एक कागज मैला सा: क्या था मैले कागज का सच?

वासंती की तबीयत आज सुबह से ही कुछ नासाज थी. न बुखार था, न जुकाम, न सिरदर्द, न जिस्म टूट रहा था, फिर भी कुछ ठीक नहीं लग रहा था. लगभग 10 बजे पति दफ्तर गए और बिटिया मेघा कालेज चली गई.

वासंती ने थोड़ा विश्राम किया, लेकिन शारीरिक परिस्थिति में कुछ परिवर्तन होते न देख उन्होंने कालेज में फोन किया और प्रिंसिपल से 1 दिन की छुट्टी मांग ली. हलका सा भोजन कर वे लेटने ही वाली थीं कि घंटी बजी. उन्होंने दरवाजा खोला. बाहर डाकिया खड़ा था. उस ने वासंती को एक मोटा सा लिफाफा दिया और दूसरे फ्लैट की ओर मुड़ गया.

वासंती ने दरवाजा बंद किया और धीमे कदमों से शयनकक्ष में आईं. लिफाफे पर उन्हीं का पता लिखा था और पीछे की ओर खत भेजने वाले ने अपना पता लिखा था :

‘हिंदी

आई सी 3480

कैप्टन अक्षय कुमार

द्वारा, 56 एपीओ’

वासंती हस्ताक्षर से अच्छी तरह परिचित थीं. अक्षरों को हलके से चूमते हुए उन्होंने अधीर हाथों से लिफाफा खोला. अंदर 3-4 मैले से मुड़े हुए पन्ने थे. पत्र काफी लंबा था. वे आराम से लेट गईं और पत्र पढ़ने लगीं.

मेरी प्यारी मां,

प्रणाम.

काफी दिनों से मेरा पत्र न आने से आप मुझ से खफा अवश्य होंगी. लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि आज मेरा पत्र देखते ही आप ने उसे कलेजे से लगा कर धीरे से चूम कर कहा होगा, ‘अक्षय, मेरे बेटे…’

मां, यह लिखते समय मैं यों महसूस कर रहा हूं जैसे आप यहां मेरे पास हैं और मेरे गालों को हलके से चूम रही हैं. दरअसल, जब मैं छोटा था तो आप रोज मुझे सुलाते समय मेरे गालों को चूम कर कहा करती थीं, ‘कैसा पगला राजा बेटा है, मेरा बेटा. सो जा मुन्ने, आराम से सो… कल स्कूल जाना है…अक्षू बेटे को जल्दी उठना है…स्कूल जाना है…अब सो भी जा बेटे…’ और फिर मैं शीघ्र ही सपनों के देश में पहुंच जाता था.

दिनभर स्कूल में मस्ती, शाम को क्रिकेट और उस के बाद माहीम के तरणताल में भरपूर तैरने के बाद रात को जब मैं खाने की मेज पर बैठता तब आप मुझे डांट कर, दुलार कर किसी तरह खाना खिलाती थीं.

अरे, हां, याद आया. मां, कल मुझे सचमुच ही बहुत जल्दी उठना है. जल्दी यानी ठीक 2 बजे. हां मां, सच कह रहा हूं. सचमुच सुबह 2 बजे. काम ही कुछ ऐसा है कि उठना ही पड़ेगा. वैसे इस वक्त रात के साढ़े 10 बज रहे हैं और मुझे सो जाना चाहिए.

लेकिन मां, मुझे नींद ही नहीं आ रही है. लगभग 8 बजे से मैं करवटें बदल रहा हूं, लेकिन नींद कोसों दूर है. इस वक्त मैं बहुत उत्तेजित हूं मां, किसी से बातें करने को मन कर रहा है और यहां मैं अकेला हूं. नींद की प्रतीक्षा करते हुए, हृदय में यादों का बवंडर, अकेला, बिलकुल तनहा.

यादों के बवंडर में बचपन याद आया. आप आईं और आंखें नम हुईं. मैं उठा और अपना झोला खोला. नीचे ठूंसे हुए कुछ मैले से मुड़े हुए कागज निकाले, सिलवटें ठीक कीं, धीरे से झोले की आड़ ले कर टौर्च जलाई और लिखा, ‘मेरी प्यारी मां.’

मां, यहां पर रात को रोशनी करना मना है. अगर सावधानी न बरती जाए तो गोली चल जाती है. मां, मुझे मालूम है कि तुम्हें मैले, मुडे़ हुए कागज नहीं भाते. लेकिन क्या करूं, मजबूरी है. मां, आज आप कृपया मेरी भाषा पर न हंसें. जो भी मैं ने लिखा है, पढ़ लें. मैं आप जैसा हिंदी का प्राध्यापक तो हूं नहीं. मैं तो एक फौजी हूं, एक फौजी कप्तान. बौंबे इंजीनियर्स ग्रुप का. अक्षय कुमार, एक युवा कप्तान.

अरे हां, इस कप्तान शब्द से कुछ याद आया. 8वीं में उत्तीर्ण हो कर मैं 9वीं में दाखिल हुआ था. शाम का समय था. मैं क्रिकेट खेलने के लिए निकलने ही वाला था कि हैडमास्टरजी आ धमके.

उन्होंने मुझे रोका और आप से कहा, ‘वासंतीजी, कृपया अपने पुत्र को संभालिए, दिनभर शरारतें करता है, पढ़ता नहीं है. बहनजी, यह आप का बेटा है, एक प्राध्यापिका का बेटा, इसलिए मैं ने इस वर्ष इसे किसी तरह उत्तीर्ण किया है अन्यथा आप का लाड़ला फेल हो जाता. लेकिन अगले वर्ष मैं सहायता नहीं कर सकूंगा. क्षमा करें. आप जानें और आप का बेटा.’

यह सब सुन कर आप आगबबूला हो उठीं और मुझे डांटते हुए बोलीं, ‘अक्षय, शर्म करो, आखिर तुम क्या करना चाहते हो? नहीं पढ़ना चाहते तो मत पढ़ो. यहीं रहो और चौपाटी पर पानीपूरी की दुकान खोल लो. बेशर्म कहीं के.’ और आपे से बाहर हो कर आप ने मुझे पहली बार मारा था.

गालों पर आप की उंगलियों के निशान ले कर मैं चीखते हुए बाहर निकला था कि मुझे नहीं पढ़ना है. मुझे बंदूक चलानी है. फौज में जाना है. कप्तान बनना है.

ओह मां, ठंड के मारे लिखतेलिखते उंगलियां जाम हो गई हैं. यहां इतनी ठंड पड़ती है कि क्या बताऊं. अब इस मार्च के महीने में तो कुछ कम है लेकिन ठंड के मौसम में मुंह से शब्द बाहर निकलते ही जम कर बर्फ हो जाते हैं. मां, एक बार यहां आइए. हजार फुट की ऊंचाई पर तब आप को पता चलेगा कि ठंड किसे कहते हैं और बर्फ क्या होती है?

वैसे अब बर्फ काफी हद तक पिघल गई है. पहाड़ों के पत्थरों, दरख्तों की शाखाएं और यहांवहां हरी घास भी दिख रही है. नजदीक बहने वाली हिम नदी से पानी बहने की आवाज बर्फ की ऊपरी सतह के नीचे से आ रही है. हिम नदी पर अभी भी बर्फ की मोटी सतह है लेकिन उस के नीचे तेज बहता हुआ बर्फीला पानी है. परंतु बर्फ की ऊपरी सतह में कहींकहीं दरारें पड़ गई हैं और बर्फ पिघलने से छोटेबड़े छेद भी प्रकृति ने बना दिए हैं. दृश्य बड़ा ही मनोहारी है मां, लेकिन… लेकिन…

हिम नदी के उस छोर पर दुश्मन बैठा है. नदी का पाट बड़ा नहीं है किंतु दूसरे किनारे पर एक ऊंचा पहाड़ है. उस पर्वत के बीच से एक चोटी बाहर निकली है, तोते की चोंच जैसी. और चोंच में दुश्मन बैठा है. बिलकुल हमारे सिर पर, हमें हर क्षण घूरता हुआ. हमारी जरा सी आहट होते ही हमारी तरफ गोलियों की बौछार करता हुआ.

हमें आगे बढ़ना है. उस चोंच को तहसनहस करना है और दुश्मन का सफाया कर सामने वाली घाटी को दुश्मन के चंगुल से छुड़ा कर अपना तिरंगा वहां लहराना है. काम आसान नहीं है. हम यहां से एक गज भी आगे नहीं बढ़ सकते, दुश्मन के पास मशीनगनें तो हैं ही, शक्तिशाली तोपें भी हैं, जिन से वे हवाई जहाज को भगा सकते हैं अथवा मार गिरा सकते हैं.

परिस्थिति गंभीर है दुश्मन का सफाया करने के लिए, इस चोटी को बारूद से उड़ाने के लिए ब्रिगेड ने हमारी इंजीनियर्स कंपनी को यहां भेजा है. हम यहां लगभग 20 दिनों से बैठे हैं, लेकिन अभी तक कामयाबी हासिल नहीं हुई है. अलबत्ता, यहां आते ही हम ने कोशिश जरूर की थी.

15 दिन पहले मेरा वरिष्ठ अफसर मेजर दयाल, अपने साथ 8 जवानों को ले कर आधी रात को हिम नदी पर चल पड़ा. सब जवानों ने सफेद वरदी पहन रखी थी. जूते भी सफेद थे.

हिम नदी पूरी तरह बर्फीली थी. मेजर दयाल आधे रास्ते तक पहुंचा ही था कि ऊपर से फायरिंग शुरू हुई. सब ने बर्फ में छिप कर अपनी जान बचाई और उसी समय मेजर दयाल के अरदली सिपाही रामसिंह को फायरिंग की वजह मालूम हुई. मेजर की सफेद जरसी के गले के नीचे एक काला पट्टा था. रामसिंह ने अपनी जरसी साहब को दी और उन की खुद पहन ली. फिर दुश्मन को चकमा देने के लिए खुद एक रास्ते से और बाकी जवानों को दूसरे रास्ते से पीछे हटने को कहा. 2 घंटे बाद सब लौट आए, लेकिन सिपाही रामसिंह…

खैर, इन 20 दिनों में परिस्थिति काफी बदल गई है. बर्फ काफी पिघल गई है और हिम नदी की ऊपरी बर्फीली सतह में गड्ढे पड़ गए हैं. बर्फ की ऊपरी सतह और नीचे बहने वाले पानी के मध्य कुदरत ने काफी जगह बना दी है. इसी जगह का फायदा उठाते हुए बर्फ की सतह से नीचे, दुश्मन की नजरों से बच कर तेज बहते हुए बर्फीले पानी को चीर कर हमें दूसरे तट पर पहुंचना है, मां. पानी इतना ठंडा है कि अगर आदमी असावधानी से गिर पडे़ तो कुछ क्षणों में ही जम कर वह आइसक्रीम बन जाएगा.

लेकिन 3 दिन पहले ही हमें दिल्ली से बर्फीले पानी में तैरने के लिए विशिष्ट पोशाक मिली है. साथ में पानी में रह कर भी गीला न होने वाला गोलाबारूद, बंदूकें, टौर्च, प्लास्टिक के झोले और खाने की डब्बाबंद वस्तुएं भी मिली हैं.

मां, जिस क्षण की प्रतीक्षा हर फौजी को होती है वह क्षण आज मेरे जीवन में आया है. जिस क्षण के लिए हम फौज में भरती होते हैं, प्रशिक्षण पाते हैं, वेतन पाते हैं, वह क्षण अब मुझ से थोड़ी ही दूरी पर है. मुझे उस क्षण का बेसब्री से इंतजार है. इसी लिए मैं बहुत उत्तेजित हूं और मुझे नींद नहीं आ रही है.

आज दोपहर को इस ‘मिशन’ के लिए, जिसे हम ने ‘औपरेशन पैरट्स बीक’ नाम दिया है, मेरा चयन हुआ है.

हां, तो मां, अब थोड़ी ही देर बाद रात के ठीक 2 बजे मैं वह विशिष्ट पोशाक पहन कर हिम नदी में बनी दरार के जरिए पानी में कूदूंगा. तेज बहते हुए पानी को किसी तरह चीर कर चट्टानों, पत्थरों और बर्फ का सहारा ले कर नदी का दूसरा किनारा पकड़ूंगा और सावधानी से किसी दूसरी दरार से बाहर निकलूंगा. मेरी कमर में बंधी लंबी रस्सी का सहारा ले कर मेरे 4 जवान हथियार, गोलाबारूद और बम ले कर मेरे पास आएंगे.

उस के बाद उस चोटी के नीचे बारूद भर कर हम उसे उड़ा देंगे. संयोग से दूसरे तट पर खड़े हुए मनुष्य को दुश्मन देख नहीं सकता क्योंकि वह बिलकुल उस की नाक के नीचे होता है. दूसरा यह कि दुश्मन यह ख्वाब में भी नहीं सोच सकता कि रात के अंधेरे में हिम नदी के नीचे से तैर कर इंसान दूसरे तट पर आ सकता है.

मां, यह समूची कार्यवाही साढ़े 3-4 बजे तक हो जानी चाहिए. उस के बाद हमारी ब्रिगेड आगे बढ़ेगी और समूची घाटी पर कब्जा कर लेगी. मैं जानता हूं कि काम खतरनाक है, लेकिन फिर भी मैं कामयाबी हासिल कर के रहूंगा और इतिहास में अपना नाम सुरक्षित कर दूंगा.

याद है मां, कुछ वर्ष पूर्व हम ने मैट्रो में एक फिल्म देखी थी, ‘दि गंस औफ नेव्हरौन’, यहां भी लगभग वही परिस्थिति है. फर्क इतना है कि वहां खौलता हुआ डरावना समुद्र था और यहां बर्फीली हिम नदी और बर्फीला पानी है.

मैं जानता हूं कि मुझे यह सब नहीं लिखना चाहिए. यह सब गोपनीयता और सुरक्षा के खिलाफ है. फिर भी आज शाम से ही मैं इतना रोमांचित हूं कि किसी से कुछ कहने के लिए मन व्याकुल हो रहा है. फिर दुनिया में मां के सिवा और कौन है जो बेटे की हकीकत सुन कर उसे दिल में छिपा सकती है. हो सकता है कि इस मिशन के बाद मुझे वीरचक्र मिले. मैं चाहता हूं कि उस वक्त आप अपनी सहेलियों से और रिश्तेदारों से बड़े फख्र से कहें कि मेरे अक्षू ने ऐसा किया…वैसा किया…

आज मैं एक और अपराध कर रहा हूं, मैं यह पत्र सेना के डाकघर के माध्यम से न भेजते हुए एक सिपाही के हाथ भेज रहा हूं. यह सिपाही कल दिल्ली जा रहा है. बर्फ के प्रभाव से उस की उंगलियां गल गई हैं. दिल्ली पहुंचते ही वह इस पर टिकट लगा कर किसी लाल डब्बे में डाल देगा. हो सकता है, यह लिफाफा आप को 3 दिनों में ही मिल जाए. सेना के डाकघर से यह आप को शायद 15 दिन बाद मिले.

अरे, बाप रे. आधी रात हो गई है. थोड़ा सोना चाहिए. अच्छा मां, बाकी बातें अगले खत में लिखूंगा. सच कहता हूं, आप से बातें क्या हुईं, मन शांत हो गया है. अरे हां, अच्छा हुआ कि कुछ याद आया. मैं ने बीमा की एक किस्त शायद नहीं भरी है, पिताजी से कह कर भुगतान करवा देना.

मेरे लिए खाने की कोई चीज न भेजें, रास्ते में, दिल्ली वाले चोर सब खा जाते हैं. कोई अच्छा उपन्यास अवश्य भेजें, यहां पढ़ने के लिए सिर्फ फिल्मी पत्रिकाएं ही हैं. मेघा से कहना कि मन लगा कर पढ़ाई करे, उसे डाक्टर जो बनना है. आप दोनों अपनी तबीयत का खयाल रखें. ज्यादा दौड़धूप करने की कोई आवश्यकता नहीं है. अब मैं बड़ा हो गया हूं. फौजी कप्तान हूं. आप सब की देखभाल कर सकता हूं.

अच्छा मां, अब मैं सोता हूं. आंखें अपनेआप बंद हो रही हैं. मां, बस एक बार, सिर्फ एक बार मेरे गालों को चूम कर कहो, ‘कैसा पगला राजा बेटा है, मेरा मुन्ना…सो जा बेटे, सो जा…कल जल्दी जो उठना है.’

आप का,

प्यारा अक्षय

अक्षय के पत्र के आखिरी अक्षर तो वासंती के आंसुओं में ही धुल गए. उन्होंने आंखें पोंछीं, मन शांत किया. आखिरी पंक्तियां फिर से पढ़ीं और ‘अक्षय’ शब्द को चूम कर बोलीं, ‘‘बिलकुल पगला है, मेरा राजा बेटा…’’

उसी वक्त घंटी खनकी और वासंती के मुंह से अनायास शब्द फूट पड़े, ‘‘अक्षू बेटा, रुक, मैं आ रही हूं.’’

उन्होंने दौड़ कर दरवाजा खोला. दरवाजे पर अक्षय नहीं था, लेकिन उसी की रैजीमैंट का एक युवा अफसर खड़ा था. वह वरदी पहने था. सिर पर ‘पी कैप’ थी. उस ने वासंती को सैल्यूट करते हुए धीरे से पूछा, ‘‘कैप्टन अक्षय कुमार?’’

‘‘जी हां, यह अक्षय का ही घर है.’’

‘‘आप?’’

‘‘मैं उस की मां हूं, वैसे अभी घर में कोई नहीं है. साहब दफ्तर गए हैं. मेघा कालेज में है और अक्षय तो सीमा क्षेत्र में तैनात है. तबीयत नासाज थी, इसलिए मैं रुक गई अन्यथा मैं भी कालेज गई होती. आप अंदर आइए.’’

अफसर हौले से अंदर आया. उस ने धीरे से कुछ इशारा किया. खुले दरवाजे से 2 सिपाही लोहे का एक बड़ा संदूक ले कर अंदर आए. उन्होंने उसे नीचे रखा और दोनों सावधान मुद्रा में खड़े हो गए. संदूक के बीचोबीच एक ‘पी कैप’ रखी हुई थी और उस के सामने वाले भाग पर लिखा था, ‘कैप्टन अक्षय कुमार, बौंबे इंजीनियर्स ग्रुप, इंजीनियर्स रैजीमैंट’.

‘‘यह सब क्या है?’’ वासंती ने घबरा कर पूछा, उस का दिल तेजी से धड़क रहा था.

‘‘अक्षय का सामान है,’’ अफसर धीरे से बोला.

‘‘अक्षय कहां है?’’ वासंती ने संदूक की ओर एकटक देखते हुए पूछा.

अफसर कुछ नहीं बोला. उस ने अपनी टोपी उतारी और वह जमीन ताकने लगा.

‘‘आप बोलते क्यों नहीं? अक्षय कहां है? यह सब क्या हो रहा है? अक्षय को क्या हुआ है? बोलिए, कुछ तो बोलिए?’’ वासंती ने चीख कर कहा.

अफसर ने अपनी जेब से कागज का एक छोटा सा टुकड़ा निकाला, जो मैला था और बुरी तरह मुड़ा हुआ था.

‘‘अक्षय की वरदी की ऊपरी जेब से यह टुकड़ा बरामद हुआ है, टुकड़ा गीला था, अब सूख चुका है. कृपया, आप पढ़ लें,’’ अफसर धीमी आवाज में बोला.

थरथराते हाथों से वासंती ने कागज का टुकड़ा लिया. उस मैले से मुड़े हुए कागज के टुकड़े पर केवल 3 पंक्तियां लिखी थीं:

‘अगर मैं बढ़ूं, मेरे पीछे आएं,

अगर मैं मुड़ूं, मुझे शूट करें,

अगर मैं मरूं, मुझे भूल जाएं.’

वाइट पैंट: जब 3 सहेलियों के बीच प्यार ने दी दस्तक

इस बार जब मायके आई तो घूमते हुए कालेज के आगे से गुजरना हुआ. तभी अनायास ही वह सफेद पैंट पहना हुआ शख्स आंखों के आगे लहरा गया जिस का नाम ही हम लोगों ने वाइट पैंट रखा हुआ था. और सोचते हुए कालेज के दिन चलचित्र जैसे आंखों के आगे नाचने लगे.

बात तब की है जब हम ने कालेज में नयानया ऐडमिशन लिया था. उस जमाने में कालेज जाना ही बहुत बड़ी बात होती थी. हर कोई स्कूल के बाद कालेज तक नहीं पहुंच पाता था. तो हम खुद को बहुत खुशनसीब समझते थे जो कालेज की चौखट तक पहुंचे थे. इंटर कालेज के कठोर अनुशासन के बाद कालेज का खुलापन और रंगबिरंगे परिधान एक अलग ही दुनिया की सैर कराते थे.

हमारे लिए हर दिन नया दिन होता था. कालेज हमें कभी बोर नहीं करता था. हम 3 सहेलियां थीं सरिता, सुमित्रा और सुदेश. हम हमेशा साथसाथ रहती थीं, इसीलिए सभी लोग हमें त्रिमूर्ति भी कहते थे.

हम तीनों अकसर क्लास खत्म होने के बाद खुले मैदान में बैठ कर घंटों गपें लड़ाती थीं. इसी क्रम में हम तीनों ने महसूस किया कि कोई हमारे आसपास खड़ा हो कर हम पर नजर रखता है और इस बात को हम तीनों ने ही नोट किया. हम ने देखा मध्यम कदकाठी का एक लड़का, जो बहुत खूबसूरत नहीं था, उस के गेहुएं रंग में सिल्की बाल अच्छे ही लग रहे थे. शर्ट जैसी भी पहने था. लेकिन पैंट वह हमेशा सफेद ही पहनता था. रोजरोज उसे सफेद पैंट में देखने के कारण हम ने उस का नाम ही वाइट पैंट रख दिया था जिस से हमें उस के बारे में बात करने में आसानी रहती थी.

हमारा काम था क्लास के बाद मैदान में बैठ कर टाइम पास करना और उस का काम एक निश्चित दूरी से हम को देखते रहना. जब यह क्रम काफी दिनों तक चलता रहा तो हमें भी कुतूहल हुआ कि आखिर यह हम तीनों में से किसे पसंद करता है. सो, हम तीनों ने सोचा क्यों न इस बात का पता लगाया जाए. तो इत्तफाक से एक दिन सुदेश नहीं आई लेकिन हम ने देखा कि वाइट पैंट फिर भी हमारे आसपास उपस्थित है. तो इतना तो पक्का हो गया कि सुदेश वह लड़की नहीं है जिस के लिए वह हमारा ग्रुप ताकता है. कुछ समय बाद सुमित्रा उपस्थित न रही. फिर भी उस का हमें ताकना बदस्तूर जारी रहा. अब सुमित्रा भी इस शक के घेरे से बाहर थी. अब रह गई थी एकमात्र मैं और फिर किसी कारणवश मैं ने भी छुट्टी ली तो अगले दिन कालेज जाने पर पता चला कि मेरे न होने पर भी उस का ताकना जारी था.

अब तो हम तीनों को गुस्सा आने लगा. लेकिन कर भी क्या सकते थे. हम कहीं भी जा कर बैठते, उसे अपने आसपास ही पाते. हम ने कई बार अपने बैठने की जगह भी बदली, मगर उसे अपने ग्रुप के आसपास ही पाया. तीनों में मैं थोड़ी साहसी और निडर थी. हम रोज उसे देख कर यही सोचते कि इसे कैसे मजा चखाया जाए. लेकिन हमारे पास कोई आइडिया नहीं था और वैसे भी, इतने महीनों तक न उस ने कुछ बात की और न ही कभी कोई गलत हरकत. इसलिए भी हम कुछ नहीं कर सके. लेकिन उस का हमेशा हमारे ही ग्रुप को ताकना हमें किसी बोझ से कम नहीं लगता था. एक दिन हमारे बैठते ही जब वह भी आ गया तो मैं ने कहा चलो, आज इसे मजा चखाते हैं. तो दोनों बोलीं, ‘कैसे?’

?मैं ने कहा, ‘यह रोज हमारा पीछा करता है न, तो चलो आज हम इस का पीछा करते हैं.’ वे दोनों बोलीं, ‘कैसे?’ मैं ने कहा, ‘तुम दोनों सिर्फ मेरा साथ दो. जैसा मैं कहती हूं, बस, मेरे साथसाथ वैसे ही चलना.’ उन दोनों ने हामी भर दी. फिर हम वहीं बैठे रहे. हम ने देखा लगभग एक घंटे बाद वह लाइब्रेरी की तरफ गया तो मैं ने दोनों से कहा कि चलो अब मेरे साथ इस के पीछे. आज हम इस का पीछा करेंगे और इसे सताएंगे. मेरी बात सुन कर वे दोनों खुश हो गईं. और हम तीनों उस के पीछेपीछे लाइब्रेरी पहुंच गए. जितनी दूरी पर वह खड़ा होता था, लगभग उतनी ही दूरी बना कर हम तीनों खड़े हो गए. जब उस की नजर हम पर पड़ी तो वह हमें देख कर चौंक गया और हलके से मुसकरा कर अपने काम में लग गया.

उस के बाद वह पानी पीने वाटरकूलर के पास गया तो हम भी उस के पीछेपीछे वहीं पहुंच गए. अब तक वह हम से परेशान हो चुका था. फिर वो नीचे आया और मैदान के दूसरे छोर पर बने विज्ञान विभाग की तरफ चल दिया. हम भी उस के पीछेपीछे चल दिए. वह विज्ञान विभाग के अंदर गया और काफी देर तक बाहर नहीं आया. हम बाहर ही मैदान में बैठ कर उस के बाहर आने का इंतजार करने लगे.

लगभग 35 मिनट के बाद वह चोरों की तरह झांकता हुआ बाहर निकला, तो उस ने हम तीनों को उस के इंतजार में बैठे पाया. 10 बजे से इस चूहेबिल्ली के खेल में 2 बज चुके थे. वह हम से भागतेभागते बुरी तरह थक चुका था. वह कालेज से बाहर निकला और ऋषिकेश की तरफ पैदल चलने लगा. हम भी उस के पीछे हो लिए. वह मुड़मुड़ कर हमें देखता और आगे चलता जाता. जब थकहार कर उसे हम किसी भी तरह टलते नहीं दिखे तो आखिर में वह हरिद्वार जाने वाली बस में चढ़ गया और हमारे सामने से हमें टाटा करते हुए मुसकराते हुए निकल गया. हम तीनों अपनी इस जीत पर पेट पकड़ कर हंसती रहीं और फिर उस दिन के बाद कभी दोबारा हम ने वाइट पैंट को अपने आसपास नहीं देखा.

2 हिस्से: जब खुशहाल शादी पहुंची तलाक तक

‘‘कहां थीं तुम? 2 घंटे से फोन कर रहा हूं… मायके पहुंच कर बौरा जाती हो,’’ बड़ी देर के बाद जब मोनी ने फोन रिसीव किया तो मीत बरस पड़ा.

‘‘अरे, वह… मोबाइल… इधरउधर रहता है तो रिंग सुनाईर् ही नहीं पड़ी… सुबह ही तो बात हुई थी तुम से… अच्छा क्या हुआ किसलिए फोन किया? कोई खास बात?’’ मोनी ने उस की झल्लाहट पर कोई विशेष ध्यान न देते हुए कहा.

‘‘मतलब अब तुम से बात करने के लिए कोई खास बात होनी चाहिए मेरे पास… क्यों ऐसे मैं बात नहीं कर सकता? तुम्हारा और बच्चों का हाल जानने का हक नहीं है क्या मुझे? हां, अब नानामामा का ज्यादा हक हो गया होगा,’’ मीत मोनी के सपाट उत्तर से और चिढ़ गया. उसे उम्मीद थी कि वह अपनी गलती मानते हुए विनम्रता से बात करेगी.

उधर मोनी का भी सब्र तुरंत टूट गया. बोली, ‘‘तुम ने लड़ने के लिए फोन किया है तो मुझे फालतू की कोई बात नहीं करनी है. एक तो वैसे ही यहां कितनी भीड़ है और ऊपर से मान्या की तबीयत…’’ कहतेकहते उस ने अपनी जीभ काट ली.

‘‘क्या हुआ मान्या को? तुम से बच्चे नहीं संभलते तो ले क्यों जाती हो… अपने भाईबहनों के साथ मगन हो गई होगी… ऐसा है कल का ही तत्काल का टिकट बुक करा रहा हूं तुम्हारा… वापस आ जाओ तुम… मायके जा कर बहुत पर निकल आते हैं तुम्हारे. मेरी बेटी की तबीयत खराब है और तुम वहां सैरसपाटा कर रही हो… नालायकी की हद है… लापरवाह हो तुम…’’ हालचाल लेने को किया गया फोन अब गृहयुद्ध में बदल रहा था. मीत अपना आपा खो बैठा था.

‘‘जरा सा बुखार हुआ है उसे… अब वह ठीक है… और सुनो, मुझे धमकी मत दो. मैं 10 दिन के लिए आई हूं. पूरे 10 दिन रह कर ही आऊंगी… मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरे मायके आने से सांप लोटने लगा है तुम्हारे सीने पर… अभी तुम्हारे गांव जाती जहां 12-12 घंटे लाइट नहीं आती… बच्चे वहां बीमार होते तो तुम्हें कुछ नहीं होता… पूरा साल तुम्हारी चाकरी करने के बाद 10 दिन को मायके क्या आ जाऊं तुम्हारी यही नौटंकी हर बार शुरू हो जाती है,’’ मोनी भी बिफर गई. उस की आवाज भर्रा गई पर वह अपने मोरचे पर डटी रही.

‘‘अच्छा मैं नौटंकी कर रहा हूं… बहुत शह मिल रही है तुम्हें वहां…

अब तुम वहीं रहो. कोई जरूरत नहीं वापस आने की… 10 दिन नहीं अब पूरा साल रहो… खबरदार जो वापस आईं,’’ गुस्से से चीखते हुए मीत ने उस की बात आगे सुने बिना ही फोन काट दिया.

मोनी ने भी मोबाइल पटक दिया और सोफे पर बैठ कर रोने लगी. उस की मां पास बैठी सब सुन रही थीं. वे बोलीं, ‘‘बेटी, वह हालचाल पूछने के लिए फोन कर रहा था. देर से फोन उठाने पर अगर नाराज हो रहा था तो तुम्हें प्यार से उसे हैंडल करना था. खैर, चलो अब रोओ नहीं. कल सुबह तक उस का भी गुस्सा उतर जाएगा.’’

मोनी अपना मुंह छिपाए रोते हुए बोली, ‘‘मम्मी, सिर्फ 10 दिन के लिए आई हूं. जरा सी मेरी खुशी देखी नहीं जाती इन से… पतियों का स्वभाव ऐसा क्यों होता है कि जब भी हमें मिस करेंगे, हमारे बिना काम भी नहीं चलेगा तब प्यार जताने के बदले, हमारी कदर करने के बदले हमीं पर झलाएंगे, गुस्सा दिखाएंगे… हम से जुड़ी हर चीज से बैर पाल लेंगे. यह क्या तरीका है जिंदगी जीने का?’’

‘‘बेटी, ये पुरुष होते ही ऐसे हैं… ये बीवी से प्यार तो करते हैं पर उस से भी ज्यादा अधिकार जमाते हैं. बीवी के मायके जाने पर इन को लगता है कि इन का अधिकार कुछ कम हो रहा है, तो अपनेआप अंदर ही अंदर परेशान होते हैं. ऐसी झल्लाहट में जब बीवी जरा सा कुछ उलटा बोल दे तो इन के अहं पर चोट लग जाती है और बेबात का झगड़ा होने लगता है… तेरे पापा का भी यही हाल रहता था,’’ मां ने मोनी के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे चुप कराया.

‘‘पर मम्मी औरत को 2 भागों में आखिर बांटते ही क्यों हैं ये पुरुष? मैं पूरी ससुराल की भी हूं और मायके की भी… मायके में आते ही ससुराल की उपेक्षा का आरोप क्यों लगता है हम पर? यह 2 जगह का होने का भार हमें ही क्यों ढोना पड़ता है?’’ मोनी ने मानो यह प्रश्न मां से ही नहीं, बल्कि सब से किया हो.

मां उसे अपने सीने से लगा कर चुप कराते हुए बोलीं, ‘‘इन के अहं और ससुराल में छत्तीस का आंकड़ा रहता ही है… मोनी मैं ने कहा न कि पुरुष होते ही ऐसे हैं. यह इन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है… और पुरुष का काम ही है स्त्री को 2 भागों में बांट देना, जिन में एक हिस्सा मायके का और दूसरा ससुराल का बनता है… जैसे 2 अर्ध गोलाकार से एक गोलाकार पूरा होता है वैसे ही एक औरत भी इन 2 हिस्सों से पूर्ण होती है.’’

मोनी मूक बनी सब सुन रही थी. कुछ समझ रही थी और कुछ नहीं समझने की कोशिश कर रही थी. शायद यही औरत का सच है.

एक डाली के फूल: भाग 3-किसके आने से बदली हमशक्ल ज्योति और नलिनी की जिंदगी?

जब प्रथम प्रसव में कन्या हुई तो विपुला पति की आंखों में उतरे क्रोध व शोक को देख कांप उठी थी. वकील साहब उपस्थित प्रियजनों के सम्मुख तो कुछ न बोले, किंतु एकांत पाते ही दांत पीस विपुला को यह जताना न भूले, ‘लड़की ही पैदा करनी थी…?’

विपुला के नेत्रों में आंसू डबडबा आए. वह चुपचाप मुंह दूसरी तरफ कर सिसकने लगी.
दूसरी बार प्रसव कक्ष में सरबती भी विपुला के साथ थी. नवजात शिशुओं के रुदन के बीच ही सरबती का चेहरा लटक गया था. उस का मुख देख ही विपुला का चेहरा स्याह पड़ गया था. परिणाम तो सरबती के चेहरे पर परिलक्षित था किंतु फिर भी उस ने प्रश्नभरी निगाह सरबती पर डाली थी.
सरबती अटकअटक कर बोली थी, ‘मालकिन, अब के तो दोनों जुड़वां बेटियां हैं.’

विपुला पर तो मानो वज्र गिर पड़ा. वह उस की ओर जीवनदान मांगती सी इतना भर कह पाई, ‘सरबती, कुछ सोच, वे बरदाश्त न कर पाएंगे,’ और वह बेहोश हो गई.
सरबती विपुला के दर्द और घाव को समझती थी, पर अनपढ़, गरीब किस बल पर उस का साहस बंधाती. उस को जो सूझा, उस ने किया.

विपुला को घंटेभर बाद होश आया तो वकील साहब को तनिक संतुष्ट व प्रसन्न देख फटी आंखों से चारों तरफ निहारने लगी. कहीं स्वप्न तो नहीं देख रही या इतने वर्षों तक वह अपने पति को ही भलीभांति न जान सकी? इतने में वकील साहब तन कर बोले, ‘देखना, बेटे को बैरिस्टर बनाऊंगा, बैरिस्टर.’

वह चौंकी, मानो स्वप्न की दुनिया से वास्तविकता में आ गई हो. वकील साहब ने बेटे को उस की बगल में लिटा दिया था. विपुला के कांपते हाथ अनायास ही बच्चे के शिश्न पर चले गए. वह मूक ठगी सी कृतज्ञ सरबती की ओर ताकने लगी.

थोड़ी देर बाद वकील साहब घर चले गए थे. विपुला ने दोनों हाथों से कंगन उतारते सरबती को इशारे से पास बुला पहना दिए और फफक कर रो पड़ी थी.

सरबती ने धीरे से बताया था, ‘चिंता न करो बहूजी, एक डाक्टर के बेटा हुआ है, उस से बदल लिया है.’
इस के बाद बड़ी देर तक सरबती खुसुरफुसुर कर बताती रही अपनी वीरगाथा कि कैसे नर्स को लोभ दिखा कर उसे यह सफलता मिली. विपुला सुन तो रही थी पर पीड़ा भी उसे हुई इस कृत्य पर. फिर भी सरबती की कृतज्ञ थी, जिस ने अपने गले में पड़ी सोने की चेन तुरंत नर्स के हाथ में रख दी थी.

अचानक विपुला को वकील साहब ने जोरों से झकझोरा तो उस की तंद्रा टूटी. वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई. वे बोले, ‘‘तुम अभी तक यहीं मुंह लटकाए बैठी हो?’’

विपुला अपना सिर पकड़ बिना कुछ कहे वहां से चल दी. नलिनी ने पूछा, ‘‘मां, सिर में दर्द है?’’

दीपक ने भी कहा, ‘‘मैं सिर दबा दूं?’’

विपुला इनकार में सिर हिलाती एक लंबी सांस खींच बोली, ‘‘मुझे अकेला छोड़ दो. कोई बात मत करो.’’
‘‘पर मां, खाना तो खा लो,’’ दीपक ने कहा तो विपुला शून्य में देखती हुई बोली, ‘‘भूख नहीं है.’’
इतना कह विपुला कमरे में सोने चली गई. नींद उसे कहां आनी थी. वह आंखों में आंसू भरे करवटें लेती रही. कभी अपनी कायरता पर रोती, कभी अपराधबोध त्रस्त कर देता, ‘हाय, क्यों इतना भय समा गया था? किसी की कोख से बेटा छीन लेने का जो अपराध किया, उस से तिलतिल जलती ही रही हूं, कोई सुख नहीं पाया. इतने वर्षों तक घुटघुट कर जीती रही. पर अपने को कभी माफ नहीं कर पाई. अपनी ही नजर में जब व्यक्ति गिर जाए तो उस का जीनामरना एक समान होता है.’

अगले दिन विपुला नलिनी से ज्योति के घर का पता पूछ चली गई. उसे देखते ही डा. प्रशांत व्यंग्य से मुसकराए और बोले, ‘‘मैं जानता था, आज आप में से कोई या दोनों पतिपत्नी आओगे जरूर. इस कारण ही मैं क्लीनिक बंद कर घर में बैठा हूं,’’ फिर लंबी सांस छोड़ कर गंभीरता ओढ़ ली, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

विपुला सिर झुकाए अपराधी की भांति कुछ क्षण सूखे होंठ चाटती रही. सहसा फूटफूट कर रो पड़ी. रुदन थमा तो बोली, ‘‘डाक्टर साहब, मैं आप की अपराधिन हूं, मुझे दंड मिलना ही चाहिए. मैं ने अपने स्वार्थ के कारण आप का बेटा छीना. पर विश्वास कीजिए, यह कदम मैं ने बेटीबेटे के भेद के कारण नहीं बल्कि अपने पति के भय से उठाया था. फिर भी कुछ भी हो, मैं ने यह अपराध किया तो अपने स्वार्थ के लिए ही न. इसलिए सजा मिलनी ही चाहिए.

‘‘यह सच है कि ज्योति मेरी ही बेटी है और दीपक आप का बेटा, मैं स्वीकार करती हूं. सजा भोगने को भी तैयार हूं,’’ उस ने अंतिम वाक्य सजल नेत्र ऊपर उठा सीधे उन की आंखों में झांकते हुए कहा.
डा. प्रशांत फिर भी चुप रहे.
वह आगे बोली, ‘‘आप अपना दीपक दावा कर के ले लीजिए.’’
‘‘क्यों, आज पति का भय नहीं रहा?’’
‘‘भय आज भी है, परंतु उस को सहने की ताकत मुझ में पैदा हो गई है,’’ जोर दे कर निर्भीकता से बोली विपुला.

ज्योति, जिस ने सबकुछ सुनसमझ लिया था, कमरे की ओट से उन के सामने आते हुए बोली, ‘‘पिताजी, मैं ने आप को बहुत दुख दिया है,’’ इतना कह उन के पैरों में गिर पड़ी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे.
डा. प्रशांत अचकचा गए. इस स्थिति की तो उन्होंने कल्पना भी न की थी. उन्होंने उसे उठाते हुए ताज्जुब से पूछा, ‘‘तू कब कालेज से आई? छि… बेटियां पांव नहीं पड़तीं. तू रो क्यों रही है? पगली, तेरे बिना तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है,’’ उसे दुलारते, समझाते बोले, ‘‘तू तो मेरे शरीर का हिस्सा है, ज्योति, मैं दीपक ले कर क्या करूंगा, जब ज्योति ही न होगी. तू तो सचमुच मेरी ज्योति है.’’

यह कह कर उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से चपत लगाई और कहा, ‘‘तू दुखी मत हो, हम यह शहर ही छोड़ देंगे. मैं जल्लाद नहीं हूं, जो तुझे ऐसी जगह झोंक दूं जहां बेटियों के जन्म का भय समाया हो. तू तो मेरा बेटा और बेटी दोनों ही है.’’

‘‘नहीं, पिताजी, मुझे पता है, आप मुझे मानसिक रूप से असुरक्षित नहीं देखना चाहते हैं. पर मैं इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हूं. मैं ने आज तक बहुत लाड़प्यार और दुलार आप से पाया है. यद्यपि मैं आप को खोना नहीं चाहती, पर आप को बेटे से वंचित रखना…’’
‘‘चुप,’’ जोर से बीच में ही उन्होंने टोका, ‘‘बहुत बोलने लगी है.’’

विपुला आगे बढ़ कर ज्योति से आंखें मिलाने का साहस न कर सकी, गले लगाना तो दूर रहा. वह बोली, ‘‘डाक्टर साहब, मैं ने आप जैसे महान व्यक्ति के साथ धोखा किया, मुझे सजा मिलनी ही चाहिए. मैं दंड की ही अधिकारिणी हूं,’’ इतना कह वह फिर रोने लगी.

डा. प्रशांत को विपुला पर क्रोध तो आ रहा था पर वे उसे सजा भी नहीं देना चाह रहे थे. कुछ चिढ़ कर बोले, ‘‘जानती हैं, आप को भय तब क्यों लग रहा था क्योंकि आप मोह में फंसी थीं और आज अपराधबोध से शायद आप की अपनी देह से ही ममता छूट गई है, इसलिए भयभीत नहीं हैं…’’
‘‘डा. साहब, सही कहा आप ने. आज मैं ने जान लिया है, जो मनुष्य भयवश झूठा आचरण करता है वह पशु से भी बदतर है.’’

डा. प्रशांत के चेहरे की कठोरता कुछ कम हुई. उन्होंने सोचा, सजा के बजाय क्षमा अधिक वीरतापूर्ण कार्य है. क्षमा जो वीर पुरुष का भूषण है. अपने कुटुंब और प्रियजन के लिए तो सभी त्याग करते हैं पर जो दूसरों के लिए करे वही प्रशंसनीय है. फिर अपकार का बदला अपकार नहीं बल्कि उपकार ही हो सकता है. जिस पौधे को उन्होंने सींच कर बड़ा किया ही नहीं, उस से मोह उत्पन्न होगा भी कैसे और न ही वह उन्हें अपना पाएगा.

विपुला दोनों हाथ जोड़ बड़ी निर्भयता से परिणाम जानने के लिए उन के आगे खड़ी थी. डा. प्रशांत बड़ी दृढ़ता से बोले, ‘‘आप ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, मैं इसी से प्रसन्न हूं. अब आप जा सकती हैं. और हां, जो पहेली आप ने आज तक अपने तक सीमित रखी है, आगे भी रख सकती हैं. मेरी ज्योति मुझे प्राणों से प्यारी है. शायद आप मेरा अभिप्राय समझ गई होंगी.’’

विपुला आश्चर्य से कुछ पल उन की ओर ताकती रही, फिर उन के चरणों में झुक गई, ‘‘डा. साहब, आप सचमुच महान हैं.’’

एक डाली के फूल: भाग 2- किसके आने से बदली हमशक्ल ज्योति और नलिनी की जिंदगी?

उन की जिज्ञासा उन्हें कानपुर खींच ले गई. उन्होंने अस्पताल से सारी रिपोर्टें निकलवाईं, परंतु व्यर्थ. रिकौर्ड में तो एक ही बच्चा हुआ लिखा था. थोड़ी देर बाद उन्होंने सोचा, क्यों न नलिनी का रिकौर्ड देख लिया जाए. पहले तो अस्पताल के कर्मियों ने इनकार कर दिया परंतु डा. प्रशांत को वहां के डा. मल्होत्रा बहुत अच्छी तरह जानते थे. उन्होंने कहसुन कर नलिनी का रिकौर्ड निकलवा दिया.

विपुला के 2 जुड़वां बच्चे होने का रिकौर्ड था. साथ में यह भी लिखा था कि एक ही नाल से दोनों बच्चे जुड़े थे. उन्होंने देखा, वजन के स्थान पर एक बच्चे का वजन स्वस्थ बच्चे के वजन के बराबर काट कर लिखा गया था. यह बात वह समझ न सके कि आखिर एक ही नाल से जुड़े बच्चों के वजन में इतनी असमानता कैसे? जबकि जुड़वां बच्चों का वजन जन्म के समय एक स्वस्थ बच्चे जितना नहीं होता. ऊपर से लड़के का वजन काट कर लिखा हुआ था. यही नहीं, मात्रा भी कटी थी, मानो भूल से लड़की लिख दिया गया हो.

उन्होंने फिर अपनी फाइल देखी. कहीं कुछ कटापिटा नहीं था. इतना उन के दिमाग में दौड़ा भी नहीं कि बेटा को बेटी करने में या लड़का को लड़की करने में कहीं काटनेपीटने की जरूरत ही नहीं पड़ती. वे चुपचाप घर लौट आए.

पहेली हल नहीं हुई थी. यदि ज्योति नलिनी की बहन थी तो उन का बच्चा कौन था? वह कहां गया? उन की उत्सुकता इतनी तीव्र थी कि वे रातदिन सोचते ही रहते. नलिनी ज्योति से मिलने अकसर आ जाती. उसे बड़ा आनंद आता जब डा. प्रशांत उन दोनों के साथ गपशप में व्यस्त हो जाते.

एक दिन डा. प्रशांत ने नलिनी व ज्योति के खून का परीक्षण किया. दोनों के कार्डियोग्राफ, उंगलियों के चिह्न, विभिन्न अंगों के एक्सरे, कानों के परदे, आंखों के अंदर की नसों आदि की फोटो ले डालीं.

ज्योति ने हंसते हुए कहा, ‘‘नलिनी, पिताजी शायद यह देखना चाह रहे हैं कि हम किसी  गंभीर रोग से पीडि़त या पीडि़त होने वाली तो नहीं हैं. उन्हें यह सब करने में बड़ा मजा आता है.’’

डा. प्रशांत ने जितने भी परीक्षण किए, उन से यही साबित हुआ कि दोनों लड़कियां जुड़वां बहनें ही हैं. वे दुविधा में डूबे सोच रहे थे कि अंतिम व मान्यताप्राप्त परीक्षण रह गया है. यदि वह परीक्षण होहल्ला कर के करेंगे तो हो सकता है उन्हें अपनी ज्योति से हाथ न धोना पड़ जाए. और यदि लड़कियों को मूर्ख बना कर करना चाहेंगे तो वे तैयार न होंगी किसी सूरत में.

परीक्षण भी तो अजीबोगरीब था. यदि लड़कियों को राजी करने का प्रयत्न करते तो वे उन्हें पागल ही समझतीं. किसी घायल व्यक्ति का अगर मांस कहीं से उखड़ जाए तो उसी की जांघ का मांस उस स्थान पर लगाया जाता है. परंतु किसी दूसरे व्यक्ति का मांस कटे स्थान पर लगाने से वह सूख जाता है. यहां तक कि उस घायल व्यक्ति के मांबाप, भाईबहन का मांस भी काम नहीं दे सकता. सिर्फ जुड़वां भाई या बहन का मांस काम दे सकता है. अब इस परीक्षण के लिए भला जवान लड़कियां कहां से तैयार होतीं.

डा. प्रशांत ने सोचा, ‘सारे परीक्षण अभी तक पक्ष में गए हैं. फिर इस एक परीक्षण को ले कर शंका को शंका बने रहने देना कोई अक्लमंदी नहीं है. वे जान गए थे कि दोनों लड़कियां एक ही मां की हैं परंतु एक प्रश्न खड़ा था, फिर उन का बच्चा कहां गया? क्या किसी ने बच्चे बदल लिए? पर क्यों? यह प्रश्न वे सुलझा नहीं पा रहे थे क्योंकि ज्योति देखने में सुंदर, स्वस्थ बच्चे के रूप में थी और अपने यौवन के चढ़ते और भी निखर आई थी. लंगड़ी, लूली, गूंगी, काली कोई भी दोष तो न था, फिर किसी ने क्यों बदला?’

वे इस गंभीर प्रश्न में उलझे हुए थे कि उन के एक मित्र ने टोका, ‘‘क्या बात है, प्रशांत, कुछ परेशान से दिखते हो?’’

‘‘कोई स्त्री अपना बच्चा किसी

दूसरे से किनकिन कारणों से बदल सकती है?’’

उन के मित्र ने मुसकरा कर जवाब दिया, ‘‘अपने भारतीय समाज में सब से प्रमुख व पहला कारण तो ‘लड़का’ है, जिसे पाने के लिए…’’

वे पूरा वाक्य न कह पाए थे कि डाक्टर प्रशांत बोले, ‘‘धन्यवाद. तुम ने मेरी गुत्थी सुलझा दी.’’

डा. प्रशांत के दिमाग में बिजली सी कौंध गई. रिकौर्ड पर लिखी हस्तलिपि उन्हें याद हो आई, जिस में ‘लड़की’ शब्द के ऊपर की मात्रा कटी थी और वजन भी काट कर सामान्य बच्चे का लिखा गया था. उन्हें विश्वास हो गया कि जरूर दाल में काला है. परंतु फिर एक दुविधा थी.  नलिनी के पिता एक प्रतिष्ठित वकील थे, जिन के पास न धन की कमी थी और न ही विद्वत्ता की.

डा. प्रशांत एक दिन बिना बुलाए मेहमान की तरह नलिनी के घर पहुंच गए. वकील साहब सपरिवार घर पर ही थे. नलिनी ने उन के साथ ज्योति को न देख कर पूछा, ‘‘चाचाजी, ज्योति नहीं आई?’’

वे हंस कर बोले, ‘‘नहीं बेटे, मैं घर से थोड़े ही आ रहा हूं. मैं तो सीधे क्लीनिक बंद कर तुम्हारे घर आ धमका हूं, तुम्हारे हाथ की चाय पीने,’’ उन के इतना खुल कर बोलने से सब हंस पड़े.

वकील साहब बोले, ‘‘चाय ही क्यों, कुछ और पीना चाहेंगे तो वह भी मिलेगा.’’

उन्होंने बड़ी शिष्टता से इशारा समझते हुए कहा, ‘‘क्षमा करें, मैं इस के सिवा कुछ और नहीं पीता.’’

विपुला भी शिष्टाचारवश आ कर बैठ गई थी.

वकील साहब के बच्चों ने बारीबारी आ कर नमस्ते की तो वे पूछ बैठे, ‘‘इन में से जुड़वां कौन हैं?’’

इस अकस्मात किए गए प्रश्न पर विपुला चौंक सी गई. नलिनी भी ताज्जुब में पड़ गई क्योंकि उस ने कभी ज्योति से अपने जुड़वां भाई होने की बात कही ही नहीं थी.

‘‘नलिनी और यह मेरा बेटा दीपक. ये दोनों जुड़वां हैं,’’ वकील साहब मुसकराते हुए बोले.

डा. प्रशांत ताज्जुब  से देख तो रहे थे, पर विचलित तनिक न हुए. बेटे की ओर वे टकटकी लगाए देखते रहे. बिलकुल चेहरामोहरा, नाकनक्श उन के जैसा ही था. एक विचित्र सी तरंग उन के हृदय में दौड़ गई.

परंतु सामान्य स्वर में बोले, ‘‘वकील साहब, लोग जाने कैसे हैं, बच्चों की अदलाबदली करने में शर्म नहीं महसूस करते. एक लड़के के लिए लोग दूसरे का बच्चा चुरा लेते हैं.’’

वकील साहब, जो वास्तव में कुछ भी न समझने की स्थिति में थे, मेहमान की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाते बोले, ‘‘हो सकता है साहब, इस दुनिया में कुछ भी संभव है.’’

‘‘संभव नहीं, वकील साहब, ऐसा हुआ है. एक केस हमारे पास ऐसा है, जिस में मैं चाहूं तो एक दंपती को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकता हूं, पूरे प्रमाण के साथ,’’ डा. प्रशांत कुछ ज्यादा जोश में कह गए.

विपुला को तो बिजली का करंट सा लगा. वह सुन्न सी पड़ गई. वकील साहब को तो जोश से कोर्ट में जिरह सुनने और कहने की आदत सी थी. वे प्रभावहीन बने देखते रहे.

डा. प्रशांत शायद अपने को तब तक काबू में कर चुके थे. वे मुलायम पड़ते रूखी हंसी हंसते हुए बोले, ‘‘पर मैं ऐसा करूंगा नहीं,’’ यह कहते उन्होंने तिर्यक दृष्टि विपुला पर डाली, जो सूखे पत्ते की तरह कांप रही थी.

उन के जाने के बाद वकील साहब विपुला से इतना भर बोले, ‘‘डा. प्रशांत ऐसे कह रहे थे मानो उन का कटाक्ष हम पर ही हो.’’

विपुला पति के मुंह से यह सुन और भी डर गई. उस का अनुमान अब और पक्का हो गया कि डाक्टर इशारे में उन्हीं को कह रहे थे. शिथिल, निढाल सी विपुला कुछ भी न बोल पाने की स्थिति में जहां बैठी थी वहीं बैठी रही. उस की आंखों के आगे अपना अतीत साकार हो उठा.

नामी वकील जगदंबा प्रसाद की पत्नी बनने से पूर्व विपुला कितनी चंचल थी, किंतु उस की हंसी, वह अल्हड़ता शादी के सातफेरों के बीच ही शायद स्वाहा हो गई थी. ससुराल के एक ही चक्कर के बाद किसी ने मायके में उसे हंसतेखिलखिलाते, बातबात पर उलझते नहीं देखा. जगदंबा प्रसाद के रोबदार व्यक्तित्व के आगे वह इतनी अदनी होती चली गई कि धीरेधीरे उस का अपना अस्तित्व ही विलीन हो गया. जगदंबा प्रसाद के बेबुनियादी क्रोध पर कई बार उस के मन में आया कि छोड़छाड़ कर मायके चली जाए. पर हर बार मां उसे तमाम ऊंचनीच समझा और अपनी असमर्थता जता वापस भेज देती थीं.

एक डाली के फूल: भाग 1- किसके आने से बदली हमशक्ल ज्योति और नलिनी की जिंदगी?

इंटर की परीक्षा पास कर नलिनी ने जिस कालेज में प्रवेश लिया, इत्तफाक से उस की हमशक्ल ज्योति नाम की एक लड़की ने भी उसी कक्षा में दाखिला लिया. शुरूशुरू में तो लोग समझते रहे कि दोनों सगी जुड़वां बहनें होंगी परंतु जब धीरेधीरे पता चला कि ये बहनें नहीं हैं तो सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ.

लोगों के आश्चर्य का तब ठिकाना न रहा जब ज्योति ने बताया कि वह इस वर्ष ही कानपुर से यहां आई है और नलिनी को जानती तक नहीं. इस चर्चा के कारण दोनों गहरी मित्र बन गईं. ज्योति तो बहुत मेधावी व चंचल थी परंतु नलिनी थोड़ी संकोची व अपने में सिकुड़ीसिमटी. ज्योति जीवन की भरपूर हिलोरे लेती नदिया सी लहराती बहती दिखती थी, वहीं नलिनी शांत, स्थिर जल के समान थी. यही अंतर दोनों में भेद रख सकता था वरना यदि दोनों को समान वेशभूषा व समान बालों की बनावट कर खड़ा कर दिया जाता तो उन के अभिभावक तक धोखा खा सकते थे.

धीरेधीरे यह बात उन के घरों तक भी पहुंची. नलिनी के घर में कोई तवज्जुह न दी गई. हंसीहंसी में बात उड़ गई. शायद विपुला की स्मरणशक्ति भी धूमिल पड़ चुकी थी. वकील साहब यानी नलिनी के पिता ने एक कान से सुनी, दूसरे से निकाल दी. वैसे भी वे बेटियों को महत्त्व ही कब देते थे.

किंतु ज्योति के पिता डा. प्रशांत ने जब यह सुना तो उन्हें थोड़ा ताज्जुब हुआ चूंकि उन की एकमात्र संतान ज्योति ही थी, वे उस की खुशियों का इतना अधिक खयाल रखते थे कि उस की छोटीछोटी बातों को भी पूरा कर के उन्हें संतोष मिलता था. पत्नी नवजात शिशु को जन्म देते ही इस दुनिया से चल बसी थी. वे इसी बच्ची को चिपकाए रहे. उन्होंने दूसरी शादी नहीं की. उन की सारी खुशियां ज्योति के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई थीं.

ज्योति के कालेज में  वार्षिकोत्सव था. डा. प्रशांत हमेशा की भांति वहां गए. ज्योति अपनी सहेली नलिनी को अपने पिता से मिलवाने ले गई. नलिनी ने दोनों हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया. डा. प्रशांत तो यह समानता देख ठगे से रह गए. वे एकटक निहारते रहे. यह देख ज्योति उन की आंखों के आगे हाथ से पंखा करती हंसती हुई बोली, ‘‘पिताजी, कहां खो गए? है न बिलकुल मेरी तरह?’’

वे मानो उस को देखते ही अपनी सुधबुध क्षणभर को खो बैठे थे. सामान्य होते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

सकुचाते हुए वह बोली, ‘‘नलिनी.’’

‘‘तुम्हारे मातापिता भी आए हैं?’’

नलिनी दुखी स्वर में बोली, ‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पता नहीं, शायद दिलचस्पी नहीं ली है.’’

वे एक कटु मुसकान छोड़ उसे पुचकारते से स्वर में बोले, ‘‘अच्छा बेटा, जाओ.’’

ज्योति नलिनी का हाथ पकड़ उछलतेकूदते छात्राओं की पंक्ति में जा कर बैठ गई. डा. प्रशांत कार्यक्रम तो जरूर देख रहे थे पर उन का ध्यान कहीं दूसरी ओर था. बैठेबैठे उन्हें ध्यान आया कि नलिनी के घर का पता व फोन नंबर पूछना तो वे भूल ही गए. ज्यों ही समारोह समाप्त हुआ उन की बेटी ज्योति पास आई और बोली, ‘‘पिताजी, नलिनी को भी ले चलें. उस के घर पर छोड़ देंगे.’’

‘‘क्यों, क्या उस के घर से उसे लेने कोई नहीं आया?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है, उस का भाई आया होगा. परंतु मैं उस का घर देखना चाहती हूं.’’

‘‘अच्छा, ठीक है.’’

नलिनी का भाई सचमुच मोटरसाइकिल लिए खड़ा था. परंतु ज्योति ने हठ कर के उसे अपने साथ कार में बैठा लिया. नलिनी भी कुछ न बोली. इसी बहाने डा. प्रशांत ने भी उस का घर देख लिया. वह उतरने लगी तो उन्होंने पूछा, ‘‘बेटा, तुम्हारे यहां फोन है?’’

‘‘घर पर नहीं है, पिताजी के दफ्तर में है.’’

‘‘जरा नंबर बताना,’’ डा. प्रशांत ने जेब से छोटी डायरी निकाली और नंबर नोट किया.

नमस्ते व धन्यवाद कह कर नलिनी घर में चली गई.

डा. प्रशांत रातभर ठीक से सो न सके. बड़ी उथलपुथल सी उन के हृदय में मची रही. 2 लड़कियों की शक्लसूरत व उम्र की इतनी समानता देख वे दुविधा में पड़ गए थे. अगले दिन उन्होंने नलिनी के पिता को फोन किया. उन्होंने फोन पर ही अपना पूरा परिचय दिया और पूछा, ‘‘क्या आप की बेटी नलिनी का जन्म 4 जनवरी, 1974 को कानपुर के भारत अस्पताल में हुआ था?’’

उधर वकील साहब का स्वर गूंजा, ‘‘बिलकुल सही फरमाया आप ने. तारीख और सन मुझे इसलिए भी याद है क्योंकि मेरे बेटे की जन्मतिथि भी वही है. समय मैं बता देता हूं, रात के करीब 12 बज कर 10 मिनट.’’

डा. प्रशांत फोन पर ही चकित हो उठे. इसी समय के आसपास तो उन की बेटी भी पैदा हुई थी. उन्होंने मन ही मन सोचा, ‘अभी तक किस्सेकहानियों में ही ऐसी बातें पढ़ने को मिलती थीं लेकिन क्या वास्तविक जीवन में भी ऐसा हो सकता है?’ उन का जिज्ञासु वैज्ञानिक मन यह मानने को बिलकुल तैयार नहीं था कि समान कदकाठी के चेहरेमोहरे की 2 लड़कियां 2 भिन्न परिवारों में पैदा हो सकती हैं.

डा. प्रशांत बड़े चुपचाप से रहने लगे, कहीं खोएखोए से. घंटों सोचा करते, पर कोई निष्कर्ष निकालने में सफल न हो पाते. ज्योति भी पिता की इस स्थिति से अनभिज्ञ न थी. परंतु उन के दुख व चिंता का कारण भी वह न समझ पा रही थी. एक दिन पिता के गले झूलते हुए बोली, ‘‘क्या मुझ से कोई गलती हो गई, पिताजी?’’

‘‘नहीं, बेटे.’’

‘‘फिर आप इतना गुमसुम क्यों रहते हैं? मुझे आप का इतना गंभीर होना बहुत खलता है, पिताजी.’’

डा. प्रशांत बेटी के गाल थपथपा कर हंस दिए और बोले, ‘‘बेटा, तुम अपनी सहेली को इतवार के दिन घर ले आना, हम सब बैडमिंटन खेलेंगे.’’

ज्योति खुशीखुशी चली गई. डा. प्रशांत का वैज्ञानिक दिमाग कुछ परीक्षण कर लेना चाहता था.

इतवार को गाड़ी ले ज्योति अपनी सहेली के घर उसे लाने गई तो डा. प्रशांत लौन में ही बेचैनी से टहलते रहे और सोचते रहे, अपने परीक्षण के विषय में. इंतजार में घडि़यां बीत रही थीं और ज्योति का कहीं अतापता न था. अंत में गाड़ी बंगले में दाखिल हुई.

परंतु यह क्या? नलिनी तो उस के साथ नहीं थी. यह तो कोई और ही लड़की थी.  ज्योति को क्या मालूम कि उस के पिता के दिमाग में क्या गूंज रहा है या वह किस विशेष सहेली को लाने को बोले थे. वह पास आते हुए बड़ी शान से बोली, ‘‘चलिए, अब खेलते हैं. गीता बेजोड़ है बैडमिंटन में.’’

डा. प्रशांत इस पर क्या बोलते, उन का तो तीर खाली चला गया था. वे धीरे से बोले, ‘‘और वह तुम्हारी सहेली क्या नाम बताया था, हां, नलिनी, उसे क्यों नहीं लाईं?’’

ज्योति हंस दी, ‘‘पिताजी, उसे खेलने में विशेष दिलचस्पी नहीं है.’’

डा. प्रशांत ने मन ही मन अपने को कोसा. चूंकि वे बेटी से वादा कर चुके थे. इसलिए बड़े मरे मन से बैडमिंटन खेलने लगे. बच्चों के साथ खेलतेखेलते थोड़ी देर को वास्तव में भूल गए अपने परीक्षण व परिणाम को और उन के साथ नोकझोंक करते खेलने लगे.

एक दिन इत्तफाक से नलिनी स्वयं अपने भाई के साथ डा. प्रशांत के क्लीनिक पहुंच गई. उस के गाल में सूजन आ गई थी. अंदर की दाढ़ में काफी दर्द था. डा. प्रशांत को तो मानो बिना लागलपेट के परीक्षण करने का सुराग हाथ लग गया था. कहां तो उन्होंने सोचा था कि ज्योति जब नलिनी को ले कर घर आएगी तो खेल तो एक बहाना होगा, वास्तव में तो उस का दंत परीक्षण मजाकमजाक में कर अपनी शंका दूर करेंगे.

उन्होंने नलिनी का मुख खोल कर परीक्षण किया. उस का इलाज तो किया ही साथ ही, यह भी नोट किया कि नलिनी के पीछे संपूर्ण दांत न हो कर केवल 2 ही दांत हैं. सुबह उन्होंने ज्योति को बुलाया और उस का दंत परीक्षण किया. वे दंग रह गए. उस के भी पीछे केवल 2 ही दांत थे. उन्हें विश्वास हो गया कि ज्योति व नलिनी दोनों जुड़वां ही हैं. जरूर किसी ने बीच में शरारत की है. कहीं ऐसा तो नहीं कि उन की एक बेटी किसी ने चुराई हो? उन का मन व्याकुल हो उठा. डा. प्रशांत तो पत्नी के प्रसव से 8 माह पूर्व ही विदेश चले गए थे. उन्हें तो जब पत्नी के निधन का समाचार मिला था तब भागे चले आए थे.

इस मोड़ पर: आखिर ऐसा क्या हुआ कि आशी ने गौरव को बेपरदा कर दिया?

आशी की आंखें अभी आधी नींद में और आधी खुली हुई थीं. उस के जेहन में बारबार एक शब्द गूंज रहा था, ‘‘ठंडीठंडी.’’

आशी अधखुली आंखों के साथ ही वाशरूम चली गई. चेहरे पर पानी के छींटे पड़ते ही आंखों के नीचे की कालिमा और स्पष्ट रूप से उभर गई. आशी बराबर खुद का चेहरा आईने में देख रही थी. उसे लग रहा था जैसे उस का जीना बेमानी हो गया है. शायद गौरव सच ही कह रहा था कितनी थकी हुई और बूढ़ी लग रही थी वह आईने में.

कैसे बरदाश्त करता होगा गौरव उसे रात में. तभी गौरव की उनींदी आवाज आई, ‘‘आशु चाय बना दो.’’

आशी ने विचारों को  झटका और रसोई में घुस गई. अभी आशी चाय बना ही रही थी कि पीछे से सासूमां बोली, ‘‘आशी, तेरे बाल रातदिन इतने  झड़ रहे हैं, देख कितने पतले हो गए हैं. पहले कितनी मोटी चोटी होती थी. यह सब इन बालों को कलर कराने का नतीजा है.’’

तभी पीछे से गौरव बोला, ‘‘मम्मी, तुम्हारी बहू अब बूढ़ी हो गई है.’’

सासूमां हंसते हुए बोली, ‘‘चुप कर बेवकूफ.’’

गौरव बोला, ‘‘मु झ से बेहतर कौन जान पाएगा, क्यों आशी?’’

आशी कट कर रह गई. आंखों में आंसुओं को पीते हुए उस ने गौरव को चाय का प्याला पकड़ा दिया.

गौरव नहाने घुस गया तो आशी फिर से आईने के सामने अपने को देखने लगी, उस के बाल आगे से कितने कम हो गए थे. तभी आशी ने देखा बाएं गाल पर 3-4 धब्बे भी नजर आ रहे थे.

तभी कार्तिक आया और बोला, ‘‘मम्मी, नाश्ते में क्या बनाया है?’’

आशी को एकाएक ध्यान आया कि वह कितनी पागल है. पूरे आधे घंटे से आईने के सामने खड़ी है.

सासूमां रसोई में पहले से ही परांठे सेंक रही थी. आशी बोली, ‘‘मम्मी, मैं सेंक लेती हूं.’’

सासूमां प्यार से बोली, ‘‘आशी, तू तैयार हो जा, मैं बना दूंगी. वैसे भी पिछले 3-4 महीनों से तुम बेहद थकीथकी लगती हो, आज गौरव के साथ डाक्टर के पास चली जाना.’’

आशी प्यार में भीगी हुई अंदर चली गई. जब नहा कर बाहर निकली तो उस का मन फूल जैसा हलका लग रहा था.

रास्ते में गौरव आशी से बोला, ‘‘आज

आने में देर हो जाएगी, हम पुराने दोस्तों

का रियूनियन है.’’

आशी ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मैं सोच रही थी आज डाक्टर के पास चलते, मम्मी कह रही थी मु झे अपना ध्यान रखना चाहिए.’’

गौरव हंसते हुए बोला, ‘‘अरे यार ढलती उम्र का क्या कोई इलाज होता है? कल चल पड़ेंगे.’’

दफ्तर में जैसे ही आशी घुसी उस ने कनकियों से देखा, ‘‘पायल और निकिता एकदूसरे को अपने बालों के हाईलाइट्स दिखा रही थीं,’’ आशी का भी कितना मन करता है मगर अब उस के बाल इतने रूखे और बेजान हो गए हैं कि वह सोच भी नहीं सकती है.’’

आशी को सुबहसुबह ही ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस की ऊर्जा किसी ने सोख ली हो.

तभी आशी की सीट पर प्रियशा आई, ‘‘क्या सोच रही है आशी और यह चेहरे पर 12 क्यों बज रहे हैं?’’

आशी बोली, ‘‘अभी तुम बस 38 साल की हो, तुम्हें सम झ नहीं आएगा कि 50 वर्ष की महिला को कैसा प्रतीत होता है जब उस का अस्तित्व उस से जुदा हो रहा होता है.’’

प्रियाशा बोली, ‘‘आशी, क्या आंटियों की तरह पहेलियां बुझा रही हो.’’

आशी बिना कुछ बोले अपने लैपटौप में डूब गई. जब आशी दफ्तर से वापस आई तो सासूमां उस का चाय पर इंतजार कर रही थी.

आशी को शादी के बाद कभी अपनी मम्मी की कमी नहीं खली थी. सासूमां ने हमेशा आशी से बेटी की तरह ही व्यवहार किया था. चाय का घूंट पीते हुए आशी सोच रही थी कि सबकुछ तो कितना अच्छा चल रहा था, मगर फिर न जाने यह मेनोपौज का मोड़ अचानक कहां से आ गया.

सासूमां सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘क्या बात है, देख रही हूं पिछले कुछ दिनों से बहुत थकीथकी रहती… इस गौरव के मिजाज का भी कुछ ठीक नहीं है. वह क्यों इधरउधर बिना तेरे दोस्तों के साथ घूमता रहता है.’’

आशी बोली, ‘‘वह न जाने मम्मी आजकल क्यों मेरा मन उखड़ाउखड़ा रहता है जिस कारण गौरव अपसैट हो जाते हैं.’’

सासूमां तोलती सी नजरों से बोली, ‘‘आशी, तुम शायद मेनोपौज के मोड़ पर खड़ी हो मगर इस मोड़ पर गौरव को तुम्हारा साथ देना चाहिए न कि इधरउधर फुदकने लगे.

रात में काफी देर तक आशी गौरव की प्रतीक्षा करती रही और फिर थक कर सो गई थी.

आधी रात को अचानक आशी की आंख खुली. उस का गाउन खराब हो गया था. पहले तो उसे अपनी डेट का हमेशा आभास भी हो जाता था और वह कभी इधरउधर भी नहीं होती थी. वह वाशरूम में जा कर जब वापस आई तो गौरव की खीज भरी आवाज कानों से टकराई, ‘‘क्या प्रौब्लम है तुम्हारा… न दिन में चैन और न ही रात में.’’

आशी को एकाएक खुद पर शर्म सी आ गई. 50 साल की उम्र में उस के कपड़े खराब हो गए हैं, कितनी फूहड़ है वह. दफ्तर में भी आशी को बहुत दिक्कत हो रही थी. इसलिए बीच में ही घर चली आई थी.

शाम को गौरव आया और तैयार होते हुए बोला, ‘‘आज मेरा डिनर बाहर है.’’

आशी बोली, ‘‘गौरव हम डाक्टर के पास कब चलेंगे?’’

गौरव बोला, ‘‘मेरी क्या जरूरत है आशी… पढ़ीलिखी हो खुद चली आओ.’’

आशी फिर पूरी शाम ऐसे ही लेटी रही. शाम को सासूमां आई और फटकार लगाते हुए बोली, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें? क्या तुम्हारी कोई अपनी जिंदगी नहीं है, चलो उठो डाक्टर के पास जाओ, कब तक खुद को इग्नोर करती रहोगी.’’

डाक्टर ने आशी से बात करी और फिर बोला, ‘‘इस उम्र में यह सब नौर्मल है. जरूरी है आप इसे सहजता से लें. अगली बार अपने पति के साथ आइए. आप के साथसाथ उन की काउंसलिंग भी जरूरी है, और फिर आशी को कुछ दवाइयां लिख दीं.’’

जब गौरव वापस आया तो औपचारिक तौर से पूछा, ‘‘क्या कहा डाक्टर ने?’’

आशी बोली, ‘‘अगली बार तुम्हें बुलाया है.’’

गौरव हंसते हुए बोला, ‘‘भई बूढ़ी तुम हो रही हो मैं नहीं, मु झे किसी डाक्टरवाक्टर की जरूरत नहीं है.’’

आशी को सम झ नहीं आ रहा था कि गौरव इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है. अगर वह 50 साल की हो गई है तो गौरव भी 52 साल का हो रहा है फिर यह उम्र का ताना क्यों बारबार उसे मिल रहा है, इसलिए क्योंकि वह एक औरत है. जो गौरव पहले भौंरे की तरह उस से चिपका रहता था अब उस के संपूर्ण जीवन का रस सोखने के बाद ऐसे व्यवहार कर रहा है मानो यह उस का कोई अपराध हो.

अगले दिन दफ्तर में जब आशी ने प्रियांशी से इस बारे में बातचीत करी तो प्रियांशी हंसते हुए बोली, ‘‘यह बस जीवन का एक मोड़ है. जैसे हम लड़कियों की जिंदगी में मासिकधर्म का आरंभ होना भी एक मोड़ होता है वैसे ही रजनोवृत्ति भी बस एक मोड़ ही है, जिंदगी खत्म होने का संकेत नहीं है.’’

आशी बोली, ‘‘तुम अभी सम झ नहीं पाओगी. ऐसा लगता है जैसे तुम्हारा वजूद खत्म हो रहा है. जब तुम अपने पति की नजरों में एक फालतू सामान बन जाते हो, तब सम झ आता है कि यह मोड़ है या डैड एंड है.’’

प्रियांशी बोली, ‘‘मैडम, मैं 35 साल की उम्र से इस मोड़ पर खड़ी हूं.’’

आशी आश्चर्य से प्रियांशी की तरफ देखने लगी तो प्रियांशी बोली, ‘‘देखो क्या

मैं तुम्हें बुढि़या लगती हूं? मेनोपौज को तो मैं कंट्रोल नहीं कर सकती थी मगर खुद को तो कर सकती हूं. मेरी स्त्री होने की पहचान बस इस एक प्रक्रिया से नहीं है और हम स्त्रियों का स्त्रीत्व बस इसी पर क्यों टिका हुआ हैं? क्या तुम्हारे पति की परफौर्मैंस पहले जैसी ही है अभी भी? पर पुरुषों के पास स्त्रियों की तरह ऐसा कोई इंडिकेटर नहीं है इसलिए आज भी अधिकतर मर्द इस गलतफहमी में जीते हैं कि मर्द कभी बूढ़े नहीं होते हैं.’’

आशी सोचते हुए बोली, ‘‘बात तो सही है तुम्हारी.’’

प्रियांशी और आशी फिर बहुत देर तक बात करती रही. प्रियांशी से बात करने के बाद आशी सोच रही थी कि वह कितनी बुद्धू है.

उस रात को जब आशी ने पहल करी तो गौरव बोला, ‘‘अरे, आज इतना जोश कैसे आ गया तुम्हें?’’

आशी मुसकराते हुए बोली, ‘‘अब तुम्हारे अंदर भी पहले जैसा जोश कहां रह गया है?’’

गौरव घमंड से बोला, ‘‘मर्द और घोड़े कभी बूढ़ा नहीं होता है.’’

आशी बोली, ‘‘यह मु झ से बेहतर कौन जान सकता है.’’

आशी के स्वर में उपहास देख कर गौरव चुपचाप किताब के पन्ने पलटने लगा. उस का मन जानता था कि आशी की बातों में सचाई है और इसी सचाई को  झुठलाने के लिए वह आशी को रातदिन कोसता रहता था. मगर आशी उसे इस तरह बेपरदा कर देगी उस ने सोचा भी नहीं था.

अपने जैसे लोग: भाग 3- नीरज के मन में कैसी शंका थी

हम खुशीखुशी बाहर निकल कर घर के सामने आए ही थे कि देखा पंकज और प्रदीप दोनों साइकिल से खेल रहे हैं. आश्चर्य तो नीरज को तब हुआ जब उस ने देखा कि पंकज तो गद्दी पर बैठा है और प्रदीप उसे धक्का दे रहा है.

‘‘देखो तो सही कैसे बादशाह की तरह गद्दी पर जमा बैठा है और उस से साइकिल खिंचवा रहा है. कहीं मिसेज गांगुली ने देख लिया तो…’’

‘‘वे कितनी ही बार बच्चों को ऐसे खेलता हुआ देख चुकी हैं. कोई भावना उन के मुख पर कभी दिखाई नहीं दी. सब आप के दिल का वहम है,’’ मैं ने उचित अवसर देख कर कहा और वह चुप हो गया. शायद वह अपनी गलती अनुभव करने लगा था.

एक इतवार को दोपहर का शो देखने का प्रोग्राम था. मैं नहा कर जल्दी से कपड़े बदल आई थी और घर में पहनने वाली अपनी साधारण सी धोती को मैं ने बरामदे में ही रस्सी पर डाल दिया. नीरज कुछ देर पीछे वाली कोठियों की ओर बड़े ध्यान से देखता रहा, फिर मेरी धुली धोती को उस ने रस्सी से उतार फेंका और बोला, ‘‘इस बीस रुपल्ली की धोती को इन लोगों के सामने सुखाने मत डाला करो. देखो, वह 6 नंबर वाली देखदेख कर कैसे हंस रही है, यह देख कर कि तुम्हारे पास ऐसी ही सस्ती धोती है पहनने को. क्या कहेंगे ये सब लोग? इसे सुखाना ही था तो उधर बाहर बगीचे में तार पर डाल देतीं.’’

‘‘आप तो बेकार हर समय वहम करते हैं, उलटा ही सोचते हैं. किसी को क्या मतलब है इतनी दूर से यह देखने का कि हमारी घर में पहनी जाने वाली धोती कीमती है या सस्ती? कोई किसी की ओर इतना ध्यान क्यों देगा भला.’’ मैं भी जरा क्रोध में बोलती हुई धोती को उठा कर बाहर डाल आई थी. बहुत दुख हुआ था नीरज के सोचने के ढंग पर. फिल्म देखते हुए भी दिल उखड़ाउखड़ा रहा. परंतु मैं ने भी हिम्मत न हारी.

तीसरे दिन शाम को 6 नंबर वाली रमा हमारे यहां आईं तो मुझे आश्चर्य हुआ. पर वे बड़े प्रेम से अभिवादन कर के बैठते हुए बोलीं, ‘‘शीलाजी, आप कलम चलाने के साथसाथ कढ़ाई में भी अत्यंत निपुण हैं, यह तो हमें अभी सप्ताहभर पहले ही सौदामिनीजी ने बताया है. सच, परसों दोपहर आप ने बरामदे में जो धोती सुखाने के लिए डाल रखी थी, उस पर कढ़े हुए बूटे इतने सुंदर लग रहे थे कि मैं तो उसी समय आने वाली थी लेकिन आप उस दिन फिल्म देखने चली गईं.’’

नीरज उस समय वहीं बैठा था. रमा अपनी बात कह रही थीं और हम एकदूसरे के चेहरों को देख रहे थे. मैं अपनी खुशी को बड़ी मुश्किल से रोक पा रही थी और नीरज अपनी झेंप को किसी तरह भी छिपाने में समर्थ नहीं हो रहा था. आखिर उठ कर चल दिया. रमा जब चली गईं तो मैं ने उस से कहा, ‘‘अब बताओ कि वे मेरी धोती के सस्तेपन पर हंस रही थीं या उस पर कढ़े हुए बेलबूटों की सराहना कर रही थीं.’’

‘‘हां, भई, चलो तुम्हीं ठीक हो. मान गए हम तुम्हें.’’ पहली बार उस ने अपनी गलती स्वीकारी. उस के बाद एक आत्मसंतोष का भाव उस के चेहरे पर दिखाई देने लगा.

इस कालोनी में रहने का एक बड़ा लाभ मुझे यह हुआ कि मध्यम और उच्च वर्ग, दोनों ही प्रकार के लोगों के जीवन का अध्ययन करने का अवसर मिला. मैं ने अनुभव किया बड़ीबड़ी कोठियों में रहने वाले व धन की अपार राशि के मालिक होते हुए भी अमीर लोग कितनी ही समस्याओं व जटिलताओं से जकड़े हुए हैं. उधर अपने जैसे मध्यम वर्ग के लोगों की भी कुछ अपनी परेशानियां व उलझनें थीं.

मेरे लिए खुशी की बात तो यह थी कि प्रत्येक महिला बड़ी ही आत्मीयता से अपना सुखदुख मेरे सम्मुख कह देती थी क्योंकि मैं समस्याओं के सुझाव मौखिक ही बता देती थी या फिर अपनी लेखनी द्वारा पत्रिकाओं में प्रस्तुत कर देती थी. परिणामस्वरूप, कई परिवारों के जीवन सुधर गए थे.

मेरे घर के द्वार हर समय हरेक के लिए खुले रहते. अकसर महिलाएं हंस कर कहतीं, ‘‘आप का समय बरबाद हो रहा होगा. हम ने तो सुना है कि लेखक लोग किसी से बोलना तक पसंद नहीं करते, एकांत चाहते हैं. इधर हम तो हर समय आप को घेरे रहती हैं…’’

‘‘यह आप का गलत विचार है. लेखक का कर्तव्य जनजीवन से भागने का नहीं होता, बल्कि प्रत्येक के जीवन में स्वयं घुस कर खुली आंखों से देखने का होता है. तभी तो मैं आप के यहां किसी भी समय चली आती हूं.’’ मैं बड़ी नम्रता से उत्तर देती तो महिलाएं हृदय से मेरे निकट होती चली गईं.

धीरेधीरे उन के साथ उन के पति भी हमारे यहां आने लगे. नीरज को भी उन का व्यवहार अच्छा लगा और वह भी मेरे साथ प्रत्येक के यहां जाने लगा. मुझे लगने लगा वास्तव में सभी लोग अपने जैसे हैं…न कोई छोटा न बड़ा है. बस, दिल में स्थान होना चाहिए, फिर छोटे या बड़े निवासस्थान का कोई महत्त्व नहीं रहता.

अभी 3 दिनों पहले ही पंकज का जन्मदिन था. हमारी इच्छा नहीं थी कि धूमधाम से मनाया जाए, परंतु एक बार जरा सी बात मेरे मुंह से निकल गई तो सब पीछे पड़ गए, ‘‘नहीं, भई, एक ही तो बच्चा है, उस का जन्मदिन तो मनाना ही चाहिए.’’

हम दोनों यही सोच रहे थे कि जानपहचान वाले लोग कम से कम डेढ़ सौ तो हो ही जाएंगे. कैसे होगा सब? इतने सारे लोगों को बुलाया जाएगा तो पार्टी भी अच्छी होनी चाहिए.

‘‘इतने बड़े लोगों को मुझे तो अपने यहां बुलाने में भी शर्म आ रही है और ये सब पीछे पड़े हैं. कैसे होगा?’’ नीरज बोला.

‘‘फिर वही बड़ेछोटे की बात कही आप ने. कोई किसी के यहां खाने नहीं आता. यह तो एक प्रेमभाव होता है. मैं सब कर लूंगी.’’ मैं ने अवसर देखते हुए बड़े धैर्य से काम लिया. सुबह ही मैं ने पूरी योजना बना ली.

आशा देवी की आया व कमलाजी के यहां से 2 नौकर बुला लिए. लिस्ट बना कर उन्हें सहकारी बाजार से सामान लाने को भेज दिया और मैं तैयारी में जुट गई. घंटेभर बाद ही सामान आ गया. मैं ने घर में समोसे, पकोड़े, छोले व आलू की टिकिया आदि तैयार कर लीं. मिठाई बाजार से आ गई.

बैठने का इंतजाम बाहर लौन में कर लिया गया. फर्नीचर आसपास की कोठियों से आ गया. सभी बच्चे अत्यंत उत्साह से कार्य कर रहे थे. गांगुली साहब ने अपनी फर्म के बिजली वाले को बुला कर बिजली के नन्हें, रंगबिरंगे बल्बों की फिटिंग पार्क में करवा दी. मैं नहीं समझ पा रही थी कि सब कार्य स्वयं ही कैसे हो गया.

रात के 12 बजे तक जश्न होता रहा. सौदामिनीजी के स्टीरियो की मीठी धुनों से सारा वातावरण आनंदमय हो गया. पंकज तो इतना खुश था जैसे परियों के देश में उतर आया हो. इतने उपहार लोगों ने उसे दिए कि वह देखदेख कर उलझता रहा, गाता रहा. सब से अधिक खुशी की बात तो यह थी कि जिस ने भी उपहार दिया उस ने हार्दिक इच्छा से दिया, भार समझ कर नहीं. मैं यदि इनकार भी करती तो आगे से उत्तर मिलता, ‘‘वाह, पंकज आप का बेटा थोड़े ही है, वह तो हम सब का बेटा है.’’ यह सुन कर मेरा हृदय गदगद हो उठता.

रात के 2 बज गए. बिस्तर पर लेटते ही नीरज बोला, ‘‘आज सचमुच मुझे पता चल गया है कि व्यक्ति के अंदर योग्यता और गुण हों तो वह कहीं भी अपना स्थान बना सकता है. तुम ने तो यहां बिलकुल ऐसा वातावरण बना दिया है जैसे सब लोग अपने जैसे ही नहीं, बल्कि अपने ही हैं, कहीं कोई अंतर ही नहीं, असमानता नहीं.’’

‘‘अब मान गए न मेरी बात?’’ मैं ने विजयी भाव से कहा तो वह प्रसन्नता से बोला, ‘‘हां, भई, मान गए. अब तो सारी आयु भी इन लोगों को छोड़ने का मन में विचार तक नहीं आएगा और छोड़ना भी पड़ा तो अत्यंत दुख होगा.’’

‘‘तब इन लोगों की याद हम साथ ले जाएंगे,’’ कह कर मैं निश्चित हो कर बिस्तर पर लेट गई.

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