सच्चा प्यार: उर्मी की शादीशुदा जिंदगी में मुसीबत बना उसका प्यार

‘‘उर्मी, अब बताओ मैं लड़के वालों को क्या जवाब दूं? लड़के के पिताजी 3 बार फोन कर चुके हैं. उन्हें तुम पसंद आ गई हो… लड़का मनोहर भी तुम से शादी करने के लिए तैयार है… वे हमारे लायक हैं. दहेज में भी कुछ नहीं मांग रहे हैं. अब हम सब तुम्हारी हां सुनने के लिए बेचैनी से इंतजार कर रहे हैं. तुम्हारी क्या राय है?’’ मां ने चाय का प्याला मेरे पास रखते हुए पूछा.

मैं बिना कुछ बोले चाय पीने लगी. मां मेरे जवाब के इंतजार में मेरी ओर देखती रहीं. सच कहूं तो मैं ने इस बारे में अब तक कुछ सोचा ही नहीं था. अगर आप सोच रहे हैं कि मैं कोई 21-22 साल की युवती हूं तो आप गलतफहमी में हैं. मेरी उम्र अब 33 साल है और जो मुझ से ब्याह करना चाहते हैं उन की 40 साल है.

अगर आप मन ही मन सोच रहे हैं कि यह शादी करने की उम्र थोड़ी है तो आप से मैं कोई शिकायत नहीं करूंगी, क्योंकि मेरे मन में भी यह सवाल उठ चुका है और इस का जवाब मुझे भी अब तक नहीं मिला. इसलिए मैं चुपचाप चाय पी रही हूं.

सभी को अपनीअपनी जिंदगी से कुछ उम्मीदें जरूर होती हैं, इस बात को कोई नकार नहीं सकता. हर चीज को पाने के लिए सही वक्त तो होता ही है. जैसे पढ़ाई के लिए सही समय होता है उसी तरह शादी करने के लिए भी सही समय होता है. मेरे खयाल से लड़कियों को 20 और 25 साल की उम्र के बीच शादी कर लेनी चाहिए. तभी तो वे अपनी शादीशुदा जिंदगी का पूरा आनंद उठा सकेंगी. प्यारमुहब्बत आदि जज्बातों के लिए यही सही उम्र है. इस उम्र में दिमाग कम और दिल ज्यादा काम करता है और फिर प्यार को अनुभव करने के लिए दिमाग से ज्यादा दिल की ही जरूरत होती है.

लेकिन मेरी जिंदगी की परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि मेरे जीवन में 20 से 25 साल की उम्र संघर्षों से भरी थी. हम खानदानी रईस नहीं थे. शुक्र है कि मैं अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. यदि एक से अधिक बच्चे होते तो हमारी जिंदगी और मुश्किल में पड़ जाती. मेरे पापा एक कंपनी में काम करते थे और मां स्कूल अध्यापिका थीं. दोनों की आमदनी को मिला कर हमारे परिवार का गुजारा चल रहा था.

एक विषय में मेरे मातापिता दोनों ही बड़े निश्चिंत थे कि मेरी पढ़ाई को किसी भी हाल में रोकना नहीं. मैं भी बड़ी लगन से पढ़ती रही. लेकिन हमारी और कुदरत की सोच का एक होना अनिवार्य नहीं है न? इसीलिए मेरी जिंदगी में भी एक ऐसी घटना घटी, जिस से जिंदगी से मेरा पूरा विश्वास ही उठ गया.

एक दिन दफ्तर में दोपहर के समय मेरे पिताजी अचानक अपनी छाती पकड़े नीचे गिर गए. साथ काम करने वालों ने उन्हें अस्पताल में भरती करा कर मेरी मां के स्कूल फोन कर दिया. मेरे पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था. मेरे पिताजी किसी भी बुरी आदत के शिकार नहीं थे, फिर भी उन्हें 40 वर्ष की उम्र में यह दिल की बीमारी कैसी लगी, यह मैं नहीं समझ पाई.

3 दिन आईसीयू में रह कर मेरे पिताजी ने अपनी आंखें खोलीं और फिर मेरी मां और मुझे देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए. मेरा हाथ पकड़ कर उन्होंने बहुत ही धीमी आवाज में कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो बेटी… मैं अपना फर्ज पूरा किए बिना जा रहा हूं… मगर तुम अपनी पढ़ाई को किसी भी कीमत पर बीच में न छोड़ना… वही कठिन समय में तुम्हारे काम आएगी,’’ वे ही मेरे पिताजी के अंतिम शब्द थे.

पिताजी की मौत के बाद मैं और मेरी मां दोनों बिलकुल अकेली पड़ गईं. मेरी मां इकलौती बेटी थीं. उन के मातापिता भी इस दुनिया से चल बसे थे. मेरे पापा के एक भाई थे, मगर वे भी बहुत ही साधारण जीवन बिता रहे थे. उन की 2 बेटियां थीं. वे भी हमारी कुछ मदद नहीं कर सके. अन्य रिश्तेदार भी एक लड़की की शादी का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं थे. मैं उन्हें दोषी नहीं ठहराना चाहती, क्योंकि एक कुंआरी लड़की की जिम्मेदारी लेना आज कोई आसान काम नहीं है.

मेरी मां ने अपनी कम तनख्वाह से मुझे अंगरेजी साहित्य में एम.ए. तक पढ़ाया. मैं ने एम.ए. अव्वल दर्जे में पास किया और उस के बाद अमेरिका में स्कौलरशिप के साथ पीएच.डी. की. उसी दौरान मेरी पहचान शेखर से हुई. अमेरिका में भारतवासियों की एक पार्टी में पहली बार मेरी सहेली ने मुझे शेखर से मिलवाया. पहली मुलाकात में ही शेखर ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया. वह बहुत ही सरलता से मुझ से बात करने लगा. जैसे मुझे बहुत दिनों से जानता हो. पूरी पार्टी में उस ने मेरा साथ दिया.

मुझे शेखर के बोलने का अंदाज बहुत पसंद आया. वह लड़कियों से बातें करने में माहिर था और कई लड़कियां इसी कारण उस पर फिदा हो गई थीं, क्योंकि जब वह मुझ से बातें कर रहा था, तो उस 2 घंटे के समय में कई लड़कियां खुद आ कर उस से बात कर गई थीं. सभी उसे डार्लिंग, स्वीट हार्ट आदि पुकार कर उस के गाल पर चुंबन कर गईं. इस से मुझे मालूम हुआ कि वह लड़कियों के बीच बहुत मशहूर है.

वह काफी सुंदर था… लंबाचौड़ा और गोरे रंग का… उस की आंखों में शरारत और होंठों में हसीन मुसकराहट थी. हमारे ही विश्वविद्यालय से एमबीए कर रहा था. उस के पिताजी भारत में दिल्ली शहर के बड़े व्यवसायी थे. शेखर एमबीए करने के बाद अपने पिताजी के कार्यालय में उच्च पद पर बैठने वाला था. ये सब उसी ने मुझे बताया था.

मैं विश्वविद्यालय के होस्टल में रहती थी और वह किराए पर फ्लैट ले कर रहता था. उसी से मुझे मालूम हुआ कि उस के पिता कितने बड़े आदमी हैं. हमारे एकदूसरे से विदा लेते समय शेखर ने मेरा सैल नंबर मांग लिया.

सच कहूं तो उस पार्टी से वापस आने के बाद मैं शेखर को भूल गई थी. मेरे खयाल से वह बड़े रईस पिता की औलाद है और वह मुझ जैसी साधारण परिवार की लड़की से दोस्ती नहीं करेगा.

उस शुक्रवार शाम 6 बजे मेरे सैल फोन की घंटी बजी.

‘‘हैलो,’’ मैं ने कहा.

‘‘हाय,’’ दूसरी तरफ से एक पुरुष की आवाज सुनाई दी.

मैं ने तुरंत उस आवाज को पहचान लिया. हां वह और कोई नहीं शेखर ही था.

‘‘कैसी हैं आप? उम्मीद है आप मुझे याद करती हैं?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘कोई आप को भूल सकता है क्या? बताइए, क्या हालचाल हैं? कैसे याद किया मुझे आप ने अपनी इतनी सारी गर्लफ्रैंड्स में?’’

‘‘आप के ऊपर एक इलजाम है और उस के लिए जो सजा मैं दूंगा वह आप को माननी पड़ेगी. मंजूर है?’’ उस की आवाज में शरारत उमड़ रही थी. ‘‘इलजाम? मैं ने ऐसी क्या गलती की जो सजा के लायक है… आप ही बताइए,’’ मैं भी हंस कर बोली.

शेखर ने कहा, ‘‘पिछले 1 हफ्ते से न मैं ठीक से खा पाया हूं और न ही सो पाया… मेरी आंखों के सामने सिर्फ आप का ही चेहरा दिखाई देता है… मेरी इस बेकरारी का कारण आप हैं, इसलिए आप को दोषी ठहरा कर आप को सजा सुना रहा हूं… सुनेंगी आप?’’

‘‘हां, बोलिए क्या सजा है मेरी?’’ ‘‘आप को इस शनिवार मेरे फ्लैट पर मेरा मेहमान बन कर आना होगा और पूरा दिन मेरे साथ बिताना होगा… मंजूर है आप को?’’ ‘‘जी, मंजूर है,’’ कह मैं भी खूब हंसी.

उस शनिवार मुझे अपने फ्लैट में ले जाने के लिए खुद शेखर आया. मेरी खूब खातिरदारी की. एक लड़की को अति महत्त्वपूर्ण महसूस कैसे करवाना है यह बात हर मर्द को शेखर से सीखनी चाहिए. शाम को जब वह मुझे होस्टल छोड़ने आया तब हम दोनों को एहसास हुआ कि हम एकदूसरे को सदियों से जानते… यही शेखर की खूबी थी.

उस के बाद अगले 6 महीने हर शनिवार मैं उस के फ्लैट पर जाती और फिर रविवार को ही लौटती. हम दोनों एकदूसरे के बहुत करीब हो गए थे. मगर मैं एक विषय में बहुत ही स्पष्ट थी. मुझे मालूम था कि हम दोनों भारत से हैं. इस के अलावा हमारे बीच कुछ भी मिलताजुलता नहीं. हमारी बिरादरी अलग थी. हमारी आर्थिक स्थिति भी बिलकुल भिन्न थी, जो बड़ी दीवार बन कर हम दोनों के बीच खड़ी रहती थी.

शुरू से ही जब मैं ने इस रिश्ते में अपनेआप को जोड़ा उसी वक्त से मेरे मन में कोई उम्मीद नहीं थी. मुझे मालूम था कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है. मगर जो समय मैं ने शेखर के साथ व्यतीत किया वह मेरे लिए अनमोल था और मैं उसे खोना नहीं चाहती थी. इसलिए मुझे हैरानी नहीं हुई जब शेखर ने बड़ी ही सरलता से मुझे अपनी शादी का निमंत्रण दिया, क्योंकि उस रिश्ते से मुझे यही उम्मीद थी. अगले हफ्ते ही वह भारत चला गया और उस के बाद हम कभी नहीं मिले. कभीकभी उस की याद मुझे आती थी, मगर मैं उस के बारे में सोच कर परेशान नहीं होती थी. मेरे लिए शेखर एक खत्म हुए किस्से के अलावा कुछ नहीं था.

शेखर के चले जाने के बाद मैं 1 साल के लिए अमेरिका में ही रही. इस दौरान मेरी मां भी अपनी अध्यापिका के पद से सेवानिवृत्त हो चुकी थीं. उन्हें अमेरिका आना पसंद नहीं था, क्योंकि वहां का सर्दी का मौसम उन के लिए अच्छा नहीं था. इसलिए मैं अपनी पीएच.डी. खत्म कर के भारत लौट आई.

अमेरिका में जो पैसे मैं ने जमा किए और मेरी मां के पीएफ से मिले उन से मुंबई में 2 बैडरूम वाला फ्लैट खरीद लिया. बाद में मुझे क्व30 हजार मासिक वेतन पर एक कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई.

मेरे मुंबई लौटने के बाद मेरी मां मेरी शादी करवाना चाहती थीं. उन्हें डर था कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो मैं इस दुनिया में अकेली हो जाऊंगी. मगर शादी इतनी आसान नहीं थी. शादी के बाजार में हर दूल्हे के लिए एक तय रेट होता था. हमारे पास मेरी तनख्वाह के अलावा कुछ भी नहीं था. ऊपर से मेरी मां का बोझ उठाने के लिए लड़के वाले तैयार नहीं थे.

जब मैं अमेरिका से मुंबई आई थी तब मेरी उम्र 25 साल थी. शादी के लिए सही उम्र थी. मैं भी एक सुंदर सा राजकुमार जो मेरा हाथ थामेगा उसी के सपने देखती रही. सपने को हकीकत में बदलना संभव नहीं हुआ. दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में और महीने सालों में बदलते हुए 3 साल निकल गए.

मेरी जिंदगी में दोबारा एक आदमी का प्रवेश हुआ. उस का नाम ललित था. वह भी अंगरेजी का लैक्चरर था. मगर उस ने पीएचडी नहीं की थी. सिर्फ एमफिल किया था. पहली मुलाकात में ही मुझे मालूम हो गया कि वह भी मेरी तरह मध्यवर्गीय परिवार का है और उस की एक मां और बहन है. उस ने कहा कि उस के पिता कई साल पहले इस दुनिया से जा चुके हैं और मां और बहन दोनों की जिम्मेदारी उसी पर है.

पहले कुछ महीने हमारे बीच दोस्ती थी. हमारे कालेज के पास एक अच्छा कैफे था. हम दोनों रोज वहां कौफी पीने जाते. इसी दौरान एक दिन उस ने मुझे अपने घर बुलाया. वह एक छोटे से फ्लैट में रहता था. उस की मां ने मेरी खूब खातिरदारी की और उस की बहन जो कालेज में पढ़ती थी वह भी मेरे से बड़ी इज्जत से पेश आई.

इसी दौरान एक दिन ललित ने मुझ से कहा, ‘‘उर्मी, क्या आप मेरे साथ कौफी पीने के लिए आएंगी?’’

उस का इस तरह पूछना मुझे थोड़ा अजीब सा लगा, मगर फिर मैं ने हंस कर पूछा, ‘‘कोई खास बात है जो मुझे कौफी पीने को बुला रहे हो?’’

उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हां, बस ऐसा ही समझ लीजिए.’’

शाम कालेज खत्म होने के बाद हम दोनों कौफी शौप में गए और एक कोने में जा कर बैठ गए. मैं ने उस के चेहरे को देख कर कहा, ‘‘हां, बोलो ललित क्या बात करनी है मुझ से?’’ ललित ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा, ‘‘उर्मी, मैं बातों को घुमाना नहीं चाहता हूं. मैं तुम से प्यार करता हूं. अगर तुम्हें भी मंजूर है, तो मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर मुझे सच में झटका लगा. मुझे जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि ललित इस तरह मुझ से पूछेगा.

मैं ने ललित के बारे में बहुत सोचा. मुझे तब तक मालूम हो चुका कि मेरे पास जो पैसे हैं वे मेरी शादी के लिए बहुत कम हैं और फिर मेरी मां को भी अपनाने वाला दूल्हा मिलना लगभग नामुमकिन ही था. इस बारे में मेरे दिल ने नहीं दिमाग ने निर्णय लिया और मैं ने ललित को अपनी मंजूरी दे दी.

उस के बाद हर हफ्ते हम रविवार को हमारे घर के सामने वाले पार्क में मिलते. इसी बीच यकायक ललित 3 दिन की छुट्टी पर चला गया. ललित चौथे दिन कालेज आया. उस का चेहरा उतरा हुआ था. शाम को हम दोनों पार्क में जा कर बैठ गए. मुझे मालूम था कि ललित मुझ से कुछ कहना चाह रहा, मगर कह नहीं पा रहा.

फिर उस ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो उर्मी… मैं ने खुद ही तुम से प्यार का इजहार किया था और अब मैं ही इस रिश्ते से पीछे हट रहा हूं. तुम्हें मालूम है कि मेरी एक बहन है. वह किसी लड़के से प्यार करती है और उस लड़के की एक बिन ब्याही बहन है. उन लोगों ने साफ कह दिया कि अगर मैं उन की लड़की से शादी करूं तो ही वे मेरी बहन को अपनाएंगे. मेरे पास अब कोई रास्ता नहीं रहा.’’

मैं 1 मिनट के लिए चुप रही. फिर कहा, ‘‘फैसला ले ही लिया तो अब किस बात का डर… शादी मुबारक हो ललित,’’ और फिर घर चली आई. 1 महीने में ललित और उस की बहन की शादी धूमधाम से हो गई. अब ललित कालेज की नौकरी छोड़ कर अपनी ससुराल की कंपनी में काम करने लगा.

अब मनोहर से मेरी शादी हुए 1 महीना हो गया है. मेरी ससुराल वालों ने मेरे पति को मेरे साथ मेरे फ्लैट में रहने की इजाजत दे दी ताकि मेरी मां को भी हमारा सहारा मिल सके. इस नई जिंदगी से मुझे कोई शिकायत नहीं. मेरे पति एक अच्छे इनसान हैं. मुझे किसी भी बात को ले कर परेशान नहीं करते हैं. मेरी बहुत इज्जत करते हैं. औरतों को पूरा सम्मान देते हैं. उन का यह स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा.

‘‘उर्मी जल्दी से तैयार हो जाओ. हमारी शादी के बाद तुम पहली बार मेरे दफ्तर की पार्टी में चल रही हो. आज की पार्टी खास है, क्योंकि हमारे मालिक के बेटे दिल्ली से मुंबई आ रहे हैं. तुम उन से भी मिलोगी.’’

जब हम पार्टी में पहुंचे तो कई लोग आ चुके थे. मेरे पति ने मुझे सब से मिलवाया. इतने में किसी ने कहा चेयरमैन साहब आ गए. उन्हें देख कर एक क्षण के लिए मेरी सांस रुक गई. चेयरमैन कोई और नहीं शेखर ही था.

तभी सभी को नमस्कार कहते हुए शेखर मुझे देख कर 1 मिनट के लिए चौंक गया.

मेरे पति ने उस से कहा, ‘‘मेरी बीवी है सर.’’

शेखर ने हंसते हुए कहा, ‘‘मुबारक हो… शादी कब हुई?’’

मेरे पति उस के सवालों के जवाब देते रहे और फिर वह चला गया.

कुछ देर बाद शेखर के पी.ए. ने आ कर कहा, ‘‘मैडम, चेयरमैन साहब आप को बुला रहे हैं अकेले.’’ मैं ने चुपके से अपने पति के चेहरे को देखा. पति ने भी सिर हिला कर मुझे जाने का इशारा किया.

शेखर एक बड़ी मेज के सामने बैठा था. मैं उस के सामने जा कर खड़ी हो गई.

शेखर ने मुझे देख कर कहा, ‘‘आओ उर्मी, प्लीज बैठो.’’

मैं उस के सामने बैठ गई.

शेखर ने कहा, ‘‘मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं. मैं सीधे मुद्दे पर आ जाऊंगा… मैं हमारी पुरानी दोस्ती को फिर से शुरू करना चाहता हूं बिलकुल पहले जैसे. मैं तुम्हारे पति का दिल्ली में तबादला कर दूंगा. अगर तुम चाहती हो तो तुम्हें दिल्ली के किसी कालेज में लैक्चरर की नौकरी दिला दूंगा.’’

वह ऐसे बोलता रहा जैसे मैं ने उस की बात मान ली. मगर मैं उस वक्त कुछ नहीं कह सकी. चुपचाप लौट कर पति के सामने आ कर बैठ गई. कुछ भी नहीं बोली. टैक्सी से लौटते समय भी कुछ नहीं पूछा उन्होंने.

घर लौटने के बाद मेरे पति ने मुझ से कुछ भी नहीं पूछा. मगर मैं ने उन से सारी बातें कहने का फैसला कर लिया. पति ने मेरी सारी बातें चुपचाप सुनीं. मैं ने उन से कुछ नहीं छिपाया.

मेरी आंखों से आंसू आने लगे. मेरे पति ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘उर्मी, तुम ने कुछ गलत नहीं किया. हम सब के अतीत में कुछ न कुछ हुआ होगा. अतीत के पन्नों को दोबारा खोल कर देखना बेकार की बात है. कभीकभी न चाहते हुए भी हमारा अतीत हमारे सामने खड़ा हो जाता है, तो हमें उसे महत्त्व नहीं देना चाहिए. हमेशा आगे की सोच रखनी चाहिए. शेखर की बातों को छोड़ो. उस का रुपया बोल रहा है… हम कभी उस का मुकाबला नहीं कर सकते… मैं कल ही अपना इस्तीफा दे दूंगा. दूसरी नौकरी ढूंढ़ लूंगा. तुम चिंता करना छोड़ो और सो जाओ. हर कदम मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ और फिर मुझे बांहों में भर लिया. उन की बांहों में मुझे फील हुआ कि मैं महफूज हूं. इस के अलावा और क्या चाहिए एक पत्नी को?

नो एंट्री: ईशा क्यों पति से दूर होकर निशांत की तरफ आकर्षित हो रही थी

‘तुम्हीं मेरे हल पल में, तुम आज में तुम कल में …’

“हे शोना, हे शोना”, एफएम पर चल रहे गाने के साथ गुनगुनाती ईशा अपने विवाहित जीवन में काफी प्रसन्न थी. कॉलेज पूरा होते होते उसकी शादी हो गई. जैसे जीवनसाथी की उसने कल्पना की, मयूर ठीक वैसा ही निकला. देखने में आकर्षक कहना ठीक होगा. वैसे ईशा के मुकाबले मयूर उन्नीस ही था किंतु वह जानती थी कि लड़कों की सूरत से ज्यादा सीरत पररखना आवश्यक होता है. आखिर ताउम्र का साथ है. ईशा ने अपनी पूरी होशियारी दर्शाते हुए मयूर का चयन किया. ईशा जैसी खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तो की कमी न थी. कई परिवार के जरिए आए तो कई मजनू जिंदगी में वैसे भी टकराए. किंतु वह अपना जीवनसाथी उसी को चुनेगी जो उसके मापदंडों पर खरा उतरेगा. मयूर अपनी शराफत, प्यार करने की काबिलियत, और सच्चाई के कारण अव्वल आया. दो वर्ष पूर्व जब मयूर एक कजिन की शादी में उस से टकराया तब उसे पहली नजर में वह एक शांत, सुशील और विनम्र लड़का लगा. फोन नंबर एक्सचेंज होते ही कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेज कर मयूर ने ईशा का मन पिघला दिया. और उसने इस रिश्ते के लिए जल्दी ही हामी भर दी. चट मंगनी पट ब्याह कर ईशा, मयूर के घर आ गई.

तब से लेकर आज तक दोनों एक दूसरे के प्यार में डुबकियां लगाते आए हैं. प्रेम का सागर होता ही इतना मीठा है कि चाहे जितनी बार गोते लगा लो यह प्यास नहीं बुझती. शादी के पश्चात कई महीनों तक दोनों इसी प्यार की लहरों में डूबा उभरा करते, एक दूसरे की आगोश में खोए जिंदगी के हसीन पलों का आनंद लेते. एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाते हुए दोनों ने धीरे-धीरे अपनी ज़िंदगी को रोज़मर्रा की पटरी पर दौड़ने के लायक बना लिया. मयूर, एक प्राइवेट कंपनी में उच्च पदासीन, ईशा की हर चाह को जुबान पर आने से पहले ही पूरा कर दिया करता. ईशा पूरे आनंद के साथ घर संभालने लगी. विवाहित जीवन सुखमय था. इससे ज्यादा की कामना भी नहीं थी ईशा को.

 

“इस शनिवार को हमारी कंपनी ने फैमिली डे का आयोजन रखा है. मेरी कंपनी हर साल यह आयोजन करती है जिसमें सभी अपने परिवारों के साथ आते हैं. खूब धूम मचती है – तरह तरह के खेल खिलाए जाते हैं, खाना-पीना, नाचना-गाना. सब एक दूसरे के परिवार के सदस्यों से भी मिल लेते हैं. पिछली बार तुम अपने मायके गयी हुई थीं इसलिए अबकी बार तुम पहले-पहल सबसे मिलोगी.”

“अच्छा, फिर तो बहुत मजा आएगा. इसी बहाने मैं तुम्हारी कंपनी के सहकर्मियों व उनके परिवारों से मिलूंगी”, मयूर की बात सुन ईशा भी खुश हो गई.

शनिवार को मयूर की मनपसंद मोरिया नीले रंग की पटोला साड़ी में ईशा का गोरा रंग और भी निखर आया. उस पर सोने का हल्का सेट पहनने से मानो उसकी खूबसूरती में चार चांद लग गए. सलीके से किया हुआ  मेकअप और स्ट्रेटन किए हुए कमर तक लहराते केश. ईशा को लेकर जैसे ही मयूर पार्टी में दाखिल हुआ सब निगाहें उसकी ओर उठ गईं. जोड़ी वाकई काबिले तारीफ लग रही थी.

फैमिली डे पर कहीं कोई भेदभाव नहीं था. जैसे कंपनी के मैनेजमेंट वैसे ही कंपनी के कर्मचारी और उसी तरह कंपनी के वर्कर्स के साथ भी बर्ताव किया जा रहा था. सभी अपने-अपने परिवारों के साथ घुल मिल रहे थे. कुछ ही देर में नाच गाना शुरू हुआ. कंपनी में काम करने वाले कुछ वर्कर्स आए और मयूर को कंधों पर उठाकर डांस फ्लोर की ओर ले गए. यह दृश्य देखकर ईशा का मन बाग-बाग हो गया. अपने पति के प्रति उसके मातहतों का इतना प्यार देख कर उसे आज मयूर पर नाज हो उठा. आज फैमिली डे में आकर ईशा को ज्ञात हुआ कि मयूर अपने परिश्रमी स्वभाव के कारण अपनी कंपनी में कितना चहेता है.

तभी एक हैंडसम नवयुवक ईशा के पास की कुर्सी खींच कर बैठते हुए बोला, “हाय, मेरा नाम निशांत है. मैं मयूर का दोस्त हूं. आपकी शादी में भी आया था पर इतने लोगों के बीच शायद मुलाकात याद ना रही हो.”

ईशा उस मुलाक़ात को कैसे भूल सकती थी भला! उसे अपनी शादी का वो मंज़र याद हो आया जब मयूर के सभी दोस्त स्टेज पर आकर फोटो खिंचवा रहे थे. तब सभी मित्र दुल्हा-दुल्हन बने मयूर और ईशा को घेरकर आगे-पीछे खड़े होने लगे. इतने में निशांत हँसकर ईशा के पास आ गया, “हम तो अपनी दुल्हनिया के पास बैठेंगे”, और उसी के सोफ़े पर उससे चिपक कर बैठ गया. अपनी बाँह ईशा के गले में डालते हुए उसने फोटोग्राफर से कहा था, “अब खींच ले, भाई, हमारी फोटो.”

ईशा को निशांत का नाम तब ज्ञात नहीं था किन्तु उसे उसकी दिलेरी बहुत भा गई. वो स्वयं भी एक बिंदास लड़की होने के कारण निशांत द्वारा भरी सभा में खुलेआम की गई ये हरकत उसे आकर्षित कर गई. मयूर बेहद नियमानुसार चलने वाला लड़का था. हर बात घरवालों के कहे अनुसार करना, हर निर्णय लेने से पहले बड़ों से पूछना, छोटे से छोटे कानून का पालन करना. उसके साथ रहने पर ईशा भी एक सीधी-सादी लड़की की भाँति रहने लगी क्योंकि आखिर ये एक अरेंज मैरिज थी, और वो चाहती थी कि मयूर आरंभ से उससे प्रभावित हो जाए.

आज ईशा ने निशांत को यहाँ देखने की उम्मीद नहीं की थी किन्तु जब वो सामने आया तो वह अंजान बनी रही, “ठीक कह रहे हैं आप. शादी के समय जितने लोगों से मिलना जुलना होता है वह कहां याद रह पाता है.

“जी नहीं, मैं तो ऑपरेशंस में हूं. देखा आपने, मयूर को वर्कर्स कितना पसंद करते हैं. बहुत सीधा है. सब में घुल मिल जाता है.”

“जी”, ईशा के चेहरे की मुस्कुराहट थमने का नाम नहीं ले रही थी.

“डांस करना पसंद करेंगी?”, कहते हुए निशांत ने अपना सीधा हाथ आगे बढ़ाया. ईशा आगे कुछ सोच पाती उससे पहले निशांत बोला, “मयूर बुरा नहीं मानेगा, उसे वर्कर्स के साथ डांस करने में ज्यादा मजा आ रहा है.”

आज निशांत ने पुनः ईशा के समक्ष अपनी अपरंपरागत सोच दर्शाई. कुछ ना कहते हुए ईशा, निशांत के साथ डांस फ्लोर पर उतर गई. नाचते-नाचते निशांत कहने लगा, “कहां आप – इतनी स्मार्ट और आकर्षक, और कहां मयूर! मेरा मतलब है आपकी स्मार्टनेस के आगे मयूर थोड़ा भोंदू ही लगता है.”

ईशा के अचकचा कर देखने पर निशांत ने आगे कहा, “बुरा मत मानिएगा, मेरा दोस्त है इसलिए कह सकता हूं.”
मयूर के आने पर निशांत बोला, “हूर के साथ लंगूर कैसे?!”

पर उत्तर में मयूर केवल हँसता रहा. फिर सारी पार्टी में निशांत, ईशा के आसपास ही घूमता रहा, कभी उसके लिए रसमलाई लाता तो कभी कोक का गिलास. उसकी उपस्थिति में निशांत, मयूर की हँसी भी उड़ाता रहा, और मयूर सब कुछ सुनकर हँसता रहा.

“यह निशांत कैसा लड़का है?”

“बहुत अच्छा लड़का है. मेरा बहुत अच्छा दोस्त है. बहुत इंटेलिजेंट है. अपने डिपार्टमेंट का हीरा है.”

मयूर ने निशांत की प्रशंसा के पुल बांध दिए. “ठीक ही कह रहा था वह – मयूर वाकई भोंदू है जो यह नहीं समझता कि कौन उसका सच्चा दोस्त है और कौन नहीं”, ईशा सोच में पड़ गई. ईशा, निशांत की उससे फ़्लर्ट करने की कोशिश भली प्रकार समझ रही थी. निशांत की ये हरकतें ईशा को बुरी नहीं लगीं अपितु मन के किसी कोने में पुलकित कर गईं.

उसी हफ्ते एक दुपहरी ईशा को एक फोन आया. “सरप्राइस कर दिया न तुम्हें? देखा, कितना स्मार्ट हूं मैं, तुम्हारा नंबर निकाल लिया,” दूसरी ओर से निशांत की विजय से ओतप्रोत हँसी की आवाज़ आई.

परंतु ईशा इतनी जल्दी प्रभावित होने वाली कहाँ थी. अपने पीछे मजनुओं की पंक्तियों की उसे आदत थी. “कभी-कभी ज़्यादा स्मार्टनेस भारी पड़ जाती है. जनाब, अपना नाम तो बताइये”, ईशा ने पलटवार किया.

“सेव कर लो ये नंबर”, निशांत बोला, “निशांत बोल रहा हूँ, मैडम. मैंने तुम दोनों को अपने घर लंच पर बुलाने के लिए फोन किया है. मयूर को मैं ऑफिस में ही न्योता दे चुका हूं पर तुम्हें भी निजी तौर पर आमंत्रित करना चाहता था इसलिए फोन किया”, उसने अपनी बात पूरी की.

शाम को जब मयूर घर लौटा तो ईशा ने निशांत के फोन की बात बताई.

“हां, पता है. मुझसे ही तुम्हारा नंबर लिया था उसने”, मयूर ने लापरवाही से कहा.

“मेरा नंबर देने की क्या जरूरत थी? तुम्हें बुलाया, मुझे बुलाया, एक ही बात है”, ईशा इस सिलसिले में मयूर की  मानसिकता टटोलना चाहती थी.

“क्या फर्क पड़ता है… उसका मन था तुमसे बात करने का”, मयूर सरलता से कह गया. “इस रविवार दोपहर का लंच हम निशांत के साथ करेंगे. बहुत दूर नहीं है उसका घर.”

रविवार को ईशा ने फूलों की प्रिंट वाली ड्रेस के साथ हाई हील्स पहनी और अपने बालों को हाई पोनीटेल में बांध लिया. इस वेषभूषा में वो अपनी साड़ी वाली छवि से बिलकुल उलट लग रही थी. इस नए अवतार में  निशांत ने उसे देखा तो वह पूरे जोर-शोर से ईशा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा. उसे लगने लगा मानो ईशा उसे अपने व्यक्तित्व का हर रंग दिखाना चाहती है. पाश्चात्य परिधान में उसे देखकर निशांत उस पर और भी मोहित हो गया, “अरे रे रे, मैं तो तुम्हें भारतीय नारी समझा था पर तुम तो दो धारी तलवार निकलीं. बेचारा मयूर! उसके पास तो ऐसी तलवार के लायक कमान भी नहीं है”, धीरे से ईशा के कानों में फुसफुसा कर कहता हुआ निशांत साइड से निकल गया.

मन ही मन ईशा हर्षाने लगी. शादीशुदा होने के उपरांत भी उसमें आशिक बनाने की कला जीवित थी, यह जानकार वह संतुष्ट हुई. उसपर ऐसा भी नहीं था कि निशांत, मयूर की आँख बचाकर यह सब कह रहा था. उस दिन निशांत, मयूर के सामने भी कई बार ईशा से फ्लर्ट करने की कोशिश करता रहा और मयूर हँसता रहा.

घर लौटते समय ईशा ने मयूर से निशांत की शिकायत की, “देखा तुमने, निशांत कैसे फ़्लर्ट करने की कोशिश करता है.” वह नहीं चाहती थी कि मयूर के मन में उसके प्रति कोई गलतफहमी हो जाए.

ईशा की बात को मयूर ने यह कहकर टाल दिया, “निशांत तो है ही मनमौजी किस्म का लड़का. और फिर तुम उसकी भाभी लगती हो. देवर भाभी में तो हँसी-मजाक चलता रहता है. पर तुम उसे गलत मत समझना, वह दिल का बहुत साफ और नेक लड़का है.”

अगले हफ्ते मयूर कंपनी के काम से दूसरे शहर टूर पर गया. हर रोज की तरह ईशा दोपहर में कुछ देर सुस्ता रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी बजी. किसी कोरियर बॉय की अपेक्षा करती ईशा ने जब दरवाजा खोला तो सामने निशांत को खड़ा देख वह हतप्रभ रह गई, “तुम… इस वक्त यहां? लेकिन मयूर तो ऑफिस के काम से बाहर गए हैं.”

“मुझे पता है. मैं तुमसे ही मिलने आया हूं. अंदर नहीं बुलाओगी”, निशांत की साफगोई पर ईशा मन ही मन मोहित हो उठी. ऊपर से चेहरे पर तटस्थ भाव लिए उसने निशांत को अंदर आने का इशारा किया और स्वयं सोफे पर बैठ गई.

निशांत ठीक उसके सामने बैठ गया, “अरे यार, तुम्हारे यहां घर आए मेहमान को चाय-कॉफी पूछने का रिवाज नहीं है क्या?”

“मैंने सोचा ऑफिस के टाइम पर यहां आए हो तो ज़रूर कोई खास बात होगी. पहले वही सुन लूं”, ईशा ने अपने बालों में उँगलियाँ घुमाते हुए कहा. निशांत के साथ ईशा का बातों में नहले पर दहला मारना दोनों को पसंद आने लगा. आँखों ही आँखों के इशारे और जुबानी जुगलबाजी उनकी छेड़खानी में नए रंग भरते.

“खास बात नहीं, खास तो तुम हो. सोचा मयूर तो यहां है नहीं, तुम्हारा हालचाल पूछता चलूं”, निशांत के चेहरे पर लंपटपने के भाव उभरने लगे.

“मैं अपने घर में हूं. मुझे भला किस बात की परेशानी?”, ईशा ने दो-टूक बात की. वो देखना चाह रही थी कि निशांत कहाँ तक जाता है.

“ईशा, तुम शायद मुझे गलत समझती हो इसीलिए मुझसे यूं कटी-कटी रहती हो. क्या मैं तुम्हें हैंडसम नहीं लगता?”, संभवतः निशांत को अपने सुंदर रंग रूप का आभास भली प्रकार था.

“ऐसी कोई बात नहीं. असल में, निशांत, तुम मयूर के दोस्त हो, मेरे नहीं.”

“यह कैसी बात कह दी तुमने? दोस्ती करने में कितनी देर लगती है… फ्रेंड्स?”, कहते हुए निशांत ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो प्रतिउत्तर में ईशा ने अदा से अपना हाथ निशांत के हाथ में दे दिया. “ये हुई न बात”, कह निशांत पुलकित हो उठा.

फिर कॉफी पीकर, कुछ देर बैठकर निशांत लौट गया. आज पहली मुलाक़ात में इतना पर्याप्त था – दोनों ने अपने मन में यही सोचा. निशांत को आगे बढ्ने में कोई संकोच नहीं था किन्तु वो ईशा के दिल के अंदर की बात नहीं जनता था. इतनी जल्दी वो कोई खतरा उठाने के मूड में नहीं था. कहीं ईशा उसपर कोई आरोप लगा दे तो उसकी क्या इज्ज़त रह जाएगी समाज में! उधर ईशा विवाहिता होने के कारण हर कदम फूँक-फूँक कर रखने के पक्ष में थी. वैसे भी निशांत, मयूर का मित्र है. उसकी अनुपस्थिति में आया है. कहीं ऐसा न हो कि इसे मयूर ने ही भेजा हो… ईशा के मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे. दुर्घटना से देर भली!

मयूर के लौटने पर ईशा ने उसे निशांत के आने की बात स्वयं ही बता दी. मयूर को ज़रा-सा अटपटा लगा, “अच्छा! मेरी गैरहाजरी में क्यूँ आया?” उसकी प्रतिक्रिया से ईशा आश्वस्त हो गयी कि निशांत के आने में मयूर का कोई हाथ नहीं. फिर उसने स्वयं ही बात संभाल ली, “मैं खुश हुई निशांत के आने से. कम से कम तुम्हारे यहाँ ना होने पर इस नए शहर में मेरी खैर-खबर लेने वाला कोई तो है.” ईशा की बात से मयूर शांत हो गया. “निशांत सच में तुम्हारा एक अच्छा मित्र है”, ईशा ने बात की इति कर दी.

अब ईशा के फोन पर निशांत के कॉल अक्सर आने लगे. सावधानी बरतते हुए उसने नंबर याद कर लिया पर अपने फोन में सेव नहीं किया. ऐसे में कभी उसका फोन मयूर के हाथ लग भी जाए तो बात खुलने का कोई डर नहीं.

किन्तु ऐसे संबंध मन की चपलता को जितनी हवा देते हैं, मन के अंदर छुपी शांति को उतना ही छेड़ बैठते हैं. एक दिन मयूर के फोन पर निशांत का कॉल आया. मयूर बाथरूम में था. ईशा ने देखा कि निशांत का कॉल है तो उसका दिल फोन उठाने का कर गया. “मयूर, तुम्हारे लिए निशांत का कॉल है. कहो तो उठा लूँ?”, ईशा ने बाथरूम के बाहर से पुकारा.

“रहने दो, मैं बाहर आकर कर लूँगा”, मयूर से इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी ईशा को.

दिल के हाथों मजबूर उसने फोन उठा लिया. “हेलो”, बड़े नज़ाकत भरे अंदाज़ में उसने कहा तो निशांत भी मचल उठा, “पता होता कि फोन पर आपकी मधुर आवाज़ सुनने को मिल जाएगी तो ज़रा तैयार होकर बैठता.” निशांत ने फ़्लर्ट करना शुरू कर दिया.

ईशा मुस्कुरा उठी. वो कुछ कहती उससे पहले मयूर पीछे से आ गया, “किससे बात कर रही हो?”

“बताया तो था कि निशांत का कॉल है.”

“मैंने तुम्हें फोन उठाने के लिए मना किया था. मैं बाद में कॉल कर लेता. खैर, अब लाओ मुझे दो फोन”, मयूर के तल्खी-भरी स्वर ने ईशा को डगमगा दिया. उसने सोचा नहीं था कि मयूर उससे इस सुर में बात करेगा.

“क्या मयूर को निशांत और मुझ पर शंका होने लगी है? क्या मयूर ने कभी निशांत का कोई मेसेज पढ़ लिया मेरे फोन पर? पर मैं तो सभी डिलीट कर देती हूँ. कहीं गलती से कभी कोई छूट तो नहीं गया…”, ईशा के मन में अनगिनत खयाल कौंधने लगे. निशांत से रंगरलियों में ईशा को जितना आनंद आने लगा उतना ही मयूर के सामने आने पर बात बिगड़ जाने का डर सताने लगा. जैसे उस दिन जब ईशा और निशांत एक कैफ़े में मिले थे तब कैसे ईशा ने निशांत को एक भी पिक नहीं खींचने दी थी. ये चोरी पकड़े जाने का डर नहीं तो और क्या था!

अगले दिन निशांत की ज़िद पर ईशा फिर उससे मिलने चल दी. सोचा “आज निशांत से मिलना भी हो जाएगा और रिटेल थेरेपी का आनंद भी ले लूँगी”, तैयार होकर ईशा शहर के चुनिंदा मॉल पहुँची. जब तक निशांत पहुँचता, उसने थोड़ी विंडो शॉपिंग करनी शुरू की कि किसी ने उसका बाया कंधा थपथपाया. पीछे मुड़ी तो सागरिका को सामने देख जड़ हो गई.

“अरे, क्या हुआ, पहचानना भी भूल गई क्या? ऐसा तो नहीं होना चाहिए शादी के बाद कि अपनी प्यारी सहेली को ही भुला बैठे”, सागरिका बोल उठी. वह वहां खड़ी खिलखिलाने लगी लेकिन ईशा उसे अचानक सामने पा थोड़ी हतप्रभ रह गई. फिर दोनों बचपन की पक्की सहेलियां गले मिलीं और एक कॉफी शॉप में बैठकर गप्पे लगाने लगीं. अपनी शादीशुदा जिंदगी के थोड़े बहुत किस्से सुनाकर ईशा, सागरिका से उसका हाल पूछने लगी.

“क्या बताऊं, ईशु, हेमंत मेरी जिंदगी में क्या आया बहार आ गई. उस जैसा जीवनसाथी शायद ही किसी को मिले. मेरी इतनी प्रशंसा करता है, हर समय साथ रहना चाहता है. आज भी मुझे लेने आने वाला है. तुम भी मिल लेना”, सागरिका ने बताया.

“नहीं-नहीं सागू, मुझे लेट हो जाएगा. मुझे निकलना होगा”, ईशा, हेमंत की शक्ल नहीं देखना चाहती थी. वह तुरंत वहाँ से घर के लिए निकल गई. रास्ते में निशांत को फोन करके अचानक तबीयत बिगड़ जाने का बहाना बना दिया. रास्ते भर ईशा विगत की गलियों से गुजरते हुए अपने कॉलेज के दिनों में पहुँच गई जब बहनों से भी सगी सखियों सागरिका और ईशा के सामने हेमंत एक छैल छबीले लड़के के रूप में आया था. ऊंची कद काठी, एथलेटिक बॉडी, बास्केटबॉल चैंपियन और पूरे कॉलेज का दिल मोह लेने वाला. ईशा की दोस्ती जल्दी ही हेमंत से हो गई क्योंकि ईशा को स्वयं भी बास्केटबॉल में रुचि थी. वह हेमंत से बास्केटबॉल खेलने के पैंतरे सीखने लगी. फिर सागरिका के कहने पर निकट आते वैलेंटाइंस डे पर ईशा ने हेमंत से अपने दिल की बात कहने की ठानी. किंतु वैलेंटाइंस डे से पहले रोज डे पर हेमंत ने सागरिका को लाल गुलाब देकर अचानक प्रपोज कर दिया. ईशा के साथ-साथ सागरिका भी हक्की बक्की रह गई. कुछ कहते ना बना. बाद में अकेले में ईशा ने अपने दिल को समझा लिया कि हेमंत की तरफ से कभी कोई संदेश नहीं आया था और ना ही उसने कभी उससे कुछ ऐसा कहा था. वो दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त थे.

मगर वह जवानी ही क्या जो रास्ता ना भटके. जवानी में हमारे हारमोंस हमसे वह सब करवा जाते हैं जिसको बाद में स्वीकारना तक कठिन हो जाए. युवावस्था ऐसा काल है जिसमें केवल वर्तमान होता है, ना भूत, ना भविष्य. आज जो कदम हम उठा रहे हैं उसका कल हमें क्या भुगतान करना पड़ सकता है, यह सोचना जवानी का काम नहीं.

कॉलेज के आखिरी साल में एक दिन ईशा अपने हॉस्टल के कमरे से बाहर आ रही थी कि हेमंत वहाँ आ गया. उसने अचानक उसका हाथ पकड़ लिया, “ईशा, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं.”

“क्या हुआ?”, ईशा अचकचा गई.

“ईशा, मैंने तुम्हारी आंखों में अपने लिए कुछ पढ़ा है लेकिन अफसोस तुम मेरी आंखों में झांकने से चूक गईं.”

“यह कैसी बात कर रहे हो, हेमंत? तुम सागरिका के बॉयफ्रेंड हो.”

“क्या केवल एक दिन के लिए… आज के लिए तुम यह बात भूल नहीं सकती? क्या मैं तुम्हें क्यूट नहीं लगता? क्या तुम मुझे पसंद नहीं करती? अगर मैं झूठ बोल रहा हूं तो बेशक तुम फौरन इस कमरे से चली जाओ.”

ईशा का दिमाग यह कह रहा था कि यह सागरिका के साथ धोखा होगा परंतु उसका मन इस बात से हर्षित होने लगा कि जिस हेमंत को वह मन ही मन चाहती थी, वो भी उसे अपने समीप लाना चाहता है. आखिर दिल दिमाग पर हावी हो गया. उस दिन ईशा और हेमंत अपनी सीमाएं लाँघते हुए एक दूसरे की आगोश में समा गए. जवानी का उबाल दूध की तरह उफनने लगा. दोनों ने सारी हदें पार कर दीं.

जब यह तूफान शांत हुआ तब ईशा का ध्यान सागरिका की ओर गया. अपने दिल की बात सुनकर क्षणिक सुख की खातिर ईशा ने हेमंत के साथ जो किया उसके कारण अब उसका मन ग्लानि से भरने लगा. अपनी सबसे प्यारी सखी को धोखा देकर वह बहुत पछताने लगी. उस घटना के पश्चात जब कभी ईशा, सागरिका के सामने आती, उसे धोखा देने का घाव एक बार फिर हरा हो जाता. इससे बचने हेतु ईशा, सागरिका से नजरें चुराती, उससे ना मिलने के बहाने खोजती फिरती. अपने बचपन की सहेली को यूँ खो बैठने का दुख ईशा को बहुत सताता किन्तु सागरिका की आँखों में देखकर बात करने की हिम्मत अब ईशा खो चुकी थी. यहाँ तक कि अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के पश्चात उसने माता पिता के सुझाए रिश्ते के लिए फौरन हामी भर दी. ईशा का विवाह हो गया और वह अपनी नई दुनिया में खो गई.

आज सागरिका को पुनः मिलने के कारण ईशा के सामने सारा अतीत फिर से तनकर खड़ा हो गया. उस समय ईशा किसी से जुड़ी नहीं थी. उसके जीवन में किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं थी. हेमंत ने भी यही कहकर उसके मन में उठ रहे संदेह को दबा दिया था, “तुम किसी प्रकार की ग्लानि क्यों ओढ़ती हो? आखिर तुम तो किसी से कमिटेड नहीं हो. यदि किसी को आपत्ति होनी चाहिए तो वह मैं या सागरिका हैं. मुझे कोई परेशानी नहीं, और सागरिका को इस बात की भनक भी नहीं पड़ने दूंगा.” हेमंत उसके अंदर चल रहे द्वंद को कुचलने में सफल रहा था. परंतु आज स्थिति विलग है.

चाहने, ना चाहने की ये लकीर चाकू की धार से भी ज्यादा पेनी होती है. कुछ कट जाने का डर होता है. ईशा वही गलती दोहराना नहीं चाहती थी. सागरिका उसकी सहेली थी इसलिए वो उससे दूरी बना पायी, किन्तु यदि मयूर को उसपर शक हो गया या उसे निशांत से उसके चोरी-छुपे मिलने-जुलने के बारे में पता चल गया तो क्या वह अपने चंचल मन की खातिर अपनी बसी-बसाई गृहस्थी तोड़ सकेगी? क्या वह इतनी बड़ी कीमत चुकाने को तैयार है?

घर लौटते हुए ईशा का सिर दर्द से फटने लगा. विचारों के अनगिनत घोड़े उसके दिलो-दिमाग को रौंदने लगे.  घर पहुँचकर ईशा ने माथे पर बाम लगाया और बिस्तर पर ढेर हो गई. शाम घिर आई थी. छुटपुट अंधेरा होने लगा. किंतु ईशा का मन आज घर की बत्तियां जलाने का भी नहीं हुआ. यूं ही बैठे-बैठे वह बाहर के वातावरण से मेल खाते अपने हृदय के अंधेरों में भटकने लगी. क्या करे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, “कितनी बड़ी बेवकूफ हूँ मैं जो अपने सुनहरे जीवन में खुद ही आग लगाने का काम कर बैठी.” उसका मन दो भागों में बट गया और दोनों ही पलड़े अपनी-अपनी ओर झुकने लगे. एक मन कहता कि जो हो गया सो हो गया. आगे नहीं होगा. इस अध्याय को यहीं समाप्त करो. दूसरा मन कहता कहीं निशांत ने मयूर को बता दिया तो उसकी गृहस्थी का क्या होगा! क्या जवाब देगी वो मयूर को! सिर पकड़कर बैठी ईशा, मयूर के घर लौटने से चेती.

“क्या हुआ? अंधेरे में क्यूँ बैठी हो?”, मयूर ने घर में प्रवेश करते ही पूछा.

“सिर में दर्द है इसलिए रोशनी में जाने की इच्छा नहीं की”, ईशा ने उदासीन सुर में उत्तर दिया.

मयूर ने ईशा के सिर को दबाया, खाना बनाया, फिर उसे दवाई देकर जल्दी सोने भेज दिया. “कितनी बड़ी गलती कर बैठी मैं जो इतना खयाल रखने वाले पति के होते हुए बाहर भटकने लगी. क्या प्यार करने वाले जीवनसाथी के बावजूद मुझे बाहर वालों की प्रशंसा की इतनी लालसा है कि उसके बदले मैं अपना बसा-बसाया जीवन बर्बाद कर दूँ? अपने पीछे चाहनेवालों की कतार की लौलुपता इतनी तीव्र हो गयी कि मैं अपना वर्तमान भुला बैठी. ये कितना बड़ा अनर्थ करने जा रही थी मैं!”, ईशा मानो निद्रा से जाग गयी. केवल बंद नयनों में ही नींद नहीं आती, कितनी बार वो जागृत अवस्था को भी शिथिल बनाने के योग्य होती है. किन्तु जब जागो तभी सवेरा. ईशा के मन-मस्तिष्क में छाया अब हर धुंधलका साफ हो गया.

ईशा एक सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए अपने मन पर कोई अनावश्यक बोझ नहीं चाहती थी. उसने निशांत से अपने बढ़ रहे संबंधों की इति करने का निश्चय कर लिया. वैसे भी अभी देर नहीं हुई. उन दोनों के मध्य कोई ऐसा अध्याय नहीं खुला था जिसकी कीमत उसे अपना स्वर्णिम कल देकर चुकानी पड़े.

अब जब कभी निशांत ने ईशा के घर आना चाहा, या फिर उसे बाहर मिलने का न्यौता दिया, ईशा ने हर बार कोई न कोई बहाना बना दिया. हर बार वो अबाध गति से स्थिति से निकलने में सफल रही. किन्तु बारंबार ऐसा होने पर निशांत को संदेह होना स्वाभाविक था.

“मुझे ऐसा क्यों लग रहा है जैसे तुम मुझसे मिलना नहीं चाहती. कोई भूल हो गयी क्या मुझसे?”, उसे ईशा की उपेक्षा खलने लगी. वह ईशा की विमुखता का कारण जानना चाहता था.

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. तुम तो जानते हो कि मैं एक विवाहिता स्त्री हूँ. घर-गृहस्थी के चक्करों में बेहद व्यस्त रहती हूँ”, ईशा गृहस्थ जीवन की व्यस्तता का बहाना देकर सभ्यतः बच गई. “मयूर के साथ आओ कभी घर पर, या फिर किसी संडे हम दोनों आते हैं तुम्हारे घर.”

निशांत एक शातिर लड़का था. ईशा के जवाबों और प्रतिक्रियाओं से उसे समझते देर न लगी कि अब इस इस गली में उसका प्रवेश निषेध है. आखिर ‘नो एंट्री’ के बोर्ड के आगे वो कितनी देर अपनी गाड़ी का हॉर्न बजाता रहता.

बदनामी का डर: राज अनुभा को धोखा क्यों दे रहा था

राज ने एक बार फिर से अनुभा को अपनी बांहों में भर कर उस के लबों को चूम लिया. अनुभा देर तक राज को प्यार से निहारती रही फिर शरमा कर बोली,” हटो अब जाने दो मुझे. इतनी रात गए तुम्हारे घर से निकलते किसी ने देख लिया तो हंगामा हो जाएगा. विपक्षी दल वाले तुम्हारे पीछे पड़ जाएंगे. एक मुद्दा मिल जाएगा उन्हें.”

“तो फिर आज मेरे घर में ही ठहर जाओ न. जाने की जरूरत ही क्या है? अपनी वार्डन को कह दो कि ऑफिस में किसी काम से बाहर जाना पड़ा. अनीता भी अभी 15 दिन से पहले नहीं आएगी. 15- 20 दिनों की बात कह कर मायके गई है. उस के भाई के बेटे का मुंडन है न. ऐसे में मुझे किसी की परवाह नहीं. खूब मस्ती करेंगे हम दोनों.”

“वाह क्या बात है बीवी गई और प्रेमिका को घर में बुला लिया मिस्टर राजशेखर. देश के नामचीन खानदान के चश्मोचिराग और उभरते हुए युवा नेता जिन का नाम ही काफी है. सोचा है कभी किसी ने आप की चोरी पकड़ ली तो राजनीतिक गलियारों में कैसा हंगामा मच जाएगा?” अनुभा शरारती नज़रों से देखती हुई बोली.\

“चोरी तो तुम ने की है मेरे दिल की. मैं तो चाहता हूं न कोई अंदर आए और न कोई बाहर जाए. बस वक्त यहीं ठहर जाए. तुम हमेशा के लिए मेरी बाहों में रह जाओ.”

“ओके तो तुम बैठ कर बॉबी फिल्म का गाना गाओ. मैं तो निकलती हूं. वैसे भी तुम्हारे कहने पर आज जनता कर्फ्यू का पूरा दिन तुम्हारे साथ बिताया है. अब जाने दो मुझे.”

देखो अनुभा, आज मेरी बात मान जाओ . मेरे पास ही रुक जाओ. तुम्हारी तबीयत भी ठीक नहीं लग रही. कितनी खांसी हो रही है. प्लीज रुक जाओ.”

“ओके चलो रुक जाती हूं.” अहसान दिखाते हुए अनुभा रुक गई और पर्स में से खांसी की दवाई निकाल कर खा ली. फिर दोनों ने खूब मस्ती की.

अगले दिन वह जाने लगी तो राज ने उसे फिर से रोका,” यार जब एक दिन रुक गई हो तो दोतीन दिन और रुक जाओ न. क्या अंतर पड़ जाएगा?”

“ओके रुक जाती हूं. “कोई विरोध किए बिना अनुभा ने राज के आगे सरेंडर कर दिया. दोनों फिर से प्यार की खुमारी में खो गए.

अनुभा राज की प्रेमिका ही नहीं बल्कि जान भी है. शादी के पहले से ही वह अनुभा के करीब है. अनीता से उस की शादी एक राजनीतिक समझौता थी. अनीता के पापा एक जानेमाने नेता हैं. उन्होंने शादी के बदले सहयोग देने का वादा किया था इसलिए राज को अनीता से शादी करनी पड़ी. अनीता घर में जरूर आ गई मगर राज और अनुभा ने मिलना नहीं छोड़ा. कहीं न कहीं अनुभा आज भी राज का पहला प्यार था.

राज अनुभा के प्यार में पागल था. ऐसा मौका उन्हें रोजरोज नहीं मिल सकता था. सुबह से ले कर रात तक दोनों प्यार में डूबे रोमांस के लम्हों का आनंद लेते रहे. फिर दोनों ने बैठ कर खूब वाइन पी. अब उन्हें जमाने का कोई होश नहीं रह गया था.

राज का मोबाइल भी चार्जिंग खत्म होने के बाद कब बंद हो गया उसे पता ही नहीं चला. दोनों सपनों की दुनिया में खोए हुए थे .

प्यार की खुमारी टूटी तो अगले दिन राज को पता लगा कि बीती रात 12 बजे से पूरे देश में प्रधानमंत्री ने लौकडाउन की घोषणा कर दी है.

उस ने अनुभा को जगाया,”अनुभा उठो दिन के 10 बज गए. हम दोनों को तो होश ही नहीं रहा. चलो तैयार हो जाओ. तुम्हें पीजी छोड़ दूं.”

“हां उठती हूं.” कहते हुए वह उठी और लड़खड़ा कर गिर पड़ी.

“क्या हुआ? सब ठीक तो है ?”राज ने उसे संभालते हुए उठाया तो उस के हाथ बहुत गर्म लगे. माथा छुआ तो वह भी तप रहा था.

“यह क्या अनुभा तुम्हें तो बुखार है.” राज घबरा गया.

“हां लगता है बुखार तेज है. सुनो मेरे पर्स में दवा होगी. कभीकभी मुझे सर्दीखांसी के साथ बुखार हो जाता है. मैं दवाएं हमेशा पर्स में ही रखती हूं.”

राज ने उसे दवा खिला दी मगर शाम तक बुखार में कमी नहीं आई. वह बेहोश सी पड़ी थी. राज अजीब पसोपेश में था. वह यदि डॉक्टर को बुलाएगा तो लोग बातें बनाएंगें. राज मन ही मन बुदबुदाया, नहींनहीं डाक्टर को नहीं बुला सकता. उस से बेहतर है ओझा जी को बुला लूं जो सालों से हमारे वफादार हैं. झाड़फूंक कर देंगे. सब ठीक हो जाएगा.

राज को उस समय यही उचित लगा और तुरंत उन्हें फोन किया. ओझा जी वैसे भी उस के घर आतेजाते रहते थे और उन का घर भी पास में ही था इसलिए तुरंत आ गये.

उन्होंने अनुभा को बगल में बिठा कर कई तरह के झाड़फूंक की प्रक्रियाएं पूरी कीं.  कई तरह के मंत्र पढ़े और टोटकों का इस्तेमाल किया. इन सारे कामों में तीनचार घंटे लग गए. अनुभा की हालत बेहतर होने के बजाय बिगड़ ही रही थी. राज ने एक बार फिर से दवा दे कर अनुभा को सुला दिया .

वह रात राज के लिए बहुत बेचैनी भरी रही. उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. तभी उसे पाठक जी याद आए जो सबों की कुंडलियां देखने से ले कर हवन और पूजापाठ का काम करवाते थे. जब राज बच्चा था तो उस के पिता भी खासतौर पर पाठक को ही बुलाते थे. वे अनुभा और राज के रिश्ते के बारे में भी जानते थे और फिर विश्वासी भी थे. इसलिए राज को विश्वास था कि उन के जरिए अनुभा के यहां होने की बात लीक होने की संभावना नहीं थी.

पाठक जी ने राज को हवन करवाने की सलाह दी और इस के लिए एक लंबी लिस्ट बना दी. राज ने फटाफट अपने नौकर को लिस्ट में लिखी सामग्री लेने के लिए भेजा. लौकडाउन की वजह से लिस्ट की कुछ चीजें नहीं मिल पाईं मगर ज्यादातर चीजें आ गई थीं. बाकी सामान राज ने किसी तरह घर से ही उपलब्ध करा दीं और पाठक जी हवन की तैयारी करने लगे.

तभी अनुभा उठी और राज को पुकारने लगी. राज दौड़ कर अनुभा के पास गया. अनुभा ने परेशान स्वर में स्वर में कहा,” मैं क्या करूं राज तबीयत बहुत खराब लग रही है. दवा भी असर नहीं कर रही है. प्लीज डाक्टर को बुलाओ.”

“डाक्टर को कैसे बुलाऊं अनुभा समझ नहीं आ रहा. हम दोनों के रिश्ते को ले कर पूरे में हल्ला मच जाएगा. तबीयत तो मेरी भी खराब हो रही है. सुबह से ही जुकाम और खांसी है. इसलिए हवन भी करवा रहा हूं. मुझे खुद डॉक्टर के पास जाना चाहिए मगर फिर वही सवाल उठेंगे कि यदि कोरोना है तो कहां से आया. तुम्हारे साथ मेरे संबंधों का खुलासा करना पड़ेगा और यही मैं नहीं चाहता. 2 महीने बाद चुनाव है. मीडिया में तुरंत खबर फैल जाएगी और विपक्ष वाले मेरा नाम उछालने लगेंगे. वे तो मौके की तलाश में ही रहते हैं. उस पर अनीता के पापा इस मसले को बहुत आगे तक ले जाएंगे. लॉकडाउन के बाद घर के बाहर पुलिस और मीडिया भी कहीं न कहीं मेरे घर पर नजर रखे ही हुए हैं. क्यों कि उन्हें ऐसे समय में नेताओं के घर ताकझांक करने की बुरी आदत होती है. तुरंत न्यूज़ चैनलों में यह खबर बारबार प्रसारित होने लगेगी कि हमदर्द पार्टी के युवा नेता राजशेखर के घर में यह महिला कौन थी? इसे कहां ले जाया जा रहा है? इस बार मेरे जीतने की पूरी उम्मीद है. मैं ने इतनी समाज सेवा की है. लोगों के बीच गया हूं. गरीबों की बस्ती में भी अनाज बांटे हैं. किसानों के लिए इतना कुछ किया है. सब एक मिनट में मिट्टी में मिल जाएगा.”

राज अनुभा से अपनी मजबूरी बता रहा था. इधर अनुभा फिर से सो चुकी थी. राज अंदर से भयभीत हो रहा था. मगर मन में एक आस थी कि शायद हवन करवाने से सारी मुसीबतें दूर हो जाएं. दोतीन घंटे हवन में लगे. पाठक जी ने सारी मुसीबतों को भगा देने का आश्वासन दिया और चले गए. इधर राज के शरीर में भी कोरोना के लक्षण तेजी से बढ़ने लगे थे.

अनुभा को सांस लेने में दिक्कत होने लगी थी. राज समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे. किसी डॉक्टर को बुलाए या खुद हॉस्पिटल चला जाए एडमिट होने या फिर इमरजेंसी नंबर में कॉल करे.

अनुभा की हालत तेजी से खराब होने लगी थी. वह बिल्कुल भी सांस नहीं ले पा रही थी. राज का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. उसे खुद बुखार महसूस होने लगा था. किसी तरह रात बीतने का इंतजार कर रहा था कि सुबह 4 बजे के करीब अनुभा की धड़कनें रुक गईं.

अनुभा जा चुकी थी. राज का सिर चकराने लगा. यह सोच कर वह बहुत डर गया कि अगला नंबर उसी का है. अब भी लापरवाही बरती तो फिर उसे कोई नहीं बचा पाएगा. बदनामी का डर इसी तरह हावी रहा तो अनुभा की तरह वह खुद भी जान से हाथ धो बैठेगा. जान है तो जहान है.

उस ने मास्क और ग्लव्स पहन कर जल्दी से अपने पुराने विश्वासपात्र नौकर दीनू काका की मदद से अनुभा को एक बड़े संदूक में डाला और किसी तरह पीछे की तरफ ग्राउंड में ले जा कर गाड़ दिया. बुखार की वजह से उस के हाथ कांप रहे थे.

इस के बाद उस ने जल्दी से इमरजेंसी में कॉल किया और फिर सुबहसुबह उसे अस्पताल ले जाने के लिए ले एंबुलेंस आ गई. अस्पताल तक पहुंचतेपहुंचते राज को बेहोशी सी आ गई. बेहोशी की हालत में उस ने महसूस किया जैसे अनुभा सामने खड़ी है और रोतेरोते कह रही है कि तुम ने मेरे साथ ठीक नहीं किया. इस का अंजाम तुम्हें भोगना ही होगा .

कांटा : क्या शिखा की चाल हुई कामयाब?

रूपापत्रिका ले कर बैठी ही थी कि तभी कालबैल की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने उस की बचपन की सहेली शिखा खड़ी थी. शिखा उस की स्कूल से ले कर कालेज तक की सहेली थी. अब सुजीत के सब से घनिष्ठ मित्र नवीन की पत्नी थी और एक टीवी चैनल में काम करती थी.

रूपा के मन में कुछ देर पहले तक शांति थी. अब उस की जगह खीज ने ले ली थी. फिर भी उसे दरवाजा खोल हंस कर स्वागत करना पड़ा, ‘‘अरे तू? कैसे याद आई? आ जल्दी से अंदर आ.’’

शिखा ने अंदर आ कर पैनी नजरों से पूरे ड्राइंगरूम को देखा. रूपा ने ड्राइंगरूम को ही नहीं, पूरे घर को सुंदर ढंग से सजा रखा था. खुद भी खूब सजीधजी थी. फिर शिखा सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘इधर एक काम से आई थी… सोचा तुम से मिलती चलूं… कैसी है तू?’’

‘‘मैं ठीक हूं, तू अपनी सुना?’’

सामने स्टैंड पर रूपा के बेटे का फ्र्रेम में लगा फोटो रखा था. उसे देखते ही शिखा ने कहा, ‘‘तेरा बेटा तो बड़ा हो गया.’’

‘‘हां, मगर बहुत शैतान है. सारा दिन परेशान किए रहता है.’’

शिखा ने देखा कि यह कहते हुए रूपा के उजले मुख पर गर्व छलक आया है.

‘‘घर तो बहुत अच्छी तरह सजा रखा है… लगता है बहुत सुघड़ गृहिणी बन गई है.’’

‘‘क्या करूं, काम कुछ है नहीं तो घर सजाना ही सही.’’

‘‘अब तो बेटा बड़ा हो गया है. नौकरी कर सकती हो.’’

‘‘मामूली ग्रैजुएशन डिग्री है मेरी. मु झे कौन नौकरी देगा? फिर सब से बड़ी यह कि इन को मेरा नौकरी करना पसंद नहीं.’’

‘‘तू सुजीत से डरती है?’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है? पतिपत्नी को एकदूसरे की पसंदनापसंद का खयाल तो रखना ही पड़ता है.’’

शिखा हंसी, ‘‘अगर दोनों के विचारों में जमीनआसमान का अंतर हो तो?

यह सुन कर रूपा  झुं झला गई तो वह शिखा से बोली, ‘‘अच्छा तू यह बता कि छोटा नवीन कब ला रही है?’’

शिखा ने कंधे  झटकते हुए कहा, ‘‘मैं तेरी तरह घर में आराम का

जीवन नहीं काट रही. टीवी चैनल का काम आसान नहीं. भरपूर पैसा देते हैं तो दम भी निकाल लेते हैं.’’

शिखा की यह बात रूपा को अच्छी नहीं लगी. फिर भी चुप रही, क्योंकि शिखा की बातों में ऐसी ही नीरसता होती थी. रूपा की शादी मात्र 20 वर्ष की आयु में हो गई थी. लड़का उस के पापा का सब से प्रिय स्टूडैंट था और उन के अधीन ही पी.एचडी. करते ही एक मल्टीनैशनल कंपनी में ऐग्जीक्यूटिव लग गया था. मोटी तनख्वाह के साथसाथ दूसरी पूरी सुविधाएं भी और देशविदेश के दौरे भी.

लड़के के स्वभाव और परिवार की अच्छी तरह जांच कर के ही पापा ने उसे अपनी इकलौती बेटी के लिए चुना था. हां, मां को थोड़ी आपत्ति थी लेकिन सम झने पर वे मान गई थीं. पापा मशहूर अर्थशास्त्री थे. देशविदेश में नाम था.

रूपा अपने वैवाहिक जीवन से बेहद खुश थी. होती भी क्यों नहीं, इतना हैंडसम और संपन्न पति मिला था. और विवाह के कुछ अरसा बाद ही उस की गोद में एक प्यारा सा बेटा भी आ गया था. शादी को 8 वर्ष हो गए थे. कभी कोई शिकायत नहीं रही. वह भी तो बेहद सुंदर थी. उस पर कई सहपाठी मरते थे, पर उस का पहला प्यार पति सुजीत ही थे.

बेटी को सुखी देख कर उस के मातापिता भी बहुत खुश थे.

बात बदलते हुए रूपा ने कहा, ‘‘छोड़ इन बातों को… इतने दिनों बाद मिली है… चल सहेलियों की बातें करती हैं.’’

शिखा थोड़ी सहज हुई. बोली, ‘‘तू भी तो कभी मेरी खबर लेने नहीं आती.’’

‘‘देख  झगड़े की बात नहीं… सचाई बता रही हूं… कितनी बार हम लोगों ने तु झे और नवीन भैया को बुलाया. भैया तो एकाध बार आए भी पर तू नहीं… फिर तू ने तो कभी हमें बुलाया ही नहीं.. अच्छा यह सब छोड़. बोल क्या लेगी चाय या ठंडा? गरम सूप भी है.’’

‘‘सूप ही ला… घर का बना सूप बहुत दिनों से नहीं पीया.’’

थोड़ी ही देर में रूपा 2 कप गरम सूप ले आई. फिर 1 शिखा को पकड़ा और दूसरा स्वयं पकड़ कर शिखा के सामने बैठ गई. बोली, ‘‘बता कैसी चल रही है तेरी गृहस्थी?’’

जब रूपा सूप लेने गई थी तब शिखा ने घर के चारों ओर नजर डाली थी. वह सम झ गई थी कि रूपा बहुत सुखी और संतुष्ट जीवन जी रही है. उस का स्वभाव ईर्ष्यालु था ही. अत: सहेली का सुख उसे अच्छा नहीं लगा. वह रूपा का दमकता नहीं मलिन व दुखी चेहरा देखना चाहती थी.

शिखा यह भी सम झ गई थी कि उस के सुख की जड़ बहुत मजबूत है. सहज उखाड़ना संभव नहीं. आज तक वह उसे हर बात में पछाड़ती आई है. पढ़ाई, लेखन प्रतियोगिता, खेल, अभिनय, नृत्य व संगीत सब में वह आगे रहती आई है. रूपा है तो साधारण स्तर की लड़की पर कालेज का श्रेष्ठ हीरा लड़का उस के आंचल में आ गया था. फिर समय पर वह मां भी बन गई. पति प्रेम, संतान स्नेह से भरी है वह. ऊपर से मातापिता का भरपूर प्यार, संरक्षण भी है उस के पास. संपन्नता अलग से.

यह सब सोच शिखा बेचैन हो उठी कि जीवन की हर बाजी उस से जीत कर यह अंतिम बाजी उस से हार जाएगी… पर करे भी तो क्या? कैसे उस की जीत को हार में बदले? कुछ तो करना ही पड़ेगा… पर क्या करे? सोचना होगा, हां कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही होगा. रूपा में बुद्धि कम है. उसे बहकाना आसान है, तो कोई रास्ता निकालना ही पड़ेगा… जरूर कुछ सोचेगी वह.

मां से फोन पर बातें करते हुए रूपा ने शिखा के अचानक आने की बात कही तो वे शंकित

हो उठीं, ‘‘बहुत दिनों से उसे देखा नहीं… अचानक तेरे घर कैसे आ गई?’’

रूपा बेटे को दूध पिलाते हुए सहज भाव से बोली, ‘‘नवीन भैया तो आते रहते हैं… वही नहीं आती थी… उन से दूर की रिश्तेदारी भी है. सुजीत के भाई लगते हैं और दोस्त तो हैं ही. पर आज बता रही थी कि पास ही चैनल के किसी काम से आई थी तो…’’

‘‘मु झे उस पर जरा भी विश्वास नहीं. मु झे तो लगता है तेरा घर देखने आई थी,’’ मां रूपा की बात बीच ही में काटते हुए बोली.

यह सुन रूपा अवाक रह गई. बोली, ‘‘मेरे घर में ऐसा क्या है, जो देखने आएगी?’’

‘‘जो उस के घर में नहीं है. देख रूपा,

वह बहुत धूर्त, ईर्ष्यालु है… बिना स्वार्थ के वह एक कदम भी नहीं उठाती… तू उसे ज्यादा गले मत लगाना.’’

‘‘मां वह आती ही कहां है? वर्षों बाद तो मिली है.’’

‘‘यही तो चिंता है. वर्षों बाद अचानक तेरे घर क्यों आई?’’

रूपा हंसी, ‘‘ओह मां, तुम भी कुछ कम शंकालु नहीं हो… अरे, बचपन की सहेली से मिलने को मन किया होगा… क्या बिगाड़ेगी मेरा?’’

‘‘मैं यह नहीं जानती कि वह क्या करेगी पर वह कुछ भी कर सकती है. मु झे लग रहा है वह फिर आएगी… ज्यादा घुलना नहीं, जल्दी विदा कर देना… बातें भी सावधानी से करना.’’

अब रूपा भी घबराई, ‘‘ठीक है मां.’’ मां की आशंका सच हुई. एक दिन फिर आ धमकी शिखा. रूपा थोड़ी शंकित तो हुई पर उस का आना बुरा नहीं लगा. अच्छा लगने का कारण यह था कि सुजीत औफिस के काम से भुवनेश्वर गए थे और बेटा स्कूल… बहुत अकेलापन लग रहा था. उस ने शिखा का स्वागत किया. आज वह कुछ शांत सी लगी.

इधरउधर की बातों के बाद अचानक बोली, ‘‘तेरे पास तो बहुत सारा खाली समय होता है… क्या करती है तब?’’

रूपा हंसी, ‘‘तु झे लगता है खाली समय होता है पर होता है नहीं… बापबेटे दोनों की फरमाइशों के मारे मेरी नाक में दम रहता है.’’

‘‘जब सुजीत बाहर रहता है तब?’’

‘‘हां तब थोड़ा समय मिलता है. जैसे आज वे भुवनेश्वर गए हैं तो काम नहीं है. उस समय मैं किताबें पढ़ती हूं. तु झे तो पता है मु झे पढ़ने का कितना शौक है.’’

‘‘पढ़ तो रात में भी सकती है?’’

रूपा सतर्क हुई, ‘‘क्यों पूछ रही है?’’

‘‘देख रूपा, तू इतनी सुंदर है कि 20-22 से ज्यादा की नहीं लगती… अभिनय, डांस भी आता है. हमारे चैनल में अपने सीरियल बनते हैं. एक नया सीरियल बनना है जिस के लिए नायिका की खोज चल रही है. सुंदर, भोली सी कालेज स्टूडैंट का रोल है. तु झे तो दौड़ कर ले लेंगे. कहे तो बात करूं?’’

रूपा हंसने लगी, ‘‘तू पागल तो नहीं हो

गई है?’’

‘‘क्यों इस में पागल होने की क्या बात है?’’

‘‘कालेज, स्कूल की बात और है सीरियल की बात और. न बाबा न, मु झे घर से ही फुरसत नहीं. फिर मैं टीवी पर काम करूं यह कोई पसंद नहीं करेगा.’’

‘‘अरे पैसों की बरसात होगी. तू क्या सुजीत से डरती है?’’

‘‘उन की छोड़. उन से पहले मांपापा ही डांटेंगे. फिर अब तो बेटा भी बोलने लग गया है. मु झे पैसों का लालच नहीं है. पैसों की कोई कमी नहीं है. सुजीत हैं, पापा हैं.’’

शिखा सम झ गई कि रास्ता बदलना पड़ेगा. अत: फिर सामान्य बातें करतेकरते अचानक बोली, ‘‘तू सुजीत पर बहुत भरोसा करती है न?’’

यह सुन रूपा अवाक रह गई, बोली, ‘‘तेरा दिमाग तो ठीक है? वे मेरे पति हैं. मेरा उन पर भरोसा नहीं होगा तो किस पर करूंगी?’’

‘‘तु झे पूरा भरोसा है कि भुवनेश्वर ही गए हैं काम से?’’

‘‘अरे, मैं ने खुद उन का टूअर प्रोग्राम देखा है. मैं उस होटल को भी जानती हं जिस में वे ठहरते हैं. मैं भी तो कितनी बार साथ में गई हूं. इस बार भी जा रही थी पर बेटे की परीक्षा में हफ्ता भर है, इसलिए नहीं जा पाई. फिर वे अकेले नहीं गए हैं. साथ में पी.ए. और क्लर्क रामबाबू भी हैं. दिन में 2-3 बार फोन भी करते हैं.’’

‘‘तू सच में जरूरत से ज्यादा मूर्ख है. तू मर्दों की जात को नहीं पहचानती. बाहरी जीवन में वे क्या करते हैं, कोई नहीं जानता.’’

रूपा अंदर ही अंदर कांप गई. शिखा की उपस्थिति उसे अखरने लगी थी. मम्मी

की बातें बारबार याद आने लगीं. पर घर से धक्के मार उसे निकाल तो नहीं सकती थी. उस ने सोचा कि इस समय खुद पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है… शिखा की नीयत पर उसे भरोसा नहीं था.

‘‘मैं घर और बच्चे को छोड़ कर सुजीत के पीछे ही पड़ी रहूं तो हो गया काम… फिर उन पर मु झे पूरा विश्वास है. दिन में कई बार फोन करते हैं… उन के साथ जो गए हैं उन्हें भी मैं अच्छी तरह जानती हूं.’’

‘‘बाप रे, तू तो सीता को भी मात देती लगती है.’’

इस बार शिखा हंसहंसते लोटपोट हो गई.

‘‘फोन वे करते हैं. तु झे क्या पता कि भुवनेश्वर से कर रहे हैं या मनाली की खूबसूरत वादियों में किसी और लड़की के साथ घूमने…’’

हिल गई रूपा, ‘‘यह क्या बक रही है? मेरे पति ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘सभी मर्द एकजैसे होते हैं.’’

‘‘नवीन भैया भी ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं बताती हूं कैसे परखेगी… जब वे टूअर से लौटें तो उन के कपड़े चैक करना… किसी महिला के केश, मेकअप के कोई दाग, फीमेल इत्र की गंध है या नहीं… 2-4 बार अचानक औफिस पहुंच जा.’’

‘‘छि:… छि:… कितनी गंदगी है तेरी सोच. मु झे अब नवीन भैया पर तरस आ रहा है. अपना घर, नवीन भैया का जीवन बिगाड़ चैन नहीं… अब मेरा घर बरबाद करने आई है. तू जा… मेरे सिर में दर्द हो रहा है. मैं सोऊंगी.’’

शिखा का काम हो गया था. अत: वह हंस कर खड़ी हो गई. बोली, ‘‘जी भर कर सो ले. मैं जा रही हूं.’’

शिखा तो हंसती हुई चली गई, पर रूपा खूब रोई. जब बेटा स्कूल से आया तो उसे ले कर सीधे मां के पास चली गई.

मां ने उसे आते देख सम झ गईं कि जरूर कोई बात है. पर उस समय कोई बात नहीं की. बेटे और उसे खाना खाने बैठाया फिर बेटे को सुलाने के बाद वे बेटी के पास बैठीं, ‘‘अब बोल, क्या बात है.’’

रूपा चुप रही.

‘‘क्या आज भी शिखा आई थी?’’

उस ने हां में सिर हिलाया.

‘‘मैं ने तु झे पहले ही सावधान किया था. वह अच्छी लड़की नहीं है. वह जिस थाली में खाती है उसी में छेद करती है. हां, उस की मां सौतेली हैं यह ठीक है पर वे उस की सगी मां से भी अच्छी हैं. जब तक वहां रही एक दिन उसे चैन से नहीं रहने दिया. बाप से  झूठी शिकायतें कर घर को तोड़ने की कोशिश करती रही. पर उस के पापा सम झदार थे. बेटी की आदत को जानते थे और अपनी पत्नी पर पूरा विश्वास था, इसलिए शिखा अपने मकसद में कामयाब न हुई. अब जब से शादी हुई है तो बेचारे नवीन के जीवन को नरक बना रखा है… उस से भी मन नहीं भरा तो अब तेरे घर को बरबाद करने चली है… तू क्यों बैठाती है उसे?’’

‘‘अब घर आए को कैसे भगाऊं?’’

‘‘एक कप चाय पिला कर विदा कर दिया कर… बैठा कर बात मत किया कर. आज क्या ऐसा कहा जो तू इतनी परेशान है?’’

रूपा ने पूरी बात बताई तो वे शंकित हुईं और गुस्सा भी आया. वे अपनी बेटी को जानती थी कि उसे चालाकी नहीं आती है… उस के घर को तोड़ना बहुत आसान है. फिर बोली, ‘‘क्या तू यही मानती है कि सुजीत भुवनेश्वर नहीं गया है?’’

‘‘नहीं, मु झे उन पर पूरा विश्वास है. रामबाबू भी तो साथ हैं. यह तो शिखा कह रही थी.’’

‘‘फिर भी तू विचलित है, क्योंकि संदेह का कांटा वह तेरे मन में गहरे उतार गई है. देख संदेह एक बीमारी है. अंतर इतना है कि इस का कोई इलाज नहीं है. दूसरी बीमारियों की दवा है, उन का इलाज किया जा सकता है पर संदेह का नहीं. शिखा ने यह बीमारी तु झे लगाई है. अब अगर तु झ से सुजीत को लगे और वह तु झ पर शक करने लगे तब क्या करेगी?’’

कांप गई रूपा, ‘‘मु झ पर?’’

‘‘क्यों नहीं? उस के पीछे तू क्या करती है, उसे क्या पता. हफ्ताहफ्ता बाहर रहता है… तब तू एकदम आजाद होती है. जब तू उस पर शक करेगी तो वह भला क्यों नहीं कर सकता?’’

रूपा को काटो तो खून नहीं.

‘‘देख पागल मत बन… दूसरे की नहीं अपने मन की आवाज सुन कर चल. तू उस जैसी नहीं है. तेरे साथ तेरा बच्चा है, तू साधारण स्तर की पढ़ीलिखी है, बाहरी समाज का तु झे कोई अंदाजा नहीं है. अगर वह खाईखेली लड़की नवीन से तलाक भी ले ले तो भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पर तू क्या करेगी? हम हैं ठीक है पर पापा को जानती है न कितने न्यायप्रिय हैं… तू गलत हुई तो यहां से तु झे तिनके का सहारा भी नहीं मिलने वाला. मैं कुछ भी नहीं कर सकती.’’

मां की बात सुन कर स्तब्ध रह गई रूपा कि मां ने जो कहा स्पष्ट कहा, उचित बात कही. उस के मन में शिखा कांटा बोना चाहे और वह बोने दे तो अपना ही सर्वनाश करेगी.

मां ने नवीन से भी इस विषय पर बात की, यह सोच कर कि भले ही बेटी को सम झाया हो उन्होंने पर उस के मन का कांटा जड़ से अभी नहीं उखड़ा होगा.

नवीन ने उस दिन अचानक फोन कर के रूपा से कहा, ‘‘रूपा, बहुत दिन से तुम ने कुछ खिलाया नहीं. आज रात डिनर करने आऊंगा.’’

रूपा खुश हुई, ‘‘ठीक है भैया… मैं आप की पसंद का खाना बनाऊंगी.’’

शाम को नवीन सुजीत के साथ ही आया.

रूपा ने चाय के साथ पकौड़े बनाए.

नवीन ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘रात को क्या खिला रही हो?’’

‘‘आप की पसंद के हिसाब से पालकपनीर, सूखी गोभी, बूंदी का रायता और लच्छा परांठे… और कुछ चाहें तो…’’

‘‘नहींनहीं, बहुत बढि़या मेनू है. तुम बैठो. हां, सुजीत तू एक काम कर. रबड़ी ले आ.’’

सुजीत रबड़ी लेने चला गया तो नवीन ने कहा, ‘‘रूपा, आराम से बैठ कर बताओ पूरी बात क्या है?’’

रूपा चौंकी, ‘‘क्या भैया?’’

‘‘सुजीत को लग रहा है तुम पहले जैसी सहज नहीं हो… उसे तुम्हारे व्यवहार से कोई शिकायत नहीं है पर उसे लगता है तुम पहले जैसी खुश नहीं हो… लगता है कुछ है तुम्हारे मन में.’’

रूपा चुप रही.

‘‘रूपा तुम चुप रहोगी रही तो तुम्हारी समस्या बढ़ती ही जाएगी. बात क्या है? क्या सुजीत के किसी व्यवहार ने तुम्हें आहत किया है?’’

‘‘नहीं, वे तो कभी तीखी बात करते ही नहीं.’’

‘‘पतिपत्नी का रिश्ता बहुत सहज होते हुए भी बहुत नाजुक होता है. इस में कभीकभी बुद्धि को नजरअंदाज कर के मन की बात काम करने लगती है. तुम्हारे मन में कौन सा कांटा चुभा है मु झे बताओ?’’

रूपा ने कहा, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है.’’

‘‘रूपा, पतिपत्नी का रिश्ता एकदूसरे के प्रति विश्वास पर टिका होता है. मु झे लगता है सुजीत के प्रति तुम्हारे विश्वास की नींव को धक्का लगा है. पर क्यों? सुजीत ने कुछ कहा है क्या?’’

शिखा ने जो संदेह का कांटा उस के मन में डाला था उस की चुभन की अवहेलना नहीं कर पा रही थी वह. इसी उल झन में उस की मानसिक शांति भंग हो गई थी. अब वह पहले जैसी खिलीखिली नहीं रहती थी और सुजीत से भी अंतरंग नहीं हो पा रही थी. उस की मानसिक उधेड़बुन उस के चेहरे पर मलिनता लाई ही, व्यवहार में भी फर्क आ गया था.

उस ने सिर  झुका कर जवाब दिया, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है भैया.’’

‘‘नहीं रूपा, तुम्हारे मन की उथलपुथल तुम्हारे मुख पर अपनी छाप डाल रही है. ज्यादा परेशान हो तो तलाक ले लो. सुजीत तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार है.’’

रूपा चौंकी उस की आंखें फैल गईं, ‘‘तलाक?’’

‘‘क्यों नहीं? तुम सुजीत के साथ खुश

नहीं हो.’’

‘‘भैया, मैं बहुत खुश हूं. सुजीत के बिना अपना जीवन सोच भी नहीं सकती. दोबारा तलाक की बात न करना,’’ और वह रो पड़ी.

‘‘तो फिर पहले जैसा भरोसा, विश्वास क्यों नहीं कर पा रही हो उस पर? उसे कभीकभी तुम्हारी आंखों में संदेह क्यों दिखाई देता है?’’

‘‘मैं सम झ रही हूं पर…’’

‘‘अपने मन से कांटा नहीं निकाल पा रही हो न? यह कांटा शिखा ने बोया है?’’

वह फिर चौंकी. नवीन को उस ने असहाय नजरों से देखा.

‘‘रूपा, कोईकोई मुरगी अंडा देने योग्य नहीं होती और वह दूसरी मुरगी का अंडा देना भी सहन नहीं कर पाती. कुछ औरतें भी ऐसी ही होती हैं, जो न तो अपने घर को बसा पाती हैं और न ही दूसरे के बसे घरों को सहन कर पाती हैं. उन्हें उन घरों को तोड़ने में ही सुख मिलता है. शिखा उन में से एक है और तुम उस की शिकार हो. उस ने चंद्रा का घर भी तोड़ने के कगार पर ला खड़ा किया था. मुश्किल से संभाला था उसे. अब उस के लिए वहां के दरवाजे बंद हैं तो तुम्हारे घर में घुस गई. तुम ही बताओ पहले कभी आती थी? अब बारबार क्यों आ रही है?’’

सिहर उठी रूपा. यह क्या भयानक भूल हो

गई है उस से… अपने सुखी जीवन में अपने हाथों ही आग लगाने चली थी. सुजीत जैसे पति पर संदेह. वह भी कब तक सहेंगे. उसे पापा, मां तो उसे एकदम सहारा नहीं देंगे…

फिर बोली, ‘‘भैया, शिखा तो बीमार है.’’

‘‘हां मानसिक रोगी तो है ही. पर तुम अपने को और अपने घर को बचाना चाहती हो तो अभी भी समय है संभल जाओ. सुजीत को अपने से उकताने पर मजबूर मत करो. जितना नुकसान हुआ है जल्दी उस की भरपाई कर लो.’’

‘‘वह मैं कर लूंगी पर आप…’’

‘‘मेरा तो दांपत्य जीवन कुछ है ही नहीं. घर भी नौकर के भरोसे चलता है और चलता रहेगा.’’

‘‘भैया, मैं कुछ करूं?’’

नवीन हंसा, ‘‘क्या करोगी? पहले अपना घर ठीक करो.’’

‘‘कर लूंगी पर आप के लिए भी सोचती हूं.’’

‘‘लो, सुजीत रबड़ी ले आया,’’ नवीन बोला.

शांति, प्यार, लगाव जो रूपा के हाथ से निकल रहे थे अब उस ने फिर उन्हें कस कर पकड़ लिया. मन ही मन शपथ ली कि अब सुजीत पर कोई संदेह नहीं करेगी. फिर सब से पहला काम उस ने जो किया वह था सुजीत को सब खुल कर बताना, वह सम झ गई थी कि लुकाछिपी करने से लाभ नहीं… जिस बात को छिपाया जाता है वह मन में कांटा बन कर चुभती है. और कोई भी बात हो एक न एक दिन खुलेगी ही. तब संबंधों में फिर से दरार पड़ेगी. इसलिए अपने मन में जन्मे विकार तक को साफसाफ बता दिया.

सारी बात ध्यान से सुन कर सुजीत हंसा,

‘‘मुझे पता था कि बेमौसम के बादल आकाश में ज्यादा देर नहीं टिकते. हवा का  झोंका आते ही उड़ जाते हैं. इसलिए तुम्हारे बदले व्यवहार से मैं आहत तो हुआ पर विचलित नहीं, क्योंकि मु झे पता था कि एक दिन तुम्हें अपनी भूल पर जरूर पछतावा होगा और तब सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘हमारा तो सब ठीक हो गया, पर नवीन भैया उन का क्या होगा?’’

‘‘शिखा के स्वभाव में परिवर्तन लाना नामुमकिन है.’’

‘‘नहीं, हमें कोशिश करनी चाहिए. नवीन भैया कितने अच्छे हैं.’’

‘‘बिगड़े संबंध को ठीक करने के लिए दोनों के स्वभाव में नमनीयता होनी चाहिए, जो शिखा में एकदम नहीं है.’’

‘‘फिर भी हमें प्रयास तो करना ही चाहिए,’’ रूपा ने कहा तो सुजीत चुप रहे.

फिर 3-4 दिन बाद रूपा ने दोनों को डिनर पर बुलाया. दोनों ही आए पर अलगअलग. रूपा फूंकफूंक कर कदम रख रही थी. शिखा को बोलने का मौका न दे कर स्वयं ही हंसे, बोले जा रही थी. जरा सी भी बात बिगड़ती देखती तो अपने बेटे को आगे कर देती. उस की मासूम बातें सब को मोह लेतीं. पूरा वातावरण खुशनुमा रहा. वैसे भी रूपा की आंखों से सुख, प्यार  झलक रहा था.

शिखा के मन में क्या चल रहा है, पता नहीं पर वह सामान्य थी. 2-4 बार मामूली मजाक भी किया. खाने के बाद सब गरम कौफी के कप ले कर ड्राइंगरूम में जा बैठे. बेटा सो चुका था.

बात सुजीत ने ही शुरू की, ‘‘यार काम, दफ्तर और घर इस से तो जीवन ही नीरस बन गया है. कुछ करना चाहिए.’’

नवीन ने पूछा, ‘‘क्या करेगा?’’

‘‘चल, कहीं घूम आएं. हनीमून में बस शिमला गए थे. फिर कहीं निकले ही नहीं.’’

‘‘हम भी शिमला ही गए थे. पर अब

कहां चलें?’’

रूपा ने कहा, ‘‘यह हम शिखा पर छोड़ते हैं. बोल कहां चलेगी?’’

शिखा ने कौफी का प्याला रखते हुए कहा, ‘‘शिमला तो हो ही आए हैं. गोवा चलते हैं?’’

रूपा उछल पड़ी, ‘‘अरे वाह, देखा मेरी सहेली की पसंद. हम तो सोचते ही रह जाते.’’

‘‘वहां जाने के लिए समय चाहिए, क्योंकि टिकट, ठहरने की जगह बुक करानी पड़ेगी. इस समय सीजन है… आसानी से कुछ भी नहीं मिलेगा और वह भी 2 परिवारों का एकसाथ,’’ नवीन बोला.

सुजीत ने समर्थन किया, ‘‘यह बात एकदम ठीक है. तो फिर?’’

‘‘एक काम करते हैं. मेरे दोस्त का एक फार्महाउस है. ज्यादा दूर नहीं. यहां से

20 किलोमीटर है. वहां आम का बाग, सब्जी की खेती, मुरगी और मछली पालन का काम होता है. बहुत सुंदर घर भी बना है और एकदम यमुना नदी के किनारे है. ऐसा करते हैं वहां पूरा दिन पिकनिक मनाते हैं. सुबह जल्दी निकल कर शाम देर रात लौट आएंगे.’’

रूपा उत्साहित हो उठी, ‘‘ठीक है, मैं ढेर सारा खानेपीने का सामान तैयार कर लेती हूं.’’

‘‘कुछ नहीं करना… वहां का केयरटेकर बढि़या कुक है.’’

शनिवार सुबह ही वे निकल पड़े. आगेपीछे 2 कारें फार्महाउस के

गेट पर रुकीं. चारों ओर हरियाली के बीच एक सुंदर कौटेज थी. पीछे यमुना नदी बह रही थी. बेटा तो गाड़ी से उतरते ही पके लाल टमाटर तोड़ने दौड़ा.

थोड़ी ही देर में गरम चाय आ गई. सुबह की कुनकुनी धूप सेंकते सब चाय पीने लगे. बेटे के लिए गरम दूध आ गया था.

रूपा ने कहा, ‘‘भैया, इतने दिनों तक हमें इतनी सुंदर जगह से वंचित रखा. यह तो अन्याय है.’’

नवीन हंसा, ‘‘मैं ने सोचा था ये सब फूलपौधे, नदी, हरियाली, कुनकुनी धूप हम मोटे दिमाग वालों के लिए हैं बुद्धिमानों के लिए नहीं.’’

‘‘ऐसे खुले वातावरण में सब के साथ आ कर शिखा भी खुश हो गई थी. उस के मन की खुंदक समाप्त हो गई थी. अत: वह हंस कर बोली, ‘‘तू सम झी कुछ? यह व्यंग्य मेरे लिए है.’’

सुजीत बोला, ‘‘तेरा दिमाग भी तो मोटा है… तू कितना आता है यहां?’’

‘‘जब भी मौका मिलता है यहां चला आता हूं. ध्यान से देखेगा तो मेरे लैंडस्केपों में तु झे यहां की  झलक जरूर दिखेगी… देख न यहां काम करने वाले सब मु झे जानते हैं.’’

शिखा चौंकी, ‘‘तो क्या कभीकभी जो देर रात लौटते हो तो क्या यहां आते हो?’’

‘‘हां. यहां आ कर फिर दिल्ली के हंगामे में लौटने को मन नहीं करता. बड़ी शांति है यहां.’’

‘‘तो तेरी कविताएं भी क्या यहीं की

उपज हैं?’’

‘‘सब नहीं, अधिकतर.’’

शिखा की आंखें फैल गईं, ‘‘क्या तुम कविताएं भी लिखते हो? मु झे तो पता ही नहीं था.’’

‘‘3 काव्य संग्रह निकल चुके हैं… एक पर पुरस्कार भी मिला है. तु झे पता इसलिए नहीं है, क्योंकि तू ने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की कि हीरा तेरे आंचल से बंधा है. तेरी सौत कोई हाड़मांस की महिला नहीं यह कविता और चित्रकला है. इन के बाल नोच सके तो नोच. भैया ही कवि परिजात हैं, जिस की तू दीवानी है.’’

‘‘कवि परिजात?’’ प्याला छूट गया, उस

के हाथों से और फिर दोनों हाथों से मुंह छिपा कर रो पड़ी.

रूपा कुछ सम झाने जा रही थी मगर सुजीत ने रोक दिया. कान में कहा, ‘‘रोने दो… बहुत दिनों का बो झ है मन पर… अब हलका होने दो. तभी नौर्मल होगी.’’

थोड़ी देर में स्वयं ही शांत हो कर शिखा ने रूपा की तरफ देखा, ‘‘देख ले कितने धोखेबाज हैं.’’

रूपा यह सुन कर हंस पड़ी.

‘‘कितनी भी अकड़ दिखाओ शिखा पर प्यार तुम नवीन को करती ही हो… ये सारी हरकतें तुम्हारी नवीन को खोने के डर से ही थीं… पर उन्हें आप ने आंचल से बांधे रखने का रास्ता तुम ने गलत चुना था,’’ सुजीत बोला.

नवीन बोला, ‘‘छोड़ यार, अब हम

दूसरा हनीमून गोवा चल कर ही मनाते हैं…

जब भी टिकट और होटल में जगह मिलेगी तभी चल देंगे.’’

रूपासुजीत दोनों एकसाथ बोले,‘‘जय हो.’’

तीसरा बलिदान: क्या कभी खुश रह पाई अन्नया

अनन्या और सार्थक एक ही औफिस में पिछले 2 साल से काम कर रहे हैं. सार्थक इसी औफिस में 10 साल से काम कर रहा था, जबकि अनन्या 2 साल पहले ही बदली हो कर यहां आई थी.

3 दिन पहले ही अनन्या ने अहमदाबाद वाले औफिस में बदली हो कर ज्वाइन किया था. औफिस में 3 दिन बाद उस ने अपने कालेज के क्लासमेट सार्थक को देखा, तो खुशी से चिल्ला पड़ी, “अरे सार्थक, तुम यहां…“

“हां, मैं इसी औफिस में काम करता हूं. आप को पहचाना नहीं?” सार्थक को आश्चर्य हुआ कि तुम जैसे अपनेपन वाला शब्द बोलने वाली यह खूबसूरत महिला कौन है? वहीं साथ में काम करने वाले आसपास के कर्मचारी दोनों को हैरानी से देख रहे थे कि कहीं अनन्या को गलतफहमी तो नहीं हुई है.

“सार्थक, मैं अनन्या हूं… जोधपुर में हम एक ही कालेज में साथ में पढ़ते थे.”

अनन्या को आश्चर्य हुआ कि सार्थक ने उसे पहचाना नहीं और थोड़ी झेंप हुई, क्योंकि आसपास सभी सहकर्मी उन दोनों को देख रहे थे कि अनन्या कोई भूल तो नहीं कर रही है.

“ओह सौरी अनन्या, मैं ने तुम्हें पहचाना नहीं. शायद हमें कालेज छोड़े हुए तकरीबन 10 साल से ज्यादा हो गए हैं. अब याददाश्त भी कम हो रही है, उम्र के साथसाथ.”

हालांकि 35 साल की उम्र ज्यादा बड़ी नहीं होती है, इस में क्या याददाश्त कम होगी. सार्थक ने बात बनाने की कोशिश की.

सार्थक ने अनन्या को ध्यान से देखा, उस समय कालेज में अनन्या की चोटी हुआ करती थी, पर अभी उस के बाल बौयकट जैसे थे और साथ में आंखों का नंबर का चश्मा भी था. पर यह बात अनन्या को सब के सामने बता नहीं सकता था.

“अरे, कब ज्वाइन की ड्यूटी आप ने यहां?” सार्थक ने औपचारिकतावश पूछा, क्योंकि 3 दिनों से वह छुट्टी पर था. उस का बच्चा बीमार था.

“3 दिन पहले ही,” अनन्या ने बेमन से बताया. अनन्या को उस का आप का औपचारिक संबोधन अच्छा नहीं लगा. यह सही बात थी कि अनन्या व सार्थक साथसाथ कालेज में एक ही क्लास में पढ़ते थे, पर बहुत अच्छे दोस्त नहीं थे तो भी कालेज में साथसाथ बैठते थे और दोनों का ग्रुप भी एक था. आपस में अनजान भी नहीं थे.

अनन्या का मूड जो सार्थक को इतने साल बाद अपनी नई अनजान औफिस में अपनों को देख कर उत्साहित था, एकदम ठंडा पड़ गया. हालांकि सार्थक का शरीर भर गया था. उस ने मूंछें भी रख दी थी, तो भी उस ने इतने साल बाद एकदम से उसे पहचान लिया.

औफिस वाले अनन्या का उत्साह देख कर जोरदार कालेज स्टोरी होने का अनुमान लगा रहे थे.
लंच समय में अनन्या का मूड खराब देख कर सार्थक को लगा कि उस के हाथ से कुछ कच्चा कट गया है.

“सौरी अनन्या, मैं पहचान नहीं सका,” कान पर हाथ रख कर कालेज के दोस्त वाली दोस्ती की भाषा में बोला, तो अनन्या मुसकराते हुए बोली, “हां, मेरे बाल की स्टाइल व चोटी न देख कर मैं समझ गई कि तुम मुझे पहचान नहीं पाए.”

“हां, कालेज में तुम्हारे लंबे काले बालों वाली चोटी बहुत प्रसिद्ध थी. उस कारण तुम्हें एक बार मिस कालेज का खिताब भी मिला था,” सार्थक उस की चोटी याद कर के बोला, जिस पर कालेज के कई छात्र मजनू बन गए थे.

“क्या करूं? सुबह की भागमभाग में चोटी बनती नहीं है, इसलिए जो लंबे काले बाल थे कालेज के समय में वह मैं ने कटवा दिए,” किसी भी भारतीय स्त्री को काले घने लंबे बालों से बहुत ही प्रेम होता है, इसलिए अनन्या के शब्दों में अफसोस था.

हम जब कालेज में या शहर में एकसाथ होते हैं, तो भले ही हमारे संबंध बहुत ज्यादा घनिष्ठ नहीं हो, पर जब हम अलग शहर में और बहुत समय बाद मिलते हैं, तो ऐसा लगता है कि हम बहुत ही करीब थे और बिछुड़ कर मिले हो, ऐसा लगता है. यह सब सार्थक व अनन्या के साथ भी हुआ.

”मतलब…?” सार्थक समझ न सका कि कोई अपना घर, घर के कारण छोड़ता है.
अनन्या ने देखा कि सार्थक की औफिस की महिला सहकर्मियों के साथ सिर्फ बहुत ही जरूरी बातें होती हैं वह भी काम की, वह भी हां हूं में. हालांकि सार्थक की दूसरे पुरुष कर्मचारियों के साथ ऐसी बात नहीं थी और वह बहुत ही मिलनसार और सहयोगी प्रकृति का था. पर वह औफिस शाम 6 बजे छुट्टी होते ही निकल जाता था, एक मिनट की देरी किए बिना.

बहुत दिनों बाद जब इस का कारण उस को पता चला, तब उसे बहुत ही दुख हुआ और सार्थक के साथ सहानुभूति हुई.

सार्थक की पत्नी का निधन दो साल पहले ही कैंसर के कारण हो गया था और उस का एक छोटा सा 5 साल का बच्चा है. उस कारण सार्थक ने दूसरी शादी नहीं की, क्योंकि सार्थक को लगता था सौतेली मां क्या होती है, यह सोच कर उसे डर लगता था अपने बेटे की भविष्य के बारे में.

उसे सार्थक पर गर्व हुआ कि इतनी मानसिक व शारीरिक तकलीफों के बाद भी वह सिर्फ अपने बेटे के भविष्य का सब से पहले सोच रहा है, इस कारण वह महिला कर्मचारी से बात तक नहीं करता है.

“अरे अनन्या, तुम ने जोधपुर जैसी जगह से अपनी बदली यहां करवा दी. वहां तो तुम्हारा अपना घर भी है,” कैंटीन में एक दिन दोपहर का खाना खाते हुए उस ने औपचारिकतावश पूछा.

“इसलिए, क्योंकि वहां घर है,” टिफिन पैक करते हुए अनन्या ने जवाब दिया.

“मतलब…?” सार्थक समझ ना सका कि कोई अपना घर, घर के कारण छोड़ता है.

“मैं अपने घर में सब भाईबहनों में सब से बड़ी थी. मेरे पापा के अचानक गुजर जाने के बाद कोई कमाने वाला नहीं रहा. भाईबहन पढ़ रहे थे, मुझे पापा की जगह नौकरी मिल गई. इस कारण घर अच्छी तरह चलने लगा. आर्थिक स्थिति खराब होने से पहले ही बच गई और भाईबहन की पढ़ाई वैसे ही चलने लगी. अब मैं शादी नहीं कर सकती थी. यदि शादी कर दी तो घर की आर्थिक स्थिति खराब हो जाती और भाईबहन का कैरियर और दूसरी तकलीफें उत्पन्न होतीं.

एक बार एक अच्छा परिवार देखने आया, तो मैं ने हिम्मत कर के उन्हें शादी के लिए यह शर्त रखी कि मेरी सैलरी का कुछ हिस्सा घरवालों को दूंगी, शादी के बाद. तो बात वहीं की वहीं खत्म हो गई. फिर किसी के सामने यह शर्त रखने की हिम्मत ही नहीं हुई. मेरे लिए, मेरे भाईबहन और घर महत्वपूर्ण था. वे लोग मुझे आशाभरी नजरों से देखते थे और मुझे भगवान जैसा समझते थे. मैं भी अपनी इस जिंदगी से खुश और आत्मसंतुष्ट थी. भाई को अच्छी शिक्षा देने के बाद अपनी कसम दे कर भाई व बहन की शादी धूमधाम से की. मां भी यह सब देख कर चल बसी. पापा के बिना उस की जीने की इच्छा ही खत्म हो गई थी, वह सिर्फ भाईबहन को देख कर चल रही थी.

भाई की शादी के बाद मेरी समस्याएं शुरू हुईं. भाभी को मेरी सैलेरी पसंद थी, पर मेरा घर पर रहना पसंद नहीं था और ना ही मेरा भाई का मेरी हर बात पर सलाह लेना.

दोनों के बीच मेरे कारण तनाव रहने लगा. इस कारण भाई भी मुझ से धीरेधीरे कटने लगा. मुझे लगा कि अब समय आ गया है अपने बलिदान व त्याग का क्रेडिट लेने की जगह और महानता की आत्मप्रशंसा की जगह, जगह ही बदलना समयोचित है. मैं ने मेरे विभाग में बदली के लिए अर्जी दी और बदली का सही कारण भी बताया. मेरा ट्रैक रिकौर्ड अच्छा होने कारण मुझे अहमदाबाद में बदली मिल गई. यहां आ कर मुझे सच में मानसिक शांति मिली और यहां आ कर तुम्हें देखा तो मुझे बहुत ही अच्छा महसूस हुआ और कालेज के दिनों वाली ताजगी महसूस होने लगी.

“अनन्या, तुम सच में महान हो. अपने परिवार के लिए खुद का बलिदान दिया. वह भी एक बार नहीं, दोदो बार. पहली बार अपने घर वालों के लिए शादी नहीं की और दूसरी बार अपने घर वालों के लिए घर ही छोड़ दिया. जो तुम्हारी सब से प्रिय जगह थी,” सार्थक ने सिर झुका कर आदरभाव से कहा. सार्थक को अच्छा लगा कि उस की क्लासमेट ने अपने परिवार के हित के लिए बलिदान दिया. उस के मन में अनन्या के लिए प्यार व आदरभाव पैदा हुआ.

“क्या तुम्हें कभी प्यार हुआ है?” एक अच्छे दोस्त की तरह सार्थक ने पूछा.

“पता नहीं, मेरे लिए जवाबदारी इतनी बड़ी थी कि प्यार की गरमाहट मैं ने कभी महसूस ही नहीं की,” अनन्या ऐसे बोली, जैसे कि उस के मन में प्यार की कसक अभी बाकी है.

“अब तो कोई जवाबदारी नहीं है. अब क्यों नहीं शादी कर रही हो?” सार्थक ने अपनेपन से पूछा.

“सच बताऊं, एक तो उम्र हो गई है और दूसरा कोई ढूंढ़ने वाला भी तो चाहिए,” अनन्या ने हताशा से फीकी हंसी के साथ कहा.

“32-35 साल की उम्र कोई उम्र नहीं होती है.”

“देखते हैं, जिंदगी किस मोड़ ले जाती है,” मुसकरा कर बात खत्म करने के इरादे से वह बोली.

“और तुम्हारी भी उम्र मेरी जितनी है, फिर तुम क्यों नहीं शादी कर रहे हो?”

“बेटे के कारण. उसे मां का प्यार नहीं मिला तो क्या मैं उसे पिता का प्यार भी नहीं दूं. ना जाने कैसी होगी उस की सौतेली मां? ऊपर से उस के बच्चे हो गए तो क्यों मेरे बेटे का ध्यान रखेगी? बस डरता हूं मैं इस बात से,” सार्थक ने स्पष्ट रुप से कहा.

“बेटा कालेज जाने लायक होगा, तब कर लूंगा दूसरी शादी,” हंसते हुए सार्थक बोला, तो सार्थक की बात सुन कर अनन्या हंसने लगी.

दो साल से ज्यादा हो गए, अब दोनों न सिर्फ अच्छे दोस्त हो गए थे, बल्कि कई बार साथ में बाहर भी जाते थे. यहां तक कि कई बार साथ में 5 साल का बेटा चिंटू भी उन के साथ होता था. वह काफी घुलमिल गया था अनन्या के साथ. उसे प्यार से आंटी कहता था.

दोनों के प्यार व साथ में रहने की चर्चा औफिस में होती थी और सब यह दिल से चाहते थे कि दोनों शादी कर लें. दोनों के चेहरे की चमक भी दो साल में बदल गई थी और दोनों के मन में, दिल में जिंदगी में कुछ आशाएं जलने लगी थीं – जगमगाने लगी थीं.

“सार्थक कब शादी कर रहे हो अनन्या के साथ?” औफिस में औफिस का सहकर्मी आशीष, जो सार्थक का अच्छा दोस्त भी था, ने संजीदगी से पूछा.

उस दिन औफिस में उन दोनों के अलावा कोई नहीं था. सभी औफिसकर्मी के बच्चे की शादी में गए थे. अनन्या पर्स टेबल पर भूल गई थी, इसलिए लेने आई थी. उस ने अपना नाम सुना, तो दीवार के पीछे दोनों की बातें सुनने लगी.

“मैं अनन्या को पसंद करता हूं. अनन्या बहुत अच्छी लड़की है, पर आज भले उसे मेरा बेटा अच्छा लग रहा है, पर जब उस के बच्चे होगें, तब शायद ही चिंटू अच्छा लगने लगे. मैं कोई जिंदगी में रिस्क नहीं लेना चाहता अपने बेटे के लिए,” सार्थक हताशा से स्पष्ट शब्दों में बोला, तो यह सुनने के बाद और कुछ सुनने की हिम्मत अनन्या में नहीं थी. वह बिना पर्स लिए पार्टी में चली गई.

3-4 दिन से अनन्या औफिस नहीं आई थी और उस का मोबाइल भी स्विच औफ आ रहा था. सार्थक बेचैन हो गया था. दो साल में पहली बार वह इतनी दूर था कि उस से उस को लगा कि उस के बिना शायद ही जिंदगी गुजार पाएगा?

औफिस के सभी लोग उस की बेचैनी को स्पष्ट रूप से देख रहे थे और समझ भी रहे थे. 5 दिन बाद शाम को एक टैक्सी सार्थक के घर के आगे रुकी. उस में अनन्या उतरी और कमजोर जैसे कई दिनों की बीमार होती है, सीधे जैसे अस्पताल से आ रही हो, ऐसी दिख रही थी.

”अरे अनन्या 5 दिन से कहां थीं तुम?” इतने दिन बाद उसे सामने देखा तो सार्थक आश्चर्य से बोला.

”यह लो तुम्हारी मनपसंद चौकलेट व गेम,” चिंटू के हाथ मे गिफ्ट हैंपर देते हुए गाल पर प्यार से हाथ फेरते हुए उस ने कहा.

”थैंक यू आंटी,” चिंटू हमेशा की तरह अनन्या से चिपक कर बोला.

”बताया नहीं, क्या हुआ था तुम्हें,” उसे सोफे पर बिठाने के बाद बेसब्री व चिंता से सार्थक ने पूछा.

अनन्या ने गहरी सांस ली और एक फाइल से सर्टिफिकेट निकाल कर कहा, ”यह लो.” सर्टिफिकेट देते हुए अनन्या बोली.

सर्टिफिकेट लेते हुए सार्थक हैरानगी व असमजंस से बोला, ”कैसा सर्टिफिकेट?” वह गंभीरता से बोला.

“क्या… यह क्या किया तुम ने अनन्या. तुम ने अपना नसबंदी का औपरेशन करा दिया वह भी शादी से पहले,” सरकारी अस्पताल का नसबंदी सर्टिफिकेट देखते हुए सार्थक तेज आवाज में बोला.

”तुम मुझ से शादी इसलिए नहीं कर रहे थे कि तुम डर रहे हो कि हमारे बच्चे होने के बाद मैं तुम्हारे चिंटू को प्यार नहीं दूंगी और ध्यान नहीं रखूंगी. मैं ने यह विश्वास दिलाने के लिए ही कि चिंटू ही मेरा प्रथम व आखिरी बच्चा है, इसलिए भविष्य में मेरे कभी बच्चे ही नहीं हो, इसलिए मैं ने यह प्रश्न ही खत्म करने के लिए, बच्चा ना होने का औपरेशन ही करा दिया. सार्थक, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती हूं,” अनन्या भावपूर्ण स्वर में बोली.

तो सार्थक बोला, ”अनन्या तुम ने एक बार फिर, तीसरी बार अपना बलिदान दे दिया अपनों के लिए. मेरे पास तुम्हारी महानता के लिए शब्द नहीं है,” प्यार से गले लगाते हुए सार्थक रो पड़ा.

महाभारत: माता-पिता को क्या बदल पाए बच्चे

दरवाजा बंद था लेकिन ऊंचे स्वर में होते वाक्युद्ध से लगता था किसी भी क्षण हाथापाई शुरू हो जाएगी. जब अधिक बर्दाश्त नहीं हुआ तो कजरी दरवाजे पर दस्तक देने के लिए उठी पर विवेक ने उसे पीछे खींच लिया, फिर समझाते हुए कहा, ‘‘एक तो यह रोज की बात है, दूसरे, यह पतिपत्नी का आपसी मामला है. तुम्हारे हस्तक्षेप करने से बात बिगड़ सकती है.’’

‘‘लेकिन विवेक, यह कब तक चलेगा?’’ कजरी ने हताश हो कर कहा.

‘‘पता नहीं,’’ विवेक ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘थोड़े दिन और देखते हैं, अगर नहीं समझे तो उन्हें वापस कानपुर भेज देंगे. बड़े भैया अपनेआप झेलेंगे.’’

‘‘कितनी आशा से हम ने मम्मीडैडी को अपने पास रहने के लिए बुलाया था,’’ कजरी ने गहरी सांस ली, ‘‘सोचा था उन का भी थोड़ा घूमनाफिरना हो जाएगा और हमें भी अच्छा लगेगा.’’

‘‘मम्मीडैडी में झगड़ा तो अकसर होता था,’’ विवेक ने कटुता से कहा, ‘‘लेकिन आपसी संबंध इतने बिगड़ जाएंगे यह नहीं सोचा था.’’

मम्मीडैडी में किसी न किसी बात पर रोज घमासान होता था. मम्मी की जलीकटी बातों का उत्तर डैडी गाली दे कर देते थे.

विवेक ने कजरी से कहा, ‘‘गरमागरम कौफी बना लाओ. पी कर कम से कम मेरा मूड तो ठीक होगा.’’

कजरी कौफी लाई तो विवेक ने दरवाजे पर दस्तक दी.

लगभग एक मिनट के बाद डैडी ने दरवाजा खोला और घूर कर देखा.

‘‘लीजिए डैडी, गरमागरम कौफी. आप शांति से पीजिए,’’ विवेक ने मम्मी से कहा, ‘‘आगे का प्रोग्राम ब्रेक के बाद.’’

विवेक अकसर मम्मीडैडी को बतौर मनोरंजन कुछ न कुछ कह कर हंसाता रहता था, लेकिन आज दोनों बहुत गंभीर थे. तनी भृकुटी पर कोई असर नहीं हुआ.

एक दिन मामला बहुत गरम हो गया. मम्मीडैडी का स्वर बाहर तक सुनाई पड़ रहा था.

‘‘मैं एक मिनट इस घर में नहीं रह सकती,’’ मम्मी ने ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘मैं हमेशा के लिए छोड़ कर चली जाऊंगी.’’

‘‘मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं,’’ डैडी ने क्रोध से कहा, ‘‘मेरा पीछा छोड़ दो.’’

‘‘मुझे कौन साथ रहने का शौक है,’’ मम्मी ने भी क्रोध से कहा. लड़ाई चरम सीमा पर पहुंच गई थी. कजरी और विवेक माथा पकड़ कर बैठ गए.

‘‘मैं भैया को फोन करता हूं,’’ विवेक ने दृढ़ता से कहा, ‘‘आएं और तुरंत ले जाएं.’’

‘‘नहीं, विवेक, उन्हें क्यों परेशान करते हो.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो,’’ विवेक ने सोच कर कहा, ‘‘एक कोशिश और करते हैं. मम्मीडैडी के लिए मनोरंजन का कोई और रास्ता ढूंढ़ना होगा. शायद बात बन जाए.’’

कजरी ने सहमति में सिर हिलाया और हंस पड़ी.

‘‘मम्मी,’’ विवेक ने कहा, ‘‘आप तो कभी बहुत पिक्चर देखती थीं. अब क्या हो गया?’’

मम्मी ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘कोई साथ हो तब न.’’

‘‘मैं 2 टिकट ले आया हूं. तैयार हो जाओ. डैडी को भी बोल कर आता हूं.’’

मम्मी को पिक्चर देखने का बहुत शौक था. पिक्चरहाल ज्यादा दूर नहीं था फिर भी विवेक ने रिकशा कर के दोनों को उस पर बैठा दिया.

थोड़ी देर में मम्मीडैडी सिनेमा देखने जा चुके थे.

उन के जाने के बाद विवेक ने पूछा, ‘‘हम कौन सी पार्टी में जा रहे हैं?’’

‘‘कोई पार्टी नहीं है तो क्या हुआ,’’ कजरी ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब चले चलते हैं. तुम ने कहा था न एक बार कि कैलीफोर्निया में चाइनीज खाना बहुत अच्छा मिलता है.’’

कैलीफोर्निया अभीअभी एक नया रेस्तरां खुला था और अपने स्वादिष्ठ खाने की वजह से जल्द ही बहुत मशहूर हो गया था.

जब मम्मीडैडी घर आए तो बहुत प्रसन्न थे. आदत के अनुसार मम्मी फिल्म की कहानी सुनाने लगीं और डैडी अपनी टिप्पणी दे रहे थे. विवेक और कजरी ने राहत की सांस ली.

अब तो विवेक हर 10-15 दिन में किसी नई फिल्म के 2 टिकट ले आता था. मम्मीडैडी जितना खुश हो कर जाते थे उस से अधिक प्रसन्न हो कर लौटते थे.

एक दिन विवेक के एक दोस्त ने नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के एक बहुचर्चित नाटक के 2 टिकट ला कर दिए. वे टिकट विवेक ने मम्मीडैडी को दे दिए.

दोनों बहुत प्रसन्न थे. कोई नाटक देखे उन्हें वर्षों बीत गए थे.

मम्मीडैडी के आने की प्रतीक्षा में कजरी और विवेक बैठ कर सासबहू वाला धारावाहिक देख रहे थे. आज कहानी ने एक दिलचस्प मोड़ लिया था. अचानक फोन की घंटी ने ध्यान भंग कर दिया, ‘‘देखो, किस का फोन है,’’ विवेक नेकहा.

‘‘तुम देखो,’’ कजरी बोली. विवेक अनिच्छा से उठा.

‘‘हैलो,’’ विवेक ने सूखे कंठ से कहा.

‘‘जानेमन, कैसे हो?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘कस्तूरी, तुम?’’ विवेक ने आश्चर्य से चौंक कर पूछा, ‘‘कैसे याद किया?’’

‘‘परसों तुम दोनों मेरे यहां खाने पर आओ,’’ कस्तूरी ने कहा.

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘मेरा जन्मदिन है,’’ कस्तूरी खिलखिला पड़ी, ‘‘साल में कितने जन्मदिन मनाती हो?’’ विवेक ने हंस कर पूछा.

‘‘अपनी डायरी में देखो, कहीं लिखा होगा,’’ कस्तूरी ने कहा, ‘‘सच ही मेरा जन्मदिन है और तुम दोनों को जरूर आना है.’’ इस से पहले कि विवेक कुछ कहता कस्तूरी ने फोन रख दिया था. विवेक उलझन में पड़ा फोन हाथ में लिए खड़ा था. क्या करे इस कस्तूरी का. जब भी फोन करती है घर में कलह हो ही जाती है.

कजरी ने तीखे स्वर में पूछा, ‘‘क्या कह रही थी, कस्तूरी?’’

‘‘खाने पर बुला रही है. जन्मदिन की पार्टी कर रही है,’’ विवेक ने खुलासाकिया.

‘‘माना, किसी जमाने में कस्तूरी तुम्हारी गर्लफ्रैंड थी, लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि उसे खुलेआम तुम्हारे से फ्लर्ट करने का लाइसेंस मिल गया,’’ कजरी ने क्रोध से कहा, ‘‘जब भी मिलती है ऐसे चिपक कर बैठती है जैसे पत्नी वह है और मैं ‘वो’ हूं.’’

‘‘तुम जानती तो हो कि मैं उसे ऐसा करने की दावत नहीं देता,’’ विवेक ने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘वह है ही ऐसी.’’

‘‘ताली एक हाथ से नहीं बजती,’’ कजरी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘तुम मौका देते हो तभी तो उस की ऐसा करने की हिम्मत होती है.’’

‘‘मैं मौका देता हूं?’’ विवेक ने ऊंचे स्वर में कहा, फिर पूछा, ‘‘तुम्हें उस की पार्टी में चलना है या नहीं?’’

दोनों एक-दूसरे को इस तरह घूर रहे थे मानो खा ही जाएंगे.

पार्टी में तो कोई नहीं गया लेकिन दोनों के बीच शीतयुद्ध जारी रहा. सारा काम इशारों से चल रहा था या मम्मीडैडी से कह कर.

आज छुट्टी का दिन था लेकिन माहौल मनहूसियत से भरा हुआ था. नाश्ते के बाद डैडी बाहर चले गए.

‘‘विवेक,’’ थोड़ी देर बाद डैडी ने अंदर आते हुए आवाज लगाई, ‘‘बहू, तुम भी आओ. देखो, क्या लाया हूं मैं.’’

दोनों आ कर आश्चर्य से देखने लगे.

‘‘ये लो,’’ डैडी ने एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘इस में क्या है?’’ दोनों ने एकसाथ पूछा.

‘‘बेटा, हनीमून हाल के टिकट हैं. मैं तुम दोनों के लिए फिल्म ‘देवदास’ के टिकट ले आया हूं. इतने दिनों से तुम्हें ‘देवदास’ बना देख रहा हूं. सोचा क्यों न फिल्म ही दिखा दूं.’’

मम्मीडैडी दोनों हंस रहे थे. कु छ क्षणों तक कजरी और विवेक ने आश्चर्य से देखा और फिर हंसी न रोक सके. डैडी ने उन का फार्मूला उन्हीं पर आजमा दिया था.

जीजाजी का पत्र: दीदी के उदास चेहरे के पीछे क्या था सच?

घर में सालों बाद सफेदी होने जा रही थी. मां और भाभी की मदद के लिए मैं ने 2 दिन के लिए कालेज से छुट्टी कर ली. दीदी के जाने के बाद उन का कमरा मैं ने हथिया लिया था. किताबों की अलमारी के ऊपरी हिस्से में दीदी की किताबें थीं. मैं कुरसी पर चढ़ कर किताबें उतार रही थी कि अचानक हाथ से 3-4 किताबें गिर पड़ीं.

1-2 किताबें जमीन पर अधखुली पड़ी थीं. उन को उठाने के लिए झुकी तो देखा, 3-4 पेज का एक पत्र पड़ा था. अरे, यह तो जीजाजी का पत्र है जो उन्होंने दीदी को इंगलैंड से लिखा था. पत्र पर एक नजर डालते हुए मैं ने सोचा, ‘दीदी का पत्र मुझे नहीं पढ़ना चाहिए.’

परंतु मन में पत्र पढ़ने की उत्सुकता हुई. मां अभी रसोई में ही थीं. भाभी बंटी को स्कूल छोड़ने गई थीं. जीजाजी के पत्र ने मुझे झकझोर कर रख दिया और अतीत के आंगन में ला कर खड़ा कर दिया.

दीदी हम तीनों में सब से बड़ी हैं. भैया दूसरे नंबर पर हैं. दीदी और मुझ में फर्क भी 12 साल का है. मां और पिताजी को घर में बहू लाने की बहुत इच्छा थी. इसलिए भैया की शादी जल्दी ही हो गई… वैसे भी दीदी की शादी की प्रतीक्षा करते तो भैया कुंआरे ही रह जाते.

उस दिन सवेरे से ही सब लोग काम में लगे हुए थे. पूरे घर की अच्छी तरह से सफाई की जा रही थी. मां और भाभी रसोई में लगी थीं. दीदी को देखने के लिए कुछ लोग दिल्ली से आ रहे थे. वे दोपहर 12 बजे तक हमारे घर पहुंचने वाले थे. दिल्ली से चलने से पहले उन का 10 बजे के लगभग फोन आ गया था. दीदी नहाधो कर तैयार हो रही थीं.

इस बार दीदी को देखने आने वाले लोग जरा दूसरी ही किस्म के थे. लड़का इंगलैंड में नौकरी करता था. शादी कराने भारत आया हुआ था और उसे 2 हफ्ते से भी कम समय में वापस लौट जाना था.

पिछले 5 वर्ष से दीदी को न जाने कितनी बार दिखाया जा चुका था. हमारे पड़ोस में ही दीदी की एक साथी प्राध्यापिका रहा करती थीं. वे हमेशा ही हमारे घर में होने वाली गतिविधियों से जान जातीं कि कोई दीदी को देखने आ रहा है. हर बार जब निराशा हाथ लगती तो दीदी को उन के सामने लज्जित होना पड़ता था. वैसे वे बेचारी दीदी को कुछ नहीं कहती थीं, परंतु दीदी ही हर बार अपने को हीन और अपमानित महसूस करती थीं.

पिछले कुछ महीनों में तो दीदी ने कई बार घर में काफी क्लेश किया था कि वे भेड़बकरी की तरह नहीं दिखाई जाएंगी, परंतु पिताजी की एक डांट के आगे बेचारी झुक जातीं. हां, अपनी जिद, हीनभावना और अपमान के कारण वह खूब रोतीं.

वे लोग ठीक समय पर ही आ गए थे. उन सब की खूब खातिरदारी की गई. वे खुश नजर आ रहे थे. लड़के के भैया- भाभी, छोटी बहन, मातापिता, 2 छोटे भाई और बड़े भाई के 3 बच्चे सभी बैठक में बैठे थे. लड़के की मां, भाभी, छोटी बहन तो पहले ही अंदर जा कर दीदी से मिल चुकी थीं. जिस प्यार से लड़के की मां दीदी को देख रही थीं उस से तो लगता था कि उन्हें दीदी बहुत पसंद आई हैं.

खाने के पश्चात दीदी को बैठक में लाया गया, जहां सब लोग बैठे थे. लड़के के पिता और बड़े भाई दीदी को बड़े गौर से देख रहे थे. लड़का बेचारा चुप ही था. उस की शायद समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? वह दीदी से आंख मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. लगभग आधे घंटे बाद लड़के के पिता ने कहा, ‘‘इन दोनों को कुछ देर के लिए अकेला छोड़ देते हैं. एकदूसरे से एकांत में कुछ पूछना हो तो पूछ सकते हैं.’’

उन की बात सुन कर सब लोग वहां से उठ गए.  लगभग 20 मिनट पश्चात दीदी अंदर आ गईं. उन के आने पर लड़के के घर की महिलाएं बैठक में चली गईं. उन्होंने अपने परिवार के पुरुषों को भी वहीं बुला लिया. वे आपस में सलाहमशवरा कर रहे थे. लगभग आधे घंटे पश्चात लड़के के पिता ने मेरे पिताजी को बुलाया और उन के बैठक में पहुंचते ही कहा, ‘‘मुबारक हो, हमें आप की बेटी बहुत पसंद आई है.’’  पिताजी ने मां और भैया को वहीं बुला लिया. कुछ ही क्षणों में वहां का माहौल ही बदल गया. कुछ देर पहले का तनावपूर्ण वातावरण अब आत्मीयता में परिवर्तित हो चुका था.

जब दीदी ने सुना कि उन को आखिर किसी ने पसंद कर ही लिया है तब उन्होंने चैन की सांस ली. वे लाज की चादर ओढ़े बैठी थीं. बैठक में पिताजी उन लोगों से सारी बातें तय कर रहे थे. मां और भाभी महिलाओं से बातें कर रही थीं.  थोड़ी देर बाद अंदर आ कर लड़के की मां ने अपने गले से सोने की चेन उतार कर दीदी को पहना दी. पहले तो उन सब का 4-5 बजे तक दिल्ली लौट जाने का कार्यक्रम था परंतु अब रात का खाना खाए बिना कैसे जा सकते थे. मां और भाभी खाने की तैयारी में लग गईं. मुझे भी मन मार कर रसोई में उन दोनों की मदद करने जाना पड़ा.  खाने के तुरंत पश्चात ही वे लोग जाने की तैयारी करने लगे. दीदी अपने कमरे से नहीं आईं. मैं जिद कर के होने वाले जीजाजी को दीदी के कमरे में ले गई और उन दोनों को अकेले छोड़ दिया, परंतु वे कुछ देर बाद ही बाहर आ गए. उन्होंने दीदी से क्या कहा? यह तो दीदी ने मुझे बाद में कुरेदने पर भी नहीं बताया था.

3 दिन बाद पिताजी और भैया जा कर सगाई की रस्म पूरी कर आए. उन लोगों ने दीदी के लिए साडि़यां और सोने का एक सैट भेजा. घर में कुछ नजदीकी रिश्तेदार आ गए थे. समय कम था, फिर भी परिवार के सब लोगों की दिनरात की मेहनत से सारी तैयारियां हो ही गईं.

खूब धूमधाम से शादी हुई. किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि लड़के वालों ने 6 दिन पहले ही हमारे यहां आ कर पहली बार दीदी को देखा था. सवेरे 8 बजे बरात विदा हो गई. दीदी हमारा घर सूना कर गई थीं.

दीदी को जीजाजी अगले ही दिन ब्रिटेन के हाईकमीशन ले गए. उन के लिए वीजा मिलने में कुछ दिन तो लग ही जाने थे. दिल्ली में दीदी से हम मुश्किल से 40 घंटे बाद मिले थे, परंतु ऐसा लगा कि जैसे मुद्दतों के बाद मिले हों. दीदी बहुत थकीथकी नजर आ रही थीं. कुछ उदास भी थीं, आखिर जीजाजी लंबी हवाई यात्रा पर जो जा रहे थे.  जीजाजी के विमान के चले जाने पर हम लोग मोदीनगर रवाना हो गए. दीदी की सास ने तो घर चलने की काफी जिद की, पर मांपिताजी नहीं माने. 1-2 दिन बाद तो भैया दीदी को लिवाने के लिए उन के यहां जाने ही वाले थे. दीदी भी घर जल्दी आने को इच्छुक थीं. उन्होंने अभी अपनी नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया था.

2 दिन बाद भैया दीदी को लिवा लाए. घर में जैसे बहार आ गई. दीदी का कालेज जाने का वह आखिरी दिन था. उन्होंने सवेरे ही अपना इस्तीफा लिख लिया था.  वे रिकशा वाले की प्रतीक्षा कर रही थीं, तभी दरवाजे की घंटी बजी. दीदी ने जल्दी से दरवाजा खोला. उन के ही नाम रजिस्ट्री थी. जीजाजी ने ही रजिस्ट्री पत्र भेजा था.  दीदी पत्र को उत्सुकता से खोलने लगीं. उन के हवाई टिकट के साथ एक पत्र भी था. दीदी ने हवाई टिकट पर एक नजर डाली.

‘‘अरे, अगले इतवार की ही हवाई उड़ान है,’’ मैं ने टिकट दीदी के हाथ से ले लिया.

दीदी पत्र पढ़ने लगीं. अचानक मुझे उन के चेहरे का रंग उड़ता सा नजर आया, ‘‘जीजाजी ठीक हैं न?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘हां, ठीक हैं,’’ दीदी ने बस यही कहा. उन का चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया था. वे मुझे वहीं छोड़ कर स्नानघर में चली गईं.

मैं जीजाजी का भेजा हवाई टिकट मां को दिखाने के लिए रसोई में चली गई. कुछ ही देर में भाभी भी आ गईं. रिकशा वाला बाहर घंटी बजा रहा था. हम लोग हवाई टिकट देख कर इतने उत्साहित हो गए कि दीदी की अनुपस्थिति का एहसास ही नहीं हुआ. दीदी जब स्नानघर से निकलीं तो सीधी रिकशा की ओर जाने लगीं. भाभी ने रोका तो बस यही कह दिया, ‘‘भाभीजी, मुझे देर हो रही है.’’

दीदी के चेहरे की बस एक ही झलक मैं देख पाई थी. उन्होंने चाहे भाभी के मन में कोई शक न पैदा किया हो, पर मुझे विश्वास हो गया कि दीदी स्नानघर में जरूर ही रोई होंगी. शायद वे इतनी जल्दी हम सब को छोड़ कर विदेश जाने से घबरा रही थीं. जीजाजी के साथ उन्होंने कितना कम समय बिताया था. वे दोनों एकदूसरे के लिए लगभग अजनबी ही तो थे दीदी का उसी दिन से मन खराब रहने लगा. 2-3 बार तो रोई भी थीं. मां और पिताजी उन्हें समझाने के अलावा और कर भी क्या सकते थे. इंगलैंड जाने से 2 दिन पहले वे अपनी ससुराल चली गईं.  दीदी को हवाई अड्डे पर विदा करने के लिए उन की ससुराल के लोगों के साथसाथ हम सब भी पहुंचे हुए थे. तब दीदी में काफी परिवर्तन सा नजर आ रहा था. विदा लेते समय दीदी की जेठानी ने उन से कहा, ‘‘अब तो हमें जल्दी से जल्दी खुशखबरी देना.’’

दीदी चली गईं. हम लोग भी वापस मोदीनगर आ गए. जीजाजी ने दीदी के लंदन पहुंचने का तार उन के वहां पहुंचते ही भेज दिया. तार पा कर घर में सब को बहुत राहत मिली. दीदी का पत्र भी आ गया. मां ने उन का पत्र न जाने कितनी बार पढ़ा होगा. दीदी के जाने के बाद कई सप्ताह तो घर कुछ सूनासूना लगा, परंतु बाद में सब सामान्य हो गया.

जीजाजी और दीदी के पत्र हमेशा नियमित रूप से आते रहते थे. दीदी ने मांपिताजी को तसल्ली दे रखी थी कि उन की बेटी वहां बहुत खुश है. उन को इंगलैंड गए 2 साल होने जा रहे थे. मां ने कभी दीदी को भारत आने के लिए नहीं लिखा था. सोचा था, उचित समय आने पर ही आग्रह करेंगी. मां की नजरों में उचित समय मेरी शादी का ही अवसर था, जिस के लिए मांपिताजी दौड़धूप कर रहे थे.

मां ने रसोई से आवाज दी, ‘‘सफेदी करने वाले आते ही होंगे…सामान जल्दी से निकाल कर कमरा खाली करो.’’

‘‘अच्छा मां,’’ मैं ने उत्तर दिया. पता नहीं उसी क्षण मुझे अपनी दीदी पर क्यों इतना स्नेह उमड़ आया. भावावेश में मेरी आंखें भीग गईं. फिर मुझे जीजाजी का ध्यान आया. उन्होंने अपने प्यार से दीदी के अधूरे जीवन में शायद कुछ पूर्णता सी ला दी है. यह तो हमें कभी शायद पता नहीं चल पाएगा कि दीदी वास्तव में खुश हैं या नहीं. परंतु उन के पत्रों से इस बात का जबरदस्त एहसास होता कि जीजाजी उन को बहुत प्यार करते हैं.

भाभी बंटी को विद्यालय छोड़ कर घर आ गई थीं. इस से पहले कि वे मुझे जीजाजी का पत्र पढ़ते हुए देख पातीं, मैं ने पत्र की कुछ खास पंक्तियों पर आखिरी नजर डाली. जीजाजी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि घर वालों की जिद के आगे झुक कर ही उन्होंने शादी की थी. उन की इस भूल के लिए वे स्वयं ही उत्तरदायी हैं. घर वालों में से किसी को भी नहीं मालूम था कि वे अपनी पत्नी को एक पति का सुख देने में असमर्थ हैं. वे अपनी इस शारीरिक असमर्थता को अपने परिवार वालों के सामने स्वीकार नहीं कर सके. इस के लिए वे अत्यंत दुखी हैं.

जीजाजी के पत्र के छोटेछोटे टुकड़े कर के मैं उसे घर के बाहर कूड़ेदान में फेंक आई थी.

घमंडी: जब पति ने पत्नी पर लगाया चरित्रहीन होने का आरोप

‘‘यह चांद का टुकड़ा कहां से ले आई बहू?’’ दादी ने पोते को पहली बार गोद में ले कर कहा था,  ‘‘जरा तो मेरे बुढ़ापे का खयाल किया होता. इस के जैसी सुंदर बहू कहां ढूंढ़ती फिरूंगी.’’

कालेज तक पहुंचतेपहुंचते दादी के ये शब्द मधुप को हजारों बार सुनने के कारण याद हो गए थे और वह अपने को रूपरंग में अद्वितीय समझने लगा था. पापा का यह कहना कि सुंदर और स्मार्ट लगने से कुछ नहीं होगा, तुम्हें पढ़ाई, खेलकूद में भी होशियारी दिखानी होगी, भी काम कर गया था और अब वह एक तरह से आलराउंडर ही बन चुका था और अपने पर मर मिटने को तैयार लड़कियों में उसे कोईर् अपने लायक ही नहीं लगती थी. इस का फायदा यह हुआ कि वह इश्कविश्क के चक्कर से बच कर पढ़ाई करता रहा. इस का परिणाम अच्छा रहा और आईआईटी और आईआईएम की डिगरियां और बढि़या नौकरी आसानी से उस की झोली में आ गिरी. लेकिन असली मुसीबत अब शुरू हुई थी. शादी पारिवारिक, सामाजिक और शारीरिक जरूरत बन गई थी, लेकिन न खुद को और न ही घर वालों को कोई लड़की पसंद आ रही थी. अचानक एक शादी में मामा ने दूर से कशिश दिखाई तो मधुप उसे अपलक देखता रह गया. तराशे हुए नैननक्श सुबह की लालिमा लिए उजला रंग और लंबा कद. बचपन से पढ़ी परी कथा की नायिका जैसी.

‘‘पसंद है तो रिश्ते की बात चलाऊं?’’ मां ने पूछा. मधुप कहना तो चाहता था कि चलवानेवलवाने का चक्कर छोड़ कर खुद ही जा कर रिश्ता मांग लोे, लेकिन हेकड़ी से बोला,  ‘‘शोकेस में सजाने के लिए तो ठीक है, लेकिन मुझे तो बीवी चाहिए अपने मुकाबले की पढ़ीलिखी कैरियर गर्ल?’’

‘‘कशिश क्वालीफाइड है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में सैक्रेटरी है. अब तुम उसे अपनी टक्कर के लगते हो या नहीं यह मैं नहीं कह सकता,’’ मामा ने मधुप की हेकड़ी से चिढ़ कर नहले पर दहला जड़ा.

खिसियाया मधुप इतना ही पूछ सका,  ‘‘आप यह सब कैसे जानते हैं?’’

‘‘अकसर मैं रविवार को इस के पापा के साथ गोल्फ खेल कर लंच लेता हूं. तभी परिवार के  बारे में बातचीत हो जाती है.’’

‘‘आप ने उन को मेरे बारे में बताया?’’

‘‘अभी तक तो नहीं, लेकिन वह यहीं है, चाहो तो मिलवा सकता हूं?’’

कहना तो चाहा कि पूछते क्यों हैं, जल्दी से मिलवाइए, पर हेकड़ी ने फिर सिर उठाया,  ‘‘ठीक है, मिल लेते हैं, लेकिन शादीब्याह की बात आप अभी नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं तो कभी नहीं करूंगा, परस्पर परिचय करवा कर तटस्थ हो जाऊंगा,’’ कह कर मामा ने उसे डाक्टर धरणीधर से मिलवा दिया. जैसा उस ने सोचा था, धरणीधर ने तुरंत अपनी बेटी कशिश और पत्नी कामिनी से मिलवाया और मधुप ने उन्हें अपने मम्मीपापा से. परिचय करवाने वाले मामा शादी की भीड़ में न जाने कहां खो गए. किसी ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश भी नहीं की. चलने से पहले डा. धरणीधर ने उन लोगों को अगले सप्ताहांत डिनर पर बुलाया जिसे मधुप के परिवार ने सर्हष मान लिया. मधुप की बेसब्री तो इतनी बढ़ चुकी थी कि 3 रोज के बाद आने वाला सप्ताहांत भी बहुत दूर लग रहा था और धरणीधर के घर जा कर तो वह बेचैनी और भी बढ़ गई. कशिश को खाना बनाने, घर सजाने यानी जिंदगी की हर शै को जीने का शौक था. ‘‘इस का कहना है कि आप अपनी नौकरी या व्यवसाय में तभी तरक्की कर सकते हो जब आप उस से कमाए पैसे का भरपूर आनंद लो. यह आप को अपना काम बेहतर करने की ललक और प्रेरणा देता है,’’ धरणीधर ने बताया,  ‘‘अब तो मैं भी इस का यह तर्क मानने लग गया हूं.’’

उस के बाद सब कुछ बहुत जल्दी हो गया यानी सगाई, शादी. मधुप को मानना पड़ा कि कशिश बगैर किसी पूर्वाग्रह के जीने की कला जानती यानी जीवन की विभिन्न विधाओं में तालमेल बैठाना. न  तो उसे अपने औफिस की समस्याओं को ले कर कोई तनाव होता और न ही किसी घरेलू नौकर के बगैर बताए छुट्टी लेने पर यानी घर और औफिस सुचारु रूप से चला रही थी. मधुप को भी कभी आज नहीं, आज बहुत थक गई हूं कह कर नहीं टाला था.

समय पंख लगा कर उड़ रहा था. शादी की तीसरी सालगिरह पर सास और मां ने दादीनानी बनाने की फरमाइश की. कशिश भी कैरियर में उस मुकाम पर पहुंच चुकी थी जहां पर कुछ समय के लिए विराम ले सकती थी. मधुप को भी कोई एतराज नहीं था. सो दोनों ने स्वेच्छा से परिवार नियोजन को तिलांजलि दे दी. लेकिन जब साल भर तक कुछ नहीं हुआ तो कशिश ने मैडिकल परीक्षण करवाया. उस की फैलोपियन ट्यूब में कुछ विकार था, जो इलाज से ठीक हो सकता था. डा. धरणीधर शहर की जानीमानी स्त्रीरोग विशेषज्ञा डा. विशाखा से अपनी देखरेख में कशिश का उपचार करवाने लगे. प्रत्येक टैस्ट अपने सामने 2 प्रयोगशालाओं में करवाते थे.

उस रात कशिश और मधुप रात का खाना खाने ही वाले थे कि अचानक डा. धरणीधर और कामिनी आ गए. डा. धरणीधर मधुप को बांहों में भर कर बोले,  ‘‘साल भर पूरा होने से पहले ही मुझे नाना बनाओ. आज की रिपोर्ट के मुताबिक कशिश अब एकदम स्वस्थ है सो गैट सैट रैडी ऐंड गो मधुप. मगर अभी तो हमारे साथ चलो, कहीं जश्न मनाते हैं.’’

‘‘आज तो घर पर ही सैलिब्रेट कर लेते हैं पापा,’’ कशिश ने शरमाते हुए कहा, ‘‘बाहर किसी जानपहचान वाले ने वजह पूछ ली तो क्या कहेंगे?’’

‘‘वही जो सच है. मैं तो खुद ही आगे बढ़ कर सब को बताना चाह रहा हूं. मगर तुम कहती हो तो घर पर ही सही,’’ धरणीधर ने मधुप को छेड़ा, ‘‘नाना बनने वाला हूं, उस के स्तर की खातिर करो होने वाले पापाजी.’’

डा. धरणीधर देर रात आने वाले मेहमानों के आगमन की तैयारी की बातें करते रहे. कामिनी ने याद दिलाया कि घर चलना चाहिए, सुबह सब को काम पर जाना है, वे नाना बनने वाले हैं इस खुशी में कल छुट्टी नहीं है.

‘‘पापा, आप के साथ ड्राइवर नहीं है. आप अपनी गाड़ी यहीं छोड़ दें. सुबह ड्राइवर से मंगवा लीजिएगा. अभी आप को हम लोग घर पहुंचा देते हैं,’’ मधुप ने कहा.

‘‘तुम लोग तो अब बेटाजी, तुरंत आने वाले मेहमान को लाने की तैयारी में जुट जाओ. हमारी फिक्र मत करो. गाड़ी क्या आज तो मैं हवाईजहाज भी चला सकता हूं,’’ धरणीधर जोश से बोले.

उसी जोश में तेज गाड़ी भगाते हुए उन्होंने सड़क के किनारे खड़े ट्रक को इतनी जोर से टक्कर मार दी कि गाड़ी में तुरंत आग लग गई, जिस के बुझने पर राख में सिर्फ अस्थिपंजर और लोहे के भाग मिले. शेष सब कुछ पल भर में ही भस्म हो गया. कशिश तो इस हादसे से जैसे विक्षप्त ही हो गई थी. अकेली संतान होने के कारण समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे खुद को संभाले और कैसे मम्मीपापा द्वारा छोड़ी गई अपार संपत्ति को. मधुप उस के अथाह दुख को समझ रहा था और यथासंभव उस की सहायता भी कर रहा था, लेकिन कशिश को शायद उस दुख के साथ जीने में ही मजा आ रहा था. औफिस तो जाती थी, लेकिन मधुप और घर की ओर से प्राय: उदासीन हो चली थी. मधुप का संयम टूटने लगा था. एक रोज कशिश ने बताया कि उस ने वकील से पापा की संपत्ति का समाजसेवा संस्था के लिए ट्रस्ट बनाने को कहा था मगर उन का कहना है कि फिलहाल कोठी को किराए पर चढ़ा दो और पैसे को फिक्स्ड डिपौजिट में डालती रहो. कुछ वर्षों के बाद जब पापा के नातीनातिन बड़े हो जाएं तो उन्हें फैसला करने देना कि वे उस संपत्ति का क्या करना चाहते हैं.

‘‘बिलकुल ठीक कहते हैं वकील साहब. मम्मीपापा जीवित रहते तो यही करते और तुम्हें भी वही करना चाहिए जो मम्मीपापा की अंतिम इच्छा थी,’’ मधुप ने कहा.

‘‘अंतिम इच्छा क्या थी?’’

‘‘अपने नातीनातिन को जल्दी से दुनिया में बुलवाने की. हमें उन की यह इच्छा जल्दी से जल्दी पूरी करनी चाहिए,’’ मधुप ने मौका लपका और कशिश को अपनी बांहों में भर लिया.

कशिश कसमसा कर उस की बांहों से निकल गई. फिर बोली,  ‘‘मम्मीपापा के घर से निकलते ही तुम रात भर उन की यह इच्छा तो पूरी करने में लगे रहे थे और इसलिए बारबार बजने पर भी फोन नहीं उठाया था…’’

‘‘फोन उठा कर भी क्या होता कशिश?’’ मधुप ने बात काटी, ‘‘फोन तो सब

कुछ खत्म होने के बाद ही आया था.’’

‘‘हां, सब कुछ ही तो खत्म हो गया,’’ कशिश ने आह भर कर कहा.

‘‘कुछ खत्म नहीं हुआ कशिश, हम हैं न मम्मीपापा के सपने जीवित रखने को,’’ कह कर मधुप ने उसे फिर बांहों में भर लिया.

‘‘प्लीज मधुप, अभी मैं शोक में हूं.’’

‘‘कब तक शोक में रहोगी? तुम्हारे इस तरह से शोक में रहने से मम्मीपापा लौट आएंगे?’’

कशिश ने मायूसी से सिर हिलाया. फिर बोली, ‘‘मगर मुझे सिवा उन की याद में रहने के और कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘मगर मुझे ब्रह्मचारी बन कर रहना अच्छा नहीं लग रहा. अपनी पुरानी जिंदगी के साथ ही मुझे अब बच्चा भी चाहिए, मधुप ने आजिजी से कहा.’’ ‘‘कहा न, मैं अभी उस मनोस्थिति में नहीं हूं.’’ ‘‘मनोस्थिति बनाना अपने हाथ में होता है कशिश. मैं अब बच्चे के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना चाहता. औलाद सही उम्र में होनी चाहिए ताकि अपनी सेवानिवृत्ति से पहले आप अपने बच्चों को जीवन में व्यवस्थित कर सकें,’’ मधुप ने समझाने के स्वर में कहा.

‘‘उफ, तो आप भी सोचने लगे हैं और वह भी बहुत दूर की,’’ कशिश व्यंग्य से बोली. मधुप तिलमिला गया. कशिश समझती क्या है अपने को? बजाय इस के कि उस के संयम और सहयोग की सराहना करे, कशिश उस का मजाक उड़ा रही है. बहुत हो गया, अब कशिश को उस की औकात बतानी ही पड़ेगी.

‘‘बेहतर रहेगा तुम भी ऐसा ही सोचने लगो,’’ मधुप ने भी उसी अंदाज में कहा.

‘‘अगर न सोचूं तो?’’ ‘‘तो मुझे मजबूरन तुम्हें तलाक दे कर औलाद के लिए दूसरी शादी करनी होगी. बहुत इंतजार कर लिया, अब मैं और मेरे मातापिता बच्चे के लिए और इंतजार नहीं कर सकते.’’

कशिश फिर व्यंग्य से हंस पड़ी, ‘‘यही वजह तलाक के लिए काफी नहीं होगी.’’ ‘‘जानता हूं और उंगली टेढ़ी करनी भी. तुम्हें चरित्रहीन साबित कर के आसानी से तलाक ले सकता हूं. फर्जी गवाह या फोटो तो 1 हजार मिलते हैं.’’ ‘‘तुम्हें तो उन की तलाश भी नहीं करनी पड़ेगी… मेरी तरक्की से जलेभुने बहुत लोग हैं, तुम जो चाहोगे उस से भी ज्यादा मुफ्त में कह देंगे,’’ कशिश के कहने के ढंग से मधुप भी हंस पड़ा.

तलाक की बात कशिश को बुरी तो बहुत लगी थी, लेकिन इस समय वह बात को बढ़ा कर एक और समस्या खड़ी नहीं करना चाहती थी सो उस ने बड़ी सफाईर् से बात बदल दी, ‘‘फोटो के जिक्र पर याद आया मधुप, आज के अखबार में तुम ने सुशील का फोटो देखा?’’

‘‘हां और उसे पेज थ्री पर आने के लिए बधाई भी दे दी,’’ मधुप हंसा, ‘‘कब से हाथपैर मार रहा था इस के लिए.’’ बात आईगई हो गई. 3-4 रोज के बाद कशिश अपनी अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही थी कि सैनेटरी नैपकिन के पैकेट पर नजर पड़ते ही वह चौंक पड़ी. 2 महीने से ज्यादा हो गए, उस ने उन का इस्तेमाल ही नहीं किया. इस की वजह अवसाद भी हो सकती है. मगर क्या पता खुशी दरवाजे पर दस्तक दे रही हो? उस ने तुरंत डा. विशाखा को फोन किया. कुछ काम निबटा कर वह डा. विशाखा के पास जाने को निकल ही रही थी कि कुरियर से जानेमाने वकील अर्देशीर द्वारा भिजवाया गया मधुप का तलाक का नोटिस मिला. कशिश का सिर घूम गया.

वह कुछ देर कुछ सोचती रही फिर मुसकरा कर बाहर आ गई. डा. विशाखा उस की जांच करने के बाद मोबाइल नंबर मिलाने लगीं, ‘‘बधाई हो मधुप, कशिश को 10 सप्ताह का गर्भ है. तुम तुरंत मेरे नर्सिंगहोम में पहुंचो, मैं तुम दोनों को एकसाथ कुछ सलाह दूंगी,’’ कह विशाखा कशिश की ओर मुड़ी, ‘‘अब तक सब ठीक रहा है, तो आगे भी ठीक रहेगा वाला रवैया नहीं चलेगा. तुम्हें अपना बहुत खयाल रखना होगा, जो तुम तो रखने से रहीं इसलिए मधुप को यह जिम्मेदारी सौपूंगी.’’

कशिश मुसकरा दी. उस मुसकराहट में छिपा विद्रूप और व्यंग्य डा. विशाखा ने नहीं देखा. मधुप से खुशी समेटे नहीं सिमट रही थी. बोला, ‘‘आप फिक्र मत करिए डा. विशाखा. मैं साए की तरह कशिश के साथ रहूंगा, लंबी छुट्टी ले लूंगा काम से.’’

‘‘मगर मैं तो जब तक जा सकती हूं, काम पर जाऊंगी,’’ कशिश ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘घर में बेकार बैठ कर बोर होने का असर मेरी सेहत पर पड़ेगा.’’

‘‘वह तो है, जरूर काम पर जाओ मगर निश्चित समय पर खाओपीओ और आराम करो,’’ कह कर विशाखा ने दोनों को क्या करना है क्या नहीं यह बताया.

‘‘हम दोनों लंच के लिए घर आया करेंगे, फिर आराम करने के बाद कुछ देर के बाद जरूरी हुआ तो औफिस जाएंगे, फिर रात के खाने के बाद नियमित टहलने. इस में तुम कोईर् फेरबदल नहीं कारोगी,’’ मधुप ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘करूंगी तो तुम मुझे तलाक दे दोगे?’’ कशिश के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘उस का तो अब सवाल ही नहीं उठता, तुम्हारे 7 या 70 खून भी माफ,’’ मधुप हंसा. मगर उस के स्वर में क्षमायाचना या पश्चात्ताप नहीं था. समझ तो गया कि कशिश को तलाक के कागज मिल गए हैं और यह कह कर कि अब उस का सवाल ही नहीं उठता, उस ने बात भी खत्म कर दी थी व कशिश को उस की गुस्ताखी और औकात की याद भी दिला दी थी. यों तो उसे वकील से भी संपर्क करना चाहिए था पर इस से अहं को ठेस लगती. कशिश से जवाब न मिलने पर जब वकील उस से अगले कदम के बारे में पूछेगा तो कह देगा कशिश ने भूल सुधार ली है.

मधुप को कशिश के औफिस जाने पर तो एतराज नहीं था, लेकिन जबतब मम्मीपापा के घर जा कर कशिश का उदास होना उसे पसंद नहीं था. घर की देखभाल के लिए जाना भी जरूरी था, नौकरों के भरोसे तो छोड़ा नहीं जा सकता था. मधुप ने कशिश को समझाया कि क्यों न पापा के क्लीनिक संभालने वाले विधुर डा. सुधीर से कोठी में ही रहने को कहें. सुन कर कशिश फड़क उठी जैसे किसी बहुत बड़ी समस्या का हल मिल गया हो. उस के बाद कशिश पूर्णतया सहज और तनावमुक्त हो गई.

‘‘आज मैं औफिस नहीं जाऊंगी, घर पर रह कर छोटेमोटे काम करूंगी जैसे कपड़ों की अलमारी में आने वाले महीनों में जो नहीं पहनने हैं उन्हें सहेज कर रखना और जो ढीले हो सकते हैं उन्हें अलग रखना वगैरह,’’ एक रोज कशिश ने बड़े सहज भाव से कहा, ‘‘फिक्र मत करो, थकाने वाला काम नहीं है और फिर घर पर ही हूं. थकान होगी तो आराम कर लूंगी.’’

मधुप आश्वस्त हो कर औफिस चला गया. जब वह लंच के लिए घर आया तो कशिश घर पर नहीं थी. नौकर ने बताया कि कुछ देर पहले गाड़ी में सामान से भरे हुए कुछ बैग और सूटकेस ले कर मैडम बाहर गई हैं.

‘‘यह नहीं बताया कि कब आएंगी या कहां गई हैं?’’

‘‘नहीं साहब.’’

जाहिर था कि सामान ले कर कशिश अपने पापा के घर ही गई होगी. मधुप ने फोन करने के बजाय वहां जाना बेहतर समझा. ड्राइव वे में कशिश की गाड़ी खड़ी थी. उस की गाड़ी को देखते ही बजाय दरवाजा खेलने के चौकीदार ने रुखाई से कहा, ‘‘बिटिया ने कहा है आप को अंदर नहीं आने दें.’’

तभी अंदर से डा. सुधीर आ गया. बोला, ‘‘कशिश से अब आप का संपर्क केवल अपने वकील द्वारा ही होगा सो आइंदा यहां मत आइएगा.’’

‘‘कैसे नहीं आऊंगा… कशिश मेरी बीवी है…’’

‘‘वही बीवी जिसे आप ने बदचलनी के आरोप में तलाक का नोटिस भिजवाया है?’’ सुधीर ने व्यंग्य से बात काटी, ‘‘आप अपने वकील से कशिश की प्रतिक्रिया की प्रति ले लीजिए.’’

मधुप का सिर भन्ना गया. बोला, ‘‘मुझे कशिश को नोटिस भेजने की वजह बतानी है.’’

‘‘जो भी बताना है वकील के द्वारा बताइए. कशिश से तो आप की मुलाकात अब कोर्ट में ही होगी,’’ कह कर सुधीर चला गया. ‘‘आप भी जाइए साहब, हमें हाथ उठाने को मजबूर मत करिए,’’ चौकीदार ने बेबसी से कहा. मधुप भिनभिनाता हुआ अर्देशीर के औफिस पहुंचा.

‘‘आप की पत्नी भी बगैर किसी शर्त के आप को तुरंत तलाक देने को तैयार है सो पहली सुनवाई में ही फैसला हो जाएगा. हम जितनी जल्दी हो सकेगा तारीख लेने की कोशिश करेंगे,’’ अर्देशीर ने उसे देखते ही कहा.

‘‘मगर मुझे तलाक नहीं चाहिए. मैं अपने आरोप और केस वापस लेना चाहता हूं. आप तुरंत इस आशय का नोटिस कशिश के वकील को भेज दीजिए,’’ मधुप ने उतावली से कहा. अर्देशीर ने आश्चर्य और फिर दया मिश्रित भाव से उस की ओर देखा.

‘‘ऐसे मामलों को वकीलों द्वारा नहीं आपसी बातचीत द्वारा सुलझाना बेहतर होता है.’’

‘‘चाहता तो मैं भी यही हूं,

लेकिन कशिश मुझ से मिलने को ही तैयार नहीं है. आप तुरंत उस के वकील को केस और आरोप वापस लेने का नोटिस भिजवा दें.’’

‘‘इस से मामला बहुत बिगड़ जाएगा. कशिश की वकील सोनाली उलटे आप पर अपने क्लाइंट को बिन वजह परेशान करने और मानसिक संत्रास देने का आरोप लगा देगी.’’

‘‘कशिश की वकील सोनाली?’’

‘‘जी हां, आप उन्हें जानते हैं?’’

‘‘हां. कशिश की बहुत अच्छी सहेली है.’’‘‘तो आप उन से मिल कर समझौता कर लीजिए. वैसे भी हमारे लिए तो अब इस केस में करने के लिए कुछ रहा ही नहीं है,’’ अर्देशीर ने रुखाई से कहा.

मधुप तुंरत सोनाली के घर गया. उस की आशा के विपरीत सोनाली उस से बहुत अच्छी तरह मिली. ‘‘मैं बताना चाहता हूं कि मैं ने वह नोटिस कशिश को महज झटका देने को भिजवाया था. उसे अपनी गलती का एहसास करवाने को. उस के गर्भवती होने की खबर मिलते ही मैं ने उस से कहा भी था कि अब तलाक का सवाल ही नहीं उठता, तो बात को रफादफा करने के बजाय कशिश ने मामला आगे क्यों बढ़ाया सोनाली?’’

‘‘क्योंकि तुम ने उस के स्वाभिमान को ललकारा था मधुप या यह कहो उस पर अपनी मर्दानगी थोपनी चाही थी. यदि उसी समय तुम नोटिस भिजवाने के लिए माफी मांग लेते तो हो सकता था कि कशिश मान जाती. लेकिन तुम ने तो अपने वकील को भी नोटिस खारिज करने

को नहीं कहा, क्योंकि इस से तुम्हारा अहं आहत होता था. मानती हूं सर्वसाधारण से हट कर हो तुम, लेकिन कशिश भी तुम से 19 नहीं है शायद 21 ही होगी. फिर वह क्यों बनवाए स्वयं को डोरमैट, क्यों लहूलुहान करवाए अपना सम्मान?’’ सोनाली बोली.

‘‘मेरे चरित्रहीनता वाले मिथ्या आरोप को मान कर क्या वह स्वयं ही खुद पर कीचड़ नहीं उछाल रही?’’

‘‘नहीं मधुप, कशिश का मानना है कि विवाह एक पवित्र रिश्ता है, जो 2 प्यार करने वालोेंके बीच होना चाहिए. बगैर प्यार के शादी या एकतरफा प्यार में पतिपत्नी की तरह रहना लिव इन रिलेशनशिप से भी ज्यादा अनैतिक है, क्योंकि लिव इन में प्यार को परखने का प्रयास तो होता है, लेकिन एकतरफा प्यार अभिसार नहीं व्याभिचार है सो अनैतिक कहलाएगा और अनैतिक रिश्ते में रहने वाली स्त्री चरित्रहीन…’’

‘‘मगर कशिश का एकतरफा प्यार कैसे हो गया? वह अच्छी तरह जानती है कि मैं उसे कितनी शिद्दत से प्यार करता हूं,’’ मधुप ने बात काटी. ‘‘कशिश का कहना है कि तुम सिर्फ खुद से और खुद की उपलब्धियों से प्यार करते हो. कशिश जैसी ‘ब्रेन विद ब्यूटी’ कहलाने वाली बीवी भी एक उपलब्धि ही तो थी तुम्हारे लिए… अगर तुम्हें उस से वाकई में प्यार होता तो तुम उस के लिए चरित्रहीन जैसा घिनौना शब्द इस्तेमाल ही नहीं करते.’’

‘‘वह तो मैं ने कशिश के उकसाने पर ही किया था. खैर, अब बोलो आगे क्या करना है या तुम क्या कर सकती हो?’’

‘‘बगैर तुम्हारे आरोप की धज्जियां उड़ाए या तुम्हारे वकील को कशिश के चरित्र पर कीचड़ उछालने का मौका दिए, आपसी समझौते से तलाक दिलवा सकती हूं.’’

‘‘मगर मैं तलाक नहीं चाहता सोनाली.’’ ‘‘कशिश चाहती है और मैं कशिश की वकील हूं,’’ सोनाली ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘वही करूंगी जो वह चाहती है.’’

‘‘तो तलाक करवा दो, मगर इस शर्त पर कि मुझे अपने बच्चे को देखने का हक होगा.’’

‘‘चरित्रहीन का आरोप लगाने के बाद तुम किस मुंह से यह शर्त रख सकते हो मधुप?’’ बच्चे के लिए यह तलाक हो जाने के बाद या तो तुम दूसरी शादी कर लेना या अपनी उपलब्धियों अथवा घमंड को पालते रहना बच्चे की तरह,’’ कह कर सोनाली व्यंग्य से हंस पड़ी.

‘‘सलाह के लिए शुक्रिया,’’ घमंडी मधुप इतना ही कह सका. पर उसे लग रहा था कि उस के पैरों में अभी जंजीरें पड़ी हैं. चांद का टुकड़ा तो वह था पर चांद का जिस पर न कोई जीवन है, न हवा, न पानी, बस उबड़खाबड़ गड्ढे हैं.

दीवारें बोल उठीं: घर के अंदर ऐसा क्या किया अमन ने

परेशान इंद्र एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगा रहे थे. गुस्से में बुदबुदाए जाने वाले शब्दों को शिल्पी लाख चाहने पर भी सुन नहीं पा रही थी. बस, चेहरे के भावों से अनुमान भर ही लगा पाई कि वे हालात को कोस रहे हैं. अमन की कारस्तानियों से दुखी इंद्र का जब परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं रहता था तो वह आसपास मौजूद किसी भी व्यक्ति में कोई न कोई कारण ढूंढ़ कर उसे ही कोसना शुरू कर देते. यह आज की बात नहीं थी. अमन का यों देर रात घर आना, घर आ कर लैपटाप पर व्यस्त रहना, अब रोज की दिनचर्या बन गई थी. कान से फोन चिपका कर यंत्रवत रोबोट की तरह उस के हाथ थाली से मुंह में रोटी के कौर पहुंचाते रहते. उस की दिनचर्या में मौजूद रिश्तों के सिर्फ नाम भर ही थे, उन के प्रति न कोई भाव था न भाषा थी.

औलाद से मांबाप को क्या चाहिए होता है, केवल प्यार, कुछ समय. लेकिन अमन को देख कर यों लगता कि समय रेत की मानिंद मुट्ठी से इतनी जल्दी फिसल गया कि मैं न तो अमन की तुतलाती बातों के रस का आनंद ले पाई और न ही उस के नन्हे कदम आंखों को रिझा पाए. उसे किशोर से युवा होते देखती रही. विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने वाले अमन के दिल पर मैं भी हाथ कहां रख पाई. वह जब भी स्कूल की या दोस्तों की कोई भी बात मुझे बताना चाहता तो मैं हमेशा रसोई में अपनी व्यस्तता का बहाना बना कर उसे उस के पापा के पास भेज देती और इंद्र उसे उस के दादा के पास. समय ही नहीं था हमारे पास उस की बातें, शिकायतें सुनने का.

आज अमन के पास समय नहीं है अपने अधेड़ होते मांबाप के पास बैठने का. आज हम दोनों अमन को दोषी मानते हैं. इंद्र तो उसे नई पीढ़ी की संज्ञा दे कर बिगड़ी हुई औलाद कहते हैं, लेकिन वास्तव में दोषी कौन है? हम दोनों, इंद्र या मैं या केवल अमन. लेकिन सप्ताह के 6 दिन तक रूखे रहने वाले अमन में शनिवार की रात से मैं प्रशंसनीय परिवर्तन देखती. तब भी वह अपना अधिकतर समय यारदोस्तों की टोली में ही बिताना पसंद करता. रविवार की सुबह घर से निकल कर 4-5 घंटे गायब रहना उस के लिए मामूली बात थी.

‘न ढंग से नाश्ता करता है, न रोटी खाता है.’ अपने में सोचतेसोचते मैं फुसफुसा रही थी और मेरे फुसफुसाए शब्दों की ध्वनि इतनी साफ थी कि तिलमिलाए इंद्र अपने अंदर की कड़वाहट उगलने से खुद को रोक नहीं पाए. जब आवेग नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो तबाही निश्चित होती है. बात जब भावोंविचारों में आवेग की हो और सद्व्यवहार के बंधन टूटने लगें तो क्रोध भी अपनी सीमाएं तोड़ने लगता है. मेरी बुदबुदाहट की तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इंद्र ने कहा, ‘‘हां हां, तुम हमेशा खाने की थाली सजा कर दरवाजे पर खड़ी रह कर आरती उतारो उस की. जबजब वह घर आए, चाहो तो नगाड़े पीट कर पड़ोसियों को भी सूचित करो कि हमारे यहां अतिविशिष्ट व्यक्ति पधारे हैं. कहो तो मैं भी डांस करूं, ऐसे…’’

कहतेकहते आवेश में आ कर इंद्र ने जब हाथपैर हिलाने शुरू किए तो मैं अचंभित सी उन्हें देखती रही. सच ही तो था, गुस्सा इनसान से सही बात कहने व संतुलित व्यवहार करने की ताकत खत्म कर देता है. मुझे इंद्र पर नहीं खामखा अपने पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों मैं ने अमन की बात शुरू की.

इंद्र का स्वभाव जल्दी उखड़ने वाला रहा है, लेकिन उन के गुस्से के चलते मैं भी चिड़चिड़ी होती गई. इंद्र हमेशा अमन के हर काम की चीरफाड़ करते रहते. शुरू में अपनी गलती मान कर इस काम में सुधार करने वाले अमन को भी लगने लगा कि उस के काम की, आलोचना सिर्फ आलोचना के लिए की जा रही है और इसे ज्यादा महत्त्व देना बेकार है.

यह सब सोचतेसोचते मैं ने अपने दिमाग को झटका. तभी विचार आया कि बस, बहुत हो गया. अब इन सब से मुझे खुद को ही नहीं, इंद्र को भी बाहर निकालना होगा. आज सुबह से माहौल में पैदा हो रही तल्खियां और तल्ख न हों, इसलिए मैं ने इंद्र को पनीर परोसते हुए कहा, ‘‘आप यों तो उस के कमरे में जा कर बारबार देखते हो कि वह ठीक से सोया है या नहीं, और वैसे छोटीछोटी बातों पर बच्चों की तरह तुनक जाते हो. आप के दोस्त राजेंद्र भी उस दिन समझा रहे थे कि गुस्सा आए तो बाहर निकल जाया करो.

‘‘बस, अब बहुत हो गया बच्चे के पीछे पुलिस की तरह लगे रहना. जीने दो उसे अपनी जिंदगी, ठोकर खा कर ही तो संभलना जानेगा’’ मैं ने समझाने की कोशिश की. ‘‘ऐसा है शिल्पी मैडम, जब तक जिंदा हूं, आंखों देखी मक्खी नहीं निगली जाती. घर है यह, सराय नहीं कि जब चाहे कोई अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक मुंह उठाए चला आए और देहरी पर खड़े दरबान की तरह हम उसे सैल्यूट मारें,’’ दोनों हाथों को जोर से जोड़ते हुए इंद्र जब बोले तो मुझे उन के उस अंदाज पर हंसी आ गई.

रविवार को फिर अमन 10 बजे का चाय पी कर निकला और 1 बजने को था, पर वह अभी तक नदारद था. बहुत मन करता है कि हम सब एकसाथ बैठें, लेकिन इस नीड़ में मैं ने हमेशा एक सदस्य की कमी पाई. कभी इंद्र की, कभी अमन की. इधर हम पतिपत्नी व उधर मेरे बूढ़े सासससुर की आंखों में एकदूसरे के साथ बैठ कर भरपूर समय बिताने की लालसा के सपने तैरते ही रह जाते. अपनी सास गिरिजा के साथ बैठी उदास मन से मैं दरवाजे की ओर टकटकी लगाए देख रही थी. आंखों में रहरह कर आंसू उमड़ आते, जिन्हें मैं बड़ी सफाई से पोंछती जा रही थी कि तभी मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, मन को भीगी लकड़ी की तरह मत बनाओ कि धीरेधीरे सुलगती रहो. अमन के नासमझ व्यवहार से जी हलका मत करो.’’

‘‘मांजी, अभी शादी होगी उस की. आने वाली बहू के साथ भी अमन का व्यवहार…’’ शिल्पी की बात को बीच में ही रोक कर समझाते हुए मांजी बोलीं, ‘‘आने वाले कल की चिंता में तुम बेकार ही नई समस्याओं को जन्म दे रही हो. कभी इनसान हालात के परिणाम कुछ सोचता है लेकिन उन का दूसरा ही रूप सामने आता है. नदी का जल अनवरत बहता रहता है लेकिन वह रास्ते में आने वाले पत्थरों के बारे में पहले से सोच कर बहना तो रोकता नहीं न. ठीक वैसे ही इनसान को चलना चाहिए. इसलिए पहले से परिणामों के बारे में सोच कर दिमाग का बोझ बेकार में मत बढ़ाओ.’’

‘‘पर मांजी, मैं अपने को सोचने से मुक्त नहीं कर पाती. कल अगर अपनी पत्नी को भी समय न दिया और इसी तरह से उखड़ाउखड़ा रहा तो ऐसे में कोई कैसे एडजस्ट करेगा? ‘‘मैं समझ नहीं पा रही, वह हम से इतना कट क्यों रहा है. क्या आफिस में, अपने फें्रड सर्कल में भी वह इतना ही कोरा होगा? मांजी, मैं उस के दोस्त निखिल से इस का कारण पूछ कर ही रहूंगी. शायद उसे कुछ पता हो. अभी तक मैं टालती आ रही थी लेकिन अब जानना चाहती हूं कि कुछ साल पहले तक जिस के हंसीठहाकों से घर गुलजार रहता था, अचानक उस के मुंह पर ताला कैसे लग गया?

‘‘इंद्र का व्यवहार अगर उसे कचोट रहा है बेटी, तो इंद्र तो शुरू से ही ऐसा रहा है. डांटता है तो प्यार भी करता है,’’ अब मां भी कुछ चिंतित दिखीं, ‘‘शिल्पी, अब जब तुम ने ध्यान दिलाया है तो मैं भी गौर कर रही हूं, नहीं तो मैं भी इसे पढ़ाई की टेंशन समझती थी…’’ बातों के सिलसिले पर डोरबेल ने कुछ देर के लिए रोक लगा दी.

लगभग 3 बजे अमन लौट कर आया था. ‘‘आप लोग मुझे यों घूर क्यों रहे हो?’’ अमन ने कमरे में घुसते हुए दादी और मां को अपनी ओर देखते हुए पा कर पूछा.

अमन के ऐसा पूछते ही मेरा संयम फिर टूट गया, ‘‘कहां चले गए थे आप? कुछ ठौरठिकाना होता है? बाकी दिन आप का आफिस, आज आप के दोस्त. कुछ घर वालों को बताना जरूरी समझते हैं आप या नहीं?’’ मैं जबजब गुस्से में होती तो अमन से बात करने में तुम से आप पर उतर आती. लेकिन बहुत ही संयत स्वर में मुझे दोनों कंधों से पकड़ कर गले लगा कर अमन बोला, ‘‘ओ मेरी प्यारी मां, आप तो गुस्से में पापा को भी मात कर रही हो. चलोचलो, गुस्सागुस्सी को वाशबेसिन में थूक आएं,’’ और हंसतेहंसते दादी की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘दादी, गया तो मैं सैलून था, बाल कटवाने. सोचा, आज अच्छे से हेड मसाज भी करवा लूं. पूरे हफ्ते काम करते हुए नसें ख्ंिचने लगती हैं. एक तो इस में देर हो गई और ज्यों ही सैलून से निकला तो लव मिल गया.

‘‘आज उस की वाइफ घर पर नहीं थी तो उस ने कहा कि अगर मैं उस के साथ चलूं तो वह मुझे बढि़या नाश्ता बना कर खिलाएगा. मां, तुम तो जानती हो कि कल से वही भागादौड़ी. हां, यह गलती हुई कि मुझे आप को फोन कर देना चाहिए था,’’ मां के गालों को बच्चे की तरह पुचकारते हुए वह नहाने के लिए घुसने ही वाला था कि पापा का रोबीला स्वर सुन कर रुक गया. ‘‘बरखुरदार, अच्छा बेवकूफ बना रहे हो. आधा दिन यों ही सही तो आधा दिन किसी और तरह से, हो गया खत्म पूरा दिन. संडे शायद तुम्हें किसी सजा से कम नहीं लगता होगा. आज तुम मुंह खोल कर सौरी बोल रहे हो, बाकी दिन तो इस औपचारिकता की भी जरूरत नहीं समझते.’’

अमन के चेहरे पर कई रंग आए, कई गए. नए झगड़े की कल्पना से ही मैं भयभीत हो गई. दूसरे कमरे से निकल आए दादा भी अब एक नए विस्फोट को झेलने की कमर कस चुके थे. दादी तो घबराहट से पहले ही रोने जैसी हो गईं. इतनी सी ही देर में हर किसी ने परिणाम की आशा अपनेअपने ढंग से कर ली थी.

लेकिन अमन तो आज जैसे शांति प्रयासों को बहाल करने की ठान चुका लगता था. बिना बौखलाए पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें बिठाते हुए बोला, ‘‘पापा, जैसे आप लोग मुझ से, मेरे व्यवहार से शिकायत रखते हो, वैसा ही खयाल मेरा भी आप के बारे में है. ‘‘मैं बदला तो केवल आप के कारण. मुझे रिजर्व किया तो आप ने. मोबाइल चेपू हूं, लैपटाप पर लगा रहता हूं वगैरावगैरा कई बातें. पर पापा, मैं ऐसा क्यों होता गया, उस पर आप ने सोचना ही जरूरी नहीं समझा. फें्रड सर्कल में हमेशा खुश रहने वाला अमन घर आते ही मौन धारण कर लेता है, क्यों? कभी सोचा?

‘‘आफिस से घर आने पर आप हमेशा गंभीरता का लबादा ओढ़े हुए आते. मां ने आप से कुछ पूछा और आप फोन पर बात कर रहे हों तो अपनी तीखी भावभंगिमा से आप पूछने वाले को दर्शा देते कि बीच में टोकने की जुर्रत न की जाए. पर आप की बातचीत का सिलसिला बिना कमर्शियल बे्रक की फिल्म की भांति चलता रहता. दूसरों से लंबी बात करने में भी आप को कोई प्रौब्लम नहीं होती थी लेकिन हम सब से नपेतुले शब्दों में ही बातें करते. ‘‘आप की कठोरता के कारण मां अपने में सिमटती गईं. जब भी मैं उन से कुछ पूछता तो पहले तो लताड़ती ही थीं लेकिन बाद में वह अपनी मजबूरी बता कर जब माफी मांगतीं तो मैं अपने को कोसता था.

‘‘इस बात में कोई शक नहीं कि आप घर की जरूरतें एक अच्छे पति, पिता और बेटे के रूप में पूरी करते आए हैं. बस, हम सब को शिकायत थी और है आप के रूखे व्यवहार से. मेरे मन में यह सोच बर्फ की तरह जमती गई कि ऐसा रोबीला व्यक्तित्व बनाने से औरों पर रोब पड़ता है. कम बोलने से बाकी लोग भी डरते हैं और मैं भी धीरेधीरे अपने में सिमटता चला गया. ‘‘मैं ने भी दोहरे व्यक्तित्व का बोझ अपने ऊपर लादना शुरू किया. घर में कुछ, बाहर और कुछ. लेकिन इस नाटक में मन में बची भावुकता मां की ओर खींचती थी. मां पर तरस आता था कि इन का क्या दोष है. दादी से मैं आज भी लुकाछिपी खेलना चाहता हूं,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो कर दादी से लिपट गया.

‘‘अच्छा, मैं ऐसा इनसान हूं. तुम सब मेरे बारे में ऐसी सोच रखते थे और मेरी ही वजह से तुम घर से कटने लगे,’’ रोंआसे स्वर में इंद्र बोले. ‘‘नहीं बेटा, तुम्हारे पिता के ऐसे व्यवहार के लिए मैं ही सब से ज्यादा दोषी हूं,’’ अमन को यह कह कर इंद्र की ओर मुखातिब होते हुए दादा बोले, ‘‘मैं ने अपने विचार तुम पर थोपे. घर में हिटलरशाही के कारण तुम से मैं अपेक्षा करने लगा कि तुम मेरे अनुसार उठो, बैठो, चलो. तुम्हारे हर काम की लगाम मैं अपने हाथ में रखने लगा था.

‘‘छोटे रहते तुम मेरा हुक्म बजाते रहे. मेरा अहं भी संतुष्ट था. यारदोस्तों में गर्व से मूंछों पर ताव दे कर अपने आज्ञाकारी बेटे के गुणों का बखान करता. पर जैसेजैसे तुम बड़े होते गए, तुम भी मेरे प्रति दबे हुए आक्रोश को व्यक्त करने लगे. ‘‘तुम्हारी समस्या सुनने के बजाय, तुम्हारे मन को टटोलने की जगह मैं तुम्हें नकारा साबित कर के तुम से नाराज रहने लगा. धीरेधीरे तुम विद्रोही होते गए. बातबात पर तुम्हारी तुनकमिजाजी से मैं तुम पर और सख्ती करने लगा. धीरेधीरे वह समय भी आया कि जिस कमरे में मैं बैठता, तुम उधर से उठ कर चल पड़ते. मेरा हठीला मन तुम्हारे इस आचरण को, तुम्हारे इस व्यवहार को अपने प्रति आदर समझता रहा कि तुम बड़ों के सामने सम्मानवश बैठना नहीं चाहते.

‘‘लेकिन आज मैं समझ रहा हूं कि स्कूल में विद्यार्थियों से डंडे के जोर पर नियम मनवाने वाला प्रिंसिपल घर में बेटे के साथ पिता की भूमिका सही नहीं निभा पाया. ‘‘पर जितना दोषी आज मैं हूं उतना ही दोष तुम्हारी मां का भी रहा. क्यों? इसलिए कि वह आज्ञाकारिणी बीवी बनने के साथसाथ एक आज्ञाकारिणी मां भी बन गई? एक तरफ पति की गलतसही सब बातें मानती थी तो दूसरी तरफ बेटे की हर बात को सिरमाथे पर लेती थी.’’

‘‘हां, आप सही कह रहे हैं. कम से कम मुझे तो बेटे के लिए गांधारी नहीं बनना चाहिए था. जैसे आज शिल्पी अमन के व्यवहार के कारण भविष्य में पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में सोच कर चिंतित है, उस समय मेरे दिमाग में दूरदूर तक यह बात ही नहीं थी कि इंद्र का व्यवहार भविष्य में कितना घातक हो सकता है. हम सब यही सोचते थे कि इस की पत्नी ही इसे संभालेगी लेकिन शिल्पी को गाड़ी के पहियों में संतुलन खुद ही बिठाना पड़ा,’’ प्रशंसाभरी नजरों से दादी शिल्पी को देख कर बोलीं. ‘‘हां अमन, शिल्पी ने इंद्र के साथ तालमेल बिठाने में जो कुछ किया उस की तो तेरी दादी तारीफ करती हैं. यह भी सच है कि इस दौरान शिल्पी कई बार टूटी भी, रोई भी, घर भी छोड़ना चाहा, इंद्र से एक बारगी तो तलाक लेने के लिए भी अड़ गई थी लेकिन तुम्हारी दादी ने उस के बिखरे व्यक्तित्व को जब से समेटा तब से वह हर समस्या में सोने की तरह तप कर निखरती गई,’’ ससुरजी ने एक छिपा हुआ इतिहास खोल कर रख दिया.

‘‘यानी पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस झूठे अहम की दीवारों को अब गिराना एक जरूरत बन गई है. जीवन में केवल प्यार का ही स्थान सब से ऊपर होना चाहिए. इसे जीवित रखने के लिए दिलों में एकदूसरे के लिए केवल सम्मान होना चाहिए, हठ नहीं,’’ अमन बोला. ‘‘अच्छा, अगर तुम इतनी ही अच्छी सोच रखते थे तो तुम हठीले क्यों बने,’’ पापा की ओर से दगे इस प्रश्न का जवाब देते हुए अमन हौले से मुसकराया, ‘‘तब क्या मैं आप को बदल पाता? और दादा क्या आप यह मानते कि आप ने अपने बेटे के लिए कुशल पिता की नहीं, पिं्रसिपल की ही भूमिका निभाई? यानी दादा से पापा फिर मैं, इस खानदानी गुंडागर्दी का अंत ही नहीं होता,’’ बोलतेबोलते अमन के साथ सभी हंस पड़े.

मेरी खुशी का तो ओरछोर ही न था, क्योंकि आज मेरा मकान वास्तव में एक घर बन गया था.

तोहफा: पति के जाने के बाद शैली ने क्यों बढ़ाई सुमित से नजदीकियां

शैली एकटक बादलों की तरफ देख रही थी और सोच रही थी कि बहती हवाओं के साथ बदलती आकृतियों में ढलते रुई के फाहों से ये बादल के टुकड़े मन को कितना सुकून देते हैं. लगता है जैसे अपना ही वजूद वक्त के झोंकों के साथ कभी सिमट रहा है, तो कभी नए आयामों को छूने का प्रयास कर रहा है. एक अजीब सा स्पंदन था उस के मन के हर कोने में. लोग कहते हैं, प्रेम की उम्र तो बस युवावस्था में ही होती है. मगर शैली उस की अल्हड़ता को इस उम्र में भी उतनी ही प्रगाढ़ता से महसूस कर रही थी. उस का मन तो चाह रहा था कि वह भी हवा के झोंकों के साथ उड़ जाए. वहां जहां किसी की भी नजर न पड़े उस पर. बस वह हो और उस के एहसास.

वह बचपन से आज तक अपनी जिंदगी अपने ही तरीकों से जीती आई है. कभी जिंदगी की गति को चंद पड़ावों में  नहीं बांटा वरन नदी के प्रवाह की तरह बह जाने दिया. उस दिन सुमित ने उसे छेड़ा था, ‘‘तुम दूसरों जैसी बिलकुल भी नहीं, काफी अलग तरह से सोचती हो और अपनी जिंदगी के प्रति तुम्हारा रवैया भी बहुत अलग है…’’

‘‘हां सच कहा. वैसे होता तो यही है कि लोगों की जिंदगी की शुरुआत में ही तय कर दिया जाता है कि इस उम्र में पढ़ाई पूरी करनी है, उस उम्र में शादी, बच्चे और फिर उम्र भर के लिए उसी रिश्ते में बंधे रहना. भले ही खुशी से ज्यादा गम ही क्यों न मिले. मैं घिसेपिटे फौर्मूले से अलग जीना चाहती हूं, इसलिए स्वयं को एक मकसद के हवाले कर दिया. मकसद के बगैर इंसान कितना अधूरा होता है न.’’ ‘‘पर मुझे तो लगता है कि जो इंसान अधूरा होता है, वही जीने के लिए मकसद तलाशता है.’’

सुमित ने उस की कही बात की खिल्ली उड़ाने जैसी बात कही थी पर वह सुमित के इस कथन से स्वयं को विचलित होता दिखाना नहीं चाहती थी. उस ने स्वयं को समझाया कि बिलकुल विपरीत सोच है सुमित की, तो इस में बुराई क्या है? नदी के 2 किनारों की तरह हम भी नहीं मिल सकते पर साथ तो चल सकते हैं. उस ने सुमित से बस इतना कहा था,   ‘‘क्या इंसान को पूर्ण होने के लिए दूसरे की मदद लेनी जरूरी है? क्या प्रकृति ने इंसान को पूर्ण बना कर नहीं भेजा है? लोग यह क्यों समझते हैं कि जीवनसाथी के बगैर व्यक्ति अधूरा है.’’

‘‘मैं ने यह तो नहीं कहा,’’ सुमित ने प्रतिरोध किया.

‘‘मगर तुम्हारे कहने का अर्थ तो यही था.’’

‘‘नहीं ऐसा नहीं है. तुम ने मेरी बात को उसी रूप में घुमा लिया जैसा तुम दूसरों को बोलते सुनती हो.’’

फिर थोड़ी देर शैली खामोश रही तो सुमित ने उसे छेड़ते हुए पूछा, ‘‘एक बात बताओ शैली, तुम्हें इतना बोलना क्यों पसंद है? कभी खामोश रह कर भी देखो. उन लमहों को महसूस करो जिन्हें वैसे कभी महसूस नहीं कर सकतीं. बहुत सी बातें और यादें एकएक कर तुम्हारे जेहन में खिले फलों सी महकने लगेंगी.’’ ‘‘जरूरी नहीं कि वह फूलों की महक ही हो, कांटों की चुभन भी हो सकती है. तो कोई क्यों आने दे उन एहसासों को मन के गलियारों में फिर से?’’

‘‘तुम ने कभी अपने बारे में कुछ नहीं बताया, पर लगता है कि तुम जिस से बेहद प्यार करती थीं उसी ने गम दिया है तुम्हें.’’

‘‘कोई बात मैं कहती हूं, तो जरूरी तो नहीं कि उस का सरोकार मुझ से हो ही.’’

‘‘कुछ भी कह लो, पर तुम्हारी जबान कभी तुम्हारी आंखों का साथ नहीं देती.’’

‘‘साथ तो कोई किसी का नहीं देता. साथ की आस करना ही बेमानी है. जो अपना होता है, परछाईं की तरह खुद ही साथ चला आता है. पर किसी से अपेक्षाएं रखो तो गमों के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता.’’

‘‘तुम्हारी बातें मुझे समझ में नहीं आतीं, पर बहुत अच्छी लगती हैं. लगता है जैसे शब्दों के साथ खेल रही हो. काश तुम्हारा यह अंदाज मेरे पास भी होता.’’

‘‘वैसे शब्दों से खेलते तो तुम भी हो. अंतर सिर्फ इतना है कि दोनों का अंदाज अलगअलग है,’’ यह कहते हुए. एक राज भरी मुसकान आई  थी शैली के होंठों पर. उसे न जाने क्यों आजकल सुमित से मिलना, बातें करना अच्छा लगने लगा था.  सब से पहले सुमित की पेंटिंग्स देख कर उस की और आकर्षित हुई थी वह. पर अब उस की बातें भी अच्छी लगने लगी थीं.

किसी को पसंद करना ऐसा एहसास है, जिसे लाख छिपाना चाहो तो भी दूसरों को खबर लग ही जाती है. कल की ही तो बात है. वह बरामदे में बैठी सुमित की बातें सोच रही थी कि बेटी नेहा का स्वर गूंजा,  ‘‘ममा अकेली बैठ कर मुसकरा क्यों रही हो?’’ वह कोई जवाब नहीं दे सकी. तुरंत खड़ी हो गई जैसे चोरी पकड़ी गई हो.फिर खुद को संभाल कर, प्यार से बेटी के कंधों पर हाथ रखते हुए बोली,  ‘‘कुछ नहीं, सोच रही हूं कि आज खाने में क्या बनाऊं,’’ और किचन की तरफ चल दी. कितना अंतर था सुमित और उस के पति संकल्प में. कढ़ी बनाते समय सहसा ही पुराने जख्म हरे हो गए थे. उस के जेहन में संकल्प के कहे गए शब्द गूंजने लगे थे.

‘‘शैली तुम खाना अच्छा बनाती हो. पर जो भी हो तुम्हारी बनाई कढ़ी में वह स्वाद नहीं जो अम्मां की बनाई कढ़ी में आता है.’’

अपने पति का यह रिमार्क उसे अंदर तक बेध गया क्योंकि सामने बैठी सास ने बड़े ही व्यंग्य से मुसकुरा कर उसे देखा था. यह एक दिन की बात नहीं थी. रोज ही ऐसा होता था. संकल्प मां के गुण गाता, मां मुसकरातीं और यह मुसकराहट जले पर नमक का काम करती. शैली बातबात पर संकल्प से झगड़ कर अपना गुस्सा उतारती, तो संकल्प भी उसे जी भर कर जलीकटी सुनाता. उस के पिता ने कितने अरमानों से संकल्प के साथ उस की शादी की थी. उस ने भी ख्वाहिशें लिए हुए ही ससुराल में कदम रखा था. पर छोटीछोटी बातों ने कब रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं, उसे पता ही नहीं चला. कभी सास के साथ बदतमीजी की बात, कभी दोस्तों, रिश्तेदारों की सही आवभगत न करने की शिकायत. कभी बात न मानने का गिला और कभी अपनी मरजी चलाने का हवाला दे कर किसी न किसी तरह संकल्प उस पर बरसते ही रहते थे और कभी अन्याय न सहने वाली शैली हर दफा बंद कमरे में चीखचीख कर रोती और अपना गुस्सा उतारती.

इस तरह अपने गुस्से की आग को पानी बनाने के प्रयास में कब उस का प्यार भी पानी बनता चला गया इस बात का उसे एहसास  भी नहीं हुआ. अब संकल्प के करीब आने पर उसे मिलन की उत्कंठा नहीं  होती थी. कोई एहसास नहीं जागता था. उन दोनों के बीच वक्त के साथ दूरियां बढ़ती ही गईं और एक दिन उस ने अलग रहने का फैसला कर लिया, जब छोटी सी बात पर संकल्प ने उस पर हाथ उठा दिया. दरअसल, उस की सास सदा ही शैली के खिलाफ संकल्प को भड़काती रहतीं और उलटीसीधी बातें कहतीं. लगातार किसी के खिलाफ बातें कही जाएं तो स्वाभाविक है, कोई भी शख्स उसे सच मान लेगा. संकल्प के साथ भी ऐसा ही हुआ. आवेश के किन्हीं क्षणों में शैली के मुंह से सास के लिए कुछ ऐसा निकल गया जिस की शिकायत सास ने बढ़ाचढ़ा कर बेटे से कर दी. बिना कुछ पूछे संकल्प ने मां के आगे ही शैली को तमाचा रसीद कर दिया और मां व्यंग्य से मुसकरा पड़ीं.

संकल्प का यह व्यवहार शैली के दिल में कांटे की तरह चुभ गया. उस ने उसी समय घर छोड़ने का फैसला कर  लिया और अपना सामान पैक करने लगी. उसे किसी ने नहीं रोका. वह बेटी  को ले कर निकलने ही वाली थी कि सास ने उस की बेटी नेहा का हाथ थाम लिया. उन का हाथ झटक कर नेहा को लिए वह बाहर निकल आई.पीछे से सास की आवाज कानों में गूंजी,  ‘‘इस तरह घर छोड़ कर जा रही हो तो याद रखना, लौट कर आने की जरूरत नहीं है.’’

शैली ने मुड़ कर जवाब दिया था,  ‘‘अब जिंदगी में कभी आप की सूरत नहीं देखूंगी.’’ और फिर सचमुच परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उन की सूरत दोबारा देखने का मौका शैली को नहीं मिला. 2 साल पहले ही टायफाइड बुखार में उन की जान चली गई. छोटी ननद बिट्टन ने अब तक सब संभाला था मगर पिछले साल संकल्प ने उस की शादी कर दी. शैली को आमंत्रित किया था वह गई नहीं. बस फोन पर ही बातें कर के शुभकामनाएं दे दी थीं. अब संकल्प बिलकुल अकेले रह गए थे. शैली को लगता था कि वे उस से तलाक ले कर दूसरी शादी करेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. यह बात अलग है कि संकल्प ने कभी उसे वापस चलने को भी नहीं कहा. हां वे नेहा से मिलने अकसर आ जाया करते थे.

शैली ने स्वयं को एक संस्था से जोड़ लिया तो उसे जीने की वजह मिल गई और वहीं पर मिला सुमित, जिस से मिल कर शैली को ऐसा लगा था जैसे जिंदगी ने उसे दोबारा मौका दिया है. अब तक वह 40वां वसंत पार कर चुकी थी और बेटी भी 14वें साल में प्रवेश कर चुकी थी. धीरेधीरे वह सुमित के करीब होती जा रही थी. शुरुआत में उस ने चाहा था कि वह स्वयं को रोक ले पर ऐसा कर न सकी और सुमित के मोहपाश में बंधती चली गई. अब सुमित कभीकभी शैली के घर भी आने लगा था. वह उस की बेटी नेहा के लिए हमेशा कुछ न कुछ गिफ्ट ले कर आता. कभी नई ड्रैस, तो कभी कुछ और. शैली को खुशी होती कि वह बेटी को भी अपनाने को तैयार है. मगर एक दिन बेटी से बात करने के बाद वह अपने ही फैसले पर पुन: सोचने को मजबूर हो गई.

उस दिन वह जल्दी आ गई थी. बेटी के साथ इधरउधर की बातें कर रही थी. तभी वह बोली, ‘‘ममा, एक बात कहूं?’’

‘‘हां बेटा, बोलो न.’’

‘‘ममा, आप को सुमित अंकल बहुत अच्छे लगते हैं न?’’ थोड़ा सकुचा गई थी वह. फिर बोली, ‘‘हां बेटा, पर वे तो तुम्हें भी अच्छे लगते हैं न?’’

‘‘ममा, मैं मानती हूं कि वे अच्छे हैं और हमारा खयाल भी रखते हैं, पर…’’

‘‘पर क्या नेहा?’’

‘‘पर ममा पता नहीं क्यों उन का स्पर्श वैसा नहीं लगता जैसा पापा का है. पापा करीब आते हैं तो लगता है जैसे मैं सुरक्षा के घेरे में हूं. मगर अंकल बहुत अजीब तरह से देखते हैं. बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता मुझे.’’ दिल की बात कह दी थी नेहा ने. शैली हतप्रभ सी रह गई.

‘‘और ममा, एक बात बताऊं.’’

‘‘हांहां नेहा बोलो.’’

‘‘याद है ममा, पिछले संडे स्कूल में देर ज्यादा हो गई थी, तो आप ने सुमित अंकल को भेजा था, मुझे लाने को.’’

‘‘हां बेटा, तो क्या हुआ?’’

‘‘ममा…,’’ अचानक नेहा की आंखें भर आईं, ‘‘ममा, वे मुझे कुछ अजीब तरह से छूने लगे थे. तभी मुझे रास्ते में  काजल दिख गई और मैं ने फौरन गाड़ी रुकवा कर काजल को बैठा लिया वरना जाने क्या…’’ शब्द उस के गले में ही अटक गए थे. एक अजीब सी हदस शैली के अंतर तक उतरती चली गई.

‘‘तूने पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘मैं क्या कहती ममा, मुझे लगा आप नाराज होंगी.’’

‘‘नहींनहीं बेटा, तुझ से महत्त्वपूर्ण मेरे लिए कुछ भी नहीं,’’ और फिर अपने आगोश में भर लिया था उस ने नेहा को. फिर उस ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब सुमित को घर कभी नहीं बुलाएगी. बाहर भी ज्यादा मिलने नहीं जाएगी. भले ही अपनी जिंदगी का फैसला करने का उसे पूरा हक है मगर अपनी बेटी की भावनाओं को भी नजरअंदाज नहीं कर सकती, क्योंकि बेटी की जिंदगी भी तो  उस से जुड़ी हुई है और फिर बेटी की सुरक्षा यों भी बहुत माने रखती है उस के लिए. अगले दिन से ही शैली ने सुमित के साथ एक दूरी बना ली. औफिस में सब का ध्यान इस बात पर गया. उस के बगल में बैठने वाली मीरा ने उस से सीधा सवाल ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ शैली? आजकल सुमित को भाव नहीं दे रहीं?’’

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं. बस मुझे अपनी मर्यादा का खयाल रखना होगा न, एक बेटी की मां हूं मैं.’’

‘‘बहुत सही फैसला किया है, तुम ने शैली,’’ मीरा ने कहा, ‘‘मुझे खुशी है कि तुम उस का अगला शिकार होने से बच गईं.’’

‘‘अगला शिकार…?’’ वह चौंक गई.

‘‘भोलीभाली, अकेली महिलाओं से दोस्ती कर उन की बहूबेटियों पर हाथ साफ करना खूब आता है उसे.’’

‘‘क्या…?’’

एकबारगी हिल गई थी वह यानी नेहा का शक सही था. वाकई सुमित की नीयत साफ नहीं. अच्छा हुआ जो उस की आंखें खुल गईं. दिल ही दिल में राहत की सांस ली थी उस ने. जीवन के इस मोड़ पर मन में उठे झंझावातों से राहत पाने के लिए उस ने 3 दिनों की छुट्टी ले ली और पूरा समय अपनी बेटी के साथ बिताने का फैसला किया. दिन भर शौपिंग, मस्ती और नईनई जगह घूमने जाना, यही उन की दिनचर्या बन गई थी. और फिर एक दिन शाम को कनाट प्लेस में शौपिंग के बाद शैली बेटी को ले कर एक रैस्टारैंट की तरफ मुड़ गई. यह वही रैस्टोरैंट था जहां वह अकसर सुमित के साथ आती थी. अंदर आते ही एक टेबल पर उस की नजर पड़ी, तो वह भौचक्की रह गई. सुमित एक 15-16 साल की लड़की के साथ वहां बैठा था. किसी तरह का रिएक्शन न देते हुए वह दूर एक कोने की टेबल पर बैठ गई. यहां से वह सुमित पर नजर रख सकती थी. थोड़ी देर में ही शैली ने सुमित के हावभाव से महसूस कर लिया कि वह लड़की सुमित का नया शिकार है. शैली चुपचाप बेटी के साथ रैस्टोरैंट से निकल आई और तय कर लिया कि सुमित से दूरी बनाने के अपने फैसले पर पुरी दृढ़ता से कायम रहेगी.

एक अधूरे और घिनौने प्यार का एहसास उसे अंदर तक व्याकुल कर रहा था. जिन लमहों में उस ने सुमित के लिए कुछ महसूस किया था, वे लमहे अब शूल की तरह उसे चुभने लगे थे. कई दिनों तक उदास सी रही वह. जब भी जिंदगी में उस ने प्यार की चाहत की, तो उसे उपेक्षा और धोखा ही मिला. शायद उस की जिंदगी में प्यार लिखा ही नहीं है. उसे उम्र भर अकेले ही रहना है. इस विचार के साथ रहरह कर तड़प उठती थी वह. एक दिन उस की बेटी ने माथा सहलाते हुए उस से कहा था, ‘‘ममा, आजकल आप उदास क्यों रहती हो?’’

शैली ने कुछ नहीं कहा. बस म़ुसकरा कर रह गई.

‘‘ममा, आप वापस पापा के पास क्यों नहीं चलतीं. पापा अच्छे हैं ममा.’’ शैली का चेहरा पीला पड़ गया. संकल्प से अलग होने के बाद पहली दफा नेहा ने वापस चलने की बात कही थी. कोई तो बात होगी जो इस मासूम को परेशान किए हुए है. कहां तो वह बीती जिंदगी याद भी नहीं करना चाहती थी और कहां उस की बेटी उसे वापस उसी दुनिया में चलने को कह रही थी.

शैली ने प्यार से बेटी का माथा सहलाया, ‘‘बेटा , आप वापस पापा के पास जाना क्यों चाहती हो? आप को याद नहीं, पापा आप की ममा के साथ कितना झगड़ा किया करते थे.’’

‘‘पर ममा, पापा आप से प्यार भी तो करते थे,’’ उस ने कहा और चुपचाप शैली की तरफ देखने लगी. शैली ने उस की आंखें बंद करते हुए कहा, ‘‘अब सो जा नेहा. कल स्कूल भी जाना है न तुझे.’’ सच तो यह था कि शैली उस की नजरों का सामना ही नहीं कर पा रही थी. उस की बातों के भंवर में डूबने लगी थी. कई सवाल उस के जेहन में कौंधने लगे थे. वह सोच रही थी कि संकल्प मुझ से प्यार करते थे तो मुझे अलग होने से रोका क्यों नहीं? कभी मुझे कहा क्यों नहीं कि वे मुझ से प्यार करते हैं. मेरे बगैर रह नहीं सकते. मैं तो जैसे अनपेक्षित थी उन की जिंदगी में, तभी तो कभी मनाने की कोशिश नहीं की, सौरी भी नहीं कहा. एक दिन पड़ोस की एक महिला से नेहा की झड़प हो गई. वैसे आंटीआंटी कह कर नेहा उस के साथ काफी बातें करती थी और क्लोज भी थी मगर जब उस ने उस की मां को उलटीसीधी बातें कहीं तो वह बिलकुल आपा खो बैठी और उस महिला को बढ़चढ़ कर बातें सुनाने लगी.

उस वक्त  तो शैली ने उसे चुप करा दिया, मगर बाद में जब शैली ने इस बारे में नेहा से बात करनी चाही कि जो भी हुआ, सही नहीं था, तो बड़े ही रोंआसे स्वर में वह बोली, ‘‘ममा, वह आप को बात सुना रही थीं और यह बात मुझे सहन नहीं हुई. मुझे खुद समझ नहीं आ रहा कि मैं उन के प्रति इतनी रूखी कैसे हो गई.’’ शैली खामोश हो गई थी. नेहा की बात उस के दिल को छू गई.

‘‘एक बात कहूं ममा,’’ अचानक नेहा ने मां के गले में प्यार से अपना हाथ डालते हुए कहा, ‘‘ममा, पापा की आप से लड़ाई सब से ज्यादा किस बात पर होती थी? जहां तक मुझे याद है, इस वजह से ही न कि वे दादी का पक्ष ले कर आप से झगड़ा करते थे.’’

‘‘हां बेटे, यही बात मुझे ज्यादा बुरी लगती थी कि बात सही हो या गलत हमेशा मां का ही पक्ष लेते थे.’’

‘‘ममा, मुझे लगता है, पापा उतने भी गलत नहीं, जितना आप समझने लगी हैं. बिलीव मी ममा, वे आज भी आप से बहुत प्यार करते हैं. बस जाहिर नहीं कर पाते,’’ नेहा ने बड़ी मासूमियत से कहा था. उस की बातों में छिपा इशारा शैली समझ गई थी. उसे खुशी हुई थी कि उस की बेटी अब वाकई समझदार हो गई है. शैली ने उस का मन टटोलते हुए पूछा था, ‘‘एक बात बता नेहा, क्या तू आज भी वापस पापा के पास जाना चाहती है? क्या उन के हाथ मुझे पिटता हुआ देख पाएगी या फिर मुझे छोड़ कर तू पापा के पास चली जाएगी?’’

‘‘नहीं ममा, ऐसा बिलकुल भी नहीं है. मैं ममा को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी,’’ कहते हुए नेहा शैली से लिपट गई. बेटी के दिल में छिपी ख्वाहिश से अनभिज्ञ नहीं थी वह. पर अपने जख्मों को याद कर कमी भी हिम्मत नहीं होती थी उस की वापस लौटने की. कैसे भूल सकती थी वह संकल्प का बातबात में चीखनाचिल्लाना. एक बार फिर कड़वे अतीत की आंच ने उसे अपना फैसला बदलने से रोक लिया था. आज नेहा का जन्मदिन था. शैली ने उस के लिए खासतौर पर केक मंगवाया था और खूबसूरत गुलाबी रंग की ड्रैस खरीदी थी. उसे पहन कर नेहा बहुत सुंदर लग रही थी. पार्टी के लिए उस ने पासपड़ोस के कुछ लोगों और नेहा की खास सहेलियों को बुलाया था. नेहा ने अपने पापा को भी बुलाया होगा, इस बात का यकीन था उसे. 8 बजे पार्टी शुरू होनी थी. आज शौर्टलीव ले कर निकल जाएगी सोच कर वह जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी थी. ठीक 4 बजे वह औफिस से निकल गई. अभी रास्ते में ही थी कि संकल्प का फोन आया. बहुत बेचैन आवाज में उन्होंने कहा,  ‘‘शैली, हमारी नेहा…’’

‘‘क्या हुआ नेहा को?’’ परेशान हो कर शैली ने पूछा.

‘‘दरअसल, घर में अचानक ही आग लग गई. मुझे लगता है कि यह सब शौर्ट सर्किट की वजह से हुआ होगा. मैं नेहा को ले कर हौस्पिटल जा रहा हूं, सिटी हौस्पिटल. तुम भी जल्दी पहुंचो.’’

शैली दौड़तीभागती अस्पताल पहुंची तो देखा बेसुध से संकल्प कोने में बैठे हैं. उसे देखते ही वे दौड़ कर आए और रोते हुए उसे अपने बाहुपाश में बांध लिया. ऐसा लगा ही नहीं जैसे वर्षों से दोनों एकदूसरे से दूर रहे हों. एक अजीब सा सुखद एहसास हुआ था उसे. लगा जैसे बस वक्त यहीं थम गया हो. फिर उन से अलग होती हुई वह बोली,  ‘‘नेहा कहां है? कैसी है ?’’ ‘‘चलो मेरे साथ,’’ संकल्प बोले. फिर दोनों नेहा के कमरे में पहुंचे तो नेहा उन्हें साथ देख कर ऐसी हालत में भी मुसकरा पड़ी.

शैली ने उस का माथा सहलाते हुए पूछा, ‘‘बेटे, कैसी है तू?’’

नेहा मुसकराती हुई बोली, ‘‘जब मेरे मम्मीपापा मेरे साथ हैं तो भला मुझे क्या हो सकता है? पापा ही थे जिन्होंने उस धुएं, जलन और आग की लपटों से निकाल कर मुझे हौस्पिटल तक पहुंचाया. पापा, रिअली आई लव यू.’’

शैली चुप खड़ी बापबेटी का प्यार देखती रही. उसे दिल में अंदर ही अंदर कुछ जुड़ता हुआ सा महसूस हुआ. अपने अंदर का दर्द सिमटता हुआ सा लगा. उसे जिंदगी ने शायद वह वापस दे दिया था जिसे वह खो चुकी थी. शायद यह उसी पूर्णता का एहसास था जो पहले संकल्प के साथ महसूस होता था. अचानक नेहा ने शैली का हाथ थामा और उसे संकल्प के हाथों में देती हुई बोली,  ‘‘मुझे आप दोनों से बस एक ही तोहफा चाहिए और वह यह कि आप एक हो जाएं. क्या मेरे जन्म दिन पर आप मुझे इतना भी नहीं दे सकते?’’ शैली और संकल्प पहले तो सकपका गए मगर फिर मुसकरा कर दोनों ने नेहा को चूम लिया. नेहा ने शायद शैली और संकल्प दोनों को नए सिरे से जिंदगी के बारे में  सोचने को विवश कर दिया था.

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