Father’s day Special: पापा मिल गए

शब्बीर की मौत के बाद दोबारा शादी का जोड़ा पहन कर इकबाल को अपना पति मानने के लिए बानो को दिल पर पत्थर रख कर फैसला करना पड़ा, क्योंकि हालात से समझौता करने के सिवा कोई दूसरा रास्ता भी तो उस के पास नहीं था. अपनी विधवा मां पर फिर से बोझ बन जाने का एहसास बानो को बारबार कचोटता और बच्ची सोफिया के भविष्य का सवाल न होता, तो वह दोबारा शादी की बात सोचती तक नहीं.

‘‘शादी मुबारक हो,’’ कमरे में घुसते ही इकबाल ने कहा.

‘‘आप को भी,’’ सुन कर बानो को शब्बीर की याद आ गई. इकबाल को भी नुसरत की याद आ गई, जो शादी के 6-7 महीने बाद ही चल बसी थी. वह बानो को प्यार से देखते हुए बोला, ‘‘क्या मैं ने अपनी नस्सू को फिर से पा लिया है?’’

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया.

‘‘क्या बात है?’’ कहते हुए इकबाल ने दरवाजा खोला तो देखा कि सामने उस की साली सलमा रोतीबिलखती सोफिया को लादे खड़ी है.

‘‘आपा के लिए यह कब से परेशान है? चुप होने का नाम ही नहीं लेती. थोड़ी देर के लिए आपा इसे सीने से लगा लेतीं, तो यह सो जाती,’’ सलमा ने डरतेडरते कहा.

‘‘हां… हां… क्यों नहीं,’’ सलमा को अंदर आ जाने का इशारा करते हुए इकबाल ने गुस्से में कहा. रोती हुई सोफिया को बानो की गोद में डाल कर सलमा तेजी से कमरे से बाहर निकल गई. इधर बानो की अजीब दशा हो रही थी. वह कभी सोफिया को चुप कराने की कोशिश करती, तो कभी इकबाल के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करती. सोफिया के लिए इकबाल के चेहरे पर गुस्सा साफ झलक रहा था. इस पर बानो मन ही मन सोचने लगी कि सोफिया की भलाई के चक्कर में कहीं वह गलत फैसला तो नहीं कर बैठी?

सुबह विदाई के समय सोफिया ने अपनी अम्मी को एक अजनबी के साथ घर से निकलते देखा, तो झट से इकबाल का हाथ पकड़ लिया और कहने लगी, ‘‘आप कौन हैं? अम्मी को कहां ले जा रहे हैं?’’ सोफिया के बगैर ससुराल में बानो का मन बिलकुल नहीं लग रहा था. अगर हंसतीबोलती थी, तो केवल इकबाल की खातिर. शादी के बाद बानो केवल 2-4 दिन के लिए मायके आई थी. उन दिनों सोफिया इकबाल से बारबार पूछती, ‘‘मेरी अम्मी को आप कहां ले गए थे? कौन हैं आप?’’

‘‘गंदी बात बेटी, ऐसा नहीं बोलते. यह तुम्हारे खोए हुए पापा हैं, जो तुम्हें मिल गए हैं,’’ बानो सोफिया को भरोसा दिलाने की कोशिश करती.

‘‘नहीं, ये पापा नहीं हो सकते. रोजी के पापा उसे बहुत प्यार करते हैं. लेकिन ये तो मुझे पास भी नहीं बुलाते,’’ सोफिया मासूमियत से कहती. सोफिया की इस मासूम नाराजगी पर एक दिन जाने कैसे इकबाल का दिल पसीज उठा. उसे गोद में उठा कर इकबाल ने कहा, ‘‘हां बेटी, मैं ही तुम्हारा पापा हूं.’’ यह सुन कर बानो को लगने लगा कि सोफिया अब बेसहारा नहीं रही. मगर सच तो यह था कि उस का यह भरोसा शक के सिवा कुछ न था.

इस बात का एहसास बानो को उस समय हुआ, जब इकबाल ने सोफिया को अपने साथ न रखने का फैसला सुनाया.

‘‘मैं मानता हूं कि सोफिया तुम्हारी बेटी है. इस से जुड़ी तुम्हारी जो भावनाएं हैं, उन की मैं भी कद्र करता हूं, मगर तुम को मेरी भी तो फिक्र करनी चाहिए. आखिर कैसी बीवी हो तुम?’’ इकबाल ने कहा.

‘‘बस… बस… समझ गई आप को,’’ बानो ने करीब खड़ी सोफिया को जोर से सीने में भींच लिया. इस बार बानो ससुराल गई, तो पूरे 8 महीने बाद मायके लौट कर वापस आई. आने के दोढाई हफ्ते बाद ही उस ने एक फूल जैसे बच्चे को जन्म दिया. इकबाल फूला नहीं समा रहा था. उस के खिलेखिले चेहरे और बच्चे के प्रति प्यार से साफ जाहिर था कि असल में तो वह अब बाप बना है. आसिफ के जन्म के बाद इकबाल सोफिया से और ज्यादा दूर रहने लगा था. इस बात को केवल बानो ही नहीं, बल्कि उस के घर वाले भी महसूस करने लगे थे. इकबाल के रूखे बरताव से परेशान सोफिया एक दिन अम्मी से पूछ बैठी, ‘‘पापा, मुझ से नाराज क्यों रहते हैं? टौफी खरीदने के लिए पैसे भी नहीं देते. रोजी के पापा तो रोज उसे एक सिक्का देते हैं.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है बेटी. पापा तुम से भला नाराज क्यों रहेंगे. वे तुम्हें टौफी के लिए पैसा इसलिए नहीं देते, क्योंकि तुम अभी बहुत छोटी हो. पैसा ले कर बाहर निकलोगी, तो कोई छीन लेगा.

‘‘पापा तुम्हारा पैसा बैंक में जमा कर रहे हैं. बड़ी हो जाओगी, तो सारे पैसे निकाल कर तुम्हें दे देंगे.’’ ‘‘मगर, पापा मुझे प्यार क्यों नहीं करते? केवल आसिफ को ही दुलार करते हैं,’’ सोफिया ने फिर सवाल किया.

‘‘दरअसल, आसिफ अभी बहुत छोटा है. अगर पापा उस का खयाल नहीं रखेंगे, तो वह नाराज हो जाएगा,’’ बानो ने समझाने की कोशिश की. इसी बीच आसिफ रोने लगा, तभी इकबाल आ गया, ‘‘यह सब क्या हो रहा है बानो? बच्चा रो रहा है और तुम इस कमबख्त की आंखों में आंखें डाल कर अपने खो चुके प्यार को ढूंढ़ रही हो.’’ इकबाल के शब्दों ने बानो के दिल को गहरी चोट पहुंचाई.

‘यह क्या हो रहा है?’ घबरा कर उस ने दिल ही दिल में खुद से सवाल किया, ‘मैं ने तो सोफिया के भले के लिए जिंदगी से समझौता किया था, मगर…’ वह सिसक पड़ी. इकबाल ने घर लौटने का फैसला सुनाया, तो बानो डरतेडरते बोली, ‘‘4-5 रोज से आसिफ थोड़ा बुझाबुझा सा लग रहा है. शायद इस की तबीयत ठीक नहीं है. डाक्टर को दिखाने के बाद चलते तो बेहतर होता.’’

इकबाल ने कोई जवाब नहीं दिया. आसिफ को उसी दिन डाक्टर के पास ले जाया गया.

‘‘इस बच्चे को जौंडिस है. तुरंत इमर्जैंसी वार्ड में भरती करना पड़ेगा,’’ डाक्टर ने बच्चे का चैकअप करने के बाद फैसला सुनाया, तो इकबाल माथा पकड़ कर बैठ गया.

‘‘अब क्या होगा?’’ माली तंगी और बच्चे की बीमारी से घबरा कर इकबाल रोने लगा.

‘‘पापा, आप तो कभी नहीं रोते थे. आज क्यों रो रहे हैं?’’ पास खड़ी सोफिया इकबाल की आंखों में आंसू देख कर मचल उठी. डरतेडरते सोफिया बिलकुल पास आ गई और इकबाल की भीगी आंखों को अपनी नाजुक हथेली से पोंछते हुए फिर बोली, ‘‘बोलिए न पापा, आप किसलिए रो रहे हैं? आसिफ को क्या हो गया है? वह दूध क्यों नहीं पी रहा?’’ सोफिया की प्यारी बातों से अचानक पिघल कर इकबाल ने कहा, ‘‘बेटी, आसिफ की तबीयत खराब हो गई है. इलाज के लिए डाक्टर बहुत पैसे मांग रहे हैं.’’ ‘‘कोई बात नहीं पापा. आप ने मेरी टौफी के लिए जो पैसे बैंक में जमा कर रखे हैं, उन्हें निकाल कर जल्दी से डाक्टर अंकल को दे दीजिए. वह आसिफ को ठीक कर देंगे,’’ सोफिया ने मासूमियत से कहा.

इकबाल सोफिया की बात समझ नहीं सका. पूछने के लिए उस ने बानो को बुलाना चाहा, मगर वह कहीं दिखाई नहीं दी. दरअसल, बानो इकबाल को बिना बताए आसिफ को अपनी मां की गोद में डाल कर बैंक से वह पैसा निकालने गई हुई थी, जो शब्बीर ने सोफिया के लिए जमा किए थे.

‘‘इकबाल बाबू, बानो किसी जरूरी काम से बाहर गई है, आती ही होगी. आप आसिफ को तुरंत भरती कर दें. पैसे का इंतजाम हो जाएगा,’’ आसिफ को गोद में चिपकाए बानो की मां ने पास आ कर कहा, तो इकबाल आसिफ को ले कर बोझिल मन से इमर्जैंसी वार्ड की तरफ बढ़ गया. सेहत में काफी सुधार आने के बाद आसिफ को घर ले आया गया.

‘‘यह तुम ने क्या किया बानो? शब्बीर भाई ने सोफिया के लिए कितनी मुश्किल से पैसा जमा किया होगा, मगर…’’ असलियत जानने के बाद इकबाल बानो से बोला.

‘‘सोफिया की बाद में आसिफ की जिंदगी पहले थी,’’ बानो ने कहा.

‘‘तुम कितनी अच्छी हो. वाकई तुम्हें पा कर मैं ने नस्सू को पा लिया है.’’ ‘‘वाकई बेटी, बैंक में अगर तुम्हारी टौफी के पैसे जमा न होते, तो आसिफ को बचाना मुश्किल हो जाता,’’ बानो की तरफ से नजरें घुमा कर सोफिया को प्यार से देखते हुए इकबाल ने कहा. ‘‘मैं कहती थी न कि यही तुम्हारे पापा हैं?’’ बानो ने सोफिया से कहा.

इकबाल ने भी कहा, ‘‘हां बेटी, मैं ही तुम्हारा पापा हूं.’’ सोफिया ने बानो की गोद में खेल रहे आसिफ के सिर को सीने से सटा लिया और इकबाल का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मेरे पापा… मेरे अच्छे पापा.’’

यह तो होना ही था: भाग 1- वासना का खेल मोहिनी पर पड़ गया भारी

अपमानित, शर्मसार, निर्वस्त्र मोहिनी अपनेआप को बैड पर बिछी चादर से ढकने की कोशिश कर रह थी. मन फूटफूट कर, चीखचीख कर रोने को कर रहा था, लेकिन अपमान के सदमे से आंखें इतनी खुश्क थीं जैसे पत्थर की हों. अभीअभी एक तूफान उस के जीवन में आ कर गया था. कमरे के बाहर का शोर कुछ ठंडा तो पड़ा था. लेकिन यह तूफान उस के जीवन को हमेशा के लिए तहसनहस कर गया था.

मोहिनी 18 साल की थी जब शिव कुमार से उस का विवाह हुआ था, मोहिनी का उन से कभी वैचारिक तालमेल नहीं बैठा. शिव कुमार इंगलिश के अध्यापक थे व शांत गंभीर शिव कुमार ने उसे घर की चाबी पकड़ाई और लगभग भूल गए कि वह है चंचल मोहिनी. उन के गहरेपन को कभी सम झ नहीं पाई. शिव कुमार ने उसे आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया, लेकिन अपने रूप और मन के बिंदासपन के आगे उस ने कभी शिव कुमार की बात को गंभीरता से नहीं लिया.

उसी साल मोहिनी ने एक पुत्री को जन्म दिया, मां बन कर भी वह अल्हड़ युवती बनी रही. शिव कुमार ने बेटी कोमल की देखरेख भी एक तरह से अपने जिम्मे ले ली. कालेज से आते तो बेटी की देखरेख पर ध्यान देते, मोहिनी इधरउधर सहेलियों के साथ सैरसपाटा करती.

कोमल अपने पिता की तरह धीरगंभीर, शांत, दृढ़चरित्र की स्वामिनी थी. वह अपने पिता की छत्रछाया में पलतीबढ़ती रही. कोमल ने इंग्लिश में एमए किया ही था कि शिव कुमार का हृदयाघात से निधन हो गया. मांबेटी दोनों ने किसी तरह अपने को संभाला. पीएफ, पैंशन सब मोहिनी को मिला, अब उसे अपने भविष्य की चिंता खाए जा रही थी.

सब से बड़ी चिंता उसे कोमल की नहीं, अपनी थी, उसे अपने लिए किसी पुरुष का साथ चाहिए था, वह दूसरा विवाह भी नहीं करना चाहता थी, सोचती कौन फिर से  झं झट में पड़े, किसी की घरगृहस्थी की जिम्मेदारी क्यों उठाए. अगर किसी से तनमनधन की जरूरत बिना विवाह के पूरी हो जाए तो क्या हरज है आराम से जी लेगी.

मोहिनी दिनभर यही योजनाएं बनाती, सोचती कुछ ऐसा किया जाए ताकि बाकी का जीवन आराम से कट जाए, देखते में वह कोमल की बड़ी बहन ही लगती थी, यत्न से सजाया गया रूपसौंदर्य किशोरियों को भी पीछे छोड़ देता था और इसी बीच कोमल ने बीएड भी कर लिया तो शिव कुमार के कालेज में ही उसे इंगलिश की अध्यापिका का पद मिल गया. आर्थिक रूप से मांबेटी ठीक स्थिति में थीं, घर अपना था ही लेकिन मोहनी को मन ही मन यह चिंता थी कि शादी के बाद कोमल की अपनी घरगृहस्थी होगी तो वह मां पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएगी.

मोहिनी के मायके में अब कोई नहीं था, मातापिता की मृत्यु हो चुकी थी, भाईबहन कोई था नहीं. ससुराल वालों से उस की कभी बनी नहीं थी. शिव कुमार की मृत्यु के बाद तो संबंध बिलकुल ही खत्म हो चुके थे और अब लखनऊ की इस कालोनी में मांबेटी अकेली ही रहती थीं. पासपड़ोसी अच्छे थे, उन का हालचाल लेते रहते थे, लेकिन मोहिनी को जिस चीज की तलाश थी, वह उसे एक विवाह समारोह से मिली, अनिल से उस का परिचय उस की सहेली अंजू ने करवाया था. अंजू ने उस को कहा था, ‘‘मोहिनी है हमारे दफ्तर के नया सीनियर अफसर, मातापिता हैं नहीं, एक बहन है जो विदेश में रहती है. महाराष्ट्र से है और रिजर्व कोटे की वजह से आए है पर अच्छेअच्छों को मात दे देता.’’

मोहिनी को अनिल पहली ही नजर में पसंद आ गया. उस के मन की मुराद पूरी हो गई. सुंदर, स्मार्ट है, भिन्न जाति का है तो क्या हुआ. सुल झा हुआ है, देखने में कश्मीरी लगता है. अनिल की तरफ वह आकर्षित हो गई.

अनिल उस से अच्छी तरह मिला और यह जान कर हैरान हुआ कि वह एक युवा बेटी की मां है. दोनों काफी देर अकेले में बातें करते रहे. अनिल भी उस के सौंदर्य से प्रभावित हुआ. मोहिनी को भी लगा कि अनिल में कहीं से हीनग्रंथि नहीं है.

चलते समय अगले दिन अनिल को घर आने का निमंत्रण दे कर मोहिनी स्वप्नों के संसार में डूबतीउतराती घर पहुंची.

कोमल ने पूछा, ‘‘मां, कैसी रही शादी?’’

‘‘तुम्हें क्या, तुम्हें तो अपने पापा की तरह बस किताबों में सिर खपाए रखने का शौक है.’’

‘‘नहीं मां, कुछ जरूरी नोट्स बनाने थे मु झे और वैसे भी मैं वहां किसी को जानती नहीं थी. मै वहां क्या करती.’’

‘‘अरे, कहीं जाओगी तभी तो जानपहचान होगी. कितने नएनए लोगों से मिली मैं आज. बहुत अच्छा लगा.’’

कोमल ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ मां, आप हो आईं, आप को अच्छा लगा वहां यह आप को देख कर ही पता चल रहा है.’’

मोहिनी गुनगुनाते हुए चेंज करने अपने बैडरूम में चली गई तो कोमल अपने काम में व्यस्त हो गई.

अगले दिन कोमल कालेज चली गई. लंच के समय अनिल ने जब मोहिनी की डोरबैल बजाई तो दरवाजा खोलने पर मोहिनी हैरान नहीं हुई. उस ने अनिल को जिन अदाओं से आने का निमंत्रण दिया था अनिल जरूर आएगा यह उसे पूरा विश्वास था. उस ने अनिल की खूब आवभगत की. उसे घर दिखाया, उस के साथ ही लंच किया, अपनी दुखद कहानी सुनाई, कम उम्र में शादी, फिर वैधव्य का दुख और अकेलापन.

मोहिनी से अनिल को सहानुभति हुई. उस ने कहा, ‘‘आप परेशान न हों,

मु झे आप अपने साथ ही सम िझए. मैं आप की ऊंची जाति का नहीं पर जानता हूं कि दुनिया कैसे चलती है,’’ कह कर वह उठ कर मोहिनी के  पास ही बैठ गया तो मोहिनी ने भी अपना हाथ उस के हाथ पर रख दिया. अनिल के सामीत्य ने कई दिनों से पुरुष संपर्क को तरसते उस के तनमन में एक चिनगारी भी भड़का दी तो उस ने सारी लाजशर्म छोड़ कर अनिल की बांहों में खुद को सौंप दिया और फिर यह एक दिन की बात नहीं रही, कोमल के बाहर जाने का समय देख कर वह अनिल के मोबाइल पर मैसेज भेज देती और अनिल पहुंच जाता, वह अच्छे पद पर था. मोहिनी पर खुल कर खर्च करता. मोहिनी को हवस और पैसों का स्वाद मुंह लग गया.

अनिल और कोमल का अभी तक आमनासामना नहीं हुआ था, लेकिन एक दिन मार्केट में मोहिनी कोमल के साथ घर का कुछ सामान खरीद रही थी, तो अनिल वहां मिल गया. मोहिनी ने कोमल को अनिल का परिचय दिया. कहा कि अंजू के परिचित हैं और अनिल ने कोमल को पहली बार देखा तो देखता रह गया. शांत, कोमल, सुंदर सा चेहरा, दुबलीपतली. कोमल का शिष्ट व्यवहार उसे प्रभावित कर गया.

मोहिनी ने अनिल की आंखों में कोमल के लिए पसंदगी के भाव देखे तो उस के दिमाग में फौरन नई योजनाएं जन्म लेने लगीं.

अब तक कई पड़ोसी बातबात में अनिल कौन है, क्या करता है, क्या करने आता है, इस तरह के कई सवाल मोहिनी से करने लगे थे. मोहिनी ने अनिल को अपना एक परिचित बता कर बात टाल दी थी. अब वह ज्यादा सचेत रहने लगी थी. अनिल दूसरी कालोनी में अकेला रहता था. उस के मातापिता अरसा पहले मर चुके थे. वह वर्षों से अकेला रहा क्योंकि शादी के लिए कोई कहने वाला भी तो हो.

मोहिनी ने अनिल से कह दिया, ‘‘तुम यहां कम ही आया करो, मैं ही तुम्हारे घर आ जाया करूंगी.’’

अनिल को इस में कोई आपत्ति नहीं थी. अब फुरसत मिलते ही वह मोहिनी को फोन

कर देता.

मोहिनी कोमल को कोई न कोई काम बता कर

अनिल के घर पहुंच जाती और दोनों एकदूसरे में डूब कर काफी समय साथ बिताते. ऐसी ही एक शाम थी जब दोनों साथ थे, मोहिनी ने बात छेड़ी, ‘‘अनिल, तुम्हें कोमल पसंद है?’’

अनिल चौंका. पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘मैं काफी दिनों से कुछ सोच रही हूं, तुम जवाब दो तो आगे बात करूं?’’

‘‘हां, अच्छी है,’’ अनिल ने  िझ झकते हुए कहा.

मोहिनी हंसी,’’ तो शरमा क्यों रहे हो. तुम्हारे ही फायदे की बात सोच रही हूं.’’

‘‘बताओ क्या सोचा है?’’

‘‘तुम कोमल से शादी कर लो.’’

जैसे करंट लगा अनिल को. बोला, ‘‘यह आप कैसे सोच सकती हो? मेरेआप के जो संबंध हैं उन के बाद भी मु झे अपनी बेटी से शादी करने के लिए कह रही हो? वैसे भी अपनी जाति के लोग आप को खा जाएंगे कि दलित से शादी

कर ली.’’

‘‘तो क्या हुआ. शादी तो तुम एक दिन किसी से करोगे ही और कोमल की भी शादी तो होनी ही है, तुम उस से कर लोगे तो उस के बाद भी हमारे संबंध ऐसे ही रहेंगे, फिर कभी किसी को हम पर शक भी नहीं होगा. रही बात जाति की तो तुम तो देख ही रहे हो कि हमारी जाति वालों ने ही हमें कैसे छोड़ दिया. उन्हें मैं अपशकुनी लगती. ऐसी जाति का क्या करूंगी.’’

अनिल मोहिनी का मुंह देखता रह गया कि कोई औरत ऐसा भी सोच सकती है.

मोहिनी ने अनिल के गले में बांहें डालते हुए कहा, ‘‘क्यों, क्या तुम मु झे प्यार नहीं करते? मेरे साथ हमेशा संबंध नहीं रखना चाहते?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है,’’ कहते हुए उस ने भी मोहिनी को बांहों में भर लिया. कहा, ‘‘लेकिन मु झे सोचने का समय तो दो.’’

‘‘ठीक है, अच्छी तरह सोच लो,’’ कुछ देर रुक कर मोहिनी चली गई.

अनिल ने बाद में सोचा, मेरा क्या नुकसान है, अच्छीभली शरीफ सी लड़की है. मेरे तो

दोनों हाथों में लड्डू हैं. जब मोहिनी को बेटी से अपना प्रेमी शेयर करने में कोई परेशानी नहीं तो मु झे क्या.

अनिल ने मोहिनी को फोन पर अपनी स्वीकृति दे दी तो मोहिनी ने कोमल को भी अनिल से विवाह के लिए तैयार कर लिया. उस की बिरादरी में तो इस तरह के संबंध बहुत होते थे और कोई कुछ बोलता भी नहीं था.

बहुत जल्दी मोहिनी ने कोमल और अनिल की सीविल मैरिज करवा दी. कोमल चली गई. अब मोहिनी को रोकनेटोकने वाला कोई नहीं रहा. कोमल कालेज जाती तो अनिल कोमल को बिना बताए छुट्टी ले लेता. मोहिनी पहुंच जाती और दोनों कोमल के आने तक का समय साथ बिताते.

फादर्स डे- वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

मुझे रात को जल्दी सोने की आदत है. बेटेबहू की तरह मैं देररात तक जागना पसंद नहीं करता. शाम का खाना जल्दी खा कर थोड़ी देर टहलने जाना और फिर गहरी नींद का मजा लेने के लिए बिस्तर पर लेट जाना मेरी रोज की दिनचर्या है. इस में मैं थोड़ा सा भी बदलाव नहीं करता.

उस दिन भी मैं अपनी इसी दिनचर्या के अनुसार अपने बिस्तर पर आ कर लेट गया. किंतु जाने क्या हुआ मुझे नींद ही नहीं आ रही थी. बिस्तर पर करवटें बदलतेबदलते जब मैं उकता गया तो सोचा क्यों न कुछ देर पोतापोती के साथ खेल कर मन बहला लूं.

मैं जब पोतापोती के कमरे में पहुंचा तो देखा वे लोग कुछ काम कर रहे थे. पहले तो मुझे लगा कि शायद वे पढ़ाई कर रहे हैं और उन की पढ़ाई में खलल डालना उचित नहीं होगा, मगर फिर ध्यान से देखने पर पता चला कि वे दोनों तो चित्रकारी कर रहे थे. मैं उन के पीछे जा कर खड़ा हो गया और उन की चित्रकारी देखने लगा. जल्द ही उन दोनों को एहसास हो गया कि मैं उन के पीछे खड़ा हूं. उन्होंने आश्चर्य से मेरी तरफ कुछ ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों, ‘आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

‘‘क्या कर रहे हो बच्चो, किस का चित्र बना रहे हो, जरा मुझे भी तो दिखाओ.’’

आंखों ही आंखों में दोनों में कुछ इशारेबाजी हुई और फिर दोनों लगभग एकसाथ बोले, ‘‘कुछ खास नहीं दादाजी, हमें स्कूल में एक प्रोजैक्ट मिला है, वही कर रहे हैं.’’

‘‘अच्छा. लाओ मुझे दिखाओ, क्या प्रोजैक्ट मिला है. मैं मदद कर देता हूं.’’

‘‘नहींनहीं दादाजी, मुश्किल नहीं है, हम कर लेंगे. वैसे भी थोड़ा सा ही काम बचा है. आप अभी तक सोए नहीं, काफी देर हो गई है?’’ मेरी पोती ने पूछा.

‘‘मैं पानी पीने के लिए उठा था. तुम्हारे कमरे की लाइट जल रही थी, इसलिए तुम से मिलने आ गया.’’

‘‘मैं आप के लिए पानी लाती हूं,’’ पोती ने उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, रहने दो, मैं पानी पी चुका हूं.’’

‘‘मैं आप को कमरे तक छोड़ आऊं दादाजी.’’ मेरे पोते ने बड़ी मासूमियत से यह कहा तो मुझे उन दोनों पर बड़ा प्यार आया. मैं उन दोनों के सिर पर हाथ फेर कर अपने कमरे में चला आया. यों तो मेरे पोतापोती बड़े अच्छे बच्चे हैं, दोनों मेरा हमेशा ही आदर करते हैं और मेरी परवा भी, किंतु उन का आज का व्यवहार मेरे प्रति कतई सम्मानजनक नहीं था बल्कि वे दोनों मुझे जल्दी से जल्दी अपने कमरे से बाहर करना चाहते थे.

खैर, मैं वापस अपने कमरे में आ गया. हालांकि बच्चों ने तो छिपाने की पूरी कोशिश की थी पर मुझे पता चल ही गया कि वे दोनों क्या कर रहे थे. वे फादर्स डे के मौके पर अपने पापा के लिए कार्ड बना रहे थे और कहीं मैं उन के इस सरप्राइज के बारे में जान न जाऊं, इसीलिए उन्होंने जल्द से जल्द मुझे अपने कमरे से टालने की कोशिश की.

फादर्स डे पर न जाने क्यों मेरे कदम अपनेआप ही अपनी अलमारी की तरफ उठ गए. मैं ने अलमारी खोली और उस में से एक डब्बा निकाला. यह डब्बा टाई का था. मैं ने डब्बे में से टाई निकाली और उसे प्यार से सहला दिया. यह टाई मेरे बेटे वरुण ने तोहफे में दी थी. वह फादर्स डे के मौके पर इसे मेरे लिए अपनी पहली तनख्वाह से खरीद कर लाया था. हालांकि मुझे इसे कभी पहनने का मौका नहीं मिला, लेकिन यह मेरे दिल के बेहद करीब है. मैं ने इसे संभाल कर रखा है.

सुबह नाश्ते की मेज पर दोनों बच्चों  ने अपने पापा को कार्ड भेंट  किया. मेरा बेटा कार्ड देख कर अपने बच्चों पर निहाल हो गया. उस ने दोनों को अपनी गोद में बैठा लिया और उन्हें अपने हाथों से नाश्ता करवाने लगा. बच्चों द्वारा बनाया गया कार्ड देखने को मुझे भी मिला. उन के द्वारा बनाई गई अपने बेटे की कार्टून जैसी सूरत देख कर मेरे होंठों पर मुसकान आ गई जिसे मैं बहुत कोशिश कर के भी अपने बेटे से छिपा नहीं पाया.

‘‘बच्चों की कोशिश बहुत अच्छी थी. हमें उन का हौसला बढ़ाना चाहिए. प्यार से दिया गया  हर तोहफा अनमोल होता है, हमें यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए. मगर कुछ लोग दूसरों की भावनाओं को समझते ही नहीं या तो तोहफा देने वाले को डांट देते हैं या उस का मजाक उड़ाने लगते हैं,’’ वरुण ने सख्त शब्दों में अपनी नाराजगी व्यक्त की.

उस की यह नाराजगी उस के बच्चों के कार्ड का मजाक उड़ाने के लिए नहीं थी, बल्कि उस की इस नाराजगी की असली वजह वह टाई थी जिसे खरीदने पर मैं ने उसे डांटा था. वह पुराना वाकेआ हम पितापुत्र के बीच आज भी मौजूद है. न उस वाकए को कभी मैं भुला पाया और न ही कभी वो. यह बात उस के दिल में ऐसी घर कर गईर् कि उस के बाद मेरा बेटा मुझ से दूर हो गया.

हालांकि कोई भी यह कह सकता है कि मुझ से तब बहुत बड़ी गलती हो गई. मैं खुद भी कभी इस बात के लिए खुद को माफ नहीं कर सका. सफाई भी क्या दूं, जब यह हुआ उस समय मेरे हालात से वह बिलकुल अनजान तो नहीं था. एक तो उस समय मेरी आर्थिक स्थिति काफी नाजुक थी, उस पर पत्नी का स्वास्थ्य दिनोंदिन बिगड़ता जा रहा था और वह हमारा साथ छोड़ने की तैयारी में थी. ऐसे में इन औपचारिकताओं के लिए जिंदगी में जगह ही कहां थी.

मैं कुछ कहता तो बात और बढ़ती, उस से पहले मेरी बहू सुमी हमेशा की तरह आगे आई, ‘‘अच्छा अब छोड़ो पुरानी बातें और जल्दी से नाश्ता खत्म करो. फिर बाजार भी जाना है. आज बच्चे अपने पापा के लिए दोपहर के खाने में कुछ खास बनाना चाहते हैं.’’ वह बातें करतेकरते सब के लिए नाश्ता भी परोसती जा रही थी. सब पनीरसैंडविच खा रहे थे जबकि मुझे उस ने दूध व कौर्नफ्लैक्स खाने को दिए. यह भेदभाव देख कर मुझे बुरा लगा.

वरुण ने बाजार जाने से मना कर दिया. उसे दफ्तर की कोई जरूरी फाइल देखनी थी. सुमी भी इतवार की सुबह काफी व्यस्त रहती है. सो, बाजार जाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली. सुमी ने सामान की सूची और झोले के साथ यह हिदायत भी दे डाली कि मैं अधिक दूर न जा कर पास की मार्केट से ही सामान ले आऊं.

सुमी की हिदायत के बावजूद मैं दूर  सब्जी मंडी चला गया. शायद  सुबह की खीझ मिटाने और रास्ते में अपने मित्र रामलाल हलवाई की दुकान तक पहुंच कर मेरा सब्र टूट गया और वहां मैं ने डट कर कचौरी व जलेबी का नाश्ता किया. नाश्ता करते समय मैं ने ‘फादर्स डे’ के मौके पर बड़े ही भावपूर्ण तरीके से अपने पिताजी को याद किया और बेटे के लिए उस की सलामती की कामना की.

‘‘बड़ी देर लगा दी पापाजी, कहां चले गए थे?’’ घर पहुंचते ही सुमी ने इस सवाल के साथ मेरा स्वागत किया.

‘‘मैं मंडी चला गया था. वहां सब्जी सस्ती और अच्छी मिलती है न.’’ अपनी इस समझदारी पर दाद मिलने की उम्मीद से मैं ने उस की ओर देखा पर उस ने मेरा दिल तोड़ दिया.

‘‘सब्जी लेने ही गए थे न या फिर कुछ और भी?’’ उस के इस आधेअधूरे सवाल का मतलब मैं बखूबी समझ गया था और जवाब में उसे घूर कर भी देखना चाहता था मगर चोरी पकड़ी जाने के डर से ऐसा कर न सका. थकान का बहाना बना कर मैं अपने कमरे में चला आया.

रसोई में हंगामा सा मचा हुआ था. बच्चे खाना बना रहे थे और उन के मातापिता उन की मदद कर रहे थे. पता नहीं खाना ही बना रहे थे या कोई खेल खेल रहे थे, मुझे समझ नहीं आया. अच्छा ही हुआ जो मैं बाहर से खा कर आ गया, पता नहीं घर में तो आज खाना बनेगा भी या नहीं.

मेज पर खाना लग चुका था. मेरा पोता मुझे बुलाने आया. मेरा पेट जरा भारी सा हो रहा था. इस समय भोजन करने का बिलकुल भी मन नहीं था. पर मना करने का तो सवाल ही नहीं उठता, कमजोरी मेरी ही थी. मैं मन ही मन अपनी मधुमेह आदि बीमारियों को कोसते हुए, जो मुझे अपने बच्चों से झूठ बोलने को मजबूर कर देती हैं, बाहर चला आया.

यों तो आज भी मेरे लिए लौकी की सब्जी और चपाती बनी थी पर शायद आज बच्चों को मुझ पर थोड़ा ज्यादा प्यार आ गया, इसलिए उन्होंने अपने खाने में से भी थोड़ा सा चखने के लिए दे दिया. खाना बेहद स्वादिष्ठ बना था, शायद इसलिए कि उस में बच्चों का प्यार भी मिला था, पर मजा नहीं आ रहा था. इस का कारण भी मैं जानता था.

‘‘क्या बात है पापाजी, आप खाना नहीं खा रहे? अच्छा नहीं लग रहा है क्या?’’ बहू ने मुझे प्लेट में चम्मच घुमाते देख पूछा. वह खोजी नजरों से मुझे देख रही थी. मुझे उस की इस अदा से बड़ा डर लगता है, लगता है मानो अंदर झांक कर सारे राज मालूम कर लेगी.

‘‘नहीं बेटे, ऐसी कोई बात नहीं है. खाना बहुत अच्छा बना है,’’ मैं ने जल्दीजल्दी निवाले निगलते हुए कहा. उस समय मुझे अपनी पोल खुलने से अधिक फिक्र अपने बच्चों की भावनाओं की थी. मैं ने सब के साथ भरपेट भोजन किया और दिल खोल कर भोजन की तारीफ भी की.

शाम को बच्चों का बाहर जाने का प्लान था. जब वे लोग मुझ से इजाजत लेने आए तब मेरे पेट में बहुत तेज दर्द हो रहा था, लेकिन मैं ने उन्हें इस बाबत बताना ठीक नहीं समझा क्योंकि वे लोग अपना प्लान रद्द कर देते. मेरे पोतापोती मुझे बाय कर रहे थे और मैं किसी तरह अपने दर्द को दबाए हुए मुसकराने की कोशिश कर रहा था. सुमी अब भी मेरे लिए खाना बना कर गई थी. मुझे बड़ी खुशी हुई यह देख कर कि वह मेरी हर छोटीबड़ी जरूरत का हर तरह से ध्यान रखती है. मन तो किया कि उस के लिए ही सही, दो निवाले खा लूं, मगर मुझ से नहीं हुआ. हार कर मैं अपने बिस्तर पर पड़ गया.

मैं इतनी तकलीफ में था कि बच्चे कब घर वापस आए, मुझे पता ही नहीं चला. मुझे सोया जान उन्होंने मुझे नहीं जगाया. मैं रातभर दर्द से तड़पता रहा. सुबह खाई कचौरियां मेरे पेट में कुहराम मचाए हुए थीं. ऐसे में ठीक तो यही रहता कि मैं अपने बेटाबहू को जगा देता पर सब थके हुए थे और मुझे उस समय उन्हें परेशान करना ठीक नहीं लगा. मगर परेशान तो वे लोग फिर भी हो गए. मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें मेरी तकलीफ के बारे में पता चल गया. मेरे वाशरूम से बारबार आती फ्लश की आवाज ने चुगली जो कर दी थी.

वरुण और सुमी मेरे कमरे में चले आए. मेरी हालत देख कर वे घबरा गए. वे तो उसी समय डाक्टर को बुलाना चाहते थे मगर इतनी रात डाक्टर का आना मुश्किल था. सो, खुद ही मेरी तीमारदारी में जुट गए. मुझे उस समय अपने बच्चों पर प्यार आ रहा था और शायद उन्हें गुस्सा, तभी तो वरुण मुझे घूर कर देख रहा था. वरुण के इस तरह घूरने से मुझे डर लगता था. उस के गुस्से से खुद को बचाने के लिए मैं आंखें बंद कर के लेट गया. थोड़ी देर में मुझे दवा के कारण नींद आ गई.

10 बजे के करीब मेरी नींद टूटी. मैं चौंक कर उठ बैठा. सुमी का दफ्तर जाने का समय हो रहा था. आज मैं अपनी आदत के उलट बहुत देर तक सोता रहा. मैं ने उठने की कोशिश की, पर उठ नहीं पाया. बड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी. कुछ ही देर में सुमी मुझे देखने आई. मुझे जगा हुआ देख कर वह चाय बना लाई. तब तक वरुण ने मुझे सहारा दे कर बैठा दिया. दोनों को उस समय घर के कपड़ों में देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ, ‘‘तुम दोनों अब तक तैयार नहीं हुए. आज औफिस नहीं जाना है क्या?’’

‘‘आप को ऐसी हालत में छोड़ कर औफिस कैसे जाएं. आज हम दोनों ने दफ्तर से छुट्टी ले ली है,’’ वरुण ने जवाब दिया.

‘‘नहीं बेटा, इस की कोई जरूरत नहीं है. मैं अब ठीक महसूस कर रहा हूं. तुम लोग आराम से दफ्तर जाओ,’’ जाने मैं बच्चों से झूठ बोल रहा था या फिर खुद से, मुझे समझ नहीं आया.

‘‘हां, पता है हमें कितना ठीक महसूस कर रहे हैं आप. आप का चेहरा देख कर ही पता चल रहा है. अब आप कुछ नहीं बोलेंगे, सिर्फ आराम करेंगे. आज हम आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. पूरा दिन आप पर नजर रखेंगे और आप वो करेंगे जो हम कहेंगे. चलिए, लेट जाइए.’’ बहू की यह मीठी झिड़की मुझे अच्छी लगी. इस के बाद दोनों पूरा दिन मेरी इस तरह देखभाल करते रहे जैसे कि मैं एक छोटा बच्चा हूं और वे दोनों मेरे अभिभावक, मैं भी उन की हर आज्ञा का पालन करता रहा.

शाम तक मेरी हालत में काफी सुधार हो चुका था. मैं अपने कमरे में बैठेबैठे बोर हो गया था. सो, उठ कर हौल में चला आया. मुझे देख कर सुमी ने चाय का कप और एक प्लेट में बिस्कुट परोस कर मेरे सामने रख दिए. मुझे बड़ी हसरत से पैस्ट्री और समोसों की ओर ताकते देख उस के होंठों पर शरारती मुसकान आ गई जिसे देख कर मैं शरमा गया.

‘‘कल आप कहां गए थे पापा?’’ वरुण ने मेरी ओर सवाल दागा.

उस के इस सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था, इसलिए कुछ पलों के लिए तो हड़बड़ा गया लेकिन फिर विरोध करने वाले अंदाज में बोला. ‘‘तुम्हारी याददाश्त अभी से कमजोर हो गई है क्या? याद नहीं तुम्हें, सब्जी लेने गया था, बहू ने ही तो भेजा था.’’

‘‘मेरी याददाश्त बिलकुल ठीक है. आप की बहू ने तो आप को पास वाली मार्केट भेजा था, पर आप रामलाल चाचा की दुकान पर पहुंच गए. पूछ सकता हूं क्यों?’’

‘‘मैं रामलाल की दुकान पर नहीं, मंडी गया था, अच्छी और सस्ती सब्जी लेने.’’ मैं जानता था अब मेरा झूठ ज्यादा देर तक नहीं चलेगा, पर फिर भी मैं ने एक आखिरी कोशिश की.

‘‘मेरे दोस्त दिनेश ने आप को रामलाल चाचा की दुकान पर देखा था वह भी जलेबी और कचौरी खाते हुए.’’

मेरे बेटे के बिगड़े तेवरों ने मुझे सीधा कर दिया. दिनेश को तो मैं ने भी देखा था उस दिन पर यह नहीं सोचा था कि वह मेरे बेटे से मेरी चुगली कर देगा, चुगलखोर कहीं का. आजकल के लड़कों में बड़ों के लिए आदरसम्मान रहा ही नहीं. मैं ने अपने बेटे की ओर देखा. वह सच सुनने के इंतजार में लगातार मुझे घूर रहा था. अब और किसी झूठ के लिए जगह नहीं थी, बहाने भी लगभग खत्म हो चुके थे. सो, अब सच बोलने में ही भलाई थी.

‘‘कल तुम लोगों को फादर्स डे मनाते देख मेरा भी मन कर गया. मैं वहां फादर्स डे मनाने गया था.’’ मेरा यह मासूमियत भरा जवाब सुन कर मेरी बहू की हंसी छूट गई. जाने उस की हंसी में क्या था कि पहले मैं, फिर मेरा बेटा भी उस के साथ खुल कर हंस दिए. हम हंसे जा रहे थे और दोनों बच्चे हमारी ओर आश्चर्यभरी नजरों से देख रहे थे.

Father’s Day 2023: दूसरा पिता- क्या दूसरे पिता को अपना पाई कल्पना

वह यादों के भंवर में डूबती चली जा रही थी. ‘नहीं, न वह देवदास की पारो है, न चंद्रमुखी. वह तो सिर्फ पद्मा है.’ कितने प्यार से वे उसे पद्म कहते थे. पहली रात उन्होंने पद्म शब्द का मतलब पूछा था.

वह झेंपती हुई बोली थी, ‘कमल’.

‘सचमुच, कमल जैसी ही कोमल और वैसे ही रूपरंग की हो,’ उन्होंने कहा था.

पर फिर पता नहीं क्या हुआ, कमल से वह पंकज रह गई, पंकजा. क्यों हुआ ऐसा उस के साथ? दूसरी औरत जब पराए मर्द पर डोरे डालती है तो वह यह सब क्यों नहीं सोचा करती कि पहली औरत का क्या होगा? उस के बच्चों का क्या होगा? ऐसी औरतें परपीड़ा में क्यों सुख तलाशती हैं?

हजरतगंज के मेफेयर टाकीज में ‘देवदास’ फिल्म लगी थी. बेटी ने जिद कर के उसे भेजा था, ‘क्या मां, आप हर वक्त घर में पड़ी कुछ न कुछ सोचती रहती हैं, घर से बाहर सिर्फ स्कूल की नौकरी पर जाती हैं, बाकी हर वक्त घर में. ऐसे कैसे चलेगा? इस तरह कसेकसे और टूटेटूटे मन से कहीं जिया जा सकता है?’

लेकिन वह तो जैसे जीना ही भूल गई थी, ‘काहे री कमलिनी, क्यों कुम्हलानी, तेरी नाल सरोवर पानी.’ औरत का सरोवर तो आदमी होता है. आदमी गया, कमल सूखा. औरत पुरुषरूपी पानी के साथ बढ़ती जाती है, ऊपर और ऊपर. और जैसे ही पानी घटा, पीछे हटा, वैसे ही बेसहारा हो कर सूखने लगती है, कमलिनी. यही तो हुआ पद्मा के साथ भी. प्रभाकर एक दिन उसे इस तरह बेसहारा छोड़ कर चले जाएंगे, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. पर ऐसा हुआ.

उस दिन प्रभाकर ने एकदम कह दिया, ‘पद्म, मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता. अगर झगड़ाझंझट करोगी तो ज्यादा घाटे में रहोगी, हार हमेशा औरत की होती है. मुझ से जीतोगी नहीं. इसलिए जो कह रहा हूं, राजीखुशी मान लो. मैं अब मधु के साथ रहना चाहता हूं.’

पति का फैसला सुन कर वह ठगी सी रह गई थी. यह वही मधु थी, जो अकसर उस के घर आयाजाया करती थी. लेकिन उसे क्या पता था, एक दिन वही उस के पति को मोह लेगी. वह भौचक देर तक प्रभाकर की तरफ ताकती रही थी, जैसे उन के कहे वाक्यों पर विश्वास न कर पा रही हो. किसी तरह उस के कंठ से फूटा था, ‘और हमारी बेटी, हमारी कल्पना का क्या होगा?’

‘मेरी नहीं, वह तुम्हारी बेटी है, तुम जानो,’ प्रभाकर जैसे रस्सी तुड़ा कर छूट जाना चाहते थे, ‘स्कूल में नौकरी करती हो, पाल लोगी अपनी बेटी को. इसलिए मुझे उस की बहुत फिक्र नहीं है.’

पद्मा हाथ मलती रह गईर् थी. प्रभाकर उसे छोड़ कर चले गए थे. अगर चाहती तो झगड़ाझंझट करती, घर वालों, रिश्तेदारों को बीच में डालती, पर वह जानती थी, सिवा लोगों की झूठी सहानुभूति के उस के हाथ कुछ नहीं लगेगा.

समझदार होने पर कल्पना ने एक दिन कहा था, ‘मां, आप ने गलती की, इस तरह अपने अधिकार को चुपचाप छोड़ देना कहां की बुद्धिमत्ता है?’

‘बेटी, अधिकार देने वाला कौन होता है?’ उस ने पूछा था, ‘पति ही न, पुरुष ही न? जब वही अधिकार देने से मुकर जाए, तब कैसा अधिकार?’

पद्मा ने बहुत मुश्किल से कल्पना को पढ़ायालिखाया. मैडिकल की तैयारी के लिए लखनऊ में महंगी कोचिंग जौइन कराई. जब वह चुन ली गई और लखनऊ के ही मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया तो पद्मा बहुत खुश हुई. उस का मन हुआ, उन्नाव जा कर प्रभाकर को यह सब बताए, मधु को जलाए, क्योंकि उस के बच्चे तो अभी तक किसी लायक नहीं हुए थे. वह प्रभाकर से कहना चाहती थी कि वह हारी नहीं. उन्नाव जाने की तैयारी भी की, पर कल्पना ने मना कर दिया, ‘इस से क्या लाभ होगा, मां? जब अब तक आप ने संतोष किया, तो अब तो मैं जल्दी ही बहुतकुछ करने लायक हो जाऊंगी. जाने दीजिए, हम ऐसे ही ठीक हैं.’

पद्मा अकेली हजरतगंज के फुटपाथ पर सोचती चली जा रही थी. जया वहीं से डौलीगंज के लिए तिपहिए पर बैठ कर चली गई थी. उसे मुख्य डाकघर से तिपहिया पकड़ना था.

जया और वह एक ही स्कूल में पढ़ाती थीं. पद्मा अकेली फिल्म देखने नहीं जाना चाहती थी. लड़की की जिद बताई तो जया हंस दी, ‘चलो, मैं चलती हूं तुम्हारे साथ. अपने जमाने की प्रसिद्ध फिल्म है.’

पति के छिनते ही पद्मा की जैसे दुनिया ही छिन गई थी. कछुए की तरह अपने भीतर सिमट कर रह गई थी, अपने घर में, अपने कमरे में.

कल्पना अकसर कहा करती, ‘मां, आप का जी नहीं घबराता इस तरह गुमसुम रहतेरहते?’

वह हंसने का निष्फल प्रयास करती, ‘कहां हूं गुमसुम, खुश तो हूं.’ पर कहां थी, वह खुश? खाली हाथ, रीता जीवन, एक सतत प्यास लिए सूखा रेगिस्तान मन, उड़ती हुई रेत और सुनसान दिशाएं. औरत, पुरुष के बिना अधूरी क्यों रह जाती है?

अपने जीवन से हट कर पद्मा देखी हुई फिल्म के बारे में सोचने लगी…उसे लगा, वह खुद देवदास के किरदार में है, ‘अब तो सिर्फ यही अच्छा लगता है कि कुछ भी अच्छा न लगे,’ ‘यह प्यास बुझती क्यों नहीं’, ‘क्यों पारो की याद सताती है?’, ‘कौन कमबख्त पीता है होश में रहने के लिए? मैं तो पीता हूं जीने के लिए कि कुछ सांसें ले सकूं’, ‘मैं नहीं कर सकता. क्या सभी लोग सभीकुछ करते हैं?’ फिल्म के ऐसे कितने ही वाक्य थे, जो उस के दिलोदिमाग में ज्यों के त्यों खुद से गए थे. क्या हर दुख झेलने वाला व्यक्ति देवदास है? क्या देवदास आज की भी कड़वी सचाई नहीं है?

‘चंद्रमुखी, तुम्हारा यह बाहर का कमरा तो बिलकुल बदल गया.’

क्या जवाब दिया चंद्रमुखी ने, ‘बाहर का ही नहीं, अंदर का भी सब बदल गया है.’

क्या सचमुच वह भी बाहरभीतर से बदल नहीं गई पूरी तरह? चंद्रमुखी ने वेश्या का पेशा छोड़ दिया है. देवदास कहता है, ‘छोड़ तो दिया है, पर औरतों का मन बहुत कमजोर होता है, चंद्रमुखी.’

पद्मा सोचती है, ‘क्या सचमुच औरतों का मन बहुत कमजोर होता है? क्या आदमी का मोह, आदमी की चाह, उसे कभी भी डिगा सकती है? वह कभी भी उस के मोहपाश में बंध कर अपना आगापीछा भुला सकती है?’

अचानक पद्मा हड़बड़ा गई क्योंकि आगे चलता एक व्यक्ति अचानक चकरा कर उस के पास ही फुटपाथ पर गिर पड़ा था. वह कुछ समझ नहीं पाई. बगल के पान वाले की दुकान से पद्मा ने पानी लिया और उस के चेहरे पर छींटे मारे. लोगों की भीड़ जुट गई, ‘कौन है? कहां का है? क्या हुआ?’ जैसे तमाम सवाल थे, जिन के उत्तर उस के पास नहीं थे.

लोगों की सहायता से पद्मा ने उस व्यक्ति को एक तिपहिए पर लदवाया, खुद साथ बैठी और मैडिकल कालेज के आपात विभाग पहुंची.

पद्मा ने तिपहिया चालक की सहायता से उस व्यक्ति को उतारा और आपात विभाग में ले जा कर एक बिस्तर पर लिटा दिया. कल्पना को तलाश करवाया तो वह दौड़ी आई, ‘‘क्या हुआ, मां, कौन है यह?’’

पद्मा क्या जवाब देती, हौले से सारी घटना बता दी.

‘‘तुम भी गजब करती हो, मां. ऐसे ही कोई आदमी गिर पड़ा और तुम ले कर यहां चली आईं. मरने देतीं वहीं.’’

उस ने बेटी को अजीब सी नजरों से देखा कि यह क्या कह रही है? मरने देती? सहायता न करती? यह भी कोई बात हुई? अनजान आदमी है तो क्या हुआ, है तो आदमी ही.

‘‘दूसरे लोग उठाते और किसी अस्पताल ले जाते. या फिर पुलिस उठाती. आप क्यों लफड़े में पड़ीं, मरमरा गया तो जवाब कौन देगा?’’ भुनभुनाती कल्पना डाक्टरों के पास दौड़ी.

डाक्टरों ने कल्पना के कारण उस की अच्छी देखभाल की. 2 घंटे बाद उसे होश आया. दाएं हिस्से में जुंबिश खत्म हो गई थी, लकवे का असर था.

जब उसे ठीक से होश आ गया तो पद्मा को खुशी हुई, एक अच्छा काम करने का आत्मसंतोष. उस ने उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहीं नहीं और शायद सब कहीं,’’ वह अजीब तरह से मुसकराया.

‘‘हम लोग आप के घर वालों को खबर करना चाहते थे, पर आप की जेब से कोई अतापता नहीं मिला. सिर्फ रुपए थे पर्स में, ये रहे, गिन लीजिए,’’ पद्मा ने पर्स उस की तरफ बढ़ाया.

कल्पना भी निकट आ कर बैठ गई थी.

‘‘मैडम, जो लोग सड़क पर गिरे आदमी को अस्पताल पहुंचाते हैं, वे उस का पर्स नहीं मारते,’’ वह उसी तरह मुसकराता रहा, ‘‘समझ नहीं पा रहा, आप को धन्यवाद दूं या खुद को कोसूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ कल्पना ने पूछा, ‘‘आप के बीवीबच्चे आप की कुशलता सुन कर कितने प्रसन्न होंगे, यह एहसास है आप को?’’

‘‘कोई नहीं है अब हमारा,’’ वह आदमी उदास हो गया, ‘‘2 साल हुए, हत्यारों ने घर में घुस कर मेरी बेटी और पत्नी के साथ बलात्कार किया था. लड़के ने बदमाशों का मुकाबला किया तो उन लोगों ने तीनों की हत्या कर दी.’’

‘‘यह सुन कर वे दोनों सन्न रह गईं.

काफी देर तक खामोशी छाई रही, फिर पद्मा ने पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहां बताऊं? शायद कहीं नहीं. जिस घर में रहता था, वहां हर वक्त लगता है जैसे मेरी बेटी, पत्नी और

बेटा लहूलुहान लाशों के रूप में पड़े

हैं. इसलिए उस घर से हर वक्त भागा रहता हूं.’’

‘‘यहां लखनऊ में आप कैसे आए थे?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘इलाहाबाद में किताबों का प्रकाशक हूं. स्कूल, कालेजों की पुस्तकें प्रकाशित करता हूं-पाठ्यपुस्तकों से ले कर कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि तक,’’ वह बोला, ‘‘यहां इसी सिलसिले में आया था. हजरतगंज के एक

होटल में ठहरा हूं. एक सिनेमाहौल में पुरानी फिल्म ‘देवदास’ लगी है, उसे देखने गया था कि रास्ते में गश खा कर गिर पड़ा.’’

डाक्टरों से बात कर के कल्पना उस व्यक्ति को मां के साथ घर लिवा लाई, ‘‘चलिए, आप यहीं रहिए कुछ दिन,’’ उस ने कहा, ‘‘हम आप का सामान होटल से ले आते हैं. कमरे की चाबी दीजिए और होटल की कोई रसीद हो, तो वह…’’

‘‘रसीद तो कमरे में ही है, चाबी यह रही,’’ उस ने जेब से निकाल कर चाबी दी.

कल्पना ने मां को बताया, ‘‘इन्हें कोई ठंडी चीज मत देना. गरम चाय या कौफी देना.’’

फिर एक पड़ोसी को साथ ले कर कल्पना चली गई.

पद्मा कौफी बना लाई. उस व्यक्ति ने किसी तरह बैठने का प्रयास किया, ‘‘बिलकुल इतनी ही उम्र थी मेरी बेटी की,’’ उस का गला भर्रा गया, आंखों में नमी तिर आई.

‘‘भूल जाइए वह सब, जो हुआ,’’ पद्मा बोली, ‘‘आप अकेले नहीं हैं इस धरती पर जिन्हें दुख झेलना पड़ा, ऐसे तमाम लोग हैं.’’

वह कुछ बोला नहीं, भरीभरी आंखों से पद्मा की तरफ देखता रहा और कौफी के घूंट भरता रहा.

‘‘सच पूछिए तो अब जीने की इच्छा ही नहीं रह गई,’’ वह बोला, ‘‘कोई मतलब नहीं रह गया जीने का. बिना मकसद जिंदगी जीना शायद सब से मुश्किल काम है.’’

‘‘शायद आप ठीक कहते हैं,’’ पद्मा के मुंह से निकल गया, ‘‘मैं ने भी ऐसा ही कुछ अनुभव किया जब कल्पना के पिता ने अचानक एक दिन मुझे छोड़ दिया.’’

‘‘आप जैसी नेक औरत को भी कोई आदमी छोड़ सकता है क्या?’’ उसे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘मधु नामक एक लड़की पड़ोस में रहती थी. हमारे घर आतीजाती थी. वे उसी के मोह में फंस गए. कल्पना तब छोटी थी. वे चले गए मुझे छोड़ कर,’’ पता नहीं वह यह सब उस से क्यों कह बैठी.

3-4 दिनों में वह व्यक्ति चलनेफिरने लगा था.

एक सुबह पद्मा ने पूछा, ‘‘अभी तक आप ने अपना नाम नहीं बताया?’’

जवाब कल्पना ने दिया, ‘‘कमलकांत,’’ और होटल की रसीद मां की तरफ बढ़ाई, ‘‘रसीद पर इन का यही नाम लिखा है,’’ वह मुसकरा रही थी.

थोड़ी देर बाद जब वह सूटकेस में अपने कपड़े रखने लगा तो पद्मा ने पूछा, ‘‘कहां जाएंगे अब?’’

‘‘क्या बताऊं?’’ कमलकांत बोला, ‘‘इलाहाबाद ही जाऊंगा. वहां मेरा कुछ काम तो है ही, लोग परेशान हो रहे होंगे.’’

कल्पना ने उस के हाथ से सूटकेस ले लिया, ‘‘आप अभी कहीं नहीं जाएंगे. इतने ठीक नहीं हुए हैं कि कहीं भी जा सकें. दोबारा अटैक हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे. यहीं रहिए कुछ दिन और, अपने दफ्तर में फोन कर दीजिए.’’

पद्मा कुछ बोली नहीं. कहना तो वह भी यही सब चाहती थी, पर अच्छा लगा, बेटी ने ही कह दिया. शायद वह समझ गई, पर क्या समझ गई होगी? देर तक चुप बैठी पद्मा सोचती रही. कहां पढ़ा था उस ने यह वाक्य- ‘प्यार जानने, समझने की चीज नहीं होती, उसे तो सिर्फ महसूस किया जाता है.’

‘क्या कमलकांत उसे अच्छे लगने लगे हैं?’ पद्मा ने अपनेआप से पूछा. एक क्षण को वह सकुचाई. फिर झेंप सी महसूस की, ‘नहीं, अब इस उम्र में फिर से कोई नई शुरुआत करना बहुत मुश्किल है. न मन में उत्साह रहा, न इच्छा. प्रभाकर के साथ जुड़ कर देख लिया. क्या मिला उसे? क्या दोबारा वही सब दोहराए? आदमी का क्या भरोसा? क्यों सोच रही है वह यह सब इस आदमी को ले कर? क्या लगता है यह उस का? कोई भी तो नहीं…क्या सचमुच कोई भी नहीं?’ अचानक उस के भीतर से किसी ने पूछा. और वह अपनेआप को भी कोई सचसच जवाब नहीं दे पाई थी. व्यक्ति दूसरे से झूठ बोल सकता है, अपनेआप से कैसे झूठ बोले?

कल्पना कालेज जाती हुई बोली, ‘‘मां, आप अभी एक सप्ताह की और छुट्टी ले लीजिए, इन की देखरेख कीजिए.’’

पद्मा बुत बनी बैठी रही, न हां बोली, न इनकार किया.

उस के जाने के बाद पद्मा ने छुट्टी की अर्जी लिखी और पड़ोस के लड़के को किसी तरह स्कूल जाने को राजी किया. उस के हाथों अर्जी भिजवाई.

शाम को जया आई, ‘‘क्या हुआ, पद्मा?’’ एक अजनबी को घर में देख कर वह भी चकराई.

जवाब देने में वह लड़खड़ा गई, ‘‘क्या बताऊं?’’

जया उसे एकांत में ले गई, ‘‘ये महाशय?’’

सवाल सुन कर पद्मा का चेहरा अपनेआप ही लाल पड़ गया, पलकें झुक गईं.

जया मुसकरा दी, ‘‘तो यह बात है… कल्पना के नए पिता?’’

पद्मा अचकचा गई, ‘‘नहीं रे, पर… शायद…’’

बाद में देर तक पद्मा और जया बातें करती रहीं. अंत में जया ने पूछा, ‘‘कल्पना मान जाएगी?’’

‘‘कह नहीं सकती. मेरी हिम्मत नहीं है, जवान बेटी से यह सब कहने की. अगर तू मदद कर सके तो बता.’’

‘‘कल्पना से कल बात करूंगी,’’ जया बोली, ‘‘और प्रभाकर ने टांग अड़ाई तो…?’’

‘‘इतने सालों से उन्होंने हमारी खबर नहीं ली. मैं नहीं समझती उन्हें कोई एतराज होगा.’’

‘‘सवाल एतराज का नहीं, कानून का है. आदमी अपना अधिकार कभी भी जता सकता है. तुम स्कूल में अध्यापिका हो, बदनामी होगी.’’

‘‘तब से यही सब सोच रही हूं,’’ पद्मा बोली, ‘‘इसीलिए डरती भी हूं. कुछ तय नहीं कर पा रही कि कदम सही होगा या गलत. एक मन कहता है, कदम उठा लूं, जो होगा, देखा जाएगा. दूसरा मन कहता है, मत उठा. लोग क्या कहेंगे. दुनिया क्या कहेगी. समाज में क्या मुंह दिखाऊंगी. यह उम्र बेटी के ब्याह की है और मैं खुद…’’ पद्मा संकोच में चुप रह गई.

‘‘ठीक है, पहले कल्पना का मन जानने दे, तब तुम से बात करती हूं और कमलकांत से भी कहती हूं,’’ जया चली गई.

पद्मा पास की दुकान से घर की जरूरत की चीजें ले कर आई तो देखा, कमलकांत के पास कल्पना बैठी गपशप कर रही है और दोनों बेहद खुश हैं.

‘‘मां, जया मौसी रास्ते में मिली थीं.’’

सुन कर पद्मा घबरा गई. हड़बड़ाई हुई सामान के साथ सीधे घर में भीतर चली गई कि बेटी का सामना कैसे करे?

अचानक कल्पना पीछे से आ कर उस से लिपट गई, ‘‘मां, आप से कितनी बार कहा है, हर वक्त यों मन को कसेकसे मत रहा करिए. कभीकभी मन को ढीला भी छोड़ा जाता है पतंग की डोर की तरह, जिस से पतंग आकाश में और ऊंची उठती जाए.’’

वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए चुप बैठी रही. कल्पना हंसी, ‘‘मैं बहुत खुश हूं. अच्छा लग रहा है कि आप अपने खोल से बाहर आएंगी, जीवन को फिर से जिएंगी, एक रिश्ते के खत्म हो जाने से जिंदगी खत्म नहीं हो जाती…

‘‘मुझे ये दूसरे पिता बहुत पसंद हैं. सचमुच बहुत भले और सज्जन व्यक्ति हैं. हादसे के शिकार हैं, इसलिए थोड़े अस्तव्यस्त हैं. मुझे विश्वास है, हमारा प्यार मिलेगा तो ये भी फिर से खिल उठेंगे.’’

पता नहीं पद्मा को क्या हुआ, उस ने बेटी को बांहों में भर कर कई बार चूम लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी और कल्पना मां का यह नया रूप देख कर चकित थी.

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी- भाग 4

‘‘आंटी आप…’’ उन्हें इस प्रकार अचानक अपने सामने देख कर पीहू चौंक गई.

‘‘ओहो मिशेल आप आ गईं पेशैंट का कुछ सामान मंगवाया था इन से शी इज केयरिंग योअर फादर सिंस यसटरडे,’’ नर्स ने उन से सामान लेते हुए कहा.

पड़ोस की मिशेल आंटी से पिछली बार पापा ने मिलवाया था पर पापा की इतनी केयर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. 2 दिन बाद पापा कुछ ठीक हुए तो सामने पीहू को देख कर खुश हो गए. अब पापा को रूम में शिफ्ट करना था सो वह कुछ जरूरी सामान लेने घर चली गई. लौटी तो पापा रूम में शिफ्ट हो गए थे. जैसे ही वह रूम में जाने के लिए मुड़ी तो बाहर कैंसर वार्ड लिखा देख कर चौंक गई कि क्या. पापा को कैंसर हुआ है… पापा को ऐसी बीमारी… वह चक्कर खा कर गिरने ही वाली थी कि अहमद की मजबूत बांहों ने उसे संभाल लिया… अहमद ने उसे पास ही पड़ी बैंच पर बैठाया. अहमद पीहू को बहुत अच्छे से जानता था. वह पीहू के दिमाग में चल रहे ?ां?ावात को भलीभांति सम?ा गया था सो बोला, ‘‘पीहू हम यहां पापा को संभालने आए हैं खुद उन के लिए मुसीबत बनने नहीं… खुद को संभालो… यदि तुम ही कमजोर पड़ जाओगी तो पापा को कौन संभालेगा?’’

‘‘हां तुम ठीक कह रहे हो…’’ कहते हुए पीहू ने अपनी आंखों में आए आंसुओं को रूमाल से पोंछ लिया. मिशेल आंटी दूसरी बैंच पर बैठी ये सब बातें सुन रही थीं. वे अचानक पीहू के पास आईं और बोलीं, ‘‘तुम उन से कुछ मत पूछना मैं तुम्हें सब बताऊंगी पर अभी तुम उन के पास जा कर बैठो उन्हें अच्छा लगेगा.’’

उस दिन शाम को मिशेल आंटी ने जो बताया उसे सुन कर पीहू के पैरों तले जमीन

खिसक गई. उस की आंखों से ?ार?ार आंसू बह निकले. वे बोली, ‘‘तुम्हारे पापा को काफी दिनों से पेट में बहुत प्रौब्लम हो रही थी… खाना बिलकुल हजम नहीं हो रहा था… कुछ दिनों से ब्लीडिंग भी होने लगी थी. जब डाक्टर को दिखाया तो कुछ टैस्ट्स के बाद उन्होंने आंतों का कैंसर बताया है… पर तुम जरा भी चिंता मत करो. अभी प्रथम स्टेज ही है. डाक्टर ने कहा है कि एक छोटी सी सर्जरी के बाद पूरी तरह से ठीक हो जाएंगे.’’

‘‘आंटी मैं पापा से रोज बात करती हूं,पापा इतना सब सह रहे थे और मुझे बताया तक नहीं,’’ पीहू रोते हुए बोली.

‘‘वे तुम्हें परेशान नहीं करना चाहते थे तुम प्रैगनैंट जो थीं. जब से उन्हें तुम्हारी प्रैगनैंसी के बारे में पता चला था खुशी से पागल हुए जा रहे थे. बेबी के होने के बाद के न जाने कितने प्लान बना रखे थे. इस बीमारी ने तो उन्हें बीच में ही पकड़ लिया न,’’ मिशेल ने कहा.

सब सुन कर पीहू के तो होश ही उड़ चुके थे साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया था कि मिशेल और उस के पापा काफी करीब थे. रात्रि में अहमद पापा के पास रुके तो वह मिशेल के साथ घर आ गई. सोने से पहले पीहू जब पापा की अलमारी ठीक करने लगी तो उस के हाथ पापा की डायरी लगी. वह जानती थी कि पापा नियम से रोज डायरी लिखते हैं. पीहू उत्सुकतावश पन्ने पलटने लगी. पिछले कुछ पृष्ठों पर पापा ने लिखा था,

‘‘पीहू और अनु मेरी जिंदगी थीं और दोनों ही अब मेरे पास नहीं हैं. कभीकभी जीवन बहुत बो?िल सा लगने लगता है. लगता है जीने का उद्देश्य ही समाप्त हो गया हो. पता नहीं क्यों आजकल बहुत बीमार रहने लगा हूं. पीहू को बताऊंगा तो वह परेशान हो जाएगी. ऐसा लगता है मानो जिंदगी से थक गया हूं. आज पार्क में पड़ोस की मिशेल मिलीं बड़ा अच्छा लगा मिल कर जिंदगी में पति और बेटाबहू खोने के बाद भी जिंदादिली से भरपूर. उन से बात कर के बड़ा सुकून मिलता है.’’

इस के कुछ महीनों बाद ही लिखा था,

‘‘मिशेल और मैं बहुत अच्छे दोस्त बन गए हैं. अब हम एकदूसरे से अपना सुखदुख साझा करने लगे हैं. उन्होंने तो विवाह का प्रस्ताव भी रखा है. विवाह तो मैं भी करना चाहता हूं कम से कम कोई बात करने वाला तो मिलेगा. अकेला घर तो खाने को दौड़ता है. शायद उन के साथ से मेरा बुढ़ापा कुछ आसानी से कट जाएगा. उन की तो कोई संतान ही नहीं है पर पीहू… पीहू से मैं डरता हूं… बिना मां की बच्ची है… सुन कर कहीं गलत अर्थ न निकाल ले. अनु को तो खो ही चुका हूं पीहू को नहीं खोना चाहता.’’

पापा की डायरी पढ़तेपढ़ते पीहू वहीं जमीन पर सिर पकड़ कर बैठ गई.

अगले दिन अस्पताल पहुंच कर पीहू ने अहमद को पापा की डायरी वाली बात बताई तो अहमद बोले, ‘‘सही तो है दोनों यदि एकदूसरे के साथी बन जाते हैं तो दोनों के लिए ही जिंदगी जीनी बहुत आसान हो जाएगी पर अब जबकि पापा को यह बीमारी डायग्नोस हो चुकी तो अब भी क्या मिशेल वही सोचती हैं जो पहले सोचती थीं. फिर क्या तुम मिशेल आंटी को अपनी मां का दर्जा देने या अपने प्यारे पापा को उन के साथ सा?ा करने को तैयार हो?’’

‘‘हां तुम सही कह रहे हो पर मिशेल आंटी से तो मैं स्पष्ट पूछ लूंगी और जहां तक मेरी बात है तो मैं यही चाहती हूं कि मेरी अनुपस्थिति में पापा के पास कोई तो होगा जिस से वे अपनी बातें शेयर कर सकें.’’

कुछ देर बाद मिशेल भी आ गईं. पीहू ने उन्हें पापा के पास जाने को कहा और अंदर मिशेल के साथ पापा को हंसहंस कर बात करते देख कर अहमद से बोली, ‘‘अहमद अब मैं आंटी का मन ले कर ही रहूंगी चाहे कुछ भी हो जाए अपने पापा की खातिर. देखो पापा कितने खुश हैं उन के साथ..’’

‘‘पर क्या तुम्हारे परिवार और समाज वाले इसे मान्यता देंगे? एक तो इस उम्र में विवाह और उपर से दूसरे धर्म में?’’ अहमद ने कुछ अचकचाते हुए कहा.

‘‘अरे अहमद जब पापा ने मेरे विवाह में इस समाज की चिंता नहीं की तो मैं क्यों करूं. वैसे भी जिस समाज की तुम बात कर रहे हो वह सिर्फ मुंह चलाना जानता है, कमजोर को 2 ठोकर मार कर और अधिक कमजोर बनाता है और ताकतवर और पैसे वाले को सलाम ठोका करता है. जब आप भूखे होते हैं तो आप को 2 रोटी को नहीं पूछता यह समाज. अहमद मैं ऐसे किसी समाज की चिंता नहीं करती. मैं सिर्फ पापा की परवाह करती हूं,’’ पीहू बोलतेबोलते हांफने लगी थी.

1 सप्ताह बाद पापा को ले कर पीहू घर आ गई. एकदम व्यवस्थित और साफसुथरा घर देख कर पापा चौंक गए और बोले, ‘‘अरे मिशेल आज फिर तुम ने घर की सफाई कर दी. तुम्हें पता है पीहू यह तुम्हारी मिशेल आंटी अकसर मेरे द्वारा फैलाई गंदगी साफ करती रहती हैं.’’

‘‘मैं ने नहीं ये सब पीहू ने किया है बाबा…’’ मिशेल आंटी कुछ शरमाते हुई सी बोलीं.

‘‘आंटी अभी तो मैं ने कर दिया है पर मैं चाहती हूं कि अब आप ही पापा और उन के घर को संभालें. बोलिए आंटी क्या आप मेरे पापा की जीवनसंगिनी बनने को तैयार हैं?’’

अचानक ऐसे सीधे प्रश्न से मिशेल ही नहीं पापा और अहमद दोनों

ही चौंक गए. पर वे बहुत समझदार थीं सो बहुत सधे स्वर में बोलीं, ‘‘पीहू मैं तैयार तो थी पर तुम्हारे पापा…’’

‘‘मेरे पापा अब कैंसर के पेशैंट हैं तो इसलिए आप विवाह नहीं कर सकतीं, जबकि आप पहले तैयार थीं. मुझे भी यही शक था इसीलिए मैं ने घुमाफिरा कर पूछने के बजाय आप से सीधे ही पूछ लिया. आंटी आप भी इसी समाज का ही हिस्सा हो न तो आप की सोच अलग कैसे हो सकती है,’’ पीहू एकदम तैश में आ कर बोली.

‘‘नहीं बेटा ऐसी बात नहीं है. प्यार कभी बीमारी, इंसान, जाति, रंग रूप या धर्म को देख कर नहीं किया जाता है प्यार तो बस प्यार है जो दिल का दिल से होता है. मैं आज भी तुम्हारे पापा को पहले जितना ही प्यार करती हूं. मैं बस तुम्हारे पापा की मंशा जानना चाह रही थी. बेटा बीमारी का क्या है बाद में भी हो सकती है. मुझे तो सुदेश की कंपनी पसंद है पर क्या सुदेश को मेरा साथ पसंद है?’’ कह कर मिशेल चुप हो गईं.

मिशेल आंटी की बातें सुन कर पीहू मानो सोते से जाग गई. आंटी की पौजिटिव सोच ने उस के सारे नकारात्मक विचारों को दूर कर दिया. वह दौड़ कर अपने पापा और मिशेल के गले लग गई. यद्यपि वह अपने पापा के मन की बात डायरी में पढ़ चुकी थी पर फिर भी उन की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘बोलो पापा क्या आप तैयार हो?’’

पापा ने मुसकरा कर मिशेल की ओर देखते हुए उसे गले लगा लिया. पापा की स्वीकृति समझ पीहू किचन की तरफ मिठाई लेने दौड़ पड़ी.

कर्ज: क्या फिर से अपने सपनों को पूरा करेगी सीमा?

मेरी देवरानी साक्षी 14 साल सर्विस करने के बाद अपने विभाग की हैड बन गई है. उस ने अपनी पदोन्नति की खुशी में आज जो पार्टी दी है, उस में उस के औफिस की सारी सहेलियां बहुत सजधज कर आई थीं.

मैं ने काफी कोशिश करी पर मुझ से बातें करने में किसी की दिलचस्पी ही नहीं थी. उन के बीच चह रहे वार्त्तालाप के लगभग सारे विषय उन की औफिस की जिंदगी से जुड़े थे.

उन के रुखे व्यवहार के कारण मेरा मन आहत हुआ, अचानक मैं खुद को बहुत अलगथलग, उदास व उपेक्षित सा महसूस करने लगी थी. मु लगा कि ये सब मुझे अपनी कंपनी में शामिल करने के लायक नहीं समझ रही थीं.

मैं एक तरफ कोने में बैठ कर उस समय को याद करने लगी जब मैं भी औफिस जाती थी. इन सब की तरह ढंग से तैयार हो कर घर से निकलना कितना अच्छा लगता था. औफिस में मैं भी नईनई चुनौतियों का सामना करने के लिए इन की तरह आत्मविश्वास से भरी नजर आती थी.

शादी के सालभर बाद मेरी बेटी मानसी पैदा हुई थी. उस के होने से 3 महीने पहले मैं ने नौकरी से त्यागपत्र तो दे दिया पर मेरा इरादा था कि जब वह कुछ बड़ी हो जाएगी तो मैं फिर से नौकरी करना शुरू कर दूंगी.

मगर वह समय मेरी जिंदगी में फिर लौट कर कभी नहीं आया. मानसी के होेने के 2 साल बाद मेरे बेटे सुमित का जन्म हो गया. मैं कुछ सालों के बाद नौकरी करना शुरू कर देती पर अपनी देवरानी साक्षी के कारण ऐसा नहीं कर सकी थी.

सुमित के होने के सालभर बाद मेरे देवर वसुराज की शादी साक्षी से हुई थी. वह एमबीए थी और अच्छे पद पर नौकरी करती थी.

हमारी तेजतर्रार स्वभाव वाली सास को साक्षी का देर से औफिस से लौटना व रसोई के कामों में बहुत कम हाथ बंटाना अच्छा नहीं लगता था. इस कारण सासूमां को उसे डांटने व अपमानित करने के मौके बड़ी आसानी से रोज ही मिल जाते थे.

ऐसा कर के सासू साक्षी को दबाना चाहती थीं पर साक्षी दबने को तैयार नहीं थी. इस कारण घर का माहौल कुछ दिनों में ही इतना खराब हो गया कि साक्षी घर से अलग होने की सोचने लगी.

साक्षी ने मु?ा से एक शाम साफसाफ कह दिया, ‘‘भाभी, मैं अगर नौकरी छोड़ कर घर में बैठी तो पागल हो जाऊंगी. मेरे लिए अच्छा कैरियर बनाना बहुत महत्त्वपूर्ण है.’’

एक दिन साक्षी को घर लौटने में रात के

11 बज गए क्योंकि वह औफिस से ही अपने एक सहयोगी की शादी में शामिल होने चली गई थी.

उस दिन घर में सासूमां की बहन का पूरा परिवार भी डिनर के लिए आया हुआ था. साक्षी देवरजी की इजाजत ले कर शादी के समारोह में शामिल होने गई थी, पर सासूमां ने उस के देर से लौटने पर सब मेहमानों के सामने बहुत क्लेश किया था.

साक्षी अपने कमरे में जा कर ऐसी बंद हुई कि किसी के बुलाने पर भी बाहर नहीं आई. मैं जब देर रात को उस के कमरे में खाना ले कर गई, तो वह छोटी बच्ची की तरह मुझ से लिपट कर बहुत जोर से रो पड़ी थी.

तब भावुक हो कर मैं ने उस से वादा कर लिया था, ‘‘साक्षी, तुम घर की चिंता छोड़ो और

बेफिक्र हो कर नौकरी करो. मेरे होते तुम्हारे नौकरी करने पर कभी आंच नहीं आएगी. घर तो मैं संभाल ही रही हूं और आगे भी संभालती रहूंगी. इस मामले में मांजी की डांटफटकार को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया करो.’’

मगर आज अपने उस फैसले के कारण मेरे मन में गुस्सा, चिड़ व गहरा असंतोष पैदा हो रहा था. साक्षी की औफिस की सहेलियों को देख कर मन बारबार सोच रहा था कि कितनी चुस्तदुरुस्त और आत्मविश्वास से भरी नजर आ रही हैं ये सब की सब. मेरा व्यक्तित्व इन की तुलना में कितना फीका लग रहा है.

अपने व साक्षी के बच्चों को संभालतेसंभालते मेरी विवाहित जिंदगी के 30 साल निकल गए हैं. उन चारों को ढंग से पालपोस कर बड़ा करने के लिए सुबह से रात तक चकरघिन्नी सी घूमती

रही हूं.

इस कारण मुझे इज्जत और वाहवाही तो खूब मिली पर मेरा व्यक्तित्व मुरझा गया और यह बात आज मेरे मन को बहुत कचोट रही थी.

वैसे मुझे साक्षी से कोई शिकायत नहीं है. उस ने अलग तरह से हमारे संयुक्त परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियां पूरी करी हैं. बिजलीपानी के बिल देवरजी ही भरते रहे हैं. मकान की मरम्मत व रंगरोगन सदा उन्होंने ही कराया है. मेरी बेटी मानसी की पढ़ाई का आधे से ज्यादा खर्चा मेरे देवर ने ही उठाया था.

आज यह बात मन में बहुत जोर से चुभ रही है कि  घरगृहस्थी के कामों में उलझे रहने से मेरे व्यक्तित्व का विकास रुक गया. तभी तो साक्षी की सहेलियों के साथ खुल कर बातें करने में मुझे अजीब सा डर लग रहा है. मुझे साफ महसूस हो रहा है कि मेरे अंदर नए लोगों से मिलनेजुलने का आत्मविश्वास खो गया है.

‘‘भाभी, किस सोच में डूबी हो,’’ साक्षी ने अचानक पास आ कर सवाल पूछा तो मैं चौंक गई.

‘‘कुछ नहीं,’’ न चाहते हुए भी मेरा स्वर उदास हो गया.

‘‘फिर भी जो मन में चल रहा है मुझे बताओ न,’’ वह मेरा हाथ थाम कर बड़े अपनेपन से मुसकराई.

‘‘मैं सोच रही थी कि तुम्हारी इन स्मार्ट, सुंदर सहेलियों के सामने मेरा व्यक्तित्व कितना बौना और बेजान आ रहा है. आज महसूस कर रही हूं कि मुझे हमेशा के लिए नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी,’’ अपने मन की पीड़ा को मैं ने उसे बता ही दिया.

‘‘भाभी, अगर आप नौकरी नहीं छोड़तीं

तो आज यह प्रमोशन पार्टी न हो रही होती. आप ने घर की जिम्मेदारियां संभालीं, तो ही मैं पूरी लगन व मेहनत से औफिस में काम कर तरक्की के इतने ऊंचे मुकाम तक पहुंच पाई हूं,’’ यह जवाब दे कर साक्षी ने मेरा मूड ठीक करने का प्रयास किया.

मैं ने साक्षी की बात का कोई जवाब नहीं दिया पर मेरी आंखों से एकाएक आंसू बहने लगे. साक्षी ने पहले अपने रूमाल से मेरे आंसू पोंछे और फिर अचानक तालियां बजा कर सब मेहमानों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने लगी.

‘‘साक्षी, यह क्या कर रही हो. मेरा तमाशा न बनाना, प्लीज,’’ मैं ने उसे रोकने की कोशिश करी पर उस ने तालियां बजाना जारी रखते हुए खुद और मुझे सारे मेहमानों की नजरों का केंद्र बिंदु बना ही दिया.

जब सब का ध्यान हमारी तरफ हो गया तो उस ने ऊंची आवाज में बोलना शुरू किया, ‘‘मैं आप सब का एक खास इंसान से परिचय कराना चाहती हूं. मुझे प्रमोशन दिलाने में, मेरी लगन और मेहनत के साथसाथ इस इंसान का सहयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है.

‘‘आप सब को लग रहा होगा कि अब मैं अपने जीवनसाथी का गुणगान करूंगी तो मैं वैसा कुछ नहीं करने जा रही हूं. वे तो उलटा हमेशा मुझे डांटते थे कि मैं अपनी कमाई का घमंड न करूं और आए दिन नौकरी छुड़वा देने की धमकी देते रहते थे.’’

साक्षी के इस मजाक पर जब मेहमानों का हंसना रुक गया तो वो आगे बोली, ‘‘आज मेरा बेटा मोहित 10वीं कक्षा में है और बेटी तान्या 12वीं कक्षा में. दोनों हमेशा फर्स्ट आते हैं. आज मैं हर तरह से सुखी और संतुष्ट हूं. क्या आप सब जानना चाहेंगे कि मेरी व मेरे बच्चों की सफलता व खुशियों के लिए सब से महत्त्वपूर्ण योगदान किस का है?

‘‘कहा जाता है कि हर पुरुष की सफलता के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है. मेरे जीवन को अपार खुशियों से भरने में भी एक स्त्री का हाथ है और वह हैं बहुत सीधीसादी व सब के सुखदुख बांटने वाली मेरी ये सीमा भाभी. मैं चाहती हूं कि आप सब इन का एक बार जोर से तालियां बजा कर स्वागत करें.’’

सभी मेहमानों ने बड़े जोरशोर से तालियां बजा कर मेरा अभिनंदन किया. सच कहूं तो इस वक्त मैं खुश होने के साथ बहुत शरमा भी उठी थी.

साक्षी भावुक अंदाज में मेहमानों से आगे बोली, ‘‘मेरी इन सीमा भाभी के पास

सोेने का दिल है. इन के कारण मैं शादी के बाद से ही अपने दोनों बच्चों की देखभाल की चिंता से पूरी तरह मुक्त रही हूं. जब मेरे बच्चे स्कूल से लौटते थे तो उन्हें किसी आया की डांटफटकार नहीं बल्कि अपनी ताईजी का प्यार मिलता था. ये सीमा भाभी ही थीं जिन के कारण उन्हें हमेशा खाना गरम और अपनी मनपसंद का मिला. इन्होंने दोपहर का अपना आराम त्याग कर उन्हें होमवर्क कराया. मेरे बच्चों को बहुत अच्छे संस्कार इन्होंने ही दिए हैं.

‘‘मैं आज सीमा भाभी को बताना चाहती हूं कि हम नौकरी करने वाली औरतें तो घर व औफिस की दोहरी जिम्मेदारियों को निभाते हुए मशीन बन कर रह जाती हैं. हमारे चमकदार व्यक्तित्व में बहुत कुछ नकली और बनावटी होता है. मैं अपने बच्चों को कभी इतने अच्छे ढंग से नहीं पाल सकती थी जैसे इन्होंने ने पाला है.

‘‘मेरी सीमा भाभी ने हमारे इस घर को जोड़ कर रखा है. ये स्नेह व त्याग की जीतीजागती मिसाल हैं. मैं ने कभी नहीं कहा है पर आज आप सब के सामने कहती हूं कि इस जिंदगी में तो मैं इन के प्यार, स्नेह और त्याग का कर्ज कभी नहीं उतार पाऊंगी. पर मैं जो कर रही हूं उस की प्लानिंग मैं ने और बसु ने कई महीनों से कर रखी थी. हम ने गोमतीनगर के एक कमर्शियल कौंप्लैक्स में एक दुकान खरीदी है जिस में भाभी के बनाए और डिजाइन किए कपड़े बिकेंगे. यह हमारी ओर से एहसानों का बदला नहीं है, प्यार का मान है. भाभी यह लो सारे कागज, दुकान आप के नाम पर है,’’ कहते हुए साक्षी ने सीमा के हाथ में एक फाइल पकड़ा दी.

आंखों से आंसू बहा रही साक्षी ने वहीं सब के सामने मेरे पैर छू कर आशीर्वाद लिया तो तालियों की तेज आवाज से पूरा पंडाल एक बार फिर गूंज उठा. उसे प्यार से गले लगाते हुए मेरे मन की सारी शिकायतें, हीनभावना व कड़वाहट जड़ से दूर हो गई थी.

मुझे परिवार के सारे सदस्यों ने घेर लिया. सब की आंखों में मुझे अपने लिए प्रशंसा व आदर के भाव साफ नजर आ रहे थे. मेरी आंखों से अब जो आंसू बह रहे थे तो वे खुशी और गहरे संतोष के थे.

झगड़ा: प्रिया आखिर क्यों अपने पति से तलाक लेना चाहती थी?

सुबह सुबह शालू को प्ले स्कूल पहुंचा कर प्रिया घर के काम समाप्त कर औफिस पहुंच गई. शालू के स्कूल जाने से पहले ही वह 2 घंटों में फुरती से घर के काम निबटाती है. प्रिया ने औफिस में घड़ी देखी. 2 बज चुके थे. वह शालू को लेने स्कूल पहुंची क्योंकि टीचर ने नोट भेजा था कि प्रिंसिपल से मिल लें. वरना रिकशे वाला रोज उसे घर के पास बने क्रैच में छोड़ आता था जहां प्रिया उस का लंच सुबह ही दे आती थी. उस के कपड़ों का बैग भी रहता था.

‘‘प्रियाजी आप की बेटी आजकल ज्यादा ही गुस्से में रहती है. जब देखो साथी बच्चों के साथ लड़ाई झगड़ा करती है. कल तो इस ने बगल में बैठे पीयूष को बोतल फेंक कर मार दी. 2 दिन पहले वह पायल के साथ ?झगड़ा करने लगी. पायल लंच में सैंडविच लाई थी. उस ने शालू को सैंडविच नहीं दिए तो शालू ने उस का टिफिन ही उठा कर नीचे फेंक दिया. बताइए इस तरह की हरकतें कब तक सही जाएंगी. पता नहीं इतनी छोटी सी बच्ची इतनी अग्रैसिव क्यों है,’’ टीचर ने यह शिकायत क्लास प्रिंसिपल से की थी.

‘‘हां मैं ने भी देखा है. घर में भी शालू गुस्से में चीजें उठा कर फेंक देती है.’’

‘‘देखिए मैं बस यही कह सकती हूं कि बच्चे घर में जैसा बड़ों को करते देखते हैं उस का काफी असर उन पर पड़ता है. इस बात का खयाल रखें कि ऐसा कुछ बच्ची के आगे न हो.’’

‘‘मैं बिलकुल इस बात का खयाल रखूंगी,’’ कह कर प्रिया शालू को ले कर घर चली आई मगर दिल में तूफान मचा था. कहीं न कहीं शालू के इस रवैए की वजह घर में होने वाले  झगड़े ही थे. शालू अकसर अपने मांबाप के  झगड़े देखती थी.

दरअसल, प्रिया और विवेक ने भले ही लव मैरिज की थी मगर

अब दोनों के बीच बिलकुल नहीं बनती थी. विवेक अकसर झगड़े के दौरान प्रिया पर चीखता था और चीजें भी उठा कर फेंकता था. वह खुद भी गुस्से में आपा खो बैठती थी. जब दोनों थकहार कर औफिस से आते तो दोनों के पास शिकायतें होतीं. प्यार करनेकी फुरसत नहीं होती.

प्रिया ने खाना खिला कर शालू को सुला दिया. वह खुद भी लेट गई. उस का सिर भारी हो रहा था. पिछली रात विवेक के साथ हुए  झगड़े ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था. वह पिछली रात की बात सोचने लगी. कल रात विवेक देर रात लौटा तो प्रिया ने टोक दिया. प्रिया ने उसे सुबह कहा भी था कि वह जल्दी आ जाए ताकि दोनों शालू कुछ किताबें और ड्रैसेज ले आएं.

तब तक प्रिया को उस की एक कुलीग ने बता दिया था कि विवेक का चक्कर चल रहा है. इसलिए प्रिया ने उस से सीधा सवाल किया, ‘‘मुझे पता चला है कि तुम सोनल के साथ डिनर के लिए गए थे. क्या यह सच है?’’

‘‘हां सच है. क्या प्रौब्लम है तुम्हें? अच्छा अब समझ दरअसल तुम्हारे जैसी औरतों की सोच हमेशा से छोटी ही रहती है. अगर मैं ने सोनल के साथ हंसीमजाक कर लिया, कहीं

घूमने चला गया तो कौन सी बड़ी बात हो गई. सोनल मेरी कुलीग है. दोस्ती हो गई तो क्या हो गया. तुम मेरी जासूसी करवाओगी?’’ विवेक चिढ़ कर बोला.

‘‘मैं ने आज तक कभी सोनल से तुम्हारी दोस्ती को ले कर कोई सवाल नहीं किया. मगर अब पानी सिर के ऊपर जा रह है. आज तुम उस के साथ डिनर के चक्कर में इतनी रात को लौटे हो, जबकि मैं यहां तुम्हारा मनपसंद खाना बना कर इंतजार करती रही. हमें शालू की किताबें लाने के लिए भी जाना था. मगर तुम यह भी भूल गए. क्या यह सही था,’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘सहीगलत मैं नहीं जानता. तुम मुझ पर बेकार का शक करती हो. इस बात से मुझ कोफ्त होती है.’’

‘‘अच्छा और जब मेरा पुराना क्लासमेट अजीत मुझ से मिलने घर आ गया तो क्या तुम ने तमाशा नहीं किया था.’’

‘‘किया था मगर इस की वजह तुम जानती हो? वह मुझे जरा भी पसंद नहीं,’’ विवेक चिल्लाया.

‘‘तो फिर सोनल भी मुझे पसंद नहीं.

सोनल को छोड़ो मुझे तुम्हारा ऐटीट्यूड ही पसंद नहीं. शादी के बाद तुम ने कभी मुझे समझने

की कोशिश नहीं की. कभी मेरे साथ समय

बिताने की कोशिश नहीं की,’’ प्रिया ने अपनी भड़ास निकाली.

‘‘समय क्या बिताऊं पूरा दिन तुम्हारी बकवास सुनूं. वैसे भी तुम्हारे पास समय कहां रहता है. औफिस से छुट्टी मिले तो गुरु की सेवा में लग जाती हो. पूरा संडे तो भजन, कीर्तन और सत्संग में बिताती हो. वहां से आती हो तो तुम्हारे गुरु की चेली का फोन आ जाता है.’’

प्रिया जानती थी कि विवेक पूजापाठ और गुरु के नाम से बहुत चिढ़ता. यह भी सच था कि आजकल उस का बहुत सारा समय पूजापाठ में जाने लगा था. वह पूजा पहले भी करती थी लेकिन अब समय के साथ पूजापाठ में उस का ज्यादा समय लगने लगा था. अपनी सहेली की बात मान कर उस ने अपना एक गुरु बना लिया था. दोनों सहेलियां अकसर सत्संग में गुरु की सेवा के लिए जातीं और पूरा दिन गुजार कर वापस आतीं. पूजापाठ, सत्संग, भजनकीर्तन में लगने वाले समय की वजह से उस के पास घर संभालने या बच्चे के लिए कुछ बेहतर कर पाने का समय कम होता था. खुद को आकर्षक बनाए रखने का भी कोई प्रयास नहीं करती थी क्योंकि उस के दिमाग में  झगड़े की बातें घूमती रहती थीं. हमेशा की तरह छोटी सी बात पर शुरू हुआ यह  झगड़ा खिंचता चला गया.

पिछले संडे दोनों ने प्लान बनाया था कि लंच के बाद शालू को ले कर मौल जाएंगे. कुछ जरूरी शौपिंग के साथ कोई मूवी भी देख लेंगे. निकलने से पहले प्रिया ने जल्दीजल्दी खाना बना कर थाली लगाई और विवेक को खाने को बुलाया. फिर वह किचन समेटने अंदर चली गई.

तभी विवेक के जोर से चिल्लाने की आवाज आई, ‘‘सब्जी है या केवल नमक भर दिया है. काम में मन नहीं लगता तुम्हारा. न जाने क्या करती हो पूरा दिन.’’

‘‘तुम्हारी गृहस्थी ही संभालती हूं. औफिस भी जाती हूं. तुम्हारी तरह देर रात तक किसी के साथ घूमती नहीं.’’

प्रिया ने तंज कसा तो विवेक को गुस्सा आ गया. उस ने थाली उठा कर जमीन पर फेंक दी. फिर दोनों के बीच देर तक लड़ाई चलती रही और सारा प्लान कैंसिल हो गया.

प्रिया समझने लगी थी कि अब विवेक के साथ निभाना उस के वश का नहीं रहा. विवेक छोटीछोटी बात पर उस से  झगड़ता था. ऐसा लंबे समय से चलता आ रहा था.

आज शालू की जो मारपीट की शिकायत स्कूल से सुनने को मिली थी वह कहीं न कहीं शालू ने रोज मांबाप के हो रहे  झगड़ों को देख कर ही सीखा. घर पहुंच कर प्रिया ने प्यार से शालू को अपने सामने बैठाया और पूछा, ‘‘बेटा एक बात बताओ आप ने पीयूष को क्यों मारा था?’’

‘‘मम्मा वह मुझे चिढ़ा रहा

था कि तू गंदी है,’’ शालू ने

जवाब दिया.

‘‘तब तुम ने क्या किया?’’

‘‘मुझे गुस्सा आ गया. वह  झठ बोल रहा था. इसीलिए मैं ने उसे बोतल

से मारा,’’ वह मासूमियत से बोली.

प्रिया ने अगला सवाल किया, ‘‘फिर तुम्हारी टीचर ने क्या किया?’’

‘‘टीचर ने मुझे दूसरे कमरे में भेज दिया.’’

‘‘इस के बाद तो तुम दोनों के बीच  झगड़ा नहीं हुआ न,’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘नहीं मम्मा, फिर पूरा दिन हम ने एकदूसरे को देखा ही नहीं इसलिए  झगड़ा भी नहीं हुआ,’’ शालू ने सहजता से कहा.

‘‘अच्छा आज मैं तुम्हें एक बात सम?ाती हूं. बेटा, ध्यान से सुनना. तुम देखती हो न कि मैं और तुम्हारे पापा आपस में  झगड़ते हैं.’’

‘‘हां मम्मा.’’

‘‘तुम्हें अच्छा नहीं लगता न?’’

‘‘हां मम्मा मुझ बिलकुल अच्छा नहीं लगता,’’ शालू उदास हो कर शालू बोली.

‘‘अब बताओ अगर तुम टीचर होती तो हम दोनों को अलगअलग कमरे में भेज देती न जैसे तुम्हारी टीचर ने किया.’’

‘‘हां,’’ वह भोलेपन से मुसकराई.

प्रिया ने फिर समझया, ‘‘देखो तुम और पीयूष छोटे बच्चे हो इसलिए टीचर

ने  तुम्हें अलगअलग कमरे में बैठा दिया और तुम्हारा  झगड़ा खत्म हो गया. लेकिन मैं और पापा तो बड़े हैं न. हमें अलगअलग कमरे में नहीं बल्कि अलगअलग घर में रहना होगा तभी हमारा  झगड़ा खत्म हो पाएगा. तब हम सब हैप्पी रहेंगे, है न?’’

‘‘तब मैं पापा के घर में रहूंगी,’’ शालू बोली.

‘‘तुम्हें पापा ज्यादा अच्छे लगते हैं?’’

‘‘नहीं लेकिन पापा से दूर नहीं होना मुझे. मेरी फ्रैंड सोनल के पापा दूर रहते हैं. वह रोती रहती है. मुझे ऐसे दूर नहीं रहना.’’

‘‘पर बेटा पापा के साथ रहोगी तो मम्मा अकेली रह जाएंगी न?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘मुझे आप के साथ भी रहना है. मैं तो आप दोनों के साथ रहूंगी,’’ शालू मचल कर बोली.

‘‘नहीं तुम मम्मा के साथ रहना और पापा कभीकभी तुम से मिलने आते रहेंगे. फिर तो ठीक है न,’’ प्रिया ने समझना चाहा.

मगर शालू रोने लगी, ‘‘नहीं मम्मी आप दोनों दूर मत होना मु?ो आप दोनों चाहिए.’’

प्रिया ने शालू को बांहों में ले कर चूम लिया. वह सम?ा रही थी कि इतनी छोटी सी बच्ची को मांबाप दोनों की जरूरत है. तभी तो वह किसी भी तरह विवेक के साथ सामंजस्य बैठाने की कोशिश कर रही थी. वह अपनी तरफ से हर संभव कोशिश करती है पर कमी हमेशा विवेक की तरफ से रही. वह शालू के कारण पति से अलग नहीं हो सकती थी मगर साथ रहना भी दूभर हो रहा था. यही वजह थी कि वह कशमकश भरी जिंदगी जी रही थी.

वक्त गुजरता रहा. विवेक और प्रिया के झगड़े पहले की तरह चलते रहे. अब  झगड़े छोटीछोटी बातों पर होेने लगे थे. झगड़ों के बाद कई बार प्रिया ने फिर शालू को समझया कि वह मम्मा और पापा को अलग होने दे मगर शालू उदास हो जाती.

एक दिन सोनल को ले कर प्रिया और विवेक के बीच फिर से  झगड़ा हुआ. दरअसल प्रिया को अपनी कुलीग के जरीए पता चला कि विवेक सोनल के साथ फिल्म देखने गया था. यह सुनते ही प्रिया के अंदर गुस्से का लावा फूट पड़ा. वह गुस्से में थी. देर रात जब विवेक लौटा और आते ही बैडरूम का रुख किया तो वह चीख उठी, ‘‘सोनल के घर ही सोने चले जाते न, यहां क्यों आए हो?’’

‘‘यहां क्यों आए हो से क्या मतलब है तुम्हारा?’’ विवेक भी ताव में आ गया, ‘‘यह

मेरा घर है. यहां नहीं आऊंगा तो कहां जाऊंगा? बेमतलब का इलजाम लगाते शर्म नहीं आती तुम्हें?’’

‘‘शर्म तुम्हें आनी चाहिए मुझे नहीं. तुम शर्मनाक हरकतें करते हो तब कुछ नहीं होता. मैं ने हकीकत बता दी तो इतना बुरा लग रहा है,’’ प्रिया गुस्से में थी.

‘‘ठीक है मैं ने बहुत बड़ी शर्मनाक हरकत कर दी. मैं ने किसी और को अपने दिल में बसा लिया. जब तुम इस लायक हो नहीं तो किसी और को ही ढूंढ़ूंगा. बस खुश हो या कुछ और बोलूं?’’ विवेक चीखा.

‘‘बोलना क्या है. सचाई तो बता ही दी तुम ने. मैं अब पसंद नहीं तो

किसी और को ही ढूंढ़ोगे. मैं ने तुम्हें खुली छूट दे दी है. जाओ जो करना है कर लो. बस मु?ा से कोई उम्मीद मत रखना. न ही कभी मेरे करीब आने की कोशिश करना.’’

‘‘तुम्हारे करीब आना चाहता ही कौन है. तुम्हारी तरफ देखना भी नहीं चाहता,’’ कहते हुए उस ने साइड टेबल पर रखी अपनी और प्रिया की तसवीर नीचे गिरा दी और खुद कमरे का दरवाजा जोर से बंद करता हुआ और प्रिया को धक्का देता गैस्टरूम में चला गया.

कोने में खड़ी शालू यह सब देख रही थी. उस के चेहरे पर अजीब से भाव थे और नन्हे दिल में बहुत से सवाल घूम रहे थे.

उस दिन प्रिया देर तक आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को देखती रही. आईना देख कर उसे पहले तरह खुद पर गुमान नहीं हुआ. एक समय था जब प्रिया बहुत खूबसूरत थी. लंबी, छरहरी, गोरा रंग और उस पर घने स्टाइल में कटे हुए काले, लहराते बाल ऐसे कि कोई भी उसे पहली नजर में देख कर दीवाना हो जाता था. ऐसा ही हुआ था जब विवेक ने उसे देखा तो देखता रह गया था. पहली नजर का प्यार था उन का मगर अब उम्र बढ़ने के साथ प्रिया के अंदर काफी बदलाव आए थे. उस में वह कशिश नहीं रह गई थी जो एक समय में उस में थी. उस के पेट पर काफी चरबी जम चुकी थी और अब वह थोड़ी मोटी महिलाओं की श्रेणी में आने लगी थी. उस के बाल भी अब  झड़ने लगे थे और वह अब बालों को बांध कर रखती थी. आंखों पर चश्मा लग चुका था. घर, औफिस और बच्चे को संभालने में पूरी तरह थक जाती थी इसलिए कुछ चिड़चिड़ी भी हो गई थी.

इसी तरह समय गुजरता रहा. सोनल की वजह से प्रिया और विवेक के बीच आएदिन  झगड़े होते रहे. इन ?झगड़ों का सीधा असर नादान शालू पर पड़ रहा था. प्रिया यह बात सम?ाती थी मगर उसे कोई उपाय नजर नहीं आ रहा था. वह सही समय का इंतजार कर रही थी जब शालू खुद उस की बात समझ जाए और पापा से अलग होना स्वीकार कर ले.

एक दिन प्रिया औफिस में थी तभी उस के फोन की घंटी बजी. फोन स्कूल से था.

शालू को सिर में चोट लग गई थी. प्रिया भागती हुई अस्पताल पहुंची. शालू को माथे पर चोट लगी थी और थोड़ा खून भी बह गया था.

शालू मां से लिपट कर रोने लगी, ‘‘मम्मा आज मेरा अमित से  झगड़ा हुआ और उस ने मुझे इतनी जोर से धक्का मारा कि मेरा सिर फट गया. आज के बाद मैं अमित का चेहरा भी नहीं देखूंगी. वह मुझ से हमेशा लड़ता रहता है.’’

प्रिया उसे शांत करा कर घर ले आई और सुला दिया. उस रात विवेक फिर से काफी देर से घर लौटा और प्रिया के एतराज जताने पर भड़क उठा. जोर से चीखता हुआ बोला, ‘‘तुम्हारे साथ रह कर मेरी जिंदगी खराब हो रही है.

पता नहीं कैसी घड़ी में तुझ से प्यार किया और शादी की.’’

‘‘शादी करना ही काफी नहीं होता. उसे निभाना भी पड़ता है,’’ प्रिया ने कहा.

‘‘अच्छा क्या नहीं निभाया मैं ने?’’

‘‘ज्यादा मुंह मत खुलवाओ. 1-1 कच्चा चिट्ठा जानती हूं,’’ प्रिया बोली.

‘‘क्या जानती हो. आज बता ही दो.’’

‘‘तुम्हारी रंगीनमिजाजी, तुम्हारी बेवफाई और तुम्हारा इस रिश्ते से भागना…’’

अचानक गुस्से में विवेक ने प्रिया को जोर से थप्पड़ मार दिया. दूर

खड़ी शालू सबकुछ देख रही थी. थप्पड़ मारते देखते ही शालू भड़क उठी और प्रिया का हाथ पकड़ कर उसे खींचती हुई दूसरे कमरे में ले

आई. फिर उस ने प्रिया से कहा, ‘‘मम्मा आज के बाद आप पापा के साथ नहीं रहोगी. आप ने

कहा था न कि पापा और आप अलगअलग घर में रहोगे तो  झगड़े नहीं होंगे. आप अलग घर लो. पापा से दूर हो जाओ वरना आप को भी मेरी

तरह चोट लग जाएगी.  झगड़ा हो उस से दूर हो जाना चाहिए.

मैं भी उस स्कूल में नहीं पढ़ूंगी और आप के साथ किसी दूसरे घर में रहूंगी और दूसरे स्कूल में जाऊंगी. अब मैं कभी झगड़ा नहीं करूंगी और ममा आप भी मत करना. आप को पापा गुस्सा दिलाते हैं, झगड़े करते हैं तो बस आप उन से दूर हो जाओ. मैं भी अमित से दूर हो जाऊंगी. ठीक है न मम्मा?’’

एक सांस में सारी बात कह कर शालू ने पूछा तो प्रिया ने उसे गले से लगा लिया. बेटी की इतनी समझदारी भरी बातों से वह चकित थी. फिर बोली, ‘‘हां बेटा मगर तू पापा के बिना रह लेगी न.’’

‘‘हां मम्मा. आप ने कहा था न पापा कभीकभी आएंगे ही मिलने. मैं आप के साथ रहूंगी. बस आप कभी झगड़ा मत करना.’’

प्रिया ने बेटी को सीने से लगा लिया. आज शालू ने प्रिया की कशमकश दूर कर दी थी. अब वह बिना किसी गिल्ट विवेक को तलाक दे कर सुकून से रह सकती थी. वह अपनी बच्ची को एक सुंदर भविष्य देना चाहती थी और इस के लिए उस का विवेक से दूर जाना ही उचित था.

वसीयत: भाग 3- क्या अनिता को अनिरूद्ध का प्यार मिला?

इस में चेतना को सजग रखने की बात कही गई है. दृष्टि का केवल एक ही जीवन पर केंद्रित रहना किसी छलावे से कम नहीं है और इंसान ताउम्र यही दुराग्रह करता रहता है कि उस की मृत्यु एक अंत है. अनीता चाहे मृत्यु को कितना भी बौद्धिक दृष्टिकोण से देख रही थीं, लेकिन वे अंदर से सिहर जातीं, जब भी उन्हें खयाल आता कि यह सुंदर देह वाला उन का प्रेमी 2-3 महीने से ज्यादा का मेहमान नहीं है.

लेकिन अनीता सशक्त महिला थीं, किसी दूसरे को स्नेह और करुणा देने के लिए व्यक्ति को पहले अपने भीतर से शक्तिशाली होना पड़ता है और वे तो भावनात्मक तौर पर हर दिन मजबूत और परिपक्व हो रही थीं. अनिरुद्ध की हालत खस्ता थी लेकिन अनीता के साथ के कारण वह जीवंत था. पलपल करीब आती मृत्यु को साक्षी भाव से देख रहा था जैसा अनीता उसे उन दिनों सिखा रही थीं.

एक शाम सहसा अनिरुद्ध ने अनीता का हाथ पकड़ लिया और अपने पास बैठने को बोल दिया. यह कुछ अटपटा सा था क्योंकि उन दोनों के रिश्ते में कभी इतनी अंतरंगता नहीं थी.  ‘‘तुम अपना ध्यान रखना मेरे जाने के बाद,’’ कह वह बच्चे की तरह अनीता से लिपट गया. अनीता में वात्सल्य से ले कर रति तक के सब भाव उमड़ने लगे.

दोनों मौन में चले गए. उन के स्पर्श एकदूसरे में घुलते रहे. अंधेरा उतर आया था. अंधकार, मौन और प्रेम उन दोनों को अभिन्न कर रहा था. सभी विचार और तत्त्व विलीन हो रहे थे और केवल सजगता बची हुई थी. केंद्रित, शुद्ध, निर्दोष.

अगले दिन अनिरुद्ध की तबीयत काफी बिगड़ गई. उस के पिता और अनीता उस को फिर से अस्पताल ले गए. रास्तेभर अनीता अनिरुद्ध से अस्पष्ट और खंडित वार्त्तालाप करती रहीं, ‘‘जाना मत अनिरुद्ध. मेरे लिए रुक जाओ.’’ मगर हुआ वही जो होना तय था.

अनिरुद्ध चला गया. अगली सुबह अनिरुद्ध का अंतिम संस्कार कर दिया गया. अनीताजी का गला रुंधा हुआ था. अनिरुद्ध के पिता 4 साल पहले अपनी पत्नी को खो चुके थे और अब बेटा भी… 1 हफ्ता बीत चुका था. अनीता किसी से कुछ बोल नहीं पाईं और आंसू छिपाती हुईं उस कमरे में चली जातीं, जहां अनिरुद्ध रहता था.

उस की तसवीर के सामने खड़ी हो कर अनीता के सब्र का बांध टूट जाता और वे बेतहाशा रोने लगतीं.  एक सुबह अनीता शिमला वापस जाने की तैयारी कर रही थीं. इतने में अनिरुद्ध के पिता उन के कमरे में आ गए और बोले, ‘‘बेटी, सोच रहा हूं किसी युग में तुम ऋषिपुत्री या तिब्बती योगिनी रही होगी.

नारीमन की अंतरंग तरंगों में बहने के लिए संसार को विकास क्रम की एक लंबी यात्रा पूरी करनी है अभी, तुम स्त्रियां किस आयाम में रहतीं. संभव कर लेतीं तुम लोग असंभव को भी. इतनी बड़ी बीमारी के बावजूद मेरा बेटा बिना कष्ट के बहुत शांति से अपनी अगली यात्रा पर चला गया.

सम्यक ज्ञान का वह मानदंड जहां जाने वाले की अनुपस्थिति भी उपस्थिति बन जाती है और समस्त प्रयोजनों की स्वत: सिद्धि बन जाती… काश, मैं वक्त रहते समझ पाता तुम दोनों के अव्यक्त संवाद तो आज,’’ उन का गला भर आया. कुछ संभल कर वे फिर बोले, ‘‘तुम ने जो अनिरुद्ध के लिए किया वह कोई और नहीं कर सकता था.

कोई शब्द ऐसा नहीं जो धन्यवाद कर सकूं. मैं अपनी सारी संपत्ति तुम्हारे नाम कर रहा हूं. वकील साहब नई वसीयत ले कर नीचे आ गए हैं, उन से आ कर मिल लो.’’ अनीता सिसक उठीं. उन्हें किसी सांसारिक जीवन की वसीयत की जरूरत नहीं थी.

उन्हें अनिरुद्ध वसीयत में मिल चुका था, पूर्णरूप से अविभाज्य, पूरी तरह उपस्थित. उस का प्यार, उस की यादें अनीता की अंतर्जात पारदर्शी प्रभा को अवलोकित कर रही थीं. यह संपूर्ण प्राचुर्य का मामला था, जो द्वैत सीमाओं और अंतरिक्ष से भी विस्तृत था.

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी- भाग 2

पापा की बात सुन कर नानी और मौसी का मुंह जरा सा रह गया. पापा को इतनी गंभीर मुद्रा में उन्होंने पहली बार देखा था. चूंकि दोनों के घर दिल्ली में ही थे सो वे उसी समय भनभनाती हुई अपने घर चली गईं पर पापा की बात सुन कर मेरी आंखों में बिजली सी कौंध गई. आज मैं 21वर्ष की होने को आई थी पर मैं ने पापा का इतना रौद्ररूप कभी नहीं देखा था.

हमारे घर में बस मां और उस के परिवार वालों का ही बोलबाला था. मां कालेज में प्रोफैसर थीं और बहुत लोकप्रिय भी. नानी और मौसी के जाने के साथ ही पापा ने तेजी से भड़ाक की आवाज के साथ दरवाजा बंद कर दिया और मेरी ओर मुड़ कर बोले, ‘‘अरे पीहू तुम अभी यहीं बैठी हो, कुछ हलका बना लो भूख लगी है.’’

पापा की आवाज सुन कर मुझ कुछ होश आया और मैं वर्तमान में लौटी- फटाफट खिचड़ी बना कर अचार, पापड़ और दही के साथ डाइनिंगटेबल पर लगा कर आ कर बैठ गई.

पापा जैसे ही डाइनिंगरूम में आए तो सब से पहले मेरे सिर पर वात्सल्य से हाथ फेरा

और प्यार से बोले, ‘‘बेटा, तुम्हारी मां हमें अनायास छोड़ कर चली गई. 21 साल की उम्र विवाह की नहीं होती. मैं चाहता हूं कि तुम आत्मनिर्भर बनो ताकि जीवन में कभी भी खुद को आर्थिक रूप से कमजोर न समझ. एक स्त्री के लिए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना बेहद आवश्यक है क्योंकि आर्थिक आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास आता है और आत्मविश्वास से विश्वास जो आप को किसी भी अनुचित कार्य का प्रतिरोध करने का साहस प्रदान करता है. कल से ही अपनी पढ़ाई शुरू कर दो क्योंकि 2 माह बाद ही तुम्हारी परीक्षा है और जीवन में कुछ बनो. क्यों ठीक कह रहा हूं न मैं?’’ मुझे चुप बैठा देख कर पापा ने कहा.

‘‘जी,’’ पापा की बातें मेरे कानों में पड़ जरूर रहीं थीं परंतु मैं तो पापा को ही देखे ही जा रही थी. उन का ऐसा व्यक्तित्व, ऐसे उत्तम विचारों से तो मेरा आज पहली बार ही परिचय हो रहा था. मैं ने जब से होश संभाला था घर में मम्मी के मायके वालों का ही आधिपत्य पाया था. पापा बहुत ही कम बोलते थे पर पापा जब आज इतना बोल रहे थे तो मम्मी के सामने क्यों नहीं बोलते थे, क्यों घर में नानीमौसी का इतना हस्तक्षेप था? क्यों मम्मी पापा की जगह नानी और मौसी को अधिक तरजीह देती थीं और उन के अनुसार ही चलती थीं? क्यों पापा की घर में कोई वैल्यू नहीं थी? इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर जानना मेरे लिए अभी भी शेष था.

उस रात तो मैं सो गई थी पर फिर अगले दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर मैं ने साहस जुटा कर पापा से दबे स्वर में पूछा, ‘‘पापा जहां तक मुझे पता है आप और मम्मी की लव मैरिज हुई थी फिर बाद में ऐसा क्या हुआ कि आप और मम्मी इतने दूर हो गए कि मम्मी ने सूसाइड करने की कोशिश की?’’

मेरी बात सुन कर पापा कुछ देर शांत रहे, फिर मानो मम्मी के खयालों में खो से गए. अपनी आंखों की कोरों में आए आंसुओं को पोंछ कर वे बोले, ‘‘हम तुम्हारी मां के घर में किराएदार थे. मेरे पापा यूनिवर्सिटी में क्लर्क थे तो उन के पापा उसी यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर. हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. सो अकसर नोट्स का आदानप्रदान करते रहते थे. बस तभी नोट्स के साथ ही एकदूसरे को दिल दे बैठे हम दोनों. वह पढ़ने में होशियार थी और मैं बेहद औसत पर प्यार कहां बुद्धिमान, गरीब, अमीर, जातिपात और धर्म देखता है. प्यार तो बस प्यार है. एक सुखद एहसास है जिसे बयां नहीं किया जा सकता है बल्कि केवल महसूस किया जा सकता है और इस एहसास को हम दोनों ही बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे. एमए करने के बाद तुम्हारी मम्मी पीएचडी कर के कालेज में प्रोफैसर बनी तो मैं बैंक में क्लर्क.

‘‘हम दोनों ही बड़े खुश थे. बस अब मातापिता की परमीशन से विवाह करना था पर जैसे ही हमारे परिवार वालों को पता चला तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया क्योंकि तुम्हारी मां सिंधी और मैं तमिल था. 3 साल तक हम दोनों ने अपनेअपने परिवार को मनाने की भरपूर कोशिश की पर जब दूरदूर तक बात बनते नहीं दिखाई दी तो एक दिन घर से भाग कर हम दोनों ने पहले कोर्ट और फिर मंदिर में शादी कर ली. तुम्हारी मम्मी के घर में एक अविवाहित बड़ी बहन और मां ही थी सो उन्होंने तो कुछ समय बाद ही हमें स्वीकार कर लिया पर मेरे घर वाले अत्यधिक जातिवादी और संकीर्ण मानसिकता के कट्टर धार्मिक थे इसलिए उन्होंने कभी माफ नहीं किया और शादी वाले दिन से ही हमेशा के लिए हम से सारे रिश्ते समाप्त कर लिए. उन्होंने अपना तबादला तमिलनाडु के ही रामेशवरम में करवा लिया और सदा के लिए यह शहर छोड़ कर चले गए.’’

‘‘इतने प्यार के बाद भी मम्मी…’’ पापा मानो मेरे अगले प्रश्न को सम?ा गए थे सो बोले, ‘‘विवाह के बाद जब तक हम भोपाल में थे तो सब कुछ ठीकठाक था. हम सुखपूर्वक अपना जीवनयापन कर रहे थे. उस समय तू 8 साल की थी जब तुम्हारी मम्मी का तबादला दिल्ली हुआ तो मैंने भी अपना ट्रांसफर करवा लिया. तुम्हारी मम्मी का मायका था दिल्ली सो वे बहुत खुश थीं. दिल्ली शिफ्ट होने के बाद तुम्हारी नानी और मौसी का आना जाना बहुत बढ गया था.

‘‘तुम्हारी मम्मी को उन पर बहुत भरोसा था. उन दोनों के जीने का तरीका एकदम भिन्न था. शापिंग करना, होटलिंग, किटी पार्टियां करना, बड़ेबड़े लोंगों से मेलजोल बढाना जैसे शाही शौक उन लोंगों ने पाल रखे थे. तुम्हारी मां बहुत भोली थी. वे कालेज में प्रोफैसर थी और मोटी तनख्वाह की मालकिन भी. इसीलिए ये दोनों उन्हें हमेशा अपने साथ रखतीं थी क्योंकि तुम्हारी मम्मी उनके सारे खर्चे उठाने में सक्षम थीं. एक बार जब मैं ने समझने का प्रयास किया.

‘‘अनु हमारे घर में इन लोंगों का इतना हस्तक्षेप अच्छा नहीं है. ये घर मेरा और तुम्हारा है तो इसे हम ही अपने विवेक से चलाएंगे न कि दूसरों की राय से. पर मेरी बात सुन कर वह उलटे मुझ पर ही बरस पड़ी कि देखो सुदेश तुम्हारे अपने परिवार वालों ने तो हम से किनारा ही कर लिया है. अब मेरे घर वाले तो आएंगेजाएंगे ही ये ही लोग तो हमारा संबल हैं यहां. मैं अपनी मांबहन के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकती. दीदी की शादी नहीं हुई है और मां को पापा की नाममात्र की पैंशन मिलती है अब तुम ही बताओ मैं उन के लिए नहीं करूंगी तो कौन करेगा?

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