Valentine’s Day 2024: लाल फ्रेम- पहली नजर में हुआ प्रियांक को दिया से प्यार

कार पार्क कर के प्रियांक तेज कदमों से इधरउधर कुछ ढूंढ़ता हुआ औफिस की लिफ्ट की तरफ बढ़ गया.  कहीं वह लाल फ्रेम के चश्मे वाली स्मार्ट सुंदरी पहले चली तो नहीं गई. लिफ्ट का दरवाजा खुला मिल गया, वह सोच ही रहा था कि अंदर घुसूं या नहीं, तभी चिरपरिचित सुगंध के झोंके के साथ वह युवती लिफ्ट में प्रवेश कर गई तो वह भी यंत्रवत अंदर चला आया. अब तो रोज ही का कुछ ऐसा किस्सा था. नजरें मिलतीं, फिर दोनों दूसरी ओर देखने लगते. धीरेधीरे वे एकदूसरे को पहचानने लगे तो देख कर अब स्माइल भी करने लगे. युवती 10वीं मंजिल पर जाती तो 11वीं मंजिल पर उतर कर उस के साथ के खुशनुमा एहसासों को समेटे ऊर्जावान हुआ प्रियांक दोगुने उत्साह से सीढि़यां उतरता तीसरी मंजिल पर स्थित अपने औफिस में गुनगुनाते हुए पहुंच जाता.

‘ला ल ला हूम् हूम् ल ला…चलो, अच्छा हुआ उसे आज भी नहीं पता चला कि मैं सिर्फ उस का साथ पाने के लिए ही 11वीं मंजिल तक जाता हूं. उस के लाल फ्रेम ने तो मेरे दिल को ही फ्रेम कर लिया है…’ अपनी धुन में सोचता प्रियांक फिसलतेफिसलते बचा.

‘‘अरे भाई, संभल के, प्रियांक, क्या बात है, बड़ा खुश नजर आ रहा है. कहीं किसी से प्यार तो नहीं हो गया…. और यह बता ऊपर से कहां से आ रहा है? कई बार पहले भी तुम्हें ऊपर सीढि़यों से आते देखा, लेकिन पूछना भूल जाता हूं.’’

‘‘कुछ ऐसा ही समझ लो प्यारे,’’ प्रियांक ने मस्ती में जवाब दिया.

‘‘वाह भई वाह, मुबारक हो, मुबारक हो…अब कौन है, क्या नाम है ये भी तो बता दो प्यारे.’’

‘‘अरे ठहर भई, सब यहीं पूछ लेगा, कैंटीन में बात करते हैं. वैसे, इस से ज्यादा मुझे भी कुछ नहीं पता, बस,’’ कह कर प्रियांक मुसकराया.

जिस दिन वह युवती नहीं मिलती तो पूरे दिन उस का मन फ्यूज बल्ब जैसा बुझाबुझा सा रहता. न तो उस दिन उस के मन को तरोताजा करने वाली वह खुशबू रचबस पाती, न ही किसी काम में उस का मन लगता. 2 महीने तक यही सिलसिला चलता रहा.

फिर वह औफिस के बाद भी उस का साथ पाने के लिए इंतजार करता… उस के साथ ही बाहर निकलता और कार पार्किंग तक साथसाथ जाता. पता चला कि घर का रास्ता भी कुछ दूर तक एक ही है. उन की कार कभी आगे, कभी पीछे होती, नजरें मिलतीं, वे मुसकराते. इतने में उस के घर का रास्ता आ जाता. आखिर में लड़की की कार उसे बाय कहते हुए आगे निकल जाती. प्रियांक मन मसोस कर रह जाता.

कुछ दिन यों ही बीत गए. प्रियांक उस युवती का इंतजार तो करता लेकिन दूर से ही उस का लाल फ्रेम देख कर झट से लिफ्ट के अंदर हो लेता, जैसा कि उस ने उसे देखा ही नहीं. ऐसा इसलिए करता कि वह यह न समझ बैठे कि मैं उस से मुहब्बत करता हूं. पर क्या मैं सही में तो उस से प्यार नहीं करने लगा हूं.

उधर भीड़ में भी वह युवती दिया उसे महसूस कर लेती. उस का दिल जोरों से धड़क उठता. ऐसा क्यों हो रहा है, कहीं उस अनजाने से प्यार तो नहीं हो गया. यह सोचते ही उस के लाल फ्रेम के नीचे दोनों कान और गुलाबी गाल गरम लाल हो कर और भी मैच करने लगते. वह कोशिश करती कि आंख बचा कर निकल जाए, पर आंखें तो जैसे उसी का पीछा करने को आतुर रहतीं और जैसे ही वह देखती, उस का जी धक से हो उठता.

बहुत पुराना मम्मी का पसंदीदा गाना उस के जेहन में चलने लगता…’ मेरे सामने जब तू आता है जी धक से मेरा हो जाता है… महसूस ये होता है मुझ को जैसे मैं तेरा दम भरती हूं, इस बात से ये न समझ लेना कि मैं तुझ से मुहब्बत करती हूं…’ सच ही तो है, कितनी हकीकत है इस गाने में. उस ने माथे पर उभर आया पसीना पोंछ लिया था. जबतब मेरा पीछा ही करता रहता है, मेरा ही इंतजार कर रहा था शायद, पर आता देख जल्दी से अंदर हो लिया वरना लिफ्ट और भी तो जाती हैं. यह महज संयोग तो नहीं हो सकता. कभीकभी लिफ्ट के डोर पर ही उधर मुुंह घुमा कर खड़ा हो जाता है जब तक मैं चढ़ नहीं जाती. फिर भी, वह दिखने में कोई लुच्चालफंगा तो नहीं लगता. हां, अकड़ू जरूर लगता है.

एक दिन उसे आता देख वह लिफ्ट रोक कर खड़ा हो गया कि तभी लाल फ्रेम वाली लड़की से पहले तेज चलती हुई एक मोटी अफ्रीकन महिला टकराई और वह धड़ाम से नीचे गिर गई. महिला बड़ेबड़े हाथों से जल्दी का इशारा करते हुए सौरीसौरी बोलते हुए फिर उसी तेजी से निकल गई. प्रियांक लिफ्ट से बाहर आ कर उस की ओर लपका.

‘‘मे आई हैल्प यू,’’ उस ने संकोच से हाथ बढ़ा दिया था.

‘‘नोनो थैंक्स…इट्स ओके.’’

‘‘रियली?’’

वह धीरेधीरे उठ खड़ी हुई. तो प्रियांक ने उस का बैग झाड़ कर उसे थमा दिया.

‘‘अजीब हैं लोग, अपनी तेजी में अपने सिवा कुछ और देख ही नहीं पाते…’’

‘‘हूं,’’ एक पल को उस ने नजरें उठा कर देखा, कुछ अलग सा आकर्षण लगा था युवक में उसे.

बस, फिर खामोशी…

चलते हुए दोनों लिफ्ट के अंदर हो लिए.

‘वह इग्नोर कर रही है तो मैं कौन सा मरा जा रहा हूं.’ उधर दिया भी सोच रही थी, मैं ने एक बार मना किया तो क्या दोबारा भी तो पूछ सकता था, कितना दर्द हुआ उठने में, अब खड़े होने में तकलीफ हो रही है. अवसर का लाभ न उठा पाने का उसे भी मलाल था.

इस बार हफ्तेदस दिन हो गए, प्रियांक को लड़की दिखी ही नहीं. प्रियांक की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी. अपने औफिस से शायद उस ने छुट्टी ली होगी, घर पर कोई शादीवादी हो. कहीं बीमार तो नहीं, कोई दुर्घटना… अरे यार, मैं भी क्याक्या फालतू सोचे जा रहा हूं… बुद्धू हूं जो उस का नाम भी नहीं पता किया. उस के औफिस जा कर पूछूं भी तो क्या कैसे? वह लाल फ्रेम वाली मैडम? हां, चपरासी से पूछना ठीक रहेगा, बाहर जो बैठता है उसी से पूछता हूं.

उस दिन शाम को औफिस से निकलते वक्त मौका देख कर उस ने चपरासी से पूछ ही लिया था.

‘‘कौन? लाल चश्मेवाली? वे दिया मैम हैं साब, कोई काम था क्या…’’

‘‘कई दिनों से औफिस नहीं आ रहीं? क्या बात हो गई?’’

‘‘अब मुझे क्या पता, कोई काम था क्या?’’ उस ने दोबारा पूछा था.

‘‘नहीं, यों ही. कई दिनों से देखा नहीं,’’ अपने आप झुंझलाए खड़े प्रियांक के मन में तो आ रहा था कि कह दे कि अपने काम से काम रख, औफिस की इतनी सी खबर नहीं रख सकता तो क्या कर सकता है. उसे अपनी ओर देखतेदेखते वह खिसियाया सा लिफ्ट की तरफ मुड़ गया. चलो, यह तो अच्छा हुआ, नाम तो पता चला उस का. दिलोदिमाग उजाले से भर गया हो जैसे…‘‘दिया,’’ वह बोल उठा था.

3 दिनों बाद प्रियांक के साथ ही दिया कि कार पार्किंग में रुकी. दिया को देखते ही वह झटके से गाड़ी से उतरा, फिर सधे कदमों से उस के पास पहुंचने से अपनेआप को रोक नहीं पाया. वह नीचे उतरी थी. उस की लौंग स्कर्ट के नीचे बाएं पैर की एंकल में बंधी क्रेप बैंडेज साफ नजर आ रही थी. उसे देख कर वह मुसकराई और धीरेधीरे आगे बढ़ने लगी.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’ वह  सहारा देने बढ़ा था.

‘‘नो थैंक्स, इट्स ओके… आप चलें,’’ अपना चश्मा ठीक करते हुए वह मुसकराई. अपने दिल की तेज होती धड़कन उसे साफ सुनाई देने लगी थी. वह भी साथसाथ चलने लगा.

‘‘मैं, प्रियांक, 11वीं मंजिल पर स्थित निप्पो ओरिएंटल में काम करता हूं. आप को कई बार आतेजाते देखा है. पर कभी परिचय नहीं हुआ था. कैसे चोट लगा ली आप को?’’ वह मन की अकुलाहट छिपाते हुए बातों का सिलसिला आगे बढ़ाने लगा था.

‘‘माइसैल्फ दिया, दिया दीक्षित.’’

‘‘दिया, आई नो.’’

‘‘जी?’’ दिया ने उसे हैरानी से देखा था.

‘‘जी, वो आप भी नाम बताएंगी, मैं जानता था,’’ थोड़ी घबराहट के साथ वह बात घुमाने में कामयाब हो गया था.

‘‘एक मैरिज पार्टी में गई थी. डांस करते समय पैर ऊंचेनीचे पड़ा और बस मुड़ गया. जबरदस्त मोच आ गई थी. बिलकुल नहीं चला जा रहा था. अब तो काफी ठीक हूं,’’ कह कर वह फिर मुसकराई.

‘‘अच्छा, डांस का तो मैं भी दीवाना हूं. बस, मौका मिलना चाहिए कि शुरू हो जाता हूं. हाहा,’’ अपने जोक पर खुद ही हंसा था. दिया को मौन देख कर हंसी को ब्रेक लग गया था. वह सीरियस होते हुए बोला, ‘‘आप का मेरा रास्ता काफी दूर तक एक ही है. आप चाहें तो आप को मैं घर से ही पिकड्रौप कर सकता हूं. आप को गाड़ी चलाने में बेकार की असुविधा नहीं झेलनी पड़ेगी. मैं लाजपत नगर मुड़ जाता हूं, आप शायद मूलचंद…साउथऐक्स… वह बातोंबातों में उस का पताठिकाना जान लेना चाहता था.

‘‘ओ नो. चोट बाएं पैर में है, फिर कार को चलाने के लिए एक ही पैर की जरूरत पड़ती है. औटोमैटिक है न,’’ कह कर वह मुसकराई.

ओ क्विड, नाइस. कार है तो छोटी सी पर पिकअप फीचर बढि़या हैं. मेरे एक दोस्त के पास भी यही है. मैं ने चलाई है पर वह औटोमेटिक मौडल नहीं थी,’’ वह खिसियाई हंसी हंसा. थोड़ी देर बाद वे दोनों लिफ्ट के अंदर थे.

‘‘शाम को मैं आप का वेट कर लूंगा, निकलेंगे साथ ही घर को… क्या पता कोई मदद ही हो जाए,’’ प्रियांक ने माथे पर आई झूलती घुंघराले बालों की लट को स्टाइल से ऊपर किया तो माथे की नसों के साथ उस का चेहरा चमकने लगा.

‘‘ओके, नो प्रौब्लम,’’ कुछ तो आकर्षण था प्रियांक के चितवन में, जब भी देखती तो उस की नजरें जैसे बंध जातीं. पर जाहिर नहीं होने देती.

शाम को दिया लिफ्ट से बाहर निकली तो प्रियांक खड़ा मिला.

‘‘चलें?’’ दिया लिफ्ट से उतरी तो प्रियांक की प्रश्नवाचक नजरें पूछ रही थीं.

‘‘हूं, उस ने हामी भरी तो प्रियांक ने बड़े हक से उस के हाथों से बड़ा बैग अपने हाथों में ले लिया.’’

‘‘कोई नहीं, इस में क्या हुआ, इंसान इंसान के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा,’’ दोनों मुसकरा दिए.

‘‘न्यू कौफी होम की कौफी पी है आप ने, गजब की है.’’

‘‘अच्छा?’’ कुछ पलों के साथ के लिए थोड़ी दिलचस्पी दिखाना दिया को अच्छा लग रहा था.

‘‘मैं जा रहा हूं, ट्राई करनी है आप को? थोड़ा टाइम हो तो?’’ वह अपना भाव बनाए हुए बोला.

‘‘डोंट माइंड, आज देखती हूं पी कर, काफी थक भी गई हूं. काम था औफिस में. किसी ने बताया ही नहीं कभी. मैं भी तो बस, औफिस आती हूं, काम किया और फिर सीधे घर, चलिए,’’ आज न जाने कैसे दिया ने आसानी से हामी भर दी. जैसे उस के साथ के लिए तड़प रही हो और इतने दिनों तक उसे न देखने की सारी कसर अभी पूरी कर लेना चाहती हो. वह खुद हैरान थी, लेकिन उस ने कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया. उस के दिल की धड़कन कुछ हद तक सामान्य हो गई थी.

‘‘घर पर इंतजार करने वाले हों तो औफिस के बाद घर जाना ही अच्छा लगता है,’’ शायद वह बता दे कि कौनकौन रहता है उस के घर में साथ. पर नहीं, दिया ने तो बात का रुख ही मोड़ दिया.

‘‘अंदर नहीं, यहीं बाहर ओपन एयर में बैठते हैं. वेटर…’’ उस ने पुकारा था.

‘‘अरे, मैं और्डर दे कर आता हूं. कूपन सिस्टम है यहां, भीड़ देख रही हैं? आप बैठिए, मैं ले आता हूं.’’

‘‘वाउ, वेरी नाइस कौफी, पी कर दिनभर की थकान दूर हो गई,’’ कौफी पी कर दिया ने कहा. इधरउधर की बातें करते हुए वह चोर नजरों से उसे बारबार देख लेती. उस का साथ दिया को अच्छा लग रहा था. कुछ और साथ बैठना भी चाहती थी पर कहीं ये ज्यादा ही भाव में न आ जाए…

‘‘अब चलना चाहिए मिस्टर प्रियांक.’’

‘‘हां, चलिए.’’ मन तो उस का भी नहीं कर रहा था कभी जाने का. वह शाम के धुंधलके में चल रही मंदमंद बयार की दीवाना बनाने वाली चिरपरिचित भीनीभीनी सुगंध में सबकुछ भूल जाना चाहता था. पर मन ही मन सोचता कि इसे पता नहीं चलने देना है अभी, कहीं मुझे चिपकू न समझने लगे. घमंडी है थोड़ी, न घर बताया, न घर में कौनकौन है बताया. बस, बात घुमा दी. कहीं मुझे ऐसावैसा तो नहीं समझ रही मिस लाल फ्रेम. मैं भी थोड़ा कड़क, थोड़ा रिजर्व बन जाता हूं. पर इस के बारे में जानने का जो दिल करता है, उस का क्या करूं?

एक दिन प्रियांक ने ठान लिया कि जैसे ही दिया की कार आगे निकलेगी, वह बैक कर के गाड़ी वापस कर लेगा और फिर दिया का गंतव्य जान कर ही रहेगा. उस ने ऐसा ही किया. दिया जान भी नहीं पाई कि वह एक निश्चित दूरी बनाते हुए उस के पीछे चलने लगा पर दिया ने तो यू टर्न ले लिया और आश्रम के पैट्रोल पंप के साथ लगे मकानों में से किसी एक में घुस गई. 3 दिन लगातार पीछा करने के बाद प्रियांक इस नतीजे पर पहुंचा.

‘तो शायद मुझे चकमा देने के लिए ऐसा किया जा रहा था ताकि यहां रहती होगी, मैं सोच भी न सकूं… हाउस नंबर ये, नेम प्लेट पर नाम रिटायर्ड कर्नल एस के दीक्षित. फिर तो सही है… ठिकाने का पता तो लगा ही लिया मिस लाल फ्रेम. मगर खाली पते का करूंगा क्या?’ अपना सवाल सोच वह बौखलाया सा सड़क पर ही दो पल रुका रहा. ‘सड़कछाप आशिक तो नहीं कि मुंह उठाए घर चला जाऊं… पुरानी फिल्मों के हीरो जैसे कि मैं आप की लड़की का हाथ मांगने आया हूं. लड़की अपने लाल फ्रेम में से घूरे कि जैसे’ मेरा तो इस से कोई सरोकार ही नहीं. और कर्नल बाप मुझे गोली से ही उड़ा दे. अच्छा लगने या एकतरफा प्यार से क्या हो सकता है भला? वह तो अपने ही में रहती है, कछुए की तरह सबकुछ सिकोड़ कर बैठ जाती है, कुछ बताना ही नहीं चाहती. शायद ट्राई तो किया था या मेरी तरह वह भी कह नहीं पाती हो. अगर ऐसा है तो कायनात पर ही छोड़ देते हैं… पर शिद्दत से, बस, चाहो और बाकी कायनात पर छोड़ दो. नो एफर्ट… यह दुनिया का एक ही उदाहरण होगा शायद… चलता हूं…’ सोच कर वह मुसकराया. कार की दीवार पर हलके से मुक्के मारता वह वापस हो लिया.

‘आज ऊपर जा कर इन की मंजिल देख ही आती हूं, जनाब वहां काम करते भी हैं या नहीं… क्यों इस के बारे में जानने को दिल करता है. कहीं वाकई इस से मुझे इश्क तो नहीं होने लगा.’ दिया अपनी मंजिल पर न उतर कर आज प्रियांक के साथ उस के 11वें फ्लोर पर पहुंच गई.

‘‘चलिए, आज थोड़ा टाइम है मैं ने सोचा आप का औफिस ही देख लेती हूं. वैसे भी मैं ने इस बिल्डिंग में किसी और फ्लोर को अभी देखा नहीं…’’

अचकचा गया था प्रियांक उस के इस अचानक निर्णय पर. अब…‘ क्या कहे, मैं ने उस का साथ पाने के लिए उस से 11वीं फ्लोर पर अपना औफिस होने का झूठ बोला था, पर सच तो अब बोलना ही पड़ेगा. खिसियाया सा वह बोला, ‘‘वो दरअसल, मेरा औफिस तो तीसरे फ्लोर पर ही है. मैं ने आप का साथ पाने के लिए आप से झूठ बोला था दिया पर आप भी…मूलचंद नहीं… बल्कि आश्रम में…’’ उस के मुंह से अधूरा वाक्य रोकतेरोकते भी फिसल ही गया था.

अब खिसियाने की बारी दिया की थी, ‘अच्छा, तो इसे मेरे झूठ का पता चल गया कि मैं इस के मोड़ से आगे मूलचंद साउथऐक्स वगैरह में कहीं नहीं बल्कि इस के भी पहले रहती हूं. लगता है मेरा पीछा करते हुए उस ने मेरा घर देख लिया, तभी तो आश्रम…’’ सोचते ही उस के दांतों में जीभ अपनेआप आ गई.

‘‘जी, वो मैं…’’ उस के लाल फ्रेम में से उस की आंखों से झांकती झेंप स्पष्ट दिखाई दे रही थी.

‘इस का मतलब तुम भी…’ वह हर्ष मिश्रित विस्मय से अधीर होता हुआ आप से तुम पर आ कर और पास आ गया था.

दिया ने आंखोंआंखों में ही हामी भरी.

‘‘ओहो, प्रियांक ने खुशी से अपनी छाती पर घूंसा मारा. फिर दोनों हाथों को वी बनाते हुए ऊपर उठाया मानो उस ने जग जीत लिया हो.’’

‘‘चलो यार, यह भी खूब रही, अब मुझे 11वीं मंजिल और तुम्हें मूलचंद की तरफ जाने की जरूरत नहीं…’’ पास के लोगों से अनजान दोनों जोरों से हंस कर आलिंगनबद्ध हो गए. प्रियांक ने दिया का वह लाल फ्रेम वाला चेहरा मारे खुशी के दोनों हथेलियों में हौले से ऐसे भर लिया मानो तितली संग गुलाब थाम रखा हो.

खट्टामीठा: काश वह स्वरूप की इच्छा पूरी कर पाती

साढ़े 4 बजने में अभी पूरा आधा घंटा बाकी था पर रश्मि के लिए दफ्तर में बैठना दूभर हो रहा था. छटपटाता मन बारबार बेटे को याद कर रहा था. जाने क्या कर रहा होगा? स्कूल से आ कर दूध पिया या नहीं? खाना ठीक से खाया या नहीं? सास को ठीक से दिखाई नहीं देता. मोतियाबिंद के कारण कहीं बेटे स्वरूप की रोटियां जला न डाली हों? सवेरे रश्मि स्वयं बना कर आए तो रोटियां ठंडी हो जाती हैं. आखिर रहा नहीं गया तो रश्मि बैग कंधे पर डाल कुरसी छोड़ कर उठ खड़ी हुई. आज का काम रश्मि खत्म कर चुकी है, जो बाकी है वह अभी शुरू करने पर भी पूरा न होगा. इस समय एक बस आती है, भीड़ भी नहीं होती.

‘‘प्रभा, साहब पूछें तो बोलना कि…’’

‘‘कि आप विधि या व्यवसाय विभाग में हैं, बस,’’ प्रभा ने रश्मि का वाक्य पूरा कर दिया, ‘‘पर देखो, रोजरोज इस तरह जल्दी भागना ठीक नहीं.’’

रश्मि संकुचित हो उठी, पर उस के पास समय नहीं था. अत: जवाब दिए बिना आगे बढ़ी. जाने कैसा पत्थर दिल है प्रभा का. उस के भी 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. सास के ही पास छोड़ कर आती है, पर उसे घर जाने की जल्दी कभी नहीं होती. सुबह भी रोज समय से पहले आती है. छुट्टियां भी नहीं लेती. मोटीताजी है, बच्चों की कोई फिक्र नहीं करती. उस के हावभाव से लगता है घर से अधिक उसे दफ्तर ही पसंद है. बस, यहीं पर वह रश्मि से बाजी मार ले जाती है वरना रश्मि कामकाज में उस से बीस ही है. अपना काम कभी अधूरा नहीं रखती. छुट्टियां अधिक लेती है तो क्या, आवश्यकता होने पर दोपहर की छुट्टी में भी काम करती है. प्रभा जब स्वयं दफ्तर के समय में लंबे समय तक खरीदारी करती है तब कुछ नहीं होता. रश्मि के ऊपर कटाक्ष करती रहती है. मन तो करता है दोचार खरीखरी सुनाने को, पर वक्त बे वक्त इसी का एहसान लेना पड़ता है.

रश्मि मायूस हो उठी, पर बेटे का चेहरा उसे दौड़ाए लिए जा रहा था. साहब के कमरे के सामने से निकलते समय रश्मि का दिल जोर से धड़कने लगा. कहीं देख लिया तो क्या सोचेंगे, रोज ही जल्दी चली जाती है. 5-7 लोगों से घिरे हुए साहब कागजपत्र मेज पर फैलाए किसी जरूरी विचारविमर्श में डूबे थे. रश्मि की जान में जान आई. 1 घंटे से पहले यह विचार- विमर्श समाप्त नहीं होगा.

वह तेज कदमों से सीढि़यां उतरने लगी. बसस्टैंड भी तो पास नहीं, पूरे 15 मिनट चलना पड़ता है. प्रभा तो बीमारी में भी बच्चों को छोड़ कर दफ्तर चली आती है. कहती है, ‘बच्चों के लिए अधिक दिमागखपाई नहीं करनी चाहिए. बड़े हो कर कौन सी हमारी देखभाल करेंगे.’

बड़ा हो कर स्वरूप क्या करेगा यह तो तब पता चलेगा. फिलहाल वह अपना कर्तव्य अवश्य निभाएगी. कहीं वह अपने इकलौते पुत्र के लिए आवश्यकता से अधिक तो नहीं कर रही. यदि उस के भी 2 बच्चे होते तो क्या वह भी प्रभा के ढंग से सोचती? तभी तेज हार्न की आवाज सुन कर रश्मि ने चौंक कर उस ओर देखा, ‘अरे, यह तो विभाग की गाड़ी है,’ रश्मि गाड़ी की ओर लपकी.

‘‘विनोद, किस तरफ जा रहे हो?’’ उस ने ड्राइवर को पुकारा.

‘‘लाजपत नगर,’’ विनोद ने गरदन घुमा कर जवाब दिया.

‘‘ठहर, मैं भी आती हूं,’’ रश्मि लगभग छलांग लगा कर पिछला दरवाजा खोल कर गाड़ी में जा बैठी. अब तो पलक झपकते ही घर पहुंच जाएगी. तनाव भूल कर रश्मि प्रसन्न हो उठी.

‘‘और क्या हालचाल है, रश्मिजी?’’ होंठों के कोने पर बीड़ी दबा कर एक आंख कुछ छोटी कर पान से सने दांत निपोर कर विनोद ने रश्मि की ओर देखा.

वितृष्णा से रश्मि का मन भर गया पर इसी विनोद के सहारे जल्दी घर पहुंचना है. अत: मन मार कर हलकी हंसी लिए चुप बैठी रही.

घर में घुसने से पहले ही रश्मि को बेटे का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दादाजी, टीवी बंद करो. मुझ से गृहकार्य नहीं हो रहा है.’’

‘‘अरे, तू न देख,’’ रश्मि के ससुर लापरवाही से बोले.

‘‘न देखूं तो क्या कान में आवाज नहीं पड़ती?’’

रश्मि ने संतुष्टि अनुभव की. सब कहते हैं उस का अत्यधिक लाड़प्यार स्वरूप को बिगाड़ देगा. पर रश्मि ने ध्यान से परखा है, स्वरूप अभी से अपनी जिम्मेदारी समझता है. अपनी बात अगर सही है तो उस पर अड़ जाता है, साथ ही दूसरों के एहसासों की कद्र भी करता है. संभवत: रश्मि के आधे दिन की अनुपस्थिति के कारण ही आत्मनिर्भर होता जा रहा है.

‘‘मां, यह सवाल नहीं हो रहा है,’’ रश्मि को देखते ही स्वरूप कापी उठा कर दौड़ आया.

बेटे को सवाल समझा व चाय- पानी पी कर रश्मि इतमीनान से रसोईघर में घुसी. दफ्तर से जल्दी लौटी है, थकावट भी कम है. आज वह कढ़ीचावल और बैगन का भरता बनाएगी. स्वरूप को बहुत पसंद है.

खाना बनाने के बाद कपड़े बदल कर तैयार हो रश्मि बेटे को ले कर सैर करने निकली. फागुन की हवा ठंडी होते हुए भी आरामदेह लग रही थी. बच्चे चहलपहल करते हुए मैदान में खेल रहे थे. मां की उंगली पकड़े चलते हुए स्वरूप दुनिया भर की बकबक किए जा रहा था. रश्मि सोच रही थी जीवन सदा ही इतना मधुर क्यों नहीं लगता.

‘‘मां, क्या मुझे एक छोटी सी बहन नहीं मिल सकती. मैं उस के संग खेलूंगा. उसे गोद में ले कर घूमूंगा, उसे पढ़ाऊंगा. उस को…’’

रश्मि के मन का उल्लास एकाएक विषाद में बदल गया. स्वरूप के जीवन के इस पहलू की ओर रश्मि का ध्यान ही नहीं गया था. सरकार जो चाहे कहे. आधुनिकता, महंगाई और बढ़ते हुए दुनियादारी के तनावों का तकाजा कुछ भी हो, रश्मि मन से 2 बच्चे चाहती थी, मगर मनुष्य की कई चाहतें पूरी नहीं होतीं.

स्वरूप के बाद रश्मि 2 बार गर्भवती हुई थी पर दोनों ही बार गर्भपात हो गया. अब तो उस के लिए गर्भधारण करना भी खतरनाक है.

रश्मि ने समझौता कर लिया था. आखिर वह उन लोगों से तो बेहतर है जिन के संतान होती ही नहीं. यह सही है कपड़ेलत्ते, खिलौने, पुस्तकें, टौफी, चाकलेट स्वरूप की हर छोटीबड़ी मांग रश्मि जहां तक संभव होता है, पूरी करती है. पर जो वस्तु नहीं होती उस की कमी तो रहती ही है.

‘‘देख बेटा,’’ 7 वर्षीय पुत्र को रश्मि ने समझाना आरंभ कर दिया, ‘‘अगर छोटी बहन होगी तो तेरे साथ लड़ेगी. टौफी, चाकलेट, खिलौनों में हिस्सा मांगेगी और…’’

‘‘तो क्या मां,’’ स्वरूप ने मां की बात को बीच में ही काट दिया, ‘‘मैं तो बड़ा हूं, छोटी बहन से थोड़े ही लड़ूंगा. टौफी, चाकलेट, खिलौने सब उस को दूंगा. मेरे पास तो बहुत हैं.’’

रश्मि की बोलती बंद हो गई. समय से पहले क्यों इतना समझदार हो गया स्वरूप? रात का भोजन देख कर नन्हे स्वरूप के मस्तिष्क से छोटी बहन वाला विषय निकल गया. पर रश्मि जानती है यह भूलना और याद आना चलता ही रहेगा. हो सकता है बड़ा होने पर रश्मि स्वरूप को बहन न होने का सही कारण बता भी दे लेकिन जब तक वह इसी तरह जीने का आदी नहीं हो जाता, रश्मि को इस प्रसंग का सामना करना ही होगा.

मनपसंद व्यंजन पा कर स्वरूप चटखारे लेले कर खा रहा था, ‘‘कितना अच्छा खाना है. सलाद भी बहुत अच्छा है. मां, आप रोज जल्दी घर आ जाया करो.’’

रश्मि का मन कमजोर पड़ने लगा. मन हुआ कल ही त्यागपत्र भेज दे, नहीं चाहिए यह दो कौड़ी की नौकरी, जिस के कारण उस के लाड़ले को मनपसंद खाना भी नसीब नहीं होता.

‘‘चलो मां, लूडो खेलते हैं,’’ स्वरूप हाथमुंह धो आया था.

‘‘थोड़ी देर तक पिता के संग खेलो, मैं चौका संभाल कर आती हूं,’’ रश्मि ने बरतन समेटते हुए कहा.

ऐसा नहीं कि केवल सतीश की तनख्वाह से गृहस्थी नहीं चलेगी लेकिन घर में स्वयं उस की तनख्वाह का महत्त्व भी कम नहीं. रोज तरहतरह का खाना, स्वरूप के लिए विभिन्न शौकिया खर्चे, उस के कानवैंट स्कूल का खर्चा आदि मिला कर कोई कम रुपयों की जरूरत नहीं पड़ती. अभी तो अपना मकान भी नहीं. फिर वास्तविकता यह है कि प्रतिदिन हर समय मां घर में दिखेगी तो मां के प्रति उस का आकर्षण कम हो जाएगा. इसी तरह रोज ही अच्छा भोजन मिलेगा तो उस भोजन का महत्त्व भी उस के लिए कम हो जाएगा. जैसेजैसे स्वरूप बड़ा होगा उस की अपनी दुनिया विकसित होती जाएगी. मां के आंचल से निकल कर पढ़ाई- लिखाई, खेलकूद और दोस्तों में व्यस्त हो जाएगा. उस समय रश्मि अकेली पड़ जाएगी. इस से यही बेहतर है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ेगा.

सब काम निबटा कर रश्मि की आंखें थकावट से बोझिल होने लगीं. निद्रित पुत्र के ऊपर चादर डाल कर वह सतीश की ओर मुड़ी.

‘‘कभी मेरा भी ध्यान कर लिया करो. हमेशा बेटे में ही रमी रहती हो,’’ सतीश ने रश्मि का हाथ थामा.

‘‘जरा याद करो तुम्हारी मां ने भी कभी तुम्हारा इतना ही ध्यान रखा था,’’ रश्मि ने शरारत से कहा.

‘‘वह उम्र तो गई, अब तो हमें तुम्हारा ध्यान चाहिए.’’

‘‘अच्छा, यह लो ध्यान,’’ रश्मि पति से लिपट गई.

सुबह उठ कर, सब को चाय दे कर रश्मि ने स्वरूप के स्कूल का टिफिन तैयार किया. फिर दूध गरम कर के उसे उठाने चली.

‘‘ऊं, ऊं, अभी नहीं,’’ स्वरूप ने चादर तान ली.

‘‘नहीं बेटा, और नहीं सोते. देखो, सुबह हो गई है.’’

‘‘नहीं, बस मुझे सोना है,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.

आखिर 15 मिनट तक समझाने- बुझाने के बाद उस ने बेमन से बिस्तर छोड़ा. पर ब्रश करने, कपड़े पहनने व दूध पीने के बीच वह बारबार जा कर फिर से चादर ओढ़ कर लेट जाता और मनाने के बाद ही उठता. अंत में बैग कंधे पर डाले सतीश का हाथ पकड़े वह बस स्टाप की ओर रवाना हुआ तो रश्मि ने चैन की सांस ली. बिस्तर संवारना है, खाना बनाना, नाश्ता बनाना, नहाना फिर तैयार हो कर दफ्तर जाना है. रश्मि झटपट हाथ चलाने लगी. कपड़ों का ढेर बड़ा होता जा रहा है. 2 दिन से समय ही नहीं मिल रहा. आज शाम को आ कर अवश्य धोएगी.

‘‘कभी तो आंगन में झाड़ू लगा दिया कर रश्मि,’’ सब्जी छौंकते हुए रश्मि के कान में सास की आवाज पड़ी. कमरों के सामने अहाते के भीतर लंबाचौड़ा आंगन है, पक्के फर्श वाला. झाड़ू लगाने में 15-20 मिनट लग जाना मामूली बात है.

‘‘आप ही बताओ अम्मां, किस समय लगाऊं?’’

‘‘अब यह भी कोई समस्या है? जो दफ्तर जाती हैं क्या वे झाड़ू नहीं लगातीं?’’

रश्मि चुप हो गई. बहस में कुछ नहीं रखा. सब्जी में पानी डाल कर वह कपड़े निकालने लगी.

मांजी अब भी बोले जा रही थीं, ‘‘करने वाले बहुत कुछ करते हैं. स्वेटर बनाते हैं, पापड़बड़ी अचार, डालते हैं, कशीदाकारी करते हैं…’’

बदन पर पानी डालते हुए रश्मि सोच रही थी, ‘आज जा कर सब से पहले मार्च के महीने का ड्यूटी चार्ट नाना है.’

‘‘अम्मां, जमादार आए तो उसे 2 रुपए दे कर आंगन में झाड़ू लगवा लेना,’’ रश्मि ने सास को आवाज दी.

‘‘सुन, मेरे लिए एक जोड़ी चप्पल ले आना.’’

‘‘ठीक है, अम्मां,’’ कंघी कर के रश्मि ने लिपस्टिक लगाई.

‘‘वह सामने अंगूठे और पीछे पट्टी वाली चप्पल.’’

रश्मि ने भौंहें सिकोड़ीं, सास किसी खास डिजाइन के बारे में कह रही थीं.

‘‘अरे, वैसी ही जैसी स्वीटी की नानी ने पहनी थी, हलके पीले से रंग की.’’

‘‘अम्मां, मैं शाम को समझ लूंगी और कल चप्पल ला दूंगी.’’

रश्मि टिफिन पैक करने लगी. परांठा भी पैक कर लिया. नाश्ता करने का समय नहीं था.

‘‘मेरे ब्लाउज के जो बटन टूटे थे, लगा दिए हैं?’’

‘‘ओह,’’ रश्मि को याद आया, ‘‘शाम को लगा दूंगी.’’

अम्मां का चेहरा असंतुष्ट हो उठा. रश्मि किसी तरह पैरों में चप्पल डाल कर दफ्तर के लिए रवाना हुई. तेज चले तो 9 बजे वाली बस अब भी मिल सकती है.

आज शाम रश्मि जल्दी नहीं निकल सकी. 4 बजे साहब ने बुला कर जो टारक योजना समझानी शुरू की तो 5 बजने पर भी नहीं रुके.

‘‘मेरी बस निकल जाएगी, साहब,’’ उस ने झिझकते हुए कहा.

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गया,’’ बौस ने चौंक कर घड़ी देखी.

‘‘जी, कोई बात नहीं,’’ रश्मि ने मुसकराने का प्रयास किया.

दफ्तर से निकलते ही टारक योजना दिमाग से निकल गई और रात को क्या भोजन बनाए इस की चिंता ने आ घेरा. जाते हुए सब्जी भी खरीदनी है. बस आने पर धक्कामुक्की कर के चढ़ी पर वह बीच रास्ते में खराब हो गई. रश्मि मन ही मन गालियां देने लगी. दूसरी बस ले कर घर पहुंचतेपहुंचते 7 बज गए. दूर से ही छत के ऊपर छज्जे पर खड़ा स्वरूप दिख गया. छुपनछुपाई खेल रहा था बच्चों के संग. बहुत ही खतरनाक स्थिति में खड़ा था. गलती से भी थोड़ा और खिसक आया तो सीधे नीचे आ गिरेगा. रश्मि का तो कलेजा मुंह को आ गया.

‘‘स्वरूप,’’ उस ने कठोर स्वर में आवाज दी, ‘‘जल्दी नीचे उतर आओ.’’

‘‘अभी आया, मां,’’ कह कर स्वरूप दीवार फांद कर छत के दूसरी ओर गायब हो गया. अभी तक स्कूल के कपड़े भी नहीं बदले थे. सफेद कमीज व निकर पर दिनभर की गर्द जमा हो गई थी. बाल अस्तव्यस्त और हाथपांव धूल में सने थे. रश्मि का खून खौलने लगा. अम्मां दिन भर क्या करती रहती हैं. लगता है सारा दिन धूप में खेलता रहा है. हजार बार कहा है उसे छत के ऊपर न जाने दिया करें.

‘‘अम्मां,’’ अभी रश्मि ने आवाज ही दी थी कि सास फूट पड़ीं, ‘‘तेरा बेटा मुझ से नहीं संभलता. कल ही किसी क्रेच में इस का बंदोबस्त कर दे. सारा दिन इस के पीछे दौड़दौड़ कर मेरे पैरों में दर्द हो गया. कोई कहना नहीं मानता. स्कूल से लौट कर न नहाया, न कपड़े बदले, न ही ठीक से खाना खाया. ऊधम मचाने में लगा है. तू अपनी आंखों से देख क्या हाल बनाया है. मैं ने छत पर जाने से रोका तो मुझे धक्का मार कर निकल गया.’’

‘‘है कहां वह? अभी तक आया नहीं नीचे,’’ क्रोध से आगबबूला होती रश्मि स्वयं ही छत पर चली.

‘‘क्या बात है? नीचे क्यों नहीं आए?’’ ऊपर पहुंच कर उस ने स्वरूप को झिंझोड़ा.

‘‘बस, अपनी पारी दे कर आ रहा था मां.’’

मां के क्रोध से बेखबर स्वरूप की मासूमियत रश्मि के क्रोध को पिघलाने लगी, ‘‘चलो नीचे. दादी का कहा क्यों नहीं माना?’’

‘‘मुझे अच्छा नहीं लगता,’’ स्वरूप ने मुंह फुलाया, ‘‘इधर मत कूदो, कागज मत फैलाओ. कमरे में बौल से मत खेलो, गंदे पांव ले कर सोफे पर मत चढ़ो.’’

रश्मि की समझ में न आया किस पर क्रोध करे. बच्चे को बचपना करने से कैसे रोका जा सकता है? सास की भी उम्र बढ़ रही है, ऐसे में सहनशीलता कम होना स्वाभाविक है.

‘‘दादी तुम से बड़ी हैं स्वरूप. तुम्हें बहुत प्यार करती हैं. उन का कहना मानना चाहिए.’’

‘‘फिर मुझे आइसक्रीम क्यों नहीं खाने देतीं?’’

रश्मि थकावट महसूस करने लगी. कब तक नासमझ रहेगा स्वरूप.

‘‘आ गए लाट साहब,’’ पोते को देखते ही दादी का गुस्सा भड़क उठा, ‘‘तुम ने अभी तक इसे कुछ भी नहीं कहा? अरे, मैं कहती हूं इतना सिर न चढ़ाओ,’’ अपने प्रति दोषारोपण होते देख रश्मि का शांत होता क्रोध फिर उबल पड़ा.

‘‘चलो, कपड़े बदल कर हाथमुंह धोओ.’’

‘‘मैं नहीं धोऊंगा,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.

‘‘क्या?’’ रश्मि जोर से चिल्लाई.

‘‘बस, मैं न कहती थी तुम्हारा लाड़प्यार इसे जरूर बिगाड़ेगा. लो, अब भुगतो,’’ सास ने निसंदेह उसे उकसाने के लिए नहीं कहा था पर रश्मि ने तड़ाक से एक चांटा बेटे के कोमल गाल पर जड़ दिया.

स्वरूप जोर से रो पड़ा, ‘‘नहीं बदलूंगा कपड़े. जाओ, कभी नहीं बदलूंगा,’’ कह कर दूर जा कर खड़ा हो गया.

‘‘हांहां, कपड़े क्यों बदलोगे, सारा दिन आवारा बच्चों के साथ मटरगश्ती के सिवा क्या करोगे? देख रश्मि, असली बात तो मैं भूल गई, जा कर देख बौल मार कर ड्रेसिंग टेबल का शीशा तोड़ डाला है.’’

रश्मि को अब अचानक सास के ऊपर क्रोध आने लगा. थकीमांदी लौटी हूं और घर में घुसते ही राग अलापना शुरू कर दिया. गुस्से में उस ने स्वरूप के गाल पर 2 चांटे और जड़ दिए.

रश्मि क्रोध से और भड़की. पुत्र को खींच कर खड़ा किया और तड़ातड़ पीटना शुरू कर दिया.

‘‘सारी उम्र मुझे तंग करने के लिए ही पैदा हुआ था? बाकी 2 तो मर गए, तू भी मर क्यों न गया?’’

‘‘क्या पागल हो गई है रश्मि. बच्चे ने शरारत की, 2 थप्पड़ लगा दिए बस. अब गाली क्यों दे रही है? क्या पीटपीट कर इसे मार डालेगी?’’

क्रोध, ग्लानि और अवसाद ने रश्मि को तोड़ कर रख दिया था. कमरे में आ कर वह फफकफफक कर रो पड़ी. यह क्या किया उस ने. जान से भी प्रिय एकमात्र पुत्र के लिए ऐसी अशुभ बातें उस के मुंह से कैसे निकलीं?

‘‘जोश को समय पर लगाम दिया कर. जो मुंह में आता है वही बकने लगती है,’’ इकलौता पोता रश्मि की सास को भी कम प्रिय न था, ‘‘अरे, मैं सारा दिन सहती हूं इस की शरारतें और तू ने सुन कर ही पीटना शुरू कर दिया,’’ रश्मि की सास देर तक उसे कोसती रही. रश्मि के आंसू थम ही नहीं रहे थे. रहरह कर किसी अज्ञात आशंका से हृदय डूबता जा रहा था.

तभी एक कोमल स्पर्श पा कर रश्मि ने आंखें खोलीं. जाने स्वरूप कब आंगन से उठ आया था और यत्न से उस के आंसू पोंछ रहा था, ‘‘मत रोओ, मां. कोई मां की बद्दुआ लगती थोड़ी है.’’

रश्मि ने खींच कर पुत्र को हृदय से लगा लिया. कौन सिखाता है इसे इस तरह बोलना. समय से पहले ही संवेदनशील हो गया. फिर अभीअभी जो नासमझी कर रहा था वह क्या था?

जो हो, नासमझ, समझदार या परिपक्व, रश्मि के हृदय का टुकड़ा हर स्थिति में अतुलनीय है. पुत्र को बांहों में भींच कर रश्मि सुख का अनुभव कर रही थी.

उपहार: स्वार्थी विभव क्यों कर रहा था शीली का इंतजार

शीली के लिए विभव से मिलना अचानक ही था. हां, वह जरूर उस के आने की राह तकता पार्क के किनारे खड़ा इंतजार कर रहा था. भूल गए अतीत को इस तरह इंतजार करता देख शीली को कितनी तकलीफ हुई थी.

स्कूटर रोक लेने का इशारा करता विभव उस के नजदीक ही चला आया. लुटेपिटे व्यक्तित्व और खंडित मनोशक्ति वाला विभव दीनहीन याचक बना खड़ा था. उस ने इस पुरुष से तो प्रेम नहीं किया था. विभव के कहे कुछ शब्दों को सुन कर ही उसे मचली आने लगी. नजरें नीची कर स्कूटर स्टार्ट कर वह चुपचाप घर चली आई. विभव पुकारता ही रह गया…

घर पहुंच कर शीली को लगा कि अब खुल कर सांस आई है. मुंहहाथ धो कर ताजादम हुई.

चाय का घूंट भरते ही दिन भर की थकान पल भर में गायब हो गई. थोड़ा सहज होते ही फिर उस के मन में उलझाने वाले सवाल उठने लगे कि विभव अब क्यों आया? क्यों पहले की तरह वह पार्क के किनारे खड़ा उस का इंतजार कर रहा था. क्या वह उसे अपने से कमतर आंक रहा था? उस ने क्या सोचा कि वह 8 वर्ष के अतीत को भूल कर उसे फिर अपना लेगी… दोस्ती कर लेगी…पर क्यों? माना कि तब मेरे मन के सारे कोमल भाव उसी के इर्दगिर्द उमड़घुमड़ कर स्नेह की वर्षा करते थे तो क्या अब भी विभव उसे उसी मोड़ पर खड़े देखना चाहता है जहां उसे छोड़ गया था… कैसा दोटूक जवाब दिया था जब शीली ने स्नेह में भर, उस से विवाह का प्रस्ताव रखा था. एक लिजलिजा सा कारण दे कर सारे संबंध तोड़ गया था.

‘तुम से शादी कैसे कर लूं, शीली… तुम तो मेरी प्रेरणा हो, मेरा स्नेह हो, मेरे जीवन का संबल हो. क्या घरेलू औरत बन कर खो नहीं जाओगी? सच शीली, मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि जब मैं आफिस से थकाहारा लौटूं तो तुम मसालों से गंधाती और बच्चों की चिल्लपों से घिरी दिखाई दो. छि:…शीली, यह काम तो कोई साधारण औरत ही कर देगी, इसी से तो नंदी से विवाह कर रहा हूं…तुम तो बस, मेरी प्रेरणा बनी रहो.’

शीली अवाक् विभव का मुंह ताकती रह गई, क्योंकि वह तो यही जानती थी कि वर्षों से चले आ रहे स्नेहबंधन की परिणति विवाह ही होती है. खुद के गढ़े गए तर्कों में छिपी विभव की सोच उसे घृणित लगी. विवाह एक से और स्नेह दूसरी से…ऐसा संबंध समाज की किस परिभाषा के अंतर्गत आता है. प्रेमिका…रखैल…

ये शब्द शीली के दिमाग में आते ही उस का पूरा बदन सिहर गया, रोएं खड़े हो गए.

उस दिन के बाद कितनी ही बार उस ने विभव को वहीं पार्क के किनारे खड़ा देखा. हर बार उस के मुंह से अनायास ही दगाबाज या धोखेबाज शब्द निकलता और वह स्कूटर मोड़ कर दूसरे रास्ते से चली जाती.

एक बार शीली ने विभव से दूर रहने का फैसला किया तो स्नेह के झूठे बिरवे को नोंचनोंच कर फेंक दिया. चूंकि मातापिता बेटी की दशा से परिचित थे इसलिए उन्होंने शीली को उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली भेज दिया. दिल्ली में शीली की मौसी का घर था और उस की हमउम्र मौसेरी बहन भी थी. शीली के लिए अब दिन बिताना सहज होने लगा. मौसाजी ने एम.एससी. में शीली का एडमिशन करा दिया. विषय की गंभीरता और कैरियर बनाने की चाह ने शीली के अतीत पर पानी सा डाल दिया. कठिन मेहनत और लगन से उस का व्यक्तित्व बदलने लगा. अब वह अदम्य साहस और कर्मठता जैसे गुणों से लबरेज हो गई थी.

शीली की मेहनत ने परिणाम भी बहुत अच्छा दिया. एम.एससी. में फर्स्ट डिवीजन पा कर वह खुद भी चकित थी. मौसेरी बहन ने सुझाया कि पीएच.डी. भी कर लो. मातापिता से पूछने पर उन्होंने भी सहमति दे दी.

प्रो. प्रशांत के निर्देशन में शीली को पीएच.डी. करने की इजाजत मिल गई. शीली के अंदर कुछ करने की ललक से प्रो. प्रशांत बहुत प्रभावित थे. उन्होंने बहुत धीरज से शीली को काम का विषय समझाया. यही नहीं अपनी गाइडेंस में प्रशांत जैसाजैसा बताते गए शीली एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह वैसावैसा करती गई. इस तरह 4 साल की लंबी और कठिन मेहनत से शीली की पीएच.डी. पूरी हो गई.

प्रो. प्रशांत खुश थे. कहां मिलते थे ऐसे छात्र. अधिकतर तो घोड़े पर सवार… खुद से कुछ करते न बनता. न ही करने की इच्छा रखते…बस, हर समय यही चाहत कि सारी विषयवस्तु तैयार मिल जाए और वे अपने नाम के साथ इस उपाधि को जोड़ते. कुछ तो इतना करना भी गवारा न करते, 4 साल यों ही गुजार देते और पीएच.डी. को अधूरा छोड़ देते.

शोध शिक्षकों के बारे में शीली ने भी बहुत कुछ सुन रखा था लेकिन

प्रो. प्रशांत ऐसे न थे. 4 सालों में शीली ने कुछ कहने भर को भी हलकापन नहीं पाया उन के व्यक्तित्व में. साथी छात्र भी खुशमिजाज और सहयोग करने में कभी पीछे न रहने वाले थे.

शोध पूरा होने के बाद शीली अपने मातापिता के पास लौट आई और काम की तलाश करने लगी. उसे इस बात की खुशी है कि उस ने अपनी मेहनत के बल पर इस संस्थान में नौकरी पाई है. इस संस्थान में काम करने का मन उस ने इसीलिए बनाया कि यहां तनख्वाह ठीक थी और काम की शर्तें भी अनुकूल थीं.

शीली ने धीरेधीरे संस्थान के वातावरण में खुद को ढालना शुरू किया. वैसे कितनी ही बार स्त्री होने के नाते उस के काम करने की क्षमता पर उंगली उठाई गई जो उसे पसंद न आई थी फिर भी यहां का अपना काम उसे पसंद आ रहा था.

बीतते समय के साथ शीली के व्यक्तित्व से निरीहता गायब हो गई और आत्मविश्वास से भरी कर्मठता ने उसे ऊंचा, और ऊंचा उठने के हौसले दिए. तीखी धार सा निखरता उस का व्यक्तित्व आसपास की परिस्थितियों को छीलता और अपने लिए जगह बना लेता. वह संस्थान के सम्माननीय पद पर काम कर रही थी.

शीली को लगा कि आज विभव का मिलना उस के शांत जीवन में पत्थर मारने जैसा है. उसे फिर से विभव की बातें याद आने लगीं. कैसे बिना उस की इच्छा जाने वह कहे जा रहा था:

‘कितनी गलती पर था मैं? अपनी मूर्खता से तुम्हारा अपना दोनों का सर्वनाश कर दिया…नंदी को क्या कहूं…जेवर, कपड़ा, ईर्ष्या और अपशब्दों का पर्याय है वह. मन इन्हीं उलझावों में भटक कर रह गया है. तुम…तुम मेरी प्रेरणा बनी रहो, मैं बाकी जीवन जी लूंगा.’

हर बार विभव ने अपने ही जीने की रट लगाई है. उस के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं. आखिर वह कैसे जी रही है? नहीं…नहीं, अब नहीं याद करना…न विभव को न उस की बातों को. उस की बातों में अब भी वही पुरानी कुटिल मानसिकता छिपी पड़ी है. उस ने जीवन में पहले एक प्रयोग किया और वह असफल रहा और अब इतने लंबे अरसे बाद एक और प्रयोग…नारी को क्या बेजान गुडि़या मान लिया जो ललक कर उस के नजदीक रहना चाहेगी. कापुरुष…

नंदिनी से शादी इसलिए की, क्योंकि वह उस की तुलना में अमीर थी और अब फिर वैसे ही ओछे प्रयास…क्योंकि अब वह नंदिनी की तुलना में अधिक पढ़ीलिखी, अधिक दक्ष और अधिक कमाती है…उसे पहले भी जीवनसाथी नहीं चाहिए था और न ही अब…

शीली ने आज की घटना की उधेड़बुन से थके दिमाग को आंखें बंद कर दिलासा दी और करवट बदल कर सोने का यत्न करने लगी और कब उसे नींद आ गई पता ही न चला.

अगले दिन संस्थान जाते समय शीली सोच रही थी कि आज फिर विभव पार्क के किनारे खड़ा मिलेगा. उसे कुछ न कुछ उपाय जरूर सोच लेना है. यह रुटीन यों ही नहीं चल सकता. विभव का भरोसा नहीं, चोट खाया वह कहीं छिछोरेपन पर उतर आया तो? कुछ तो सोचना और करना ही होगा कि विभव वापस अपनी दुनिया में लौट जाए और वह चैन से जी सके.

काफी सोचविचार के बाद एक आइडिया उस के दिमाग में आया. वह लंच के समय सीट से उठी और बाजार चली गई. क्राफ्ट बनाने के सामान वाली दुकान पर दुकानदार को बहुत कुछ समझा कर अपना आर्डर दिया और वापस आ गई. शाम को घर लौटते समय अपना आर्डर लिया, उसे आकर्षक पैकिंग से पैक कराया और घर की तरफ चल दी.

शीली का अनुमान बिलकुल सही निकला. उस ने दूर से ही पार्क के किनारे खड़े विभव को देख लिया. एक घृणा की लहर उठी और उस के पूरे शरीर में फैल गई. अपने पर काबू कर उस ने अपना स्कूटर विभव के सामने रोका. उसे देख कर विभव की आंखों में चमक आ गई. शीली ने मन ही मन विभव को कोसा फिर झुक कर स्कूटर की डिक्की से पैकेट उठाया और विभव को थमा दिया.

‘‘यह क्या है?’’ कामयाबी की मुसकान के साथ विभव ने पूछा.

‘‘तुम्हारे और मेरे संबंधों को एक नाम,’’ शीली का उत्तर भावहीन था.

विभव ने खुशीखुशी पैकेट को खोला तो देखता ही रह गया. कांपते हाथों से बाहर निकाला तो वह तिनकों से बना छोटा सा ‘बिजूका’ था. सिर पर नन्ही सी रंगबिरंगी हांडी धरे, रंगीन परिधान पहने, लाललाल होंठों से हंसता…कालीकाली आंखें चमकाता…

विभव के चेहरे पर प्रश्नचिह्न का भाव उभरा तो वह तटस्थ हो गई. उस के चेहरे पर कोई भाव न था, न गम न खुशी.

‘‘विभव, यह बिजूका है, तिनकों से बना, मिट्टी का सिर, रंगीन कपड़ों से सजा…यह उस इनसान का प्रतीक है जो लालच में सबकुछ पा लेने की लालसा में सबकुछ गंवा देता है. भावनाओं की सचाई से अछूता…दिखावे की रंगीनी ओढ़े. अब क्या बचा है इस के जीवन में… जीवन भर मरुस्थल में खड़े रहने की सजा…निपट सूनेपन में अपने अरमानों के पक्षियों को इधरउधर बच कर भागते हुए देखते रहने के सिवा…’’

विभव ने धीरे से बिजूका पैकेट में रख दिया. पता नहीं वह उस में छिपे संदेश को कितना समझ पाया…न समझे, पर शीली के प्रशस्त मार्ग पर कांटा बन कर चुभे तो नहीं…

शीली कुछ न कह कर मुड़ गई. स्कूटर स्टार्ट किया और घर की ओर चल दी. उसे उम्मीद थी कि अब विभव पार्क के किनारे खड़ा कभी नहीं मिलेगा.

Valentine’s Day 2024: फैसला- आभा के प्यार से अविरल ने क्यों मोड़ा मुंह

लेखक- डा. कृष्णकांत

अविरल टैक्सी से उतर कर तेज कदमों से चलता हुआ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में दाखिल हुआ. सुबह के 7.35 बज चुके थे. वह प्लेटफार्म नं. 1 पर खड़ी शताब्दी एक्सप्रेस के एसी चेयरकार के अपने डब्बे में घुस गया और अपनी सीट पर बैठ गया. उस की बीच के रास्ते के साथ वाली सीट थी.

उसे कल शाम को ही सूचना मिली कि आज पंजाब सरकार के अधिकारियों के साथ चंडीगढ़ में मीटिंग है, इसलिए उसे सुबहसुबह चंडीगढ़ के लिए रवाना होना पड़ा. शाम को ही उस ने आभा को फोन करने का विचार किया. उस के घर में बेकार का बवाल न खड़ा हो जाए, यह सोच कर उस ने इस विचार को त्याग दिया.

‘आप का शताब्दी एक्सप्रेस पर जो दिल्ली से पानीपत, कुरुक्षेत्र, अंबाला, चंडीगढ़ होते हुए कालका जा रही है, स्वागत है…’ उद्घोषणा हुई.

उसी समय चाय और बिस्कुट की सेवा शुरू हो गई. चाय पीने के बाद अविरल ने आंखें बंद कर लीं. आंखें बंद करते ही उस के सामने आभा का मुसकराता हुआ चेहरा आ गया. वह आभा के बारे में सोचने लगा, जब उस ने आभा को पहली बार देखा था.

आभा से उस की पहली मुलाकात 6 माह पहले अचानक एक पार्टी में हुई थी. उन दिनों उस की पत्नी सुधा बीमार थी. चूंकि यह उस के बौस राहुल साहब की लड़की की शादी की पार्टी थी, इसलिए उसे जाना पड़ा था. आभा भी अकेली आई थी.

बाद में मालूम हुआ कि उस के पति को पार्टियों से नफरत है. आभा एक कंपनी में निदेशक थी. चूंकि उस की कंपनी के राहुल साहब की कंपनी के साथ व्यावसायिक संबंध थे, इसलिए उसे भी औपचारिकतावश आना पड़ा था.

‘‘आप अकेली हैं?’’ अविरल ने आभा के पास जा कर पूछा.

‘‘अब नहीं हूं. आप जो आ गए हैं.’’ आभा ने मुसकरा कर कहा.

कुछ ही देर में वे ऐसे घुलमिल गए, जैसे बरसों से एकदूसरे को जानते हों. पार्टी के बाद अविरल उसे घर छोड़ने गया. विदा लेते समय आभा ने धीरे से उस का हाथ दबा कर कहा, ‘‘शुक्रिया, मैं आशा करती हूं कि यह हमारी आखिरी मुलाकात नहीं होगी.’’

उस रात अविरल के जेहन में आभा छाई रही. ‘मैं आशा करती हूं कि यह हमारी आखिरी मुलाकात नहीं होगी’ उस का यह वाक्य उस के मन में बारबार कौंधता रहा.

एक सप्ताह बाद वह उसे अपने आफिस के गलियारे में मिल गई. पूछने पर बताया कि वह किसी मीटिंग में आई थी. दोपहर के खाने का समय हो रहा था. अविरल ने उसे खाने का आमंत्रण दिया तो वह तुरंत तैयार हो गई.

अविरल को लगा कि आभा उस की ओर आकर्षित है. उस की बातों से आभास हुआ कि पति की अधिक उम्र होने के कारण वह अपने पारिवारिक जीवन से असंतुष्ट है. वे दोनों अकसर आफिस के बाहर मिलने लगे.

एक दिन शाम को लोदी गार्डन में बैठेबैठे आभा ने अविरल के कंधे पर सिर रख दिया और आंखें बंद कर लीं. अविरल ने उस के अधरों पर अपने अधर रख दिए. वह उस से लिपट गई.

‘‘तुम मुझे धोखा तो नहीं दोगे, मेरा साथ दोगे न?’’

‘‘जरूर,’’ अविरल ने कहा.

‘अब हम पानीपत रेलवे स्टेशन पहुंच रहे हैं. यह स्थान इतिहास में 3 लड़ाइयों के लिए प्रसिद्ध है…’ उद्घोषणा हुई.

अविरल ने आंखें खोल कर घड़ी में देखा.

9 बज चुके थे. यानी गाड़ी 15 मिनट विलंब से चल रही है. उस ने आभा को फोन किया.

‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘अभीअभी आफिस आई हूं.’’

‘‘मैं इस समय शताब्दी से चंडीगढ़ जा रहा हूं. तुम्हारी याद आ रही है.’’

‘‘अचानक चंडीगढ़ कैसे?’’

‘‘पंजाब सरकार के अधिकारियों के साथ मीटिंग अचानक तय हुई. मैं आज देर रात तक लौटूंगा. इसलिए आज के बजाय कल शाम को मिलते हैं.’’

‘‘मैं ने कल रात सपने में देखा कि हम शादी के बाद गोवा जा रहे हैं. मैं इस सपने को साकार करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं. और तुम?’’

‘‘मैं भी,’’ अविरल ने कहा.

‘‘मैं शाम को 6.00 बजे बात करूंगी. अभी मीटिंग में जाना है. मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूं,’’ कह कर आभा ने फोन काट दिया.

अविरल ने मुसकरा कर अपना सैल फोन बंद किया.

उसे अचानक लगा कि किसी ने धक्का दिया है. उस ने मुड़ कर देखा कि एक वृद्ध सज्जन और एक महिला बहुत ही धीरेधीरे चल कर रास्ते के दूसरी ओर वाली 2 सीटों पर बैठ गए. उसे वृद्ध का मुंह टेढ़ा सा लगा. ध्यान से देखा तो पाया कि उन्हें एक ओर का पक्षाघात है.

‘‘माफ कीजिएगा,’’ महिला ने अविरल से कहा.

‘‘कोई बात नहीं.’’

‘‘तुम बेकार के लिए यह सब कर रही हो. कुछ नहीं होने वाला,’’ वृद्ध ने महिला से कहा.

‘‘मैं आप की जीवनसंगिनी हूं. मरते दम तक आशा नहीं छोड़ूंगी. सुना है कि साधु बाबा में बड़ी शक्ति है. बाबा बस, 2 दिनों के लिए अंबाला आ रहे हैं. मुझे उम्मीद है कि आप जरूर ठीक हो जाएंगे,’’ महिला ने अपने पति के मुंह को आराम से पोंछते हुए कहा.

‘अच्छा तो ये पतिपत्नी हैं. किसी साधु बाबा से पक्षाघात का इलाज कराने जा रहे हैं. इस 21वीं सदी में भी ये लोग इन बातों को मानते हैं. हैं न बेवकूफ,’ अविरल ने सोचा.

इसी समय ट्रेन पानीपत से चल पड़ी.

अविरल का सैल फोन बज उठा. अविरल ने फोन उठाया. अक्षय का फोन था, जो उस का सेके्रटरी था.

‘‘हैलो सर, मैं अक्षय बोल रहा हूं.’’

‘‘बोलो अक्षय.’’

‘‘सर, मेरी पत्नी की तबीयत बहुत खराब हो गई है. मैं एक सप्ताह नहीं आऊंगा. डाक्टरों ने जवाब दे दिया है. कहते हैं कि कैंसर पूरे शरीर में फैल गया है.’’

‘‘अक्षय, तुम्हारे घर में यदि कोई देखभाल करने वाला है तो बेकार में छुट्टियां बरबाद मत करो.’’

‘‘सर, ऐसे में उस का साथ नहीं दूंगा तो कब दूंगा?’’

‘‘ठीक है,’’ अविरल ने अक्षय से बहस करने के बजाय कहा और फोन काट दिया. ‘ये लोग कभी व्यावहारिक नहीं होंगे,’ उस ने सोचा.

इसी समय जलपान सेवा प्रारंभ हो गई. अविरल ने देखा कि महिला पति को अपने हाथ से खिला रही है. शायद उस के शरीर का दायां भाग पक्षाघात से ग्रस्त था.

अविरल का सैल फोन फिर बज उठा.

‘‘हैलो पापा, मैं निशा बोल रही हूं. हमारी आज से ही दशहरे की एक हफ्ते की छुट्टियां हैं. स्कूल बच्चों को नैनीताल ले जाने का प्रोग्राम बना रहा है, लेकिन मैं नहीं जा रही.’’

‘‘क्यों बेटा? तुम्हें जरूर जाना चाहिए.’’

‘‘नहीं पापा, मैं छुट्टियों में मम्मी के साथ समय बिताना चाहती हूं. मम्मी आप से बात करना चाहती हैं.’’

‘‘हैलो, मैं सुधा बोल रही हूं. सुबह आप मुझ से बिना बताए चले गए. मुझ से नाराज हैं क्या?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. तुम सो रही थीं. तुम्हें जगाना उचित नहीं समझा.’’

‘‘मैं ने देखा है कि आप कई दिनों से चुपचाप रहते हैं. ठीक से बात भी नहीं करते. यदि कोई गलती हो गई हो तो मुझे माफ कर दीजिए,’’ सुधा सुबकसुबक कर रोने लगी.

अविरल ने फोन काट दिया और आंखें बंद कर लीं. उस ने निश्चय किया कि तलाक के बाद भी वह सुधा और निशा की पूरी मदद करेगा. उन की सारी जरूरतें पूरी करेगा. आखिर उन का तो कोई दोष नहीं है.

‘अब हम कुरुक्षेत्र रेलवे स्टेशन पहुंच रहे हैं…’ उद्घोषणा हुई. अविरल ने घड़ी में देखा. 10 बज चुके थे.

‘‘यानी ट्रेन 30 मिनट विलंब से चल रही है,’’ उस ने सोचा.

उस ने बगल में देखा. वृद्ध सज्जन आंखें बंद किए सो रहे थे. उस की नजरें महिला से मिलीं. वह थोड़ा सा मुसकरा दीं.

‘‘इन को कब से ऐसा है?’’

‘‘2 साल पहले एकाएक इन्हें पक्षाघात हो गया. कई जगह इलाज कराया, परंतु कुछ नहीं हुआ. सुना है कि अंबाला में कोई चमत्कारी बाबा आ रहे हैं.’’

‘‘आप मानती हैं यह सब?’’ अविरल के मुंह से निकल गया.

‘‘जब उम्मीद के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, तब कुछ भी मानने को मन करता है. मैं ने हिम्मत नहीं हारी है. अंत तक साथ दूंगी और कोशिश करती रहूंगी.’’

ट्रिन, ट्रिन, ट्रिन…

‘‘हैलो,’’ अविरल ने कहा.

‘‘हैलो, यार मैं कुमार बोल रहा हूं.’’

कुमार अविरल का साथी था, जो हैड आफिस में था.

‘‘बोलो कुमार, कैसा चल रहा है?’’

‘‘यार, तेरे लिए खुशखबरी है. बताता हूं पर पहले पार्टी का वादा कर.’’

‘‘जरूर, यार.’’

‘‘तेरा प्रमोशन हो गया है. बौस ने अभी फाइल पर हस्ताक्षर किए हैं.’’

‘‘तेरी पार्टी पक्की. मैं कल आफिस आ रहा हूं. फिर पार्टी का प्रोग्राम बनाते हैं.’’

कुमार ने फोन काट दिया.

अविरल के मन में आया कि आभा को फोन कर के बताए. परंतु वह तो मीटिंग में व्यस्त होगी. शाम तक इंतजार करने की सोची.

‘अब हम अंबाला रेलवे स्टेशन पहुंच रहे हैं…’ उद्घोषणा हुई.

वृद्ध सज्जन और महिला उठ कर धीरेधीरे पीछे जाने लगे. महिला ने एक ओर से अपने पति को संभाला हुआ था. बीच में वृद्ध सज्जन थोड़ा सा लड़खड़ाए, परंतु महिला ने उन्हें जोर से पकड़ कर संभाल लिया. वह धीरे से स्टेशन पर उतर गए और ट्रेन चल पड़ी.

अविरल ने आंखें बंद कर लीं और सोने की कोशिश करने लगा. अचानक उसे लगा कि उस ने वृद्ध सज्जन का स्थान ले लिया है. वह पक्षाघात से ग्रस्त है. गिर रहा है, लड़खड़ा रहा है, परंतु उस के बगल में कोई संभालने वाला नहीं था.

‘आभा कहां है?’ उस ने सोचा.

‘आभा तो अपने वर्तमान पति को इसलिए छोड़ना चाहती है, क्योंकि उस की उम्र ज्यादा है. फिर वह उस के अपंग होने पर उस का साथ क्यों देगी,’ उस ने सोचा.

‘सुधा तो है न?’

‘सुधा को तो वह तलाक दे चुका है. वह यहां उस का साथ देने के लिए कैसे हो सकती है?’

अविरल को पसीना आ गया. उस ने आंखें खोलीं.

‘अच्छा हुआ कि यह सपना था,’ उस ने सोचा.

‘अब हम चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन पहुंच रहे हैं. यह स्थान राक गार्डन के लिए विश्व में प्रसिद्ध है…’ उद्घोषणा हुई.

अविरल अपना बैग ले कर उतर गया. कंपनी के अतिथिगृह में जा कर वह तैयार हुआ और मीटिंग के लिए रवाना हो गया.

दिन भर मीटिंग में व्यस्त रहने के बावजूद वह अनमना सा रहा. उस की आंखों के सामने बारबार एक ही दृश्य आता ‘महिला अपने पक्षाघातग्रस्त वृद्ध पति को संभाल रही है.’

‘मैं ने हिम्मत नहीं हारी है. अंत तक साथ दूंगी और कोशिश करती रहूंगी,’ महिला का स्वर था.

‘सर, मैं ऐसे में साथ नहीं दूंगा तो कब दूंगा,’ अक्षय का स्वर भी गूंज उठा.

‘क्या आभा उस का कठिनाइयों में साथ देगी?’ वह सोचता रहा.

वह मीटिंग खत्म कर के शाम को 5.30 बजे चंडीगढ़ स्टेशन पहुंच गया, जिस से वह शाम को 6.00 बजे वाली शताब्दी एक्सप्रेस से दिल्ली जा सके.

यदि कभी आप शाम को चंडीगढ़ स्टेशन जाएं, तो पाएंगे कि पूरा स्टेशन चिडि़यों की आवाज से गूंज रहा है. प्लेटफार्म की भीतरी छत पर लगी लोहे की जालियों में चिडि़यां रैन बसेरा करती हैं. यह इस स्टेशन की विशेषता है.

अविरल कुछ देर तक चिडि़यों की आवाज सुनता रहा. उसे लगा कि दिन चाहे कहीं भी बीते, शाम को हर पक्षी लौट कर अपने घर आता है. यहां ये अपना दुखसुख बांट कर कितने खुश हैं. उसे अपने प्रश्न का उत्तर खुदबखुद मिल गया. उस ने आभा को फोन किया.

‘‘मैं तुम्हें फोन करने ही वाली थी.’’

‘‘मैं ने तुम्हें यह कहने के लिए फोन किया है कि मैं अपनी पत्नी और बच्ची को किसी भी हालत में नहीं छोड़ पाऊंगा.’’

‘‘तो क्या तुम्हारा प्यार झूठा था?’’ आभा के स्वर में गंभीरता थी.

‘‘शायद वह एक सपना था, जो टूट गया.’’

‘‘क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’’ आभा ने पूछा.

‘‘हां, मैं तुम्हें दोस्त होने के नाते सलाह दूंगा कि तुम किसी मृगतृष्णा में मत पड़ो और अपना बना बनाया घर बरबाद मत करो.’’

‘‘मुझे तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं है,’’ कह कर आभा ने फोन काट दिया.

अविरल ने सुधा को फोन किया.

‘‘हैलो,’’ सुधा के स्वर में उदासी थी.

‘‘सुनो सुधा, एक खुशखबरी है. मेरा प्रमोशन होने वाला है. निशा की एक सप्ताह की छुट्टियां हैं. तुम और निशा कल शताब्दी से चंडीगढ़ आ जाओ. हम हफ्ता भर साथ बिताएंगे फिर शिमला वगैरह चलेंगे.’’

‘‘सच?’’ सुधा के स्वर में आश्चर्य एवं खुशी थी.

‘‘हां, मैं अपने आफिस फोन कर के छुट्टी ले रहा हूं. कल मैं तुम्हें स्टेशन पर मिलूंगा. तुम से एक बात बहुत दिनों से नहीं कही मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं.’’

अविरल अपनेआप को बहुत हलका महसूस कर रहा था. ठीक चहचहाती हुई चिडि़यों की तरह. वह थोड़ी देर तक और चिडि़यों की चहचहाहट सुनता रहा फिर वह अपना टिकट रद्द करा के अतिथि गृह के लिए रवाना हो गया. अगले दिन उसे भी अपने परिवार से मिलना था.

Valentine’s Day 2024: घर-मुनिया की अंबर से हुई मुलाकात

समाज में बौद्धिक स्तर पर कुछ वर्षों से लगातार यह प्रश्न उठ रहा है कि पतिपत्नी में अलगाव, घरों का टूटना, समाज में इतना क्यों बढ़ता जा रहा है? इस के लिए कौन जिम्मेदार है स्त्री या पुरुष? जो भी हो, टूटे हुए परिवार और तलाकशुदा स्त्रीपुरुष  न तो समाज के लिए हितकारी हैं, न ही सम्मानजनक. साथ ही आने वाली पीढ़ी पर? भी इस का कुप्रभाव पड़ता है. मातापिता के दिए संस्कार ही बच्चों को जीवन भर सदाचार से बांधे रखते हैं पर ऐसे टूटे घरों में उन को कौन से संस्कार मिलेंगे और कौन सी अच्छी शिक्षा?

उस दिन एक गोष्ठी हुई, जिस में महिलाओं की संख्या अधिक थी. इसलिए यह मान लिया गया कि दोष पुरुषों का ही है. हर स्त्री घर को जोड़े रखना चाहती है परंतु पुरुष दौड़ता है बाहरी दुनिया के पीछे. उस की नजरों में अपनी पत्नी को छोड़ कर दुनिया में सब कुछ अच्छा होता है. ऐसे में अत्याचार सहतेसहते पत्नी जब सिर उठाती है तो घर टूट जाता है. लेकिन हर जगह क्या ऐसा ही होता है?

कुछ दिनों बाद मुझे किसी काम से आगरा जाना पड़ा. मैं ने वहीं जन्म लिया है और पलीबढ़ी हूं, इसलिए वहां की दुकानों का मोह अभी तक मन में रचाबसा है. मैं जब भी वहां जाती हूं खरीदारी जरूर करती हूं. इस बार लौटने की जल्दी थी फिर भी एक पुरानी दुकान में गई. दुकान की कायापलट होने के साथसाथ अब मालिक के बच्चे बड़े हो कर दुकान संभाल रहे हैं. वे मुझे पहचानते नहीं फिर भी एक ने मुझे देखते ही अभिवादन किया. दुकान पर एक सज्जन और थे. वह उन से बड़ी घनिष्ठता से बात करता हुआ सामान दिखा रहा था.

मैं ने अपनी लिस्ट पकड़ाई और कहा, ‘‘जरा जल्दी करना.’’

लड़का स्मार्ट था. उन सज्जन से बात करतेकरते ही दोनों का सामान पैक कर रहा था. वे सज्जन जो मेरे हमउम्र ही थे, बारबार मुझे देखे जा रहे थे. मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ. यह ताकझांक की उम्र तो 20-25 वर्ष पीछे छोड़ आए हैं हम. खैर जो भी हो…

मैं ने अपना सामान उठा कर पूछा,

‘‘कितना हुआ?’’

‘‘आप का पेमैंट तो हो गया.’’

मैं अवाक, लड़का पागल तो नहीं.

‘‘अरे कैसे हुआ? मैं ने तो नहीं दिया.’’

‘‘अंकल ने दे दिया.’’

क्या? मैं मानो आकाश से गिरी. ढाईतीन सौ का तो होगा सामान. इतना पैसा जान न पहचान इन्होंने दे दिया. पागल हैं या फालतू पैसा रखने की जगह नहीं है? फिर उन को सिर से पैर तक देखा. सुदर्शन व्यक्तित्व और उच्च व अभिजात वर्ग के होने की छाप है चेहरे पर. लेकिन मेरे एकदम अपरिचित.

कभी कहीं देखा है, ऐसा भी नहीं लगता और मेरा इतना सारा बिल इन्होंने चुकाया, यह चक्कर क्या है? मैं ने देखा वे मुसकरा रहे हैं. मैं घबरा गई. भरी दोपहर का समय, मैं भी कोई जवान नहीं, कुछ गलत सोचने को भीमन नहीं मानता पर कुछ तो है… क्या हो सकता है?

वे पास आए, ‘‘चल कहीं बैठें.’’

मैं सुन कर चौंकी. लगा यह है तो कोई बहुत ही अंतरंग पर है कौन?

मैं ने साहस बटोरा, ‘‘जी आप बिल के पैसे ले लीजिए.’’

‘‘अरे, तू मुझे पहचान नहीं पाई क्या?’’

मैं लड़खड़ा गई. यह तो वास्तव में ही कोई अति घनिष्ठ है, जिसे बिल चुकाने और रेस्तरां में ले चलने का अधिकार है. मैं क्यों नहीं पहचान पा रही? यह कैसी विडंबना है? वे शायद मेरी उलझन समझ गए. आहत स्वर में बोले, ‘‘अभी तक नहीं पहचान पाईं मुनिया.’’

मुनिया, यह नाम तो मैं स्वयं भी कब की भूल चुकी. बचपन में घर में और बहुत घनिष्ठ लोग ही मुझे इस नाम से बुलाते थे. मैं ने असहायता से नकारात्मक सिर हिलाया.

वे खुल कर हंसे, ‘‘अभी पहचान जाएगी. चल ‘नेस्ट’ में बैठते हैं.’’

‘नेस्ट…’ मैं तुरंत पहचान गई, ‘‘अंबर तू…’’

‘‘चलो अच्छा है, मैं तो सोच रहा था तू पुलिस बुलाएगी और मैं इस उम्र में छेड़छाड़ के आरोप में जेल की चक्की पीसूंगा.’’

‘‘तू इतना मोटा हो गया है तो पहचानती कैसे?’’

‘‘मोटी तो तू भी हो गई है पर ज्यादा बदली नहीं.’’

‘‘तू यहां कैसे? सुना था बैंगलुरु में सैटल कर गया है. वहां घरवर बना लिया है.’’

‘‘चल पहले बैठें तो…’’

‘नेस्ट’ पास ही था. वहां पहुंचने पर बैठ कर अंबर बोला, ‘‘कुछ दिनों से तेरी बहुत याद आ रही थी. उस याद में मन की तड़प थी तभी तो तू मिल गई.’’

‘‘कभीकभी अतीत बहुत याद आता है.

पर तू मुझे इतना क्यों याद कर रहा था? कोई विशेष बात?’’

वह अचानक गंभीर और उदास हो गया, ‘‘मैं बहुत थक गया हूं, मुनिया और अकेला

भी हूं.’’

‘‘पर क्यों? तेरे साथ तो तेरा परिवार है. और इतने बडे़ और जिम्मेदारी के पद पर काम कर रहा है तू. फिर अकेलापन कैसा?’’

‘‘तुझे मेरी स्टूडैंट लाइफ का संघर्ष तो याद होगा?’’

‘‘याद है, पर उसे भूल जाना ही अच्छा है.’’

अब अंबर मुझे वाकई थका और दुखी लगा. बात बदलने के लिए मैं ने कहा, ‘‘यहां आते ही सारे पुराने साथी याद आ रहे हैं न?’’

‘‘हां, हम सब एक ही डाली के फूल थे, लेकिन जीवनप्रवाह में बह कर इधरउधर ऐसे छिटक गए कि मिल ही नहीं पाते. पर मैं तेरे उपकार को कभी नहीं भूला.’’

‘‘यह गलत है अंबर, दूसरों के प्रति न्याय नहीं है. क्लास के सभी लोग तुम्हारे लिए सोचते थे. तुम्हारा ध्यान रखते थे. तुम्हारी जरूरतों को पूरा करते थे. हम सब ने साथ में लड़ कर तुम्हारी फीस माफ करवाई. हम सभी चंदा इकट्ठा कर के तुम्हारे दूसरे खर्चों को पूरा करते थे. तो तुम बस मेरा नाम क्यों ले रहे हो?’’

‘‘मैं सभी के प्रति कृतज्ञ हूं पर तेरी बात और है. तू मुझे देखते ही समझ जाती थी कि मैं भूखा हूं. तब तू मुझे भरपेट खाना खिला देती थी. यहां ला कर या अपने घर ले जा कर, जो दूसरे कभी नहीं करते थे.’’

‘‘जाने दे. तू तो बैंगलुरु में सैटल कर गया है न?’’

‘‘हां, पर अब यहां चला आया हूं.’’

‘‘यहां कहां?’’

‘‘यूनिवर्सिटी में. वह पैसा दोगुना दे रही है.’’

‘‘तो वहां का घर…?’’

‘‘जैसा था है, रहेगा. बच्चों की ट्यूशन क्लासेज चल रही हैं और पत्नी का बुटीक. महीने में 70-80 हजार रुपए की आमदनी मजाक है क्या?’’

‘‘तू यहां अकेला रहेगा?’’

‘‘सरकारी कोठी, गाड़ी, नौकर हैं.

परेशानी क्या?’’

‘‘परेशानी यही कि इस उम्र में अकेला कैसे रहेगा?’’

‘‘बड़ी शांति से हूं. तू भी तो अकेली रह रही है.’’

‘‘अंबर, तू गलती कर रहा है. मेरी बात एकदम अलग है. पति रहे नहीं. उन के बाद

मैं अकेली रही तो वह मेरी मजबूरी थी. ससुराल या मायका जहां भी जा कर रहती,

बेटे की पढ़ाई डिस्टर्ब होती. तब वह 10वीं कक्षा में था और मैं जहां थी वहां पढ़ाई की अच्छी सुविधा थी. इसलिए मुझे अकेले ही रहना पड़ा यानी मेरे सामने एक मकसद था. पर तू तो ऐसा लगता है घर से भागने के लिए…’’

‘‘तू ठीक कह रही है. मुझे पत्नी, बच्चों के साथ रहना अब कष्टदायी लगने लगा है. वहां मुझे मेरे आत्मविश्वास को ध्वस्त करने के लिए हर समय मजबूर किया जाता है.’’

मैं अवाक, ‘‘कौन करता है ऐसा?’’

‘‘मेरी पत्नी और बड़े होते बच्चे.’’

‘‘बच्चे? पर…’’

‘‘हां बच्चे, क्योंकि जन्म से उन को समझाया गया है कि उन के पिता की औकात एक कूड़ा बीनने वाले से ज्यादा नहीं है. और जो कुछ भी आज मैं हूं वह उन की मां की बदौलत हूं.’’

‘‘क्या कह रहा है तू? तू ने तो संघर्ष कर के ही सब कुछ पाया है. तब तो तेरी पत्नी का कोई अस्तित्व ही नहीं था तेरे जीवन में. कई वर्ष नौकरी के बाद ही तो शादी की है तू ने.’’

‘‘यह तू कह रही है पर मेरे बच्चे उलटा समझते हैं. वे समझते हैं मैं नाकारा था, पत्नी ने ही योग्य बनाया है. वह भी पूरा योग्य कहां हूं मैं, बस कामचलाऊ भर हो गया हूं.’’

मुझे एक और घर टूटने की झनझनाहट सुनाई दी. पर मेरी धारणा के विपरीत यहां तो पत्नी उत्तरदायी है. अंबर को जानती हूं मैं, अति सज्जन है वह. लड़ाई क्या, कहासुनी से भी घबराता है. बैरा बहुत सारी प्लेटें रख गया. मैं हैरान.

‘‘यह क्या किया तू ने? इतना कौन खाएगा?’’

‘‘आज मत रोक मुनिया. तू ने बहुत खिलाया है. मैं तो मूंगफली खिलाने योग्य भी नहीं था. तुझे जो पसंद था वही मंगाया है प्लीज…’’

मेरी आंखों में आंसू आ गए. कितने जतन से इस ने याद रखा है आज भी कि मुझे क्या पसंद था.

‘‘अंबर, उम्र के साथ खाना कम हो जाता है.’’

‘‘अभी इतने बूढ़े भी नहीं हुए हैं हम, चल शुरू कर.’’

‘‘अंबर, मुझे तेरे लिए चिंता हो रही है. तू क्या वास्तव में यहां स्थायी रूप से रहने आ गया है?’’

‘‘नौकरी जौइन की है यहां. तू क्या मजाक समझ रही है.’’

‘‘बात यह नहीं पर अकेले रहना उम्र भी तो…’’

‘‘मैं बहुत शांति से हूं. कैंपस में कोठी मिली है. हमारी लैब का चौकीदार मोतीलाल था न उस का नाती पूरा काम करता है. बहुत खयाल रखता है मेरा. मैं ने उसे स्कूल में दाखिल भी करा दिया है. आठवीं कक्षा में है. वह मेरे घर में ही रहता है. उस की मां आ कर झाड़ू, बरतन, कपड़े और खाना बनाने का काम कर जाती है. बड़े चैन से हूं.’’

‘‘पर बसाबसाया घर, इतने वर्षों में उस घर की आदत भी पड़ गई होगी. वहां से यहां आ कर नई आदतें डालना कष्टदायी नहीं लग रहा?’’

‘‘हां कष्ट तो हुआ पर फिर से सब आदतें बदल ली हैं. अब सब ठीक है.’’

‘‘अंबर, मुझे लगता है. तू भावनाओं में बह कर…’’

उस ने हाथ उठाया, ‘‘न मुनिया न. यह भावनाओं की बात नहीं. प्यार, लगाव, अपनापन इन सब का नाम तो मैं कब का भूल चुका, क्योंकि संसार में जो मेरे सब से अपने माने जाते हैं, उन सब से तो मैं ने इन बातों की आशा कभी की ही नहीं. पर घर का मुखिया होने के नाते थोड़ा मानसम्मान पाने का अधिकार है या नहीं? मेरे घर में मुझे वह भी कभी नहीं मिला.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘तू तो जानती है मैं ने कालेज में टौप किया था. तू तो परीक्षा देते ही ससुराल चली गई. सहपाठियों की खोजखबर भी नहीं ली.’’

‘‘क्या करती? इन की नौकरी ही ऐसी थी. आज कश्मीर तो कल कन्याकुमारी.’’

‘‘जो भी हो. परीक्षा पास करते ही मुझे बहुत अच्छी नौकरी केवल लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के आधार पर मिल गई. न सिफारिश करनी पड़ी, न पैसा खिलाना पड़ा. आकर्षक सैलरी, बंगला, गाड़ी सब कंपनी का. फिर क्या था, बड़ेबड़े घरों से रिश्ते आने लगे. मेरा तो कोई था नहीं, बस गांव में दादी थीं. वे बेचारी पढ़ेलिखे धनवान लोगों को क्या जानतींसमझतीं. उन लोगों ने अपनेआप मुझे पसंद किया और अपनी बेटी की शादी मुझ से करा दी. पर हां, अति ईमानदार लोग थे वे. मुझे अकेला पा कर भी ठगा नहीं उन्होंने. कोई नुक्स वाली, काली या अनपढ़ बेटी को मेरे सिर पर नहीं थोपा. अति सुंदर, एम.ए. पास, हाई सोसाइटी में उठनेबैठने वाली मौडर्न लेडी है मेरी पत्नी.’’

‘‘यह तो खुशी की बात है.’’

‘‘बहुत खुशी की बात है. दादी ही मूर्ख थीं, जो इतनी खुशी बरदाश्त नहीं कर पाईं. दूसरे महीने ही वे हमें छोड़ कर चल बसीं. पर मुझे कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि दहेज भले न मांगा हो, उन्होंने मनपसंद दामाद के घर का कोनाकोना सजा दिया.

‘‘उन की बेटी घर को सलीके से सजा कर रखती. आनेजाने वालों की कमी नहीं थी. उस के रिश्तेदारों और सहेलियों को अचानक घूमने के लिए बैंगलुरु ही पसंद आने लगा और वे सब हमारे यहां ही रुकने लगे.

‘‘शुरूशुरू में मुझे भी अच्छा लगता था. कभी रिश्तेदारी देखी नहीं, संघर्ष कर के बड़ा हुआ. दादी को छोड़ अपना कोई था नहीं, तो यह सोचते हुए अच्छा लगता कि मेरे इतने सारे अपने हैं. मूर्ख तो बचपन का हूं इसलिए ऊंचे लोगों के मधुर शब्दों में पगे अपमान का तरीका नहीं समझ पाया. जब पत्नी उन लोगों को मेरे घरपरिवार, चालचलन, पसंदनापसंद और बुद्धिहीनता के किस्से हंसहंस कर सुनाती, वे हंसते और मैं भी हंसता.’’

उस ने 2 घूंट चाय पी. शायद उस का गला सूख गया था. फिर बोला, ‘‘उस के बाद अपने मानसम्मान का बोध जब हुआ तब तक तो कई वर्ष बीत गए थे. दोनों बच्चे भी बड़े हो गए थे. मां के साथ उन्होंने भी बाप पर जाहिल, मूर्ख, असभ्य होने की मुहर लगा दी थी. वे भी लोगों के सामने व्यंग्य, परिहास, अपमान करते नहीं चूकते थे. मैं ने विरोध करने की कोशिश भी की थी पर बेकार, क्योंकि वे लोग तुरंत मेरे बैकग्राउंड को खींच मेरे सामने ला कर खड़ा कर देते थे.’’

मैं स्तब्ध. मेरे सारे तर्क, सारे विरोध धरे के धरे रह गए. मन में कई चेहरे उभर आए, जो इसी प्रकार पत्नी पीडि़त हो कर अपमान का जीवन जी रहे हैं. उन में से कुछ तो मेरे बहुत प्रिय, घनिष्ठ हैं पर उन में संभव है अंबर जैसा मनोबल न हो, जिस से वे अपने जीवन को अपने ढंग से जीने के लिए कदम उठा सकें.

‘‘पर उन का खर्चा…’’

‘‘पत्नी की कमाई कम नहीं. फिर घर अपना है.’’

‘‘पर तू…’’

‘‘1 वर्ष पूरा होते ही म्यूचुअल डिवोर्स लूंगा.’’

‘‘उस ने नहीं माना तो?’’

‘‘मजबूरन कीचड़ उछलेगा.’’

‘‘अंबर, इतने वर्षों का विवाहित जीवन…’’

‘‘मैं ने ही जोड़ रखा था पर सीमा पार हो गई है मेरे सहने की. अब घर को जोड़ कर रखना हो तो मेरी शर्तों पर ही जुड़ेगा. नहीं तो मैं अकेला खुश हूं बहुत खुश.’’

मेरे सारे तर्क धरे के धरे रह गए. मैं कहूं तो क्या कहूं? अंबर के तर्क में तो मुझ से

सौ गुना ज्यादा दम है.

– बेला मुखर्जी

लौटते कदम: जिंदगी के खूबसूरत लम्हों को जीने का मौका

जीवन में सुनहरे पल कब बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता है. वक्त तो वही याद रहता है जो बोझिल हो जाता है. वही काटे नहीं कटता, उस के पंख जो नहीं होते हैं. दर्द पंखों को काट देता है.

शादी के बाद पति का प्यार, बेटे की पढ़ाई, घर की जिम्मेदारियों के बीच कब वैवाहिक जीवन के 35 साल गुजर गए, पता ही नहीं चला.

आंख तो तब खुली जब अचानक पति की मृत्यु हो गई. मेरा जीवन, जो उन के आसपास घूमता था, अब अपनी ही छाया से बात करता है.

पति कहते थे, ‘सविता, तुम ने अपना पूरा वक्त घर को दे दिया, तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं है. कल यदि अकेली हो गई तो क्या करोगी? कैसे काटोगी वो खाली वक्त?’

मैं ने हंसते हुए कहा था, ‘मैं तो सुहागिन ही मरूंगी. आप को रहना होगा मेरे बगैर. आप सोच लीजिए कि कैसे रहेंगे अकेले?’ किसे पता था कि उन की बात सच हो जाएगी.

बेटा सौरभ, बहू रिया और पोते अवि के साथ जी ही लूंगी, यही सोचती थी. जिंदगी ऐसे रंग बदलेगी, इस का अंदाजा नहीं था.

बहू के साथ घर का काम करती तो वह या तो अंगरेजी गाने सुनती या कान में लीड लगा कर बातें करती रहती. मेरे साथ, मुझ से बात करने का तो जैसे समय ही खत्म हो गया था.

कभी मैं ही कहती, ‘रिया, चल आज थोड़ा घूम आएं. कुछ बाजार से सामान भी लेना है और छुट्टी का दिन भी है.’

उस ने मेरे साथ बाहर न जाने की जैसे ठान ली थी. वह कहती, ‘मां, एक ही दिन तो मिलता है, बहुत सारे काम हैं, फिर शाम को बौस के घर या कहीं और जाना है.’

बेटे के पास बैठती तो ऐसा लगता जैसे बात करने को कुछ बचा ही नहीं है. एक बार उस से कहा भी था, ‘सौरभ, बहुत खालीपन लगता है. बेटा, मेरा मन नहीं लगता है,’ कहतेकहते आंखों में आंसू भी आ गए पर उन सब से अनजान वह बोला, ‘‘अभी पापा को गए 6 महीने ही तो हुए हैं न मां, धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी. तुम घर के आसपास के पार्क क्यों नहीं जातीं. थोड़ा बाहर जाओगी, तो नए दोस्त बनेंगे, तुम को अच्छा भी लगेगा.’’

सौरभ का कहना मान कर घर से बाहर निकलने लगी. पर घर आ कर वही खालीपन. सब अपनेअपने कमरे में. किसी के पास मेरे लिए वक्त नहीं.

जहां प्यार होता है वहां खुद को सुधारने की या बदलने की बात भी खयाल में नहीं आती. पर जब किसी का प्यार या साथ पाना हो तो खुद को बेहतर बनाने की सोच साथ चलती है. आज पास्ता बनाया सब के लिए. सोचा, सब खुश हो जाएंगे. पर हुआ उलटा ही. बहू बोली, ‘‘मां, यह तो नहीं खाया जाएगा.’’

यह वही बहू है, जिसे खाना बनाना तो दूर, बेलन पकड़ना भी मैं ने सिखाया. इस के हाथ की सब्जी सौरभ और उस के पिता तो खा भी नहीं पाते थे.

सौरभ कहता, ‘‘मां, यह सब्जी नहीं खाई जाती है. खाना तुम ही बनाया करो. रिया के हाथ का यह खाना है या सजा?’’

जब रिया के पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी तब उसे दर्द से संभलने में मैं ने उस का कितना साथ दिया था. तब मैं अपने पति से कहती, ‘रिया का ध्यान रखा करो. पिता को यों अचानक खो देना उस के लिए बहुत दर्दनाक है. अब आप ही उस के पिता हैं.’

मेरे पति भी रिया का ध्यान रखते. वे बारबार अपनी मां से मिलने जाती, तो पोते को मैं संभाल लेती. उस की पढ़ाई का भी तो ध्यान रखना था न.

इतना कदम से कदम मिला कर चलने के बाद भी आज यह सूनापन…

एक दिन बहू से कहा, ‘‘रिया, कालोनी की औरतें एकदूसरे के घर इकट्ठी होती हैं. चायनाश्ता भी हो जाता है. पिछले महीने मिसेज श्वेता की बहू ने अच्छा इंतजाम किया था. इस बार हम अपने घर सब को बुला लें क्या?’’

सुनते ही रिया बोली, ‘‘मां, अब यह झमेला कौन करेगा? रहने दो न, ये सब. मैं औफिस के बाद बहुत थक जाती हूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘आजकल तो सब की बहुएं बाहर काम पर जाती हैं, पर उन्होंने भी तो किया था न. चलो, हम नहीं बुलाते किसी को, मैं मना कर देती हूं.’’

उस दिन से मैं ने उन लोगों के बीच जाना छोड़ दिया. कल मिसेज श्वेता मिल गईं तो मैं ने उन से कहा, ‘‘मुझे वृद्धाश्रम जाना है, अब इस घर में नहीं रहा जाता है. अभी पोते के इम्तिहान चल रहे हैं, इस महीने के आखिर तक मैं चली जाऊंगी.’’

यह सुन कर मिसेज श्वेता कुछ भी नहीं कह पाई थीं. बस, मेरे हाथ को अपने हाथ में ले लिया था. कहतीं भी क्या?

सबकुछ तय कर लिया था. फिर भी जाते समय हमारे बच्चे को हम से कोई तकलीफ न हो, हम यही सोचते रहे. वक्त भी बड़े खेल खेलता है. वृद्धाश्रम का फौर्म ला कर रख दिया था. सोचा, जाने से पहले बता दूंगी.

आज दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी. ‘इस समय कौन होगा?’ सोचते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने बहू खड़ी थी. मुझे देखते ही बोली, ‘‘मां, मेरी मां को दिल का दौरा पड़ा है. वे अस्पताल में हैं. मुझे उन के पास जाना है. सौरभ पुणे में है, अवि की परीक्षा है, मां, क्या करूं?’’ कहतेकहते रिया रो पड़ी.

‘‘तू चिंता मत कर. अवि को मैं पढ़ा दूंगी. छोटी कक्षा ही तो है. सौरभ से बात कर ले वह भी वहीं आ जाएगा.’’

4 दिनों बाद जब रिया घर आई तो आते ही उस ने मुझे बांहों में भर लिया. ‘‘क्या हो गया रिया, तुम्हारी मां अब कैसी है?’’ उस के इस व्यवहार के लिए मैं कतई तैयार नहीं थी.

‘‘मां अब ठीक हैं. बस, आराम की जरूरत है. अब मां ने आप को अपने पास बुलाया है. भाभी ने कहा है, ‘‘आप दोनों साथ रहेंगी तो मां को भी अच्छा लगेगा. वे आप को बहुत याद कर रही थीं.’’

रिया ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘मां, इस घर को आप ने ही संभाला है. आप के बिना ये सब असंभव था. यदि आप सबकुछ नहीं संभालतीं तो अवि के एक साल का नुकसान होता या मैं अपनी मां के पास नहीं जा पाती.’’

‘‘अपने बच्चों का साथ नहीं दिया तो यह जीवन किस काम का. चल, अब थोड़ा आराम कर, फिर बातें करेंगे.’’

अगले दिन सुबह जब रिया मेरे साथ रसोई में काम कर रही थी, तो हम दोनों बातें कर रहे थे. दोपहर में तो घर सूना होता है पर आज हर तरफ रौनक लग रही थी. सोचा, चलो, मिसेज श्वेता से मिल कर आती हूं.

उन के घर गई तो उन्होंने बड़े प्यार से पास बिठाया और बोलीं, ‘‘कल रात को रिया हमारे घर आई थी. मुझ से और मेरी बहू से पूछ रही थी कि हम ने अपने घर कितने लोगों को बुलाया और पार्टी का कैसा इंतजाम किया. इस बार तुम्हारे घर सब का मिलना तय कर के गई है. तुम्हें सरप्राइज देगी. तुम्हारे दिल का हाल जानती हूं, इसलिए तुम्हें बता दिया. बच्चे अपनी गलती समझ लें, यही काफी है. हम इन के बगैर नहीं

जी पाएंगे.’’

‘‘यह तो सच है, हम सब को एकदूसरे की जरूरत है. सब अपनाअपना काम करें, थोड़ा वक्त प्रेम को दे दें, तो जीवन आसान लगने लगता है.’’

मिसेज श्वेता के घर से वापस आते समय मुझे धूप बहुत सुनहरी लग रही थी. लगा कि आज फिर वक्त के पंख लग गए हैं.

Valentine’s Day 2024: साथी- कौन था प्रिया का साथी?

प्रिया मोबाइल पर कुछ देख रही थी. उस की नजरें झुकी हुई थीं और मैं एकटक उसे निहार रहा था. कॉटन की साधारण सलवार कुर्ती और ढीली बंधी चोटी में भी प्रिया बेहद खूबसूरत लग रही थी. गले में पतली सी चेन, माथे पर छोटी काली बिंदी और हाथों में पतलेपतले 2 कंगन. बस इतना ही श्रृंगार किया था उस ने. मगर उस की वास्तविक खूबसूरती उस के होठों की मुस्कान और चेहरे पर झलक रहे आत्मविश्वास की चमक में थी. वैसे लग रहा था कि वह विवाहिता है. उस की मांग में सिंदूर की हल्की सी लाली नजर आ रही थी.

मैं ने गौर से देखा. प्रिया 20-21 साल से अधिक की नहीं थी. मैं भी पिछले साल ही 30 का हुआ हूं. मुझे प्रिया से मिले अभी अधिक समय नहीं हुआ है. कुल 5-6 घंटे ही बीते हैं जब मैं ने मुंबई से रांची की ट्रेन पकड़ी थी.

स्टेशन पर हमारे जैसे मजदूरों की भीड़ थी. सब के चेहरे पर मास्क और माथे पर पसीना छलक रहा था. सब अपनेअपने बीवीबच्चों के साथ सामान कंधों पर लादे अपने घर जाने की राह देख रहे थे. ट्रेन के आते ही सब उस की तरफ लपके. मेरा रिज़र्वेशन था. मैं अपनी सीट खोजता हुआ जैसे ही आगे बढ़ा कि एक लड़की से टकरा गया. वह किसी को ढूंढ रही थी इसलिए हड़बड़ी में थी.

अपनी सीट के नीचे सामान रख कर मैं बर्थ पर पसर गया. तभी वह लड़की यानी प्रिया मेरे सामने वाले बर्थ पर आ कर बैठ गई. उस ने अपने सामान में से बोतल निकाली, मास्क हटाया और गटागट आधी बोतल पानी पी गई. मैं उसी की तरफ देख रहा था. तभी उस की नजर मुझ से मिली. उस ने मुस्कुराते हुए बोतल बंद कर के रख ली.

“आप को कहां जाना है?” मैं ने सीधा सवाल पूछा जिस का उस ने सपाट सा जवाब दिया,” वहीं जहां ट्रेन जा रही है.”
कह कर वह फिर मुस्कुरा दी.

“आप अकेली हैं?”

“नहीं तो. भैयाभाभी हैं साथ में. वे बगल के डिब्बे में है. मेरी सीट अलग इस डिब्बे में थी सो इधर आ गई. वैसे अकेले तो आप भी दिख रहे हैं.” उस ने मेरा ही सवाल मेरी तरफ उछाल दिया.

“हां मैं तो अकेला ही हूं अब अपने घर रांची जा रहा हूं. मुंबई में अपनी छोटी सी दुकान है. मुझे लिखनेपढ़ने का शौक है. इसलिए दुकान में बैठ कर पढ़ाई भी करता हूं. लौकडाउन के कारण कामधंधा नहीं चल रहा था. सो सोचा कि दूर देश से अकेले रहने से अच्छा अपने गांव जा कर अपनों के बीच रहूं.”

“यही हाल इस ट्रेन में बैठे हुए सभी मजदूरों का है. नेताओं ने सांत्वना तो बहुत दिए मगर वास्तव में मदद कहीं नजर ही नहीं आती. भैयाभाभी मजदूरी करते थे जो अब बंद है. मेरा एक छोटामोटा बुटीक था. घर से ही काम करती थी. पर आजकल कोई काम नहीं मिल रहा. तभी हम ने भी गांव जाने का फैसला किया. हम 2 दिन ट्रेन की राह देखदेख कर वापस लौट चुके हैं. कल तो ट्रेन ही कैंसिल हो गई थी. मगर मैं ने हिम्मत नहीं हारी और देखो आज ट्रेन मिल गई है तो घर भी पहुंच ही जाएंगे.”

हमारे कोच के ऊपर के दोनों बर्थ पर दो बुजुर्ग अंकलआंटी थे. उस के नीचे दो अधेड़ थे. चारों आपस में ही बातचीत में मगन थे. इधर मैं और प्रिया भी लगातार बातें करने लगे.

“तुम्हारे घर में और कौनकौन हैं प्रिया?”

“मेरे पति, सासससुर, काका ससुर और एक छोटा देवर. मांबापू, भैयाभाभी और छोटी बहन भी पास में ही रहते हैं.”

“अच्छा पति क्या करते हैं ? ”

“उन का बिजनेस है. कंप्यूटर सिखाते हैं बच्चों को और मुझे भी.”

“बहुत अच्छे”

“अच्छा यह बताओ तुम्हारे पति गांव में हैं और तुम शहर में. वह शहर क्यों नहीं आता?”

“उसे गांव ही भाता है. मुझ से मिलने आता रहता है न. कोई दिक्कत नहीं हमें. हम एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. वह मेरे बचपन का साथी है . हम ने एक साथ ही बोर्ड की परीक्षा दी थी. मेरे कहने पर मांबापू ने उसी से मेरी शादी करा दी और अब वह मेरा जीवनसाथी है. जब तक जीऊंगी हमारा साथ बना रहेगा. आज भी मैं उसे साथी कहती हूं. ऐसा साथी जो कभी साथ न छोड़े. वह रोज सपने में भी आता है और मुझे बहुत हंसाता भी है . तभी तो मैं इतनी खुश रहती हूं.”

” क्या बात है! पति रोज सपनों में आता है.” कह कर मैं मुस्कुरा पड़ा और बोला,”मैं तो मानता हूं सच्चा प्यार गांवों में ही देखने को मिलता है. शहरों की भीड़ में तो लोग खो जाते हैं.”

“सही कह रहे हो आप.”

“खाली समय में क्या करती हो?”

“मैं फिल्में बहुत देखती हूं.”

“अच्छा कैसी फिल्में पसंद हैं तुम्हें?”

“डरावनी फिल्में तो बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं. रोनेधोने वाली फिल्में भी नहीं देखती. ऐसी फिल्में देखती हूं जिस में न टूटने वाला प्यार हो. एकदूसरे के लिए पूरी जिंदगी इंतजार करने का दर्द हो. आप कैसी फिल्में देखते हो?”

“मैं तो हंसीमजाक वाली और मारधाड़ वाली फिल्में देखता हूं. पॉलिटिक्स पर बनी फिल्में भी देख लेता हूं.”

पॉलिटिक्स और नेताओं से तो मैं दूर रहती हूं. नेताओं ने आज तक किया ही क्या है? भोलीभाली जनता का खून चूसचूस कर अपने बंगले और बैंकबैलेंस ही तो खड़े किए हैं.”

“बात तो तुम ने सोलह आने सही कही है.

प्रिया की हर बात में खुद पर भरोसा और हंस कर जीने की लगन साफ दिख रही थी. मुझे उस की बातें अच्छी लग रही थीं. हम ने स्कूल के किस्सों से ले कर सीरियल और फिल्मों तक की सारी बातें कर लीं. यहां तक कि सरकार और राजनेताओं के ढकोसलों पर भी लंबी चर्चा हुई. इस बीच प्रिया ने घर की बनी मट्ठी खिलाई. खिलाने से पहले उस ने सैनिटाइजर की डिब्बी निकाली और कुछ बूंदे मेरे हाथों पर डालीं. मैं मुस्कुरा उठा. इस के बाद मैं ने भी उसे अपने हाथ के बने बेसन के लड्डू खिलाए. हम दोनों के बीच आपस में अच्छी ट्यूनिंग हो गई थी.

आधा से ज्यादा सफर बीत चुका था. अचानक ट्रेन की गति धीमी हुई और ट्रेन डाल्टनगंज स्टेशन पर आ कर रुक गई. डाल्टनगंज झारखंड का एक छोटा सा स्टेशन है. मैं ट्रेन से उतर कर इधरउधर देखने लगा. जल्द ही मुझे पता चला कि हमें ट्रेन बदलनी पड़ेगी. किसी तकनीकी खराबी के कारण यह ट्रेन आगे नहीं जा सकती. मैं ने प्रिया को सारी जानकारी दे दी. वह भी अपने भैयाभाभी के साथ उतर कर प्लेटफार्म पर बैठ गई. अगली ट्रेन दूसरे प्लेटफार्म से मिलनी थी और वह भी दो-तीन घंटे बाद.

हम नियत प्लेटफार्म पर पहुंच कर अपनी अपनी ट्रेन का इंतजार करने लगे. धूप बहुत तेज थी. हमारा गला सूख रहा था. अब तक साथ लाया हुआ पानी भी खत्म हो चुका था. हम ने सुना था कि ट्रेन में पानी मिलेगा मगर मिला कुछ नहीं.

करीब 4 घंटे बाद दूसरी ट्रेन आई जो बिल्कुल भरी हुई थी. प्लेटफार्म पर बैठे सभी मजदूर सोशल डिस्टेंसिंग भूल कर ट्रेन पकड़ने को लपके. सब को पता था कि यह ट्रेन छूटी तो रात प्लेटफार्म पर गुजारनी पड़ेगी.

भैयाभाभी के साथ प्रिया भी चढ़ने की कोशिश करने लगी. इधर मैं भी बगल वाले डब्बे में चढ़ चुका था. तभी मैं ने देखा कि भैयाभाभी के बाद जैसे ही प्रिया चढ़ने को हुई कि कोई बदतमीज व्यक्ति उस को गलत तरीके से छूते हुए आगे बढ़ा और प्रिया को धक्का दे कर खुद चढ़ गया. प्रिया एकदम से छिटक गई. उस मजदूर की हरकत पर मुझे बहुत गुस्सा आया था.

जिस तरह गंदे ढंग से उस ने प्रिया को छुआ था, मेरा वश चलता तो वहीं पर उस का सिर फोड़ देता.

ट्रेन ने चलने के लिए सीटी दे दी थी. मगर प्रिया चढ़ नहीं पाई. वह प्लेटफार्म पर दूर खड़ी रह गई जब कि उस के भैयाभाभी धक्के के साथ बोगी के अंदर की तरफ चले गए थे. मैं गेट पर खड़ा था. उसे अकेला देख कर मैं ने एक पल को सोचा और तुरंत ट्रेन से उतर गया. प्रिया मेरी हरकत देख कर चौंक गई फिर दौड़ कर आई और मेरे गले लग गई. उस की आंखों में आंसू थे. मैं ने उसे दिलासा दिया,” रोते नहीं प्रिया. मैं हूं न. मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक सुरक्षित पहुंचा दूंगा तभी अपने घर जाऊंगा. तुम जरा सा भी मत घबराओ.”

प्रिया एकटक मेरी तरफ देखती हुई बोली,” एक अजनबी हो कर इतना बड़ा अहसान?”

“पागल हो क्या? यह अहसान नहीं. हमारे बीच इन कुछ घंटों में इतना रिश्ता तो बन ही गया है कि मैं तुम्हारी केयर करूं.”

“कुछ घंटों में तुम ने ऐसा गहरा रिश्ता बना लिया?”

“ज्यादा सोचो नहीं. चलो अब तुम आराम से बैठ जाओ. मैं पानी का इंतजाम कर के आता हूं.”

प्रिया को बेंच पर बैठा कर मैं पानी लेने चला गया. किसी तरह कहीं से पानी की बोतल मिली. वह ले कर लौटा तो देखा कि प्रिया बेंच पर बैठी हुई थी. वह हर बात से बेखबर अपने में खोई जमीन की तरफ एकटक देख रही थी. उस के पास एक गुंडा सा लड़का खड़ा था जो घूरघूर कर उस की तरफ देख रहा था

मैं जा कर प्रिया के सामने खड़ा हो गया और बातें करने लगा. फिर मैं ने खा जाने वाली नजरों से उस लड़के की तरफ देखा. वह लड़का तुरंत मुंह फेर कर दूसरी तरफ चला गया. अब मैं प्रिया के बगल में थोड़ी दूरी बना कर बैठ गया.

“लो प्रिया, पानी पी लो. मैं 2 बोतल पानी ले आया हूं .”

“थैंक्यू.”

उस ने मुस्कुरा कर बोतल ली मगर आंखों में घर पहुंचने की चिंता भी झलक रही थी. भूख और थकान से उस का चेहरा सूख रहा था.
उस का मन बदलने के लिए मैं उस के गांव और घरवालों के बारे में पूछने लगा. वह मुझे विस्तार से अपनी जिंदगी और घरपरिवार के बारे में बताती रही. दो-तीन घंटे ऐसे ही बीत गए. शाम का धुंधलका अब रात की कालिमा में तब्दील हो चुका था. प्रिया को जम्हाई लेता देख मैं बैंच से उठ गया और प्रिया से बोला,” बैंच पर आराम से सो जाओ. मैं जागा हुआ हूं. तुम्हारा और सामान का ध्यान रखूंगा. ”

“अरे ऐसे कैसे? नींद तो तुम्हें भी आ रही होगी न.”

“नहीं मेरी तो आदत है देर रात तक जागने की. मैं देर तक जाग कर पढ़ता हूं. चलो तुम सो जाओ.”

मेरी बात मान कर प्रिया सो गई. मैं बगल की बेंच पर बैठ गया. दो-तीन घंटे बाद मैं भी ऊंघने लगा. बैठेबैठे कब हल्की सी नींद लग गई पता ही नहीं चला. अचानक झटका सा लगा और मेरी आंखे खुल गई. देखा कि प्रिया के बेंच पर एक और मजदूर बैठ गया है और गंदी व ललचाई नजरों से प्रिया की तरफ देख रहा है. उस के हाथ प्रिया पैरों को छू रहे थे. प्रिया नींद में थी. मैं एकदम से उठ बैठा और उस मजदूर पर चिल्ला पड़ा,” देखते नहीं वह सो रही है. जबरदस्ती आ कर बैठना है तुम्हें. निकलो यहां से.”

मेरा गुस्सा देख कर वह एकदम से वहां से भाग गया. मुझे महसूस हो गया कि इस दुनिया में अकेली सुंदर लड़की को देख कर लोगों की लार टपकने लगती है. इसलिए मुझे ज्यादा सावधान रहना होगा.

मैं एकदम से सामान ले कर उसी बैंच पर आ कर बैठ गया जिस पर प्रिया सोई हुई थी. अब तक मेरी आवाज सुन कर वह भी उठ कर बैठ गई थी.

फिर रात भर हम बैठ कर बातें करते रहे. भूख भी लग रही थी मगर प्लैटफार्म पर खानेपीने का इंतजाम नहीं था.

सुबह के समय प्रिया फिर सो गई. इस बीच चोरीछिपे एक कचौड़ी बेचने वाला प्लैटफार्म पर आया तो मैं ने जल्दी से आठ-दस का कचौड़ियां ख़रीदीं और प्रिया को उठा लिया. दोनों ने बैठ कर नाश्ता खाया. फिर दोपहर तक हमें खाने को कुछ भी नहीं मिला. तब तक रांची जाने वाली एक ट्रेन आई. हम उस में चढ़ गए. भीड़ काफी थी. मौका देख कर 1- 2 आवारा टाइप के लड़कों ने प्रिया के साथ बदतमीजी की कोशिश भी की. मगर मैं हर वक्त उस के आगे ढाल बन कर खड़ा रहा.

किसी तरह हम रांची जंक्शन पर उतर गए. प्रिया का घर वहां से 2 घंटे की दूरी पर था. जाने के लिए कोई साधन भी नजर नहीं आ रहा था. हम करीब आधे- एक घंटे परेशान रहे. तभी हमें एक जीप दिखाई दी. उस में दो लोग और बैठे थे. मेरे द्वारा विनती किए जाने पर उन लोगों ने हमें पीछे बैठा लिया और हमें हमारे गंतव्य से करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर उतार दिया. ₹2 हजार भी लिए. प्रिया के मना करने के बावजूद मैं ने अपने पास से रुपए दे दिए. अब हमें अंधेरे में दो -ढाई घंटे पैदल चलना था और वह भी कच्चीपक्की सड़कों पर.

किसी तरह हम ने वह रास्ता भी तय कर लिया और प्रिया के घर पहुंच गए. सब बहुत खुश थे. प्रिया की मां ने मुझे बैठने को कुर्सी दी और अंदर से पानी ले आई. तब तक प्रिया ने ट्रेन से उतरने से ले कर अब तक की सारी कहानी सुना दी. फिर घरवालों ने उसे अंदर नहाने भेज दिया और मुझे चाय नाश्ता ला कर दिया.

चाय पीतेपीते मैं ने पूछा,” प्रिया के पति कहां हैं? पास में ही रहते हैं न. प्रिया ने बताया था कि ससुराल और मायका आसपास है. वे दिख नहीं रहे.”

प्रिया की मां और भाई ने एकदूसरे की तरफ देखा तब तक भाभी कहने लगी, “प्रिया के पति जिंदा कहां हैं? शादी के सप्ताह भर बाद ही गुजर गए थे.”

मैं चौक पड़ा,” पर अभी रास्ते में तो उस ने मुझे बताया कि उस के पति उस से बहुत प्यार करते हैं. उस से मिलने शहर भी आते रहते हैं.”

“ये सारी कहानियां प्रिया के मन ने बनाई हैं. वह पति को खुद से अलग करने को तैयार ही नहीं. प्रिया अब भी 2 साल पहले की दुनिया में ही रह रही है. उसे लगता है जैसे उस का साथी आसपास ही है. सपनों के साथसाथ सच में भी मिलने आता है. पर भैया आप ही सोचो, जो चला गया वह भला लौट कर आता है कभी? उस का मन बदलने के लिए हम उसे शहर ले गए थे. हम ने उस से दूसरी शादी करने को भी कहा. पर वह अपनी कल्पना की दुनिया में ही खुश हैं. वह कहती है कि जैसे भी हो सारी उम्र अपने साथी के साथ ही रहेगी.”

प्रिया की मां कहने लगीं,” ऐसा नहीं है बेटा कि वह रोती रहती है. उल्टा वह तो पति की यादों के साथ खुश रहती है. अपना काम भी पूरी मेहनत से करती है. इसलिए हम लोगों ने भी उसे इसी तरह जी लेने की छूट दे दी है.”

उन की बात सुन कर मैं भी सिर हिलाने लगा,” यह तो बिल्कुल सच है कि वह खुश रहती है क्योंकि उस ने अपने साथी से बहुत गहरा प्रेम किया है. बस वह हमेशा खुश रहे इतना ही चाहता हूं. अच्छा मांजी मैं चलूं”

“बेटा इतनी रात में कहां जाओगे? तुम आज यहीं रुक जाओ. कल चले जाना.”

“जी ”

मैं रुक तो गया पर सारी रात प्रिया का चेहरा ही मेरी आंखों के आगे नाचता रहा. मेरे लिए प्रिया की जिंदगी दिल को छू लेने वाली एक ऐसी कहानी थी जिसे मैं कभी भी भूल नहीं सकता था.

अब मुझे वापस लौटना था पर प्रिया से दूर जाने का दिल नहीं कर रहा था.

सुबहसुबह मैं निकलने लगा तो प्रिया मेरे पास आ गई और बोली,” एक अनजान जो न मेरा पति था, न भाई और न प्रेमी फिर भी हर पल उस ने मेरी रक्षा की. उस को मैं आज रुकने को भी नहीं कह सकती. उस से दोबारा कब मिलूंगी यह भी नहीं जानती. पर सिर्फ इतना चाहती हूं कि वह उम्र भर खुश रहे और ऐसे ही सच्चे दिल से दूसरों का सहारा बन सके.”

कह कर प्रिया ने मेरा हाथ पकड़ लिया.

मेरी नजरें प्रिया से बहुत कुछ कह रही थीं. मगर जुबान से मैं सिर्फ इतना ही कह सका, “अपना ख्याल रखना प्रिया क्योंकि मेरी जिंदगी में तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता…और हां जिंदगी में कभी किसी भी पल मेरी याद आए तो मेरे पास आ जाना. मैं इंतजार करूंगा.”

प्रिया एकटक मुझे देखती रह गई. मैं मुस्कुरा कर आगे बढ़ गया.

घर लौटते समय मेरे दिल में बस एक प्रिया ही थी और मैं जानता हूं मुझे उस का इंतजार हमेशा रहेगा. मैं नहीं जानता कि वह अपने साथी को छोड़ कर मेरे पास आएगी या नहीं लेकिन मैं हमेशा उस का साथी बनने को तैयार रहूंगा.

Valentine’s Day 2024: बस एक अफेयर- सुनयना की आखिर ऐसी क्या इच्छा थी  

‘‘अब आ भी जाओ सुनी, इतनी देर से कंप्यूटर पर क्या कर रही है?’’

सुनील अधीर हो रहा था सुनयना को अपनी बांहों में लेने के लिए, पर सुनयना को उसे तड़पाने में मजा आ रहा था. उस ने एक नजर सुनील को देखा, फिर शरारत से मुसकरा कर वापस कंप्यूटर पर अपना काम करने लगी.

‘‘आ रही हूं, बस अपनी प्रोफाइल पिक्चर लगा दूं.’’

‘‘अरे नहीं, ऐसा मत करना. तुम्हारा यह दीवाना क्या कम है जो अब फेसबुक पर भी अपने दीवानों की फौज खड़ी करना चाहती हो,’’ सुनील परेशान होने का नाटक करता हुआ बोला.

सुनयना ने उस की बात पर ध्यान न देते हुए फोटोगैलरी से एक खूबसूरत सी फोटो ढूंढ़ निकाली, जिस में उस ने पीले रंग की सिल्क की साड़ी पहनी हुई थी और अपने सुंदर, लंबे, कालेघने बालों को आगे की ओर फैला रखा था. अपनी प्रोफाइल पिक्चर लगाते हुए वह गुनगुनाने लगी, ‘‘ऐ काश, किसी दीवाने को हम से भी मोहब्बत हो जाए…’’

‘‘है वक्त अभी तौबा कर लो अल्लाह मुसीबत हो जाए,’’ सुनील ने गाने की आगे की लाइन को जोड़ा और उसे कंप्यूटर टेबल से अपनी गोद में उठा कर बैड पर ले आया. सुनील की बांहों में सिमटी सुनयना के चेहरे पर आज अजब सी मुसकराहट थी.

‘‘अब पता चलेगा बच्चू को, हर वक्त मुझे चिढ़ाता रहता है.’’

सुदर्शन व्यक्तिव और हंसमुख स्वभाव का धनी सुनील कालेज में सभी लड़कियों के आकर्षण का केंद्र था. उस के पास गर्लफ्रैंड्स की लंबी लिस्ट थी जिन्हें ले कर वह अकसर सुनयना को चिढ़ाया करता था और सुनयना चिढ़ कर रह जाती थी. कभीकभी सोचती कि काश, शादी से पहले उस का भी कम से एक अफेयर तो होता, तो वह भी सुनील को करारा जवाब दे पाती.

सुनील के मोबाइल की फोटोगैलरी में न जाने कितनी लड़कियों की फोटोज होतीं जिन्हें दिखादिखा कर वह सुनयना को चिढ़ाता और उस की आंखों में जलन व चेहरे पर कुढ़न देख कर मजे लेता रहता. पर उसे यह कह कर मना भी लेता, ‘‘ये सब तुम्हारे आगे पानी भरती हैं सुनी, कहां ये सब लड़कियां और कहां तुम, तभी तो मैं ने तुम्हें चुना है. लाखों में एक है मेरी सुनी,’’ कहतेकहते सुनील उसे बांहों में भर लेता और सुनयना भी उस की आगोश में आ कर समंदर में गोते लगाती. थोड़ी देर के लिए सारी जलन और कुढ़न भूल जाती. पर एक अफेयर तो उस का भी होना चाहिए था, यह बात अकसर उसे परेशान कर जाती.

‘‘मैं मान ही नहीं सकता कि शादी से पहले तुम्हारा कोई बौयफ्रैंड नहीं रहा होगा. अरे, इतनी सुंदर लड़की के पीछे तो लड़कों की भीड़ चलती होगी.’’

कभीकभी सुनील छेड़ता तो सुनयना को वह लड़का याद आ जाता जिस ने उसे तब देखा था जब वह अपनी सहेली रमा के साथ उन के समाज के एक विवाह सम्मेलन में शामिल होने गई थी. रमा ने बताया था कि उस लड़के की शादी उस की बूआ की बेटी के साथ होने वाली है. बाद में पता चला कि उस लड़के ने वहां रिश्ता करने से मना कर दिया था क्योंकि उसे पहली नजर में ही सुनयना भा गई थी. उस के बाद वह जहां भी जाती, उस लड़के, जिस का नाम मनोज था, को अपने पीछे पाती. पर बड़ी चतुराई से वह उसे नजरअंदाज कर जाती थी. वैसे देखने में मनोज किसी हीरो से कम नहीं लगता था पर बात यहां दिल की थी. सुनयना का दिल तो कभी किसी पर आया ही नहीं. आया तो आया बस सुनील पर ही जब वह उसे देखने अपने मम्मीपापा के साथ आया था. पहली नजर का प्यार बस उसी पल जागा था और आंखें मौन स्वीकृति दे चुकी थीं.

पहले पगफेरे के लिए जब मायके आई और सुनील के साथ साड़ी मार्केट गई थी तब एक दुकान पर टंगी साड़ी सुनील को पसंद आ रही थी. दुकानदार से मुखातिब हुए तो मनोज सामने आ गया. सुनयना ने झेंप कर उसे भैया कह कर संबोधित किया तो मनोज के चेहरे का रंग उड़ गया.

‘‘क्या बेचारे को भैया कह दिया, उस की बचीखुची आशिकी का तो खयाल किया होता,’’ सुनील की हंसी रोके नहीं रुक रही थी.

अगले दिन अपनी फेसबुक प्रोफाइल देखी तो 20 फ्रैंड रिक्वैस्ट आ चुकी थीं. सुनयना मुसकरा कर सब की प्रोफाइल का मुआयना करने लगी. मैसेंजर पर भी ढेरों मैसेज आए थे. सारे मैसेज उस की तारीफों के पुल से अटे पड़े थे. एक मैसेज पढ़ कर उस के चेहरे पर मुसकान आ गई जिस में लिखा था-

‘आप बहुत खूबसूरत हैं. काश, आप मुझे पहले मिल जातीं, तो मैं आप से शादी कर लेता.’

‘पर आप मुझ से बहुत छोटे हैं, फिर यह कैसे संभव होता,’ सुनयना ने लिखा तो वहां से भी जवाब आ गया.

‘प्यार उम्र नहीं देखता मैम, प्यार तो हर सीमा से परे अपनी मंजिल ढूंढ़ लेता है.’ वहां से जवाब आया तो सुनयना ने स्माइल करता इमोजी डाल दिया. उस का नाम सौरभ था और वह दिल्ली में रहता था.

अब तो जब भी सुनयना फेसबुक पर आती, सौरभ से चैटिंग होती. उस की बातों से लगता था कि वह सुनयना का दीवाना हो चुका था. इन दिनों सुनील को भी सुनयना कुछ ज्यादा ही खूबसूरत और रोमांटिक लगने लगी थी. अब उस ने सुनील की सहेलियों से चिढ़ना भी बंद कर दिया था. जब भी सुनील उसे किसी लड़की की फोटो दिखा कर चिढ़ाता, तो वह चिढ़ने के बजाय मंदमंद मुसकराने लगती.

‘‘आजकल तुम बहुत बदल गई हो, पहले से ज्यादा खूबसूरत हो गई हो, ज्यादा संवर कर रहने लगी हो. क्या बात है, कहीं सचमुच मेरा कोई रकीब तो पैदा नहीं हो गया.’’ सुनील कभीकभी हैरानी से कहता तो सुनयना भी आंखें मटका कर जवाब देती.

‘‘हो सकता है.’’

‘‘पर जरा, संभल कर, इन मनचलों का कोई भरोसा नहीं, खुद को किसी मुसीबत में न फंसा लेना.’’

‘‘डौंट वरी सुनील, ऐसा कुछ नहीं होगा,’’ सुनयना लापरवाही से कहती.

आजकल वह जल्दी काम से फ्री हो कर औनलाइन आ जाती. रोजाना चैट करते हुए सौरभ उस से काफी खुल चुका था. मैम से सुनयना और तुम संबोधन तक बात पहुंच गई थी.

‘‘सुनयना मैं तुम से प्यार करने लगा हूं.’’

‘‘सौरभ, तुम नहीं जानते मैं, शादीशुदा हूं.’’

‘‘इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि अब मेरा तुम्हारे बिना रहना मुश्किल होता जा रहा है. तुम अब मेरी जान बन चुकी हो और मुझे तुम से मिलना है, बस.’’

‘‘मैं तुम से नहीं मिल सकती सौरभ और वैसे भी तुम अपनी हद पार कर रहे हो.’’

‘‘हद तो पार हो ही चुकी है सुनयना. बस, तुम जल्दी से अपना पता बता दो. मैं आ जाऊंगा.’’

बहुत समझाने पर भी सौरभ एक ही बात पर अड़ गया तो सुनयना को झुंझलाहट होने लगी. उस ने कुढ़ते हुए सौरभ को ब्लौक किया और बुदबुदाने लगी, ‘ये सारे लड़के एकजैसे होते हैं. सिर्फ चैटिंग काफी नहीं थी, जो मिलना चाहता है. मैं बिना अफेयर के ही भली थी.’

शाम को जब सुनील घर आया तो उस का उखड़ा हुआ मूड देख कर तुरंत माजरा समझ गया.

‘‘क्यों, कर दिया उसे ब्लौक?’’ सुनील ने कहा. सुनयना देखती रह गई. ‘इसे यह कैसे पता चल गया.’ सुनील सुनयना को देख कर हंसे जा रहा था.

‘‘यहां मेरी जान पर बन आई है और तुम्हें हंसी सूझ रही है,’’ सुनयना ने खिसियाते हुए कहा.

‘‘हंसूं नहीं तो और क्या करूं सुनी, यह अफेयरवफेयर तुम्हारे बस की बात नहीं. और उस लड़के से डरने की जरूरत नहीं. मैं इस तरह के लड़कों को अच्छी तरह जानता हूं. इन लोगों की सोच ही घटिया होती है.’’

सुनील की बात सुन कर सुनयना की फिक्र कुछ कम हुई और सुनील ने उस के सामने अपने मोबाइल से सारी लड़कियों की फोटोज डिलीट कर दीं. सौरभ को ब्लौक करने के बाद भी कुछ दिनों तक सुनयना का मूड थोड़ा उखड़ाउखड़ा रहा. इसलिए उस ने फेसबुक पर लौगइन नहीं किया था. पर एक दिन बोरियत से परेशान हो कर उस ने सोचा, आज फेसबुक पर सहेलियों से कुछ चैटिंग करती हूं और उस ने लौगइन किया तो यह देख कर अवाक रह गई कि सौरभ ने अपनी दूसरी आईडी बना कर उसे वापस न सिर्फ फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी, बल्कि इनबौक्स में उस के लिए ढेर सारे मैसेज भी छोड़ रखे थे.

‘‘यों मुझे ब्लौक कर के मुझ से पीछा नहीं छूटेगा जानेमन. मेरी फ्रैंड रिक्वैस्ट एक्सैप्ट कर लेना. अब तुम्हारे बिना जिया नहीं जाता.’’

‘‘क्या हुआ फेसबुक छोड़ कर भाग गईं क्या?’’

‘‘अपना पता दे दो, प्लीज.’’

इस तरह के मैसेज पढ़ कर सुनयना का सिर घूम गया.

‘यह क्या मुसीबत पाल ली मैं ने. अब क्या होगा, यह तो पीछे ही पड़ गया.’

सोचसोच कर सुनयना परेशान हो रही थी. उस ने गुस्से में फेसबुक बंद किया और सिर पकड़ कर बैठ गई. पर इस मुसीबत की हद उतनी नहीं थी जितनी उस ने सोची थी. सौरभ उस की सोच से बढ़ कर मक्कार निकला, उस ने सुनयना की फेसबुक आईडी हैक कर ली और उस की सहेलियों को उलटेसीधे मैसेज भेजने शुरू कर दिए. सुनयना को तब पता चला जब उस की सहेलियों के फोन आने शुरू हुए. आखिर उस ने सार्वजनिक मैसेज कर सब से माफी मांगी और सब को बताया कि उस की फेसबुक आईडी हैक हो चुकी है. हार कर उसे अपनी फेसबुक आईडी डिऐक्टिवेट करनी पड़ी. पर सौरभ कहां पीछा छोड़ने वाला था. उस रोज सुबह घर के काम से फ्री हो कर अपने बैड पर बैठी मैगजीन पढ़ रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सौरभ को सामने पा कर वापस दरवाजा बंद करने लगी पर सौरभ उसे ढकेल कर अंदर आ गया.

‘‘तुम, तुम यहां कैसे? घर का पता कहां से मिला?’’

सुनयना के शब्द उस के मुंह में ही अटक रहे थे.

‘‘हम प्यार करने वाले हैं जानेमन, फिर आजकल किसी का भी पता ढूंढ़ना मुश्किल थोड़े ही है. वोटर आईडी से किसी का भी पता मालूम चल जाता है. बस, हम ने तुम्हारा पता ढूंढ़ा और पहुंच गए अपनी जान से मिलने.’’

जानेमन, यह शब्द सुन कर सुनयना को खुद से ही घिन आ रही थी और सौरभ सोफे पर धंसा बोलता रहा.

‘‘यार, तुम ने तो एक ही झटके में हम से पीछा छुड़ा लिया और हम हैं कि तुम से प्यार कर बैठे.’’

गुस्से और डर से सुनयना का चेहरा लाल हुआ जा रहा था. पर किसी तरह खुद को संभालते हुए उस ने कहा, ‘‘अब आ ही गए हो तो बैठो, तुम्हारे लिए पानी लाती हूं.’’

उस ने रसोई में जा कर लंबीलंबी सांसें लीं और कुछ सोचने लगी.

‘‘ये लो पानी.’’

कह कर सुनयना सौरभ के सामने बैठ गई और बोली, ‘‘देखो सौरभ, सुनील के घर आने का वक्त हो रहा है, इसलिए अभी तुम जाओ. मैं तुम से वादा करती हूं, तुम से मिलने जरूर आऊंगी.’’

‘‘कब, कहां मिलोगी, जल्दी बताओ,’’ सौरभ के चेहरे पर कुटिल मुसकान आ गई.

‘‘जल्द ही मिलूंगी. यह तुम से वादा रहा.’’

‘‘पहले बताओ, कहां मिलोगी? तभी मैं यहां से जाऊंगा.’’

‘‘फोन पर बता दूंगी. अब जाओ.’’

सौरभ आश्वस्त हो कर चला गया तो सुनयना निढाल सी सोफे पर धंस गई. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि जरा सी दिल्लगी उसे मुसीबत में डाल देगी.

‘‘मैं ने तुम से कहा था मुसीबत में मत पड़ जाना. अब पड़ गया न वह पीछे.’’

सुनील को सारी बात पता चली तो वो झल्लाने लगा और सुनयना बस रोए जा रही थी.

‘‘अब रोओ मत, चलो, आंसू पोंछ लो. इस सौरभ को तो मैं ऐसा सबक सिखाउंगा कि याद रखेगा.’’

‘‘क्या करोगे तुम?’’ सुनयना ने अपनी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए कहा.

‘‘उसे फोन करो और लोधी गार्डन बुलाओ, कहना वहीं मिलोगी.’’

सुनयना लोधी गार्डन में एक बैंच पर बैठी थी. सौरभ सही समय पर आ गया था. वह अपनी जीत पर बड़ी कुटिलता से मुसकरा रहा था पर उस की यह मुसकान ज्यादा देर न रही. सुनील और उस के दोस्त, जो झाडि़यों के पीछे छिपे थे, बाहर आए और सौरभ को घेर लिया.

‘‘क्यों बे, ज्यादा आशिकी सवार हुई है क्या? शादीशुदा औरतों को फंसाता है?’’

कह कर सुनील ने उस की पिटाई शुरू कर दी. इतने सारे लोगों को एकसाथ देख कर उस की सारी आशिकी हवा हो गई और वह भागने लगा. पर उन सब ने उसे पकड़ लिया और पुलिस में देने की बात करने लगे तो सौरभ गिड़गिड़ाने लगा. माफी मांगने और आइंदा कभी ऐसी हरकत न करने का वादा ले कर ही उसे छोड़ा गया. इस तरह एक अफेयर का अंत हुआ.

कोशिशें जारी हैं: शिवानी और निया के बीच क्या था रिश्ता

‘‘पहलीबार पता चला कि निया तुम्हारी बहू है, बेटी नहीं…’’ मिथिला शिवानी से कह रही थी और शिवानी मंदमंद मुसकरा रही थी.

‘‘क्यों, ऐसा क्या फर्क होता है बेटी और बहू में? दोनों लड़कियां ही तो होती हैं. दोनों ही नौकरियां करती हैं. आधुनिक डै्रसेज पहनती हैं. आजकल यह फर्क कहां दिखता है कि बहू सिर पर पल्ला रखे और बेटी…’’

‘‘नहीं… फिर भी,’’ मिथिला उस की बात काटती हुई बोली, ‘‘बेटी, बेटी होती है और बहूबहू. हावभाव से ही पता चल जाता है. निया तुम से जैसा लाड़ लड़ाती है, छोटीछोटी बातें शेयर करती है, तुम्हारा ध्यान रखती है, वैसा तो सिर्फ बेटियां ही कर सकती हैं. तुम दोनों की ऐसी मजबूत बौंडिग देख कर तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि तुम दोनों सासबहू हो. ऐसे हंसतीखिलखिलाती हो साथ में कि कालोनी में इतने दिन तक किसी ने यह पूछने की जहमत भी नहीं उठाई कि निया तुम्हारी कौन है. बेटी ही समझा उसे.’’

‘‘ऐसा नहीं है मिथिला. यह सब सोच की बातें हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर लड़कियां ठीक ही होती हैं. लेकिन जिस दिन लड़की पहला कदम घर में बहू के रूप में रखती है, रिश्ते बनाने की कोशिश उसी पल से शुरू हो जानी चाहिए, क्योंकि हम बड़े हैं, इसलिए कोशिशों की शुरूआत हमें ही करनी चाहिए और अगर उन कोशिशों को जरा भी सम्मान मिले तो कोशिशें जारी रहनी चाहिए. कभी न कभी मंजिल मिल ही जाती है. हां, यह बात अलग है कि अगर तुम्हारी कोशिशों को दूसरा तुम्हारी कमजोरी समझ रहा है तो फिर सचेत रहने की आवश्यकता भी है,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘यह तो तुम ठीक कह रही हो… पर तुम दोनों तो देखने में भी बहनों सी ही लगती है. ऐसी बौंडिग कैसे बनाई तुम ने? प्यार तो मैं भी करती हूं अपनी बहू से पर पता नहीं हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि यह रिश्ता एक तलवार की धार की तरह है. जरा सी लापरवाही दिखाई तो या तो पैर कट जाएगा या फिसल जाएगा. तुम दोनों कितने सहज और बिंदास रहते हो,’’ मिथिला अपने मन के भावों को शब्द देती हुई बोली.

‘‘बहू तो तुम्हारी भी बहुत प्यारी है मिथिला.’’

‘‘है तो,’’ मिथिला एक लंबी सांस खींच कर बोली, ‘‘पर सासबहू के रिश्ते का धागा इतना पतला होता है शिवानी कि जरा सा खींचा तो टूटने का डर, ढीला छोड़ा तो उलझने का डर. संभलसंभल कर ही कदम रखने पड़ते हैं. निश्चिंत नहीं रह सकते इस रिश्ते में.’’

‘‘हो सकता है… सब के अपनेअपने अनुभव व अपनीअपनी सोच है… निया के साथ मुझे ऐसा नहीं लगता,’’ शिवानी बात खत्म करती हुई बोली.

‘‘ठीक है शिवानी, मैं चलती हूं… कोई जरूरत हो तो बता देना. निया भी औफिस से आती ही होगी,’’ कहती हुई मिथिला चली गई. शिवानी इतनी देर बैठ कर थक गई थी, इसलिए लेट गई.

शिवानी को 15 दिन पहले बुखार ने आ घेरा था. ऐसा बुखार था कि शिवानी टूट गई थी. पूरे बदन में दर्द, तेज बुखार, उलटियां और भूख नदारद. निया ने औफिस से छुट्टी ले कर दिनरात एक कर दिया था उस की देखभाल में. उस की हालत देख कर निया की आंखें जैसे हमेशा बरसने को तैयार रहतीं. शिवानी का बेटा सुयश मर्चेंट नेवी में था. 6 महीने पहले वह अपने परिवार को इस कालोनी में शिफ्ट कर दूसरे ही दिन शिप पर चला गया था. 4 साल होने वाले थे सुयश व निया के विवाह को.

शिवानी के इतना बीमार पड़ने पर निया खुद को बहुत अकेला व असहाय महसूस कर रही थी. पति को आने के लिए कह नहीं सकती थी. वह बदहवास सी डाक्टर, दवाई और शिवानी की देखरेख में रातदिन लगी थी. इसी दौरान पड़ोसियों का घर में ज्यादा आनाजाना हुआ, जिस से उन्हें इतने महीनों में पहली बार उन दोनों के वास्तविक रिश्ते का पला चला था, क्योंकि सुयश को किसी ने देखा ही नहीं था. निया जौब करती, शिवानी घर संभालती. दोनों मांबेटी की तरह रहतीं और देखने में बहनों सी लगतीं.

निया की उम्र इस समय 30 साल थी और शिवानी की 52 साल. हर समय प्रसन्नचित, शांत हंसतीखिलखिलाती शिवानी ने जैसे अपनी उम्र 7 तालों में बंद की हुई थी. लंबी, स्मार्ट, सुगठित काया की धनी शिवानी हर तरह के कपड़े पहनती. निया भी लंबी, छरहरी, सुंदर युवती थी. दोनों कभी जींसटौप पहन कर, कभी सलवारसूट, कभी चूड़ीदार तो कभी इंडोवैस्टर्न कपड़े पहन कर इधरउधर निकल जातीं. उन के बीच के तारतम्य को देख कर किसी ने यह पूछना तो गैरवाजिब ही समझा कि निया उस की कौन है.

शिवानी लेटी हुई सोच रही थी कि कई महिलाएं यह रोना रोती हैं कि उन की बहू उन्हें नहीं समझती. लेकिन न हर बहू खराब होती है, न हर सास. फिर भी अकसर पूरे परिवार की खुशी के आधार, इस प्यारे रिश्ते के समीकरण बिगड़ क्यों जाते हैं. जबकि दोनों की जान एक ही इंसान, बेटे व पति के पास ही अटकी रहती है और उस इंसान को भी ये दोनों ही रिश्ते प्यारे होते हैं. इस एक रिश्ते की खटास बेटे का सारा जीवन डांवाडोल कर देती है, न पत्नी उसे पूरी तरह पा पाती है और न मां.

बहू जब पहला कदम घर में रखती है तो शायद हर सास यह बात भूल जाती है कि वह अब हमेशा के लिए यहीं रहने आई है, थोड़े दिनों के लिए नहीं और एक दिन उसी की तरह पुरानी हो जाएगी. आज मन मार कर अच्छीबुरी, जायजनाजायज बातों, नियमों, परंपराओं को अपनाती बहू एक दिन अपने नएपन के खोल से बाहर आ कर तुम्हारे नियमकायदे, तुम्हें ही समझाने लगेगी, तब क्या करोगे?

बेटी को तुम्हारी जो बातें नहीं माननी हैं उन्हें वह धड़ल्ले से मना कर देती है, तो चुप रहना ही पड़ता है. लेकिन अधिकतर बहुएं आज भी शुरूशुरू में मन मार कर कई नापसंद बातों को भी मान लेती हैं. लेकिन धीरेधीरे बेटे की जिंदगी की आधार स्तंभ बनने वाली उस नवयौवना से तुम्हें हार का एहसास क्यों होने लगता है कुछ समय बाद. उसी समय समेट लेना चाहिए था न सबकुछ जब बहू ने अपना पहला कदम घर के अंदर रखा था.

दोनों बांहों में क्यों न समेट लिया उस खुशी की गठरी को? तब क्यों रिश्तेदारों व पड़ोसियों की खुशी बहू की खुशी से अधिक प्यारी लगने लगी थी. बेटी या बहू का फर्क आज के जमाने में कोई खानपान या काम में नहीं करता. फर्क विचारों में आ जाता है.

बेटी की नौकरी मेहनत और बहू की नौकरी मौजमस्ती या टाइमपास, बेटी छुट्टी के दिन देर तक सोए तो आराम करने दो, बहू देर तक सोए तो पड़ोसी, रिश्तेदार क्या कहेंगे? बेटी को डांस का शौक हो और घर में घुंघरू खनकें तो कलाप्रेमी और बहू के खनकें तो घर है या कोठा? बेटी की तरह ही बहू भी नन्हीं, कोमल कली है किसी के आंगन की, जो पंख पसारे इस आंगन तक उड़ कर आ गई है.

आज पढ़लिख कर टाइमपास नौकरी करना नहीं है लड़कियों के शौक. अब लड़कियों के जीवन का मकसद है अपनी मंजिल को हर हाल में पाना. चाहे फिर उन का वह कोई शौक हो या कोई ऊंचा पद. वे सबकुछ संभाल लेंगी यदि पति व घरवाले उन का बराबरी से साथ दें, खुले आकाश में उड़ने में उन की मदद करें.

ऐसा होगा तो क्यों न होगी इस रिश्ते की मजबूत बौंडिंग. सास या बहू कोई हव्वा नहीं हैं, दोनों ही इंसान हैं. मानवीय कमजोरियों व खूबियों से युक्त एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत. शिवानी अपनी सोचों के तर्कवितर्क में गुम थी कि तभी बाहर का दरवाजा खुला, आहट से ही समझ गई शिवानी कि निया आ गई. एक अजीब तरह की खुशी बिखेर देती है यह लड़की भी घर के अंदर प्रवेश करते ही. निया लैपटौप बैग कुरसी पर पटक कर उस के कमरे में आ गई.

‘‘हाय ममा.. हाऊ यार यू…,’’ कह कर वह चहकती हुई उस से लिपट गई.

‘‘फाइन… हाऊ वाज युअर डे…’’

‘‘औसम… पर मैं ने आप को कई बार फोन किया, आप रिसीव नहीं कर रही थीं. फिर सुकरानी को फोन कर के पूछा तो उस ने बताया कि आप ठीक हैं. वह लंच दे कर चली गई थी.’’

‘‘ओह, फोन. शायद औफ हो गया है.’’ शिवानी मोबाइल उठाती हुई बोली, ‘‘चल तेरे लिए चाय बना देती हूं.’’

‘‘नहीं, चाय मैं बनाती हूं. आप अभी कमजोर हैं. थोड़े दिन और आराम कर लीजिए’’, कह कर निया 2 कप चाय बना लाई और चाय पीतेपीते दिन भर का पूरा हाल शिवानी को सुनाना शुरू कर दिया.

‘‘अच्छा अब तू फ्रैश हो जा बेटा. चेंज कर ले. सुकरानी भी आ गई. मनपसंद कुछ बनवा ले उस से.’’

‘‘ममा, सुकरानी के हाथ का खा कर तो ऊब गई हूं. आप एकदम ठीक हो जाओ. कुछ ढंग का खाना तो मिलेगा,’’ वह शिवानी की गोद में सिर रख कर लेट गई और शिवानी उस के बालों को सहलाती रही.

जब सुयश शिप पर होता था तो निया शिवानी के साथ ही सो जाती थी. खाना खा कर दिन भर की थकी हुई निया लेटते ही गहरी नींद सो गई. उस का चेहरा ममता से निहारती शिवानी फिर खयालों में डूब गई. ‘कौन कहता है कि इस रिश्ते में प्यार नहीं पनप सकता… उन दोनों का जुड़ाव तो ऐसा है कि प्यार में मांबेटी जैसा, समझदारी में सहेलियों जैसा और मानसम्मान में सासबहू जैसा.’

छत को घूरतेघूरते शिवानी अपने अतीत में उतर गई. पति की असमय मृत्यु के बाद छोटे से सुयश के साथ जिंदगी फूलों की सेज नहीं थी उस के लिए. कांटों से अपना दामन बचाते, संभालते जिंदगी अत्यंत दुष्कर लगती थी कभीकभी. वह ओएनजीसी में नौकरी करती थी. पति के रहते कई बार घर और सुयश के कारण नौकरी छोड़ देने का विचार आया. पर अब वही नौकरी उस के लिए सहारा बन गई थी. सुयश बड़ा हुआ. वह उसे मर्चेंट नेवी में नहीं भेजना चाहती थी पर सुयश को यह जौब बहुत रोमांचक लगता था. सुयश लंबे समय के लिए शिप पर चला जाता और वह अकेले दिन बिताती.

इसलिए वह सुयश पर शादी के लिए दबाव डालने लगी. तब सुयश ने निया के बारे में बताया. निया उस के दोस्त की बहन थी. निया मराठी परिवार से थी और वह हिमाचल के पहाड़ी परिवार से. सुन कर ही दिल टूट गया उस का. पता नहीं कैसी होगी? पर विद्रोह करने का मतलब इस रिश्ते में वैमनस्य का पहला बीज बोना.

उस ने कुछ भी बोलने से पहले लड़की से मिलने का मन बना लिया पर जब निया से मिली तो सारे पूर्वाग्रह जैसे समाप्त हो गए. लंबी, गोरी, छरहरी, खूबसूरत, सौम्य, चेहरे पर दिलकश मुसकान लिए निया को देख कर विवाह की जल्दी मचा डाली. निया अपने मम्मीपापा की इकलौती लाडली बेटी थी. अच्छे संस्कारों में पली लाडली बेटी को प्यार लेना और देना तो आता था पर जिम्मेदारी जैसी कोई चीज लेना आजकल की बच्चियों को नहीं आता. बिंदास तरह से पलती हैं और बिंदास तरह से रहती हैं.

और इस बात को बेटी न होते हुए भी, बेटी की मां जैसा अनुभव कर शिवानी ने निया के गृहप्रवेश करते समय ही गांठ बांध लिया. दोनों बांहों से उस ने ऐसा समेटा निया को कि उस का माइनस तो कुछ दिखा ही नहीं, बल्कि सबकुछ प्लसप्लस होता चला गया. निया देर से सो कर उठती, तो घर में काम करने वाली के पेट में भी मरोड़ होने लगती पर शिवानी के चेहरे पर शिकन न आती.

निया के कुछ कपड़े संस्कारी मन को पसंद न आते पर पड़ोसियों से ज्यादा परवाह बहूबेटे की खुशियों की रहती. उन दोनों को पसंद है, पड़ोसी दुखी होते हैं तो हो लें. कुछ महीने रह कर सुयश 6 महीने के लिए शिप पर चला गया. निया अपनी जौब छोड़ कर आई थी इसलिए वह अपने लिए नई जौब ढूंढ़ने में लगी थी. शिवानी ने सुयश के जौब में आने के बाद रिटायरमैंट ले लिया था. वह अब दौड़तीभागती जिंदगी से विराम चाहती थी. फिलहाल जो एक कोमल पौधा उस के आंगन में रोपा गया था, उसे मजबूती देना ही उस का मकसद था.

पर सुयश के शिप पर जाने के बाद निया मायके जाने के लिए कसमसाने लगी थी. शिवानी इसी सोच में थी कि अब उसे अकेले नहीं रहना पड़ेगा. पर जब निया ने कहा, ‘‘ममा, जब तक सुयश शिप में है, मैं मुंबई चली जाऊं? सुयश के आने से पहले आ जाऊंगी?’’

न चाहते हुए भी उस ने खुशीखुशी निया को मुंबई भेज दिया. यह महसूस कर कि अभी वह बिना पति के इतना लंबा वक्त उस के साथ कैसे बिताएगी. नए रिश्ते को, नए घर को अपना समझने में समय लगता है. सुयश के आने से कुछ दिन पहले ही निया वापस आई. हां, वह मुंबई से उसे फोन करती रहती और वह खुद भी उसी की तरह बिंदास हो कर बात करती. अपने जीवन में उस की खूबी को महसूस कराती. घर में उस की कमी को महसूस कराती पर अपनी तरफ से आने के लिए कभी नहीं कहती.

सुयश ने भी कुछ नहीं कहा. निया वापस आई तो शिवानी ने उसे बिछड़ी बेटी की तरह गले लगा लिया. सुयश कुछ महीने रह कर फिर शिप पर चला गया. पर इस बार निया में परिवर्तन अपनेआप ही आने लगा था. स्वभाव तो उस का प्यारा पहले से ही था पर अब वह उस के प्रति जिम्मेदारी भी महसूस करने लगी थी. इसी बीच निया को जौब मिल गई.

शिवानी खुद ही निया के रंग में रंग गई. निया ने जब पहली बार उस के लिए जींस खरीदने की पेशकश की तो उस ने ऐतराज किया, ‘‘ममा पहनिए, आप पर बहुत अच्छी लगेगी.’’

और उस के जोर देने पर वह मान गई कि बेटी भी होती तो ऐसा ही कर सकती थी. समय बीततेबीतते उन दोनों के बीच रिश्ता मजबूत होता चला गया. औपचारिकता के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई. कोशिश तो किसी भी रिश्ते में सतत करनी पड़ती है. फिर एक समय ऐसा आता है जब उन कोशिशों को मुकाम हासिल हो जाता है.

जितना खुलापन, प्यार, अपनापन, विश्वास, उस ने शुरू में निया को दिया और उसे उसी की तरह जीने, रहने व पहनने की आजादी दी, उतना ही वह अब उस का खयाल रखने लगी थी. बेटी की तरह उस की छोटीछोटी बातें अकसर उस की आंखों में आंसू भर देती. कभी वह उस को शाल यह कह कर ओढ़ा देती, ‘‘ममा ठंड लग जाएगी.’’ कभी उस की ड्रैस बदला देती, ‘‘ममा यह पहनो. इस में आप बहुत सुंदर लगती हैं. मेरी फ्रैंड्स कहती हैं तेरी ममा तो बहुत सुंदर और स्मार्ट है.’’

निया ने ही उसे ड्राइविंग सिखाई. हर नई चीज सीखने का उत्साह जगाया. वह खुद ही पूरी तरह निया के रंग में रंग गई और अब ऐसी स्थिति आ गई थी कि दोनों एकदूसरे को पूछे बिना न कुछ करतीं, न पहनतीं. हर बात एकदूसरे को बतातीं. इतना अटूट रिश्ता तो मांबेटी के बीच भी नहीं बन पाता होगा. सोच कर शिवानी मुसकरा दी.

सोचतेसोचते शिवानी ने निया की तरफ देखा. वह गहरी नींद में थी. उस ने उस की चादर ठीक की और लाइट बंद कर खुद भी सोने का प्रयास करने लगी. दूसरे दिन रविवार था. दोनों देर से सो कर उठीं.

दैनिक कार्यक्रम से निबट कर दोनों बैडरूम में ही बैठ कर नाश्ता कर रही थीं कि उन की पड़ोसिनें मिथिला, वैशाली, मधु व सुमित्रा आ धमकीं. निया सब को नमस्ते कर के उठ गई.

‘‘अरे वाह, आओआओ… आज तो सुबहसुबह दर्शन हो गए. कहां जा रही हो चारों तैयार हो कर?’’ शिवानी मुसकरा कर नाश्ता खत्म करती हुई बोली.

‘‘हम सोच रहे थे शिवानी कि कालोनी का एक गु्रप बनाया जाए, जिस से साल में आने वाले त्योहार साथ में मनाएं मिलजुल कर,’’ मिथिला बोली.

‘‘इस से आपस में मिलनाजुलना होगा और जीवन की एकरसता भी दूर होगी,’’ वैशाली बात को आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘हां और क्या… बेटेबहू तो चाहे साथ में रहें या दूर अपनेआप में ही मस्त रहते हैं. उन की जिंदगी में तो हमारे लिए कोई जगह है ही नहीं… बहू तो दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंकना चाहती है सासससुर को,’’ मधु खुद के दिल की भड़ास उगलती हुई बोली.

‘‘ऐसा नहीं है मधु… बहुएं भी आखिर बेटियां ही होती हैं. बेटियां अच्छी होती हैं फिर बहुएं होते ही वे बुरी कैसे बन जातीं हैं, मां अच्छी होती हैं फिर सास बनते ही खराब कैसे हो जाती हैं? जाहिर सी बात है कि यह रिश्ता नुक्ताचीनी से ही शुरू होता है. एकदूसरे की बुराइयों, कमियों और गलतियों पर उंगली रखने से ही शुरुआत होती है.

‘‘मांबेटी तो एकदूसरे की अच्छीबुरी आदतें व स्वभाव जानती हैं और उन्हें इस की आदत हो जाती है. वे एकदूसरे के स्वभाव को ले कर चलती हैं पर सासबहू के रूप में दोनों कुछ भी गलत सहन नहीं कर पाती हैं. आखिर इस रिश्ते को भी तो पनपने में, विकसित होने में समय लगता है. बेटी के साथ 25 साल रहे और बहू 25 साल की आई, तो कैसे बन पाएगा एक दिन में वैसा रिश्ता.’ उस रिश्ते को भी तो उतना ही समय देना पड़ेगा. कोशिशें निरंतर जारी रहनी चाहिए. एकदूसरे को सराहने की, प्यार करने की, खूबसूरत पहलुओं को देखने की,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘तुम्हें अच्छी बहू मिल गई न… इसलिए कह रही हो. हमारे जैसी मिलती तो पता चलता,’’ सुमित्रा बोली.

‘‘लेकिन बेटे की पत्नी व बहू के रूप में देखने से पहले उसे उस के स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ क्यों नहीं स्वीकार करते? उस की पहचान को प्राथमिकता क्यों नहीं देते? उस पर अपने सपने थोपने के बजाए उस के सपनों को क्यों नहीं समझते? उस के उड़ने के लिए दायरे का निर्धारण तुम मत करो. उसे खुला आकाश दो जैसे अपनी खुद की बेटी के लिए चाहते हो, उस के लिए नियम बनाने के बजाए उसे अपने जीवन के नियम खुद बनाने दो, उसे अपने रंग में रंगने के बजाए उस के रंग में रंगने की कोशिश तो करो, तुम्हें पता नहीं चलेगा, कब वह तुम्हारे रंग में रंग गई.

‘‘आखिर सभी को अपना जीवन अपने हिसाब से जीने का पूरा हक है. फिर बहू से ही शिकायतें व अपेक्षा क्यों?’’ बड़े होने के नाते आज उस की गलतसही आदतों को समाओ तो सही, कल इस रिश्ते का सुख भी मिलेगा. कोशिश तो करो. हालांकि, देर हो गई है पर कोशिश तो की जा सकती है. रिश्तों को कमाने की कोशिशें सतत जारी रहनी चाहिए सभी की तरफ से,’’ शिवानी मुसकरा कर बोली.

‘‘मैं यह नहीं कहती कि इस से हर सासबहू का रिश्ता अच्छा हो जाएगा पर हां, इतना जरूर कह सकती हूं कि हर सासबहू का रिश्ता बिगड़ेगा नहीं,’’ उस ने आगे कहा.

चारों सहेलियां विचारमग्न सी शिवानी को देख रहीं थी और बाहर से उन की बातें सुनती निया मुसकराती हुई अपने कमरे की तरफ चली गई.

Valentine’s Day 2024: कठपुतली- शादी के बाद मीता से क्यों दूर होने लगा निखिल?

जैसे ही मीता के विवाह की बात निखिल से चली वह लजाई सी मुसकरा उठी. निखिल उस के पिताजी के दोस्त का इकलौता बेटा था. दोनों ही बचपन से एकदूसरे को जानते थे. घरपरिवार सब तो देखाभाला था, सो जैसे ही निखिल ने इस रिश्ते के लिए रजामंदी दी, दोनों को सगाई की रस्म के साथ एक रिश्ते में बांध दिया गया.

मीता एक सौफ्टवेयर कंपनी में काम करती थी और निखिल अपने पिताजी के व्यापार को आगे बढ़ा रहा था.

2 महीने बाद दोनों परिणयसूत्र में बंध कर पतिपत्नी बन गए. निखिल के घर में खुशियों का सावन बरस रहा था और मीता उस की फुहारों में भीग रही थी.

वैसे तो वे भलीभांति एकदूसरे के व्यवहार से परिचित थे, कोई मुश्किल नहीं थी, फिर भी विवाह सिर्फ 2 जिस्मों का ही नहीं 2 मनों का मिलन भी तो होता है.

विवाह को 1 महीना पूरा हुआ. उन का हनीमून भी पूरा हुआ. अब निखिल ने फिर काम पर जाना शुरू कर दिया. मीता की भी छुट्टियां समाप्त हो गईं.

‘‘निखिल पूरा 1 महीना हो गया दफ्तर से छुट्टी किए. आज जाना है पर तुम्हें छोड़ कर जाने को मन नहीं कर रहा,’’ मीता ने बिस्तर पर लेटे अंगड़ाई लेते हुए कहा.

‘‘हां, दिल तो मेरा भी नहीं, पर मजबूरी है. काम तो करना है न,’’ निखिल ने जवाब दिया. तो मीता मुसकरा दी.

अब रोज यही रूटीन रहता. दोनों सुबह उठते, नहाधो कर साथ नाश्ता कर अपनेअपने दफ्तर रवाना हो जाते. शाम को मीता थकीमांदी लौट कर निखिल का इंतजार करती रहती कि कब निखिल दफ्तर से आए और कब दो मीठे बोल उस के मुंह से सुनने को मिलें.

एक दिन वह निखिल से पूछ ही बैठी, ‘‘निखिल, मैं देख रही हूं जब से हमारी शादी हुई है तुम्हारे पास मेरे लिए वक्त ही नहीं.’’

‘‘मीता शादी करनी थी हो गई… अब काम भी तो करना है.’’

निखिल का जवाब सुन मीता मुसकरा दी और फिर मन ही मन सोचने लगी कि निखिल कितना जिम्मेदार है. वह अपने वैवाहिक जीवन से बहुत खुश थी. वही करती जो निखिल कहता, वैसे ही रहती जैसे निखिल चाहता. और तो और खाना भी निखिल की पसंदनापसंद पूछ कर ही बनाती. उस का स्वयं का तो कोई रूटीन, कोई इच्छा रही ही नहीं. लेकिन वह खुद को निखिल को समर्पित कर खुश थी. इसलिए उस ने निखिल से कभी इन बातों की शिकायत नहीं की. वह तो उस के प्यार में एक अनजानी डोर से बंध कर उस की तरफ खिंची जा रही थी. सो उसे भलाबुरा कुछ महसूस ही नहीं हो रहा था.

वह कहते हैं न कि सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखाई देता है. बस वैसा ही हाल था निखिल के प्रेम में डूबी मीता का. निखिल रात को देर से आता. तब तक वह आधी नींद पूरी भी कर चुकी होती.

एक बार मीता को जम्हाइयां लेते देख निखिल बोला, ‘‘क्यों जागती हो मेरे लिए रात को? मैं बाहर ही खा लिया करूंगा.’’

‘‘कैसी बात करते हो निखिल… तुम मेरे पति हो, तुम्हारे लिए न जागूं तो फिर कैसा जीवन? वैसे भी हमें कहां एकदूसरे के साथ बैठने के लिए वक्त मिलता है.’’ मीता ने कहा.

विवाह को 2 वर्ष बीत गए, किंतु इन 2 वर्षों में दोनों रात और दिन की तरह हो गए. एक आता तो दूसरा जाता.

एक दिन निखिल ने कहा, ‘‘मीता तुम नौकरी क्यों नहीं छोड़ देतीं… हमें कोई पैसों की कमी तो नहीं. यदि तुम घर पर रहो तो शायद हम एकदूसरे के साथ कुछ वक्त बिता सकें.’’

जैसे ही मीता ने अपनी दफ्तर की कुलीग नेहा को इस बारे में बताया, वह कहने लगी, ‘‘मीता, नौकरी मत छोड़ो. सारा दिन घर बैठ कर क्या करोगी?’’

मगर मीता कहां किसी की सुनने वाली थी, उसे तो जो निखिल बोले बस वही ठीक लगता था. सो आव देखा न ताव इस्तीफा लिख कर अपनी बौस के पास ले गई. वे भी एक महिला थीं, सो पूछने लगीं, ‘‘मीता, नौकरी क्यों छोड़ रही हो?’’

‘‘मैम, वैवाहिक जीवन में पतिपत्नी को मिल कर चलना होता है, निखिल तो अपना कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ा रहा है, यदि पतिपत्नी के पास एकदूसरे के लिए समय ही नहीं तो फिर कैसी गृहस्थी? फिर निखिल तो अपना कारोबार बंद करने से रहा. सो मैं ही नौकरी छोड़ दूं तो शायद हमें एकदूसरे के लिए कुछ समय मिले.’’

बौस को लगा जैसे मीता नौकरी छोड़ कर गलती कर रही है, किंतु वे दोनों के प्यार में दीवार नहीं बनाना चाहती थीं, सो उस ने मीता का इस्तीफा स्वीकार कर लिया.

अब मीता घर में रहने लगी. जैसे आसपास की अन्य महिलाएं घर की साफसफाई, साजसज्जा, खाना बनाना आदि में वक्त व्यतीत करतीं वैसे ही वह भी अपना सारा दिन घर के कामों में बिताने लगी. कभी निखिल अपने बाहर के कामों की जिम्मेदारी उसे सौंप देता तो वह कर आती, सोचती उस का थोड़ा काम हलका होगा तो दोनों को आपस में बतियाने के लिए वक्त मिलेगा. उस की दफ्तर की सहेलियां कभीकभी फोन पर पूछतीं, ‘‘मीता, घर पर रह कर कैसा लग रहा है?’’

‘‘बहुत अच्छा, सब से अलग,’’ वह जवाब में कहती.

दीवानी जो ठहरी अपने निखिल की. दिन बीते, महीने बीते और पूरा साल बीत गया. मीता तो अपने निखिल की मीरा बन गई समझो. निखिल के इंतजार में खाने की मेज पर ही बैठ कर ऊंघना, आधी रात जाग कर खाना परोसना तो समझो उस के जीवन का हिस्सा हो गया था.

अब वह चाहती थी कि परिवार में 2 से बढ़ कर 3 सदस्य हो जाएं, एक बच्चा हो जाए तो वह मातृत्व का सुख ले सके. वैसे तो वह संयुक्त परिवार में थी, निखिल के मातापिता भी साथ में ही रहते थे, किंतु निखिल के पिता को तो स्वयं कारोबार से फुरसत नहीं मिलती और उस की मां अलगअलग गु्रप में अपने घूमनेफिरने में व्यस्त रहतीं.

‘‘निखिल कितना अच्छा हो हमारा भी एक बच्चा हो. आप सब तो पूरा दिन मुझे अकेले छोड़ कर बाहर चले जाते हो… मुझे भी तो मन लगाने के लिए कोई चाहिए न,’’ एक दिन मीता ने निखिल के करीब आते हुए कहा.

जैसे ही निखिल ने यह सुना वह उस के छिटकते हुए कहने लगा, ‘‘मीता, अभी मुझे अपने कारोबार को और बढ़ाना है. बच्चा हो गया तो जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी और फिर अभी हमारी उम्र ही क्या है.’’

मीता ने उसे बहुत समझाया कि वह बच्चे के लिए हां कह दे, किंतु निखिल बड़ी सफाई से टाल गया, बोला, ‘‘क्यों मेरा हनीमून पीरियड खत्म कर देना चाहती हो?’’

उस की बात सुन मीता एक बार फिर मुसकरा दी. बोली, ‘‘निखिल तुम बहुत चालाक हो.’’

मगर मीता अकेले घर में कैसे वक्त बिताए हर इंसान की अपनी दुनिया होती है. वह भी अपनी दुनिया बसाना चाहती थी, किंतु निखिल की न सुन कर चुप हो गई और निखिल अपनी दुनिया में मस्त.

एक दिन मीता बोली, ‘‘निखिल, मैं सोचती थी कि मैं नौकरी छोड़ दूंगी तो हमें एकसाथ समय बिताने को मिलेगा, किंतु तुम तो हर समय घर पर भी अपना लैपटौप ले कर बैठे रहते हो या फिर फोन पर बातों में लगे रहते हो.’’

उस की यह बात सुन निखिल बिफर गया. गुस्से में बोला, ‘‘तो क्या घर बैठ कर तुम्हारे पल्लू से बंधा रहूं? मैं मर्द हूं. अपनेआप को काम में व्यस्त रखना चाहता हूं, तो तुम्हें तकलीफ क्यों होती है?’’

मीता निखिल की यह बात सुन अंदर तक हिल गई. मन ही मन सोचने लगी कि इस में मर्द और औरत वाली बात कहां से आ गई.

हां, जब कभी निखिल को कारोबार संबंधी कागजों पर मीता के दस्तखत चाहिए होते तो वह बड़ी मुसकराहट बिखेर कर उस के सामने कागज फैला देता और कहता, ‘‘मालकिन, अपनी कलम चला दीजिए जरा.’’

कभी वह रसोई में आटा गूंधती बाहर आती तो कभी अपनी पसंदीदा किताब पढ़ती बीच में छोड़ती और मुसकरा कर दस्तखत कर देती.

मीता का निखिल के प्रति खिंचाव अभी भी बरकरार था. सो आज अकेले में मुसकुराने लगी और सोचा कि ठीक ही तो कहा निखिल ने. घर के लिए ही तो काम करता है सारा दिन वह, मैं ही फालतू उलझ बैठी उस से.

शाम को जब वह आया तो वह पूरी मुसकराहट के साथ उस के स्वागत में खड़ी थी, लेकिन निखिल का रुख कुछ बदला हुआ था. मीता उस के चेहरे के भाव पढ़ कर समझ गई कि निखिल उस से सुबह की बात को ले कर अभी तक नाराज है. सो उस ने उसे खूब मनाया. कहा, ‘‘निखिल, क्या बच्चों की तरह नाराज हो गए? हम दोनों जीवनपथ के हमराही हैं, मिल कर साथसाथ चलना है.’’

लेकिन निखिल के चेहरे पर से गुस्से की रेखाएं हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं. क्या करती बेचारी मीता. आंखें भर आईं तो चादर ओढ़ कर सो गई.

निखिल अगली सुबह भी उसे से नहीं बोला. घर से बिना कुछ खाए निकल गया.

आज पहली बार मीता का दिल बहुत दुखी हुआ. वह सोचने लगी कि आखिर ऐसा भी क्या कह दिया था उस ने कि निखिल 3 दिन तक उस बात को खींच रहा है.

अब वह घर में निखिल से जब भी कुछ कहना चाहती उस का पौरुषत्व जाग उठता. एक दिन तो गुस्से में उस के मुंह से निकल ही गया, ‘‘क्यों टोकाटाकी करती रहती हो दिनरात?

तुम्हारे पास तो कुछ काम है नहीं…ये जो रुपए मैं कमा कर लाता हूं, जिन के बलबूते पर तुम नौकरों से काम करवाती हो, वो ऐसे ही नहीं आ जाते. दिमाग खपाना पड़ता है उन के लिए.’’

आज तो निखिल ने सीधे मीता के अहम पर चोट की थी. वह अपने आंसुओं को पोंछते हुए बिस्तर पर धम्म से जा पड़ी. सारी रात उसे नींद नहीं आई. करवटें बदलती रही. उसे लगा शायद निखिल ने गुस्से में आ कर कटु शब्द बोल दिए होंगे और शायद रात को उसे मना लेगा. लेकिन इस रात की तो जैसे सुबह ही नहीं हुई. जहां वह करवटें बदलती रही वहीं निखिल खर्राटे भर कर सोता रहा.

अब तो यह खिटपिट उन के रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन गई थी. इसलिए उस ने निखिल से कई बातों पर बहस करना ही बंद कर दिया था. कई बार तो वह उस के सामने मौन व्रत ही धारण कर लेती.

सिनेमाहाल में नई फिल्म लगी थी. मीता बोली, ‘‘निखिल, मैं टिकट बुक करा देती हूं. चलो न फिल्म देख कर आते हैं.’’

‘‘तुम किसी और के साथ देख आओ मीता, मेरे पास बहुत काम है,’’ कह निखिल करवट बदल कर सो गया.

मीता ने उसे झंझोड़ कर बोला, ‘‘किस के साथ देख आऊं मैं फिल्म? कौन है मेरा तुम्हारे सिवा?’’

निखिल चिढ़ कर बोला, ‘‘जाओ न क्यों मेरे पीछे पड़ गई. बिल्डिंग में बहुत औरतें हैं. किसी के भी साथ चली जाओ वरना कोई किट्टी जौइन कर लो… मैं ने तुम्हें कितनी बार बताया कि मुझे हिंदी फिल्में पसंद नहीं.’’

मीता उस की बात सुन एक शब्द न बोली और अपनी पनीली आंखों को पोंछ मुंह ढक कर सो गई. आज मीता को अपने विवाह के शुरुआती महीनों की रातें याद हो आईं. कितनी असहज सी होती थी वह जब नया विवाह होते ही निखिल रात को उसे पोर्न फिल्में दिखाता था. वह निखिल का मन रखने को फिल्म तो देख लेती थी पर उसे उन फिल्मों से बहुत घिन आती थी.

कई बार थके होने का बहाना बना कर सोने की कोशिश भी करती, लेकिन निखिल अकसर उस पर दबाव बनाते हुए कहा करता कि इफ यू टेक इंट्रैस्ट यू विल ऐंजौय देम. वह अकसर जब फिल्म लगाता वह नानुकर करती पर निखिल किसी न किसी तरह उसे फिल्म देखने को राजी कर ही लेता. उस की खुशी में ही अपनी खुशी समझती.

कई बार तो वह सैक्स के दौरान भी वही चाहता जो पोर्न स्टार्स किया करतीं. मीता को लगता क्या यही विवाह है और यही प्यार का तरीका भी? उस ने तो कभी सोचा भी न था कि विवाहोपरांत का प्यार दिली प्यार से इतना अलग होगा, लेकिन वह इन 2 बरसों में पूरी तरह से निखिल के मन के सांचे में ढल तो गई थी, लेकिन इस सब के बावजूद निखिल क्यों उखड़ाउखड़ा रहता है.

मीता को मन ही मन दुख होने लगा था कि जिस निखिल के प्यार में वह पगलाई सी रहती है, उसे मीता की जरा भी फिक्र नहीं शायद… माना कि पैसा जरूरी है पर पैसा सब कुछ तो नहीं होता. कल तक हंसमुख स्वभाव वाले निखिल के बरताव में इतना फर्क कैसे आ गया, वह समझ ही न पाई.

निखिल अपने लैपटौप पर काम करता तो मीता उस पर ध्यान देने लगी. उस ने थोड़ा से देखा तो पाया कि वह तो अपने कालेज के सहपाठियों से चैट करता.

एक दिन उस से रहा न गया तो बोल पड़ी, ‘‘निखिल, मैं ने तुम्हारा साथ पाने के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ दी, पर तुम्हें मेरे लिए फुरसत नहीं और पुराने दोस्तों से चैट के लिए फुरसत है’’

निखिल तो जैसे गुस्से में आगबबूला हो उठा. चीख कर बोला, ‘‘जाओ फिर से कर लो नौकरी… कम से कम हर वक्त की बकबक से पीछा तो छूटेगा.’’

यह सुन मीता बोली, ‘‘तुम ने ही कहा था न मुझे नौकरी छोड़ने के लिए ताकि हम दोनों साथ में ज्यादा वक्त बिता सकें, लेकिन तुम्हें तो शायद मेरा साथ पसंद ही नहीं… पत्नी जो ठहरी… और जब मुझे नौकरी छोड़े 2 वर्ष बीत गए तो तुम कह रहे हो मैं फिर शुरू कर दूं ताकि तुम आजाद रहो.’’

मीता निखिल के बरताव से टूट सी गई थी. सारा दिन इसी उधेड़बुन में लगी रही कि उस की गलती क्या है? आज तक उस ने वही किया जो निखिल ने चाहा. फिर भी निखिल उसे क्यों ठुकरा देता है?

अब मीता अकसर निखिल के लैपटौप पर नजर रखती. कई बार चोरीछिपे उस का लैपटौप भी देखती. धीरेधीरे उस ने समझ लिया कि वह स्वयं ही निखिल के बंधन में जबरदस्ती बंधी है, निखिल तो किसी तरह का बंधन चाहता ही नहीं.

एक पुरुष को जीवन में सिर्फ 3 चीजों की ही तो जरूरत होती है- अच्छा खाना, अच्छा पैसा और सैक्स, जिन में खाना तो वह बना ही देती है वरना बड़ेबड़े रैस्टोरैंट तो हैं ही जिन में वह अपने क्लाइंट्स के साथ अकसर जाता है. दूसरी चीज है पैसा जो वह स्वयं कमा ही रहा है और पैसे के लिए तो उलटा मीता ही निखिल पर निर्भर है. तीसरी चीज है सैक्स. वैसे तो मीता उस के लिए जब चाहे हाजिर है, आखिर उसे तो पत्नी फर्ज निभाना है. फिर भी निखिल को कहां जरूरत है मीता की.

कितनी साइट्स हैं जहां न जाने कितनी तरह के वीडियो हैं, जिन में उन छरहरी पोर्न स्टार्स को देख कर कोई भी उत्तेजित हो जाए. उस के पास तो मन बहलाने के पर्याप्त साधन हैं ही. कहने को विवाह का बंधन प्रेम की डोर से बंधा है, लेकिन हकीकत तो यह है कि यह जरूरत की डोर है, जो इस रिश्ते को बांधे रखती है या फिर बच्चे जो स्वत: ही इस रिश्ते में प्यार पैदा कर देते हैं जिन के लिए निखिल राजी नहीं.

उदास सी खिड़की के साथ बने प्लैटफौर्म पर बैठी थी कि तभी घंटी बजी. उस ने झट से अपने बालों को आईने में देख कर ठीक किया. फिर खुद को सहज करते हुए दरवाजा खोला. सामने वाले फ्लैट की पड़ोसिन अमिता दरवाजे पर थी. बोली, ‘‘मेरे बच्चे का पहला जन्मदिन है, आप सभी जरूर आएं,’’ और निमंत्रणपत्र थमा गई.

अगले दिन मीता अकेली ही जन्मदिन की पार्टी में पहुंच गई. वहां बच्चों के लिए पपेट शो वाला आया था. बच्चे उस का शो देख कर तालियां बजाबजा कर खुश हो रहे थे.

पपेट शो वाला अपनी उंगलियों में बंधे धागे उंगलियों से घुमाघुमा कर लपेटखोल रहा था जिस कारण धागों में कभी खिंचाव पैदा होता तो कभी ढील और उस के इशारों पर नाचती कठपुतली, न होंठ हिलाती न ही मन की करती, बस जैसे उस का मदारी नचाता, नाचती.

आज मीता को अपने हर सवाल का जवाब मिल गया था. वह निखिल के लिए एक कठपुतली ही तो थी. अब तक दोनों के बीच जो आकर्षण और खिंचाव महसूस करती रही, वह उस अदृश्य डोर के कारण ही तो था, जिस से वह निखिल के साथ 7 फेरों की रस्म निभा बंध गई थी और उस डोरी में खिंचाव निखिल की पसंदनापसंद का ही तो था. वह नादान उसे प्यार का आकर्षण बल समझ रही थी. विवाहोपरांत वह निखिल के इशारों पर नाच ही तो रही थी. निखिल ने तो कभी उस के मन की सुध ली ही नहीं.

मीता ने गर्दन हिलाई मानो कह रही हो अब समझी निखिल, अगले दिन उस ने पुराने दफ्तर में फोन पर अपनी बौस से बात की. बौस ने कहा, ‘‘ठीक मीता, तुम फिर से दफ्तर आना शुरू कर सकती हो.’’ मीता अपनी राह पर अकेली चल पड़ी.

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