निर्णय आपका : सास से परेशान बेचारे दामाद की कहानी

संसार में शायद मुझ से अधिक कोई बदनसीब नहीं होगा. विवाह में सब को दहेज में गाड़ी, सोफा, फ्रिज मिलता है, सुंदर पत्नी घर आती है, लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ. हमारा विवाह हुआ, पत्नी भी आई और दहेज में सास मिल गई.

हम ने सोचा 1-2 दिन की परेशानी होगी सो भोग लो, किंतु हमारी सोच एकदम गलत साबित हुई. हमें पत्नीजी ने बताया कि आप की सास को यहां का हवापानी काफी जम गया है सो वह अब यहीं रहेंगी. यहां की जलवायु से उन का ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया है.

हम ने सुना तो हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ गया, लेकिन यदि विरोध करते तो तलाक की नौबत आ जाती. हो सकता है ससुराल पक्ष के व्यक्ति दहेज लेने का, प्रताड़ना का मुकदमा ठोंक देते. इसलिए मन मार कर हम ने यह सोच कर कि आज का दौर एक पर एक फ्री का है, सास को भी स्वीकार कर लिया.

2-3 माह तक दिल पर पत्थर रख कर हम अपनी सास को सहन करते रहे, लेकिन सोचा कि आखिर यह छाती पर पत्थर रख कर हम कब तक जीवित रह पाएंगे? सो हम ने पत्नीजी से सास की पसंद एवं नापसंद वस्तुओं को जान लिया. हमारी सास को कुत्ते, बिल्ली से सख्त नफरत थी. बचपन में उन की मां का स्वर्गवास कुतिया के काटने से हुआ था. पिताजी का नरकवास बिल्ली के पंजा मारने से हुआ था. हम ने भी मन ही मन ठान लिया कि कुत्ता, बिल्ली जल्दी से लाएंगे ताकि सासूजी प्रस्थान कर जाएं और हम अपनी जिंदगी को सुचारु रूप से चला सकें.

हम ने अपने अभिन्न मित्र मटरू से अपनी समस्या बताई और वह महल्ले से एक खजिया कुत्ते का पिल्ला और एक मरियल बिल्ली को ले आए. हम उन्हें खुशीखुशी झोले में डाल कर अपने घर ले आए. हमारी पत्नी ने देखा तो दहाड़ मार कर पीछे हट गई. सासूमां ने बेटी की दहाड़ सुनी तो दौड़ती आईं. हमारे झोले से खजिया कुत्ता एवं बिल्ली को देखा. हम खुश हो गए कि अब तो हमारी सास आधे घंटे बाद घर छोड़ कर प्रस्थान कर जाएंगी लेकिन मनुष्य जो सोचता है वह कब पूरा होता है?

सास ने उन 2 निरीह प्राणियों को देखा तो चच्चच् कर के वहीं जमीन पर बैठ गईं और हमारी ओर बड़ी दया की नजरों से देख कर कहा, ‘‘सच में दामाद हो तो तुम जैसा.’’

‘‘क्यों, ऐसा हम ने क्या कर दिया सासूमां?’’ हम ने प्रसन्नता को मन में छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे, दामादजी, तुम इन निरीह प्राणियों को ऐसी स्थिति में उठा लाए, ये काम बिरले व्यक्ति ही कर सकते हैं. मैं पहले जानवरों से बहुत नफरत करती थी, लेकिन जब से जानवरों की रक्षा करने वाली संस्था की सदस्य बनी हूं तब से  मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. तुम खड़े क्यों हो…आटोरिकशा लाओ?’’ सासूजी ने आदेश दिया.

‘‘आटोरिकशा किसलिए?’’

‘‘अस्पताल चलना है.’’

‘‘क्यों? यह (पत्नीजी उठ बैठी थीं) तो ठीकठाक हैं?’’ हम ने भोलेपन से कहा.

‘‘दामादजी, इन कुत्तेबिल्ली के बच्चों को ले कर चलना है, जल्दी करो,’’ सासूमां ने आर्डर दिया. हम दिल पर पत्थर रख कर चले गए. आगे की घटना बड़ी छोटी है.

आटोरिकशा आया, उस के रुपए हम ने दिए. वेटनरी डाक्टर को दिखाया उस के रुपए हम ने दिए. जानवरों के लिए 1 हजार रुपए की दवा खरीदी वह रुपए देतेदेते हमें चक्कर आने लगे थे. कुल जमा 1,500 रुपयों पर हमें हमारे दोस्त मटरू ने उतार दिया था. घर ला कर उन जानवरों के लिए दूध, ब्रेड की व्यवस्था भी की, और जब ओवर बजट होने लगा तो एक रात चुपके से हम ने दोनों को थैली में बंद कर के मटरू के?घर में छोड़ दिया.

हमारी सास जब सुबह उठीं तो बड़ी दुखी थीं कि पालतू जानवर कहां चले गए? हमारा दुर्भाग्य देखो कि मटरू स्कूटर से सुबह ही आ धमका, ‘‘अरे, गोपाल, ये दोनों मेरे घर आ गए थे. मैं इन्हें ले आया हूं,’’ कह कर उस ने मुझे शादी के तोहफे की तरह कुत्ते का पिल्ला और बिल्ली दी. सासूमां खुशी से झूम उठीं. हम मन ही मन कुढ़ कर रह गए. आखिर किस से अपने मन की व्यथा कहते?

कुत्ते का पिल्ला ठीक हो गया था. उस की खुराक भी हमारी सास की खुराक की तरह बढ़ रही थी. हम खून के आंसू रो रहे थे. सास को जमे 6 माह हो चुके थे. पत्नी थीं कि उन्हें घर भेजने का नाम ही नहीं ले रही थीं.

हम अपने दोस्त मटरू के पास गए. उस के सामने खूब रोएधोए. उसे हमारी दशा पर दया आ गई. उस ने मुझे एक प्लान बताया जिसे सुन कर हम खुश हो गए. उस प्लान में एक ही गड़बड़ी थी कि श्रीमती को ले कर मुझे बाहर जाना था, लेकिन वह सास के बिना माफ करना, अपनी मां के बिना जाने को तैयार ही नहीं होती थीं.

हम ने अपने मित्र मटरू को वचन दिया कि उस की दी गई तारीख को केवल सास ही घर में रहेंगी. मैं और पत्नी सिनेमा देखने जाएंगे. इन 3-4 घंटों में वह काम निबटा कर सब ठीक कर लेगा.

हम ने मौका देख कर पत्नी की प्रशंसा की, उस के साथ कुछ पल तन्हातन्हा गुजारने की मनोकामना प्रकट की. वह थोड़ा लजाई, थोड़ा घबराई, मां की याद भी आई, लेकिन हमारे प्यार ने जोर मारा और वह तैयार हो गई कि मैं और वह शाम को फिल्म देखने चलेंगे.

हालांकि सासूमां को अकेला छोड़ कर जाने पर उन्होंने आपत्ति प्रकट की लेकिन पत्नी ने उन्हें समझाया कि टिक्कू कुत्ता, दीयापक बिल्ली?है इसलिए अकेलापन खलेगा नहीं. बुझे मन से उन्होंने भी जाने की इजाजत दे दी.

हम ने खट से मटरू को मोबाइल से यह खबर दे दी कि हम शाम को निकल रहे हैं, देर से लौटेंगे. रात 10 से 1 के बीच सासूमां का काम निबटा ले. मटरू भी तैयार हो गया?था. हम भी खुश थे कि चलो, बला टलेगी, लेकिन पति हमेशा से ही बदकिस्मत पैदा होता है.

प्लान यह था कि मटरू रात में साढ़े 10 बजे के बीच घर में प्रवेश करेगा और मुंह पर कपड़ा बांध कर सासूमां को डरा कर चोरी कर लेगा. सासूमां डर के मारे या तो भाग जाएंगी या हमारे घर से हमेशा के लिए बायबाय कर लेंगी.

हम पत्नी को 4 घंटे की एक फिल्म दिखलाने शहर से बाहर ले गए. रात 10 बजे फिल्म छूटी. हम ने भोजन किया. फोन से मटरू को खबर भी कर दी कि जल्दी से अपने आपरेशन को अंजाम दे. हमारी पत्नी अपनी मां को ले कर काफी चिंतित थी. हम ने आटोरिकशा वाले को पटा कर 50 रुपए अधिक दिए ताकि वह घर पर लंबे रास्ते से धीमी गति से पहुंचे.

रात साढ़े 12 बजे जब हम अपने घर पहुंचे तो घर के बाहर भीड़ जमा थी. पुलिस की एक वैन खड़ी थी. चंद पुलिस वाले भी थे. हमारा माथा ठनका कि मटरू ने कहीं जल्दबाजी में सासूमां का मर्डर तो नहीं कर दिया?

हम जब आटोरिकशा से उतरे तो महल्ले के निवासी काफी घबराए थे. पत्नी अपनी मां की याद में रोने  लगी तभी अंदर से सासूमां पुलिस इंस्पेक्टर के साथ बाहर हंसतीखिलखिलाती निकलीं. उन्हें हंसते देख हमारा माथा ठनका कि भैया आज मटरू पकड़ा गया और हमारा प्लान ओपन हुआ. बस, तलाक के साथसाथ पूरा महल्ला थूथू करेगा सो अलग. सब कहेंगे, ‘‘ऐसे टुच्चे दोस्त हैं जो ऐसी सलाह देते हैं.’’

हम शर्म से जमीन में गड़ गए. मन ही मन विचार किया, कभी ऐसा गंदा प्लान नहीं बनाएंगे. अचानक हमारे कान में मटरू की आवाज सुनाई पड़ी. देखा कि वह तो भीड़ में खड़ा तमाशा देख रहा है. अब हमारी बारी चक्कर खा कर गिरने की आ गई थी.

हम हिम्मत कर के आगे बढ़े तो देखते हैं कि पुलिस एक चोर को पकड़ कर बाहर आ रही थी. हमें देख कर सासूमां ने कहा, ‘‘लो दामादजी, इसे पकड़ ही लिया, पूरा शहर इस की चोरियों से परेशान था.’’

पुलिस इंस्पेक्टर ने हमें बधाई दी और कहा, ‘‘आप की सास वाकई बड़ी हिम्मती हैं. इन्होंने एक शातिर चोर को पकड़वाया है. इन्हें सरकार से इनाम तो मिलेगा ही लेकिन हमें आज आप के भाग्य पर ईर्ष्या हो रही है कि ऐसी सास हमारे भाग्य में क्यों नहीं थी?’’ हम ने सुना तो गद्गद हो गए. हमारी पत्नी ने लपक कर अपनी मां को गले से लगा लिया.

किस्सा यों हुआ कि हमारे मटरू दोस्त को आने में देर हो गई थी. उस की जगह उस रात अचानक असली चोर घुस आया. सासूमां ने पुराना घी खाया था, सो बिना घबराए अपने कुत्ते के साथ उसे धोबी पछाड़ दे दी. महल्ले वालों को आवाज दे कर बुलाया, पुलिस आ गई. इस तरह सासूमां ने एक शातिर चोर को पकड़ लिया. अगले दिन समाचारपत्रों में फोटो सहित सासूमां का समाचार छपा हुआ था.

अब आप ही विचार करें, ऐसी प्रसिद्ध सासूमां को कौन घर से जाने को कहेगा? आप ही निर्णय करें कि हम भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली? आप जो भी निर्णय लें लेकिन हमारी सासूमां जरूर सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसा दामाद मिला…

चिंता की कोई बात नहीं: क्या सुकांता लौटेगी ससुराल

लेखिका प्रतिमा डिके

आज अगर कोई मुझ से पूछे कि दुनिया का सब से सुखी व्यक्ति कौन है? तो सीना तान कर मेरा जवाब होगा, मैं. और यह बात सच है कि मैं सुखी हूं. बहुत सुखी हूं, औसत से कुछ अधिक ही रूप, औसत से कुछ अधिक ही गुण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा, मनपसंद पत्नी, समझदार, स्वस्थ और प्यारे बच्चे, शहर में अपना मकान.

अब बताइए, जिसे सुख कहते हैं वह इस से अधिक या इस से अच्छा क्याक्या हो सकता है? यानी मेरी सुख की या सुखी जीवन की अपेक्षाएं इस से अधिक कभी थीं ही नहीं. लेकिन 6 माह पूर्व मेरे घर का सुखचैन मानो छिन गया.

सुकांता यानी मेरी पत्नी, अपने मायके में क्या पत्र लिखती, मुझे नहीं पता. लेकिन उस के मायके से जो पत्र आने लगे थे उन में उस की बेचारगी पर बारबार चिंता व्यक्त की जाने लगी थी. जैसे :

‘‘घर का काम बेचारी अकेली औरत  करे तो कैसे और कहां तक?’’

‘‘बेचारी सुकांता को इतना तक लिखने की फुरसत नहीं मिल रही है कि राजीखुशी हूं.’’

‘‘इन दिनों क्या तबीयत ठीक नहीं है? चेहरे पर रौनक ही नहीं रही…’’ आदि.

शुरूशुरू में मैं ने उस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया. मायके वाले अपनी बेटी की चिंता करते हैं, एक स्वाभाविक बात है. यह मान कर मैं चुप रहा. लेकिन जब देखो तब सुकांता भी ताने देने लगी, ‘‘प्रवीणजी को देखो, घर की सारी खरीदफरोख्त अकेले ही कर लेते हैं. उन की पत्नी को तो कुछ भी नहीं देखना पड़ता…शशिकांतजी की पसंद कितनी अच्छी है. क्या गजब की चीजें लाते हैं. माल सस्ता भी होता है और अच्छा भी.’’

कई बार तो वह वाक्य पूरा भी नहीं करती. बस, उस के गरदन झटकने के अंदाज से ही सारी बातें स्पष्ट हो जातीं.

सच तो यह है कि उस की इसी अदा पर मैं शुरू में मरता था. नईनई शादी  हुई थी. तब वह कभी पड़ोसिन से कहती, ‘‘क्या बताऊं, बहन, इन्हें तो घर के काम में जरा भी रुचि नहीं है. एक तिनका तक उठा कर नहीं रखते इधर से उधर.’’ तो मैं खुश हो जाता. यह मान कर कि वह मेरी प्रशंसा कर रही है.

लेकिन जब धीरेधीरे यह चित्र बदलता गया. बातबात पर घर में चखचख होने लगी. सुकांता मुझे समझने और मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं थी. फिर तो नौबत यहां तक आ गई कि मेरा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ाने लगा.

अब आप ही बताइए, जो काम मेरे बस का ही नहीं है उसे मैं क्यों और कैसे करूं? हमारे घर के आसपास खुली जगह है. वहां बगीचा बना है. बगीचे की देखभाल के लिए बाकायदा माली रखा हुआ है. वह उस की देखभाल अच्छी तरह से करता है. मौसम में उगने वाली सागभाजी और फूल जबतब बगीचे से आते रहते हैं.

लेकिन मैं बालटी में पानी भर कर पौधे नहीं सींचता, यही सुकांता की शिकायत है, वह चाहे बगीचे में काम न करे. लेकिन हमारे पड़ोसी सुधाकरजी बगीचे में पूरे समय खुरपी ले कर काम करते हैं. इसलिए सुकांता चाहती है कि मैं भी बगीचे में काम करूं.

मुझे तो शक है कि सुधाकरजी के दादा और परदादा तक खेतिहर मजदूर रहे होंगे. एक बात और है, सुधाकरजी लगातार कई सिगरेट पीने के आदी हैं. खुरपी के साथसाथ उन के हाथ में सिगरेट भी होती है. मैं तंबाकू तो क्या सुपारी तक नहीं खाता. लेकिन सुकांता इन बातों को अनदेखा कर देती है.

शशिकांत की पसंद अच्छी है, मैं भी मानता हूं. लेकिन उन की और भी कई पसंद हैं, जैसे पत्नी के अलावा उन के और भी कई स्त्रियों से संबंध हैं. यह बात भी तो लोग कहते ही हैं.

लेदे कर सुकांता को बस, यही शिकायत है, ‘‘यह तो बस, घर के काम में जरा भी ध्यान नहीं देते, जब देखो, बैठ जाएंगे पुस्तक ले कर.’’

कई बार मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं. मैं मुक्त मन से घर में पसर कर बैठूं तो उसे अच्छा नहीं लगता. दिन भर दफ्तर में कुरसी पर बैठेबैठे अकड़ जाता हूं. अपने घर में आ कर क्या सुस्ता भी नहीं सकता? मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ने पर, मेरे द्वारा शास्त्रीय संगीत सुनने पर उसे आपत्ति है. इन्हीं बातों से घर में तनाव रहने लगा है.

ऐसे ही एक दिन शाम को सुकांता किसी सहेली के घर गई थी. मैं दफ्तर से लौट कर अपनी कमीज के बटन टांक रहा था. 10 बार मैं ने उस से कहा था लेकिन उस ने नहीं किया तो बस, नहीं किया. मैं बटन टांक रहा था कि सुकांता की खास सहेली अपने पति के साथ हमारे घर आई.

पर शायद आप पूछें कि यह खास सखी कौन होती है? सच बताऊं, यह बात अभी तक मेरी समझ में भी नहीं आई है. हर स्त्री की खास सखी कैसे हो जाती है? और अगर वह खास सखी होती है तो अपनी सखी की बुराई ढूंढ़ने में, और उस की बुराई करने में ही उसे क्यों आनंद आता है? खैर, जो भी हो, इस खास सखी के पति का नाम भी सुकांता की आदर्श पतियों की सूची में बहुत ऊंचे स्थान पर है. वह पत्नी के हर काम में मदद करते हैं. ऐसा सुकांता कहती है.

मुझे बटन टांकते देख कर खास सखी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘हाय राम, आप खुद अपने कपड़ों की मरम्मत करते हैं? हमें तो अपने साहब को रोज पहनने के कपड़े तक हाथ में देने पड़ते हैं. वरना यह तो अलमारी के सभी कपड़े फैला देते हैं कि बस.’’

सराहना मिश्रित स्वर में खास सखी का उलाहना था. मतलब यह कि मेरे काम की सराहना और अपने पति को उलाहना था. और बस, यही वह क्षण था जब मुझे अलीबाबा का गुफा खोलने वाला मंत्र, ‘खुल जा सिमसिम’ मिल गया.

मैं ने बड़े ही चाव और आदर से खास सखी और उस के पति को बैठाया. और फिर जैसे हमेशा ही मैं वस्त्र में बटन टांकने का काम करता आया हूं, इस अंदाज से हाथ का काम पूरा किया. कमीज को बाकायदा तह कर रखा और झट से चाय बना लाया.

सच तो यह है कि चाय मैं ने नौकर से बनवाई थी और उसे पिछले दरवाजे से बाहर भेज दिया था. खास सखी और उस के पति ‘अरे, अरे, आप क्यों तकलीफ करते हैं?’ आदि कहते ही रह गए.

चाय बहुत बढि़या बनी थी, केतली पर टिकोजी विराजमान थी. प्लेट में मीठे बिस्कुट और नमकीन थी. इस सारे तामझाम का नतीजा भी तुरंत सामने आया. खास सखी के चेहरे पर मेरे लिए अदा से श्रद्धा के भाव उमड़ते साफ देखे जा सकते थे. खास सखी के पति का चेहरा बुझ गया.

मैं मन ही मन खुश था. इन्हीं साहब की तारीफ सुकांता ने कई बार मेरे सामने की थी. तब मैं जलभुन गया था, आज मुझे बदला लेने का पूरापूरा सुख मिला.

कुछ दिन बाद ही सुकांता महिलाओं की किसी पार्टी से लौटी तो बेहद गुस्से में थी. आते ही बिफर कर बोली, ‘‘क्यों जी? उस दिन मेरी सहेली के सामने तुम्हें अपने कपड़ों की मरम्मत करने की क्या जरूरत थी? मैं करती नहीं हूं तुम्हारे काम?’’

‘‘कौन कहता है, प्रिये? तुम ही तो मेरे सारे काम करती हो. उस दिन तो मैं यों ही जरा बटन टांक रहा था कि तुम्हारी खास सहेली आ धमकी मेरे सामने. मैं ने थोड़े ही उस के सामने…’’

‘‘बस, बस. मुझे कुछ नहीं सुनना…’’

गुस्से में पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में चली गई. बाद में पता चला कि भरी पार्टी में खास सखी ने सुकांता से कहा था कि उसे कितना अच्छा पति मिला है. ढेर सारे कपड़ों की मरम्मत करता है. बढि़या चाय बनाता है. बातचीत में भी कितना शालीन और शिष्ट है. कहां तो सात जनम तक व्रत रख कर भी ऐसे पति नहीं मिलते, और एक सुकांता है कि पूरे समय पति को कोसती रहती है.

अब देखिए, मैं ने तो सिर्फ एक ही कमीज में 2 बटन टांके थे, लेकिन खास सखी ने ढे…र सारे कपड़े कर दिए तो मैं क्या कर सकता हूं? समझाने गया तो सुकांता और भी भड़क गई. चुप रहा तो और बिफर गई. समझ नहीं पाया कि क्या करूं.

सुकांता का गुस्सा सातवें आसमान पर था. वह बच्चों को ले कर सीधी मायके चली गई. मैं ने सोचा कि 15 दिन में तो आ ही जाएगी. चलो, उस का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा. घर में जो तनाव बढ़ रहा था वह भी खत्म हो जाएगा. लेकिन 1 महीना पूरा हो गया. 10 दिन और बीत गए, तब पत्नी की और बच्चों की बहुत याद आने लगी.

सच कहता हूं, मेरी पत्नी बहुत अच्छी है. इतने दिनों तक हमारी गृहस्थी की गाड़ी कितने सुचारु रूप से चल रही थी, लेकिन न जाने यह नया भूत कैसे सुकांता पर सवार हुआ कि बस, एक ही रट लगाए बैठी है कि यह घर में बिलकुल काम नहीं करते. बैठ जाते हैं पुस्तक ले कर, बैठ जाते हैं रेडियो खोल कर.

अब आप ही बताइए, हफ्ते में एक बार सब्जी लाना क्या काफी नहीं है? काफी सब्जी तो बगीचे से ही मिल जाती है. जो घर पर नहीं है वह बाजार से आ जाती है. और रोजरोज अगर सब्जी मंडी में धक्के खाने हों तो घर में फ्रिज किसलिए रखा है?

लेकिन नहीं, वरुणजी झोला ले कर मंडी जाते हैं, तो मैं भी जाऊं. अब वरुणजी का घर 2 कमरों का है. आसपास एक गमला तक रखने की जगह नहीं है. घर में फ्रिज नहीं है, इसलिए मजबूरी में जाते हैं. लेकिन मेरी तुलना वरुणजी से करने की क्या तुक है?

बच्चे हमारे समझदार हैं. पढ़ने में भी अच्छे हैं, लेकिन सुकांता को शिकायत है कि मैं बच्चों को पढ़ाता ही नहीं. सुकांता की जिद पर बच्चों को हम ने कानवेंट स्कूल में डाला. सुकांता खुद अंगरेजी के 4 वाक्य भी नहीं बोल पाती. बच्चों की अंगरेजी तोप के आगे उस की बोलती बंद हो जाती है.

यदाकदा कोई कठिनाई हो तो बच्चे मुझ से पूछ भी लेते हैं. फिर बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं है. नहीं तो मैं अफसर बनने के बजाय अध्यापक ही बन जाता. अपना अज्ञान बच्चों पर प्रकट न हो इसीलिए मैं उन की पढ़ाई से दूर ही रहता हूं. शायद इसीलिए उन के मन में मेरे लिए आदर भी है. लेकिन शकीलजी अपने बच्चों को पढ़ाते हैं. रोज पढ़ाते हैं तो बस, सुकांता का कहना है मैं भी बच्चों को पढ़ाऊं.

पूरे डेढ़ महीने बाद सुकांता का पत्र आया. फलां दिन, फलां गाड़ी से आ रही हूं. साथ में छोटी बहन और उस के पति भी 7-8 दिन के लिए आ रहे हैं.

मैं तो जैसे मौका ही देख रहा था. फटाफट मैं ने घर का सारा सामान देखा. किराने की सूची बनाई. सामान लाया. महरी से रसोईघर की सफाई करवाई. डब्बे धुलवाए. सामान बिनवा कर, चुनवा कर डब्बों में भर दिया.

2 दिन का अवकाश ले कर माली और महरी की मदद से घर और बगीचे की, कोनेकोने तक की सफाई करवाई. दीवान की चादरें बदलीं. परदे धुलवा दिए. पलंग पर बिछाने वाली चादरें और तकिए के गिलाफ धुलवा लिए. हाथ पोंछने के छोटे तौलिए तक साफ धुले लगे थे. फ्रिज में इतनी सब्जियां ला कर रख दीं जो 10 दिन तक चलतीं. 2-3 तरह का नाश्ता बाजार से मंगवा कर रखा, दूध जालीदार अलमारी में गरम किया हुआ रखा था. फूलों के गुलदस्ते बैठक में और खाने की मेज पर महक रहे थे.

इतनी तैयारी के बाद मैं समय से स्टेशन पहुंचा. गाड़ी भी समय पर आई. बच्चों का, पत्नी का, साली का, उस के पति का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया. रास्ते में सुकांता ने पूछा, (स्वर में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं था) ‘‘क्यों जी, महरी तो आ रही थी न, काम करने?’’

मैं ने संक्षिप्त में सिर्फ ‘हां’ कहा.

बहन की तरफ देख कर (उसी रूखे स्वर में) वह फिर बोली, ‘‘डेढ़ महीने से मैं घर पर नहीं थी. पता नहीं इतने दिनों में क्या हालत हुई होगी घर की? ठीकठाक करने में ही पूरे 3-4 दिन लग जाएंगे.’’

मैं बिलकुल चुप रहा. रास्ते भर सुकांता वही पुराना राग अलापती रही, ‘‘इन को तो काम आता ही नहीं. फलाने को देखो, ढिकाने को देखो’’ आदि.

लेकिन घर की व्यवस्था देख कर सुकांता की बोलती ही बंद हो गई. आगे के 7-8 दिन मैं अभ्यस्त मुद्रा में काम करता रहा जैसे सुकांता कभी इस घर में रहती ही नहीं थी. छोटी साली और उस के पति इस कदर प्रभावित थे कि जातेजाते सालीजी ने दीदी से कह दिया, ‘‘दीदी, तुम तो बिना वजह जीजाजी को कोसती रहती हो. कितना तो बेचारे काम करते हैं.’’

सालीजी की विदाई के बाद सुकांता चुप तो हो गई थी. लेकिन फिर भी भुनभुनाने के लहजे में उस के कुछ वाक्यांश कानों में आ ही जाते. इसी समय मेरी बूआजी का पत्र आया. वह तीर्थयात्रा पर निकली हैं और रास्ते में मेरे पास 4 दिन रुकेंगी.

मेरी बूआजी देखने और सुनने लायक चीज हैं. उम्र 75 वर्ष. कदकाठी अभी भी मजबूत. मुंह के सारे के सारे दांत अभी भी हैं. आंखों पर ऐनक नहीं लगातीं और कान भी बहुत तीखे हैं. पुराने आचारव्यवहार और विचारों से बेहद प्रेम रखने वाली महिला हैं. मन की तो ममतामयी, लेकिन जबान की बड़ी तेज. क्या छोटा, क्या बड़ा, किसी का मुलाहिजा तो उन्होंने कभी रखा ही नहीं. मेरे पिताजी आज तक उन से डरते हैं.

मेरी शादी इन्हीं बूआजी ने तय की थी. गोरीचिट्टी सुकांता उन्हें बहुत अच्छी लगी थी. इतने बरसों से उन्हें मेरी गृहस्थी देखने का मौका नहीं मिला. आज वह आ रही थीं. सुकांता उन की आवभगत की तैयारी में जुट गई थी.

बूआजी को मैं घर लिवा लाया. बच्चों ने और सुकांता ने उन के पैर छुए. मैं ने अपने उसी मंत्र को दोहराना शुरू किया. यों तो घर में बिस्तर बिछाने का, समेटने का, झाड़ ू  लगाने का काम महरी ही करती है, लेकिन मैं जल्दी उठ कर बूआजी की चाकरी में भिड़ जाता. उन का कमरा और पूजा का सामान साफ कर देता, बगीचे से फूल, दूब, तुलसी ला कर रख देता. चंदन को घिस देता. अपने हाथ से चाय बना कर बूआजी को देता.

और तो और, रोज दफ्तर जातेजाते सुकांता से पूछता, ‘‘बाजार से कुछ मंगाना तो नहीं है?’’ आते समय फल और मिठाई ले आता. दफ्तर जाने से पहले सुकांता को सब्जी आदि साफ करने या काटने में मदद करता. बूआजी को घर के कामों में मर्दों की यह दखल देने की आदत बिलकुल पसंद नहीं थी.

सुकांता बेचारी संकोच से सिमट जाती. बारबार मुझे काम करने को रोकती. बूआजी आसपास नहीं हैं, यह देख कर दबी आवाज में मुझे झिड़की भी देती. और मैं उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए, बूआजी आसपास हैं, यह देख कर उस से कहता, ‘‘तुम इतना काम मत करो, सुकांता, थक जाओगी, बीमार हो जाओगी…’’

बूआजी खूब नाराज होतीं. अपनी बुलंद आवाज में बहू को खूब फटकारतीं, ताने देतीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को कामकाज की आदत ही नहीं है. एक हम थे. चूल्हा जलाने से ले कर घर लीपने तक के काम अकेले करते थे. यहां गैस जलाओ तो थकान होती है और यह छोकरा तो देखो, क्या आगेपीछे मंडराता है बीवी के? उस के इशारे पर नाचता रहता है. बहू, यह सब मुझे पसंद नहीं है, कहे देती हूं…’’

सुकांता गुस्से से जल कर राख हो जाती, लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी.

ऐसे ही एक दिन जब महरी नहीं आई तो मैं ने कपड़ों के साथ सुकांता की साड़ी भी निचोड़ डाली. बूआजी देख रही हैं, इस का फायदा उठाते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘कपड़े मैं ने धो डाले हैं. तुम फैला देना, सुकांता…मुझे दफ्तर को देर हो रही है.’’

‘‘जोरू का गुलाम, मर्द है या हिजड़ा?’’ बूआजी की गाली दनदनाते हुए सीधे सुकांता के कानों में…

मैं अपना बैग उठा कर सीधे दफ्तर को चला.

बूआजी अपनी काशी यात्रा पूरी कर के वापस अपने घर पहुंच गई हैं. मैं शाम को दफ्तर से घर लौटा हूं. मजे से कुरसी पर पसर कर पुस्तक पढ़ रहा हूं. सुकांता बाजार गई है. बच्चे खेलने गए हैं. चाय का खाली कप लुढ़का पड़ा है. पास में रखे ट्रांजिस्टर से शास्त्रीय संगीत की स्वरलहरी फैल रही है.

अब चिंता की कोई बात नहीं है. सुख जिसे कहते हैं, वह इस के अलावा और क्या होता है? और जिसे सुखी इनसान कहते हैं, वह मुझ से बढ़ कर और दूसरा कौन होगा?

लौटते हुए: क्या हुआ सुप्रिया को गलती का एहसास

धनंजयजी का मन जाने का नहीं था, लेकिन सुप्रिया ने आग्रह के साथ कहा कि सुधांशु का नया मकान बना है और उस ने बहुत अनुरोध के साथ गृहप्रवेश के मौके पर हमें बुलाया है तो जाना चाहिए न. आखिर लड़के ने मेहनत कर के यह खुशी हासिल की है, अगर हम नहीं पहुंचे तो दीदी व जीजाजी को भी बुरा लगेगा…

‘‘पर तुम्हें तो पता ही है कि आजकल मेरी कमर में दर्द है, उस पर गरमी का मौसम है, ऐसे में घर से बाहर जाने का मन नहीं करता है.’’

‘‘हम ए.सी. डब्बे में चलेंगे…टिकट मंगवा लेते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘ए.सी. में सफर करने से मेरी कमर का दर्द और बढ़ जाएगा.’’

‘‘तो तुम सेकंड स्लीपर में चलो, …मैं अपने लिए ए.सी. का टिकट मंगवा लेती हूं,’’ सुप्रिया हंसते हुए बोली.

सुप्रिया की बहन का लड़का सुधांशु पहले सरकारी नौकरी में था, पर बहुत महत्त्वाकांक्षी होने के चलते वहां उस का मन नहीं लगा. जब सुधांशु ने नौकरी छोड़ी तो सब को बुरा लगा. उस के पिता तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने बोलना ही बंद कर दिया. तब वह अपने मौसामौसी के पास आ कर बोला था, ‘मौसाजी, पापा को आप ही समझाएं…आज जमाना तेजी से आगे बढ़ रहा है, ठीक है मैं उद्योग विभाग में हूं…पर हूं तो निरीक्षक ही, रिटायर होने तक अधिक से अधिक मैं अफसर हो जाऊंगा…पर मैं यह जानता हूं कि जिन की लोन फाइल बना रहा हूं वे तो मुझ से अधिक काबिल नहीं हैं. यहां तक कि उन्हें यह भी नहीं पता होता कि क्या काम करना है और उन की बैंक की तमाम औपचारिकताएं भी मैं ही जा कर पूरी करवाता हूं. जब मैं उन के लिए इतना काम करता हूं, तब मुझे क्या मिलता है, कुछ रुपए, क्या यही मेरा मेहनताना है, दुनिया इसे ऊपरी कमाई मानती है. मेरा इस से जी भर गया है, मैं अपने लिए क्या नहीं कर सकता?’

‘हां, क्यों नहीं, पर तुम पूंजी कहां से लाओगे?’ उस के मौसाजी ने पूछा था.

‘कुछ रुपए मेरे पास हैं, कुछ बाजार से लूंगा. लोगों का मुझ में विश्वास है, बाकी बैंक से ऋण लूंगा.’

‘पर बेटा, बैंक तो अमानत के लिए संपत्ति मांगेगा.’

‘हां, मेरे जो दोस्त साथ काम करना चाहते हैं वे मेरी जमानत देंगे,’ सुधांशु बोला था, ‘पर मौसीजी, मैं पापा से कुछ नहीं लूंगा. हां, अभी मैं जो पैसे घर में दे रहा था, वह नहीं दे पाऊंगा.’

धनंजयजी ने उस के चेहरे पर आई दृढ़ता को देखा था. उस का इरादा मजबूत था. वह दिनभर उन के पास रहा, फिर भोपाल चला गया था. रात को उन्होंने उस के पिता से बात की थी. वह आश्वस्त नहीं थे. वह भी सरकारी नौकरी में रह चुके थे, कहा था, ‘व्यवसाय या उद्योग में सुरक्षा नहीं है या तो बहुत मिल जाएगा या डूब जाएगा.’

खैर, समय कब ठहरा है…सुधांशु ने अपना व्यवसाय शुरू किया तो उस में उस की तरक्की होती ही गई. उस के उद्योग विभाग के संबंध सब जगह उस के काम आए थे. 2-3 साल में ही उस का व्यवसाय जम गया था. पहले वह धागे के काम में लगा था. फैक्टरियों से धागा खरीदता था और उसे कपड़ा बनाने वाली फैक्टरियों को भेजता था. इस में उसे अच्छा मुनाफा मिला. फिर उस ने रेडीमेड गारमेंट में हाथ डाल लिया. यहां भी उस का बाजार का अनुभव उस के काम आया. अब उस ने एक बड़ा सा मकान भोपाल के टी.टी. नगर में बनवा लिया है और उस का गृहप्रवेश का कार्यक्रम था… बारबार सुधांशु का फोन आ रहा था कि मौसीजी, आप को आना ही होगा और धनंजयजी ना नहीं कर पा रहे थे.

‘‘सुनो, भोपाल जा रहे हैं तो इंदौर भी हो आते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘क्यों?’’

‘‘अपनी बेटी रंजना के लिए वहां से भी तो एक प्रस्ताव आया हुआ है. शारदा की मां बता रही थीं…लड़का नगर निगम में सिविल इंजीनियर है, देख भी आएंगे.’’

‘‘रंजना से पूछ तो लिया है न?’’ धनंजय ने पूछा.

‘‘उस से क्या पूछना, हमारी जिम्मेदारी है, बेटी हमारी है. हम जानबूझ कर उसे गड्ढे में नहीं धकेल सकते.’’

‘‘इस में बेटी को गड्ढे में धकेलने की बात कहां से आ गई,’’ धनंजयजी बोले.

‘‘तुम बात को भूल जाते हो…याद है, हम विमल के घर गए थे तो क्या हुआ था. सब के लिए चाय आई. विमल के चाय के प्याले में चम्मच रखी हुई थी. मैं चौंक गई और पूछा, ‘चम्मच क्यों?’ तो विमल बोला, ‘आंटी, मैं शुगर फ्री की चाय लेता हूं…मुझे शुगर तो नहीं है, पर पापा को और बाबा को यह बीमारी थी इसलिए एहतियात के तौर पर…शुगर फ्री लेता हूं, व्यायाम भी करता हूं, आप को रंजना ने नहीं बताया,’ ऐसा उस ने कहा था.’’

‘‘लड़की को बीमार लड़के को दे दो. अरे, अभी तो जवानी है, बाद में क्या होगा? यह बीमारी तो मौत के साथ ही जाती है. मैं ने रंजना को कह दिया था…भले ही विमल बहुत अच्छा है,    तेरे साथ पढ़ालिखा है पर मैं जानबूझ कर यह जिंदा मक्खी नहीं निगल सकती.’’

पत्नी की बात को ‘हूं’ के साथ खत्म कर के धनंजयजी सोचने लगे, तभी यह भोपाल जाने को उत्सुक है, ताकि वहां से इंदौर जा कर रिश्ता पक्का कर सके. अचानक उन्हें अपनी बेटी रंजना के कहे शब्द याद आए, ‘पापा, चलो यह तो विमल ने पहले ही बता दिया…वह ईमानदार है, और वास्तव में उसे कोई बीमारी भी नहीं है, पर मान लें, आप ने कहीं और मेरी शादी कर दी और उस का एक्सीडेंट हो गया, उस का हाथ कट गया…तो आप मुझे तलाक दिलवाएंगे?’

तब वह बेटी का चेहरा देखते ही रह गए थे. उन्हें लगा सवाल वही है, जिस से सब बचना चाहते हैं. हम आने वाले समय को सदा ही रमणीय व अच्छाअच्छा ही देखना चाहते हैं, पर क्या सदा समय ऐसा ही होता है.

‘पापा…फिर तो जो मोर्चे पर जाते हैं, उन का तो विवाह ही नहीं होना चाहिए…उन के जीवन में तो सुरक्षा है ही नहीं,’ उस ने पूछा था.

‘पापा, मान लें, अभी तो कोई बीमारी नहीं है, लेकिन शादी के बाद पता लगता है कि कोई गंभीर बीमारी हो गई है, तो फिर आप क्या करेंगे?’

धनंजयजी ने तब बेटी के सवालों को बड़ी मुश्किल से रोका था. अंतिम सवाल बंदूक की गोली की तरह छूता उन के मन और मस्तिष्क को झकझोर गया था.

पर, सुप्रिया के पास तो एक ही उत्तर था. उसे नहीं करनी, नहीं करनी…वह अपनी जिद पर अडिग थी.

रंजना ने भोपाल जाने में कोई उत्सुकता नहीं दिखाई. वह जानती थी, मां वहां से इंदौर जाएंगी…वहां शारदा की मां का कोई दूर का भतीजा है, उस से बात चल रही है.

स्टेशन पर ही सुधांशु उन्हें लेने आ गया था.

‘‘अरे, बेटा तुम, हम तो टैक्सी में ही आ जाते,’’ धनंजयजी ने कहा.

‘‘नहीं, मौसाजी, मेरे होते आप टैक्सी से क्यों आएंगे और यह सबकुछ आप का ही है…आप नहीं आते तो कार्यक्रम का सारा मजा किरकिरा हो जाता,’’ सुधांशु बोला.

‘‘और मेहमान सब आ गए?’’ सुप्रिया ने पूछा.

‘‘हां, मौसी, मामा भी कल रात को आ गए. उदयपुर से ताऊजी, ताईजी भी आ गए हैं. घर में बहुत रौनक है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, तुम सभी के लाड़ले हो और इतना बड़ा काम तुम ने शुरू किया है, सभी को तुम्हारी कामयाबी पर खुशी है, इसीलिए सभी आए हैं,’’ सुप्रिया ने चहकते हुए कहा.

‘‘हां, मौसी, बस आप का ही इंतजार था, आप भी आ गईं.’’

सुधांशु का मकान बहुत बड़ा था. उस ने 4 बेडरूम का बड़ा मकान बनवाया था. उस की पत्नी माधवी सजीधजी सब की खातिर कर रही थी. चारों ओर नौकर लगे हुए थे. बाहर जाने के लिए गाडि़यां थीं. शाम को उस की फैक्टरी पर जाने का कार्यक्रम था.

गृहप्रवेश का कार्यक्रम पूरा हुआ, मकान के लौन में तरहतरह की मिठाइयां, नमकीन, शीतल पेय सामने मेज पर रखे हुए थे पर सुधांशु के हाथ में बस, पानी का गिलास था.

‘‘अरे, सुधांशु, मुंह तो मीठा करो,’’ सुप्रिया बर्फी का एक टुकड़ा लेते हुए उस की तरफ बढ़ी.

‘‘नहीं, मौसी नहीं,’’ उस की पत्नी माधवी पीछे से बोली, ‘‘इन की शुगर फ्री की मिठाई मैं ला रही हूं.’’

‘‘क्या इसे भी…’’

‘‘हां,’’ सुधांशु बोला, ‘‘मौसी रातदिन की भागदौड़ में पता ही नहीं लगा कब बीमारी आ गई. एक दिन कुछ थकान सी लगी. तब जांच करवाई तो पता लगा शुगर की शुरुआत है, तभी से परहेज कर लिया है…दवा भी चलती है, पर मौसी, काम नहीं रुकता, जैसे मशीन चलती है, उस में टूटफूट होती रहती है, तेल, पानी देना पड़ता है, कभी पार्ट्स भी बदलते हैं, वही शरीर का हाल है, पर काम करते रहो तो बीमारी की याद भी नहीं आती है.’’

इतना कह कर सुधांशु खिलखिला कर हंस रहा था और तो और माधवी भी उस के साथ हंस रही थी. उस ने खाना खातेखाते पल्लवी से पूछा, ‘‘जीजी, सुधांशु को डायबिटीज हो गई, आप ने बताया ही नहीं.’’

‘‘सुप्रिया, इस को क्या बताना, क्या छिपाना…बच्चे दिनरात काम करते हैं. शरीर का ध्यान नहीं रखते…बीमारी हो जाती है. हां, दवा लो, परहेज करो. सब यथावत चलता रहता है. तुम तो मिठाई खाओ…खाना तो अच्छा बना है?’’

‘‘हां, जीजी.’’

‘‘हलवाई सुधांशु ने ही बुलवाया है. रतलाम से आया है. बहुत काम करता है. सुप्रिया, हम धनंजयजी के आभारी हैं. सुना है कि उन्होंने ही सुधांशु की सहायता की थी. आज इस ने पूरे घर को इज्जत दिलाई है. पचासों आदमी इस के यहां काम करते हैं…सरकारी नौकरी में तो यह एक साधारण इंस्पेक्टर रह जाता.’’

‘‘नहीं जीजी,…हमारा सुधांशु तो बहुत मेहनती है,’’ सुप्रिया ने टोका.

‘‘हां, पर…हिम्मत बढ़ाने वाला भी साथ होना चाहिए. तुम्हारे जीजा तो इस के नौकरी छोड़ने के पूरे विरोध में थे,’’ पल्लवी बोली.

‘‘अब…’’ सुप्रिया ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘वह सामने देखो, कैसे सेठ की तरह सजेधजे बैठे हैं. सुबह होते ही तैयार हो कर सब से पहले फैक्टरी चले जाते हैं. सुधांशु तो यही कहता है कि अब काम करने से पापा की उम्र भी 10 साल कम हो गई है. दिन में 3 चक्कर लगाते हैं, वरना पहले कमरे से भी बाहर नहीं जाते थे.’’

रात का भोजन भी फैक्टरी के मैदान में बहुत जोरशोर से हुआ था. पूरी फैक्टरी को सजाया गया था. बहुत तेज रोशनी थी. शहर से म्यूजिक पार्टी भी आई थी.

धनंजयजी को बारबार अपनी बेटी रंजना की याद आ जाती कि वह भी साथ आ जाती तो कितना अच्छा रहता, पर सुप्रिया की जिद ने उसे भीतर से तोड़ दिया था.

सुबह इंदौर जाने का कार्यक्रम पूर्व में ही निर्धारित हुआ था. पर सुबह होते ही, धनंजयजी ने देखा कि सुप्रिया में इंदौर जाने की कोई उत्सुकता ही नहीं है, वह तो बस, अधिक से अधिक सुधांशु और माधवी के साथ रहना चाह रही थी.

आखिर जब उन से रहा नहीं गया तो शाम को पूछ ही लिया, ‘‘क्यों, इंदौर नहीं चलना क्या? वहां से फोन आया था और कार्यक्रम पूछ रहे थे.’’

सुप्रिया ने उन की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, वह यथावत अपने रिश्तेदारों से बातचीत में लगी रही.

सुबह ही सुप्रिया ने कहा था, ‘‘इंदौर फोन कर के उन्हें बता दो कि हम अभी नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ धनंजयजी ने पूछा.

सुप्रिया ने सवाल को टालते हुए कहा, ‘‘शाम को सुधांशु की कार जबलपुर जा रही है. वहां से उस की फैक्टरी में जो नई मशीनें आई हैं, उस के इंजीनियर आएंगे. वह कह रहा था, आप उस से निकल जाएं, मौसाजी को आराम मिल जाएगा. पर कार में ए.सी. है.’’

‘‘तो?’’

‘‘तो तुम्हारी कमर में दर्द हो जाएगा,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

धनंजयजी, पत्नी के इस बदले हुए मिजाज को समझ नहीं पा रहे थे.

रास्ते में उन्होंने पूछा, ‘‘इंदौर वालों को क्या कहना है, फिर फोन आया था.’’

‘‘सुनो, सुधांशु को पहले तो डायबिटीज नहीं थी.’’

‘‘हां.’’

‘‘अब देखो, शादी के बाद हो गई है, पर माधवी बिलकुल निश्चिंत है. उसे तो इस की तनिक भी चिंता नहीं है. बस, सुधांशु के खाने और दवा का ध्यान दिन भर रखती है और रहती भी कितनी खुश है…उस ने सभी का इतना ध्यान रखा कि हम सोच भी नहीं सकते थे.’’

धनंजयजी मूकदर्शक की तरह पत्नी का चेहरा देखते रहे, तो वह फिर बोली, ‘‘सुनो, अपना विमल कौन सा बुरा है?’’

‘‘अपना विमल?’’ धनंजयजी ने टोका.

‘‘हां, रंजना ने जिस को शादी के लिए देखा है, गलती हमारी है जो हमारे सामने ईमानदारी से अपने परिवार का परिचय दे रहा है, बीमारी के खतरे से सचेत है, पूरा ध्यान रख रहा है. अरे, बीमारी बाद में हो जाती तो हम क्या कर पाते, वह तो…’’

‘‘यह तुम कह रही हो,’’ धनंजयजी ने बात काटते हुए कहा.

‘‘हां, गलती सब से होती है, मुझ से भी हुई है. यहां आ कर मुझे लगा, बच्चे हम से अधिक सही सोचते हैं,’’…पत्नी की इस सही सोच पर खुशी से उन्होंने पत्नी का हाथ अपने हाथ में ले कर धीरे से दबा दिया.

प्यार का विसर्जन : क्यों दीपक से रिश्ता तोड़ना चाहती थी स्वाति

अलसाई आंखों से मोबाइल चैक किया तो देखा 17 मिस्ड कौल्स हैं. सुबह की लाली आंगन में छाई हुई थी. सूरज नारंगी बला पहने खिड़की के अधखुले परदे के बीच से झंक रहा था. मैं ने जल्दी से खिड़कियों के परदे हटा दिए. मेरे पूरे कमरे में नारंगी छटा बिखर गई थी. सामने शीशे पर सूरज की किरण पड़ने से मेरी आंखें चौंधिया सी गई थीं. मिचमिचाई आंखों से मोबाइल दोबारा चैक किया. फिर व्हाट्सऐप मैसेज देखे पर अनरीड ही छोड़ कर बाथरूम में चली गई. फिर फै्रश हो कर किचन में जा कर गरमागरम अदरक वाली चाय बनाई और मोबाइल ले कर चाय पीने बैठ गई.

ओह, ये 17 मिस्ड कौल्स. किस की हैं? कौंटैक्ट लिस्ट में मेरे पास इस का नाम भी नहीं. सोचा कि कोई जानने वाला होगा वरना थोड़े ही इतनी बार फोन करता. मैं ने उस नंबर पर कौलबैक किया और उत्सुकतावश सोचने लगी कि शायद मेरी किसी फ्रैंड का होगा.

तभी वहां से बड़ी तेज डांटने की आवाज आई, ‘‘क्या लगा रखा है साक्षी, सारी रात मैं ने तुम को कितना फोन किया, तुम ने फोन क्यों नहीं उठाया? हम सब कितना परेशान थे. मम्मीपापा तुम्हारी चिंता में रातभर सोए भी नहीं. तुम इतनी बेपरवाह कैसे हो सकती हो?’’

‘‘हैलो, हैलो, आप कौन, मैं साक्षी नहीं, स्वाति हूं. शायद रौंग नंबर है,’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया और कालेज जाने के लिए तैयार होने चली गई.

आज कालेज जल्दी जाना था. कुछ प्रोजैक्ट भी सब्मिट करने थे, सो, मैं ने फोन का ज्यादा सिरदर्द लेना ठीक नहीं समझ. बहरहाल, उस दिन से अजीब सी बातें होने लगीं. उस नंबर की मिस्ड कौल अकसर मेरे मोबाइल पर आ जाती. शायद लास्ट डिजिट में एकदो नंबर चेंज होने से यह फोन मुझे लग जाता था. कभीकभी गुस्सा भी आता, मगर दूसरी तरफ जो भी था, बड़ी शिष्टता से बात करता, तो मैं नौर्मल हो जाती. अब हम लोगों के बीच हाय और हैलो भी शुरू हो गई. कभीकभी हम लोग उत्सुकतावश एकदूसरे के बारे में जानकारी भी बटोरने लगते.

एक दिन मैं क्लास से बाहर आ रही थी. तभी वही मिस्ड कौल वाले का फोन आया. साथ में मेरी फ्रैंड थी, तो मैं ने फोन उठाना उचित न समझ. जल्दी से गार्डन में जा कर बैठ कर फोन देखने लगी कि कहीं फिर दोबारा कौल न आ जाए. मगर अनायास उंगलियां कीबोर्ड पर नंबर डायल करने लगीं. जैसे ही रिंग गई, दिल को अजीब सा सुकून मिला. पता नहीं क्यों हम दोनों के बीच एक रिश्ता सा कायम होता जा रहा था. शायद वह भी इसलिए बारबार यह गलती दोहरा रहा था. तभी गार्डन में सामने बैठे एक लड़के का भी मोबाइल बजने लगा.

जैसे मैं ने हैलो कहा तो उस ने भी हैलो कहा. मैं ने उस से कहा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’ तो उस ने जवाब दिया, ‘‘गार्डन में खड़ा हूं और तुम से बात कर रहा हूं और मेरे सामने एक लड़की भी किसी से बात कर रही है.’’ दोनों एकसाथ खुशी से चीख पड़े, ‘‘स्वाति, तुम?’’ ‘‘दीपक, तुम?’’

‘‘अरे, हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ते हैं. क्या बात है, हमारा मिलना एकदम फिल्मी स्टाइल में हुआ. मैं ने तुम को बहुत बार देखा है.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम्हें फर्स्ट टाइम देखा है. क्या रोज कालेज नहीं आती हो?’’

‘‘अरे, ऐसा नहीं. मैं तो रोज कालेज आती हूं. मैं बीए फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट हूं.’’

‘‘और मैं यहां फाइन आर्ट्स में एमए फाइनल ईयर का स्टूडैंट हूं.’’

‘‘ओह, तब तो मुझे आप को सर कहना होगा,’’ और दोनों हंसने लगे.

‘‘अरे यार, सर नहीं, दीपक ही बोलो.’’

‘‘तो आप को पेंटिंग का शौक है.’’

‘‘हां, एक दिन तुम मेरे घर आना, मैं तुम्हें अपनी सारी पेंटिंग्स दिखाऊंगा. कई बार मेरी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी भी लग चुकी है.’’

‘‘कोई पेंटिंग बिकी या लोग देख कर ही भाग गए.’’

‘‘अभी बताता हूं.’’ और दीपक मेरी तरफ बढ़ा तो मैं उधर से भाग गई.

कुछ ही दिनों में हम दोनों अच्छे दोस्त बन गए. कभीकभी दीपक मुझे पेंटिंग दिखाने घर भी ले जाया करता. मेरे मांबाप तो गांव में थे और मेरा दीपक से यों दोस्ती करना अच्छा भी न लगता. कभी हम दोनों साथ फिल्म देखने जाते तो कभी गार्डन में पेड़ों के झरमुट के बीच बैठ कर घंटों बतियाते रहते और जब अंधेरा घिरने लगता तो अपनेअपने घोंसलों में लौट जाते.

एक जमाना था कि प्रेम की अभिव्यक्ति बहुत मुश्किल हुआ करती थी. ज्यादातर बातें इशारों या मौन संवादों से ही समझ जाती थीं. तब प्रेम में लज्जा और शालीनता एक मूल्य माना जाता था. बदलते वक्त के साथ प्रेम की परिभाषा मुखर हुई. और अब तो रिश्तों में भी कई रंग निखरने लगे हैं. अब तो प्रेम व्यक्त करना सरल, सहज और सुगम भी हो गया है. यहां तक कि फरवरी का महीना प्रेम के नाम हो गया है.

इस मौसम में प्रकृति भी सौंदर्य बिखेरने लगती है. आम की मजरिया, अशोक के फल, लाल कमल, नव मल्लिका और नीलकमल खिल उठते हैं. प्रेम का उत्सव चरम पर होता है. कुछ ही दिनों में वैलेंटाइन डे आने वाला था और मैं ने सोच लिया था कि दीपक को इस दिन सब से अच्छा तोहफा दूंगी. इस दोस्ती को प्यार में बदलने के लिए इस से अच्छा कोई और दिन नहीं हो सकता.

आखिर वह दिन भी आ गया जब प्रकृति की फिजाओं के रोमरोम से प्यार बरस रहा था और हम दोनों ने भी प्यार का इजहार कर दिया. उस दिन दीपक ने मुझसे कहा कि आज ही के दिन मैं तुम से सगाई भी करना चाहता था. मेरे प्यार को इतनी जल्दी यह मुकाम भी मिल जाएगा, सोचा न था.

दीपक ने मेरे मांबाप को भी राजी कर लिया. न जैसा कहने को कुछ भी न था. दीपक एक अमीर, सुंदर और नौजवान था जो दिनरात तरक्की कर रहा था. आखिर अगले ही महीने हम दोनों की शादी भी हो गई. अपनी शादीशुदा जिंदगी से मैं बहुत खुश थी.

तभी 4 वर्षों के लिए आर्ट में पीएचडी के लिए लंदन से दीपक को स्कौलरशिप मिल गई. परिवार में सभी इस का विरोध कर रहे थे, मगर मैं ने किसी तरह सब को राजी कर लिया. दिल में एक डर भी था कि कहीं दीपक अपनी शोहरत और पैसे में मुझे भूल न जाए. पर वहां जाने में दीपक का भला था.

पूरे इंडिया में केवल 4 लड़के ही सलैक्ट हुए थे. सो, अपने दिल पर पत्थर रख कर दीपक  को भी राजी कर लिया. बेचारा बहुत दुखी था. मुझे छोड़ कर जाने का उस का बिलकुल ही मन नहीं था. पर ऐसा मौका भी तो बहुत कम लोगों को मिलता है. भीगी आंखों से उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने गई. दीपक की आंखों में भी आंसू दिख रहे थे, वह बारबार कहता, ‘स्वाति, प्लीज एक बार मना कर दो, मैं खुशीखुशी मान जाऊंगा. पता नहीं तुम्हारे बिना कैसे कटेंगे ये 4 साल. मैं ने अगले वैलेंटाइन डे पर कितना कुछ सोच रखा था. अब तो फरवरी में आ भी नहीं सकूंगा.’मैं उसे बारबार समझती कि पता नहीं हम लोग कितने वैलेंटाइन डे साथसाथ मनाएंगे. अगर एक बार नहीं मिल सके तो क्या हुआ. खैर, जब तक दीपक आंखों से ओझल नहीं हो गया, मैं वहीं खड़ी रही.

अब असली परीक्षा की घड़ी थी. दीपक के बिना न रात कटती न दिन. दिन में उस से 4-5 बार फोन पर बात हो जाती. पर जैसे महीने बीतते गए, फोन में कमी आने लगी. जब भी फोन करो, हमेशा बिजी ही मिलता. अब तो बात करने तक की फुरसत नहीं थी उस के पास.

कभी भूलेभटके फोन आ भी जाता तो कहता कि तुम लोग क्यों परेशान करते हो. यहां बहुत काम है. सिर उठाने तक की फुरसत नहीं है. घर में सभी समझते कि उस के पास काम का बोझ ज्यादा है. पर मेरा दिल कहीं न कहीं आशंकाओं से घिर जाता.

बहरहाल, महीने बीतते गए. अगले महीने वैलेंटाइन डे था. मैं ने सोचा, लंदन पहुंच कर दीपक को सरप्राइज दूं. पापा ने मेरे जाने का इंतजाम भी कर दिया. मैं ने पापा से कहा कि कोईर् भी दीपक को कुछ न बताए. जब मैं लंदन पहुंची तो दीपक को इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. मैं पापा (ससुर) के दोस्त के घर पर रुकी थी. वहां मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए अंकलआंटी मेरा बहुत ही ध्यान रखते थे.

वैसे भी उन की कोई संतान नहीं थी. शायद इसलिए भी उन्हें मेरा रुकना अच्छा लगा. उन का मकान लंदन में एक सामान्य इलाके में था. ऊपर एक कमरे में बैठी मैं सोच रही थी कि अभी मैं दीपक को दूर से ही देख कर आ जाऊंगी और वैलेंटाइन डे पर सजधज कर उस के सामने अचानक खड़ी हो जाऊंगी. उस समय दीपक कैसे रिऐक्ट करेगा, यह सोच कर शर्म से गाल गुलाबी हो गए और सामने लगे शीशे में अपना चेहरा देख कर मैं मन ही मन मुसकरा दी.

किसी तरह रात काटी और सुबहसुबह तैयार हो कर दीपक को देखने पहुंची. दीपक का घर यहां से पास में ही था. सो, मुझे ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी.

सामने से दीपक को मैं ने देखा कि वह बड़ी सी बिल्ंडिंग से बाहर निकला और अपनी छोटी सी गाड़ी में बैठ कर चला गया. उस समय मेरा मन कितना व्याकुल था, एक बार तो जी में आया कि दौड़ कर गले लग जाऊं और पूछूं कि दीपक, तुम इतना क्यों बदल गए. आते समय किए बड़ेबड़े वादे चंद महीनों में भुला दिए. पर बड़ी मुश्किल से अपने को रोका.

तब से मुझ पर मानो नशा सा छा गया. पूरा दिन बेचैनी से कटा. शाम को मैं फिर दीपक के लौटने के समय, उसी जगह पहुंच गई. मेरी आंखें हर रुकने वाली गाड़ी में दीपक को ढूं़ढ़तीं. सहसा दीपक की कार पार्किंग में आ कर रुकी तो मैं भौचक्की सी दीपक को देखने लगी. तभी दूसरी तरफ से एक लड़की उतरी. वे दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े मंदमंद मुसकराते, एकदूसरे से बातें करते चले जा रहे थे. मैं तेजी से दीपक की तरफ भागी कि आखिर यह लड़की कौन है. देखने में तो इंडियन ही है. पांव इतनी तेजी से उठ रहे थे कि लगा मैं दौड़ रही हूं. मगर जब तक वहां पहुंची, वे दोनों आंखों से ओल हो गए थे.

मैं पागलों सी सड़क पर जा पहुंची. चारों तरफ जगमगाते ढेर सारे मौल्स और दुकानें थीं. आते समय ये सब कितने अच्छे लग रहे थे, लेकिन अब लग रहा था कि ये सब जहरीले सांपबिच्छू बन कर काटने को दौड़ रहे हों. पागलों की तरह भागती हुई घर वापस आ गई और दरवाजा बंद कर के बहुत देर तक रोती रही. तो यह था फोन न आने का कारण.

मेरे प्यार में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि दीपक ने इतना बड़ा धोखा दिया. मैं भी एक होनहार स्टूडैंट थी. मगर दीपक के लिए अपना कैरियर अधूरा ही छोड़ दिया. मैं ने अपनेआप को संभाला. दूसरे दिन दीपक के जाने के बाद मैं ने उस बिल्ंिडग और कालेज में खोजबीन शुरू की. इतना तो मैं तुरंत समझ गई कि ये दोनों साथ में रहते हैं. इन की शादी हो गई या रिलेशनशिप में हैं, यह पता लगाना था. कालेज में जा कर पता चला कि यह लड़की दीपक की पेंटिंग्स में काफी हैल्प करती है और इसी की वजह से दीपक की पेंटिंग्स इंटरनैशनल लैवल में सलैक्ट हुई हैं. दीपक की प्रदर्शनी अगले महीने फ्रांस में है. उस के पहले ये दोनों शादी कर लेंगे क्योंकि बिना शादी के यह लड़की उस के साथ फ्रांस नहीं जा सकती.

तभी एक प्यारी सी आवाज आई, लगा जैसे हजारों सितार एकसाथ बज उठे हों. मेरी तंद्रा भंग हुई तो देखा, एक लड़की सामने खड़ी थी.

‘‘आप को कई दिनों से यहां भटकते हुए देख रही हूं. क्या मैं आप की कुछ मदद कर सकती हूं.’’  मैं ने सिर उठा कर देखा तो उस की मीठी आवाज के सामने मेरी सुंदरता फीकी थी. मैं ने देखा सांवली, मोटी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी. पता नहीं दीपक को इस में क्या अच्छा लगा. जरूर दीपक इस से अपना काम ही निकलवा रहा होगा.

‘‘नो थैंक्स,’’ मैं ने बड़ी शालीनता से कहा.

मगर वह तो पीछे ही पड़ गई, ‘‘चलो, चाय पीते हैं. सामने ही कैंटीन है.’’ उस ने प्यार से कहा तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं चुपचाप उस के पीछेपीछे चल दी. उस ने अपना नाम नीलम बताया. मु?ो बड़ी भली लगी. इस थोड़ी देर की मुलाकात में उस ने अपने बारे में सबकुछ बता दिया और अपने होने वाले पति का फोटो भी दिखाया. पर उस समय मेरे दिल का क्या हाल था, कोई नहीं समझ सकता था. मानो जिस्म में खून की एक बूंद भी न बची हो. पासपास घर होने की वजह से हम अकसर मिल जाते. वह पता नहीं क्यों मुझ से दोस्ती करने पर तुली हुई थी. शायद, यहां विदेश में मुझ जैसे इंडियंस में अपनापन पा कर वह सारी खुशियां समेटना चाहती थी.

एक दिन मैं दोपहर को अपने कमरे में आराम कर रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला. सामने वह लड़की दीपक के साथ खड़ी थी. ‘‘स्वाति, मैं अपने होने वाले पति से आप को मिलाने लाई हूं. मैं ने आप की इतनी बातें और तारीफ की तो इन्होंने कहा कि अब तो मु?ो तुम्हारी इस फ्रैंड से मिलना ही पड़ेगा. हम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन शादी करने जा रहे हैं. आप को इनवाइट करने भी आए हैं. आप को हमारी शादी में जरूर आना है.’’

दीपक ने जैसे ही मुझे देखा, छिटक कर पीछे हट गया. मानो पांव जल से गए हों. मगर मैं वैसे ही शांत और निश्च्छल खड़ी रही. फिर हाथ का इशारा कर बोली, ‘‘अच्छा, ये मिस्टर दीपक हैं.’’ जैसे वह मेरे लिए अपरिचित हो. मैं ने दीपक को इतनी इंटैलिजैंट और सुंदर बीवी पाने की बधाई दी.

दीपक के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. लज्जा और ग्लानि से उस के चेहरे पर कईर् रंग आजा रहे थे. यह बात वह जानता था कि एक दिन सारी बातें स्वाति को बतानी पड़ेंगी. मगर वह इस तरह अचानक मिल जाएगी, उस का उसे सपने में भी गुमान न था. उस ने सब सोच रखा था कि स्वाति से कैसेकैसे बात करनी है. आरोपों का उत्तर भी सोच रखा था. पर सारी तैयारी धरी की धरी रह गईर्.

नीलम ने बड़ी शालीनता से मेरा परिचय दीपक से कराया, बोली, ‘‘दीपक, ये हैं स्वाति. इन का पति इन्हें छोड़ कर कहीं चला गया है. बेचारी उसी को ढूंढ़ती हुई यहां आ पहुंची. दीपक, मैं तुम्हें इसलिए भी यहां लाई हूं ताकि तुम इन की कुछ मदद कर सको.’’ दीपक तो वहां ज्यादा देर रुक न पाया और वापस घर चला गया. मगर नींद तो उस से कोसों दूर थी. उधर, नीलम कपड़े चेंज कर के सोने चली गई. दीपक को बहुत बेचैनी हो रही थी. उसे लगा था कि स्वाति अपने प्यार की दुहाई देगी, उसे मनाएगी, अपने बिगड़ते हुए रिश्ते को बनाने की कोशिश करेगी. मगर उस ने ऐसा कुछ नहीं किया. मगर क्यों…?

स्वाति इतनी समझदार कब से हो गई. उसे बारबार उस का शांत चेहरा याद आ रहा था. जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. आज उसे स्वाति पर बहुत प्यार आ रहा था. और अपने किए पर पछता रहा था. उस ने पास सो रही नीलम को देखा, फिर सोचने लगा कि क्यों मैं बेकार प्यारमोहब्बत के जज्बातों में बह रहा हूं. जिस मुकाम पर मु?ो नीलम पहुंचा सकती है वहां स्वाति कहां. फिर तेजी से उठा और एक चादर ले कर ड्राइंगरूम में जा कर लेट गया.

दिन में 12 बजे के आसपास नीलम ने उसे जगाया. ‘‘क्या बात है दीपक, तबीयत तो ठीक है? तुम कभी इतनी देर तक सोते नहीं हो.’’ दीपक ने उठते ही घड़ी की तरफ देखा. घड़ी 12 बजा रही थी. वह तुरंत उठा और जूते पहन कर बाहर निकल पड़ा. नीलम बोली, ‘‘अरे, कहां जा रहे हो?’’

‘‘प्रोफैसर साहब का रात में फोन आया था. उन्हीं से मिलने जा रहा हूं.’’

दीपक सारे दिन बेचैन रहा. स्वाति उस की आंखों के आगे घूमती रही. उस की बातें कानों में गूंजती रहीं. उसी के प्यार में वह यहां आई थी. स्वाति ने यहां पर कितनी तकलीफें ?ोली होंगी. मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए उस ने अपने आने तक का मैसेज भी नहीं दिया. क्या वह मु?ो कभी माफ कर पाएगी.

मन में उठते सवालों के साथ दीपक स्वाति के घर पहुंचा. मगर दरवाजा आंटी ने खोला. दीपक ने डरते हुए पूछा, ‘‘स्वाति कहां है?’’

आंटी बोलीं, ‘‘वह तो कल रात 8 बजे की फ्लाइट से इंडिया वापस चली गई. तुम कौन हो?’’

‘‘मैं दीपक हूं, नीलम का होने वाला पति.’’

‘‘स्वाति नीलम के लिए एक पैकेट छोड़ गई है. कह रही थी कि जब भी नीलम आए, उसे दे देना.’’

दीपक ने कहा, ‘‘वह पैकेट मुझे दे दीजिए, मैं नीलम को जरूर दे दूंगा.’’

दीपक ने वह पैकेट लिया और सामने बने पार्क में बैठ कर कांपते हाथों से पैकेट खोला. उस में उस के और स्वाति के प्यार की निशानियां थीं. उन दोनों की शादी की तसवीरें. वह फोन जिस ने उन दोनों को मिलाया था. सिंदूर की डब्बी और एक पीली साड़ी थी. उस में एक छोटा सा पत्र भी था, जिस में लिखा था कि 2 दिनों बाद वैलेंटाइन डे है. ये मेरे प्यार की निशानियां हैं जिन के अब मेरे लिए कोई माने नहीं हैं. तुम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन ही थेम्स नदी में जा कर मेरे प्यार का विसर्जन कर देना…स्वाति.

मेरा घर: बेटे आरव को लेकर रंगोली क्यों भटक रही थी

रंगोली अपने दफ़्तर से जब घर पहुंची तो आरव ने रोरो कर पूरा घर सिर पर उठा रखा था. रंगोली को देखते ही उस की मम्मी ने राहत की सांस ली और आरव को उस की गोदी में पकड़ाते हुए बोली, “नाक में दम कर रखा है इस लड़के ने, पलक एक मिनट के लिए भी चैन से पढ़ नहीं पाई है.”

रंगोली बिना कुछ बोले आरव को गोद मे लिए लिए वाशरूम चली गई. बाहर आ कर रंगोली ने चाय का पानी चढ़ाया और खड़ेखड़े सब्जी भी काट दी.

चाय की चुस्कियों के साथ रंगोली आरव को सुलाने की कोशिश करने लगी. आरव के नींद में आते ही रंगोली की भी आंखें झपकने लगी थीं कि तभी मम्मी कमरे में तूफान की तरह घुसी, बोली, “रंगोली, थोड़ीबहुत मेरी भी मदद कर दिया करो, मेरे जीवन में तो सुख है ही नहीं. पहले बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाओ, फिर उन के बच्चों की.”

रंगोली झेंपती सी बोली, “मम्मी, आरव को सुलातेसुलाते नींद लग गई थी.”

आरव को सुला कर रंगोली बाल लपेट कर रसोई में घुस गई थी. पापा व मम्मी के लिए परहेजी खाना, पलक के लिए हाई प्रोटीन डाइट और खुद के लिए, बस, जो भी दोनों में से बच जाए.

जब रंगोली रात की रसोई समेट रही थी तब तक आरव उठ गया था. रंगोली की रोज़ की यह ही दिनचर्या बन गई थी. मुश्किल से 4 घंटे की नींद पूरी हो पाती है.

रंगोली ने आरव लिए दूध तैयार किया और फिर धीरे से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था. अगर आरव की जरा भी आवाज़ बाहर आती थी तो सुबह मम्मी के सिर में दर्द आरंभ हो जाता था.

रंगोली की ज़िंदगी कुछ समय पहले तक बिलकुल अलग थी. रंगोली थी एकदम बिंदास और अलमस्त, दुनिया से एकदम बेपरवाह. लंबा कद, गेंहू जैसा रंग, आम के फांक जैसी आंख, मदमस्त मुसकान और घुंघराले बाल. हर कोई कालेज और दफ़्तर में रंगोली का दीवना था. पर रंगोली थी दीवानी अभय की. अभय उस के साथ ही इंजीनियरिंग कालेज में था. दोनों की मित्रता गहरी होतेहोते प्यार में परिवर्तित हो गई थी.

रंगोली के मम्मीपापा अभय के घर गए थे और अभय के मम्मीपापा के तेवर देख कर उन्होंने रंगोली को आगाह कर दिया था, ‘बेटा, ऐसा प्यार बहुत दिनों तक नहीं टिकता है. हमारे यहां प्यार 2 लोगो के बीच नहीं, बल्कि 2 परिवारों के बीच होता है. हमारा और उन का परिवार काफी भिन्न हैं.’

पर उस समय तो रंगोली को कुछ समझ नहीं आ रहा था. लड़झगड़ कर और मिन्नतें करकर के आखिरकार रंगोली ने अपने परिवार को मना ही लिया था.

अभय का परिवार भी बड़ी बेदिली से तैयार हो गया था.

जब रंगोली और अभय हनीमून पर गए तो रंगोली को अभय का व्यवहार अजीब सा लगा. रंगोली पुरुषस्त्री के रिश्तों से अब तक अनभिज्ञ ही थी. अभय न जाने क्यों प्रेमक्रीड़ा के दौरान हिंसक हो उठता था. रंगोली पूरी तरह संतुष्ट भी नहीं हो पाती थी पर अभय मुंह फेर कर सो जाता था.

हनीमून से वापस आ कर भी अभय के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था. रंगोली को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और किस से बात करे.

अभय का परिवार जबतब रंगोली को नीचा दिखाता रहता था और अभय चुपचाप सब सुनता रहता था.

अगर रंगोली अभय से बात करने की कोशिश करती तो अभय कहता, ‘मम्मीपापा ने हमारे फैसले का सम्मान किया है. अब एक बहू के रूप में तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि तुम उन का दिल जीत लो.’

रंगोली एक चक्रव्यूह में फंस कर रह गई थी. दफ़्तर के 8 घंटे होते थे जब वह खुल कर सांस ले पाती थी.

रात में अभय रंगोली के शरीर को रौंदता और तड़पता हुआ छोड़ देता और दिन में अभय का परिवार रंगोली के स्वमान को रौंदता था.

रंगोली को एक बात तो समझ आ गई थी कि चाहे लव मैरिज हो या अरेंज्ड, समझौता हमेशा लड़की को ही करना होता है. इस बीच, रंगोली गर्भवती हो गई थी. रंगोली को लगा, शायद अब उस के विवाह की जड़ें मजबूत हो जाएंगी.

लेकिन आरव के जन्म के बाद भी समस्या ज्यों की त्यों ही बनी रही थी. अब रंगोली की ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ गई थी. रात में आरव और घर की ज़िम्मेदारी और दिन में दफ़्तर. देखते ही देखते रंगोली एक कंकाल जैसी हो गई थी.

विवाह के डेढ़ वर्ष में ही अभय रंगोली के लिए एक पहेली बन कर रह गया था. धीरेधीरे रंगोली को समझ आ गया था कि अपनी मर्दाना कमज़ोरी को छिपाने के लिए अभय उस पर हर समय हावी रहता है. रंगोली भरसक प्रयास करती थी कि उस की किसी बात से अभय की मर्दानगी को ठेस न पहुंचे पर जब एक दिन अति हो गई थी तो रंगोली अपना सामान और आरव को गोद में ले कर अपने घर आ गई थी.

रंगोली के मम्मीपापा हक्केबक्के रह गए थे. पापा तो गुस्से में बोले, ‘पहले अपनी मरजी से विवाह किया और अब यहां आ गई हो. तुम्हारी इन हरकतों का पलक पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’

मम्मी नरमी से बोली, ‘थोड़े दिन रहने दो न. देखो न, कितनी कमजोर हो गई है.’

पर जब मम्मीपापा के घर में रहते हुए रंगोली को 2 माह हो गए तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के कान खड़े हो उठे थे. दिन में पासपड़ोसी मम्मीपापा को कोंचते और रात में मम्मीपापा रंगोली को, ‘कब तक इस घर में पड़ी रहोगी, अपने घर जाओ न.’

रंगोली सबकुछ सुन कर भी अनसुना कर देती थी. उस का घर कहां हैं? कई बार रंगोली को लगता, उस की स्थिति अभी भी जस की तस ही बनी हुई है. बस, मम्मीपापा के घर में कोई रंगोली के शरीर को रौंदता नहीं था. पर मानसिक शांति तो यहां भी एक पल के लिए न थी.

रंगोली अपने वेतन का 75 प्रतिशत भाग मम्मी को दे देती थी. मम्मी बड़ी बेदिली से ले कर कहती थी, ‘आजकल महंगाई इतनी है, दूध और सब्जी के भाव आसमान छू रहे हैं. पूरा एक लिटर दूध तो आरव ही पी जाता है.’ मम्मी के मुंह से यह बात सुन कर रंगोली का मन खट्टा हो जाता था.

पापा जबतब सुनाया करते, ‘यहां पर रह रही हो, इस कारण तुम्हारा निर्वाह हो भी रहा है. 50 हज़ार रुपए में तो आजकल कुछ नहीं होता.’

रंगोली यह बात सुन कर मम्मीपापा के एहसान तले दबी जाती थी.

कभी मम्मी कहती, ‘रंगोली, पलक के बारे में सोच कर मुझे रातरातभर नींद नहीं आती है. जिस की बड़ी बहन घर छोड़ कर बैठी हो, उस लड़की से कौन रिश्ता करेगा?

रंगोली को ऐसा लगने लगा था मानो उस ने मम्मीपापा के घर आ कर उन के साथ बहुत ज़्यादती कर दी है.

पलक बिना बात ही रंगोली से खिंचीखिंची रहती थी. पलक के दिमाग में यह बात बैठ गई थी कि जब तक रंगोली उन के साथ रहेगी तब तक उस का रिश्ता नहीं हो पाएगा.

आज भी पलक को लड़के वाले देखने आ रहे थे. रंगोली जब दफ़्तर जाने के लिए तैयार हो रही थी तो मम्मी बोली, ‘आज जल्दी आ जाना, घर के काम में थोड़ी मेरी मदद कर देना.’

रंगोली झिझकते हुए बोली, ‘मम्मी, आज तो दफ़्तर में औडिट है.’

मम्मी गुस्से में बोली, ‘मैं क्याक्या करूंगी अकेले? आरव को संभालू या मेहमानों को.’

रंगोली बोली, ‘मम्मी, मैं आरव को किसी सहेली के घर पर छोड़ दूंगी.’

पापा तुनकते हुए बोले, ‘आरव के लिए किसी क्रेच का इंतज़ाम कर देना, मेरी और तुम्हारी मम्मी की उम्र नहीं है छोटे बच्चे की ज़िम्मेदारी उठाने की.’

पलक बोली, ‘रंगोली दीदी, आप अच्छाखासा कमाती हो, कम से कम आरव के लिए एक मेड तो रख सकती हो.’

दफ़्तर जा कर रंगोली ने जल्दीजल्दी काम निबटाया और फिर हाफडे लेने के लिए जब बौस के पास गई तो बौस बोले, ‘रंगोली, यह तुम्हारा इस माह तीसरा हाफडे है.’

घर आ कर रंगोली ने फ़टाफ़ट पकौड़े तले, हलवा भुना और फिर जल्दी से आरव को ले कर अपने कमरे में बंद हो गई थी. रंगोली मेहमानों के सामने पड़ना नहीं चाहती थी. इस बार पलक की बात बन गई थी. जैसे ही मम्मी यह बात बताने रंगोली के कमरे में गई तो आरव एकदम से कमरे से बाहर आ गया.

मजबूरी में मम्मीपापा को रंगोली का परिचय मेहमानों से करवाना पड़ गया था. मेहमानों ने जब रंगोली से उस के घर और पति के बारे में पूछताछ की तो पापा बात संभालते हुए बोले, ‘अरे, रंगोली तो अभी आ पके आने से पहले ही आई है. हमें आरव से बहुत प्यार है, इसलिए आतीजाती रहती है.’

लड़के वालों की तरफ से लगभग बात फाइनल थी. पूरा परिवार बेहद खुश नजर आ रहा था. मम्मी रंगोली से बोली, ‘अब तुम अपने घर जाने के बारे में सोचो, रंगोली तुम्हारी गलतियों की सजा पलक को नहीं मिलनी चाहिए.’

रंगोली सोच रही थी कि उस के मम्मीपापा इतने पत्थरदिल कैसे हो सकते हैं? सबकुछ तो बता चुकी है वह उन्हें.

रंगोली रोज़ सोचती कि वह कहां जाए. उसे अपने ऊपर विश्वास नहीं था कि वह अकेली रह पाएगी.

रंगोली ने यह तय कर लिया था कि वह वापस अभय के घर चली जाएगी.

वह सुखी नहीं तो न सही, कम से कम उस के कारण पलक की जिंदगी में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए.

ऐसे ही एक दिन जब रंगोली दफ़्तर में मायूस सी बैठी हुई थी तो उस की सहकर्मी अतिका उस के पास आ कर बैठ गई और बोली, ‘रंगोली, आज पार्टी करने चलोगी क्या?’

रंगोली की अतिका से कोई दोस्ती न थी, पर न जाने क्यों रंगोली फफकफफक कर रो उठी और अपनी पूरी कहानी सुना दी.

अतिका बोली, ‘अरे, तो तुम क्यों एक बैल की तरह इधरउधर सहारे की तलाश में घूम रही हो?

तुम एक स्वतंत्र महिला हो, अपना और अपने बेटे का ख़याल खुद से रख सकती हो.’

रंगोली बोली, ‘अतिका, मेरे पास अपना घर कहां है? वह घर मेरे पति का था और यह मेरे मम्मीपापा का. मैं कैसे आरव को ले कर अकेली रह सकती हूं? गलती मेरी है, तो फिर सज़ा भी तो मुझे ही भुगतनी होगी.’

अतिका हंसते हुए बोली, ‘बेवकूफ लड़की, अपनी मरजी से विवाह करना एक गलत फ़ैसला हो सकता है पर यह कोई ऐसी गलती नहीं कि तुम्हें इस की सजा मिले. इन सामाजिक बेड़ियों से बाहर निकालो अपनेआप को और अपना घर खुद बनाओ.’

अतिका दफ़्तर में एक चालू महिला के रूप में जानी जाती थी क्योंकि वह अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से जीती थी. लेकिन जिंदगी के इस मुश्किल दौर में अतिका ही थी जो रंगोली को समझती थी और उस की ढाल बन कर खड़ी रही थी. रंगोली को अतिका से दोस्ती करने के बाद यह बात समझ आ गई थी कि हर स्वतंत्र महिला को समाज में चालू की संज्ञा दी जाती है.

अतिका की हिम्मत देने पर ही रंगोली अपने बेटे को ले कर मम्मीपापा का घर छोड़ने का फैसला कर लिया था.

अतिका ने ही आगे बढ़ कर रंगोली को एक वक़ील से मिलवाया और रंगोली ने अभय से लीगली अलग होने का भी फ़ैसला कर लिया था. आतिका ने जब रंगोली को उस के किराए के फ्लैट की चाबी पकड़ाई, तो रंगोली की आंखों में आंसू आ गए थे.

अतिका मुसकराते हुए बोली, ‘रंगोली, फ़्लैट भले ही किराए का है पर इसे अपना घर बनाना अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी है. अपने नाम के अनुकूल ही अपनी ज़िंदगी में रंग भर लो.’

जब रंगोली ने अपना और आरव का सामान बांध लिया तो मम्मी खुशी से बोली, ‘शुक्र है तुम ने अपने घर जाने का फ़ैसला कर लिया है.’

रंगोली मम्मी की बात सुन कर मुसकराते हुए बोली, ‘मम्मी, आप सच कह रही हैं, मैं ने अपने घर जाने का फ़ैसला ले लिया है. कब तक मैं आप के या किसी और के सहारे अपनी ज़िंदगी गुज़ारूंगी. अब आप लोगों को मेरे कारण कोई मुश्किल नहीं होगी. आरव मेरी ज़िम्मेदारी है, इस ज़िम्मेदारी को खुद पूरा करूंगी.’

पापा गुस्से में बोले, ‘क्या मतलब?’

रंगोली बोली, ‘मतलब यह है कि पापा, आज से मैं अपनी ज़िंदगी की बागड़ोर खुद अपने हाथों में लेती हूं. जो भी अच्छाबुरा होगा, सब मेरी ज़िम्मेदारी होगी. आप को मैं आरव और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त कर रही हूं.’

मम्मी बोली, ‘पलक की ससुराल वालों से क्या कहेंगे तुम्हारे बारे में?’

रंगोली बोली, ‘बोल देना कि वह खुद की जिंदगी जी रही है.’

उस के बाद रंगोली अपने नए घर का पता लिख कर पापा के हाथ में थमा गई.

रंगोली का घर छोटा ही सही, पर अपना था जहां उस के वजूद की जड़ें मजबूती से जमी हुई थीं.

कद्दू फूला मेरे अंगना: मीनाक्षी और गौतम का अनोखा हनीमून

कद्दूजैसी बेडौल और बेस्वाद चीज भी क्या चीज है यह तो सोचने वाला ही जाने, पर हमारी छोटी सी बालकनी की बाटिका में भी कद्दू कभी फलेगा, यह मैं ने कभी नहीं सोचा था. पर ऐसा होना था, हुआ.

बागबानी का शौक मेरे पूरे परिवार को है. मेरी 12वीं माले की बालकनी में 15-20 पौट्स हमेशा लगे रहते हैं. इस छोटी सी बगिया में फूलफल और सब्जी की खूब भीड़ है. इसी

भीड़ में एक सुबह देखा कि सेम की बेल के पास ही एक और बेल फूट आई है, गोलगोल पत्तों की. थोड़ा और बढ़ने पर हमें संदेह हुआ कि हो न हो पंपकिन यानी कद्दू महाराज तशरीफ ला रहे हैं.

अपने व्हाट्सऐप गु्रप में आप किसी से कद्दू पसंद है पूछो तो यही जवाब मिलेगा कि अजी, कद्दू भी कोई पसंद करने वाली चीज है…

एक ने हतोत्साहित किया कि उन्होंने बड़े चाव से कद्दू का बीज बोया था, बेल भी बहुत फली. सारी छत पर पैर पसारे पड़ी है, पर कद्दू का अब तक कहीं नाम नहीं है. वैसे भी सुन रखा था कि कद्दू की बेल फैल तो जाती है, पर फल बड़ी मुश्किल से आता है. सो उन की भी यही राय थी कि अपनेआप उगे बीज में फल किसी भी हालत में नहीं आएगा.

मगर मैं ने बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख कहावत की सचाई परखने का निश्चय कर ही लिया. अब मेरी हर सुबहशाम उस बेल की खातिरदारी में लग जाती. सेम की बेल के पास ही एक रस्सी के सहारे उस को दीवार पर चढ़ा दिया गया. शाम को एक फ्रैंड आई. देखा तो बोली, ‘‘कद्दू कोई सेम थोड़े ही है जो बेल में लटके रहेंगे. एक कद्दू का बो झा भी नहीं सह पाएगी तुम्हारी यह बेल.’’

मगर हमारी छोटी सी बगिया में बेल को फैलने की जगह कहां मिलती, सो हम ने उस को ऐसे ही छोड़ दिया. हमारे कौंप्लैक्स में बालकनियां एकदूसरे से सटी हैं और प्राइवेसी के लिए बीच में ऊंची दीवार है. मैं ने दीवार के ऊपर बेल को चढ़ाने का फैसला किया.

बेल अभी दीवार के ऊपर पहुंची ही थी कि एक सुबह उस में हाथ के बराबर गहरे पीले रंग का फूल खिला दिखा. सच सुंदरता में वह फूल मु झे कमल के फूल से कम नहीं लगा. वैसे तो वह नर फूल था, पर मादा फूल की कलियां भी अब उस में आ रही थीं. अब रोज 2-4 फूल बेल में खिलने लगे. कद्दू निकलें न निकलें, फूल तो खा लें यह सोच कर रैसिपी ढूंढ़ कर 2-4 पकौडि़यां भी बनाईं.

धीरेधीरे बेल में मादा फूल भी खिलने लगे. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा कि लोग यों ही निरुत्साह कर रहे थे. पर बेल में तो अब कद्दू नहीं दिख रहे थे. बेल दीवार के ऊपर चली गई थी हरीभरी थी. मैं उस में खादपानी डाल रही थी पर कद्दू का पता नहीं था. बेल न जाने वहां से कहां चली गई थी. ग्रुप में एक ने कहा, ‘‘मैं ने पहले ही कहा था कि आप की बेल में कद्दू हरगिज नहीं आएगा.’’

मैं भी हिम्मत हार चुकी थी. सोचा अब बेल की परवरिश करने से कोई फायदा नहीं. सोचा 2-4 दिन साहस बटोर कर मैं बेल उखाड़ दूंगी. उस दिन रविवार था. सिर्फ टौप और बेहद पोर्ट शौर्ट पहने बालगानी कर रही थी. इस कौप्लैक्स में कोई किसी के घर आताजाता नहीं था. लिफ्ट में सिर्फ हायहैलो होती थी. यह जरूर लगा था कि बराबर वाले फ्लैट में कोई नया शिफ्ट हुआ है.

मैं अपने दूसरे पौधों को पानी दे रही थी कि घंटी बजी. न जाने कब से यह घटी नहीं बजी थी. इसलिए लपक कर जैसी थी, वैसे ही खोल दिया. सामने एक बांका 5 फुट 8 इंच का सांवला, जिम जाने वाला 35 साल का लाल टीशर्ट और काले शौर्ट में एक बेहद आकर्षक युवक था. हाथ में बास्केट.

मैं ने आश्चर्य से देखा तो वह बोला, ‘‘जी मैं आप का नैक्स्ट डोर. परसों ही शिफ्ट हुआ हूं. आज सुबह बालकनी में बैठा तो कुछ ऐसा देखा कि आप से शेयर करने का मन हुआ. बेटे को गौतम नागदेव कहते हैं,’’ यह कहते हुए उस ने एक बास्केट आगे बढ़ाई.

अब यह तो बनता ही है. मैं ने दरवाजा पूरा खोला, उसे अंदर आने का न्योता देते हुए बोली, ‘‘मैं मीनाक्षी, वैलकम…’’ तब तक मैं ने यह सोचा नहीं था कि मैं क्या पहने हूं. पर जैसे ही उस की आंखें मेरे चेहरे से नीचे पहुंचीं, मु झे एहसास हुआ कि मैं तो स्लीवलैस टौप और शौर्ट में हूं. मैं ने कहा कि ऐक्स्यूज मी मैं अभी चेंज कर आती हूं.

वह आगे बढ़ा. फिर उस ने मेरा हाथ पकड़ा और बोला, ‘‘अजी छोडि़ए ऐसे ही अच्छी हैं. कद्दू लेना है तो काफी पिलाइए.’’ ऐसे ही मैं कौन से थ्री पीस सूट में हूं. अब दोनों के पास हंसने के अलावा कोई चारा नहीं था.

अब तो हमारे दोनों घरों का वातावरण ही कद्दूमय हो गया था. आलम यह है कि दोनों को जब मिलने की इच्छा हुई, घंटी बजाई. कभी मैं कद्दू तोड़ने के बहाने उस के फ्लैट में घुसती तो कभी वह कद्दू तोड़ कर मेरी किचन में खड़ा होता. दोनों दफ्तर से आते ही कद्दू के हालचाल फोन पर.

एक दिन वह कद्दू को ऐसे सहला रहा था जैसे मु झे सहला रहा हो… यह तो अति होने लगी थी. मेरा पूरा बदन सुन सा करने लगा था. बड़ी मुश्किल से दोनों ने अपनेआप को रोका.

हम ने इस बीच पत्रिकाओं में से कद्दू के व्यंजनों की विधि खोजनी शुरू कर दीं. कद्दू का हलवा, कद्दू के कोफ्ते, कद्दू का अचार. यहां तक कि कद्दू के परांठे तक बनाने की विधि हम ने सीख ली.

इकलौते लाड़ले बिचौलिए की तरह कद्दू की सार संभाली होने लगी और बेल दिनदूना रात चौगुना बढ़ने लगी. हमारी आंखों में कुछ और ही सपने तैरने लगे. मां का फोन आता तो कद्दू की ज्यादा बात करती, बजाय अपना हाल बताने के या उन का पूछने के. उन्हें शक होने लगा कि कद्दू के पीछे कुछ राज है. मां अकसर सुनाती थी कि बचपन में उन के घर में इतने कद्दू फले थे कि पड़ोस में बांटने के बाद भी छत की कडि़यों में कद्दू लटकते रहते थे.

दोनों हर नए कद्दू का इंतजार करने लगे. कद्दू के बहाने हमारे दिल और तन दोनों मिलने लगे थे. बराबर खड़े हो कर जब कद्दू काट कर सब्जी बनती और साथ टेबल पर खाई जाती तो पूरा मन  झन झना उठता.

मां को लगता कि जो लड़की कद्दू की सब्जी के नाम से नाक भी चढ़ाती थी, उस का ध्यान अब उस के गुणों की तरफ कैसे जाने लगा. जैसे कद्दू में विटामिन ‘ए’ और ‘डी’ होता है, यह पेट साफ करता है आदि.

इस बीच वे कद्दू बड़े खरबूजे का आकार लेने लगे और उन के बो झे से बेल गौतम की पूरी बालकनी में छा गई थी. एक रात तेज आंधी आई. आवाज सुन कर आंख खुली तो डर लगा कि कहीं कद्दू की बेल टूट न जाए. नाइटी में ही गौतम ने प्लैट की घंटी बजा दी. वह भी जागा हुआ था. दोनों ने मिल कर आंधी से कद्दुओं को बचाया पर इस चक्कर में हमारा कौमार्य फूट गया. दोनों रातभर गौतम के बिस्तर पर ही सोए.

पता नहीं क्यों उस सुबह उठ कर कुछ डर सा लगा. हमारा दिल दहल उठा. 2 दिन में हम दोनों के मातापिता हमारे फ्लैटों में थे. दोनों के मातापिताओं ने कद्दू की बेलों की जड़ें और कद्दू देख लिए. अब जब बेल इधर से उधर हो चुकी थी और कद्दुओं की सब्जियां बन चुकी हैं तो शादी के अलावा क्या बचा था.

सारे दोस्तों को कद्दू प्रकरण पता चल गया. एक बड़ी पार्टी की गई. कद्दू की शक्ल का केक बना और हमारी सगाई की रस्म पूरी हो गई. न जाति बीच में आई और न कोई रीतिरिवाज. कददुनुमा केक पर चाकू चलाते समय हमारे हाथ खुशी से भरे थे.

शादी के बाद हम ने फैसला किया कि हम हनीमून वहीं मनाएंगे जहां कद्दुओं की खेती होती है. आप भी शुभकामना करें कि हमारी बेल फूलेफले और हमारे घर का आंगन हमेशा कद्दुओं से भरा रहे. फिर हम कद्दुओं से तैयार विविध व्यंजन आप को भी खिलाना नहीं भूलेंगे. हमारे दोस्तों ने हमारा नया नामकरण कर दिया है कद्दूकद्दू.

मुखौटा: उर्मिला की बेटियों का असली चेहरा क्या था?

‘‘मम्मी, जल्दी यहां आओ,’’ अपनी बहू शिखा की ऊंची आवाज सुन कर आरती तेजी से चलती रसोई में पहुंचीं.

‘‘क्या हुआ है?’’ यह सवाल पूछते हुए उन का दिल तेजी से धड़क रहा था.

‘‘बेसन में नमकमिर्च और दूसरे मसाले कितनेकितने डालूं?’’

‘‘बस यही जानने के लिए तुम ने इतनी जोर से चिल्ला कर मुझे बुलाया है?’’

‘‘क्या मैं बहुत जोर से चिल्लाई थी?’’ शिखा शर्मिंदा सी नजर आने लगी.

‘‘मुझे तो ऐसा ही लगा था जैसे तुम किसी बड़ी मुसीबत में फंस गई होगी,’’ आरती नाराज हो उठीं.

‘‘आई एम सौरी, मम्मी,’’ शिखा फौरन उन के गले लग गई.

‘‘छोटीछोटी बातों से घबरा कर अपना आत्मविश्वास क्यों खो देती हो, बहू? अरे, अगले सप्ताह तुम्हारी शादी को पूरा 1 साल हो जाएगा. घर के बहुत से काम तुम ने सीख लिए हैं. उन्हें बिना किसी की सहायता के अपनेआप करने की आदत डालो,’’ आरती ने नाराजगी भुला कर उसे प्यार से समझाया.

‘‘आप या सौम्या दीदी साथ में खड़ी रहती हो, तो मेरा आत्मविश्वास बना रहता है. आप दोनों से तो मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है.’’

‘‘मैं साथ में खड़ी हूं, पर सारे मसाले अपने हाथ से बेसन में तुम ही डालो. आज तारीफ करवाने लायक पकौड़े सब को खिलाओ.’’

‘‘जी,’’ शिखा छोटी बच्ची जैसे अंदाज में बोली. फिर काम में जुट गई. शिखा के ससुर उमाकांत, ननद सौम्या और पति समीर को आरती ने ड्राइंगरूम में 10 मिनट बाद जब अपनी बहू के चिल्ला कर उन्हें बुलाने का कारण बताया, तो तीनों हंस पड़े.

‘‘घर के कामों में तो बहू ढीली है, पर जोश की कोई कमी नहीं है उस में. हम में से कोई अभी तक नहाया भी नहीं है और वह नहाधो कर पकौड़े बना रही है,’’ उमाकांत ने अपनी बहू की एक तरह से तारीफ ही की.

‘‘शिखा टैंशन में जल्दी आ जाती है, पापा. मैं तो कभीकभी सोचता हूं कि औफिस में उस का काम कैसे चलता होगा,’’ समीर ने हैरानी प्रकट की.

‘‘भाभी की गजब की सुंदरता उन्हें हर तरह की परेशानी में फंसने से बचा लेती होगी, भैया. उन की हैल्प करने को तो पूरा औफिस सदा तैयार रहता होगा,’’ सौम्या के इस मजाक पर उन सभी के ठहाके कमरे में गूंज उठे. ‘‘पापा, उसे टीवी का रिमोट तक तो ढंग से चलाना आता नहीं. पता नहीं कंप्यूटर के सामने बैठ कर वह कैसीकैसी बेढंगी गलतियां करती होगी,’’ समीर बोला.

‘‘ये हैरानी की बात नहीं है कि हम भाभी के औफिस के किसी भी सहयोगी को नहीं जानते हैं. आज तक इस के औफिस के किसी भी व्यक्ति ने हमारे घर में कदम नहीं रखा है,’’ सौम्या की इस बात को सुनने के बाद वे सभी हैरान नजर आने लगे थे. ‘‘मैं भी आज तक 1 या 2 बार ही इस के औफिस गया हूं. वैसे हम उन लोगों से नहीं मिलते हैं, यह अच्छी ही बात है,’’ समीर की आंखों में शरारती चमक उभरी.

‘‘यह अच्छी बात क्यों है?’’ सौम्या ने उत्सुकता दिखाई.

‘‘वे जब शिखा के काम की कमियों और उस की नासमझी दर्शाने वाले किस्से सुनासुना कर हमारे कान पका देंगे तब क्या होगा?’’ समीर के इस मजाक पर वे सब खुल कर हंस नहीं पाए, क्योंकि गरमगरम पकौड़े ले कर शिखा वहां पहुंच गई थी.

‘‘मेरे औफिस के बारे में बात चल रही थी क्या?’’ पकौड़ों की प्लेट मेज पर रख कर शिखा ने मुसकराते हुए सवाल पूछा.

‘‘हां, बात तो हम तुम्हारे औफिस वालों के बारे में ही कर रहे थे,’’ समीर ने गंभीर होते हुए जवाब दिया.

‘‘क्या बातें कर रहे थे?’’

‘‘यही कि वे लोग कितने खुश होंगे कि तुम उन सब के साथ काम करती हो. तुम्हारी मौजूदगी के कारण हर सहयोगी को कितना अलर्ट रहना पड़ता होगा.’’

‘‘अलर्ट तो वाकई रहना पड़ता होगा, भैया. वह कहावत नहीं सुनी है क्या आप ने?’’ सौम्या के लिए अपनी हंसी रोकना कठिन हो रहा था.

‘‘कौन सी कहावत?’’

‘‘वही कि सावधानी हटी और दुर्घटना घटी.’’ उन सब की हंसी का बुरा न मानते हुए शिखा ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मेरी टांग खींचने के साथसाथ पकौड़ों का आनंद भी लेते रहें, प्लीज.’’

‘‘वैसे एक बात बताओ बहू, तुम ने आज तक अपने सहयोगियों को यहां घर बुला कर हम से क्यों नहीं मिलवाया है?’’ उमाकांत ने बातचीत का विषय बदलने की समझदारी दिखाई.

‘‘पापा, कभी ऐसा कोई मौका ही नहीं आया.’’

‘‘तो अब आ रहा है मौका. समीर, अपनी शादी की पहली ऐनिवर्सरी के मौके पर तुम इस के विभाग के सभी सहयोगियों को यहां दावत दो.’’ ‘‘ठीक है पापा, हमारी ये जीनियस जिन लोगों के साथ काम करती है, उन से मिलने का वक्त अब आ ही गया है,’’ समीर के इस मजाक पर अन्य लोगों के साथ शिखा भी हंसी, पर उस की आंखों में हलकी सी चिंता के भाव भी उभरे जिन्हें कोई समझ नहीं पाया. ऐनिवर्सरी वाले दिन रसोई में शिखा ने अपनी सास और ननद के हाथपैर अपनी चिंता के कारण फुला दिए.

‘‘वे सब लोग 1 बजे लंच करने आ जाएंगे. सब काम वक्त से पूरा हो जाएगा न, मम्मी?’’ ऐसे सवाल पूछपूछ कर शिखा ने उन दोनों का दिमाग खा लिया. उस पर न किसी के समझाने का असर हो रहा था, न डांटनेडपटने का. ड्राइंगरूम की सजावट को ले कर वह समीर से कई बार उलझ पड़ी थी. उस की सास ने उसे जबरदस्ती तैयार होने के लिए रसोई से बाहर भेज दिया. सजधज कर शिखा जब सही वक्त पर ड्राइंगरूम में पहुंची, तो उस के औफिस के सहयोगी और घर वाले उसे देखते ही रह गए. उस का रूप लावण्य इस वक्त किसी फिल्म अभिनेत्री को भी मात कर रहा था. उस के बौस संजीव ने उसे फूलों का सुंदर गुलदस्ता भेंट किया. उन के साथ आए नवीन, मीनू, अंजू और अमित ने मिल कर समीर और शिखा के साथ फोटो खिंचवाया. वे लोग अपने साथ केक लाए थे. केक को मेज पर सजाने के बाद सारे लोग समीर और शिखा के इर्दगिर्द इकट्ठे हो गए.

‘‘भाभी पल्ला संभालो, प्लीज. बहू, चाकू संभाल कर पकड़ो. देखो, हाथ न काट लेना. और बहू, मेज से जरा दूर रहो. ठोकर लग गई तो सब प्लेटें फर्श पर गिर जाएंगी.’’ शिखा के घर वाले उस को लगातार हिदायतें दे कर कभी हंस पड़ते, तो कभी फिक्रमंद नजर आने लगते.

केक खाते हुए उमाकांत ने संजीव को सहज भाव से मुसकराते हुए बताया, ‘‘हमारी बहू हम सब की बड़ी लाडली है, पर कभीकभी यह जोश में होश खो बैठती है.’’ कुछ दूरी पर आरती मीनू और अंजू को सफाई दे रही थीं, ‘‘हमारे घर में आ कर बहुत कुछ सीख लिया है शिखा ने. जब ये नईनवेली दुलहन बन कर आई थी, तब इसे ढंग से चपाती बनानी भी नहीं आती थी. हम सब न संभालें, तो अभी भी ये गड़बड़ कर देती है.’’ समीर ने नवीन और अमित से झेंपते हुए कहा, ‘‘दोस्तो, औफिस में अगर शिखा से कोई गलती हो जाती है, तो प्लीज, संभाल लिया करो. किसी भी नई चीज को सीखने में उसे वक्त जरूर लगता है, लेकिन इस में कोई शक नहीं कि वह बहुत मेहनती है.’’

उस वक्त शिखा रसोई में गई हुई थी. समीर की बात सुन कर अमित पहले हैरान हुआ फिर संजीव की तरफ मुड़ कर उस ने ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘सर, क्या आप ने यह नोट किया है कि अपनी शिखा की छवि घर में ज्यादा अच्छी नहीं है?’’ ‘‘बिलकुल किया है,’’ संजीव बोले. फिर उमाकांतजी की तरफ मुड़ कर गंभीर लहजे में पूछा, ‘‘सर, क्या आप सब लोगों की नजरों में शिखा कमअक्ल या कुछकुछ फूहड़ लड़की है?’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं, संजीवजी. अभी उस की उम्र ज्यादा नहीं है. धीरेधीरे वह सब सीख जाएगी,’’ उमाकांतजी ने फौरन सफाई दी.

‘‘आप लोगों की बातों से तो हमें ऐसा ही अंदाजा हुआ है.’’

‘‘क्या ये औफिस में कुछ गड़बड़ नहीं करती है?’’ आरती ने माथे पर बल डाल कर सवाल पूछा.

‘‘शिखा और गड़बड़, मैडम यह तो मेरी टीम की बैस्ट वर्कर है.’’

‘‘लेकिन…लेकिन घर में तो यह छोटेछोटे कामों में भी गड़बड़ कर जाती है.’’

‘‘यह बात तो विश्वास करने लायक नहीं है, मैडम. देखिए, मैं आप सब को अपने इन लोगों से पुछवाता हूं. अमित, सब से ज्यादा प्रभावशाली प्रैजेटेंशन कौन देता है?’’

‘‘शिखा, सर.’’

‘‘अंजू, हमारी महत्त्वपूर्ण क्लायंट्स के साथ होने वाली मीटिंग्स में मेरे साथ कौन जाता है?’’ ‘‘शिखा, सर. लोगों को अपनी बात प्रभावशाली ढंग से समझाने की कला उसे ही सब से अच्छी तरह से आती है.’’

‘‘मीनू, कंप्यूटर से नई जानकारियां कौन ढूंढ़ कर रखता है?’’

‘‘सर, शिखा ही इस काम में सब से कुशल है. कंप्यूटर सौफ्टवेयर की जितनी जानकारी इसे है, उतनी तो सौफ्टवेयर इंजीनियर को ही होती है.’’

‘‘नवीन, कुछ दिन पहले दवा बनाने वाली कंपनी के साथ जो घटना घटी थी, उसे सब को बताओ, प्लीज.’’

‘‘उस कंपनी ने अपनी एक दर्दनिवारक गोली को मार्केट में बेचने की जिम्मेदारी हमारी शिखा को देने के लिए एक प्रैजैंटेशन का आयोजन किया था. उस का दावा यह था कि उस गोली में दर्द कम करने के साथसाथ दर्द के कारण मरीज के अंदर पैदा हुई टैंशन को कम करने की दवा भी मिली हुई है. ‘‘उस कंपनी का प्रतिनिधि उस गोली की बड़ाई बड़े उत्साह से कर रहा था कि तभी शिखा ने ऊंची आवाज में कहा कि ये गोली जिस मरीज ने खाई, उसे दर्द से पक्का छुटकारा यकीनन मिल जाएगा, क्योंकि दर्द महसूस करने के लिए वह जिंदा ही नहीं बचेगा.’’

‘‘आप किस आधार पर ये आरोप लगा रही हैं, मैडम? उस अचंभित प्रतिनिधि द्वारा पूछे गए इस सवाल के जवाब में शिखा ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा कि क्योंकि टैंशन कम करने वाली दवा की मान्य खुराक 0.5 मि.ग्रा. है और आप की टैबलेट में उस दवा की मात्रा 5 मि.ग्रा. है जो कि 10 गुना ज्यादा होने के कारण मरीज को गहरी बेहोशी में ले जा कर उस की जान को खतरे में डाल देगी. ‘‘उस प्रतिनिधि ने शिखा से बहस करनी चाही, पर उस की एक न चली क्योंकि हमारी शिखा को उस दवा के सारे दुष्प्रभाव जबानी याद थे. तब मजबूरन उस कंपनी के चीफ कैमिस्ट को सारी बात बताई गई. खोजबीन से यह तो साबित हो गया कि गोली में तो दवा की सही मात्रा ही है, पर टाइपिंग की गलती के कारण दवा की मात्रा 10 गुना ज्यादा छप गई थी. ‘‘चीफ कैमिस्ट ने शिखा को फोन कर के माफी मांगी और उस की समझदारी व सतर्कता की खूब प्रशंसा भी की. हमारे एम.डी. ने हमारे विभाग में आ कर जब शिखा की पीठ थपथपाई, तो हम सब का सीना गर्व से तन गया था,’’ उस घटना का ब्योरा सुनातेसुनाते नवीन बहुत भावुक हो गया था.

‘‘मेरे विभाग का सब से ज्यादा चमकता सितारा घर में बुद्धू और फूहड़ समझा जाता है, यह बात हमें बिलकुल हजम नहीं हो रही है,’’ संजीव सब से ज्यादा हैरान नजर आ रहे थे. घर का कोई सदस्य आगे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाता, उस से पहले ही शिखा की आवाज सब तक पहुंची, ‘‘सर, आप सब मेरी इतनी ज्यादा बड़ाई कर के क्यों मेरी टांग खींच रहे हैं? मैं कहां कुशल हूं अपने औफिस के कामों में? और घर के कामों में तो मेरी समझ और भी कम है. मम्मी और दीदी की हैल्प न हो, तो खाना बनाने की बात तो दूर रही, मैं अकेली आज बना खाना सब को ढंग से खिला भी नहीं पाऊंगी.’’ फिर यह कहते हुए आप दोनों मेरे साथ आओ न,’’ कहते हुए शिखा ने अपनी सास और ननद के हाथ पकड़े और उन्हें खींचती हुई रसोई की तरफ ले गई. वहां उपस्थित हर व्यक्ति की आंखों में इस वक्त हैरानी के भाव साफ नजर आ रहे थे. क्या शिखा सचमुच औफिस के काम में बहुत कुशल है? तो उस की वह कार्यकुशलता घर के काम करते हुए कहां और क्यों खो जाती है? यह सवाल शिखा के पति, सासससुर और ननद के लिए अचरज का कारण बना हुआ था. औफिस के हर काम में होशियार और काबिल शिखा की घर में छवि इतनी खराब कैसे हो सकती है? इस सवाल ने उस के बौस और सहयोगियों को हैरानपरेशान किया हुआ था. शिखा उन को चाह कर भी घर में नाकाबिलीयत मुखौटा पहन कर जीने का कारण नहीं बता सकती थी. वह कैसे उन्हें समझती कि शादी के बाद शुरूशुरू में उस की सुंदरता व हर काम को बड़ी कुशलता से करने का ढंग उस के पति, सासससुर और ननद के अंदर अजीब सी हीनभावना पैदा कर देता था. तब वे सब उस से खिंचेखिंचे से रहते थे और उस के अवगुण ढूंढ़ कर उसे नीचा दिखाने का मौका कभी नहीं चूकते थे.

इस समस्या का समाधान तब उसे यही नजर आया था कि वह अपने गुणों को छिपाना शुरू कर दे. इसलिए बिना जरूरत वह अपने ससुराल में असहाय, बेबस और अकुशल सी बनी रहने लगी थी. उस की कार्यकुशलता की तारीफ कर उस के बौस और सहयोगियों ने उस दिन शिखा द्वारा ओढ़े जाने वाले मुखौटे के पीछे छिपी असलियत उस के घर वालों को दिखाई थी. उस ने बात को संभालने की कोशिश जरूर की पर मामला बिगड़ गया लगने लगा था. अपने मुखौटे को और ज्यादा मजबूत बनाने के लिए शिखा ने गरम कड़ाही को छुआ और चिल्ला पड़ी, ‘‘हाय राम, हाथ जल गया मेरा.’’ ‘‘बहू, तुम जरा गैस से दूर रहो. पता नहीं औफिस में तुम कंप्यूटर पर करंट खाए बिना कैसे काम कर लेती हो,’’ अपनी सास के मुंह से इस डांट को सुन कर शिखा मन ही मन खुश हो उठी, क्योंकि ससुराल में सुखशांति से जीने की उस की तरकीब के आगे भी सफल बने रहने की उम्मीद फिर से लौट आई थी.

मोक्ष: क्या गोमती मोक्ष की प्राप्ति कर पाई?

‘‘मां,कुंभ नहाने चलोगी? काफी दिन से कह रही थीं कि मुझे गंगा नहला ला. इस बार तुम्हें नहला लाता हूं. आज ट्रेन का टिकट करा लिया है.’’

यह सुन कर गोमती चहक उठीं, ‘‘तू सच कह रहा है श्रवण, मुझे यकीन नहीं हो रहा.’’

‘‘यकीन करो मां, ये देखो टिकटें,’’ श्रवण ने जेब से टिकटें निकाल कर गोमती को दिखाईं और बोला, ‘‘अब जाने की तैयारी कर लेना, जोजो सामान चाहिए बता देना. अगले हफ्ते आज के ही दिन चलेंगे.’’

‘‘कौनकौन चलेगा बेटा? सभी चल रहे हैं न?’’

‘‘नहीं मां, सब जा कर क्या करेंगे? कुंभ पर बहुत भीड़ रहती है. सब को संभालना मुश्किल होगा. बस, हम दोनों ही चलेंगे.’’

गोमती ने श्वेता की ओर देखा. उन के अकेले जाने से कहीं बहू नाराज न हो. उन्हें लगा कि इतनी उम्र में अकेली बेटे के साथ कैसे जाएंगी? श्रवण कैसे संभालेगा उन्हें. घर में तो जैसेतैसे अपना काम कर लेती हैं, बाहर कै से उठेंगीबैठेंगी. घड़ीघड़ी श्रवण का सहारा मांगेंगी. फिर कहीं सब के सामने ही श्रवण झल्लाने लगा तो? दुविधा हुई उन्हें.

‘‘अब क्या सोचने लगीं, मांजी? आप के बेटे कह रहे हैं तो घूम आइए. हम सब तो फिर कभी चले जाएंगे. इस के बाद पूरे 12 साल बाद ही कुंभ पडे़गा.’’

‘‘बहू, क्या श्रवण मुझे संभाल पाएगा?’’ गोमती ने अपना संशय सामने रखा तो श्रवण हंस पड़ा.

‘‘मां को अब अपने बेटे पर विश्वास नहीं है. जैसे आप बचपन में मेरा ध्यान रखती थीं वैसे ही रखूंगा. कहीं भी आप का हाथ नहीं छोडूंगा. खूब मेला घुमाऊंगा.’’

श्रवण की बात पर गोमती प्रसन्न हो गईं. उन की चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी होने जा रही थी. कुंभ स्नान कर मोक्ष पाने की कामना वह कब से कर रही थीं. कई बार श्रवण से कह चुकी थीं कि मरने से पहले एक बार कुंभ स्नान करना चाहती हैं. कुंभ पर नहीं ले जा सकता तो ऐसे ही हरिद्वार ले चल. वक्त खिसकता रहा, बात टलती रही. अब जब श्रवण अपनेआप कह रहा है तो उन का मन प्रसन्नता से नाचने लगा. उन्होंने बहूबेटे को आशीर्वाद से लाद दिया.

1 रात 1 दिन का सफर तय कर मांबेटा दोनों इलाहाबाद पहुंचे. गोमती का तो सफर में ही बुरा हाल हो गया. ट्रेन के धड़धड़ के शोर और सीटी ने रात भर गोमती को सोने नहीं दिया. श्रवण का हाथ थामे वह बारबार टायलेट जाती रहीं. ट्रेन खिसकने लगती तो पांव डगमगाने लगते. गिरतीपड़ती सीट तक पहुंचतीं.

‘‘अभी सफर शुरू हुआ है मां, आगे कैसे करोगी? संभालो स्वयं को.’’

‘‘संभाल रही हूं बेटा, पर इस बुढ़ापे में हाथपांव झूलर बने रहते हैं. पकड़ ढीली पड़ जाती है. इस का इलाज मुझ पर नहीं है,’’ वह बेबस सी हो जातीं.

‘‘कोई बात नहीं. मैं हूं न, सब संभाल लूंगा,’’ श्रवण उन की बेबसी को समझता.

खैर, सोतेजागते गोमती का सफर पूरा हुआ. गाड़ी इलाहाबाद स्टेशन पर रुकी तो प्लेटफार्म की चहलपहल और भीड़ देख कर वह हैरान रह गईं. श्रवण ने अपने कंधे पर बैग टांग लिया और एक हाथ से मां का हाथ पकड़ कर स्टेशन से बाहर आ गया.

शहर आ कर श्रवण ने देखा कि आकाश में घटाएं घुमड़ रही थीं. यह सोच कर कि क्या पता कब बादल बरसने लगें, उस ने थोड़ी देर स्टेशन पर ही रुकने का फैसला किया. मां के साथ वह वेटिंग रूम में जा कर बैठ गया. थोड़ी देर बाद मां से बोला, ‘‘मां, नित्यकर्म से यहीं निबट लो. जब तक बारिश रुकती है हम आराम से यहीं रुकेंगे. पहले आप चली जाओ,’’  और उस ने इशारे से मां को बता दिया कि कहां जाना है. थोड़ी देर में गोमती लौट आईं. फिर श्रवण चला गया. श्रवण जब लौटा तो उस के हाथ में गरमागरम चाय के 2 कुल्हड़ और एक थैली में समोसे थे. मांबेटे ने चाय पी और समोसे खाए. थोड़ा आराम मिला तो गोमती की आंखें झपकने लगीं. पूरी रात आंखों में कटी थी. वहीं सोफे की टेक ले कर आंखें मूंद लीं.

करीब घंटे भर बाद सूरज फिर से झांकने लगा. वर्षा के कारण स्टेशन पर भीड़ बढ़ गई थी. अब धीरेधीरे छंटने लगी. गोमती और श्रवण ने भी आटोरिकशा पकड़ कर गंगाघाट तक पहुंचने का मन बनाया.

आटोरिकशा ने मेलाक्षेत्र शुरू होते ही उन्हें उतार दिया. करीब 1 किलोमीटर पैदल चल कर वे गंगाघाट तक पहुंचे. गिरतेपड़ते बड़ी मुश्किल से एक डेरे में थोड़ा सा स्थान मिला. दोनों ने चादर बिछा कर अपना सामान जमाया और नहाने चल दिए.

गोमती ने अपने अब तक के जीवन में इतनी भीड़ नहीं देखी थी. कहीं लाउडस्पीकरों का शोर, कहीं भजन गाती टोलियां, कहीं साधुसंतों के प्रवचन, कहीं रामायण पाठ, खिलौने वाले, झूले वाले, पूरीकचौरी, चाट व मिठाई की दुकानें, धार्मिक किताबों, तसवीरों, मालाओं व सिंदूर की दुकानें, हर जातिधर्म के लोगों को देखदेख कर गोमती चकित थीं. लगता था किसी दूसरे लोक में आ गई हैं. वह श्रवण का हाथ कस कर थामे थीं.

भीड़ में रास्ता बनाता श्रवण उन्हें गंगा किनारे तक ले आया. यहां भी खूब भीड़ और धक्कमधक्का था. श्रवण ने हाथ पकड़ कर मां को स्नान कराया, फिर स्वयं किया. गोमती ने फूलबताशे गंगा में चढ़ाए. जाने कब से मन में पली साध पूरी हुई थी. हर्षातिरेक में आंसू निकल पडे़, हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि हे गंगा मैया, श्रवण सा बेटा हर मां को देना. आज उसी के कारण तुम्हारे दर्शन कर सकी हूं.

श्रवण ने मां को मेला घुमाया. खूब खिलायापिलाया.

‘‘थक गई हूं. अब नहीं चला जाता, श्रवण,’’ गोमती के कहने पर श्रवण उन्हें डेरे पर ले आया.

‘‘मां, तुम आराम करो. मैं घूम कर अभी आया. थोड़े रुपए अपने पास रख लो,’’ उस ने मां को रुपए थमाए.

‘‘मैं इन रुपयों का क्या करूंगी? तू है तो मेरे पास. फिर 5-10 रुपए हैं मेरे पास,’’ गोमती ने मना किया.

‘‘वक्तबेवक्त काम आएंगे. तुम्हारा ही कुछ लेने का मन हो या कहीं मेले में मेरी जेब ही कट जाए तो…’’ श्रवण के समझाने पर गोमती ने रुपए ले लिए. गोमती ने रुपए संभाल कर रख लिए. उन्हें ध्यान आया कि ऐसे मेलों में चोर- उचक्के खूब घूमते हैं. लोगों को बेवकूफ बना कर हाथ की सफाई दिखा कर खूब ठगते हैं.

श्रवण चला गया और गोमती थैला सिर के नीचे लगा बिछी चादर पर लेट गईं. उन का मन आह्लादित था. श्रवण ने खूब ध्यान रखा है. लेटेलेटे आंखें झपक गईं. जब खुलीं तो देखा कि सूरज ढलने जा रहा है और श्रवण अभी लौटा नहीं है.

उन्हें चिंता हो आई. अनजान जगह, अजनबी लोग, श्रवण के बारे में किस से पूछें? अपना थैला टटोल कर देखा. सब- कुछ यथास्थान सुरक्षित था. कुछ रुपए एक रूमाल में बांध कर चुपचाप कपड़ों के साथ थैले में डाल लाई थीं. सोचा था पता नहीं परदेश में कहां जरूरत पड़ जाए. उसी रूमाल में श्रवण के दिए रुपए भी रख लिए.

वह डेरे से बाहर आ कर इधरउधर देखने लगीं. आदमियों का रेला एक तरफ तेजी से भागने लगा. वह कुछ समझ पातीं कि चीखपुकार मच गई. पता लगा कि मेले में हाथी बिगड़ जाने से भगदड़ मच गई है. काफी लोग भगदड़ में गिरने के कारण कुचल कर मर गए हैं.

सुन कर गोमती का कलेजा मुंह को आने लगा. कहीं उन का श्रवण भी…क्या इसी कारण अभी तक नहीं आया है? उन्होंने एक यात्री के पास जा कर पूछा, ‘‘भैया, यह किस समय की बात है?’’

‘‘मांजी, शाम 4 बजे नागा साधु हाथियों पर बैठ कर स्नान करने जा रहे थे और पैसे फेंकते जा रहे थे. उन के फेंके पैसों को लूटने के कारण यह कांड हुआ. जो जख्मी हैं उन्हें अस्पताल पहुंचाया जा रहा है और जो मर गए हैं उन्हें सरकारी गाड़ी से वहां से हटाया जा रहा है. आप का भी कोई है?’’

‘‘भैया, मेरा बेटा 2 बजे घूमने निकला था और अभी तक नहीं लौटा है.’’

‘‘उस का कोई फोटो है, मांजी?’’ यात्री ने पूछा.

‘‘फोटो तो नहीं है. अब क्या करूं?’’ गोमती रोने लगीं.

‘‘मांजी, आप रोओ मत. देखो, सामने पुलिस चौकी है. आप वहां जा कर पता करो.’’

गोमती ने चादर समेट कर थैले में रखी और पुलिस चौकी पहुंच कर रोने लगीं. लाउडस्पीकर से कई बार एनाउंस कराया गया. फिर एक सहृदय सिपाही अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा कर गोमती को वहां ले गया जहां मृतकों को एकसाथ रखा गया था. 1-2 अस्थायी बने अस्पतालों में भी ले गया, जहां जख्मी पड़े लोग कराह रहे थे और डाक्टर उन  की मरहमपट्टी करने में जुटे थे. श्रवण का वहां कहीं भी पता न था. तभी गोमती को ध्यान आया कि कहीं श्रवण डेरे पर लौट न आया हो और उन का इंतजार कर रहा हो या उन्हें डेरे पर न पा कर वह भी उन्हीं की तरह तलाश कर रहा हो. हालांकि पुलिस चौकी पर वह अपने बेटे का हुलिया बता आई थीं और लौटने तक रोके रखने को भी कह आई थीं.

गोमती ने आ कर मालूम किया तो पता चला कि उन्हें पूछने कोई नहीं आया था. वह डेरे पर गईं. वहां भी नहीं. आधी रात कभी डेरे में, कभी पुलिस चौकी पर कटी. जब रात के 12 बज गए तो पुलिस वालों ने कहा, ‘‘मांजी, आप डेरे पर जा कर आराम करो. आप का बेटा यहां पूछने आया तो आप के पास भेज देंगे.’’

पुत्र के लिए व्याकुल गोमती उसे खोजते हुए डेरे पर लौट आईं. चादर बिछा कर लेट गईं लेकिन नींद आंखों से कोसों दूर थी. कहां चला गया श्रवण? इस कुंभ नगरी में कहांकहां ढूंढ़ेंगी? यहां उन का अपना है कौन? यदि श्रवण न लौटा तो अकेली घर कैसे लौटेंगी? बहू का सामना कैसे करेंगी? खुद को ही कोसने लगीं, व्यर्थ ही कुंभ नहाने की जिद कर बैठी. टिकट ही तो लाया था श्रवण, यदि मना कर देती तो टिकट वापस भी हो जाते. ऐसी फजीहत तो न होती.

फिर गोमती को खयाल आया कि कोई श्रवण को बहलाफुसला कर तो नहीं ले गया. वह है भी सीधा. आसानी से दूसरों की बातों में आ जाता है. किसी ने कुछ सुंघा कर बेहोश ही कर दिया हो और सारे पैसे व घड़ीअंगूठी छीन ली हो. मन में उठने वाली शंकाकुशंकाओं का अंत न था.

दिन निकला. वह नहानाधोना सब भूल कर, सीधी पुलिस चौकी पहुंच गईं. एक ही दिन में पुलिस चौकी वाले उन्हें पहचान गए थे. देखते ही बोले, ‘‘मांजी, तुम्हारा बेटा नहीं लौटा.’’

रोने लगीं गोमती, ‘‘कहां ढूंढू़ं, तुम्हीं बताओ. किसी ने मारकाट कर कहीं डाल दिया हो तो. तुम्हीं ढूंढ़ कर लाओ,’’ गोमती का रोतेरोते बुरा हाल हो गया.

‘‘अम्मां, धीरज धरो. हम जरूर कुछ करेंगे. सभी डेरों पर एनाउंस कराएंगे. आप का बेटा मेले में कहीं भी होगा, जरूर आप तक पहुंचेगा. आप अपना नाम और पता लिखा दो. अब जाओ, स्नानध्यान करो,’’ पुलिस वालों को भी गोमती से हमदर्दी हो गई थी.

गोमती डेरे पर लौट आईं. गिरतीपड़ती गंगा भी नहा लीं और मन ही मन प्रार्थना की कि हे गंगा मैया, मेरा श्रवण जहां कहीं भी हो कुशल से हो, और वहीं घाट पर बैठ कर हर आनेजाने वाले को गौर से देखने लगीं. उन की निगाहें दूरदूर तक आनेजाने वालों का पीछा करतीं. कहीं श्रवण आता दीख जाए. गंगाघाट पर बैठे सुबह से दोपहर हो गई. कल शाम से पेट में पानी की बूंद भी न गई थी. ऐंठन सी होने लगी. उन्हें ध्यान आया, यदि यहां स्वयं ही बीमार पड़ गईं तो अपने  श्रवण को कैसे ढूंढ़ेंगी? उसे ढूंढ़ना है तो स्वयं को ठीक रखना होगा. यहां कौन है जो उन्हें मनुहार  कर खिलाएगा.

गोमती ने आलू की सब्जी के साथ 4 पूरियां खाईं. गंगाजल पिया तो थोड़ी शांति मिली.  4 पूरियां शाम के लिए यह सोच कर बंधवा लीं कि यहां तक न आ सकीं तो डेरे में ही खा लेंगी या भूखा श्रवण लौटेगा तो उसे खिला देंगी. श्रवण का ध्यान आते ही उन्होंने कुछ केले भी खरीद लिए. ढूंढ़तीढूंढ़ती अपने डेरे पर पहुंच गईं. पुलिस चौकी में भी झांक आईं.

देखते ही देखते 8 दिन निकल गए. मेला उखड़ने लगा. श्रवण भी नहीं लौटा. अब पुलिस वालों ने सलाह दी, ‘‘अम्मां, अपने घर लौट जाओ. लगता है आप का बेटा अब नहीं लौटेगा.’’

‘‘मैं इतनी दूर अपने घर कैसे जाऊंगी. मैं तो अकेली कहीं आईगई नहीं,’’ वह फिर रोने लगीं.

‘‘अच्छा अम्मां, अपने घर का फोन नंबर बताओ. घर से कोई आ कर ले जाएगा,’’ पुलिस वालों ने पूछा.

‘‘घर से मुझे लेने कौन आएगा? अकेली बहू, बच्चों को छोड़ कर कैसे आएगी.’’

‘‘बहू किसी नातेरिश्तेदार को भेज कर बुलवा लेगी. आप किसी का भी नंबर बताओ.’’

गोमती ने अपने दिमाग पर लाख जोर दिया, लेकिन हड़बड़ाहट में किसी का नंबर याद नहीं आया. दुख और परेशानी के चलते दिमाग में सभी गड्डमड्ड हो गए. वह अपनी बेबसी  पर फिर रोेने लगीं. बुढ़ापे में याददाश्त भी कमजोर हो जाती है.

पुलिस चौकी में उन्हें रोता देख राह चलता एक यात्री ठिठका और पुलिस वालों से उन के रोने का कारण पूछने लगा. पुलिस वालों से सारी बात सुन कर वह यात्री बोला, ‘‘आप इस वृद्धा को मेरे साथ भेज दीजिए. मैं भी उधर का ही रहने वाला हूं. आज शाम 4 बजे टे्रन से जाऊंगा. इन्हें ट्रेन से उतार बस में बिठा दूंगा. यह आराम से अपने गांव पीपला पहुंच जाएंगी.’’

सिपाहियों ने गोमती को उस अनजान व्यक्ति के साथ कर दिया. उस का पता और फोन नंबर अपनी डायरी में लिख लिया. गोमती उस के साथ चल तो रही थीं पर मन ही मन डर भी रही थीं कि कहीं यह कोई ठग न हो. पर कहीं न कहीं किसी पर तो भरोसा करना ही पड़ेगा, वरना इस निर्जन में वह कब तक रहेंगी.

‘‘मांजी, आप डरें नहीं, मेरा नाम बिट्ठन लाल है. लोग मुझे बिट्ठू कह कर पुकारते हैं. राजकोट में बिट्ठन लाल हलवाई के नाम से मेरी दुकान है. आप अपने गांव पहुंच कर किसी से भी पूछ लेना. भरोसा रखो आप मुझ पर. यदि आप कहेंगी तो घर तक छोड़ आऊंगा. यह संसार एकदूसरे का हाथ पकड़ कर ही तो चल रहा है.’’

अब मुंह खोला गोमती ने, ‘‘भैया, विश्वास के सहारे ही तो तुम्हारे साथ आई हूं. इतना उपकार ही क्या कम है कि तुम मुझे अपने साथ लाए हो. तुम मुझे बस में बिठा दोगे तो पीपला पहुंच जाऊंगी. पर बेटे के न मिलने का गम मुझे खाए जा रहा है.’’

अगले दिन लगभग 1 बजे गोमती बस से अपने गांव के स्टैंड पर उतरीं और पैदल ही अपने घर की ओर चल दीं. उन के पैर मनमन भर के हो रहे थे. उन्हें यह समझ में न आ रहा था कि बहू से कैसे मिलेंगी. इसी सोचविचार में वह अपने घर के द्वार तक पहुंच गईं. वहां खूब चहलपहल थी. घर के आगे कनात लगी थीं और खाना चल रहा था. एक बार तो उन्हें लगा कि वह गलत जगह आ गई हैं. तभी पोते तन्मय की नजर उन पर पड़ी और वह आश्चर्य और खुशी से चिल्लाया, ‘‘पापा, दादी मां लौट आईं. दादी मां जिंदा हैं.’’

उस के चिल्लाने की आवाज सुन कर सब दौड़ कर बाहर आए. शोर मच गया, ‘अम्मां आ गईं,’ ‘गोमती आ गई.’ श्रवण भी दौड़ कर आ गया और मां से लिपट कर बोला, ‘‘तुम कहां चली गई थीं, मां. मैं तुम्हें ढूंढ़ कर थक गया.’’

बहू श्वेता भी दौड़ कर गोमती से लिपट गई और बोली, ‘‘हाय, हम ने सोचा था कि मांजी…’’

‘‘नहीं रहीं. यही न बहू,’’ गोमती के जैसे ज्ञान चक्षु खुल गए, ‘‘इसीलिए आज अपनी सास की तेरहवीं कर रही हो और तू श्रवण, मुझे छोड़ कर यहां चला आया. मैं तो पगला गई थी. घाटघाट तुझे ढूंढ़ती रही. तू  सकुशल है… तुझे देख कर मेरी जान लौट आई.’’

मांबेटे दोनों की निगाहें टकराईं और नीचे झुक गईं.

‘‘अब यह दावत मां के लौट आने की खुशी के उपलक्ष्य में है. सब खुशीखुशी खाओ. मेरी मां वापस आ गई हैं,’’ खुशी से नाचने लगा श्रवण.

औरतों में कानाफूसी होने लगी, लेकिन फिर भी सब श्वेता और श्रवण को बधाई देने लगे.

वे सभी रिश्तेदार जो गोमती की गमी में शामिल होने आए थे, गोमती के पांव छूने लगे. कोई बाजे वालों को बुला लाया. बाजे बजने लगे. बच्चे नाचनेकूदने लगे. माहौल एकदम बदल गया. श्रवण को देख कर गोमती सब भूल गईं.

शाम होतेहोते सारे रिश्तेदार खापी कर विदा हो गए. रात को थक कर सब अपनेअपने कमरों में जा कर सो गए. गोमती को भी काफी दिन बाद निश्ंिचतता की नींद आई.

अचानक रात में मांजी की आंखें खुल गईं, वह पानी पीने उठीं. श्रवण के कमरे की बत्ती जल रही थी और धीरेधीरे बोलने की आवाज आ रही थी. बातों के बीच ‘मां’ सुन कर वह सट कर श्रवण के कमरे के बाहर कान लगा कर सुनने लगीं. श्वेता कह रही थी, ‘तुम तो मां को मोक्ष दिलाने गए थे. मां तो वापस आ गईं.’

‘मैं तो मां को डेरे में छोड़ कर आ गया था. मुझे क्या पता कि मां लौट आएंगी. मां का हाथ गंगा में छोड़ नहीं पाया. पिछले 8 दिन से मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी. मैं ने मां को मारने या त्यागने का पाप किया था. मैं सारा दिन यही सोचता कि भूखीप्यासी मेरी मां पता नहीं कहांकहां भटक रही होंगी. मां ने मुझ पर विश्वास किया और मैं ने मां के साथ विश्वासघात किया. मां को इस प्रकार गंगा घाट पर छोड़ कर आने का अपराध जीवन भर दुख पहुंचाता रहेगा. अच्छा हुआ कि मां लौट आईं और मैं मां की मृत्यु का कारण बनतेबनते बच गया.’

बेटे की बातें सुन कर गोमती के पैरों तले जमीन कांपने लगी. सारा दृश्य उन की आंखों के आगे सजीव हो उठा. वह इन 8 दिनों में लगभग सारा मेला क्षेत्र घूम लीं. उन्होंने बेटे के नाम की जगह- जगह घोषणा कराई पर अपने नाम की घोषणा कहीं नहीं सुनी. इतना बड़ा झूठ बोला श्रवण ने मुझ से? मुझ से मुक्त होने के लिए ही मुझे इलाहाबाद ले कर गया था. मैं इतना भार बन गई हूं कि मेरे अपने ही मुझे जीतेजी मारना चाहते हैं.

वह खुद को संभाल पातीं कि धड़ाम से वहीं गिर पड़ीं. सब झेल गईं पर यह सदमा न झेल सकीं.

सोनिया : सोनिया के आत्महत्या के पीछे क्या थी वजह

लेखक- बलदेव सिंह गहमरी

सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता.

उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था.

समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी.

बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं. वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’

जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी…

‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक 60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है?

‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं.

‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे. इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी.

कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई.

मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’

लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी.खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारातुम्हारा रिश्ता था.’

मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

हीरे की अंगूठी : क्या नैना से शादी कर पाया राहुल

लेखक- सुधा शुक्ला

नैना थी ही इतनी खूबसूरत. चंपई रंग, बड़ीबड़ी आंखें, पतली नाक, छोटेछोटे होंठ. वह हंसती तो लगता जैसे चांदी की छोटीछोटी घंटियां रुनझुन करती बज उठी हों. उस के अंगअंग से उजाले से फूटते थे.

राहुल और नैना दोनों शहर के बीच बहते नाले के किनारे बसी एक झुग्गी बस्ती में रहते थे. नीचे गंदा नाला बहता, ऊपर घने पड़ों की ओट में बने झोंपड़ीनुमा कच्चेपक्के घरों में जिंदगी पलती. बड़े शहर की चकाचौंध में पैबंद सी दिखती इस बस्ती में राहुल अपने मातापिता और छोटी बहन के साथ रहता था और यहीं रहती थी नैना भी.

राहुल के पिता रिकशा चलाते, मां घरघर जूठन धोती. नैना की मां भी यही काम करती और उस के बाबा पकौड़ी की फेरी लगाते.

नैना बड़े चाव से पकौड़ी बनाती, खट्टीमीठी चटनी तैयार करती, दही जमाती, प्याज, अदरक, धनिया महीनमहीन कतरती और सबकुछ पीतल की चमकती बड़ी सी परात में सजा कर बाबा को देती.

बाबा परात सिर पर उठाए गलीगली चक्कर काटते. दही, चटनी, प्याज डाल कर दी गई पकौड़ी हाथोंहाथ बिक जातीं.

नैना के बाबा को अच्छे रुपए मिल जाते, पर हाथ आए रुपए कभी पूरे घर तक न पहुंचते. ज्यादातर रुपए दारू में खर्च हो जाते. फिर नैना के बाबा कभी नाली में लोटते मिलते तो कभी कहीं गिरे पड़े मिलते.

ऐसे गलीज माहौल में पलीबढ़ी नैना की खूबसूरती पर हालात की कहीं कोई छाया तक नहीं झलकती थी. राहुल सबकुछ भूल कर नैना को एकटक देखता रह जाता था.

नैना के दीवानों की कमी न थी. कितने लोग उस के आगेपीछे मंडराया करते, पर उन में राहुल जैसा कोई दूसरा था ही नहीं.

राहुल भी कम सुंदर न था. भला स्वभाव तो था ही उस का. गरीबी में पलबढ़ कर, कमियों की खाद पा कर भी उस की देह लंबी, ताकतवर थी. एक से एक सुंदर लड़कियां उस के इर्दगिर्द चक्कर काटतीं, पर कोई किसी भी तरह उसे रिझा न पाती, क्योंकि उस के मन में तो नैना बसी थी.

नैना के मन में बसी थी हीरे की अंगूठी. उसे बचपन से हीरे की अंगूठी पहनने का चाव था. सोतेजागते उस के आगे हीरे की अंगूठी नाचा करती. अपनी इसी इच्छा के चलते एक दिन नैना ने सारे बंधन झुठला दिए. प्रीति की रीति भुला दी.

बस्ती के एक छोर पर पत्थर की टूटी बैंच पर नैना बैठी थी. काले रंग की छींट की फ्रौक पहने, जिस पर सफेद गुलाबी रंग के गुलाब बने थे. फ्रौक की कहीं सिलाई खुली, कहीं रंग उड़ा, पर वह पैर पर पैर चढ़ाए किसी राजकुमारी की सी शान से बालों में जंगली पीला फूल लगाए बैठी थी. सब उसी को देख रहे थे.

इतराते हुए बड़ी अदा से नैना बोली, ‘‘जो मेरे लिए हीरे की अंगूठी लाएगा, मैं उसी से शादी करूंगी.’’

नैना की ऐसी विचित्र शर्त सुन कर सब की उम्मीदों पर जैसे पानी फिर गया. राहुल को तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ.

धन्नो काकी यह तमाशा देख कर ठहरीं और हाथ नचाते हुए बोलीं, ‘‘घर में खाने को भूंजी भांग नहीं, उतरन के कपड़े, मांगे का सम्मान, मां घरघर जूठे बरतन धोए, बाप फेरी लगाए और दारू पीए और ये पहनेंगी हीरे की अंगूठी,’’ ऐसा कह कर वे आगे बढ़ गईं.

रंग में भंग हुआ. शायद नैना का प्रण टूट ही जाता, पर तभी राहुल के मुंह से निकला, ‘‘मैं पहनाऊंगा तुम्हें हीरे की अंगूठी,’’ और सब हैरानी से उसे देखते रह गए.

राहुल, जिस के घर में खाने के भी लाले थे, बीमार पिता की दवा के लिए पूरे पैसे नहीं थे, छत गिर रही थी, एक छोटी बहन ब्याहने को बैठी थी, उस राहुल ने नैना को हीरे की अंगूठी देने का वचन दे दिया. वह भी उसे जो उस का इंतजार करेगी भी या नहीं, यह वह नहीं जानता.

सचमुच राहुल के लिए हीरे की अंगूठी खरीदना और आकाश के तारे तोड़ना एक समान था. अभी तो वह पढ़ रहा है. बड़ा होनहार लड़का है वह. टीचर उसे बहुत प्यार करते हैं. उस की मदद के लिए तैयार रहते हैं.

राहुल पढ़लिख कर कुछ बनना चाहता है. राहुल की मां भी चाहती है कि वह पढ़लिख कर अपनी जिंदगी संवारे, इसीलिए वह हाड़तोड़ मेहनत कर राहुल को पढ़ा रही है.

राहुल की मां 35-36 साल की उम्र में ही 60 साल की दिखने लगी है. उसे लगता है कि उस का बेटा जग से निराला है. एक दिन वह पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनेगा और उस की सारी गरीबी दूर हो जाएगी, इसीलिए जब उसे पता चला कि राहुल ने नैना को हीरे की अंगूठी पहनाने का वचन दिया है तो उस के मन को गहरी ठेस लगी. थकी आंखों की चमक फीकी हो कर बुझ सी गई.

राहुल में ही तो उस की मां के प्राण बसते थे. अब तक मन में एक इसी आस के भरोसे कितनी तकलीफ सहती आई है कि राहुल बड़ा होगा तो उस के सारे कष्ट दूर देगा. वह भी जीएगी, हंसेगी, सिर उठा कर चलेगी. आज उस का यह सपना पानी के बुलबुले सा फूट गया.

अब क्या करे? राहुल तो अब ऐसी तलवार की धार पर, कांटों भरी राह पर चल पड़ा है जिस के आगे अंधेरे ही अंधेरे हैं.

मां ने राहुल को समझाने की भरसक कोशिश की और कहा, ‘‘अभी तू इन सब बातों में मत पड़ बेटा. बहुत छोटा है तू. पहले पढ़लिख कर कुछ बन जा, फिर यह सब करना.’’

‘‘मुझे रुपए चाहिए मां.’’

‘‘रुपए पेड़ों पर नहीं फलते. हम लोग तो पहले से ही सिर से पैर तक कर्ज में डूबे हैं.’’

‘‘मां, तुम नहीं समझोगी इन सब बातों को.’’

‘‘मुझे समझना भी नहीं है. मेरे पास बहुतेरे काम हैं. तू अभी…’’ मां की बात पूरी होने से पहले ही राहुल बिफर उठता. अब वह अपनी मां से, अपनों से दूर होता जा रहा था. नैना और हीरे की अंगूठी अब राहुल और उस के अपनों के बीच एक ऐसी दीवार के रूप में खड़ी हो गई थी जो हर पल ऊंची होती जा रही थी. उसे तो एक ही धुन सवार थी कि जल्दी से जल्दी ढेर सारा पैसा कमाना है ताकि हीरे की अंगूठी खरीद सके.

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राहुल जबतब किसी सुनार की दुकान के बाहर खड़ा हो कर अंदर देखा करता था. एक दिन उसे अंदर झांकते देख दरबान ने डांट कर भगा दिया. नैना को पाने की ख्वाहिश में वह अपनी हैसियत वगैरह सब भूल गया था.

राहुल को यह भी नहीं समझ आया कि वह नैना को प्यार करता है और नैना हीरे की अंगूठी को प्यार करती है. उस ने तो बस अपनी कामना का उत्सव मनाना चाहा, समर्पण के बजाय अपनी इच्छा को पूरा करने का जरीया बनाना चाहा.

राहुल अपनी पढ़ाई छोड़ इस शहर से बहुत दूर जा रहा था. जाने से पहले नैना से विदा लेने आया वह. भुट्टा खाती, एक छोटी सी मोटी दीवार पर बैठी पैर हिलाती नैना को वह अपलक देखता रहा.

नैना से विदा लेते हुए राहुल की आंखें मानो कह रही थीं, ‘काश, तुम जान सकती, पढ़ सकतीं मेरा मन और देख सकतीं मेरे दिल के भीतर जिस में बस तुम ही तुम हो और तुम्हारे सिवा कोई नहीं और न होगा कभी.

‘मैं ने वादा किया है तुम से, मैं लौट कर आऊंगा और सारे वचन निभाऊंगा. लाऊंगा अपने साथ अंगूठी जो होगी हीरे से जड़ी होगी, जैसी तुम्हारी उजली हंसी है. तुम मेरा इंतजार करना नैना. कहीं और दिल न लगा लेना. मैं जल्दी आ जाऊंगा. तुम मेरा इंतजार करना.’

राहुल अपने परिवार को छोड़ सब के सपने ताक पर रख हीरे की अंगूठी खरीदने के जुगाड़ में चल पड़ा. मां पुकारती रह गई. घर की जिम्मेदारियां गुहार लगाती रहीं. सुनहरा भविष्य पलकें बिछाए बैठा रह गया और राहुल सब को छोड़ कर दूसरी ओर मुड़ गया.

शहर आ कर राहुल ने 18-18 घंटे काम किया. ईंटगारा ढोना, अखबार बांटना, पुताई करना से ले कर न जाने कैसेकैसे काम किए. वहीं उसे प्रकाश मिला था, जो उसे गन्ना कटाई के लिए गांव ले गया. हाथों में छाले पड़ गए. गोरा रंग जल कर काला पड़ गया, पर रुपए हाथ में आते गए. हिम्मत बढ़ती गई.

अंधेरी स्याह रातों में कहीं कोने में गुड़ीमुड़ी सा पड़ा राहुल सोते समय भी सुबह का इंतजार करता रहता. मीलों दूर रहती नैना को देखने के लिए वह छटपटाता रहता.

समय का पहिया घूमता रहा. दिन, हफ्ते, महीने बीतते गए. हीरे की अंगूठी की शर्त लोग भूल गए, पर राहुल नहीं भूला. बड़ी मुश्किल से, कड़ी मेहनत से आखिरकार उस ने पैसे जोड़ कर अंगूठी खरीद ही ली.

इस बीच कितनी बार ये पैसे निकालने की नौबत आई, मां बीमार पड़ी, बहन की शादी तय होतेहोते पैसे की कमी के चलते रुक गई, वह खुद भी बीमार पड़ा, घर के कोने की छत टपकने लगी, पर उस ने इन पैसों पर आंच न आने दी और आज बिना एक पल गंवाए वह हीरे की अंगूठी ले कर जब नैना के घर की ओर चला तो पैर जैसे जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

राहुल शहर से लौट कर सब से पहले अपनी मां के गले कुछ ऐसे लिपटा मानो कह रहा हो, ‘मां, तेरा राहुल जीत गया. अब नैना को तुम्हारी बहू बनाने से कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि तेरा राहुल नैना की शर्त पूरी कर के ही लौटा है.’

मां ने उस का ध्यान तोड़ते हुए कहा, ‘‘तुम ठीक हो न बेटा? कहां चले गए थे तुम इतने दिनों तक? क्या तुम्हें अपनी बीमार मातापिता और बहन की याद भी नहीं आई?’’ कहते हुए वह सिसकने लगी.

‘‘मां, अब रोनाधोना बंद करो. अब मैं आ गया हूं न. अपनी नैना को तेरी बहू बना कर लाने का समय आ गया. अब तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा.’’

‘‘हां बेटा, अब काम ही क्या है… तेरे मातापिता अब बूढ़े हो चले हैं. जवान बहन घर में बैठी है. तुम जिस नैना के लिए हीरे की अंगूठी लाए हो न, उसे पहले ही कोई और हीरे की अंगूठी पहना कर ले जा चुका है.’’

‘‘झूठ न बोलो मां. हां, मेरी नैना को कोई नहीं ले जा सकता.’’

‘‘ले जा चुका है बेटा. तेरी नैना को हीरे की अंगूठी से प्यार था, तुझ से नहीं, जो उसे कोई और पहना कर ले गया. तुझे रूपवती लड़की चाहिए थी, गुणवती नहीं और उसे हीरे की अंगूठी चाहिए थी, हीरे जैसा लड़का नहीं.

‘‘उसे हीरे की अंगूठी तो मिल गई, पर हीरे की अंगूठी देने वाला पक्का शराबी है. तुम हो कि ऐसी लड़की के लिए घर, मातापिता और बहन सब छोड़ कर चल दिए.’’

‘‘बस मां, बस करो अब,’’ राहुल रोते हुए कमरे से बाहर निकल गया.

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राहुल को लगा कि वह भीड़ भरी राह पर सरपट दौड़ा चला जा रहा है. गाडि़यां सर्र से दाएंबाएं, आगेपीछे से गुजर रही हैं. उसे न कुछ दिखाई दे रहा है, न सुनाई दे रहा है. एकाएक किसी का धक्का लगने से वह गिरा. आधा फुटपाथ पर और आधा सड़क पर. हां, प्यार के पागलपन में कितनाकुछ गंवा दिया, यह समझ आते ही पछतावे से भरा राहुल उठ खड़ा हुआ.

सपना टूटते ही राहुल अपनेआप को सहजता की राह पर चला जा रहा था, अपनी बहन के लिए हीरे जैसे लड़के की तलाश में.

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