Breakup Story : धोखेबाज गर्लफ्रैंड

Breakup Story: ड्राइंगरूममें सोफे पर बैठ पत्रिका पढ़ रही स्मिता का ध्यान डोरबैल बजने से टूटा. दरवाजा खोलने पर स्मिता को बेटे यश का उड़ा चेहरा देख धक्का लगा. घबराई सी स्मिता बेटे से पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ यश? सब ठीक तो है?’’

बिना कुछ कहे यश सीधे अपने बैडरूम में चला गया. स्मिता तेज कदमों से पीछेपीछे भागी सी गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ यश?’’

यश सिर पकड़े बैड पर बैठा सिसकने लगा. जैसे ही स्मिता ने उस के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ रखा वह मां की गोद में ढह सा गया और फिर फूटफूट कर रो पड़ा.

स्मिता ने बेहद परेशान होते हुए पूछा, ‘‘बताओ तो यश क्या हुआ?’’

यश रोए जा रहा था. स्मिता को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस का 25 साल का बेटा आज तक ऐसे नहीं रोया था. उस का सिर सहलाती वह चुप हो गई थी. समझ गई थी कि थोड़ा संभलने पर ही बता पाएगा. यश की सिसकियां रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. कुछ देर बाद फिर स्मिता ने पूछा, ‘‘बताओ बेटा क्या हुआ?’’

‘‘मां, नविका से ब्रेकअप हो गया.’’

‘‘क्या? यह कैसे हो सकता है? नविका को यह क्या हुआ? बेटा यह तो नामुमकिन है.’’

यश ने रोते हुए कहा, ‘‘नविका ने अभी फोन पर कहा कि अब हम साथ नहीं हैं. वह यह रिश्ता खत्म करना चाहती है.’’

स्मिता को गहरा धक्का लगा. यह कैसे हो सकता है. 4 साल से वह, यश के पापा विपुल, यश की छोटी बहन समृद्धि नविका को इस घर की बहू के रूप में ही देख रहे हैं. इतने समय से स्मिता यही सोच कर चिंतामुक्त रही कि जैसी केयर नविका यश की करती है, वैसी वह मां हो कर भी नहीं कर पाती. इस लड़की को यह क्या हुआ? स्मिता के कानों में नविका का मधुर स्वर मां…मां… कहना गूंज उठा. बीते साल आंखों के आगे घूम गए. बेटे को कैसे चुप करवाए वह तो खुद ही रोने लगी. वह तो खुद ही इस लड़की से गहराई से जुड़ चुकी है.

अचानक यश उठ कर बैठ गया. मां की आंखों में आंसू देखे, तो उन्हें पोंछते हुए फिर से रोने लगा, ‘‘मां, यह नविका ने क्या किया?’’

‘‘उस ने ऐसे क्यों किया, यश? कल रात तो वह यहां हमारे साथ डिनर कर के गई. फिर रातोंरात ऐसी कौन सी बात हो गई?’’

‘‘पता नहीं, मां. उस ने कहा कि अब वह इस रिश्ते को और आगे नहीं ले जा पाएगी. उसे महसूस हो रहा है कि वह इस रिश्ते में जीवनभर के लिए नहीं बंध सकती. वह भी हम सब को बहुत मिस करेगी, उस के लिए भी मुश्किल होगा पर वह अपनेआप को संभाल लेगी और कहा कि मैं भी खुद को संभाल लूं और आप सब को उस की तरफ से सौरी कह दूं.’’

स्मिता हैरान व ठगी से बैठी रह गई थी. यह क्या हो रहा है? लड़कों की

बेवफाई, दगाबाजी तो सुनी थी पर यह लड़की क्या खेल खेल गई मेरे बेटे के साथ… हम सब की भावनाओं के साथ. दोनों मांबेटे ठगे से बैठे थे. स्मिता ने बहुत कहा पर यश ने कुछ नहीं खाया. चुपचाप बैड पर आंसू बहाते हुए लेटा रहा. स्मिता बेचैन सी पूरे घर में इधर से उधर चक्कर लगाती रही.

शाम को विपुल और समृद्धि भी आ गए. आते ही दोनों ने घर में पसरी उदासी महसूस कर ली थी. सब बात जानने के बाद वे दोनों भी सिर पकड़ कर बैठ गए. यह कोई आम सी लड़की और एक आम से लड़के के ब्रेकअप की खबर थोड़े ही थी. इतने लंबे समय में नविका सब के दिलों में बस सी गई थी.

इस घर से दूर नविका तो खुद ही नहीं रह सकती थी. घर में हर किसी को खुश करती थकती नहीं थी. विपुल के बहुत जोर देने पर यश ने सब के साथ बैठ कर मुश्किल से खाना खाया, डाइनिंगटेबल पर अजीब सा सन्नाटा था. समृद्धि को भी नविका के साथ बिताया एकएक पल याद आ रहा था. नविका से कितनी छोटी है वह पर कैसी दोस्त बन गई थी. कुछ भी दिक्कत हो नविका झट से दूर कर देती थी.

विपुल को भी उस का पापा कह कर बात करना याद आ रहा था. सब सोच में डूबे हुए थे कि यह हुआ क्या? कल ही तो यहां साथ में बैठ कर डिनर कर रही थी. आज ब्रेकअप हो गया. यह एक लड़के से ब्रेकअप नहीं था. नविका के साथ पूरा परिवार जुड़ चुका था. सब ने बहुत बेचैनी भरी उदासी से खाना खत्म किया. कोई कुछ नहीं बोल रहा था.

स्मिता से बेटे की आंसू भरी आंखें देखी नहीं जा रही थीं. उस के लिए बेटे को इस हाल

में देखना मुश्किल हो रहा था. रात को सोने

से पहले स्मिता ने पूछा, ‘‘यश, मैं नविका से

बात करूं?’’

‘‘नहीं मां, रहने दो. अब वह बात ही नहीं करना चाहती. फोन ही नहीं उठा रही है.’’

स्मिता हैरान. दुखी मन से बैड पर लेट तो गई पर उस की आंखों से नींद कोसों दूर विपुल के सोने के बाद बालकनी में रखी कुरसी पर आ कर बैठ गई. पिछले 4 सालों की एकएक बात आंखों के सामने आती चली गई…

यश और नविका मुंबई में ही एक दोस्त की पार्टी में मिले थे. दोनों की दोस्ती हो गई थी. नविका यश से 3 साल बड़ी थी, यह जान कर भी यश को कोई फर्क नहीं पड़ा था. वह नविका से बहुत प्रभावित हुआ था. नविका सुंदर, आत्मनिर्भर, आधुनिक, होशियार थी. अपनी उम्र से बहुत कम ही दिखती थी. स्मिता के परिवार को भी उस से मिल कर अच्छा लगा था.

चुटकियों में यश और समृद्धि के किसी भी प्रोजैक्ट में हैल्प करती. बेटे से बड़ी लड़की को भी उस की खूबियों के कारण स्मिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था. स्मिता और विपुल खुले विचारों के थे. नविका के परिवार में उस के मम्मीपापा और एक भाई था. एक दिन नविका ने स्मिता से कहा कि मां आप मुझे कितना प्यार करती हैं और मेरी मम्मी तो बस मेरे भाई के ही चारों तरफ घूमती रहती हैं. मैं कहां जा रही हूं, क्या कर रही हूं, मम्मीपापा को इस से कुछ लेनादेना नहीं होता. भाई ही उन दोनों की दुनिया है. इसलिए मैं जल्दी आत्मनिर्भर बनना चाहती हूं.

सुन कर स्मिता ने नविका पर अपने स्नेह की बरसात कर दी थी.

उस दिन से तो जैसे स्मिता ने मान लिया कि उस के 2 नहीं 3 बच्चे हैं. कुछ भी होता

नविका जरूर होती. कहीं जाना हो नविका साथ होती. यह तय सा ही हो गया था कि यश के सैटल हो जाने के बाद दोनों का विवाह कर दिया जाएगा.

एक दिन स्मिता ने कहा, ‘‘नविका, मैं सोच रही हूं कि तुम्हारे पेरैंट्स से मिल लूं.’’

इस पर नविका बोली, ‘‘रहने दो मां. अभी नहीं. मेरे परिवार वाले बहुत रूढि़वादी हैं. जल्दी नहीं मानेंगे. मुझे लगता कि अभी रुकना चाहिए.’’

यश तो आंखें बंद कर नविका की हर बात में हां में हां ऐसे मिलाता था कि कई बार स्मिता हंस कर कह उठती थी, ‘‘विपुल, यह तो पक्का जोरू का गुलाम निकलेगा.’’

विपुल भी हंस कर कहते थे, ‘‘परंपरा निभाएगा. बाप की तरह बेटा भी जोरू का

गुलाम बनेगा.’’

कई बार स्मिता तो यह सोच कर सचमुच मन ही मन गंभीर हो उठती थी कि यश सचमुच नविका के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकता. अपनी हर चीज के लिए उस पर निर्भर रहता है. कोई फौर्म हो, कहीं आवेदन करना हो, उस के सब काम नविका ही करती और नविका यश को खुश रखने का हर जतन करती. उसे मुंबई में ही अच्छी जौब मिल गई थी.

जौब के साथसाथ वह घर के हर सदस्य की हर चीज में हमेशा हैल्प करती. स्मिता मन ही मन हैरान होती कि यह लड़की क्या है… इतना कौन करता है? किसी को कोई भी जरूरत हो, नविका हाजिर और उस का खुशमिजाज स्वभाव भी लाजवाब था जिस के कारण स्मिता का उस से रोज मिलने पर भी मन नहीं भरता था. जितनी देर घर में रहती हंसती ही रहती. स्मिता नविका को याद कर रो पड़ी. रात के 2 बजे बालकनी में बैठ कर वह नविका को याद कर रो रही थी.

स्मिता का बारबार नविका को फोन कर पूछने का मन हो रहा था कि यह क्या किया तुम ने? यश के मना करने के बावजूद स्मिता यह ठान चुकी थी कि वह यह जरूर पूछेगी नविका से कि उस ने यह इमोशनल चीटिंग क्यों की? क्या इतने दिनों से वह टाइमपास कर रही थी? अचानक बिना कारण बताए कोई लड़की ब्रेकअप की घोषणा कर देती है, वह भी यश जैसे नर्म दिल स्वभाव वाले लड़के के साथ जो नविका को खुश देख कर ही खुश रहता था.

इतने में ही अपने कंधे पर हाथ  का स्पर्श महसूस हुआ तो स्मिता चौंकी. यश था, उस की गोद में सिर रख कर जमीन पर ही बैठ गया. दोनों चुप रहे. दोनों की आंखों से आंसू बहते रहे.

फिर विपुल भी उठ कर आ गए. दोनों को प्यार से उठाते हुए गंभीर स्वर में कहा, ‘‘जो हो गया, सो हो गया, अब यही सोच कर तुम लोग परेशान मत हो. आराम करो, कल बात करेंगे.’’

अगले दिन भी घर में सन्नाटा पसरा रहा. यश चुपचाप सुबह कालेज चला गया. स्मिता ने उस से दिन में 2-3 बार बात की. पूछा, ‘‘नविका से बात हुई?’’

‘‘नहीं, मम्मी वह फोन नहीं उठा रही है.’’

उदासीभरी हैरानी में स्मिता ने भी दिन बिताया. वह बारबार

अपना फोन चैक कर रही थी. इतने सालों में आज पहली बार न नविका का कोई मैसेज था न ही मिस्ड कौल. स्मिता को तो स्वयं ही नविका के टच में रहने की इतनी आदत थी फिर यश को कैसा लगा रहा होगा. यह सोच कर ही उस का मन उदास हो जाता था.

3 दिन बीत गए, नविका ने किसी से संपर्क नहीं किया. घर में चारों उदास थे, जैसे घर का कोई महत्त्वपूर्ण सदस्य एकदम से साथ छोड़ गया हो. सब चुप थे. अब नविका का कोई नाम ही नहीं ले रहा था ताकि कोई दुखी न हो. मगर बिना कारण जाने स्मिता को चैन नहीं आ रहा था. वह बिना किसी को बताए बांद्रा कुर्ला कौंप्लैक्स पहुंच गई. नविका का औफिस उसे पता था.

अत: उस के औफिस चल दी. औफिस के बाहर पहुंच सोचा एक बार फोन करती. अगर उठा लिया तो ठीक वरना औफिस में चली जाएगी.

अत: नविका के औफिस की बिल्डिंग के बाहर खड़ी हो कर स्मिता ने फोन किया. हैरान हुई जब नविका ने उस का फोन उठा लिया, ‘‘नविका, मैं तुम्हारे औफिस के बाहर खड़ी हूं, मिलना है तुम से.’’

‘‘अरे, मां, आप यहां? मैं अभी

आती हूं.’’

नविका दूर से भागी सी आती दिखी तो स्मिता की आंखें उसे इतने दिनों बाद देख भीग सी गईं. वह सचमुच नविका को प्यार करने लगी थी. उसे बहू के रूप में स्वीकार कर चुकी थी. उस पर अथाह स्नेह लुटाया था. फिर यह लड़की अचानक गैर क्यों

हो गई?

नविका आते ही उस के गले लग गई. दोनों रोड पर यों ही बिना कुछ कहे कुछ पल खड़ी रहीं. फिर नविका ने कहा, ‘‘आइए, मां, कौफी हाउस चलते हैं.’’

नविका स्मिता का हाथ पकड़े चल रही थी. स्मिता का दिल भर आया. यह हाथ, साथ, छूट गया है. दोनों जब एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गईं तो नविका ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘मां, आप कैसी हैं?’’

स्मिता ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, मैं जानने आई हूं?’’

नविका ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मां, मैं थकने लगी थी.’’

‘‘क्यों? किस बात से? हम लोगों के प्यार में कहां कमी देखी तुम ने? इतने साल हम से जुड़ी रही और अचानक बिना कारण बताए यह सब किया जाता है? यह पूरे परिवार के साथ इमोशनल चीटिंग नहीं है?’’ स्मिता के स्वर में नाराजगी घुल आई.

‘‘नहीं मां, आप लोगों के प्यार में तो कोई कमी नहीं थी, पर मैं अपने ही झूठ से थकने लगी थी. मैं ने आप लोगों से झूठ बोला था. मैं यश से 3 नहीं, 7 साल बड़ी हूं.’’

स्मिता बुरी तरह चौंकी, ‘‘क्या?’’

‘‘हां, मैं तलाकशुदा भी हूं. इसलिए मैं ने आप को कभी अपनी फैमिली से मिलने नहीं दिया. मैं जानती थी आप लोग यह सुन कर मुझ से दूर हो जाएंगे. मैं इतनी लविंग फैमिली खोना नहीं चाहती थी. इसलिए झूठ बोलती थी.’’

‘‘शादी कहां हुई थी? तलाक क्यों हुआ था?’’

‘‘यहीं मुंबई में ही. मैं ने घर से भाग कर शादी की थी. मेरे पेरैंट्स आज तक मुझ से नाराज हैं और फिर मेरी उस से नहीं बनी तो तलाक हो गया. मैं मम्मीपापा के पास वापस आ गई. उन्होंने मुझे कभी माफ नहीं किया. मैं ने आगे पढ़ाई

की. आज मैं अच्छी जौब पर हूं. फिर यश मिल गया तो अच्छा लगा. मैं ने अपना सब सच छिपा लिया. यश अच्छा लड़का है. मुझ से काफी छोटा है, पर उस के साथ रहने पर उस की उम्र के हिसाब से मुझे कई दिक्कतें होती हैं. उस की उम्र से मैच करने में अपनेआप पर काफी मेहनत करनी पड़ती है. आजकल मानसिक रूप से थकने लगी हूं.

‘‘यश कभी अपनी दूसरी दोस्तों के साथ बात भी करता है तो मैं असुरक्षित

महसूस करती हूं. मैं ने बहुत सोचा मां. उम्र के अंतर के कारण मैं शायद यह असुरक्षा हमेशा महसूस करूंगी. मैं ने भी दुनिया देखी है मां. बहुत सोचने के बाद मुझे यही लगा कि अब मुझे आप लोगों की जिंदगी से दूर हो जाना चाहिए. मैं वैसे भी अपनी शर्तों पर, अपने हिसाब से जीना चाहती हूं. आत्मनिर्भर हूं, आप लोगों से जुड़ कर समाज का कोई ताना, व्यंग्य भविष्य में मैं सुनना पसंद नहीं करूंगी.

‘‘मैं ने बहुत मेहनत की है. अभी और ऊंचाइयों पर जाऊंगी, आप लोग हमेशा याद आएंगे. लाइफ ऐसी ही है, चलती रहती है. आप ठीक समझें तो घर में सब को बता देना, सब आप के ऊपर है और हम कोई सैलिब्रिटी तो हैं नहीं, जिन्हें इस तरह का कदम उठाने पर समाज का कोई डर नहीं होता. हम तो आम लोग हैं. मुझे या आप लोगों को रोजरोज के तानेउलाहने पसंद नहीं आएंगे. यश में अभी बहुत बचपना है. यह भी हो सकता है कि समाज से पहले वही खुद बातबात में मेरा मजाक उड़ाने लगे. मुझे बहुत सारी बातें सोच कर आप सब से दूर होना ही सही लग रहा है.’’

कौफी ठंडी हो चुकी थी. नविका पेमैंट कर उठ खड़ी हुई. कैब आ गई तो स्मिता के गले लगते हुए बोली, ‘‘आई विल मिस यू, मां,’’ और फिर चल दी.

स्मिता अजीब सी मनोदशा में कैब में बैठ गई. दिल चाह रहा था, दूर जाती हुई नविका को आवाज दे कर बुला ले और कस कर गले से लगा ले, पर वह  जा चुकी थी, हमेशा के लिए. उसे कह भी नहीं पाई थी कि उसे भी उस की बहुत याद आएगी. 4 सालों से अपने सारे सच छिपा कर सब के दिलों में जगह बना चुकी थी वह. सच ही कह रही थी वह कि सच छिपातेछिपाते थक सी गई होगी. अगर वह अपने भविष्य को ले कर पौजिटिव है, आगे बढ़ना चाहती है, स्मिता को भले ही अपने परिवार के साथ यह इमोशनल चीटिंग लग रही हो, पर नविका को पूरा हक है अपनी सोच, अपने मन से जीने का.

अगर वह अभी से इस रिश्ते में मानसिक रूप से थक रही है, अभी से यश और अपनी उम्र के अंतर के बोझ से थक रही है तो उसे पूरा हक है इस रिश्ते से आजाद होने का. मगर यह सच है कि स्मिता को उस की याद बहुत आएगी. मन ही मन नविका को भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर स्मिता ने गहरी सांस लेते हुए कार की सीट पर बैठ कर आंखें मूंद लीं.

Online Hindi Story : गलती का एहसास

Online Hindi Story : सुबह से ही घर का माहौल थोड़ा गरम था. महेश की अपने पिता से रात को किसी बात पर अनबन हो गई थी. यह पहली बार नहीं हुआ था.

ऐसा अकसर ही होता था। महेश के विचार अपने पिता के विचारों से बिलकुल अलग थे पर महेश अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता था और उन से बहुत प्रेम भी करता था.

महेश बहुत ही साफदिल इंसान था. किसी भी तरह के दिखावे या बनावटीपन की उस की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी.

महेश के पिता मनमोहन राव लखनऊ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. बड़ेबड़े लोगों के साथ उन का उठनाबैठना था. उन्होंने अपनी मेहनत से कपड़ों का बहुत बड़ा कारोबार खड़ा किया था. इस बात का उन्हें बहुत गुमान भी था और होता भी क्यों नहीं, तिनके से ताज तक का सफर उन्होंने अकेले ही तय किया था.

महेश को इस बात का बिलकुल घमंड नहीं था. अपने मातापिता की इकलौती संतान होने का फायदा उस ने कभी नहीं उठाया था. महेश की मां रमा ने उस की बहुत अच्छी परवरिश की थी. उस में संस्कारों की कोई कमी नहीं थी. हर किसी का आदरसम्मान करना और जरूरतमंदों के लिए दिल में दया रखना उस का स्वभाव था. वह घर के नौकरों से भी बहुत तमीज और सलीके से बात करता था. उस के स्वभाव के कारण वह अपने दोस्तों में भी बहुत प्रिय था.

आधी रात को भी अगर कोई परेशानी में होता था तो एक फोन आने पर महेश तुरंत उस की मदद के लिए पहुंच जाता था. किसी के काम आ कर उस की सहायता कर के महेश को बहुत सुकून मिलता था.

11 दिसंबर का दिन था. दोहरी खुशी का अवसर था. महेश के पिता मनमोहन राव का जन्मदिन था और साथ में उन की नई फैक्टरी का उद्घाटन भी था. इस अवसर पर घर में बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन किया गया था.

महेश की मां ने सुबह ही उस को चेतावनी देते हुए कहा,”शाम को मेहमानों के आने से पहले घर जल्दी आ जाना.”

महेश देर से घर नहीं आता था, पर औफिस के बाद दोस्तों के साथ कभी इधरउधर चला भी गया तो घर आने में थोड़ी देर हो जाती थी.

अपने पिता का इतना बड़ा कारोबार होने के बाद भी महेश एक मैगजीन के लिए फोटोग्राफी का काम करता था. उसे इस काम में शुरू से ही दिलचस्पी थी और उस ने तय किया था कि अपने काम से ही एक दिन खुद की एक पहचान बनाएगा.

उस की सैलरी बहुत ज्यादा नहीं थी पर महेश को बहुत ज्यादा की ख्वाहिश कभी रही भी नहीं. वह बहुत थोड़े में ही संतुष्ट होने वाला इंसान था.

शाम होने को आई थी. मेहमानों का आगमन शुरू हो गया था. महेश भी औफिस से आ कर अपने कमरे में तैयार होने चला गया था.

मनमोहन राव और उन की पत्नी रमा मुख्यद्वार पर मेहमानों का स्वागत करने के लिए खड़े थे. महेश भी तैयार हो कर आ गया था. थोड़ी ही देर में उन का बगीचा मेहमानों की उपस्थिति से रौनक हो चुका था. महेश की मां के बहुत जोर दे कर बोलने पर भी महेश ने अपने किसी दोस्त को पार्टी में आने का आमंत्रण नहीं दिया था.

टेबल पर केक रख दिया गया था. महेश के पिता ने केक काट कर पहला टुकड़ा अपनी पत्नी रमा को खिलाया फिर दूसरा टुकड़ा ले कर वह बेटे को खिलाने लगे तो महेश ने उन के हाथ से केक ले लिया और उन्हें खिला दिया.

फिर अपने पिता के पैर छू कर बोला,”जन्मदिन की बहुतबहुत शुभकामनाएं पिताजी.”

मनमोहन राव ने बेटे को सीने से लगा लिया. महेश की मां यह सब देख कर बहुत खुश हो रही थीं.

बहुत कम ही अवसर होते थे जब बापबेटे का यह स्नेह देखने को मिलता था, नहीं तो विचारों में मतभेद के कारण दोनों में बात करतेकरते बहस शुरू हो जाती थी और बातचीत का सिलसिला कई दिनों तक बंद रहता था.

वेटर स्नैक्स और ड्रिंक्स ले कर घूम रहे थे. अकसर बड़ीबड़ी पार्टियां और समारोहों में ऐसा ही होता है और इस तरह की पार्टीयों को ही आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है.

इस तरह की पार्टियां महेश ने बचपन से ही अपने घर में देखी थी, इस के बावजूद भी वह इस तरह की पार्टियों का आदी नहीं था. ऐसे माहौल में उसे बहुत जल्द घुटन महसूस होने लगती थी.

महेश के पिता ने उस को आवाज दे कर बुलाया,”महेश, इधर आओ. विजय अंकल से मिलो, कब से तुम्हें पूछ रहे हैं.” विजय अंकल मनमोहन राव के बहुत करीबी मित्रों में से एक थे और उन का भी लखनऊ में अच्छाखासा कारोबार फैला था.

महेश ने “हैलो अंकल” बोल कर उन के पैर छुए तो वह बोलने लगे,”यार मनमोहन तुम्हारा बेटा तो हाईफाई करने के जमाने में भी पैर छूता है, आधुनिकता से कितनी दूर है. तुम्हें कितनी बार समझाया था कि इकलौता बेटा है तुम्हारा, इसे अमेरिका भेजो पढ़ाई के लिए, थोड़ा तो आधुनिक हो कर आता.”

महेश चुपचाप मुसकराता हुआ खड़ा था.

विजय अंकल फिर बोलने लगे,”और बताओ कैसी चल रही है तुम्हारी फोटोग्राफी की नौकरी? अब छोड़ो भी यह सब. क्या मिलता है यह सब कर के?

“अब अपने पिता के कारोबार की डोर संभालो. जितनी सैलरी तुम्हें मिलती है उतनी तो तुम्हारे पिता घर के नौकरों में बांट देते हैं. अपने पिता की शख्सियत का तो खयाल रखो.”

पिता की शख्सियत की बात सुन कर महेश ने अपनी चुप्पी तोड़ने का निर्णय ले लिया था.

महेश बोला,”अंकल, काम को ले कर मेरा नजरिया जरा अलग है. काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि मैं ने आज तक ऐसा कोई भी काम किया है जिस से
मेरे पिताजी की छवि या उन की शख्सियत को कोई हानि पहुंची हो.

“फोटोग्राफी मेरा शौक है. इस काम को करने से मुझे खुशी मिलती है और रही बात पैसों की, तो ज्यादा पैसों की ना मुझे जरूरत है और ना ही कोई चाह,” बोलतेबोलते महेश की आवाज ने जोर पकड़ लिया था.

मनमोहन राव को महेश का इतने खुले शब्दों में बात करना पसंद नहीं आया.

उन्होंने लगभग चिल्लाने के लहजे में बोला,”चुप हो जाओ महेश. यह कोई तरीका है बात करने का? अपनी इस बदतमीजी के लिए तुम्हें अभी माफी मांगनी होगी.”

महेश ने साफ इनकार करते हुए कहा,”माफी किस बात की पिताजी?
मैं ने कोई गलती नहीं करी है, सिर्फ अपनी बात रखी है.

“आप ही बताइए कि मैं ने आज तक ऐसा कौन सा काम किया है जिस की वजह से आप को शर्मिंदा होना पड़ा हो.”

मनमोहन राव बोले,”मैं कुछ नहीं सुनना चाहता महेश, मेरे प्रतिद्वंदी भी इस पार्टी में मौजूद हैं. सब के सामने मेरा मजाक मत बनाओ.”

महेश बोला,”मुझे किसी की परवाह नहीं है, पिताजी कि कौन देख रहा है और कौन क्या सोच रहा है? मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप मुझे समझो.

“मैं ने जब से होश संभाला है तब से आज तक उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब आप मुझे समझोगे. इंसान बड़ा काम या बड़ा कारोबार कर के ही बड़ा नहीं होता पिताजी. छोटेछोटे काम कर के भी इंसान अपनी एक पहचान बना सकता है. बड़े बनने का सफर भी तो छोटे सफर से ही तय होती है. इस बात का उदाहरण तो आप खुद भी हैं पिताजी, फिर आप क्यों नहीं समझते?”

मनमोहन राव का सब्र खत्म हो चुका था. अब बात उन्हें अपनी प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचने जैसी लग रही थी.

उन्होंने महेश से कहा,”तुम या तो विजय अंकल से माफी मांगो या अभी इसी वक्त घर से निकल जाओ.”

महेश की मां रमा जो इतनी देर से दूर खड़े हो कर सब देखसुन रही थीं, सोचने लगीं कि पति की प्रतिष्ठा का खयाल रखना जरूरी है पर बेटे के आत्मसम्मान को चोट पहुंचा कर नहीं।

वे पति से बोलीं,”यह क्या बोल रहे हो आप? इतनी सी बात के लिए कोई अपनी इकलौती औलाद को घर से जाने के लिए कहता है क्या?”

मनमोहन राव को जब गुस्सा आता था तब वे किसी की भी नहीं सुनते थे. हमेशा की तरह उन्होंने रमा को बोल कर चुप करा दिया था.

महेश बोला,”मुझे नहीं पता था पिताजी की आप को अपने बेटे से ज्यादा इन बाहरी लोगों की परवाह है,
जो आज आप के साथ सिर्फ आप की शख्सियत की वजह से हैं.

“यहां खड़ा हुआ हरएक इंसान आप के लिए अपने दिल में इज्जत लिए नहीं खड़ा है, बल्कि अपने दिमाग में आप से जुड़ा नफा और नुकसान लिए खड़ा है. इस सचाई को आप स्वीकार नहीं करना चाहते,” ऐसा बोल कर महेश मां के पास आया और पैर छू कर बोला,”चलता हूं मां, तुम अपना खयाल रखना.”

रमा पति से गुहार लगाती रही मगर मनमोहन राव ने एक नहीं सुनी.

वे चिल्लाते हुए बोले,”जाओ तुम्हारी हैसियत ही क्या है मेरे बिना. 4 दिन में वापस आओगे ठोकरें खा कर.”

हंसीखुशी भरे माहौल का अंत इस तरह से होगा यह किसी ने कल्पना नहीं करी थी.

इस घटना को पूरे 5 वर्ष बीत चुके थे पर ना महेश वापस आया था और ना ही उस की कोई खबर आई थी. बेटे के जाने के गम में रमा की तबीयत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. वे अकसर बीमार रहती थीं. उन की जिंदगी से खुशी और चेहरे से हंसी हमेशा के लिए चली गई थी.

मनमोहन राव को भी बेटे के जाने का बहुत अफसोस था. उस दिन की घटना के लिए उन्होंने अपनेआप को ना जाने कितनी बार कोसा था.

एक मां को उस के बेटे से दूर करने का दोषी भी वे खुद को ही मानते थे. अकेले में महेश को याद कर के कई बार वे रो भी लेते थे.

एक मां के लिए उस की औलाद का उस से दूर जाना बहुत बड़े दुख का कारण बन जाता है पर एक पिता के लिए उस के जवान बेटे का घर छोड़ कर चले जाना किसी सदमे से कम नहीं होता.

रमा और कमजोर ना पड़ जाए इसीलिए उस के सामने मनमोहन राव खुद को कारोबार में व्यस्त रखने का दिखावा करते थे. वे अकसर रमा को यह बोल कर शांत कराते थे कि आज नहीं तो कल आ ही जाएगा तुम्हारा बेटा.

रमा अपने मन में सोचती कि मैं मां हूं उस की, मुझे पता है वह स्वाभिमानी और दृढ़निश्चयी है. एक बार जो ठान लेता है वह कर के ही शांत होता है.

अचानक एक दिन फोन की घंटी बजी। सुबह के 10 बज रहे थे. रमा दूसरे कमरे में थीं।

नौकर ने फोन उठाया और जोर से चिल्लाया,”मैडममैडम…”

रमा एकदम से चौंक गईं। दूसरे कमरे से ही नौकर को चिल्लाते हुए बोलीं,”क्यों चीख रहे हो? किस का फोन है?”

“छोटे साहब का फोन है मैडम,”नौकर बोला.

रमा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

वे फोन की तरफ लपकीं और नौकर के हाथ से फोन लगभग छीनते हुए ले कर बोलीं,”हेलो, महेश बेटा… कैसे हो बेटे? 5 साल लगा दी अपनी मां को याद करने में? घर वापस कब आ रहे हो बेटा? तू ठीक तो है ना?”

महेश बोला,”बसबस मां, तुम रुकोगी तब तो कुछ बोल पाऊंगा ना मैं. पिताजी कैसे हैं मां? आप दोनों की तबीयत तो ठीक है ना?

“आप दोनों की खबर लेता रहता था मैं, पर आज इतने सालों बाद आप की आवाज सुन कर मन को बहुत तसल्ली हो गई मां…

“पिताजी से बात कराओ ना,”महेश ने आग्रह किया तो रमा बोलीं,”वे औफिस में हैं बेटा.

“तू सब कुछ छोड़, पहले बता घर वापस कब आ रहा है? कहां है तू ?
मैं अभी ड्राइवर को भेजती हूं तुझे लाने के लिए…”

महेश हंसते हुए बोला,”मैं लंदन में हूं मां.”

“लंदन में…” आश्चर्य से बोलीं रमा,”बेटा, वहां क्यों चला गया?
तू ठीक तो है ना? किसी तकलीफ में तो नहीं हो ना?”

अकसर जब औलादें अपने मातापिता से दूर हो जाती हैं किसी कारण से तो ऐसी ही चिंता उन्हें घेरे रहती हैं कि वे किसी गलत संगत में ना पड़ जाएं, अकेले खुद को कैसे संभालेंगे? रमा के बारबार बीमार रहने की वजह भी यही सब चिंताएं थीं.

महेश सोचने लगा कि मां ने 5 साल मेरे बिना कैसे निकाले होंगे पता नहीं. मां की बातों से उस की फिक्र साफ झलक रही थी.

“मेरी बात सुनो मां,” महेश बोला,”घर से निकलने के बाद मैं 2 साल लखनऊ में ही था. जिस मैगजीन के लिए मैं काम करता था, उस की तरफ से ही मुझे 3 साल पहले एक प्रोजैक्ट के लिए लंदन भेजा गया था. मेरा प्रोजैक्ट बहुत ही सफल रहा.

“यहां लंदन में मेरे काम को बहुत ही सराहा गया और अगले महीने यहां एक पुरस्कार समारोह का आयोजन
है जिस में तुम्हारे बेटे को ‘बैस्ट फोटोग्राफर औफ द ईयर’ का पुरस्कार मिलने वाला है.

“मां, आप के और पिताजी के आशीर्वाद और मेरी इतनी सालों की मेहनत का परिणाम मुझे इस पुरस्कार के रूप में मिलने जा रहा है. मेरी बहुत इच्छा है कि इस अवसर पर मेरा परिवार मेरे मातापिता मेरे साथ रहें.

“मेरी जिंदगी की इतनी बड़ी खुशी को बांटने के लिए आज मेरे साथ यहां कोई नहीं है मां,” बोलतेबोलते महेश का गला भर आया था.

उधर रमा की आंखों से निकले आंसूओं ने भी उस के आंचल को भिगो दिया था और उन का दिल खुशी से चिल्लाने को कर रहा था कि मेरे बेटे की हैसियत देखने वालो देखो, आज अपनी मेहनत से मेरा बेटा किस मुकाम पर पहुंचा है. दूसरे देश में जा कर दूसरे लोगों के बीच में अपने काम से अपनी पहचान बनाना अपनेआप में बहुत बड़ी जीत का प्रमाण है.

महेश ने आगे बोला,”मां, आप के और पिताजी के लिए लंदन की टिकट भेज रहा हूं. पिताजी को ले कर जल्दी यहां आ जाओ मां.”

“हां बेटा, हम जरूर आएंगे,” रमा ने कहा,”कौन से मातापिता नहीं चाहेंगे कि दुनिया की नजरों में अपने बेटे के लिए इतना मानसम्मान और इज्जत देखना. तू ने हमें यह अवसर दिया है, हम जरूर आएंगे बेटा, जरूर आएंगे,”ऐसा कह कर रमा
ने फोन रख दिया।

आज रमा को अपनी परवरिश पर बहुत नाज हो रहा था. 5 साल की जुदाई का दर्द आज बेटे की सफलता के आगे उसे बहुत छोटा लग रहा था।

वे बहुत बेसब्री से महेश के पिता के घर वापस आने का इंतजार कर रही थीं. फोन पर इतनी बड़ी खुशखबरी वे नहीं देना चाहती थीं। वे चाह रही थीं कि बेटे की सफलता की खुशी को अपनी आंखों से उस के पिता के चेहरे पर देखें।

दरवाजे की घंटी बजी तो नौकर ने जा कर दरवाजा खोला। महेश के पिता जैसे ही घर के अंदर दाखिल हुए तो उन्होंने जो देखा उस की कल्पना नहीं की थी. रमा अपनी खोई हुई मुसकान चेहरे पर लिए हुए खड़ी थीं.

देखते ही बोले मनमोहन राव,”इतने साल बाद तुम्हारे चेहरे पर खुशी देख कर बहुत सुकून मिल रहा है. इस की वजह पता चलेगी कि नहीं? तुम्हारा बेटा वापस आ गया क्या?”

रमा बोलीं,”जी नहीं, बेटा नहीं आया पर आज दोपहर में उस का फोन आया था.”

इस खबर को सुनने का इंतजार वे भी
ना जाने कब से कर रहे थे।

“अच्छा कैसा है वह? मेरे बारे में पूछा कि नहीं उस ने? नाराज है क्या अब तक मेरे से?” उन की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी.

रमा बोलीं,”बिलकुल नाराज नहीं है और बारबार आप को ही पूछ रहा था। और सुनिए, लंदन में है हमारा बेटा.”

बेटा लंदन में है, सुन कर महेश के पिता सोफे से उठ खड़े हुए थे.

“जी हां, लंदन में और अगले महीने वहां एक बहुत बड़े पुरस्कार से सम्मानित होने जा रहा है आप का बेटा,” बोलते हुए मिठाई का एक टुकड़ा रमा ने ममनमोहन राव के मुंह
में डाल दिया था.

उन की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

“तुम सच कह रही हो ना रमा?”

रमा बोलीं,”जी हां, बिलकुल सच.”

मनमोहन राव ने रमा को सीने से लगा लिया और दोनों अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए.

रमा ने खुद को संभालते हुए कहा,”आगे तो सुनिए, हमारे लिए लंदन की टिकट भेज रहा है. पुरस्कार समारोह में वह हम दोनों के साथ शामिल होना चाहता है.”

मनमोहन राव के आंसुओं का बहाव और तेज हो चुका था. जिस बेटे को 5 साल पहले उन्होंने बोला था कि तुम्हारी हैसियत क्या है मेरे बिना, उस ने अपनी हैसियत से शख्सियत तक का सफर क्या बखूबी पूरा किया था.

आंसुओं ने उन के चेहरे को पूरी तरह से भिगो दिया था और बेटे से मिलने की तड़प में दिल मचल उठा था.

Best Family Drama : सत्ता की भूख में जब टूटा परिवार

Best Family Drama: रिटायरमैंट के बाद अपने ही जन्मस्थान में जा कर बसने का मेरा अनमोल सपना था. जहां पैदा हुआ, जहां गलियों में खेला व बड़ा हुआ, वह जगह कितनी ही यादों को जिंदा रखे है. कक्षा 12 तक पढ़ने के बाद जो अपना शहर छोड़ा तो बस मुड़ कर देख ही नहीं पाया. नौकरी सारा भारत घुमाती रही और मैं घूमता रहा. जितनी दूर मैं अपने शहर से होता गया उतना ही वह मेरे मन के भीतर कहीं समाता गया. छुट्टियों में जब घर आते तब सब से मिलने जाते रहे. सभी आवभगत करते रहे, प्यार और अपनत्व से मिलते रहे. कितना प्यार है न मेरे शहर में. सब कितने प्यार से मिलते हैं, सुखदुख पूछते हैं. ‘कैसे हो?’ सब के होंठों पर यही प्रश्न होता है.

रिटायरमैंट में सालभर रह गया. बच्चों का ब्याह कर, उन के अपनेअपने स्थानों पर उन्हें भेज कर मैं ने गंभीरता से इस विषय पर विचार किया. लंबी छुट्टी ले कर अपने शहर, अपने रिश्तेदारों के साथ थोड़ाथोड़ा समय बिता कर यह सर्वेक्षण करना चाहा कि रहने के लिए कौन सी जगह उपयुक्त रहेगी, घर बनवाना पड़ेगा या बनाबनाया ही कहीं खरीद लेंगे.

मुझे याद है, पिछली बार जब मैं आया था तब विजय चाचा के साथ छोटे भाई की अनबन चल रही थी. मैं ने सुलह करवा कर अपना कर्तव्य निभा लिया था. छोटी बूआ और बड़ी बूआ भी ठंडा सा व्यवहार कर रही थीं. मगर मेरे साथ सब ने प्यार भरा व्यवहार ही किया था. अच्छा नहीं लगा था तब मुझे चाचाभतीजे का मनमुटाव.

इस बार भी कुछ ऐसा ही लगा तो पत्नी ने समझाया, ‘‘जहां चार बरतन होते हैं तो वे खड़कते ही हैं. मैं तो हर बार देखती हूं. जब भी घर आओ किसी न किसी से किसी न किसी का तनाव चल रहा होता है. 4 साल पहले भी विजय चाचा के परिवार से अबोला चल रहा था.’’
‘‘लेकिन हम तो उन से मिलने गए न. तुम चाची के लिए साड़ी लाई थीं.’’

‘‘तब छोटी का मुंह सूज गया था. मैं ने बताया तो था आप को. साफसाफ तो नहीं मगर इतना इशारा आप के भाई ने भी किया था कि जो उस का रिश्तेदार है वह चाचा से नहीं मिल सकता.’’
‘‘अच्छा? मतलब मेरा अपना व्यवहार, मेरी अपनी बुद्धि गई भाड़ में. जिसे छोटा पसंद नहीं करेगा उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘और इस बार छोटे का परिवार विजय चाचा के साथ तो घीशक्कर जैसा है. लेकिन बड़ी बूआ के साथ नाराज चल रहा है.’’
‘‘वह क्यों?’’

‘‘आप खुद ही देखसुन लीजिए न. मैं अपने मुंह से कुछ कहना नहीं चाहती. कुछ कहा तो आप कहेंगे कि नमकमिर्च लगा कर सुना रही हूं.’’

पत्नी का तुनकना भी सही था. वास्तव में आंखें बंद कर के मैं किसी भी औरत की बात पर विश्वास नहीं करता, वह चाहे मेरी मां ही क्यों न हो. अकसर औरतें ही हर फसाद और कलहक्लेश का बीज रोपती हैं. 10 भाई सालों तक साथसाथ रहते हैं लेकिन 2 औरतें आई नहीं कि सब तितरबितर. मायके में बहनों का आपस में झगड़ा हो जाएगा तो जल्दी ही भूल कर माफ भी कर देंगी और समय पड़ने पर संगसंग हो लेंगी लेकिन ससुराल में भाइयों में अनबन हो जाए तो उस आग में सारी उम्र घी डालने का काम करेंगी. अपनी मां को भी मैं ने अकसर बात घुमाफिरा कर करते देखा है.

नौकरी के सिलसिले में लगभग 100-200 परिवारों की कहानी तो बड़ी नजदीक से देखीसुनी ही है मैं ने. हर घर में वही सब. वही अधिकार का रोना, वही औरत का अपने परिवार को ले कर सदा असुरक्षित रहना. ज्यादा झगड़ा सदा औरतें ही करती हैं.

मेरी पत्नी शुभा यह सब जानती है इसीलिए कभी कोई राय नहीं देती. मेरे यहां घर बना कर सदा के लिए रहने के लिए भी वह तैयार नहीं है. इसीलिए चाहती है लंबा समय यहां टिक कर जरा सी जांचपड़ताल तो करूं कि दूर के ढोल ही सुहावने हैं या वास्तव में यहां पे्रम की पवित्र नदी, जलधारा बहती है. कभीकभी कोई आया और उस से आप ने लाड़प्यार कर लिया, उस का मतलब यह तो नहीं कि लाड़प्यार करना ही उन का चरित्र है. 10-15 मिनट में किसी का मन भला कैसे टटोला जा सकता है. हमारे खानदान के एक ताऊजी हैं जिन से हमारा सामना सदा इस तरह होता रहा है मानो सिर पर उन की छत न होती तो हम अनाथ  ही होते. सारे काम छोड़छाड़ कर हम उन के चरणस्पर्श करने दौड़ते हैं. सब से बड़े हैं, इसलिए छोटीमोटी सलाह भी उन से की जाती है. उम्रदराज हैं इसलिए उन की जानपहचान का लाभ भी अकसर हमें मिलता है. राजनीति में भी उन का खासा दखल है जिस वजह से अकसर परिवार का कोई काम रुक जाता है तो भागेभागे उन्हीं के पास जाते हैं हम, ‘ताऊजी यह, ताऊजी वह.’

हमें अच्छाखासा सहारा लगता है उन का. बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है और वही आसमान हैं वे ताऊजी. हमारे खानदान में वही अब बड़े हैं. उन का नाम हम बड़ी इज्जत, बड़े सम्मान से लेते हैं. छोटा भाई इस बार कुछ ज्यादा ही परेशान लगा. मैं ताऊजी के लिए शाल लाया था उपहार में. शुभा से कहा कि वह शाम को तैयार रहे, उन के घर जाना है. छोटा भाई मुझे यों देखने लगा, मानो उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया हो किसी ने. शायद इस बार उन से भी अनबन हो गई हो, क्योंकि हर बार किसी न किसी से उस का झगड़ा होता ही है.

‘‘आप का दिमाग तो ठीक है न भाई साहब. आप ताऊ के घर शाल ले कर जाएंगे? बेहतर है मुझे गोली मार कर मुझ पर इस का कफन डाल दीजिए.’’
स्तब्ध तो रहना ही था मुझे. यह क्या कह रहा है, छोटा. इस तरह क्यों?
‘‘बाहर रहते हैं न आप, आप नहीं जानते यहां घर पर क्याक्या होता है. मैं पागल नहीं हूं जो सब से लड़ता रहता हूं. मुकदमा चल रहा है विजय चाचा का और मेरा ताऊ के साथ. और दोनों बूआ उन का साथ दे रही हैं. सबकुछ है ताऊ के पास. 10 दुकानें हैं, बाजार में 4 कोठियां हैं, ट्रांसपोर्ट कंपनी है, शोरूम हैं. औलाद एक ही है. और कितना चाहिए इंसान को जीने के लिए?’’

‘‘तो? सच है लेकिन उन के पास जो है वह उन का अपना है. इस में हमें कोई जलन नहीं होनी चाहिए.’’
‘‘हमारा जो है उसे तो हमारे पास रहने दें. कोई सरकारी कागज है ताऊ के पास. उसी के बल पर उन्होंने हम पर और विजय चाचा पर मुकदमा ठोंक रखा है कि हम दोनों का घर हमारा नहीं है, उन का है. नीचे से ले कर ऊपर तक हर जगह तो ताऊ का ही दरबार है. हर वकील उन का दोस्त है और हर जज, हर कलैक्टर उन का यार. मैं कहां जाऊं रोने? बच्चा रोता हुआ बाप के पास आता है. मेरा तो गला मेरा बाप ही काट रहा है. ताऊ की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि …’’

आसमान से नीचे गिरा मैं. मानो समूल अस्तित्व ही पारापारा हो कर छोटेछोटे दानों में इधरउधर बिखर गया. शाल हाथ से छूट गया. समय लग गया मुझे अपने कानों पर विश्वास करने में. क्या कभी मैं ऐसा कर पाऊंगा छोटे के बच्चों के साथ? करोड़ों का मानसम्मान अगर मुझे मेरे बच्चे दे रहे होंगे तो क्या मैं लाखों के लिए अपने ही बच्चों के मुंह का निवाला छीन पाऊंगा कभी? कितना चाहिए किसी को जीने के लिए, मैं तो आज तक यही समझ नहीं पाया. रोटी की भूख और 6 फुट जगह सोने को और मरणोपरांत खाक हो जाने के बाद तो वह भी नहीं. क्यों इतना संजोता है इंसान जबकि कल का पता ही नहीं. अपने छोटे भाई का दर्द मैं ही समझ नहीं पाया. मैं भी तो कम दोषी नहीं हूं न. मुझे उस की परेशानी जाननी तो चाहिए थी.
मन में एक छोटी सी उम्मीद जागी. शाल ले कर मैं और शुभा शाम ताऊजी के घर चले ही गए, जैसे सदा जाते थे इज्जत और मानसम्मान के साथ. स्तब्ध था मैं उन का व्यवहार देख कर.
‘‘भाई की वकालत करने आए हो तो मत करना. वह घर और विजय का घर मेरे पिता ने मेरे लिए खरीदा था.’’
‘‘आप के पिता ने आप के लिए क्या खरीदा था, क्या नहीं, उस का पता हम कैसे लगाएं. आप के पिता हमारे पिता के भी तो पिता ही थे न. किसी पिता ने अपनी किस औलाद को कुछ भी नहीं दिया और किस को इतना सब दे दिया, उस का पता कैसे चले?’’
‘‘तो जाओ, पता करो न. तहसील में जाओ… कागज निकलवाओ.’’
‘‘तहसीलदार से हम क्या पता करें, ताऊजी. वहां तो चपरासी से ले कर ऊपर तक हर इंसान आप का खरीदा हुआ है. आज तक तो हम हर समस्या में आप के पास आते रहे. अब जब आप ही समस्या बन गए तो कहां जाएंगे? आप बड़े हैं. मेरी भी उम्र  60 साल की होने को आई. इतने सालों से तो वह घर हमारा ही है, आज एकाएक वह आप का कैसे हो गया? और माफ कीजिएगा, ताऊजी, मैं आप के सामने जबान खोल रहा हूं. क्या हमारे पिताजी इतने नालायक थे जो दादाजी ने उन्हें कुछ न दे कर सब आप को ही दे दिया और विजय चाचा को भी कुछ नहीं दिया?’’
‘‘मेरे सामने जबान खोलना तुम्हें भी आ गया, अपने भाई की तरह.’’
‘‘मैं गूंगा हूं, यह आप से किस ने कह दिया, ताऊजी? इज्जत और सम्मान करना जानता हूं तो क्या बात करना नहीं आता होगा मुझे. ताऊजी, आप का एक ही बच्चा है और आप भी कोई अमृत का घूंट पी कर नहीं आए. यहां की अदालतों में आप की चलती है, मैं जानता हूं मगर प्रकृति की अपनी एक अदालत है, जहां हमारे साथ अन्याय नहीं होगा, इतना विश्वास है मुझे. आप क्यों अपने बच्चों के लिए बद्दुआओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं? हमारे सिर से यदि आप छत छीन लेंगे तो क्या हमारा मन आप का भला चाहेगा?’’
‘‘दिमाग मत चाटो मेरा. जाओ, तुम से जो बन पाए, कर लो.’’
‘‘हम कुछ नहीं कर सकते, आप जानते हैं, तभी तो मैं समझाने आया हूं, ताऊजी.’’
ताऊजी ने मेरा लाया शाल उठा कर दहलीज के पार फेंक दिया और उठ कर अंदर चले गए, मानो मेरी बात भी सुनना अब उन्हें पसंद नहीं. हम अवाक् खड़े रहे. पत्नी शुभा कभी मुझे देखती और कभी जाते हुए ताऊजी की पीठ को. अपमान का घूंट पी कर रह गए हम दोनों.
85 साल के वृद्ध की आंखों में पैसे और सत्ता के लिए इतनी भूख. फिल्मों में तो देखी थी, अपने ही घर में स्वार्थ का नंगा नाच मैं पहली बार देख रहा था. सोचने लगा, मुझे वापस घर आना ही नहीं चाहिए था. सावन के अंधे की तरह यह खुशफहमी तो रहती कि मेरे शहर में मेरे अपनों का आपस में बड़ा प्यार है.
उस रात बहुत रोया मैं. छोटे भाई और विजय चाचा की लड़ाई में मैं भावनात्मक रूप से तो उन के साथ हूं मगर उन की मदद नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने भारत देश का एक आम नागरिक हूं जिसे दो वक्त की रोटी कमाना ही आसान नहीं, वह गुंडागर्दी और बदमाशी से सामना कैसे करे. बस, इतना ही कह सकता हूं कि ताऊ जैसे इंसान को सद्बुद्धि प्राप्त हो और हम जैसों को सहने की ताकत, क्योंकि एक आम आदमी सहने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता.

Short Story In Hindi : पीकू की सौगात

Short Story In Hindi : हमारेलाख समझाने के बावजूद कि अमिताभ की फिल्म देखने का मजा तो पीवीआर में ही है, बच्चों ने यह कहते हुए एलईडी पर पैन ड्राइव के जरीए ‘पीकू’ लगा दी कि पापा 3 घंटे बंध कर बैठना आप के बस में कहां? हंसने लगे सो अलग. उस समय तो हम समझ नहीं पाए कि बच्चे क्या समझाना चाहते हैं. परंतु जब फिल्म में मोशन के साथ इमोशन जुड़े और बच्चे मम्मी की ओर देख कर हंसने लगे, तो हमें समझ में आया कि बच्चे क्या कर रहे थे. बच्चों की हंसी देख हम झेंपे जरूर, लेकिन उन का हंसना जायज भी था. दरअसल, मोशन की इस बीमारी से हम भी पिछले काफी समय से जूझ रहे थे, जिस का एहसास पहली बार हमें उस दिन हुआ जब संडे होने के कारण बच्चे देर तक सो रहे थे और अखबार में छपे एक इश्तहार को पढ़ हमारी श्रीमतीजी का मन सैंडल खरीदने को हो आया.

‘‘चलो न, पास ही तो है यह मार्केट. गाड़ी से 5 मिनट लगेंगे. बच्चों के उठने तक तो वापस भी आ जाएंगे,’’ श्रीमतीजी के इस कदर प्यार से आग्रह करने पर हम नानुकर नहीं कर पाए और पहुंच गए मार्केट. सेल वाली दुकान के पास ही बहुत अच्छा रैस्टोरैंट था, तो श्रीमतीजी का मन खाने को हो आया. इसलिए पहले हम ने वहां कुछ खायापिया और फिर घुसे फुटवियर के शोरूम में. श्रीमतीजी सैंडल की वैरायटी देखने लगीं, लेकिन तभी हमारे पेट में हलचल होने लगी. अब हम श्रीमतीजी को सैंडल पसंद करने में देरी करता देख खीजने लगे कि जल्दी सैंडल पसंद करें और घर चलें. आखिर उन्हें सैंडल पसंद आ गई, तो हम ने राहत की सांस ली. लेकिन चैन कहां मिलने वाला था हमें? बाहर निकलते ही सामने गोलगप्पे वाले की रेहड़ी देख श्रीमतीजी की लार टपकी. वे बाजार जाएं और गोलगप्पे न खाएं, यह तो असंभव है. उन्होंने हमारे आगे गोलगप्पे खाने की इच्छा जाहिर की तो हमारा मन हुआ कि गोलगप्पे वाले का मुंह नोच लें. मुए को यहीं लगानी थी रेहड़ी.

खैर, 2-2 गोलगप्पे खाने की बात कर श्रीमतीजी ने 6 तो खुद खाए और उतने ही हमें भी खिला दिए. अब उन्हें कैसे समझाते कि हम किस परेशानी में हैं. दूसरे, उन की तुनकमिजाजी से भी वाकिफ थे हम, इसलिए न चाहते हुए भी गोलगप्पे गटक लिए. लेकिन पेट की जंग ने रौद्र रूप ले लिया था. मार्केट से बाहर निकल हम तेज कदमों से पार्किंग की ओर बढ़े तो श्रीमतीजी पूछ बैठीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों चल रहे हो?’’

हम ने पेट की परेशानी के बजाय बहाना बनाया, ‘‘बच्चे उठ गए होंगे, जल्दी चलो.’’ तभी उन्हें उन की पुरानी सहेली मिल गई. गप्पें मारने में तो श्रीमतीजी वैसे ही माहिर हैं, सो लगीं दोनों अगलीपिछली हांकने. उन्हें हंसी के फुहारे छोड़ते देख हम ने अपना माथा पीट लिया क्योंकि जल्दी देरी में जो बदलती जा रही थी. ऐसे में श्रीमतीजी का मोबाइल बजा तो हमें सुकून मिला. बच्चों का फोन था, इसलिए बतियाना छोड़ वे जल्दी से घर चलने को हुईं तो हम ने राहत महसूस की. घर पहुंचने पर फारिग होने के बाद हम ने घर के लोगों से अपनी समस्या शेयर की तो सभी हंसने लगे, लेकिन समाधान किसी ने न बताया. वैसे रोज तो हम यह परेशानी झेल लेते थे, क्योंकि औफिस में डैस्कवर्क था. साथ ही वहां वौशरूम की परेशानी नहीं थी. पर कभी बाहर जाना पड़ता तो खासी परेशानी होती. तिस पर जब इस का संबंध श्रीमतीजी की खरीदारी से जुड़ा तो मुश्किलें और बढ़ गईं.

हमारी श्रीमतीजी मार्केट जा कर खरीदारी भले ही धेले भर की भी न करें पर जिस दुकान में घुस जाती थीं, सारा माल खुलवा कर रख देती थीं. और भले ही घर से खापी कर निकलें, लेकिन चाटपकौड़ी खाए बिना न रहतीं. ऐसे में हमारी हालत पतली होनी ही थी. ‘पीकू’ में भास्कर की समस्या हम से कुछ मिलतीजुलती ही थी, जिसे दिखा बच्चे उसे हमारी हालत से जोड़ रहे थे. जोड़ते भी क्यों न, उस दिन हुआ भी तो कुछ ऐसा ही था. हम ससुराल गए हुए थे कि देर रात तक की आपसी बातचीत से हमारी श्रीमतीजी को पता चला कि यहां पास की मार्केट में सूटों के बहुत अच्छे शोरूम बन गए हैं, जहां बहुत अच्छे डिजाइनर सूट मिलते हैं, साथ ही वे फिटिंग भी कर के देते हैं. बस, श्रीमतीजी की खरीदारी की सनक परवान चढ़ी और वे बना बैठीं सुबह हमारी साली के साथ मार्केट जाने का प्रोग्राम. और कोई प्रोग्राम होता तो हम मना कर देते लेकिन साली संग जाने का मजा कहां बारबार मिलता है, सो हम ने हां कर दी. सुबह नाश्ते में सासूमां ने खातिरदारी वाली भारतीय संस्कृति का निर्वहन करते हुए हमारी यानी अपने जमाई की खातिर में ऐसे घी चुपड़चुपड़ कर बने गोभी के परांठे खिलाए जैसे अपने बेटे को भी कभी न खिलाए होंगे. न न करते भी हम 4 परांठे डकार गए. ऊपर से दहीमट्ठा पिलाया सो अलग. अब हम श्रीमतीजी संग खरीदारी पर जाने को तैयार हुए तो माथा ठनका कि कहीं रास्ते में बीमारी ने जोर पकड़ लिया तो… हम ने कई बार इस के बारे में सोचा फिर श्रीमतीजी को थोड़ा रुकने को कह पहुंच गए फारिग होने.

लेकिन काफी देर नाक बंद कर सीट पर बैठने और जोर मारने पर भी राहत न मिली, तो श्रीमतीजी के इमोशंस का खयाल रखते हुए हम अपने मोशन का खयाल छोड़ आज्ञाकारी पति की भांति जल्दी से उठे और चल दिए उन के संग मार्केट. श्रीमतीजी दुकान में घूमतीं फिर दूसरी देखतीं. पहले शोकेस में लगा सूट पसंद करतीं फिर अंदर जा कर उलटपुलट कर देखतीं. उन के साथ एक से दूसरी दुकान घूमतेघूमते कब पेट में हलचल शुरू हो गई पता ही न चला. अब हमारी हालत पतली. लगे इधरउधर सुलभ शौचालय तलाशने. हमें नजरें घुमाते देख श्रीमतीजी बोल पड़ीं, ‘‘इधरउधर क्या ढूंढ़ रहे हो, चलो दूसरी दुकान में, यहां तो वैरायटी ही नहीं है.’’ हमें उन की इस आदत का पता है, इसलिए चुपचाप उन के पीछे हो लिए. तभी हमारी नजर सामने शौचालय पर पड़ी तो हम श्रीमतीजी को रोक उधर इशारा करते हुए बोले, ‘‘जरा उधर चलें, हमें…’’

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि साली बोल पड़ी, ‘‘वाह जीजाजी, बड़ा खयाल रखते हैं दीदी के जायके का. चलो चलते हैं. वहां के भल्लेपापड़ी तो वैसे भी मशहूर हैं.’’ अब उसे कौन समझाता कि हमारा उधर जाने का क्या मकसद था. खैर, चल दिए उन के पीछे अपना सा मुंह लिए. श्रीमतीजी ने भल्लेपापड़ी की प्लेटें बनवाईं. हम ने सासूमां के स्वादिष्ठ परांठों का वास्ता देते मना किया पर वे कहां मानने वाली थीं. हमारे न न करने पर भी एक प्लेट हाथ में थमा ही दी. हम ने आधी भल्लापापड़ी खा प्लेट दूसरी ओर रख दी. तभी श्रीमतीजी की नजर एक शोरूम में लगे बुत पर लिपटे एक अनारकली सूट पर अटक गई, जबकि हमारी नजरें अभी भी फारिग होने का मुकाम तलाश रही थीं. ऐसे में राहत यह देख कर मिली कि जिस शोरूम की ओर श्रीमती मुखातिब हुई थीं, उसी के सामने हमारी समस्या का समाधान था. सो हम साली और घरवाली को खरीदारी में मशगूल कर ‘अभी आया’ कह कर इस संकल्प के साथ बाहर निकले कि आगे से श्रीमतीजी संग खरीदारी हेतु जाएंगे तो कुछ खा कर नहीं निकलेंगे. फारिग हो कर आने पर हम ने चैन की सांस ली, लेकिन श्रीमतीजी सूट खरीद पैसों हेतु हमारे इंतजार में तेवर बदले खड़ी थीं. मेरे आते ही वे जोर से बोलीं, ‘‘कहां चले गए थे? हम इतनी देर से इंतजार कर रहे हैं.’’ हम ने धीरे से इशारा कर उन्हें समझाया तो साली हंसी, ‘‘क्या जीजाजी, ससुराल के खाने का इतना भी क्या मोह कि बारबार जाना पड़े,’’ और दोनों खीखी करने लगीं. हम ने चुपचाप पैसे दे कर सामान उठाया और घर चलने में ही भलाई समझी. घर आ कर साली ने चटखारे लेले कर हमारे मोशन के किस्से सुनाए तो बच्चे भी हंसी न रोक सके.

‘पीकू’ में रहरह कर भास्कर बने अमिताभ मोशन पर अच्छीखासी बहस छेड़ते और बच्चे हमारी स्थिति से उस का मेल करते हुए हंसते. सोचने वाली बात यह है कि क्या मोशन जैसा विषय भी किसी कहानी का हो सकता है. हां, क्यों नहीं जनाब, उन से पूछिए जिन्हें रोज इस समस्या से जूझना पड़ता है. हम ने गुस्से से कह दिया, ‘‘हमारे इमोशन की हंसी उड़ाने को दिखा रहे हो न हमें यह फिल्म?’’ ‘‘नहीं जी, बच्चे तो यह बताना चाह रहे हैं कि आप भी अपने मोशन का कुछ ऐसा इंतजाम कर के रखो. जब भी खरीदारी करने जाओ आप भागते हो इसी चक्कर में,’’ श्रीमतीजी ने हमारी बीमारी पर कटाक्ष करते हुए बच्चों का बचाव किया, ‘‘देखा नहीं था उस दिन जब वह आदमी हमारा दुपट्टा खींच गया था.’’ हमें याद आया. दरअसल, उस दिन हम साली की शादी हेतु खरीदारी करने गए हुए थे. बच्चे भी साथ थे. श्रीमतीजी आगेआगे और हम बच्चों का हाथ पकड़े पीछेपीछे. बच्चों के लिए ड्रैस लेते समय वे हम से पूछतीं, लेकिन हमारे हां कहने के बावजूद उन्हें पसंद न आता और वे आगे चल देतीं. बड़ी मुश्किल से उन्होंने बच्चों के कपड़े खरीदे. अब हमारी बारी थी. हम बच्चों के कपड़ों के बैग से लदे पड़े थे कि श्रीमतीजी को सामने उबली, मसालेदार चटपटी छल्ली वाला दिख गया. बस, उन के मुंह में पानी आ गया. चटपटी मसालेदार छल्ली हमें भी पसंद थी, साथ ही सुखद एहसास था कि आज हम घर से खाली पेट निकले थे. अत: बिना हीलहुज्जत हां कर दी. श्रीमतीजी ने अपने हिसाब का ज्यादा मसालेवाला पत्ता बनवा दिया. जनाब वे तो चटरपटर कर खा गईं पर हमारे पसीने छूट गए. बड़ी मुश्किल से डकारा.

 

तभी श्रीमतीजी को सामने शोरूम में टंगी साड़ी इतनी भाई कि वे उधर चल दीं. लेकिन कीमत पूछ चौंकीं और बोलीं, ‘‘महंगी है. चलो पहले तुम्हारे कपड़े खरीद लेते हैं.’’ हम ने भी सोचा कि चलो हमें तो इन की पसंद पर ही मुहर लगानी है, जल्दी निबटारा हो जाएगा. अभी हम यह सोच ही रहे थे कि चटपटी छल्ली ने अपना असर दिखा दिया. हम समझ गए कि अब फारिग होने का इंतजाम करना पड़ेगा.  श्रीमतीजी हमें पैंट पसंद करवा रही थीं और हम पहनी पैंट को गीली होने से बचाने की जुगत सोच रहे थे. खैर, उन्होंने जो पसंद किया, हम ने मुहर लगाई और शोरूम से बाहर निकल इधरउधर झांकने लगे. सामने एक साड़ी के शोरूम में पहुंच श्रीमतीजी ने तमाम साडि़यां खुलवा डालीं. न श्रीमतीजी साड़ी देखती थक रही थीं, न दुकानदार दिखाते थक रहा था. पर उन की पसंद की साड़ी न मिलनी थी न मिली. हम मौके की तलाश में थे कि कब वे हमारी ओर मुखातिब हों और हम इजाजत लें. एक साड़ी थोड़ी पसंद आने पर वे हमारी ओर मुखातिब हुईं, तो हम ने आंख मूंद कर हां कर दी. उन्हें कौन सी हमारी पसंद की साड़ी खरीदनी थी, यह तो बस दिखावा था. साथ ही हम ने उंगली उठा कर 1 नंबर के लिए जाने की इजाजत मांगी तो वे बरस पड़ीं, ‘‘जाओ, तुम्हें तो हर समय भागना ही पड़ता है.’’ उन के इस प्रकार डांटने पर बच्चे भी हमारी हालत पर हंसने लगे और हम खिसक लिए 1 नंबर का बहाना कर 2 नंबर के लिए.

हर ओर निगाह दौड़ाने पर भी कोई शौचालय न दिखा, तो एक शख्स से पूछने पर पता चला कि बहुत दूर है. हम ने सोचा कि इतनी दूर तो हमारा घर भी नहीं. क्यों न घर ही हो आएं? यह सोच कर हम पीछे मुड़े ही थे कि पत्नी को साड़ी पसंद कर बच्चों के साथ शोरूम से बाहर आते देखा. वे हमारे पास पहुंचतीं उस से पहले एक मोटातगड़ा आदमी श्रीमतीजी से उलझता दिखा. हम वहां पहुंचे तो वह उन्हें सौरी कह रहा था. उस ने चुपचाप सौरी कह जाने में ही अपनी भलाई समझी, लेकिन श्रीमतीजी हम पर बरस पड़ीं, ‘‘कितनी देर कर दी आने में. पता है यह आदमी मुझे छेड़ रहा था.’’ अब हम उन्हें कैसे बताते कि हम किस मुसीबत में हैं. हम बोले, ‘‘अरे सौरी बोला न वह, चलो अब.’’ इस पर उन के तेवर बिगड़े, ‘‘तुम भी कितने डरपोक पति हो. अरे, वह तो मेरा दुपट्टा खींच कर चला गया और तुम उसे इतने हलके में ले रहे हो.’’ जैसे अपने पालतू कुत्ते को हुश्श… कह हम दूसरे पर छोड़ देते हैं, उसी लहजे में श्रीमतीजी ने हमें पुश किया. अब उन्हें कौन समझाता कि हम अपनी कदकाठी ही नहीं बल्कि अपनी बीमारी के कारण भी इस समय कुछ न कहने को विवश हैं. पर उन के ताने ने हमारे जमीर को इस कदर झिंझोड़ा कि न चाहते हुए भी हम दुम हिलाते हुए उस के पीछे हो लिए और उसे ललकारा. अब सूमो पहलवान सा दिखने वाला वह बंदा शेर की तरह खा जाने वाली नजरों से हमें घूरता हम पर बरसा, ‘‘कह दिया न सौरी. उन के पास से निकलते हुए मेरी बैल्ट के बक्कल में उन का दुपट्टा फंस गया तो इस में मेरा क्या कुसूर है?’’ उस की दहाड़ से हमारी घिग्घी बंध गई. लगा हमारी बीमारी बाहर आने को है. और कोई समय होता तो शायद हम उस से भिड़ भी जाते पर मोशन की वजह से हमें अपने इमोशंस पर कंट्रोल रखना पड़ा.

हम दांत पीस कर रह गए. वह दहाड़ कर चला गया तो हम ने चैन की सांस ली और किसी तरह श्रीमतीजी को समझाबुझा कर जल्दीजल्दी घर फारिग होने पहुंचे. बच्चे हमारी हालत पर हंस रहे थे व श्रीमतीजी अधूरी शौपिंग के कारण नाराज थीं. ‘पीकू’ अपने आखिरी मकाम तक पहुंच गई थी. श्रीमतीजी बच्चों संग हंसती हुई हमारी ओर मुखातिब हुईं और बोलीं, ‘‘सीख लो कुछ भास्कर से. हमेशा बहाने से जाते हो फारिग होने. ले लो एक अदद सीट और रख लो गाड़ी में, ताकि जहां जरूरत महसूसहुई, हो लिए फारिग.’’ वातावरण में बच्चों सहित गूंजे उस के ठहाके में एलईडी की आवाज भी जैसे गुम हो गई जिस से हमें पिक्चर खत्म होने का पता भी न चला. ठीक ही तो कह रही हैं श्रीमतीजी, हम ने सोचा. ‘पीकू’ ने एक आसान रास्ता दिखाया है इस बीमारी से जूझते लोगों का. अमिताभ की तरह एक सीट सदा अपने साथ रखो. फिर जी भर कर खाओ और जब चाहो फारिग हो जाओ. शौचालय मिल जाए तो ठीक वरना ढूंढ़ने का झंझट खत्म. ‘पीकू’ की सौगात तो है ही फौरएवर.

Hindi Story- रिश्तों का सच : क्या सुधर पाया ननदभाभी का रिश्ता

Hindi Story : घर में घुसते ही चंद्रिका के बिगड़ेबिगड़े से तेवर देख रवि भांपने लगा था कि आज कुछ हुआ है, वरना रोज मुसकरा कर स्वागत करने वाली चंद्रिका का चेहरा यों उतरा हुआ न होता. ‘‘लो, दीदी का पत्र आया है,’’ चंद्रिका के बढ़े हुए हाथों पर सरसरी सी नजर डाल रवि बोला, ‘‘रख दो, जरा कपड़ेवपड़े तो बदल लूं, पत्र कहीं भागा जा रहा है क्या?’’

चंद्रिका की हैरतभरी नजरों का मुसकराहट से जवाब देता हुआ रवि बाथरूम में घुस गया. चंद्रिका के उतरे हुए चेहरे का राज भी उस पर खुल गया था. रवि मन ही मन सोच कर मुसकरा उठा, ‘सोच रही होगी कि आज मुझे हुआ क्या है, दीदी का पत्र हर बार की तरह झपट कर जो नहीं लिया.’ हर साल गरमी की छुट्टियों में दीदी के आने का सिलसिला बहुत पुराना था. परंतु विवाह के 5 वर्षों में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो जब उन के आने को ले कर चंद्रिका से उस की जोरदार तकरार न हुई हो. बेचारी दीदी, जो इतनी आस और प्यार के साथ अपने एकलौते, छोटे भाई के घर थोड़े से मान और सम्मान की आशा ले कर आती थीं, चंद्रिका के रूखे बरताव व उन दोनों के बीच होती तकरार से अब चंद दिनों में ही लौट जाती थीं.

दीदी से रवि का लगाव कम होता भी, तो कैसे? दीदी 10 वर्ष की ही थीं, जब मां रवि को जन्म देते समय ही उसे छोड़ दूसरी दुनिया की ओर चल दी थीं. ‘दीदी न होतीं तो मेरा क्या होता?’ यह सोच कर ही उस की आंखें भर उठतीं. दीदी उस की बड़ी बहन बाद में थी, मां जैसी पहले थीं. कैसे भूल जाता रवि बचपन से ले कर जवानी तक के उन दिनों को, जब कदमकदम पर दीदी ममता और प्यार की छाया ले उस के साथ चलती रही थीं.

दीदी तो विवाह भी न करतीं, परंतु रिश्तेदारों के तानों और बेटी की बढ़ती उम्र से चिंतित पिताजी के चेहरे पर बढ़ती झुर्रियों को देखने के बाद रवि ने अपनी कसम दे कर दीदी को विवाह के लिए मजबूर कर दिया था. उन के विवाह के समय वह बीए में आया ही था. विवाह के बाद भी बेटे की तरह पाले भाई की तड़प दीदी के अंदर से गई नहीं थी, उस की जरा सी खबर पाते ही दौड़ी चली आतीं. वह भी उन के जाने के बाद कितना अकेला हो गया था. यह तो अच्छा हुआ कि जीजाजी अच्छे स्वभाव के थे. दीदी की तड़प समझते थे, भाईबहन के प्यार के बीच कभी बाधा नहीं बने थे.

चंद्रिका को भी तो वह ही ढूंढ़ कर लाई थीं. उन दिनों की याद से रवि मुसकरा उठा. दीदी उस के विवाह की तैयारी में बावरी हो उठी थीं. ऐसा भी नहीं था कि चंद्रिका को इन बातों की जानकारी न हो, विवाह के शुरुआती दिनों में ही सारी रामकहानी उस ने सुना दी थी. विवाह के बाद जब पहली बार दीदी आईर् थीं तो चंद्रिका भी उन से मिलने के लिए बड़ी उत्साहित थी और स्वयं रवि तो पगला सा गया था. आखिर उस के विवाह के बाद वह पहली बार आ रही थीं. वह चाहता था भाई की सुखी गृहस्थी देख वह खिल उठें.

पति के ढेरों आदेशनिर्देश पा कर चंद्रिका का उत्साह कुछ कम हो गया था, वह कुछ सहम सी भी गई थी. परंतु रवि तो अपनी ही धुन में था, चाहे कुछ हो जाए, दीदी को इतना सम्मान और प्यार मिलना चाहिए कि उन की ममता का जरा सा कर्ज तो वह उतार सके.

दीदी के आने के बाद उन दोनों के बीच चंद्रिका कहीं खो सी गई थी. उन दोनों को अपने में ही मस्त पा उन के साथ बैठ कर स्वयं भी उन की बातों में शामिल होने की कोशिश करती, पर रवि ऐसा मौका ही न देता. तब वह खीज कर रसोई में घुस खाना बनाने की कोशिश में लग जाती. मेहनत से बनाया गया खाना देख कर भी रवि उस पर नाराज हो उठता, ‘यह क्या बना दिया? पता नहीं है, दीदी को पालकपनीर की सब्जी अच्छी लगती है, शाही पनीर नहीं.’ फिर रसोई में काम करती चंद्रिका का हाथ पकड़ कर बाहर ला खड़ा करता और कहता, ‘आज तो दीदी के हाथ का बना हुआ ही खाऊंगा. वे कितना अच्छा बनाती हैं.’

तब भाईबहन चुहलबाजी करते हुए रसोई में मशगूल हो जाते और चंद्रिका बिना अपराध के ही अपराधी सी रसोई के बाहर खड़ी उन्हें देखती रहती. दीदी जरूर कभीकभी चंद्रिका को भी साथ लेने की कोशिश करतीं, लेकिन रवि अनजाने ही उन के बीच एक ऐसी दीवार बन गया था कि दोनों औपचारिकता से आगे कभी बढ़ ही न पाई थीं. उस समय तो किसी तरह चंद्रिका ने हालात से समझौता कर लिया था, लेकिन उस के बाद जब भी दीदी आतीं, वह कुछ तीखी हो उठती. सीधे दीदी से कभी कुछ नहीं कहा था, लेकिन रवि के साथ उस के झगड़े शुरू हो गए थे. दीदी भी शायद भांप गई थीं, इसीलिए धीरेधीरे उन का आना कम होता जा रहा था. इस बार तो पूरे एक वर्ष बाद आ रही थीं, पिछली बार उन के सामने ही चंद्रिका ने रवि से इतना झगड़ा किया कि वे बेचारी 4 दिनों में ही वापस चली गई थीं. जितने भी दिन वे रहीं, चंद्रिका ने बिस्तर से नीचे कदम न रखा, हमेशा सिरदर्द का बहाना बना अपने कमरे में ही पड़ी रहती.

एक दोपहर दीदी को अकेले काम में लगा देख भनभनाता हुआ रवि, चंद्रिका से लड़ पड़ा था. तब वह तीखी आवाज में बोली थी, ‘तुम क्या समझते हो, मैं बहाना कर रही हूं? वैसे भी तुम्हें और तुम्हारी दीदी को मेरा कोई काम पसंद ही कब आता है, तुम दोनों तो बातों में मशगूल हो जाओगे, फिर मैं वहां क्या करूंगी?’ बढ़तेबढ़ते बात तेज झगड़े का रूप ले चुकी थी. दीदी कुछ बोलीं नहीं, पर दूसरे ही दिन सुबह रवि द्वारा मिन्नतें करने के बाद भी चली गई थीं. उन के चले जाने के बाद भी बहुत दिनों तक उन दोनों के संबंध सामान्य न हो पाए थे, दीदी के इस तरह चले जाने के कारण वह चंद्रिका को माफ नहीं कर पाया था.

दोनों के बीच बढ़ते तनाव को देख अभी तक खामोशी से सबकुछ देख रहे पिताजी ने आखिरकार एक दिन रात को खाने के बाद टहलने के लिए निकलते समय उसे भी साथ ले लिया था. वे उसे समझाते हुए बोले थे, ‘पतिपत्नी के संबंध का अजीब ही कायदा होता है, इस रिश्ते के बीच किसी तीसरे की उपस्थिति बरदाश्त नहीं होती है…’ ‘लेकिन दीदी कोई गैर नहीं हैं,’ बीच में ही बात काटते हुए, रवि का स्वर रोष से भर उठा था.

‘बेटा, विवाह के बाद सब से नजदीकी रिश्ता पतिपत्नी का ही होता है. बाकी संबंध गौण हो जाते हैं. माना कि सभी संबंधों की अपनीअपनी अहमियत है, लेकिन किसी भी रिश्ते पर कोई रिश्ता हावी नहीं होना चाहिए, वरना कोई भी सुखी नहीं रहता. तुम्हीं बताओ, इतनी कोशिशों के बाद भी क्या तुम्हारी दीदी खुश है?’ समझातेसमझाते पिताजी सवाल सा कर उठे थे. ‘तो मैं क्या करूं? चंद्रिका की खुशी के लिए उन से सारे संबंध तोड़ लूं या फिर दीदी के लिए चंद्रिका से,’ रवि असमंजस में था, ‘आप तो जानते ही हैं कि दोनों ही मुझे कितनी प्रिय हैं.’

‘संबंध तोड़ने के लिए कौन कहता है,’ पिताजी धीरे से हंस पड़े थे, फिर गंभीर हो, बोले, ‘यह तो तुम भी मानते ही होगे कि चंद्रिका मन से बुरी या झगड़ालू नहीं है. मेरा कितना खयाल रखती है, तुम्हारे लिए भी आदर्श पत्नी सिद्ध हुई है.’ ‘फिर दीदी से ही उस की क्या दुश्मनी है?’ रवि के इस सवाल पर थोड़ी देर तक उसे गहरी नजरों से देखने के बाद वे बोले ‘कोई दुश्मनी नहीं है. याद करो, पहली बार वह भी कितनी उत्साहित थी. इस सब के लिए. अगर कोई दोषी है तो वह स्वयं तुम हो.’

‘मैं?’ सीधेसीधे अपने को अपराधी पा रवि अचकचा उठा था. ‘हां, तुम उन दोनों के बीच एक दीवार बन कर खड़े हो. कुछ करने का मौका ही कहां देते हो. आखिर वह तुम्हारी पत्नी है, वह तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, लेकिन तुम हो कि अपनी बहन के आते ही उस के पूरे के पूरे व्यक्तित्व को ही नकार देते हो,’ पिताजी सांस लेने के लिए तनिक रुके थे.

रवि सिर झुकाए चुप बैठा किसी सोच में डूबा सा था. ‘बेटा, मुझे बहुत खुशी है कि तुम्हारी दीदी और तुम में इतना स्नेह है. भाईबहन से कहीं अधिक तुम दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त हो, पर अपनी दोस्ती की सीमाओं को बढ़ाओ. अब चंद्रिका को भी इस में शामिल कर लो. यह उस का भी घर है. उसे तय करने दो कि वह अपने मेहमान का कैसे स्वागत करती है. विश्वास मानो, इस से तुम सब के बीच से तनाव और गलतफहमियों के बादल छंट जाएंगे. और तुम सब एकदूसरे के अधिक पास आ जाओगे.’

‘‘अंदर कितनी देर लगाओगे?’’ चंद्रिका की आवाज सुन वह चौंक उठा, ‘अरे, इतनी देर से मैं बाथरूम में ही बैठा हूं.’ झटपट नहा कर वह बाहर निकल आया. चाय और गरमागरम नाश्ते की प्लेट उस का इंतजार कर रही थी. इस दौरान वे खामोश ही रहे. जूठे कप व प्लेटें समेटती चंद्रिका की हैरत यह देख और बढ़ गई कि रवि पत्र को हाथ लगाए बगैर ही एक पत्रिका पढ़ने लगा है.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ चंद्रिका का चिंतित चेहरा देख कर अपनी हंसी को रवि ने मुश्किल से रोका, ‘‘हां, ठीक है, क्यों?’’ ‘‘फिर अभी तक दीदी का पत्र क्यों नहीं पढ़ा?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में वह लापरवाही से बोला, ‘‘तुम ने तो पढ़ा ही होगा, खुद ही बता दो, क्या लिखा है?’’

‘‘वे कल दोपहर की गाड़ी से आ रही हैं.’’ ‘‘अच्छा,’’ कह वह फिर पत्रिका पढ़ने में मशगूल हो गया. कुछ देर तक चंद्रिका वहीं खड़ी गौर से उसे देखती रही, फिर कमरे से बाहर निकल गई.

दूसरे दिन रविवार था. सुबहसुबह रवि को अखबार में खोया पा कर चंद्रिका बहुत देर तक खामोश न रह सकी, ‘‘दीदी आने वाली हैं. तुम्हें कुछ खयाल भी है?’’ ‘‘पता है,’’ अखबार में नजरें जमाए हुए ही वह बोला.

‘‘खाक पता है,’’ चंद्रिका झुंझला उठी थी, ‘‘कुछ सामान वगैरह लाना है या नहीं?’’ ‘‘घर तुम्हारा है, तुम जानो,’’ उस की झुंझलाहट पर वह खुद मुसकरा उठा.

कुछ देर तक उसे घूरने के बाद पैर पटकती हुई चंद्रिका थैला और पर्स ले बाहर निकल गई. ?जब वह लौटी तो भारी थैले के साथ पसीने से तरबतर थी. रवि आश्चर्यचकित था. वह दीदी की पसंद की एकएक चीज छांट कर लाई थी.

‘‘दोपहर के खाने में क्या बनाऊं?’’ सवालिया नजरों से उसे देखते हुए चंद्रिका ने पूछा. ‘‘तुम जो भी बनाओगी, लाजवाब ही होगा. कुछ भी बना लो,’’ रवि की बात सुन चंद्रिका ने उसे यों घूर कर देखा, जैसे उस के सिर पर सींग उग आए हों.

दोपहर से काफी पहले ही वह खाना तैयार कर चुकी थी. रवि की तेज नजरों ने देख लिया था कि सभी चीजें दीदी की पसंद की ही बनी हैं. वास्तव में वह मन ही मन पछता भी रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि उस के बचकाने व्यवहार की वजह से ही दीदी और चंद्रिका इतने समय तक अजनबी बन परेशान होती रहीं.

‘‘ट्रेन का टाइम हो रहा है. स्टेशन जाने के लिए कपड़े निकाल दूं?’’ चंद्रिका अपने अगले सवाल के साथ सामने खड़ी थी. अपने को व्यस्त सा दिखाता रवि बोला, ‘‘उन्हें रास्ता तो पता है, औटो ले कर आ जाएंगी.’’ ‘‘तुम्हारा दिमाग तो सही है?’’ बहुत देर से जमा हो रहा लावा अचानक ही फूट कर बह निकला था, ‘‘पता है न कि वे अकेली आ रही हैं. लेने नहीं जाओगे तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. आखिर, तुम्हें हुआ क्या है?’’

‘‘अच्छा बाबा, जाता हूं, पर एक शर्त पर, तुम भी साथ चलो.’’ ‘‘मैं?’’ हैरत में पड़ी चंद्रिका बोली, ‘‘मैं तुम दोनों के बीच क्या करूंगी.’’

‘‘फिर मैं भी नहीं जाता.’’ उसे अपनी जगह से टस से मस न होते देख आखिर, चंद्रिका ने ही हथियार डाल दिए, ‘‘अच्छा उठो, मैं भी चलती हूं.’’

चंद्रिका को साथ आया देख दीदी पहले तो हैरत में पड़ीं, फिर खिल उठीं. शायद पिछली बार के कटु अनुभवों ने उन्हें भयभीत कर रखा था. स्टेशन पर चंद्रिका को भी देख एक पल में सारी शंकाएं दूर हो गईर्ं. वे खुशी से पैर छूने को झुकी चंद्रिका के गले से लिपट गईं.

रवि सोच रहा था, इतनी अच्छी तरह से तो वह घर में भी कभी नहीं मिली थी. ‘‘किस सोच में डूब गए?’’ दीदी का खिलखिलाता स्वर उसे गहरे तक खुशी से भर गया. सामान उठा वह आगेआगे चल दिया. चंद्रिका और दीदी पीछेपीछे बतियाती हुई आ रही थीं.

खाने की मेज पर भी रवि कम बोल रहा था. चंद्रिका ही आग्रह करकर के दीदी को खिला रही थी. हर बार चंद्रिका के अबोलेपन की स्थिति से शायद माहौल तनावयुक्त हो उठता था, इसीलिए दीदी अब जितनी सहज व खुश लग रही थीं, उतनी पहले कभी नहीं लगी थीं. खाने के बाद वह उठ कर अपने कमरे में आ गया. वे दोनों बहुत देर तक वहीं बैठी बातों में जुटी रहीं. कुछ देर बाद चंद्रिका कमरे में आ कर दबे स्वर में बोली, ‘‘यहां क्यों बैठे हो? जाओ, दीदी से कुछ बातें करो न.’’

‘‘तुम हो न, मैं कुछ देर सोऊंगा…’’ कहतेकहते रवि ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. रात के खाने की तैयारी में चंद्रिका का हाथ बंटाने के लिए दीदी भी रसोई में ही आ गईं. रवि टीवी खोल कर बैठा था.

‘‘रवि की तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ रसोईघर से आता दीदी का स्वर सुन रवि के कान चौकन्ने हो गए. पलभर की खामोशी के बाद चंद्रिका का स्वर उभरा, ‘‘नहीं तो, आजकल औफिस में काम अधिक होने से ज्यादा थक जाते हैं, इसलिए थोड़े खामोश हो गए हैं. आप को बुरा लगा क्या?’’

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने की क्या बात है? वैसे भी तुम्हारा साथ ज्यादा भला लग रहा है. पहली बार ऐसा लग रहा है कि अपने मायके आई हूं. मां तो थीं नहीं, जिन से यहां आने पर मायके का एहसास होता. पिताजी और भाई का मानदुलार था तो, पर असली मायके का एहसास तो मां या भौजाई के प्यार और मनुहार से ही होता है.’’

‘‘दीदी, मुझे माफ कर दीजिए,’’ चंद्रिका ने हौले से कहा, ‘‘मैं ने आप के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया…’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है, हम ने तुम्हें अवसर ही कहां दिया था कि तुम अपना अच्छा या बुरा व्यवहार सिद्ध कर सको. खैर छोड़ो, इस बार जैसा सुकून मुझे पहले कभी नहीं मिला,’’ दीदी का स्वर संतुष्टिभरा था.

टीवी के सामने बैठे रवि का मन भी दीदी की खुशी और संतुष्टि देख चंद्रिका के प्रति प्यार और गर्व से भर उठा था. सुबह उस के उठने से पहले ही दीदी और चंद्रिका उठ कर काम के साथसाथ बातों में व्यस्त थीं. रात भी रवि तो सो गया था, वे दोनों जाने कितनी देर तक एकसाथ जागती रही थीं. जाने उन के अंदर कितनी बातें दबी पड़ी थीं, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. रवि को एक बार फिर अपनी मूर्खता पर पछतावा हुआ. बिस्तर से उठ कर वह औफिस जाने की तैयारी में लग गया.

‘‘कहां जा रहे हो?’’ शीशे के सामने बाल संवार रहे रवि के हाथ अचानक चंद्रिका को देख रुक गए. ‘‘औफिस.’’

‘‘दीदी आई हैं, फिर भी?’’ चंद्रिका की हैरानी वाजिब थी. दीदी के लिए रवि पहले पूरे वर्ष की छुट्टियां बचा के रखता था. जितने भी दिन वह रहतीं, वे उन्हें घुमानेफिराने के लिए छुट्टियां ले कर घर बैठा रहता था. ‘‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? हम सब घूमने चलेंगे,’’ चंद्रिका जोर देते हुए बोली.

‘‘नहीं, इस बार छुट्टियां बचा रहा हूं, शरारतभरी नजर चंद्रिका के चेहरे पर डालता हुआ रवि बोला.’’ ‘‘क्यों?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में उस ने उसे अपने पास खींच लिया, ‘‘क्योंकि इस बार मैं तुम्हें मसूरी घुमाने ले जा रहा हूं. अभी छुट्टी ले लूंगा, तो बाद में नही मिलेंगी.’’

चंद्रिका की आंखें भीग उठी थीं, शायद वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि रवि की जिंदगी और दिल में उस के लिए भी इतना प्यार छिपा हुआ है. अपने को संभाल आंखें पोंछती वह लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘मसूरी जाना क्या दीदी से अधिक जरूरी है? मुझे कहीं नहीं जाना, तुम्हें छुट्टी लेनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अच्छा, ऐसा करता हूं, सिर्फ आज की छुट्टी ले लेता हूं,’’ वह समझौते के अंदाज में बोला. ‘‘लेकिन इस के बाद जितने भी दिन दीदी रहेंगी, तुम्हीं उन के साथ रहोगी.’’

‘‘मैं, अकेले?’’ चंद्रिका घबरा रही थी, ‘‘मुझ से फिर कोई गलती हो गई तो?’’ ‘‘तो क्या, उसे सुधार लेना. मुझे तुम पर पूरा विश्वास है,’’ मन ही मन सोचता जा रहा था रवि, ‘मैं भी तो अपनी गलती ही सुधार रहा हूं.’

वह रवि की प्यार और विश्वासभरी निगाहों को पलभर देखती रही, फिर हंस कर बोली, ‘‘अच्छा, अब छोड़ो, चल कर कम से कम आज की पिकनिक की तैयारी करूं.’’ दीदी पूरे 15 दिनों के लिए रुकी थीं, चंद्रिका और उन के बीच संबंध बहुत मधुर हो गए थे. इस बार पिताजी भी अधिक खुश नजर आ रहे थे. दीदी के जाने का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, चंद्रिका उदास होती जा रही थी.

आखिरकार, जीजाजी के बुलावे के पत्र ने उन के लौटने की तारीख तय कर दी. दौड़ीदौड़ी चंद्रिका बाजार जा कर दीदी के लिए साड़ी और जीजाजी के लिए कपड़े खरीद लाई थी. तरहतरह के पापड़ और अचार दीदी के मना करने के बावजूद उस ने बांध दिए थे. शाम की ट्रेन थी. चंद्रिका दीदी के साथ के लिए तरहतरह की चीजें बनाने में व्यस्त थी. रवि सामान पैक करती दीदी के पास आ बैठा. दीदी ने मुसकरा कर उस की तरफ देखा, ‘‘अब तुम कब आ रहे हो चंद्रिका को ले कर?’’

‘‘आऊंगा दीदी, जल्दी ही आऊंगा,’’ बैठी हुई दीदी की गोद में वह सिर रख लेट गया था, ‘‘तुम नाराज तो नहीं हो न?’’ ‘‘किसलिए?’’ उस के बालों में हाथ फेरती हुई दीदी एकाएक ही उस की बात सुन हैरत में पड़ गईं.

‘‘मैं तुम्हारे साथ पहले जितना समय नहीं बिता पाया न?’’ रवि बोला. ‘‘नहीं रे, बल्कि इस बार मैं यहां जितनी खुश रही हूं, उतनी पहले कभी नहीं रही. चंद्रिका के होते मुझे किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं हुई. एक बात बताऊं, मुझे बहुत डर लगता था. तेरे इतने प्यार जताने के बाद भी लगता था, मेरा भाई मुझ से अलग हो जाएगा. कभीकभी सोचती, शायद मेरे आने की वजह से ही चंद्रिका और तुम्हारे बीच झगड़ा होता है. तुझे देखने के लिए मन न तड़पता तो शायद यहां कभी आती ही नहीं.

‘‘चंद्रिका के इस बार के अच्छे व्यवहार ने मुझे एहसास दिलाया है कि भाई तो अपना होता ही है, पर भौजाई को अपना बनाना पड़ता है, क्योंकि वह अगर अपनी न बने तो धीरेधीरे भाई भी पराया हो जाता है. आज मैं सुकून महसूस कर रही हूं. चंद्रिका जैसी अच्छी भौजाई के होते मेरा भाई कभी पराया नहीं होगा. इस सब से भी बढ़ कर पता है, उस ने क्या दिया है मुझे?’’ ‘‘क्या?’’

‘‘मेरा मायका, जो मुझे पहले कभी नहीं मिला था. चंद्रिका ने मुझे वह सब दे दिया है,’’ दीदी की आंखें बरस उठी थीं, ‘‘चंद्रिका ने यह जो एहसान मुझ पर किया है, इस का कर्ज कभी नहीं चुका पाऊंगी.’’ ‘‘खाना तैयार है,’’ चंद्रिका कब कमरे में आई, पता ही न चला. लेकिन उस की भीगीभीगी आंखें बता रही थीं कि वह बहुतकुछ सुन चुकी थी. गर्व से निहारती रवि की आंखों में झांक चंद्रिका बोली, ‘‘कैसे भाई हो, पता नहीं, आज सुबह से दीदी ने कुछ नहीं खाया. चलो, खाना ठंडा हो रहा है.’’

दीदी को ट्रेन में बिठा रवि उन का सामान व्यवस्थित करने में लगा हुआ था. चंद्रिका दीदी के साथ ही बैठी उन्हें दशहरे की छुट्टियों में आने के लिए मना रही थी. हमेशा उतरे मुंह से वापस होने वाली दीदी का चेहरा इस बार चमक रहा था. ट्रेन की सीटी की आवाज के साथ ही रवि ने कहा, ‘‘उतरो चंद्रिका, ट्रेन चलने वाली है.’’

चंद्रिका दीदी से लिपट गई, ‘‘जल्दी आना और जाते ही पत्र लिखना.’’ ‘‘अब पहले तुम दोनों मेरे घर आना,’’ भीगी आंखों के साथ दीदी मुसकरा रही थीं.

उन के नीचे उतरते ही ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया. ‘‘दीदी, पत्र जरूर लिखना,’’ दोनों अपनेअपने रूमाल हिला रही थीं. ट्रेन गति पकड़ स्टेशन से दूर होती जा रही थी. चंद्रिका ने पलट कर रवि की तरफ देखा. रवि की गर्वभरी आंखों को निहारती चंद्रिका की आंखें भी चमक उठी थीं.

Story For Girls – रफू की हुई ओढ़नी: क्या हुआ था मेघा के साथ

Story For Girls : एक बार फिर गांव की ओढ़नी ने शहर में परचम लहराने की ठान ली. गांव के स्कूल में 12वीं तक पढ़ी मेघा का जब इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो घर भर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. देश के प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में ऐडमिशन मिलना कोई कम बड़ी बात है क्या?

“लेकिन यह ओढ़नी शहर के आकाश में लहराना नहीं जानती, कहीं झाड़कांटों में उलझ कर फट गई तो?”

“हवाओं को तय करने दो. इस के बंधन खोल कर इसे आजाद कर दो, देखें अटती है या फटती है…”

“लेकिन एक बार फटने के बाद क्या? फिर से सिलना आसान है क्या? और अगर सिल भी गई तो रहीमजी वाले प्रेम के धागे की तरह क्या जोड़ दिखेगा नहीं? जबजब दिखेगा तबतब क्या सालेगा नहीं?”

“तो क्या किया जाए? कटने से बचाने के लिए क्या पतंग को उड़ाना छोड़ दें?”

न जाने कितनी ही चर्चाएं थीं जो इन दिनों गांव की चौपाल पर चलती थी.

सब के अपनेअपने मत थे. कोई मेघा के पक्ष में तो कोई उस के खिलाफ. हरकोई चाहता तो था कि मेघा को उड़ने के लिए आकाश मिले लेकिन यह भी कि उस आकाश में बाज न उड़ रहे हों. अब भला यह कैसे संभव है कि रसगुल्ला तो खाएं लेकिन चाशनी में हाथ न डूबें.

“संभव तो यह भी है कि रसगुल्ले को कांटे से उठा कर खाया जाए.”

कोई मेघा की नकल कर हंसता. मेघा भी इसी तरह अटपटे सवालों के चटपटे जवाब देने वाली लड़की है. हर मुश्किल का हल बिना घबराए या हड़बड़ाए निकालने वाली. कभी ओढ़नी फट भी गई ना, तो इतनी सफाई से रफू करेगी कि किसी को आभास तक नहीं होगा. मेघा के बारे में सब का यही खयाल था.

लेकिन न जाने क्यों, खुद मेघा को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो पा रहा था पर आसमान नापने के लिए पर तो खोलने ही पडते हैं ना… मेघा भी अब उड़ान के लिए तैयार हो चुकी थी.

मेघा कालेज के कैंपस में चाचा के साथ घुसी तो लाज के मारे जमीन में गड़ गई. चाचाभतीजी दोनों एकदूसरे से निगाहें चुराते आगे बढ़ रहे थे. मेघा को लगा मानों कई जोड़ी आंखें उस के दुपट्टे पर टंक गई है. उस ने अपने कुरते के ढलते कंधे को दुरुस्त किया और सहमी सी चाचा के पीछे हो ली.

इस बीच मेघा ने जरा सा निगाह ऊपर उठा कर इधरउधर देखने की कोशिश की लेकिन आंखें कई टखनों से होती हुईं खुली जांघ तक का सफर तय कर के वापस उस तक लौट आईं.

उस ने अपने स्मार्टफोन की तरफ देखा जो खुद उस की तरह ही किसी भी कोण से स्मार्ट नहीं लग रहा था. हर तीसरे हाथ में पकड़ा हुआ कटे सेब के निशान वाला फोन उसे अपने डब्बे को पर्स में छिपाने की सलाह दे रहा था जिसे उस ने बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया था.

कालेज की औपचारिकताएं पूरी करने और होस्टल में कमरा अलौट होने की तसल्ली करने के बाद चाचा उसे भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर वापस लौट गए. अब मेघा को अपना भविष्य खुद ही बनाना था। गंवई पसीने की खुशबू को शहर के परफ्यूम में घोलने का सपना उसे अपने दम पर ही पूरा करना था.

कालेज का पहला दिन. मेघा बड़े मन से तैयार हुई. लेकिन कहां जानती थी कि जिस ड्रैस को उस के कस्बे में नए जमाने की मौडर्न ड्रैस कह कर उसे आधुनिका का तमगा दिया जाता था वही कुरता और प्लाजो यहां उसे बहनजी का उपनाम दिला देंगे. मेघा आंसू पी कर रह गई. लेकिन सिलसिला यहीं नहीं थमा था.

उस के बालों में लगे नारियल तेल की महक, हर कुरते के साथ दुपट्टा रखने की आदत, पांवों में पहनी हुई चप्पलें आदि उसे भीड़ से अलग करते थे. और तो और खाने की टेबल पर भी सब उसे चम्मच की बजाय हाथ से चावल खाते हुए कनखियों से देख कर हंसा करते थे.

“आदिमानव…” किसी ने जब पीछे से विशेषण उछाला तो मेघा को समझते देर नहीं लगी कि यह उसी के लिए है.

“यह सब बाहरी दिखावा है मेघा। तुम्हें इस में नहीं उलझना है,” स्टेशन पर ट्रैन में बैठाते समय पिता ने यही तो सीख की पोटली बांध कर उस के कंधे पर धरी थी.

‘पोटली तो भारी नहीं थी, फिर कंधे क्यों दुखने लगे?’ मेघा सोचने लगी.

हर छात्र की तरह मेघा का सामना भी सीनियर छात्रों द्वारा ली जाने वाली रैगिंग से हुआ. होस्टल के एक कमरे में जब नई आई लड़कियों को रेवड़ की तरह भरा जा रहा था तब मेघा का गला सूखने लगा.

“तो क्या किया जाए इस नई मुरगी के साथ?” छात्राओं से घिरी मेघा ने सुना तो कई बार देखी गई फिल्म ‘थ्री इडियट’ से कौपी आईडिया और डायलौग न जाने तालू के कौन से कोने में हिस्से में चिपक गए.

“भई, दुपट्टे बड़े प्यारे होते हैं इस के. चलो रानी, दुपट्टे से जुड़े कुछ गीतों पर नाच के दिखा दो. और हां, डांस प्योर देसी हो समझी?” गैंग की लीडर ने कहा तो मेघा जड़ सी हो गई.

एक सीनियर ने बांह पकड़ कर उसे बीच में धकेल दिया. मेघा के पांव फिर भी नहीं चले.

“देखो रानी, जब तक नाचोगी नहीं, जाओगी नहीं. खड़ी रहो रात भर,” धमकी सुन कर मेघा ने निगाहें ऊपर उठाईं.

“ओह, कहां फंसा दिया,” मेघा की आंखों में बेबसी ठहर गई.

‘अब घूमर के अलावा कोई बचाव नहीं,’ सोच कर मेघा ने अपने चिंदीचिंदी आत्मविश्वास को समेटा और अपने दुपट्टे को गले से उतार कर कमर पर बांध लिया.

‘हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा मलमल का…’, ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा…’, ‘लाल दुपट्टा उड़ गया रे बैरी हवा के झौंके से…’ जैसे कई फिल्मी गीतों पर मेघा ने घूमर नाच किया तो सब के मुंह उस के मिक्स ऐंड मैच को देख कर खुले के खुले रह गए. फिरकी की तरह घूमती उस की देह खुद चकरी हो गई थी.

लड़कियां उत्तेजित हो कर सीटियां  बजाने लगीं. उस के बाद वह ‘घूमर वाली लड़की’ के नाम से जानी जाने लगी.

मेघा किसी तरह नई मिट्टी में जड़ें जमाने की कोशिश कर रही थी लेकिन जब भी वह होस्टल में लड़कियों को गहरे गले और बिना बांहों वाली छोटी सी बनियाननुमा ड्रैस पहने बेफिक्री से घूमते देखती तो उसे अपना पूरी आस्तीन का कुरता रजाई सा लपेटा हुआ लगता.

मेघा की हालत त्रिशंकु सी हो गई. न तो उस से अपने संस्कार छोड़ते बनता और ना ही नए तौरतरीके अपनाते बन रहा था. फिर उस ने खुद को बदलने का निश्चय किया.

अब सवाल यह है वह अपनेआप को माहौल के अनुसार बदल भी ले लेकिन कोई उस की मदद करे तो सही, यहां तो कोई उसे दोस्त बनाने के लिए राजी ही नहीं था.

सब से आखिरी बेंच पर बैठने वाली मेघा ने अपनी तरफ से लाख कोशिश कर देखी लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे जमीन पौधे को स्वीकार ही नहीं कर रही, पौधा था कि पनप ही नहीं रहा था.

इसी तरह पहले सेमेस्टर के टर्म पेपर आ गए. मेघा ने अपनी जान झौंक दी. नतीजा आया तो पहले नंबर पर मेघा का नाम देख कर सब की निगाहें क्लास में पीछे बैठी आदिमानव सी लड़की की तरफ उठ गई. प्रोफैसर ने उस का नाम ले कर पुकारा तो संकोच से भरी मेघा के कदम जमीन में धंस से गए.

मेघा को लगा जैसेकि अब उस के दिन बदल जाएंगे और हुआ भी यही. प्रोफैसर उसे नाम से जानने लगे. बहुत से लड़केलड़कियों ने उस से मोबाइल नंबर ऐक्सचैंज किए. कुछ से बातचीत भी होने लगी लेकिन इतना सब होने के बाद भी मेघा अकेली की अकेली ही रही.

लाइम लाइट में आने के बाद भी उस का आत्मविश्वास नहीं लौटा. उसे सब का व्यवहार चीनी चढ़ी कुनैन सा लगता. एकदम बनावटी क्योंकि अब भी लोग उसे शाम को होने वाली चाय पार्टी का हिस्सा नहीं बनाते थे. हां, अपनी रूममैट विधि से अवश्य उस की पटने लगी थी.

विधि ने उस के बाहरी पहनावे को थोड़ा सा बदल दिया. उस की लंबी चोटी अब स्टैप्स में कट गई थी. बालों के तेल की जगह जैल ने ले ली. सलवारकमीज की जगह अलमारी में जींसकुरती आ गई लेकिन हां, अब भी वह बनियान पहन कर होस्टल में नहीं घूम पाती थी. उसे नंगानंगा सा लगता था.

सब कुछ पटरी पर आ ही रहा था कि उस की जिंदगी को और अधिक आसान बनाने आ गया था विनोद. जितनी आधुनिक मेघा, उतना ही विनोद. फर्क बस इतना ही था कि मेघा राजस्थान के गांव से थी तो विनोद बिहार के गांव से. दोनों ही सकुचेसहमे और दिल्ली की तेज रोशनी से चुंधियाए हुए. मेघा को विनोद के साथ बहुत सहज लगता था. उस के साथ खाया लिट्टीचोखा उसे दालबाटी सा आनंद देता था. कभीकभी जब वह लंबा आलाप ले कर देसी तान छेड़ता तो मेघा का मन घूमर डालने को मचलने लगता.

परदेस में कोई अपनी सी फितरत का मिल जाए तो अपना सा ही लगने लगता है. मेघा को भी विनोद अपना ही अक्स लगने लगा. क्लास से ले कर कनाट प्लेस तक दोनों साथसाथ देखे जाने लगे. यह अलग बात है कि कनाट प्लेस जाने का मकसद दोनों का एक ही होता था. नए फैशन को आंखें फाड़फाड़ कर देखना और फिर उसे जीभर कोसना. दोनों को ही इस में आत्मिक तृप्ति सी मिलती थी गोया अपने स्टाइल को बेहतर साबित करने का यह भी एक तरीका हो.

घूमतेफिरते दिल्ली के ट्रैफिक से घबराए दोनों एकदूसरे का हाथ थाम कर सड़क क्रौस किया करते थे. हालांकि विनोद ने कभी इकरार तो नहीं किया लेकिन प्यार से हाथ पकड़ने को मेघा प्यार ही समझ बैठी.

‘मेरी ही तरह छोटी जगह से है ना बड़ी बातें नहीं बना पाता होगा’, मेघा उस के हाथ में अपना हाथ देख कर सपने बुनने लगती.

इधर पिछले कुछ दिनों से मेघा को विनोद पर भी नए रंग का असर दिखाई दे रहा था.

उस दिन बारिश के बाद जब दोनों कैंपस के बाहर लगे ठेले पर मक्के का भुट्टा खा रहे थे तो अचानक मेघा को विनोद के मुंह से अप्रिय सी गंध आई.

“विनोद, पी है क्या?” मेघा ने अपने वहम को यकीन में बदलने के खयाल से पूछा.

“ना, चखी है,” कहने के साथ ही उस के अंदाज की बेशर्मी मेघा को खल गई. उस ने आधा खाया भुट्टा डस्टबिन में फेंका और मुड़ गई. विनोद उसे जाते हुए देखता रहा लेकिन रोकने की कोशिश नहीं की. कौन जाने, हिम्मत ही ना हुई हो.

धीरेधीरे विनोद शहर के रंगों में डूबने लगा. इतना कि खुद अपना असली रंग खो दिया. रंगीनियत तो मेघा पर भी तारी थी लेकिन अभी तक उस की अपनी देसी रंगत बरकरार थी. शायद ये देसीपना संस्कार बन कर उस के भीतर जड़ें जमा चुका था. विनोद में ये जड़ें जरा कमजोर रह गई होंगी.

विनोद को यों पटरी से उतरते देख कर मेघा का दिल बहुत उदास हो जाता लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही थी. हालांकि उनका मिलनाजुलना अब भी जारी था लेकिन अब उस में पहले वाली गुनगुनाहट नहीं बची थी फिर भी मेघा को कभीकभी लगता था जैसेकि दोस्तों को यदि दोस्त ही गड्ढे में गिराते हैं तो उन्हें गिरने से बचाने की जिम्मेदारी भी दोस्तों की ही होती है. फिर वह तो प्यार करने लगी थी उस से. कौन जाने यह रिश्ता रिश्तेदारी में ही बदल जाए. इस नाते तो उस की जिम्मेदारी दोहरी हो जाती है.

 

“तुम्हें भी शहर की हवा लग गई लगती है,” एक रोज मेघा ने सिगरेट के छल्ले उड़ाते विनोद से पूछा.

“जैसा देस, वैसा भेष,” विनोद ने एक हिंदी फिल्म का नाम लिया और हंस दिया.

“बिना भेष बदले क्या उस देस में रहने नहीं दिया जाता?” मेघा ने फिर पूछा जिस का जवाब विनोद को नहीं सूझा. वह चुपचाप नाक से धुआं खींचता मुंह से निकालता रहा.

मेघा चाह तो रही थी कि उस के हाथ से सिगरेट खींच ले लेकिन किस अधिकार से? बेशक विनोद के प्रति उस की कोमल भावनाएं हैं लेकिन इकतरफा भावनाओं की क्या अहमियत. मेघा पराजित सी खड़ी थी.

कुछ खास मौके ऐसे होते हैं जो महानगरों में बड़े शोरशराबे के साथ मनाए जाते हैं, वही छोटे शहर के लोग इन्हें हसरत के साथ ताका करते हैं. वैलेंटाइन डे भी ऐसा ही खास दिन है जिस का युवा दिलों को सालभर से इंतजार रहता है. मेघा भी बहुत उत्साहित थी कि उसे भी यह सुनहरा मौका मिला है जब वह प्रत्यक्ष रूप से इस अवसर की साक्षी बनने वाली है. अन्य लड़कियों की तरह वह गुलाब इकट्ठे करने वाली भीड़ का हिस्सा तो नहीं बन रही थी लेकिन एक गुलाब की प्रतीक्षा तो उसे भी थी ही.

प्रेम दिवस पर पूरे कालेज में गहमागहमी थी. लड़कियां बड़े मनोयोग से सजीसंवरी थी तो लड़के भी कुछ कम नहीं थे. किसी के हाथ में गुलाब तो किसी के पास चौकलेट, कोई टैडीबीयर हाथ में थामे था तो कोई मंदमंद मुसकान के साथ कार्ड में लिखे जज्बात पढ़ रहा था.

कोई जोड़ा कहीं किसी कैंटीन में सटा बैठा था तो कोई किसी कार की पिछली सीट पर प्रेमालाप में मगन था. कुछ जोड़े मोटरसाइकिल पर ऐसे चिपक कर घूम रहे थे कि मेघा को झुरझुरी सी हो आई. मेघा की आंखें ये नजारे देखदेख कर चकाचौंध हुई जा रही थी.

सुबह से दोपहर होने को आई लेकिन विनोद का कहीं अतापता नहीं था.

‘मेरे लिए गुलाब या गिफ्ट लेने गया होगा,’ से ले कर ‘पता नहीं कहां चला गया’ तक के भाव आ कर चले गए. लेकिन नहीं आया तो केवल विनोद.

‘क्यों न चल कर मैं ही मिल लूं,” सोचते हुए मेघा ने कालेज के बाहर अस्थाई रूप से लगी फूलों की दुकान से पीला गुलाब खरीदा और विनोद की तलाश में डिपार्टमैंट की तरफ चल दी.

“अभीअभी विनय के साथ निकला है,” किसी ने बताया.

विनय उन दोनों का कौमन फ्रैंड है. असाइनमैंट बनाने के चक्कर में तीनों कई बार विनय के कमरे पर मिल चुके हैं. मेघा सोच में पड़ गई.

‘क्या किया जाए, इंतजार या फिर विनय के कमरे पर धावा…’ आखिर मेघा ने विनोद को सरप्राइज देना तय किया और विनय के रूम पर जाने के लिए औटो में बैठ गई.

दिल उछल कर बाहर आने की कोशिश में था. औटो की खड़खड़ भी धड़कनों के शोर को दबा नहीं पा रही थी. पीला गुलाब उस ने बहुत सावधानी के साथ पकड़ा हुआ था. कहीं हवा के झोंके से पंखुड़ियां क्षतिग्रस्त न हो जाएं. आज वह जो करने जा रही है वह उस ने कभी सोचा तक नहीं था.

‘पता नहीं मुझे यह करना चाहिए या नहीं. कहीं विनोद इसे गलत न समझ ले. मेरा यह अतिआधुनिक रूप कहीं विनोद को ना भाया तो?’ ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो मेघा को 2 कदम आगे और 4 कदम पीछे धकेल रहे थे.

ऊहापोह में घिरी मेघा के हाथ कमरे के बाहर लगी घंटी के बटन की तरफ बढ़ गए. तभी अचानक भीतर से आ रही आवाजों ने उसे ठिठकने को मजबूर कर दिया.

“अरे यार, आज तूने किसी को कोई लाल गुलाब नहीं दिया,” विनय के प्रश्न का जवाब सुनने के लिए मेघा अधीर हुई जा रही थी. अपने नाम का जिक्र सुनने की प्रतीक्षा उस की आंखों में लाली सी उतर आई. उस ने कान दरवाजे से सटा दिए.

“कोई जमी ही नहीं. सानिया पर दिल आया था लेकिन उसे तो कोई और ले उड़ा,” विनोद का जवाब सुन कर मेघा को यकीन नहीं हुआ.

“सानिया? वह तो तेरेमेरे जैसों को घास भी ना डाले,” विनोद ने ठहाका लगाया.

“मैं तो मेघा के बारे में बात कर रहा था. तुम दोनों की तो खूब घुटती थी ना, इसीलिए मैंने अंदाजा लगाया,” विनय ने आगे कहा.

उस के मुंह से अपना जिक्र सुन कर मेघा फिर से उत्सुक हुई.

“कौन? वह गांवड़ी? अरे नहीं यार, यहां आ कर भी अपने लिए कोई गांवड़ी ही ढूंढ़ी तो फिर क्या खाक तीर मारा,” विनोद ने लापरवाही से कहा तो मेघा के कान सुन्न से हो गए. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जो उस ने सुना वह सच है.

उस ने एक निगाह अपने हाथ में सहेजे पीले गुलाब पर डाली. फूल भी उसे अपने किरदार सा बेरौनक लगा. मेघा वापस मुड़ गई.

‘दिल टूटा क्या?’ कोई भीतर से कुनमुनाया.

‘ना रे, बिलकुल भी नहीं. मेरा दिल इतना कमजोर थोड़ी है. वैसे भी मैं यहां दिल तोड़ने या जोड़ने नहीं आई हूं,’ अपने भीतर को जवाब दे कर वह जोर से खिलखिलाई और फिर अपना दुपट्टा हवा में लहरा दिया.

मेघा हंसतेहंसते बुदबुदा रही थी,’गांवड़ी।’

औटो में बैठी मेघा ने 1-2 बार पीले गुलाब को खुद ही सूंघा और फिर उसे औटो में ही छोड़ कर नीचे उतर गई.

फटी ओढ़नी बहुत नफासत के साथ रफू हो गई थी.

Best Family Drama : खुशहाल जिंदगी हुई बदहाल

‘‘मैं सोच रही हूं कि हमें अपने पहले के विचार पर पुनर्विचार करना चाहिए,’’ सोमा ने कुछ  झिझकते हुए विनोद से कहा.

‘‘किस विचार पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता महसूस हो रही है तुम्हें?’’ विनोद ने आश्चर्य से पूछा. बात उस के पल्ले नहीं पड़ रही थी.

‘‘वह बच्चे वाली. अब मु   झे लग रहा है कि हमारा जीवन नीरस हो रहा है. बिलकुल सूनासूना सा जीवन हो गया है. एक बच्चे के आ जाने से तबदीली आ जाएगी जिंदगी में,’’ सोमा ने कहा और उत्तर की आशा में विनोद को देखने लगी. वह सोच कर घबरा रही थी कि न जाने क्या प्रतिक्रिया होगी विनोद की.

‘‘क्या कह रही हो सोमा? हम ने तो इसी शर्त पर शादी की थी कि हमें बच्चा नहीं चाहिए. बच्चा पालने में बड़े    झमेले हैं, इसे तुम भी मानती थी और मैं भी. सच पूछा जाए तो हमारे विचार की समानता के कारण ही तो हम शादी के बंधन में बंधे थे,’’ विनोद ने हैरत के साथ कहा.

उस का व्यवहार सोमा की अपेक्षा के अनुरूप ही था. यह सच था कि वह भी प्रारंभ में बच्चा पालने के     झंझट में नहीं पड़ना चाह रही थी. उस ने कई महिलाओं को देखा था बच्चे के झमेले में पड़ कर अपना कैरियर और शांति नष्ट होते हुए.

‘‘बात तुम्हारी बिलकुल ठीक है. इसीलिए तो मैं पुनर्विचार की बात कर रही हूं. मैं कहां कोई एकतरफा निर्णय थोप रही हूं तुम्हारे ऊपर?’’ सोमा ने शांत स्वर में कहा.

‘‘सोचना भी मत. इसी शर्त पर हम ने शादी की थी. जब शर्त ही नहीं रहेगी तो शादी टूटने से कोई नहीं रोक पाएगा,’’ विनोद आगबबूला हो गया.

‘‘मैं तो बस पुनर्विचार के लिए कह रही हूं. दोबारा इस बात की चर्चा तब तक नहीं चलाऊंगी जब तक तुम न कहो,’’ सोमा ने मानो आत्मसमर्पण कर दिया.

बात आईगई हो गई. पर कहीं न कहीं यह विनोद के मन को मथ रही थी. आज विनोद तीस वर्ष का है. उस की पत्नी सोमा भी लगभग इसी उम्र की है. कई वर्षों से एकदूसरे को जानते थे. सोमा शादी नहीं करना चाहती थी क्योंकि वह बच्चा पालने के    झं   झट में नहीं पड़ना चाहती थी. उस ने कई लड़कियों के कैरियर को बच्चा पालने के कारण बरबाद होते देखा था और उसी राह पर नहीं चलना चाहती थी.

विनोद भी इसी विचार का था. उसे भी लगता था कि बच्चा होने के बाद इतनी जिम्मेदारियां हो जाती हैं कि अपना जीवन जी नहीं पाता आदमी. वैसे तो दोनों एकदूसरे से प्रेम करते थे. दोनों ने एकदूसरे के विचारों के मेल के कारण ही शादी करने का निर्णय लिया था. दोनों खुश थे. किसी प्रकार का तनाव न था और जिंदगी बहुत ही सुचारु गति से चल रही थी. पर सोमा के पुनर्विचार वाले प्रस्ताव से वह कुछ असहज महसूस कर रहा था. सहमति से लिए गए निर्णय पर पुनर्विचार की बात कर के बहुत बड़ा सदमा दिया था सोमा ने. पर विनोद ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी.

इस के बाद कई महीनों तक सोमा ने इस बारे में कोई बात नहीं की. पर कहीं न कहीं सोमा के व्यवहार से उसे लग रहा था कि बच्चे की चाहत उस के मन में बहुत अधिक है. उसे यह डर भी सता रहा था कि सोमा फिर से इस बात की चर्चा न करने लगे और उस पर कोई दबाव न बनाए. साथ ही उसे यह भी लग रहा था कि कहीं बच्चे की चाहत पूरी न होने पर वह नाराज न हो जाए और आगे चल कर तलाक न ले ले.

तो क्या एक बच्चा हो जाने दे वह? इस प्रश्न का जवाब उसे नहीं मिल पा रहा था. क्या वह इस शर्त पर बच्चा होने के लिए तैयार हो जाए कि वह बच्चे की देखभाल में कोई मदद नहीं करेगा और यह सोमा के अकेले की जिम्मेदारी होगी. पर घर में बच्चा रहेगा तो कैसे वह एकदम से उस से दूरी बना कर रख पाएगा. इस प्रश्न का कोई हल उसे नजर नहीं आ रहा था.

सिर्फ इस कारण से पिता बनना कि उस की पत्नी इस के लिए एकतरफा चाहत रखती है, उचित नहीं होगा. यह न सिर्फ उस के लिए उचित नहीं होगा बल्कि बच्चे के लिए भी उचित नहीं होगा. वैसे सोमा भी गलत नहीं है क्योंकि अगर उस का विचार बदल गया है तो वह उस के लिए स्वतंत्र है क्योंकि अपने निर्णय पर, अपने शरीर पर उस का अधिकार होना ही चाहिए. अब पतिपत्नी के विचार में ऐसा विरोध है तो फिर क्या किया जाए?

कई सप्ताह इसी उधेड़बुन में फंसा रहा विनोद. सोमा ने उस के बाद कुछ कहा नहीं और हमेशा सहज रहने की कोशिश करती रही. पर कहीं न कहीं उस के चेहरे पर उदासी के भाव दिख जाते थे. शादी इसी शर्त पर होने के कारण सोमा उस से इस बारे में बात नहीं करती थी. धीरेधीरे विनोद पर सोमा की उदासी का प्रभाव पड़ने लगा. उस का दिल कहीं न कहीं सोमा की उदासी का जिम्मेदार खुद को मानने लगा.

यह ठीक है कि शादी की शर्त पर कायम रहना चाहिए पर परिवर्तन तो जीवन का नियम है. किसी के विचार में समय के साथ परिवर्तन होना स्वाभाविक है और ऐसी कोई विशेष मांग नहीं थी सोमा की जिसे पूरा नहीं किया जा सकता और सब से बड़ी बात यह कि सोमा इस के लिए कोई जिद नहीं कर रही. पर क्या पति का दायित्व नहीं होता पत्नी की खुशी का खयाल रखने का? वैसे वह तो सोमा को खुश रखने का हरसंभव प्रयास करता रहा है.

एक रविवार को विनोद और सोमा नाश्ता करने के बाद बैठे हुए थे. थोड़ी देर टीवी देखने के बाद विनोद बैडरूम में जा कर लेट गया. टीवी पर चुनाव से संबंधित और इसराईलईरान, रूसयूके्रन के    झगड़े से संबंधित चर्चा अधिक हो रही थी जिस में दोनों की कोई रुचि नहीं थी. सोमा भी उस की बगल में आ कर लेट गई.

विनोद ने सोमा को अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘मुझ से तुम्हारा उदास चेहरा देखा नहीं जाता.’’

‘‘उदास चेहरा? मैं कब उदास रहती हूं?’’ सोमा ने विनोद के कंधे पर सिर रख कर कहा.

‘‘   झूठ मत बोलो. जब से मैं ने तुम्हारे पुनर्विचार के प्रस्ताव को ठुकराया है तुम बुझीबुझी सी रहती हो,’’ विनोद ने अपनी बांहों में सोमा को कसते हुए कहा.

‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं है. तुम इस की बिलकुल फिक्र न करो. बस ऐसे ही मन में बात आ गई थी. बेशक बच्चा पालने में काफी    झं   झट है. मैं भी इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहती,’’ सोमा ने अपनी बांहों में विनोद के लपेटते हुए कहा.

‘‘बच्चा पालने के  झंझट से बड़ा एक और  झंझट है,’’ विनोद ने कहा.

‘‘क्या?’’ सोमा चौंक गई.

‘‘अपनी पत्नी को उदास देखना,’’ विनोद ने मुसकरा कर कहा.

‘‘अरे ऐसा कुछ भी नहीं है,’’ सोमा ने कहा ‘‘मान लिया कुछ भी नहीं है, यदि मेरा विचार बदल कर एक बच्चा पैदा करने का हो जाए तब तो तुम मानोगी?’’ विनोद ने कहा.

सोमा ने विनोद की आंखों में    झांकते हुए हामी में सिर हिला दिया और मुसकरा पड़ी. आज कई दिनों के बाद विनोद ने सोमा के चेहरे पर उन्मुक्त हंसी देखी.

दोनों ने शादी इस शर्त पर की थी कि बच्चा नहीं चाहिए. आज दोनों इस बात पर सहमत थे कि बच्चा चाहिए. दोनों ने एकदूसरे की भावना का खयाल रख कर यह निर्णय ले लिया कि एक बच्चा होना ही चाहिए. छुट्टी का दिन था और दोनों एकदूसरे से लिपटे हुए थे. थोड़ी ही देर में दोनों उत्तेजित हो गए और फिर एकदूसरे की बांहों में खो गए. हमेशा की तरह आज विनोद को कंडोम की आवश्यकता नहीं थी.

दोनों जब एकदूसरे से अलग हुए तो हांफते हुए विनोद ने कहा, ‘‘बिना कंडोम के आनंद थोड़ा बढ़ जाता है न?’’

सोमा ने शरमा कर कहा, ‘‘धत्त.’’

इस के बाद से उन दोनों के बीच कंडोम कभी नहीं आया. पहले कभी बिना कंडोम के साथ हो भी लेते थे तो सोमा 24 घंटे के अंदर पिल ले लेती थी ताकि गर्भ न ठहरे. दोनों अब बिना किसी सावधानी के खुल कर सहवास का आनंद ले रहे थे और अपेक्षा कर रहे थे की शीघ्र ही सोमा गर्भवती हो जाएगी.

दिन, महीने, साल गुजर गए और सोमा गर्भवती नहीं हुई तब उन्हें चिंता हुई. अब तक दोनों ने एक बच्चा होने का मन बना लिया था. इशारों ही इशारों में घर वालों को भी बता दिया गया था. यह योजना भी बना ली गई थी कि प्रसव के लिए सोमा अपने मायके जा कर 2-3 महीने रहेगी और फिर यहां विनोद के मातापिता आ जाएंगे बच्चे के लालनपालन में सहायता करने के लिए.

दोनों ने अपनेअपने स्तर से गर्भ ठहरने के उपाय शुरू कर दिए. इस से संबंधित जानकारी साहित्य, गूगल आदि से लेना शुरू कर दिया. कहीं से पता चला कि मासिकधर्म के कुछ दिनों बाद संभोग करने से गर्भ ठहरता है. कई महीने यह कर के भी देख लिया. फिर चक्कर शुरू हुआ डाक्टरों का. सारे टैस्ट हुए और कहीं कोई कमी नहीं मिली. डाक्टर भी हैरान थे कि आखिर कमी कहां है. दोनों पतिपत्नी अवसादग्रस्त हो गए. सोमा को खुद से ज्यादा विनोद की चिंता होती थी. उसे लगता था कि उस ने यह बात नहीं उठाई होती तो शायद इस मानसिक अवसाद से विनोद न गुजरता.

कृत्रिम गर्भधारण, आईवीएफ? और न जाने क्या क्या उपाय किए गए पर कुछ भी काम न आया. डाक्टर न कोई कमी बता पा रहे थे, न कोई उपाय कर पा रहे थे. इस अवसाद का प्रभाव उन के सैक्स जीवन पर भी पड़ने लगा और विनोद चिड़चिड़ा होता चला गया. पहले वह सैक्स का खुल कर आनंद लेता था. अब सैक्स का एक ही मकसद रह गया था, गर्भधारण. सैक्स का आनंद जाता रहा.

कभीकभी सोमा को यह भी लगता कि बारबार पिल लेने से नुकसान हुआ है. शुरू के दिनों में अकसर बिना प्लान के सैक्स हो जाता था जिस के कारण उसे पिल लेनी पड़ती थी.

एक दिन विनोद उदास सा बैठा हुआ था. सोमा उस की बगल में आ कर बैठ गई. उस के कंधे पर सिर रख कर बोली, ‘‘सौरी विनोद, मैं ने बच्चे वाली बात उठा कर खुद को और तुम्हें नाहक परेशान कर दिया.’’

विनोद उस का सिर सहला कर रह गया. उस की आंखें डबडबा गईं. अब कोई उपाय भी तो नहीं बचा था.

Story in Hindi : पसंद की बहू

विभा रसोई में भरवां भिंडी और अरहर की दाल बनाने की तैयारी कर रही थी. भरवां भिंडी उस के बेटे तपन को पसंद थी और अरहर की दाल की शौकीन उस की बहू सुषमा थी. इसीलिए सुषमा के लाख मना करने पर भी वह रसोई में आ ही गई. सुषमा और तपन को अपने एक मित्र के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में जाना था और उस के लिए उपहार भी खरीदना था. सो, दोनों घर से जल्दी निकल पड़े. जातेजाते सुषमा बोली, ‘‘मांजी, ज्यादा काम मत कीजिए, थोड़ा आराम भी कीजिए.’’

विभा ने मुसकरा कर सिर हिला दिया और उन के जाते ही दरवाजा बंद कर दोबारा अपने काम में लग गई. जल्दी ही उस ने सबकुछ बना लिया. दाल में छौंकभर लगाना बाकी था. कुछ थकान महसूस हुई तो उस ने कौफी बनाने के लिए पानी उबलने रख दिया. तभी दरवाजे की घंटी बजी. जैसे ही विभा ने दरवाजा खोला, सुषमा आंधी की तरह अंदर घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जा कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. विभा अवाक खड़ी देखती ही रह गई.

सिर झुकाए धीमी चाल से चलता तपन भी पीछेपीछे आया. उस का भावविहीन चेहरा देख कुछ भी अंदाजा लगाना कठिन था. विभा पिछले महीने ही तो यहां आई थी. किंतु इस दौरान में ही बेटेबहू के बीच चल रही तनातनी का अंदाजा उसे कुछकुछ हो गया था. फिर भी जब तक बेटा अपने मुंह से ही कुछ न बताए, उस का बीच में दखल देना ठीक न था. जमाने की बदली हवा वह बहुत देख चुकी थी. फिर भी न जाने क्यों इस समय उस का मन न माना और वह सोफे पर बैठे, सिगरेट फूंक रहे तपन के पास जा बैठी.

तपन ने सिगरेट बुझा दी तो विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या हुआ है?’’ ‘‘कुछ भी नहीं,’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘कोई नई बात तो है नहीं…’’

‘‘वह तो मैं देख ही रही हूं, इसीलिए आज पूछ बैठी. यह रोजरोज की खींचतान अच्छी नहीं बेटा, अभी तुम्हारे विवाह को समय ही कितना हुआ है? अभी से दांपत्य जीवन में दरार पड़ जाएगी तो आगे क्या होगा?’’ विभा चिंतित सी बोली.

‘‘यह सब तुम मुझे समझाने के बजाय उसे क्यों नहीं समझातीं मां?’’ कह कर तपन उठ कर बाहर चला गया, जातेजाते क्रोध में दरवाजा भी जोर से ही बंद किया. विभा परेशान हो उठी कि तपन को क्या होता जा रहा है? बड़ी मुश्किल से तो वे लोग उस की रुचि के अनुसार लड़की ढूंढ़ पाए थे. उस ने तमाम गुणों की लिस्ट बना दी थी कि लड़की सुंदर हो, खूब पढ़ीलिखी हो, घर भी संभाल सके और उस के साथ ऊंची सोसाइटी में उठबैठ भी सके, फूहड़पन बिलकुल न हो आदिआदि.

कुछ सोचते हुए विभा फिर रसोई में चली गई. कौफी का पानी खौल चुका था. उस ने 3 प्यालों में कौफी बना ली. बाथरूम में पानी गिरने की आवाज से वह समझ गई कि सुषमा मुंह धो रही होगी, सो, उस ने आवाज लगाई, ‘‘सुषमा आओ, कौफी पी लो.’’ ‘‘आई मांजी,’’ और सुषमा मुंह पोंछतेपोंछते ही बाहर आ गई.

कौफी का कप उसे पकड़ाते विभा ने उस की सूजी आंखें देखीं तो पूछा, ‘‘क्या हुआ था, बेटी?’’ सुषमा सोचने लगी, पिछले पूरे एक महीने से मां उस के व तपन के झगड़ों में हमेशा खामोश ही रहीं. कभीकभी सुषमा को क्रोध भी आता था कि क्या मां को तपन से यह कहना नहीं चाहिए कि इस तरह अपनी पत्नी से झगड़ना उचित नहीं?

‘‘बताओ न बेटी, क्या बात है?’’ विभा का प्यारभरा स्वर दोबारा कानों में गूंजा तो सुषमा की आंखें छलछला उठीं, वह धीरे से बोली, ‘‘बात सिर्फ यह है कि इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं है.’’ ‘‘यह कैसी बात कर रही हो?’’ विभा बेचैनी से बोली, ‘‘पति अपनी पत्नी पर विश्वास न करे, यह कभी हो सकता है भला?’’

‘‘यह आप उन से क्यों नहीं पूछतीं, जो भरी पार्टी में किसी दूसरे पुरुष से मुझे बातें करते देख कर ही बौखला उठते हैं और फिर किसी न किसी बहाने से बीच पार्टी से ही मुझे उठा कर ले आते हैं, भले ही मैं आना न चाहूं. मैं क्या बच्ची हूं, जो अपना भलाबुरा नहीं समझती?’’ विभा की समझ में बहुतकुछ आ रहा था. तसवीर का एक रुख साफ हो चुका था.अपनी सुंदर पत्नी पर अपना अधिकार जमाए रखने की धुन में पति का अहं पत्नी के अहं से टकरा रहा था. वह प्यार से बोली, ‘‘अच्छा, तुम कौफी पियो, ठंडी हो रही है. मैं तपन को समझाऊंगी,?’’ यह कह कर विभा रसोई में चली गई. कुकर का ढक्कन खोल दाल छौंकी तो उस की महक पूरे घर में फैल गई. तभी तपन भी अंदर आया और बिना किसी से कुछ बोले कौफी का कप रसोई से उठा कर अंदर कमरे में चला गया.

रात को जब तीनों खाना खाने बैठे, तब भी तपन का मूड ठीक नहीं था. इधर सुषमा भी अकड़ी हुई थी. वह डब्बे से रोटी निकाल कर अपनी व विभा की प्लेट में तो रखती, लेकिन तपन के आगे डब्बा ही खिसका देती. एकाध बार तो विभा चुप रही, फिर बोली, ‘‘बेटी, तपन की प्लेट में भी रोटी निकाल कर रखो.’’ इस पर सुषमा ने रोटी निकाल कर पहले तपन की प्लेट में रखी तो उस का तना हुआ चेहरा कुछ ढीला पड़ा.

खाने के बाद विभा रोज कुछ देर घर के सामने ही टहलती थी. सुषमा या तपन में से कोई एक उस के साथ हो लेता था. उन दोनों ने उसे यहां बुलाया था और दोनों चाहते थे कि जितने दिन विभा वहां रहे, उस का पूरा ध्यान रखा जाए. इसीलिए जब विभा ने बाहर जाने के लिए दरवाजा खोला तो पांव में चप्पल डाल कर तपन भी साथ हो लिया.

कुछ दूर तक मौन चलते रहने के बाद विभा ने पूछा, ‘‘सुषमा को क्या तुम पार्टी से जबरदस्ती जल्दी ले आए थे?’’ ‘‘मां, अच्छेबुरे लोग सभी जगह होते हैं. सुषमा जिस व्यक्ति के साथ बातें किए जा रही थी उस के बारे में दफ्तर में किसी की भी राय अच्छी नहीं है. दफ्तर में काम करने वाली हर लड़की उस से कतराती है. अब ऐसे में सुषमा का इतनी देर तक उस के साथ रहना…और ऊपर से वह नालायक भी ‘भाभीजी, भाभीजी’ करता उस के आगेपीछे ही लगा रहा, क्योंकि कोई और लड़की उसे लिफ्ट ही नहीं दे रही

‘‘मां, अब तुम ही बताओ, मेरे पास और क्या उपाय था, सिवा इस के कि मैं उसे वहां से वापस ले आता. उसे खुद भी तो अक्ल होनी चाहिए कि ऐसेवैसों को ज्यादा मुंह न लगाया करे. किसी भी बहाने से वह उस के पास से हट जाती तो भला मैं पार्टी बीच में छोड़ कर उसे जल्दी क्यों लाता?’’ तपन के स्वर में कुछ लाचारी थी, तो कुछ नाराजगी. विभा मन ही मन मुसकराई कि सुंदर पत्नी की चाह सभी को होती है, किंतु कभीकभी खूबसूरती भी सिरदर्द बन जाती है. वह बोली, ‘‘चलो छोड़ो, जाने दो. धीरेधीरे समझ जाएगी. तुम ही थोड़ा सब्र से काम लो,’’ और विभा घर की ओर पलट पड़ी.

विभा की सारी रात करवटें बदलते बीती. बेटा मानो उस के पति का ही प्रतिरूप बन सामने आ खड़ा हुआ था. अपने विवाह के तुरंत बाद के दिन विभा की बंद आंखों में किसी चलचित्र की भांति उभर आए. किसी भी पार्टी में जाने पर अपने पति सत्येंद्र का अपनी सुंदर पत्नी के चारों ओर मानो एक घेरा सा डाले रखना उसे भूला न था. कभीकभी सत्येंद्र के मित्रों की पत्नियां विभा को चिढ़ातीं तो उसे पति के इस व्यवहार पर क्रोध भी आता, किंतु उन के खिलाफ बोलना उस के स्वभाव में न था. सो, चुप रह जाती. युवावस्था के उन मादक, मधुर दिनों की यादें विभा के दिल को झकझोरने लगीं. कैसे थे वे मोहक दिन, जब दफ्तर से छूटते ही सत्येंद्र इस तरह घर भागते, जैसे किसी कैदखाने से छूटे हों. दोस्तों के व्यंग्यबाणों को वे सिर के ऊपर से ही निकल जाने देते. पहले दफ्तर के बाद लगभग रोज ही कौफी हाउस में दोस्तों के साथ एक प्याला कौफी जरूर पीते थे, तब कहीं घर आते थे, किंतु शादी के बाद तो जैसे दफ्तर का समय ही काटे न कटता था.

शाम के बाद भला सत्येंद्र कहां रुकने वाले थे. दोस्तों के हंसने की जरा भी परवा किए बिना अपनी छोटी सी पुरानी गाड़ी में बैठ कर सीधे घर भागते. लेकिन दोस्त भी कच्चे खिलाड़ी न थे. कभीकभी दोचार इकट्ठे मिल कर मोरचा बांध लेते और उन से पहले ही उन की गाड़ी के पास आ खड़े होते. तभी कोई कहता, ‘यार, बोर हो गए कौफी हाउस की कौफी पीपी कर. आज तो भाभीजी के हाथ की कौफी पीनी है.’ इस से पहले कि सत्येंद्र हां या ना कहें, सब के सब गाड़ी में चढ़ कर बैठ जाते.

इधर विभा रोज ही शाम को पति के आने के समय विशेषरूप से बनसंवर कर तैयार रहती थी. यह उस की मां का दिया मंत्र था कि दिनभर के थकेहारे पति की आधी थकान तो पत्नी का मोहक मुसकराता मुखड़ा देख कर ही उतर जाती है. किंतु जब सत्येंद्र मित्रों को लिए घर पहुंचता और वे

सब उस की सुंदर सजीधजी पत्नी को ‘भाभीजी, भाभीजी’ कह कर घेर लेते तो वह अलगथलग कुरसी पर जा बैठता.

मित्र भी तो कम शरारती न थे, सत्येंद्र के मनोभावों को समझ कर भी अनजान बने रहते. उधर विभा उन सब के सामने बढि़या नाश्ता रख कर, कौफी बना कर स्नेह से उन्हें खिलातीपिलाती. यह सब देख सत्येंद्र और कुढ़ जाता. विभा स्थिति की नजाकत समझती थी और अब तक वह सत्येंद्र के स्वभाव को अच्छी तरह जान भी चुकी थी, इसलिए वह उस के मित्रों को जल्दीजल्दी खिलापिला कर विदा करने की कोशिश करती. मित्रों के जाते ही सत्येंद्र पत्नी पर बरसते, ‘क्या जरूरत थी उन सब की इतनी आवभगत करने की? तुम थोड़ा रूखा व्यवहार करोगी तो खुद ही आना छोड़ देंगे. लेकिन तुम तो उन के सामने मक्खनमलाई हो जाती हो, वाहवाही लूटने का शौक जो है.’

सत्येंद्र की कटु आलोचना सुन कर विभा की आंखें भर आतीं, किंतु उस में गजब का धैर्य था. वह अच्छी तरह जानती थी कि इस स्थिति में वह उसे कुछ भी समझा नहीं पाएगी. वह चुपचाप रात के खाने की तैयारी में लग जाती. सत्येंद्र की मनपसंद चीजें बनाती और फिर भोजन निबटने के बाद रात में जब खुश व संतुष्ट पति की बांहों में होती तो उसे समझाने की कोशिश करते हुए पूछती, ‘अच्छा, बताओ तो, क्या तुम सचमुच ही अपने मित्रों का यहां

आना पसंद नहीं करते? मैं तो उन की खातिरदारी सिर्फ इसलिए करती हूं कि वे औफिस में तुम्हारे साथ काम करते हैं. उन के साथ तुम्हारा दिनभर का उठनाबैठना होता है, वरना मुझे उन की खातिरदारी करने की क्या पड़ी है? यदि तुम्हें ही पसंद नहीं, तो फिर अगली बार से उन्हें केवल चाय पिला कर ही टरका दूंगी.’ ‘अरे, नहींनहीं,’ सत्येंद्र और भी कस कर उसे अपनी बांहों में जकड़ लेते, ‘यह ठीक नहीं होगा. सच तो यह है कि जब वे सब दफ्तर में तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन क्या करूं, दिनभर के इंतजार के बाद जब शाम को तुम मुझे मिलती हो तो फिर बीच में कोई अड़ंगा मैं सहन नहीं कर सकता.’

‘कैसा अड़ंगा भला?’ उस के सीने में मुंह छिपाए विभा मीठे स्वर में कहती, ‘मैं तो सदा ही केवल तुम्हारी हूं, पूरी तरह तुम्हारी. तुम्हारे इन मित्रों की बचकानी हरकतें तो मेरे लिए तुम्हारे छोटे भाइयों की कमी पूरी करती हैं. अकसर सोचती हूं कि यदि तुम्हारे छोटे भाई होते तो वे यों ही ‘भाभीभाभी’ कह कर मुझे घेरे रहते. यही समझो कि तुम्हारे मित्रों द्वारा मेरे दिल की यही कमी पूरी होती है.’ ‘चलो, फिर ठीक है, अब बुरा नहीं मानूंगा. भूल जाओ सब.’

फिर धीरेधीरे सत्येंद्र इस सच को समझते गए कि घर आए मेहमान की उपेक्षा करना ठीक नहीं और अब विभा का अपने मित्रों से बातचीत करना, उन की खातिरदारी करना उन्हें बुरा नहीं लगता था. बदलते समय के साथ फिर तो बहुतकुछ बदलता गया. दोनों के जीवन में बच्चों के जन्म से ले कर उन के विवाह तक न जाने कितने उतारचढ़ाव आए. जिन्हें दोनों ने एकसाथ झेला. फिर कभी एक पल को भी सत्येंद्र का विश्वास न डगमगाया.

विभा की आंख जब लगी, तब शायद सुबह हो चुकी थी, क्योंकि फिर वह सुबह देर तक सोई रही. किंतु उस दिन शनिवार होने के कारण तपन की छुट्टी थी, सो, किसी काम की कोई जल्दी न थी. मुंह धो कर जब विभा रसोई में पहुंची तो सुषमा चाय बना चुकी थी. उसे देखते ही चिंतित सी बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है,’’ विभा ने कहा, ‘‘रात नींद ही बड़ी देर से आई.’’ सादगी से कही उस की इस बात पर तपन और सुषमा दोनों ही सोच में डूब गए. वे दोनों जानते थे कि उन के आपसी झगड़ों से मां का दिल दुखी हो उठता है और मुंह से कुछ भी न कह कर वे उस दुख को चुपचाप सह लेती हैं.

सुषमा के हाथ से कप ले कर विभा खामोशी से चाय पीने लगी. तपन पास आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘चलो मां, तुम्हें कहीं घुमा लाते हैं.’’ ‘‘कहां चलना चाहते हो?’’ विभा ने हलके से हंस कर पूछा तो तपन और सुषमा दोनों के चेहरे चमक उठे.

‘‘चलो मां, किसी अच्छे गार्डन में चलते हैं. सुषमा थर्मस में चाय डाल लेगी और थोड़े सैंडविच भी बना लेगी, क्यों, ठीक है न?’’ ‘‘हांहां,’’ कहते हुए सुषमा ने जब तपन की ओर देखा तो उस नजर में उन दोनों के बीच हुए समझौते की झलक थी. विभा का चिंतित मन यह देख खुश हो गया.

नवंबर की धूप में गार्डन फूलों से लहलहा रहा था. शनिवार की छुट्टी होने के कारण अपने छोटे बच्चों को साथ ले कर आए बहुत से युवा जोड़े वहां घूम रहे थे. दिल्ली शहर के छोटे मकानों में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे खुली हवा के लिए तरसते रहते हैं. अब इस समय यहां मैदान में बड़ी ही मस्ती से होहल्ला मचाते एकदूसरे के पीछे भाग रहे थे. बच्चों की इस खुशी का रंग उन के मातापिता के चेहरों पर भी झलक रहा था.

विभा का मन भी यहां की रौनक में डूब कर हलका हो उठा. सब से बड़ी बात तो यह थी कि तपन और सुषमा के बीच कल वाला तनाव खत्म हो गया था और वे दोनों सहज हो कर आपस में बातें कर रहे थे. एक तरफ पेड़ की छाया में साफ जगह देख कर सुषमा ने दरी बिछा दी. ठंडी बयार में फूलों की महक घुली थी. विभा को यह सब आनंद दे रहा था. दरी पर बैठी वह मन ही मन सोच रही थी कि आने वाले दिनों में शायद तपन और सुषमा भी जब यहां आएंगे तो नन्हें हाथ उन की उंगलियां थामे होंगे. यह सोच कर विभा का दिल एक सुखद एहसास से भीग उठा. अचानक सुषमा की आवाज से उस की विचारशृंखला टूटी, ‘‘मांजी, यह चाय ले लीजिए.’’

अचानक तपन बोला, ‘‘सुषमा, वह देखो, उधर शंकर और सविता बैठे हैं. चलो, मिल कर आते हैं.’’ किंतु सुषमा बोली, ‘तुम हो आओ, मैं यहां मांजी के साथ ही बैठूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर तपन उधर चला गया. विभा ने एक गहरी नजर सुषमा पर डाली, जो घुटनों पर सिर रखे चुप बैठी थी. चाय पी कर गिलास नीचे रखते ही विभा उस के पास खिसक आई और पूछा, ‘‘तुम गई क्यों नहीं? शायद उस के दफ्तर का कोई दोस्त है.’’

‘‘क्या फायदा मांजी, फिर झगड़ाझंझट करेंगे. अब आप ही बताइए, इन के मित्र मुझ से बात करें तो क्या मैं अशिष्ट बन जाऊं? उन के साथ हंस कर बात करूं तो ये नाराज, और न करूं तो वे लोग बुरा मानेंगे. मैं तो बीच में फंस जाती हूं न. अब तो मैं इन के साथ पार्टियों में जाना भी बंद कर दूंगी, घर पर ही ठीक हूं,’’ सुषमा थोड़ा तल्खी से बोली.

विभा कुछ देर उस के खूबसूरत चेहरे को देखती रही जहां एक आहत सी अहं भावना की परछाईं थी. फिर कुछ सोच कर समझाते हुए बोली, ‘‘तपन तुम्हें बहुत चाहता है, इसी से उस में तुम्हारे प्रति यह भावना है. पति के दिल की एकछत्र स्वामिनी होना तो बड़े गर्व की बात है.’’

‘‘वह तो ठीक है,’’ सुषमा का चेहरा शर्म से लाल हो गया, ‘‘किंतु जब औरों को देखती हूं तो लगता है कि उन्हें इस बात की चिंता ही नहीं कि उन की पत्नियां कहां, किस से बातें कर रही हैं.’’ ‘‘तब तो तुम यह भी देखती होगी कि वही लोग कभीकभी शराब के नशे में डूबे उन से गलत व्यवहार भी करते होंगे?’’

‘‘यह सब तो कभीकभी चलता है, इन पार्टियों में सभी तरह के लोग होते हैं.’’

‘‘तो फिर अब इस बात को भी समझो कि तुम्हारे साथ किसी का गलत व्यवहार तपन को कभी सहन न होगा. विवाहित जीवन में पति का अंकुश पत्नी पर और पत्नी का अंकुश पति पर होना बहुत जरूरी है. यही एक सफल दांपत्य जीवन का मंत्र है, जहां पतिपत्नी दोनों एकदूसरे को गलत कामों के लिए टोक सकते हैं, एकदूसरे को सही राह दिखा सकते हैं. किंतु इस के लिए विश्वास की मजबूत नींव जरूरी है, जिस में एकदूसरे के इस टोकने को गलत न समझा जाए, बल्कि उस के मूल में छिपी सही विचारधारा को समझा जाए, सुषमा, इस अधिकार को एक का दूसरे पर शासन मत समझो बल्कि एक की दूसरे के प्रति अतिशय प्रेम की अभिव्यक्ति समझो. ‘‘यदि तुम्हें वह सदैव अपनी नजरों के सामने रखना चाहता है तो यह तुम्हारा बहुत बड़ा सम्मान है. पति जिस स्त्री का सम्मान करता है, उस का सम्मान सारी दुनिया करती है, इसे हमेशा याद रखना.’’

इतना सबकुछ एक सांस में ही कह चुकने के बाद विभा खामोश हो गई. उस की बातें बड़े गौर से सुनती सुषमा के सामने विवाहिता जीवन का एक नया ही रहस्य खुला था कि आज के इस नारीमुक्ति युग में पति का पत्नी पर अपना अधिकार साबित करना कोई अमानवीय काम नहीं बल्कि उस के अखंड प्रेम का संकेत है.

सुषमा सोचने लगी कि न जाने उस की कितनी सहेलियां अकेली घूमतीफिरती हैं, अकेली ही पार्टियों में भी जाती हैं. किंतु सच तो यह है कि सुषमा को उन पर बड़ी दया आती है, क्योेंकि अकसर ही उन्हें किसी न किसी पुरुष के गलत व्यवहार का शिकार होना पड़ता है, जिस से उन को बचाने वाला वहां कोई नहीं होता. लेकिन उस के साथ तो उलटा ही है, किसी की टेढ़ी तो क्या, सीधी नजर भी उस पर पड़े तो पति सह नहीं पाता. हमेशा ढाल बन कर खड़ा हो जाता है. इसलिए तो आज तक कभी किसी पार्टी में उस के साथ गलत व्यवहार करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. बुरे से बुरा व्यक्ति भी उस के सामने आ कर इज्जत से हाथ जोड़ कर उसे ‘भाभीजी’ ही कहता है. फिर वह खुद भी तो किसी को ऐसा ओछा व्यवहार करने का मौका नहीं देती.

किंतु उस की मर्यादा का सजग प्रहरी तो तपन ही है न, उस का अपना तपन, जो इन पार्टियों में हर समय साए की तरह उस के साथ रहता है. अकसर उस के दोस्त हंसते भी हैं और कहते भी हैं, ‘बीवी को कभी अकेला छोड़ता ही नहीं.’ किंतु तपन उन के हंसने या मजाक बनाने की कतई परवा नहीं करता. ये विचार मन में आते ही सुषमा को अपने तपन पर बहुत ज्यादा प्यार आया. उस की इच्छा हो रही थी कि दौड़ कर जाए और दूर खड़े तपन के गले में अपनी बांहें डाल दे और कहे, ‘अब मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगी. मांजी ने मेरी आंखों से नासमझी का परदा उठा दिया है. तुम्हारी नाराजगी का भी सम्मान करूंगी, क्योंकि वह मेरा सुरक्षाकवच है. मेरे अब तक के व्यवहार के लिए मुझे माफ कर दो.’

मन ही मन इन विचारों में घिरी सुषमा का चेहरा विश्वास की आभा से जगमगा रहा था. आंखों में मानो प्यार के दीए जल उठे थे. बड़ी बेसब्री से वह तपन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. सुषमा सोच रही थी कि कैसी अजीब बात है कि जब तक वह घटनाओं से खुद को जोड़े हुए थी, कुछ भी साफ देख, समझ नहीं पा रही थी, किंतु जब घटनाओं से अलग हो कर उस ने खुद को तटस्थ किया तो सबकुछ शीशे की तरह साफ हो गया. उस के अपने ही दिल ने पलभर में सहीगलत का फैसला कर लिया.

Story For Girls- अनोखी तरकीब: क्या हुआ था सबीहा के साथ

कहते हैं कि जिस घर में बेटी-दामाद शादी के बाद भी बैठे हों उस घर में अपनी लड़की कभी नहीं ब्याहनी चाहिए, क्योंकि वहां बेटी के आगे बहू की कोई इज्जत नहीं होती. पर सबीहा के घर वालों ने तो कभी यह सोचा ही नहीं था. उन्होंने तो बस, लड़का देखा, उस के चालचलन को परखा, कामधंधा का पता किया और बेटी को ब्याह दिया.

उन्हें तो यह तब पता चला जब सबीहा पहली विदाई के बाद घर आई. मां के हालचाल पूछने पर सबीहा ने बडे़ ही उदासीन अंदाज में बताया, ‘‘बाकी तो वहां सब ठीकठाक है पर एक गड़बड़ है कि जरीना आपा शादी के बाद भी वहीं मायके में पड़ी हुई हैं. उन के मियां के आगेपीछे कोई भी नहीं था और वह दूर के भाई लगते थे इसलिए उन लोगों ने उन्हें घरदामाद बना रखा है.

‘‘जरीना आपा तो वहां ऐसे रहा करती हैं मानो वही उस घर की सबकुछ हों. उन के आगे किसी की भी नहीं चलती है और उन की जबान भी खूब चला करती है. आप लोगों को वहां रिश्ता करने से पहले यह सब पता कर लेना चाहिए था.’’

बेटी की बात सुन कर उस की मां सन्न रह गईं पर अब वह कर भी क्या सकती थीं इसलिए बेटी को समझाने लगीं, ‘‘यह तो वाकई हम से बहुत बड़ी भूल हो गई. जब हम तुम्हारा रिश्ता ले कर वहां गए थे तो जरीना को वहां देखा भी था लेकिन हम ने यही समझा कि शादीशुदा लड़की है, ससुराल आई होगी, इसलिए पूछना जरूरी नहीं समझा और हम धोखा खा गए.

‘‘खैर, तुम्हें इस की ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है. बस, तुम्हें अपने काम से काम रखना है, और मैं समझती हूं कि यह कोई बहुत बड़ी बात भी नहीं है. हो सकता है कल को वे अपना हंडि़याबर्तन अलग कर लें.’’

सबीहा का पति अनवर जमाल भारतीय स्टेट बैंक में कैशियर था. वह अच्छीखासी कदकाठी का खूबसूरत नवयुवक था लेकिन उस के साथ एक गड़बड़ थी, वह उन मर्दों में से था जो अपनी बीवियों को दोस्त बना कर नहीं सिर्फ बीवी बना कर रखना जानते हैं.

जरीना के 2 बेटे और 2 बेटियां थीं. चारों बच्चे बेहद शरारती और जिद्दी थे. वे घर में हर वक्त हुड़दंग मचाते रहते और सबीहा से तरहतरह की फरमाइशें करते रहते. अकसर वह उन की फरमाइशें पूरी कर देती लेकिन कभी तंग आ कर कुछ बोल देती तो बस, जरीना का भाषण शुरू हो जाता, ‘‘बच्चों से ऐसे पेश आया जाता है. जरा सा घर का काम क्या करती हो इन मासूमों पर गुस्सा उतारने लगती हो.’’

बेटी की चिल्लाहट सुन कर सबीहा की सास भी बिना कुछ जानेबूझे उसे कोसने लगतीं, ‘‘इतनी सी जिम्मेदारी भी तुम से निभाई नहीं जाती. इसीलिए कहती हूं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ानालिखाना नहीं चाहिए. ज्यादा पढ़लिख लेने के बाद उन का मन घरेलू कामों में नहीं लगता है.’’

अगर कभी सबीहा की कोई शिकायत अनवर तक पहुंच जाती तो उस को अलग डांटफटकार सुनने को मिलती लेकिन वह किसी को कुछ बोल नहीं सकती थी. अपनी सफाई नहीं दे सकती थी, केवल उन की सुन सकती थी. वह इस सच को जान चुकी थी कि उस के कुछ भी बोलने का मतलब है सब मिल कर उसे चीलकौवे की तरह नोच खाएंगे.

सबीहा मायके में अपने ससुराल वालों की कोई शिकायत करती तो वे उलटे उसे ही नसीहत देने लगते और सब्र से काम लेने को कहते. इसलिए शुरुआत में वह जो भी वहां की बात मायके वालों को बताती थी, बाद में उस ने वह भी बताना बंद कर दिया.

एक दिन सबीहा अपने हालात से भरी बैठी थी कि ननद ने कुछ कहा तो वह उस से जबान लड़ा बैठी और जवाब में उसे ऐसी बातें सुनने को मिलीं जिस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

सास और ननद की झूठी और बेसिरपैर की बातों को सुन वह स्तब्ध रह गई और सोचने लगी कि कहां से वह जरीना के मुंह लग गई.

लेकिन उन का अभी इतने से पेट नहीं भरा था और जब अनवर बैंक से आया तो मौका मिलते ही उन्होंने उन बातों में कुछ और मिर्चमसाला लगा कर उस के कान भर दिए और वह भी सबीहा की खबर लेने लगा, ‘‘क्या यही सिखा के भेजा है तुम्हारे मांबाप ने कि सासननद का एहतेराम मत करना? उन के बच्चों को नीची नजर से देखना. घर में अपनी मनमानी करती रहना और मौका मिलते ही शौहर को लेके अलग हो जाना.’’

‘‘अरे, यह आप क्या कह रहे हैं? मैं ने तो ऐसा कभी सोचा भी नहीं और कभी किसी को कुछ कहा भी नहीं  है. पता नहीं वह क्याक्या अपने मन से लगाती रहती हैं.’’

अनवर के सामने सबीहा जैसे डरतेडरते पहली बार इतना बोली तो वह और भी भड़क उठा, ‘‘खामोश, यहां यह जबानदराजी नहीं चलेगी. यहां रहना है तो सभी का आदरसम्मान करना सीखना होगा और सब से मिलजुल कर  रहना पड़ेगा. समझीं.’’

पति की डांट के बाद सबीहा अंदर ही अंदर फूट पड़ी और मन में बड़बड़ाने लगी कि मैं इन्हें क्या तकलीफ पहुंचाती हूं जो ये मेरे पीछे पड़ी रहती हैं. मुझ से ऐसा कौन सा कर्म हो गया था जो मैं ऐसे घर में चली आई. जब मुझे शादी के बाद यही सब देखना था तो इस से बेहतर था कि मैं घर में ही कुंआरी पड़ी रहती.

उसे पति की बात उतनी बुरी नहीं लगी थी, उसे तो पति के कान भरने वाली सासननद पर गुस्सा आ रहा था. उस ने मन में सोच लिया था कि अब खामोश बैठने से काम नहीं चलेगा. इन्हें कुछ न कुछ सबक सिखाना ही पड़ेगा, तभी उस की जान छूटेगी. लेकिन उसे करना क्या होगा? लड़ाईझगडे़ से तो उस का यह काम बनने वाला नहीं था. फिर कौन सी तरकीब लगाई जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

सबीहा काफी देर तक अपनी इस समस्या के समाधान के लिए बिस्तर पर पड़ी दिमागी कसरत करती रही. अचानक उसे एक अनोखी तरकीब सूझ गई और वह मन में बड़बड़ाई, ‘हां, यह ठीक रहेगा. ऐसे लोग उलटे दिमाग के होते हैं. इन्हें उलटी बात कहो तो सीधा समझते हैं और सीधा बोलो तो उलटा समझते हैं. इन्हें उलटे हाथ से ही हांकना पड़ेगा. निहायत नरमी से इन्हें उलटी कहानी सुनानी पड़ेगी, तब ये मेरी बात को सीधा समझेंगे और तब ही यह झंझट खत्म होगा.’

सबीहा कई दिनों तक अपनी योजना में उलझी उस के हर पहलू पर विचार करती रही और जब योजना की पूरी रूपरेखा उस के दिमाग में बस गई तब एक दिन मौका पा कर वह सास की तेलमालिश करने बैठ गई. कुछ देर उन से इधरउधर की बातें करने के बाद वह बोली, ‘‘जानती हैं अम्मी, इस बार मैं अपने घर गई थी तो एक दिन मेरे पड़ोस में एक अजब ही तमाशा हो गया.’’

‘‘अच्छा, क्या हुआ था? जरा मैं भी तो सुनूं,’’ उस की कहानी में दिलचस्पी लेते हुए सास बोलीं.

सबीहा उन्हें अपनी पूरी कहानी सुनाने लगी:

‘‘मेरे मायके में एक खातून मेरे मकान से कुछ मकान छोड़ के रहती हैं. उन के पास दोमंजिला मकान था और 2 शादीशुदा लड़के थे. आधे मकान में वे एकसाथ रहते थे और आधे को उन्होंने किराए पर दे रखा था. वे रहते तो मिलजुल कर थे पर उन की मां अपने बडे़ बेटे को बहुत मानती थीं. मां का यही नजरिया दोनों बहुओं और उन के बच्चों के साथ भी था.

‘‘फिर बेटाबहू ने मां की एकतरफा मोहब्बत का गलत फायदा उठाते हुए मकान का वह एक हिस्सा जो देखने में अच्छा था, अपने नाम लिखवा लिया और जो खंडहर जैसा था उस हिस्से को छोटे भाई के लिए छोड़ दिया. यही नहीं बडे़ बेटे ने धोखे से मां के कीमती जेवर आदि भी हड़प लिए.

‘‘छोटे भाई को जब इस बात का पता चला तो वह बडे़ भाई से भिड़ गया और दोनों भाइयों के बीच जम कर झगड़ा हुआ, जिस में बीचबचाव करते समय मां भी घायल हो गईं. इस घटना के बाद मां तो बड़े बेटे के साथ रहने लगीं लेकिन छोटे बेटे से उन का नाता लगभग टूट सा गया.’’

सबीहा ने एक पल रुक कर अपनी सास की ओर देखा तो उसे यों लगा जैसे वह अंदर से कांप रही हैं. उस ने फिर अपनी कहानी को आगे बढ़ा दिया :

‘‘अम्मीजी, सच कह रही हूं, जब उस लड़ाई के बारे में मुझे पता चला तो इतना गुस्सा आया कि जी चाहा जा कर उन दोनों कमबख्तों के तलवार से टुकड़े- टुकडे़ कर दूं. भाई भाई से लडे़ तो बात अलग है लेकिन बूढ़ी मां के साथ ऐसा सुलूक. उन पर हाथ उठाना कितना बड़ा गुनाह है.

‘‘उस लड़ाईझगडे़ का मां के दिल पर ऐसा असर हुआ कि वह बुरी तरह बीमार पड़ गईं. अब बडे़ लड़के ने उन से साफ कह दिया कि मेरे पास तुम्हारे इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, जिस बेटे के नाम की बैठेबैठे माला जपती हो उसी के पास जा कर इलाज कराओ.

‘‘छुटके ने यह सुना तो जैसे उसे ताव आ गया और तुरंत एक अच्छे डाक्टर के पास ले जा कर मां का इलाज कराया. उन्हें अपने पास रख कर खूब देखभाल की. और अब वह एकदम ठीक हो कर बडे़ मजे में छोटे बेटे के पास रह रही हैं.

‘‘अब मुझे उन के बडे़ बेटाबहू पर गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने उस बेचारी बुढि़या का सबकुछ लूट लिया था और फिर बेरहमी से खदेड़ भी दिया. यह तो जमाना आ गया है. जिस पर हद से ज्यादा प्यार लुटाइए वही बरबाद करने पर तुल जाता है. इस से तो अच्छा है कि हम सभी को एक नजर से देखते चलें. चाहे वह बेटा हो या बेटी. क्यों अम्मीजी?’’

‘‘हां, बिलकुल,’’ इतना कह कर वह किसी गहरी सोच में डूब गईं. उन्हें खोया हुआ देख कर सबीहा धीरे से मुसकराई और कुछ देर उन की सेवा करने के बाद धीरे से उठ कर चली गई.

दरअसल, सबीहा की सास उस की कहानी सुन कर जो खो गई थीं तो उस दौरान वह अपने प्रति एक फिल्म सी देखने लगी थीं कि बेटीदामाद पर अंधाधुंध प्यारमोहब्बत, धनदौलत सब- कुछ लुटा रही हैं जिस का फायदा उठाते हुए वह उन्हें कंगाल कर के निकल गए. उस के बाद उन की नफरत के मारे हुए बेटाबहू ने भी उन से नाता तोड़ लिया और वह भरी दुनिया में एकदम से अकेली और बेसहारा हो कर रह गई हैं.

शायद इस भयानक खयाल ने ही उन्हें इतनी जल्दी बदल कर रख दिया था. सबीहा की उलटी कहानी सचमुच में काम कर गई थी.

सबीहा अपनी इस पहली सफलता से खुश थी लेकिन अभी उसे ननद से भी निबटना था. उस के भी दिमाग को घुमाना था. इसलिए वह अपनी सफलता पर बहुत ज्यादा खुश न हो कर मन ही मन एक और कहानी बनाने में जुट गई.

जब उस की दूसरी कहानी भी तैयार हो गई तो एक दिन वह ननद के पास भी धीरे से जा बैठी और उन से इधरउधर की बातें करते हुए सोचने लगी कि उन्हें किस तरह कहानी सुनाई जाए. अभी वह यह सोच ही रही थी कि जरीना बोलीं, ‘‘जानती हो सबीहा, आगे पत्थर वाली गली में एक करीम साहब रहते हैं. उन के लड़के की शादी को अभी कुछ ही माह हुए थे कि वह अपनी बीवी को ले कर अलग हो गया. कितनी बुरी बात है. मांबाप कितने अरमानों से बच्चों को पालते हैं और बच्चे उन्हें कितनी आसानी से छोड़ कर चले जाते हैं.’’

यह सुनते ही सबीहा की आंखें चमक उठीं. वह गहरी सांस लेते हुए बोली, ‘‘क्या कीजिएगा बाजी, यही जमाना आ गया है. जिधर देखिए, लोग परिवार से अलग होते जा रहे हैं. यह करीम साहब का बेटा तो कुछ माह बाद अलग हुआ है लेकिन मेरी एक सहेली तो शादी के कुछ ही हफ्ते बाद मियां को ले कर अलग हो गई थी.

‘‘जब मैं ने उस का यह कारनामा सुना तो मुझे उस पर बेहद गुस्सा आया था. मेरी जब उस से मुलाकात हुई और मैं उस पर बिगड़ी तो जानती हैं वह बड़ी ही अदा से मेरे गले में बांहें डाल कर बोली थी, ‘तुम क्या जानो मेरी जान कि अलग रहने के क्या फायदे हैं. जो जी चाहे खाओपिओ, जब दिल चाहे काम करो जहां मन चाहे घूमोफिरो और घर में कहीं पर भी, किसी भी वक्त शौहर के गले में बेधड़क झूल जाओ. कोई रोकनेटोकने वाला नहीं. ये सब आजादियां भला संयुक्त परिवार में कहां मिल पाती हैं?

‘‘‘और सब से बड़ी बात, सभी को कभी न कभी तो अलग होना ही पड़ता है. महंगाई बढ़ती जा रही है. जमीन के दाम भी आसमान छूते जा रहे हैं. अब हिस्से के बाद किसी को मिलता भी क्या है? बस, एक छोटा सा मुरगी का दरबा. इसलिए आज के दौर में जो जितनी जल्दी अलग हो जाएगा वह उतनी ही अच्छी रिहाइश बना सकता है. समझ में आया मेरी जान?’

‘‘उस की फालतू बकबक सुन कर मेरी खोपड़ी और भी गरम हो गई और मैं उसे झिड़कते हुए बोली, ‘यह सब तुम्हारे दिमाग का फितूर है वरना तो संयुक्त परिवार में रहने में जो मजा है वह अकेले रहने में नहीं है, क्योंकि जीवन की असली खुशी इसी में प्राप्त होती है.’

‘‘बाजी, आप ही बताओ, क्या मैं ने उस से कुछ गलत कहा था?’’

‘‘नहीं भई, तुम ने वही कहा था जिसे दुनिया सच मानती आई है.’’

इतना बोल कर जरीना चुपचाप सोचने लगीं कि इस की सहेली ने जो कुछ कहा है वह तो मैं ने कभी देखा ही नहीं. जो भी यहां मिलता रहा हम खातेपीते रहे. जहां ये घुमानेफिराने ले गए हम बस, वहीं गए और शौहर से प्यार, इस छोटे से घर में हम खुल के कभी प्यार भी नहीं कर सके. भला ये भी कोई जिंदगी है?

जरीना को गुमसुम देख सबीहा को अपनी यह योजना भी सफल होती नजर आने लगी, लेकिन उसे पता नहीं था कि वह अपनी इस दूसरी योजना में कहां तक कामयाब होगी.

रात को जरीना के पति जब दुकान से आए तो वह उन के पैर दबाते हुए बोली, ‘‘अजी जानते हैं, कल रात मैं ने एक अजीब सपना देखा था और सोचा था कि उस के बारे में सुबह आप को बताऊंगी लेकिन बताना याद ही नहीं रहा.

‘‘मैं ने सपने में देखा कि एक बेहद बुजुर्ग फकीर मेरे सिरहाने खडे़ हैं और वह बड़ी भारी आवाज में मुझ से कह रहे हैं कि तू जितनी जल्दी इस घर से निकल जाएगी जिंदगी भर उतनी ही ज्यादा खुशहाल रहेगी. समझ ले ये चंद दिन तेरे लिए बड़ी ही रहमतोबरकत के बन कर आए हैं. इसलिए तू अपने इस नेक काम को बिना देर किए कर डाल. और फिर वह साए की तरह लहराते हुए गायब हो गए.’’

‘‘अच्छा, वह तुम से कहां जाने के लिए कह रहे थे?’’ जरीना के पति ने बडे़ ही भोलेपन से पूछा तो उस ने अपना माथा ठोंक लिया.

‘‘अरे, बुद्धू, आप इतना भी नहीं समझे. वह हमें किराए के मकान में जाने के लिए कह रहे थे और कहां?’’

‘‘ठीक है, मैं कोशिश करता हूं.’’

‘‘कोशिश नहीं, एकदम से लग जाइए और 1-2 दिन के अंदर ही इस काम को कर डालिए.’’

अगले दिन जरीना के मियां अपना कामधाम छोड़ कर मकान की तलाश में निकल गए और शाम होतेहोते उन्हें

2 कमरे का एक अच्छा मकान मिल गया. फिर सुबह होते ही उन का सामान भी जाने लगा.

यह देख जरीना के भाई अनवर व अम्मी की आंखें हैरत से फैल गईं. लेकिन यह देख कर सबीहा की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस की दूसरी कहानी भी सफल हो गई थी और उस की ये अनोखी तरकीब बेहद कारगर साबित हुई थी, जिस में उस का न तो किसी से कोई लड़ाईझगड़ा हुआ था और न ही उस ने किसी को सीधे मुंह कुछ कहा था.

Story In Hindi- गुरु की शिक्षा: क्या थी पद्मा की कहानी

लेखिका- करुणा मलहोत्रा

सारे घर में कोलाहल मचा हुआ था, ‘‘अरे, छोटू, साथ वाला कमरा साफ कर दिया न?’’

‘‘अरे, सुमति, देख तो खाना वगैरह सब तैयार है.’’

‘‘अजी, आप क्यों ऐसे बैठे हैं, जल्दी कीजिए.’’

पूरे घर को पद्मा ने सिर पर उठा रखा था. बड़ी मामी जो आ रही थीं दिल्ली.

वैसे तो निर्मला, सुजीत बाबू की मामी थीं, इस नाते वह पद्मा की ममिया सास हुईं, परंतु बड़े से छोटे तक वह ‘बड़ी मामी’ के नाम से ही जानी जाती थीं. बड़ी मामी ने आज से करीब 8-9 वर्ष पहले दिल्ली छोड़ कर अपने गुरुभभूतेश्वर स्वामी के आश्रम में डेरा जमा लिया था. उन्होंने दिल्ली क्यों छोड़ी, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. हां, बड़ी मामी स्वयं यही कहती थीं, ‘‘हम तो सब बंधन त्याग कर गुरुकी शरण में चले गए. वरना दिल्ली में कौन 6-7 लाख की कोठी को बस सवा 4 लाख में बेच देता.’’

जाने के बाद लगभग 4 साल तक बड़ी मामी ने किसी की कोई खोजखबर नहीं ली थी. पर एक दिन अचानक तार भेज कर बड़ी मामी आ धमकीं मामा सहित. बस, तब से हर साल दोनों चले आते थे. पद्मा पर उन की विशेष कृपादृष्टि थी. कम से कम पद्मा तो यही समझती थी.

उस दिन भी रात की गाड़ी से बड़ी मामी आ रही थीं. इसलिए सभी भागदौड़ कर रहे थे. रात को पद्मा और सुजीत बाबू दोनों उन्हें स्टेशन पर लेने गए. वैसे घर से स्टेशन अधिक दूर न था, फिर भी पद्मा जितनी जल्दी हो सका, घर से निकल गई.

पद्मा को गए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि बड़ी जोर से घर की घंटी बजी.

‘‘छोटू, देखो तो,’’ सुमति बोली.

छोटू ने दरवाजा खोला. वह हैरानी से चिल्लाया, ‘‘बहूजी, बड़ी मामी.’’

समीर और सुमति फौरन दौड़े.

‘‘मामीजी आप मां कहां है?

‘‘तो क्या पद्मा मुझे लेने पहुंची है? मैं ने तो 5-7 मिनट इंतजार किया. फिर चली आई.’’

‘‘हां, दूसरों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाती हैं. परंतु खुद…’’ समीर धीरे बोला, परंतु सुमति ने स्थिति संभाल ली.

थोड़ी देर में पद्मा और सुजीत बाबू भी हांफते हुए आ गए.

‘‘नमस्कार, मामाजी,’’

‘‘जुगजुग जिओ. देख री पद्मा, तेरे लिए घर के सारे मसाले ले आई हूं. हमें आश्रम में सस्ते मिलते हैं न.’’

पद्मा गद्गद हो गई,  ‘‘इतनी तकलीफ क्यों की, मामीजी.’’

‘‘अरी, तकलीफ कैसी? तुझे मुफ्त में थोड़े ही दूंगी. वैसे मैं तो दे दूं, पर हमारे गुरुजी कहते हैं, किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए. क्यों बेकार तुम्हें ‘पाप’ का भागीदार बनाऊं. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी तो जैसे समर्थन के लिए तैयार थे.

पद्मा का मुंह ही उतर गया.

पद्मा को छोड़ कर घर में कोई भी अन्य व्यक्ति मामी को पसंद नहीं करता था. बस, वह हमेशा अपने आश्रम की बातें करती थीं. कभी अपने गुरुकी तारीफों के पुल बांधने लगतीं परंतु उन की कथनी और करनी में जमीनआसमान का अंतर था. जितने दिन बड़ी मामी रहतीं, पूरे घर में कोहराम मचाए रखतीं. सभी भुनभुनाते रहते थे, सिर्फ पद्मा को छोड़ कर. उस पर तो बड़ी मामी के गुरुऔर आश्रम का भूत सवार था.

दूसरे दिन सुबह 5 बजे उठ कर बड़ी मामी ने जोरजोर से मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया. सुमति को रेडियो सुनने का बहुत शौक था. उस ने देखा कि 7 बज रहे हैं. वैसे भी बड़ी मामी तो 5 बजे की उठी थीं, इसलिए उस ने रेडियो चालू कर दिया. पर बड़ी मामी का मुंह देखते ही बनता था. लाललाल आंखें ऐसी कि खा जाएंगी.

पद्मा ने देखा तो फौरन बहू को झिड़का, ‘‘बंद कर यह रेडियो, मामीजी पाठ कर रही हैं.’’

‘‘रहने दे, बहू. मेरा क्या, मैं तो बरामदे में पाठ कर लूंगी. किसी को तंग करने की शिक्षा हमारे गुरु ने नहीं दी है.’’

‘‘नहींनहीं, बड़ी मामी. चल री बहू, बंद कर दे.’’

रेडियो तो बंद हो गया पर सुमति का चेहरा उतर गया. दोपहर में छोटू ने रेडियो लगा दिया तो बड़ी मामी उसे खाने को दौड़ीं, ‘‘अरे मरे, नौकर है, और शौक तो देखो राजा भोज जैसे. चल, बंद कर इसे. मुझे सोना है.’’

छोटू बोला, ‘‘अच्छा, बड़ी मामी, फिर तुम्हारे गुरुका टेप चला दूं.’’

‘‘ठहर दुष्ट, मेरे गुरुजी के बारे में ऐसा बोलता है. आज तुझे न पिटवाया तो मेरा नाम बदल देना.’’

जब तक पद्मा को पूरी बात पता चले, छोटू खिसक चुका था.

‘‘सच बहूजी, अब तो 15 दिन तक रेडियो, टीवी सब बंद,’’ छोटू ने कहा.

‘‘हां रे,’’ सुमति ने गहरी सांस ली.

अगले दिन शाम को चाय पीते हुए बड़ी मामी बोल पड़ीं, ‘‘हमारे आश्रम में खानेपीने की बहुत मौज है. सब सामान मिलता है. समोसा, कचौरी, दालमोठ, सभी कुछ, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ सदा की भांति मामाजी ने उत्तर में सिर हिलाया.

पद्मा खिसिया गई, ‘‘बड़ी मामी, यहां भी तो सब मिलता है. जा छोटू, जरा रोशन की दुकान से 8 समोसे तो ले आ.’’

‘‘रहने दो, बहू, हम ने तो खूब खाया है अपने समय में. खुद खाया और सब को खिलाया. मजाल है, किसी को खाली चाय पिलाई हो.’’

‘‘तो मामीजी, हम ने भी तो बिस्कुट और बरफी रखी ही है,’’ सुमति ने कहा.

बस, बड़ी मामी तो सिंहनी सी गरजीं, ‘‘देखा, बहू.’’

पद्मा ने भी झट बहू को डांट दिया, ‘‘बहू, बड़ों से जबान नहीं लड़ाते. चल, मांग माफी.’’

‘‘रहने दे, बहू, हम तो अब इन बातों से दूर हो चुके हैं. सच, न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी ने खूंटे से बंधे प्यादे की तरह सिर हिलाया.

‘‘बहू, शाम को जरा बाजार तो चलना. कुछ खरीदारी करनी है,’’ सुबह- सुबह मामी ने आदेश सुनाया.

‘‘आज शाम,’’ पद्मा चौंकी.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आज मां को अपनी दवा लेने डाक्टर के पास जाना है,’’ समीर ने बताया.

‘‘मैं क्या जबरदस्ती कर रही हूं. वैसे हमारे गुरुजी ने तो परसेवा को परमधर्म बताया है.’’

‘‘हांहां, मामीजी, मैं चलूंगी. दवा फिर ले आऊंगी.’’

‘‘सोच ले, बहू, हमारा क्या है, हम तो गुरु  के आसरे चलते हैं,’’ टेढ़ी नजरों से समीर को देखती हुई मामी चली गईं.

समीर ने मां को समझाना चाहा, पर उस पर तो गुरुजी के वचनों का भूत सवार था. बोली, ‘‘ठीक ही तो है, बेटा. परसेवा परम धर्म है.’’

और शाम को पद्मा बाजार गई. पर लौटतेलौटते सवा 8 बजे गए. बड़ेबड़े 2 थैले पद्मा ने उठाए हुए थे और हांफ रही थी.

आते ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘सुनो जी, यहां आज बाजार लगा हुआ था. अच्छा किया न, चले गए. सामान काफी सस्ते में मिल गया है.’’

सारा सामान निकाल कर मामी एकदम उठीं और बोलीं, ‘‘हाय री, पद्मा, लिपस्टिक तो लाना भूल ही गए. अब कल चलेंगे.’’‘‘मामीजी, आप और लिपस्टिक?’’ सुमति बोली.

‘‘अरे, हम तो इन बंधनों से मुक्त हो गए हैं, वरना कौन मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं. हमारे आश्रम में तो नातीपोती वाली भी लाललाल रंग की लिपस्टिक लगाती हैं. मैं तो फिर भी स्वाभाविक रंग लेती हूं. सच, क्या पड़ा है इन चोंचलों में. हमारे लिए तो गुरु ही सबकुछ हैं.’’

‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’ छोटू फुसफुसाया तो समीर और सुमति चाह कर भी हंसी न रोक सके. हालांकि बड़ी मामी ने छोटू की बात तो नहीं सुनी फिर भी उन्होंने भृकुटि तान लीं.

अगले दिन पद्मा की तबीयत खराब हो गई. इसलिए उठने में थोड़ी देर हो गई. उस ने देखा कि बड़ी मामी रसोई में चाय बना रही हैं.

‘‘मुझे उठा दिया होता, मामीजी,’’  पद्मा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, तुम सो जाओ चैन से. हमारे गुरुजी ने इतना तो सिखाया ही है कि कोई काम न करना चाहे तो उस के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘नहींनहीं, मामीजी. ऐसी बात नहीं. आज जरा तबीयत ठीक नहीं थी,’’ पद्मा मिमियाई.

‘‘तो बहू, जा कर आराम कर न. हम किसी से कुछ आशा नहीं करते. यह हमारे गुरुजी की शिक्षा है.’’

उस दिन तो पद्मा के मन में आया कि कह दे ‘चूल्हे में जाओ तुम और तुम्हारे गुरुजी.’

दोपहर को खाते वक्त बड़ी मामी ने सुमति से पूछा, ‘‘क्यों सुमति, दही नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं मामीजी. आज सुबह दूध अधिक नहीं मिला. इसलिए जमाया नहीं. नहीं तो चाय को कम पड़ जाता.’’

‘‘हमारे आश्रम में तो दूधघी की कोई कमी नहीं है. न भी हो तो हम कहीं न कहीं से जुगाड़ कर के मेहमानों को तो खिला ही देते हैं.’’

‘‘हां, अपनी और बात है. भई, हम न तो लालच करते हैं, न ही हमें जबान के चसके हैं. हमारे गुरुजी ने तो हमें रूखीसूखी में ही खुश रहना सिखाया है क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ रटारटाया उत्तर मिला.

‘‘रूखीसूखी?’’ सुमति ने मुंह बिगाड़ा, ‘‘2 सूखे साग, एक रसे वाली सब्जी, रोटी, दालभात, चटनी, पापड़ यह रूखीसूखी है?’’

शाम को बड़ी मामी ने फिर शोर मचाया, ‘‘हम ने तो सबकुछ छोड़ दिया है. अब लिपस्टिक लगानी थी. पर हमारे गुरुजी ने शिक्षा दी है, किसी की चीज मत इस्तेमाल करो. भले ही खुद कष्ट सहना पड़े.’’

‘‘लिपस्टिक न लगाने से कैसा कष्ट, मामीजी?’’ छोटू ने छेड़ा.

‘‘चल हट, ज्यादा जबान न लड़ाया कर,’’ बड़ी मामी ने उसे झिड़क दिया.

आखिर पद्मा को बड़ी मामी के साथ बाजार जाना ही पड़ा. लौटी तो बेहद थकी हुई थी और बड़ी मामी थीं कि अपना ही राग अलाप रही थीं, ‘‘जितना हो सके, दूसरों के लिए करना चाहिए. नहीं तो जीवन में रखा ही क्या है, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी के बोलने से पहले ही छोटू बोला और भाग गया.

एक दिन बैठेबैठे ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘जानती है, पद्मा, वहां अड़ोस- पड़ोस में मैं ने तेरी बहुत तारीफें कर रखी हैं. सब से कहती हूं, ‘बहू हो तो पद्मा जैसी. मेरा बड़ा खयाल रखती है. क्याक्या सामान नहीं ले कर रखती मेरे लिए.’ सच बहू, तू मेरी बहुत सेवा करती है.’’

पद्मा तो आत्मविभोर हो गई. कुछ कह पाती, उस से पहले ही बड़ी मामी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘हां बहू, सुना है यहां काजू की बरफी बहुत अच्छी मिलती है. सोच रही थी, लेती जाऊं. वैसे हमें कोई लालसा नहीं है. पर अपनी पड़ोसिनों को भी तो दिखाऊंगी न कि तू ने क्या मिठाई भेजी है.’’

पद्मा तो ठंडी हो गई, ‘इस गरमी में, जबकि पीने को दूध तक नहीं है, इन्हें बरफी चाहिए, वह भी काजू वाली. 80 रुपए किलो से कम क्या होगी?’

अभी पद्मा इसी उधेड़बुन में थी कि बड़ी मामी ने फिर मुंह खोला, ‘‘बहू, अब किसी को कोई चीज दो तो खुले दिल से दो. यह क्या कि नाम को पकड़ा दी. यह पैसा कोई साथ थोड़े ही चलेगा. यही हमारे गुरुजी का कहना है. हम तो उन्हीं की बताई बातों पर चलते हैं.’’

पद्मा को लगा कि अगर वह जल्दी ही वहां से न खिसकी तो जाने बड़ी मामी और क्याक्या मांग बैठेंगी.

फिर बड़ी मामी ने नई बात छेड़ दी. ‘‘जानती है, बहू. हमारे गुरुजी कहते हैं कि जितना हो सके मन को संयम में रखो. खानपान की चीजों की ओर ध्यान कम दो. अब तू जाने, घर में सब के साथ मैं भी अंटसंट खा लेती हूं. पर मेरा अंतर्मन मुझे कोसता है, ‘छि:, खाने के लिए क्या मरना.’ इसलिए बहू, आज से हमारे लिए खाने की तकलीफ मत करना. बस, हमें तो रात में एक गिलास दूध, कुछ फल और हो सके तो थोड़ा मेवा दे दिया कर, आखिर क्या करना है भोगों में पड़ कर.’’

कहां तो पद्मा बड़ी मामी के गुण गाते न थकती थी, कहां अब वह पछता रही थी कि किस घड़ी में मैं ने यह बला अपने गले बांध ली थी.

बस, जैसेतैसे 20 दिन गुजरे, जब बड़ी मामी जाने लगीं तो सब खुश थे कि बला टलने को है. पर जातेजाते भी बड़ी मामी कह गईं, ‘‘बहू, अब कोई इतनी दूर से भाड़ा लगा कर आए और रखने वाले महीना भर भी न रखें तो क्या फायदा? हमारे गुरुजी तो कहते हैं, ‘घर आया मेहमान, भगवान समान’ पर अब वह बात कहां. हां, हमारे यहां कोई आए, तो हम तो उसे तब तक न छोड़ें जब तक वह खुद न जाने को चाहे.’’

यह सुन कर सुमति ने पद्मा की ओर देखा तो पद्मा कसमसा कर रह गई.

‘‘अच्छा बहू, इस बार आश्रम आना. तू ने तो देख रखा है, कैसा अच्छा वातावरण है. सत्संग सुनेगी तो तेरे भी दिमाग में गुरु के कुछ वचन पड़ेंगे, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी का जवाब था.

बड़ी मामी को विदा करने के बाद सब हलकेफुलके हो कर घर लौटे. घर आ कर समीर ने पूछा, ‘‘क्यों मां, कब का टिकट कटा दूं?’’

‘‘कहां का?’’ पद्मा ने पूछा.

‘‘वहीं, तुम्हारे आश्रम का. बड़ी मामी न्योता जो दे गई हैं.’’

‘‘न बाबा, मैं तो भर पाई उस गुरु से और उस की शिष्या से. कान पकड़ लेना, जो दोबारा उन का जिक्र भी करूं. शिष्या ऐसी तो गुरु के कहने ही क्या. सच, आज तक मैं ऊपरी आवरण देखती रही. सुनीसुनाई बातों को ही सचाई माना. परंतु सच्ची शिक्षा है, अपने अच्छे काम. ये पोंगापंथी बातें नहीं.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ आश्चर्यचकित समीर ने पूछा.

‘‘और नहीं तो क्या, क्यों जी?’’

और समवेत स्वर सुनाई दिया, ‘‘हां जी.’’

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