कामिनी आंटी: आखिर क्या थी विभा के पति की सच्चाई

विभा को खिड़की पर उदास खड़ा देख मां से रहा नहीं गया. बोलीं, ‘‘क्या बात है बेटा, जब से घूम कर लौटी है परेशान सी दिखाई दे रही है? मयंक से झगड़ा हुआ है या कोई और बात है? कुछ तो बता?’’ ‘‘कुछ नहीं मां… बस ऐसे ही,’’ संक्षिप्त उत्तर दे विभा वाशरूम की ओर बढ़ गई.

‘‘7 दिन हो गए हैं तुझे यहां आए. क्या ससुराल वापस नहीं जाना? मालाजी फोन पर फोन किए जा रही हैं… क्या जवाब दूं उन्हें.’’ ‘‘तो क्या अब मैं चैन से इस घर में कुछ दिन भी नहीं रह सकती? अगर इतना ही बोझ लगती हूं तो बता दो, चली जाऊंगी यहां से,’’ कहते हुए विभा ने भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया.

‘‘अरे मेरी बात तो सुन,’’ बाहर खड़ी मां की आंखें आंसुओं से भीग गईं. अभी कुछ दिन पहले ही बड़ी धूमधाम से अपनी इकलौती लाडली बेटी विभा की शादी की थी. सब कुछ बहुत अच्छा था. सौफ्टवेयर इंजीनियर लड़का पहली बार में ही विभा और उस की पूरी फैमिली को पसंद आ गया था. मयंक की अच्छी जौब और छोटी फैमिली और वह भी उसी शहर में. यही देख कर उन्होंने आसानी से इस रिश्ते के लिए हां कर दी थी कि शादी के बाद बेटी को देखने उन की निगाहें नहीं तरसेंगी. लेकिन हाल ही में हनीमून मना कर लौटी बेटी के अजीबोगरीब व्यवहार ने उन की जान सांसत में डाल दी थी.

पत्नी के चेहरे पर पड़ी चिंता की लकीरों ने महेश चंद को भी उलझन में डाल दिया. कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि ‘‘हैलो आंटी, हैलो अंकल,’’ कहते हुए विभा की खास दोस्त दिव्या ने बैठक में प्रवेश किया. ‘‘अरे तुम कब आई बेटा?’’ पैर छूने के लिए झुकी दिव्या के सिर पर आशीर्वादस्वरूप हाथ फेरते हुए दिव्या की मां ने पूछा.

‘‘रात 8 बजे ही घर पहुंची थी आंटी. 4 दिन की छुट्टी मिली है. इसीलिए आज ही मिलने आ गई.’’

‘‘तुम्हारी जौब कैसी चल रही है?’’ महेश चंद के पूछने पर दिव्या ने हंसते हुए उन्हें अंगूठा दिखाया और आंटी की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘विभा कैसी है? बहुत दिनों से उस से बात नहीं हुई. मैं ने फोन फौर्मैट करवाया है, इसलिए कौल न कर सकी और उस का भी कोई फोन नहीं आया.’’ ‘‘तू पहले इधर आ, कुछ बात करनी है,’’ विभा की मां उसे सीधे किचन में ले गईं.

पूरी बात समझने के बाद दिव्या ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह तुरंत विभा की परेशानी को समझ उन से साझा करेगी.

बैडरूम के दरवाजे पर दिव्या को देख विभा की खुशी का ठिकाना न रहा. दोनों 4 महीने बाद मिल रही थीं. अपनी किसी पारिवारिक उलझन के कारण दिव्या उस की शादी में भी सम्मिलित न हो सकी थी.

‘‘कैसी है मेरी जान, हमारे जीजू बहुत परेशान तो नहीं करते हैं?’’ बड़ी अदा से आंख मारते हुए दिव्या ने विभा को छेड़ा. ‘‘तू कैसी है? कब आई?’’ एक फीकी हंसी हंसते हुए विभा ने दिव्या से पूछा.

‘‘क्या हुआ है विभा, इज समथिंग रौंग देयर? देख मुझ से तू कुछ न छिपा. तेरी हंसी के पीछे एक गहरी अव्यक्त उदासी दिखाई दे रही है. मुझे बता, आखिर बात क्या है?’’ दिव्या उस की आंखों में देखते हुए बोली. अचानक विभा की पलकों के कोर गीले हो चले. फिर उस ने जो बताया वह वाकई चौंकाने वाला था.

विभा के अनुसार सुहागरात से ही फिजिकल रिलेशन के दौरान मयंक में वह एक झिझक सी महसूस कर रही थी, जो कतई स्वाभाविक नहीं लग रही थी. उन्होंने बहुत कोशिश की, रिलेशन से पहले फोरप्ले आदि भी किया, बावजूद इस के उन के बीच अभी तक सामान्य फिजिकल रिलेशन नहीं बन पाया और न ही वे चरमोत्कर्ष का आनंद ही उठा पाए. इस के चलते उन के रिश्ते में एक चिड़चिड़ापन व तनाव आ गया है. यों मयंक उस का बहुत ध्यान रखता और प्यार भी करता है. उस की समझ नहीं आ रहा कि वह क्या करे. मांपापा से यह सब कहने में शर्म आती है, वैसे भी वे यह सब जान कर परेशान ही होंगे.

विभा की पूरी बात सुन दिव्या ने सब से पहले उसे ससुराल लौट जाने के लिए कहा और धैर्य रखने की सलाह दी. अपना व्यवहार भी संतुलित रखने को कहा ताकि उस के मम्मीपापा को तसल्ली हो सके कि सब कुछ ठीक है. दिव्या की सलाह के अनुसार विभा ससुराल आ गई. इस बीच उस ने मयंक के साथ अपने रिश्ते को पूरी तरह से सामान्य बनाने की कोशिश भी की और भरोसा भी जताया कि मयंक की किसी भी परेशानी में वह उस के साथ खड़ी है. उस के इस सकारात्मक रवैए का तुरंत ही असर दिखने लगा. मयंक की झिझक धीरेधीरे खुलने लगी. लेकिन फिजिकल रिलेशन की समस्या अभी तक ज्यों की त्यों थी.

कुछ दिनों की समझाइश के बाद आखिरकार विभा ने मयंक को काउंसलर के पास चलने को राजी कर लिया. दिव्या के बताए पते पर दोनों क्लिनिक पहुंचे, जहां यौनरोग विशेषज्ञ डा. नमन खुराना ने उन से सैक्स के मद्देनजर कुछ सवाल किए. उन की परेशानी समझ डाक्टर ने विभा को कुछ देर बाहर बैठने के लिए कह कर मयंक से अकेले में कुछ बातें कीं. उन्हें 3 सिटिंग्स के लिए आने का सुझाव दे कर डा. नमन ने मयंक के लिए कुछ दवाएं भी लिखीं.

कुछ दिनों के अंतराल पर मयंक के साथ 3 सिटिंग्स पूरी होने के बाद डा. नमन ने विभा को फोन कर अपने क्लिनिक बुलाया और कहा, ‘‘विभाजी, आप के पति शारीरिक तौर पर बेहद फिट हैं. दरअसल वे इरैक्शन की समस्या से जूझ रहे हैं, जो एक मानसिक तनाव या कमजोरी के अलावा कुछ नहीं है. इसे पुरुषों के परफौर्मैंस प्रैशर से भी जोड़ कर देखा जाता है.

‘‘इस समय उन्हें आप के मानसिक संबल की बहुत आवश्यकता है. आप को थोड़ा मजबूत हो कर यह जानने की जरूरत है कि किशोरावस्था में आप के पति यौन शोषण का शिकार हुए हैं और कई बार हुए हैं. अपने से काफी बड़ी महिला के साथ रिलेशन बना कर उसे संतुष्ट करने में उन्हें शारीरिक तौर पर तो परेशानी झेलनी ही पड़ी, साथ ही उन्हें मानसिक स्तर पर भी बहुत जलील होना पड़ा है, जिस का कारण कहीं न कहीं वे स्वयं को भी मानते हैं. इसीलिए स्वेच्छा से आप के साथ संबंध बनाते वक्त भी वे उसी अपराधबोध का शिकार हो रहे हैं. चूंकि फिजिकल रिलेशन की सफलता आप की मानसिक स्थिति तय करती है, लिहाजा इस अपराधग्रंथि के चलते संबंध बनाते वक्त वे आप के प्रति पूरी ईमानदारी नहीं दिखा पाते, नतीजतन आप दोनों उस सुख से वंचित रह जाते हैं. अत: आप को अभी बेहद सजग हो कर उन्हें प्रेम से संभालने की जरूरत है.’’ विभा को काटो तो खून नहीं. अपने पति के बारे में हुए इस खुलासे से वह सन्न रह गई.

क्या ऐसा भी होता है. ऐसा कैसे हो सकता है? एक लड़के का यौन शोषण आदि तमाम बातें उस की समझ के परे थीं. उस का मन मानने को तैयार नहीं था कि एक हट्टाकट्टा नौजवान भी कभी यौन शोषण का शिकार हो सकता है. पर यह एक हकीकत थी जिसे झुठलाया नहीं जा सकता था. अत: अपने मन को कड़ा कर वह पिछली सभी बातों पर गौर करने लगी. पूरा समय मजाकमस्ती के मूड में रहने वाले मयंक का रात के समय बैड पर कुछ अनमना और असहज हो जाना, इधर स्त्रीसुलभ लाज के चलते विभा का उस की प्यार की पहल का इंतजार करना, मयंक की ओर से शुरुआत न होते देख कई बार खुद ही अपने प्यार का इजहार कर मयंक को रिझाने की कोशिश करना, लेकिन फिर भी मयंक में शारीरिक सुख के लिए कोई उत्कंठा या भूख नजर न आना इत्यादि कई ऐसी बातें थीं, जो उस वक्त विभा को विस्मय में डाल देती थीं. खैर, बात कुछ भी हो, आज एक वीभत्स सचाई विभा के सामने परोसी जा चुकी थी और उसे अपनी हलक से नीचे उतारना ही था.

हलकेफुलके माहौल में रात का डिनर निबटाने के बाद विभा ने बिस्तर पर जाते ही मयंक को मस्ती के मूड में छेड़ा, ‘‘तुम्हें मुझ पर जरा भी विश्वास नहीं है न?’’ ‘‘नहीं तो, ऐसा बिलकुल नहीं है. अब तुम्हीं तो मेरे जीने की वजह हो. तुम्हारे बगैर जीने की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता,’’ मयंक ने घबराते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अगर ऐसा है तो तुम ने अपनी जिंदगी की सब से बड़ी सचाई मुझ से क्यों छिपाई?’’ विभा ने प्यार से उस की आंखों में देखते हुए कहा. ‘‘मैं तुम्हें सब कुछ बताना चाहता था, लेकिन मुझे डर था कहीं तुम मुझे ही गलत न समझ बैठो. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं विभा और किसी भी कीमत पर तुम्हें खोना नहीं चाहता था, इसीलिए…’’ कह कर मयंक चुप हो गया.

फिर कुछ देर की गहरी खामोशी के बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए मयंक बताने लगा. ‘‘मैं टैंथ में पढ़ने वाला 18 वर्षीय किशोर था, जब कामिनी आंटी से मेरी पहली मुलाकात हुई. उस दिन हम सभी दोस्त क्रिकेट खेल रहे थे. अचानक हमारी बौल पार्क की बैंच पर अकेली बैठी कामिनी आंटी को जा लगी. अगले ही पल बौल कामिनी आंटी के हाथों में थर. चूंकि मैं ही बैटिंग कर रहा था. अत: दोस्तों ने मुझे ही जा कर बौल लाने को कहा. मैं ने माफी मांगते हुए उन से बौल मांगी तो उन्होंने इट्स ओके कहते हुए वापस कर दी.’’

‘‘लगभग 30-35 की उम्र, दिखने में बेहद खूबसूरत व पढ़ीलिखी, सलीकेदार कामिनी आंटी से बातें कर मुझे बहुत अच्छा लगता था. फाइनल परीक्षा होने को थी. अत: मैं बहुत कम ही खेलने जा पाता था. कुछ दिनों बाद हमारी मुलाकात होने पर बातचीत के दौरान कामिनी आंटी ने मुझे पढ़ाने की पेशकश की, जिसे मैं ने सहर्ष स्वीकार लिया. चूंकि मेरे घर से कुछ ही दूरी पर उन का अपार्टमैंट था, इसलिए मम्मीपापा से भी मुझे उन के घर जा कर पढ़ाई करने की इजाजत मिल गई.’’ ‘‘फिजिक्स पर कामिनी आंटी की पकड़ बहुत मजबूत थी. कुछ लैसन जो मुझे बिलकुल नहीं आते थे, उन्होंने मुझे अच्छी तरह समझा दिए. उन के घर में शांति का माहौल था. बच्चे थे नहीं और अंकल अधिकतर टूअर पर ही रहते थे. कुल मिला कर इतने बड़े घर में रहने वाली वे अकेली प्राणी थीं.

‘‘बस उन की कुछ बातें हमेशा मुझे खटकतीं जैसे पढ़ाते वक्त उन का मेरे कंधों को हौले से दबा देना, कभी उन के रेंगते हाथों की छुअन अपनी जांघों पर महसूस करना. ये सब करते वक्त वे बड़ी अजीब नजरों से मेरी आंखों में देखा करतीं. पर उस वक्त ये सब समझने के लिए मेरी उम्र बहुत छोटी थी. उन की ये बातें मुझे कुछ परेशान अवश्य करतीं लेकिन फिर पढ़ाई के बारे में सोच कर मैं वहां जाने का लोभ संवरण न कर पाता.’’ ‘‘मेरी परीक्षा से ठीक 1 दिन पहले पढ़ते वक्त उन्होंने मुझे एक गिलास जूस पीने को दिया और कहा कि इस से परीक्षा के वक्त मुझे ऐनर्जी मिलेगी. जूस पीने के कुछ देर बाद ही मुझे कुछ नशा सा होने लगा. मैं उठने को हुआ और लड़खड़ा गया. तुरंत उन्होंने मुझे संभाल लिया. उस के बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद न रहा.

2-3 घंटे बाद जब मेरी आंख खुली तो सिर में भारीपन था और मेरे कपड़े कुछ अव्यवस्थित. मैं बहुत घबरा गया. मुझे कुछ सही नहीं लग रहा था. कामिनी आंटी की संदिग्ध मुसकान मुझे विचलित कर रही थी. दूसरे दिन पेपर था. अत: दिमाग पर ज्यादा जोर न देते हुए मैं तुरंत घर लौट आया. ‘‘दूसरा पेपर मैथ का था. चूंकि फिजिक्स का पेपर हो चुका था, इसलिए कामिनी आंटी के घर जाने का कोई सवाल नहीं था. 2-3 दिन बाद कामिनी आंटी का फोन आया. आखिरी बार उन के घर में मुझे बहुत अजीब हालात का सामना करना पड़ा था. अत: मैं अब वहां जाने से कतरा रहा था. लेकिन मां के जोर देने पर कि चला जा बटा शायद वे कुछ इंपौर्टैंट बताना चाहती हों, न चाहते हुए भी मुझे वहां जाना पड़ा.

‘‘उन के घर पहुंचा तो दरवाजा अधखुला था. दरवाजे को ठेलते हुए मैं उन्हें पुकारता हुआ भीतर चला गया. हाल में मद्धिम रोशनी थी. सोफे पर लेटे हुए उन्होंने इशारे से मुझे अपने पास बुलाया. कुछ हिचकिचाहट में उन के समीप गया तो मुंह से आ रही शराब की तेज दुर्गंध ने मुझे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. मैं पीछे हट पाता उस से पहले ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे पर अपने ऊपर खींच लिया. बिना कोई मौका दिए उन्होंने मुझ पर चुंबनों की बौछार शुरू कर दी. यह क्या कर रही हैं आप? छोडि़ए मुझे, कह कर मैं ने अपनी पूरी ताकत से उन्हें अपने से अलग किया और बाहर की ओर लपका.

‘‘रुको, उन की गरजती आवाज ने मानो मेरे पैर बांध दिए, ‘मेरे पास तुम्हें कुछ दिखाने को है,’ कुटिलता से उन्होंने मुसकराते हुए कहा. फिर उन के मोबाइल में मैं ने जो देखा वह मेरे होश उड़ाने के लिए काफी था. वह एक वीडियो था, जिस में मैं उन के ऊपर साफतौर पर चढ़ा दिखाई दे रहा था और उन की भंगिमाएं कुछ नानुकुर सी प्रतीत हो रही थीं. ‘‘उन्होंने मुझे साफसाफ धमकाते हुए कहा कि यदि मैं ने उन की बातें न मानीं तो वे इस वीडियो के आधार पर मेरे खिलाफ रेप का केस कर देंगी, मुझे व मेरे परिवार को कालोनी से बाहर निकलवा देंगी. मेरे पावों तले जमीन खिसक गई. फिर भी मैं ने अपना बचाव करते हुए कहा कि ये सब गलत है. मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया है.

‘‘तब हंसते हुए वे बोलीं, तुम्हारी बात पर यकीन कौन करेगा? क्या तुमने देखा नहीं कि मैं ने किस तरह से इस वीडियो को शूट किया है. इस में साफसाफ मैं बचाव की मुद्रा में हूं और तुम मुझ से जबरदस्ती करते नजर आ रहे हो. मेरे हाथपांव फूल चुके थे. मैं उन की सभी बातें सिर झुका कर मानता चला गया. ‘‘जाते समय उन्होंने मुझे सख्त हिदायत दी कि जबजब मैं तुम्हें बुलाऊं चले आना. कोई नानुकुर नहीं चलेगी और भूल कर भी ये बातें कहीं शेयर न करूं वरना वे मेरी पूरी जिंदगी तबाह कर देंगी.

‘‘मैं उन के हाथों की कठपुतली बन चुका था. उन के हर बुलावे पर मुझे जाना होता था. अंतरंग संबंधों के दौरान भी वे मुझ से बहुत कू्ररतापूर्वक पेश आती थीं. उस समय किसी से यह बात कहने की मैं हिम्मत नहीं जुटा सका. एक तो अपनेआप पर शर्मिंदगी दूसरे मातापिता की बदनामी का डर, मैं बहुत ही मायूस हो चला था. मेरी पूरी पढ़ाई चौपट हो चली थी.

करीब साल भर तक मेरे साथ यही सब चलता रहा. एक बार कामिनी आंटी ने मुझे बुलाया और कहा कि आज आखिरी बार मैं उन्हें खुश कर दूं तो वे मुझे अपने शिकंजे से आजाद कर देंगी. बाद में पता चला कि अंकलजी का कहीं दूसरी जगह ट्रांसफर हो गया है.

‘‘महीनों एक लाचार जीवन जीतेजीते मैं थक चुका था. उस बेबसी और पीड़ा को मैं भूल जाना चाहता था. उसी साल मुझे भी पापा ने पढ़ने के लिए कोटा भेज दिया, जहां मैं ने मन लगा कर पढ़ाई की, पर अतीत की इन परछाइयों ने मेरा पीछा शादी के बाद भी नहीं छोड़ा जिस कारण आज तक मैं तुम्हारे साथ न्याय नहीं कर पाया. मैं शर्मिंदा हूं, मुझे माफ कर दो विभा,’’ मयंक की आंखों में दर्द उतर आया. ‘‘नहीं मयंक तुम क्यों माफी मांग रहे हो. माफी तो उसे मांगनी चाहिए जिस ने अपराध किया है. मैं उस औरत को उस के किए की सजा दिलवा कर रहूंगी और तुम्हें न्याय,’’ कह विभा ने मयंक के आंसू पोंछे.

‘‘नहीं विभा, वह औरत बहुत शातिर है. मुझे उस से बहुत डर लगता है.’’ ‘‘तुम्हारा यही डर तो मुझे खत्म करना है.’’ कहते हुए विभा ने मन में कुछ ठान लिया. अगले दिन से विभा ने कामिनी आंटी के बारे में पता करने की मुहिम छेड़ दी. जिस अपार्टर्मैंट में वे रहती थीं, वहां जा कर खोजबीन करने पर उसे सिर्फ इतना पता चल सका कि कामिनी आंटी के पति का ट्रांसफर भोपाल में हुआ है. लेकिन उस ने हिम्मत नहीं हारी.

अपने सासससुर को भी उस ने मयंक की इस आपबीती के बारे में बताया, जिसे सुन कर वे भी सिहर उठे. अपने बेटे के साथ महीनों हुए इस शोषण के खिलाफ उन्होंने भी आवाज उठाने में एक पल की देर न लगाई. एक दिन फेसबुक पर कुछ देखते समय विभा के मन में अचानक एक विचार कौंधा. उस ने कामिनी गुप्ता के नाम से एफबी पर सर्च किया. भोपाल की जितनी भी कामिनी मिलीं उन में उस कामिनी को ढूंढ़ना असंभव नहीं पर मुश्किल जरूर था, पर अपने पति को न्याय दिलाने के लिए विभा कुछ भी करने को तैयार थी.

आखिरकार उस की सास ने जिस एक कामिनी की फोटो पर उंगली रखी, विभा उसे देखती ही रह गई. साफ दमकता रंग, आकर्षक व्यक्तित्व की धनी कामिनी आंटी आज 10 साल बाद भी अपनी वास्तविक उम्र से कम ही नजर आ रही थीं. यकीनन उन्हें देख कर इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल था कि वे एक संगीन जुर्म में लिप्त रह चुकी हैं.

तुरंत विभा ने उन्हें फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी. 2-3 दिन बाद कामिनी आंटी ने विभा की फ्रैंड रिक्वैस्ट स्वीकार ली. धीरेधीरे उस ने कामिनी आंटी की तारीफों के पुल बांधते हुए उन से मेलजोल बढ़ाया और उन का फोन नंबर ले लिया. अब उस का अगला कदम पुलिस को इस मामले की जानकारी देना था. लेकिन चूंकि सालों पुराने हुए इस अपराध को साबित करने के लिए उन के पास कोई ठोस सुबूत नहीं था. अत: पुलिस ने उन की सहायता करने में अक्षमता जताई.

विभा जानती थी कि अगर सुबूत चाहिए तो उसे कामिनी आंटी के पास जाना ही होगा. उस ने मयंक को समझाया और हौसला दिया कि वह एक बार फिर से कामिनी आंटी का सामना करे. योजना के तहत विभा ने कामिनी आंटी से फोन पर बात करते हुए उन्हें बताया कि वह पर्सनल काम से अपने पति के साथ भोपाल आ रही है. कामिनी आंटी ने उसे अपने घर आने का निमंत्रण दिया.

नियत समय पर विभा ने कामिनी आंटी के घर की बैल बजाई. कुछ पलों के पश्चात उन्हें दरवाजे पर देख वितृष्णा से उस का मुंह कसैला हो गया, पर अपनी भावनाओं पर काबू रख उस ने मुसकुराते हुए हाल के अंदर प्रवेश किया. सहज भाव से कामिनी आंटी ने उस का स्वागत किया. कुछ औपचारिक बातों के मध्य ही मयंक ने दरवाजे पर दस्तक दी. दरवाजे पर एक आकर्षक पुरुष को देख कामिनी आंटी कुछ अचरज से भर उठीं. उन्होंने मयंक पर प्रश्नवाचक निगाह डालते हुए उस का परिचय जानना चाहा. इधर विभा मयंक से अनजान बन वहीं खड़ी रही. मयंक अपना परिचय देता, उस से पहले ही कामिनी आंटी ने उसे लगभग पहचानते हुए पूछा, ‘‘तुम?’’ ‘‘दाद देनी पड़ेगी आप की नजर की, कुछ ही पलों में मुझे पहचान लिया.’’

कामिनी आंटी कुछ और कहतीं उस से पहले ही विभा ने उन से चलने की इजाजत मांग ली. ‘‘तुम यहां किस मकसद से आए हो?

क्या चाहते हो?’’ विभा के जाते ही वे मयंक पर बरस पड़ीं. ‘‘अरे वाह, पहले तो आप मुझे बुलाते न थकती थीं और आज इतना बेगाना व्यवहार.’’ मयंक ने अपने हर शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘अच्छा, तो तुम मुझे धमकाने आए हो. भूल गए सालों पहले मैं ने तुम्हारी क्या हालत की थी?’’ कामिनी आंटी अपनी असलियत पर आ चुकी थीं. ‘‘अच्छी तरह याद है. इसीलिए तो आप के उन गुनाहों की सजा दिलाने चला आया,’’ मयंक ने हंस कर कहा.

‘‘तुम्हें मेरा पता किस ने दिया और क्या सुबूत है तुम्हारे पास कि मैं ने तुम्हारे साथ कुछ गलत किया है?’’ कामिनी आंटी बौखलाहट में बोले जा रही थीं, ‘‘तुम मुझे अच्छी तरह से जानते नहीं हो, इसलिए यहां आने की भूल कर दी. तुम्हारे जैसे जाने कितने मयंकों को मैं ने अपनी वासना के जाल में फंसाया और बरबाद कर दिया.

तुम आज भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते. अभी मेरे पास वह वीडियो मौजूद है जिसे मैं ने तुम्हें फंसाने के लिए बनाया था. तुम कल भी मेरा दिल बहलाने का खिलौना थे और आज भी वही हो. अपनी सलामती चाहते हो तो निकल जाओ यहां से,’’ कामिनी आंटी ने चिल्लाते हुए कहा.

‘‘जरूर निकल जाएंगे, लेकिन आप को सलाखों के पीछे पहुंचा कर, कामिनी आंटी,’’ कहती हुई विभा अंदर आ कर मयंक के पास उस का हाथ पकड़ कर खड़ी हो गई. उस के पीछे महिला पुलिस भी थी. किसी फिल्मी ड्रामे की तरह अचानक हुए इस घटनाक्रम से कामिनी आंटी बौखला गईं बोलीं, ‘‘ये क्या हो रहा है? कौन हो तुम सब? मैं किसी को नहीं जानती… निकल जाओ तुम सब यहां से.’’

‘‘इतनी आसानी से मैं आप को कुछ भी भूलने नहीं दूंगी. मैं हूं विभा मयंक की पत्नी. आप की एक नापाक हरकत ने मेरे बेकुसूर पति की जिंदगी तबाह कर दी. अब बारी आप की है. इंस्पैक्टर यही है वह कामिनी जिस ने मेरे पति का शारीरिक शोषण किया था, जिस के सारे सुबूत इस कैमरे में मौजूद हैं,’’ सैंटर टेबल के फूलदान से विभा ने एक हिडेन कैमरा निकालते हुए पुलिस को सौंप दिया, जिसे उस ने कुछ देर पहले ही कामिनी आंटी की नजर बचा कर रख दिया था. अपनी घिनौनी करतूत के सुबूत को सामने देख अचानक ही कामिनी आंटी ने अपना रुख बदला और मयंक के सामने गिड़गिड़ाने लगीं, ‘‘प्लीज, मुझे माफ कर दो, मैं आइंदा किसी के साथ ऐसा नहीं करूंगी. तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं, प्लीज मुझे बचा लो.’’

‘‘कुछ सालों पहले मैं ने भी यही शब्द आप के सामने कहे थे और हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाया था, लेकिन आप ने जरा भी दया नहीं दिखाई थी,’’ कामिनी आंटी की ओर घृणा से देखते हुए मयंक ने मुंह फेर लिया. पुलिस द्वारा की गई पूछताछ में पता चला कि कामिनी आंटी के पति उन्हें शारीरिक सुख देने के काबिल नहीं थे, जिस से न ही वे कभी मां बन सकीं और न ही उन्हें शारीरिक सुख मिला. लेकिन इस सुख को पाने के लिए उन्होंने जो रास्ता अपनाया वह नितांत गलत था.

इधर मयंक का खोया सम्मान उसे वापस मिल चुका था. ‘‘थैंक्यू सो मच विभा,

तुम ने मुझे एक शापित जिंदगी से मुक्ति दिला कर मेरा खोया आत्मविश्वास वापस दिलाया है,’’ कहतेकहते मयंक का गला भर्रा गया. ‘‘अच्छा तो इस के बदले मुझे क्या मिलेगा?’’ शरारत से हंसते हुए विभा ने उसे छेड़ा.

‘‘ठीक है तो आज रात को अपना गिफ्ट पाने के लिए तैयार हो जाओ,’’ मयंक भी मस्ती के मूड में आ चुका था. शादी के बाद पहली बार मयंक के चेहरे पर वास्तविक खुशी देख कर विभा ने चैन की सांस ली और शरमा कर अपने प्रिय के गले लग गई.

अंतिम निर्णय: रिश्तों के अकेलेपन में समाज के दायरे से जुड़ी सुहासिनी की कहानी

सुहासिनी के अमेरिका से भारत आगमन की सूचना मिलते ही अपार्टमैंट की कई महिलाएं 11 बजते ही उस के घर पहुंच गईं. कुछ भुक्तभोगियों ने बिना कारण जाने ही एक स्वर में कहा, ‘‘हम ने तो पहले ही कहा था कि वहां अधिक दिन मन नहीं लगेगा, बच्चे तो अपने काम में व्यस्त रहते हैं, हम सारा दिन अकेले वहां क्या करें? अनजान देश, अनजान लोग, अनजान भाषा और फिर ऐसी हमारी क्या मजबूरी है कि हम मन मार कर वहां रहें ही. आप के आने से न्यू ईयर के सैलिब्रेशन में और भी मजा आएगा. हम तो आप को बहुत मिस कर रहे थे, अच्छा हुआ आप आ गईं.’’

उन की अपनत्वभरी बातों ने क्षणभर में ही उस की विदेशयात्रा की कड़वाहट को धोपोंछ दिया और उस का मन सुकून से भर गया. जातेजाते सब ने उस को जेट लैग के कारण आराम करने की सलाह दी और उस के हफ्तेभर के खाने का मैन्यू उस को बतला दिया. साथ ही, आपस में सब ने फैसला कर लिया कि किस दिन, कौन, क्या बना कर लाएगा.

सुहासिनी के विवाह को 5 साल ही तो हुए थे जब उस के पति उस की गोद में 5 साल के सुशांत को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए थे. परिजनों ने उस पर दूसरा विवाह करने के लिए जोर डाला था, लेकिन वह अपने पति के रूप में किसी और को देखने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. पढ़ीलिखी होने के कारण किसी पर बोझ न बन कर उस ने अपने बेटे को उच्चशिक्षा दिलाई थी. हर मां की तरह वह भी एक अच्छी बहू लाने के सपने देखने लगी थी.

सुशांत की एक अच्छी कंपनी में जौब लग गई थी. उस को कंपनी की ओर से किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में 3 महीने के लिए अमेरिका जाना पड़ा. सुहासिनी अपने बेटे के भविष्य की योजनाओं में बाधक नहीं बनना चाहती थी, लेकिन अकेले रहने की कल्पना से ही उस का मन घबराने लगा था.

अमेरिका में 3 महीने बीतने के बाद, कंपनी ने 3 महीने का समय और बढ़ा दिया था. उस के बाद, सुशांत की योग्यता देखते हुए कंपनी ने उसे वहीं की अपनी शाखा में कार्य करने का प्रस्ताव रखा तो उस ने अपनी मां से भी विचारविमर्श करना जरूरी नहीं समझा और स्वीकृति दे दी, क्योंकि वह वहां की जीवनशैली से बहुत प्रभावित हो गया था.

सुहासिनी इस स्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. उस ने बेटे को समझाते हुए कहा था, ‘बेटा, अपने देश में नौकरियों की क्या कमी है जो तू अमेरिका में बसना चाहता है? फिर तेरा ब्याह कर के मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती हूं. साथ ही, तेरे बच्चे को देखना चाहती हूं, जिस से मेरा अकेलापन समाप्त हो जाए और यह सब तभी होगा, जब तू भारत में होगा. मैं कब से यह सपना देख रही हूं और अब यह पूरा होने का समय आ गया है, तू इनकार मत करना.’ यह बोलतेबोलते उस की आवाज भर्रा गई थी. वह जानती थी कि उस का बेटा बहुत जिद्दी है. वह जो ठीक समझता है, वही करता है.

जवाब में वह बोला, ‘ममा, आप परेशान मत होे, मैं आप को भी जल्दी ही अमेरिका बुला लूंगा और आप का सपना तो यहां रह कर भी पूरा हो जाएगा. लड़की भी मैं यहां रहते हुए खुद ही ढूंढ़ लूंगा.’ बेटे का दोटूक उत्तर सुन कर सुहासिनी सकते में आ गई. उस को लगा कि वह पूरी दुनिया में अकेली रह गई थी.

सालभर के अंदर ही सुशांत ने सुहासिनी को बुलाने के लिए दस्तावेज भेज दिए. उस ने एजेंट के जरिए वीजा के लिए आवेदन कर दिया. बड़े बेमन से वह अमेरिका के लिए रवाना हुई. अनजान देश में जाते हुए वह अपने को बहुत असुरक्षित अनुभव कर रही थी. मन में दुविधा थी कि पता नहीं, उस का वहां मन लगेगा भी कि नहीं. हवाई अड्डे पर सुशांत उसे लेने आया था. इतने समय बाद उस को देख कर उस की आंखें छलछला आईं.

घर पहुंच कर सुशांत ने घर का दरवाजा खटखटाया. इस से पहले कि वह अपने बेटे से कुछ पूछे, एक अंगरेज महिला ने दरवाजा खोला. वह सवालिया नजरों से सुशांत की ओर देखने लगी. उस ने उसे इशारे से अंदर चलने को कहा. अंदर पहुंच कर बेटे ने कहा, ‘ममा, आप फ्रैश हो कर आराम करिए, बहुत थक गई होंगी. मैं आप के खाने का इंतजाम करवाता हूं.’

सुहासिनी को चैन कहां, मन ही मन मना रही थी कि उस का संदेह गलत निकले, लेकिन इस के विपरीत सही निकला. बेटे के बताते ही वह अवाक उस की ओर देखती ही रह गई. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. उस के बहू के लिए देखे गए सपने चूरचूर हो कर बिखर गए थे.

सुहासिनी ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा, ‘मुझे पहले ही बता देता, तो मैं बहू के लिए कुछ ले कर आती.’

मां की भीगी आखें सुशांत से छिपी नहीं रह पाईं. उस ने कहा, ‘ममा, मैं जानता था कि आप कभी मन से मुझे स्वीकृति नहीं देंगी. यदि मैं आप को पहले बता देता तो शायद आप आती ही नहीं. सोचिए, रोजी से विवाह करने से मुझे आसानी से यहां की नागरिकता मिल गई है. आप भी अब हमेशा मेरे साथ रह सकती हैं.’ उस को अपने बेटे की सोच पर तरस आने लगा. वह कुछ नहीं बोली. मन ही मन बुदबुदाई, ‘कम से कम, यह तो पूछ लेता कि विदेश में, तेरे साथ, मैं रहने के लिए तैयार भी हूं या नहीं?’

बहुत जल्दी सुहासिनी का मन वहां की जीवनशैली से ऊबने लगा था. बहूबेटा सुबह अपनीअपनी जौब के लिए निकल जाते थे. उस के बाद जैसे घर उस को काटने को दौड़ता था. उन के पीछे से वह घर के सारे काम कर लेती थी. उन के लिए खाना भी बना लेती थी, लेकिन उस को महसूस हुआ कि उस के बेटे को पहले की तरह उस के हाथ के खाने के स्थान पर अमेरिकी खाना अधिक पसंद आने लगा था. धीरेधीरे उस को लगने लगा था कि उस का अस्तित्व एक नौकरानी से अधिक नहीं रह गया है. वहां के वातावरण में अपनत्व की कमी होने के चलते बनावटीपन से उस का मन बुरी तरह घबरा गया था.

सुहासिनी को भारत की अपनी कालोनी की याद सताने लगी कि किस तरह अपने हंसमुख स्वभाव के कारण वहां पर हर आयुवर्ग की वह चहेती बन गई थी. हर दिन शाम को, सभी उम्र के लोग कालोनी में ही बने पार्क में इकट्ठे हो जाया करते थे. बाकी समय भी व्हाट्सऐप द्वारा संपर्क में बने रहते थे और जरा सी भी तबीयत खराब होने पर एकदूसरे की मदद के लिए तैयार रहते थे.

उस ने एक दिन हिम्मत कर के अपने बेटे से कह ही दिया, ‘बेटा, मैं वापस इंडिया जाना चाहती हूं.’

यह प्रस्ताव सुन कर सुशांत थोड़ा आश्चर्य और नाराजगी मिश्रित आवाज में बोला, ‘लेकिन वहां आप की देखभाल कौन करेगा? मेरे यहां रहते हुए आप किस के लिए वहां जाना चाहती हैं?’ वह जानता था कि उस की मां वहां बिलकुल अकेली हैं.

सुहासिनी ने उस की बात अनसुनी  करते हुए कहा, ‘नहीं, मुझे जाना है, तुम्हारे कोई बच्चा होगा तो आ जाऊंगी.’ आखिर वह भारत के लिए रवाना हो गई.

सुहासिनी को अब अपने देश में नए सिरे से अपने जीवन को जीना था. वह यह सोच ही रही थी कि अचानक उस की ढलती उम्र के इस पड़ाव में भी सुनीलजी, जो उसी अपार्टमैंट में रहते थे, के विवाह के प्रस्ताव ने मौनसून की पहली झमाझम बरसात की तरह उस के तन के साथ मन को भी भिगोभिगो कर रोमांचित कर दिया था. उस के जीवन में क्या चल रहा है, यह बात सुनीलजी से छिपी नहीं थी.

सुहासिनी के हावभाव ने बिना कुछ कहे ही स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया था. लेकिन उस के मन में आया कि यह एहसास क्षणिक ही तो था. सचाई के धरातल पर आते ही सुहासिनी एक बार यह सोच कर कांप गई कि जब उस के बेटे को पता चलेगा तो क्या होगा? वह उस की आंखों में गिर जाएगी? वैधव्य की आग में जलते हुए, दूसरा विवाह न कर के उस ने अपने बेटे को मांबाप दोनों का प्यार दे कर उस की परवरिश कर के, समाज में जो इज्जत पाई थी, वह तारतार हो जाएगी?

‘नहीं, नहीं, ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती. ठीक है, अपनी सकारात्मक सोच के कारण वे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और उन के प्रस्ताव ने यह भी प्रमाणित कर दिया कि यही हाल उन का भी है. वे भी अकेले हैं. उन की एक ही बेटी है, वह भी अमेरिका में रहती है. लेकिन समाज भी कोई चीज है,’ वह मन ही मन बुदबुदाई और निर्णय ले डाला.

जब सुनीलजी मिले तो उस ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘मैं आप की भावनाओं का आदर करती हूं, लेकिन समाज के सामने स्वीकार करने में परिस्थितियां बाधक हो जाती हैं और समाज का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं है, मुझे माफ कर दीजिएगा.’’ उस के इस कथन पर उन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, जैसे कि वे पहले से ही इस उत्तर के लिए तैयार थे. वे जानते थे कि उम्र के इस पड़ाव में इस तरह का निर्णय लेना सरल नहीं है. वे मौन ही रहे.

अचानक एक दिन सुहासिनी को पता चला कि सुनीलजी की बेटी सलोनी, अमेरिका से आने वाली है. आने के बाद, एक दिन वह अपने पापा के साथ उस से मिलने आई, फिर सुहासिनी ने उस को अपने घर पर आमंत्रित किया. हर दिन कुछ न कुछ बना कर सुहासिनी, सलोनी के लिए उस के घर भेजती ही रहती थी. उस के प्रेमभरे इस व्यवहार से सलोनी भावविभोर हो गई और एक दिन कुछ ऐसा घटित हुआ, जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

अचानक एक दिन सलोनी उस के घर आई और बोली, ‘‘एक बात बोलूं, आप बुरा तो नहीं मानेंगी? आप मेरी मां बनेंगी? मुझे अपनी मां की याद नहीं है कि वे कैसी थीं, लेकिन आप को देख कर लगता है ऐसी ही होंगी. मेरे कारण मेरे पापा ने दूसरा विवाह नहीं किया कि पता नहीं नई मां मुझे मां का प्यार दे भी पाएगी या नहीं. लेकिन अब मुझ से उन का अकेलापन देखा नहीं जाता. मैं अमेरिका नहीं जाना चाहती थी. लेकिन विवाह के बाद लड़कियां मजबूर हो जाती हैं. उन को अपने पति के साथ जाना ही पड़ता है. मेरे पापा बहुत अच्छे हैं. प्लीज आंटी, आप मना मत करिएगा.’’ इतना कह कर वह रोने लगी. सुहासिनी शब्दहीन हो गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. उस ने उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘ठीक है बेटा, मैं विचार करूंगी.’’ थोड़ी देर बाद वह चली गई.

कई दिनों तक सुहासिनी के मनमस्तिष्क में विचारों का मंथन चलता रहा. एक दिन सुनीलजी अपनी बेटी के साथ सुहासिनी के घर आ गए. वह असमंजस की स्थिति से उबर ही नहीं पा रही थी. सबकुछ समझते हुए सुनीलजी ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप यह मत सोचना कि सलोनी ने मेरी इच्छा को आप तक पहुंचाया है. जब से वह आई है, हम दोनों की भावनाएं इस से छिपी नहीं रहीं. उस ने मुझ से पूछा, तो मैं झूठ नहीं बोल पाया. अभी तो उस ने महसूस किया है, धीरेधीरे सारी कालोनी जान जाएगी. इसलिए उस स्थिति से बचने के लिए मैं अपने रिश्ते पर विवाह की मुहर लगा कर लोगों के संदेह पर पूर्णविराम लगाना चाहता हूं.

‘‘शुरू में थोड़ी कठिनाई आएगी, लेकिन धीरेधीरे सब भूल जाएंगे. आप मेरे बाकी जीवन की साथी बन जाएंगी तो मेरे जीवन के इस पड़ाव में खालीपन के कारण तथा शरीर के शिथिल होने के कारण जो शून्यता आ गई है, वह खत्म हो जाएगी. इस उम्र की इस से अधिक जरूरत ही क्या है?’’ सुनील ने बड़े सुलझे ढंग से उसे समझाया.

सुहासिनी के पास अब तर्क करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था. उस ने आंसूभरी आंखों से हामी भर दी. सलोनी के सिर से मानो मनों बोझ हट गया और वह भावातिरेक में सुनील के गले से लिपट गई.

अब सुहासिनी को अपने बेटे की प्रतिक्रिया की भी चिंता नहीं थी.

बुड्ढा आशिक: किस तरह प्रोफेसर प्रसाद कर रहे थे मानसी का शोषण

मानसी अभी कालेज से लौट कर होस्टल पहुंची ही थी कि उस के डीन मिस्टर प्रसाद का फोन आ गया. वह बैग पटक कर मोबाइल अटैंड करने लगी. प्रसाद मानसी के पीएचडी गाइड थे और वे चाहते थे कि मानसी उन के साथ बाहर जाने के लिए तैयार हो जाए, उन्हें तुरंत बाहर जाना है.

मानसी को समझ नहीं आया कि क्या कहे? हां कहे तो मुश्किल और ना कर दे तो और भी मुसीबत. तभी उसे अपने बचपन के साथी शिशिर का बहाने बनाने का फार्मूला याद आया.

उस ने कराहते हुए कहा, ‘‘सर, मैं तो एक कदम भी चल नहीं पा रही हूं.’’

प्रसाद भी बड़े घाघ थे, बोले, ‘‘अभी तो यहां से अच्छीभली निकली हो, अब क्या हो गया?’’

‘‘ओह,’’ मानसी आवाज में दर्द भर कर बोली, ‘‘सर, अभी यहां बस से उतरते समय मेरा पांव मुड़ गया जिस से मोच आ गई,’’ कहते हुए मानसी ने एक और कराह भरी.

अब प्रसादजी परेशान हो उठे. प्रसाद थे तो 52-55 की उम्र के बीच, पर अपनी ही स्टूडैंट स्कौलर छात्रा मानसी पर ऐसे लट्टू हुए रहते कि सारे कालेज में उन्हें ‘बुड्ढा आशिक’ के नाम से जाना जाता.

वे मानसी को डांटते हुए बोले, ‘‘क्या मानसी, तुम ढंग से नहीं चल सकती, अभी आता हूं तुम्हें देखने.’’

प्रसाद की बात सुन मानसी और परेशान हो उठी. फिर वह कराहते हुए बोली, ‘‘वह मेरा दोस्त शिशिर आ रहा है, वह दवा दे देगा. आप चिंता न करें मैं ठीक हो जाऊंगी.’’ बेचारे प्रसाद सर ने बाहर जाने का अपना प्रोग्राम ही कैंसिल कर दिया. वे मानसी के बिना नहीं जाना चाहते थे. उन का हाल तो कुछ ऐसा था कि एक मिनट भी मानसी के बिना न रहें.

मानसी थी तो उन की एक रिसर्च स्कौलर छात्रा, किंतु उस के विरह में जैसे वे हलकान होते थे, यह देख कर उन के साथी तो क्या उन के स्टूडैंट भी परेशान हो जाते थे और कई बार उन्हें चिढ़ा कर कहते, ‘‘सर, मानसीजी तो कैंटीन में खा रही हैं.’’

इस पर वे बड़े परेशान हो जाते और फोन कर मानसी से कहते, ‘‘अरे मानसी, कैंटीन का खाना खा कर तुम बीमार हो जाओगी. आओ तो, यहां मेरे कैबिन में देखो, मनोरमा ने क्या लजीज खाना बना कर भेजा है.’’

इस पर मानसी की सारी सहेलियां उस की हंसी उड़ाती और कहतीं, ‘‘जा, तेरा बुड्ढा आशिक तुझे बुला रहा है.’’ मानसी भी कम नहीं थी, वह कहती, ’’कम से कम आशिक तो है, तुम्हारे तो वे भी नहीं हैं.’’

मानसी ने अपने कक्ष में बैड पर लेट कर कुछ देर रैस्ट किया, फिर फोन पर शिशिर का नंबर मिला कर बतियाने लगी, ’’अरे, कंपाउंडर साहब, कैसे हो,’’ शिशिर कोई कंपाउंडर नहीं था, वह तो अपने पिता का तेल का बिजनैस संभालता था. उस के पिता तेल के व्यापारी थे और उन का यह व्यवसाय पीढि़यों से चल रहा था. मानसी व शिशिर के घरमहल्ले थोड़ी दूरी पर ही थे. शिशिर उस के साथ ही कालेज तक पढ़ता रहा था. एमए के दौरान शिशिर के पिता के बीमार होने पर उसे पूरा बिजनैस संभालना पड़ा था. तब मानसी ही उस की मदद कर के एमए की परीक्षा जैसेतैसे दिलवा सकी. फिर वह आगे न पढ़ सका. मानसी ने पीएचडी की पढ़ाई जारी रखी. इस तरह वे थोड़े दूर तो हो गए, पर मोबाइल पर दोनों के बीच बातचीत होती रहती थी. यहां तक कि मानसी के घर पर कोई काम हो तो शिशिर ही कर जाता.

मानसी के पिता नहीं रहे थे. उस की बहन वैशाली ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था, वह अपना बुटीक चलाती थी. वह मानसी से बड़ी थी.

मानसी को प्रसाद प्यार से मनु कहते. उन्हें लगता मनु ही उन की सच्ची संगिनी हो सकती है. उस समय वह भूल जाते कि उन की भी पत्नी है, बच्चे हैं, घरबार है. वे मानसी के पीएचडी के काम में जरा भी रुचि नहीं लेते थे. इस से मानसी को भीतर ही भीतर गुस्सा आता.

प्रसाद की पत्नी मनोरमा अपनी नई बहू व नाती में इतनी व्यस्त रहती कि उस बेचारी को पता ही नहीं था कि इधर उस के पति क्या रंगरलियां मना रहे हैं.

अगले दिन मानसी कालेज पहुंची, तो ठीकठाक थी, किंतु जैसे ही वह प्रसाद के कैबिन के सामने पहुंची, लंगड़ाने लगी. प्रसाद लपकते हुए बाहर आए और बोले, ’’अरे मानसी, संभल कर.’’

मानसी तो शर्म से पानीपानी हो गई. उस की सारी सहेलियां भी यह देख कर हंस कर लोटपोट हो रही थीं. वे बोलीं, ’’यह क्या मनु? लग रहा था, प्रसाद अभी तुम्हें गोद में उठा कर सीधे अपने कैबिन में ही ले जाएंगे.’’

मानसी ने किताबें समेटीं व लाइब्रेरी में जा बैठी. तभी प्रसाद भी वहां आ गए और पूछने लगे, ’’कल क्यों नहीं आई? कितना मजा आता, केरल का ट्रिप था?’’

मानसी को लगा, साफसाफ कह दे कि आप अपनी श्रीमतीजी को क्यों नहीं ले जाते? पर चुप रही, उसे पीएचडी भी तो पूरी करनी है. प्रसाद को टरका कर उस ने शिशिर को फोन मिलाया, ’’अरे, कंपाउंडर…’’ फिर शुरू हो गई दोनों की बातचीत. शिशिर को वह कंपाउंडर इसलिए कहती थी कि खुद पीएचडी कर के डाक्टर हो जाएगी.

अभी उस ने कुछ लिखा ही था कि फिर प्रसाद आ गए और शुरू हो गई वही उन की बकवास, ’’आप कितनी खूबसूरत हैं, आप पर तो सब फिदा होते होंगे?’’

इधर मानसी की सहेलियां चुपके से सुनतीं और कहतीं, ’’तेरा बुड्ढा आशिक बेचारा…’’

इन बातों से मानसी का दिमाग गरम हो जाता, लेकिन वह क्या करे? पीएचडी तो उसे करनी ही है. फिर लैक्चररशिप… फिर मजे ही मजे. पर इस बुड्ढे आशिक से कैसे पीछा छुड़ाए? वह बेचारी मन मसोस कर रह जाती.

एक दिन तो गजब हो गया. सारी सहेलियों के साथ वह फिल्म देखने गई थी. वहां सभी ऐंजौय कर रही थीं कि जाने कहां से प्रसाद टपक पड़े,’’अरे, अब क्या करें.’’ सारी सहेलियां एकदम चीखीं. ’मुझे इस बला से पिंड छुड़ाना ही होगा,’ एक दिन मानसी सोचने लगी, लेकिन ऐसे कि लाठी भी न टूटे और सांप भी मर जाए.

अब तो हद ही हो गई थी, रोज कालेज से होस्टल पहुंचते ही उस के मोबाइल पर प्रसाद का मैसेज आ जाता, ’शाम को कहीं चलते हैं, वहीं डिनर करेंगे.’ अति होने पर मानसी ने सोच लिया कि कुछ तो करना ही पड़ेगा. रोज कहां तक बहाने बनाए. अत: उस ने शिशिर को फोन किया, ’’कंपाउंडर साहब, कल तैयार रहना…’’ और उसे अपनी सारी योजना भी बताई. वह पीली साड़ी और गले में मंगलसूत्र डाले शिशिर की स्कूटी से कालेज पहुंची और सीधे प्रसाद के कैबिन में विनम्रता से दाखिल हुई, ’’मे आई कम इन सर,’’ कुछ ऐसा ही मुंह से निकला मानसी के.

’’ओह… ’’प्रसाद ने सिर उठाया, वे पेपर पढ़ रहे थे. देख कर गिरतेगिरते बचे. ’’कम इन… कम इन…’’ वे बोले.

’’सर, ये मेरे मंगेतर शिशिर, अब मेरे जीवनसाथी बन गए हैं. हम दोनों ने शादी कर ली है. सर, आशीर्वाद दीजिए न.’’ मानसी ने हाथ जोड़ कर कहा.

प्रसाद की तो भृकुटी तन गई. उसे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वे मानसी से क्या कहें.

’’तुम… हांहां ठीक है, ठीक है, जाओ.’’ मानसी पर उन्हें गुस्सा आ रहा था.

मानसी बोली, ’’सर, डिनर…’’

प्रसाद बोले, ’’नहीं. आज मनोरमा को क्लीनिक ले कर जाना है. मानसी बोली,’’बधाई हो सर.’’

प्रसाद को जैसे काटो तो खून नहीं. मानसी बाहर आ गई. शिशिर को मंगलसूत्र उतार कर देते हुए बोली, ’’इसे संभाल कर रखना. फिर काम आएगा.’’

उस की सारी सहेलियां भी उस के इस नाटक से हैरान थीं. वे बोलीं, ’’तेरा जवाब नहीं मानसी, तूने सही तरीका ढूंढ़ा उस बुड्ढे आशिक से पीछा छुड़ाने का. अब शायद ही कभी वह ऐसी हरकतें करे.’’ मानसी बोली, ’’हम ऐसे ही डाक्टर थोड़े हैं,’’ और कैंपस में ठहाके गूंजने लगे.

रिश्तों का तानाबाना: क्या गीतिका ने उस प्रस्ताव को स्वीकार किया?

लेखिका- प्रेमलता यदु

एक महीने से गीतिका खुद को पूरी तरह भुला कर रातदिन अपने एक न‌ए प्रोजैक्ट पर काम कर रही है. यह प्रोजैक्ट उस के कैरियर को नया आयाम देने वाला है. प्रोजैक्ट के ऐप्रूव्ड होते ही कंपनी द्वारा उसे प्रोजैक्ट हेड बना कर एक साल के लिए न्यूजर्सी जाने का मौका मिलने वाला है. और गीतिका यह मौका किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती.

गीतिका जितनी जल्दी हो सके इंडिया से बाहर चली जाना चाहती है. वह अपने काम में कुछ इस तरह गुम हो जाना चाहती है कि वह अपनेआप को भी भुला देना चाहती है और साथ ही, वह बचपन से जुड़ी हर कड़वी याद को अपने स्मृतिपटल से निकाल फेंकना चाहती है. जब से उस ने होश संभाला है तब से ले कर आज तक वह इसी कोशिश में रही है. इतने सालों बाद आज भी उसे अपना बचपन डरावना लगता है, लेकिन भला ऐसा कभी हुआ है. मनुष्य जिन यादों को जितना भूलना चाहता है वे उतना ही उस का पीछा करती हैं.

गीतिका का बचपन दूसरे बच्चों के बचपन से बिलकुल अलग रहा. वह चाह कर भी अपने बचपन को आम बच्चों की तरह जी नहीं पाई, जिसे ले कर आज भी उस के मन में गुस्सा और कसक है, जो उसे टीस की तरह चुभते हैं. उस की कोई गलती न थी, लेकिन सज़ा उसे मिली. स्कूल में, समाज में और फ्रैंड्स के बीच सदा उस का उपहास हुआ. अपने बड़े से मकान के एक छोटे से कोने में न जाने उस ने कितना ही वक्त अकेले रोते हुए गुज़ारा है.

हर रिश्ते से गीतिका का विश्वास पूरी तरह से उठ चुका है. वह न अब किसी पर भरोसा करती है और न ही कोई नया रिश्ता बनाना चाहती है. फिर भी उस का एक रिश्ता अपनी मैड रोज़ी आंटी और अपने कलीग विशिष्ट से बन ही गया है. रोज़ी आंटी सदा गीतिका का ध्यान ऐसे रखती आई है जैसा गीतिका हमेशा से चाहती थी कि उस की अपनी मां रखे. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. उसे कभी भी अपनी मां से वह प्यार व दुलार न मिला जिस की उसे चाहत थी और वह पिता के स्नेह से भी सदा वंचित ही रही.

रात के 11 बजे अपने सहकर्मी विशिष्ट के साथ गीतिका घर पहुंची. घर के गेट पर पहुंच, विशिष्ट के कार रोकते ही गीतिका ने कहा-

“अंदर नहीं चलोगे, लेट्स हैव अ कप औफ कौफी.”

विशिष्ट ने कार स्टार्ट करते हुए कहा-

“नहीं गीतिका, आज नहीं, अभी काफी देर हो गई है, कल औफिस में मिलते हैं. वैसे भी, कल तुम्हारा प्रोजैक्ट फाइनल हो जाएगा. उस के बाद कौफी से काम नहीं चलेगा, तुम से पार्टी चाहिए”

गीतिका मुसकराती हुई कार की विंडो पर हाथ रखती हुई बोली-

” ओके, श्योर, व्हाय नौट.”

गीतिका के ऐसा कहते ही विशिष्ट वहां से चला गया और गीतिका घर की ओर मुड़ी. गीतिका बहुत अच्छे से जानती है कि विशिष्ट के दिल में उस के लिए जज्बात हैं. लेकिन वह किसी भी प्रकार के रिश्ते पर विश्वास नहीं करती, यह बात विशिष्ट भी अच्छी तरह जानता है. इसलिए, उस ने गीतिका से यह वादा किया है कि वह कभी भी उसे अपने साथ रिश्ते में बंधने के लिए मजबूर नहीं करेगा, जब तक वह स्वयं इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो जाती लेकिन वह आजीवन उस का इंतज़ार जरूर करेगा.

घर के अंदर पहुंचते ही रोज़ी गीतिका का औफिस बैग अपने हाथों में लेती हुई बोली-

“गीतिका बेबी, आप जल्दी से मुंहहाथ धो लो, मैं आप के लिए गरमागरम फुल्के बनाती हूं.”

गीतिका अपने दोनों हाथ रोज़ी के कंधे पर रखती हुई बोली-

“अरे आंटी, मैं ने आप से कितनी बार कहा है कि आप मेरा वेट मत किया करो, आप खाना खा कर सो क्यों नहीं जाती हैं, मैं खाना खा लूंगी.”

“हां, मुझे मालूम है, आप को अपने काम के अलावा कभी अपनी सुध रही है क्या… जिस दिन आप अपना ध्यान रखना शुरू कर दोगी न बेबी, उस दिन मैं सो जाऊंगी लेकिन तब तक नहीं,” रोज़ी डांटती हुई सी गीतिका से कहने लगी.

गीतिका चाहे कितना भी लेट क्यों न हो जाए, रोज़ी उसे बिना खाना खाए रात में सोने नहीं देती और सुबह बिना ब्रेकफास्ट के घर से निकलने नहीं देती. दोनों के बीच एक अलग ही रिश्ता है.

गीतिका के खाना खाने के बाद रोज़ी थोड़ा हिचकिचाती हुई बोली- “बेबी, मैडम का फोन आया था. आप से बात करना चाह रही थीं. शायद, मैडम ने आप के नंबर पर भी फोन किया था लेकिन आप ने फोन नही उठाया.”

“हां, नहीं उठाया क्योंकि मैं बिज़ी थी. वैसे भी, उन्हें क्या जरूरत है मुझे फोन करने की? जब 10 साल पहले वह हमें छोड़ कर जा चुकी है तो क्यों बारबार आ जाती है मेरी जिंदगी में मेरी दुखती रग पर हाथ रखने के लिए, क्यों चैन से मुझे जीने नहीं देती,” गीतिका गुस्से में चिढ़ती हुई बोली.

“नहीं बेबी, ऐसा नहीं कहते. आखिर, उन्होंने आप को जन्म दिया है, वे आप की मां हैं.”

“मां है, ऐसा आप कह रही हैं आंटी सबकुछ जानते हुए. आप अच्छी तरह से जानती हैं कि उन्होंने मुझे जन्म दे कर छोड़ दिया मरने के लिए, कभी प्यार से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ नहीं फेरा, न ही कभी यह जानने की कोशिश की कि मैं क्या चाहती हूं, मैं क्या सोचती हूं,” गीतिका गुस्से से डबडबाई आंखों से कहने लगी.

“बेटा, मैं यह सब जानती हूं. लेकिन मैडम जैसी भी हैं, आप की मां हैं, आप की जननी हैं, कल शाम की फ्लाइट से साहब और मैडम दोनों आ रहे हैं. आप दोनों से प्यार से मिलना, उन के साथ जरा भी बदतमीजी न करना,” गीतिका के सिर पर हाथ रखती हुई रोज़ी उसे समझाने की कोशिश करने लगी.

“आंटी, आप मुझ से ऐसी कोई उम्मीद न रखें, तो बेहतर होगा,” ऐसा कहती हुई गीतिका वहां से अपने रूम में तेज़ी से चली गई.

अपने रूम की सारे लाइटें बंद कर गीतिका उन जगमगाती रोशन गलियों में अपने खोए हुए बचपन को देखने लगी जहां इतना ज्यादा शोरशराबा, चकाचौंध और चमक थी कि उस नन्ही सी जान को न कोई सुन पा रहा था और न ही समझ पा रहा था.

गीतिका की मां शालिनी गुप्ता शहर की जानीमानी हस्ती, प्रसिद्ध समाजसेविका होने के साथ ही साथ एक प्रतिष्ठित पद पर भी थी. पिता विनय गुप्ता भी अच्छे पद पर कार्यरत थे लेकिन गीतिका की मां और अपनी पत्नी के पद से शायद उन का ओहदा नीचे था, यह बात अकसर गीतिका अपने मातापिता के झगड़े के दौरान सुना करती थी, इसलिए वह यह जान चुकी थी कि उस के पिता का पद उस की मां के पद से नीचे है.

बचपन से ही वह एक और बात जान चुकी थी कि उस के मम्मी व पापा के बीच जिस की वजह से हर रोज़ लड़ाई झगडे होते हैं वह कोई और नहीं मम्मी के सहकर्मी व पुरुष मित्र हैं और शायद वह मित्र उस की मम्मी के लिए मित्र से भी कहीं ज्यादा माने रखता है, इसलिए तो उस की मम्मी अपने मित्र के लिए गीतिका और अपने पति को छोड़ने के लिए तैयार थी और यही हुआ भी जब गीतिका 16 साल की थी, गीतिका के माता और पिता के बीच तलाक हो गया.

कोर्ट में जब गीतिका से उस की मरजी पूछी गई कि वह किस के साथ रहना चाहती है- अपनी मम्मी के साथ या पापा के साथ. गीतिका चीखचीख कर कहना चाहती थी वह किसी के साथ नहीं रहना चाहती, लेकिन वह ऐसा कह नहीं पाई. वह बहुत अच्छी तरह से जानती थी कि मम्मी के पास उसे देने के लिए बहुत पैसे हैं पर वक्त नहीं, वह यह भी जानती थी कि देने के लिए पापा के पास भी केवल पैसे ही हैं. लेकिन उसे अपने मातापिता दोनों से किसी एक को चुनना था, सो उस ने अपने पिता को चुना.

दूसरे बच्चों को जब वह अपने मातापिता के साथ देखती तो उस का मन तारतार हो जाता और वह क्रोध व आक्रोश से भर जाती. गीतिका भी अपने मातापिता के संग वैसे ही रहना चाहती थी जैसे उस के बाकी फ्रैंड्स रहते थे. लेकिन यह संभव नहीं था और इस बात ने गीतिका के मन को इतना प्रभावित किया कि वह अवसाद में चली गई और नशा करने लगी.

आज भी गीतिका भूली नहीं है वह दिन जब रोज़ी आंटी ने उसे ड्रग्स लेते हुए पकड़ लिया था. अपने मातापिता के तलाक के बाद जब वह अपने पापा के साथ रहने लगी थी तब उस के पापा ने रोज़ी को गीतिका की देखभाल के लिए रखा था, क्योंकि वे अकसर अपने काम के सिलसिले में बाहर ही रहते. अभी कुछ ही दिन हुए थे रोज़ी आंटी को घर में आए. एक दिन जब वह खाना ले कर उस के रूम में पहुंची तो गीतिका उसे नशे की हालत में मिली.

स्कूल के कुछ सीनियर स्टूडैंट्स के बहकावे में आ कर वह नशा करने लगी थी. रोज़ी को देख गीतिका घबरा गई. तभी रोज़ी आंटी ने गीतिका को अपने सीने से लगा लिया. गीतिका को ऐसा लगा जैसे उस की मनचाही मुराद पूरी हो गई और वह रोज़ी के सीने से लग कर फूटफूट कर रोने लगी.

रोज़ी उस के आंसुओं को पोंछती हुई कस कर उसे अपनी बांहों में समेट लिया जैसे एक मां अपने बच्चे को आंचल में छिपा लेती है. गीतिका को उसे शांत कराती हुई रोजी बोली, “गीतिका बेबी, नशा किसी भी समस्या का समाधान नहीं. यदि आप किसी से नाराज़ हैं तो सज़ा अपनेआप को क्यों दे रही हैं. आप के नशा करने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन आप को फर्क पड़ेगा. आप बीमार हो जाएंगी, कमजोर हो जाएंगी, क्लास में आप का परफौर्मेंस बिगड़ जाएगा. फिर जो बच्चे अभी आप पर हसंते हैं, आप का मजाक बनाते हैं, वे आपको और ज्यादा परेशान करेंगे. इसलिए आप अपनी सारी एनर्जी पढ़ाई पर लगा दीजिए, खूब पढ़ाई करिए ताकि कोई आप का मज़ाक न बना पाए. सब आप से प्यार करें और आप अपना निर्णय स्वयं लेने के काबिल बनें.”

उस दिन के बाद से गीतिका ने अपनी सारी ऊर्जा पढ़ाई में लगा दी और रोज़ी आंटी ने गीतिका की देखभाल में. अभी गीतिका अपने बचपन में मिले नासूर घावों के असहनीय दर्द के साथ कमरे में कराह रही थी कि आवाज़ आई, “गीतिका बेबी, गीतिका बेबी.” एक न‌ई सुबह ने दस्तक दे दी थी.

गीतिका के दरवाज़ा खोलते ही सामने हाथों में कौफी का कप लिए रोज़ी आंटी खड़ी थी. रूम के साइड टेबल पर कौफी का कप रख, आंटी गीतिका का माथा चूमती हुई बोली, “कौफी पी कर तैयार हो जाइए आज, आपका प्रजेंटेशन है और मुझे पूरी उम्मीद है कि आप को सफलता जरूर मिलेगी.”

इतना कह रोज़ी कमरे से लौट ग‌ई. गीतिका तैयार हो नाश्ते की टेबल पर पहुंची और जब नाश्ता कर वह जाने लगी तो रोज़ी ने कहा, “बेबी, शाम को जल्दी आने की कोशिश करना.”

गीतिका बिना कुछ कहे रोज़ी को गले लगा कर चली गई.

शाम को जब गीतिका घर पहुंची तो उस के मातापिता आ चुके थे. गीतिका को देखते ही उस की मां ने उसे बांहों में लेना चाहा लेकिन गीतिका ने उन्हें झटक दिया और कहने लगी, “क्यों आए हैं आप दोनों यहां. जो भी कहना है, जल्दी कहिए. मुझे कुछ ही दिनों में न्यूजर्सी के लिए निकलना है. बहुत सी जरूरी फौर्मैलिटीज हैं जिन्हें पूरी करनी है. आई हैव नो टाइम, सो प्लीज़, जो कहना है, जल्दी कहिए.”

गीतिका को इस प्रकार बात करता देख गीतिका की मां बोली, “हमें मालूम है बेटा, रोज़ी ने हमें सब बता दिया है. तुम आउट औफ इंडिया जा रही हो, इसलिए तो हम आए हैं. तुम्हारे पापा और मैं ने मिल कर तुम्हारे बैटर फ्यूचर के लिए यह फैसला लिया है कि तुम्हारे जाने से पहले हम तुम्हारी शादी करा देते हैं. लड़का कोई और नहीं, हमारे शहर के जानेमाने व्यापारी और मेरी फ्रैंड मिसेज चंद्रा का बेटा है. वे लोग चाहते हैं कि तुम उन के घर की बहू बनो और हम भी यही चाहते हैं.”

यह सुनते ही गीतिका के सब्र का बांध टूट गया और वह ऊंची आवाज़ में बोली, “मेरे बैटर फ्यूचर के लिए…? किस ने कहा आप लोगों को मेरे फ्यूचर के बारे में सोचने के लिए या फैसला लेने के लिए कहा? उस वक्त कहां थे आप दोनों जब आप लोगों की वजह से मेरी क्लास के बच्चे मेरा मज़ाक उड़ाया करते थे, उस वक्त कहां थे आप लोग जब आप दोनों के तलाक की वजह से मैं डिप्रेशन में चली गई थी, ड्रग्स लेने लगी थी. उस समय आप दोनों को मेरे बैटर फ्यूचर का ख़याल नहीं आया और आज जब मैं अपना फ्यूचर खुद संवार सकती हूं, संभाल सकती हूं तो आप लोगों को मेरे भविष्य की चिंता हो रही. आप दोनों यहां से चले जाइए, मुझे वहां शादी नहीं करनी है.”

गीतिका के मुख से ये सब कड़वी बातें सुन गीतिका के पापा उस के सिर पर हाथ रख कर कहने लगे, “बेटा, हम तुम्हारे पेरैंट्स हैं और हम हर हाल में तुम्हारी भलाई चाहते हैं. वैसे भी, आज नहीं तो कल, तुम्हें किसी न किसी लड़के से शादी तो करनी ही है. तो फिर, इस लड़के से क्यों नहीं? ”

“पापा, किसी भी बच्चे की भलाई तब होती है जब मातापिता दोनों अपने बच्चों के मनोभाव को समझते हैं. ‌उन्हें गिफ्ट के साथसाथ अपना वक्त, प्यार और दुलार भी देते हैं. रही बात शादी की, तो शादी तो मैं जरूर करूंगी लेकिन उस लड़के से नहीं जिस से आप दोनों चाहते हैं बल्कि उस से जो मुझे चाहता है और जिसे मैं चाहती हूं.”

“जिसे तुम चाहती हो, मतलब?” गीतिका की मां ने आश्चर्य से पूछा.

गीतिका मुसकराती हुई बोली, “हां, जिसे मैं प्यार करती हूं, वह मेरा कलीग विशिष्ट है, जिस ने मुझे दोबारा रिश्तों पर विश्वास करना सिखाया, रिश्तों का मतलब बताया, रिश्तों को निभाना सिखाया. विशिष्ट मेरे जज्बात को समझता है, मुझे समझता है. आज मेरा प्रोजैक्ट ऐप्रूव्ड होते ही मैं ने उस से अपने दिल की बात कह दी है. मेरे न्यूजर्सी से लौटते ही हम शादी कर लेंगे और हम जब भी शादी करेंगे, आप दोनों को जरूर इन्फौर्म कर दूंगी लेकिन तब तक आप लोग न मुझे फोन करेंगे और न ही यहां आएंगे. अब आप दोनों यहां से जा सकते हैं.” और गीतिका अपने रूम में चली गई.

घरवाली और रसोई वाली: ऐग्जिक्यूटिव साहब का घर से बाहर निकालना क्यों मुश्किल हो गया था

पढ़ाई पूरी हुई. कैंपस सलैक्शन से कोलकाता में अच्छी जौब लग गई. मैं ने एक अच्छे कौंप्लैक्स में डबलबैड अपार्टमैंट किराए पर ले लिया. नौकरी जौइन करने भर की देर थी कि माताश्रीपिताश्री ने मेरे लिए अपनी ओर से कन्या फाइनल कर दी. मेरी सहमति के लिए मुझे रांची बुलावा भेजा. मैं चर्च कौंप्लैक्स स्थित विशेष रैस्टोरैंट में सुहाना से मिला. हम ने साथसाथ पनीर कटलेट, पनीर चिली का आनंद लिया. सुहाना बोकारो की थी. उसे रैस्टोरैंट का माहौल बेहद पसंद आया. हम ने नक्षत्र वन में लंबी बातचीत की.

‘‘मैं खाने का बेहद शौकीन हूं. चटपटा, मसालेदार खाना पसंद है,’’ मैं ने सुहाना को बताया.

‘‘मैं भी कुछ बताना चाहती हूं,’’ मितभाषी सुहाना ने हिम्मत की. अब तक केवल हूंहां ही कर रही थी.

‘‘बेहिचक बताओ. किसी को चाहती हो? कोई अफेयर रहा है? कोई समस्या है?’’ मैं ने कई प्रश्न एकसाथ कर दिए. मुझे चिंता हो आई थी. मैं अब तक गोरीचिट्टी, लंबीछरहरी और शर्मीली सुहाना को अपना चुका था.

‘‘कुकिंग नहीं आती. कभी की नहीं. अपने बड़े परिवार में रसोइए महाराज लगे हैं. बस खाना जानती हूं,’’ सुहाना ने सिर झुकाए बताया. वह मुसकरा भी रही थी. शायद उस ने मेरी परेशानी भांप ली थी.

‘‘नो प्रौब्लम. हम रसोई वाली रख लेंगे. वैसे भी कोलकाता की चिपकूचिपकू गरमी में कुकिंग सचमुच एक बड़ी प्रौब्लम है… सुहाना सांवली हो जाएगी,’’ मेरी अफेयर वाली चिंता दूर हो चुकी थी.  मैं सुहाना को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहता था.

मेरी ‘ओके’ रिपोर्ट के साथ ही शादी की तैयारी शुरू हो गई. 30 दिनों में ही सुहाना मेरी सुप्रिया, जानेमन, हंप्टी शर्मा की दुलहनिया यानी मेरी प्यारीदुलारी घरवाली बन गई. हम ने मुंबई, गोवा, महाबलेश्वर में हनीमून मनाया. मुंबई के सिनेमाघर में लंबे समय से चल रही ‘दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे’ देखी. गोवा में सुहाना को बिकनी में कैमरे में उतारा. महाबेलश्वर में स्पैशल स्ट्राबैरी आइसक्रीम का आनंद उठाया. साथसाथ घुड़सवारी की, डूबते सूरज को निहारा.

‘‘रसोई वाली लगेगी तो फिर कोलकाता आ जाऊंगी,’’ सुहाना ने शर्त रखी.

मैं ने कोलकाता में औफिस के दोस्तों को पूरा किस्सा सुनाया. मेरे 2 दोस्त साथ ही कौंप्लैक्स में अलगअलग अपार्टमैंट में रहते थे. मैं ने सिक्युरिटी औफिस में रसोई वाली की अपनी जरूरत बता दी.

अगले दिन सुबहसुबह रसोई वाली हाजिर हो गई. छुट्टी का दिन था. मैं न्यूज पेपर में उलझा था.

मैं ने रसोई वाली को गौर से देखा. दुबलीपतली, सांवली, बड़ीबड़ी आंखें, कुल मिला कर सुंदर थी. सिकुड़ीमुड़ी लेकिन साफसुथरी सलवारकमीज में थी.

‘‘कुकिंग कर लेती हो?’’ मैं ने अटपटा प्रश्न पूछ लिया. मैं रसोई वाली के इंटरव्यू के लिए तैयार नहीं था.

‘‘मुझे कुकिंग नहीं आती तो ऐसे ही 2 फ्लैटों में रसोई करती?’’ सांवली सपाट स्वर में बोली.

‘‘आलू के परांठे बना लेती हो?’’ नाश्ते में आलू के परांठे, मक्खन, दही और कसे कच्चे आम की मसालेदार चटनी मैं चटखारे ले कर खाता था.

‘‘नाश्ते में 6 भरवां परांठे या 12 पूरीभाजी, लंच के लिए 10 रोटियां, पसंद की 1 भाजी. रात के खाने में 6 रोटियां, थोड़े चावल, सूखी भाजी और रसदार सब्जी. इतवार को राइस चिकन, सलाद, चिकन करेगी तो बच्चों के लिए थोड़ा ले जाएगी. नाश्ते का 500, लंच का 1000, डिनर का

1000 लेगी. महीने में 2 दिन छुट्टी करेगी. मंजूर हो तो बोलने का नहीं तो जाएगी,’’ सांवली ने एक ही सांस में अपनी बात पूरी की और फिर लिफ्ट के पास खड़ी हो गई.

‘‘सारी शर्तें मंजूर हैं…पहली तारीख से आ सकती हो?’’ मुझे तुनकमिजाज सांवली पसंद  आई. तपे सोने की तरह खरी लगी.

मैं ने सुहाना को पूरी रिपोर्ट दी. बयान करने में मजा आया.

‘‘सुंदर है? क्या नाम बताया?’’ सुहाना ने पूछा.

‘‘फोटोजेनिक है…तुम्हारी तरह गोरी और चिकनी नहीं है. नाम तो पूछा ही नहीं,’’ मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ.

‘‘सांवली पर जनाब फिदा हो गए… घरवाली से जी भर गया… रसोई वाली अब सुप्रिया बनेगी,’’ सुहाना ने मुझे छेड़ा.

‘‘कुकिंग नहीं सीखने का खमियाजा तो भुगतना पड़गा,’’ मैं ने माकूल जवाब दिया.

‘‘पूरी निगरानी रहेगी…रिटायर्ड कर्नल की बेटी हूं…फटाफट कुकिंग सीख कर सांवली का कोर्टमार्शल कर दूंगी,’’ सुहाना अब छुईमुई, गूंगी गुडि़या से बातूनी घरवाली बन चुकी थी.

अब और इंतजार संभव नहीं था. महीने के आखिरी दिन सुहाना कोलकाता पहुंच रही थी. मैं ने पूरे हफ्ते की छुट्टी ले रखी थी. एअरपोर्ट से वापसी में हम ने मिल कर खरीदारी की. किचन के लिए पूरी व्यवस्था की. सुहाना ने अपने लिए भी शौपिंग की. डिनर रैस्टोरैंट में लिया. दोनों ने मिल कर किचन के सामान को यथास्थान रखा.

सुबह 6.30 बजे सांवली आ गई. सुहाना से मिली. थोड़ी देर की बातचीत के बाद वह नाश्ता तैयार करने में जुट गई. घंटे भर में नाश्ता डाइनिंगटेबल पर सजा कर निकल गई.

नाश्ते के लिए हम साथसाथ बैठे. सांवली ने आलू के 6 करारे परांठे बनाए थे. लौकी की सादी भाजी थी. मक्खन, मिक्स्ड अचार का जार, गरम चाय सब कुछ करीने से रख गई थी.

‘‘परांठे अच्छे हैं, लेकिन 3 परांठों से जीभ को बहलाने में मुश्किल होगी.’’

‘‘लौकी की सादी भाजी भी अच्छी बनी है,’’ सुहाना ने भी सांवली की तारीफ की.

‘‘मेरे लिए बस 2 परांठे,’’ सुहाना ने अपने हिस्से का 1 परांठा मेरी प्लेट में डाल दिया. गरमगरम आलू के परांठे और उन पर मक्खन का लेप. नाश्ते में मजा आ रहा था. हम उस के काम से संतुष्ट थे. हम दोनों ने सांवली को अच्छी कुक मान लिया.

सांवली किचन की ड्यूटी बखूबी निभा रही थी. नौनवैज में चिकन राइस, चिकन बिरयानी अच्छी बना लेती थी. बेहद फुरतीली थी. समय का पूरा उपयोग करती थी. सलीके से रहती भी थी. नैननक्श तीखे थे. चेहरे में चमक और खिंचाव था. सचमुच अच्छी दिखती थी.

सुहाना खूब सजसंवर रही थी. उस का रंग निखर रहा था. देह मक्खन सी चिकनी थी. अकसर पार्लर जाती थी. महंगी ड्रैस पहनती थी. विदेशी परफ्यूम इस्तेमाल करती थी. मैं मंत्रमुग्ध हो उसे निहारता था. देह की सुंगध में भावविभोर हो जाता था. औफिस जाने से कतराता था. सुहाना जबरदस्ती भेजती थी. बहाना बना कर समय से पहले छुट्टी करने पर नाराज होती थी. पास नहीं आने देती थी.

सुहाना सांवली को भी समय देती थी. रसोई के गुर सीखती थी. सांवली छुट्टी करती तो नाश्ता बना लेती थी. करारे आलू के परांठों के साथ कच्चे आम की मसालेदार चटनी भी बना लेती थी.

सुहाना ने सचमुच भरपूर निगरानी रखी थी. तरीका अलग था. उस ने दूल्हे मियां का ध्यान पूरी तरह से अपनी ओर खींच रखा था. मुझे बांध रखा था. वह घरवाली थी, सुंदरी थी, सुप्रिया थी, सपनों की रानी थी, आकाश से उतरी परी थी, स्वर्गलोक की अप्सरा थी.

रसोई वाली सांवली अच्छी थी. उस में आकर्षण था, लेकिन सुहाना ने एमएनसी में कार्यरत सीनियर ऐग्जिक्यूटिव को पागल, दीवाना, मजनू, रांझा, रोमियो सब कुछ बना रखा था. रिटायर्ड कर्नल की बेटी यानी मेरी धर्मपत्नी यानी घरवाली ने रसोई वाली का कोर्टमार्शल कर दिया था.

‘‘ठीकठीक कुक बन गई हो, लेकिन रसोई वाली की छुट्टी नहीं होगी.’’

‘‘रसोई वाली अच्छी लगती है?’’

‘‘नहीं, रसोई में सांवली हो जाओगी. गरमी में पसीने से चिपकूचिपकू हो जाओगी.’’

‘‘रसोई में एसी लगा देना.’’

‘‘देह में मसाले की गंध समा जाएगी.’’

‘‘इत्र लगा देना.’’

यह कानाफूसी हमारी प्राइवेट बातें हैं. औफ द रिकौर्ड… नो नारेबाजी नो डिमौंस्ट्रेशन ऐंड नो रिमूवल डिमांड प्लीज.

ट्रिक: मां और सास के झगड़े को क्या सुलझा पाई नेहा?

“मम्मा आप को एक खुशखबरी देनी थी.”

“हां बेटा बता न क्या खुशख़बरी है? कहीं तू मुझे नानी तो नहीं बनाने वाली?” सरला देवी ने उत्सुकता से पूछा.

“जी मम्मा यही बात है,” कहते हुए नेहा खुद में शरमा गई.

आज सुबह ही नेहा को यह बात कंफर्म हुई थी कि वह मां बनने वाली है. एक बार जा कर हॉस्पिटल में भी चेकअप करा लिया था. अपने पति अभिनव के बाद खुशी का यह समाचार सब से पहले उस ने अपनी मां को ही सुनाया था.

मां यह समाचार सुन कर खुशी से उछल पड़ी थीं,” मेरी बच्ची तू बिलकुल अपने जैसी प्यारी सी बेटी की मां बनेगी. तेरी बेटी अपनी नानी जैसी इंटेलिजेंट भी होगी और तेरे जैसी खूबसूरत भी. ”

“मम्मा आप भी न कमाल करते हो. आप ने पहले से कैसे बता दिया कि मुझे बेटी ही होगी?”

“क्योंकि बेटा ऐसा मेरा दिल कह रहा है और मैं ऐसा ही चाहती हूं. मेरी बच्ची देखना तुझे बेटी ही होगी. मैं अभी तेरे पापा को यह समाचार दे कर आती हूं. ”

नेहा ने मुस्कुराते हुए फोन काटा और अपनी सास को फोन लगाया,” मम्मी जी आप दादी बनने वाली हो.”

“क्या बहू तू सच कह रही है? मेरा पोता आने वाला है? तूने तो मेरा दिल खुश कर दिया. सच कब से इस दिन की राह देख रही थी. खुश रह बेटा,” सास उसे आशीर्वाद देने लगीं.

नेहा ने हंस कर कहा,” मम्मी जी ऐसा आप कैसे कह सकती हो कि पोता ही होगा? पोती भी तो हो सकती है न. ”

“न न बेटा. मुझे पोता ही चाहिए और देखना ऐसा ही होगा. पर बहू सुन तू अपनी पूरी केयर कर. इन दिनों ज्यादा वजन मत उठाना और वह लीला आ रही है न काम करने?”

“हां मम्मी जी आप चिंता न करो वह रेगुलर काम पर आ रही है. आजकल छुट्टियाँ लेनी भी कम कर दी है. ”

” उसे छुट्टी बिल्कुल भी मत देना बेटा. ऐसे समय में तेरा आराम करना बहुत जरूरी है. खासकर शुरू के और अंत के 3 महीने बहुत महत्वपूर्ण होते हैं.”

“हां मम्मी जी मैं जानती हूं. आप निश्चिंत रहिए. मैं अपना पूरा ख्याल रखूंगी,” कह कर नेहा ने फोन काट दिया.

प्रैग्नैंसी के इन शुरुआती महीनों में नेहा का जी बहुत मिचलाता था. ऐसे में अभिनव उस की बहुत केयर कर रहा था. कामवाली भी अपनी बीवी जी को हर तरह से आराम देने का प्रयास करती. सब कुछ अच्छे से चल रहा था. नेहा का पांचवां महीना चढ़ चुका था. उस दिन सुबहसुबह उठ कर वह बालकनी में आई तो देखा मां गाड़ी से उतर रही हैं. उन के हाथ में एक बड़ा सा बैग और नीचे सूटकेस भी रखा हुआ था. यानी मां उस के पास रहने आई थीं. खुशी से चिल्लाती हुई नेहा नीचे भागी. पीछेपीछे अभिनव भी पहुंच गया.

मां के हाथ से सूटकेस ले कर सीढ़ियां चढ़ते हुए उस ने पूछा,” मम्मी जी आप के क्लासेज का क्या होगा? आप यहां आ गए तो फिर बच्चों के क्लासेज कैसे कंटिन्यू करोगे?”

“अरे बेटा आजकल क्लासेज ऑनलाइन हो रहे हैं न. तभी मैं ने सोचा कि ऐसे समय में मुझे अपनी बिटिया के पास होना चाहिए.”

“यह तो आप ने बहुत अच्छा किया मम्मी जी. नेहा का मन भी लगेगा और उस की केयर भी हो जाएगी.”

“हां बेटा यही सोच कर मैं आ गई.”

“पर मम्मा पापा आप के बिना सब संभाल लेंगे?” नेहा ने शंका जाहिर की.

” बेटे तेरे पापा को संभालने के लिए बहू आ चुकी है. अब तो उन के सारे काम वही करती है. मैं तो वैसे भी आराम ही कर रही होती हूं.”

“ग्रेट मम्मा. आप ने बहुत प्यारा सरप्राइज दे दिया,” नेहा आज बहुत खुश थी. कितने समय बाद आज उसे मां के हाथों का खाना मिलेगा.

नेहा की मां को आए 10 दिन से ज्यादा समय बीत चुका था. मां उसे अपने हिसाब से प्रैग्नैंसी में जरुरी चीजें खिलातीं. उसे ताकीद करतीं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं. अपनी प्रैग्नैंसी के किस्से सुनातीं. सब मिला कर नेहा का समय काफी अच्छा गुजर रहा था. उस की मां काफी पढ़ीलिखी थीं. वह कॉलेज में लेक्चरर थीं और उसी हिसाब से थोड़ी कड़क भी थीं. जबकि नेहा का स्वभाव उन से अलग था. पर मां बेटी के बीच का रिश्ता बहुत प्यारा था और फिलहाल नेहा मां के सामीप्य और प्यारदुलार का भरपूर आनंद ले रही थी.

समय इसी तरह हंसीखुशी में बीत रहा था कि एक दिन अभिनव की मां का फोन आया,” बेटा मैं बहू के पास आ रही हूं. बड़ा मन कर रहा है अपने पोते को देखने का.”

“पर मौम आप का पोता अभी आया कहां है?” अभिनव ने टोका.

“अरे पागल आया नहीं पर आने वाला तो है. गर्भ में बैठे अपने पोते की सेवा नहीं करूंगी तो भला कैसी दादी कहलाउंगी? चल फोन रख मैं ने पैकिंग भी करनी है.”

“पर मौम आप का सत्संग और वह सेमिनार जहां आप रोज जाती हो? फिर आप का टिफिन सर्विस वाला बिजनेस भी तो है. उसे छोड़ कर यहाँ कैसे रह पाओगे?”

“अरे बेटे उस के लिए मैं ने 2 लोग रखे हुए हैं , माधुरी और निलय. दोनों अच्छी तरह बिजनेस संभाल रहे हैं. वैसे भी यह समय लौट कर नहीं आने वाला. सेमिनार बाद में भी अटैंड कर सकती हूं.”

“ओके मौम फिर आप आ जाओ. वैसे यहां नेहा की मम्मी भी आई हुई हैं. आप को उन की कंपनी भी मिल जाएगी.”

” वह कब आईं ?”

“वहीं करीब 15 दिन पहले.”

“चल ठीक है मैं फोन रखती हूं.”

दो दिन बाद ही अभिनव की मां भी पहुंच गईं. ऊपर से तो नेहा की मां ने उन का दिल खोल कर स्वागत किया और अभिनव की मां ने भी उन्हें गले लगाते हुए कहा कि हाय कितना अच्छा हुआ साथ रहने का मौका मिलेगा. पर अंदर ही अंदर दोनों के मन में एकदूसरे को ले कर प्रतियोगिता की भावना थी. जल्दी ही यह बात सामने भी आने लगी.

नेहा की मां सुबह 5 बजे उठ जाती थीं और नेहा को सैर के लिए ले जाती थीं. उन की देखादेखी अभिनव की मां 5 बजे से भी पहले उठ गईं और नेहा को योगासन सिखाने लगीं. उन्होंने टहलने के बजाय नेहा को प्रैग्नैंसी के समय काम आने वाले कुछ आसन करने का दबाव डालना शुरू किया. इधर नेहा की मां उसे अपने साथ वॉक पर ले जाना चाहती थीं. नेहा असमंजस में थी कि किस की सुने और किस की नहीं.

इस बात पर नेहा की मां उखड़ गईं,” बहन जी यह मेरी बेटी है और मैं इस वक्त इसे वॉक पर ले जाऊंगी. आप कोई और समय देख लो.”

” पर बहन जी आप समझ नहीं रहीं. व्यायाम का यही समय होता है. मैं ने अपनी प्रैग्नैंसी में सास के कहने पर योगा किया था तो देखो कैसा हैल्दी बेटा पैदा हुआ,” अभिनव की मां ने अपनी बात रखी.

अभिनव ने तुरंत समाधान निकाला और अपनी मां को समझाता हुआ बोला ,” मौम नेहा सुबह व्यायाम कर लेगी और शाम में योगा करेगी. वैसे भी योगा शाम में ज्यादा अच्छा होता है क्यों कि उस समय एनर्जी भी मैक्सिमम होती है.”

अब तो रोज ही किसी न किसी बात पर ऐसा ही कुछ नजारा देखने को मिलने लगा. जो काम नेहा की मां करने को कहती, अभिनव की मां कुछ अलग राग अलापने लगती. वैसे दोनों ही नेहा के हित की बात करतीं मगर कहीं न कहीं उन का मकसद दूसरे को नीचा दिखाना और खुद को ऊपर रखना भी होता था. अभिनव और नेहा कुछ दिनों तक तो यह सोचते रहे कि धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा मगर जल्द ही उन की समझ में आने लगा कि यहां कंपटीशन चल रहा है. दोनों अपनीअपनी चलाने की कोशिश में लगी रहतीं हैं.

उस दिन भी सुबह उठते ही नेहा की मां ने बेटी का माथा सहलाते हुए उसे जूस का गिलास पकड़ाया और बोलीं,” ले बेटा गाजर और चुकंदर का जूस पी ले. ऐसे समय में यह जूस बहुत फायदेमंद होता है. ”

तब तक अभिनव की मां भी पहुंच गईं,” अरे बेटा जूसवूस पीने से कुछ नहीं होगा. तुझे सुबहसुबह अनार और सेब जैसे फल कच्चे खाने चाहिए. इस से शरीर को फाइबर भी मिलेगा और शक्ति भी. यही नहीं अनार खून की कमी भी पूरी कर देगा”

नेहा हक्कीबक्की दोनों को देखती रही फिर दोनों की चीजें लेती हुई बोली,” मम्मी जी ये दोनों चीजें मुझे पसंद हैं. मैं जूस भी पी लूंगी और फल भी खा लूंगी. आप दोनों बाहर टहल कर आइए. आज मुझे आराम करना है. ”

उन्हें बाहर भेज कर नेहा ने लंबी सांस ली और अभिनव को आवाज लगाई. अभिनव बगल के कमरे से निकलता हुआ बोला,” यार नेहा अब तो दोनों सुबह से ही तुझे घेरे रहने का कोई मौका नहीं छोड़ती. इधर रात में भी 12 से पहले जाती नहीं हैं. हमारे पास अपना पर्सनल टाइम तो बचा ही नहीं.”

“हां अभिनव मैं भी यही सोच रही हूं. ये दोनों छोटीछोटी बातों पर खींचातानी में लगी रहती हैं. मेरी मम्मी को लगता है कि वह लेक्चरर हैं सो उन्हें ज्यादा नॉलेज है तो वहीँ तुम्हारी मम्मी को इस बात का गुमान है कि उन्होंने अपने दम पर तुम्हें पालापोसा है. सो हमारे लिए भी वह अपनी सलाह ही ऊपर रखती हैं.”

“यार मैं तो तुम से 4 पल प्यार की बातें करने को भी तरस जाता हूं. समझ नहीं आ रहा कि खुद को ऊपर दिखाने के इन के शीतयुद्ध में हम अपना सुकून कब तक खोते रहेंगे?”

तभी दोनों माएं टहल कर लौट आईं. रोज की तरह दोनों ने ही वाकयुद्ध शुरू करते हुए कहा,” सरला जी आप नेहा को मिठाइयां ज्यादा मत खिलाया करो. यह मेरी बच्ची की सेहत के लिए सही नहीं.”

“पर नैना जी मैं इसे गोंद और मेवों की मिठाइयां खिलाती हूं जो मैं ने अपने हाथों से बनाई हैं. आप नहीं जानतीं मेरी सास भी प्रैग्नैंसी के समय मुझे यही सब खिलाती थीं. तभी तो देखो अभिनव के पैदा होने में मुझे जरा सी भी तकलीफ नहीं हुई थी. अभिनव 4 किलोग्राम का पैदा हुआ था. देखने में इतना हट्टाकट्टा था और ऐसे मुस्कुराता रहता था कि नर्स भी बेवजह इसे गोद में उठा कर घूमती रहती थी.”

अभिनव ने कनखी से नेहा की तरफ देखा और दोनों मुस्कुरा उठे. नेहा की मां कहां हार मानने वाली थीं. तुरंत बोलीं,” अजी हमारी सास ने तो तरहतरह के आयुर्वेदिक काढ़े और फलों के सूप पिलाए थे तभी तो देखो नेहा बचपन से अब तक कभी बीमार नहीं पड़ी और कितना खिला हुआ रंग है इस का. मेरी जेठानी का बेटा बचपन में कभी खांसी तो कभी बुखार में पड़ा रहता था पर नेहा मस्त खेलतीकूदती बड़ी हो गई.

अभिनव की मां भी तुरंत बोल उठीं,” अरे बहन जी ऐसा भी कौन सा काढ़ा पिला दिया कि गर्भ के समय पी कर लड़की अब तक तंदुरुस्त रह जाए. ऐसा थोड़े ही होता है. आप भी जानें किस भ्रम में जीती हो.”

” मैं भ्रम में नहीं जीती बहन जी. हर बात का प्रैक्टिकल अनुभव कर के ही बताती हूं. मेरे मोहल्ले में तो मेरी इतनी चलती है कि किसी की भी बहू प्रैग्नैंट हो तो उन की सास पहले मुझ से सलाह लेने आती है कि बहू के खानेपीने का ख्याल कैसे रखा जाए. भ्रम में तो आप जीती हो.”

देखतेदेखते दोनों के बीच रोज की तरह घमासान छिड़ गया था. नेहा और अभिनव फिर से इस झगड़े को शांत कराने में जुट गए. अब तो ऐसा रोज की बात हो गई थी. कई बार तो दोनों इस बात पर झगड़ पड़ते कि आने वाला बच्चा लड़का होगा या लड़की. नेहा और अभिनव को पूरे दिन इन दोनों माओं के पीछे रहना पड़ता. एकदूसरे के साथ वक्त बिताने और प्यार जताने का अवसर ही नहीं मिलता.

एक दिन आजिज आ कर अभिनव ने कहा,” यार नेहा अब हमें अपनी इस बड़ी वाली समस्या का कोई हल निकालना ही पड़ेगा.”

” क्यों न हम एक ट्रिक आजमाएं. मैं बताती हूं क्या करना है,” कहते हुए नेहा ने अभिनव के कानों में कुछ कहा और दोनों मुस्कुरा उठे.

अगले दिन सुबहसुबह नेहा के पापा का कॉल आया. वह अपनी पत्नी से बात करना चाहते थे.

नेहा की मां ने फोन उठाया, “हां जी कैसे हो आप?”

” बस आप की बहुत याद आ रही है बेगम साहिबा.”

” ऐसी भी क्या याद आने लगी? अभी तो आई हूं. ”

“मैडम जी आप अभी नहीं 2 महीने पहले गई थीं और जानती हो पिछले संडे से मेरी तबीयत बहुत खराब है.” पिताजी ने कहा.

” हाय ऐसा क्या हो गया और बताया भी नहीं,” घबराते हुए नेहा की मां ने पूछा.

“बस बीपी हाई हुआ और मुझे चक्कर आ गया. मैं बाथरूम में गिर पड़ा. दाहिने पैर के घुटने बोल गए हैं. चल नहीं पा रहा हूं. अब तू ही बता बहू से हर काम तो नहीं करवा सकता न. बेटे ने स्टिक ला कर दी है पर दिल करता है तेरे कंधों का सहारा मिल जाता तो बहुत सुकून मिलता.”

“अरे इतना सब हो गया और आप मुझे अब बता रहे हो. पहले फोन कर दिया होता तो मैं पहले ही आ जाती.”

“कोई नहीं गुल्लू अब आ जा. मैं ने अभिनव से कह दिया है तेरा टिकट बुक कराने को. बस तू आ जा.”

“आती हूं जी आप चिंता न करो. मुझे बस नेहा की चिंता थी सो यहां रुकी हुई थी,” मां ने नेहा की तरफ देखते हुए कहा.

“नेहा की सास तो है न वहां. कुछ दिन वह देख लेंगी. आप हमें देख लो,” कह कर पिताजी शरारत से मुस्कुराए.

नेहा की मां हंस पड़ी,” तुम भी न कभी नहीं बदलोगे. चलो मैं आती हूं.”

अभिनव ने टिकट बुक करा रखी थी. अगले ही दिन नेहा की मां नेहा को हजारों हिदायतें दे कर अपने घर चली गईं. नेहा और अभिनव ने राहत की सांस ली. नेहा की मां के जाने के बाद घर में शांति छा गई. अब सास जितना जरूरी होता उतना ही हस्तक्षेप करतीं. नेहा और अभिनव को भी एकदूसरे के लिए समय मिलने लगा.

इसी तरह एकडेढ़ महीना गुजर गया. नेहा को आठवां महीना लग चुका था. वह अब काम करने की हालत में नहीं थी. नौकरानी घर का सारा काम करती और सास नेहा का ख्याल रखती.

सब अच्छे से चल रहा था कि एक दिन फिर नेहा की मां का कॉल आया, “बेटी अब तेरे पापा ठीक हैं. मैं कल परसों में पहुंच जाऊंगी तेरे पास.”

“पर मां अब कोई जरूरी नहीं कि आप परेशान हो कर आओ.”

” जरूरत कैसे नहीं बेटा? तेरी पहली प्रैग्नैंसी है. मुझ को तो पास में होना ही चाहिए. मेरे भी भला कौन से कई दर्जन बच्चे हैं ? लेदे कर एक तू है और तेरा भाई है. तेरी देखभाल मैं ने ही करनी है. तेरी सास से तो कुछ होने वाला नहीं. चल रख फोन मैं तैयारी कर लूं.”

फोन रखते हुए नेहा घबराए स्वर में बोली,” अभिनव अब क्या करें? फिर वही महाभारत शुरू हो जायेगी. .”

“क्या हुआ यह तो बताओ ?” अभिनव ने पूछा.

“मम्मा लौट कर आ रही हैं. पापा भी चोट का बहाना आखिर कब तक बनाते. हमारी यह ट्रिक एक महीने में ही बेकार हो गई, ” उदास स्वर में नेहा ने कहा.

“बेकार कुछ नहीं हुआ. अब वही ट्रिक हमें मेरी मम्मी पर चलाना होगा. तुम रुको मैं कुछ सोचता हूं.”

अगले दिन सुबहसुबह अभिनव अपनी मां के पास पहुंचा,” “मौम आप को याद है न पिछले साल आप शिमला में होने वाले टॉप बिजनेसवूमैन समिट में भाग लेने जाने वाली थीं. आप वहां होने वाले वर्कशॉप और सेमिनार का हिस्सा बनना चाहती थीं. मगर ऐन वक्त पर लतिका आंटी की तबियत खराब हो गई और आप दोनों जा नहीं सके. ”

“हां बेटे तेरी लतिका आंटी की तबियत खराब हो गई और उस के बिना मैं अकेली जाना नहीं चाहती थी. तभी तो हमारा वह प्लान कैंसिल हो गया था. ”

“वही तो मौम मगर अब आप के लिए खुशख़बरी है कि इस बार लतिका आंटी फुल फॉर्म में हैं. वह रिजर्वेशन कराने जा रही हैं. आप बताओ आप का क्या प्लान है?”

“अरे नहीं बेटा इस बार मैं नहीं जा सकूंगी. मेरा पोता जो आने वाला है. अगले साल का प्लान बना लेंगे.”

“बट मौम फिर शायद आप की यह ख्वाहिश कभी पूरी नहीं हो पाएगी क्योंकि अगले साल लतिका आंटी हैदराबाद में होंगी अपने बेटेबहू के पास. आप के लिए यह गोल्डन ओपरच्यूनिटी है और आप पोते की चिंता क्यों करती हो? जब तक आप शिमला में हो तब तक नेहा कि मौम उस की देखभाल कर लेंगी. वह बस दोतीन दिन में आने वाली हैं. ”

“मगर बेटा… ”

“कोई अगर मगर नहीं मौम. आप ज्यादा सोचो नहीं बस अब तैयारी करो. दोबारा यह मौका नहीं मिलने वाला क्योंकि आप अकेले फिर जा नहीं पाओगे.”

“चल ठीक है बेटा. बोल दे लतिका को कि मेरा भी रिजर्वेशन करा ले,” कह कर अभिनव की मौम पैकिंग में लग गईं.

नेहा और अभिनव ने एक बार फिर चैन की सांस ली. नेहा को इस बात का सुकून था कि अब जब तक अभिनव की मौम लौट कर आएँगी तब तक उस का बेबी इस दुनिया में आ चुका होगा और उसे फिर से दोनों मांओं के बीच पिसना नहीं पड़ेगा.

Holi 2024: पलाश- अर्पिता ने क्यों किया शलभ को अपनी जिंदगी से दूर?

रखैल…बदचलन… आवारा… अपने लिए ऐसे अलंकरण सुन कर अर्पिता कुछ देर के लिए अवाक रह गई. उस की इच्छा हुई कि बस धरती फट जाए और वह उस में समा जाए… ऐसी जगह जा कर छिपे जहां उसे कोई देख न पाए. रिश्तेदार तो कानाफूसी कर ही रहे थे, पर क्या शलभ की पत्नी भी इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर सकती है? वह तो उस की अच्छी दोस्त बन गई थी. फिर वह ऐसा कैसे बोल सकती है?

अर्पिता का नाम शलभ के साथ जोड़ा जा रहा था, उस के संबंध को नाजायज बताया जा रहा था. उस ने रुंधे गले से शलभ से पूछा, ‘‘सब मुझे गलत कह रहे हैं… हमारे रिश्ते को नाजायज बता रहे हैं… सच ही तो है, तुम ठहरे शादीशुदा. तुम्हारे साथ रहने का मुझे कोई अधिकार नहीं… क्या मैं सच में तुम्हारी रखैल हूं?’’

शलभ को शीशे की तरह चुभा था यह सवाल. अर्पिता की सिसकियां थम नहीं रही थीं. रोतेरोते ही बोली, ‘‘इतनी बदनामी के बाद अब मुझ से कौन शादी करेगा?’’

शलभ ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘मैं ढूंढ़ूगा तुम्हारे लिए लड़का… तुम्हारे विवाह की सारी जिम्मेदारी मैं निभाऊंगा.’’

‘‘तुम मेरे बिना रह सकोगे?’’

शलभ अर्पिता के सवाल का जवाब देने के बजाय उस का सिर अपनी गोद में रख कर थपकियां देने लगा. थोड़ी ही देर में अर्पिता नींद में डूब गई. शलभ उस के मासूम चेहरे को देर तक देखता रहा, जो अब भी आंसुओं से भीगा था.

1-1 कर उसे अर्पिता से जुड़ी सभी छोटीबड़ी घटनाएं याद आने लगीं. यादें समुद्र की लहरों सी होती हैं. उठती हैं, गिरती हैं और फिर छोड़ जाती हैं एक खालीपन, एक एकाकीपन जिसे भर पाना मुश्किल हो जाता है…

अर्पिता रिश्ते में शलभ की कजिन थी. दोनों के बीच उम्र का बड़ा फासला भी था. उस फासले का असर दोनों के व्यक्तित्व, पसंदनापसंद में नजर आता था. शलभ के जेहन में नन्ही सी अर्पिता की धुंधली सी तसवीर थी, जबकि अर्पिता को तो शलभ बिलकुल याद नहीं था.

हो भी कैसे? तब से अब तक उस की जिंदगी ने बहुत उतारचढ़ाव देख लिए. मां गुजर गईं, पिता ने दूसरी शादी कर ली, इसे ननिहाल भेज दिया गया. जिंदगी के थपेड़ों ने उम्र के लिहाज से अनुभव थोड़ा ज्यादा दे दिया था, जो कभीकभी उस के स्वभाव से भी झलकता था.

वर्षों बाद अर्पिता शलभ से मिली थी. फिर भी उस के व्यवहार में बिलकुल भी अजनबियत नहीं दिखी. एक अपनापन था. चंद रोज में ही शलभ उस का राजदार बन गया. अर्पिता ने शलभ को अपने बचपन के प्यार के बारे में बताया. यह भी बताया कि दोनों शादी करना चाहते हैं.

‘‘घर वालों को शादी के लिए नहीं मना सकते, तो मुझे ही दिल्ली ले चलो. आसिफ वहीं नौकरी करता है. मैं भी पीजी में रहूंगी और नौकरी करूंगी. कोर्ट मैरिज करने के बाद घर वालों को बता दूंगी,’’ एक सांस में अर्पिता ने अपनी बात शलभ से कह डाली.

शलभ ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन फिर उस की जिद के आगे हार गया.

उन दिनों शलभ दिल्ली में कार्यरत था. अच्छी कंपनी, अच्छी कमाई, खुशहाल परिवार. अर्पिता के घर में शलभ की बड़ी इज्जत थी. अर्पिता के दिल्ली जाने की बात पर उस के घर वालों को समझाना पड़ा. आखिरकार अर्पिता को दिल्ली जाने की इजाजत मिल गई.

अर्पिता को तो पंख लग गए. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह दिन भी आ गया जब शलभ के साथ अर्पिता अपने सपनों की नगरी की ओर निकल पड़ी. अर्पिता के पिता ने उस की सारी जिम्मेदारी शलभ के कंधों पर डाल थी. शलभ ने भी इस जिम्मेदारी को खुशीखुशी स्वीकार लिया था.

दिल्ली पहुंचने के बाद शलभ ने अर्पिता के रहने का इंतजाम पीजी में करा दिया. गुजरते समय के साथ ही अर्पिता ने भी दिल्ली की रफ्तार भरी जिंदगी से तालमेल बैठा लिया. शलभ अपने काम में व्यस्त हो गया. अर्पिता इस नई और पसंद की दुनिया में बेहद खुश थी. वीकैंड पर आसिफ के साथ कभी कनाट प्लेस के चक्कर लगाती तो कभी बाइक से देर रात दोनों इंडिया गेट कुल्फी खाने निकल जाते.

मार्च का महीना था. पलाश के पेड़ों में हरे पत्तों की जगह सुर्ख फूलों ने ले ली थी. यही तो वे फूल हैं, जो बचपन से ही उसे बेहद पसंद हैं, सुर्ख रंग उस का पसंदीदा. उस के घर के सामने भी पलाश का पेड़ था. दिल्ली में कहीं भी सुर्ख फूल देख कर उसे घर जैसा महसूस होता.

होली आने में बस चंद दिन ही रह गए थे. इस बार की होली को ले कर अर्पिता बेहद उत्साहित थी. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. होली से चंद रोज पहले शलभ के पास अर्पिता के अस्वस्थ होने की खबर पहुंची. शलभ पीजी पहुंचा तो अर्पिता को तेज बुखार में तड़पता पाया.

अर्पिता की रूममेट्स से पता चला कि आसिफ ने प्यार और शादी का वादा कर उस के साथ शारीरिक संबंध बनाए और फिर उस पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाने लगा. एक रोज धर्म को शादी की अड़चन बता कर उसे हमेशा के लिए छोड़ गया. जिस ख्वाब को आंखों में सजाए अर्पिता दिल्ली आई थी, वह टूट चुका था. कल्पना की उड़ान में उस के पंख लहूलुहान हो चले थे.

शलभ रात भर वहीं अर्पिता के पास बैठा रहा. उस के पिता को फोन पर सारी बातें बताने की कोशिश भी की, लेकिन उन की इस में कोई दिलचस्पी नहीं थी. सूर्योदय के साथ ही शलभ अर्पिता को अपने फ्लैट में ले आया. उस ने अर्पिता की देखरेख में कोई कसर नहीं छोड़ी. अर्पिता बचपन के प्यार और फिर उस से मिले धोखे से उबर नहीं पा रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस के प्रेम में जातिधर्म कैसे आड़े आ गए.

संघर्ष और दुख भरा समय गुजर गया. हफ्ते भर में अर्पिता स्वस्थ हो गई. शलभ ने उसे अपने औफिस में ही नौकरी दिला दी. अर्पिता का मन भी नौकरी में रमने लगा. खाली वक्त में वह खुद को घर के कामों में व्यस्त रखने लगी. शलभ की छोटीमोटी चीजों की जिम्मेदारी भी उठा ली. सुबह उठती, चाय बनाती, फिर शलभ को उठाती, नास्ता बनाती और फिर औफिस के लिए तैयार हो जाती. दोनों साथसाथ औफिस निकल पड़ते.

शाम को शलभ के साथ घर आ जाती. जिस रात शलभ को देर तक औफिस में रुकना होता, वह तब तक जागती रहती जब तक शलभ आ नहीं जाता. रात में कभी डर जाती तो चुपके से शलभ के पास बिस्तर पर आ कर सो जाती. शलभ भी उसे थपकियां देने लगता. लेकिन दोनों के बीच एक तकिए की दूरी बनी रहती. मगर एक रात यह एक तकिए की दूरी भी खत्म हो गई.

मुश्किल दिनों का साथ अकसर मजबूत होता है. संघर्ष रिश्ते बनाता है

तो कुछ रिश्तों को कमजोर भी करता है. 3-4 हफ्ते ही बीते थे. लेकिन ऐसा लगने लगा था जैसे सदियों से दोनों साथ रह रहे हों. वे एकदूसरे का चेहरा पढ़ सकते थे. शलभ का अपने गृह शहर जाना भी कम होने लगा था. अगर घर जाता भी तो लौटने की बुकिंग अर्पिता पहले से ही करवा देती.

एक तरफ शलभ और अर्पिता के बीच का फासला कम होता जा रहा था तो दूसरी तरफ घर और परिवार से शलभ का फासला बढ़ता जा रहा था. शलभ और उस की पत्नी के रिश्ते में कड़वाहट घुलती जा रही थी. कई बार तो शलभ ने अर्पिता से विवाह के बारे में भी सोचा, लेकिन हर बार उस की आंखों के सामने बेटे का मासूम चेहरा आ जाता. एक वही तो था जो उस के आने का बेसब्री से इंतजार करता था.

दोनों के घरों में व रिश्तेदारों के बीच कानाफूसी का दौर शुरू हो गया था. कानाफूसी धीरेधीरे आरोप में बदल गई और शलभ के शांत जीवन में भूचाल आ गया. रिश्तों के अग्निपथ पर चलते हुए पांवों में छाले पड़ने तो तय था, लेकिन छाले इतने दर्द भरे हो सकते हैं, इस का एहसास दोनों को अब होने लगा.

अचानक शलभ को घुटन सी महसूस हुई तो सोच का सिलसिला थम गया. शलभ ने अपनी गोद से उतार कर अर्पिता को बिस्तर पर सुला दिया और स्वयं बालकनी में आ गया. सुबह की लालिमा क्षितिज पर छाई थी. ऐसा लग रहा था जैसे ढेर सारे पलाश के फूलों को मसल कर आसमान में बिखेर दिया गया हो. शलभ सामने लगे पलाश के पेड़ को देखने लगा. उस के सारे पत्ते गिर चुके थे और लाल फूलों से लदा वृक्ष ऐसा लग रहा था जैसे नए रिश्ते बन गए हों और पुरानों से नाता टूट रहा हो.

शलभ के ऊपर एक नई जिम्मेदारी आ चुकी थी. अर्पिता के विवाह की जिम्मेदारी और इसे ले कर वह बेहद संजीदा था. शलभ ने औफिस में ही कार्य करने वाले अपने दोस्त के छोटे भाई से अर्पिता के विवाह की बात की. लड़का और उस के परिवार वालों ने इस प्रस्ताव को मान लिया. अर्पिता के हाथ पीले किए जाने की तैयारी शुरू हो गई.

पत्नी के खिलाफ जा कर शलभ ने अर्पिता की शादी की सारी जिम्मेदारी, सारा खर्च उठा लिया. शादी की तैयारी में दिन गुजरने लगे. शलभ के पास अपने बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं रहती थी. पिता और सौतेली मां को अर्पिता की जिंदगी में कुछ खास रुचि थी नहीं. अर्पिता के लिए तो शलभ में ही उस का पूरा परिवार समाहित था.

नए रिश्ते को आत्मसात करने की जद्दोजहद में जानेअनजाने अर्पिता शलभ की उपेक्षा भी कर जाती थी. जिस अर्पिता के लिए शलभ ने अपने सभी रिश्तेदारों, यहां तक कि अपनी अर्धांगिनी से भी रिश्ता तोड़ लिया, अब वही उस से दूर होती जा रही थी. रात में देर से लौटने पर अब अर्पिता इंतजार करती नहीं मिलती थी, न ही सुबह की चाय के साथ उस की आवाज आती.

मौसम बदल रहा था. शलभ को इस का एहसास होने लगा था. वह स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगा था. उस ने अपने चारों ओर अकेलेपन की दीवार खड़ी करनी शुरू कर दी. जल्द ही अर्पिता के विवाह का दिन भी आ गया. शलभ की संवेदनाएं जड़ हो चुकी थीं. यंत्रवत वह सारे काम करता जा रहा था.

विदाई की बेला आ गई. हमेशा चहकने वाली अर्पिता की आंखें भर आईं.

वह बिलखने लगी. कमरे की हर दीवार उस की पसंद के रंग में रंगी थी, हर परदा उस की पसंद का था. बालकनी की छोटी सी बगिया में भी उस की पसंद के ही फूल सजे थे. वह नम आंखों से उन्हें निहार रही थी.

घर के सामने उस का पसंदीदा पलाश का पेड़ अकेला खड़ा था. शलभ जड़वत था. उसे एहसास था कि उस की जिंदगी की रंगत को भी वह अपने संग लिए जा रही है, लेकिन दिल पर पड़ा बोझ उतर गया था. उस ने अपनी जिम्मेदारी जो पूरी कर दी थी.

जिंदगी मेरे घर आना: क्यों भाग रहा था शंशाक

दफ्तर में नए जनरल मैनेजर आने वाले थे. हर जबान पर यही चर्चा थी. पुराने जाने वाले थे. दफ्तर के सभी साहब और बाबू यह पता करने की कोशिश में थे कि कहां से तबादला हो कर आ रहे हैं. स्वभाव कैसा है, कितने बच्चे हैं इत्यादि. परंतु कोई खास जानकारी किसी के हाथ नहीं लग रही थी. अलबत्ता उन के तबादलों का इतिहास बड़ा समृद्ध था, यह सब को समझ आने लगा था.

नियत दिन नए मैनेजर ने दफ्तर जौइन किया तो खूब स्वागत किया गया. पुराने मैनेजर को भी बड़े ही सौहार्दपूर्ण ढंग से बिदा किया.

शशांक साहब यानी जनरल मैनेजर वातानुकूलित चैंबर में भी पसीनापसीना होते रहते. न जाने क्यों हर आनेजाने वाले से शंकित निगाहों से बात करते. लोगों में उन का यह व्यवहार करना कुतूहल का विषय था. पर धीरेधीरे दफ्तर के लोग उन के सहयोगपूर्ण और अहंकार रहित व्यवहार के कायल होते गए.

1 महीने की छुट्टी पर गया नीरज जब दफ्तर में आया तो शशांक साहब को नए जनरल मैनेजर के रूप में देख पुलकित हो उठा, क्योंकि वह उन के साथ काम कर चुका था. वैसे ही शंकित रहने वाले साहब नीरज को देख और ज्यादा शंकित दिखने लगे थे. बड़े ही ठंडे उत्साह से उन्होंने नीरज से हाथ मिलाया और फिर तुरंत अपने काम में व्यस्त हो गए.

मगर ज्यों ही नीरज उन से मिलने के बाद चैंबर से बाहर गया, उन के कान दरवाजे पर ही अटक गए. शशांक को महसूस हुआ कि बाहर अचानक जोर के ठहाकों की गूंज हुई. वे वातानुकूलित चैंबर में भी पसीनापसीना हो गए कि न जाने नीरज क्या बता रहा होगा.

अब उन का ध्यान सामने पड़ी फाइलों में नहीं लग रहा था. घड़ी की तरफ देखा. अभी 12 ही बजे थे. मन हुआ घर चले जाएं, फिर सोचा घर जा कर भी अभी से क्या करना है. कोई अरुणा थोड़े है घर में…

‘शायद नीरज अब तक बता चुका होगा. न जाने क्याक्या बताया होगा उस ने. क्या उसे असली बात मालूम होगी,’ शशांक साहब सोच रहे थे, ‘क्या नीरज भी यही समझता होगा कि मैं ने अरुणा को मारा होगा?’

यह सोचते हुए शशांक की यादों का गंदा पिटारा खुलने को बेचैन होने लगा. अधेड़ हो चले शशांक ने वर्तमान का पेपरवेट रखने की कोशिश की कि अतीत के पन्ने कहीं पलट न जाएं पर जो बीत गई सो बात गई का ताला स्मृतियों के पिटारे पर टिक न पाया. काले, जहरीले अशांत सालों के काले धुएं ने आखिर उसे अपनी गिरफ्त में ले ही लिया…

शादी के तुरंत बाद की ही बात थी.

‘‘अरुणा तुम कितनी सुंदर हो, तुम्हें जब देखता हूं तो अपनी मां को मन ही मन धन्यवाद करता हूं कि उन्होंने तुम्हें मेरे लिए चुना.’’

अरुणा के लाल होते जा रहे गालों और झुकती पलकों ने शशांक की दीवानगी को और हवा दे दी.

क्या दिन थे वे भी. सोने के दिन और चांदी की रातें. शशांक की डायरी के पन्ने उन दिनों कुछ यों भरे जा रहे थे.

‘‘जीत लिखूं या हार लिखूं या दिल का सारा प्यार लिखूं,

मैं अपने सब जज्बात लिखूं या सपनों की सौगात लिखूं,

मैं खिलता सूरज आज लिखूं या चेहरा चांद गुलाब लिखूं,

वो डूबते सूरज को देखूं या उगते फूल की सांस लिखूं.’’

दिल से बेहद नर्म और संवेदनशील शशांक के विपरीत अरुणा में व्यावहारिकता अधिक थी. तभी तो उस ने उस छोटी सी मनीऔर्डर रसीद को ही ज्यादा तवज्जो दी.

‘‘शशांक ये 2 हजार रुपए आप ने किस को भेजे हैं?’’ उस दिन अरुणा ने पहली बार पूछा था.

‘‘यह रसीद तो मेरी डायरी में थी. इस का मतलब तुम ने अपने ऊपर लिखी मेरी सारी कविताओं को पढ़ लिया होगा?’’ शशांक ने उसे निकट खींचते हुए कहा.

‘‘अपनी मां को भेजे हैं, हर महीने भेजता हूं उन के हाथ खर्च हेतु.’’

शशांक ने सहजता से कहा और फिर अपने दफ्तर के किस्से अरुणा को सुनाने लगा.

पर शायद उस ने अचानक बदलने वाली फिजा पर गौर नहीं किया. चंद्रमुखी से सूरजमुखी का दौर शुरू हो चुका था, जिस की आहट कवि हृदय शशांक को सुनाई नहीं दे रही थी. अब आए दिन अरुणा की नईनई फरमाइशें शुरू हो गई थीं.

‘‘अरुणा इस महीने नए परदे नहीं खरीद सकेंगे. अगले महीने ही ले लेना. वैसे भी ये गुलाबी परदे तुम्हारे गालों से मैच करते कितने सुंदर हैं.’’

शशांक चाहता था कि अरुणा एक बजट बना कर चले. मां को पैसे भेजने के बाद बचे सारे पैसे वह उस की हथेली पर रख कर निश्चिंत रहना चाहता था.

‘‘तुम्हारे पिताजी तो कमाते ही हैं. फिर तुम्हारी मां को तुम से भी पैसे लेने की क्या जरूरत है?’’ अरुणा के शब्दबाण छूटने लगे थे.

‘‘अरुणा, पिताजी की आय इतनी नहीं है. फिर बहुत कर्ज भी है. मुझे पढ़ाने, साहब बनाने में मां ने अपनी इच्छाओं का सदा दमन किया है. अब जब मैं साहब बन गया हूं, तो मेरा यह फर्ज है कि मैं उन की अधूरी इच्छाओं को पूरा करूं.’’

शशांक ने सफाई दी थी. परंतु अरुणा मुट्ठी में आए 10 हजार को छोड़ उन 2 हजार के लिए ही अपनी सारी शांति भंग करने लगी. उन दिनों 10-12 हजार तनख्वाह कम नहीं होती थी. पर शायद खुशी और शांति के लिए धन से अधिक समझदारी की जरूरत होती है, विवेक की जरूरत होती है. यहीं से शशांक और अरुणा की सोच में रोज का टकराव होने लगा. गुलाबी डायरी के वे पन्ने जिन में कभी सौंदर्यरस की कविताएं पनाह लेती थीं, मुहब्बत के भीगे गुलाब महकते थे, अब नूनतेललकड़ी के हिसाबकिताब की बदबू से सूखने लगे थे.

शेरोशायरी छोड़ शशांक फुरसत के पलों में बीवी को खुश रखने के नुसखे और अधिक से अधिक कमाई करने के तरीके सोचता. नन्हा कौशल अरुणा और शशांक के मध्य एक मजबूत कड़ी था. परंतु उस की किलकारियां तब असफल हो जातीं जब अरुणा को नाराजगी के दौरे आते. सौम्य, पारदर्शी हृदय का स्वामी शशांक अब गृह व मानसिक शांति हेतु बातों को छिपाने में खासकर अपने मातापिता से संबंधित बातों को छिपाने में माहिर होने लगा.

उस दिन अरुणा सुबह से ही कुछ खास सफाई में लगी हुई थी. पर सफाई कम जासूसी अधिक थी.

‘‘यह तुम्हारे बाबूजी की 2 महीने पहले की चिट्ठी मिली मुझे. इस में इन्होंने तुम से 10 हजार रुपए मांगे हैं. तुम ने भेज तो नहीं दिए?’’

अरुणा के इस प्रश्न पर शशांक का चेहरा उड़ सा गया. पैसे तो उस ने वाकई भेजे थे, पर अरुणा गुस्सा न हो जाए, इसलिए उसे नहीं बताया था. पिछले दिनों उसे तरक्की और एरियर मिला था. इसलिए घर की मरम्मत हेतु बाबूजी को भेज दिए थे.

अरुणा आवेश में आ गई, क्योंकि शशांक का निर्दोष चेहरा झूठ छिपा नहीं पाता था.

‘‘रुको, मैं तुम्हें बताती हूं… ऐसा सबक सिखाऊंगी कि जिंदगी भर याद रखोगे…’’

उस वक्त तक शशांक की सैलरी में अच्छीखासी बढ़ोतरी हो चुकी थी पर अरुणा उन 10 हजार के लिए अपने प्राण देने पर उतारू हो गई थी. आए दिन उस की आत्महत्या की धमकियों से शशांक अब ऊबने लगा था.

सूरजमुखी का अब बस ज्वालामुखी बनना ही शेष था. अरुणा का बड़बड़ाना शुरू हो गया था. शशांक ने नन्हे कौशल का हाथ पकड़ा और उसे स्कूल छोड़ते हुए दफ्तर के लिए निकल गया. अभी दफ्तर पहुंचा ही था कि उस के सहकर्मी ने बताया, ‘‘जल्दी घर जाओ, तुम्हारे पड़ोसी का फोन आया था. भाभीजी बुरी तरह जल गई हैं.’’

बुरी तरह से जली अरुणा अगले 10 दिनों तक बर्न वार्ड में तड़पती रही.

‘‘मैं ने सिर्फ तुम्हें डराने के लिए हलकी सी कोशिश की थी… मुझे बचा लो शशांक,’’ अरुणा बोली.

जाती हुई अरुणा यही बोली थी. अपनी क्रोधाग्नि की ज्वाला में उस ने सिर्फ स्वयं को ही स्वाहा नहीं किया, बल्कि शशांक और कौशल की जिंदगी की समस्त खुशियों और भविष्य को भी खाक कर दिया था. लोकल अखबारों में, समाज में अरुणा की मौत को सब ने अपनी सोच अनुसार रंग दिया. रोने का मानो वक्त ही नहीं मिला. कानूनी पचड़ों के चक्रव्यूह से जब शशांक बाहर निकला तो नन्हे कौशल और अपनी नौकरी की सुधबुध आई. उस के मातापिता अरुणा की मौत के कारणों और वजह के लांछनों से उबर ही नहीं पाए. कुछ महीनों के भीतर ही दोनों की मौत हो गई.

बच गए दोनों बापबेटे, दुख, विछोह, आत्मग्लानि के दरिया में सराबोर. अरुणा नाम की उन की बीवी, मां ने उन के सुखी और शांत जीवन में एक भूचाल सा ला दिया था. खुदगर्ज ने अपना तो फर्ज निभाया नहीं उलटे अपनों के पूरे जीवन को भी कठघरे में बंद कर दिया था. उस कठघरे में कैद बरसोंबरस शशांक हर सामने वाले को कैफियत देता आया था. घृणा हो गई थी उसे अरुणा से, अरुणा की यादों से. भागता फिरने लगा था किसी ऐसे कोने की तलाश में जहां कोई उसे न जानता हो.

अरुणा का यों जाना शशांक के साथसाथ कौशल के भी आत्मविश्वास को गिरा गया था. 14 वर्षीय कौशल आज भी हकलाता था. बरसों उस ने रात के अंधेरे में अपने पिता को एक डायरी सीने से लगाए रोते देखा था. जाने बच्चे ने क्याक्या झेला था.

एक दिन शशांक ने ध्यान दिया कि कौशल बहुत देर से उसे घूर रहा है. अत: उस ने

पूछा, ‘‘क्या हुआ कौशल? कुछ काम है मुझ से?’’

‘‘प…प…पापा क…क… क्या आप ने म…म… मम्मी को मारा था?’’ हकलाते हुए कौशल ने पूछा.

‘‘किस ने कहा तुम से? बकवास है यह. मैं तुम्हारी मां से बहुत प्यार करता था. उस ने खुद ही…’’ बोझिल हो शशांक ने थकेहारे शब्दों में कहा.

‘‘व…व…वह रोहित है न, वह क…क… कह रहा था तुम्हारे प…प..पापामम्मी में बनती नहीं थी सो एक दिन तुम्हारे प…प…पापा ने उन्हें ज…ज… जला दिया,’’ कौशल ने प्रश्नवाचक निगाहों से कहा. उस की आंखें अभी भी शंकित ही थीं.

यही शंकाआशंका शशांक के जीवन में भी उतर गई थी. अपनी तरफ उठती हर निगाह उसे प्रश्न पूछती सी लगती कि क्या तुम ने अपनी बीवी को जला दिया? क्या अरुणा का कोई पूर्व प्रेमी था? क्या अरुणा के पिताजी ने दहेज नहीं दिया था?

जितने लोग उतनी बातें. आशंकाओं और लांछनों का सिलसिला… भागता रहा था शशांक एक जगह से दूसरी जगह बेटे को ले कर. अब थक गया था. वह कहते हैं न कि एक सीमा के बाद दर्द बेअसर होने लगता है.

बड़ी ही तीव्र गति से शशांक का मन बेकाबू रथ सा भूतकाल के पथ पर दौड़ा जा रहा था. चल रहे थे स्मृतियों के अंधड़…

तभी कमरे की दीवार घड़ी ने जोर से घंटा बजाया तो शशांक की तंद्रा भंग हुई. बेलगाम बीते पलों के रथ पर सवार मन पर कस कर लगाम कसी. जो बीत गया सो बात गई…

‘1 बज गया, कौशल भी स्कूल से आता होगा’, चैंबर से बाहर निकला तो देखा पूरा दफ्तर अपने काम में व्यस्त है.

‘‘क्यों आज लंच नहीं करना है आप लोगों को? भई मुझे तो जोर की भूख लगी है?’’ मुसकराने की असफल कोशिश करते हुए शशांक ने कहा.

सभी ने इस का जवाब एकसाथ मुसकराहट में दिया.

घर पहुंच शशांक ने देखा कि खानसामा खाना बना इंतजार कर रहा था.

‘‘खाना लगाऊं साहब, कौशल बाबा कपड़े बदल रहे हैं?’’ उस ने पूछा.

‘‘अरे वाह, आज तो सारी डिशेज मेरी पसंद की हैं,’’ खाने के टेबल पर शशांक ने चहकते हुए कहा.

‘‘पापा आप भूल गए हैं, आज आप का जन्मदिन है. हैप्पी बर्थडे पापा,’’ गले में हाथ डालते हुए कौशल ने कहा.

‘‘तो कैसा रहा आज का दिन. नए स्कूल में मन तो लग रहा है?’’ शशांक ने पूछा. अंदर से उस का दिल धड़क रहा था कि कहीं पिछली जिंदगी का कोई जानकार उसे यहां न मिल गया हो. पर उस ने एक नई चमक कौशल की आंखों में देखी.

‘‘पापा, मैथ्स के टीचर बहुत अच्छे हैं. साइंस और अंगरेजी वाली मैडम भी बहुत अच्छा बताती हैं. बहुत सारे दोस्त बन गए हैं. सब बेहद होशियार हैं. मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी ताकि मैं उन सब के बीच टिक पाऊं…’’

शशांक ने गौर किया कि कौशल का हकलाना अब काफी कम हो गया है. शाम को कौशल ने खानसामे और ड्राइवर की मदद से एक छोटी सरप्राइज बर्थडे पार्टी का आयोजन किया था. उस के नए दोस्त तो आए ही थे, साथ ही उस ने शशांक के दफ्तर के कुछ सहकर्मियों को भी बुला लिया था.

नीरज भी आया था. ऐसा लग रहा था कौशल को उस ने भी सहयोग किया था इस आयोजन में. नीरज को उस ने फिर चोर निगाहों से देखा कि क्या इस ने सचमुच किसी को कुछ नहीं बताया होगा? अब जो हो सो हो, कौशल को खुश देखना ही उस के लिए सुकूनदायक था.

कब तक अतीत से भागता रहेगा. अब कुछ वर्ष टिक कर इस जगह रहेगा और तबादले कौशल की पढ़ाई के लिए अब ठीक न होंगे. वर्षों बाद घर में रौनक और चहलपहल हुई थी.

‘‘पापा आप खुश हैं न? हमेशा दूसरों के घर बर्थडे पार्टी में जाता था, सोचा आज अपने घर कुछ किया जाए,’’ कह कौशल ने एक नई डायरी और पैन शशांक के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘आप के जन्मदिन का गिफ्ट, आप फिर से लिखना शुरू कीजिए पापा, मेरे लिए.’’

उस रात शशांक देर तक आकाश की तरफ देखता रहा. आसमान में काले बादलों का बसेरा था. मानो सुखरूपी चांद को दुखरूपी बादल बाहर आने ही नहीं देना चाहते हों. थोड़ी देर के बाद चांद बादलों संग आंखमिचौली खेलने लगा, ठीक उस के मन की तरह. बादल तत्परता से चांद को उड़ते हुए ढक लेते थे. मानो अंधेरे के साम्राज्य को बनाए रखना ही उन का मकसद हो.

अचानक चांद बादलों को चीर बाहर आ गया और चांदनी की चमक से घोर अंधेरी रात में उजियारा छा गया. शशांक देर तक चांदनी में नहाता रहा. पड़ोस से आती रातरानी की मदमस्त खुशबू से उस का मन तरंगित होने लगा, उस का कवि हृदय जाग्रत होने लगा. उस ने डायरी खोली और पहले पन्ने पर लिखा:

‘‘जिंदगी, जिंदगी मेरे घर आना… फिर से.’’

Holi 2024: धुंध- घर में मीनाक्षी को अपना अस्तित्व क्यों खत्म होने का एहसास हुआ?

‘‘अरे, अब बस भी करो रघु की मां, क्या बहू को पूरी दुकान ही भेज देने का इरादा है?’’

‘‘मेरा बस चले तो भेज ही दूं, पर अब अपने हाथों में इतना दम तो है नहीं. अरे, कमिश्नर की बेटी है कितना तो दिया है शादी में बेटी को. थोड़ा सा शगुन भेज कर हमें अपनी जगहंसाई करानी है क्या? मीनाक्षी, जरा गुझिया में खोया ज्यादा भरना वरना रघु की ससुराल वाले कहेंगे कि हमें गुझिया बनानी ही नहीं आती.’’

मीनाक्षी का मन कसैला हो उठा. इतनी आवभगत से कभी उस के मायके तो गया नहीं कुछ. मानते हैं, उस की शादी 10 वर्ष पूर्व हुई थी, उस समय के हिसाब से उस के बाबूजी ने खर्च भी किया था. पर उस की पहली होली जब मायके में पड़ी थी तब तो अम्माजी ने इतने मनुहार से कुछ नहीं भेजा था. पर यहां तो समधिन से ले कर छोटी बहन तक के कपड़े भेजे जा रहे हैं. ऊपर से बातबात में नसीहत दी जा रही है, ‘यह ठीक से रखो’, ‘यह सस्ता लग रहा है’, ‘इस में मेवा कम है’ आदि.

मखमल की चादर में टाट का पैबंद लगा हो तो दूर से झलकता है, पर रेशमी चादर में मखमल का पैबंद लग जाए तो उसे अच्छा समझा जाता है. मीनाक्षी की ससुराल भी ऐसी ही थी. मध्यम वर्ग के प्राणी थे. मीनाक्षी आई तो घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न थी. पति बाट व माप निरीक्षक थे. दोनों छोटे देवर पढ़ रहे थे, ननद विवाह के योग्य थी.

कितना कुछ तो सहा और किया था उस ने. यदि उंगलियों पर गिनना चाहे तो गिनती भूल जाए. उस ने गिनने का प्रयास भी कभी न किया. पर आज ही नहीं, देवर की शादी के बाद मधु के आगमन के साथ ही अम्माजी का सारा स्नेह मधु पर ही बरसते देख उस का मन खिन्न हो उठा था.

12 टोकरों के साथ बड़ी सी अटैची ले कर जब मीनाक्षी के पति गिरीश चलने लगे तो उस ने धीमे से पति से कहा, ‘‘मधु से मिल लीजिएगा. उस के बगैर होली फीकी लगेगी.’’

गिरीश ने कुछ कहा नहीं, पर मीनाक्षी के नेत्रों से झांकती उदासी उन से छिपी न रही.

होली के दिन सुबह हुल्लड़बाजी शुरू हो गई थी. महल्ले के लड़केलड़कियां आते गए और पुरानी भाभी से अपना रिश्ता निभाते हुए हंसीमजाक के बीच रंग भी खेलते गए.

मीनाक्षी मृदु स्वभाव की सीधीसादी महिला थी. महल्ले के सारे लड़के उस के देवर थे, लड़कियां ननदें एवं वृद्ध लोग चाचाचाची आदि.

शाम को मधु के मायके से उस के भाई मिठाई ले कर आए. जितना कुछ मीनाक्षी की सास ने भेजा था उस से कहीं ज्यादा ही वे लोग लाए थे. मीनाक्षी दौड़दौड़ कर सब की खातिर कर रही थी. बड़ी दीदी के नाते सब ने उस के पांव छुए तो मीनाक्षी को आंतरिक खुशी मिली.

अम्माजी भी बड़े ही प्यार एवं अपनत्व से सब की खातिर कर रही थीं. देखते ही देखते मात्र दिखावे के नाम पर काफी रुपए खर्च हो गए. मीनाक्षी जानती थी कि इतने पैसे खर्च होने से घर का मासिक बजट गड़बड़ा जाएगा, पर वह खामोश ही रही.

मीनाक्षी का देवर रघु प्रशासनिक अभियंता था. कमिश्नर की बेटी का रिश्ता स्वीकार करने के पीछे मधु की सुंदरता एवं उच्च शिक्षित होना भी उस के महत्त्वपूर्ण गुण थे. ढेर सारे दहेज के साथ मधु उस मध्यम वर्ग के घर में जब दुलहन बन कर आई तो पहली बार मीनाक्षी को अपनी वास्तविक स्थिति का भान हुआ.

सिर्फ 2 दिन ही तो मधु रह पाई थी. फिर होली का पर्व आ गया और उस के भाई आ कर उसे ले गए. होली के दूसरे ही दिन मधु को लेने रघु मीनाक्षी के

8 वर्षीय पुत्र के साथ जाने लगा तो अम्माजी ने फिर मधु के लिए साड़ी व मिठाई देनी चाही तो गिरीश ने कह दिया, ‘‘अम्मा, इतना सारा लेनदेन करना अच्छा नहीं है. उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर हमारी तो आर्थिक स्थिति चरमरा जाएगी. मानते हैं कि रघु की नौकरी अच्छी है पर यदि उसे भी अपने पैसे से यह सब करना पड़े तो शायद वह भी न करे.’’

‘‘तो क्या कुछ न भेज कर अपनी नाक नीची करवाएं? सुना तुम ने?’’ वह पति से बोली, ‘‘क्या हमें अपनी बहू को कुछ उपहार नहीं भेजना चाहिए? आखिर इतना कुछ दिया है उन्होंने.’’

‘‘पर रघु की मां, दिया उन्होंने अपनी बेटी को है. और जो नकद दिया है उस पर हमारा कोई हक नहीं बनता. वह हम ने मधु और रघु के संयुक्त खाते में जमा करवा दिया है. इतना कुछ खर्च करना तो मुझे भी ठीक नहीं लग रहा है.’’

पति का समर्थन न मिलते देख कर अम्माजी चुप हो गईं. हालांकि उन के चेहरे से यह प्रतीत हो रहा था कि वह इस से संतुष्ट नहीं हैं.

दोपहर का सारा काम निबटा कर मीनाक्षी अपने कमरे में चली आई थी. मधु भी सुबह आ गई थी. मीनाक्षी सोचने लगी, यदि मधु के पति की नौकरी कहीं अन्यत्र होती तो कोई परेशानी वाली बात नहीं थी पर चूंकि दोनों बहुओं को सासससुर के साथ एक ही घर में रहना था, चिंता का विषय यही था.

इन 10 दिनों के दौरान मीनाक्षी ने महसूस कर लिया था कि अम्माजी का सारा लाड़ अब मधु पर ही उतरेगा जोकि उचित न था. ऐसा नहीं कि उसे मधु से स्नेह न था पर यदि अम्मा अपना सारा स्नेह भंडार मधु पर ही न्योछावर करेंगी तो संभव है कि कल को वे मीनाक्षी की भी अवहेलना शुरू कर दें. संयुक्त परिवार में हर एक को त्याग कर के चलना पड़ता है. स्वार्थ की परिधि में रहने वाला प्राणी ऐसे परिवार में ज्यादा दिन नहीं रह सकता.

‘‘दीदी,’’ सहसा मधु के स्वर पर उस ने चौंक कर देखा, ‘‘अरे मधु, आओ, बैठो न,’’ मीनाक्षी उठ कर खड़ी हो गई.

‘‘यह आप के लिए है,’’ मधु ने एक पैकेट उस की तरफ बढ़ा दिया.

‘‘क्या है यह?’’

‘‘साड़ी. देखिए, रंग आप को पसंद है?’’

जाने कहां का आक्रोश एकदम से मीनाक्षी के मन में भर आया, वह खुद भी न समझ सकी. मधु के घर वालों के सामने होली के दिन उस ने सूती साड़ी पहनी थी. क्या इसीलिए मधु उस के लिए साउथ सिल्क की महंगी साड़ी ले कर चली आई?

‘‘मधु, मैं यह साड़ी नहीं ले सकती,’’ बड़ी मुश्किल से अपने भावों को बाहर आने से मीनाक्षी ने रोका.

‘‘क्यों, दीदी? पर मैं तो आप के लिए ले कर आई हूं.’’

‘‘क्योंकि मैं इस के बदले में तुम्हें इस से अच्छी साड़ी नहीं दे सकती. मेरे पति इतना नहीं कमाते कि हम अंधाधुंध खर्च कर सकें. अच्छा होगा, तुम भी यह सब समझ लो क्योंकि हमें साथ ही रहना है.’’

मधु सिर झुकाए चुपचाप सुनती रही. मीनाक्षी का क्रोध जब शांत हुआ तो उस ने देखा कि साड़ी का पैकेट यों ही पड़ा है और मधु वहां से जा चुकी है.

मधु के जाने के बाद मीनाक्षी को महसूस हुआ कि उस से कुछ गलत हो गया है. उसे इतना कठोर नहीं होना चाहिए था. आखिर वह कितने प्यार से उस के लिए उपहार लाई थी. उस समय रख लेती, नसीहत बाद में भी दे सकती थी. पर इतने दिनों का आक्रोश फटा भी तो नईनवेली मधु के ही ऊपर.

सुबह मीनाक्षी की आंख खुली तो धूप थोड़ी चढ़ आई थी. सोचने लगी कि इतनी देर कैसे हो गई? कमरे से निकल कर उस ने देखा, हर कोई अपने काम में लगा है. मधु ने उसे देखते ही कहा, ‘‘आप सो रही थीं, दीदी, इस कारण मैं ने चाय नहीं दी, आप ब्रश करें, तब तक मैं चाय बनाती हूं.’’

मीनाक्षी के लिए सब कुछ अप्रत्याशित था. सुबह घर का प्रत्येक सदस्य उस के हाथ की चाय पीने का अभ्यस्त था. आज मधु के हाथ की चाय पी कर भी किसी के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं झलक रहा था. बाबूजी वैसे ही लौन में अखबार पढ़ रहे थे. अम्माजी नहा कर भीगे बालों से धूप में कुरसी डाले माला फेर रही थीं. रघु दाढ़ी बना रहा था और गिरीश दोनों बच्चों के साथ लौन में खेल रहा था.

दोपहर के भोजन के लिए मीनाक्षी रसोई में पहुंची तो देखा, मधु डलिया में सब्जी निकाल रही थी, ‘‘सब्जी क्या बनेगी, दीदी?’’

‘‘देखो मधु, अभी तुम नईनवेली हो. नई बहू का यों काम करना अच्छा नहीं लगता. कुछ दिन आराम करो फिर काम करना.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है कि आप काम करें और मैं आराम करूं. आप बताती जाएं, मैं सब करती जाऊंगी.’’

बात सीधी थी, पर जाने क्यों मीनाक्षी को लग रहा था कि उस का स्थान मधु हथियाती जा रही है. पर घर की पूरी जिम्मेदारी ओढ़ कर पहले जहां वह कभीकभी झुंझला जाती थी, आज उसी को हस्तांतरित होता देख वह बेचैन हो उठी.

वह गरमी की उमस भरी दोपहर थी. अम्मा व बाबूजी किसी शादी में दूसरे शहर गए थे. घर पर मधु एवं मीनाक्षी ही थीं. मीनाक्षी ज्यादा न बोलती, पर मधु सदा उस के साथसाथ लगी रहती. मीनाक्षी को हमेशा लगता कि मधु अपनी अमीरी का रौब मारेगी. अपनी आर्थिक संपन्नता का एहसास जताएगी, पर मधु के व्यवहार में ऐसा कुछ भी न था.

उसी दिन दोपहर को मीनाक्षी को आंगन में नीचे कुछ हलचल सुनाई दी. उस ने झांक कर देखा. मधु की मां एवं भाई आए हुए थे. साथ में छोटी बहन भी थी. वह झट से नीचे उतर आई.

‘‘आइए, मांजी, बड़ा अच्छा हुआ, आप आ गईं. अरे, मधुप और सुधा भी आए हैं. अरे मधु, देखो तो कौन आया है,’’ मीनाक्षी ने उन्हें आदर के साथ बैठाया और खुद चाय आदि का प्रबंध करने के लिए रसोई में घुस गई.

पूरे 4 दिन मधु की मां वहां रहीं. इन दिनों पूरे घर पर उन्हीं का साम्राज्य छाया रहा. सास घर पर नहीं थीं. इस कारण पूरा आदरसम्मान मीनाक्षी उन्हें देती रही. इस का परिणाम यह रहा कि वे हर घड़ी हर चीज के बारे में अपनी राय जताती रहीं.

गिरीश वैसे ही शांत स्वभाव का था. मधु की मां की बात को वह खामोशी से सुनता रहता. रघु का भी स्वभाव सीधासादा था. इस कारण पूरे घर में मालिकाना अंदाज में मधु की मां घूमती रहीं.

एक दिन मीनाक्षी ने सुना, वे मधु से कह रही थीं, ‘‘मेरी मान, रघु से कह कर तबादला कहीं और करवा ले. मुझे तो तुम्हारे जेठ व जेठानी का स्तर अच्छा नहीं  लगता. देख, रघु का वेतन ज्यादा है, पर एकसाथ रहने से उस का सारा वेतन इसी घर में खर्च हो जाता है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो मां. एक तो इन की नौकरी ऐसी है कि कभी भी तबादला हो सकता है. जितने दिन हमें साथ रहना है, हम कलह कर के क्यों रहें? फिर नौकरी से अवकाश के बाद हमें साथ ही रहना है. क्या हमारी इन हरकतों से भैया व भाभी को तकलीफ नहीं होगी?’’

‘‘तुम मकान क्या यहीं बनवाओगी? मैं ने तो तेरे बाबूजी से जमीन की बात भी कर ली है.’’

‘‘नहीं मां, मकान तो यही रहेगा. हां, दोनों भाई मिल कर इस की मरम्मत करवा लेंगे. सब एक ही परिवार के तो हैं.’’

मधु की मां एवं भाईबहन की विदाई मीनाक्षी ने अपनी समझ व हैसियत से अच्छी तरह की थी. सुधा को उस ने फिल्म दिखाई थी. मधुप को एक बैगी शर्ट दी थी. दोनों का स्वभाव उसे बहुत अच्छा लगा था. सुधा से उस के पलंग का नाइट लैंप टूट गया था, पर मीनाक्षी ने बजाय डांटने के उसे तसल्ली ही दी थी और मधु को भी सुधा को डांटने से रोक दिया था.

तब मधु की मां बोली थीं, ‘‘क्या हो गया, शीशा ही तो टूटा है.’’

‘‘सुधा को क्या पता है कि यहां की हर चीज अनमोल है. दूसरी आने में सालों लग जाते हैं.’’

‘‘मां,’’ मधु की क्रोध भरी आवाज पर मीनाक्षी ने झट से उस का हाथ थाम लिया, ‘‘नहीं, मधु.’’

मीनाक्षी की सास जब लौट कर आईं और उन्हें पता चला कि मधु की मां आई थीं तो उन्होंने शोर मचाना शुरू कर दिया, ‘‘अरे, कुछ खातिर भी की या यों ही टरका दिया. अरे मधु बेटी, मां का ध्यान ठीक से रखा न?’’

तभी बाबूजी ने गुस्से से पत्नी से कहा, ‘‘तुम तो ऐसे चिल्ला रही हो मानो रघु की सास नहीं, तुम्हारी बेटी की सास आई हों.’’

‘‘यह देखो,’’ हीरे की अंगूठी पति को दिखाते हुए वे बोलीं, ‘‘दी है किसी ने मुझे ऐसी अंगूठी? रघु की ससुराल की बदौलत हीरा तो पहन लिया. कैसे प्यार से समधिन के लिए भेजी थी उन्होंने.’’

‘‘तुम तो,’’ बाबूजी इतना कह कर चुप हो गए. वे समझ गए कि उन के सिर पर झूठे वैभव का भूत सवार है.

धीरेधीरे दिन बीतने लगे. मधु का पांव भारी हुआ. अम्माजी की खुशी की सीमा न रही. काफी दिनों बाद घर में किसी बच्चे की किलकारी गूंजने वाली थी. मीनाक्षी ने इतने दिनों में यह महसूस किया कि मधु काफी सुलझे विचारों की लड़की है. अपने मायके की अमीरी का जरा भी दंभ उस में नहीं है. एक दिन उस ने देखा, उस का बेटा पंकज अपनी पुस्तक लिए मधु के पास बैठा है.

‘‘क्या पढ़ रहा है, बेटा?’’

‘‘चाचीजी से गणित. तुम्हें पता है मां, चाचीजी गणित बहुत अच्छा पढ़ाती हैं.’’

मीनाक्षी ने हंस कर ‘हां’ में सिर हिला दिया. मधु ने उसे देख कर उठते हुए कहा, ‘‘आइए न, दीदी.’’

‘‘ठीक है मधु, तुम पढ़ाओ, मैं रसोई देखती हूं.’’

‘‘अच्छा दीदी,’’ कह कर मधु फिर से पंकज को पढ़ाने लगी.

मौसम बदलते हैं, ऋतुओं के साथ फूलों के रंग भी बदलते हैं. एक नहीं बदलता है तो इंसान का मन, लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि किसी घटना ने मानव का हृदय परिवर्तन कर दिया हो. मीनाक्षी ने 10 वर्ष जिस परिवेश में बिताए थे, अमीरी का उस में कोई स्थान न था. उस ने सास के व्यंग्यबाणों को झेला था तो ससुर का स्नेह भी पाया था. पति का प्यार मिला था, देवर से इज्जत और बच्चों से वात्सल्य.

इस भरेपूरे परिवार में व्यवधान पड़ा था मधु के आगमन से. इस को भी वह सुगमता से व्यवस्थित कर लेती, यदि अम्मा हर बात में यह एहसास न जताती रहतीं कि मधु बड़े घर की बेटी है.

दीवाली आई और बीत गई. होली का त्योहार पास आता गया और इस के साथ मधु का प्रसव दिन भी करीब आ गया.

एक दिन शाम को घर के सदस्य बैठे चाय पी रहे थे. तभी रघु आया तो मधु उसे कपड़े देने के लिए उठने लगी.

सहसा बाबूजी ने कहा, ‘‘पहले चाय पी लो, कपड़े बाद में बदलना.’’

मीनाक्षी ने रघु के लिए भी चाय बना दी. अम्माजी ने गिरीश की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘सोचती हूं, मधु को मायके भिजवा दूं. प्रसव का दिन पास आ रहा है.’’

तभी मधु ने पूछा, ‘‘मायके क्यों, मांजी?’’

‘‘रस्म के मुताबिक पहला जापा मायके में ही होता है.’’

तभी मधु उठ कर अंदर चली गई. शाम को मीनाक्षी सब्जी बना रही थी तो मधु ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, मैं मायके नहीं जाऊंगी.’’

‘‘क्यों, मधु? पहले प्रसव में मैं भी तो मायके गई थी. यह तो घर की पुरानी रीति है.’’

‘‘दीदी, मायके जा कर कौन लड़की खुश नहीं होती, पर मैं नहीं चाहती कि फिर वही तमाशा हो जो मेरे होली के अवसर पर जाने पर हुआ था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘दीदी, मैं इस घर की मेहमान नहीं, एक सदस्य हूं. मुझे इस घर की आर्थिक स्थिति का अनुमान है. मेरा प्रसव मायके में होगा तो अम्माजी उपहार भेजने से न चूकेंगी. बाबूजी शादी का पैसा लगाएंगे नहीं. फिर कहां से आएगा पैसा? घर की आर्थिक स्थिति जो सुधरी है, वह फिर से चरमरा न जाएगी. दीदी, तुम मांजी को समझा दो, मैं मायके नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मधु, बावली मत बनो. कहीं कुछ उलटासीधा हो गया तो?’’

‘‘उलटासीधा होना होगा तो वहां भी हो सकता है. फिर जिस डाक्टर को मैं यहां दिखा रही हूं वह मेरे केस से पूरी तरह से परिचित है. वहां नई डाक्टर देखेगी न दीदी, मैं नहीं जाऊंगी.’’

मधु के मायके न जाने में रघु ने भी पूरा सहयोग दिया. मां से उस ने स्पष्ट कह दिया कि मधु मायके नहीं जाएगी.

होली के 1 दिन पूर्व मधु ने बेटे को जन्म दिया. प्रसव नर्सिंगहोम में हुआ था. होली के दिन लोग आते रहे और मधु व बच्चे की कुशलता पूछते रहे. चंचल लड़कों ने तो इनकार करने के बावजूद मधु के गाल पर हलका सा गुलाल लगा ही दिया.

चारों तरफ होली का शोर था. मीनाक्षी खुद बचने की कोशिश के बावजूद रंग से भीग गई थी. फिर भी वह दौड़दौड़ कर मधु के सब काम करती रही.

‘‘दीदी,’’ मधु के स्वर पर मीनाक्षी ने चौंक कर देखा. वह कुहनियों के सहारे बिस्तर पर बैठी थी.

‘‘क्या है, मधु, कोई तकलीफ है?’’

‘‘हां.’’

‘‘डाक्टर को बुलाऊं?’’

‘‘नहीं दीदी, तकलीफ इस बात की है कि मैं होली का आनंद नहीं उठा पा रही. पिछली होली मायके में पड़ी, इस बार अस्पताल में. सोचा था, इस बार यहां की रंगीनी देखूंगी. कितना अच्छा लग रहा है, आप का यह रंगों वाला रूप.’’

‘‘घबराओ मत, देवरजी खड़े हैं बाहर. जरा खापी कर तंदुरुस्त हो जाओ, फिर जी भर कर रंग खेल लेना.’’

मधु शरमा गई और मीनाक्षी मुद्दत के बाद खिलखिला कर हंस पड़ी. उस के मन पर छाई धुंध छंट गई थी. बाहर शोर मचा था, ‘बुरा न मानो होली है.’

कलंक: बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उस रात 9 बजे ही ठंड बहुत बढ़ गई थी. संजय, नरेश और आलोक ने गरमाहट पाने के लिए सड़क के किनारे कार रोक कर शराब पी. नशे के चलते सामने आती अकेली लड़की को देख कर उन के भीतर का शैतान जागा तो वे उस लड़की को छेड़ने से खुद को रोक नहीं पाए.

‘‘जानेमन, इतनी रात को अकेली क्यों घूम रही हो? किसी प्यार करने वाले की तलाश है तो हमें आजमा लो,’’ आसपास किसी को न देख कर नरेश ने उस लड़की को ऊंची आवाज में छेड़ा.

‘‘शटअप एंड गो टू हैल, यू बास्टर्ड,’’ उस लड़की ने बिना देर किए अपनी नाराजगी जाहिर की.

‘‘तुम साथ चलो तो ‘हैल’ में भी मौजमस्ती रहेगी, स्वीटहार्ट.’’

‘‘तेरे साथ जाने को पुलिस को बुलाऊं?’’ लड़की ने अपना मोबाइल फोन उन्हें दिखा कर सवाल पूछा.

‘‘पुलिस को बीच में क्यों ला रही हो मेरी जान?’’

‘‘पुलिस नहीं चाहिए तो अपनी मां या बहनों…’’

वह लड़की चीख पाती उस से पहले ही संजय ने उस का मुंह दबोच लिया और झटके से उस लड़की को गोद में उठा कर कार की तरफ बढ़ते हुए अपने दोस्तों को गुस्से से निर्देश दिए, ‘‘इस ‘बिच’ को अब सबक सिखा कर ही छोड़ेंगे. कार स्टार्ट करो. मैं इस की बोटीबोटी कर दूंगा अगर इस ने अपने मुंह से ‘चूं’ भी की.’’

आलोक कूद कर ड्राइवर की सीट पर बैठा और नरेश ने लड़की को काबू में रखने के लिए संजय की मदद की. कार झटके से चल पड़ी.

उस चौड़ी सड़क पर कार सरपट भाग रही थी. संजय ने उस लड़की का मुंह दबा रखा था और नरेश उसे हाथपैर नहीं हिलाने दे रहा था.

‘‘अगर अब जरा भी हिली या चिल्लाई तो तेरा गला दबा दूंगा.’’

संजय की आंखों में उभरी हिंसा को पढ़ कर वह लड़की इतना ज्यादा डरी कि उस का पूरा शरीर बेजान हो गया.

‘‘अब कोई किसी का नाम नहीं लेगा और इस की आंखें भी बंद कर दो,’’ आलोक ने उन दोनों को हिदायत दी और कार को तेज गति से शहर की बाहरी सीमा की तरफ दौड़ाता रहा.

एक उजाड़ पड़े ढाबे के पीछे ले जा कर आलोक ने कार रोकी. उन की धमकियों से डरी लड़की के साथ मारपीट कर के उन तीनों ने बारीबारी से उस लड़की के साथ बलात्कार किया.

लड़की किसी भी तरह का विरोध करने की स्थिति में नहीं थी. बस, हादसे के दौरान उस की बड़ीबड़ी आंखों से आंसू बहते रहे थे.

लौटते हुए संजय ने लड़की को धमकाते हुए कहा, ‘‘अगर पुलिस में रिपोर्ट करने गई, तो हम तुझे फिर ढूंढ़ लेंगे, स्वीटहार्ट. अगर हमारी फिर मुलाकात हुई तो तेजाब की शीशी होगी हमारे हाथ में तेरा यह सुंदर चेहरा बिगाड़ने के लिए.’’

तीनों ने जहां उस लड़की को सड़क पर उतारा. वहीं पास की दीवार के पास 4 दोस्त लघुशंका करने को रुके थे. अंधेरा होने के कारण उन तीनों को वे चारों दिखाई नहीं दिए थे.

उन में से एक की ऊंची आवाज ने इन तीनों को बुरी तरह चौंका दिया, ‘‘हे… कौन हो तुम लोग? इस लड़की को यहां फेंक कर क्यों भाग रहे हो?’’

‘‘रुको जर…सोनू, तू कार का नंबर नोट कर, मुझे सारा मामला गड़बड़ लग रहा है,’’ एक दूसरे आदमी की आवाज उन तक पहुंची तो वे फटाफट कार में वापस घुसे और आलोक ने झटके से कार सड़क पर दौड़ा दी.

‘‘संजय, तुझे तो मैं जिंदा नहीं छोड़ूंगी,’’ उस लड़की की क्रोध से भरी यह चेतावनी उन तीनों के मन में डर और चिंता की तेज लहर उठा गई.

‘‘उसे मेरा नाम कैसे पता लगा?’’ संजय ने डर से कांपती आवाज में सवाल पूछा.

‘‘शायद हम दोनों में से किसी के मुंह से अनजाने में निकल गया होगा,’’ नरेश ने चिंतित लहजे में जवाब दिया.

‘‘आज मारे गए हमसब. मैं ने उन आदमियों में से एक को अपनी हथेली पर कार का नंबर लिखते हुए देखा है. उस लड़की को ‘संजय’ नाम पता है. पुलिस को हमें ढूंढ़ने में दिक्कत नहीं आएगी,’’ आलोक की इस बात को सुन कर उन दोनों का चेहरा पीला पड़ चुका था.

नरेश ने अचानक सहनशक्ति खो कर संजय से चिढ़े लहजे में पूछा, ‘‘बेवकूफ इनसान, क्या जरूरत थी तुझे उस लड़की को उठा कर कार में डालने की?’’

‘‘यार, उस ने हमारी मांबहन…तो मैं ने अपना आपा खो दिया,’’ संजय ने दबे स्वर में जवाब दिया.

‘‘तो उसे उलटी हजार गालियां दे लेता…दोचार थप्पड़ मार लेता. तू उसे उठा कर कार में न डालता, तो हमारी इस गंभीर मुसीबत की जड़ तो न उगती.’’

‘‘अरे, अब आपस में लड़ने के बजाय यह सोचो कि अपनी जान बचाने को हमें क्या करना चाहिए,’’ आलोक की इस सलाह को सुन कर उन दोनों ने अपनेअपने दिमाग को इस गंभीर मुसीबत का समाधान ढूंढ़ने में लगा दिया.

पुलिस उन तक पहुंचे, इस से पहले ही उन्हें अपने बचाव के लिए कदम उठाने होंगे, इस महत्त्वपूर्ण पहलू को समझ कर उन तीनों ने आपस में कार में बैठ कर सलाहमशविरा किया.

अपनी जान बचाने के लिए वे तीनों सब से पहले आलोक के चाचा रामनाथ के पास पहुंचे. वे 2 फैक्टरियों के मालिक थे और राजनीतिबाजों से उन की काफी जानपहचान थी.

रामनाथ ने अकेले में उन तीनों से पूरी घटना की जानकारी ली. आलोक को ही अधिकतर उन के सवालों के जवाब देने पड़े. शर्मिंदा तो वे तीनों ही नजर आ रहे थे, पर सब बताते हुए आलोक ने खुद को मारे शर्म और बेइज्जती के एहसास से जमीन में गड़ता हुआ महसूस किया.

‘‘अंकल, हम मानते हैं कि हम से गलती हुई है पर ऐसा गलत काम हम जिंदगी में फिर कभी नहीं करेंगे. बस, इस बार हमारी जान बचा लीजिए.’’

‘‘दिल तो ऐसा कर रहा है कि तुम सब को जूते मारते हुए मैं खुद पुलिस स्टेशन ले जाऊं, लेकिन मजबूर हूं. अपने बड़े भैया को मैं ने वचन दिया था कि उन के परिवार का पूरा खयाल रखूंगा. तुम तीनों के लिए किसी से कुछ सहायता मांगते हुए मुझे बहुत शर्म आएगी,’’ संजय को आग्नेय दृष्टि से घूरने के बाद रामनाथ ने मोबाइल पर अपने एक वकील दोस्त राकेश मिश्रा का नंबर मिलाया.

राकेश मिश्रा को बुखार ने जकड़ा हुआ था. सारी बात उन को संक्षेप में बता कर रामनाथ ने उन से अगले कदम के बारे में सलाह मांगी.

‘‘जिस इलाके से उस लड़की को तुम्हारे भतीजे और उस के दोनों दोस्तों ने उठाया था, वहां के एसएचओ से जानपहचान निकालनी होगी. रामनाथ, मैं तुम्हें 10-15 मिनट बाद फोन करता हूं,’’ बारबार खांसी होने के कारण वकील साहब को बोलने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘इन तीनों को अब क्या करना चाहिए?’’

‘‘इन्हें घर मत भेजो. ये एक बार पुलिस के हाथ में आ गए तो मामला टेढ़ा हो जाएगा.’’

‘‘इन्हें मैं अपने फार्म हाउस में भेज देता हूं.’’

‘‘उस कार में इन्हें मत भेजना जिसे इन्होंने रेप के लिए इस्तेमाल किया था बल्कि कार को कहीं छिपा दो.’’

‘‘थैंक्यू, माई फैं्रड.’’

‘‘मुझे थैंक्यू मत बोलो, रामनाथ. उस थाना अध्यक्ष को अपने पक्ष में करना बहुत जरूरी है. तुम्हें रुपयों का इंतजाम रखना होगा.’’

‘‘कितने रुपयों का?’’

‘‘मामला लाखों में ही निबटेगा मेरे दोस्त.’’

‘‘जो जरूरी है वह खर्चा तो अब करेंगे ही. इन तीनों की जलील हरकत का दंड तो भुगतना ही पड़ेगा. तुम मुझे जल्दी से दोबारा फोन करो,’’ रामनाथ ने फोन काटा और परेशान अंदाज में अपनी कनपटियां मसलने लगे थे.

उन की खामोशी से इन तीनों की घबराहट व चिंता और भी ज्यादा बढ़ गई. संजय के पिता की माली हालत अच्छी नहीं थी. इसलिए रुपए खर्च करने की बात सुन कर उस के माथे पर पसीना झलक उठा था.

‘‘फोन कर के तुम दोनों अपनेअपने पिता को यहीं बुला लो. सब मिल कर ही अब इस मामले को निबटाने की कोशिश करेंगे,’’ रामनाथ की इस सलाह पर अमल करने में सब से ज्यादा परेशानी नरेश ने महसूस की थी.

नरेश का रिश्ता कुछ सप्ताह पहले ही तय हुआ था. अगले महीने उस की शादी होने की तारीख भी तय हो चुकी थी. वह रेप के मामले में फंस सकता है, यह जानकारी वह अपने मातापिता व छोटी बहन तक बिलकुल भी नहीं पहुंचने देना चाहता था. उन तीनों की नजरों में गिर कर उन की खुशियां नष्ट करने की कल्पना ही उस के मन को कंपा रही थी. मन के किसी कोने में रिश्ता टूट जाने का भय भी अपनी जड़ें जमाने लगा था.

नरेश अपने पिता को सूचित न करे, यह बात रामनाथ ने स्वीकार नहीं की. मजबूरन उसे अपने पिता को फौरन वहां पहुंचने के लिए फोन करना पड़ा. ऐसा करते हुए उसे संजय अपना सब से बड़ा दुश्मन प्रतीत हो रहा था.

करीब घंटे भर बाद वकील राकेश का फोन आया.

‘‘रामनाथ, उस इलाके के थानाप्रभारी का नाम सतीश है. मैं ने थानेदार को सब समझा दिया है. वह हमारी मदद करेगा पर इस काम के लिए 10 लाख मांग रहा है.’’

‘‘क्या उस लड़की ने रिपोर्ट लिखवा दी है?’’ रामनाथ ने चिंतित स्वर में सवाल पूछा.

‘‘अभी तो रिपोर्ट करने थाने में कोई नहीं आया है. वैसे भी रिपोर्ट लिखाने की नौबत न आए, इसी में हमारा फायदा है. थानेदार सतीश तुम से फोन पर बात करेगा. लड़की का मुंह फौरन रुपयों से बंद करना पड़ेगा. तुम 4-5 लाख कैश का इंतजाम तो तुरंत कर लो.’’

‘‘ठीक है. मैं रुपयों का इंतजाम कर के रखता हूं.’’

संजय के लिए 2 लाख की रकम जुटा पाना नामुमकिन सा ही था. उस के पिता साधारण सी नौकरी कर रहे थे. वह तो अपने दोस्तों की दौलत के बल पर ही ऐश करता आया था. जहां कभी मारपीट करने या किसी को डरानेधमकाने की नौबत आती, वह सब से आगे हो जाता. उस के इसी गुण के कारण उस की मित्रमंडली उसे अपने साथ रखती थी.

वह इस वक्त मामूली रकम भी नहीं जुटा पाएगा, इस सच ने आलोक, नरेश और रामनाथ से उसे बड़ी कड़वी बातें सुनवा दीं.

कुछ देर तो संजय उन की चुभने वाली बातें खामोशी से सुनता रहा, पर अचानक उस के सब्र का घड़ा फूटा और वह बुरी तरह से भड़क उठा था.

‘‘मेरे पीछे हाथ धो कर मत पड़ो तुम सब. जिंदगी में कभी न कभी मैं तुम लोगों को अपने हिस्से की रकम लौटा दूंगा. वैसे मुझे जेल जाने से डर नहीं लगता. हां, तुम दोनों अपने बारे में जरूर सोच लो कि जेल में सड़ना कैसा लगेगा?’’ यों गुस्सा दिखा कर संजय ने उन्हें अपने पीछे पड़ने से रोक दिया था.

थानेदार ने कुछ देर बाद रामनाथ से फोन पर बात की और पैसे के इंतजाम पर जोर डालते हुए कहा कि जरूरत पड़ी तो रात में आप को बुला लूंगा या सुबह मैं खुद ही आ जाऊंगा.

नरेश के पिता विजय कपूर ने जब रामनाथ की कोठी में कदम रखा तो उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

रामनाथ ने उन्हें जब उन तीनों की करतूत बताई तो उन की आंखों में आंसू भर आए थे.

अपने बेटे की तरफ देखे बिना विजय कपूर ने भरे गले से रामनाथ से प्रार्थना की, ‘‘सर, आप इस समस्या को सुलझवाइए, प्लीज. अगले महीने मेरे घर में शादी है. उस में कुछ व्यवधान पड़ा तो मेरी पत्नी जीतेजी मर जाएगी.’’

अपने पिता की आंखों में आंसू देख कर नरेश इतना शर्मिंदा हुआ कि वह उन के सामने से उठ कर बाहर बगीचे में निकल आया.

अब संजय व आलोेक के लिए भी उन दोनों के सामने बैठना असह्य हो गया तो वे भी वहां से उठे और बगीचे में नरेश के पास आ गए.

चिंता और घबराहट ने उन तीनों के मन को जकड़ रखा था. आपस में बातें करने का मन नहीं किया तो वे कुरसियों पर बैठ कर सोचविचार की दुनिया में खो गए.

उस अनजान लड़की के रेप करने से जुड़ी यादें उन के जेहन में रहरह कर उभर आतीं. कई तसवीरें उन के मन में उभरतीं और कई बातें ध्यान में आतीं.

इस वक्त तो बलात्कार से जुड़ी उन की हर याद उन्हें पुलिस के शिकंजे में फंस जाने की आशंका की याद दिला रही थी. जेल जाने के डर के साथसाथ अपने घर वालों और समाज की नजरों में सदा के लिए गिर जाने का भय उन तीनों के दिलों को डरा रहा था. डर और चिंता के ऐसे भावों के चलते वे तीनों ही अब अपने किए पर पछता रहे थे.

संजय का व्यक्तित्व इन दोनों से अलग था. इसलिए सब से पहले उस ने ही इस समस्या को अलग ढंग से देखना शुरू किया.

‘‘हो सकता है कि वह लड़की पुलिस के पास जाए ही नहीं,’’ संजय के मुंह से निकले इस वाक्य को सुन कर नरेश और आलोक चौंक कर सीधे बैठ गए.

‘‘वह रिपोर्ट जरूर करेगी…’’ नरेश ने परेशान लहजे में अपनी राय बताई.

‘‘तुम्हारी बात ठीक है, पर बलात्कार होने का ढिंढोरा पीट कर हमेशा के लिए लोगों की सहानुभूति दिखाने या मजाक उड़ाने वाली नजरों का सामना करना किसी भी लड़की के लिए आसान नहीं होगा,’’ आलोक ने अपने मन की बात कही.

‘‘वह रिपोर्ट करना भी चाहे तो भी उस के घर वाले उसे ऐसा करने से रोक सकते हैं. अगर रिपोर्ट लिखाने को तैयार होते तो अब तक उन्हें ऐसा कर देना चाहिए था,’’ संजय ने अपनी राय के पक्ष में एक और बात कही.

‘‘मुझे तो एक अजीब सा डर सता रहा है,’’ नरेश ने सहमी सी आवाज में वार्त्तालाप को नया मोड़ दिया.

‘‘कैसा डर?’’

‘‘अगर उस लड़की ने कहीं आत्महत्या कर ली तो हमें फांसी के फंदे से कोई नहीं बचा सकेगा.’’

‘‘उस लड़की का मर जाना उलटे हमारे हक में होगा. तब रेप हम ने किया है, इस का कोई गवाह नहीं रहेगा,’’ संजय ने क्रूर मुसकान होंठों पर ला कर उन दोनों का हौसला बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘लड़की आत्महत्या कर के मर गई तो उस के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट रेप दिखलाएगी. पुलिस की तहकीकात होगी और हम जरूर पकड़े जाएंगे. यह एसएचओ भी तब हमें नहीं बचा पाएगा. इसलिए उस लड़की के आत्महत्या करने की कामना मत करो बेवकूफो,’’ आलोक ने उन दोनों को डपट दिया.

‘‘मुझे लगता है एसएचओ को इतनी जल्दी बीच में ला कर हम ने भयंकर भूल की है, वह अब हमारा पिंड नहीं छोड़ेगा. लड़की ने रिपोर्ट न भी की तो भी वह रुपए जरूर खाएगा,’’ संजय ने अपनी खीज जाहिर की.

‘‘तू इस बात की फिक्र क्यों कर रहा है? रेप करने में सब से आगे था और अब रुपए निकालने में तू सब से पीछे है.’’

आलोक के इस कथन ने संजय के तनबदन में आग सी लगा दी. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘अपना हिस्सा मैं दूंगा. मुझे चाहे लूटपाट करनी पड़े या चोरी, पर तुम लोगों को मेरा हिस्सा मिल जाएगा.’’

संजय ने उसी समय मन ही मन जल्द से जल्द अमीर बनने का निर्णय लिया. उस का एक चचेरा भाई लूटपाट और चोरी करने वाले गिरोह का सदस्य था. उस ने उस के गिरोह में शामिल होने का पक्का मन उसी पल बना लिया. उस ने अभावों व जिल्लत की जिंदगी और न जीने की सौगंध खा ली.

नरेश उस वक्त का सामना करने से डर रहा था जब वह अपनी मां व जवान बहन के सामने होगा. एक बलात्कारी होने का ठप्पा माथे पर लगा कर इन दोनों के सामने खड़े होने की कल्पना कर के ही उस की रूह कांप रही थी. जब आंतरिक तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया तो अचानक उस की रुलाई फूट पड़ी.

रामनाथ ने अब उन्हें अपने फार्महाउस में भेजने का विचार बदल दिया क्योंकि एसएचओ उन से सवाल करने का इच्छुक था. उन के सोने का इंतजाम उन्होंने मेहमानों के कमरे में किया.

विजय कपूर अपने बेटे नरेश का इंतजार करतेकरते सो गए, पर वह कमरे में नहीं आया. उस की अपने पिता के सवालों का सामना करने की हिम्मत ही नहीं हुई थी.

सारी रात उन तीनों की आंखों से नींद कोसों दूर रही. उस अनजान लड़की से बलात्कार करना ज्यादा मुश्किल साबित नहीं हुआ था, पर अब पकड़े जाने व परिवार व समाज की नजरों में अपमानित होने के डर ने उन तीनों की हालत खराब कर रखी थी.

सुबह 7 बजे के करीब थानेदार सतीश श्रीवास्तव रामनाथ की कोठी पर अपनी कार से अकेला मिलने आया.

उस का सामना इन तीनों ने डरते हुए किया. थाने में बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाने वह अनजान लड़की रातभर नहीं आई थी, लेकिन थानेदार फिर भी 50 हजार रुपए रामनाथ से ले गया.

‘‘मैं अपनी वरदी को दांव पर लगा कर आप के भतीजे और उस के दोस्तों की सहायता को तैयार हुआ हूं,’’ थानेदार ने रामनाथ से कहा, ‘‘मेरे रजामंद होने की फीस है यह 50 हजार रुपए. वह लड़की थाने न आई तो इन तीनों की खुशकिस्मती, नहीं तो 10 लाख का इंतजाम रखिएगा,’’ इतना कह कर वह उन को घूरता हुआ बोला, ‘‘और तुम तीनों पर मैं भविष्य में नजर रखूंगा. अपनी जवानी को काबू में रखना सीखो, नहीं तो एक दिन बुरी तरह पछताओगे,’’ कठोर स्वर में ऐसी चेतावनी दे कर थानेदार चला गया था.

वे तीनों 9 बजे के आसपास रामनाथ की कोठी से अपनेअपने घरों को जाने के लिए बाहर आए. उस लड़की का रेप करने के बाद करीब 1 दिन गुजर गया था. उसे रेप करने का मजा उन्हें सोचने पर भी याद नहीं आ रहा था.

इस वक्त उन तीनों के दिमाग में कई तरह के भय घूम रहे थे. कटे बालों वाली लंबे कद की किसी भी लड़की पर नजर पड़ते ही पहचाने जाने का डर उन में उभर आता. खाकी वरदी वाले पर नजर पड़ते ही जेल जाने का भय सताता. अपने घर वालों का सामना करने से वे मन ही मन डर रहे थे. उस वक्त की कल्पना कर के उन की रूह कांप जाती जब समाज की नजरों में वे बलात्कारी बन कर सदा जिल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर होंगे.

अगर तीनों का बस चलता तो वे वक्त को उलटा घुमा कर उस लड़की को रेप करने की घटना घटने से जरूर रोक देते. सिर्फ 12 घंटे में उन की हालत भय, चिंता, तनाव और समाज में बेइज्जती होने के एहसास से खस्ता हो गई थी. इस तरह की मानसिक यंत्रणा उन्हें जिंदगी भर भोगनी पड़ सकती है, इस एहसास के चलते वे तीनों अपनेआप और एकदूसरे को बारबार कोस रहे थे.

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