शायद: क्या शगुन के माता-पिता उसकी भावनाएं जान पाए?

लेखिका- शशि उप्पल

शगुन स्कूल बस से उतर कर कुछ क्षण स्टाप पर खड़ा धूल उड़ाती बस को देखता रहा. जब वह आंखों से ओझल हो गई, तब घर की ओर मुड़ा. दरवाजे की चाबी उस के बैग में ही थी. ताला खोल कर वह अपने कमरे में चला गया. दीवार घड़ी में 3 बज रहे थे.

शगुन ने अनुमान लगाया कि मां लगभग ढाई घंटे बाद आ जाएंगी और पिता 3 घंटे बाद. हाथमुंह धो कर वह रसोईघर में चला गया. मां आलूमटर की सब्जी बना कर रख गई थीं. उसे भूख तो बहुत लग रही थी, परंतु अधिक खाया नहीं गया. बचा हुआ खाना उस ने कागज में लपेट कर घर के पिछवाड़े फेंक दिया. खाना पूरा न खाने पर मां और पिता नाराज हो जाते थे.

फिर शीघ्र ही शगुन कमरे में जा कर सोने का प्रयत्न करने लगा. जब नींद नहीं आई तो वह उठ कर गृहकार्य करने लगा. हिंदी, अंगरेजी का काम तो कर लिया परंतु गणित के प्रश्न उसे कठिन लगे, ‘शाम को पिताजी से समझ लूंगा,’ उस ने सोचा और खिलौने निकाल कर खेलने बैठ गया.

शालिनी दफ्तर से आ कर सीधी बेटे के कमरे में गई. शगुन खिलौनों के बीच सो रहा था. उस ने उसे प्यार से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया.

समीर जब 6 बजे लौटा तो देखा कि मांबेटा दोनों ही सो रहे हैं. उस ने हौले से शालिनी को हिलाया, ‘‘इस समय सो रही हो, तबीयत तो ठीक है न ’’

शालिनी अलसाए स्वर में बोली, ‘‘आज दफ्तर में काम बहुत था.’’

‘‘पर अब तो आराम कर लिया न. अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जाओ. सुरेश ने 2 पास भिजवाए हैं…किसी अच्छे नाटक के हैं.’’

‘‘कौन सा नाटक है ’’ शालिनी आंखें मूंदे हुए बोली, ‘‘आज कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही है.’’

‘‘अरे, ऐसा अवसर बारबार नहीं मिलता. सुना है, बहुत बढि़या नाटक है. अब जल्दी करो, हमें 7 बजे तक वहां पहुंचना है.’’

‘‘और शगुन को कहां छोड़ें  रोजरोज शैलेशजी को तकलीफ देना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अरे भई, रोजरोज कहां  वैसे भी पड़ोसियों का कुछ तो लाभ होना चाहिए. मौका आने पर हम भी उन की सहायता कर देंगे,’’ समीर बोला.

जब शालिनी तैयार होने गई तो समीर शगुन के पास गया, ‘‘शगुन, उठो. यह क्या सोने का समय है ’’

शगुन में उठ कर बैठ गया. पिता को सामने पा कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई.

‘‘जल्दी से नाश्ता कर लो. मैं और तुम्हारी मां कहीं बाहर जा रहे हैं.’’

शगुन का चेहरा एकाएक बुझ गया. वह बोला, ‘‘पिताजी, मेरा गृहकार्य पूरा नहीं हुआ है. गणित के प्रश्न बहुत कठिन थे. आप…’’

‘‘आज मेरे पास बिलकुल समय नहीं है. कक्षा में क्यों नहीं ध्यान देता  ठीक है, शैलेशजी से पूछ लेना. अब जल्दी करो.’’

शगुन दूध पी कर शैलेशजी के घर चला गया. वह जानता था कि जब तक मां और पिताजी लौटेंगे, वह सो चुका होगा. सदा ऐसा ही होता था. शैलेशजी और उन की पत्नी टीवी देखते रहते थे और वह कुरसी पर बैठाबैठा ऊंघता रहता था. उन के बच्चे अलग कमरे में बैठ कर अपना काम करते रहते थे. आरंभ में उन्होंने शगुन से मित्रता करने की चेष्टा की थी परंतु जब शगुन ने ढंग से उन से बात तक न की तो उन्होंने भी उसे बुलाना बंद कर दिया था. अब भला वह बात करता भी तो कैसे  उसे यहां इस प्रकार आ कर बैठना अच्छा ही नहीं लगता था. जब वह शैलेशजी को अपने बच्चों के साथ खेलता देखता, उन्हें प्यार करते देखता तो उसे और भी गुस्सा आता.

शगुन अपनी गृहकार्य की कापी भी साथ लाया था, परंतु उस ने शैलेशजी से प्रश्न नहीं समझे और हमेशा की तरह कुरसी पर बैठाबैठा सो गया.

अगली सुबह जब वह उठा तो घर में सन्नाटा था. रविवार को उस के मातापिता आराम से ही उठते थे. वह चुपचाप जा कर बालकनी में बैठ कर कौमिक्स पढ़ने लगा. जब देर तक कोई नहीं उठा तो वह दरवाजा खटखटाने लगा.

‘‘क्यों सुबहसुबह परेशान कर रहे हो  जाओ, जा कर सो जाओ,’’ समीर झुंझलाते हुए बोला.

‘‘मां, भूख लगी है,’’ शगुन धीरे से बोला.

‘‘रसोई में से बिस्कुट ले लो. थोड़ी देर में नाश्ता बना दूंगी,’’ शालिनी ने उत्तर दिया.

शगुन चुपचाप जा कर अपने कमरे में बैठ गया. उस की कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रह गई थी.

दोपहर के खाने के बाद समीर और शालिनी का किसी के यहां ताश खेलने का कार्यक्रम था, ‘‘वहां तुम्हारे मित्र नीरज और अंजलि भी होंगे,’’ शालिनी शगुन को तैयार करती हुई बोली.

‘‘मां, आज चिडि़याघर चलो न. आप ने पिछले सप्ताह भी वादा किया था,’’ शगुन मचलता हुआ बोला.

‘‘बेटा, आज वहां नहीं जा पाएंगे. गिरीशजी से कह रखा है. अगले रविवार अवश्य चिडि़याघर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, आज ही,’’ शगुन हठ करने लगा, ‘‘पिछले रविवार भी आप ने वादा किया था. आप मुझ से झूठ बोलती हैं… मेरी बात भी नहीं मानतीं. मैं नहीं जाऊंगा गिरीश चाचा के यहां,’’ वह रोता हुआ बोला.

तभी समीर आ गया, ‘‘यह क्या रोना- धोना मचा रखा है. चुपचाप तैयार हो जा, चौथी कक्षा में आ गया है, पर आदतें अभी भी दूधपीते बच्चे जैसी हैं. जब देखो, रोता रहता है. इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, बढि़या से बढि़या खिलौने ले कर देते हैं…’’

‘‘मैं गिरीश चाचा के घर नहीं जाऊंगा,’’ शगुन रोतेरोते बोला, ‘‘वहां नीरज, अंजलि मुझे मारते हैं. अपने साथ खेलाते भी नहीं. वे गंदे हैं. मेरे सारे खिलौने तोड़ देते हैं और अपने दिखाते तक नहीं. वे मूर्ख हैं. उन की मां भी मूर्ख हैं. वे भी मुझे ही डांटती हैं, अपने बच्चों को कुछ नहीं कहती हैं.’’

समीर ने खींच कर एक थप्पड़ शगुन के गाल पर जमाया, ‘‘बदतमीज, बड़ों के लिए ऐसा कहा जाता है. जितना लाड़प्यार दिखाते हैं उतना ही बिगड़ता जाता है. ठीक है, मत जा कहीं भी, बैठ चुपचाप घर पर. शालिनी, इसे कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दो. इसे बदतमीजी की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

शालिनी लिपस्टिक लगा रही थी, बोली, ‘‘रहने दो न, बच्चा ही तो है. शगुन, अगले रविवार जहां कहोगे वहीं चलेंगे. अब जल्दी से पिताजी से माफी मांग लो.’’

शगुन कुछ क्षण पिता को घूरता रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मांगूंगा माफी. आप भी मूर्ख हैं, रोज मुझे मारती हैं.’’

समीर ने शगुन का कान उमेठा, ‘‘माफी मांगेगा या नहीं ’’

‘‘नहीं मांगूंगा,’’ वह चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं. रोज मुझे शैलेश चाचा के घर छोड़ जाते हैं. कभी प्यार नहीं करते. चिडि़याघर भी नहीं ले जाते. नहीं मांगूंगा माफी…गंदे, थू…’’

समीर क्रोध में आपे से बाहर हो गया, ‘‘तुझे मैं ठीक करता हूं,’’ उस ने शगुन को कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दिया.

शगुन देर तक कमरे में सिसकता रहा. उस दिन से उस में एक अक्खड़पन आ गया. उस ने अपनी कोई भी इच्छा व्यक्त करनी बंद कर दी. जैसा मातापिता कहते, यंत्रवत कर लेता, पर जैसेजैसे बड़ा होता गया वह अंदर ही अंदर घुटने लगा. 10वीं कक्षा के बाद पिता के कहने से उसे विज्ञान के विषय लेने पड़े. पिता उसे डाक्टर बनाने पर तुले हुए थे. शगुन की इच्छाओं की किसे परवा थी और मां भी जो पिता कहते, उसे ही दोहरा देतीं.

एक दिन दफ्तर के लिए तैयार होती हुई शालिनी बोली, ‘‘शगुन का परीक्षाफल शायद आज घोषित होने वाला है…तुम जरा पता लगाना.’’

‘‘क्यों, क्या शगुन इतना भी नहीं कर सकता,’’ समीर नाश्ता करता हुआ बोला, ‘‘जब पढ़ाईलिखाई में रुचि ही नहीं ली तो परिणाम क्या होगा.’’

‘‘ओहो, वह तो मैं इसलिए कह रही थी ताकि कुछ जल्दी…’’ वह टिफिन बाक्स बंद करती हुई बोली.

‘‘तुम्हें जल्दी होगी जानने की…मुझे तो अभी से ही मालूम है, पर मैं फिर कहे देता हूं यदि यह मैडिकल में नहीं आया तो इस घर में इस के लिए कोई स्थान नहीं है.  जा कर करे कहीं चपरासीगीरी, मेरी बला से.’’

‘‘तुम भी हद करते हो. एक ही तो बेटा है, यदि दोचार होते तो…’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूं. एक ही इतना सिरदर्द बना हुआ है. क्या नहीं दिया हम ने इसे  फिर भी कभी दो घड़ी पास बैठ कर बात नहीं करता. पता नहीं सारा समय कमरे में घुसा क्या करता रहता है ’’ एकाएक समीर उठ कर शगुन के कमरे में पहुंच गया.

शगुन अचानक पिता को सामने देख कर अचकचा गया. जल्दी से उस ने ब्रश तो छिपा लिया परंतु गीली पेंटिंग न छिपा सका. पेंटिंग को देखते ही समीर का पारा चढ़ गया. उस ने बिना एक नजर पेंटिंग पर डाले ही उस को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिया, ‘‘तो यह हो रही है मैडिकल की तैयारी. किसे बेवकूफ बना रहे हो, मुझे या स्वयं को  वहां महंगीमहंगी पुस्तकें पड़ी धूल चाट रही हैं और यह लाटसाहब बैठे चिडि़यातोते बनाने में समय गंवा रहे हैं. कुछ मालूम है, आज तुम्हारा नतीजा निकलने वाला है.’’

‘‘जी पिताजी. मनोज बता रहा था,’’ शगुन धीरे से बोला. उस की दृष्टि अब भी अपनी फटी हुई पेंटिंग पर थी.

‘‘मनोज के सिवा भी किसी को जानते हो क्या  जाने क्या करेगा आगे चल कर…’’ समीर बोलता चला जा रहा था.

शालिनी को दफ्तर के लिए देर हो रही थी. वह बोली, ‘‘शगुन, मुझे फोन अवश्य कर देना. तुम्हारा खाना रसोई में रखा है, खा लेना.’’

मातापिता के जाते ही शगुन एक बार फिर अकेला हो गया. बचपन से ही यह सिलसिला चला आ रहा था. स्कूल से आ कर खाली घर में प्रवेश करना, फिर मातापिता की प्रतीक्षा करना. उस के मित्र उन्हें पसंद नहीं आते थे. बचपन में वह जब भी किसी को घर बुलाता था तो मातापिता को यही शिकायत रहती थी कि घर गंदा कर जाते हैं. महंगे खिलौने खराब कर जाते हैं. अकेला कहीं वह आजा नहीं सकता था क्योंकि मातापिता को सदा किसी दुर्घटना का अंदेशा रहता था.

शगुन के कई मित्र स्कूटर, मोटर- साइकिल चलाने लगे थे, पर उस के पिता ने कड़ी मनाही कर रखी थी. बस जब देखो अपने घिसेपिटे संवाद दोहराते रहते थे, ‘हम तो 8 भाईबहन थे. पिताजी के पास इतने रुपए नहीं थे कि किसी को डाक्टर बना सकते. मेरी तो यह हसरत मन में ही रह गई, पर तेरे पास तो सबकुछ है,’ और मां सदा यही पूछती रहती थीं, ‘ट्यूटर चाहिए, पुस्तकें चाहिए, बोल क्या चाहिए ’

पर शगुन कभी नहीं बता पाया कि उसे क्या चाहिए. वह सोचता, ‘मातापिता जानते तो हैं कि मेरी रुचि कला में है, मैं सुंदरसुंदर चित्र बनाना चाहता हूं, रंगबिरंगे आकार कागज पर सजाना चाहता हूं. इस में इनाम जीतने पर भी डांट पड़ती है कि बेकार समय नष्ट कर रहा हूं. उन्होंने कभी मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं की.’

तभी मनोज आ गया. शगुन उस से बोला, ‘‘यार, बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है. ‘फाइन आर्ट्स’ ही तो करना चाहता है न ’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता है,’’ शगुन कड़वाहट से बोला, ‘‘मेरे पिता को तो मानो मेरी इच्छाओं का गला घोंटने में मजा आता है.’’

मनोज उस को समझ नहीं पाता था. उसे अचरज होता था कि इतना सब होने पर भी शगुन उदास क्यों रहता है.

स्कूल पहुंचते ही दोनों ने नोटिस बोर्ड पर अपने अंक देखे. अपने 54 प्रतिशत अंक देख कर मनोज प्रसन्न हो गया, ‘‘चलो, पास हो गया, पर तू मुंह लटकाए क्यों खड़ा है, तेरे तो 65 प्रतिशत अंक हैं.’’

शगुन बिना कुछ बोले घर की ओर चल दिया. वह मातापिता पर होने वाली प्रतिक्रिया के विषय में सोच रहा था, ‘मां तो निराश हो कर रो लेंगी, परंतु पिताजी  वे तो पिछले 2 वर्षों से धमकियां दे रहे थे.’

उस ने मां को फोन किया. चुपचाप कमरे में जा कर बैठ गया. शगुन रेंगती हुई घड़ी की सूइयों को देख रहा था और सोच रहा था. जब 5 बज गए तो वह झट बिस्तर से उठा. उस ने अलमारी में से कुछ रुपए निकाले और घर से बाहर आ गया.

समीर जब दफ्तर से लौटा तो शालिनी पर बरसने लगा, ‘‘कहां है तुम्हारा लाड़ला  कितना समझाया था कि मेहनत कर ले…पर मैं तो केवल बकता हूं न.’’

शालिनी वैसे ही परेशान थी. बोली, ‘‘आज उस ने खाना भी नहीं खाया. कहां गया होगा. बिना बताए तो कहीं जाता ही नहीं है.’’

जब रात के 9 बजे तक भी शगुन नहीं लौटा तो मातापिता को चिंता होने लगी. 2-3 जगह फोन भी किए परंतु कुछ मालूम न हो सका. शगुन के कोई ऐसे खास मित्र भी नहीं थे, जहां इतनी रात तक बैठता.

11 बजे समीर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा आया. शालिनी ने सब अस्पतालों में भी फोन कर के पूछ लिया. सारी रात दोनों बेटे की प्रतीक्षा में बैठे रहे. लेकिन शगुन का कुछ पता न चला. शालिनी की तो रोरो कर आंखें दुखने लगी थीं और समीर तो मानो 10 दिन में ही 10 वर्ष बूढ़ा हो गया था.

एक दिन शगुन की अध्यापिका शालिनी से मिलने आईं तो अपने साथ एक डायरी भी ले आईं, ‘‘एक बार शगुन ने मुझे यह डायरी भेंट में दी थी. इस में उस की कविताएं हैं. बहुत ही सुंदर भाव हैं. आप यह रख लीजिए, पढ़ कर आप के मन को शांति मिलेगी.’’

शालिनी ने डायरी ले ली परंतु वह यही सोचती रही, ‘शगुन कविताएं कब लिखता था  मुझ से तो कभी कुछ नहीं कहा.’

शाम को जब समीर आया तो शालिनी अधीरता से बोली, ‘‘समीर, क्या तुम जानते हो कि शगुन न केवल सुंदर चित्र बनाता था बल्कि बहुत सुंदर कविताएं भी लिखता था. हम अपने बेटे को बिलकुल नहीं जानते थे. हम उसे केवल एक रेस का घोड़ा मान कर प्रशिक्षित करते रहे, पर इस प्रयास में हम यह भूल गए कि उस की अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं. हम अपने सपने उस पर थोपते रहे और वह मासूम निरंतर उन के बोझ तले दबता रहा.’’

समीर ने शालिनी से डायरी ले ली और बोला, ‘‘आज मैं मनोज से भी मिला था.’’

‘‘वह तो तुम्हें कतई नापसंद था,’’ शालिनी ने विस्मित हो कर कहा.

‘‘बड़ा प्यारा लड़का है,’’ समीर शालिनी की बात अनसुनी करता हुआ बोला, ‘‘उस से मिल कर ऐसा लगा, मानो शगुन लौट आया हो. शालिनी, शगुन मुझे जान से भी प्यारा है. यदि वह लौट कर नहीं आया तो मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ समीर की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘नहीं, समीर,’’ शालिनी दृढ़ता से बोली, ‘‘शगुन आत्महत्या नहीं कर सकता, जो इतने सुंदर चित्र बना सकता है, इतनी सुंदर कविताएं लिख सकता है, वह जीवन से मुंह नहीं मोड़ सकता.’’

‘‘हां, हम ने उसे समझने में जो भूल की, वह हमें उस की सजा देना चाहता है,’’ समीर भरे गले से बोला.

शालिनी शगुन की डायरी खोल कर एक कविता की पंक्तियां पढ़ कर सुनाने लगी,

‘खेल और खिलौने, आडंबर और अंबार हैं.

बांट लूं किसी के संग उस पल का इंतजार है.’

उस समय दोनों यही सोच रहे थे कि यदि शगुन की कोई बहन या भाई होता तो वह शायद स्वयं को इतना अकेला कभी भी महसूस न करता और तब शायद.

स्केअर क्रो: क्यों सुभाष को याद कर बिलख पड़ी थी मीनाक्षी

सुभाष की कंजूसी की आदत के चलते पत्नी मीनाक्षी ही नहीं, बल्कि रिश्तेदार भी नाराज रहते, लेकिन उन की आंख बंद होते ही मायकेससुराल के लोग उन के घर की परिक्रमा करने लगे. और तब मीनाक्षी, सुभाष को याद कर बिलख पड़ी थी.

सुभाषजी की आत्मा की शांति केलिए आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में शास्त्रीजी का प्रवचन वहां बैठे सभी लोग ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने पौराणिक कथाओं को जोड़ कर अपने प्रवचन को काफी दिलचस्प बना दिया था.

मीनाक्षी चाह कर भी उस प्रवचन को ध्यान से नहीं सुन पा रही थी. अपने दिवंगत पति की माला पहनी तसवीर को देखतेदेखते उस का मन बारबार अतीत की यादों में खोता जा रहा था.

‘सुभाष की बहू चांद सी सुंदर और कितनी पढ़ीलिखी है. इस सिरफिरे की तो सचमुच लाटरी निकली है.’ लोगों के मुंह से निकली इस तरह की बातें मीनाक्षी के कानों में 32 साल पहले शादी के पंडाल में ही पड़ने लगी थीं.

लोग सुभाष को सिरफिरा क्यों बता रहे थे, इस का कारण मीनाक्षी की समझ में जल्दी ही आ गया था.

बढि़या पहनने और चटपटा खाने के अलावा उस के आरामपसंद पति को किसी अन्य बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी. न तरक्की कर के आगे बढ़ने की चाह, न कोई सपना, न कोई महत्त्वा- कांक्षा. हां, अपने अच्छे नैननक्श व प्रभावशाली कदकाठी का घमंड होने के साथसाथ उस में पति होने की अकड़ जरूर बहुत ज्यादा थी.

वे अपनी नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते थे. क्या मजाल जो घर में कोई काम उन की मरजी के खिलाफ हो जाए. क्लेश और झगड़ा कर के किसी की भी नाक में दम कर देना उन के बाएं हाथ का खेल था.

शादी के वक्त तो मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली मीनाक्षी की तनख्वाह उन्हीं के बराबर थी. फिर सिर्फ वही तरक्की करती चली गई. हर 2-3 साल बाद उस का प्रमोशन हो जाता. दूसरी तरफ स्कूल मास्टर सुभाषजी को पगार में होने वाली सालाना बढ़ोतरी से ज्यादा कुछ और नहीं चाहिए था और न ही मिला.

‘मेरे सामने कभी ऊंचा बोलने की कोशिश मत करना. अगर कभी मेरे सिर के ऊपर से रास्ता बनाने की कोशिश की तो 1 मिनट में नौकरी छुड़वा कर घर बिठा दूंगा,’ इस तरह की धमकी अपने से ज्यादा कमाने वाली मीनाक्षी को वे आएदिन जरूर दे देते थे.

मीनाक्षी उन से ज्यादा कमा रही है, इस कारण सुभाषजी रिश्तेदारों व परिचितों के सामने पत्नी को कुछ ज्यादा ही दबा कर रखने की कोशिश करते. अगर खराब मूड में हों तो चार लोगों के बीच पत्नी को अपमानित करने का भी वे मौका नहीं चूकते थे. ऐसा करने से उन की हीनभावना ज्यादा उभर कर सामने आती है, यह उन की समझ में कभी नहीं आया.

कमाया तो उन्होंने ज्यादा नहीं, पर घर में आते 1-1 रुपए का हिसाब वे ही रखते. कहीं भी जरूरत से ज्यादा खर्च करने की बात सुन कर उन के तेवर चढ़ जाते. उन के कंजूस स्वभाव के कारण दोनों के सामूहिक खाते में रकम तो तेजी से बढ़ती गई, पर घर के सदस्यों को कभी कोई ज्यादा खुशी नहीं मिल पाई. घर में सुखसुविधाओं की चीजें बढ़ती गईं पर हर चीज को खरीदने से पहले क्लेश होना लाजिमी था.

उन की शादी के 2 साल बाद बड़ा बेटा संजीव आ गया. मीनाक्षी के न चाहते हुए भी 2 साल बाद राजीव पैदा हो गया. सुभाष परिवार नियोजन के लिए किसी भी किस्म की जहमत उठाने को तैयार नहीं थे, इसलिए मीनाक्षी ने राजीव के होने के समय अपनी ही नसबंदी करा ली थी.

हर प्रमोशन के साथ आफिस में मीनाक्षी की जिम्मेदारियां बढ़ती चली गईं. उसे देर तक दफ्तर में रुकना पड़ जाता था. उस के लिए घर और आफिस की जिम्मेदारियां संभालना बहुत कठिन हो जाता अगर सुभाष ने घर संभालने में उस का पूरा हाथ  न बटाया होता. अपने पति के इस इकलौते गुण की तारीफ मीनाक्षी हर आएगए के सामने दिल से करती थी.

सुभाष ने घरगृहस्थी के काम निबटाने में अच्छी कुशलता हासिल कर ली थी. सुबह बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार करने से ले कर उन्हें पढ़ाने, खाना खिलाने, कपड़े बदलवाने जैसे सभी काम वही करते थे. वे खाने के शौकीन तो थे ही, इसलिए धीरेधीरे उन्होंने कई स्वादिष्ठ चीजें बनाने में महारत हासिल कर ली थी.

बड़े हो रहे बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए वे गुस्से का इस्तेमाल खूब करते. इस का यह फायदा तो जरूर हुआ कि दोनों बेटे हर परीक्षा में अधिकतर प्रथम आते, पर अपने पिता को देखते ही उन का सहम सा जाना मीनाक्षी को दुखी कर जाता था.

वह कभी इस बाबत सुभाष से कुछ कहती तो वे बड़े रूखे से लहजे में जवाब देते, ‘हम दोनों के खूनपसीने की कमाई को आजकल चल रही फैशन की अंधी दौड़ में बरबाद करने के सपने मैं अपने दोनों बेटों को कभी नहीं देखने दूंगा. तुम भी इस मामले में उन्हें किसी भी तरह की शह देने की कोशिश मत करना.’

संजीव और राजीव को छोटी उम्र में ही कुछ इस तरह के लैक्चर सुनने को मिलने लगे थे, ‘अगर तुम्हें कोई भी कीमती या खास चीज चाहिए तो पहले परीक्षा में बहुत अच्छे नंबर लाओ और जो भी काम करने को दिया जाता है उसे जिम्मेदारी से निभाओ. इस घर में तुम्हें मुफ्त में कुछ नहीं मिलेगा और न लाड़प्यार से बिगाड़ा जाएगा, ये अच्छी तरह से समझ लो तुम दोनों.

‘ज्यादा दिखावा करना मूर्खतापूर्ण होने के साथसाथ बच्चों के अंदर गलत आदतें और संस्कार डालना है. हम ज्यादा दिखावा करेंगे तो दुनिया भर के मंगते हमारे घर में जमा होना शुरू हो जाएंगे. अपनी गांठ में पैसा बचा कर रखना समझदारी है. तुम अपने आफिस को संभालो और घर व बच्चों की चिंता मुझे करने दो. दुनियादारी की समझ है नहीं और चली हैं मुझे समझाने.’ ऐसे मौकों पर सुभाष गुस्सा हो कर मीनाक्षी की बोलती बंद कर देते थे.

सुभाष की तीखी जबान और कंजूसी की आदत के चलते घर के लोग ही नहीं, बल्कि हर रिश्तेदार भी उन से नाराज रहता था. तगड़े बैंक बैलेंस ने उन के अंदर किसी से कोई भी उलट या अपमानजनक बात कह देने का दुस्साहस पैदा कर दिया था.

एक बार मीनाक्षी के बड़े भैया ने 50 हजार रुपए अपने जीजाजी से मांगे थे. मीनाक्षी अपने भाई की सहायता करना चाहती थी पर सुभाष ने साफ इनकार कर दिया.

अपने भाई के दबाव में आ कर मीनाक्षी ने जब इस विषय पर कहनासुनना जारी रखा, तो एक दिन सुभाष ने अपने साले को ससुराल में ही जा कर भलाबुरा कह दिया था.

‘साले साहब, अपनी बहन को मेरी पीठ पीछे अगर किसी तरह की उलटी पट्टी पढ़ा कर मेरा माल खींचने की कोशिश की तो ठीक नहीं होगा. मेरा इतना कहना आप के लिए काफी होना चाहिए कि दूसरों से अपनी इज्जत कराना इनसान के अपने हाथ में होता है,’ सुभाष की इस धमकी का यह असर हुआ कि उन के साले ने करीब 5 साल तक उन के घर की दहलीज नहीं लांघी थी.

सुभाष के अपने छोटे भाई का बिजनेस हमेशा घाटे में चलता था. उसे अपने बड़े भाई से कोई आर्थिक सहायता मिली भी तो कर्जे के रूप में मिली और उसे 1-1 पाई लौटानी पड़ी थी. हर महीने अगर वह तय राशि लौटाने नहीं आता था तो सुभाषजी उस के घर पहुंच कर उसे डांटने और झगड़ा करने से नहीं चूकते थे.

सुभाषजी की कंजूसी का यह फायदा हुआ कि उन्होंने बड़ी जल्दी 200 गज के प्लाट पर एकमंजिला मकान बनवा लिया था. मकान बनवाने के 2 साल बाद कार भी ले ली थी. अपने दोनों बेटों को इंजीनियर बनाने में किसी आर्थिक कठिनाई का सामना उन्हें नहीं करना पड़ा था.

मीनाक्षी मन मार कर उन के साथ जी रही थी. उस का घूमनेफिरने और लोगों से मिलनेजुलने का शौक अपने पति के आलसी व तीखे स्वभाव के कारण कभी पूरा नहीं हो सका था. उसे हमेशा लगता था कि वह अपने पति के अजीबोगरीब व्यक्तित्व के कारण अपनी सहेलियों व सहयोगियों के सामने शर्मिंदा होती है.

शास्त्रीजी ने जब पगड़ी की रस्म शुरू करने की घोषणा की तो मीनाक्षी झटके से अतीत की यादों से निकल आई थी.

कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद कई औरतें विदा लेते हुए मीनाक्षी के गले लग कर रोईं, पर मीनाक्षी को एक बार भी दिल से रोना नहीं आया. जीवनसाथी हमेशा के लिए साथ छोड़ कर चला गया है, यह तथ्य उसे बहुत ज्यादा पीड़ा नहीं पहुंचा रहा था. उसे लग रहा था कि किसी के भी दिल में अपनी जगह न बना पाने वाला इनसान अपनी पत्नी के दिल से भी खुद को दूर रखने में सफल रहा था.

सब मेहमानों के चले जाने के बाद घर के करीबी लोग रह गए थे. रात 10 बजे के करीब वह अपने कमरे में आराम करने को लेटी ही थी कि उस के बड़े भैया मिलने आ पहुंचे.

‘‘मीनू, तुम्हें जो भी इकट्ठा मिला है या मिलेगा, उसे संभाल कर रखना जरूरी है. मैं अपने अकाउंटेंट को कल ही यहां भेज देता हूं. वह बैंक और बीमे आदि के सारे कागज देख लेगा,’’ बड़े भैया ने फौरन काम की बात करनी शुरू कर दी थी.

‘‘अभी मेरा दिमाग बिलकुल काम नहीं कर रहा है, भैया. उसे कुछ दिन बाद भेज देना,’’ थकी हुई मीनाक्षी को न जाने क्यों उन का इस वक्त रुपएपैसों की बात करना अच्छा नहीं लगा था.

‘‘वह रविवार को आ जाएगा. बड़े भाई के होते हुए तुम्हें किसी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं है,’’ बड़े भैया ने उस के सिर पर हाथ रख कर हौसला बंधाया और फिर कमरे से बाहर चले गए थे.

उन के जाते ही मीनाक्षी का देवर सचिन उस की इजाजत ले कर कमरे के अंदर आ गया.

सामने पड़ी कुरसी पर बैठने के बाद सचिन ने संजीदा लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘भाभी, अब इस घर में अकेले रहने में बहुत समस्याएं आएंगी. अगर रातबिरात किसी तरह की जरूरत पड़ी तो आप किसे पुकारोगी?’’

‘‘हमारे पड़ोसी अच्छे हैं और…’’

‘‘भाभी, पड़ोसी पड़ोसी होते हैं,’’ सचिन ने आवेश भरे लहजे में उसे टोक दिया, ‘‘वे अपनों की जगह कभी नहीं ले सकते हैं. आप मेरी एक सलाह मानोगी?’’

‘‘कैसी सलाह?’’

‘‘सीमा और मैं यहां आप के पास आ कर रहना शुरू कर देते हैं. संजीव और राजीव बाहर नौकरी कर रहे हैं और मुझे नहीं लगता कि वे कभी सैटल होने के लिए यहां लौटेंगे. मैं छत पर 2 कमरों का सैट अपने खर्चे से बनवा देता हूं. हमारे यहां आ कर साथ रहने से आप को सहारा हो जाएगा. हमारे बच्चों के स्कूल यहां से बहुत पास में हैं, सो यहां शिफ्ट करने में हमारा फायदा भी है.’’

‘‘मैं संजीव और राजीव से सलाह कर के तुम्हें जवाब देती हूं,’’ सिर में तेज दर्द शुरू हो जाने के कारण मीनाक्षी को बोलने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘आप अपनों का सहारा मिलने की बात पर जोर दोगी, तो वे कमरे बनवाने की बात जरूर मान जाएंगे,’’ उन्हें ऐसी सलाह दे कर सचिन बाहर चला गया था.

सचिन चाचा के जाते ही उस के दोनों बेटे संजीव और राजीव एकसाथ कमरे में आ गए थे. दोनों ही टैंशन और हिचकिचाहट का शिकार बने नजर आ रहे थे.

‘‘तुम दोनों मुझ से कोई खास बात करने आए हो न?’’ मीनाक्षी ने यह सवाल पूछ कर उन्हें अपने मन की बात फौरन कह देने की सुविधा उपलब्ध करा दी थी.

‘‘मम्मी, अब आप के यहां अकेले रहने की कोई तुक नहीं है. हम दोनों को लगता है कि अब इस मकान को बेच कर आप को हमारे साथ रहना शुरू कर देना चाहिए,’’ कहते हुए राजीव भावुक हो उठा.

‘‘अब आफिस में और ज्यादा खटने की जरूरत भी नहीं है. आप जल्दी रिटायरमैंट लेने की अरजी दे डालो,’’ यह सलाह संजीव ने दी.

‘‘अभी तो मेरी सर्विस के 2 साल बचे हैं. शायद 1 और प्रमोशन भी मिल…’’

‘‘मम्मी, अब प्रमोशन के बदले आप को अपनी सेहत का ज्यादा ध्यान रखना चाहिए. पूना में मेरे घर के पीछे खाली जमीन पड़ी है. उस की देखभाल कर आप अपना बागबानी का शौक पूरा करो और अपना ब्लड प्रैशर भी ठीक रखो.’’

‘‘आप को यह जगह छोड़ कर अब हमारे पास रहना शुरू करना ही पड़ेगा,’’ संजीव ने जब दबाव बनाने को अपने मुंह से निकले हरेक शब्द पर बहुत जोर डाला तो मीनाक्षी मन ही मन खीज उठी थी.

कुछ पल सोचविचार में खोए रहने के बाद वह झटके से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘चलो, ड्राइंगरूम में एकसाथ बैठ कर कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर फैसला कर लेते हैं.’’

वे दोनों बड़ी अनिच्छा से उस के पीछे ड्राइंगरूम की तरफ चल पड़े थे. मीनाक्षी ने ड्राइंगरूम की तरफ जाते हुए अपने भाई, देवर और देवरानी को भी साथ ले लिया था.

जब सब लोग बैठ गए तो मीनाक्षी ने खड़ेखड़े ही बोलना शुरू किया, ‘‘इस में कोई शक नहीं कि आप सब लोग मेरे करीबी भी हैं और शुभचिंतक भी, पर फिर भी मैं एक बात आप सभी से कहना चाहती हूं. यह अच्छी बात है कि आप सब को मेरे सुखदुख की चिंता है, पर यह भी समझ लें कि उन के जाने के बाद मैं कमजोर और असहाय नहीं हो गई हूं. जहां तक मेरा मार्गदर्शन करने की बात है तो जब मैं आंख बंद करती हूं तो वे मुझे हर उलझन को सुलझाने की सलाह देते नजर आने लगते हैं.

‘‘मेरे हित को ध्यान में रख कर आप सभी के द्वारा दी गई सारी सलाह और सुझावों के बारे में मैं एक ही बात कहना चाहूंगी. मुझ से कुछ कराने की सलाह देने से पहले आप सब यह जरूर सोचें कि अगर वे जिंदा होते तो आप की सलाह को ले कर उन की क्या प्रतिक्रिया होती.

‘‘मैं आप सब से साफसाफ कह देना चाहती हूं कि जो काम वे अपने सामने नहीं होने देते, उसे मेरे ऊपर दबाव डाल कर कराने की कोशिश न करें. वे किसी हालत में अपना पैसा किसी और को संभालने के लिए नहीं देते…न इस मकान के ऊपर 2 कमरों का सैट किसी को बनाने देते और न ही इस मकान को बेच कर अपने बेटों के पास रहने जाते.

‘‘अगर अब भी आप लोगों के पास मेरे हित का कोई ऐसा सुझाव बचता है जो उन्हें भी मान्य होता, तो कल सुबह उसे आप मुझे अवश्य बताएं. इस वक्त मैं बहुत थक गई हूं और सोना चाहती हूं. आप सब भी आराम करें. गुड नाइट.’’

एक नजर उन सभी करीबी लोगों के नाराज चेहरों पर डाल कर मीनाक्षी अपने कमरे की तरफ चल पड़ी थी. अपने दिवंगत पति के बारे में इस वक्त वह नए ढंग से सोच रही थी. उसे वे बहुत ज्यादा याद आ रहे थे.

मीनाक्षी के जेहन में एक चित्र जो बारबार उभर रहा था, वह खेतों में लगाए गए स्केअर क्रो का था. उस डरावनी सी शक्ल और बिना शरीर वाले पुतले को हवा से हिलताडुलता देख कर पक्षी खेत की फसल को नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं.

कमरे में पहुंचने के बाद अपने ‘स्केअर क्रो’ को याद कर वह पहली बार बिलखबिलख कर रो पड़ी थी.

बड़ी लकीर छोटी लकीर

ढोलककी थाप रह-रह कर मेरे कानों में चुभ रही थी. कल ही तो खबर आई थी कि मैं ने शेयर बाजार में जो पैसा लगाया है वह सारा डूब गया. कहां तो मैं एक बड़ी लकीर खींच कर एक लकीर को छोटा करना चाहता था और कहां मेरी लकीर और छोटी हो गई.

तभी शिखा मुसकराती हुई आई और मेरे हाथ में गुलाबजामुन की प्लेट पकड़ा कर बोली, ‘‘खाओ और बताओ कैसे बने हैं?’’

मैं उसे और बोलने का मौका नहीं देना चाहता था, इसलिए बेमन से खा कर बोला, ‘‘बहुत अच्छे.’’

मगर उसी दिन पता चला कि किसी भी व्यंजन का स्वाद उस के स्वाद पर नहीं उसे किस नीयत से खिलाया जाता है उस पर निर्भर करता है.

शिखा बोली, ‘‘अनिल जीजा और नीतू

दीदी की मुंबई के होटल की डील फाइनल हो

गई है. उन्होंने ही सब के लिए ये गुलाबजामुन मंगाए हैं.’’

सुनते ही मुंह का स्वाद कड़वा हो गया. यह लकीरों का खेल बहुत पहले से शुरू हो गया था, शायद मेरे विवाह के समय से ही. मेरा नाम सुमित है, शादी के वक्त में 24 वर्षीय नौजवान था, जिंदगी और प्यार से भरपूर. मेरी पत्नी शिखा बहुत प्यारी सी लड़की थी. उसे अपनी जिंदगी में पा कर मैं बहुत खुश था. सच तो यह था कि मुझे यकीन ही नहीं था कि इतनी सुंदर और सुलझी हुई लड़की मेरी पत्नी बनेगी. पर विवाह के कुछ माह बाद शुरू हो गया एक खेल. पता नहीं वह खेल मैं ही खेल रहा था या दूसरी तरफ से भी हिस्सेदारी थी.

मुझे आज भी वे दिन याद हैं जब मैं पहली बार ससुराल गया था. मेरी बड़ी साली के पति हैं अनिल. चारों तरफ उन का ही बोलबाला था.

‘‘अनिल अभी भी एकदम फिट है. इतना युवा लगता है कि घोड़ी पर बैठा दो,’’ यह शिखा की मौसी बोल रही थीं.

पता नहीं हरकोई क्यों बस बहू के बारे में ही कहानियां लिखता है. एक दामाद के दिल में भी धुकधुक रहती है कि कैसे वह अपने सासससुर और परिवार को यकीन दिलाए कि वह उन की राजकुमारी को खुश रखेगा और मेरे लिए तो यह और भी मुश्किल था, क्योंकि मुझे तो एक लकीर की माप में और बड़ी लकीर खींचनी थी. मेरा एक काबिल पति और दामाद बनने का मानदंड ही यह था कि मुझे अनिल से आगे नहीं तो कम से कम बराबरी पर आना है.

आप सोच रहे होंगे, कैसी पत्नी है मेरी या कैसी ससुराल है मेरी. नहीं दोस्तो कोई मुंह से कुछ नहीं बोलता पर आप को खुद ही यह महसूस होता है, जब आप हर समय बड़े दामाद यानी अनिल के यशगीत सुनते हो.

मैं पता नहीं क्यों इतनी कोशिशों के बाद भी वजन कम नहीं कर पा रहा था. उस दिन अनिल अपनी पत्नी के साथ हमारे घर आया था. मजाक करते हुए बोला, ‘‘सुमित, तुम थोड़ा कपड़ों पर ध्यान दो. यह वजन घटाना तुम्हारे बस की बात नहीं है.’’

उस की पत्नी नीतू भी मंदमंद मुसकरा रही थी और मेरी पत्नी शिखा को अपने हीरे के मोटेमोटे कड़े दिखा रही थी. मेरे अंदर उस रोज कहीं कुछ मर गया. शर्म आ रही थी मुझे. शिखा अपनी सब बहनों में सब से सुंदर और समझदार है पर मुझ से शादी कर के क्या सुख पाया. न मैं शक्ल में अच्छा हूं और न ही अक्ल में. फिर मैं ने लोन ले कर एक घर ले लिया. मेरी सास भी आईं पर जैसे मैं ने सोचा था उन्होंने वही किया.

शिखा के हाथों में उपहार देते हुए बोलीं, ‘‘सुमित, क्या अनिल से सलाह नहीं ले सकता था? कैसी सोसाइटी है और जगह भी कोई खास नहीं है.’’

शिखा के चेहरे पर वह उदासी देख कर अच्छा नहीं लगा. खुद को बहुत बौना महसूस कर रहा था. फिर शिखा की मम्मी पूरा दिन अनिल के बंगले का गुणगान करती रहीं. मुझे ऐसा लगा कि मैं तो शायद उस दौड़ में भाग लेने के भी काबिल नहीं हूं.

दिन बीतते गए और हफ्तों और महीनों में परिवर्तित होते गए. दोस्तो आप सोच रहे होंगे, गलती मेरी ही है, क्योंकि मैं इस तुलनात्मक खेल को खेल कर अपने और अपने परिवार को दुख दे रहा था. आप शायद सही बोल रहे होंगे पर तब कुछ समझ नहीं आ रहा था.

शिखा बहुत अच्छी पत्नी थी, कभी कुछ नहीं मांगती. मेरे परिवार के साथ घुलमिल कर रहती, पर उस का कोई भी शिकायत न करना मुझे अंदर ही अंदर तोड़ देता. ऐसा लगता मैं इस काबिल भी हूं…

आज मैं जब दफ्तर से आया तो शिखा बहुत खुश लग रही थी. आते ही उस ने मेरे हाथ में एक बच्चे की तसवीर पकड़ा दी. समझ आ गया, हम 2 से 3 होने वाले हैं. अनिल का फोन आया मेरे पास बधाई देने के लिए पर फोन रखते हुए मेरा मन कसैला हो उठा था. वह तमाम चीजें बता रहा था जो मेरी औकात के परे थीं. वह वास्तव में इतना भोला था या फिर हर बार मुझे नीचा दिखाता था, नहीं मालूम, मगर मैं जितनी भी अपनी लकीर को बड़ा करने की कोशिश करता वह उतनी ही छोटी रहती.

अनिल के पास शायद कोई पारस का पत्थर था. वह जो भी करता उस

में सफल ही होता और मैं चाह कर भी सफल नहीं हो पा रहा था.

जैसेजैसे शिखा का प्रसवकाल नजदीक आ रहा था मेरी भी घबराहट बढ़ती जा रही थी. मेरी मां तो हमारे साथ रहती ही थीं पर मैं ने खुद ही पहल कर के शिखा की मां को भी बुला लिया. मुझे लगा शिखा बिना झिझक के अपनी मां को सबकुछ बता सकेगी पर मुझे नहीं पता था यह उस के और मेरे रिश्ते के लिए ठीक नहीं है.

शिखा अपनी मां के आने से बहुत खुश थी. 1 हफ्ते बाद की डाक्टर ने डेट दी थी. शिखा की मां उस के साथ ही सोती थीं. पता नहीं वे रातभर मेरी शिखा से क्या बोलती रहती थीं कि सुबह शिखा का चेहरा लटका रहता. मैं गुस्से और हीनभावना का शिकार होता गया.

मुझे आज भी याद है अन्वी के जन्म से 2 रोज पहले शिखा बोली, ‘‘सुमित, हम भी एक नौकर रख लेंगे न बच्चे के लिए.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘क्यों शिखा, हमारे घर में तो इतने सारे लोग हैं.’’

शिखा मासूमियत से बोली, ‘‘अनिल जीजाजी ने भी रखा था, करिश्मा के जन्म के बाद.’’

खुद को नियंत्रित करते हुए मैं ने कहा, ‘‘शिखा वे अकेले रहते हैं पर हमारा पूरा परिवार है. तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं होने दूंगा.’’

मगर अनिल का जिक्र मुझे बुरी तरह खल गया. शिखा कुछ और बोलती उस से पहले ही मैं बुरी तरह चिल्ला पड़ा. उस की मां दौड़ी चली आईं. शिखा की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे. मैं उसे कैसे मनाता, क्योंकि उस की मां ने उसे पूरी तरह घेर लिया था. मुझे बस यह सुनाई पड़ रहा था, ‘‘हमारे अनिल ने आज तक नीतू से ऊंची आवाज में बात नहीं करी.’’

मैं बिना कुछ खाएपीए दफ्तर चला गया. पूरा दिन मन शिखा में ही अटका रहा. घर आ कर जब तक उस के चेहरे पर मुसकान नहीं देखी तब तक चैन नहीं आया.

10 मई को शिखा और मेरे यहां एक प्यारी सी बेटी अन्वी हुई. शिखा का इमरजैंसी में औपरेशन हुआ था, इसलिए मैं चिंतित था पर शिखा की मां ने शिखा के आगे कुछ ऐसा बोला जैसे मुझे बेटी होने का दुख हुआ हो. कौन उन्हें समझाए अन्वी तो बाद में है, पहले तो शिखा ही मेरे लिए बहुत जरूरी है.

मैं हौस्पिटल में कमरे के बाहर ही बैठा था. तभी मेरे कानों में गरम सीसा डालती हुई एक आवाज आई, ‘‘हमारे अनिल ने तो करिश्मा के होने पर पूरे हौस्पिटल में मिठाई बांटी थी.’’

मैं खिड़की से साफ देख रहा था. शिखा के चेहरे पर एक ऐसी ही हीनभावना थी जो मुझे घेरे रहती थी. शिखा घर आ गई पर अब ऐसा लगने लगा था कि वह मेरी बीवी नहीं है, बस एक बेटी है. रातदिन अनिल का बखान और गुणगान, मेरे साथसाथ मेरे घर वाले भी पक गए और उन को भी लगने लगा शायद मैं नकारा ही हूं. घर के लोन की किस्तें और घर के खर्च, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था. फिर मैं ने कुछ ऐसा किया जहां से शुरू हुई मेरे पतन की कहानी…

मैं ने इधरउधर से क्व1 लाख उधार लिए और बहुत बड़ा जश्न किया. शिखा के लिए भी एक बहुत प्यारी नारंगी रंग की रेशम के काम की साड़ी ली. उस में शिखा का गेहुआं रंग और निखर रहा था. उस की आंखों में सितारे चमक रहे थे और मुझे अपने पर गर्व हो रहा था.

फिर किसी और से उधार ले कर मैं ने पहले व्यक्ति का उधार चुकाया और फिर यह धीरेधीरे मेरी आदत में शुमार हो गया.

मेरी देनदारी कभी मेरी मां तो कभी भाई चुका देते. शिखा और अन्वी से सब प्यार करते थे, इसलिए उन तक बात नहीं पहुंचती थी.

ऐसा नहीं था कि मैं इस जाल से बाहर नहीं निकलना चाहता था पर जब सब खाक हो जाता है तब लगता है काश मैं पहले शर्म न करता या शिखा से पहले बोल पाता. मैं एक काम कर के अपनी लकीर को थोड़ा बढ़ाता पर अनिल फिर उस लकीर को बढ़ा देता.

यह खेल चलता रहा और फिर धीरेधीरे मेरे और शिखा के रिश्ते में खटास आने लगी.

शिखा को खुश करने की कोशिश में मैं कुछ भी करता पर उस के चेहरे पर हंसी न ला पाता. शिखा के मन में एक अनजाना डर बैठ गया था. उसे लगने लगा था मैं कभी कुछ भी ठीक नहीं कर सकता या मुझे ऐसा लगने लगा था कि शिखा मेरे बारे में ऐसा सोचती है.

अन्वी 2 साल की हुई और शिखा ने एक दफ्तर में नौकरी आरंभ कर दी. मुझे काफी मदद मिल गई. मैं ने नौकरी छोड़ कर व्यापार की तरफ कदम बढ़ाए. शिखा ने अपनी सारी बचत से और मेरी मां ने भी मेरी मदद करी.

2-3 माह में थोड़ाथोड़ा मुनाफा होने लगा. उस दौड़ में पहला स्थान प्राप्त करने के चक्कर में मैं शायद सहीगलत में फर्क को नजरअंदाज करने लगा. थोड़ा सा पैसा आते ही दिलखोल कर खर्च करने लगा. अचानक एक दिन साइबर सैल से पुलिस आई जांच के लिए. पता चला कि मेरी कंपनी के द्वारा कुछ ऐसे पैसे का लेनदेन हुआ है जो कानून के दायरे में नहीं आता है. एक बार फिर से मैं हाशिए पर आ खड़ा हो गया. जितना कामयाब होने की कोशिश करता उतनी ही नाकामयाबी मेरे पीछेपीछे चली आती.

शिखा ने कहा कि मैं कभी भी उस के या अन्वी के बारे में नहीं सोचता. हमेशा सपनों की दुनिया में जीता हूं.

शायद वह अपनी जगह ठीक थी पर उसे यह नहीं मालूम था कि मैं सबकुछ उसे और अन्वी को एक बेहतर जिंदगी देने के लिए करता हूं. पर क्या करूं मैं ऊपर उठने की जितनी भी कोशिश करता उतना ही नीचे चला जाता हूं. हमारे रिश्ते की खाई गहरी होती गई. हम पतिपत्नी का प्यार अब न जाने कहां खोने लगा.

यह सोचता हुआ मैं वर्तमान में लौट आया हूं.

कल शिखा की छोटी बहन की शादी है. सभी रिश्तेदार एकत्रित हुए हैं. न जाने क्या सोच कर मैं शिखा के लिए अंगूठी खरीद ले आया. सब लोग शिखा की अंगूठी की तारीफ कर रहे थे और मैं खुशी महसूस कर रहा था. वह अलग बात है, मैं इन पैसों से पूरे महीने का खर्च चला सकता था.

तभी देखा कि नीतू सब को अपना कुंदन का सैट दिखा रही है जो उस ने खासतौर पर इस शादी में पहनने के लिए खरीदा था. मुझे अंदर से आज बहुत खालीखाली महसूस हो रहा था. मैं इन लकीरों के खेल में उलझ कर आज खुद को बौना महसूस कर रहा हूं.

बरात आ गई थी. चारों तरफ गहमागहमी का माहौल था. तभी अचानक पीछे से किसी ने आवाज लगाई. मुड़ कर देखा तो देखता ही रह गया.

मेरे सामने भावना खड़ी थी. भावना और मैं कालेज के समय बहुत अच्छे मित्र थे या यों कह सकते वह और मैं एकदूसरे के पूरक थे. प्यार जैसा कुछ था या नहीं, नहीं मालूम पर उस के विवाह के बाद बहुत खालीपन महसूस हुआ. भावना जरा भी नहीं बदली थी या यों कहूं पहले से भी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. वही बिंदासपन, बातबात पर खिलखिलाना.

मुझे देखते ही बोली, ‘‘सुमि, क्या हाल बना रखा है… तुम्हारी आंखों की चमक कहां गई?’’

मैं चुपचाप मंदमंद मुसकराते हुए उसे एकटक देख रहा था. मन में अचानक यह

खयाल आया कि काश मैं और वह मिल कर

हम बन जाते.

भावना चिल्लाई, ‘‘यह क्या मैं ही बोले जा रही हूं और तुम खोए हुए हो?’’

हम गुजरे जमाने में पहुंच गए. 3 घंटे 3 मिनट की तरह बीत गए. होश तब आया जब शिखा अन्वी को ले कर आई और शिकायती लहजे में बोली, ‘‘तुम्हें सब वहां ढूंढ़ रहे हैं.’’

मैं ने उन दोनों का परिचय कराया और फिर शिखा के साथ चला गया. पर मन वहीं भावना के पास अटका रह गया. जयमाला के बाद फिर से भावना से टकरा गया.

भावना निश्छल मन से शिखा से बोली, ‘‘शिखा, आज की रात तुम्हारे पति को चुरा रही हूं… हम दोनों बरसों बाद मिले हैं… फिर पता नहीं मिल पाएं या नहीं.’’

ये सब सुन कर मुझे पता लग गया था कि मैं अब भावना का अतीत ही हूं और शायद उस ने कभी मुझे मित्र से अधिक अहमियत नहीं दी थी. यह तो मैं ही हूं जो कोई गलतफहमी पाले बैठा था.

फिर भावना कौफी के 2 कप ले आई. मुसकराते हुए बोली, ‘‘चलो हो जाए कौफी

विद भावना.’’

मैं भी मुसकरा उठा. मैं ने औपचारिकतावश उस से उस के घरपरिवार के बारे में पूछा. उस से बातचीत कर के मुझे आभास हो गया था कि मेरी सब से प्यारी मित्र अपनी जिंदगी में बहुत खुश है पर यह क्या मुझे सच में बहुत खुशी हो रही थी?

भावना ने मुझ से पूछा, ‘‘और सुमि तुम्हारी कैसी कट रही है? बीवी तो तुम्हारी बहुत प्यारी है.’’

उस के आगे मैं कभी झूठ न बोल पाया था तो आज कैसे बोल पाता. अत: मैं ने उसे अपना दिल खोल कर दिखा दिया. मैं ने उस से कहा, ‘‘भावना, मैं क्या करूं… मैं हार गया यार… जितनी कोशिश करता हूं उतना ही नीचे चला जाता हूं.’’

भावना बोली, ‘‘सुमित, कभी शिखा से ऐसे बात की जैसे तुम ने आज मुझ से करी है?’’

मैं ने न में सिर हिलाया तो वह बोली, ‘‘फिर हर समय इन लकीरों के खेल में उलझे रहना… पति न जाने क्यों अपनी पत्नियों को बेइंतहा प्यार करने के बावजूद उन्हें अपने दर्द से रूबरू नहीं करा पाते हैं. तुम पहले इंसान नहीं हो जो ऐसा कर रहे हो और न ही तुम आखिरी हो, पर सुमित तुम खुद इस के जिम्मेदार हो… इन लकीरों के खेल में तुम खुद उलझे हो… अपना सब से प्यारा दोस्त समझ कर यह बता रही हूं कि अपनी तुलना अगर दूसरों से करोगे तो खुद को कमतर ही पाओगे. सुमि, बड़ी लकीर अवश्य खींचो पर अपनी ही अतीत की छोटी लकीर के अनुपात में… तुम्हें कभी निराशा नहीं होगी. जैसे मछली जमीन पर नहीं रह सकती वैसे ही पंछी भी पानी में नहीं रह पाते. सुमि, शायद तुम एक मछली हो जो उड़ने की कोशिश कर रहे हो.

‘‘फिर बोलो गलती किस की है, तुम्हारी, शिखा या अनिल की?

‘‘दूसरे तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इस से ज्यादा इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने बारे में कैसा महसूस करते हैं…

‘‘शिखा की मां हो या तुम्हारी सब अपनेअपने ढंग से चीजों को देखेंगे पर यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम कैसे अपने रिश्ते निभाते हो.

‘‘जैसे एक बहू को शादी के बाद अपने नए परिवार में तालमेल बैठाना पड़ता है

वैसे ही एक पुरुष को भी शादी के बाद सब से तालमेल बैठाना पड़ता है पर इस बात को एक पति, दामाद अकसर नजरअंदाज कर देते हैं… अनिल से अपनी तुलना करने के बजाय उस से कुछ सीखो और मुझे यकीन है तुम्हारे अंदर भी ऐसे गुण होंगे जो अनिल ने तुम से सीखे होंगे. नकारात्मकता को अपने और शिखा के ऊपर हावी न होने दो. जैसे तुम खुद को देखोगे वैसे ही दूसरे लोग तुम्हें देखेंगे.

‘‘यह उम्मीद करती हूं कि अगली बार फिर कभी जीवन के किसी मोड़ पर टकरा गए तो फिर से अपने पुराने सुमि को देखना चाहूंगी,’’ कह भावना चली गई.

मैं चुपचाप उसे सुनता रहा और फिर मनन करने लगा कि शायद भावना सही बोल रही है. लकीरों के खेल में उलझ कर मैं खुद ही हीनभावना से ग्रस्त हो गया हूं. शायद अब समय आ गया है हमेशा के लिए इस खेल को खत्म करने का पर इस बार अपनी शिखा को साथ ले कर मैं अपनी जिंदगी की एक नई लकीर बनाऊंगा बिना किसी के साथ तुलना कर के और फिर कभी भावना से टकरा गया तो अपनी जिंदगी के नए सफर की कहानी सुनाऊंगा.

रोमांस के रंग, श्रीमतीजी के संग

फिल्मों में बरसात में झीने कपड़ों में भीगती, इठलाती, हीरो के साथ नाचतीगाती हीरोइन को देख कर हमारी श्रीमतीजी मचल उठती हैं और हमें भी मचलने को मजबूर कर देती हैं. यों तो हमारी श्रीमतीजी बहुत रंगीली हैं, लेकिन खासतौर पर जब मौसम हरियाला, बरसाती और रंगीला हो तब उन का रोमांटिक होना और भी बढ़ जाता है.

एक बार बरसात की रात को हमारी श्रीमतीजी मचल उठीं और हमें नींद से उठाते हुए बोलीं, ‘‘सुनो जी, मौसम में बहार है, मुझे तुम से प्यार है.’’

हम ने उनींदे स्वर में कहा, ‘‘तो?’’

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘ऐसे मौसम में भला किस को नींद आती है?’’

हम ने कहा, ‘‘कल औफिस जाना है, बहुत सारे काम निबटाने हैं.’’

श्रीमतीजी ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘कभी तो लिया करो, पिया प्यार का नाम.’’

हम ने थोड़ा परेशान होते हुए कहा, ‘‘प्यार से पेट तो भरता नहीं.’’

श्रीमतीजी ने इठलाते हुए कहा, ‘‘काम तो जिंदगी भर का है, पर ऐसा मौसम बारबार नहीं आता.’’

इस बार श्रीमतीजी की रोमांटिक अदा पर हम फिसल गए और श्रीमतीजी का हाथ पकड़ कर रात को 1 बजे बरसते पानी में घर की छत पर आ गए. चारों तरफ घोर अंधकार छाया हुआ था और पूरा शहर बरसात में नहाया हुआ था.

अब श्रीमतीजी गाना गाती जा रही थीं और हम से भी ऐक्टिंग करने को कह रही थीं. पहला गाना उन्होंने गाया :

आग लगी पानी में…

फिर

आज फिसल जाएं तो…

इस के बाद

जिंदगी भर नहीं भूलेगी ये बरसात

की रात…

हर गाने के बाद उन की आवाज तेज होती जा रही थी और वे फ्री ऐक्शन वाली होती जा रही थीं.

छत पर जब हम दोनों नाच रहे थे, तभी चौकीदार वहां से गुजरा. उसे लगा कि छत पर कोई चोर चढ़ा है, इसलिए उस ने छत पर टौर्च की रोशनी फेंकते हुए जोर से सीटी बजाई. हमें डर लगा कि कहीं कोई नया लफड़ा न हो जाए, इसलिए हम ने श्रीमतीजी से नीचे चलने के लिए कहा. लेकिन जब वे चलने को तैयार नहीं हुईं तब हम ने बरसते पानी में उन्हें नीचे बैठा लिया. थोड़ी देर बाद चौकीदार आगे निकल गया.

अब बरसात और तेज हो गई थी. श्रीमतीजी ने बैठेबैठे ही हमारे सीने पर अपना सिर रख दिया और बोलीं, ‘‘आज कुछ ऐसा हो कि यह वक्त यहीं ठहर जाए. पानी बरसता रहे और हम दोनों यों ही पानी में भीगते रहें,’’ इसी के साथ वे जोर से हंस दीं.

तभी पड़ोसी के घर की लाइट जली और उस ने चिल्लाते हुए कहा, ‘‘अरे, जो भी करना है चुपचाप करो, यह शरीफों का महल्ला है.’’

हम फिर सहम गए.

रात की झीनीझीनी रोशनी में झीनेझीने कपड़ों में भीगी श्रीमतीजी किसी हीरोइन से कम नहीं लग रही थीं. सच में हम ने उन को इतना सुंदर पहले कभी नहीं देखा था.

तभी एक बिल्ली कहीं से आ कर छत पर कूद गई और श्रीमतीजी डर कर हम से चिपकने के लिए भागीं तो उन के पैर में मोच आ गई. वे दर्द से तिलमिला गईं. इसी के साथ उन्हें 2-3 छींकें आ गईं.

अब उन से चलते भी नहीं बन रहा था. इसलिए पूरा रोमांस उड़ गया था. हम ने कहा कि हमारे कंधे पर हाथ रख दो और सहारा ले कर नीचे चलो.

लेकिन वे बोलीं, ‘‘जरा सी तकलीफ हुई तो दूर भागने लगे. पूरी जिंदगी क्या खाक साथ निभाओगे. अरे गोद में उठा कर नहीं ले जा सकते क्या?’’

हमें लगा कि रोमांटिक मूड को खराब नहीं किया जाए, इसलिए उन्हें गोद में उठाया और नीचे कमरे में ले आए. तब तक उन्हें 4-5 छींकें और आ गईं.

अब श्रीमतीजी फिल्मी स्टाइल में बोलीं, ‘‘थोड़ी आगवाग जलाओ, चाय का इंतजाम करो.’’

हमारे घर आग जलाना मुमकिन था नहीं, इसलिए हीटर जला दिया. तब तक श्रीमतीजी का पैर सूज कर डबलरोटी हो गया था और बुखार भी आ गया था.

सुबह जब डाक्टर ने निमोनिया बताया और लंबाचौड़ा इलाज करने की बात कही. हमें औफिस से छुट्टी लेनी पड़ी.

तभी कामवाली रमिया आई और बोली, ‘‘साहबजी आप की छत पर रात को 2 चोर चढ़े थे. चौकीदार आ कर बोला, तो मैं भी टौर्च ले कर पड़ोसी की छत पर चढ़ गई…’’

श्रीमतीजी ने जिज्ञासा से कहा, ‘‘फिर क्या हुआ, चोर पकड़े गए क्या?’’

रमिया ने शरमाते हुए कहा, ‘‘पर आप को और मेमसाहब को देख कर वापस लौट आई.’’

मैं ने बनते हुए आश्चर्य से कहा, ‘‘पर हम लोगों को तो कुछ मालूम ही नहीं हुआ कि क्या हुआ.’’

इस पर रमिया ने इठलाते हुए कहा, ‘‘अरे साहब क्यों अनजान बनते हो. अरे, मेमसाहब के पैर में मोच, सर्दी, बुखार यह सब क्या कम है. आप लोगों के छत पर फिल्मी स्टाइल में मस्ती करने पर हमारे इलाके के तो 8-10 लोग डंडे ले कर इकट्ठे हो गए थे. तब मैं ने उन्हें समझाया.’’

जब हम अंदर के कमरे में श्रीमतीजी के लिए पानी लेने गए, तब पीछेपीछे रमिया बाई भी आ गई और बोली, ‘‘सच बताना साहब, कैसा लगा बरसते पानी में छत पर? अरे, हम लोगों की झुग्गी में छत तो होती नहीं और झुग्गी के बाहर निकलो तो कुत्ते दम नहीं लेने देते.’’

मैं कुछ कहता इस के पहले ही श्रीमतीजी लंगड़ाते हुए आईं और बोलीं, ‘‘अरी ओ जासूस, तू काम से काम रख समझी न.’’

रमिया बाई ने भी गुस्से से कहा, ‘‘ओ मेमसाहब, एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी. अरे मैं ने तुम्हें बचाया, नहीं तो अभी तक एक पुलिस थाने में होतीं. और ये आंखें किसी और को दिखाना. अब रमिया बाई इस घर में काम नहीं करेगी.’’

श्रीमतीजी ने भी कह दिया, ‘‘हांहां जा, वैसे भी अभी तेरी जरूरत नहीं है. साहब छुट्टी पर हैं. वे सब काम कर लेंगे. जब महीने 2 महीने में तेरा गुस्सा उतर जाए तब आ जाना.’’

हम सोच रहे थे, श्रीमतीजी की तो चित भी मेरी और पट भी मेरी और जो कुछ भुगतना है वह हम भुगतें. हम घबरा गए. यानी अब श्रीमतीजी की सेवा के साथसाथ घर के काम भी निबटाने होंगे. यह सोच कर हमें भी बुखार आने लगा.

रमिया बाई श्रीमतीजी को आंखें दिखाते हुए घर से बाहर हो गई. लेकिन श्रीमतीजी बरसात के मौसम का आनंद लेते हुए अब खटिया पर पड़ेपड़े ही गाना गुनगुनाने लगीं- रिमझिम बरसे पानी…

और हम बरसात का लुत्फ श्रीमतीजी के संग उन की सेवा और घर के काम करते हुए उठा रहे थे.

कैसी है सीमा: अच्छे व्यवहार के बावजूद क्यों ससुरालवालों का दिल नहीं जीत पाई सीमा

 ‘‘आज जरा चेक पर दस्तखत कर देना,’’ प्रभात ने शहद घुली आवाज में कहा.

सीमा ने रोटी बेलतेबेलते पलट कर देखा, चेक पर दस्तखत करवाते समय प्रभात कितने बदल जाते हैं, ‘‘आप की तनख्वाह खत्म हो गई?’’ वह बोली.

‘‘गांव से पिताजी का पत्र आया था. वहां 400 रुपए भेजने पड़े. फिर लीला मौसी भी आई हुई हैं. घर में मेहमान हों तो खर्च बढ़ेगा ही न?’’

सीमा चुप रह गई.

‘‘पैसा नहीं देना है तो मत दो. किसी से उधार ले कर काम चला लूंगा. जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम इसी तरह अकड़ दिखाती हो.’’

‘‘अकड़ दिखाने की बात नहीं है. प्रश्न यह है कि रुपया देने वाली की कुछ कद्र तो हो.’’

‘‘मैं बीवी का गुलाम बन कर नहीं रह सकता, समझीं.’’

बीवी के गुलाम होने वाली सदियों पुरानी उक्ति पुरुष को आज भी याद है. किंतु स्त्रीधन का उपयोग न करने की गौरवशाली परंपरा को वह कैसे भूल गया?

बहस और कटु हो जाए, इस के पहले ही सीमा ने चेक पर हस्ताक्षर कर दिए.

शाम को प्रभात दफ्तर से लौटे तो लीला मौसी को 100 का नोट दे कर बोले, ‘‘मौसी, तुम पड़ोस वाली चाची के साथ जा कर आंखों की जांच करवा आना.’’

‘‘अरे, रहने दे भैया, मैं तो यों ही कह रही थी. अभी ऐसी जल्दी नहीं है. रायपुर जा कर जांच करा लूंगी.’’

‘‘नहीं मौसी, आंखों की बात है. जल्दी दिखा देना ही ठीक है.’’

मौसी मन ही मन गद्गद हो गईं.

प्रभात मौसी का बहुत खयाल रखते हैं. मौसी का ही क्यों, रिश्ते की बहनों, बूआओं, चाचाताउओं सभी का. कोई रिश्तेदार आ जाए तो प्रभात एकदम प्रसन्न हो उठते हैं. उस समय वह इतने उदार हो जाते हैं कि खर्च करते समय आगापीछा नहीं सोचते. मेहमानों की तीमारदारी के लिए ऐसे आकुलव्याकुल हो उठते हैं कि उन के आदेशों की धमक से सीमा का सिर घूमने लगता है.

‘‘सीमा, आज क्या सब्जी बनी?है?’’ प्रभात पूछ रहे थे.

‘‘बैगन की.’’

‘‘बैगन की. मौसी की आंखों में तकलीफ है. बैगन की सब्जी खाने से तकलीफ बढ़ेगी नहीं? उन के लिए परवल की सब्जी बना लो.’’

‘‘नहीं. मैं बैगन की सब्जी खा लूंगी, बेटा. बहू को एक और सब्जी बनाने में कष्ट होगा. कालिज से थक कर आई है.’’

‘‘इस उम्र में थकना क्या है, मौसी? वह तो इन के घर वालों ने काम की आदत नहीं डाली, इसी से थक जाती हैं.’’

‘‘हां, बेटा. आजकल लड़कियों को घरगृहस्थी संभालने की आदत ही नहीं रहती. हम लोग घर के सब काम कर के 10 किलो चना दल कर फेंक देते थे,’’ मौसी बोलीं.

बस, इसी बात से सीमा चिढ़ जाती है. उस के मायके वालों ने काम की आदत नहीं डाली तो क्या प्रभात ने उस के लिए नौकरों की फौज खड़ी कर दी? एक बरतनकपड़े साफ करने वाली के अलावा दूसरा कोई नौकर तो देखा ही नहीं इस घर में.

और लीला मौसी के जमाने में घरगृहस्थी ही तो संभालती थीं लड़कियां. न पढ़ाईलिखाई में सिर खपाना था और न नौकरी के पीछे मारेमारे घूमना था.

सीमा सोचने लगी, ‘लीला मौसी तो खैर अशिक्षित महिला हैं, परंतु प्रभात की समझ में यह बात क्यों नहीं आती?’

अभी पिछले सप्ताह भी ऐसा ही हुआ था. सीमा ने करेले की सब्जी बनाई थी. प्रभात ने देखा तो बोले, ‘‘करेले बनाए हैं? क्या मौसी को दुबला करने का विचार है? उन के लिए कुछ और बना लो.’’

सीमा एकदम हतप्रभ रह गई. मौसी हंसीं, ‘‘नहीं… नहीं, कुछ मत बनाओ, बहू. बस, दाल को तड़का दे दो. तब तक मैं टमाटर की चटनी पीस लेती हूं.’’

‘‘मौसी, बहू के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है? आओ, उस कमरे में बैठें,’’ प्रभात बोले.

सीमा अकेली रसोई में खटती रही. उधर साथ वाले कमरे में मौसी प्रभात को झूठेसच्चे किस्से बताती रहीं, ‘‘तुम्हारे बड़े नानाजी खेत में पहुंचे तो देखा, सामने गांव के धोबी का भूत खड़ा है…’’

मौसी खूब अंधविश्वासी हैं. मनगढ़ंत किस्से खूब बताती हैं. भूतप्रेतों के, प्रभात के बड़े नाना, मझले नाना और छोटे नाना के, दूध सी सफेद छोटी नानी के, प्रभात की ननिहाल के जमींदार महेंद्रप्रताप सिंह और रूपा डाकू के भी. इन किस्सों के साथसाथ मौसी लोगों की मेहमाननवाजी और बढि़या भोजन को भी खूब याद करतीं. उन की व्यंजन चर्चा सुन कर श्रोताओं के मुंह में भी पानी भर आता.

मौसी मूंग के लड्डू, खस्ता, कचौरी, मेवे की गुझिया और खोए की पूरियों को याद किया करतीं.

प्रभात उन की हर फरमाइश पूरी करवाते. सीमा को कालिज जाने तक रसोई में जुटे रहना पड़ता. थकान के कारण खाना भी न खाया जाता. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. कालिज से लौट कर वह कुछ खाना ही चाहती थी कि प्रभात के मित्र आ गए. उस ने किसी तरह उन्हें चायनाश्ता करवाया. दूध का बरतन उठा कर अलमारी में रखने लगी तो सहसा चक्कर खा कर गिर पड़ी. सारे कमरे में दूध ही दूध फैल गया.

मौसी और प्रभात दौड़े आए. अपने निष्प्राण से शरीर को किसी तरह खींचती हुई सीमा पलंग पर जा लेटी. आंखें बंद कर के वह न जाने कितनी देर तक लेटी रही.

अचानक प्रभात ने धीरे से उसे उठाते हुए कहा, ‘‘सुनो, अब उठ कर जरा रसोई में देख लो. तब से मौसी ही लगी हुई हैं.’’

शरीर में उठने की शक्ति ही नहीं थी. ‘हूं’ कह कर सीमा ने दूसरी ओर करवट ले ली.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह मैं मानता हूं परंतु अपने घर का काम कोई और करे यह तो शोभा नहीं देता,’’ प्रभात धीरे से बोले.

सीमा का मन हुआ चीख कर कह दे, ‘मौसी के घर में बहूबेटी बीमार होती हैं, तब क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं? एक समय भोजन बना भी लेंगी तो ऐसी क्या प्रलय हो जाएगी?’ लेकिन कहा कुछ नहीं. आवाज कहीं गले में ही फंस कर रह गई. आंखों से आंसू बह निकले. उठ कर बचा हुआ काम निबटाया.

मौसी प्रभात की प्रशंसा करते नहीं थकतीं. उस दिन किसी से कह रही थीं, ‘‘हमारे परिवार में प्रभात हीरा है. सब के सुखदुख में साथ देता है. रुपएपैसे की परवाह नहीं करता. ऐसा आदरसम्मान करता है कि पूछो मत. बहू बड़े घर की लड़की?है, पर प्रभात का ऐसा शासन?है कि मजाल है बहू जरा भी गड़बड़ कर जाए.’’

यह प्रशंसा वह पहली बार नहीं सुन रही थी. ऐसी प्रशंसा प्रभात के परिवार के हर छोटेबड़े के मुख पर रहती है. ससुराल वालों को इतना आतिथ्यसत्कार तथा सेवा करने और बैंक के चेक फाड़फाड़ कर देने के बाद भी वह प्रभात के इस सुयश की भागीदार नहीं बन सकी. या यों कहा जाए कि प्रभात ने इस में उसे भागीदार बनाया ही नहीं बल्कि अपने लोगों के सामने उसे बौना बनाने में ही वह गर्व महसूस करते रहे. उस  की कमियों और गलतियों को वह बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करते और सारा परिवार रस ले ले कर सुना करता.

इस संबंध में सीमा को अपनी देवरानी मंगला से ईर्ष्या होती है. देवर सुनील उस के सम्मान को बढ़ाने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. हैदराबाद से वह साल में एक बार घर आते हैं. छोटेबड़े सभी के लिए कुछ न कुछ लाने का उन का नियम है, लेकिन लेनदेन का दायित्व उन्होंने मंगला को ही सौंप रखा है.

जब सारा परिवार मिल कर बैठता?है तब सुनील पत्नी को गौरवान्वित करते हुए कहते हैं, ‘‘मंगला, निकालो भई, सब चीजें. दिखाओ सब को, क्याक्या लाई हो तुम उन के लिए,’’ सब की नजरें मंगला पर टिक जाती?हैं. वह कितनी ऊंची हो जाती है सब की दृष्टि में.

मंगला की अनुपस्थिति में जब परिवार के लोग मिल बैठते हैं तो उस के लाए उपहारों की चर्चा होती?है. उस की दरियादिली की प्रशंसा होती है. परंतु सीमा की मेहनत की कमाई से भेजे गए मनीआर्डरों का कभी जिक्र नहीं होता. उस का सारा श्रेय प्रभात को जाता है. कभी बात चलती?है तो अम्मां उसे सुना कर साफ कह देती हैं, ‘‘सीमा की कमाई से हमें क्या मतलब? प्रभात घर का बड़ा बेटा है, उस की कमाई पर तो हमारा पूरा हक है.’’

कभीकभी सीमा सोचती है, ‘नेकी करते हुए भी किसी के हिस्से में यश और किसी के हिस्से में अपयश क्यों आता है?’ वैसे इस विषय में ज्यादा सोच कर वह अपना मन खराब नहीं करती. फिर भी उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह पाता. पिछले दिनों डाक्टर ने बताया था, ‘‘पैर भारी हैं. थोड़ा आराम करना चाहिए.’’

इधर मौसी कहती थीं, ‘‘एक रोटी बनाने का ही तो काम है घर में. न चक्की पीसनी है, न कुएं से पानी खींच कर लाना है. खूब मेहनत करो और डट कर खाओ. तभी तो सेहत बनेगी.’’

और एक दिन सेहत बनाने के चक्कर में लड्डू बांधतेबांधते कालिज जाने का समय हो गया था. सीमा जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी तो अचानक पैर फिसल गया. 3-4 सीढि़यां लांघती हुई वह नीचे जा गिरी. चोट तो उसे विशेष नहीं आई, पर पेट में दर्द होने लगा था.

‘‘इन के लिए बिस्तर पर आराम करना बहुत जरूरी है,’’ डाक्टर ने प्रभात से कहा था.

प्रभात ने लापरवाही के लिए सीमा को जी भर कर कोसा, किंतु इस परिस्थिति में डाक्टर की सलाह मानना आवश्यक हो गया.

झाड़ूपोंछा तो महरी करने लगी पर भोजन बनाने का भार मौसी पर आ पड़ा. वह नाश्ता और खाना बनाने में परेशान हो जातीं. अब वह बिना मसाले की सादी सब्जी से काम चला लेतीं. कहतीं, ‘‘अब उम्र हो गई. काम करने की पहले जैसी ताकत थोड़े ही रह गई है.’’

सीमा का मन होता, पूछे, मौसी, सिर्फ खाना ही तो बनाना?है. और खाना बनाना भी कोई काम है? तुम तो कहती थीं, दालचावल और सब्जीरोटी तो कैदियों का खाना है. तुम ऐसा खाना क्यों बना रही हो, मौसी?

किसी तरह सप्ताह बीता था कि मौसी का मन उखड़ने लगा. एक दिन प्रभात से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास बहुत दिन रह ली. सुरेखा रोज सपने में दिखाई देती है. जाने क्या बात है. बहू जैसी ही उस की भी हालत है.’’

प्रभात सन्न रह गए, ‘‘मौसी, ऐसी कोई बात होती तो सुरेखा का पत्र जरूर आता. तुम चली जाओगी तो बड़ी मुसीबत होगी. अच्छा होता जो कुछ दिन और रुकजातीं.’’

पर मौसी नहीं मानीं. वह बेटी को याद कर के रोने लगीं. प्रभात निरुपाय हो गए. उन्होंने उसी दिन गांव पत्र लिखा.

सुशीला जीजी पिछले साल 2 माह रह कर गई थीं. उन्हें भी एक पत्र विस्तार से लिखा. कई दिनों बाद गांव से पत्र आया कि 15 दिनों बाद अम्मां स्वयं आएंगी. पर 15 दिनों के लिए दूसरी क्या व्यवस्था हो सकेगी?

प्रभात को याद आया कि मंगला की बीमारी का समाचार मिलते ही गांव के लोग किस तरह हैदराबाद तक दौड़े चले जाते हैं. फिर सीमा के लिए ऐसा क्यों? शायद इस का कारण वह स्वयं ही है. जिस तरह सुनील ने अपने परिजनों के हृदय में मंगला के लिए स्नेह और सम्मान के बीज बोए थे, वैसा सीमा के लिए कभी किया था उस ने?

15 दिन बाद अम्मां गांव से आ गईं. उन के आते ही प्रभात निश्चिंत हो गए. उन्हें विश्वास था कि अम्मां अब सब संभाल लेंगी. मार्च का महीना?था. वह अपने दफ्तर के कार्यों में व्यस्त हो गए. सुबह घर से जल्द निकलते और रात को देर से घर लौटते.

पिछले वर्ष जब मंगला को आपरेशन से बच्चा हुआ था, उस समय अम्मां हैदराबाद में ही थीं. उन्होंने उस की खूब सेवा की थी. उस की सेवा का औचित्य उन की समझ में आता था, लेकिन सीमा को क्या हुआ, यह उन की समझ में ही न आता. वह दिनभर काम करें और बहू आराम करे, यह उन के लिए असहाय था.

प्रभात के सामने तो अम्मांजी चुपचाप काम किए जातीं, परंतु उन के जाते ही व्यंग्य बाण उन के तरकस में कसमसाने लगते. कभी वह इधरउधर निकल जातीं.

महल्ले की स्त्रियां मजा लेने के लिए उन्हें छेड़तीं, ‘‘अम्मां, हो गया काम?’’

‘‘हां भई, काम तो करना ही है. पुराने जमाने में बहुएं सास की सेवा करती थीं, आज के जमाने में सास को बहुओं की सेवा करनी पड़ती?है.’’

सीमा सुनती तो संकोच से गड़ जाती. किस मजबूरी में वह उन की सेवा ग्रहण कर रही थी, इसे तो वही जानती थी.

उसी समय प्रभात को दफ्तर के काम से सूरत जाना पड़ा. उन के जाने की बात सुन कर सीमा विकल हो उठी थी. जाने के 2 दिन पहले उस ने प्रभात से कहा भी, ‘‘अम्मां से कार्य करवाना मुझे अच्छा नहीं लगता. उन की यहां रहने की इच्छा भी नहीं है. उन्हें जाने दीजिए. यहां जैसा होगा, देखा जाएगा.’’

‘‘परिवार से संबंध बनाना तुम जानती ही नहीं हो,’’ प्रभात ने उपेक्षा से कहा था.

प्रभात के जाते ही अम्मां मुक्त हो गई थीं. वह कभी मंदिर निकल जातीं, कभी अड़ोसपड़ोस में जा बैठतीं. सीमा को यह सब अच्छा ही लगता. उन की उपस्थिति में जाने क्यों उस का दम घुटता था.

उस दिन अम्मां सामने के घर में बैठी बतिया रही थीं. सीमा ने टंकी में से आधी बालटी पानी निकाला और उठाने ही जा रही थी कि देखा, अम्मां सामने खड़ी हैं. उसे याद आया अम्मां पीछे वाली पड़ोसिन से कह रही थीं, ‘‘प्रभात पेट में था, तब छोटी ननद की शादी पड़ी. हमें बड़ेबड़े बरतन उठाने पड़े,  पर कहीं कुछ नहीं हुआ. हमारी बहू तो 2-2 लोटा पानी ले कर बालटी भरती है, तब नहाती?है.’’

सीमा ने झेंप कर बालटी भरी और उठा कर स्नानघर तक पहुंची ही थी कि दर्द के कारण बैठ जाना पड़ा. जिस का भय था, वही हो गया. डाक्टर निरुपाय थे. गर्भपात कराना जरूरी हो गया.

अम्मां रोरो कर सब से कह रही थीं, ‘‘हम इतना काम करते थे तो भला क्या इन्हें बालटी भर पानी नहीं दे सकते थे. हमारे रहने का क्या फायदा हुआ?’’

उसी दिन शाम को प्रभात घर लौटे. अस्पताल पहुंचे तो डाक्टर गर्भपात कर के बाहर निकल रही थीं. उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बच्चा निकालना जरूरी हो गया था. लड़का था.’’

प्रभात हतबुद्धि से डाक्टर को देखते रह गए. फिर अचकचा कर पूछा, ‘‘सीमा कैसी है?’’

काले केशों की मार: क्यों 60 साल की होने को बेताब थी प्रेमा

जवान होते लड़केलड़कियों को जैसे 16वें साल का इंतजार होता है वैसे ही प्रेमा को अपने 60वें साल का इंतजार था. 16वें साल के सपने अगर रंगीन होते हैं तो प्रेमा के भी 60 साल के सपने कुछ कम रोमांचक नहीं थे. उसे इस दिन का बड़ी बेसब्री से इंतजार था जब वह 60 साल की हो जाएगी. इंतजार का हर एक दिन उस पर भारी पड़ रहा था. और इतने अधिक महत्त्वपूर्ण दिन का इंतजार क्यों न हो, 60वां साल होते ही उसे एक महत्त्वपूर्ण उपाधि जो मिलने वाली थी. वह उपाधि भी कोई ऐसीवैसी नहीं थी. वह उपाधि तो उसे भारत सरकार देने वाली थी. सुंदरसलोना 60वां साल होते ही उसे ‘वरिष्ठ नागरिक’ होने की उपाधि मिलनी थी. तब वह बड़ी शान से रेलवे वालों को बोल सकती थी कि वह तो ‘सीनियर सिटीजन’ है और उसे रेलवे टिकट पर 30 प्रतिशत की कटौती मिलनी ही चाहिए.

प्रेमा की तकदीर कुछ अधिक ही जोर मार रही थी. इधर वह 60 की हुई और उधर रेलमंत्री ने ऐलान कर दिया कि रेल में सफर करने वाली ‘वरिष्ठ महिलाओं’ को टिकट पर 50 प्रतिशत कटौती मिलेगी. अखबार में यह समाचार पढ़ते ही उस का दिल तो बल्लियों उछलने लगा था. प्रेमा ने तुरंत इस का फायदा उठाने की योजना बना डाली. अब उसे कहीं न कहीं घूमने तो जाना ही था. उस की तकदीर कुछ अधिक ही साथ देने लगी थी क्योंकि तभी उसे एक विवाह का निमंत्रणपत्र मिल गया. उस के भतीजे की शादी बेंगलुरु में होने वाली थी. शादी मेें 15 दिन बाकी थे यानी तैयारी के लिए भी अधिक समय मिल गया था. सब से पहले तो उस का बेंगलुरु जाने का टिकट आया. आज तक उस ने कभी खुश हो कर अपनी जन्मतिथि किसी को भी नहीं बताई थी पर आज उस ने बड़े गर्व से अपनी जन्मतिथि रेलवे फार्म में भरी थी ताकि उसे ‘वरिष्ठ नागरिक’ होने की कटौती मिल सके.

1 हजार रुपए के टिकट के लिए उसे केवल 500 रुपए ही देने पड़े थे. उसे इतनी बचत से बहुत खुशी भी हुई और अपने 60वें वर्ष पर गर्व भी हुआ. प्रेमा ने शादी में जाने की तैयारी शुरू कर दी थी. 500 रुपए के टिकट में जो बचत हुई थी, उसे वह अपने ऊपर खर्च करना चाहती थी. उसे लगा कि शादी में सब से अच्छा उसे ही दिखना चाहिए. अपनी बहनों और भाभियों में उसे ही सब से अच्छा लगना चाहिए.

प्रेमा सीधी ब्यूटीपार्लर पहुंची. अपने अधपके बालों को काला करवाया, गोल्ड फेशियल करवाया ताकि उम्र छिप जाए. 60वें वर्ष की गहरी लकीरों को छिपाना चाहा. पार्लर से बाहर निकलते समय उस ने खुद को आईने में निहारा और हलके से मुसकरा दी.

प्रेमा को लगा अब वह 10 साल तो जरूर ही पीछे चली गई है. 2 घंटे कुरसी पर बैठने के बाद जब घुटने की हड्डियों ने चटखने की सरगम बजाई तो उसे याद हो आया कि वह तो अब वरिष्ठ नागरिक है और अपनी स्थिति पर उसे खुद ही गर्वभरी हंसी आ गई. निश्चित तिथि पर प्रेमा ने बेंगलुरु की यात्रा के लिए प्रस्थान किया. याद से अपना पैनकार्ड पर्स में रखा. वही तो उस के 60वें साल का एकमात्र सुबूत था. अपनी सुरक्षित सीट पर बैठ कर उस ने सहयात्रियों पर नजर दौड़ाई. उस के साथ के सभी यात्री उसे वरिष्ठ नागरिक ही लगे. उस ने सोचा रेलवे की 30 प्रतिशत की छूट का फायदा उठाने ही सब निकल पड़े हैं. एक दादीमां के साथ उन की 2-3 साल की पोती भी थी. रात में जब सोने की तैयारी हुई तो उसे नीचे वाली सीट ही मिली थी. और इधर, दादीमां अपनी पोती के साथ नीचे वाली सीट ही चाहती थीं. दादी मां बोलीं, ‘‘बहनजी, आप तो जवान हैं, आप ऊपर वाली सीट ले लो. मुझ से तो चढ़ा नहीं जाएगा.’’

दादीमां के मुंह से अपनी जवानी की बात सुन कर तो प्रेमा एक बार के लिए भूल गई कि वह भी तो वरिष्ठ नागरिक है. तभी उसे खयाल आया कि यह तो ब्यूटीपार्लर का ही कमाल था कि वह जवान नजर आ रही थी. उस ने गर्व से अपने काले बालों पर हाथ फेरा और किसी तरह बीच वाली सीट पर चढ़ गई. सुबह होते ही टिकटचेकर ने आ कर सब को जगा दिया था. इतमीनान से बैठ कर वह एकएक यात्री का टिकट चैक करने लगा. प्रेमा का टिकट देख कर उस ने एक बार घूर कर उसे देखा और बोला, ‘‘बहनजी, आप अपना सर्टिफिकेट दिखाएं. मुझे तो शक हो रहा है कि आप ने धोखे से आधा टिकट लिया है.’’

सब के सामने धोखे की बात सुन कर प्रेमा के तनबदन में आग लग गई. उस ने तमक कर अपना पर्स खोला और अपना पैनकार्ड सामने कर दिया. कुछ लज्जित हुआ टिकटचेकर बोला, ‘‘माताजी, बाल काले करवा कर गाड़ी में चढ़ोगे तो हमें धोखा तो होगा ही. अब आप इन माताजी की तरफ देखो, सारे बाल सफेद हैं इसलिए उन से तो मैं ने प्रमाण नहीं मांगा.’’ दूसरे यात्री टिकटचेकर की बात सुन कर हंस पड़े थे और प्रेमा खिसिया कर रह गई थी.

कहते हैं कि छोटे बच्चों को भी धोखा देना मुश्किल होता है. कुछ बातों का ज्ञान उन्हें जन्मजात होता है. इस का प्रमाण भी आज प्रेमा को मिल गया था. दादी की पोती जब सो कर उठी तो उस ने प्रेमा को दादी कह कर ही बुलाया. उस ने कहा भी, मैं तो तुम्हारी आंटी हूं, मुझे आंटी कह कर बुलाओ. पर नहीं, बच्ची उसे दादी ही बुलाती रही. उस ने तो उस के काले बालों की भी लाज नहीं रखी, उस का 60वां साल उसे नए अनुभव करवाने के लिए ही आया था. बेंगलुरु स्टेशन पर पहुंच कर प्रेमा ने देखा कि उसे लेने स्टेशन पर कोई नहीं पहुंचा था. कुछ देर इंतजार करने के बाद वह अपनी अटैची घसीटती हुई चल दी. एक टिकटकलेक्टर ने उसे रोका और टिकट मांगा. उस ने टिकट दिखाया तो उस ने भी उसे घूरा और कहा, ‘‘आप एक तरफ आ जाइए और अपना बर्थ सर्टिफिकेट दिखाइए.’’

प्रेमा ने झट से अपने पर्स में से पैन- कार्ड निकालना चाहा पर उसे कार्ड कहीं भी दिखाई नहीं दिया. उस ने पूरे पर्स को तलाश मारा पर पैनकार्ड नहीं मिला. अब तो उस के होश उड़ गए. अब करे तो क्या करे? कैसे इस टिकटकलेक्टर को यकीन दिलाए कि वह पूरे 60 वर्ष की है. उस की घबराहट को देख कर टिकटकलेक्टर जरा अकड़ गया और बोला, ‘‘ऐसा धोखा करने से पहले उस की सजा के बारे में भी सोचना था. अब आप जानती ही होंगी कि आप को हजार रुपए जुर्माना भी हो सकता है और 15 दिन की जेल भी.’’ सुन कर प्रेमा के हाथपांव फूल गए. उस ने रोती हुई आवाज में कहा, ‘‘मैं सच में कह रही हूं कि मैं 60 साल की हूं.’’

‘‘पर मैं यकीन नहीं कर सकता. आप का तो एक भी बाल सफेद नहीं है.’’ ‘‘वह तोे मैं ने काले रंगवाए हैं.’’

‘‘मैं कोई बहानेबाजी सुनने वाला नहीं हूं. या तो आप पैनकार्ड दिखलाइए या जुर्माना भरने को तैयार हो जाइए.’’ प्रेमा ने आसपास झांका. पर उस की मदद करने वाला कोई नहीं था. वह बोली, ‘‘आप यकीन मानिए, मैं 60 साल 20 दिन की हूं.’’

‘‘आप चाहे 60 साल एक दिन की हों मुझे एतराज नहीं है. पर आप सबूत दीजिए.’’ पास की एक बैंच पर बैठ कर उस ने अपने दिमाग पर पूरा जोर दिया. सुबह तो उस ने पैनकार्ड डब्बे में टी.टी.ई. को दिखाया था, इस वक्त न जाने कहां गायब हो गया. अब उस ने पर्स में जितनी रकम थी, गिननी शुरू की. पूरे 1200 रुपए थे. टी.टी.ई. ने उसे 1 हजार रुपए जुर्माना भरने की बात कही थी. टी.टी.ई. भी उसे गिद्ध नजरों से देख रहा था. अब उस ने गिड़गिड़ाती हुई आवाज में कहा, ‘‘मेरी तो किस्मत ही खराब है इसलिए मेरा पैनकार्ड गुम हो गया है. ट्रेन में मैं ने टिकटचेकर को दिखाया था.’’

‘‘आप कुछ भी कह लीजिए पर मुझे तो लग रहा है कि आप झूठ बोल रही हैं.’’ ‘‘आप जुर्माना ले लीजिए पर मुझे झूठी तो मत कहिए. मेरा इतना अपमान तो मत कीजिए.’’

टी.टी.ई. ने बड़ी शान से 1 हजार रुपए जुर्माने की रसीद काटी और उसे पकड़ा दी. प्रेमा ने रसीद ली और बैंच पर बैठ गई. मन ही मन अपने काले बालों को कोसा जिन्होंने काली नागिन बन कर उसे ही डसा था. एक तो हजार रुपए गए और दूसरे झूठी का लेबल भी लग गया. फिर उस ने रेलमंत्री को कोसा जिस ने वरिष्ठ नागरिकों के लिए ऐसी स्कीम निकाली. न वह स्कीम होती न उस ने 50 प्रतिशत छूट पर टिकट खरीदा होता.

सब को कोसने के बाद प्रेमा ने एक बार फिर से अपना पर्स टटोला. अब की बार उस ने पूरे पर्स को उलट दिया. सारा सामान बाहर निकाल दिया. तब उस की नजर पर्स के उधड़े हुए हिस्से पर पड़ी, जहां से उस का पैनकार्ड झांक रहा था. उस ने जल्दी से उसे बाहर खींचा और उधर को दौड़ी जिधर टिकटकलेक्टर गायब हुआ था. उस ने बहुत तलाशा पर वह जालिम चेहरा उसे नजर नहीं आया.

अब अपने को कोसते हुए प्रेमा स्टेशन से बाहर निकली. घर पहुंच कर उस ने सारी कहानी कह सुनाई. अब उसे खुद पर ही हंसी आ रही थी. उस ने तो बाल रंगे थे कि वह जवान नजर आए और जब वह जवान नजर आई तो उस ने सब को कहा कि वह 60 साल की बूढ़ी है. दोनों स्थितियों का लाभ वह एकसाथ नहीं उठा सकती थी या तो 50 प्रतिशत की कटौती ले ले या घने काले बालों वाली तरुणी बन जाए. या तो एक वृद्धा का सम्मान ले ले या फिर बच्चों से दादी के बदले आंटी कहलवा ले. खुद ही सोचनेविचारने के बाद नतीजा निकाला कि उम्र के साथ चलने में ही भलाई है, दौड़ आगे की ओर ही लगानी चाहिए पीछे की ओर नहीं. क्योंकि आप स्वयं को कभी भी धोखा नहीं दे सकते तो फिर दूसरों को ही धोखा देने की कोशिश क्यों की जाए?

छिपकली: जब अंधविश्वास के चक्कर में दीप और जूही की खतरे में पड़ी जान

कविता की यह पहली हवाई यात्रा थी. मुंबई से ले कर चेन्नई तक की दूरी कब खत्म हो गई उन्हें पता ही नहीं चला. हवाई जहाज की खिड़की से बाहर देखते हुए वह बादलों को आते-जाते ही देखती रहीं. ऊपर से धरती के दृश्य तो और भी रोमांचकारी लग रहे थे. जहाज के अंदर की गई घोषणा ‘अब विमान चेन्नई हवाई अड्डे पर उतरने वाला है और आप सब अपनीअपनी सीट बेल्ट बांध लें,’ ने कविता को वास्तविकता के धरातल पर ला कर खड़ा कर दिया.

हवाई अड्डे पर बेटा और बहू दोनों ही मातापिता का स्वागत करने के लिए खड़े थे. बेटा संजू बोला, ‘‘मां, कैसी रही आप की पहली हवाई यात्रा?’’

‘‘अरे, तेरी मां तो बादलों को देखने में इतनी मस्त थीं कि इन्हें यह भी याद नहीं रहा कि मैं भी इन के साथ हूं,’’ दीप बोले.

‘‘मांजी की एक इच्छा तो पूरी हो गई. अब दूसरी इच्छा पूरी होने वाली है,’’ बहू जूही बोली.

‘‘कौन सी इच्छा?’’ कविता बोलीं.

‘‘मां, आप अंदाजा लगाओ तो,’’ संजू बोला, ‘‘अच्छा पापा, आप बताओ, मां की वह कौन सी इच्छा थी जिस की वह हमेशा बात करती रही थीं.’’

‘‘नहीं, मैं अंदाजा नहीं लगा पा रहा हूं क्योंकि तेरी मां की तो अनेक इच्छाएं हैं.’’

इसी बातचीत के दौरान घर आ गया था. संजू ने एक बड़ी सी बिल्ंिडग के सामने कार रोक दी.

‘‘उतरो मां, घर आ गया. एक नया सरप्राइज मां को घर के अंदर जाने पर मिलने वाला है,’’ संजू ने हंसते हुए कहा.

लिफ्ट 10वीं मंजिल पर जा कर रुकी. दरवाजा खोल कर सब अंदर आ गए. घर देख कर कविता की खुशी का ठिकाना न रहा. एकदम नया फ्लैट था. फ्लैट के सभी खिड़कीदरवाजे चमकते हुए थे. बाथरूम की हलकी नीली टाइलें कविता की पसंद की थी. रसोई बिलकुल आधुनिक.

संजू बोला, ‘‘मां, तुम्हारी इच्छा थी कि अपना घर बनाऊं और उस घर में जा कर उसे सजाऊं. देखो, घर तो एकदम नया है, चाहे किराए का है. अब तुम इसे सजाओ अपनी मरजी से.’’

कविता पूरे घर को प्रशंसा की नजर से देखती रही फिर धीरे से बालकनी का दरवाजा खोला तो ठंडी हवा के झोंके ने उन का स्वागत किया. बालकनी से पेड़ ही पेड़ नजर आ रहे थे. सामने पीपल का विशालकाय वृक्ष था जिस के पत्ते हवा में झूमते हुए शोर मचा रहे थे. आसपास बिखरी हरियाली को देख कर कविता का मन खुशी से झूम उठा.

संजू और जूही दोनों कंप्यूटर इंजीनियर हैं और सुबह काम पर निकल जाते तो रात को ही वापस लौटते. सारा दिन कविता और दीप ही घर को चलाते. कविता को नया घर सजाने में बहुत मजा आ रहा था. इमारत भी बिलकुल नई थी इसलिए घर में एक भी कीड़ामकोड़ा और काकरोच नजर नहीं आता था, जबकि मुंबई वाले घर में काकरोचों की भरमार थी. पर यहां नए घर की सफाई से वह बहुत प्रभावित थी. गिलहरियां जरूर उन की रसोई तक आतीं और उन के द्वारा छिड़के चावल के दाने ले कर गायब हो जाती थीं. उन गिलहरियों के छोटेछोटे पंजों से चावल का एकएक दाना पकड़ना और उन्हें कुतरते देखना कविता को बहुत अच्छा लगता था.

उस नई इमारत में कुछ फ्लैट अभी भी खाली थे. एक दिन कविता को अपने ठीक सामने वाला फ्लैट खुला नजर आया. सुबह से ही शोरगुल मचा हुआ था और नए पड़ोसी का सामान आना शुरू हो चुका था. देखने में सारा सामान ही पुराना सा लग रहा था. कविता को लगा, आने वाले लोग भी जरूर बूढे़ होंगे. खैर, कविता ने यह सोच कर दरवाजा बंद कर लिया कि हमें क्या लेनादेना उन के सामान से. हां, पड़ोसी जरूर अच्छे होने चाहिए क्योंकि सुबहशाम दरवाजा खोलते ही पहला सामना पड़ोसी से ही होता है.

शाम होतेहोते सबकुछ शांत हो गया. उस फ्लैट का दरवाजा भी बंद हो गया. अब कविता को यह जानने की उत्सुकता थी कि वहां कौन आया है. रात को जब बेटाबहू आफिस से वापस लौटे तब भी सामने के फ्लैट का दरवाजा बंद था. बहू बोली, ‘‘मां, कैसे हैं अपने पड़ोसी?’’

‘‘पता नहीं, बेटा, मैं ने तो केवल सामान ही देखा है. रहने वाला अभी तक कोई नजर नहीं आया है. पर लगता है कोई गांव वाले हैं. पुरानापुराना सामान ही अंदर आता दिखाई दिया है.’’

‘‘चलो मां,   2-4 दिन में पता लग जाएगा कि कौन लोग हैं और कैसे हैं.’’

एक सप्ताह बीत गया. पड़ोसियों के दर्शन नहीं हुए पर एक दिन उन के घर से आता हुआ एक काकरोच कविता को नजर आ गया. वह जोर से चिल्लाईं, ‘‘दीप, दौड़ कर इधर आओ. मारो इसे, नहीं तो घर में घुस जाएगा. जल्दी आओ.’’

‘‘क्या हुआ? कौन घुस आया? किसे मारूं? घबराई हुई क्यों हो?’’ एकसाथ दीप ने अनेक प्रश्न दाग दिए.

‘‘अरे, आओगे भी या वहीं से प्रश्न करते रहोगे. वह देखो, एक बड़ा सा काकरोच अलमारी के पीछे चला गया.’’

‘‘बस, काकरोच ही है न. तुम तो यों घबराई हुई हो जैसे घर में कोई अजगर घुस आया हो.’’

‘‘दीप, तुम जानते हो न कि काकरोच देख कर मुझे घृणा और डर दोनों लगते हैं. अब मुझे सोतेजागते, उठतेबैठते यह काकरोच ही नजर आएगा. प्लीज, तुम इसे निकाल कर मारो.’’

‘‘अरे, भई नजर तो आए तब तो उसे मारूं. अब इतनी भारी अलमारी इस उम्र में सरकाना मेरे बस का नहीं है.’’

‘‘किसी को मदद करने के लिए बुला लो, पर इसे मार दो. मुझे हर हालत में इस काकरोच को मरा हुआ देखना है.’’

‘‘तुम टेंशन मत लो. रात को काकरोचमारक दवा छिड़क देंगे…सुबह तक उस का काम तमाम हो जाएगा.’’

दीप ने बड़ी मुश्किल से कविता को शांत किया.

शाम को काकरोचमारक दवा आ गई और छिड़क दी गई. सुबह उठते ही कविता ने एक सधे हुए जासूस की भांति काकरोच की तलाश शुरू की पर मरा या जिंदा वह कहीं भी नजर नहीं आया. कविता की अनुभवी आंखें सारा दिन उसी को खोजती रहीं पर वह न मिला.

अब तो अपने फ्लैट का दरवाजा भी कविता चौकन्नी हो कर खोलती पर फिर कभी काकरोच नजर नहीं आया.

एक दिन खाना बनाते हुए रसोई की साफसुथरी दीवार पर एक नन्ही सी छिपकली सरकती हुई कविता को नजर आई. अब कविता फिर चिल्लाईं, ‘‘जूही, संजू…अरे, दौड़ कर आओ. देखो तो छिपकली का बच्चा कहां से आ गया.’’

मां की घबराई हुई आवाज सुन कर दौड़ते हुए बेटा और बहू दोनों रसोई में आए और बोले, ‘‘मां, क्या हुआ?’’

‘‘अरे, देखो न, वह छिपकली का बच्चा. कितना घिनौना लग रहा है. इसे भगाओ.’’

‘‘मां, भगाना क्या है…इसे मैं मार ही देता हूं,’’ संजू बोला.

‘‘मारो मत, छिपकली को लक्ष्मी का अवतार मानते हैं,’’ जूही बोली.

‘‘और सुन लो नई बात. अब छिपकली की भी पूजा करनी शुरू कर दो.’’

‘‘तुम इसे भगा दो. मारने की क्या जरूरत है,’’ कविता भी बोलीं.

झाड़ू उठा कर संजू ने उस नन्ही छिपकली को रसोई की खिड़की से बाहर निकाल दिया.

कविता ने चैन की सांस ली और काम में लग गईं.

अगले दिन सुबह कविता चाय बनाने जब रसोई में गईं तो बिजली का बटन दबाते ही सब से पहले उसी छिपकली के दर्शन हुए जो गैस के चूल्हे के पास स्वच्छंद घूम रही थी. कविता को लगा वह फिर से चिल्लाएं…पर चुप रह गईं क्योंकि सुबह सब मीठी नींद में सो रहे थे. कविता ने उस छोटी सी छिपकली को झाड़ू से भगाया तो वह तेजी से रसोई की छत पर चढ़ गई.

अब कविता जब भी रसोई में जातीं तो उन का पूरा ध्यान छिपकली के बच्चे की ओर लगा रहता. खानेपीने का सब सामान वह ढक कर रखतीं. धीरेधीरे वह छिपकली का बच्चा बड़ा होने लगा और 10-15 दिनों के भीतर ही पूरी छिपकली बन गया.

मां के तनाव को देख कर संजू बोला, ‘‘मां, मैं इस छिपकली को मारने के लिए दवाई लाता हूं. रात को गैस के पास डाल देंगे और सुबह तक उस का काम तमाम हो जाएगा.’’

‘‘तुम्हें क्या कह रही है छिपकली जो तुम उस को मारने पर तुले हो,’’ जूही बोली, ‘‘अरे, छिपकली घर में रहेगी तो घर साफ रहेगा. वह कीड़ेमकोड़े और काकरोच आदि खाती रहेगी.’’

‘‘तुम छिपकली के पक्ष में क्यों बात करती हो? क्या पुराने जन्म का कोई रिश्ता है?’’ संजू ने चुटकी ली.

‘‘कल एक पुजारी भी मुझ से कह रहा था कि छिपकली को नहीं मारना चाहिए. छिपकली रहने से घर में लक्ष्मी का आगमन होता है,’’ दीप बोले.

‘‘पापा, आप भी अपनी बहू के सुर में सुर मिला रहे हैं…आप दोनों मिल कर छिपकलियां ही पाल लो. इसी से यदि घर में जल्दी लक्ष्मी आ जाए तो मैं अभी से रिटायर हो जाता हूं,’’ संजू बोला.

उन की इस बहस में छिपकली कहीं जा कर छिप गई. जूही बोली, ‘‘देखो, आज सुबहसुबह ही हम सब ने छिपकली को देखा है. देखें आज का दिन कैसा बीतता है.’’

सारा दिन सामान्य रूप से बीता. शाम को जब जूही आई तो दरवाजे से ही चिल्ला कर बोली, ‘‘मां, एक बहुत बड़ी खुशखबरी है. मैं आज बहुत खुश हूं, बताओ तो क्यों?’’

‘‘प्रमोशन मिल गया क्या?’’

‘‘नहीं. इस से भी बड़ी.’’

‘‘तुम्हीं बताओ.’’

‘‘मां, एक तो डबल प्रमोशन और उस पर सिंगापुर का एक ट्रिप.’’

‘‘देखा, सुबह छिपकली देखी थी न,’’ दीप बोले.

‘‘बस, पापा, आप भी. अरे, जूही का प्रमोशन तो होने ही वाला था. सिंगापुर का ट्रिप जरूर एक्स्ट्रा है,’’ संजू बोला.

‘‘मां, देखो कुछ तो अच्छा हुआ,’’ जूही बोली, ‘‘आप इस छिपकली को घर में ही रहने दो.’’

‘‘अरे, आज इसी विषय पर पार्क में भी बात हो रही थी. मेरे एक परिचित बता रहे थे कि घर में मोरपंख रख दो तो छिपकली अपनेआप ही भाग जाती है,’’ दीप बोले.

‘‘चलो, कल को मोरपंख ला कर रख देना तो अपनेआप छिपकली चली जाएगी,’’ कविता बोलीं.

दूसरे दिन ही दीप बाजार से ढूंढ़ कर मोरपंख ले आए और एक खाली गुलदस्ते में उसे सजा दिया गया. पर छिपकली पर उस का कोई असर नहीं हुआ. वह पहले की तरह ही पूरे घर में घूमती रही. हर सुबह कविता को वह गैस के पास ही बैठी मिलती.

एक दिन दीप बहुत सारे आम ले आए और आइसक्रीम खाने की इच्छा जताई. कविता ने बड़ी लगन से दूध उबाला, उसे गाढ़ा किया, उस में आम मिलाए और ठंडा होने के लिए एक पतीले में डाल कर रख दिया. वह उसे जल्दी ठंडा करना चाहती थीं. इसलिए पतीला ढका नहीं बल्कि वहीं खड़ी हो कर उसे कलछी से हिलाती जा रही थीं और रसोई के दूसरे काम भी कर रही थीं. तभी फोन की घंटी बजी और वह उसे सुनने के लिए दूसरे कमरे में चली गईं.

अमेरिका से उन के छोटे बेटे का फोन था. वह बहुत देर तक बात करती रहीं और फिर सारी बातें दीप को भी बताईं. इसी में 1 घंटा बीत गया.

कविता वापस रसोई में गईं तो दूध ठंडा हो चुका था. उन्होंने पतीले को वैसे ही उठा कर फ्रीजर में रख दिया. रात को खाने के बाद कविता ने आइसक्रीम निकाली और संजू और जूही को दी. दीप ने रात में आइसक्रीम खाने से मना कर दिया और खुद कविता ने इसलिए आइसक्रीम नहीं खाई कि उस दिन उन का व्रत था. संजू और जूही ने आइसक्रीम की तारीफ की और सोने चल दिए. आधे घंटे के बाद ही उन के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आनी शुरू हो गईं. दोनों ही लगातार उलटियां किए जा रहे थे. कविता और दीप घबरा गए. एक मित्र की सहायता से दोनों को अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर बोला, ‘‘लगता है इन को फूड पायजिनिंग हो गई है. क्या खाया था इन दोनों ने?’’

‘‘खाना तो घर में ही खाया था और वही खाया था जो रोज खाते हैं. हां, आज आइसक्रीम जरूर खाई है,’’ कविता बोलीं.

‘‘जरूर उसी में कुछ होगा. शायद आम ठीक नहीं होंगे,’’  दीप बोले.

डाक्टर ने दोनों को भरती कर लिया और इलाज शुरू कर दिया. 2 घंटे बाद दोनों की तबीयत संभली. तब दीप बोले, ‘‘कविता, तुम घर जाओ. मैं रात भर यहीं रहता हूं.’’

घर आते ही कविता ने सब से पहले आइसक्रीम का पतीला फ्रिज से बाहर निकाला और सोने के लिए बिस्तर पर लेट गईं. 5 बजे आंख खुली तो उठ गईं. जा कर रसोई में देखा तो आइसक्रीम पिघल कर दूध बन चुकी थी. कविता ने पतीला उठा कर सिंक में उड़ेल दिया. जैसे ही सारा दूध गिरा वैसे ही उस में से मरी हुई छिपकली भी गिरी. छिपकली को देखते ही कविता का दिल जोरजोर से धड़कने लगा और हाथ कांपने लगे. वह धम से जा कर सोफे पर बैठ गईं.

तभी दीप भी घर आ गए. उन्हें देखते ही कविता का रोना छूट गया. उन्होंने रोतेरोते पूरी बात बताई.

‘‘चलो, जो होना था हो गया,’’ दीप सांत्वना देते हुए बोले, ‘‘अब दोनों बच्चे ठीक हैं और 1 घंटे में डाक्टर उन्हें घर वापस भेज देगा.

‘‘संजू ने तो पहले ही दिन कहा था कि उसे मार दो. तुम और तुम्हारी बहू ही उसे पूज रहे थे.’’

‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई मुझ से. अब बारबार उस की याद मत दिलाओ.’’

मम्मीपापा की बातें सुन कर संजू जोर से हंसा और बोला, ‘‘हां, तो पापा, कितनी लक्ष्मी घर से चली गई… अस्पताल का बिल कितने का बना?’’

संजू का व्यंग्य भरा मजाक सुन कर सभी खिलखिला कर हंस पड़े.

 

प्रतिक्रिया: असीम ने कौनसा पूछा था सवाल

उस बेढंगे से आदमी का चेहरा मुझे आज भी याद है. वह शायद मेरे भाषण की समाप्ति की प्रतीक्षा ही कर रहा था. वक्ताओं की सूची में उस का कहीं नाम न था, किंतु मेरे तुरंत बाद उस ने बिना संयोजक की अनुमति के ही माइक संभाल लिया और धाराप्रवाह बोलना शुरू कर दिया.

वह बहुत उम्दा बोल रहा था और श्रोता उस के भाषण से प्रभावित भी लग रहे थे. एकाएक ही उस ने कड़ा रुख अपना लिया. वह कह रहा था, ‘‘मेरी बात कान खोल कर सुन लो. जब तक देश में ये राक्षस मौजूद हैं, हिंदी यहां कभी फलफूल नहीं सकती. ये लोग अपने को हिंदी के सेवक और प्रचारक बताते हैं. लंबेलंबे भाषण देते हैं. दूसरों को उपदेश देते हैं और स्वयं…मैं इन लोगों से पूछना चाहूंगा कि इन में से ऐसे कितने हिंदीसेवी हैं, जिन के बच्चे अंगरेजी स्कूलों में नहीं पढ़ते.’’

उस का संकेत व्यक्तिगत रूप से मेरी ओर नहीं था. मुझे तो इस से पूर्व वह कभी मिला भी नहीं था. मगर तब लगा यही था कि उस ने यह तमाचा मेरे ही गाल पर जड़ा है.

मैं कई दिनों तक उधेड़बुन में रहा. फिर मैं ने अपना निर्णय घर में और मित्रों के बीच सुना दिया था. यह बात नहीं कि मुझे तब किसी ने टोका या समझाया नहीं था. सभी ने एक ही बात कही थी, ‘‘आप गलती कर रहे हैं. इस तरह भावुकता में आ कर बच्चे का भविष्य तबाह करना कहां की अक्लमंदी है?’’

किंतु मैं तो भावनाओं की बाढ़ में बह ही चुका था. असीम के स्कूल जा कर मैं ने उस का तबादला प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिया. हिंदी माध्यम स्कूल में उसे आसानी से प्रवेश मिल गया. स्कूल बदलते हुए उस ने मामूली सी आपत्ति उठाई थी. वह शायद थोड़ा सा रोया भी था, किंतु मेरे आदर्शवादी भाषण और पुचकार के आगे उस ने शीघ्र ही घुटने टेक दिए और एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह वह कंधे पर बस्ता लटका कर नए स्कूल जाने लगा.

मैं उसे बाद में भी समझाता रहा कि यह नया स्कूल मामूली नहीं है. यह सरकारी स्कूल है जहां अंगरेजी स्कूलों के अनुपात में अध्यापकों को तीनगुना वेतन मिलता है. सभी अध्यापक योग्य और प्रशिक्षित हैं. इन्हीं स्कूलों में पढ़े हुए कितने ही विद्यार्थी बाद में ऊंचे पदों पर पहुंचे हैं. तुम भी मन लगा कर मेहनत करो और बड़े आदमी बनो.

किंतु असीम बुझाबुझा सा रहने लगा था. अब वह स्कूल जाते समय न स्कूल की वरदी की परवा करता और न पहले की तरह जूते चमकाता. पहले साल वह काफी अच्छे अंक ले कर पास हुआ. किंतु अगले वर्ष न जाने क्या हुआ, वह मध्य स्तर के विद्यार्थियों में गिना जाने लगा. स्कूल में उस का कोई मित्र न था. अब वह किसी खेल या नाटक आदि में भी भाग न लेता. मैं कुछ समझाता तो वह चुपचाप बैठा जमीन की ओर देखता रहता. एक दिन सोचा कि स्कूल जा कर पता किया जाए. किंतु स्कूल की दशा देख कर दिल धक से रह गया. अनुशासन नाम की वहां कोई चीज ही न थी. अध्यापक गप्पें हांकने या अखबार पढ़ने में व्यस्त थे. अध्यापिकाएं स्वेटर बुन रही थीं और आपस में दुखसुख की बातें कर रही थीं. बच्चे शोर मचा रहे थे, मारपीट कर रहे थे या डेस्कों पर तबला बजाते हुए फिल्मी गाने गा रहे थे. असीम कक्षा में एक कोने में गुमसुम बैठा था. वह न पढ़लिख रहा था और न अन्य बच्चों की किसी गतिविधि में ही शामिल था.

मैं प्रिंसिपल साहब के कमरे में गया. चाहा कि उन से स्कूल की दशा के बारे में बातचीत करूं, किंतु मेरे कुछ कहने से पूर्व ही वह अखबार को एक ओर पटक कर मुझ पर झपट पड़े और बोले, ‘‘मैं पत्र लिख कर आप को बुलाने ही वाला था. आप अपने लड़के की बिलकुल परवा नहीं कर रहे हैं. मेरे स्कूल में तो ऐसा नहीं चलेगा. बहुत मुश्किल होगा इस तरह तो. घर पर इस का मार्गदर्शन कीजिए या पढ़ाने के लिए घर पर किसी अध्यापक की व्यवस्था कीजिए, वरना…’’

असीम को इस स्कूल से निकाल कर पुन: पहले वाले स्कूल में दाखिल कराना संभव नहीं था. वहां न तो उसे प्रवेश मिल सकता था और न वह अब इस योग्य ही रह गया था कि वहां के स्तर पर अपने को चला सके. मैं ने इस विषय में उस के लिए ट्यूशन का प्रबंध कर दिया. किंतु उस का तो अब सभी विषयों में बुरा हाल था.

उस ने मरखप कर हाईस्कूल पास कर लिया. इंटर में भी उस के कुछ अच्छे अंक नहीं रहे. उसी तरह उस ने बी.ए. में रेंगना शुरू कर दिया. मैं ने उस से पूछा कि यदि वह पढ़ना नहीं चाहता तो कोई हाथ का काम सीखने की कोशिश करे. मगर उस ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया.

वैसे भी वह अब मुझ से कम ही बात करता था. उस का शरीर सूख सा गया था. दाढ़ी बढ़ा ली थी. हर रोज वह कंधे पर थैला लटका कर न जाने किधर चल देता और कभीकभी शाम को भी लौट कर घर न आता.

उस के पुराने साथी कामधंधे पर लग गए थे. उन में से कुछ अफसर भी चुन लिए गए थे, किंतु असीम कितनी ही प्रतियोगिताओं में भाग लेने के बावजूद किसी साधारण पद के लिए भी नहीं चुना गया था.

एक दिन वह सुबह का नाश्ता ले कर और हर रोज की तरह कंधे पर थैला लटका कर घर से निकलने ही लगा था कि मैं ने रोक कर पूछा, ‘‘ऐसा कब तक चलेगा?’’

वह चुपचाप मेरी ओर देखता रहा, तो मैं ने पूछा, ‘‘तुम क्या समझते हो, यह सब ठीक कर रहे हो?’’ इस बार उस ने नजर उठा कर मेरी ओर देखा और सधे हुए लहजे में बोला, ‘‘आप ने जो मेरे साथ किया, क्या वह ठीक था?’’

‘‘मैं ने क्या किया?’’

‘‘अपने खोखले आदर्शों की बलिवेदी पर मुझे चढ़ा दिया, यह अच्छा किया आप ने?’’

मैं उसे कोई उत्तर न दे सका. यह भी नहीं समझा सका कि ये आदर्श खोखले नहीं हैं. खोखली है यह व्यवस्था जिस की चक्की के पाट कमजोर नहीं हैं और इन पाटों के बीच कुछ लोग नहीं, युग भी पिस कर रह जाते हैं.

जब वह चला गया तो मैं ने गौर किया कि मेरे अपने बेटे का चेहरा उस दिन मंच पर भाषण देने वाले बेढंगे से आदमी के चेहरे से कितना मेल खाने लगा है.

ऐसा भी होता है: लावारिस ब्रीफकेस में क्या था

‘‘भाई साहब, यह ब्रीफकेस आप का है क्या?’’ सनत कुमार समाचार- पत्र की खबरों में डूबे हुए थे कि यह प्रश्न सुन कर चौंक गए. ‘‘जी नहीं, मेरा नहीं है,’’ उन्होंने प्रश्नकर्त्ता के मुख पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. उन से प्रश्न करने वाला 25-30 साल का एक सुदर्शन युवक था. ‘‘फिर किस का है यह ब्रीफकेस?’’ युवक पुन: चीखा था. इस बार उस के साथ कुछ और स्वर जुड़ गए थे.

‘‘किस का है, किस का है? यह पूछपूछ कर क्यों पूरी ट्रेन को सिर पर उठा रखा है. जिस का है वह खुद ले जाएगा,’’ सनत कुमार को यह व्यवधान अखर रहा था. ‘‘अजी, किसी को ले जाना होता तो इसे यहां छोड़ता ही क्यों? यह ब्रीफकेस सरलता से हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाला. यह तो हम सब को ले कर जाएगा,’’ ऊपरी शायिका से घबराहटपूर्ण स्वर में बोल कर एक महिला नीचे कूदी थीं,

‘‘किस का है, चिल्लाने से कोई लाभ नहीं है. उठा कर इसे बाहर फेंको नहीं तो यह हम सब को ऊपर पहुंचा देगा,’’ बदहवास स्वर में बोल कर महिला ने सीट के नीचे से अपना सूटकेस खींचा और डब्बे के द्वार की ओर लपकी थीं. ‘‘कहां जा रही हैं आप? स्टेशन आने में तो अभी देर है,’’ सनत कुमार महिला के सूटकेस से अपना पैर बचाते हुए बोले थे. ‘‘मैं दूसरे डब्बे में जा रही हूं…इस लावारिस ब्रीफकेस से दूर,’’ महिला सूटकेस सहित वातानुकूलित डब्बे से बाहर निकल गई थीं. ‘

लावारिस ब्रीफकेस?’ यह बात एक हलकी सरसराहट के साथ सारे डब्बे में फैल गई थी. यात्रियों में हलचल सी मच गई. सभी उस डब्बे से निकलने का प्रयत्न करने लगे. ‘‘आप क्या समझती हैं? आप दूसरे डब्बे में जा कर सुरक्षित हो जाएंगी? यहां विस्फोट हुआ तो पूरी ट्रेन में आग लग जाएगी,’’ सनत कुमार एक और महिला को भागते देख बोले थे. ‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, यहां से भागने से क्या होगा. इस ब्रीफकेस का कुछ करो. मुझे तो इस में से टकटक का स्वर भी सुनाई दे रहा है. पता नहीं क्या होने वाला है. यहां तो किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है,’’ एक अन्य शायिका पर अब तक गहरी नींद सो रहा व्यक्ति अचानक उठ खड़ा हुआ था.

‘‘करना क्या है. इस ब्रीफकेस को उठा कर बाहर फेंक दो,’’ कोई बोला था. ‘‘आप ही कर दीजिए न इस शुभ काम को,’’ सनत कुमार ने आग्रह किया था. ‘‘क्या कहने आप की चतुराई के. केवल आप को ही अपनी जान प्यारी है… आप स्वयं ही क्यों नहीं फेंक देते.’’ ‘‘आपस में लड़ने से क्या हाथ लगेगा? आप दोनों ठीक कह रहे हैं. इस लावारिस ब्रीफकेस को हाथ लगाना ठीक नहीं है. इसे हिलानेडुलाने से विस्फोट होने का खतरा है,’’ साथ की शायिका से विद्याभूषणजी चिल्लाए थे. ‘‘फिर क्या सुझाव है आप का?’’

सनत कुमार ने व्यंग्य किया था. ‘‘सरकार की तरह हम भी एक समिति का गठन कर लेते हैं. समिति जो भी सुझाव देगी उसी पर अमल कर लेंगे,’’ एक अन्य सुझाव आया था. ‘‘यह उपहास करने का समय है श्रीमान? समिति बनाई तो वह केवल हमारे लिए मुआवजे की घोषणा करेगी,’’ विद्याभूषण अचानक क्रोधित हो उठे थे. ‘‘कृपया शांति बनाए रखें. यदि यह उपहास करने का समय नहीं है तो क्रोध में होशहवास खो बैठने का भी नहीं है. आप ही कहिए न क्या करें,’’ सनत कुमार ने विद्या- भूषण को शांत करने का प्रयास किया था.

‘‘करना क्या है जंजीर खींच देते हैं. सब अपने सामान के साथ तैयार रहें. ट्रेन के रुकते ही नीचे कूद पड़ेंगे.’’ चुस्तदुरुस्त सुदर्शन नामक युवक लपक कर जंजीर तक पहुंचा और जंजीर पकड़ कर लटक गया था. ‘‘अरे, यह क्या? पूरी शक्ति लगाने पर भी जंजीर टस से मस नहीं हो रही. यह तो कोई बहुत बड़ा षड्यंत्र लगता है. आतंकवादियों ने बम रखने से पहले जंजीर को नाकाम कर दिया है जिस से ट्रेन रोकी न जा सके,’’ सुदर्शन भेद भरे स्वर में बोला था. ‘‘अब क्या होगा?’’ कुछ कमजोर मन वाले यात्री रोने लगे थे.

उन्हें रोते देख कर अन्य यात्री भी रोनी सूरत बना कर बैठ गए. कुछ अन्य प्रार्थना में डूब गए थे. ‘‘कृपया शांति बनाए रखें, घबराने की आवश्यकता नहीं है. बड़ी सुपरफास्ट ट्रेन है यह. इस का हर डब्बा एकदूसरे से जुड़ा हुआ है. हमें बड़ी युक्ति से काम लेना होगा,’’ विद्याभूषण अपनी बर्थ पर लेटेलेटे निर्देश दे रहे थे. तभी किसी ने चुटकी ली, ‘‘बाबू, आप को जो कुछ कहना है, नीचे आ कर कहें, अब आप की बर्थ को कोई खतरा नहीं है.’’ ‘‘हम योजनाबद्ध तरीके से काम करेंगे,’’ नीचे उतर कर विद्याभूषण ने सुझाव दिया.

‘‘सभी पुरुष यात्री एक तरफ आ जाएं. हम 5 यात्रियों के समूह बनाएंगे. ‘‘मैं, सनत कुमार, सुदर्शन, 2 और आ जाइए, नाम बताइए…अच्छा, अमल और धु्रव, यह ठीक है. हम सब इंजन तक चालक को सूचित करने जाएंगे. दूसरा दल गार्ड के डब्बे तक जाएगा, गार्ड को सूचित करने, तीसरा दल लोगों को सामान के साथ तैयार रखेगा, जिस से कि ट्रेन के रुकते ही सब नीचे कूद जाएं. महिलाओं के 2 दल प्राथमिक चिकित्सा के लिए तैयार रहें,’’ विद्याभूषण अपनी बात समाप्त करते इस से पहले ही रेलवे पुलिस के 2 सिपाही, जिन के कंधों पर ट्रेन की रक्षा का भार था, वहां आ पहुंचे थे.

‘‘आप बिलकुल सही समय पर आए हैं. देखिए वह ब्रीफकेस,’’ विद्याभूषणजी ने पुलिस वालों को दूर से ही ब्रीफकेस दिखा दिया था. ‘‘क्या है यह?’’ एक सिपाही ने अपनी बंदूक से खटखट का स्वर निकालते हुए प्रश्न किया था. ‘‘यह भी आप को बताना पड़ेगा? यह ब्रीफकेस बम है. आप शीघ्र ही इसे नाकाम कर के हम सब के प्राणों की रक्षा कीजिए.’’ ‘‘बम? आप को कैसे पता कि इस में बम है?’’ एक पुलिसकर्मी ने प्रश्न किया था. ‘‘अजी कल रात से ब्रीफकेस लावारिस पड़ा है. उस में से टिकटिक की आवाज भी आ रही है और आप कहते हैं कि हमें कैसे पता? अब तो इसे नाकाम कर दीजिए,’’ सनत कुमार बोले थे.

‘‘अरे, तो जंजीर खींचिए…बम नाकाम करने का विशेष दल आ कर बम को नाकाम करेगा.’’ ‘‘जंजीर खींची थी हम ने पर ट्रेन नहीं रुकी.’’ ‘‘अच्छा, यह तो बहुत चिंता की बात है,’’ दोनों सिपाही समवेत स्वर में बोले थे. ‘‘अब आप ही हमारी सहायता कर सकते हैं. किसी भी तरह इस बम को नाकाम कर के हमारी जान बचाइए.’’ ‘‘काश, हम ऐसा कर सकते. हमें बम नाकाम करना नहीं आता, हमें सिखाया ही नहीं गया,’’ दोनों सिपाहियों ने तुरंत ही सभी यात्रियों का भ्रम तोड़ दिया था. कुछ महिला यात्री डबडबाई आंखों से शून्य में ताक रही थीं. कुछ अन्य बच्चों के साथ प्रार्थना में लीन हो गई थीं. ‘‘हमें जाना ही होगा,’’ विद्याभूषण बोले थे, ‘‘सभी दल अपना कार्य प्रारंभ कर दीजिए. हमारे पास समय बहुत कम है.’’

डरेसहमे से दोनों दल 2 विभिन्न दिशाओं में चल पड़े थे और जाते हुए हर डब्बे के सहयात्रियों को रहस्यमय ब्रीफकेस के बारे में सूचित करते गए थे. बम विस्फोट की आशंका से ट्रेन में भगदड़ मच गई थी. सभी यात्री कम से कम एक बार उस ब्रीफकेस के दर्शन कर अपने नयनों को तृप्त कर लेना चाहते थे. शेष अपना सामान बांध कर अवसर मिलते ही ट्रेन से कूद जाना चाहते थे. कुछ समझदार यात्री रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था को कोस रहे थे, जिस ने हर ट्रेन में बम निरोधक दल की व्यवस्था न करने की बड़ी भूल की थी. गार्ड के डब्बे की ओर जाने वाले दल को मार्ग में ही एक मोबाइल वाले सज्जन मिल गए थे. उन्होंने चटपट अपने जीवन पर मंडराते खतरे की सूचना अपने परिवार को दे दी थी और परिवार ने तुरंत ही अगले स्टेशन के स्टेशन मास्टर को सूचित कर दिया था.

फिर क्या था? केवल स्टेशन पर ही नहीं पूरे रेलवे विभाग में हड़कंप मच गया. ट्रेन जब तक वहां रुकी बम डिस्पोजल स्क्वैड, एंबुलैंस आदि सभी सुविधाएं उपस्थित थीं. ट्रेन रुकने से पहले ही लोगों ने अपना सामान बाहर फेंकना प्रारंभ कर दिया और अधिकतर यात्री ट्रेन से कूद कर अपने हाथपांव तुड़वा बैठे थे. गार्ड के डब्बे की ओर जाने वाले दस्ते का काम बीच में ही छोड़ कर सनत कुमारजी का दस्ता जब वापस लौटा तो उन की पत्नी रत्ना चैन से गहरी नींद में डूबी थीं. सनत कुमार ने घबराहट में उन्हें झिंझोड़ डाला था : ‘‘तुम ने तो कुंभकर्ण को भी मात कर दिया. किसी भी क्षण ट्रेन में बम विस्फोट हो सकता है,’’ चीखते हुए अपना सामान बाहर फेंक कर उन्होंने पत्नी रत्ना को डब्बे से बाहर धकेल दिया था.

‘‘हे ऊपर वाले, तेरा बहुतबहुत धन्यवाद, जान बच गई, चलो, अब अपना सामान संभाल लो,’’ सनत कुमार ने पत्नी को आदेश दे कर इधरउधर नजर दौड़ाई थी. घबराहट में ट्रेन से कूदे लोगों को भारी चोटें आई थीं. उन की मूर्खता पर सनत कुमार खुल कर हंसे थे. इधरउधर का जायजा ले कर सनत कुमार लौटे तो रत्ना परेशान सी ट्रेन की ओर जा रही थीं. ‘‘कहां जा रही हो? ट्रेन में कभी भी विस्फोट हो सकता है. वैसे भी ट्रेन में यात्रियों को जाने की इजाजत नहीं है. पुलिस ने उसे अपने कब्जे में ले लिया है.’’ ‘‘सारा सामान है पर उस काले ब्रीफकेस का कहीं पता नहीं है.’’ ‘‘कौन सा काला ब्रीफकेस?’’ ‘‘वही जिस में मैं ने अपने जेवर रखे थे और आप ने कहा था कि उसे अपनी निगरानी में संभाल कर रखेंगे.’’ ‘‘तो क्या वह ब्रीफकेस हमारा था?’’ सनत कुमार सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘क्या होना है, तुम और तुम्हारी नींद, ट्रेन में इतना हंगामा मचा और तुम चैन की नींद सोती रहीं.’’ ‘‘मुझे क्या पता था कि आप अपने ही ब्रीफकेस को नहीं पहचान पाओगे. मेरी तो थकान से आंख लग गई थी ऊपर से आप ने नींद की गोली खिला दी थी. पर आप तो जागते हुए भी सो रहे थे,’’ रत्ना रोंआसी हो उठी थीं. ‘‘भूल जाओ सबकुछ, अब कुछ नहीं हो सकता,’’ सनत कुमार ने हथियार डाल दिए थे. ‘‘क्यों नहीं हो सकता? मैं अभी जा कर कहती हूं कि वह हमारा ब्रीफकेस है उस में मेरे 2 लाख के गहने हैं.’’

‘‘चुप रहो, एक शब्द भी मुंह से मत निकालना, अब कुछ कहा तो न जाने कौन सी मुसीबत गले पड़ेगी.’’ पर रत्ना दौड़ कर ट्रेन तक गई थीं. ‘‘भैया, वह ब्रीफकेस?’’ उन्होंने डब्बे के द्वार पर खड़े पुलिसकर्मी से पूछा था. ‘‘आप क्यों चिंता करती हैं? उस में रखे बम को नाकाम करने की जिम्मेदारी बम निरोधक दस्ते की है. वे बड़ी सावधानी से उसे ले गए हैं,’’ पुलिसकर्मी ने सूचित किया था.

रत्ना बोझिल कदमों से पति के पास लौट आई थीं. ट्रेन के सभी यात्रियों को उन के गंतव्य तक पहुंचाने का प्रबंध किया गया था. सनत कुमार और रत्ना पूरे रास्ते मुंह लटाए बैठे रहे थे. सभी यात्री आतंकियों को कोस रहे थे. पर वे दोनों मौन थे. विस्फोट हुआ अवश्य था पर ट्रेन में नहीं सनत कुमार और रत्ना के जीवन में.

हल: पति को सबक सिखाने के लिए क्या था इरा का प्लान

इराकल रात के नवीन के व्यवहार से बेहद गुस्से में थी. अब मुख्यमंत्री की प्रैस कौन्फ्रैंस हो और वह मुख्य जनसंपर्क अधिकारी हो कर जल्दी कैसे घर आ सकती थी. पर नहीं. नवीन कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. माना लौटने में रात के 11 बज गए थे, लेकिन मुख्यमंत्री को बिदा करते ही वह घर आ गई थी. नवीन के मूड ने उसे वहां एक

भी निवाला गले से नीचे नहीं उतारने दिया. दिनभर की भागदौड़ से थकी जब वह रात को भूखी घर आई, तो मन में कहीं हुमक उठी कि अम्मां की तरह कोई उसे दुलारे कि नन्ही कैसे मुंह सूख रहा है तुम्हारा. चलो हम खाना परोस दें. लेकिन कहां वह कोमलता और ममत्व की कामना और कहां वास्तविकता में क्रोध से उबलता चहलकदमी करता नवीन. उसे देखते ही उबल पड़ा, ‘‘यह वक्त है घर आने का? 12 बज रहे हैं?’’

‘‘आप को पता तो था आज सीएम की प्रैस कौन्फ्रैंस थी. आप की नाराजगी के डर से मैं ने वहां खाना भी नहीं खाया और आप हैं कि…’’ इरा रोआंसी हो आई थी.

‘‘छोड़ो, आप का पेट तो लोगों की सराहना से ही भर गया होगा. खाने के लिए जगह ही कहां थी? हम ने भी बहुत सी प्रैस कौन्फ्रैंस अटैंड की हैं. सब जानते हैं महिलाओं की उपस्थिति वहां सिर्फ वातावरण को कुछ सजाए रखने से अधिक कुछ नहीं?’’

‘‘शर्म करो… जो कुछ भी मुंह में आ रहा है बोले चले जा रहे हो,’’ इरा साड़ी हैंगर में लगाते हुए बोली.’’

‘‘इस घर में रहना है, तो समय पर आनाजाना होगा… यह नहीं कि जब जी चाहा घर से चली गई जब भी चाहा चली आई. यह घर है कोई सराय नहीं.’’

‘‘क्या मैं तफरीह कर के आ रही हूं? तुम इतने बड़े व्यापारिक संस्थान में काम करते हो, तुम्हें नहीं पता, देरसबेर होना अपने हाथ की बात नहीं होती?’’ इरा को इस बेमतलब की बहस पर गुस्सा आ रहा था.

गुस्से से उस की भूख और थकान दोनों ही गायब हो गई. फिर कौफी बना कप में डाल कर बच्चों के कमरे में चली गई. दोनों बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे.

इरा ने शांति की सांस ली. नवीन की टोकाटाकी उस के लिए असहनीय हो गई थी.

फोन किसी का भी हो, नवीन के रहते आएगा तो वही उठाएगा. फोन पर पूरी जिरह करेगा क्या काम है? क्या बात करनी है? कहां से बोल रहे हो?

लोग इरा का कितना मजाक उड़ाते हैं. नवीन को उस का जेलर कहते हैं. कुछ लोगों की नजरों में तो वह दया की पात्र बन गई है.

इरा सोच कर सिहर उठी कि अगर ये बातें बच्चे सुनते तो? तो क्या होती उस की छवि

बच्चों की नजरों में. वैसे जिस तरह के आसार हो रहे हैं जल्द ही बच्चे भी साक्षी हो जाएंगे ऐसे अवसरों के. इरा ने कौफी का घूंट पीते हुए

निर्णय लिया, बस और नहीं. उसे अब नवीन

के साथ रह कर और अपमान नहीं करवाना है. पुरुष है तो क्या हुआ? उसे हक मिल गया है

उस के सही और ईमानदार व्यवहार पर भी आएदिन प्रश्नचिन्ह लगाने का और नीचा दिखाने का…अब वह और देर नहीं करेगी. उसे जल्द

से जल्द निर्णय लेना होगा वरना उस की छवि बच्चों की नजरों में मलीन हो जाएगी. इसी ऊहापोह में कब वह वहीं सोफे पर सो गई पता ही नहीं चला.

अगले दिन बच्चों को स्कूल भेजा. नवीन ऐसा दिखा रहा था मानो कल की रात रोज गुजर जाने वाली सामान्य सी रात थी. लेकिन इरा का व्यवहार बहुत सीमित रहा.

इरा को 9 बजे तक घर में घूमते देख, नवीन बोला, ‘‘क्या आज औफिस नहीं जाना है? आज छुट्टी है? अभी तक तैयार नहीं हुई.’’

‘‘मैं ने छुट्टी ली है,’’ इरा ने कहा.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक लग रही है, फिर छुट्टी क्यों?’’ नवीन ने पूछा.

‘‘कभीकभी मन भी बीमार हो जाता है इसीलिए,’’ इरा ने कसैले स्वर में कहा.

‘‘समझ गया,’’ नवीन बोला, ‘‘आज तुम्हारा मन क्या चाह रहा है. क्यों बेकार में अपनी छुट्टी खराब कर रही हो, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘नहीं,’’ इरा बोली, ‘‘आज मैं किसी हाल में भी जाने वाली नहीं हूं,’’ इरा की आवाज में जिद थी. नवीन कार की चाबी उठाते हुए बोला, ‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी.’’

बच्चों और पति को भेजने के बाद वह देर तक घर में इधरउधर चहलकदमी

करती रही. उस का मन स्थिर नहीं था. अगर नवीन की नोकझोंक से तंग आ कर नौकरी छोड़ भी दूं तो क्या भरोसा कि नवीन के व्यवहार में अंतर आएगा या फिर बात का बतंगड़ नहीं बनाएगा… लड़ने वाले को तो बहाने की भी जरूरत नहीं होती. नवीन के पिता के इसी कड़वे स्वभाव के कारण ही उस की मां हमेशा घुटघुट कर जी रही थीं. पैसेपैसे के लिए उन्हें तरसा कर रखा था नवीन के पिता ने.

अपनी मरजी से हजारों उड़ा देंगे. नवीन की नजरों में उस के पिता ही उस के आदर्श पुरुष थे और मां का पिता से दब कर रहना ही नवीन के लिए मां की सेवा और बलिदान था.

इरा जितना सोचती उतना ही उलझती

जाती, उसे लग रहा था अगर वह इसी तरह मानसिक तनाव और उलझन में रही तो पागल हो जाएगी. हर जगह सम्मानित होने वाली इरा अपने ही घर में यों प्रताडि़त होगी उस ने सोचा भी न था. असहाय से आंसू उस की आंखों में उतर आए. अचानक उस की नजर घड़ी पर पड़ी. अरे, डेढ़ बज गया… फटाफट उठ कर नहाने के लिए गई. वह बच्चों को अपनी पीड़ा और अपमान का आभास नहीं होने देना चाहती थी. नहा कर सूती साड़ी पहन हलका सा मेकअप किया. फिर बच्चों के लिए सलाद काटा, जलजीरा बनाया, खाने की मेज लगाई.

दोनों बेटे मां को देख कर खिल उठे. बिना छुट्टी के मां का घर होना उन के लिए कोई पर्व सा बन जाता है. तीनों ने मिल कर खाना खाया. फिर बच्चे होमवर्क करने लग गए. 5 बजे के लगभग इरा को याद आया कि उस की सहेली मानसी पाकिस्तानी नाटक का वीडियो दे कर गई थी. बच्चे होमवर्क कर चुके थे. इरा ने उन्हें नाटक देखने के लिए आवाज लगाई. दोनों बेटे उस की गोदी में सिर रख कर नाटक देख रहे थे. अजीब इत्तफाक था. नाटक में भी नायिका अपने पति की ज्यादतियों से तंग आ कर अपने अजन्मे बच्चे के संग घर छोड़ कर चली जाती है हमेशा के लिए. इरा की तरफ देख कर अपूर्व बोला, ‘‘मां, आप ये रोनेधोने वाली फिल्में मत देखा करो. मन उदास हो जाता है.’’

‘‘मन उदास हो जाता है इसीलिए नहीं देखनी चाहिए?’’ इरा ने सवाल किया.

‘‘बेकार का आईडिया है एकदम,’’ अपूर्व खीज कर बोला, ‘‘इसीलिए नहीं देखनी चाहिए?’’

‘‘अपूर्व,’’ इरा ने कहा, ‘‘समझो इसी औरत की तरह अगर हम भी घर छोड़ना चाहें तो तुम किस के साथ रहोगे?’’

‘‘कैसी बेकार की बातें करती हैं आप भी मां,’’ अपूर्व नाराजगी के साथ बोला, ‘‘आप ऐसा क्यों करेंगी?’’

‘‘यों समझो कि हम भी तुम्हारे पापा के साथ इस घर में नहीं रह सकते तो तुम किस के साथ रहोगे?’’ इरा ने पूछा.

‘‘जरूरी नहीं है कि आप के हर सवाल का जवाब दिया जाए,’’ 13 वर्ष का अपूर्व अपनी आयु से अधिक समझदार था.

‘‘अच्छा अनूप तुम बताओ कि तुम क्या करोगे?’’ इरा ने छोटे बेटे का मन टटोला.

अनूप को बड़े भाई पर बड़प्पन दिखाने का अवसर मिल गया. बोला, ‘‘वैसे तो हम चाहते हैं कि आप दोनों साथ रहें? लेकिन अगर आप जा रही हैं तो हम आप के साथ चलेंगे. हम आप को बहुत प्यार करते हैं,’’ अनूप बोला, ‘‘चल झूठे…’’ अपूर्र्व बोला, ‘‘मां, अगर पापा आप की जगह होते तो यह उन्हीं को भी यही जवाब देता.’’

‘‘नहीं मां, भैया झूठ बोल रहा है. यही पापा के साथ जाता. पापा हमें डांटते हैं. हमें नहीं रहना उन के साथ. आप हमें प्यार करती हैं. हम आप के साथ रहेंगे,’’ अनूप प्यार से इरा के गले में बांहें डालते हुए बोला.

‘‘डांटते तो हम भी है,’’ इरा ने पूछा, ‘‘क्या तब तुम हमारे साथ नहीं रहोगे?’’

‘‘आप डांटती हैं तो क्या हुआ, प्यार भी तो करती हैं, फिर आप को खाना बनाना भी आता है. पापा क्या करेंगे?’’ अगर नौकर नहीं होगा तो? अनूप ने कहा.

‘‘अच्छा अपूर्व तुम जवाब दो,’’ इरा ने अपूर्व के सिर पर हाथ रख कर उस का मन फिर से टटोलना चाहा.

इरा का हाथ सिर से हटा कर अपूर्र्व एक ही झटके में उठ बैठा. बोला, ‘‘आप उत्तर चाहती हैं तो सुन लीजिए, हम आप दोनों के साथ ही रहेंगे.’’

इरा हैरत से अपूर्व को देखने लगी. फिर पूछा, ‘‘अरे, ऐसा क्यों?’’

‘‘जब आप और पापा 15 साल एकदूसरे के साथ रह कर भी एकदूसरे के साथ नहीं रह सकते, अलग होना चाहते हैं तब हम तो आप के साथ 12 साल से रह रहे हैं. हमें आप कैसे जानेंगे? आप और पापा अगर अलग हो रहे हैं तो हमें होस्टल भेज देना, हम आप दोनों से ही नहीं मिलेंगे,’’ अपूर्व तिलमिला उठा था.

‘‘पागल है क्या तू?’’ इरा हैरान थी, ‘‘नहीं बिलकुल नहीं. इतने वर्षों साथ रह कर भी आप को एकदूसरे का आदर करना, एकदूसरे को अपनाना नहीं आया, तो आप हमें कैसे अपनाएंगे.

‘‘पापा आप का सम्मान नहीं करते तभी आप को घर छोड़ कर जाने देंगे. आप पापा को और घर को इतने सालों में भी समझा नहीं पाईं तभी घर छोड़ कर जाने की बात कर सकती हैं. इसलिए हम आप दोनों का ही आदर नहीं कर सकेंगे और हम मिलना भी नहीं चाहेंगे आप दोनों से,’’ अपूर्व के चेहरे पर उत्तेजना और आक्रोश झलक रहा था.

इरा ने अपूर्व के कंधे को कस कर पकड़ लिया. उस का बेटा इतना समझदार होगा उस ने सोचा भी नहीं था. नवीन से अलग हो कर उस ने सोचा भी नहीं था कि अपने बेटे की नजरों में वह इतनी गिर जाएगी. अगर नवीन उसे सम्मान नहीं दे रहा, तो वह भी अलग हो रही है नवीन का तिरस्कार कर के. इस से वह नवीन को भी तो अपमानित कर रही है. परिवार टूट रहा है, बच्चे असंतुलित हो रहे हैं. वह विवाहविच्छेद नहीं करेगी. उस के आशियाने के तिनके उस के आत्मसम्मान की आंधी में नहीं उड़ेंगे. उसे नवीन के साथ अब किसी अलग ही धरातल पर बात करनी होगी.

अकसर ही नवीन झगड़े के बाद 2-4 दिन देर से घर आता है. औफिस में अधिक काम का बहाना कर के देर रात तक बैठा रहता. उस की इस मानसिकता को अच्छी तरह समझती है.

इरा ने औफिस से 10 दिनों का अवकाश लिया. नवीन 2-4 दिन तटस्थता से इरा का रवैया देखता रहा. फिर एक दिन बोला, ‘‘ये बेमतलब की छुट्टियां क्यों ली जा रही हैं?’’ छुट्टियां खत्म हो जाएंगी तो हाफ पे ले लूंगी, जब औफिस जाना ही नहीं है तो पिछले काम की छुट्टियों का हिसाब पूरा कर लूं,’’ इरा ने स्थिर स्वर में कहा. ‘‘किस ने कहा तुम औफिस छोड़ रही हो?’’ नवीन ने ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘मैडम, आजकल नौकरी मिलती कहां है जो तुम यों आराम से लगीलगाई नौकरी को लात मार रही हो?’’ ‘‘और क्या करूं?’’ इरा ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘जिन शर्तों पर नौकरी करनी है वह मेरे बस के बाहर की बात है.’’

‘‘कौन सी शर्तें?’’ ‘‘नवीन ने अनजान बनते हुए पूछा.’’

‘‘देरसबेर होना, जनसंपर्क के काम में सभी से मिलनाजुलना होता है, वह भी तुम्हें पसंद

नहीं. कैरियर या होम केयर में से एक का चुनाव करना था. सो मैं ने कर लिया. मैं ने नौकरी

छोड़ने का निर्णय कर लिया है,’’ इरा ने अपना फैसला सुनाया.

‘‘क्या बच्चों जैसी जिद करती हो,’’ नवीन झल्लाई आवाज में बोला, ‘‘एक जने की सैलरी में घरखर्च और बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी?’’

‘‘पर नौकरी छोड़ कर तुम सारा दिन करोगी क्या?’’ नवीन को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस तरह इरा का निर्णय बदले.

‘‘जैसे घर पर रहने वाली औरतें खुशी से दिन बिताती हैं. टीवी, वीडियो, ताश, बागबानी, कुकिंग, किटी पार्टी हजार तरह के शौक हैं. मेरा भी टाइम बीत जाएगा. टाइम काटना कोई समस्या नहीं है,’’ इरा आराम से दलीलें दे रही थी.

‘‘तुम्हारा कितना सम्मान है, तुम्हारे और मेरे सर्किल में लोग तुम्हें कितना मानते हैं. कितने लोगों के लिए तुम प्रेरणा हो, सार्थक काम कर रही हो,’’ नवीन ने इरा को बहलाना चाहा.

‘‘तो क्या इस के लिए मैं घर में रोजरोज कलहकलेश सहूं, नीचा देखूं, हर बात पर मुजरिम की तरह कठघरे में खड़ी कर दी जाऊं बिना किसी गुनाह के?

‘‘क्यों सहूं मैं इतना अपमान इस नौकरी के लिए? इस के बिना भी मैं खुश रह सकती हूं. आराम से जी सकती हूं,’’ इरा ने बिना किसी तनाव के अपना निर्णय सुनाया.

‘‘इरा आई एम वैरी सौरी, मेरा मतलब तुम्हें अपमानित करने का नहीं था. जब भी तुम्हें आने में देर होती है मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिर जाता है. उसी तनाव में तुम्हें बहुत कुछ उलटासीधा बोल दिया होगा. मुझे माफ कर दो. मेरा इरादा तुम्हें पीड़ा पहुंचाने या अपमानित करने का नहीं था,’’ नवीन के चेहरे पर पीड़ा और विवशता दोनों झलक रही थीं.

‘‘ठीक है कल से काम पर चली जाऊंगी. पर उस के लिए आप को भी वचन देना होगा कि इस स्थिति को तूल नहीं देंगे. मैं नौकरी करती हूं. मेरे लिए भी समय के बंधन होते हैं. मुझे भी आप की तरह समय और शक्ति काम के प्रति लगानी पड़ती है. आप के काम में भी देरसबेर होती ही है पर मैं यों शक कर के क्लेश नहीं करती,’’ कहतेकहते इरा रोआंसी हो उठी.

‘‘यार कह दिया न आगे से ऐसा नहीं करूंगा. अब बारबार बोल कर क्यों नीचा दिखाती हो,’’ इरा का हाथ अपने दोनों हाथों में थाम कर नवीन ने कहा.

इरा सोच रही थी कि रिश्ता तोड़ कर अलग हो जाना कितना सरल हल लग रहा था.

लेकिन कितना पीड़ा दायक.

परिवार के टूटने का त्रास सहन करना क्या आसान बात थी. मन ही मन वह अपने बेटे की ऋणी थी, जिस की जरा सी परिपक्वता ने यह हल निकाल दिया था, उस की समस्या का.

 

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