3 सखियां: भाग-3

अब तक आप ने पढ़ा:

आभा, शालिनी और रितिका पक्की सहेलियां थीं. स्कूल के दिनों से ही उन का साथ था. तीनों सहेलियां खुले विचारों वाली थीं. जिंदगी से जुड़ी हर बात ये सहेलियां एकदूसरे से शेयर करती थीं. इत्तफाक से तीनों की शादी ऐसे लड़कों से हुई जो अमेरिका में सैटल थे. शादी के बाद जब तीनों सहेलियां अमेरिका पहुंचीं तो वहां भी अपनी दोस्ती बिखरने नहीं दी. वहां आपस में होती बातचीत से पता चला कि उन सहेलियों के विचार तो लगभग एकजैसे थे पर उन के पतियों के विचारों में भिन्नता थी.

अब आगे पढ़ें:

कुछदिन बाद आभा ने शालिनी को फिर फोन लगाया. लेकिन जब कई बार फोन करने पर भी शालिनी ने फोन नहीं उठाया, तो आभा के मन में खलबली मच गई. अपनी सखी के लिए तरहतरह की दुश्चिंताएं उस के मन में उठने लगीं. आखिरकार एक दिन शालिनी ने फोन उठाया.

‘‘अरी कहां मर गई थी तू?’’ आभा झुंझलाई, ‘‘मैं 2 घंटे से तुझे फोन लगा रही हूं.’’

‘‘मैं यहीं पड़ोस में  गई थी. आज हम लोगों के क्लब की मीटिंग थी.’’

‘‘अरे वाह, तू ने कोई क्लब जौइन कर लिया है क्या? इस का मतलब तू घर से बाहर निकलने लगी है. चलो देरसवेर तुझे कुछ अक्ल तो आई. अब बता यह कैसा क्लब है?’’

‘‘यह एक पीडि़त स्त्रियों का क्लब है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘यह क्लब उन स्त्रियों के लिए है जिन के पति उन्हें मारतेपीटते हैं या उन्हें अन्य तरीकों से प्रताडि़त करते हैं. हम सब महीने में एक बार मिलती हैं और एकदूसरे को अपने दुखड़े सुनाती हैं. एकदूसरे को ढाढ़स भी बंधाती हैं, एकदूसरे से सलाहमशविरा भी करती हैं और अपनी परेशानियों का समाधान खोजती हैं.’’

‘‘शालिनी, तुझे यह सब करने की क्या जरूरत पड़ गई?’’ आभा चकित हुई, ‘‘क्या तू उन पीडि़त औरतों में से एक है?’’

‘‘हां.’’

‘‘मुझे विश्वास नहीं होता. क्या तेरा पति तुझ पर हाथ भी उठाता है?’’

‘‘हां,’’ शालिनी फफक उठी, ‘‘उन्होंने मुझे कई बार मारा है. छोटीछोटी बात को ले कर भी उन का हाथ मुझ पर उठ जाता है. कौफी ठंडी हुई तो या लंच पैक करने में देरी हुई तो एक थप्पड़. कपड़े धुल कर तैयार नहीं मिले तो एक धौल. एक रोज हम शौपिंग मौल गए थे तो मेरे माथे और बदन पर पड़े नील के निशान देख कर एक अमेरिकन युवती चुपके से मेरे पास आई. उस ने मुझे अपना कार्ड दिया और कहा कि वह पीडि़त स्त्रियों का एक क्लब चलाती है. उस ने आग्रह किया कि मैं उस के क्लब की मीटिंग में आऊं. उस ने यहां तक कहा कि वह मुझे आ कर ले जाएगी और वापस छोड़ भी देगी. इत्तफाक से पार्थ उस समय अपने सैलफोन पर बातें कर रहे थे, इसलिए उन की निगाह हम पर नहीं पड़ी. नहीं तो घर लौट कर वे मुझे और मारते. उन्होंने सख्त ताकीद की है कि मैं बाहर बिना वजह किसी से बातचीत न करूं और न किसी से कोई संपर्क रखूं.’’

‘‘शालिनी तू किस मिट्टी की बनी है?’’ आभा ने बिफर कर कहा, ‘‘तू ये सब क्यों बरदाश्त कर रही है बता तो? क्या तुझ में जरा भी स्वाभिमान नहीं है? क्या तू पढ़ीलिखी और सबल नहीं है? क्या तेरे भेजे में थोड़ी सी भी अक्ल नहीं है? क्या तू इतना भी नहीं जानती कि औरतों पर हाथ उठाना एक जुर्म है. पुलिस में रिपोर्ट लिखाने भर की देर है, तेरे पतिदेव सलाखों के पीछे होंगे.’’

‘‘जानती हूं पर इस से फायदा?’’

‘‘बेवकूफों की तरह बात न कर. फायदा यह होगा कि तेरे मियां को उन के किए की सजा मिलेगी. उन की अक्ल ठिकाने आ जाएगी. उन्हें झक मार कर अपना रवैया बदलना होगा. तुझे नई जिंदगी मिलेगी.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. एक बार वे सजा काट कर आएंगे तो फिर वही सिलसिला शुरू होगा. उन का स्वभाव बदलने वाला नहीं है. और अगर उन्हें सजा हुई तो मेरा क्या होगा? मेरा गुजारा कैसे होगा? न मेरे पास कोई नौकरी है और न मेरे में कोई काबिलीयत है. हाथ में एक दमड़ी भी नहीं है. पिताजी ने जो डौलर घर से चलते समय थमाए थे वे खर्च हो गए. मैं अकेली कैसे निर्वाह करूंगी, यह सोच कर ही कलेजा कांपता है.’’

‘‘अकेली क्यों है तू, तेरे साथ हम सब हैं. तेरा परिवार है, नारी कल्याण केंद्र है, सोशल वर्कर हैं जो तुझे हर तरह की मदद पहुंचाएंगे. अच्छा यह बता क्या तू ने अपने मातापिता से इस बारे में बात की है?’’

‘‘नहीं. मेरे मातापिता मेरे बारे में जानेंगे तो रोरो कर मर जाएंगे. मैं ने उन से सिर्फ इतना ही कहा है कि मुझे अपना वैवाहिक जीवन रास नहीं आया. मैं घर लौटना चाहती हूं.’’

‘‘तब वे क्या बोले?’’

‘‘वे क्या कहते. उन्होंने मुझे एक लंबा लैक्चर पिला दिया. तुम तो जानती ही हो कि वे कितने रूढिवादी हैं. वे बोले कि बेटी हरेक के वैवाहिक जीवन में कुछ न कुछ कठिनाइयां आती हैं. तुझे अपने पति से तालमेल बैठाना होगा. अपनी जिंदगी से समझौता करना ही होगा. हिंदू नारी का यही धर्म है. और जरा सोच, अगर तू ने तलाक लिया तो हम तेरी दूसरी शादी कैसे कर पाएंगे? पहली शादी ही इतनी मुश्किल से हुई. और बड़ी बहन तलाकशुदा हो कर घर में बैठी रही तो समाज क्या कहेगा? तेरी छोटी बहनों की शादी कैसे हो पाएगी? वगैरहवगैरह…’’

‘‘ओहो, तुम्हारे मम्मीपापा तो बड़े दकियानूसी निकले. मैं उन से बात करूंगी.’’

‘‘नहीं आभा, इस से कुछ हासिल नहीं होगा. मेरे मातापिता तो पहले से ही अपनी समस्याओं से परेशान हैं. पिताजी रिटायर हो चुके हैं और दिल के मरीज भी हैं. मैं उन को अपना दुखड़ा सुना कर दुखी नहीं करना चाहती और खोटे सिक्के की तरह घर लौट कर उन पर बोझ नहीं बनना चाहती. यह मेरी समस्या है, मैं ही इस से निबटूंगी.’’

‘‘ठीक है, पर मुझ से एक वादा कर. तू मुझे बराबर फोन कर के अपनी खोजखबर देती रहेगी.’’

‘‘अवश्य.’’

शालिनी की बातें याद कर आभा मन ही मन उफनती रही. शालिनी ने यह क्यों कहा कि वह अपने मातापिता पर बोझ नहीं बनना चाहती? क्या हम लड़कियां अपने मातापिता पर बोझ होती हैं? उस ने कुढ़ कर सोचा. जब से आभा ने होश संभाला तब से वह हमेशा सुनती आई थी कि बेटियां पराया धन हैं, दूसरे की अमानत हैं, 2 दिन की मेहमान हैं, वगैरहवगैरह. सुनसुन कर वह चिढ़ती थी. पर नहीं, वह तो अपने मांबाप की आंखों का तारा थी. उन की बेहद लाडली बिटिया थी. उन्होंने कभी उस में और उस के भाई में भेदभाव नहीं किया. आभा को याद आया कि कैसे जब वह स्कूल से लौटती थी, तो अपनी मां को घर में न पा कर रोने बैठ जाती थी. रूठ जाती थी और खाना भी न खाती थी. उस की मां लौटतीं तो उस का मनुहार करतीं, उसे अपनी गोद में बैठा कर उस के मुंह में कौर देतीं तब जा कर वह खाना खाती थी. मांबाप से बिछड़ने पर उसे असहाय पीड़ा हुई थी. उसे हमेशा घर की याद सताती रहती थी.

बेटियां ससुराल जा कर भी अपने मायके से जीवनपर्यंत जुड़ी रहती हैं. उन का जी अपने मांबाप के लिए कलपता रहता है. मांबाप जब बूढ़े और लाचार हो जाते हैं, तो अकसर बेटियां ही उन की सारसंभाल करती हैं. वे संवेदनशील होती हैं, स्नेहमयी होती हैं. तिस पर भी वे पराया धन मानी जाती हैं. और बेटे, वे बड़े हो कर चाहे मांबाप की बात न सुनें, उन्हे मांबाप का सहारा, उन के बुढ़ापे की लाठी आदि विशेषणों से नवाजा जाता है.

आभा को अचानक याद आया कि 2 दिन बाद शालिनी का जन्मदिन था. उस ने एक मोबाइल फोन खरीद कर उसे तोहफा भेज दिया. फिर कुछ दिन बाद उसी मोबाइल से उस के पास फोन आया तो उस ने फोन उठाया.

‘‘हैलो, आप आभाजी बोल रही हैं?’’ एक अनजान पुरुष स्वर सुनाई दिया.

‘‘हां मैं बोल रही हूं. कहिए आप कौन?’’

‘‘मैं शालिनी का पति पार्थ बोल रहा हूं. यह मोबाइल गिफ्ट आप ने भेजा है?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मैं इसे वापस कर रहा हूं. आइंदा आप हमें कोई चीज नहीं भेजेंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मुझे आप की और शालिनी की दोस्ती पसंद नहीं. मुझे पता चला है कि आप मेरी पत्नी को बिना वजह मेरे खिलाफ भड़का रही हैं, उसे बरगला रही हैं. बेहतर होगा कि आप हमारे व्यक्तिगत मामलों में दखल न दें.

आगे पढ़ें- आप जैसी स्त्रियों से मेरी पत्नी की निकटता मुझे गवारा नहीं…

यह रिश्ता प्यार का: भाग-2

पिछला भाग पढ़ें- यह रिश्ता प्यार का: भाग-1

रामलाल से पूछने पर उस ने बताया कि किरण मेम साहब रख गई हैं. कह रही थीं साहब को अच्छा लगेगा. उन्हें बता देना कि मैं आई थी. मैं ने मोबाइल पर किरण को धन्यवाद कहा तो वह बोली, ‘‘कांतजी, जिस दिन आप गुलदस्ता उस टेबल पर रखा देखो समझ लेना मेरी तरफ से संकेत है कि उमेशजी को घर लौटने में देर लगेगी. आप बेफिक्र मेरे पास आ सकते हो.’’ थोड़ी देर में ही मैं किरण के पास पहुंच गया. हलके आसमानी रंग की साड़ी में वह बहुत सुंदर लग रही थी. खुली बांहों में भर कर स्वागत करते हुए मेरा हाथ पकड़ कर ड्राइंगरूम में सोफे तक ले गई, ‘‘कांत, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि जब से तुम से मित्रता हुई है मेरी खुशी कितनी बढ़ गई है.’’

‘‘तुम बहुत ब्यूटीफुल लग रही हो. लगता है आज तुम ने मेकअप में बहुत समय लगाया है. अगर मेकअप न भी करो तो भी तुम सुंदर लगती हो.’’

‘‘तारीफ करने की कला तो कोई तुम से सीखे. तुम तारीफ करते हुए बहुत अच्छे लगते हो. बैठो जब तक मैं चाय बना कर लाती हूं तुम टीवी पर कोई मनपसंद चैनल लगा लो,’’ कहते हुए उस ने रिमोट मुझे पकड़ा दिया. थोड़ी देर में वह ट्रे में 2 कप चाय और प्लेट में बिसकुट ले आई. फिर मेरे पास बैठ गई, ‘‘कांतजी, अब मैं आप को बता रही हूं कि उमेशजी दुकान के लिए माल लेने दिल्ली गए हैं. कल लौटेंगे. हमारे पास मौजमस्ती के लिए पर्याप्त समय है. जी भर कर मेरे पास रहिए और जो मन में इच्छा हो उसे पूरी कर लीजिए. मैं पूरा सहयोग दूंगी. मैं सच्चे दिल से आप से प्यार करती हूं’’

‘‘मैं आज सीरियस मूड में हूं और तुम्हें कुछ समझाना चाहता हूं. मैं शादीशुदा हूं. वीना मुझे बहुत प्यार करती है. और मैं नहीं चाहूंगा कि उमेश की गैरमौजूदगी का मैं फायदा उठाऊं. वे मेरे अच्छे दोस्त हैं. यह तो तुम्हारे प्यार का रिस्पौंस था जो मैं मित्रता की हद से बाहर तुम्हें कभीकभी ‘हग’ कर लेता था या तुम्हें ‘हग’  करने देता था. मेरी तुम्हें सलाह है, अब हमें खुद पर नियंत्रण लगा लेना चाहिए…’’

इस से पहले कि मैं अपनी बात पूरी कर पाती उलटे उस ने ही मुझे समझाना शुरू कर दिया, ‘‘कांतजी, बी प्रैक्टिकल. मैं आप और आप की पत्नी के बीच में आए बगैर भी तो प्यार कर सकती हूं. यदि हमारा संबंध गुप्त रहे तो हरज क्या है?’’ कहने को वह यह सब कह तो गई, फिर कुछ सोच कर मुसकराते हुए बोली, ‘‘आप मुझ से उम्र में काफी बड़े हो. मुझे अभी तक इस तरह समझाने वाला कोई नहीं मिला है. आप से मित्रता और प्यार मेरी जरूरत है. पत्नी का फर्ज मैं उमेशजी के साथ पूरी ईमानदारी से निभा रही हूं और निभाती रहूंगी, लेकिन उन से प्यार कभी नहीं हो पाया है. वे सीधेसरल अवश्य हैं, लेकिन प्यार करने के लिए न तो उन के पास समय है और न ही उन की सोच में प्यार का कोई महत्त्व है. सुखसुविधाओं के अलावा एक स्त्री को शारीरिक सुख की भी चाह होती है,’’ कहती हुई वह भावुक हो गई. आंखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली.

मैं ने उसे गले लगा कर पीठ थपथपाते हुए आश्वासन दिया, ‘‘मेरी मित्रता और प्यार जितना संभव होगा बना रहेगा.’’ वीना की डिलिवरी के समय मैं 1 सप्ताह की छुट्टी ले कर उस के मायके पहुंच गया. उस ने एक प्यारी सी गुडि़या को जन्म दिया. चंडीगढ़ लौट कर पुन: मैं अपने कामकाज में व्यस्त हो गया. किरण और मेरा एकदूसरे के घर आनाजाना पहले जैसा ही था. लगभग डेढ़ माह बाद वीना को उस का भाई चंडीगढ़ मेरे पास छोड़ गया. अभी वीना को देखभाल की जरूरत थी. किरण दिन के समय वीना के पास आ जाती थी और हर काम में उस की मदद करती थी. वीना को भी किरण बहुत अच्छी लगी, तो दोनों जल्दी ही पक्की सहेलियां बन गईं. किरण ने उसे बताया कि उस की शादी 20 की होतेहोते ही हो गई थी. पुरुषों के साथ संबंध में उसे कोई अनुभव नहीं था. उस ने वीना से मेरे बारे में बेबाक तरीके से कहा, ‘‘मुझे कांतजी बहुत अच्छे लगते हैं. कुदरत ने तुम्हारी जोड़ी बहुत अच्छी बनाई है. तुम सुंदर और सरल हो. वे भी प्यार पाने और देने के लिए जल्द ही लोगों की ओर आकर्षित हो जाते हैं…एक बात बताऊं वीना भाभी…कांत का दिल बहुत सहानुभूति और दूसरों की कद्र करने वाला है.’’

ये भी पढ़ें- षष्टिपूर्ति: भाग-2

वीना ने संक्षेप में बस इतना ही कहा, ‘‘मेरे कर्म अच्छे थे जो वे मुझे मेरे जीवनसाथी के रूप में मिले.’’ वीना के साथ परिचय होने के बाद हम दोनों मित्र परिवारों में मिठाई और उपहारों के आदानप्रदान का सिलसिला शुरू हो चुका था. बर्थडे और शादी की सालगिरह हम दोनों परिवार एकसाथ एक उत्सव की भांति मनाते थे. कभी किरण हमारे घर आ कर किचन में वीना की खाना बनाने में सहायता करती तो कभी घर के सामान की झाड़पोंछ में उस की मदद करती. वह चाहती थी घर के कामकाज का बोझ वीना पर न पड़े. डिलिवरी के बाद धीरेधीरे वीना का स्वास्थ्य बेहतर होता जा रहा था. इस विषय में वह किरण की तारीफ उमेश के सामने करने से नहीं चूकती थी. एक दिन उमेश बोले, ‘‘किरण है ही ऐसी. सब की मदद करने में उसे बहुत खुशी मिलती है. हमेशा मुसकरा कर मदद करने का एहसान भी नहीं जताती है.’’ पहली बार उमेश के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर किरण की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने मुझ से कहा, ‘‘आज पहली बार उमेशजी ने मेरी तारीफ में कुछ शब्द कहे हैं, तो पार्टी तो बनती ही है. आज शाम की चाय हम लोग मेरे घर पर पीएंगे,’’ मैं मान गया.

एक दिन शाम के समय जब मैं औफिस से घर लौटा तो देखा ड्राइंगरूम में टेबल पर गुलदस्ता रखा था. वीना ने बताया, ‘‘किरण यह गुलदस्ता लाई थी. कह रही थी उस का मन मेरे साथ चाय पीने का था. अभी 1 घंटा पहले ही अपने घर गई है.’’ मैं किरण की सांकेतिक भाषा समझ गया. किरण मुझ से अपने घर में मिलना चाहती है. वीना के साथ चाय पीने के बाद मैं ने वीना से कहा, ‘‘मैं औफिस के काम से 1 घंटे के लिए बाहर जा रहा हूं. 7 बजे तक आऊंगा.’’  मैं किरण के घर पहुंचा तो देखा वह मुख्यद्वार पर मेरा इंतजार कर रही थी. बड़ी बेसब्री के साथ मुझे बांहों में भर कर मेरा स्वागत किया.

आगे पढ़ें- फिर मुसकराते हुए शरारती लहजे में बोली, ‘‘कांतजी, मैं ने…

3 सखियां: भाग-2

पिछला भाग- 3 सखियां: भाग-1

‘‘अरे रितिका तू?’’ आभा चीखी, ‘‘कहां से बोल रही है?’’

‘‘न्यूयार्क से.’’

‘‘इधर अमेरिका कब आई, कैसे आई?’’

‘‘बस जहां चाह वहां राह. एक मालदार आंख का अंधा गांठ का पूरा मिल गया. मैं ने उस पर धावा बोल दिया और 3 ही महीने में वह चित्त हो गया. हम ने फौरन शादी की और चूंकि वह न्यूयार्क में काम करता है, हम यहां आ गए.’’

‘‘अरे वाह, यह तो कमाल हो गया. लेकिन शादी में बुलाना तो था न यार.’’

‘‘यह सब कुछ इतनी जल्दबाजी में हुआ कि कुछ न पूछो. मुझे खुद नहीं विश्वास होता कि मेरी शादी हो गई है.’’

‘‘चल ये तो बड़ा अच्छा हुआ. देख हम तीनों सखियां बचपन से साथ हैं और अब भी साथ रहने का मौका मिल गया. रितिका, तू मुझ से वादा कर कि चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए हम तीनों हमेशा मिलती रहेंगी. ज्यादा नहीं तो कम से कम साल में 1-2 बार, बारीबारी से एकदूसरे के घर में.’’

‘‘जरूर. लेकिन तू पहले यह बता कि अपनी सखी शालिनी के क्या हाल हैं?’’

‘‘वह भी मजे में है. पर उस से ज्यादा बात नहीं हो पाती. तू यहां आएगी तो उसे भी बुला लेंगे.’’

‘‘जरूर. तू कुछ खानावाना बना लेती है या नहीं?’’

‘‘क्यों नहीं. शादी तय होते ही मेरी मां ने मुझे एक कुकरी क्लास जौइन करवा दी. वही पाक कला आज काम आ रही है. थोड़ाबहुत तो बना ही लेती हूं.’’

‘‘अरे वाह, मैं तो अपने घर का खाना खाने के लिए तरस जाती हूं. जब से शादी हुई रोज डिनर पार्टी होती रहती है. कभी चाइनीज, कभी जापानी, कभी थाई तो कभी वियतनामीज. मैं तो खाखा कर बोर हो गई.’’

‘‘तू मेरे यहां आ. मैं तुझे पक्का इंडियन खाना बना कर खिलाऊंगी, दालचावल, खिचड़ी, कढ़ी.’’

‘‘जल्दी ही प्रोग्राम बनाती हूं.’’

‘‘अपने मियां को भी साथ लाना.’’

‘‘उन को छोड़ो. उन के जैसा बिजी आदमी इस दुनिया में न होगा. जरा सोच, जब हमारे सोने का समय होता है तो वे महाशय जागते रहते हैं. रात के 3 बजे तक काम कर के सोते हैं और दिन में 2 बजे सो कर उठते हैं.’’

‘‘अरे ऐसा क्यों?’’

‘‘उन का काम ही कुछ इस तरह का है. इनवैस्टमैंट बैंकर का नाम सुना है न, वही काम करते हैं. जब अमेरिका में रात होती है तो बाकी दुनिया जागती है और बिजनैस की खातिर उस समय उन्हें भी जागना पड़ता है.’’

‘‘तब तू सारा दिन क्या करती रहती है?’’

‘‘मेरी कुछ न पूछो. घर के कामकाज और खाना बनाने के लिए एक नौकरानी है, इसलिए मैं तो ऐश करती हूं, खूब घूमती हूं. दिन भर शौपिंग मौल के चक्कर काटती हूं और कुछ न कुछ खरीदती भी रहती हूं. इसीलिए मेरा घर दुनिया भर की अलाबला से अटा पड़ा है. इस बात को ले कर मेरे मियां और मुझ में तनातनी रहती है पर क्या करूं मेरी यह आदत नहीं छूटती.’’

‘‘तू कोई नौकरी क्यों नहीं कर लेती?’’

‘‘वाह, नौकरी क्यों करूं? शादी किसलिए की है? मेरा मियां मुझे कमा कर खिलाएगा और मैं हाथ पर हाथ धरे ऐश करूंगी.’’

‘‘यहां तो सभी स्त्रीपुरुष नौकरी करते हैं. कोई घर में निठल्ला बैठा नहीं रहता. हम इंडियन लोग तो बेहद लगन से काम करते हैं.’’

‘‘उंह, मैं उन लोगों में से नहीं हूं. मैं रानी बन कर रहना चाहती हूं, नौकरानी बन कर नहीं.’’

ये भी पढ़ें- षष्टिपूर्ति: भाग-1

जब आभा ने शालिनी से ये बातें दोहराईं तो वह खूब हंसी फिर बोली, ‘‘इस रितिका का भी जवाब नहीं. लेकिन पट्ठी ने जो कुछ चाहा था वह सब उसे मिल गया. अपनी पसंद का लड़का, पैसे वाला. उसे अपनी मनमानी करने की पूरी आजादी भी मिली है. मुझे देखो इतने दिन यहां आए हो गए पर अभी तक मैं ने घर की चौखट तक नहीं लांघी है.’’

‘‘अरे क्या कहती है तू?’’ आभा ने आश्चर्य किया, ‘‘भला ऐसा क्यों?’’

‘‘मेरे पतिदेव को मेरा घर से बाहर स्वच्छंद घूमना पसंद नहीं. वे चाहते हैं कि मैं हिंदुस्तानी परदाशीन औरतों की तरह घर में ही रहूं. घर का काम करूं और इसी में खुश रहूं.’’

‘‘क्या बकवास कर रही है तू? ये तेरे पति की कैसी सोच है भला? क्या वे 18वीं सदी के रहने वाले हैं?’’

‘‘मैं ने भी उन से इस बारे में बहुत बहस की पर वे टस से मस नहीं हुए. उन्होंने कार ले कर देना तो दूर मुझे कार चलाना तक नहीं सिखाया है. शौपिंग मौल भी गई हूं तो एकाध बार उन के साथ. अकेले घर से बाहर निकलने का सवाल ही नहीं. वे मेरे हाथ पर एक डौलर भी नहीं रखते कि कभी अपनी जरूरत की चीज खरीद सकूं. अच्छा उन के आने का समय हो गया है, फोन रखती हूं.’’

‘‘अरे ठहर…’’

‘‘नहीं उन्हें मेरा किसी से फोन पर बात करना अच्छा नहीं लगता. अपने घर वालों से भी महीने में एक बार फोन करने की इजाजत है. वे कहते हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते. और मैं फोन भी करती हूं तो अपने मन की बात मातापिता से नहीं कह पाती, क्योंकि पार्थ दूसरे रूम के फोन से मेरी बातें सुनते रहते हैं और 5 मिनट बाद फोन काट देते हैं. वे कहते हैं कि ऐसी कौन सी जरूरी बात है जो चिट्ठी लिख कर कही नहीं जा सकती?’’

‘‘कमाल है. क्या हमारा मन अपनों की आवाज सुनने को नहीं करता?’’

‘‘अब इन मर्दों को कौन समझाए. रोज बहस करकर के मैं तो थक गई. अच्छा फोन रखती हूं.’’

‘‘अगली बार तू मुझे फोन करना.’’

‘‘मैं फोन नहीं कर सकती भाई.’’

‘‘भला क्यों?’’

‘‘तुझे बताया न कि पति महाशय ने उस पर भी बंदिश लगा रखी है. कहते हैं 1-1 पैसा जोड़ कर एक बड़ी रकम जमा कर के जल्द से जल्द वापस इंडिया लौटना है, इसलिए यथासंभव हर तरह से किफायत करना जरूरी है.’’

‘‘तो क्या इस के लिए जीना छोड़ देंगे? भई बुरा न मानना, तेरे मियां कुछ खब्ती से लगते हैं या परले सिरे के कंजूस हैं. खैर जब मिलेंगे तो इस के बारे में विस्तार से बात करेंगे.’’

आगे पढ़ें- कुछदिन बाद आभा ने शालिनी को फिर फोन लगाया.

ये भी पढ़ें- लव आजकल: भाग-2

3 सखियां: भाग-1

आभा,शालिनी और रितिका पक्की सहेलियां थीं. स्कूल के दिनों से ही उन का साथ था. कालेज में भी वे नियमित रूप से एकदूसरे से मिलती रहती थीं. जब अल्हड़ उम्र की थीं तब अकसर उन की बातचीत का विषय होता लड़के. कालेज के लड़के, पासपड़ोस के लड़के, गलीमहल्ले के लड़के. फिर जब शादी की उम्र हुई तो भावी पति को ले कर अटकलें लगाई जाने लगीं.

‘‘भई तुम लोगों की मैं नहीं जानती,’’ शालिनी आह भर कर कहती, ‘‘पर मेरे साथ जो होने वाला है उसे मैं जानती हूं. जहां मेरी बी.ए. की पढ़ाई समाप्त हुई, मेरी शादी कर दी जाएगी. मेरे मातापिता तो दिन गिन रहे हैं. उन्होंने तो लड़का भी तलाश कर लिया है.’’

‘‘अरे ऐसे कैसे तेरी शादी कर देंगे? अच्छी जबरदस्ती है,’’ रितिका बोली.

‘‘लड़का कौन है? तेरी पसंद का है या नहीं?’’ आभा ने पूछा.

‘‘मेरी पसंद की परवा किसे है भई. कई साल से मेरी बूआ हमारे पीछे पड़ी हुई हैं अपने बेटे के लिए, शायद उसी से…’’

‘‘अरे तेरा कजन? यह तो कुछ अच्छा नहीं लगता. इतना करीबी रिश्ता, तुझे कुछ अटपटा नहीं लगता?’’

‘‘लगता तो है पर मेरी सुनने वाला कौन है? हम दक्षिण भारतीयों में भाईबहन के बच्चों की शादियां होती रहती हैं. इस में कोई बुराई नहीं समझी जाती है. फिर एक तो भतीजी बहू बन कर आती है, तो उस से लगाव होना स्वाभाविक है. वह परिवार में रचबस जाती है. और दूसरी बात यह कि दानदहेज का बखेड़ा नहीं.’’

‘‘हां एक तरह से यह भी ठीक ही लगता है,’’ आभा बोली, ‘‘पहचान की ससुराल हो तो इतमीनान रहता है. पर मुझे देखो, पिताजी इंटरनैट पर मेरे लिए जोरशोर से वर तलाश रहे हैं. जवाब में तरहतरह के नमूनों की अर्जियां आ रही हैं. उन के फोटो देखो तो किसी हीरो से कम नहीं लगते. और उन के विवरण पढ़ो तो लगता है सब के सब जीनियस हैं. एकाध को पिताजी बहुत आशान्वित हो कर देखने भी गए पर बहुत मायूस हो कर लौटे. मैं तो मन ही मन मना रही हूं कि मुझे शादी कर के अमेरिका न जाना पड़े. वहां घर और बाहर का काम करतेकरते तो मिट्टी पलीद हो जाती है और सालों बीत जाते हैं अपनों की शक्ल देखे. ऐसा लगता है जैसे अज्ञातवास कर रहे हों. मैं तो कहती हूं कि अमेरिका के डाक्टर या इंजीनियर के बजाय इंडिया में एक साधारण हैसियत वाले से ब्याह कर के रहना ज्यादा अच्छा है.’’

ये भी पढ़ें- षष्टिपूर्ति: भाग-1

‘‘क्या कह रही है तू?’’ रितिका ने उसे झिड़का, ‘‘भला अमेरिका जाने में क्या बुराई है? तुझ में जरा भी हौसला नहीं है. अरे यही तो उम्र है अपने खोल से निकल कर दुनिया देखने की, जगहजगह की सैर करने की. मैं तो इसी ताक में हूं कि कोई मालदार आसामी फंसे और मैं उस से ब्याह कर इंडिया को बायबाय बोल विदेश का रास्ता नापूं. फिर विदेश घूमूं, दुनिया के अजूबे देखूं, तरहतरह की चीजें खरीदूं और भांतिभांति के व्यंजन चखूं. ओह सोच कर ही बदन में झुरझुरी उठती है.’’

‘‘अपनाअपना नजरिया है,’’ आभा ने सर हिलाया, ‘‘मेरे विचार में लड़का अपनी पसंद का होना चाहिए. वह अमीर हो या गरीब उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. जहां मन न मिले उस व्यक्ति के साथ पूरा जीवन बिताना एक सजा से कम नहीं है. तू ही बता बिना प्यार के एक अजनबी के साथ बंध कर उम्र भर कलपने का क्या तुक है?’’

‘‘इतनी भावुक न बन मेरी बन्नो, जरा प्रौक्टिकल बन. पैसा बड़ी चीज है. बिना पैसे के जीना मुहाल हो जाता है. जब पेट भर खाना नसीब न हो तो प्यारव्यार सब धरा रह जाता है. अभाव की जिंदगी जीना भी क्या जीना? पैसा पास हो तो जिंदगी की हर खुशी, हर नेमत खरीदी जा सकती है. मैं तो यह चाहती हूं कि जीवनसाथी ऐसा हो जो मुझ पर अपनी दौलत निछावर करे. मुझे  जिंदगी की हर खुशी दे ताकि मैं जीवन भरपूर जी सकूं, गुलछर्रे उड़ाऊं. कल किस ने देखा है,’’ रितिका जोश से उस से बोली.

‘‘वह सब तो ठीक है,’’ शालिनी उदास भाव से बोली, ‘‘अच्छा घर व वर कौन लड़की नहीं चाहेगी भला, पर ये सब अपने बस में तो नहीं है न.’’

‘‘क्यों नहीं है. मैं ने तो तय कर लिया है कि मैं एयरलाइंस जौइन करूंगी. सैर की सैर होती रहेगी और एक मालदार पुरुष से मिलने का चांस भी मिलेगा. अगर तू चाहे तो मैं तुझे उन विमान सुंदरियों के नाम गिना सकती हूं जिन्होंने अमीरजादों को अपने प्रेमजाल में फंसाया और आज ऐशोआराम की जिंदगी बसर कर रही हैं,’’ रितिका ने उस से भी बड़े जोश से कहा.

‘‘जरूरत नहीं है उन सुंदरियों का नाम गिनाने की. हम तेरी बात पर विश्वास करती हैं. हम भी मानती हैं कि दुनिया में पैसे की बड़ी अहमियत है. पर दौलत के साथसाथ मनचाहा पति भी मिल जाए तो सोने में सुहागा हो जाए,’’ शालिनी बुझे मन से बोली. परीक्षा समाप्त होते ही शालिनी की शादी की तैयारियां होने लगीं. लेकिन ऐन वक्त पर उस के कजन ने शादी से मना कर दिया. शायद उस का किसी और लड़की से चक्कर चल रहा था. उस ने शालिनी के लिए अपने एक दोस्त का नाम सुझाया जो अमेरिका में नौकरी रहा था. फिर आननफानन शालिनी की शादी हो गई और वह अमेरिका के लिए रवाना हो गई. कुछ दिनों बाद आभा के लिए भी एक अच्छा वर मिल गया. इत्तफाक से वह भी अमेरिका में नौकरी करता था. सुनते ही आभा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मैं ने आप लोगों से एक ही शर्त रखी थी कि मैं ब्याह कर अमेरिका नहीं जाना चाहती और आप लोगों ने मेरी इतनी सी बात नहीं रखी,’’ उस ने आंसू बहाते हुए अपने मातापिता से कहा.

‘‘बेटी,’’ उन्होंने उसे समझाया, ‘‘यह तो संयोग की बात है. और चाहे वर अमेरिका में हो या कहीं और इस से क्या फर्क पड़ता है? पहली बात तो यह देखने की है कि वह तेरे योग्य है कि नहीं. हम ने इस लड़के के बारे में बहुत कुछ सुना है. लड़का क्या है हीरा है. ऐसा लड़का सब को नसीब नहीं होता. और तेरे मांबाप तेरा भला ही तो चाहते हैं. फिर आजकल तो जिसे देखो वही अमेरिका का रास्ता नाप रहा है और तू पगली है कि वहां जाने से घबरा रही है.’’ आभा की शादी के 1 साल बाद अचानक एक दिन उस के पास रितिका का फोन आया.

आगे पढ़ें- मैं ने उस पर धावा बोल दिया और 3 ही महीने में…

ये भी पढ़ें- लव आजकल: भाग-1

ज्ञानवर्धक पत्रिका

आजमुझे घर जाने की जल्दी थी. मैं ने अपनी 24 साल पुरानी श्रीमतीजी से मूवी दिखाने का वादा जो किया था. इन 24 सालों में यह मेरा 7वां वादा था जिसे मैं तनमनधन से पूरा करना चाहता था. जल्दीजल्दी सारा काम निबटा कर मैं बौस के कैबिन में गया और उन से घर जाने की अनुमति मांगी.

‘‘क्यों?’’ बौस ने गोली सी दागी.

‘‘जी… पत्नी को मूवी दिखाना है,’’ मैं हकला गया.

‘‘शादी की सालगिरह है क्या?’’

‘‘जी नहीं, शादी की 25वीं सालगिरह आने वाली है. इसलिए…’’

वे ठहाका मार कर के हंसे और फिर मुझे अनुमति मिल गई. मैं ने स्कूटर निकाला और फुल स्पीड पर चलाने लगा. मैं अपनी श्रीमतीजी का प्रसन्न चेहरा (जो कभीकभी ही देखने को मिलता था) मन में बसाए चला जा रहा था कि अचानक मेरी खुशी को बे्रक लग गया. टायर पंक्चर हो चुका था. जैसेतैसे स्कूटर घसीटता वर्कशौप तक लाया.

‘‘कितना समय लगेगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी, लगभग 1 घंटा.’’

मेरा सारा जोश ठंडा हो गया. अब हम मूवी नहीं जा सकते थे. मरता क्या न करता, पास की दुकान पर पत्रिकाएं देखने लगा. सोचा अच्छी सी पत्रिका दे कर अपनी श्रीमतीजी को मना लूंगा. मैं ने पत्रिका ली और दुकान पर आ गया. थोड़ी देर में पंक्चर बन गया तो मन ही मन पत्नी को खुश करने के नएनए तरीके सोचता मैं घर चल दिया. घर पहुंचा तो डरतेडरते कमरे में प्रवेश किया. सामने का नजारा देखने लायक था. पलंग की चादर आधी ऊपर आधी नीचे झूल रही थी और तकियों की आधी रुई बाहर निकली हुई थी. इधरउधर नेलपौलिश की बिखरी टूटी शीशियां व लिपस्टिक, पाउडर अपनी कहानी अलग सुना रहे थे. मेरे कपड़े और श्रीमतीजी की साडि़यां भी इधरउधर बिखरी पड़ी थीं.

मेरा मन किसी अनजानी आशंका से कांप उठा. अलमारी खोल कर देखी तो पाया कि बैंक से निकाले गए रुपए सुरक्षित थे. फिर मैं भगताभागता किचन में गया. वहां का तो हाल और भी बुरा था. पूरे किचन में उलटेसीधे पड़े जूठे, साफ बरतन, टूटी प्यालियां, इधरउधर बिखरी सब्जियां और सिंक से टपकता पानी. ऐसा लग रहा था जैसे भूकंप और बाढ़ साजिश रच कर एकसाथ हमारे घर आए हैं. हम बुद्धिमान थे, जल्दी ही समझ गए कि मूवी न देख पाने का क्रोध श्रीमतीजी ने घर पर उतारा है और यह उन के द्वारा किया गया अद्भुत इंटीरियर डैकोरेशन है. हम अपनी पत्नी की इस प्रतिभा के कायल हो गए.

डरतेडरते हम फैले सामान को समेट ही रहे थे कि काली का रूप धारण किए एक महिला मूर्ति ने प्रवेश किया. बिखरे बाल, लाल आंखें, हाथ में बेलन आदि… अभी हम इस दानवी रूप को पूरी तरह निहार भी नहीं पाए थे कि एक भयानक गर्जना सुनाई दी, ‘‘कितने बजे हैं?’’

आप भी पहचान गए न? जी हां ये हमारी प्राणप्रिया ही थीं.

‘‘वह मेरा स्कूटर…’’

‘‘भाड़ में जाओ तुम और साथ में तुम्हारा स्कूटर भी,’’ कहते हुए उन्होंने हमारा कौलर पकड़ कर झटका तो हम जमीन पर और हाथ की पत्रिका पलंग पर. वाह, पत्रिका ने तो कमाल ही कर दिया, हमें छोड़ कर वे पत्रिका पर झपटीं और उस का नाम पढ़ कर उन की आंखें चमक उठीं. वह था- करवाचौथ विशेषांक. वे पलटीं और बोलीं, ‘‘सुनो, हम ने माफ किया.’’

हम उन की इस अदा पर निढाल हो गए, ‘‘तो फिर चाय…’’ हम बोले तो वे बोलीं, ‘‘हांहां बरतन धो कर फटाफट बना लो और पास की दुकान से समोसे भी ले आना. तब तक मैं जरा इस पत्रिका के पन्ने पलट लूं.’’

और वह पत्रिका में ऐसे डूब गईं जैसे चाशनी में रसगुल्ला. अपनी गलती का फल तो मुझे ही भुगतना था, इसलिए शाम की चाय बनाने के साथ घर की सफाई भी मैं ने की और डिनर भी मैं ने ही बनाया. अगली सुबह मैं बिना नाश्ता किए ही औफिस चला गया. वे देर रात तक पत्रिका पढ़ने के कारण सो रही थीं. शाम को श्रीमतीजी हमें दरवाजे पर ही मिल गईं और बोलीं, ‘‘चाय लौट कर पीना अभी हम बाजार चल रहे हैं.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘पत्रिका में लिखे अनुसार हमें साड़ी, चूड़ी, मेकअप का सामान, ज्वैलरी आदि लानी है.’’

एक ही दिन में हम लुट चुके थे. यही नहीं 2 दिन की छुट्टी ले कर श्रीमतीजी को पार्लर भी ले जाना पड़ा. आखिर करवाचौथ का वह सुहाना दिन आ ही गया. मैं ने सोचा आज के मुख्य अतिथि तो हम ही हैं. लेकिन अपनी ऐसी किस्मत कहां? उस दिन सुबह श्रीमतीजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘सुनो, दूध गरम कर लेना और अपनी चाय के साथ मेरी भी बना लेना.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा तो निर्जल व्रत है.’’

‘‘इस बार नहीं है. पत्रिका में लिखा है कि शारीरिक रूप से कमजोर होने पर आप चायदूध ले सकते हैं और हां, दोपहर को मुझे दूध गरम कर के दे देना, उस के बाद मैं नहा लूंगी.’’

हम ने अपनी श्रीमतीजी के भारीभरकम कमजोर शरीर को देखा और किचन में चल दिए. लंच के लिए हम बेफिक्र थे कि उसे तो श्रीमतीजी बना ही लेंगी, लेकिन अपनी ऐसी किस्मत कहां? लंच के वक्त श्रीमतीजी दोनों हाथों में मेहंदी लगाए नए फरमान के साथ खड़ी थीं, ‘‘हम पैरों में मेहंदी लगवा रहे हैं, इसलिए लंच में तुम कुछ भी उलटासीधा खा लेना. हम ये सारी मेहनत आप के लिए ही तो कर रहे हैं.’’

कुछ बनाने की हिम्मत अब हमारे अंदर नहीं थी, इसलिए हम ने व्रत रखना ही उचित समझा. अभी पत्रिका के कुछ पन्ने शेष थे, अत: उस के अनुसार हम शाम को श्रीमतीजी को पार्लर ले कर गए. वहां ब्यूटीशियन ने 4,000 का चूना लगा कर श्रीमतीजी को देखने लायक खूबसूरत बना ही दिया. पानी में हाथ डालने से मेहंदी खराब न हो इसलिए डिनर भी बाहर ही किया. गिफ्ट में हमें सोने की अंगूठी भी देनी पड़ी क्योंकि सोना गिफ्ट में देने से पतिपत्नी में प्यार बढ़ता है, यह भी पत्रिका में लिखा था. अब हमें पत्रिका दे कर अपनी श्रीमतीजी प्रसन्न करने के अपने विचार पर बहुत अफसोस हो रहा था और इस के पहले श्रीमतीजी पत्रिका के बाकी पन्ने पढ़ कर हमारी ऐसीतैसी करतीं, हम ने इस प्रण के साथ लाइट बंद कर दी कि गिफ्ट में श्रीमतीजी को जान भले ही दे दूं पर पत्रिका कभी नहीं दूंगा.

फीनिक्स: भाग-3

पिछला भाग- फीनिक्स: भाग-2

कहानी- मेहा गुप्ता

‘‘जिस समाज में और जिन लोगों के बीच उठनाबैठना है हमारा. हमें यह

स्टेटस मैंटेन करना पड़ता है. अब तुझ से क्या छिपाना है. मानसम्मान, दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक बार लत लग जाए तो आसानी से छूटती नहीं है. सुनील की यह लत तो बहुत पुरानी है. इस जन्म में तो छूटेगी नहीं’’

‘‘जब से शादी हुई है यह आर्थिक उतारचढ़ाव मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है. शादी में चढ़े मेरे जेवर भी 1-1 कर के सारे बिक गए. कभी तो ऐसा होता है हम लोग बिलकुल रोड पर आ जाते हैं और कभी अरबों में खेलने लगते हैं. यह घर, गाड़ी, मेरा बुटीक सभी कुछ लोन पर है. बच्चे भी अपने पापा की भाषा में बात करते हैं. घूमनाफिरना, लेटैस्ट गैजेट्स, शौपिंग बस यही उन की जिंदगी का ध्येय बन गया है.’’

‘‘बच्चे भी? पर उन्हें सही मार्ग दिखाना तो तेरे हाथ में है न? तू बदलेगी तभी तो तुझे देख कर तेरे बच्चे तेरा अनुसरण करेंगे.’’

‘‘छोड़ न मैं बच्चों का दिल नहीं दुखाना चाहती और सुनील को भी पसंद नहीं है कि

मैं बातबात पर रोकटोक करूं,’’ उस ने बड़ी सहजता से कहा जैसे उस के लिए ये सब बहुत सामान्य है.

‘‘12 बज गए हैं. चल अब हमें सोना चाहिए. गुड नाइट,’’ कहते हुए वह सो गई पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी की फ्लाइट थी. मैं समय से काफी पहले ही उठ गई ताकि सलोनी को कुछ सांत्वना और आर्थिक सलाहकार के रूप में कुछ नेक सलाह दे पाऊं. पर मुझे एहसास हुआ कि उसे मेरी राय की विशेष आवश्यकता नहीं है. चलते हुए उस ने मुझे आकर्षक या यों कहूं महंगी पैकिंग में ढेरों उपहार दिए. उस की कल रात की बातों में और लेनदेन के व्यवहार में कोई सामंजस्य नहीं था. मुझे अपने द्वारा दिए उपहार इन सब के सामने बहुत तुच्छ लग रहे थे. एकदूसरे के संपर्क में रहने का वादा कर मैं मुंबई आ गई. अपने काम की व्यस्तताओं में से भी समय निकाल मैं उस से चैट कर लिया करती थी.

सोशल मीडिया भी एक लत है. एक बार लग जाए तो इंसान उस से दूर नहीं रह सकता. फेसबुक अकाउंट खोलते ही मुझे पता होता था उस में सलोनी का कोई न कोई नई और रोमांचक पोस्ट अवश्य होगी. इस बार उस ने स्विट्जरलैंड के बहुत ही खूबसूरत फोटो अपडेट किए थे पर इस बार मुझे रोमांच नहीं हैरानी हुई थी. हर बार की तरह मैं ने उस की पोस्ट पर लाइक्स या कमैंट्स नहीं किए. मेरी इच्छा हुई कि उसे फोन कर झंझोड़ कर पूछूं कि अचानक तेरे हाथ में क्या कुबेर का खजाना लग गया जो तू फिर घूमनेफिरने पर इतना उड़ाने लगी? मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था. गलत बात को मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाती हूं.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पति का जयपुर में तबादला हो गया. पर मैं ने यह बात सलोनी से छिपा कर रखी. बच्चों का स्कूल में ऐडमिशन, घर ढूंढ़ने जैसी जरूरतों के चलते मेरा कई बार जयपुर जाना हुआ पर मैं ने उस से संपर्क नहीं किया. कुछ समय का भी अभाव था. महीनेभर बाद हम जयपुर रहने आ गए. धीरेधीरे मेरी जिंदगी फिर से पटरी पर आने लगी. मैं ने अपना तबादला भी अपने बैंक की जयपुर शाखा में करवा लिया.

एक दिन मेरे पास सलोनी का फोन आया, ‘‘तू जयपुर आ गई है और तूने मुझे

बताना भी जरूरी नहीं समझा?’’

एक बार तो मैं हक्कीबक्की रह गई कि कहीं उस ने मुझे किसी मौल या रास्ते में देख तो नहीं लिया… मैं उस से झूठ नहीं बोल सकती थी, इसलिए मैं ने धीरे से कहा, ‘‘हम लोग जयपुर ही शिफ्ट हो गए हैं,’’ मेरे स्वर में अपराधभाव था.

ये भी पढ़ें- आखिरी बिछोह: भाग-2

‘‘क्या? तूने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा?’’

मैं कोई जवाब न दे पाई.

‘‘तू मुझे अपना पता सैंड कर. मैं घंटेभर में तेरे पास पहुंचती हूं… मिल कर बात करते हैं.’’

करीब घंटेभर बाद सलोनी घर पर थी. हम जब भी मिलते वह हर बार एक नई डिजाइनर ड्रैस में होती थी और वह भी लेटैस्ट और मैचिंग फुटवियर, पर्स और ऐक्सैसरीज के साथ.

‘‘अच्छा यह तो बता तुझे यह कैसे पता चला कि मैं जयपुर आ गई हूं?’’

‘‘पिछले हफ्ते मैं मुंबई आई थी. मेरी स्विट्जरलैंड की फ्लाइट वहीं से थी. मैं अचानक तेरे घर आ कर तुझे सरप्राइज देना चाहती थी पर वाचमैन ने बताया तुम जयपुर शिफ्ट हो गई हो. तू सच बता कि शिफ्ट हो जाने की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’

‘‘अरे तू भी न… जरा भी नहीं बदली है. सच कहूं सलोनी जब से हम दोनों मिले हैं मुझे कुछ सही नहीं लग रहा है,’’ मैं बोलने में थोड़ा हिचक रही थी, ‘‘तुझे नहीं लगता तूने जिंदगी को मजाक बना कर रख दिया है… जिंदगी को जिंदादिली से जीना अच्छी बात है पर इतनी जिंदादिली कि सारे आदर्श, सारी नीतियां ताक पर रख दो… तू थोड़ा दूरदर्शी बन कर देख. इस से तेरे बच्चों पर कितना खराब असर पड़ेगा. तू मां है उन की, उन्हें अच्छेबुरे का फर्क समझाना फर्ज है तेरा. अगर तू उन का पोषण ही सड़ी खाद से करेगी तो उन में स्वस्थ फलों का पल्लवन कैसे होगा?’’

‘‘तू गलत समझ रही है सलोनी. सुनील ने ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का नया व्यवसाय शुरू किया है और वह अच्छा चल पड़ा है. क्या पैसा कमाना गुनाह है? सुनील रिस्क लेना जानता है. फिर कौन सा ऐसा बिजनैस है जो शतप्रतिशत ईमानदारी से होता है?’’

मैं उस की नादानी पर मुसकरा भर दी. मैं समझ गई थी सलोनी को कुछ भी समझाना बेकार है. वह पूरी तरह से सुनीलमय हो गई थी. पैसों की चकाचौंध ने उस की नैतिकअनैतिक के बीच के फर्क को समझने की शक्ति खत्म कर दी थी. ऐसा कौन सा बिजनैस है, जिस में आदमी रातोंरात अमीर हो जाता है?

दूसरे दिन अमन औफिस के लिए थोड़ा जल्दी निकल गए. पर घर से निकलते ही लगातार बजते हौर्न की आवाज से मैं समझ गई जनाब आज फिर कुछ भूल रहे हैं. मैं घर से बाहर निकलती उस से पहले मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी.

‘‘हैलो सोना, मेरी स्टडीटेबल पर नीले रंग की फाइल रह गई है. जल्दी दे जाओ.’’

मैं भुनभुनाते हुए फाइल लेने ही जा रही थी कि मेरी नजर फाइल पर लिखे नाम सुनील पर पड़ी. मेरे दिमाग में बिजली का झटका सा लगा.

‘‘मैं इस केस के बारे में आप से कुछ पूछना चाहती थी.’’

‘‘क्यों इस ने तुम्हारे बैंक को भी बेवकूफ बनाया है क्या?’’

‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है…’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने गाड़ी बढ़ा दी. पर मेरे दिल को कहां चैन था. मैं ने तुरंत इन्हें फोन लगाया, ‘‘हैलो अमन, मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि सुनील मेरी सब से प्यारी सहेली सलोनी का पति है. क्या आप इन के केस के बारे में कुछ बता सकते हो? ’’

‘‘सोना मैं तुम्हें ज्यादा नहीं बता सकता. यू नो, ये सब बहुत कौन्फिडैंशियल होता है. बस इतना जान लो कि हम सीधे उस के घर रेड डालने जा रहे हैं.’’

फिर थोड़ा रुक कर अमन ने पूछा, ‘‘पर तुम क्यों इतनी चिंता कर रही हो? वह आदमी इन सब बातों का आदी है.’’

मुझे कैसे भी चैन नहीं पड़ रहा था. मुझे सलोनी के लिए बहुत बुरा लग रहा था. यदि उसे पता चल गया अमन मेरे पति हैं तो उसे कितना बुरा लगेगा. मेरी प्यारी सलोनी, उस का एक नंबर भी मुझ से कम आ जाता तो उस से ज्यादा मैं दुखी हो जाती थी. आज इतने बड़े दर्द से कैसे उबर पाएगी. मेरा पूरा दिन पहाड़ सा निकला. रात को अमन के घर आते ही मैं ने प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘अमन क्या हुआ आज वहां पर?’’

‘‘तुम्हारी सहेली के पति के नाम करोड़ों की बेनाम संपत्ति है. मेरे पहुंचते ही उस ने मुझे क्व1 करोड़ की रिश्वत औफर की. किसी भी तरह से कौपरेट करने को तैयार नहीं था. वह तो मेरे साथ पुलिस थी… हमें उस के साथ सख्ती बरतनी पड़ी. मुझे शर्म आ रही है मेरी बीवी कैसे लोगों से संबंध रखती है.’’

मुझे रोना आ रहा था. इच्छा हुई कि सलोनी को फोन कर उस का हालचाल पूछूं. उस पर क्या बीत रही होगी… उन लोगों ने कुछ खायापीया होगा या नहीं. सलोनी ने तो रोरो कर अपना बुरा हाल बना लिया होगा.

मैं ने खुद को सामान्य करने की कोशिश की. मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं. कुछ दिनों बाद मैं इस बारे में भूल गई. एक दिन ऐसे ही फुरसत के क्षणों में फेसबुक अकाउंट खोलने पर सब से ऊपर सलोनी का फोटो था. किसी पांचसितारा होटल में पार्टी की थी, साथ में कैप्शन लिखी थी. ‘नेवर ऐंडिंग फन.’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. सलोनी का वही खिलता चेहरा, बेफिक्र आंखें और उन में झलकते नित नए ख्वाब. उसे तो जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ा था. मैं ही पागल थी जो उस के लिए अपना खून जला रही थी.

ये भी पढ़ें- दीनानाथ का वसीयतनामा: भाग-1

पहले की बात और थी. अगर किसी के यहां रेड पड़ती थी तो यह उस व्यक्ति की इज्जत पर बहुत बड़ा दाग माना जाता था. वह व्यक्ति महीनों तक किसी को मुंह नहीं दिखाता था. इंसान की गांठ में क्व100 होते थे तो वह 75 खर्च करता था पर अब तो लोग आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपया की तर्ज पर चलते हैं. आज की पीढ़ी अपने भविष्य की चिंता किए बिना सिर्फ वर्तमान में जीती है और 1-1 पल जीती है. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उस की बेवकूफियों पर उसे एक तमाचा रसीद करूं या जिंदादिली पर उस की पीठ थपथपाऊं .

मुझे आज एक ग्रीक लोककथा में पढ़े फिनिक्स पक्षी की याद आ गई जो मरने के बाद भी अपनी राख से फिर जी उठता था. सलोनी भी तो ऐसी ही है. हालात के थपेड़ों से चोट खाने के बावजूद हर बार जी उठती है. एक नई सैल्फी और स्टेटस के साथ. ‘यह नहीं सुधरेगी. लैट हर लिव लाइफ.’ सोच इस बार मुझे उस की पोस्ट देख कर गुस्सा नहीं आया. मन ही मन मुसकरा उसे किस वाली स्माइली के साथ लाइक दे दिया.

फीनिक्स: भाग-2

पिछला भाग- फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

मुझे, इसलिए नहीं कि वह सुंदर नहीं था, बल्कि मेरी नजर में पर्फैक्ट मैच नहीं था वह मेरी सलोनी के लिए.

करीब 20 मिनट बाद मेरी भेजी रिक्वैस्ट पर उस का रिप्लाई आया ‘ऐक्सैप्टेड.’ उस ने कीबोर्ड पर खटखट कर चैट करने के बजाय तुरंत मुझे वीडियो कौल की.

‘‘कहां खो गई थी मेरी स्वीटी, कितना ढूंढ़ा मैं ने तुझे?’’

‘‘मैं फेसबुक पर नहीं थी और मेरा मोबाइल खो जाने के कारण सारे कौंटैक्ट्स डिलीट हो गए थे,’’ मैं जानती थी कि मैं ने बड़ा घिसापिटा सा बहाना बनाया है.

‘‘तू अभी मुंबई में ही है औरकभी मुझ से संपर्क करने की कोशिश नहीं की. इतना पराया कर दिया अपनी सलोनी को?’’ उस की बातें जारी थीं. वही अदाएं, चेहरे पर वही नूर, शब्दों को जल्दीजल्दी बोलने की उस की आदत, उत्साह से लबरेज.

‘‘मैं अगले हफ्ते जयपुर आ रही हूं. मिल के बात करते हैं,’’ बस इतना कह पाई मैं. आंसुओं ने मेरे स्वर को अवरुद्ध कर दिया था.

फोन रखने के बाद भी मेरा मन उस में ही अटका रहा. शाम को भी मैं फिर उस के अकाउंट पर गई. उस ने ढेरों फोटो अपलोड कर रखे थे. उस के घूमने के, पार्टियों के, शादी समारोहों के. कुल मिला कर ये सब फोटो उस की संपन्नता और खुशी को बयां कर रहे थे.

‘‘कहां अटकी हुई है आज तू? कितनी देर से गाड़ी में तेरा इंतजार कर रही हूं,’’ मेरी कुलीग जो मेरी पूल पार्टनर भी है की आवाज ने मेरी तंद्रा को भंग किया.

‘‘तू निकल जा… मैं मार्केट से थोड़ा काम निबटाते हुए आऊंगी,’’ कह मैं ने घड़ी की तरफ नजर डाली. 5 बज रहे थे. मैं ने सलोनी के बच्चों के लिए चौकलेट्स, उस के लिए पर्स आदि लिया. घर लौटते हुए मैं ने एक थैला सब्जी भी खरीद ली, क्योंकि मुझे 2 दिनों के लिए बाहर जाना था. ऐसे में मैं कई ग्रेवी वाली सब्जियां बना कर जाती थी. रोटी अमन बना लेते थे. इस से मेरे पति और बेटे का मेरे पीछे से काम निकल जाता था.

अगले दिन मैं सुबह की फ्लाइट से जयपुर के लिए निकल गई. जयपुर एअरपोर्ट से बाहर निकलते ही अपने वादे के अनुसार सलोनी एक बड़े से गुलदस्ते के साथ खड़ी थी, जिस में मेरी पसंद के सफेद गुलाब थे. जब भी हम दोनों में अनबन हो जाती थी तो हम दोनों में से कोई भी बिना दंभ के दूसरी को सफेद गुलाब उपहार में दे अपनी लड़ाई का अंत करती थी.

‘‘सोनाली मेरी जानेमन… बिलकुल नहीं बदली है तू,’’ उस ने लगभग चिल्ला कर कहा. आसपास खड़े सभी लोग उस की तरफ देखने लगे पर दुनिया की उस ने कभी परवाह नहीं की थी. जो उसे जंचता वही करती.

वही गरमाहट थी आज भी उस के व्यवहार में. जब वह बोलती थी तो उस की जबान ही नहीं हर अंग बोल उठता था.

‘‘बिलकुल नहीं बदली सैक्सी तू तो,’’ हमेशा इस तरह के उपनामों से बुलाती थी वह मुझे. मुझ से यह कहते हुए वह मुझ से लिपट गई. अपने कंधों पर उस के आंसुओं को महसूस कर रही थी मैं.

उस ने अपनी काली चमचमाती गाड़ी निकाली, एअरपोर्ट की पार्किंग की भीड़ को चीरती हुई गाड़ी मालवीय रोड पर आगे बढ़ने लगी. जयपुर के चप्पेचप्पे से परिचित थी मैं. समय के साथ कितना कुछ बदल गया था.

गाड़ी एक बड़े बंगले के एहाते में आ कर रुकी. सफेद रंग के लैदर के आरामदायक सोफे, चमकते पीतल और कांसे के बड़ेबड़े आर्टइफैक्ट्स, दीवारों पर लगी पेंटिंग्स और परदों का चयन उस के वैभव का बखान तो कर ही रहा था, साथ में मकानमालिक की कला के प्रति रुचि और हुनर को भी दर्शा रहा था.

‘‘तूने अपने घर को बहुत ही मन से सजाया है. मुझे खुशी है कि तुझ में यह हुनर अभी भी जिंदा है.’’

सलोनी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में अपना कौलर ऊपर कर कंधे उचका दिए. शायद वह मेरे कहने का मंतव्य नहीं समझ पाई थी.

चायनाश्ते के बाद उस ने अपनी मेड को खाने का मेन्यू बताया और उस के बाद हम उस के घर के बाहर बगीचे में लगी कुरसियों पर

बैठ गए.

हमारी बातों का सिलसिला शुरू हो गया. उस ने कानों और हाथों में बड़े से सौलिटेर और हाथों में अपेक्षाकृत छोटे आकार के डायमंड के कंगन पहन रखे थे.

ये भी पढ़ें- प्यार का एहसास

‘‘तू तो जैसे किसी डायमंड की ब्रैंड ऐंबैसेडर हो… कितना चमक रही है… मैं बहुत खुश हूं तुझे देख कर. जो तूने अपनी जिंदगी से चाहा था तुझे सब

मिल गया.’’

‘‘तूने भी तो अपने सपनों को जीया है. आज अपनी मेहनत के दम पर तू इस मुकाम पर पहुंची है. एक प्रतिष्ठित बैंक में इतने उच्च पद पर कार्यरत है तू.’’

‘‘मुझे भी बहुत खुशी है तेरा यह रूप देख कर. वही आत्मविश्वास से दीप्त मुखमंडल, देहयष्टि में वही कमनीयता… कोई बोलेगा तुझे देख कर

कि एक जवान बेटे की

मां हो.’’

‘‘पर तू इतनी बेडौल क्यों हो गई है?’’

‘‘लगना चाहिए न कि खातेपीते घर के हैं. अरे भई यह तो हम मारवाडि़यों की शान है. लाखों की भीड़ में भी पहचान लिए जाते हैं,’’ उस ने अपने पेट पर हाथ फिराते हुए ऐसे नाटकीय अंदाज में कहा कि मैं खुद को हंसने से न रोक पाई.

‘‘चल अंदर चल कर बैठते हैं. अंधेरा गहराने को है और फिर सुनील भी आते ही होंगे… एसी औन कर दूं. इन्हें आने से पहले हौल चिल्ड चाहिए नहीं तो गरमी के मारे दिमाग का तापमान बढ़ जाता है.’’

कुछ ही पलों में सुनील भी घर आ गया. हम लोगों के बीच कुछ औपचारिक बातचीत हुई. डिनर के दौरान भी उस के हाथ में महंगा मोबाइल सैट था और उस की फोन कौल्स लगातार चालू थीं. वह खाना खाते हुए भी तेज आवाज में फोन पर बातें कर रहा था. मैं मन ही मन अमन की तुलना सुनील से करने लगी. अमन की आवाज इतनी धीमी होती कि पास बैठा व्यक्ति भी न सुन पाए. यही तो फर्क है कम पढ़े और पढ़ेलिखे व्यक्ति में… जाने क्या देखा सलोनी ने इस में और जाने कैसे वह इस की हरकतों को बरदाश्त करती है. मैं मन ही मन खीज उठी.

मगर मैं ने महसूस किया कि सलोनी बहुत खुश थी. उस ने मीठे में गुलाबजामुन मंगवा रखे थे. सुनील के नानुकुर करने पर भी एक गुलाबजामुन अपने हाथ से उस के मुंह में डाल दिया. शायद पैसा इंसान की सारी कमियों को ढक देता है.

सलोनी ने आज स्वयं के सोने की व्यवस्था भी गैस्टरूम में कर ली थी. करीब 9 बजे वह

2 कप कौफी के लिए कमरे में आई. कपों में कौफी और शक्कर डली थी, ‘‘चल फेंटी हुए कौफी बना कर पीते हैं. जब से तेरा साथ छूटा है मैं तो जैसे कौफी का स्वाद ही भूल गई हूं,’’ हम चम्मच से कौफी घोलते हुए पुराने दिनों को याद करने लगे.

‘‘तेरी पसंद तो बहुत लाजवाब हो गई है,’’ मैं ने उस के सुंदर मगों को देखते हुए कहा,  ‘‘तू सारा समय शौपिंग में ही लगी रहती है क्या?’’

‘‘कहां यार… बुटीक से समय ही नहीं मिल पाता है.’’

‘‘तेरा बुटीक भी है?’’ मैं उछल पड़ी.

‘‘हां, और सच पूछो तो अभी तो उस का ही सहारा है,’’ मैं ने पूरे दिन में पहली बार उस के चेहरे पर हलकी सी उदासी देखी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं सलोनी?’’

‘‘हाल ही में चल रही टी-20 सीरीज में लगाए गए सट्टे में सुनील को करोड़ों का घाटा हो गया है.’’

‘‘पर तू सुनील को सट्टा क्यों खेलने देती है? तू जानती है न सट्टा खेलने वालों का क्या हाल होता है? जानबूझ कर अपना और अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा रही हो. यह तो जुआ है. इस से तो इज्जत की दो सूखी रोटियां खानी ज्यादा बेहतर है.’’

आगे पढ़ें- दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक….

फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

सूर्यकी पीली रेशमी किरणों ने पेड़ों के पत्तों के बीच से छनछन कर मेरी बालकनी में आना शुरू कर दिया है. यह मेरे लिए दिन का सब से खूबसूरत वक्त होता है. बालकनी में खड़ी हो सामने पार्क में देखती हूं तो कोई वहां बने जौगिंग पाथ पर दौड़ लगा कर पिछले दिन खाए जंक फूड से पाई कैलोरी को जलाने में जुटा है तो कोई सांसों को अंदरबाहर ले अपने जीवन की तमाम विसंगतियों से झूझने के लिए खुद को सक्षम बनाने में.

मेरी मां ने इन गतिविधियों को अमीरों के चोंचले नाम दे रखा है. कहती हैं छोटीछोटी जरूरतों के लिए अगर नौकरों पर निर्भर न रहें तो ये सब करने की नौबत ही न आए. हम लोग जब कुएं से पानी खींच कर लाया करती थीं तो वही हमारे लिए जौगिंग होती थी और चूल्हे की लौ को तेज करने के लिए जोर से फूंक देतीं तो वही प्राणायाम.

अब मां को कैसे समझाऊं कि जमाना बदल गया है, जमाने की सोच बदल गई है.जबकि मैं खुद कई मामलों में जमाने से बहुत पीछे हूं. मसलन, खाने के मामले में मैं रैस्टोरैंट जा कर पिज्जाबर्गर खाने से बेहतर घर की दालरोटी खाना पसंद करती हूं. बाहर का खाना मुझे सेहत और पैसे की बरबादी लगता है.

वैस्टर्न आउटफिट्स न पहन कर सलवारकमीज वह भी दुपट्टे के साथ पहनती हूं और सब से मुख्य बात सोशल मीडिया से गुरेज करती हूं. अब तक मुझे यह निहायत दिखावा, छलावा और समय की बरबादी लगता था पर इस बार अपनी सोलमेट से मिलने के लालच ने मुझे फेसबुक के गलियारों में भटकने को मजबूर कर ही दिया.

ये भी पढ़ें-बंद खिड़की

मैं ने फेसबुक पर अपना अच्छा सा फोटो लगा अपना प्रोफाइल डाल दिया और सलोनी, जयपुर टाइप कर के क्लिक कर दिया. क्लिक करते ही सलोनी नाम से लगभग 50 प्रोफाइल स्क्रीन पर आ गए. मैं 1-1 कर के सारे फोटो जूम कर देखने लगी. लगभग 15वां प्रोफाइल मेरी सलोनी का था.

मैं ने बिना समय गंवाए फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी और उस के जवाब का इंतजार करने लगी. जब से मेरा जयपुर जाने का प्लान बना था मेरा मन सलोनी से मिलने को तड़प उठा था.

जयपुर का पर्याय है मेरे लिए सलोनी… सिर्फ सहेली ही नहीं सोलमेट थीं हम दोनों. जयपुर के महारानी कालेज में मेरा ऐडमिशन

हुआ था और मैं सुमेरपुर जैसे छोटे कसबे की देशी गर्ल वहां आ गई. अजनबियों की भीड़ में सलोनी ने ही मेरा संबल बन मेरा हाथ थामा था. उस की मम्मी ने कई रूम, पेइंगगैस्ट के तौर पर लड़कियों को दे रखे थे, इसलिए मैं भी होस्टल

के अत्याधुनिक माहौल को अलविदा कह वहीं रहने चली गई थी. वहीं पर सलोनी द्वारा मेरी ग्रूमिंग भी हुई थी.

सादी नहीं बोलो शादी, मैडम नहीं मैम, इस दुपट्टे को दोनो कंधों पर के दोनों तरफ नहीं, बल्कि एक पर डालो, और भी न जाने क्याक्या…

मुझ में बहुत जल्दी इतना बदलाव आया कि मेरे इस नए रूप को देख कर मुझ से ज्यादा वह प्रसन्न थी. गुरुदक्षिणा में मैं उसे फुजूलखर्ची से परहेज कर थोड़ा सेविंग करने के लिए कहती थी पर वह मेरी कही हर बात हवा में उड़ा देती थी. मुझे नहीं लगता उस ने मुझे कभी सीरियसली लिया हो. सदा एकदूसरे का साथ देने को तत्पर थीं हम, पर कोई गलत कदम उठाने पर एकदूसरे को समझाने या डांटने का पूरा हक भी दे रखा था हम ने एकदूसरे को.

नाम के अनुरूप ही वह रूप और गुणों की स्वामिनी थी. हर वक्त चहकती फिरती. फिर हम दोनों के बीच दूरी आ गई. शायद मैं ने स्वयं ही सलोनी से खुद को दूर कर लिया था. उस के लिए एक बहुत ही संभ्रांत परिवार से रिश्ता आया था. वह थी ही इतनी सुंदर कि कोई भी उस पर फिदा हो जाए. लड़का सिर्फ 12वीं कक्षा तक पढ़ा था और श्यामवर्णी होने के साथसाथ बेडौल भी था.

कितना समझाया था मैं ने उसे, ‘‘कहां गए तेरे सारे सपने? तू अपनी इंटीरियर डिजाइनर की डिगरी उस के पीछे लगाई अपनी अपार मेहनत सब यों ही बरबाद कर देगी? वहां तेरे टेलैंट की कोई कद्र नहीं होगी.’’

मगर तब शायद सुनील की चकाचौंध ने, उस की महंगी गाडि़यों ने, उस के ठाटबाट ने सलोनी और उस के परिवार वालों की अकल पर परदा डाल दिया था. हम दोनों ही साधारण परिवार से थीं पर मेरे और उस के जिंदगी के

प्रति दृष्टिकोण, खुशियों की परिभाषा में बहुत अंतर था.

‘‘सलोनी तुझे लगता है तू शादी के बाद नौकरी कर पाएगी? कितने अरमान थे तेरे अपने भविष्य को ले कर,’’ एक दिन शादी की तैयारियों के बीच उस की साडि़यों की पैकिंग करते हुए मैं ने उस से पूछा था.

‘‘इसे नौकरी करने की जरूरत क्यों पड़ेगी भला… लाखों में खेलेगी मेरी लाडो…

नौकरी तो मध्य परिवार के लोग अपनी बहुओं से करवाते हैं. ये तो खानदानी लोग हैं. शहर में नाम है इन के परिवार का. भला ये लोग अपनी नाक क्यों कटवाएंगे अपने घर की बहूबेटियों से नौकरी करवा कर.’’

मैं आंटी से कहना चाहती थी कि जरूरी नहीं है औरत आर्थिक जरूरतों के चलते कमाए. उसे अपने आत्मसम्मान के लिए, आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए, समाज में अपना वजूद बनाए रखने के लिए भी आत्मनिर्भर बनना चाहिए पर मुझे पता था आंटी के लिए इन बातों का कोई अर्थ नहीं… और सलोनी वह तो जैसे स्वप्नलोक में विचरण कर रही थी.

ये भी पढ़ें- लिवइन रिलेशनशिप: भाग-3

मेरी शादी अपनी पसंद के इनकम टैक्स औफिसर से हुई थी. पर मेरे पति अमन अपने उसूलों के बहुत पक्के और सादा जीवन उच्च विचारों के साथ जीने में विश्वास रखते थे. हमारी शादी भी बहुत साधारण तरीके से हुई थी. शादी में आई सलोनी ने अमन से मिल कर मुझे छेड़ा भी था कि वाह, क्या जोड़ी है… अच्छा है दोनों की खूब जमेगी.

मैं विचारों में खोई स्क्रीन को स्क्रोल कर उस के नएपुराने सभी फोटो देखने में जुटी थी. उस के स्टेटस पर कपल फोटो लगा था. मुझे उस के कंधे पर हाथ रखे हुए सुनील कांटे सा चुभा था कि हु बंदर के गले में मोतियों की माला, बड़बड़ाते हुए मैं ने अपना मुंह बिचकाया. वह आदमी पहली नजर में ही बेहद नापसंद था.

आगे पढ़ें- मेरी नजर में पर्फैक्ट मैच नहीं था वह मेरी सलोनी के लिए….

अधूरी कहानी: भाग-3

पिछला भाग पढ़ने के लिए- अधूरी कहानी: भाग-2

कहानी- नज्म सुभाष

अचानक उस के मन ने उसे धिक्कारा… वाह माधवी वाह… मधुमालती से माधवी बन गई तुम, केवल नाम बदल दिया… मगर स्त्रीत्व… उसे कैसे बदलोगी? अगर तुम उसे नहीं जानती तो फिर तुम्हारे गले में मंगलसूत्र, मांग में लगा सिंदूर किसलिए और किस के लिए? उतार फेंको यह मंगलसूत्र, पोंछ डालो सिंदूर… अरुण कुमार के नाम के ये बंधन भी किसलिए? लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकती… भले ही ऊपर से चाहे जो कुछ कहो माधवी, लेकिन तुम्हारा मन क्या कभी उसे भूला… नहीं कभी नहीं… तुम्हारी गजलों में मुखर पीड़ आखिर किस की है? फिर तुम ने उसे पहचानने से कैसे इनकार कर दिया?

‘‘चुप हो जाओ… मैं अब कुछ भी नहीं सुन सकती,’’ वह चीखते हुए रो पड़ी.

उस की चीख सुन कर अदिति जग गई. किसी तरह सम झाबु झा कर उस ने फिर से सुला दिया. लेकिन खुद न सो सकी… पुराने दिनों की यादें उस के जेहन को मथती रहीं…

रात का करीब 1 बज रहा था जब फोन की घंटी घनघना उठी. वैसे तो वह सोई नहीं थी, किंतु उस का मन फोन उठाने का नहीं था, लेकिन घंटी जब काफी देर तक बजती रही तो उसे फोन उठाना पड़ा.

‘‘हैलो, कौन?’’ उस ने पूछा.

‘‘मैं निर्मल बोल रहा हूं, उधर से खोईखोई सी आवाज आई.’’

‘‘इतनी रात गए सर… सर सब ठीक तो है न?’’ उस ने बड़ी हैरत से पूछा.

‘‘मैं जो कुछ पूछ रहा हूं सचसच बताना. क्या आप अरुण कुमार को जानती हैं?’’

उस के कानों में जैसे विस्फोट हुआ… लेकिन जल्द ही संभल कर बोली, ‘‘आज इतनी रात गए आप ये सब क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘पहले यह बताओ उसे जानती हो या नहीं?’’

‘‘हां… कभी मेरे पति हुआ करते थे,’’ ‘थे’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया.

‘‘करते नहीं थे, आज भी हैं, क्योंकि तुम दोनों का तलाक नहीं हुआ है.’’

‘‘मगर सर बात क्या है?’’

‘‘शायद अब वे जिंदा न बचें. कल जब वे तुम्हारे घर आए थे तो तुम ने दरवाजा नहीं खोला. काफी देर तक वहीं बैठे रहे, मगर दरवाजा नहीं खुला. फिर वे इसी उम्मीद में बारबार घर की तरफ देखते हुए बढ़ रहे थे. अचानक सड़क पर जा रहे एक ट्रक ने उन्हें टक्कर मार दी. वे इस वक्त शकीरा नर्सिंगहोम में जिंदगी और मौत के बीच सांसें गिन रहे हैं. डाक्टरों ने उन के बचने की आशा छोड़ दी है. वे एक बार आप से मिलना चाहते हैं.’’

‘‘मगर आप को ये सब कैसे पता चला?’’ उस की आवाज रुंध गई थी.

‘‘दरअसल, आप प्रोग्राम से बिना बताए ही रोते हुए चली गईं. फिर वे भी आप के पीछेपीछे भागे. मु झे कुछ शक हुआ, क्योंकि जब भी तुम्हारा इस नाम से सामना होता तुम बेचैन हो जाती थीं. बस इन्हीं सब बातों की याद आते ही मैं भी गाड़ी से उन के पीछे लग लिया. तुम्हारे घर के पास आ कर वे उतर गए. तब तक तुम घर के अंदर जा चुकी थीं और मैं थोड़ी दूर खड़ा प्रतीक्षा करने लगा. बाद में जब वे सड़क पर आए तो ऐक्सीडैंट हो चुका था. मैं उन्हें अपनी गाड़ी से नर्सिंगहोम ले आया. डाक्टरों का कहना है कि उन का बचना मुश्किल है.’’

‘‘मैं…मैं… अभी पहुंचती हूं,’’ रिसीवर रख दिया था उस ने.

माधवी ने एक नजर मंगलसूत्र पर डाली, जिस की एक लड़ी टूट चुकी थी. उस में जरा भी आभा न थी… अभी कुछ देर पहले तक चमकने वाला मंगलसूत्र अब कांतिहीन हो गया था. उस ने जल्दी से बेटी को जगाया… थोड़ी ही देर में गाड़ी नर्सिंगहोम की तरफ चल पड़ी.

‘‘मम्मी, इतनी रात को हम कहां जा रहे हैं?’’ बेटी ने पूछा.

‘‘तुम्हारे पापा से मिलने.’’

‘‘ झूठ…  झूठ… आप तो हमेशा कहती थीं कि पापा कहीं खो गए हैं,’’ वह जोर से चिल्लाई.

‘‘हां कहती थी, मगर आज मिल गए हैं.’’

‘‘तो क्या अब वे हमारे साथ रहेंगे?’’

‘‘हां… शायद.’’

‘‘तब तो बड़ा मजा आएगा,’’ बेटी खुश थी.

‘‘हां, लेकिन अभी चुप रहो. मेरे सिर में दर्द हो रहा है.’’

ज्यों ही वह शकीरा नर्सिंगहोम पहुंची, सामने निर्मलजी दिख गए, जो बाहर बैंच पर बैठे ऊंघ रहे थे. पदचाप की आवाज सुन कर उन्होंने आंखें खोलीं. पूछा, ‘‘आ गईं तुम… मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था.’’

ये भी पढ़ें- Valentine’s Special: अनोखी (भाग-1)

‘‘कहां हैं वे?’’ उस ने पूछा.

‘‘इमरजैंसी वार्ड में हैं… जा कर मिल लो. सामने वाला कमरा है,’’ उन्होंने इशारा किया.

वह जल्दी उस कमरे में पहुंची. बेटी भी साथ थी.

सामने बैड पर पड़े जिस्म को देख कर सिहर उठी. पूरा शरीर खून से लथपथ था. माधवी को देख कर उस ने उठना चाहा, लेकिन माधवी ने हाथ के सहारे से लिटा दिया.

‘‘यह क्या… हा… ल बना लिया तुम ने?’’ उस ने रोते हुए पूछा.

‘‘सब मेरे कर्मों का परिणाम है… जो जुल्म मैं ने तुम पर ढाए यह उन्हीं का प्रतिफल है. मु झे इस सजा पर कोई आपत्ति नहीं है. अब तो बस चंद सांसें बची हैं. मैं चाहता वे भी तुम्हारे सामने टूट जाएं,’’ बोलते हुए उस ने आह भरी.

‘‘नहीं तुम्हें कुछ नहीं होगा… मैं…मैं बचाऊंगी तुम्हें.’’

‘‘अब मु झे कोई भी नहीं बचा सकता,’’ फिर अचानक अदिति पर नजर पड़ते ही इशारे से पूछा, ‘‘यह बेटी?’’

‘‘मेरी है… गोद ली है मैं ने.’’

‘‘अच्छा किया मालती जो इसे गोद ले लिया नहीं तो… नहीं तो मेरी चिता को आग कौन देता… मैं पूरी जिंदगी इसी सोच में डूबा रहा कि मेरे मरने के बाद मेरा क्या होगा… लेकिन अब नहीं सोचना है… अब मैं आराम से मर सकता हूं,’’ कह कर उस ने अदिति की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा.

कितना सुखद एहसास था. वैसे भी मृत्यु के समय क्या अपना क्या पराया,

2

मिनट के बाद तो सबकुछ यों भी…

‘‘काश, तुम ने पहले ही मेरी बात मान ली होती तो आज हम सब साथ होते… लेकिन आज…’’ आगे के शब्द होंठों पर आतेआते दम तोड़ चुके थे.

‘‘मैं तुम्हारी नजरों में गिरना नहीं चाहता था मालती… मगर वक्त ने मु झे ऐसा गिराया कि उठने लायक भी नहीं बचा… फिर भी खुश हूं मैं… मरते वक्त ही सही तुम मेरे करीब तो आईं… मैं ने आदर्शों को अपनी रचनाओं में खूब जीया… लेकिन हकीकत में एक भी आदर्श अपनी जिंदगी में नहीं अपना सका… काश, मैं तुम्हें खुश रख सकता मालती… मैं बहुत शर्मिंदा हूं माफ करना मु झे मालती… मेरी सांसें उखड़ रही हैं…’’

माधवी जब तक कुछ सम झ पाती उस का हाथ उस के मंगलसूत्र में फंस कर नीचे आ गया, जिस के फलस्वरूप मंगलसूत्र टूट कर गिर गया.

दूसरे दिन हजारों साहित्यकारों के बीच अदिति ने उसे मुखाग्नि दी. माधवी कुछ पल चिता को निहारती रही. अचानक उसे लगा लपटें रुक गईं और उस में से एक चेहरा उभरा जो हंसते हुए उस से कह रहा था कि तुम ने मेरी आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दी जो वर्षों से मेरे मन में फांस की तरह चुभ रही थी… मेरी अधूरी कहानी पूरी हो गई मालती… अब मैं जा रहा हूं सदासदा के लिए.’’

माधवी ने अपने आंसू दुपट्टे से पोंछ डाले हमेशाहमेशा के लिए, क्योंकि उसे अदिति के लिए मुसकराना था.

ये भी पढ़ें- संपेरन: भाग-3

अधूरी कहानी: भाग-2

पिछला भाग पढ़ने के लिए- अधूरी कहानी: भाग-1

कहानी- नज्म सुभाष

आज 14 साल बाद फिर से वही नाम उस की आंखों के सामने तैर गया. इन सालों में उस ने कितने संघर्ष किए, क्याक्या परेशानियां नहीं उठाईं… सब याद है उसे. किस तरह उस ने लोगों के घर काम कर के अपना जीवन काटा. यह तो अच्छा हुआ कि उसे निर्मलजी जैसे श्रेष्ठ साहित्यकार का आशीर्वाद प्राप्त हुआ. उन्हीं की प्रेरणा से उस ने एक किताब ‘स्त्रीवजूद’ लिखी जो पूरे भारत साहित अन्य देशों में भी अनुवादित हो कर हाथोंहाथ ली गई. उस ने अपना नाम बदल कर माधवी कर लिया. पुस्तकों से प्राप्त होने वाली धनराशि से उस ने एक घर खरीदा. अनाथाश्रम से उस ने एक बेटी को गोद लिया. उस की जिंदगी में हर तरफ खुशियां ही खुशियां थीं. लेकिन आज अतीत ने जख्मों को फिर से ताजा कर दिया.

‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता… हो सकता है यह कोई दूसरा इनसान हो. आजकल तो एक नाम के कई लोग मिल जाते हैं,’ उस ने सोचा.

करीब 10 दिन बाद उस के पास निर्मलजी का फोन आया. उन्होंने उसे बताया कि साहित्यकार मंडल ने अरुण कुमार को पुरस्कार प्रदान करने के लिए तुम्हें चुना है. यह सुन कर वह अवाक रह गई. वह जिस तरह जाने से बचती है, लोग उसे उसी तरफ क्यों धकेल देते हैं… उस ने साफ मना कर दिया कि वह नहीं आ पाएगी. मगर निर्मलजी ने बताया कि यह बात लेखक को डाक द्वारा बताई जा चुकी है कि उसे पुरस्कार प्रदान करने के लिए तुम आ रही हो.

‘‘लेकिन इतना सब करने से पहले आप ने मु झ से पूछा क्यों नहीं?

‘‘अरे, यह भी कोई बात हुई… आजकल तो लोग प्रसिद्धि पाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों की फिराक में रहते हैं और एक आप हैं कि…’’

‘‘सौरी सर मैं नहीं आ सकती.’’

‘‘यानी मेरी इज्जत मिट्टी में मिलाने का पूरा इरादा है… अब तो कार्ड भी बांटे जा चुके हैं, खैर, ठीक है आप की मरजी,’’ एक लंबी सांस खींचते हुए वे बोले. उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे लंबी रेस जीतने से पहले ही वे थक गए हों.

‘‘ठीक है सर मैं आ जाऊंगी… मगर केवल पुरस्कार प्रदान करने के तुरंत बाद चली जाऊंगी.’’

निर्मलजी उस की जिंदगी में एक आदर्श की तरह थे… उसे बेटी की तरह प्यार करते थे. लिहाजा उन की बात काटने की उस में हिम्मत न थी.

शाम के 7 बज रहे थे जब निर्मलजी ने तमाम लेखकों और बुद्धिजीवियों से भरे हौल

में अरुण कुमार को पुरस्कार प्रदान करने के लिए माधवी के नाम की घोषणा की. माधवी ने ज्यों ही सम्मानित होने वाले शख्स को देखा, उस के पैर थम गए. उस शख्स ने भी एक नजर उसे देख कर अपनी नजरें  झुका लीं. उफ, वही शख्स… कितना दुखद दृश्य था वह… इसी दृश्य से तो वह बचना चाहती थी… मगर अब…

जो इनसान अब तक यह सम झता आया था कि उस से दूर होने के बाद मधुमालती ने अपना वजूद गिरवी रख दिया होगा या फिर मरखप गई होगी आज वही मधुमालती उसे पुरस्कार प्रदान करेगी और वह पुरस्कार ग्रहण करेगा… इस से बड़ा नियति का क्रूर मजाक और क्या होगा…

उस से नजरें मिलते ही अरुण कुमार का सारा अहंकार शीशे के माफिक टूट कर उस के मन में चुभने लगा. माधवी ने पुरस्कार निर्मलजी के हाथ से ले कर उसे पकड़ा दिया. औपचारिक रूप से उस ने धन्यवाद किया. किसी से कुछ कहने के बजाय वह धम्म से कुरसी पर बैठ गया. जैसे उस का सम्मान न किया गया हो, बल्कि सैकड़ों जूते मारे गए हों.

माधवी वहीं खड़ी रही. अचानक वहां बैठे साहित्यकार माधवी से अपनी पसंद की गजल सुनाने की फरमाइश करने लगे. तब तक निर्मलजी ने भी सभी साहित्यकारों का दिल रखने के लिए उसे एक छोटी सी रचना सुनाने को कह दिया.

अंदर से हूक उठ रही थी. बस मन यही कर रहा था कि वह तुरंत यहां से चली जाए. मगर निर्मलजी की बात कैसे ठुकराती. अत: उस ने माइक संभाल लिया

यों तो मेरे लब पर आई, अब तक कोई आह नहीं,

तेरी जफाओं पर चुप हूं तो इस का मतलब चाह नहीं.

तू कहता था तेरी मंजिल, नजरों में वाबस्ता है,

ये भी पढ़ें- Valentine’s Special: अनोखी (भाग-1)

सचसच कहना मेरी तरह ही, तू भी तो गुमराह नहीं.

पत झड़ का मौसम काबिज है, दिल में पूरे साल इधर,

कितनी बार कैलेंडर पलटा, उस में फागुन माह नहीं.

अश्कों का था एक समंदर, जिस के पार उतरना था,

डूब गई मैं जिस के गम में, उस को है परवाह नहीं.

तु झ से मिल कर मेरी धड़कन, बेकाबू हो जाती थी,

अब ये बर्फ सरीखे रिश्ते, मिलने का उत्साह नहीं.

जीना मुश्किल कर देती है, बेचैनी को बढ़ा कर जो,

अपनी यादें ले जा मु झ से, होगा अब निर्वाह नहीं.

आज माधवी की आवाज में दर्द का एहसास अधिक गहरा था. लोग मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहे थे. गजल खत्म होते ही हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मगर माधवी बदहवासी में  झट से मंच से उतर कर बाहर खड़ी कार में जा बैठी. सब हैरान थे.

घर पहुंचने के बाद माधवी का मन चाह रहा था कि फूटफूट कर रोए. मगर गले में जैसे

कुछ धंस गया था. वह इन्हीं खयालों में गुम थी कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘कौन है?’’ आंसू पोंछ कर  झुं झलाते हुए उस ने दरवाजे की जगह खिड़की खोल दी. सामने वही चेहरा था जिस से उसे नफरत हो चुकी थी.

‘‘तुम… अब यहां क्या करने आए हो?’’

‘‘मैं… मैं तुम से माफी मांगने आया हूं मालती.’’

‘‘कौन मालती…? मालती को तो मरे 14 साल हो चुके हैं. मैं माधवी हूं, मैं तुम्हें नहीं जानती, चले जाओ यहां से,’’ अंतिम शब्द तक आतेआते वह चीख पड़ी थी.

ये भी पढ़ें- बंटी हुई औरत: भाग-2

‘‘चला जाऊंगा, लेकिन बस… एक बार… बस एक बार कह दो कि तुम ने मु झे माफ कर दिया,’’ घुटनों के बल बैठ कर गिड़गिड़ा उठा था वह.

‘‘मैं ने कहा न मैं तुम्हें नहीं जानती… अब तुम शराफत से जाते हो या मैं शोर मचाऊं,’’ कह कर उस ने खिड़की बंद कर दी.

करीब 15 मिनट तक कोई आहट नहीं हुई. उसे लगा वह जा चुका है… अच्छा है… जब उस से कोई वास्ता नहीं तो फिर किसलिए माफी… मेरी जिंदगी नर्क बना कर आज मु झ से माफी मांगने आया है.

आगे पढ़ें  अचानक उस के मन ने उसे धिक्कारा…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें