Hindi Kahaniyan : नासमझी की आंधी – दीपा से ऐसी क्या गलती हो गयी थी

Hindi Kahaniyan : सुबहसुबह रमेश की साली मीता का फोन आया. रमेश ने फोन पर जैसे ही  ‘हैलो’ कहा तो उस की आवाज सुनते ही मीता झट से बोली, ‘‘जीजाजी, आप फौरन घर आ जाइए. बहुत जरूरी बात करनी है.’’

रमेश ने कारण जानना चाहा पर तब तक फोन कट चुका था. मीता का घर उन के घर से 15-20 कदम की दूरी पर ही था. रमेश को आज अपनी साली की आवाज कुछ घबराई हुई सी लगी. अनहोनी की आशंका से वे किसी से बिना कुछ बोले फौरन उस के घर पहुंच गए. जब वे उस के घर पहुंचे, तो देखा उन दोनों पतिपत्नी के अलावा मीता का देवर भी बैठा हुआ था. रमेश के घर में दाखिल होते ही मीता ने घर का दरवाजा बंद कर दिया. यह स्थिति उन के लिए बड़ी अजीब सी थी. रमेश ने सवालिया नजरों से सब की तरफ देखा और बोले, ‘‘क्या बात है? ऐसी क्या बात हो गई जो इतनी सुबहसुबह बुलाया?’’

मीता कुछ कहती, उस से पहले ही उस के पति ने अपना मोबाइल रमेश के आगे रख दिया और बोला, ‘‘जरा यह तो देखिए.’’

इस पर चिढ़ते हुए रमेश ने कहा, ‘‘यह क्या बेहूदा मजाक है?  क्या वीडियो देखने के लिए बुलाया है?’’

मीता बोली, ‘‘नाराज न होएं. आप एक बार देखिए तो सही, आप को सब समझ आ जाएगा.’’

जैसे ही रमेश ने वह वीडियो देखा उस का पूरा जिस्म गुस्से से कांपने लगा और वह ज्यादा देर वहां रुक नहीं सका. बाहर आते ही रमेश ने दामिनी (सलेहज) को फोन लगाया.

दामिनी की आवाज सुनते ही रमेश की आवाज भर्रा गई, ‘‘तुम सही थी. मैं एक अच्छा पिता नहीं बन पाया. ननद तो तुम्हारी इस लायक थी ही नहीं. जिन बातों पर एक मां को गौर करना चाहिए था, पर तुम ने एक पल में ही गौर कर लिया. तुम ने तो मुझे होशियार भी किया और हम सबकुछ नहीं समझे. यहीं नहीं, दीपा पर अंधा विश्वास किया. मुझे अफसोस है कि मैं ने उस दिन तुम्हें इतने कड़वे शब्द कहे.’’

‘‘अरे जीजाजी, आप यह क्या बोले जा रहे हैं? मैं ने आप की किसी बात का बुरा नहीं माना था. अब आप बात बताएंगे या यों ही बेतुकी बातें करते रहेंगे. आखिर हुआ क्या है?’’

रमेश ने पूरी बात बताई और कहा, ‘‘अब आप ही बताओ मैं क्या करूं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा.’’ और रमेश की आवाज भर्रा गई.

‘‘आप परेशान मत होइए. जो होना था हो गया. अब यह सोचने की जरूरत है कि आगे क्या करना है? ऐसा करिए आप सब से पहले घर पहुंचिए और दीपा को स्कूल जाने से रोकिए.’’

‘‘पर इस से क्या होगा?’’

‘‘क्यों नहीं होगा? आप ही बताओ, इस एकडेढ़ साल में आप ने क्या किसी भी दिन दीपा को कहते हुए सुना कि वह स्कूल नहीं जाना चाहती? चाहे घर में कितना ही जरूरी काम था या तबीयत खराब हुई, लेकिन वह स्कूल गई. मतलब कोई न कोई रहस्य तो है. स्कूल जाने का कुछ तो संबंध हैं इस बात से. वैसे भी यदि आप सीधासीदा सवाल करेंगे तो वह आप को कुछ नहीं बताएगी. देखना आप, स्कूल न जाने की बात से वह बिफर जाएगी और फिर आप से जाने की जिद करेगी. तब मौका होगा उस से सही सवाल करने का.’’

‘‘क्या आप मेरा साथ दोगी? आप आ सकती हो उस से बात करने के लिए?’’ रमेश ने पूछा.

‘‘नहीं, मेरे आने से कोई फायदा नहीं. दीदी को भी आप जानते हैं. उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. इस बात के लिए मेरा बीच में पड़ना सही नहीं होगा. आप मीता को ही बुला लीजिए.’’

घर जा कर रमेश ने मीता को फोन कर के घर बुला लिया और दीपा को स्कूल जाने से रोका,’’ आज तुम स्कूल नहीं जाओगी.’’

लेकिन उम्मीद के मुताबिक दीपा स्कूल जाने की जिद करने लगी,’’ आज मेरा प्रैक्टिकल है. आज तो जाना जरूरी है.’’

इस पर रमेश ने कहा,’’ वह मैं तुम्हारे स्कूल में जा कर बात कर लूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, मैं रुक नहीं सकती आज, इट्स अर्जेंट.’’

‘‘एक बार में सुनाई नहीं देता क्या? कह दिया ना नहीं जाना.’’ पर दीपा बारबार जिद करती रही. इस बात पर रमेश को गुस्सा आ गया और उन्होंने दीपा के गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया. हालांकि? दीपा पर हाथ उठा कर वे मन ही मन दुखी हुए, क्योंकि उन्होंने आज तक दीपा पर हाथ नहीं उठाया था. वह उन की लाड़ली बेटी थी.

तब तक मीता अपने पति के साथ वहां पहुंच गई और स्थिति को संभालने के लिए दीपा को उस के कमरे में ले कर चली गई. वह दीपा से बोली, ‘‘यह सब क्या चल रहा है, दीपा? सचसच बता, क्या है यह सब फोटोज, यह एमएमएस?’’

दीपा उन फोटोज और एमएमएस को देख कर चौंक गई, ‘‘ये…य…यह सब क…क…ब  …कै…से?’’ शब्द उस के गले में ही अटकने लगे. उसे खुद नहीं पता था इस एमएमएस के बारे में, वह घबरा कर रोने लगी.

इस पर मीता उस की पीठ सहलाती हुई बोली, ‘‘देख, सब बात खुल कर बता. जो हो गया सो हो गया. अगर अब भी नहीं समझी तो बहुत देर हो जाएगी. हां, यह तू ने सही नहीं किया. एक बार भी नहीं खयाल आया तुझे अपने बूढ़े अम्माबाबा का? यह कदम उठाने से पहले एक बार तो सोचा होता कि तेरे पापा को तुझ से कितना प्यार है. उन के विश्वास का खून कर दिया तू ने. तेरी इस करतूत की सजा पता है तेरे भाईबहनों को भुगतनी पड़ेगी. तेरा क्या गया?’’

अब दीपा पूरी तरह से टूट चुकी थी. ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं ने जो भी किया, अपने प्यार के लिए,  उस को पाने के लिए किया. मुझे नहीं मालूम यह एमएमएस कैसे बना? किस ने बनाया?’’

‘‘सारी बात शुरू से बता. कुछ छिपाने की जरूरत नहीं वरना हम कुछ नहीं कर पाएंगे. जिसे तू प्यार बोल रही है वह सिर्फ धोखा था तेरे साथ, तेरे शरीर के साथ, बेवकूफ लड़की.’’

दीपा सुबकते हुए बोली, ’’राहुल घर के सामने ही रहता है. मैं उस से प्यार करती हूं. हम लोग कई महीनों से मिल रहे थे पर राहुल मुझे भाव ही नहीं देता था. उस पर कई और लड़कियां मरती हैं और वे सब चटखारे लेले कर बताती थीं कि राहुल उन के लिए कैसे मरता है. बहुत जलन होती थी मुझे. मैं उस से अकेले में मिलने की जिद करती थी कि सिर्फ एक बार मिल लो.’’

‘‘लेकिन छोटा शहर होने की वजह से मैं उस से खुलेआम मिलने से बचती थी. वही, वह कहता था, ‘मिल तो लूं पर अकेले में. कैंटीन में मिलना कोई मिलना थोड़े ही होता है.’

‘‘एकदिन मम्मीपापा किसी काम से शहर से बाहर जा रहे थे तो मौके का फायदा उठा कर मैं ने राहुल को घर आ कर मिलने को कह दिया, क्योंकि मुझे मालूम था कि वे लोग रात तक ही वापस आ पाएंगे. घर में सिर्फ दादी थी और बाबा तो शाम तक अपने औफिस में रहेंगे. दादी घुटनों की वजह से सीढि़यां भी नहीं चढ़ सकतीं तो इस से अच्छा मौका नहीं मिलेगा.

‘‘आप को भी मालूम होगा कि हमारे घर के 2 दरवाजे हैं, बस, क्या था, मैं ने पीछे वाला दरवाजा खोल दिया. उस दरवाजे के खुलते ही छत पर बने कमरे में सीधा पहुंचा जा सकता है और ऐसा ही हुआ. मौके का फायदा उठा कर राहुल कमरे में था. और मैं ने दादी से कहा, ‘अम्मा मैं ऊपर कमरे में काम कर रही हूं. अगर मुझ से कोई काम हो तो आवाज लगा देना.’

‘‘इस पर उन्होंने कहा, ‘कैसा काम कर रही है, आज?’ तो मैं ने कहा, ‘अलमारी काफी उलटपुलट हो रही है. आज उसी को ठीक करूंगी.’

‘‘सबकुछ मेरी सोच के अनुसार चल रहा था. मुझे अच्छी तरह मालूम था कि अभी 3 घंटे तक कोई नौकर भी नहीं आने वाला. जब मैं कमरे में गई तो अंदर से कमरा बंद कर लिया और राहुल की तरफ देख कर मुसकराई.

‘‘मुझे यकीन था कि राहुल खुश होगा. फिर भी पूछ बैठी, ‘अब तो खुश हो न? चलो, आज तुम्हारी सारी शिकायत दूर हो गई होगी. हमेशा मेरे प्यार पर उंगली उठाते थे.’ अब खुद ही सोचो, क्या ऐसी कोई जगह है. यहां हम दोनों आराम से बैठ कर एकदो घंटे बात कर सकते हैं. खैर, आज इतनी मुश्किल से मौका मिला है तो आराम से जीभर कर बातें करते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं खुश नहीं हूं. मैं क्या सिर्फ बात करने के लिए इतना जोखिम उठा कर आया हूं. बातें तो हम फोन पर भी कर लेते हैं. तुम तो अब भी मुझ से दूर हो.’’ मुझे बहुत कुठा…औरतों के साथ तो वह जम कर…था.

‘‘मैं ने कहा, ‘फिर क्या चाहते हो?’

‘‘राहुल बोला, ‘देखो, मैं तुम्हारे लिए एक उपहार लाया हूं, इसे अभी पहन कर दिखाओ.’

‘‘मैं ने चौंक कर वह पैकेट लिया और खोल कर देखा. उस में एक गाउन था. उस ने कहा, ‘इसे पहनो.’

‘पर…र…?’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘‘‘परवर कुछ नहीं. मना मत करना,’ उस ने मुझ पर जोर डाला. ‘अगर कोई आ गया तो…’ मैं ने डरते हुए कहा तो उस ने कहा, ‘तुम को मालूम है, ऐसा कुछ नहीं होने वाला. अगर मेरा मन नहीं रख सकती हो, तो मैं चला जाता हूं. लेकिन फिर कभी मुझ से कोई बात या मिलने की कोशिश मत करना,’ वह गुस्से में बोला.

‘‘मैं किसी भी हालत में उसे नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैं ने उस की बात मान ली. और जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी.’’ बोलतेबोलते दीपा चुप हो गई और पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगी.

‘‘आगे बता क्या हुआ?  चुप क्यों हो गई?  बताते हुए शर्म आ रही है पर तब यह सब करते हुए शर्म नहीं आई?’’ मीता ने कहा.

पर दीपा नीची निगाह किए बैठी रही.

‘‘आगे बता रही है या तेरे पापा को बुलाऊं? अगर वे आए तो आज कुछ अनहोनी घट सकती है,’’ मीता ने डांटते हुए कहा.

पापा का नाम सुनते ही दीपा जोरजोर से रोने लगी. वह जानती थी कि आज उस के पापा के सिर पर खून सवार है. ‘‘बता रही हूं.’’ सुबकते हुए बोली, ‘‘जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी, तो राहुल ने मुझे अपनी तरफ खींच लिया.

‘‘मैं ने घबरा कर  उस को धकेला और कहा, ‘यह क्या कर रहे हो? यह सही नहीं है.’ इस पर उस ने कहा, ‘सही नहीं है, तुम कह रही हो? क्या इस तरह से बुलाना सही है? देखो, आज मुझे मत रोको. अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो.’

‘‘‘तो क्या?’

‘‘‘देखो, मैं यह जहर खा लूंगा’, और यह कहते हुए उस ने जेब से एक पुडि़या निकाल कर इशारा किया. मैं डर गई कि कहीं यहीं इसे कुछ हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे. और फिर उस ने वह सब किया, जो कहा था. उस की बातों में आ कर मैं अपनी सारी सीमाएं लांघ चुकी थी. पर कहीं न कहीं मन में तसल्ली थी कि अब राहुल को मुझ से कोई शिकायत नहीं रही. पहले की तरह फिर पूछा, ‘राहुल अब तो खुश हो न?’

‘‘‘नहीं, अभी मन नहीं भरा. यह एक सपना सा लग रहा है. कुछ यादें भी तो होनी चाहिए’, उस ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘यादें, कैसी यादें’, मैं ने सवालिया नजर डाली. ‘अरे, वही कि जब चाहूं तुम्हें देख सकूं,’ उस से राहुल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘पता नही क्यों अपना सबकुछ लुट जाने के बाद भी, मैं मूर्ख उस की चालाकी को प्यार समझ रही थी. मैं ने उस की यह ख्वाहिश भी पूरी कर देनी चाही और पूछा, ‘वह कैसे?’

‘‘‘ऐसे,’ कहते हुए उस ने अपनी अपनी जेब से मोबाइल निकाल कर झट से मेरी एक फोटो ले ली. फिर, ‘मजा नहीं आ रहा,’ कहते कहते, एकदम से मेरा गाउन उतार फेंका और कुछ तसवीरें जल्दजल्दी खींच लीं.

‘‘यह सब इतना अचानक से हुआ कि मैं उस की चाल नहीं समझ पाई. समय भी हो गया था और मम्मीपापा के आने से पहले सबकुछ पहले जैसा ठीक भी करना था. कुछ देर बाद राहुल वापस चला गया और मैं नीचे आ गई. किसी को कुछ नहीं पता लगा.

‘‘पर कुछ दिनों बाद एक दिन दामिनी मामी घर पर आई. उन की नजरें मेरे गाल पर पड़े निशान पर अटक गईं. वे पूछ बैठीं, ‘क्या हो गया तेरे गाल पर?’ मैं ने उन से कहा, ‘कुछ नहीं मामी, गिर गई थी.’

‘‘पर पता नहीं क्यों मामी की नजरें सच भांप चुकी थीं. उन्होंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘गिरने पर इस तरह का निशान कैसे हो गया? यह तो ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने जोर से चुंबन लिया हो. सब ठीक तो है न दीपा?’

‘‘मैं ने नजरें चुराते हुए थोड़े गुस्से के लहजे में कहा, ‘पागल हो गई हो क्या? कुछ सोच कर तो बोलो.’ और मैं गुस्से से वहां से उठ कर चली गई. ‘‘लंच के बाद सब लोग बैठे हुए हंसीमजाक कर रहे थे. मामी मुझे समझाने के मकसद से आईं तो उन्होंने मुझे खिड़की के पास खड़े हो कर, राहुल को इशारा करते हुए देख लिया. हालांकि मैं उन के कदमों की आहट से संभल चुकी थी पर अनुभवी नजरें सब भांप गई थीं. मामी ने मम्मी से कहा, ‘दीदी, अब आप की लड़की बड़ी हो गई है. कुछ तो ध्यान रखो. कैसी मां हो? आप को तो अपने घूमनेफिरने और किटीपार्टी से ही फुरसत नहीं है.’

‘‘पर मम्मी ने उलटा उन को ही डांट दिया. फिर मामी ने चुटकी लेते हुए मुझ से कहा, ‘क्या बात है दीपू? हम तो तुम से इतनी दूर मिलने आए हैं और तुम हो कि बात ही नहीं कर रहीं. अरे भई, कहीं इश्कविश्क का तो मामला नहीं है? बता दो, कुछ हैल्प कर दूंगी.’

‘‘‘आप भी न कुछ भी कहती रहती हो. ऐसा कुछ नहीं है,’ मैं ने अकड़ते हुए कहा. लेकिन मामी को दाल में कुछ काला महसूस हो रहा था. उन का दिल कह रहा था कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है और वे यह भी जानती थीं की ननद से कहने का कोई फायदा नहीं, वे बात की गहराई तो समझेंगी नहीं. इसलिए उन को पापा से ही कहना ठीक लगा, ‘बुरा मत मानिएगा जीजाजी, अब दीपा बच्ची नहीं रही. हो सकता है मैं गलत सोच रही हूं. पर मैं ने उसे इशारों से किसी से बात करते हुए देखा है.’

‘‘पापा ने इस बात को कोई खास तवज्जुह नहीं दी, सिर्फ ‘अच्छा’ कह कर  बात टाल दी. जब मामीजी ने दोबारा कहा तो पापा ने कहा, ‘मुझे विश्वास है उस पर. ऐसा कुछ नहीं. मैं अपनेआप देख लूंगा.’

‘‘मैं मन ही मन बहुत खुश थी, लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी. अब राहुल उन फोटोज को दिखा कर मुझे धमकाने लगा. रोज मिलने की जिद करता और मना करने पर मुझ से कहता, ‘अगर आज नहीं मिलीं तो ये फोटोज तेरे घर वालों को दिखा दूंगा.’

‘‘पहले तो समझ नहीं आया क्या करूं? कैसे मिलूं? पर बाद में रोज स्कूल से वापस आते हुए मैं राहुल से मिलने जाने लगी.’’

‘‘पर कहां पर? कहां मिलती थी तू उस से,’’ मीता ने जानना चाहा.

‘‘बसस्टैंड के पास उस का एक छोटा सा स्टूडियो है. वहीं मिलता था और मना करने के बाद भी मुझ से जबरदस्ती संबंध बनाता. एक बार तो गर्भ ठहर गया था.’’

‘‘क्या? तब भी घर में किसी को पता नहीं चला?’’ मीता चौंकी.

‘‘नहीं, राहुल ने एक दवा दे दी थी. जिस को खाते ही काफी तबीयत खराब हो गई थी और मैं बेहोश भी हो गई थी.’’

‘‘अच्छा, हां, याद आया. ऐसा कुछ हुआ तो था. और उस के बाद भी तू किसी को ले कर डाक्टर के पास नहीं गई. अकेले जा कर ही दिखा आई थी. दाद देनी पड़ेगी तेरी हिम्मत की. कहां से आ गई इतनी अक्ल सब को उल्लू बनाने की. वाकई तू ने सब को बहुत धोखा दिया. यह सही नहीं हुआ. वहां राहुल के अलावा और कौनकौन होता था?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’ लेकिन मुझे इतनी बात समझ में आ गई थी कि राहुल मुझे ब्लैकमेल कर मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहा है. और मैं तब से जो भी कर रही थी, अपने घर वालों से इस बात को छिपाने के लिए मजबूरी में कर रही थी. मुझे माफ कर दो. मुझे नहीं पता था कि उस ने मेरा एमएमएस बना लिया है. मैं नहीं जानती कि उस ने यह वीडियो कब बनाया. उस ने मुझे कभी एहसास नहीं होने दिया कि हम दोनों के अलावा वहां पर कोई तीसरा भी है, जो यह वीडियो बना रहा है…’’ और वह बोलतेबोलते  रोने लगी.

मीता को सारा माजरा समझ आ चुका था. वह बस, इतना ही कह पाई,’’ बेवकूफ लड़की अब कौन करेगा यकीन तुझ पर? कच्ची उम्र का प्यार तुझे बरबाद कर के चला गया. इस नासमझी की आंधी ने सब तहसनहस कर दिया.’’

उस ने रमेश को सब बताया. तो, एक बार को तो रमेश को लगा कि सबकुछ खत्म हो गया है. पर सब के समझाने पर उस ने सब से पहले थानेदार से मिल कर वायरल हुए वीडियो को डिलीट करवाया. अपने शहर के एक रसूखदार आदमी होने की वजह से, उन के एक इशारे पर पुलिस वालों ने राहुल को जेल में बंद कर दिया. उस के बाद पूरे परिवार को बदनामी से बचाने के लिए सभी लोकल अखबारों के रिपोर्टर्स को न छापने की शर्त पर रुपए खिलाए. दीपा को फौरन शहर से बहुत दूर पढ़ने भेज दिया, क्योंकि कहीं न कहीं रमेश के मन में उस लड़के से खतरा बना हुआ था. हालांकि, बाद में वह लड़का कहां गया, उस के साथ क्या हुआ?  यह किसी को पता नहीं चला.

देर आए दुरुस्त आए

‘‘अरे-रे, यह क्या हो गया मेरी बच्ची को. सुनिए, जल्दी यहां आइए.’’

बुरी तरह घबराई अनीता जोर से चिल्ला रही थी. उस की चीखें सुन कर कमरे में लेटा पलाश घबरा कर अपनी बेटी के कमरे की ओर भाग जहां से अनीता की आवाजें आ रही थीं.

कमरे का दृश्य देखते ही उस के होश उड़ गए. ईशा कमरे के फर्श पर बेहोश पड़ी थी और अनीता उस पर झुकी उसे हिलाहिला कर होश में लाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘क्या हुआ, यह बेहोश कैसे हो गई?’’

‘‘पता नहीं, सुबह कई बार बुलाने पर भी जब ईशा बाहर नहीं आई तो मैं ने यहां आ कर देखा, यह फर्श पर पड़ी हुई थी. मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा. मैं ने इस के मुंह पर पानी भी छिड़का लेकिन इसे तो होश ही नहीं आ रहा.’’

‘‘तुम घबराओ मत, मैं गाड़ी निकालता हूं. हम जल्दी से इसे डाक्टर के पास ले कर चलते हैं.’’

पलाश और अनीता ने मिल कर उसे गाड़ी की सीट पर लिटाया और तुरंत पास के नर्सिंगहोम की तरफ भागे. नर्सिंगहोम के प्रमुख डाक्टर प्रशांत से पलाश की अच्छी पहचान थी सो, बिना ज्यादा औपचारिकताओं के डाक्टर ईशा को जांच के लिए अंदर ले गए. अगले आधे घंटे तक जब कोई बाहर नहीं आया तो अनीता के सब्र का बांध टूटने लगा. वह पलाश से अंदर जा कर पता करने को कह ही रही थी कि डाक्टर प्रशांत बाहर निकले और उन्हें अपने कमरे में आने का इशारा किया.

‘‘क्या हुआ, प्रशांत भैया? ईशा को होश आया या नहीं? उसे हुआ क्या है?’’ उन के पीछे कमरे में घुसते ही अनीता एक ही सांस में बोलती चली गई.

‘‘भाभीजी, आप दोनों यहां बैठो. मुझे आप से कुछ जरूरी बातें करनी हैं,’’ पलाश और अनीता का दिल बैठ गया. जरूर कुछ सीरियस बात है.

‘‘जल्दी बताओ प्रशांत, आखिर बात क्या है?’’

डाक्टर प्रशांत अपनी कुरसी पर बैठ कर कुछ पल दोनों को एकटक देखते रहे. फिर बड़े नपेतुले स्वर में धीरे से बोले, ‘‘मेरी बात सुन कर तुम लोगों को धक्का लगेगा लेकिन सिचुएशन ऐसी है कि रोनेचिल्लाने या घबराने से काम नहीं चलेगा. कोई भी कदम उठाने से पहले चार बार सोचना होगा. दरअसल बात यह है कि ईशा ने आत्महत्या करने की कोशिश की है.’’

‘‘क्…क्याऽऽ?’’ पलाश और अनीता दोनों एकसाथ कुरसी से ऐसे उछल कर खड़े हुए जैसे करंट लगा हो.

‘‘क्या कह रहे हैं डाक्टर, ऐसा कैसे हो सकता है. आत्महत्या तो वे लोग करते हैं जिन्हें कोई बहुत बड़ा दुख या परेशानी हो. मेरी इकलौती बेटी इतने नाजों में पली, जिस की हर फरमाइश मुंह खोलने से पहले पूरी हो जाती हो, जो हमेशा हंसतीखिलखिलाती रहती हो, पढ़ाई में भी हमेशा आगे रहती हो, जिस के ढेरों दोस्त हों, ऐसी लड़की भला क्यों आत्महत्या करने की सोचेगी.’’ पलाश के चेहरे पर उलझन के भाव थे. अनीता तो सदमे के कारण कुरसी का हत्था पकड़े बस डाक्टर को एकटक घूरे जा रही थी. फिर अचानक जैसे उसे होश आया, ‘‘लेकिन अब कैसी है वह? सुसाइड किया कैसे? कोई जख्म तो शरीर पर था नहीं…’’

‘‘उस ने नींद की गोलियां खाई हैं. भाभी, 10-12 गोलियां ही खाई, तभी तो हम उसे बचा पाए. खतरे से तो अब वह बाहर है लेकिन इस समय उस की जो शारीरिक व मानसिक हालत है, उस में उसे संभालने के लिए आप को बहुत ज्यादा धैर्य और समझदारी की जरूरत है. और जहां तक सुखसुविधाओं का सवाल है पलाश, तो पैसे या ऐशोआराम से ही सबकुछ नहीं होता. उस के ऊपर जरूर कोई बहुत बड़ा दबाव या परेशानी होगी जिस की वजह से उस ने यह कदम उठाया है.

‘‘15-16 साल की यह उम्र बहुत नाजुक होती है. बचपन से निकल कर जवानी की दहलीज पर कदम रखते बच्चे अपनी जिंदगी और शरीर में हो रहे बदलावों की वजह से अनेक समस्याओं से जूझ रहे होते हैं. अब तक मांबाप से हर बात शेयर करते आए बच्चे अचानक ही सबकुछ छिपाना भी सीख जाते हैं. इसीलिए अकसर पेरैंट्स को पता ही नहीं चलता कि उन के अंदर ही अंदर क्या चल रहा है. ‘‘ईशा के मामले में भी यही हुआ है, वह किसी वजह ये इतनी परेशान थी कि उसे उस का और कोई हल नहीं सूझा. अब तुम दोनों को बड़े ही प्रेम और धीरज से पहले उस की समस्या का पता लगाना है और फिर उस का निदान करना है. और हां, मैं ने अपने स्टाफ को हिदायत दे दी है कि यह बात बाहर नहीं जानी चाहिए. वरना बेकार में पुलिस केस बन जाएगा. तुम लोग भी इस बात का खयाल रखना कि यह बात किसी को पता न चले वरना पुलिस स्टेशन के चक्कर काटते रह जाओगे. बदनामी होगी वह अलग. बच्ची का समाज में जीना दूभर हो जाएगा.’’

‘‘ठीक कह रहे हो तुम. हम बिलकुल ऐसा ही करेंगे,’’ पलाश अब तक थोड़ा संभल गया था. ‘‘और हां,’’ डाक्टर प्रशांत आगे बोले, ‘‘वैसे तो तुम दोनों पतिपत्नी काफी समझदार और सुलझे हुए हो, फिर भी मैं तुम्हें बता दूं कि अभी 5-7 मिनट में ईशा होश में आने वाली है और जैसे ही उसे पता चलेगा वह जिंदा है, उसे एक धक्का लगेगा और वह काबू से बाहर होने लगेगी. उस समय तुम दोनों घबराना मत और न ही उस से कुछ पूछना. धीरेधीरे जब उस की मानसिक अवस्था इस लायक हो जाए, तब बड़े ही प्यार से उसे विश्वास में ले कर यह पता लगाना कि आखिर उस ने ऐसा क्यों किया.’’

‘‘ठीक है भैया, हम सब समझ गए. क्या हम अभी उस के पास चल सकते हैं?’’

‘‘चलिए,’’ और तीनों ईशा के कमरे की तरफ बढ़ गए.

जैसा डाक्टर प्रशांत ने उन्हें बताया था वैसा ही हुआ. होश आने पर बुरी तरह मचलती और हाथपांव पटकती ईशा को संभालते हुए अनीता का कलेजा मुंह को आ रहा था. चौबीसों घंटे साथ रहते हुए भी वह जान ही न पाई कि ऐसा कौन सा दुख था जो उस की जान से प्यारी बेटी को ऐसे उस से दूर ले गया. चाहे जो भी हो, मैं जल्दी से जल्दी सारी बात का पता लगा कर ही रहूंगी, यही विचार उस के मन में बारबार उठता रहा. लेकिन उस का सोचना गलत साबित हुआ. घटना के 10 दिन बीत जाने के बाद, लाख कोशिशों के बावजूद दोनों पतिपत्नी बुरी तरह डरीसहमी ईशा से कुछ भी उगलवाने में कामयाब नहीं हुए. तब डाक्टर प्रशांत ने उन्हें उसे काउंसलर के पास  ले जाने का सुझाव दिया. वहां भी 6 सिटिंग्स तक तो कुछ नहीं हुआ 7वीं सिटिंग के बाद काउंसलर ने उन्हें जो बताया उसे सुन कर तो दोनों के पैरों तले जमीन ही खिसक गई.

काउंसलर के अनुसार, ‘‘2 महीने पहले ईशा की 1 लड़के से फेसबुक पर दोस्ती हुई. चैटिंग द्वारा धीरेधीरे दोस्ती बढ़ी और फिर प्रेम में तबदील हो गई. फिर फोन नंबरों का आदानप्रदान हुआ और चैटिंग वाट्सऐप पर होने लगी. प्रेम का खुमार बढ़ने के साथसाथ फोटोग्राफ्स का आदानप्रदान शुरू हुआ. शुरू में तो यह साधारण फोटोज थे लेकिन धीरेधीरे नएनवेले प्रेमी की बारबार की फरमाइशों पर ईशा ने अपने कुछ न्यूड और सेमी न्यूड फोटोग्राफ्स भी उसे भेज दिए. अब प्रेमी की नई फरमाइश आई कि ईशा उसे आ कर किसी होटल में मिले. उस के साफ मना करने पर लड़के ने उसे धमकी दी कि अगर वह नहीं आई या उस ने किसी को बताया तो वह उस के सारे फोटोज फेसबुक पर अपलोड कर देगा.

‘‘ईशा ने उस से बहुत मिन्नतें कीं, अपने प्रेम का वास्ता दिया लेकिन प्रेम वहां था ही कहां? लड़के ने उसे 1 हफ्ते का अल्टीमेटम दिया और इस भयंकर प्रैशर को नहीं झेल पाने के कारण ही छठे दिन आधी रात के वक्त अपना अंतिम अलविदा का मैसेज उसे भेज कर ईशा ने सुसाइड करने की कोशिश की.’’ पलाश यह सब सुनते ही बुरी तरह भड़क गया, ‘‘मैं उस कमीने को छोड़ूंगा नहीं, मैं अभी पुलिस को फोन कर के उसे पकड़वाता हूं.’’ ‘‘प्लीज मिस्टर पलाश, ऐसे भड़कने से कुछ नहीं होगा. मेरी बात…’’

‘‘इतनी बड़ी बात होने के बाद भी आप मुझे शांति रखने को कह रहे हैं?’’ काउंसलर की बात बीच में ही काट कर पलाश गुर्राया.

‘‘अच्छा ठीक है, जाइए,’’ वह शांत मुसकराहट के साथ बोले, ‘‘लेकिन जाएंगे कहां? किसे पकड़वाएंगे? उस लड़के का नामपता है आप के पास? उस के फेसबुक अकाउंट के अलावा क्या जानकारी है आप को उस के बारे में? आप को क्या लगता है,  ऐसे लोग अपनी सही डिटेल्स देते हैं अपने अकाउंट पर? कभी नहीं. नाम, उम्र, फोटो आदि सबकुछ फेक होता है. तो कैसे ढूंढ़ेंगे उसे?’’

‘‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,’’ पलाश हारे हुए जुआरी की तरह कुरसी पर धम से बैठ गया.

तभी अनीता को याद आया, ‘‘फोन नंबर तो है न, ईशा के पास उस का.’’

‘‘उस से भी कुछ नहीं होगा. ऐसे लोग सिम भी गलत नाम से लेते हैं और ईशा का सुसाइड मैसेज मिलने के बाद तो वह उस सिम को कब का नाली में फेंक कर अपना नंबर बदल चुका होगा.’’ ‘‘ओह, तो अब हम क्या करें? ईशा का नंबर तो उस के पास है ही, जैसे ही उसे पता चलेगा कि वह ठीक है, वह फिर से उसे ब्लैकमेल करना शुरू कर देगा. और भी न जाने कितनी लड़कियों को अपना शिकार बना चुका होगा. क्या इस समस्या का कोई हल नहीं?’’

‘‘आप दिल छोटा मत कीजिए. यह काम मुश्किल जरूर है पर असंभव नहीं. मैं एक साइबर सिक्योरिटी ऐक्सपर्ट का नंबर आप को देता हूं. वे जरूर आप की मदद करेंगे.’

‘‘साइबर सिक्योरिटी ऐक्सपर्ट से आप का क्या मतलब है?’’

‘‘मतलब, जैसे दुनिया में छोटेबड़े अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस होती है, वैसे ही इंटरनैट की दुनिया यानी साइबर वर्ल्ड में भी तरहतरह के अपराध और धोखाधड़ी होती हैं, उन से निबटने के लिए कंप्यूटर के जानकार सिक्योरिटी ऐक्सपर्ट का काम करते हैं, ताकि इन स्मार्ट अपराधियों को पकड़ा जा सके. ये हमारी सरकार द्वारा ही नियुक्त किए जाते हैं और पुलिस और कानून भी इन का साथ देते हैं. आप आज ही जा कर मिस्टर अजीत से मिलिए.’’ अंधरे में जगमगाई इस रोशनी की किरण का हाथ थामे पलाश और अनीता उस ऐक्सपर्ट अजीत के औफिस में पहुंचे. ईशा को भी उन्होंने पूरी बात बता दी थी और उस लड़के के पकड़े जाने की उम्मीद ने उस के अंदर भी साहस का संचार कर दिया था. वह भी उन के साथ थी. उन सब की पूरी बात सुन कर अजीत एकदम गंभीर हो गया.‘‘बड़ा अफसोस होता है यह देख कर कि छोटेछोटे बच्चे पढ़ाईलिखाई की उम्र में इस तरह के घिनौने अपराधों में लिप्त हैं. आप की समस्या तो खैर हमारी टीम चुटकियों में सुलझा देगी. हमें बस इस लड़के का अकाउंट हैक करना होगा और सारी जानकार मिल जाएगी. फिर चैटिंग के सारे रिकौर्ड्स के आधार पर आप उसे जेल भिजवा सकते हैं.’’

‘‘क्या सचमुच यह सब संभव है?’’

‘‘जी हां, हमारे पास साइबर ऐक्सपर्ट्स की पूरी टीम है, जिन के लिए यह सब बहुत ही आसान है. हम लोग हर रोज करीब 15-20 ऐसे और बहुत से अलगअलग तरह के मामले हैंडल करते हैं. कुछ केस तो 1 ही कोशिश में हल हो जाते हैं, लेकिन कुछ में जहां अपराधी पढ़ेलिखे और कंप्यूटर के जानकार होते हैं वहां ज्यादा समय और मेहनत लगती है.’’ ‘‘तो क्या साइबर वर्ल्ड में इतनी धोखाधड़ी होती है?’’ ईशा ने हैरानी से पूछा.

‘‘बिलकुल,’’ अजीत ने जवाब दिया, ‘‘यह एक वर्चुअल दुनिया है. यहां जो दिखता है, अकसर वह सच नहीं होता. यहां आप एक ही समय में सैकड़ों रूप बना कर हजारों लोगों को एकसाथ धोखा दे सकते हैं. फेसबुक पर लड़कियों के नाम से झूठे प्रोफाइल बना कर दूसरी लड़कियों से मजे से दोस्ती करते हैं या उन्हें अश्लील मैसेज भेजते हैं. शादीविवाह वाली साइटों पर नकली प्रोफाइलों से शादी का झांसा दे कर अमीर लड़केलड़कियों को फंसाया जाता है. सोशल साइटों पर अकसर लोग अपनी विदेश यात्राओं, महंगी गाडि़यों आदि चीजों की फोटोग्राफ्स डालते रहते हैं. उन्हें यह नहीं पता होता कि कुछ अपराधी तत्व उन के अकाउंट की इन सारी गतिविधियों पर नजर रखे होते हैं. जब जहां मौका लगता है, चोरियां करवा दी जाती हैं. औनलाइन बैंकिंग बड़ी सुविधाजनक  है, लेकिन अगर कोई हैकर आप का अकाउंट हैक कर ले तो आप का सारा बैंक बैलेंस तो गया समझो.’’

‘‘अगर ये सब इतना असुरक्षित है तो क्या ये सब छोड़ देना चाहिए?’’ अनीता ने पूछा.

‘‘नहीं, छोड़ने की जरूरत नहीं. हमें जरूरत है सिर्फ थोड़ी सावधानी की, दरअसल, हमारे यहां जागरूकता का अभाव है. हम छोटेछोटे बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन और लैपटौप तो पकड़ा देते हैं लेकिन उन्हें उन के खतरों से अवगत नहीं कराते. उन्हें हर महीने रिचार्ज तो करा देते हैं लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं करते कि बच्चे ने क्या डाउनलोड किया या क्याक्या देखा. उम्र के लिहाज से जो चीजें उन के लिए असल संसार में वर्जित हैं, वे सब इस वर्चुअल दुनिया में सिर्फ एक क्लिक पर उपलब्ध हैं.

‘‘कच्ची उम्र और अपरिपक्व दिमाग पर इन चीजों का अच्छा असर तो पड़ने से रहा. सो, वे तरहतरह की गलत आदतों में आपराधिक प्रवृत्तियों का शिकार हो जाते हैं. ये सब कुछ न हो, इस के लिए हमें कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए. बहुत छोटे बच्चों को अपने पर्सनल गैजेट्स न दें. पीसी या लैपटौप पर जब वे काम करें तो उन के आसपास रह कर उन पर नजर रखें ताकि वे किसी गलत साइट पर न जा सकें. चाइल्ड लौक सौफ्टवेयर का भी प्रयोग किया जा सकता है. फेसबुक या वाट्सऐप का प्रयोग करने वाले बच्चे और बड़े भी यह ध्यान रखें कि वे किसी के कितना भी उकसाने पर भी कोई गलत कंटैंट या तसवीरें शेयर न करें. अपनी सिक्योरिटी और प्राइवेसी सैटिंग्स को ‘ओनली फ्रैंड्स’ पर रखें ताकि कोई गलत आदमी उस में घुसपैठ न कर सके. अनजान लोगों से न दोस्ती करें न चैट. अगर कोई आप को गलत कंटैंट भेजता है तो उसे तुरंत ब्लौक कर दें और फेसबुक पर उस की शिकायत कर दें. ऐसी शिकायतों पर फेसबुक तुरंत ऐक्शन लेता है.

‘‘अपने ईमेल, फेसबुक, ट्विटर या बैंक अकाउंट्स के पासवर्ड अलगअलग रखें और समयसमय पर उन्हें बदलते रहें. किसी और के फोन या कंप्यूटर से कभी अपना कोई भी अकाउंट खोलें तो लौगआउट कर के ही उसे बंद करें. इन छोटीछोटी बातों पर अगर ध्यान दिया जाए तो काफी हद तक हम साइबर क्राइम से अपने को बचा सकते हैं,’’ इतना कह कर अजीत चुप हो गया. पलाश, अनीता और ईशा मानो नींद से जगे, ‘‘इन सब चीजों के बारे में तो हम ने कभी सोचा ही नहीं. लेकिन देर आए दुरुस्त आए. अब हम खुद भी ये सब ध्यान रखेंगे और अन्य लोगों को भी इस बारे में जागरूक करेंगे,’’ पलाश दृढ़ता से बोला.

अगले 2 दिन बड़ी भागदौड़ में बीते. अजीत और उन की टीम को उस लड़के नितिन की पूरी जन्मकुंडली निकालने में सिर्फ 2 घंटे लगे. पुलिस की टीम के साथ उस के घर से उसे दबोच कर उसे जेल भेज कर वापस लौटते समय तीनों बहुत खुश थे.

‘‘मौमडैड, मुझे माफ कर दीजिए. मेरी वजह से आप को इतनी परेशानी उठानी पड़ी,’’ अचानक ईशा ने कहा.

‘‘ईशा, तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं और तुम्हारे पापा तो जीतेजी मर जाते,’’ एकदम से अनीता की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘कसम खाओ, आगे से कभी ऐसा कुछ करने के बारे कभी नहीं सोचोगी.’’ ‘‘नहीं, कभी नहीं. अब मैं सिर्फ अपनी पढ़ाई और भविष्य पर ध्यान दूंगी और ऐसी गलती दोबरा कभी नहीं करूंगी,’’ कहती हुई ईशा की आंखों में जिंदगी की चमक थी.

Hindi Kahaniyan : अब कोई नाता नहीं – क्या सब ठीक हुआ निशा और दिशा के बीच

Hindi Kahaniyan : “मुझे माफ करना, अतुल. मैं ने तुम्हारा बहुत अपमान किया है, तिरस्कार किया है और कई बार तुम्हारा मजाक भी उड़ाया है. मगर आज जब मुझे अपने बेटे की सब से ज्यादा जरूरत थी तब तुम ही मेरे करीब थे. अगर आज तुम न होते तो न जाने मेरा क्या हाल होता. मैं शायद इस दुनिया में न होता. अतुल बेटा, हम दोनों तो बिलकुल अकेले पड़ गए थे. अब तो मुझे सुमित को अपना बेटा कहने में भी शर्म आ रही है. उसे विदेश क्या भेजा, वह विदेशी हो कर रह गया, मांबाप को भी भूल गया. अब मेरा उस से कोई नाता नहीं,” यह कहते हुए कांता प्रसाद फफकफफक कर रो पड़े, उन्होंने अतुल को खींच कर गले लगा लिया.

अतुल की आंखें भी नम हो गईं., वह अतीत की यादों में खो गया. अतुल के पिता रमाकांत की एक छोटी सी मैडिकल शौप थी जो सरकारी अस्पताल के सामने थी. परिवार की आर्थिक स्थिति विकट होने से अतुल ज्यादा पढ़ नहीं पाया था. कक्षा 12 वीं उत्तीर्ण करने के बाद उस ने फार्मेसी में डिप्लोमा किया और अपने पिता के साथ दुकान में उन का हाथ बंटाने लगा.

एक ही शहर में दोनों भाइयों का परिवार रहता था मगर रिश्तों में मधुरता नहीं थी. कांता प्रसाद और छोटे भाई राम प्रसाद के बीच अमीरीगरीबी की दीवार दिनबदिन ऊंची होती जा रही थी. दोनों भाइयों के बीच एक बार पैसों के लेनदेन को ले कर अनबन हो गई थी जिस के कारण उन के बीच कई सालों से बोलचाल बंद थी. होलीदीवाली जैसे त्योहारों पर महज औपचारिकता निभाते हुए उन के बीच मुलाकात होती थी.

अतुल के ताऊजी कांता प्रसाद एक प्राइवेट बैंक में मैंनेजर थे जो अपने इकलौते बेटे सुमित की पढ़ाई के लिए पानी की तरह पैसा बहा रहे थे. सुमित शहर की सब से महंगे और मशहूर पब्लिक स्कूल में पढ़ता था. जब कभी अतुल उन से बैंक में या घर पर मिलने जाता था तब वे उस का मजाक उड़ाते हुए कहते थे–

‘अरे अतुल, एक बार कालेज का तो मुंह देख लेता. अभी 20-22 का हुआ नहीं कि दुकानदारी करने बैठ गया. कालेजलाइफ कब एंजौय करेगा? तेरा बाप क्या पैसा साथ ले कर जाएगा?’

‘नहीं ताऊजी, ऐसी बात नहीं है. मेरी भी आगे पढ़ने की इच्छा है और पापा भी मुझे पढ़ाना चाहते हैं पर मैं अपने घर की आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह से अवगत हूं. मैं ने ही उन्हें मना कर दिया कि मुझे आगे नहीं पढ़ना है. निशा और दिशा को पहले पढ़ानालिखाना है ताकि वे पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं जिस से उन के विवाह में अड़चन न आए. एक बार उन के हाथ पीले हो जाएं तो मम्मीपापा की चिंता मिट जाएगी. वे दोनों आएदिन निशा और दिशा की चिंता करते हैं. आजकल के लड़के पढ़ीलिखी और नौकरी करने वाली लड़कियां ही ज्यादा पसंद करते हैं. ताऊजी, आप को तो पता ही है कि हमारी मैडिकल शौप से ज्यादा आमदनी नहीं होती. सरकारी अस्पताल के सामने मैडिकल की पचासों दुकानें हैं. कंपीटिशन बहुत बढ़ गया है. फिर आजकल औनलाइन का भी जमाना है. मेरा क्या है, मैं निशा और दिशा की विदाई के बाद भी प्राइवेटली कालेज कर लूंगा पर अभी परिवार की जिम्मेदारी निभाना जरूरी है.’

अतुल ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा तो कांता प्रसाद को बड़ा ताज्जुब हुआ कि अतुल खेलनेकूदने की उम्र में इतनी समझदारी व जिम्मेदारी की बातें करने लग गया है. और एक उन का बेटा सुमित जो अतुल की ही उम्र का है मगर उस पर अभी भी बचपना और अल्हड़पन सवार था, वह घूमनेफिरने और मौजमस्ती में ही मशगूल है. कांता प्रसाद के पास रुपएपैसों की कमी न थी. उन के बैंक के कई अधिकारियों के बेटे विदेशों में पढ़ रहे थे, सो  कांता प्रसाद ने भी सुमित को विदेश भेजने के सपने संजो कर रखे थे.

वक्त बीत रहा था. सुमीत इंजीनियरिंग में बीई करने के बाद एमएस के लिए आस्ट्रेलिया चला गया. इसी बीच कांता प्रसाद बैंक से सेवानिवृत हो गए. पत्नी रमा के साथ आराम की जिंदगी बसर कर रहे थे. सुमित के लिए विवाह के ढेरों प्रस्ताव आने शुरू हो गए थे. अपना इकलौता बेटा विदेश में है, यह सोच कर ही कांता प्रसाद मन ही मन फूले न समाते थे. अब तो वे ज़मीन से दो कदम ऊपर ही चलने लगे थे. जब भी कोई रिश्तेदार या दोस्त मिलता तो वे सुमित की तारीफ में कसीदे पढ़ने लग जाते. कुछ दिन तक तो परिवार के सदस्य और यारदोस्त उन का यह रिकौर्ड सुनते रहे मगर धीरेधीरे उन्हें जब बोरियत होने लगी तो वे उन से कन्नी काटने लगे.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. सुमित को आस्ट्रेलिया जा कर 3 साल का वक्त हो गया था. एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने एमएस की डिग्री हासिल कर ली है और वह अब यूएस जा रहा है जहां उसे एक मल्टीनैशनल कंपनी में मोटे पैकेज की नौकरी भी मिल गई है. कांता प्रसाद के लिए यह बेशक बहुत ही बड़ी खुशी की बात थी.

कांता प्रसाद और रमा अभी खुशी के इस नशे में चूर थे कि एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने अपनी ही कंपनी में नौकरी करने वाली एक फ्रांसीसी लड़की एडेला से शादी कर ली है. सुमित के विवाह को ले कर सपनों के खूबसूरत संसार में खोए हुए कांता प्रसाद और रमा बहुत ही जल्दी यथार्थ के धरातल पर धराशायी हो गए. अब तो दोनों अपने घर में ही बंद हो कर रह गए. लड़की वालों के फोन आने पर ‘अभी नहीं, अभी नहीं’ कह कर टालते रहे. कांता प्रसाद और रमा ने सुमित के विवाह की बात छिपाने की बहुत कोशिश की मगर जिस तरह प्यार और खांसी छिपाए नहीं छिपती, उसी तरह सुमित के विदेशी लड़की से विवाह करने की बात उन के करीबी रिश्तेदारों के बीच बहुत ही जल्दी फैल गई. परिणास्वरूप रिश्तेदारों एवं करीबी लोगों ने उन से किनारा करना शुरू कर दिया.

उधर, सुमित दिनबदिन अपने काम में इतना मसरूफ हो गया था कि वह महीनों तक अपने मातापिता को फोन नहीं कर पाता था. यहां से कांता प्रसाद और रमा फोन करते तो वह कभी काम में व्यस्त बता कर या मीटिंग में है, कह कर फोन काट देता था. अब तो कांता प्रसाद और रमा बिलकुल अकेले पड़ गए थे. छोटीमोटी बीमारी होने पर उन्हें पड़ोसियों का सहारा लेना पड़ता था. मगर हर बार यह मुमकिन नहीं था कि जब उन्हें जरूरत पड़े तब पड़ोसी उन की सेवा में हाजिर हो जाएं. इसी बीच देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने कहर ढाना शुरू कर दिया. लौकडाऊन के कारण कामवाली बाई यशोदा ने आना बंद कर दिया और घरेलू नौकर किशन अपने गांव चला गया. लोग अपनेअपने घरों में बंद हो गए. रमा को दमे की शिकायत थी, तो कांता प्रसाद डायबेटिक थे. चिंता और तनाव ने दोनों को और अधिक बीमार बना दिया था. सुमित इस संकट की घड़ी में व्हाट्सऐप पर ‘टेक केयर, बाहर बिलकुल मत जाना, और जाना पड़ जाए तो मास्क पहन कर जाना, सैनिटाइजर का उपयोग करते रहना, बारबार साबुन से हाथ धोते रहना, सोशल दूरी बनाए रखना’ जैसे महज औपचारिक संदेश नियमित रूप से भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता था.

एक दिन रात में कांता प्रसाद को तेज बुखार आया. उन्हें लगा, मौसम बदलने से आया होगा. घर में ही दवा खा ली. मगर बुखार न उतरा. 2 दिनों बाद उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी और मुंह का स्वाद चला गया. तब रमा को पता चला कि ये तो कोरोना के लक्षण हैं. रात में करीब 1 बजे उन्होंने अतुल को फोन किया और सारी बात बताई. अतुल और उस के पिता ने तुरंत भागदौड़ शुरू कर दी. अतुल ने एक सामाजिक संस्था के यहां से एम्ब्युलैंस मंगवाई और अपने पिता के साथ कांता प्रसाद के घर के लिए रवाना हो गया. बीच रास्ते में अतुल अस्पतालों में बैड की उपलब्धता के लिए लगातार फोन कर रहा था. दोतीन अस्पतालों से नकारात्मक उत्तर मिला, मगर एक अस्पताल में एक बैड मिल गया. अतुल ने कांता प्रसाद को फोन कर के अस्पताल जाने के लिए तैयार रहने के लिए कहा. रात करीब 2 बजे कांता प्रसाद को एक अस्पताल के कोरोना वार्ड में एडमिट कर दिया और ट्रीटमैंट चालू हो गया.

रमा की आंखों में छिपा हुआ नीर आंसुओं का रूप धारण कर उस के गालों को भिगोने लगा जिसे देख अतुल ने कहा–

‘ताईजी, प्लीज आंसू न बहाओ. अब चिंता की बात नहीं है. यह शहर का बहुत अच्छा अस्पताल है. ताऊजी जल्दी ही स्वस्थ हो जाएंगे. ताईजी, अब आप हमारे घर चलो. ताऊजी के ठीक होने तक आप हमारे ही घर पर रहना. अस्पताल में कोरोना मरीज के रिश्तेदारों को ठहरने की अनुमति नहीं है.’

रमा का कंठ रुंध गया था. वह बोल नहीं पा रही थी. खामोशी से अतुल के साथ रवाना हो गई.

कांता प्रसाद का औक्सीजन लैवल कम हो जाने से कुछ दिनों तक उन्हें वैंटिलेटर पर रखा गया. फिर उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. डाक्टरों ने बताया कि समय पर बैड मिल जाने से उन की जान बच गई है. कुछ ही दिनों के बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. कांता प्रसाद मन ही मन सोच रहे थे कि आज अतुल उन की सहायता के लिए दौड़ कर न आता तो न जाने उन का क्या हाल होता. इस कोरोना महामारी ने आज इंसान को इंसान से दूर कर दिया है. कोरोना का नाम सुनते ही अपने लोग ही दूरियां बना लेते हैं. ऐसे में अतुल और राम प्रसाद ने अपनी जान की परवा किए बगैर उन की हर संभव सहायता की थी. बुरे वक्त में अतुल ही उन के काम आया था, उन के अपने बेटे सुमित ने तो उन से अब महज औपचारिक रिश्ता बना कर रखा था. वे मन ही मन सोचने लगे कि अब उस से तो नाता रखना बेकार है.

अतुल के साथसाथ कांता प्रसाद भी अतीत की यादों से वर्तमान में लौटे. वे अभी भी अतुल को अपने गले से लगाए हुए थे. अतुल ने अपने आप को उन से अलग करते हुए कहा–

“ताऊजी, पुरानी बातों को छोड़ दीजिए, मैं तो आप के बेटे के समान हूं. क्या पिता अपने बेटे को डांटताफटकारता नहीं है. फिर आप तो मेरे बड़े पापा हैं. मुझे आप की बातों का कभी बुरा नहीं लगा. अब आप अतीत की कटु यादों को बिसरा दो और अपनी तबीयत का ध्यान रखो. अपनी मैडिकल की दुकान होने से कई बार अस्पतालों में जाना पड़ता है, इसी कारण कुछेक डाक्टरों से मेरी पहचान हो गई है. इसलिए आप को बैड मिलने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई और आप का समय पर इलाज हो गया. अब आप को डाक्टरों ने सख्त आराम की हिदायत दी है.“

बाद में वह ताईजी की ओर मुखातिब होते हुए बोला–

“ताईजी, अब आप ताऊजी के पास ही बैठी रहोगी और इन का पूरा ध्यान रखोगी, साथ ही, अपना भी ध्यान रखोगी. अब आप की उम्र हो गई है, सो आप दोनों को आराम करना चाहिए. अब आप दोनों को किसी तरह की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. अभी कुछ ही देर में दिशा और निशा यहां पर आ रही हैं. वे किचन संभाल लेंगी और घर का सारा काम भी वे दोनों कर लेंगी.“

अभी अतुल ने अपनी बात समाप्त भी नहीं की कि राम प्रसाद ने अपनी पत्नी सरला और दोनों बेटियों के साथ घर में प्रवेश किया.

राम प्रसाद भीतर आते ही कांता प्रसाद के पैर छूने के लिए आगे बढ़े तो कांता प्रसाद ने उन्हें अपने गले से लगा लिया. दोनों की आंखों से गंगाजमुना बहने लगी. एक लंबे अरसे से दोनों के मन में जमा सारा मैल पलभर में आंसुओं में बह गया.

दोनों भाइयों को वर्षों बाद गले मिलते देख परिवार के अन्य सदस्यों की आंखें भी पनीली हो गईं. निशा और दिशा सभी के लिए चायनाश्ता बनाने के लिए रसोई घर की ओर मुड़ गई. बैठक में कुछ देर तक निस्तब्धता छायी रही जिसे अतुल ने भंग करते हुए कहा–

“ताऊजी, एक बात कहूं, कोरोना महामारी ने लोगों के बीच दूरियां जरूर बढ़ाई हैं पर हमारे लिए कोरोना लकी साबित हुआ है क्योंकि इस ने 2 परिवारों की दूरियां मिटाई हैं.” यह कहते हुए वह जोर से हंसने लगा, अतुल की हंसी ने गमगीन माहौल को खुशनुमा बना दिया.

कांता प्रसाद और राम प्रसाद की नम आंखों में भी हंसी चमक उठी. कांता प्रसाद ने अतुल को इशारे से अपने करीब बुलाया और अपने पास बैठाते हुए कहा–

“अतुल बेटा, एक बात ध्यान से सुनना, सरकारी अस्पताल के सामने मैं ने अपनी एक दुकान बनवारीलाल को किराए पर दे रखी है न, वह इस महीने की 30 तारीख को खाली कर रहा है. अब तुम इस दुकान में शिफ्ट हो जाना, आज से यह दुकान तुम्हारी है, समझे. मैं जल्दी ही वकील से यह दुकान तुम्हारे नाम करवाने के लिए बात कर लूंगा.”

अतुल बीच में बोल पड़ा–

“नहीं ताऊजी, मेरी अपनी दुकान अच्छी चल रही है. प्लीज, आप ऐसा न करें.”

“अरे अतुल, मुझे पता है, तेरी दुकान कितनी अच्छी चलती है, एक कोने में तेरी छोटी सी दुकान है और अस्पताल से बहुत दूर भी. बस, तू मेरी बात मान ले. अपने ताऊजी से बहस न कर,” कांता प्रसाद ने मुसकराते हुए अतुल को डांट दिया.

“भाईसाहब, आप ऐसा न करें, दुकान भले ही चलाने के लिए हमें किराए पर दे दें पर इसे अतुल के नाम पर न करें, सुमित…”

राम प्रसाद भविष्य का विचार करते हुए सुझाव देने लगे तो कांता प्रसाद किंचित आवेश में बीच में बोल पड़े, “अरे रामू, यह मेरी प्रौपर्टी है, मैं चाहे जिसे दे दूं. सुमित से अब हम कोई नाता नहीं रखना नहीं चाहते हैं. अब वह हमारा नहीं रहा. सुमित ने तो अपनी अलग दुनिया बसा ली है. उसे हम दोनों की कोई जरूरत नहीं है. अब तो अतुल ही हमारा बेटा है.”

कांता प्रसाद की आंखें फिर छलक गईं. राम प्रसाद ने इस समय बात को और आगे बढ़ाना उचित न समझा.

कुछ ही देर में निशा और दिशा किचन से नाश्ता ले कर बाहर आ गईं. रमा ने निशा और दिशा को अपने पास बैठाया. दोनों रमा के दाएंबाएं बैठ गईं. रमा ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा–

“ये जुड़वां बहनें जब छोटी थीं तब दोनों छिपकली की तरह मुझ से चिपकी रहती थीं. रात को सरला बेचारी सो नहीं पाती थी. तब मैं एक को अपने पास सुलाती थी. इन का पालनपोषण करना सरला के लिए तार पर कसरत करने के समान था. देखो, अब ये कितनी बड़ी हो गई हैं.” यह कहते हुए रमा निशा और दिशा का माथा चूमने लगी, फिर कांता प्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए बोली–

“आप ने बहुत बातें कर लीं जी, अब मेरी बात भी सुन लो. मैं ने निशा और दिशा का कन्यादान करने का निर्णय लिया है. इन दोनों के विवाह का संपूर्ण खर्च मैं करूंगी. अतुल इन्हें जितना पढ़ना है, पढ़ने देना और अगर तुम प्राइवेटली आगे पढ़ना चाहो तो पढ़ सकते हो. अब तुम्हें और तुम्हारे मम्मीपापा को निशा-दिशा की चिंता करने की जरूरत नहीं है.“

“रमा, तुमने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मैं भी यही कहने वाला था. हम तो बेटी के लिए तरस रहे थे. ये अपनी ही तो बेटियां हैं.”

कांता प्रसाद ने उत्साहित होते हुए कहा तो उन का चेहरा खुशी से चमक उठा मगर उन की बातें सुन कर राम प्रसाद और मूकदर्शक बन कर बैठी सरला की आंखों से आंसुओं की धारा धीरेधीरे बहने लग गई. माहौल फिर गंभीर बन रहा था,  इस बार निशा ने माहौल को हलकाफुलका करते हुए कहा–

“आप सब तो बस बातें करने में ही मशगूल हो गए हैं. चाय की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है. देखो, यह ठंडी हो गई है. मैं फिर से गरम कर के लाती हूं.“ यह कहते हुए निशा उठी तो उस के साथसाथ दिशा भी खड़ी हो गई. दिशा ने सभी के सामने रखी नाश्ते की खाली प्लेटें उठाईं तो निशा ने ठंडी चाय से भरे कप उठाए. फिर दोनों किचन की ओर मुड़ गईं जिन्हें कांता प्रसाद और रमा अपनी नज़रों से ओझल हो जाने तक डबडबाई आंखों से देखते रहे.

Online Hindi Story : मां

Online Hindi Story : बहुत दिनों बाद अचानक माधुरी का आना मीना को सुखद लगा था. दोचार दिन तो यों ही गपशप में निकल गए थे. माधुरी दीदी यहां अपने किसी संबंधी के यहां विवाह समारोह में शामिल होने आई थीं. जिद कर के वह मीना और उस के पति दीपक को भी अपने साथ ले गईं. फिर शादी के बाद मीना ने जिद कर के उन्हें 2 दिन और रोक लिया था. दीपक किसी काम से बाहर चले गए तो माधुरी रुक गई थीं.

‘‘और सुना…सब ठीकठाक तो चल रहा है न,’’ माधुरी ने कहा, ‘‘अब तो दोनों बेटियों का ब्याह कर के तुम लोग भी फ्री हो गए हो. खूब घूमोफिरो…अब क्यों घर में बंधे हुए हो.’’

‘‘दीदी, अब आप से क्या छिपाना,’’ मीना कुछ गंभीर हो कर कहने लगी, ‘‘आप तो जानती ही हैं कि दोनों बेटियों की शादी में काफी खर्च हुआ है. अब दीपक रिटायर भी हो गए हैं. सीमित पेंशन मिलती है. किसी तरह खर्च चल रहा है, बस. कोई आकस्मिक खर्चा आ जाता है तो उस के लिए भी सोचना पड़ता है…’’

माधुरी बीच में ही टोक कर बोलीं, ‘‘देख…मीना, तू अपनेआप को थोड़ा बदल, बेटियों के कमरे खाली पड़े हैं, उन्हें किराए पर दे. इस शहर में बच्चों की कोचिंग का अच्छा माहौल है. तुम्हारे घर के बिलकुल पास कोचिंग क्लासें चल रही हैं. बच्चे फौरन किराए पर कमरा ले लेंगे. उन से अच्छा किराया तो मिलेगा ही घर की सुरक्षा भी बनी रहेगी.’’

माधुरी की बात मीना को भी ठीक लगने लगी थी. उसे खुद आश्चर्य हुआ कि अब तक इस तरह उस ने सोचा क्यों नहीं. ठीक है, दीपक घर को किराए पर देने के पक्ष में नहीं हैं पर 2 कमरे बच्चों को देने में क्या हर्ज है. बाथरूम तो अलग है ही.

माधुरी दीदी के जाते ही पति से बात कर के मीना ने अखबार में विज्ञापन दे दिया.

‘‘देखो मीना, मैं तुम्हारे कार्यक्षेत्र में दखल नहीं दूंगा,’’ दीपक बोले, ‘‘पर निर्णय तुम्हारा ही है सो सोचसमझ कर लेना. क्या किराया होगा, किसे देना है, सारा सिरदर्द तुम्हारा ही होगा, समझीं.’’

‘‘हां बाबा, सब समझ गई हूं, किराए पर भी मेरा ही अधिकार होगा, जैसा चाहूं खर्च करूंगी.’’

दीपक तब हंस कर रह गए थे.

विज्ञापन छपने के कुछ ही दिन बाद  दोनों कमरे किराए पर उठ गए थे. निखिल और सुबोध दोनों बच्चे मीना को संभ्रांत परिवार के लगे थे. किराया भी ठीकठाक मिल गया था.

मीना खुश थी. किराएदार के रूप में बच्चों के आने से उस का अकेलापन थोड़ा कम हो गया था. दीपक ने तो अपने मन लगाने के लिए एक संस्था ज्वाइन कर ली थी. पर वह घर में अकेली बोर हो जाती थी. दोनों बेटियों के जाने के बाद तो अकेलापन वैसे भी अधिक खलने लगा था.

शीना का उस दिन फोन आया तो कह रही थी, ‘‘मां, आप ने ठीक किया जो कमरे किराए पर दे दिए. अब आप और पापा कुछ दिनों के लिए चेन्नई घूमने आ जाएं, काफी सालों से आप लोग कहीं घूमने भी नहीं गए.’’

‘‘हां, अब घूमने का प्रोग्राम बनाएंगे उधर का. रीना भी जिद कर रही है बंगलोर आने की,’’ मीना का स्वर उत्साह से भरा था.

फोन सुनने के बाद मीना बाहर लौन में आ कर गमले ठीक करते हुए सोचने लगी कि दीपक से बात करेगी कि बेटियां इतनी जिद कर रही हैं तो चलो, उन के पास घूम आएं.

तभी बाहर का फाटक खोल कर एक दुबलापतला, कुछ ठिगने कद का लड़का अंदर आया था.

‘‘कहो, क्या काम है? किस से मिलना है?’’

‘‘जी, आंटी, मैं राघव हूं. यहां जगदीश कोचिंग में एडमिशन लिया है. मुझे कमरा चाहिए था.’’

‘‘देखो बेटे, यहां तो कोई कमरा खाली नहीं है. 2 कमरे थे जो अब किराए पर चढ़ चुके हैं,’’ मीना ने गमलों में पानी डालते हुए वहीं से जवाब दे दिया.

वह लड़का थोड़ी देर खड़ा रहा था पर मीना अंदर चली गईं. दूसरे दिन दीपक के बाजार जाने के बाद यों ही मीना अखबार ले कर बाहर लौन में आई तो फिर वही लड़का दिखा था.

‘‘हां, कहो? अब क्या बात है?’’

‘‘आंटी, मैं इतने बड़े मकान में कहीं भी रह लूंगा. अभी तो मेरा सामान भी रेलवे स्टेशन पर ही पड़ा है…’’ उस के स्वर में अनुनय का भाव था.

‘‘कहा न, कोई कमरा खाली नहीं है.’’

‘‘पर यह,’’ कह कर उस ने छोटे से गैराज की तरफ इशारा किया था.

मीना का ध्यान भी अब उधर गया. मकान में यह हिस्सा कार के लिए रखा था. कार तो आ नहीं पाई. हां, पर शीना की शादी के समय इस में एक मामूली सा दरवाजा लगा कर कमरे का रूप दे दिया था. हलवाई और नौकरों के लिए पीछे एक कामचलाऊ टायलेट भी बना था. अब यह हिस्सा घर के फालतू सामान के लिए था.

‘‘इस में रह लोगे…पढ़ाई हो जाएगी?’’ मीना ने आश्चर्य से पूछा था.

‘‘हां, क्यों नहीं, लाइट तो होगी न…’’

वह लड़का अब अंदर आ गया था. गैराज देख कर वह उत्साहित था. कहने लगा, ‘‘यह मेज और कुरसी तो मेरे काम आ जाएगी और ये तख्त भी….’’

मीना समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे.

लड़के ने जेब से कुछ नोट निकाले और कहने लगा, ‘‘आंटी, यह 500 रुपए तो आप रख लीजिए. मैं 800 रुपए से ज्यादा किराया आप को नहीं दे पाऊंगा. बाकी 300 रुपए मैं एकदो दिन में दे दूंगा. अब सामान ले आऊं?’’

500 रुपए हाथ में ले कर मीना अचंभित थी. चलो, एक किराएदार और सही. बाद में इस हिस्से को भी ठीक करा देगी तो इस का भी अच्छा किराया मिल जाएगा.

घंटे भर बाद ही वह एक रिकशे पर अपना सामान ले आया था. मीना ने देखा एक टिन का बक्सा, एक बड़ा सा पुराना बैग और एक पुरानी चादर की गठरी में कुछ सामान बंधा हुआ दिख रहा था.

‘‘ठीक है, सामान रख दो. अभी नौकरानी आती होगी तो मैं सफाई करवा दूंगी.’’

‘‘आंटी, झाड़ू दे दीजिए. मैं खुद ही साफ कर लूंगा.’’

खैर, नौकरानी के आने के बाद थोड़ा फालतू सामान मीना ने बाहर निकलवा लिया और ढंग की मेजकुरसी उसे पढ़ाई के लिए दे दी. राघव ने भी अपना सामान जमा लिया था.

शाम को जब मीना ने दीपक से जिक्र किया तो उन्होंने हंस कर कहा था, ‘‘देखो, अधिक लालच मत करना. वैसे यह तुम्हारा क्षेत्र है तो मैं कुछ नहीं बोलूंगा.’’

मीना को यह लड़का निखिल और सुबोध से काफी अलग लगा था. रहता भी दोनों से अलगथलग ही था जबकि तीनों एक ही क्लास में पढ़ते थे.

उस दिन शाम को बिजली चली गई तो मीना बाहर बरामदे में आ गई थी. निखिल और सुबोध बैडमिंटन खेल रहे थे. अंधेरे की वजह से राघव भी बाहर आ गया था पर दोनों ने उसे अनदेखा कर दिया. वह दूर कोने में चुपचाप खड़ा था. फिर मीना ने ही आवाज दे कर उसे पास बुलाया.

‘‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? मन तो लग गया न?’’

‘‘मन तो आंटी लगाना ही है. मां ने इतनी जिद कर के पढ़ने भेजा है, खर्चा किया है…’’

‘‘अच्छा, और कौनकौन हैं घर में?’’

‘‘बस, मां ही हैं. पिताजी तो बचपन में ही नहीं रहे. मां ने ही सिलाईबुनाई कर के पढ़ाया. मैं तो चाह रहा था कि वहीं आगे की पढ़ाई कर लूं पर मां को पता नहीं किस ने इस शहर की आईआईटी क्लास की जानकारी दे दी थी और कह दिया कि तुम्हारा बेटा पढ़ने में होशियार है, उसे भेज दो. बस, मां को जिद सवार हो गई,’’ मां की याद में उस का स्वर भर्रा गया था.

‘‘अच्छा, चलो, अब मां का सपना पूरा करो,’’ मीना के मुंह से भी निकल ही गया था. सुबोध और निखिल भी थोड़े अचंभित थे कि वह राघव से क्या बात कर रही है.

एक दिन नौकरानी ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, देखो न गैराज से धुआं सा निकल रहा है.’’

‘‘धुआं…’’ मीना घबरा गई और रसोई में गैस बंद कर के वह बाहर आई. हां, धुआं तो है पर राघव क्या अंदर नहीं है.

मीना ने जा कर देखा तो वह एक स्टोव पर कुछ बना रहा था. कैरोसिन का बत्ती वाला स्टोव धुआं कर रहा था.

‘‘यह क्या कर रहे हो?’’

चौंक कर मीना को देखते हुए राघव बोला, ‘‘आंटी, खाना बना रहा हूं.’’

‘‘यहां तो सभी बच्चे टिफिन मंगाते हैं. तुम खाना बना रहे हो तो फिर पढ़ाई कब करोगे.’’

‘‘आंटी, अभी मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. टिफिन महंगा पड़ता है तो सोचा कि एक समय खाना बना लूंगा. शाम को भी वही खा लूंगा. यह स्टोव भी अभी ले कर आया हूं,’’ राघव धीमे स्वर में बोला.

राघव की यह मजबूरी मीना को झकझोर गई.

‘‘देखो, तुम्हारी मां जब रुपए भेज दे तब किराया दे देना. अभी ये रुपए रखो और कल से टिफिन सिस्टम शुरू कर दो. समझे…’’

मीना ने राघव के रुपए ला कर उसे वापस कर दिए.

राघव डबडबाई आंखों से मीना को देखता रह गया.

बाद में मीना ने सोचा कि पता नहीं क्यों मांबाप पढ़ाई की होड़ में बच्चों को इतनी दूर भेज देते हैं. इस शहर में इतने बच्चे आईआईटी की पढ़ाई के लिए आ कर रह रहे हैं. गरीब मातापिता भी अपना पेट काट कर उन्हें पैसा भेजते हैं. अब राघव पता नहीं पढ़ने में कैसा हो पर गरीब मां खर्च तो कर ही रही है.

महीने भर बाद मीना की मुलाकात गीता से हो गई. गीता उस की बड़ी बेटी शीना की सहेली थी और आजकल जगदीश कोचिंग में पढ़ा रही थी. कभी- कभार शीना का हालचाल जानने घर आ जाती थी.

‘‘तेरी क्लास में राघव नाम का भी कोई लड़का है क्या? कैसा है पढ़ाई में? टेस्ट में क्या रैंक आ रही है?’’ मीना ने पूछ ही लिया.

‘‘कौन? राघव प्रकाश… वह जो बिहार से आया है. हां, आंटी, पढ़ाई में तो तेज लगता है. वैसे तो केमेस्ट्री की कक्षा ले रही हूं पर जगदीशजी उस की तारीफ कर रहे थे कि अंकगणित में बहुत तेज है. गरीब सा बच्चा है…’’

मीना चुप हो गई थी. ठीक है, पढ़ने में अच्छा ही होगा.

कुछ दिनों बाद राघव किराए के रुपए ले कर आया तो मीना ने पूछा, ‘‘तुम्हारे टिफिन का इंतजाम तो है न?’’

‘‘हां, आंटी, पास वाले ढाबे से मंगा लेता हूं.’’

‘‘चलो, सस्ता ही सही. खाना तो ठीक मिल जाता होगा?’’ फिर मीना ने निखिल और सुबोध को बुला कर कहा था, ‘‘यह राघव भी यहां पढ़ने आया है. तुम लोग इस से भी दोस्ती करो. पढ़ाई में भी अच्छा है. शाम को खेलो तो इसे भी अपनी कंपनी दो.’’

‘‘ठीक है, आंटी…’’ सुबोध ने कुछ अनमने मन से कहा था.

इस के 2 दिन बाद ही निखिल हंसता हुआ आया और कहने लगा, ‘‘आंटी, आप तो रघु की तारीफ कर रही थीं…पता है इस बार उस के टेस्ट में बहुत कम नंबर आए हैं. जगदीश सर ने उसे सब के सामने डांटा है.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर मीना खामोश हो गई तो निखिल चला गया. उस के बाद वह उठ कर राघव के कमरे की ओर चल दी. जा कर देखा तो राघव की अांखें लाल थीं. वह काफी देर से रो रहा था.

‘‘क्या हुआ…क्या बात हुई?’’

‘‘आंटी, मैं अब पढ़ नहीं पाऊंगा. मैं ने गलती की जो यहां आ गया. आज सर ने मुझे बुरी तरह से डांटा है.’’

‘‘पर तुम्हारे तो नंबर अच्छे आ रहे थे?’’

‘‘आंटी, पहले मैं आगे बैठता था तो सब समझ में आ जाता था. अब कुछ लड़कों ने शिकायत कर दी तो सर ने मुझे पीछे बिठा दिया. वहां से मुझे कुछ दिखता ही नहीं है, न कुछ समझ में आ पाता है. मैं क्या करूं?’’

‘‘दिखता नहीं है, क्या आंखें कमजोर हैं?’’

‘‘पता नहीं, आंटी.’’

‘‘पता नहीं है तो डाक्टर को दिखाओ.’’

‘‘आंटी, पैसे कहां हैं…मां जो पैसे भेजती हैं उन से मुश्किल से खाने व पढ़ाई का काम चल पाता है. मैं तो अब लौट जाऊंगा…’’ कह कर वह फिर रो पड़ा था.

‘‘चलो, मेरे साथ,’’ मीना उठ खड़ी हुई थी. रिकशे में उसे ले कर पास के आंखों के एक डाक्टर के यहां पहुंच गई और आंखें चैक करवाईं तो पता चला कि उसे तो मायोपिया है.

‘‘चश्मा तो इसे बहुत पहले ही लेना था. इतना नंबर तो नहीं बढ़ता.’’

‘‘ठीक है डाक्टर साहब, अब आप इस का चश्मा बनवा दें….’’

घर आ कर मीना ने राघव से कहा था, ‘‘कल ही जा कर अपना चश्मा ले आना, समझे. और ये रुपए रखो. दूसरी बात यह कि इतना दबदब कर मत रहो कि दूसरे बच्चे तुम्हारी झूठी शिकायत करें, समझे…’’

राघव कुछ बोल नहीं पा रहा था. झुक कर उस ने मीना के पैर छूने चाहे तो वह पीछे हट गई थी.

‘‘जाओ, मन लगा कर पढ़ो. अब नंबर कम नहीं आने चाहिए…’’

अब कोचिंग क्लासेस भी खत्म होने को थीं. बच्चे अपनेअपने शहर जा कर परीक्षा देंगे. यही तय था. राघव भी अब अपने घर जाने की तैयारी में था. निखिल और सुबोध से भी उस की दोस्ती हो गई थी.

सुबोध ने ही आ कर कहा कि  आंटी, राघव की तबीयत खराब हो रही है.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘पता नहीं, हम ने 2-2 रजाइयां ओढ़ा दीं फिर भी थरथर कांप रहा है.’’

मीना ने आ कर देखा.

‘‘अरे, लगता है तुम्हें मलेरिया हो गया है. दवाई ली थी?’’

‘‘जी, आंटी, डिस्पेंसरी से लाया तो था और कल तक तो तबीयत ठीक हो गई थी, पर अचानक फिर खराब हो गई. पता नहीं घर भी जा पाऊंगा या नहीं. परीक्षा भी अगले हफ्ते है. दे भी पाऊंगा या नहीं…’’

कंपकंपाते स्वर में राघव बड़बड़ा रहा था. मीना ने फोन कर के डाक्टर को वहीं बुला लिया फिर निखिल को भेज कर बाजार से दवा मंगवाई.

दूध और खिचड़ी देने के बाद दवा दी और बोली, ‘‘तुम अब आराम करो. बिलकुल ठीक हो जाओगे. परीक्षा भी दोगे, समझे.’’

काफी देर राघव के पास बैठ कर वह उसे समझाती रही थी. मीना खुद समझ नहीं पाई थी कि इस लड़के के साथ ऐसी ममता सी क्यों हो गई है उसे.

दूसरे दिन राघव का बुखार उतर गया था. 2 दिन मीना ने उसे और रोक लिया था कि कमजोरी पूरी दूर हो जाए.

जाते समय जब राघव पैर छूने आया तब भी मीना ने यही कहा था कि खूब मन लगा कर पढ़ना.

बच्चों के जाने के बाद कमरे सूने तो हो गए थे पर मीना अब संतुष्ट थी कि 2 महीने बाद फिर दूसरे बच्चे आ जाएंगे. घर फिर आबाद हो जाएगा. गैराज वाले कमरे को भी अब और ठीक करवा लेगी.

आईआईटी का परिणाम आया तो पता चला कि राघव की फर्स्ट डिवीजन आई है. निखिल और सुबोध रह गए थे.

राघव का पत्र भी आया था. उसे कानपुर आईआईटी में प्रवेश मिल गया था. स्कालरशिप भी मिल गई थी.

‘ऐसे ही मन लगा कर पढ़ते रहना,’ मीना ने भी दो लाइन का उत्तर भेज दिया था. दीवाली पर कभीकभार राघव के कार्ड आ जाते. अब तो दूसरे बच्चे कमरों में आ गए थे. मीना भी पुरानी बातों को भूल सी गई थी. बस, गैराज को देख कर कभीकभार उन्हें राघव की याद आ जाती. समय गुजरता रहा था.

दरवाजे पर उस दिन सुबहसुबह ही घंटी बजी थी.

‘‘आंटी, मैं हूं राघव. पहचाना नहीं आप ने?’’

‘‘राघव…’’ आश्चर्य भरे स्वर के साथ मीना ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा था. दुबलापतला शरीर थोड़ा भर गया था. आंखों पर चश्मा तो था पर चेहरे पर दमक बढ़ गई थी.

‘‘आओ, बेटा, कैसे हो… आज कैसे अचानक याद आ गई हम लोगों की.’’

‘‘आंटी, आप की याद तो हरदम आती रहती है. आप नहीं होतीं तो शायद मैं यहां तक पहुंच ही नहीं पाता. मेरा कोर्स पूरा हो गया है और आप ने कहा कि मन लगा कर पढ़ना तो फाइनल में भी अच्छी डिवीजन आई है. कैंपस इंटरव्यू में चयन हो कर नौकरी भी मिल गई है.’’

‘‘अच्छा, इतनी सारी खुशखबरी एकसाथ,’’ कह कर मीना हंसी थी.

‘‘हां, आंटी, पर मेरी एक इच्छा है कि जब मुझे डिगरी मिले तो आप और अंकल भी वहां हों, आप लोगों से यही प्रार्थना करने के लिए मैं यहां खुद आया हूं.’’

‘‘पर, बेटा…’’ मीना इतना बोलते- बोलते अचकचा गई थी.

‘‘नहीं, आंटी, ना मत कहिए. मैं तो आप के लिए टिकट भी बुक करा रहा हूं. आज आप लोगों की वजह से ही तो इस लायक हो पाया हूं. मैं जानता हूं कि जबजब मैं लड़खड़ाया आप ने ही मुझे संभाला. एक मां थीं जिन्होंने जिद कर के मुझे इस शहर में भेजा और फिर आप हैं. मां तो आज यह दिन देखने को रही नहीं पर आप तो हैं…आप मेरी मां…’’

राघव का भावुक स्वर सुन कर मीना भी पिघल गई थी. शब्द भी कंठ में आ कर फंस गए थे.

शायद ‘मां’ शब्द की सार्थकता का बोध यह बेटा उन्हें करा रहा था.

Hindi Moral Tales : चाहत

Hindi Moral Tales : ‘‘हां हां, मैं तो छोटा हूं, सारी जिंदगी छोटा ही रहूंगा, सदा बड़े भाई की उतरन ही पहनता रहूंगा. क्यों मां, क्या मेरा इस घर पर कोई अधिकार नहीं,’’ महेश ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

रात गहरी हो चुकी थी. कमला ने रसोई समेटी और बाहर आ कर दोनों बेटों के पास खड़ी हो गई. वे दोनों आपस में किसी बात को ले कर झगड़ रहे थे.

‘‘तुम दोनों कब लड़ना छोड़ोगे, मेरी समझ में नहीं आता. तुम लोग क्या चाहते हो? क्यों इस घर को लड़ाई का अखाड़ा बना रखा है? आज तक तो तुम्हारे पिताजी मुझ से लड़ते रहे. उस मानसिक क्लेश को सहतेसहते मैं तो आधी हो चुकी हूं. जो कुछ शेष हूं, उस की कसर तुम दोनों मिल कर निकाल रहे हो.’’

‘‘पर मां, तुम हमेशा बड़े भैया का ही पक्ष क्यों लेती हो, क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं?’’

‘‘तुझे तो हमेशा उस से चिढ़ रहती है,’’ मां मुंह बनाती हुई अंदर चली गईं.

वैसे यह सच भी था. मातापिता के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कारण ही सुरेश व महेश आपस में बहुत लड़ते थे. मां का स्नेह बड़े सुरेश के प्रति अधिक था, जबकि पिता छोटे महेश को ही ज्यादा चाहते थे. दोनों भाइयों की एक छोटी बहन थी स्नेह.

स्नेह बेचारी घर के इस लड़ाईझगड़े के माहौल में हरदम दुखी रहती थी. सुरेश व महेश भी उसे अपने पक्ष में करने के लिए हरदम लड़ते रहते थे. वह बेचारी किसी एक का पक्ष लेती तो दूसरा नाराज हो जाता. उस से दोनों ही बड़े थे. वह चाहती थी कि तीनों भाईबहन मिल कर रहें. घर की बढ़ती हुई समस्याओं के बारे में सोचें, खूब पढ़ें ताकि अच्छी नौकरियां मिल सकें.

उस ने जब से होश संभाला था, घर का वातावरण ऐसा ही आतंकित सा देखा. मां बड़े भाई का ही पक्ष लेतीं. शायद उन्हें लगता होगा कि वही उन के बुढ़ापे का सहारा बनेगा. पिता मां से ही उलझते रहते और छोटे भाई को दुलारते. वह बेचारी उन सब के लड़ाईझगड़ों से डरी परेशान सी, उपेक्षिता सुबह से शाम तक इसी सोच में डूबी रहती कि घर में कब व कैसे शांति हो सकती है.

सुबह की हुई बहस के बारे में वह आंगन में बैठी सोचती रही कि बड़े भैया सुरेश की उतरन पहनने के लिए महेश भैया ने कितना बुरा माना. लेकिन वह जो हमेशा इन दोनों की उतरन ही पहनती आई है, उस के बारे में कभी किसी का खयाल गया? वह सोचती, ‘मातापिता का ऐसा पक्षपातपूर्ण व्यवहार क्यों है? क्यों ये लोग आपस में ही लड़ते रहते हैं? अब तो हम सभी बड़े हो रहे हैं. हमारे घर की बातें बाहर पहुंचें, यह कोई अच्छी बात है भला?’ त्रस्त सी खयालों में डूबी वह चुपचाप भाइयों की लड़ाई का हल ढूंढ़ा करती.

स्नेह का मन इस वातावरण से ऊब गया था. वह एक दिन शाम को विचारों में लीन आंगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी. अचानक एक छोटा सा पत्थर का टुकड़ा उस के पास आ कर गिरा. चौंकते हुए उस ने पीछे मुड़ कर देखा कि कौन है?

अभी वह इधरउधर देख ही रही थी कि एक और टुकड़ा आ कर गिरा. इस बार उस के साथ एक छोटी सी चिट भी थी. घबरा कर स्नेह ने घर के अंदर निगाहें दौड़ाईं. इत्तफाक से मां अंदर थीं. दोनों भाई भी बाहर गए हुए थे. अब उस ने देखा कि एक लड़का पेड़ के पीछे छिपा हुआ उस की तरफ देख रहा है.

हिम्मत कर के उस ने वह चिट खोल कर पढ़ी तो उस की जान ही निकल गई. लिखा था, ‘स्नेह, मैं तुम्हें काफी दिनों से जानता हूं. तुम यों ही हर शाम इस आंगन में बैठी पढ़ती रहती हो. तुम्हारी हर परेशानी के बारे में मैं जानता हूं और उस का हल भी जानता हूं. तुम मुझे कल स्कूल की छुट्टी के बाद बाहर बरगद के पेड़ के पास मिलना. तब मैं बताऊंगा. शंकर.’

पत्र पढ़ कर डर के मारे स्नेह को पसीना आ गया. शंकर उस के पड़ोस में ही रहता था. उस के बारे में सब यही कहते थे कि वह आवारा किस्म का लड़का है. ‘उस के पास क्या हल हो सकता है मेरी समस्याओं का?’ स्नेह का दिल बड़ी कशमकश में उलझ गया.

वह भी तो यही चाहती थी कि उस के घर में लड़ाईझगड़ा न हो. ‘हमारे घर की बातें शंकर को कैसे पता चल गईं? क्या उस के पास जाना चाहिए?’ इसी सोच में सवेरा हो गया. स्कूल में भी उस का दिल न लगा. ‘हां’ और ‘नहीं’ में उलझा उस का मन कोई निर्णय नहीं ले पाया.

स्कूल की छुट्टी की घंटी से उस का ध्यान बंटा. ‘देख लेती हूं, वैसे बात करने में क्या नुकसान है,’ स्नेह खयालों में गुम बरगद के पेड़ के पास पहुंच गई. सामने देखा तो शंकर खड़ा था.

‘‘मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी,’’ शंकर ने कुटिलता से कहा, ‘‘सुबह शीशे में शक्ल देखी थी तुम ने?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ मेरी शक्ल को?’’ स्नेह डर गई.

‘‘तुम बहुत सुंदर हो,’’ शंकर ने जाल फेंका. उस के विचार में मछली फंस चुकी थी. और स्नेह भी आत्मीयता से बोले गए दो शब्दों के बदले बहक गई.

इस छोटी सी मुलाकात के बाद तो यह सिलसिला चल पड़ा. रोज ही शंकर उस से मिलता. उस के साथ दोचार घर की बातें करता. उसे यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता कि वह उस के हर दुखदर्द में साथ है. बातोंबातों में ही उस ने स्नेह से घर की सारी स्थिति जान ली. उस के दोनों भाइयों के बारे में भी वह काफी जानता था.

वह धीरेधीरे जान गया था कि स्नेह को अपने भाइयों से बहुत मोह है और वह उन के आपसी लड़ाईझगड़े के कारण बहुत तनाव में रहती है. शंकर ने यह कमजोरी पकड़ ली थी. वह स्नेह के प्रति झूठी सहानुभूति जता कर अपनी स्थिति मजबूत करना चाहता था. वह एक आवारा लड़का था, जिस का काम था, स्नेह जैसी भोलीभाली लड़कियों को फंसा कर अपना उल्लू सीधा करना.

अब स्नेह घर के झगड़ों से थोड़ी दूर हो चुकी थी. वह अब शंकर के खयालों में डूबी रहने लगी. महेश को एकदो बार उस की यह खामोशी चुभी भी थी, पर वह खामोश ही रहा.

महेश को तो बस सुरेश को ही नीचा दिखाने की पड़ी रहती थी. दोनों भाई घर की बिगड़ती स्थिति से बेखबर थे. वे दोनों चाहते तो आपसी समझ से लड़ाईझगड़ों को दूर कर सकते थे. और सच कहा जाए तो उन की इस स्थिति के जिम्मेदार उन के मांबाप थे. अभावग्रस्त जीवन अकसर कुंठा का शिकार हो जाता है. जहां आपस में एकदूसरे को नीचा दिखाने की बात आ जाए वहां प्यार का माहौल कैसे बना रह सकता है.

स्नेह शंकर से रोज ही कहती कि वह उस के भाइयों का झगड़ा समाप्त करा दे. शंकर भी उस की इस कमजोरी को भुनाना चाहता था. उस की समझ में स्नेह अब उस के मोहजाल में फंस चुकी थी.

दूसरी ओर स्नेह शंकर की किसी भी बुरी भावना से परिचित नहीं थी. उस ने अनजाने में ही सहज हृदय से उस पर विश्वास कर लिया था. उस का कोमल मन घर की कलह से नजात चाहता था.

एक दिन ऐसे ही स्नेह शंकर के पास जा रही थी कि रास्ते में बड़ा भाई सुरेश मिल गया, ‘‘तू इधर कहां जा रही है?’’

‘‘भैया, मैं अपनी सहेली के पास कुछ नोट्स लेने जा रही थी,’’ स्नेह ने सकपका कर कहा.

‘‘तू घर चल, नोट्स मैं ला कर दे दूंगा. और आगे से स्कूल के बाद सीधी घर जाया कर, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा,’’ भाई ने धमकाया.

उस दिन शंकर इंतजार ही करता रह गया. अगले दिन वह बड़े गुस्से में था. कारण जानने पर स्नेह से बोला, ‘‘हूं, तुम्हें आने से मना कर दिया. और खुद जो दोनों सारा दिन घर से गायब रहते हैं, तब कुछ नहीं होता.’’

उस दिन स्नेह बहुत डर गई. शंकर के चेहरे से लगा कि वह उस के भाइयों से बदला लेना चाहता है. वह सोचने लगी कि कहीं उस के कारण भाई किसी परेशानी में न पड़ जाएं. उस ने शंकर को समझाना चाहा, ‘‘मैं अब तुम्हारे पास नहीं आऊंगी. मेरे भाइयों ने दोबारा देख लिया तो खैर नहीं. यों भी तुम मुझ पर जरूरत से ज्यादा गुस्सा करने लगे हो. मैं तो तुम्हें एक अच्छा दोस्त समझती थी.’’

‘‘ओह, जरा से भाई के धमकाने से तू डर गई? मैं तो तुझे बहुत हिम्मत वाली समझता था,’’ शंकर ने मीठे बोल बोले.

‘‘नहीं, इस में डरने की बात नहीं. पर ऐसे आना ठीक नहीं होता.’’

‘‘अरे छोड़, चल उस पहाड़ी के पीछे चल कर बैठते हैं. वहां से तुझे कोई नहीं देखेगा,’’ शंकर ने फिर पासा फेंका.

‘‘नहीं, मैं घर जा रही हूं, बहुत देर हो गई है आज तो…’’

इस पर शंकर ने जोरजबरदस्ती का रास्ता अपनाने की सोची. ये लोग अभी बात ही कर रहे थे कि अचानक स्नेह का भाई सुरेश वहां आ गया. उस ने देखा कि स्नेह घबराई हुई है. उस के पास ही शंकर को खड़े देख कर उस के माथे पर बल पड़ गए.

उस ने शंकर से पूछा, ‘‘तू यहां मेरी बहन से क्या बातें कर रहा है?’’

‘‘अपनी बहन से ही पूछ ले ना,’’ शंकर ने रूखे स्वर में कहा.

‘‘इस से तो मैं पूछ ही लूंगा, तू अपनी कह. इस के पास क्या करने आया था?’’ सुरेश ने कड़े स्वर में कहा.

‘‘तेरी बहन ने ही मुझे आज यहां बुलाया था, कहती थी कि पहाड़ी के पीछे चलते हैं, वहां हमें कोई नहीं देखेगा,’’ शंकर कुटिलता से हंसा.

‘‘क्या कहा, मैं ने तुझे यहां बुलाया था?’’ स्नेह ने हैरान हो कर कहा, ‘‘मुझे नहीं पता था कि तू इतना बड़ा झूठ भी बोल सकता है.’’

‘‘अरे वाह, हमारी बिल्ली और हमीं को म्याऊं, तू ही तो रोज मेरा यहां इंतजार करती रहती थी.’’

‘‘बस, बहुत हो चुका शंकर, सीधे से अपने रास्ते चला जा, वरना…’’ सुरेश ने गुस्से से कहा.

‘‘हांहां, चला जाऊंगा, पर तेरी बहन को साथ ले कर ही,’’ शंकर बेशर्मी से हंसा.

‘‘जरा मेरी बहन को हाथ तो लगा कर देख,’’ कहने के साथ ही सुरेश ने जोरदार थप्पड़ शंकर के जड़ दिया.

बस फिर क्या था, उन दोनों में मारपीट होने लगी. शोर बढ़ने से लोग वहां एकत्र होने लगे. झगड़ा बढ़ता ही गया. एक बच्चे ने जा कर सुरेश के घर में कह दिया.

मां ने सुना तो झट महेश से बोलीं, ‘‘अरे, सुना तू ने. पड़ोस के शंकर से तेरे भाई की लड़ाई हो रही है. जा के देख तो जरा.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं? उस ने कभी मेरा कहा माना है? हमेशा ही तो मुझ से जलता रहता है. हर रोज झगड़ता है मुझ से. अच्छा है, शंकर जैसे गुंडों से पिटने पर अक्ल आ जाएगी,’’ महेश ने गुस्से से कहा.

‘‘पर इस वक्त बात तेरी व उस की लड़ाई की नहीं है रे, स्नेह भी वहीं खड़ी है. जाने क्या बात है, तुझे क्या अपनी बहन का जरा भी खयाल नहीं?’’

‘‘यह बात है. तब तो जाना ही पड़ेगा, स्नेह तो मेरा बड़ा खयाल रखती है. अभी जाता हूं. देखूं, क्या बात है,’’ तुरंत उठ कर महेश ने साइकिल निकाली और पलभर में बरगद के पेड़ के पास पहुंच गया.

सामने जो नजारा देखा तो उस का खून खौल उठा. शंकर के कई साथी उस के भाई को मार रहे थे और शंकर खड़ा हंस रहा था.

स्नेह ने उसे आते देखा तो एकदम रो पड़ी, ‘‘भैया, सुरेश भैया को बचा लो, वे मेरी खातिर बहुत देर से पिट रहे हैं.’’

अपने सगे भाई को यों पिटता देख महेश आगबबूला हो गया.

तभी शंकर ने जोर से कहा, ‘‘लो भई, एक और आ गया भाई की पैरवी करने.’’

लड़कों के हाथ रुके, मुड़ कर देखा तो महेश की आंखों में खून उतर आया था. उस ने वहीं से ललकारा, ‘‘खबरदार, जो अब किसी का हाथ उठा, एकएक को देख लूंगा मैं.’’

‘‘अरे वाह, पहले अपने को तो देख, रोज तो अपने भाई व मांबाप से लड़ताझगड़ता है, आज कैसा शेर हो रहा है,’’ शंकर ने चिढ़ाया.

‘‘पहले तो तुझे ही देख लूं. बहुत देर से जबान लड़ा रहा है,’’ कहते हुए महेश ने पलट कर एक घूंसा शंकर की नाक पर दे मारा और बोला, ‘‘मैं अपने घर में किसकिस से लड़ता हूं, तुझे इस से क्या मतलब? वह हमारा आपसी मामला है, तू ने यह कैसे सोच लिया कि तू मेरी बहन व भाई पर यों हाथ उठा सकता है?’’

शंकर उस के एक ही घूंसे से डर गया था. इस बीच सुरेश को भी उठने का मौका मिल गया. फिर तो दोनों भाइयों ने मिल कर शंकर की खूब पिटाई की. उस के दोस्त मैदान छोड़ कर भाग गए.

सुरेश के माथे से खून बहता देख स्नेह ने अपनी चुन्नी फाड़ी और जल्दी से उस के पट्टी बांधी. महेश ने सुरेश को अपनी बलिष्ठ बांहों से उठाया और कहा, ‘‘चलो, घर चलते हैं.’’

भरी आंखों से सुरेश ने महेश की आंखों में झांका. वहां नफरत की जगह अब प्यार ही प्यार था, अपनत्व का भाव था. घर की शांति थी, एकता का एहसास था.

स्नेह दोनों भाइयों का हाथ पकड़ कर बीच में खड़ी हो गई. फिर धीरे से बोली,

‘‘मैं भी तो यही चाहती थी.’’

फिर तीनों एकदूसरे का हाथ थामे घर की ओर चल दिए.

Short Stories in Hindi : दिशा विहीन रिश्ते

Short Stories in Hindi :  देशी घी की खुशबू धीरेधीरे पूरे घर में फैल गई. पूर्णिमा पसीने को पोंछते हुए बैठक में आ कर बैठ गई.

‘‘क्या बात है पूर्णि, बहुत बढि़याबढि़या पकवान बना रही हो. काम खत्म हो गया है या कुछ और बनाने वाली हो?’’

‘‘सब खत्म हुआ समझो, थोड़ी सी कचौड़ी और बनानी हैं, बस. उन्हें भी बना लूं.’’

‘‘मुझे एक कप चाय मिलेगी? बेटा व बहू के आने की खुशी में मुझे भूल गईं?’’ प्रोफैसर रमाकांतजी ने पत्नी को व्यंग्यात्मक लहजे में छेड़ा.

‘‘मेरा मजाक उड़ाए बिना तुम्हें चैन कहां मिलेगा,’’ हंसते हुए पूर्णिमा अंदर चाय बनाने चली गई.

65 साल के रमाकांतजी जयपुर के एक प्राइवेट कालेज में हिंदी के प्रोफैसर थे. पत्नी पूर्णिमा उन से 6 साल छोटी थी. उन का इकलौता बेटा भरत, कंप्यूटर इंजीनियरिंग के बाद न्यूयार्क में नौकरी कर लाखों कमा रहा था.

भरत छुटपन से ही महत्त्वाकांक्षी व होशियार था. परिवार की सामान्य स्थिति को देख उसे एहसास हो गया था कि उस के अच्छा कमाने से ही परिवार की हालत सुधर सकती है. यह सोच कर हमेशा पढ़ाई में जुटा रहता था. उस की मेहनत का ही नतीजा था कि 12वीं में अपने स्कूल में प्रथम और प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त किया.

रमाकांतजी की माली हालत कोई खास अच्छी न थी. भरत को कालेज में भरती करवाने के लिए बैंक से लोन लिया था, पर किताबें, खानापीना दूसरे खर्चे इतने थे कि उन्हें और भी कई जगह से कर्जा लेना पड़ा. एक छोटा सा मकान था, उसे आखिरकार बेच कर किसी तरह कर्जे के भार से मुक्त हुए.

भरत ने अच्छे अंकों से इंजीनियरिंग पास कर ली. फिर जयपुर में ही 2 वर्ष की टे्रनिंग के बाद उसे कंपनी वालों ने न्यूयार्क भेज दिया.

विदेश में बेटे को खानेपीने की तकलीफ न हो, सोच कर जल्दी से गरीब घर की लड़की देख बिना दानदहेज के साधारण ढंग से उस की शादी कर दी.

तुरंत शादी करने के कारण अब तक जो थोड़ी सी जमा पूंजी थी, शादी में खर्च हो गई.

बहू इंदू, गरीब घर की थी. उस के पिता एक होटल में रसोइए का काम करते थे. इंदू सिर्फ 12वीं तक पढ़ी थी और एक छोटी सी संस्था में नौकरी करती थी. उस की 3 बहनें और थीं जो पढ़ रही थीं.

रमाकांतजी व उन की पत्नी की सिर्फ यही इच्छा थी कि एक गरीब लड़की का ही हमें उद्धार करना है. उन्हें दानदहेज की कोई इच्छा न थी. उन्होंने साधारण शादी कर दी.

शादी होते ही अगले हफ्ते दोनों न्यूयार्क चले गए. शुरूशुरू में फोन से बेटाबहू बात करते थे फिर महीने में, फिर 6 महीने में एक बार बात हो जाती. बेटे की आवाज सुन, उस की खैरियत जान उन्हें तसल्ली हो जाती.

न्यूयार्क जाने के बाद भरत ने एक बार भी घर रुपए नहीं भेजे. पहले महीने पगार मिलते ही फोन पर बोला, ‘‘बाबूजी, यहां घर के फर्नीचर लेने आदि में बहुत खर्चा हो गया है. यहां बिना कार के रह नहीं सकते. 1-2 महीने बाद आप को पैसे भेजूंगा.’’

इस पर रमाकांतजी बोले, ‘‘बेटा, तुम्हें वहां जो चाहिए उसे ले लो. यहां हमें पैसों की जरूरत ही क्या है. हम 2 जनों का थोड़े में अच्छा गुजारा हो जाता है. हमारी फिक्र मत कर.’’

उस के बाद भरत से पैसे की कोई बात हुई ही नहीं.

रमाकांत व पूर्णिमा दोनों को ही इस बात का कोई गिलाशिकवा नहीं था कि बेटे ने पैसे नहीं भेजे. बेटा खुश रहे, यही उन्हें चाहिए था. थोड़े में ही वे गुजारा कर लेते थे.

2 साल बाद बेटे ने ‘मैं जयपुर आऊंगा’ फोन पर बताया तो पूर्णिमा की खुशी का ठिकाना न रहा.

पूर्णिमा से फोन पर भरत अकसर यह बात कहता था, ‘अम्मा, यह जगह बहुत अच्छी है. बड़ा घर है. बगीचा है. बरतन मांजने व कपड़े धोने की मशीन है. आप और बाबूजी दोनों आ कर हमारे साथ ही रहो. वहां क्या है?’

‘तुम्हारे बाबूजी ने यहां सेवानिवृत्त होने के बाद जयपुर में एक अपना हिंदी सिखाने का केंद्र खोल रखा है. जिस में विदेशी और गैरहिंदीभाषी लोग हिंदी सीखते हैं. उसे छोड़ कर बाबूजी आएंगे, मुझे नहीं लगता. तुम जयपुर आओ तो इस बारे में सोचेंगे,’ अकसर पूर्णिमा का यही जवाब होता था.

बेटे के बारबार कहने पर पूर्णिमा के मन में बेटे के पास जाने की इच्छा जाग्रत हुई. अब वे हमेशा पति से इस बारे में कहने लगीं कि 1 महीना तो कम से कम हमें भी बेटे के पास जाना चाहिए.

अब जब बेटे के आने का समाचार मिला, खुशी के चलते उन के हाथपैर ही नहीं चलते थे. हमेशा एक ही बात मन में रहती, ‘बेटा आ कर कब ले जाएगा.’

भरत जिस दिन आने वाला था उस दिन उसे हवाई अड्डे जा कर ले कर आने की पूर्णिमा की बहुत इच्छा थी. परंतु भरत ने कहा, ‘मां, आप परेशान मत हों. क्लियरैंस के होने में बहुत समय लगेगा, इसलिए हम खुद ही आ जाएंगे,’ उस के ऐसे कहने के कारण पूर्णिमा उस का इंतजार करते घर में अंदरबाहर चक्कर लगा रही थीं.

सुबह से ही बिना खाएपिए दोनों को इंतजार करतेकरते शाम हो गई. शाम 4 बजे करीब भरत व बहू आए. आरती कर बच्चों को अंदर ले आए. पूर्णिमा की खुशी का ठिकाना नहीं था. बेटाबहू अब और भी गोरे, सुंदर दिख रहे थे. रमाकांतजी बोले, ‘‘सुबह से अम्मा बिना खाए तुम्हारा इंतजार कर रही हैं. आओ बेटा, पहले थोड़ा सा खाना खा लें.’’

‘‘नहीं, बाबूजी, हम इंदू के घर से खा कर आ रहे हैं. अम्मा, आप अपने हाथ से मुझे अदरक की चाय बना दो. वही बहुत है.’’

तब दोनों का ध्यान गया कि उन के साथ में सामान वगैरह कुछ नहीं है.

इंदू ने अपने हाथ में पकड़े कपड़े के थैले को सास को दिए. उस में कुछ चौकलेट, एक साड़ी, ब्लाउज, कपड़े के टुकड़े थे.

पूर्णिमा का दिल बुझ गया. बड़े चाव से बनाया गया खाना यों ही ढका पड़ा था.

चाय पी कर थोड़ी देर बाद भरत बोला, ‘‘ठीक है बाबूजी, हम कल फिर आते हैं. हम इंदू के घर ही ठहरे हैं. एक महीने की छुट्टी है,’’ कहते हुए चलने के लिए खड़ा हुआ भरत तो इंदू शब्दों में शहद घोलते हुए बोली, ‘‘मांजी आप ने हमारे लिए इतने प्यार से खाना बनाया, फिर भला कैसे न खाएं. फिलहाल भूख नहीं है. पैक कर साथ ले जाती हूं.’’ और सास के बनाए हुए पकवानों को समेट कर बड़े अधिकार के साथ पैक कर दोनों मेहमानों की तरह चले गए.

रमाकांतजी और पूर्णिमा एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. रमाकांतजी पत्नी के सामने अपना दुख जाहिर नहीं करना चाहते थे. पर पूर्णिमा तो उन के जाते ही मन के टूटने से बड़बड़ाती रहीं, ‘कितने लाड़प्यार से पाला था बेटे को, क्या इसी दिन के लिए. ऐसा आया जैसे कोई बाहर का आदमी आ कर आधा घंटा बैठ कर चला जाता है,’ कहते हुए पूर्णिमा के आंसू बह निकले. रमाकांतजी पूर्णिमा के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे तसल्ली देने की कोशिश करने लगे. दिल में भरे दर्द से उन की आंखें गीली हो गई थीं लेकिन अपना दर्द जबान से व्यक्त कर पूर्णिमा को और दुखी नहीं करना चाहते थे.

रमाकांतजी ने पत्नी को कई तरह से  आश्वासन दे कर मुश्किल से खाना खिलाया. 2 दिन बाद भरत फिर आया. उस दिन पूर्णिमा जब उस के लिए चाय बनाने रसोई में गई तब अकेले में बाबूजी से बोला, ‘‘बाबूजी, इंदू को अपनी मां को न्यूयार्क ले जा कर साथ रखने की इच्छा है. उस की मां ने छोटी उम्र से परिवारबच्चों में ही रह कर बड़े कष्ट पाए हैं. इसलिए अब हम उन्हें अपने साथ न्यूयार्क ले कर जा रहे हैं. आप सब बातें अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए मैं आप को बता रहा हूं. अम्मा को समझाना अब आप की जिम्मेदारी है.

‘‘फिर, इंदू को न्यूयार्क में अकेले रहने की आदत हो गई है. आप व मां वहां हमेशा रह नहीं सकते. इंदू को अपनी प्राइवेसी चाहिए. अम्मा व इंदू साथ नहीं रह सकते, बाबूजी. आप वहां आए तो कहीं इंदू के साथ आप दोनों की नहीं बने, इस का मुझे डर है. इसीलिए आप दोनों को मैं अपने साथ रखने में हिचक रहा हूं. बाबूजी, आप मेरी स्थिति अच्छी तरह समझ गए होंगे,’’ वह बोला.

‘‘बेटा, मैं हर बात समझ रहा हूं, देख रहा हूं. तुम्हें मुझे कुछ समझाने की जरूरत नहीं है. रही बात तुम्हारी मां की, तो उसे कैसे समझाना है, अच्छी तरह जानता हूं,’’ बोलते हुए आज रमाकांतजी को सारे रिश्ते बेमानी से लग रहे थे.

इस के बाद जिस दिन भरत और इंदू न्यूयार्क को रवाना होने वाले थे उस दिन 5 मिनट के लिए विदा लेने आए.

उस रात पूर्णिमा रमाकांतजी के कंधे से लग खूब रोई थी, ‘‘क्योंजी, क्या हमें कोई हक नहीं है अपने बेटे के साथ सुख के कुछ दिन बताएं. बेटे से कुछ आशा रखना  क्या मातापिता का अधिकार नहीं.

‘‘क्या मैं ने आप से शादी करने के बाद किसी भी बात की इच्छा जाहिर की, परंतु अपने बेटे के विदेश जाने के बाद, सिर्फ 1 महीना वहां जा कर रहूं, यही इच्छा थी, वह भी पूरी न हुई…’’ पूर्णिमा रोतेरोते बोलती जा रही थी और रमाकांतजी यही सोच अपने मन को तसल्ली दे रहे थे कि शायद उन के ही प्यार में, परवरिश में कोई कमी रह गई होगी, वरना भरत थोड़ा तो उन के बारे में सोचता. मां के प्यार का कुछ तो प्रतिकार देता.

इस बात को 2 महीने बीत चुके थे. इस बीच इंदू ने भरत को बताया, आज मैं डाक्टर के पास गई थी. डाक्टर ने कहा तुम गर्भवती हो.’’

अभी भरत कुछ बोलने की कोशिश ही कर रहा था कि इंदू फिर बोली कि शायद इसीलिए कुछ दिनों से मुझे तरहतरह का खाना खाने की बहुत इच्छा हो रही है. इधर, मेरी अम्मा कहती हैं, ‘मैं 1 महीना तुम्हारे पास रही, अब बहनों व पिता को छोड़ कर और नहीं रह सकती. मुझे तो तरहतरह के व्यंजन बनाने नहीं आते. अब क्या करें?’’

‘‘तो हम एक खाना बनाने वाली रख लेते हैं.’’

‘‘यहां राजस्थानी खाना बनाने वाली तो मिलेगी नहीं. तुम्हारी मां को बुला लेते हैं. प्रसव होने तक यहीं रह कर वे मेरी पसंद का खाना बना कर खिला देंगी.’’

‘‘पिताजी 1 महीने के लिए तो आ सकते हैं. उन्होंने जो छोटा सा हिंदी सिखाने का केंद्र खोल रखा है वहां किसी दूसरे आदमी को रख कर परंतु…’’ उसे बात पूरी नहीं करने दी इंदू ने, ‘‘उन्हें यहां आने की क्या जरूरत है? आप की मां ही आएं तो ठीक है.’’

‘‘तुम्हीं ने तो कहा था, हमें प्राइवेसी चाहिए, वे यहां आए तो…ठीक नहीं रहेगा. अब वैसे भी उन से किस मुंह से आने के लिए कहूंगा.’’

‘‘वह सब ठीक है. लेकिन तुम्हारी मां को यहां आने की बहुत इच्छा है. आप फोन करो, मैं बात करती हूं.’’

इंदू की बातें भरत को बिलकुल भी पसंद नहीं आईं, बोला, ‘‘ठीक है, डाक्टर ने एक अच्छी खबर दी है. चलो, हम बाहर खाना खाने चलते हैं, फिर इस समस्या का हल सोचेंगे.’’

वे लोग एक रैस्टोरैंट में गए. वहां थोड़ी भीड़ थी, तो वे सामने के बगीचे में जा कर घूमने लगे. उन्होंने देखा कि बैंच पर एक बुजुर्ग बैठे हैं. दूर से भरत को वे अपने बाबूजी जैसे लगे. अच्छी तरह देखा. देख कर दंग रह गया भरत, ‘ये तो वे ही हैं.’

‘‘बाबूजी,’’ उस के मुंह से आवाज निकली.

‘‘रमाकांतजी ने पीछे मुड़ कर देखा तो एक बारी तो वे भी हैरान रह गए.

‘‘अरे भरत, बेटा तुम.’’

‘‘बाबूजी, आप यहां. कुछ समझ नहीं आ रहा.’’

बाबूजी बोले, ‘‘देखो, वहां अपना क्वार्टर है. आओ, चलें,’’ रमाकांतजी आगे चले, पीछे वे दोनों बिना बोले चल दिए.

घर का दरवाजा पूर्णिमा ने खोला. रमाकांतजी के पीछे खड़े भरत और इंदू को देख वह हैरान रह गई. फिर खुशी से भरत को गले से लगा लिया. दोनों का खुशी से स्वागत किया पूर्णिमा ने.

‘‘जयपुर में तुम्हारे पिताजी ने जो केंद्र हिंदी सिखाने के लिए खोल रखा है वहां इन के एक विदेशी शिष्य ने न्यूयार्क में ही हिंदी सिखाने के लिए कह कर हम लोगों को यहां ले आया. यह संस्था उसी शिष्य ने खोली है. सब सुविधाएं भी दीं. तुम्हारे बाबूजी ने वहां के केंद्र को अपने जयपुर के एक शिष्य को सौंप दिया.

‘‘तुम्हारे बाबूजी ने भी कहा कि हमारा जयपुर में कौन है, यह काम कहीं से भी करो, ऐसा सोच कर हम यहां आ गए. यहां तुम्हारे बाबूजी को 1 लाख रुपए महीना मिलेगा,’’ जल्दीजल्दी सबकुछ कह दिया पूर्णिमा ने.

‘‘अम्मा, तुम्हारी बहू गर्भवती है. उस की नईनई चीजें खाने की इच्छा होती है. अब उस की मां यहां नहीं आएगी. आप दोनों प्रसव तक हमारे साथ रहो तो अच्छा है.’’

‘‘वह तो नहीं हो सकता बेटा. बाबूजी का यह केंद्र सुबह व शाम खुलेगा. उस के लिए यहां रहना ही सुविधाजनक होगा.’’

‘‘अम्मा, बाबूजी नहीं आएं तो कोई बात नहीं, आप तो आइएगा.’’

‘‘नहीं बेटा, उन की उम्र हो चली है. इन को देखना ही मेरा पहला कर्तव्य है. यही नहीं, मैं भी भारतीय व्यंजन बना कर केंद्र के बच्चों को देती हूं. इस का मुझे लाभ तो मिलता ही है. साथ में, बच्चों के बीच में रहने से आत्मसंतुष्टि भी मिलती है. चाहो तो तुम दोनों यहां आ कर रहो. तुम्हें जो चाहिए, मैं बना दूंगी.’’

‘‘नहीं मां, यहां का क्वार्टर छोटा है,’’ भरत खीजने लगा.

‘‘हां, ठीक है. यहां तुम्हें प्राइवेसी नहीं मिलेगी. वहीं… उसे मैं भूल गई. ठीक है बेटा, मैं रोज इस की पसंद का खाना बना दूंगी. तुम आ कर ले जाना.’’

‘‘नहीं अम्मा, मेरा औफिस एक तरफ, मेरा घर दूसरी तरफ, तीसरी तरफ यह केंद्र है. रोज नहीं आ सकते. अम्मा, बहुत मुश्किल है.’’

‘‘भरत, अब तक हम दोनों तुम्हारे लिए ही जिए, पेट काट कर रह कर तुम्हें बड़ा किया, अच्छी स्थिति में लाए. पर शादी

‘‘तुम्हें जो सहूलियत हो वह करो. खाना तैयार है, अपनेआप ले कर खा लो. मुझे आने में आधा घंटा लगेगा,’’ कह कर पूर्णिमा एक दुकान की तरफ चली गई.

मांबाप के प्रेम को महसूस न कर, पत्नी के स्वार्थीपन के आगे झुक कर, उन की अवहेलना की. अब प्रेम के लिए तड़पने वाले भरत को आरामकुरसी में लेटे हुए पिताजी को आंख उठा कर देखने में भी शर्म आ रही थी. इंदू भी शर्मसार सी खड़ी थी. दोनों भारी मन के साथ घर से बाहर निकलने लगे. रमाकांतजी एक बारी भरत से कुछ कहने की चाह से उठने लगे थे लेकिन उन की आंखों के आगे चलचित्र की तरह पुरानी सारी बातें तैरने लगीं. पैर वहीं थम गए. भरत ने पीछे मुड़ कर देखा, शायद बाबूजी अपना फैसला बदल कर उस से कुछ कहेंगे लेकिन आज उन की आंखें कुछ और ही कह रही थीं. इस सब के लिए कुसूरवार वह खुद था. भरत का गला रुंध गया. बाबूजी के पैर पकड़ कर उन से माफी मांगने के भी काबिल नहीं रहा था.

होते ही हम तुम्हारे लिए बेगाने हो गए,’’ रमाकांतजी ने कहा, ‘‘खून के रिश्ते से दुखी हुए हम तो क्या हुआ? हालात ने नए रिश्ते बना दिए. अब इस रिश्ते को हम नहीं छोड़ सकते. पर तुम जब चाहो तब सकते हो. हम से जो बन पड़ेगा, तुम्हारे लिए करेंगे.’’

Moral Stories in Hindi : मौडर्न सिंड्रेला

Moral Stories in Hindi : आज मयंक ने मनाली को खूब शौपिंग करवाई थी. मनाली काफी खुश लग रही थी. उसे खुश देख कर मयंक भी अच्छा महसूस कर रहा था. वैसे वह बड़ा फ्लर्ट था, पर मनाली के लिए वह बिलकुल बदल गया था. मनाली से पहले भी उस की कई गर्लफ्रैंड्स रह चुकी थीं, पर जैसी फीलिंग उस के मन में मनाली के प्रति थी वैसी पहले किसी के लिए नहीं रही.

‘‘चलो, तुम्हें घर ड्रौप कर दूं,’’ मयंक ने कहते ही मनाली के लिए कार का दरवाजा खोल दिया.

‘‘नहीं मयंक, मुझे निमिशा दीदी का कुछ काम करना है इसलिए आप चले जाइए. मैं घर चली जाऊंगी,’’ प्यार से मुसकराते हुए मनाली निकल गई. फिर उस ने फोन कर के कोको स्टूडियो में पता किया कि कोको सर आए हैं कि नहीं. उसे आज हर हाल में फोटोशूट करवाना था. कैब बुक कर के वह कोको स्टूडियो पहुंच गई. तभी उसे याद आया, ‘आज तो ईशा मैम की क्लास है. उन की क्लास मिस करना बड़ी बात थी. वे क्लास बंक करने वाले स्टूडैंट्स को प्रैक्टिकल में बहुत कम नंबर देती थीं. तुरंत कीर्ति को फोन कर रोनी आवाज में दुखड़ा रोया, ‘‘प्लीज मेरी हाजिरी लगवा देना. चाची और निमिशा दीदी ने सुबह से जीना हराम कर रखा है.’’

‘‘ओह, तुम परेशान मत हो,’’ कीर्ति उसे दुखी नहीं देख सकती थी. वह समझती थी कि चाचाचाची मनाली को बहुत तंग करते हैं. तभी कोको सर भी आ गए. मौडलिंग की दुनिया में काफी नाम कमाया था उन्होंने. हां, थोड़े सनकी जरूर थे पर मौलिक, कल्पनाशील लोग ज्यादातर ऐसे होते ही हैं. कोको सर ने मनाली को ध्यान से देखा और उस पर बरस पड़े, ‘‘तुम्हें वजन कम करने की जरूरत है. मैं ने पहले भी तुम्हें बताया था. आज तुम्हारा फोटोशूट नहीं हो सकेगा.’’‘‘बुरा हो इस मयंक का और कालेज के अन्य दोस्तों का. जबतब जबरदस्ती कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं,’’ मनाली आगबबूला हो कर स्टूडियो से बड़बड़ाती हुई निकली. घर पहुंची तो चाची ने चुपचाप खाना परोस दिया. चाची उस से ज्यादा बातचीत नहीं करती थीं पर उस का खयाल अवश्य रखती थीं.

उस ने खाने की प्लेट की तरफ देखा तक नहीं, क्योंकि अब उस पर डाइटिंग का भूत सवार हो चुका था. रात का खाना भी उस ने नहीं खाया तो चाचाचाची को चिंता हुई. वैसे भी वह चाचा की लाड़ली थी. वे उसे अपने तीनों बच्चों की तरह ही प्यार करते थे. मनाली के मातापिता का तलाक हो गया था. उस की मां ने एक एनआरआई डाक्टर के साथ दूसरी शादी कर ली थी और अमेरिका में ही सैटल हो गई थीं. वहीं पिता कैंसर के मरीज थे. मनाली जब 8 वर्ष की थी तभी उन की मृत्यु हो गई थी. कुछ समय बूआ के पास रहने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे चंडीगढ़ चाचाचाची के पास भेजा गया. पढ़ाईलिखाई में मनाली का मन कम ही लगता था जबकि चाचा के तीनों बच्चे पढ़ने में बहुत अच्छे थे. चाची उसे भी पढ़ने को कहतीं पर मनाली पर उस का कम ही असर होता था. इंटर में गिरतेपड़ते पास हुई तो चाचा उस के अंक देख कर चकराए. ‘‘किस कालेज में दाखिला मिलेगा?’’

इस का हल भी मनाली ने सोच लिया था. वह चाचा को आते देख कर किसी न किसी काम में जुट जाती. यह देख कर चाचा चाची पर खूब नाराज होते. उस के कम अंक आने का जिम्मेदार चाचा ने चाची और बड़ी बेटी निमिशा को मान लिया था. खैर, जैसेतैसे चाचा ने मनाली का ऐडमिशन अच्छे कालेज में करा दिया था. कालेज में भी मनाली ने सब को चाची और निमिशा के अत्याचारों के बारे में बता कर सहानुभूति अर्जित कर ली थी. चाचा की छोटी बेटी अनीशा की मनाली के साथ अच्छी बनती थी. अनीशा थोड़ी बेवकूफ थी और अकसर मनाली की बातों में आ जाती थी. दोनों बाहर जातीं और देर होने पर मनाली अनीशा को आगे कर देती. बेचारी को चाचाचाची से डांट खानी पड़ती. चाची मनाली की चालाकियां खूब समझती थीं पर अनीशा मनाली का साथ छोड़ने को तैयार न थी. उस का लैपटौप, फोन, मेकअप का सामान मनाली खूब इस्तेमाल करती थी.

एक दिन अनीशा ने उसे बताया कि वह एक लड़के को पसंद करती है. पापा के दोस्त का बेटा है. उस की पार्टी में ही मुलाकात हुई थी. अनीशा ने मनाली को मयंक से मिलवाया. मयंक बहुत हैंडसम था और अमीर बाप की इकलौती संतान. मनाली ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह कैसे भी मयंक को हासिल कर के रहेगी. ‘‘देखो मयंक, मैं कहना तो नहीं चाहती पर अनीशा को साइकोसिस की बीमारी है.’’ मनाली ने भोली सी सूरत बना कर कहा.

‘‘क्या?’’ मयंक तो हैरान रह गया था.

‘‘प्लीज, तुम यह बात अनीशा और उस की फैमिली से मत कहना. तुम्हें तो पता ही है न उस घर में मेरी क्या हैसियत है.’’

मयंक मनाली की बातों में आ गया. और उस ने अनीशा के प्रति अपना नजरिया बदल लिया. उधर अनीशा को मयंक का व्यवहार कुछ अलग लगने लगा. उस के फोन उठाने भी उस ने बंद कर दिए. अनीशा ने मनाली को इस बारे में बताया तो उस ने आंखें मटकाते हुए समझाया, ‘‘मयंक को मैं ने एक नामी मौडल के साथ देखा है. वह उस की गर्लफ्रैंड है. तुम उसे भूल जाओ.’’ मनाली को तसल्ली हो गई कि अनीशा के भी अंक इस बार कम ही आएंगे. अच्छा हो, दोनों ही डांट खाएं. एक दिन चाचा के बेटे मनीष ने उसे कालेज टाइम में मयंक के साथ घूमते देख लिया. घर आ कर चाचाचाची के सामने मनाली की पोल खुली. ‘‘मैं तो मयंक की खबर लेने गई थी कि उस ने अनीशा का दिल दुखाया,’’ सुबकते हुए मनाली ने कारण बताया. बात बनाना उसे खूब आता था. घर वालों को अनीशा की उदासी का कारण भी पता चला. अनीशा मनाली से नाराज होने के बजाय उस से लिपट गई, ‘‘इस घर में एक तुम ही हो, जिसे मेरी फिक्र है.’’ खैर, कड़ी मेहनत के बाद मनाली ने वजन घटा ही लिया. फोटोशूट भी हो गया और चोरीछिपे एक दो असाइनमैंट भी मिल गए.

एक दिन मयंक से उस ने साफसाफ पूछा, ‘‘मयंक, मैं चाचाचाची के पास रहते हुए तंग आ चुकी हूं. मुंबई में मेरी मौसी रहती हैं. क्या, तुम कुछ समय के लिए मेरी मदद कर सकते हो?’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारे रहने का बंदोबस्त कर देता हूं. तुम बस मुझे बताओ कि तुम्हें कितनी रकम चाहिए,’’ मयंक सोच रहा था कि मनाली मुंबई जा कर मौसी के पास रह कर अपनी पढ़ाई करना चाहती है. उस ने ढेर सारी रकम और एटीएम कार्ड मनाली को दिया और निश्चित तारीख का टिकट भी पकड़ा दिया. चाचाचाची से कालेज ट्रिप का बहाना बना कर मुंबई जाने का रास्ता मनाली ने खोज लिया था. ‘वापसी शायद अब कभी न हो,’ सोच कर मंदमंद मुसकराती मौडर्न सिंड्रेला मुंबई की उड़ान भर चुकी थी. उसे खुद पर और उस से भी ज्यादा लोगों की बेवकूफी पर भरोसा था कि वह जो चाहेगी वह पा ही लेगी.

Famous Hindi Stories : मेरी सास – कैसी थी उसकी सास

Famous Hindi Stories : कहानियों व उपन्यासों का मुझे बहुत शौक था. सो, कुछ उन का असर था, कुछ गलीमहल्ले में सुनी चर्चाओं का. मैं ने अपने दिमाग में सास की एक तसवीर खींच रखी थी. अपने घर में अपनी मां की सास के दर्शन तो हुए नहीं थे क्योंकि मेरे इस दुनिया में आने से पहले ही वे गुजर चुकी थीं.

सास की जो खयाली प्रतिमा मैं ने गढ़ी थी वह कुछ इस प्रकार की थी. बूढ़ी या अधेड़, दुबली या मोटी, रोबदार. जिसे सिर्फ लड़ना, डांटना, ताने सुनाना व गलतियां ढूंढ़ना ही आता हो और जो अपनी सास के बुरे व्यवहार का बदला अपनी बहू से बुरा व्यवहार कर के लेने को कमर कसे बैठी हो. सास के इस हुलिए से, जो मेरे दिमाग की ही उपज थी, मैं इतनी आतंकित रहती कि अकसर सोचती कि अगर मेरी सास ही न हो तो बेहतर है. न होगा बांस न बजेगी बांसुरी.

बड़ी दीदी का तो क्या कहना, उन की ससुराल में सिर्फ ससुरजी थे, सास नहीं थीं. मैं ने सोचा, उन की तो जिंदगी बन गई. देखें, हम बाकी दोनों बहनों को कैसे घर मिलते हैं. लेकिन सब से ज्यादा चकित तो मैं तब हुई जब दीदी कुछ ही सालों में सास की कमी बुरी तरह महसूस करने लगीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘सास का लाड़प्यार ससुर कैसे कर सकते हैं? घर में सुखदुख सभीकुछ लगा रहता है, जी की बात सास से ही कही जा सकती है.’’

मैं ने सोचा, ‘भई वाह, सास नहीं है, इसीलिए सास का बखान हो रहा है, सास होती तो लड़ाईझगड़े भी होते, तब यही मनातीं कि इस से अच्छा तो सास ही न होती.’

दूसरी दीदी की शादी तय हो गई थी. भरापूरा परिवार था उन का. घर में सासससुर, देवरननद सभी थे. मैं ने सोचा, यह गई काम से. देखें, ससुराल से लौट कर ये क्या भाषण देती हैं. दीदी पति के साथ दूसरे शहर में रहती थीं, यों भी उन का परिवार आधुनिक विचारधारा का हिमायती था. उन की सास दीदी से परदा भी नहीं कराती थीं. सब तरह की आजादी थी, यानी शादी से पहले से भी कहीं अधिक आजादी. सही है, सास जब खुद मौडर्न होगी तो बहू भी उसी के नक्शेकदमों पर चलेगी.

दीदी बेहद खुश थीं, पति व उन की मां के बखान करते अघाती न थीं. मैं ने सोचा, ‘मैडम को भारतीय रंग में रंगी सास व परिवार मिलता तो पता चलता. फिर, ये तो पति के साथ रहती हैं. सास के साथ रहतीं तब देखती तारीफों के

पुल कैसे बांधतीं. अभी तो बस आईं

और मेहमानदारी करा कर चल दीं.

चार दिन में वे तुम से और तुम उन से क्या कहोगी?’

बड़ी दीदी से सास की अनिवार्यता और मंझली दीदी से सास के बखान सुनसुन कर भी, मैं अपने मस्तिष्क में बनाई सास की तसवीर पूरी तरह मिटा न सकी.

अब मेरी मां स्वयं सास बनने जा रही थीं. भैया की शादी हुई, मेरी भाभी की मां नहीं थी. सो, न तो वे कामकाज सीख सकीं, न ही मां का प्यार पा सकीं. पर मां को क्या हो गया? बातबात पर हमें व भैया को डांट देती हैं. भाभी को हम से बढ़ कर प्यार करतीं?. मां कहतीं, ‘‘बहू हमारे घर अपना सबकुछ छोड़ कर आई है, घर में आए मेहमान से सभी अच्छा व्यवहार करते हैं.’’

मां का तर्क सुन कर लगता, काश, सभी सासें ऐसी हों तो सासबहू का झगड़ा ही न हो. कई बार सोचती, ‘मां जैसी सासें इस दुनिया में और भी होंगी. देखते हैं, मुझे कैसी सास मिलती है.’

इसी बीच, एक बार अपनी बचपन की सहेली रमा से मुलाकात हुई. मैं उस के मेजर पति से मिल कर बड़ी प्रभावित हुई, उस की सास भी काफी आधुनिक लगीं, पर बाद में जब रमा से बातें हुईं तो पता लगा उन का असली रंग क्या है.

रमा कहने लगी, ‘‘मैं तो उन्हें घर के सदस्या की तरह रखना चाहती हूं पर वे तो मेहमानों को भी मात कर देती हैं. शादी के इतने सालों बाद भी मुझे पराया समझती हैं. मेरे दुखसुख से उन्हें कोई मतलब नहीं. बस, समय पर सजधज कर खाने की मेज पर आ बैठती हैं. कभीकभी बड़ा गुस्सा आता है. ननद के आते ही सासजी की फरमाइशें शुरू हो जाती हैं, ‘ननद को कंगन बनवा कर दो, इतनी साडि़यां दो.’ अकेले रमेश कमाने वाले, घर का खर्च तो पूरा नहीं पड़ता, आखिर किस बूते पर करें.

‘‘रमेश परेशान हो जाते हैं तो उन का सारा गुस्सा मुझ पर उतरता है. घर का सुखचैन सब खत्म हो गया है. रमेश अपनी मां के अकेले बेटे हैं, इसलिए उन का और किसी के पास रहने का सवाल ही नहीं है. पोतेपोतियों से यों बचती हैं गोया उन के बेटे के बच्चे नहीं, किसी गैर के हैं. कहीं जाना हुआ तो सब से पहले तैयार, जिस से बच्चों को न संभालना पड़े.’’

रमा की बातें सुन कर मैं बुरी तरह सहम गई. ‘‘अरे, यह तो हूबहू वही तसवीर साक्षात रमा की सास के रूप में विद्यमान है. अब तो मैं ने पक्का निश्चय कर लिया कि नहीं, मेरी सास नहीं होनी चाहिए. लेकिन होनी, तो हो कर रहती है. मैं ने सुना तो दिल मसोस कर रह गई. अब मां से कैसे कहूं कि यहां शादी नहीं करूंगी. कारण पूछेंगी तो क्या कहूंगी कि मुझे सास नहीं चाहिए. वाह, यह भी कोई बात है.

मन ही मन उलझतीसुलझती आखिर एक दिन मैं डोली में बैठ विदा हो ही गई. नौकरीपेशा पिता ने हम भाईबहनों को अच्छी तरह पढ़ायालिखाया, पालापोसा, यही क्या कम है.

मेरी देवरानियांजेठानियां सभी अच्छे खातेपीते घरों की हैं, मैं ने कभी यह आशा नहीं की कि ससुराल में मेरा भव्य स्वागत होगा. ज्यादातर मैं डरीसिमटी सी बैठी रहती. कोई कुछ पूछता तो जवाब दे देती. अपनी तरफ से कम ही बोलती. रिश्तेदारों की बातचीत से पता चला कि सास पति की शादी कहीं ऊंचे घराने में करना चाहती थीं. लेकिन पति को पता नहीं मुझ में क्या दिखा, मुझ से ही शादी करने को अड़ गए. लेनदेन से सास खुश तो नजर नहीं आईं, पर तानेबाने कभी नहीं दिए, यह क्या कम है.

मैं ने मां की सीख गांठ बांध ली थी कि उलट कर जवाब कभी नहीं दूंगी. पति नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर में रहते थे. मैं उन्हीं के साथ रहती. बीचबीच में हम कभी आते. मेरी सास ने कभी भी किसी बात के लिए नहीं टोका. मुझ से बिछिया नहीं पहनी गई, मुझे उलटी मांग में सिंदूर भरना कभी अच्छा नहीं लगा, गले में चेन पहनना कभी बरदाश्त न हुआ, हाथों में कांच की चूडि़यां ज्यादा देर कभी न पहन पाईं. मतलब सुहाग की सभी बातों से किसी न किसी प्रकार का परहेज था. पर सासजी ने कभी जोर दे कर इस के लिए मजबूर नहीं किया.

दुबलीपतली, गोरीचिट्टी सी मेरी सास हमेशा काम में व्यस्त रहतीं. दूसरों को आदेश देने के बजाय वे सारे काम खुद निबटाना पसंद करती थीं. बेटियों से ज्यादा उन्हें अपनी बहुओं के आराम का खयाल था.

इस बीच, मैं 2 बेटियों की मां बन चुकी थी. समयसमय पर बच्चों को उन के पास छोड़ जाना पड़ता तो कभी उन के माथे पर बल नहीं पड़ा. मेरे सामने तो नहीं, पर मेरे पीछे उन्होंने हमेशा सब से मेरी तारीफ ही की. मेरी बेटियां तो मुझ से बढ़ कर उन्हें चाहने लगी थीं. मेरी असली सास के सामने मेरी खयाली सास की तसवीर एकदम धुंधली पड़ती जा रही थी.

इसी बीच, मेरे पति का अपने ही शहर में तबादला हो गया. मैं ने सोचा, ‘चलो, अब आजाद जिंदगी के मजे भी गए. कभीकभार मेहमान बन कर गए तो सास ने जी खोल कर खातिरदारी की. अब हमेशा के लिए उन के पास रहने जा रहे हैं. असली रंगढंग का तो अब पता चलेगा. पर उन्होंने खुद ही मुझे सुझाव दिया कि 3 कमरों वाले उस छोटे से घर में देवरननदों के साथ रहना हमारे लिए मुश्किल होगा. फिर अलग रहने से क्या, हैं तो हम सब साथ ही.

मेरी मां मुझ से मिलतीं तो उलाहना दिया करतीं. ‘‘तुझे तो सास से इतना प्यार मिला कि तू ने अपनी मां को भी भुला दिया.’’

शायद इस दुनिया में मुझ से ज्यादा खुश कोई नहीं. मेरे मस्तिष्क की पहली वाली तसवीर पता नहीं कहां गुम हो गई. अब सोचती हूं कि टीवी सीरियल व फिल्मों वगैरा में गढ़ी हुई सास की लड़ाकू व झगड़ालू औरत का किरदार बना कर, युवतियां अकारण ही भयभीत हो उठती हैं. जैसी अपनी मां, वैसी ही पति की मां, वे भला बहूबेटे का अहित क्यों चाहेंगी या उन का जीवन कलहमय क्यों बनाएंगी. शायद अधिकारों के साथसाथ कर्तव्यों की ओर भी ध्यान दिया जाए तो गलतफहमियां जन्म न लें. एकदूसरे को दुश्मन न समझ कर मित्र समझना ही उचित है. यों भी, ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती.

मेरी सास मुझ से कितनी प्रसन्न हैं, इस के लिए मैं लिख कर अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहती, इस के लिए तो मेरी सास को ही एक लेख लिखना पड़ेगा. पर उन की बहू अपनी सास से कितनी खुश है, यह तो आप को पता चल ही गया है.

Hindi Story Collection : मां से मायका – क्या हुआ था ईशा के साथ

Hindi Story Collection :  रात का घना अंधेरा पसरा था. रात की चादर तले इंसानों के साथसाथ अब तो सारे सितारे भी सो चुके थे पर ईशा की आंखों में नींद कहां… वह अजीब सी बेचैनी महसूस कर रही थी. अंकुर नींद के आगोश में डुबे थे. घड़ी की सूई की टिकटिक से भी उसे झंझलाहट महसूस हो रही थी. पता नहीं क्यों कुछ छूटता हुआ महसूस हो रहा था.

अंशु भाभी का थोड़ी देर पहले ही फोन आया था, ‘‘नानाजी नहीं रहे.’’

‘‘कब?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने अंतिम सांस ली.’’

दिल में कहीं कुछ चटक सा गया. शायद ननिहाल से जुड़ा हुआ वह अंतिम धागा क्योंकि उन के जाने के साथ ही ननिहाल शब्द जीवन से खत्म हो गया. ईशा को ननिहाल हमेशा से बहुत पसंद था. यह वह जगह थी जहां लोग उस की मां को उन के नाम से पहचानते थे. यहां वे राम गोपालजी की बहू नहीं, रमेश की पत्नी नहीं और न ही ईशा की मां थीं. यहां वो कमला थी सिर्फ कमला जहां उन के आगमन का लोगों को इंतजार रहता था, जिन की वापसी के नाम पर लोगों के चेहरे पर उदासी पसर जाती थी.

‘‘इतनी जल्दी कितने दिनों बाद आई हो, कुछ दिन तो रुको.’’

मां का चेहरा जितनी तेजी से खुशी से चमकता उतनी ही तेजी से धप्प भी पड़ जाता. खुशी इस बात की कि कुछ लोग आज भी उन के आने का इंतजार करते हैं, गम इस बात का कि जो दूसरे ही पल इस बात का इजहार कर देता है कि अब वह पराई हो चुकी है. सिर्फ अपनों के लिए ही नहीं इस शहर के लिए भी…

‘‘क्या सोचा है आप ने… कब चलेंगी?’’ उन की बहू कह रही थी, ‘‘बीमार चल रहे थे… सब का इंतजार करेंगे तो कैसे चलेगा… मिट्टी खराब हो जाएगी.’’

मिट्टी… एक जीताजागता इंसान पलभर में मिट्टी हो गया. महीनों तक गरमी की छुट्टियों का इंतजार करने वाले नानाजी को आखिरी बार देखना भी संभव न होगा. मां के जाने के बाद उन्होंने ही तो सहेजा था हम दोनों भाईबहन को… मां जब इस दुनिया से गईं बच्चे नहीं थे हम पर प्यार के दो मीठे बोल, ममताभरा हाथ तो हर उम्र में चाहिए होता है. मां बहुत कष्ट में थीं, हर बार की कीमियोथेरैपी निराशा की ओर धकेल रही थी… डाक्टर हर बार कहते अब वे ठीक हैं पर मां जानती थीं सबकुछ ठीक नहीं है.

डाक्टर से मिलने के बाद पापा हमेशा हम भाईबहन के सामने मुसकराने का प्रयत्न करते, ‘‘सबकुछ ठीक है चिंता की कोई बात नहीं.’’

पर हर बार पापा के माथे की लकीरों को अनपढ़ मां न जाने कैसे पढ़ लेती थीं. आज सोचती हूं तो लगता है पापा के लिए कितना मुश्किल रहा होगा सबकुछ… हम सब के चेहरे पर खुशी के कुछ हसीन पल देखने के लिए वे मुसकराने का प्रयत्न करते थे… पर मुसकराते रहना कोई आसान बात नहीं. बहुत दर्द से गुजरती थी उन की वह हंसी हम सब के चेहरे पर खुशी के चंद लम्हे देखने के लिए…

ईशा को आज वह दिन बारबार याद आ रहा था. मां का शरीर कैंसर से दिनबदिन कमजोर होता जा रहा था पर उस से ज्यादा कमजोर होती जा रही थी उन के जीने की इच्छाशक्ति. पर न जाने क्यों मायके की दहलीज उन्हें बारबार खींच रही थी. पापा के बारबार मना करने के बावजूद मां हमें समेटे नानानानी से मिलने चली गई थीं.

नानाजी ने बारबार कहा भी था,’’ तुम चिंता न करो हम तुम से मिलने आएंगे.’’

मगर उस दहलीज, उन दीवारों का मोह उन से छूट नहीं रहा था. छूटता भी क्यों जीवन की न जाने कितनी यादें जुड़ी थीं उन दीवारों से, उन गलियारों से… उन्हें हमेशा लगता था शहर के चौराहे, नुक्कड़ उन की राह आज भी तक रहे हैं.

एकएक चीज का हिसाब रखने वाली मां नानी के घर जा कर न जाने क्यों भुलक्कड़ बन जाती थीं. नानी के बारबार कहने पर भी कुछ न कुछ सामान हर बार छूट ही जाता था. हर समय हर चीज को सहेजने वाली मां खुद को सहेजना भूल जाती थीं, जिन की उंगलियों पर एकएक चीज होती वे न जाने क्यों मायके से लौटते समय चीजें रख कर भूल जातीं. शायद वे उस घर में अपने वजूद की खुशबू बनाए रखना चाहती थीं पर उस बार वे सामान नहीं शायद अपनेआप को भूल आई थीं.

कभीकभी इंसान मौत से पहले ही मर जाता है… मां शायद अपना अंत जानती थीं हमेशा बोलने वाली मां अचानक चुप हो जातीं या फिर बहुत बोलने लगतीं. बहुत कुछ कहना था उन्हें पर शायद हम ही उन्हें सुन नहीं पाए. कुछ था जो मां के साथ ही अनकहा रह गया. अब की बार वे लौट कर आईं तो कुछ था जो उन से छूट रहा था पर मां मुंह से कुछ भी न कहतीं. रिश्तों और संबंधों को हमेशा सहेजने और समेटने वाली मां सूख रही थीं.

मां हमेशा कहती थीं, ‘‘वृक्षों से हमें संबंधों को गहराई की कला सीखनी चाहिए, कुल्हाड़ी की एक चोट से सिर्फ जड़ें ही नहीं मरतीं पेड़ भी मर जाता है.

‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:,

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:..’’

अंतिम आहुति के साथ पूजा संपन्न हुई. ईशा अपनी सोच के दायरे से बाहर आ

गई. नानाजी तसवीर में मुसकरा रहे थे. स्वागत करने वाले हाथ, दुलारने वाले हाथ आज तारीफ बन चुके थे. सभी लोग प्रसाद ग्रहण कर आंगन में ही बैठ गए. बड़े मामाजी के लड़के ने नानाजी के जीवन पर एक छोटा सी वृत्तचित्र बनाया था. ईशा हर कोने में बिखरी बचपन की यादों को आंचल में समेट रही थी. पता नहीं अब कब आना हो. हो भी या शायद… नानाजी का मुसकराता चेहरा आंखों में समा गया. औफिस जाते नानाजी, पोते की शादी में नाचते नानाजी परिवार के साथ खाना खाते नानाजी, ईशा की आंखों के आंसू रुक नहीं रहे थे. अंशु भाभी ने धीरे से उस के हाथों पर हाथ रखा पर स्नेह और आश्वासन का स्पर्श भी उन आंसुओं को रोक न सका. अंकुर ने धीरे से रूमाल ईशा की तरफ सरक दिया.

कुछ था जो ईशा किसी से भी बांट नहीं पा रही थी. पूजा संपन्न हो चुकी थी. धीरेधीरे घर से सभी पड़ोसी, दोस्त और रिश्तेदार प्रसाद ले कर अपनेअपने घर लौटने लगे.

अंकुर ने भी धीरे से इशारा किया, ‘‘अगर अभी निकल लेंगे तो रात तक घर पहुंच जाएंगे.’’

रुकने का कोई मतलब भी नहीं था और रोकने वाला भी दूरदूर तक कोई नहीं था. रोकने और मनुहार करने वाले हाथ तो न जाने कब का हाथ छुड़ा कर इस दुनिया से जा चुके थे. ईशा ने सब से इजाजत मांगी. मामीजी ने अंकुर और ईशा का टीका किया और घर के लोगों के लिए डब्बे में प्रसाद बांध कर दे दिया. ईशा ने एक भरपूर नजर घर पर डाली, कितना कुछ समेट लेना चाहती थी वह… शायद रिश्ते, शायद घर या फिर शायद यह शहर सबकुछ तो छूट रहा था. गाड़ी धूल उड़ाती आगे बढ़ गई.

रास्तेभर ईशा ने किसी से कोई बात नहीं की पर अंशु कुछकुछ समझ रही थी. वह उस के चेहरे को पढ़ने का प्रयास कर रही थी. उम्र में उस से छोटी ही थी पर दुनिया की उसे बड़ी अच्छी समझ थी, ‘‘जीजाजी, बड़ी देर से गाड़ी चल रही है, कहीं ढाबा देख कर गाड़ी रोक लीजिए. चाय पीने का मन कर रहा है.’’

अंशु समझ चुकी थी, कुछ ऐसा था जो ईशा को चुभ रहा था. ईशा बेचैन है अंशु यह अच्छी तरह समझ रही थी. नाना के घर से हमेशा के लिए नाता कहीं न कहीं टूट रहा था, सब लोग ढाबे की ओर चल पड़े. ईशा भरे कदमों से कुरसी की तरफ बढ़ ही रही थी कि अंशु ने हाथ पकड़ कर उसे रोक लिया, ‘‘दीदी, आप बुरा न माने तो एक बात कहूं?’’

‘‘हां बोल न.’’

‘‘नानाजी का जाना हम सब के जीवन में एक खालीपन भर गया है पर इस दुनिया में जो आया है उसे एक दिन तो जाना ही है. नानाजी अपनी सारी जिम्मेदारियां पूरी कर के गए हैं. मुझे ऐसा लगा आप के आंसुओं का कारण सिर्फ नानाजी का जाना नहीं है. ऐसा कुछ है जो आप को कचोट रहा है, आप के आंसू थम नहीं रहे हैं.’’

ईशा चुपचाप अंशु के चेहरा देखती रही. अंशु न जाने कैसे उस के दिल के दर्द को समझ गई थी.

‘‘अंशु, तुम से आज तक कुछ भी छिपा नहीं है. आज भी तुम से मैं कुछ भी नहीं छिपाऊंगी. जिस घर में मेरी मां पलीबढ़ीं जिन की हर सांस मायके से शुरू होती थी और मायके पर ही खत्म होती थी. आज नानाजी के घर जब वह वृत्तचित्र चला तो मामाजी के बेटेबहू, नातीपोते सब की तसवीरें थीं पर मेरे पापा और मेरी मां की एक तसवीर भी नहीं थी. नानाजी की संतान, मेरी मां उस घर की बेटी भी थीं, किसी की बहन, किसी की बूआ भी थीं.

आज न जाने क्यों मुझे यह महसूस हुआ.

‘‘मां का वजूद उन की मृत्यु के साथ ही खत्म नहीं हुआ बल्कि उस घर में तो उन का अस्तित्व कब का खत्म हो चुका था. मां से जुड़ा हुआ यह नाता शायद उसी दिन खत्म हो गया था, जिस दिन मां मरीं पर इस का एहसास मुझे आज हुआ. अंशु लोगों की थोड़ी सी अनदेखी सिर्फ रिश्ते को ही ठंडा नहीं करती इंसान को भी ठंडा कर देती है. आज मैं ने महसूस किया, कुछ साल पहले मेरी मां मरीं तो सिर्फ उन का शरीर मरा था पर लोगों की नजरों में उन का अस्तित्व तो बहुत पहले ही मर गया था.

‘‘जानती हो अंशु छोटी चाची गरीब परिवार से थीं, दादी ने उन की सुंदरता देख कर चाचा से शादी की थी. मां बताती थीं, चाची के मायके वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था जीवनभर वे इतने संपन्न परिवार के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर पाएंगे.’’

‘‘कर्तव्य?’’

‘‘कर्तव्य मतलब लेनदेन. भारतीय परिवारों में हर मौके, तीजत्योहार पर आने वाला नेग बहू के घर वालों और समधियाने का कर्तव्य ही तो है.’’

ईशा की बात सुन अंशु मुसकरा दी.

‘‘अंशु, उस पर से तुर्रा यह कि इस में नया क्या है, दुनिया करती है. दादी ने चाची की सुंदरता पर मोहित हो कर उन्हें दो कपड़ों में लाना मंजूर तो किया था पर शादी होते ही दादी यह बात भूल चुकी थीं कि चाची के परिवार के लोगों की ऐसी स्थिति नहीं है कि वे हर मौके पर नेग भेजते रहें पर चाची ने अपने मायके वालों की इज्जत रखने के लिए न जाने कितनी बार चाचाजी से बचाबचा कर रखे पैसों से कभी मिठाई तो कभी कपड़े खरीद कर मायके की इज्जत रखी. दादी इंसान के तौर पर बहुत अच्छी थीं पर सासदादी समझ जाती थीं कि यह सारा सामान किस तरह से एकत्र किया गया हैं. ‘सैंया का दाम और भैया का नाम’ दादी का यह एक वाक्य चाची को नश्तर की तरह चुभता पर बेचारी क्या करतीं.

‘‘घर में जेठानी भी थीं. एक अनदेखी सी प्रतिद्वंद्विता बनी ही रहती. आश्चर्य की बात यह प्रतिद्वंदिता उन दोनों के मन में कभी नहीं उपजती. मां के चाची से हमेशा से अच्छे संबंध रहे पर दादी, बूआ और नातेरिश्तेदार तुलना कर ही देते थे.

‘‘एक बार चाची ने मन की गांठों को मां के सामने खोल कर रख दिया था.

उन्होंने रोतेरोते मां को बताया था कि भाईभाभी के आने के बाद बिलकुल ही बदल गए हैं पर मायके की इज्जत रखने के लिए मन पर पत्थर रख कर वहां जाना ही पड़ता है. औरत का जीवन कभी ससुराल में मायके की इज्जत रखने तो कभी मायके में ससुराल की इज्जत रखने में ही बीत जाता है.

‘‘मां अच्छी तरह से समझती थीं कि विदाई में मिली चाची की साडि़यां उन की खुद की खरीदी हुई होती हैं पर आज समझ में आता है कहीं न कहीं मां भी तो मायके की इज्जत ही रख रही थीं. नानानानी अपनी सामर्थ्य अनुसार सबकुछ कर ही रहे थे पर आज मामा के परिवार का व्यवहार देख कर यह महसूस हुआ कि मायके की दहलीज मां के हाथ से कब की निकल चुकी थी. जिस परिवार के पास नाना के परिवार के नाम पर उन की बेटी और उस के परिवार की एक तसवीर भी उपलब्ध न हो सकी, वह भला मां से जुड़े हुए रिश्तों की क्या कद्र करेगा. मां बस नानानानी का मुंह देख कर आतीजाती रहीं. शायद ससुराल में मायके का सम्मान बचाए रखने के लिए.’’

अंशु ईशा के चेहरे को देख रही थी और ईशा आसमान में बिखरे उन बादलों के बीच डूबते सूरज को… रिश्तों की भीड़ में आज एक रिश्ता कहीं डूब गया था.

Famous Hindi Stories : मझधार – हमेशा क्यों चुपचाप रहती थी नेहा ?

Famous Hindi Stories :  पूरे 15 वर्ष हो गए मुझे स्कूल में नौकरी करते हुए. इन वर्षों में कितने ही बच्चे होस्टल आए और गए, किंतु नेहा उन सब में कुछ अलग ही थी. बड़ी ही शांत, अपनेआप में रहने वाली. न किसी से बोलती न ही कक्षा में शैतानी करती. जब सारे बच्चे टीचर की गैरमौजूदगी में इधरउधर कूदतेफांदते होते, वह अकेले बैठे कोई किताब पढ़ती होती या सादे कागज पर कोई चित्रकारी करती होती. विद्यालय में होने वाले सारे कार्यक्रमों में अव्वल रहती. बहुमखी प्रतिभा की धनी थी वह. फिर भी एक अलग सी खामोशी नजर आती थी मुझे उस के चेहरे पर. किंतु कभीकभी वह खामोशी उदासी का रूप ले लेती. मैं उस पर कई दिनों से ध्यान दे रही थी. जब स्पोर्ट्स का पीरियड होता, वह किसी कोने में बैठ गुमनाम सी कुछ सोचती रहती.

कभीकभी वह कक्षा में पढ़ते हुए बोर्ड को ताकती रहती और उस की सुंदर सीप सी आंखें आंसुओं से चमक उठतीं. मेरे से रहा न गया, सो मैं ने एक दिन उस से पूछ ही लिया, ‘‘नेहा, तुम बहुत अच्छी लड़की हो. विद्यालय के कार्यक्रमों में हर क्षेत्र में अव्वल आती हो. फिर तुम उदास, गुमसुम क्यों रहती हो? अपने दोस्तों के साथ खेलती भी नहीं. क्या तुम्हें होस्टल या स्कूल में कोई परेशानी है?’’

वह बोली, ‘‘जी नहीं मैडम, ऐसी कोई बात नहीं. बस, मुझे अच्छा नहीं लगता. ’’

उस के इस जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया जहां बच्चे खेलते नहीं थकते, उन्हें बारबार अनुशासित करना पड़ता है, उन्हें उन की जिम्मेदारियां समझानी पड़ती हैं वहां इस लड़की के बचपन में यह सब क्यों नहीं? मुझे लगा, कुछ तो ऐसा है जो इसे अंदर ही अंदर काट रहा है. सो, मैं ने उस का पहले से ज्यादा ध्यान रखना शुरू कर दिया. मैं देखती थी कि जब सारे बच्चों के मातापिता महीने में एक बार अपने बच्चों से मिलने आते तो उस से मिलने कोई नहीं आता था. तब वह दूर से सब के मातापिता को अपने बच्चों को पुचकारते देखती और उस की आंखों में पानी आ जाता. वह दौड़ कर अपने होस्टल के कमरे में जाती और एक तसवीर निकाल कर देखती, फिर वापस रख देती.

जब बच्चों के जन्मदिन होते तो उन के मातापिता उन के लिए व उन के दोस्तों के लिए चौकलेट व उपहार ले कर आते लेकिन उस के जन्मदिन पर किसी का कोई फोन भी न आता. हद तो तब हो गई जब गरमी की छुट्टियां हुईं. सब के मातापिता अपने बच्चों को लेने आए लेकिन उसे कोई लेने नहीं आया. मुझे लगा, कोई मांबाप इतने गैर जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं? तब मैं ने औफिस से उस का फोन नंबर ले कर उस के घर फोन किया और पूछा कि आप इसे लेने आएंगे या मैं ले जाऊं?

जवाब बहुत ही हैरान करने वाला था. उस की दादी ने कहा, ‘‘आप अपने साथ ले जा सकती हैं.’’ मैं समझ गई थी कोई बड़ी गड़बड़ जरूर है वरना इतनी प्यारी बच्ची के साथ ऐसा व्यवहार? खैर, उन छुट्टियों में मैं उसे अपने साथ ले गई. कुछ दिन तो वह चुपचाप रही, फिर धीरेधीरे मेरे साथ घुलनेमिलने लगी थी. मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं किसी बड़ी जंग को जीतने वाली हूं. छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुले वह 8वीं कक्षा में आ गई थी. उस की शारीरिक बनावट में भी परिवर्तन होने लगा था. मैं भलीभांति समझती थी कि उसे बहुत प्यार की जरूरत है. सो, अब तो मैं ने बीड़ा उठा लिया था उस की उदासी को दूर करने का. कभीकभी मैं देखती थी कि स्कूल के कुछ शैतान बच्चे उसे ‘रोतली’ कह कर चिढ़ाते थे. खैर, उन्हें तो मैं ने बड़ी सख्ती से कह दिया था कि यदि अगली बार वे नेहा को चिढ़ाते पाए गए तो उन्हें सजा मिलेगी.

हां, उस की कुछ बच्चों से अच्छी पटती थी. वे उसे अपने घरों से लौटने के बाद अपने मातापिता के संग बिताए पलों के बारे में बता रहे थे तो उस ने भी अपनी इस बार की छुट्टियां मेरे साथ कैसे बिताईं, सब को बड़ी खुशीखुशी बताया. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपनी मंजिल का आधा रास्ता तय कर चुकी हूं. इस बार दीवाली की छुट्टियां थीं और मैं चाहती थी कि वह मेरे साथ दीवाली मनाए. सो, मैं ने पहले ही उस के घर फोन कर कहा कि क्या मैं नेहा को अपने साथ ले जाऊं छुट्टियों में? मैं जानती थी कि जवाब ‘हां’ ही मिलेगा और वही हुआ. दीवाली पर मैं ने उसे नई ड्रैस दिलवाई और पटाखों की दुकान पर ले गई. उस ने पटाखे खरीदने से इनकार कर दिया. वह कहने लगी, उसे शोर पसंद नहीं. मैं ने भी जिद करना उचित न समझा और कुछ फुलझडि़यों के पैकेट उस के लिए खरीद लिए. दीवाली की रात जब दिए जले, वह बहुत खुश थी और जैसे ही मैं ने एक फुलझड़ी सुलगा कर उसे थमाने की कोशिश की, वह नहींनहीं कह रोने लगी और साथ ही, उस के मुंह से ‘मम्मी’ शब्द निकल गया. मैं यही चाहती थी और मैं ने मौका देख उसे गले लगा लिया और कहा, ‘मैं हूं तुम्हारी मम्मी. मुझे बताओ तुम्हें क्या परेशानी है?’ आज वह मेरी छाती से चिपक कर रो रही थी और सबकुछ अपनेआप ही बताने लगी थी.

वह कहने लगी, ‘‘मेरे मां व पिताजी की अरेंज्ड मैरिज थी. मेरे पिताजी अपने मातापिता की इकलौती संतान हैं, इसीलिए शायद थोड़े बदमिजाज भी. मेरी मां की शादी के 1 वर्ष बाद ही मेरा जन्म हुआ. मां व पिताजी के छोटेछोटे झगड़े चलते रहते थे. तब मैं कुछ समझती नहीं थी. झगड़े बढ़ते गए और मैं 5 वर्ष की हो गई. दिनप्रतिदिन पिताजी का मां के साथ बरताव बुरा होता जा रहा था. लेकिन मां भी क्या करतीं? उन्हें तो सब सहन करना था मेरे कारण, वरना मां शायद पिताजी को छोड़ भी देतीं.

‘‘पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि मां उन को छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. पिताजी को सिगरेट पीने की बुरी आदत थी. कई बार वे गुस्से में मां को जलती सिगरेट से जला भी देते थे. और वे बेचारी अपनी कमर पर लगे सिगरेट के निशान साड़ी से छिपाने की कोशिश करती रहतीं. पिताजी की मां के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही थी और अब वे दूसरी लड़कियों को भी घर में लाने लगे थे. वे लड़कियां पिताजी के साथ उन के कमरे में होतीं और मैं व मां दूसरे कमरे में. ‘‘ये सब देख कर भी दादी पिताजी को कुछ न कहतीं. एक दिन मां ने पिताजी के अत्याचारों से तंग आ कर घर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुझे ले कर अपने मायके आ गईं. वहां उन्होंने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी भी कर ली. मेरे नानानानी पर तो मानो मुसीबत के पहाड़ टूट पड़े. मेरे मामा भी हैं किंतु वे मां से छोटे हैं. सो, चाह कर भी कोई मदद नहीं कर पाए. जो नानानानी कहते वे वही करते. कई महीने बीत गए. अब नानानानी को लगने लगा कि बेटी मायके आ कर बैठ गई है, इसे समझाबुझा कर भेज देना चाहिए. वे मां को समझाते कि पिताजी के पास वापस चली जाएं.

‘‘एक तरह से उन का कहना भी  सही था कि जब तक वे हैं ठीक है. उन के न रहने पर मुझे और मां को कौन संभालेगा? किंतु मां कहतीं, ‘मैं मर जाऊंगी लेकिन उस के पास वापस नहीं जाऊंगी.’

‘‘दादादादी के समझाने पर एक बार पिताजी मुझे व मां को लेने आए और तब मेरे नानानानी ने मुझे व मां को इस शर्त पर भेज दिया कि पिताजी अब मां को और नहीं सताएंगे. हम फिर से पिताजी के पास उन के घर आ गए. कुछ दिन पिताजी ठीक रहे. किंतु पिताजी ने फिर अपने पहले वाले रंगढंग दिखाने शुरू कर दिए. अब मैं धीरेधीरे सबकुछ समझने लगी थी. लेकिन पिताजी के व्यवहार में कोई फर्क नहीं आया. वे उसी तरह मां से झगड़ा करते और उन्हें परेशान करते. इस बार जब मां ने नानानानी को सारी बातें बताईं तो उन्होंने थोड़ा दिमाग से काम लिया और मां से कहा कि मुझे पिताजी के पास छोड़ कर मायके आ जाएं. ‘‘मां ने नानानानी की बात मानी और मुझे पिताजी के घर में छोड़ नानानानी के पास चली गईं. उन्हें लगा शायद मुझे बिन मां के देख पिताजी व दादादादी का मन कुछ बदल जाएगा. किंतु ऐसा न हुआ. उन्होंने कभी मां को याद भी न किया और मुझे होस्टल में डाल दिया. नानानानी को फिर लगने लगा कि उन के बाद मां को कौन संभालेगा और उन्होंने पिताजी व मां का तलाक करवा दिया और मां की दूसरी शादी कर दी गई. मां के नए पति के पहले से 2 बच्चे थे और एक बूढ़ी मां. सो, मां उन में व्यस्त हो गईं.

‘‘इधर, मुझे होस्टल में डाल दादादादी व पिताजी आजाद हो गए. छुट्टियों में भी न मुझे कोई बुलाता, न ही मिलने आते. मां व पिताजी दोनों के मातापिता ने सिर्फ अपने बच्चों के बारे में सोचा, मेरे बारे में किसी ने नहीं. दोनों परिवारों और मेरे अपने मातापिता ने मुझे मझधार में छोड़ दिया.’’ इतना कह कर नेहा फूटफूट कर रोने लगी और कहने लगी, ‘‘आज फुलझड़ी से जल न जाऊं. मुझे मां की सिगरेट से जली कमर याद आ गई. मैडम, मैं रोज अपनी मां को याद करती हूं, चाहती हूं कि वे मेरे सपने में आएं और मुझे प्यार करें.

‘‘क्या मेरी मां भी मुझे कभी याद करती होंगी? क्यों वे मुझे मेरी दादी, दादा, पापा के पास छोड़ गईं? वे तो जानती थीं कि उन के सिवा कोई नहीं था मेरा इस दुनिया में. दादादादी, क्या उन से मेरा कोई रिश्ता नहीं? वे लोग मुझे क्यों नहीं प्यार करते? अगर मेरे पापा, मम्मी का झगड़ा होता था तो उस में मेरा क्या कुसूर? और नाना, नानी उन्होंने भी मुझे अपने पास नहीं रखा. बल्कि मेरी मां की दूसरी शादी करवा दी. और मुझ से मेरी मां छीन ली. मैं उन सब से नफरत करती हूं मैडम. मुझे कोई अच्छा नहीं लगता. कोई मुझ से प्यार नहीं करता.’’ वह कहे जा रही थी और मैं सुने जा रही थी. मैं नेहा की पूरी बात सुन कर सोचती रह गई, ‘क्या बच्चे से रिश्ता तब तक होता है जब तक उस के मातापिता उसे पालने में सक्षम हों? जो दादादादी, नानानानी अपने बच्चों से ज्यादा अपने नातीपोतों पर प्यार उड़ेला करते थे, क्या आज वे सिर्फ एक ढकोसला हैं? उन का उस बच्चे से रिश्ता सिर्फ अपने बच्चों से जुड़ा है? यदि किसी कारणवश वह बीच की कड़ी टूट जाए तो क्या उन दादादादी, नानानानी की बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं? और क्या मातापिता अपने गैरजिम्मेदार बच्चों का विवाह कर एक पवित्र बंधन को बोझ में बदल देते हैं? क्या नेहा की दादी अपने बेटे पर नियंत्रण नहीं रख सकती थी और यदि नहीं तो उस ने नेहा की मां की जिंदगी क्यों बरबाद की, और क्यों नेहा की मां अपने मातापिता की बातों में आ गई और नेहा के भविष्य के बारे में न सोचते हुए दूसरे विवाह को राजी हो गई?

‘कैसे गैरजिम्मेदार होते हैं वे मातापिता जो अपने बच्चों को इस तरह अकेला घुटघुट कर जीने के लिए छोड़ देते हैं. यदि उन की आपस में नहीं बनती तो उस का खमियाजा बच्चे क्यों भुगतें. क्या हक होता है उन्हें बच्चे पैदा करने का जो उन की परवरिश नहीं कर सकते.’ मैं चाहती थी आज नेहा वह सब कह डाले जो उस के मन में नासूर बन उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. जब वह सब कह चुप हुई तो मैं ने उसे मुसकरा कर देखा और पूछा, ‘‘मैं तुम्हें कैसी लगती हूं? क्या तुम समझती हो मैं तुम्हें प्यार करती हूं?’’ उस ने अपनी गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘हां.’’ और मैं ने पूछ लिया, ‘‘क्या तुम मुझे अपनी मां बनाओगी?’’ वह समझ न सकी मैं क्या कह रही हूं. मैं ने पूछा, ‘‘क्या तुम हमेशा के लिए मेरे साथ रहोगी?’’

जवाब में वह मुसकरा रही थी. और मैं ने झट से उस के दादादादी को बुलवा भेजा. जब वे आए, मैं ने कहा, ‘‘देखिए, आप की तो उम्र हो चुकी है और मैं इसे सदा के लिए अपने पास रखना चाहती हूं. क्यों नहीं आप इसे मुझे गोद दे देते?’’

दादादादी ने कहा, ‘‘जैसा आप उचित समझें.’’ फिर क्या था, मैं ने झट से कागजी कार्यवाही पूरी की और नेहा को सदा के लिए अपने पास रख लिया. मैं नहीं चाहती थी कि मझधार में हिचकोले खाती वह मासूम जिंदगी किसी तेज रेले के साथ बह जाए.

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