मिलते हैं. जहां 25-30 गुण मिलते हैं वहां गण नहीं मिलते या लड़का मंगली नहीं होता. मैं अब तक 100 से ज्यादा जगह संपर्क कर चुका हूं किंतु कहीं कोई बात नहीं बनी.’’

मैं, अमित और विवेक, तीनों उस के हितैषी थे और हमेशा उस के भले की सोचते थे. उस दिन अमित ने उसे सुझाव दिया कि किसी साइबर कैफे में पल्लवी की जन्मतिथि थोड़ा आगेपीछे कर के एक अच्छी सी कुंडली बनवा लेने से शायद उस का रिश्ता जल्दी तय हो जाए.

प्रशांत तुरंत बोल उठा, ‘‘मैं ने अभी तक कोई गलत काम नहीं किया है. किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी मैं नहीं कर सकता.’’

‘‘मैं किसी को धोखा देने की बात नहीं कर रहा,’’ अमित ने उसे समझाना चाहा, ‘‘किसी का अंधविश्वास दूर करने के लिए अगर एक झूठ का सहारा लेना पड़े तो इस में बुराई क्या है. क्या कोई पंडित या ज्योतिषी इस बात की गारंटी दे सकता है कि वर और कन्या की कुंडलियां अच्छी मिलने पर उन का दांपत्य जीवन सफल और सदा सुखमय रहेगा?

‘‘हमारे पंडितजी, जो दूसरों की कुंडली बनाते और भविष्य बतलाते हैं, स्वयं 45 वर्ष की आयु में विधुर हो गए. एक दूसरे नामी पंडित का भतीजा शादी के महज  5 साल बाद ही एक दुर्घटना का शिकार हो गया. उस के बाद उन्होंने जन्मकुंडली और भविष्यवाणियों से तौबा ही कर ली,’’ वह फिर बोला, ‘‘मेरे मातापिता 80-85 वर्ष की उम्र में भी बिलकुल स्वस्थ हैं जबकि कुंडलियों के अनुसार उन के सिर्फ 8 ही गुण मिलते हैं.’’

प्रशांत सब सुनता रहा किंतु वह पल्लवी की कुंडली में कुछ हेरफेर करने के अमित के सुझाव से सहमत नहीं था.

कुछ महीने बाद हम फिर मिले. इस बार प्रशांत कुछ ज्यादा ही उदास नजर आ रहा था. कुछ लोग अपनी परेशानियों के बारे में अपने निकट संबंधियों या दोस्तों को भी कुछ बताना नहीं चाहते. आज के जमाने में लोग इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि बस, थोड़ी सी हमदर्दी दिखा कर चल देंगे. उन से निबटना तो खुद ही होगा. हमारे छेड़ने पर वह कहने लगा कि पंडितों के चक्कर में उसे काफी शारीरिक कष्ट तथा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा और कोई लाभ नहीं हुआ.

2 वर्ष पहले किसी ने कालसर्प दोष बता कर उसे महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध स्थान पर सोने के सर्प की पूजा और पिंडदान करने का सुझाव दिया था. उतनी दूर सपरिवार जानेआने, होटल में 3 दिन ठहरने और सोने के सर्प सहित दानदक्षिणा में उस के लगभग 20 हजार रुपए खर्च हो गए. उस के कुछ महीने बाद एक दूसरे पंडित ने महामृत्युंजय जाप और पूजाहवन की सलाह दी थी. इस में फिर 10 हजार से ज्यादा खर्च हुए. उन पंडितों के अनुसार पल्लवी का रिश्ता पिछले साल ही तय होना निश्चित था. अब एकडेढ़ साल बाद भी कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी.

मैं ने उसे समझाने के इरादे से कहा, ‘‘तुम जन्मकुंडली और ऐसे पंडितों को कुछ समय के लिए भूल जाओ. यजमान का भला हो, न हो, इन की कमाई अच्छी होनी चाहिए. जो कहते हैं कि अलगअलग राशि वाले लोगों पर ग्रहों के असर पड़ते हैं, इस का कोई वैज्ञानिक आधार है क्या?

‘‘भिन्न राशि वाले एकसाथ धूप में बैठें तो क्या सब को सूर्य की किरणों से विटामिन ‘डी’ नहीं मिलेगा. मेरे दोस्त, तुम अपनी जाति के दायरे से बाहर निकल कर ऐसी जगह बात चलाओ जहां जन्मकुंडली को महत्त्व नहीं दिया जाता.’’

मेरी बातों का समर्थन करते हुए अमित बोला, ‘‘कुंडली मिला कर जितनी शादियां होती हैं उन में बहुएं जलाने या मारने, असमय विधुर या विधवा होने, आत्महत्या करने, तलाकशुदा या विकलांग अथवा असाध्य रोगों से ग्रसित होने के कितने प्रतिशत मामले होते हैं. ऐसा कोई सर्वे किया जाए तो एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आ जाएगा. इस पर कितने लोग ध्यान देते हैं? मुझे तो लगता है, इस कुंडली ने लोगों की मानसिकता को संकीर्ण एवं सशंकित कर दिया है. सब बकवास है.’’

उस दिन मुझे लगा कि प्रशांत की सोच में कुछ बदलाव आ गया था. उस ने निश्चय कर लिया था कि अब वह ऐसे पंडितों और ज्योतिषियों के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

खैर, अंत भला तो सब भला. हम तो उस की बेटियों की जल्दी शादी तय होने की कामना ही करते रहे और अब एक खुशखबरी तो आ ही गई.

हम पतिपत्नी ठीक शादी के दिन ही रांची पहुंच सके. प्रशांत इतना व्यस्त था कि 2 दिन तक उस से कुछ खास बातें नहीं हो पाईं. उस ने दबाव डाल कर हमें 2 दिन और रोक लिया था. तीसरे दिन जब ज्यादातर मेहमान विदा हो चुके थे, हम इत्मीनान से बैठ कर गपशप करने लगे. उस वक्त प्रशांत का साला भी वहां मौजूद था. वही हमें बताने लगा कि किस तरह अचानक रिश्ता तय हुआ. उस ने कहा, ‘‘आज के जमाने में कामकाजी लड़कियां स्वयं जल्दी विवाह करना नहीं चाहतीं. उन में आत्मसम्मान, स्वाभिमान की भावना होती है और वे आर्थिक रूप से अपना एक ठोस आधार बनाना चाहती हैं, जिस से उन्हें अपनी हर छोटीमोटी जरूरत के लिए अपने पति के आगे हाथ न फैलाना पड़े. पल्लवी को अभी 2 ही साल तो हुए थे नौकरी करते हुए लेकिन मेरे जीजाजी को ऐसी जल्दी पड़ी थी कि उन्होंने दूसरी जाति के एक विधुर से उस का संबंध तय कर दिया.

वैसे मेरे लिए यह बिलकुल नई खबर थी. किंतु मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा. पल्लवी का पति 30-32 वर्ष का नवयुवक था और देखनेसुनने में ठीक लग रहा था. हम लोगोें का मित्र विवेक, प्रशांत की बिरादरी से ही था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर प्रशांत ने ऐसा निर्णय क्यों लिया. उस ने उस से पूछा, ‘‘पल्लवी जैसी कन्या के लिए अपने समाज में ही अच्छे कुंआरे लड़के मिल सकते थे. तुम थोड़ा और इंतजार कर सकते थे. आखिर क्या मजबूरी थी कि उस की शादी तुम ने एक ऐसे विधुर से कर दी जिस की पत्नी की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत हो गई थी.’’

‘‘यह सिर्फ मेरा निर्णय नहीं था. पल्लवी की इस में पूरी सहमति थी. जब हम अलगअलग जातियों के लोग आपस में इतने अच्छे दोस्त बन सकते हैं, साथ खापी और रह सकते हैं, तो फिर अंतर्जातीय विवाह क्यों नहीं कर सकते?’’

प्रशांत कहने लगा, ‘‘एक विधुर जो नौजवान है, रेलवे में इंजीनियर है और जिसे कार्यस्थल भोपाल में अच्छा सा फ्लैट मिला हुआ है, उस में क्या बुराई है? फिर यहां जन्मकुंडली मिलाने का कोई चक्कर नहीं था.’’

‘‘और उस की पहली पत्नी की मौत?’’ विवेक शायद प्रशांत के उत्तर से संतुष्ट नहीं था.

प्रशांत ने कहा, ‘‘अखबारों में प्राय: रोज ही दहेज के लोभी ससुराल वालों द्वारा बहुओं को प्रताडि़त करने अथवा मार डालने की खबरें छपती रहती हैं. हमें भी डर होता था किंतु एक विधुर से बेटी का ब्याह कर के मैं चिंतामुक्त हो गया हूं. मुझे पूरा यकीन है, पल्लवी वहां सुखी रहेगी. आखिर, ससुराल वाले कितनी बहुओं की जान लेंगे? वैसे उन की बहू की मौत महज एक हादसा थी.’’

‘‘तुम्हारा निर्णय गलत नहीं रहा,’’ विवेक मुसकरा कर बोला.

Best Family Drama- बीजी: क्या जिम्मेदारियों की जंजीरों से निकल पाई वह

बीजी सुबह 8 बजे उठ जातीं. नहाधो कर थोड़ी बागबानी करतीं. दही बिलो कर मक्खन निकालना, आटा गूंधना, सब्जी काटना ये सब काम मेरे उठने से पहले ही कर लेती थीं. आज जब मैं सुबह उठी तो कोई खटखट सुनाई नहीं दी. कहां गईं बीजी, गुरुद्वारे तो कभी नहीं जातीं. कहती हैं घरगृहस्थी है तो फिर कैसा भगवान. सारे काम करने के बाद ही वे कालोनी के छोटे बाग में जाती थीं जहां मुश्किल से

10 मिनट तक टहलतीं. निक्की, मीशा के कमरे में भी नहीं मिलीं. बाहर आंगन में भी नहीं. अभी तो गेट का ताला भी नहीं खुला. फिर गईं तो कहां गईं.

सब के जाने का समय हो रहा था. बच्चों को तैयार करना, स्वयं तैयार हो कर स्कूल जाना. शिवम का औफिस के लिए लंच बनाना. कितने काम पड़े थे और इधर बीजी को ढूंढ़ने में ही समय निकलता जा रहा था. एकाएक ध्यान आया, वे अपने कमरे में भी तो हो सकती हैं. जल्दी से मैं वहां गई. दरवाजा आधा खुला हुआ था. झांक कर देखा तो सच में बीजी अपने पलंग पर ही सो रही थीं. मुझे चिंता हो गई.

वे इतनी देर तक कभी सोती ही नहीं. क्या बात हो सकती है. मैं ने उन्हें जगाया पर वे जागी नहीं. मैं ने जोर से झकझोरा, वे तब भी जगी नहीं. नाक के आगे उंगली रखी. सांस का स्पर्श नहीं हुआ. नब्ज देखी वह भी रुकी हुई थी. ऐसा लग रहा था वे निश्ंिचत हो कर सो रही हैं. मेरे मुंह से चीख निकल गई. आवाज सुन कर शिवम कमरे में आ गए. बच्चे भी जग गए. पूरे घर में कुहराम मच गया. पड़ोसी भी आ गए. धीरेधीरेरिश्तेदार और शहर के अन्य जानपहचान के लोग भी एकत्र हो गए.

बीजी के पार्थिव शरीर को जमीन पर उतार दिया गया. सफेद चादर से उन का शरीर ढक दिया गया. सबकुछ सपना सा लग रहा था. शिवम का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. निक्की और मीशा भी दादी के पास बैठ कर रोने लगीं. बीजी से उन का विशेष लगाव था. आने वाले लोग शिवम और मुझे सांत्वना देते पर साथ ही स्वयं भी रोने लगते. बीजी थीं ही ऐसी. वे बड़ों के साथ बड़ी और छोटों के साथ छोटी बन जाती थीं. जहां भी जातीं स्वयं ही रिश्ता बना लेतीं और उन रिश्तों को वे निभाना भी जानती थीं. उन की हर मुश्किल में काम आतीं.

ऐसी बीजी के अकस्मात चले जाने का सब को बेहद दुख था. बिना किसी को कष्ट दिए साफसुथरा शरीर लिए वे चली गईं और पीछे छोड़ गईं यादों का पुलिंदा. उन के बिना जीवन कैसा होगा, मैं सोच कर ही बेहाल होती जा रही थी. आगे की तो क्या कहूं, अभी क्या करना है, यही मुझे समझ नहीं आ रहा था. पड़ोसी सब संभाल रहे थे.

लौबी में बीजी शांत लेटी हुई थीं. गजल गायक जगजीत सिंह की हलकी आवाज में कैसेट बारीबारी से चल रही थीं. वे सुबहसुबह ये कैसेट जरूर चलाती थीं. कानों में आवाज जाने से ध्यान उधर खिंचने लग जाता था लेकिन वातावरण एक बार फिर बोझिल हो गया जब शिवम की बड़ी बहन सिम्मी बहनजी आईं. दूसरे शहर में रहती हैं, इसलिए आने में देर हो गई थी. रोरो कर उन का बुरा हाल हो रहा था. बीजी मां थीं उन की. वह मां जिसे

25 वर्ष की छोटी सी आयु में वक्त ने विधवापन का लबादा ओढ़ा दिया था. उन्होंने शिवम और सिम्मी बहनजी का लालनपालन किया, उंगली पकड़ कर जीवन में चलने के लिए सक्षम बनाया.

सिम्मी बहनजी तो शादी के बाद ससुराल चली गई थीं. घर में शिवम और बीजी अकेले रह गए थे. जब मेरी शिवम से शादी हुई तो मुझे सास के रूप में मां और सहेली एकसाथ मिल गई थीं. ऐसी मां, ऐसी सास भी होती है क्या. उन्होंने मुझे सिम्मी जैसा ही प्यार दिया. मैं ने उन की जगह ले कर उस कमी को पूरा किया था. मैं ने बीजी को पूरा मानसम्मान दिया और उन्होंने मुझे पूरी तरह से स्वीकारा. मेरी कमियों को उन्होंने सदैव ढांपे रखा जबकि मैं उन की नहीं, शिवम की पसंद थी.

‘‘बहू, जल्दी करो, वक्त बहुत हो गया. बीजी को नहला दो. रात में पता नहीं कब की गुजरी हैं. मर्द लोग जनाजा उठाने को कह रहे हैं,’’ किसी बुजुर्ग औरत ने कहा तो मैं चौंक गई. उठी तो 2 औरतें मेरे साथ लग गईं. दही मल कर बीजी को नहलाया. अनसिले सूट का कपड़ा उन के शरीर पर लपेट सफेद चादर से ढक दिया. गरमी के कारण शरीर थोड़ा फूल गया था पर शेष कोई विकृति नहीं आई.

75 वर्ष की हो गई थीं पर चेहरे पर वही चमक थी. 50 वर्ष का वैधव्य पूरा कर वे इस घर से सदा के लिए विदा हो रही थीं. जैसे ही अर्थी उठी, एक बार फिर कुहराम मच गया. शिवम फूटफूट कर रोने लगे. वे मां जिस का आंचल जीवनभर उस के सिर पर छाया करता रहा, उसे हर मुश्किल से बचाता, वह छूट रहा था. शिवम ने बीजी की चिता को मुखाग्नि दे कर पुत्र होने का अपना कर्तव्य निभाया.

श्मशान से लौटते हुए दोपहर हो गई थी. मेरे मायके वालों ने खाने का प्रबंध कर दिया था. न चाहते हुए भी 2-4 कौर मैं निगल गई. जीने के लिए खाना जरूरी है. कोई किसी के साथ नहीं जाता. आंसुओं का सागर उमड़ रहा हो, फिर भी कुछ खाना तो है ही न.

सारा दिन रोनेधोने में निकल गया था. मन के साथ शरीर भी थकावट से टूट रहा था, फिर भी आंखों में नींद का लेशमात्र भी नाम नहीं था. गृहस्थी की नैया डगमगाती सी लग रही थी. बीजी के बिना जीने की कल्पना से मैं सिहर उठी, कैसे होगा सबकुछ, शिवम और मुझे तो कुछ भी पता नहीं.

बीजी का जाना हमारे लिए अपूरणीय क्षति थी. जब से इस घर में आई हूं, बीजी ही सारे काम करती आ रही थीं. शुरू के दिनों में हमारे जगने से पहले ही वे मेरा और शिवम का लंचबौक्स तैयार कर टेबल पर रख देती थीं. हम जाने के लिए जल्दी करते पर वे नाश्ता कराए बिना घर से निकलने नहीं देती थीं. मैं उन दिनों एमए कर रही थी.

निक्की के पैदा होने के 2 महीने बाद ही मेरी परीक्षा थी. मैं तो विचार छोड़ चुकी थी. भला निक्की को संभालूंगी या परीक्षा की तैयारी करूंगी. पर बीजी ने मेरा साहस बढ़ाया था, मुझे प्रोत्साहित किया. उन्होंने कहा था, ‘स्नेहा, तुम निक्की की चिंता छोड़ दो. मैं सब देख लूंगी, तुम बस अपनी परीक्षा की तैयारी करो.’ सच में उन्होंने सबकुछ संभाल लिया था. मैं ने निश्ंिचतता से परीक्षा दी थी और उन के सहयोग व शुभकामनाओं से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी.

2 वर्षों बाद मीशा के आ जाने पर तो काम और भी बढ़ गए. पर बीजी थीं कि सब संभाल लेतीं. घर के अनेक काम, बच्चों की देखभाल, बाहर के काम, राशन, फल, सब्जी लाना, बैंक, पोस्टऔफिस, बिजली, पानी के बिल जमा कराना जैसे न जाने कितने ही तो काम होते हैं, हमें तो पता ही नहीं चलता था और वे सब कर लेतीं. घर की जिम्मेदारियों के साथसाथ रिश्तेदार, मित्र, पड़ोसी सब के साथ निभातीं. खुशीगमी के अवसर पर हर जगह पहुंचतीं. हम तो कभीकभार ही विवाहोत्सव में चले जाते थे.

सारी रात बीजी की बातों, उन की यादों में ही बीत गई. अगला दिन और भी भारी था. सिम्मी बहनजी और रिश्तेदारों ने संभाल लिया. शिवम चाहते थे बीजी की सभी रस्मों को निभाया जाए लेकिन रिश्तेदार भी कब तक बैठ सकते हैं.

भारी मन से न चाहते हुए भी शिवम को सब की बात माननी पड़ी. चौथे दिन शोकसभा कर सब औपचारिकताएं निभाईं. इस बीच सिम्मी बहनजी और मामीजी हमारे साथ ही रहीं. रिश्तेदार, जानपहचान वाले लोग आतेजाते रहे. 20 दिनों के बाद सब समाप्त हो गया. सब अपनेअपने घर लौट गए और रह गए शिवम, मैं, निक्की और मीशा. बीचबीच में मैं और शिवम अपने काम पर चले जाते थे तो सिम्मी बहनजी और मामीजी घर देख लेती थीं. उन के जाने के बाद आज पहला दिन था. रोज सुबह 5 बजे उठती थी पर आज 4 बजे उठी. अकेले ही सारे काम निबटाने थे.

काम करते करते 7 बज गए. जल्दीजल्दी निक्की, मीशा को तैयार कर के स्वयं तैयार हो गई. शिवम औफिस के लिए चले गए थे. पहले बीजी निक्की और मीशा को बसस्टौप पर छोड़ आती थीं. आज उन के बैग उठा कर उंगली पकड़ कर बस स्टौप पर गई. उन्हें बिठा कर अपने स्कूल के लिए रिकशा ले लिया. बीजी के होते हुए शिवम मुझे अपने साथ ही ले जाते थे. मुझे स्कूल छोड़ कर अपने औफिस के लिए निकल जाते थे. मैं 10 मिनट पहले ही स्कूल पहुंच जाती थी, लेकिन आज 10 मिनट देर से पहुंची.

निक्की मीशा के स्कूल की छुट्टी मुझ से पहले हो जाती थी. एकाएक ध्यान आया तो हाथपांव फूल गए. यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. शौर्ट लीव ले कर स्टौप पर पहुंची तो बस निकल गई थी. अभिभावक के बिना कंडक्टर ने उन्हें उतारा ही नहीं. उसी रिकशा से उन के स्कूल गई. बस अभी वापस नहीं आई थी. 10 मिनट प्रतीक्षा की. उन्हें ले कर घर पहुंची. ताले खोले, कपड़े बदले, जल्दीजल्दी खाना बना कर दोनों को खिलाया. उन्हें सुला कर शाम का नाश्ता, रात का खाना बनाया.

बाई हम सब के चले जाने के बाद आती थी. बीजी उस से सारे काम करवा लेती थीं. मैं जब तक आती, घर साफसुथरा मिलता. खाना खा कर मैं भी निक्की, मीशा के साथ सो जाती थी. शरीर में ताजगी आ जाती थी. शाम और रात के कामों में बीजी की सहायता भी करती थी.

बाई पीछे से आ कर चली गई थी. सारा घर गंदा पड़ा हुआ था. बरतन, सफाई, कपड़े सभी ज्यों के त्यों पड़े थे. कहां से शुरू करूं. बच्चों को पढ़ाना, रात का खाना, सुबह के लिए तैयारी. सब काम करतेकरते रात के साढ़े 9 बज गए. शरीर थकान के मारे टूट रहा था. शिवम सोने के लिए आए तो मैं उन की गोद में सिर रख कर फफकफफक कर रो पड़ी. पता नहीं यह बीजी की उदासी का रोना था या फिर उन के कामों को याद कर रही थी. कितना विवश हो गईर् थी मैं. रोतेरोते ही सो गई.

सुबह उठी तो सिर भारी था. पहले दिन की तरह सारे काम निबटाए. इन्हीं दिनों बिजली का बिल भी आया हुआ था. मैं ने शिवम के हाथ में पकड़ा दिया. उन्होंने कहा वे औफिस के लंचटाइम में आ कर जमा करवा देंगे. शाम को थकेमांदे शिवम लौटे तो मैं ने पूछा, ‘‘बिजली के बिल का क्या हुआ, आज अंतिम दिन था?’’

‘‘जमा हो गया,’’ उन्होंने जूते उतारते हुए कहा.

‘‘लंच टाइम में गए थे क्या?’’

‘‘नहीं, मैं जाने की सोच ही रहा था मिस्टर शशांक ने बताया कि वे बिल जमा करवाने जा रहे हैं, मैं ने उन्हीं को दे दिया. हां, वे बता रहे थे कि बिलों का भुगतान करने के लिए उन के पास एक लड़का आता है. हर बिल के 20 रुपए लेता है. मैं ने उस से बात कर ली है. आगे से वह बिल घर से ही ले जाएगा. कई बिलों का भुगतान हम औनलाइन भी कर सकते हैं.’’

‘‘यह तो अच्छी बात है. चिंता ही समाप्त हुई. बेवजह ही बीजी धूप, गरमी, सर्दी में चक्कर काटती रहती थीं,’’ मैं ने कहा. ‘‘हां,’’ संक्षिप्त सा उत्तर दे कर शिवम कपड़े बदलने वौशरूम में चले गए. शायद यह अपराधबोध था. बीजी जिन कामों को कष्ट झेल कर करती थीं, समय के साथसाथ उन सब का धीरेधीरे निवारण होने लगा था. दूध लेने डेरी पर नहीं जा सकते थे, दूध घर पर ही मंगवाने लगे. मक्खन निकालना छोड़ दिया, बाजार से ले लेते. घर पर दही जमा लेती. राशन इकट्ठा ले आते. फल, सब्जी, ग्रौसरी सप्ताह में एक बार जा कर ले आने लगे. कोई चीज कम रह जाए तो आतेजाते रास्ते से ले आते.

मुख्य समस्या निक्की, मीशा और घर के अन्य कामों की थी. उस के लिए बस छुड़वा कर वैन लगवा ली. स्कूल के साथ ही एक क्रैच है. उस की वैन छुट्टी के समय आ कर बच्चों को ले जाती है. हम ने दोनों को क्रैच में भेजना शुरू कर दिया. वहां अटैंडैंट बच्चों को कपड़े बदलवा कर, खाना खिला कर थोड़ी देर के लिए सुला देते.

कभीकभी मुझे वहां जाने में देर हो जाए तो भी मैं निश्चिन्तत रहती. वे दोनों होमवर्क भी कर लेतीं. वापस आते हुए मैं उन्हें साथ ले आती. कामवाली बाई अब सुबह जल्दी आ जाती है. किचन में भी मेरी मदद कर देती है. जो काम बच जाता है, शाम को आ कर कर लेती हूं.

शिवम पहले घर का कोई भी काम नहीं करते थे, यहां तक कि अपना सामान जहांतहां रख देते. कपड़े फैले रहते. चाय पी कर घूमने निकल जाते थे. अब ऐसा नहीं करते. अपना सामान संभाल कर रखना शुरू कर दिया है. औफिस से आ कर स्वयं चाय बना कर पी लेते हैं. निक्की, मीशा को पढ़ाने भी लगे हैं. सप्ताहांत जब खरीदारी के लिए जाते हैं तो निक्की, मीशा को भी साथ ले जाते. वे खुश रहती हैं. घर के वातावरण से निकल कर बाहर जाना उन्हें भी अच्छा लगता है. पहले हम जब बाहर जाते थे तो दोनों को बीजी के पास ही रुकना पड़ता था.

सालभर में सारे घर का ढांचा ही बदल गया. शिवम कई बार अपराधबोध में डूब जाते. ऐसा लगता था कि वे कोईर् काम नहीं कर सकते. बीजी बेचारी इन्हीं कामों की चक्की में पिसती रहती थीं. जीवनभर उन्होंने क्या सुख देखा, क्या सुख पाया. न शिवम ने सोचा, न ही मैं ने. बस, उन पर निर्भर रह कर अपनी अज्ञानता दर्शाते रहे. जो कुछ अब किया है पहले भी तो कर सकते थे.

क्यों इंसान इतना स्वार्थी हो जाता है कि अपनी सुखसुविधा से आगे कुछ सोच ही नहीं पाता. बीजी यह कर लेंगी, बीजी वो कर लेगी. किसी काम के लिए वे मना भी न करती थीं. बीजी ने भी हमारी आदत बिगाड़ रखी थी. वे अकेली क्यों जूझती रहीं. हम नादान थे पर वे तो काम की जिम्मेदारी हमें सौंप सकती थीं. वे नहीं, तो भी घर चला रहे हैं. शायद पहले से अधिक सुचारु रूप से. किसी के चले जाने से संसार का कोई काम नहीं रुकता. काम के लिए वे याद नहीं आतीं, बल्कि कामों से निकल कर दीवार पर टंग गई हैं, पर दिल से वे कभी नहीं जा सकतीं.

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Love At First Sight- लाल फ्रेम: जब पहली नजर में दिया से हुआ प्रियांक को प्यार

कार पार्क कर के प्रियांक तेज कदमों से इधरउधर कुछ ढूंढ़ता हुआ औफिस की लिफ्ट की तरफ बढ़ गया.  कहीं वह लाल फ्रेम के चश्मे वाली स्मार्ट सुंदरी पहले चली तो नहीं गई. लिफ्ट का दरवाजा खुला मिल गया, वह सोच ही रहा था कि अंदर घुसूं या नहीं, तभी चिरपरिचित सुगंध के झोंके के साथ वह युवती लिफ्ट में प्रवेश कर गई तो वह भी यंत्रवत अंदर चला आया. अब तो रोज ही का कुछ ऐसा किस्सा था. नजरें मिलतीं, फिर दोनों दूसरी ओर देखने लगते. धीरेधीरे वे एकदूसरे को पहचानने लगे तो देख कर अब स्माइल भी करने लगे. युवती 10वीं मंजिल पर जाती तो 11वीं मंजिल पर उतर कर उस के साथ के खुशनुमा एहसासों को समेटे ऊर्जावान हुआ प्रियांक दोगुने उत्साह से सीढि़यां उतरता तीसरी मंजिल पर स्थित अपने औफिस में गुनगुनाते हुए पहुंच जाता.

‘ला ल ला हूम् हूम् ल ला…चलो, अच्छा हुआ उसे आज भी नहीं पता चला कि मैं सिर्फ उस का साथ पाने के लिए ही 11वीं मंजिल तक जाता हूं. उस के लाल फ्रेम ने तो मेरे दिल को ही फ्रेम कर लिया है…’ अपनी धुन में सोचता प्रियांक फिसलतेफिसलते बचा.

‘‘अरे भाई, संभल के, प्रियांक, क्या बात है, बड़ा खुश नजर आ रहा है. कहीं किसी से प्यार तो नहीं हो गया…. और यह बता ऊपर से कहां से आ रहा है? कई बार पहले भी तुम्हें ऊपर सीढि़यों से आते देखा, लेकिन पूछना भूल जाता हूं.’’

‘‘कुछ ऐसा ही समझ लो प्यारे,’’ प्रियांक ने मस्ती में जवाब दिया.

‘‘वाह भई वाह, मुबारक हो, मुबारक हो…अब कौन है, क्या नाम है ये भी तो बता दो प्यारे.’’

‘‘अरे ठहर भई, सब यहीं पूछ लेगा, कैंटीन में बात करते हैं. वैसे, इस से ज्यादा मुझे भी कुछ नहीं पता, बस,’’ कह कर प्रियांक मुसकराया.

जिस दिन वह युवती नहीं मिलती तो पूरे दिन उस का मन फ्यूज बल्ब जैसा बुझाबुझा सा रहता. न तो उस दिन उस के मन को तरोताजा करने वाली वह खुशबू रचबस पाती, न ही किसी काम में उस का मन लगता. 2 महीने तक यही सिलसिला चलता रहा.

फिर वह औफिस के बाद भी उस का साथ पाने के लिए इंतजार करता… उस के साथ ही बाहर निकलता और कार पार्किंग तक साथसाथ जाता. पता चला कि घर का रास्ता भी कुछ दूर तक एक ही है. उन की कार कभी आगे, कभी पीछे होती, नजरें मिलतीं, वे मुसकराते. इतने में उस के घर का रास्ता आ जाता. आखिर में लड़की की कार उसे बाय कहते हुए आगे निकल जाती. प्रियांक मन मसोस कर रह जाता.

कुछ दिन यों ही बीत गए. प्रियांक उस युवती का इंतजार तो करता लेकिन दूर से ही उस का लाल फ्रेम देख कर झट से लिफ्ट के अंदर हो लेता, जैसा कि उस ने उसे देखा ही नहीं. ऐसा इसलिए करता कि वह यह न समझ बैठे कि मैं उस से मुहब्बत करता हूं. पर क्या मैं सही में तो उस से प्यार नहीं करने लगा हूं.

उधर भीड़ में भी वह युवती दिया उसे महसूस कर लेती. उस का दिल जोरों से धड़क उठता. ऐसा क्यों हो रहा है, कहीं उस अनजाने से प्यार तो नहीं हो गया. यह सोचते ही उस के लाल फ्रेम के नीचे दोनों कान और गुलाबी गाल गरम लाल हो कर और भी मैच करने लगते. वह कोशिश करती कि आंख बचा कर निकल जाए, पर आंखें तो जैसे उसी का पीछा करने को आतुर रहतीं और जैसे ही वह देखती, उस का जी धक से हो उठता.

बहुत पुराना मम्मी का पसंदीदा गाना उस के जेहन में चलने लगता…’ मेरे सामने जब तू आता है जी धक से मेरा हो जाता है… महसूस ये होता है मुझ को जैसे मैं तेरा दम भरती हूं, इस बात से ये न समझ लेना कि मैं तुझ से मुहब्बत करती हूं…’ सच ही तो है, कितनी हकीकत है इस गाने में. उस ने माथे पर उभर आया पसीना पोंछ लिया था. जबतब मेरा पीछा ही करता रहता है, मेरा ही इंतजार कर रहा था शायद, पर आता देख जल्दी से अंदर हो लिया वरना लिफ्ट और भी तो जाती हैं. यह महज संयोग तो नहीं हो सकता. कभीकभी लिफ्ट के डोर पर ही उधर मुुंह घुमा कर खड़ा हो जाता है जब तक मैं चढ़ नहीं जाती. फिर भी, वह दिखने में कोई लुच्चालफंगा तो नहीं लगता. हां, अकड़ू जरूर लगता है.

एक दिन उसे आता देख वह लिफ्ट रोक कर खड़ा हो गया कि तभी लाल फ्रेम वाली लड़की से पहले तेज चलती हुई एक मोटी अफ्रीकन महिला टकराई और वह धड़ाम से नीचे गिर गई. महिला बड़ेबड़े हाथों से जल्दी का इशारा करते हुए सौरीसौरी बोलते हुए फिर उसी तेजी से निकल गई. प्रियांक लिफ्ट से बाहर आ कर उस की ओर लपका.

‘‘मे आई हैल्प यू,’’ उस ने संकोच से हाथ बढ़ा दिया था.

‘‘नोनो थैंक्स…इट्स ओके.’’

‘‘रियली?’’

वह धीरेधीरे उठ खड़ी हुई. तो प्रियांक ने उस का बैग झाड़ कर उसे थमा दिया.

‘‘अजीब हैं लोग, अपनी तेजी में अपने सिवा कुछ और देख ही नहीं पाते…’’

‘‘हूं,’’ एक पल को उस ने नजरें उठा कर देखा, कुछ अलग सा आकर्षण लगा था युवक में उसे.

बस, फिर खामोशी…

चलते हुए दोनों लिफ्ट के अंदर हो लिए.

‘वह इग्नोर कर रही है तो मैं कौन सा मरा जा रहा हूं.’ उधर दिया भी सोच रही थी, मैं ने एक बार मना किया तो क्या दोबारा भी तो पूछ सकता था, कितना दर्द हुआ उठने में, अब खड़े होने में तकलीफ हो रही है. अवसर का लाभ न उठा पाने का उसे भी मलाल था.

इस बार हफ्तेदस दिन हो गए, प्रियांक को लड़की दिखी ही नहीं. प्रियांक की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी. अपने औफिस से शायद उस ने छुट्टी ली होगी, घर पर कोई शादीवादी हो. कहीं बीमार तो नहीं, कोई दुर्घटना… अरे यार, मैं भी क्याक्या फालतू सोचे जा रहा हूं… बुद्धू हूं जो उस का नाम भी नहीं पता किया. उस के औफिस जा कर पूछूं भी तो क्या कैसे? वह लाल फ्रेम वाली मैडम? हां, चपरासी से पूछना ठीक रहेगा, बाहर जो बैठता है उसी से पूछता हूं.

उस दिन शाम को औफिस से निकलते वक्त मौका देख कर उस ने चपरासी से पूछ ही लिया था.

‘‘कौन? लाल चश्मेवाली? वे दिया मैम हैं साब, कोई काम था क्या…’’

‘‘कई दिनों से औफिस नहीं आ रहीं? क्या बात हो गई?’’

‘‘अब मुझे क्या पता, कोई काम था क्या?’’ उस ने दोबारा पूछा था.

‘‘नहीं, यों ही. कई दिनों से देखा नहीं,’’ अपने आप झुंझलाए खड़े प्रियांक के मन में तो आ रहा था कि कह दे कि अपने काम से काम रख, औफिस की इतनी सी खबर नहीं रख सकता तो क्या कर सकता है. उसे अपनी ओर देखतेदेखते वह खिसियाया सा लिफ्ट की तरफ मुड़ गया. चलो, यह तो अच्छा हुआ, नाम तो पता चला उस का. दिलोदिमाग उजाले से भर गया हो जैसे…‘‘दिया,’’ वह बोल उठा था.

3 दिनों बाद प्रियांक के साथ ही दिया कि कार पार्किंग में रुकी. दिया को देखते ही वह झटके से गाड़ी से उतरा, फिर सधे कदमों से उस के पास पहुंचने से अपनेआप को रोक नहीं पाया. वह नीचे उतरी थी. उस की लौंग स्कर्ट के नीचे बाएं पैर की एंकल में बंधी क्रेप बैंडेज साफ नजर आ रही थी. उसे देख कर वह मुसकराई और धीरेधीरे आगे बढ़ने लगी.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’ वह  सहारा देने बढ़ा था.

‘‘नो थैंक्स, इट्स ओके… आप चलें,’’ अपना चश्मा ठीक करते हुए वह मुसकराई. अपने दिल की तेज होती धड़कन उसे साफ सुनाई देने लगी थी. वह भी साथसाथ चलने लगा.

‘‘मैं, प्रियांक, 11वीं मंजिल पर स्थित निप्पो ओरिएंटल में काम करता हूं. आप को कई बार आतेजाते देखा है. पर कभी परिचय नहीं हुआ था. कैसे चोट लगा ली आप को?’’ वह मन की अकुलाहट छिपाते हुए बातों का सिलसिला आगे बढ़ाने लगा था.

‘‘माइसैल्फ दिया, दिया दीक्षित.’’

‘‘दिया, आई नो.’’

‘‘जी?’’ दिया ने उसे हैरानी से देखा था.

‘‘जी, वो आप भी नाम बताएंगी, मैं जानता था,’’ थोड़ी घबराहट के साथ वह बात घुमाने में कामयाब हो गया था.

‘‘एक मैरिज पार्टी में गई थी. डांस करते समय पैर ऊंचेनीचे पड़ा और बस मुड़ गया. जबरदस्त मोच आ गई थी. बिलकुल नहीं चला जा रहा था. अब तो काफी ठीक हूं,’’ कह कर वह फिर मुसकराई.

‘‘अच्छा, डांस का तो मैं भी दीवाना हूं. बस, मौका मिलना चाहिए कि शुरू हो जाता हूं. हाहा,’’ अपने जोक पर खुद ही हंसा था. दिया को मौन देख कर हंसी को ब्रेक लग गया था. वह सीरियस होते हुए बोला, ‘‘आप का मेरा रास्ता काफी दूर तक एक ही है. आप चाहें तो आप को मैं घर से ही पिकड्रौप कर सकता हूं. आप को गाड़ी चलाने में बेकार की असुविधा नहीं झेलनी पड़ेगी. मैं लाजपत नगर मुड़ जाता हूं, आप शायद मूलचंद…साउथऐक्स… वह बातोंबातों में उस का पताठिकाना जान लेना चाहता था.

‘‘ओ नो. चोट बाएं पैर में है, फिर कार को चलाने के लिए एक ही पैर की जरूरत पड़ती है. औटोमैटिक है न,’’ कह कर वह मुसकराई.

ओ क्विड, नाइस. कार है तो छोटी सी पर पिकअप फीचर बढि़या हैं. मेरे एक दोस्त के पास भी यही है. मैं ने चलाई है पर वह औटोमेटिक मौडल नहीं थी,’’ वह खिसियाई हंसी हंसा. थोड़ी देर बाद वे दोनों लिफ्ट के अंदर थे.

‘‘शाम को मैं आप का वेट कर लूंगा, निकलेंगे साथ ही घर को… क्या पता कोई मदद ही हो जाए,’’ प्रियांक ने माथे पर आई झूलती घुंघराले बालों की लट को स्टाइल से ऊपर किया तो माथे की नसों के साथ उस का चेहरा चमकने लगा.

‘‘ओके, नो प्रौब्लम,’’ कुछ तो आकर्षण था प्रियांक के चितवन में, जब भी देखती तो उस की नजरें जैसे बंध जातीं. पर जाहिर नहीं होने देती.

शाम को दिया लिफ्ट से बाहर निकली तो प्रियांक खड़ा मिला.

‘‘चलें?’’ दिया लिफ्ट से उतरी तो प्रियांक की प्रश्नवाचक नजरें पूछ रही थीं.

‘‘हूं, उस ने हामी भरी तो प्रियांक ने बड़े हक से उस के हाथों से बड़ा बैग अपने हाथों में ले लिया.’’

‘‘कोई नहीं, इस में क्या हुआ, इंसान इंसान के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा,’’ दोनों मुसकरा दिए.

‘‘न्यू कौफी होम की कौफी पी है आप ने, गजब की है.’’

‘‘अच्छा?’’ कुछ पलों के साथ के लिए थोड़ी दिलचस्पी दिखाना दिया को अच्छा लग रहा था.

‘‘मैं जा रहा हूं, ट्राई करनी है आप को? थोड़ा टाइम हो तो?’’ वह अपना भाव बनाए हुए बोला.

‘‘डोंट माइंड, आज देखती हूं पी कर, काफी थक भी गई हूं. काम था औफिस में. किसी ने बताया ही नहीं कभी. मैं भी तो बस, औफिस आती हूं, काम किया और फिर सीधे घर, चलिए,’’ आज न जाने कैसे दिया ने आसानी से हामी भर दी. जैसे उस के साथ के लिए तड़प रही हो और इतने दिनों तक उसे न देखने की सारी कसर अभी पूरी कर लेना चाहती हो. वह खुद हैरान थी, लेकिन उस ने कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया. उस के दिल की धड़कन कुछ हद तक सामान्य हो गई थी.

‘‘घर पर इंतजार करने वाले हों तो औफिस के बाद घर जाना ही अच्छा लगता है,’’ शायद वह बता दे कि कौनकौन रहता है उस के घर में साथ. पर नहीं, दिया ने तो बात का रुख ही मोड़ दिया.

‘‘अंदर नहीं, यहीं बाहर ओपन एयर में बैठते हैं. वेटर…’’ उस ने पुकारा था.

‘‘अरे, मैं और्डर दे कर आता हूं. कूपन सिस्टम है यहां, भीड़ देख रही हैं? आप बैठिए, मैं ले आता हूं.’’

‘‘वाउ, वेरी नाइस कौफी, पी कर दिनभर की थकान दूर हो गई,’’ कौफी पी कर दिया ने कहा. इधरउधर की बातें करते हुए वह चोर नजरों से उसे बारबार देख लेती. उस का साथ दिया को अच्छा लग रहा था. कुछ और साथ बैठना भी चाहती थी पर कहीं ये ज्यादा ही भाव में न आ जाए…

‘‘अब चलना चाहिए मिस्टर प्रियांक.’’

‘‘हां, चलिए.’’ मन तो उस का भी नहीं कर रहा था कभी जाने का. वह शाम के धुंधलके में चल रही मंदमंद बयार की दीवाना बनाने वाली चिरपरिचित भीनीभीनी सुगंध में सबकुछ भूल जाना चाहता था. पर मन ही मन सोचता कि इसे पता नहीं चलने देना है अभी, कहीं मुझे चिपकू न समझने लगे. घमंडी है थोड़ी, न घर बताया, न घर में कौनकौन है बताया. बस, बात घुमा दी. कहीं मुझे ऐसावैसा तो नहीं समझ रही मिस लाल फ्रेम. मैं भी थोड़ा कड़क, थोड़ा रिजर्व बन जाता हूं. पर इस के बारे में जानने का जो दिल करता है, उस का क्या करूं?

एक दिन प्रियांक ने ठान लिया कि जैसे ही दिया की कार आगे निकलेगी, वह बैक कर के गाड़ी वापस कर लेगा और फिर दिया का गंतव्य जान कर ही रहेगा. उस ने ऐसा ही किया. दिया जान भी नहीं पाई कि वह एक निश्चित दूरी बनाते हुए उस के पीछे चलने लगा पर दिया ने तो यू टर्न ले लिया और आश्रम के पैट्रोल पंप के साथ लगे मकानों में से किसी एक में घुस गई. 3 दिन लगातार पीछा करने के बाद प्रियांक इस नतीजे पर पहुंचा.

‘तो शायद मुझे चकमा देने के लिए ऐसा किया जा रहा था ताकि यहां रहती होगी, मैं सोच भी न सकूं… हाउस नंबर ये, नेम प्लेट पर नाम रिटायर्ड कर्नल एस के दीक्षित. फिर तो सही है… ठिकाने का पता तो लगा ही लिया मिस लाल फ्रेम. मगर खाली पते का करूंगा क्या?’ अपना सवाल सोच वह बौखलाया सा सड़क पर ही दो पल रुका रहा. ‘सड़कछाप आशिक तो नहीं कि मुंह उठाए घर चला जाऊं… पुरानी फिल्मों के हीरो जैसे कि मैं आप की लड़की का हाथ मांगने आया हूं. लड़की अपने लाल फ्रेम में से घूरे कि जैसे’ मेरा तो इस से कोई सरोकार ही नहीं. और कर्नल बाप मुझे गोली से ही उड़ा दे. अच्छा लगने या एकतरफा प्यार से क्या हो सकता है भला? वह तो अपने ही में रहती है, कछुए की तरह सबकुछ सिकोड़ कर बैठ जाती है, कुछ बताना ही नहीं चाहती. शायद ट्राई तो किया था या मेरी तरह वह भी कह नहीं पाती हो. अगर ऐसा है तो कायनात पर ही छोड़ देते हैं… पर शिद्दत से, बस, चाहो और बाकी कायनात पर छोड़ दो. नो एफर्ट… यह दुनिया का एक ही उदाहरण होगा शायद… चलता हूं…’ सोच कर वह मुसकराया. कार की दीवार पर हलके से मुक्के मारता वह वापस हो लिया.

‘आज ऊपर जा कर इन की मंजिल देख ही आती हूं, जनाब वहां काम करते भी हैं या नहीं… क्यों इस के बारे में जानने को दिल करता है. कहीं वाकई इस से मुझे इश्क तो नहीं होने लगा.’ दिया अपनी मंजिल पर न उतर कर आज प्रियांक के साथ उस के 11वें फ्लोर पर पहुंच गई.

‘‘चलिए, आज थोड़ा टाइम है मैं ने सोचा आप का औफिस ही देख लेती हूं. वैसे भी मैं ने इस बिल्डिंग में किसी और फ्लोर को अभी देखा नहीं…’’

अचकचा गया था प्रियांक उस के इस अचानक निर्णय पर. अब…‘ क्या कहे, मैं ने उस का साथ पाने के लिए उस से 11वीं फ्लोर पर अपना औफिस होने का झूठ बोला था, पर सच तो अब बोलना ही पड़ेगा. खिसियाया सा वह बोला, ‘‘वो दरअसल, मेरा औफिस तो तीसरे फ्लोर पर ही है. मैं ने आप का साथ पाने के लिए आप से झूठ बोला था दिया पर आप भी…मूलचंद नहीं… बल्कि आश्रम में…’’ उस के मुंह से अधूरा वाक्य रोकतेरोकते भी फिसल ही गया था.

अब खिसियाने की बारी दिया की थी, ‘अच्छा, तो इसे मेरे झूठ का पता चल गया कि मैं इस के मोड़ से आगे मूलचंद साउथऐक्स वगैरह में कहीं नहीं बल्कि इस के भी पहले रहती हूं. लगता है मेरा पीछा करते हुए उस ने मेरा घर देख लिया, तभी तो आश्रम…’’ सोचते ही उस के दांतों में जीभ अपनेआप आ गई.

‘‘जी, वो मैं…’’ उस के लाल फ्रेम में से उस की आंखों से झांकती झेंप स्पष्ट दिखाई दे रही थी.

‘इस का मतलब तुम भी…’ वह हर्ष मिश्रित विस्मय से अधीर होता हुआ आप से तुम पर आ कर और पास आ गया था.

दिया ने आंखोंआंखों में ही हामी भरी.

‘‘ओहो, प्रियांक ने खुशी से अपनी छाती पर घूंसा मारा. फिर दोनों हाथों को वी बनाते हुए ऊपर उठाया मानो उस ने जग जीत लिया हो.’’

‘‘चलो यार, यह भी खूब रही, अब मुझे 11वीं मंजिल और तुम्हें मूलचंद की तरफ जाने की जरूरत नहीं…’’ पास के लोगों से अनजान दोनों जोरों से हंस कर आलिंगनबद्ध हो गए. प्रियांक ने दिया का वह लाल फ्रेम वाला चेहरा मारे खुशी के दोनों हथेलियों में हौले से ऐसे भर लिया मानो तितली संग गुलाब थाम रखा हो.

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