संस्कार: क्या जवान बेटी के साथ सफर करना सही था

जवान बेटी के साथ अकेले सफर करते रेलगाड़ी के कंपार्टमैंट में जवान लड़कों के ग्रुप के कारण वह अपने को असुरक्षित महसूस कर रही थी. लगभग 3 वर्ष बाद मैं लखनऊ जा रही थी. लखनऊ मेरे लिए एक शहर ही नहीं, एक मंजिल है क्योंकि वह मेरा मायका है. उस शहर में पांव रखते ही जैसे मेरा बचपन लौट आता है. 10 दिनों बाद भैया की बड़ी बेटी शुभ्रा की शादी थी. मैं और मेघना दोपहर की गाड़ी से जा रही थीं. मेरे पति राजीव बाद में पहुंचने वाले थे. कुछ तो इन्हें काम की अधिकता थी, दूसरे, इन की तो ससुराल है. ऐनवक्त पर पहुंच कर अपना भाव भी तो बढ़ाना था.

मेरी बात और है. मैं ने सोचा था कुछ दिन वहां चैन से रहूंगी, सब से मिलूंगी, बचपन की यादें ताजा करूंगी और कुछ भैयाभाभी के काम में भी हाथ बंटाऊंगी. शादी वाले घर में सौ तरह के काम होते हैं.

अपनी शादी के बाद पहली बार मैं शादी जैसे अवसर पर मायके जा रही थी. मां का आग्रह था कि मैं पूरी तैयारी के साथ आऊं. मां पूरी बिरादरी को दिखाना चाहती थीं आखिर उन की बेटी कितनी सुखी है, कितनी संपन्न है या शायद दूर के रिश्ते की बूआ को दिखाना चाहती होंगी, जिन का लाया रिश्ता ठुकरा कर मां ने मुझे दिल्ली में ब्याह दिया था. लक्ष्मी बूआ भी तो उस दिन से सीधे मुंह बात नहीं करतीं.

शुभ्रा के विवाह में जाने का मेरा भी चाव कुछ कम नहीं था, उस पर मां का आग्रह. हम दोनों, मांबेटी ने बड़े ही मनोयोग से समारोह में शामिल होने की तैयारी की थी. हर मौके पर पहनने के लिए नई तथा आधुनिक पोशाक, उस से मैचिंग चूडि़यां, गहने, सैंडल और न जाने क्याक्या जुटाया गया.

पूरी उमंग और उत्साह के साथ हम स्टेशन पहुंचे. राजीव हमें विदा करने आए थे. हमारे सहयात्री कालेज के लड़के थे जो किसी कार्यशाला में भाग लेने लखनऊ जा रहे थे. हालांकि गाड़ी चलने से पहले वे सब अपने सामान के यहांवहां रखरखाव में ही लगे थे, फिर भी उन्हें देख कर मैं कुछ परेशान हो उठी. मेरी परेशानी शायद मेरे चेहरे से झलकने लगी थी जिसे राजीव ने भांप लिया था. ऐसे में वे कुछ खुल कर तो कह न पाए लेकिन मुझे होशियार रहने के लिए जरूर कह गए. यही कारण था कि चलतेचलते उन्होंने उन लड़कों से भी कुछ इस तरह से बात की जिस से यात्रा के दौरान माहौल हलकाफुलका बना रहे.

गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी. हम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने लगे. लड़कों में अपनीअपनी जगह तय करने के लिए छीनाझपटी, चुहलबाजी शुरू हो गई.

वैसे, मुझे युवा पीढ़ी से कभी कोई शिकायत नहीं रही. न ही मैं ने कभी अपने और उन में कोई दूरी महसूस की है. मैं तो हमेशा घरपरिवार के बच्चों और नौजवानों की मनपसंद आंटी रही हूं. मेरा तो मानना है कि नौजवानों के बीच रह कर अपनी उम्र के बढ़ने का एहसास ही नहीं होता, लेकिन उस समय मैं लड़कों की शरारतों और नोकझोंक से कुछ परेशान सी हो उठी थी.

ऐसा नहीं कि बच्चे कुछ गलत कर रहे थे. शायद मेरे साथ मेघना का होना मुझे उन के साथ जुड़ने नहीं दे रहा था. कुछ आजकल के हालात भी मुझे परेशान किए हुए थे. देखने में तो सब भले घरों के लग रहे थे फिर भी एकसाथ 6 लड़कों का गु्रप, उस पर किसी बड़े का उन के साथ न होना, उस पर उम्र का ऐसा मोड़ जो उन्हें शांत, सौम्य तथा गंभीर नहीं रहने दे रहा था. मैं भला परेशान कैसे न होती.

मेरा ध्यान शुभ्रा की शादी, मायके जाने की खुशी और रास्ते के बागबगीचों, खेतखलिहानों से हट कर बस, उन लड़कों पर केंद्रित हो गया था. थोड़ी ही देर में हम उन लड़कों के नामों से ही नहीं, आदतों से भी परिचित हो गए.

घुंघराले बालों वाला सांवला सा, नाटे कद का अंकित फिल्मों का शौकीन लगता था. उस के उठनेबैठने में फिल्मी अंदाज था तो बातचीत में फिल्मी डायलौग और गानों का पुट था. एक लड़के को सब सैम कह कर बुला रहे थे. यह उस के मातापिता का रखा नाम तो नहीं लगता था, शायद यह दोस्तों द्वारा किया गया नामकरण था.

चुस्तदुरुस्त सैम चालढाल और पहनावे से खिलाड़ी लगता था. मझली कदकाठी वाला ईश गु्रप का लीडर जान पड़ता था. नेवीकट बाल, लंबी और घनी मूंछें और बड़ीबड़ी आंखों वाले ईश से पूछे बिना लड़के कोई काम नहीं कर रहे थे. बिना मैचिंग की ढीलीढाली टीशर्ट पहने, बिखरे बालों वाला, बेपरवाह तबीयत वाला समीर था जो हर समय चुइंगम चबाता हुआ बोलचाल में इंग्लिश भाषा के शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा कर रहा था.

मेरे पास बैठे लड़के का नाम मनीष था. लंबा, गोराचिट्टा, नजर का चश्मा पहने वह नीली जींस और कीमती टीशर्ट में बड़ा स्मार्ट लग रहा था. कुछ शरमीले स्वभाव का पढ़ाकू सा लगने वाला मनीष कान में ईयर फोन और एक हाथ में मोबाइल व दूसरे हाथ में एक इंग्लिश नौवेल ले कर बैठा ही था कि आगे बढ़ कर रजत ने उस का नौवेल छीन लिया. रजत बड़ा ही चुलबुला, गोलमटोल हंसमुख लड़का था. हंसते हुए उस के दोनों गालों पर गड्ढे पड़ते थे. रजत पूरे रास्ते हंसताहंसाता रहा. पता नहीं क्यों, मुझे लगा उस की हंसी, उस की शरारतें सब मेघना के कारण हैं. इसलिए हंसना तो दूर, मेरी नजरों का पहरा हरदम मेघना पर बैठा रहा.

मेरे ही कारण मेघना बेचारी भी दबीघुटी सी या तो खिड़की से बाहर झांकती रही या आंखें बंद कर के सोने का नाटक करती रही. अपने हमउम्र उन लड़कों के साथ न खुल कर हंस पाई न ही उन की बातचीत में शामिल हो सकी. वैसे, न मैं ही ऐसी मां और न मेघना ही इतनी पुरातनपंथी लड़की है. वह तो हमेशा सहशिक्षा में ही पढ़ी है. वह क्या कालेज में लड़कों के साथ बातचीत, हंसीमजाक नहीं करती होगी. फिर भी न जाने क्यों, शायद घर से दूरी या अकेलापन मेने मन में असुरक्षा की भावना को जन्म दे गया था.

उन से परिचय के आदानप्रदान और बातचीत में मैं ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. मुझे लगा वे मेघना तक पहुंचने के लिए मुझे सीढ़ी बनाएंगे. उन लड़कों की बहानों से उठी नजरें जब मेघना से टकरातीं तो मैं बेचैन हो उठती. उस दिन पहली बार मेघना मुझे बहुत ही खूबसूरत नजर आई और पहली बार मुझे बेटी की खूबसूरती पर गर्व नहीं, भय हुआ. मुझे शादी में इतने दिन पहले इस तरह जाने के अपने फैसले पर भी झुंझलाहट होने लगी थी. वास्तव में मायके जाने की खुशी में मैं भूल ही गई थी कि आजकल औरतों का अकेले सफर करना कितना जोखिम का काम है. वे सभी खबरें जो पिछले दिनों मैं ने अखबारों में पढ़ी थीं, एकएक कर के मेरे दिमाग पर दस्तक देने लगीं.

कई घंटों के सफर में आमनेसामने बैठे यात्री भला कब तक अपने आसपास से बेखबर रह सकते हैं. काफी देर तक तो हम दोनों मुंह सी कर बैठी रहीं लेकिन धीरेधीरे दूसरी तरफ से परिचय पाने की उत्सुकता बढ़ने लगी. शायद यात्रा के दौरान यह स्वाभाविक भी था. यदि सामने कोई परिवार बैठा होता तो क्या खानेपीने की चीजों का आदानप्रदान किए बिना हम रहतीं और अगर सफर में कुछ महिलाओं का साथ होता तो क्या वे ऐसे ही अजनबी बनी रहतीं. उन कुछ घंटों के सफर में तो हम एकदूसरे के जीवन का भूगोल, इतिहास, भूत, वर्तमान सब बांच लेतीं.

चूंकि वे जवान लड़के थे और मेरे साथ मेरी जवान बेटी थी इसलिए उन की उठी हर नजर मुझे अपनी बेटी से टकराती लगती. उन की कही हर बात उसी को ध्यान में रख कर कही हुई लगती. उन की हंसीमजाक में मुझे छींटाकशी और ओछापन नजर आ रहा था. कुछ घंटों का सफर जैसे सदियों में फैल गया था. दोपहर कब शाम में बदली और शाम कब रात में बदल गई मुझे खबर ही न हुई क्योंकि मेरे अंदर भय का अंधेरा बाहर के अंधेरे से ज्यादा घना था.

हालांकि जब भी कोई स्टेशन आता, लड़के हम से पूछते कि हमें चायपानी या किसी अन्य चीज की जरूरत तो नहीं. उन्होंने मेघना को गुमसुम बैठे बोर होते देखा तो अपनी पत्रपत्रिकाएं भी पेश कर दीं और वे अपनेअपने मोबाइल में व्यस्त हो गए. जबजब उन्होंने कुछ खाने के लिए पैकेट खोले तो बड़े आदर से पहले हमें औफर किया, हालांकि, हम हमेशा मना करती रहीं.

मैं ने अपनेआप को बहुत समझाया कि जब आपत्ति करने लायक कोई बात नहीं, तो मैं क्यों परेशान हो रही हूं, मैं क्यों सहज नहीं हो जाती. लेकिन तभी मन के किसी कोने में बैठा भय फन फैला देता. कहीं मेरी जरा सी ढील, बात को इतनी दूर न ले जाए कि मैं उसे समेट ही न सकूं. मैं तो पलपल यही मना रही थी कि यह सफर खत्म हो और मैं खुली हवा में सांस ले सकूं.

कानपुर स्टेशन आने वाला था. गाड़ी वहां कुछ ज्यादा देर के लिए रुकती है. डब्बे में स्वाभाविक हलचल शुरू हो गई थी. तभी एक अजीब सा शोर कानों में टकराने लगा. गाड़ी की रफ्तार धीमी हो गई थी. स्टेशन आतेआते बाहर का कोलाहल कर्णभेदी हो गया था. हर कोई खिड़कियों से बाहर झांकने की कोशिश कर ही रहा था कि गाड़ी प्लेटफौर्म पर आ लगी. बाहर का दृश्य सन्न कर देने वाला था. हजारों लोग गाड़ी के पूरी तरह रुकने से पहले ही उस पर टूट पड़े थे. जैसे, शेर शिकार पर झपटता है. स्टेशन पर चीखपुकार, लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज, हर तरफ आतंक का वातावरण था.

इस से पहले कि हम कुछ समझते, बीसियों लोग डब्बे में चढ़ कर हमारी सीटों के आसपास, यहांवहां जुटने लगे, जैसे गुड़ की डली पर मक्खियां चिपकती चली जाती हैं. वह स्टेशन नहीं, मानो मनुष्यों का समुद्र पर बंधा हुआ बांध था जो गाड़ी के आते ही टूट गया था. प्लेटफौर्म पर सिर ही नजर आ रहे थे. तिल रखने को भी जगह नहीं थी.

कई सिर खिड़कियों से अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे. मेघना ने घबरा कर खिड़की बंद करनी चाही तो कई हाथ अंदर आ गए जो सबकुछ झपट लेना चाहते थे. मेघना को पीछे हटा कर सैम और अंकित ने खिड़कियां बंद कर दीं. पलट कर देखा तो मनीष, रजत और ईश, तीनों अंदर घुस आए आदमियों के रेवड़ को खदेड़ने में लगे थे. किसी को धकिया रहे थे तो किसी से हाथापाई हो रही थी. समीर ने सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जल्दीजल्दी सारा सामान बंद खिड़कियों के पास इकट्ठा करना शुरू कर दिया.

लड़कों को उन धोतीकुरताधारी, निपट देहातियों से उलझते देख कर जैसे ही मैं ने हस्तक्षेप करना चाहा तो ईश और सैम एकसाथ बोल उठे, ‘‘आंटीजी, आप दोनों निश्चिंत हो कर बैठिए. बस, जरा सामान पर नजर रखिएगा. इन से तो हम निबट लेंगे.’’

तब याद आया कि सुबह लखनऊ में एक विशाल राजनीतिक रैली होने वाली थी, जिस में भाग लेने यह सारी भीड़ लखनऊ जा रही थी. लगता था जैसे रैली के उद्देश्य और उस की जरूरत से उस में भाग लेने वाले अनभिज्ञ थे. ठीक वैसे ही उस रैली के परिणाम और इस से आम आदमी को होने वाली परेशानी से रैली के आयोजक भी अनभिज्ञ थे.

पूरी गाड़ी में लूटपाट और जंग छिड़ी थी. जैसे वह गाड़ी न हो कर शोर और दहशत का बवंडर था जो पटरियों पर दौड़ता चला जा रहा था. लड़कों का पूरा ग्रुप हम दोनों मांबेटी की हिफाजत के लिए डट गया था. एक मजबूत दीवार खड़ी थी हमारे और अनचाही भीड़ के बीच. उन छहों की तत्परता, लगन, और निष्ठा को देख कर मैं मन ही मन नतमस्तक थी. उस पल शायद मेरा अपना बेटा भी होता तो क्या इस तरह अपनी मां और बहन की रक्षा कर पाता?

कानपुर से लखनऊ तक के उस कठिन सफर में वे न बैठे न उन्होंने कुछ खायापिया. इस बीच वे अपनी शरारतें, चुहलबाजी, फिल्मी अंदाज, सबकुछ भूल गए थे. उन के सामने जैसे एक ही उद्देश्य था, हमारी और सामान की हिफाजत.

मैं आत्मग्लानि की दलदल में धंसती जा रही थी. इन बच्चों के लिए मैं ने क्या धारणा बना ली थी, जिस के कारण मैं ने एक बार भी इन से ठीक व्यवहार नहीं किया. एक बार भी इन से प्यार से नहीं बोली, न ही इन के हासपरिहास या बातचीत में शामिल हुई. क्या परिचय दिया मैं ने अपनी शिक्षा, अनुभव, सभ्यता तथा संस्कारों का? और बदले में इन्होंने इतना दिया, इतना शिष्ट सम्मान तथा सुरक्षा.

उस दिन पहली बार एहसास हुआ कि वास्तव में महिलाओं का अकेले यात्रा करना कितना असुरक्षित है. साथ ही, एक सीख भी मिली कि कम से कम शादीब्याह तय करते हुए या यात्रा पर निकलने से पहले हमें शहर में होने वाली राजनीतिक रैलियों, जलसे, जुलूसों की जानकारी भी ले लेनी चाहिए. उस दिन महिलाओं के साथ घटी दुर्घटनाएं अखबारों के मुखपृष्ठ व टैलीविजन चैनलों की सुर्खियां बन कर रह गईं. कुछ घटनाओं को तो वहां भी जगह नहीं मिल पाई.

लखनऊ स्टेशन का हाल तो उस से भी बुरा था. प्लेटफौर्म तो जैसे कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया था. सामान, बच्चे, महिलाओं को ले कर यात्री उस भीड़ से निबट रहे थे. चीखपुकार मची थी. भीड़ स्टेशन की दुकानें लूट रही थी. दुकानदार अपना सामान बचाने में लगे थे. प्रलय का सा आतंक हर यात्री के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहा था. मेरी तो आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा था. इतना सारा कीमती सामान और साथ में खूबसूरत जवान बेटी. उस पर ऐसी भीड़ जिस की कोई नैतिकता, न सोच, बस, एक उन्माद होता है.

वैसे तो भैया हमें लेने स्टेशन आए हुए थे लेकिन उस भीड़ में हम उन्हें कहां मिलते. उस भीड़ में तो सामान उठाने के लिए कुली भी न मिल सका. उन लड़कों के पास अपना तो मात्र एकएक बैग था. अपने बैग के साथ सैम ने हमारी बड़ी अटैची ले ली. छोटी अटैची मेरे मना करने पर भी मनीष ने ले ली. हालांकि उस में पहिए लगे हुए थे तो परेशानी की बात नहीं थी. मेघना के पास की बोतल तथा मेरे पास मात्र मेरा पर्स रह गया. हमारे दोनों बैग भी ईश और अंकित के कंधों पर लटक गए थे. उन सब ने भीड़ में एकदूसरे के हाथ पकड़ कर एक घेरा सा बना लिया जिस के बीच हम दोनों चल रही थीं. उन्होंने हमें स्टेशन से बाहर ऐसे सुरक्षित निकाल लिया जैसे आग से बचा कर निकाल लाए हों.

मेरे पास उन का शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं थे. उस दिन अगर वे नहीं होते तो पता नहीं क्या हो जाता, इतना सोचने मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मैं ने जब उन का आभार प्रकट किया तो उन्होंने बड़े ही सहज भाव से मुसकराते हुए कहा था, ‘‘क्या बात करती हैं आप, यह तो हमारा फर्ज था.’’

दिल से मैं ने उन्हें शुभ्रा की शादी में शामिल होने की दावत दी लेकिन उन का आना संभव नहीं था क्योंकि वे मात्र 4 दिनों के लिए लखनऊ एक कार्यशाला में शामिल होने आए थे. उन के लिए 10 दिन रुकना असंभव था. फिर भी एक शाम हम ने उन्हें खाने पर बुलाया. सब से उन का परिचय करवाया. वह मुलाकात बहुत ही सहज, रोचक और यादगार रही. सभी लड़के सुशिक्षित, सभ्य तथा मिलनसार थे.

हम लोग अकसर युवा पीढ़ी को गैरजिम्मेदार, संस्कारविहीन तथा दिशाविहीन कहते हैं लेकिन हमारा ही अंश और हमारे ही दिए संस्कारों को ले कर बड़ी हुई यह युवा पीढ़ी भला हम से अलग सोच वाली कैसे हो सकती है. जरूर उन्हें समझने में कहीं न कहीं हम से ही चूक हो जाती है.

सावधानी हटी दुर्घटना घटी: आखिर क्या हुआ था सौजन्या के साथ?

‘‘सौजन्या तुम अब तक यहीं बैठी हो? घर नहीं गईं?’’ रीमा सौजन्या को अपने कक्ष में लैपटौप में व्यस्त देख चौंक गई. ‘‘आओ रीमा बैठो. घर जाने का मन नहीं कर रहा था. इसीलिए समाचार आदि देखने लगी. यह इंटरनैट भी कमाल की चीज है. समय कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता,’’ सौजन्या बोली.

‘‘हां, वह भी जब तुम विवाह डौट कौम पर व्यस्त हो,’’ रीमा हंसी. ‘‘तुम भी उपहास करने लगीं. विवाह

डौट कौम मेरा शौक नहीं मजबूरी है. सोचती हूं कोई ठीकठाक सा प्राणी मिल जाए तो समझो मैं चैन से जी सकूंगी,’’ सौजन्या बड़े दयनीय ढंग से मुसकराई.

‘‘समझ में नहीं आता तुम्हें कैसे समझाऊं… एक बार नवीन से मिल तो लो. वह भी तुम्हारी तरह हालात का मारा है. पत्नी ने 3 माह की मासूम बच्ची को छोड़ कर आत्महत्या कर ली. बेचारा कोर्टकचहरी के चक्कर में फंस कर बुरी तरह टूट चुका है,’’ रीमा ने पुन: अपनी बात दोहराई. ‘‘तुम भी रीमा… मैं तो सोचती थी तुम मेरी परम मित्र हो. मुझे और मेरी मजबूरी को भली प्रकार समझती हो. मैं तो स्वयं अपने तलाक के केस में उलझ कर रह गई थी. जीवन में कड़वाहट के अलावा कुछ बचा ही नहीं था. 10 साल लग गए उस मकड़जाल से निकलने में. सोचा था तलाक के बाद खुली हवा में सांस ले पाऊंगी, पर अब शुभचिंतक पीछे पड़े हैं. एक तुम्हारे नवीन का ही प्रस्ताव नहीं है मेरे सामने. दूरपास के संबंधियों को अचानक मेरी इतनी चिंता सताने लगी है कि मेरे लिए विवाह के प्रस्तावों की वर्षा होने लगी है,’’ सौजन्या एक ही सांस में बोल गई.

‘‘तो इस में बुराई ही क्या है? अब तो तुम्हारा तलाक भी हो गया है. कब तक यों ही अकेली रहोगी? अपनी नहीं तो अपने मातापिता की सोचो. तुम्हारी चिंता में घुल रहे हैं… तुम तो स्वयं समझदार हो. तुम्हारे भाईबहन अपनी ही दुनिया में इतने व्यस्त हैं कि तुम्हारी खोजखबर तक नहीं लेते,’’ रीमा भी कब चुप रहने वाली थी. ‘‘मैं ने कब मना किया है. मैं तो स्वयं अपने जीवन से ऊब गई हूं. पर समस्या यह है कि सभी प्रस्ताव तुम्हारे कजिन नवीन जैसे ही हैं. मैं ने अपनी मुक्ति के लिए इतनी लंबी लड़ाई लड़ी है कि मैं किसी और के घावों पर मरहम लगाने की हालत में नहीं हूं. मुझे तो कोई ऐसा चाहिए जो मेरे घावों पर मरहम लगा सके.’’

‘‘ठीक है, जैसा तू ठीक समझे. मैं तो तुझे खुश देखना चाहती हूं. मन को मन से राह होती है. पर जब तुम्हें कोई मनचाहा साथी मिल जाए तो बताना जरूर. अकेले ही कोई निर्णय मत ले लेना. इस बार तो हम खूब ठोकबजा कर देखेंगे ताकि बाद में पछताना न पड़े.’’ ‘‘वही तो. मैं तो ऐसा जीवनसाथी चाहती हूं, जो मेरी नौकरी और मोटे वेतन के लालच में नहीं, मैं जैसी हूं मुझे वैसी स्वीकार कर ले,’’ सौजन्या भीगे स्वर में बोली तो रीमा का मन भी भर आया.

दोनों बचपन की सहेलियां थीं और एकदूसरी पर जान छिड़कती थीं. रीमा अपने 2 बच्चों और पति के साथ अपने घरसंसार में सुखी थी, तो सौजन्या अपने नारकीय वैवाहिक जीवन से मुक्त होने के संघर्ष में टूट चुकी थी. 10 सालों के लंबे संघर्ष के बाद उसे पीड़ा से मुक्ति तो मिल गई पर इन 10 सालों के अपमान, तिरस्कार और कड़वाहट को भूल पाना सरल नहीं था. उस पर शुभचिंतकों द्वारा लाए गए नितनए विवाह के प्रस्ताव उस का जीना दूभर कर रहे थे. अत: उस ने अपने जीवन की बागडोर दृढ़ता से अपने हाथों में थामने का निर्णय ले लिया. दूसरा विवाह वह करेगी पर अपनी शर्तों पर. अपने भावी वर का चुनाव वह स्वयं करेगी. वह नहीं चाहती थी कि कोई उस पर तरस खा कर विवाह करे या उस की नौकरी और ऊंचे वेतन के लालच में विवाह के बंधन में बंधे और उस का जीवन नर्क बना दे. अंतर्मुखी सौजन्या को इन हालात में ‘इंटरनैट’ देवदूत की भांति लगा था और वह उसी में अपने सपनों के राजकुमार की खोज में जुट गई थी. 1 सप्ताह पहले जब रीमा अचानक उस के कक्ष में चली आई थी तो वह विभिन्न इंटरनैट पटलों पर भावी वरों के जीवनविवरण देखने में व्यस्त थी.

आशीष कुमार नाम के एक युवक का फोटो और जीवनविवरण उसे

इतना भा गया कि वह देर तक उस फोटो को हर कोण से देख कर मंत्रमुग्ध होती रही. जीवनविवरण का हर शब्द उस ने कई बार पढ़ा और पंक्तियों के बीच छिपे अर्थ को ढूंढ़ने का प्रयत्न करती रही. पहली बार उसे लगा कि आशीष को कुदरत ने उसी के लिए बनाया है. चेहरे का हर भाव उसे दीवाना सा किए जा रहा था. फिर तो सौजन्या मौका मिलते ही अपना लैपटौप खोल कर बैठ जाती और मंत्रमुग्ध सी अपने प्रिय को निहारती रहती.

सौजन्या को लगता कि अब उसे छिप कर रोमांस करने की जरूरत नहीं है. अब तो वह डंके की चोट पर अपने प्यार का इजहार करेगी. आशीष भी उस के प्रति अपना प्रेम प्रकट करने में पीछे नहीं रहता था. उस का फोटो देख कर ही वह इतना मंत्रमुग्ध हो गया था कि उस से मिलने की प्रबल इच्छा प्रकट करता रहता था. पर न जाने क्यों सौजन्या ही उस से मिलने का साहस नहीं जुटा पा रही थी. वह एक ही तर्क देती, पहले एकदूसरे को जान लें, समझ लें तब मिलने की सोचेंगे. सौजन्या के मन में अजीब सी जड़ता ने घर कर लिया था. कहीं मिल कर निराशा हाथ लगी तो? कभी सोचती कि उस के जीवन में जो कुछ घट रहा है कहीं मात्र स्वप्न तो नहीं? कहीं आंखें खोलते ही सबकुछ विलुप्त तो नहीं हो जाएगा? क्यों न इस स्वप्न को यों ही चलने दे और उस का रसास्वादन करती रहे.

उधर आशीष का उस से मिलने का हठ बढ़ता ही जा रहा था. सौजन्या का एक ही उत्तर होता कि पहले हम एकदूसरे को भली प्रकार समझ तो लें. ‘‘हमारा परिचय हुए 3 माह से अधिक हो गए हैं. अधिक समझने के लिए एकदूसरे से मिलना भी तो जरूरी है,’’ एक दिन आशीष अनमने स्वर में बोला.

‘‘अभी नहीं, मैं जब मानसिकरूप से तुम से मिलने को तैयार हो जाऊंगी तो स्वयं तुम्हें सूचित कर दूंगी,’’ सौजन्या ने दोटूक उत्तर दिया. अब सौजन्या को रीमा की याद आई, ‘‘रीमा, आज शाम को घर आना. कुछ जरूरी बातें करनी हैं,’’ उस ने रीमा को फोन कर कहा.

‘‘ऐसी क्या जरूरी बातें हैं, जो तुम औफिस में नहीं कर सकतीं?’’ रीमा ने उत्सुक स्वर में पूछा. ‘‘यह तो घर आ कर ही पता चलेगा,’’ सौजन्या ने टाल दिया.

सौजन्या घर पहुंची ही थी कि रीमा आ पहुंची. उस का सामना पहले सौजन्या की मां से हुआ. ‘‘नमस्ते आंटी,’’ रीमा उन्हें देखते ही बोली.

‘‘नमस्ते, तुम तो ईद का चांद हो गई हो बेटी. कभीकभी हम से भी मिलने आ जाया करो,’’ वे बोलीं. ‘‘2 माह पहले ही तो आई थी आंटी,’’

रीमा बोली. ‘‘हां, और मैं ने तुम से कुछ कहा था पर उस का कोई नतीजा तो सामने आया नहीं. विवाह का नाम सुनते ही सौजन्या बेलगाम सांड़ की तरह भड़क उठती है.’’

सौजन्या की मां रीमा से बातें कर ही रही थीं कि सौजन्या अपने कमरे के बाहर की बालकनी में प्रकट हुई, ‘‘अरे रीमा, वहां क्या कर रही हो? ऊपर आओ न.’’ ‘‘जाओ बेटी, हम वृद्धों के पास तुम्हारा

क्या काम?’’ ‘‘क्या मां, छोटी सी बात पर भड़क उठती हो. थोड़ी देर में हम दोनों नीचे आती हैं,’’ सौजन्या बोली.

‘‘जाओ रीमा बेटी, लैपटौप खोल कर बैठी होगी. आजकल वही इस का सबकुछ है. अपने परिवार या समाज की तो इसे चिंता ही नहीं है.’’ ‘‘आंटी, अपना गुस्सा मुझ पर उतार रही थीं. वे शायद समझती नहीं कि सहेली हूं तो क्या हुआ? औफिस में तो तू मेरी बौस है. मेरी बात भला क्यों मानने लगी,’’ रीमा सौजन्या के कक्ष में पहुंचते ही आहत स्वर में बोली.

‘‘अब दूंगी एक, पर छोड़ ये सब, यह देख,’’ सौजन्या ने विवाह डौट कौम पर आशीष का फोटो और जीवनविवरण निकाल लिया, ‘‘देख तो कैसा है?’’ ‘‘वाऊ, यह तो किसी फिल्मी हीरो की तरह लग रहा है. कब से चल रहा है ये सब?’’ रीमा आशीष का विवरण पढ़ते हुए बोली.

‘‘3 माह पहले मिले थे हम दोनों.’’ ‘‘कहां?’’

‘‘यहीं इंटरनैट पर और कहां.’’ ‘‘तो अभी मेलमुलाकात भी नहीं हुई? विवाह भी इंटरनैट पर ही करोगी क्या?’’ रीमा हंस दी.

‘‘आशीष तो बहुत दिनों से मिलने की रट लगाए हैं. मेरी ही हिम्मत नहीं होती. तुम चलोगी मेरे साथ?’’ ‘‘मैं क्यों कबाब में हड्डी बनने लगी? अब तुम छोटी बच्ची नहीं हो. अपने निर्णय स्वयं लेने सीखो. औफिस में तो लाखों के वारेन्यारे करती हो और यहां किसी से मिलने से कतरा रही हो?’’ रीमा ने समझाना चाहा.

‘‘यही पूछना था तुम से. तुम ने कहा था न कि कोई पसंद आए तो बताना. तो सब से पहले तुम्हें ही बता रही हूं.’’ ‘‘ओह हो, तुम अभी से शरमा रही हो. चेहरे पर भी लाली छा रही है. चल अभी इस से मिलने का दिन और तिथि तय कर लो.’’

‘‘रविवार कैसा रहेगा?’’ ‘‘बहुत बढि़या, छुट्टी का दिन है. दोनों पूरा दिन साथ बिता सकते हो. एकदूसरे को जाननेसमझने में मदद मिलेगी.’’ तुरंत सौजन्या और आशीष के बीच संदेशों का आदानप्रदान हुआ और रविवार के दिन मिलने की बात तय हो गई.

‘‘आंटी, अब मत डांटना मुझे. आप की इच्छा पूरी होने जा रही है. बैंडबाजा बजने में अधिक देर नहीं है अब,’’ रीमा जातेजाते सौजन्या की मां से बोली. ‘‘तुम्हारे मुंह में घीशक्कर, पर पूरी बात तो बताती जाओ,’’ वे बोलीं.

‘‘वह तो आप सौजन्या से ही पूछना. मुझे देर हो रही है. घर में सब इंतजार कर रहे होंगे,’’ कह रीमा सरपट भागी. मगर दूसरे दिन कुछ अप्रत्याशित सा घट गया. सौजन्या एक मीटिंग में व्यस्त थी कि उस के सहायक ने एक चिट ला कर दी. चिट पर आशीष कुमार का नाम देखते ही उस के होश उड़ गए. वह बाहर की ओर लपकी.

आशीष लौबी में बैठा उस का इंतजार कर रहा था. ‘‘आप यहां? इस समय?’’ सौजन्या के मुंह से किसी प्रकार निकला.

‘‘रहा नहीं गया. इसीलिए मिलने चला आया. मैं रविवार तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता. चलो छुट्टी ले लो कहीं घूमनेफिरने चलते हैं,’’ आशीष बोला. ‘‘यह क्या पागलपन है. मेरी एक जरूरी मीटिंग चल रही है. मैं छुट्टी नहीं ले सकती… इस तरह यहां क्यों चले आए? देखो सब की निगाहें हम दोनों पर ही टिकी हैं,’’ सौजन्या झेंप गई थी पर आशीष अपनी ही जिद पर अड़ा था.

बड़ी मुश्किल से सौजन्या ने आशीष को समझाबुझा कर भेजा और रविवार को मिलने की बात दोहराई. लंच के समय रीमा ने सौजन्या की खूब खिंचाई की, ‘‘लगता है आशीष बाबू से अब यह दूरी सहन नहीं हो रही.’’

‘‘पर इस तरह औफिस में आ धमकना? मुझे तो अच्छा नहीं लगा.’’ ‘‘चलता है सब चलता है. प्रेम और जंग में सब जायज है,’’ रीमा हंस दी.

शुक्रवार को सौजन्या घर पहुंची ही थी कि रीमा आ पहुंची. ‘‘क्या हुआ? आज औफिस क्यों नहीं आईं और अब इस तरह अचानक?’’ सौजन्या चौंक गई.

‘‘इतने प्रश्न मत किया करो. अपने कमरे में चलो. जरूरी बात करनी है,’’ रीमा बोली और फिर दोनों सहेलियां सौजन्या के कमरे में जा बैठीं. रीमा ने चटपट ‘विवाहविच्छेद डौट कौम’ नाम की साइट खोली और एक फोटो और जीवनविवरण ढूंढ़ निकाला.

‘‘यह देखो, पहचाना?’’ रीमा बोली. ‘‘यह तो आशीष है.’’

‘‘नहीं, नीचे पढ़ो. यह रूबीन है. यहां इस का नाम, काम, धाम सब बदला हुआ है. यहां ये महोदय सरकारी अफसर नहीं चिकित्सक हैं. अविवाहित नहीं तलाकशुदा हैं. पर फोन नंबर वही है. जाति, धर्म भी बदल गए हैं.’’ ‘‘उफ, ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है?’’ सौजन्या ने सिर पकड़ लिया.

‘‘स्वयं पर तरस खाना छोड़ दो सौजन्या. ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है. चलो नवीन से मिलने चलते हैं.’’ ‘‘मैं किसी से मिलने की स्थिति में नहीं हूं.’’

‘‘मैं तुम्हें उस से मिलवाने नहीं ले जा रही. हम उस से इन आशीष उर्फ रूबीन महोदय के विरुद्ध सहायता मांगेंगी. इस धोखेबाज को दंड दिलाए बिना मुझे चैन नहीं मिलने वाला. नवीन साइबर अपराध शाखा में कार्यरत है,’’ रीमा नवीन को फोन मिलाते हुए बोली. कुछ ही देर में दोनों सहेलियां नवीन के सामने बैठी सौजन्या की आपबीती सुना रही थीं.

‘‘मैं ने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि औनलाइन भी इस तरह की धोखाधड़ी होती है. मैं तो सोचती थी कि ये डौट कौम कंपनियां सबकुछ पता लगा कर ही किसी का विवरण पंजीकृत करती हैं.’’ ‘‘धोखाधड़ी कहां नहीं होती सौजन्याजी. हमारे अपने भी हमें धोखा दे देते हैं. हमें सावधानी से काम लेना चाहिए. यों समझ लीजिए कि सावधानी हटी, दुर्घटना घटी,’’ नवीन बोला और फिर देर तक फोन करने में व्यस्त रहा.

‘‘कुछ देर तक यह आशीष उर्फ रूबीन मुझ से बात करता रहा. पर जब मैं ने पूछताछ शुरू की तो फोन काट दिया. पर आप चिंता न करें. आप चाहें तो अपनी जानकारी गुप्त रखते हुए इस व्यक्ति के विरुद्ध रपट लिखवा सकती हैं.’’ ‘‘नहीं, मैं किसी चक्कर में नहीं पड़ना चाहती. वैसे भी मैं तो बालबाल बच गई… रीमा ने बचा लिया मुझे नहीं तो पता नहीं क्या होता. मैं बहुत डर गई हूं… अब कभी इस झंझट में नहीं पड़ने वाली.’’

‘‘वही तो मैं समझा रहा हूं. उस ने मानसिक संताप दिया है आप को. इस के लिए उसे 3 साल की सजा भी हो सकती है,’’ नवीन ने समझाया. ‘‘मैं कुछ समय चाहती हूं,’’ सौजन्या ने हथियार डाल दिए थे.

धीरेधीरे जीवन अपने ही ढर्रे पर चलने लगा था. न सौजन्या ने आशीष वाली घटना का कभी जिक्र किया न रीमा ने पूछा. रीमा को लगा कि उस घटना को किसी बुरे सपने की तरह भूल जाना ही ठीक था. अचानक एक दिन नवीन रीमा के घर आ धमका. ‘‘मैं तो खुद तुम से मिल कर धन्यवाद देना चाहती थी. तुम ने उस प्रकरण को कितनी कुशलता से संभाला वरना तो पता नहीं मेरी सहेली सौजन्या का क्या हाल होता,’’ रीमा ने आभार व्यक्त किया.

‘‘रीमा, आभार तो मुझे तुम्हारा व्यक्त करना चाहिए. सौजन्या मेरे जीवन में सुगंधित पवन के झोंके की तरह आई है. शाम की प्रतीक्षा में दिन कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता.’’ ‘‘क्या? फिर से कहो, सुगंधित पवन का झोंका और न जाने क्या? लगता है आजकल सौजन्या तुम्हें घास डालने लगी है,’’ रीमा मुसकराई.

‘‘घास तो फिलहाल हम ही डाल रहे हैं, पर जीवन में कुछ ऐसा घटित हो रहा है जो पहले कभी नहीं हुआ था.’’ ‘‘मैं सौजन्या से बात करूंगी,’’ रीमा ने कहा.

‘‘नहीं, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी. उसे भनक भी लग गई कि मैं उस पर डोरे डाल रहा हूं तो भड़क उठेगी. यह समस्या मेरी है. इसे सुलझाने का भार भी मेरे ही कंधों पर है,’’ कह नवीन कहीं खो सा गया. मगर रीमा उस की आंखों में लहराते प्रेम के अथाह सागर को साफ देख पा रही थी. पहली बार रीमा को लगा कि अपने करीबी लोगों को भी कितना कम जानते हैं हम. पर वह खुश थी सौजन्या के लिए और नवीन के लिए भी जो अनजाने ही निशांत की ओर बढ़े जा रहे थे.

ब्रेकअप पार्टी: प्रतीक को अनन्या से हुआ था एक झटके में प्यार

‘‘चुप हो जा भाई, कितना रोएगा,’’ मैं और सुशील काफी देर से प्रतीक को चुप कराने की कोशिश कर रहे थे, पर वह रोए जा रहा था. मिलिंद अपना आपा खोता जा रहा था और दीवार पर हाथ मारते हुए कुछ बोल रहा था, ‘इसे जल्दी चुप कराओ वरना मैं इस की पिटाई कर दूंगा.’

कितना बदल गया था प्रतीक. जब मैं ने उसे पहली बार देखा था तब मेरी तरह वह भी अपने पापा के साथ इस होस्टल में पीजी के तौर पर रहने आया था. उस की रिजल्ट हिस्ट्री जानने के बाद पापा ने मुझे उस के साथ रहने और उसी के साथ दोस्ती रखने की हिदायत दे डाली थी. जहां मैं नीट की तैयारी के लिए कोटा आया था, वह आईआईटियन था. पढ़ने में होशियार प्रतीक जब देखो किताबोें में ही घुसा रहता, पर मुझे शाम होते ही ऐसा लगता जैसे मेरे छोटे से कमरे की दीवारों ने भयावह आकृति अख्तियार कर ली है और मैं डर कर कमरे से बाहर भागता.

मेरे कमरे के पास ही सुशील का भी कमरा था पर वह सिर्फ नाम का सुशील था. पढ़ाईलिखाई से उस का कम ही वास्ता था. वह कमरे में कम बालकनी में ज्यादा रहता था और रहता भी क्यों नहीं, उस ने अपने शहर में कहां इतनी हरियाली देखी थी जो यहां थी. हमारे होस्टल वाली गली में सिर्फ हमारा ही बौयज होस्टल था. बाकी सारे गर्ल्स होस्टल थे. चारों तरफ गोपियां बीच में कन्हैया वाला हाल था.

मेरे कमरे के सामने वाला कमरा प्रतीक का था और उस के पास वाले कमरे में नया लड़का मिलिंद आया था, जो जल्दी ही हम सब का बौस बन गया था. उसे सुशील की हरकतें बिलकुल पसंद नहीं थीं. मुझे वह अपना छोटा भाई समझता था और ऐसे भाषण पिलाता था जिस के आगे मम्मी के भाषण भी फीके पड़ जाते थे.

मैं, मिलिंद और प्रतीक अकसर साथ ही पढ़ाई करते थे, पर शाम होते ही हमें किताबों को देख कर उबकाई सी आने लगती, इसलिए हम उसी वक्त पढ़ाई बंद कर के नहाधो कर, परफ्यूम लगा कर हीरो बन जाते और कोटा की भीड़भरी सड़कों पर घूमने निकल जाते.

प्रतीक और मिलिंद लड़कियों को देख कर खुश होते, लेकिन लड़कियां मुझ पर लाइन मारती हुई निकल जातीं तो मैं शरमा कर रह जाता. सुशील को तो गर्लफ्रैंड भी मिल गई थी और उस लड़की ने उसे अपनी और अपनी सहेलियों की हर ख्वाहिश पूरी करने वाला जिन्न बना लिया था. हमें उस की ऐसी हालत पर तरस भी आता और हंसी भी आती, पर कई बार हमारे समझाने पर भी वह नहीं समझा तो हम ने उसे उस के ही हाल पर छोड़ दिया.

इधर, हमेशा से पढ़ाकू रहे प्रतीक का भी मन उचटने लगा था, वजह थी सामने वाले होस्टल में रहने वाली अनन्या. अब वह भी अपने कमरे में कम, बालकनी में ज्यादा नजर आता था. हमेशा खयालों में खोया रहता. जब हम से उस का हाल देखा नहीं गया तो हम ने उन दोनों की मीटिंग की जुगत भिड़ाई और उन की प्रेमकहानी शुरू हो गई.

परेशानी यह थी कि परीक्षा के दिन नजदीक आ रहे थे और मैं व मिलिंद घूमनाफिरना छोड़ कर अब पढ़ाई में जुटे हुए थे, पर प्रतीक का मन अब पढ़ाई में नहीं लग रहा था. हर वीकली टैस्ट में उस की कटऔफ नीचे जा रही थी, पर उसे इस की परवा ही नहीं थी. फिर वही हुआ जिस का हमें डर था. उस का रिजल्ट इतना डाउन हुआ कि उस ने ही आईआईटी के छोड़ने का निश्चिय कर लिया. परीक्षा खत्म होने के बाद ज्यादातर स्टूडैंट्स अपनेअपने घर चले गए थे, पर हम लोग वहीं थे, क्योंकि अनन्या के चक्कर में प्रतीक नहीं गया और न ही उस ने हमें जाने दिया.

उस रोज मैं और मिलिंद अपने कमरे में बैठ कर बातें कर रहे थे कि मिलिंद का मोबाइल बजा. वहां से प्रतीक घबराई हुई आवाज में कह रहा था, ‘‘मिलिंद, तू सौम्य को ले कर जल्दी चंबल गार्डन पहुंच.’’

‘‘क्या हुआ भाई, तू इतना घबराया हुआ क्यों है?’’ मिलिंद की बात पूरी सुने बिना ही फोन कट चुका था. हम दोनों जैसे थे उसी स्थिति में औटो ले कर चंबल गार्डन पहुंचे तो वहां का नजारा देख कर हक्केबक्के रह गए. अनन्या एक लड़के से चिपकी हुई खड़ी थी और 2 लड़के प्रतीक को पीट रहे थे. यह देख कर मेरा और मिलिंद का पारा हाई हो गया. हम ने उन दोनों लड़कों को मार भगाया और अनन्या अपने एक बौयफ्रैंड के साथ चली गई.

प्रतीक को काफी चोटें आई थीं, पर शरीर से ज्यादा उस का दिल घायल हुआ था. जब उसे पता चला कि उस के अलावा अनन्या के 2 और बौयफ्रैंड्स हैं, उस ने गुस्से में आ कर अनन्या से कहा कि वह सब के सामने उस की पोल खोल देगा. तो उस ने व उस के बौयफ्रैंड ने अपने दोस्तों को बुला कर प्रतीक को पिटवा दिया. बेचारे प्रतीक का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. इस तरह तो वह शायद बचपन में अपना कोई प्यारा खिलौना टूटने पर भी नहीं रोया होगा.

मिलिंद बारबार दीवार पीट रहा था और गुस्से में उबल रहा था, ‘‘मैं उन लोगों को छोड़ूंगा नहीं और ये अनन्या कितनी चालू लड़की निकली यार, एकसाथ 3 लड़कों के साथ फ्लर्ट कर रही है.’’

‘‘बहुत स्मार्टगर्ल है, उस के तो ऐश हैं. हम लड़के न जाने क्यों इन लड़कियों के चक्कर में पड़ जाते हैं,’’ मैं ने कहा तो प्रतीक ने मुझे घूर कर देखा और घुटनों में मुंह छिपा कर फिर से रोने लगा. उस के रोने से जहां मुझे दया आ रही थी वहीं मिलिंद को बहुत गुस्सा आ रहा था.

‘‘ऐसे रो रहा है जैसे पता नहीं क्या हो गया है. अरे, अभी तो हमारी लाइफ शुरू हुई है. अभी तो न जाने कितने लोग हमारी लाइफ में आएंगे और चले जाएंगे, तो क्या उसे याद कर हम यों ही रोते रहेंगे.

‘‘उस लड़की के चक्कर में अपनी पढ़ाई खराब की सो अलग. सच में इन लड़कियों के चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए. ये सिर्फ हमारी जेब ही ढीली करवाती हैं. इन्हें कोई मालदार मिल गया तो एक ही झटके में इन्हें ढेरों बुराइयां दिखाई देने लगती हैं और एक ही झटके में ऐसे दिल तोड़ती हैं जैसे दिल न हुआ कोई कच्ची माटी का घड़ा हो गया.’’

मिलिंद बड़बड़ाए जा रहा था और प्रतीक का रोना बंद नहीं हो रहा था. तभी मुझे एक उपाय सूझा. मैं सुशील को साथ ले कर मार्केट गया और कुछ स्नैक्स व कोल्डड्रिंक ले आया. सुशील के पास एक प्लयूटूथ स्पीकर था. हम ने अच्छा सा पार्टी सौंग लगाया और प्रतीक को समझाया तब उस ने अनन्या की सारी फोटोग्राफ्स डिलीट कीं, फिर उसे सोशल साइट्स पर ब्लौक कर दिया.

यह सब करने के बाद उस के चेहरे पर सुकून की झलक दिखाई दी. उस का मूड बदलता देख हम सब मूड में आ गए और फिर हम चारों ने सारी रात खूब डांस किया. भाई का ब्रेकअप हुआ था भई, पार्टी तो बनती है.

हम तीन: आखिर क्या हुआ था उन 3 सहेलियों के साथ?

स्नेही ने कालेज से आते ही मुझे बताया, ‘‘मां, शनिवार को हमारी 10वीं कक्षा का रियूनियन है, बहुत मजा आएगा, मैं बहुत एक्साइटेड हूं. नीता, रिंकी, मोना से मिले हुए बहुत समय हो गया. वे लोग भी कोटा से इस प्रोग्राम के लिए विशेषरूप से आ रही हैं. एक

बड़े होटल में पार्टी है, डिनर है, बहुत मजा आएगा मां.’’

मैं उसे चहकते देख रही थी. उस की खास सहेलियां नीता, रिंकी, मोना कोटा में इंजीनियरिंग कर रही हैं.

स्नेहा फिर बोली, ‘‘कुछ बोलो न मां… बहुत मजा आता है पुराने दोस्तों से मिल कर… है न मां?’’

न चाहते हुए भी मेरे मुंह से ठंडी सी सांस निकली, ‘‘हां, आता तो है.’’

स्नेहा मेरे पास बैठ गई. बोली, ‘‘मां, आप की भी तो सहेलियां, दोस्त रहे होंगे… आप को उन की याद नहीं आती?’’

‘‘आती तो है, लेकिन शादी के बाद लड़कियां अपनीअपनी गृहस्थी में खो जाती हैं. चाह कर भी कहां एकदूसरे से मिल पाती हैं.’’

‘‘नहीं मां, दोस्तों से मिलना इतना मुश्किल तो नहीं है. आप नानी के यहां जाती हैं तो किसी से मिलने की कोशिश नहीं करतीं?’’

‘‘हां, मैं जाती हूं तो वे लोग थोड़े ही होती हैं वहां. वे अपने हिसाब से प्रोग्राम बना कर मायके आती हैं.’’

‘‘अरे मां, कोशिश तो करो, अपनी पुरानी सहेलियों से मिलने की. आप को भी बहुत

मजा आएगा… आप की लाइफ में भी एक चेंज होगा. मेरी मानो तो एक रियूनियन आप भी रख ही लो.’’

स्नेहा तो कह कर फ्रैश होने चली गई, 2 चेहरे मेरी आंखों के आगे तैर गए. क्यों न मैं भी सुकन्या और अनीता से मिलूं, लेकिन मैं यहां मुंबई में, सुकन्या इलाहाबाद में और अनीता दिल्ली में है. 20 साल से तो कोई संपर्क है नहीं. मां के यहां जाती हूं तो मां से ही उन के बारे में पता चल जाता है. अब थोड़ा अजीब तो लगेगा. अब किस का कितना स्वभाव बदल गया होगा, पता नहीं. कोई मिलने में रुचि दिखाएगी भी या नहीं… खैर पहल तो कर के देखनी चाहिए. एक कोशिश करने में क्या हरज है.

बस, मन इसी बात में उलझ कर रह गया. अमित औफिस से आए. मुझे थोड़ी देर देखते रहे, फिर बोले, ‘‘मीनू, क्या हुआ, किसी सोच में डूबी लग रही हो?’’

मैं ने उन्हें कुछ नहीं कह कर टाल दिया. डिनर के समय स्नेहा और राहुल ने भी मुझे टोका, ‘‘क्या हुआ मां?’’

मैं ने उन्हें भी टाल दिया. मैं अभी किसी को कुछ नहीं बताना चाहती थी. पहले अपनी सहेलियों का पता तो कर लूं.

अगले दिन सब के जाने के बाद मैं ने मुजफ्फरनगर मां को

फोन कर उन्हें अपने मन की बात बताई.

वे हंस पड़ीं. बोलीं, ‘‘बहुत अच्छा सोचा. बना लो प्रोग्राम.’’

‘‘मेरे पास उन दोनों के नंबर नहीं हैं.’’

‘‘परेशान क्यों हो रही हो? मैं उन के घर से फोन नंबर ला कर तुम्हें बता दूंगी.’’मैं बेफिक्र हो गई. आधे घंटे में ही मां ने मुझे दोनों के फोन नंबर लिखवा दिए. सुकन्या हमारी गली में ही तो रहती थी और अनीता

2 गलियां छोड़ कर. मैं दोनों से बात करने के लिए बेचैन हो गई. मेरी आवाज दोनों नहीं पहचानीं, लेकिन जब उस उम्र के खास कोडवर्ड, खास किस्सों का संकेत दिया तो दोनों चहक उठीं. हम ने कितने गिलेशिकवे किए, कभी याद न करने के उलाहने दिए और फिर मैं ने अपना प्रोग्राम बताया तो दोनों एकदम तैयार हो गईं. लेकिन परेशानी यह थी कि अनीता अब टीचर थी और सुकन्या मेरी तरह हाउसवाइफ. यह तय हुआ कि अनीता छुट्टियों में मुजफ्फरनगर आ सकेगी. रात को जब हम चारों साथ बैठे तो मैं ने कहा, ‘‘अमित, आप से कोई जरूरी बात करनी है.’’

बच्चों के भी कान खड़े हो गए.

अमित ने कहा, ‘‘कहो न, क्या हुआ?’’

‘‘मुझे भी अपनी सहेलियों से मिलने मां के यहां जाना है… मेरा भी रियूनियन का प्रोग्राम बन गया है.’’

तीनों जोर से हंस पड़े. मैं झेंप गई तो अमित ने स्नेहा से कहा, ‘‘स्नेहा, तुम अपनी मम्मी को क्या पट्टी पढ़ा देती हो… वे सीरियस हो जाती हैं.’’

‘‘क्यों, उन की भी लाइफ है. सारा दिन क्या हमारे आगेपीछे घूमती रहें? उन का भी फ्रैंड सर्कल रहा होगा. उन का भी मन करता होगा. मां, आप बताओ, क्या सोचा आप ने?’’

मैं ने तीनों को सुकन्या और अनीता से हुई बातचीत के बारे में बता दिया. हंसीखुशी मेरा प्रोग्राम बन गया.

राहुल को अलग ही चिंता हुई. बोला, ‘‘मम्मी, हमारे खाने का क्या होगा?’’

‘‘लताबाई से बात कर ली है. वह दोनों टाइम आ कर खाना बना देगी. अमित ने 2-3 दिन बाद ही मेरी फ्लाइट बुक कर दी. मैं ने सुकन्या और अनीता को भी बता दिया. अब हम तीनों फोन पर संपर्क में रहतीं. बहुत अच्छा लगने लगा है. सुकन्या के पति सुधीर बिजनैसमैन हैं. उस की भी 1 बेटी और 1 बेटा है. अनीता के पति विनय डाक्टर हैं और उन का इकलौता बेटा नागपुर में इंजीनियरिंग कर रहा है.’’

‘‘हम तीनों एक ही कालेज में पढ़ी हैं. 12वीं कक्षा तक तो हम एक ही क्लास में थीं. बाकी लड़कियां हमें 3 देवियां कहती थीं. 12वीं कक्षा के बाद बीए में हमारे विषय अलगअलग हो गए थे. सुकन्या का विवाह तो बीए के बाद ही हो गया था. अनीता और मेरा एमए करने के बाद. अनीता ने अंगरेजी में एमए किया था और मैं ने ड्राइंग ऐंड पेंटिंग में.’’

वे दिन याद आए तो साथ में और भी बहुत कुछ चाहाअनचाहा याद आने लगा. अब तो हम तीनों के विवाह को 20-22 साल हो गए थे. अब उस उम्र की बातें याद करते हुए कुछ अजीब सा लगने लगा. जब भी विनोद का खयाल आता है, मेरे मन का स्वाद कसैला हो जाता है. अच्छा ही हुआ उस लालची इंसान का सच जल्दी सामने आ गया था. मेरी टीचर मां उस के दहेज के लालच को कहां पूरा कर पातीं. पिता का साया तो मेरे सिर से मेरी 13 वर्ष की उम्र में ही उठ गया था. जब से अमित से विवाह हुआ है, कुदरत को धन्यवाद देते नहीं थकती हूं मैं.

और सुकन्या ने अनिल को कैसे भुलाया होगा. अनिल और सुकन्या बीए में एक ही सैक्शन में थे. धीरेधीरे जब दोनों के प्रेम के चर्चे होने लगे तो बात सुकन्या के घर तक पहुंच गई और फिर सुकन्या का विवाह बीए करते ही कर दिया गया. अनीता और मुझ से सुकन्या के आंसू देखे नहीं जाते थे. वह बारबार मरने की

बात करती और हम उसे समझाते रहते. उधर अनिल का हाल कालेज में एक मजनू की तरह हो गया था. हम जब भी उसे देखते उस पर तरस आता.

पहले सुकन्या, फिर मेरा विवाह भी हो गया. अनीता शुरू से जानती थी अगर उस के घर में किसी को भी उस का कोई प्यारव्यार का चक्कर सुनने को मिलेगा तो उस की पढ़ाई छुड़वा दी जाएगी, इसलिए वह हमेशा इन चक्करों से दूर रही. बस हंसते हुए हमारे किस्से सुनती और अब हम अपनीअपनी गृहस्थी में वे किस्से, वे बातें सब भूल चुके थे.

छुट्टियों तक का समय बेसब्री से बिताया. अमित और बच्चे मेरे उत्साह पर मुसकराते रहे. तय समय पर मैं एअरपोर्ट से टैक्सी ले कर पहुंच रही थी. अनीता ने कहा भी था वह मुझे लेने आ जाएगी, फिर साथ चलेंगे, लेकिन जब मुझे पता चला उस के पति को क्लीनिक छोड़ कर इतनी दूर लेने आना पड़ेगा तो मैं ने प्यार से मना कर दिया. मुझे आदत है ऐसे जाने की.

मेरा शहर आ गया था. मेरी जन्मभूमि, यहां की मिट्टी में मुझे अपनी ही खुशबू महसूस होती है. यहां की हवा में मैं मातृत्व सा अपनापन महसूस करती हूं. मेरे चेहरे पर एक गहरी मुसकान आ जाती है जैसे मैं फिर एक नवयौवना बन गई हूं. वैसे भी मायके आते ही एक धीरगंभीर महिला भी चंचल तरुणी बन जाती है.

घर पहुंच कर फ्रैश हो कर खाना खाया. मां और रेनू भाभी ने पता नहीं कितनी चीजें बना रखी थीं. मैं सब के साथ थोड़ी देर बैठ कर सुकन्या के घर जाने के लिए तैयार हो गई.

भाभी ने हंसते हुए कहा, ‘‘सहेलियों में हमें मत भूल जाना.’’

सब हंसने लगे. अनीता भी वहीं आ चुकी थी. अपनेअपने मोबाइल पर हम लगातार संपर्क में थीं. हम तीनों ने जब 20 साल बाद एकदूसरे को देखा तो मुंह से बोल ही नहीं फूटे, फिर बिना कुछ कहे भीगी आंखें लिए हम तीनों एकदूसरे के गले लग गईं. सुकन्या के मातापिता और भाई हमें एकटक देख रहे थे. फिर तो बातों का न रुकने वाला सिलसिला शुरू हो गया और कब लंच टाइम हो गया पता ही नहीं चला.

तभी सुकन्या की भाभी ने आ कर कहा,

‘‘3 देवियो, खाना लग गया है, पहले खाना खा लो… ये बातें तो अभी खत्म होने वाली नहीं हैं.’’

दिन भर साथ रह कर हम तीनों शाम को अपनेअपने घर आ गईं. मां मेरा इंतजार कर रही थीं, देखते ही बोलीं, ‘‘यह क्या बेटा, पूरा दिन वहीं बिता दिया?’’

भाभी भी कहने लगीं, ‘‘अब कल कहीं मत जाना. उन्हें यहीं बुला लेना नहीं तो हम इंतजार करते रह जाएंगे और तुम्हारा यह हफ्ता ऐसे ही बीत जाएगा.’’

मैं ने हंस कर बस ‘ठीक है’ कहा. रात को अमित और बच्चों से बात की, अमित ने आदतन पूरे दिन हालचाल पूछा.

सुबह 10 बजे सुकन्या और अनीता आ गईं. पहले हम साथ बैठ कर गप्पें मारती रहीं. फिर भाभी के मना करने पर भी किचन में उन का लंच तैयार करने में हाथ बंटाया. फिर हम तीनों मेरे कमरे में आ गईं. मेरा कमरा अब मेरे भतीजे यश का स्टडीरूम बन गया था. छुट्टी थी. यश खेलने में व्यस्त था. हम तीनों आराम से लेट कर अपनेअपने परिवार की बातें एकदूसरी को बताने लगीं. बात करतेकरते मैं ने नोट किया कि सुकन्या कुछ उदास सी हो गई.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या हुआ सुकन्या?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘हमें नहीं बताएगी?’’ अनीता ने भी पूछा.

‘‘कुछ नहीं, तुम लोगों को वहम हुआ है.’’

मैं ने कहा, ‘‘हम इतनी दूर से एकदूसरी से मिलने आई हैं. क्या हम एकदूसरी से पहले की तरह अपने दिल की बातें नहीं कर सकतीं?’’

सुकन्या पहले तो गुमसुम सी बैठी रही, फिर बहुत ही उदास स्वर में बोली, ‘‘अनिल को नहीं भुला पाई मैं.’’

हम दोनों चौंक पड़ीं, ‘‘क्या? क्या कह रही है तू?’’

‘‘हां,’’ सुकन्या की आंखों से आंसू बहने लगे, ‘‘अपने असफल प्यार की पराकाष्ठा को दिल में लिए एक सहज जीवन जीना अग्निपथ पर चलने जैसा मुश्किल है, यह सिर्फ मैं जानती हूं. बस, 2 हिस्सों में बंटी जी रही हूं… अब तो उम्र अपनी ढलान पर है, लेकिन मन वहीं ठहरा है. अनिल से दूर मन कहीं नहीं रमा, इतने सालों से जैसे 2 नावों की सवारी करती रही हूं. बस, बचाखुचा जीवन भी जी ही लूंगी… जो प्यार मिलने से पहले ही खो गया हो, कैसे जी लिया जाता है उस के बिना भी, यह वही जान सकता है, जिस ने यह सब झेला हो. सुधीर के पास होती हूं तो अनिल का चेहरा सामने आ जाता है और जब भी यहां आती हूं, मेरा मन और उदास हो जाता है.’’

मैं और अनीता हैरानी से सुकन्या को देख रही थीं. हमें तो सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि बात इतनी गंभीर होगी. यह क्या हो गया… हमारी प्यारी सहेली

22 साल से इस मनोदशा में है. मैं और अनीता एकदूसरी का मुंह देखने लगीं. हम जानती थीं सुकन्या शुरू से ही बहुत भावुक थी, लेकिन वह तो आज भी वैसी ही थी.

सुकन्या कह रही थी, ‘‘यहां आने पर मेरे सामने अतीत के वे मधुर पल जीवंत हो उठते हैं… आज भी आखें बंद कर उस सुखद समय का 1-1 पल जी सकती हूं मैं.’’

अनीता ने पूछा, ‘‘सुकन्या, यहां आने पर तू कभी अनिल से मिली है?’’

‘‘नहीं.’’

अनीता ने पल भर पता नहीं क्या सोचा, फिर बोली, ‘‘मिलना है उस से?’’

मैं तुरंत बोली, ‘‘अनु, पागल हो गई है क्या?’’

अनीता ने ठहरे हुए स्वर में मुझे आंख मारते हुए कहा, ‘‘क्यों, इस में पागल होने की क्या बात है? सुकन्या अनिल के लिए आज भी उदास है तो क्या उस से एक बार मिल नहीं सकती?’’

सुकन्या ने कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. अब मिल कर क्या होगा?’’

‘‘अरे, एक बार उसे देख लेगी तो शायद तेरे दिल को ठंडक मिल जाए.’’ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. मैं चुप रही, पता नहीं अनीता ने क्या सोचा था.

सुकन्या ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘मीनू, तू क्या कहती है?’’

‘‘जैसा तेरा दिल चाहे.’’

‘‘लेकिन मैं उस से मिलूंगी कहां?’’

अनीता ने कहा, ‘‘मुझे उस का घर पता है. बूआजी की बेटी उसी कालेज में पढ़ाती है जहां अनिल भी प्रोफैसर है.’’

सुकन्या बोली, ‘‘मेरे तो हाथपैर अभी से कांप रहे हैं… कैसा होगा वह, क्या कहेगा मुझे देख कर? पहचान तो जाएगा न?’’

अनीता हंसी, ‘‘हां, पहचान तो जाना चाहिए. उस की याद में तू आज भी वैसी ही तो है सूखीमरियल सी.’’

सुकन्या ने कहा, ‘‘हां, तेरी तरह सेहत बनानी भी नहीं है मुझे.’’

अनीता का शरीर कुछ ज्यादा ही भर गया था. मैं जोर से हंसी तो अनीता ने कहा, ‘‘हांहां, ठीक है, मुझे अपनी सेहत से कोई शिकायत नहीं है. यह तो अपने प्यारे पति के प्यार में थोड़ी फूलफल गई हूं.’’ और फिर हम तीनों इस बात पर खूब हंसीं.

मैं ने कहा, ‘‘वैसे हम तीनों के ही पति बहुत अच्छे हैं जो हमें एकदूसरी से मिलने भेज दिया.’’

अनीता ने कहा, ‘‘हां, यह री बातें सुन लें तो हैरान रह जाएं. खासतौर पर सुकन्या के बच्चे तो अपनी मां के इस सो कोल्ड प्यार का किस्सा सुन कर धन्य हो जाएंगे.’’

सुकन्या चिढ़ कर बोली, ‘‘चुप कर, खुद ही आइडिया दिया है और खुद ही मेरा मजाक उड़ा रही है.’’

अगले दिन हम तीनों पहले मार्केट गईं. वहां सुकन्या ने अनिल को देने के लिए गिफ्ट खरीदी. सुकन्या बहुत इमोशनल हो रही थी. अनीता और मैं अपनी हंसी बड़ी मुश्किल से रोक पा रही थीं.

अनिता ने मेरी कान में कहा, ‘‘यार, यह तो बिलकुल नहीं बदली. पहले भी एक बात पर हफ्तों खुश.’’

मैं ने कहा, ‘‘हां, लेकिन तूने इसे अनिल से मिलने का आइडिया क्यों दिया?’’

अनीता बड़े गर्व से बोली, ‘‘टीचर हूं, बिगड़े बच्चों को सुधारना मुझे आता है और इसे तो मैं अच्छी तरह जानती हूं. अपनी इस खूबसूरत सहेली का सौंदर्य प्रेम भी मुझे पता है और तुझे बता रही हूं मैं ने अनिल को 6 महीने पहले ही एक शादी में देखा था.’’

‘‘अच्छा, कोई बात हुई थी क्या?’’

‘‘नहीं, मौका नहीं लगा था. अच्छा, अब चुप कर. अपनी सहेली की शौपिंग पूरी हो गई शायद. पता नहीं कितने रुपए फूंक कर आ रही है मैडम.’’

सुकन्या पास आई तो हम ने पूछा, ‘‘क्याक्या खरीद लिया?’’

‘‘कुछ खास नहीं, अनिल के लिए एक ब्रैंडेड शर्ट, एक परफ्यूम, एक बहुत ही सुंदर पैन और उस की पसंद की मिठाई.’’

अनीता ने कहा, ‘‘चलो चलें प्रोफैसर साहब घर आ गए होंगे.’’

शाम के 4 बजे थे. हम तीनों पैदल ही साकेत चल पड़ीं. अनीता ने एक गली में दूर से ही एक घर की तरफ इशारा किया, ‘‘यही है अनिल का घर और वह जो बाहर स्कूटर खड़ा कर रहा है शायद अनिल ही है.’’

हम तीनों के कदम थोड़े तेज हुए.

अनिता ने कहा, ‘‘हां, सुकन्या, अनिल ही तो है.’’

सुकन्या ने ध्यान से देखा. अनिल किसी से फोन पर बात कर रहा था. वह ऐसे खड़ा था कि हमें उस का साइड पोज दिख रहा था. सुकन्या के कदम ढीले पड़ गए, उस ने खुद को संभालते हुए कहा, ‘‘यह मोटा सा गंजा आदमी अनिल कैसे हो सकता है, लेकिन शक्ल तो मिल रही है.’’

अनीता ने कहा, ‘‘यही है हैंडसम सा तेरा प्रेमी जिस का साथ पाने की इच्छा आज भी तेरा पीछा नहीं छोड़ रही, जिस के सामने अपने पति का अथाह प्यार भी तुझे तुच्छ लगता है.’’

सुकन्या अचानक वापस मुड़ गई. मैं ने कहा, ‘‘क्या हुआ, अनिल से मिलना नहीं है क्या?’’

सुकन्या जल्दी से बोली, ‘‘नहीं, थोड़ा तेज नहीं चल सकती तुम दोनों? जल्दी चलो यहां से.’’

अनीता हंसते हुए बोली, ‘‘चलो, किसी रेस्तरा में चलती हैं.’’

हम ने वहां बैठ कर कौफी और सैंडविच का और्डर दिया. हमारी हंसी नहीं रुक रही थी.  सुकन्या का चेहरा देखने लायक था.

अनीता हंसी. बोली, ‘‘बेचारी सुकन्या,

इतने साल पुराने प्यार की परिणति हुई भी तो किस रूप में.’’

सुकन्या ने हमें डपटा, ‘‘चुप हो जाओ तुम दोनों, मुझे सताना बंद करो, अपनी सारी कल्पनाओं को वहीं उसी गली में दफन कर आई हूं मैं. पहली बार मुझे मेरे पति सुधीर याद आ रहे हैं. बस, अब जल्दी से उन के पास पहुंचना है.’’

मैं ने कहा, ‘‘वाह क्या बेसब्री है… तुम्हारा प्यार का भूत तो बहुत तेजी से भाग गया.’’

अब हम तीनों की हंसी नहीं रुक रही थी. हम बहुत हंसीं. इतना हंसे पता नहीं कितने साल हो गए थे. मैं ने कहा, ‘‘सुकन्या, और ये जो तुम ने गिफ्ट्स खरीदे इन का क्या होगा?’’

‘‘होगा क्या? शर्ट सुधीर पहनेंगे, मिठाई घर जा कर हम सब के साथ खाएंगे, परफ्यूम और पैन अपने बेटे को दे दूंगी.’’

मैं ने कहा, ‘‘हां, अनिल को तो यह शर्ट आती भी नहीं,’’ मुझे और अनीता को तो जैसे हंसी का दौरा पड़ गया था. सुकन्या की शक्ल देख कर हम इतना हंसी कि हमारी आंखों में आंसू आ गए. सच, अगर हमारे बच्चे हमारा यह रूप देखते तो उन्हें अपनी आंखों पर यकीन न आता. यह तो अच्छा था कि इस समय रेस्तरां में 1-2 लोग ही थे और हम बैठी भी एक कोने में थीं. वेटर बेचारा हमारी शक्लें देख रहा था. खैर, खापी कर हम अपनेअपने घर चली गईं.

गिनेचुने दिन थे. जाने का दिल भी पास आ रहा था. अगले दिन हम तीनों ने फिर खरीदारी की. मां के लिए, भैयाभाभी और यश के लिए कुछ कपड़े खरीदे. उन दोनों ने भी इसी तरह का सामान लिया. फिर जब हम तीनों साथ बैठीं तो सुकन्या के दिल में आया कि थोड़े मुझे छेड़ा जाए, अत: मुझ से कहने लगी, ‘‘विनोद कहां है आजकल? कुछ पता है?’’

मैं ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘मेरी इस बात में जरा भी रुचि नहीं है. मुझे माफ करो.’’

अनीता हंसी, ‘‘मीनू, कहो तो उस का कायाकल्प भी देख लिया जाए.’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, रहने दो, अभी एक को देख कर छेड़ा. फिर हम तीनों ने यह तय किया कि अब जब भी संभव होगा, मिलती रहेंगी. एक बार फिर पुराने समय में लौट कर बहुत मजा आया.’’

जाने का दिन आ गया. भीगी आंखों से एकदूसरी से बिदा ली. मां और भाभी ने तो पता नहीं कितनी चीचें बांध दी थीं. सब से पहले मैं ही निकल रही थी. अनीता को एक विवाह में शामिल होने के लिए 2 दिन और रुकना था, सुकन्या को लेने सुधीर आने वाले थे.

मां और भाभी प्यार भरी शिकायत कर रही थीं कि मैं सहेलियों के साथ ही घूमती रही. मैं बहुत अच्छा समय बिता कर लौट रही थी. मुंबई जा कर स्नेहा को इस रियूनियन का आइडिया देने के लिए गले से लगा कर थैंक्स कहने के लिए मैं बहुत उत्साहित थी. सच, बहुत मजा आया था.

पहला विद्रोही: गुर्णवी किस के प्रेम में हो गई थी पागल?

आकाश काले मेघों से आच्छादित था. चौथे पहर तक अंधकार सा छाने लगा था, परंतु वर्षा नहीं हो रही थी. सूर्यदर्शन कई दिनों से नहीं हुआ था. वन हरियाली से लहलहा रहे थे. कई दिन से हो रही घनघोर वर्षा कुछ ही समय पहले थमी थी.

कुमार पृषघ्र अपने आश्रम से दूर एक पहाड़ी चट्टान पर बैठा प्रकृति के इस अनुपम रूप का आनंद ले रहा था. तभी कहीं से एक पुष्पगुच्छ आ कर कुमार के चरणों के पास गिरा. चकित भाव से उसे उठा कर उस ने चारों ओर दृष्टिपात किया, लेकिन कहीं कोई दिखाई नहीं दिया. ऐसा अकसर होता रहता था. जब भी वह संध्या समय एकांत में प्रकृति की गोद में बैठता, कहीं से पुष्पगुच्छ आ कर उस के शरीर का स्पर्श करता. कई प्रयास करने पर भी वह नहीं जान पाया कि पुष्पगुच्छ कहां से, कौन फेंकता है. किंतु आज यह रहस्य स्वत: ही खुल गया.

कुछ क्षणों के अंतराल से एक नारी कंठ की चीख सुनाई दी. कुमार उसी दिशा में तेजी से अग्रसर हुआ. कुछ ही दूरी पर एक नारी छाया धरती पर बैठी दिखाई दी. पीड़ा की छटपटाहट और रुदन स्पष्ट सुनाई दे रहा था.

‘‘कौन हो तुम? क्या हुआ?’’ निकट जा कर कुमार पृषघ्र ने कोमल स्वर में पूछा. अंधकार की वजह से चेहरा स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था.

प्रश्न सुन कर, अपना कष्ट भूल कर वह एकाएक खड़ी हो गई, करबद्ध, नतमस्तक.

‘‘कौन हो? यहां इस निपट अंधकार में क्या कर रही थीं?’’

लेकिन उत्तर देने की अपेक्षा स्त्री ने पीठ मोड़ कर चेहरा छिपा लिया, किंतु प्रस्थान का प्रयास नहीं किया.

‘‘यह तुम्हीं ने फेंका था?’’ कुमार ने अपने हाथ के पुष्पगुच्छ को उस की ओर बढ़ाते हुए पूछा.

उस ने अपना चेहरा कुमार की ओर मोड़ा और तभी भयंकर गड़गड़ाहट के साथ आकाश में बिजली चमकी, जिस से सारा वनप्रदेश क्षण भर के लिए प्रकाशित हो गया. कुमार पृषघ्र ने तरुणी को क्षण भर में ही पहचान लिया.

‘‘तुम…तुम ही मुझ पर पुष्पगुच्छ फेंकती रही हो, गुर्णवी?’’ कुमार के स्वर में आश्चर्य था.

‘‘जी हां…किंतु क्षमा करें, देव, अब से ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? क्या सहज परिहास के लिए? इस का परिणाम जानती हो?’’

‘‘अपराध क्षमा करें, कुमार, अब ऐसा नहीं होगा,’’ उस ने पुन: करबद्ध, नतमस्तक हो उत्तर दिया.

तभी आकाश में पुन: बिजली चमकी. कुमार ने अब देखा, गुर्णवी पसीने से तर क्षीणलता सी कांप रही है. बालों की वेणी और हाथों के गजरे उन्हीं पुष्पों के थे जिन्हें उस ने पुष्पगुच्छ के रूप में कुमार पर फेंका था. भय और रुदन की हिचकियों से उस का संपूर्ण शरीर रहरह कर थरथरा रहा था. वन विचरण के समय अकसर दोनों की भेंट हो जाया करती थी, अत: अपरिचित नहीं थे.

‘‘वह तो ठीक है कि अब ऐसा नहीं होगा, पर अब तक क्यों होता रहा, यह तो बताओ?’’ पृषघ्र के गौरवर्णी चेहरे पर एक रहस्यमयी मुसकान दौड़ गई, जिसे अंधकार में गुर्णवी न देख सकी.

‘‘क्षमा करें, देव… मैं…’’

‘‘क्या तुम मुझे चाहने लगी हो? क्या यह सब अभिसार की अभिलाषा से कर रही थीं?’’ कोमल स्वर में कुमार ने पूछा.

‘‘हां…नहीं…नहीं,’’ वह हड़बड़ा कर बोली.

तभी भयंकर गर्जना के साथ फिर बिजली चमकी. कुमार ने देखा, गुर्णवी के दोनों हाथ रक्तरंजित हो रहे थे. करबद्ध होने से रक्त बह कर कुहनियों तक आ गया था.

‘‘तुम तो घायल हो,’’ कहते हुए पृषघ्र ने उस के दोनों हाथों को अलग कर हथेलियां देखने का प्रयास किया.

‘‘मुझे छुएं नहीं, कुमार, मैं…मैं शूद्र कन्या हूं,’’ कहते हुए उस ने पीछे हटने का प्रयास किया.

‘‘यह समय इन बातों का नहीं है, तुम्हें सहायता और औषधि की आवश्यकता है. चलो, तुम्हें तुम्हारे आवास तक पहुंचा दूं.’’

‘‘मैं धीरेधीरे चली जाऊंगी. पैर में बड़ा शूल लगा है और मोच भी है, धीरेधीरे जाना होगा. किसी ने आप को मुझे छूते हुए देख लिया तो संकट होगा. आप पर विपत्ति आ जाएगी. आप पधारें,’’ गुर्णवी ने निवेदन किया.

‘‘ओह,’’ पृषघ्र बोला, ‘‘वह सब छोड़ो, मेरे पास आओ,’’ कहते हुए पृषघ्र ने उसे उठा कर अपने बलिष्ठ कंधों पर डाल लिया और चल पड़ा.

गुर्णवी ने कोई विशेष विरोध भी नहीं किया.

उस के आवास तक पहुंचतेपहुंचते दोनों वर्षा की बौछारों में स्नान कर चुके थे. कुटिया काफी बड़ी थी. गुर्णवी दूसरी ओर वस्त्र बदलने चली गई. कुमार पृषघ्र पुन: बाहर आ कर खड़ा हो गया.

‘‘पधारें, कुमार,’’ गुर्णवी ने कुछ देर बाद भीतर से कहा. उस ने जैसेतैसे अग्नि प्रज्ज्वलित कर ली थी.

कुटिया में प्रवेश कर कुमार ने अग्नि के मंद प्रकाश में गुर्णवी के सौंदर्य को देखा और अभिभूत हो गया. भरी देहयष्टि, कटि प्रदेश को चूमती सघन केशराशि, बड़ेबड़े काले नेत्र और राजमहल के शिखर सा गर्वोन्मत्त वक्ष प्रदेश. कुमार पृषघ्र निर्निमेष उसे देखता ही रह गया.

गुर्णवी शूद्र जाति की यौवना थी. प्रकृति ने उसे सजानेसंवारने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी, प्रकृति की वह अनुपम कृति थी. उस दिन के बाद कुमार पृषघ्र उस से अकसर मिलने लगा.

‘‘इस प्रकार की भेंट का परिणाम जानते हैं, कुमार?’’ एक सांझ उस ने कुमार पृषघ्र से पूछा.

‘‘क्या तुम भयभीत हो?’’ कुमार ने गुर्णवी के झील से गहरे नेत्रों में झांकते हुए पूछा.

‘‘मुझे कोई भय नहीं है,’’ वह बोली, ‘‘अधिक से अधिक क्या होगा… मेरा वध न? आप को पा कर जितना जीवन मिलेगा वह मेरे कई जन्मों की थाती होगी. न मेरे मातापिता हैं, न भाईबंधु. सबकुछ अल्पायु में ही खो चुकी हूं. इन वनों ने ही मुझे पालपोस कर बड़ा किया है. मैं तो केवल आप के लिए चिंतित हूं,’’ उस के मुखमंडल पर गहन दुख और चिंता का भाव तैर गया.

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, गुर्णवी? जीवन के प्रति सदैव आशावान रहना सीखो.’’

‘‘हमारी व्यवस्था ही ऐसी है. यह जो वर्ण व्यवस्था है, हमारे ऋषियों ने कुछ सोच कर ही बनाई होगी. हमारे मिलन को कभी मान्यता नहीं मिलेगी. मैं…मैं…आप को पा कर भी नहीं पा सकूंगी,’’ कहते हुए गुर्णवी का स्वर भारी हो गया और बड़ेबड़े नेत्रों से 2 मोती टपक पड़े.

‘‘ऐसा नहीं होगा, तुम्हारे प्रेम के प्रतिदान में मैं तुम्हें अपने साथ प्रतिष्ठित करूंगा. तुम विश्वास रखो,’’ पृषघ्र ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘मेरे लिए यही प्रतिदान पर्याप्त है कि आप ने मेरे प्रेम को स्वीकार किया. ऋषियों द्वारा स्थापित इन कठोर नियमों और परंपराओं को तोड़ना सरल नहीं है, कुमार. परंपराओं और नियमों की चट्टानों से हम सिर फोड़तेफोड़ते मृत्युपर्यंत विजयी नहीं हो सकेंगे. आप अपना शिक्षण पूर्ण कर राजगृह को लौट जाएंगे और यह गुर्णवी यथावत ‘गुर्णवी’ ही रह जाएगी.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होगा. मैं शक्ति के बल पर इस सनातनी व्यवस्था को बदल दूंगा.’’ ‘‘मैं जानती हूं कुमार, आप जैसा क्षत्रिय वीर दूरदूर तक नहीं है. आप की तलवार की गति मैं ने देखी है. आप के धनुष की टंकार भी सुनी है और बाणों को आप की आज्ञा के प्रतिकूल जाते कभी नहीं पाया. आप केवल आप ही हैं परंतु केवल शस्त्रों से तो समाज नहीं बदल सकता. मुझे लगता है, हम दोनों को एकदूसरे तक पहुंचने में हजारों वर्ष लगेंगे.’’

‘‘तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है या चुनौती दे रही हो?’’ गंभीर स्वर में पृषघ्र ने पूछा.

‘‘मैं एक अबला और उस पर भी शूद्रा, भला आप को क्या चुनौती दे सकती हूं. परंतु मैं ने जो भी कहा है वह यथार्थ है, नभ में चमकते इस चंद्रमा की तरह,’’ कहते हुए उस ने आकाश में चमकते चंद्रमा को इंगित किया.

‘‘नहीं, गुर्णवी, तुम ने पृषघ्र को केवल चाहा है, प्रेम किया है. उस की शक्ति और बाह्य रूप को देखा है, उस के अंतर्मन को नहीं जाना. आओ, तुम्हें विश्वास दिला दूं,’’ कहते हुए पृषघ्र ने उस का हाथ पकड़ा और झटके से उठा कर अपने बाई ओर चट्टान पर खड़ा कर लिया.

‘‘सुनो, दसों दिशाओे, दिग्पालो और पंचभूतात्माओ, सभी मेरी घोषणा सुनो. मैं वैवस्वत मनु का पुत्र, कुमार पृषघ्र आज से, इसी क्षण से इस गुर्णवी (जूती) को, जो शूद्री (अछूत कन्या) है, शूद्रता से मुक्त करता हूं. इस का नाम अब से गुणमाला होगा,’’ कुमार की यह घोषणा रात्रि के अंधकार में गूंज उठी.

परंतु यह घोषणा गुणमाला को प्रसन्न न कर सकी. वह वसिष्ठ के भय से आतंकित हो, स्थिर नेत्रों से पृषघ्र को देखती रह गई.

‘‘चलो, गुणमाला, तुम्हें तुम्हारे आवास पर पहुंचा दूं,’’ कुमार ने उस की कटि में अपनी दीर्घ भुजा डाल कर कहा, ‘‘अब तुम निश्ंिचत और प्रसन्न रहो. मेरी शिक्षा पूर्ण होने पर यथासमय हम विवाह करेंगे. तुम राजरानी बनोगी,’’ पृषघ्र ने हथेली से उस का चेहरा थपथपा दिया.

उस मृगनयनी के अश्रु छलक गए. कुमार पृषघ्र की घोषणा वायुमंडल में गूंजती हुई ऋषिवर वसिष्ठ तक भी पहुंची. वे विचलित हो गए. वसिष्ठ गुणमाला के बुद्धिकौशल और अनुपम रूपराशि के जादू से परिचित थे. उन्हें लगा, धरती पैरों तले खिसक रही है और वे शून्य में गिरते चले जा रहे हैं, कहीं ठौर नहीं मिल रहा है.

एकाएक वे सावधान हो कर बैठ गए, ‘कुछ करना ही होगा. यह युवक संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर देगा,’ वे सोचते रहे, ‘हो सकता है, पृषघ्र उस से विवाह भी करना चाहे. तब तो ब्राह्मणों का समाज में वर्चस्व ही समाप्त हो जाएगा क्योंकि वर्चस्व की सारी शक्तियां क्षत्रियों के बल पर ही तो आश्रित हैं. यदि शूद्र स्त्रियां क्षत्रियों के हृदय मार्ग से हो कर महलों में प्रवेश कर गईं तो राजा और राजनीति दोनों ही ब्राह्मणों के हाथों से चली जाएंगी. और जिस दिन ऐसा होगा, इन के सारे घाव हरे हो जाएंगे…और फिर…फिर…’ भयानक बदले के एहसास से वे कांप उठे.

प्रात: हवन आदि के पश्चात ऋषि वसिष्ठ ने सभी शिष्यों की उपस्थिति में पृषघ्र से कठोर स्वर में पूछा, ‘‘तुम ने कल रात क्या अनर्थ किया, जानते हो?’’

‘‘क्या अनर्थ किया है?’’ शांत स्वर में उस ने प्रतिप्रश्न किया.

‘‘भोले मत बनो कुमार, तुम ने एक शूद्र कन्या को उस की शूद्रता से मुक्त किया है. तुम पतित हो रहे हो.’’

‘‘मैं पतित हो रहा हूं, पर कैसे? एक नारी को शूद्रता की दासता से मुक्त करने से मैं पतित कैसे हो गया, गुरुदेव?’’ पृषघ्र का स्वर अत्यंत नम्र था.

‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकते. ऐसा करने से एक क्रम बन सकता है जो हमारी सामाजिक व्यवस्था को छिन्न- भिन्न कर देगा,’’ वसिष्ठ कठोर स्वर में बोले.

‘‘यह कैसी सामाजिक व्यवस्था है गुरुदेव, जिस में मानव ही मानव को हेयदृष्टि से देखता है, उस का शोषण और तिरस्कार करता है. इस व्यवस्था को बदलना होगा.’’

‘‘किसी भी बदलाव के लिए न तो तुम अधिकृत हो और न ही सक्षम. यह कार्य हम ऋषियों की अनुमति के बगैर नहीं हो सकता. तुम होते कौन हो?’’ गुरु वसिष्ठ क्रोधित होने लगे.

‘‘क्षमा करें, गुरुदेव मैं यह कार्य प्रारंभ कर चुका हूं. जैसे प्रकृति अपने परिवर्तन के लिए किसी की मोहताज नहीं होती वैसे ही मैं ने भी शुरुआत की है,’’ पृषघ्र बोला.

‘‘तुम उद्दंड हो रहे हो,’’ क्रोधावेश में वसिष्ठ बोले, ‘‘आज तुम ने उस शूद्री को मुक्त करने की बात की है और कल उस से विवाह भी कर सकते हो.’’

‘‘हां, गुरुदेव, शिक्षा पूर्ण होते ही मैं उसे अपनी अर्धांगिनी बनाऊंगा,’’ पृषघ्र ने शांत भाव से उत्तर दिया.

वसिष्ठ की आशंका सच निकली. ‘कल को तो यह समस्त शूद्र जाति को सवर्णों में सम्मिलित कर देगा. क्रोध से यह मानने वाला नहीं लगता. कोई युक्ति करनी होगी,’ उन्होंने विचार किया.

‘‘तुम क्या कह रहे हो, पुत्र? तुम उस से विवाह भी करोगे, यह कैसे हो सकता है? तुम जानते हो, एक शूद्री से उत्पन्न की हुई जारज संतान तुम्हारी उत्तराधिकारी नहीं हो सकेगी. उसे कोई मान्यता नहीं देगा. तुम राजवंशी हो और वह एक छोटे कुल की स्त्री,’’ वसिष्ठ ने कोमल स्वर में समझाने का प्रयास किया.

‘‘नहीं, गुरुदेव, छोटे या घटिया तो कर्म होते हैं, कोई कुल नहीं…और स्त्री तो धरती है. धरती की कोई जाति नहीं होती. वह तो बीज (पुरुष) है, जो विभिन्न किस्मों में उगता है. इस में धरती का कोई दोष नहीं होता. दोषी तो बीज होता है.’’

‘‘तुम मुझे ही पढ़ाने लगे हो. स्मरण रखो, तुम इस गुरुकुल में विद्या अध्ययन के लिए आए हो, गुरु को पढ़ाने नहीं,’’ वसिष्ठ खीज कर बोले.

‘‘स्मरण है, गुरुदेव.’’

‘‘तो फिर अब से तुम उस युवती से नहीं मिलोगे और यहां रहते न तो कोई और घोषणा करोगे और न ही किसी को कोई वचन दोगे.’’

‘‘तो क्या अपना वचन मिथ्या हो जाने दूं. यह संसार मुझ पर थूकेगा नहीं?’’

‘‘तुम आखिर चाहते क्या हो? क्या तुम्हें मनमानी करने दूं? क्या तुम मुझे सामाजिक व्यवस्था का पाठ पढ़ाना चाहते हो?’’ वसिष्ठ ने झल्ला कर पूछा.

‘‘मैं आप के पास पढ़ने आया हूं, गुरुदेव,’’ पृषघ्र करबद्ध हो कर बोला, ‘‘मैं एक ऐसे समाज की रचना करना चाहता हूं जिस में चारों वर्णों के लोग एक ही ‘मनुष्य वर्ण’ के नाम से जाने जाएं. न कोई ऊंचा हो न कोई नीचा. कोई वर्ण भेद न हो…सर्वत्र समभाव हो. इस में आप मेरे मार्गदर्शक बनें.’’

सुन कर वृद्ध ऋषि सकते में आ गए. उन्होंने समझ लिया कि बहस से इस युवक को परास्त नहीं किया जा सकेगा. यह दृढ़निश्चयी है. इस का कुछ करना होगा. सोचते हुए उन्होंने आग्नेय नेत्रों से पृषघ्र को देखा और बगैर उत्तर दिए वहां से चल दिए.

आकाश में बादलों की भयंकर गर्जना के साथ वर्षा वेगवती हो रही थी. ऋषि वसिष्ठ ने उसी दिन से पृषघ्र को गोशाला का कार्य सौंप दिया था. भारी वर्षा के कारण 3 दिन से पशुओं के लिए घास की व्यवस्था नहीं हुई थी. गोवंश भूखा ही था. स्वयं पृषघ्र का आश्रम से बाहर जाना प्रतिबंधित था. उस ने सुना था कि आश्रम में 2-3 दिन से सूखी लकड़ी न होने से पाकशाला भी ठंडी ही है. उसे भी अन्न का दाना नहीं मिला था.

संध्या होतेहोते गहन अंधकार छा गया. गोशाला में जगहजगह पानी टपक रहा था. बड़ी कठिनाई से थोड़ा स्थान खोज कर वह बैठ सका. भूखी गायों का रंभाना उसे भारी पीड़ा दे रहा था. संतोष था तो केवल यही कि वह स्वयं भी निराहार था. उस की इच्छा हुई कि गोशाला की छत तोड़ कर उसी की घास पशुओं को खिला दे, परंतु यह संभव नहीं था.

बैठेबैठे ही पृषघ्र को नींद के झोंके आने लगे थे. वह कब सो गया, स्वयं भी न जान सका. अर्द्धरात्रि में गोवंश के रंभाने की आवाज से उस की नींद खुली. गहन अंधकार था. पानी अभी भी बरस रहा था. एकाएक वह कुछ समझ न पाया. अंधकार में दृष्टि फाड़ कर देखने का प्रयास किया, तभी एक गर्जना से वह चौंक पड़ा.

गोशाला में सिंह घुस आया था. वह तुरंत अपनी तलवार तान कर खड़ा हो गया और सावधानी से गायों की ओर बढ़ा. 2-3 गाएं सींगों की सहायता से सिंह से जान बचाने को प्रयासरत थीं. पृषघ्र ने निकट पहुंच कर बिजली की फुरती से सिंह पर भरपूर वार किया. वनराज पृषघ्र से भी फुरतीला निकला और एक गाय की गरदन कट गई. सिंह तेजी से निकल कर भाग गया.

पृषघ्र हतप्रभ रह गया. मस्तिष्क शून्य हो गया और आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. बड़ी कठिनाई से वह अपने स्थान पर लौटा और कटे शव की भांति गिर गया. प्रात:काल उस ने देखा, गाय की गरदन के साथ सिंह का कान भी कट कर गिर गया था.

दिन चढ़े तक जब वह बाहर न आया तो सहपाठियों ने गोशाला के द्वार से उसे पुकारा. कोई उत्तर न पा कर, भीतर आ कर जो हाल देखा तो सभी आश्चर्य- चकित रह गए.

‘‘गुरुदेव, पृषघ्र ने गोहत्या कर दी है,’’ एक शिष्य ने दौड़ कर ऋषि वसिष्ठ को सूचना दी.

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो, वत्स? ऐसा कैसे हो सकता है?’’ वे अपने आसन से उठ खड़े हुए.

‘‘स्वयं चल कर देख लीजिए, गुरुदेव,’’ कई स्वर एकसाथ उभरे.

ऋषि वसिष्ठ तेज कदमों से गोशाला में पहुंचे. पृषघ्र द्वार पर सिर झुकाए बैठा था. सामने ही मृत गाय कटी पड़ी थी. ऋषि ने क्रोध से हुंकार भरी, ‘‘यह जघन्य अपराध किसलिए किया तुम ने…क्या केवल इसलिए कि बाहर न जा सकने के कारण तुम उस शूद्री से भेंट न कर सके? एक शूद्र कन्या के लिए इतना जघन्य अपराध?’’ ऊंचे स्वर और क्रोधावेग से वसिष्ठ का बूढ़ा शरीर कांपने लगा था.

‘‘नहीं, गुरुदेव, दरअसल, पिछली रात्रि गोशाला में सिंह घुस आया था. उसी को मारने के लिए तलवार का प्रयोग किया था, परंतु वह बच गया और…उस का कटा हुआ कान वहीं पड़ा है, देख लीजिए.’’

‘‘चुप रहो, वीरवर पृषघ्र का वार गलत पड़े, मैं नहीं मान सकता. तुम ने जानबूझ कर गोहत्या की है, ताकि तुम्हें गोशाला के कार्य से मुक्ति मिले और तुम बाहर जा कर उस शूद्री से प्रेमालाप कर सको, तुम रक्षक से भक्षक बन गए हो,’’ वसिष्ठ चीखे.

‘‘नहीं गुरुदेव, यह गलत है, मैं…’’

‘‘मुझे गलत कहता है, तू ने गोहत्या का महापाप किया है…वह भी एक शूद्री के लिए. मैं तुझे श्राप देता हूं, तू इस नीच कर्म के कारण अब क्षत्रिय नहीं रहेगा. जा, शूद्र हो जा,’’ इतना कह कर वे तेज कदमों से लौट गए.

शूद्रता का दंड मिलने से पृषघ्र का उसी क्षण आश्रम से निष्कासन हो गया. वह बहुत रोया, गिड़गिड़ाया और सत्य के प्रमाण में सिंह का कान दिखाया, पर वसिष्ठ ने न कुछ देखा, न सुना.

शाप क्या है?

उस काल में शिक्षा को ब्राह्मणों ने केवल अपने पास केंद्रित कर रखा था. शिक्षा का प्रसार सीमित वर्ग तक था और आदिवासी तथा निम्नवर्ग को ज्ञान के प्रकाश से कतई वंचित रखा गया था. शिक्षित वर्ग होने से ब्राह्मणों का वर्चस्व राजकाज में अधिक रहा और अर्द्धशिक्षित होने से शासक वर्ग ब्राह्मणों पर आश्रित था. अर्थात वसिष्ठ के शाप ने पृषघ्र को उस समय के सभ्य समाज से, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर दिया था. ब्राह्मणों की इस एकाधिकारिक व्यवस्था को सामाजिक और राजनीतिक स्वीकृति प्राप्त थी.

समाज से बहिष्कृत हो कर पृषघ्र की समझ में न आया कि वह क्या करे. उस के अपने लोगों ने मुंह मोड़ कर उसे निकाल दिया था. जिस निम्नवर्ग में उसे शामिल होने का दंड मिला था, वह भी ब्राह्मणों के बनाए दंडविधान, सामाजिक असुरक्षा और राजभय के चलते उसे स्वीकार करने में असमर्थ था. पृषघ्र जानता था कि शूद्र वर्ग भी उसे अपने में सम्मिलित नहीं करेगा और साहस किया भी तो उस का दंड कईकई लोगों को भुगतना होगा.

वह वनों में भटकता रहा. कईकई दिनों तक मानव दर्शन भी न होता था. अंतत: उस ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का व्रत धारण किया. सारी आसक्तियां छोड़ दीं, गुणमाला मस्तिष्क से विलोप हो गई. इंद्रियों को वश में कर वह जड़, अंधे, बहरे के समान हो कर तथाकथित ईश्वर को खोजता रहा, पर वह न मिला.

अंतत: वह पुन: गुणमाला के पास लौटा, ‘‘गुर्णवी, मैं लौट आया हूं,’’ अधीर स्वर में उस ने टिया के द्वार पर खड़े हो कर आवाज दी. पर कोई उत्तर न मिला. पृषघ्र ने भीतर जा कर देखा, कोई नहीं था. कुटिया की हालत बता रही थी कि वहां काफी समय से कोई नहीं रहा. कुछ सोच कर उस ने कुटिया को आग लगा दी और स्वयं भी उसी में समा गया.

अपने हिस्से की जिंदगी: मोबाइल फोन से कनु को क्यों इतनी चिढ़ थी?

पहलीडेट का पहला तोहफा. खोलते हुए कनु के हाथ कांप रहे थे. पता नहीं क्या होगा… हालांकि निमेश के साथ इस रिश्ते को आगे बढ़ाने के लिए कनु का दिल बिलकुल भी गवाही नहीं दे रहा था, मगर कहते हैं न कि कभीकभी आप की अच्छाई ही आप की दुश्मन बन जाती है. कनु के साथ भी यही हुआ था. उस ने अपनी छोटी सी जिंदगी में इतने दुख देख लिए थे कि अब वह हमेशा इसी कोशिश में रहती कि कम से कम वह किसी के दुखी होने का कारण न बने. इसीलिए न चाहते हुए भी वह आज की इस डेट का प्रस्ताव ठुकरा नहीं सकी.

निमेश उस का सहकर्मी, उस का दोस्त, उस का मैंटर, उस का लोकल गार्जियन, सभी कुछ तो था. ऐसा भी नहीं था कि कनु उस के भीतर चल रहे झंझावात से अनजान थी. अनजान बनने का नाटक जरूर कर रही थी. कितने बहाने बनाए थे उस ने जब कल औफिस में निमेश ने उसे आज शाम के लिए इनवाइट किया था.

‘यह निमेश भी न बिलकुल जासूस सा दिमाग रखता है… पता नहीं इसे कैसे पता चल गया कि आज मेरा जन्मदिन है. मना करने पर भी कहां मानता है यह लड़का…’ कनु सोचतेसोचते गिफ्ट रैप के आखिरी फोल्ड पर पहुंच चुकी थी.

बेहद खूबसूरती से पैक किए गए लेटैस्ट मौडल के मोबाइल को देखते ही कनु के होंठों पर एक फीकी सी मुसकान तैर गई. वह पहले से ही जानती थी कि इस में ऐसा ही कुछ होगा, क्योंकि उस के ओल्ड मौडल मोबाइल हैंडसैट को ले कर औफिस में अकसर ही निमेश ‘ओल्ड लेडी औफ न्यू जैनरेशन’ कह कर उस का मजाक उड़ाता था.

कनु कैसे बताती निमेश को कि यह छोटा सा मोबाइल ही उस की जिंदगी में इतना बड़ा तूफान ले कर आया था कि उस का परिवार तिनकातिनका बिखर गया था. उसे आज भी याद है लगभग 10 साल पहले का वह काला दिन जब पापा से लड़ाई होने के बाद गुस्से में आ कर उस की मां ने अपनेआप को आग के हवाले कर दिया था. मां की दर्दनाक और कातर चीखें आज भी उस की रातों की नींदें उड़ा देती हैं. मां शायद मरना नहीं चाहती थीं, मगर पापा पर मानसिक दबाव डालने के लिए उन्होंने यह जानलेवा दांव खेला था. उन्हें यकीन था कि पापा उन्हें रोक लेंगे, मगर पापा तो गुस्से में आ कर पहले ही घर से बाहर निकल चुके थे. उन्होंने देखा ही नहीं था कि मां कौन सा खतरनाक कदम उठा रही हैं.

मां को लपटों में घिरा देख कर वही दौड़ कर पापा को बुलाने गई थी. मगर पापा उसे आसपास नजर नहीं आए तो पड़ोस वाले अनिल अंकल ने पापा को मोबाइल पर फोन कर के हादसे की सूचना दी थी. आननफानन में मां को हौस्पिटल ले जाया गया, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मोबाइल ने उस की मां को हमेशा के लिए उस से छीन लिया था.

कनु के पापा को शुरू से ही नईनई तकनीक इस्तेमाल करने का शौक था. उन दिनों मोबाइल लौंच हुए ही थे. पापा भी अपनी आदत के अनुसार नया हैंडसैट ले कर आए थे. घंटों बीएसएनएल की लाइन में खड़े हो कर उन्होंने सिम ली थी. उन दिनों मोबाइल में अधिक फीचर नहीं हुआ करते थे. बस कौल और मैसेज ही कर पाते थे. हां, मोबाइल पर कुछ गेम्स भी खेले जाते थे.

पापा के मोबाइल पर जब भी कोई फनी या फिर रोमांटिक मैसेज आता था तो पापा उसे पढ़ कर मां को सुनाते थे. मां जोक सुन कर तो खूब हंसा करती थीं, मगर रोमांटिक शायरी सुनते ही जैसे किसी सोच में पड़ जाती थीं. वे पापा से पूछती थीं कि इस तरह के रोमांटिक मैसेज उन्हें कौन भेजता है… पापा भेजने वाले का नाम बता तो देते थे, मगर फिर भी मां को यकीन नहींहोता था.

धीरेधीरे मां को यह शक होने लगा था कि पापा के दूसरी महिलाओं से संबंध हैं और वे ही उन्हें इस तरह के रोमांटिक मैसेज भेजती हैं. वे पापा से छिप कर अकसर उन का मोबाइल चैक करती थीं. पापा को उन की यह आदत अच्छी नहीं लगी या फिर शायद पापा के मन में ही कोई चोर था, उन्होंने अपने मोबाइल में सिक्युरिटी लौक लगा दिया.

मां दिमागीरूप से परेशान रहने लगी थीं. हालत यह हो गई थी कि जब भी पापा के मोबाइल में मैसेज अलर्ट बजता मां दौड़ कर देखने जातीं कि किस का मैसेज है और क्या लिखा है… मगर लौक होने की वजह से देख नहीं पाती थीं. वे पापा से मोबाइल चैक करवाने की जिद करतीं तो पापा का ईगो हर्ट होता और वे मां पर चिल्लाने लगते. बस यही कारण था दोनों के बीच लड़ाई होने का.

यह लड़ाई कभीकभी तो इतनी बढ़ जाती थी कि पापा मां पर हाथ भी उठा देते थे. जब कभी पापा अपना मोबाइल मां को पकड़ा देते और उन्हें किसी महिला का कोई मैसेज उस में दिखाई नहीं देता तो मां को लगता था कि पापा ने सारे मैसेज डिलीट कर दिए हैं.

पापा का ध्यान मोबाइल से हटाने के लिए मां उन पर मानसिक दबाव बनाने लगी थीं. कभी सिरदर्द का बहाना तो कभी पेटदर्द का बहाना करतीं… कभी कनु और उस के बड़े भाई सोनू को बिना वजह ही पीटने लगतीं… कभी कनु की दादी को समय पर खाना नहीं देतीं… कभी पापा को आत्महत्या करने और जेल भिजवाने की धमकियां देतीं… और एक दिन धमकी को हकीकत में बदलने के लिए उन्होंने खुद पर तेल छिड़क कर आग लगा ली. उन का यह नासमझी में उठाया गया कदम कनु और सोनू के लिए जिंदगी भर का नासूर बन गया.

मां के जाते ही गृहस्थी का सारा बोझ कनु की बूढ़ी दादी के कमजोर कंधों पर आ गया.

उस समय कनु की उम्र 10 साल और सोनू की 13 साल थी. साल बीततेबीतते कनु के पापा किसी दलाल की मार्फत एक अनजान महिला से शादी कर के उसे अपने घर ले आए. वह महिला कुछ महीने तो उन के साथ रही, मगर बूढ़ी सास और बच्चों की जिम्मेदारी ज्यादा नहीं उठा सकी और एक दिन चुपचाप बिना किसी को बताए घर छोड़ कर चली गई.

कुछ साल अकेले रहने के बाद कनु के पापा फिर से अपने लिए एक पत्नी ढूंढ़ लाए. इस बार महिला उन के औफिस की ही विधवा चपरासिन थी. नई मां ने सास और बच्चों के साथ रहने से इनकार कर दिया तो कनु के पापा वहीं उसी शहर में अलग किराए का मकान ले कर रहने लगे. गृहस्थी फिर से कनु की दादी संभालने लगी थीं. कुछ साल तो घर खर्च और बच्चों की पढ़ाई का खर्चा कनु के पापा देते रहे, मगर फिर धीरेधीरे वह भी बंदकर दिया.

अब सोनू 18 साल का हो चुका था. उस ने ड्राइविंग सीखी और टैक्सी चलाने लगा.

घर में पैसा आने से जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर आने लगी थी. कनु की दादी से अब घर का कामकाज नहीं हो पाता था, इसलिए उन की इच्छा थी कि घर में जल्दी से बहू आ जाए जो घर के साथसाथ जवान होती कनु का भी खयाल रख सके. मगर सोनू चाहता था कि 2-4 साल टैक्सी चला कर कुछ बचत कर फिर खुद की टैक्सी खरीद कर अपने पैरों पर खड़ा हो तब शादी की बात सोचे. इसलिए वह देर रात तक टैक्सी चलाता था.

इन सालों में मोबाइल आम आदमी के शौक से होता हुआ उस की जरूरत बन चुका था, साथ ही उस में कई तरह के आकर्षक फीचर भी जुड़ गए थे. सोनू को भी मोबाइल का शौक शायद अपने पापा से विरासत में मिला था. वह जब रात में घर लौटता था तो कानों में इयर फोन लगा कर तेज आवाज में गाने सुनता था. रात में ट्रैफिक कम होने के कारण टैक्सी की स्पीड भी ज्यादा ही होती थी.

एक दिन मोबाइल में बजने वाले गाने का टै्रक चेंज करते समय सोनू मोड़ पर आने वाले ट्रक को देख नहीं पाया और टैक्सी ट्रक से टकरा गई. ट्रक ड्राइवर तो घबराहट में ट्रक छोड़ कर भाग गया और सोनू वहीं जख्मी हालत में तड़पता पड़ा रहा. लगभग 1 घंटे बाद पुलिस गश्ती दल की मोबाइल वैन ने गश्त के दौरान उसे घायल अवस्था में देखा तो हौस्पिटल ले गई. वक्त पर हौस्पिटल पहुंचने से उस की जान तो बच गई, मगर सिर में चोट लगने से उस के दिमाग का एक हिस्सा डैमेज हो गया और वह लकवे का शिकार हो कर हमेशा के लिए बिस्तर पर आ गया. डाक्टर्स को उस के बचने की उम्मीद कम ही थी, इसलिए उन्होंने सोनू को कुछ जरूरी दवाएं घर पर ही देने की सलाह दे कर हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया.

कनु पर एक बार फिर से मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. जब तक सोनू हौस्पिटल में रहा तब तक तो उस के पापा ने इलाज के लिए पैसा दिया, मगर हौस्पिटल से घर आने के बाद फिर उन्होंने बच्चों की कोई सुध नहीं ली. घर खर्च के साथसाथ सोनू की दवाइयों के खर्च की व्यवस्था भी अब कनु को ही करनी थी.

कहते हैं कि मुसीबत कभी अकेले नहीं आती. एक दिन बूढ़ी दादी बाथरूम में फिसल गईं और रीढ़ की हड्डी में चोट लगने से वे भी चलनेफिरने से लाचार हो गईं.

घरबाहर की सारी जिम्मेदारी अब कनु की थी. वह अब तक ग्रैजुएशन कर चुकी थी. उस ने एक कौल सैंटर में पार्टटाइम जौब कर ली. सुबह 11 से शाम 5 बजे तक वह कौल सैंटर में रहती थी. इस दौरान सोनू और दादी की देखभाल करने के लिए उस ने एक नर्स की व्यवस्था कर ली थी. घर लौटने के बाद देर रात तक घर से ही औनलाइन जौब किया करती थी. घरबाहर संभालती, कभी दादी तो कभी सोनू को दवाएं देती, उन की दैनिक क्रियाएं निबटाती कनु अकेले में फूटफूट कर रोती थी. मगर अंदर से बेहद कमजोर कनु बाहर से एकदम आयरन लेडी थी. मजबूत, बहादुर और स्वाभिमानी.

यहीं कौलसैंटर में ही उसे निमेश का साथ मिला था. अपनेआप में सिमटी कनु निमेश को एक पहेली सी लगती थी. कनु ने अपने चारों तरफ कछुए सा कठोर आवरण बना रखा था और निमेश ने जैसे उसे बेधने की ठान रखी थी. पता नहीं कैसे और कहां से वह कनु के बारे में सारी जानकारी इकट्ठा कर लाया था. कनु अभी नए मोबाइल हैंडसैट को हाथ में ही लिए बैठी थी

कि उस का पुराना फोन बज उठा. देखा तो निमेश का ही फोन था. कनु ने अपने आंसू पोंछे फोन रिसीव किया.

‘‘कैसा है बर्थडे गिफ्ट?’’ निमेश ने फोन उठाते ही पूछा.

‘‘गिफ्ट तो अच्छा ही है, मगर मेरे किसी काम का नहीं… अगर किसी और लड़की पर ट्राई किया होता तो शायद तुम्हारे पैसे वसूल हो जाते…’’ कनु ने अपनेआप को सामान्य करने की कोशिश करते हुए मजाक किया.

‘‘कोई बात नहीं… अभी शायद तुम्हारा मूड ठीक नहीं है, कल बात करते हैं,’’ कह कर निमेश ने फोन काट दिया.

कनु अपने साधारण मोबाइल में नैट यूज नहीं करती है, इसीलिए न तो व्हाट्सऐप पर वह दिखाई देती है और न ही किसी और सोशल साइट पर उस का कोई अकाउंट है. उस की कोई पर्सनल मेल आईडी भी नहीं है. हां एक औफिसियल मेल आईडी जरूरी है जिस की जानकारी सिर्फ उस के स्टाफ मैंबर्स को ही है और उसे वह अपने लैपटौप पर ही इस्तेमाल करती है. बहुत मना करने पर भी निमेश उस पर अकसर पर्सनल मैसेज डाल देता है, मगर पढ़ने के बाद भी कनु उसे कोई जवाब नहीं देती.

अगले दिन जैसे ही कनु कौल सैंटर पहुंची, निमेश तुरंत उस के पास आया और बोला, ‘‘कनु तुम से कोई जरूरी बात करनी है.’’

‘‘फ्री हो कर करती हूं,’’ कह कनु ने उसे टाल दिया. पूरा दिन निमेश उस के फ्री होने का इंतजार करता रहा, मगर कनु उसे नजरअंदाज करती रही और शाम को चुपचाप वहां से निकल गई. अभी उसे घर पहुंचे 1 घंटा ही हुआ था कि निमेश भी पीछेपीछे आ गया. क्या करती कनु. घर आए मेहमान को अंदर तो बुलाना ही था. मगर उस एक कमरे के घर में उसे बैठाने की जगह भी नहीं थी.

‘चलो अच्छा ही हुआ… आज हकीकत अपनी आंखों से देख लेगा तो इस के इश्क का बुखार उतर जाएगा…’ सोचती हुई कनु उसे भीतर ले गई. कमरे में 3 चारपाइयां लगी थीं. एक पर सोनू और एक पर दादी सो रहे थे.

तीसरी शायद कनु की थी. निमेश खाली चारपाई पर चुपचाप बैठ गया. कनु चाय बना कर ले आई. दादी को सहारा दे कर तकिए के सहारे बैठा कर उस ने एक कप दादी को थमाया और एक निमेश की तरफ बढ़ा दिया. निमेश चुपचाप चाय पीता रहा. सोच कर तो बहुत आया था कि कनु से यह कहूंगा, वह कहूंगा, मगर यहां आ कर तो उस की जबान तालू से ही चिपक गई थी. एक भी शब्द नहीं निकला उस के मुंह से. चाय पी कर निमेश ने ‘चलता हूं’ कह कर उस से बिदा ली.

1 सप्ताह हो गया कनु को निमेश कहीं नजर नहीं आया. मन ही मन सोचा कि निकल गई न इश्क की हवा… फिर सोचा कि इस में बेचारे निमेश की क्या गलती है… कुदरत ने मेरी जिंदगी में प्यार वाला कौलम ही खाली रखा है. निमेश ठीक ही तो कर रहा है… अब कोई जानबूझ कर जिंदा मक्खी कैसे निगल सकता है… सपने देखने की उम्र में कोई जिम्मेदारियों के लबादे भला क्यों ओढ़ेगा?

शाम को अचानक पापा को घर आया देख कर कनु को बहुत आश्चर्य हुआ. ‘2 साल से सोनू बिस्तर पर है, मगर पापा ने कभी आ कर देखा तक नहीं कि वह किस हाल में है… यहां तक कि उन की अपनी मां के चोटिल होने तक की खबर सुन कर भी उन्होंने उन की कोई खैरखबर नहीं ली… आज जरूर कुछ सीरियस बात है जो पापा को यहां खींच लाई है… क्या बात हो सकती है…’ कनु का दिल तेजी से धड़कने लगा.

‘‘कनु, मुझे माफ कर दे बेटी. मैं सिर्फ अपनी खुशियां ही तलाश करता रहा, तेरी खुशियों के बारे में जरा भी नहीं सोचा… धिक्कार है मुझ जैसे बाप पर… मुझे तो अपनेआप को पिता कहते हुए भी शर्म आ रही है… भला हो निमेश का जिस ने मेरी आंखें खोल दी वरना पता नहीं और कितने गुनाहों का भागी बनता मैं…’’ पापा ने कनु के  हाथ अपने हाथ में लेते हुए भर्राए गले से कहा.

‘‘अच्छा तो ये सब निमेश का कियाधरा है… उसे कोई अधिकार नहीं है इस तरह उस के घरेलू मामले में दखल देने का…’’ पापा के मुंह से निमेश का नाम सुनते ही कनु का पारा चढ़ गया. उस ने अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, ‘‘पापा, आप हमारी फिक्र न करें… हम सब ठीक हैं… सोनू और दादी की देखभाल मैं कर सकती हूं… बोझ नहीं हैं वे दोनों मेरे लिए…’’ बरसों से मन के भीतर दबी कड़वाहट धीरेधीरे पिघल कर बाहर आ रही थी.

‘‘मैं अपने किए पर पहले ही बहुत पछता रहा हूं, मुझे और शर्मिंदा मत करो कनु. मां और सोनू तुम्हारी नहीं बल्कि मेरी जिम्मेदारी है…’’ पापा ने ग्लानि से कहा.

तभी कनु ने निमेश को आते हुए देखा तो नाराजगी से अपना मुंह फेर लिया. कनु के पापा ने भी उसे देख लिया था. बोले, ‘‘सोनू और मां को तो मैं अपने साथ ले जाऊंगा, मगर एक और बड़ी जिम्मेदारी है मुझ पर पिता होने की… उस से अगर मुक्ति मिल जाती तो मैं गंगा नहा लेता.’’ कनु ने प्रश्नवाचक नजरों से उन की तरफ देखा.

‘‘कनु, निमेश बहुत ही अच्छा जीवनसाथी होगा… तुम्हें बहुत खुश रखेगा…. तुम्हें राजी करने के लिए इस ने क्याक्या पापड़ नहीं बेले… तुम बस हां कर दो… इसे इस के प्यार का प्रतिदान दे दो,’’ पापा ने निमेश की वकालत करते हुए कनु से मनुहार की.

‘‘अगर आप सोनू और दादी को अपने साथ ले जाएंगे तो क्या आप की पत्नी को एतराज नहीं होगा?’’ कनु ने अपनी कड़वाहट जाहिर की.

‘‘कौन पत्नी… कैसी पत्नी? वह औरत तो 2 साल पहले ही मुझे यह कह कर छोड़ गई थी कि जो अपनी मां और बच्चों का नहीं हुआ वह मेरा कैसे हो सकता है… वैसे सही ही कहा था उस ने… मुझे आईना दिखा दिया था उस ने… मगर मुझ में ही हिम्मत नहीं बची थी तुम्हारा सामना करने की… क्या मुंह ले कर आता तुम्हारे पास… मैं एहसानमंद हूं निमेश का जिस ने मुझे हिम्मत बंधाई और अपनी जिम्मेदारी निभाने का हौसला दिया…’’ कनु के पापा की आंखों से आंसू बह चले.

कनु ने प्यार से निमेश की तरफ देखा तो वह शरारत से मुसकरा रहा था. बोला, ‘‘कनु, मैं बेशक छोटी सी नौकरी करता हूं, ज्यादा पैसा नहीं हैं मेरे पास… मगर मैं तुम से वादा करता हूं कि तुम्हें कोई कमी नहीं रहने दूंगा… तुम्हारे हिस्से की जिंदगी अब खुशियों से भरपूर होगी.’’

‘‘मैं सोनू और मां के लिए ऐंबुलैंस मंगवाता हूं. तुम तब तक अपना जरूरी सामान पैक कर लो,’’ कनु के पापा ने उसे लाड़ से कहा. फिर निमेश की तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘तुम इस रविवार अपने घर वालों को हमारे यहां ले कर आओ… रिश्ते की बात घर के बड़ों के बीच हो तो ही अच्छा लगता है.’’

अपने आंसू पोंछते हुए कनु बोली, ‘‘एक शर्त पर मैं आप सब की बात मान सकती हूं… आप सभी को मुझ से वादा करना होगा कि कोई भी अनावश्यक रूप से मोबाइल का उपयोग नहीं करेगा… इसे जरूरत पर ही इस्तेमाल किया जाएगा, शौक के लिए नहीं…’’

‘‘वादा’’ सब ने एकसाथ चिल्ला कर कहा और फिर घर में हंसी की लहर दौड़ गई.

रुपहली चमक: विशेष के मन में क्यों था अधूरेपन का एहसास

उस दिन सुबह से ही आसमान पर बादल छाए हुए थे और सदा की भांति मुझे उदास कर गए थे, न जाने क्यों ये बादल मेरे मन के अंधेरों को और भी अधिक गहन कर देते हैं और तब आरंभ हो जाता है मेरे भीतर का द्वंद्व. इस अंतर्द्वंद्व में मैं कभी विजयी हुआ हूं तो कभी बुरी तरह पराजित भी हुआ हूं.

मैं आत्मविश्लेषण करते हुए कभी तो स्वयं को दोषी पाता हूं तो कभी बिलकुल निर्दोष. सोचता हूं, दुनिया में और भी तो लोग हैं. सब के सब बड़े संतुष्ट प्रतीत होते हैं या फिर यह मेरा भ्रम मात्र है अर्थात सब मेरी ही तरह सुखी होने का ढोंग रचाते होंगे. खैर, जो भी हो, मैं उस दिन उदास था. उस उदासी के दौर में मुझे अपनी ममताभरी मां बहुत याद आईं.

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में मेरे घर में सभी सुखसुविधाएं मौजूद थीं. पिता अच्छे पद पर कार्यरत थे. मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान था. न जाने क्यों, कब और कैसे विदेश देखने तथा वहीं बसने की इच्छा मन में उत्पन्न हो गई. मित्रों के मुख से जब कभी अमेरिका, इंगलैंड में बसे हुए उन के संबंधियों के बारे में सुनता तो मेरी यह इच्छा प्रबल हो उठती थी. मां तो कभी भी नहीं चाहती थीं कि मैं विदेश जाऊं क्योंकि लेदे कर उन का एकमात्र चिराग मैं ही तो था.

एक दिन कालेज में मेरे साथ बी.एससी. में पढ़ने वाले मित्र सुरेश ने मुझे बताया कि उस के इंगलैंड में बसे हुए मौसाजी का पत्र आया है. वे अपनी एकमात्र पुत्री सुकेशनी के लिए भारत के किसी पढ़ेलिखे लड़के को इंगलैंड बुलाना चाहते हैं. वहां और मित्र भी बैठे हुए थे. मैं ने बात ही बात में पूछ लिया, ‘‘सुरेश, तुम्हारी बहन सुकेशनी है कैसी?’’

सुनते ही सुरेश ठहाका लगाते हुए बोला, ‘‘क्यों, तू शादी करेगा उस से?’’

उस का यह कहना था कि सभी मित्र खिलखिला कर हंस पड़े. मैं झेंप कर पुस्तकालय की ओर बढ़ गया. उन सब के ठहाके वहां तक भी मेरा पीछा करते रहे.

उस के कुछ दिन पश्चात मैं किसी आवश्यक काम से सुरेश के घर गया हुआ था. उस के मातापिता भी घर पर थे. हम सभी ने एकसाथ चाय पी. तभी सुरेश के पिता ने पूछा, ‘‘विशेष, तुम बी.एससी. के बाद क्या रोगे?’’

‘‘जी, चाचाजी, मैं एम.एससी. में प्रवेश लूंगा. मेरे मातापिता भी यही चाहते हैं.’’

तभी सुरेश की मां ने मुसकराते हुए पूछ लिया, ‘‘सुरेश कह रहा था कि तुम विदेश जाने के बड़े इच्छुक हो. अपनी बहन की लड़की के लिए हमें अच्छा पढ़ालिखा लड़का चाहिए. तुम्हें व तुम्हारे परिवार को हम लोग भलीभांति जानते हैं, कहो तो तुम्हारे लिए बात चलाएं?’’

मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘जी, आप मेरे मातापिता से बात कर लें,’’ मैं उन्हें नमस्ते कह कर बाहर निकल गया.

अगले रविवार को सुरेश के माता- पिता हमारे घर आए. मैं ने मां को पहले ही सब बता दिया था. मां तो वैसे भी मेरी इस इच्छा को मेरा पागलपन ही समझती थीं लेकिन इस रिश्ते की बात सुन कर वे बौखला सी गईं जबकि पिताजी तटस्थ थे. न जाने क्यों? यह मुझे ज्ञात नहीं था. परंतु मां पर तो मानो वज्र ही गिर पड़ा. हम सभी ने एकसाथ नाश्ता किया. उन लोगों ने अपना प्रस्ताव रख दिया था.

सुन कर मां बोलीं, ‘‘बहनजी, एक ही तो बेटा है हमारा, वह भी हम से दूर चला जाएगा तो यह हम कैसे सह पाएंगे?’’

सुरेश की मां बोलीं, ‘‘बहनजी, सहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. भाई साहब की अवकाशप्राप्ति के पश्चात आप लोग भी वहीं बस जाइएगा.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुसकराहट सहज ही देख ली थी. वे बोले, ‘‘बहनजी, आप हमारी चिंता छोड़ दीजिए. आप बात चलाइए, मैं विशेष की एक फोटो आप को दे रहा हूं.’’

फोटो की बात चलने पर सुरेश की मां ने भी सुकेशनी की एक रंगीन फोटो हमारे सामने रख दी. लड़की बहुत सुंदर तो नहीं थी पर ऐसी अनाकर्षक भी नहीं थी. फिर मैं ने भला कब अपने लिए अद्वितीय सुंदरी की कामना की थी. मेरे लिए तो यह साधारण सी लड़की ही विश्वसुंदरी से कम न थी क्योंकि इसी की बदौलत तो मेरी वर्षों से सहेजी मनोकामना पूर्ण होने जा रही थी.

बात चलाई गई और सुरेश के मौसामौसी अपनी पुत्री सहित एक माह के उपरांत ही भारत आ गए. मुझे तो उन लोगों ने फोटो देख कर ही पसंद कर लिया था.

बड़ी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. सुकेशनी फोटो की अपेक्षा कुछ अच्छी थी, पर रिश्तेदार दबी जबान से कहते सुने गए कि राजकुमार जैसा सुंदर लड़का अपने जोड़ की पत्नी न पा सका.

पिताजी ने मेरा पारपत्र दौड़धूप कर के बनवा लिया था व वीजा के लिए प्रयत्न सुकेशनी के पिता अर्थात मेरे ससुर कर रहे थे. चूंकि सुकेशनी इंगलैंड में ही जन्मी थी, अत: वीजा मिलने में भी अधिक परेशानी नहीं हुई. शादी के 1 माह पश्चात ही मुझे सदा के लिए अपनी पत्नी के घर जाने हेतु विदा हो जाना था. लोग तो बेटी की विदाई पर आंसू बहाए जा रहे थे. मां बराबर रोए जा रही थीं परंतु अपनी जननी के आंसू भी मुझे विचलित न कर सके. निश्चित दिन मैं भारत से इंगलैंड के लिए रवाना हुआ.

हवाई जहाज में मेरे समीप बैठी मेरी पत्नी शरमाईसकुचाई ही रही परंतु जब हम लंदन स्थित अपने घर पहुंचे तो सुकेशनी ने साड़ी ऐसे उतार फेंकी, जैसे लोग केले का छिलका फेंकते हैं. मैं क्षण भर के लिए हतप्रभ रह गया. उस ने चिपकी हुई जींस व बिना बांहों वाला ब्लाउज पहना तो ऐसा लगा कि अब वह अपने वास्तविक रूप में वापस आई है, मानो अभी तक तो वह अभिनय ही कर रही थी. एक क्षण के लिए मेरे मन के अंदर यह विचार कौंध गया कि कहीं इस ने शादी को भी अभिनय ही तो नहीं समझ लिया है. पर बाद में लगा कि 22 वर्षीय युवती शादी को मजाक तो कदापि न समझेगी.

कान्वेंट स्कूल में आरंभ से ही पढ़े होने के कारण भाषा की समस्या तो मेरे लिए बिलकुल ही न थी. भारत में अटकअटक कर हिंदी बोलने वाली सुकेशनी, जिसे मैं प्यार से सुकू कहने लगा था, केवल अंगरेजी ही बोलती थी. यहां पर आधुनिक सुखसुविधाओं से संपन्न घर मुझे कुछ दिनों तक तो असीम सुख का एहसास दिलाता रहा. सुकु जब फर्राटेदार अंगरेजी बोलती हुई मेरे कंधों पर हाथ मारते हुए बेशरमी से हंसती तो मेरे सासससुर मानो निहाल हो जाते. परंतु मैं आखिरकार था तो भारतीय सभ्यता व संस्कृति की मिट्टी में ही उपजा पौधा, इसलिए मुझे यह सब बड़ा अजीब सा लगता था, पर विदेश में बसने की इच्छा के समक्ष मैं ने इन बातों को अधिक महत्त्व देना उचित न समझा.

देखतेदेखते 1 वर्ष बीत गया था. एकाएक ऐसा लगा जैसे मुझे किसी ने खाई में गिराना चाहा हो. हड़बड़ा कर मैं ने देखा, सामने सुकु खड़ी थी. वह मुझे हिलाहिला कर पूछ रही थी, ‘‘विशेष, कहां खो गए?’’

एकाएक मैं अतीत से वर्तमान में आ गया.

‘‘विशेष, तुम्हें पिताजी बुला रहे हैं,’’ मैं सुकु के साथ ही उस के पिता के अध्ययन कक्ष में पहुंचा तो वे बोले, ‘‘बेटा विशेष, मैं ने तुम्हारे लिए बरमिंघम शहर में एक नौकरी का प्रबंध किया है, तुम्हें साक्षात्कार हेतु बुलाया गया है.’’

मैं ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया, ‘‘पर पिताजी, मैं तो अभी आगे पढ़ना चाहता हूं…’’

वे बात काटते हुए बोले, ‘‘बेटे, यहां के हालात दिनप्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं. यहां पर काम मिलना मुश्किल होता जा रहा है. वह तो कहो कि उस फैक्टरी के मालिक मेरे मित्र हैं. अत: तुम्हें बगैर किसी अनुभव के ही काम मिल रहा है. मेरा कहा मानो, तुम बरमिंघम जा कर साक्षात्कार दे ही डालो. रही पढ़ाई की बात, तो बेटे, तुम्हारे सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है. पढ़ लेना, जितना चाहो.’’

मुझे उन की बात में तर्क व अनुभव दोनों ही दृष्टिगोचर हुए. अत: मैं उन की बात मानते हुए निश्चित दिन साक्षात्कार हेतु बरमिंघम चला गया.

यह डब्बाबंद खाद्य पदार्थ बनाने वाली एक बड़ी फैक्टरी थी. साक्षात्कार के बाद ही मुझे पता चल गया कि मुझे यहां नौकरी मिल गई है. मैं प्रसन्न मन से लंदन पहुंचा व सब को यह खुशखबरी बता डाली.

सुकु के मातापिता निश्चिंत हो गए कि दामाद आत्मनिर्भर होने जा रहा है और सुकु इस बात से बड़ी प्रसन्न हुई कि अन्य लड़कियों की भांति वह भी अब अपना अलग घर बनाने व सजाने जा रही है. ससुरजी ने हमारे साथ जा कर किराए के फ्लैट व अन्य आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध कर दिया. हम फ्लैट में रहने के लिए भी आ गए. हमें व्यवस्थित होता देख कर मेरे ससुर एक हफ्ते के पश्चात लंदन वापस चले गए.

हम दोनों बड़े ही उत्साहित और खुश थे. सुकु घर को सजाने की नवीन योजनाएं बनाने लगी. पर उन योजनाओं में मां बनने की योजना भी सम्मिलित रही, यह मुझे बाद में पता चला. 9 माह के पश्चात मैं एक फूल सी कोमल व अत्यंत सुंदर बच्ची का पिता बन गया.

सुकु की मां 2 माह पूर्व ही सब संभालने आ गई थीं. इधर मैं ने भी कार चलाना सीखना आरंभ किया हुआ था. आशा थी कि ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त होते ही कोई बढि़या हालत की पुरानी कार खरीद लूंगा. पर बच्ची के आ जाने से खर्चे कुछ ऐसे बढ़े कि मुझे कार खरीदने की बात को फिलहाल कुछ समय तक भूल जाना पड़ा. बच्ची का नाम हम ने अनुप्रिया रखा था.

समय अपनी गति से बीतता जा रहा था. अनुप्रिया के प्रथम जन्मदिन पर मैं ने ढाई हजार पौंड की एक पुरानी कार खरीद ली थी. 2-3 माह बाद ही एक दिन सुकु ने अपने दोबारा गर्भवती होने की सूचना मुझे दी तो मैं अचंभित रह गया. परंतु सुकु ने समझाया, ‘‘देखो, यदि परिवार जल्दी ही पूर्ण हो जाए तो बुराई क्या है? 2 बच्चे हो जाएं तो मैं भी जल्दी मुक्त हो जाऊंगी व नौकरी कर सकूंगी.’’

मैं पुन: अपने कार्यों में व्यस्त हो गया. कहना आवश्यक न होगा कि मुझे घर के सभी कार्यों में सुकु की सहायता अंगरेज पतियों की भांति करनी पड़ती थी. यहां तक तो ठीक था, पर मुझे एक बात बहुत खलती थी और वह थी सुकु की तेज जबान व दबंग स्वभाव. मुझ से दबने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, इस के विपरीत वह मुझ पर पूर्ण रूप से हावी हो जाना चाहती थी. यहां पर मैं समझौता करने को तैयार न था. फलस्वरूप घर में झगड़े होते रहते थे.

इन्हीं झगड़ों के मध्य सुकु ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया. मेरी सास इस बार भी यहीं पर थीं. नाती पा कर वह निहाल हो गई थीं. मैं ने अपने घर के लिए अनुप्रिया के साथ अनन्य की फोटो खींच कर पत्र व फोटो अपने मातापिता को भेज दी थी कि वे भी अपने पोते की खबर से खुश होंगे.

2 बच्चों की वजह से हमारे खर्चे बहुत बढ़ रहे थे. इस देश में जहां आमदनी अच्छी थी, वहां महंगाई भी बहुत अधिक थी. बच्चों का पालनपोषण यहां बहुत महंगा पड़ता है. अत: मैं ने कार पर होने वाले खर्चे को बचाने के लिए अपनी कार 2 हजार पौंड में बेच दी. यह बात सुकु को बहुत बुरी लगी क्योंकि उसे अब खरीदारी करने के लिए टैक्सी और बसों पर निर्भर रहना पड़ता था. कार बिकने के परिणामस्वरूप प्राप्त 2 हजार पौंड को मैं ने बैंक में जमा कर दिया था. मैं फैक्टरी बस से चला जाता था. कार के रखरखाव व पैट्रोल पर होने वाले खर्चे अब बचने लगे थे.

अनुप्रिया ढाई वर्ष की तथा अनन्य 3 माह का हो चला था कि मुझे पता चला कि सुकु नौकरी की तलाश कर रही है. मैं ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम नौकरी करोगी तो बच्चों को कौन संभालेगा?’’

वह चिढ़े हुए स्वर में फुफकारते हुए बोली, ‘‘अच्छा…तो तुम चाहते हो कि इन बच्चों को संभालने के लिए मैं दिनरात घर में ही घुसी रहूं? इन के लिए तुम्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है, किसी अच्छे शिशुसदन में इन का प्रबंध भी हो जाएगा.’’

मैं ने उत्तेजित हो कर पूछा, ‘‘तो क्या तुम दृढ़ निश्चय कर चुकी हो कि नौकरी अवश्य करोगी?’’

तब वह धीरे से बोली, ‘‘हां, विशेष, हमें कार की आवश्यकता है, उस के बिना हमारा काम कैसे चलेगा?’’

तब मैं ने कहा, ‘‘हमारा न कह कर केवल ‘अपना’ काम कहो. बच्चों की देखभाल का उत्तरदायित्व तुम्हें बोझ लग रहा है. कार की आवश्यकता के आगे तुम बच्चों की आवश्यकताओं के महत्त्व को नकार रही हो. यदि ऐसा ही था तो मां बनने का शौक क्यों पाला था?’’

पर मेरी इन बातों को अनसुनी सी करती हुई वह ऊपर सोने के कमरे में चली गई और मैं सोचता रहा, यह कैसी नारी है जो भौतिक साधनों के समक्ष अपने ही बच्चों की उपेक्षा कर रही है.

अनन्य सिर्फ 3 माह का है, उसे मां की आवश्यकता है. यह उसे शिशुसदन के भरोसे छोड़ कर नौकरी करना चाहती है. क्या 2-3 वर्ष और प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी?

अंत में सुकु की अनुपस्थिति में मैं ने उस के पिता को फोन किया व परिस्थितियों से अवगत करा दिया. सुन कर वे बोले, ‘‘विशेष, सुकेशनी तो आरंभ से ही बहुत जिद्दी है, वह सदा से मनमानी करती आई है. यदि उस ने अपने मन में नौकरी करने की ठान ली है तो वह नौकरी कर के ही मानेगी. अत: बजाय घर में झगड़ा कर के घर का वातावरण विषमय बनाओ, अच्छा यह होगा कि अभी से किसी अच्छे शिशुसदन की तलाश जारी कर दो.’’

कुछ ही दिनों बाद सुकु को एक स्कूल में नौकरी मिल गई. तब तक मैं शिशुसदन की तलाश भी कर चुका था. मैं और सुकु दोनों बच्चों के साथ वहां पहुंचे. वहां की संचालिका करीब 35 वर्षीय एक अंगरेज स्त्री थी. उस ने कहा कि वह 25 पौंड प्रति सप्ताह लेगी. हम ने उसे अपने बच्चों के बारे में संक्षेप में सबकुछ बताया और यह निश्चित किया कि अगले दिन से साढ़े 8 बजे हम दोनों बच्चों को वहां पहुंचा दिया करेंगे और शाम को वापस ले जाया करेंगे.

घर आ कर सुकु ने दोनों बच्चों की विभिन्न आवश्यकताओं व अनुप्रिया की पसंदनापसंद चीजों की सूची बनाई. बच्चों के सारे सामान के बैग के साथ हम ने बच्चों को दूसरे दिन शिशुसदन पहुंचा दिया. इस प्रकार बच्चों की समस्या का समाधान हो गया था.

सुकु साढ़े 8 बजे दोनों बच्चों को शिशुसदन छोड़ती हुई स्कूल चली जाती थी और लौटते समय उन्हें लेते हुए घर चली आती थी. कुछ माह यों ही व्यतीत हो गए. अनुप्रिया कुछ दुबली लगने लगी थी लेकिन अनन्य का स्वास्थ्य ठीक था.

एक दिन सुकु की अनुपस्थिति में मैं ने अनु से पूछा, ‘‘बेटे अनु, तुम्हें शिशुसदन में रहना अच्छा नहीं लगता है क्या?’’

वह पलकें झपकाते हुए मासूमियत भरे स्वर में बोली, ‘‘पिताजी, यदि मैं कहूं कि मुझे वहां अच्छा नहीं लगता तो क्या मां नौकरी छोड़ देंगी?’’

छोटी सी बच्ची की इस तर्कसंगत बात को सुन कर मैं खामोश हो गया. उस दिन मैं ने मन में सोचा कि जो उम्र बच्चों को मां के साथ अपने परिवार में गुजारनी चाहिए, वह उम्र उन्हें एक नितांत ही अनजान स्त्री व परिवार के साथ व्यतीत करनी पड़ रही है.

परंतु सुकु के पास यह सब सोचने- समझने का समय नहीं था. वह तो स्वयं को शतप्रतिशत सही समझती थी. शीघ्र ही उस ने कार ले ली. मैं अब भी बस से फैक्टरी जाता था.

देखतेदेखते 3 वर्ष व्यतीत हो गए. इस अंतराल में हमारे मध्य सैकड़ों बार झगड़े हुए थे. अनु अब प्राथमिक स्कूल व अनन्य नर्सरी स्कूल में जाता था. अब दोनों बच्चों को हम दूसरे शिशुसदन में भेजने लगे थे.

जब से बच्चे नए शिशुसदन में जाने लगे थे तब से सुकु के आने के समय में मैं ने आधे घंटे का अंतर लक्ष्य करना आरंभ किया था. एक दिन मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम आजकल समय से नहीं आती हो, कहां रह जाती हो?’’

उस ने उत्तर दिया, ‘‘कभीकभी स्कूल के पास रहने वाली पामेला के घर चली जाती हूं. वह मेरी अच्छी मित्र है, चाय के लिए खींच कर ले जाती है.’’

उस समय तो मैं कुछ न बोला पर मेरे चेहरे के भाव छिप न सके थे. परंतु मुझे सप्ताह में कभी 2 तो कभी 3 दिन उस का देर से आना जरा भी न भाया था. मैं झगड़े की वजह से चुप था क्योंकि बच्चे भी समझदार हो चले थे और मैं नहीं चाहता था कि वे मातापिता के झगड़ों के प्रत्यक्ष गवाह बनें. अत: मैं खून के घूंट पी कर रह जाता.

एक दिन मेरे एक भारतीय मित्र अभिन्न ने बताया, ‘‘विशेष, तुम्हारी पत्नी तो मेरी गली में रहने वाले पाल के घर अकसर ही आती है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘भई, मैं भाभीजी व कार दोनों को ही पहचानता हूं,’’ वह धीरे से बोला.

फिर मैं ने स्वयं को सांत्वना देते हुए सोचा कि पामेला शायद पाल की पत्नी होगी. पर नहीं, मेरा यह अनुमान भी गलत निकला. मेरे उसी मित्र ने फिर बताया कि पाल अविवाहित है. अब मेरे लिए काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई. किसी पति के लिए इस से अधिक शर्मनाक बात भला और क्या होगी कि उसे अपनी पत्नी के गलत आचरण की सूचना किसी तीसरे से मिले.

दूसरे दिन मैं रोज की तरह फैक्टरी गया, पर काम में मन नहीं लगा. अत: 11 बजे मैं ने अपने मैनेजर से अस्वस्थ होने की बात कह कर उस दिन का अवकाश मांगा और सीधे सुकु के स्कूल में पहुंचा. मैं पहली बार वहां गया था. अत: पहचाने जाने का भय भी नहीं था. मैं ने एक कर्मचारी से पाल के बारे में पूछा तो उस ने कैंटीन की ओर इशारा किया. मैं वहां पहुंचा तो देखा कि पाल और सुकेशनी अगलबगल बैठे हुए कौफी की चुसकियां ले रहे हैं और जोरजोर से हंस रहे हैं.

लंबे कद का गोल चेहरे व नीली आंखों वाला लगभग 35 वर्षीय अंगरेज युवक पाल ठहाके लगाता हुआ बीचबीच में सुकु के कंधों को दबाना नहीं भूलता था, ‘जब यहां अर्थात सार्वजनिक स्थल पर यह हाल है तो अपने घर पर न जाने क्या करता होगा?’ यह सोचते ही सुकेशनी के प्रति इतनी घृणा हुई कि इच्छा हुई, उसी क्षण अपनी दुश्चरित्र पत्नी के मुंह पर थूक दूं. परंतु वहां पर मैं ने कोई दृश्य उपस्थित करना उचित न समझा और सीधे घर लौट आया.

उस दिन प्रथम बार मुझे विदेश आने पर पछतावा हो रहा था. इस इच्छा के कारण मैं ने अपने मातापिता के अनमोल प्यार को धूल बराबर भी महत्त्व नहीं दिया था. संभवत: इसी का दंड मुझे मिल रहा था. मेरे हिस्से का प्यार किसी और को मिल रहा था. मेरी पत्नी ने मुझे तो निरा बेवकूफ समझा था. मैं विश्वास की डोर थामे न जाने कब तक बैठा रहता यदि मेरे मित्र अभिन्न ने मेरे हाथ से वह डोर झटक कर यथार्थ का दर्शन न कराया होता.

आज मैं अपना मनोविश्लेषण कर रहा था, सोच रहा था कि मनुष्य कभीकभी अपनी अदम्य आकांक्षाओं के समक्ष किस हद तक स्वार्थी व लोभी हो जाता है. मैं विदेश आना चाहता था. यह जानते हुए भी कि मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान हूं और मेरे विदेश जाने से ये लोग कितने अकेले पड़ जाएंगे, उन्हें संतान सुख से वंचित हो जाना पड़ेगा. फिर भी मैं ने आगापीछा सोचे बगैर विदेश गमन की इस अदम्य लालसा के समक्ष स्वयं को इस तरह समर्पित कर दिया, जैसे मातापिता से कभी मेरा कोई संबंध ही न रहा हो. यह क्या मेरी भयंकर भूल न थी?

मेरे पिता इतने अच्छे पद पर कार्यरत थे. क्या मेरे लिए योग्य लड़की खोजना उन के लिए असंभव था? मेरे मातापिता अपने पोतापोती का मुंह देखने को तरस गए और मैं ने कुछ फोटो भेज कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली. उस दिन पहली बार मेरे अंतर्मन ने मुझे अपने मातापिता का अपराधी सिद्ध कर दिया. उस ने मुझे बारबार धिक्कारा.

मेरे मातापिता ने मुझे भलीभांति पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि मैं अपने जीवन से उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की भांति निकाल फेंकूं? उस दिन मुझे उन के दुख का अनुमान हो रहा था, वह भी इसलिए कि मुझे भी मेरी पत्नी ने दूध में पड़ी मक्खी की भांति अपने जीवन से निकाल बाहर फेंका था. दूसरे की स्थिति का भान तो तभी होता है, जब स्वयं उस स्थिति को भोगना पड़े.

शाम को बच्चों को ले कर सुकेशनी घर आई. कपड़े बदल कर अनु व अनन्य टेलीविजन देखने लगे. मैं वहीं बैठा रहा. तभी सुकु भी कपड़े बदल कर आई व चाय के लिए पूछने लगी, ‘नहीं’ का संक्षिप्त उत्तर पा कर वह स्वयं के लिए चाय बनाने चली गई.

थोड़ी देर बाद चाय का प्याला हाथ में लिए हुए वह आई और बोली, ‘‘विशेष, बढि़या खबर सुनो, मैं स्कूल की ओर से 2 वर्ष के प्रशिक्षण हेतु अमेरिका जा रही हूं.’’ मैं समझ गया कि मुझ से पूछा नहीं बल्कि बताया जा रहा है.

मैं ने पूछा, ‘‘और बच्चों का क्या होगा?’’

‘‘बच्चे केवल मेरे नहीं, तुम्हारे भी हैं और उन्हें साथ ले जाने का कोई औचित्य भी नहीं है.’’

तब मैं ने शांत स्वर में ही पूछा, ‘‘तुम्हारे साथ और कौनकौन जा रहा है?’’

‘‘मेरे ही स्कूल के कुछ लोग.’’

‘‘अच्छा…तो एक बात बताओ, उन कुछ लोगों में पामेला भी है?’’

एक क्षण के लिए सुकेशनी का चेहरा फक पड़ गया. ऐसा प्रतीत हुआ कि उसे आभास हो गया है कि मुझे उस की तथाकथित सखी पामेला के विषय में सबकुछ ज्ञात हो गया है. फिर भी वह सकपकाए स्वर में बोली, ‘‘हां.’’

तब मैं ने उस की आंखों में गहरी नजर से झांकते हुए पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हारी इस परम सखी पामेला से मिल सकता हूं?’’

अब चौंकने व स्तब्ध रह जाने की बारी सुकेशनी की थी. वह चकित स्वर में बोली, ‘‘तुम क्यों उस से मिलना चाहते हो?’’

‘‘इसलिए कि मेरी अपेक्षा उस के सान्निध्य में तुम अधिक खुश रहती हो और यह मैं स्वयं अपनी आंखों से देख चुका हूं,’’ मैं ने संयत स्वर में कहा.

ऐसा लगा कि उस पर किसी ने घड़ों पानी एकसाथ उड़ेल दिया हो, पर एका- एक उस ने शर्म को उतार कर बेशर्मी का बाना पहन लिया और बोली, ‘‘ओह, तो तुम्हें पता लग गया है, पर इस से क्या…मैं और पाल अच्छे मित्र हैं.’’

अब मैं चीख पड़ा, ‘‘मत बतलाओ मुझे कि वह तुम्हारा मित्र है. मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि इस देश में पले लोगों के मित्र की परिभाषा क्या होती है? यदि ऐसा ही था तो तुम ने कभी उसे घर क्यों नहीं बुलाया? मुझ से क्यों नहीं मिलवाया? मुझे पता है क्योंकि तुम्हारे मन में चोर था, तभी तो उस के साथ सारा दिन स्कूल में व्यतीत करने के पश्चात तुम्हें सप्ताह में 3-4 दिन उस के घर भी मिलने जाना पड़ता था. तुम और पाल अमेरिका जा कर मौज करो और मैं तुम्हारा नाममात्र का पति अपनी नौकरी के साथ इन बच्चों का पालनपोषण करूं. शायद ही इस दुनिया में कोई ऐसा बेगैरत पति होगा जो ऐसा करेगा.’’

कुछ क्षण ठहर कर मैं फिर बोला था, ‘‘तुम्हें पाल अच्छा लगता है न? तो ठीक है, तुम्हें तुम्हारा पाल, तुम्हारा देश, तुम्हारा सुख मुबारक हो, तुम उस के साथ अमेरिका खुशीखुशी जा सकती हो. पर एक बात ध्यान से सुन लो, हमारे विवाह में तुम्हारे मातापिता ने कन्यादान कर के तुम्हारा दायित्व मुझे सौंपा था.

‘‘यदि तुम मुझ से संतुष्ट व खुश नहीं हो तो मैं तुम्हें मुक्त कर दूंगा. पर इस के पहले तुम पाल के पास जाओ, तुम उसे चाहती हो न? और वह भी तुम्हें चाहता है…तो जाओ और जा कर उस से पूछो कि वह तुम से विवाह करेगा? यदि करेगा तो मैं तुम्हें तलाक दे कर इन बच्चों के साथ सदा के लिए भारत चला जाऊंगा. मैं अपने बच्चों को यहां के खुले व बेशर्म वातावरण में खराब नहीं होने दूंगा. मैं तुम से वादा करता हूं कि भविष्य में मैं कभी भी तुम्हारे रास्ते में नहीं आऊंगा.’’

सुकेशनी मुझे आंखें फाड़े देखती रही. ऐसा लगा कि उसे मुंहमांगी मुराद मिल गई हो. वह भौचक्के स्वर में बोली, ‘‘तो तुम्हें कोई एतराज नहीं है?’’

मैं शांत पर खीजे स्वर में बोला, ‘‘नहीं, 10 लोगों से तुम्हारे बारे में तरह- तरह के किस्से सुनने से तो यही अच्छा होगा कि तुम पाल से विवाह कर लो.’’

सुकेशनी उसी समय पर्स उठा कर बाहर चली गई. उस की आधी बची चाय में से अभी तक थोड़ीथोड़ी भाप निकल रही थी. मेरे संतप्त हृदय का भी यही हाल था. मैं समझ गया कि वह पाल के घर गई है. मैं दोनों बच्चों को साथ ले कर पार्क में चला गया.

मुझे सुखसुविधाओं से संपन्न इस घर से विरक्ति सी हो रही थी. विरक्ति से उत्पन्न घुटन मुझे सांस नहीं लेने दे रही थी. मैं रोना चाहता था, पर बच्चों के सामने रो भी नहीं सकता था. पार्क में ठंडी हवा में टहलने से मन कुछ शांत हुआ. हाथ में हाथ डाले अनेक जोड़े वहां टहल रहे थे, उन्हें देख कर मैं और भी उदास हो गया. तभी एहसास हुआ कि रात घिर आई है और मैं बच्चों को ले कर घर आ गया.

लगभग 10-15 मिनट के बाद ही सुकेशनी के आने की आहट हुई.

मैं सोचने लगा कि वह आ कर खिले हुए मुख से मुझे एक और खुश- खबरी सुनाएगी. मैं उदास व खोयाखोया सा बैठा रहा. वह कमरे में आई, पर उदास, निढाल व थकीथकी सी. मैं अभी भी चुप रहा.

उस चुप्पी को भंग करते हुए सुकेशनी बोली, ‘‘विशेष, मुझे क्षमा कर दो, मैं तुम्हारी अपराधी हूं. मैं तुम से दंड चाहती हूं…वह यह कि तुम मुझे जिंदगी भर के लिए अपने हृदयरूपी पिंजरे में कैद कर लो. पाल मुझे खिलौना समझ कर मुझ से खेल रहा था. विवाह की बात सुनते ही वह साफ इनकार कर गया और बोला, ‘मैं ने तुम से विवाह करने की बात तो कभी सोची भी नहीं, यह बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे? क्या तुम अपने पति व बच्चों को जरा भी नहीं चाहती हो? कैसी औरत हो तुम? जब तुम उन से प्यार नहीं कर सकीं तो मुझ से क्या कर पाओगी?’

‘‘विशेष, मुझे अपनी भयंकर भूल का उसी समय एहसास हो गया. मैं तुम से वादा करती हूं कि ऐसी भूल मैं भविष्य में कभी भी नहीं दोहराऊंगी. मुझे एक और अवसर दे दो, विशेष. मैं ने सोच लिया है कि उस स्कूल से अपना तबादला करवा लूंगी. आज से मैं तुम्हारे व बच्चों के प्रति अपने सभी उत्तरदायित्व पूरी ईमानदारी के साथ निभाऊंगी,’’ कहतेकहते वह हिचकियां ले कर रोते हुए मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

मैं ने उसे बांहों से पकड़ कर उठाते हुए कहा, ‘‘सुकु, तुम एक भयंकर भूल कर रही थीं, पर तुम्हें सही समय पर ही अपनी भूल का एहसास हो गया, यह अच्छी बात है. मैं संकीर्ण विचारधारा का नहीं हूं, पर मेरा यह दृष्टिकोण है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मर्यादा व सीमाओं में रहना चाहिए. फिर भी मैं तुम्हें क्षमा कर रहा हूं और तुम्हारे लिए तुम्हारे द्वारा मांगा दंड ही निर्धारित कर रहा हूं अर्थात जीवन भर तुम्हें अपने हृदयरूपी पिंजरे में कैद रखूंगा. तुम्हारे लिए यह अंतिम अवसर है और मुझे विश्वास है कि तुम अपनी कही बातों का पालन करोगी.’’

दोनों बच्चे वहीं आ गए थे, जिन्हें सुकु ने अपनी बांहों में समेट लिया. आंसू उस की आंखों में झिलमिला रहे थे. बच्चों के चेहरों को देख कर ऐसा लगा कि उन्हें वर्षों बाद अपनी मां मिली हो और मुझे भी एक तरह से उसी दिन अपनी पत्नी मिली थी क्योंकि सुकु की आंखों में बहते हुए आंसुओं में उस का मिथ्या- भिमान, जिद, अहं मुझे साफ बहते दिखाई दे रहे थे.

उसी रात हम दोनों ने यह निर्णय लिया कि अपने मतभेदों को बजाय झगड़ा कर के और बढ़ाने के, बच्चों की अनुपस्थिति में एकसाथ बैठ कर सुलझाएंगे. तभी सुकु ने अनुप्रिया व अनन्य का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो बच्चो, तुम्हें कल स्कूल भी तो जाना है.’’

मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से सुकु की ओर देखा तो वह बोली, ‘‘विशेष, मैं एक माह की छुट्टी ले लूंगी. मुझे वर्षों से बिखरा घर सहेजना है.’’

मैं कुछ न बोल कर मुसकराता रहा. दोनों बच्चे मेरे दोनों गालों पर स्नेहचिह्न अंकित कर अपनी मां का हाथ पकड़े खुशीखुशी सोने के कमरे में चले गए.

मुझे गहन काले बादलों में रुपहली चमक दृष्टिगोचर हो रही थी. ऐसी चमक, जो सूर्योदय की प्रतीक थी.

आजादी: राधिका का आखिर क्या था कुसूर

फैमिली कोर्ट की सीढि़यां उतरते हुए पीछे से आती हुई आवाज सुन कर वह ठिठक कर वहीं रुक गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा. वहां होते कोलाहल के बीच लोगों की भीड़ को चीरता हुआ नीरज उस की तरफ तेज कदमों से चला आ रहा था.

‘‘थैंक्स राधिका,’’ उस के नजदीक पहुंच नीरज ने अपने मुंह से जब आभार के दो शब्द निकाले तो राधिका का चेहरा एक अनचाही पीड़ा के दर्द से तन गया. उस ने नीरज के चेहरे पर नजर डाली. उस की आंखों में उसे मुक्ति की चमक दिखाई दे रही थी. अभी चंद मिनटों पहले ही तो एक साइन कर वह एक रिश्ते के भार को टेबल पर रखे कागज पर छोड़ आगे बढ़ गई थी.

‘‘थैंक्स राधिका टू डू फेवर. मुझे तो डर था कि कहीं तुम सभी के सामने सचाई जाहिर कर मुझे जीने लायक भी न छोड़ोगी,’’ राधिका को चुप पा कर नीरज ने आगे कहा.

राधिका ने एक बार फिर ध्यान से नीरज के चेहरे को देखा और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई. फैमिली कोर्ट के बाहर से रिकशा ले कर वह सीधे औफिस ही पहुंच गई. उस के मन में था कि औफिस के कामों में अपने को व्यस्त रख कर मन में उठ रही टीस को वह कम कर पाएगी. लेकिन वहां पहुंच कर भी उस का मन किसी भी काम में नहीं लगा. उस ने घड़ी पर नजर डाली. एक बज रहा था. औफिस में आए उसे अभी एक घंटा ही हुआ था. अपनी तबीयत ठीक न होने का बहाना कर उस ने हाफडे लीव को फुल डे सिकलीव में कन्वर्ट करवा लिया और औफिस से निकल कर सीधे घर जाने के लिए रिकशा पकड़ लिया.

सोसाइटी कंपाउंड में प्रवेश कर उस ने लिफ्ट का बटन दबाया, पर सहसा याद आया कि आज सुबह से बिजली बंद है और शाम 5 बजे के बाद ही सप्लाई वापस चालू होगी. बुझे मन से वह सीढि़यां चढ़ कर तीसरी मंजिल पर आई. फ्लैट नंबर सी-302 का ताला खोल कर अंदर से दरवाजा बंद कर वह सीधे जा कर बिस्तर पर पसर गई.

कुछ देर पहले बरस कर थम चुकी बारिश की वजह से वातावरण में ठंडक छा गई थी. लेकिन उस का मन अंदर से एक आग की तपिश से जला जा रहा था. नेहा अपने बौस के साथ बिजनैस टूर पर गई हुई थी और कल सुबह से पहले नहीं आने वाली थी वरना मन में उठ रही टीस उस के संग बांट कर अपने को कुछ हलका कर लेती. बैडरूम में उसे घबराहट होने लगी, तो वह उठ कर हौल में आ कर सोफे पर सिर टिका कर बैठ गई. उस की आंखों के आगे जिंदगी के पिछले 4 साल घूमने लगे…

‘चलो अच्छा ही है 2 दोस्तों के बच्चे अब शादी की गांठ से बंध जाएंगे तो दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदल कर और पक्की हो जाएगी,’ राधिका के नीरज से शादी के लिए हां कहते ही जैसे पूरे घर में खुशियां छा गई थीं. राधिका के पिता ने अपने दोस्त का मुंह मीठा करवाया और गले से लगा लिया.

राधिका ने अपने सामने बैठे नीरज को चोरीछिपे नजरें उठा कर देखा. वह शरमाता हुआ नीची नजरें किए हुए चुपचाप बैठा था. न्यूजर्सी से अपनी पढ़ाई पूरी कर अभी कुछ महीने पहले ही आया नीरज शायद यहां के माहौल में अपनेआप को फिर से पूरी तरह से एडजस्ट नहीं कर पाया. यही सोच कर राधिका उस वक्त उस के चेहरे के भाव नहीं पढ़ पाई. अपने पापा के दोस्त दीनानाथजी को वह बचपन से जानती थी लेकिन नीरज से उस की मुलाकात इस रिश्ते की नींव बनने से पहले कभीकभी ही हुई थी. 12वीं पास करने के बाद नीरज 5 साल के लिए स्टूडैंट वीजा पर न्यूजर्सी चला गया था और जब वापस आया तो पहली ही मुलाकात में चंद घंटों की बातों के बाद उन की शादी का फैसला हो गया.

‘‘नीरज, मैं तुम्हें पसंद तो हूं न?’’ बगीचे में नीरज का हाथ थाम कर चलती राधिका ने पूछा.

‘‘हां. लेकिन क्यों ऐसा पूछ रही हो?’’ उस की बात का जवाब देते हुए नीरज ने पूछा.

‘बस ऐसे ही. अगले महीने हमारी शादी होने वाली है. पर तुम्हारे चेहरे पर कोई उत्साह न देख कर मुझे डर सा लगता है. कहीं तुम ने किसी दबाव में आ कर तो इस शादी के लिए हां नहीं की न?’ पास ही लगी बैंच पर बैठते हुए राधिका ने नीरज को देखा.

‘वैल. अपना बिजनैस सैट करने की थोड़ी टैंशन है. इसी उलझन में रहता हूं कि कहीं शादी का यह फैसला जल्दी तो नहीं ले लिया,’ कहते हुए नीरज ने अपनी पैंट की जेब से रूमाल निकाला और माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछ डाला.

‘इस में टैंशन लेने वाली बात ही क्या है? शादी तो समय पर हो ही जानी चाहिए. वैसे भी, जीने के लिए पैसा नहीं, अपने लोगों के पास होने की जरूरत होती है,’ कहती हुई राधिका ने नीरज के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

‘बात तो सच है तुम्हारी पर फिर भी हर वक्त एक डर सा बना रहता है,’ नीरज ने अपने हाथ में अभी भी रूमाल पकड़ रखा था.

‘छोड़ो भी अब यह डर और कोई रोमांटिक बात करो न मुझ से,’ कहती हुई राधिका ने आसपास नजर दौड़ाई. बगीचे में अधिकांश जोड़े अपनी ही मस्ती में खोए हुए थे. सहसा राधिका नीरज के और करीब आ गई और उस के हाथ की उंगलियां उस की छाती पर हरकत करने लगीं.

‘यह क्या हरकत है राधिका?’ कहते हुए नीरज ने एक झटके से राधिका को अपने से दूर कर दिया और अपनी जगह से खड़ा हो गया. राधिका के लिए नीरज का यह व्यवहार अप्रत्याशित था. वह नीरज की इस हरकत से सहम गई. तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. राधिका अपनी यादों से बाहर निकल कर खड़ी हुई और दरवाजा खोला.

‘‘नेहा प्रधान हैं?’’

दरवाजे पर कूरियर वाला खड़ा था. ‘‘जी, इस वक्त वह घर पर नहीं है. लाइए मैं साइन कर देती हूं,’’ राधिका ने पैकेट लेने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया.

पैकेट दे कर कूरियर वाला चला गया. दरवाजा बंद करती हुई राधिका ने पैकेट को देख कर उस के अंदर कोई पुस्तक होने का अंदाजा लगाया. नेहा अकसर कोई न कोई पुस्तक मंगाती रहती थी. उस ने पैकेट टेबल पर रख दिया और वापस सोफे पर बैठ गई.

4 वर्षों का साथ आज यों ही एक झटके में तो नहीं टूट गया था. उस के पीछे की भूमिका तो शायद शादी के पहले से ही बन चुकी थी. पर नीरज का मौन राधिका की जिंदगी भी दांव पर लगा गया. नीरज के बारे में और सोचते हुए उस का चेहरा तन गया.

‘नीरज,  तुम्हारे मन में आखिर चल क्या रहा है? हमारी शादी हुए एक महीने से ज्यादा हो गया और 10 दिनों के अच्छेखासे हनीमून के बाद भी तुम्हारे चेहरे पर नईनई शादी वाली खुशी नदारद सी है. बात क्या है? मुझ से तो खुल कर कहो,’ पूरे हनीमून के दौरान राधिका ने महसूस किया कि नीरज हमेशा उस से एक सीमित अंतर बना कर रह रहा है. रात के हसीन पल भी उसे रोमांचित नहीं कर पा रहे थे. वह, बस, शादी के बाद की रातों को एक जिम्मेदारी मान कर जैसेतैसे निभा ही रहा था. हनीमून से लौट कर आने के बाद राधिका के चेहरे पर अतृप्ति के भाव छाए हुए थे.

‘कुछ नहीं राधिका. मुझे लगता है हम ने शादी करने में जल्दबाजी कर दी है,’ राधिका की बात सुन कर नीरज इतना ही बोल पाया.

‘जनाब, अब ये सब बातें सोचने का समय बीत चुका है. बेहतर होगा हम मिल कर अपनी शादी का जश्न पूरे मन से मनाएं,’ राधिका ने नीरज की बात सुन कर कहा.

‘तुम नहीं समझ पाओगी राधिका और मैं तुम्हें अपनी समस्या समझ भी नहीं पाऊंगा,’ कह कर नीरज राधिका की प्रतिक्रिया की परवा किए बिना ही कमरे से बाहर चला गया.

अकेले बैठी हुई राधिका का मन बारबार पिछली बातों में जा कर अटक रहा था. लाइट भी नहीं थी जो टीवी औन कर अपना मन बहला पाती. तभी उस के मन में कुछ कौंधा और उस ने नेहा के नाम से अभी आया पैकेट खोल लिया. उस के हाथों में किसी नवोदित लेखक की पुस्तक थी. पुस्तक के कवर पर एक स्त्री की एक पुरुष के साथ हाथों में हाथ डाले हुए मनमोहक छवि थी और उस के ऊपर पुस्तक का शीर्षक छपा हुआ था- ‘उस के हिस्से का प्यार’. कहानियों की इस पुस्तक की विषय सूची पर नजर डालते हुए उस ने एक के बाद एक कुछ कहानियां पढ़नी शुरू कर दीं. बच्चे के यौन उत्पीड़न और फिर उस को ले कर वैवाहिक जीवन में आने वाली समस्या को ले कर लिखी गई एक कहानी पढ़ कर वह फिर से नीरज की यादों में खो गई.

उस दिन नीरज बेहद खुश था. वह घर खाने पर अपने किसी विदेशी दोस्त को ले कर आया था.

‘राधिका, 2 दिनों पहले मैं अपने जिस दोस्त की बात कर रहा था वह यह माइक है. न्यूजर्सी में हम दोनों रूममेट थे और साथ ही पढ़ते थे,’ नीरज ने राधिका को माइक का परिचय देते हुए कहा.

राधिका ने अपने पति की बाजू में खड़े उस श्वेतवर्णी स्निग्ध त्वचा वाले लंबे व छरहरे युवक पर नजर डाली. राधिका को पहली ही नजर में नीरज का यह दोस्त बिलकुल पसंद नहीं आया. उस का क्लीनशेव्ड नाजुक चेहरा और उस पर सिर पर थोड़े लंबे बालों को बांध कर बनाई गई छोटी सी चोटी देख कर राधिका को आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा लड़का नीरज का दोस्त कैसे हो सकता है. नीरज तो खुद अपने पहनावे और लुक को ले कर काफी कौन्शियस रहता है. उस वक्त इस बात को नजरअंदाज कर वह इस बात पर ज्यादा कुछ न सोचते हुए खाना बनाने में जुट गई.

उसी रात नीरज ने जब राधिका से सीधेसीधे तलाक लेने की बात छेड़ी तो राधिका के पैरोंतले जमीन खिसक गई.

‘लेकिन बात क्या हुई नीरज? न हमारे बीच कोई झगड़ा है न कोई परेशानी. सबकुछ तो बराबर चल रहा है. कहीं तुम्हारा किसी के संग अफेयर तो…’ रिश्तों को बांधे रखने की दुहाई देते हुए सहसा उस का मन एक आशंका से भर गया.

‘अफेयर ही समझ लो. अब तुम से मैं आगे कुछ और नहीं छिपाऊंगा,’ कहते हुए नीरज चुप हो गया. राधिका ने नीरज के चेहरे को देखते हुए उस की आंखों में अजीब सी मदहोशी महसूस की.

‘तुम कहना क्या चाहते हो नीरज?’ राधिका नीरज की अधूरी छोड़ी बात पूरी सुनना चाहती थी. उस के बाद नीरज ने जो कुछ उस से कहा, उन में से आधी बात तो वह ठीक से सुन ही नहीं पाई.

‘तुम्हारे संग मेरी शादी मेरे लिए एक जुआ ही थी. मैं अपनी सारी जिंदगी इसी तरह कशमकश में गुजार देता पर अब यह कुछ नामुमकिन सा लगता है राधिका. बेहतर होगा हम अपनेअपने रास्ते अलगअलग ही तय करें,’ नीरज से शादी टूटने से पहले कहे गए आखिरी वाक्य उस के दिमाग में बारबार कौंधने लगे.

राधिका ने कमरे की लाइट बंद कर दी और चुपचाप लेट कर सारी रात अपनी बरबादी पर आंसू बहाती रही.

अब एक ही घर में नीरज के साथ रहते हुए वह अपनेआप को एक अजनबी महसूस कर रही थी. अपने मन की बात राधिका को जता कर जैसे नीरज के मन का भार हलका हो चुका था लेकिन राधिका जैसे मन पर एक अनचाहा भार ले कर जी रही थी. जब उस के मन का भार असहनीय हो गया तो वह नीरज के घर की दहलीज छोड़ कर अपने पिता के घर आ गई.

फिर जो हुआ वह आज के दिन में परिणत हो कर उस के सामने खड़ा था. कानूनी तौर पर वह भले ही नीरज से अलग हो चुकी थी लेकिन नीरज की सचाई और उस के द्वारा दी गई अनचाही पीड़ा अब भी उस के मन के कोने में कैद थी जिसे वह चाह कर भी किसी से बयान नहीं कर सकती थी. घर में बैठेबैठे अकेले घुटन होने से वह घर लौक कर बाहर निकल गई और एमजी रोड पर स्थित मौल में दिल बहलाने के लिए चक्कर लगाने लगी.

रात देर से नींद आने की वजह से सुबह उस की नींद देर से ही खुली. वैसे भी आज उस का वीकली औफ होने से औफिस जाने का कोई झंझट न था. उस ने उठ कर समाचार सुनने के लिए टीवी औन ही किया था कि डोरबेल बज उठी.

‘‘हाय राधिका. हाऊ आर यू?’’ दरवाजा खोलते ही नेहा राधिका से लिपट गई.

‘‘मैं ठीक हूं. तेरा टूर कैसा रहा?’’ राधिका के चेहरे पर एक फीकी सी मुसकान तैर गई.

‘‘बौस के साथ टूर हमेशा ही मजेदार रहता है. वैसे भी अब जिंदगी ऐसे मोड़ तक पहुंच गई है जहां से वापस लौटना संभव ही नहीं. यह टूर तो एक बहाना होता है एकांत पाने का,’’ कहती हुई नेहा सोफे पर पसर गई.

राधिका ने रिमोट उठा कर चुपचाप न्यूज चैनल शुरू कर दिया.

‘‘सुन, कल तेरी आखिरी सुनवाई थी न फैमिली कोर्ट में. क्या फैसला आया?’’ नेहा ने राधिका को अपने पास खींचते हुए उस से पूछा.

‘‘फैसला तो पहले से ही तय था. बस, साइन ही करने तो जाना था,’’ राधिका ने बुझेमन से जवाब दिया.

‘‘लेकिन तू ने अभी तक नहीं बताया कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो तू ने नीरज से अलग होने का फैसला ले लिया?’’ पिछले एक साल से साथ रहने के बावजूद राधिका ने अपनी जिंदगी का एक अधूरा सच नेहा से अब तक छिपाए रखा था.

‘भारत की न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक फैसला सैक्शन 377 के तहत अब गे और लैस्बियन संबंध वैध.’

तभी टीवी स्क्रीन पर आती ब्रैकिंग न्यूज देख कर राधिका असहज हो गई.

‘‘स्ट्रैंज,’’ नेहा ने न्यूज पर अपनी छोटी सी प्रतिक्रिया जताते हुए राधिका से फिर से पूछा, ‘‘तू ने बताया नहीं राधिका? कुछ कारण तो रहा होगा न?’’

‘‘बस, समझ ले कल उसे एक अनचाहे रिश्ते से कानूनीतौर पर मुक्ति मिली और आज उस मुक्ति की खुशी मनाने का मौका भी उसी कानून ने उसे दे दिया,’’ राधिका की नजरें अभी भी टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थीं. लेकिन नेहा उस की नम हो चुकी आंखों में तैर रही खामोशी को पढ़ चुकी थी. द्य

गलतफहमी: क्या था रिया का जवाब

आज नौकरी का पहला दिन था. रिया ने सुबह उठ कर तैयारी की और औफिस के लिए निकल पड़ी. पिताजी के गुजरने के बाद घर की सारी जिम्मेदारी उस पर ही थी. इंजीनियरिंग कालेज में अकसर अव्वल रहने वाली रिया के बड़ेबड़े सपने थे. लेकिन परिस्थितिवश उसे इस राह पर चलना पड़ा था. इस के पहले छोटी नौकरी में घर की जिम्मेदारियां पूरी न हो पाती थीं. ऐसे में एक दिन औनलाइन इंटरव्यू के इश्तिहार पर उस का ध्यान गया. उस ने फौर्म भर दिया और उस कंपनी में उसे चुन लिया गया.

रिया जब औफिस में पहुंची तो औफिस के कुछ कर्मी थोड़े समय से थोड़ा पहले ही आ गए थे. वहीं, रिसैप्शन पर बैठी अंजली ने रिया से पूछा, ‘‘गुडमौर्निंग मैडम, आप को किस से मिलना है?’’

‘‘मैं इस कंपनी में औनलाइन इंटरव्यू से चुनी गईर् हूं. आज से मु झे औफिस जौइन करने लिए कहा गया था, यह लैटर…’’

‘‘ओके, कौंग्रेट्स. आप का इस कंपनी में स्वागत है. थोड़ी देर बैठिए. मैं मैनेजर साहब से पूछ कर आप को बताती हूं.’’

रिया वहीं बैठ कर कंपनी का निरीक्षण करने लगी. उसी वक्त कंपनी में काफी जगह लगा हुआ आर जे का लोगो उस का बारबार ध्यान खींच रहा था. उतने में अंजली आई, ‘‘आप को मैनेजर साहब ने बुलाया है. वे आप को आगे का प्रोसीजर बताएंगे.’’

‘‘अंजली मैडम, एक सवाल पूछूं? कंपनी में जगहजगह आर जे लोगो क्यों लगाया गया है?’’

‘‘आर जे लोगो कंपनी के सर्वेसर्वा मजूमदार साहब के एकलौते सुपुत्र के नाम के अक्षर हैं. औनलाइन इंटरव्यू उन का ही आइडिया था. आज उन का भी कंपनी में पहला दिन है. चलो, अब हम अपने काम की ओर ध्यान दें.’’

‘‘हां, बिलकुल, चलो.’’

कंपनी के मैनेजर, सुलझे हुए इंसान थे. उन की बातों से और काम सम झाने के तरीके से रिया के मन का तनाव काफी कम हुआ. उस ने सबकुछ समझ लिया और काम शुरू कर लिया. शुरू के कुछ दिनों में ही रिया ने अपने हंसमुख स्वभाव से और काम के प्रति ईमानदारी से सब को अपना बना लिया. लेकिन अभी तक उस की कंपनी के मालिक आर जे सर से मुलाकात नहीं हुई थी. कंपनी की मीटिंग हो या और कोई अवसर, जहां पर उस की आर जे सर के साथ मुलाकात होने की गुंजाइश थी, वहां उसे जानबू झ कर इग्नोर किया जा रहा था. ऐसा क्यों, यह बात उस के लिए पहेली थी.

एक दिन रोज की फाइल्स देखते समय चपरासी ने संदेश दिया, ‘‘मैनेजर साहब, आप को बुला रहे हैं.’’

‘‘आइए, रिया मैडम, आप से काम के बारे में बात करनी थी. आज आप को इस कंपनी में आए कितने दिन हुए?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ सर? मैं ने कुछ गलत किया क्या?’’

‘‘गलत हुआ, ऐसा मैं नहीं कह सकता, मगर अपने काम की गति बढ़ाइए और हां, इस जगह हम काम करने की तनख्वाह देते हैं, गपशप की नहीं. यह ध्यान में रखिए. जाइए आप.’’

रिया के मन को यह बात बहुत बुरी लगी. वैसे तो मैनेजर साहब ने कभी भी उस के साथ इस तरीके से बात नहीं की थी लेकिन वह कुछ नहीं बोल सकी. अपनी जगह पर वापस आ गई.

थोड़ी देर में चपरासी ने उस के विभाग की सारी फाइलें उस की टेबल पर रख दीं. ‘‘इस में जो सुधार करने के लिए कहे हैं वे आज ही पूरे करने हैं, ऐसा साहब ने कहा है.’’

‘‘लेकिन यह काम एक दिन में कैसे पूरा होगा?’’

‘‘बड़े साहब ने यही कहा है.’’

‘‘बड़े साहब…?’’

‘‘हां मैडम, बड़े साहब यानी अपने आर जे साहब, आप को नहीं मालूम?’’

अब रिया को सारी बातें ध्यान में आईं. उस के किए हुए काम में आर जे सर ने गलतियां निकाली थीं, हालांकि वह अब तक उन से मिली भी नहीं थी. फिर वे ऐसा बरताव क्यों कर रहे थे, यह सवाल रिया को परेशान कर रहा था.

उस ने मन के सारे विचारों को  झटक दिया और काम शुरू किया. औफिस का वक्त खत्म होने को था, फिर भी रिया का काम खत्म नहीं हुआ था. उस ने एक बार मैनेजर साहब से पूछा, मगर उन्होंने आज ही काम पूरा करने की कड़ी चेतावनी दी. बाकी सारा स्टाफ चला गया. अब औफिस में रिया, चपरासी और आर जे सर के केबिन की लाइट जल रही थी यानी वे भी औफिस में ही थे. काम पूरा करतेकरते रिया को काफी वक्त लगा.

उस दिन के बाद रिया को तकरीबन हर दिन ज्यादा काम करना पड़ता था. उस की बरदाश्त करने की ताकत अब खत्म हो रही थी. एक दिन उस ने तय किया कि आज अगर उसे हमेशा की तरह ज्यादा काम मिला तो सीधे जा कर आर जे सर से मिलेगी. हुआ भी वैसा ही. उसे आज भी काम के लिए रुकना था. उस ने काम बंद किया और आर जे सर के केबिन की ओर जाने लगी. चपरासी ने उसे रोका, मगर वह सीधे केबिन में घुस गई.

‘‘सौरी सर, मैं बिना पूछे आप से मिलने चली आई. क्या आप मु झे बता सकेंगे कि निश्चितरूप से मेरा कौन सा काम आप को गलत लगता है? मैं कहां गलत कर रही हूं? एक बार बता दीजिए. मैं उस के मुताबिक काम करूंगी, मगर बारबार ऐसा…’’

रिया के आगे के लफ्ज मुंह में ही रह गए क्योंकि रिया केबिन में आई थी तब आर जे सर कुरसी पर उस की ओर पीठ कर के बैठे थे. उन्होंने रिया के शुरुआती लफ्ज सुन लिए थे. बाद में उन की कुरसी रिया की ओर मुड़ी ‘‘सर…आप…तुम…राज…कैसे मुमकिन है? तुम यहां कैसे?’’ रिया हैरान रह गई. उस का अतीत अचानक उस के सामने आएगा, ऐसी कल्पना भी उस ने नहीं की थी. उसे लगने लगा कि वह चक्कर खा कर वहीं गिर जाएगी.

‘‘हां, बोलिए रिया मैडम, क्या तकलीफ है आप को?’’

राज के इस सवाल से वह अतीत से बाहर आई और चुपचाप केबिन के बाहर चली गई. उस का अतीत ऐसे अचानक उस के सामने आएगा, यह उस ने सोचा भी नहीं था.

आर जे सर कोई और नहीं उस का नजदीकी दोस्त राज था. उस दोस्ती में प्यार के धागे कब बुन गए, यह दोनों सम झे नहीं थे. रिया को वह कालेज का पहला दिन याद आया. कालेज के गेट के पास ही सीनियर लड़कों के एक गैंग ने उसे रोका था.

‘आइए मैडम, कहां जा रही हो? कालेज के नए छात्र को अपनी पहचान देनी होती है. उस के बाद आगे बढि़ए.’

रिया पहली बार गांव से पढ़ाई के लिए शहर आई थी और आते ही इस सामने आए संकट से वह घबरा गई.

‘अरे हीरो, तू कहां जा रहा है? तु झे दिख नहीं रहा यहां पहचान परेड चल रही है. चल, ऐसा कर ये मैडम जरा ज्यादा ही घबरा गई हैं. तू इन्हें प्रपोज कर. उन का डर भी चला जाएगा.’

अभीअभी आया राज जरा भी घबराया नहीं. उस ने तुरंत रिया की ओर देखा. एक स्माइल दे कर बोला. ‘हाय, मैं राज. घबराओ मत. बड़ेबड़े शहरों में ऐसी छोटीछोटी बातें होती रहती हैं.’

रिया उसे देखती ही रह गई.

‘आज हमारे कालेज का पहला दिन है. इस वर्षा ऋतु के साक्षी से मेरी दोस्ती को स्वीकार करोगी.’ रिया के मुंह से अनजाने में कब ‘हां’ निकल गई यह वह सम झ ही नहीं पाई. उस के हामी भरने से सीनियर गैंग  झूम उठा.

‘वाह, क्या बात है. यह है रियल हीरो. तुम से मोहब्बत के लैसंस लेने पड़ेंगे.’

‘बिलकुल… कभी भी…’

रिया की ओर एक नजर डाल कर राज कालेज की भीड़ में कब गुम हुआ, यह उसे मालूम ही नहीं हुआ. एक ही कालेज में, एक ही कक्षा में होने की वजह से वे बारबार मिलते थे. राज अपने स्वभाव के कारण सब को अच्छा लगता था. कालेज की हर लड़की उस से बात करने के लिए बेताब रहती थी. मगर राज किसी दूसरे ही रिश्ते में उल झ रहा था.

यह रिश्ता रिया के साथ जुड़ा था. एक अव्यक्त रिश्ता. उस का शांत स्वभाव, उस का मनमोहता रूप जिसे शहर की हवा छू भी नहीं पाई थी. उस का यही निरालापन राज को उस की ओर खींचता था.

एक दिन दोनों कालेज कैंटीन में बैठे थे. तब राज ने कहा, ‘रिया, तुम कितनी अलग हो. हमारा कालेज का तीसरा साल शुरू है. लेकिन तुम्हें यहां के लटके झटके अभी भी नहीं आते…’

‘मैं ऐसी ही ठीक हूं. वैसे भी मैं कालेज में पढ़ने आई हूं. पढ़ाई पूरी करने के बाद मु झे नौकरी कर के अपने पिताजी का सपना पूरा करना है. उन्होंने मेरे लिए काफी कष्ट उठाए हैं.’

रिया की बातें सुन कर राज को रिया के प्रति प्रेम के साथ आदर भी महसूस हुआ. तीसरे साल के आखिरी पेपर के समय राज ने रिया को बताया, ‘मु झे तुम्हें कुछ बताना है. शाम को मिलते हैं.’ हालांकि उस की आंखें ही सब बोल रही थीं. रिया भी इसी पल का बेसब्री से इंतजार कर रही थी. इसी खुशी में वह होस्टल आई. मगर तभी मैट्रन ने बताया, ‘तुम्हारे घर से फोन था. तुम्हें तुरंत घर बुलाया है.’

रिया ने सामान बांधा और गांव की ओर निकल पड़ी. घर में क्या हुआ होगा, इस सोच में वह परेशान थी. इन सब बातों में वह राज को भूल गई. घर पहुंची तो सामने पिताजी का शव, उस सदमे से बेहोश पड़ी मां और रोता हुआ छोटा भाई. अब किसे संभाले, खुद की भावनाओं पर कैसे काबू पाए, यह उस की सम झ में नहीं आ रहा था. एक ऐक्सिडैंट में उस के पिताजी का देहांत हो गया था. घर में सब से बड़ी होने की वजह से उस ने अपनी भावनाओं पर बहुत ही मुश्किल से काबू पाया.

इस घटना के बाद उस ने पढ़ाई आधी ही छोड़ दी और एक छोटी नौकरी कर घर की जिम्मेदारी संभाली.

इधर राज बेचैन हो गया. सारी रात रिया का इंतजार करता रहा. मगर वह आई नहीं. उस ने कालेज, होस्टल सब जगह ढूंढ़ा मगर उस का कुछ पता नहीं चला. रिया ने ही ऐसी व्यवस्था कर रखी थी. वह राज पर बो झ नहीं बनना चाहती थी. पर राज इस सब से अनजान था. उस के दिल को ठेस पहुंची थी. इसलिए उस ने भी कालेज छोड़ दिया और आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया.

‘‘मैडम, आप का काम हो गया क्या? मु झे औफिस बंद करना है. बड़े साहब कब के चले गए.’’

चपरासी की आवाज से रिया यादों की दुनिया से बाहर आई. उस ने सब सामान इकट्ठा किया और घर के लिए निकल पड़ी. उस के मन में एक ही खयाल था कि राज की गलतफहमी कैसे दूर करे. उसे उस का कहना रास आएगा या नहीं? वह नौकरी भी छोड़ नहीं सकती. क्या करे. इन खयालों में वह पूरी रात जागती रही.

दूसरे दिन औफिस में अंजली ने रिसैप्शन पर ही रिया से पूछा, ‘‘अरे रिया, क्या हुआ? तुम्हारी आंखें ऐसी क्यों लग रही हैं? खैरियत तो है न?’’

‘‘अरे कुछ नहीं, थोड़ी थकान महसूस कर रही हूं, बस. आज का शैड्यूल क्या है?’’

‘‘आज अपनी कंपनी को एक बड़ा प्रोजैक्ट मिला है. इसलिए कल पूरे स्टाफ के लिए आर जे सर ने पार्टी रखी है. हरेक को पार्टी में आना ही है.’’

‘‘हां, आऊंगी.’’

दू सरे दिन शाम को पार्टी शुरू हुई. रिया बस केवल हाजिरी लगा कर निकलने की सोच रही थी. राज का पूरा ध्यान उसी पर था. अचानक उसे एक परिचित  आवाज आई.

‘‘हाय राज, तुम यहां कैसे? कितने दिनों बाद मिल रहे हो. मगर तुम्हारी हमेशा की मुसकराहट किधर गई?’’

‘‘ओ मेरी मां, हांहां, कितने सवाल पूछोगी. स्नेहल तुम तो बिलकुल नहीं बदलीं. कालेज में जैसी थीं वैसी ही हो, सवालों की खदान. अच्छा, तुम यहां कैसे…?’’

‘‘अरे, मैं अपने पति के साथ आई हूं. आज उन के आर जे सर ने पूरे स्टाफ को परिवार सहित बुलाया है. इसलिए मैं आई. तुम किस के साथ आए हो?’’

‘‘मैं अकेला ही आया हूं. मैं ही तुम्हारे पति का आर जे सर हूं.’’

‘‘सच, क्या कह रहे हो. तुम ने तो मु झे हैरान कर दिया. अरे हां, रिया भी इसी कंपनी में है न. तुम लोगों की सब गलतफहमियां दूर हो गईं न.’’

‘‘गलतफहमी? कौन सी गलतफहमी?’’

‘‘अरे, रिया अचानक कालेज छोड़ कर क्यों गई, उस के पिताजी का ऐक्सिडैंट में देहांत हो गया था, ये सब…’’

‘‘क्या, मैं तो ये सब जानता ही नहीं.’’

स्नेहल रिया और राज की कालेज की सहेली थी. उन दोनों की दोस्ती, प्यार, दूरी इन सब घटनाओं की साक्षी थी. उसे रिया के बारे में सब मालूम हुआ था. उस ने ये सब राज को बताया.

राज को यह सब सुन कर बहुत दुख हुआ. उस ने रिया के बारे में कितना गलत सोचा था. हालांकि, उस की इस में कुछ भी गलती नहीं थी. अब उस की नजर पार्टी में रिया को ढूंढ़ने लगी. मगर तब तक रिया वहां से निकल चुकी थी.

वह उसे ढूंढ़ने बसस्टौप की ओर भागा.

बारिश के दिन थे. रिया एक पेड़ के नीचे खड़ी थी. उस ने दूर से ही रिया को आवाज लगाई.

‘‘रिया…रिया…’’

‘‘क्या हुआ सर? आप यहां क्यों आए? आप को कुछ काम था क्या?’’

‘‘नहीं, सर मत पुकारो, मैं तुम्हारा पहले का राज ही हूं. अभीअभी मु झे स्नेहल ने सबकुछ बताया. मु झे माफ कर दो, रिया.’’

‘‘नहीं राज, इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं है. उस समय हालात ही ऐसे थे.’’

‘‘रिया, आज मैं तुम से पूछता हूं, क्या मेरे प्यार को स्वीकार करोगी?’’

रिया की आंसूभरी आंखों से राज को जवाब मिल गया.

राज ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. उन के इस मिलन में बारिश भी उन का साथ दे रही थी. इस बारिश की  झड़ी में उन के बीच की दूरियां, गलतफहमियां पूरी तरह बह गई थीं.

दिल से दिल तक: शादीशुदा आभा के प्यार का क्या था अंजाम

‘‘हर्ष,अब क्या होगा?’’ आभा ने कराहते हुए पूछा. उस की आंखों में भय साफसाफ देखा जा सकता था. उसे अपनी चोट से ज्यादा आने वाली परिस्थिति को ले कर घबराहट हो रही थी.

‘‘कुछ नहीं होगा… मैं हूं न, तुम फिक्र मत करो…’’ हर्ष ने उस के गाल थपथपाते हुए कहा.

मगर आभा चाह कर भी मुसकरा नहीं सकी. हर्ष ने उसे दवा खिला कर आराम करने को कहा और खुद भी उसी बैड के एक किनारे अधलेटा सा हो गया. आभा शायद दवा के असर से नींद के आगोश में चली गई, मगर हर्र्ष के दिमाग में कई उल झनें एकसाथ चहलकदमी कर रही थी…

कितने खुश थे दोनों जब सुबह रेलवे स्टेशन पर मिले थे. उस की ट्रेन सुबह 8 बजे ही स्टेशन पर लग चुकी थी. आभा की ट्रेन आने में अभी

1 घंटा बाकी था. चाय की चुसकियों के साथसाथ वह आभा की चैट का भी घूंटघूंट कर स्वाद ले रहा था. जैसे ही आभा की ट्रेन के प्लेटफौर्म पर आने की घोषणा हुई, वह लपक कर उस के कोच की तरफ बढ़ा. आभा ने उसे देखते ही जोरजोर से हाथ हिलाया. स्टेशन की भीड़ से बेपरवाह दोनों वहीं कस कर गले मिले और फिर अपनाअपना बैग ले कर स्टेशन से बाहर निकल आए.

पोलो विक्ट्री पर एक स्टोर होटल में कमरा ले कर दोनों ने चैक इन किया. अटैंडैंट के सामान रख कर जाते ही दोनों फिर एकदूसरे से लिपट गए. थोड़ी देर तक एकदूसरे को महसूस करने के बाद वे नहाधो कर नाश्ता करने बाहर निकले. हालांकि आभा का मन नहीं था कहीं बाहर जाने का, वह तो हर्ष के साथ पूरा दिन कमरे में ही बंद रहना चाहती थी, मगर हर्ष ने ही मनुहार की थी बाहर जा कर उसे जयपुर की स्पैशल प्याज की कचौरी खिलाने की जिसे वह टाल नहीं सकी थी. हर्ष को अब अपने उस फैसले पर अफसोस हो रहा था. न वह बाहर जाने की जिद करता और न यह हादसा होता…

होटल से निकल कर जैसे ही वे मुख्य सड़क पर आए, पीछे से आई एक अनियंत्रित कार ने आभा को टक्कर मार दी. वह सड़क पर गिर पड़ी. कोशिश करने के बाद भी जब वह उठ नहीं सकी तो हर्ष ऐबुलैंस की मदद से उसे सिटी हौस्पिटल ले कर आया. ऐक्सरे जांच में आभा के पांव की हड्डी टूटी हुई पाई गई. डाक्टर ने दवाओं की हिदायत देने के साथसाथ 6 सप्ताह का प्लास्टर बांध दिया. थोड़ी देर में दर्द कम होते ही उसे हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया.

मोबाइल की आवाज से आभा की नींद टूटी. उस के मोबाइल में ‘रिमाइंडर मैसेज’ बजा. लिखा था, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टू हर्ष.’ आभ दर्द में भी मुसकरा दी. उस ने हर्ष को विश करने के लिए यह रिमाइंडर अपने मोबाइल में डाला था.

पिछले साल इसी दिन यानी 4 मार्च को दोपहर 12 बजे जैसे ही इस ‘रिमाइंडर मैसेज’ ने उसे विश करना याद दिलाया था उस ने हर्ष को किस कर के अपने पुनर्मिलन की सालगिरह विश की थी और उसी वक्त इस में आज की तारीख सैट कर दी थी. मगर आज वह चाह कर भी हर्ष को गले लगा कर विश नहीं कर पाई क्योंकि वह तो जख्मी हालत में बैड पर है. उस ने एक नजर हर्ष पर डाली और रिमाइंडर में अगले साल की डेट सैट कर दी. हर्ष अभी आंखें मूंदे लेटा था. पता नहीं सो रहा था या कुछ सोच रहा था. आभा ने दर्द को सहन करते हुए एक बार फिर से अपनी आंखें बंद कर लीं.

‘पता नहीं क्याक्या लिखा है विधि ने मेरे हिस्से में,’ सोचते हुए अब आभा का दिमाग भी चेतन हो कर यादों की बीती गलियों में घूमने लगा…

लगभग सालभर पहले की बात है. उसे अच्छी तरह याद है 4 मार्च की वह शाम. वह अपने कालेज की तरफ से 2 दिन का एक सेमिनार अटैंड करने जयपुर आई थी. शाम के समय टाइम पास करने के लिए जीटी पर घूमतेघूमते अचानक उसे हर्ष जैसा एक व्यक्ति दिखाई दिया. वह चौंक गई.

‘हर्ष यहां कैसे हो सकता है?’ सोचतेसोचते वह उस व्यक्ति के पीछे हो ली. एक  शौप पर आखिर वह उस के सामने आ ही गई. उस व्यक्ति की आंखों में भी पहचान की परछाईं सी उभरी. दोनों सकपकाए और फिर मुसकरा दिए. हां, यह हर्ष ही था… उस का कालेज का साथी… उस का खास दोस्त… जो न जाने उसे किस अपराध की सजा दे कर अचानक उस से दूर चला गया था…

कालेज के आखिरी दिनों में ही हर्ष उस से कुछ खिंचाखिंचा सा रहने लगा था और फिर फाइनल ऐग्जाम खत्म होतेहोते बिना कुछ कहेसुने हर्ष उस की जिंदगी से चला गया. कितना ढूंढ़ा था उस ने हर्ष को, मगर किसी से भी उसे हर्ष की कोई खबर नहीं मिली. आभा आज तक हर्ष के उस बदले हुए व्यवहार का कारण नहीं सम झ पाई थी.

धीरेधीरे वक्त अपने रंग बदलता रहा. डौक्टरेट करने के बाद आभा  स्थानीय गर्ल्स कालेज में लैक्चरर हो गई और अपने विगत से लड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश करने लगी. इस बीच आभा ने अपने पापा की पसंद के लड़के राहुल से शादी भी कर ली. बच्चों की मां बनने के बाद भी आभा को राहुल के लिए अपने दिल में कभी प्यार वाली तड़प महसूस नहीं हुई. दिल आज भी हर्ष के लिए धड़क उठता था.

शादी कर के जैसे उस ने अपनी जिंदगी से एक सम झौता किया था. हालांकि समय के साथसाथ हर्ष की स्मृतियां पर जमती धूल की परत भी मोटी होती चली गई थी, मगर कहीं न कहीं उस के अवचेतन मन में हर्ष आज भी मौजूद था. शायद इसलिए भी वह राहुल को कभी दिल से प्यार नहीं कर पाई थी. राहुल सिर्फ उस के तन को ही छू पाया था, मन के दरवाजे पर न तो कभी राहुल ने दस्तक दी और न ही कभी आभा ने उस के लिए खोलने की कोशिश की.

जीटी में हर्ष को अचानक यों अपने सामने पा कर आभा को यकीन ही नहीं हुआ. हर्ष का भी लगभग यही हाल था.

‘‘कैसी हो आभा?’’ आखिर हर्ष ने ही चुप्पी तोड़ी.

‘तुम कौन होते हो यह पूछने वाले?’ आभा मन ही मन गुस्साई. फिर बोली, ‘‘अच्छी हूं… आप सुनाइए… अकेले हैं या आप की मैडम भी साथ हैं?’’ वह प्रत्यक्ष में बोली.

‘अभी तो अकेला ही हूं,’’ हर्ष ने अपने चिरपरिचित अंदाज में मुसकराते हुए कहा और आभा को कौफी पीने का औफर दिया. उस की मुसकान देख कर आभा का दिल जैसे  उछल कर बाहर आ गया.

‘कमबख्त यह मुसकान आज भी वैसी ही कातिल है,’ दिल ने कहा. लेकिन दिमाग ने सहज हो कर हर्ष का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. पूरी शाम दोनों ने साथ बिताई.

थोड़ी देर तो दोनों में औपचारिक बातें हुईं. फिर एकएक कर के संकोच की दीवारें टूटने लगीं और देर रात तक गिलेशिकवे होते रहे. कभी हर्ष ने अपनी पलकें नम कीं तो कभी आभा ने. हर्ष ने अपनेआप को आभा का गुनहगार मानते हुए अपनी मजबूरियां बताईं… अपनी कायरता भी स्वीकार की… और यों बिना कहेसुने चले जाने के लिए उस से माफी भी मांगी…

आभा ने भी ‘‘जो हुआ… सो हुआ…’’ कहते हुए उसे माफ कर दिया. फिर डिनर के बाद विदा लेते हुए दोनों ने एकदूसरे को गले लगाया और अगले दिन शाम को फिर यहीं मिलने का वादा कर के दोनों अपनेअपने होटल की तरफ चल दिए.

अगले दिन बातचीत के दौरान हर्ष ने उसे बताया कि वह एक कंस्ट्रक्शन  कंपनी में साइट इंजीनियर है और इस सिलसिले में उसे महीने में लगभग 15-20 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है और यह भी कि उस के 2 बच्चे हैं और वह अपनी शादीशुदा जिंदगी से काफी संतुष्ट है.

‘‘तुम अपनी लाइफ से संतुष्ट हो या खुश भी हो?’’ एकाएक आभा ने उस की आंखों में  झांका.

‘‘दोनों में क्या फर्क है?’’ हर्ष ने पूछा.

‘‘वक्त आने पर बताऊंगी,’’ आभा ने टाल दिया.

आभा की टे्रन रात 11 बजे की थी और हर्ष तब तक उस के साथ ही था. दोनों ने आगे भी टच में रहने का वादा करते हुए विदा ली.

अगले दिन कालेज पहुंचते ही आभा ने हर्ष को फोन किया. हर्ष ने जिस तत्परता से फोन उठाया उसे महसूस कर के आभा को हंसी आ गई.

‘‘फोन का इंतजार ही कर रहे थे क्या?’’ आभा हंसी तो हर्ष को भी अपने उतावलेपन पर आश्चर्य हुआ.

बातें करतेकरते कब 1 घंटा बीत गया, दोनों को पता ही नहीं चला. आभा की क्लास का टाइम हो गया, वह पीरियड लेने चली गई. वापस आते ही उस ने फिर हर्ष को फोन लगाया… और फिर वही लंबी बातें… दिन कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला… देर रात तक दोनों व्हाट्सऐप पर औनलाइन रहे और सुबह उठते ही फिर वही सिलसिला…

अब तो यह रोज का नियम ही बन गया. न जाने कितनी बातें थीं उन के पास जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. कई बार तो ये होता था कि दोनों के पास ही कहने के लिए शब्द नहीं होते थे, मगर बस वे एकदूसरे से जड़े हुए हैं यही सोच कर फोन थामे रहते. इसी चक्कर में दोनों के कई जरूरी काम भी छूटने लगे. मगर न जाने कैसा नशा सवार था दोनों पर ही कि यदि 1 घंटा भी फोन पर बात न हो तो दोनों को ही बेचैनी होने लगती… ऐसी दीवानगी तो शायद उस कच्ची उम्र में भी नहीं थी जब उन के प्यार की शुरुआत हुई थी.

आभा को लग रहा था जैसे खोया हुआ प्यार फिर से उस के जीवन में दस्तक  दे रहा है, मगर हर्ष अब भी इस सचाई को जानते हुए भी यह स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि उसे आभा से प्यार है.

‘‘हर्ष, तुम इस बात को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि तुम्हें आज भी मु झ से प्यार है?’’ एक दिन आभा ने पूछा.

‘‘मैं अगर यह प्यार स्वीकार कर भी लूं तो क्या समाज इसे स्वीकार करने देगा? कौन इस बात का समर्थन करेगा कि मैं ने शादी किसी और से की है और प्यार तुम से करता हूं…’’ हर्ष ने कड़वा सच उस के सामने रखा.

‘‘शादी करना और प्यार करना दोनों अलगअलग बातें हैं हर्ष… जिसे चाहें शादी भी उसी से हो यह जरूरी नहीं… तो फिर यह जरूरी क्यों है कि जिस से शादी हो उसी को चाहा भी जाए?’’ आभा का तर्क भी अपनी जगह सही था.

‘‘चलो, माना कि यह जरूरी नहीं, मगर इस में हमारे जीवनसाथियों की क्या गलती है? उन्हें हमारी अधूरी चाहत की सजा क्यों मिले?’’ हर्ष अपनी बात पर अड़ा था.

‘‘हर्ष, मैं किसी को सजा देने की बात नहीं कर रही… हम ने अपनी सारी जिंदगी उन की खुशी के लिए जी है… क्या हमें अपनी खुशी के लिए जीने का अधिकार नहीं? वैसे भी अब हम उम्र की मध्यवय में आ चुके हैं, जीने लायक जिंदगी बची ही कितनी है हमारे पास… मैं कुछ लमहे अपने लिए जीना चाहती हूं… मैं तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं… मैं महसूस करना चाहती हूं कि खुशी क्या होती है…’’ कहतेकहते आभा का स्वर भीग गया.

‘‘क्यों? क्या तुम अपनी लाइफ से अब तक खुश नहीं थी? क्या कमी है तुम्हें? सबकुछ तो है तुम्हारे पास…’’ हर्ष ने उसे टटोला.

‘‘खुश दिखना और खुश होना… दोनों में बहुत फर्क होता है हर्ष… तुम नहीं सम झोगे.’’ आभा ने जब कहा तो उस की आवाज की तरलता हर्ष ने भी महसूस की. शायद वह भी उस में भीग गया था. मगर सच का सामना करने की हिम्मत फिर भी नहीं जुटा पाया.

लगभग 10 महीने दोनों इसी  तरह सोशल मीडिया पर जुड़े रहे. रोज घंटों बात कर के भी उन की बातें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. आभा की तड़प इतनी ज्यादा बढ़ चुकी थी कि अब वह हर्ष से प्रत्यक्ष मिलने के लिए बेचैन होने लगी, लेकिन हर्ष का व्यवहार अभी भी उस के लिए एक पहले बना हुआ था. कभी तो उसे लगता था जैसे हर्ष सिर्फ उसी का है और कभी वह एकदम बेगानों सा लगने लगता.

हर्ष के अपनेआप से तर्क अब तक भी जारी थे. वह 2 कदम आगे बढ़ता और अगले ही पल 4 कदम पीछे हट जाता. वह आभा का साथ तो चाहता था, मगर समाज में दोनों की ही प्रतिष्ठा को भी दांव पर नहीं लगाना चाहता था. उसे डर था कि कहीं ऐसा न हो वह एक बार मिलने के बाद आभा से दूर ही न रह पाए. फिर क्या करेगा वह? मगर आभा अब मन ही मन एक ठोस निर्णय ले चुकी थी.

4 मार्च आने वाला था. आभा ने हर्ष को याद दिलाया कि पिछले साल इसी दिन वे दोनों जयपुर में मिले थे. उस ने आखिर हर्षको यह दिन एकसाथ बिताने के लिए मना ही लिया और बहुत सोचविचार कर के दोनों ने फिर से उसी दिन उसी जगह मिलना तय किया.

हर्ष दिल्ली से टूर पर और आभा जोधपुर से कालेज के काम का बहाना बना कर सुबह ही जयपुर आ गई. होटल में पतिपत्नी की तरह रुके… पूरा दिन साथ बिताया. जीभर के प्यार किया और दोपहर ठीक 12 बजे आभा ने हर्ष को ‘हैप्पी एनिवर्सरी’ विश किया. उसी समय आभा ने अपने मोबाइल में अगले साल के लिए यह रिमाइंडर डाल लिया.

‘‘हर्ष खुशी क्या होती है, यह आज तुम ने मु झे महसूस करवाया. थैंक्स… अब अगर मैं मर भी जाऊं तो कोई गम नहीं…’’ रात को जब विदा लेने लगे तो आभा ने हर्ष को एक बार फिर चूमते हुए कहा.

‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन… अभी तो हमारी जिंदगी से फिर से मुलाकात हुई है… सच आभा, मैं तो मशीन ही बन चुका था. मेरे दिल को फिर से धड़काने के लिए शुक्रिया. और हां, खुशी और संतुष्टि में फर्क महसूस करवाने के लिए भी…’’ हर्ष ने उस के चेहरे पर से बाल हटाते हुए कहा और फिर से उस की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींच लिया.

ये भी पढ़ें- वापसी: क्या पूनम को अपनी गलती का हुआ एहसास

‘‘अब आशिकी छोड़ो…मेरी ट्रेन का टाइम हो रहा है…’’ आभा ने मुसकराते हुए हर्ष को अपनेआप से अलग किया. उसी शाम दोनों ने वादा किया कि हर साल 4 मार्च को वे दोनों इसी तरह… इसी जगह मिला करेंगे… उसी वादे के तहत आज भी दोनों यहां जयपुर आए थे और यह हादसा हो गया.

‘‘आभा, डाक्टर ने तुम्हारे डिस्चार्ज पेपर बना दिए… मैं टैक्सी ले कर आता हूं…’’ हर्ष ने धीरे से उसे जगाते हुए कहा.

‘कैसे वापस जाएगी अब वह जोधपुर? कैसे राहुल का सामना कर पाएगी? आभा फिर से भयभीत हो गई, मगर जाना तो पड़ेगा ही. जो होगा, देखा जाएगा…’ सोचते हुए आभा ने अपनी सारी हिम्मत को एकसाथ समेटने की कोशिश की और जोधपुर जाने के लिए अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार करने लगी.

आभा ने राहुल को फोन कर के अपने ऐक्सीडैंट के बारे में बता दिया.

‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’ राहुन ने सिर्फ इतना ही पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘सरकारी हौस्पिटल में ही दिखाया था न… ये प्राइवेट वाले तो बस लूटने के मौके ही ढूंढ़ते हैं.’’

सुन कर आभा को कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उसे राहुल से इसी तरह की उम्मीद थी.

आभा ने बहुत कहा कि वह अकेली ही जोधपुर चली जाएगी, मगर हर्ष ने उस की एक न सुनी और टैक्सी में उस के साथ जोधपुर चल पड़ा. आभा को हर्ष का सहारा ले कर उतरते देख राहुल का माथा ठनका.

‘‘ये मेरे पुराने दोस्त हैं… जयपुर में अचानक मिल गए,’’ आभा ने परिचय करवाते हुए कहा.

राहुल ने हर्ष में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. बोला, ‘‘टैक्सी से आने की क्या जरूरत थी? टे्रन से भी आ सकती थी,’’ टैक्सी वाले को किराया चुकाना राहुल को अच्छा नहीं लग रहा था.

‘‘आप रहने दीजिए… किराया मैं दे दूंगा…वापस भी जाना है न…’’ हर्ष ने उसे इस स्थिति से उबार लिया. आभा को जोधपुर छोड़ कर उसी टैक्सी से हर्ष लौट गया.

आभा 6 सप्ताह की बैड रैस्ट पर थी. दिन भर बिस्तर पर पड़ेपड़े उसे हर्ष से बातें करने के अलावा और कोई काम ही नहीं सू झता था. कभी जब हर्ष अपने प्रोजैक्ट में बिजी होता तो उस से बात नहीं कर पाता था. यह बात आभा को अखर जाती थी. वह फोन या व्हाट्सऐप पर मैसेज कर के अपनी नाराजगी जताती थी. फिर हर्ष उसे मनुहार कर के मनाता था.

आभा को उस का यों मनाना बहुत सुहाता था. वह मन ही मन प्रार्थना करती कि उन के रिश्ते को किसी की नजर न लग जाए.

ऐसे ही एक दिन वह अपने बैड पर लेटीलेटी हर्ष से बातें कर रही थी. उस ने अपनी  आंखें बंद कर रखी थीं. उसे पता ही नहीं चला कि राहुल कब से वहां खड़ा उस की बातें सुन रहा है.

‘‘बाय… लव यू…’’ कहते हुए फोन रखने के साथ ही जब राहुल पर उस की नजर पड़ी तो वह सकपका गई. राहुल की आंखों का गुस्सा उसे अंदर तक हिला गया. उसे लगा मानो आज उस की जिंदगी से खुशियों की विदाई हो गई.

‘‘किस से कहा जा रहा था ये सब?’’

‘‘जो उस दिन मु झे जयपुर से छोड़ने आया था यानी हर्ष,’’ आभा अब राहुल के सवालों के जवाब देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी.

‘‘तो तुम इसलिए बारबार जयपुर जाया करती थी?’’ राहुल अपने काबू में नहीं था.

आभा ने कोई जवाब नहीं दिया.

ये भी पढ़ें- एक और अध्याय: आखिर क्या थी दादीमां की कहानी

‘‘अपनी नहीं तो कम से कम मेरी इज्जत का ही खयाल कर लेती… समाज में बात खुलेगी तो क्या होगा? कभी सोचा है तुम ने?’’ राहुल ने उस के चरित्र को निशाना बनाते हुए चोट की.

‘‘तुम्हारी इज्जत का खयाल था, इसीलिए तो बाहर मिली उस से वरना यहां… इस शहर में भी मिल सकती थी और समाज, किस समाज की बात करते हो तुम? किसे इतनी फुरसत है कि इतनी आपाधापी में मेरे बारे में कोई सोचे… मैं कितना सोचती हूं किसी और के बारे में और यदि कोई सोचता भी है तो 2 दिन सोच कर भूल जाएगा… वैसे भी लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है,’’ आभा ने बहुत ही संयत स्वर में कहा.

‘‘बच्चे क्या सोचेंगे तुम्हारे बारे में? उन का तो कुछ खयाल करो…’’ राहुल ने इस बार इमोशनल वार किया.

‘‘2-4 सालों में बच्चे भी अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएंगे, फिर शायद वे वापस मुड़ कर भी इधर न आएं. राहुल. मैं ने सारी उम्र अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं… बिना तुम से कोईर् सवाल किए अपना हर फर्ज निभाया है, फिर चाहे वह पत्नी का हो अथवा मां का… अब मैं कुछ समय अपने लिए जीना चाहती हूं… क्या मु झे इतना भी अधिकार नहीं? आभा की आवाज लगभग भर्रा गई थी.

‘‘तुम पत्नी हो मेरी… मैं कैसे तुम्हें किसी और की बांहों में देख सकता हूं?’’ राहुल ने उसे  झक झोरते हुए कहा.’’

‘‘हां, पत्नी हूं तुम्हारी… मेरे शरीर पर तुम्हारा अधिकार है… मगर कभी सोचा है तुम ने कि मेरा मन आज तक तुम्हारा क्यों नहीं हुआ? तुम्हारे प्यार के छींटों से मेरे मन का आंगन क्यों नहीं भीगा? तुम चाहो तो अपने अधिकार का प्रयोग कर के मेरे शरीर को बंदी बना सकते हो… एक जिंदा लाश पर अपने स्वामित्व का हक जता कर अपने अहम को संतुष्ट कर सकते हो, मगर मेरे मन को तुम सीमाओं में नहीं बांध सकते… हर्ष के बारे में सोचने से नहीं रोक सकते…’’ आभा ने शून्य में ताकते हुए कहा.

‘‘अच्छा? क्या वह हर्ष भी तुम्हारे लिए इतना ही दीवाना है? क्या वह भी तुम्हारे लिए अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार है?’’ राहुल ने व्यंग्य से कहा.

‘‘दीवानगी का कोई पैमाना नहीं होता… वह मेरे लिए किस हद तक जा सकता है यह मैं नहीं जानती, मगर मैं उस के लिए किसी भी हक तक जा सकती हूं,’’ आशा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘अगर तुम ने इस व्यक्ति से अपना रिश्ता खत्म नहीं किया तो मैं उस के घर जा कर उस की सारी हकीकत बता दूंगा,’’ कहते हुए राहुल ने गुस्से में आ कर आभा के हाथ से मोबाइल छीन कर उसे जमीन पर पटक दिया. मोबाइल बिखर कर आभा के दिल की तरह टुकड़ेटुकड़े हो गया.

राहुल की आखिरी धमकी ने आभा को सचमुच ही डरा दिया था. वह नहीं  चाहती थी कि उस के कारण हर्ष की जिंदगी में कोई तूफान आए. वह अपनी खुशियों की इतनी बड़ी कीमत नहीं चुका सकती थी. उस ने मोबाइल के सारे पार्ट्स फिर से जोड़े और देखा तो पाया कि वह अभी भी चालू स्थिति में है.

‘‘शायद मेरे हिस्से नियति ने खुशी लिखी ही नहीं… मगर मैं तुम्हारी खुशियां नहीं निगलने दूंगी… तुम ने जो खूबसूरत यादें मु झे दी हैं उन के लिए तुम्हारा शुक्रिया…’’ एक आखिरी मैसेज उस ने हर्ष को लिखा और मोबाइल से सिम निकाल कर टुकड़ेटुकड़े कर दी.

उधर हर्ष को कुछ भी सम झ नहीं आया कि यह अचानक क्या हो गया. उस ने आभा को फोन लगाया, मगर फोन ‘स्विच्डऔफ’ था. फिर उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ा, मगर वह भी अनसीन ही रह गया. अगले कई दिन हर्ष उसे फोन ट्राई करता रहा, मगर हर बार ‘स्विच्डऔफ’ का मैसेज पा कर निराश हो उठता. उस ने आभा को फेस बुक पर भी कौंटैक्ट करने की कोशिश की, लेकिन शायद आभा ने फेस बुक का अपना अकाउंट ही डिलीट कर दिया था. उस के किसी भी मेल का जवाब भी आभा की तरफ से नहीं आया.

एक बार तो हर्र्ष ने जोधपुर जा कर उस से मिलने का मन भी बनाया, मगर फिर यह सोच कर कि कहीं उस की वजह से स्थिति ज्यादा खरब न हो जाए… उस ने सबकुछ वक्त पर छोड़ कर अपने दिल पर पत्थर रख लिया और आभा को तलाश करना बंद कर दिया.

इस वाकेआ के बाद आभा ने अब मोबाइल रखना ही बंद कर दिया. राहुल के बहुत जिद करने पर भी उस ने नई सिम नहीं ली. बस कालेज से घर और घर से कालेज तक ही उस ने खुद को सीमित कर लिया. कालेज से भी जब मन उचटने लगा तो उस ने छुट्टियां लेनी शुरू कर दीं, मगर छुट्टियों की भी एक सीमा होती है. साल भर होने को आया. अब आभा अकसर ही विदआउट पे रहने लगी. धीरेधीरे वह गहरे अवसाद में चली गई. राहुल ने बहुत इलाज करवाया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ.

अब राहुल भी चिड़चिड़ा सा होने लगा था. एक तो आभा की बीमारी ऊपर से उस की सैलरी भी नहीं आ रही थी. राहुल को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ रही थी जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था. पतिपत्नी जैसा भी कोई रिश्ता अब उन के बीच नहीं रहा था. यहां तक कि आजकल तो खाना भी अक्सर या तो राहुल को खुद बनाना पड़ता था या फिर बाहर से आता.

‘‘मरीज ने शायद खुद को खत्म करने की ठान ली है… जब तक यह खुद जीना नहीं चाहेंगी, कोई भी दवा या इलाज का तरीका इन पर कारगर नहीं हो सकता,’’ सारे उपाय करने के बाद अंत में डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए.

‘‘देखो, अब बहुत हो चुका… मैं अब तुम्हारे नाटक और नहीं सहन कर सकता… आज तुम्हारी प्रिंसिपल का फोन आया था. कह रहे थे कि तुम्हारे कालेज की तरफ से जयपुर में 5 दिन का एक ट्रेनिंग कैंप लग रहा है. अगर तुम ने उस में भाग नहीं लिया तो तुम्हारा इन्क्रीमैंट रुक सकता है. हो सकता है कि यह नौकरी ही हाथ से चली जाए. मेरी सम झ में नहीं आता कि तुम क्यों अच्छीभली नौकरी को लात मारने पर तुली हो… मैं ने तुम्हारी प्रिंसिपल से कह कर कैंप के लिए तुम्हारा नाम जुड़वा दिया है. 2 दिन बाद तुम्हें जयपुर जाना है,’’ एक शाम राहुल ने आभा से तलखी से कहा.

आभा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

आभा के न चाहते हुए भी राहुल ने उसे ट्रेनिंग कैंप में भेज दिया.

‘‘यह लो अपना मोबाइल… इस में नई सिम डाल दी है. अपनी प्रिसिपल को फोन कर के कैंप जौइन करने की सूचना दे देना ताकि उसे तसल्ली हो जाए,’’ टे्रन में बैठाते समय राहुल ने कहा.

आभा ने एक नजर अपने पुराने टूटे मोबाइल पर डाली और फिर उसे पर्स में धकेलते हुए टे्रन की तरफ बढ़ गई. सुबह जैसे ही आभा की ट्रेन जयपुर स्टेशन पर पहुंची, वह यंत्रचलित सी नीचे उतरी और धीरेधीरे उस बैंच की तरफ बढ़ चली जहां हर्ष उसे बैठा मिला करता था. अचानक ही कुछ याद कर के आभा के आंसुओं का बांध टूट गया. वह उस बैंच पर बैठ कर फफक पड़ी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उसी होटल की तरफ चल दी जहां वह हर्ष के साथ रुका करती थी. उसे दोपहर बाद 3 बजे कैंप में रिपोर्ट करनी थी.

संयोग से आभा आज भी उसी कमरे में ठहरी थी जहां उस ने पिछली दोनों बार हर्ष के साथ यादगार लमहे बिताए थे. वह कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी. उस ने रूम का दरवाजा तक बंद नहीं किया था.

तभी अचानक उस के पर्र्स में रखे मोबाइल में रिमाइंडर मैसेज बज उठा, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टू हर्ष’ देख कर आभा एक बार फिर सिसक उठी, ‘‘उफ्फ, आज 4 मार्च है.’’

अचानक 2 मजबूत हाथ पीछे से आ कर उस के गले के इर्दगिर्द लिपट गए. आभा ने अपना भीगा चेहरा ऊपर उठाया तो सामने हर्ष को देख कर उसे यकीन ही नहीं हुआ. वह उस से कस कर लिपट गई. हर्ष ने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘हैप्पी ऐनिवर्सरी.’

आभा का सारा अवसाद आंखों के रास्ते बहता हुआ हर्ष की शर्ट को भिगोने लगा. वह सबकुछ भूल कर उस के चौड़े सीने में सिमट गई.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें