सड़क पर मरते लोग, गलती किसकी

दिल्ली में एक बार फिर सडक़ के किनारे सोते 4 लोगों की जान एक ट्रक ने रौंद ले ली. न तो यह पहली बार हुआ कि ट्रक या कार ने स्पीड में सडक़ किनारे सोते लोगों को मारा ही न आखिरी बार. सवाल यह नहीं है कि ट्रक ड्राइवर या कार ड्राइवर इतने लापरवाह क्यों होते हैं, सवाल यह है दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, कोलकाता, चेन्नै जैसे अमीर शहरों में भी हम आखिर क्यों नहीं किसी तरह की छत इन लोगों को दिलवा पाते जो किसी न किसी तरह इन शहरों में आकर पेट भरने का इंतजाम तो कर लेते हैं.

इस के लिए जिम्मेदार हमारी सामाजिक व्यवस्था है, हमारी सरकार की प्रायरिटीज और लोगों की मरी हुई फीलिंग हैं. सरकार के पास भव्य सैंट्रल विस्ठा पर 20000 करोड़ रुपए खर्च करने को हैं, दिल्ली की म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन की रामलीला मैदान के सामने बेहद ऊंची……..मंजिला बिङ्क्षल्डग है पर सडक़ पर सोते लोगों को छत देने के लिए पैसा नहीं है.

यह न सोचें कि देश में पैसा नहीं है. किसी भी सडक़ पर टहल लें. हर 20 गज पर एक बड़ा सा मंदिर, मसजिद या गुरूद्वारा दिख जाएगा जिस में संगमरमर लगा होगा, बुर्ज पर सोना मड़ा होगा, अंदर सोनेचांदी का काम होगा. सरकार इस पूजास्थल तक पहुंचने के लिए शानदार सडक़ बनाएंगी, पुलिस तैनात करेगी, बैरीकेट खड़ा करेंगी.

ये सडक़ पर सोते लोग शहरों पर बोझ नहीं हैं. ये अपना कमाते हैं पर बदले में बेहद कम पाते हैं. जनता जो चढ़ावे में लाखों देती है इन को देख कर नौकमौ चढ़ाती है पर ये ही सडक़ों को साफ करते हैं. कूढ़ा हटाते हैं, शहरों को चलाने में मदद करते हैं पर चूंकि इन के पास आवाज नहीं, तरकीब नहीं, ये दिन में माल ढ़ोने, रिक्षा चलाने, साफसफाई करने के बाद सडक़ों पर सोने को मजदूर हैं.

यह जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं है, यह जनता की है कि शहर की सरकार इन का फायदा उठाए तो उन्हें मरने के लिए सडक़ों पर तो न छोड़े. कुछ शहर रैनबसेरे बनाती है पर उन में इंतजाम ठीक नहीं होता क्योंकि पैसा तो बाबूशाही खा जाती है और ये बेचारे डरे हुए लोग सब सह जाते हैं, अगले ट्रक या कार की इंतजार में जो इन्हें कुचल कर छुटकारा दिला दे.

आखिर क्या है देश की प्राथमिकता

दिल्ली के राजपथ को फिर नए सिरे से सजाया गया है और हजारों करोड़ खर्च कर दिए गए हैं. हालांकि सरकारी आंकड़ा 477 करोड़ का है पर लगता नहीं कि यह काम इतने में हुआ होगा. 1947 के बाद कांग्रेस सरकारों ने इस के सुंदर कामों को मैंटेन तो किया पर बहुत ज्यादा रद्दोबदल नहीं किया था. इस पार्क पर न मूर्तियां थीं, न स्मारक. इंदिरा गांधी ने 1971 के बाद अमर जवान ज्योति जरूर जोड़ी थी पर इस के अलावा यह वैसे का वैसा ही था.

अब हजारों करोड़ क्यों खर्च किए गए. जनता की कौन सी कहां मांग थी, ट्रैफिक कंट्रोल की कौन सी आफत आन पड़ी थी, कहीं स्पष्ट नहीं है. यह मनमानी केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की थी और उन के मंत्रियों ने पूरा किया. जीएसटी, आय कर और कंपनियां बेच कर आने वाले पैसे को लगा कर अपने नाम से जुड़ जाने वाला स्मारक बना दिया जाए इंडिया गेट के सादे पर आकर्षक लानों को.

लाल पत्थर से भरे नए राजपथ पर चारों और कर्तव्य नहीं पैसा बिखरा दिख रहा है. लग यही रहा है कि राजपथ जो सरकार का प्रतीक था, अब जनता के इस पर खर्च करने और देखभाल करने के कर्तव्य का पथ बन गया है.

दिल्ली के घुटन भरे इलाकों से आने वालों के राजपथ के लान दशकों से एक राहत थे जहां पेड़ों की छांवों में रात देर तक दरियां बिछा कर खाना खाया जा सकता था. अब इस पर जनता के कर्तव्य थोप दिए गए हैं कि आइसक्रीम नहीं खा सकते, लान पर चल नहीं सकते, पानी में पैर नहीं डाल सकते, पुलिस और प्राइवेट गार्ड व कैमरे पलपल की खबर रखेंगे.

अब इस का नक्शा ऐसा बन गया है कि बारबार प्रधानमंत्री के अपने घर से निकलते ही सुरक्षा के नाम पर रास्ते बंद हो जाएंगे. दिल्ली की ज्योग्राफी वैसे भी ऐसी है कि यह 2 तरफ की दिल्लयों को जोड़ती है और इतना करने पर भी रास्ते चौड़े नहीं हुए, बस स्टाप नहीं बने.

क्या उस देश की प्राथमिकता है यह जो गरीबी, बेरोजगारी से जूझ रहा है? कहने को हम विश्व की सब से बड़ी 5वीं अर्थव्यवस्था हैं पर वह इसलिए कि हम विश्व दूसरे नंबर के जनसंख्या वाले सिंगापुर, इंग्लैंड, अमेरिका, जापान की प्रति व्यक्ति आय 65,000 डौलर प्रति वर्ष के आसपास है हम 2000 डौलर को ले कर खुश हो रहे हैं. 1960 में हमारे बराबर के चीन व ङ्क्षसगापुर, थाईलैंड, इंडोनेशिया, जैसे देश आज हम से कहीं आगे है प्रतिव्यक्ति आय में पर हमें दिखावटी चीजों की लगी है.

नरेंद्र मोदी से पहले यही काम अंग्रेजों ने किया था वायसरौय हाउस और राजपथ जो पहले ङ्क्षकग्स वे कहलाता था वे चारों और रजवाड़ों के मेगा महल बने थे जो सब हमारी गरीबी का माखौल उड़ाते थे. आज वही दोहराया जा रहा है. मूर्तियों पर खर्च हो रहा हैं. मंदिरों पर बेहताथा अरबों लगाए जा रहे हैं. देश को टुकड़े करने वाले नाटक आनंद मठ के गीत को गवाया जा रहा है. यह लोगों को सरकार के प्रति कर देने के कर्तव्य का याद दिलाने का काम है. 26 जनवरी को सेना सैल्यूट करेगी, 364 दिन जनता को नए बन रहे संसद भवन, प्रधानमंत्री भवन को सैल्यूट करने को कहा जाएगा, पुलिस व चौकीदारों की निगाहों में.

नर्सिंग और पैरामेडिकल ट्रेनिंग के लिए “मिशन निरामया”

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने प्रदेश के नर्सिंग कॉलेजों की कार्यप्रणाली की समीक्षा करते हुए शैक्षिक गुणवत्ता सुधार के सम्बंध में विविध दिशा-निर्देश दिए. उन्होंने कहा कि नर्सिंग और पैरामेडिकल स्टाफ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा व्यवस्था की रीढ़ हैं. कोरोना काल में हम सभी ने इनके व्यापक महत्व को देखा-समझा है. इस क्षेत्र में बेहतर कॅरियर की अपार संभावनाएं हैं. भविष्य की जरूरतों के दृष्टिगत नर्सिंग एवं पैरामेडिकल प्रशिक्षण में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है. ऐसे में इस महत्वपूर्ण कार्य को अभियान के रूप में लेते हुए “मिशन निरामयाः’ के शुभारंभ किया गया है.

नर्सिंग और पैरामेडिकल संस्थानों को मान्यता दिए जाने से पहले निर्धारित मानकों का कड़ाई से अनुपालन किया जाना सुनिश्चित करें. मान्यता तभी दी जाए, जब शिक्षक पर्याप्त हों, संस्थान में मानक के अनुरूप इंफ्रास्ट्रक्चर हो. अधोमानक संस्थानों को कतई मान्यता न दी जाए. प्रदेश के सभी नर्सिंग/पैरामेडिकल संस्थानों में सेवारत शिक्षकों का आधार सत्यापन करते हुए इनका विवरण पोर्टल भी उपलब्ध कराया जाए.

संस्थानों में दाखिला परीक्षा की शुचिता पर विशेष ध्यान दें. ऐसी व्यवस्था हो कि परीक्षाओं में कक्ष निरीक्षक दूसरे संस्थान से हों. परीक्षाओं की सीसीटीवी से निगरानी भी की जानी चाहिए. इस दिशा में बेहतर कार्ययोजना के साथ काम किया जाए.

प्रदेश के कई संस्थान अच्छा कार्य कर रहे हैं. इनमें निजी क्षेत्र के संस्थान भी शामिल हैं. इन बेस्ट प्रैक्टिसेज को अन्य संस्थानों में भी लागू किया जाना चाहिए. इसके लिए मेंटॉर-मेंटी मॉडल को अपनाया जाना चाहिए.

बेहतर प्रशिक्षण के साथ-साथ हमें बेहतर सेवायोजन के लिए भी सुनियोजित प्रयास करना होगा. इसके लिए निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठित हॉस्पिटल से संवाद कर नीति तय की जाए. नर्सिंग का प्रशिक्षण ले रहे युवाओं के लिए प्रैक्टिकल नॉलेज बहुत आवश्यक है.

नर्सिंग और पैरामेडिकल सेक्टर में कॅरियर की बेहतर संभावनाओं के बारे में अधिकाधिक युवाओं को जागरूक किया जाने की जरूरत है. इसके लिए माध्यमिक विद्यालयों का सहयोग लिया जाना बेहतर होगा. चिकित्सा शिक्षा और माध्यमिक शिक्षा विभाग इस संबंध में परस्पर समन्वय के साथ कार्य करें.

शादी के रिश्ते में पत्नी कोई गुलाम नहीं

वैवाहिक विवादों में पति क्याक्या आर्गुमैंट पत्नी का कैरेक्टर खराब दिखाने के लिए ले सकते हैं इस का एक उदाहरण अहमदाबाद में दिखा. 2008 में जोड़े का विवाह हुआ पर 2010 में पत्नी अपने मायके चली गई. बाद में पति दुबई में जा कर काम करने लगा.

पत्नी ने जब डोमैस्टिक वायलैंस और मैंटेनैंस का मुकदमा किया तो और बहुत सी बातों में पति ने यह चार्ज भी लगाया कि उस की रूठी पत्नी के अब पौलिटिशियनों से संबंध हैं और वह लूज कैरेक्टर की है.

सुबूत के तौर पर उस ने फेसबुक पर पत्नी और भाजपा के एक विधायक के फोटो दर्शाए.

कोर्ट ने पति की औब्जैक्शन को नकार दिया और 10 हजार मासिक का खर्च देने का आदेश दिया पर यह मामला दिखाता है कि कैसे पुरुष छोड़ी पत्नी पर भी अंकुश रखना चाहते हैं और उस के किसी जानेअनजाने के साथ फोटो को उस का लूज कैरेक्टर बना सकते हैं.

पत्नियों की सफलता किसी भी फील्ड में हो, पतियों को बहुत जलाती है क्योंकि सदियों से उन के दिमाग में ठूंसठूंस कर भरा हुआ है कि पत्नी तो पैर की जूती है. कितनी ही पत्नियां आज भी कमा कर भी लाती हैं और पति से पिटती भी हैं.

ऐसे पतियों की कमी नहीं है जो यह सोच कर कि पत्नी आखिर जाएगी कहां, उस से गुलामों का सा व्यवहार करते हैं. जो पत्नी के काम करने की इजाजत दे देते हैं, उन में से अधिकांश पत्नी का लाया पैसा अपने कब्जे में कर लेते हैं.

यह ठीक है कि आज के अमीर घरों की पत्नियों के पास खर्चने को बड़ा पैसा है. वे नईनई ड्रैसें, साडि़यां, जेवर खरीदती हैं, किट्टी पार्टियों में पैसा उड़ाती हैं पर ये सब पति मन बहलाने के लिए करने देते हैं ताकि पत्नी पूरी तरह उन की गुलाम रहे. ऐशोआराम की हैबिट पड़ जाए तो पति की लाख जबरदस्ती सहनी पड़ती है.

गनीमत बस यही है कि आजकल लड़कियों के मातापिता जब तक संभव होता है, शादी के बाद भी बेटी पर नजर रखते हैं, उसे सपोर्ट करते हैं, पैसा देते हैं, पति की अति से बचाते हैं. यहां पिता मां के मुकाबले ज्यादा जिम्मेदार होते हैं. मांएं साधारण या अमीर घरों में गई बेटियों को ऐडजस्ट करने और सहने की ही सलाह देती हैं.

पति को आमतौर पर कोई हक नहीं है कि वह अपनी पत्नी के कैरेक्टर पर उंगली भी उठाए खासतौर पर तब जब पत्नी घर छोड़ चुकी हो और पति देश. पति ने अगर क्व10 हजार मासिक की मामूली रकम दे दी तो कोई महान काम नहीं किया.

लेखिकाएं: साहस बनाम कट्टरवाद

इस साल के ख्यातिनाम अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार ‘बुकर’ के लिए गीतांजलि के उपन्यास ‘रेत की समाधि’ का चयन किया गया तो साहित्यप्रेमी झम उठे क्योंकि यह सम्मान हासिल करने वाली यह एकमात्र हिंदी पुस्तक है. 65 वर्षीय गीतांजलि ने अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत आम और औसत हिंदी लेखकों जैसे ही की थी. उन की पहली कहानी 1987 में एक साहित्यिक पत्रिका में छपी थी. उस के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और एक के बाद एक 5 उपन्यास लिखे.

90 के दशक में प्रकाशित उन का उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस’ भी खासा चर्चित हुआ था. मूलतया अयोध्या कांड की सांप्रदायिक हिंसा और दंगों को उकेरते इस उपन्यास में धर्म की वजह से पैदा हुई हिंसा का सटीक चित्रण था जो बहुतों को नागवार गुजरा था खासतौर से उन लोगों को जो सच से डरते हैं और उसे ढक कर रखे रहना चाहते हैं.

खुन्नस खा गए कट्टरपंथी

उपन्यास के ये चुनिंदा अंश या वाक्य ही बता देते हैं कि क्यों गीतांजलि श्री कुछ खास किस्म के लोगों की नजरों में ‘रेत की समाधि’ को ले कर भी खटक रही हैं:

– उस बरस भगवानों की बाकायदा खेती हुई. बीज लगे जिन के ऊपर अंगुलभर मूर्तियां रखी गईं देवी जगदंबे की और जब धरती को फाड़ कर पौधा और देवी प्रकट हुईं तो जय जगदंबे से लाउड स्पीकर झनझनाने लगे. ऐसे कि दीवारें हिल गईं गिरजाघरों और मसजिदों की नींवें हिल गईं.

नींवें तो मंदिरों की भी हिलीं. जिस तरह मुल्क में ईंटें टूटीं उस से तो शायद सच यह है कि नींव तो मुल्क की भी हिली. धूल के गुबार थे, भीड़ की कुचलमकुचलाई थी, लाठीपत्थरों की बारिश थी.

यह और इस तरह की बातों पर कट्टरपंथी खुन्नस खाए बैठे थे, लेकिन तब खुल कर इस का विरोध नहीं कर पाए थे तो इस की कई वजहें भी थीं. मसलन, उपन्यास में सांप्रदायिक हिंसा का देखा हुआ सच था. दूसरे तब गीतांजलि बहुत बड़ा यानी आज जितना चर्चित नाम भी नहीं था. ‘उस बरस हमारा शहर’ की घटनाएं प्रतीकात्मक रूप में ही सही वास्तविक इसलिए भी थीं कि गीतांजलि ने धार्मिक हिंसा और नफरत को बहुत करीब से देखा था खासतौर से उत्तर प्रदेश में जहां उन की पैदाइश और परवरिश हुई.

बेबाक राय

मैनपुरी के एक ब्राह्मण परिवार की गीतांजली पांडे के पिता अनिरुद्ध पांडेय पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर विभिन्न शहरों में तैनात रहे जो खुद भी शौकिया लेखक थे.

कालेज की पढ़ाई के लिए गीतांजलि दिल्ली चली गईं और वहां लेडी श्रीराम कालेज और जेएनयू में पढ़ीं. इतिहास की पढ़ाई छोड़ कर उन्होंने हिंदी में पीएचडी की उपाधि ली वह भी प्रेमचंद के साहित्य पर जो उन्हें असली भारत के और नजदीक ले जाने बाली बात साबित हुई. इस के बाद उन्होंने अपनी रचनाओं में कोई लिहाज किसी का नहीं किया.

गीतांजलि के लेखन पर गहरी नजर रखने वाले कट्टरपंथी देख और समझ रहे थे कि यह युवती एक खतरा बनती जा रही है जो सच बयानी से हिचकती नहीं. इसी दौरान गीतांजलि की शादी हो गई और स्वाभाविक तौर पर वे घरगृहस्थी में रम गईं. लेखन धीमा जरूर हुआ पर बंद नहीं हुआ. अब तक हिंदी साहित्य में उन की जगह बन चुकी थी और खुद का अपना पाठक वर्ग भी वे तैयार कर चुकी थीं.

यों ही लिखतेलिखते उन्होंने 2018 में ‘रेत की समाधि’ उपन्यास लिखा जो चर्चा में इस साल आया क्योंकि उसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘बुकर’ के लिए चुना गया था. इस खबर को साहित्य जगत में तो खूब अंडरलाइन किया गया, लेकिन मीडिया में उम्मीद के मुताबिक स्पेस नहीं मिला क्योंकि गीतांजलि को किसी राष्ट्रपति प्रधानमंत्री तो दूर की बात है विपक्ष के किसी नेता ने भी बधाई नहीं दी थी.

ऐसा भी नहीं था और न है कि गीतांजलि किसी ऐसी खास तारीफ या प्रोत्साहन की मुहताज हों जिस का साहित्य की तरफ से पीठ कर सोने वालों का कोई वास्ता और योगदान हो.

अब तक आमतौर पर फ्लैश बैक लेखन करने वाली गीतांजलि पर साहित्य के खेमेबाजों ने वामपंथी होने का ठप्पा जरूर लगा दिया था. इस पर खुद गीतांजलि ने चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि मेरी समझ से बात संवेदना की है न कि वाद की वाद और विचारधारा का साहित्य बंदी नहीं है यह चिंता पाठक आलोचक अकादमिक बहसों में पड़ने बालों की है मुश्किल यह है कि अकसर वे हर कलाकृति को वाद और विचारधारा में बांटने के आदी हो गए हैं.

आगरा से आरंभ

बीती 31 जुलाई को गीतांजलि का कहा सच भी साबित हुआ. इस दिन ताज नगरी आगरा के प्रबुद्ध वर्ग में खासी उत्तेजना और गहमागहमी थी. जहां इस दिन 2 सांस्कृतिक संगठनों रंगलीला और आगरा थिएटर क्लब ने ‘बुकर’ पुरस्कार प्राप्त लेखिका को सम्मानित करने का आयोजन किया था. इस उत्साह और तैयारियों पर उस वक्त पानी फिर गया जब गीतांजलि ने आगरा आने से मना कर दिया क्योंकि उन के खिलाफ हाथरस के सादाबाद थाने में संदीप पाठक नाम के शख्स ने तहरीर दी थी.

इस पाठक का आरोप था कि ‘रेत की समाधि’ उपन्यास में हिंदू देवता शिव और पार्वती देवी के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई हैं. संदीप ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पुलिस महानिदेशक को भी इस बाबत ट्वीट करते हुए गुजारिश की थी कि इस शिकायत को एफआईआर में बदला जाए. गीतांजलि इस से इतनी आहत हुईं कि अपने अभिनंदन समारोह में ही नहीं गईं, जबकि उन से उम्मीद तो यह की जाती है कि वे कट्टरवादियों का डट कर मुकाबला करें.

मुमकिन है गीतांजलि डर गई हों. हालांकि यह बात उन के लेखकीय तेवरों से मेल नहीं खाती. गीतांजलि को न आता देख आयोजकों में गुस्सा देखा गया जो एक स्वाभाविक बात थी. लेकिन इन सभी का गुस्सा सत्ता पक्ष और दक्षिणपंथियों पर उतरना बताता है कि दरअसल में पेंच क्या है और इस पाठक की शिकायत का लब्बोलुआब क्या था. रंगलीला के पदाधिकारी अनिल शुक्ला के मुताबिक इस उपन्यास में आपत्तिजनक कुछ नहीं है. इस में एक पौराणिक घटना का जिक्र भर है.

भेदभाव के खिलाफ आवाज

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी दोटूक हकीकत बयान करते हुए बताते हैं कि यह जाति के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव की तरह है जिस पर हिंदी की यह कहावत लागू होती है- चेहरा देख कर टीका लगाना. अगर कोई व्यक्ति हमारी विचारधारा में फिट नहीं बैठता तो हम उस का सम्मान नहीं करेंगे.

अपनी भड़ास को और विस्तार देते हुए ओम कहते हैं इन लोगों ने उन की बैकग्राउंड देख ली है. ये जेएनयू वाली है बाकी इन्होंने साहित्य तो पढ़ा नहीं है. हमारे यहां किसी खेल में पुरस्कार जीतने वालों को प्रधानमंत्री सम्मानित करते हैं, लेकिन हिंदी की किसी लेखिका ने पहली बार ?‘बुकर’ जीता और उन्होंने बधाई तक नहीं दी. राजनीतिक सत्ता में बैठे लोग साहित्य के मामले में निरक्षर हैं.

‘रेत की समाधि’ की केंद्रीय पात्र एक अवसादग्रस्त बुजुर्ग महिला है. यह उपन्यास उस की जीवनयात्रा है जिस के अंतिम पड़ाव पर वह सारी वर्जनाएं और परंपराएं तोड़ने पर आमादा है. भारतपाकिस्तान विभाजन की त्रासदी उपन्यास की पृष्ठभूमि है जो शिद्दत से यह बताती है कि एक औरत की जिंदगी पर उस का क्या और कैसाकैसा असर पड़ता है.

यही शायद बड़ी परेशानी की बात कुछ लोगों को है कि एक औरत मुख्य पात्र क्यों है और है भी तो आजादी के 75 साल बाद उस में इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि वह खुद सोचने लगी जबकि औरत को तो सोचने का भी हक नहीं. अगर है भी तो उसे व्यक्त करने का तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि कोई भी औरत जब भी सच बोलेगी तो वह मर्दों के खिलाफ ही होगा.

सामने आई साहित्यिक खेमेबाजी

सादाबाद थाने में की गई शिकायत में देवी देवताओं की आड़ महज परेशान करने और हिम्मत तोड़ने की गरज से की गई लगती है वरना तो उपन्यास में न केवल पेज नंबर 222 बल्कि कहीं भी आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है जिस पर हायहाय मचाई जाए. इसे शुरुआत समझना बेहतर होगा. हालांकि गीतांजलि का अंदरूनी तौर पर साहित्यिक बहिष्कार तो इस उपन्यास के प्रकाशित होने के साथ ही शुरू हो गया था. कई मठाधीशों ने उन से कन्नी काटते उन्हें साहित्य की मुख्यधारा (बशर्ते अब कोई होती हो तो) से अलग होने का एहसास कराया था.

‘रेत की समाधि’ का अंगरेजी अनुवाद डेजी राकवेल ने किया है जो कि बेहतर अनुवाद के लिए जानी जाती हैं. इस उपन्यास को मिली 50 हजार पौंड की इनामी राशि में से आधा हिस्सा उन्हें मिला है. दक्षिणपंथी साहित्यकारों ने तभी से अफवाह उड़ाने की कोशिश की थी कि दरअसल में ‘बुकर’ पुरस्कार अनुवाद के लिए मिला है यानी गीतांजलि और उन का ‘रेत की समाधि’ गौण है.

बिलाशक डेजी के अनुवाद की गुणवत्ता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते, लेकिन यह चर्चा कि अगर अनुवाद अच्छा न होता तो उपन्यास ‘बुकर’ पुरस्कार के मंच तक पहुंचता कैसे एक हास्यास्पद बात है जिसे तर्क कहना तर्क के साथ छल होगा.

इन जलकुक्कड़ खेमेबाजों ने हवा यह भी उड़ाई थी कि अब गीतांजलि के साथी उन्हें महान साबित करने की कोशिश करेंगे जबकि उलट इस के सच तो यह है कि गीतांजलि और उन के साथियों ने कभी कोई ऐसी कोशिश नहीं की शायद इसलिए भी कि ‘बुकर’ का मिलना ही उन्हें महान साबित करता है. पर लोग चाहते थे कि जब तक देश के आका तारीफ न कर दें तब तक महानता स्थापित नहीं होती.

टोटके जब बेअसर होने लगे

ये और ऐसे तमाम टोटके जब बेअसर साबित होने लगे तो किन्हीं पाठकजी की नजर पेज नंबर 222 पर पड़ गई जहां उन्हें एहसास हुआ कि अरे यह तो हमारे देवीदेवताओं का मजाक है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू देवीदेवताओं का मजाक उड़ाने वाली लेखिका को लोग आगरा में सरेआम समारोहपूर्वक सम्मानित कर रहे हैं. धिक्कार है उन आयोजकों पर जो हिंदू होते हुए भी पूज्य देवीदेवताओं की मर्यादा की हिफाजत नहीं कर रहे या कर पा रहे. ऐसे पापियों को सजा दिलाने की पहली सीढ़ी थाने से हो कर जाती है जहां के पुलिस कर्मियों ने समकालीन आलोचकों को पछाड़ते हुए फैसला दिया कि कुछ आपत्तिजनक है या नहीं इस का फैसला उपन्यास पढ़ने के बाद लिया जाएगा.

ये पुलिस वाले उन महान साहित्यकारों से कमतर होंगे ऐसा कहने की कोई वजह नहीं जो ‘रेत की समाधि’ के अंगरेजी अनुवाद ‘टौंब या टूंब औफ सैंड’ पूरे आत्मविश्वास से कुछ इस तरह कह रहे हैं कि औक्सफोर्ड वाले भी शरमा जाएं कि भारत पहुंचते ही हमारा शब्द टूम, टौंब या टूंब कैसे हो गया. इन लोगों को मालूम ही नहीं कि अंगरेजी के शब्दकोष में सही उच्चारण क्या है, लेकिन मुद्दा या तिलमिलाहट उच्चारण नहीं है, अंदर क्या लिखा है यह भी बहुत ज्यादा नहीं है क्योंकि यह एक ऐसी साहित्यकार की सफलता और उपलब्धि है जो कट्टरवाद के खांचे में फिट बैठना तो खवाव की बात है कट्टरवाद को ध्वस्त करने पर उतारू है.

अब दुकान खराब होगी तो कुछ तो करना पड़ेगा. लिहाजा हाथरस से कर दिया गया जिस में दुखद बात गीतांजलि का आगरा के आयोजन में न जाना रहा जो कि एक खतरनाक इशारा न केवल साहित्य के लिहाज से है बल्कि गीतांजलि सरीखी बोल्ड मानी जाने वाली लेखिका की मनोदशा का भी है कि क्या सचमुच वे देश के और उत्तर प्रदेश के माहौल से भयभीत हैं? अगर हां तो अपनी बात उन्हें भी योगीमोदी तक पहुंचानी चाहिए. इस से कुछ हासिल नहीं होगा यह सब को मालूम है, लेकिन कुछ नहीं होता यह दिखाने के लिए ही सही उन्हें इन लोगों से गुजारिश तो करनी चाहिए.

मनोबल तोड़ने की कोशिश

गीतांजलि कोई पहली या आखिरी लेखिका नहीं हैं जिन का मनोबल तोड़ने के लिए यों कोशिश की गई बल्कि उन के पहले कई लेखिकाओं को निशाने पर लिया गया है. इन में एक बड़ा और चर्चित नाम अरुंधती राय का है जिन के उपन्यास ‘गौड औफ स्माल थिंग्स’ को ‘बुकर’ मिला था. तब भी भक्तों ने खूब बबाल यह आरोप लगाते किया था कि इस उपन्यास में कामुकता और अश्लीलता है.

यह भी कोई हैरत की बात इस लिहाज से नहीं थी कि एतराज जताने वाले छाती सिर्फ इसलिए कूट रहे थे कि अरुंधती घोषित तौर पर वामपंथी हैं और आज भी भगवा गैंग की नाक में दम किए रहती हैं.

ये और ऐसी कई बातें हैं जो अरुंधती से ऐलर्जी रखने के लिए काफी हैं. एक जागरूक महिला बोले तो फर्क पड़ता है और अगर वह महिला अरुंधती हो तो इतना फर्क पड़ता है कि कट्टरवादी भीतर तक हिल जाते हैं और उसे राष्ट्रद्रोही वामपंथी और न जाने क्याक्या कहने लगते हैं.

1997 में ‘बुकर’ पुरस्कार मिलने के बाद से तो वे और मुखर हो गई हैं. यह सोचना बेमानी है कि वे सिर्फ भगवा गैंग की छिलाई करती रहती हैं. हकीकत में कांग्रेसियों को भी उन्होंने कभी बख्शा नहीं है जो खुद को उदारवादी हिंदू कहते थकते नहीं.

अरुंधती का गुनाह इतना भर है कि वे कश्मीर समस्या का हल उस की आजादी मानती हैं, बकौल अरुंधती कश्मीर पर आखिरी हक कश्मीरियों का है और वे आजादी चाहते हैं हमें उन के फैसले का सम्मान करना चाहिए.

अरुंधती का दूसरा गुनाह संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी के बारे में यह कहना है कि उस के खिलाफ मिले सुबूत काफी नहीं थे और उसे सजा लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए दी गई. उन का तीसरा गुनाह माओवादियों का हिमायती होना और चौथा भीमराव अंबेडकर के बारे में यह कहना है कि उन के सभी कामों को देखा जाए तो उन की किताब ‘ऐनिहिलेशन औफ कास्ट’ सब से पूर्ण है, यह हिंदूवादी कट्टरपंथ के लिए नहीं पर ऐसे लोगों को जो खुद को उदार हिंदू मानते हैं, हिंदू शास्त्रों पर विश्वास करना और खुद को उदार मानना एकदूसरे के उलट है.

सोशल मीडिया पर भड़ास

बात लिखने तक ही सीमित नहीं है बल्कि अरुंधती बोलती भी बेबाक हैं. उन के ताजे आइडिए का मजमून यह है कि प्रधानमंत्री एक टर्म के लिए ही चुना जाना चाहिए. पिछले साल दिसंबर में दिल्ली प्रैस क्लब के एक आयोजन में उन्होंने इस की वजह भी बताई थी कि राजा महाराजा का दौर अब खत्म हो चला है. इस पर उन्हें ट्विटर पर खूब कोसा यानी ट्रोल किया गया था. एक फिल्मकार अशोक पंडित ने ट्वीट किया कि एक और फ्रस्ट्रेटेड लिबरल, अरुंधती राय हमेशा देश के खिलाफ जहर उगलती रहती हैं, लेकिन हर बार हार जाती हैं.

अरुंधती ने एक सुझव भर दिया था जिस के एवज में उन पर भद्दी गालियों की बारिश हुई. ये तो कुछ बानगियां भर है. कई कमैंट्स का तो यहां जिक्र भी नहीं किया जा सकता. एक प्रधानमंत्री का टर्म एक क्यों हो इस के नफानुकसान पर एक सार्थक बहस हो सकती थी, लेकिन मकसद जब औरतों को जलील करना और नीचा दिखाना हो तो मुद्दे की बात और मर्यादा जाने कहां घास काटने चली जाती हैं. कट्टरवादियों को तो बहाना चाहिए होता है.

कौन हैं अशोक पंडित जैसे धर्मांधों के आदर्श. यदि वे पौराणिक पात्र हों तो ढूंढे़ से एक भी नहीं मिलेगा जिस ने कभी महिलाओं का अपमान न किया हो. राम ने शूर्पणखा की नाक लक्ष्मण से कटवा कर कौन सा आदर्श गढ़ा था, यह बात समझ से परे है: यदि वह प्रणयनिवेदन कर रही थी तो उसे शराफत से टाला भी जा सकता था.

लक्ष्मण ने शूर्पणखा के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया था जिस से लगता है कि नारी सम्मान एक वर्ग विशेष की महिलाओं के लिए ही था नहीं तो पापिन, कुलटा, नीच, दुष्टा, पतिता, व्यभिचारिणी और सब से अपमानजनक वेश्या जैसे शब्दों से पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं.

त्याग पर तंज

ऐसे ट्वीट करने वालों के आदर्श अगर मौजूदा दौर के नेता हैं तो फिर कुछ कहनेसुनने की जरूरत नहीं रह जाती. कांग्रेसी बुजुर्ग दिग्विजय सिंह ने अपनी ही पार्टी की एक नेत्री को टंच माल कह कर छिछोरी मानसिकता दिखाई थी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेसी नेता शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर को 50 करोड़ की गर्ल फ्रैंड कह कर अपनी मानसिकता उजागर करने से खुद को रोक नहीं पाए थे.

इस पर सुनंदा ने उन्हें सलाह दी थी कि वे महिलाओं के प्रति सम्मान दिखाएं और इस स्तर तक न गिरें. शशि थरूर ने जरूर नरेंद्र मोदी के उन के पत्नी त्याग को ले कर तंज कसा था कि मेरी पत्नी आप की 50 करोड़ की सोच से कहीं ज्यादा है. वह अनमोल है. आप को ऐसी बातें समझने के लिए किसी से प्यार करने की जरूरत है.

इन्हीं मोदीजी ने संसद में कांग्रेसी नेत्री रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना ताड़का से करते जता दिया था कि उन्होंने सुनंदा शशि की प्रतिक्रिया से कोई सबक नहीं लिया है

अगर तमाम छोटेबड़े नेताओं के बयानों की बात की जाए तो 19वां पुराण रचा जा सकता है. बात अकेले राजनीति या साहित्य की नहीं है बल्कि आम जिंदगी में भी झग्गियों से ले कर आलीशान मकानों तक में महिलाओं को अपशब्द कहना आम बात है. होगी भी क्यों नहीं जब हमारी जिंदगी को पगपग पर निर्देशित करने वाला धर्म ही औरत को सेविका, दोयम दर्जे की, नर्क का द्वार, गंदगी की खान, पांव की जूती और शूद्र करार देता हो.

धर्म बना दुश्मन

महिलाओं के प्रति बराबरी और सम्मान के भाव बहुत सीमित हैं क्योंकि परंपराओं और रीतिरिवाजों की घुसपैठ घरों के अलावा मन में भी है जिस का उद्भव वही धर्म है जो साल में कुछ दिन नारी को पूजनीय तो कहता है, लेकिन हकीकत में महिला का सब से बड़ा दुश्मन वही है. अफसोस तो इस बात का है कि अधिकतर महिलाओं ने इस अशिष्टता और शोषण को ही अपना भाग्य मान लिया है.

गीतांजलि और अरुंधति जैसी जमीनी साहित्यकार जब औरत को उस के वजूद का, ताकत का अधिकारों का एहसास अपने लेखन के जरीए कराती हैं तो तिलमिलाते वे पुरुष हैं जो औरत को अपनी जायदाद मानते और समझते हैं. उन्हें मुफ्त की यह सहूलियत अपने चंगुल से छूटती दिखाई देती है तो वे और उद्दंड होने लगते हैं.

वे एक नहीं बल्कि समूची स्त्री जाति को हतोत्साहित कर रहे होते हैं. यही समाज पर उन के दबदबे का राज है और ऐसा हर धर्म में है. साहित्य के लिहाज से देखें तो तसलीमा नसरीन और इस्मत चुगताई भी इन दोनों से कम परेशान नहीं की गईं, लेकिन इकलौती सुखद बात है

कि ये भी झकी नहीं बल्कि शोषण के खिलाफ लड़ती रहीं.

तसलीमा भी हैं उदाहरण

महिलाओं के शोषण और प्रताड़ना पर सभी धर्म कितनी शिद्दत से सहमत हैं बंगलादेश मूल की उर्दू और बंगाली लेखिका 62 वर्षीय तसलीमा नसरीन इस का बेहतर उदाहरण हैं जो अपने लिखे से ज्यादा अपने इसलामविरोधी तेवरों को ले कर सुर्खियों में रहती हैं. उन के लिए दुआ में तो कोई हाथ उठता नहीं, लेकिन फतवों की बौछार लगी रहती है. इसलामिक कट्टरवाद का मुखर विरोध करने वाली यह लेखिका दरअसल में यह पोल खोलती रही है कि कट्टरपंथी कैसेकैसे औरतों का शोषण करते हैं.

8 साल सरकारी अस्पताल में डाक्टर रहने के बाद 1994 में तसलीमा मुल्लेमौलवियों और फिर आम कट्टरवादी मुसलमानों के निशाने पर आई थीं. उन के बदनाम उपन्यास ‘लज्जा’ के प्रकाशित होते ही उन के खिलाफ फतवे जारी होने शुरू हो गए थे. खतरा जान जाने की हद तक बढ़ गया तो उन्होंने बंगलादेश छोड़ भारत की पनाह ली और 18 साल से यहीं रह रही हैं. इस के पहले वे दुनियाभर के देशों अमेरिका, स्वीडन जैसे देशों में भटकी थीं. यह इस गुनाह की सजा है कि वे ऊपर वाले के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगाती हैं जोकि सारे फसादों की जड़ है.

बकौल तसलीमा

– क्या आप वास्तव में सोचते हैं कि एक ईश्वर जिस ने ब्रह्मांड अरबों आकाशगंगाओं सितारों, अरबों ग्रहों को बनाया है- धुंधला नीले बिंदु (जाहिर है पृथ्वी) पर कुछ छोटी चीजों को पुरस्कृत करने का वादा करता है कि वे बारबार कह रहे हैं कि वह (जाहिर है नवी या अल्लाह) सब से महान और दयालु है. उस के लिए उपवास (रोजा) रखने के लिए इस तरह के एक महान निर्माता इतने आत्ममोह, आत्म पूजा वाले नहीं हो सकते इसी बात को अरुंधती अलग अंदाज और शब्दों में कह चुकी हैं कि धर्म और उदारता एक साथ नहीं चल सकते.

सनातन और इसाई धर्म की तरह इसलाम भी बहुत संकरापन लिए हुए है. औरतों को सभी धर्मों ने अदृश्य अस्तित्वहीन ईश्वर से जोड़ कर उन्हें गुलाम बनाए रखने की साजिश रच रखी है जिसे गीतांजलि अरुंधती और तसलीमा समझ कर नारी स्वाभिमान और आत्मसम्मान की बात करने लगती हैं तो उन के खिलाफ फतवे जारी होने लगते हैं, उन्हें जान से मारने और बलात्कार करने की धमकियां दी जाने लगती हैं, उन के खिलाफ सार्वजनिक प्रदर्शन किए जाने लगते हैं. सहज समझ जा सकता है कि पुरुषों की सहूलियत के लिए गढ़े गए धर्मों की असलियत क्या है.

नारीवादी लेखिका का विरोध

असलियत नास्तिक तसलीमा की नजर में यह है कि ईश्वर एक कोरी गप्प है. वे कहती हैं यकीन मानिए मेरा स्वर्गनर्क में कोई विश्वास नहीं है समानता, न्याय, सच बोलना और अपने हक के लिए लड़ना यही मेरी जिंदगी की फिलौसफी है. यह फिलौसफी धर्म के दुकानदारों के लिए बेहद घातक है. लिहाजा, वे इस नारीवादी लेखिका का जीना हराम कर देते हैं. उस की हिम्मत तोड़ने में कोई कसार नहीं छोड़ते. हाथरस के सादाबाद में यही सब 31 जुलाई को किया था.

कोशिश या षड्यंत्र यह है कि आगे से गीतांजलि, अरुंधती, तसलीमा और इस्मत जैसी महिलाएं पैदा ही न हों जो धर्म की पोल खोलती हैं. महिला अधिकारों और समानता की बात करते हुए ये साबित कर देती हैं कि धर्म कैसे इस की अहम वजह है. इन कट्टरवादियों की नजर में मुकम्मल औरत वही है जो मुंहअंधेरे उठ कर पूजापाठ में जुट जाए, तुलसाने पर दिया और अगरबत्ती जलाए, किचन में खटती रहे, पुरुषों की चाकरी करती रहे, रात को बिस्तर में इच्छा हो न हो चादर सी बिछ जाए और इस के लिए भी करवाचौथ जैसे तरहतरह के व्रतउपवास और रोजे रखे.

शहरों को चलाना सब का काम है

देश के 3 बड़े शहर हर साल 2 साल में भारी वर्षा के बाद जलभराव के शिकार हो जाते है. आजकल बंगलौर चर्चा में है पर पहले चेन्नै और मुंबई इस तरह की खबरों में बने रहते रहे हैं. टीवी दर्शकों के लिए तो ये सीन बहुत ही आकर्षक होते हैं जब वे देखते हैं कि स्मार्ट, यंग, पढ़ीलिखी दिखती युवतियां जो फैशनेबल कपड़ों के बिना घर से नहीं निकलती थीं, सादे कपड़ों में गंदे बदबूदार पानी में से पैदल, ट्रैक्टर, जेसीबी, ट्रक, पर घर का सामान लादे चल रही हों.

अगर पहले पता हो तो शायद न्यूज चैनल, फेसबुक, ट्विटर इन दिनों जब उन शहरों की जनता रो रही हो, अपनी मेहनत की कमाई को गलते देख रही हो, वे बढ़े आईबौल्स के लिए आईपीएल के भारत पाकिस्तान क्रिकेट मैच जैसे विज्ञापन लेने लगे.

इन शहरों की जमीनों की कीमतें चाहे आसमान में हों, इन की जमीन बेहद कमजोर हैं. बिल्डर्स ऊंचे मकान बनाना तो जानते हैं, राज्य सरकारें और नगर निगम टैक्स और ऊपर की रिश्वत लेना जानते हो पर शहरों का प्रबंध कैसे करना है नहीं जानते. उस बात से बेखबर घर चलाने वाले अपनी मेहनत की कमाई उन मकानों में डालते रहते हैं जो पानी से न जाने कब खराब हो जाएं और बहुत सा नुकसान हो जाए. इन शहरों की जनता को आमतौर परकोई फर्कनहीं पड़ता क्योंकि शहरों की 50 से अधिक प्रतिशत जनता तो वैसे ही ऐसे मकानों में रहती है जो थोड़ी से बारिश में बहने, ढहने लगते हैं. यह हिस्सा तो आदी है भारी वर्षा का भी, कम वर्षा का भी और सूखे का भी.

जो लोग इन बड़े शहरों में परेशान होते हैं वे हैं जिन के हाथ में फैसले लेने की ताकत है, जो सत्ता को हिला सकते हैं, जो चाहें तो शहरों को जलभराव और सूखे दोनों से बचा सकते हैं. आज हर तरह की तकनीक मिल रही है. दिक्कत यह है कि ऊंचे चमचम मकानों में रहने वाले इतने इंट्रोक्ट हो गए हैं कि वे मिल कर शहर को भले का फैसले लेने को तैयार नहीं.

अपनी सफलता के गरूर में टैक कैपीटल बंगलौर और फाइनैंस कैपीटल मुंबई का यह रिच सैक्शन जरा भी शहर के लिए लडऩे के लिए या कुछ करने को तैयार नहीं है. एक तो वजह है कि उस के पास समय कम है पर उस से ज्यादा बड़ी वजह यह है कि उस के सबकोंशैस रहे है कि वह जो करेगा उस का बड़ा फायदा तो उस फटेहाल जनता का है जिसे वह रातदिन हेर से देखती है पर जिस के बिना इस का काम नहीं चलता.

बंगलौर, मुंबई और चेन्नै तीनों शहरों के नाले, तालाब पहले शहर से आए खाली हाथ मजदूरों ने झोपडिय़ों के पाट दिए. वे बदबू में रहने को तैयार थे, दलदली जमीन पर मकान बनाने को तैयार थे. उन्होंने पेड़ काट डाले, जंगल खत्म कर दिए क्योंकि उन्हें खाना पकाने के लिए लकड़ी चाहिए थी. दिखने में वे शहर पर बोझ थे पर हर घर में इन्हीं लोगों की औरतें, बेटियां काम करती हैं, मर्द फैक्ट्रियों में और जवान एमेजान और स्वीगी में. ऊंचे शहरी इन्हें भगाना भी नहीं चाहते पर इन का रहनेखाने का इंतजाम भी नहीं करना चाहते.

प्रकृति बीचबीच में बदला ले लेती है. सूखा पड़ जाता है, बाढ़ आ जाती है, सीवर रुक जाते हैं, प्रकृति अमीरगरीब और ऊंचेनीचे में भेद नहीं देखती. वह सब को लेपेट में ले लेती है.

यह ठीक है बाढ़ को कुछ सप्ताहों में भुला दिया जाएगा. मकानों की मरम्मत हो जाएगी. कुछ बड़े सीवर डालने शुरू हो जाएंगे. पर सवाल उठता है कि चाहे बाढ़ हो या सूखा, आदमी आज के युग में भी इतना बेबस क्यों हो. हमें मैनेज करना क्यों नहीं आए.

हम यह क्यों सोचें हम ऊंचे मातापिता की संतान है या हम ने अच्छा कमा लिया तो हमारी बस के प्रति कोई जिम्मेदारी ही नहीं है. हम क्यों सोचें कि रोटरी क्लब, लायंस में या किट्टी पार्टी तो बोल देने से समस्याएं हल हो जाएंगी.

शहरों को चलाना सब का काम है. शहरी जीवन सुखी व सुरक्षित हो या सब की जिम्मेदारी है. हर की एक अंडरबैली होती है पर हमारे यहां तो शहर ही अंडरबैली जिस के ऊपर चोटियों में कुछ हस्ती वाले हैं. पर यह न भूलें कि अब अंडरबैली सड़ती है तो कभीकभार बदबू सब जगह फैलती है जैसे दिल्ली सॢदयों में धूएं की शिकार होती है और पूर शहर सांस लेने में भी घबराता है.

कहने को आधुनिक हैं

घिसेपिटे सदियों पुराने रीतिरिवाजों को ढ़ोना भारतीयों के लिए एक नया तरीका बन गया है और जो लोग अच्छेखासे ताॢकक और वैज्ञानिक हैं, वे भी केवल अपनी जड़ें दर्शाने के लिए आधे आधुनिक पर आधे पुरातनवादी बने रहते हैं, एक उदाहरण हुआ है 2 लड़कियों की विशुद्ध तमिल ब्राह्मïण स्टाइल की घटी का. इस में एक तमिल ब्राह्मïण है और एक बांगलादेशी और दोनों कनाड़ा के शहर कैलगरी में रहती है जहां उन की एक एप पर मुलाकात हुई.

6 साल तक साथ रहने के बाद दोनों ने शादी करने का फैसला किया पर लेस्बियन शादी जो भारत में तो अवैध है, हुई ब्राह्मïण स्टाइल में जिस में पिता गोदी में बेटी को बैठा कर पिता की गोदी में ही बैठे पति के हवाले करता है. कन्यादान की यह परंपरा नितांत पौराणिक है और इसे लेस्बियन शादी में कनाड़ा में अपनाना नितांत स्टूपिडी ही है.

विदेशों में बसे भारतीय यदि ब्राह्मïण या वैश्य हो तो अपना महत्व दर्शाने के लिए बाजेगाजे, दोस्तों के साथ ये पारंपरिक नाटक करके ढोल पीटते हैं कि देखे हमारी संस्कृति कितनी महान है. वे यह भूल जाते हैं कि वे लोग इस महान संस्कृति वाले भारत की गंदगी, बदबू, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, लालफीता शाही और अवसरों की कमी के कारण गोरों के देश में पहुंचे थे पर वहां सफलता पाते ही वे नाटकों पर उतर आते हैं क्योंकि आईडैंटिटी दिखाने के लिए ये स्टंट बड़े काम के हैं.

सुबिश्रा और टीना की शादी में बेटी को वर को उसी तरह सौंपा गया जैसे कूर्मपुराण के अध्याय 8 में वॢणत कथा में दक्ष प्रजापति ने पत्नी प्रसूति से 24 कन्याओं को पैदा किया जिन में से 13 को धर्म च्यवन ऋषि ने ग्रहण किया और 11 छोटी अवस्था वाली कन्याएं भृगु, मरीची, अंगिरा, पुलस्त्य पुलह क्रतु, अत्रि व वशिष्ठ मुनियों को दे दी गईं.

इसी दान को कनाडा में तमिल ब्राह्मण परिवार ने लेस्बियन शादी में अपना कर कौन सी महानता का उदाहरण दिया है, यह समय से परे है, पौराणिक ग्रंथ तरहतरह की कपोल कल्पित कथाओं से भरे हैं पर उन को आज अपनाना वैज्ञानिक व तार्किक ज्ञान का माखौल उड़ाना है. यह कनाडा की महानता है कि वे इस तरह के चटकों को बेवकूफी भी नहीं कहते और दोनों के देशी विदेशी दोस्त इस अवसर पर मौजूद रह कर तालियां बजा कर समर्थन करते रहे हैं.

इसी तरह के पुराणों में बारबार नारायण के मुंह से कहलवाया गया है कि वर्ष व आश्रम धर्म का पालन करने से ही मोक्ष मिलता है. अपनी जाति की श्रेष्ठता के कनाडा में भी एस्टैब्लिश करने के इस तरह की नौटंकी आजकल विदेशों में भारतीय जम कर रहे हैं. इस कैलगरी के परिवार के अंधविश्वास पर गर्व करने की कोई नहीं है.

सावधानी हटी दुर्घटना घटी

कहने को तो आजकल मोबाइल पर सारी दुनिया के तथ्य है और इस से कुछ भी खरीदा जा सकता है, कुछ भी बेचा जा सकता है और बैठेबिठाए कुछ भी सेवा ली जा सकती है, पर मोबाइल बेइमानी और आप की निजी ङ्क्षजदगी का पर्दाफाश करने का सब से बड़ा जरिया बन रहा है, जो भी आप के मोबाइल पर है, जो लिख रहे हैं, जो कह रहे हैं, जो पिक्चर ले रहे हैं, जो देख रहे हैं सब की सब दुनिया के हर उस जने को मालूम हो सकती है जो आप को लूटना चाहता है.

औरतों के लिए यह ब्लैक मोल, झगड़े, तूतूमैंमैं, गोपनीय बातों के खुलने का सब से बड़ा जरिया बन गया है. आमतौर पर पता नहीं चलता क्योंकि एक आम आदमी या औरत में किसी की रूचि नहीं होती पर अगर वक्त पडऩे पर आप ने क्या कहा था खोजना था तो आसान है. आप का मोबाइल अब हर समय औन रहता है, रात को कितना सोए क्या साथी को कहा यह सब किसीकिसी तरह रिकार्ड हो सकता है.

मोबाइल को हथियार बना कर आजकल सस्ता कर्ज दे फुसलाने का धंधा चल पड़ा है. दिल्ली पुलिस ने 3000 करोड़ की लूट पकड़ी है. आप आप का कौंटैक्ट किसी दुकान, हलवाई, उबर एप, स्वीगी एप, मेडिकल एप से ले कर आप को निशाना बना कर 5000 से 5 लाख तक का कर्ज दिया जाने का प्रलोभन दे सकते हैं. शिकार के फोन वालों, क्रेडिट कार्डों की गतिविधियों से भाप कर आज कम्प्यूटर उन लोगों को छांट सकते हैं जो पैसा चाह रहे हैं, उन्हें फोन कर के लच्छेदार बातों से लोग औफर किया जाता है. एक एप में जानकारी दें, पैन कार्ड, बैंक अकाउंड नंबर दें, ओटीपी लिखें, परमीशनें दे और पैसा मिल गया. कोई कागज नहीं, कोई चक्कर नहीं पर यह फंसना है.

इस के बाद शुरू होती है उगाई. 50 हजार के लोन पर इंट्रस्ट जोडज़ोड़ पर 4-5 लाख तक मांगे जाने लगते हैं. कर्ज लेने वाले के सारे रिश्तेदारों और संपर्कों के कौटैक्ट इन का एप ले चुका होता है इसलिए पब्लिक को जलील करना शुरू कर दिया जाता है.  हार कर कर्ज लेने वाले को फैसला करना पड़ता है, सब औनलाइन, रोज बदलते मोबाइल नंबरों के जरिए जो रातदिन कभी भी खडक़ उठ सकते हैं.

कोलकाता की एक टीचर को वाइस चांसलर ने नौकरी से निकलवा दिया क्योंकि उस के इंस्टाग्राम पर स्वीमिंग सूट में कुछ तस्वीरें थीं. 21 साल की युवती का स्वीमिंग सूट पहनना कोई बड़ी बात नहीं है पर चूंकि यह गोपनीय रहना जगजाहिर हो गया तो ऐसा लगने लगा कि मानो उस टीचर ने गुनाह कर लिया.

किसी भी जाने अनजाने के साथ कहीं भी खींची गई एक सैल्फी आज आफत बन सकती है, 4 दिन बाद या 4 साल बाद.

आज गलीगली में लगे कैमरे चोरों से तो शायद नागरिकों को बचा रहे हों पर एक आम नागरिक को हर समय ऐसे रख रहे हो मानो हैडमास्टर सिर पर सवार हो. किस घर के आपसी झगड़े का क्लिप सामने वाले यार के कैमरे में कैद हो जाए और फिर जगजाहिर हो जाए कह नहीं सकते. व्हाट्सएप, टिï्वटर, इंस्टाग्राम या पौर्न साइटों तक यह निजी मामले पूरी दुनिया में फैलाए जा सकते हैं.

अपने को सुरक्षित चाहते हो तो स्मार्ट फोन, सब से सस्ता केवल बात करने वाला फोन लें. इस से कठिनाई होगी, बहुत जानकारी सुलभ नहीं होगी पर आप की जिंदगी आप की मुट्ठी में होगी, चीन, अमेरिका में बंद सर्वरों में नहीं.

बड़े धोखे हैं इस राह में

यौन संबंधों को ले कर बने कानूनों का लाभ उठाने के लिए अपराधियों ने एक नया व्यवसाय खड़ा कर लिया है- हनी ट्रैप का. इस में बड़ी आसानी से सैक्स के भूखे पुरुषों को फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप आदि से पहले दोस्ती की जाती है और फिर फोन नंबर ले कर मिलने का न्योता दिया जाता है.

यहां तक बात स्वाभाविक और 2 व्यस्कों का मामला है. हर पुरुष की चाहत होती है कि पत्नी हो या न हो, उस की गर्लफ्रैंड जरूर हो जिस से वह अपने सुखदुख बांट सके और संभव हो तो सैक्स संबंध बना सके. सिर्फ सैक्स संबंध बनाने के लिए यों तो वेश्याओं का बड़ा बाजार है पर उस में जोखिम बहुत है और लोग वहां जाने से कतराते हैं. हनी ट्रैप में वे फंसते हैं जो कोई  झमेला नहीं चाहते और केवल बदलाव, उत्सुकता या क्षणिक आनंद की खातिर कुछ रोमांचक करने को तैयार हो जाते हैं.

हनी ट्रैप में आने पर लड़की पुरुष के साथ अपनी सैक्सी अदाएं दिखाती है और कभी सैल्फी से तो कभी छिपे कैमरे से फोटो खींच लिया जाता है. कई बार ऐन क्रिटिकल समय पर दरवाजा खोल कर

3-4 लोग घुस जाते हैं जो लड़की के साथी होते हैं और जो ब्लैकमेल, लूट, मारपीट करने लगते हैं.

हाल के बने कानूनों ने हनी ट्रैप बिजनैस को खूब बढ़ावा दिया है. आजकल महिलाएं हनी ट्रैप के शातिर पुरुष पर किसी भी तरह का आरोप लगा सकती हैं और अगर मामला पुलिस में चला जाए तो न केवल पुरुष की जगहंसाई, जग प्रताड़ना होती है बल्कि घर में भीषण गृहयुद्ध भी छिड़ जाता है, जेल भी हो सकती है. यदि पुरुष इस जिद पर अड़ जाए कि जो हुआ वह सहमति से हुआ और अपराध नहीं हुआ तो भी पुलिस और अदालत उसे पहले जेल भेज देगी और सफाई देने का मौका महीनों बाद मिलेगा और लंबी अदालती लड़ाई के बाद ही छुटकारा मिलेगा. यही ब्लैकमेल का अवसर पैदा करता है.

स्त्रीपुरुष संबंध व्यस्क संबंध हैं और इन पर बनाए गए कानून असल में स्त्री को अधिकार नहीं देते, उसे और गुलामी की जंजीरों में बांध रहे हैं. जैसे जून में दिल्ली के एक मामले में हुआ जिस में 3 पुरुषों और 1 युवती ने 1 पुरुष को फंसाया.

उस पुरुष को लूटा तो गया पर वह पुलिस में चला गया और जो पता लगा उस से यह स्पष्ट है कि यह युवती जो अपराधियों के साथ है, खुद एक पीडि़ता ही है. वह इस तरह के अपराध में किसी लालच या भय के कारण शामिल हुई होगी. उसे जबरन चुग्गा बना कर फेंका गया. जो कानून उसे बचाने के लिए बनाया गया था, उसी कानून के अनुसार वह सिर्फ एक अपराध का हथियार थी.

वेश्यावृत्ति समाप्त करने वाले ज्यादातर कानूनों में वेश्याओं को अपराधी नहीं माना गया पर पुलिस उन्हीं को सब से ज्यादा लूटती है. इन कानूनों के बावजूद कोठों में रह रहीं या स्वतंत्र रूप से देह बेचने वालीं समाज व पुरुषों की शिकार हैं और कानूनों ने उन्हें और जकड़ दिया है.

कार्यक्षेत्र में यौन प्रताड़न कानून ने औरतों की आजादी छीन ली है. वे पुरुषों की तरह हंसबोल भी नहीं सकतीं क्योंकि पुरुष उन से डरते रहते हैं. उन्हें जोखिम के काम नहीं दिए जाते. उन की युवावस्था की अपील पर कोई विवाद न खड़ा हो जाए इसलिए कंपनियां उन्हें जिम्मेदारी वाले पद देने से कतराती हैं. जो कंपनियां उन्हें आगे रखने का जोखिम लेती हैं, वे उन का केवल सजावटी उपयोग करती हैं और सब कोशिश करते हैं कि उन्हें दूरदूर रखा जाए. अच्छे से अच्छे दफ्तर या कारखाने में औरतों के अलग गुट बन जाते हैं. जिन कानूनों से अपेक्षा थी कि वे लिंगभेद समाप्त कर के बराबर के अवसर देंगे, वे अब फिर उन्हें औरतों के अलग पुरातन बाड़ों में बंद कर रहे हैं.

औरतों के नहीं, समाज के विकास के लिए जरूरी है कि औरत का इस्तेमाल पुरुष के क्षणिक सुख के लिए नहीं हो, उसे समाज की बराबर की यूनिट सम झा जाए. जो एकतरफा कानून बने हैं, वे लिंगभेद को पहले से स्पष्ट कर देते हैं और औरतों के विकास के रास्ते बंद कर देते हैं. औरत साथी को पुरुष साथी की तरह सहजता से लिया जाए, यह भावना वहीं से पैदा नहीं करते.

मामला एमजे अकबर और तरुण तेजपाल जैसे पत्रकार का हो या जौनी डैप और ऐंकर हर्स्ट का हो सैक्सटौर्शन के मामलों में औरतें विक्टिम ही बनी रहती हैं. ये मामले दिखाते हैं कि औरतें आज भी वीकर सैक्स हैं और नए कानूनों या नई कानूनी परिभाषाओं ने वीकर सैक्स को बल देने के नाम पर उन के पैरों में बे्रसस बांध दिए हैं जो उन्हें कमजोर ही दर्शाते हैं.

पतिपत्नी और कानूनी बंधन

आजकल बिना शादी किए एक छत के नीचे एक लडक़ेलडक़ी का साथसाथ रहना कम से कम बड़े शहरों में सहज स्वीकार होने लगा है और चाहे मकान किराए पर मिलने में कठिनाई हो पर ऐसे उदार मकान मालिकों की कमी नहीं है जो कहते हैं कि हमारी बला से कि तुम दोनों में किस तरह का रिश्ता है, हमें किराए से मतलब है. लेकिन लिवइन रिलेशनशिप में कठिनाई जब आती है जब दोनों में से कोई एक शादीशुदा हो या दोनों शादीशुदा और उन के विवाहित शादी लडऩेमरने को आ जाए.

राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक ऐसे जोड़े को पुलिस प्रोटेक्शन दिलवाने से इंकार कर दिया क्योंकि जज साहब की दृष्टि में यह अनैतिक है. विवाहित लोगों को अपनेअपने साथी के साथ ही रहने का हक है. यह संदेश उन्होंने छिपे शब्दों में दे दिया.

कामकाजी औरतों के युग में विवाहित पुरुष का दूसरे की बीवी के साथ एक साथ रहने लगना अब अजीब नहीं रह गया है. विवाहित पुरुष तो सदियों से दूसरी अविवाहित लड़कियों के साथ रहते रहते हैं और उन की पत्नियां इसे अपने भाग्य समझ कर घर में फटेहाल पड़ी रहती थीं पर अब जब 2 जोड़ों में चारों कमाऊ हो तो पतिपत्नी के अलावा जोड़ा बन जाए तो कानून कहां आता है, यह सवाल तब उठता है जब कोई अपराधिक घटना हो जाए.

समाज ही नहीं घरपरिवार के लोग भी इस तरह के जोड़े को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और छोड़े गए पति व पत्नी सब की निगाहों में सिंपैथी तो पा ही लेते हैं.

यह तो पक्का है कि विवाह का आधार चाहे धाॢमक हो या न हो, यह कानूनी तो अवश्य बन चुका है. विरासत के कानून में, गोद लेने के कानून में, ङ्क्षहसा के मामलों में जो अधिकार कानूनी पत्नी को हैं, वे लिवइन में रह रहा ‘पत्नी’ को नहीं है. अगर वह अपने कानूनी पति को छोड़ कर किसी और के साथ रह रही है, तो उस से कोई भी हमदर्दी नहीं रखता न ही उसे किसी तरह की प्रोटेक्शन मिलती है. गैर शादीशुदा लडक़ी को तो फिर भी कुछ बच्चा समझ कर कुछ सपोर्ट मिल जाती है पर शादीशुदा पत्नी जब किसी और के साथ रहे तो आफत ही रहती है.

पहले तो इंडियन पीनल कोर्ड की धारा 497 मेंं पत्नी के साथ किसी और से संबंध हो तो पति पर अपराधिक मामला दर्ज कराने का हक था पर हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को रद्ध कर दिया. फिर भी इसे सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली है. समस्या तब आती है जब मारपीट आपस में या किसी बाहर वाले से हो जाए. समस्या तब भी आती है जब बच्चा होने लगे तो किस का नाम दिया जाए. कानून अविवाहित युवती को बिना पिता के नाम से बर्थ सॢटफिकेट तो दे रहा है पर जहां युवती का कानूनी पति ङ्क्षजदा है वहां पिता के तौर पर बायलौजिकल लिवइन पिता का नाम देना टेढ़ी खीर है.

हमारे यहां यह समस्या उग्र इसलिए हो रही है कि यहां तलाक आसानी से नहीं मिलता. यदि  शादीशुदा आदमी और औरत अपनेअपने कानूनी साथी से तलाक ले कर शादी करना चाहें तो प्रक्रिया वर्षों तक चलती है और इस दौरान उन्हें लिवइन रिलेशनशिप में रहना पड़ता है.

एक पतिपत्नी कानूनी बंधन के कारण साथ जबरन पड़े, यह नितांत गलत है. साथी का व्यवहार, संबंधी, जरूरतें, आकाशाएं, अलग हो सकती हैं और उन्हें इसी तरह अलग रहने का हक होना चाहिए जो शादी करने के समय था. अफसोस यह है कि चाहे यह समस्या बड़ी हो, राजनीतिक दल इस जलती छड़ को पकडऩे को तैयार नहीं हैं. उन का सहमति के बिना कानूनों में बदलाव भी संभव नहीं है.

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