सोने के वरक के पीछे छिपा भेड़िया (भाग-1)

सारिका ने कभी सोचा भी न था कि शादी के बाद उस की जिंदगी इतनी बदल जाएगी. शादी से पहले वह कितनी हंसमुख व मिलनसार थी. उस की न जाने कितनी सहेलियां थीं. किसी भी उत्सव, पार्टी वगैरह में उस के जाते ही जैसे जान आ जाती थी. उस के गीत, चुटकुले, कहकहे और खूबसूरती हरेक को उस के आसपास रहने को मजबूर कर देती थी.

लेकिन अब तो वह ऐसी पार्टियों में जाने से कतराती थी. पर समाज से कट कर भी तो नहीं रहा जा सकता, इसलिए जब कभी मजबूरी में जाती भी तो ऐसी कुछ बातें उस के कानों से टकरा ही जातीं, जो उसे विचलित कर देतीं. जैसे, ‘‘मोहितजी कितने अच्छे और हंसमुख हैं और उन की बीवी… नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देती, हर समय उस के तेवर चढ़े रहते हैं.’’

‘‘भई, खूबसूरत भी तो बहुत है. इसी का घमंड होगा,’’ कोई कहती.

‘‘अरे मोहितजी भी किसी से कम हैं क्या? जरा भी घमंड नहीं करते,’’ तुरंत कोई उन की तरफदारी के लिए खड़ा हो जाता.

‘‘मोहितजी किसी से भी हंसतेबोलते नजर आ जाएं तो ऐसे देखती है, जैसे अभी निगाहों से ही भस्म कर देगी और सामने वाले की भी ऐसी बेइज्जती कर देती है कि वह उसे देखता ही रह जाता है,’’ एक और आवाज सारिका की बुराई में उभरी.

‘‘सुना है मोहितजी ने कालेज के किसी मेले में उसे देखा था और फिर ऐसे फिदा हुए कि उस की तलाश में जमीनआसमान एक कर दिए और फिर उसे अपनी दुलहन बना कर ही माने. फिर उस की खूबसूरती के आगे ऐसे झुके कि आज तक सिर झुकाए हुए हैं. वे कहीं फिर से किसी की खूबसूरती के आगे न झुक जाएं, यही सोच कर सारिका सैलाब आने से पहले ही उसे रोक देती है,’’ ऐसी शोख बात पर हर कोई मुसकरा उठता और सारिका मन ही मन कट कर रह जाती.

‘‘बेचारे मोहितजी, कितने शरीफ हैं. हलकी सी मुसकराहट के साथ कितनी शराफत से बात करते हैं. कभी गलत निगाह से नहीं देखते और उन की बीवी… काश, वे मुझे पहले मिल जाते तो इतने शानदार इंसान को मैं अपना बना लेती.’’

‘‘अच्छा, तो अब कोशिश कर लो. तुम भी कम खूबसूरत नहीं हो.’’

‘‘अच्छा… उन की बीवी को देखा है? जान से ही मार डालेगी मुझ को…’’

‘‘हां भई, यह तो ठीक कहती हो तुम. फिर तो हम यही शुभकामनाएं दे सकते हैं कि तुम्हें भी ऐसा ही कोई इंसान मिल जाए.’’

‘‘हां भई, हमारी भी यही कामना है,’’ शरारत भरी आवाज आती.

सारिका धीरे से गरदन मोड़ कर उन की तरफ देखती. फिर मन ही मन उन से कहती, ‘उफ यह कैसी शुभकामनाएं दे रही हो नादान लड़कियों. तुम्हारा भला तो इसी में है कि तुम्हें मोहित जैसा इंसान न मिले.’

मोहित की तारीफ सुन कर सारिका का मुंह कड़वा हो जाता. दोस्त, पड़ोसियों व रिश्तेदारों सभी की यही राय थी कि मोहित अपने नाम के अनुसार हैं. सब को अपने हंसमुख, सरल स्वभाव से आकर्षित करने वाले और सारिका हद से ज्यादा घमंडी, शक्की और बुरा व्यवहार करने वाली महिला है. इस तरह की बातें सारिका के लिए नई नहीं थीं. उसे अकसर इसी तरह की बातें किसी न किसी रूप में सुनने को मिल ही जाती थीं. सब का यही सोचना था कि मोहित एक शरीफ, जिंदादिल इंसान हैं और अपने प्यार के हाथों मजबूर हो कर पत्नी से रिश्ता निभा रहे हैं, वरना सारिका जैसी पत्नी को तो तलाक दे देना चाहिए था. हरेक की हमदर्दी मोहित के साथ थी.

मोहित का बाहरी रूप सारी दुनिया के सामने बहुत प्रभावशाली था पर पत्नी होने के नाते सारिका अच्छी तरह जानती थी कि वे किस तरह के इंसान हैं. अगर बुराई, धोखा, मन के छल और हवस का इंसानी रूप दिया जा सकता तो उस की सूरत मोहित से अलग न होती. हां, यही सोच थी सारिका की अपने पति के बारे में. वह मोहित से नफरत करती थी फिर भी अपनी बेटी के कारण ही उस के साथ रहती थी, क्योंकि वह जानती थी कि मांबाप का अलगाव बच्चों के लिए बहुत दुखदायी होता है. इस से उन का सही विकास नहीं हो पाता. वह अपनी बेटी को सशक्त और सफल इंसान के रूप में देखना चाहती थी.

सारिका के मन में, बातों में कड़वाहट का कारण मोहित ही थे. पहले सारिका उन्हें बहुत अच्छा इंसान मानती थी. उसे याद था कि जब मोहित की तरफ से उस के लिए रिश्ता आया था, तो वह हैरान रह गई थी. उन के दोस्त की बीवी ने जब उस के प्रति मोहित की दीवानगी का बखान किया था तब सारिका ने हैरानी से आईने से पूछा था कि क्या मैं सच में इतनी सुंदर हूं?

मोहित अकेले रहते थे. अपना घर, शानदार नौकरी, कंपनी से मिली गाड़ी. उन के बारे में सारिका के पापा ने अच्छी तरह जानकारी लेने के बाद संतुष्ट हो कर रिश्ते के लिए हां कर दी थी.

और जब बरात सारिका के दरवाजे पर आई तो देखने वाले ‘वाह’ कर उठे. कामदार शेरवानी में मोहित चांद की तरह चमक रहे थे. महिलाओं और लड़कियों में मोहित की स्मार्टनैस के ही चर्चे थे. खूबसूरती में तो सारिका भी कम नहीं थी. इस लुभावनी जोड़ी पर से लोगों की आंखें नहीं हट रही थीं.

शादी के बाद सारिका ने जाना कि वाकई मोहित कमाल के इंसान हैं. वे देखने में तो खूबसूरत थे ही, उन की बातें भी बहुत खूबसूरत होती थीं. यों भी मोहित से पहले सारिका के मन में किसी और का खयाल नहीं आया था, इसलिए जल्दी ही मोहित के प्यार में रचबस कर वह खुद को दुनिया की सब से सुखी पत्नी समझने लगी थी.

घर में ज्यादा काम तो था नहीं. सफाई, बरतन, कपड़ों का काम नौकरानी ही कर जाती थी. मोहित ने तो कहा था कि खाना बनाने वाली भी रख लो, तुम्हें कोई काम करने की जरूरत नहीं, पर सारिका ने रसोई का काम खुद ही संभाल लिया था. मोहित का ध्यान रखना उसे अच्छा लगता था. इस से उस का समय भी आसानी से गुजर जाता, वरना घर में और था ही कौन?

मोहित के मातापिता में जल्दी ही अलगाव हो गया था. उस की मां उसे बचपन में ही पिता के हवाले कर कर किसी पूर्व प्रेमी के साथ चली गई थीं. फिर मोहित की देखभाल नौकरों के हवाले कर दी गई. पत्नी की बेवफाई के दुख ने उस के पिता को नशे का आदी बना दिया, जिस के चलते वे बहुत ही कम समय में दुनिया से चल बसे थे. पर सारिका जानती थी कि मोहित की परवरिश सही तरीके से न होने का प्रभाव उस की जिंदगी में उथलपुथल मचा देगा.

एक बार मोहित के रिश्ते की बहन मिलने आईं, तो सारिका को बहुत अच्छा लगा था. उस ने जोर डाल कर उन्हें रात के खाने तक रोक लिया था. दीदी की 12 साल की बेटी बहुत चुलबुली थी. सारे घर में चहकती फिर रही थी. घर में रौनक सी हो गई थी. मोहित भी दीदी से बातों में व्यस्त थे. फिर दीदी सारिका के पास रसोई में आ गईं और बेटी स्वीटी के कहने पर मोहित उसे छत पर ले गए. उन की हंसी की आवाजें रसोई तक आ रही थीं. कुछ देर बाद सारिका उन्हें बुलाने सीढि़यों पर चढ़ी तो देखा मोहित स्वीटी की कमर में हाथ डाले उस से सट कर खड़े थे. स्वीटी इधरउधर हाथ से इशारा कर के अपनी बात कहने में लगी थी, पर मोहित की आंखें भूखे भेडि़ए की तरह उसे देख रही थीं.

 

मैं ने जरा देर में जाना

‘‘सुबहसे बारिश लगी है. औफिस जाते हुए मु?ो कार से सत्संग भवन तक छोड़ दो न,’’ अनुरोध के स्वर में एकता ने अपने पति प्रतीक से कहा तो उस के माथे पर बल पड़ गए.

‘‘सत्संग? तुम कब से सत्संग और प्रवचन के लिए जाने लगीं? जिस एकता को मैं 2 साल से जानता हूं वह तो जिम जाती है, सहेलियों के साथ किट्टी पार्टी करती है और मेरे जैसे रूखे

पति की प्रेमिका बन कर उस की सारी थकान दूर कर देती है. सत्संग में कब से रुचि लेने लगीं? घर पर बोर होती हो तो मेरे साथ औफिस चल कर पुराना काम संभाल सकती हो, मु?ो खुशी होगी. इन चक्करों में पड़ना छोड़ दो, यार,’’ एकता के गाल को हौले से खींचते हुए प्रतीक मुसकरा दिया, ‘‘अब मैं चलता हूं. शाम को मसाला चाय के साथ गोभी के पकौड़े खाऊंगा तुम्हारे हाथ के बने,’’ अपने होंठों को गोल कर हवा में चुंबन उछालता हुआ प्रतीक फरती से दरवाजा खोल बाहर निकल गया.

एकता ने मैसेज कर अपनी सहेली रुपाली को बता दिया कि वह आज सत्संग में नहीं आएगी. बु?ो मन से कपड़े बदलकर बैड पर बैठे हुए वह एक पत्रिका के पन्ने उलटने लगी और साथ ही अपने पिछले दिनों को भी. 2 वर्ष पूर्व प्रतीक को पति के रूप में पा कर जैसे उस का कोई स्वप्न साकार हो गया था. प्रतीक गुरुग्राम की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर था और एकता वहां रिसैप्शनिस्ट. प्रतीक दिखने में साधारण किंतु अपने भीतर असीम प्रतिभा व अनेक गुण समेटे था.

एकता गौर वर्ण की नीली आंखों वाली आकर्षक युवती थी. जब कंपनी की ओर से एकता को प्रतीक का पीए बनाया गया तो दोनों को पहली नजर में इश्क सा कुछ लगा. एकदूसरे को जानने के बाद वे और करीब आ गए. बाद में दोनों के परिवारों की सहमति से विवाह भी हो गया.

प्रतीक जैसे सुल?ो व्यक्ति को पा कर एकता का जीवन सार्थक हो गया था. एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी एकता के पिता की पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में परचून की दुकान थी. परिवार में एकता के अतिरिक्त मातापिता और भाई व भाभी थे. ग्रैजुएशन के बाद एकता ने औफिस मैनेजमैंट में डिप्लोमा कर गुरुग्राम की कंपनी में काम करना शुरू किया था.

प्रतीक एक मध्यवर्गीय परिवार से जुड़ा था, जिस में एक भाई प्रतीक से बड़ा और एक छोटा था. बहन इकलौती व उम्र में सब से बड़ी थी. प्रतीक का बड़ा भाई शेयर बेचने वाली एक छोटी सी कंपनी में अकाउंटैंट था और छोटा बैंक अधिकारी था. मातापिता अब इस दुनिया में नहीं थे. विवाह से पहले प्रतीक दिल्ली के पटेल नगर में बने अपने पुश्तैनी घर में रहता था. बाद में गुरुग्राम में 2 कमरों का मकान किराए पर ले कर रहने लगा था.

विवाह के बाद स्वयं को एक संपन्न पति की पत्नी के रूप में पा कर एकता जितनी प्रसन्न थी उतनी ही वह प्रतीक के इस गुण के कारण कि वह संबंधों के बीच अपने पद व रुपएपैसों को कभी भी नहीं आने देता. निर्धन हो या धनी सभी का वह समान रूप से सम्मान करता था.

एकता का सोचना था कि प्रतीक विवाह के बाद उसे नौकरी पर जाने के लिए मना कर देगा क्योंकि मैनेजर की पत्नी का उस के अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ काम करना शायद प्रतीक को अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन प्रतीक ने ऐसा नहीं किया. दफ्तर में एकता के प्रति उस का व्यवहार पूर्ववत था.

विवाह के 1 वर्ष बाद जीवन में नए मेहमान के आने की आहट हुई. अभी प्रैगनैंसी को 3 माह ही हुए थे कि एकता का ब्लड प्रैशर हाई रहने लगा. अपने स्वास्थ्य को देखते हुए एकता ने नौकरी छोड़ दी. घर पर काम करने के लिए फुल टाइम मेड थी, इसलिए उस का अधिकतर समय फेसबुक और व्हाट्सऐप पर बीतने लगा. प्रतीक उस की तबीयत में खास सुधार न दिखने पर डाक्टर से संपर्क के लिए जोर डालता रहा, लेकिन एकता किसी व्हाट्सऐप गु्रप में बताए देशी नुसखे आजमाती रही.

जब उस की तबीयत दिनबदिन बिगड़ने लगी तो प्रतीक अस्पताल ले गया. डाक्टर की देखरेख में स्वास्थ्य कुछ सुधरा, लेकिन समय से पहले डिलिवरी हो गई और बच्चे की जान चली गई. प्रतीक उसे अकेलेपन से जू?ाते देख वापस काम पर चलने को कहता लेकिन एकता तैयार न हुई.

पड़ोस में रहने वाली रुपाली ने एकता को सोसायटी की महिलाओं के गु्रप में शामिल कर लिया. वे सभी पढ़ीलिखी थीं. एकदूसरे का बर्थडे मनाने, किट्टी आयोजित करने और घूमनेफिरने के अलावा वे शंभूनाथ नामक पंडितजी के सत्संग में भी सम्मिलित हुआ करती थीं. पुराणों की कथा सुनाते हुए शंभूनाथजी मानसिक शांति की खोज के मार्ग बताते थे. सब से सुविधाजनक रास्ता उन के अनुसार विभिन्न अवसरों पर सुपात्र को दान देने का था. दान देने के इतने लाभ वे गिनवा देते थे कि एकता की तरह अन्य श्रोताओं को भी लगने लगा था कि थोड़ेबहुत रुपएपैसे शंभूनाथजी को दे देने से जीवन सफल हो जाएगा.

एक दिन प्रवचन सुनाते हुए शंभूनाथजी ने अनजाने में होने वाले पापों के दुष्परिणाम की बात की. सुन कर एकता सोच में पड़ गई. अंत में उस ने निष्कर्ष निकाला कि उसके नवजात की मृत्यु का कारण संभवत: उस से अज्ञानतावश हुआ कोई पाप होगा. पंडित शंभूनाथ की कुछ अन्य बातों ने भी उस पर जादू सा असर किया और उन के द्वारा दिखाए मार्ग पर चलना उसे सही लगने लगा.

आज प्रतीक का शुष्क प्रश्न कि वह कब से सत्संग में जाने लगी, उसे अरुचिकर लग रहा

था. सोच रही थी कि प्रतीक तो उस की प्रत्येक बात का समर्थन करता है, आज न जाने क्यों सत्संग जाने की बात पर वह अन्यमनस्क हो उठा. शाम को प्रतीक के लौटने तक वह इसी उधेड़बुन में रही.

रात का खाना खा कर बिस्तर पर लेटे हुए दोनों विचारमग्न थे कि प्रतीक बोल उठा, ‘‘अलमारी में पुराने कपड़ों का ढेर लग गया है. सोच रहा हूं मेड को दे देंगे.’’

‘‘हां, बहुत से कपड़े खरीद तो लिए हैं मैं ने, लेकिन पहनने का मौका नहीं मिला. नएनए पहन लेती हूं हर जगह. कल ही दे दूंगी. अच्छा सुनो, इस बात से याद आया कि कुछ पैसे चाहिए मु?ो. कल सत्संग भवन में हमारे गु्रप की ओर से दान दिया जाएगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पंडितजी ने कहा था कि दान देने से न सिर्फ इस जीवन में बल्कि अगले जन्म में भी कष्ट पास नहीं फटकते.’’

‘‘देखो एकता, तुम अपने पर कितना भी खर्च करो मु?ो ऐतराज नहीं, ऐतराज तो छोड़ो बल्कि मैं तो चाहता हूं कि तुम मौजमस्ती करो और खूब खुश रहो. तुम्हारा यों पंडितजी की बातों में आ कर व्यर्थ पैसे लुटा देना सही नहीं लग रहा मु?ो तो.’’

‘‘गु्रप में फ्रैंड्स को क्या जवाब दूंगी?’’ मुंह बनाते हुए एकता ने पूछा.

‘‘मेरे विचार से तुम्हें उन लोगों को भी सही दिशा दिखानी चाहिए.’’

प्रतीक की इस बात को सुन एकता निरुत्तर हो गई.

गु्रप की महिलाएं रुपयेपैसे के अतिरिक्त फल, अनाज व मिठाई भी पंडितजी को दिया

करती थीं, लेकिन एकता मन मसोस कर रह जाती. एकता के बारबार कहने पर भी प्रतीक का दान देने की बात पर नानुकुर करना उसे रास नहीं आ रहा था. आर्थिक स्तर पर अपने से निम्न संबंधियों से प्रतीक का मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना, मेड को पुराने कपड़े, खाना व कंबल आदि देने को कहना तथा ड्राइवर के बेटे की पुस्तकें खरीदना एकता को असमंजस में डाल रहा था. दूसरों की मदद को सदैव तत्पर प्रतीक दानपुण्य के नाम से क्यों बिफर उठता है, इस प्रश्न का उत्तर उसे नहीं मिल पा रहा था.

शंभूनाथजी ने वट्सऐप ग्रुप बना लिया था. उस पर वे विभिन्न अवसरों, तीजत्योहारों आदि पर दान देने के मैसेज डालने लगे थे. प्रत्येक मैसेज के साथ दान की महत्ता बताई जाती. सुख, शांति व पापों से मुक्ति इन सभी के लिए दानदक्षिणा को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करना बताया जाता.

गु्रप की सभी महिलाओं के बीच होड़ सी लग जाती कि कौन शंभूनाथजी को अधिक से अधिक दान दे कर न केवल स्वयं को बल्कि परिवार को भी पापों से मुक्ति दिलवाने का महान प्रयास कर रहा है? एकता भी इस से अछूती न रही. प्रतीक से किसी न किसी बहाने पैसे मांग कर वह पंडितजी को दे देती थी. मन ही मन इस के लिए वह अपने को दोषी भी नहीं मानती थी क्योंकि उस का विचार था कि इस से प्रतीक पर भी कष्ट नहीं आएंगे. सत्संग में विभिन्न कथाएं सुनकर वह भयभीत हो जाती कि विपरीत भाग्य होने पर किसी व्यक्ति को कैसेकैसे कष्ट ?ोलने पड़ते हैं. मन ही मन वह उन सखियों का धन्यवाद करती जिन के कारण वह पंडितजी के संपर्क में आई थी वरना नर्क में जाने से कौन रोकता उसे.

उस दिन प्रतीक औफिस से लौटा तो चेहरे की आभा देखते ही एकता सम?ा गई कि कोई प्रसन्नता का समाचार सुनने को मिलेगा. यह सच भी था. प्रतीक को कंपनी की ओर से प्रमोशन मिली थी. शाम की चाय पीकर प्रतीक एकता को घर से दूर कुछ दिनों पहले बने एक फाइवस्टार होटल में ले गया.

कैंडल लाइट डिनर में एकदूसरे की उपस्थिति को आत्मसात करते हुए दोनों भविष्य के नए सपने बुन रहे थे. प्रतीक ने बताया कि अब वह एक आलीशान फ्लैट खरीदने का मन बना चुका है.

खुशी से एकता का अंगअंग मुसकराने लगा. खाने के बाद प्रतीक डिजर्ट मंगवाने के लिए मैन्यू देखने लगा तो एकता ने मोबाइल पर मैसेज पढ़ने शुरू कर दिए. सत्संग गु्रप में आज शंभूनाथजी ने जिस विषय पर पोस्ट डाली थी वह था कि किस प्रकार खुशियों को कभीकभी बुरी नजर लग जाती है और काम बनतेबनते बिगड़ने लगते हैं.

ऐसे में कुछ रुपए या सामान द्वारा नजर उतार कर दान कर देना चाहिए. इस से नजर का बुरा असर उस वस्तु के साथ दानपात्र के पास चला जाता है. गु्रप में कई महिलाओं ने अपने अनुभव बांटे थे कि कैसे जीवन में कुछ अच्छा होते ही अचानक उन के साथ अप्रिय घटना घट गई.

‘‘उफ, कब से आ रहा है बुखार. टेस्ट की रिपोर्ट कब तक मिलेगी,’’ प्रतीक की आवाज कानों में पड़ी तो एकता ने अपना मोबाइल पर्स में रख दिया. प्रतीक के मोबाइल पर बड़ी बहन प्रियंका ने कौल किया था, उस से ही बात हो रही थी प्रतीक की. प्रियंका आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं थी, लेकिन वह या उस का पति मुकेश अपनी स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयास भी करते तो वह केवल परिचितों से पैसे मांगने तक ही सीमित था.

पेशे से इलैक्ट्रिक इंजीनियर मुकेश की कुछ वर्षों पहले नौकरी चली गई थी. वह उस समय बिजली का सामान बेचने का व्यवसाय शुरू करना चाहता था, जिस में प्रतीक ने आर्थिक रूप से मदद कर व्यवसाय शुरू करवा दिया था. कुछ समय तक सब ठीक रहा, लेकिन मुकेश बाद में कहने लगा कि इस बिजनैस में खास कमाई नहीं हो रही और अब एक अंतराल के बाद नौकरी लगना भी मुश्किल है.

ऐसे में प्रियंका बारबार अपने को दयनीय स्थिति में बता कर पैसों की मांग करने लगती थी. प्रतीक के बड़े भाई की आमदनी अधिक नहीं थी और छोटे की तुलना में भी प्रतीक की सैलरी ही अधिक थी तो सारी आशाएं प्रतीक पर आ कर टिक जाती थीं. प्रतीक यथासंभव मदद भी करता रहता था.

आज प्रियंका का फोन आया तो एकता की सांस ठहर गई. वह सम?ा गई थी कि कोई नई मांग की होगी प्रियंका दीदी ने. उसे पंडितजी का मैसेज याद आ रहा था कि खुशियों को कभीकभी बुरी नजर लग जाती है. कुछ देर पहले वह फ्लैट लेने की योजना बनाते हुए कितनी खुश थी. अब प्रियंका की आर्थिक मदद करनी पड़ेगी तो पता नहीं प्रतीक फ्लैट लेने की बात कब तक के लिए टाल देगा.

उस ने घर पहुंच कर नजर उतार कुछ रुपए शंभूनाथजी को देने का मन बना लिया क्योंकि भोगविलास से दूर भक्ति में लीन साधारण जीवन जीने वाला उन जैसा व्यक्ति ही ऐसे दान का पात्र हो सकता है. शंभूनाथजी दान का पैसा कल्याण में ही लगा रहे होंगे इस बात पर पूरा भरोसा था उसे. प्रतीक को प्रियंका से बात करते देख एकता ने प्रतीक की पसंदीदा पान फ्लेवर की आइसक्रीम मंगवा ली.

‘‘दीदी ने की थी कौल?’’ आइसक्रीम का स्पून मुंह में रखते हुए एकता ने पूछा.

‘‘हां, घर चल कर बात करेंगे,’’ प्रतीक जैसे किसी निर्णय पर पहुंचने का प्रयास कर रहा था.

आइसक्रीम के स्वाद और विचारों में डूबे हुए अचानक एकता का ध्यान सामने वाली टेबल पर चला गया. उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि वहां शंभूनाथजी विभिन्न व्यंजनों का आनंद ले रहे थे. सत्संग के दौरान दिखने वाले रूप से विपरीत वे धोतीकुरते के स्थान पर जींस और टीशर्ट पहने थे, चेहरे पर प्रवचन देते समय खिली हुई मंदमंद मुसकान जोरदार ठहाकों में बदली हुई थी. अपने को संयासी बताने वाले शंभूनाथजी के पास वाली कुरसी पर एक महिला उन से सट कर बैठी थी.

तभी वेटर ने महिला के सामने प्लेट में सजा केक रख दिया. शंभूनाथजी ने महिला का हाथ पकड़ कर केक कटवाया और हौले से ‘हैप्पी बर्थडे’ जैसा कुछ कहा. जब अपने हाथ से केक का टुकड़ा उठा कर शंभूनाथजी ने महिला के मुंह में डाला तो एकता की आंखें फटी की फटी रह गईं. उत्साह और अनुराग शंभूनाथ व महिला पर तारी था.

‘तो यह है कल्याणकारी काम जिस पर शंभूनाथजी दान का रूपयापैसा खर्च करते हैं.’ सोच कर एकता सकते में आ गई.

 

घर लौटने पर प्रतीक ने फोन के बारे में बताया. एकता का संदेह सच

निकला. प्रियंका ने इस बार बताया था कि मुकेश की अस्वस्थता के कारण वे मकान का किराया नहीं दे सके. मकान मालिक परेशान कर रहा है, माह का सारा वेतन दवाई में खर्च हो गया.

‘‘तो कितने पैसे भेजने पड़ेंगे उन लोगों को?’’ एकता न रानी सूरत बना कर पूछा.

‘‘बहुत हुआ बस. अब नहीं,’’ प्रतीक छूटते ही बोला.

‘‘मतलब इस बार आप कुछ पैसे नहीं…’’

‘‘हां, बहुत मदद की है मैंने दीदी, जीजाजी की. ये लोग स्वयं पर बेचारे का ठप्पा लगवा कर उस का फायदा उठा रहे हैं,’’ एकता की बात पूरी होने से पहले ही प्रतीक बोल उठा, ‘‘बुरे वक्त में किसी से मदद मांगना अलग बात है, लेकिन दूसरों की कमाई पर नजर रख अपने को असहाय दिखाते हुए दूसरों से पैसे ऐंठना और बात. पता है तुम्हें पिछले साल जब मैं औफिशियल टूर पर अहमदाबाद गया तो था प्रियंका के घर रुका था 1 दिन के लिए.’’

‘‘हां, याद है.’’ छोटा सा उत्तर दे कर एकता आगे की बात जानने के लिए टकटकी लगाए प्रतीक को देख रही थी.

‘‘मेरे वहां जाने से कुछ दिन पहले ही अपने बेटे कार्तिक की फीस और बुक्स खरीदने के बहाने पैसे मांगे थे मु?ा से उन लोगों ने, वहां जा कर देखा तो कार्तिक के लिए एक नामी ब्रैंड का महंगा मोबाइल फोन खरीदा हुआ था. मैं ने ऐतराज जताया तो प्रियंका दीदी बोलीं कि यह तो इसे गाने की एक प्रतियोगिता जीतने पर मिला है. मुकेश जीजाजी ने कार भी तभी खरीदी थी. क्या जरूरत थी कार लेने की जब फीस तक देने को पैसे नहीं थे उन के पास? मन ही मन मु?ो बहुत गुस्सा आया. मैं सम?ा गया कि इन्हें अपने सुखद जीवन के लिए जो पैसा चाहिए उसे ये दोनों इमोशनल ब्लैकमेल कर हासिल कर रहे हैं. उसी दिन मैं ने फैसला कर लिया कि रिश्तों को केवल सम्मान दूंगा भविष्य में.’’

‘‘आप ने यह मु?ो पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘मैं सही समय की प्रतीक्षा में था.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘देखो एकता मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं कि तुम सत्संग में जाती हो. मैं जानता हूं कि वहां धर्म, कर्म के नाम से डराया जाता है. समयसमय पर दान का महत्त्व बता रुपएपैसे ऐंठने का चक्रव्यूह रचा जाता है. खूनपसीने की कमाई क्या निठल्ले लोगों पर उड़ानी चाहिए? फिर वह चाहे मेरी बहन हो या कोई साधू बाबा.’’

प्रतीक की बात सुन एकता किसी अपराधी की तरह स्पष्टीकरण देते हुए बोली, ‘‘मैं तो इसलिए दान देने की बात कहा करती थी कि सुना था इस से भला होता है.’’

‘‘कैसा भला? क्या उसी डर से दूर कर देना भला कहा जाएगा है जो डर जबरदस्ती पहले मन में बैठाया जाता है.’’

एकता सब ध्यान से सुन रही थी.

‘‘सोनेचांदी की वस्तुओं के दान से पाप धुल जाते हैं, रुपएपैसे व अन्य सामान का समयसमय पर दान किया जाए तो स्वर्ग मिलता है, ग्रहण लगे तो दान करो ताकि उस के बुरे प्रभावों से बचा जा सके, परिवार में जन्म हो तो भविष्य में सुख के लिए और मृत्यु हो तो अगले जन्म में शांति व समृद्धि के लिए दान पर खर्च करो. सत्संग में ऐसा ही कुछ बताया जाता होगा न,’’ प्रतीक ने पूछा तो एकता ने हां में सिर हिला दिया.

‘‘तो बताओ किसने देखा है स्वर्ग. क्या ऐसा नहीं लगता कि स्वर्गनर्क की अवधारणा ही व्यक्तिको डराए रखने के लिए की गई है, अगले जन्म की कल्पना कर के सुख पाने की इच्छा से इस जन्म की गाढ़ी कमाई लुटा देना कहां की सम?ादारी है? ग्रह, नक्षत्रों, सूर्य और चंद्रग्रहण का बुरा प्रभाव कैसे होगा जबकि ये केवल खगोलीय घटनाएं है? ये बेमतलब के डर मन में बैठाये गए हैं कि नहीं? तुम से एक और सवाल करता हूं कि यदि दान देने से पाप दूर हो जाते हैं तो इस का मतलब यह हुआ कि जितना जी चाहे बुरे कर्म करते रहो और पाप से बचने के लिए दान देते रहो, यह क्या सही तरीका है जीने का?’’

‘‘नहीं, यह रास्ता तो अनाचार को बढ़ा कर व्यक्ति को गलत दिशा में ले जा सकता है,’’ एकता के सामने सच की परतें खुल रही थीं.

‘‘मैं देखता हूं कि लोग पटरी पर धूप और ठंड में सामान बेचने वालों से पैसेपैसे का मोलभाव करते हैं, नौकरों को मेहनत के बदले तनख्वाह देने से पहले सौ बार सोचते हैं कि कहीं ज्यादा तो नहीं दे रहे. पसीने से लथपथ रिकशे वाले से छोटी सी रकम का सौदा करते हैं और वही लोग दानपुण्य संबंधी लच्छेदार बातों में फंस कर बेवजह धन लुटा देते हैं.’’

शंभूनाथ का होटल में बदला हुआ रूप देख कर एकता का मन पहले ही खिन्न था. इन सब बातों को सम?ाते हुए वह बोल उठी, ‘‘विलासिता का जीवन जीने की चाह में दूसरों को बेवकूफ बनाते हैं कुछ लोग. दान देना तो सचमुच निठल्लेपन को बढ़ाना ही है. किसी हृष्टपुष्ट को बिना मेहनत के क्यों दिया जाए? इस से हमारा तो नहीं बल्कि उस का जीवन सुखद हो जाएगा. देना ही है तो किसी शरीर से लाचार को, अनाथाश्रम या गरीब के बच्चे की पढ़ाई के लिए देना चाहिए और मैं ऐसा ही करूंगी अब.’’

प्रतीक मुसकरा उठा, ‘‘वाह, तुम कितनी जल्दी सम?ाती हो कि मैं कहना क्या चाह रहा हूं, इसलिए ही तो इतना प्यार करता हूं तुम्हें. जो अभी तुम ने कहा वही तो दीदी, जीजाजी को अब पैसे न भेजने का कारण है. जब वे लोग मुश्किल में थे मैं ने हर तरह से सहायता की. अब उन को गुजारे के लिए नहीं अपनी जिंदगी मजे से बिताने के लिए पैसे चाहिए. जहां धर्म में डर का जाल बिछा कर पैसे निकलवाए जाते हैं, वहां दीदी, जीजाजी अपनी बेचारगी का बहाना बना मु?ो बेवकूफ बना रहे हैं. मैं दान या मदद के नाम पर निकम्मेपन को बढ़ावा नहीं दूंगा, कभी नहीं.’’

‘‘सोच रही हूं व्हाट्सऐप के सत्संग गु्रप में जो फ्रैड्स हैं आज उन सब से बात करूं ताकि वे भी उस सचाई को जान सकें जिसे मैं ने जरा देर में जाना है,’’ प्रतीक की ओर मुसकरा कर देखने के बाद एकता अपना मोबाइल ले कर सखियों को कौल करने चल दी.

साठ पार का प्यार – भाग 3

फिट है, तो जो पहनती है उस पर फबता भी है. सुंदर लगती है, तो उस का आत्मविश्वास भी बना रहता है खुद पर. सेहत अच्छी है, तो हर तरह के मनोरंजन में हिस्सा भी लेती है. घर के सारे काम भी कर लेती है. सामाजिक कामों में सक्रिय रहती है और अपनी सखीसहेलियों के साथ मस्ती भी कर लेती है.

आजकल समीर का ध्यान घर के नौकरचाकरों से हट कर सुहानी पर केंद्रित हो गया था. इसलिए घर में काम करने वाले राहत महसूस कर रहे थे.

बच्चों के साथ भी सुहानी का जुड़ाव अच्छा था बिलकुल दोस्तों जैसा. फोन पर बच्चों से बात करती तो कोई पता नहीं लगा सकता कि बच्चों से बात कर रही है या हमउम्र से. जबकि समीर बच्चों के साथ फोन पर बातचीत में गंभीरता ओढ़े रहते. बच्चे भी उन से सिर्फ मतलब की बात करते, फिर गप मम्मी से ही मारते.

अगले दिन सुहानी ने ऐलान किया कि उस की मित्रमंडली पिकनिक जा रही है. शाम को लौटने में थोड़ी देर हो जाएगी. समीर चाहे तो पूरे दिन का अपना कोई प्रोग्राम बना सकते हैं.

‘‘तुम पूरे दिन के लिए चली जाओगी, तो मैं क्या करूंगा पूरे दिन अकेले?’’ समीर आश्चर्य से बोले.

‘‘अब क्या करूं डियर, खुद से प्यार करना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी न. यों घर में रह कर मैं खुद को सजा नहीं दे सकती. तुम्हें तो घर में बैठना पसंद है, पिकनिक जाना, पिक्चर देखना, घूमनाफिरना तुम्हें अच्छा नहीं लगता. इसलिए मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती. पर मैं खुद से प्यार करने लगी हूं, इसलिए खुद की खुशी के लिए जो मुझे पसंद है वह तो मैं करूंगी. अभी तो हमारा शहर से बाहर जाने का प्रोग्राम भी बन रहा है कुछ दिनों का. यह सब तो अब चलता ही रहेगा. तुम अकेले रहने की आदत अब डाल ही लो.

‘‘और फिर, मैं जब खुद खुश रहूंगी तभी तो तुम से…’’ सुहानी ने बात फिर से अधूरी छोड़ दी. समीर के दिल की धड़कन तेज हो गई. सुहानी आजकल तीर सीधे उन के दिल पर छोड़ने लगी थी. अब अकसर यही होने लगा. सुहानी का प्रोग्राम कभी कहीं और कभी कहीं का बन जाता. वह दिनोंदिन और भी खुश होती दिखाई दे रही थी.

कभीकभी समीर को लगता, कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं. कहीं सुहानी इस उम्र में हाथ से तो नहीं निकली जा रही. आम कुरतासलवार और साड़ी पहनने वाली सुहानी इन दिनों अपने कपड़ों में भी तरहतरह के प्रयोग करने लगी थी. कभी कुरती के साथ लहंगा, कभी पैंट्स, कभी प्लाजो, कभी फ्लेयर्स, जो भी शालीन फैशन था अपनाने लगी थी. उस की दोस्ती कालोनी की अपने से कम उम्र की महिलाओं से होने लगी थी. बहू से उस की बातें मेकअप, फैशन, नई फिल्मों, हीरोहीरोइनों व क्रिकेटरों को ले कर होतीं. यह नहीं कि ‘हमारे जमाने में ये होता था…हमारे जमाने में वो होता था.’

खुद से प्यार करना इतना अच्छा होता है क्या? समीर बारबार सोचने के लिए मजबूर हो जाते. सुहानी खुद से प्यार कर के इतनी बदल सकती है तो वे खुद क्यों नहीं.

सुबह नाश्ते में सुहानी समीर के टोस्ट पर मक्खन की मोटी परत लगा रही थी, ‘‘अरे, यह क्या कर रही हो सुहानी. खुद तो सूखा टोस्ट खाती हो और मेरे टोस्ट पर इतना मक्खन लगा रही हो. कितना वजन बढ़ गया है मेरा. तुम नहीं चाहतीं कि मेरा वजन कम हो. कल से फल, दूध, दही, दलिया वगैरह दिया करो, ये घीमक्खन आदि सब बंद.’’

‘‘क्यों?’’ सुहानी हैरानी से बोली हालांकि अंदर से वह खुश हुई जा रही थी, ‘‘तुम्हें तो टोस्ट पर जब तक ज्यादा मक्खन न लगे, मजा नहीं आता, बिना घी की छौंक लगे दाल हजम नहीं होती. परांठा भी एक दिन छोड़ कर देशी घी या मक्खन में बनना चाहिए. पूरीकचौड़ी, पकौड़े भी तुम्हें बहुत पसंद हैं अभी भी.’’

‘‘मैं ने कह दिया न कि अब सब बंद. जो मैं कह रहा हूं वही करो,’’ समीर दिखावटी गुस्से में बोले.

खाने के बाद सुहानी स्वीटडिश ले आई. समीर को खाने के बाद मीठा जरूर चाहिए था. इस के अलावा भी उन्हें मीठा बहुत पसंद था.

‘‘अरे, तुम यह मीठा बनाना जरा कम करो सुहानी. क्यों बनाती हो इतना मीठा, बना देती हो, फिर खाना पड़ता है,’’ समीर सारा दोष उस के सिर पर मढ़ते हुए बोले.

‘‘हां, पर तुम्हें पसंद है, तभी बनाती हूं. नहीं बनाती हूं तो तुम गुड़ या चीनी ही खा जाते हो. पर मीठा तुम्हें जरूर चाहिए खाने के बाद,’’ सुहानी अपनी मुसकान छिपाते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे लिए ही बनाती हूं, मैं तो खाती भी नहीं हूं.’’

‘‘वही तो, तुम तो चाहती हो कि तुम दुबलीपतली रहो और मैं फैल कर एक क्ंिवटल का हो जाऊं.’’

सुहानी हतप्रभ हो समीर को देखती रह गई. समीर आगे बोले, ‘‘ऐसे क्या देख रही हो, कल से रोज का मीठा बंद. देखा नहीं था पिछली बार शुगर नौर्मल लिमिट को क्रौस कर गई थी. पर तुम्हें मेरी सेहत का जरा भी खयाल नहीं. और होगा भी कैसे, तुम्हें अपने सैरसपाटे, पिकनिक, सहेलियों से फुरसत मिले तब तो. हां, कभीकभार की बात अलग है.’’

सुहानी अपलक समीर को देखती  रह गई. चित भी मेरी पट भी मेरी. ‘‘ठीक है,’’ वह स्वीटडिश उठाती हुई बोली, ‘‘जैसा तुम कहो. मुझे तो खुद के बाद तुम से ही प्यार करना है.’’ सुहानी तिरछी नजर से समीर को देख रही थी, समीर घायल होतेहोते बचे.

‘खानपान और दिनचर्या पर कंट्रोल रखना पति या पत्नी पर एकदूसरे की बस की बात नहीं होती. जबरदस्ती करने या टोकाटाकी करने से झगड़ा होने का पूरापूरा अंदेशा रहता है. यह तभी हो सकता है जब खुद अंदर से ही सोच आ जाए,’ सुहानी ने यह सोचा.

एक दिन समीर से मिलने 2 आदमी आए. समीर अंदर आए, सुहानी से चाय बनाने के लिए कहा. थोड़ी देर बाद दोनों आदमी चले गए.

‘‘कौन थे ये, पहले तो कभी नहीं देखा इन्हें?’’ सुहानी बोली.

‘‘यहां एक संस्था है गोकुल,’’ समीर बोले, ‘‘जो विकलांग लोगों के लिए काम करती है. ये दोनों उसी संस्था के लिए काम करते हैं. मैं सोचता हूं सुहानी, गोकुल संस्था मैं भी जौइन कर लूं. समय भी अच्छा बीतेगा, बिजी भी रहूंगा और एक नेक काम भी होगा. क्यों, तुम क्या कहती हो?’’ समीर ने सुहानी की तरफ देखा.

‘‘मैं क्या कहूंगी, जो तुम ने सोचा, ठीक ही सोचा होगा,’’ सुहानी बोली और मन ही मन सोचा, ‘घर में भी सुखशांति रहेगी, काम वाले भी आराम से काम करेंगे.’

दूसरे दिन जब सुहानी जौगिंग के  लिए तैयार हो कर कमरे से बाहर  आई तो लौबी में समीर को ट्रैक सूट व जूतों से लैस पाया. वह खुशी से भीगी आंखों से समीर को देखती रह गई. वह तो यही सोच रही थी कि समीर अभी भी बिस्तर पर गुड़मुड़ सो रहे होंगे. उस ने ध्यान भी नहीं दिया कि कब समीर उठ कर दूसरे बाथरूम में जा कर तैयार हो कर आ गए.

‘‘समीर तुम? आज इतनी जल्दी कैसे उठ गए?’’ सुहानी करीब आ कर खड़ी हो गई, ‘‘कहां जा रहे हो?’’

‘‘लव इन सिक्सटीज डियर,’’ समीर उसी के अंदाज में उस के गालों पर चिकौटी काट कर होंठों को उंगली से सहलाते हुए बोले, ‘‘मैं ने सोचा कि तुम ही क्यों, मैं क्यों नहीं प्यार कर सकता सिक्सटी में खुद से. खुद से प्यार करूंगा, तभी तो तुम से…’’ कह कर समीर बहकने का नाटक करते हुए उस की तरफ झुक गए.

‘‘ऊं हूं,’’ सुहानी पीछे हटती हुई बोली, ‘‘मुझ से अभी नहीं. पहले खुद से तो ठीक से प्यार करना सीख लो. लेकिन सोच लो, प्यार की डगर बहुत कठिन होती है, फिसलनभरी होती है. बहुत हिम्मत, सब्र व लगन के साथ आगे बढ़ना पड़ता है. फिर चाहे प्यार खुद से करना हो या दूसरे से. कर पाओगे? बीच राह में हिम्मत तो नहीं हार जाओगे?’’

‘‘अब प्यार किया तो डरना क्या, ओखली में सिर दे दिया तो मूसल से क्या डरना. औरऔर…’’

‘‘बस, बस. बहुत हो गए मुहावरे,’’ सुहानी हंसती हुई बोली.

‘‘ओके डार्लिंग, मैं चला,’’ कह कर समीर 2 उंगलियों से स्टाइल से बाय कहते हुए बाहर निकल गए.

अपनी जीत पर मन ही मन मुसकराती सुहानी ने मेन दरवाजे की चाबी घुमाई और दौड़ती हुई समीर की बगल में जा कर कदमताल करती हुई दौड़ने लगी. सुबह का खूबसूरत समां था. पक्षियों का दिलकश कलरव था और सिक्सटीज की उम्र में खुद से प्यार करने का कुछ अलग ही मजा था.

सिर्फ कहना नहीं है

अलकाऔर संदीप को कोरोना से ठीक हुए 2 महीने हो चुके थे पर अजीब सी कमजोरी थी जो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी. कहां तो रातदिन भागभाग कर पहली मंजिल से नीचे किचन की तरफ जाने के चक्कर कोई गिन ही नहीं सकता था पर अब तो अगर उतर जाती तो वापस ऊपर बैडरूम तक आने में नानी याद आ जाती.

संदीप ने तो ऊपर ही बैडरूम में अपना थोड़ाथोड़ा वर्क फ्रौम होम शुरू कर दिया था. थक जाते तो फिर आराम करने लगते. पर अलका क्या करे. हालत संभलते ही अपना चूल्हाचौका याद आने लगा था. अलका और संदीप एक हौस्पिटल में 15 दिन एडमिट रहे थे. बेटे सुजय का विवाह रश्मि से सालभर पहले ही हुआ था. दोनों अच्छी  कंपनी में थे. अब तो काफी दिनों से वर्क फ्रौम होम कर रहे थे. सुंदर सा खूब खुलाखुला सा घर था, नीचे किचन और लिविंगरूम था, 2 कमरे थे जिन में से एक सुजय और रश्मि का बैडरूम था और दूसरा रूम अकसर आनेजाने वालों के काम आ जाता. सुजय से बड़ी सीमा जब भी परिवार के साथ आती, उसी रूम में आराम से रह लेती. सीमा दिल्ली में अपनी ससुराल में जौइंट फैमिली में रहती थी और खुश थी. अब तक किचन की जिम्मेदारी पूरी तरह से अलका ने ही संभाल रखी थी. वह अभी तक स्वस्थ रहती तो उसे कोई परेशानी भी नहीं थी. मेड के साथ मिल कर सब ठीक से चल जाता.

आज बहुत दिन बाद अलका किचन में आई तो आहट सुन कर जल्दी से रश्मि भागती सी आई, ‘‘अरे मम्मी, आप क्यों नीचे उतर आई, कल भी आप को चक्कर आ गया था… पसीना पसीने हो गई थीं. मु?ो बताइए, क्या चाहिए आप को?’’

‘‘नहीं, कुछ चाहिए नहीं, बहुत आराम कर लिया, थोड़ा काम शुरू करती हूं,’’ कहतेकहते अलका की नजर चारों तरफ दौड़ी, उसे ऐसा लगा जैसे यह उस की किचन नहीं वह किसी और की किचन में खड़ी है.

अलका के चेहरे के भाव सम?ा गई रश्मि, बोली, ‘‘मम्मी, आप सब तो बहुत लंबे हो. मैं तो आप सब से लंबाई में बहुत छोटी हूं, मेरे हाथ ऊपर रखे डब्बों तक पहुंच ही नहीं पाते थे… और भी जो सैटिंग थी वह मु?ो सूट नहीं कर रही थी.  अत: मैं ने अपने हिसाब से किचन नए तरीके से सैट कर ली. गलत तो नहीं किया न?’’

क्या कहती अलका… शौक सा लगा उसे किचन का बदलाव देख कर… उस की सालों की व्यवस्था जैसे किसी ने अस्तव्यस्त कर दी… जहां जीवन का लंबा समय बीत गया, वह जगह जैसे एक पल में पराई सी लगी. मुंह से बोल ही न फूटा.

रश्मि ने दोबारा पूछा, ‘‘मम्मी, क्या

सोचने लगीं?’’

अकबका गई अलका. बस किसी तरह इतना ही कह पाई, ‘‘कुछ नहीं, तुम ने तो बहुत काम कर लिया सैटिंग का… तुम्हारे सिर तो खूब काम आया न.’’

‘‘आप दोनों ठीक हो गए… बस, काम का क्या है, हो ही जाता है.’’

अलका थोड़ी देर जा कर सोफे पर बैठी रही. रश्मि उस के पास ही अपना लैपटौप उठा लाई थी. थोड़ी बातें भी बीचबीच में करती जा रही थी.

अनमनी हो आई थी अलका, ‘‘जा कर थोड़ा लेटती हूं,’’ कह कर चुपचाप धीरेधीरे चलती हुई अपने बैडरूम में आ कर लेट गई.

उस का उतरा चेहरा देख संदीप चौंके,

‘‘क्या हुआ?’’

अलका ने गरदन हिला कर बस ‘कुछ नहीं’ का इशारा कर दिया पर अलका के चेहरे के भाव देख संदीप उस के पास आ कर बैठ गए, ‘‘थकान हो रही है न ऊपरनीचे आनेजाने में? अभी यह कमजोरी रहेगी कुछ दिन… अभी किसी काम के चक्कर में मत पड़ो. पहले पूरी तरह  से ठीक हो जाओ, काम तो सारी उम्र होते ही रहेंगे.’’

अलका ने कुछ नहीं कहा बस आंखें बंद कर चुपचाप लेट गई. लड़ाई?ागड़ा, चिल्लाना, गुस्सा करना उस के स्वभाव में न था. उस ने खुद संयुक्त परिवार में बहू बन कर सारे दायित्व खुशीखुशी संभाले थे और सब से निभाया था. पर एक ही ?ाटके में किचन का पूरी तरह बदल जाना उसे हिला गया था.

कोरोना के शिकार होने के दिन तक जिस किचन का सामान वह अंधेरे में भी ढूंढ़ सकती थी, वहां तो आज कुछ भी पहचाना हुआ नहीं था, कैसे चलेगा? उस समय तो संदीप और उस की तबीयत बहुत गंभीर थी, दोनों को लग रहा था कि बचना मुश्किल है, सुजय और रश्मि ने रातदिन एक कर दिए थे. जब से हौस्पिटल से घर आए हैं, दोनों रातदिन सेवा कर रहे हैं. संदीप को तो कपड़े पहनने में भी कमजोरी लग रही थी. सुजय ही हैल्प करता है उन की. शरीर का दर्द दोनों को कितना तोड़ गया है, वही जानते हैं.

हौस्पिटल में बैड पर लेटेलेटे भी अलका को घरगृहस्थी की चिंता सता रही थी कि क्या होगा, कैसे होगा, रश्मि को तो कुछ आता भी नहीं… यह सच था कि रश्मि को कुकिंग ठीक से नहीं आती थी पर इन दिनों गूगल पर, यू ट्यूब पर देखदेख कर उस ने सब कुछ बनाया था, उन की बीमारी में उन की डाइट का बहुत ज्यादा ध्यान रखा था. अलका की पसंद का खाना सीमा को फोन करकर के पूछपूछ कर बनाया था. सीमा उस समय आ नहीं पाई थी. वह परेशान होती तो रश्मि ही उसे तसल्ली देती, वीडियो कौल करवा देती.

अचानक विचारों ने एक करवट सी ली. आज किचन में जो बदलाव देख कर मन में टूटा सा था, अब जुड़ता सा लगा जब ध्यान आया कि जब रश्मि बहू बन कर आई तो उसे अलका ने और बाकी सब लोगों ने यही तो कहा था कि यह तुम्हारा घर है, इसे अपना घर सम?ा कर आराम से बिना संकोच के रहो तो वह तो अपना घर सम?ा कर ही तो पूरे मन से हर चीज कर रही है.

ये जो किचन में उस ने सारे बदलाव कर दिए, अपना घर ही तो सम?ा होगा न… किसी दूसरे की किचन में कोई इस तरह से अधिकार नहीं जमा सकता न… बहू को सिर्फ यह कहने से थोड़े ही काम चलता है कि यह तुम्हारा घर है, जो चाहे करो, उसे करने देने से रोकना नहीं है… यह उस का भी तो घर है… अलका सोच रही थी कि उसे कुछ परेशानी होगी, वह प्यार से अपनी परेशानी बता देगी, नहीं तो सब ऐसे ही चलने देगी जैसे रश्मि घर चला रही है. सिर्फ कहना नहीं है, उसे पूरा हक देना है अपनी मरजी से जीने का, घर को अपनी सहूलियतों के साथ चलाने का.

अचानक अलका के मन में न जाने कैसी ताकत सी महसूस हुई.

वह फिर नीचे जाने के लिए खड़ी हो गई कि जा कर अब आराम से देखती हूं कि कहां क्या सामान रख दिया है बहू रानी ने… नए हाथों में नई सी व्यवस्था देखने के लिए अब की बार वह मुसकराते हुए सीढि़यां उतर रही थी.

मन का घोड़ा

‘‘अंकुरकी शादी के बाद कौन सा कमरा उन्हें दिया जाए, सभी कमरे मेहमानों से भरे हैं. बस एक कमरा ऊपर वाला खाली है,’’ अपने बड़े बेटे अरुण से चाय पीते हुए सविता बोलीं.

‘‘अरे मां, इस में इतना क्या सोचना? हमारे वाला कमरा न्यूलीवैड के लिए अच्छा रहेगा. हम ऊपर वाले कमरे में शिफ्ट हो जाएंगे,’’ अरुण तुरंत बोला.

यह सुन पास बैठी माला मन ही मन बुदबुदा उठी कि आज तक जो कमरा हमारा था, वह अब श्वेता और अंकुर का हो जाएगा. हद हो गई, अरुण ने मेरी इच्छा जानने की भी जरूरत नहीं सम?ा और कह दिया कि न्यूलीवैड के लिए यह अच्छा रहेगा. तो क्या 15 दिन पूर्व की हमारी शादी अब पुरानी हो गई?

तभी ताईजी ने अपनी सलाह देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम अपना कमरा क्यों छोड़ते हो? ऊपर वाला कमरा अच्छाभला है. उसे लड़कियां सजासंवार देंगी. और हां, अपनी दुलहन से भी तो पूछ लो. क्या वह अपना सुहागकक्ष छोड़ने को तैयार है?’’ और फिर हलके से मुसकरा दीं.

पर अरुण ने तो त्याग की मूर्ति बन ?ाट से कह डाला, ‘‘अरे, इस में पूछने वाली क्या बात है? ये नए दूल्हादुलहन होंगे और हम 15 दिन पुराने हो गए हैं.’’

ये शब्द माला को उदास कर गए पर गहमागहमी में किसी का उस की ओर ध्यान न गया. ससुराल की रीति अनुसार घर की बड़ी महिलाएं और नई बहू माला बरात में नहीं गए थे. अत: बरात की वापसी पर दुलहन को देखने की बेसब्री हो रही थी. गहनों से लदी छमछम करती श्वेता ने अंकुर के संग जैसे ही घर में प्रवेश किया वैसे ही कई स्वर उभर उठे, वाह, कितनी सुंदर जोड़ी है.

‘‘कैसी दूध सी उजली बहू है, अंकुर की यही तो इच्छा थी कि लड़की चांद सी उजली हो,’’ बूआ सास दूल्हादुलहन पर रुपए वारते हुए बोलीं.

माला चुपचाप एक तरफ खड़ी देखसुन रही थी. तभी सविताजी ने माला को नेग वाली थाली लाने को कहा और इसी बीच कंगन खुलाई की रस्म की तैयारी होने लगी. महिलाओं की हंसीठिठोली और ठहाके गूंज रहे थे पर माला अपनी कंगन खुलाई की यादों में खो गई…

 

फूल और पानी भरी परात से जब माला ने

3 बार अंगूठी ढूंढ़ निकाली तब सभी ने

एलान कर डाला, ‘‘भई, अब तो माला ही राज करेगी और अरुण इस का दीवाना बना घूमेगा.’’

पर माला तो अरुण का चेहरा देखने को भी तरसती रही. भाई की शादी की व्यस्तता व मेहमानों, दोस्तों की गहमागहमी में माला का ध्यान ही नहीं आया. माला के कुंआरे सपने साकार होने को तड़पते और मन में उदासी भर देते, फिर भी माला सब के सामने मुसकराती

बैठी रहती.

शाम 4 बजे रीता ने आवाज लगाई, ‘‘जिसे भी चाय पीनी हो वह जल्दी से यहां आ जाए. मैं दोबारा चाय नहीं बनाऊंगी.’’

‘‘ला, मु?ो 1 कप चाय पकड़ा दे. फिर बाहर काम से जाना है,’’ अरुण ने भीतर आते हुए कहा.

‘‘ठहरो भाई, पहले एक बात बताओ. वह आप के हस्तविज्ञान व दावे का क्या रहा जब आप ने कहा था कि मेरी दुलहन एकदम गोरीचिट्टी होगी. यह बात तो अंकुर भाई पर फिट हो गई,’’ कह रीता जोरजोर से हंसने लगी.

‘‘अच्छा, एक बात बता, मन का लड्डू खाने में कोई बंदिश है क्या?’’ अरुण ने हंसते

हुए कहा.

तभी ताई सास ने अपनी बेटी रीता को डपट दिया, ‘‘यह क्या बेहूदगी है? नईनवेली बहुएं हैं, सोचसम?ा कर बोलना चाहिए… और अरुण तेरी भी मति मारी गई है क्या, जो बेकार की बातों में समय बरबाद कर रहा है?’’

शादी के बाद अंकुर और श्वेता हनीमून पर ऊटी चले गए ताकि अधिकतम समय एकदूसरे के साथ व्यतीत कर सकें, क्योंकि 20 दिनों के बाद ही अंकुर को लंदन लौटना था. श्वेता तो पासपोर्ट और वीजा लगने के बाद ही जा पाएगी. हनीमून पर जाने का प्रबंध अरुण ने ही किया था. ये सब बातें माला को पिछले दिन रीता ने बताई थीं. घर के सभी लोग अरुण की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे पर माला के मन में कांटा सा गड़ गया. मन में अरुण के प्रति क्रोध की ज्वाला उठने लगी.

‘हमारा हनीमून कहां गया? अपने लिए इन्होंने क्यों कुछ नहीं सोचा? क्यों? रोऊं, लडं़ू… क्या करूं?’ ये सवाल, जिन्हें संकोचवश अरुण से स्पष्ट नहीं कर पा रही थी, उस के मन को लहूलुहान कर रहे थे.

 

समय का पहिया अंकुर को लंदन ले गया. ऐसे में श्वेता अकेलापन अनुभव न

करे, इसलिए घर का हर सदस्य उस का ध्यान रखने लगा था. भानजी गीता तो उसे हर समय घेरे रहती. माला तो जैसे कहीं पीछे ही छूटती जा रही थी. तभी तो माला शाम के धुंधलके में अकेली छत पर खड़ी स्वयं से बतिया रही थी कि मानती हूं कि श्वेता को अंकुर की याद सताती होगी. पर सारा परिवार उसी से चिपका रहे, यह तो कोई बात न हुई. मैं भी तो 2 माह से यहीं रह रही हूं और अरुण भी तो दिल्ली से सप्ताह के अंत में 1 दिन के लिए आते हैं. मु?ा से हमदर्दी क्यों नहीं?

तभी किसी के आने की आहट से उस की विचारधारा भंग हो गई.

‘‘माला, तुम यहां अकेली क्यों खड़ी हो? चलो, नीचे मां तुम्हें बुला रही हैं. और हां कल सुबह की ट्रेन से दिल्ली निकल जाऊंगा. तुम श्वेता का ध्यान रखना कि वह उदास न हो. वैसे तो सभी ध्यान रखते हैं पर तुम्हारा ध्यान रखना और अच्छा रहेगा…’’

अरुण आगे कुछ और कहता उस से

पहले ही माला गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘उफ, सब के लिए आप के मन में कोमल भावनाएं हैं पर मेरे लिए नहीं. क्या मैं इतनी बड़ी हो गई हूं कि

मैं सब का ध्यान रखूं और खुद को भूल जाऊं? मेरी इच्छाएं, मेरी कल्पनाएं, मेरा हनीमून उस

का क्या?’’

अरुण हैरान सा माला को देखता रह गया, ‘‘आज तुम्हें यह क्या हो गया है माला? तुम श्वेता से अपनी तुलना कर रही हो क्या? उस के नाम से तुम इतना अपसैट क्यों हो गईं?’’

‘‘नहीं, मैं किसी से तुलना क्यों करूंगी? मु?ो अपना स्थान चाहिए आप के दिल में… परसों कौशल्या बाई बता रही थी कि अरुण भैया तो ब्याह के लिए तैयार ही नहीं थे. वह तो मांजी

3 सालों से पीछे लगी थीं तब उन्होंने हामी भरी थी. तो क्या आप के साथ शादी की जबरदस्ती हुई है? और उस दिन रीता ने जो हस्तविज्ञान वाली बात कही थी, इस से लगता है कि आप की चाहत शायद कोई और थी पर…’’ माला ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘उफ, तुम औरतों का दिमागी घोड़ा बिना लगाम के दौड़ता है. तुम इन छोटीछोटी व्यर्थ

की बातों का बतंगड़ बनाना छोड़ो और मन शांत करो. अब नीचे चलो. सब खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’’

 

वह दिन भी आ गया जब माला अरुण के साथ दिल्ली आ गई. यहां अपना घर

सजातेसंवारते उस के सपने भी संवर रहे थे. अरुण के औफिस से लौटने से पहले वह स्वयं को आकर्षक बनाने के साथ ही कुछ न कुछ नया पकवान, चाय आदि बनाती. फिर दोनों की गप्पों व कुछ टीवी सीरियल देखतेदेखते रात गहरा जाती तो दोनों एकदूसरे के आगोश में समा जाते.

हां, एक बार छुट्टी के दिन माला ने दिल्ली दर्शन की इच्छा भी व्यक्त की थी तो, ‘‘ये रोमानी घडि़यां साथ बिताने के लिए हैं, हमारा हनीमून पीरियड है यह. फिर दिल्ली तो घूमना होता ही रहेगा जानेमन,’’ अरुण का यह जवाब गुदगुदा गया था.

शनिवार की छुट्टी में अरुण अलसाया सा लेटा था कि तभी मोबाइल बज उठा. अरुण फोन उठा कर बोला, ‘‘हैलो… अच्छा ठीक है, मैं कल स्टेशन पहुंच जाऊंगा. ओ.के. बाय.’’

‘‘किस का फोन था?’’ चाय की ट्रे ले कर आती माला ने पूछा.

‘‘श्वेता का. वह कल आ रही है. उसे मैं रिसीव करने जाऊंगा,’’ कह अरुण ने चाय का कप उठा लिया.

श्वेता के आने की खबर से माला का उदास चेहरा अरुण से छिपा न रह सका, ‘‘क्या हुआ? अचानक तुम गुमसुम सी क्यों हो गईं?’’ अरुण ने उस की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘अभी दिन ही कितने हुए हैं हमें साथ समय बिताते कि…’’

‘‘अरे यार, उस के आने से रौनक हो जाएगी, कितना हंसतीबोलती है. तुम्हारा भी पूरा दिन मन लगा रहेगा. सारा दिन अकेले बोर होती हो,’’ माला की बात बीच में ही काटते हुए अरुण ने कहा.

माला चुपचाप चाय की ट्रे उठा कर रसोई की ओर बढ़ गई.

‘फिर वही श्वेता. क्या वह अपने मायके या ससुराल में नहीं रह सकती थी कुछ महीने? फिर चली आ रही है दालभात में मूसलचंद. ‘खैर, मुसकराहट तो ओढ़नी ही होगी वरना अरुण न जाने क्या सोचने लगें.’ मन ही मन सोच माला नाश्ते की तैयारी करने लगी.

 

छुट्टी के दिन अरुण श्वेता और माला को एक मौल में ले गया. वहां की

चहलपहल और भीड़ का कोई छोर ही न था. श्वेता की खुशी देखते ही बन रही थी, ‘‘भाभी, आप तो बस जब मन आए यहीं चली आया करो. यहां शौपिंग का मजा ही कुछ और है,’’ माला की ओर देख उस ने कहा.

‘‘मु?ो तो अरुण, पहले कभी यहां लाए ही नहीं. यह सब तो तुम्हारे कारण हो रहा है,’’ माला उदासी भरे स्वर से बोली.

‘‘अच्छा,’’ श्वेता का स्वर उत्साहित हो उठा.

वहीं मौल में खाना खाते हुए श्वेता की आंखें चमक रही थीं. बोली, ‘‘वाह, खाना कितना स्वादिष्ठ है.’’

इस पर अरुण ने हंस कर कहा, ‘‘मु?ो मालूम था कि श्वेता तुम ऐंजौय करोगी. तभी तो यहां लंच लेने की सोची.’’

‘‘और मैं?’’ माला ने अरुण से पूछ ही लिया.

‘‘अरे, तुम तो मेरी अर्द्धांगिनी हो, जो मु?ो पसंद वही तुम्हें भी पसंद आता है, अब तक मैं यह तो जान ही गया हूं. इसलिए तुम्हें भी यहां आना तो अच्छा ही लगा होगा.’’

बुधवार की सुबह अखबार थामे श्वेता बोली, ‘‘बिग बाजार में 50% की बचत पर सेल लगी है. भैया, मु?ो क्व5,000 दे देंगे? क्व2000 तो हैं मेरे पास. मैं और भाभी ड्रैसेज लाएंगी. ठीक है न भाभी? लंदन में यही ड्रैसेज काम आ जाएंगी.’’

‘‘हांहां, क्रैडिट कार्ड ले लेगी माला… दोनों शौपिंग कर लेना.’’

माला अरुण को मुंह बाए खड़ी देखती रह गई कि क्या ये वही अरुण हैं, जिन्होंने कहा था कि पहले शादी में मिली ड्रैसेज को यूज करो, फिर नई खरीदना. तो क्या श्वेता को ड्रैसेज का ढेर नहीं मिला है शादी में? ये छोटीबड़ी बातें माला का मन कड़वाहट से भरती जा रही थीं.

उस दिन तो माला का मन जोर से चिल्लाना चाहा था जब श्वेता बिस्तर में सुबह 9 बजे तक चैन की नींद ले रही थी और वह रसोई में लगी हुई थी. तभी अरुण ने श्वेता को चाय दे कर जगाने को कह दिया. वह जानती थी कि अरुण को देर तक बिस्तर में पड़े रहना पसंद नहीं. फिर श्वेता से कुछ भी क्यों नहीं कहा जाता? मन में उठता विचारों का ज्वार, सुहागरात की ओर बहा ले गया कि मु?ो तो प्रथम मिलन की रात्रि में प्यार के पलों से पहले संस्कार, परिवार के नियमों आदि का पाठ पढ़ाया था अरुण ने… फिर तभी चाय उफनने की आवाज उसे वर्तमान में ले आई.

 

मैं आज और अभी अरुण से पूछ कर ही रहूंगी, सोच माला बाथरूम में शेव करते अरुण के

पास जा खड़ी हुई.

‘‘क्या बात है? कोई काम है क्या?’’ शेविंग रोक अरुण ने पूछा.

‘‘क्या मैं जबरदस्ती आप के गले मढ़ी गई हूं? क्या मु?ा में कोई अच्छाई नहीं है?’’

अरुण हाथ में शेविंगब्रश लिए हैरान सा खड़ा रहा.

पर माला बोलती रही, ‘‘हर समय बस श्वेताश्वेता. मु?ा से तो परंपरा निभाने की बात करते रहे और इस का बिंदासपन अच्छा लगता है. आखिर क्यों?’’ माला का चेहरा लाल होने के साथसाथ आंसुओं से भी भीग चला था.

‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. तुम्हारे मन में इतनी जलन, ईर्ष्या कहां से आ गई? श्वेता के नाम से चिढ़ क्यों हो रही है? देवरानी तो छोटी बहन जैसी होती है और तुम तो न जाने…’’

‘‘बस फिर शुरू हो गया मेरे लिए आप का प्रवचन. उस की हर बात गुणों से भरी होती है और मेरी बुराई से,’’ कह पांव पटकती माला अपने कमरे में चली गई.

अरुण बिना नाश्ता किए व लंच टिफिन लिए औफिस चला गया.

उस दिन माला को माइग्रेन का अटैक पड़ गया. सिरदर्द धीरेधीरे बढ़ता उस की सहनशक्ति से बाहर हो गया. उलटियों के साथसाथ चक्कर भी आ रहा था. श्वेता ने मैडिकल किट छान मारी पर दर्द की कोई गोली नहीं मिली. उस ने अरुण को फोन किया तो सैक्रेटरी ने बताया कि वे मीटिंग में व्यस्त हैं.

इधर माला अपना सिर पकड़ रोए जा रही थी. तभी श्वेता 10 मिनट के अंदर औटो द्वारा मैडिकल स्टोर से दर्द की दवा ले आई और कुछ मानमनुहार तथा कुछ जबरदस्ती से माला को दवा खिलाई. माथे पर बाम मल कर धीरेधीरे सिरमाथे को तब तक दबाती रही जब तक माला को नींद नहीं आ गई.

करीब 2 घंटे बाद माला की आंखें खुलीं. तबीयत में काफी सुधार था. सिर हलका लग रहा था. उस ने उठ कर इधरउधर नजर दौड़ाई तो

देखा श्वेता 2 कप चाय व स्नैक्स ले कर आ रही है.

‘‘अरे भाभी, आप उठो नहीं… यह लो चाय और कुछ खा लो. शाम के खाने की चिंता मत करना, मैं बना लूंगी. हां, आप जैसा तो नहीं बना पाऊंगी पर ठीकठाक बना लूंगी,’’ कह उस ने चाय का प्याला माला को थमा दिया.

माला श्वेता के इस व्यवहार को देख उसे ठगी सी देखती रह गई.

‘‘क्या हुआ भाभी?’’

‘‘मु?ो माफ कर दो श्वेता, मैं ने तो न मालूम क्याक्या सोच लिया था… तुम्हें प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख रही थी. और…’’

‘‘नहींनहीं भाभी, और कुछ मत कहिए आप, अब मैं आप से कुछ भी नहीं छिपाऊंगी. सच में ही मु?ो अपने रंगरूप पर अभिमान रहा है. मु?ा में उतना धैर्य नहीं जितना आप में है. इसीलिए मैं आप को चिढ़ाने के लिए अपने में व्यस्त रही… आप की कोई मदद नहीं करती थी. भाभी, आप मु?ो माफ कर दीजिए. आज से हम रिश्ते में भले ही देवरानीजेठानी हैं पर रहेंगी छोटीबड़ी बहनों की तरह,’’ और फिर दोनों एकदूसरे के गले से लग गईं.

‘‘सच श्वेता. मैं आज से अपने मन को गलत दिशा की तरफ भटकने से रोकूंगी और तुम्हारे भैया से माफी भी मांगूंगी.’’

अब श्वेता व माला एकदूसरे को देख कर मुसकरा रही थीं.

पगली: आखिर क्यूं महिमा अपने पति पर शक करती थी- भाग 3

पहली मुलाकात के करीब 3 सप्ताह बाद एक दोपहर अंजलि ने औफिस से

महिमा के यहां फोन कर के बातें करीं, ‘‘मैं तुम से एक प्रार्थना कर रही हूं. तुम उस का बुरा न मानना, प्लीज.’’

अंजलि की आवाज में नाराजगी व शिकायत के भाव पढ़ कर महिमा मुसकराने लगी, ‘‘दीदी, आप की कैसी भी बात का मैं बुरा कैसे मान सकती हूं. आप प्रार्थना न करें बल्कि मु?ो आदेश दें,’’ महिमा ने भावुक लहजे में जवाब दिया.

‘‘महिमा, तुम मेरे पीछे दिन में मेरी मां से मिलने मत जाया करो, प्लीज.’’

‘‘ऐसा मत कहिए, दीदी. उन से मिल कर मेरा दिल बड़ा अच्छा महसूस करता है.’’

‘‘देखो, उन की तबीयत ठीक नहीं रहती है. दोपहर को उन्हें आराम न मिले, तो उन का सिर दर्द करने लगता है. तुम प्लीज…’’

‘‘नहीं दीदी, आप उन से मिलने की मेरी खुशी मु?ा से मत छीनिए. मैं आगे से और कम देर बैठा करूंगी, पर बिलकुल न जाने का आदेश आप मु?ो मत दीजिए.’’

‘‘नहीं, तुम्हें उन से मिलने नहीं जाना है. उन्हें तुम्हारी बातें पसंद नहीं आती हैं,’’ अंजलि की आवाज गुस्से से भर उठी.

‘‘मैं उन से भी गलत नहीं बोली हूं, दीदी,’’ महिमा ने विरोध प्रकट किया.

‘‘तुम मेरी शादी की बातें करती हो… सौरभ और मेरे बारे में सवालजवाब करती हो, मेरे भैयाभाभी को लानतें देती हो, तो उन का मन

दुखी और परेशान होता है. वे तुम से मिलना

नहीं चाहती हैं और तुम मेरे पीछे मेरे घर नहीं जाओगी, बस.’’

अंजलि के सख्त स्वर के ठीक उलट महिमा ने मीठे स्वर में जवाब दिया, ‘‘दीदी, मैं आप की बात नहीं मान सकती क्योंकि मु?ो भी खुशी और शांति से जीने का अधिकार है. मु?ो आप की मां व आप से मिल कर मन की शांति मिलती है. जैसे आप मेरे कहने भर से सौरभ से मिलना बंद नहीं कर सकतीं, वैसे ही मैं भी आप के घर जाना नहीं बंद करूंगी. पत्नी पति की प्रेमिका को हमेशा से ?ोलती आईर् है, तो प्रेमिका को भी पत्नी को सहन करने की आदत डालनी चाहिए. अब चाह कर भी मु?ो अपनी व अपनी मां की जिंदगी से काट नहीं सकेंगी क्योंकि मैं दूर हो कर पागल हो जाऊंगी. आप ऐसा करने की कोशिश न खुद करना, न सौरभ से कराना, प्लीज.’’

अंजलि उस पर गुस्से से चिल्लाने लगी,

तो बड़ी शांति के साथ महिमा ने संबंधविच्छेद

कर दिया.

उस शाम सौरभ गुस्से से भरा घर में घुसा क्योंकि अंजलि ने महिमा के खिलाफ उस के अंदर खूब चाबी भरी थी.

‘‘तुम अंजलि के घर जाना आज से बंद कर दोगी,’’ शयनकक्ष में प्रवेश करते ही सौरभ ने उसे अपना आदेश सुना दिया क्योंकि अंजलि और उस की मां तुम से मिलना नहीं चाहती हैं.’’

‘‘आप उन के कहे में आ कर गुस्सा मत होइए. वे दोनों बहुत अच्छी हैं. मैं उन्हें कल जा कर मना लूंगी.’’

‘‘नहीं, तुम उन के घर मत जाना,’’ सौरभ चिल्ला पड़ा.

‘‘मत चिल्लाइए मु?ा पर,’’ महिमा रोंआसी हो उठी, ‘‘मु?ो अंजलि दीदी से सीखते रहना है कि आप के दिल की रानी बने रहने के लिए मेरा व्यवहार कैसा हो… मु?ा में क्या गुण हों.’’

‘‘तुम जैसी हो, अच्छी हो. बस, उन के घर…’’

‘‘मैं उन से मिलती नहीं रही, तो पिछड़ जाऊंगी और आप को खो दूंगी.’’

‘‘बेकार की बातें मत करो, महिमा,’’ सौरभ का गुस्सा फिर भड़का.

‘‘आप मेरे डर को क्यों नहीं सम?ा रहे हैं. मैं बांट तो रही हूं आप को अंजलि दीदी के साथ क्या बदले में वे 1-2 घंटे मु?ो सहन नहीं कर सकतीं,’’ महिमा उठ कर सौरभ की छाती से जा लगी और फिर किसी बच्चे की तरह से रोने लगी.

सौरभ उसे और नहीं डांट सका. उस ने

धीमे से उसे सम?ाने कीकोशिश करी पर वह असफल रहा क्योंकि महिमा की आंखों में प्यार का नशा उस की पलकें बो?िल करने लगा था. जल्द ही महिमा के बदन की मादक महक ने उस के जेहन से अंजलि की शिकायतों व नाराजगी को दूर भगा दिया.

अगले दिन औफिस जाते समय सौरभ ने महिमा से अंजलि के घर न जाने की बात कही, तो वह चुप रह कर रहस्यमयी अंदाज में बस मुसकराती रही.

दोपहर के समय वह अंजलि की मां सावित्री से मिलने पहुंच गई. उस की आवाज पहचान कर सावित्री ने दरवाजा खोलने से ही इनकार कर दिया.

‘‘तुम अपने घर लौट जाओ. मु?ो तंग करने मत आया करो,’’ सावित्री की आवाज में गुस्से के साथसाथ डर व घबराहट के भाव भी मौजूद थे.

‘‘आंटी, मैं तो आप से बस कुछ देर को हंसनेबोलने आती हूं. मु?ा से चिड़ने या डरने की आप को कोई जरूरत नहीं. अगर आप मु?ा से प्यार से मिलती रहेंगी, तो मैं कभी आप को कोई नुकसान पहुंचाने की सोचूंगी भी नहीं,’’ महिमा ने ऊंची आवाज कर के उन्हें आश्वस्त करने का प्रयास किया.

‘‘मु?ो नुकसान पहुंचाने की धमकी दोगी, तो मैं पुलिस बुला लूंगी.’’

‘‘अगर आप ने मु?ो अंदर न आने दिया, तो मैं गुस्से से पागल हो जाऊंगी, आंटी. फिर मु?ो होश नहीं रहेगा कि मैं ने अपनी जान ले ली या किसी और की.’’

‘‘तुम पूरी पागल हो. चली जाओ यहां से.’’

‘‘हां, मैं पागल हूं, और वह भी तुम्हारी बेटी के कारण जो मु?ा से मेरे पति को छीनना चाहती है. मु?ो यों तंग कर के मेरा अनादर कर के आप ठीक नहीं कर रही हैं, आंटी,’’ महिमा ने उन के घर की घंटी बजाने के साथसाथ दरवाजा भी पीटना शुरू कर दिया.

सामने व ऊपरनीचे के फ्लैटों के दरवाजे खुलने लगे और औरतें बाहर आ

कर तमाशा देखने लगीं. महिमा ने किसी से वार्त्तालाप आरंभ करने की कोई कोशिश नहीं करी, तो वे सावित्री से मामले को सम?ाने की कोशिश में बातें करने लगीं.

‘‘इस पगली को यहां से जाने को कहो. यह मु?ो मारने आई है,’’ अंदर से आती सावित्री की आवाज से साफ जाहिर हुआ कि वे रो रही हैं.

‘‘आप बेकार मु?ा से डर रहीं, आंटी. सौरभ के कारण मेरे आप के घर से संबंध हमेशा बने रहेंगे. हमें प्यार से मिल कर रहना चाहिए,’’ महिमा ने उन्हें सब के सामने बड़ी मीठी, कोमल आवाज में फिर सम?ाया.

‘‘नहीं, हमें नहीं रखना है तुम दोनों से कोई संबंध.’’

‘‘ऐसी गलत बात मुंह से न निकालें, आंटी. आप की बेटी ऐसा करने को कभी तैयार नहीं होगी. अच्छा, अभी मैं जाती हूं. कल आप

से मिलने जरूर आऊंगी और आप के सारे गिलेशिकवे दूर कर दूंगी,’’ महिमा ने पड़ोसिनों की तरफ मुसकरा कर देखा और फिर इमारत से बाहर आने के लिए सीढि़यां उतरने लगी.

उस रात सौरभ काफी देर से घर लौटा. महिमा को वह बड़ा उदास सा नजर आया. वह सीधा शयनकक्ष में गया और महिमा उस के पीछेपीछे वहां पहुंच गई, ‘‘मु?ो प्लीज, डांटना मत,’’ उस के कुछ बोलने से पहले ही महिमा ने उस के सामने हाथ जोड़े और घबराए लहजे में आगे बोलने लगी, ‘‘मैं ने कुछ गलत बात सावित्री आंटी से नहीं कही. वे अकारण मु?ा से डर रही थीं. मैं कल ही अंजलि दीदी से माफी मांगने आप के साथ चलूंगी.’’

कुछ देर खामोशी से उसे घूरने के बाद सौरभ ने सोचपूर्ण लहजे में टिप्पणी करी, ‘‘तुम बहुत चालाक हो… या एकदम बुद्धू.’’

‘‘अधिकतर लोग तो मु?ो पगली सम?ाते हैं… आप के प्यार में मैं पागल हूं भी और इसीलिए मु?ो डांटनाडपटना मत, प्लीज. मैं अंजलि दीदी से माफी…’’

सौरभ ने उस के मुंह पर हाथ रख कर उसे चुप किया और थके से स्वर में बोला, ‘‘अंजलि को भूल जाओ, महिमा. उस ने आज मु?ा से सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं. अपनी मां की सुखशांति की खातिर वह मु?ा से और विशेषकर तुम से भविष्य में कैसा भी संबंध रखने को तैयार नहीं है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. मैं उन्हें सम?ाऊंगी… मनाऊंगी. आप को दुख देने का उन्हें कोई हक नहीं है. हम अभी उन से मिलने चलते हैं,’’ महिमा फौरन परेशानी भरी उत्तेजना का शिकार बन गई.

‘‘पगली,’’ अपनी उदासी को भूल कर सौरभ मुसकराने को मजबूर हो गया.

महिमा की आंखों में आंसू छलक आए तो वह आगे बढ़ कर सौरभ की छाती से लग गई.

‘‘मु?ो आंसू बहाती महिमा को नहीं देखना है. मैं तो हनीमून वाली हंसमुख, चंचल, शोख, सैक्सी महिमा के साथ बिलकुल नई प्यारभरी जिंदगी की शुरुआत करने का इच्छुक हूं, पगली.’’

‘‘मैं तो वैसी ही हूं, पर अंजलि दीदी की आप के जीवन में मौजूदगी के कारण जरा पगला गई थी.’’

‘‘वह अध्याय अब समाप्त हुआ, महिमा. तुम्हारा पागलपन कारगर साबित हुआ. हमें अपने प्रेमसंबंध से खुशी कम और दुख ज्यादा मिलने लगा, तो उसे समाप्त करने को हम मजबूर हो गए. मेरी पगली जीत गई और इस जीत से मैं सचमुच बड़ी शांति… बड़ी खुशी महसूस कर रहा हूं,’’ सौरभ के बाजुओं की पकड़ महिमा के इर्दगिर्द मजबूत हुई, तो वह रहस्यमयी अंदाज में मुसकराती हुई उस की आंखों पर बारबार मधुर चुंबन अंकित करने लगी.

पगली: आखिर क्यूं महिमा अपने पति पर शक करती थी- भाग 2

अंजलि अपनी विधवा मां के साथ 3 कमरों के फ्लैट में रहती थी. उस का इकलौता बड़ा भाई अमेरिका में 5 साल पहले जा कर बस गया था. मां को बेसहारा हालत में न छोड़ने के इरादे से उस ने शादी न करने का फैसला किया था.

महिमा उस से शाम को मिलने आएगी, फोन पर सौरभ से यह जानकर उसे कुछ हैरानी तो हुई, पर आत्मविश्वास का स्तर ऊंचा होने के कारण वह परेशान या चिंतित नहीं हुई.

उस शाम अंजलि और महिमा का पहली बार आमनासामना हुआ. दोनों ही औसत से ज्यादा खूबसूरत स्त्रियां थीं. महिमा खुल कर मुसकरा रही थी और अंजलि से गले लग कर मिली. दूसरी तरफ अंजलि जरा गंभीर बनी उसे आंखों से नापतोल ज्यादा रही थी.

कुछ देर उन के बीच औपचारिक सी बातें हुईं. उम्र में बड़ी अंजलि ने ही ज्यादा सवाल पूछे और महिमा प्रसन्न अंदाज में उन के जवाब देती रही.

फिर महिमा उठ कर रसोई में पहुंच गई. वहां अंजलि की मां सावित्री उन सब के लिए चायनाश्ता तैयार कर रही थीं.

काम में सावित्री का हाथ बंटाने के साथसाथ महिमा उन से उन के सुखदुख की ढेर सारी बातें भी करती जा रही थी. शुरू में खिंचाव सा महसूस कर रही सावित्री, महिमा के अपनत्व और व्यवहार के कारण जल्दी खुल कर उस से हंसनेबोलने लगीं.

 

करीब 20 मिनट बाद गरमागरम पकौड़े प्लेट

में रख कर महिमा अकेली ड्राइंगरूम में लौटी, तो सौरभ और अंजलि ?ाटके से चुप हो गए.

प्लेट को मेज पर रखने के बाद महिमा ने अपना पर्र्स खोल कर गिफ्ट पेपर में लिपटा छोटा सा बौक्स निकाला और उसे अंजलि को पकड़ाते हुए बड़े अपनेपन से बोली, ‘‘दीदी, आप भी इन के दिल में रहती हैं और इस कारण मेरी जिंदगी में भी आप की जगह खास हो गई है. हमारे संबंध मधुर रहें, इस कामना के साथ यह छोटा सा गिफ्ट मैं आप को दे रही हूं.’’

‘‘थैंक यू, महिमा,’’ गिफ्ट लेने के बाद अंजलि ने गंभीर लहजे में धन्यवाद दिया, ‘‘बिलकुल रहेंगे,’’ अंजलि की आंखों में हल्की बेचैनी के भाव उभरे.

‘‘इन्हें मैं आप से दूर करने की कोशिश नहीं करूंगी और आप मु?ो इन से.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘मेरा जब दिल करे तब क्या मैं आप से मिलने अकेली आ जाया करूं?’’

‘‘मैं तो बहुत व्यस्त रहती हूं, महिमा छुट्टी वाले दिन…’’

‘‘आप व्यस्त रहती हैं, तो कोई बात नहीं मैं आंटी से मिलने आ जाया करूंगी. इस घर में मेरा मन बड़ा प्रेम और अपनापन सा महसूस कर रहा है,’’ महिमा ने खड़े हो कर कमरे में आई सावित्री के हाथ से पहले चाय की ट्रे ले कर मेज पर रखी और फिर उन्हें जोर से गले लगा लिया.

महिमा के खुले व्यवहार ने धीरेधीरे इन मांबेटी के होंठों की मुसकान उड़ा दी. सौरभ की पत्नी उन से इतने प्यार व आदरसम्मान के साथ पेश आए, यह बात न उन्हें सम?ा आ रही थी, न हजम हो रही थी. अजीब सी उल?ान का शिकार बना सौरभ भी अधिकतर चुप रहा.

विदा के समय सावित्री ने महिमा को एक खूबसूरत व कीमती साड़ी उपहार में दी. वह साड़ी देख कर बच्चे की तरह खुश हो गई, ‘‘अगली बार यही सुंदर साड़ी पहन कर मैं यहां आऊंगी और हम डिनर के लिए भी रुकेंगे, आंटी. मैं चाहती हूं कि आप मु?ो अपनी छोटी बेटी सम?ा कर खूब प्यार दें,’’ सावित्री के कई बार गले लग कर महिमा ने विदा ली.

अंजलि का हाथ पकड़ कर महिमा ने उस से

कहा, ‘‘दीदी, आप बे?ि?ाक हो कर हमारे घर आनाजाना शुरू कर दो. मम्मीपापा को मैं सम?ा लूंगी और दुनिया वालों के कुछ कहने की फिक्र मैं ने आज तक नहीं करी है और आप भी मत करना.’’

‘‘मैं आऊंगी,’’ जबरदस्ती मुसकराने के बाद अंजलि अपनी कनपटियां मसलने लगी क्योंकि पिछले घंटेभर से उस का ‘माइग्रेन’ का दर्द तेजी से बढ़ता जा रहा था.

पहली मुलाकात में महिमा ने एक शब्द भी अंजलि की शान के खिलाफ मुंह से नहीं निकाला, पर अपने पीछे वह अपनी इस ‘दीदी’ के मन में चिड़, गुस्से व कड़वाहट के भाव छोड़ गई.

सावित्री को लगा कि महिमा बेहद बातूनी पर सीधी और दिल की अच्छी लड़की है. लौटते हुए सौरभ ने मन ही मन बड़ी राहत महसूस करी. उसे लगा रहा था कि उस की प्रेमिका और पत्नी वास्तव में एकदूसरे को पसंद करती हैं और उन के बीच अच्छी दोस्ती के संबंध जरूर कायम हो जाएंगे.

उस रात महिमा बहुत रोमांटिक मूड में थी. उस ने बड़े जोशीले अंदाज में सौरभ को प्यार करना शुरू किया.

‘‘एक बात बताओ,’’ सौरभ ने कुछ पलों के लिए उस की शरारती हरकतों को रोक कर पूछा, ‘‘क्या तुम ने अंजलि को अपनी एक अच्छी फ्रैंड के रूप में स्वीकार कर लिया है?’’

‘‘कर लिया है… आप की खुशी की खातिर कर लिया है,’’ महिमा ने उठ कर उस का माथा चूम लिया.

‘‘मेरी खुशी की बात छोड़ो. क्या वैसे वह तुम्हें अच्छी लगी है?’’

‘‘कुछ खास नहीं.’’

‘‘मैं हैरान हूं यह देख कर कि तुम ने कितनी आसानी से हमारे रिश्ते को स्वीकार कर लिया है.’’

‘‘तुम्हारी खुशी की खातिर मैं कुछ भी सहन कर सकती हूं.’’

‘‘मेरी खुशी को बीच में मत लाओ. वैसे तुम्हारे मन के भाव क्या हैं अंजलि और मेरे रिश्ते के बारे में?’’

‘‘मेरा दिल तो कहता है कि तुम्हारी जान ले लूं,’’ महिमा के हाथ उस के गले के इर्दगिर्द हलके से कसे और आंखों में अचानक आंसू छलक आए, ‘‘लेकिन मेरे

मुंह से शिकायत का एक शब्द भी कभी निकल जाए, तो लानत है मु?ा पर. मैं तुम्हारे प्रेम में पागल हूं, सौरभ… माई डार्लिंग… माई स्वीटहार्ट… माई लव.’’

महिमा बेतहाशा उस के चेहरे पर चुंबन अंकित करने लगी. सौरभ ने भावुक हो कर उसे ‘आई एम सौरी’ कईर् बार कहना चाहा, पर महिमा के प्यार की तीव्रता के आगे ये 3 शब्द उस के गले से बाहर नहीं आ पाए.

अंजलि का प्लैट ज्यादा दूर नहीं था पर महिमा रोज नहीं जाती. अंजलि से उस की मुलाकात सौरभ, उस की जिद के कारण रात को कराता और सप्ताह में 2-3 बार महिमा उस के साथ भी अंजलि के घर जाती.

अपने सासससुर व ननद के सामने वह अंजलि के बारे में बात करने से जरा भी नहीं हिचकिचाती. सौरभ की उपस्थिति में भी उसे ऐसी चर्चा छेड़ने से परहेज नहीं था.

अपनी सास द्वारा पूछे गए एक सवाल के जवाब में महिमा ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘मम्मी, अंजलि की बातें खुल कर करने

से मेरा मन हलका रहता है. अगर मैं सब बातें दबाने लगूं, तो मेरे मन में आप के बेटे व

अंजलि दोनों के प्रति गुस्से व नफरत के भाव बहुत बढ़ जाएंगे.’’

‘‘पता नहीं तुम कैसे उस चालाक, चरित्रहीन औरत से मिलने चली जाती हो. मैं तुम्हारी जगह होती, तो न कभी खुद उस से मिलती, न सौरभ को मिलने देती,’’ उस की सास का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा था.

‘‘मम्मी, मैं जो कर रही हूं, वह आप के बेटे के हित व खुशियों को ध्यान में रख कर कर रही हूं,’’ महिमा के होंठों पर उभरी रहस्यमयी सी मुसकान उस की सास को उल?ान का शिकार बना गईर्.

औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती

पगली: आखिर क्यूं महिमा अपने पति पर शक करती थी- भाग 1

‘‘सौरभदेखने में ही सुंदर और स्मार्ट नहीं है, उन के पास दिल भी सोने का है. मेरी तो लौटरी खुल गई है सहेली. हनीमून से मैं उन के प्यार में पागल हो कर लौटी हूं,’’ शिमला से लौटते ही महिमा ने अपनी सहेली के साथ फोन पर बातें करते हुए अपने पति सौरभ की जोशीले अंदाज में खूब प्रशंसा करी. मगर उसे क्या पता था कि उस की खुशियों से भरा गुब्बारा उसी रात फूट जाएगा.

काफी थके होने के कारण महिमा ने सारी शाम अपने कमरे में आराम किया. उस की सास सुमित्रा और ननद शिखा उसे डिस्टर्ब करने एक बार भी कमरे में नहीं आईं.

सौरभ शाम को बाहर घूमने चला गया था. वह रात 10 बजे के करीब जब लौटा तब तक महिमा सजधज कर उस के स्वागत के लिए तैयार हो चुकी थी.

‘‘कहां घूम आए आप?’’ महिमा के इस सवाल का कोई जवाब न दे कर सौरभ ने उस का हाथ पकड़ा और अपने सामने बैठा लिया.

उस की आंखों में बेचैनी और परेशानी के भाव पढ़ते ही महिमा की मुसकराहट गायब हो गई. अपनी बढ़ी हुई धड़कनों के साथ उस के बोलने का इंतजार करने लगी.

‘‘किसी और के बताने से पहले मैं ही तुम्हें बता रहा हूं कि मेरी जिंदगी में पहले से एक औरत मौजूद है जिस का साथ कभी न छोड़ने का वादा मैं ने उस से किया हुआ है,’’ बड़े असहज अंदाज में सौरभ ने यह विस्फोटक जानकारी महिमा को दी.

‘‘मु?ा से ऐसा मजाक मत करो, प्लीज,’’ महिमा के चेहरे का रंग उड़ गया.

‘‘तुम्हें यों दुख और मानसिक आद्यात पहुंचाने का मु?ो अफसोस है, पर अंजलि की मेरी जिंदगी में मौजूदगी एक ऐसी सचाई है जिस का सामना तुम्हें करना ही होगा.’’

‘‘जब यह अंजलि थी ही, तो आप ने मु?ा से शादी क्यों करी?’’

महिमा का गुस्से से लाल होता जा रहा चेहरा देख कर सौरभ मन ही मन चौंका. उस ने इस मौके पर महिमा के रोनेधोने या लड़ने?ागड़ने की कल्पना ही करी थी.

‘‘मु?ो अफसोस है, पर मातापिता के दबाव… उन की इच्छा… उन की खुशियों की खातिर…’’ महिमा का उसे घूरने का अंदाज कुछ ऐसा था कि सौरभ अपने किसी वाक्य को बेचैनी के कारण पूरा नहीं कर सका.

‘‘मातापिता की खुशियों की खातिर आप ने मु?ो इस ?ां?ाट में क्यों उल?ा लिया. आप की जिंदगी में मैं कहां फिट होऊं?’’ महिमा ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘तुम इस घर में पूरे मानसम्मान के साथ रहो. बस, मैं अंजलि को छोड़ूं, ऐसी जिद न करना.’’

‘‘प्यार तुम उसे करो और मैं सिर्फ नाम की पत्नी बन कर तुम्हारे साथ रहूं, यह स्थिति मु?ो कभी मंजूर नहीं होगी,’’ महिमा भड़क उठी.

‘‘प्यार तो मैं तुम्हें भी बहुत करने लगा हूं, लेकिन…’’

‘‘क्या सच कह रहे हो?’’ महिमा ने उस

के कंधे जोर से पकड़े और अपना चेहरा नजदीक ला कर उस की आंखों में गहराई से भावुक अंदाज में ?ांका.

‘‘बिलकुल सच. तुम बहुत अच्छी…

बहुत प्यारी हो,’’ सौरभ ने कोमल लहजे में

जवाब दिया.

‘‘क्या अंजलि से ज्यादा प्यार करते हो मु?ो?’’

‘‘शायद उस के बराबर ही.’’

‘‘उसे छोड़ दो.’’

‘‘नहीं.’’

‘‘उस के लिए कल को क्या मु?ो अपने से दूर करोगे?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘दोनों के साथ प्यार का संबंध निभा लोगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘बहुत चालू इंसान हो तुम तो,’’ सौरभ की ठोड़ी शरारती अंदाज में हिलाने के बाद महिमा ने एक बार हंसना शुरू किया तो उस पर पड़ा हंसी का दौरा कई मिनटों बाद ही रुका.

सौरभ मुंह बाए महिमा को पलंग पर लोटपोट होते देख रहा था. उस ने कल्पना भी नहीं करी थी अंजलि की चर्चा छिड़ने पर महिमा की ऐसी प्रतिक्रिया की.

‘कहीं यह पागल तो नहीं हो गई है?’ इस सवाल ने अचानक सौरभ के मन में उठ कर उसे डर व घबराहट का शिकार भी बना दिया.

‘‘अरे, यों हंसना बंद करो… किस बात पर तुम्हें हंसी आ रही है, यह तो बताओ…’’

सौरभ की ऐसी बातों को सुन कर महिमा हंसी रोकने की कोशिश करती, पर उस का हर प्रयास विफल होता रहा.

हंसी रुक जाने के बाद महिमा ने सौरभ का हाथ पकड़ा और फिर लापरवाही से कंधे उचकाते हुए बोली, ‘‘आप रखे रहिए इस अंजलि दीदी को अपनी प्रेमिका बना कर. मु?ो उन के कारण रोनाधोना है न रूठ कर मायके जाना है न मु?ो तलाक चाहिए और न ही मैं आत्महत्या करने जा रही हूं इस कारण.’’

‘‘थैंक यू, महिमा,’’ सौरभ को इस के अलावा कोईर् जवाब नहीं सू?ा.

‘‘सिर्फ ‘थैंक यू’ से काम नहीं चलेगा, सर,’’ महिमा ने पास खिसक कर उस के गाल पर प्यार से हाथ फेरना शुरू किया, ‘‘इन अंजलि देवी के कारण अगर आप ने मेरे प्यार के कोटे में जरा भी कटौती करी, तो खैर नहीं जनाब की.’’

‘‘ऐसा नहीं होगा,’’ सौरभ ने फौरन वादा किया.

‘‘हनीमून के दौरान तुम ने मेरे दिल, दिमाग और बदन पर जो अपने प्यार का नशा चढ़ाया है, वह कभी कम न हो.’’

‘‘नहीं होगा.’’

‘‘ऐसा नहीं हो रहा है, इस का सुबूत मु?ो मिलता रहे.’’

‘‘कैसा सुबूत चाहोगी?’’

‘‘ऐसा,’’ महिमा ने उस के बाल खिंच कर चेहरा ऊपर उठाया और एक लंबा, जोश व उत्तेजना बढ़ाने वाला होंठों का चुंबन ले डाला.

महिमा ने उसे संभलने या सोचने का मौका ही नहीं दिया. उस के प्यार करने का अंदाज उस रात बड़ा अनोखा व बेहद आक्रामक था.

‘‘मेरे धोखेबाज पति मेरे जादूगर… मेरे कृष्ण कन्हैया…’’ न जाने ऐसे कितने नामों से महिमा उसे उत्तेजना के प्रभाव में बुला रही थी जिन से उस का प्रेम, गुस्सा, पीड़ा और लगाव ?ालक उठता था.

सौरभ के मातापिता व बहन को अंजलि से उस के अवैध प्रेम संबंध की खबर थी. पिछली रात महिमा और सौरभ ने खाना अपने कमरे में ही खाया. उन तीनों को यह आशंका थी कि अंजलि के कारण उन में कहीं लड़ाई?ागड़ा न हुआ हो. मारे चिंता के वे तीनों रातभर ठीक से सो भी नहीं पाए थे.

अगले दिन महिमा को सहज ढंग से हंसतामुसकराता देख उन तीनों ने

बड़ी राहत की सांस ली. उन का यह अंदाजा कुछ देर बाद गलत साबित हुआ कि शायद सौरभ ने महिमा को अंजलि के बारे में रात को कुछ बताया ही नहीं.

सौरभ जब औफिस के लिए निकलने लगा तब महिमा ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘शाम को पहले सीधे घर आना. अंजलि दीदी से मिलने मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

अंजलि का घर में यों खुल्लमखुल्ला नाम लिया जाना उन सब को बड़ा अजीब सा लगा. घर से बाहर निकलने जा रहा सौरभ दरवाजे के पास ठिठका और उस ने इशारे से महिमा को अपने पास बुलाया.

माथे में नाराजगी दर्शाने वाले बल डाल कर सौरभ ने उसे चेतावनी दी, ‘‘यों ऊंची आवाज कर के अंजलि के बारे में कुछ मत बोला करो.’’

‘‘क्यों?’’ महिमा ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘मु?ो अच्छा नहीं लगता है.’’

‘‘अरे, अंजलि आप की प्रेमिका है. उस के बारे में बातें हों, तो आप को अच्छा लगना चाहिए.’’

‘‘तुम बेवकूफों जैसी बातें मत करो,’’ सौरभ को गुस्सा आ गया.

‘‘यह तो सच है कि मैं बुद्धू हूं और थोड़ी सी पागल भी, पर एक बात पूछूं आप से,’’ महिमा की मुसकराहट और गहरी हो गई.

‘‘क्या?’’

‘‘अपने पाप और गलत काम की लोग चर्चा करने से बचते हैं. अंजलि से आप का संबंध क्या ऐसे कामों की श्रेणी में आता है?’’

‘‘नहीं, लेकिन…’’

‘‘बस, फिर आप मु?ो मत टोको. मैं अंजलि दीदी के लिए कुछ गिफ्ट ला कर रखूंगी. शाम को दोनों उन से मिलने चलेंगे.’’

‘‘गिफ्ट की कोई जरूरत

नहीं है.’’

‘‘अरे, कैसे नहीं है. आप की प्रेमिका की मुंहदिखाई की रस्म में मैं उन्हें कुछ उपहार जरूर दूंगी. आप वक्त से घर आ जाना,’’ महिमा खुल कर हंसी और शरारती अंदाज में सौरभ के गाल पर चिकोटी काट कर पीछे हट गई.

सौरभ चाह कर भी उस पर गुस्सा नहीं कर पाया और ‘‘पगली कहीं की,’’ कह कर मुसकराता हुआ औफिस चला गया.

महिमा को ढेर सारी अंजलि के बारे में जानकारी अपनी सास आरती और ननद शिखा से मिली. वे दोनों पिछले 2 सालों से भरी बैठी थीं.

‘‘अंजलि दीदी सुंदर और स्मार्ट होने के साथसाथ अभी तक अविवाहित भी हैं. उन की शादी नहीं हुई है, पर एक पुरुष के प्यार की जरूरत तो उन्हें भी महसूस होती होगी. इत्तफाक से वह पुरुष सौरभ निकल गए है. ऐसा हो जाता है, मम्मीजी. मु?ो कुछ खास चिंता नहीं हैं उन के इस चक्कर की,’’ महिमा के इन शब्दों को सुन कर आरती और शिखा देर तक हैरानी से भरी रहीं.

जीवन चलने का नाम

‘‘ मम्मी, चाय,’’ सरिता ने विभा को चाय देते हुए ट्रे उन के पास रखी तो उन्होंने पूछा, ‘‘विनय आ गया?’’

‘‘हां, अभी आए हैं, फ्रेश हो रहे हैं. आप को और कुछ चाहिए?’’

‘‘नहीं बेटा, कुछ नहीं चाहिए,’’ विभा ने कहा तो सरिता ड्राइंगरूम में आ कर विनय के साथ बैठ कर चाय पीने लगी.

विनय ने सरिता को बताया, ‘‘परसों अखिला आंटी आ रही हैं, उन का फोन आया था, जा कर मम्मी को बताता हूं, वे खुश हो जाएंगी.’’

सरिता जानती थी कि अखिला आंटी और मम्मी का साथ बहुत पुराना है. दोनों मेरठ में एक ही स्कूल में वर्षों अध्यापिका रही हैं. विभा तो 1 साल पहले रिटायर हो गई थीं, अखिला आंटी के रिटायरमैंट में अभी 2 साल शेष हैं. सरिता अखिला से मेरठ में कई बार मिली है. विभा रिटायरमैंट के बाद बहूबेटे के साथ लखनऊ में ही रहने लगी हैं.

विनय के साथसाथ सरिता भी विभा के कमरे में आ गई. विनय ने मां को बताया, ‘‘मम्मी, अखिला आंटी किसी काम से लखनऊ आ रही हैं, हमारे यहां भी 2-3 दिन रह कर जाएंगी.’’

विभा यह जान कर बहुत खुश हो गईं, बोलीं, ‘‘कई महीनों से मेरठ चक्कर नहीं लगा. चलो, अब अखिला आ रही है तो मिलना हो जाएगा. मेरठ तो समझो अब छूट ही गया.’’

विनय ने कहा, ‘‘क्यों मां, यहां खुश नहीं हो क्या?’’ फिर पत्नी की तरफ देख कर उसे चिढ़ाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी बहू तुम्हारी सेवा ठीक से नहीं कर रही है क्या?’’

विभा ने तुरंत कहा, ‘‘नहींनहीं, मैं तो पूरा दिन आराम रतेकरते थक जाती हूं. सरिता तो मुझे कुछ करने ही नहीं देती.’’

थोड़ी देर इधरउधर की बातें कर के दोनों अपने रूम में आ गए. उन के दोनों बच्चे यश और समृद्धि भी स्कूल से आ चुके थे. सरिता ने उन्हें भी बताया, ‘‘दादी की बैस्ट फ्रैंड आ रही हैं. वे बहुत खुश हैं.’’

अखिला आईं. उन से मिल कर सब  बहुत खुश हुए. सब को उन से हमेशा अपनत्व और स्नेह मिला है. मेरठ में तो घर की एक सदस्या की तरह ही थीं वे. एक ही गली में अखिला और विभा के घर थे. सगी बहनों की तरह प्यार है दोनों में.

चायनाश्ते के दौरान अखिला ही ज्यादा बातें करती रहीं, अपने और अपने परिवार के बारे में बताती रहीं. मेरठ में वे अपने बहूबेटे के साथ रहती हैं. उन के पति रिटायर हो चुके हैं लेकिन किसी औफिस में अकाउंट्स का काम देखते हैं. विभा कम ही बोल रही थीं, अखिला ने उन्हें टोका, ‘‘विभा, तुझे क्या हुआ है? एकदम मुरझा गई है. कहां गई वह चुस्तीफुरती, थकीथकी सी लग रही है. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे ऐसे ही लग रहा है,’’ विभा ने कहा.

‘‘मैं क्या तुझे जानती नहीं?’’ दोनों बातें करने लगीं तो सरिता डिनर की तैयारी में व्यस्त हो गई. वह भी सोचने लगी कि मम्मी जब से लखनऊ आई हैं, बहुत बुझीबुझी सी क्यों रहने लगी हैं. उन के आराम का इतना तो ध्यान रखती हूं मैं. हमेशा मां की तरह प्यार और सम्मान दिया है उन्हें और वे भी मुझे बहुत प्यार करती हैं. हमारा रिश्ता बहुत मधुर है. देखने वालों को तो अंदाजा ही नहीं होता कि हम मांबेटी हैं या सासबहू. फिर मम्मी इतनी बोझिल सी क्यों रहती हैं? यही सब सोचतेसोचते वह डिनर तैयार करती रही.

डिनर के बाद अखिला ने विभा से कहा, ‘‘चल, थोड़ा टहल लेते हैं.’’

‘‘टहलने का मन नहीं. चल, मेरे रूम में, वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ विभा ने कहा.

‘‘विभा, तुझे क्या हो गया है? तुझे तो आदत थी न खाना खा कर इधरउधर टहलने की.’’

‘‘आंटी, अब तो मम्मी ने घूमनाटहलना सब छोड़ दिया है. बस, डिनर के बाद टीवी देखती हैं,’’ सरिता ने अखिला को बताया तो विभा मुसकरा भर दीं.

‘‘मैं यह क्या सुन रही हूं विभा?’’

‘‘अखिला, मेरा मन नहीं करता?’’

‘‘भई, मैं तुम्हारे साथ रूम में घुस कर बैठने नहीं आई हूं, चुपचाप टहलने चल और कल मुझे लखनऊ घुमा देना. थोड़ी शौपिंग करनी है, बहू ने चिकन के सूट मंगाए हैं.’’

सरिता ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चलना आंटी. मम्मी के पैरों में दर्द रहता है. वे आराम कर लेंगी.’’

अगले दिन अखिला विभा को जबरदस्ती ले कर बाजार गई. दोनों लौटीं तो खूब खुश थीं. विभा भी सरिता के लिए एक सूट ले कर आई थीं.

डिनर के बाद भी अखिला विभा को घर के पास बने गार्डन में टहलने ले गई. विभा बहुत फ्रैश थीं. सरिता को अच्छा लगा, विभा का बहुत अच्छा समय बीता था.

विभा को ले कर अखिला बहुत चिंतित  थीं. वे चाहती थीं कि विभा पहले की तरह ही चुस्तदुरुस्त हो जाए. पर यह इतना आसान न था. जिस दिन अखिला को वापस जाना था वे सरिता से बोलीं, ‘‘बेटा, कुछ जरूरी बातें करनी हैं तुम से.’’

‘‘कहिए न, आंटी.’’

‘‘मेरे साथ गार्डन में चलो, वहां अकेले में बैठ कर बातें करेंगे.’’

दोनों घर के सामने बने गार्डन में जा कर एक बैंच पर बैठ गईं.

‘‘सरिता, विभा बहुत बदल गई है. उस का यह बदलाव मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘हां आंटी, मम्मी बहुत डल हो गई हैं यहां आ कर जबकि मैं उन का बहुत ध्यान रखती हूं, उन्हें कोई काम नहीं करने देती, कोई जिम्मेदारी नहीं है उन पर, फिर भी पता नहीं क्यों दिन पर दिन शिथिल सी होती जा रही हैं.’’

‘‘यही तो गलती कर दी तुम ने बेटा, तुम ने उसे सारे कामों से छुट्टी दे कर उस के जीवन के  उद्देश्य और उपयोगिता को ही खत्म कर दिया. अब वह अपनेआप को अनुपयोगी मान कर अनमनी सी हो गई है. उसे लगता है कि उस का जीवन उद्देश्यहीन है. मुझे पता है तुम तो उस के आराम के लिए ही सोचती हो लेकिन हर इंसान की जरूरतें, इच्छाएं अलग होती हैं. किसी को जीवन की भागदौड़ के बाद आराम करना अच्छा लगता है तो किसी को कुछ काम करते रहना अच्छा लगता है. विभा तो हमेशा से ही बहुत कर्मठ रही है. मेरठ से रिटायर होने के बाद भी वह हमेशा किसी न किसी काम में व्यस्त रहती थी. वह जिम्मेदारियां निभाना पसंद करती है. ज्यादा टीवी देखते रहना तो उसे कभी पसंद नहीं था. कहती थी, सारा दिन टीवी वही बड़ेबुजुर्ग देख सकते हैं जिन्हें कोई काम नहीं होता. मेरे पास तो बहुत काम हैं और मैं तो अभी पूरी तरह से स्वस्थ हूं.

‘‘जीवन से भरपूर, अपनेआप को किसी न किसी काम में व्यस्त रखने वाली अब अपने कमरे में चुपचाप टीवी देखती रहती है.

‘‘विनय जब 10 साल का था, उस के पिताजी की मृत्यु हो गई थी. विभा ने हमेशा घरबाहर की हर जिम्मेदारी संभाली है. वह अभी तक स्वस्थ रही है. मुझे तो लगता है किसी न किसी काम में व्यस्त रहने की आदत ने उसे हमेशा स्वस्थ रखा है. तुम धीरेधीरे उस पर फिर से थोड़ेबहुत काम की जिम्मेदारी डालो जिस से उसे लगे कि तुम्हें उस के साथ की, उस की मदद की जरूरत है.

सरिता, इंसान तन से नहीं, मन से बूढ़ा होता है. जब तक उस के मन में काम करने की उमंग है उसे कुछ न कुछ करते रहने दो. तुम ने ‘आप आराम कीजिए, मैं कर लूंगी’ कह कर उसे एक कमरे में बिठा दिया है. जबकि विभा के अनुसार तो जीवन लगातार चलते रहने का नाम है. उसे अब अपना जीवन ठहरा हुआ, गतिहीन लगता है. तुम ने मेरठ में उस की दिनचर्या देखी थी न, हर समय कुछ न कुछ काम, इधर से उधर जाना, टहलना, घूमना, कितनी चुस्ती थी उस में, मैं ठीक कह रही हूं न बेटा?’’

‘‘हां आंटी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, मैं आप की बात समझ गई हूं. अब आप देखना, अगली बार मिलने पर मम्मी आप को कितनी चुस्तदुरुस्त दिखेंगी.’’

अखिला मेरठ वापस चली गईं. सरिता विभा के कमरे में जा कर उन्हीं के बैड पर लेट गई. विभा टीवी देख रही थीं. वे चौंक गईं, ‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘मम्मी, बहुत थक गई हूं, कमर में भी दर्द है.’’

‘‘दबा दूं, बेटा?’’

‘‘नहीं मम्मी, अभी तो बाजार से घर का कुछ जरूरी सामान भी लाना है.’’

विभा ने पलभर सरिता को देख कर कुछ सोचा, फिर कहा, ‘‘मैं ला दूं?’’

‘‘आप को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’’ सरिता धीमे से बोली.

‘‘अरे नहीं, परेशानी किस बात की, तुम लिस्ट बना दो, मैं अभी कपड़े बदल कर बाजार से सारा सामान ले आती हूं,’’ कह कर विभा ने फटाफट टीवी बंद किया, अपने कपड़े बदले, सरिता से लिस्ट ली और पर्स संभाल कर उत्साह और जोश के साथ बाहर निकल गईं.

विनय आया तो सरिता ने उसे अखिला आंटी से हुई बातचीत के बारे में बताया. उसे भी अखिला आंटी की बात समझ में आ गई. उस ने भी अपनी मम्मी को हमेशा चुस्तदुरुस्त देखा था, वह भी उन के जीवन में आई नीरसता को ले कर चिंतित था.

एक घंटे बाद विभा लौटीं, उन के चेहरे पर ताजगी थी, थकान का कहीं नामोनिशान नहीं था. मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘आज बहुत दिनों बाद खरीदा है, देख लो, कहीं कुछ रह तो नहीं गया.’’

सरिता सामान संभालने लगी तो विभा ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दर्द कैसा है?’’

‘‘थोड़ा ठीक है.’’

इतने में विनय ने कहा, ‘‘सरिता, आज खाने में क्या बनाओगी?’’

‘‘अभी सोचा नहीं?’’

विनय ने कहा, ‘‘मम्मी, आज आप अपने हाथ की रसेदार आलू की सब्जी खिलाओ न, बहुत दिन हो गए.’’

विभा चहक उठीं, ‘‘अरे, अभी बनाती हूं, पहले क्यों नहीं कहा?’’

‘‘मम्मी, आप अभी बाजार से आई हैं, पहले थोड़ा आराम कर लीजिए, फिर बना दीजिएगा,’’ सरिता ने कहा तो विभा ने किचन की तरफ जाते हुए कहा, ‘‘अरे, आराम कैसा, मैं ने किया ही क्या है?’’

विनय ने सरिता की तरफ देखा. विभा को पहले की तरह उत्साह से भरे देख कर दोनों का मन हलका हो गया था. वे हैरान भी थे और खुश भी कि सुस्त रहने वाली मां कितने उत्साह से किचन की तरफ जा रही थीं. सरिता सोच रही थी कि आंटी ने ठीक कहा था जब तक मम्मी स्वयं को थका हुआ महसूस न करें तब तक उन्हें बेकार ही इस बात का एहसास करा कर कुछ काम करने से नहीं रोकना चाहिए था, जबरदस्ती आराम नहीं करवाना चाहिए था. अच्छा तो यही है कि मम्मी अपनी रुचि का काम कर के अपनेआप को व्यस्त और खुश रखें और जीवन को उत्साह से जिएं. उन का व्यक्तित्व हमारे लिए आज भी महत्त्वपूर्ण व उपयोगी है यह एहसास उन्हें करवाना ही है.

सरिता ने अपने विचारों में खोए हुए किचन में जा कर देखा, पिछले 6 महीने से कभी कमर, कभी पैर दर्द बताने वाली मां के हाथ बड़ी तेजी से चल रहे थे.  वह चुपचाप किचन से मुसकराती हुई बाहर आ गई.

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