अपने जैसे लोग: भाग 2- नीरज के मन में कैसी शंका थी

एक दिन शाम को नीरज जब काम से लौटा तो पंकज का कान पकड़े हुए उसे घसीटते हुए लाया और बरामदे में पटक दिया. मैं दोपहर का काम निबटा कर लेटी हुई एक पत्रिका पढ़तेपढ़ते शायद सो गई थी.

अचानक ही पंकज की चिल्लाहट से हड़बड़ा कर उठ बैठी. ‘‘देखा नहीं तुम ने, वहां बड़े मजे से उन लड़कों की साइकिल में धक्का लगा रहा था, जैसे गुलाम हो उन का. शर्म नहीं आती. मारमार कर खाल उतार दूंगा अगर आगे से उन के पास गया या कोई ऐसी हरकत की तो…’’ उस की गाल पर एक थप्पड़ और मारते हुए नीरज पंकज को मेरी ओर धकेलते हुए अंदर चला गया.

नीरज के इतने क्रोधित होने पर आश्चर्य हो रहा था मुझे. आखिर इस में पंकज का क्या दोष? उसे साइकिल नहीं मिली तो वह बच्चों के साथ साइकिल को धक्का लगा कर ही अपनी अतृप्त भावना की तृप्ति करने पहुंच गया. वह क्या जाने गुलाम या बादशाह को? बच्चे का दिल तो निर्दोष होता है. मुझे दुख था तो नीरज के सोचने के ढंग पर. ऊंचनीच की भावना उसे परेशान कर रही थी.

मैं समझ गई कि कोई ऐसा भाव उस के हृदय में घर कर गया था जो हर समय उन लोगों की नजरों में उसे हीन बना रहा था और दूसरों के धनदौलत का महत्त्व उस के मस्तिष्क में बढ़ता ही जा रहा था. यद्यपि हीन हम लोग किसी भी प्रकार से नहीं थे. जब तक यह गलत भावना नीरज के मन से दूर न होगी, हमारा इस कालोनी में रहना दूभर हो जाएगा. ऐसा मुझे दिखाई देने लगा था. मैं ने भी सोच लिया कि मुझे उसी बदहाली में जाने की अपेक्षा नीरज के मन में बैठी उस भावना से लड़ाई करनी है.

बड़े सोचविचार के बाद मैं ने एक कदम उठाया. नीरज के दफ्तर चले जाने के बाद मैं उन बड़े लोगों के संपर्क में आने का प्रयत्न करती रही. उन के घर में प्रवेश करने के साथ ही उन के हृदयों में प्रवेश कर के यह जानने की कोशिश करती रही कि क्या हम अपने साधारण से वेतन व साधारण जीवन स्तर के साथ उन के समाज में आदर पा सकते हैं.

सब से पहले मैं ने अपना परिचय बढ़ाया कोठी नंबर 5 की सौदामिनी से. उन के पति एक बड़ी फर्म के मालिक हैं. अनेक वर्ष विदेश रह कर आए हैं और उन के नीचे कार्य करने वाले अनेक कर्मचारी भी विदेशों से प्रशिक्षित हैं. कई सुंदर नवयुवतियां भी इन के नीचे स्टेनो, टाइपिस्ट व रिसैप्शनिस्ट का कार्य करती हैं. स्वाभाविक है कि गांगुली साहब पार्टियों और क्लबों में अधिक व्यस्त रहते हैं.

एक दिन सौदामिनी ने अपने हृदय की व्यथा व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘क्या करूं, शीलाजी? अपने एक बच्चे को तो इन के इसी व्यसन के पीछे गंवा बैठी हूं. हर समय इन के साथ या तो बाहर रहना पड़ता था या घर में ही डिनर व पार्टियों में व्यस्त रहती थी. बच्चे की देखरेख कर ही नहीं पाई, आया के भरोसे ही रहा. वह न जाने कैसा बासी व गंदा दूध पिलाती रही कि बच्चे का जिगर खराब हो गया और काफी इलाज के बावजूद चल बसा.

‘‘अब प्रदीप 2 वर्ष का हो गया है. उसे छोड़ते मुझे डर लगता है. जब से यह हुआ, इन के और मेरे संबंधों में दरार पड़ती जा रही है. ये बाहर रहते हैं और मैं घर में पड़ी जलती रहती हूं.’’ वे लगभग रो पड़ीं.

‘‘अरे, इस समस्या का हल तो बहुत आसान है. आप प्रदीप को पंकज के साथ हमारे यहां भेज दिया कीजिए. दोनों खेलते रहेंगे. प्रदीप जब पंकज के साथ हिल जाएगा तो आप के पीछे से हमारे घर ठहर भी जाया करेगा. फिर आप शौक से गांगुली साहब के साथ बाहर जाइए.’’

सौदामिनी का मुंह एक ओर तो हर्ष से दमक उठा, दूसरी ओर वे आश्चर्य से मेरे मुंह की ओर देखती रह गईं, ‘‘आप कैसे करेंगी इतना सब मेरे लिए? आप को परेशानी होगी.’’

‘‘नहीं, आप बिलकुल चिंता न कीजिए. मैं प्रदीप को जरा भी कष्ट नहीं होने दूंगी और मुझे भी उस के कारण कोई परेशानी नहीं होगी. फिर हमारे पंकज का दिल भी तो उस के साथ बहल जाएगा. वह भी तो बेचारा अकेला सा रहता है.’’ मैं ने हंसते हुए उन से विदा ली थी और अगली ही शाम को वे स्वयं प्रदीप को ले कर हमारे यहां आ गई थीं. कितनी ही देर बैठीबैठी वे हमारे छोटे से घर की गृहसज्जा की प्रशंसा करती रही थीं.

प्रदीप प्रतिदिन हमारे यहां आने लगा. अपने ढेर सारे खिलौने भी ले आता. दोनों बच्चे खेल में ही मस्त रहते. मैं बीचबीच में दोनों को खानेपीने को देती रहती. कभीकभी कहानियां भी सुनाती और पुस्तकों में से तसवीरें भी दिखाती. अब जब भी सौदामिनी चाहतीं, बड़े शौक से प्रदीप को हमारे यहां छोड़ जातीं.

आरंभ में नीरज ने बहुत आपत्ति उठाई थी, ‘‘देख लेना, भलाई के बदले में बुराई ही मिलेगी. ये बड़े लोग किसी का एहसान थोड़े ही मानते हैं.’’

‘‘मैं कोई भी कार्य बदले की भावना से नहीं करती. बस, इतना ही जानती हूं कि इंसान को इंसानियत के नाते अपने चारों ओर के लोगों के प्रति अपना थोड़ाबहुत फर्ज निभाते रहना चाहिए. फिर, इस से हमारा पंकज भी तो बहल जाता है. मुझे तो फायदा ही है.’’

‘‘खाक बहल जाता है, देखूंगा कितने दिन ऐसे बहलाओगी उसे,’’ नीरज चिढ़ते हुए अंदर चला गया था.

परंतु नीरज को यह अभी तक मालूम नहीं था कि जब से प्रदीप हमारे यहां आने लगा था, तब से पंकज मानसिक रूप से बहुत स्वस्थ रहने लगा था. वह अधिकतर प्रदीप या उस के खिलौनों में व्यस्त रहता. मुझे भी घर का कार्य करने में सहूलियत हो गई. पहले पंकज ही मुझे अधिक व्यस्त रखता था. मैं दिन में कुछ कढ़ाईसिलाई व अपने लेखन का कार्य भी नियमित रूप से करने लगी.

एक दिन शाम को हम घूमने निकले तो गांगुली साहब सुयोगवश बाहर ही खड़े मिल गए. बड़े ही विनम्र हो कर हाथ जोड़ते हुए स्वयं ही आगे बढ़ कर बोले, ‘‘आइए, शीलाजी, आप ने हम पर जो एहसान किया है वह कभी भी उतार नहीं पाऊंगा. सच, अकेले में कितना बुरा लगता था बाहर जाना. आप ने हमारी समस्या हल कर दी.’’

‘‘मुझे शर्मिंदा न कीजिए, गांगुली साहब, पड़ोसी के नाते यह तो मेरा फर्ज था.’’

‘‘आइए, अंदर आइए.’’ वे हमें अंदर ले गए. सौदामिनी भी आ गईं. काफी देर बैठे बातें करते रहे. बातों के दौरान ही मैं ने गांगुली साहब को जब अपना छोटा सा यह सुझाव दिया कि आधुनिक युग में रहते हुए भी घर से बाहर उन्हें इतना व्यस्त नहीं रहना चाहिए कि पत्नी घर में ऊब जाए. वे कहने लगे, ‘‘हां, मैं स्वयं ही आप के इस सुझाव के बारे में सोच चुका हूं. मैं ने परसों ही आप का लेख पढ़ा था. आप के विचार वास्तव में सराहनीय हैं. मैं तो बहुत खुश हूं कि आप जैसे योग्य, प्रतिभावान और कर्तव्यनिष्ठ हस्ती इस कालोनी में आई.’’ इतना कह कर वे जोर से हंस दिए.

वह बुरी नहीं थी: ईशा की लिखी चिट्ठी जब आयशा को मिली

अपने अपार्टमैंट के फोर्थ फ्लोर की गैलरी में बारिश में भीगती खड़ी आयशा के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे उस की आंखों से गिरते आंसू ही बारिश बन कर बरस रहे हैं और आज पूरे शहर को बहा ले जाएंगे. इस से पहले तो पुणे में ऐसी बारिश कभी नहीं हुई थी.

तभी आयशा का फोन बजा, लेकिन वह अपनेआप में कुछ इस तरह खोई हुई थी कि उसे फोन की रिंग सुनाई ही नहीं दी. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसे इतनी जल्दी यह दिन देखना पड़ेगा. वह जानती थी ईशा उस का साथ छोड़ देगी, लेकिन इतनी जल्दी यह नहीं सोचा था. ईशा को तो अपना प्रौमिस तक याद नहीं रहा. उस ने कहा था जब तक वह मौसी नहीं बन जाती वह कहीं नहीं जाएगी. लेकिन वह अपना वादा तोड़ कर यों उसे अकेला, तनहा छोड़ कर चली गई. क्या यही थी उस की दोस्ती?

तभी मोबाइल दोबारा बजा और निरंतर बजता ही रहा. तब जा कर आयशा का ध्यान उस ओर गया और उस ने फोन उठाया.

फोन ईशा की छोटी बहन इषिता का था. फोन उठाते ही इषिता बोली, ‘‘दीदी, आज रात

ही हम नागपुर लौट रहे हैं. दीदी का सामान पैक करते हुए दीदी की अलमीरा से हमें आप के

नाम का एक बंद लिफाफा मिला है, उस में

शायद कोई चिट्ठी है. आप चिट्ठी लेने आएंगी

या फिर औफिस से लौटते हुए जीजाजी कलैक्ट कर लेंगे?’’

यह सुनते ही आयशा बोली, ‘‘नहीं… नहीं… मैं अभी आती हूं.’’

‘‘लेकिन दीदी अभी तो तेज बारिश हो

रही है. आप कैसे आएंगी?’’ इषिता शंका जताते हुए बोली.

‘‘तुम चिंता मत करो, मेरे यहां से वहां की दूरी महज 10 मिनट की है,’’ कह कर आयशा ने फोन रख दिया और बिना छाता लिए भागती हुई ईशा के घर की तरफ दौड़ी.

आज यह 10 मिनट का फासला तय

करना आयशा के लिए काफी लंबा लग रहा था. उसे लग रहा था जैसे उस के कदम आगे बढ़

ही नहीं रहे हैं. रोज तो वह औफिस आतेजाते

ईशा से मिलते हुए जाती थी और पिछले 1 साल से तो वह लगभग रोज ही ईशा से मिलने जाने लगी थी. जब से उसे इस बात की खबर लगी

थी कि ईशा को कैंसर है, तब तो उसे कभी ईशा के घर की दूरी इतनी लंबी नहीं लगी फिर आज क्यों लग रही है. शायद इसलिए कि आज दरवाजे पर मुसकराती हुई उसे ईशा नहीं मिलेगी.

जब से आयशा ने होश संभाला है तब से ईशा और वह फ्रैंड्स हैं. दोनों नागपुर में एक ही सोसाइटी में रहते थे और दोनों का घर भी अगलबगल ही था. था क्या अब भी है. जब आयशा करीब 7 साल की थी, तब ईशा अपनी मम्मी और छोटी बहन इषिता के साथ इस सोसाइटी में शिफ्ट हुई थी. ईशा की मम्मी तलाकशुदा और वर्किंग लेडी थी इसलिए ईशा और इषिता का ज्यादातर समय आयशा के ही घर बीतता था.

आयशा और ईशा हमउम्र थे इसलिए दोनों के बीच बहुत जल्दी गहरी दोस्ती हो गई. बचपन से ही ईशा बहुत खूबसूरत थी. गोरा रंग, काले घने बाल, नीलीनीली आंखें. उस की आंखें बेहद आकर्षक थीं. जो भी उसे देखता उस की सुंदर आंखों की तारीफ किए बिना नहीं रह पाता. वहीं आयशा साधारण नैननक्श की और सांवली थी.

बेसुध सी पूरी तरह से भीगी आयशा ईशा के फ्लैट पहुंची तो उसे इस हाल में देख ईशा की मम्मी और बहन हैरान रह गए. ईशा की मम्मी सामान पैक करना छोड़ दौड़ कर आयशा के करीब आ कर बोलीं, ‘‘यह क्या है आयशा बेटा. हम सब जानते थे न ईशा को जाना ही है फिर

सच को स्वीकारने में तुम्हें इतनी तकलीफ क्यों हो रही है?

आयशा इस बात का कोई जवाब दिए बगैर ईशा की मम्मी से लिपट फूटफूट कर रो पड़ी. तभी इषिता वह लिफाफा ले कर आ गई और आयशा की ओर बढ़ाती हुई बोली, ‘‘दीदी यह लो.’’

आयशा लिफाफा ले कर चुपचाप घर लौट गई. बारिश भी अब थम चुकी थी. घर लौटते वक्त आयशा के मन में इस लिफाफे को ले कर एक बेचैनी सी उठ रही थी. आयशा को अपनी और ईशा की हर छोटीछोटी बात याद आने लगी थी.

आयशा आज भी नहीं भूली है जब कोई ईशा की सुंदरता की तारीफ करता तो उसे कभी इस बात का बुरा नहीं लगता था, लेकिन यदि कोई आयशा की तारीफ करता तो ईशा फौरन चिढ़ जाती और घंटों आयशा से मुंह फुलाए बैठी रहती. आयशा उसे मनाती, उस का होमवर्क भी कंप्लीट कर देती तब कहीं जा कर वह मानती.

आयशा और ईशा दोनों एक ही क्लास में थे इसलिए जब भी क्लास में होमवर्क ज्यादा मिलता ईशा कोई न कोई बहाना बना कर आयशा से नाराज होने का ढोंग करती ताकि वह उस का भी होमवर्क कर दे. आयशा यह बात जानते हुए कि ईशा अपना होमवर्क कंप्लीट कराने के लिए यह सब स्वांग रच रही है, उस का होमवर्क बिना कुछ कहे कंप्लीट कर देती और फिर ईशा आयशा को गले लगा लेती.

सभी को ईशा की सुंदरता और आयशा का सौम्य स्वभाव भाता. समय अपनी गति से चल रहा था और वक्त के साथसाथ ईशा की खूबसूरती और ज्यादा मादक होती जा रही थी. ईशा को अपनी खूबसूरती पर गुमान था. आयशा सांवली अवश्य थी, लेकिन एक आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी.

ईशा की खूबसूरती के सभी दीवाने थे, लेकिन जहां पढ़ाई या कुशल व्यवहार की बात आती आयशा बाजी मार जाती. लेकिन इन सब के वाबजूद दोनों में पक्की दोस्ती थी इसलिए दोनों ने हाई स्कूल पासआउट होने के बाद एक ही इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन ले लिया, जहां उन की मुलाकात क्षितिज से हुई जो उन्हीं की आईटी ब्रांच का सीनियर स्टूडैंट था और कालेज का सब से ज्यादा हैंडसम, डैसिंग, स्मार्ट और इंटैलिजैंट लड़का था जिस पर कालेज की सभी लड़कियां मरती थीं, लेकिन वह लड़का मरमिटा आयशा पर.

आयशा ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था उस के जैसी साधारण सी दिखने वाली लड़की पर कभी कोई इतना हैंडसम लड़का मरमिटने को तैयार होगा.

लेकिन जब ईशा क्षितिज का पैगाम ले कर आई तो आयशा को उस लैटर पर, ईशा पर और खुद पर यकीन ही नहीं हो रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे उस लैटर का 1-1 शब्द ईशा का है बस लिखावट किसी और की है.

आयशा यह सब सोचती घर पहुंच गई. वह अपने पति के आने से पहले इस लैटर को इत्मीनान से अकेले में पढ़ना चाहती थी क्योंकि उस की सास को ईशा पसंद नहीं थी. इस वजह से उस के पति भी ईशा से थोड़ी दूरी बना कर रखते थे. लेकिन उसे कभी ईशा से मिलने, उस के घर जाने या दोस्ती समाप्त करने को नहीं कहा इसलिए दोनों की दोस्ती पहले जैसी ही चलती रही.

लिफाफा खोलते हुए आयशा के हाथ कांपने लगे. उस ने जैसे ही

लिफाफा खोल कर चिट्ठी निकाली उस में से मंगलसूत्र गिरा. आयशा हैरान रह गई. आयशा के इतना मनाने और कहने के बावजूद ईशा ने तो शादी करने से मना कर दिया था फिर यह मंगलसूत्र उस ने क्यों खरीदा था? उस ने फौरन उस मंगलसूत्र को उठा लिया और गौर से देखने लगी. यह मंगलसूत्र बिलकुल वैसा ही था जैसा शादी के बाद पहली रात को उस के पति ने उसे उपहारस्वरूप दिया था. आयशा सोच में पड़ गई और उस के अंदर एक अजीब सी हलचल मचने लगी.

आयशा ने फौरन चिट्ठी खोली और पढ़ने लगी. उस में लिखा था, ‘‘डियर आयशा…

‘‘कभी सोचा न था कि मु?ो तुम्हें यह सब लिखना पड़ेगा, लेकिन अगर तुम्हें सचाई बताए बगैर मैं तुम्हारी दुनिया से यों चली जाती तो शायद मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाती. मेरे मन को कभी सुकून नहीं मिलता. जब तुम यह लैटर पढ़ रही होगी मैं इस दुनिया और तुम सब से बहुत दूर जा चुकी होऊंगी.

‘‘मैं तुम्हारी गुनहगार हूं. तुम हमेशा मेरी सच्ची सखी रही पर मैं कभी तुम्हारी सच्ची सहेली नहीं बन पाई.’’

यह सब पढ़ कर आयशा के माथे पर पसीने की बूंदें और शिकन की लकीरें खिंच गईं. ये सब बेकार की बातें ईशा ने क्यों लिखी हैं? वह एक बहुत ही अच्छी और सच्ची दोस्त थी. उस ने ही तो उसे यकीन दिलाया था कि क्षितिज उस से बेहद प्यार करता है वरना हाथ में क्षितिज का लव लैटर होने के बावजूद वह

यह मानने को कहां तैयार थी कि क्षितिज उस से प्यार करता है. वह खुद भी कहां जान पाई थी कि वह क्षितिज से प्यार करती है. इस बात का एहसास भी तो ईशा ने ही उसे कराया था. लेकिन आगे पढ़ते ही उस का यह भ्रम टूट गया. आगे लिखा था-

‘‘आयशा, तुझे यह जान कर बहुत दुख

होगा और मुझ पर गुस्सा भी आएगा कि क्षितिज तुझ से कभी प्यार नहीं करता था. उस दिन जो लैटर मैं ने तुझे ला कर दिया था वह क्षितिज ने जरूर लिखा था, लेकिन तेरा वह शक

बिलकुल सही था, उस लैटर का 1-1 शब्द

मेरा था.’’

यह पढ़ते ही आयशा की आंखें झिलमिला गईं कि इतना बड़ा झूठ, इतना बड़ा विश्वासघात. ईशा और क्षितिज इतने सालों से उस की भावनाओं के साथ खेल रहे थे. आखिर क्यों?

जैसेजैसे आयशा लैटर पढ़ती जा रही थी वैसेवैसे उसे अपने सवालों के जवाब के साथसाथ ईशा और क्षितिज की सचाई सामने आती जा रही थी और उस की आंखों से झूठ का परदा उठता जा रहा था.

आगे लिखा था, ‘‘तुम जानना चाहती होगी कि जब क्षितिज तुम से प्यार नहीं करता था तो उस ने तुम्हें लव लैटर क्यों लिखा? उस ने तुम्हें लैटर इसलिए लिखा क्योंकि वह चाहता था कि तुम उसे प्यार करने लगो और ऐसा ही हुआ. तुम उस से प्यार करने लगी और मैं यह जानते हुए कि क्षितिज तुम से प्यार नहीं करता, मैं ने तुम्हें यह यकीन दिला दिया कि वह तुम से प्यार करता है और तुम्हें भी यह एहसास दिला दिया कि तुम भी क्षितिज से प्यार करती हो.

‘‘आयशा, मैं तुम्हारी दोषी हूं, मैं ने तुम्हें धोखा दिया, लेकिन मैं ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि मैं अपना प्यार बांटने को तो तैयार थी लेकिन खोने को कतई नहीं. तुम्हें याद होगा

एक दिन तुम ने मुझ से पूछा था, जब तुम मेरे घर पर आई थी और अचानक तुम्हें मेरी मैडिकल फाइल दिख गई जिस पर प्रैगनैंसी पौजिटिव था. तुम जानना चाहती थी न उस बच्चे का पिता कौन है. उस रोज तो मैं तुम्हें बता नहीं पाई थी, लेकिन आज मैं तुम से छिपाऊंगी नहीं क्योंकि तुम्हें यह जानने का हक है. उस बच्चे का पिता कोई और नहीं क्षितिज ही था लेकिन क्षितिज

नहीं चाहता था, इसलिए मुझेअबौर्शन कराना पड़ा. क्षितिज मुझे तभी से चाहने लगा था जब

से उस ने मुझे कालेज कंपाउंड में तुम्हारे साथ देखा था और फिर धीरेधीरे मैं भी उस से प्यार करने लगी.

‘‘क्षितिज और मैं उस वक्त भी एकदूसरे से प्यार करते थे जब मैं ने तुम्हें क्षितिज का लव लैटर दिया था. कालेज कंप्लीट होते ही मैं और क्षितिज शादी करना चाहते थे, लेकिन क्षितिज की मम्मी को यह रिश्ता मंजूर नहीं था. वे नहीं चाहती थीं उन के घर की बहू विजातीय हो या फिर किसी ऐसे घर से आए जिस के मातापिता का तलाक हो चुका हो.

‘‘क्षितिज भी अपनी मम्मी के विरुद्ध जा कर मुझ से शादी नहीं करना चाहता था क्योंकि वह यह नहीं चाहता था कि समाज के आगे उस की वजह से उस के मातापिता का सिर झूके इसलिए उस ने तुम्हें अपने प्यार में फंसाने का जाल बुना और मैं ने उस का साथ दिया.

‘‘मैं ने तुम्हें कई बार यह सचाई बतानी चाही, लेकिन हर बार क्षितिज को खोने का डर मुझे रोक देता. फिर जब एक साल पहले मुझे

यह पता चला कि मेरे यूटरस में कैंसर है और

मैं बस कुछ दिनों की मेहमान हूं तो क्षितिज ने

भी मु?ा से अपना पल्ला झड़ लिया क्योंकि अब मैं उस की शारीरिक भूख को शांत करने में असमर्थ थी. उस समय मैं बिलकुल तनहा हो

गई थी. कई बार चाहा कि तुम्हें सबकुछ बता

दूं फिर अपने जीवन के अंतिम दिनों में तुम्हें अपनी यह सचाई बता कर तुम्हारी आंखों में

अपने लिए घृणा और नफरत नहीं देखना

चाहती थी इसलिए नहीं बताया, लेकिन यह बोझ ले कर मैं मरना भी नहीं चाहती. आयशा तुम से हाथजोड़ कर माफी चाहती हूं. प्लीज मुझे माफ कर देना.’’

तुम्हारी लिख नहीं पाऊंगी इसलिए

केवल ‘ईशा.’

लैटर पढ़ते हुए आयशा की आंखों से गिरे आंसुओं की बूंदों से लैटर भीग गया

था. तभी आयशा के पति आ गए. उन्हें देख आयशा ने लैटर एक ओर रख दिया.

आयशा के पति आयशा को रोता देख उस के करीब आ कर उसे अपनी बांहों में भरते हुए बोले, ‘‘आयशा, तुम कब तक ईशा के जाने के गम में आंसू बहाती रहोगी. उसे तो जाना ही था सो वह चली गई. मम्मी एकदम सही कहती थीं कि वह अच्छी लड़की नहीं थी इसलिए तो बिना शादी के प्रैंगनैंट हो गई थी तुम तो केवल उस का एक ही अबौर्शन जानती हो न जाने उस ने ऐसे कितने अबौर्शन कराए होंगे. तभी तो उस के यूटरस में कैंसर हुआ और न जाने उस का कितने लोगों के साथ संबंध रहा होगा.’’

यह सुनते ही आयशा चीख पड़ी और एक जोरदार तमाचा अपने पति के गाल पर मारती हुई बोली, ‘‘अपनी बकवास बंद करो क्षितिज.

ईशा बुरी लड़की नहीं थी. तुम ने अपने स्वार्थ

और हवस के लिए उसे बुरा बना दिया. वह बेचारी तो यह समझ ही नहीं पाई कि तुम उस से कभी प्यार ही नहीं करते थे. काश, वह समझ गई होती क्योंकि अगर तुम उस से प्यार करते तो कभी मुझ से शादी नहीं करते. अपने प्यार को पाने के लिए दुनिया से, समाज से लड़ जाते. लेकिन तुम ने ऐसा नहीं किया क्योंकि तुम तो केवल अपनेआप से प्यार करते हो. समाज में अपनी झूठी शान के लिए तुम ने मुझ से शादी की और मेरी और ईशा की दोस्ती की आड़ में अपनी हवस को शांत किया,’’ कहते हुए आयशा ने मंगलसूत्र और लैटर क्षितिज के हाथों में थमा दिया और फोन लगाने लगी.

दूसरी ओर से फोन उठाते ही आयशा बोली, ‘‘आंटी, मैं भी आप दोनों के साथ हमेशा के लिए नागपुर चल रही हूं.’’

अपने जैसे लोग: भाग 1-नीरज के मन में कैसी शंका थी

इस नए फ्लैट में आए हमें 6 महीने हो गए हैं. आते ही जैसे एक नई जिंदगी मिल गई है. कितना अच्छा लग रहा है यहां. खुला व स्वच्छ वातावरण, एक ही डिजाइन के बने 10-12 पंक्तियों में खड़े एक ही रंग से पुते फ्लैट. सामने लंबाचौड़ा खुला पार्क, जिस में शाम के समय खेलने के लिए बच्चों की भीड़ लगी रहती है. पार्क से ही लगती हुई दूरदूर तक फैली सांवली, नई बनी चिकनी नागिन सी सड़क, जिस पर एकाध कार के सिवा अधिक भीड़ नहीं रहती. कितना अच्छा लगता है यह सब. हंसतेखेलते हम दूर तक घूम आते हैं.

इन 6 महीनों से पहले जिस जगह 3 महीने गुजार कर आई थी, वहां तो ऐसा लगता था जैसे बदहाली में कोई एक कोना हमें रहने के लिए मिल गया हो. पुरानी दिल्ली में दोमंजिले मकान के नीचे के हिस्से में कमरा रहने को मिला था. धूप का तो वहां नामोनिशान नहीं था. प्रकाश भी नीचे की मंजिल तक पहुंचने में असमर्थ था. आधे कमरे में मैं ने रसोई बनाईर्र्र् हुई थी, आधे में सोना होता. एक छोटी सी कोठरी में नल लगा था, जिसे बरतन साफ करने व कपड़े धोने के अलावा नहाने के काम लाया जाता था.

यह तो अच्छा हुआ कि दिल्ली आने के कुछ महीनों बाद ही ये सरकारी फ्लैट बन कर तैयार हो गए, नहीं तो शायद जीवन या तो उसी बदहाली में बिताना पड़ता या नीरज को नौकरी ही कहीं और तलाश करनी पड़ती.

अपने इस नए मकान को मैं और नीरज थोड़ाथोड़ा कर के इस तरह सजाते रहते जैसे हमें अपने सपनों का महल मिल गया हो और हम अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उस में अपनी संपूर्ण कल्पनाओं को साकार होते हुए देखना चाहते हों.

हम दोनों बहुत खुश थे. पर एक दिन शाम को नीरज ने पीछे वाले बरामदे में खड़े हो कर अपने सामने की विशाल कोठियों पर नजर गड़ाते हुए कहा, ‘‘यहां और तो सबकुछ ठीक ही है, लेकिन अपनी पिछली तरफ की ये जो बड़ेबड़े लोगों की कोठियां हैं न, इतनी बड़ीबड़ी… न जाने क्यों आंखों से उतर कर मन के भीतर कहीं चुभ सी जाती हैं. इन के सम्मुख रह कर हीनता का आभास सा होने लगता है. इन के अंदर झांक कर देखने की कल्पना मात्र से बदन सिहर उठता है, सोचता हूं कि कहां हम और कहां ये लोग.’’

मैं आश्चर्य से नीरज के मुंह की ओर ताकती रह गई, ‘‘अरे, ये विचार कैसे आए आप के दिमाग में कि हम इन लोगों से हीन हैं? बड़ी कोठी में रहने और धनवान होने को ही आप महत्त्व क्यों देते हैं? असली महत्त्व तो इस बात का है कि हम जीवन को किस प्रकार से जीते हैं और थोड़ा पा कर भी किस तरह अधिक से अधिक सुखी रह सकते हैं.’’

‘‘आज के युग में धन का महत्त्व बहुत अधिक है, शीला. कई बार तो यही सोच कर मुझे बहुत दुख होता है कि हमें भी किसी बड़े धनवान के यहां जन्म क्यों नहीं मिला या फिर हम इतने योग्य क्यों नहीं हो सके कि हम इतना पैसा कमा सकते कि दिल खोल कर खर्च करते.’’

‘‘यह सब आप के दिल का वहम है. यह सोचना ही निरर्थक है कि हम किसी से कम हैं. देखिए, हमारे पास सबकुछ तो है. हमें इस से अधिक और क्या चाहिए? आराम से गुजर हो रही है.’’

मुझे लगा मैं नीरज को आश्वस्त  करने में काफी सफल हो गई हूं  क्योंकि उस के चेहरे पर संतोष के भाव दिखाई देने लगे थे. हम दोनों प्रसन्नतापूर्वक शाम की चाय पीने लगे.

इतने में 5 वर्षीय बेटा पंकज दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘मम्मी, देखो यह सामने वाली कोठी का सनी है न. उस के लिए आज उस के पापा एक नई साइकिल लाए हैं 3 पहियों वाली. हमें भी ला दोगी न?’’

चाय का घूंट मेरे गले में ही अटक गया. मैं नीरज की आंखों में झांकने लगी. उस की जीभ तैयार मिली, ‘‘अब ला दो न, सौ रुपए की साइकिल या अभी जो लैक्चर झाड़ रही थीं उस से खुश करो अपने लाड़ले को. कह रही थीं सबकुछ है हमारे पास.’’

पंकज अनुनयभरी दृष्टि से मेरी ओर निहारे जा रहा था, ‘‘सच बताओ मम्मी, लाओगी न मेरे लिए भी साइकिल?’’

मैं ने खींच कर उसे गले से लगा लिया, ‘‘देखो बेटा, तुम राजा बेटा हो न? दूसरों की नकल नहीं करते. हां, जब हमारे पास रुपए होंगे, हम जरूर ला देंगे.’’ मैं ने उसे बहलाना चाहा था.

‘‘क्यों हमारे पापा भी तो दफ्तर में काम करते हैं, रुपए लाते हैं. फिर आप के पास क्यों नहीं हैं रुपए?’’ वह अपनी बात पूरी करवाना चाहता था.

‘‘अच्छा, ज्यादा नहीं बोलते, कह तो दिया ला देंगे. अब जाओ तुम यहां से,’’ मैं ने क्रोधभरे शब्दों में कहा और पंकज धीरेधीरे वहां से खिसक गया. इधर नीरज का चेहरा ऐसे हो रहा था जैसे किसी ने थप्पड़ मारा हो उस के मुंह पर. अपमान और क्रोध से झल्लाते हुए बोला, ‘‘देखूंगा डांटडपट कर कब तक तुम चुप करवाओगी उसे. आज तो यह पहली फरमाइश है. आगे देखना क्याक्या फरमाइशें होती हैं.’’

मैं चुप रही. बात सच ही थी. पहली वास्तविकता सामने आते ही दिमाग चक्कर खा गया था. कैसे गुजारा होगा ऐसे अमीर लोगों के बीच. हमारे सामने पूरी 6 कोठियां हैं. उन में दर्जन से भी ऊपर बच्चे हैं. सभी नित्य नई वस्तुएं व खिलौने लाते रहेंगे और पंकज देख कर जिद करता रहेगा. कहां तक मारपीट कर उस की भावनाओं को दबाया जाएगा. मैं पंकज के भविष्य के बारे में चिंतित हो उठी. कितने ही अक्ल के घोड़े दौड़ाए, पर कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया.

अगले ही दिन शाम को नीरज ने सुझाव दिया, ‘‘एक बात हो सकती है. पंकज को उधर खेलने ही न जाने दो. पीछे से जाने वाला दरवाजा हर समय बंद ही रखा करो. सामने वाले फ्लैट हैं न, उन में सब अपने ही जैसे लोग रहते हैं. उन्हीं के बच्चों के साथ सामने के पार्क में खेलने दिया करो पंकज को.’’

बात मेरी भी समझ में आ गई, न इन बड़े लोगों के बच्चों में खेलेगा न, जिद करेगा. मैं ने पिछला दरवाजा खोलना ही छोड़ दिया. लेकिन पंकज सामने की ओर कभी न निकलता. ऊपर बरामदे में खड़ा हो कर, पीछे की कोठियों वाले उन्हीं लड़कों को देखता रहता, जिन में से कोई तो अपनी नई साइकिल पर सवार होता, कोई रेसिंग कार पर, तो कोई लकड़ी के घोड़े पर. कई बार वह पीछे का दरवाजा खोलने की भी जिद करता और मुझे उसे डांट कर चुप कराना पड़ता. अजीब मुसीबत थी बेचारे की.

खुशियों का आगमन: भाग 3 -कैरियर या प्यार में क्या चुनेंगी रेखा?

‘‘नहीं रेखा, उस ने तुम्हारे साथ कोई विश्वासघात नहीं किया है, बल्कि तुम खुद अंधी बन कर उस से प्यार कर रही थीं. अगर वह तुम्हें अंधेरे में रखना चाहता तो आज मुझ से मिलने नहीं आता और न ही अपनी हकीकत बताता. तुम जैसी खूबसूरत, होशियार और अच्छे घर की लड़की, उस से शादी करने के लिए पीछे पड़ी होने के बावजूद उस ने अपने मन पर संयम रखा.

नासमझी तो तुम कर रही थीं, जो उस का पूरा नाम, उस की हकीकत जाने बगैर उस से शादी करने चली थीं. जिस के साथ तुम पूरी जिंदगी बिताना चाहती हो उस का पूरा नाम, उस की सारी हकीकत जानना, तुम ने कभी मुनासिब नहीं समझा. शादी जैसा जिंदगी का अहम फैसला तुम सिर्फ जज्बातों के सहारे कर रही थीं. कितनी बड़ी गलती तुम करने जा रही थीं. तुम्हें मुझे भी विश्वास में लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है, अब मैं क्या करूं, पिताजी?’’

‘‘ठंडे दिमाग से सोचो. राजेश हमें भी पसंद है. तुम दोनों एकदूसरे के लायक हो, एकदूसरे को संतुष्ट कर के तुम दोनों अपनी गृहस्थी को सुखी रख सकते हो, मगर राजेश अब भी अपनी मां के साथ उसी बस्ती में रहता है और भविष्य में भी वहीं रहेगा, क्योंकि वह अपनी मां को दुखी नहीं करना चाहता है. अपनी मां का अपमान वह सहन नहीं कर पाएगा.

आखिर इतना दुखदर्द सह कर, संघर्ष कर उस की मां ने उसे पढ़ालिखा कर काबिल इनसान बनाया है, उसे वह भला अपने से दूर कैसे रख सकता है? इसलिए अब यह फैसला तुम्हारे हाथ में है कि तुम इसे चुनौती समझ कर राजेश को अपनाना चाहोगी? उस की मां को उस के पूर्व इतिहास के बावजूद सास का दर्जा देना चाहोगी?

उस के प्रति मन में किसी तरह का मैल या नफरत की भावना न रखते हुए उसे आदर, सम्मान देना चाहोगी? अगर तुम यह सब करने के लिए तैयार हो तो ही राजेश के बारे में सोचना.

यह सब तुम्हें अब आसान लग रहा होगा, मगर जब तुम उन मुश्किलों का, समस्याओं का सामना करोगी, तब तुम्हें यह सब मुश्किल लगेगा, क्योंकि इन सब मुश्किलों का सामना तुम्हें अकेले ही करना है. यही सब सोच कर तुम फैसला करना.’’

‘‘मगर ये सब बातें उस ने मुझे क्यों नहीं बताईं?’’

‘‘अपनी मां की हकीकत कौन सा बेटा

अपने मुंह से कहेगा, तुम उसे समझने की, जानने की कोशिश करो. मगर अपने भविष्य का फैसला सोचसमझ कर ही करना. हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, लेकिन पहला कदम तुम्हें उठाना है.’’

उस रात वह पल भर के लिए भी सो नहीं पाई.

रात भर सोचने के बाद भी वह सही निर्णय नहीं ले पा रही थी. क्या यह शादी वह निभा पाएगी? राजेश की मां को सम्मान दे पाएगी? कई सवाल थे पर उन के जवाब उस के पास नहीं थे.

सुबह हुई. सूरज की किरणों से चारों ओर प्रकाश फैल गया और उसी प्रकाश ने उस के विचारों को एक नई दिशा दी और उस ने मिस रेखा साने से उर्मिला रेखा राजेश सावंत बनने का फैसला कर लिया.

रिश्तेनाते: भाग 3- दीपक का शक शेफाली के लिए बना दर्द

शेफाली उम्र में भी सन्नी से बड़ी थी और रिश्ते में भी. शेफाली ने अपने को बड़ा माना था तो सन्नी ने भी उसे बड़प्पन दिया था. सन्नी अपनी मां की भले ही नहीं सुने, मगर वह शेफाली की बात को टालने की कभी हिम्मत नहीं करता था.

कभीकभी तो शेफाली को ऐसा लगता कि वह उस से डरने लगा था.

इस बात का एहसास शेफाली को उस वक्त हुआ था जब कपड़ों की धुलाई करते हुए उसे सन्नी की पतलून की जेब से गुटके का एक अनखुला पाउच मिला था.

‘‘कालेज में जा कर क्या यही बुरी आदतें सीख रहे हो?’’ गुटके का पाउच सन्नी को दिखलाते हुए शेफाली ने डांटने वाले अंदाज में कहा था.

बाद में सन्नी ने उस से कई बार माफी मांगी

थी. ऐसी घटनाओं से उन के रिश्ते में विश्वास बढ़ा था. सन्नी के साथ शेफाली का एक पवित्र रिश्ता था. उन्मुक्त होने के बाद भी उस रिश्ते में एक मर्यादा थी.

लेकिन शेफाली को नहीं मालूम था कि सन्नी के साथ उस की अंतरंगता को दीपक किसी दूसरी नजर से देख रहा था. उस के अंदर शंका का नाग कुंडली मार कर बैठ गया था. देवरभाभी के बीच पवित्र रिश्ते में भी उसे कुछ गलत दिखने लगा था.

इस बात से शेफाली तब तक बेखबर रही

जब तक कि दीपक के मन में कुंडली मारे बैठा शक का नाग अपना फन उठा कर फुंफकार नहीं उठा था. उस वक्त शिखा जन्म ले चुकी थी और शेफाली भविष्य के नए सपने संजो रही थी.

दीपक के शक की जहरीली फुंफकार ने शेफाली को हक्काबक्का सा कर दिया था.

जिंदगी के ऐसे बदरंग पहलू के बारे में तो उस ने कभी सोचा भी नहीं था. किसी औरत के लिए सब से मुश्किल काम होता है अपने चरित्र पर शक करने वाले इनसान के साथ रहना.

जल्दी ही दीपक के साथ दांपत्य संबंधों में

शेफाली का दम घुटने लगा था.

सन्नी और शेफाली के रिश्ते पर शक जाहिर कर के दीपक ने संबंधों में ऐसी दरारें पैदा कर दी थीं, जिन का भरना मुश्किल था. पतिपत्नी के रिश्ते की असली बुनियाद तो विश्वास ही होती है. इस बुनियाद को शक की दीमक जब खोखला कर देती है तो उस पर उन के रिश्ते की इमारत बहुत दिनों तक खड़ी नहीं रह पाती.

ऐसा ही हुआ था. रिश्तों की इमारत ढह गई और शेफाली ने दीपक से अलग होने का फैसला कर लिया.

बहुत कुछ अप्रत्याशित और बुरा घट गया था. मगर इस का अच्छा पहलू केवल यही था कि उन के संबंध टूटने का ज्यादा तमाशा नहीं हुआ. दूसरे नाजुक रिश्ते अप्रभावित रहे. एक परिवार भी टूटने से बच गया. सब कुछ शेफाली और दीपक के बीच में ही निबट गया था.

होटल आ गया था. बाहर के सर्द मौसम से होटल के अंदर दाखिल होना शरीर को थोड़ा राहत देने वाला अनुभव था. यह राहत शेफाली को अतीत की यादों से भी बाहर ले आई.

सन्नी भले ही शर्म और संकोच महसूस कर रहा था, लेकिन शेफाली ने अमित से उसे मिलवाते हुए उस के बारे में कुछ भी नहीं छिपाया था.

अमित ने भी इसे बड़े सहज भाव से लिया था और सन्नी के प्रति गरमजोशी दिखलाई थी.

शेफाली अपने अतीत और वर्तमान को एकसाथ देख बड़ा अजीब महसूस कर रही थी. शेफाली ने कमरे में लगे फोन से 3 कप कौफी और कुछ स्नैक्स का आर्डर दे दिया था.

अमित का कोई भाई नहीं था. दूसरी शादी के बाद शेफाली को पति जरूर मिल गया था, मगर सन्नी वाला रिश्ता नहीं. सन्नी जैसे देवर की कमी लगातार उसे महसूस होती थी.

कौफी के आने तक अमित सन्नी से उस की

पढ़ाई और भविष्य के बारे में उस की योजनाओं पर चर्चा करता रहा. अमित ने सन्नी से एक भी ऐसा सवाल नहीं पूछा, जिस का संबंध उस के निजी जीवन से होता.

कौफी के आने के बाद चर्चा का रुख बदला और उस में शेफाली भी शामिल हो गई. इस बार की चर्चा शिमला के इतिहास और दूसरे हिल स्टेशनों के मुकाबले में उस की खास खूबियों पर केंद्रित रही.

अंत में तो अमित ने सन्नी को अपने यहां आने का खुला निमंत्रण तक दे डाला.

इस के जवाब में सन्नी कुछ भी नहीं कह सका था. अमित से मिलने के बाद सन्नी जब जाने लगा तो शेफाली उसे होटल के गेट तक छोड़ने आई.

सन्नी के चेहरे से लगता था कि कुछ सवाल उस के सीने में उमड़घुमड़ रहे थे.

‘‘हम 2-4 दिन यहीं हैं. हो सके तो मिलने आ जाना.’’

‘‘जी.’’

‘‘कुछ कहना चाहते हो?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘शायद, अगर आप को बुरा न लगे.’’

‘‘तुम कहो, मुझे बुरा नहीं लगेगा,’’ शेफाली ने कहा.

सन्नी कुछ पल खामोश रहा. शायद वह जो कहना चाहता था, उसे कहने में उसे संकोच हो रहा था.

‘‘मैं आज भी आप की उतनी ही इज्जत करता हूं जितनी कि पहले करता था. आप की नाराजगी का डर भी है मुझे. जो कहना चाहता हूं शायद वह मेरी गुस्ताखी भी लगे. इस के बाद भी मैं अपनी बात कहूंगा. आप ने भैया से संबंध को तोड़ा, मगर इस का दर्द दूसरे रिश्तों में भी फैला. दुनिया में बहुत से शादीशुदा स्त्री और पुरुष झगड़ते हैं, उन में बनती नहीं, लेकिन वे सब एकदूसरे को छोड़ तो नहीं देते. अगर झगड़े होते हैं तो सुलहसफाई के अवसर भी होते हैं, किंतु आप लोगों ने तो सुलहसफाई वाला कोई अवसर ढूंढ़ा ही नहीं, सीधे ही जिंदगी का इतना बड़ा फैसला ले लिया. आखिर ऐसी क्या बात हो गई थी, जिस में सुलहसफाई और शादीशुदा संबंधों को बनाए रखने की गुंजाइश ही खत्म हो गई थी? मैं आज आप से इस सवाल का जवाब मांगता हूं, हालांकि बदले हुए हालात में इस का मुझे हक नहीं,’’ सन्नी के शब्दों में एक अनकहा दर्द था.

शेफाली उस के इस दर्द को महसूस कर

सकती थी. उस का यह दर्द एक नासूर बन जाता, अगर शेफाली उस के सवाल का सही जवाब देती.

इसलिए सन्नी के सवाल के जवाब में शेफाली ने स्नेह से अपना हाथ उस के कंधे पर रखते हुए कहा, ‘‘तुम एक ऐसे सवाल का जवाब क्यों मांगते हो, सन्नी, जिस से अब कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है. जो बीत गया, खत्म हो गया और जिस के वापस आने की कोई संभावना नहीं, उस के लिए अब सवालों में उलझने से क्या फायदा? अतीत कभीकभी राख के उस ढेर जैसा भी होता है जिस को कुरेदने की कोशिश में उस में दबी हुई चिनगारियां हाथ को जला भी देती हैं. इसलिए अच्छा है कि अपने सवाल से तुम भी अतीत की राख को मत टटोलो.’’

शेफाली की बात से सन्नी क्या समझा, क्या

नहीं, वह कह नहीं सकती. मगर लगता था उस ने अपने सवाल का जवाब मांगने की जिद का इरादा छोड़ दिया था.

‘‘चलता हूं,’’ झुक कर शेफाली के कदमों को छूते हुए सन्नी ने कहा.

शेफाली के सीने में कुछ कसक गया. सच था, एक रिश्ता टूटने से कई रिश्ते टूटे थे.

शेफाली की आंखों में नमी आ गई. भरी हुई आंखों से उस ने धुंध में गायब होते हुए सन्नी को देखा.

अतीत बुरा हो या अच्छा, अगर उस से कभी सामना हो जाए तो वह दर्द ही देता है.

खुशियों का आगमन: भाग 2-कैरियर या प्यार में क्या चुनेंगी रेखा?

आखिर एक पार्टी में राजेश से मुलाकात हो ही गई. रेखा ने जबरन अपने चेहरे पर मुसकान बिखेरते हुए पूछा, ‘‘अरे, ईद का चांद आज कैसे दिखाई दे दिया.’’

‘‘अगर यही मैं कहूं तो?’’

‘‘बहुत गस्से में हो?’’

‘‘मेरे गुस्से की तुम्हें क्यों इतनी फिक्र होने लगी?’’

‘‘मुझे नहीं तो और किसे होगी? अब और कितना तड़पाओगे?’’

‘‘मैं कौन होता हूं तड़पाने वाला?’’

‘‘अब फैसला करने का वक्त आ गया है,

राजेश, मैं बारबार तुम्हारी मिन्नतें नहीं करूंगी.’’

‘‘हम ने जो तय किया था क्या वह भूल गईं?’’

‘‘मगर मेरे घर वाले अब ज्यादा दिनों तक रुकने के लिए तैयार नहीं हैं. मेरी शादी के लिए काफी रिश्ते आ रहे हैं. पिताजी ने भी उस दिन बातोंबातों में पूछ लिया कि क्या तुम्हें कोई लड़का पसंद है?’’

‘‘अरे, बाप रे. तुम ने कहीं मेरा नाम तो नहीं बताया न?’’

‘‘नहीं, क्योंकि मैं चाहती हूं कि तुम खुद घर आ कर अपना परिचय दो.’’

खाने की टेबल के पास सभी लोग आ जाने से उन की बातचीत वहीं रुक गई. उस ने तय किया कि वह खुद ही घर वालों को सब बता देगी.

रेखा के घर आते ही भाई ने मजाक करते हुए कहा, ‘‘क्यों रेखा, शादी करने का विचार है या नहीं? अरे भई, मैं भी अभी कुंआरा हूं.’’

‘‘रेखा की शादी होने पर मैं भी चैन की सांस लूंगा,’’ पिताजी ने कहा.

‘‘लड़कियों के लिए शादी, बच्चे, घरसंसार सभी वक्त पर हों तो ही अच्छा है,’’ मां ने चिंता भरे स्वर में कहा.

काफी सोचने के बाद रेखा ने तय

किया कि आज वह पिताजी को सब बता

देगी. आखिर यह दिनरात की टेंशन कौन

पाले? राजेश कोई निर्णय लेने के लिए तैयार नहीं है. अब पिताजी ही मुझे सही राह दिखा सकते हैं.

उस ने हिम्मत जुटाई. पिताजी से जो कहना है, मन में उस की पूरी तैयारी कर ली. फै्रश हो कर चाय का कप लिए वह पिताजी

के पास आ कर बैठ गई, मगर तभी उस का मौसेरा भाई मनी काफी दिनों बाद घर आया.

उस से बातचीत और चुटकुलों में 2 घंटे यों ही बीत गए.

‘‘रेखा बेटी, मेरे लिए जरा पानी लाना,’’

पिताजी के कमरे से आवाज आई.

पिताजी के लिए पानी ले कर जाते वक्त उस ने यह जान लिया कि आज फिर कोई नया रिश्ता आया होगा. शायद मनी भैया ही यह रिश्ता ले कर आए होंगे. अगर पिताजी ने

शादी का जिक्र छेड़ा तो मैं राजेश के बारे में उन्हें सब कुछ बता दूंगी. यही निश्चय कर

वह कमरे में दाखिल हुई. पानी का गिलास टेबल पर रख कर वह पलंग के किनारे खड़ी हो गई.

‘‘बेटी, मुझे तुम से कुछ बात करनी

है,’’ पिताजी के खुद ही विषय छेड़ने पर उस का काम और आसान हो गया. अब कहां से शुरू करूं, वह अभी यही सोच रही थी कि पिताजी ने कहा, ‘‘दोपहर में राजेश घर

आया था.’’

यह सुनते ही उस का दिल धड़क

उठा. इस अप्रत्याशित घटना का सामना

वह कैसे कर सकती थी, लिहाजा खामोश

खड़ी सोचती रही. कितना छिपा रुस्तम है राजेश. मैं ने उस की इतनी मिन्नतें कीं, तब इनकार करता रहा और अब खुद ही हाथ

मांगने आ गया. पिताजी को वह जरूर पसंद

आ गया होगा. आखिर पसंद किस की है? मगर पिताजी के हावभावों से कैसे अंदाजा लगाया जाए?

‘‘राजेश किस तरह का लड़का है?’’ पिताजी ने पूछा.

‘‘अच्छा है, हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. उस का स्वभाव, व्यक्तित्व, पढ़ाई, लगन, जिद, महत्त्वाकांक्षा सभी मुझे पसंद हैं. इस के अलावा हम दोनों एक ही नौकरी में होने

के कारण एकदूसरे की समस्याएं, काम के

लिए लगने वाला समय आदि सभी बातों

से अच्छी तरह परिचित हैं. इसलिए मेरे

नौकरी करने पर उसे कोई आपत्ति नहीं होगी. पिताजी, राजेश के साथ शादी कर के मैं

सुखी रहूंगी.’’

‘‘अच्छी तरह सोच लिया है?’’

‘‘जी हां, हम दोनों एकदूसरे के अनुरूप हैं, पढ़ाई, स्वभाव, नौकरी आदि सब मामलों में.’’

‘‘उस की जाति के बारे में कभी पूछा

है?’’

‘‘जाति? जी नहीं, कभी जरूरत ही नहीं पड़ी और आप भी तो जातिभेद वगैरह में विश्वास नहीं करते हैं. इसलिए मैं ने कभी उस से इस बारे में नहीं पूछा.’’

‘‘हां, यह सच है कि मैं जातिभेद में विश्वास नहीं करता हूं. मगर शादीब्याह में पूछताछ भी तो जरूरी होती है, क्या तुम्हें उस का पूरा नाम पता है?’’

‘‘पूरा नाम? राजेश सावंत.’’

‘‘जिस के साथ तुम पूरी जिंदगी गुजारने जा रही हो, उस का पूरा नाम भी तुम्हें पता

नहीं है?’’

वह खामोश खड़ी रही.

‘‘उस का पूरा नाम जानना चाहती हो, क्या

है? राजेश उर्मिला सावंत.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, क्योंकि उस की सिर्फ  मां है, उस के पिता के बारे में न उसे और न ही उस की मां को कुछ पता है.’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं?’’

‘‘मैं सच कह रहा हूं, बेटी, उसे अपने पिता के बारे में कुछ पता नहीं है और न ही उस की मां को पता है, क्योंकि उस की मां एक वेश्या थी और राजेश एक वेश्या का बेटा है.’’

‘‘नहीं, यह सब गलत है, राजेश मेरे साथ

ऐसा नहीं कर सकता है. उस ने मुझे अंधेरे में रखा है, पिताजी, उस ने मेरे साथ विश्वासघात किया है,’’ और वह पिता के गले लग कर रोने लगी.

रिश्तेनाते: भाग 2- दीपक का शक शेफाली के लिए बना दर्द

शादी के बाद दीपक ने बड़ीबड़ी बातें की थीं. एकडेढ़ वर्ष तो घूमने, सैरसपाटे और विवाहित जीवन का आनंद लेने में कैसे बीता था, इस का पता भी नहीं चला था.

शादी के बाद शेफाली को कई नए रिश्ते भी मिले थे. सासससुर, देवर और ननद जैसे रिश्ते. शादी के करीब 2 वर्ष बाद शेफाली के जीवन में आसमानी परी की तरह आई थी नन्ही शिखा.

बेटी को जन्म देने के बाद शेफाली उस की जिम्मेदारियों के साथ बंध गई थी.

इस के साथ ही जीवन काफी हद तक यथार्थ के धरातल पर भी उतरने लगा था.

यथार्थ के धरातल पर उतरने के बाद बड़ीबड़ी बातें करने वाले दीपक के अंदर का असली इनसान भी सामने आने लगा. उस ने शादी के बाद जैसा दिखने की कोशिश की थी वह वैसा नहीं था. काफी वहमी और शक्की स्वभाव था उस का. छोटीछोटी बातों को ले कर शेफाली से उलझना उस की आदत थी.

दीपक के अंदर के इनसान से परिचय होने के बाद शेफाली का जीवन बदरंग होने लगा था, सपने बिखरने लगे.

दीपक के अप्रत्याशित रवैए से शेफाली के जीवन में जो रिक्तता उत्पन्न हुई, उसे उस ने दूसरे रिश्तों से भरने की कोशिश की थी.

मगर शेफाली की यह कोशिश भी वहमी और शक्की स्वभाव वाले दीपक को पसंद नहीं आई. इस से उन के दांपत्य संबंधों में तनाव बढ़ता गया था.

इस बढ़ते तनाव के बीच कुछ ऐसा भी घट गया था, जिस के बाद शेफाली को लगा था कि अब  उस का दीपक जैसे इनसान के साथ रहना मुश्किल था. उसे उस से अलग हो जाना चाहिए.

उन दोनों के अलग होने का ज्यादा शोर नहीं मचा था. किसी को उन के अलग होने की सही वजह भी मालूम नहीं हुई थी. पतिपत्नी के बीच की बातें उन के बीच में ही रह गई थीं. जाहिर होतीं तो इस से कई दूसरे रिश्ते भी प्रभावित हो सकते थे.

दीपक से अलग होते वक्त शेफाली को खामोशी में बेहतरी नजर आई थी. जबान खोलने से कई अफवाहें जन्म ले सकती थीं.

अलग होने के मात्र 8 महीने के उपरांत ही शेफाली और दीपक का एक कोर्ट में कानूनी तौर पर तलाक हो गया था.

तलाक के मामले में निर्णायक होने में शेफाली को ज्यादा वक्त नहीं लगा था. अपने तंग नजरिए और शक्की स्वभाव के चलते दीपक ने जैसे इलजाम शेफाली पर लगाए थे, उन को देखते हुए शेफाली को लगा था कि वह इस आदमी के साथ बिलकुल नहीं रह सकती.

शेफाली की 2 वर्ष की बेटी शिखा पहले पति के पास ही रह गई थी. बाकी सब चीजें तो मन में कसकती ही थीं, लेकिन अपनी नन्ही सी बेटी की याद शेफाली को कभीकभी रुलाती थी. वह अब कुछ बड़ी भी हो गई होगी. शायद देखने पर अपनी मम्मी को अब वह पहचान भी नहीं पाती.

अपने अतीत की यादों के साथ चलते हुए शेफाली उस लिफ्ट वाली जगह से भी आगे निकल आई थी, जो माल रोड को नीचे कार्ट रोड से जोड़ती थी.

मौसम के मिजाज को देखते हुए शेफाली को और आगे जाना ठीक नहीं लगा.

लिफ्ट के थोड़ा आगे जा कर शेफाली रुकी और सड़क की खाई वाली साइड पर लगे लोहे की रेलिंग को थाम नीचे देखने लगी.

नीचे खाई में भी उड़ती हुई गहरी धुंध के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था. यह धुंध ही कब बर्फ का रूप धारण कर लेगी, मालूम नहीं था. इसी धुंध के बर्फ के महीन कणों के बदलने के ही इंतजार में शिमला में हजारों सैलानी जमा हुए थे.

शायद शेफाली शिमला के नीचे गहरी खाई में उड़ती धुंध का नजारा कुछ देर और देखती, अगर अचानक ही किसी बात ने उसे चौंका नहीं दिया होता.

कोई शेफाली के कदमों में झुक गया था. एक पल के लिए तो शेफाली घबरा गई. धुंध के कारण कदमों में झुकने वाले का चेहरा तुरंत नहीं पहचान सकी. जब कदमों में झुकने वाला सीधा हुआ तो शेफाली उसे पहचान गई. उस के मुख से बेसाख्ता निकला, ‘‘सन्नी, तुम?’’

‘‘शुक्र है, आप ने पहचान तो लिया.’’

‘‘मेरी नजर अभी कमजोर नहीं हुई. मगर यह सब करने की अब क्या जरूरत थी?’’ शेफाली का इशारा कदमों को छूने की तरफ था.

‘‘क्या आप के कदमों को छूने का मुझे अधिकार नहीं?’’

‘‘जो रिश्ता रहा ही नहीं, उसे सम्मान देने से अब क्या लाभ?’’ हंसने की असफल कोशिश करते हुए शेफाली ने कहा.

‘‘आप से भैया ने रिश्ता तोड़ा था, हम ने तो नहीं,’’  सन्नी ने कहा.

‘‘देख रही हूं, बड़े ही नहीं हो गए हो, बड़ीबड़ी बातें भी करने लगे हो.’’

‘‘4 वर्ष कम नहीं होते कुछ बदलने के लिए. मैं आप को अब क्या कह कर संबोधित कर सकता हूं?’’ सन्नी ने पूछा.

‘‘मेरा नाम ले सकते हो,’’ यह जानते हुए भी उस से ऐसा नहीं होगा, शेफाली ने हंस कर कहा.

‘‘आप जानती हैं, मुझ से यह नहीं होगा.’’

‘‘तो तुम को मुझे मिसेज माथुर कह कर बुलाना चाहिए. मैं ने शादी कर ली है और मेरे पति का नाम अमित माथुर है. मैं शिमला उसी के साथ आई हूं.’’

शेफाली के इन शब्दों से सन्नी को जरूर एक

धक्का लगा था. अपने अंदर के दर्द को वह अपने चेहरे से झलकने से रोक नहीं सका था.

‘‘मैं इस के लिए आप को मुबारकबाद नहीं दे सकता, सिर्फ शुभकामनाएं व्यक्त कर सकता हूं. इतना ही नहीं, मुझे आप को मिसेज माथुर कह कर बुलाना भी मेरे लिए मुमकिन नहीं होगा.’’

‘‘तो इस उलझन का अंत कर देते हैं. अब भी तुम मुझे भाभी कह कर बुलाओ मैं बुरा नहीं मानूंगी,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘कभी सोचा नहीं था, जिंदगी और हालात ऐसे बदल जाएंगे.’’

‘‘छोड़ो पुरानी बातों को, यहां शिमला में अकेले आए हो?’’

‘‘नहीं, कुछ दोस्त साथ में हैं.’’

‘‘क्या कर रहे हो आजकल?’’

‘‘अभी कुछ नहीं.’’

‘‘घर में सब कैसे हैं? मांजी, दीप्ति…शिखा?’’

‘‘आप के जाने के बाद घर में सब कुछ

बिखर सा गया था. मां अब ठीक नहीं रहतीं. दीप्ति इसी साल अपनी गैजुएशन कर लेगी और शिखा को आने वाले सैशन में डलहौजी के एक बोर्डिंग स्कूल में एडमिशन मिल जाएगा’’, सन्नी ने कहा.

‘‘बोर्डिंग स्कूल क्यों? क्या घर में रह कर शिखा की पढ़ाई नहीं हो सकती थी?’’

‘‘मां के बीमार रहने के कारण ऐसा फैसला लेना पड़ा.’’

‘‘मांजी की बीमारी का बहाना क्यों? तुम को सीधे कहना चाहिए कि तुम्हारी नई भाभी ने दूसरी औरत के बच्चे को नहीं अपनाया,’’ शेफाली का लहजा तल्ख हो गया.

‘‘आप जैसा सोच रही हैं, वैसा नहीं. भैया ने शादी नहीं की,’’ सन्नी ने कहा.

सन्नी के ऐसा कहने से शेफाली को आगे कुछ कहने को नहीं सूझा.

शेफाली को चुप देख सन्नी ने कहा, ‘‘ऐसा लगता है, आज बर्फ गिर कर रहेगी.’’

‘‘हां, ऐसा ही लगता है. यहां कब तक खड़े रहेंगे. सर्दी बहुत है. अब तो गरमगरम कौफी की तलब हो रही है. आओ, होटल चलते हैं. वहीं आराम से बैठ कर कौफी पिएंगे. इसी बहाने मिस्टर माथुर से भी मिल लोगे तुम.’’

शेफाली की बात से सन्नी असमंजस की स्थिति में नजर आया.

सन्नी को उस के असमंजस से उबारने की कोशिश करते हुए शेफाली ने कहा, ‘‘तुम से मिल कर अमित को खुशी होगी, आई एम श्योर अबाउट इट.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘कोई लेकिन नहीं, चुपचाप मेरे साथ चलो. अगर कुछ देर और यहां खड़ी रही तो कुल्फी की तरह जम जाऊंगी,’’ हुक्म देने वाले अंदाज में शेफाली ने कहा.

‘‘मैं आज भी आप की किसी बात को टाल नहीं सकता.’’

‘‘गुड बौय,’’  हाथ से सन्नी के गाल को थपथपाते हुए शेफाली ने कहा.

उस के साथ चल रहे लड़के को हकीकत

मालूम नहीं थी. वह उस कुरूप और कड़वी सचाई से अनजान था, जो उस के लिए रिश्तों के माने ही बदल सकती थी.

सन्नी ने भी दूसरों की तरह उस के और

दीपक के रिश्ते को टूटते हुए ही देखा था. इस रिश्ते के टूटने की गंदी हकीकत उसे मालूम नहीं थी. उसे मालूम नहीं था कि रिश्ते के टूटने में उस की भूमिका कैसे जुड़ गई थी. दूसरे शब्दों में जबरदस्ती उस की भूमिका जोड़ दी गई थी.

अच्छा था, सब कुछ शेफाली और दीपक में ही निबट गया था, वरना न तो सन्नी उस से ऐसे बात करता और न ही उस के साथ होटल चलता.

खुशियों का आगमन: भाग 1 -कैरियर या प्यार में क्या चुनेंगी रेखा?

‘‘मिस रेखा साने, आप का इस महीने भी टारगेट पूरा नहीं हुआ. सिर्फ 10,000 रुपए की सेल हुई है. आप को और 1 महीने का वक्त दिया जाता है, लेकिन खयाल रहे, यह आप का आखिरी मौका होगा, इस के बाद कंपनी आप के बारे में गंभीरता से सोचेगी.’’

गरदन झुका कर रेखा अपने बौस की फटकार सुनती रही. सभी की निगाहें उस पर टिकी थीं. गरदन नीची होने के बावजूद उसे सभी की नजरों में छिपा उपहास और सहानुभूति के भाव दिखाई दे रहे थे. किसी की नजरों में ईर्ष्या थी, तो किसी की नजरों में इस बात की खुशी थी कि चलो, इसे अच्छा सबक मिल गया.

मीटिंग खत्म हुई और वह धम्म से अपनी सीट पर आ बैठी. उस की उठने की इच्छा नहीं हो रही थी. अगले महीने 50,000 रुपए की बिक्री करने की चिंता उसे खाए जा रही थी. 50,000 की सेल? नामुमकिन है यानी वेतनवृद्धि नहीं या फिर नागपुर, चंद्रपुर जैसे इलाके में बदली. इस से अब छुटकारा नहीं है. अगर हमेशा ऐसी ही परफारमेंस रही तो शायद नौकरी से भी हाथ धोना पड़ सकता है. कंपनी को भला उस की समस्याओं से क्या मतलब है? उन्हें तो सिर्फ अपनी सेल बढ़ाने की और रुपए कमाने की चिंता लगी रहती है. लाखों बेरोजगार इस नौकरी के चक्कर में होंगे, मेरे जाने पर कोई दूसरा आ जाएगा. वैसे भी जोन के अफसर नाडकर्णी अपनी साली को यह नौकरी दिलाने के चक्कर में हैं. यानी अब उसे अपना बोरियाबिस्तर बांध कर रखना होगा.

यह नौकरी रेखा को आसानी से नहीं मिली थी. सैकड़ों चक्कर लगाए, इंटरव्यू दिए, रिटन टेस्ट दिए, साथ ही घर वालों की नाराजगी भी मोल ली. एक लड़की का मैडिकल रिप्रेजेंटेटिव की नौकरी करना कोई आसान बात नहीं थी. मेहनत, परेशानी, धूप में दिन भर घूमना, तरहतरह के लोगों से मिलना आदि सभी मुश्किलों का उसे सामना करना था. भाई ने उसे समझाने की काफी कोशिश की, उसे आने वाली मुसीबतों से आगाह किया, पिताजी ने भी अपनी ओर से उसे समझाने की कोशिश की, मगर उन के हर सवाल का उस के पास जवाब था. और क्यों न हो, आखिर रेखा एक आकर्षक व्यक्तित्व की, बुद्धिमान और मेहनती युवती

थी. इसलिए इतनी अच्छी नौकरी गंवाना उसे मंजूर नहीं था. मगर आज वह सभी की हंसी का पात्र बन गई थी और इस के लिए वह खुद ही जिम्मेदार थी, क्योंकि आसान लगने वाली यह नौकरी धीरेधीरे उस के लिए सिरदर्द बनती जा रही थी.

दरअसल, उस के जोन में ज्यादातर ऐसे गांव

थे, जहां दिन भर में सिर्फ एक ही बस जाती थी. खुद की गाड़ी ले कर जाने में ऊबड़खाबड़ रास्तों की दिक्कत थी. उन रास्तों से गुजरना यानी अपनी हड्डियों का भुरता बनाने जैसा था. रेखा की तकलीफ को देख

उस के कुछ सहकर्मी उस से सहानुभूति व्यक्त करते तथा लड़की होने के नाते उसे शहरी जोन देने की सिफारिश करते, कुछ मदद करने हेतु

उस के जोन में तबादला कराने के लिए भी तैयार होते, मगर उसे ये प्रस्ताव मंजूर नहीं थे, क्योंकि चुनौतियों को स्वीकार करना उसे

अच्छा लगता था.

अकसर उस का सामना  अजीबोगरीब लोगों से होता था. कोई डाक्टर उस की कंपनी की ओर से अच्छीखासी, तगड़ी पार्टी हथियाने के बाद किसी अन्य कंपनी की दवाओं को प्रिस्क्राइब करता, कोई पेशेंट ज्यादा होने का बहाना कर के उसे घंटों बैठाता और घंटे भर के बाद बिना बात किए हुए बाहर निकल जाता. जो कोई उस की बातों को सुनता, उस के पास दवाएं खरीदने के लिए मरीज ही नहीं होते. कुछ केमिस्ट ऐसे भी होते, जो दवाओं का आर्डर देने के बाद कोई कारण बता कर माल वापस कर देते.

रेखा अपनी ओर से सेल बढ़ाने की काफी कोशिश करती, फिर भी कुछ न कुछ कमी रह जाती. मगर वह हार मानने के लिए तैयार नहीं थी. कंपनी को बिक्री की कोई प्रौब्लम नहीं थी, सब कुछ ठीक से चल रहा था, मगर कंपनी मार्केट में एक नया प्रोडक्ट लाने की तैयारी कर रही थी. ऐंटीबायोटिक-ऐंटीस्पाज्योडिक का कोई कांबिनेशन था, जिस की जोरदार पब्लिसिटी की जा रही थी. इसलिए सभी मैडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स पर सेल बढ़ाने के लिए दबाव डाला जा रहा था.

‘‘रेखा, मीटिंग भी खत्म हो गई और कौफी भी, चलो, घर चलें,’’ राजेश की आवाज से उस की विचारशृंखला टूटी. कुछ न कहते हुए वह राजेश के साथ चल पड़ी.

‘‘डरो मत, मैं तुम्हारी मदद करूंगा,’’ राजेश ने उस का हौसला बढ़ाते हुए कहा.

‘‘तुम कैसे मदद करोगे, तुम्हारे पास खुद इतना काम है?’’

‘‘तुम सिर्फ देखती जाओ,’’ राजेश ने

कहा.

और सचमुच रेखा देखती रह गई.

राजेश ने अपना काम संभालते हुए उस की

हर तरह से सहायता की. काम में मशगूल वे दोनों अपनी भूख, प्यास, नींद सब कुछ भूल गए. आखिर उन की मेहनत रंग लाई. रेखा

के अफसर ने खुश हो कर उस की पीठ थपथपाई. वह काफी खुश हुई. अब वह अपने दिल की बात राजेश से कहने के लिए उत्सुक थी. राजेश और रेखा एकदूसरे को काफी दिनों से जानते थे, पसंद करते थे. मगर अब तक दोनों ने अपने दिल की बात एकदूसरे को नहीं बताई थी.

काम खत्म कर के लौटते हुए रेखा अपने

काम को ले कर राजेश से बातें कर रही थी. उस की समस्याओं को हल कर के राजेश ने उस की टेंशन दूर कर दी थी. आगे भी कभी कोई मुसीबत आने पर वह सहायता के लिए तैयार था. मगर रेखा अब उस का साथ जिंदगी भर चाहती थी, इसलिए बस में उस ने पहल करते हुए बात छेड़ी, ‘‘राजेश, आज शाम तुम मेरे घर आ रहे हो?’’

‘‘किस ने कहा तुम से?’’

‘‘मेरे दिल ने.’’

‘‘अच्छा, अब दिल से पूछ कर यह भी बता दो कि मैं किस खुशी में तुम्हारे घर आ

रहा हूं.’’

‘‘जाहिर है, मेरे पिताजी से मिलने, अब कारण मत पूछना.’’

‘‘मगर आने का कारण तो पता चले.’’

‘‘उन के सामने खड़े हो कर कहना कि आप का होने वाला जमाई आप के सामने

खड़ा है.’’

‘‘क्या? मिस रेखा, ख्वाबों की दुनिया से निकल कर जमीन पर आ जाइए.’’

‘‘मैं जमीन पर ही हूं और वह भी मजबूती के साथ, पैर जमा कर. पर मुझे लगता है कि तुम आसमान में उड़ रहे हो. इसीलिए तुम्हें मेरे प्यार की कोई कद्र नहीं है.’’

‘‘प्यार और तुम से? तुम यह क्या कह रही हो? रेखा, सच है कि हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं, साथ ही एकदूसरे के अच्छे दोस्त भी हैं. यहां तक मामला ठीक है, इस के आगे हम न ही बढ़ें तो अच्छा है.’’

‘‘लेकिन राजेश…’’

‘‘देखो रेखा, दोस्ती हुई फिर प्यार हुआ पर इस का मतलब यह नहीं अब मैं तुम से शादी भी कर लूं.’’

‘‘तुम बड़े दुष्ट हो, राजेश.’’

‘‘मैं तुम्हें हकीकत बता रहा हूं.’’

‘‘मेरी भावनाओं के साथ खेलने का तुम्हें कोई हक नहीं है.’’

‘‘मेरी बात को समझो. रेखा, तुम जिस सुखी, सुरक्षित माहौल में पलीबढ़ी हो, वह माहौल, वह सुरक्षा क्या मैं तुम्हें दे पाऊंगा?’’

‘‘यकीनन. इसीलिए तो मैं ने तुम्हें चुना है. एक शांत, सुखी, सुरक्षित परिवार की कल्पना को साकार रूप तुम ही दे सकते हो.’’

‘‘मैं तुम्हारा सपना साकार नहीं कर पाऊंगा, बाद में तुम्हें पछताना पड़ेगा.’’

‘‘सीधे कह दो न कि मैं तुम्हें पसंद नहीं हूं.’’

उसे कुछ समझाने से पहले ही वह आने वाले बस स्टाप पर उतर गई.

दूसरे दिन उस की आंखों की सूजन राजेश से

काफी कुछ कह गई.

‘‘फौर माई स्वीटहार्ट,’’ राजेश ने गुलाब का फूल रेखा के सामने रखते हुए कहा.

‘‘अब क्यों मस्का लगा रहे हो?’’

‘‘अपनी एक प्यारी दोस्त को खुश करने

की कोशिश कर रहा हूं.’’

उस की बातें सुन कर रेखा सचमुच खुश हो गई.

‘‘इस गुलाब के बदले मैं तुम से कुछ मांगूं तो क्या दोगी?’’

‘‘मैं तो अपना तनमन सभी तुम्हें अर्पण करना चाहती हूं, पर तुम्हीं पीछे हट रहे हो.’’

‘‘फिर वही बात, प्लीज रेखा, प्यार, शादी ये सब बातें तुम मुझ से न ही करो तो बेहतर होगा.’’

‘‘थोड़ा मुश्किल है, फिर भी तुम्हारे लिए मैं कोशिश करने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘यह हुई न बात, हम पहले की तरह अच्छे दोस्त बन कर रहेंगे.’’

‘‘यानी अब दोस्त नहीं हैं,’’ रेखा ने कहा. उस की बातों पर राजेश हंसने लगा.

रेखा ने राजेश से प्यार की बातें न

करने की हामी तो भर दी, मगर उस पर

अमल करना उस के लिए बहुत कठिन हो

रहा था. रोज के मानसिक तनाव से अच्छा है कि उसे टाल दिया जाए. न वह सामने

आएगा और न ही प्यार, शादी के विचार मन

में आएंगे.

अगला महीना काम की व्यस्तता में बीत गया.

रिपोर्टिंग, मीटिंग्स, रिफ्रेशर कोर्स के

लेक्चर्स आदि में राजेश को भूल गई थी. मगर काम खत्म होते ही फिर उसे राजेश की याद सताने लगी. उस के मन में रहरह कर यही खयाल आए कि उसे कोई दूसरी लड़की पसंद होगी, तभी तो मेरे जैसी खूबसूरत, होशियार लड़की को वह नकार रहा है. उसे किस बात का इतना गरूर है? छोड़ो, वह मेरे प्यार के काबिल ही नहीं है, अच्छा है, उस से दूरी बनाए रखूं.

रिश्तेनाते: भाग 1- दीपक का शक शेफाली के लिए बना दर्द

अमित और शेफाली रात के समय शिमला पहुंचे थे. रात को ही अमित को जुकाम ने जकड़ लिया था. सारी रात होटल के कमरे में वह छींकता रहा था.

अमित ने दवाई भी ली थी, मगर उस का तत्काल असर नजर नहीं आया.

सुबह शिमला में जैसा मौसम बन गया था, उसे देख कर तो यही लग रहा था कि किसी भी वक्त बर्फ गिरनी शुरू हो सकती थी.

उस समय बर्फबारी देखने के शौकीन लोग बड़ी संख्या में शिमला में जमा थे. होटल ठसाठस भरे हुए थे. अगर आशा के अनुसार शीघ्र बर्फबारी नहीं होती तो शिमला में जमा सैलानियों में मायूसी छा सकती थी. बर्फ की सफेद चादर ओढ़ने के बाद शिमला कितना खूबसूरत दिखता था, यह शेफाली को मालूम था.

शेफाली कई बार शिमला आ चुकी थी. शिमला से उस के अतीत की कई यादें जुड़ी थीं. इस बार शेफाली शिमला नहीं आना चाहती थी. उसे मालूम था कि शिमला में अतीत की यादें उसे ज्यादा परेशान करेंगी.

शेफाली डलहौजी, मसूरी या और किसी भी हिल स्टेशन पर जाने को तैयार थी, लेकिन अमित शिमला जाने की जिद पर अड़ गया था.

दरअसल, अमित न तो पहले कभी शिमला आया था और न ही उस ने कभी स्नोफाल देखा था. इसलिए शिमला में उस के लिए पर्याप्त आकर्षण था.

शेफाली खुल कर अमित को यह नहीं बता सकी थी कि वह शिमला क्यों नहीं जाना चाहती थी? शेफाली कहती तो शायद अमित को ज्यादा अच्छा भी नहीं लगता.

वैसे अमित और शेफाली के पहले पति दीपक के स्वभाव और आदतों में बड़ा फर्क था. कारोबारी इनसान होने के बावजूद अमित के स्वभाव में सरलता और खुलापन था. अमित की आदत न तो बातों को अधिक कुरेदने की और न ही छोटीमोटी बातों को अहमियत देने की थी.

किसी बात को चुपचाप मन में रखने के बजाय वह उसे कह देना ज्यादा पसंद करता था.

पिछले 3 वर्षों में शेफाली अमित को किसी हद तक समझ तो गई थी, मगर अपने कड़वे अनुभवों के चलते वह किसी भी मर्द पर इतनी जल्दी भरोसा करने को तैयार नहीं थी.

शायद यही वजह थी कि शेफाली ने अमित को यह बताने में संकोच से काम लिया था कि उसे शिमला जाने में इतनी दिलचस्पी क्यों नहीं थी?

मालूम नहीं अमित उस समय कैसे रिऐक्ट करता, जब शेफाली उसे यह बताती कि वह अपने पहले पति दीपक के साथ कई बार शिमला आई थी.

अमित को तो यह भी मालूम नहीं था कि वह शेफाली के साथ शिमला के जिस होटल में ठहरा था उसी होटल में कभी शेफाली अपने पहले पति दीपक के साथ हनीमून के लिए ठहरी थी.

कहने को तो शादी के बाद अमित ने शेफाली से साफ शब्दोें में कहा था कि उसे उस के अतीत से कोई भी दिलचस्पी नहीं है. शादी के बाद अमित ने शेफाली को यह भी आश्वासन दिया था कि वह उस के बीते हुए कल के बारे में उस से कभी सवाल नहीं करेगा.

किंतु शेफाली का मानना था कि सब कहने की बातें हैं. यह बात अमित का मूड खराब कर सकती थी कि जिस होटल में वे दोनों ठहरे हुए थे, उसी होटल में उस ने कभी अपने पहले पति के साथ हनीमून मनाया था.

शेफाली इतनी मूर्ख भी नहीं थी कि ऐसी बात का जिक्र अमित से करती.

ज्यादा सर्दी अकसर अमित को जुकाम में जकड़ती थी. जैसा डर था, शिमला आते ही जुकाम की पकड़ में आने से वह बच नहीं सका था.

दोनों ने सुबह का नाश्ता बिस्तर पर ही किया. खिड़की से बाहर देखने पर धुंध की वजह से माल रोड की सड़क भी ठीक से नजर नहीं आ रही थी.

अपनी तबीयत को देखते हुए अमित का

होटल से बाहर निकलने का कोई इरादा फिलहाल नहीं था. मगर अपनी वजह से वह शेफाली को कमरे में बंद नहीं रखना चाहता था. इसलिए शेफाली को देखते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा तो इस हालत में होटल से बाहर निकलना ठीक नहीं होगा. मेरी मानो तो तुम एक छोटा सा राउंड अकेले मार आओ. अगर इस जुकाम से छुटकारा मिला तो दोपहर के बाद साथसाथ निकलेंगे.’’

‘‘नहीं, अकेले कोई मजा नहीं आएगा,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘मेरे साथ इस कमरे में बंद रह कर तुम भी बेकार में बोर होगी. हम यहां तफरीह के लिए आए हैं. 1-1 पल को एंजौय करना चाहिए. यह बेवकूफी ही होगी कि मेरे साथ तुम भी इस कमरे में पड़ीपड़ी हिल स्टेशन पर आने का अपना मजा किरकिरा करो.’’

अमित के मजबूर करने पर शेफाली माल रोड पर चक्कर लगाने के लिए निकल पड़ी.

माल रोड की गहरी धुंध और कड़ाके की सर्दी में एकदूसरे से सट कर बांहों में बांहें डाल कर टहलते हुए जोड़े काफी रोमानी नजारा पेश कर रहे थे.

उड़ती धुंध के कोमल किंतु सर्द स्पर्श से शेफाली के गाल एकदम सुन्न से पड़ गए थे.

शेफाली के मन में कुछ कसकने लगा था. वक्त के साथ सब कुछ कैसे बदल गया था. पुराने रिश्तेनाते टूट गए थे और नए बने थे.

अपने पहले पति दीपक के साथ शेफाली जब हनीमून मनाने शिमला आई थी तो उस ने कभी सोचा नहीं था कि जन्मजन्मांतर के संबंधों की डोर इतनी छोटी और कच्ची हो सकती थी.

8-9 वर्ष पहले की ही बात थी. इसी माल रोड पर दीपक का हाथ थाम कर चलते हुए खुशी से शेफाली के कदम जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. दीपक जैसा जीवनसाथी पा कर खुद को दुनिया की खुशकिस्मत औरतों में शुमार करते हुए उस ने भविष्य के कई सपने देख डाले थे.

देखने में तो शेफाली को वैसा ही जीवनसाथी मिला था जैसा वह चाहती थी. पढ़ालिखा और देखने में सुंदर, उस में कोई ऐब भी नहीं था. उस पर बैंक की सरकारी नौकरी, जिस में भविष्य के बारे में आर्थिक सुरक्षा की गारंटी थी.

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