अधूरी कहानी: भाग-1

कहानी- नज्म सुभाष

राष्ट्रीयस्तर पर आयोजित कहानी प्रतियोगिता में इस बार निर्णायक मंडल ने अरुण कुमार की कहानी को चुना था. प्रथम पुरस्कार के लिए जो कहानी चुनी गई वह एक ऐसे बच्चे पर आधारित थी, जिस के मांबाप बचपन में ही काल के गाल में समा जाते हैं और वह बच्चा तमाम उतारचढ़ाव के बाद आगे चल कर देश का प्रधानमंत्री बनता है. जजों में शामिल माधवी जोकि 3 साल पहले इसी संस्थान से सम्मानित की गई थी, जब उस ने इस कहानी को पढ़ा तो बहुत प्रभावित हुई. मगर जब उस ने लेखक का नाम पढ़ा तो उस के चेहरे के भाव बदलने लगे. अरुण कुमार… कहीं यह वही तो नहीं… मन में अजीब सी उथलपुथल शुरू हो गई.

‘‘सर,’’ उस ने अपने साथ बैठे वरिष्ठ साहित्यकार निर्मल से कहा.

‘‘हां बोलो माधवी.’’

‘‘मैं इस लेखक का फोटो देखना चाहती हूं.’’

‘‘लेकिन तुम्हें तो पता होगा प्रतियोगिता में फोटो भेजने का प्रावधान नहीं है नहीं तो प्रतियोगिता की पारदर्शिता पर लोग प्रश्नचिह्न लगा सकते हैं.’’

‘‘सौरी सर. मैं भूल गई थी,’’ उस ने जल्दी में अपनी बात संभाली.

‘‘लेकिन बात क्या है?’’

‘‘कोई बात नहीं सर… बस ऐसे ही पूछा था.’’

माधवी घर आ चुकी थी, लेकिन उस के मन पर न जाने कैसा बो झ महसूस हो रहा था, जिसे वह उतार फेंकना चाहती थी, मगर उतारे कैसे? उस के घर पहुंचते ही अदिति उस से लिपट कर प्यार जताने लगी. मगर आज उस का मन उचाट था. इतने दिनों से दबी चिनगारी को इस नाम ने आ कर फिर से हवा दे दी… आखिर क्यों?

माधवी तो भूल चुकी थी हर बात… हां हर बात… लेकिन आज फिर इस नाम ने जख्मों को कुरेद डाला. उस का सिर भारी होने लगा… अनचाहा दर्द सीने में टीस मारने लगा. उसे ऐसा लग रहा था जैसे भूतकाल उस के सामने प्रकट हो गया. वह भूतकाल जिसे वह वर्तमान में कभी याद नहीं करना चाहती… लेकिन वह तो सामने आ चुका था दृश्य रूप में उस के मानसपटल पर…

दीवार घड़ी ने रात के 12 बजने का संकेत दे दिया था. मधुमालती अब भी उस शख्स का इंतजार कर रही थी जो सिर्फ उस का था, मगर वह न जाने कहां होगा. इधर कुछ दिनों से उस का रूटीन बन गया था यों ही घड़ी देखते हुए उस का इंतजार करने का और वह निर्माेही उसे कोई फिक्र ही नहीं थी उस की.

माधवी इन्हीं खयालों में गुम बारबार घड़ी देखती, फिर खिड़की खोल कर सड़क… शायद वह दिख जाए. मगर उस की अभिलाषाओं की तरह सड़क भी एकदम सूनी थी. दूरदूर तक कोई नहीं…

करीब 1 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई. उस ने  झट से दौड़ कर दरवाजा खोला तो सामने का दृश्य देख कर उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. जिस के इंतजार में उस ने इतनी रात जाग कर काट दी थी वह शख्स लड़खड़ाता हुआ अंदर आया.

‘‘आज आप फिर पी कर आए हैं?’’ उस ने रोते हुए पूछा.

‘‘हां पी कर आया हूं… तेरे बाप का क्या जाता है?’’ कहते हुए उस ने एक गाली उछाली.

‘‘क्यों अपनी जिंदगी बरबाद करने पर तुले हो?’’

‘‘जिंदगी बर…बाद…’’ कहते हुए पागलों की तरह हंसा वह.

‘‘मैं… मैं… आबाद ही कब रहा हूं? जब से… जब से तुम ने इस घर में कदम रखा है मेरी जिंदगी नर्क बन गई है.’’

‘‘ऐसा क्या किया है मैं ने?’’ वह हैरान थी.

‘‘तुम बहुत अच्छी तरह जानती हो कि मैं क्या चाहता हूं.’’

‘‘मगर उस के लिए मैं क्या कर सकती हूं. मैं ने क्लीनिक में अपना चैकअप कराया था. मैं मां बनने के लिए पूरी तरह सक्षम हूं. उन्होंने कहा था दोनों का चैकअप…’’

तड़ाक… वह अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही एक जोरदार थप्पड़ उस के गालों पर आ पड़ा, ‘‘तू यह कहना चाहती है कि मैं नामर्द हूं? मु झ में बच्चा पैदा करने की क्षमता नहीं?’’

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा… मैं… तो…’’

‘‘सफाई देती है. सा… ली…’’ वह जोर से दहाड़ा.

‘‘तू अगर चाहती है कि मैं ठीक से रहूं तो मेरी मुराद पूरी कर दे… 5 साल हो चुके हैं शादी को… अभी तक बच्चे की किलकारी तक नहीं गूंजी घर में… यारदोस्त मजाक उड़ाते हैं. बहुत हो चुका… मैं अब बरदाश्त नहीं कर सकता.’’

‘‘तुम चैकअप भी न कराओगे और मु झ से बच्चा भी चाहिए… क्या यह अकेले मेरे बस का है?’’

‘‘मु झे कुछ नहीं सुनना… जो कहा है उसे गांठ बांध लो,’’ वह दहाड़ा.

‘‘सुनो, क्यों न हम एक बच्चा अनाथाश्रम से गोद ले लें?’’ वह सिसकते हुए बोली.

‘‘क्या कहा… जरा फिर से बोल… अनाथाश्रम का बच्चा?’’

‘‘तो इस में गलत क्या है?’’

फिर क्या था. वह उस पर लातघूंसे बरसाने लगा. वह चीखतीचिल्लाती रही. इस पर भी उस का गुस्सा शांत न हुआ तो हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ घर के बाहर ले गया और फिर पीठ पर एक लात जड़ते हुए बोला, ‘‘आज के बाद इस घर के दरवाजे बंद हो चुके हैं तुम्हारे लिए… जा तु झे जहां जाना है. मेरा तु झ से कोई वास्ता नहीं. बां झ कहीं की…’’

उस के इन शब्दों ने जैसे माधवी के कानों में गरम सीसा उड़ेल दिया था. अभी तक वह जमीन पर पड़ी रो रही थी. फिर अचानक न जाने उस में कहां से शक्ति आ गई. शेरनी की तरह दहाड़ते हुए बोली, ‘‘वाहवाह बहुत खूब… अच्छा लगा सुन कर स्त्रीवादी लेखक… मगर घर की स्त्री की कोई वैल्यू नहीं… अरे, तुम तो वे इंसान हो जो अपने 1 1 आंसू की कीमत वसूलते हो कागज के पन्नों पर लिख कर… तुम्हें तो हर दिन एक नई कहानी की तलाश रहती है… इस कहानी को भी लिख लेना, बहुत प्रसिद्धि मिलेगी. वैसे भी औरत एक कहानी से ज्यादा कब रही इस पुरुषप्रधान देश में… एक कहानी और सही. लेकिन एक बात याद रखना अरुण कुमार, तुम्हें बच्चों का सुख कभी नहीं मिलेगा… चाहे तो एक बार जा कर चैकअप करवा लेना. तुम नामर्द हो… और हां, तुम क्या निकालोगे मु झे घर से, मैं खुद ही जा रही हूं इस दलदल से दूर. इतनी दूर कि जहां तुम्हारे कदमों के निशान तक न पहुंचें.’’

वह मूर्तिवत खड़ा रहा. उस ने उसे रोका नहीं और वह सुनसान सड़क की खामोशी को तोड़ने के लिए एक अनजान मंजिल की तरफ बढ़ती चली गई.

आगे पढ़ें  आज 14 साल बाद फिर से वही नाम उस की आंखों के सामने…

मां मां होती है: भाग-3

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दोनों बहनों में केवल फोन से ही बातें होतीं. कुसुम मां की खाने की फरमाइशें देख कर हैरान हो जाती. अगर कुछ कहो तो मां वही पुराना राग अलापतीं, ‘तुम्हारे पापा होते तो आज मेरी यह गत न होती.’ यह सब सुन कर वह भी चुप हो जाती. मगर रमेश उबलने लगा था. उस ने पीना शुरू कर दिया. अकसर देररात गए घर आता और बिस्तर पर गिरते ही सो जाता.

कुसुम कुछ समझानाबुझाना चाहती भी, तो वह अनसुना कर जाता. दोनों के बीच का तनाव बढ़ने लगा था. मगर आंटी को सिर्फ समय से अपनी सफाई, पूजा, सत्संग और भोजन से मतलब था. इन में कोई कमी हो जाए, तो चीखचीख कर वे घर सिर पर उठा लेतीं. अब हर वक्त प्रज्ञा को याद करतीं कि वह ऐसा करती थी, महेश मेरी कितनी सेवा करता था आदिआदि.

यह सब सुन कर रमेश का खून खौल जाता. असल में महेश अपने भाइयों में सब से छोटा होने के कारण सब की डांट सुनने का आदी था. लेकिन रमेश 2 बहनों का एकलौता भाई होने के कारण लाड़ला पुत्र था. उस के बरदाश्त की सीमा जब खत्म हो गई तो एक रात वह वापस घर ही नहीं आया.

सब जगह फोन कर कुसुम हाथ पर हाथ धर कर बैठ गई. सुबह ननद

का फोन आया कि वह हमारे घर में

है. कानपुर से लखनऊ की दूरी महज

2-3 घंटे की तो है, सारी रात वह कहां था? इस का कोई जवाब ननद के पास भी नहीं था. फिर तो वह हर 15 दिन में बिना बताए गायब हो जाता और पूछने पर तलाक की धमकी देने लगा. कभी कहता, ‘कौन सा सुख है इस शादी से, अंधी लड़ाका सास और बेवकूफ बीवी, न दिन में चैन न रात में.’

कुसुम के शादीशुदा जीवन में तलाक की काली छाया मंडराने लगी थी. वह अकसर मेरे सामने रो पड़ती. आंटी किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं थीं. उस दिन उन की चीखपुकार सुन कर मैं उन से मिलने चली गई. पता चला कुसुम की छोटी बेटी रिनी की गेंद उछल कर उन के कमरे में चली गई. बस, इतने में ही उन्होंने घर सिर पर ले रखा था. पूरा कमरा धोया गया. दरवाजे, खिड़की, परदे, चादर सब धुलने के बाद ही उन्हें संतुष्टि हुई.

कुसुम ने बताया, ‘वह अपनी बेटियों को सिर्फ सोते समय ही मां के कमरे में ले जाती है. बाकी समय वह अपना कमरा बंद कर बैठी रहती है ताकि रिनी और मिनी उन के सामान को हाथ न लगा सकें. वैसे, मिनी 6 साल की हो गई है और बहुत समझदार भी है. वह दिन में तो स्कूल चली जाती है और शाम को दूसरे कमरे में ही बैठ कर अपना होमवर्क करती है, या फिर बाहर ही खेलती रहती है. लेकिन रिनी थोड़ी शैतान है. उसे नानी का बंद कमरा बहुत आकर्षित करता है. वह उस में घुसने के मौके तलाश करती रहती है.

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‘रिनी दिनभर घर में ही रहती है और स्कूल भी नहीं जाती है. आज जब मां रसोई तक उठ कर गईं तो दरवाजा खुला रह गया. रिनी ने अपनी गेंद उछाल कर नानी के कमरे में डाल दी. फिर भाग कर उठाने चली गई. क्या कहूं इसे? 3 साल की छोटी बच्ची से ऐसा क्या अपराध हो गया जो मेरी मां ने हम दोनों को इतने कटु वचन सुना दिए.’

तभी आंटी कमरे से निकल कर मुझ से उलझ पड़ीं, ‘तुम्हारी मां ने तो तुम लोगों को कोई साफसफाई सिखाई नहीं है. मैं ने प्रज्ञा और कुसुम को कैसे काम सिखाया, मैं ही जानती हूं. मगर अपनी औलादों को यह कुछ न सिखा सकी. मैं मर क्यों नहीं जाती. क्या यही दिन देखने बाकी रह गए थे. बेटियों के रहमोकरम पर पड़ी हूं. इसी बात का फायदा उठा कर सब मुझे परेशान करते हैं. कुसुम, तेरी भी 2 बेटियां हैं. तू भी जब मेरी स्थिति में आएगी न, तब तुझे पता चलेगा.’

मैं यह सब सुन कर सन्न रह गई. ऐसा अनर्गल प्रलाप, वह भी अपनी बेटी के लिए. कुसुम अपनी बेटी को गोद में ले कर मुझे छोड़ने गेट तक आ गई.

‘ऐसी मां देखी है कभी जो सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जी रही हो?’

मैं क्या जवाब देती?

‘रमेश भी परेशान हो चुका है इन की हरकतों से, हमारे दांपत्य जीवन में भी सन्नाटा पसरा रहता है. जरा भी आहट पा, कमरे के बाहर मां कान लगा कर सुनने को खड़ी रहती हैं कि कहीं हम उन की बुराई तो नहीं कर रहे हैं. ऐसे माहौल में हमारे संबंध नौर्मल कैसे रह सकते हैं? अब तो रमेश को भी घर से दूर भागने का बहाना चाहिए. पता नहीं अपनी बहनों के घर जाता है या कहीं और? किस मुंह से उस से जवाब तलब करूं. जब अपनी मां ही ऐसी हो तो दूसरे से क्या उम्मीद रखना.’

आंटी का सनकीपन बढ़ता ही जा रहा था. उस दिन रिनी का जन्मदिन था, जिसे मनाने के लिए कुसुम और उस की मां में पहले ही बहुत बहस हो चुकी थी. आंटी का कहना था, ‘घर में बच्चे आएंगे तो यहांवहां दौड़ेंगे, सामान छुएंगे.’

कुसुम ने कहा, ‘तुम 2-3 घंटे अपने कमरे को बंद कर बैठ जाना, न तुम्हें कोई छुएगा न ही तुम्हारे सामान को.’

जब आंटी की बात कुसुम ने नहीं सुनी तो वे बहुत ही गुस्से में आ गईं. जन्मदिन की तैयारियों में जुटी कुसुम की उन्होंने कोई मदद नहीं की. मैं ही सुबह से 2-3 बार उस की मदद करने को जा चुकी थी. शाम को सिर्फ 10-12 की संख्या में बच्चे एकत्रित हुए और दोढाई घंटे में लौट गए.

आंटी कमरे से बाहर नहीं आईं. 8 बज गए तो कुसुम ने आंटी को डिनर के लिए पुकारा. तब जा कर वे अपने कोपभवन से बाहर निकलीं. शायद, उन्हें जोरों की भूख लग गई थी. वे अपनी कुरसी ले कर आईं और बरामदे में बैठ गईं. तभी रमेश अपने किसी मित्र को साथ ले कर घर में पहुंचा. उन्हें अनदेखा कर कुसुम से अपने मित्र का परिचय करा कर वह बोला, ‘यह मेरा बचपन का मित्र जीवन है. आज अचानक गोल मार्केट में मुलाकात हो गई. इसीलिए मैं इसे अपने साथ डिनर पर ले कर आ गया कि थोड़ी गपशप साथ में हो जाएगी.’

कुसुम दोनों को खाना परोसने को उठ कर रसोई में पहुंची ही थी कि बरामदे से पानी गिराने और चिल्लाने की आवाज आने लगी. आंटी साबुन और पानी की बालटी ले कर अपनी कुरसी व बरामदे की धुलाई में जुट गई थीं.

दरअसल, जीवन ने बरामदे में बैठ कर सिगरेट पीते समय आंटी की कुरसी का इस्तेमाल कर लिया था. आंटी रसोई से खाना खा कर जब निकलीं तो जीवन को अपनी कुरसी पर बैठा देख आगबबूला हो गईं. और फिर क्या था. अपने रौद्र रूप में आ गईं. जीवन बहुत खिसियाया, रमेश और कुसुम भी मेहमान के आगे शर्म से गड़ गए. दोनों ने जीवन को मां की मानसिक स्थिति ठीक न होने का हवाला दे कर बात संभाली.

दरअसल, आंटी अपने पति की मृत्यु के बाद से खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी थीं. वे ज्यादा पढ़ीलिखी न होने के कारण हीनभावना से ग्रस्त रहतीं. दूसरे लोगों से यह सुनसुन कर कि तुम्हारा कोई बेटा ही नहीं है, उन्होंने अपनी पकड़ बेटियों पर बनाए रखने के लिए जो चीखपुकार और धौंस दिखाने का रास्ता अख्तियार कर लिया था, वह बेटियों को बहुत भारी पड़ रहा था.

एक दिन आंटी रात में टौर्च जला कर घूम रही थीं कि किसी सामान में उलझ कर गिर पड़ीं. उन के सिर में अंदरूनी चोट आ गई थी. उस दिन से जो बिस्तर में पड़ीं तो उठ ही न पाईं. 6 महीने गुजर गए, लगता था कि अब गईं कि तब गईं. इसी बीच रमेश का भी तबादला दिल्ली हो गया. कुसुम ने अपनी मां को ऐंबुलैंस में दिल्ली ले जाने का फैसला कर लिया. जब वे जा रही थीं तब यही कह रही थीं, ‘पता नहीं वे दिल्ली तक सहीसलामत पहुंच भी पाएंगी या नहीं.’

मौका पाते ही मैं ने कुसुम को फोन लगाया और हालचाल पूछे. उस ने बताया, ‘‘यहां दीदी के ससुराल वालों का बहुत बड़ा पुश्तैनी घर है. मैं ने भी इसी में एक हिस्से को किराए पर ले लिया है. अब हम दोनों बहनें मिल कर उन की देखभाल कर लेती हैं अपनीअपनी सुविधानुसार.’’

‘‘और तुमहारे पति का मिजाज कैसा है?’’

‘‘उन की तो एक ही समस्या रहती थी हमारी प्राइवेसी की, वह यहां आ कर सुलझ गई. मैं भी अपने पति और बच्चों को पूरा समय दे पाती हूं.’’ उस की आवाज की खनक मैं महसूस कर रही थी.

‘‘और आंटी खुश हैं कि नहीं? या हमेशा की तरह खीझती रहती हैं?’’

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‘‘मां को तो अल्जाइमर रोग लग गया है. वे सबकुछ भूल जाती हैं. कभीकभी कुछ बातें याद भी आ जाती हैं तो थोड़ाबहुत बड़बड़ाने लगती हैं. वैसे, शांत ही रहती हैं. अब वे ज्यादा बातें नहीं करतीं. बस, उन का ध्यान रखना पड़ता है कि वे अकेले न निकलें घर से. यहां दीदी के ससुराल वालों का पूरा सहयोग मिलता है.’’

‘‘तुम्हारी मां धन्य हैं जो इतनी समझदार बेटियां मिली हैं उन को.’’

‘‘मैं तो हमेशा मां की जगह पर खुद को रख कर देखती थी और इसीलिए शांत मन से उन के सारे काम करती थी. मेरी भी 2 बेटियां हैं. मां पहले ऐसी नहीं थीं. पापा का अचानक जीवन के बीच भंवर में छोड़ जाना वे बरदाश्त न कर सकीं और मानसिक रूप से निर्बल होती चली गईं. शायद वे अपने भविष्य को ले कर भयभीत हो उठी थीं. चलो, अब सब ठीक है, जैसी भी हैं आखिर वे हमारी मां हैं और मां सिर्फ मां होती है.’’

और मैं उस की बात से पूरी तरह सहमत हूं.

मां मां होती है: भाग-2

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दामाद तानाशाही से जब ऊब जाता तो 2-4 दिनों को अपने घरपरिवार, जोकि दिल्ली में था, से मिलने को चल देता. प्रज्ञा अपनी मां को समझाए या पति को, समझ न पाती. किसी तरह अपनी गृहस्थी बचाने की कोशिश में जुटी रहती. इन 4 सालों में वह 2 बच्चों की मां बन गई. खर्चे बढ़ने लगे थे और मां अपनी पैंशन का एक पैसा खर्च करना नहीं चाहतीं. वे उलटा उन दोनों को सुनाती रहतीं, ‘यह तनख्वाह जो प्रज्ञा को मिलती है अपने बाप की जगह पर मिलती है.’ उन का सीधा मतलब होता कि उन्हें पैसे की धौंस न देना.

आंटी आएदिन अपने मायके वालों को दावत देने को तैयार रहतीं. वे खुद भी बहुत चटोरी थीं, इसीलिए लोगों को घर बुला कर दावत करातीं. जब भी उन्हें पता चलता कि इलाहाबाद से उन के भाई या बनारस से बहन लखनऊ किसी शादी में शामिल हो रहे हैं तो तुरंत अपने घर पर खाने, रुकने का निमंत्रण देने को तैयार हो जातीं.

घर में जगह कम होने की वजह से जो भी आता, भोजन के पश्चात रुकने के लिए दूसरी जगह चला जाता. मगर उस के लिए उत्तम भोजन का प्रबंध करने में प्रज्ञा के बजट पर बुरा असर पड़ता. वह मां को लाख समझाती, ‘देखो मम्मी, मामा, मौसी लोग तो संपन्न हैं. वे अपने घर में क्या खाते हैं क्या नहीं, हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है. मगर वे हमारे घर आए हैं तो जो हम खाते हैं वही तो खिलाएंगे. वैसे भी हमारी परेशानियों में किस ने आर्थिक रूप से कुछ मदद की है जो उन के स्वागत में हम पलकपांवड़े बिछा दें.’ लेकिन आंटी के कानों में जूं न रेंगती. उन्हें अपनी झूठी शान और अपनी जीभ के स्वाद से समझौता करना पसंद नहीं था.

आंटी को आंखों से कम दिखने लगा था. एक दिन रिकशे से उतर कर भीतर आ रही थीं, तो पत्थर से ठोकर खा कर गिर पड़ीं. अब तो अंधेरा होते ही उन का हाथ पकड़ कर अंदरबाहर करना पड़ता. अब उन्होंने एक नया नाटक सीख लिया. दिनरात टौर्च जला कर घूमतीं. प्रज्ञा अपने कमरे में ही अपने छोटे बच्चों को भी सुलाती क्योंकि उस की मां तो अपने कमरे में बच्चों को घुसने भी न देतीं, अपने तख्त पर सुलाना तो दूर की बात थी. आंटी को फिर भी चैन न पड़ता. रात में उन के कमरे का दरवाजा खटका कर कभी दवा पूछतीं तो कभी पानी मांगतीं.

आंटी के कमरे की बगल में ही रसोईघर है, मगर रसोईघर से पानी लेना छोड़, वे प्रज्ञा और महेश को डिस्टर्ब करतीं. ऐसा वे उस दिन जरूर करतीं जब उन्हें उन के कमरे से हंसीमजाक की आवाज सुनाई देती. प्रज्ञा अपनी मां को क्या कहती, लेकिन महेश का मूड औफ हो जाता. आंटी उन की शादीशुदा जिंदगी में सेंध लगाने लगी थीं. इस बीच आंटी की दोनों आंखों के मोतियांबिंद के औपरेशन भी हुए. उस समय भी दोनों पतिपत्नी ने पूरा खयाल रखा. फिर भी आंटी का असंतोष बढ़ता ही गया.

उधर, कुसुम के बीमार ससुर जब चल बसे तब जा कर उस के मायके  के फेरे बढ़ने लगे. ऐसे में आंटी कुसुम से, प्रज्ञा की खूब बुराई करतीं और अपना रोना रोतीं, ‘वे दोनों अपने कमरे में मग्न रहते हैं. मेरा कोई ध्यान नहीं रखता. मेरी दोनों आंखें फूट गई हैं.’ कुसुम समझाबुझा कर चली जाती. इधर महेश का मन ऊबने लगा था. एक तो उस की आमदनी व काम में कोई इजाफा नहीं हो रहा था, ऊपर से सास के नखरे. प्रज्ञा और उस के बीच झगड़े बढ़ने लगे थे. प्रज्ञा न तो मां को छोड़ सकती थी, न ही पति को. दोनों की बातें सुन वह चुप रहती.

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प्रज्ञा का प्रमोशन और ट्रांसफर जब दिल्ली हो गया तो उस ने चैन की सांस ली और अपनी मां से भी दिल्ली चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया. वे अपनी सत्संग मंडली छोड़ कर कहीं जाना नहीं चाहती थीं. प्रज्ञा के खर्चे दिनोंदिन बढ़ ही रहे थे. महेश की कोई निश्चित आमदनी नहीं थी. प्रज्ञा ने कुसुम को बुलाया कि वह मां को समझाबुझा कर साथ में दिल्ली चलने को तैयार करे. मगर वे अपना घर छोड़ने को तैयार ही न हुईं. अंत में यह फैसला हुआ कि प्रज्ञा अपने परिवार के साथ दिल्ली चली जाए और कुसुम अपने पति के साथ मायके रहने आ जाएगी. अपनी ससुराल के एक हिस्से को कुसुम ने किराए पर चढ़ा दिया और अपनी मां के संग रहने को चली आई. आखिर वे दोनों अपनी मां को अकेले कैसे छोड़ देतीं, वह भी 70 साल की उम्र में.

कुसुम मायके में रहने आ गई. किंतु अभी तक तो वह मां से प्रज्ञा की ढेरों बुराइयों को सुन दीदी, जीजाजी को गलत समझती थी. अब जब ऊंट पहाड़ के नीचे आया तो उसे पता चला कि उस की मां दूसरों को कितना परेशान करती हैं. उस की 2 छोटी बेटियां भी थीं और घर में केवल 2 ही कमरे, इसीलिए वह अपनी बेटियों को मां के साथ सुलाने लगी.

मां को यह मंजूर नहीं था, कहने लगीं, ‘प्रज्ञा के बच्चे उस के साथ ही उस के कमरे में सोते थे, मैं किसी को अपने साथ नहीं सुला सकती.’ कुसुम ने 2 फोल्ंिडग चारपाई बिछा कर अपनी बेटियों के सोने का इंतजाम कर दिया और बोली, ‘पति को, बच्चों को अपने संग सुलाना पसंद नहीं है. और अगर कोई तुम्हारा सामान छुएगा तो मैं घर में ही हूं, जितनी बार कहोगी मैं उतनी बार धो कर साफ कर दूंगी.’ उस की मां इस पर क्या जवाब देतीं.

आंटी प्रज्ञा को तो अनुकंपा नौकरी के कारण खरीखोटी सुना देती थीं, मगर कुसुम से जब पैसों को ले कर बहस होती तो उस के सामने पासबुक और चैकबुक ले कर खड़ी हो जातीं और पूछतीं, ‘कितना खर्चा हो गया तेरा, बोल, अभी चैक काट कर देती हूं.’ कुसुम उन का नाटक देख वहां से हट जाती.

प्रज्ञा तो अपनी जौब की वजह से शाम को ही घर आती थी और घर में बच्चे महेश के संग रहते थे. शाम को थकीहारी लौटने के बाद किसी किस्म की बहस या तनाव से बचना चाहती. सो, वह अपनी मां की हर बात को सुन कर, उन्हें शांत रखने की कोशिश करती. मगर कुसुम घरेलू महिला होने के कारण दिनभर मां की गतिविधियों पर नजर रखती. वह आंटी की गलत बातों का तुरंत विरोध करती. आंटी ने प्रज्ञा को परेशान करने के लिए जो नाटक शुरू किए थे, अब वे उन की आदत और सनक में बदल चुके थे.

कुछ दिन तो आंटी शांत रहीं, मगर फिर कुसुम के सुखी गृहस्थ जीवन में आग लगाने में जुट गईं. कुसुम रात में आंटी को दवा खिला व सिरहाने पानी रख और अपनी बेटियों को सुला कर ही अपने कमरे में जाती. लेकिन आंटी को कहां चैन पड़ता. रात में टौर्च जला कर पूरे घर में घूमतीं. कभी अचानक ही दरवाजा खटका देतीं और अंदर घुस कर टौर्च से इधरउधर रोशनी फेंकतीं. उन से पूछो, तो कहतीं, ‘मुझे कहां दिखता हैं, मैं तो इसे रसोईघर समझ रही थी.’

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रमेश को अपनी निजी जिंदगी में

दखलंदाजी बिलकुल पसंद नहीं थी.

अपनी बीवी के कहने से वह यहां रहने तो आ गया था मगर उस का छोटे से घर में दम घुटता था. साथ ही, उसे दिनभर सास के सौ नखरे सुनने को मिलते ही, रात में भी वे उन्हें चैन से सोने न देतीं. कुसुम मां को छोड़ नहीं सकती थी और प्रज्ञा से भी क्या कहती. अब तक वह ही तो इतने वर्षो तक मां को संभाले रही थी.

आगे पढ़ें- दोनों बहनों में केवल फोन से ही बातें…

Best Family Drama : मां मां होती है

Best Family Drama : उस दिन सोशल नैटवर्किंग साइट पर जन्मदिन का केक काटती हुई प्रज्ञा और कुसुम का अपनी मां के साथ फोटो देख कर मुझे बड़ा सुकून मिला. नीचे फटाफट कमैंट डाल दिया मैं ने, ‘‘आंटी को स्वस्थ देख कर बहुत अच्छा लगा.’’ सालभर पहले कुसुम अपने पति के लखनऊ से दिल्ली स्थानांतरण के समय जिस प्रकार अपनी मां को ऐंबुलैंस में ले कर गई थी, उसे देख कर तो यही लग रहा था कि वे माह या 2 माह से ज्यादा नहीं बचेंगी. दिल्ली में उस की बड़ी बहन (Best Family Drama) प्रज्ञा पहले से अपनी ससुराल वालों के साथ पुश्तैनी घर में रह कर अपनी गृहस्थी संभाल रही थी.

जब कुसुम के पति का भी दिल्ली का ट्रांसफर और्डर आया तो 6 माह से बिस्तर पर पड़ी मां को ले कर वह भी चल पड़ी. यहां लखनऊ में अपनी 2 छोटी बेटियों के साथ बीमार मां की जिम्मेदारी वह अकेले कैसे उठाती. बड़ी बहन का भी बारबार छुट्टी ले कर लखनऊ आना मुश्किल हो रहा था.

प्रज्ञा और कुसुम दोनों जब हमारे घर के बगल में खाली पड़े प्लौट में मकान बनवाने आईं तभी उन से परिचय हुआ था. उन के पिता का निधन हुए तब 2 वर्ष हो गए थे. उन की मां  हमारे ही घर बैठ कर बरामदे से मजदूरों को देखा करतीं और शाम को पास ही में अपने किराए के मकान में लौट जातीं. वे अकसर अपने पति को याद कर रो पड़तीं. उन्हीं से पता चला था कि बड़ी बेटी प्रज्ञा 12वीं में और छोटी बेटी कुसुम छठवीं कक्षा में ही थी जब उन के पति को दिल का दौरा पड़ा. जिसे वे एंग्जाइटी समझ कर रातभर घरेलू उपचार करती रहीं और सुबह तक सही उपचार के अभाव में उन की मौत हो गई.

वे हमेशा अपने को कोसती रहतीं, कहतीं, ‘प्रज्ञा को अपने पिता की जगह सरकारी क्लर्क की नौकरी मिल गई है, उस का समय तो अच्छा ही रहा. पहले पिता की लाड़ली रही, अब पिता की नौकरी पा गई. छोटी कुसुम ने क्या सुख देखा? उस के सिर से पिता का साया ही उठ गया है.’

दरअसल, अंकल बहुत खर्चीले स्वभाव के थे. महंगे कपड़े, बढि़या खाना और घूमनेफिरने के शौकीन. इसीलिए फंड के रुपयों के अलावा बचत के नाम पर बीमा की रकम तक न थी.

प्रज्ञा हमेशा कहती, ‘मैं ही इस का पिता हूं. मैं इस की पूरी जिम्मेदारी लेती हूं. इस को भी अपने पैरों पर खड़ा करूंगी.’

आंटी तुनक पड़तीं, ‘कहने की बातें हैं बस. कल जब तुम्हारी शादी हो जाएगी, तो तुम्हारी तनख्वाह पर तुम्हारे पति का हक हो जाएगा.’

किसी तरह से 2 कमरे, रसोई का सैट बना कर वे रहने आ गए. अपनी मां की पैंशन प्रज्ञा ने बैंक में जमा करनी शुरू कर दी और उस की तनख्वाह से ही घर चलता. उस पर भी आंटी उसे धौंस देना न भूलतीं, ‘अपने पापा की जगह तुझे मिल गई है. कल को अपनी ससुराल चली जाएगी, फिर हमारा क्या होगा? तेरे पापा तो खाने में इतनी तरह के व्यंजन बनवाते थे. यह खाना मुझ से न खाया जाएगा.’ और भी न जाने क्याक्या बड़बड़ाते हुए दिन गुजार देतीं.

कुसुम सारे घर, बाहर के काम देखती. साथ ही अपनी पढ़ाई भी करती. बड़ी बहन सुबह का नाश्ता बना कर रख जाती, फिर शाम को ही घर लौट कर आती. वह रास्ते से कुछ न कुछ घरेलू सामान ले कर ही आती.

दोनों बहनें अपने स्तर पर कड़ी मेहनत करतीं, पर आंटी की झुंझलाहट बढ़ती ही जा रही थी. कभी पति, तो कभी अपना मनपसंद खाना, तरहतरह के आचार, पापड़, बडि़यां सब घर में ही तैयार करवातीं.

छुट्टी के दिन दोनों बहनें आचार, पापड़, बडि़यां धूप में डालती दिख जातीं. मेरे पूछने पर बोल पड़तीं, ‘पापा खाने के शौकीन थे तभी से मां को भी यही सब खाने की आदत हो गई है. न बनाओ, तो बोल पड़ती हैं, ‘जितना राजपाट था मेरा, तेरे पिता के साथ ही चला गया. अब तो तुम्हारे राज में सूखी रोटियां ही खानी पड़ रही हैं.’

उन दोनों बहनों को दिनरात मेहनत करते देख बहुत दुख भी होता. समय गुजरता गया, जल्द ही छोटी बहन की एमए की शिक्षा पूरी हो गई. प्रज्ञा 30 साल की हो गई. जब आंटी पर चारों तरफ से दबाव पड़ने लगा कि ‘प्रज्ञा की शादी कब करोगी?’ तो उन्होंने उलटा लोगों से ही कह दिया, ‘मैं अकेली औरत कहां जाऊंगी, तुम लोग ही कहीं देखभाल कर रिश्ता बता देना.’

दरअसल, उन्हें बेटियों की शादी की कोई जल्दी नहीं थी जबकि दोनों बेटियां विवाहयोग्य हो गई थीं. ज्यादातर रिश्ते इसी बात पर टूट जाते कि पिता नहीं, भाई भी नहीं, कौन मां की जिम्मेदारी जिंदगीभर उठाएगा. आखिर, प्रज्ञा की शादी तय हो ही गई.

पता चला कि लड़का बेरोजगार है और यों ही छोटेमोटे बिजली के काम कर के अपना खर्चा चलाता है. महेश का परिवार दिल्ली के पुराने रईस लोगों में से एक था, 4 बड़े भाई थे, सभी अच्छे पद पर नियुक्त थे. सो, सब से छोटे भाई के लिए कमाऊ पत्नी ला कर उन्होंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया.

महेश अब घरजमाई बन कर रहने लखनऊ आ गया. आंटी का बहुत खयाल रखता. मगर आंटी उसे ताना मारने से न चूकतीं. कुसुम ने प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना और घर में ट्यूशन ले कर घरखर्च में योगदान देना शुरू कर दिया था.

नवविवाहितों को 2 कमरों के घर में कोई एकांत नहीं मिल पाता था, ऊपर से मां की बेतुकी बातें भी सुननी पड़तीं. प्रज्ञा ने कभी भी इस बात को ले कर कोई शिकायत नहीं की, बल्कि वह जल्द से जल्द कुसुम के रिश्ते के लिए प्रयासरत हो उठी.

अपनी ससुराल की रिश्तेदारी में ही प्रज्ञा ने कुसुम का रिश्ता तय कर दिया. रमेश सरकारी दफ्तर में क्लर्क था और उस के घर में बीमार पिता के अलावा और कोई जिम्मेदारी नहीं थी. उस से बड़ी 2 बहनें थीं और दोनों ही दूसरे शहरों में विवाहित थीं. कुसुम की विदाई लखनऊ में ही दूसरे छोर में हो गई. सभी ने प्रज्ञा को बहुत बधाइयां दीं कि उस ने अपनी जिम्मेदारियों को बहुत ही अच्छे ढंग से निभाया.

अब आंटी का दिलोदिमाग कुसुम के विवाह की चिंता से मुक्त हो गया था. कोई उद्देश्य जिंदगी में बाकी नहीं रहने से उन के खाली दिमाग में झुंझलाहट बढ़ने लगी थी. वे अकसर अपने दामाद महेश से उलझ पड़तीं. बेचारी प्रज्ञा औफिस से थकीमांदी आती और घर पहुंच कर सासदामाद का झगड़ा निबटाती.

धीरेधीरे आंटी को सफाई का मीनिया चढ़ता ही जा रहा था. अब वे घंटों बाथरूम को रगड़ कर चमकातीं. दिन में 2 से 3 बार स्नान करने लगतीं. अपने कपड़ों को किसी के छू लेने भर से दोबारा धोतीं. अपनी कुरसी, अपने तख्त पर किसी को हाथ भी धरने न देतीं.

वे अपने खोल में सिमटती जा रही थीं. पहले अपने भोजन के बरतन अलग किए, फिर स्नानघर के बालटीमग भी नए ला कर अपने तख्त के नीचे रख लिए.

प्रज्ञा के पूछने पर बोलीं, ‘मेरा सामान कोई छुए तो मुझे बहुत घिन आती है, बारबार मांजना पड़ता है. अब मैं ने अपने इस्तेमाल का सारा सामान अलग कर लिया है. अब तुम लोग इसे हाथ भी मत लगाना.’ प्रज्ञा को अपने पति महेश के समक्ष शर्मिंदगी उठानी पड़ती. हर समय घर में शोर मचा रहता, ‘बिना नहाए यह न करो, वह न करो, मेरी चीजों को न छुओ, मेरे वस्त्रों से दूर रहो’ आदिआदि.

दामाद तानाशाही से जब ऊब जाता तो 2-4 दिनों को अपने घरपरिवार, जोकि दिल्ली में था, से मिलने को चल देता. प्रज्ञा अपनी मां को समझाए या पति को, समझ न पाती. किसी तरह अपनी गृहस्थी बचाने की कोशिश में जुटी रहती. इन 4 सालों में वह 2 बच्चों की मां बन गई. खर्चे बढ़ने लगे थे और मां अपनी पैंशन का एक पैसा खर्च करना नहीं चाहतीं. वे उलटा उन दोनों को सुनाती रहतीं, ‘यह तनख्वाह जो प्रज्ञा को मिलती है अपने बाप की जगह पर मिलती है.’ उन का सीधा मतलब होता कि उन्हें पैसे की धौंस न देना.

आंटी आएदिन अपने मायके वालों को दावत देने को तैयार रहतीं. वे खुद भी बहुत चटोरी थीं, इसीलिए लोगों को घर बुला कर दावत करातीं. जब भी उन्हें पता चलता कि इलाहाबाद से उन के भाई या बनारस से बहन लखनऊ किसी शादी में शामिल हो रहे हैं तो तुरंत अपने घर पर खाने, रुकने का निमंत्रण देने को तैयार हो जातीं.

घर में जगह कम होने की वजह से जो भी आता, भोजन के पश्चात रुकने के लिए दूसरी जगह चला जाता. मगर उस के लिए उत्तम भोजन का प्रबंध करने में प्रज्ञा के बजट पर बुरा असर पड़ता. वह मां को लाख समझाती, ‘देखो मम्मी, मामा, मौसी लोग तो संपन्न हैं. वे अपने घर में क्या खाते हैं क्या नहीं, हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है. मगर वे हमारे घर आए हैं तो जो हम खाते हैं वही तो खिलाएंगे. वैसे भी हमारी परेशानियों में किस ने आर्थिक रूप से कुछ मदद की है जो उन के स्वागत में हम पलकपांवड़े बिछा दें.’ लेकिन आंटी के कानों में जूं न रेंगती. उन्हें अपनी झूठी शान और अपनी जीभ के स्वाद से समझौता करना पसंद नहीं था.

आंटी को आंखों से कम दिखने लगा था. एक दिन रिकशे से उतर कर भीतर आ रही थीं, तो पत्थर से ठोकर खा कर गिर पड़ीं. अब तो अंधेरा होते ही उन का हाथ पकड़ कर अंदरबाहर करना पड़ता. अब उन्होंने एक नया नाटक सीख लिया. दिनरात टौर्च जला कर घूमतीं. प्रज्ञा अपने कमरे में ही अपने छोटे बच्चों को भी सुलाती क्योंकि उस की मां तो अपने कमरे में बच्चों को घुसने भी न देतीं, अपने तख्त पर सुलाना तो दूर की बात थी. आंटी को फिर भी चैन न पड़ता. रात में उन के कमरे का दरवाजा खटका कर कभी दवा पूछतीं तो कभी पानी मांगतीं.

आंटी के कमरे की बगल में ही रसोईघर है, मगर रसोईघर से पानी लेना छोड़, वे प्रज्ञा और महेश को डिस्टर्ब करतीं. ऐसा वे उस दिन जरूर करतीं जब उन्हें उन के कमरे से हंसीमजाक की आवाज सुनाई देती. प्रज्ञा अपनी मां को क्या कहती, लेकिन महेश का मूड औफ हो जाता. आंटी उन की शादीशुदा जिंदगी में सेंध लगाने लगी थीं. इस बीच आंटी की दोनों आंखों के मोतियांबिंद के औपरेशन भी हुए. उस समय भी दोनों पतिपत्नी ने पूरा खयाल रखा. फिर भी आंटी का असंतोष बढ़ता ही गया.

उधर, कुसुम के बीमार ससुर जब चल बसे तब जा कर उस के मायके  के फेरे बढ़ने लगे. ऐसे में आंटी कुसुम से, प्रज्ञा की खूब बुराई करतीं और अपना रोना रोतीं, ‘वे दोनों अपने कमरे में मग्न रहते हैं. मेरा कोई ध्यान नहीं रखता. मेरी दोनों आंखें फूट गई हैं.’ कुसुम समझाबुझा कर चली जाती. इधर महेश का मन ऊबने लगा था. एक तो उस की आमदनी व काम में कोई इजाफा नहीं हो रहा था, ऊपर से सास के नखरे. प्रज्ञा और उस के बीच झगड़े बढ़ने लगे थे. प्रज्ञा न तो मां को छोड़ सकती थी, न ही पति को. दोनों की बातें सुन वह चुप रहती.

प्रज्ञा का प्रमोशन और ट्रांसफर जब दिल्ली हो गया तो उस ने चैन की सांस ली और अपनी मां से भी दिल्ली चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया. वे अपनी सत्संग मंडली छोड़ कर कहीं जाना नहीं चाहती थीं. प्रज्ञा के खर्चे दिनोंदिन बढ़ ही रहे थे. महेश की कोई निश्चित आमदनी नहीं थी. प्रज्ञा ने कुसुम को बुलाया कि वह मां को समझाबुझा कर साथ में दिल्ली चलने को तैयार करे. मगर वे अपना घर छोड़ने को तैयार ही न हुईं. अंत में यह फैसला हुआ कि प्रज्ञा अपने परिवार के साथ दिल्ली चली जाए और कुसुम अपने पति के साथ मायके रहने आ जाएगी. अपनी ससुराल के एक हिस्से को कुसुम ने किराए पर चढ़ा दिया और अपनी मां के संग रहने को चली आई. आखिर वे दोनों अपनी मां को अकेले कैसे छोड़ देतीं, वह भी 70 साल की उम्र में.

कुसुम मायके में रहने आ गई. किंतु अभी तक तो वह मां से प्रज्ञा की ढेरों बुराइयों को सुन दीदी, जीजाजी को गलत समझती थी. अब जब ऊंट पहाड़ के नीचे आया तो उसे पता चला कि उस की मां दूसरों को कितना परेशान करती हैं. उस की 2 छोटी बेटियां भी थीं और घर में केवल 2 ही कमरे, इसीलिए वह अपनी बेटियों को मां के साथ सुलाने लगी.

मां को यह मंजूर नहीं था, कहने लगीं, ‘प्रज्ञा के बच्चे उस के साथ ही उस के कमरे में सोते थे, मैं किसी को अपने साथ नहीं सुला सकती.’ कुसुम ने 2 फोल्ंिडग चारपाई बिछा कर अपनी बेटियों के सोने का इंतजाम कर दिया और बोली, ‘पति को, बच्चों को अपने संग सुलाना पसंद नहीं है. और अगर कोई तुम्हारा सामान छुएगा तो मैं घर में ही हूं, जितनी बार कहोगी मैं उतनी बार धो कर साफ कर दूंगी.’ उस की मां इस पर क्या जवाब देतीं.

आंटी प्रज्ञा को तो अनुकंपा नौकरी के कारण खरीखोटी सुना देती थीं, मगर कुसुम से जब पैसों को ले कर बहस होती तो उस के सामने पासबुक और चैकबुक ले कर खड़ी हो जातीं और पूछतीं, ‘कितना खर्चा हो गया तेरा, बोल, अभी चैक काट कर देती हूं.’ कुसुम उन का नाटक देख वहां से हट जाती.

प्रज्ञा तो अपनी जौब की वजह से शाम को ही घर आती थी और घर में बच्चे महेश के संग रहते थे. शाम को थकीहारी लौटने के बाद किसी किस्म की बहस या तनाव से बचना चाहती. सो, वह अपनी मां की हर बात को सुन कर, उन्हें शांत रखने की कोशिश करती. मगर कुसुम घरेलू महिला होने के कारण दिनभर मां की गतिविधियों पर नजर रखती. वह आंटी की गलत बातों का तुरंत विरोध करती. आंटी ने प्रज्ञा को परेशान करने के लिए जो नाटक शुरू किए थे, अब वे उन की आदत और सनक में बदल चुके थे.

कुछ दिन तो आंटी शांत रहीं, मगर फिर कुसुम के सुखी गृहस्थ जीवन में आग लगाने में जुट गईं. कुसुम रात में आंटी को दवा खिला व सिरहाने पानी रख और अपनी बेटियों को सुला कर ही अपने कमरे में जाती. लेकिन आंटी को कहां चैन पड़ता. रात में टौर्च जला कर पूरे घर में घूमतीं. कभी अचानक ही दरवाजा खटका देतीं और अंदर घुस कर टौर्च से इधरउधर रोशनी फेंकतीं. उन से पूछो, तो कहतीं, ‘मुझे कहां दिखता हैं, मैं तो इसे रसोईघर समझ रही थी.’

रमेश को अपनी निजी जिंदगी में

दखलंदाजी बिलकुल पसंद नहीं थी.

अपनी बीवी के कहने से वह यहां रहने तो आ गया था मगर उस का छोटे से घर में दम घुटता था. साथ ही, उसे दिनभर सास के सौ नखरे सुनने को मिलते ही, रात में भी वे उन्हें चैन से सोने न देतीं. कुसुम मां को छोड़ नहीं सकती थी और प्रज्ञा से भी क्या कहती. अब तक वह ही तो इतने वर्षो तक मां को संभाले रही थी.

दोनों बहनों में केवल फोन से ही बातें होतीं. कुसुम मां की खाने की फरमाइशें देख कर हैरान हो जाती. अगर कुछ कहो तो मां वही पुराना राग अलापतीं, ‘तुम्हारे पापा होते तो आज मेरी यह गत न होती.’ यह सब सुन कर वह भी चुप हो जाती. मगर रमेश उबलने लगा था. उस ने पीना शुरू कर दिया. अकसर देररात गए घर आता और बिस्तर पर गिरते ही सो जाता.

कुसुम कुछ समझानाबुझाना चाहती भी, तो वह अनसुना कर जाता. दोनों के बीच का तनाव बढ़ने लगा था. मगर आंटी को सिर्फ समय से अपनी सफाई, पूजा, सत्संग और भोजन से मतलब था. इन में कोई कमी हो जाए, तो चीखचीख कर वे घर सिर पर उठा लेतीं. अब हर वक्त प्रज्ञा को याद करतीं कि वह ऐसा करती थी, महेश मेरी कितनी सेवा करता था आदिआदि.

यह सब सुन कर रमेश का खून खौल जाता. असल में महेश अपने भाइयों में सब से छोटा होने के कारण सब की डांट सुनने का आदी था. लेकिन रमेश 2 बहनों का एकलौता भाई होने के कारण लाड़ला पुत्र था. उस के बरदाश्त की सीमा जब खत्म हो गई तो एक रात वह वापस घर ही नहीं आया.

सब जगह फोन कर कुसुम हाथ पर हाथ धर कर बैठ गई. सुबह ननद

का फोन आया कि वह हमारे घर में

है. कानपुर से लखनऊ की दूरी महज

2-3 घंटे की तो है, सारी रात वह कहां था? इस का कोई जवाब ननद के पास भी नहीं था. फिर तो वह हर 15 दिन में बिना बताए गायब हो जाता और पूछने पर तलाक की धमकी देने लगा. कभी कहता, ‘कौन सा सुख है इस शादी से, अंधी लड़ाका सास और बेवकूफ बीवी, न दिन में चैन न रात में.’

कुसुम के शादीशुदा जीवन में तलाक की काली छाया मंडराने लगी थी. वह अकसर मेरे सामने रो पड़ती. आंटी किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं थीं. उस दिन उन की चीखपुकार सुन कर मैं उन से मिलने चली गई. पता चला कुसुम की छोटी बेटी रिनी की गेंद उछल कर उन के कमरे में चली गई. बस, इतने में ही उन्होंने घर सिर पर ले रखा था. पूरा कमरा धोया गया. दरवाजे, खिड़की, परदे, चादर सब धुलने के बाद ही उन्हें संतुष्टि हुई.

कुसुम ने बताया, ‘वह अपनी बेटियों को सिर्फ सोते समय ही मां के कमरे में ले जाती है. बाकी समय वह अपना कमरा बंद कर बैठी रहती है ताकि रिनी और मिनी उन के सामान को हाथ न लगा सकें. वैसे, मिनी 6 साल की हो गई है और बहुत समझदार भी है. वह दिन में तो स्कूल चली जाती है और शाम को दूसरे कमरे में ही बैठ कर अपना होमवर्क करती है, या फिर बाहर ही खेलती रहती है. लेकिन रिनी थोड़ी शैतान है. उसे नानी का बंद कमरा बहुत आकर्षित करता है. वह उस में घुसने के मौके तलाश करती रहती है.

‘रिनी दिनभर घर में ही रहती है और स्कूल भी नहीं जाती है. आज जब मां रसोई तक उठ कर गईं तो दरवाजा खुला रह गया. रिनी ने अपनी गेंद उछाल कर नानी के कमरे में डाल दी. फिर भाग कर उठाने चली गई. क्या कहूं इसे? 3 साल की छोटी बच्ची से ऐसा क्या अपराध हो गया जो मेरी मां ने हम दोनों को इतने कटु वचन सुना दिए.’

तभी आंटी कमरे से निकल कर मुझ से उलझ पड़ीं, ‘तुम्हारी मां ने तो तुम लोगों को कोई साफसफाई सिखाई नहीं है. मैं ने प्रज्ञा और कुसुम को कैसे काम सिखाया, मैं ही जानती हूं. मगर अपनी औलादों को यह कुछ न सिखा सकी. मैं मर क्यों नहीं जाती. क्या यही दिन देखने बाकी रह गए थे. बेटियों के रहमोकरम पर पड़ी हूं. इसी बात का फायदा उठा कर सब मुझे परेशान करते हैं. कुसुम, तेरी भी 2 बेटियां हैं. तू भी जब मेरी स्थिति में आएगी न, तब तुझे पता चलेगा.’

मैं यह सब सुन कर सन्न रह गई. ऐसा अनर्गल प्रलाप, वह भी अपनी बेटी के लिए. कुसुम अपनी बेटी को गोद में ले कर मुझे छोड़ने गेट तक आ गई.

‘ऐसी मां देखी है कभी जो सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जी रही हो?’

मैं क्या जवाब देती?

‘रमेश भी परेशान हो चुका है इन की हरकतों से, हमारे दांपत्य जीवन में भी सन्नाटा पसरा रहता है. जरा भी आहट पा, कमरे के बाहर मां कान लगा कर सुनने को खड़ी रहती हैं कि कहीं हम उन की बुराई तो नहीं कर रहे हैं. ऐसे माहौल में हमारे संबंध नौर्मल कैसे रह सकते हैं? अब तो रमेश को भी घर से दूर भागने का बहाना चाहिए. पता नहीं अपनी बहनों के घर जाता है या कहीं और? किस मुंह से उस से जवाब तलब करूं. जब अपनी मां ही ऐसी हो तो दूसरे से क्या उम्मीद रखना.’

आंटी का सनकीपन बढ़ता ही जा रहा था. उस दिन रिनी का जन्मदिन था, जिसे मनाने के लिए कुसुम और उस की मां में पहले ही बहुत बहस हो चुकी थी. आंटी का कहना था, ‘घर में बच्चे आएंगे तो यहांवहां दौड़ेंगे, सामान छुएंगे.’

कुसुम ने कहा, ‘तुम 2-3 घंटे अपने कमरे को बंद कर बैठ जाना, न तुम्हें कोई छुएगा न ही तुम्हारे सामान को.’

जब आंटी की बात कुसुम ने नहीं सुनी तो वे बहुत ही गुस्से में आ गईं. जन्मदिन की तैयारियों में जुटी कुसुम की उन्होंने कोई मदद नहीं की. मैं ही सुबह से 2-3 बार उस की मदद करने को जा चुकी थी. शाम को सिर्फ 10-12 की संख्या में बच्चे एकत्रित हुए और दोढाई घंटे में लौट गए.

आंटी कमरे से बाहर नहीं आईं. 8 बज गए तो कुसुम ने आंटी को डिनर के लिए पुकारा. तब जा कर वे अपने कोपभवन से बाहर निकलीं. शायद, उन्हें जोरों की भूख लग गई थी. वे अपनी कुरसी ले कर आईं और बरामदे में बैठ गईं. तभी रमेश अपने किसी मित्र को साथ ले कर घर में पहुंचा. उन्हें अनदेखा कर कुसुम से अपने मित्र का परिचय करा कर वह बोला, ‘यह मेरा बचपन का मित्र जीवन है. आज अचानक गोल मार्केट में मुलाकात हो गई. इसीलिए मैं इसे अपने साथ डिनर पर ले कर आ गया कि थोड़ी गपशप साथ में हो जाएगी.’

कुसुम दोनों को खाना परोसने को उठ कर रसोई में पहुंची ही थी कि बरामदे से पानी गिराने और चिल्लाने की आवाज आने लगी. आंटी साबुन और पानी की बालटी ले कर अपनी कुरसी व बरामदे की धुलाई में जुट गई थीं.

दरअसल, जीवन ने बरामदे में बैठ कर सिगरेट पीते समय आंटी की कुरसी का इस्तेमाल कर लिया था. आंटी रसोई से खाना खा कर जब निकलीं तो जीवन को अपनी कुरसी पर बैठा देख आगबबूला हो गईं. और फिर क्या था. अपने रौद्र रूप में आ गईं. जीवन बहुत खिसियाया, रमेश और कुसुम भी मेहमान के आगे शर्म से गड़ गए. दोनों ने जीवन को मां की मानसिक स्थिति ठीक न होने का हवाला दे कर बात संभाली.

दरअसल, आंटी अपने पति की मृत्यु के बाद से खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी थीं. वे ज्यादा पढ़ीलिखी न होने के कारण हीनभावना से ग्रस्त रहतीं. दूसरे लोगों से यह सुनसुन कर कि तुम्हारा कोई बेटा ही नहीं है, उन्होंने अपनी पकड़ बेटियों पर बनाए रखने के लिए जो चीखपुकार और धौंस दिखाने का रास्ता अख्तियार कर लिया था, वह बेटियों को बहुत भारी पड़ रहा था.

एक दिन आंटी रात में टौर्च जला कर घूम रही थीं कि किसी सामान में उलझ कर गिर पड़ीं. उन के सिर में अंदरूनी चोट आ गई थी. उस दिन से जो बिस्तर में पड़ीं तो उठ ही न पाईं. 6 महीने गुजर गए, लगता था कि अब गईं कि तब गईं. इसी बीच रमेश का भी तबादला दिल्ली हो गया. कुसुम ने अपनी मां को ऐंबुलैंस में दिल्ली ले जाने का फैसला कर लिया. जब वे जा रही थीं तब यही कह रही थीं, ‘पता नहीं वे दिल्ली तक सहीसलामत पहुंच भी पाएंगी या नहीं.’

मौका पाते ही मैं ने कुसुम को फोन लगाया और हालचाल पूछे. उस ने बताया, ‘‘यहां दीदी के ससुराल वालों का बहुत बड़ा पुश्तैनी घर है. मैं ने भी इसी में एक हिस्से को किराए पर ले लिया है. अब हम दोनों बहनें मिल कर उन की देखभाल कर लेती हैं अपनीअपनी सुविधानुसार.’’

‘‘और तुमहारे पति का मिजाज कैसा है?’’

‘‘उन की तो एक ही समस्या रहती थी हमारी प्राइवेसी की, वह यहां आ कर सुलझ गई. मैं भी अपने पति और बच्चों को पूरा समय दे पाती हूं.’’ उस की आवाज की खनक मैं महसूस कर रही थी.

‘‘और आंटी खुश हैं कि नहीं? या हमेशा की तरह खीझती रहती हैं?’’

‘‘मां को तो अल्जाइमर रोग लग गया है. वे सबकुछ भूल जाती हैं. कभीकभी कुछ बातें याद भी आ जाती हैं तो थोड़ाबहुत बड़बड़ाने लगती हैं. वैसे, शांत ही रहती हैं. अब वे ज्यादा बातें नहीं करतीं. बस, उन का ध्यान रखना पड़ता है कि वे अकेले न निकलें घर से. यहां दीदी के ससुराल वालों का पूरा सहयोग मिलता है.’’

‘‘तुम्हारी मां धन्य हैं जो इतनी समझदार बेटियां मिली हैं उन को.’’

‘‘मैं तो हमेशा मां की जगह पर खुद को रख कर देखती थी और इसीलिए शांत मन से उन के सारे काम करती थी. मेरी भी 2 बेटियां हैं. मां पहले ऐसी नहीं थीं. पापा का अचानक जीवन के बीच भंवर में छोड़ जाना वे बरदाश्त न कर सकीं और मानसिक रूप से निर्बल होती चली गईं. शायद वे अपने भविष्य को ले कर भयभीत हो उठी थीं. चलो, अब सब ठीक है, जैसी भी हैं आखिर वे हमारी मां हैं और मां सिर्फ मां होती है.’’

और मैं उस की बात से पूरी तरह सहमत हूं.

घटक रिश्ते की डोर

28लेखक- सुरेशचंद्र मिश्र 

कानपुर जनपद के टिक्कन-पुरवा के रहने वाले पुत्तीलाल मौर्या की बेटी कोमल शाम को नित्य क्रिया जाने की बात कह कर घर से निकली थी, लेकिन जब वह रात 8 बजे तक घर लौट कर नहीं आई तो घर वालों को चिंता  हुई. उस का फोन भी बंद था. इसलिए यह भी पता नहीं चल पा रहा था कि वह कहां है.

पुत्तीलाल की पत्नी शिवदेवी ने बेटी को इधरउधर ढूंढा लेकन वह नहीं मिली. इस के बाद पुत्तीलाल भी उसे तलाशने के लिए निकल गया. पर उस को पता नहीं लगा. पुत्तीलाल का घबराना लाजिमी था. अचानक आई इस आफत से उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. बेचैनी से शिवदेवी का हलक सूखने लगा तो वह पति से बोली, ‘‘कोमल हमारी इज्जत पर दाग लगा कर कहीं प्रमोद के साथ तो नहीं भाग गई?’’

‘‘कैसी बातें करती हो, शुभशुभ बोलो. फिर भी तुम्हें शंका है तो चल कर देख लेते हैं.’’

इस के बाद पुत्तीलाल अपनी पत्नी के साथ प्रमोद के पिता रामसिंह मौर्या के घर जा पहुंचे. जो पास में ही रहता था. वैसे रामसिंह रिश्ते में पुत्तीलाल का साढ़ू था. उस समय रात के 10 बज रहे थे. रामसिंह पड़ोस के लोगों के साथ अपने चबूतरे पर बैठा था. पुत्तीलाल को देखा तो उस ने पूछा, ‘‘पुत्तीलाल, इतनी रात गए पत्नी के साथ. सब कुशलमंगल तो है.’’

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‘‘कुछ भी ठीक नहीं है भैया. कोमल शाम से गायब है. उस का कुछ पता नहीं चल रहा. मैं आप से यह जानकारी करने आया हूं कि प्रमोद घर पर है या नहीं?’’ पुत्तीलाल बोला.

‘‘प्रमोद भी घर पर नहीं है. उस का फोन भी बंद है. शाम 7 बजे वह पान मसाला लेने जाने की बात कह कर घर से निकला था. तब से वह घर वापस नहीं आया. इस का मतलब प्रमोद और कोमल साथ हैं.’’ रामसिंह ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘हां, भैया मुझे भी ऐसा ही लगता है. उन्हें अब ढूंढो. कहीं ऐसा न हो कि दोनों कोई ऊंचनीच कदम उठा लें, जिस से हम दोनों की बदनामी हो.’’ इस के बाद दोनों मिल कर प्रमोद और कोमल को खोजने लगे. उन्होंने बस अड्डा, रेलवे स्टेशन के अलावा हर संभावित जगह पर दोनों को ढूंढा. लेकिन उन का कुछ भी पता नहीं चला. यह बात 27 मार्च, 2019 की है.

28 मार्च, 2019 की सुबह गांव की कुछ महिलाएं जंगल की तरफ गईं तो उन्होंने गांव के बाहर शीशम के पेड़ से फंदा से लटके 2 शव देखे. यह देख कर महिलाएं भाग कर घर आईं और यह बात लोगों को बता दी. इस के बाद तो टिक्कनपुरवा गांव में कोहराम मच गया. जिस ने सुना, वही शीशम के पेड़ की ओर दौड़ पड़ा. सूरज की पौ फटतेफटते वहां सैकड़ों की भीड़ जुट गई. पेड़ से लटकी लाशें कोमल और प्रमोद की थीं.

चूंकि कोमल और प्रमोद बीतीरात से घर से गायब थे. अत: दोनों के परिजन भी घटनास्थल पर पहुंच गए. पेड़ से लटके अपने बच्चों के शवों को देखते ही वे दहाड़ें मार कर रो पड़े. कोमल की मां शिवदेवी तथा प्रमोद की मां मंजू रोतेबिलखते अर्धमूर्छित हो गईं.

घटनास्थल पर प्रमोद का भाई पंकज भी मौजूद था. वह सुबक तो रहा था, लेकिन यह भी देख रहा था कि दोनों मृतकों के पैर जमीन छू रहे हैं. वह हैरान था कि जब पैर जमीन छू रहे हैं तो उन की मौत भला कैसे हो गई.

उसे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रमोद को कोमल के घर वालों ने मार कर पेड़ से लटका दिया है. पंकज ने यह बात अपने घर वालों को बताई तो उन्हें पंकज की बात सच लगी. इस से घर वालों में उत्तेजना फैल गई. गांव के लोग भी खुसरफुसर करने लगे.

इसी बीच किसी ने बिठूर थाने में फोन कर के पेड़ से 2 शव लटके होने की जानकारी दे दी. सूचना पाते ही बिठूर थानाप्रभारी सुधीर कुमार पवार कुछ पुलिसकर्मियों के साथ घटनास्थल की तरफ रवाना हो गए. पवार ने घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया.

उन्होंने देखा कि प्लास्टिक के मजबूत फीते को पेड़ की डाल में लपेटा गया था फिर उस फीते के एकएक सिरे को गले में बांध कर दोनों फांसी पर झूल गए थे.

लेकिन उन के पैर जमीन को छू रहे थे. उन के होंठ भी काले पड़ गए थे. कोमल के पैरों में चप्पलें थीं, जबकि प्रमोद के पैर की एक चप्पल जमीन पर पड़ी थी. घटनास्थल पर बालों में लगाने वाली डाई का पैकेट, एक ब्लेड तथा मोबाइल पड़ा था. इन सभी चीजों को पुलिस ने जाब्ते की काररवाई में शामिल कर लिया.

सुधीर कुमार ने फोरैंसिक टीम को मौके पर बुलाए बिना दोनों शवों को चादर में लपेट कर मंधनाबिठूर मार्ग पर रखवा दिया और शवों को पोस्टमार्टम के लिए भेजने हेतु लोडर मंगवा लिया.

मृतक प्रमोद के भाई पंकज व अन्य लोगों ने आरोप लगाया कि यह आत्महत्या का नहीं बल्कि हत्या का मामला है. इसलिए मृतक के भाई पंकज ने हत्या का आरोप लगा कर थानाप्रभारी सुधीर कुमार पवार से कहा कि वे मौके पर फोरैंसिक व डौग स्क्वायड टीम को बुलाएं. लेकिन पंकज की बात सुन कर थानाप्रभारी सुधीर कुमार की त्योरी चढ़ गईं. उन्होंने पंकज और उस के घर वालों को डांट दिया.

थानाप्रभारी की इस बदसलूकी से मृतक के परिजन व ग्रामीण भड़क उठे और पुलिस से उलझ गए. उन्होंने पुलिस से दोनों शव छीन लिए और पथराव कर लोडर को भी क्षतिग्रस्त कर दिया.

इतना ही नहीं, ग्रामीणों ने मंधनाबिठूर मार्ग पर जाम लगा दिया और हंगामा करने लगे. उन्होंने मांग रखी कि जब तक क्षेत्रीय विधायक व पुलिस अधिकारी घटनास्थल पर नहीं आ जाते तब तक शवों को नहीं उठने नहीं देंगे.

आक्रोशित ग्रामीणों को देख कर थानाप्रभारी पवार ने पुलिस अधिकारियों तथा क्षेत्रीय विधायक को सूचना दे दी. सूचना पाते ही एडिशनल एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन तथा सीओ (कल्याणपुर) अजय कुमार घटनास्थल पर आ गए. तनाव को देखते हुए उन्होंने आधा दरजन थानों की फोर्स बुला ली.

सीओ अजय कुमार ने मृतक प्रमोद के भाई पंकज से बात की. पंकज ने हाथ जोड़ कर फोरैंसिक टीम व डौग स्क्वायड टीम को घटनास्थल पर बुलाने की विनती की ताकि वहां से कुछ सबूत बरामद हो सकें. इस के अलावा उस ने थानाप्रभारी द्वारा की गई बदसलूकी की भी शिकायत की.

इसी बीच क्षेत्रीय विधायक अभिजीत सिंह सांगा भी वहां आ गए. उन के आते ही ग्रामीणों में जोश भर गया और वह पुलिस विरोधी नारे लगाने लगे. विधायक के समक्ष उन्होंने मांग रखी कि बदसलूकी करने वाले थानाप्रभारी पवार को तत्काल थाने से हटाया जाए तथा मौके पर फोरैंसिक टीम को बुला कर जांच कराई जाए.

अभिजीत सिंह सांगा बिठूर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के चर्चित विधायक हैं. उन्होंने ग्रामीणों को समझाया और उन की मांगें पूरी करवाने का आश्वासन दिया तो लोग शांत हुए.

इस के बाद उन्होंने धरनाप्रदर्शन बंद कर जाम खोलवा दिया. तभी सीओ अजय कुमार ने फोरैंसिक टीम तथा डौग स्क्वायड टीम को बुलवा लिया. यही नहीं उन्होंने आननफानन में जरूरी काररवाई करा कर दोनों शवों को पोस्टमार्टम के लिए हैलट अस्पताल भिजवा दिया.

फोरैंसिक टीम ने एक घंटे तक घटनास्थल पर जांच कर के साक्ष्य जुटाए. वहीं डौग स्क्वायड ने भी खानापूर्ति की. खोजी कुत्ता कुछ देर तक घटनास्थल के आसपास घूमता रहा फिर पास ही बह रहे नाले तक गया. वहां टीम को एक चप्पल मिली. यह चप्पल मृतक प्रमोद की थी. उस की एक चप्पल पुलिस घटनास्थल से पहले ही बरामद कर चुकी थी.

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एडिशनल एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन ने बवाल की आशंका को देखते हुए टिक्कनपुरवा  गांव में भारी मात्रा में पुलिस फोर्स तैनात कर दी थी. इतना ही नहीं पोस्टमार्टम हाउस पर भी पुलिस तैनात कर दी. प्रमोद व कोमल के शव का पोस्टमार्टम डाक्टरों के एक पैनल ने किया.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बताया गया कि उन की मौत हैंगिंग से हुई थी. रिपोर्ट में डाई पीने की पुष्टि नहीं हुई. पोस्टमार्टम के बाद कोमल व प्रमोद के शव उन के परिजनों को सौंप दिए गए. परिजनों ने अलगअलग स्थान पर उन का अंतिम संस्कार कर दिया.

प्रमोद और कोमल कौन थे और उन्होंने एक साथ आत्महत्या क्यों की, यह जानने के लिए हमें उन के अतीत में जाना होगा.

उत्तर प्रदेश के कानपुर महानगर से 25 किलोमीटर दूर एक धार्मिक कस्बा है बिठूर. टिक्कनपुरवा इसी कस्बे से सटा हुआ गांव है. यह बिठूर मंधना मार्ग पर स्थित है. इसी गांव में पुत्तीलाल मौर्या अपने परिवार के साथ रहता था. उस के परिवार में पत्नी शिवदेवी के अलावा 4 बेटियां थीं. इन में कोमल सब से बड़ी थी. पुत्तीलाल खेतीबाड़ी कर के अपने परिवार का भरण पोषण करता था.

टिक्कनपुरवा गांव में ही शिवदेवी की चचेरी बहन मंजू ब्याही थी. मंजू का पति रामसिंह मौर्या दबंग किसान था. उस के पास खेती की काफी जमीन थी. रामसिंह के 2 बेटे प्रमोद व पंकज के अलावा एक बेटी थी. प्रमोद पढ़ालिखा था. वह कल्याणपुर स्थित एक बिल्डर्स के यहां बतौर सुपरवाइजर नौकरी करता था. जबकि पंकज कास्मेटिक सामान की फेरी लगाता था.

चूंकि रामसिंह व पुत्तीलाल के बीच नजदीकी रिश्ता था. अत: दोनों परिवारों में खूब पटती थी. उनके बच्चों का भी एक दूसरे के घर बेरोकटोक आना जाना था. जरूरत पड़ने पर दोनों परिवार एक दूसरे के सुखदुख में भी भागीदार बनते थे. पुत्तीलाल को जब भी आर्थिक संकट आता था, रामसिंह उस की मदद कर देता था.

कोमल ने आठवीं पास करने के बाद सिलाई सीख ली थी. वह घर में ही सिलाई का काम करने लगी थी. 18 साल की कोमल अब समझदार हो चुकी थी. वह घर के कामों में मां का हाथ भी बंटाती थी. प्रमोद अकसर अपनी मौसी शिवदेवी के घर आता रहता था. कोमल से उस की खूब पटती थी, क्योंकि दोनों हमउम्र थे. बचपन से दोनों साथ खेले थे, इसलिए एकदूसरे से खूब घुलेमिले हुए थे.

दोनों भाईबहन जरूर थे लेकिन वह जिस उम्र से गुजर रहे थे, उस उम्र में यदि संयम और समझदारी से काम न लिया जाए तो रिश्तों को कलंकित होने में देर नहीं लगती. कह सकते हैं कि अब प्रमोद का कोमल को देखने का नजरिया बदल गया था. वह उसे चाहने लगा था.

लेकिन जब उसे अपने रिश्ते का ध्यान आता तो वह मन को निंयत्रित करने की कोशिश करता. प्रमोद ने बहुत कोशिश की कि वह रिश्ते की मर्यादा बनाए रखे लेकिन दिल के मामले में उस का वश नहीं चला. वह कोशिश कर के हार गया, क्योंकि वह कोमल को चाहने लगा था.

दरअसल, कोमल के दीदार से उस के दिल को सुकून मिलता था और आंखों को ठंडक. दिन में जब तक वह 1-2 बार कोमल से मिल नहीं लेता, बेचैन सा रहता था. वह चाहता था कि कोमल हर वक्त उस के साथ रहे. लेकिन कोमल का साथ पाने की उस की इच्छा पूरी नहीं हो सकती थी.

काफी सोचविचार के बाद प्रमोद ने फैसला किया कि वह कोमल से अपने दिल की बात जरूर कहेगा. कोमल की वजह से प्रमोद अकसर मौसी के घर पड़ा रहता था. बराबर उस के संपर्क में रहने के कारण कोमल भी उस के आकर्षणपाश में बंध गई थी.

एक दिन कोमल अपने कमरे मे बैठी सिलाई कर रही थी कि तभी प्रमोद आ गया. वह मन में ठान कर आया था कि कोमल से अपने दिल की बात जरूर कहेगा. वह उस के पास बैठते हुए बोला, ‘‘कोमल, आज मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कहना चाहते हो बताओ?’’ कोमल ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘मुझे डर है कि तुम मेरी बात सुन कर नाराज न हो जाओ.’’ प्रमोद बोला.

‘‘पता तो चले, ऐसी क्या बात है, जिसे कहने से तुम इतना डर रहे हो.’’

‘‘कोमल, बात दरअसल यह है कि मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. क्या तुम मेरे प्यार को स्वीकार करोगी?’’ प्रमोद ने कोमल का हाथ अपने हाथ में लेकर एक ही झटके में बोल दिया.

‘‘क्या…?’’ सुन कर कोमल चौंक पड़ी, उसे एकाएक अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ.

‘‘हां कोमल, मैं सही कह रहा हूं. मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘प्रमोद तुम ये कैसी बातें कर रहे हो? तुम अच्छी तरह जानते हो कि हमारे बीच भाईबहन का रिश्ता है.’’

‘‘कोमल, मैं ने कभी भी तुम्हें बहन की नजर से नहीं देखा. मुझे अपने प्यार की भीख दे दो. मैं तुम्हारे लिए पूरी दुनिया से लड़ जाऊंगा.’’ उस ने मिन्नत की.

‘‘हम घर परिवार व समाज की नजर में भाईबहन हैं. जब लोगों को पता चलेगा तो जानते हो क्या होगा? तुम किसकिस से लड़ोगे?’’

‘‘मुझे किसी की फिक्र नहीं है.  बस, तुम मेरा साथ दो. तुम इस बारे में ठंडे दिमाग से सोच लो. कल सुबह मुझे कंपनी के काम से लखनऊ जाना है. शाम तक लौट आऊंगा. तब तक तुम सोच लेना और मुझे जवाब दे देना.’’ कह कर प्रमोद कमरे से बाहर चला गया.

रात को खाना खाने के बाद कोमल जब बिस्तर पर लेटी तो नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. उस के कानों में प्रमोद के शब्द गूंज रहे थे. उसने अपने दिल में झांकने की कोशिश की तो उसे लगा कि वह भी जाने अनजाने में प्रमोद से प्यार करती है. लेकिन भाईबहन के रिश्ते के डर से प्यार का इजहार नहीं कर पा रही है.

उस ने सोचा कि जब प्रमोद प्यार की बात कर रहा है तो उसे भी पीछे नहीं हटना चाहिए. जिंदगी में सच्चा प्यार हर किसी को नहीं मिलता. ऐसे में वह प्रमोद के प्यार को क्यों ठुकराए? काफी सोचविचार कर उस ने आखिर फैसला ले ही लिया.

अगले दिन सुबह कोमल के लिए कुछ अलग ही थी. वह प्रमोद के प्यार में डूबी हुई, खोईखोई सी थी. लेकिन घर में किसी को भनक तक नहीं लगी कि उस के दिमाग में क्या चल रहा है. अब वह प्रमोद के लौटने का बेसब्री से इंतजार करने लगी. प्रमोद रात को लगभग 8 बजे घर लौटा और घर के लोगों से मिल कर सीधा कोमल के कमरे में पहुंच गया. उस ने आते ही कोमल से पूछा, ‘‘कोमल, जल्दी बताओ तुम ने क्या फैसला लिया?’’

‘‘प्रमोद, मैं ने रात भर काफी सोचा और फैसला लिया कि…’’ कोमल ने अपनी बात बीच में ही रोक दी.

यह देख प्रमोद के दिल की धड़कनें तेज हो गईं. वह उत्सुकतावश कोमल का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘बोलो कोमल, मेरी जिंदगी तुम्हारे फैसले पर टिकी है. तुम्हारे इस तरह चुप हो जाने से मेरा दिल बैठा जा रहा है.’’

प्रमोद की हालत देख कर कोमल एकाएक खिलखिला कर हंस पड़ी. उसे इस तरह हंसते देख प्रमोद ने उस की ओर सवालिया निगाहों से देखा तो वह बोली, ‘‘मेरा फैसला तुम्हारे हक में है.’’

यह सुन कर प्रमोद खुशी से झूम उठा और उस ने कोमल को बांहों में भर लिया. कोमल खुद को उस से छुड़ाते हुए बोली, ‘‘अपने ऊपर काबू रखो, अगर किसी ने हमें इस तरह देख लिया तो कयामत आ जाएगी. हमारा प्यार शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘ठीक है, लेकिन लोगों की नजर में हम भाईबहन हैं, इसलिए वे हमारी शादी नहीं होने देंगे.’’

‘‘हमारी शादी जरूर होगी और कोई भी हमें नहीं रोक पाएगा. लेकिन यह तो बाद की बात है. वैसे एक बात बताऊं कि हमारे बीच जो भाईबहन का रिश्ता है, यह एक तरह से अच्छा ही है. इस से हम पर कोई जल्दी शक नहीं करेगा.’’ प्रमोद मुसकराते हुए बोला.

कोमल भी प्रमोद की बात से सहमत हो गई ओैर फिर उस दिन से दोनों का प्यार परवान  चढ़ने लगा. समय निकाल कर दोनों धार्मिक स्थल बिठूर घूमने पहुंच जाते फिर नाव मेें बैठ कर गंगा की लहरों के बीच अठखेलियां करते. कभीकभी दोनों फिल्म देखने के लिए कानपुर चले जाते थे.

प्रमोद और कोमल मौसेरे भाईबहन थे. ऐसे में उन के बीच जो कुछ भी चल रहा था उसे प्यार नहीं कहा जा सकता था. दोनों बालिग थे, इसलिए इसे नासमझी भी नहीं समझा जा सकता था. कहा जा सकता था. बहरहाल उन के बीच पक रही खिचड़ी की खुशबू बाहर पहुंची तो लोग उन्हें शक की नजरों से देखने लगे और तरह तरह की बातें करने  लगे.

धीरेधीरे यह खबर दोनों के घर वालों तक पहुंच गई. सच्चाई का पता लगते ही दोनों घरों में कोहराम मच गया. परिवार के लोगों ने एक साथ बैठ कर दोनों को समझाया.

रिश्ते की दुहाई दी . लेकिन उन दोनों पर कोई असर नहीं हुआ. हालाकि घर वालों के सामने दोनों ने उन की हां में हां मिलाई और एकदूसरे से न मिलने का वादा किया. उस वादे को दोनों ने कुछ दिनों तक निभाया भी, लेकिन बाद में दोनों फिर मिलने लगे.

यह देख कर पुत्तीलाल व उस की पत्नी शिवदेवी ने कोमल पर सख्ती की और उस का घर से निकलना बंद कर दिया. यही नहीं उन्होंने प्रमोद के अपने घर आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. इस से प्रमोद और कोमल का मिलनाजुलना एकदम बंद हो गया. दोनों के पास मोबाइल फोन थे अत: जब भी मौका मिलता मोबाइल पर बातें कर के अपनेअपने मन की बात कह देते.

इधर रामसिंह और पुत्तीलाल व उन की पत्नियों ने इस समस्या से निजात पाने के लिए गहन विचारविमर्श किया. विचारविमर्श के बाद तय हुआ कि दोनों की शादी कर दी जाए. शादी हो जाएगी तो समस्या भी हल हो जाएगी. कोमल अपनी ससुराल चली जाएगी तो प्रमोद भी बीवी के प्यार में बंध कर कोमल को भूल जाएगा.

इस के बाद रामसिंह प्रमोद के लिए तो पुत्तीलाल कोमल के लिए रिश्ता ढूंढ़ने लगे. रामसिंह को जल्द ही सफलता मिल गई. दरअसल उस के गांव का एक परिवार गुजरात के जाम नगर में बस गया था, जो उस की जातिबिरादरी का था. होली के मौके पर वह परिवार गांव आया था. इसी परिवार की लड़की से रामसिंह ने प्रमोद का रिश्ता तय कर दिया. 7 मई को तिलक तथा 12 मई को शादी की तारीख तय हो गई.

यद्यपि प्रमोद इस रिश्ते के खिलाफ था लेकिन घर वालों के आगे उस की एक नहीं चली. प्रमोद के रिश्ते की बात कोमल को पता चली तो उसे सुनी सुनाई बातों पर विश्वास नहीं हुआ. सच्चाई जानने के लिए कोमल ने घर वालों से छिप कर प्रमोद से मुलाकात की और पूछा, ‘‘प्रमोद, तुम्हारा रिश्ता तय हो जाने के बारे में मैं ने जो कुछ सुना है, क्या वह सच है?’’

‘‘हां, कोमल, तुम ने जो सुना है वह बिलकुल सच है. घर वालों ने मेरी मरजी के बिना रिश्ता तय कर दिया है.’’  प्रमोद ने बताया.

प्रमोद की बात सुन कर कोमल ने नाराजगी जताई और याद दिलाया, ‘‘प्रमोद तुम ने तो जीवन भर साथ रहने का वादा किया था. अब क्या हुआ. तुम्हारे उस वादे का?’’

इस पर प्रमोद ने उस से कहा कि वह अपने वादे को नहीं भूला है. उस के अलावा वह किसी और को अपनी जिंदगी नहीं बना सकता.

‘‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी.’’ कह कर कोमल उसके गले लग गई. फिर वह वापस घर आ गई.

इधर पुत्तीलाल ने भी कोमल का रिश्ता उन्नाव जिले के परियर सफीपुर निवासी विनोद के साथ तय कर दिया था. गुपचुप तरीके से पुत्तीलाल ने कोमल को दिखला भी दिया था. विनोद और उस के घर वाले कोमल को पसंद कर चुके थे. गोदभराई की तारीख 28 मार्च तय हो गई थी.

एक दिन कोमल ने अपने रिश्ते के संबंध में मांबाप की खुसुरफुसुर सुनी तो उस का माथा ठनका. उस से नहीं रहा गया तो उस ने मां से पूछ लिया. ‘‘मां, तुम पिताजी से किस के रिश्ते की खुसुरफुसुर कर रही थीं?’’

‘‘तेरे रिश्ते की. मैं ने तेरा रिश्ता परियर सफीपुर गांव के विनोद के साथ कर दिया है. 28 मार्च को तेरी गोद भराई है.’’ शिवदेवी बोली.

कोमल रोआंसी हो कर बोली, ‘‘मां आप ने मुझ से पूछे बिना ही मेरा रिश्ता तय कर दिया. जबकि आप जानती हैं कि मैं प्रमोद से प्यार करती हूं और उसी से शादी करना चाहती हूं.’’

‘‘मुझे पता है कि तू रिश्ते को कलंकित करना चाहती है. पर मैं अपने जीते जी ऐसा होने नहीं दूंगी. इसलिए तेरा रिश्ता पक्का कर दिया है. वेसे भी जिस प्रमोद से तू शादी करने की बात कह रही है. उस का भी रिश्ता तय हो चुका है. इसलिए मेरी बात मान और पुरानी बातों को भूल कर इस रिश्ते को स्वीकार कर ले.’’

कोमल मन ही मन बुदबुदाई कि मां यह तो समय ही बताएगा कि तुम्हारी बेटी दुलहन बनती है या फिर उस की अर्थी उठती है. फिर वह कमरे में चली गई और इस गंभीर समस्या के निदान के लिए मंथन करने लगी. मंथन करतेकरते उस ने सारी रात बिता दी लेकिन कोई हल नहीं निकला. आखिर उसने प्रमोद से मिल कर समस्या का हल निकालने की सोची.

दूसरे रोज कोमल ने किसी तरह प्रमोद से मुलाकात की और कहा, ‘‘प्रमोद मेरे घर वालों ने भी मेरी शादी तय कर दी है और 28 मार्च को गोदभराई है. लेकिन मैं इस शादी के खिलाफ हूं. क्योंकि मैं ने जो वादा किया है, वह जरूर निभाऊंगी. प्रमोद मैं आज भी कह रही हूं कि तुम्हारे अलावा किसी अन्य की दुलहन नहीं बनूंगी.

कोमल और प्रमोद किसी भी तरह एकदूसरे से जुदा नहीं होना चाहते थे. अत: दोनों ने सिर से सिर जोड़ कर इस गंभीर समस्या का मंथन किया. हल यह निकला कि दोनों के घर वाले इस जनम में उन्हें एक नहीं होने देंगे. इसलिए दोनों मर कर दूसरे जनम में फिर मिलेंगे. यानी दोनों ने साथसाथ आत्महत्या करने का फैसला कर लिया.

उन्होंने अपने घर वालों तक को यह आभास नहीं होने दिया कि वे कौन सा भयानक कदम उठाने जा रहे हैं.

27 मार्च, 2019 की दोपहर प्रमोद कस्बा बिठूर गया. वहां एक दुकान से उस ने बालों पर कलर करने वाली डाई के 2 पैकेट तथा एक ब्लेड खरीदा और घर वापस आ गया. शाम 7 बजे उस ने घर वालों से कहा कि वह पान मसाला लेने जा रहा है. कुछ देर में आ जाएगा. गांव के बाहर निकल कर उस ने कोमल को  फोन किया कि वह नाले के पास आ जाए. वह उस का वही इंतजार कर रहा है.

कोमल की दूसरे रोज यानी 28 मार्च को गोदभराई थी. वह गोदभराई नहीं कराना चाहती थी, इसलिए वह शौच के बहाने घर से निकली और गांव के बाहर बह रहे नाले के पास जा पहुंची.

प्रमोद वहां पहले से ही उस का इंतजार कर रहा था. कोमल को साथ ले कर उस ने नाला पार किया. नाला पार करते समय उस की एक चप्पल टूट गई. इस के बाद दोनों शीशम के पेड़ के पास पहुंचे.

वहां बैठ कर दोनों ने कुछ देर बातें कीं. फिर प्रमोद ने जेब से डाई के पैकेट निकाले. उस ने एक पैकेट को ब्लेड से काट कर खोला. उन का मानना था कि डाई में भी जहरीला कैमिकल होता है. इसे पीकर दोनों अत्महत्या कर लेंगे लेकिन डाई को घोलने के लिए उन के पास न पानी था और न गिलास. अत: दोनों ने सूखी डाई फांकने का प्रयास किया. जिस से डाई उन के होंठों पर लग गई.

उसी समय प्रमोद की निगाह प्लास्टिक के फीते पर पड़ी जो सामने के खेत के चारों ओर बंधा था. प्रमोद ब्लेड से फीते को काट लाया. उस ने पेड़ पर चढ़ कर डाल में फीते को राउंड में लपेट दिया. इस के बाद उस ने फीते के दोनों सिरों पर फंदे बना दिए.

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फिर एकएक फंदे में गरदन डाल कर दोनों झूल गए. कुछ देर बाद गला कसने से दोनों की मौत हो गई. मृतकों के शरीर के भार से प्लास्टिक का फीता खिंच गया, जिस से दोनों के पैर जमीन को छूने लगे थे.

28 मार्च, 2019 की सुबह जब गांव की कुछ औरतें नाले की तरफ गईं तो उन्होंने दोनों को शीशम के पेड़ से लटके देखा. उन की सूचना पर ही गांव वाले मौके पर पहुंचे.

चूंकि मृतकों के परिजनों ने पुलिस को कोई तहरीर नहीं दी. इसलिए पुलिस ने कोई मामला दर्ज नहीं किया. इस के अलावा पोस्टमार्टम रिपोर्ट से भी स्पष्ट हो गया कि प्रमोद और कोमल ने आत्महत्या की थी. अत: पुलिस ने इस मामले की फाइल बंद कर दी. लेकिन लापरवाही बरतने के आरोप में एडिशनल एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन ने थानाप्रभारी सुधीर कुमार पवार को लाइन हाजिर कर दिया था.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

(कहानी सौजन्य- मनोहर कहानियां) 

कैसे शुरू हुआ अंधविश्वास का सिलसिला

लेखक -डा. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’

कहीं दिखावे का स्वांग, कहीं डर से श्रद्धा, तो कहीं लकीर की फकीरी, कुल मिला कर यही हैं हम, हमारा समाज. जहां धर्मांधता के कारण पंडों, पुजारियों, पुरोहितों द्वारा पर्व, उत्सवों को भी नाना प्रकार के कर्मकांडों से जोड़ कर सत्य तथ्यों को नकारते हुए उन का मूलभूत आनंदमय स्वरूप नष्ट कर दिया गया, वहीं शुभ की लालसा और अनिष्ट की आशंका से उन के पालन को विवश साधारण जनमानस का भयभीत मन अंधविश्वासों में घिरता चला गया, क्योंकि हमारे धार्मिक ग्रंथ भी इसी बात की पुरजोर वकालत करते हैं कि ईश्वर के बारे में धार्मिक कार्यों पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाना, बात नहीं मानी तो नष्ट हो जाओगे. ‘…अथचेत्त्वमहंकारात्त् नश्रोष्यसि विनंगक्ष्यसि.’ (भा. गीता श्लोक 18/58), बस चुपचाप पालन करते जाना है. किसी अधर्मी के आगे बोलना नहीं. ‘…न च मां यो अभ्यसूयति.’ (भा. गीता श्लोक 18/67) सब धर्मों को छोड़ कर हमारी शरण आ जाओ. अपने धर्म की ओर खींचने की रट कि मैं सब पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा.

सर्वधर्मान् परित्यज्य, माम एकं शरणं व्रज:।अहं त्वां सर्वपापेभ्योमोक्षयिष्यामि मा शुच:॥ (भा. गीताश्लोक 18/66).

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ये सब क्या है? भगवान है तो सर्वशक्तिमान होगा न? उसे सब से बताने की क्या आवश्यकता थी. फिर उन्होंने अपना वचन सारी भाषाओं में क्यों नहीं लिखवा दिया? कंप्यूटर सौफ्टवेयर के जैसे उन के पास तो सारा ज्ञानविज्ञान तो हमेशा से ही है, पत्रों, पत्थरों पर क्यों लिखवाया? जो उन्हें नहीं मानते उन के आगे ये गीता के भगवान वचन कहनेपढ़ने को क्यों मना किया, उन के वचन तो कानों में पड़ते ही उन्हें पवित्र बन जाना था. फिर मना क्यों किया गया? सीधी सी बात है, वे तर्क मांगते और इन के पास कोई जवाब न होता और ढोल की पोल खुल जाती, सत्य सामने आ जाता. सत्य तथ्यों को नकारना, बिना कारण जाने कुछ भी मान लेना, मनवाना यहीं से शुरू हो गया.

इस डर में नएनए अंधविश्वास जन्म लेते गए और अंधविश्वासी बढ़ते गए. एक ही बात मन की गहराई में बैठ गई कि यदि अकारण, बिना तर्क ऐसा करने से अच्छा और न करने से बुरा हो सकता है, तो हमारे व दूसरों के और क्रियाकलापों से भी बिना कारण अच्छाबुरा घट सकता है. बस शुरू हो गया अंधविश्वासों का सिलसिला. कभी क्रिकेट टीम की जीत के लिए, तो कभी ओलिंपिक मैडल के लिए अथवा नेताओं की चुनाव में जीत के लिए हवन कराए जाने लगते हैं. यदि इस सब से कुछ हो सकता तो बलात्कार, हत्याएं, दुर्घटनाएं रोकने के लिए धार्मिक भारत महान में कोई हवन क्यों नहीं होते? यह सोचने की बात है.

दिखाने का स्वांग

बिल्ली ने एक बार रास्ता काटा जैसी छोटी बात को अंधविश्वास बना डाला गया. डर इतना मन में बैठाया गया कि रास्ता ही बदल लिया या किसी और के गुजरने का इंतजार कर लेने में ही भलाई समझी. आगे आजमाने की हिम्मत ही नहीं दिखाई गई. डर इतना घर कर गया कि कभी ध्यान भी न गया कि अच्छा भी हुआ था कभी. अपना डर दूसरों में भी डालते चले गए. एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे, माउथ टु माउथ सब जगह बात फैला दी गई.

जितनी धर्मभीरुओं की संख्या बढ़ती है अंधविश्वास और अंधविश्वासियों की संख्या में उस से कहीं ज्यादा वृद्धि होती है. इसलिए सर्वप्रथम धर्म, दूसरे व्यक्ति का भीरु मन और दुर्बल हृदय मुख्य कारण हैं, जिस के फलस्वरूप अंधविश्वासी इस बहाने सत्य तथ्यों को सरलता से नकारने लगे.

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एक और कारण है दिखावे का स्वांग जैसे कुछ जनधार्मिक कर्मकांडों में लिप्त रह कर जताते हैं कि वे बहुत ही धार्मिक हैं, इसलिए अधिक अच्छे, सच्चे और विश्वास के योग्य एक पवित्र आत्मा हैं. फिर भले ही वे लंगर, दान, पुण्य की आड़ में गोरखधंधा या काला धंधा खूब चलाते हों. दुनिया व कानून की आंख में धूल झोंकते हुए बेशुमार धनदौलत, नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेते हैं.

भ्रष्ट बड़ेबड़े नेता, टैक्स की चोरी करने वाली बड़ीबड़ी फिल्मी हस्तियां, बड़ी शान से अपने लावलश्कर और मीडिया की चकाचौंध के साथ मंदिरों में वीवीवीआईपी ट्रीटमैंट के मध्य, देवीदेवताओं का दर्शन, भारी दान, चैरिटी कर अपने को धार्मिक, पवित्र और नेक दिखाने का ढोंग करते हैं. क्या यह आंखें खोलने के लिए पर्याप्त नहीं? सच तो यह है कि हम सो नहीं रहे, सब जानतेबूझते आंखें बंद कर के पड़े हैं. सही तो है कि सोए हुए को जगाया जा सकता है जागे हुए को नहीं.

खुल चुकी है बाबाओं की असलियत

लकीर की फकीरी व परंपरा की दुहाई भी इस झूठ को अपनाने की वजह है. हमारे पूर्वज, बड़ेबूढ़े जो करते चले आ रहे हैं, आंख मूंद कर लकीर के फकीर बने हम भी उन का अनुसरण करते जा रहे हैं. ऐसा करना हम अपना कर्तव्य मानते हैं. उन के प्रति प्यारआदर दिखाने का एक तरीका समझते हैं. उन से कोई तर्क नहीं करते. बस मानते चले जाते हैं. कुछ संतुष्टि मिली, कुछ अच्छा लगने लगा, करतेकरते फिर विश्वास भी होने लगा, वैसे ही जैसे ताला बंद कर घूमने आराम से निकल जाते हैं कि अब घर सुरक्षित है. उन कर्मकांडों, अंधविश्वासों को मान कर, पालन कर हम अपनेआप को भविष्य के प्रति सुरक्षित सा अनुभव करने लगे. बस जैसा अपने बड़ों को देखा है वैसा बिना सोचेसमझे करते चले जा रहे हैं.

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अशिक्षा, अज्ञानता और तर्क को नकारना भी एक बहुत बड़ा कारण है. ठीक है आज शिक्षा का बहुत तेजी से प्रसार हो रहा है. कुछ मस्तिष्क में क्यों, कैसे प्रश्न अंकुरित भी होने लगे हैं. व्यक्ति हर बात का पहले कारण जानना फिर मानना चाहता है. परंतु अभी भी हमारे देश की जनसंख्या 100% शिक्षित नहीं हो पाई है. मोबाइल, गाड़ी का प्रयोग तो करते हैं पर बाबाओं से चमत्कार की आशा में उन के पास जाना नहीं छोड़ते, उन के चंगुल में फंसते जाते हैं, सत्य साईं बाबा, आसाराम बाबू जैसे लोग कहां गए? उन की असलियत आज किसी से छिपी नहीं.

अशिक्षा है बड़ी वजह

दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिस का कारण न हो, तर्क न हो. नहीं जानते तो हमारी अशिक्षा, अज्ञानता ही है. दो और दो चार ही होंगे या तीन व एक चार ही होंगे यदि हम नहीं जानते तो हमारी अज्ञानता ही कही जाएगी. रातदिन कैसे होते हैं? नहीं मालूम तो कुछ भी मनगढं़त अटकलें लगा लें, जैसे कोई राक्षस रोज सूर्य को निगल जाता है या कुछ भी बेसिरपैर की कोई और कल्पना परंतु उन के पीछे का कारण.

एक सच तो हमेशा से रहा है. हम ने ही देर से जाना. मोबाइल, टीवी डिश, गाड़ी का हो चाहे जहाज उड़ने का विज्ञान पहले भी था, हम ने ही देर से जाना. आज भी जाने कितनी कला, कितना विज्ञान दुनियाजहान में छिपा पड़ा है. हमें उस ओर अपना मस्तिष्क दौड़ाना है. मनगढ़ंत बातों से बचना है, जिस के लिए शिक्षा के साथसाथ ज्ञान का होना नितांत आवश्यक है.

अनपढ़ों की तो बात ही छोडि़ए पढ़ेलिखे भी अपनी बुद्धि तर्कविहीन बनाए बैठे हैं. बुद्धि लगा कर कुछ सोचनासमझना ही नहीं चाहते. पढ़ाई ढंग से की नहीं, घर से दही खा कर मंदिर में भगवान के दर्शन कर परीक्षा दे आए. परिणाम स्वयं ही बता देता है कि उन्हें यही मिलना चाहिए था.

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अंधविश्वासों से घिरे वे पूर्णतया प्रसन्न भी नहीं रह पाते हैं. अतएव शिक्षा के साथसाथ जनजन को ज्ञान का प्रकाश सब से पहले अपने भीतर फैलाना होगा. सत्य जाने बिना कुछ नहीं मानना. कुछ है तो वास्तविकता क्या है? कैसे है? क्यों है? प्रयास करना है, इन के उत्तर जानने हैं, फिर कुछ मानना है. हमारा वास्तविक विकास और उत्थान वहीं से शुरू होगा.

सोशल मीडिया की दोस्ती

लेखक- प्रफुल्लचंद्र सिंह 

मीनू जैन अपने पति रिटायर्ड विंग कमांडर वी.के. जैन के साथ दिल्ली में द्वारका के सेक्टर-7 स्थित एयरफोर्स ऐंड नेवल औफिसर्स अपार्टमेंट में रहती

थीं. उन के परिवार में पति के अलावा एक बेटा आलोक और बेटी नेहा है. आलोक नोएडा स्थित एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करता है, जबकि शादीशुदा नेहा गोवा में डाक्टर है. विंग कमांडर वी.के. जैन एयरफोर्स से रिटायर होने के बाद इन दिनों इंडिगो एयरलाइंस में कमर्शियल पायलट हैं.

25 अप्रैल, 2019 को वी.के. जैन अपनी ड्यूटी पर थे. फ्लैट में मीनू जैन अकेली थीं. शाम को मीनू जैन को उन के पिता एच.पी. गर्ग ने फोन किया तो बातचीत के दौरान मीनू ने उन्हें बताया कि आज उस की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, इसलिए वह आराम कर रही है. दरअसल उन के पिता उन से मिलने आना चाहते थे. लेकिन जब मीनू ने उन से आराम करने की बात कही तो उन्होंने वहां से जाने का इरादा स्थगित कर दिया.

अब और मजबूत होंगी जाति की बेड़ियां

अगले दिन सुबह एच.पी. गर्ग ने बेटी की खैरियत जानने के लिए उस के मोबाइल पर फोन किया. काफी देर तक घंटी बजने के बाद भी जब मीनू ने उन का फोन रिसीव नहीं किया तो वे परेशान हो गए. कुछ देर बाद वह अपने बेटे अजीत के साथ बेटी के फ्लैट की ओर रवाना हो गए.

मीनू का फ्लैट तीसरे फ्लोर पर था. उन्होंने वहां पहुंच कर देखा तो दरवाजा अंदर से बंद था. कई बार डोरबेल बजाने के बाद भी जब फ्लैट के अंदर से मीनू ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह परेशान हो गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि मीनू को ऐसा क्या हो गया,जो दरवाजा नहीं खोल रही.

इस के बाद एच.पी. गर्ग ने पड़ोसी योगेश के फ्लैट की घंटी बजाई. योगेश ने दरवाजा खोला तो एच.पी. गर्ग ने उन्हें पूरी बात बताई. स्थिति गंभीर थी, इसलिए उन्होंने अजीत और उस के पिता को अपने फ्लैट में बुला लिया. इस के बाद योगेश की बालकनी में पहुंच कर अजीत अपनी बहन मीनू के फ्लैट की खिड़की के रास्ते अंदर पहुंच गया.

जब वह बैडरूम में पहुंचा तो वहां बैड के नीचे मीनू अचेतावस्था में पड़ी थी. पास में एक तकिया पड़ा था, जिस पर खून लगा हुआ था. यह मंजर देख कर वह घबरा गया. उस ने अंदर से फ्लैट का दरवाजा खोल कर यह जानकारी अपने पिता को दी.

एच.पी. गर्ग और योगेश ने फ्लैट में जा कर मीनू को देखा तो वह भी चौंक गए कि मीनू को यह क्या हो गया. चूंकि वह क्षेत्र थाना द्वारका (दक्षिण) के अंतर्गत आता है, इसलिए पीसीआर की सूचना पर थानाप्रभारी रामनिवास इंसपेक्टर सी.एल. मीणा के साथ मौके पर पहुंच गए.

मौके पर उन्होंने क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम को बुलाने के बाद उच्चाधिकारियों को भी सूचना दे दी. डीसीपी एंटो अलफोंस भी घटनास्थल पर पहुंच गए. चूंकि मामला एयरफोर्स के रिटायर्ड अधिकारी के परिवार का था, इसलिए उन्होंने स्पैशल स्टाफ की टीम को भी बुला लिया.

क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम का काम निपट जाने के बाद थानाप्रभारी रामनिवास और स्पैशल स्टाफ के इंसपेक्टर नवीन कुमार की टीम ने घटनास्थल का बारीकी से मुआयना किया. मीनू की हालत और तकिए पर लगे खून को देख कर लग रहा था कि मीनू की हत्या तकिए से सांस रोक कर की गई है.

मीनू का मोबाइल फोन और उस की कीमती अंगूठी गायब थी. इस के बाद जब फ्लैट की तलाशी ली गई तो रोशनदान का शीशा टूटा हुआ मिला. फ्लैट के बाकी कमरों का सारा सामान अस्तव्यस्त था. कुछ अलमारियां खुली हुई थीं और उन में रखे सामान बिखरे हुए थे. किचन के वाश बेसिन में चाय के कुछ कप रखे थे. एक कप में थोड़ी चाय बची हुई थी.

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यह सब देख कर पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि हत्यारे जो कोई भी हैं, मीनू जैन उन से न केवल अच्छी तरह परिचित थीं, बल्कि हत्यारों के साथ उन के आत्मीय संबंध भी रहे होंगे. क्योंकि किचन में रखे चाय के कप इस ओर इशारा कर रहे थे. थाना पुलिस ने मौके की जरूरी काररवाई करने के बाद लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी. फिर एच.पी. गर्ग की शिकायत पर हत्या तथा लूटपाट का मामला दर्ज कर लिया गया.

द्वारका जिले के डीसीपी एंटो अलफोंस ने इस सनसनीखेज हाईप्रोफाइल मामले की तफ्तीश के लिए एसीपी राजेंद्र सिंह के नेतृत्व में एक पुलिस टीम गठित की. इस टीम में इंसपेक्टर नवीन कुमार, इंसपेक्टर रामनिवास तथा इंसपेक्टर सी.एल. मीणा, एसआई अरविंद कुमार आदि को शामिल किया गया.

अगले दिन मृतका मीनू के पति वी.के. जैन ड्यूटी से वापस लौटे तो पत्नी की हत्या की बात सुन कर आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने फ्लैट में रखी सेफ आदि का मुआयना किया तो उस में रखी ज्वैलरी और कैश गायब था. उन्होंने पुलिस को बताया कि उन के फ्लैट से करीब 35 लाख रुपए के कीमती जेवर और कुछ कैश गायब है. इस के अलावा मीनू के दोनों मोबाइल फोन भी गायब थे.

स्पैशल स्टाफ के इंसपेक्टर नवीन कुमार ने एसीपी राजेंद्र सिंह के निर्देशन में काम करना शुरू कर दिया. उन्होंने मीनू के दोनों मोबाइल नंबरों की काल डिटेल्स निकलवाई. इस के अलावा एयरफोर्स ऐंड नेवल औफिसर्स अपार्टमेंट सोसायटी के गेट पर लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज भी खंगाली.

सीसीटीवी फुटेज में 2 कारें संदिग्ध नजर आईं, जिन में एक स्विफ्ट डिजायर थी. दोनों कारों की जांच की गई तो पता चला स्विफ्ट डिजायर कार का नंबर फरजी है. टीम को इसी कार पर शक हो गया.

जब गेट पर मौजूद गार्ड से स्विफ्ट डिजायर कार के बारे में पूछताछ की गई तो उस ने बताया कि 25 अप्रैल, 2019 की दोपहर को करीब 2 बजे एक अधेड़ आदमी मीनू जैन से मिलने आया था. जब उस से रजिस्टर में एंट्री करने के लिए कहा गया तो उस ने तुरंत मीनू जैन को फोन मिला दिया. मीनू ने बिना एंट्री किए उसे अंदर भेजने को कहा.

इस पर गार्ड ने उस व्यक्ति को मीनू के फ्लैट का पता बता कर उन के पास भेज दिया. शाम को दोनों घूमने के लिए सोसायटी से बाहर भी गए थे. यह सुन कर उन्होंने अनुमान लगाया कि मीनू जैन की हत्या में इसी आदमी का हाथ रहा होगा.

फोन की लोकेशन जयपुर की आ रही थी

मीनू जैन के दोनों मोबाइल फोन की काल डिटेल्स से पता चला कि उन का एक फोन घटना वाली रात की सुबह तक चालू था, उस के बाद उसे स्विच्ड औफ कर दिया गया था. जबकि दूसरा फोन चालू था, जिस की लोकेशन जयपुर की आ रही थी.

पुलिस के लिए यह अच्छी बात थी. पुलिस टीम गूगल मैप की मदद से 29 अप्रैल को जयपुर पहुंच गई. फिर दिल्ली पुलिस ने स्थानीय पुलिस की मदद से जयपुर के मुरलीपुरा इलाके में स्थित स्काइवे अपार्टमेंट में छापा मारा. वहां से दिनेश दीक्षित नाम के एक शख्स को हिरासत में ले लिया. उस के पास से सफेद रंग की वह स्विफ्ट डिजायर कार भी बरामद हो गई जो उस अपार्टमेंट के बाहर खड़ी थी.

जब उस से सख्ती से पूछताछ की गई तो उस ने 25 अप्रैल, 2019 की देर रात दिल्ली में मीनू जैन की हत्या और उस के फ्लैट में लूटपाट करने की बात स्वीकार कर ली.

पुलिस की तहकीकात और आरोपी दिनेश दीक्षित के बयान के अनुसार, मीनू जैन की हत्या के पीछे जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार थी—

52 वर्षीय मीनू जैन के पति वी.के. जैन एयरफोर्स में विंग कमांडर पद से रिटायर होने के बाद इंडिगो एयरलाइंस में बतौर पायलट तैनात थे. वह कामकाज के सिलसिले में ज्यादातर बाहर ही रहते थे. उन के दोनों बच्चे बड़े हो चुके थे.

बेटा नोएडा में एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करता था, जो वीकेंड में अपने मम्मीपापा से मिलने द्वारका आ जाता था. बेटी मोना (काल्पनिक नाम) डाक्टर थी, जो गोवा में रहती थी. ऐसे में मीनू जैन घर पर अकेली रहती थीं. वह अपना समय बिताने के लिए सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव रहती थीं.

सोशल मीडिया में बने प्रोफाइल पसंद आने पर बड़ी आसानी से नए दोस्त बन जाते हैं. बाद में दोस्ती बढ़ जाने के बाद आप उन से अपने विचार शेयर कर सकते हैं. अगर बात बन जाती है तो चैटिंग करने वाले आपस में अपने पर्सनल मोबाइल नंबर का आदानप्रदान भी कर लेते हैं. इस प्रकार दोस्ती का सिलसिला आगे बढ़ जाता है. मीनू जैन और दिनेश दीक्षित के मामले में भी ऐसा ही हुआ.

खिलाड़ी था दिनेश दीक्षित

जयपुर निवासी 56 वर्षीय दिनेश दीक्षित बेहद रंगीनमिजाज व्यक्ति था. उस ने 2 शादियां कर रखी थीं. उस की एक बीवी अपने 2 बेटों के साथ गांव में रहती थी, जबकि दूसरी बीवी के साथ वह जयपुर में किराए के एक फ्लैट में रहता था. बताया जाता है कि सन 2015 में ठगी के एक मामले में वह जेल भी जा चुका है. 2 साल जेल में रहने के बाद वह सन 2017 में जेल से बाहर आया था. इस के बाद वह अच्छी नस्ल के कुत्ते बेचने का बिजनैस करने लगा था.

इसी दौरान उस की मुलाकात दिल्ली के एक सट्टेबाज से हुई, जिस की बातों से प्रभावित हो कर वह क्रिकेट के आईपीएल मैचों में सट्टा लगाने लगा. इस धंधे की शुरुआत में उसे कुछ फायदा तो हुआ लेकिन बाद में उसे काफी नुकसान हुआ. वह कई लोगों का कर्जदार हो गया. इस कर्ज से उबरने के लिए उस ने अमीर औरतों को अपने जाल में फंसा कर उन से रुपए ऐंठने की योजना बनाई.

इस के बाद उस ने एक सोशल साइट के माध्यम से खूबसूरत और मालदार शादीशुदा औरतों से दोस्ती करनी शुरू कर दी. जल्द ही उस की दोस्ती कई ऐसी औरतों से हो गई, जो खाली समय में सोशल साइट पर दोस्तों के साथ अपना टाइमपास किया करती थीं.

करीब 5 महीने पहले सोशल साइट पर दिनेश दीक्षित और मीनू जैन दोस्त बन गए. अब जब भी खाली वक्त मिलता, दोनों सोशल साइट पर चैटिंग करते रहते थे. इस से उन का मन बहल जाता था और बोरियत महसूस नहीं होती थी. शीघ्र ही उन की दोस्ती गहरी हो गई.

मीनू जैन के पति चूंकि इंडिगो एयरलाइंस में पायलट थे, इसलिए वह घर से अकसर बाहर ही रहते थे. इस बात का फायदा उठा कर मीनू जैन ने पति की अनुपस्थिति में दिनेश दीक्षित को अपने फ्लैट में बुलाना शुरू कर दिया.

भोलीभाली मीनू जैन फंस गईं दिनेश दीक्षित के जाल में

दिनेश ने देखा कि मीनू जैन साफ दिल की भोलीभाली औरत हैं तो वह मन ही मन उन्हें लूटने की योजना बनाने लगा. करीब 5 महीने की दोस्ती के दौरान मीनू जैन को दिनेश दीक्षित पर इस कदर विश्वास हो गया कि जब भी उन के पति और बच्चे घर पर नहीं रहते, वह उसे मैसेज कर के अपने पास बुला लेतीं और फिर दोनों अपने दिल की तमाम हसरतें पूरी कर लिया करते थे.

25 अप्रैल, 2019 को भी वी.के. जैन अपने फ्लैट पर नहीं थे. पति की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए मीनू जैन ने दिनेश दीक्षित को फ्लैट पर आने का मैसेज भेजा तो वह अपनी सफेद रंग की स्विफ्ट डिजायर कार से दोपहर के वक्त सोसायटी के गेट पर पहुंच गया.

जब सोसायटी के गेट पर मौजूद गार्ड ने उस का पता पूछा तो उस ने मीनू जैन को फोन कर गार्ड से उन की बात करा दी. मीनू जैन के कहने पर गार्ड ने उस की कार का नंबर रजिस्टर में नोट करने के बाद उसे अंदर जाने को कह दिया.

दिनेश दीक्षित मीनू जैन के फ्लैट में पहुंचा तो उसे सामने देख कर वह बहुत खुश हुईं. चाय और नमकीन लेने के बाद दोनों ही बातों में मशगूल हो गए. लगभग पौने 9 बजे मीनू और दिनेश दोनों डिनर के लिए कार से सोसायटी के बाहर निकले.

करीब आधे घंटे के बाद लौटते समय दिनेश ने मूड बनाने के लिए वोदका की एक बोतल और कुछ स्नैक्स खरीद लिए. सोसायटी में पहुंच कर दोनों ने ड्रिंक करनी शुरू कर दी. अपनी योजना को अंजाम देने के लिए दिनेश दीक्षित ने मीनू जैन को अधिक मात्रा में वोदका पिलाई और खुद कम पी.

रात करीब 2 बजे मीनू जैन शराब के नशे में धुत हो कर शिथिल पड़ गईं तो दिनेश दीक्षित ने मौका देख कर तकिए से उन का मुंह दबा दिया. जब मीनू ने छटपटा कर दम तोड़ दिया तो उस ने बड़े इत्मीनान से उन की सेफ में रखे करीब 50 लाख रुपए के आभूषण और नकदी निकाल ली.

मीनू जैन की अंगुली में एक बेशकीमती अंगूठी थी. उस ने वह अंगूठी भी उतार कर अपने पास रख ली. इस के अलावा उन के दोनों मोबाइल फोन भी उठा लिए. रात भर वह मीनू की लाश के पास बैठ कर शराब पीता रहा और तड़के 5 बजे फ्लैट से सारा लूट का सामान ले कर रोशनदान से बाहर निकल गया. फिर अपनी स्विफ्ट कार से जयपुर के लिए रवाना हो गया.

गुड़गांव के टोल टैक्स से आगे निकलने के बाद उस ने मीनू जैन के एक मोबाइल फोन को स्विच्ड औफ कर दिया. जबकि दूसरे फोन को वह स्विच्ड औफ करना भूल गया. जयपुर पहुंचने के बाद वह पूरी तरह निश्चिंत था कि पुलिस उस तक नहीं पहुंच सकेगी. लेकिन 29 अप्रैल, 2019 को इंसपेक्टर नवीन कुमार की टीम ने उसे गिरफ्तार कर लिया. उस के पास से मीनू जैन के यहां से लूटा गया सारा सामान बरामद कर लिया गया.

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दिनेश दीक्षित से पूछताछ के बाद पुलिस ने उसे द्वारका (साउथ) थाने के थानाप्रभारी रामनिवास को सौंप दिया. थाना पुलिस ने दिनेश दीक्षित से पूछताछ के बाद उसे द्वारका कोर्ट में पेश कर 2 दिन के रिमांड पर ले लिया.

रिमांड अवधि पूरी होने के बाद उसे फिर से द्वारका कोर्ट में पेश कर 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. कथा लिखने तक दिनेश दीक्षित जेल में बंद था. केस की विवेचना थानाप्रभारी रामनिवास कर रहे थे.

—घटना में शामिल कुछ पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं.

(कहानी सौजन्य- मनोहर कहानियां) 

फिर से नहीं: भाग-6

अब तक आप ने पढ़ा:

प्लाक्षा और विवान में गहराई तक दोस्ती थी. बात शादी तक पहुंचती, इस से पहले ही दोनों का ब्रेकअप हो गया. कुछ साल बाद दोनों की फिर से मुलाकात हुई, जो बढ़ती ही गई. अपनीअपनी शादी रुकवाने के लिए दोनों ने एकदूसरे के घर वालों के सामने नाटक किया और कुछ दिनों तक के लिए शादी रुकवा ली. उधर जिस लड़की साक्षी को विवान ने अपनी मंगेतर बताया था, उसे प्लाक्षा के बचपन के एक दोस्त आदित्य ने भी अपनी मंगेतर बता कर प्लाक्षा की उलझनें बढ़ा दी थीं. उन दोनों को एकसाथ प्लाक्षा ने मौल में भी खरीदारी करते देखा था. पर जब इस बात की जानकारी उस ने विवान को दी तो विवान ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. प्लाक्षा को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है. जब वह विवान से मिली तो यह सुन कर और भी हैरान रह गई कि यह सब उस ने उसे ही पाने के लिए किया था.

विवान के बारबार झूठ बोलने की वजह से प्लाक्षा का उस से मोहभंग हो चुका था. विवान के बारबार मनाने के बावजूद भी दोबारा जुड़ने और शादी करने को ले कर प्लाक्षा ने साफसाफ मना कर दिया था. आंखों में आंसू लिए विवान वापस लौट गया और फिर कभी उसे फोन नहीं किया.

कुछ दिनों बाद अपने मम्मीपापा की बारबार विवाह करने की जिद पर वह एक लड़के वाले के घर मिलने जाने के लिए तैयार हो गई. एक दिन जब प्लाक्षा अपने मम्मीपापा के साथ लड़के वाले के यहां पहुंची तो उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. प्लाक्षा के मम्मीपापा उसे जिस लड़के वाले के यहां ले कर आए थे, वह तो विवान का ही घर था. वहां भी विवान उसे अकेले में कमरे में मिला तो रोरो कर उस की आंखें लाल हो गई थीं. विवान अपने किए पर शर्मिंदा था और बारबार प्लाक्षा से माफी मांग रहा था. प्लाक्षा ने शादी के लिए उस वक्त हां कर दी.

– अब आगे पढ़ें:

 

मेरे लिए यह सब किसी सपने से कम नहीं था. उस दिन तो अचानक सारा सच सामने आ जाने के कारण कुछ महसूस नहीं कर पा रही थी. लेकिन आज यह सब मुझे अच्छा लग रहा था. आज लग रहा था कि मैं खास हूं. कोई मुझ से इतना प्यार करता है और सब से बड़ी बात यह कि वह और कोई नहीं बल्कि विवान है, जिस से मैं ने अपनी जिंदगी में सब से ज्यादा प्यार किया है.

‘‘थैंक्यू सो मच प्लाक्षा. अब आखिरी और सब से अहम सवाल,’’ एक पल को चुप्पी छा गई. मेरा दिल बहुत जोरजोर से धड़क रहा था, क्योंकि मुझे पता था कि वह क्या पूछने वाला था. वह उस की आंखों में साफ लिखा था. यह पहली बार नहीं था कि वह मुझ से यह पूछने वाला था, लेकिन उस दिन मैं कोई और ही थी. आज विवान के आंसुओं ने मेरा कड़वापन धो दिया था. आज मैं फिर से उस की पहले वाली प्लाक्षा बन गई थी, जो उस के मुंह से प्यार भरे शब्द सुनने को हर पल बेकरार रहती थी. कई दिनों बाद मेरी आंखों में फिर से वही हसरत थी. आखिरकार उस ने खामोशी तोड़ी.

‘‘तुम तो जानती हो प्लाक्षा, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. मेरी अब तक की हरकतों से तो शायद तुम्हें समझ आ ही गया होगा,’’ विवान मासूमियत से बोला.

मैं हंस पड़ी. सच में अब उस की हरकतें याद कर के मुझे हंसी आ रही थी. अब गुस्सा कहीं नहीं था. बस यह लग रहा था कि उस ने जो कुछ भी किया मेरे लिए किया. मुझे यह बताने के लिए किया कि मैं उस के लिए कितनी महत्त्वपूर्ण हूं. उस के एकएक शब्द से मेरे शरीर में अजीब सी लहर दौड़ रही थी.

‘‘पहले शायद मैं तुम्हारे प्यार को समझ नहीं पाया, लेकिन जिस दिन से समझ आया तो जीना दुश्वार हो गया. तुम्हें पाने का जनून सा सवार हो गया. उसी जनून में न जाने क्याक्या कर गया.’’

मैं बस मुसकरा रही थी. वह बोलता जा रहा था और आज मैं बस उसे सुनना चाहती थी.

‘‘तुम ने मुझ से बहुत प्यार किया है प्लाक्षा. उस का हिसाब तो मैं जीवन भर नहीं चुका सकता. बस इतनी कोशिश कर सकता हूं कि हमेशा तुम्हें और तुम्हारे प्यार को पूरी अहमियत दे पाऊं. मैं तुम से प्यार करता हूं प्लाक्षा और हमेशा करता रहूंगा.’’

मेरी आंखों से आंसू छलक पड़े. लेकिन इस बार ये दुख के नहीं, बल्कि खुशी के थे.

‘‘मैं भी तुम से प्यार करती हूं विवान. मैं ने हमेशा सिर्फ और सिर्फ तुम से ही प्यार किया है और जिंदगी भर करती रहूंगी,’’ मैं उस से लिपट कर रो पड़ी. आज अपने अंदर का सारा जहर निकाल देना चाहती थी. उस की बांहों का एहसास मुझे सुकून दे रहा था. एक यही वह जगह थी जहां मुझे शांति मिल सकती थी. वह हौलेहौले मेरी पीठ सहला रहा था. धीरेधीरे मेरे आंसुओं का सैलाब थमने लगा. आज सालों बाद उस का स्पर्श पा कर लग रहा था जैसे मैं फिर से जी उठी थी.

‘‘प्लाक्षा, क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’ उस ने मुझे बांहों में लिए हुए ही पूछा.

‘‘शादी? मम्मीपापा को तो मैं ने शादी के लिए मना कर दिया था. अब फिर से क्या कहूंगी उन से? वे तो किसी और के साथ मेरी बात चला रहे थे,’’ मैं उस की बांहों से निकल कर हकीकत में आ गई, ‘‘क्योंकि मैं ने उन से कह दिया था कि हमारा ब्रेकअप हो गया है.’’

मेरी बात सुन कर वह परेशान होने के बजाय हंस पड़ा.

फिर बोला, ‘‘अरे हां, एक बात बताना तो मैं भूल ही गया. मैं ने तुम से एक और बात छिपाई है.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने संदेह से उस की तरफ देखा.

‘‘मैं तुम्हारे मम्मीपापा से पहले मिल चुका हूं.’’

‘‘हां, मुझे पता है. मेरे साथ ही तो गए थे.’’

मैं उस की बात बीच में ही काट कर बोला, ‘‘उस से भी पहले मैं उन से मिला था, अपने मम्मीपापा के साथ अपनी शादी की बात करने के लिए,’’ वह हलकी मुसकान के साथ डरते हुए मुझे देख रहा था.

‘‘क्या?’’ पिछले कुछ दिनों में क्याक्या कर गया था विवान. और मम्मीपापा ने भी मुझे कुछ नहीं बताया.

‘‘हां बेटा यही है वह लड़का जिसे हम ने तेरे लिए पसंद किया था,’’ मम्मी ने कमरे में दाखिल होते हुए कहा. पापा और विवान के मम्मीपापा भी अंदर आ चुके थे.

‘‘बेटा, पहली बार विवान जब अपने मम्मीपापा के साथ हमारे घर आया तो हमें भी कुछ अटपटा लगा. मैं तो इसे पहले से जानती ही थी, कुछ तुम ने भी इस के बारे में बताया था. इस से बात करने पर पहले तो यह हमें नहीं जंचा. लेकिन खुशी इस बात की थी कि कोई हमारी बेटी से इतना प्यार करता है कि उस के लिए कुछ भी करने को तैयार है. फिर भी हम शंकित तो थे ही. जब तुम ने इसे घर बुलाया तब हम जानते थे कि तुम दोनों नाटक कर रहे हो. उस दिन विवान की बातें सुन कर यकीन हो गया कि वह तुम से कितना प्यार करता है.’’

कितना कुछ हो रहा था मेरी पीठपीछे और मुझे कोई खबर ही नहीं थी. बड़ी होशियार समझती थी खुद को. मगर आज इन सब ने मिल कर कितनी सफाई से मुझे बेवकूफ बना दिया था.

‘‘लेकिन हमारे लिए यह जानना ज्यादा जरूरी था कि तुम्हारे मन में क्या है. मैं ने कई बार तुम्हारे मन को टटोलने की कोशिश की और हर बार यही पाया कि तुम विवान से अपने प्यार को दबाती रही हो.’’

मां मेरे पास आ कर बैठ गईं और मेरा सिर सहलाने लगीं. फिर बोलीं, ‘‘जब तुम ने ब्रेकअप की खबर सुनाई तो मैं घबरा ही गई थी. मैं ने उसी वक्त विवान को फोन लगाया, तो उस ने बताया कि तुम ने साक्षी को देख लिया है. उसे मैं ने हमारे दिल्ली आने के प्लान के बारे में बताया और आगे कुछ भी करने को मना कर दिया. मुझे लगा कि तुम दोनों की आमनेसामने अच्छे से बात कराने से ही सब कुछ ठीक होगा. लेकिन फिर तुम ने साक्षी और आदित्य को साथ देख लिया जिस से मामला और बिगड़ गया.

‘‘विवान तो बिलकुल हिम्मत हार चुका था लेकिन हम ने प्लान में कोई बदलाव नहीं किया. यहां आ कर तुम्हें देखा तो यह भी विश्वास हो गया कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं सही है. हम जानते थे कि तुम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हो. बस कुछ गलतफहमियां और अहं ही बीच में आ रहा है. जब आमनेसामने बैठ कर एकदूसरे की दिल की बात सुनोगे तो सब ठीक हो जाएगा.’’

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या प्रतिक्रिया करूं. सब को सब कुछ पता था, एक मैं ही इन सारी बातों से अनजान थी. सब मेरी तरफ देख कर मुसकरा रहे थे. विवान माफी मांगने के अदांज में मेरी तरफ देख रहा था. मैं कुछ कहूं उस से पहले ही पापा बोल पड़े, ‘‘तुझे जितना गुस्सा आ रहा है उसे इस विवान पर निकालना. यही मुजरिम है तेरा. हम बस तुम्हें खुशी देना चाहते थे. इसी ने हमें झूठ बोलने पर मजबूर किया. अब जी भर के इस की पिटाई करो,’’ सब हंस पड़े साथ में मैं भी.

विवान के मम्मीपापा ने भी उन का साथ देते हुए कहा, ‘‘हमारी बातों का कुछ बुरा लगा हो, तो माफ कर देना बेटा. हम तो बस इस के कहे अनुसार चल रहे थे. यही तुम्हारा गुनहगार है. अब तुम ही इस से निबटो,’’ इतना कह कर वे सब बाहर चले गए.

एक बार फिर हम दोनों अकेले थे. विवान मेरे पास आ कर बैठ गया. टेबल से अंगूठी उठा कर मेरे सामने कर दी और बोला, ‘‘अब तो हां कर दो या अब भी कोई ऐतराज है?’’

मैं ने हामी में सिर हिलाया, ‘‘अब क्या, अब तो सब कुछ साफ हो गया न? अब क्या बचा है?’’ वह फिर से नर्वस दिखने लगा.

‘‘वादा करो अब कभी मुझे परेशान नहीं करोगे, झूठ नहीं बोलोगे और…’’ मैं ने गंभीरता से कहा.

‘‘और?’’ उस ने पूछा.

‘‘और रोज मुझे दिन में कम से कम एक बार ‘आई लव यू’ कहोगे. कभी गुस्सा हुए तब भी,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा.

‘‘पक्का,’’ कह कर उस ने मुझे सीने से लगा लिया. अब मुझे कोई डर नहीं था. उस की आंखें, उस का स्पर्श, उस की खुशी सब कुछ एक ही बात कह रहे थे कि वह अब कभी मेरा दिल नहीं दुखाएगा. उस की बांहों का घेरा यही सुकून दे रहा था कि अब फिर से मुझे कभी प्यार के लिए तरसना नहीं पड़ेगा.

रिश्ता कागज का: भाग-2

अब तक आप ने पढ़ा:

आईएएस की कोचिंग के लिए पारुल दिल्ली के एक गर्ल्स होस्टल में रहती थी. एक दिन जब वह कोचिंग के लिए निकली तो तेज बारिश में फंस गई और एक घर के सामने बारिश से बचने के लिए खड़ी हो गई. तभी एक बच्ची गेट पर आई और उस की गोद में जा बैठी. वह बच्ची को छोड़ने घर के अंदर गई तो एक आंटी ने उसे बताया कि यह उस की नातिन है. अब पारुल रोज ही वहां जाने लगी. वहां उस की मुलाकात डाक्टर प्रियांशु से हुई, जिस ने पारुल को अपने साथ शादी करने का प्रस्ताव दे डाला. घर वालों को इस रिश्ते से कोई ऐतराज नहीं था. अत: दोनों की शादी हो गई. वह चाहती थी कि उस मासूम बच्ची की मां प्रियंवदा तो नहीं रही पर बच्ची के पिता शेखर को उस के प्यार से महरूम न किया जाए. एक दिन शेखर का पता मिला तो उस ने उसे पत्र लिख दिया…

– अब आगे पढ़ें…

करीब 1 माह बाद दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने जा कर देखा तो कोई आदमी खड़ा था. बोला, ‘‘डाक्टर प्रियांशु, श्रीमती पारुल और कमला देवी को बुलाइए, कोर्ट का समन है. मम्मीजी भी तब तक आ गई थीं. हम ने अपने नाम उसे बताए. तब मुझे और मम्मीजी को उस ने कुछ कागज दिए. एक कौपी प्रियांशुजी के लिए थी. हमारे दस्तखत ले कर चला गया. मैं ने जब उन कागजों को देखा तो लगा चक्कर आ जाएगा. शेखर ने हम पर केस किया था कि हम उस के नाम का उपयोग प्रियंवदा की नाजायज बच्ची के लिए करना चाहते हैं और उस को बदनाम कर उस की दौलत ऐंठना चाहते हैं.

और तो और इस में प्रिया को भी जोड़ा था और उस के नाम के आगे जो लिखा था उसे देख कर तो मेरा हृदय चीत्कार कर उठा. लिखा था- प्रतिवादी क्रमांक 4 प्रिया उम्र 7 माह, आत्मजा नामालूम. उफ मैं तो रो पड़ी. मम्मीजी भी चुपचाप आंसू बहाए जा रही थीं. उन कागजों के साथ मेरी चिट्ठी की फोटोकौपी भी लगी थी, जिस को आधार बना कर उस दुष्ट इनसान ने कोर्ट से सहायता मांगी थी कि हम लोगों को प्रिया के

पिता के रूप में उस का नाम लिखने से निषेधित किया जाए और इस बात की घोषणा की जाए कि प्रिया उस की बेटी नहीं है और हम से मानहानि करने के रूप में कुछ हरजाना भी मांगा था. उफ, कोई इतना नीचे गिर सकता है, मेरी सोच के परे था.

तभी मम्मीजी ने फोन कर के प्रियांशुजी को बुला लिया. उस दिन पहली और शायद आखिरी बार मैं ने इन को गुस्सा होते देखा.

मेरे कंधे जोर से पकड़ कर बोले, ‘‘क्या जरूरत थी उस कमीने को कुछ लिखने की? वह इनसान है ही नहीं. पहले प्रियंवदा को फंसाया, फिर जब देखा कि पापा ने उसे नहीं अपनाया तो कुछ मिलने की आशा न देख उसे प्रिया के जन्म के कुछ दिन पहले बेसहारा छोड़ गया. बिना कुछ खाएपीए मेरी बहन बेहोश थी. जब पड़ोसियों ने सरकारी हौस्पिटल में भरती करवाया तो शुक्र था कि मेरा एक साथी उस हौस्पिटल में नौकरी कर रहा था, जिस ने प्रियंवदा को मेरे घर पर कभी देखा था. उस ने मुझे फोन किया. मैं जा कर अपनी बहन को लाया. सोचो जिस का पिता इतना बड़ा डाक्टर, भाई विदेश से डिग्री ले कर आया, पिता का इतना बड़ा हौस्पिटल और वह अनाथों की तरह गंदे कपड़ों में कई दिनों की भूखीप्यासी सरकारी हौस्पिटल में थी. हम लोग जब तक उसे ले कर आए बहुत देर हो चुकी थी. बच्ची को जन्म देते ही उस की मृत्यु हो गई. पापा को भी इस बात का बहुत सदमा लगा कि समय रहते उन्होंने अपनी बेटी की खबर नहीं ली.’’

कुछ देर ठहर कर इन्होंने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘और जब हम प्रियंवदा की मौत की खबर देने के लिए उस के घर मेरठ गए और अपनी पत्नी का अंतिम संस्कार करने के लिए चलने की प्रार्थना की तब उस कमीने ने साफ मना कर दिया. उस के पिता ने कहा कि देखिए, जो होना था हो गया अब आप लोग इस बात का प्रचार मत करिए. मेरे बेटे के लिए एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे हैं. आप की लड़की के चक्कर में वैसे ही वह हम से इतने दिन दूर रहा. उस की शादी हम ने तय कर दी है. दिल्ली के ही पुराने खानदानी लोग हैं. आप लोग जाइए… तमाशा मत करिए… मैं और पापा वापस आ गए और उस सदमे से ही पापा 5 दिन बाद चल बसे,’’ सांस ले कर इन्होंने फिर मुझे गुस्से से देख कर कहा, ‘‘उस कमीने का मैं नाम भी दोबारा सुनना नहीं चाहता था और तुम ने यह क्या कर दिया?’’

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मैं नि:शब्द रोती रही. यह मुझ से क्या अनर्थ हो गया. बहुत देर तक सब यों ही बैठे रहे. फिर मैं ने ही आंसू पोंछ कर प्रियांशु से कहा, ‘‘वकील अंकल से सलाह कर लेते हैं.’’

मम्मीजी ने भी कहा, ‘‘हां बेटा, वकील साहब से मिल लो जा कर. फिर देखेंगे क्या

करना है.’’

ये चुपचाप मेरे साथ चल दिए. हम दोनों वकील अंकल के घर पहुंचे, जिन के घर और औफिस मैं शादी के पहले जाया करती थी. उन के साथ कभीकभी कोर्ट भी जाती थी. अंकल अपने घर के सामने बने औफिस में ही थे. हम दोनों ने उन के सामने सारे पेपर्स रख दिए.

अंकल ने सारे पेपर्स ध्यान से पढ़े और बोले, ‘‘घबराने की बात नहीं. शादी को साबित करना पड़ेगा. शादी का कोई फोटो या प्रमाणपत्र ले आओ. बच्ची का जन्म प्रमाणपत्र तो है ही.’’

यह सुन कर पहली बार प्रियांशुजी ने बोला, ‘‘फोटो तो जो बहन ने भेजा था पापा ने गुस्से में फाड़ दिया था और प्रमाणपत्र भी शायद नहीं है.’’

यह सुन कर अंकल सोच में पड़ गए. बोले, ‘‘यह आदमी बहुत शातिर लगता है. पूरी तैयारी के बाद ही कोर्ट गया होगा. कोई बात नहीं इन

की शादी का कोई गवाह देख लो… कोई दोस्त, पंडित या पड़ोसी. उन की गवाही हम पेश कर सकते हैं.’’

सारी जानकारी ले कर और जरूरी गवाहों की लिस्ट बना कर हम लोग निकल पड़े. लगातार 4-5 दिन प्रियंवदा के दोस्त और पड़ोसियों को ढूंढ़ते रहे. परंतु इतना आसान नहीं था दिल्ली जैसे शहर में ऐसा कोई मंदिर और पंडित ढूंढ़ना. सब जगह तलाश किया, कहीं भी कोई प्रमाण नहीं मिला. प्रियंवदा के जो कुछ दोस्त मिले उन को तो उस की शादी और प्यार के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी. सब ने यही कहा कि वह तो बहुत चुपचाप रहती थी और शेखर जैसे लड़के से तो प्यार कर ही नहीं सकती थी. शेखर के कुछ दोस्तों को उन के साथ घूमने की जानकारी थी पर शादी की किसी को खबर नहीं थी. जहां वे लोग रहते थे और जिन पड़ोसियों ने प्रियंवदा को बीमार हालत में हौस्पिटल में भरती करवाया था वे भी घर बदल कर कहीं चले गए थे. 7 दिन तक दिनरात भटकने के बाद हम फिर अंकल के सामने थे. एक भी प्रमाण नहीं था हमारे पास. प्रिया का जन्म प्रमाणपत्र था पर उस के बारे में ही शेखर ने आरोप लगाया था कि प्रियंवदा के पिता और भाई ने जानबूझ कर उस के नाम का उपयोग किया और अपना हौस्पिटल होने का फायदा उठाया. अब क्या करें किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था.

अंकल ने कहा, ‘‘कोर्ट में सुबूत पेश करने होते हैं. शेखर ने तो लिखा ही है कि वह कालेज छोड़ने के बाद मेरठ चला गया था और अपने पापा के साथ व्यापार कर रहा है. दिल्ली आया ही नहीं और जरूर उस ने कुछ झूठे कागज भी बनवा लिए होंगे. उन्हें झूठा साबित करने के लिए हमारे पास कुछ नहीं.’’

प्रियंवदा के सामान में एक फोटो तक नहीं मिला था, जिस में दोनों साथ हों. मुझे तो गुस्सा भी आ रहा था दिल्ली जैसे शहर में पढ़ने वाली लड़की इतनी मूर्ख और नासमझ कैसे हो सकती है कि चुपचाप शादी कर ली. बच्चा भी होने वाला था, फिर भी कुछ नहीं सोचा. खैर, अंकल ने आगे कहा कि हम प्रोटैस्ट तो कर ही सकते हैं. प्रियांशु ने पूछा कि यदि वह जीत गया तब क्या परिणाम हो सकता है? अंकल ने और मैं ने समझाया कि प्रिया को अपने पिता की संपत्ति नहीं मिलेगी और उस के नाम के आगे से शेखर नाम हट जाएगा.

बहुत देर सोचने के बाद प्रियांशुजी ने कहा, ‘‘प्रिया को संपत्ति तो अपनी मां की इतनी मिलेगी कि उस कमीने की संपत्ति की जरूरत नहीं है और अच्छा है उस का नाम प्रिया के नाम से हट जाए.’’

तब अंकल ने कहा कि फिर तो आप कोर्ट में उपस्थित ही मत होइए. तब कोर्ट एकपक्षीय डिक्री उसे दे देगा. मेरा मन इस बात के लिए तैयार नहीं था, पर और कोई चारा भी नहीं था. हम लोग वापस आ गए. मैं जब भी प्रिया को देखती तो कोर्ट के कागज में लिखा आत्मजा नामालूम मेरे दिमाग में हथौड़े की तरह पड़ने लगता और मेरे आंसू निकल जाते. न मैं वह चिट्ठी शेखर को लिखती न यह सब होता. यह मैं ने क्या कर दिया, यही सोचते हुए मेरे दिनरात निकल रहे थे. एक दिन फिर डाक से 2-3 पत्र आए. एक शेखर का था, जिस के साथ कोर्ट के निर्णय की कौपी थी, जिस में घोषणा की गई थी कि प्रिया, उम्र 7 माह, आत्मजा नामालूम शेखर की पुत्री नहीं है और मुझे प्रियांशु, मम्मीजी और प्रिया को शेखर के नाम का उपयोग प्रिया के पिता के रूप में करने से स्थाई रूप से निषेधित किया गया था. कानून की जानकार होने के बाद भी मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं था कि कोई कोर्ट कैसे रिश्तों की घोषणा कर सकता है और दूसरा पत्र जन्ममृत्यु पंजीकरण औफिस का था कि कोर्ट का और्डर मिलने पर उन्होंने प्रिया के नाम के आगे से उस के पिता के रूप में लिखे शेखर का नाम हटा कर आत्मजा नामालूम लिख दिया.

मैं बहुत देर तक यों ही बैठी रही. समझ ही नहीं आया मम्मीजी को कैसे इन पत्रों के बारे में बताऊं. फिर जब रहा नहीं गया तो प्रिया को गोद में उठाए फिर से अंकल के औफिस पहुंच गई. इस बार अंकल भी मेरी बात से सहमत थे. वापसी में मेरे हाथों में कुछ कागज थे जिन को जा कर प्रियांशुजी और मम्मीजी के सामने रख दिया और उन से उन पर हस्ताक्षर करने को कहा. दोनों ने ही प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी तरफ देखा. मैं ने उन से कहा, ‘‘यह मेरा अनुरोध है कि मैं प्रिया को गोद ले कर अपनी बेटी बनाना चाहती हूं.’’

मम्मीजी ने रोते हुए मुझे गले लगा लिया. प्रियांशुजी भी भीगी आंखों से मुझे देखते रहे. दोनों ने हस्ताक्षर करने में देर नहीं की. फिर तो जैसे मेरे पंख लग गए. अब काम बड़ा आसान था. मम्मीजी को प्रिया का संरक्षक बना कर हम ने गोद लेने के लिए कोर्ट में आवेदन दिया और किसी को सूचना देने की जरूरत नहीं थी. कोर्ट ने भी 1 माह के अंदर प्रिया को हमारी दत्तक पुत्री घोषित कर दिया.

मेरे मन को कुछ ठंडक तो मिली, परंतु अब एक दूसरा भय मेरे मन में सवार हो गया था कि नौकर और पड़ोसी कहीं प्रिया के बड़े होने पर उसे असलियत न बता दें. तभी प्रियंक के आने की आहट भी मिल गई. मैं खुश रहने के बदले दिन भर सोच में डूबी रहती. मम्मीजी और प्रियांशुजी ने बहुत कोशिश की मुझे समझाने की पर न जाने मुझे क्या हो गया था. हार कर प्रियांशुजी ने पापा को रायपुर से बुलवाया. दोनों मिल कर मुझे मनोचिकित्सक के पास ले गए. उन की सलाह पर प्रियांशु ने दिल्ली से कहीं दूर बसने का निर्णय लिया. फिर पापा के अनुरोध पर वे दिल्ली की सारी संपत्ति बेच कर रायपुर आ गए. पापा के हौस्पिटल को नए ढंग से बनवा लिया था. पापा का घर तो वैसे ही बहुत बड़ा था. उस में कुछ सुधार कर मम्मीजी के दिल्ली के घर की तरह ही साजसज्जा करवा दी. मम्मीजी भी मेरी और प्रिया की खुशी के लिए भारी मन से दिल्ली छोड़ने को राजी हो गई थीं. बस, कुछ ही दिनों में हम लोग छोटे से प्रियंक और उस से थोड़ी बड़ी प्रिया को ले कर रायपुर आ गए.

मेरे मायके में तो कोई बचा नहीं था. चाचाचाची पहले ही अपने बेटे के पास कनाडा शिफ्ट हो गए थे, इसलिए मुझे अब कोई डर नहीं था. मैं ने सब को अपने 2 बच्चे बताए, प्रिया तो पहले ही इन को पापा कहना सीख चुकी थी और मुझ को मम्मी. अब मम्मीजी को दादी कहती और मेरे पापा को नानू. हम लोग जल्दी इस नए माहौल में रम गए. इन का नाम यहां बहुत जल्दी अच्छे डाक्टरों में शुमार हो गया.

जिंदगी आराम से गुजर रही थी. मैं भी भूल गई थी कि प्रिया मेरी अपनी कोख से जन्मी बेटी नहीं है. दोनों बहनभाई बहुत प्यार से रहते. पढ़ने में दोनों बड़े होशियार थे. अचानक एक दिन जब प्रिया शायद 9वीं कक्षा में थी तब उस ने मुझ से पूछा, ‘‘क्यों मम्मा, नानू बता रहे थे आप कलैक्टर बनना चाहती थीं. फिर क्यों नहीं बनीं?’’ मैं ने इन की तरफ देखा ये फौरन बोले, ‘‘बेटे तेरी मम्मी को तुम्हारी मां बनने की जल्दी थी न इसलिए,’’ मैं ने जल्दी से जवाब दिया, ‘‘बेटा, मेरा सपना तो था कलैक्टर बनने का पर तेरे पापा मुझ पर ऐसे फिदा हुए कि शादी के लिए पीछे पड़ गए. फिर तुम मिल गईं और मैं अपने सपने को भूल गई,’’ बोलतेबोलते जैसे मैं पुरानी यादों में खो गई.

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प्रिया ने पता नहीं क्या समझा और फिर मेरे गले लग कर बोली, ‘‘डोंट वरी मां आप के सपने को आप की बेटी पूरा करेगी,’’ फिर अपने भाई का कान पकड़ कर बोली, ‘‘सुन नालायक मैं अब डाक्टर नहीं बनूंगी तू बनेगा और पापा का हौस्पिटल संभालेगा. मैं तो अपनी मम्मा का सपना पूरा करूंगी.’’

उस दिन के बाद से वह जैसे नए जोश में भर गई. तुरंत विज्ञान विषय को बदल कर हिस्ट्री, इंग्लिश और इकौनोमिक्स ले लिया. मेरा मार्गदर्शन तो था ही. जल्दी ही वह दिन आ गया जब एमए करने के बाद उस ने यूपीएससी की परीक्षा दी और पहले ही प्रयास में कुछ कम नंबर आने पर दोबारा परीक्षा में बैठी. इस बार शुरू के 50 लोगों में नंबर था. मसूरी से ट्रेनिंग करने के बाद उस की रायपुर में ही अतिरिक्त कलैक्टर के पद पर प्रशिक्षु के रूप में नियुक्ति हो गई. उस के बैच के 6 और लड़के थे. उन को हम ने खाने पर बुलाया. सभी बहुत खुशमिजाज थे. खाना खाने के बाद भी बड़ी देर बातचीत चलती रही. मैं ने महसूस किया कि उन में से एक की नजर प्रिया पर ही थी. प्रिया भी उस को अलग नजर से देख रही थी. पूछताछ करने पर पता चला कि वह गुजरात का रहने वाला था. उस के पापा आर्मी में थे. उस का नाम शरद था. मैं लड़की की मां की तरह सोच रही थी कि लड़का अच्छा है. बराबर के पद पर है और सब से बड़ी बात कि प्रिया को पसंद भी कर रहा है. प्रिया भी शायद उसे पसंद करती है. मैं ने इन से बात करनी चाही पर इन्होंने मुझे मीठी झिड़की दी कि अरे कुछ तो सोच बदलो. आजकल का जमाना नया है. लड़केलड़की बराबरी से हंसीमजाक करते हैं. जरूरी नहीं कि वे आपस में प्यार करते हों. मुझे गुस्सा आ गया और मैं करवट बदल कर सो गई. पर मेरा अंदाजा कितना सही था, यह मुझे दूसरे दिन पता लग गया. शाम को जब प्रिया औफिस से आई तब कार में उस के साथ शरद भी था. मैं ने तुरंत चायनाश्ता लगवाया. कुछ देर इधरउधर की बातें करने के बाद मैं ने देखा दोनों एकदूसरे को कुछ इशारे कर रहे हैं. मुझे भी हंसी आने लगी. मैं जानबूझ कर औफिस और राजनीति की बातें करती रही.

आखिर प्रिया ने कहा, ‘‘मां, शरद को आप से कुछ कहना है.’’

मेरे कान खड़े हो गए. जब कोई बात मनवानी होती थी तब दोनों बच्चे मुझे मां कहते थे. अत: मैं ने कहा, ‘‘हां, बोलो बेटा क्या बात है?’’

शरद ने धीरेधीरे पर बड़े विश्वास से मुझे अपने और परिवार के बारे में बताया. उस के पापा आर्मी में ब्रिगेडियर थे. वह अकेला लड़का था. प्रिया उस को पसंद थी. मसूरी में ही उन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. उस के मातापिता को शादी पर कोई ऐतराज नहीं. प्रिया को मेरी मंजूरी चाहिए थी.

मुझे इस शादी पर तो कोई ऐतराज था ही नहीं और मैं तो कल रात से ही सपने देख रही थी पर मुझे एहसास हुआ कि शरद को सच बता देना चाहिए. कुछ सोचने के बाद मैं ने कहा कि मैं उस से अकेले में बात करना चाहती हूं. यह सुन कर प्रिया ने हंसते हुए कहा, ‘‘मम्मी जरूर तुम्हें अपनी लड़की का पीछा छोड़ने के लिए पैसे देने वाली हैं. तुम फिल्मी हीरो की तरह पैसे ठुकरा मत देना. अच्छीखासी रकम मांग लेना. फिर हम दोनों खूब शौपिंग करेंगे.’’

मैं ने उस के इस मजाक का कोई जवाब नहीं दिया. बस उसे वहीं रुकने की बोल शरद को अपने कमरे में ले गई. कमरा बंद कर मैं ने अपनी अलमारी से वे बरसों पुराने कोर्ट के कागज निकाल कर उसे दिखाए और बताया कि प्रिया हमारी अपनी बच्ची नहीं, गोद ली हुई है, पर वह है इसी घर की बच्ची. संक्षेप में उसे प्रिया की कहानी बताई.

अंत में मैं ने कहा, ‘‘हम इस बात को भूल चुके हैं, पर तुम उसे जीवनसाथी बना रहे हो तो इस के लिए यह जरूरी है कि तुम सच जान लो. अब तुम्हारा जो फैसला हो बता दो,’’ कह कर मैं आंखें बंद कर बैठ गई. दिल धकधक कर रहा था कि पता नहीं मैं ने अपने ही हाथों अपनी बेटी का बुरा तो नहीं कर दिया.

थोड़ी देर बाद महसूस हुआ कि शरद मेरे आंसू पोंछ रहा है. शरद ने सारे कागज वापस अलमारी में रखे और मेरे हाथों को अपने माथे से लगाते हुए बोला, ‘‘अब तो किसी भी कीमत पर मैं इस घर से रिश्ता जोड़ कर रहूंगा.’’

बस इस के बाद शरद के मम्मीपापा आए. बड़े ही अच्छे माहौल में सारी बातें तय हुईं और सगाई तय कर दी. प्रियंक भी अमेरिका से अपनी एमएस की पढ़ाई पूरी कर वापस आ गया. शहर के बड़े होटल में हम ने प्रिया की सगाई रखी. पापा के बहुत पुराने दोस्त आर्मी से रिटायर हो कर गवर्नर बन गए थे. पापा ने उन्हें भी बुलाया. वे सहर्ष आए. शहर के कुछ प्रमुख लोग, कुछ परिचित और प्रिया और शरद के औफिस के अधिकारी सब मिला कर करीब सौ मेहमान हो गए थे. गवर्नर साहब के आने से फोटोग्राफर्स ने तो बस मौका ही नहीं छोड़ा. हजारों फोटो ले डाले और उन्हीं में से एक फोटो समाचारपत्रों में छपा था, जिसे मैं उस दिन देख रही थी. तभी वह फोन आया था.

मैं वापस वर्तमान में लौट आई. पता नहीं क्याक्या हुआ होगा. प्रिया को सब पता लग गया क्या? क्या वह मुझ से नाराज हो गई? यदि नहीं तो वह यहां क्यों नहीं दिख रही? मुझे कुछ हो और प्रिया पास न हो ऐसा कभी हो सकता है?

तभी रूम की घड़ी ने सुबह के 6 बजाए. बेटा झटके से उठा और मेरी तरफ बढ़ा. मुझे आंखें खोले देख खुशी से चिल्ला पड़ा, ‘‘ओह मां, आप जाग गईं. पता है तुम्हारी बेटी ने तो मेरा 4 दिन से जीना मुश्किल कर दिया था. कल रात जब मैं ने बोला कि अब मां ठीक हैं सुबह तक ठीक हो जाएंगी तब पापा को घर ले जाने के बहाने उसे घर भेज पाया हूं. दोनों बोल गए थे चाहे कितनी रात को तुम्हें होश आए उन्हें जरूर बुला लूं,’’ फिर दरवाजे की तरफ देख कर बोला, ‘‘लो, आप के देवदास और आप की चमची दोनों हाजिर हैं. बिना बुलाए सुबह 6 बजे आ धमके.’’

मैं ने भी दरवाजे की तरफ देखा. प्रियांशु और प्रिया भागे चले आ रहे थे. दोनों आ कर बैड की एक तरफ खड़े हो गए. प्रिया तो मेरे गले लग कर रोने ही लगी, ‘‘क्या मां, आप ने तो डरा ही दिया. मेरी शादी का इतना दुख है, तो मैं नहीं करती शादी.’’

मेरा बेटा फौरन बोला, ‘‘अरे, जाओ, मम्मी तो खुशी बरदाश्त नहीं कर पाईं… और अटैक तो मुझे आना था खुशी का कि अब कम से कम घर पर मेरा राज होगा.’’

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प्रिया ने तुरंत उस का कान पकड़ा, ‘‘बड़ा आया… विदेश से क्या पढ़ कर आया है. 4 दिन लगा दिए मम्मी को ठीक करने में… पहले डाक्टरी तो ठीक से कर, फिर घर पर राज करना.’’

दोनों की नोकझोंक सुन कर मैं निहाल हुई जा रही थी. प्रिया पहले की तरह ही थी. लगता है वह नहीं आया होगा. मैं ने चैन की सांस ली.

1 सप्ताह बाद मैं अपने घर की राह पर थी. कार में प्रियांशु और शरद आगे बैठे थे. प्रिया मुझे संभाले पीछे थी. अचानक प्रिया ने कहा, ‘‘मुझे पता है आप को किस बात का सदमा लगा. वह आदमी आया था जिस के कारण आप हौस्पिटल पहुंची.’’

मैं ने चौंक कर उसे देखा. तभी प्रियांशु ने बात संभाली और बोला, ‘‘हां पारुल वह आया था. मुझे तो समझ ही नहीं आया कि क्या करूं पर अच्छा हुआ तुम ने शरद को सब बता दिया था. उस ने ही प्रिया को तुम्हारे कमरे में ले जा कर कोर्ट के सारे कागज दिखाए और फिर बाकी कहानी मैं ने प्रिया को बताई. इन दोनों ने उस का वह हाल किया कि मजा आ गया. मेरी बहन और पापा के मन को भी शांति मिल गई होगी.’’

सारी बात जानने को उत्सुक हो गई तब इन लोगों ने बताया कि प्रिया ने उसे बहुत खरीखोटी सुनाई. उस के बेटे निकम्मे निकले. सारी संपत्ति पहले ही खो चुका था, इसलिए सोचा होगा कि तुम्हें डरा कर कुछ पैसे ऐंठ लेगा, पर तुम तो उस का फोन सुनते ही बेहोश हो गईं. वह जब घर आया तब तुम हौस्पिटल में थीं. उस ने यह नहीं सोचा था कि उस का सामना प्रिया से ही हो जाएगा. वह अपनी बेटी के आधार पर भरणपोषण का दावा करने की सोच रहा था पर प्रिया ने सारे कागज उस के सामने लहरा दिए और धमकी भी दे डाली कि यह सोच कर आए थे कि मेरे मम्मीपापा से पैसे वसूल करोगे? तुम हो कौन? मेरी मां से तो तुम्हारा कोई संबंध ही नहीं, यह तो तुम कई बरस पहले कोर्ट में बता चुके हो. मैं तुम्हारी बेटी नहीं. फिर कैसे मुझ से भरणपोषण मांगने का केस करोगे और केस तो अब मैं करूंगी… मेरे परिवार को तुम ने नुकसान पहुंचाया है. मेरी मां तुम्हारे कारण हौस्पिटल में हैं. अब जाते हो या पुलिस को बुलाऊं?’’ और फिर तुरंत एसपी साहब को फोन भी कर दिया कि एक आदमी धमकी देने आया है. अब वह इस शहर में दिखना नहीं चाहिए. तुरंत पुलिस आ गई और उसे यह कह कर चले जाने को कहा कि दोबारा इस शहर में पैर रखा तो सीधे जेल में दिखोगे.

प्रिया ने मेरे गले लगते हुए कहा, ‘‘आप की बेटी इतनी कमजोर नहीं मां और न हमारा रिश्ता इतना कमजोर है जो किसी के कुछ कहने से खत्म हो जाए, फिर आप क्यों दिल से लगा कर बैठ गईं उस की धमकी को? उस की तो शक्ल देखने लायक थी… अब पता चलेगा बच्चू को. सुना है भूखे मरने की नौबत आ गई है उस की.’’

मैं ने राहत की सांस ले कर प्रिया को गले लगा लिया. घर आ गया था, पर फिर मेरा भावुक मन यह सोच कर परेशान हो गया कि आखिर है तो प्रिया का पिता ही… भूखों मर रहा है यह तो ठीक नहीं…

प्रिया ने जैसे मेरे मन की बात जान ली. बोली, ‘‘आप चिंता न करो मां. मैं ने और शरद ने मेरठ के कलैक्टर से बात कर के उसे वृद्धाश्रम भेजने का प्रबंध कर लिया है. जब तक जीवित है निराश्रित पैंशन भी उसे मिलती रहेगी. वह भूखा नहीं मरेगा.’’

मैं ने जब नजर भर कर उसे देखा तो मेरे गले लग कर बोली, ‘‘मुझे धरती पर लाने का एहसान तो किया था उस ने वरना इतनी प्यारी मां कैसे मिलतीं, इसलिए वह कर्ज चुका दिया. अब और इस से ज्यादा की आशा मत रखना कि मैं कभी उस से मिलने जाऊंगी या और कुछ करूंगी.’’

मैं ने हंस कर अपनी बेटी को गले लगा लिया. हमारा रिश्ता कागज से बना था पर खून के रिश्ते से ज्यादा गहरा और प्यारा था. मैं ने अपनी प्यारी बिटिया को गले लगाए घर में प्रवेश किया.

रिश्ता कागज का: भाग-1

फोनकी घंटी की आवाज सुन कर आंखें खुलीं तो देखा मैं बैड पर हूं. नजर घुमा कर देखा तो अपने ही हौस्पिटल का रूम लगा. मैं कब और कैसे यहां पहुंची, कुछ याद नहीं आया. तभी फिर से फोन की घंटी की आवाज सुनाई दी. एक बिजली सी दिमाग में कौंध गई और अचानक सब याद आ गया. मैं दोपहर में सारे समाचारपत्रों को ले कर बैठी थी. सब में मेरी बेटी का फोटो आया था. 2 दिन पहले ही उस की सगाई की थी, जिस में राज्यपाल भी शरीक हुए थे. फोटो उन के साथ का था. नीचे लिखा था कि शहर के लोकप्रिय डाक्टर की बेटी प्रशिक्षु आईएएस प्रिया की सगाई प्रशिक्षु आईएएस शरद के साथ हुई.

फोटो में बेटी और होने वाले दामाद के साथ मैं और मेरे पति भी खड़े थे. मैं गर्व से भर उठी. तभी फोन बज उठा. जैसे ही रिसीवर कान से लगाया एक निहायत कर्कश आवाज सुनाई दी, ‘‘मेरी बेटी को अपना कह कर खुश हो रही हो… वह मेरा खून है और मैं आ रहा हूं उसे सब बताने.’’

बस इतना सुनने के बाद रिसीवर गिरने की आवाज कान में पड़ी और उस के बाद अब होश आ रहा है. पता नहीं कब से यहां हूं. नजर घुमा कर देखा तो मेरा बेटा जिस ने हाल ही में डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर हौस्पिटल जौइन किया है, एक कुरसी पर अधलेटा सा गहरी नींद में दिखा.

बेटी कहीं नजर नहीं आई. उफ, कहीं वह दुष्ट इनसान आ कर उसे सब बता कर तो नहीं चला गया… मेरी बेटी मेरी जान… मेरे जीने का सहारा सब कुछ, पर जो उस ने कहा कि वह तो उस का खून है, क्या सच है?

तभी बारिश की आवाज सुनाई दी और मन यादों के गलियारों में घूमते हुए कई बरस पीछे चला गया…

मैं अपने छोटे शहर से पापा से बहुत लड़झगड़ कर आईएएस की कोचिंग के लिए दिल्ली आई थी. दोपहर को 2 घंटे फ्री मिलते थे. तब पास के एक होटल में लंच कर वापस क्लास में आ जाती थी. उस दिन भी जब होटल जा रही थी, तभी अचानक जोर की बारिश आ गई. एक बड़े से घर का गेट खुला देख मैं भाग कर अंदर गई और पोर्च में खड़ी हो गई. फिर ध्यान आया कि घर वाले पता नहीं क्या कहेंगे. बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी. क्या करूं खड़ी रहूं या चल दूं, समझ नहीं आ रहा था.

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तभी धीरेधीरे घर का दरवाजा खुलता दिखा. मैं जब तक कुछ समझ पाती तब तक एक प्यारी सी बच्ची घुटनों के बल चलती बाहर आई, जिस की उम्र मुश्किल से 9-10 माह होगी. मुझे देख कर बच्ची मुसकराने लगी और अपनी बांहें मेरी तरफ फैला दी. मैं ने भी मुसकरा कर उसे गोद में उठा लिया और दरवाजे की तरफ देखने लगी कि उस की मां या कोई नौकर आएगा तो उसे बता दूंगी कि बच्ची पानी की तरफ जा रही थी पर जब बहुत देर तक कोई नहीं आया तब हार कर मैं ने अंदर जाने का फैसला किया. बच्ची को गोद में लिए अंदर प्रवेश किया. सामने दीवार पर एक बहुत ही सुंदर युवती का फोटो लगा था, जिस में फूलों का हार पड़ा था. मैं कुछ सोच पाती, तभी अंदर के कमरे से एक बुजुर्ग महिला ने प्रवेश किया. मैं ने उन को नमस्कार कर बच्ची के बारे में बताया और अपने पोर्च में खड़े होने की वजह बताई.

उन्होंने मुसकरा कर बैठने को कहा. मैं ने बच्ची उन्हें देनी चाही तो बच्ची मुझ से लिपट गई. अपने नन्हे हाथों से उस ने मेरी गरदन जोर से पकड़ ली. मैं असमंजस में पड़ गई.

तब उन महिला ने कहा, ‘‘बेटा थोड़ा बैठ जाओ. तुम खड़ी हो तो यह घूमने के लालच में मेरे पास नहीं आएगी.’’

मुझे क्या आपत्ति होती. मैं बच्ची को लिए सोफे पर बैठ गई. घर बहुत ही सुंदर था. मैं ने देखा कि टेबल पर एक थाली रखी थी, जिस में रखा खाना ठंडा हो गया था. मैं समझ गई कि बच्ची के कारण आंटी खाना नहीं खा पाई होंगी.

मैं ने उन से कहा, ‘‘आंटी, आप खाना खा लो. मैं इसे लिए हूं.’’

आंटी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘यह तो रोज का काम है. इस की आया छुट्टी पर है. यह इतनी शरारती है कि रोज खाना ठंडा हो जाता है.’’

अचानक मुझे समझ में आ गया कि फोटो वाली युवती बच्ची की मां होगी और यह दादी या नानी. तभी आंटी की आवाज आई, ‘‘बेटा, यह सो गई. इसे लिटा दो और आराम से बैठ जाओ.’’

मैं ने बच्ची को वहीं रखे झूले में धीरे से लिटा दिया और जाने की इजाजत मांगी.

तब आंटी ने कहा, ‘‘अभी तुम ने बताया था कि तुम लंच के लिए जा रही थीं और बारिश आ गई. मतलब तुम ने भी खाना नहीं खाया. आओ, हम दोनों साथ खाते हैं.’’

मैं ने बहुत मना किया पर फिर उन के प्यार भरे अनुरोध को ठुकरा नहीं पाई और सच में भूख भी जोर से लग रही थी, इसलिए खाने बैठ गई. कई दिन बाद घर का खाना मिला तो कुछ ज्यादा ही खा लिया और तारीफ भी जी भर कर की.

आंटी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अब रोज आ जाया करो लंच टाइम पर. प्रिया भी खुश हो जाया करेगी.’’

मैं ने जब आंटी से पूछा कि इस की बाई कब तक छुट्टी पर है, तो उन्होंने बताया कि बाई की सास मर गई है, इसलिए 15 दिन तक नहीं आएगी. दूसरी बाई लगानी चाही पर कोई मिल नहीं रही. खाना बनाने के लिए नौकर है, पर बच्ची का सवाल है, इसलिए कोई महिला ही देख रहे हैं.

मेरे दिमाग में एक विचार आया, तुरंत आंटी से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं 15 दिन तक इस टाइम आ जाया करूंगी. आप खाना खा लिया करना तब तक मैं प्रिया के साथ खेल लिया करूंगी.’’

आंटी ने मेरी बात इस शर्त पर मानी कि मैं दोपहर का खाना उन के साथ खाया करूं.

मैं ने आंटी से मजाक भी किया कि किसी अजनबी पर इतना भरोसा करना ठीक नहीं, पर आंटी ने कहा, ‘‘इतनी दुनिया तो मैं ने भी देख रखी है कि किस पर भरोसा किया जाए किस पर नहीं.’’

फिर तो यह मेरा रोज का नियम हो गया. लंच टाइम पर आंटी के घर पहुंच जाती. प्रिया के साथ खेलती और आंटी के साथ खाना खाती. थोड़ाथोड़ा घर वालों के बारे में आंटी बताती थीं कि बेटा डाक्टर है. शादी के लिए तैयार नहीं हो रहा. बच्ची संभालना मुश्किल हो रहा है. मैं भी मन में सोचती कैसे तैयार होगा इतनी सुंदर बीवी थी बेचारे की. कैसे भूल पाएगा?

एक दिन दोपहर को पहुंची तो प्रिया के जोरजोर से रोने की आवाज बाहर से ही सुनाई दी. दौड़ कर अंदर गई तो देखा आंटी किचन के सामने बेहोश पड़ी थीं और प्रिया झूले में जोरजोर से रो रही थी. मैं ने जल्दी से प्रिया को उठा कर नीचे बैठाया और आंटी को पानी के छींटे मार कर होश में लाने की कोशिश की. जल्दी से अपनी सहेली निशा को फोन कर डाक्टर लाने को कहा. डाक्टर के आने के पहले निशा आ गई. जल्दी से हम ने आंटी को बैड पर लिटाया तभी डाक्टर आ गए. उन्होंने देख कर बताया कि ब्लडप्रैशर कम होने की वजह से चक्कर आ गया था. आवश्यक उपचार कर डाक्टर साहब चले गए. निशा को भी मैं ने जाने को कहा. फिर फोन के पास रखी डायरी से नंबर देख कर उन के बेटे को फोन किया. वह भी घबरा गया. तुरंत पहुंचने की बात कही. मैं आंटी के चेहरे को देख रही थी. गोरा चेहरा कुम्हला गया था. आंखें बंद किए वे बहुत कमजोर लग रही थीं. इस उम्र में छोटी बच्ची की जिम्मेदारी निभाना कठिन था. मेरी मां भी बड़ी छोटी उम्र में मुझे छोड़ गई थीं. पापा ने दूसरी शादी नहीं की पर मेरी चाची ने मुझे मां की कमी नहीं खलने दी. उन्होंने अपने बच्चों से ज्यादा मेरा खयाल रखा. शायद इसीलिए प्रिया पर मुझे बहुत प्यार आता था. पर यहां आंटी की उम्र और बीमारी के कारण बात अलग थी. इन के बेटे को शादी कर लेनी चाहिए, यही सोच रही थी कि तभी एक सुदर्शन युवक ने कमरे में प्रवेश किया. फिल्मी हीरो की तरह चेहरा, मैं देखती रह गई, पर वह आते ही पलंग की तरफ दौड़ा. बोला, ‘‘मम्मी क्या हुआ? मुझे फोन क्यों नहीं किया?’’

उस की इस बात पर अचानक मुझे गुस्सा आ गया. बोली, ‘‘अब बड़ी फिक्र हो रही है मां की. तब यह फिक्र कहां थी जब छोटी सी बच्ची की जिम्मेदारी मां पर डाल कर चले गए… क्यों नहीं दूसरी शादी कर लेते? क्या समझते हो कि सब सौतेली मांएं खराब होती हैं? कोई आप की बच्ची को प्यार नहीं करेगी या फिर देवदास बन कर अपनी शान में मां को दुख देते रहना चाहते हैं?’’

डाक्टर साहब का मुंह खुला का खुला रह गया. कालेज के दिनों में धुआंधार भाषण देती थी. वही जोश मेरी आवाज में भर गया, ‘‘बोलिए, क्यों नहीं कर लेते दूसरी शादी?’’

अचानक मैं ने देखा कि डाक्टर साहब का विस्मय चेहरे से गायब होने लगा और एक शरारती मुसकान उन के होंठों पर आ गई. वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे बाबा, दूसरी तब करूंगा जब पहली हो, अभी तो मेरी पहली शादी भी नहीं हुई.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने आश्चर्य से आंटी की तरफ देखा. उन के चेहरे पर भी शरारती मुसकान विराजमान थी.

अब तक आंटी उठ कर बैठ गई थीं. उन्होंने धीरेधीरे समझाया कि प्रिया उन की बेटी प्रियंवदा की बेटी है, जिस का फोटो हौल में मैं ने देखा था. डाक्टर प्रियांशु उन का बेटा है. अब तो मुझे काटो तो खून नहीं. मैं ने वहां से भागने में ही भलाई समझी और आंटी से जाने की इजाजत मांगी.

आंटी ने कहा, ‘‘अब बहुत रात हो गई है. तुम्हें खाना भी नहीं मिलेगा. खाना खा लो फिर मेरा बेटा होस्टल छोड़ देगा.’’

डाक्टर साहब ने भी अपनी मां का समर्थन किया और नौकर को खाना बनाने के लिए जरूरी हिदायत देते हुए कपड़े चेंज करने चले गए. खाना खाते टाइम सब चुप थे. तब प्रियांशु ने कहा, ‘‘वैसे आप ने एक बात ठीक पहचानी कि मुझे डर है कि मेरी शादी के बाद प्रिया का क्या होगा, कोई भी लड़की एक बच्ची और सास की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहेगी.’’

उन का सामान्य व्यवहार देख कर मैं भी सामान्य हुई और कहा, ‘‘क्यों नहीं, कोई भी लड़की इतना अच्छा घर और इतना सुंदर लड़का देख कर तुरंत हां बोल देगी.’’

बोलने के बाद मैं ने देखा कि मांबेटा फिर मुसकरा उठे थे. मेरा ध्यान अपने शब्दों पर गया तो अपनी बेवकूफी पर शर्म महसूस हुई. अत: मैं ने जल्दी से खाना खत्म किया और जाने के लिए उठ खड़ी हुई.

तभी प्रियांशु ने कहा, ‘‘यदि ऐसा है तो क्या आप तैयार हैं मुझ से शादी करने को?’’

घबराहट के मारे मेरे तो पसीने छूटने लगे. आंटी ने बात संभाली, ‘‘बेटा, जाओ जल्दी इसे छोड़ कर आओ वरना होस्टल में अंदर नहीं जाने दिया जाएगा.’’

प्रियांशुजी ने कार निकाली. मैं चुपचाप उस में बैठ गई. कार चल पड़ी. अचानक मैं ने देखा कि कार एक आइसक्रीम की दुकान के सामने रुक गई.

प्रियांशु ने मेरा दरवाजा खोलते हुए कहा, ‘‘अभी 9 बजने में टाइम है. चलिए, आइसक्रीम खा लेते हैं. मैं ने बड़े दिनों से नहीं खाई.’’

मैं चुपचाप नीचे उतर गई. हम दोनों जा कर अंदर बैठ गए. प्रियांशु ने पूछा कि कौन सी खानी है तो मैं ने तुरंत कहा कि चौकलेट फ्लेवर वाली. वे 2 आइसक्रीम ले आए. मुझे महसूस हो रहा था कि वे लगातार मुझे देखे जा रहे हैं.

बड़ी देर बाद बोले, ‘‘मेरी बात से आप को बुरा लगा हो तो मैं माफी चाहता हूं पर जितना आप के बारे में मां से सुना था और जब से आप को देख रहा हूं तो लगता है आप बाकी लड़कियों से अलग हैं और मैं अपने शादी के प्रस्ताव को फिर दोहराता हूं. मुझे पता है आप के सपने अलग हैं. आप कलैक्टर बनना चाहती हैं तो वह शादी के बाद भी बन सकती हैं. मेरी सपोर्ट आप को रहेगी पर जिस तरह आप प्रिया को चाहती हैं वैसा प्यार कोई दूसरी लड़की नहीं दे सकती. मुझे आप के जवाब की कोई जल्दी नहीं है. आप आराम से सोच कर बताइएगा. आप का जवाब न भी होगा तो भी कोई बात नहीं. आप प्रिया और मां से पहले की तरह ही मिलती रहना.’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या बोलना चाहिए. वे चुपचाप मुझे होस्टल के गेट पर छोड़ कर चले गए.

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रूम के अंदर जाते ही मैं सीधे बैड पर गिर गई. सारी बातें दिमाग में घूमने लगीं. अभी तक कोई लड़का यदि प्यार की बात कहता था, तो मैं उस की 7 पुश्तों की खबर ले डालती थी. सब के सामने इतना बेइज्जत करती थी कि बेचारा ऐसी हिमाकत सपने में भी नहीं करता होगा, परंतु आज प्रियांशु ने सीधे शादी की बात कह दी और मैं ने चुपचाप सुन ली. एक शब्द भी नहीं कहा. कायदे से तो मुझे गुस्सा आना चाहिए पर मुझे तो शर्म आ रही है. एक अलग सी अनुभूति हो रही थी. बड़ी देर तक सोचती रही. जब सोचतेसोचते थक गई तो पापा को फोन लगा डाला. पापा की आवाज सुनते ही रुलाई निकल गई. बोली, ‘‘पापा, आप तुरंत आ जाओ. मुझे आप की जरूरत है.’’

पापा ने बहुत पूछा पर मैं कुछ बता नहीं पाई.

 

पापा दूसरे दिन मेरे सामने थे. मैं दौड़ कर उन से लिपट गई. पापा ने सारी बात

शांति से सुनी और फिर मुझ से पूछा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? प्रियांशु मेरे मित्र डाक्टर नीरज का बेटा है. मैं पूरे परिवार को जानता हूं.’’

पापा खुद भी डाक्टर थे. मैं ने पापा से कहा, ‘‘मेरी तो समझ नहीं आ रहा कि क्या

करूं. आप बताओ.’’

पापा बोले, ‘‘बेटा, यदि एक पिता से सलाह मांगोगी तो मेरा कहना है लड़का और घर दोनों अच्छे हैं. मैं खुद भी इतना अच्छा घर नहीं ढूंढ़ पाता और यदि एक दोस्त के रूप में सलाह दूं तो मुझे पता है तुम्हारा सपना कलैक्टर बनने का है तो शादी का विचार छोड़ दो, परंतु जैसा तुम ने बताया कि प्रियांशु ने कहा है कि शादी के बाद भी तुम कोशिश कर सकती हो तो मेरा सोचना है कि तुम्हें हां कह देनी चाहिए.’’

बस इस के 10 दिनों के अंदर ही मैं डाक्टर प्रियांशु के साथ विवाह कर उन के घर आ गई. आंटी अब मम्मी बन गई थीं और प्रिया तो मुझे हर समय पा कर बहुत खुश थी.

 

कई दिन बीत गए. मैं घरपरिवार में कुछ ज्यादा ही रम गई. मम्मी और प्रियांशु

मुझे पढ़ने को कहते भी पर मैं टाल जाती. मेरा काम बस प्रिया को संभालना, घर जमाना और तरहतरह का खाना बनाना रह गया था. पापा के दोस्त दिल्ली में वकालत करते थे. कोचिंग जाते टाइम मैं हर सप्ताह उन के औफिस जाती थी. उन्होंने शादी के बाद भी आते रहने को कहा पर मैं तो अपनी दूसरी दुनिया में मस्त थी. फिर अचानक सारी खुशियां काफूर हो गईं.

हुआ यह कि मैं प्रियंवदा का रूम जमा रही थी. मम्मीजी ने उसे वैसे ही रखा था जैसे उस की शादी के पहले था. तब मुझे कुछ डायरियां मिलीं. मुझे यह तो पता लग चुका था कि प्रिया की मां ने घर वालों की इच्छा के विरुद्ध जा कर शादी की. उस टाइम प्रियांशु एमएस की पढ़ाई के लिए अमेरिका गए थे. पापाजी ने शादी की इजाजत नहीं दी तो प्रियंवदा ने घर छोड़ दिया और जब बेटी हुई तब उस के जन्म के समय ही उस की मृत्यु हो गई. तब प्रियांशु प्रिया को अपने साथ ले आए. बेटी के गम में पापाजी भी चल बसे. इस के आगे की जानकारी मुझे प्रियंवदा की डायरी से मिली. एक डायरी उस समय की थी जब प्रिया आने वाली थी. 1-1 दिन की बातें उस में लिखी थीं. उस का पति शेखर उसे कितना प्यार करता था. शेखर चाहता था कि बेटी हो. उस का नाम उन्होंने शिखा तय किया था और प्रियंवदा चाहती थी कि बेटा हो और उस का नाम प्रियंक उस ने सोचा था. उन की प्यारी नोकझोंक पढ़ कर मेरे आंसू बहने लगे और पता नहीं किस भावना के तहत मैं ने यह सोच लिया कि बेचारे शेखरजी अपनी बच्ची को कितना याद करते होंगे. डाक्टर साहब और मम्मीजी कभी उन का नाम भी नहीं लेतीं. अपनी बच्ची को देखने का उन को भी हक है. अपनी कानून की पढ़ाई के कारण हक की बात भी दिमाग में जोर मारने लगी और मैं ने चुपके से एक चिट्ठी शेखरजी को लिख दी कि आप का मन होता होगा बच्ची को देखने का तो कभी भी आ सकते हैं. आखिर वह आप का खून है और इंतजार करने लगी कि जब शेखरजी अपनी बच्ची से मिलने आएंगे तब मैं क्याक्या दलीलें दूंगी.

– क्रमश:

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