लुकाछिपी: क्या हो पाई कियारा और अनमोल की शादी

कियारा के गेट पर पांव रखते ही वाचमैन से ले कर औफिस के हर शख्स तक की आंखें चौड़ी हो जातीं. उस के अद्वितीय सौंदर्य व आकर्षक व्यक्तित्व के आगे किसी का जोर नहीं चलता. बिना डोर के सभी कियारा की ओर स्वत: खिंचे चले आते. हरकोई बस इसी प्रयास में लगा रहता कि वह कियारा को किसी भी प्रकार से आकर्षित कर ले या किसी भी बहाने से कियारा उस से बात कर ले, लेकिन कियारा अपनी ही धुन में मस्त रहती, उसे अपने हुस्न का अंदाजा था. उस से यह बात भी छिपी नहीं थी कि पूरा औफिस उस पर लट्टू है. वह हाई हील्स पहन कर इस अदा से बल खा कर चलती कि उसे देख केवल लड़कों या पुरुषों के ही दिल नहीं बल्कि लड़कियों और महिलाओं के भी दिल डोल जाते.

देश की राजधानी दिल्ली में पलीबढ़ी कियारा खुली और स्वत्रंत विचारधारा की लड़की थी जिस की वजह से कई बार लोग उसे गलत भी सम झ लेते और उस के खुलेपन का मतलब आमंत्रण सम झ लेते. उस की यही स्वच्छंदता और उस का बेबाकपन कई बार उस के लिए आफत भी बन जाता.

पिछले 2 सालों से कियारा बैंगलुरु की मल्टीनैशनल कंपनी में बतौर असिस्टैंट मार्केटिंग मैनेजर के पद पर कार्यरत थी. वह अपने घर से दूर यहां अपनी कलीग और रूममेट सलोनी के साथ रहती थी, सलोनी नागपुर से थी. वह अपने नाम के अनुरूप देखने में सांवली थी. कियारा और सलोनी दोनों एकदूसरे के विरोधाभास थे.

कियारा जितनी चंचल, शोख, बातूनी और दिल की साफ थी, सलोनी उतनी ही शांत, गंभीर और कम बोलने वाली, लेकिन काफी चालाक और मौकापरस्त थी. यह बात कियारा उस के साथ रहते हुए जान चुकी थी, लेकिन औफिस कलीग्स और उन के परिचित इस बात से अनभिज्ञ थे.

अकसर ऐसा देखा गया है जो महिला या लड़की अपने विचारों को बिना किसी हिचकिचाहट, निडर और बेबाक तौर पर बगैर किसी लागलपेट के कहती है लोग उसे खुली तिजोरी सम झ कर उस पर हाथ साफ करने की मंशा रखते हैं. यही हाल यहां भी था. हरकोई बस कियारा को फांसने में लगा रहता.

कियारा के चाहने वालों की लंबी लिस्ट थी इस बात से सलोनी अंदर ही अंदर कियारा से चिढ़ती भी थी. कभीकभी मजाक में उस से कह भी देती कि इस औफिस में क्या पूरे शहर के लड़के तो बस तु झ पर ही मरते हैं, एकाध हमारे लिए भी तो छोड़ दे.

कियारा जानती थी कि सलोनी यह बात मजाक में नहीं कह कर रही है, यह उस के अंदर का दर्द है जिसे वह मजाक का जामा पहनाए हुए है, इसलिए कियारा खिलखिला का हंसती हुई कहती कि मेरी जान तू किसी को भी दबोच ले, मु झे कोई फर्क नहीं पड़ता और मैं ने कौन सा किसी को पकड़ रखा है. मेरा दिल तो अब तक किसी पर आया ही नहीं है, हां. यह अलग बात है कि यहां हरेक का दिल मु झ पर ही अटका हुआ है.

जब भी कियारा ये सारी बातें सलोनी से कहती, वह एक और बात उस से जरूर कहती कि जब भी मु झे किसी से प्यार हो जाएगा या जिस किसी पर भी मेरा दिल आ जाएगा, मैं शादी उसी से करूंगी.

कियारा के इस बात पर सलोनी हंसने लगती और कियारा से कहती कि देख यार मेरा मानना है प्यार, महब्बत, इश्क, घूमनाफिरना यहां तक किसी के साथ फिजिकल रिलेशन रखने में भी कोई बुराई नहीं है, लेकिन शादी हमेशा वहीं करना चाहिए जहां हमारे मम्मीपापा चाहते हैं. इस से समाज में हमारी मानप्रतिष्ठा भी बनी रहती है और जीवन में मजे भी हो जाते हैं.

सलोनी का यह विचार उस के दोहरे चरित्र को दर्शाता था. एक ओर जहां सलोनी जिंदगी के मजे खुल कर लेना चाहती थी वहीं दूसरी ओर संस्कारी होने का टैग भी अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती.

दोनों अपनेअपने सिद्धांतों और नियमों के अनुसार जी रहे थे. दोनों के विचारों में टकराव होने के बावजूद दोनों साथसाथ रहते, मूवी जाते, पार्टी करते और वीकैंड को खूब मजा भी करते. कियारा कहती मेरा तो बस यह सोचना है कि हर वह काम करो जिस में खुशी मिलती है. बस इस बात का ध्यान रखो कि हमारी खुशी से किसी को दुख न पहुंचे और किसी का भी नुकसान न हो.

दोनों यों ही अपनेअपने तरीके से जीवन का आनंद उठा रहे थे कि एक रोज लंच ब्रेक में सलोनी ने कियारा से कहा, ‘‘यार मु झे तु झ से हैल्प चाहिए, क्या तू मेरी हैल्प कर पाएगी?’’

कियारा ने बिना सोचे ही कह दिया, ‘‘तू बोल न एनी थिंग फौर यू.’’

कियारा के ऐसा कहने पर सलोनी ने उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘यार… आज मैं औफिस में सैकंड हाफ नहीं रहूंगी, मैं ने किसी से कुछ भी नहीं कहा है. अगर कोई कुछ पूछे तो तू संभाल लेना.’’

कियारा को कुछ सम झ नहीं आ रहा था कि आखिर बात क्या है. उस ने आश्चर्य से कहा, ‘‘लेकिन तू जा कहां रही है. हाफ डे ऐप्लिकेशन तो दे कर जा.’’

कागज का एक पन्ना कियारा के हाथों में थमाती हुई सलोनी बोली, ‘‘यह ले ऐप्लिकेशन अब मैं जाऊं?’’

‘‘लेकिन तू जा कहां रही है यह तो बता?’’ कियारा ने सलोनी से दोबारा कहा.

तब कियारा की दोनों हथेलियों को दबाती हुई सलोनी बोली, ‘‘वह मैं तु झे रूम पर आने के बाद बताऊंगी,’’ ऐसा कहती हुई तेजी से सलोनी वहां से निकल गई.

कियारा लंच ब्रेक के बाद अपने काम में लग गई. करीब 1 घंटे के बाद औफिस की एक कलीग ने कियारा से पूछा, ‘‘अरे कियारा सलोनी काफी देर से दिखाई नहीं दे रही है वह है कहां?’’

कियारा को कुछ सम झ नहीं आया कि वह  क्या कहे तो उस ने कह दिया, ‘‘उस की तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही थी, इसलिए घर चली गई.’’

बात आईगई हो गई. शाम को जब औफिस से कियारा रूम पर लौटी तब तक सलोनी नहीं आई थी. कियारा ने सलोनी को फोन किया, लेकिन उस का नंबर स्विच्ड औफ आ रहा था. कियारा ने हाथमुंह धो कर अपने लिए चाय बनाई और फिर चाय पीने के बाद थोड़ा आराम कर खाना बनाने में जुट गई. इस बीच वह हर थोड़ी देर के अंतराल में सलोनी को फोन करती रही. लेकिन हर बार सलोनी का फोन स्विच्ड औफ ही आ रहा था.

खाना बनाने के बाद कियारा सलोनी के इंतजार में गैलरी में जा खड़ी हुई. उस ने खाना भी नहीं खाया. रात के 11 बज रहे थे. तभी एक बाइक फ्लैट के सामने आ कर रुकी. रात के अंधेरे और स्ट्रीट लाइट की धीमी रोशनी में कियारा को कुछ साफ दिखाई नहीं दिया. बस वह इतना देख पाई कि उस बाइक से सलोनी उतरी.

सलोनी के रूम पर आते ही कियारा ने उस से कहा, ‘‘कहां चली गई थी… इतना देर कैसे हो गई?’’

सलोनी के चेहरे पर खुशी  झलक रही थी. उस ने कियारा के कांधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘चिल… यार मैं वरूण के साथ मूवी देखने गई थी और फिर वहां से वह मु झे डिनर पर ले गया इसलिए देर हो गई.’’

वरुण सुनते ही कियारा चिढ़ गई और सलोनी पर गुस्सा करती हुई बोली, ‘‘वरुण के साथ गई थी. तू पागल हो गई है क्या? वह शादीशुदा है और तू उस के साथ…’’

‘‘अरे यार कियारा तू ही तो कहती है न खुश होने का अधिकार सब को है और जिस काम को कर के खुशी मिलती है वह काम कर लेना चाहिए. तो मैं तेरा ही रूल तो फौलो कर रही हूं,’’ सलोनी बेपरवाह होती हुई बोली.

‘‘लेकिन मैं यह भी कहती हूं कि ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिस से किसी को दुख या नुकसान हो, तु झे यह बात याद नहीं,’’ कियारा थोड़ा चिढ़ती हुई बोली.

‘‘वरुण के साथ मेरे मूवी देखने से या उस के साथ डिनर करने से भला किस को दुख होने वाला है या फिर किस को नुकसान होने वाला है और तु झे क्यों बुरा लग रहा है? तेरे तो बहुत चाहने वाले हैं. तू तो जिस के साथ चाहे उस के साथ यह सब कर सकती है, लेकिन तु झे तो यह सब करना नहीं है फिर तू क्यों इतनी दुखी और परेशान हो रही है?’’ सलोनी अपने कंधे ऊंचकाती हुई बोली.

‘‘मैं परेशान इसलिए हूं क्योंकि तू ने मु झ से कहा था तू अपनी भाभी के छोटे भाई अंशु को पसंद करती है और उस से शादी करना चाहती है, फिर तू वरुण के साथ क्यों घूम रही और जरा सोच वरुण की वाइफ को पता चलेगा कि उस का पति उसे छोड़ कर तेरे साथ मूवी देखने और डिनर करने गया था तो उसे कितना दुख होगा और इस का असर उन के वैवाहिक जीवन पर भी पड़ सकता है,’’ कियारा सलोनी को सम झाती हुई बोली.

‘‘अरे यार ऐसा कुछ नहीं होगा. पहली बात तो उस की वाइफ को कभी कुछ पता ही नहीं चलेगा. मैं और वरुण रिलेशनशिप में हैं और हमारे बीच यह सब 6 महीने से चल रहा है. मेरी रूममेट हो कर तु झे कभी पता चला? औफिस में हम सब साथ रहते हैं. औफिस में अब तक किसी को पता चला? नहीं न तो उस की बीवी को कैसे पता चलेगा और कौन सी मु झे वरुण से शादी करनी है. रही बात अंशु की तो वह कभी जान ही नहीं पाएगा कि मैं यहां क्या कर रही हूं क्योंकि मैं तेरी तरह हर किसी से फ्री हो कर बात नहीं करती. मैं एक सीधी सादी कम बोलने वाली लड़की हूं.’’

सलोनी का एक और नया रूप देख कर कियारा हैरान थी. उस ने सलोनी से कुछ नहीं कहा. चुपचाप खाना खाश्स और सो गई. सुबह जब वह उठी तो उस ने देखा सलोनी दोनों के लिए चाय बना रही है. चाय बनाने के बाद दोनों ने साथ में चाय पी, लेकिन कियारा शांत रही. सलोनी चाय पीते वक्त कियारा से बात करने का प्रयास करती रही, लेकिन कियारा ने कुछ नहीं कहा.

उस के बाद वक्त पर तैयार हो कर दोनों औफिस भी आ गए. दोनों के बीच कतई असामानता थी उस के बावजूद कियारा के लिए सलोनी केवल उस की एक रूममेट नहीं उस की सहेली भी थी, जिसे वह अपने दिल की हर बात बताती, भले सलोनी उस से कई बात छिपा जाती थी. कियारा नहीं चाहती थी कि सलोनी कोई भी ऐसा काम करे जो गलत हो.

औफिस आने के बाद दोनों अपनेअपने काम में लग गईं. कियारा अपने काम में व्यस्त थी कि तभी वरुण उस के समीप आ कर बैठ गया. कियारा उसे अनदेखा कर अपने काम में लगी रही.

तभी वरुण बोला, ‘‘तुम अपनेआप को क्या सम झती हो. तुम सलोनी की लाइफ को कंट्रोल करने की कोशिश क्यों कर रही हो? वह मेरे साथ घूमे या फिर जिस के साथ चाहे उस के साथ घूमेंफिरे, तुम कौन होती हो उसे मना करने वाली? तुम खुद तो सब के साथ हंसहंस कर बातें कर सकती हो और वह मेरे साथ कहीं जा भी नहीं सकती… तुम उसे रोकनाटोकना बंद करो वरना…’’

वरुण का इतना कहना था कि कियारा  कंप्यूटर स्क्रीन पर से अपनी नजरें हटाती हुई बोली, ‘‘वरना क्या? क्या कर लोगे तुम? मु झे तुम से कोई लेनादेना नहीं है. सलोनी मेरी फ्रैंड है और उसे सहीगलत बताना मेरा फर्ज है. वह माने या न माने यह उस की मरजी. यह मेरे और उस के बीच की बात है. तुम इन सब में मत पड़ो तो अच्छा होगा वरना तुम मु झे बहुत अच्छी तरह से जानते हो, मैं अभी जोरजोर से चिल्ला कर सब को बता दूंगी कि शादीशुदा हो कर तुम्हारा अफेयर चल रहा है और तुम्हारे घर जा कर तुम्हारी बीवी को तुम्हारे सारे कारनामे बता दूंगी, फिर सोचो तुम्हारी साफसुथरी, सभ्य पुरुष की इमेज का क्या होगा जो तुम ने इस औफिस और अपने घर में बना रखी है.’’

कियारा का इतना कहना था की वरुण के माथे पर पसीना आ गया और वह चलता बना. कियारा इन 2 सालों में इतना तो जान चुकी थी कि जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है. यहां ज्यादातर लोगों के चेहरे पर मुखौटे होते हैं और मुखौटे के पीछे का असली चेहरा बिलकुल अलग.

वरुण के जाते ही सलोनी आ गई और कियारा से बोली, ‘‘यह वरुण तेरे पास क्यों आया था.’’

कियारा ने सलोनी को घूर कर देखा फिर बोली, ‘‘तेरे लिए. तू ने कल रात हमारे बीच हुई सारी बातें उसे बता जो दीं.’’

सलोनी नजरें चुराती हुई बोली, ‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है. मैं ने तो बस वरुण से इतना कहा कि तुम मु झ से बात नहीं कर रही हो,’’ फिर धीरे से सलोनी बोली, ‘‘कियारा सच बता वरुण तेरे पास क्यो आया था. कहीं तेरा और वरुण का भी…’’ कहते हुए सलोनी रुक गई.

कियारा गुस्से में बोली, ‘‘मैं तु झे कैसे सम झाऊं कि मेरा न वरुण के साथ कोई संबंध है और न ही किसी और के साथ, हां मैं मानती हूं कि मैं सब से हंस कर घुलमिल कर बात करती हूं. इस का अर्थ यह कतई नहीं है कि मेरा किसी के साथ कोई संबंध है.’’

कियारा के ऐसा कहने पर सलोनी वहां से चली गई और कियारा यह सोचने लगी कि आखिर लोगों की मानसिकता इतनी संकीर्ण क्यों है? क्यों हरकोई यह सम झ लेता है कि जो लड़की सभी से फ्रीली बात करती है, हंसती, मुसकराती है वह चालू ही होगी या अवश्य ही उस का किसी न किसी के साथ कोई संबंध होगा ही और जो कम बोलती है सब के सामने छुईमुई बनी रहती है उस का किसी से कोई संबंध हो ही नहीं सकता.

इसी तरह से हर दिन अपने पीछे एक नई कहानी गढ़ते हुए गुजर रही थी. हरकोई बस कियारा को पाना चाहता था, लेकिन कियारा किसी के हाथ नहीं आ रही थी और सलोनी कपड़ों की तरह अपने बौयफ्रैंड बदल रही थी. जब भी कोई कियारा को पाने के अपने मंसूबे में नाकामयाब होता, वह कियारा को ही भलाबुरा कहने लगता और उस में ही कई खोट निकालने लगता बिलकुल वैसे ही जैसे अंगूर को न पा कर लोमड़ी कहती फिरती कि अंगूर खट्टे हैं.

कियारा से संबंध जोड़ने में असफल हुए लड़के व पुरुष सलोनी को आजमाते और सलोनी उसे एक अवसर के रूप में लेती और उस का भरपूर आनंद उठाती. साथ ही साथ सलोनी हरेक के संग सारी हदें लांघने में भी पीछे नहीं रहती. अब कियारा भी सलोनी से कुछ कहना या उसे सम झाना छोड़ चुकी थी, लेकिन दोनों के बीच दोस्ती अब भी बरकरार थी.

अचानक एक दिन औफिस के किसी काम से कियारा को अपने ही विभाग के दूसरे अनुभाग में जाना पड़ा, जहां उस की मुलाकात अनमोल नाम के एक ऐसे शख्स से हुई जिस से मिल कर कियारा को पहली बार लगा कि उस व्यक्ति ने उसे गलत नजरों से नहीं देखा और कियारा अपना दिल उसी पल उसे दे बैठी.

कियारा अपने अनुभाग में आते ही फौरन सलोनी के पास जा पहुंची और उसे अपना हाले दिल व अनमोल के बारे में बताने लगी.

यह सुनते ही सलोनी हंसती हुई बोली, ‘‘वाऊ… आखिर तु झे भी प्यार हो ही गया. अनमोल और तु झे मिलाने में मैं तेरी मदद कर सकती हूं.’’

यह सुनते ही कियारा बोली, ‘‘प्लीज बता न कैसे?’’

तब सलोनी थोड़ा इतराती हुई बोली, ‘‘मैं अनमोल के रूममेट को जानती हूं. पहले

वह तेरा दीवाना था और आजकल मेरा है.’’

कियारा आश्चर्य से बोली, ‘‘कौन?’’

सलोनी मुसकराती हुई बोली, ‘‘अजय.’’

कियारा मुंह बनाती हुई बोली, ‘‘वह… अजय.’’

‘‘हां अजय… अजय और अनमोल रूममेट भी हैं और फ्रैंड भी. अनमोल से तो मैं उस के रूम में कई बार मिल चुकी हूं. जब भी अजय से मिलने जाती हूं अकसर मेरी मुलाकात अनमोल से होती है और अनमोल तो तु झे भी अच्छी तरह से जानता है.’’

यह सुन कर कियारा को थोड़ा अजीब सा लगा क्योंकि अनमोल से बातें करते हुए उसे एक क्षण के लिए भी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि अनमोल उसे जानता है.

वह यह सोच ही रही थी की कियारा के क्लासमेट संदीप का फोन आ गया. संदीप उस का स्कूल फ्रैंड था, उस के शहर दिल्ली से था और वह भी यहां बैंगलुरु की ही एक आईटी कंपनी में था. अकसर संदीप वीकैंड पर या फिर जब भी फ्री होता कियारा के साथ समय स्पैंड करने आ जाता या कियारा उस के पास चली जाती. दोनों के बीच इतना अच्छा तालमेल था कि लोगों को संदेह होता कि शायद संदीप और कियारा के बीच संबंध है.

कियारा के फोन रिसीव करते ही संदीप बोला, ‘‘हाय? किया क्या कर रही हो?’’

यहां बैंगलुरु में संदीप ही था जो कियारा को किया नाम से पुकारता था. उस के केवल कुछ खास दोस्त ही थे जो उसे किया पुकारते थे. उन में से एक संदीप भी था.

‘‘कुछ नहीं बस औफिस में हूं.’’

‘‘आज शाम मैं फ्री हूं डिनर पर चलोगी? बहुत दिनों से हम ने साथ डिनर नहीं किया है,’’ संदीप खुश होते हुए बोला.

कियारा डिनर के लिए मना कर देना चाहती थी क्योंकि उस का मन विचलित था, लेकिन वह संदीप को दुखी नहीं करना चाहती थी इसलिए बोली, ‘‘हां ठीक है. कहो मु झे कहां आना है?’’

‘‘अरे यार तुम्हें कहीं आने की जरूरत नहीं. मैं आ जाऊंगा तु झे लेने फिर साथ चलेंगे,’’ संदीप आत्मीयता और अपना पूरा हक जताते हुए बोला.

‘‘ओके आई विल वेट,’’ कह कर कियारा ने फोन रख दिया.

कियारा के फोन रखते ही सलोनी शरारती अंदाज में मुसकराती हुई बोली, ‘‘संदीप का फोन था?’’

कियारा के हां कहने पर सलोनी उसे छेड़ती हुई बोली, ‘‘क्या बात है कहां चलने को कह रहा है हीरो… तेरी तो ऐश है यार, संदीप जैसा हैंडसम लड़का भी तु झ पर ही मरता है और मु झ से ठीक से बात भी नहीं करता.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है वी आर जस्ट ए गुड फ्रैंड. तू भी साथ चलना… मजा आएगा.’’

डेढ़ साल पहले जब सलोनी संदीप से मिली थी तब से वह संदीप को आकर्षित करने का प्रयास कर रही थी, लेकिन विफल ही रही. उसे इस बात से बहुत चिढ़ है कि संदीप का ध्यान केवल कियारा की ओर ही रहता है, लेकिन उस ने कभी कियारा को इस बात का आभास नहीं होने दिया.

‘‘ठीक है तू कह रही है तो मैं भी चलती हूं वरना संदीप के साथ कहीं जाना मु झे पसंद नहीं.’’

सलोनी के ऐसा कहने पर कियारा ने कोई जवाब नहीं दिया और फिर दोनों अपनेअपने काम में लग गईं.

शाम को औफिस से लौटने के बाद कियारा डिनर पर जाने के लिए तैयार होने लगी.

तभी उस ने देखा सलोनी हैडफोन लगा कर शांत बैठी हुई है. यह देख कियारा ने कहा, ‘‘अरे संदीप आने ही वाला है तू रैडी कब होगी?’’

‘‘नहीं मैं नहीं चल रही, मेरा मन नहीं कर रहा. तुम जाओ मेरी वजह से तुम अपना प्रोग्राम ड्राप मत करो,’’ सलोनी गंभीर होती हुई बोली.

‘‘क्या हुआ? कुछ है तो बता न मैं संदीप को डिनर के लिए मना कर दूंगी,’’ कियारा बोली.

‘‘अरे कुछ नहीं तू जा न… आई विल मैनेज,’’ सलोनी के ऐसा कहने पर कियारा अकेले ही संदीप के साथ डिनर पर चली गई.

जब वह डिनर से लौटी तो उस ने देखा सलोनी काफी खुश लग रही थी. कियारा को कुछ सम झ नहीं आया कि आखिर इन 2 घंटों में ऐसी क्या बात हो गई जो शांत उदास सलोनी अचानक इतनी खुश लग रही है. कियारा उस से यह जानना चाहती थी लेकिन चुप रही.

अगले दिन औफिस में अभी कियारा ने अपना डैस्कटौप खोला ही था कि वहां अनमोल आ गया. अनमोल को देखते ही सलोनी की धड़कनें तेज हो गईं. ऐसा पहली बार हुआ था

जब कियारा का दिल किसी के लिए इतना अधीर हुए जा रहा था. कियारा अपनी सीट से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘अनमोल तुम? कहो कुछ काम है?’’

अनमोल ने सपाट सा जवाब दिया, ‘‘नहीं बस यों ही तुम से मिलने आ गया.’’

यह सुनते ही कियारा के आंखों में चमक आ गई और औफिस के बाकी लोगों के कान खड़े हो गए, कियारा थोड़ा हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘ प्लीज हेव ए सीट.’’

कियारा के ऐसा कहते ही अनमोल बैठ गया और थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच गहरी शांति ने स्थान ले लिया जिसे तोड़ते हुए अनमोल ने कहा, ‘‘कियारा कल रात मैं तुम से मिलने तुम्हारे फ्लैट पर आने वाला हूं यह जानते हुए भी तुम किसी संदीप के साथ डिनर पर चली गई, अगर तुम्हें मु झ से नहीं मिलना था तो फोन कर के मु झे बता भी सकती थी. सलोनी के पास तो मेरा और मेरे रूममेट अजय हम दोनों का नंबर है, लेकिन तुम इस तरह बिना बताए.

कियारा बीच में ही अनमोल को रोकती हुई बोली, ‘‘एक मिनट. एक मिनट. तुम ने मु झ से कब कहा कि तुम मु झ से मिलने आ रहे हो?’’

‘‘अरे… मैं ने सलोनी से फोन कर के कहा तो था कि मैं आ रहा हूं… तुम्हारा मोबाइल नंबर मेरे पास नहीं था, इसलिए मैं ने सलोनी से कहा था,’’ अनमोल थोड़ा हैरान होते हुए बोला.

कियारा को बात सम झने में देर नहीं लगी कि कल सलोनी उन के साथ डिनर पर क्यों नहीं गई और वह इतनी खुश क्यों लग रही थी.

कियारा के चेहरे पर दुख के भाव आ गए और वह बोली, ‘‘आई एम सौरी अनमोल मु झे नहीं पता था तुम आने वाले हो, सलोनी मु झे बताना भूल गई होगी.’’

अनमोल मुसकराते हुए बोला, ‘‘इट्स ओके अच्छा अब मैं चलता हूं.’’

अनमोल जैसे ही जाने लगा कियारा ने कहा ‘‘अनमोल फिर कभी आना हो तो…’’ ऐसा कहते हुए एक कागज का टुकड़ा उस की ओर बढ़ा दिया, जिस पर उस का फोन नंबर लिखा था. उस के बाद क्या था अनमोल और कियारा की प्यार की गाड़ी सुपरफास्ट ऐक्सप्रैस की तरह दौड़ने लगी. औफिस में भी अफसाने बनने लगे. किसी को कुछ सम झ नहीं आ रहा था. सभी के सम झ से परे थी यह बात कि आखिर किस का रिश्ता किस के साथ है.

कियारा का रिश्ता संदीप के संग है या अनमोल के संग, सलोनी कभी अजय के साथ नजर आती तो कभी अनमोल के साथ, लोगों को यह अंदाजा लगाना मुश्किल था. आखिर इन सभी पांचों में किस का संबंध किस के साथ. कियारा पहले की ही तरह संदीप के साथ आउटिंग पर जाती उस के साथ मूवी जाती और कभीकभी डिनर पर भी जाती, लेकिन जब संदीप और कियारा साथ जाते उन के साथ कोई तीसरा नहीं होता क्योंकि कोई भी संदीप के साथ कहीं जाना पसंद नहीं करता, लेकिन जब कियारा अनमोल के साथ कहीं जाती संदीप को छोड़ कर सलोनी और अजय भी साथ होते.

अनमोल को पा कर कियारा बेहद खुश थी. वह अनमोल में कुछ इस तरह डूबी हुई थी कि उस ने अपना सबकुछ अनमोल पर लुटा दिया. अपनेआप को अनमोल को समर्पित दिया. अनमोल के प्यार में कियारा इस कद्र अंधी थी कि उसे अनमोल के आगे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था. वह यह भी देखने को तैयार नहीं थी कि संदीप भी उस से बेइंतहा मुहब्बत करता है, लेकिन यह बात अनमोल भाप चुका था और यही वजह थी कि कियारा का संदीप से मिलना उसे पसंद नहीं था.

अकसर वीकैंड पर कियारा अनमोल के फ्लैट में रात रुक जाती या जब

भी अजय नहीं होता वह अनमोल के साथ ही रातें गुजारती. अब कियारा जल्द से जल्द अनमोल के संग ब्याह के बंधन में बंध कर अपना घर बसाना चाहती थी, इसलिए एक रात जब वह अनमोल की बांहों में अपना सिर रख कर लेटी हुई थी तो उस ने अनमोल से कहा, ‘‘अनमोल अब हमें शादी कर लेनी चाहिए.’’

यह सुनते ही अनमोल कियारा के लबों पर अपने प्यार की निशानी अंकित करते हुए बोला, ‘‘माई डियर मैं भी यही सोच रहा हूं कोई तुम्हें उड़ा कर ले जाए, उस से पहले मैं तुम्हें उड़ा ले जाऊं.’’

उस के बाद अनमोल और कियारा ने अपने घर वालों के समक्ष अपनी शादी की इच्छा जाहिर की और दोनों के ही परिवार वाले भी इस शादी के लिए सहर्ष तैयार हो गए क्योंकि दोनों एक ही बिरादरी से थे और दोनों का सामाजिक स्तर भी बराबरी का था. कुछ ही हफ्तों बाद अनमोल और कियारा की सगाई हो गई और औफिस में चल रही सारी अठखेलियां कियारा और अनमोल के सगाई के बाद समाप्त हो गईं.

सलोनी की शादी भी उस की भाभी के छोटे भाई अंशु से फिक्स हो गई. यों लग रहा था जैसे सबकुछ सही हो गया है. सभी के सपनों को पंख मिल गए थे और सभी ऊंची उड़ान भरने लगे थे, लेकिन जिंदगी जितनी सरल दिखती है उतनी आसान होती कहां है. अभी जिंदगी को अपना एक अलग ही रंग दिखाना बाकी था.

तभी एक दिन कियारा किसी से कुछ भी बताए बगैर अनमोल के फ्लैट में जा पहुंची. सगाई के बाद से अनमोल के फ्लैट की एक चाबी कियारा के पास भी थी. फ्लैट पहुंच कर जैसे ही उस ने दरवाजा खोला और कियारा की आंखों ने जो देखा उसे देख कियारा को अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ. सलोनी को अनमोल की बांहों में देख कियारा स्तब्ध रह गई. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि सलोनी और अनमोल उस के साथ ऐसा करेंगे. वह जानती थी कि सलोनी हर हफ्ते बौयफ्रैंड बदलती है, लेकिन वह यह नहीं जानती थी कि अनमोल और सलोनी उस की पीठ पीछे लुकाछिपी का ऐसा गंदा खेल खेल रहे हैं. वह सम झती थी कि अजय और सलोनी के बीच में कुछ है शायद इसलिए सलोनी बारबार अनमोल के फ्लैट में अजय से मिलने जाती है. उसे तो कभी भनक तक नहीं लगी कि सलोनी और अनमोल उसे धोखा दे रहे हैं.

अनमोल और सलोनी के बीच का यह दृश्य देखने के बाद कियारा वहां से उलटे पांव अपने फ्लैट पर लौट आई. यह देख अनमोल और सलोनी भी उस के पीछे भागते हुए आए.

अनमोल अपनी सफाई देते हुए बोला, ‘‘देखो कियारा मैं और सलोनी

केवल फिजिकल रिलेशनशिप में हैं और कुछ नहीं, मैं  शादी सिर्फ और सिर्फ तुम से ही करना चाहता हूं और केवल तुम से ही करूंगा, किसी और से नहीं.’’

तभी सलोनी बोली, ‘‘हां कियारा मेरे और अनमोल के बीच में कुछ नहीं है. मेरा अजय और अनमोल के साथ एकजैसा ही रिलेशन है. तू तो जानती है न मेरा ऐसा रिलेशन कितनों के साथ रहा है. मैं ने तु झ से कहा भी था कि मैं किसी के साथ भी रिलेशनशिप में रहूं पर शादी अपनी कास्ट, अपनी बिरादरी के लड़के से ही करूंगी और तु झे भी ऐसा ही करना चाहिए. मु झे देख इतनों के साथ रिलेशन में होने के बावजूद मैं शादी तो अंशु से ही कर रही हूं.’’

यह सब चल ही रहा था कि संदीप भी वहां आ गया. संदीप को देखते ही कियारा उस से लिपट गई. यह देख अनमोल का पारा चढ़ गया और वह कियारा को संदीप से अलग करते हुए बोला, ‘‘ये सब क्या है कियारा? जब तक हमारी सगाई नहीं हुई थी, तब तक तुम्हारा इस संदीप के संग बेतकल्लुफ  होना मैं बरदाश्त कर सकता था, लेकिन अब ये सब नहीं चलेगा.’’

अनमोल का इतना कहना था कि कियारा की आंखों में खून खौल गया और बोली, ‘‘तुम सगाई के बाद किसी और लड़की से हमबिस्तर हो सकते हो और मैं अपने दोस्त के गले भी नहीं लग सकती?’’

अनमोल गुस्से में बोला, ‘‘नहीं, अब तुम मेरी होने वाली पत्नी हो और मैं किसी भी हाल

में नहीं चाहूंगा तुम इस संदीप के साथ कोई

रिश्ता रखो.’’

यह सुनते ही कियारा संदीप की ओर देखने लगी. आज पहली बार संदीप की आंखों में

कियारा अपने लिए प्यार देख पाई थी. कियारा थोड़ी देर चुप रही फिर बोली, ‘‘अनमोल अभी हमारी शादी हुई नहीं है और शादी से पहले मेरी एक शर्त है.’’

अनमोल ने कहा, ‘‘कैसी शर्त?’’

संदीप और सलोनी आश्चर्य से कियारा को देखने लगे. तभी कियारा बोली, ‘‘मैं शादी से पहले एक रात संदीप के साथ अकेले गुजारना चाहती हूं.’’

कियारा का इतना कहना था कि सभी की भौंहें तन गईं. कियारा को  झं झोड़ते हुए संदीप बोला, ‘‘पागल हो गई हो क्या? कुछ भी बोल रही हो…’’

तभी अनमोल बोला, ‘‘यह कैसी बेकार की शर्त

है. यह नहीं हो सकता. मेरी होने वाली बीवी किसी

पराए मर्द के साथ रात नहीं गुजार सकती.’’

‘‘मेरा होने वाला पति अगर पराई लड़की के साथ रात गुजार सकता है तो मैं क्यों नहीं? यदि शादी होगी तो इसी शर्त पर होगी नहीं तो नहीं होगी,’’ कहते हुए कियारा ने अपनी उंगली पर पहनी सगाई की अंगूठी निकाल कर अनमोल को थमा दी.

अनमोल ने फिर आगे कुछ नहीं कहा क्योंकि उसे यह शर्त मंजूर नहीं थी. वह कियारा को छोड़ सकता था, इस शादी को भी तोड़ सकता था, लेकिन एक ऐसी लड़की से शादी करने को तैयार नहीं था जो एक रात किसी दूसरे लड़के के साथ गुजार कर आई हो. अनमोल ने शर्त मानने से मना कर दिया.

तभी कियारा बोली, ‘‘हर लड़का एक ऐसी लड़की से शादी करना चाहता है जो लड़की जिस्मानी तौर पर पाक साफ हो, चाहे उस का खुद का कितनी भी लड़कियों के साथ जिस्मानी संबंध क्यों न हो. एक लड़की कई लड़कों से संबंध रखने के बाद शादी अपनी ही जातबिरादरी और धर्म में करना चाहती है ताकि समाज में उस की मानप्रतिष्ठा बनी रहे यह कैसी दोहरी मानसिकता है? यह कैसी सोच है? मु झे इस दोहरी सोच का हिस्सा नहीं बनना.

कियारा की शर्तों पर अनमोल ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया.

तभी संदीप बोला, ‘‘कियारा अनमोल सच कह रहा है, मैं ने आज तक तुम से यह

बात छिपाई कि मैं तुम से प्यार करता हूं. आज तुम यह बात जान चुकी हो, इसलिए पूछ रहा हूं क्या तुम एक विजातीय लड़के के संग यानी मेरे संग शादी करना चाहोगी?’’

संदीप के ऐसा कहते ही कियारा बोली, ‘‘संदीप क्या तुम यह जानते हुए भी मु झ से शादी करना चाहोगे कि मैं ने अपनी कई रातें अनमोल के साथ गुजारी हैं और मैं पाक साफ नहीं हूं?’’

‘‘प्यार तो बस प्यार होता है कियारा इस में किस ने किस के साथ रात गुजारी है यह नहीं देखा जाता, तुम ने किस के साथ कितनी रातें गुजारी हैं इस से मु झे कोई फर्क नहीं पड़ता. मन की पवित्रता ही सब से बड़ी पवित्रता है और मैं यह बहुत अच्छी तरह से जानता हूं कि तुम दिल से पाक साफ हो, पवित्र हो और अपने जीवनसाथी के प्रति सदा ईमानदार थी और रहोगी. मु झे और क्या चाहिए,’’ ऐसा कहते हुए संदीप ने अपना हाथ कियारा की ओर बढ़ा दिया और कियारा ने बिना देर किए उस का हाथ थाम लिया. उस के बाद दोनों एकदूसरे की बांहों को थामे वहां से निकल गए. अनमोल और सलोनी उन्हें जाते हुए देखते रहे.

खुली छत: कैसे पतिपत्नी को करीब ले आई घर की छत

रमेश का घर ऐसे इलाके में था जहां हमेशा ही बिजली रहती थी. इसी इलाके में राजनीति से जुड़े बड़ेबड़े नेताओं के घर जो थे. पिछले 20 सालों से रमेश अपने इसी फ्लैट में रह रहा है. 15 वर्ष मातापिता साथ थे और अब 5 वर्षों से वह अपनी पत्नी नीना के साथ था. उन का फ्लैट बड़ा था और साथ ही 1 हजार फुट का खुला क्षेत्र भी उन के पास था.

7वीं मंजिल पर उन के पास इतनी खुली जगह थी कि लोग ईर्ष्या कर उठते थे कि उन के पास इतनी ज्यादा जगह है.

रमेश के पिता का बचपन गांव में बीता था और उन्हें खुली जगह बहुत अच्छी लगती थी. रिटायर होने से पहले उन्होंने इसी फ्लैट को चुना था, क्योंकि इस में उन के हिस्से इतना बड़ा खुला क्षेत्र भी था. दोस्तों और रिश्तेदारों ने उन्हें समझाया था कि इस उम्र में 7वीं मंजिल पर घर लेना ठीक नहीं है. यदि कहीं लिफ्ट खराब हो गई तो बुढ़ापे में क्या करोगे पर उन्होंने किसी की भी नहीं सुनी थी और 1 लाख रुपए अधिक दे कर यह फ्लैट खरीद लिया था.

पत्नी ने भी शिकायत की थी कि अब बुढ़ापे में इतनी बड़ी जगह की सफाई करना उन के बस की बात नहीं है. नौकरानियां तो उस जगह को देख कर ही सीधेसीधे 100 रुपए पगार बढ़ा देतीं. पर गोपाल प्रसाद बहुत प्रसन्न रहते. उन की सुबह और शामें उसी खुली छत पर बीततीं. सुबह का सूर्योदय, शाम का पहला तारा, पूर्णिमा का पूरा चांद, अमावस्या की घनेरी रात और बरसात की रिमझिम फुहारें उन्हें रोमांचित कर जातीं.

उस छत पर उन्होंने एक छोटा सा बगीचा भी बना लिया था. उन के पास 50 के करीब गमले थे, जिस में  तुलसी, पुदीना, हरी मिर्च, टमाटर, रजनीगंधा, बेला, गुलाब और गेंदा आदि सभी तरह के पौधे लगा रखे थे. हर पेड़पौधे से उन की दोस्ती थी. जब वह उन को पानी देते तो उन से मन ही मन बातें भी करते जाते थे. यदि किसी पौधे को मुरझाया हुआ देखते तो बड़े प्यार से उसे सहलाते और दूसरे दिन ही वह पौधा लहलहा उठता था. वह जानते थे कि प्यार की भाषा को सब जानते हैं.

मातापिता के गुजर जाने के बाद से घर की वह छत उपेक्षित हो गई थी. रमेश और नीना दोनों ही नौकरी करते थे. सुबह घर से निकलते तो रात को ही घर लौटते. ऐसे में उन के पास समय की इतनी कमी थी कि उन्होंने कभी छत वाला दरवाजा भी नहीं खोला. गमलों के पेड़पौधे सभी समाप्त हो चुके थे. साल में एक बार ही छत की ठीक से सफाई होती. उन का जीवन तो ड्राइंगरूम तक ही सिमट चुका था. छुट्टी वाले दिन यदि यारदोस्त आते तो बस, ड्राइंगरूम तक ही सीमित रहते. छत वाले दरवाजे पर भी इतना मोटा परदा लटका दिया था कि किसी को भी पता नहीं चलता कि इस परदे के पीछे कितनी खुली जगह है.

नीना भी पूरी तरह से शहरी माहौल में पली थी, इसलिए उसे कभी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि उस के ससुर उन के लिए कितना अमूल्य खजाना छोड़ गए हैं. काम की व्यस्तता में दोनों ने परिवार को बढ़ाने की बात भी नहीं सोची थी पर अब जब रमेश को 40वां साल लगा और उसे अपने बालों में सफेदी झलकती दिखाई देने लगी तो उस ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया. अब नीना भी उस से सहमत थी, पर अब वक्त उन का साथ नहीं दे रहा था. नीना को गर्भ ठहर ही नहीं रहा था. डाक्टरों के भी दोनों ने बहुत चक्कर लगा लिए. काफी दवाएं खाईं. डी.एम.सी. कराई. स्पर्म काउंट कराया. काम के टेंशन के साथ अब एक नया टेंशन और जुड़ गया था. दोनों की मेडिकल रिपोर्ट ठीक थी फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी. अब उन के डाक्टरों की एक ही सलाह थी कि आप दोनों तनाव में रहना छोड़ दें. आप दोनों के दिमाग में बच्चे की बात को ले कर जो तनाव चल रहा है वह भी एक मुख्य कारण हो सकता है आप की इच्छा पूरी न होने का.

इस मानसिक तनाव को दूर कैसे किया जाए? इस सवाल पर सब ओर से सलाह आती कि मशीनी जिंदगी से बाहर निकल कर प्रकृति की ओर जाओ. अपनी रोजमर्रा की पाबंदियों से निकल कर मुक्त सांस लेना सीखो. कुछ व्यायाम करो, प्रकृति के नजदीक जाओ आदि. लोगों की सलाह सुन कर भी उन दोनों की समझ में नहीं आता था कि इन पर अमल कैसे किया जाए.

इसी तरह की तनाव भरी जिंदगी में वह रात उन के लिए एक नया संदेश ले कर आई. हुआ यों कि रात को 1 बजे अचानक ही बिजली चली गई. ऐसा पहली बार हुआ था. ऐसी स्थिति से निबटने के लिए वे दोनों पतिपत्नी तैयार नहीं थे, अब बिना ए.सी. और पंखे के बंद कमरे में दोनों का दम घुटने लगा. रमेश उठा और अपने मोबाइल फोन की रोशनी के सहारे छत के दरवाजे के ताले की चाबी ढूंढ़ी और दरवाजा खोला. छत पर आते ही जैसे सबकुछ बदल गया.

खुली छत पर मंदमंद हवा के बीच चांदनी छिटकी हुई थी. आधा चंद्रमा आकाश के बीचोंबीच मुसकरा रहा था. रमेश अपनी दरी बिछा कर सो गया. उस ने अपनी खुली आंखों से आकाश को, चांद को और तारों को निहारा. आज 20-25 वर्षों बाद वह ऐसे खुले आकाश के नीचे लेटा था. वह तो यह भी भूल चुका था कि छिटकी हुई चांदनी में आकाश और धरती कैसे नजर आते हैं.

बिजली जाने के कारण ए.सी. और पंखों की आवाज भी बंद थी. चारों ओर खामोशी छाई हुई थी. उसे अपनी सांस भी सुनाई देने लगी थी. अपनी सांस की आवाज सुननेके लिए ही वह आतुर हो उठा. रमेश को लगा, जिन सांसों के कारण वह जीवित है उन्हीं सांसों से वह कितना अपरिचित है. इन्हीं विचारों में भटकतेभटकते उसे लगा कि शायद इसे ही ध्यान लगाना कहते हैं.

उस के अंदर आनंद का इतना विस्तार हो उठा कि उस ने नीना को पुकारा. नीना अनमने मन से बाहर आई और रमेश के साथ उसी दरी पर लेट गई. रमेश ने उस का ध्यान प्रकृति की इस सुंदरता की ओर खींचा. नीना तो आज तक खुले आकाश के नीचे लेटी ही नहीं थी. वह तो यह भी नहीं जानती थी कि चांदनी इतनी धवल भी होती है और आकाश इतना विशाल. अपने फ्लैट की खिड़की से जितना आकाश उसे नजर आता था बस, उसी परिधि से वह परिचित थी.

रात के सन्नाटे में नीना ने भी अपनी सांसों की आवाज को सुना, अपने दिल की धड़कन को सुना, बरसती शबनम को महसूस किया और रमेश के शांत चित्त वाले बदन को महसूस किया. उस ने महसूस किया कि तनाव वाले शरीर का स्पर्श कैसा अजीब होता है और शांत चित्त वाले शरीर का स्पंदन कैसा कोमल होता है. दोनों को मानो अनायास ही तनाव से छुटकारा पाने का मंत्र हाथ लग गया.

वह रात दोनों ने आंखों ही आंखों में बिताई. रमेश ने मन ही मन अपने पिता को इस अनमोल खजाने के लिए धन्यवाद दिया. आज पिता के साथ गुजारी वे सारी रातें उसे याद हो आईं जब वह गांव में अपने पिता के साथ लेट कर सुंदरता का आनंद लेता था. पिता और दादा उसे तारों की भी जानकारी देते जाते थे कि उत्तर में वह ध्रुवतारा है और वे सप्तऋषि हैं और  यह तारा जब चांद के पास होता है तो सुबह के 3 बजते हैं और भोर का तारा 4 बजे नजर आता है. आज उस ने फिर से वर्षों बाद न केवल खुद भोर का तारा देखा बल्कि पत्नी नीना को भी दिखाया.

प्रकृति का आनंद लेतेलेते कब उन की आंख लगी वे नहीं जान पाए पर सुबह सूर्यदेव की लालिमा ने उन्हें जगा दिया था. 1 घंटे की नींद ले कर ही वे ऐसे तरोताजा हो कर उठे मानो उन में नए प्राण आ गए हों.

अब तो तनावमुक्त होने की कुंजी उन के हाथ लग गई. उसी दिन उन्होंने छत को धोपोंछ कर नया जैसा बना दिया. गमलों को फिर से ठीक किया और उन में नएनए पौधे रोप दिए. बेला का एक बड़ा सा पौधा लगा दिया. रमेश तो अपने अतीत से ऐसा जुड़ा कि आफिस से 15 दिन की छुट्टी ले बैठा. अब उन की हर रात छत पर बीतने लगी. जब अमावस्या आई और रात का अंधेरा गहरा गया, उस रात को असंख्य टिमटिमाते तारों के प्रकाश में उस का मनमयूर नाच उठा.

धीरेधीरे नीना भी प्रकृति की इस छटा से परिचित हो चुकी थी और वह भी उन का आनंद उठाने लगी थी. उस ने  भी आफिस से छुट्टी ले ली थी. दोनों पतिपत्नी मानो एक नया जीवन पा गए थे. बिना एक भी शब्द बोले दोनों प्रकृति के आनंद में डूबे रहते. आफिस से छुट्टी लेने के कारण अब समय की भी कोई पाबंदी उन पर नहीं थी.

सुबह साढ़े 4 बजे ही पक्षियों का कलरव सुन कर उन की नींद खुल जाती. भोर के टिमटिमाते तारों को वे खुली आंखों से विदा करते और सूर्य की अरुण लालिमा का स्वागत करते. भोर के मदमस्त आलम में व्यायाम करते. उन के जीवन में एक नई चेतना भर गई थी.

छत के पक्के फर्श पर सोने से दोनों की पीठ का दर्द भी गायब हो चुका था अन्यथा दिन भर कंप्यूटर पर बैठ कर और रात को मुलायम गद्दों पर सोने से दोनों की पीठ में दर्द की शिकायत रहने लगी थी. अनायास ही शरीर को स्वस्थ रखने का गुर भी वे सीख गए थे.

ऐसी ही एक चांदनी रात की दूधिया चांदनी में जब उन के द्वारा रोपे गए बेला के फूल अपनी मादक गंध बिखेर रहे थे, उन दोनों के शरीर के जलतत्त्व ने ऊंची छलांग मारी और एक अनोखी मस्ती के बाद उन के शरीरों का उफान शांत हो गया तो दोनों नींद के गहरे आगोश में खो गए थे. सुबह जब वे उठे तो एक अजीब सा नशा दोनों पर छाया हुआ था. उस आनंद को वे केवल अनुभव कर सकते थे, शब्दों में उस का वर्णन हो ही नहीं सकता था.

अब उन की छुट्टियां खत्म हो गई थीं और उन्होंने अपनेअपने आफिस जाना शुरू कर दिया था. फिर से वही दिनचर्या शुरू हो गई थी पर अब आफिस से आने के बाद वे खुली छत पर टहलने जरूर जाते थे. दिन हफ्तों के बाद महीनों में बीते तो नीना ने उबकाइयां लेनी शुरू कर दीं. रमेश पत्नी को ले कर फौरन डाक्टर के पास दौड़े. परीक्षण हुआ. परिणाम जान कर वे पुलकित हो उठे थे. घर जा कर उसी खुली छत पर बैठ कर दोनों ने मन ही मन अपने पिता को धन्यवाद दिया था.

पिता की दी हुई छत ने उन्हें आज वह प्रसाद दिया था जिसे पाने के लिए वह वर्षों से तड़प रहे थे. यही छत उन्हें प्रकृति के निकट ले आई थी. इसी छत ने उन्हें तनावमुक्त होना सिखाया था. इसी छत ने उन्हें स्वयं से, अपनी सांसों से परिचित करवाया था. वह छत जैसे उन की कर्मस्थली बन गई थी. रमेश ने मन ही मन सोचा कि यदि बेटी होगी तो वह उस का नाम बेला रखेगा और नीना ने मन ही मन सोचा कि अगर बेटा हुआ तो उस का नाम अंबर रखेगी, क्योंकि खुली छत पर अंबर के नीचे उसे यह उपहार मिला था.

टेढ़ीमेढ़ी डगर: सुमोना ने कैसे सिखाया पति को सबक

लेखिका- नीलम राकेश

सुमोना रोरो कर अब शांत हो चुकी थी. आज फिर विक्रांत ने उस पर हाथ उठाया था और फिर धक्का दे कर व बुरीबुरी गालियां देता हुआ घर से बाहर चला गया था. 5 वर्षीय पिंकी और 4 वर्षीय पंकज हिचकियों के साथ रोते हुए उस से चिपके हुए थे. तीनों के आंसू मिल कर एक हो रहे थे. अब यह सब आएदिन की बात हो गई थी.

सुमोना सोच रही थी कि कौन कहेगा कि वे दोनों पढ़ेलिखे संपन्न परिवारों से हैं. दोनों के ही परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से समाज में अच्छी हैसियत रखते थे. कहने को तो उन का प्रेम विवाह था. सजातीय होने के कारण और शायद परिजनों के खुले हुए विचारों का होने के कारण भी उन्हें विवाह में कोई अड़चन नहीं आई थी. सभी की रजामंदी से, बहुत धूमधड़ाके के साथ उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ था. दोनों के ही मातापिता ने किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी थी. बल्कि अगर यह कहें कि कुछ जरूरत से ज्यादा ही दिखावा किया गया था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

शादी के थोड़े दिनों बाद ही विक्रांत का यह रूप उस के सामने आ गया था. सुमोना चौंकी जरूर थी. दोनों ने एकसाथ एमबीए किया था. सुमोना अपने बैच की टौपर थी. पूरा जोर लगाने के बाद भी विक्रांत कक्षा में दूसरे स्थान पर ही रहता था. दोनों के बीच एक स्वस्थ स्पर्धा रहती थी.

विक्रांत का दोस्त अंगद अकसर कहता था, “अच्छा है तुम दोनों एकदूसरे को डेट नहीं कर रहे हो. नहीं तो एकदूसरे का सिर ही फोड़ देते.”

पल्लवी हंसते हुए उस में जोड़ती, “और कहीं यह दोनों शादी कर लेते तो एकदूसरे का गला ही दबा देते,” सब खिलखिला कर हंस पड़ते और बात हवा में उड़ जाती.

पता नहीं साथियों के कहने का असर था या क्या, धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षण महसूस करने लगे और जब विक्रांत पर प्रेम का भूत चढ़ा तो वह इतना अधिक रोमांटिक हो गया कि खुद सुमोना को ही विश्वास नहीं होता कि यह वही अकड़ू, गुस्सैल विक्रांत है. सहेलियां भी सुमोना से जलने लगीं. विक्रांत हर दिन सुमोना के लिए कुछ न कुछ सरप्राइज प्लान करता और सब देखते रह जाते. विक्रांत कभी भी कुछ छिपा कर नहीं करता सबकुछ सब के सामने खुलाखुला.

दोस्त कहते, “शादी के बाद विक्रांत तो जोरू का गुलाम बन जाएगा,”
विक्रांत हंस कर जवाब देता, “हां भाई बन जाऊंगा. तुम्हारे पेट में क्यों दर्द होता है? तुम भी बन जाना पर अपनी बीवी के मेरी नहीं,” और चारों ओर जलन भरी खिलखिलाहट बिखर जाती.

सुमोना को खुद भी विक्रांत का यह रूप बहुत भाता था. वह तो खुशियों के सतरंगे आकाश में विचरण कर रही थी मगर कहां जानती थी कि कुदरत उसे अंधेरे की गहरी खाई की ओर ले जा रहा है.

पहला झटका सुमोना को शादी के बाद दूसरे महीने में ही लगा था. मात्र 15 दिनों के हनीमून ट्रिप से जब दोनों लौटे थे, 1 हफ्ता तो घर से बाहर ही नहीं निकले और विक्रांत तो जैसे चकोर की तरह उसे निहारता ही रहता था.

जौइंट फैमिली थी. घर में सासससुर के साथ जेठजेठानी भी थे पर जैसे विक्रांत को कोई फर्क ही नहीं पड़ता था. जेठानी जरूर इस बात पर ताना मारती रहती थी. वह एकांत में विक्रांत को समझाती तो वह कहता, “जो जलता है, उसे जलने दो.”

उस रात नई बहू के स्वागत में विक्रांत के चाचा ने पूरे परिवार को खाने पर बुलाया था. बहुत चाव से सजधज कर जब वह तैयार हुई और विक्रांत के सामने आई तो विक्रांत के चेहरे पर बल पड़ गया, “यह क्या पहना है तुम ने?”

“क्यों क्या हुआ? अच्छा तो है,” शीशे में खुद को निहारते हुए उस ने पूछा.

“ब्लाउज का इतना गहरा गला किस को दिखाना चाहती हो?”

आहत हुई थी सुमोना, पर खुद को संभाल कर बोली, “अच्छा तो जनाब इनसिक्योर हो रहे हैं.”

“बदल कर नीचे आओ, मैं मां के पास इंतजार कर रहा हूं,” कहता हुआ विक्रांत कमरे से बाहर चला गया.

सुमोना का उखड़ा हुआ मूड, चाचा के घर में सब के स्नेहिल व्यवहार से फिर से खिल उठा था. खाना खा कर सब बैठक में बैठे हंसीमजाक कर रहे थे. बहुत ही खुशनुमा माहौल था. सब उस के रूप और व्यवहार की तारीफ कर रहे थे. थोड़ा हंसीमजाक भी चल रहा था. किसी बात पर सब के साथसाथ वह भी खिलखिला कर हंसी तो विक्रांत तेजी से चीखा, “क्या घोड़े की तरह हिनहिना रही हो… कायदे से हंस भी नहीं सकती हो क्या?”

सब चुप हो गए और उसी असहनीय शांति के बीच वापस घर चले आए. कोई कुछ नहीं बोला. कमरे में आ कर वह बहुत रोई. विक्रांत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वह करवट बदल कर आराम से सो गया. सुबह भी घर में इस बारे में कोई बात नहीं हुई. न ही किसी ने उस से कुछ कहा, न ही विक्रांत को कुछ समझाया. जेठानी के चेहरे पर जरूर व्यंग्य भरी मुसकान पूरे दिन तैरती रही.

कुछ ही दिनों बाद विक्रांत के किसी दोस्त की ऐनिवर्सरी की पार्टी थी. विक्रांत ने उसे शाम के लिए तैयार होने के साथसाथ यह भी हिदायत दी की देखो, यह मेरे दोस्त की पार्टी है, शराफत वाले कपड़े ही पहनना. बल्कि ऐसा करो की मुझे दिखा दो कि तुम क्या पहनने वाली हो. यह तो बस शुरुआत थी. उस के पहनने, बोलने पर टिप्पणी करना, टोकाटाकी करना, व्यंग्य करना अब अंगद के लिए आम बात हो गई थी.

उस दिन पार्टी पूरे शबाब पर थी. सब संगीत की लहरों पर थिरक रहे थे. संगीत वैसे भी सुमोना की कमजोरी थी. वह भी पूरी तरह से संगीत में डूबी हुई थिरक रही थी. अचानक अंगद चिल्लाया, “क्या नचनिया की तरह ठुमके लगाए जा रही हो? अब पिछली बातें भूल जाओ, शरीफ घर की बहू बन गई हो तो शरीफों की तरह रहना सीखो.”

इस अपमान को वह सह नहीं पाई और रोते हुए बाहर की ओर भागी. विक्रांत भी उस के पीछेपीछे आया. घर पहुंचते ही उस ने अपनी सासूमां को पूरी बात बताई पर उन की प्रतिक्रिया से वह चकित रह गईं,”देख बहू, पतिपत्नी के बीच में ऐसी छोटीमोटी बातें होती रहती हैं. इन्हें तूल नहीं देना चाहिए. जाओ जा कर आराम करो,” कहते हुए उन्होंने उस की पीठ थपथपाई और अपने कमरे में चली गईं.

रात उस ने आंखों में ही काटी. सुबह होते ही वह अपने मायके चली आई. अपने मातापिता की प्रतिक्रिया से तो वह बुरी तरह आहत ही हो गई. पिता ने ठहरे हुए शब्दों में उसे समझाया, “देखो सुमोना, हर दंपति के बीच में ऐसे मौके आते ही हैं. बात को बिगाड़ने से कोई लाभ नहीं है. पुरुष कभीकभार कुछ ऊंचानीचा बोल ही देते हैं. छोटीछोटी बातों को पकड़ कर बैठोगी तो खुद भी दुखी रहोगी और हमें भी दुखी करती रहोगी. अब बड़ी हो गई हो, अपनी जिम्मेदारियों को समझो. हमारी परवरिश पर उंगली उठाने का मौका उन लोगों को मत देना. बस, इतनी सी अपेक्षा है तुम से.“

पिता तो अपनी बात कह कर अपने कमरे में चले गए, उस ने आशा भरी नजरों से मां की ओर देखा. कुछ देर शांत रहने के बाद मां बोलीं, “तुम अगर यह सारी बातें अपना मन हलका करने के लिए हमारे साथ साझा कर रही हो, तो ठीक है. पर अगर तुम को लगता है कि हम लोग दामादजी से इस बारे में कोई बात करेंगे तो ऐसा नहीं होगा.”

“मां…”

बात बीच में काट कर मां बोलीं, “सुमी, हम ने तुम्हें बेटे की तरह पाला है. इस का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि तुम लड़का बन जाओ. लड़की हो, लड़की की तरह रहना सीखो. लड़कियों को थोड़ा दबना पड़ता है, सहना पड़ता है. गृहस्थी की गाड़ी तभी पटरी पर चलती है.”

“मां, मुझे इस तरह अपमानित करने का अधिकार विक्रांत को नहीं है. ”

“सुमी, तुम ने तो खुद देखा है, तुम्हारे पापा कितनी बार मुझे क्या कुछ नहीं कह देते हैं. तो क्या मैं उन की शिकायत ले कर अपने मायके जाती हूं? नहीं न?”

“मां, पर मैं यह अपमान बरदाश्त नहीं कर सकती.”

“सुमी, यह शादी तुम्हारी पसंद से, तुम्हारी खुशी के लिए करी गई है. इसे निभाना तुम्हारी जिम्मेदारी है. अभी हमें तुम्हारी दोनों छोटी बहनों की शादी भी करनी है. अगर बड़ी बहन का डाइवोर्स हो गया तो दोनों बहनों की शादी में बहुत दिक्कत आएगी. 2-4 चार दिन रहो आराम से मायके में और फिर अपने घर चली जाना. रात बहुत हो गई है, जाओ सो जाओ.”

शाम को औफिस से लौटते हुए विक्रांत उस के मायके चला आया. बिना कुछ कहेसुने वह विक्रांत के साथ अपने ससुराल चली आई. अपमानित होने का एक अनवरत सिलसिला आरंभ हो गया था. अब उसे अपने जीवन की सब से बड़ी भूल का एहसास हो रहा था. भावना में बह कर उस ने हनीमून पर से ही अपनी लगीलगाई नौकरी को इस्तीफा दे दिया था क्योंकि विक्रांत ने कहा था, “जानेमन, तुम दूसरे शहर में नौकरी करोगी तो मैं तो वियोग में ही मर जाऊंगा. 1-2 साल साथ में जी लेते हैं फिर तुम भी नौकरी कर लेना. तुम तो टौपर हो, तुम्हें तो कभी भी नौकरी मिल जाएगी.”

जाने उसे कब नींद आई. अगले दिन जब सुबह सो कर उठी तो उसे चक्कर आ रहे थे. उसे लगा कि उसे तनाव की वजह से ऐसा हो रहा है. पर सासूमां की अनुभवी आंखें शायद समझ गई थीं. उन्होंने डाक्टर के पास ले जा कर जांच करवाई और खुशी से झूमती हुई घर वापस आईं. सालभर के भीतर ही पिंकी उस की गोद में खेलने लगी थी और लगभग 1 साल बाद ही उस ने बेटे को जन्म दिया था. 2 बेटियों की मां, उस की जेठानी जलभुन गई थीं. अब वे भी उसे बातबात पर कुछ न कुछ बोलती रहतीं पर बेटा पा कर सास अब उस का ही पक्ष लेतीं पर बच्चों की मां को नौकरी करने की अनुमति इस घर में नहीं थी.

धीरेधीरे विक्रांत शराब पीने लगा. सब के बीच उस का अपमान करना अब रोज की बात थी. कमरे में अगर वे कुछ समझाने की कोशिश करतीं भी तो विक्रांत उस पर हाथ उठा देता. बच्चे सहम जाते.

कालेज में विक्रांत के परम मित्र थे अंगद. एक ही शहर में होने के कारण उन की दोस्ती अभी भी कायम थी . अगर उन के सामने कुछ भी घटित होता तो वे कभी विक्रांत को समझाते और कभी उसे. पर यह बात न तो विक्रांत को अच्छी लगती न ही परिजनों को इसलिए उन्होंने विक्रांत के घर आना कम कर दिया पर मोबाइल से वे सुमोना से संपर्क में रहते. सुमोना भी जब भी परेशान होती एकांत पा कर अंगदजी को ही फोन लगा लेती. अंगद हमेशा उस का हौसला बढ़ाते. अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह देते.

उस दिन भी अंगद घर आए थे. जब विक्रांत ने सुमोना को गाली दी तो अंगद बच्चों का वास्ता दे कर उसे समझाने लगे पर विक्रांत तो जैसे अपना आपा ही खो चुका था. उस ने उन दोनों के रिश्ते पर ही उंगली उठा दी. अपमान से तिलमिलाए हुए अंगद उठ कर चले गए और अंगद का सारा गुस्सा विक्रांत ने उस पर ही उतार दिया.

आज जिस तरह से विक्रांत ने उसे पीटा था, उसे देख कर पंकज सहम गया था और उस घटना के बाद घंटे भर तक पिंकी डर कर कांपती रही थी और उस के आंसू रुके ही नहीं थे. सुमोना को लगा ये मेरे बच्चे हैं उन्हें डर और उलझी हुई जिंदगी नहीं दे सकती हूं. अब अपने बच्चों के लिए मुझे ही कुछ करना होगा. यह निर्णय लेने के बाद सुमोना स्वयं को भविष्य में आने वाले कठिन समय के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगी. अब उसे पता था कि यह लड़ाई उस की अकेले की है. इस युद्ध में कोई उस के साथ नहीं खड़ा होगा. पर फिर भी सुमोना हलका महसूस कर रही थी.

अगले दिन विक्रांत के जाने के बाद सुमोना लैपटौप ले कर बैठ गई और कई जगह नौकरी के लिए आवेदन भेज कर ही अपने कमरे से बाहर आई. 2 दिनों तक कहीं से कोई जवाब नहीं आया. पर वह निराश नहीं हुई, जानती थी कोर्स करने के बाद 5 साल का लंबा अंतराल लिया था उस ने, तो थोड़ी मुश्किल से तो नौकरी मिलेगी ही. पर उसे विश्वास था कि उस की योग्यता को देखते हुए उसे नौकरी जरूर मिलेगी.

मगर हमेशा अपना सोचा कहां होता है. इस से पहले कि सुमोना की नौकरी लगती विक्रांत ने उस के हाथ में तलाक के कागज थमा दिए. दूसरा विस्फोट यह था कि विक्रांत ने कोर्ट से अपने बच्चों की कस्टडी मांगी थी, क्योंकि सुमोना बेरोजगार थी. सुमोना के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी. पर सुमोना ने रोनेचिल्लाने की बजाय आगे की रणनीति पर विचार करना आरंभ किया. उसे किसी से किसी सहारे की उम्मीद नहीं थी. एक ही व्यक्ति था जिस से वह कोई मदद मांग सकती थी. तो उस ने अंगद को फोन मिलाया. पूरी स्थिति बता कर उस ने किराए का मकान ढूंढ़ने का अनुरोध किया.

विक्रांत के आने से पहले ही सुमोना अपने दोनों बच्चों को ले कर एक अटैची के साथ घर से चली गई. अंगद उस के विश्वास पर खरा उतरा और उस ने अपने किसी परिचित के यहां उसे पेइंगगेस्ट बनवा दिया. अंगद ने उसे मायके जाने की भी सलाह दी पर सुमोना ने यह कह कर मना कर दिया कि यह मेरी लडाई है मैं इस में उन लोगों को परेशान नहीं करना चाहती.

रात में जब विक्रांत लौटा तो इस नए घटनाक्रम से बुरी तरह बौखला गया,
“आप लोगों ने उसे रोका क्यों नहीं? वह इस तरह से मेरे बच्चों को ले कर नहीं जा सकती.”

“हम लोगों को लगा कि आप लोगों की आपस में बात हो गई होगी,” भाभी मुंह बना कर बोलीं.

विक्रांत अपने कमरे में चला गया. उस के जीवन में इतना बड़ा भूचाल आया था और परिवार का कोई सदस्य उस के पास हमदर्दी दिखाने भी नहीं आया. समझ नहीं पा रहा था कि जिन परिजनों पर सुमोना जान छिड़कती थी, उस के जाने का किसी को कोई दुख नहीं था. आधी रात को विक्रांत को भूख लगी. उठ कर बाहर आया, डाइनिंग टेबल पर 2 रोटी और सब्जी ढकी रखी थी, वही खा कर वापस जा कर सो गया.

सुमोना होती तो गरम कर, मानमनुहार से सलाद, अचार के साथ उसे खिलाती. अगली सुबह भी सब कुछ सामान्य ढंग से होता रहा. जब वह बाहर निकलने लगा तब मां ने पूछा, “सुमोना से कुछ बात हुई क्या?”

“नहीं, खुद गई है तो खुद वापस आएगी. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है,” गुस्से में विक्रांत बोला.

“और वह तलाकनामा?” भाभी ने पूछा.

“उसी से उस की अक्ल ठिकाने आएगी आप देख लीजिएगा,” कहता हुआ विक्रांत बाहर चला गया.

समय के तो जैसे पंख होते हैं, तेजी से खिसकने लगा. दिन, महीना और फिर साल बीत गया. न सुमोना आई, न उस का कोई फोन आया. विक्रांत ने भी अपनी अकड़ में कोई फोन नहीं किया था पर इस दौरान विक्रांत ने सुमोना की कमी को शिद्दत से महसूस किया. अपनी उलझनों के कारण उस का काम में मन नहीं लगता था. प्राइवेट कंपनी उस को क्यों रखती अतः उसे नौकरी से निकाल दिया गया. बेरोजगार देवर अब भाभी पर अब बोझ था. वही भाभी जो उस के साथ मिल कर सुमोना को ताने सुनाया करती थीं, अब उसे ताने देती थीं, “जो अपनी पत्नी और बच्चों का नहीं हुआ वह किसी और का कैसे होगा.“

अपने ही घर में उस की स्थिति अनचाहे मेहमान जैसी हो गई थी. अब विक्रांत को अपने जीवन में सुमोना का महत्त्व समझ में आ रहा था. वह खुद को सुमोना से मिलने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रहा था कि तभी उस के ताबूत में आखिरी कील के रूप में हस्ताक्षर किया हुआ तलाकनामा रजिस्टर्ड डाक से उस के पास आ गया. साथ ही सुमोना ने कोर्ट के पास अपने बच्चों की कस्टडी का दावा भी ठोका था क्योंकि अब वह बेरोजगार नहीं थी बल्कि एक बड़ी कंपनी की एचआर हैड थी.

रंग जीवन में नया आयो रे: क्यों परिवार की जिम्मेदारियों में उलझी थी टुलकी

घंटी की आवाज से मैं एकदम चौंक उठी. सोचा, बेवक्त कौन आया है नींद में खलल डालने. उठ कर देखा तो डाकिया बंद दरवाजे के नीचे से एक लिफाफा खिसका गया था.

झुंझलाई सी मैं लिफाफा ले कर वहीं सोफे पर बैठ गई. जम्हाई लेते हुए मैं ने सरसरी नजर से देखा, ‘यह तो किसी के विवाह का कार्ड है. अरे, यह तो टुलकी की शादी का निमंत्रणपत्र है.’

सारा आलस, सारी नींद पता नहीं कहां फुर्र हो गई. टुलकी के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ उस का हस्तलिखित पत्र भी था. बड़े आग्रह से उस ने मुझे विवाह में बुलाया था. मेरे खयालों के घेरे में 12 वर्षीया टुलकी की छवि अंकित हो आई.

लगभग 8 वर्ष पूर्व मैं उदयपुर अस्पताल में कार्यरत थी. टुलकी मेरे मकानमालिक की 4 बेटियों में सब से बड़ी थी. छोटी सी टुलकी को घर के सारे काम करने पड़ते थे. भोर में उठ कर वह किसी सुघड़ गृहिणी की भांति घर के कामकाज में जुट जाती. वह पानी भरती, मां के लिए चाय बनाती. फिर आटा गूंधती और उस के अभ्यस्त नन्हेनन्हे हाथ दो परांठे सेंक देते. इस तरह टुलकी तैयार कर देती अपनी मां का भोजन.

टुलकी की मां पंचायत समिति में अध्यापिका थीं. चूंकि स्कूल शहर के पास एक गांव में था, इसलिए उस को साढ़े 6 बजे तक आटो स्टैंड पहुंचना होता था. जल्दबाजी में वह अकसर अपना टिफिन ले जाना भूल जाती. ऐसे में टुलकी सरपट दौड़ पड़ती आटो स्टैंड की ओर और मां को टिफिन थमा आती.

लगभग यही समय होता जब मैं अपनी रात की ड्यूटी पूरी कर घर लौट रही होती. आटो स्टैंड से ही टुलकी वापस मेरे साथ घर की ओर चल पड़ती.

‘आज तुम्हारी मां फिर टिफिन भूल गईं क्या?’ मेरे पूछते ही टुलकी ‘हां’ में गरदन हिला देती. मैं देखती रह जाती उस के मासूम चेहरे को और सोचती, ‘दोनों में मां कौन है और बेटी कौन?’

घर पहुंचते ही टुलकी पूछती, ‘सिस्टर, आप के लिए चाय बना दूं?’

‘नहीं, रहने दे. अभी थोड़ी देर सोऊंगी. रातभर की थकी हूं,’ कहती हुई मैं अपने बालों को जूड़े के बंधन से मुक्त कर देती. मेरे काले घने, लंबे बालों को टुलकी अपलक देखती रह जाती. पर यह मैं ने तब महसूस किया जब एक दिन वह बर्फ लेने आई. उस के कटे बालों को देख मैं हैरानी से पूछ बैठी, ‘बाल क्यों कटवा लिए, टुलकी?’

उस की पहले से सजल मिचमिची आंखों से आंसू बहने लगे. मेरे पुचकारने पर उस के सब्र का बांध टूट गया. भावावेश में वह मेरे सीने से लिपट गई. मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा. उस के रूखे बालों में हाथ घुमाते हुए मैं ने पुचकारा, ‘रो मत बेटी, रो मत. क्या हुआ, क्या बात हुई, मुझे बता?’

सिसकियों के बीच उभरते शब्दों से मैं ने जाना कि टुलकी के लंबे बालों में जुएं पड़ गई थीं. मां से सारसंभाल न हो पाई. इसलिए उस के बाल जबरदस्ती कटवा दिए गए.

‘सिस्टर, मुझे आप जैसे लंबे बाल…’ उस ने दुखी स्वर में मुझ से कहा, ‘देखो न सिस्टर, मैं सारे घर का काम करती हूं, मां का इतना ध्यान रखती हूं…क्या हुआ जो मेरे बालों में जुएं पड़ गईं. इस का मतलब यह तो नहीं कि मेरे बाल…’ और उस की रुलाई फिर से फूट पड़ी.

मैं उसे दिलासा देते हुए बोली, ‘चुप हो जा मेरी अच्छी गुडि़या. अरे, बालों का क्या है, ये तो फिर बढ़ जाएंगे, जब तू मेरे जितनी बड़ी हो जाएगी तब बढ़ा लेना इतने लंबे बाल.’

हमेशा चुप रहने वाली आज्ञाकारिणी टुलकी मेरी ममता की हलकी सी आंच मिलते ही पिघल गई थी. पहली बार मुझे महसूस हुआ कि इस अबोध बच्ची ने कितना लावा अपने अंदर छिपा रखा है.

टुलकी की मां उस को जोरजोर से आवाजें देती हुई कोसने लगी, ‘पता नहीं कहां मर गई यह लड़की. एक काम भी ठीक से नहीं करती. बर्फ क्या लेने गई, वहीं चिपक गई.’

मां की चिल्लाहट सुन कर बर्फ लिए वह दौड़ पड़ी. उस दिन के बाद वह हमेशा स्नेह की छाया पाने के लिए मेरे पास चली आती.

एक दिन जब टुलकी अपनी मां के सिर की मालिश कर रही थी तो मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई, ‘क्या जिंदगी है, इस लड़की की. खानेखेलने की उम्र में पूरी गृहस्थिन बन गई है. इसे थोड़ा समय खेलने के लिए भी दिया करो, भाभी. तुम इस की सही मां हो, तुम्हें जरा खयाल नहीं आता कि…’

‘क्या करूं, सिस्टर, आज सिर में बहुत दर्द था,’ टुलकी की मां ने अपराधभाव से अपनी नजर नीची करते हुए कहा.

मैं ने टुलकी को उंगली से गुदगुदाते हुए उठने का इशारा किया तो उस ने हर्षमिश्रित आंखों से मुझे देखा और आंखों ही आंखों में कुछ कहा. फिर वह बाहर भाग गई. मुझे लगा, जैसे मैं ने किसी बंद पंछी को मुक्त कर दिया है.

‘आज आटो के इंतजार में सड़क पर 2 घंटे तक खड़ा रहना पड़ा. शायद तेज धूप के कारण सिर में दर्द होने लगा है. सोचा, थोड़ी मालिश करवा लूं, ठीक हो जाएगा,’ टुलकी की मां सफाई देती हुई बोलीं.

शायद कुछ दर्द के कारण या फिर अपनी बेबसी के कारण टुलकी की मां की आंखें नम हो आई थीं. यह देख मैं इस समय ग्लानि से भर गई.

‘क्या करूं सिस्टर, एक लड़के की चाह में मैं ने पढ़ीलिखी, समझदार हो कर भी लड़कियों की लाइन लगा दी. पता नहीं क्याक्या देखना है जिंदगी में…’ कहती हुई वह अपनी बेबसी पर सिसक उठी.

सारा दोष ‘प्रकृति’ पर मढ़ कर वह अपनेआप को तसल्ली देने लगी. मैं सोचने लगी कि इन्होंने तो सारा दोष प्रकृति को दे कर मन को समझा दिया पर टुलकी बेचारी का क्या दोष जो असमय ही उस का बचपन छिन गया.

‘क्या उस का दोष यही है कि वह घर में सब से बड़ी बेटी है?’ मन में बारबार यही प्रश्न घुमड़ रहा था. टुलकी बारबार मेरे मानसपटल पर उभर कर पूछ रही थी, ‘मेरा कुसूर क्या है, सिस्टर?’

उस दिन भी मैं सो रही थी कि एकाएक मुझे लगा कि कोई है. आंखें खोल कर देखा तो टुलकी सामने खड़ी थी. पता नहीं कब आहिस्ता से दरवाजा खोल कर भीतर आ गई थी. वह एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने आंखों ही आंखों में सवाल किया, ‘क्या है?’

‘आप को उड़ती हुई पतंग देखना अच्छा लगता है, सिस्टर?’

मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और उस को देखती रही कि वह आगे कुछ बोले, पर जब चुप रही तो मैं ने पूछ लिया, ‘क्यों, क्या हुआ?’

वह चुप रही. मन में कुछ तौलती रही कि मुझ से कहे या न कहे. मैं उसे इस स्थिति में देख प्रोत्साहित करते हुए बोली, ‘तुझे पतंग चाहिए?’

उस ने ‘न’ में गरदन हिलाई तो मैं झुंझलाते हुए बोली, ‘तो फिर क्या है?’

वह सहम गई. धीरे से बोली, ‘कुछ नहीं, सिस्टर?’ और जाने को मुड़ी.

‘कुछ कैसे नहीं, कुछ तो है, बता?’ चादर एक तरफ फेंकते हुए मैं उस का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोली.

‘सिस्टर, मैं शाम को छत पर पतंग देख रही थी तो पिताजी ने गुस्से में मेरे बाल खींच लिए. कहने लगे कि नाक कटानी है क्या? लड़की जात है, चल, नीचे उतर. सिस्टर, क्या पतंग देखना बुरी बात है?’

मैं ने बात की तह में जाते हुए पूछ लिया, ‘छत पर तुम्हारे साथ कौन था?’

‘कोई नहीं,’ टुलकी की मासूम आंखें सचाई का प्रमाण दे रही थीं.

‘और पड़ोस की छत पर?’ मैं तहकीकात करते हुए आगे बोली.

‘वहां 2 लड़के थे सिस्टर, पर मैं उन्हें नहीं जानती.’

बस, बात मेरी समझ में आ गई थी कि टुलकी को डांट क्यों पड़ी. सोचने लगी, ‘छोटी सी अबोध बच्ची पर इतनी पाबंदी. पर मैं कर ही क्या सकती हूं?’

टुलकी के पिता पुलिस में सबइंस्पैक्टर थे, सो रोब तो उन के चेहरे व  आवाज में समाया ही रहता था. अपनी बेटियों से भी वह पुलिसिया अंदाज में पेश आते थे. जरा सी भी गलती हुई नहीं कि टुलकी के गालों पर पिताजी की उंगलियों के निशान उभर आते.

एक दिन अचानक टुलकी के पिता की कर्कश आवाज सुनाई दी, ‘मेरी जान खाने को चारचार बेटियां जन दीं निपूती ने, एक भी बेटा पैदा नहीं किया. सारी उम्र हड्डियां तोड़तोड़ कर दहेज जुटाता रहूंगा और बुढ़ापे में ये सब चल देंगी अपने घर. कोई भी सेवा करने वाला नहीं होगा.’

मारपीट और चीखचिल्लाहट की आवाजें आ रही थीं. मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार खड़ी थी पर वह सब सुन कर मुझ से नहीं रहा गया. बाहर निकल कर देखा कि टुलकी भय से थरथर कांपती हुई दीवार से सट कर खड़ी है.

‘इंस्पैक्टर साहब, आप भी क्या बात करते हैं. बेटियां जनी हैं तो इस में नीरा भाभी का क्या दोष?’ एक नजर कलाई पर बंधी घड़ी की ओर फेंकते हुए मैं

ने कहा.

मुझे देख वे जरा संयमित हुए. चेहरे पर छलक आए पसीने को पोंछते हुए बोले, ‘अब आप ही बताओ सिस्टर, चारचार बेटियों का दहेज कहां से जुटा पाऊंगा?’

‘अब कह रहे हैं यह सब. आप को पहले मालूम नहीं था जो चारचार बेटियों की लाइन लगा दी?’

मेरे कहने पर वे थोड़ा झुंझलाए. फिर कुछ कहने ही वाले थे कि मैं फिर घुड़कते हुए बोली, ‘आप अकेले तो नहीं कमा रहे, नीरा भाभी भी तो कमा रही हैं.’

‘कमा रही है तो रोब मार रही है. घर का कुछ खयाल नहीं करती. उस छोटी सी लड़की पर पूरे घर का बोझ डाल दिया है.’

‘नौकरी और घरगृहस्थी ने तो भाभी को निचोड़ ही लिया है. अब उन में जान ही कितनी बची है जो आप उन से और ज्यादा काम की उम्मीद करते हैं.’

वे दुखी स्वर में बोले, ‘सिस्टर, आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं. देखो, टुलकी का प्रगतिपत्र,’ टुलकी का प्रगतिपत्र आगे करते हुए बोले, ‘सब विषयों में फेल है.’

‘इंस्पैक्टर साहब, आप ही थोड़ा जल्दी उठ कर टुलकी को पढ़ा क्यों नहीं देते?’

‘जा री टुलकी, सिस्टर के लिए चाय बना ला,’ वे ऊंचे स्वर में बोले.

‘देखो सिस्टर, सारा दिन ये खुद ही लड़की से काम करवाते रहते हैं और दोष मुझे देते हैं,’ साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए नीरा भाभी रसोई की ओर बढ़ते हुए बोलीं तो मुझे एकाएक ध्यान आया कि इस पूरे प्रकरण में मुझे 10 मिनट की देर हो गई है. मैं उसी क्षण अस्पताल की ओर चल पड़ी.

उस दिन के बाद से इंस्पैक्टर साहब रोज सुबह टुलकी को पढ़ाने लगे पर उस का पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था. उस का ध्यान बराबर घर में हो रहे कामकाज व छोटी बहनों पर लगा रहता. उस के पिता उत्तेजित हो जाते और टुलकी सबकुछ भूल जाती और प्रश्नों के उत्तर गलत बता देती.

टुलकी की शिकायतें अकसर स्कूल से भी आती रहती थीं, कभी समय से स्कूल न पहुंचने पर तो कभी गृहकार्य पूरा न करने पर. ऐसे में टुलकी का अध्यापिका द्वारा दंडित होना तो स्वाभाविक था ही, साथ ही अब घर में भी उसे मार पड़ने लगी. मैं सोचती रह जाती, ‘नन्ही सी जान कैसे सह लेती है इतनी मार.’ पर देखती, टुलकी इस से जरा भी विचलित न होती, मानो दंड सहने की आदत पड़ गई हो.

टुलकी की परीक्षाएं नजदीक थीं. सो, नीरा भाभी छुट्टियां ले कर घर रहने लगीं. अब उस की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा.

मातापिता के इस एक माह के प्रयास के कारण टुलकी जैसेतैसे पास हो गई.

एक दिन टुलकी के भाई का जन्म हुआ जो उस के लिए बेहद प्रसन्नता का विषय था. इस से पहले मैं ने कभी टुलकी को इस तरह प्रफुल्लित हो कर चौकडि़यां भरते नहीं देखा था.

मुझे मिठाई का डब्बा देते हुए बोली, ‘जब हम सब चली जाएंगी तब भैया ही मातापिता की सेवा करेगा.’

मैं ने ऐसे ही बेखयाली में पूछ लिया था, ‘कहां चली जाओगी?’

‘ससुराल और कहां,’ मुझे अचरज से देखती टुलकी बोली.

उस के छोटे से मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर उस समय तो मुझे बहुत हंसी आई थी पर अब उसी टुलकी के विवाह का कार्ड देखा तो मन की राहों से उस का मासूम, बोझिल बचपन गुजरता चला गया.

फिर शीघ्र ही मेरा वहां से तबादला हो गया था. अस्पताल की भागदौड़ में अनेक अविस्मरणीय घटनाएं अकसर घटती ही रहती हैं. मैं तो टुलकी को

लगभग भूल ही चुकी थी. किंतु जब उस ने मुझे याद किया और इतने मनुहार से पत्र लिखा तो हृदय की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. सोचा, ‘मैं जरूर उस की शादी में जाऊंगी.’

निश्चय करते ही मुझे अस्पताल की थका देने वाली जिंदगी एकाएक उबाऊ व बोझिल लगने लगी. सोच रही थी कि दो दिन पहले ही छुट्टी ले कर चली जाऊं. अपने इस निर्णय पर मैं खुद हैरान थी.

विवाह के 2 दिन पूर्व मैं उदयपुर जा पहुंची. टुलकी ने मुझे दूर से ही देख लिया था. चंचल हिरनी सी कुलांचें मारने वाली वह लड़की हौलेहौले मेरी ओर बढ़ी. कुछ क्षण मैं उसे देख कर ठिठकी और एकटक उसे देखने लगी, ‘यह इतनी सुंदर दिखने लग गई है,’ मैं मन ही मन सोच रही थी कि वह बोली, ‘‘सिस्टर, मुझे पहचाना नहीं?’’ और झट से झुक कर मुझे प्रणाम किया.

मैं उसे बांहों में समेटते हुए बोली, ‘‘टुलकी, तुम तो बहुत बड़ी हो गई हो. बहुत सुंदर भी.’’

मेरे ऐसा कहने पर वह शरमा कर मुसकरा उठी, ‘‘तभी तो शादी हो रही है, सिस्टर.’’

उस से इस तरह के उत्तर की मुझे उम्मीद नहीं थी. सोचने लगी कि इतनी संकोची लड़की कितनी वाचाल हो गई. सचमुच टुलकी में बहुत अंतर आ गया था.

अचानक मेरा ध्यान उस के हाथों की ओर गया, ‘‘यह क्या, टुलकी, तुम ने तो अपने हाथ बहुत खराब कर रखे हैं, जरा भी ध्यान नहीं दिया. बड़ी लापरवाह हो. अरे दुलहन के हाथ तो एकदम मुलायम होने चाहिए. दूल्हे राजा तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले कर क्या सोचेंगे कि क्या किसी लड़की का हाथ है या…?’’ मैं कहे बिना न रह सकी.

मेरी बात बीच में ही काटती हुई टुलकी उदास स्वर में बोल उठी, ‘‘सिस्टर, किसे परवा है मेरे हाथों की, बरतन मांजमांज कर हाथों में ये रेखाएं तो अब पक्की हो गई हैं. आप तो बचपन से ही देख रही हैं. आप से क्या कुछ छिपा है.’’

‘‘अरे, फिर भी क्या हुआ. तुम्हारी मां को अब तुम से कुछ समय तक तो काम नहीं करवाना चाहिए था,’’ मैं ने उलाहना देते हुए कहा.

‘‘मेरा जन्म इस घर में काम करने के लिए ही हुआ है,’’ रुलाई को रोकने का प्रयत्न करती टुलकी को देख मेरे अंदर फिर कुछ पिघलने लगा. मन कर रहा था कि खींच कर उस को अपने सीने में भींच लूं. उसे दुनिया की तमाम कठोरता से बचा लूं. मेरी नम आंखों को देख कर वह मुसकराने का प्रयत्न करते हुए आगे बोली, ‘‘मैं भी आप से कैसी बातें करने लग गई, वह भी यहीं सड़क पर. चलिए, अंदर चलिए, सिस्टर, आप थक गई होंगी,’’ मुझे अंदर की ओर ले जाती टुलकी कह उठी, ‘‘आप के लिए चाय बना लाती हूं.’’

बड़े आग्रह से उस ने मुझे नाश्ता करवाया. मैं देख रही थी कि यों तो टुलकी में बड़ा फर्क आ गया है पर काम तो वह अब भी पहले की तरह उन्हीं जिम्मेदारियों से कर रही है.

मेरे पूछने पर कहने लगी, ‘‘मां तो नौकरी पर रहती हैं, उन्हें थोड़े ही मालूम है कि घर में कहां, क्या पड़ा है. मैं न देखूंगी तो कौन देखेगा. और यह टिन्नू,’’ अपनी छोटी बहन की ओर इशारा करते हुए कहने लगी, ‘‘इसे तो अपने शृंगार से ही फुरसत नहीं है. अब देखो न सिस्टर, जैसे इस की शादी हो रही हो. रोज ब्यूटीपार्लर जाती है.’’

‘‘दीदी, आज आप की पटोला साड़ी मैं पहन लूं?’’ अंदर आती टिन्नू तुनक कर बोली.

‘‘पहन ले, मोपेड पर जरा संभलकर जाना.’’

‘‘पायलें भी दो न, दीदी.’’

‘‘देख, तू ने लगा ली न वही बिंदी. मैं ने तुझे मना किया था कि नहीं?’’

‘‘मैं ने मां से पूछ कर लगाई है,’’ इतराती हुई टिन्नू निडर हो बोली.

‘‘मां क्या जानें कि मैं क्यों लाई?’’

‘‘आप और ले आना, मुझे पसंद आई तो मैं ने लगा ली. इस पटोला पर मैच कर रही है न. अब मुझे जल्दी से पायलें निकाल कर दे दो. देर हो रही है. अभी बहुत से कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘नहीं दूंगी.’’

‘‘तुम नहीं दोगी तो मैं मां से कह कर ले लूंगी,’’ ठुनकती हुई टिन्नू टुलकी को अंगूठा दिखा कर चली गई.

‘‘देखो सिस्टर, मेरा कुछ नहीं है. मैं कुछ नहीं, कोई अहमियत नहीं,’’ भरे गले से टुलकी कह रही थी.

‘‘टुलकी, ओ टुलकी,’’ तभी उस की मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘हलवाई बेसन मांग रहा है.’’

‘‘टुलकी, जरा चाकू लेती आना?’’ किसी दूसरी महिला का स्वर सुनाई दिया.

‘‘दीदी, पाउडर का डब्बा कहां रखा है?’’ टुलकी की छोटी बहन ने पूछा.

‘‘क्या झंझट है, एक पल भी चैन नहीं,’’ झुंझलाती हुई वह उठ खड़ी हुई.

मैं बैठी महसूस कर रही थी कि विवाह के इन खुशी से भरपूर क्षणों में भी टुलकी को चैन नहीं.

दिनभर के काम से थकी टुलकी अपने दोनों हाथों से पैर दबाती, उनींदी आंखें लिए ‘गीतों भरी शाम’ में बैठी थी और ऊंघ रही थी. उल्लास से हुलसती उस की बहनें अपने हाथों में मेहंदी रचाए, बालों में वेणी सजाए, गोटा लगे चोलीघाघरे में ढोलक की थाप पर थिरक रही थीं.

सभी बेटियां एक ही घर में एक ही मातापिता की संतान, एक ही वातावरण में पलीबढ़ीं पर फिर भी कितना अंतर था. कुदरत ने टुलकी को ‘बड़ा’ बना कर एक ही सूत्र में मानो जीवन की सारी मधुरता छीन ली थी.

टुलकी के जीवन की वह सुखद घड़ी भी आई जब द्वार पर बरात आई, शहनाई बज उठी और बिजली के नन्हे बल्ब झिलमिला उठे.

मैं ने मजाक करते हुए दुलहन बनी टुलकी को छेड़ दिया, ‘‘अब मंडप में बैठी हो. किसी काम के लिए दौड़ मत पड़ना.’’

धीमी सी हंसी हंसती वह मेरे कान में फुसफुसाई, ‘फिर कभी इधर लौट कर नहीं आऊंगी.’

बचपन से चुप रहने वाली टुलकी के कथन मुझे बारबार चौंका रहे थे. इतना परिवर्तन कैसे आ गया इस लड़की में?

मायके से विदा होते वक्त लड़कियां रोरो कर कैसा बुरा हाल कर लेती हैं पर टुलकी का तो अंगप्रत्यंग थिरक रहा था. मुझे लगा, सच, टुलकी के बोझिल जीवन में मधुमास तो अब आया है. उस के वीरान जीवन में खुशियों के इस झोंके ने उसे तरंगित कर दिया है.

विदा के झ्रसमय टुलकी के मातापिता, भाई और बहनों की आंखों में आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी लेकिन टुलकी की आंखें खामोश थीं, उन में कहीं भी नमी दिखाई नहीं दे रही थी. इसलिए वह एकाएक आलोचना व चर्चा का विषय बन गई. महिलाओं में खुसरफुसर होने लगी.

लेकिन मैं खामोश खड़ी देख रही थी बंद पिंजरे को छोड़ती एक मैना की ऊंची उड़ान को. एक नए जीवन का स्वागत वह भला आंसुओं से कैसे कर सकती थी.

शुक्रिया दोस्त: शालू ने क्या किया था

एसएससीकंपीटिशन ऐग्जाम के औनलाइन फार्म में परीक्षा केंद्र चुनने वाला औप्शन कौलम भरते समय शालू ने एक पल को कुछ सोचा और फिर जयपुर पर क्लिक कर दिया. हालांकि उस के  अपने शहर जोधपुर में भी परीक्षा केंद्र प्रस्तावित था, मगर शालू को तो एक बहाना चाहिए था साहिल से मिलने का और वह इस से बेहतर क्या हो सकता था. इस बहाने को तो मांपापा भी नकार नहीं सकते. मन ही मन अपने प्यार से मिलने की सुखद कल्पनाओं में खोई शालू ने फार्म भरने की बाकी प्रक्रिया पूरी की और एक बार फिर परीक्षा केंद्र जयपुर पर नजर डाल कर खुद को आश्वस्त किया और फार्म सबमिट कर दिया.

शालू ने यह बात किसी को नहीं बताई थी, साहिल को भी नहीं. लगभग 1 महीने बाद एसएससी की बैवसाइट पर ऐग्जाम से संबंधित सूचना अपलोड हुई तो वह खुशी से झम उठी. 4 सप्ताह के बाद यह कंपीटीशन होने वाला है और उस का परीक्षा केंद्र जैसाकि उस ने चाहा था, जयपुर ही आया है.

शाम को उस ने पापा को यह खबर दी तो उन्होंने तो कुछ नहीं कहा, मगर मां बोली, ‘‘जोधुपर में इस का सैंटर नहीं था क्या, जयपुर क्यों आया है?’’

शालू को कोई जवाब नहीं सूझ, मगर पापा ने अपने अनुभव के आधार पर कहा, ‘‘हो सकता है, यहां कैडिडेट ज्यादा हो गए हों, इसलिए सैंटर बदल दिया गया हो. कोई बात नहीं. जयपुर भी ज्यादा दूर नहीं है. तुम बस मन लगा कर तैयारी करो. सिर्फ फार्म भरने और परीक्षा देने से ही ऐग्जाम पास नहीं हुआ करते. कुछ बनने के लिए जीजान लगा देनी पड़ती है. दिनरात मेहनत करनी पड़ती है.’’

सुन कर शालू की जान में जान आई. पापा की बातों को उस ने एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया. उसे तो इस ऐग्जाम से नहीं बल्कि जयपुर जाने से मतलब था.

यहां तक तो सबकुछ उस की प्लानिंग के हिसाब से हो गया था. एकांत पाते ही

उस ने साहिल को मैसेज कर दिया कि वह 4 सप्ताह बाद जयपुर आ रही है. सुन कर साहिल भी उस से मिलने के सपने संजोने लगा. अब यह देखना था कि कुछ ऐसा प्लान बनाया जाए कि मांपापा उसे अकेली जयपुर भेजने को तैयार हो जाएं वरना उस की सारी प्लानिंग पर पानी फिर जाएगा. शालू मन ही मन कामना करने लगी

कि अपने प्यार को पाने का यह अवसर उसे अवश्य मिले.

शालू और साहिल दोनों ने एक ही कालेज से एमबीए की डिगरी ली थी. जहां साहिल पढ़ने में बहुत तेज था वहीं शालू बला की खूबसूरत थी. दोनों को ही अपनीअपनी खूबियों का एहसास था और उन पर गुरूर भी. दोनों का ऐटीट्यूड देखते ही बनता था. शुरुआती नोकझेंक के बाद दोनों की दोस्ती हो गई जो साल बीततेबीतते आखिर प्यार में बदल ही गई. कालेज में उन की जोड़ी हिट थी.

शालू की इच्छा थी कि कालेज खत्म होने के बाद वे दोनों शादी के बंधन में बंध जाएं, इसलिए वह बारबार साहिल पर कैंपस इंटरव्यू में जाने और जौब चुनने के लिए दबाव बना रही थी. वहीं साहिल अपने लिए किसी बेहतर मुकाम की तलाश में जुटा था. वह कालेज के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ कर अपनी मेहनत को आजमाना चाहता था, इसलिए शालू की नाराजगी के बावजूद उस ने जयपुर के एक जानेमाने कोचिंग इंस्टिट्यूट में एडमिशन ले लिया.

‘‘कुछ बनूंगा तभी तो तुम्हें बेहतर कल दे पाऊंगा न,’’ साहिलका अपना तर्क था, जिस ने शालू को चुप करवा दिया और फिर साहिल उसे अपनी यादों के सहारे छोड़ कर जयपुर चला गया.

हालांकि फोन और सोशल मीडिया पर वे लगातार जुड़े हुए थे, मगर शालू को इतने भर से सब्र नहीं होता था. शालू के लिए जब साहिल से दूरी सहन करना मुश्किल होने लगा तो उस ने भी जयपुर जा कर कोचिंग करने की, जिद अपने पापा से की मगर लाख सिर पटकने के बाद भी उस के घर वाले इस बात के लिए राजी नहीं हुए. हां उसे वहीं जोधपुर में ही एक इंस्टिट्यूट में एडमिशन जरूर दिला दिया गया.

अब शालू के पास साहिल से मिलने का कोई और तरीका नहीं था, इसलिए उस ने यह तरकीब लगाई. अगले ही संडे शालू का ऐग्जाम था. शायद कुदरत ने उस की प्रार्थना सुन ली थी. 2 दिन बाद अचानक पापा का बीपी हाई हो

गया और डाक्टर ने उन्हें कंप्लीट बैडरैस्ट की सलाह दी तो मां का भी उन के  पास रुकना जरूरी हो गया.

‘‘रहने दे ऐग्जाम. वैसे भी कोई तैयारी तो तुम ने की नहीं. क्यों बिना मतलब समय और पैसा बरबाद कर रही हो,’’ मां ने कहा तो शालू रोंआसी हो गई.

‘‘अकेली मैनेज कर लोगी सब?’’ पापा थोड़े पिघले.

‘‘हांहां पापा, क्यों नहीं. फिर मेरी सहेली रिया भी तो वहीं जयपुर में ही है. मैं वहां उस

के पास चली जाऊंगी… एक ही दिन की तो बात है. शनिवार की रात को जाऊंगी और सोमवार

को सुबह वापस पहुंच जाऊंगी,’’ शालू अपनी योजना की कामयाबी पर मन ही मन खुश होती हुई बोली.

तय कार्यक्रम के अनुसार शालू रविवार सुबह लगभग 5 बजे जयपुर पहुंच गई. साहिल उसे लेने स्टेशन आया था. उसे देखते ही शालू के सब्र का बांध टूट गया और वह बिना किसी की परवाह किए उस से लिपट गई.

साहिल ने घबरा के इधरउधर देखा और उसे अपने से अलग किया. औटो से दोनों रिया के कमरे पर पहुंचे. रास्ते भर शालू साहिल से चिपक कर बैठी थी. कभी उस के कंधे पर सिर रखती

तो कभी उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाने लगती. साहिल बहुत असहज हो रहा

था. वह शालू को रिया के कमरे पर छोड़ कर

9 बजे वापस आने का वादा कर के अपने हास्टल चला गया.

दोपहर 2 बजे ऐग्जाम खत्म होने पर साहिल और शालू वापस रिया के कमरे पर आ गए. रिया उन की तड़प समझ रही थी इसलिए वह अपने फ्रैंड्स के साथ मूवी देखने का बहाना बना कर बाहर चली गई. अब शालू और साहिल दोनों कमरे में अकेले थे. एकांत पाते ही शालू फिर से साहिल से लिपट गई. अब साहिल का भी अपनेआप से निमंत्रण खत्म हो चुका था और फिर 2 जवान दिलों का 1 होने में वक्त ही कितना लगता है. आज दोनों के बीच की वह दीवार भी ढह गई थी जिसे दोनों ने शादी तक के लिए बचा कर रखा था. दोनों को होश तब आया जब दिन ढलने पर रिया वापस आई.

साहिल ने रात स्टेशन पर आने का वादा कर के शालू से विदा ली.

‘‘सखी, ये आंखें इतनी लाल क्यों हैं?’’ रिया ने उस के जाते ही चुटकी ली.

‘‘थैंक्स रिया. आज तुहारी वजह से मुझे जो खुशी मिली है उसे मैं बयां नहीं कर सकती. तुम ने मुझे जिंदगीभर का कर्जदार बना लिया,’’ शालू ने रिया के हाथ को कस कर थाम लिया.

‘‘दोस्त, किसी पर एहसान नहीं किया करते. वक्त आने पर वसूल लिया करते हैं,’’ रिया हंस दी तो शालू भी मुसकरा दी.

‘‘और सुना क्याक्या गुजरी जब मिल बैठे थे दीवाने?’’ रिया ने फिर शालू को छेड़ा.

‘‘चल यार. तू भी क्या याद रखेगी. यह देख,’’ कहते हुए शालू ने अपने मोबाइल को औन किया और एक वीडियो रिया को दिखाया. देखते ही रिया की आंखें फटी की फटी रह गईं. यह शालू और साहिल के अंतरंग पलों का वीडियो था. रिया ने देखा शालू का चेहरा अब भी शर्म से लाल हो उठा था.

‘‘यह कैसे?’’ रिया के मुंह से शब्द ही नहीं निकल रहे थे.

‘‘मैं ने सामने टेबल पर मोबाइल सैट कर रख दिया था. इसे मैं अपने प्यार की निशानी के रूप में साथ ले जा रही हूं. जब भी साहिल की याद आएगी, मैं इसे देख कर अपनी प्यास बुझ लिया करूंगी,’’ साहिल के प्यार में आंकठ डूबी शालू ने खोईखोई आवाज में कहा.

‘‘सोच लो शालू. कहीं तुम्हारी यह नादानी तुम्हें किसी मुसीबत में न डाल दे,’’ रिया ने उसे चेताया, मगर शालू ने उस पर कान नहीं दिए.

सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा शालू ने सोचा था. साहिल से निर्विघ्न

मिल कर वह आसमान में उड़ी जा रही थी. जोधपुर आ कर वह भी अपनी पढ़ाई में जुट गई. एक दिन व्हाट्सऐप पर रिया का भेजा वीडिया देख कर शालू के होश उड़ गए. यह उस का और साहिल का वही वीडियो था जो उस ने रिया को दिखाया था.

‘‘रिया, तुम तो छिपी रूस्तम निकली.

आंखों से यह काजल कब चुराया,’’ शालू ने अपनी आवाज को नौर्मल करते हुए रिया को

फोन लगाया.

‘‘बस तभी जब तुम चेंज करने बाथरूम में गई थी. खैर, ये सब छोड़… सुन मुझे अर्जैंट कुछ रुपयों की जरूरत है. यही कोई 5 हजार. तू प्लीज जल्दी व्यवस्था कर के भिजवा दे,’’ रिया बिना वक्त गंवाए असली मुद्दे पर आ गई थी.

शालू सब समझ गई कि वह ब्लैकमेलिंग का शिकार हो चुकी है. वह उस वक्त को

कोसने लगी जब उस ने यह आत्मघाती कदम उठाया था.

हालांकि जयपुर से लौटने के बाद खुद शालू ने भी कई बार अपनेआप को इस कृत्य के लिए कठघरे में खड़ा किया था. कोसा था उस घड़ी को जब वह अपनेआप पर काबू नहीं रख पाई थी. काश उस ने अपना कौमार्य पहली रात को समर्पित करने के लिए संभाल कर रखा होता. बेशक उस ने साहिल को भावी पति के रूप में देख कर ही यह कदम उठाया था, मगर क्या ही अच्छा होता यदि यह खास तोहफा अपने साहिल को उसी रात दिया होता.

यह तो शुक्र है कि गर्भ ठहरने जैसी किसी आपात स्थिति में नहीं पहुंची वरना क्या करती वह. कैसे अपने घर वालों का सामना करती. हो सकता है वह आत्महत्या जैसा कायरतापूर्ण कदम ही उठा लेती. साहिल के पास भी किस मुंह से जाती, वह खुद भी कहां अपने पैरों पर खड़ा था जो समाज से लड़ लेता.

शालू को यों तो साहिल पर पूरा भरोसा था, मगर खुदा न खास्ता कहीं दगा दे दिया

तो? कहीं समाज और परिवार के दबाव में आ कर उसे कहीं और शादी करनी पड़ी तो? कहीं उस के भावी पति को भनक लग गई कि वह वर्जिन

नहीं है तो? शालू जितना सोचती उतना ही उलझती जा रही थी.

जो किया वह तो क्षणिक ज्वार था, मगर यह वीडियो बनाने की नासमझ वह कैसे कर बैठी. और तो और खुद ही रिया

के सामने वायरल भी कर दिया. उस से बड़ा बेवकूफ शायद ही कोई और हो. यह वीडियो

अब शालू के लिए गले की हड्डी बनने लगा था जिसे न डिलीट करते बन रहा था और न ही मोबाइल में रखते. कहीं किसी और के हाथ लग गया तो… इज्जत का फलूदा बन जाएगा. वह कोई निर्णय ले पाती इस से पहले ही रिया ने उसे एहसास करा दिया कि वह कितनी बड़ी मुसीबत में फंस चुकी है.

शालू को अपनेआप पर बहुत गुस्सा आ रहा था. एक तो उस ने ऐसी बचकानी हरकत की थी तिस पर भी ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत सच कर डाली. अरे, क्या जरूरत थी वह वीडियो रिया को दिखाने की? मगर अब क्या हो सकता है. अब तो तीर कमान से निकल चुका है. कुछ समझदारी से ही काम लेना पड़ेगा वरना यह मुसीबत और भी बढ़ सकती है. शालू के दिमाग में योजनाएं बनतीबिगड़ती जा रही थीं.

शालू ने जैसेतैसे कर के रिया को 5 हजार रुपए दिए, मगर वह जानती थी कि बात यहीं खत्म नहीं हुई है. अब रिया उसे सोने का अंडा देने वाली मुरगी समझने लगेगी. अपने पैरों पर कुल्हाड़ी वह खुद ही मार चुकी है. अब इस

कटे हुए पैर पर इलाज भी खुद ही करना पड़ेगा और वह भी इन्फैक्शन फैलने से पहले. उसे कोई ऐसा ठोस कदम उठाना पड़ेगा जिस से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. कैसे भी कर के यह वीडियो रिया के मोबाइल से डिलीट करना

ही पड़ेगा.

शालू ने रिया की मां को फोन कर के पता लगाया कि वह इस संडे घर आने वाली हैं. शालू उस से मिलने पहुंच गई.

‘‘अरे शालू तुम? मैं तुम्हें ही याद कर रही थी,’’ उसे देख कर रिया चौंकी. हालांकि उस ने विडियो का कोई जिक्र नहीं किया. शालू भी अनजान बनते हुए उस से गरमजोशी से मिली. शालू ने पानी मांगा तो रिया उठ कर अंदर गई. शालू ने फौरन उस का मोबाइल उठाकर देखा मगर यह क्या? मोबाइल तो पासवर्ड से लौक

था. शालू निराश हो गई. मगर तभी कुछ सोच

कर उस ने मोबाइल से मैमोरी कार्ड निकाल

कर अपने पर्स में रख लिया. अब तक रिया पानी ले कर आ गई थी. शालू ने थोड़ी देर इधरउधर की बातें कीं और चलने को हुई.

‘‘शालू, यार मुझे 3 हजार रुपए और चाहिए. मैं परसों वापस जा रही हूं, तू प्लीज. कल तक इंतजाम कर देना,’’ रिया ने कहा.

‘‘कोशिश करती हूं. कल शाम तू घर आ जाना, रुपए वहीं दे दूंगी,’’ शालू बुझे मन से हामी भर कर बोली.

शालू ने घर जा कर रिया का मैमोरी कार्ड चैक किया, मगर उस में वह वीडियो नहीं था जिस की उसे तलाश थी. इस का मतलब है कि वीडियो उस के मोबाइल की हार्ड डिस्क में है. अगर किसी तरह वह मोबाइल फौर्मेट कर दिया जाए तो बात बन सकती है. शालू ने मन ही मन कुछ सोच लिया.

अगले दिन शाम को रिया तय समय पर शालू के घर पहुंची. शालू उसे अपने कमरे में बैठा कर चाय बनाने रसोई में चली गई. रिया टाइम पास करने के लिए अपने मोबाइल में कोई गेम खेलने लगी.

‘‘रिया, वहां अकेली बोर हो रही हो, यहीं रसोई में आ जाओ,’’ शालू ने आवाज लगाई.

रिया उठ कर शालू के पास चली गई. वह मोबाइल के गेम में इतनी खोई हुई थी कि शालू के पास खड़ीखड़ी भी कीबोर्ड पर उंगलियां ही चला रही थी. शालू ने कनखियों से देखा और अचानक ही रिया को कुहनी मार दी. रिया के हाथ से छिटक कर मोबाइल नीचे गिर गया. शालू अफसोस करते हुए ‘सौरीसौरी’ कहने लगी और लपक कर मोबाइल को चाय के पतीले में खौलते हुए पानी में डाल दिया.

रिया ने तुरंत आंच बंद कर के मोबाइल को पानी से बाहर निकाला, मगर बहुत कोशिश करने पर भी वह औन नहीं हुआ.

‘‘अब इसे ठीक करवाने के चार्जेज भी तुम्हें ही देने होंगे,’’ रिया ने खा जाने वाली नजरों से शालू को घूरा.

‘‘सौरी यार. चल पास ही मोबाइल रिपेयर की शौप है, इसे अभी ठीक करवा लेते हैं,’’ शालू ने सहानुभूति जताते हुए कहा.

वह रिया को ले कर शौप पर गई. मोबाइल को चैक करने के बाद मोबाइल मैकेनिक

ने उन्हें बताया कि उबलते पानी में गिरने के कारण मोबाइल की आईसी खराब हो गई है

और इसे बदलना पड़ेगा. इस के साथ ही इस

के अंदर स्टोर किया हुआ सारा डाटा भी करप्ट

हो गया.

शालू के कान यही तो सुनने के लिए

तरस रहे थे. वहीं रिया के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

‘‘सौरी यार. मेरी वजह से तुम्हारा मोबाइल खराब हो गया. मुझे बहुत बुरा लग रहा है, तुम्हारी सोने का अंडा देने वाली मुरगी मर गई,’’ शालू मुसकराई.

‘‘ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है, वह वीडियो मेरे मैमोरी कार्ड में था, इस में नहीं,’’ रिया ने अपना आखिरी तीर छोड़ा, तो शालू ने पर्स में से मैमोरीकार्ड निकाल कर उस के 2 टुकड़े किए और हवा में उछाल दिए और कहा, ‘‘बेचारा, मैमोरी कार्ड. यह भी गया.’’

रिया देखती रह गई.

‘‘रिया, तुम चाहे जैसी भी हो, मेरी गुरु हो. तुम ने मुझे कई बातें सिखाई हैं जैसेकि ऐसी बेवकूफियां नहीं करनी चाहिए जो यह कि कभी भी किसी पर आंख बंद कर भरोसा नहीं करना चाहिए, यह कि अपने राज अपनेआप से भी छिपा कर रखने चाहिए आदिआदि. शुक्रिया दोस्त,’’ कह कर शालू मुसकरा दी.

फिर शालू ने कुछ पल सोचा और फिर अपने मोबाइल में सेव वह वीडियो भी डिलीट कर के समस्या की जड़ को ही खत्म कर दिया. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी और रिया को वहीं असमंजस में छोड़ कर शालू चली गई.

रिया अब भी वहीं खड़ी उसे आत्मविश्वास के साथ जाते हुए देख रही थी.

इंग्लिश रोज: क्या सच्चा था विधि के लिए जौन का प्यार

वह आज भी वहीं खड़ी है. जैसे वक्त थम गया है. 10 वर्ष कैसे बीत जाते हैं…? वही गांव, वही शहर, वही लोग…यहां तक कि फूल और पत्तियां तक नहीं बदले. ट्यूलिप्स, सफेद डेजी, जरेनियम, लाल और पीले गुलाब सभी उस की तरफ ठीक वैसे ही देखते हैं जैसे उस की निगाह को पहचानते हों. चौश्चर काउंटी के एक छोटे से गांव नैनटविच तक सिमट कर रह गई उस की जिंदगी. अपनी आरामकुरसी पर बैठ वह उन फूलों का पूरा जीवन अपनी आंखों से जी लेती है. वसंत से पतझड़ तक पूरी यात्रा. हर ऋतु के साथ उस के चेहरे के भाव भी बदल जाते हैं, कभी उदासी, कभी मुसकराहट. उदासी अपने प्यार को खोने की, मुसकराहट उस के साथ समय व्यतीत करने की. उसे पूरी तरह से यकीन हो गया था कि सभी के जीवन का लेखाजोखा प्रकृति के हाथ में ही है. समय के साथसाथ वह सब के जीवन की गुत्थियां सुलझाती जाती है. वह संतुष्ट थी. बेशक, प्रकृति ने उसे, क्वान्टिटी औफ लाइफ न दी हो किंतु क्वालिटी औफ लाइफ तो दी ही थी, जिस के हर लमहे का आनंद वह जीवनभर उठा सकेगी.

यह भी तो संयोग की ही बात थी, तलाक के बाद जब वह बुरे वक्त से निकल रही थी, उस की बड़ी बहन ने उसे छुट्टियों में लंदन बुला लिया था. उस की दुखदाई यादों से दूर नए वातावरण में, जहां उस का मन दूसरी ओर चला जाए. 2 महीने बाद लंदन से वापसी के वक्त हवाईजहाज में उस के साथ वाली कुरसी पर बैठे जौन से उस की मुलाकात हुई. बातोंबातों में जौन ने बताया कि रिटायरमैंट के बाद वे भारत घूमने जा रहे हैं. वहां उन का बचपन गुजरा था. उन के पिता ब्रिटिश आर्मी में थे. 10 वर्ष पहले उन की पत्नी का देहांत हो गया. तीनों बच्चे शादीशुदा हैं. अब उन के पास समय ही समय है. भारत से उन का आत्मीय संबंध है. मरने से पहले वे अपना जन्मस्थान देखना चाहते हैं, यह उन की हार्दिक इच्छा है. उन्होंने फिर उस से पूछा, ‘‘और तुम?’’

‘‘मैं भारत में ही रहती हूं. छुट्टियों में लंदन आई थी.’’

‘‘मैं भारत घूमना चाहता हूं. अगर किसी गाइड का प्रबंध हो जाए तो मैं आप का आभारी रहूंगा,’’ जौन ने निवेदन करते कहा.

‘‘भाइयों से पूछ कर फोन कर दूंगी,’’ विधि ने आश्वासन दिया. बातोंबातों में 8 घंटे का सफर न जाने कैसे बीत गया. एकदूसरे से विदा लेते समय दोनों ने टैलीफोन नंबर का आदानप्रदान किया. दूसरे दिन अचानक जौन सीधे विधि के घर पहुंच गए. 6 फुट लंबी देह, कायदे से पहनी गई विदेशी वेशभूषा, काला ब्लेजर और दर्पण से चमकते जूते पहने अंगरेज को देख कर सभी चकित रह गए. विधि ने भाइयों से उस का परिचय करवाते कहा, ‘‘भैया, ये जौन हैं, जिन्हें भारत में घूमने के लिए गाइड चाहिए.’’

‘‘गाइड? गाइड तो कोई है नहीं ध्यान में.’’

‘‘विधि, तुम क्यों नहीं चल पड़ती?’’ जौन ने सुझाव दिया. प्रश्न बहुत कठिन था. विधि सोच में पड़ गई. इतने में विधि का छोटा भाई सन्नी बोला, ‘‘हांहां, दीदी, हर्ज की क्या बात है.’’

‘‘थैंक्यू सन्नी, वंडरफुल आइडिया. विधि से अधिक बुद्धिमान गाइड कहां मिल सकता है,’’ जौन ने कहा. 2 सप्ताह तक दक्षिण भारत के सभी पर्यटन स्थलों को देखने के बाद दोनों दिल्ली पहुंचे. उस के एक सप्ताह बाद जौन की वापसी थी. जाने से पहले तकरीबन रोज मुलाकात हो जाती. किसी कारणवश जौन की विधि से बात न हो पाती तो वह अधीर हो उठता. उस की बहुमुखी प्रतिभा पर जौन मरमिटा था. वह गुणवान, स्वाभिमानी, साहसी और खरा सोना थी. विधि भी जौन के रंगीले, सजीले, जिंदादिल व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई. उस की उम्र के बारे में सोच कर रह जाती. जौन 60 वर्ष पार कर चुका था. विधि ने अभी 35 वर्ष ही पूरे किए थे. लंदन लौटने से 2 दिन पहले, शाम को टहलतेटहलते भरे बाजार में घुटनों के बल बैठ कर जौन ने अपने मन की बात विधि से कह डाली, ‘‘विधि, जब से तुम से मिला हूं, मेरा चैन खो गया है. न जाने तुम में ऐसा कौन सा आकर्षण है कि मैं इस उम्र में भी बरबस तुम्हारी ओर खिंचा आया हूं.’’ इस के बाद जौन ने विधि की ओर अंगूठी बढ़ाते हुए प्रस्ताव रखा, ‘‘विधि, क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

विधि निशब्द और स्तब्ध सी रह गई. यह तो उस ने कभी नहीं सोचा था. कहते हैं न, जो कभी खयालों में हमें छू कर भी नहीं गुजरता, वो, पल में सामने आ खड़ा होता है. कुछ पल ठहर कर विधि ने एक ही सांस में कह डाला, ‘‘नहींनहीं, यह नहीं हो सकता. हम एकदूसरे के बारे में जानते ही कितना हैं, और तुम जानते भी हो कि तुम क्या कह रहे हो?’’ ‘‘हांहां, भली प्रकार से जानता हूं, क्या कह रहा हूं. तुम बताओ, बात क्या है? मैं तुम्हारे संग जीवन बिताना चाहता हूं.’’ विधि चुप रही.

जौन ने परिस्थिति को भांपते कहा, ‘‘यू टेक योर टाइम, कोई जल्दी नहीं है.’’ 2 दिनों बाद जौन तो चला गया किंतु उस के इस दुर्लभ प्रश्न से विधि दुविधा में थी. मन में उठते तरहतरह के सवालों से जूझती रही, ‘कब तक रहेगी भाईभाभियों की छत्रछाया में? तलाकशुदा की तख्ती के साथ क्या समाज तुझे चैन से जीने देगा? कौन होगा तेरे दुखसुख का साथी? क्या होगा तेरा अस्तित्व? क्या उत्तर देगी जब लोग पूछेंगे इतने बूढ़े से शादी की है? कोई और नहीं मिला क्या?’ इन्हीं उलझनों में समय निकलता गया. समय थोड़े ही ठहर पाया है किसी के लिए. दोनों की कभीकभी फोन पर बात हो जाती थी एक दोस्त की तरह. कालेज में भी खोईखोई रहती. एक दिन उस की सहेली रेणु ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘विधि, जौन के जाने के बाद तू तो गुमसुम ही हो गई. बात क्या है?’’

‘‘जाने से पहले जौन ने मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था.’’

‘‘पगली…बात तो गंभीर है पर गौर करने वाली है. भारतीय पुरुषों की मनोवृत्ति तो तू जान ही चुकी है. अगर यहां कोई मिला तो उम्रभर उस के एहसानों के नीचे दबी रहेगी. उस के बच्चे भी तुझे स्वीकार नहीं करेंगे.

जौन की आंखों में मैं ने तेरे लिए प्यार देखा है. तुझे चाहता है. उस ने खुद अपना हाथ आगे बढ़ाया है. अपना ले उसे. हटा दे जीवन से यह तलाक की तख्ती. तू कर सकती है. हम सब जानते हैं कि बड़ी हिम्मत से तू ने समाज की छींटाकशी की परवा न करते हुए अपने पंथ से जरा भी विचलित नहीं हुई. समाज में अपना एक स्थान बनाया है. अब नए रिश्ते को जोड़ने से क्यों हिचकिचा रही है. आगे बढ़. खुशियों ने तुझे आमंत्रण दिया है. ठुकरा मत, औरत को भी हक है अपनी जिंदगी बदलने का. बदल दे अपनी जिंदगी की दिशा और दशा,’’ रेणु ने समझाते हुए कहा. ‘‘क्या करूं, अपनी दुविधाओं के क्रौसरोड पर खड़ी हूं. वैसे भी, मैं ने तो ‘न’ कर दी है,’’ विधि ने कहा. ‘‘न कर दी है, तो हां भी की जा सकती है. तेरा भी कुछ समझ में नहीं आता. एक तरफ कहती है, जौन बड़ा अलग सा है. मेरी बेमानी जरूरतों का भी खयाल रखता है. बड़ी ललक से बात करता है. छोटीछोटी शरारतों से दिल को उमंगों से भर देता है. मुझे चहकती देख कर खुशी से बेहाल हो जाता है. मेरे रंगों को पहचानने लगा है. तो फिर झिझक क्यों रही है?’’

‘‘उम्र देखी है? 60 वर्ष पार कर चुका है. सोच कर डर लगता है, क्या वह वैवाहिक सुख दे पाएगा मुझे?’’ ‘‘आजमा कर देख लेती? मजाक कर रही हूं. यह समय पर छोड़ दे. यह सोच कि तेरी आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. तेरा अपना घर होगा जहां तू राज करेगी. ठंडे दिमाग से सोचना…’’ ‘‘डर लगता है कहीं विदेशी चेहरों की भीड़ में खो तो नहीं जाऊंगी. धर्म, सोच, संस्कृति, सभ्यता, कुछ भी तो नहीं है एकजैसा हमारा. फिर इतनी दूर…’’ ‘‘प्रेम उम्र, धर्म, भाषा, रंग और जाति सभी दीवारों को गिराने की शक्ति रखता है. मेरी प्यारी सखी, प्यार में दूरियां भी नजदीकियां हो जाती हैं. अभी ईमेल कर उसे, वरना मैं कर देती हूं.’’

‘‘नहींनहीं, मैं खुद ही कर लूंगी,’’ विधि ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘डियर जौन,

मैं ने आप के प्रस्ताव पर विचार किया. कोई भी नया रिश्ता जोड़ने से पहले एकदूसरे के बीते जीवन के बारे में जानना बहुत जरूरी है. ऐसी मेरी सोच है. 10 वर्ष पहले मेरा विवाह एक बहुत रईस घर में संपन्न हुआ. मेरी ससुराल का मेरे रहनसहन, सोचविचार और संस्कारों से कोई मेल नहीं था. वहां के तौरतरीकों के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती थी. वहां मुझे लगा कि मैं चूहेदानी में फंस गई हूं. मेरे पति शराब और ऐयाशी में डूबे रहते थे. शराब पी कर वे बेलगाम घुड़साल के घोड़े की तरह हो जाते थे, जिस का मकसद सवार को चोट पहुंचाना था. ऐसा हर रोज का सिलसिला था. हर रात अलगअलग औरतों से रंगरेलियां मनाते थे.

धीरेधीरे बात यहां तक पहुंच गई कि वे ग्रुपसैक्स की क्रियाओं में भाग लेने लगे. जबरदस्ती मुझ से भी औरों के साथ हमबिस्तर होने की अपेक्षा करने लगे. उन के अनुकूल उन की बात मानते जाओ तो ठीक था वरना कहते, ‘हम मर्द अच्छी तरह जानते हैं कि कैसे औरतों को अपने हिसाब से रखा जाए.’ ‘‘एक साधारण सी लड़की के लिए कितना कठिन था यह. एक दिन जब मैं ने किसी और के साथ हमबिस्तर होने से इनकार किया तो मुझे घसीट कर सामने बिठा कर सबकुछ देखने को मजबूर कर दिया. उस दिन मैं ने बरदाश्त की सभी सीमाएं लांघ कर उन के मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया और सामान उठा कर भाई के घर चली आई. पैसे और मनगढ़ंत कहानियों के बल पर मेरा बेटा उन्होंने अपने पास रख लिया. उस दिन के बाद आज तक मैं अपने बेटे को देख नहीं पाई. अब सबकुछ जानते हुए भी आप तैयार हैं तो आप मेरे बड़े भाईसाहब अजय से बात करें.’’

‘‘आप की विधि’’

विधि का ईमेल पढ़ कर जौन नाचने लगा. तुरंत ही उस ने उत्तर दिया,

‘‘मेरी प्यारी विधि,

बस, इतनी सी बात से परेशान हो. जीवन में हादसे सभी के साथ होते हैं. मैं ने तो तुम से पूछा तक नहीं. तुम ने बता दिया तो मेरे मन में तुम्हारे लिए इज्जत और बढ़ गई. मेरी जान, मैं ने तुम्हें चाहा है. मैं स्त्री और पुरुष की समानता में विश्वास रखता हूं. तुम मेरी जीवनसाथी ही नहीं, पगसाथी भी होगी. जिन खुशियों से तुम वंचित रही हो, मैं उन की भरपाई की पूरी कोशिश करूंगा. मैं अगली फ्लाइट से दिल्ली पहुंच रहा हूं.

‘‘प्यार सहित

‘‘तुम्हारा जौन.’’

वह दिल्ली आ पहुंचा. होटल में विधि के बड़े भाईसाहब को बुला कर ईमेल दिखाते हुए उन से विधि का हाथ मांगा. भाईसाहब ने कहा, ‘‘शाम को तुम घर आ जाना.’’ पूरा परिवार बैठक में उस की प्रतीक्षा कर रहा था. जौन का प्रस्ताव सामने रखा गया. सभी हैरान थे. सन्नी तैश में आ कर बोला, ‘‘इतने बूढ़े से…? दिमाग खराब हो गया है क्या. जाहिर है विधि की उम्र के उस के बच्चे होंगे. अंगरेजों का कोई भरोसा नहीं.’’ बाकी बहनभाई भी सन्नी की बात से सहमत थे.

‘‘तुम ने क्या सोचा?’’ बड़े भाई अजय ने विधि से पूछा.

‘‘मुझे कोई एतराज नहीं,’’ उस ने कहा.

‘‘दीदी, होश में तो हो, क्या सचमुच सठियाए से शादी…?’’ विधि के हां करते ही अजय ने जौन को बुला कर कहा, ‘‘शादी तय करने से पहले हमारी कुछ शर्तें हैं. शादी हिंदू रीतिरिवाजों से होगी. उस के लिए तुम्हें हिंदू बनना होगा. हिंदू नाम रखना होगा. विवाह के बाद विधि को लंदन ले जाना होगा.’’ जौन को सब शर्तें मंजूर थीं. वह उत्तेजना से ‘आई विल, आई विल’ कहता नाचने लगा. पुरुष चहेती स्त्री को पाने का हर संभव प्रयास करता है. उस में साम, दाम, दंड, भेद सभी भाव जायज हैं. अच्छा सा मुहूर्त देख कर उन का विवाह संपन्न हआ. जौन लंदन से इमीग्रेशन के लिए जरूरी कागजात ले कर आया था. विधि का पासपोर्ट तैयार ही हो रहा था कि अचानक जौन के बेटे मार्क का ऐक्सिडैंट होने के कारण, जौन को विधि के बिना ही लंदन जाना पड़ा. जौन तो चला गया. विधि का मन बेईमान होने लगा. उसे घबराहट होने लगी. मन में अनेक प्रश्न उठने लगे. किसी से शिकायत भी तो नहीं कर सकती थी. 6 महीने से ऊपर हो गए. उधर जौन बहुत बेचैन था, चिंतित था. वह बारबार रेणु को ईमेल कर के पूछता. एक दिन हार कर रेणु विधि के घर आ ही पहुंची और उसे बहुत डांटा, ‘‘विधि, क्या मजाक बना रखा है, क्यों उस बेचारे को परेशान कर रही हो? तुम्हें पता भी है कितनी मेल डाल चुका है. कहतेकहते थक गया है कि आप विधि को समझाएं और कहें ‘डर की कोई बात नहीं है. मैं उसे पलकों पर बिठा कर रखूंगा.’ ‘‘अब गुमसुम क्यों बैठी हो. कुछ तो बोलो. यह तुम्हारा ही फैसला था. अब तुम्हीं बताओ, क्या जवाब दूं उसे?’’

‘‘मैं बहुत उलझन में हूं. परेशान हूं. खानापीना, उठनाबैठना बिलकुल अलग होगा. फिर उस के बच्चे…? क्या वे स्वीकार करेंगे मुझे…?’’

‘‘विधि, तुम बेकार में भावनाओं के द्वंद्व में डूबतीउतरती रहती हो. यह तो तुम्हें वहीं जा कर पता लगेगा. हम सब जानते हैं, तुम हर स्थिति को आसानी से हैंडल कर सकती हो. ऐसा भी होता है  कभीकभी सबकुछ सही होते हुए भी, लगता है कुछ गलत है. तू बिना कोशिश किए पीछे नहीं मुड़ सकती. चिंता मत कर. अभी जौन को मेल करती हूं कि तुझे आ कर ले जाए.’’ जौन को मेल करते ही एक हफ्ते में वह दिल्ली आ पहुंचा. 2 हफ्ते में विधि को लंदन भी ले गया. लंदन में घर पहुंचते ही जौन ने अंगरेजी रिवाजों के अनुसार विधि को गोद में उठा कर घर की दहलीज पार की. अंदर पहुंचते ही वह हतप्रभ रह गई. अकेले होते हुए भी जौन ने घर बहुत तरतीब और सलीके से रखा था. सुरुचिपूर्ण सजाया था. घर में सभी सुविधाएं थीं, जैसे कपड़े धोने की मशीन, ड्रायर, स्टोव, डिशवाशर और औवन…काटेज के पीछे एक छोटा सा गार्डन था जो जौन का प्राइड ऐंड जौय था. पहली ही रात को जौन ने विधि को एक अनमोल उपहार देते हुए कहा, ‘‘विधि, मैं तुम्हें क्रूर संसार की कोलाहल से दूर, दुनिया के कटाक्षों से हटा कर अपने हृदय में रखने के लिए लाया हूं. तुम से मिलने के बाद तुम्हारी मुसकान और चिरपरिचित अदा ही तो मुझे चुंबक की तरह बारबार खींचती रही है और मरते दम तक खींचती रहेगी. मैं तुम्हें इतना प्यार दूंगा कि तुम अपने अतीत को भूल जाओगी. मैं तुम्हारा तुम्हारे घर में स्वागत करता हूं.’’ इतना कह कर जौन ने उसे सीने से लगा लिया और यह सब सुन कर विधि की आंखों में खुशी के आंसू छलकने लगे.

ऐसे प्रेम का एहसास उसे पहली बार हुआ था. धीरेधीरे वह जान पाई कि जौन केवल गोराचिट्टा, ऊंचे कद का ही नहीं, वह रोमांटिक, सलोना, जिंदादिल, शरारती और मस्त इंसान है जो बातबात में किसी को भी अपना बनाने का हुनर जानता है. उस का हृदय जीवन की आकांक्षाओं से धड़क उठा. जौन ने उसे इतना प्यार दिया कि जल्दी ही उस की सब शंकाएं दूर हो गईं. विधि उसे मन से चाहने लगी थी. दोनों बेहद खुश थे. वीकेंड में जौन के तीनों बच्चों ने खुली बांहों से विधि का स्वागत किया और अपने पिता के विवाह पर एक भव्य पार्टी दी. विधि अपने फैसले पर प्रसन्न थी. अब उस का अपना घर था. अलग परिवार था. असीम प्यार देने वाला पति. जौन ने घर की बागडोर उसी के हाथ में थमा दी थी. उसे प्यार करना सिखाया, उस का आत्मविश्वास जगाया यहां तक कि उसे पोस्टग्रेजुएशन भी करवा दिया. क्योंकि भीतर से वह जानता था कि उस के जाने के बाद विधि अपने समय का सदुपयोग कर सकेगी.

गरमी का मौसम था. चारों ओर सतरंगी फूल लहलहा रहे थे. दोपहर के खाने के बाद दोनों कुरसियां डाल कर गार्डन में धूप सेंकने लगे. बाहर बच्चे खेल रहे थे. बच्चों को देखते विधि की ममता उमड़ने लगी. जौन की पैनी नजरों से यह बात छिपी नहीं. जौन ने पूछ ही लिया, ‘‘विधि, हमारा बच्चा चाहिए…? हो सकता है. मैं ने पता कर लिया है. पूरे 9 महीने डाक्टर की निगरानी में रह कर. मैं तैयार हूं.’’

‘‘नहींनहीं, हमारे हैं तो सही, वो 3, और उन के बच्चे. मैं ने तो जीवन के सभी अनुभवों को भोगा है. मां बन कर भी, अब नानीदादी का सुख भोग रही हूं,’’ विधि ने हंसतेहंसते कहा. ‘‘मैं तो समझा था कि तुम्हें मेरी निशानी चाहिए?’’ जौन ने विधि को छेड़ते हुए कहा, ‘‘ठीक है, अगर बच्चा नहीं तो एक सुझाव देता हूं. बच्चों से कहेंगे मेरे नाम का एक (लाल गुलाब) इंग्लिश रोज और तुम्हारे नाम का (पीला गुलाब) इंडियन समर हमारे गार्डन में साथसाथ लगा दें. फिर हम दोनों सदा एकदूसरे को प्यार से देखते रहेंगे.’’ इतना कह कर जौन ने प्यार से उस के गाल पर चुंबन दे दिया.

विधि भी होंठों पर मुसकान, आंखों में मोती जैसे खुशी के आंसू, और प्यार की पूरी कशिश लिए जौन के आगोश में आ गई. जौन विधि की छोटी से छोटी जरूरतों का ध्यान रखता. धीरेधीरे विधि के पूरे जीवन को उस ने अपने प्यार के आंचल से ढक लिया. सामाजिक बैठकों में उसे अदब और शिष्टाचार से संबोधित करता. उसे जीजी करते उस की जबान न थकती. कुछ ही वर्षों में जौन ने उसे आधी दुनिया की सैर करा दी थी. अब विधि के जीवन में सुख ही सुख थे. हंसीखुशी 10 साल बीत गए. इधर, कई महीनों से जौन सुस्त था. विधि को भीतर ही भीतर चिंता होने लगी, सोचने लगी, ‘कहां गई इस की चंचलता, चपलता, यह कभी टिक कर न बैठने वाला, यहांवहां चुपचाप क्यों बैठा रहता है? डाक्टर के पास जाने को कहो तो टालते हुए कहता है, ‘‘मेरा शरीर है, मैं जानता हूं क्या करना है.’’ भीतर से वह खुद भी चिंतित था. एक दिन बिना बताए ही वह डाक्टर के पास गया. कई टैस्ट हुए. डाक्टर ने जो बताया, उसे उस का मन मानने को तैयार नहीं था. वह जीना चाहता था. उस ने डाक्टर से कहा, ‘‘वह नहीं चाहता कि उस की यह बीमारी उस के और उस की पत्नी की खुशी में आड़े आए. समय कम है, मैं अब अपनी पत्नी के लिए वह सबकुछ करना चाहता हूं, जो अभी तक नहीं कर पाया. मैं नहीं चाहता मेरे परिवार को मेरी बीमारी का पता चले. समय आने पर मैं खुद ही उन्हें बता दूंगा.’’

अचानक एक दिन जौन वर्ल्ड क्रूज के टिकट विधि के हाथ में थमाते बोला, ‘‘यह लो तुम्हारा शादी की 10वीं वर्षगांठ का तोहफा.’’ उस की जीहुजूरी ही खत्म नहीं होती थी. विधि का जीवन उस ने उत्सव सा बना दिया था. वर्ल्ड क्रूज से लौटने के बाद दोनों ने शादी की 10वीं वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मनाई. घर की रजिस्ट्री के कागज और एफडीज उस ने विधि के नाम करवा कर उसे तोहफे में दे दिए. उस रात वह बहुत बेचैन था. उसे बारबार उलटी हो रही थी और चक्कर आते रहे. जल्दी से उसे अस्पताल ले जाया गया. वहां उसे भरती कर लिया गया. जौन की दशा दिनबदिन बिगड़ती गई. डाक्टर ने बताया, ‘‘उस का कैंसर फैल चुका है. कुछ ही समय की बात है.’’

‘‘कैंसर…?’’ कैंसर शब्द सुन कर सभी निशब्द थे. ‘‘तुम्हारे डैड, जाने से पहले, तुम्हारी मां को उम्रभर की खुशियां देना चाहते थे. तुम्हें बताने के लिए मना किया था,’’ डाक्टर ने बताया. बच्चे तो घर चले गए. विधि नाराज सी बैठी रही. जौन ने उस का हाथ पकड़ कर बड़े प्यार से समझाया, ‘‘जो समय मेरे पास रह गया था, मैं उसे बरबाद नहीं करना चाहता था, भोगना चाहता था तुम्हारे साथ. तुम्हारे आने से पहले मैं जीवन बिता रहा था. तुम ने जीना सिखा दिया है. अब मैं जिंदगी से रिश्ता चैन से तोड़ सकता हूं. जाना तो एक दिन सभी को है.’’ एक वर्ष तक इलाज चलता रहा. कैंसर इतना फैल चुका था कि अब कोई कुछ नहीं कर सकता था. अपनी शादी की 11वीं वर्षगांठ से पहले ही जौन चल बसा. अंतिम संस्कार के बाद उस के बेटे ने जौन की इच्छानुसार उस की राख को गार्डन में बिखरा दिया. एक इंग्लिश रोज और एक इंडियन समर (पीला गुलाब) साथसाथ लगा दिए. उन्हें देखते ही विधि को जौन की बात याद आई, ‘कम से कम तुम्हें हर वक्त देखता तो रहूंगा?’ इस सदमे को सहना कठिन था. विधि को लगा मानो किसी ने उस के शरीर के 2 टुकड़े कर दिए हों. एक बार वह फिर अकेली हो गई. एक दिन उस के अंतकरण से आवाज आई, ‘उठ विधि, संभाल खुद को, तेरे पास जौन का प्यार है, स्मृतियां हैं. वह तुझे थोड़े समय में जहानभर की खुशियां दे गया है.’ धीरेधीरे वह संभलने लगी. जौन के बच्चों के सहयोग और प्यार ने उसे फिर खड़ा कर दिया. कालेज में उसे नौकरी भी मिल गई. बाकी समय में वह गार्डन की देखभाल करती. इंग्लिश रोज और इंडियन समर की कटाईछंटाई करने की उस की हिम्मत न पड़ती. उस के लिए माली को बुला लेती. गार्डन जौन की निशानी था. एक दिन भी ऐसा न जाता, विधि अपने गार्डन को न निहारती, पौधों को न सहलाती. अकसर उन से बातें करती. बर्फ पड़े, कोहरा पड़े या फिर कड़कती सर्दी, वह अपने फ्रंट डोर से जौन के लगाए पौधों को निहारती रहती. उदासी में इंग्लिश रोज से शिकवेशिकायतें भी करती, ‘खुद तो अपने लगाए परिवार में लहलहा रहे हो और मैं? नहीं, नहीं, मैं शिकायत नहीं कर रही. मुझे याद है आप ने ही कहा था, ‘यह मेरा परिवार है डार्लिंग. मुझे इन से अलग मत करना.’

उस दिन सोचतेसोचते अंधेरा सा होने लगा. उस ने घड़ी देखी, अभी शाम के 4 ही बजे थे. मरियल सी धूप भी चोरीचोरी दीवारों से खिसकती जा रही थी. वह जानती थी यह गरमी के जाने और पतझड़ के आने का संदेशा था. वह आंखें मूंद कर घास पर बिछे रंगबिरंगों पत्तों की कुरमुराहट का आनंद ले रही थी. अचानक तेज हवा के झरोखे से एक सूखा पत्ता उलटतापलटता उस के आंचल में आ अटका. पलभर को उसे लगा, कोई उसे छू कर कह रहा हो… ‘डार्लिंग, उदास क्यों होती हो, मैं यही हूं तुम्हारे चारों ओर, देखो वहीं हूं, जहां फूल खिलते हैं…क्यों खिलते हैं? यह मैं नहीं जानता. बस, इतना जरूर जानता हूं, फूल खिलता है, झड़ जाता है. क्यों? यह कोई नहीं जानता. बस, इतना जानता हूं इंग्लिश रोज जिस के लिए खिलता है उसी के लिए मर जाता है. खिले फूल की सार्थकता और मरे फूल की व्यथा एक को ही अर्पित है.’

उस दिन वह झड़ते फूलों को तब तक निहारती रही जब तक अंधेरे के कारण उसे दिखाई देना न बंद हो गया. हवा के झोंके से उसे लगा, मानो जौन पल्लू पकड़ कर कह रहा हो, ‘आई लव यू माई इंडियन समर.’ ‘‘मी टू, माई इंग्लिश रोज. तुम और तुम्हारा शरारतीपन अभी तक गया नहीं.’’ उस ने मुसकरा कर कहा.

बंटी हुई औरत: लाजो को क्यों कर दिया शेखर व विजय ने दरकिनार

लाजवंती को अपनी पत्नी बना कर शेखर ने सभी रिश्तेदारों के साथसाथ अपने पिता की आशाओं पर भी पानी फेर दिया था, क्योंकि वह तो कब से इस बात की उम्मीद लगाए बैठे थे कि बेटा ज्यों ही प्रशासनिक सेवा में लगेगा उस का विवाह किसी कमिश्नर या सेक्रेटरी की बेटी से कर देंगे. इस से शेखर के साथसाथ सारे परिवार का उद्धार होगा.

दूरदर्शी शेखर के पिता यह भी जानते थे कि बड़े ओहदेदारों से पारिवारिक संबंध बनाना बेटे के भविष्य के लिए भी जरूरी है साथ ही स्थानीय प्रशासन पर भी अच्छा रौबदाब बना रहता है.

उधर भाईबहनों में यह धुन सवार थी कि कब भैया की शादी हो और कब घर को संभालने वाला कोई आए. उन्हें तो यह भी विश्वास था कि भाभी अवश्य ही अलादीन का चिराग ले कर आएंगी.

एक मध्यवर्गीय परिवार के टूटेफूटे स्वप्न…

शेखर जब भी अपनी मौसी या बूआ के घर जाता तो उस का स्वागत एक ही वाक्य से होता, ‘‘बेटे, मैं ने तुम्हारे लिए सर्वगुण संपन्न चांद सी दुलहन ढूंढ़ रखी है. बस, नौकरी ज्वाइन करने का इंतजार है.’’

जीवनसाथी के मामले में शेखर की सोच कुछ और थी. उस ने एक गरीब असहाय लड़की को अपना जीवन- साथी बनाने का निर्णय किया था. चूंकि

लाजवंती उस के सोच के पैमाने पर खरी उतरी थी इसीलिए उस ने उसे अपना जीवनसाथी बनाया. बचपन में ही लाजवंती के पिता का देहांत हो चुका था. घर में एक भाई था और 4 बहनें. अब तक 2 बहनों का विवाह हो चुका था. मां थीं जो ढाल बन कर बच्चों को ऊंचनीच से बचाने के प्रयास में लगी रहतीं. शेखर का विचार था कि दरिद्रता में पली हुई लाजवंती जिंदगी के उतारचढ़ाव से परिचित होगी. भलेबुरे की उसे पहचान होगी.

लाजवंती में ऐसा कुछ भी न था. वह उस गंजी कबूतरी की तरह थी जो महलों में डेरा डाल चुकी हो. शेखर की धारणा गलत साबित हुई. इतना ही नहीं लाजवंती अपने साथ अपना अतीत भी समेट कर लाई थी.

मां के कंधों का बोझ कम करने के लिए 14 वर्ष की आयु में ही लाजवंती को उस की सब से बड़ी बहन ने अपने पास बुला कर स्कूल में दाखिल करा दिया. हर सुबह लाजो सफेद चोली और नीला स्कर्ट पहने अपना बस्ता कंधे पर लटकाए स्कूल जाने लगी. घड़ी की टिकटिक चढ़ती जवानी का अलार्म बन गई.

उधर लाजो के रूप में निखार आने लगा. चाल में लचक पैदा होने लगी. आंखें भी चमकने लगीं और यौवन का प्रभाव उन्नत डरोजों पर स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा.

पिता के प्यार की चाहत लिए लाजो अकसर अपने जीजा के सामने बैठ कर अपना पाठ दोहराती या फिर उस की गोद में सिर रख कर एलिस के वंडरलैंड में खो जाती. जीजा लाजो के केशों में अपनी उंगलियां फेरता या फिर उस के मुलायम गालों को सहलाता तो नारी स्पर्श से उस की आंखों में नशा छा जाता.

लाजो भी नासमझी के कारण इस कोमल अनुभूति का आनंद लेने की टोह में लगी रहती. एक दिन पत्नी की गैर- मौजूदगी ने भावनाओं को विवेक पर हावी कर दिया. नदी अपने किनारे तोड़ कर अनियंत्रित हो गई. लाजो को जब होश आया तो बहुत देर हो चुकी थी.

उस घटना के बाद लाजो अपने आप से घृणा करने लगी. वह हर समय खोईखोई रहती. परिणाम की कल्पना से ही भयभीत हो जाती. बहन से कहने में भी उसे डर लगता था इसलिए अंदर ही अंदर घुटती रहती, हालांकि  उस में उस का कोई दोष नहीं था. जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो असहाय मासूम बच्ची क्या कर सकती थी.

मन पर बोझ लिए लाजो को रात भर भयानक सपने आते. अंधेरे जंगलों में वह जान बचाने के लिए भागती, चीखतीचिल्लाती, मगर उस की सहायता के लिए कोई नहीं आता. सपने में देखा चेहरा जाना- पहचाना लगता पर आंख खुलती तो सपने में देखे चेहरे को पहचानने में असफल रहती. इस तरह एक मासूम बच्ची बड़ी अजीब मानसिक स्थिति में जी रही थी.

बहन इतनी पढ़ीलिखी समझदार नहीं थी कि उस के मानसिक द्वंद्व को समझ सकती.

इस के बावजूद लाजो को बारबार उसी दलदल में कूदने की तीव्र इच्छा होती. डर और चाह चोरसिपाही का खेल खेलते. कई महीने के बाद जब उस की बहन को अचानक ही इस संबंध की भनक पड़ी तो उस ने लाजो को वापस मायके भेज दिया.

उस मासूम बच्ची की आत्मा घायल हो चुकी थी. अब हर पुरुष उस को भूखा और खूंखार नजर आने लगा था. फिर भी मुंह से खून लगी शेरनी की तरह उस को मर्दों की बारबार चाह सताती रहती थी. कालिज के यारदोस्तों ने जब घर के दरवाजे खटखटाने शुरू किए तो वह अपनी मां के साथ गांव चली आई. कुनबे के प्रयास से लाजवंती को देखने के लिए शेखर आया और उस ने लाजो को पसंद कर लिया.

लाजवंती ने कभी सपने में भी न सोचा था कि उस को ऐसा जीवनसाथी मिल जाएगा और वह भी किसी मोल- तोल के बिना. वह फूली न समा रही थी.

पहली रात में एक औरत के अंदर सेक्स के प्रति जो झिझक, घबराहट होती है ऐसा कुछ लाजवंती में न पा कर शेखर को उस पर शक होने लगा. उस  पर लाजवंती के व्यवहार ने उस के शक को यकीन में बदल दिया. यद्यपि शेखर ने इस बात को टालने की बहुत कोशिश की मगर उस के दिमाग में अंगारे सुलगते रहे. वह किस को दोषी ठहराता. विवाह के लिए उस ने खुद ही सब की इच्छा के खिलाफ हां की थी. अत: परिस्थितियों से समझौता करना ही उस ने उचित समझा.

लाजवंती अपने अतीत को भूल जाना चाहती थी, मगर अपने द्वारा लूटे जाने की जो पीड़ा उस के मन में घर कर चुकी थी वह अकसर उसे झिंझोड़ती रहती. शेखर ने उस के अतीत को कुरेद कर जानने का कभी प्रयास नहीं किया, शायद यही वजह थी कि लाजवंती खुद ही अपने गुनाहों के बोझ तले दब रही थी. कई बार उस के दिमाग में आया कि जा कर शेखर के सामने अपनी भूल को स्वीकार कर ले. फिर जो भी दंड वह दे उसे हंसीखुशी सह लेगी पर हर बार मां की नसीहत आड़े आ जाती.

अपनी असुरक्षा की भावना को दूर करने के लिए लाजवंती ने अपनी आकर्षक देह का यह सोच कर सहारा लिया कि शेखर की सब से बड़ी कमजोरी औरत है.

अब वह हर रोज नएनए पहनावे व मेकअप में शेखर के सामने अपने आप को पेश करने लगी. वह शेखर को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहती थी. वह अपनी बांहों की जकड़ शेखर के चारों तरफ इतनी मजबूत कर देना चाहती थी कि वह उस में से जीवन भर निकल न सके. इस के लिए लाजवंती ने शेखर के हर कदम पर पहरा लगा दिया. उस के सामाजिक जीवन की डोर भी अपने हाथों में ले ली. वह चाहती थी कि शेखर जहां भी जाए उसी के शरीर की गंध ढूंढ़ता फिरे.

यह पुरुष जाति से लाजवंती के प्रतिशोध का एक अनोखा ढंग था. अकसर ऐसा होता है कि करता कोई है और भरता कोई. लाजवंती शेखर के चारों तरफ अपना शिकंजा कसती रही और वह छटपटाता रहा.

आखिर तनी हुई रस्सी टूट गई. शेखर ने अपने एक नजदीकी दोस्त से परामर्श किया.

‘‘तुम तलाक क्यों नहीं ले लेते?’’ दोस्त ने कहा.

तलाक…शब्द सुनते ही शेखर के चेहरे का रंग उड़ गया. वह बोला, ‘‘शादी के इतने सालों बाद ढलती उम्र में तलाक?’’

‘‘अरे भई, जब तुम दोनों एक छत के नीचे रहते हुए भी एकदूसरे के नहीं हो और तुम्हारी निगाहें हमेशा औरत की तलाश में भटकती रहती हैं. बच्चों को भी तुम लोगों ने भुला दिया है. कभी तुम ने सोचा है कि इस हर रोज के लड़ाईझगड़े से बच्चों पर क्या असर पड़ता होगा.’’

‘‘तो मैं क्या करूं?’’ शेखर बोला, ‘‘वह पढ़ीलिखी औरत है. मैं ने सोचा था कि स्थिति की गंभीरता को समझ कर या तो वह संभल जाएगी या फिर तलाक के लिए सहमत हो जाएगी पर वह है कि जोंक की तरह चिपटी हुई है.’’

‘‘तुम खुद ही तलाक के लिए आवेदन क्यों नहीं कर देते? वैसे भी हमारे देश में औरतें तलाक देने में पहल नहीं करतीं. एक पति को छोड़ कर दूसरे की गोद का आसरा लेने का चलन अभी मध्यवर्गीय परिवारों में आम नहीं है.’’

‘‘मैं ने इस बारे में बहुत सोचविचार किया है. मुसीबत यह है कि इस देश का कानून कुछ ऐसा है कि कोर्ट से तलाक मिलतेमिलते वर्षों बीत जाते हैं. फिर तलाक की शर्तें भी तो कठिन हैं. केवल मानसिक स्तर बेमेल होने भर से तलाक नहीं मिलता. तलाक लेने के लिए मुझे यह साबित करना पड़ेगा कि लाजवंती बदचलन औरत है.

‘‘इस के लिए झूठी गवाही और झूठे सुबूत के सहारे कोर्ट में उस की मिट्टी पलीद करनी पड़ेगी और तुम तो जानते हो कि यह सब मुझ से नहीं हो सकता’’.

‘‘शेखर, जब तुम तलाक नहीं दे सकते तो भाभी के साथ बैठ कर बात कर लो कि वह ही तुम्हें तलाक दे दें.’’

‘‘यही तो रोना है मेरी जिंदगी का. लाजवंती तलाक क्यों देगी? इतने बड़े अधिकारी की बीवी, यह सरकारी ठाटबाट, नौकरचाकर, मकान, गाड़ी, सुविधाओं के नाम पर क्या कुछ नहीं है उस के पास. जिन संबंधियों के सामने आज वह अभिमान से अपना सिर ऊंचा कर के अपनी योग्यता की डींगें मारती है उन्हीं के पास कल वह कौन सा मुंह ले कर जाएगी. ऐसे में वह भला तलाक क्यों देगी?’’

‘‘देखो शेखर, तुम्हारा मामला बहुत उलझा हुआ है, फिर भी मैं तुम्हें यही सलाह दूंगा कि कोर्ट में आवेदन देने में कोई हर्ज नहीं है.’’

‘‘बात तो सही है. अगर तलाक होने में 10 साल भी लग गए तो इस आजीवन कारावास से तो छुटकारा मिल ही सकता है,’’ शेखर अपने दिल की गहराइयों में डूब गया.

उन्हीं दिनों शेखर का तबादला पटना हो गया. वह लाजवंती को अकेला छोड़ कर बच्चों के साथ पटना चला गया. लाजवंती उसी शहर में इसलिए रुक गई क्योंकि एक कालिज में वह लेक्चरर थी.

घर में अब वह पहली सी रौनक न थी. शेखर के जाते ही तमाम सरकारी साधन, नौकरचाकर भी चले गए. सारा घर सूनासूना हो गया. रात के समय तो मकान की दीवारें काटने को दौड़तीं. इस अकेलेपन से वह धीरेधीरे उकता गई और फिर हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष विजयकुमार की शरण में चली गई.

विजयकुमार और लाजवंती के सोचने- समझने का ढंग एक जैसा ही था, रुचियां एक जैसी थीं. यहां तक कि दोनों के मुंह का स्वाद भी एक जैसा ही था. दोपहर में खाने के दौरान लाजवंती अपना डब्बा खोलती तो विजयकुमार भी स्वाद लेने आ जाता.

‘‘तुम बहुत अच्छा खाना बना लेती हो. कहां से सीखी है यह कला,’’ विजय ने पूछा तो लाजवंती उस की आंखों में कुछ टटोलते हुए बोली, ‘‘अपनी मां से सीखी है मैं ने पाक कला.’’

‘‘कभी डिनर पर बुलाओ तब बात बने,’’ विजयकुमार ने लाजवंती को छेड़ते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं, आने वाले रविवार को मेरे साथ ही डिनर कीजिए,’’ लाजवंती को मालूम था कि पुरुष का दिल पेट के रास्ते से ही जीता जा सकता है.

अगले रविवार को विजयकुमार लाजवंती के घर पहुंच गया.

इस तरह एक बार विजयकुमार को घर आने का मौका मिला तो फिर आने- जाने का सिलसिला ही चल पड़ा. अब विजयकुमार न केवल खाने में बल्कि लाजवंती के हर काम में रुचि लेने लगा. उसे तो अब लाजो में एक आदर्श पत्नी का रूप भी दिखाई देने लगा. उस की निकटता में विजय अपनी गर्लफ्रेंड अर्चना को भी भूल गया जिस के प्रेम में वह कई सालों से बंधा था. अब उस के जीवन का एकमात्र लक्ष्य लाजवंती को पाना था और कुछ भी नहीं.

उधर लाजवंती जैसा चल रहा था वैसा ही चलने देना चाहती थी. इस बंटवारे से उस के जीवन के विविध पहलू निखर रहे थे. भौतिक सुख, ऐशोआराम और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए शेखर का सहारा काफी था और मानसिक संतुष्टि के लिए था विजयकुमार. लाजवंती चाहती थी कि बचीखुची जिंदगी इसी तरह व्यतीत हो, मगर विजय इस बंधन को कानूनी रंग देने पर तुला हुआ था.

विजयकुमार की अपेक्षाओं से घबरा कर लाजवंती ने अपनी छोटी बहन अमृता को आगे कर दिया. उस ने अमृता को अपने पास बुलाया, विजयकुमार से परिचय करवाया और फिर स्वयं पीछे हो गई.

लाजो का यह तीर भी निशाने पर लगा. शारीरिक भूख और आपसी निकटता ने दो शरीरों को एक कर दिया. लाजवंती तो इसी मौके की तलाश में थी. उस ने फौरन दोनों की शादी का नगाड़ा बजवा दिया. विवाह के शोर में लाजवंती के चेहरे पर विजय की मुसकान झलक रही थी.

विजयकुमार ने सोचा कि अमृता के साथ रिश्ता जोड़ने पर लाजवंती भी उस के समीप रहेगी मगर वह औरत की फितरत से अपरिचित था. लाजवंती बहन का हाथ पीला करते ही उस के साए से भी दूर हो गई.

विजयकुमार की आंखों से जब लाजवंती के सौंदर्य का परदा हटा तो उसे पता चला कि वह तो लाजो के हाथों ठगा गया है. अत:  उस ने सोचा एक गंवार को जीवन भर ढोने से तो अच्छा है कि उस से तलाक ले कर छुटकारा पाया जाए.

मन में यह फैसला लेने के बाद विजयकुमार अपनी पूर्व प्रेमिका अर्चना के पास पहुंचा. प्रेम का हवाला दिया. अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी. यही नहीं सारा दोष लाजवंती के कंधों पर लाद कर उस ने अर्चना के मन में यह बात बिठा दी कि वह निर्दोष है. अर्चना अपने प्रेमी की आंखों में आंसू देख कर पसीज गई और उस ने विजयकुमार को माफ कर दिया.

एक दिन अदालत परिसर में शेखर की विजयकुमार से भेंट हुई.

‘‘हैलो विजय, आप यहां… अदालत में?’’ शेखर ने विजयकुमार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए कहा.

‘‘आज तारीख पड़ी है,’’ विजय कुमार ने उत्तर दिया.

‘‘कैसी तारीख?’’ शेखर ने फिर पूछा.

‘‘मैं ने अमृता को तलाक देने के लिए कोर्ट में आवेदन किया है,’’ विजयकुमार ने अपनी बात बता कर पूछा बैठा, ‘‘पर शेखर बाबू, आप यहां अदालत में क्या करने आए हैं?’’

‘‘विजय बाबू, आज मेरे भी मुकदमे की तारीख है, मैं भी तो लाजवंती से अलग रह रहा हूं. मैं ने तलाक लेने का मुकदमा दायर कर रखा है,’’ शेखर ने गंभीरता से उत्तर दिया.

फिर 10 साल यों ही बीत गए तारीखें लगती रहीं. काला कोट पहने वकील आते रहे और जाते रहे. फाइलों पर धूल जमती रही और फिर झड़ती रही.

बारबार एक ही नाम दुहराया जाता शेखर सूरी सुपुत्र रामलाल सूरी हाजिर हो… लाजवंती पत्नी शेखर सूरी हाजिर हो…

मां, पराई हुई देहरी तेरी: भैया की शादी होते ही कितना पराया हो गया मीनू का मायका

लेखिका- नीलम कुलश्रेष्ठ 

कमरे में पैर रखते ही पता नहीं क्यों दिल धक से रह जाता?है. मां के घर के मेरे कमरे में इतनी जल्दी सब- कुछ बदल सकता है मैं सोच भी नहीं सकती थी. कमरे में मेरी पसंद के क्रीम कलर की जगह आसमानी रंग हो गया है. परदे भी हरे रंग की जगह नीले रंग के लगा दिए गए हैं, जिन पर बड़ेबड़े गुलाबी फूल बने हुए हैं.

मैं अपना पलंग दरवाजे के सामने वाली दीवार की तरफ रखना पसंद करती थी. अब भैयाभाभी का दोहरा पलंग कुछ इस तरह रखा गया है कि वह दरवाजे से दिखाई न दे. पलंग पर भाभी लेटी हुई हैं. जिधर मेरी पत्रिकाओं का रैक रखा रहता था, अब उसे हटा कर वहां झूला रख दिया गया?है, जिस में वह सफेद मखमली सा शिशु किलकारियां ले रहा है, जिस के लिए मैं भैया की शादी के 10 महीने बाद बनारस से भागी चली आ रही हूं.

‘‘आइए दीदी, आप की आवाज से तो घर चहक रहा था, किंतु आप को तो पता ही है कि हमारी तो इस बिस्तर पर कैद ही हो गई है,’’ भाभी के चेहरे पर नवजात मातृत्व की कमनीय आभा है. वह तकिए का सहारा ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘आप पलंग पर मेरे पास ही बैठ जाइए.’’

मुझे कुछ अटपटा सा लगता है. मेरी मां के घर में मेरे कमरे में कोई बैठा मुझे ही एक पराए मेहमान की तरह आग्रह से बैठा रहा है.

‘‘पहले यह बताइए कि अब आप कैसी हैं?’’ मैं सहज बनने की कोशिश करती हूं.

‘‘यह तो हमें देख कर बताइए. आप चाहे उम्र में छोटी सही, लेकिन अब तो हमें आप के भतीजे को पालने के लिए आप के निर्देश चाहिए. हम ने तो आप को ननद के साथ गुरु  भी बना लिया है. सुना है, तनुजी ‘बेबी शो’ में प्रथम आए?थे.’’

मैं थोड़ा सकुचा जाती हूं. भैया मुझ से 3 वर्ष ही तो बड़े थे, लेकिन उन्हीं की जिद थी कि पहले मीनू की शादी होगी, तभी वह शादी करेंगे. मेरी शादी भी पहले हो गई और बच्चा भी.

भाभी अपनी ही रौ में बताए जा रही हैं कि किस तरह अंतिम क्षणों में उन की हालत खराब हो गई थी. आपरेशन द्वारा प्रसव हुआ.

‘‘आप तो लिखती थीं कि सबकुछ सामान्य चल रहा है फिर आपरेशन क्यों हुआ?’’ कहते हुए मेरी नजर अलमारी पर फिसल जाती है, जहां मेरी अर्थशास्त्र की मोटीमोटी किताबें रखी रहती थीं. वहां एक खाने में मुन्ने के कपड़े, दूसरे में झुनझुने व छोटेमोटे खिलौने. ऊपर वाला खाना गुलदस्तों से सजा हुआ है.

‘‘सबकुछ सामान्य ही था लेकिन आजकल ये प्राइवेट नर्सिंग होम वाले कुछ इस तरह ‘गंभीर अवस्था’ का खाका खींचते हैं कि बच्चे की धड़कन कम हो रही है और अगर आधे घंटे में बच्चा नहीं हुआ तो मांबच्चे दोनों की जान को खतरा है. घर वालों को तो घबरा कर आपरेशन के लिए ‘हां’ कहनी ही पड़ती है.’’

‘‘अब तो जिस से सुनो, उस के ही आपरेशन से बच्चा हो रहा है. हमारे जमाने में तो इक्कादुक्का बच्चे ही आपरेशन से होते थे,’’ मां शायद रसोई में हमारी बात सुन रही हैं, वहीं से हमारी बातों में दखल देती हैं.

मेरी टटोलती निगाह उन क्षणों को छूना चाह रही है जो मैं ने अपनी मां के घर के इस कमरे में गुजारे हैं. परीक्षा की तैयारी करनी है तो यही कमरा. बाहर जाने के लिए तैयार होना है तो शृंगार मेज के सामने घूमघूम कर अपनेआप को निखारने के लिए यही कमरा. मां या पिताजी से कोई अपनी जिद मनवानी हो तो पलंग पर उलटे लेट कर रूठने के लिए यही कमरा या किसी बात पर रोना हो तो सुबकने के लिए इसी कमरे का कोना. मेरा क्या कुछ नहीं जुड़ा था इस कमरे से. अब यही इतना बेगाना लग रहा है कि यह अपनी उछलतीकूदती मीनू को पहचान नहीं पा रहा.

‘‘तू यहीं छिपी बैठी है. मैं तुझे कब से ढूंढ़ रहा हूं,’’ भैया आते ही एक चपत मेरे सिर पर लगाते हैं. भाभी के हाथ में कुछ पैकेट थमा कर कहते हैं, ‘‘लीजिए, बंदा आप के लिए शक्तिवर्धक दवाएं व फल ले आया है.’’ फिर मुन्ने को गोद में उठा कर अपना गाल उस के गाल से सटाते हुए कहते हैं, ‘‘देखा तू ने इसे. मां कह रही थीं बचपन में तू बिलकुल ऐसी ही लगती थी. अगर यह तुझ पर ही गया तो इस के नखरे उठातेउठाते हमारी मुसीबत ही आ जाएगी.’’

‘‘मारूंगी, ऐसे कहा तो,’’ मैं तुनक कर जवाब देती हूं. मुझे यह दृश्य भला सा लग रहा है. अपने संपूर्ण पुरुषत्व की पराकाष्ठा पर पहुंचा पितृत्व के गर्व से दीप्त मुन्ने के गाल से सटा भैया का चेहरा. सबकुछ बेहद अच्छा लगने पर भी, इतनी खुश होते हुए भी एक कतरा उदासी चुपके से आ कर मेरे पास बैठ जाती है. मैं भैया की शादी में भी कितनी मस्त थी. भैया की शादी की तैयारी करवाने 15 दिन पहले ही चली आई थी. मैं ने और मां ने बहुत चाव से ढूंढ़ढूंढ़ कर शादी का सामान चुना था. अपने लिए शादी के दिन के लिए लहंगा व स्वागत समारोह के लिए तनछोई की साड़ी चुनी थी. बरात में भी देर तक नाचती रही थी.

मां व मैं घर पर सारी खुशियां समेट कर भाभी का स्वागत करने के लिए खड़ी थीं. भैया भाभी के आंचल से अपने फेंटे की गांठ बांधे धीरेधीरे दरवाजे पर आ रहे थे.

‘‘अंदर आने का कर लगेगा, भैया.’’ मैं ने अपना हाथ फैला दिया था.

‘‘पराए घर की छोकरी मुझ से कर मांग रही है, चल हट रास्ते से,’’ भैया मुझे खिजाने के लिए आगे बढ़ते आए थे.

‘‘मैं तो नहीं हटूंगी,’’ मैं भी अड़ गई थी.

‘‘कमल, झिकझिक न कर, नेग तो देना ही होगा,’’ मां और एक बुजुर्ग महिला ने बीचबचाव किया था.

‘‘तुम्हीं बताओ, इसे कितनी बख्शीश दें?’’ भैया ने स्नेहिल दृष्टि से भाभी को देखते हुए पूछा था.

भाभी तो संकोच से आधे घूंघट में और भी सिमट गई थीं. किंतु मुझे कुछ बुरा लगा था. मुझे कुछ देने के लिए भैया को अब किसी से पूछने की जरूरत महसूस होने लगी है.

अपनी शादी के बाद पहले विनय का फिर तनु का आगमन, सच ही मैं भी अपनी दुनिया में मस्त हो गई थी. मुझे खुश देखती मां, पिताजी व भैया की खुशी से उछलती तृप्त दृष्टि में भी एक कातर रेखा होती थी कि मीनू अब पराई हो गई. मां तो मुझ से कितनी जुड़ी हुई थीं. घर का कोई महत्त्वपूर्ण काम होता है तो मीनू से पूछ लो, कुछ विशेष सामान लाना हो तो मीनू से पूछ लो. शायद मेरे पराए हो जाने का एहसास ही उन के लिए मेरे बिछोह को सहने की शक्ति भी बना होगा.

‘‘संभालो अपने शहजादे को,’’ भैया, मुन्ने को भाभी के पास लिटाते हुए बोले, ‘‘अब पड़ेगी डांट. मैं यह कहने आया था कि मेज पर मां व विनयजी तेरा इंतजार कर रहे हैं.’’

खाने की मेज पर तनु नानी की गोद में बैठा दूध का गिलास होंठों से लगाए हुए है.

मेरे बैठते ही मां विनय से कहती हैं, ‘‘विनयजी, मैं सोच रही हूं कि 3 महीने बाद हम लोग मुन्ने का मुंडन करवा देंगे. आप लोग जरूर आइए, क्योंकि बच्चे के उतरे हुए बाल बूआ लेती है.’’

मैं या विनय कुछ कहें इस से पहले ही भैया के मुंह से निकल पड़ता है, ‘‘अब ये लोग इतनी जल्दी थोड़े ही आ पाएंगे.’’

मैं जानती हूं कि भैया की इस बात में कोई दुराव नहीं है पर पता नहीं क्यों मेरा चेहरा बेरौनक हो उठता है.

विनय निर्विकार उत्तर देते हैं, ‘‘3 महीने बाद तो आना नहीं हो सकता. इतनी जल्दी मुझे छुट्टी भी नहीं मिलेगी.’’

मां जैसे बचपन में मेरे चेहरे की एकएक रेखा पढ़ लेती थीं, वैसे ही उन्होंने अब भी मेरे चेहरे की भाषा पढ़ ली है. वह भैया को हलकी सी झिड़की देती हैं, ‘‘तू कैसा भाई है, अपनी तरफ से ही बहन के न आ सकने की मजबूरी बता रहा है. तभी तो हमारे लोकगीतों में कहा गया है, ‘माय कहे बेटी नितनित आइयो, बाप कहे छह मास, भाई कहे बहन साल पीछे आइयो…’’’ वह आगे की पंक्ति ‘भाभी कहे कहा काम’ जानबूझ कर नहीं कहतीं.

‘‘मां, मेरा यह मतलब नहीं था.’’ अब भैया का चेहरा देखने लायक हो रहा है, लेकिन मैं व विनय जोर से हंस कर वातावरण हलकाफुलका कर देते हैं.

मैं चाय पीते हुए देख रही हूं कि मां का चेहरा इन 10 महीनों में खुशी से कितना खिलाखिला हो गया है. वरना मेरी शादी के बाद उन की सूरत कितनी बुझीबुझी रहती थी. जब भी मैं बनारस से यहां आती तो वह एक मिनट भी चुप नहीं बैठती थीं. हर समय उत्साह से भरी कोई न कोई किस्साकहानी सुनाने में लगी रहती थीं.

‘‘मां, आप बोलतेबोलते थकती नहीं हैं.’’ मैं चुटकी लेती.

‘‘तू चली जाएगी तो सारे घर में मेरी बात सुनने वाला कौन बचेगा? हर समय मुंह सीए बैठी रहती हूं. मुझे बोलने से मत मना कर. अकेले में तो सारा घर भांयभांय करता रहता है.’’

‘‘तो भैया की शादी कर दीजिए, दिल लग जाएगा.’’

‘‘बस, उसी के लिए लड़की देखनी है. तुम भी कोई लड़की नजर में रखना.’’

कभी मां को मेरी शादी की चिंता थी. उन दिनों तो उन के जीवन का जैसे एकमात्र लक्ष्य था कि किसी तरह मेरी शादी हो. लेकिन वह लक्ष्य प्राप्त करने के बाद उन का जीवन फिर ठिठक कर खड़ा हो गया था. कैसा होता है जीवन भी.  एक पड़ाव पर पहुंच कर दूसरे पड़ाव पर पहुंचने की हड़बड़ी स्वत: ही अंकुरित हो जाती है.

‘‘मां, लगता है अब आप बहुत खुश हैं?’’

‘‘अभी तो तसल्ली से खुश होने का समय भी नहीं है. नौकर के होते हुए भी मैं तो मुन्ने की आया बन गई हूं. सारे दिन उस के आगेपीछे घूमना पड़ता है,’’ वह मुन्ने को रात के 10 बजे अपने बिस्तर पर लिटा कर उस से बातें कर रही हैं. वह भी अपनी काली चमकीली आंखों से उन के मुंह को देख रहा है. अपने दोनों होंठ सिकोड़ कर कुछ आवाज निकालने की कोशिश कर रहा है. तनु भी नानी के पास आलथीपालथी मार कर बैठा हुआ है. वह इसी चक्कर में है कि कब अपनी उंगली मुन्ने की आंख में गड़ा दे या उस के गाल पर पप्पी ले ले.

‘‘मां, 10 बज गए,’’ मैं जानबूझ कर कहती हूं क्योंकि मां की आदत है, जहां घड़ी पर नजर गई कि 10 बजे हैं तो अधूरे काम छोड़ कर बिस्तर में जा घुसेंगी क्योंकि उन्हें सुबह जल्दी उठने की आदत है.

‘‘10 बज गए तो क्या हुआ? अबी अमाला मुन्ना लाजा छोया नहीं है तो अम कैसे छो जाएं?’’ मां जानबूझ कर तुतला कर बोलते हुए स्वयं बच्चा बन गई हैं.

थोड़ी देर में मुन्ने को सुला कर मां ढोलक ले कर बैठ जाती हैं, ‘‘चल, आ बैठ. 5 जच्चा शगुन की गा लें, आज दिन भर वक्त नहीं मिला.’’

मैं उबासी लेते हुए उन के पास नीचे फर्श पर बैठ जाती हूं. उन्हें रात के 11 बजे उत्साह से गाते देख कर सोच रही हूं कि कहां गया उन का जोड़ों या कमर का दर्द. मां को देख कर मैं किसी हद तक संतुष्ट हो उठी हूं, अब कभी बनारस में अपने सुखद क्षणों में यह टीस तो नहीं उठेगी कि वह कितनी अकेली हो गई हैं. मेरा यह अनुभव तो बिलकुल नया है कि मां मेरे बिना भी सुखी हो सकती हैं.

नामकरण संस्कार वाले दिन सुबह तो घरपरिवार के लोग ही जुटे थे. भीड़ तो शाम से बढ़नी शुरू होती है. कुछ औरतों को शामियाने में जगह नहीं मिलती, इसलिए वे घर के अंदर चली आ रही हैं. खानापीना, शोरशराबा, गानाबजाना, उपहारों व लिफाफों को संभालते पता ही नहीं लगता कब साढ़े 11 बज गए हैं.

मेहमान लगभग जा चुके हैं. कुछ भूलेभटके 7-8 लोग ही खाने की मेज के इर्दगिर्द प्लेटें हाथ में लिए गपशप कर रहे हैं. बैरों ने तंग आ कर अपनी टोपियां उतार दी हैं. वे मेज पर रखे डोंगों, नीचे रखी व शामियाने में बिखरी झूठी प्लेटों व गिलासों को समेटने में लगे हुए हैं.

तभी एक बैरा गुलाब जामुन व हरी बरफी से प्लेट में ‘शुभकामनाएं’ लिख कर घर के अंदर आ जाता?है. लखनऊ वाली मामी बरामदे में बैठी हैं. वह उन्हीं से पूछता है, ‘‘बहूजी कहां हैं, जिन के बच्चे की दावत है?’’

तभी सारे घर में बहू की पुकार मच उठती है. भाभी अपने कमरे में नहीं हैं. मुन्ना तो झूले में सो रहा है. मैं भी उन्हें मां, पिताजी के कमरे में तलाश आती हूं.

तभी मां मुझे बताती हैं, ‘‘मैं ने ही उसे ऊपर के कमरे में कपड़े बदलने भेजा है. बेचारी साड़ी व जेवरों में परेशान हो रही थी.’’

मैं ऊपर के कमरे के बंद दरवाजे पर ठकठक करती हूं, ‘‘भाभी, जल्दी नीचे उतरिए, बैरा आप का इंतजार कर रहा है.’’

भाभी आहिस्ताआहिस्ता सीढि़यों से नीचे उतरती हैं. अभी उन्होंने जेवर नहीं उतारे हैं. उन के चलने से पायलों की प्यारी सी रुनझुन बज रही है.

‘‘बहूजी, हमारी शुभकामनाएं लीजिए,’’ बैरा सजी हुई प्लेट लिए आंगन में आ कर भाभी के आगे बढ़ाता?है. भाभी कुछ समझ नहीं पातीं. मामी बरामदे में निक्की की चोटी गूंथते हुए चिल्लाती हैं, ‘‘बहू, इन को बख्शीश चाहिए.’’

‘‘अच्छा जी,’’ भाभी धीमे से कह कर अपने कमरे में से पर्स ले आती हैं.

अब तक मां के घर के हर महत्त्वपूर्ण काम में मुझे ही ढूंढ़ा जाता रहा है कि मीनू कहां है? मीनू को बुलाओ, उसे ही पता होगा. मैं…मैं क्यों अनमनी हो उठी हूं. क्या सच में मैं यह नहीं चाह रही कि बैरा प्लेट सजा कर ढूंढ़ता फिरे कि इस घर की बेटी कहां है?

‘‘21 रुपए? इतने से काम नहीं चलेगा, बहूजी.’’

भाभी 51 रुपए भी डालती हैं लेकिन वह बैरा नहीं मानता. आखिर भाभी को झुकना पड़ता है. वह पर्स में से 100 रुपए निकालती हैं. बैरे को बख्शीश देता हुआ उन का उठा हुआ हाथ मुझे लगता है, जिस घर के कणकण में मैं रचीबसी थी, जिस से अलग मेरी कोई पहचान नहीं थी, अचानक उस घर की सत्ता अपनी समग्रता लिए फिसल कर उन के हाथ में सिमट आई है. न जाने क्यों मेरे अंदर अकस्मात कुछ चटखता है.

जेल में है रत्ना: प्रखर की शादी के बाद क्या हुआ मां का

समाचार को जब विस्तार से पढ़ा तो मेरे पांव के नीचे से जमीन खिसक गई. डा. रत्ना गुप्ता ने अपनी बहू डा. निकिता को जहर दे कर मारने की कोशिश की क्योंकि वह कम दहेज लाई थी और समाचार लिखे जाने तक निकिता नर्सिंग होम में भरती थी. मेरी रत्ना जेल में, ऐसी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. उच्च शिक्षित और डिगरी कालिज की प्रवक्ता बहू, खुद रत्ना मेडिकल कालिज में गायनियोलोजिस्ट है और बेटा अभी 3 साल पहले चेकोस्लोवाकिया विश्वविद्यालय में हेड आफ डिपार्टमेंट हो कर गया है. एक साधनसंपन्न घर में जितना कुछ होना चाहिए वह सबकुछ तो है. फिर दोनों तरफ का परिवार पढ़ालिखा सभ्य व प्रतिष्ठित है. ऐसे में दहेज के लिए हत्या करने का प्रयास करने की रत्ना को क्या जरूरत थी.

हां, इतना तो मुझे भी पता था कि बेटे के विवाह के बाद वह काफी बीमार रही थी और उसे कई महीने छुट्टी पर रहना पड़ा था. लेकिन अब तो सबकुछ ठीक था.

मेरे मुंह से अनायास निकल गया, ‘बड़ी बदनसीब है तू रत्ना,’ ‘‘10 साल पहले एक कार दुर्घटना में पति का देहांत हो गया था. तब भी वह बड़ी मुश्किल से संभल पाई थी. मैं बच्चों के भविष्य की दुहाई देदे कर किसी प्रकार इस हादसे से उसे उबार सकी थी.

बेटी गरिमा को कंप्यूटर इंजीनियर बनाया और एक इंजीनियर लड़के से विवाह किया. अकेले ही सारी जिम्मेदारियां निभाती रही वह. ससुराल में था ही कौन? पति के 2 भाई थे. एक की मौत हो गई और दूसरा कब का विदेश में बस चुका था. बेटी गरिमा के विवाह में बतौर मेहमान आया था.

चाचा की शह पर ही प्रखर को भी विदेश जाने की धुन सवार हो गई. अपने सुख में वह यह भी भूल गया कि अकेली मां यहां किस के सहारे रहेगी. प्रखर के विवाह के बाद तो रत्ना के जीवन में जैसे ठहराव सा आ गया. अब किस के लिए क्या करना है?

समय काटने के लिए कोई न कोई बहाना तो चाहिए ही. घर में कब तक बंद रहा जा सकता है? रत्ना ने क्लब ज्वाइन कर लिया. शामें वहीं बीतने लगीं. बेटी की तरफ से बेफिक्र, लेकिन अब तो बेटी गरिमा और बेटे प्रखर के नाम भी वारंट थे जो घटना के समय दूसरे मुल्कों में बैठे थे.

किस से बात करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अपनी असहायता और सखी की मुसीबत पर रोने के अलावा और कुछ भी नहीं बचा था. उस के बारे में तरहतरह की कल्पना कर मेरी बुद्धि भी मारे घबराहट के कुंठित हो चली थी. भूल गई कि बचपन की सहेली है तो मायके से ही पता कर लूं.

स्मृतिपटल पर बचपन की ढेरों बातें घूम गईं. साथसाथ पढ़ना, खेलना, खाना, झगड़ना, रूठना, मनाना और बड़ी क्लास में आने पर एकदूसरे से अधिक अंक लाने की होड़ में लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों को चाटना.

ज्योंज्यों हम आगे बढ़ते गए हमारे रास्ते अलग होते गए. इंटर के बाद हम ने सी.पी.एम.टी. की परीक्षा दी. रत्ना उत्तीर्ण हुई और मैं अनुत्तीर्ण. मैं ने बी.एससी. में दाखिला ले लिया और वह पढ़ने बाहर चली गई. मैं ने बी.एससी. के बाद बी.एड. किया और फिर शादी हुई तो घरेलू औरत बन गई. रत्ना डा. रत्ना बनने के बाद अपने एक सहयोगी डाक्टर के साथ ही विवाह बंधन में बंध गई.

इस सब से दोनों सखियों की अंतरंगता में कोई अंतर नहीं आया. जब भी हम मिलते बीते समय की जुगाली करते रहते. वह अपने मरीजों को भूल जाती और मैं अपने घरपरिवार के दायित्वों को. यह बात हमारे पति भी जानते थे. इसीलिए हमारी बातचीत में कोई व्यवधान न डाल वे हमारे उत्तरदायित्वों को खुद संभाल लेते थे.

ऐसे ही हंसीखुशी समय गुजरता रहा और हम उम्र की सीढि़यां चढ़ते दादीनानी सभी बन बैठे. जब भी मिलते एकदूसरे से पूछते कि दादीनानी बन कर कैसा लग रहा है? इस सवाल पर रत्ना कहती, ‘यार, मुझे तो लगता ही नहीं कि मैं इतनी बड़ी हो गई हूं. मेरे मन में तो आज भी कालिज की मौजमस्ती घूमती रहती है.’

‘हाल तो मेरा भी यही है, रत्ना. जब बच्चे अम्मांजी और नानीमां कहते हैं तो लगता है जबरदस्ती किसी सुरंग में घसीटा जा रहा है.’

अपनी अंतरंग सहेली के परिवार में गुपचुप ऐसा क्या घुन लग गया कि उसे जेल तक ले पहुंचा. अब पूछूं भी तो किस से? ध्यान आया कि रत्ना के भाई से पूछूं और डायरी में उन का फोन नंबर ढूंढ़ कर उन्हीं से जेल का पता ले मिलने जेल जा पहुंची.

पहले तो हम गले मिल कर खूब रोईं फिर मैं ने शिकायत की, ‘‘तू ने मुझे इस लायक समझना बंद कर दिया है कि अपना सुखदुख भी बांट सके और अकेले यहां तक पहुंच गई. क्या हुआ कुछ तो बता?’’

‘‘कुछ हुआ हो तो बताऊं? बहूबेटे के ईगो की लड़ाई है. प्रखर अपना विदेश जाने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता था और बहू अपनी स्थायी नौकरी छोड़ कर साथ जाना नहीं चाहती थी. उस का कहना था कि मैं तुम्हारे लिए अपनी नौकरी क्यों छोड़ूं, तुम्हीं मेरे लिए विदेश का आफर ठुकरा दो.’’

पिछले 1 साल से मायके में रह रही है. पढ़ीलिखी समझदार है. अपना भलाबुरा समझती है. इतना तो मांबाप भी समझा सकते थे. प्रखर ने तो निकिता का वीजा भी बनवा लिया था. अब नहीं जाना चाहती तो मैं क्या कर सकती हूं. इसी खीज में उन्होंने प्रखर पर दूसरी शादी का आरोप लगाया है. दोनों की ईगो में मैं मारी गई क्योंकि प्रखर मेरा बेटा है और मैं ही उन्हें आसानी से उपलब्ध भी हूं.

‘‘पता नहीं निकिता के मन में क्या है? कई बार समझाना चाहा. जब भी बात करती उस का उत्तर होता. ‘मम्मीजी, आप हमारे बीच में न ही बोलें तो अच्छा होगा.’

‘‘‘क्या तुम दोनों मेरे कुछ लगते नहीं? क्या इस ईगो की लड़ाई के लिए ही शादी की थी? यह तो तुम्हें शादी से पहले ही सोचना चाहिए था? तुम दोनों अलगअलग रहते हो तो क्या मुझे दुख नहीं होता?’

‘‘‘दुख होता तो आप प्रखर को समझातीं. सोचने और समझौता करने का काम क्या सिर्फ इसलिए मेरा है कि मैं पत्नी हूं.’

‘‘वह फिर मुझे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की कोेशिश करती.

‘‘‘प्रखर के विदेश जाने पर यहां आप का है ही कौन? आप अकेले किस के सहारे रहेंगी?’

‘‘‘तुम मेरी चिंता छोड़ो. मैं तो अपना वक्त काट लूंगी…इतने समय से नौकरी की है रिटायर हो कर ही निकलूंगी.’

‘‘‘जब आप को अपनी नौकरी से इतना मोह है तो मुझे भी तो है,’ और वह पैर पटकती उठ कर चली जाती.

‘‘उस के पापा भी बेटी को समझाने के बजाय उस का पक्ष लेते हैं और कहते हैं, ‘प्रखर को यदि निकिता को अपने साथ नहीं रखना था तो विवाह ही क्यों किया.’

‘‘‘आप ऐसा कैसे समझते हैं?’

‘‘‘और क्या समझूं? लोग तो अपनी पत्नियों के लिए जाने क्याक्या करते हैं? वह विदेश से लौट कर यहां नहीं आ सकता? उस के आने से आप को भी सहारा होगा.’

‘‘‘बात मेरे सहारे की नहीं उस के कैरियर की है.’

‘‘‘तो बनाता रहे वह अपना कैरियर. मैं भी बताऊंगा उसे कि मैं क्या हूं. मेरी बेटी  का जीवन बरबाद कर के आप का बेटा सुखी नहीं रह सकता.’

‘‘मैं ने उन की धमकी पर ध्यान नहीं दिया. महज गीदड़ भभकी समझा. बस, यहीं गलती की मैं ने. यदि यह सारी बातें गंभीरता से ली होतीं और एक पत्र एस.एस.पी. के यहां लगा दिया होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता.’’

सुन कर दुख हुआ मुझे कि किस प्रकार लोग कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. वकील, डाक्टर सब नोटों के सामने कैसेकैसे हाथकंडे अपनाकर बेकुसूरों को फंसाते हैं.

‘‘क्या करूं मैं तेरे लिए जो तू बाहर आ सके,’’ उस के कंधे पर हाथ रख कर शब्दों में अपनापन समेट कर मैं ने कहा.

‘‘निकिता के पापा ऊंची पहुंच वाले आदमी हैं. सोचते हैं कि एक अकेली विधवा औरत उन का क्या बिगाड़ सकती है. उन्हीं की वजह से जमानत नहीं हो पा रही है, अब तो शायद हाईकोर्ट से ही होगी.’’

‘‘और प्रखर?’’

‘‘इस कांड का पता प्रखर को चल गया है. वह आना भी चाहता है पर आने से क्या फायदा? आते ही गिरफ्तार हो जाएगा. मैं ने ही उसे मना कर दिया है कि वह बाहर रह कर ही अपनी और मेरी जमानत का प्रयास करे.’’

‘‘अच्छा, मुझे बता, मेरी कहां जरूरत है?’’

‘‘अभी तेरी जरूरत कहीं नहीं है. वकील सब देख रहा है.’’

आश्वस्त हुई सुन कर और मिल कर. हर रोज मैं जेल जाती रही. कभी फल, कभी बिस्कुट और कभी खाना ले कर. मुझे देख कर रत्ना की आंखें भर आतीं, ‘‘कितना कष्ट दे रही हूं तुझे.’’

‘‘सचमुच तेरी दशा देख कर मुझे कष्ट होता है. क्या अब ऐसा ही समय आ गया है कि बहूबेटे के झगड़े में बेचारी सास को जेल जाना पड़ेगा.’’

‘‘हां, मैं ने सोचसमझ कर यही निष्कर्ष निकाला है कि विवाह के बाद बेटाबहू को अलग रहने दो. कम से कम उन के मनमुटाव में मां को जेल तो नहीं जाना पड़ेगा.’’

‘‘अभी क्या है? जब तू जेल से बाहर आएगी, लोग तुझे ऐसे देखेंगे जैसे तू ने कत्ल किया है? सास की छवि इतनी खराब कर दी गई है कि एक मां बेटे का विवाह करते ही चुड़ैल बन जाती है.’’

‘‘मैं भी क्या करूंगी यह समझ में नहीं आ रहा. अब क्या नौकरी कर पाऊंगी? स्टाफ के बीच तरहतरह की चर्चाएं होंगी. लोग जाने क्याक्या कह रहे होेंगे,’’ रो पड़ी थी रत्ना.

इस तरह की जाने कितनी बातें जेल में होती रहीं. 20 दिन लग गए रिहाई में. आज रत्ना को साथ ले कर लौटी हूं. जम कर सोऊंगी और रत्ना आगे की योजना बनाती सारी रात जाग कर काट देगी क्योंकि उस की यातनाओं का अभी अंत नहीं हुआ है.

आंखों से नींद कोसों दूर हो गई है. दोनों सोने का बहाना किए छत्तीस का आंकड़ा बनी लेटी हैं. वह अपना भविष्य देख रही है और मैं उस का. कई साल लग गए फैसला होने में. रत्ना ने समय से पहले ही रिटायरमेंट ले ली. तारीखें पड़ती रहीं और वह अब मरीज देख कर दवाई की पर्ची लिखने की जगह वकील से कानूनी दांवपेंच पर विचारविमर्श करती रहती. ज्यादा तनाव होे जाता तो रात को नींद की गोली खा लेती. बननासंवरना सब छूट गया. जब भी मिलती मैं हमेशा टोकती, ‘‘स्वयं को संभाल रत्ना. तू खुद को दोषी क्यों समझती है? तू तो बिना किए अपराध की सजा पा रही है.’’

‘‘यही तो दुख है और दुख का भार अब सहा नहीं जाता. प्रखर की तरफ देखती हूं तो दुख और बढ़ जाता है.’’

मैं ने कस कर रत्ना का हाथ थाम लिया. देखा प्रखर को भी है, सारे बाल पक गए हैं. चेहरे पर एक अजीब सी उदासी छा गई है.  विदेश की नौकरी छोड़ दी है. रत्ना के साथ केस डिसकस करता रहता है. फैसला होने तक वह दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता. उस दिन केस का फैसला होना था. तलाक के 3 अक्षरों पर हस्ताक्षर होने और रत्ना को बाइज्जत बरी होने में 10 साल लग गए. फैसले के बाद पुत्र प्रखर के साथ रत्ना एक तरफ बढ़ गई और निकिता अपने पापा के साथ दूसरी ओर.

कचहरी के मुख्य दरवाजे से दोनों साथसाथ बाहर निकले. पल भर को ठिठकी निकिता, फिर धीरेधीरे रत्ना और प्रखर के पास आ कर खड़ी हो गई. रत्ना की आंखें आग उगलना ही चाहती थीं कि निकिता बोली, ‘‘आई एम सौरी मम्मी, सौरी प्रखर.’’

इन 10 सालों में जीवन की दिशा ही बदल गई. सबकुछ बिखर गया और आज यह लड़की कह रही है आई एम सौरी.

‘‘सौरी, निकिता,’’ कह कर प्रखर आगे बढ़ गया. ठगी सी खड़ी देखती रह गई रत्ना. क्या नियति अभी कुछ और दिखाना चाहती है. कुछ कदम चल कर निकिता गिर कर बेहोश हो गई. प्रखर के आगे बढ़ते कदम रुक गए. उस ने निकिता को गोद में उठाया, गाड़ी में लिटाया और गाड़ी हवा से बातें करने लगी. भूल गया कि मां और मौसी साथ आई हैं.

अचानक रत्ना को फिर जेल की चारदीवारी स्मरण हो आई. लगा वह बाइज्जत बरी नहीं हुई है बल्कि आजीवन  कारावास की सजा उसे मिली है. जेल में सलाखों के पीछे सीमेंट के फर्श पर बैठी है, लोग उस पर हंस रहे हैं और उस का मजाक उड़ा रहे हैं.

प्यार है नाम तुम्हारा: क्या हुआ था स्नेहा मां के साथ

“हैलो, कौन?” “पहचानो…””कौन है?””अरे यार, भुला दिया हमें?” और एक खिलखिलाती हुई हंसी फोन पर सुनाई पड़ी. “अरे स्नेहा, तुम, इतने दिनों बाद, कैसी हो?” नेहा  पहचान कर खुशी ज़ाहिर करते हुए बोली.

“नेहा, यार, तुम तो मेरी पक्की सहेली हो, तुम से कैसे दूर रह सकती थी. ऐसे भी दोस्ती निभाने में हम तो नंबर वन हैं. बहुत सारी बातें करनी है मुझे तुम से. अच्छा, मेरा फोन नंबर लिख लो. अभी मुझे हौस्पिटल जाना है, कल बात करते है,” और स्नेहा ने फ़ोन रख दिया.

“हौस्पिटल…” बात अधूरी रह गई.  नेहा कुछ चिंतित हो उठी, ‘आख़िर, उसे हौस्पिटल क्यों जाना था…’ नेहा बुदबुदा रही थी.

नेहा के मन में स्नेहा की स्मृतियां चलचित्र की तरह तैर गईं… कालेज में फौर्म भरने की लाइन में नेहा खड़ी थी लाल रंग के पोल्का डौट का सूट पहने और उसी लाइन मे स्नेहा काले रंग के पोल्का डौट का सूट पहने खड़ी थी. उन दिनों पोल्का डौट का फैशन चल रहा था.

“गम है किसी के पास,” स्नेहा ज़ोर से बोली. स्नेहा को फौर्म पर फोटो चिपकानी थी.”हां है, देती हूं,” नेहा ने मुसकराते हुए गम की छोटी सी शीशी स्नेहा को थमा दी. बदले में स्नेहा ने मुसकान बिखेर दी.

फौर्म जमा कर बाहर निकलते हुए स्नेहा चपल मुसकान के साथ नेहा की ओर मुखातिब हुई, “थैंक्यू सो मच, फौर्म से मेरी फोटो निकल गई थी, मैं तो घबरा गई थी कि क्या होगा अब…”

“थैंक्यू कैसा, चलो आओ, उधर सीढ़ियों पर थोड़ी देर बैठते हैं,” नेहा बीच में ही बोल पड़ी.नेहा, स्नेहा दोनों वहां अकेली थीं. दोनों को, शायद, इसीलिए एकदूसरे का साथ मिल गया था.”अच्छा, तुम्हारा नाम क्या है?”

“स्नेहा ढोले.”“और तुम्हारा?””नेहा खरे. अरे वाह, हम दोनों के नाम कितने मिलते हैं… और हमारी ड्रैसेस भी,” नेहा आश्चर्यमिश्रित खुशी के साथ बोली, वैसे, ढोले…क्या?”

“हम गढ़वाल के हैं,” स्नेहा ने उत्तर दिया.नेहा गौर से स्नेहा को निहार रही थी. बड़ीबड़ी आंखें, तीखी नाक, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, दमकता हुआ रंग मतलब सुंदरता के पैमाने पर तराशा हुआ चेहरा थी स्नेहा और पहाड़ी निश्च्छलता से सराबोर उस का व्यक्तित्व.

“क्या हुआ?”, स्नेहा ने टोका.”न…न…नहीं, बस, ऐसे ही,” नेहा मुसकरा कर रह गई.”तुम कितने भाईबहन हो? स्नेहा ने पूछा.”एक भाईबहन.”“हम भी एक भाईबहन हैं. कितना कुछ मिलता है हम में  न,” स्नेहा ज़ोर से खिलखिलाते हुए बोल पड़ी.

“हां, सच में,” नेहा भी आश्चर्य से भर गई थी.”तो आज से हम दोनों दोस्त हुए,” दोनों ने एकसाथ हाथ पकड़ कर हंसते हुए कहा था.

लखनऊ अमीनाबाद कालेज से निकल कर दोनों ने पाकीज़ा जूस सैंटर पर ताज़ाताज़ा मौसमी का जूस पिया. दोनों को ही मौसमी का जूस बहुत पसंद था और इस तरह शुरू हुई दोनों की दोस्ती.

लोग कहते हैं, दोस्त हम चुनते हैं. पर नेहा का मानना है कि दोस्ती भी हो जाती है जैसे उस दिन स्नेहा से उस की दोस्ती हो गई थी.

नेहा स्नेहा की यादों को एक सिरे से समेट रही थी. उस ने पुराने अलबम निकाले. एक फोटो थी एनसीसी कैंप की, जिस में वह खुद और स्नेहा पैरासीलिंग कर रही थीं. नेहा को कैंप की याद आई…’यार, वह लड़का कितना हैंडसम है. बस, एक नज़र देख ले,’ स्नेहा ने चुहलबाज़ी करते नेहा से कहा था.

‘क्या स्नेहा, हर समय लड़कों को देखती रहती हो,’ नेहा गंभीरता ओढ़ कर बोली थी.‘अरे यार, एनसीसी में हमारे कैंप लड़कों से अलग हो जाते हैं, तो नैनसुख तो ले ही सकते हैं न,” स्नेहा बोलतेबोलते ज़ोर से हंस पड़ी थी.

नेहा और स्नेहा दोनों  ने ही ग्रेजुएशन में एनसीसी ली थी और पहली बार दोनों घर से दूर कैंप गई थीं. साथसाथ खाना, साथसाथ रहना, साथसाथ परेड करना…लगभग सारे काम साथ. उन की दोस्ती गहरी होती जा रही थी.

‘कितने गंदे पैर ले कर  आई हो,’  स्नेहा ने डांटते हुए कहा था.‘अरे यार, आज मेरी सफाई की ड्यूटी थी, सो पैर में कीचड़ लग गया,” नेहा ने गुस्साते हुए कहा था.‘ह्म्म्म्मम, कैंप की सफाई कर खुद को गंदा कर लिया,’ स्नेहा बड़बड़ाती जा रही थी.

स्नेहा तुरंत उठी और एक तौलिया ले कर नेहा का पैर बड़ी ही तन्मयता के साथ साफ करने लगी. नेहा स्नेहा का यह रूप देख कर हैरान थी. स्नेहा को उस का पैर साफ करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ. एक मातृवत भाव के साथ वह यह सब कर रही थी. कहां से आई उस के अंदर यह भावना, शायद उस की परिस्थितियां…, नेहा सोच में मे पड़ गई थी.

एक दिन पाकीज़ा जूस सैंटर पर जूस पीतेपीते नेहा ने कहा, ‘स्नेहा, आज चलो मेरे घर, मेरे मांपापा से मिलो.’ स्नेहा उस दिन नेहा के घर गई. उसे नेहा के यहां बहुत अच्छा लगा. ‘कितने अच्छे हैं तुम्हारे मांपापा और तुम्हारी प्यारी सी दादी. मां ने कितने अच्छे पकौड़े बनाए,’ स्नेहा बिना रुके बोले जा रही थी, अचानक मुसकराई, ‘और तुम्हारा भाई भी बहुत अच्छा है.’ शरारत के साथ आंखें मटकाते अपने चिरपरिचित अंदाज़ में स्नेहा बोली थी.

स्नेहा के इस अंदाज़ को नेहा बखूबी समझ चुकी थी, वह भी हंस पड़ी.‘अब मुझे भी अपने घर ले चलो,’ नेहा ने स्नेहा से कहा. ‘मेरे घर…,’ स्नेहा कुछ हिचकिचा गई‘ले चल स्नेहा, तुम्हारा घर तो सीतापुर रोड पर खेतखलिहानों के पास है, बहुत मज़ा आएगा.”‘ह्म्म्म्म, अच्छा, कल चलना,’ स्नेहा  का स्वर कुछ धीमा पड़ गया था.

‘कितनी सुंदर जगह है तुम्हारा घर, हरेभरे खेतों के बीच,’ नेहा, स्नेहा का घर देख कर खुशी से झूमी जा रही थी. स्नेहा का घर कच्चे रास्तों से गुज़रता था. घर पहुंचते ही स्नेहा ने अपनी दादीमां से मिलवाया, ये हैं मेरी सब से प्यारी दादी तुम्हारी दादी की तरह. और दादी, यह है मेरी पक्की वाली दोस्त नेहा.” स्नेहा ने फिर गरमागरम छोलेचावल खिलाए.

‘स्नेहा, छोले तो बहुत टैस्टी हैं, आंटी ने बनाए होंगे,’ नेहा खातेखाते बो ‘नहीं, मैं ने बनाए हैं,” स्नेहा कुछ गंभीर हो गई थी. ‘तुम ने! यार स्नेहा, यू आर  ग्रेट कुक. वैसे आंटी कहां हैं?’ नेहा ने पूछा. ‘मम्मी…’ स्नेहा की बात अधूरी रह गई. पीछे वाले कमरे से सांवली, साधारण सी बिखरे बालों के साथ एक महिला वहां आ गई. नेहा कुछ आश्चर्य से उन्हें देखने लगी. फिर ‘मेरी मम्मी’ कह स्नेहा ने उस महिला का परिचय कराया.

नेहा सोच में पड़ गई. स्नेहा तो कितनी सुंदर और उस की मम्मी साधारण सी, बिखरे बाल, दांत भी कुछ टूटे हुए… यह कैसे? कई सारे सवालों से नेहा घिर गई थी. स्नेहा की मम्मी कुछ अलग सी मुसकान के साथ अंदर चली गई.

‘नेहा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा न. मेरी मम्मी ऐसी… दरअसल, मम्मी पहले बहुत अच्छी दिखती थीं लेकिन जब मेरा भाई किडनैप हुआ तब से मम्मी की हालत ऐसी हो गई. भाई तो वापस मिला लेकिन मम्मी तब तक मैंटल पेशेंट हो चुकी थीं,’ स्नेहा धीरेधीरे बोल रही थी.

‘उफ्फ़…’ नेहा ने एक लंबी सांस भरी. कितना दुख है जीवन में. मां होते हुए भी मां का प्यारदुलार न मिले. स्नेहा तो अपनी मां से कोई ज़िद भी न कर पाती होगी. नेहा का मन भरा जा रहा था.

“चलो नेहा, मैं तुम्हें अपना स्कूल दिखाती हूं.  हमारा स्कूल कोएजुकेशन था, एक से एक स्मार्ट लड़के पढ़ते थे. अब तो हम गर्ल्स कालेज में आ गए,’ स्नेहा ने शायद नेहा के माथे पर पड़ी सलवटों को देख लिया था और वह माहौल को कुछ हलका करना चाहती थी.

‘स्नेहा, तुम भी न,” नेहा ने यह कह कर हंसी तो स्नेहा भी खिलखिला पड़ी थी.नेहा उस अलबम की हर फोटो को बड़े  गौर से देख रही थी. वेलकम पार्टी, टीचर्स डे, फेयरवैल, ऐनुअल फंक्शन… हर फोटो में नेहा और स्नेहा छाई हुई थीं. दिन हंसतेगाते, पाकीज़ा जूस सैंटर का जूस पीते हुए बीत  रहे थे. पर दिन हमेशा एक से नहीं रहते. ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर के आख़िरी दिनों में स्नेहा कालेज में लगातार गैरहाजिर हो रही थी. नेहा चिंतित थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आ रही है स्नेहा? पता चला, स्नेहा बहुत दिनों से हौस्पिटल में एडमिट है. स्नेहा को क्या हो गया, नेहा परेशान हो उठी.

नेहा हौस्पिटल पहुंची जहां स्नेहा एडमिट थी. स्नेहा का चेहरा स्याह पड़ चुका था, आंखें गड्ढे में चली गई थीं, चेहरा फीकाफीका सा लग रहा था, देह जैसे हड्डी का ढांचा. नेहा को स्नेहा का वह पहले वाला दमकता सौंदर्य याद आ गया. और अब…

‘आओ नेहा,’ एक कमज़ोर सी आवाज़ और फीकी मुसकान के साथ स्नेहा बोली. नेहा उस के पास रखे स्टूल पर बैठ गई. नेहा ने स्नेहा का हाथ पकड़ते हुए पूछा, ‘क्या  हो गया स्नेहा? किसी को कुछ बताया भी नहीं, अकेलेअकेले ही सारे दुख़ झेलती रही?’

नहीं, नहीं नेहा, कुछ पता ही नहीं चला. पहले फीवर और हलकी कमज़ोरी थी, फीवर की दवा ले लेती थी, पर घर का काम भी रहता था और वीकनैस बढ़ने लगी.  और एक दिन खून की बहुत सारी उलटियां हुईं. मेरे पापा तो बहुत घबरा गए. यहां हौस्पिटल में एडमिट करा दिया,’ स्नेहा धीरेधीरे सारी बातें नेहा को बताती जा रही थी.

‘और तुम्हारी मम्मी?’ नेहा ने तुरंत ही पूछा.‘मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं चलता. वे तो…’ बोलतेबोलते स्नेहा रुक गई और एक गहरी सांस अंदर खींच कर रह गई.

‘पर खून की उलटियां क्यों हुईं तुम्हें?’ नेहा अगले प्रश्न के साथ तैयार थी. ‘दरअसल, मुझे सीवियर  ट्यूबरकुलोसिस है. पूरे लंग्स में इन्फैक्शन है. थोड़ा मुझ से दूर ही रहो,’ स्नेहा पहले तो कुछ गंभीर थी, फिर हंस दी.

‘पर स्नेहा, तुम्हारा इलाज तो सही हो रहा है न, यहां के डाक्टर्स अच्छे हैं न? नेहा ने चिंतित स्वर में पूछा.  स्नेहा के चेहरे पर शरारत टपक गई, बोली, ‘अरे यार नेहा, डाक्टर्स तो अच्छे हैं, एक नहीं दोदो अच्छे हैं, एक सीनियर डाक्टर और एक जूनियर डाक्टर. सीनियर वाला न, मेरे गढ़वाल का ही है. पर, सूरत जूनियर वाले की ज़्यादा अच्छी है.’  ‘स्नेहा, तुम नहीं सुधरोगी, इतनी बीमार हो, फिर भी…’ नेहा हंसते हुए उस का गाल सहलाते हुए बोली.

नेहा, तो क्या रोती रहूं हर समय. अब तुम ने ही पूछा कि डाक्टर्स कैसे हैं तो मैं ने बताया,’ स्नेहा हलके गुस्से से बोली. इतने में एक साधारण नयननक्श  का सांवला डाक्टर आया, उसे एग्जामिन किया और पूछा, ‘स्नेहा जी, अब वौमिटिंग बंद हुई, फीलिंग बेटर नाउ?’

‘हां डाक्टर,’ स्नेहा ने धीमे से जवाब दिया. पीछे एक हैंडसम सा जूनियर डाक्टर साथ था. उस ने स्नेहा को कुछ दवाएं दी और मुसकराते हुए चला गया. ‘देखा स्नेहा, दोनों डाक्टर अच्छे हैं न,’ स्नेहा चहक कर बोली. नेहा प्यार से स्नेहा को सहलाने लगी और बोली, ‘स्नेहा, जल्दी से ठीक हो जाओ, परीक्षाएं पास आ रही हैं, मैं तुम्हें नोट्स दे दूंगी, ओके.’

स्नेहा ने भी नेहा का दूसरा हाथ अपने हाथों से कस के पकड़ लिया और अंसुओं की दो बूंदें उस की आंखों से ढ़ुलक गईं. नेहा अपनी आंखों को छलकने से बचाने के लिए तेज़ आवाज़ में बोली, ‘माय डियर, गेट वैल सून.’ नेहा भीगी पलकों के साथ वहां से चली आई.

परीक्षाएं पास आ गई थीं. स्नेहा की तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं हो पाई थी. वह फाइनल एग्ज़ाम नहीं दे सकी. स्नेहा हौस्पिटल से डिस्चार्ज हो कर अपनी दादी के साथ पहाड़ चली गई. इधर नेहा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गई. वहीं होस्टल ले कर पोस्टग्रेजुएशन करने लगी और साथ में सिविल सर्विसेज़  की भी तैयारी कर रही थी. उसे बिलकुल भी फुरसत न मिलती. मोबाइल उन दिनों था नहीं जो हर समय दोस्तों से वह बात कर सके.

लखनऊ घर बात करने के लिए हफ्ते में एक बार होस्टल के पीसीओ  जा पाती  थी. नेहा स्नेहा को याद करती, पर बात नहीं हो पाती. ‘पता नहीं स्नेहा कैसी होगी, उस की तबीयत… उस की मां का क्या हाल होगा…’ एक लंबी सांस खींच कर नेहा किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाती.

स्नेहा से मिले हुए नेहा को 10-11 महीने हो रहे थे. नेहा दिल्ली से  छुट्टियों में अपने घर आई हुई थी. कहते हैं, किसी को शिद्दत से याद करो तो वह मिल ही जाता है. उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ. स्नेहा ने नेहा को अचानक ही फ़ोन लगा दिया था.

अब नेहा दूसरे दिन स्नेहा के फ़ोन का इंतज़ार कर रही थी और साथ ही चिंतित भी थी क्योंकि स्नेहा ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. कुछ देर बाद फ़ोन की घंटी बजी. नेहा ने पहली घंटी बजते ही रिसीवर  उठा लिया.

“हैलो, स्नेहा?” “हां नेहा, मैं स्नेहा बोल रही हूं.”

“स्नेहा, कल तुम ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. क्या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं हुई?” नेहा ने कुछ घबराते हुए पूछा. “नेहा, मुझे कल जाना था हौस्पिटल डाक्टर से मिलने.”

“वही तो मैं पूछ रही हूं स्नेहा. डाक्टर से मिलने तुम्हें क्यों जाना था”? नेहा लगभग झुंझला कर  बोली.”नेहा, जब तुम मुझ से मिलने हौस्पिटल आई थीं, तो याद है तुम्हें 2 डाक्टर्स मुझे एग्ज़ामिन करने आए थे.”

“हांहां, याद है मुझे. एक तो तुम्हारे पहाड़ के थे और दूसरे एक जूनियर डाक्टर थे.””हां, पहाड़ वाले डाक्टर स्वप्निल जोशी. उन्होंने मुझे बुलाया था,” स्नेहा बताने लगी, “नेहा, तुम्हें याद है न, मेरी तबीयत कितनी खराब थी, खून की उलटियां हो रही थीं, मेरा चेहरा कैसा स्याह पड़ चुका था. मम्मी की हालत तो तुम जानती ही हो. जब मुझे हौस्पिटल में एडमिट कराया तो मेरी हालत बहुत खराब थी. ऐसे में डा. स्वप्निल ने ही मुझे एग्ज़ामिन किया. उन की ही दवाओं से मेरी उलटियां रुकीं. थोड़ी तबीयत हलकी हुई. अब जब भी डा. स्वप्निल मेरा चैकअप करने आते, मुझे आदतन हंसी आ जाती. तुम्हें तो पता है, मुझ से ज़्यादा देर सीरियस नहीं रहा जाता. उस दिन भी डा. स्वप्निल को देख मैं यों ही हंस पड़ी. डा. ने पूछा, “हैलो स्नेहा, फीलिंग बेटर नाऊ?”

“या डाक्टर,” मैं ने मुसकराते हुए उत्तर दिया. “पूरा आराम कीजिए स्नेहा आप और मेडिसिन्स टाइम से लीजिए पूरे 6 महीने का कोर्स है.”जी डाक्टर,” मैं फिर मुसकरा उठी. डा. स्वप्निल भी मुसकरा पड़े.

एक दिन मैं ने शीशे में में अपना चेहरा गौर से देखा तो मैं खुद घबरा गई. आंखें धंसी, चेहरा पीला, सारी रंगत चली गई थी. बस. नहीं कुछ गया था तो वह थी मेरी हंसी.  मम्मी की चिंता, पापा की चिंता, दादी भी बूढ़ी हो चली हैं…कैसे क्या होगा? और मेरी भी तबीयत…भाई भी छोटा है… क्या ज़रूरत थी कुदरत को मुझे इस तरह बीमार करने की. बहुत गुस्सा आता मुझे. पर इन सब के बीच ज़िंदगी से नफ़रत नहीं कर  पाती. कुछ भी अच्छा एहसास होता, तो बरबस ही होंठों पर मुसकान आ जाती. सो, डा. स्वप्निल का एहसास भी कुछ अच्छा सा था. डा. स्वप्निल से मैं धीरेधीरे खुलने लगी. उन्हें अपने घर के बारे में, मम्मी के विषय में बताया. डा. स्वप्निल गंभीरता से मेरी बातें सुनते. मुझे भी उन से बातें करना अच्छा लगता. उस दिन 25 अगस्त को मेरा बर्थडे था. डा.

स्वप्निल मुझे चैक करने आए तो स्टेथोस्कोप के साथ उन के हाथों में लाल गुलाब के फूलों का बुके भी था. उन्होंने बुके पकड़ाते हुए कहा, “हैप्पी बर्थडे स्नेहा.” “पर आप को कैसे पता चला?” मैं ने चौंकते हुए पूछा.

“ह्म्म्म्म, स्नेहा, वह दरअसल, मैं ने तुम्हारी फ़ाइल देखी थी. उस में बर्थडे की एंट्री थी. वहीं से पता चला,” डा. स्वप्निल मुसकराते हुए बोले”अच्छा, तो डाक्टर साहब मरीज़ की सारी अनोट्मी देखते हैं,” मैं ने भवें तिरछी कर हंसते हुए कहा.

डा. स्वप्निल कुछ औकवर्ड फील करने लगे, फिर कुछ सीरियस हो कर मेरी ओर मुखातिब हुए, “स्नेहा, आज तुम्हारा बर्थडे है, उपहार तो मुझे देना चाहिए. पर एक उपहार मैं तुम से मांगना चाहता हूं.”  “क्या, क्या?” मैं ने हैरानी और आशंका से प्रश्न किया.डा. स्वप्निल बिना एक पल की देरी किए हुए कह उठे, “स्नेहा, मुझ से शादी करोगी?”

मैं आश्चर्य में पड़ गई. समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूं. मेरे कानों से ऐसा लगा मानो गरम हवा निकल रही हो. दिल बैठा जा रहा था. सुन्न सी हालत हो गई थी मेरी.

मैं ने लड़खड़ाती ज़बान से कहा, “पर डाक्टर, मेरी बीमारी…मेरी मां की हालत… आप कैसे…” आवाज़ मानो घुट कर गले में ही अटक गई.

डा. स्वप्निल ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगे, “स्नेहा, तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाएगी, मुझ पर विश्वास करो. मैं तुम्हारे घर की स्थिति को जानता हूं. ये सब जानते हुए भी मुझे तुम्हारा ही हाथ थामना है. पता है क्यों, क्योंकि तुम से मिल कर मेरी दवाओं, इंजैक्शन, औपरेशन से भारी रूखी ज़िंदगी में मुसकराहट आ जाती है. मेरी सीरियसनैस में चंचलता आ जाती है. तुम से मिल कर ज़िंदगी से प्यार होने लगता है. मेरा ख़ालीपन भरने लगता है. बोलो स्नेहा, मेरा साथ तुम्हें पसंद है.”

डा. स्वप्निल इतना कह कर नम आंखों से मुझे देखने लगे. मेरी पलकें अनायास ही झुक गईं. डा. स्वप्निल की बातों में,  उन के हाथों के स्पर्श में भरोसे की खुशबू को मैं ने खूब महसूस किया  और…”

“और, फिर क्या हुआ?” नेहा ने उछलते हुए पूछा. “फिर क्या हुआ?? हुआ यह कि इस संडे को मेरी एंग़ेज़मैंट है डा. स्वप्निल के साथ और उस दिन मुझे उन्होंने रिंग पसंद करवाने के लिए हौस्पिटल बुलाया था. तुम्हें ज़रूर आना है, ” स्नेहा बोलते हुए अपनी स्वाभाविक हंसी के साथ हंस पड़ी.

नेहा  बड़ी गर्मजोशी  से बोली,  “ओह स्नेहा, तुम ने अपनी हंसी में डाक्टर को फंसा ही लिया. सच, मैं बहुत खुश हूं तुम्हारे लिए. वैसे, डाक्टर साहब ने ठीक ही कहा कि तुम से मिल कर वीरान ज़िंदगी में बहार आ जाती है, बोरिंग ज़िंदगी रंगीन लगने लगती है और ज़िंदगी से प्यार होने लगता है. आख़िर प्यार है नाम तुम्हारा, स्नेहा डियर.”

“और तुम्हारा भी,” स्नेहा खनकती आवाज़ में बोल  पड़ी. दोनों सहेलियां एकदूसरे को फोन पर ही मनभर कर महसूस करती हुईं ज़ोर से खिलखिला पड़ीं.

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें