वचन : चिकचिक और शोरशराबे से जब परेशान हुई निशा

निशा ने अपने जन्मदिन के अवसर पर हम सब के लिए बढि़या लंच तैयार किया. छक कर भोजन करने के बाद सब आराम करने के लिए जब उठने को हुए तो निशा अचानक भाषण देने वाले अंदाज में उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘मैं आप सब से आज कुछ मांगना चाहती हूं,’’ कुछ घबराते, कुछ शरमाते अंदाज में उस ने अपने मन की इच्छा प्रकट की.

हम सब हैरान हो कर उसे देखने लगे. उस का यह व्यवहार उस के शांत, शर्मीले व्यक्तित्व से मेल नहीं खा रहा था. वह करीब 3 महीने पहले मेरी पत्नी बन कर इस घर में आई थी. सब बड़ी उत्सुकता से उस के आगे बोलने का इंतजार करने लगे.

‘‘आप सब लोग मुझ से बड़े हैं और मैं किसी की डांट का, समझाने का, रोकनेटोकने का जरा सा भी बुरा नहीं मानती हूं. मुझे कोई समझाएगा नहीं तो मैं सीखूंगी कैसे?’’ निशा इस अंदाज में बोल रही थी मानो अब रो देगी.

‘‘बहू, तू तो बहुत सुघड़ है. हमें तुझ से कोई शिकायत नहीं. जो तेरे मन में है, तू खुल  कर कह दे,’’ मां ने उस की तारीफ कर उस का हौसला बढ़ाया. पापा ने भी उन का समर्थन किया.

‘‘बहू, तुम्हारी इच्छा पूरी करने की हम कोशिश करेंगे. क्या चाहती हो तुम?’’

निशा हिचकिचाती सी आगे बोली, ‘‘मेरे कारण जब कभी घर का माहौल खराब होता है तो मैं खुद को शर्म से जमीन में गड़ता महसूस करती हूं. प्लीज…प्लीज, आप सब मुझे ले कर आपस में झगड़ना बिलकुल बंद कर दीजिए…अपने जन्मदिन पर मैं बस यही उपहार मांग रही हूं. मेरी यह बात आप सब को माननी ही पड़ेगी…प्लीज.’’

मां ने उसे रोंआसा होते देखा, तो प्यार भरी डांट लगाने लगीं, ‘‘इस घर में तो सब का गला कुछ ज्यादा जोर से ही फटता है. बहू, तुझे ही आदत डालनी होगी शोर- शराबे में रहने की.’’

‘‘वाह,’’ अपनी आदत के अनुसार पापा मां से उलझने को फौरन तैयार हो गए, ‘‘कितनी आसानी से सारी जिम्मेदारी इस औरत ने बहू पर ही डाल दी है. अरे, सुबह से रात तक चीखतेचिल्लाते तेरा गला नहीं थकता? अब बहू के कहने से ही बदल जा.’’

‘‘मैं ही बस चीखतीचिल्लाती हूं और बाकी सब के मुंह से तो जैसे शहद टपकता है. कोई ऐसी बात होती है घर में जिस में तुम अपनी टांग न अड़ाते हो. हर छोटी से छोटी बात पर क्लेश करने को मैं नहीं तुम तैयार रहते हो,’’ मां ने फौरन आक्रामक रुख अपना लिया.

‘‘तेरी जबान बंद करने का बस यही इलाज है कि 2-4 करारे तमाचे…’’

गुस्से से भर कर मैं ने कहा, ‘‘कहां की बात कहां पहुंचा देते हैं आप दोनों. इस घर की सुखशांति भंग करने के लिए आप दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं.’’

‘‘मनोज भैया, आप भी चुप नहीं रह सकते हो,’’ शिखा भी झगड़े में कूद पड़ी, ‘‘इन दोनों को समझाना बेकार है. आप भाभी को ही समझाओ कि इन की कड़वी बात को नजरअंदाज करें.’’

हम दोनों के बोलते ही मम्मी और पापा अपना झगड़ा भूल गए. उन का गुस्सा हम पर निकलने लगा. मैं तो 2-4 जलीकटी बातें सुन कर चुप हो गया, पर शिखा उन से उलझी रही और झगड़ा बढ़ता गया.

हमारे घर में अकसर ऐसा ही होता है. आपस में उलझने को हम सभी तैयार रहते हैं. चीखनाचिल्लाना सब की आदत है. मूल मुद्दे को भुला कर लड़नेझगड़ने में सब लग जाते हैं.

अचानक निशा की आंखों से बह कर मोटेमोटे आंसू उस के गालों पर लुढ़क आए थे. सब को अपनी तरफ देखते पा कर वह हाथों में मुंह छिपा कर रो पड़ी. मां और शिखा उसे चुप कराने लगीं.

करीब 5 मिनट रोने के बाद निशा ने सिसकियों के बीच अपने दिल का दर्द हमें बताया, ‘‘जैसे आज झगड़ा शुरू हुआ ऐसे ही हमेशा शुरू हो जाता है…मेरी बात किसी ने भी नहीं सुनी…क्या आप सब मेरी एक छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते? मेरी खुशी के लिए मेरे जन्मदिन पर एक छोटा सा वचन नहीं दे सकते?’’

हम सभी ने फटाफट उसे वचन दे दिया कि उस की इच्छा पूरी करने का प्रयास दिल से करेंगे. उस का आंसू बहाना किसी को भी अच्छा नहीं लग रहा था.

निशा ने आखिरकार अपनी मांग हमें बता दी, ‘‘घर का हर काम कर के मुझे खुशी मिलती है. मेरा कोई हाथ बटाए, वह बहुत अच्छी बात होगी, लेकिन कोई किसी दूसरे को मेरा हाथ बटाने को कहे…सारा काम उसे करने को आदेश दे, यह बात मेरे दिल को दुखाती है. मैं सब से यह वचन लेना चाहती हूं कि कोई किसी दूसरे को मेरा हाथ बटाने को नहीं कहेगा. यह बात खामखा झगड़े का कारण बन जाती है. जिसे मेरी हैल्प करनी हो, खुद करे, किसी और को भलाबुरा कहना आप सब को बंद करना होगा. आप सब को मेरी सौगंध जो आगे कोई किसी से कभी मेरे कारण उलझे.’’

निशा को खुश करने के लिए हम सभी ने फौरन उसे ऐसा वचन दे डाला. वह खुशीखुशी रसोई संभालने चली गई. उस वक्त किसी को जरा भी एहसास नहीं हुआ कि निशा को दिया गया वचन आगे क्या गुल खिलाने वाला था. कुछ देर बाद पापा ने रसोई के सामने से गुजरते हुए देखा कि निशा अकेली ढेर सारे बरतन मांजने में लगी हुई थी.

‘‘शिखा,’’ वह जोर से चिल्लाए, ‘‘रसोई में आ कर बहू के साथ बरतन क्यों नहीं…’’

‘‘पापा, अभीअभी मुझे दिया वचन क्यों भूल रहे हैं आप?’’ निशा ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘पापा, प्लीज, आप दीदी से कुछ मत कहिए.’’

कुछ पलों की बेचैनी व नाराजगी भरी खामोशी के बाद उन्होंने निर्णय लिया, ‘‘ठीक है, मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, पर तुम्हारे काम में हाथ बटाना तो तेरे हाथ में है. मैं मंजवाता हूं तेरे साथ बरतन.’’

अपने कुरते की बाजुएं ऊपर चढ़ाते हुए वे निशा की बगल में जा खड़े हुए. वे अभी एक तश्तरी पर ही साबुन लगा पाए थे कि मां भागती रसोई में आ पहुंचीं.

‘‘छी…यह क्या कर रहे हो?’’ उन्होंने पापा के हाथों से तश्तरी छीनने की असफल कोशिश की.

मां ने चिढ़ और गुस्से का शिकार हो शिखा को ऊंची आवाज में पुकारा तो निशा ने दबी, घबराई आवाज में उन के सामने भी हाथ जोड़ कर वचन की याद दिला दी.

‘‘क्या मुसीबत है,’’ उन्होंने अचानक पूरी ताकत लगा कर पापा के हाथ से तश्तरी छीन ही ली और उन का हाथ पकड़ कर खींचती हुई रसोई से बाहर ले आईं.

‘‘आप को यह काम शोभा देगा क्या? जाइए, अपने कमरे में आराम कीजिए. मैं करवा रही हूं बहू के साथ काम,’’ मां मुड़ीं और किलसती सी निशा के पास पहुंच कर बरतन साफ कराने लगीं.

गुसलखाने से बाहर आते हुए मैं ने साफसाफ देखा पापा शरारती अंदाज में मुसकरा कर निशा की तरफ आंख मारते हुए जैसे कह रहे हों कि आ गया ऊंट पहाड़ के नीचे. फिर वे अपने कमरे की तरफ चले गए. मेरे देखते ही देखते शिखा भी रसोई में आ गई.

‘‘इतने से बरतनों को 3-3 लोग मांजें, यह भी कोई बात हुई. मुझे सुबह से पढ़ने का मौका नहीं मिला है. मां, जब भाभी हैं यहां तो तुम ने मुझे क्यों चिल्ला कर बुलाया?’’ शिखा गुस्से से बड़बड़ाने लगी.

‘‘मैं ने इसलिए तुझे बुलाया क्योंकि तेरे पिताजी के सिर पर आज बरतन मंजवाने का भूत चढ़ा था.’’

‘‘यह क्या कह रही हो?’’ शिखा ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘मैं सही कह रही हूं. अब सारी रसोई संभलवा कर ही पढ़ने जाना, नहीं तो वे फिर यहां घुस आएंगे,’’ कह कर मां रसोई से बाहर आ गईं.

उस दिन से निशा के वचन व पापा की अजीबोगरीब हरकत के कारण शिखा मजबूरन पहली बार निशा का लगातार काम में हाथ बटाती रही.

इस में कोई शक नहीं कि शादी के कुछ दिनों बाद से ही निशा ने घर के सारे कामों की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली थी. हर काम को भागभाग कर करना उस का स्वभाव था. इस कारण शिखा और मम्मी ने धीरेधीरे हर काम से हाथ खींचना शुरू कर दिया था. इस बात को ले कर मैं कभीकभी शोर मचाता, तो मां और शिखा ढकेछिपे अंदाज में मुझे जोरू का गुलाम ठहरा देतीं. झगड़े में इन दोनों से जीतना संभव नहीं था क्योंकि दोनों की जबानें तेज और पैनी हैं. पापा डपट कर शिखा या मां को अकसर काम में लगा देते थे, पर इस का फल निशा के लिए ठीक नहीं रहता. उसे अपनी सास व ननद की ढेर सारी कड़वी, तीखी बातें सुनने को मिलतीं.

अगले दिन सुबह पापा ने झाड़ू उठा कर सुबह 7 बजे से घर साफ करना शुरू किया, तो फिर घर में भगदड़ मच गई.

‘‘बहू, तुम नाश्ता बनाती रहो. मैं 15-20 मिनट में सारे घर की सफाई कर दूंगा,’’ कह कर पापा फिर से ड्राइंगरूम में झाड़ू लगाने लगे.

‘‘ऐसी क्या आफत आ रही है, पापा?’’ शिखा ने अपने कमरे से बाहर आ कर क्रोधित लहजे में कहा, ‘‘झाड़ू कुछ देर बाद भी लग सकती है.’’

‘‘घर की सारी सफाई सुबह ही होनी चाहिए,’’ पापा ने कहा.

‘‘लाइए, मुझे दीजिए झाड़ू,’’ शिखा ने बड़े जोर के झटके से उन के हाथ से झाड़ू खींची और हिंसक अंदाज में काम करते हुए सारे घर की सफाई कर दी.

वह फिर अपने कमरे में बंद हो गई और घंटे भर बाद कालेज जाने के लिए ही बाहर निकली. उस दिन जबरदस्त नाराजगी दर्शाते हुए वह बिना नाश्ता किए ही कालेज चली गई. मां ने इस कारण पापा से झगड़ा करना चाहा तो उन्होंने शांत लहजे में बस इतना ही कहा, ‘‘पहले मैं शोर मचाता था और अब चुपचाप बहू के काम में हाथ बटाता हूं क्योंकि हमसब ने उसे ऐसा करने का वचन दिया है. शिखा को मेरे हाथ से झाड़ू छीनने की कोई जरूरत नहीं थी.’’

‘‘रिटायरमैंट के बाद भी लोग कहीं न कहीं काम करने जाते हैं. तुम भी घर में पड़े रह कर घरगृहस्थी के कामों में टांग अड़ाना छोड़ो और कहीं नौकरी ढूंढ़ लो,’’ मां ने बुरा सा मुंह बना कर उन्हें नसीहत दी तो पापा ठहाका लगा कर हंस पड़े.

उस शाम मुझे औफिस से घर लौटने में फिर देर हो गई. पुराने यारदोस्तों के साथ घंटों गपशप करने की मेरी आदत छूटी नहीं थी. निशा ने कभी अपने मुंह से शिकायत नहीं की, पर यों लेट आने के कारण मैं अकसर मां और पिताजी से डांट खाता रहा हूं.

‘‘बहू के साथ कहीं घूमने जाया कर. उसे रिश्तेदारों और पड़ोसियों से मिलवाना चाहिए तुझे. यारदोस्तों के साथ शादी के बाद ज्यादा समय बरबाद करना छोड़ दे,’’ बारबार मुझे समझाया जाता, पर मैं अपनी आदत से मजबूर था.

मैं उस दिन करीब 9 बजे घर में घुसा तो मां ने बताया, ‘‘तेरी बहू और पिताजी घूमने गए हुए हैं.’’

‘‘कहां?’’ मैं ने माथे पर बल डाल कर पूछा.

‘‘फिल्म देखने गए हैं.’’

‘‘और खाना भी बाहर खा कर आएंगे,’’ शिखा ने मुझे भड़काया, ‘‘हम ने तो कभी नहीं सुना कि नई दुलहन पति के बजाय ससुर के साथ फिल्म देखने जाए.’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया और गुस्से से भरा अपने कमरे में आ घुसा. मैं ने खाना खाने से भी इनकार कर दिया.

वे दोनों 10 बजे के बाद घर लौटे. पिताजी ने आवाज दे कर मुझे ड्राइंगरूम में बुला लिया.

‘‘खाना क्यों नहीं खाया है अभी तक तुम ने?’’ पापा ने सवाल किया.

‘‘भूख नहीं है मुझे,’’ मैं ने उखड़े लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं बहू को घुमाने ले गया, इस बात से नाराज है क्या?’’

‘‘इसे छोड़ गए, यह नाराजगी पैदा करने वाली बात नहीं है क्या?’’ मां ने वार्त्तालाप में दखल दिया, ‘‘इसे पहले से सारा कार्यक्रम बता देते तो क्या बिगड़ जाता आप का?’’

‘‘देखो भई, बहू के मामलों में मैं ने किसी को भी कुछ बतानासमझाना बंद कर दिया है. जहां मुझे लगता है कि उस के साथ गलत हो रहा है, मैं खुद कदम उठाने लगा हूं उस की सहायता के लिए. अब मेरे काम किसी को अच्छे लगें या बुरे, मुझे परवा नहीं,’’ पापा ने लापरवाही से कंधे उचकाए.

‘‘मैं आप से कुछ कह रहा हूं क्या?’’ मेरी नाराजगी अपनी जगह कायम रही.

‘‘बहू से भी कुछ मत कहना. मेरी जिद के कारण ही वह मेरे साथ गई थी. आगे भी अगर तुम ने यारदोस्तों के चक्कर में फंस कर बहू की उपेक्षा करनी जारी रखी तो हम फिर घूमने जाएंगे. हाउसफुल होने के कारण आज फिल्म नहीं देखी है हम दोनों ने. कल की 2 टिकटें लाए हैं. तुझे बहू के साथ जाने की फुरसत न हो तो मुझे बता देना. मैं ले जाऊंगा उसे अपने साथ,’’ अपनी बात कह कर पापा अपने कमरे की तरफ बढ़ गए.

निशा को तंग करने के लिए मैं उस रात खाना बिलकुल न खाता पर ऐसा कर नहीं सका. उस ने मुझे बताया कि वह और पापा सीधे चाचाजी के घर गए थे. दोनों बाहर से कुछ भी खा कर नहीं आए थे. इन तथ्यों को जान कर मेरा गुस्सा गायब हो गया और हम दोनों ने साथसाथ खाना खाया.

अगले दिन निशा और मैं ने साथसाथ फिल्म देखी और खाना भी बाहर खा कर लौटे. यों घूमना उसे बड़ा भा रहा था और वह खूब खुल कर मेरे साथ हंसबोल रही थी. उस की खुशी ने मुझे गहरा संतोष प्रदान किया था.

पापा ने एक ही झटका दे कर मेरी देर से घर आने की आदत को छुड़ा दिया था. यारदोस्त मुझे रोकने की कोशिश में असफल रहते थे. मैं निशा को खुश और संतुष्ट रखने की अपनी जिम्मेदारी पापा को कतई नहीं सौंपना चाहता था.

पापा की अजीबोगरीब हरकतों के चलते मां और शिखा भी बदले. ऐसा हुआ भी कि एक दिन पापा को पूरे घर में झाड़ू लगानी पड़ी. शिखा या मां ने उन्हें ऐसा करने से रोका नहीं था.

उस दिन शाम को चाचा सपरिवार हमारे घर आए थे. पापा ने सब के सामने घर में झाड़ू लगाने का यों अकड़ कर बखान किया मानो बहुत बड़ा तीर मारा हो. मां और शिखा उस वक्त तो सब के साथ हंसीं, पर बाद में पापा से खूब झगड़े भी.

‘‘जो सच है उसे क्यों छिपाना?’’ पापा बड़े भोले बन गए, ‘‘तुम लोगों को मेरा कहना बुरा लगा, यह तुम दोनों की प्रौब्लम है. मैं तो बहू का कैसे भी काम में हाथ बटाने से कभी नहीं हिचकिचाऊंगा.’’

‘‘बुढ़ापे में तुम्हारा दिमाग सठिया गया है,’’ मां ने चिढ़ कर यह बात कही, तो पापा का ठहाका पूरे घर में गूंजा और हमसब भी मुसकराने लगे.

इस में कोई शक नहीं कि पापा के कारण निशा की दिनचर्या बहुत व्यवस्थित हो गई थी. वह बहुत बुरी तरह से थकती नहीं थी. मेरी यह शिकायत भी दूर हो गई थी कि उसे घर में मेरे पास बैठने का वक्त नहीं मिलता था. धीरेधीरे मां और शिखा निशा का घर के कामों में हाथ बटाने की आदी हो गईं.

बहुत खुश व संतुष्ट नजर आ रहे पापा को एक दिन सुबहसुबह मां ने उन्हीं के अंदाज में झटका दिया था.

मां सुबहसुबह रजाई से निकल कर बाहर जाने को तैयार होने लगीं तो पापा ने चौंक कर उन से पूछा, ‘‘इस वक्त कहां जा रही हो?’’

‘‘दूध लाने. ताजी सब्जियां भी ले आऊंगी मंडी से,’’ मां ने नाटकीय उत्साह दिखाते हुए जवाब दिया.

‘‘दूध लाने का काम तुम्हारे बेटे का है और सब्जियां लाने का काम तुम कुछ देर बाद करना.’’

‘‘ये दोनों जिम्मेदारियां मैं ने अब अपने कंधों पर ले ली हैं.’’

‘‘बेकार की बात मत करो, इतनी ठंड में बाहर जाओगी तो सारे जोड़ अकड़ कर दर्द करने लगेंगे. गठिया के मरीज को ठंड से बचना चाहिए. दूध रवि ही लाएगा.’’

पापा ने मुझे आवाज लगाई तो मैं फटाफट उन के कमरे में पहुंच गया. मां ने पिछली रात ही मुझे अपना इरादा बता दिया था. पापा को घेरने का हम दोनों का कार्यक्रम पूरी तरह तैयार था.

‘‘रवि, दूध तुम्हें ही लाना…’’

‘‘नहीं, दूध मैं ही लेने जाया करूंगी,’’ मां ने पापा की बात जिद्दी लहजे में फौरन काट दी.

‘‘मां की बात पर ध्यान मत दे और दूध लेने चला जा तू,’’ पापा ने मुझे आदेश दिया.

‘‘देखो जी, मेरे कारण आप रवि के साथ मत उलझो. मेरी सहायता करनी हो तो खुद करो. मेरे कारण रवि डांट खाए, यह मुझे मंजूर नहीं,’’ मां तन कर पापा के सामने खड़ी हो गईं.

‘‘मैं क्या सहायता करूं तुम्हारी?’’ पापा चौंक पड़े.

‘‘मेरी गठिया की फिक्र है तो दूध और सब्जी खुद ले आइए. रवि को कुछ देर ज्यादा सोने को मिलना ही चाहिए, नहीं तो सारा दिन थका सा नजर आता है. हां, आप को नींद प्यारी है तो लेटे रहो और मुझे अपना काम करने दो. रवि, तू जा कर आराम कर,’’ मां ने गरम मोजे पहनने शुरू कर दिए.

पापा अपने ही जाल में फंस गए. मां मुझे ले कर वही दलील दे रही थीं जो पापा निशा को ले कर देते थे. जैसे निशा ने अपने कारण किसी अन्य से न झगड़ने का वचन हम सब से लिया था कुछ वैसी ही बात मां अब पापा से कर रही थीं.

‘‘तुम कहीं नहीं जा रही हो,’’ पापा ने झटके से रजाई एक तरफ फेंकते हुए क्रोधित लहजे में कहा, ‘‘मेरा आराम तुम्हारी आंखों को चुभता है तो मैं ही दूध लाने जाता हूं.’’

‘‘यह काम आप को ही करना चाहिए. इस से मोटापा, शूगर और बीपी, ये तीनों ही कम रहेंगे,’’ मां ने मुझे देख कर आंख मारी और फिर से रजाई में घुसने को कपड़े बदलने लगीं.

पापा बड़बड़ाते हुए गुसलखाने में घुस गए और मैं अपने कमरे की तरफ चल पड़ा. वैसे एक बात मेरी समझ में उसी समय आई. मां ने जिस अंदाज में मेरी तरफ देखते हुए आंख मारी थी वैसा ही मैं ने पापा को निशा के जन्मदिन पर करते देखा था. यानी कि बहू और ससुर के बीच वैसी ही मिलीभगत चल रही थी जैसी मां और मेरे बीच पापा को फांसने के लिए चली थी. पापा के कारण निशा के ऊपर से गृहकार्यों का बोझ कम हो गया था और अब मां के कारण पापा का सवेरे सैर को जाना शुरू होने वाला था. इस कारण उन का स्वास्थ्य बेहतर रहेगा, इस में कोई शक नहीं था.

अपने मन की बात को किसी के सामने, निशा के भी नहीं, जाहिर न करने का फैसला मन ही मन करते हुए मैं भी रजाई में कुछ देर और नींद का आनंद लेने के लिए खुशीखुशी घुस गया था.

मृगतृष्णा : फैमिली को छोड़ आस्ट्रेलिया गए पुनित के साथ क्या हुआ ?

लेखिका- अर्चना भारद्वाज

‘‘ओह, इट्स टू टायरिंग, सो लौंग ट्रिप,’’ पसीना पोंछते हुए पुनीत ने अपना सूटकेस दरवाजे के सामने रख दिया. घंटी का बटन दबाया और इंतजार करने लगा. मकान में खामोशी थी. कहां गए सब? पुनीत ने प्रश्नवाचक दृष्टि से दरवाजे पर लटके ताले को देखा. फिर जेब से रूमाल निकाल कर पसीना पोंछ अपना एअर बैग सूटकेस पर रख दिया. दोबारा बटन दबाया और दरवाजे से कान सटा कर सुनने लगा. बरामदे के पीछे कोई खिड़की हवा में हिचकोले खा रही थी.

पुनीत थोड़ा पीछे हट कर ऊपर देखने लगा. वह दोमंजिला मकान था. लेन के अन्य मकानों की तरह काली छत, अंगरेजी के वी की शक्ल में दोनों तरफ से ढलुआं और बीच में सफेद पत्थर की दीवार, जिस के माथे पर मकान का नंबर काली बिंदी सा दिख रहा था. ऊपर की खिड़कियां बंद थीं और परदे गिरे थे. ‘कहां जा सकते हैं इस वक्त?’ सोच वह मकान के पिछवाड़े गया. वही लौन, फेंस और झाडि़यां थीं, जो उस ने 3 साल पहले देखी थीं. गैराज खुला था और खाली पड़ा था. वे कहीं गाड़ी ले कर गए थे. संभव है उन्होंने सुबह देर तक प्रतीक्षा की हो और अब वे किसी काम से बाहर चले गए हों. लेकिन कम से कम दरवाजे पर एक चिट तो छोड़ ही सकते थे, जिस से पता चल जाता कि वे कब लौटने वाले हैं.

पुनीत मकान की सीढि़यों पर बैठ गया. शाम के 7 बजने वाले थे. धुंधलका बढ़ने लगा था. उसे चिंता हुई कि इस वक्त वे कहां गए होंगे? पापा को रात में कम दिखाई देता है और मां तो गाड़ी चला ही नहीं सकतीं. भूख भी लगनी शुरू हो गई थी. उस ने बैग से पानी की बोतल निकाल 2-4 घूंट पानी पी भूख को शांत करने की कोशिश की. वह सोचने लगा कि आसपास भी ज्यादा किसी को जानता नहीं है, किस से बात करे. लेदे कर एक शिखा को ही जानता था पर उस के साथ पुनीत ने जो किया था, उस से बात करने की तो गुंजाइश ही नहीं बचती थी.

फ्लाइट लेट होने के कारण पुनीत को घर पहुंचतेपहुंचते देर हो गई थी, पर मांपापा को इंतजार तो करना चाहिए था. उसे थोड़ा गुस्सा भी आया पर जिन स्थितियों में वह घर लौटा है, उस के लिए वह गुस्सा तो क्या उन से आंख मिला कर बात भी नहीं कर सकता था. जिस हाल में वह मांपापा और शिखा को छोड़ कर गया था, उस के बाद कौन उस की प्रतीक्षा करता. वहीं इंतजार करतेकरते उसे याद आने लगा वह 3 साल पुराना मंजर जब उस की मां आंसू बहा रही थीं और पापा सिर झुकाए बैठे थे…

आस्ट्रेलिया जाना पुनीत के लिए कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि वह पहले भी वहां जा चुका था और वहां एक अच्छी कंपनी में अच्छे पद पर कार्यरत था. पर इस बार जो घोषणा उस ने की इस के लिए कोई भी तैयार नहीं था. वह वहीं की एक लड़की क्रिस्टीना से विवाह करना चाहता था ताकि उसे जल्दी वहां की नागरिकता मिल जाए और वह वहीं सैटल हो जाए. मांपापा अचंभित थे कि उन का संस्कारी बेटा उन की आज्ञा के बिना ऐसा कदम कैसे उठा सकता है? जिसे कभी कपड़े खरीदने तक की अकल नहीं थी, वही विदेश जाते ही अपने रंग बदलने लगा था. मांपापा रूढिवादी नहीं थे पर सिद्धांतवादी जरूर थे. शिखा को धोखा दे कर अपनी खुशियों के लिए किसी और से पुनीत का विवाह करना उन्हें अपने सिद्धांतों के खिलाफ लगा और इस के लिए उन्होंने अपने बेटे का मोह त्यागना उचित समझा.

शिखा पुनीत की मित्र थी और भावी जीवनसंगिनी बनना चाहती थी. दोनों का प्रेम जगजाहिर था और दोनों पक्षों की स्वीकृति भी. ऐसे में विदेशी लड़की से शादी का पुनीत का फैसला मांपापा को कैसे मान्य होता? वह चला गया मांपापा के आशीर्वाद और शिखा की शुभकामनाओं के बिना. शिखा ने पुनीत से कुछ नहीं कहा. अपने उदास मन पर गंभीरता की चादर ओढ़ ली.

पुनीत ने आस्ट्रेलिया में क्रिस्टीना से शादी कर ली और ग्रीन कार्ड होल्डर बन गया पर साल भर में ही उस के सारे सपने धरातल पर आ गए.

क्रिस्टीना मौजमस्ती से भरपूर अपने समाज की अभ्यस्त लड़की थी. भारतीय संस्कृति में औरत को सेवक के काम में देखने वाला पलाबढ़ा लड़का बराबरी की संस्कृति के बोझ तले कब तक दबता? घर पर बीवी के साथ बराबर का हाथ बंटाना पड़ता, तो मां के हाथ के तवे से उतरते गरमगरम फुलके याद आते. बाजार से सामान खरीदने जाना होता, तो पापा का सब्जी का झोला लटकाए घर लौटना याद आता. पर वह विवश था. मांपापा ने उस से कोई सरोकार नहीं रखा था. क्रिस्टीना को औफिस की पार्टी में गैरमर्दों के साथ खुल कर नाचते देखता, तो अनायास ही शिखा की मासूम सी लजाती निगाहें उस की आंखों के सामने तैरने लगतीं. वह चाह कर भी इस ऊहापोह से निकल नहीं पा रहा था. रोजरोज का झगड़ा, रोज की बहस और अब तो मारपिटाई की नौबत भी आ पहुंची थी. भारतीय कट्टरपन का शिकार मन विदेशी खुलेपन व आजादी को सह नहीं पाया.

पुनीत का मोह भंग हो चुका था. उसे लगा जिस सुकून को पाने के लिए वह अपने परिवार को, अपने प्यार को छोड़ कर आया था, क्या वह उसे हासिल हुआ? लंबी कशमकश के बाद वह जिस भ्रमजाल में उलझा हुआ था, उस से एक दिन बाहर आ गया. उस ने क्रिस्टीना को तलाक देने का फैसला किया पर 3 साल लगे उसे इस निर्णय को पूर्ण करने के लिए. उस ने वापस भारत आने का फैसला किया और आज घर के बाहर बैठा है पर घर पर कोई मौजूद नहीं है उस का स्वागत करने को.

पुनीत की तंद्रा टूटी. अंधेरा गहराने लगा था. उसे चिंता हुई कि मांपापा गए कहां हैं? मां को तो उस ने फोन भी किया था यह बताने के लिए कि वह आ रहा है, फिर भी वे घर पर क्यों नहीं हैं? शिखा से बात करने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाया. शिखा जैसी सीधीसादी लड़की उस ने आज तक नहीं देखी. उस में इतना भोलापन और सादगी थी कि जो कोई भी उसे देखता मंत्रमुग्ध हो जाता. वाणी में इतनी मिठास, इतनी सचाई थी कि मन का सारा मैल धुल जाए. पुनीत को अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी कि असली हीरा पास होते हुए भी उस ने कंकड़ चुन लिया था.

पुनीत अभी उधेड़बुन में ही लगा था कि सामने से पड़ोस में रहने वाले रमेश अंकल आते दिखाई दिए. उन्होंने आते ही पुनीत से पूछा, ‘‘अरे पुनीत, तुम कब पहुंचे?’’

पुनीत रमेश अंकल को नमस्ते कर बोला, ‘‘काफी देर हो गई है… मांपापा सब कहां हैं?’’

‘‘तुम्हारे पापा तो हौस्पिटल में हैं? कल से सांस लेने में तकलीफ थी.’’

‘‘पापा को हौस्पिटल कौन ले कर गया?’’ पुनीत ने हैरानी से पूछा.

‘‘शिखा.’’

‘‘शिखा?’’

पुनीत की प्रश्नवाचक दृष्टि से रमेश अंकल आश्चर्य में पड़ गए. फिर बोले, ‘‘तुम्हें नहीं पता कि शिखा अब यहीं रहती है और एक स्कूल में पढ़ाती है?’’

पुनीत के मौन रहने पर रमेश अंकल ने आगे बताया, ‘‘उस के मम्मीपापा 2 साल पहले एक ऐक्सिडैंट में गुजर गए थे. तब से वह यहीं रहती है और तुम्हारे मांपापा की दिनरात सेवा करती है.’’

सुन कर पुनीत बहुत शर्मिंदा हुआ कि मेरे मांपापा व शिखा को कितने दुख सहना पड़ा… उसे यह भी मालूम नहीं हो सका. उस ने अंकल से पूछा, ‘‘पापा कहां ऐडमिट हैं? मैं वहां जाना चाहता हूं,’’ कह अंकल से हौस्पिटल का पता ले कर अपना सामान उन के यहां रख कर वह हौस्पिटल पहुंच गया.

शिखा और मां कमरे के बाहर बैठी थीं. पुनीत मां के गले लिपट कर रोने लगा. वह इतना भी नहीं पूछ सका कि पापा कैसे हैं.

मां ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, चिंता की कोई बात नहीं है. अब तेरे पापा ठीक हैं. अगर शिखा सही वक्त पर न लाती तो पता नहीं क्या होता? तुम्हारे जाने के बाद हमें संभालने में शिखा ने कोई कसर नहीं छोड़ी.’’

पुनीत ने कृतज्ञता भरी नजरों से शिखा को देखा. वह सकुचाई सी एक कोने में खड़ी थी. उस का मासूम चेहरा देख कर पुनीत द्रवित हो उठा. उसे अपनी गलती का पछतावा होने लगा.

मां ने आगे कहा, ‘‘अपने मम्मीपापा के अचानक निधन के बाद शिखा बिलकुल अकेली हो गई थी. तब हमारा भी कोई सहारा नहीं था, तो हमारे कहने पर शिखा ने हमारे साथ रहने का निश्चय करते हुए कहा कि अब हम तीनों ही एकदूसरे का सहारा बनेंगे. तब से आज तक शिखा एक बेटे की तरह हमारी सेवा कर रही है.’’

पुनीत सिर झुकाए सुनता रहा.

मां थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोलीं, ‘‘तुम जिस अंधी दौड़ में भाग रहे थे उस का कोई अंत नहीं था… तृष्णा कभी खत्म नहीं होती, पर आज तुम अपनेआप को उस से मुक्त कर वापस आ गए हो. यह तुम्हारा ही घर है. अब तुम शिखा के साथ मिल कर अच्छी जिंदगी बिताओ. जाओ, उधर जा कर शिखा से मिलो. तुम्हारे पापा को डाक्टर ने अभी आराम करने के लिए कहा है, इसलिए उन से बाद में मिल लेना.’’

पुनीत हौले से उठा और शिखा के पास जा कर धीरे से उस का हाथ अपने हाथों में ले कर बोला, ‘‘शिखा, क्या तुम मुझे माफ कर के मेरे साथ नया जीवन शुरू कर सकती हो?’’

शिखा अपने स्वभाववश कुछ न कह सकी और न ही अपना हाथ छुड़ा सकी. पुनीत को उस की मौन सहमति मिल चुकी थी.

पुनीत ने अब शिखा का हाथ और भी मजबूती से पकड़ लिया था कभी न छोड़ने के लिए. उस ने महसूस किया कि जिस मृगतृष्णा की तलाश में वह यहांवहां भटक रहा था, वह मंजिल तो उस के बिलकुल पास थी.

घुटन : मैटरनिटी लीव के बाद क्या हुआ शुभि के साथ?

शुभि ने 5 महीने की अपनी बेटी सिया को गोद में ले कर खूब प्यारदुलार किया. उस के जन्म के बाद आज पहली बार औफिस जाते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा था पर औफिस तो जाना ही था. 6 महीने से छुट्टी पर ही थी.

मयंक ने शुभि को सिया को दुलारते देखा तो हंसते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘मन नहीं हो रहा है सिया को छोड़ कर जाने का.’’

‘‘हां, आई कैन अंडरस्टैंड पर सिया की चिंता मत करो. मम्मीपापा हैं न. रमा बाई भी है. सिया सब के साथ सेफ और खुश रहेगी, डौंट वरी. चलो, अब निकलते हैं.’’

शुभि के सासससुर दिनेश और लता ने भी सिया को निश्चिंत रहने के लिए कहा, ‘‘शुभि, आराम से जाओ. हम हैं न.’’

शुभि सिया को सास की गोद में दे कर फीकी सी हंसी हंस दी. सिया की टुकुरटुकुर देखती आंखें शुभि की आंखें नम कर गईं पर इस समय भावुक बनने से काम चलने वाला नहीं था. इसलिए तेजी से अपना बैग उठा कर मयंक के साथ बाहर निकल गई.

उन का घर नवी मुंबई में ही था. वहां से 8 किलोमीटर दूर वाशी में शुभि का औफिस था. मयंक ने उसे बसस्टैंड छोड़ा. रास्ते भर बस में शुभि कभी सिया के तो कभी औफिस के बारे में सोचती रही. अकसर बस में सीट नहीं मिलती थी. वह खड़ेखड़े ही कितने ही विचारों में डूबतीउतरती रही.

शुभि एक प्रसिद्ध सौंदर्य प्रसाधन की कंपनी में ऐक्सपोर्ट मैनेजर थी. अच्छी सैलरी थी. अपने कोमल स्वभाव के कारण औफिस और घर में उस का जीवन अब तक काफी सुखी और संतोषजनक था पर आज सिया के जन्म के बाद पहली बार औफिस आई थी तो दिल कुछ उदास सा था.

औफिस में आते ही शुभि ने इधरउधर नजरें डालीं, तो काफी नए चेहरे दिखे. पुराने लोगों ने उसे बधाई दी. फिर सब अपनेअपने काम में लग गए. शुभि जिस पद पर थी, उस पर काफी जिम्मेदारियां रहती थीं. हर प्रोडक्ट को अब तक वही अप्रूव करती थी.

शुभि की बौस शिल्पी उस की लगन, मेहनत से इतनी खुश, संतुष्ट रहती थी कि वह अपने भी आधे काम उसे सौंप देती थी, जिन्हें काम की शौकीन शुभि कभी करने से मना नहीं करती थी.

शिल्पी कई बार कहती थी, ‘‘शुभि, तुम न हो तो मैं अकेले इतना काम कर ही नहीं पाऊंगी. मैं तो तुम्हारे ऊपर हर काम छोड़ कर निश्चिंत हो जाती हूं.’’

शुभि को अपनी काबिलीयत पर गर्व सा हो उठता. नकचढ़ी बौस से तारीफ सुन मन खुश हो जाता था. शुभि उस के वे काम भी निबटाती रहती थी, जिन से उस का लेनादेना भी नहीं होता था.

औफिस पहुंचते ही शुभि ने अपने अंदर पहली सी ऊर्जा महसूस की. अपनी कार्यस्थली पर लौटते ही कर्तव्य की भावना से उत्साहित हो कर काम में लग गई. शिल्पी से मिल औपचारिक बातों के बाद उस ने अपने काम देखने शुरू कर दिए. 1 महीने बाद ही कोई नया प्रोडक्ट लौंच होने वाला था. शुभि उस के बारे में डिटेल्स लेने के लिए शिल्पी के पास गई तो उस ने सपाट शब्दों में कहा, ‘‘शुभि, एक नई लड़की आई है रोमा, उसे यह असाइनमैंट दे दिया है.’’

‘‘अरे, क्यों? मैं करती हूं न अब.’’

‘‘नहीं, तुम रहने दो. उस के लिए तो देर तक काम रहेगा. तुम्हें तो अब घर भागने की जल्दी रहा करेगी.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा नहीं है. काम तो करूंगी ही न.’’

‘‘नहीं, तुम रहने दो.’’

शुभि के अंदर कुछ टूट सा गया. सोचने लगी कि वह तो हर प्रोडक्ट के साथ रातदिन एक करती रही है. अब क्यों नहीं संभाल पाएगी यह काम? सिया के लिए घर टाइम पर पहुंचेगी पर काम भी तो उस की मानसिक संतुष्टि के लिए माने रखता है. पर वह कुछ नहीं बोली. मन कुछ उचाट सा ही रहा.

शुभि ने इधरउधर नजरें दौड़ाईं. अचानक कपिल का ध्यान आया कि कहां है. सुबह से दिखाई नहीं दिया. उसे याद करते ही शुभि को मन ही मन हंसी आ गई. दिलफेंक कपिल हर समय उस से फ्लर्टिंग करता था. शुभि को भी इस में मजा आता था. वह मैरिड थी, फिर प्रैगनैंट भी थी. तब भी कपिल उस के आगेपीछे घूमता था. कपिल उसे सीधे लंचटाइम में ही दिखा. आज वह लंच ले कर नहीं आई थी. सोचा था कैंटीन में खा लेगी. कल से लाएगी. कैंटीन की तरफ जाते हुए उसे कपिल दिखा, तो आवाज दी, ‘‘कपिल.’’

‘‘अरे, तुम? कैसी हो?’’

‘‘मैं ठीक हूं, सुबह से दिखे नहीं?’’

‘‘हां, फील्ड में था, अभी आया.’’

‘‘और सुनाओ क्या हाल है?’’

‘‘सब बढि़या, तुम्हारी बेटी कैसी है?’’

‘‘अच्छी है. चलो, लंच करते हैं.’’

‘‘हां, तुम चल कर शुरू करो, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर कपिल एक ओर चला गया.

शुभि को कुछ अजीब सा लगा कि क्या यह वही कपिल है? इतना फौरमल? इस तरह तो उस ने कभी बात नहीं की थी? फिर शुभि पुराने सहयोगियों के साथ लंच करने लगी. इतने दिनों के किस्से, बातें सुन रही थी. कपिल पर नजर डाली. नए लोगों में ठहाके लगाते दिखा, तो वह एक ठंडी सांस ले कर रह गई. सास से फोन पर सिया के हालचाल ले कर वह फिर अपने काम में लग गई.

शाम 6 बजे शुभि औफिस से बसस्टैंड चल पड़ी. पहले तो शायद ही वह कभी 6 बजे निकली हो. काम ही खत्म नहीं होता था. आज कुछ काम भी खास नहीं था. वह रास्ते भर बहुत सारी बातों पर मनन करती रही… आज इतने महीनों बाद औफिस आई, मन क्यों नहीं लगा? शायद पहली बार सिया को छोड़ कर आने के कारण या औफिस में कुछ अलगअलग महसूस करने के कारण. आज याद आ रहा था कि वह पहले कपिल के साथ फ्लर्टिंग खूब ऐंजौय करती थी, बढि़या टाइमपास होता था. उसे तो लग रहा था कपिल उसे इतने दिनों बाद देखेगा, तो खूब बातें करेगा, खूब डायलौगबाजी करेगा, उसे काम ही नहीं करने देगा. इन 6 महीनों की छुट्टियों में कपिल ने शुरू में तो उसे फोन किए थे पर बाद में वह उस के हायहैलो के मैसेज के जवाब में भी देर करने लगा था. फिर वह भी सिया में व्यस्त हो गई थी. नए प्रोडक्ट में उसे काफी रुचि थी पर अब वह क्या कर सकती थी, शिल्पी से तो उलझना बेकार था.

घर पहुंच कर देखा सिया को संभालने में सास और ससुर की हालत खराब थी. वह भी पहली बार मां से पूरा दिन दूर रही थी. शुभि ने जैसे ही सिया कहा, सिया शुभि की ओर लपकी तो वह, ‘‘बस, अभी आई,’’ कह जल्दीजल्दी हाथमुंह धो सिया को कलेजे से लगा लिया. अपने बैडरूम में आ कर सिया को चिपकाएचिपकाए ही बैड पर लेट गई. न जाने क्यों आंखों की कोरों से नमी बह चली.

‘‘कैसा रहा दिन?’’ सास कमरे में आईं तो शुभि ने पूछा, ‘‘सिया ने ज्यादा परेशान तो  नहीं किया?’’

‘‘थोड़ीबहुत रोती रही, धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी उसे भी, तुम्हें भी और हमें भी. तुम्हारा औफिस जाना भी तो जरूरी है.’’

अब तक मयंक भी आ गया था. रमा बाई रोज की तरह डिनर बना कर चली गई थी. खाना सब ने साथ ही खाया. सिया ने फिर शुभि को 1 मिनट के लिए भी नहीं छोड़ा.

मयंक ने पूछा, ‘‘शुभि, आज बहुत दिनों बाद गई थी, दिन कैसा रहा?’’

‘‘काफी बदलाबदला माहौल दिखा. काफी नए लोग आए हैं. पता नहीं क्यों मन नहीं लगा आज?’’

‘‘हां, सिया में ध्यान रहा होगा. खैर, धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी.’’

अगले 10-15 दिनों में औफिस में जो भी बदलाव शुभि ने महसूस किए, उन से उस का मानसिक तनाव बढ़ने लगा. शिल्पी 35 साल की चिड़चिड़ी महिला थी. उस का पति बैंगलुरु में रहता था. मुंबई में वह अकेली रहती थी. उसे घर जाने की कोई जल्दी नहीं होती थी. 15 दिन, महीने में वीकैंड पर उस का पति आता रहता था. उस की आदत थी शाम 7 बजे के आसपास मीटिंग रखने की. अचानक 6 बजे उसे याद आता था कि सब से जरूरी बातें डिस्कस करनी हैं.

शुभि को अपने काम से बेहद प्यार था. वह कभी देर होने पर भी शिकायत नहीं करती थी. मध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी शुभि ने यहां पहुंचने तक बड़ी मेहनत की थी. 6 बजे के आसपास जब शुभि ने अपनी नई सहयोगी हेमा से पूछा कि घर चलें तो उस ने कहा, ‘‘मीटिंग है न अभी.’’

शुभि चौंकी, ‘‘मीटिंग? कौन सी? मुझे तो पता ही नहीं?’’

‘‘शिल्पी ने बुलाया है न. उसे खुद तो घर जाने की जल्दी होती नहीं, पर दूसरों के तो परिवार हैं, पर उसे कहां इस बात से मतलब है.’’ शुभि हैरान सी ‘हां, हूं’ करती रही. फिर जब उस से रहा नहीं गया तो शिल्पी के पास जा पहुंची. बोली, ‘‘मैम, मुझे तो मीटिंग के बारे में पता ही नहीं था… क्या डिस्कस करना है? कुछ तैयारी कर लूं?’’

‘‘नहीं, तुम रहने दो. एक नए असाइनमैंट पर काम करना है.’’

‘‘मैं रुकूं?’’

‘‘नहीं, तुम जाओ,’’ कह कर शिल्पी लैपटौप पर व्यस्त हो गई.

शुभि उपेक्षित, अपमानित सी घर लौट आई. उस का मूड बहुत खराब था. डिनर करते हुए उस ने अपने मन का दुख सब से बांटना चाहा. बोली, ‘‘मयंक, पता है जब से औफिस दोबारा जौइन किया है, अच्छा नहीं लग रहा है. लेट मीटिंग में मेरे रहने की अब कोई जरूरत ही नहीं होती… कहां पहले मेरे बिना शिल्पी मीटिंग रखती ही नहीं थी. मुझे कोई नया असाइनमैंट दिया ही नहीं जा रहा है.’’

फिर थोड़ी देर रुक कर कपिल का नाम लिए बिना शुभि ने आगे कहा, ‘‘जो मेरे आगेपीछे घूमते थे, वे अब बहुत फौरमल हो गए हैं. मन ही नहीं लग रहा है… सिया के जन्म के बाद मैं ने जैसे औफिस जा कर कोई गलती कर दी हो. आजकल औफिस में दम घुटता है मेरा.’’

मयंक समझाने लगा, ‘‘टेक इट ईजी, शुभि. ऐसे ही लग रहा होगा तुम्हें… जौब तो करना ही है न?’’

‘‘नहीं, मेरा तो मन ही नहीं कर रहा है औफिस जाने का.’’

‘‘अरे, पर जाना तो पड़ेगा ही.’’

 

सास खुद को बोलने से नहीं रोक पाईं. बोलीं, ‘‘बेटा, घर के इतने खर्चे हैं. दोनों कमाते हैं तो अच्छी तरह चल जाता है. हर आराम है. अकेले मयंक के ऊपर होगा तो दिक्कतें बढ़ जाएंगी.’’

शुभि फिर चुप हो गई. वह यह तो जानती ही थी कि उस की मोटी तनख्वाह से घर के कई काम पूरे होते हैं. अपने पैरों पर खड़े होने को वह भी अच्छा मानती है पर अब औफिस में अच्छा नहीं लग रहा है. उस का मन कर रहा है कुछ दिन ब्रेक ले ले. सिया के साथ रहे, पर ब्रेक लेने पर ही तो सब बदला सा है. दिनेश, लता और मयंक बहुत देर तक उसे पता नहीं क्याक्या समझाते रहे. उस ने कुछ सुना, कुछ अनसुना कर दिया. स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करती रही.

कुछ महीने और बीते. सिया 9 महीने की हो गई थी. बहुत प्यारी और शांत बच्ची थी. शाम को शुभि के आते ही उस से लिपट जाती. फिर उसे नहीं छोड़ती जैसे दिन भर की कमी पूरी करना चाहती हो.

शुभि को औफिस में अपने काम से अब संतुष्टि नहीं थी. शिल्पी तो अब उसे जिम्मेदारी का कोई काम सौंप ही नहीं रही थी. 6 महीनों के बाद औफिस आना इतना जटिल क्यों हो गया? क्या गलत हुआ था? क्या मातृत्व अवकाश पर जा कर उस ने कोई गलती की थी? यह तो हक था उस का, फिर किसी को उस की अब जरूरत क्यों नहीं है?

ऊपर से कपिल की बेरुखी, उपेक्षा मन को और ज्यादा आहत कर रही थी. 1 बच्ची की मां बनते ही कपिल के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर देख कर शुभि बहुत दुखी हो जाती. कपिल तो जैसे अब कोई और ही कपिल था. थोड़ीबहुत काम की बात होती तो पूरी औपचारिकता से करता और चला जाता. दिन भर उस के रोमांटिक डायलौग, फ्लर्टिंग, जिसे वह ऐंजौय करती थी, कहां चली गई थी. कितना सूना, उदास सा दिन औफिस में बिता कर वह कितनी थकी सी घर लौटने लगी थी.

अपने पद, अपनी योग्यता के अनुसार काम न मिलने पर वह रातदिन मानसिक तनाव का शिकार रहने लगी थी. उस के मन की घुटन बढ़ती जा रही थी. शुभि ने घर पर सब को बारबार अपनी मनोदशा बताई पर कोई उस की बात समझ नहीं पा रहा था. सब उसे ही समझाने लगते तो वह वहीं विषय बदल देती.

औफिस में अपने प्रति बदले व्यवहार से यह घुटन, मानसिक तनाव एक दिन इतना बढ़ गया कि उस ने त्यागपत्र दे दिया. वह हैरान हुई जब किसी ने इस बात को गंभीरतापूर्वक लिया ही नहीं. औफिस से बाहर निकल कर उस ने जैसे खुली हवा में सांस ली.

सोचा, थोड़े दिनों बाद कहीं और अप्लाई करेगी. इतने कौंटैक्ट्स हैं… कहीं न कहीं तो जौब मिल ही जाएगी. फिलहाल सिया के साथ रहेगी. जहां इतने साल रातदिन इतनी मेहनत की, वहां मां बनते ही सब ने इतना इग्नोर किया… उस में प्रतिभा है, मेहनती है वह, जल्द ही दूसरी जौब ढूंढ़ लेगी.

उस शाम बहुत दिनों बाद मन हलका हुआ. घर आते हुए सिया के लिए कुछ खिलौने

खरीदे. घर में घुसते ही सिया पास आने के लिए लपकी. अपनी कोमल सी गुडि़या को गोद में लेते ही मन खुश हो गया. डिनर करते हुए ही

उस ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने आज रिजाइन कर दिया.’’

सब को करंट सा लगा. सब एकसाथ बोले, ‘‘क्यों?’’

‘‘मैं इतनी टैंशन सह नहीं पा रही थी. थोड़े दिनों बाद दूसरी जौब ढूंढ़ूगी. अब इस औफिस में मेरा मन नहीं लग रहा था.’’

मयंक झुंझला पड़ा, ‘‘यह क्या बेवकूफी की… औफिस में मन लगाने जाती थी या काम करने?’’

‘‘काम ही करने जाती थी पर मेरी योग्यता के हिसाब से अब कोई मुझे काम ही नहीं दे रहा था… मानसिक संतुष्टि नहीं थी… मैं अब अपने काम से खुश नहीं थी.’’

‘‘दूसरी जौब मिलने पर रिजाइन करती?’’

‘‘कुछ दिन बाद ढूंढ़ लूंगी. मेरे पास योग्यता है, अनुभव है.’’

सास ने चिढ़ कर कहा, ‘‘क्या गारंटी है तुम्हारा दूसरे औफिस में मन लगेगा? मन न लगने पर नौकरी छोड़ी जाती है कहीं? अब एक की कमाई पर कितनों के खर्च संभलेंगे… यह क्या किया? थोड़ा धैर्य रखा होता?’’

ससुर ने भी कहा, ‘‘जब तक दूसरी जौब नहीं मिलेगी, मतलब एक ही सैलरी में घर चलेगा. बड़ी मुश्किल होगी… इतने खर्चे हैं… कैसे होगा?’’

शुभि सिया को गोद में बैठाए तीनों का मुंह देखती रह गई. उस के तनमन की पीड़ा से दूर तीनों अतिरिक्त आय बंद होने का अफसोस मनाए जा रहे थे. अब? मन की घुटन तो पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई थी.

दूसरा कदम: रिश्तों के बीच जब आ जाएं रुपए-पैसों

कैसा जमाना आ गया है. यदि कोई प्यार से मिलता है और बारबार मिलना चाहता है तो पता नहीं क्यों हमारी छठी इंद्री हमें यह संकेत देने लगती है कि सामने वाले पर शक किया जाए. यह इंसान क्यों मिलता है? और फिर इतने प्यार से मिलता है कि शक तो होगा ही. वैसे हमारे पास ऐसा है ही क्या जिस पर किसी की नजर हो. एक मध्यमवर्गीय परिवार के पास ऐसी कोई दौलत नहीं हो सकती जिसे कोई चुरा ले जाए. बस, किसी तरह चादर में पैर समेटे अपना जीवन और उस की जरूरतें पूरी कर लेता है एक आम मध्यमवर्गीय मानस. पार्क में सुबह टहलने जाता हूं तो एक 26-27 साल का लड़का हर दिन मिलता है. जौगिंग करता आता है और पास आ कर यों देखने लगता है मानो मेरा ही इंतजार था उसे.

‘‘कैसे हैं आप, कल आप आए नहीं? मैं इंतजार करता रहा.’’

‘‘क्यों?’’ सहसा मुंह से निकल गया और साथ ही अपने शब्दों की कठोरता पर स्वयं ही क्रोध भी आया मुझे.

‘‘नहीं, कोई खास काम भी नहीं था. हां, रोज आप को देखता हूं न. आप अच्छे लगते हैं और सच कहूं तो आप को देख कर दिन अच्छा बीत जाता है.’’

वह भी अपने ही शब्दों पर जरा सा झेंप गया था.

पार्क से आने के बाद पत्नी से बात की तो कहने लगी, ‘‘आप बैंक में ऊंचे पद पर काम करते हैं. कोई कर्जवर्ज उसे लेना होगा इसीलिए जानपहचान बढ़ाना चाहता होगा.’’

‘‘हो सकता है कोई वजह होगी. ऐसा भी होता है क्या कि किसी का चेहरा देख कर दिन अच्छा बीते. अजीब लगता है मुझे उस का व्यवहार. बेकार की चापलूसी.’’

‘‘आप को देख कर कोई खुश होता है तो इस से भला आप को क्या तकलीफ है,’’ पत्नी बोली, ‘‘आप की सूरत देख कर उस का दिन अच्छा निकलता है तो इस का मतलब आप की सूरत किसी की खुशी का कारण है.’’

‘‘हद हो गई, तुम भी ऐसी ही सिरफिरी बातें करने लगी हो.’’

‘‘कई बातें हर तर्कवितर्क से परे होती हैं श्रीमान. बिना वजह आप उसे अच्छे लगते हैं. अगर बिना वजह बुरे लगने लगते तो आप क्या कर लेते. घटना को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिए. बिना वजह प्यार से कैसा डर. अच्छी बात है. आप भी उस से दोस्ती कर लीजिए… घर बुलाइए उसे. हमारे बच्चे जैसा ही होगा.’’

‘‘इतना भी छोटा नहीं लगता. हमारे बच्चों से तो उम्र में बड़ा ही है. चलो, छोड़ो किस बखेड़े में पड़ गईं तुम भी.’’

मैं ने पत्नी को टालने का उपक्रम किया, लेकिन पत्नी की बातों की गहराई को पूरी तरह नकार कहां पाया. सच कहती है मेरी पत्नी शुभा. मनोविज्ञान की प्राध्यापिका है न, हर बात को मनोविज्ञान की कसौटी पर ही तोलना उस की आदत है. कहीं न कहीं कुछ तो सच होगा जिसे हम सिर्फ महसूस ही कर पाते हैं.

सच में वह लड़का मुझे देख कर इतना खुश होता है कि उस की आंखों में ठहरा पानी हिलने लगता है. मानो पलकपांवड़े बिछाए वह बस मुझे ही देख लेना चाहता हो. ज्यादा बात नहीं करता. बस, हालचाल पूछ कर चुपचाप लौट जाता है, लेकिन उस का आनाजाना भी धीरेधीरे बहुत अच्छा लगने लगा है. मैं भी जैसे ही पार्क में पैर रखता हूं, मेरी नजरें भी उसे ढूंढ़ने लगती हैं. दूर से ही हाथ हिला कर हंस देना मेरी और उस की दोनों की ही आदत सी बन गई है. शब्दों के बिना हमारे हावभाव बात करते हैं, आंखें बात करती हैं, जिन में अनकहा सा स्नेह और अपनत्व महसूस होने लगा है. एक अनकहा संदेश जो सिर्फ इतना सा है कि आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. शुभा अकसर मुझे समझाती रहती है,

‘‘चिंता करना अच्छी बात है,

क्योंकि अगर हमें हर काम ठीक ढंग से करना है तो जरा सी चिंता करना जरूरी है, इतनी जितनी हम सब्जी में हींग डालते हैं. आप तो इतनी चिंता करते हो जितनी चाय में दूध, पत्ती और चीनी.’’

‘‘तुम्हारे कहने का अर्थ मैं यह निकालूं कि मैं काम कम और चिंता ज्यादा करता हूं. शौक है मुझे चिंता करने का.’’

‘‘जी हां, चिंता को ओढ़ लेना आप को अच्छा लगता है जबकि सच यह है कि जिस काम की आप चिंता कर रहे होते हैं वह चिंता लायक होता ही नहीं. अब कोई प्यार से मिल रहा है तो उस की भी चिंता. जरा सोचिए, इस की कैसी चिंता.’’

मेरी सैर अभी शुरू ही होती थी और उस की समाप्त हो जाती. पार्क के बाहर खड़ी साइकिल उठा कर वह हाथ हिलाता हुआ चला जाता. जहां तक मुझे इंसान की पहचान है, इतना कह सकता हूं कि वह अच्छे घर का लगता है.

मेरे दोनों बेटे बेंगलुरु में पढ़ाई करते हैं. उन के बिना घर खालीखाली लगता है और अकसर उसे देख कर उन की याद आती है. एक सुबह पार्क में सैर करना अभी शुरू ही किया था कि पता नहीं चला कैसे पैर में मोच आ गई. वह मुझे संभालने के लिए बिजली की गति से चला आया था.

‘‘क्या हुआ सर? जरा संभल कर. आइए, यहां बैठ जाइए.’’

उस बच्चे ने मुझे बिठा कर मेरा पैर सीधा किया. थोड़ी देर दबाता रहा.

‘‘आज सैर रहने दीजिए. चलिए, आप को आप के घर छोड़ आऊं.’’

संयोग ऐसा बन जाएगा किस ने सोचा था. पैर में मोच का आना उसे हमारे घर तक ले आया. शुभा हम दोनों को देख कर पहले तो घबराई फिर सदा की तरह सहज भाव में बोली, ‘‘हर पीड़ा के पीछे कोई खुशी होती है. मोच आई तो तुम भी हमारे घर पर आए. रोज तुम्हारी बातें करते हैं हम,’’ मुझे बिठाते हुए शुभा ने बात शुरू की तो वह भी हंस पड़ा.

बातों से पता चला कि वह भी जम्मू का रहने वाला है. हमारे बीच बातों का सिलसिला चला तो दूर तक…हमारे घर तक…हमारे अपने परिवार तक. हमारा परिवार जिस से आज मेरा कोई वास्ता नहीं है. मैं आज दिल्ली में रह रहा हूं.

‘‘जम्मू में आप का घर किस महल्ले में है, सर?’’

मैं बात को टालना चाहता था. मेरी एक दुखती रग है मेरा घर, मेरा जम्मू वाला घर, जिस पर अनायास उस का हाथ जो पड़ गया था. बड़े भाई को लगता था मैं उन का हिस्सा खा जाऊंगा और मुझे लगता था घर में मेरी बातबात पर बेइज्जती होती है. जब भी मैं घर जाता था मेरी मां को भी ऐसा ही लगता था कि शायद मैं अपना हिस्सा ही मांगने चला आया हूं. हम जब भी घर जाते तो मां शुभा पर यों बरस पड़ती थीं मानो सारा दोष उस का ही हो. मेहमान की तरह साल में हमारा 4 दिन जम्मू जाना भी उन्हें भारी लगता. भाईसाहब से मिले सालों बीत चुके हैं. उन का बड़ा लड़का सुना है मुंबई में किसी कंपनी में काम करता है और लड़की की शादी हो गई. किसी ने बुलाया नहीं. हम गए नहीं. जम्मू में है कौन जिस का नाम लूं अब.

‘‘सर, जम्मू में आप का घर कहां है? आप के भाईबहन तो होंगे न? क्या आप उन के पास भी नहीं जाते?’’

‘‘नहीं जाते बेटा, ऐसा है न… कभीकभी कुछ सह लेने की ताकत ही नहीं रहती. जब लगा घर जा कर न घर वालों को सुख दे पाऊंगा न अपनेआप को, तब जाना ही छोड़ दिया. मैं भी खुश और घर वाले भी खुश…

‘‘…अब तो मुझे किसी की सूरत भी याद नहीं. भाईसाहब के बच्चे सड़क पर ही मिल जाएं तो मैं पहचान भी नहीं सकता. उन के नाम तक नहीं मालूम. जम्मू का नाम भी मैं लेना नहीं चाहता. तकलीफ सी होती है. तुम जम्मू से हो शायद इसीलिए अपने से लगते हो. मिट्टी का रिश्ता है इसीलिए तुम्हें मैं अच्छा लगा और मुझे तुम.’’

‘‘आप के बच्चे कहां हैं?’’ वह बोला.

‘‘2 जुड़वां बेटे हैं. दोनों बेंगलुरु में एमबीए कर रहे हैं. इस साल वे पढ़ाई पूरी कर लेंगे. देखते हैं नौकरी कहां मिलती है.’’

‘‘तुम कहां रहते हो बेटा? क्या काम करते हो?’’

‘‘मैं भी एमबीए हूं. अभी कुछ दिन पहले ही मुंबई से ट्रांसफर हो कर दिल्ली आया हूं, राजौरी गार्डन में हमारी कंपनी का गैस्टहाउस है. 3 महीने का प्रोजैक्ट है मेरा.’’

‘‘मेरे बड़े भाई का बेटा भी वहीं है. अब क्या नाम है यह तो पता नहीं पर बचपन में उसे वीनू कहा करते थे.’’

‘‘आप उस की कंपनी का पता और नाम बता दें.’’

‘‘इतना सब पता किसे है. अपना ही बच्चा है पर मैं उसे पहचान भी नहीं सकता. अफसोस होता है मुझे कि हम अपने बच्चों को क्या विरासत दे कर जाएंगे. मेरे दोनों बेटे अपने उस भाई को नहीं पहचानते. बहन की सूरत कैसी है, नहीं पता. आज हम अपने पड़ोसी की परवा नहीं करेंगे तो कल वह भी मेरे काम नहीं आएगा. इस हाथ दे उस हाथ ले की तर्ज पर बड़ा अच्छा निबाह कर लेते हैं क्योंकि हमारी हार्दिक इच्छा होती है उस से निभाने की. दोस्त के साथ भी हमारा साथ लंबा चलता है.

‘‘एक भाई के साथ ही झगड़ा, भाई प्यार भी करे तो दुश्मन लगे. भाई की हमदर्दी भी शक के घेरे में, भाई का ईमान भी धोखा. सिर्फ इसलिए कि वह जमीनजायदाद में हिस्सेदार होता है.’’

‘‘आप फिर से वही सब ले कर बैठ गए,’’ शुभा बोली, ‘‘भाई की बेटी की शादी में न जाने का फैसला तो आप का ही था न.’’

‘‘भाई ने बुलाया नहीं. मैं ने फोन पर बात करनी चाही तो भी जलीकटी सुना दी. क्या करने जाता वहां.’’

‘‘चलो, अब छोड़ो इस किस्से को.’’

‘‘यही तो समस्या है आप लोगों की कि किसी भी समस्या को सुलझा लेना तो आप चाहते ही नहीं हैं. हाथ पकड़ कर भाई से पूछते तो सही कि क्यों नाराज हैं? क्या बिगाड़ा है आप ने उन का? अपनाअपना खानापीना, दूरदूर रहना, न कुछ लेना न कुछ देना फिर भी नाराजगी,’’ इतना कह कर वह लड़का बारीबारी से हम दोनों का चेहरा पढ़ रहा था.

‘‘अब टैंशन ले कर मत बैठ जाना,’’ शुभा बोली थी.

‘‘कोई तमाशा न हो इसीलिए तो जम्मू को छोड़ दिया. मेरी इच्छा तमाशा करने की कभी नहीं रही.’’

शुभा ने किसी तरह बात को टालने का प्रयास किया, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है, बेटा?’’

वह लड़का एकटक हमें निहार रहा था. आंखों में झिलमिल करता पानी जैसे लबालब कटोरों में से छलकने ही वाला हो.

‘‘चाची, मेरा नाम आज भी वीनू ही है. मैं सोनूमोनू का बड़ा भाई हूं. मैं आप का अपना ही हूं. आप के घर का झगड़ा सिर्फ आप के घर का झगड़ा नहीं है. मेरे घर का भी है.’’

ऐसा लगा मानो पवन का ठंडा झोंका हमारे घर में चला आया और हर कोने में समा गया.

‘‘आप हार गए चाचू, इतने दिन से मुझे देख रहे हैं, पर अपना खून आप से पहचाना नहीं गया. सच कहा आप ने अभीअभी. यह कैसी विरासत दे कर जा रहे हैं आप सोनूमोनू को और मुझे. मेरी तो यही कामना है कि पापा और आप लाख वर्ष जिएं, लेकिन जिस दिन आप की अरथी उठानी पड़ी सोनूमोनू तो 2 भाई हैं किसी तरह उठा कर श्मशान तक ले ही जाएंगे पर ऐसी स्थिति में मैं अकेला क्या करूंगा, चाचू. कैसे मैं अकेला पापा की अरथी को खींच पाऊंगा. क्या करूंगा? ये कैसे बीज बो दिए हैं हमारे बुजुर्गों ने जिस की फसल हमें काटनी पड़ेगी.’’

फफकफफक कर रोने लगा वह लड़का. शुभा और मैं यों खड़े थे मानो पैरों के नीचे जमीन ही नहीं रही. विश्वास नहीं हो रहा था हमें कि 6 फुट का यह लंबाचौड़ा प्यारा सा नौजवान मेरा ही खून है जिसे मैं पहचान ही नहीं पाया.

बचपन में यह मुझे घोड़ा बना कर मेरी सवारी किया करता था. आज वास्तव में यह दावा कर सकता है कि मेरा खून भी उस के पिता के खून की तरह सफेद हो चुका है. अगर मेरा खून लाल होता तो मैं अपने बच्चे को पहचान नहीं जाता.

शुभा ने हाथ बढ़ाया तो वीनू उस की गोद में समा कर यों रोने लगा मानो अभी भी 4-5 साल का ही हो. हमारे बच्चे तो शादी के 5 साल बाद जन्मे थे, तब तक वीनू ही तो शुभा का खिलौना था.

‘‘चाची, आप ने भी नहीं पहचाना.’’

क्या कहती शुभा. वीनू का माथा बारबार चूमते हुए उस के आंसू पोंछती रही. क्या उत्तर है शुभा के पास और क्या उत्तर है मेरे पास. जम्मू में 4 कमरों का एक छोटा सा हमारा घर है, जिस पर मैं ने अपना अधिकार छोड़ दिया था और भाई ने उसे कस कर पकड़ लिया था. सोचा जाए तो उस के बाद क्या हुआ. क्या मैं सुखी हो पाया? या भाईसाहब खुश रहे. हाथ तो कुछ नहीं आया. हां, बच्चे जरूर दूरदूर हो गए जो आज हम से प्रश्न कर रहे हैं. सच ही तो पूछ रहे हैं. मकान में कुछ हजार का हिस्सा छोड़ कर क्याक्या छोड़ दिया. लाखोंकरोड़ों से भी महंगा हमारा रिश्ता, हमारा पारिवारिक स्नेह.

पास जा कर मैं ने उसे थपथपाया. देर तक हमारे गिलेशिकवों और शिकायतों का दौर चला. ऐसा लगा सारा संताप चला गया. शुभा ने वीनू की पसंद का नाश्ता बनाया. हमारे घर ही नहायाधोया वीनू और मेरा पाजामाकुरता पहना.

‘‘चाचू, देखो, मैं बड़ा हो गया हूं और आप छोटे,’’ कुरतापाजामा पहन वीनू हंसने लगा.

‘‘बच्चे समझदार हो जाएं तो मांबाप को छोटा बन कर भी खुशी होती है. मेरा तो यह सोचना है कि बेटा अगर कपूत है तो क्यों उस के लिए बचाबचा कर रखना और घर जायदाद को भी किसी के साथ न बांटना. अगर भाईसाहब से मैं ने कुछ नहीं मांगा तो क्या आज सड़क पर बैठा हूं? अपना घर है न मेरा. सोनूमोनू भी अपनाअपना घर बना ही लेंगे, जितनी उन की सामर्थ्य होगी. मैं ने उन्हें भी समझा दिया है. पीछे मुड़ कर मत देखना कि पिता के पास क्या है?

‘‘पिता की दो कौडि़यों के लिए अपना रिश्ता कभी कड़वा मत करना. रुपयों का क्या है, आज इस हाथ कल उस हाथ. जो चीज एक जगह कभी टिकती ही नहीं उस के लिए अपने रिश्तों की बलि दे देना कोरी मूर्खता है. अपनों को छोड़ कर भी हम उन्हें छोड़ पाते हैं ऐसा तो कभी नहीं होता. उन की बुराई ही करने के बहाने हम उन का नाम तो दिनरात जपते हैं. कहां भूला जाता है अपना भाई, अपनी बहन और अपना रूठा रिश्ता. रिश्ते को खोना भी कोई नहीं चाहता और रिश्ते को बचाने के लिए मेहनत भी कोई नहीं करता.’’

मेरे पास आ कर बैठ गया था वीनू. अपलक मुझे निहारने लगा. शुभा का हाथ भी कस कर पकड़ रखा था वीनू ने.

‘‘चाची, अगले महीने मेरी शादी है. आप दोनों के बिना तो होगी नहीं. सोनू व मोनू से भी बात कर चुका हूं मैं, अगले महीने उन के फाइनल हो जाएंगे. यह मैं जानता हूं. शादी उस के बाद ही होगी. अपने भाइयों के बिना क्या मैं अधूरा दूल्हा नहीं लगूंगा.’’

एक और सत्य पर से परदा उठाया वीनू ने. खुशी के मारे हम दोनों की आंखों से आंसू निकल आए. वीनू की आंखें भी भीगी थीं. रोतेरोते हंस पड़ा मैं. भाई साहब द्वारा की गई सारी बेरुखी शून्य में कहीं खो सी गई.

वीनू को कस कर गले से लगा लिया मैं ने. रिश्तों को बचाने के लिए और कितनी मेहनत करेगा यह बच्चा. ताली तो दोनों हाथों से बजती है न. बच्चों के साथ हमें भी तो दूसरा कदम उठाना चाहिए.

वहम: क्या कोई राज छिपा रही थी शैलजा?

सागर का शिप बैंकौक से मुंबई के लिए सेल करने को तैयार था. वह इंजनरूम में अपनी शिफ्ट में था. उस का शिप मुंबई से बैंकौक, सिंगापुर, हौंगकौंग होते हुए टोक्यो जाता था. वापसी में वह बैंकौक तक आ गया था. तभी शिप के ब्रिज (इसे कंट्रोलरूम कह सकते हैं) से आदेश आया रैडी टु सेल.  सागर ने शक्तिशाली एअर कंप्रैसर स्टार्ट कर दिया. जैसे ही ब्रिज से आदेश मिला ‘डैड स्लो अहेड’ उस ने इंजन में कंप्रैस्ड एअर और तेल छोड़ा और जहाज बैंकौक पोर्ट से निकल पड़ा. फिर ऊपर ब्रिज से जैसा आदेश मिलता, जहाज स्लो या फास्ट स्पीड से चलता गया. आधे घंटे के अंदर ही जहाज हाई सी में था. तब और्डर मिला ‘फुल अहेड.’

अब शिप अपनी पूरी गति से सागर की लहरों को चीरता हुआ मुंबई की ओर बढ़ रहा था. सागर निश्चिंत था, क्योंकि सिर्फ 3 हजार नौटिकल मील का सफर रह गया था. लगभग  1 सप्ताह के अंदर वह मुंबई पहुंचने वाला था. उसे मुंबई छोड़े 4 महीने हो चुके थे.

अपनी 4 घंटे की शिफ्ट खत्म कर सागर अपने कैबिन में सोफे पर आराम कर रहा था. मन बहलाने के लिए उस ने फिल्म ‘रुस्तम’ की सीडी अपने लैपटौप में लगा दी. इस फिल्म को वह पूरा देख भी नहीं सका था. उस का मन बहुत बेचैन था. ‘रुस्तम’ से पहले भी उस ने एक पुरानी फिल्म ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ देखी थी. दोनों की स्टोरी लगभग एक ही थी, जिस में दिखाया गया था कि जब मर्चेंट नेवी का अफसर लंबी यात्रा पर जाता है, तो उस की पत्नी को मौजमस्ती करने का भरपूर मौका मिलता है.  उस के मन में भी शंका हुई कि कहीं उस की पत्नी शैलजा भी ऐसा ही कुछ करती हो. हालांकि तुरंत उस ने मन से यह डर भगाया, क्योंकि शैलजा उसे बहुत प्यार करती थी. पूरी यात्रा में जब भी तट पर होता वह फोन पर उस से कहा करती कि जल्दी लौट आओ, तुम्हें बहुत मिस कर रही हूं. मम्मी भी इलाहाबाद अपने मायके चली गई हैं.

सागर को शादी के 3 महीने के अंदर ही टोक्यो जाना पड़ा था. उस की पत्नी मुंबई में ही एक अपार्टमैंट में रहती थी. बीचबीच में सागर की मां इलाहाबाद से आ कर रहती थीं. उस की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उस ने अपार्टमैंट के दरवाजे पर एक ‘रिंग डोरबैल’ लगा दी थी. इस में एक सैंसर और कैमरा लगा होता है, जो वाईफाई द्वारा अलगअलग चुनिंदा सैल फोन ऐप्स से जुड़ा होता है.

दरवाजे पर कोई भी हरकत होने से या कौलबैल बजने से दरवाजे के बाहर का दृश्य सैल फोन पर देख सकते हैं. इतना ही नहीं टौक बटन दबाने से बाहर खड़े व्यक्ति से बात भी कर सकते हैं. सागर ने पत्नी शैलजा और मां के फोन के अतिरिक्त मुंबई में एक रिश्तेदार के सैल फोन से इस डोरबैल को कनैक्ट कर रखा था.  सागर की पत्नी शैलजा कुछ पार्टटाइम काम करती थी. बाकी टाइम घर में ही रहती थी. कभीकभी बोर हो जाती थी. हालांकि उस की सास से काफी पटती थी पर सभी बातें तो उन से वह शेयर नहीं कर सकती थी और वैसे फिर आजकल वे भी नहीं थीं. सागर ने शैलजा को मुंबई पहुंचने का अनुमानित समय बता दिया था. फ्लैट की एक चाबी सागर के पास होती थी.  शिप अब आधी दूरी तय कर भारतीय समुद्र सीमा में था. सागर 3 दिन से कुछ कम  ही समय में मुंबई पहुंचने वाला था. इधर शिप बंगाल की खाड़ी की लहरों पर हिचकोले खा रहा था उधर उस का मन भी शैलजा से मिलने की आस में बेचैन था. वह कैबिन में आराम कर रहा था कि दरवाजा खटखटा कर उस का सहकर्मी अंदर आया. बोला, ‘‘यार तुम ने ‘रुस्तम’ देख ली हो तो सीडी मुझे देना.’’

दोस्त तो सीडी ले कर चला गया पर एक बार फिर सागर का मन शंकित हो उठा कि कहीं उस की पत्नी भी किसी गैर की बांहों में न पड़ी हो. बहरहाल, उस ने मन को समझाया कि यह मात्र वहम है. मेरी शैलजा वैसी नहीं हो सकती है जैसा मूवी में दिखाया गया है.  सागर का जहाज मुंबई पोर्ट के निकट था पर पोर्ट पर बर्थ खाली नहीं होने के कारण जहाज को थोड़ी दूरी पर लंगर डालना पड़ा. शाम होने वाली थी. उस का वाईफाई काम करने लगा था. उस के फोन पर मैसेज मिला ‘रिंग ऐट योर डोर’. हलकी बारिश हो रही थी.

उस ने अपने फोन में देखा कि फ्लैट के दरवाजे पर जींस पहने छाता लिए कोई खड़ा है. शैलजा ने हंस कर उसे गले लगाया और फिर दरवाजा बंद हो गया. छाते की वजह से वह उस का चेहरा नहीं देख सका. पहले तो उस ने पत्नी को कहा था कि वह जहाज से निकलने से पहले उसे फोन करेगा पर इस दृश्य को देख कर उस ने अपना इरादा बदल लिया.  जहाज के लंगर डालने के थोड़ी देर बाद कंपनी के लौंच से वह तट पर आया. उस ने टैक्सी ली और अपने फ्लैट पर जा पहुंचा. तब तक लगभग मध्य रात्रि हो चुकी थी. उस ने अपनी चाबी से फ्लैट का दरवाजा जानबूझ कर धीरे से खोला ताकि कोई आहट न हो. अंदर फ्लोर लाइट का हलका प्रकाश था.

सागर ने अंदर आ कर देखा कि बैडरूम का दरवाजा खुला है. शैलजा झीनी नाइटी में अस्तव्यस्त किसी व्यक्ति के बहुत करीब सोई थी. वह व्यक्ति जींस और टीशर्ट पहने था. उस की कमर पर शैलजा की बांह थी. सागर केवल उस व्यक्ति की पीठ देख सकता था. उस के मन में संदेह हुआ कि यह शैलजा का कोई आशिक ही होगा. वह दबे पांव फ्लैट लौक कर लौट पड़ा. उस ने 3 दिन की छुट्टी ले रखी थी.  वहां से सीधे होटल में जा कर ठहरा. रात काफी हो चुकी थी. फिर भी उसे नींद नहीं आ रही थी. नींद खुली तो उस ने रूम में ही हलका ब्रेकफास्ट मंगवा लिया. थोड़ी देर बाद सागर ने शैलजा को फोन कर बताया कि वह मुंबई पहुंच गया है. फिर पूछा ‘‘कैसी हो शैलजा?’’

शैलजा बोली, ‘‘अच्छी हूं. पर कल रात बहुत थक गई थी और करीब 12 बजे सोई तो सुबह 7 बजे महरी आई तब नींद खुली. पर बड़ा मजा आया रात में वरना मैं तो बोर हो रही थी. तुम जल्दी आओ न? जहाज तो किनारे लग चुका होगा. कब आ रहे हो?’’

‘‘मैं जहाज से उतरने ही वाला हूं, 2-3 घंटे में आ रहा हूं.’’

सागर के पास सामान के नाम पर एक अटैची भर थी. उस ने टैक्सी ली. अपार्टमैंट पहुंच कर सिक्युरिटी वाले को अटैची रखने को दी और कहा, ‘‘जब मैं फोन करूं  तब इसे मेरे फ्लैट में भेज देना.’’  फ्लैट पहुंच कर उस ने बैल बजाई तो शैलजा ने अपने फोन पर उस का वीडियो देख लिया, दरवाजा खोल कर शैलजा उस के गले से लिपट गई. वह बैडरूम में गया और बोला, ‘‘शैलजा, टौवेल लाना, बाथरूम जाना है.’’

‘‘बाथरूम तो बिजी है. तुम गैस्टरूम वाले बाथ में चले जाओ.’’

‘‘क्यों? कोईर् है अंदर?’’

‘‘हां, कोई है.’’

‘‘कौन है?’’

‘‘देख लेना थोड़ी देर में. इतनी जल्दी  क्या है?’’

‘‘नहीं, मुझे बाथ टब में नहाना है और गैस्टरूम में बाथ टब नहीं है. पर तुम से जरूरी बात भी करनी है.’’

‘‘ठीक है, थोड़ी देर गैस्टरूम में ही आराम करो, मैं चाय ले कर आती हूं. वहां बात कर लूंगी.’’  सागर गैस्टरूम में बैड पर लेट गया. उस ने सिक्युरिटी को फोन कर नीचे से अपना अटैची मंगवा ली. थोड़ी देर में शैलजा चाय दे कर किचन में चली गई.

कुछ देर बाद शैलजा ने कहा ‘‘सागर, बाथरूम खाली हो गया है. अब तुम बैडरूम में जा कर बाथरूम यूज कर सकते हो.’’  सागर बाथरूम में गया. उस ने देखा कि वहां कल रात वाली जींस और टीशर्ट टंगी थी. जब तक वह नहा कर निकला शैलजा की आवाज आई, ‘‘डाइनिंग टेबल पर ही आ जाओ, नाश्ता रैडी है.’’

शैलजा ने जूस ला कर दिया, उस के बाद छोले की सब्जी का बाउल रख कर बोली, ‘‘एक मिनट में गरमगरम कचौरियां ले कर आ रही हूं.’’  ‘‘कचौरियां बाद में आ जाएंगी, पहले तुम यहां बैठो. तुम से जरूरी बात करनी है.’’

तभी किचन से आवाज आई, ‘‘तुम लोग वहीं बैठ कर बातें करो. मैं गरमगरम कचौरियां ले कर आ रही हूं.’’

थोड़ी देर में एक औरत ट्रे में कचौरियां ले कर आई और टेबल के पास बैठ गई.  सागर उसे आश्चर्य से देखने लगा तो वह बोली ‘‘मुझे ही देखते रहोगे तो कचौरियां ठंडी हो जाएंगी.’’  शैलजा बोली, ‘‘यह नीरू है. मेरी ममेरी भाभी. मेरे भैया उम्र में हम से सिर्फ 2 साल बड़े हैं. यह भाभी कम दोस्त ज्यादा है. हम लोग क्लासफैलो भी रहे हैं. आजकल यह नासिक में है. इस के पहले तो गुवाहाटी में थी. कौंटैक्ट तो न के बराबर रहा था. भैया टूअर पर गए हैं, तो यहां चली आई. भैया की शादी में हम लोग नहीं जा सके थे.’’  ‘‘बाथरूम में जींस और टीशर्ट किस की है?’’

‘‘नीरू भाभी की. कल शाम जब यह आई तो हम दोनों अपार्टमैंट के क्लब में चली गईं. वहां काफी देर तक बैडमिंटन खेलती रहीं. दोनों बहुत थक गई थीं. मैं ने इस से कहा था कि कपड़े चेंज कर ले पर यह इन्हीं कपड़ों में सो गई थी.’’

‘‘इतना ही नहीं, उस के बाद हम लोग, ‘रुस्तम’ मूवी देखने लगे. सीडी  पड़ी है, तुम भी देख लेना.’’  तुम लोगों ने भी ‘रुस्तम’ देखी? सागर  ने पूछा.

‘‘हां. इस में ताज्जुब की क्या बात है?’’ नीरू बोली.

‘‘ताज्जुब की बात नहीं है. मैं ने भी शिप में देखी है,’’ और फिर सागर मन ही मन सोचने लगा कि अच्छा हुआ उस ने शैलजा से इस बारे में कोई बात नहीं की. उस के दिल और दिमाग से ‘रुस्तम’ का वहम निकला गया था.

तभी शैलजा बोली, ‘‘तुम कोई जरूरी बात करने वाले थे.’’

सागर ने असली बात को दिल में छिपाते हुए कहा, ‘‘मेरा शिप 10 दिन में फिर टोक्यो के लिए सेल करेगा.’’

‘‘मैं आज शाम को चली जाऊंगी. मेरे सामने थोड़े ही देवरजी जरूरी बात करेंगे,’’ नीरू  बोली.  सभी हंसने लगे, पर असल माजरा तो सिर्फ सागर ही समझ रहा था.

प्रश्नचिह्न : अंबिका के प्यार यश के बदले व्यवहार की क्या थी वजह?

आयुष का बिलखने का स्वर सुन कर अंबिका लपक कर अपने ड्राइंगरूम में आई थी.

‘‘क्या हुआ, बेटे?’’ उस ने आयुष से पूछा.

‘‘पापा ने मारा,’’ आयुष गाल सहलाते हुए बोला.

‘‘यश, क्यों मारा तुम ने? 4 साल के बच्चे पर हाथ उठाते तुम्हें शर्म नहीं आई?’’ अंबिका गुस्से में पलटी, पर उस का स्वर तो मानो किसी पत्थर से टकरा कर लौट आया था. यश तक तो उस का स्वर शायद पहुंचा ही नहीं था.

एक क्षण के लिए अंबिका का मन हुआ कि बुरी तरह बिफर कर यश को इतनी खरीखोटी सुनाए कि वह फिर कभी नन्हे मासूम आयुष पर हाथ उठाने की बात सोच भी न सके. पर कुछ सोच कर चुप रह गई थी.

आयुष अब भी सिसक रहा था.

उस पर जान छिड़कने वाले पिता ने उसे क्यों मारा, यह बात उस की समझ से परे थी.

यश अपना फोन कान से लगाए न जाने किस से बातचीत में उलझा था. उस के लिए तो मानो अंबिका और आयुष हो कर भी नहीं थे वहां.

अंबिका ने आयुष को शांत कर के खिलापिला कर सुला तो दिया था पर उस के मुख पर चिंता की स्पष्ट रेखाएं थीं.

‘क्या हो गया था यश को? ऐसा तो नहीं था वह,’ अंबिका सोच में डूब गई.

परिवार का हीरेजवाहरात का पुराना कारोबार था जिसे यश और उस के बड़े भाई रतनराज मिल कर संभालते थे. उन के पिता ने घर और व्यापार का बंटवारा दोनों बेटों के बीच इतनी सावधानी से किया था कि दोनों के बीच मनमुटाव की गुंजाइश ही नहीं थी.

कारोबार में कुशल यश को जीवन की हर आकर्षक वस्तु से लगाव था. पार्टियां देना और पार्टियों में जाना हर रोज लगा ही रहता था, पर पिछले 3-4 माह से यश में आ रहे परिवर्तनों को देख कर वह हैरान थी. कभीकभी उसे लगता कि कहीं कुछ नहीं बदला, पर दूसरे ही क्षण वह कुछ घटनाओं को याद कर के घबरा उठती. हर क्षण उसे आभास होता कि यश अब पहले जैसा नहीं रहा, लेकिन बहुत सोचने पर भी उसे इस परिवर्तन का कारण समझ में नहीं आ रहा था.

कार स्टार्ट होने की आवाज सुनते ही अंबिका की तंद्रा टूटी थी. फोन पर हुई लंबी बातचीत के बाद यश कहीं चला गया था.

आयुष को उस के बिस्तर में सुला कर अंबिका बाहर निकली. वहां ड्राइवर माधव को चौकीदार से हंसीठिठोली करते देख हैरान रह गई.

‘‘तुम यहां बैठे हो, माधव? साहब की कार कौन चला कर ले गया है?’’

‘‘साहब अपनेआप चला कर ले  गए हैं. मुझे बुलाया ही नहीं,’’ माधव का उत्तर था.

‘‘तुम यहां रहते ही कब हो? पान खाने या सिगरेट पीने गए होगे. साहब कब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करते?’’ अंबिका का सारा गुस्सा माधव पर ही उतरा था.

‘‘मैं तो यहीं चौकीदार के पास बैठा था. कार स्टार्ट होने की आवाज सुन कर भाग कर उन के पास पहुंचा, पर साहब ने मेरी ओर देखा तक नहीं.’’

‘‘ठीक है,’’ अंबिका अंदर चली गई.

सोफे पर बैठ कर अंबिका देर तक शून्य में ताकती रही. यही सब बातें तो हैं जो उस के मन को खटकती हैं. यश का इस तरह उसे बिना बताए चले जाना, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ. भीड़भाड़ वाली सड़कों पर स्वयं कार चलाने से यश सदा बचता था. यदि माधव जरा भी इधरउधर चला जाए तो वह चीखचिल्ला कर घर सिर पर उठा लेता था. आज वही यश माधव को छोड़ कर स्वयं ही चला गया. अंबिका को चिंता होने लगी. उस ने यश को कौल किया पर यश ने मोबाइल फोन स्विच औफ कर रखा था.

अंबिका को अब पूरा विश्वास हो चला था कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. वह किसी से बात कर के अपने मन का बोझ हलका करना चाहती थी. अपने मातापिता को असमय फोन कर के वह परेशान नहीं कर सकती थी. यश के बड़े भाई रतनराज का विचार भी आया मन में, पर उन से फोन पर कुछ कहना ठीक न समझा. आखिर में उस ने अपनी प्रिय सहेली हर्षिता को फोन लगाया. हर्षिता उस की सब से करीबी सहेली तो थी ही, संकट की घड़ी में उस पर आंख मूंद कर विश्वास भी किया जा सकता था.

हर्षिता से फोन पर बात करते हुए अंबिका का गला भर आया, आवाज भर्रा गई.

‘‘क्या बात है, अंबिका? तुम इतनी परेशान हो और मुझे बताया तक नहीं. ये सब बातें फोन पर नहीं होतीं. तुम इंतजार करो. मैं 5 मिनट में तुम्हारे घर पहुंचती हूं,’’ हर्षिता ने आश्वासन दिया.

कुछ ही देर में हर्षिता उस के घर में थी. आते ही बोली, ‘‘अब विस्तार से बता, बात क्या है?’’

उत्तर में अंबिका उस के गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘पता नहीं हमारे हंसतेखेलते घर को किस की नजर लग गई, हर्षिता. यश को न अब मेरी चिंता है न आयुष की.’’

‘‘तुम ने उस से बात करने का प्रयत्न किया?’’

‘‘कई बार, पर यश कुछ बोलता ही नहीं. बस, मूक बन कर बैठा रहता है.’’

‘‘सारे लक्षण तो वही हैं, तुझे बहुत सावधानी से काम लेना पड़ेगा,’’ हर्षिता किसी बड़े विशेषज्ञ की तरह बोली.

‘‘कैसे लक्षण?’’

‘‘प्रेमरोग के लक्षण. मैं तो तुझे बहुत समझदार समझती थी, पर तू तो निरी बुद्धू निकली. मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि यश के जीवन में कोई और स्त्री आ गई है. उसी ने तुम लोगों के जीवन में उथलपुथल मचा दी है.’’

‘‘मैं नहीं मानती. यश में चाहे कितनी भी बुराइयां हों पर उस के चरित्र में कोई खोट नहीं है.’’

‘‘बड़ी भोली हो तुम. ऐसी स्त्रियां बहुत फरेबी होती हैं. इन के प्रभाव से तो विश्वामित्र जैसे ऋषिमुनि भी नहीं बच सके थे. यश तो फिर भी मनुष्य है.’’

‘‘ठीक है. मैं कल ही यश से बात करूंगी.’’

‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी. मैं ने कहा न, तुम्हें सावधानी से काम  लेना पड़ेगा.’’

‘‘तो क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें यश की हर गतिविधि पर नजर रखनी होगी. अच्छा होगा कि एक डायरी बना लो और उस में प्रतिदिन की घटनाएं लिखती जाओ.’’

‘‘पर कौन सी घटनाएं?’’

 

‘‘यही कि यश कब आता है, कब जाता है, किसकिस से मिलताजुलता है. घर आने पर उस की हर चीज का ध्यान से निरीक्षणपरीक्षण करो. सब से बड़ी बात कि यश के विरुद्ध कुछ सुबूत इकट्ठा करो.’’

‘‘उस से क्या होगा, मैं कौन सा उस के विरुद्ध कोर्टकचहरी के चक्कर लगाऊंगी?’’ अंबिका बोली.

‘‘तुम कुछ समझती नहीं हो. जब तुम यश पर किसी और स्त्री के चक्कर में होने का आरोप लगाओगी तो सुबूत तो पेश करने ही होंगे.’’

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी. मुझे पूरा विश्वास है कि यश बेवफा हो ही नहीं सकता. तुम्हें तो स्वयं पता है कि यश किस तरह हमारा खयाल रखता था.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो. हम सब यश का उदाहरण देते थकते नहीं थे, पर अब तुम खतरे की घंटी स्वयं सुन रही हो तो तुम क्या अपने परिवार को सुरक्षित नहीं रखना चाहोगी?’’ हर्षिता ने प्रश्न किया.

‘‘क्यों नहीं, इसीलिए तो तुम्हें फोन किया था. पर मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती कि स्थिति और बिगड़ जाए.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. तुम्हें केवल थोड़ा सावधान रहना होगा. तुम कहती हो कि यश लंबे समय तक फोन पर बात करता है. कम से कम फोन नंबर पता करो. एक दिन जैसे ही यश घर से निकले, तुम पीछा करो. पता तो लगे कि सचाई क्या है?’’

‘‘मैं कोशिश करूंगी, हर्षिता, पर कोई वादा नहीं करती.’’

‘‘मेरे चाचाजी पुलिस में बड़े अफसर हैं. तुम चाहो तो हम उन की मदद ले सकते हैं. वे यश से बातचीत कर के कोई न कोई समाधान अवश्य निकाल लेंगे,’’ हर्षिता ने सुझाव दिया था.

‘‘नहीं, हर्षिता, यह परिवार के सम्मान की बात है. रतन भैया को सूचित किए बिना मैं ने ऐसा कुछ किया तो वे नाराज होंगे.’’

‘‘ठीक है, तुम अच्छी तरह सोचविचार लो. क्या करना है, यह निर्णय तो तुम्हें ही लेना होगा. पर तुम्हें जब भी मेरी मदद की जरूरत हो, मैं तैयार हूं. स्वयं को कभी अकेला मत समझना,’’ हर्षिता ने आश्वासन दे कर विदा ली.

अंबिका देर तक अकेली बैठी सोचती रही. कहीं से कोई प्रकाश की किरण नजर नहीं आ रही थी. तभी अचानक उसे याद आया कि 3 दिन बाद ही आयुष का जन्मदिन है. हर वर्ष आयुष का जन्मदिन वे बड़ी धूमधाम से मनाते रहे हैं. उसे लगा कि इतनी सी बात भला उसे समझ में क्यों नहीं आई. पिछले जन्मदिन पर सब ने कितना धमाल किया था.

पांचसितारा होटल में ऐसी शानदार थीम पार्टी का आयोजन किया था यश ने कि सब ने दांतों तले उंगली दबा ली थी.

अंबिका को बड़ी राहत मिली थी. यश अवश्य ही आयुष के जन्मदिन पर ‘सरप्राइज पार्टी’ का आयोजन कर रहा है. तभी तो उस ने कुछ बताया नहीं. आज आने दो घर, खूब खबर लूंगी. कम से कम गेस्ट लिस्ट के बारे में तो उस से सलाह लेनी ही चाहिए थी.

इसी ऊहापोह में कब आंख लग गई, अंबिका को पता ही नहीं लगा. पर जब नींद खुली और यश का बिस्तर खाली देखा तो वह धक् से रह गई. यश रात को घर लौटा ही नहीं था. यदि वह घर नहीं लौटा तो उसे वह कहां ढूंढ़ने जाए. फूटफूट कर रोने का मन हो रहा था पर इस कठिन समय में आंसू भी उस का साथ छोड़ गए थे.

उस ने मशीनी ढंग से आयुष को तैयार कर स्कूल भेजा. तभी यश की कार की आवाज आई तो वह लपक कर मुख्यद्वार पर पहुंची.

‘‘कहां थे अब तक? कम से कम एक फोन ही कर दिया होता. चिंता के कारण मेरा बुरा हाल था. कल शाम से खाना तो क्या, मुंह में पानी की बूंद तक नहीं गई है,’’ अंबिका एक ही सांस में बोल गई थी पर यश बिना कोई उत्तर दिए अंदर चला गया.

‘‘मैं कुछ पूछ रही हूं, यश. मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर चाहिए.’’

‘‘बाहर नौकरों के सामने तमाशा करने की क्या जरूरत है? ये प्रश्न घर में आ कर भी पूछे जा सकते हैं,’’ यश बोला.

‘‘तो अब बता दो, यश. रातभर कहां थे तुम? और यह भी कि मुझ से ऐसा क्या अपराध हो गया है कि तुम ने इस तरह मुंह फेर लिया है? तुम बहुत बदल गए हो, यश.’’

‘‘समय के साथ हर व्यक्ति बदल जाता है. तुम्हें नहीं लगता कि तुम आजकल इतने प्रश्न पूछने लगी हो कि स्वयं एक प्रश्नचिह्न बन कर रह गई हो. बारबार मैं कहां गया था, क्यों गया था जैसे प्रश्न मत किया करो, क्योंकि मेरे पास इन के उत्तर हैं ही नहीं. तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. कल से पानी भी नहीं पिया, जैसे ताने दे कर अपनी निरीहता भी मुझे मत दिखाओ. घर में क्या खाने का सामान नहीं है? मेरी 10 से 5 की नौकरी नहीं है. तुम लोगों के ऐशोआराम के लिए बहुत खटना पड़ता है. हर समय इन बातों का ब्योरा मत मांगा करो,’’ यश ने टका सा उत्तर दिया था. हालांकि मीठा बोल बोलने वाले यश ने अपना स्वर ऊंचा नहीं किया, पर उस की बातों से अंबिका का दिल छलनी हो गया.

अगले दिन आयुष का जन्मदिन था. सुबह से ही उसे शुभकामनाएं देने वालों के फोन आने लगे थे. पर यश भोर में ही उठ कर कहीं चला गया था. आयुष कई बार पूछ चुका था कि उस के जन्मदिन की पार्टी कहां होगी?

‘सरप्राइज पार्टी’ की प्रतीक्षा करते हुए शाम घिर आई थी. आयुष कंप्यूटर गेम्स खेलने में व्यस्त था. अपने जन्मदिन की बात शायद अब वह भूल ही गया था.

‘‘आयुष, कहां हो तुम? अंबिका, यश, घर में कोई है या नहीं?’’ जैसे प्रश्नों से सारा घर गूंज उठा था. यश के बड़े भाई रतनलाल, उन की पत्नी अंजलि व उन के दोनों बच्चे आए थे.

‘‘तुम लोग तो हमें याद करते नहीं, हम ने सोचा हम ही मिल आएं. आयुष बेटे, जन्मदिन मुबारक हो,’’ रतन ने बड़ा सा डब्बा आयुष को पकड़ा दिया.

‘‘इस की जरूरत नहीं थी, भाईसाहब. हम कोई पार्टी नहीं कर रहे,’’ अंबिका उदास स्वर में बोली.

‘‘पार्टी नहीं भी कर रहे तो क्या हुआ? आयुष को जन्मदिन का उपहार तो मिलना ही चाहिए,’’ अंजलि ने प्यार से आयुष का माथा चूम लिया.

‘‘यश कहां है? तुम लोग आजकल रहते कहां हो, महीनों से यश घर नहीं आया? तुम भी हमें भूल ही गई हो,’’ अंजलि ने उलाहना दिया.

उत्तर में अंबिका के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला. वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकी और फफक कर रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ?’’ अंजलि और रतन ने हैरानपरेशान स्वर में पूछा. बच्चे भी टकटकी लगा कर अंबिका को ही घूर रहे थे.

‘‘तुम लोग अंदर जा कर खेलो,’’ रतन ने बच्चों से कहा.

अंबिका ने आंसुओं को संभालते हुए रतन और अंजलि को सबकुछ बता दिया.

‘‘यश के रंगढंग बदले हुए हैं, यह तो मुझे भी लगा था. आजकल उस की किसी काम में रुचि नहीं रही, पर तुम लोगों के घरेलू जीवन में ऐसी उथलपुथल मची हुई है, इस की तो हम ने कल्पना भी नहीं की थी.

‘‘चिंता मत करो, अंबिका. मैं एकदो दिन में सब पता कर लूंगा. पहले तो मैं कल ही बच्चू से सब उगलवा लूंगा. तुम जल्दी से तैयार हो जाओ. आज आयुष के जन्मदिन की पार्टी हम ‘इंद्रप्रस्थ रिजोर्ट’ में करेंगे,’’ रतन ने कहा.

इंद्रप्रस्थ रिजोर्ट में आयुष का जन्मदिन मना कर रात में देर से लौटी थी अंबिका. आयुष प्रसन्नता से झूम रहा था.

अगली सुबह अंबिका पर मानो वज्रपात हुआ. फोन की घंटी बजी तो उनींदी सी अंबिका ने फोन उठाया.

‘‘हैलो, क्या मैं अंबिका राज से बात कर सकती हूं?’’ दूसरी ओर से किसी स्त्री का स्वर गूंजा था.

‘‘बोल रही हूं,’’ अंबिका बोली.

‘‘तुम से अधिक बेशर्म स्त्री मैं ने दूसरी नहीं देखी. जब यशराज तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता तो क्यों उस के गले पड़ी हो? छोड़ क्यों नहीं देतीं उसे?’’

‘‘कौन हो तुम? और मुझ से इस तरह बात करने का साहस कैसे हुआ तुम्हारा?’’ अंबिका की नींद हवा हो गई थी. वह ऐसे तड़प उठी मानो किसी ने बिजली का नंगा तार छुआ दिया हो.

‘‘मैं कौन हूं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, मैं जो कह रही हूं वह महत्त्वपूर्ण है. यशराज तुम्हारे साथ नहीं, मेरे साथ जीवन बिताना चाहता है. अपना और अपने बेटे का भला चाहती हो तो तुरंत बिस्तर बांधो और मुक्त कर दो मेरे यश को.’’

‘‘नहीं तो क्या कर लोगी तुम?’’ अंबिका चीखी.’’

‘‘यह तो समय आने पर ही पता चलेगा,’’ दूसरी ओर से अट्टहास सुनाई दिया.

काफी देर तक अंबिका पत्थर की मूर्ति की भांति बैठी रह गई. धीरेधीरे दिन बीता, शाम आई. देर रात गए यश घर लौटा और सोफे पर ही पसर गया. वह अब भी गहरी नींद में था.

पर आज अंबिका के संयम का बांध टूट गया. उस ने झिंझोड़ कर यश को जगाया. हैरान यश आंखें मलते हुए उठ बैठा.

‘‘तुम्हारी प्रेमलीला इस सीमा तक पहुंच जाएगी यह तो मैं ने सोचा भी नहीं था. पर मेरे जीवन में जहर घोल कर तुम इस तरह चैन से नहीं सो सकते,’’ अंबिका बिफर उठी.

‘‘बात क्या है, अंबिका? इस तरह रोष में क्यों हो?’’

‘‘मेरे रोष का कारण जानना चाहते हो तुम? मुझ से मुक्ति चाहते हो? एक बार कह कर तो देखते, मैं यह उपकार भी कर देती. पर तुम ने तो अपनी प्रेमिका से कहलवा कर मुझे अपमानित करना ही उचित समझा.’’

‘‘किस ने अपमानित किया तुम्हें, अंबिका?’’ यश सन्न रह गया.

‘‘सबकुछ जानते हुए बनने का प्रयत्न मत करो. तुम्हारी सहमति के बिना किसी का मुझ से इस तरह बात करने का साहस नहीं हो सकता.’’

‘‘आओ, अंबिका, यहां बैठो मेरे पास. मैं तुम्हें सब सच बताऊंगा. मैं ने आज तक तुम्हें कुछ नहीं बताया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि जिस नर्क की आग में मैं जल रहा था, वह मेरे हंसतेखेलते परिवार को भस्म कर दे. पर अब शायद पानी सिर से गुजर गया है.’’

‘‘कौन है वह? मुझे इस तरह धमकी देने का साहस कैसे हुआ उस का?’’

‘‘वह? एक डांसर है. बार में, होटलों में और छोटेमोटे उत्सवों में नाचगा कर अपना काम चलाती है. मेरा परिचय उस से मेरे मित्र तेजाश्री ने कराया था. मैं भी शराब के नशे में शायद बहक गया था. तब से वह मुझे यह कह कर ब्लैकमेल करती रही कि मेरे संबंध के बारे में वह तुम्हें बता देगी, पत्रपत्रिकाओं में फोटो छपवा देगी. अब तक वह मुझ से लाखों रुपए ऐंठ चुकी है और अब उस ने मुझ पर दबाव डालना शुरू कर दिया कि तुम्हें छोड़ कर उस से विवाह कर लूं वरना अपने गुंडों से हमारे पूरे परिवार को तबाह करवा देगी.’’

‘‘इतना कुछ हो गया और तुम ने मुझे हवा तक नहीं लगने दी. पतिपत्नी यदि सुखदुख के साथी न हों तो दांपत्य जीवन का अर्थ ही क्या है?’’ अंबिका क्रोधित स्वर में बोली.

‘‘मुझे लगा था कि इस समस्या से मैं स्वयं निबट लूंगा पर मैं जितना इसे सुलझाने का प्रयत्न करता उतना ही उलझता जाता. अब यह नाराजगी छोड़ो और सोचो कि आगे क्या करना है,’’ यश याचनाभरे स्वर में बोला.

‘‘मैं रतन भैया को फोन कर के बुलाती हूं. रतन भैया और अंजलि भाभी कल आए थे. हम सब साथ गए थे आयुष का जन्मदिन मनाने. मैं ने उन्हें सब बता दिया था.’

रतनराज तुरंत चले आए थे. सारी बातें विस्तार से सुन कर उन के आश्चर्य की सीमा नहीं रही. यश ऐसी मुसीबत में फंस सकता है, यह उन की समझ से परे था. अंबिका ने हर्षिता को भी बुला लिया था. वे सब मिल कर हर्षिता के चाचाजी से मिलने गए.

‘‘यह तो सीधासादा ब्लैकमेल का चक्कर है. हमारे पास तो हरदिन ऐसी सैकड़ों शिकायतें आती हैं. आप मेरी मानें तो पुलिस में रपट कर दें. इन लोगों का साहस इतना बढ़ गया है कि अब ये बड़े मुरगों को फंसाने की ताक में रहते हैं,’’ हर्षिता के अंकल ने सलाह देते हुए कहा.

रतनराज और यशराज जैसे रसूख वाले परिवार के साथ ऐसा हो सकता है, यह सोच कर सभी हैरान थे.

रतन की सलाह से यश अपने परिवार के साथ विएना चला गया.

‘‘मैं यहां सब संभाल लूंगा. तुम वहां के कार्यालय की जिम्मेदारी संभालो. वैसे भी मैं तुम्हें कुछ समय के लिए विएना भेजने की सोच रहा था,’’ रतनराज ने कहा.

हवाई जहाज में बैठने के बाद यश ने चैन की सांस ली थी. आज उसे एहसास हुआ कि अपनी परेशानियों को परिवारजनों से न बांट कर न केव?ल उस ने भूल की थी बल्कि उन पर अन्याय भी किया था. अब उसे लग रहा था कि यह तो अक्षम्य अपराध था जिस ने उसे बरबादी के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया था.

और्डर- नेहा ने अपनी खुशी को क्यों कुर्बान कर दी?

लेखिका- दीपा डिंगोलिया

‘‘सुनो, मुझे नया फोन लेना है. काफी टाइम हो गया इस फोन को. मैं ने नया फोन औनलाइन और्डर कर दिया है,’’ सुबह औफिस के लिए तैयार होते हुए मैं ने समीर से कहा.

‘‘हांहां, ले लो भई, लिए बिना तुम मानोगी थोड़ी. वैसे, इस फोन का क्या करोगी? इतना महंगा फोन है. बजट है इतना तुम्हारा कि तुम नया फोन अभी ले सको,’’ समीर ने नेहा से हंसते हुए कहा.

‘‘यह बेच कर 4-5 हजार रुपए और डाल कर नया ले लूंगी. तुम से कोई पैसा नहीं लूंगी, बेफिक्र रहो. अच्छा, सुनो, शाम को मुझे मां की तरफ जाना है, इसलिए आज थोड़ा लेट हो जाऊंगी. तुम वहीं से मुझे पिक कर लेना,’’ यह कह कर मैं जल्दी से घर से निकल ली.

औफिस से हाफ डे ले कर मां के घर पहुंची. मां के साथ खाना खा मैं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. मां के यहां बालकनी से बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता था. चारों ओर हरियाली और चिडि़यों की चहचहाहट. तभी मां भी चाय ले कर वहीं आ गईं. चाय पीतेपीते दूर से एक बुजुर्ग से अंकलजी आते हुए दिखे.

‘‘मां, ये अंकल तो जानेपहचाने से लग रहे हैं. देखो जरा, कौन हैं?’’

‘‘अरे, इन्हें नहीं पहचाना. गुड्डू के पापा ही तो हैं. गुड्डू तो अब विदेश चला गया न. ये यहीं नीचे वाले फ्लैट में अकेले रहते हैं. गुड्डू की मां तो रही नहीं और बहन भी कहीं बाहर ही रहती है,’’ मां ने बताया.

गुड्डू और मैं बचपन में एकसाथ खेलते हुए बड़े हुए थे. लेकिन मैं गुड्डू से ज्यादा नहीं बोलती थी. वैसे, बहुत ही अच्छा लड़का था गुड्डू, सीधासादा, होशियार.

‘‘मां, मैं जरा मिल कर आती हूं अंकल से,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर नीचे अंकल के घर को चल पड़ी.

‘‘ठीक है, पर बेटा, जरा जल्दी आना,’’ मां ने कहा.

दरवाजे पर घंटी बजाई. अंकल बाहर आए.

‘‘नमस्ते अंकल, पहचाना?’’

‘‘आओआओ बेटी. अच्छे से पहचाना. बैठो. बहुत टाइम बाद देखा. कहां हो आजकल? तुम्हारे मम्मीपापा से तो मुलाकात हो जाती है. बहुत ही अच्छे लोग हैं. खैर, सुनाओ कैसे हैं सब तुम्हारे घरपरिवार में,’’ अंकलजी बहुत खुश थे मुझे देख कर और लगातार बोले जा रहे थे.

‘‘सब बढि़या. आप बताइए. गुड्डू और दीदी कैसे हैं?’’

‘‘सब ठीक हैं, बेटी. दोनों ही बाहर रहते हैं. आना तो कम ही होता है दोनों का. अब तो बस फोन पर ही बात होती है,’’ अंकल बहुत ही रोंआसी आवाज में बोले.

‘‘क्या बात है अंकलजी, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं बेटे, कल रात फोन भी हाथ से छूट कर गिर गया और खराब हो गया,’’ मेरे हाथ में अपना फोन देते हुए अंकलजी बोले, ‘‘जरा देखना यह ठीक हो सकता है क्या? फोन के बिना मेरा गुजारा ही नहीं है. अब तो गुड्डू ही नया फोन भेजेगा.’’

‘‘अरे अंकलजी, गुड्डू को छोड़ें. फोन आने में तो बहुत टाइम लग जाएगा, तब तक आप परेशान थोड़े ही रहेंगे. यह लीजिए आप का फोन,’’ मैं ने बैग से निकाल कर अपना फोन अंकलजी के हाथ में दिया.

‘‘यह तो टचस्क्रीन वाला है. बहुत महंगा होता है यह तो. नहींनहीं, यह मैं नहीं ले सकता. मेरे लिए कोई पुराना सा फोन ही ला दो बेटे अगर ला सकती हो तो या इसी फोन को ठीक करवा कर दे देना. दोचार दिन काम चला लूंगा बिना फोन के,’’ अंकलजी बोले.

‘‘मैं ने आप की सिम इस में डाल दी है. यह लीजिए आप चला कर देखिए और आप का फोन ठीक कराने के लिए मैं ले जा रही हूं. अब आप इस फोन को बेफिक्र हो कर इस्तेमाल करिए.’’ अंकलजी ने झिझकते हुए मेरा फोन अपने हाथ में लिया और खुशी से चला कर देखने लगे. फोन हाथ में ले बच्चों की तरह खुश थे वे.

‘‘इस में गेम्स वगैरह भी खेल सकते हैं न? पर बेटे, गुड्डू मुझे बहुत डांटेगा. तुम रहने ही देतीं. मुझे मेरा फोन ठीक करवा कर दे देना,’’ अंकलजी थोड़ा घबराते हुए बोले.

‘‘अंकलजी, कभीकभी गुड्डू की जगह मुझ गुड्डी को भी अपना बेटा समझ कर अपनी सेवा करने दिया करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘जीती रहो बेटी, तुम ने मेरी सारी परेशानी खत्म कर दी,’’ अंकलजी खुशी से बोले.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. मां इंतजार कर रही होंगी,’’ अंकलजी से बाय बोल कर मैं एक अलग ही अंदाज से घर पहुंची. मन में एक अनजानी संतुष्टि सी थी.

समीर शाम को लेने मां के घर पहुंचे और बोले, ‘‘बड़ी खुश लग रही हो आज मां से मिल कर.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. घर पहुंच लैपटौप औन कर के नए फोन का और्डर कैंसिल कर दिया.

अंकलजी का फोन ठीक करवा कर अपने बैग में रख लिया. मन में एक खुशी थी. नए फोन की अब मुझे कोई ऐसी चाह नहीं थी.

छठी इंद्रिय- छोटी उम्र के प्रत्यूष के साथ गीत के रिश्ते की कहानी

अलार्मकी आवाज से गीत की नींद खुल गई. कल की ड्रिंक का हैंगओवर था, इसलिए सिर भारी था. उन्होंने ग्रीन टी बना कर पी और फिर मौर्निंग वाक के लिए चली गईं. सुबह की ठंडी हवा और कुछ लोगों से हायहैलो कर के ताजगी आ जाएगी. फिर तो वही रोज का रूटीन कालेज, लैक्चर बस…

कल से नैना उन की सहेली उन के मनमस्तिष्क से हट ही नहीं रही थी. उन की कहानियों की आलोचना करतेकरते कैसे अपना आपा खो बैठती थी.

‘‘गीत, तुम्हारी कहानी की नायिका पुरुष के बिना अधूरी क्यों रहती है?’’

‘‘नैना, मेरे विचार से स्त्रीपुरुष दोनों एकदूसरे के पूरक हैं. एकदूसरे के बिना अधूरे हैं.’’

वह नाराज हो कर बोली, ‘‘नहीं गीत, मैं नहीं मानती. स्त्री अपनी इच्छाशक्ति से आकाश को भी छू सकती है. सफल होने के लिए दृढ़इच्छा जरूरी है.’’

बड़ीबड़ी बातें करने वाली नैना पति का अवलंबन पाते ही सबकुछ भूल गई और पिया का घर प्यारा लगे कहती हुई चली गई.

नैना के निर्णय से गीत का मन खुश था. वे मन ही मन मुसकरा उठीं और फिर वहीं बैंच पर बैठ गईं. बच्चों को स्कैटिंग करता देखना उन्हें अच्छा लग रहा था. वे बच्चों में खोई हुई थीं, तभी बैंच पर एक आकर्षक युवक आ कर बैठ गया. उन्होंने उस की ओर देखा तो वह जोर से मुसकराया. उस की उम्र 30-32 साल होगी.

वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘माई सैल्फ प्रत्यूष.’’

‘‘माई सैल्फ गीत.’’

‘‘वेरी म्यूजिकल नेम.’’

‘‘थैंक्यू.’’

उस का चेहरा और पर्सनैलिटी देख गीत चौंक उठी थीं, जिस पीयूष की यादों को वे अपने मन की स्लेट से धोपोंछ कर साफ कर चुकी थीं, उस व्यक्ति ने आज उन यादों को पुनर्जीवित कर दिया था.

वही कदकाठी, वही मुखाकृति, वही चालढाल, वही अंदाज और चेहरे पर लिखी मुसकान तथा वही लापरवाह अंदाज.

गीत डिगरी कालेज में लैक्चरर थीं. उम्र

38 साल थी, लेकिन लगती 30-32 की थीं. रूपमाधुर्य और सौंदर्य की वे धनी थीं. गोरा संगमरमरी रंग, गोल चेहरे पर कंटीली आकर्षक आंखें और होंठ के किनारे पर कुदरत प्रदत्त तिल उन के सौंदर्य को मादक बना देता था.

प्रत्यूष को देखते ही गीत को अपने कालेज के दिन याद आ गए. जब वे और पीयूष यूनिवर्सिटी की लवलेन में एकदूसरे से मिला करते थे. कौफीहाउस के कोने वाली मेज पर बैठ कर एक कौफी के कप के साथ घंटों गुजारा करते थे. कभी किसी पेपर के प्रश्न डिस्कस करते तो कभी अपने भविष्य के सपने संजोते. लेकिन एक हादसे ने क्षणभर में सबकुछ उलटपुलट कर दिया.

एक ऐक्सीडैंट में पापामम्मी दोनों ने एकसाथ दुनिया से विदा ले ली. उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. वाणी 12वीं कक्षा में तो किंशुक 10वीं कक्षा में था. ऐसी स्थिति में भला वे अपनी खुशियों के बारे में कैसे सोच सकती थीं. उन्होंने पीयूष के प्यार को नकार दिया. यद्यपि वह उन के साथ जिम्मेदारी निभाने को तैयार थे.

अपने जीवन के लक्ष्य को बदल कर वे डिगरी कालेज में लैक्चरर बन गईं. कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गईं, कई पत्रिकाओं में नियमित कौलम लिखने लगीं. वाणी और किंशुक दोनों ही विदेश में सैटल हो गए. अब उन के लिए समस्या है उन के मन के रीतेपन की. उन्हें अपना अकेलापन सालता रहता है, अंदर ही अंदर कचोटता रहता है.

प्रत्यूष से रोज मिलनाजुलना होने लगा. मुसकराहट बातचीत में बदल गई. दोनों को एकदूसरे का साथ मनभावन लगने लगा. उस ने बातोंबातों में अपनी दर्दभरी कहानी बताई कि उस के पिता बचपन में ही एक ऐक्सीडैंट में उसे अकेला कर गए थे. मां ने दूसरी शादी कर ली. उन के पास पहले से एक बेटा था, इसलिए उसे न तो कभी मां का प्यार मिला और न पिता का. मां हर समय डरीसहमी रहतीं और वह स्वयं को अवाछिंत सा महसूस करता. हां, पढ़ने में तेज था, इसलिए इंजीनियर बन गया. यही उस के जीवन की पूंजी है. अब तो उन लोगों से उस का कोई रिश्ता नहीं है. इतनी बड़ी दुनिया में बिलकुल अकेला है, उस की आंखें डबडबा उठी थीं.

प्रत्यूष की कहानी सुन कर गीत के मन में उस के प्रति सहानुभूति और प्यार दोगुना बढ़ गया.

एक दिन उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारा फ्लैट किस फ्लोर में है?’’

‘‘अरे मेरा क्या? वन रूम फ्लैट किराए पर ले रखा है. शांतनु के साथ शेयर कर के रह रहा हूं.’’

पार्किंग में उसे किसी लड़के के साथ देख उस की बातों पर विश्वास हो गया था.

जौगिंग आपस में मिलने का बहाना बन गया. उन्हें अपनी जिंदगी हसीन लगने लगी थी. दोनों बेंच पर बैठ कर आपस में कुछ कहते, कुछ सुनते.

महानगरों की जीवनशैली है कि कोई किसी के व्यक्तिगत जीवन में रुचि नहीं लेता. छोटे शहरों में तुरंत लोगों को गौसिप का चटपटा विषय मिल जाता है और एकदूसरे से कहतेसुनते चरित्र पर लांछन तक बात पहुंच जाती है.

प्रत्यूष कभी लिफ्ट में तो कभी नीचे ग्राउंड में आ फिर पार्किंग में टकरा ही जाता. उस का आकर्षक व्यक्तित्व और निश्छल मुसकान से ओतप्रोत ‘हाय ब्यूटीफुल’, ‘हाय स्मार्टी’ सुन कर वे प्रसन्न हो उठतीं. फिर वे भी उसे ‘हाय हैंडसम’ कह कर मुसकराने लगी थीं.

यदि किसी दिन वह नहीं दिखाई देता तो उस दिन गीत की निगाहें प्रत्यूष को यहांवहां तलाशतीं. फिर उदास और निराश हो उठती थीं.

गीत समझ नहीं पा रही थीं कि उसे देखते ही वे क्यों इतनी खुश हो जाती हैं. 5-6 दिन से वह दिखाई नहीं दे रहा था. उन्हें न तो उस का फ्लैट का नंबर मालूम था और न हीं फोन नंबर. वे उदास थीं और अपने पर ही नाराज हो कर कालेज के लिए तैयार हो रही थीं.

तभी घंटी बजी. मीना किचन में नाश्ता बना रही थी. इसलिए गीत ने ही दरवाजा खोला. उसे सामने देख रोमरोम खिल उठा.

‘‘ऐक्सक्यूज मी, थोड़ी सी कौफी होगी? उस ने सकुचाते हुए पूछा.’’

‘‘आओ, अंदर आ जाओ.’’

अंदर आते ही ड्राइंगरूप में चारों ओर निगाहें घुमाते हुए बोला, ‘‘अमेजिंग, इट्स अमेजिंग, ब्यूटीफुल… आप जितनी सुंदर हैं, अपने फ्लैट को भी उतना ही सुंदर सजा रखा है.’’

‘‘थैंक्यू,’’ उन्होंने मुसकराते हुए औपचारिकता निभाई थी.

‘‘नाश्ता करोगे?’’

‘‘माई प्लैजर.’’

मीना ने आमलेट बनाया था. उस के लिए भी एक प्लेट में ले आईं. वह बच्चों की तरह खुश हो कर पुलक उठा, ‘‘वाउ, वैरी टेस्टी.’’

उसे अपने साथ बैठ कर नाश्ता करते देख गीत का मन उल्लसित हो उठा. उस का संगसाथ पाने के लिए वे उसी के टाइम पर जौगिंग पर जाने लगी थीं. अपना परिचय देते हुए उस ने बताया था कि वह इंजीनियर है और अमेरिकन कंपनी ‘टारगेट’ में काम करता है. वह चैन्नई से है… उसे हिंदी बहुत कम आती है, इसलिए कोई ट्यूटर कुछ दिनों के लिए बता दें.

गीत खुश हो उठीं. जैसे मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई हो. जब उन्होंने बताया कि वे हिंदी में पत्रिकाओं में कहानियां, लेख और कौलम लिखती हैं.

यह सुन कर आश्चर्य से उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘आप इंग्लिश की लैक्चरर और हिंदी में लेखन, सो सरप्राइजिंग.’’

मुलाकातें बढ़ने लगीं. संडे को दोनों फ्री होते तो साथ में खाना खाते, बातें करते और शाम को लौंग ड्राइव पर जाते. हिंदी पढ़ना तो शायद बहाना था.

उन्हें साथी मिल गया था, जिस के साथ वे भावनात्मक रूप से जुड़ती जा रही थीं. उस की पसंद का स्पैशल नाश्ता, खाना, अपने हाथों से बनातीं और उसे खिला कर उन्हें आंतरिक खुशी मिलती.

वह आता तो अपनी मनपसंद सीडी लगाता, कौफी बनाता और फिर दोनों साथसाथ पीते. कभीकभी बीयर भी पी लेते.

वह अकसर गीत की हथेलियों को अपने हाथों से पकड़ कर बैठता. उस का स्पर्श उन्हें रोमांचित कर देता. कई बार उन के मन में खयाल आता कि उन्हें क्या होता जा रहा है… क्या उन्हें प्रत्यूष से प्यार हो गया है? वह उम्र में उन से छोटा है. लेकिन उसे देखते ही वे सबकुछ भूल जातीं. उस के प्यार में डूबती जा रही थीं. कई बार दोनों रोमांटिक धुन बजा कर डांस भी करते.

एक दिन उस ने थिरकतेथिरकते मदहोश हो कर उन्हें अपनी बांहों में भर कर किस कर लिया. यद्यपि वे संकोचवश शरमा कर उस से अलग हो गईं, पर सच तो यह था कि शायद इन पलों का वे कब से इंतजार कर रही थी.

काश, वह हमेशा के लिए उन की नजरों के सामने रहता. वे हर क्षण षोडशी की भांति उस की कल्पना में खोई रहतीं. इन क्षणों को अपनी मुट्ठी में, स्मृति में कैद कर लेना चाहती थीं.

एक दिन उन के लंबे बालों से खेलते हुए उस ने छोटे बालों के लिए अपनी पसंद जाहिर की.

वे पार्लर गईं और अपने लंबे बालों पर कैंची चलवा दी. नए हेयर कट में स्वयं को आईने में देख शरमा उठीं. जाने क्यों प्रत्यूष के प्रति उन के मन में दीवानापन बढ़ता ही जा रहा था.

गीत सहमी सी रहतीं कि कहीं प्रत्यूष उन्हें छोड़ कर दूसरी हमउम्र लड़की के साथ अपने प्यार की पींगें न बढ़ाने लगे.

उस दिन नीचे खड़ी लिफ्ट का इंतजार कर रही थीं, तभी वहां प्रत्यूष भी आफिस से लौट कर आ गया. उन के चेहरे पर उस की निगाह पड़ी तो मुंह खुला का खुला रह गया.

खुशी के मारे आज सब के सामने उस ने उन्हें अपनी बांहों के घेरे में जकड़ लिया.

गीत ने अपेन को छुड़ाते हुए प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘सब देख रहे हैं.’’

‘‘नाइस हेयर स्टाइल… लुकिंग सो स्वीट ऐंड यंग.’’

उस की आंखों में प्यारभरी खुशी का भाव दिखाई दे रहा था. उस की आंखों में उन के प्रति दीवानगी साफ दिखाई दे रही थी. शायद यही तो वे कब से चाह रही थीं.

‘‘आज शाम को क्या कर रही हो? फ्री हो तो शौपिंग पर चलते हैं.’’

गीत प्रत्यूष के साथ मौल गईं. अभी तक वे इंडियन ड्रैसेज ही पहनती थीं, लेकिन आज उस के आग्रह को नहीं टाल पाईं. ढेरों वैस्टर्न ड्रैसेज पसंद कर लीं. जब उन ड्रैसेज को ट्रायलरूम में पहन कर उसे दिखातीं तो उस की आंखें खुशी से चमक उठतीं.

वहीं कैफेटेरिया में दोनों कौफी का और्डर दे कर एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले बैठे थे.

‘‘गीत, तुम ने तो मुझे अपना दीवाना बना लिया है,’’ वह बोला.

गीत उस के चेहरे से अपनी नजरें नहीं हटा पा रही थीं. मुसकरा पड़ी थीं. लेकिन मन ही मन सोच रही थीं कि वह 38 साल की प्रौढ़ा और यह 28 साल का खूबसूरत स्मार्ट युवक जाने कब उन्हें छोड़ कर अकेला कर दे, इसलिए उन्हें अपने पर कंट्रोल करना होगा. गलत रास्ते पर कदम बढ़ाती चली जा रही हैं. उन्हें उस से दूरी बना कर अपनी पुरानी दुनिया में लौटना होगा.

मगर उसे देखते ही उन के इरादे रेत के महल की तरह ढह जाते और वे उस के प्यार में डूब जातीं. उस के साथ कभी पिक्चर, थिएटर, कभी ड्रामा, कभी डिनर तो कभी मौल… समय को पंख लग गए थे. इन मधुर पलों को वे अपनी स्मृतियों में संजो लेना चाहती थीं.

जब भी वह उन का हाथ पकड़ता, वे सिहर उठतीं, एक दिन फ्रिज से बीयर की बोतल निकाल कर बोला, ‘‘आज सैलिब्रेशन हो जाए.’’

‘‘किस बात की?’’

‘‘मेरीतुम्हारी दोस्ती के लिए.’’

मंदमंद संगीत, हलका सुरूर… वे मुसकरा उठी थीं. थिरकतेथिरकते वे उस की बांहों में खो गईं.

आज दोनों के बीच के सारे बंधन टूट गए. दोनों एकदूसरे में समा गए. वे गहरी निद्रा के आगोश में चली गईं.

जब आंख खुली, तो अपनी अस्तव्यस्त दशा देख एक क्षण को उन्हें झटका सा लगा कि उफ, उन्होंने यह क्या कर डाला. प्रत्यूष उन के बारे में क्या सोचेगा? शायद शरीर की चाहत के कारण वे बहक गई थीं.

वे तेजी से दूसरे कमरे में गई तो देखा प्रत्यूष आराम से सो रहा है. उन के अंदर उस से नजरें मिलाने का भी साहस नहीं हो रहा था.

रात्रि का खुमार नहीं उतरा था, चेहरे पर तृप्ति और संतुष्टि की मुसकान थी तो मन ही मन प्रत्यूष के रिएक्शन के प्रति डर और घबराहट भी थी. उन की निगाहें आकाश में उगते सूर्य के गोले को देख रही थीं. उगता सूर्य कितनों के जीवन में खुशियों का उजाला लाता है, तो कितनों को गम देता है. आज चिडि़यों का चहचहाना उन के कानों में मधुर संगीत का आभास दे रहा था. रोज की तरह उन्होंने उन के लिए दाना डाला.

प्रत्यूष की आहट से वे संकुचित हो उठी. वे उस का सामना करने से हिचक रही थीं. उस के हाथों में ग्रीन टी का कप था.

‘‘हैलो…’’ उस ने कप को मेज पर रखा और फिर घुटनों के बल उन का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मैं भी अकेला, तुम भी अकेलीं विल यू मैरी मी?’’

ये वे लफ्ज थे, जिन का गीत को बरसों से इंतजार था. आज पहली बार उन्होंने स्वयं उसे अपनी बांहों में भर लिया.

गीत खुशियों के झूले में झूल रही थीं. शादी कर के अपने रिश्ते को एक नाम देना चाहती थीं, वे अपने भाईबहन और करीबियों को बुला कर अपनी खुशी में शामिल करना चाहती थीं.

सब से पहले प्रत्यूष की मां से मिलने चलने का आग्रह उन्होंने उस से किया तो वह नाराज हो उठा. वह आर्यसमाज मंदिर में गुपचुप तरीके से शादी करने के पक्ष में था और वे कोर्ट के द्वारा रजिस्टर्ड मैरिज करना चाहती थीं. इसी विषय में दोनों के बीच थोड़ा तनाव भी हो गया. वह उन के लिए एक डायमंड की अंगूठी ले आया था, लेकिन उन की पारखी निगाहें पलभर में पहचान गईं कि यह नकली है.

कुछ दिन बाद ही उस ने बताया कि शांतनु उसे धोखा दे कर उस के पैसेकपड़े सबकुछ ले कर न जाने कहां चला गया. कमरे को भी छोड़ दिया है. उस के प्यार में पागल वे उस की बातों में आ गईं और दोनो लिवइन में रहने लगे. गीत ने उस पर विश्वास कर के हमदर्दी दिखाते हुए अपना एटीएम कार्ड दे दिया.

प्रत्यूष उन के पैसों पर ऐश करने लगा. कभी शौपिंग तो कभी पार्टी के बिल के मैसेज उन के फोन पर उन्हें मिलते रहते. जब एक दिन उन्होंने पूछा कि किस के संग पार्टी थी तो वह अकड़ कर बोला, ‘‘मेरी सैलरी आने वाली है… सारे पैसे चुका दूंगा.’’

उस के कहने का लहजा उन्हें अच्छा नहीं लगा. उन्होंने गौर किया कि जब भी कोई फोन आता तो वह उन के सामने बात नहीं करता. दूसरे रूम में भी नहीं वरन घर से बाहर जा कर घंटों लंबी बातें करता. उन्होंने उस का फोन या लैपटौप चैक करने की कोशिश की पर वह हरदम लौक लगा कर रखता और अपना पासवर्ड भी नहीं बताता.

उस की यह सब बातें उन्हें खटकने लगीं. उन्हें महसूस हुआ कि जरूर कहीं दाल में काला है. अचानक उन की छठी इंद्रिय जाग्रत हो उठी. उन्होंने चुपचाप से कई जगह स्पाई कैमरे लगवा दिए. फिर वे उस की असलियत पता लगाने में जुट गईं.

सोसायटी के वाचमैन और प्राइवेट डिटैक्टिव की सहायता से चंद दिनों में ही उन की आंखों के समक्ष उस के कुकर्मों की कुंडली खुल गई. वह स्वयं अपनी मृगमरीचिका में छले जाने से बच गईं  थीं.

प्रत्यूष इंजीनियर नहीं था वरन, एक गैंग का सदस्य था, जो अलगअलग शहरों में प्यार का जाल बिछा कर लड़कियों को फंसा कर उन की अस्मत से खेलता था और लौकर में रखी रकम लूटता था. इस में उस का भोलाभाला सुंदर चेहरा और धारा प्रवाह इंग्लिश बोलना बहुत काम आता था.

इस बार गीत को लूटने का जाल रचा था. उन के लौकर को मास्टर चाभी से खोलने की कोशिश करने की संदिग्ध हरकतें कैमरे में कैद थीं. वह उन का डायमंड सैट और कैश ले कर नौ दो ग्यारह होने की कोशिश में था.

पुलिस ने कैमरे के सुबूत के आधार पर उस के हाथों में हथकड़ी लगा दी.

गीत का प्यार का खुमार उतर चुका था. उसे इस हालत में देख उन की आंखें डबडबा उठीं थीं. जीवनसाथी की तलाश में वे अपने ही बुने जाल से मुक्त हो कर बहुत खुश थीं. वे अपने अनुभव को शब्दों के माध्यम से सब के सामने ला कर अपनी छठी इंद्रिय को बारबार धन्यवाद दे रही थीं.

सीख: जब बहुओं को मिलजुल कर रखने के लिए सास ने निकाली तरकीब

हमारे घर की खुशियों और सुखशांति पर अचानक ही ग्रहण लग गया. पहले हमेशा चुस्तदुरुस्त रहने वाली मां को दिल का दौरा पड़ा. वे घर की मजबूत रीढ़ थीं. उन का आई.सी.यू. में भरती होना हम सब के पैरों तले से जमीन खिसका गया. वे करीब हफ्ते भर अस्पताल में रहीं. इतने समय में ही बड़ी और छोटी भाभी के बीच तनातनी पैदा हो गई.

छोटी भाभी शिखा की विकास भैया से करीब 7 महीने पहले शादी हुई थी. वे औफिस जाती हैं. मां अस्पताल में भरती हुईं तो उन्होंने छुट्टी ले ली.

मां को 48 घंटे के बाद डाक्टर ने खतरे से बाहर घोषित किया तो शिखा भाभी अगले दिन से औफिस जाने लगीं. औफिस में इन दिनों काम का बहुत जोर होने के कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा था.

बड़ी भाभी नीरजा को छोटी भाभी का ऐसा करना कतई नहीं जंचा.

‘‘मैं अकेली घर का काम संभालूं या अस्पताल में मांजी के पास रहूं?’’ अपनी देवरानी शिखा को औफिस जाने को तैयार होते देख वे गुस्से से भर गईं, ‘‘किसी एक इनसान के दफ्तर न पहुंचने से वह बंद नहीं हो जाएगा. इस कठिन समय में शिखा का काम में हाथ न बंटाना ठीक नहीं है.’’

‘‘दीदी, मेरी मजबूरी है. मुझे 8-10 दिन औफिस जाना ही पड़ेगा. फिर मैं छुट्टी ले लूंगी और आप खूब आराम करना,’’ शिखा भाभी की सहजता से कही गई इस बात का नीरजा भाभी खामखां ही बुरा मान गईं.

यह सच है कि नीरजा भाभी मां के साथ बड़ी गहराई से जुड़ी हुई हैं. उन की मां उन्हें बचपन में ही छोड़ कर चल बसी थीं. सासबहू के बीच बड़ा मजबूत रिश्ता था और मां को पड़े दिल के दौरे ने नीरजा भाभी को दुख, तनाव व चिंता से भर दिया था.

शिखा भाभी की बात से बड़ी भाभी अचानक बहुत ज्यादा चिढ़ गई थीं.

‘‘बनठन कर औफिस में बस मटरगश्ती करने जाती हो तुम…मैं घर न संभालूं तो तुम्हें आटेदाल का भाव मालूम पड़ जाए…’’ ऐसी कड़वी बातें मुंह से निकाल कर बड़ी भाभी ने शिखा को रुला दिया था.

‘‘मुझे नहीं करनी नौकरी…मैं त्यागपत्र दे दूंगी,’’ उन की इस धमकी को सब ने सुना और घर का माहौल और ज्यादा तनावग्रस्त हो गया.

शिखा भाभी की पगार घर की आर्थिक स्थिति को ठीकठाक बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी. सब जानते थे कि वे जिद्दी स्वभाव की हैं और जिद पर अड़ कर कहीं सचमुच त्यागपत्र न दे दें, इस डर ने पापा को इस मामले में हस्तक्षेप करने को मजबूर कर दिया.

‘‘बहू, उसे दफ्तर जाने दो. हम सब हैं न यहां का काम संभालने के लिए. तुम अपनी सास के साथ अस्पताल में रहो. अंजलि रसोई संभालेगी,’’ पापा ने नीरजा भाभी को गंभीर लहजे में समझाया और उन की आंखों का इशारा समझ मैं रसोई में घुस गई.

राजीव भैया ने नीरजा भाभी को जोर से डांटा, ‘‘इस परेशानी के समय में तुम क्या काम का रोनाधोना ले कर बैठ गई हो. जरूरी न होता तो शिखा कभी औफिस जाने को तैयार न होती. जाओ, उसे मना कर औफिस भेजो.’’

राजीव भैया के सख्त लहजे ने भाभी की आंखों में आंसू ला दिए. उन्होंने नाराजगी भरी खामोशी अख्तियार कर ली. विशेषकर शिखा भाभी से उन की बोलचाल न के बराबर रह गई थी.

अस्पताल से घर लौटी मां को अपनी दोनों बहुओं के बीच चल रहे मनमुटाव का पता पहले दिन ही चल गया.

उन्होंने दोनों बहुओं को अलगअलग और एकसाथ बिठा कर समझाया, पर स्थिति में खास सुधार नहीं हुआ. दोनों भाभियां आपस में खिंचीखिंची सी रहतीं. उन के ऐसे व्यवहार के चलते घर का माहौल तनावग्रस्त बना रहने लगा.

बड़े भैया से नीरजा भाभी को डांट पड़ती, ‘‘तुम बड़ी हो और इसलिए तुम्हें ज्यादा जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए. बच्चों की तरह मुंह फुला कर घूमना तुम्हें शोभा नहीं देता है.’’

छोटे भैया विकास भी शिखा भाभी के साथ सख्ती से पेश आते.

‘‘तुम्हारे गलत व्यवहार के कारण मां को दुख पहुंच रहा है, शिखा. डाक्टरों ने कहा है कि टैंशन उन के लिए घातक साबित हो सकता है. अगर उन्हें दूसरा अटैक पड़ गया तो मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगा,’’ ऐसी कठोर बातें कह कर विकास भैया शिखा भाभी को रुला डालते.

पापा का काम सब को समझाना था. कभीकभी वे बेचारे बड़े उदास नजर आते. जीवनसंगिनी की बीमारी व घर में घुस आई अशांति के कारण वे थके व टूटे से दिखने लगे थे.

मां ज्यादातर अपने कमरे में पलंग पर लेटी आराम करती रहतीं. बहुओं के मूड की जानकारी उन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी उन्होंने मुझ पर डाली हुई थी. मैं बहुत कुछ बातें उन से छिपा जाती, पर झूठ नहीं बोलती. घर की बिगड़ती जा रही स्थिति को ले कर मां की आंखों में चिंता के भावों को मैं निरंतर बढ़ते देख रही थी.

फिर एक खुशी का मौका आ गया. मेरे 3 साल के भतीजे मोहित का जन्मदिन रविवार को पड़ा. इस अवसर पर घर के बोझिल माहौल को दूर भगाने का प्रयास हम सभी ने दिल से किया था.

शिखा भाभी मोहित के लिए बैटरी से पटरियों पर चलने वाली ट्रेन लाईं. हम सभी बनसंवर कर तैयार हुए. बहुत करीबी रिश्तेदारों व मित्रों के लिए लजीज खाना हलवाई से तैयार कराया गया.

उस दिन खूब मौजमस्ती रही. केक कटा, जम कर खायापिया गया और कुछ देर डांस भी हुआ. यह देख कर हमारी खुशियां दोगुनी हो गईं कि नीरजा और शिखा भाभी खूब खुल कर आपस में हंसबोल रही थीं.

लेकिन रात को एक और घटना ने घर में तनाव और बढ़ा दिया था.

शिखा भाभी ने रात को अपने पहने हुए जेवर मां की अलमारी में रखे तो पाया कि उन का दूसरा सोने का सेट अपनी जगह से गायब था.

उन्होंने मां को बताया. जल्दी ही सैट के गायब होने की खबर घर भर में फैल गई.

दोनों बहुओं के जेवर मां अपनी अलमारी में रखती थीं. उन्होंने अपनी सारी अलमारी खंगाल मारी, पर सैट नहीं मिला.

‘‘मैं ने चाबी या तो नीरजा को दी थी या शिखा को. इन लोगों की लापरवाही के कारण ही किसी को सैट चुराने का मौका मिल गया. घर में आए मेहमानों में से अब किसे चोर समझें?’’ मां का चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था.

मां किसी मेहमान को चोर बता रही थीं और शिखा भाभी ने अपने हावभाव से यह जाहिर किया जैसे चोरी करने का शक उन्हें नीरजा भाभी पर हो.

शिखा भाभी नाराज भी नजर आती थीं और रोंआसी भी. किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि उन से इस मामले में क्या कहें. सैट अपनेआप तो गायब हो नहीं सकता था. किसी ने तो उसे चुराया था और शक की सूई सब से ज्यादा बड़ी भाभी की तरफ घूम जाती क्योंकि मां ने अलमारी की चाबी उन्हें दिन में कई बार दी थी.

हम सभी ड्राइंगरूम में बैठे थे तभी नीरजा भाभी ने गंभीर लहजे में छोटी भाभी से कहा, ‘‘शिखा, मैं ने तुम्हारे सैट को छुआ भी नहीं है. मेरा विश्वास करो कि मैं चोर नहीं हूं.’’

‘‘मैं आप को चोर नहीं कह रही हूं,’’ शिखा भाभी ने जिस ढंग से यह बात कही उस में गुस्से व बड़ी भाभी को अपमानित करने वाले भाव मौजूद थे.

‘‘तुम मुंह से कुछ न भी कहो, पर मन ही मन तुम मुझे ही चोर समझ रही हो.’’

‘‘मेरा सैट चोरी गया है, इसलिए कोई तो चोर है ही.’’

‘‘नीरजा, तुम अपने बेटे के सिर पर हाथ रख कर कह दो कि तुम चोर नहीं हो,’’ तनावग्रस्त बड़े भैया ने अपनी पत्नी को सलाह दी.

‘‘मुझे बेटे की कसम खाने की जरूरत नहीं है…मैं झूठ नहीं बोल रही हूं…अब मेरे कहे का कोई विश्वास करे या न करे यह उस के ऊपर है,’’ ऐसा कह कर जब बड़ी भाभी अपने कमरे की तरफ जाने को मुड़ीं तब उन की आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे.

मोहित के जन्मदिन की खुशियां फिर से तनाव व चिंता में बदल गईं.

छोटी भाभी का मूड आगामी दिनों में उखड़ा ही रहा. इस मामले में बड़ी भाभी कहीं ज्यादा समझदारी दिखा रही थीं. उन्होंने शिखा भाभी के साथ बोलना बंद नहीं किया बल्कि दिन में 1-2 बार जरूर इस बात को दोहरा देतीं कि शिखा उन पर सैट की चोरी का गलत शक कर रही है.

मांने उन दोनों को ही समझाना छोड़ दिया. वे काफी गंभीर रहने लगी थीं. वैसे उन को टैंशन न देने के चक्कर में कोई भी इस विषय को उन के सामने उठाता ही नहीं था.

मोहित के जन्मदिन के करीब 10 दिन बाद मुझे कालेज के एक समारोह में शामिल होना था. उस दिन मैं ने शिखा भाभी का सुंदर नीला सूट पहनने की इजाजत उन से तब ली जब वे बाथरूम में नहा रही थीं.

उन की अलमारी से सूट निकालते हुए मुझे उन का खोया सैट मिल गया. वह तह किए कपड़ों के पीछे छिपा कर रखा गया था.

मैं ने डब्बा जब मां को दिया तब बड़ी भाभी उन के पास बैठी हुई थीं. जब मैं ने सैट मिलने की जगह उन दोनों को बताई तो मां आश्चर्य से और नीरजा भाभी गुस्से से भरती चली गईं.

‘‘मम्मी, आप ने शिखा की चालाकी और मक्कारी देख ली,’’ नीरजा भाभी का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा, ‘‘मुझे चोर कहलवा कर सब के सामने अपमानित करवा दिया और डब्बा खुद अपनी अलमारी में छिपा कर रखा था. उसे इस गंदी हरकत की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘तुम अपने गुस्से को काबू में रखो, नीरजा. उसे नहा कर आने दो. फिर मैं उस से पूछताछ करती हूं,’’ मां ने यों कई बार भाभी को समझाया पर वे छोटी भाभी का नाम ले कर लगातार कुछ न कुछ बोलती ही रहीं.

कुछ देर बाद छोटी भाभी सब के सामने पेश हुईं तो मैं ने सैट उन की अलमारी में कपड़ों के पीछे से मिलने की बात दोहरा दी.

सारी बात सुन कर वे जबरदस्त तनाव की शिकार बन गईं. फिर बड़ी भाभी को गुस्से से घूरते हुए उन्होंने मां से कहा, ‘‘मम्मी, चालाक और मक्कार मैं नहीं बल्कि ये हैं. मुझे आप सब की नजरों से गिराने के लिए इन्होंने बड़ी चालाकी से काम लिया है. मेरी अलमारी में सैट मैं ने नहीं बल्कि इन्होंने ही छिपा कर रखा है. ये मुझे इस घर से निकालने पर तुली हुई हैं.’’

नीरजा भाभी ने शिखा भाभी के इस आरोप का जबरदस्त विरोध किया. दोनों के बीच हमारे रोकतेरोकते भी कई कड़वे, तीखे शब्दों का आदानप्रदान हो ही गया.

‘‘खामोश,’’ अचानक मां ने दोनों को ऊंची आवाज में डपटा, तो दोनों सकपकाई सी चुप हो गईं.

‘‘मैं तुम दोनों से 1-1 सवाल पूछती हूं,’’ मां ने गंभीर लहजे में बोलना आरंभ किया, ‘‘शिखा, तुम्हारा सैट मेरी अलमारी से चोरी हुआ तो तुम ने किस सुबूत के आधार पर नीरजा को चोर माना था?’’

शिखा भाभी ने उत्तेजित लहजे में जवाब दिया, ‘‘मम्मी, आप ने चाबी मुझे या इन्हें ही तो दी थी. अपने सैट के गायब होने का शक इन के अलावा और किस पर जाता?’’

‘‘तुम ने मुझ पर शक क्यों नहीं किया?’’

‘‘आप पर चोरी करने का शक पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता, मम्मी. आप आदरणीय हैं. सबकुछ आप का ही तो है…अपनी हिफाजत में रखी चीज कोई भला खुद क्यों चुराएगा?’’ छोटी भाभी मां के सवाल का जवाब देतेदेते जबरदस्त उलझन की शिकार बन गई थीं.

अब मां नीरजा भाभी की तरफ घूमीं और उन से पूछा, ‘‘बड़ी बहू, अंजलि को सैट शिखा की अलमारी में मिला. तुम ने सब से पहले शिखा को ही चालाकी व मक्कारी करने का दोषी किस आधार पर कहा?’’

‘‘मम्मी, मैं जानती हूं कि सैट मैं ने नहीं चुराया था. आप की अलमारी से सैट कोई बाहर वाला चुराता तो वह शिखा की अलमारी से न बरामद होता. सैट को शिखा की अलमारी में उस के सिवा और कौन छिपा कर रखेगा?’’ किसी अच्छे जासूस की तरह नीरजा भाभी ने रहस्य खोलने का प्रयास किया.

‘‘अगर सैट पहले मैं ने ही अपनी अलमारी से गायब किया हो तो क्या उसे शिखा की अलमारी में नहीं रख सकती?’’

‘‘आप ने न चोरी की है, न सैट शिखा की अलमारी में रखा है. आप इसे बचाने के लिए ऐसा कह रही हैं.’’

‘‘बिलकुल यही बात मैं भी कहती हूं,’’ शिखा भाभी ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मम्मी, आप समझ रही हैं कि सारी चालाकी बड़ी भाभी की है और सिर्फ इन्हें बचाने को…’’

‘‘यू शटअप.’’

दोनों भाभियां एकदूसरे को फाड़ खाने वाले अंदाज में घूर रही थीं. मां उन दोनों को कुछ पलों तक देखती रहीं. फिर उन्होंने एक गहरी सांस इस अंदाज में ली मानो बहुत दुखी हों.

दोनों भाभियां उन की इस हरकत से चौंकीं और गौर से उन का चेहरा ताकने लगीं.

मां ने दुखी लहजे में कहा, ‘‘तुम दोनों मेरी बात ध्यान से सुनो. सचाई यही है कि शिखा का सैट मैं ने ही अपनी अलमारी से पहले गायब किया और फिर अंजलि के हाथों उसे शिखा की अलमारी से बरामद कराया.’’

दोनों भाभियों ने चौंक कर मेरी तरफ देखा. मैं ने हलकी सी मुसकराहट अपने होंठों पर ला कर कहा, ‘‘मां, सच कह रही हैं. मैं सैट चुन्नी में छिपा कर शिखा भाभी के कमरे में ले गई थी और फिर हाथ में पकड़ कर वापस ले आई. ऐसा मैं ने मां के कहने पर किया था.’’

‘‘मम्मी, आप ने यह गोरखधंधा क्यों किया? अपनी दोनों बहुओं के बीच मनमुटाव कराने के पीछे आप का क्या मकसद रहा?’’ नीरजा भाभी ने यह सवाल शिखा भाभी की तरफ से भी पूछा.

मां एकाएक बड़ी गंभीर व भावुक हो कर बोलीं, ‘‘मैं ने जो किया उस की गहराई में एक सीख तुम दोनों के लिए छिपी है. उसे तुम दोनों जिंदगी भर के लिए गांठ बांध लो.

‘‘देखो, मेरी जिंदगी का अब कोई भरोसा नहीं. मेरे बाद तुम दोनों को ही यह घर चलाना है. राजीव और विकास सदा मिल कर एकसाथ रहें, इस के लिए यह जरूरी है कि तुम दोनों के दिलों में एकदूसरे के लिए प्यार व सम्मान हो.

‘‘सैट से जुड़ी समस्या पैदा करने की जिम्मेदार मैं हूं, पर तुम दोनों में से किसी ने मुझ पर शक क्यों नहीं किया?

‘‘इस का जवाब तुम दोनों ने यही दिया कि मैं तुम्हारे लिए आदरणीय हूं…मेरी छवि ऐसी अच्छी है कि मुझे चोर मानने का खयाल तक तुम दोनों के दिलों में नहीं आया.

‘‘तुम दोनों को आजीवन एकदूसरे का साथ निभाना है. अभी तुम दोनों के दिलों में एकदूसरे पर विश्वास करने की नींव कमजोर है तभी बिना सुबूत तुम दोनों ने एकदूसरे को चोर, चालाक व मक्कार मान लिया.

‘‘आज मैं अपनी दिली इच्छा तुम दोनों को बताती हूं. एकदूसरे पर उतना ही मजबूत विश्वास रखो जितना तुम दोनों मुझ पर रखती हो. कैसी भी परिस्थितियां, घटनाएं या लोगों की बातें कभी इस विश्वास को न डगमगा पाएं ऐसा वचन तुम दोनों से पा कर ही मैं चैन से मर सकूंगी.’’

‘‘मम्मी, ऐसी बात मुंह से मत निकालिए,’’ मां की आंखों से बहते आंसुओं को पोंछने के बाद नीरजा भाभी उन की छाती से लग गईं.

‘‘आप की इस सीख को मैं हमेशा याद रखूंगी…हमें माफ कर दीजिए,’’ शिखा भाभी भी आंसू बहाती मां की बांहों में समा गईं.

‘‘मैं आज बेहद खुश हूं कि मेरी दोनों बहुएं बेहद समझदार हैं,’’ मां का चेहरा खुशी से दमक उठा और मैं भी भावुक हो उन की छाती से लग गई.

तुम्हारी रोजी: क्यों पति को छोड़कर अमेरिका लौट गई वो?

उस का नाम रोजी था. लंबा शरीर, नीली आंखें और सांचे में ढला हुआ शरीर. चेहरे का रंग तो ऐसा जैसे मैदे में सिंदूर मिला दिया गया हो.

रोजी को भारत की संस्कृति से बहुत प्यार था और इसलिए उस ने अमेरिका में रहते हुए भी हिंदी भाषा की पढ़ाई की थी और हिंदी बोलना भी सीखा.

उस ने किताबों में भारत के लोगों की शौर्यगाथाएं खूब सुनी थीं और इसलिए भारत को और नजदीक से
जानने के लिए वह राजस्थान के एक छोटे से गांव में घूमने आई थी.

अभी उस की यात्रा ठीक से शुरू भी नहीं हो पाई थी कि कुछ लोगों ने एक विदेशी महिला को देख कर आदतानुसार अपनी लार गिरानी शुरू कर दी और रोजी को पकड़ कर उस का बलात्कार करने की कोशिश की. पर इस से पहले कि वे अपने इस मकसद में कामयाब हो पाते, एक सजीले से युवक रूप ने रोजी
को उन लड़कों से बचाया और उस के तन को ढंकने के लिए अपनी शर्ट उतार कर दे दी.

रूप की मर्दानगी और उदारता से रोजी इतना मोहित हुई कि उस ने रूप से चंद मुलाकातों के बाद ही शादी का प्रस्ताव रख दिया.

रोजी पढ़ीलिखी थी व सुंदर युवती थी. पैसेवाली भी थी इसलिए रूप को उस से शादी करने के लिए हां कहने मे कोई परेशानी नहीं हुई पर थोड़ाबहुत प्रतिरोध आया भी तो वह रूप के रिश्तेदारों की तरफ से कि एक विदेशी क्रिस्चियन लड़की से शादी कैसे होगी? न जात की न पात की और न देशकोस की…इस से कैसे निभ पाएगी?

पर रूप अपना दिल और जबान तो रोजी को दे ही चुका था इसलिए उस की ठान को काटने की हिम्मत किसी में नहीं हुई पर पीठ पीछे सब ने बातें जरूर बनाईं.

अंगरेजन बहू की पूरे गांव में चर्चा थी.

“भाई देखने में तो सुंदर है. पतली नाक और लंबा शरीर,” एक ने कहा.

“पर भाई, दोनों लोगों में संबंध भारतीय तरीके से बनते होंगे या फिर अंगरेजी तरीके से? या फिर दोनों लोग इशारोंइशारों मे ही सब काम करते होंगे,” दूसरे ने चुटकी ली.

“कुछ भी कहो, यार पर मुझे तो सारी अंगरेजन लड़कियों को देख कर तो बस एक ही फीलिंग आती है कि ये सब वैसी वाली फिल्मों की ही हीरोइनें हैं.”

इस पर सभी जोर के ठहाके लगाते हुए हंसते.

उधर औरतों की जमात में भी आजकल बातचीत का मुद्दा रोजी ही थी.

“सुना है रूप की बहू मुंह उघाड़ कर घूमती है,” पहली औरत बोली.

“न जी न कोई झूठ न बुलवाए. अभी कल ही उस से मिल कर आई हूं, बड़ी गुणवान सी लगी मुझे और कल तो उस ने घाघराचोली पहना था और अपने सिर को भी ढंकने की कोशिश कर रही थी पर अभी नईनई है न इसलिए पल्लू बारबार
खिसक जा रहा था,”दूसरी औरत ने कहा.

“पर जरा यह तो बताओ कि दोनों में बातचीत किस भाषा में होती होगी ? रूप इंग्लिश सीखे या फिर अंगरेजन बहू को हिंदी सीखनी पड़ेगी,” तीसरी औरत ने कहा.

और उन की बात सच ही साबित हुई. रोजी को नया काम सीखने का इतना चाव था कि काफी हद तक घर का कामकाज भी सीखने लगी थी.

रोजी के गांव में आने से जवान तो जवान बल्कि बूढ़े भी उस की खूबसूरती के दीवाने हो गए थे और आहें भरा करते थे. कुछ युवक तो रोजी की एक झलक पाने के लिए रूप से बहाने से मिलने भी आ धमकते.

गांव के पुरुषों को लगता था कि एक विलायती बहू के लिए तो किसी से भी शारीरिक संबंध बना लेना बहुत ही सहज होता है.

रोजी के सासससुर को शुरुआत में तो अपनी विलायती बहू के साथ आंकड़ा बैठाने में समस्या हुई पर मन से न सही ऊपर मन से ही सास रोजी को मानने का नाटक करने ही लगी थीं.
दूसरों की क्या कही जाए रूप का चचेरा भाई शेरू भी अपनी रिश्ते की भाभी पर बुरी नजर लगाए हुए था.

रूप और शेरू का घर एकदूसरे से कुछ ही दूरी पर था इसलिए शेरू दिन में कई बार आता और बहाने से रोजी के आसपास मंडराता. ऐसा करने के पीछे भी उस की यही मानसिकता थी कि अंगरेजन तो कई मर्दों से संबंध  बना लेती हैं और इन के लिए
पति बदलना माने चादर बदलना होता है.

क्या पता कब दांव लग जाए और अपने पति की गैरमौजूदगी में कब रोजी का मूड बन जाए और शेरू को उस के साथ अपने जिस्म की आग निकालने का मौका मिल जाए.

पर रोजी बेचारी इन सब बातों से अनजान भारत में ही रह कर यहां के लोगों को समझ रही थी और रीतिरिवाज सीख रही थी.

इस सीखने में एक बड़ी बाधा तब आई जब रोजी को शादी के बाद माहवारीचक्र से गुजरना था. रोजी ने पढ़ रखा था कि इन दिनों में गांव में बहुत ही नियमों का पालन किया जाता है इसलिए उस ने इस बारे में अपनी सास को बता दिया.

रोजी की सास ने उसे कुछ नसीहतें दीं और यह भी बताया कि अभी वे लोग पास के गांव में एक समारोह में जा रहे हैं और चूंकि उसे अभी किचन में प्रवेश नहीं करना है इसलिए सासूमां ने उसे बाहर ही नाश्ता भी दे दिया और घर के लोग चले गए.

रोजी घर में अकेली रह गई. उस ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. नाश्ता शुरू करने से पहले रोजी की चाय ठंडी हो गई थी और चाय को गरम करने के लिए उसे किचन में जाना था.

‘सासूमां तो किचन में जाने को मना कर गई हैं. कोई बात नहीं बाहर से किसी बच्चे को बुला कर उसे किचन में भेज कर चाय गरम करवा लेती हूं,’ ऐसा सोच कर रोजी ने दरवाजा खोल कर बाहर की ओर झांका तो सामने ही आसपड़ोस के कुछ किशोर लड़के बैठेबैठे गाना सुन रहे थे.

“भैयाजी, जरा इधर आना तो… मेरा एक छोटा सा काम कर देना,” रोजी ने एक लड़के को उंगली से इशारा कर के बुलाया और खुद अंदर चली गई.

रोजी घर में अकेली है, यह उन बाहर बैठे हुए लड़कों को पता था हालांकि रोजी की नजर में वे लड़के अभी बच्चे ही थे पर उसे क्या पता कि ये बच्चे उस के बारे में क्या सोचे बैठे हैं…

“अबे भाई तेरी तो लौटरी लग गई. विलायती माल घर में अकेली है और तुझे इशारे से बुला रही है. जा मजे लूट.”

“हां, एक काम जरूर करना दोस्त, उस की वीडियो जरूर बना लेना,” एक ने कहा.

मन में ढेर सारी कामुक कल्पनाएं ले कर वह किशोर लड़का अंदर आया तो रोजी ने निश्छल भाव से उस से चाय गरम कर देने को कहा.

लड़का मन ही मन खुश हुआ और उस ने सोचा कि य. तो हंसीनाओं के अंदाज होते हैं. उस ने चाय गरम कर के रोजी को प्याली पकड़ाई और उस की उंगलियों को छूने का उपक्रम करते हुए उस के सीने को जोर से भींच लिया.

इस बदतमीजी से रोजी चौंक उठी और गुस्से में भर उठी. एक जोरदार तमाचा उस ने उस लड़के के गाल पर रसीद दिए. गाल सहलाता रह गया वह लड़का मगर फिर भी रोजी से जबरदस्ती करने लगा. रोजी ने उसे
धक्का दे दिया. तभी इतने में रूप खेतों पर से वापस आ गया. रोजी जा कर उस से लिपट गई और कहने लगी कि यह लड़का उसे छेड़ रहा है.

इस से पहले कि सारा माजरा रूप की समझ में आ पाता नीचे गिरा हुआ लड़का जोर से रोजी की तरफ मुंह कर के चिल्लाने लगा,”पहले तो इशारे से बुलवाती हो और जब कोई पीछे से आ जाता है तो छेड़ने का आरोप लगाती हो. अरे वाह रे त्रियाचरित्र…” वह लड़का चीखते हुए बोला.

“रूप इस का भरोसा नहीं करना. यह गंदी नीयत डाल रहा था मुझ पर. मेरा भरोसा करो.”

रोजी की बात पर रूप को पूरा भरोसा था इसलिए उस ने तुरंत ही उस लड़के के कालर पकङे और धक्का देते हुए दरवाजे तक ले आया.

तब घर के बाहर उस के पड़ोसियों की भीड़ जमा होते देख कर उस ने खुद ही मामला रफादफा कर दिया और उस लड़के को डांट कर भगा दिया.

उस दिन की घटना के बारे में भले ही लोग पीठ पीछे बातें करते रहे पर सामने कोई कुछ नहीं कह सका.

यह पहली दफा था जब रोजी को गांव में शादी कर के आना खटक रहा था. वह इस घटना से अंदर तक हिल गई थी पर जब रात को रूप ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और जीभर कर प्यार किया तो उस के मन का भारीपन थोड़ा कम हुआ.

एक दिन की बात है. रूप किसी काम से शहर गया हुआ था तब मौका देखकर शेरू रोजी की सास के पास आया और आवाज में लाचारी भर कर बोला,”ताईजी, दरअसल बात यह है कि आप की बहू की तबीयत अचानक खराब हो गई है और मुझे शाम होने से पहले शहर
जा कर दवाई लानी है और अब आनेजाने का कोई साधन नहीं है, जो मुझे शाम से पहले शहर पहुंचा दे.”

“हां तो उस में क्या है शेरू, तू रूप की गाड़ी ले कर चला जा. खाली ही तो खड़ी है,”रोज़ी की सासूमां ने कहा.

“हां सो तो है ताईजी, पर आप तो जानती हो कि मैं गाड़ी चलाना नहीं जानता. अगर आप इजाजत दो तो मैं भाभी को अपने साथ लिए जाऊं? वे तो विदेशी हैं और गाड़ी तो चला ही लेती हैं. हम बस यों जाएंगे और बस यों आएंगे.”

शेरू की बात सुन कर रोजी की सास हिचकी, पर उस ने इतनी लाचारी से यह बात कही थी कि वे चाह कर भी मना नहीं कर पाईं.

“अरे बहू, जरा गाड़ी निकाल कर शेरू के साथ चली जा. शहर से कोई दवा लानी है इसे,” रोजी की सास ने कहा.

“जी मांजी, चली जाती हूं.”

“और सुन, जरा धीरे गाड़ी चलाना. यह गांव है हमारा, तेरा विदेश नहीं,” सासूमां ने मुस्कराते हुए कहा.

रोजी को क्या पता था कि शेरू की नीयत में ही खोट है. उस ने गाड़ी निकाली और शेरू कृतज्ञता से हाथ जोड़ कर बैठ गया. रोजी ने गाड़ी बढ़ा दी.

गांव से कुछ दूर निकल आने के बाद एक सुनसान जगह पर शेरू दांत चियारते हुए बोला,”भाभी, थोडा गाड़ी रोको… जरा पेशाब कर आएं.”

गाड़ी रुकी तो शेरू झाड़ियों के पीछे चल गया और उस के जाते ही शेरू के 3 दोस्त कहीं से आ गए और शेरू से बातचीत करने लगे और बातें करतेकरते गाड़ी मैं बैठ गए.

इससे पहले कि रोजी कुछ समझ पाती शेरू ने उस का मुंह तेजी से दबा दिया और एक दोस्त ने रोजी के हाथों को रस्सी से बांध दिया और शेरू गाड़ी के अंदर ही रोजी के कपड़े फाड़ने लगा.

रोजी अब तक उन लोगों की गंदी नीयत समझ गई थी. उस के हाथ जरूर बंधे हुए थे पर पैर अभी मुक्त थे. उस ने एक जोर की लात शेरू के
मरदाना अंग पर मारी.

दर्द से बिलबिला उठा था शेरू. अपना अंग अपने हाथों से पकड़ कर वहीं जमीन पर लौटने लगा.

इस दौरान उस के एक दोस्त ने रोजी के पैरों को भी रस्सी से बांध दिया और रोजी के नाजुक अंगों से खेलने लगा.

“रुक जाओ, पहले इस विदेशी कुतिया को मैं नोचूंगा. कमीनी ने बहुत तेज मार दिया है. अब इसे मैं बताता हूं कि दर्द क्या होता है.”

एक दरिंदा की तरह वह टूट पङा रोजी पर. रिश्ते की मर्यादा को भी उस ने तारतार कर दिया था. उस के बाद उस के तीनों दोस्तों ने रोजी के साथ बलात्कार किया. चीख भी नहीं सकी थी वह.

बलात्कार करने के बाद उस के हाथपैरों को खोल दिया उन लोगों ने.
जब रोजी की चेतना लौटी तो पोरपोर दर्द कर रहा था. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? पुलिस में रिपोर्ट करे या अपना जीवन ही खत्म कर दे?

पर भला वह जीवन को क्यों खत्म करे? आखिर उस ने क्या गलत क्या किया है? बस इतना कि किसी झूठ बोल कर सहायता मांगने वाले की सहायता की है और फिर किसी के चेहरे को देख कर उस की
नीयत का अंदाजा तो नहीं लगाया जा सकता है न…

‘अगर मैं इसी तरह मर गई तो रूप क्या सोचेगा?’ परेशान रोजी ने पहले यह बात रूप को बताने के लिए सोची और उस के बाद ही कोई फैसला लेने का मन बनाया.

रोजी किसी तरह घर वापस पहुंची तो रूप वहां पहले से ही बैठा हुआ उस की राह देख रहा था. रोजी रूप से लिपट गई और रोने लगी.

“क्या हुआ रोजी? तुम्हारे बदन पर इतने निशान कैसे आए? क्या कोई दुर्घटना हुई है तुम्हारे साथ?” रूप ने रोजी के हाथों और चेहरे को देखते हुए कहा.

“हां, दुर्घटना ही तो हुई है. ऐसी दुर्घटना जिस के घाव मेरे जिस्म पर ही नहीं आत्मा पर भी पहुंचे हैं…”

“पर हुआ क्या है?” सब्र का बाँध टूट रहा था रूप का.

“शेरू ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर मेरे साथ बलात्कार किया है…” फफक पङी थी रोजी.

“क्या… उस ने तुम्हारे साथ ऐसा किया? मैं शेरू को ऐसी सजा दूंगा कि उस की पुश्तें भी कांप उठेंगी. मैं उस को जिंदा नहीं छोडूंगा.”

रूप ने रिवाल्वर पर मुट्ठी कसी, कुछ कदम तेजी से बढ़ाए और फिर अचानक रोजी की तरफ पलटा और बोला,”वैसे, एक बात मुझे समझ नहीं आती कि जब से मैं ने तुम्हें जाना है तब से तुम्हारे साथ कोई न कोई छेड़छाड़ होती ही रहती है. कहीं कोई तुम्हें देख कर घर में घुसता है और कहीं कोई तुम्हारे साथ गैंगरेप करता है. आखिर अपनी गाड़ी चला कर तुम
क्यों गई थीं शेरू को ले कर? सवाल तो तुम पर भी उठ सकते हैं न?”

शेरू के मुंह से निकले ये शब्द उसे बाणों की तरह लग रहे थे. कुछ भी न कह सकी रोजी. आंसुओं में टूट गई थी वह और अपने कमरे की तरफ भाग गई थी.

अगले दिन रोजी पूरे घर में कहीं नहीं थी. अलबत्ता, उस के बिस्तर पर एक कागज रखा जरूर मिला.

कागज में लिखा था-

मेरे रूप,

मैं जब से भारत आई, सब ने मेरी देह को ही देखा और सब ने मेरी देह को ही भोगना चाहा. कहीं किसी ने कुहनी मारी तो किसी ने पीछे से धक्का मारा. तुम्हारी आंखों में पहली बार मुझे सच्चा प्रेम दिखा तो मैं ने तुम से ब्याह रचाया पर अब मुझ पर तुम्हारा विश्वास भी डगमगा रहा है.

माना कि मैं यहां के लिए विदेशी हूं, मगर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं सब के साथ सो सकती हूं. क्या सब लोग मुझे एक वेश्या भर समझते हैं?

मेरे जाने के बाद मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत करना, क्योंकि मैं अपने घर वापस जा रही हूं. मैं तो यहां की संस्कृति के बारे में जानने और समझने आई थी, पर अब मन भर गया है. अफसोस यह वह भारत नहीं जिस के बारे में मैं ने किताबों में पढ़ा था…

 

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