ज्ञानोद: भाग 1

यहसुनने को बेताब मैं ने हमेशा  की तरह रिसीवर उठा कर हैलो कहा तो दूसरी तरफ से आवाज आई मैं भगतजी से बात कर सकती हूं?’’ मैं ने रौंग नंबर कह कर रिसीवर रख दिया. रोहित जब से अमेरिका गया है, शनिवार की सुबह 6 बजे उस का फोन आ जाता है. कभीकभी बीचबीच में भी आ जाता है. यह पूछने के लिए कि मां , मैं ने फला सब्जी बनाई है, नमक ज्यादा हो गया. क्या करू तो कभी पूछेगा मां, सब्जी तीखी हो गई है क्या करूं?

मैं उस के सवालों के जवाब दे कर उदास हो जाती सोचती बेचारा बच्चा, अकेला क्याक्या करेगा… उसे पढ़ना भी है, काम भी करना है, घर भी संभालना है.तब रिया कहती कि ठीक है न मां, हम सब से दूर जाने का निर्णय भी तो भैया का ही था. शुरूशुरू में तो 4 लड़के मिल कर एक घर में रहते थे, तो आपस में काम बांट लेते थे. पर अब रोहित अलग घर ले कर रहने लगा था.  वहां बाइयां नहीं मिलतीं, सभी काम खुद करने पड़ते है. लेकिन मुझे अपने बेटे पर बहुत गर्व है. इतनी छोटी उम्र में उस ने अपने दम पर घर भी खरीद लिया. जब से उस ने घर लिया है, बारबार आग्रह करता है कि हम उस के पास आ कर रहें मगर भला हम रिया को अकेले छोड़ कर कैसे जा सकते हैं.

इंजिनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही, आगे एम.एस. की पढ़ाई करने के लिए रोहित अमेरिका चला गया. जब उस ने अमेरिका जाने की इच्छा जाहिर की थी, तो उसे इतनी दूर भेजने की मेरी बिलकुल इच्छा नहीं थी. पर मैं उस की प्रगति के मार्ग में बाधक नहीं बनाना चाहती थी, मुझे ज्ञात है कि बच्चों की पढ़ाई आजकल कितनी महंगी हो गई है. एक व्यक्ति की आय में महंगी पढ़ाई का खर्च उठा पाना नामुमकिन है. इसीलिए तो मैं ने नौकरी शुरू कर दी थी. रवि के वेतन से घर सुचारु रूप से चल रहा था.

मेरा पूरा वेतन बच्चों की पढ़ाई में खर्च हो जाता था. बच्चे भी तो कितने होनहार हैं. दोनों ने अपनीअपनी मंजिल खुद तय कर ली थी. उन के मंजिल की तलाश में मैं एक साधक मात्र थी. दोनों बच्चे बहुत मेहनती थे. रोहित तो फिर भी मस्ती कर लेता था, लेकिन रिया ने कभी मुझे शिकायत का मौका नहीं दिया.

अमेरिका जाने के बाद शुरू के 2 साल तो रोहित पढ़ाई में व्यस्त रहा, इसलिए भारत नहीं आ सका. इस के बाद उस ने नौकरी करते हुए अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. फिर हर साल 3 सप्ताह के लिए भारत आने लगा. रोहित जब भी घर आता, मैं सब कुछ उस की पसंद का बनाती. मेरा ज्यादा समय रसोई में ही बीतता, वह दोस्तों, रिश्तेदारों से मिलने जाते. इस तरह 3 हफ्ते पंख लगा कर उड़ जाते, फिर मैं उस के अगले साल आने का इंतजार करती.

मेरी शादीशुदा जिंदगी उतनी खुशहाल नहीं थी. ससुराल में सब से प्यार के दो मीठे बोल सुनने को तरस जाती थी मैं, जिन में रवि भी शामिल थे. ऐसे में कोख में नवीन सृजन की आहट पा कर मेरी जिंदगी में जैसे बहार आ गई. रोहित के जन्म के 2 साल के अंतराल पर जब रिया का जन्म हुआ तो मैं निहाल हो गई. दोनों बच्चों के पालनपोषण में मैं अपनी जिंदगी की सारी कडवाहट भूल गई.

मैं ने 2 साल पहले रिया की भी शादी कर दी. रिया के लिए मुझे जैसे योग्य वर की तलाश थी, राजीव के रूप में बिलकुल वैसा ही बेटे जैसा दामाद मिला मुझे. मुझे ऐसा लगने लगा कि दुनिया भर की खुशियां मुझे हासिल हो गई हैं. बेटी को विदा करने के बाद हम पतिपत्नी रोहित के पास अमेरिका चले गए. रोहित का इतना सुंदर घर, उस की प्रतिष्ठा वगैरह देख कर हम फूले नहीं समाए.

मैं सोचने लगी, मेरे लिए बहू लाना कोई मुश्किल काम नहीं होगा. ऐसे प्रतिभाशाली उच्च शिक्षा प्राप्त लड़के के लिए लड़कियों की भला क्यों कमी होगी. हम 2 महीने अमेरिका में रहे. इस बीच मैं ने कई बार  रोहित से उस की शादी की बात उठानी चाही, पर हर बार बात को टाल जाता था. उस ने हमें कई जगहों के दर्शन कराए, पर फिर भी मुझे रोहित का व्यवहार कुछ बदलाबदला सा लगा.

इस बीच कभीकभार उस के मित्र, जिन में लड़कियां भी शामिल थीं, घर आते थे. मैं उन सब का स्वागत करती थी. उन्हें भोजन करा कर ही घर भेजती थी. मुझे लगता, बेचारे ये बच्चे, रोहित की तरह घर से दूर रहते हैं, इन्हें भी तो घर में बने लजीज भोजन की तलब होती होगी.

रोहित के इन मित्रों में एक मैक्सिकन लड़की लिंडा, अकसर उस के घर आती थी. दोनों सहकर्मी थे, साथ में मिल कर प्रोजैक्ट तैयार करते थे. इसलिए मुझे भनक तक नहीं लगी कि दोनों एक दूसरे को चाहते भी थे. रोहित ने मुझे बताया कि लिंडा काफी पढ़ीलिखी, सुलझे विचारों वाली लड़की है. उस के पिता के बारे में पूछने पर रोहित ने बताया कि उस की मां का पिता से तलाक हो चुका है. लिंडा मां के साथ रहती है.

मैं दकियानूसी बिलकुल नहीं हूं. मैं ने तो सोच रखा था कि बच्चे अपना जीवनसाथी खुद चुन लेते हैं, तो मैं हर हाल में उन का साथ दूंगी. उन के रास्ते का रोड़ा नहीं बनूंगी. मैं अकसर रोहित से कहती थी, ‘‘बेटे, तुम किसी भारतीय लड़की से शादी करना, पर विदेशी लड़कियों से दूर रहना.’’

रोहित मेरे बातों को हंस कर टाल दिया करता था. मुझे गोरी लड़कियों से परहेज नहीं था, पर उन की उन्मुक्त सभ्यता और संस्कृति से मुझे डर लगता था. तलाक लेना वहां आम बात है. 2 महीने अमेरिका में रह कर जब हम स्वदेश लौटे, तो मेरा सर्वोपरि कार्य था, रोहित के लिए जल्दी से जल्दीजल्दी लड़की ढूंढ़ना. उस की सहमति से मैं ने बहू ढूंढ़ने का काम शुरू किया. पर मैं ने इस काम को जितना आसान सोचा था, उतना था नहीं, मैं रोहित के लिए घरेलू लड़की तो नहीं चाहती थी. ऐसी लड़की भी नहीं चाहती थी, जो घर के बजाय नौकरी को अहमियत दे. रोहित की पसंद एक आधुनिक तेजतर्रार लड़की थी. उस की पसंद को मद्देनजर रखते हुए, एक संस्कारी लड़की की तलाश इतनी आसान नहीं थी पर मैं भी हार मानने वालों में से नहीं थी. मैं जी जान से जुट गई अपने मकसद को कामयाबी का चोला पहनाने में.

इस सिलसिले में मैं कुछ लड़कियों और उन के परिवार वालों से भी मिली. बात आगे बढ़ती, उस से पहले ही एक दिन रोहित का फोन आया. कहने लगा, मां, मैं लिंडा को बेहद चाहता हूं. उस से शादी करना चाहता हूं.

सुन कर मैं हैरान रह गई, गुस्सा भी आया, मुझे रोहित पर कि अगर ऐसी बात थी, तो मुझे पहले क्यों नहीं बताया? लड़की ढूंढ़ने के लिए मुझे अपनी सहमति क्यों दी? मैं एक अच्छी लड़की की तलाश में दिनरात एक कर रही थी. खैर, अपनेआप को संयत कर के मैं ने रोहित से पूछा, ‘‘लिंडा के मातापिता का तलाक क्यों हुआ था क्या तुम ने कभी लिंडा से यह जानने की कोशिश की?’’

रोहित ने जवाब दिया, ‘‘लिंडा के पिता किसी और को चाहते थे. उन्होंने उस की मां से कह दिया कि वे उन के साथ नहीं रहना चाहते. तो इस में उस की मां का क्या दोष?’’

मैं सोचने लगी दोष चाहे माता या पिता किसी का भी हो, लिंडा का तो बिलकुल नहीं था. मेरे विचार से रोजमर्रा की जिंदगी में बच्चों को माता और पिता दोनों की आवश्यकता होती है. इन में से किसी एक की अनुपस्थिति से बच्चों का जीवन सामान्य नहीं रह पाता. ऐसे में तलाकशुदा मातापिता की बेटियों ने खुद जो भुगता होता है, वे कभी नहीं चाहेगी कि उन की संतान वहीं सब भुगते. इसीलिए वे परिवार में पूरा तालमेल बैठाने की पूरी कोशिश करेंगी. इस हिसाब से मुझे लिंडा को अपने परिवार में शामिल करने में कोई एतराज नहीं था.

इस के पहले कि मैं अपना निर्णय रोहित को सुना पाती, रोहित ने मुझे बताया कि लिंडा भी तलाकशुदा है. सुन कर कुछ अच्छा नहीं लगा. फिर भी मैं ने रोहित से उस के तलाक का कारण जानना चाहा.

रोहित ने कहा, ‘‘दोनों में बनी नहीं. छोड़ो न मां, कितनी पूछताछ करती हो. क्या यह काफी नहीं कि हम एकदूसरे को चाहते हैं?’’

मैं रोहित की इच्छा के आगे झकने ही वाली थी कि उस ने फिर एक तीर छोड़ा ‘‘मां, लिंडा के 1 बेटा भी है.’’

सुन कर दिल में एक हूक सी उठी, मैं ने रोहित से कहा, ‘‘बेटा, लिंडा को अपने पिता का प्यार मुहैया नहीं हुआ था, फिर क्या तलाक लेते हुए उस ने अपने बच्चे के बारे में नहीं सोचा और उसे भी पिता के प्यार से वंचित कर दिया? ‘आपस में बनी नहीं’ यह तो कोई कारण हुआ नहीं तलाक लेने का’ इतनी विषमताओं के बीच क्यों करना चाहते हो शादी लिंडा से? मेरी मानो तुम इन पचड़ों में न पड़ो.’’

रोहित ने कोई विवाद नहीं किया. उस ने चुपचाप मेरी बात मान ली. मुझे अपने बेटे पर गर्व महसूस हुआ. मैं ने सोचा, कितनी आसानी से उस ने मेरी बात समझ ली. कुछ वक्त बीत जाने के बाद मैं ने रोहित से फिर पूछा, ‘‘बेटे, क्या मैं फिर से लड़की की तलाश शुरू करूं.’’

इस पर रोहित ने कहा, ‘‘जैसा ठीक समझे .’’ मैं बस उस की सहमति चाहती थी. सहमति मिलने की देर थी कि बिना वक्त गंवाए मैं ने लड़की की तलाश शुरू कर दी. पर हमारे जल्दी मचाने से क्या होता है, होता तो वही है, जो नियति द्वारा निर्धारित होता है. 4-5 महीने निकल गए, पर मुझे सफलता हासिल नहीं हुई.

मां: क्या मीरा को छोड़ कर चला गया सनी

तीसरी बार फिर मोबाइल की घंटी बजी थी. सम झते देर नहीं लगी थी मीरा को कि फिर वही राजुल का फोन होगा. आज जैसी बेचैनी उसे कभी महसूस नहीं हुई थी. सनी भी तो अब तक आया नहीं था. यह भी अच्छा है कि उस के सामने फोन नहीं आया. मोबाइल की घंटी लगातार बजती जा रही थी. कांपते हाथों से उस ने मोबाइल उठाया-‘‘हां, तो मीरा आंटी, फिर क्या सोचा आप ने?’’ राजुल की आवाज ठहरी हुई थी.‘‘तुम फिर एक बार सोच लो,’’ मीरा ने वे ही वाक्य फिर से दोहराने चाहे थे.

‘मेरा तो एकमात्र सहारा है सनी, तुम्हारा क्या, तुम तो किसी को भी गोद ले सकती हो.’’‘‘अरे, आप सम झती क्यों नहीं हैं? किसी और में और सनी में तो फर्क है न. फिर मैं कह तो रही हूं कि आप को कोई कमी नहीं होगी.’’ ‘‘देखो, सनी से ही आ कर कल सुबह बात कर लेना,’’ कह कर मीरा ने फोन रख दिया था. उस की जैसे अब बोलने की शक्ति भी चुकती जा रही थी.यहां मैं इतनी दूर इस शहर में बेटे को ले कर रह रही हूं. ठीक है, बहुत संपन्न नहीं है, फिर भी गुजारा तो हो ही रहा है. पर राजुल इतने वर्षों बाद पता लगा कर यहां आ धमकेगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था. बेटे की इतनी चिंता थी, तो पहले आती.अब जब पालपोस कर इतना बड़ा कर दिया, बेटा युवा हो गया तो… एकाएक फिर  झटका लगा था.

यह क्या निकल गया मुंह से, क्यों कल सुबह आने को कह दिया, सनी तो चला ही जाएगा, वियोग की कल्पना करते ही आंखें भर आई थीं. सनी उस का एकमात्र सहारा.पिछले 3 दिनों से लगातार फोन आ रहे थे राजुल के. शायद यहां किसी होटल में ठहरी है, पुराने मकान मालिक से ही पता ले कर यहां आई है. और 3 दिनों से मीरा का रातदिन का चैन गायब हो गया है. पता नहीं कैसे जल्दबाजी में उस के मुंह से निकल गया कि यहां आ कर सनी से बात कर लेना. यह क्या कह दिया उस ने, उस की तो मति ही मारी गई.‘‘मां, मां, कितनी देर से घंटी बजा रहा हूं, सो गईं क्या?’’ खिड़की से सनी ने आवाज दी, तब ध्यान टूटा.‘‘आई बेटा, तेरा ही इंतजार कर रही थी,’’ हड़बड़ा कर उठी थी मीरा.‘‘अरे, इंतजार कर रही थीं तो दरवाजा तो खोलतीं. देखो, बाहर कितनी ठंड है,’’ कहते हुए अंदर आया था सनी, ‘‘अब जल्दी से खाना गरम कर दो, बहुत भूख लगी है और नींद भी आ रही है.’’किचन में आ कर भी विचारतंद्रा टूटी नहीं थी मीरा की. अभी बेटा कहेगा कि फिर वही सब्जी और रोटी,

कभी तो कुछ और नया बना दिया करो. पर आज तो जैसेतैसे खाना बन गया, वही बहुत है.‘‘यह क्या, तुम नहीं खा रही हो?’’ एक ही थाली देख कर सनी चौंका था.‘‘हां बेटा, भूख नहीं है, तू खा ले, अचार निकाल दूं?’’‘‘नहीं रहने दो, मु झे पता था कि तुम वही खाना बना दोगी. अच्छा होता, प्रवीण के घर ही खाना खा आता. उस की मां कितनी जिद कर रही थीं. पनीर, कोफ्ते, परांठे, खीर और पता नहीं क्याक्या बनाया था.’’मीरा जैसे सुन कर भी सुन नहीं पा रही थी.‘‘मां, कहां खो गईं?’’ सनी की आवाज से फिर चौंक गई थी.‘‘पता है, प्रवीण का भी सलैक्शन हो गया है. कोचिंग से फर्क तो पड़ता है न, अब राजू, मोहन, शिशिर और प्रवीण सभी चले जाएंगे अच्छे कालेज में. बस मैं ही, हमारे पास भी इतना पैसा होता, तो मैं भी कहीं अच्छी जगह पढ़ लेता,’’ सनी का वही पुराना राग शुरू हो गया था.‘

‘हां बेटा, अब तू भी अच्छे कालेज में पढ़ लेना, मन चाहे कालेज में ऐडमिशन ले लेना, बस, सुबह का इंतजार.’’‘‘क्या? कैसी पहेलियां बु झा रही हो मां. सुबह क्या मेरी कोईर् लौटरी लगने वाली है, अब क्या दिन में भी बैठेबैठे सपने देखने लगी हो. तबीयत भी तुम्हारी ठीक नहीं लग रही है. कल चैकअप करवा दूंगा, चलना अस्पताल मेरे साथ,’’ सनी ने दो ही रोटी खा कर थाली खिसका दी थी.‘‘अरे खाना तो ढंग से खा लेता,’’ मीरा ने रोकना चाहा था.‘‘नहीं, बस. और हां, तुम किस लौटरी की बात कर रही थीं?’’ ‘‘हां, लौटरी ही है, कल सुबह कोई आएगा तु झ से मिलने.’’‘‘कौन? कौन आएगा मां,’’ सनी चौंक गया था.‘‘तू हाथमुंह धो कर अंदर चल, फिर कमरे में आराम से बैठ कर सब सम झाती हूं.’’मीरा ने किसी तरह मन को मजबूत करना चाहा था. क्या कहेगी किस प्रकार कहेगी.‘‘हां मां, आओ,’’ कमरे से सनी ने आवाज दी थी.मन फिर से भ्रमित होने लगा. पैर भी कांपे. किसी तरफ कमरे में आ कर पलंग के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई थी मीरा.‘‘क्या कह रही थीं तुम, किस लौटरी के बारे में?’’ सनी का स्वर उत्सुकता से भरा हुआ था. मीरा ने किसी तरह बोलना शुरू किया,

‘‘बेटा, मैं आज तु झे सबकुछ बता रही हूं, जो अब तक बता नहीं पाई. तेरी असली मां का नाम राजुल है, जोकि बहुत बड़ी प्रौपर्टी की मालिक हैं. उन की कोई और औलाद नहीं है. वे अब तु झे लेने आ रही हैं,’’ यह कहते हुए गला भर्रा गया था मीरा का और आंसू छिपाने के लिए मुंह दूसरी ओर मोड़ लिया था उस ने.मां, आप कह क्या रही हो, मेरी असली मां कोई और है. तो अब तक कहां थी, आई क्यों नहीं?’’ सनी सम झ नहीं पा रहा था कि आज मां को हुआ क्या है? क्यों इतनी बहकीबहकी बातें कर रही हैं.‘‘हां बेटा, तेरी असली मां वही है. बस, तु झे जन्म नहीं देना चाह रही थी तो मैं ने ही रोक दिया था और कहा था कि जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. मेरे भी कोईर् औलाद नहीं थी. मैं वहीं अस्पताल में नर्स थी. बस, तु झे जन्म दे कर और मु झे सौंप कर वह चली गई.’’‘‘अब तू जो भी सम झ ले. हो सके तो मु झे माफ कर दे. मैं ने अब तक तु झ से यह सब छिपाए रखा था. मेरे लिए तो तू बेटे से भी बढ़ कर है. बस, अब और कुछ मत पूछ,’’ यह कहते फफक पड़ी थी मीरा और जोर की रुलाई को रोकते हुए कमरे से बाहर निकल गई.अपने कमरे में आ कर गिर रुलाई फूट ही पड़ी थी. सनी उस का बेटा इतने लाड़प्यार से पाला उसे.

कल पराया हो जाएगा. सोचते ही कलेजा मुंह को आने लगता है. कैसे जी पाएगी वह सनी के बिना. इतना दुख तो उसे अपने पति जोसेफ के आकस्मिक निधन पर भी नहीं हुआ था. तब तो यही सोच कर संतोष कर लिया था कि बेटा तो है उस के पास. उस के सहारे बची जिंदगी निकल जाएगी. यही सोच कर पुराना शहर छोड़ कर यहां आ कर अस्पताल में नौकरी कर ली थी. तब क्या पता था कि नियति ने उस के जीवन में सुख लिखा ही नहीं. तभी तो, आज राजुल पता लगाते हुए यहां आ धमकी है. शायद वक्त को यही मंजूर होगा कि सनी को अच्छा, संपन्न परिवार मिले, उस का कैरियर बने, तभी तो राजुल आ रही है. बेटा भी तो यही चाहता है कि उसे अच्छा कालेज मिले. अब कालेज क्या, राजुल तो उसे ऐसे ही कई फैक्ट्री का मालिक बना देगी.ठीक है, उसे तो खुश होना चाहिए. आखिर, सनी की खुशी में ही तो उस की भी खुशी है. और उस की स्वयं की जिंदगी अब बची ही कितनी है, काट लेगी किसी तरह.लेकिन अपने मन को लाख उपाय कर के भी वह सम झा नहीं पा रही थी. पुराने दिन फिर से सामने घूमने लगे थे. तब वह राजुल के पड़ोस में ही रहा करती थी. राजुल के पिता नगर के नामी व्यवसायी थे.

उन्हीं के अस्पताल में वह नर्स की नौकरी कर रही थी. राजुल अपने पिता की एकमात्र संतान थी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर शादी के चारपांच माह बाद ही वह तलाक ले कर पिता के घर आ गईर् थी. तब उसे 3 माह का गर्भ था. इसीलिए वह एबौर्शन करा कर नई जिंदगी जीना चाह रही थी. इस काम के लिए मीरा से संपर्क किया गया. तब तक मीरा और जोसेफ की शादी हुए एक लंबा अरसा हो चुका था और उन की कोई संतान नहीं थी.मीरा ने राजुल को सम झाया था. ‘तुम्हारी जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. तुम एबौर्शन मत करवाओ.’ बड़ी मुश्किल से इस बात के लिए राजुल तैयार हुई थी. और बेटे को जन्म दे कर ही उस शहर से चली गई. बेटे का मुंह भी नहीं देखना चाहा था उस ने.सनी का पालनपोषण उस ने और जोसेफ ने बड़े लाड़प्यार से किया था. राजुल की शादी फिर किसी नामी परिवार के बेटे से हो गई थी और वह विदेश चली गई थी.यह तो उसे राजुल के फोन से ही मालूम पड़ा कि वहां उस के पति का निधन हो गया और अब वह अपनी जायदाद संभालने भारत आ गई है, चूंकि निसंतान है, इसलिए चाह रही है कि सनी को गोद ले ले, आखिर वह उसी का तो बेटा है.

मीरा समझ नहीं पा रही थी कि नियति क्यों उस के साथ इतना क्रूर खेल खेल रही है. सनी उस का एकमात्र सहारा, वह भी अलग हो जाएगा, तो वह किस के सहारे जिएगी.आंखों में नींद का नाम नहीं था. शरीर जैसे जला जा रहा था. 2 बार उठ कर पानी पिया.सुबह उठ कर रोज की तरह दूध लाने गई, चाय बनाई. सोचा, कमरा थोड़ा ठीकठाक कर दे, राजुल आती होगी. सनी को भी जगा दे, पर वह जागा हुआ ही था. उसे चाय थमा कर वह अपने कमरे में आ गई. बेटे को देखते ही कमजोर पड़ जाएगी. नहीं, वह राजुल के सामने भी नहीं जाएगी.जब राजुल की कार घर के सामने रुकी, तो उस ने उसे सनी के ही कमरे में भेज दिया था. ठीक है, मांबेटा आपस में बात कर लें. अब उस का काम ही क्या है? वैसे भी राजुल के पिता के इतने एहसान हैं उस पर, अब किस मुंह से वह सनी को रोक पाएगी. पर मन था कि मान ही नहीं रहा था और राजुल और सनी के वार्त्तालाप के शब्द पास के कमरे से उस के कानों में पड़ भी रहे थे.‘‘बस बेटा, अब मैं तु झे लेने आ गईर् हूं. मीरा ने बताया था कि तू अपने कैरियर को ले कर बहुत चिंतित है.

पर तु झे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. करोड़ों की जायदाद का मालिक होगा तू,’’ राजुल कह रही थी.‘‘कौन बेटा, कैसी जायदाद, मैं अपनी मां के साथ ही हूं, और यहीं रहूंगा. ठीक है, बहुत पैसा नहीं है हमारे पास, पर जो है, हम खुश हैं. मेरी मां ने मु झे पालपोस कर बड़ा किया है और आप चाहती हैं कि इस उम्र में उन्हें छोड़ कर चल दूं. आप होती कौन हैं मेरे कैरियर की चिंता करने वाली, कैसे सोच लिया आप ने कि मैं आप के साथ चल दूंगा?’’ सनी का स्वर ऊंचा होता जा रहा था.इतने कठोर शब्द तो कभी नहीं बोलता था सनी. मीरा भी चौंकी थी. उधर, राजुल का अनुनयभरा स्वर, ‘‘बेटे, तू मीरा की चिंता मत कर, उन की सारी व्यवस्था मैं कर दूंगी. आखिर तू मेरा बेटा ही है, न तो मैं ने तु झे गोद दिया था, न कानूनीरूप से तेरा गोदनामा हुआ है. मैं तेरी मां हूं, अदालत भी यही कहेगी मैं ही तेरी मां हूं. परिस्थितियां थीं, मैं तु झे अपने पास नहीं रख पाई. मीरा को मैं उस का खर्चा दूंगी. तू चाहेगा तो उसे भी साथ रख लेंगे.

मु झे तेरे भविष्य की चिंता है. मैं तेरा अमेरिका में दाखिला करा दूंगी, यहां तु झे सड़ने नहीं दूंगी. तू मेरा ही बेटा है.’’ ‘‘मत कहिए मु झे बारबार बेटा, आप तो मु झे जन्म देने से पहले ही मारना चाहती थीं. आप को तो मेरा मुंह देखना भी गवारा नहीं था. यह तो मां ही थीं जिन्होंने मु झे संभाला और अब इस उम्र में वे आप पर आश्रित नहीं होंगी. मैं हूं उन का बेटा, उन की संभाल करने वाला, आप को चिंता करने की जरूरत नहीं है, सम झीं? और अब आप कृपया यहां से चली जाएं, आगे से कभी सोचना भी मत कि मैं आप के साथ चल दूंगा.’’सनी ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया था. फिर राजुल शायद धीमे स्वर में रो भी रही थी. मीरा सम झ नहीं पा रही थी कि क्या कह रही है.तभी सनी का तेज स्वर सुनाई दिया, ‘‘मैं जो कुछ कह रहा हूं, आप सम झ क्यों नहीं पा रही हैं. मैं कोई बिकाऊ कमोडिटी नहीं हूं. फिर जब आप ने मु झे मार ही दिया था तो अब क्यों आ गई हैं मु झे लेने. मैं बालिग हूं, मु झे अपना भविष्य सोचने का हक है. आप चाहें तो आप भी हमारे साथ रह सकती हैं. पर मैं, आप के साथ मां को छोड़ कर जाने वाला नहीं हूं. आप मु झे भी सम झने की कोशिश करें. मेरा अपना भी उत्तरदायित्व है.

जिस ने मुझे पालापोसा, बड़ा किया, मैं उसे इस उम्र में अंधकार में नहीं छोड़ सकता. कानून आप की मदद नहीं करेगा. दुनिया में आप की बदनामी अलग होगी. आप भी शांति से रहें, हमें भी रहने दें. आप मु झे सम झने की कोशिश करें. अब मैं और कुछ कहूं और अपशब्द निकल जाएं मेरे मुंह से, मेरी रिक्वैस्ट है, आप चली जाएं. सुना नहीं आप ने?’’ सनी की आवाज फिर और तेज हो गई थी.इधर, राजुल धड़ाम से दरवाजा बंद करते हुए निकल गई थी. फिर कार के जाने की आवाज आई. मीरा की जैसे रुकी सांसें फिर लौट आई थीं. सनी कमरे से बाहर आया और मां के गले लग गया और बोला, ‘‘मेरी मां सिर्फ आप हो. कहीं नहीं जाऊंगा आप को छोड़ कर.’’ मीरा को लगा कि उस की ममता जीत गई है.

श्रीमतीजी जाएं मायके: पति की सजा या मजा

पति पत्नीमें झगड़ा होता रहता है, परंतु यदि पत्नी रूठ कर मायके जा बैठे तो पति की क्या स्थिति होती है, जब हम ने इस पर विचार किया तो पाया कि 20-25 वर्ष पूर्व जो स्थिति थी वह आज नहीं है.

पहले लड़ाई का कारण बड़ा मासूम होता था जैसे हमें मिसेज शर्मा की साड़ी जैसी साड़ी चाहिए. यदि पति महोदय औफिस से डांट खा कर आए होते तो गुस्सा पत्नी पर निकलता, ‘‘चाहिए तो मंगा लो न अपने मायके से.’’

‘‘देखो मेरे मायके का नाम मत लेना,’’ और फिर वाकयुद्ध इतना बढ़ता कि श्रीमतीजी रूठ कर मायके जा बैठतीं और पति महोदय का वनवास शुरू हो जाता.

प्रात: दूध वाले से दूध ले कर फिर सो जाते. औफिस के लिए देर हो रही होती. उसी समय महरी आ धमकती. वह भी भद्दी, मैलीकुचैली सी. श्रीमतीजी ने छांट कर रखी ताकि उस की ओर देखने को भी मन न करे.

सो उसे वापस भेज स्वयं ही फ्रिज में कुछ पड़ा खा कर, बिना प्रैस किए कपड़े पहन कर, बिना पौलिश किए जूते पहन कर दफ्तर भागते. औफिस देर से जाने पर साहब से नजरें चुरानी पड़तीं.

दोपहर में सब अपनाअपना खाने का डब्बा खोलते तो विभिन्न प्रकार की

सब्जियों की महक भूख और बढ़ा देती. बेचारे पति महोदय कैंटीन की रूखी, फीकी थाली खाते हुए सोचते कि बेकार में श्रीमतीजी पर गुस्सा किया. उन्हें मायके जाने से रोक लेते तो ढंग का खाना तो मिलता.

घर पहुंच कर चाय बनाना चाहते तो वह फट जाती. ऐंटरटेनमैंट के नाम पर केवल दूरदर्शन. उस में कृषि दर्शन से मन बहलाते. खाने में सोचते खिचड़ी बना ली जाए. इस से अधिक की वे सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि मां और श्रीमतीजी ने कभी रसोई में जो घुसने नहीं दिया.

फिर क्या था. चावलदाल मिला कर कुकर में डाल दिए और पानी कम होने के कारण सेफ्टिवौल्व उड़ गया. बेचारे अब क्या करें? जनाब 3 तल्ले नीचे सीढि़यों से जाते और फिर स्कूटर को किक पर किक लगा बड़ी मुश्किल से स्टार्ट कर पास वाले ढाबे में जा कर छोलेभठूरे खाते. घर आ कर सोने लगते तो सुबह का भीगा तौलिया और कपड़े बिस्तर पर बिखरे मिलते. सब को किनारे रख कर सोने की कोशिश करते. उस समय श्रीमतीजी की बहुत याद आती. सोचते फोन कर लिया जाए पर तभी पुरुष अहं रोक देता कि वे गई हैं स्वयं और आएं भी स्वयं.

प्रात: कामवाली जल्दी आ गई. रसोई की हालत देख कर भड़क गई. जला कुकर देख कर तो और जलभुन गई.

बेचारे मिमियाते हुए उस से बोले, ‘‘वो न खिचड़ी जल गई थी,’’ मन ही मन सोच रहे थे कि अगर यह भाग गई तो झाड़ू, बरतन सब खुद करना पड़ेगा. नाश्ते के समय आलू के परांठे याद आते. सोचते कि क्या बुला लूं? पर फिर पुरुष अहं रोक देता.

उस दिन शाम को औफिस से घर लौटे तो तभी मिसेज शर्मा आ गईं, चीनी मांगने के बहाने यह टोह लेने की श्रीमतीजी कहां गईं और कब आएंगी.

बिना नाश्ता किए औफिस जाना, दूसरों का टिफिन देख ललचाना, होटल का खाना खाना, पेट खराब होना, दूरदर्शन और रेडियो पर किसी विशेष व्यक्ति की मृत्यु पर शोक मनाना, बिना प्रैस किए कपड़े और बिना पौलिश किए जूते पहन कर औफिस जाना और रात में विरह गीत रेडियो पर सुनना सब खलने लगा. मन लगाएं तो कहां?

औफिस में 1-2 महिलाएं हैं, जो शादीशुदा हैं. कहीं और जाएं तो किसी को पता चल जाए या फिर श्रीमतीजी को पता चल जाए तो समाज में क्या इज्जत रह जाएगी? बच्चों की भी याद आती. सब सहना कठिन होता.

सोचते मिसेज शर्मा का ‘भाभीजी कब आएंगी’, से आसान है मिसेज शर्मा की साड़ी जैसी साड़ी ले कर देना. 2 दिनों में अकल ठिकाने आ गई. श्रीमतीजी को लेने उन के मायके पहुंच गए. पहले की यानी पुराने जमाने की श्रीमतीजी भी विरह में आस लगाए बैठी होतीं कि कब संदेशा आए और वे वापस अपने श्रीमान के पास जाएं. सो हैप्पी ऐंडिंग.

आज के पति महोदय 33-34 वर्ष के एक बच्चे के पिता कैरियर की सीढि़यां चढ़ने में लगे हुए. अगर पत्नी मायके बैठ जाए तो? यह सौभाग्य तो किसी नसीब वाले को ही मिलता है. आजकल यदि मायका और ससुराल एक ही शहर में हैं तो महीने में एक बार श्रीमतीजी एक शाम के लिए मायके जाती ही हैं, क्योंकि वे भी काम करती हैं और साप्ताहिक छुट्टी में आउटिंग पर जाती हैं.

मायके की हर पल की खबर सोशल मीडिया पर मिलती रहती है और फिर फोन तो दिन भर होता ही रहता है तो फिर जाने की क्या आवश्यकता? हां, जब बच्चा छोटा था तो डेली उसे मायके छोड़ कर औफिस जाती थीं.

अब श्रीमतीजी के रूठ कर मायके जाने के फायदे देखिए. सुबहसुबह कोई अलार्म की तरह उठोउठो का राग नहीं अलापता. बच्चे को स्कूल बस तक छोड़ने को कोई नहीं कहता.

भीगा तौलिया बैड पर फेंकने पर कोई टोकने वाला नहीं. सुबहसुबह महकती स्टाइलिश कपड़ों में सजीसंवरी कामवाली को देख कर मन खिल जाता.

श्रीमती के सामने कनखियों से देख पाते थे अब खुली छूट. नाश्ता स्वयं बनाना आता है ब्रैडबटर, अंडाफ्राई और डिप वाली चाय. काम वाली तब तक घर साफ कर देती है. जनाब औफिस समय पर पहुंच जाते हैं.

मैडम मायके गई, सुन कर सब दोस्त जश्न मनाने लगते हैं, ‘‘तुम्हारे फोर्स्ड बैचलर होने की पार्टी तो बनती है.’’

औफिस की कुछ कुंआरियां, जिन की शादी की उम्र निकल रही होती है वे चांस लेने लगती हैं. घर का बना खाना औफर करने लगती हैं. आज के श्रीमान को फ्लर्ट करने का पूरा अवसर मिलता है. मजे ही मजे.

देर शाम तक औफिस में काम कर के घर 8 बजे पहुंचो या 9 बजे कोई कुछ कहने  वाला नहीं. रात का खाना किसी अच्छे रैस्टोरैंट में किसी लड़की मित्र के साथ खाओ या घर पर पिज्जा मंगा लो. विकल्प बहुत हैं. छुट्टी के दिन इंटरनैट से देख कर नईनई रैसिपीज बनाने का मजा ही अलग होता है.

आजकल श्रीमतियां (पत्नियां) समान अधिकार के कारण श्रीमान को भी किचन में हाथ बंटाने को कहती हैं. इसीलिए वे भी बहुत कुछ पकानाबनाना जानते हैं.

वाशिंग मशीन में कपड़े औटोमैटिक धुल जाते हैं. कुछ काम कामवाली से करा लिए जाते हैं. ऐंटरटेनमैंट की भी कमी नहीं. जो चाहो चैनल देखो टीवी में या फिर देर रात तक औफिस का काम करें लैपटौप पर अथवा स्मार्ट फोन में लगे रहें सोशल साइट्स पर सब अपनी मरजी से. कोई बैड पर सोने का इंतजार नहीं कर रहा. श्रीमतीजी घर में हैं या नहीं किसी पड़ोसी को इस से कोई मतलब नहीं.

बच्चों से रोज बात हो जाती है, पर श्रीमतीजी से नहीं. वे सोचतीं इतने दिन बीत गए कहीं कोई और तो नहीं ढूंढ़ ली और फिर अपने अधिकार से अपने घर अपने बच्चों के साथ लौट आती हैं तो सारे गिलेशिकवे दूर हो जाते हैं.

‘‘आप हमें छोड़ कर कभी मत जाना. हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकते,’’ यह श्रीमानजी मुंह से तो कह देते हैं पर मन हीमन सोचते हैं श्रीमतीजी को कभीकभी मायके भी जाना चाहिए.

पराया लहू: वर्षा को मजबूरन सुधीर से विवाह क्यों करना पड़ा

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मन की थाह: रामलाल का क्या हुआ शादी के बाद

रामलाल बहुत हंसोड़ किस्म का शख्स था. वह अपने साथियों को चुटकुले वगैरह सुनाता रहता था.

वह अकसर कहा करता था, ‘‘एक बार मैं कुत्ते के साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गया. वहां आदमियों का वजन तोलने के लिए बड़ी मशीन रखी थी. मैं ने एक रुपया दे कर उस पर अपने कुत्ते को खड़ा कर दिया. मशीन में से एक कार्ड निकला जिस पर वजन लिखा था 35 किलो और साथ में एक वाक्य भी लिखा था कि आप महान कवि बनेंगे.’’ यह सुनते ही सारे दोस्त हंसने लगते थे.

रामलाल जितना मजाकिया था, उतना ही दिलफेंक भी था. उम्र निकले जा रही थी पर शादी की फिक्र नहीं थी. शादी न होने की एक वजह घर में बैठी बड़ी विधवा बहन भी थी. गणित में पीएचडी करने के बाद वह इलाहाबाद के डिगरी कालेज में प्रोफैसर हो गया और वहीं बस गया. उस के एक दोस्त राधेश्याम ने दिल्ली में नौकरी कर घर बसा लिया.

एक बार राधेश्याम को उस से मिलने का मन हुआ. काफी समय हो गया था मिले हुए, इसलिए उस ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘मैं 3-4 दिनों के लिए इलाहाबाद जा रहा हूं. रामलाल से भी मिलना हो जाएगा. काफी सालों से उस की कोई खबर भी नहीं ली है. आज ही फोन कर के उसे अपने आने की सूचना देता हूं.’’

राधेश्याम ने रामलाल को अपने आने की सूचना दे दी. इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पर पहुंचते ही राधेश्याम ने रामलाल को खोजना शुरू कर दिया. पर जो आदमी एकदम उस के गले आ कर लिपट गया वह रामलाल ही होगा, ऐसा उस ने कभी सोचा भी नहीं था क्योंकि रामलाल कपड़ों के मामले में जरा लापरवाह था. पर आज जिस आदमी ने उसे गले लगाया वह सूटबूट पहने एकदम जैंटलमैन लग रहा था.

राधेश्याम के गले लगते ही रामलाल बोला, ‘‘बड़े अच्छे मौके पर आए हो दोस्त. मैं एक मुसीबत में फंस गया हूं.’’

‘‘कैसी मुसीबत? मुझे तो तुम अच्छेखासे लग रहे हो,’’ राधेश्याम ने रामलाल से कहा. इस पर रामलाल बोला, ‘‘तुम्हें पता नहीं है… मैं ने शादी कर ली है.’’

इस बात को सुनते ही राधेश्याम चौंका और बोला, ‘‘अरे, तभी कहूं कि 58 साल का बुड्ढा आज चमक कैसे रहा है? यह तो बड़ी खुशी की बात है. पर यह तो बता इतने सालों बाद तुझे शादी की क्या सूझी? अब पत्नी की जरूरत कैसे पड़ गई? हमें खबर भी नहीं की…’’

इस पर रामलाल फीकी सी मुसकराहट के साथ बोला, ‘‘बस यार, उम्र के इस पड़ाव पर जा कर शादी की जरूरत महसूस होने लगी थी. पर बात तो सुन पहले. मैं ने जिस लड़की से शादी की है, वह मेरे कालेज में ही मनोविज्ञान में एमए कर रही है.’’

‘‘यह तो और भी अच्छी बात है,’’ राधेश्याम ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छीवच्छी कुछ नहीं. उस ने आते ही मेरे ड्राइंगरूम का सामान निकाल कर फेंक दिया और उस में अपनी लैबोरेटरी बना डाली, ‘‘बुझी हुई आवाज में रामलाल ने कहा.

‘‘तब तो तुम्हें बड़ा मजा आया होगा,’’ राधेश्याम ने चुटकी ली.

‘‘हांहां, शुरूशुरू में तो मुझे बड़ा अजीब सा लगा, पर आजकल तो बहुत बड़ी मुसीबत आई हुई है,’’ दुखी  आवाज में रामलाल बोला.

‘‘आखिर कुछ बताओगे भी कि हुआ क्या है या यों ही भूमिका बनाते रहोगे?’’ राधेश्याम ने खीजते हुए कहा.

‘‘सब से पहले उस ने मेरी बहन के मन की थाह ली और अब मेरी भी…’’

राधेश्याम ने हंसते हुए कहा, ‘‘भाई रामलाल, तुम ने बहुत बढि़या बात सुनाई. तुम्हारे मन की थाह भी ले डाली.’’

‘‘हां यार, और कल उस ने रिपोर्ट भी दे दी.’’

‘‘रिपोर्ट? हाहाहाहा, तुम भी खूब आदमी हो. जरा यह तो बताओ कि उस ने यह सब किया कैसे था?’’

‘‘उस ने मुझे एक पग पर लिटा दिया. मेरी बांहों में किसी दवा का एक इंजैक्शन लगाया और बोली कि मैं जो शब्द कहूं, उस से फौरन कोई न कोई वाक्य बना देना. जल्दी बनाना और उस में वह शब्द जरूर होना चाहिए.’’

‘‘सब से पहले उस ने क्या शब्द कहा?’’ राधेश्याम ने पूछा.

रामलाल ने कहा, ‘‘दही.’’

राधेश्याम ने पूछा, ‘‘तुम ने क्या वाक्य बनाया?’’

रामलाल बोला, ‘‘क्योंजी, मध्य प्रदेश में दही तो क्या मिलता होगा?’’

राधेश्याम ने पूछा, ‘‘फिर?’’

रामलाल बोला, ‘‘फिर वह बोली, ‘बरतन.’

‘‘मैं ने कहा कि मुरादाबाद में पीतल के बरतन बनते हैं.

‘‘बस ऐसे ही बहुत से शब्द कहे थे. देखो जरा रिपोर्ट तो देखो,’’ यह कह कर उस ने अपनी जेब से कागज का एक टुकड़ा निकाला.

यह एक लैटरपैड था, जो इस तरह लिखा हुआ था, सुमित्रा गोयनका, एमए साइकोलौजी.

मरीज का नाम, रामलाल गोयनका.

बाप का नाम, हरिलाल गोयनका.

पेशा, अध्यापन.

उम्र, 58 साल.

ब्योरा, हीन भावना से पीडि़त. आत्मविश्वास की कमी. अपने विचारों पर दृढ़ न रहने के चलते निराशावादी बूढ़ा.

‘‘अबे, किस ने कहा था बुढ़ापे में शादी करने के लिए और वह भी अपने से 10-15 साल छोटी उम्र की लड़की से? जवानी में तो तू वैसे ही मजे लेता रहा है. तेरा ब्याह क्या हुआ, तेरे घर में तो एक अच्छाखासा तमाशा आ गया. तुझे तो इस में मजा आना चाहिए, बेकार में ही शोर मचा रहा है.’’

‘‘तू नहीं समझेगा. वह मेरी बहन को घर से निकालने पर उतारू हो गई है. दोनों में रोज लड़ाई होती है. अब मेरी बड़ी विधवा बहन इस उम्र में कहां जाएंगी?

‘‘अगर मैं उन्हें घर से जाने को कहता हूं, तो समाज कह देगा कि पत्नी के आते ही, जिस ने पाला, उसे निकाल दिया. मेरी जिंदगी नरक हो गई है.’’

इतनी बातें स्टेशन पर खड़ेखड़े ही हो गईं. फिर सामान को कार में रख कर रामलाल राधेश्याम को एक होटल में ले गया. वहां एक कमरा बुक कराया. उस कमरे में दोनों ने बैठ कर चायनाश्ता किया

तब रामलाल ने उसे बताया, ‘‘इस समय घर में रहने में तुम्हें बहुत दिक्कत होगी. कहीं ऐसा न हो, वह तुम्हारे भी मन की थाह ले ले, इसलिए तुम्हारा होटल में ठहरना ही सही है.’’

इस पर राधेश्याम ने हंसते हुए कहा, ‘‘मुझे तो कोई एतराज नहीं है. मुझे तो और मजा ही आएगा. यह तो बता कि वह दिखने में कैसी लगती है?’’

रामलाल ठंडी आह लेते हुए बोला, ‘‘बहुत खूबसूरत हैं. बिलकुल कालेज की लड़कियों जैसी. तभी तो उस पर दिल आ गया.’’

राधेश्याम ने उस को छेड़ने की नीयत से पूछा, ‘‘अच्छा एक बात तो बता, जब तुम ने उस का चुंबन लिया होगा तो उस के चेहरे पर कैसे भाव थे?’’

‘‘वह इस तरह मुसकराई थी, जैसे उस ने मेरे ऊपर दया की हो. उस ने कहा था कि आप में अभी बच्चों जैसी सस्ती भावुकता है,’’ रामलाल झेंपता हुआ बोला.

चाय पीने के बाद राधेश्याम ने जल्दी से कपड़े बदल कर होटल के कमरे का ताला लगाया और रामलाल के साथ उस के घर की ओर चल दिया.

राधेश्याम मन ही मन उस मनोवैज्ञानिक से मिलने के लिए बहुत बेचैन था. होटल से घर बहुत दूर नहीं था. जैसे ही घर पहुंचे, घर का दरवाजा खुला हुआ था, इसलिए घर के अंदर से जोर से बोलने की आवाजें बाहर साफ सुनाई दे रही थीं. वे दोनों वहीं ठिठक गए.

रामलाल की बहन चीखचीख कर कह रही थीं, ‘‘मैं आज तुझे घर से निकाल कर छोड़ूंगी. तू ने इस घर का क्या हाल बना रखा है? तू मुझे समझती क्या है?’’

रामलाल की नईनवेली बीवी कह रही थी, ‘‘तुम तो न्यूरोटिक हो, न्यूरोटिक.’’

इस पर रामलाल की बहन बोलीं, ‘‘मेरे मन की थाह लेगी. इस घर से चली जा, मेरे ठाकुरजी की बेइज्जती मत कर… समझी?’’

तब रामलाल की पत्नी की आवाज आई, ‘‘तुम्हें तो रिलीजियस फोबिया हो गया है.’’

इस पर बहन बोलीं, ‘‘सारा महल्ला मुझ से घबराता है. तू कल की छोकरी… चल, निकल मेरे घर से.’’

तब रामलाल की पत्नी की आवाज आई, ‘‘तुम में भी बहुत ज्यादा हीन भावना है.’’

रामलाल बेचारा चुपचाप सिर झुकाए खड़ा हुआ था. तब राधेश्याम ने उस के कान में कहा, ‘‘तुम फौरन जा कर अपनी पत्नी को मेरा परिचय एक महान मनोवैज्ञानिक के रूप में देना, फिर देखना सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’

रामलाल ने राधेश्याम को अपने ड्राइंगरूम में बिठाया और पत्नी को बुलाने चला गया. उस के जाते ही राधेश्याम ने खुद को आईने में देखा कि क्या वह मनोवैज्ञानिक सा लग भी रहा है या नहीं? उसे लगा कि वह रोब झाड़ सकता है.

थोड़ी देर बाद रामलाल अपनी पत्नी के साथ आया. वह गुलाबी रंग की साड़ी बांधे हुई थी. चेहरे पर गंभीर झलक थी. बाल जूड़े से बंधे हुए थे और पैरों में कम हील की चप्पल पहने हुए थी. उस ने बहुत ही आहिस्ता से राधेश्याम से नमस्ते की.

नमस्ते के जवाब में राधेश्याम ने केवल सिर हिला दिया और बैठने का संकेत किया.

तब रामलाल ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘आप मेरे गुरुपुत्र हैं. कल ही विदेश से लौटे हैं. मनोवैज्ञानिक जगत में आप बड़े मशहूर हैं. विदेशों में भी.

इस पर राधेश्याम बोला, ‘‘रामलाल ने मुझे बताया कि आप साइकोलौजी में बड़ी अच्छी हैं, इसीलिए मैं आप से मिलने चला आया. कुछ सुझाव भी दूंगा. मैं आदमी को देख कर पढ़ लेता हूं, किताब के जैसे. मैं बता सकता हूं कि इस समय आप क्या सोच रही हैं?’’

रामलाल की पत्नी तपाक से बोली, ‘‘क्या…?’’

राधेश्याम ने कहा, ‘‘आप इस समय आप हीन भावना से पीडि़त हैं.’’

रामलाल की पत्नी घबरा गई और बोली, ‘‘आप मुझे अपनी शिष्या बना लीजिए.’’

इस पर राधेश्याम बोला, ‘‘अभी नहीं. अभी मेरी स्टडी चल रही है. अब से कुछ साल बाद मैं अपनी लैबोरेटरी खोलूंगा.’’

‘‘मैं ने तो अपनी लैबोरेटरी अभी से खोल ली है,’’ रामलाल की पत्नी झट से बोली.

‘‘गलती की है. अब से 10 साल बाद खोलना. मैं तुम्हें कुछ किताबें भेजूंगा, उन्हें पढ़ना. अपनी लैबोरेटरी को अभी बंद करो. मुझे मालूम हुआ है कि आप अपनी ननद से भी लड़ती हैं. उन से माफी मांगिए.’’

रामलाल की पत्नी वहां से उठ कर चली गई. रामलाल राधेश्याम से लिपट गया और वे दोनों कुछ इस तरह खिलखिला कर हंसने लगे कि ज्यादा आवाज न हो.

अब घर चल : जब रिनी के सपनों पर फिरा पानी

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आशा है सब सुखद होगा

बहुतसमय बाद दीदी के घर जाना हुआ. सोम का केरल तबादला हो गया था इसलिए इतनी दूर से जम्मू आना आसान नहीं था. जब दीदी के बेटे की शादी हुई थी तब बच्चों की सालाना परीक्षा चल रही थी. मैं तब नहीं आ पाई थी और फिर सोम को भी छुट्टी नहीं थी. मौसी के बिना ही उस के भानजे की शादी हो गई थी. मैं इस बार बहुत सारा चाव मन में लिए मायके, ससुराल और दीदी के घर आई. मन में नई बहू से मिलने की चाह सब से ज्यादा थी.

हम ने बड़े जोश और उत्साह से दीदी के घर में पैर रखा. सुना था बड़ी प्यारी है दीदी की बहूरानी. मांबाप की लाडली और एक ही भाई की अकेली बहन. दीदी सास बन कर कैसी लगती होंगी, यह देखने की भी मन में बड़ी चाह थी.

अकसर ऐसा होता है कि सास बन कर

एक नारी सहज नहीं रह पाती. कहींकहीं कुछ सख्त हो जाती है मानो अपनी सास के प्रति दबीघुटी कड़वाहट बहू से बदला ले कर निकालना चाहती हो.

बड़ा लाड़प्यार किया दीदी ने, सिरआंखों पर बैठाया. मगर बहू कहीं नहीं नजर आई मुझे.

‘‘अरे दीदी बहुत हो गई आवभगत… यह बताओ हमारी बहू कहां है?’’

मु?ो दीदी आंखें चुराती सी लगीं. मेरा और सोम का चेहरा देख कर भी अनदेखा करती हुई सी दीदी पुन: इधरउधर की ही बातें करने लगीं, तो सोम से न रहा गया. उन्होंने कहा, ‘‘दीदी, आप कुछ छिपा तो नहीं रहीं… कहां हैं बहू और राजू?’’

‘‘वे हमारे साथ नहीं रहते… बड़े घर की लड़की का हमारे घर में मन नहीं लगा.’’

यह सुन कर हम दोनों अवाक रह गए.

‘‘बड़े घर की लड़की है, मतलब?’’ मैं ने कहा, ‘‘रिश्ता बराबर वालों के साथ नहीं किया

था क्या?’’

दीदी चुप थीं. जीजाजी की नजरों में दीदी के लिए नाराजगी साफ नजर आने लगी थी मुझे

अफसोस हुआ सब जान कर. मध्यवर्गीय

परिवार है जीजाजी का जहां 1-1 पैसा सोचसम?ा कर खर्च किया जाता है.

जिस लड़की ने कभी पानी का गिलास उठा कर खुद नहीं पीया, दीदी उस से सुबह 4 बजे उठ कर सारा घर संभालने की उम्मीद कर रही थीं.

‘‘हम भी तो करते थे,’’ की तर्ज पर दीदी का तुनकना जीजाजी को और भड़का गया.

‘‘तुम टाटाबिरला की बेटी नहीं थीं, जिस के घर में नौकरों की फौज होती है. तुम्हारी मां भी दिन चढ़ते ही घर की चक्की में पिसना शुरू करती थीं और मेरी मां भी. नौकरानी के नाम पर दोनों घरों में एक बरतन मांजने वाली होती थी. तुम्हारा जीवनस्तर हम से मेल खाता था. पाईपाई बचा कर खर्च करना दोनों ही घरों की आदत भी थी और जरूरत भी. इसीलिए तुम ने निभा लिया.

‘‘और वह बच्ची भी तो किसी तरह निभा ही रही थी. दबी आवाज में उस ने मुझ से कहा भी था कि पापा मुझे रसोई के काम की आदत नहीं है… रसोइया और फुलटाइम नौकर रख लीजिए.’’

‘‘क्व4-5 हजार हर महीने मैं कहां से लाती?’’

‘‘तो उस घर की लड़की इस घर में क्यों लाईं जहां नौकरों के नाम पर क्व20-25 हजार हर महीने खर्च किए जाते हैं. रिश्ता और दोस्ती सदा बराबर वालों में करनी चाहिए. मैं सदा समझता रहा, मगर तब तुम्हें लालच था अमीर घर का.’’

‘‘तो लड़की न देते हमारे घर में… वही पड़ताल कर लेते हमारे

घर की.’’

‘‘उन्हें लायक समझदार लड़का मिल रहा था, जिस ने शादी के

6 महीने बाद ही उन का कारोबार संभाल लिया था. उन की पड़ताल तो सही थी. उन की इच्छा पूर्ण हो गई. वे खुश हैं. दुखी तुम हो,’’ कह दनदनाते हुए जीजाजी उठ कर घर से बाहर चले गए.

पता चला शादी के 2-3 महीने बाद ही राजू मेधा को ले कर अलग घर में चला गया था. क्या करता वह? पहले ही दिन से दीदी की बहू से इतनी अपेक्षाएं हो गई थीं. जराजरा बात पर अपमानित होना उसे नागवार गुजर रहा था.

राजू ने समझाया था मां को, ‘‘क्या बात है मां अपनी पसंद की बहू लाईं और अब वही तुम्हें पसंद नहीं… इस तरह क्यों बात करती हो उस से जैसे वह नासमझ बच्ची हो. 26-27 साल की एमबीए लड़की बहू बना कर लाई हो और उस से उम्मीद करती हो 4-5 साल बच्ची की तरह जराजरा बात तुम से पूछ कर करे… अब तुम्हारा जमाना नहीं रहा जब घर वाले जहां बैठा देते थे बेबस बहू वहीं बैठ जाती थी.’’

‘‘नहीं बेटा, बेबस वह क्यों होने लगी. बेबस तो मैं हूं, जिस ने बेटा पालपोस कर किसी को सौंप दिया.’’

‘‘मां, कैसी बेसिरपैर की बातें कर रही हो?’’

जीजाजी पलपल जलती में पानी डालने का अथक प्रयास करते रहे थे, मगर आग दिनप्रतिदिन प्रचंड होती चली गई.

‘‘तुम पीछे की ओर देख कर आगे नहीं बढ़ सकती हो दीदी. जिस काम की उम्मीद तुम बहू से करती रही हो वही तो तुम कम पढ़ीलिखी भी करती रही हो न. उस का एमबीए करना किस काम आया जरा सोचो न? बच्चे कमाते हैं. अगर क्व5 हजार का नौकर अपनी जेब से रख सकते हैं तो तुम्हें क्या एतराज है?’’

दीदी चुपचाप सुनतीं मुंह फुलाए बैठी रहीं.

‘‘राजू और बहू को फोन करो. हम उन से मिलना चाहते हैं. या तो वे यहां चले आएं या फिर हमें

अपना पता बता दें हम उन के घर चले जाते हैं,’’ सोम ने अपना निर्णय सुना दिया.

यह सुनते ही दीदी का पारा सातवें आसमान जा पहुंचा. बोलीं, ‘‘कोई नहीं जाएगा उन के घर और न ही वह लड़की यहां आएगी.’’

‘‘देखा शोभा इस का रवैया? राजू बेचारा 2 पाटों में पिस रहा है. अरे, जैसा घर, जैसी लड़की तुम ने पसंद की राजू ने हां कर दी… अब चाहती हो बच्चे साथसाथ भी न रहें… यह कैसे संभव है? जीना हराम कर दिया है तुम ने सब का… न मुझे उन से मिलने देती हो न उन्हें यहां आने देती हो.’’

जीजाजी इकलौती संतान के वियोग में पागल से होते जा रहे थे. सदा अपनी ही चलाने वाली दीदी सम?ा नहीं पा रही थीं कि वे बबूल की फसल बो कर आम नहीं खा सकतीं. पिछले 7-8 महीने से लगातार इस तनाव ने जीजाजी की सेहत पर भी बुरा असर डाला था. मेज पर दवाओं का ढेर लगा था.

‘‘मैं अपने घर की समस्या किसकिस के पास ले जाऊं? कौन समझएगा इस औरत को जब मैं ही न सम?ा सका? मेधा हर रोज फोन कर के हमारा हालचाल पूछती है. राजू ने तो अपना घर भी ले लिया है.’’

दीदी का तमतमाया चेहरा देख सोम और मैं सम?ा नहीं पा रहे थे कि क्या करें. आज के परिवेश में इतनी सहनशीलता किसी में नहीं रही जो तनाव को पी जाए.

तभी सोम ने इशारा कर के मुझे बाहर बुलाया और कुछ सम?ाया. फिर जीजाजी को भी बाहर बुला लिया.

दीदी अंदर बरतन समेट रही थीं.

10 मिनट के बाद मैं अंदर चली आई और सोम जीजाजी के साथ राजू के घर चले गए.

‘‘कहां गए दोनों?’’ विचित्र सा भाव था दीदी की आंखों में.

‘‘जीजाजी की छाती में दर्द होने लगा है… कितना परेशान हो गए हैं राजू की वजह से. सोम उन्हें डाक्टर के पास ले गए हैं,’’ मैं ने झूठ बोला.

सुन कर दीदी घबरा गईं. मगर बोली कुछ भी नहीं.

‘‘हर वक्त कलहक्लेश हो घर में तो ऐसा होता ही है. इस में नया क्या है… सहने की भी एक हद होती है. तुम तो रोपीट लेती हो, जीजाजी तो रो भी नहीं सकते फिर बीमार नहीं होंगे तो क्या होगा? अगर कुछ ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा, जानती हो? जवानी में भी आजकल लोगों में सहनशीलता नहीं रही और तुम 60 साल के आदमी से यह आस लगाए बैठी. क्या तुम्हारी जिद पर अपना बुढ़ापा खराब कर लें वे?’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘मतलब यह है कि बेकार की जिद छोड़ो और बच्चों से मिलनाजुलना शुरू करो. तुम नहीं मिलना चाहतीं तो जीजाजी को तो मत रोको. अगर दिल का रोग लग गया तो हाथ मलती रह जाओगी दीदी… अकेली रह जाओगी. तब पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा. बहू अमीर घर की है उस का रहनसहन वैसा है तो क्या यह उस का दोष हो गया? अपने जैसे घर की कोई क्यों नहीं ले आईं, जिस का जीवनस्तर तुम से मिलताजुलता होता और तुम्हारे मन में भी कोई हीनभावना न आती.

‘‘दीदी, क्या यही सच नहीं है कि तुम बड़े घर की बच्ची को पचा नहीं पाई हो. जो लड़की अपने पिता के काम में सहयोग कर के इतना कमा रही थी उस ने तुम जैसे मध्यवर्गीय परिवार में शादी को हां कर दी सिर्फ इसलिए कि इस घर की सादगी और संस्कार उसे पसंद आ गए थे. राजू उसे अच्छा लगा था और…’’

‘‘बस करो शुभा… तुम भी राजू की बोली मत बोलो,’’ दीदी बीच ही में बोल पड़ीं.

‘‘इस का मतलब मैं ने भी वही समझ है, जो राजू को समझ में आया है… मेधा एक अच्छी लड़की है… वह तो तुम्हें अपनाना चाहती है. बस, तुम्हीं उस की नहीं बनना चाहती हो.’’

दीदी कुछ बोलीं नहीं.

‘‘तुम दोनों अब बूढ़े हो रहे हो… शरीर कमजोर होगा तब बच्चों का सहारा चाहिए… बच्चे न बुलाएं तो भी समझ में आता है. तुम्हारे बच्चे सिरआंखों पर बैठाते हैं.’’

आधा घंटा चुप्पी छाई रही. सोम का फोन आया. उन्होंने कुछ और समझाया मुझे.

‘‘जीजाजी की छाती में बहुत दर्द हो रहा है क्या? राजू को बुला लिया क्या आप ने? अच्छा किया. हम भला इस शहर में किसे जानते हैं,’’ मेरा स्वर कुछ ऊंचा हो गया तो दीदी के भी कान खड़े हो गए.

‘‘राजू को बुला लिया… क्या मतलब? उसे बुलाने की क्या जरूरत थी,’’ दीदी ने पूछा.

मैं अवाक रह गई कि दीदी को जीजाजी की तबीयत की चिंता नहीं. राजू को क्यों बुला लिया बस यही प्रश्न किया. मैं हैरान थी कि एक औरत इतनी भी जिद कर सकती है. बहू से नफरत इतनी ज्यादा कि पति जाए तो जाए बेटा घर न आए. मैं ने उसी पल यह निर्णय ले लिया कि दीदी की जिद को खादपानी डाल कर एक विशालकाय पेड़ नहीं बनने देना. एक स्त्री का त्रियाहठ इतना नहीं बढ़ने देना कि घर ही तबाह हो जाए.

दीदी को जीजाजी की पीड़ा समझ में नहीं आ रही तो वही भाषा बोलनी पड़ेगी जिसे दीदी समझे. 2 घंटे बाद स्थिति बदल चुकी थी. राजू और मेधा हमारे सामने थे. आते ही उस ने मेरे और दीदी के पांव छुए.

‘‘पापा को हलका दिल का दौरा पड़ा है मम्मी… मौसाजी और डाक्टर साहब उधर हैं… चलिए, आप भी वहां.’’

दीदी को हम पर शक था तभी तो वे यह सुन कर भी इतनी परेशान नहीं हुई थीं.

‘‘हांहां, चलो दीदी राजू के घर,’’ मैं ने झट से कहा.

राजू और मेधा अंदर कमरे में चले गए और जब बाहर आए तब उन के हाथ दीदी और जीजाजी के अटैची थे.

‘‘चलिए मम्मी… पापा को पूरा आराम चाहिए और पूरी देखभाल… जो आप अकेली नहीं कर पाएंगी… चलिए उठिए न मम्मी क्या सोच रही हैं पापा को आप की जरूरत है… जल्दी उठिए.’’

राजू ने हाथ पकड़ कर उठाया और फिर हम सब बाहर खड़ी गाड़ी में आ बैठे. लगभग आधे घंटे के बाद हम राजू के घर के बाहर खड़े थे. खुशी के अतिरेक में मेरी आंखें भर आईं कि राजू इतना बड़ा हो गया है कि अपने घर के बाहर खड़ा हमारा गृहप्रवेश करा रहा है. बड़े स्नेह और सम्मान से मेधा दीदी को उन के कमरे में ले गई.

‘‘मम्मी, यह रहा आप का कमरा,’’ मेधा का चेहरा संतोष से दमक रहा था, ‘‘यह आप की अलमारी, यह बाथरूम, सामने दीवार पर टीवी… और भी आप जो चाहेंगी आ जाएगा.’’

‘‘तेरे पापा कहां हैं?’’ दीदी का स्वर कड़वा ही था.

‘‘वह उधर कमरे में लेटे हैं… डाक्टर और मौसाजी भी वहीं हैं.’’

तनिक सी चिंता उभर आई दीदी के माथे पर. फिर तुरंत वह उन के पास पहुंच गईं. वास्तव में जीजाजी लेटे हुए थे.

डाक्टर उन्हें समझ रहे थे, ‘‘तनाव से बचिए आप. खुश रहने की कोशिश कीजिए… क्या परेशानी है आप को जरा बताइए न? आप का बेटा होनहार है. बहू भी इतनी अच्छी है. आप की कोई जिम्मेदारी भी नहीं है तो फिर क्यों दिल का रोग लगाने जा रहे हैं आप?’’

जीजाजी चुप थे. दीदी की आंखें भर आई थीं. शायद अब दीदी को बीमारी का विश्वास हो गया था. सोम मुझे देख कर मंदमंद मुसकराए. मेधा सब के लिए चाय और नाश्ता ले आई. जीजाजी के लिए सूप और ब्रैड. चैन दिख रहा था अब जीजाजी के चेहरे पर… आंखें मूंदे चुपचाप लेटे थे. शुरुआत हो चुकी थी. आशा है, परिणाम भी सुखद ही होगा.

विमोहिता: कैसे बदल गई अनिता की जिंदगी

बनफूल: भोग की वस्तु बन गयी सुनयना

अपने बारे में बताने में मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? जेलर से आप के बारे में सुना है. 8-10 महिला कैदियों से मुलाकात कर उन के अनुभव आप जमा कर एक किताब प्रकाशित कर रहे हैं न? मैं चाहूं तो आप मेरा नाम पता गोपनीय भी रखेंगे, यही न? मुझे अपना असली नाम व पता बताने में कोई आपत्ति नहीं.

आप शायद सिगरेट पी कर आए हैं. उस की गंध यहां तक आ रही है. नो…नो…माफी किस बात की? मुझे इस की गंध से परहेज नहीं बल्कि मैं पसंद करती हूं. शंकर के पास भी यही गंध रचीबसी रहती थी.

अरे हां, मैं ने बताया ही नहीं कि शंकर कौन है? चलिए, आप को शुरू से अपनी रामकहानी सुनाती हूं. खुली किताब की तरह सबकुछ कहूंगी, तभी तो आप मुझे समझ सकेंगे. मेरे नाम से तो आप परिचित हैं ही सुनयना…जमाने में कई अपवाद…उसी तरह मेरा नाम भी…

बचपन में मेरे गुलाबी गालों पर मां चुंबनों की झड़ी लगा देतीं, मुझे भींच लेतीं. उन के उस प्यार के पीछे छिपे भय, चिंता से मैं तब कितनी अनजान थी.

सुनयना मुझे देख कर पलटती क्यों नहीं है? खिलौनों की तरफ क्यों नहीं देखती? हाथ बढ़ा कर किसी चीज को लेने के लिए क्यों नहीं लपकती? जैसे कई प्रश्न मां के मन में उठे होंगे, जिस का जवाब उन्हें डाक्टर से मिल गया होगा.

‘‘आप की बेटी जन्म से ही दृष्टिहीन है. इस का देख पाना असंभव है.’’

उस दिन मां के चुंबन में पहली वाली मिठास नहीं थीं. वह मिठास जाने कहां रह गई?

‘‘यह क्या हुआ कि बच्ची पेट में थी तो इस के पिता नहीं रहे. फिर इस के जन्म लेते ही इस की आंखे भी चली गईं,’’ यह कह कर मां फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

बचपन से मैं देख नहीं पा रही हूं, ऐसा डाक्टर ने कहा था. देखना, मतलब क्या? मैं आज तक उन अनुभवों से वंचित हूं.

मुझे कभी कोई परेशानी आड़े नहीं आई. मां कमरे में हैं या नहीं, मैं जान सकती थी. किस तरफ हैं ये भी झट पहचान सकती थी. आप ही बताइए, मां से कोई शिशु अनजान रह सकता है भला? मैं घुटनों के बल मां के पास पहुंच जाती थी. बड़े होने पर मां ने कई बार मुझ से यह बात कही है. एक बार मां मुझे उठा कर बाहर घुमाने ले आई थीं. अनेक आवाजों को सुन मैं घबरा गई थी. मैं ने मां को कस कर पकड़ लिया था.

अरे, घबरा मत. कुत्ता भौंक रहा है. यह आटो जा रहा है. उस की आवाज है. वह सुन, सड़क पर बस का भोंपू बज रहा है. वहां पक्षियों की चहचहाहट…सुनो, चीक…चीक की आवाज…और कौवे की कांव…कांव…

तब से ध्वनि ने मेरे नेत्रों का स्थान ले लिया था.

चपक…चपक, मामाजी की चप्पल की आवाज. टन…टन घंटी की आवाज. टप…टप नल में पानी…

मेरी एक आंख ध्वनि तो दूसरी उंगलियों के पोर…स्पर्श से वस्तुओं की बनावट पहचानने लगी. अपनी मां को भी छू कर मैं देख पाती. उन के लंबे बाल, उन की भौंहें, उन का ललाट…उन की नाक उन की गरमगरम सांसें…मामाजी की मूंछों से भी उसी तरह परिचित थी. मैं  मामी के कदमों की आहट, उन के जोरजोर से बात करने के अंदाज से समझ जाती कि मामी पास में ही हैं. अक्षरों को भी मैं छू कर पहचान लेती.

मां मुझे रिकशे में बैठा कर स्कूल ले जातीं. स्कूल उत्साह व उमंग का स्थान, मेरे लिए ध्वनि स्थली थी. मैं खुश थी बेहद खुश…दृष्टिहीन को उस के न होने का एहसास आप कैसे दिला सकोगे कहिए?

एक दिन घर के आंगन में अजीब सी आवाजों का जमघट था. उन आवाजों को चीरते हुए मैं भीतर गई. पांव किसी से टकराया तो मैं गिर पड़ी. मैं एक शरीर के ऊपर गिरी थी. हाथ लगते ही पहचान गई.

‘‘मां…मां, आज क्यों कमरे के बीचोंबीच जमीन पर लेटी हैं? मैं आप पर गिर पड़ी. चोट तो नहीं लगी न मां?’’

घबराहट में मैं ने उन के चेहरे पर उंगलियां फेरी, उन का माथा, बंद पलकें, नाक पर वह गरम सांसें जो मैं महसूस करती थी आज न थीं. मेरी उंगलियां वहीं स्थिर हो गईं.

मां…मां. मैं ने उन के गालों को थपथपाया. कान पकड़ कर खींचे. पर मां की तरफ से कोई प्रत्युत्तर न पा कर मैं ने मामी को पुकारा.

मामी मुझे पकड़ कर झकझोरते हुए बोलीं, ‘‘अभागन, मां को भी गंवा

बैठी है.’’

मामाजी ने मुझे गले लगाया और फूटफूट कर रोने लगे.

मैं ने मामाजी से पूछा, ‘‘मां क्यों जमीन पर लेटी थीं? मां को क्या हुआ? उन का चेहरा ठंडा क्यों पड़ गया था? उठ कर उन्होंने मुझे गले क्यों नहीं लगाया?’’

मामाजी की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘हे राम, मैं इसे क्या समझाऊं? बेटा, मां मर चुकी हैं.’’

मरना क्या होता है, मैं तब जानती

न थी.

दृष्टिहीन ही नहीं, शरीरविहीन हो कर किसी दूसरे लोक का भ्रमण ही मृत्यु कहलाता है, यह मुझे बाद में पला चला.

मैं करीब 12 साल की थी. मेरे शरीर के अंगों में बदलाव होने लगे.

मामी ने एक दिन तीखे स्वर में मामा से कहा, ‘‘वह अब छोटी बच्ची नहीं रही. आप उसे मत नहलाना.’’

मैं स्वयं नहाने लगी. अच्छा लगा. नया अनुभव, पानी का मेरे शरीर को स्पर्श कर पांव की तरफ बहना. उस की ठंडक मुझ में गुदगुदाहट भर देती.

एक दिन मैं कपड़े बदल रही थी. मामाजी के पांव की आहट…वे जल्दी में हैं, यह उन की सांसें बता रही थीं.

‘‘क्या बात है मामाजी?’’

वे मेरे सामने घुटनों के बल बैठे.

‘‘सुनयना,’’ उन की आवाज में घबराहट थी. कंपन था. उन्होंने मेरी छाती पर अपना मुंह टिकाया और मुझे भींच लिया. मेरी पीठ पर उन के हाथ फिर रहे थे. उंगलियों में कंपन था.

‘‘मामाजी क्या बात है?’’ उन के बालों को सहलाते हुए मैं ने पूछा. उन का स्पर्श मुझे भी द्रवित कर रहा था मानो चाशनी हो.

‘‘ओफ, कितनी खूबसूरत हो तुम,’’ कहते हुए उन्होंने मेरे होंठों को चूमा. उन्होंने अनेक बार पहले भी मुझे चूमा था पर न जाने क्यों उन के इस स्पर्श में एक आवेग था.

‘‘हाय…हाय,’’ मामी के चीखने की आवाज सुनाई दी. मामाजी छिटक कर मुझ से दूर हुए. मामी ने मुझे परे ढकेला.

‘‘कितने दिनों से यह सब चल रहा है?’’

‘‘पारो, चीखो मत, मुझे माफ करो. ऐसी हरकत दोबारा नहीं होगी.’’

मामा की आवाज क्यों कांप रही है? अब क्या हुआ जो माफी मांग रहे हैं? मेरी समझ में कुछ नहीं आया था.

‘‘चलो, मेरे साथ,’’ कहते हुए मामी मुझे खींच कर बाहर ले गईं. मुझे उसी दिन मदर मेरी गृह में भेज दिया गया.

खुला मैदान… हवादार कमरे, अकसर प्रार्थनाएं और गीत सुनाई पड़ते थे. फादर तो करुणा की कविता थे. स्नेह…स्नेह और स्नेह… इस के सिवा कुछ जानते ही नहीं थे. वे सिर पर उंगलियों का स्पर्श करते तो लगता फादर के  रूप में मुझे मेरी मां मिल गई हैं.

वहां के कर्म-चारी मेरे कमरे में आते तो कह उठते, ‘‘तुम कितनी खूब-सूरत हो,’’ मैं संकोच से घिर जाती थी.

आप भी शायद मुझे देख यही सोचते होंगे, है न? पर खूबरसूरती तो मेरे लिए आवाज, रोशनी व गहन अंधकार का पर्याय है. ध्वनि खूबसूरत वस्तु है पर सभी कहते हैं पहाड़, झरने, फूल, तितली, पेड़पौधे खूबसूरत होते हैं, उस का मुझे क्या अनुभव हो सकता है भला.

बिना देखे, बिना जाने मुझे खूबसूरत कहना क्या दर्शाता है? स्नेह को…है न?

जरा अपना हाथ तो बढ़ाइए. कस कर हाथ पकड़ने से क्या आप को महसूस नहीं होता कि हम दोनों अलगअलग नहीं एक ही हैं. कुछ प्रवाह सा मेरे शरीर से आप के भीतर व आप के शरीर से मेरे भीतर आता हुआ महसूस होता है न? मेरी आंखों से आंसू बहने लगते हैं. लगता है सांसें थम जाएंगी. देख रहे हैं न मेरी आवाज लड़खड़ा रही है? इस से खूबसूरत और कौन सी चीज हो सकती है मेरे लिए भला?

वहां के शांत और स्नेह भरे वातावरण में पलीबढ़ी मैं. कुछ लड़कियां मेरी खास सहेलियां बन गई थीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘ओफ, तू बला की खूबसूरत है, तुम्हारी त्वचा चमकती रहती है, कितनी कोमल हो तुम. और होंठों के पास यह काले तिल…’’ वे सभी मुझे छूछू कर देखतीं और तृप्त होतीं.

मेरे पास कुछ है जो इन्हें संतुष्टि प्रदान कर रहा है, इस से बढ़ कर खुशी और क्या हो सकती है?

मैं जिसे अपनी उंगलियों से, ध्वनि, गंध से महसूस नहीं कर पा रही हूं वही दृष्टि नामक किसी चीज से ये जान लेते हैं, यह विचार मुझे तड़पा गया.

मैं ने अपनी तड़प का इजहार फादर से किया तो उन्होंने बड़े प्यार से मेरे बालों को सहलाते हुए समझाया, ‘‘माय चाइल्ड, जान लो कि दुनिया में रोशनी से बेहतर अंधेरा ही है. रोशनी में सब अलगथलग होते हैं, गोरी चमड़ी अलग नजर आएगी, इस की चमक अलग से दिखेगी, तिल की सुंदरता अलग, क्या इस में अहंकार नहीं? अंधेरे में सभी एकाकार हो जाते हैं. वहां चेहरा खूबसूरत, गोरी चमड़ी माने नहीं रखती. व्यक्ति का स्नेह ही सबकुछ होता है. सच्चा प्यार भी वैसा ही होता है सुनयना. वह खूबसूरत, चमकदमक का गुलाम नहीं होता. आंखों के होते हुए भी सच्चे प्रेम व प्रीत को लोग देख नहीं पाते, कितने अभागे होंगे वे? तुम्हारी दृष्टिहीनता कुदरत का दिया वरदान है.’’

माफ कीजिएगा, फादर के बारे में कहते समय मैं चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पाती. उसी दिन समझ सकी स्नेह भेदरहित होता है और ये खुले हाथ बांटने की चीज हैं.

कालिज का आखिरी दिन था. फादर ने मुझे बुला भेजा.

‘‘सुनयना, इन से मिलो. मिस्टर शंकर…’’

शंकर का कद मुझ से अधिक है यह मैं उस की सांसों से पहचान गई. मेरे दोनों हाथों को पकड़ कर उस ने दबाया, उस दबाव में कुछ भिन्नता थी.

‘‘शंकर इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियर है सुनयना, इस का बचपन गरीबी व तंगहाली में बीता था. अपनी मेहनत के बलबूते पर वह आज इस मुकाम पर पहुंचा है. उस ने अकसर तुम्हें देखा है. वह तुम्हें पसंद करता है, शादी करना चाहता है,’’ फादर ने बिना लागलपेट के पूरी बात साफसाफ कह दी.

शादी अर्थात शंकर मेरा जीवनसाथी बनेगा, जीवन भर मुझे सहारा देगा. मैं ने अभी तक स्नेह लुटाया है…शंकर का पहला स्पर्श कितनी ऊष्णता लिए हुए था. मुझे वह स्पर्श भा गया था.

मैं ने एकांत में शंकर से बातचीत करने की इच्छा जाहिर की. मुझे यह जानने की उत्सुकता थी कि इस ने मुझ दृष्टिहीन को क्यों अपनी जीवनसंगिनी चुना? शंकर की आवाज मधुरता लिए हुए थी. उस ने अपने जीवन का ध्येय बताया. खुद कष्टों को सहने के कारण किसी के काम आना, तकलीफ उठाने वालों की वह मदद करना चाहता था. मैं ने उसे छू कर देखने की इच्छा जाहिर की. उस ने मेरे हाथों को अपने चेहरे पर रख लिया.

शंकर का उन्नत ललाट, घनी भौंहें, लंबी नाक, घनी मूंछें और वे होंठ…मैं इन होंठों को चूम लूं?

शंकर ने मना कर दिया. कहने लगा, ‘‘सभी देख रहे हैं.’’

फादर से मैं ने अपनी सहमति प्रकट की. फादर ने अपनी तरफ से शंकर के बारे में जांचपड़ताल कर ली थी. ‘‘माई चाइल्ड, भले घर का बेटा है. तुम बहुत खुशकिस्मत हो,’’ उन्होंने कहा था.

हमारी शादी फादर के सामने हो गई.

‘‘शंकर, सुनयना बेहद भोली व नादान है. इसे संभालना. इस का ध्यान रखना,’’ फादर ने कहा, फिर मेरी तरफ मुड़ कर मेरे माथे को उन्होंने चूमा. मैं उन के कदमों पर गिर पड़ी. मां के बिछुड़ने पर जिस अवसाद से मैं अनजान थी, उस का अनुभव मुझे हो गया था.

शंकर के साथ मेरी जिंदगी सुचारु रूप से चल रही थी. सांझ ढले एक दिन मैं बिस्तर पर बैठी बुनाई कर रही थी. समीप पदध्वनि… यह शंकर नहीं कोई और है.

‘‘कौन है?’’ चेहरे को उस तरफ घुमा कर मैं ने पूछा.

‘‘सुनयना, मेरा मित्र है जय…जय आओ बैठो न.’’

जय बिस्तर पर मेरे पास आ कर बैठा. उस की सांसें तेजी से चल रही थीं.

‘‘सुनयना, जय का इस दुनिया में कोई नहीं है. मैं इसे अपने साथ ले आया हूं. कुछ समय तुम्हारे पास रहेगा तो अपने अकेलेपन को भूल जाएगा,’’ शंकर ने कहा और मेरा हाथ उठा कर उस के कंधे पर रखा.

मैं ने उस के कंधों को पकड़ा. तभी शंकर यह कह कर बाहर चला गया कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं.

जय के चेहरे को मैं ने अपने कंधे पर टिका लिया. उस ने मुझे सहलाया, प्यार पाने की कसक…अकेलेपन की वेदना. बेचारे इस जय का दुनिया में कोई नहीं, दुखी, पीडि़त, उपेक्षित है यह. मैं ने उसे गोदी में डाल सहलाया. कुत्ते व बिल्लियों को गोदी में डाल कर सहलाने में जो तृप्ति मुझे मिलती थी वही तृप्ति मुझे तब भी मिली थी. जय ने चुंबनों की झड़ी लगा दी.

जय कैसा दिखता होगा यह जानने की उत्सुकता हुई. मैं ने उस के चेहरे को सहलाया. होंठों को छूते समय मेरी उंगलियों को उस ने धीमे से काट लिया. मेरे उभारों पर उस के हाथ फिसलने लगे.

समीप आ कर उस ने मुझे कस कर भींच लिया. शादी होते ही शंकर ने भी मुझे ऐसे ही भींचा था न. वस्त्रविहीन शरीर पर उस ने हाथ फेरा था. कहा था कि स्नेह जाहिर करने का यह भी एक तरीका है. शायद शंकर की ही तरह जय भी है.

सिर से पांव तक एक विद्युत की लहर दौड़ पड़ी. क्या अजीब अनुभव था वह. वह भी मुझ में समा जाने के लिए बेकरार था.

शंकर के अलावा किसी और को मैं आज देख सकूंगी, यह विचार काफी रसदायक लगा.

अंधेरे में अहंकार नहीं होता. मैं का स्थान नहीं, सभी एकाकार हो जाते हैं. इन बातों को मैं ने केवल सुना था, अब इस का अनुभव भी प्राप्त हो गया. पहले शंकर से यह अनुभव मिला, अब जय से.

2 घंटे बाद शंकर लौटा.

‘‘मुझ से नाराज हो सुनयना?’’

‘‘नहीं तो, क्यों?’’

‘‘जय आ कर गया.’’

‘‘छी…छी…कैसी बातें करते हैं. मुझे संसार के सभी स्त्रीपुरुषों को देखने की इच्छा है. कितनी खुश हूं जानते हो, आज मैं ने जय को देखा…जाना.’’

फिर शंकर अकसर अपने नएनए मित्रों के साथ आने लगा. हर बार एक नए मित्र से मेरा परिचय होता.

‘तुम कितनी खूबसूरत हो,’ कह कर कुछ जनून भरा स्पर्श भी मैं ने महसूस किया. कुछ स्पर्श शरीर को चुभ जाते. कुत्ते या बिल्ली के साथ खेलते समय एकाध बार उस का पंजा या दांत चुभ ही जाता है न, उसी तरह का अनुभव हर एक बार एक नया अनुभव.

एक दिन मैं वैसा ही कुछ नया अनुभव प्राप्त कर रही थी तब वह घटना घटी. दरवाजे के उस तरफ जूतों की ध्वनि…दरवाजा खटखटाने की आवाज, ‘‘पुलिस,’’ दरवाजा खोलो.

‘‘राजू, जा कर दरवाजा खोलो न, पुलिस आई है,’’ मैं ने अंगरेजी में कहा. वह बंगाली था.

राजू गुस्से में मुझे परे ढकेल कर खड़ा हो गया. मैं ने ही जा कर दरवाजा खोला.

‘‘तुम शंकर की कीप हो न? तुम्हारा पति तुम्हें रख कर धंधा करता है, यह सूचना हमें मिली है. तुम्हें गिरफ्तार किया जाता है.’’

बाद में पता चला शंकर अपनी फैक्टरी का लाइसेंस पाने के लिए, अपने उत्पादों को बड़ीबड़ी कंपनियों में बेचने का आर्डर प्राप्त करने के लिए मेरा इस्तेमाल कर रहा था. लोगों की बातों से मैं ने जाना.

न जाने कौनकौन से सेक्शन मुझ पर लगे. मुझे दोषी करार दिया गया. शंकर ने अपनी गलती स्वीकार कर ली थी यह भी मुझे बाद में मालूम पड़ा.

‘‘भविष्य में सुधर कर इज्जत की जिंदगी बसर करोगी?’’ न्यायाधीश ने पूछा?

‘‘मुझे आजाद करोगे तो फिर से स्नेह को ही खोजूंगी,’’ मेरा उत्तर सुन न्यायाधीश ने अपना निर्णय स्थगित कर रखा है.

नहीं…नहीं जेल के भीतर मुझे कोई कष्ट नहीं. मैं यहां भी खुश हूं. अंधेरे में कहीं भी रहूं क्या फर्क पड़ता है या किसी के साथ भी रहूं क्या फर्क

पड़ता है?

बताइए तो आप मेरे बारे में क्या लिखने वाले हैं? आप का नाम? मैं तो भूल ही गई कुछ अनोखा नाम था आप का…हां, याद आया प्रजनेश…यस…कहिए आप की आवाज क्यों भर्रा रही है? आप की आंखों में आंसू?

प्लीज…मत रोइएगा. रोने के लिए थोड़ी न हम पैदा हुए हैं. आप के आंसुओं को रोकने के लिए मैं क्या करूं? आप को चूमूं?

पराया लहू- भाग 4: मायके आकर क्यों खुश नहीं थी वर्षा

अब दोनों के बीच में अदृश्य दीवार खड़ी हो गई. वर्षा मन ही मन कुढ़ती रहती. उस का मन अब सुधीर से बोलने को भी नहीं होता था. वह उस के प्रश्नों का उत्तर हां या न में दे कर सामने से हट जाती व अपनी तरफ से कोई बात नहीं करती.

भरत भी उस की आंखों में चुभने लगा था. उस का मन विद्रोह कर बैठता, ‘जब सुधीर उस के लव को नहीं स्वीकारता तो वही क्यों भरत को छाती से लगाती रहे? पराए जाए अपने तो नहीं बन सकते, भरत से कौन सा उस का लहू का रिश्ता है? बड़ा हो कर भरत भी उसे आंखें दिखाने लगेगा. फिर वह उसे अपना क्यों समझे?’

दोनों के मध्य पनपता अवरोध मांजी की पैनी निगाहों से नहीं छिप सका. वह बारबार पूछने लगीं, ‘‘बहू, जब से तुम मायके से लौटी हो तुम ने हंसना बंद कर दिया है. यह उदासी तुम्हारे होने वाले बच्चे के लिए अच्छी नहीं.’’

वर्षा खुद को सामान्य दिखाने का प्रयास करती रहती पर मांजी संतुष्ट नहीं हो पाती थीं.

कभी वह कुरेदतीं, ‘‘सुधीर ने कुछ कहा है क्या? वह भी आजकल खामोश रहता है. तुम दोनों में कोई अनबन तो नहीं हो गई?’’

वर्षा ने उन्हें इस डर से सबकुछ नहीं बताया कि मांजी ही कौन सी उस की सगी हैं. जब सुधीर ही उस का दर्द नहीं समझा तो मांजी कैसे समझेंगी.

वह मांजी से भी दूर रह कर अंतर्मुखी बनने लगी. एक सुबह उठ कर मांजी ने घर में ऐलान किया कि वे हरिद्वार गंगा स्नान को जाएंगी. प्रौढ़ावस्था में उन्हें मोहमाया के बंधन तोड़ कर आत्मिक शांति पाने के प्रयास शुरू करने हैं. मांजी का यह कथन सभी को अटपटा लगा क्योंकि वे अब तक धर्म, कर्म तथा पंडेपुजारियों को पाखंड की संज्ञा देती आई थीं पर हरिद्वार जाने पर आपत्ति किसी ने नहीं दिखाई. सुधीर ने भी कह दिया, ‘‘इसी बहाने प्राकृतिक दृश्यों को देख कर तुम्हारा स्वास्थ्य उत्तम हो जाएगा.’’

मांजी कार में बैठ कर अकेली ही हरिद्वार रवाना हो गईं. इस के बाद तो हरिद्वार जाना उन का नियम सा बन गया. वह महीने में 2-4 चक्कर हरिद्वार के लगाने लगीं.

वर्षा यह सोच कर अब और अधिक क्षुब्ध रहने लगी कि कैसे मांबेटे हैं जिन्हें सिर्फ अपने शौैकसिंगार व स्वास्थ्य का ही खयाल है, किसी और की जरा सी भी चिंता नहीं है. कम से कम मांजी को तो लव के बारे में कुछ पूछना चाहिए था, पर मांजी भी स्वार्थी ठहरीं. एक दिन उस ने फिर से मेरठ जाने का निश्चय किया. सुधीर से छिपा कर कुछ रुपए भी पर्स में रख लिए, सोचा कि लव की दवाइयां खरीदने में काम आ जाएंगे.

थोड़ी नानुकुर के बाद सुधीर ने उसे मेरठ जाने की इजाजत दे दी पर ड्राइवर को खूब समझा दिया कि उसे आज ही वर्षा को साथ ले कर लौटना है.

भरत को इस बार सुधीर ने नहीं जाने दिया. बहला दिया कि मां रात तक तो वापस लौट ही आएगी. सुधीर के कठोर व्यवहार से आहत वर्षा, रास्ते भर आंसू पोंछती रही.

मां और भाभी उसे देखते ही स्वागत के लिए लपकीं, लेकिन वर्षा तो अपने लव को हृदय से लगाने को व्याकुल थी, इसलिए घर में घुसते ही उतावलेपन से सीढि़यों की तरफ दौड़ पड़ी. परंतु छत पर पहुंचते ही जैसे उसे काठ मार गया, क्योंकि लव का कमरा खाली था. उस का बिस्तर व कोई सामान भी दिखाई नहीं दे रहा था. वह चकित सी खड़ी सोचती रही, कहां गया लव?

उस के मन में सैकड़ों आशंकाएं तैर उठीं, कहीं लव को कुछ हो तो नहीं गया?

मां व भाभी दोनों, उस के पीछेपीछे सीढि़यां चढ़ कर ऊपर आ पहुंचीं. वर्षा उन की तरफ मुड़ी व बदहवासी में चिल्लाने लगी, ‘‘मां, बताओ मेरे लव को क्या हुआ? वह कहां चला गया? तुम ने मुझे उस के बारे में कभी पत्र में भी कुछ नहीं लिखा. क्या हुआ मेरे बेटे को…’’ वह रो पड़ी.

‘‘दीदी, हमारी भी तो सुनो,’’ भाभी उस के आंसू पोंछने लगीं.

‘‘क्या तुम्हारी सास ने कभी कुछ नहीं बताया?’’

‘‘नहीं, वह क्यों बताएंगी? उन्हें लव से क्या लेनादेना? कहां है लव…’’

‘‘तुम्हारी सास ने उसे उचित देखभाल के लिए अस्पताल में भर्ती करा दिया है. वह कई बार यहां आ चुकी हैं व लव के इलाज पर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं.’’

वर्षा घोर आश्चर्य से जकड़ गई कि क्या ऐसा होना संभव है? पर मांजी को लव की बीमारी के बारे में कैसे पता लगा? कहीं उन्होंने छिप कर तो नहीं सुन लिया था?

वह उसी वक्त अस्पताल जाने के लिए उतावली हो उठी, पर मां ने जबरदस्ती उसे एक प्याला चाय पिला दी. फिर उस के साथ सभी लोग अस्पताल पहुंच गए.

लव साफसुथरे वस्त्र पहने स्वच्छ सफेद शैया पर लेटा हुआ था, मां को देखते ही उठने का प्रयास करने लगा. वर्षा ने उसे सहारा दे कर बिठाया व स्नेह से उस का मुंह चूमने लगी, ‘‘मेरा राजा बेटा, ठीक तो है न?’’

वह लव को पहले की अपेक्षा स्वस्थ देख कर संतुष्टि का आभास कर रही थी.

‘‘दादीमां नहीं आईं?’’ लव इधरउधर देख कर पूछ बैठा.

‘‘वह आएंगी, बेटे,’’ वर्षा उसे प्रसन्न देख कर खुशी से गद्गद हुई जा रही थी.

‘‘देखो, दादी मां ने मुझे कितने पैसे दिए हैं, खिलौने व मिठाइयां भी दिलवाई हैं,’’ लव सारा सामान दिखाने लगा.

कुछ वक्त लव के साथ बिता कर वर्षा अस्पताल से मायके लौट आई. फिर दिल्ली लौटी तो आते ही सास के पैर पकड़ कर कृतज्ञता के बोझ से दब कर रो पड़ी, ‘‘मांजी, आप महान हैं, हरिद्वार जाने के बहाने मेरे लव पर प्यार लुटाती रहीं…पराए लहू पर…’’

‘‘लव पराया कहां है, मेरा पोता है. जब तुम हमारी हो गईं तो लव भी तो अपना हुआ,’’ मांजी ने उसे उठा कर छाती से लगा लिया.

‘‘लेकिन सुधीर उस से नफरत करते हैं,’’ कह कर वर्षा चिंतित हो उठी, ‘‘वह सुनेंगे तो नाराज हो उठेंगे.’’

‘‘सुधीर ने लव को घर में रखने से ही तो इनकार किया है, उस का खर्च उठाने से तो नहीं? मैं लव को छात्रावास में रख कर पढ़ाऊंगी, उसे अच्छा इनसान बनाने में कोई कमी नहीं छोडूंगी.’’

वर्षा जानती थी कि सुधीर में मांजी का कोई भी आदेश टालने की हिम्मत नहीं है. उस का मन सुखसंतोष से भर उठा था कि अब उस का लव अनाथ नहीं रहा. उस के सिर पर मांजी की सबल छत्रछाया मौजूद है.

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