अम्मां जैसा कोई नहीं

अस्पताल के शांत वातावरण में वह न जाने कब तक सोती रहती, अगर नर्स की मधुर आवाज कानों में न गूंजती, ‘‘मैडमजी, ब्रश कर लो, चाय लाई हूं.’’

वह ब्रश करने को उठी तो उसे हलका सा चक्कर आ गया.

‘‘अरेअरे, मैडमजी, आप को बैड से उतरने की जरूरत नहीं. यहां बैठेबैठे ही ब्रश कर लीजिए.’’

साथ लाई ट्रौली खिसका कर नर्स ने उसे ब्रश कराया, तौलिए से मुंह पोंछा, बैड को पीछे से ऊपर किया. सहारे से बैठा कर चायबिस्कुट दिए. चाय पी कर वह पूरी तरह से चैतन्य हो गई. नर्स ने अखबार पकड़ाते हुए कहा, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो तो बैड के साथ लगा बटन दबा दीजिएगा, मैं आ जाऊंगी.’’

50 वर्ष की उस की जिंदगी के ये सब से सुखद क्षण थे. इतने इतमीनान से सुबह की चाय पी कर अखबार पढ़ना उसे एक सपना सा लग रहा था. जब तक अखबार खत्म हुआ, नर्स नाश्ता व दूध ले कर हाजिर हो गई. साथ ही, वह कोई दवा भी खिला गई. उस के बाद वह फिर सो गई और तब उठी जब नर्स उसे खाना खाने के लिए जगाने आई. खाने में 2 सब्जियां, दाल, सलाद, दही, चावल, चपातियां और मिक्स फ्रूट्स थे. घर में तो दिन भर की भागदौड़ से थकने के बाद किसी तरह एक फुलका गले के नीचे उतरता था, लेकिन यहां वह सारा खाना बड़े इतमीनान से खा गई थी.

नर्स ने खिड़कियों के परदे खींच दिए थे. कमरे में अंधेरा हो गया था. एसी चल रहा था. निश्ंिचतता से लेटी वह सोच रही थी काश, सारी उम्र अस्पताल के इसी कमरे में गुजर जाए. कितनी शांति व सुकून है यहां. किंतु तभी चिंतित पति व असहाय अम्मां का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी कि घर पर अम्मां बीमार हैं. 2 महीने से वे बिस्तर पर ही हैं.

2 दिन पहले तक तो वही उन्हें हर तरह से संभालती थी. पति निश्ंिचत भाव से अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. अब न जाने घर की क्या हालत होगी. अम्मां उस के यानी अनु के अलावा किसी और की बात नहीं मानतीं.

अम्मां चाय, दूध, जूस, नाश्ता, खाना सब उसी के हाथ से लेती थीं. किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं. अम्मां की हलके हाथों से मालिश करना, उन्हें नहलानाधुलाना, उन के बाल बनाना सभी काम अनु ही करती थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन अम्मां के साथसाथ आनेजाने वाले रिश्तेदारों की सुबह से ले कर रात तक खातिरदारी भी उसे ही करनी पड़ती थी. उसे हाई ब्लडप्रैशर था.

अम्मां और रिश्तेदारों के बीच चक्करघिन्नी बनी आखिर वह एक रात अत्यधिक घबराहट व ब्लडप्रैशर की वजह से फोर्टिस अस्पताल में पहुंच गई थी. आननफानन उसे औक्सीजन लगाई गई. 2 दिन बाद ऐंजियोग्राफी भी की गई, लेकिन सब ठीक निकला. आर्टरीज में कोई ब्लौकेज नहीं था.

जब स्ट्रैचर पर डाल कर उसे ऐंजियोग्राफी के लिए ले जा रहे थे तब फीकी मुसकान लिए पति उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘चिंता मत करना आजकल तो ब्लौकेज का इलाज दवाओं से हो जाता है.’’

वह मुसकरा दी थी, ‘‘आप व्यर्थ ही चिंता करते हैं. मुझे कुछ नहीं है.’’

उस की मजबूत इच्छाशक्ति के पीछे अम्मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

अम्मां के बारे में सोचते हुए वह पुरानी यादों में घिरने लगी थी. उस की मां तो उसे जन्म देते ही चल बसी थीं. भैया उस से 15 साल बड़े थे. लड़की की चाह में बड़ी उम्र में मां ने डाक्टर के मना करने के बाद भी बच्ची पैदा करने का जोखिम उठाया था और उस के पैदा होते ही वह चल बसी थीं. पिताजी ने अनु की वजह से तलाकशुदा युवती से पुन: विवाह किया था, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अंतत: नानानानी के घर ही उस का पालनपोषण हुआ था. भैया होस्टल में रह कर पलेबढ़े. सौतेली मां की वजह से पिता, भैया और वह एक ही परिवार के होते हुए भी 3 अलगअलग किनारे बन चुके थे.

वह 12वीं की परीक्षा दे रही थी कि तभी अचानक नानी गुजर गईं. नाना ने उसे अपने पास रखने में असमर्थता दिखा दी थी, ‘‘दामादजी, मैं अकेला अब अनु की देखभाल नहीं कर सकता. जवान बच्ची है, अब आप इसे अपने साथ ले जाओ. न चाहते हुए भी उसे पिता और दूसरी मां के साथ जाना पड़ा. दूसरी पत्नी से पिता की एक नकचढ़ी बेटी विभू हुई थी, जो उसे बहन के रूप में बिलकुल बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. घर में तनाव का वातावरण बना रहता था, जिस का हल नई मां ने उस की शादी के रूप में निकालना चाहा. वह अभी पढ़ना चाहती थी, मगर उस की मरजी कब चल पाई थी.

बचपन में जब पिता के साथ रहना चाहती थी, तब जबरन नानानानी के घर रहना पड़ा और जब वहां के वातावरण में रचबस गई तो अजनबी हो गए पिता के घर वापस आना पड़ा था. उन्हीं दिनों बड़ी बूआ की बेटी के विवाह में उसे भागदौड़ के साथ काम करते देख बूआ की देवरानी को अपने इकलौते बेटे दिनेश के लिए वह भा गई थी. अकेले में उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा तथा आश्वासन भी दिया कि वे उस की पढ़ाई जारी रखेंगी. पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह कर अपने सिर का बोझ उतार फेंका.

अनु की पसंदनापसंद का तो सवाल ही नहीं था. विवाह के समय छोटी बहन विभू जीजाजी के जूते छिपाने की जुगत में लगी थी, लेकिन जूते ननद ने पहले से ही एक थैली में डाल कर अपने पास रख लिए थे. मंडप में बैठी अम्मां यह सब देख मंदमंद मुसकरा रही थीं. तभी ननद के बच्चे ने कपड़े खराब कर दिए और वह जूतों की थैली अम्मां को पकड़ा कर उस के कपड़े बदलवाने चली गई. लौट कर आई तो अम्मां से थैली ले कर वह फिर मंडप में ही डटी रही.

विवाह संपन्न होने के बाद जब विभू ने जीजाजी से जूते छिपाई का नेग मांगा तो ननद झट से बोल पड़ी, ‘‘जूते तो हमारे पास हैं नेग किस बात का?’’

इसी के साथ उन्होंने थैली खोल कर झाड़ दी. लेकिन यह क्या, उस में तो जूतों की जगह चप्पलें थीं और वे भी अम्मां की. यह दृश्य देख कर ननद रानी भौचक्की रह गईं. उन्होंने शिकायती नजरों से अपनी अम्मां की ओर देखा, तो अम्मां ने शरारती मुसकान के साथ कंधे उचका दिए.

‘‘यह सब कैसे हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन बेटा नेग तो अब देना ही पड़ेगा.’’

तब विभू ने इठलाते हुए जूते पेश किए और जीजाजी से नेग का लिफाफा लिया. इतनी प्यारी सास पा कर अनु के साथसाथ वहां उपस्थित सभी लोग भी हैरान हो उठे थे.

ससुराल पहुंचते ही अनु का जोरशोर से स्वागत हुआ, लेकिन उसी रात उस के ससुर को अस्थमा का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. रिश्तेदार फुसफुसाने लगे कि बहू के कदम पड़ते ही ससुर को अस्पताल में भरती होना पड़ा. अम्मां के कानों में जब ये शब्द पड़े तो उन्होंने दिलेरी से सब को समझा दिया कि इस बदलते मौसम में हमेशा ही बाबूजी को अस्थमा का दौरा पड़ जाता है. अकसर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ता है. बहू के घर आने से इस का कोई सरोकार नहीं है. अम्मां की इस जवाबदेही पर अनु उन की कायल हो गई थी.

विवाह के 2 दिन बाद बाबूजी अस्पताल से ठीक हो कर घर आ गए थे और बहू से मीठा बनवाने की रस्म के तहत अनु ने खीर बनाई थी. खीर को ननद ने चखा तो एकदम चिल्ला दी, ‘‘यह क्या भाभी, आप तो खीर में मीठा डालना ही भूल गईं?’’

इस से पहले कि बात सभी रिश्तेदारों में फैलती, अम्मां ने खीर चखी और ननद को प्यार से झिड़कते हुए कहा, ‘‘बिट्टो, तुझे तो मीठा ज्यादा खाने की बीमारी हो गई है, खीर में तो बिलकुल सही मीठा डाला है.’’

ननद को बाहर भेज अम्मां ने तुरंत खीर में चीनी डाल कर उसे आंच पर चढ़ा दिया. सास के इस अपनेपन व समझदारी को देख कर अनु की आंखें नम हो आई थीं. किसी को कानोंकान खबर न हो पाई थी. अम्मां ने खीर की तारीफ में इतने पुल बांधे कि सभी रिश्तेदार भी अनु की तारीफ करने लगे थे.

विवाह को 2 माह ही बीते थे कि साथ रहने वाले पति के ताऊजी हृदयाघात से चल बसे. उन के अफसोस में शामिल होने आई मेरी मां फुसफुसा रही थीं, ‘‘इस के पैदा होते ही इस की मां चल बसी, यहां आते ही 2 माह में ताऊजी चल बसे. बड़ी अभागिन है ये.’’

तब अम्मां ने चंडी का सा रूप धर लिया था, ‘‘खबरदार समधनजी, मेरी बहू के लिए इस तरह की बातें कीं तो… आप पढ़ीलिखी हो कर किसी के जाने का दोष एक निर्दोष पर लगा रही हैं. भाई साहब (ताऊजी) हृदयरोग से पीडि़त थे, वे अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं. एक मां हो कर अपनी बेटी के लिए ऐसा कहना आप को शोभा नहीं देता.’’

दूसरी मां ने झगड़े की जो चिनगारी हमारे आंगन में गिरानी चाही थी, वह अम्मां की वजह से बारूद बन कर मांपिताजी के रिश्तों में फटी थी. पहली बार पिताजी ने मां को आड़े हाथों लिया था.

अम्मां के इसी तरह के स्पष्ट व निष्पक्ष विचार अनु के व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे. ऐसी कई बातें थीं, जिन की वजह से अम्मां और उस का रिश्ता स्नेहप्रेम के अटूट बंधन में बंध गया. एक बहू को बेटी की तरह कालेज में भेज कर पढ़ाई कराना और क्याक्या नहीं किया उन्होंने. कभी लगा ही नहीं कि अम्मां ने उसे जन्म नहीं दिया या कि वे उस की सास हैं. एक के बाद दूसरी पोती होने पर भी अम्मां के चेहरे पर शिकन नहीं आई. धूमधाम से दोनों पोतियों के नामकरण किए व सभी नातेरिश्तेदारों को जबरन नेग दिए. बाद में दोनों बेटियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर चली गई थीं. अम्मां हर सुखदुख में छाया की तरह अनु के साथ रहीं.

बाबूजी के गुजर जाने से अम्मां कुछ विचलित जरूर हुई थीं, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने को संभाल कर सब को खुश रहने की सलाह दे डाली थी. तब रिश्तेदार आपस में कह रहे थे, ‘‘अब अम्मां ज्यादा नहीं जिएंगी, हम ने देखा है, वृद्धावस्था में पतिपत्नी में से एक जना पहले चला जाए तो दूसरा ज्यादा दिन नहीं जी पाता.’’

सुन कर अनु सहम गई थी. लेकिन अम्मां ने दोनों पोतियों के साथ मिलजुल कर अपने घर में ही सुकून ढूंढ़ लिया था.

बाबूजी को गुजरे 10 साल बीत चुके थे. अम्मां बिलकुल स्वस्थ थीं. एक दिन गुसलखाने में नहातीं अम्मां का पैर फिसल गया और उन के पैरों में गहरे नील पड़ गए. जिंदगी में पहली बार अम्मां को इतना असहाय पाया था. दिन भर इधरउधर घूमने वाली अम्मां 24 घंटे बिस्तर पर लेटने को मजबूर हो गई थीं.

अम्मां को सांत्वना देती अनु ने कहा, ‘‘अम्मां चिंता मत करो, थोड़े दिनों में ठीक

हो जाओगी. यह शुक्र करो कि कोई हड्डी नहीं टूटी.’’

अम्मां ने सहमति में सिर हिला कर उसे सख्ती से कहा था, ‘‘बेटी, मेरी बीमारी की खबर कहीं मत करना, व्यर्थ ही दुनिया भर के रिश्तेदारों, मिलने वालों का आनाजाना शुरू हो जाएगा, तू खुद हाई ब्लडप्रैशर की मरीज है, सब को संभालना तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा.’’

अम्मां की बात मान उस ने व दिनेश ने किसी रिश्तेदार को अम्मां के बारे में नहीं बताया. लेकिन एक दिन दूर के एक रिश्तेदार के घर आने पर उन के द्वारा बढ़ाचढ़ा कर अम्मां की बीमारी सभी जानकारों में ऐसी फैली कि आनेजाने वालों का तांता सा लग गया. फलस्वरूप, मेरा ध्यान अम्मां से ज्यादा रिश्तेदारों के चायनाश्ते व खाने पर जा अटका.

सभी बिना मांगी मुफ्त की रोग निवारण राय देते तो कभी अलगअलग डाक्टर से इलाज कराने के सुझाव देते. साथ ही, अम्मां के लिए नर्स रखने का सुझाव देते हुए कुछ जुमले उछालने लगे. मसलन, ‘‘अरी, तू क्यों मुसीबत मोल लेती है. किसी नर्स को इन की सेवा के लिए रख ले. तूने क्या जिंदगी भर का ठेका ले रखा है. फिर तेरा ब्लडप्रैशर इतना बढ़ा रहता है. अब इन की कितनी उम्र है, नर्स संभाल लेगी.’’

इधर अम्मां को भी न जाने क्या हो गया था. वे भी चिड़चिड़ी हो गई थीं. हर 5 मिनट में उसे आवाज दे दे कर बुलातीं. कभी कहतीं कि पंखा बंद कर दे, कभी कहतीं पंखा चला दे, कभी कहतीं पानी दे दे, कभी पौटी पर बैठाने की जिद करतीं. अकसर कहतीं कि मैं मर जाना चाहती हूं. अनु हैरान रह जाती.

रिश्तेदारों की खातिरदारी और अम्मां की बढ़ती जिद के बीच भागभाग कर वह परेशान हो गई थी. ब्लडप्रैशर इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

3 दिन अस्पताल में रहने के बाद जब मैं घर आई तो देखा घर पर अम्मां की सेवा के लिए नर्स लगी हुई है. उस ने नर्स से पूछा, ‘‘अम्मां नाश्ताखाना आराम से खा रही हैं?’’

उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

दोपहर को उस ने देखा कि अम्मां को परोसा गया खाना रसोई के डस्टबिन में पड़ा हुआ था.

नर्स से पूछा कि अम्मां ने खाना खा लिया है, तो उस ने स्वीकृति में सिर हिला दिया, यह देख कर वह परेशान हो उठी. इस का मतलब 3 दिन से अम्मां ने ढंग से खाना नहीं खाया है. नर्स को उस ने उस के कमरे में आराम करने भेज दिया और स्वयं अम्मां के पास चली गई.

अनु को देखते ही अम्मां की आंखों से आंसू बहने लगे. अवरुद्ध कंठ से वे बोलीं, ‘‘अनु बेटी, अगर मुझे नर्स के भरोसे छोड़ देगी तो रिश्तेदारों की कही बातें सच हो जाएंगी. मैं जल्द ही इस दुनिया से विदा हो जाऊंगी. वैसे ही सब रिश्तेदार कहते हैं कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगी.’’

3 दिन में ही अम्मां की अस्तव्यस्त हालत देख कर अनु बेचैन हो उठी, ‘‘क्या कह रही हो अम्मां, आप से किस ने कहा? आप अभी खूब जिओगी. अभी दोनों बच्चों की शादी करनी है.’’

अम्मां बड़बड़ाईं, ‘‘क्या बताऊं बेटी, तेरे अस्पताल जाने के बाद आनेजाने वालों की सलाह व बातें सुन कर इतनी परेशान हो गई कि जिंदगी सच में एक बोझ सी लगने लगी. यह सब मेरी दी गई सलाह न मानने का नतीजा है. अब फिर से तुझ से वही कहती हूं, ध्यान से सुन…’’

अम्मां की बात सुन कर अनु ने उन के सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘अम्मां, आप बिलकुल चिंता न करो, आप की सलाह मान कर अब मैं अपना व आप का खयाल रखूंगी.’’

उस के बाद अम्मां की दी गई सलाह पर अनु के पति ने रिश्तेदारों को समझा दिया कि डाक्टर ने अम्मां व अनु दोनों को ही पूर्ण आराम की सलाह दी है, इसलिए वे लोग बारबार यहां आ कर ज्यादा परेशानी न उठाएं. साथ ही, झूठी नर्स को भी निकाल बाहर किया.

इस का बुरा पक्ष यह रहा कि जो रिश्तेदार दिनेश व अनु से सहानुभूति रखते थे, अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दिया करते थे, अब दिनेश को भलाबुरा कहने लगे थे, ‘‘कैसा बेटा है, बीमार मां के लिए नर्स तक नहीं रखी, हमारे आनेजाने पर भी रोक लगा दी.’’

लेकिन इस सब का उजला पक्ष यह रहा कि 2 महीने में ही अम्मां बिलकुल ठीक हो गईं और अनु का ब्लडप्रैशर भी छूमंतर हो गया. इस उम्र में भी आखिर, अम्मां की सलाह ही फायदेमंद साबित हुई थी. अनु सोच रही थी, सच मेरी अम्मां जैसा कोई नहीं.

Father’s Day 2023: पापा की जीवनसंगिनी- भाग 1

रात्रिके अंधेरे को चीरती हुई शताब्दी ऐक्सप्रैस अपनी तीव्र गति से बढ़ती जा रही थी. इसी के ए.सी. कोच ए वन में सफर कर रही पीहू के दिल की धड़कनें भी शताब्दी ऐक्सप्रैस की गति की तरह तेजी से चल रही थीं.

‘‘कैसे होंगे पापा? डाक्टरों ने क्या कहा होगा? मुझे पापा को अपने पास ही ले आना चाहिए था. पापा ने मुझे कभी क्यों नहीं बताया अपनी बीमारी के बारे में? पापा मेरी जिम्मेदारी हैं. मैं इतनी गैरजिम्मेदार कैसे हो गई? मैं क्यों स्वयं में ही इतना खो गई कि पापा के बारे में सोच ही नहीं पाईं,’’ सोचते वह बेचैन से खिड़की से बाहर झंकने लगी.

अहमद उसेबहुत अच्छी तरह जानता था सो उस के मानसिक अंतर्द्वंद्व को भांप कर उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘पीहू इस हालत में इतनी परेशान मत होओ हम सुबह तक पापा के पास होंगे. इस तरह तो तुम अपना बीपी ही बढ़ा लोगी और एक नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी. फिर न तुम खुद को संभाल पाओगी और न ही पापा को, इसलिए स्वयं को थोड़ा सा शांत रखने की कोशिश करो.’’

‘‘हां तुम ठीक कह रहे हो,’’ कह कर पीहू ने सीट पर अपना सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं. पर इंसान की फितरत होती है कि विषम परिस्थितियों में वह कितना भी शांत होने का प्रयास करे पर अशांति उस का पीछा नहीं छोड़ती. सो न चाहते हुए भी वह अपने प्यारे पापा के पास पहुंच गई. आखिर पापा उस के जीवन की सब से कीमती धरोहर हैं अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कैसे जी पाएगी. यों भी पापा का प्यार उसे बहुत समय के बाद मिला है. अभीअभी तो वह पापा के प्यार को महसूस करने लगी थी कि वे बीमार हो गए. कल ही तो उस के पड़ोस में रहने वाले अंकल ने फोन पर बताया, ‘‘बेटी पापा को बीमारी के चलते अस्पताल में भरती करवाया है.’’

सूचना मिलते ही वह पति अहमद के साथ दिल्ली के लिए निकल पड़ी थी. 10 साल पहले कैसे उस ने मम्मी की असामयिक मृत्यु के बाद अपने लिए पहली बार पापा की आवाज सुनी थी. उसे आज भी याद है मम्मी की 13वीं पर जब पहली बार घर में सभी एकत्रित हुए थे और शाम को जब सभी नातेरिश्तेदार चले गए थे तब मौसी ने नानी की ओर देखते हुए कहा था, ‘‘मां कुछ दिनों पहले पीहू के लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आया था. अनु को पसंद भी था पर जब तक वह कोई निर्णय ले पाती उस से पहले ही इस संसार से चली गई.’’

‘‘कहां से? कौन है? अगर जम गया तो मैं अगले शुभ मुहूर्त में ही इस के हाथ पीले कर दूंगी. मेरा क्या भरोसा कब ऊपर वाले के यहां का बुलावा आ जाए.

यह जिम्मेदारी पूरी कर दूं तो मैं शांति से मर तो पाऊंगी,’’ नानी ने मौसी की बात का उत्तर देते हुए कहा.

‘‘लड़का और उस का परिवार वर्षों से दुबई में रहता है. वहां उन का जमाजमाया बिजनैस है. अच्छेखासे पैसे वाले खानदानी परिवार का इकलौता लड़का है. बस उम्र अपनी पीहू से थोड़ी ज्यादा है. यहां उस की मौसी रहती हैं उन्हीं के जरीए यह रिश्ता मेरे पास आया है. उम्र देख लो यदि जम रही है तो इस से अच्छा रिश्ता नहीं हो सकता. अपनी पीहू 21 की है और लड़का 30 का है.’’

‘‘ठीक है 9-10 साल का अंतर तो चलता है. वैसे भी कम्मो सारी चीजें थोड़े ही मिलती हैं. हम ने कौन सी नौकरी करानी है जो उम्र के पीछे इतना अच्छा रिश्ता हाथ से जाने दें. इस के हाथ पीले हो जाएं तो मैं चैन से मर सकूंगी वरना मेरी लाड़ली तो कुंआरी ही रह जाएगी,’’ नानी ने पीहू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘पीहू तू बोल, तुझे तो कोई परेशानी नहीं है न? अगर तेरी इस रिश्ते में रुचि है तो मैं बात आगे बढ़ाऊं?’’ मौसी ने मुझ से पूछा परंतु मैं कुछ बोल पाती उस से पहले ही पापा बोल उठे, ‘‘मुझे परेशानी है, मेरी बेटी कोई अनाथ नहीं है जो आप लोग उस के भविष्य का निर्धारण करेंगी. उस का पिता अभी जिंदा है. अभी उस की विवाह की नहीं कैरियर बनाने की उम्र है. आप सब से विनम्र अनुरोध है कि हमें अकेला छोड़ दें. आप ने हमारी बहुत मदद की उस के लिए शुक्रिया परंतु अब हमें आप की मदद की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है,’’ पापा का अब तक का भरा हुआ गुबार मानो फूट पड़ा.

‘‘अरे देखो तो अनु के जाते ही इस की जवान निकल आई. आज तक इस के परिवार को संभाले रहे हम. अनु तो पिछले 1 माह से बीमार थी. हम सब अपना घरबार छोड़ कर यहां पड़े रहे और अब यह…’’ मौसी और नानी दोनों ने अपनी वाणी के तीखे वाणों से पापा पर कठोर प्रहार सा कर दिया.

मगर पापा बिना किसी की परवाह किए अनवरत बोलते जा रहे थे, ‘‘मेरे साथ तो आप ने आज तक कोई रिश्ता निभाया ही नहीं तो आगे क्या निभाएंगी. आप ने हमेशा अपनी बेटी से ही वास्ता रखा. अब आप की बेटी इस संसार से चली गई तो इस घर से भी आप का रिश्ता समाप्त. अपनी बेटी के रहते मेरा घरसंसार आप का ही था. मैं तो सिर्फ एक मेहमान था. अब यह घर और बेटी मेरी है. इस से जुड़े सभी फैसले अब सिर्फ मैं ही लूंगा. आप लोग भी अपनाअपना घर देखें. अपनी पत्नी से मैं बहुत प्यार करता था इसलिए आप को भी अपने घर में सहन कर रहा था.

वैसे भी आप ने तो मेरे गृहस्थ जीवन को बरबाद कर ही दिया. पैसे के लिए कोई कैसे अपनी बेटी और बहन की जिंदगी तबाह करता है यह मैं ने केवल पत्रपत्रिकाओं में पढ़ा और टीवी सीरियल्स में देखा ही था और हमेशा इसे अतिशयोक्ति मानता रहा परंतु आप लोगों को देख कर यकीन भी कर पाया कि सच में इस समाज में सबकुछ संभव है. अब आप लोग हमें हमारे हाल पर छोड़ दें,’’ कहतेकहते भावुक हो कर पापा ने मेरे सिर पर अपना हाथ फेरते हुए मुझे अपने सीने से लगा लिया.

वसीयत: भाग 1- क्या अनिता को अनिरूद्ध का प्यार मिला?

कभीकभी   प्यार जीवन में अप्रत्याशित रूप से दस्तक देता है, यह चंद्रमा समान है, जिस की शीतल चांदनी संसार की दग्ध अग्नि को शांत करती है. इस की बौछार के नीचे भीगने के लिए बस निरुपाय अंतर्भाव में रिक्त पात्र सहित खड़े रहना होता है. जिंदगी अनूठे, अप्रत्याशित स्वाद देती है और हम उन को कोई संज्ञा नहीं दे पाते. बाहरी तल पर हमें बारबार खो देना होता है एकदूसरे को लेकिन अंदर के तलों पर असंख्य कथाएं लिखी होती हैं.

अनंत यात्राओं की महागाथा के रूप में. अनीता के आसपास यही दुनिया थी, तिलिस्मी दुनिया, प्रेम की दुनिया. 48 वर्षीय संभ्रांत वर्ग की महिला, थिएटर से जुड़ी हुई. इस उम्र में भी बहुत दिलकश और हसीन, सूरज और चंद्रमा के बराबरबराबर हिस्सों से बनीं अनीताजी.

शिमला की एक शांत सी सड़क पर बड़ा सा उन का दोमंजिला घर, हरी छत वाला और सामने छोटीछोटी पहाडि़यां और पूर्व से पश्चिम की ओर विस्तारित होती हुई महान पर्वत शृंखला हिमालय.

यह वही क्षेत्र है जहां रहस्य कभी भी सर्वोच्च चोटियों को नहीं छोड़ता. अनीता अपने खयालों में गुम थीं कि मैक्स अलसाते हुए आगे आया और खुशी से गुर्राया. यह सफेद हस्की कुत्ता ही एकमात्र साथी था उन का. अनीताजी के जीवन में हस्की के अलावा कोई नहीं था.

नीचे का फ्लोर पिछले 1 साल से किराए पर दिया था, नोएडा से लड़का है अनिरुद्ध, लगभग 30 वर्ष का, वर्क फ्रौम होम करता है, यहीं शिमला में रह कर. लेकिन बिलकुल एकांत प्रेमी है, सिर्फ अपने काम से मतलब और जब खाली होता है तो बाहर बैठ कर सामने फैली हुई वृहत् शृंखलाओं को देखता रहता है डूब कर और कभीकभी पहाड़ों के स्कैच भी बनाता है.

आंखें एकदम शांत जैसे कोई ध्यान में बैठा हो, जैसे अपने दिमाग में सारे दृश्य, पहाड़, धुंध और रात का अंधकार समाहित कर रहा हो. अनीता उसे गौर से देखती रहतीं, उस से बात करने की कोशिश करतीं, लेकिन वह मतलब भर की बात कर के चला जाता.

आखिर ऐसा क्या था उस नवयुवक में जो उन्होंने कभी किसी की आंखों में  नहीं देखा था. कभीकभी वे उसे ऊपर वाले कमरे में बुला लेतीं, अपने हाथों से बनाया केक खिलाने और चाय के बहाने. अगर वह आ भी जाता तो एक अजीब से चुप्पी वहां छाई रहती और हवाएं बोझिल हो जातीं.

क्यों यह लड़का अनीताजी में बेचैनी और उत्सुकता पैदा कर रहा था? अनीता के मन की किताब के हर कोरे हिस्से पर नईनई कविताएं नाचती रहतीं. शून्य और सृष्टि जैसे एक हो रहे थे. उस के उठ के जाने के बाद अनीता कुहनियों को डाइनिंगटेबल पर टिकाए घंटों वह खाली कुरसी ताकती रहती थीं, जिस पर वह बैठ कर गया होता. फिर उस कप में चाय पीतीं, जिस में वह पी कर गया होता, शायद उस के होंठों का स्पर्श महसूसने की कोशिश करतीं.

इंसानी इश्क और जनूनी हसरतें क्या न करवा लें. उन्होंने उस पर कविताएं लिखीं. कभी भी सपनों के सच न हो पाने की लाचारी के बावजूद सहसा वे गुनगुनाने लगतीं, ‘अपनी आंखों के समंदर में उतर जाने दे, तेरा मुजरिम हूं मु?ो डूब कर मर जाने दे…’ अनीताजी अपने पिता की इकलौती संतान थीं और यह घर उन का पुश्तैनी था. मांबाप को गुजरे लगभग 10 साल हो चुके थे.

पूरा जीवन दिल्ली और मुंबई में थिएटर को दिया. ऐक्टिंग की, डाइरैक्शन की और इन सब के बीच जवानी के दिनों में प्यार में धोखा भी खाया और उस के बाद किसी और की नहीं हो पाईं, नतीजा आज वे बिलकुल अकेली थीं और अब इस उम्र में एक नवयुवक की तरफ आकर्षित हो रही थीं.

शायद वे इस लड़के के प्यार में थी. बेइंतहा प्यार में. अनीताजी खुद अपनी सोच से कभीकभी सहम जातीं कि नहीं अनीता, इस सफर की कोई मंजिल नहीं है, अपनी ही धज्जियां उड़ती हैं, कुछ भी शेष नहीं बचेगा क्यों उस की और अपनी जिंदगी के साथ खिलवाड़ करना.

अकसर अटपटी और अजनबी लय जिंदगी के किसी भी मोड़ पर संगीतमय हो कर हम में चली आती है. मन के अंतिम प्रकोष्ठ के वाद्ययंत्र तरंगित हो जाते हैं और एक देवमूर्ति जो बरसों से खंडहर में रखी होती है वह भक्त का स्पर्श पाने के लिए तरसने लगती है.

एक अस्पष्ट मंत्र सुनने को कान आकुल हो जाते हैं. कहीं दूर पखावज बजने लगते हैं. एक दिन अचानक अनिरुद्ध की तबीयत खराब हो गई, भयंकर खराब. उलटियां रुक नहीं रही थीं और वह निढाल हो कर बिस्तर पर लेटा रहा. आधी रात को फिर उलटी आई. लेकिन इतनी कमजोरी कि बिस्तर पर उलटी हो गई. उस ने अपना मोबाइल उठाया और अनीताजी को फोन लगाया लेकिन कुछ बोल नहीं पाया.

अनीताजी कुछ ही क्षणों में उस के कमरे में थीं और अनिरुद्ध को बस इतना ही याद रहा कि वह उस के सिर को गोद में रख कर सहला रही थीं और बेचैनी में किसी को फोन पर बुला रही थीं. बाद में क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं. अगले दिन आंखें खुलीं तो वह शिमला सिटी हौस्पिटल के बिस्तर पर था. अनीताजी पास कुरसी पर बैठी सो रही थीं.

कमरे में खालीपन था और खालीपन में ही खूबसूरती समाती है. अनीताजी देखने में कितना खूबसूरत हैं… अनीताजी को एकटक देखते हुए अनिरुद्ध मायावी सपने देखता रहा. उन के स्पर्श को तरसता रहा. बाद में धीरे से सपनों की दुनिया से यथार्थ में आया. आकाशीय अभिलेखन का ब्रह्मांडीय ज्ञानरूपी सूर्य प्रकाश, पेड़ों की पत्तियों में से हो कर सामने की दीवार पर विभेदनयुक्त धब्बे बना रहा था. कमरे में धूप की चहलकदमी चालू थी. हिरण्यगर्भ से एक नई सृष्टि की उत्पत्ति हो रही थी, जिस में केवल 2 लोग थे- अनीता और अनिरुद्ध. अनिरुद्ध धीरे से बोला, ‘‘अनीता…’’

अनीताजी हड़बड़ा कर उठीं और उस की तरफ आ कर उस का हाथ पकड़ कर बैठ गईं. आज पहली बार उस ने इतनी आत्मीयता से उन्हें उन के नाम से पुकारा था. ‘‘तुम ठीक तो हो?’’ अनीताजी ने पूछा. अनिरुद्ध चुप रहा. वो उनके हाथ की नर्मी और गरमाहट महसूस करता रहा. घाटी की तलहटी पर बहती नदी की गूंज यहां तक आ रही थी. ऐसे पलों को पढ़ना ही नहीं होता, सहेजना भी होता है, इसलिए अनीताजी और अनिरुद्ध ने पढ़ना स्थगित रखा. अनीताजी को उस का स्पर्श सावन की अनुभूति करा गया. यह भावों से किया गया पावन अभिसिंचन था.

एक दूजे के वास्ते: क्या हुआ था तूलिका के साथ

‘‘शादी की सालगिरह मुबारक हो तूलिका दी,’’ मेरी भाभी ने मुझे फोन पर मुबारकबाद देते हुए कहा.

‘‘शादी की सालगिरह मुबारक हो बेटा. दामादजी कहां हैं?’’ पापा ने भी फोन पर मुबारकबाद देते हुए पूछा.

‘‘पापा, वे औफिस गए हैं.’’

‘‘ठीक है बेटा, मैं उन से बाद में बात कर लूंगा.’’

मेरी छोटी बहन कनिका और उस के पति परेश सब ने मुझे बधाई दी, पर मेरे पति रवि ने मुझ से ठीक से बात भी नहीं की. आज हमारी शादी की सालगिरह है और रवि को कोई उत्साह ही नहीं है. माना कि उन्हें औफिस में बहुत काम होता है और सुबह जल्दी निकलना पड़ता है, पर शादी की सालगिरह कौन सी रोजरोज आती है.’’

रवि कह कर गए थे, ‘‘तूलिका, आज मैं जल्दी आ जाऊंगा… हम बाहर ही खाना खाएंगे.’’

‘सुबह से शाम हो गई और शाम से रात. रवि अभी तक नहीं आए. हो सकता है मेरे लिए कोई उपहार खरीद रहे हों, इसलिए देरी हो रही है,’ मन ही मन मैं सोच रही थी.

‘‘मां भूख लगी है,’’ मेरी 5 साल की बेटी निया कहने लगी. वह सो न जाए, उस से पहले ही मैं ने उसे कुछ बना कर खिला दिया.

तभी दरवाजे की घंटी बजी. वे आते ही बोले, ‘‘बहुत थक गया हूं… तूलिका माफ करना लेट हो गया… अचानक मीटिंग हो गई. शादी की सालगिरह मुबारक हो मेरी जान… यह तुम्हारा उपहार… फूलों सी नाजुक बीवी के लिए गुलदस्ता… आज हमारी शादी को 6 साल हो गए और तुम अभी भी पहले जैसी ही लगती हो.’’

पर मैं ने उन की किसी भी बात पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और उन के लाए गुलदस्ते को एक तरफ रख दिया. फिर बोलने लगे, ‘‘आज होटल में बहुत भीड़ थी… तुम्हारी पसंद का सारा खाना पैक करवा लाया हूं. जल्दी से निकालो… जोर की भूख लगी है.’’

‘‘जोर की भूख लगी थी तो बाहर से ही खा कर आ जाते… यह खाना लाने की तकलीफ क्यों की और इस गुलदस्ते पर पैसे खर्च करने की क्या जरूरत थी? आप खा लीजिए… मेरी भूख मर गई… मैं सोने जा रही हूं.’’

‘‘माफी तो मांग ली अब क्या करूं? बौस ने अचानक मीटिंग रख दी तो क्या करता? मुझे भी बुरा लग रहा है… खाना खा लो तूलिका भूखी मत सो,’’ रवि बोले.

कितना कहा पर मैं नहीं मानी और भूखी सो गई. मैं रात भर रोतीसिसकती रही कि किस बेवकूफ से मेरी शादी हो गई… शादी के 6 साल पूरे हो गए पर आज तक कभी मुझे मनचाहा उपहार नहीं दिया. मैं ने सुबह से कितना इंतजार किया, कम से कम होटल में तो खिला ही सकते थे.

 

आज तक कौन सी बड़ी खुशी दी है मुझे… हर छोटी से छोटी चीज के लिए

तरसती आई हूं. एक मेरी बहन का पति है, जो उसे कितना प्यार करता है. भूख से नींद भी नहीं आ रही थी. सोचा कुछ खा लूं पर मेरा गुस्सा भूख से ज्यादा तेज था. एक गिलास ठंडा पानी पी कर मैं सोने की कोशिश करने लगी पर नींद नहीं आ रही थी. क्या कभी रवि को महसूस नहीं होता कि मैं क्या चाहती हूं? फिर पता नहीं कब मुझे नींद आ गई.

‘‘गुड मौर्निंग मेरी जान…’’ कह रवि ने मुझे पीछे से पकड़ लिया जैसा हमेशा करते हैं. आज रवि की पकड़ से मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे बदन पर बिच्छू रेंग रहा हो.

मैं ने उन्हें धक्का देते हुए कहा, ‘‘झूठे प्यार का दिखावा करना बंद कीजिए… इतने भी सीधे और सरल नहीं हैं आप जितना दिखाने की कोशिश करते हैं.’’

‘‘अब जैसा भी हूं तुम्हारा ही हूं. हां, मुझे पता है कल मैं ने तुम्हारे साथ बहुत ज्यादती की पर मैं क्या करूं तूलिका नौकरी भी तो जरूरी है. अचानक मीटिंग रख दी बौस ने. अब बौस से जवाबतलब तो नहीं कर सकता न… इसी नौकरी पर तो रोजीरोटी चलती है हमारी,’’ रवि बोले.

‘‘कौन सा महीने का लाख रुपए देती है यह नौकरी? आज तक कौन सी बड़ी खुशी दी है आप ने मुझे? बस दो वक्त की रोटी, तन पर कपड़ा और यह घर. इस के अलावा कुछ भी तो नहीं दिया है,’’ मैं ने गुस्से में कहा.

‘‘बस इन्हीं 3 चीजों की तो जरूरत है हम सब की जिंदगी में… किसीकिसी को तो ये भी नहीं मिलती हैं तूलिका… जो भी हमारे पास है उसी में खुश रहना सीखो. अब छोड़ो यह गुस्सा.. गुस्से में तुम अच्छी नहीं लगती हो.

चलो आज कहीं बाहर घूमने चलेंगे और बाहर ही खाना खाएंगे… तुम कहो तो फिल्म भी देखेंगे… आज छुट्टी का दिन है… यार अब छोड़ो यह गुस्सा.’’

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना है दोबारा बोलने की कोशिश भी मत कीजिएगा. पछता रही हूं आप से शादी कर के… पता नहीं क्या देखा था मेरे पापा ने आप में… कितना कुछ ले कर आई थी मैं… सभी कुछ आप के परिवार वालों ने रख लिया. कितने अरमान संजोए आई थी ससुराल में… सब चकनाचूर हो गया. अब मुझे जो भी जरूरत होगी अपने पापा से मांगूंगी. आप से उम्मीद करना ही बेकार है. आप जैसे आदमी को तो शादी ही नहीं करनी चाहिए,’’ जो मन में आया वह बोले जा रही थी.

‘‘मैं ने पहले ही तुम्हारे पापा से कहा था कि मुझे कुछ नहीं चाहिए. मेरे जीवन का एक संकल्प है, उद्देश्य है और बिना संकल्प जीवन और मृत्यु का भेद समाप्त हो जाता है. क्या बेईमानी से करोड़ों कमा कर या किसी से पैसे मांग कर मैं तुम्हें ज्यादा सुखी रख सकता हूं?

मैं अपने परिवार को अपने बलबूते पर रखना चाहता हूं. मुझे किसी का 1 रुपया भी नहीं लेना है. अपने पापा का भी नहीं. अब तुम्हारे पापा ने दिए औैर मेरे पापा ने लिए तो इस में मैं क्या कर सकता हूं? अभी हमारे घर का लोन कट रहा है इसलिए पैसे की थोड़ी किल्लत है. फिर सब ठीक हो जाएगा तूलिका… मुझे भरोसा है अपनेआप पर कि मैं सारी खुशियां दूंगा तुम्हें एक दिन,’’ रवि बोले.

रवि ने मुझे बहुत मनाने की कोशिश की पर मैं अपने गुस्से पर कायम थी. रविवार की छुट्टी ऐसे ही बीत गई. शाम को निया बाहर घूमने की जिद्द करने लगी. रवि उसे घुमाने ले गए. मुझे भी कितनी बार कहा रवि ने पर मैं

नहीं गई.

तभी भाभी का फोन आया. ‘‘भाभी प्रणाम.’’ ‘‘तूलिका, कैसी हैं? आप दोनों को परेशान तो नहीं किया न?’’

‘‘अरे नहीं भाभी.. कहिए न.’’

‘‘कनिका अपने पति के साथ आई हुई है तो पापा चाह रहे थे कि अगर कुछ दिनों के लिए आप सब भी आ जाते तो अच्छा लगता,’’ भाभी ने मुझ से कहा.

‘‘हां भाभी, देखती हूं. वैसे भी आप सब से मिलने का बहुत मन कर रहा है,’’ कह फोन काट कर मैं सोचने लगी कि कितनी खुशहाल है कनिका… कुछ दिन पहले ही सिंगापुर घूम कर आई है अपने पति के साथ और एक मैं…

मैं ने सोचा कि कुछ दिनों के लिए पापा के पास चली ही जाऊं. कम से कम कुछ दिनों के लिए इस घर के काम से दूर तो रहूंगी और फिर मुझे अपने पति को सबक भी सिखाना था, जो सिर्फ मुझे इस्तेमाल करना जानते हैं.

‘‘मां,’’ कह कर निया मुझ से लिपट गई. कहांकहां घूमी, क्याक्या खाया, सब बताया.

फिर बोली, ‘‘पापा आप के लिए भी आइसक्रीम लाए हैं.’’

‘‘मुझे नहीं खानी है… जाओ बोल दो अपने पापा को कि वही खा लें और यह भी बोलना कि तुम और मैं नाना के घर जाएंगे… टिकट करवा दें.’’

‘‘पापा, हमें नाना के घर जाना है. मां ने बोला है कि टिकट करवा दो,’’ निया बोली.

‘‘आप की मां आप के पापा से गुस्सा हैं, इसलिए पापा को छोड़ कर जाना चाहती हैं. ठीक है मैं टिकट करवा दूंगा,’’ रवि मेरी तरफ देखते हुए बोले.

रवि जब मुझे और निया को ट्रेन में बैठा कर अपना हाथ हिलाने लगे और ट्रेन भी अपनी गति पकड़ने लगी, तो निया पापा पापा कह कर चिल्लाने लगी. रवि का चेहरा उदास हो गया.

वे मुझे ही देखे जा रहे थे. तभी लगा कि आवेग में आ कर कहीं गलती तो नहीं कर रही हूं मायके जाने की? पर ट्रेन की रफ्तार तेज हो चुकी थी. पूरा रास्ता यही सोचती रही कि इतना नहीं बोलना चाहिए था मुझे… सुबह ही हम पटना पहुंच गए.

सब से मिल कर अच्छा लगा. पापा तो बहुत खुश हुए. सब रवि के बारे में पूछने लगे तो मैं ने कह दिया कि उन्हें काम था, इसलिए नहीं आ पाए.’’

यहां आए 4-5 दिन हो गए. रवि रोज सुबह शाम फोन करते. एक रोज कनिका ने पूछ ही लिया कि रवि ने सालगिरह पर मुझे क्या उपहार दिया तो मैं ने हंस कर टाल दिया.

कनिका और परेश हमेशा यही जताने की कोशिश करते कि दोनों में बहुत प्यार है. पापा ने ही दोनों के टिकट करवाए थे, सिंगापुर जाने के लिए. पापा ने रवि से भी पूछा था कि कहीं घूमने जाना हो तो टिकट करवा दूं पर मेरे पति तो राजा हरीशचंद हैं, उन्होंने मना कर दिया.

एक रात पापा और भाभी भैया किसी की शादी में गए थे. निया और मैं कमरे में टैलीविजन देख रहे थे.

‘‘दीदी, मैं ने खाना बना दिया है… मैं अपने घर जा रही हूं,’’ कामवाली कह कर चली गई.

थोड़ी देर बाद निया के खाने का वक्त हो गया. निया सो न जाए यह सोच कर मैं किचन मैं खाना लेने जाने लगी कि तभी कनिका के कमरे से हंसने की और अजीब सी आवाजें आने लगीं.

ये कनिका भी न… कम से कम कमरे का दरवाजा तो लगा लेती. मैं ने सोचा परेश के साथ अभी उसे समय मिला. मैं बुदबुदाई पर जैसे ही मैं किचन से खाना ले कर निकली तो मैं ने देखा कि कनिका तो बाहर से आ रही है.

‘‘कनिका तुम? तो तुम्हारे कमरे में कौन है? तुम कहीं बाहर गई थीं?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘हां दीदी, मैं पड़ोस की स्वाति भाभी के घर गई थी. कब से बुला रही थीं… देखो न कितनी देर तक बैठा लिया.’’

‘‘कनिका, निया के लिए खाना ले कर मेरे कमरे में आओ न जरा कुछ बातें करनी हैं तुम से,’’ मैं ने हड़बड़ाते हुए कनिका के हाथ में खाने की प्लेट थामते हुए कहा. मुझे लगा कहीं कनिका कुछ ऐसावैसा देख न ले, पर कौन है कमरे में? जैसे ही मैं पलटी देख कर दंग रह गई. सोना अपने ब्लाउज का बटन लगाते हुए कनिका के कमरे से निकल रही थी. उस के  बाल औैर कपड़े अस्तव्यस्त थे. मुझे देखते ही सकपका गई और भाग गई.

परेश का शारीरिक संबंध एक नौकरानी के साथ… छि:…

‘‘ दीदी, निया का खाना ले आई… कुछ बातें करनी थीं आप को मुझ से?’’

उफ, दिमाग से निकल गया कि क्या बातें करनी थीं. सुबह कर लूंगी… अभी तू जा कर आराम कर.’’

‘‘ठीक है दीदी.’’ उफ, क्या समझा था मैं ने परेश को और वह क्या निकला… अब तो परेश से घिन्न आने लगी है… और यह कनिका अपने पति की बड़ाई करते नहीं थकती है.

रवि तो मेरी खुशी में ही अपनी खुशी देखते हैं और मैं ने कितना कुछ सुना दिया उन्हें. आज तक कभी उन्होंने पराई औरत की तरफ नजर उठा कर नहीं देखा… मुझे रवि की याद सताने लगी. मन हुआ कि अभी फोन लगा कर बात कर लूं.

सुबह जब रवि का फोन नहीं आया तो मैं ने ही फोन लगाया पर उन्होंने फोन नहीं उठाया. बारबार फोन लगा रही थी पर वे नहीं उठा रहे थे. मेरा मन बहुत बैचेन होने लगा. अब मुझे चिंता भी होने लगी, इसलिए मैं ने उन के औफिस में फोन किया तो रिसैप्शनिस्ट ने बताया कि  रवि आज औफिस नहीं आए और कल भी जल्दी चले गए थे. उन की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी.

यह सुन कर मुझे और चिंता होने लगी.

‘‘पापा, रवि की तबीयत ठीक नहीं है. अभी औफिस से पता चला, इसलिए मैं कल की गाड़ी से चली जाऊंगी,’’ मैं ने पापा से कहा.

‘‘कोई चिंता की बात तो नहीं है न? मैं हवाईजहाज की टिकट करवा देता हूं,’’ पापा ने मुझ से कहा.

मैं ने सोचा कि जो बात मेरे पति को नहीं पसंद वह मैं नहीं करूंगी. अत: बोली, ‘‘नहीं पापा मैं ट्रेन से चली जाऊंगी. आप चिंता न करें. वैसे भी पटना से दिल्ली ज्यादा दूर नहीं है.’’

रास्ते भर मैं परेशान रही कि क्या हुआ होगा. ऐसा लग रहा था कि उड़ कर अपने घर पहुंच जाऊं. करीब 7 बजे सुबह हम अपने घर पहुंच गए. मैं बारबार दरवाजा खटखटा रही थी पर रवि दरवाजा नहीं खोल रहे थे. फिर मैं ने घर की दूसरी चाबी से दरवाजा खोला. अंदर गई तो देखा रवि बेसुध सोए थे. उन का बदन बुखार से तप रहा था. मैं ने तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने रवि को इंजैक्शन दिया. धीरेधीरे उन का बुखार उतरने लगा.

जब उन की आंखें खुलीं तो चौंक कर बोले, ‘‘अरे तुम. मैं ने तुम्हें परेशान नहीं करना चाहा इसलिए बताया नहीं. माफ कर दो कि मायके से जल्दी आना पड़ा,’’ कहते हुए रवि रो पड़ा.

‘‘माफ आप मुझे कर दीजिए. मैं ही गलत थीं,’’ मेरी आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. फिर सोचने लगी कि मैं अपने अरमान उन पर लादती रही. कभी रवि के बारे में नहीं सोचा. कितने सौम्य, शालीन और सुव्यवस्थित किस्म के इनसान हैं मेरे पति. कितना प्यार और समर्पण दिया रवि ने मुझे पर मैं ही अपने पति को पहचान नहीं पाई.

‘‘अब कुछ मत सोचो तूलिका जो हुआ उसे भूल जाओ… हम दोनों एक हैं और कभी अलग नहीं होंगे, यह वादा रहा.’’

मैं ने भी हां में अपना सिर हिला दिया. सच में हम दोनों एकदूजे के वास्ते हैं.

जिंदगी का सफर: भाग 3- क्या शिवानी और राकेश की जिंदगी फिर से पटरी पर लौटी?

पहले अच्छे विद्यार्थियों में गिना जाने वाला मोहित अपनी शिक्षिकाओं के लिए अब समस्या बन गया था. वह चिड़चिड़ा और झगड़ालू हो गया था. पढ़ने और सीखने में उस की रुचि कम हो गई थी. अपने सहपाठियों की चीजें तोड़नेफोड़ने में उसे खूब मजा आता. उसे संभालना बहुत कठिन हो गया था.

‘‘मोहित की क्लासटीचर ने एक दिन उस से प्यार से बात करी तो मालूम पड़ा कि वह अपने पापा, दादादादी

नानानानी को बहुत याद करता है. उस का मन उन से मिलने को तड़पता है. अपनी टीचर से

बातें करते हुए वह भावुक हो कर कई बार रोया. मैं ने उस की बिगड़ी मानसिक स्थिति की चर्चा करने के लिए आप दोनों को बुलाया है. हम

सब की नासमझ और लापरवाही के कारण अगर उस मासूम का भविष्य खराब हो गया, तो हम सभी अफसोस करेंगे,’’ अनिता के इन शब्दों को सुन कर राकेश गंभीर व उदास सा और शिवानी उत्तेजित व भावुक नजर आने लगी.

प्रिंसिपल साहिबा के साथ उन की यह मुलाकात करीब 20 मिनट चली. इस दौरान शिवानी ने राकेश के ऊपर अपने साथ सहयोग न करने व अभद्र व्यवहार करने के आरोप को कई बार

ऊंची आवाज में दोहराया. तेज गुस्से के कारण उस की आवाज व शरीर दोनों कई बार कांपने लग जाते थे.

राकेश ने अनिता और शिवानी दोनों की बातें अधिकतर खामोश रह कर

सुनीं. उस ने न ज्यादा सफाई दी, और न ही शिवानी के खिलाफ बोला. जब भी मोहित के बिगड़े व्यवहार के बारे में प्रिंसिपल कोई जानकारी देती, उस की आंखों में दुख, चिंता और उदासी के मिलेजुले भाव और गहरा जाते.

उन दोनों को काफी समाझने के बाद अनिता ने अंत में कहा, ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों मोहित के सुखद भविष्य व समुचित विकास की खातिर साथसाथ रहना शुरू कर देंगे. अपने उत्तरदायित्वों को आपसी अहं के टकराव के कारण नजरअंदाज न करें. अपने बेटे को घर में हंसीखुशी का माहौल उपलब्ध कराना आप दोनों का ही फर्ज है.’’

प्रिंसिपल के कक्ष से बाहर आते ही राकेश ने अपना यह निर्णय शिवानी को सुनाया, ‘‘अतीत में जो भी हुआ है, उस का मुझे अफसोस है. मैं आज शाम ही तुम दोनों के पास रहने आ जाऊंगा.’’

राकेश ने अपना वचन निभाया. 2 सूटकेसों में अपना सामान भर कर उसी शाम फ्लैट में पहुंच गया. शिवानी ने उलझन भरी खुशी के साथ उस के निर्णय का स्वागत किया. मोहित तो इतना खुश हुआ कि पिता से लिपट गया.

राकेश के इस कदम से उन के आपसी संबंध सुधरने चाहिए थे, पर ऐसा नहीं हुआ. अतीत व भविष्य से जुड़ी अपनी सोचों को बदलना या रोकना इंसान के लिए आसान नहीं होता है.

पहले अपने अहं के टकराव के कारण दोनों लड़ते झगड़ते थे, पर अब अजीब सा खिंचाव दोनों के बीच बढ़ने लगा. एक ही छत के नीचे साथसाथ रहते हुए भी अजनबियों सा व्यवहार करते.

उन की आपस में बातचीत अधिकतर मोहित के बारे में होती. कभीकभी औपचारिक विषयों पर 2-4 वाक्य बोल लेते. दिल से दिल की बात कहनेसुनने का अवसर कभी आता भी, तो दोनों अजीब सी रुकावट महसूस करते हुए उस राह पर आगे बढ़ने की ताकत अपने अंदर नहीं पाते.

‘‘तुम इतना चुपचुप क्यों रहते हो?’’ कभीकभी शिवानी चिड़े से अंदाज में राकेश से पूछ भी लेती.

‘‘मैं ठीक हूं,’’ उदासीभरे अंदाज में कुछ ऐसा ही जवाब दे कर राकेश मोहित की तरफ ध्यान बंटा लेता था.

सच यह था कि दोनों रहने को सिर्फ साथ रहने लगे थे. उन की सोच व व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था. मन की शिकायतों व नाराजगी के पूर्ववत बने रहने के कारण उन के आपसी संबंधों में सुधार नहीं हो रहा था.

राकेश अपने दिल की बात किसी से नहीं कहता था, पर शिवानी अपनी सहेली अंजलि से अपना सुखदुख बांट लेती थी.

‘‘शिवानी, तुम राकेश के बदलने का क्यों इंतजार कर रही हो. तुम खुद ही सहज हो कर उस से हंसनाबोलना क्यों नहीं शुरू देती हो?’’ अंजलि अकसर उस से कहती.

‘‘राकेश मुंह से कुछ न कहे, पर उस की आंखों में मैं अपने लिए लानतों, शिकायतों व नाराजगी के भावों को अब भी साफ पढ़ लेती हूं. तब मेरे अंदर कुछ भर सा जाता है, मन विद्रोह सा कर उठता है और मैं मीठा या अच्छा बोलने का अभिनय करने में खुद को पूरी तरह से असमर्थ पाती हूं,’’ ऐसा जवाब देते हुए शिवानी चिढ़ व गुस्से का शिकार बन जाती.

‘‘तुम दोनों शादी होने से पहले घंटों हंसबोल कर भी प्यासे से रह जाते थे. पता नहीं क्या हो गया तुम दोनों को,’’ दुख प्रकट करते हुए अंजलि की पलकें नम हो उठतीं.

अंजलि ने लाख कोशिश करी, पर वह शिवानी और राकेश को उन की

शादी की 7वी वर्षगांठ के मौके पर किसी पहाड़ी स्थल पर घूम आने को राजी नहीं कर पाई.

अंजलि के प्रयासों से ही उन के फ्लैट पर सालगिरह के दिन पार्टी का आयोजन हो पाया. शिवानी और राकेश दोनों ने इस पार्टी के प्रति जरा भी उत्साह नहीं दर्शाया.

वैसे पार्टी वाली शाम उन दोनों ने ही मेहमानों के सामने नकली मुसकान और खुशी जाहिर करने वाले मुखौटे ओढ़ लिए. उन्हें सब की खातिरदारी जोश के साथ करते देख कर कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि उन के बीच भारी मनमुटाव चल रहा है.

बनावटी व्यवहार इंसान के दिलोदिमाग को कहीं ज्यादा थका देता है. आखिरी मेहमान के विदा होने तक शिवानी का सिर दर्द से इतना फटने लगा कि उसे दर्दनिवारक गोली लेनी पड़ी. राकेश थकाहारा सा सोफे पर आंखें मूंद कर

लेट गया.

दोनों के मन में यह चाह मौजूद थी कि आज की विशेष रात वे एकदूसरे की बांहों में गुजारें, पर इस इच्छापूर्ति के लिए पहल करने से दोनों हिचकते रहे.

शिवानी घर संवारने लगी. राकेश मोहित से बातें करता रहा. दोनों के मन पर बेचैनी व तनाव का बोझ बढ़ता गया.

काम समाप्त कर शिवानी ने कपड़े बदले और डबल बैड पर लेट गई. राकेश आ

कर उसे प्यार से बातें करे इस की कामना करतेकरते उस की आंख ही लग गई.

बाहर ड्राइंगरूम में राकेश शिवानी के

अपने पास आ कर बैठने का इंतजार करते हुए नकारात्मक ऊर्जा से भरने लगा. आज की रात

भी अपनी पत्नी का घमंडी मन उसे बुरी तरह चुभने लगा.

मोहित कुछ देर बाद सो गया. उसे उठा कर राकेश बैडरूम में ले आया. वहां शिवानी को सोता देख कर उस को तेज धक्का लगा. उस के तनमन में दुख, पीड़ा व अकेलेपन का एहसास कराने वाली ऐसी तेज लहर उठी कि उस की आंखों में आंसू छलक आए.

मोहित को शिवानी के पास लिटा कर वह खुली खिड़की के पास आ खड़ा हुआ. आंखों में आंसू भरे होने के कारण उसे बाहर का दृश्य धुंधलाधुंधला सा नजर आ रहा था.

मोहित के हिलनेडुलने के कारण शिवानी की नींद उथली हो गई थी. फिर एक अजीब सी आवाज ने उस के कानों तक पहुंच कर उसे पूरी तरह जगा दिया.

वह आवाज राकेश के गले से निकली थी. शिवानी उठ कर उस के पास पहुंची तो अपने पति के गले से निकल रही सुबकियों की आवाज साफसाफ सुन ली.

‘‘राकेश. तुम हो रहे हो? क्यों?’’ घबराई शिवानी ने राकेश के कंधों को पकड़ कर उसे अपनी तरफ घुमा लिया.

उस पल तक शिवानी ने राकेश को यों किसी बच्चे की तरह आंसू बहाते कभी नहीं देखा था. उस के उदास चेहरे पर बहते आंसुओं का देख कर वह स्तब्ध रह गई.

‘‘क्या बात है?’’ यह पूछते हुए शिवानी की खुद की आंखें भी भर आईं.

राकेश के होंठ कुछ कहने को फड़फड़ाए, पर गले से बोल नहीं निकले. बस आंसुओं के बहने की रफ्तार व सिसकियों की आवाज ज्यादा तेज हो गई.

‘‘नो… प्लीज डौंट क्राई,’’ शिवानी ने हाथ बढ़ा कर अपने पति के गालों पर बह रहे आंसुओं को पोंछ डाला.

दोनों की नजरें आपस में मिलीं. शिवानी का दिल ऐसा भावुक हुआ कि वह भी रो पड़ी. राकेश के हाथ अपनेआप फैले और शिवानी बिना सोचेसमझे उस की छाती से लिपट गई.

‘‘जिंदगी ने हमें यह किस मोड़ पर ला खड़ा किया है, शिवानी? हमारे बीच प्रेम की जगह यह शिकायतें, यह नफरत, ये अजनबीपन कहां से आ गया?’’ रो रहे राकेश की आवाज में गहरी उदासी और अफसोस के भाव शिवानी को अंदर तक हिला गए.

एक ऐसा तूफान शिवानी के मन में उठा जिस ने उस के मन में दबी सारी नकारात्मक भावनाओं को आंसुओं की राह से बहाना शुरू कर दिया.

‘‘मैं तुम से दूर हो कर नहीं जीना चाहती हूं. मेरी अकड़… मेरे घमंड ने हमारी खुशियां तबाह कर दीं. मुझे माफ कर दो, राकेश. मुझे पहले की तरह अपने दिल की रानी बना लो,’’ सुबकती शिवानी ने राकेश के आंसू पोंछते हुए अपने दिल की इच्छा बयां करी.

‘‘तुम से बड़ा कुसूरवार मैं हूं, शिवानी,’’ राकेश रुंधे गले से बोला, ‘‘मेरे अहं ने हमारे प्रेम की जड़ों को कमजोर कर दिया. मैं… मुझे तुम्हारी तरक्की और सफलता ही बुरी लगने लगी. हर कदम पर साथ देने के बजाय मैं तुम्हारा विरोधी क्यों हो गया.’’

एक बार दोनों ने अपनेअपने दिल की गहराइयों में दबीछिपी बातों को जबान

पर लाना शुरू किया, तो जैसे कोई बांध सा टूट गया. दोनों देर तक एकदूसरे से सटे अतीत की बहुत सी घटनाओं व यादों को शब्द दे कर बांटने लगे.

जब वे सोने के लिए पलंग पर लिपट कर लेटे, तब तक उन के दिलोदिमाग पर

लंबे समय से बना रहने वाला चिंता, तनाव शिकायतों व नाराजगी का बोझ पूरी तरह से

उतर चुका था.

राकेश ने शिवानी का माथा प्यार से चूम कर कहा, ‘‘तुम आज मुझे पहले मिलन की रात से ज्यादा सुंदर लग रही हो क्योंकि मैं बहुतबहुत खुश हूं.’’

‘‘आज मैं तुम से एक पक्का वादा कर रही हूं,’’ शिवानी उस की आंखों में प्यार से झंकते हुए मुसकराई.

‘‘करो,’’ राकेश उस की जुल्फों से खेलने लगा.

‘‘भविष्य में हमारा दिनभर चाहे कितना भी झगड़ा हो, पर सोने से पहले मैं सिर्फ तुम्हारे प्यार की गरमाहट अपने रोमरोम में महसूस करना चाहूंगी. एकदूसरे के दिल की बात कहनेसुनने का सिलसिला अब हम कभी टूटने नहीं देंगे.’’

‘‘हमारी खुशियों व मोहित के इज्ज्वल भविष्य की खातिर मैं तुम्हारे साथ पूरा सहयोग करूंगा.’’

‘‘जिंदगी के सफर में आने वाली चुनौतियां तभी समस्याएं बनती हैं जब हम उन का बोझ अतीत व भविष्य की चिंताएं बना कर मन में ढोने लगते हैं. ऐसी मूर्खता करने से हम बचेंगे.’’

‘‘बिल्कुल. आओ इस समझैते पर मैं प्यार की मुहर लगा दूं,’’ राकेश ने गरदन  झका कर शिवानी के होंठों पर प्यार भरा चुंबन अंकित किया, तो वह नई दुलहन की तरह से शर्मा उठी.

सोने के वरक के पीछे छिपा भेड़िया

हैप्पी फैमिली: भाग 3- श्वेता अपनी मां की दूसरी शादी के लिए क्यों तैयार नहीं थी?

‘‘इस बीच श्रीकांत मेरे ही औफिस में मेरा सीनियर बन कर आ गया. मैं खुद को रोक नहीं सकी. हमारा रिश्ता गहरा होता गया. एक ऐक्सीडैंट में श्रीकांत की पत्नी गुजर चुकी थी. हम दोनों ने फिर से एक होने का फैसला लिया और मु झे तेरे पापा से तलाक लेना पड़ा. तब तेरे पापा ने अपनी  झोली फैला कर मु झ से तु झे मांग लिया था. सच बता रही हूं बहुत प्यार करते हैं वे तु झ से.

‘‘उन के शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं कि सपना तुम मु झे छोड़ कर जा रही हो तो तुम्हें रोकूंगा नहीं क्योंकि तुम्हारी खुशी श्रीकांत के साथ ही है. पर मु झे मेरी खुशी, मेरी जिंदगी, मेरी यह बच्ची दे कर चली जाओ. उम्र भर तुम्हारा एहसान मानूंगा. इस के बिना मैं बिलकुल नहीं जी नहीं पाऊंगा.

‘‘उस वक्त तेरे पापा की आंखों में तेरे लिए जो प्यार और ममता थी उसे आज भी नहीं भूल सकी हूं. मैं ने प्रवीण की जिंदगी अधूरी छोड़ दी थी पर तु झे उन की बांहों में सौंप कर मु झे लगा था जैसे मैं ने उन्हें और तु झे नई जिंदगी दी है. इस के बदले मैं ने अपनी ममता का गला घोट दिया और अपने हिस्से का पश्चात्ताप कर लिया. मैं चली आई पर पूरे इस विश्वास के साथ कि प्रवीण के साथ तू बहुत खुश रहेगी. वे तेरे लिए कुछ भी करेंगे. तु झ में उन की जान बसती है. प्रवीण बहुत सम झदार हैं. दिल के साथ दिमाग से भी सोचते हैं और मु झे पूरी उम्मीद है कि उन्होंने जिसे भी तेरी नई मां के रूप में चुना है वह बहुत अच्छी होगी और प्रवीण जैसी ही सम झदार होगी. सच प्रज्ञा अपने पापा और उन की पसंद पर पूरा यकीन रख. यह भी तो सोच कि तेरे ससुराल जाने के बाद वे कितने अकेले हो जाएंगे. तब कौन रखेगा उन का खयाल इसलिए उन्हें यह शादी कर लेने दे बेटा, ‘‘सपना ने बेटी को सम झाते हुए कहा था.

आज मां के मुंह से तलाक की असली वजह जान कर प्रज्ञा का दिल भर आया था. आज तक उसे यही लगता था कि कहीं न कहीं गलती उस के पापा की होगी जो मम्मी को यह घर छोड़ कर जाना पड़ा पर अब वह बड़ी हो गई थी और काफी कुछ सम झने लगी थी. मां की बातों को सुन कर उस का दिल अपने पापा के लिए प्यार से भर उठा.

जिस पापा से वह कल से इतनी नाराज थी आज उसी पापा पर उसे प्यार आ रहा था. कल से उस ने प्रवीण से बात भी नहीं की थी और प्रवीण भी कमरे में अकेले गुमसुम बैठा था मानो जानना चाहता हो कि उसे जिंदगी में कभी पूरा प्यार मिल क्यों नहीं पाया. अपनी मां की बातें सुन कर मन ही मन में प्रज्ञा ने एक फैसला ले लिया. उस ने तय कर लिया कि वह अपने पापा की खुशियों के बीच में नहीं आएगी.

घर लौट कर अमृता और श्वेता के बीच भी एक अनकही सी खामोशी पसरी हुई थी. श्वेता यह बात स्वीकार करने को तैयार नहीं थी कि उस की मां किसी अनजान पुरुष को सामने ला कर कहे कि अब से यह तुम्हारे पापा हैं. वह न अपनी मां से बात कर रही थी और न ही दोस्तों से. स्कूल में लंच के समय वह सहेलियों को छोड़ कर गुमसुम सी एक कोने में बैठी हुई थी.

उसे ऐसे बैठा देख कर उस का दोस्त पीयूष उस के पास आ कर बैठ गया. वह श्वेता की उदासी की वजह पूछ रहा था कि तभी पीयूष के पापा मिलने आए. आते ही उन्होंने बेटे को गले लगाया और चौकलेट हैंपर्स व केक देते हुए सारे दोस्तों को बांटने को कहा.

पीयूष की खुशी देखते ही बनती थी. आज उस का बर्थडे था पर उस के पापा अपनी बीमार मां को देखने गए हुए थे इसी वजह से पीयूष आज बर्थडे नहीं मना रहा था. मगर अब उस के चेहरे पर रौनक लौट आई थी. पापा के जाने के बाद उस ने मुसकराते हुए श्वेता को चौकलेट दी. श्वेता ने चौकलेट ले ली पर उस के चेहरे की उदासी नहीं गई.

‘‘बताओ न श्वेता क्या हुआ. तुम इतनी उदास क्यों हो?’’ पीयूष ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं यार.’’

‘‘बताओ न मैं दोस्त हूं न तुम्हारा.’’

‘‘यार तुम्हारे पापा तुम्हें कितना प्यार करते हैं.’’

‘‘सभी पापा अपने बच्चों से प्यार करते हैं. तुम्हारे पापा भी तो करते हैं. यह बात अलग है कि वे दूर हैं.’’

‘‘यार अपने पापा तो अपने ही होते हैं न. मगर सुना है सौतेले पापा जीना हराम कर देते हैं. अपनी वेदिका को देखा है न,’’ श्वेता ने कहा.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है श्वेता सौतेले पेरैंट्स भी प्यार करते हैं. मेरे पापा को ही देख. मैं ने कभी किसी को नहीं बताया पर आज तु झे बता रहा हूं. कोई सोच सकता है कि वे मेरे अपने पापा नहीं हैं. उन की जान बसती है मु झ में.’’

‘‘तो क्या सचमुच वे तुम्हारे सौतेले पापा हैं?’’ चौंकते हुए श्वेता ने पूछा.

‘‘हां श्वेता पर अपने से बढ़ कर प्यार करते हैं. इसलिए कहता हूं किसी पर भी सौतेले का ठप्पा नहीं लगाना चाहिए. अब मैं चलता हूं,’’ कह कर पीयूष चला गया.

श्वेता देर तक इस बारे में सोचती रही. तभी उस ने देखा कि प्रज्ञा स्कूल की दूसरी

वाली बिल्डिंग में जा रही है. वह जल्दी से उठी, ‘‘अरे प्रज्ञा तू इसी स्कूल में पढ़ती है?’’

‘‘हां और तू भी? गुड यार.’’

‘‘आ बैठ न तु झ से बातें करनी हैं,’’ श्वेता

ने उसे अपने पास बैठा लिया और पूछा, ‘‘प्रज्ञा

तू ने क्या सोचा हमारे पेरैंट्स की शादी के बारे में?’’

‘‘यार मु झे तो लगता है यह शादी हो जानी चाहिए. हमारा परिवार भी पूरा हो जाएगा और हमारे पेरैंट्स को भी जीवनसाथी मिल जाएंगे. आखिर हम हमेशा उन के साथ तो रह नहीं सकते,’’ प्रज्ञा ने सम झाते हुए कहा.

‘‘तू कह तो सही रही है, मगर क्या तु झे नहीं लगता कि सौतेले मम्मीपापा का होना कितना अजीब है?’’

‘‘यार मैं ने भी पहले ऐसा ही सोचा था. मगर मेरी मम्मी ने ही सम झाया कि ऐसा कुछ नहीं होता कई बार दिल के रिश्ते जन्म के रिश्तों से बड़े निकलते हैं. हमें उन को एक मौका तो देना ही चाहिए न,’’ प्रज्ञा ने कहा.

पीयूष की बातों ने पहले ही श्वेता की सोच को एक दिशा दी थी. अब प्रज्ञा की बातों ने उस का रहासहा संशय भी मिटा दिया.

श्वेता कुछ देर प्रज्ञा की तरफ देखते हुए कुछ सोचती रही, फिर उस से हाथ मिलाते हुए बोली, ‘‘ठीक है हम एक हैप्पी फैमिली बनाएंगे. कोशिश करने में हरज ही क्या है. शायद इस से हमारे पेरैंट्स की अधूरी जिंदगी भी पूरी हो जाए.’’

खुशी से प्रज्ञा ने श्वेता को गले लगा लिया. आज दोनों ही अपनेअपने पेरैंट्स को सरप्राइज देने वाली थीं.

जिंदगी का सफर: भाग 2- क्या शिवानी और राकेश की जिंदगी फिर से पटरी पर लौटी?

राकेश और शिवानी के निरंतर बिगड़ रहे संबंधों में उन के अहं का टकराव महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था. कोई भी पहले  झक कर आपस में मिलने की समझदारी नहीं दिखा रहा था.

राकेश और उस के मातापिता मोहित से तब मिल आते जब शिवानी और उस की सहेली औफिस में होती. शिवानी से मिल कर सुलह की बातें करने को उन में से कोई राजी न था.

‘‘शिवानी बिना पूछे घर से आई थी. वह जब चाहे लौट सकती है, लेकिन वैसा करने के लिए हम उस के सामने हाथ नहीं जोड़ेंगे,’’ उन तीनों की ऐसी जिद के चलते जिद्दी शिवानी की ससुराल लौटने की संभावना बहुत कम होती गई.

शिवानी ने एक फ्लैट का इंतजाम कर लिया.

कमर्शियल अपार्टमैंट जो एक सोसायटी में थी. करीब 2 महीने बाद मोहित का जन्मदिन आया. बर्थडे वह मायके में मनाएगी यह तय हुआ. इस अवसर पर राकेश आएगा, इस बात की शिवानी को पूरी उम्मीद थी. उस ने अच्छी पार्टी का इंतजाम करने के लिए अपनी मां को क्व5 हजार दिए.

‘आज शाम किसी न किसी तरह से मैं राकेश के पास लौटने की सूरत जरूर पैदा कर लूंगी,’ ऐसा निश्चिय शिवानी ने मन ही मन कर लिया.

जन्मदिन की पार्टी में शामिल होने को शिवानी जल्दी औफिस से निकलने ही वाली थी जब उस के पास उस की मां का फोन आया, ‘‘शिवानी, हम सब तेरी ससुराल में मोहित का जन्मदिन मनाने को इकट्ठे हुए हैं. तू भी यही आ जा.’’

मां के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर शिवानी को गहरा धक्का लगा. बोली, ‘‘मां, पार्टी हमारे घर में होनी थी. मोहित को तुम वहां क्यों ले गई हो?’’ क्रोध की अधिकता के कारण शिवानी थरथर कांप रही थी.

‘‘तेरे सासससुर मोहित को लेने घर आए, तो  हम से इनकार करते नहीं बना. बेटी, तू गुस्सा थूक कर यहीं आ जा. इस से अच्छा मौका फिर तुझे जल्दी…’’

‘‘मां, मैं तुम सब की चालाकी समझ रही हूं,’’ शिवानी की आंखों में बेबसी के आंसू छलक आए,’’ मैं वहां नहीं आऊंगी. बस, मेरी एक बात ध्यान से सुन लो. अगर तुम रोहित को वहां छोड़ कर आई, तो मैं जिंदगीभर तुम लोगों से कोई संबंध नहीं रखूंगी.’’

अपनी मां को आगे कुछ कहने का मौका दिए बगैर शिवानी ने टैलीफोन काट दिया. फिर अपनी सीट से उठ कर बाथरूम में गई और वहां उस की आंखों से खूब आंसू बहे.

शिवानी औफिस में पूरा समय नहीं रुकी. उस ने अपना मोबाइल भी औफ कर दिया. एक रेस्तरां में कई व्यक्तियों के बीच में उस ने लंबा समय सोचविचार करने में गुजारा.

अपने मायके वालों की हरकत से वह बेहद खफा थी. गुस्सा उसे राकेश पर भी था. अपने बेटे के साथ आज की शाम न गुजार पाने का उसे सख्त अफसोस हो रहा था.

‘किसी को मेरी, मेरी भावनाओं की फिक्र नहीं है. मैं भी सब को दिखा दूंगी कि अपनी खुशियों के लिए मैं किसी पर निर्भर नहीं हूं,’ ऐसी सोचों के प्रभाव में आ कर शिवानी ने अपने मायके को छोड़ कर अलग रहने का निर्णय लेने के बाद ही कुछ शांति महसूस करी थी.

शिवानी ने अपने मनोभावों को सहेली अंजलि के साथ बांटते हुए मजबूत स्वर में कहा, ‘‘अंजलि, मैं शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के कारण अन्याय के विरोध में अकेली खड़ी हो सकती हूं. राकेश इतना बदल गया है कि मैं उस के साथ पूरा समझौता कर के भी नहीं निभा पा रही थी. मेरे लिए सब से महत्त्वपूर्ण है मोहित का उचित पालनपोषण करना और वह मैं करूंगी सिर्फ अपने बलबूते पर.’’

शिवानी अकेले मोहित के साथ रहने का पक्का फैसला कर चुकी थी. कोई भी उसे समझने की कोशिश करता, तो वह उस से बहस में उलझ जाती या नाराजगीभरी खामोशी धारण कर लेती.

फ्लैट में रहना आरंभ करने के कुछ दिन बाद राकेश ने उस से फोन पर बात करी, ‘‘तुम ने अकेले रहने का फैसला किसलिए किया है. शिवानी? क्या तुम मेरे पास लौटने में दिलचस्पी नहीं रखती हो?’’ राकेश की आवाज में गुस्से और शिकायत के मिलेजुले भाव थे.

‘‘राकेश, यह फ्लैट हम दोनों का है, तुम जब चाहे यहां हमारे साथ आ कर रहना शुरू कर दो,’’ अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए शिवानी ने गंभीर लहजे में जवाब दिया.

‘‘मेरी यह गलतफहमी टूट चुकी है कि हर चीज के हम दोनों बराबर के भागीदार हैं. फ्लैट और कार तुम्हारी है क्योंकि उन की किस्त तुम भरती हो. अब तो फ्रिज और टैलीविजन, सोफा और गैस जैसी चीजें भी तुम ने अपनी खरीद ली हैं. मेरा तुम पर या तुम्हारी चीजों पर कोई अधिकार नहीं रहा, यह मुझे अच्छी तरह से समझ आ गया है,’’ राकेश का स्वर कड़वाहट व व्यंग्य से भर उठा.

‘‘राकेश, हम अधिकार के बजाय भागीदारी के नजरिए से जिंदगी के बारे में सोचें, तो क्या वह बेहतर नहीं होगा?’’

‘‘भागीदारी के नाम पर तुम मुझे जो दबाना और शर्मिंदा करना चाहती हो, वह कभी नहीं होगा शिवानी.’’

‘‘राकेश, तुम समझदारी के बजाय अहंकार और गुस्से से काम…’’

‘‘मुझे तुम्हारा लैक्चर नहीं सुनना है,’’ राकेश ने गुस्से से फटते हुए उसे टोका, ‘‘तुम्हारी जैसी बददिमाग औरत के पास में कभी नहीं लौटूंगा. तुम अब जिंदगीभर अकेली रहने का मजा लो,’’ यह धमकी दे कर राकेश ने संबंधविच्छेद कर दिया.

राकेश का कठोर व्यवहार उस रात शिवानी को रुला नहीं पाया. उलटे उस का अकेले रह कर मोहित और अपने जीवन की भावी खुशियां सुनिश्चित करने का संकल्प और ज्यादा मजबूत हो गया.

आगामी हफ्तों में शिवानी ने कई समस्याओं का सामना किया, पर सहायता के लिए उस ने अपने मायके व ससुराल वालों की तरफ नहीं देखा.

मोहित क्रैच में जाने लगा. सुबह मेड आ कर

शिवानी का काम में हाथ बंटाती, पर रात का सारा काम वह खुद करती. बहुत थक कर कभीकभी काफी परेशान हो जाती, पर न उस ने औफिस के काम पर विपरीत प्रभाव पड़ने दिया और न ही अपना मनोबल टूटने दिया.

शिवानी की मां को छोड़ कर कोई उस से मिलने नहीं आता था. बाकी सब शायद उस के टूट कर पुरानी परिस्थितियों में लौटने का इंतजार कर रहे हैं, ऐसी सोच शिवानी को हर परेशानी का सामना करने की ज्यादा हिम्मत प्रदान करती.

शिवानी और राकेश की करीब 5 महीने बाद पहली मुलाकात मोहित की स्कूल की प्रिंसिपल अनिता के औफिस में हुई. उन्होंने दोनों को एकसाथ अपने पास संदेशा दे कर बुलवाया था.

शिवानी ने जब अनिता के कक्ष में प्रवेश किया तब राकेश वहां पहले से उपस्थित था.

वार्त्तालाप के आरंभ में अनिता ने उन्हें जो स्कूल में मोहित के व्यवहार के बारे में बताया वह दोनों को चौंका गया.

अपरिचित -भाग-3: जब छोटी सी गलतफहमी ने तबाह किया अर्चना का जीवन

नीले मोती से अक्षरों में लिखा था, ‘अर्चना, मैं आप को पंसद करता हूं, बहुत… बहुत… बहुत… इतना जितना कभी किसी ने किसी को नहीं किया होगा. आप के साथ जिंदगी बिताना चाहता हूं मैं, इसलिए सिर्फ प्रेमनिवेदन नहीं कर रहा हूं, ब्याह का प्रस्ताव भी रख रहा हूं. न जाने फिर कब मिलना हो, इसलिए जवाब अभी ही दे दें प्लीज. ‘हां’ या ‘ना’ जो भी होगा मैं कबूल कर लूंगा.

‘…अखिल आनंद.’

खत पढ़ कर कंपकंपी छूट गई अर्चना की… जैसे जाड़ा लग कर ताप चढ़ रहा हो और न जाने किस भावना के अधीन हो कर उस ने खत के पीछे ही 2 पंक्तियां लिख डाली थीं, कांपते हाथों से… ‘हमारे घरों में ब्याहशादी के फैसले मातापिता करते हैं. पिता मेरे हैं नहीं, इसलिए जो बात करनी हो मेरी मां से करें.

‘…अर्चना.’

अर्चना ने नजरें झुका कर उसे पत्र लौटाया था, जिसे पढ़ कर भावावेश में अखिल ने उस का हाथ थाम लिया था, ‘आप की तो ‘हां’ होगी न?’

और लज्जाते हुए अर्चना ने ‘हां’ में गरदन हिला दी थी और उसी पल उस के दिल में बस गया था वह.

परीक्षा की तैयारी करतेकरते किताबकापियों में भी जैसे अखिल का चेहरा नजर आने लगा था अर्चना को. उस का वह स्पर्श याद आते ही तनमन सिहर उठता था उस का. पढ़ने में दिल नहीं लग रहा था, जबकि परीक्षा में कुछ ही दिन बाकी थे. पढ़ना जरूरी है, यह भी जानती थी वह, पर क्या करती मन के हाथों मजबूर हो चुकी थी. दिल हसरतों के मोती चुनने लगा था और आंखें सौसौ ख्वाब बुनने लगी थीं, लेकिन तब कहां जानती थी अर्चना कि उस की जिंदगी में प्यार की यह चांदनी सिर्फ चार दिन के लिए ही छाई थी… हां, सिर्फ चार दिन के लिए ही.

5वें दिन मां ताऊजी के घर गई हुई थीं और अर्चना अपने कमरे में बैठी अर्थशास्त्र के एक चैप्टर से सिर खपा रही थी कि मां आ गई धड़धड़ाती हुईं. उन्होंने भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और धीमे मगर चुभते स्वर में बोलीं, ‘ये अखिल आनंद के साथ क्या चक्कर है तेरा?’

‘कौन अखिल आनंद? कैसा चक्कर?’ उस ने नाटक किया.

‘बन मत और साफसाफ बता. क्या बात है? पता है कल शाम उस का बाप तेरे ताऊजी की दुकान पर आया था और कह रहा था कि ‘आप की भतीजी मेरे बेटे को फांस रही है. संभाल लें उसे.’ मैं तो जैसे शर्म से मर गई. बड़ा नाज था मुझे तुझ पर,’ मां रोने लगीं तो उस के भी आंसू निकल पड़े कि यह कैसा मजाक किया उस के साथ अखिल ने. रोतेरोते उस ने पूरा किस्सा मां के सामने बयां कर दिया तो मां ने उसे बांहों में भर लिया.

‘देख बच्चे, वे पैसे वाले लोग हैं. उन का हमारा कोई जोड़ नहीं, बस तू इतना समझ ले. तू मेरी बड़ी सयानी बच्ची है. तुझे ज्यादा समझाने की जरूरत नहीं. तू पढ़ाई में दिल लगा बस.’ कैसे लगता दिल पढ़ाई में? दिल टूटा था… चोट लगी थी… दर्द भी होता था और टीसें भी उठती थीं कि अभीअभी तो जन्म लिया था उस के प्यार ने और अभी ही उस की मौत भी हो गई.

परीक्षाओं के दौरान ही जैसे आसमान से उतर कर उस के लिए एक रिश्ता आया, परीक्षाएं खत्म होने के फौरन बाद सगाई हो गई और एक महीने बाद ब्याह भी. मां ने उसे सख्त हिदायत दी थी, ‘बेटा, भूल कर भी रजत को कुछ न बताना. बात तो है भी नहीं कुछ, पर मर्द का क्या भरोसा, किस बात को किस तरह से ले ले.’

उस ने मां की हिदायत को हमेशा याद रखा था. रजत एक अच्छा पति साबित हुआ. उस ने उसे प्यार भी दिया और सुखसुविधाएं भी, फिर राहुलरिया की मां बन कर तो वह निहाल हो उठी थी. आहिस्ताआहिस्ता वह प्रेमप्रसंग गुजरे जमाने की असफल और कमजोर लघुकथा बन गया. उस की यादों के अक्स भी दिल के दर्पण से धुंधलाने लगे और अब वह इतने बरसों बाद फिर अचानक सामने आ कर खड़ा हो गया.

‘‘अर्चना,’’ अखिल खड़ा था सामने कोक के 2 टिन और ढेरों पैकेट्स हाथों में थामे.

‘‘अखिल,’’ उस के हाथ से कोक का टिन लेते हुए अर्चना ने वह सवाल पूछा जो अब भी उस के मन में गीली लकड़ी सा सुलग रहा था, ‘‘आप ने इतना बड़ा मजाक क्यों किया था मेरे साथ?’’

‘‘कैसा मजाक अर्चना?’’

‘‘बनिए मत, पहले तो मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा, फिर अपने पापा को भेज दिया मेरे ताऊजी के पास कहने को कि आप की बेटी मेरे बेटे को फांस रही है, क्यों?’’

‘‘यह आप क्या कह रही हैं अर्चना? मेरे पापा ने ऐसा कुछ नहीं कहा था. मैं उन के साथ ही तो था. पापा ने तो हाथ जोड़ कर आप का रिश्ता मांगा था. आप के ताऊजी ने कहा था, ‘‘अर्चना को टीबी है, पता नहीं ठीक भी होगी या नहीं.’’

अर्चना के हाथ से ‘कोक’ का टिन छूट गया. जल बिन मछली सी तड़प उठी वह, ‘‘ऐसा कहा था ताऊजी ने? मेरे अपने ताऊजी ने, जिन्हें मैं पापा की तरह मानती थी.’’

‘‘आगे तो सुनिए. वह 2 दिन बाद हमारे घर आए, अपनी बेटी का रिश्ता ले कर, पर पापा ने इनकार कर दिया.’’

‘‘ये थे मेरे अपने? हाय, मैं 12 साल तक धोखे में रही, पर आप ने कैसे यकीन कर लिया उन की बातों पर? यही थी आप की चाहत? अच्छा, एक बात बताइए अखिल, टीबी तो दूर की बात है,  आप ने किसी भी बीमारी की छाया तक देखी थी मेरे चेहरे पर? आप मुझ से मिलते. खुल कर बात करते, लेकिन नहीं… आप ने तो मुझ से मिलने की कोशिश तक नहीं की अखिल. सब ने छल किया मेरे साथ,’’ बोलतेबोलते हांफने लगी थी अर्चना.

‘‘की थी कोशिश… बहुत कोशिश की थी मैं ने आप से मिलने की, पर आप की मां ने कभी आप से मिलने ही नहीं दिया, फिर सोचा वक्त सब ठीक कर देगा, पर फिर सुना कि परीक्षाओं के बाद ही आप का ब्याह हो गया. मैं तब भी आप के ताऊजी के पास गया था, ‘आप तो कह रहे थे, अर्चना को टीबी है, बचेगी नहीं,’ तो उन्होंने रूखे स्वर में कहा था, ‘वह ठीक हो गई. आप पूछ कर देखिएगा उन से.’

‘‘किस से पूछूं? न अब मां हैं और न ही ताऊजी,’’ वह कैसे और क्यों बताती अखिल को कि जो बीमारी उन्होंने उस पर आरोपित की थी, उसी से मिलतीजुलती बीमारी से 2 साल एडि़यां रगड़रगड़ कर मरे वह, और अपनी जिस बेटी के लिए उन्होंने अर्चना का पत्ता काटा था, उस की कैसी दुर्गति हुई ससुराल में.

सच है, यह धरती कर्मों की खेती है. ‘न जाने उस साजिश में कौनकौन शामिल था,’ एक उसांस ले कर सोचा अर्चना ने.

कुछ देर वहां खामोशी पसरी रही, फिर एकाएक अखिल ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और उस के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘आप लौटते हुए चंडीगढ़ आइएगा, रजत और बच्चों के साथ हमारे घर. मुझे बहुत अच्छा लगेगा.’’

अर्चना ने देखा कि उस की आंखों में वही सितारे झिलमिला रहे थे जो बरसों पहले ‘प्रणय निवेदन’ करते वक्त झिलमिलाए थे. एक हूक सी उठी अर्चना के कलेजे में.

वह कुछ देर तक मुग्ध निगाहों से निहारता रहा अर्चना को, फिर अचानक उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मैं चलता हूं अर्चना, मुझे आज ही वापस जाना है. आज की इस मुलाकात को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा… कभी नहीं,’’ भीगे स्वर में कह कर वह चल दिया, फिर चार कदम चल कर उस ने मुड़ कर देखा. न जाने क्या कहा उस की खामोश निगाहों ने कि अर्चना की आंखें छलक आईं. उन आंसुओं को बहने दिया उस ने, फिर आहिस्ता से नरमी से उस विजिटिंग कार्ड को सहलाया और पर्स में रख लिया सहेज कर एक मधुर एहसास की तरह. वह देखती रही… देखती रही, जुदा हो कर जाते अपने उस परिचित से अपरिचित को तब तक जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गया.

हैप्पी फैमिली: भाग 2- श्वेता अपनी मां की दूसरी शादी के लिए क्यों तैयार नहीं थी?

अमृता को अजीब लगा मगर स्वामीजी ने तुरंत कुमार की ओर मुखातिब होते हुए कहा, ‘‘कैसे हो भक्त कुमार?’’

‘‘स्वामीजी मैं अच्छा हूं. बस आप से अपनी पत्नी अमृता को मिलाने लाया था.’’

‘‘आओ देवी अमृता मेरे करीब आ कर बैठो.’’

अमृता स्वामीजी के करीब चली गई. स्वामी ने उस का हाथ देखने के लिए कलाई पकड़ी और अपनी तरफ खींच लिया. अमृता को यह अच्छा नहीं लगा.

स्वामी ने जिस तरह उस का हाथ पकड़ रखा था और जिन आंखों से अमृता

को देख रहा था वह उस के लिए सहज नहीं था.

‘‘अद्भुत भक्त कुमार, आप की बीवी जितनी दिखने में खूबसूरत हैं उतनी ही खूबसूरत इन की किस्मत भी है. इन की वजह से आप जिंदगी में बहुत तरक्की करेंगे… कुछ लोगों के चेहरे पर ही लिखा होता है कि बस ये जिन के साथ होंगे उन की जिंदगी में सबकुछ वारेन्यारे ही होगा.’’

जिस अंदाज में और जिस तरह से स्वामी अमृता की तरफ देखते हुए ये सब बातें कह रहा था वे सब बातें अमृता को अच्छी नहीं लग रही थीं. उसे स्वामी के अंदर एक घिनौना जानवर दिख रहा था. जल्दी से हाथ छुड़ा कर वह खड़ी हो गई.

कुमार ने उसे घूर कर देखा और फिर से बैठने को कहा. इस बार स्वामी ने उसे चेहरे को ऊपर की तरफ करने को कहा. फिर खुद उस के गले में पीछे की तरफ हाथ रखा. अमृता को अजीब लिजलिजा सा एहसास हुआ.

स्वामी ने उस की गरदन की निचली हड्डी पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘उम्र के 6ठे दशक में देवी अमृता के जीवन में राजयोग है. भक्त कुमार आप की बीवी आप को हर सुख देगी… धन्य है यह देवी, ‘‘कह कर स्वामी ने हाथ हटाया और आंखें बंद कर कोई मंत्र पढ़ने का दिखावा करने लगा.

कुमार इसी तरह जिद कर के अमृता को

3-4 बार स्वामी के पास ले गया. हर बार स्वामी की नजरें और बातें अमृता को आमंत्रण देती प्रतीत होतीं. एक बार तो सिद्धि के नाम पर अमृता को कमरे में बुला कर स्वामी ने उस के साथ छेड़छाड़ भी की. अमृता के लिए अब यह सब सहना कठिन होता जा रहा था और वह स्वामी से नफरत करने लगी थी.

मगर कुमार पर उस स्वामी का ज्यादा ही रंग चढ़ने लगा था. वह स्वामी का पक्का शिष्य बन गया था. हर महीने हजारों रुपए उसे भेंट चढ़ा कर आता, हर काम से पहले उस की आज्ञा लेता और अमृता से भी यही अपेक्षा रखता. अमृता और कुमार के बीच स्वामी को ले कर अकसर  झगड़ा होने लगा. फिर एक दिन जब अमृता के सब्र का बांध टूट गया तो वह सबकुछ छोड़ कर अपनी बेटी को ले कर मायके आ गई. जल्द ही आपसी सहमति से उन के बीच तलाक भी हो गया.

इस बात को 4 साल से ज्यादा हो गए थे. वह इतने समय से तनहा जीवन जी रही थी.

बेटी की खुशियों में अपनी खुशियां ढूंढ़ती बेटी की जिम्मेदारियों को दिल से निभाती मगर पहली बार प्रवीण से मिल कर उस ने अपने बारे में सोचना चाहा था. प्रवीण के साथ खुद को संपूर्ण महसूस किया था. उस ने भी जीवन में कुछ नए सपने देखने शुरू किए थे, मगर बेटी ने एक पल में उस के सपनों के पंख काट डाले.

बेटी के व्यवहार से अमृता आहत जरूर थी पर उसे तकलीफ दे कर अपनी खुशियां हासिल नहीं करना चाहती थी. बेटी के माथे को सहलाते हुए उस ने मन में सोचा, ‘‘ठीक है मेरी बच्ची तेरे लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं. तु झे प्रवीण पापा की तरह पसंद नहीं तो न सही. हम दोनों ही अपनी जिंदगी में खुश रहेंगे.’’

इधर प्रज्ञा का पिता प्रवीण भी अपनी बेटी के रिएक्शन से बहुत दुखी था. प्रवीण का भी अपनी पत्नी सपना से तलाक हो गया था. प्रवीण और सपना की अरेंज्ड मैरिज हुई थी. शादी की शुरुआत में तो सब ठीक था पर फिर धीरेधीरे दोनों के बीच अनबन बढ़ती गई. सपना कभी प्रवीण को दिल से स्वीकार नहीं कर सकी थी. इसी बीच अपने औफिस के सीनियर श्रीकांत से उस का रिश्ता जुड़ गया और उस ने तलाक ले कर श्रीकांत से शादी कर ली.

प्रवीण ने अपनी बेटी प्रज्ञा के साथ जिंदगी को नए ढंग से जीना शुरू किया. वह प्रज्ञा को ही अपनी जिंदगी की सब से बड़ी पूंजी मानता था. मगर आज जिस तरह प्रज्ञा ने अमृता के बारे में जान कर रूखा रिएक्शन दिया वह प्रवीण को बहुत बुरा लगा. वह इस बारे में किसी से बात भी नहीं कर सकता था. प्रज्ञा अपनी मां सपना के बहुत क्लोज थी. भले ही वह रहती पिता के साथ थी पर हर बात मां से फोन या व्हाट्सऐप के जरीए शेयर जरूर करती थी. आज भी घर आते ही उस ने मां को व्हाट्सऐप कौल लगाई. उस के चेहरे पर गुस्सा और आंखों में आंसू साफ दिख रहे थे.

सपना ने तुरंत पूछा, ‘‘क्या बात है पीहू नाराज दिख रही हो?’’

‘‘आप को सचाई पता चलेगी तो आप को भी पापा पर गुस्सा आएगा.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया बेटे?’’

‘‘पापा दूसरी शादी कर रहे हैं. वे मेरे लिए नई मम्मी ले कर आएंगे. अब आप ही बताओ मां क्या यह गुस्से की बात नहीं? उन्हें मेरी जरा भी चिंता नहीं. सब जानते हैं नई मांएं कैसी होती हैं और फिर जरूरत ही क्या है दूसरी शादी करने की? मैं तो हूं ही न उन के साथ?’’

‘‘नहीं बेटा ऐसा नहीं कहते. जरूरी नहीं कि हर नई मां बुरी ही हो. मैं तो तेरी अपनी मां थी फिर भी तेरे साथ नहीं रह पाई. हो सकता है नई मां तु झे मेरे से भी ज्यादा प्यार दे. वैसे भी मेरी बच्ची सम झदार हो चुकी है. कोई भी समस्या आए तो मु झे बता सकती है पर देख पहले से यह सोच कर मत बैठ कि वह बुरी ही होगी.’’

‘‘पर मम्मा आप ऐसा कह रही हो? मु झे लगता था आप मु झे प्यार करती हो पर नहीं न आप न पापा कोई मु झे प्यार नहीं करता, आप भी प्यार करते तो मुझ से दूर थोड़े ही जाते.’’

प्रज्ञा ने उदास स्वर में कहा, ‘‘बेटा ऐसी बातें सोचना भी मत. मैं तु झे बहुत प्यार करती

हूं और तेरे बेहतर भविष्य के लिए ही मैं तु झे वहां छोड़ कर आई थी. तेरे पापा तु झे मुझ से भी ज्यादा प्यार करते हैं. बेटा आज मैं बताती हूं कि मु झे तेरे पापा को तलाक क्यों देना पड़ा था, मैं तुझ से दूर क्यों आई थी?’’

‘‘मम्मा मैं जानना चाहती हूं मैं ने पहले जब भी पूछा आप टाल जाते थे. मैं जानना चाहती हूं कि आप अलग क्यों हुए. आप हमें छोड़ कर क्यों चले गए. जरूर पापा ने आप को परेशान किया होगा न.’’

‘‘बेटा ऐसा बिलकुल नहीं है. तेरे पापा की कोई गलती नहीं, फिर भी मु झे यह फैसला लेना पड़ा. दरअसल, मैं श्रीकांत नाम के एक लड़के

से प्यार करती थी और यह प्यार कालेज के

समय से शुरू हुआ था. उस वक्त परिस्थितियां ऐसी बनीं कि हम अलग हो गए और मेरी शादी तेरे पापा से हुई. बेटा तेरे पापा ने मु झे कभी तकलीफ नहीं दी. उन्होंने मु झे बहुत प्यार दिया पर अनजाने में मैं ने ही उन्हें तकलीफ दी. मैं उन्हें कभी दिल से अपना नहीं सकी क्योंकि मेरे दिल में हमेशा से श्रीकांत थे. तेरे पापा के साथ हो कर भी मैं उन के साथ नहीं थी. मैं इस तरह उन्हें अधूरा जीते हुए नहीं देखना चाहती थी पर अपने दिल के आगे विवश थी.

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