परिणाम: विज्ञान की जीत हुई या पाखंड की

“हमारे बेटे का नाम क्या सोचा है तुम ने?” रात में परिधि ने पति रोहन की बांहों पर अपना सिर रखते हुए पूछा.

“हमारे प्यार की निशानी का नाम होगा अंश, जो मेरा भी अंश होगा और तुम्हारा भी,” मुसकराते हुए रोहन ने जवाब दिया.

“बेटी हुई तो?”

“बेटी हुई तो उसे सपना कह कर पुकारेंगे. वह हमारा सपना जो पूरा करेगी.”

“सच बहुत सुंदर नाम हैं दोनों. तुम बहुत अच्छे पापा बनोगे,” हंसते हुए परिधि ने कहा तो रोहन ने उस के माथे को चूम लिया.

लौकडाउन का दूसरा महीना शुरू हुआ था जबकि परिधि की प्रैगनैंसी का 8वां महीना पूरा हो चुका था और अब कभी भी उसे डिलीवरी के लिए अस्पताल जाना पड़ सकता था.

परिधि का पति रोहन इंजीनियर था जो परिधि को ले कर काफी सपोर्टिव और खुले दिमाग का इंसान था जबकि उस की सास उर्मिला देवी का स्वभाव कुछ अलग ही था. वे धर्मकर्म पर जरूरत से ज्यादा विश्वास रखती थीं.

प्रैगनैंसी के बाद से ही परिधि को कुछ तकलीफें बनी रहती थीं. ऐसे में उर्मिला देवी ने कई दफा परिधि के आने वाले बच्चे के नाम पर धार्मिक अनुष्ठान भी करवाए. मगर फिलहाल लौकडाउन की वजह से सब बंद था.

उस दिन सुबह से ही परिधि के पेट में दर्द हो रहा था. रात तक उस का दर्द काफी बढ़ गया. उसे अस्पताल ले जाया गया. महिला डाक्टर ने अच्छी तरह परीक्षण कर के बताया,” रोहनजी, परिधि के गर्भाशय में बच्चे की गलत स्थिति की वजह से उन्हें बीचबीच में दर्द हो रहा है. ऐसे में इन्हें ऐडमिट कर के कुछ दिनों तक निगरानी में रखना बेहतर होगा.”

“जी जैसा आप उचित समझें,” कह कर रोहन ने परिधि को ऐडमिट करा दिया.

इधर उर्मिला देवी ने डाक्टर की बात सुनी तो तुरंत पंडित को बुलावा भेजा.

“पंडितजी, बहू को दर्द हो रहा है. उसे स्वस्थ बच्चा हो जाए और सब ठीक रहे इस के लिए कुछ उपाय बताइए?”

अपनी भौंहों पर बल डालते हुए पंडितजी ने कुछ देर सोचा फिर बोले,” ठीक है एक अनुष्ठान कराना होगा. सब अच्छा हो जाएगा. इस अनुष्ठान में करीब ₹10 हजार का खर्च आएगा.”

“जी आप रुपयों की चिंता न करें. बस सब चंगा कर दें. आप बताएं कि किन चीजों का इंतजाम करना है?”

पंडितजी ने एक लंबी सूची तैयार की जिस में लाल और पीला कपड़ा, लाल धागे, चावल, घी, लौंग, कपूर, लाल फूल, रोली, चंदन, साबुत गेहूं, सिंदूर, केसर, नारियल, दूर्वा, कुमकुम, पीपल और तुलसी के पत्ते, पान, सुपारी आदि शामिल थे.

उर्मिला देवी ने मोहल्ले के परिचित परचून की दुकान से वे चीजें खरीद लीं. कुछ चीजें घर में भी मौजूद थीं.

सारे सामानों के साथ उर्मिला देवी पंडित को ले कर अस्पताल पहुंंचीं तो अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी हैरान रह गए. उन्हें रिसैप्शन पर ही रोक दिया गया मगर उर्मिला देवी बड़ी चालाकी से पंडित को विजिटर बना कर अंदर ले आईं. उर्मिला देवी ने पहले ही परिधि को प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर लिया था. कमरा बंद कर के अनुष्ठान की प्रक्रिया आरंभ की गई.

बाहर घूम रहीं नर्सों को इस बाबत पूरी जानकारी थी कि अंदर क्या चल रहा है मगर उन के पास कहने के लिए शब्द नहीं थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस पाखंड को कैसे रोकें. दरअसल, अस्पताल में ऐसी घटना कभी भी नहीं हुई थी. सभी सीनियर डाक्टर के आने का इंतजार कर रहे थे. तब तक करीब 1 घंटे की के अंदर सारी प्रक्रियाएं पूरी कर उर्मिला देवी ने पंडित को विदा कर दिया.

नर्सें अंदर घुसीं तो देखा की परिधि के हाथ में लाल धागा बंधा हुआ है. माथे पर दूर तक सिंदूर लगा है. जमीन पर हलदी से बनाई गई एक आकृति के ऊपर चावल, लौंग, कुमकुम जैसी बहुत सी चीजें रखी हुई हैं. पास में नारियल के ऊपर एक पीला कपड़ा भी पड़ा हुआ है. और भी बहुत सी चीजें नजर आ रही थीं.

“स्टूपिड पीपुल्स…” कहते हुए एक नर्स ने बुरा सा मुंह बनाया और बाहर चली गई.

उर्मिला देवी चिढ़ गईं. नर्स को सुनाने की गरज से जोरजोर से चिल्ला कर कहने लगीं,” पूजा हम ने कराई है इस कलमुंही को क्या परेशानी है?”

इस बात को 4-5 दिन बीत गए. इस बीच परिधि को जुकाम और खांसी की समस्या हो गई. हलका बुखार भी हो गया था. अस्पताल वालों ने तुरंत उस का कोविड टेस्ट कराया.

उसी दिन रात में परिधि को दर्द उठा. आननफानन में सारे इंतजाम किए गए. सुबह की पहली किरण के साथ उस की गोद में एक नन्हा बच्चा खिलखिला उठा. घर वालों को खबर की गई. वे दौड़े आए.

तबतक कोविड-19 रिपोर्ट भी आ गई थी. परिधि कोरोना पोजिटिव थी. परिधि के पति और सास को जब यह खबर दी गई तो सास ने चिल्ला कर कहा,” ऐसा कैसे हो सकता है? हमारी बहू तो बिलकुल स्वस्थ हालत में अस्पताल आई थी. तुम लोगों ने जरूर सावधानी नहीं रखी होगी तभी ऐसा हुआ.”

“यह क्या कह रही हो अम्मांजी? हम ने ऐसा क्या कर दिया? हमारे अस्पताल में मरीजों की सुरक्षा का पूरा खयाल रखा जाता है. यहां पूरी सफाई से सारे काम होते हैं.”

नर्स ने कहा तो सास उसी पर चिल्ला उठीं,” हांहां… गलत तो हम ही कह रहे हैं. वह देखो मरीज बिना मास्क के जा रहा है.”

“अम्मांजी उस की कल ही रिपोर्ट आई है. उसे कोरोना नहीं है और एक बात बता दूं, इस अस्पताल में कई इमारते हैं. इस इमारत में केवल गाइनिक केसेज आते हैं. बगल वाली इमारत कोविड मरीजों के लिए है. वहां के किसी स्टाफ को भी इधर आने की परमिशन नहीं. वैसे भी हम मास्क, ग्लव्स और सैनिटाइजेशन का पूरा खयाल रखते हैं. हमें उलटी बातें न सुनाओ.”

“कैसे न सुनाऊं? मेरी बहू को इसी अस्पताल में कोरोना हुआ है. साफ है कि यहां का मैनेजमैंट सही नहीं. यहां आया हुआ स्वस्थ इंसान भी कोरोना मरीज बन जाता है.”

“आप तो हम पर इल्जाम लगाना भी मत. पता नहीं क्याक्या अंधविश्वास और पाखंड के चोंचले करती फिरती हो. अपनी बहू को देखिए. उस की तबीयत बिगड़ जाएगी. उस का फीवर अब ठीक है. आप अपने साथ ले जाइए. न्यू बोर्न बेबी को इस अस्पताल में छोड़ना उचित नहीं. इस वक्त छोटे बच्चे की कैसे केयर करनी है वह हम समझा देंगे.”

“नहीं इसे हम घर कैसे ले जा सकते हैं? इसे कोविड है. घर में किसी को हो जाएगा. इतनी तो समझ होनी चाहिए न आप को.”

“मां हम परिधि को घर में क्वैरंटाइन कर देंगे. बच्चे को कोविड से कैसे बचाना है वह नर्स बता ही देंगी.”

“नहीं हम बहू और बच्चे को घर नहीं ले जा सकते. खबरदार रोहन जो तू इन के चक्कर में आया. ये नर्स और डाक्टर ऐसे ही बोलते हैं. पर मैं कोई खतरा मोल नहीं ले सकती.”

“पर मां…”

तुझे कसम है चल यहां से..”

उर्मिला देवी रोहन का हाथ पकड़ कर उसे घसीटती हुई घर ले गईं. परिधि का चेहरा बन गया. डाक्टर और नर्स आपस में उर्मिला देवी के व्यवहार और हरकतों की बुराई करने लगे. उन लोगों ने मैनेजमैंट को भी उर्मिला देवी के गलत व्यवहार की खबर कर दी. 1-2 लोकल अखबारों में भी इस घटना का उल्लेख किया गया.

इस बात को करीब 4-5 दिन बीत चुके थे. एक दिन उर्मिला देवी ने पंडितजी को फोन लगाया. वह पूछना चाहती थीं कि आगे क्या करना उचित रहेगा और ग्रहनक्षत्रों के बुरे दोष कैसे दूर किए जाएं?

फोन पंडित के बेटे ने उठाया.

“बेटा जरा पंडितजी को फोन देना..” उर्मिला देवी ने कहा.

बेटे ने कहा,”पिताजी को कोरोना हो गया था. 1 सप्ताह पहले ही उन की मौत हो चुकी है.”

उर्मिला जी के हाथ से फोन छूट कर गिर पड़ा. खुद भी सोफे पर बैठ गईं. पंडितजी को कोरोना था, यह जान कर वह डर गई थीं. यानी जिस दिन पंडितजी धार्मिक अनुष्ठान कराने आए थे तब भी उन्हें कोरोना था. तभी तो परिधि को भी यह बीमारी हुई है.

परिधि के साथ उस दिन पंडितजी के साथ वह भी तो थीं यानी अब वह खुद भी कोरोना की चपेट में आ सकती हैं. उन्होंने गौर किया कि 2-3 दिनों से उन्हें भी खांसी हो रही थी.

उर्मिलाजी ने फटाफट अपना कोरोना टेस्ट करवाया. अब तक उन्हें बुखार भी आ चुका था. हजारीबाग में कोरोना का एक ही अस्पताल था इसलिए उन्हें उसी अस्पताल में जाना पड़ा. मगर वहां के मैनेजमैंट ने उर्मिला देवी को ऐडमिट करने से साफ इनकार कर दिया.

ऐंबुलैंस में पड़ीं उर्मिला देवी का दिमाग काम नहीं कर रहा था. वे जानती थीं कि इस के अलावा यहां कोई अस्पताल नहीं. अब या तो उन्हें 4 घंटे के सफर के बाद रांची ले जाया जाएगा और वहां बैड न मिला तो 12 घंटे का सफर कर के पटना जाने को तैयार रहना होगा. हताश रोहन अस्पताल से वापस निकल आया.

दोनों जानते थे कि उर्मिला देवी को अपनी करनी का फल ही मिल रहा था. उन की गलत सोच, अंधविश्वास और नकारात्मक रवैए का ही परिणाम था कि आज बहू और पोते के साथसाथ उन की अपनी जिंदगी भी दांव पर लग चुकी थी.

Father’s day 2023: क्या वही प्यार था

दादी और बाबा के कमरे से फिर जोरजोर से लड़ने की आवाजें आने लगी थीं. अम्मा ने मुझे इशारा किया, मैं समझ गई कि मुझे दादीबाबा के कमरे में जा कर उन्हें लड़ने से मना करना है. मैं ने दरवाजे पर खड़े हो कर इतना ही कहा कि दादी, चुप हो जाइए, अम्मा के पास नीचे गुप्ता आंटी बैठी हैं. अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई कि दादी भड़क गईं.

‘‘हांहां, मुझे ही कह तू भी, इसे कोई कुछ नहीं कहता. जो आता है मुझे ही चुप होने को कहता है.’’

दादी की आवाज और तेज हो गई थी और बदले में बाबा उन से भी जोर से बोलने लगे थे. इन दोनों से कुछ भी कहना बेकार था. मैं उन के कमरे का दरवाजा बंद कर के लौट आई.

दादीबाबा की ऐसी लड़ाई आज पहली बार नहीं हो रही थी. मैं ने जब से होश संभाला है तब से ही इन दोनों को इसी तरह लड़ते और गालीगलौज करते देखा है. इस तरह की तूतू मैंमैं इन दोनों की दिनचर्या का हिस्सा है. हर बार दोनों के लड़ने का कारण रहता है दादी का ताश और चौपड़ खेलना. हमारी कालोनी के लोग ही नहीं बल्कि दूसरे महल्लों के सेवानिवृत्त लोग, किशोर लड़के दादी के साथ ताश खेलने आते हैं. ताश खेलना दादी का जनून था. दादी खाना, नहाना छोड़ सकती थीं, मगर ताश खेलना नहीं.

दादी के साथ कोई बड़ा ही खेलने वाला हो, यह जरूरी नहीं. वे तो छोटे बच्चे के साथ भी बड़े आनंद के साथ ताश खेल लेती थीं. 1-2 घंटे नहीं बल्कि पूरेपूरे दिन. भरी दोपहरी हो, ठंडी रातें हों, दादी कभी भी ताश खेलने के लिए मना नहीं कर सकतीं. बाबा लड़ते समय दादी को जी भर कर गालियां देते परंतु दादी उन्हें सुनतीं और कोई प्रतिक्रिया दिए बगैर उसी तरह ताश में मगन रहतीं. कई बार बहुत अधिक गुस्सा आने पर बाबा, दादी के 1-2 छड़ी भी टिका देते. दादी बाबा से न नाराज होतीं न रोतीं. बस, 1-2 गालियां बाबा को सुनातीं और अपने ताश या चौपड़ में मस्त हो जातीं.

एक खास बात थी, वह यह कि दोनों अकसर लड़ते तो थे मगर एकदूसरे से अलग नहीं होना चाहते थे. जब दोनों की लड़ाई हद से बढ़ जाती और दोनों ही चुप न होते तो दोनों को चुप कराने के लिए अम्मा इसी बात को हथियार बनातीं. वे इतना ही कहतीं, ‘‘आप दोनों में से किसी एक को देवरजी के पास भेजूंगी,’’ दोनों चुप हो जाते और तब दादी, बाबा से कहतीं, ‘‘करमजले, तू कहीं रहने लायक नहीं है और न मुझे कहीं रहने लायक छोड़ेगा,’’ और दोनों थोड़ी देर के लिए शांत हो जाते.

खैर, गुप्ता आंटी तो चली गई थीं मगर अम्मा को आज जरा ज्यादा ही गुस्सा आ गया था. सो, अम्मा ने दोनों से कहा, ‘‘बस, मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती. अभी देवरजी को चिट्ठी लिखती हूं कि किसी एक को आ कर ले जाएं.’’

अम्मा का कहना था कि बाबा हाथ जोड़ कर हर बार की तरह गुहार करने लगे, ‘‘अरी बेटी, तू बिलकुल सच्ची है, तू हमें ऊपर बनी टपरी में डाल दे, हम वहीं रह लेंगे पर हमें अलगअलग न कर. अरी बेटी, आज के बाद मैं अपना मुंह सी लूंगा.’’

अभी बात चल ही रही थी कि संयोग से चाचा आ गए. चायनाश्ते के बाद अम्मा ने चाचा से कहा, ‘‘सुमेर, दोनों में से किसी एक को अपने साथ ले कर जाना. जब देखो दोनों लड़ते रहते हैं. न आएगए की शर्म न बच्चों का लिहाज.’’

चाचा लड़ने का कारण तो जानते ही थे इसलिए दादी को समझाते हुए बोले, ‘‘मां, जब पिताजी को तुम्हारा ताश और चौपड़ खेलना अच्छा नहीं लगता तो क्यों खेलती हैं, बंद कर दें. ताश खेलना छोड़ दें. पता नहीं इस ताश और चौपड़ के कारण तुम ने पिताजी की कितनी बेंत खाई होंगी.

‘‘भाभी ठीक कहती हैं. मां, तुम चलो मेरे साथ. मेरे पास ज्यादा बड़ा मकान नहीं है, पिताजी के लिए दिक्कत हो जाएगी. मां, तुम तो बच्चों के कमरे में मजे से रहना.’’

आज दादी भी गुस्से में थीं, एकदम बोलीं, ‘‘हां बेटा, ठीक है. मैं भी अब तंग आ गई हूं. कुछ दिन तो चैन से कटेंगे.’’

दादी ने अपना बोरियाबिस्तर बांध कर तैयारी कर ली. अपनी चौपड़ और ताश उठा लिए और जाने के लिए तैयार हो गईं.

यह बात बाबा को पता चली तो बाबा ने वही बातें कहनी शुरू कर दीं जो दादी से अलग होने पर अम्मा से किया करते थे, ‘‘अरी बेटी, मैं मर कर नरक में जाऊं जो तू मेरी आवाज फिर सुने.’’

अम्मा के कोई जवाब न देने पर वे दादी के सामने ही गिड़गिड़ाने लगे, ‘‘सुमेर की मां, आप मुझे जीतेजी क्यों मार रही हो. आप के बिना यह लाचार बुड्ढा कैसे जिएगा.’’

इतना सुनते ही दादी का मन पिघल गया और वे धीरे से बोलीं, ‘‘अच्छा, नहीं जाती,’’ दादी ने चाचा से कह दिया, ‘‘तेरे पिताजी ठीक ही तो कह रहे हैं न, मैं नहीं जाऊंगी,’’ और दादी ने अपना बंधा सामान, अपना बक्सा, ताश, चौपड़ सब कुछ उठा कर खुद ही अंदर रख दिया.

चाचा को उसी दिन लौटना था अत: वे चले गए. शाम को मैं चाय ले कर बाबा के पास गई तो बाबा ने कहा, ‘‘सिम्मी बच्ची, पहले अपनी दादी को दे,’’ और फिर खुद ही बोले, ‘‘सुमेर की मां, सिम्मी चाय लाई है, चाय पी लो.’’

दादी भी वाणी में मिठास घोल कर बड़े स्नेह से बोलीं, ‘‘अजी आप पियो, मेरे लिए और ले आएगी.’’

एक बात और बड़ी मजेदार थी, जब अलग होने की बात होती तो तूतड़ाक से बात करने वाले मेरे बाबा और दादी आपआप कर के बात करते थे जो हमारे लिए मनोरंजन का साधन बन जाती थी. लेकिन ऐसे क्षण कभीकभी ही आते थे, और दादीबाबा कभीकभी ही बिना लड़ेझगड़े साथ बैठते थे. आज भी ऐसा ही हुआ था. ये आपआप और धीमा स्वर थोड़ी ही देर चला क्योंकि पड़ोस के मेजर अंकल दादी के साथ ताश खेलने आ गए थे.

बाबा की तबीयत खराब हुए कई दिन हो गए थे. दादी को विशेष मतलब नहीं था उन की तबीयत से. एक दिन बाबा की तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब हो गई. बाबा कहने लगे, ‘‘आज मैं नहीं बचूंगा. अपनी दादी से कहो, मेरे पास आ कर बैठे, मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’

दादी की ताश की महफिल जमी हुई थी. हम उन्हें बुलाने गए मगर दादी ने हांहूं, अच्छा आ रही हूं, कह कर टाल दिया. वह तो अम्मा डांटडपट कर दादी को ले आईं. दादी बेमन से आई थीं बाबा के पास.

दादी बाबा के पास आईं तो बाबा ने बस इतना ही कहा था, ‘‘सुमेर की मां, तू आ गई, मैं तो चला,’’ और दादी का जवाब सुने बिना ही बाबा हमेशा के लिए चल बसे.

तेरहवीं के बाद सब रिश्तेदार चले गए. शाम को दादी अपने कमरे में गईं. वे बिलकुल गुमसुम हो गई थीं हालांकि बाबा की मृत्यु होने पर न वे रोई थीं न ही चिल्लाई थीं. दादी ने खाना छोड़ दिया, वे किसी से बात नहीं करती थीं. ताश, चौपड़ को उन्होंने हाथ नहीं लगाया. जब कोई ताश खेलने आता तो दादी अंदर से मना करवा देतीं कि उन की तबीयत ठीक नहीं है. अम्मा या पापा दादी से बात करने का प्रयास करते तो दादी एक ही जवाब देतीं, ‘‘मेरा जी अच्छा नहीं है.’’

एक दिन अम्मा, दादी के पास गईं और बोलीं, ‘‘मांजी, कमरे से बाहर आओ, चलो ताश खेलते हैं, आप ने तो बात भी करना छोड़ दिया. दिनभर इस कमरे में पता नहीं क्या करती हो. चलो, आओ, लौबी में ताश खेलेंगे.’’

दादी के चिरपरिचित जवाब में अम्मा ने फिर कहा, ‘‘मांजी, ऐसी क्या नफरत हो गई आप को ताश से. इस ताश के पीछे आप ने सारी उम्र पिताजी की गालियां और बेंत खाए. जब पिताजी मना किया करते थे तो आप खेलने से रुकती नहीं थीं और अब वे मना करने के लिए नहीं हैं तो 3 महीने से आप ने ताश छुए भी नहीं. देखो, आप की चौपड़ पर कितनी धूल जम गई है.’’

अब दादी बोलीं, ‘‘परसों होंगे 3 महीने. मेरा उन के बिना जी नहीं लगता. सुमेर के पिताजी, मुझे भी अपने पास बुला लो. मुझे नहीं जीना अब.’’

दादी की मनोकामना पूरी हुई. बाबा के मरने के ठीक 3 महीने बाद उसी तिथि को दादी ने प्राण त्याग दिए. यानी दादी अपने कमरे में जो गईं तो 3 महीने बाद मर कर ही बाहर आईं.

दादीबाबा को हम ने कभी प्रेम से बैठ कर बातें करते नहीं देखा था, लेकिन दादी बाबा की मौत का गम नहीं सह पाईं और बाबा के पीछेपीछे ही चली गईं. उन के ताश, चौपड़ वैसे के वैसे ही रखे हुए हैं.

 

परिवर्तन: शिव आखिर क्यों था शर्मिंदा?

टीचर सुनील कुमार सभी विद्यार्थियों के चहेते थे. अपनी पढ़ाने की रोचक शैली के साथसाथ वे समयसमय पर पाठ्यक्रम के अलावा अन्य उपयोगी बातों से भी छात्रों को अवगत कराते रहते थे जिस कारण सभी विद्यार्थी उन का खूब सम्मान करते थे. 10वीं कक्षा में उन का पीरियड चल रहा था. वे छात्रों से उन की भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछ रहे थे.

‘‘मोहन, तुम पढ़लिख कर क्या बनना चाहते हो?’’ उन्होंने पूछा.

मोहन खड़ा हो कर बोला, ‘‘सर, मैं डाक्टर बनना चाहता हूं.’’

इस पर सुनील कुमार मुसकरा कर बोले, ‘‘बहुत अच्छे.’’

फिर उन्होंने राजेश की ओर रुख किया, ‘‘तुम?’’

‘‘सर, मेरे पिताजी उद्योगपति हैं, पढ़लिख कर मैं उन के काम में हाथ बंटाऊंगा.’’

‘‘उत्तम विचार है तुम्हारा.’’

अब उन की निगाह अश्वनी पर जा टिकी.

वह खड़ा हो कर कुछ बताने जा ही रहा था कि पीछे से महेश की आवाज आई, ‘‘सर, इस के पिता मोची हैं. अपने पिता के साथ हाथ बंटाने में इसे भला पढ़ाई करने की क्या जरूरत है?’’ इस पर सारे लड़के ठहाका लगा कर हंस पड़े परंतु सुनील कुमार के जोर से डांटने पर सब लड़के एकदम चुप हो गए.

‘‘महेश, खड़े हो जाओ,’’ सुनील सर ने गुस्से से कहा.

आदेश पा कर महेश खड़ा हो गया. उस के चेहरे पर अब भी मुसकराहट तैर रही थी.

‘‘बड़ी खुशी मिलती है तुम्हें इस तरह किसी का मजाक उड़ाने में,’‘ सुनील सर गंभीर थे, ‘‘तुम नहीं जानते कि तुम्हारे बाबा ने किन परिस्थितियों में संघर्ष कर के तुम्हारे पिता को पढ़ाया. तब जा कर वे इतने प्रसिद्ध डाक्टर बने.’’ महेश को टीचर की यह बात चुभ गई. वह अपने पिताजी से अपने बाबा के बारे में जानने के लिए बेचैन हो उठा. उस ने निश्चय किया कि वह घर जा कर अपने पिता से अपने बाबा के बारे में अवश्य पूछेगा.

रात के समय खाने की मेज पर महेश अपने पिताजी से पूछ बैठा, ‘‘पिताजी, मेरे बाबा क्या काम करते थे?’’

अचानक महेश के मुंह से बाबा का नाम सुन कर रवि बाबू चौंक गए. फिर कुछ देर के लिए वे अतीत की गहराइयों में डूबते चले गए.

पिता को मौन देख कर महेश ने अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘बताइए न बाबा के बारे में?’’

रवि बाबू का मन अपने पिता के प्रति श्रद्धा से भर आया. वे बोले, ‘‘बेटा, वे महान थे. कठोर मेहनत कर के उन्होंने मुझे डाक्टरी की पढ़ाई करवाई. तुम जानना चाहते हो कि वे क्या थे?’’

महेश की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

उस के पिता बोले, ‘‘तुम्हारे बाबा रिकशा चलाया करते थे. अपने शरीर को तपा कर उन्होंने मेरे जीवन को शीतलता प्रदान की. उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि हर काम महान होता है. मुझे याद है, मेरे साथ अखिल नाम का एक लड़का भी पढ़ा करता था. उस के पिता धन्ना सेठ थे. वह लड़का हमेशा मेरा मजाक उड़ाया करता था. पढ़ने में तो उस की जरा भी रुचि नहीं थी.

‘‘मैं घर जा कर पिताजी से जब यह बात कहता तो वे जवाब देते कि क्या हुआ, अगर उस ने तुम्हेें रिकशा वाले का बेटा कह दिया? अपनी वास्तविकता से इंसान को कभी नहीं भागना चाहिए. झूठी शान में रहने वाले जिंदगी में कुछ नहीं कर पाते. कोई भी काम कभी छोटा नहीं होता.

‘‘पिताजी की यह बात मैं ने गांठ बांध ली. इस का परिणाम यह हुआ कि मुझे सफलता मिलती गई, लेकिन अखिल अपनी मौजमस्ती की आदतों में डूबा रहने के कारण बरबाद हो गया. जानते हो, आज वह कहां है?’’

महेश उत्सुकता से बोला, ‘‘कहां है पिताजी?’’

‘‘पिता की दौलत से आराम की जिंदगी गुजारने वाला अखिल आज बड़ी तंगहाली में जी रहा है. पिता के मरने के बाद उस ने उन की दौलत को मौजमस्ती व ऐयाशी में खर्च किया. आजकल वह पैसेपैसे को मुहताज है. अपनी बहन के यहां पड़ा हुआ उस की रहम की रोटी खा रहा है और उस का बहनोई उस के साथ नौकरों जैसा व्यवहार करता है.‘‘ महेश ने पिता की बातों को गौर से सुना. अब उसे एहसास हो रहा था कि अश्वनी के पिता उसे वैसा बना सकते हैं, जैसे वे स्वयं हैं लेकिन वे उसे पढ़ालिखा रहे हैं ताकि वह कुछ अच्छा बन सके. फिर यह सोच कर वह कांप उठा कि कहीं उसे अखिल कीतरह मुसीबतों भरी जिंदगी न गुजारनी पड़े.

दूसरे दिन जब वह स्कूल गया तो सब से पहले अश्वनी से ही मिला और बोला, ‘‘कल मैं ने तुम्हारा मजाक उड़ाया था, मैं बहुत शर्मिंदा हूं… मुझे माफ कर दो,’’ महेश का स्वर पश्चात्ताप में डूबा हुआ था.

अश्वनी हंस पड़ा, ‘‘अरे यार, ऐसा मत कहो. वह बात तो मैं ने उसी समय दिमाग से निकाल दी थी.’’

‘‘यह तो तुम्हारी महानता है अश्वनी… क्या तुम मुझे अपना मित्र बनाओगे?’’

यह सुन कर अश्वनी जोर से हंसा और उस ने अपना हाथ महेश की तरफ बढ़ा दिया. अश्वनी के हाथ में अपना हाथ दे कर महेश बहुत राहत महसूस कर रहा था.

ऐश्वर्या नहीं चाहिए मुझे: जब वृद्धावस्था में पिताजी को आई अक्ल

‘‘उम्र उम्र की बात होती है. जवानी में जो अच्छा लगता है बुढ़ापे में अकसर अच्छा नहीं लगता. इसी को तो कहते हैं जेनरेशन गैप यानी पीढ़ी का अंतर. जब मांबाप बच्चे थे तब वे अपने मांबाप को दकियानूसी कहते थे. अब जब खुद मांबाप बन गए हैं तो दकियानूसी नहीं हैं. अब बच्चे उद्दंड और मुंहजोर हैं. मतलब चित भी मांबाप की और पट भी उन्हीं की. किस्सा यहां समाप्त होता है कि मांबाप सदा ही ठीक थे, वे चाहे आप हों चाहे हम.’’

राघव चाचा मुसकराते हुए कह रहे थे और मम्मीपापा कभी मेरा और कभी चाचा का मुंह देख रहे थे. राघव चाचा शुरू से मस्तमलंग किस्म के इनसान रहे हैं. मैं अकसर सोचा करता था और आज भी सोचता हूं, क्या चाचा का कभी किसी से झगड़ा नहीं होता? चिरपरिचित मुसकान चेहरे पर और नजर ऐसी मानो आरपार सब पढ़ ले.

‘‘इनसान इस संसार को और अपने रिश्तों को सदा अपने ही फीते से नापता है और यहीं पर वह भूल कर जाता है कि उस का फीता जरूरत के अनुसार छोटाबड़ा होता रहता है. अपनी बच्ची का रिश्ता हो रहा हो तो दहेज संबंधी सभी कानून उसे याद होंगे और अपनी बच्ची संसार की सब से सुंदर लड़की भी होगी क्योंकि वह आप की बच्ची है न.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, राघव,’’ पिताजी बोले, ‘‘साफसाफ बात करो न.’’

‘‘साफसाफ ही तो कर रहा हूं. सोमू के रिश्ते के लिए कुछ दिन पहले एक पतिपत्नी आप के घर आए थे…’’

पिताजी ने राघव चाचा की बात बीच में काटते हुए कहा था, ‘‘आजकल सोमू के रिश्ते को ले कर कोई न कोई घर आता ही रहता है. खासकर तब से जब से मैं ने अखबार में विज्ञापन दिया है.’’

‘‘मैं अखबार की बात नहीं कर रहा हूं,’’ राघव चाचा बोले, ‘‘अखबार के जरिए जो रिश्ते आते हैं वे हमारी जानपहचान के नहीं होते. आप ने उन से क्या कहा क्या नहीं, बात बनी, नहीं बनी, किसे पता. दूर से कोई आया, आप से मिला, आप की सुनी, उसे जंची, नहीं जंची, वह चला गया, किसे पता किसे कौन नहीं जंचा. किस ने क्या कहा, किस ने क्या सुना…’’

चाचा के शब्दों पर मैं तनिक चौंक गया. मैं पापा के साथ ही उन के कामकाज मेें हाथ बटाता हूं. आजकल बड़े जोरशोर से मेरे लिए लड़की ढूंढ़ी जा रही है. घर में भी और दफ्तर में भी. कौन किस नजर से आता है, देखतासुनता है वास्तव में मुझे भी पता नहीं होता.

‘‘याद है न जब मानसी के लिए लड़का ढूंढ़ा जा रहा था तब आप की गरदन कैसी झुकी होती थी. उस का रंग सांवला है, उसी पर आप उठतेबैठते चिंता जाहिर करते थे. मैं तब भी आप को यही समझाता था कि रंग गोराकाला होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. पूरा का पूरा अस्तित्व गरिमामय हो, उचित पहनावा हो, शालीनता हो तो कोई भी लड़की सुंदर होती है. गोरी चमड़ी का आप क्या करेंगे, जरा मुझे समझाइए. यदि लड़की में संस्कार ही न हुए तो गोरे रंग से ही क्या आप का पेट भर जाएगा? आप का सम्मान ही न करे, जो हवा में तितली की तरह उड़ती फिरे, जो जमीन से कोसों दूर हो, क्या वैसी लड़की चाहिए आप को?

‘‘अच्छा, एक बात और, आप मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं न, जहां दिन चढ़ते ही जरूरतों से भिड़ना पड़ता है. भाभी सारा दिन रसोई में खटती हैं और जिस दिन काम वाली न आए, उन्हें बरतन भी साफ करने पड़ते हैं. यह सोमू भी एक औसत दर्जे का लड़का है, जो पूरी तरह आप के हाथ के नीचे काम करता है. इस की अपनी कोई पहचान नहीं बनी है. आप हाथ खींच लें तो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से कमा सकेगा. आप का बुढ़ापा तभी सुखमय होगा जब संस्कारी बहू आ कर आप से जुड़ जाएगी. कहिए, मैं सच कह रहा हूं कि नहीं?’’

राघव चाचा ने एक बार पूछा तो मम्मीपापा आंखें फाड़फाड़ कर उन का चेहरा देख रहे थे. सच ही तो कह रहे थे चाचा. मेरी अपनी अभी कोई पहचान है कहां. वकालत पढ़ने के बाद पापा की ही तो सहायता कर रहा हूं मैं.

‘‘मेरे एक मित्र की भतीजी है जो मुझे बड़ी प्यारी लगती है. काफी समय से उन के घर मेरा आनाजाना है. वह मुझे अपनीअपनी सी लगती है. सोचा, मेरे ही घर में क्यों न आ जाए. मुझे सोमू के लिए वह लड़की उचित लगी. उस के मांबाप आप का घरद्वार देखने आए थे. मेरे साथ वे नहीं आना चाहते थे, क्योंकि अपने तरीके से वे सब कुछ देखना चाहते थे.’’

‘‘कौन थे वे और कहां से आए थे?’’

‘‘आप ने क्या कहा था उन्हें? आप को तो सुंदर लड़की चाहिए जो ‘ऐश्वर्या राय तो मैं नहीं कहता हो पर उस के आसपास तो हो,’ यही कहा था न आप ने?’’

मैं चाचा की बात सुन कर अवाक् रह गया था. क्या पापा ने उन से ऐसा कहा था? ठगे से पापा जवाब में चुप थे. इस का मतलब चाचा जो कह रहे थे सच है.

‘‘क्या आप अमिताभ बच्चन हैं और आप का बेटा अभिषेक, जिस की लंबाई 5 फुट 7 इंच’ है. आप एक आम इनसान हैं और हम और? क्या आप को ऐश्वर्या राय चाहिए? अपने घर में? क्या ऐश्वर्या राय को संभालने की हिम्मत है आप के बेटे में?… इनसान उतना ही मुंह खोले जितना पचा सके और जितनी चादर हो उतने ही पैर पसारे.’’

‘‘बस करो, राघव,’’ मां तिलमिला कर बोलीं, ‘‘क्या बकबक किए जा रहे हो.’’

‘‘बुरा लग रहा है न सुन कर? मुझे भी लगा था. मुझे सुन कर शर्म आ गई जब उन्होंने मुझ से हाथ जोड़ कर माफी मांग ली. भैया को शर्म नहीं आई अपनी भावी बहू के बारे में विचार व्यक्त करते हुए…भैया, आप किसी राह चलती लड़की पर फबती कसें तो मैं मान लूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि आप कैसे चरित्र के मालिक हैं. पराई लड़कियां आप की नजर में सदा ही पराई रही हैं, जिन पर आप कोई भी फिकरा कस लेते हैं, लेकिन अपनी बहू ढूंढ़ने वाला एक सम्मानजनक ससुर क्या इस तरह की बात करता है, जरा सोचिए. आप तब अपनी बहू के बारे में बात कर रहे थे या किसी फिल्म की हीरोइन के बारे में?’’

पापा ने तब कुछ नहीं कहा. माथे पर ढेर सारे बल समेटे कभी इधर देखते कभी उधर. गलत नहीं कह रहे हैं चाचा. मेरे पापा जब भी किसी की लड़की के बारे में बात करते हैं, तब उन का तरीका सम्मानजनक नहीं होता. इस उम्र में भी वे लड़कियों को पटाखा, फुलझड़ी और न जाने क्याक्या कहते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता पर क्या कर सकता हूं. मां को भी उन का ऐसा व्यवहार पसंद नहीं है.

‘‘अब आप बड़े हो गए हैं भैया. अपना चरित्र जरा सा बदलिए. छिछोरापन आप को नहीं जंचता. हमें स्वप्न सुंदरी नहीं, गृहलक्ष्मी चाहिए, जो हमारे घर में रचबस जाए और लड़की वालों को इतना सस्ता भी न आंको कि उन्हें आप कहीं भी फेंक देंगे. लड़की वाले भी देखते हैं कि कहां उन की बेटी की इज्जत हो पाएगी, कहां नहीं. जिस घर में ससुर ही ऐसी भाषा बोलेगा वहां बाकी सब कैसा बोलते होंगे यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.’’

‘‘कौन थे वे लोग? और कहां से आए थे?’’ मां ने प्रश्न किया.

‘‘वे जहां से भी आए हों पर उन्होंने साफसाफ कह दिया है कि राघवजी, आप के भाई का परिवार बेहद सुंदर है और इतने सुंदर परिवार में हमारी लड़की कहीं भी फिट नहीं बैठ पाएगी. वह एक सामान्य रंगरूप की लड़की है जो हर कार्य और गुण में दक्ष है, लेकिन ऐश्वर्या जैसी किसी भी कोण से नहीं लगती.’’

चाचा उठ खड़े हुए. उड़ती सी नजर मुझ पर डाली, मानो मुझ से कोई राय लेना चाहते हों. क्या वास्तव में मुझे भी कोई रूपसी ही चाहिए, जिस के नखरे भी मैं शायद नहीं उठा पाऊंगा. राह चलते जो रूप की चांदी यहांवहां बिखराती रहे और मैं असुरक्षा के भाव से ही घिरा रहूं. मैं ही कहां का देवपुरुष हूं, जिसे कोई अप्सरा चाहिए. चाचा सच ही कह रहे हैं कि पापा को ऐसा नहीं कहना चाहिए था. मैं ने एकाध बार पापा को समझाया भी था तो उन्होंने मुझे बुरी तरह डांट दिया था, ‘बाप को समझा रहा है. बड़ा मुंहजोर है तू.’

मुझे याद है एक बार मानसी की एक सहेली घर आई थी. पापा ने उसे देख कर मुझ से ही पूछा था :

‘‘सोमू, यह पटाखा कौन है? इस की फिगर बड़ी अच्छी है. तुम्हारी कोई सहेली है क्या?’’

तब पहली बार मुझे बुरा लगा था. वह मानसी की सहेली थी. अगर मानसी किसी के घर जाए और उस घर के लोग उस के शरीर की बनावट को तोलें तो यह जान कर मुझे कैसा लगेगा? यहां तो मेरा बाप ही ऐसी अशोभनीय हरकत कर रहा था.

मेरे मन में एक दंश सा चुभने लगा. कल को मेरे पिता मेरी पत्नी की क्या इज्जत करेंगे? ये तो शायद उस की भी फिगर ही तोलते रहेंगे. मेरी पत्नी में इन्हें ऐश्वर्या जैसा रूप क्यों चाहिए? मैं ने तो इस बारे में कभी सोचा ही नहीं कि मेरी पत्नी कैसी होगी. मेरी बहन  का रंग सांवला है, शायद इसीलिए मुझे सांवली लड़कियां बहुत अच्छी लगती हैं.

मैंने चाचा की तरफ देखा. उन की नजरें बहुत पारखी हैं. उन्होंने जिसे मेरे लिए पसंद किया होगा वह वास्तव में अति सुंदर होगी, इतनी सुंदर कि उस से हमारा घर रोशन हो जाए. मुझे लगा कि पिता की आदत पर अब रोक नहीं लगाऊंगा तो कब लगाऊंगा. मैं ने चाचा को समझाया कि वे उन से दोबारा बात करें.

‘‘सोमू, वह अब नहीं हो पाएगा.’’

चाचा का उत्तर मुझे निरुत्तर कर गया.

‘‘अपने पिता की आदत पर अंकुश लगाओ,’’ चाचा बोले, ‘‘उम्रदराज इनसान को शालीनता से परहेज नहीं होना चाहिए. खूबसूरती की तारीफ करनी चाहिए. मगर गरिमा के साथ. एक बड़ा आदमी सुंदर लड़की को ‘प्यारी सी बच्ची’ भी तो कह सकता है न. ‘पटाखा’ या ‘फुलझड़ी’ कहना अशोभनीय लगता है.’’

चाचा तो चले गए मगर मेरी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा. ऐसा लगने लगा कि मेरा पूरा भविष्य ही अंधकार में डूब जाएगा, अगर कहीं पापा और मेरी पत्नी का रिश्ता सुखद न हुआ तो? पापा का अपमान भी मुझ से सहा नहीं जाएगा और पत्नी की गरिमा की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही होगी. तब क्या करूंगा मैं जब पापा की जबान पर अंकुश न हुआ तो?

मां ने तो शायद यह सब सुनने की आदत बना ली है. मेरी पत्नी पापा की आदत पचा पाए, न पचा पाए कौन जाने. अभी पत्नी आई नहीं थी लेकिन उस के आने के बाद की कल्पना से ही मैं डरने लगा था.

सहसा एक दिन कुछ ऐसा हो गया जिस से हमारा सारा परिवार ही हिल गया. हमारी कालोनी से सटा एक मौल है जहां पापा एक दिन सिनेमा देखने चले गए. अकेले गए थे इसलिए हम में से किसी को भी पता नहीं था कि कहां गए हैं. शाम के 5 बजे थे. पापा खून से लथपथ घर आए. उन की सफेद कमीज खून से सनी थी. एक लड़की उन्हें संभाले उन के साथ थी. पता चला कि आदमकद शीशा उन्हें नजर ही नहीं आया था और वे उस से जा टकराए थे. नाक का मांस फट गया था जिस वजह से इतना खून बहा था. पापा को बिस्तर पर लिटा कर मां उन की देखभाल में जुट गईं और मैं उस लड़की के साथ बाहर चला आया.

‘‘ये दवाइयां इन्हें खिलाते रहें. टिटनैस का इंजेक्शन मैं ने लगवा दिया है,’’ इतना कहने के बाद उस लड़की ने अपना पर्स खोल कर दवाइयां निकालीं.

‘‘दरअसल इन का ध्यान कहीं और था. ये दूसरी ओर देख रहे थे. लगता है सुंदर चेहरे अंकल को बहुत आकर्षित करते हैं.’’

जबान जम गई थी मेरी. उस ने नजरें उठा कर मुझे देखा और बताने लगी, ‘‘माफ कीजिएगा, मैं भी उन चेहरों के साथ ही थी. जब ये टकराए तब वे चेहरे तो खिलखिला कर अंदर थिएटर में चले गए लेकिन मैं जा नहीं पाई. मेरी पिक्चर छूट गई, इस की चिंता नहीं. मेरे पिताजी की उम्र का व्यक्ति खून से सना हुआ छटपटा रहा है, यह मुझ से देखा नहीं गया.’’

दवाइयों का पुलिंदा और ढेर सारी हिदायतें मुझे दे कर वह सांवली सी लड़की चली गई. अवाक् छोड़ गई मुझे. मेरे पिता पर उस ने कितने पैसे खर्च दिए पूछने का अवसर ही नहीं दिया उस ने.

नाक की चोट थी. पूरी रात हम जागते रहे. सुबह पापा के कराहने से हमारी तंद्रा टूटी. आंखों के आसपास उभर आई सूजन की वजह से उन की आंखें खुली हैं या बंद, यह हमें पता नहीं चल रहा था.

‘‘वह बच्ची कहां गई. बेचारी कहांकहां भटकी मेरे साथ,’’ पापा का स्वर कमजोर था मगर साफ था, ‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी. वह कहां है?’’

पापा का स्वर पहले जैसा नहीं लगा मुझे. उस साधारण सी लड़की को वह बारबार ‘प्यारी बच्ची’ कह रहे थे. बदलेबदले से लगे मुझे पापा. यह चोट शायद उन्हें सच के दर्शन करा गई थी. सुंदर चेहरे उन पर हंस कर चले गए और साधारण चेहरा उन्हें संभाल कर घर छोड़ गया था. एक कमजोर सी आशा जागी मेरे मन में. हो सकता है अब पापा भी मेरी ही तरह कहने लगें, ‘साधारण सी लड़की चाहिए, ऐश्वर्या नहीं चाहिए मुझे.’

 

Father’s Day Special: कोरा कागज- घर से भागे राहुल के साथ क्या हुआ?

राहुल औफिस से घर आया तो पत्नी माला की कमेंट्री शुरू हो गई, ‘‘पता है, हमारे पड़ोसी शर्माजी का टिंकू घर से भाग गया.’’

‘‘भाग गया? कहां?’’ राहुल चौंक कर बोला.

‘‘पता नहीं, स्कूल की तो आजकल छुट्टी है. सुबह दोस्त के घर जाने की बात कह कर गया था. तब से घर नहीं आया.’’

‘‘अरे, कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई. पुलिस में रिपोर्ट की या नहीं?’’ राहुल डर से कांप उठा.

‘‘हां, पुलिस में रिपोर्ट तो कर दी पर 13-14 साल का नादान बच्चा न जाने कहां घूम रहा होगा. कहीं गलत हाथों में न पड़ जाए. नाराज हो कर गया है. कल रात उस को बहुत डांट पड़ी थी, पढ़ाई के कारण. उस की मां तो बहुत रो रही हैं. आप चाय पी लो. मैं जाती हूं, उन के पास बैठती हूं. पड़ोस की बात है, चाय पी कर आप भी आ जाना,’’ कह कर माला चली गई.

राहुल जड़वत अपनी जगह पर बैठा का बैठा ही रह गया. उस के बचपन की एक घटना भी कुछ ऐसी ही थी, जरा आप भी पढ़ लीजिए :

वर्षों पहले उस दिन बस से उतर कर राहुल नीचे खड़ा हो गया था. ‘अब कहां जाऊं?’ वह सोचने लगा, ‘पिता की डांट से दुखी हो कर मैं ने घर तो छोड़ दिया. आगरा से दिल्ली भी पहुंच गया, लेकिन अब कहां जाऊं? घर तो किसी हालत में नहीं जाऊंगा.’ उस ने अपना इरादा पक्का किया, ‘पता नहीं क्या समझते हैं मांबाप खुद को. हर समय डांट, हर समय टोकाटाकी, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, टीवी मत देखो, दोस्तों से फोन पर बात मत करो, हर समय बस पढ़ो.’

उस की जेब में 500 रुपए थे. उन्हें ही ले कर वह घर से चल दिया था. 13 साल के राहुल के लिए 500 रुपए बहुत थे.

दुनिया घर से बाहर कितनी भयानक और जिंदगी कितनी त्रासदीपूर्ण होती है इस का उसे अंदाजा भी नहीं था. नीली जींस और गुलाबी रंग का स्वैटर पहने स्वस्थ, सुंदर बच्चा अपने पहनावे और चालढाल से ही संपन्न घर का लग रहा था.

बस अड्डे पर बहुत भीड़ थी. राहुल एक तरफ खड़ा हो गया. बसों की रेलमपेल, टिकट खिड़की की लाइन, यात्रियों का रेला, चढ़नाउतरना. टैक्सी व आटो वालों का यात्रियों के पीछे पड़ना. यह सब वह खड़ेखड़े देख रहा था.

उस के मन में तूफान सा भरा था. घर तो जाना ही नहीं है. जब वह शाम तक घर नहीं पहुंचेगा तब सब उसे ढूंढ़ेंगे. मां रोएंगी. पिता चिंता करेंगे. बहन उस के दोस्तों के घर फोन मिलाएगी. खूब परेशान होंगे सब. अब हों परेशान. जब पापा हर समय डांटते रहते हैं, मां हर छोटीछोटी बात पर पापा से उस की शिकायत करती रहती हैं तब वह रोता है तो किसी को नहीं दिखता है.

पापा के घर आते ही जैसे घर में कर्फ्यू लग जाता है. न कोई जोर से बोलेगा, न जोर से हंसेगा, न फोन पर बात करेगा, न टीवी देखेगा. उन्हें तो बस बच्चे पढ़ते हुए नजर आने चाहिए. हर समय पढ़ने के नाम से तो उसे नफरत सी हो गई.

छोटीछोटी बातों पर दोनों झगड़ते भी रहते हैं. छोटेमोटे झगड़े से तो इतना फर्क नहीं पड़ता पर जब पापा के दहाड़ने की और मां के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है तो वह दीदी के पहलू में छिप जाता है. बदन में कंपकंपी होने लगती है. अब कहीं उस का भी नंबर न आ जाए पिटने का, वैसे भी उस के रिपोर्ट कार्ड से पापा हमेशा ही खफा रहते हैं.

अगले कुछ दिनों तक घर का वातावरण दमघोंटू हो जाता है. मां की आंखें हर वक्त आंसुओं से भरी रहती हैं और पापा तनेतने से रहते हैं. उसे संभल कर रहना पड़ता है. दीदी बड़ी हैं, ऊपर से पढ़ने में अच्छी, इसलिए उन को डांट कम पड़ती है.

वह घर के वातावरण के ठीक होने का इंतजार करता है. घर के वातावरण का ठीक होना पापा के मूड पर निर्भर करता है. बड़ी मुश्किल से पापा का मूड ठीक होता है. जब तक सब चैन की सांस लेते हैं तब तक किसी न किसी बात पर उन का मूड फिर खराब हो जाता है. तंग आ गया है वह घर के दमघोंटू वातावरण से.

इस बार तिमाही परीक्षा के रिजल्ट पर मैडम ने पापा को बुलाया. स्कूल से आ कर पापा ने उसे खूब डांटा, मारा. उस का हृदय दुखी हो गया. पापा के शब्द अभी तक उस के कानों में गूंज रहे थे, ‘तेरे जैसी औलाद से तो बेऔलाद होना अच्छा है.’

उस का हृदय तारतार हो गया था. उसे कोई पसंद नहीं करता. उस की समस्या, उस के नजरिए से कोई देखना नहीं चाहता, समझना ही नहीं चाहता. दीदी कहती हैं कि पढ़ाई अच्छी कर ले, सब ठीक हो जाएगा लेकिन उस का मन पढ़ाई में लगता ही नहीं. पढ़ाई उसे पहाड़ जैसी लगती है. उस ने दीदी से कहा भी था कि मैथ्स, साइंस में उस का मन बिलकुल नहीं लगता, उसे समझ ही नहीं आते दोनों विषय, पर पापा कहते हैं साइंस ही पढ़ो. वैसे भी विषय तो वह 10वीं के बाद ही बदल सकता है. राहुल इसी सोच में डूबा था कि एक टैक्सी वाले ने उसे जोर से डांट दिया.

‘अबे ओ लड़के, मरना है क्या? बीचोंबीच खड़ा है, बेवकूफ की औलाद. एक तरफ हट कर खड़ा हो.’

राहुल अचकचा कर एक तरफ खड़ा हो गया. ऐसे गाली दे कर तो कभी किसी ने उस से बात नहीं की थी.

उस की आंखें अनायास ही छलछला आईं पर उस ने खुद को रोक लिया. उसे इस तरह सोचतेसोचते काफी लंबा समय बीत गया था. शाम ढलने को थी. भूख लग आई थी और ठंड भी बढ़ रही थी. उस के बदन पर सिर्फ एक स्वैटर था. उस ने गले का मफलर और कस कर लपेटा और सामने खड़े ठेलीवाले वाले की तरफ बढ़ गया. सोचा पहले कुछ खा ले फिर आगे की सोचेगा. ठेली पर जा कर उस ने कुछ खानेपीने का सामान लिया और एक तरफ बैठ कर खाने लगा.

तभी एक बदमाश किस्म का लड़का उस के चारों तरफ चक्कर काटने लगा. वह बारबार उस की बगल में आ कर खड़ा हो जाता. आखिर राहुल से न रहा गया. वह बोला, ‘क्या बात है, आप इस तरह मेरे चारों तरफ क्यों घूम रहे हैं?’

‘साला, अकड़ किसे दिखा रहा है? तेरे बाप की सड़क है क्या?’ लड़का अपने पीले दांतों को पीसते हुए बोला.

राहुल उस के बोलने के अंदाज से डर गया.

‘मैं तो सिर्फ पूछ रहा था,’ कह कर वह वहां से हट कर थोड़ा अलग जा कर खड़ा हो गया. लड़का थोड़ी देर बाद फिर उस के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘कहां से आया है बे? अकेला है क्या?’ वह आंखें नचाता हुआ राहुल से पूछने लगा. राहुल ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘अबे बोलता क्यों नहीं, कहां से आया है? अकेला है क्या?’

‘आगरा से,’ किसी तरह राहुल बोला.

‘अकेला है क्या?’

राहुल फिर चुप हो गया.

‘अबे लगाऊं एक, साला, बोलता क्यों नहीं?’

‘हां,’ राहुल ने धीरे से कहा.

‘अच्छा, घर से भाग कर आया है,’ उस लड़के के हौसले थोड़े और बुलंद हो गए. तभी वहां उसी की तरह के उस से कुछ बड़े 3 लड़के और आ गए.

‘राजेश, यह कौन है?’ उन लड़कों में से एक बोला.

‘घर से भाग कर आया है. अच्छे घर का लगता है. अपने मतलब का लगता है. उस्ताद खुश हो जाएगा,’ उस ने पूछने वाले के कान में फुसफुसाया.

‘क्यों भागा बे घर से, बाप की डांट खा कर?’ दूसरे लड़के ने राहुल से पूछा.

‘हां,’ राहुल उन चारों को देख कर डर के मारे कांप रहा था.

‘मांबाप साले ऐसे ही होते हैं. बिना बात डांटते रहते हैं. मैं भी घर से भाग गया था, मां के सिर पर थाली मार कर,’ वह उस के गाल सहला कर, उस को पुचकारता हुआ बोला, ‘ठीक किया तू ने, चल, हमारे साथ चल.’

‘मैं तुम लोगों के साथ नहीं जाऊंगा,’ राहुल सहमते हुए बोला.

‘अबे चल न, यहां कहां रहेगा? थोड़ी देर में रात हो जाएगी, तब कहां जाएगा?’ वे उसे जबरदस्ती अपने साथ ले जाना चाह रहे थे.

‘नहीं, मुझे अकेला छोड़ दो. मैं तुम लोगों के साथ नहीं जाऊंगा,’ डर के मारे राहुल की आंखों से आंसू बहने लगे. वह उन से अनुनय करने लगा, ‘प्लीज, मुझे छोड़ दो.’

‘अरे, ऐसे कैसे छोड़ दें. चलता है हमारे साथ या नहीं? सीधेसीधे चल वरना जबरदस्ती ले जाएंगे.’

इस सारे नजारे को थोड़ी दूर पर बैठे एक सज्जन देख रहे थे. उन्हें लग रहा था शायद बच्चा अपनों से बिछड़ गया है.

उन लड़कों की जबरदस्ती से राहुल घबरा गया और रोने लगा. अंधेरा गहराने लगा था. डर के मारे राहुल को घर की याद भी आने लगी थी. घर वालों को मालूम भी नहीं होगा कि वह इस समय कहां है. वे तो उसे आगरा में ढूंढ़ रहे होंगे.

आखिर एक लड़के ने उस का हाथ पकड़ा और जबरदस्ती अपने साथ घसीटने लगा. राहुल उस से हाथ छुड़ाने की कोशिश कर रहा था. दूर बैठे उन सज्जन से अब न रहा गया. उन का नाम सोमेश्वर प्रसाद था, एकाएक वे अपनी जगह से उठ कर उन लड़कों की तरफ बढ़ गए और साधिकार राहुल का हाथ पकड़ कर बोले, ‘अरे, बंटी, तू कहां चला गया था? मैं तुझे कितनी देर से ढूंढ़ रहा हूं. ऐसे कोई जाता है क्या? चल, घर चल जल्दी. बस निकल जाएगी.’

फिर उन लड़कों की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘क्या कर रहे हो तुम लोग मेरे बेटे के साथ? करूं अभी पुलिस में रिपोर्ट. अकेला बच्चा देखा नहीं कि उस के पीछे पड़ गए.’

सोमेश्वर प्रसाद को एकाएक देख कर लड़के घबरा कर भाग गए. राहुल सोमेश्वर प्रसाद को देख कर चौंक गया. लेकिन परिस्थितियां ऐसी थीं कि उस ने उन के साथ जाने में ही भलाई समझी. उम्रदराज शरीफ लग रहे सज्जन पर उसे भरोसा हो गया.

थोड़ी देर बाद राहुल सोमेश्वर प्रसाद के साथ जयपुर की बस में बैठ कर चल दिया.

सोमेश्वर प्रसाद का स्टील के बरतनों का व्यापार था और वे व्यापार के सिलसिले में ही दिल्ली आए थे. सोमेश्वर प्रसाद ने उस के बारे में जो कुछ पूछा, उस ने सभी बातों का जवाब चुप्पी से ही दिया. हार कर सोमेश्वरजी चुप हो गए और उन्होंने उसे अपने घर ले जाने का निर्णय ले लिया.

घर पहुंचे तो उन की पत्नी उन के साथ एक लड़के को देख कर चौंक गईं. उन्हें अंदर ले जा कर बोलीं, ‘कौन है यह? कहां से ले कर आए हो इसे?’

‘यह लड़का घर से भागा हुआ लगता है. कुछ बदमाश इसे अपने साथ ले जा रहे थे. अच्छे घर का बच्चा लग रहा है. इसलिए इसे अपने साथ ले आया. अभी घबराहट और डर के मारे कुछ बता नहीं रहा है. 2-4 दिन बाद जब इस की घबराहट कुछ कम होगी, तब बातोंबातों में प्यार से सबकुछ पूछ कर इस के घर खबर कर देंगे,’ सोमेश्वर प्रसाद पत्नी से बोले, ‘अभी तो इसे खानावाना खिलाओ, भूखा है और थका भी. कल बात करेंगे.’

सोमेश्वरजी के घर में सब ने उसे प्यार से लिया. धीरेधीरे उस की घबराहट दूर होने लगी. वह उन के परिवार में घुलनेमिलने लगा. रहतेरहते उसे 15 दिन हो गए. राहुल को अब घर की याद सताने लगी. वह अनमना सा रहने लगा. मम्मीपापा की, स्कूल की, संगीसाथियों की याद सताने लगी. महसूस होने लगा कि जिंदगी घर से बाहर इतनी सरल नहीं, ये लोग भी उसे कब तक रखेंगे. किस हैसियत से यहां पर रहेगा? क्या नौकर की हैसियत से? 13-14 साल का लड़का इतना छोटा भी नहीं था कि अपनी स्थिति को नहीं समझता.

और एक दिन उस ने सोमेश्वर प्रसाद को अपने बारे में सबकुछ बता दिया. उस से फोन नंबर ले कर सोमेश्वरजी ने उस के घर फोन किया, जहां बेसब्री से सब उस को ढूंढ़ रहे थे. एकाएक मिली इस खबर पर घर वालों को विश्वास ही नहीं हुआ. जब सोमेश्वरजी ने फोन पर उन की बात राहुल से कराई तो वह फूटफूट कर रो पड़ा.

‘मुझे माफ कर दो पापा, मैं आज से ऐसा कभी नहीं करूंगा, मन लगा कर पढ़ूंगा. मुझे आ कर ले जाओ,’ कहतेकहते उस की हिचकियां बंध गईं. उस की आवाज सुन कर पापा का कंठ भी अवरुद्ध हो गया.

राहुल के घर से भागने के मामले में वे कहीं न कहीं खुद को जिम्मेदार समझ रहे थे. उन की अत्यधिक सख्ती ने उन के बेटे को अपने ही घर में पराया कर दिया था. उसे अपना ही घर बेगाना लगने लगा.

हर बच्चे का स्वभाव अलग होता है. राहुल की बहन उसी माहौल में रह रही थी. लेकिन वह उस घुटन भरे माहौल में नहीं रह पा रहा था. फिर यों भी लड़कों का स्वभाव अधिक आक्रामक होता है.

जब बेटे को खोने का एहसास हुआ तो अपनी गलतियां महसूस होने लगीं. सभी बच्चों का दिमागी स्तर और सोचनेसमझने का तरीका अलग होता है. अपने बच्चों के स्वभाव को समझना चाहिए. किस के लिए कैसे व्यवहार की जरूरत है, यह मातापिता से अधिक कोई नहीं समझ सकता. किशोरावस्था में बच्चे मातापिता को नहीं समझ सकते, इसलिए मातापिता को ही बच्चों को समझने की कोशिश करनी चाहिए.

खैर, उन के बेटे के साथ कोई अनहोनी होने से बच गई. अब वे बच्चों पर ध्यान देंगे. अब थोड़े समय उन के बच्चों को उन के प्यार, मार्गदर्शन व सहयोग की जरूरत है. हिटलर पिता की जगह एक दोस्त पिता कहलाने की जरूरत है, जिन से वे अपनी परेशानियां शेयर कर सकें.

मन ही मन ऐसे कई प्रण कर के राहुल के मम्मीपापा राहुल को लेने पहुंच गए. राहुल मम्मीपापा से मिल कर फूटफूट कर रोया. उसे भी महसूस हो गया कि वास्तविक जिंदगी कोई फिल्मी कहानी नहीं है. अपने मातापिता से ज्यादा अपना और बड़ा हितैषी इस संसार में कोई नहीं. उन्हें ही अपना समझना चाहिए तो सारा संसार अपना लगता है और उन्हें बेगाना समझ कर सारा संसार पराया हो जाता है.

ये 15 दिन राहुल और राहुल के मातापिता के लिए एक पाठशाला की तरह साबित हुए. दोनों ने ही जिंदगी को एक नए नजरिए से देखना सीखा.

राहुल अभी सोच में ही डूबा था कि तभी दुखी सी सूरत लिए माला बदहवास सी आई. वह अतीत से वर्तमान में लौट आया.

‘‘सुनो, जल्दी चलो जरा. बड़ी अनहोनी घट गई, टिंकू की लाश हाईवे पर सड़क किनारे झाडि़यों में पड़ी मिली है, पता नहीं क्या हुआ उस के साथ.’’

‘‘क्या?’’ सुन कर राहुल बुरी तरह से सिहर गया, ‘‘अरे, यह क्या हो गया?’’

‘‘बहुत बुरा हुआ. मातापिता तो बुरी तरह बिलख रहे हैं. संभाले नहीं संभल रहे. इकलौता बेटा था. कैसे संभलेंगे इतने भयंकर दुख से,’’ बोलतेबोलते माला का गला भर आया.

‘‘चलो,’’ राहुल माला के साथ तुरंत चल दिया. चलते समय राहुल सोच रहा था कि टिंकू उस के जैसा भाग्यशाली नहीं निकला. उसे कोई सोमेश्वर प्रसाद नहीं मिला. हजारों टिंकुओं में से शायद ही किसी एक को कोई सोमेश्वर प्रसाद जैसा सज्जन व्यक्ति मिलता है.

बच्चे सोचते हैं कि शायद घर से बाहर जिंदगी फिल्मी स्टाइल की होगी. घर से भाग कर वे जानेअनजाने मातापिता को दुख पहुंचाना चाहते हैं. उन पर अपना आक्रोश जाहिर करना चाहते हैं. पर मातापिता की छत्रछाया से बाहर जिंदगी 3 घंटे की फिल्म नहीं होती, बल्कि बहुत भयानक होती है. बच्चों को इस बात का अनुभव नहीं होता. उन्हें समझने और संभालने के लिए मातापिता को कुछ साल बहुत सहनशक्ति से काम लेना चाहिए. बच्चों का हृदय कोरे कागज जैसा होता है, जिस पर जिस तरह की इबारत लिख गई, जिंदगी की धारा उधर ही मुड़ गई, वही उन का जीवन व भविष्य बन जाता है.

उस दिन अगर उसे सोमेश्वर प्रसाद नहीं मिलते तो पता नहीं उस का भी क्या हश्र होता. सोचते सोचते राहुल माला के साथ तेजी से कदम बढ़ाने लगा.

Father’s day Special: चेहरे की चमक- माता-पिता के लिए क्या करना चाहते थे गुंजन व रवि?

मेरे लिए गुंजन का रिश्ता मेरी सब से समझदार बूआ ने बताया था. बूआ गुंजन की मामी की सहेली हैं. आज शाम को वे लोग हमारे घर आ रहे हैं.

पापा टैंशन में आ कर खूब शोर मचा रहे थे, ‘‘अब तक बाजार से मिठाई भी नहीं लाई गई…मेरी समझ में नहीं आता कि कई घंटे लगाने के बाद भी तुम लोग वक्त से तैयार क्यों नहीं हो पाते हो…अब बाजार भी मुझ को ही जाना पड़ेगा… ड्राइंगरूम में जो भी फालतू चीजें बिखरी पड़ी हैं, इन्हें कहीं और उठा कर रख देना…पता नहीं तुम लोग वक्त से सारे काम करना कब सीखोगे?’’

पापा के इस तरह के लैक्चर आज दोपहर से राजीव भैया, नीता भाभी और मेरे लिए चल रहे थे. उन के बाजार चले जाने के बाद सचमुच घर में शांति महसूस होने लगी.

राजीव भैया की शादी के कुछ महीने बाद मां की मृत्यु हो गई थी. उन के अभाव ने पापा को बहुत चिड़चिड़ा और गुस्सैल बना दिया था. उन की कड़वी, तीखी बातें सुन कर नीता भाभी का मुंह आएदिन सूजा रहता था. अब तो वे पापा को जवाब भी दे देती थीं और भैया भी उन का पक्ष लेने लगे थे.

घर में बढ़ते झगड़ों को देख मैं पापा को शांत रहने के लिए बहुत समझाता, पर वे अपने अंदर सुधार लाने को तैयार नहीं थे.

‘घर में गलत काम होते मैं नहीं देख सकता. बदलना तुम लोगों को है, मुझे नहीं,’ पापा उलटा मुझे डांट कर चुप करा देते.

पापा के बाजार से लौटने तक मेहमान आ चुके थे. गुंजन की मम्मी के साथ उन के भैयाभाभी और बड़ी बेटी व दामाद आए थे.

पापा सब का अभिवादन स्वीकार करने के बाद सामान रखने घर के भीतर जाने लगे तो गुंजन की मम्मी ने हैरानी भरी आवाज में उन से पूछा, ‘‘आप राजेंद्र हो न? एसडी कालेज में पढ़े हैं न आप?’’

‘‘जी, लेकिन मैं ने…’’

‘‘तुम मुझे कैसे पहचान पाओगे? मैं अब मोटी हो गई हूं, बाल सफेद हो चले हैं और आंखों पर चश्मा जो लग गया है. अरे, मैं सीमा हूं…तब सीमा कौशिक होती थी. तुम मेरे नोट्स पढ़ कर ही पास होते थे. अब तो पहचान लो, भई,’’ सीमाजी ने हंसते हुए पापा की यादों को कुरेदा.

दिमाग पर कुछ जोर दे कर पापा ने कहा, ‘‘हां, अब याद आ गया,’’ और अपने हाथ में पकड़ा सामान मुझे देने के बाद वे गुंजन की मम्मी के सामने आ बैठे, ‘‘तुम इतनी ज्यादा भी नहीं बदली हो. तुम्हारी आवाज तो बिलकुल वही है. मुझे पहली नजर में ही पहचान लेना चाहिए था.’’

‘‘जैसे मैं ने पहचाना.’’

‘‘पता नहीं तुम ने कैसे पहचान लिया? मेरी शक्ल तो बिलकुल बदल गई है.’’

‘‘लेकिन तुम्हारे बेटे रवि में तुम्हारी उन दिनों की शक्लसूरत की झलक साफ नजर आती है. शायद इसी समानता ने तुम्हें पहचानने में मेरी मदद की. देखो, क्या गजब का संयोग है. मैं अपनी बेटी का रिश्ता तुम्हारे बेटे के लिए ले कर आई हूं.’’

‘‘मेरी समझ से यह अच्छा ही है क्योंकि कालेज में जैसा आकर्षक व्यक्तित्व तुम्हारा होता था, अगर तुम्हारी बेटी वैसी ही है तो मेरे बेटे रवि की तो समझो लाटरी ही निकल आई,’’ पापा के इस मजाक पर हम सब खूब जोर से हंसे तो सीमा आंटी एकदम शरमा गईं.

अब तक सब के मन की हिचक समाप्त हो गई थी. पापा सीमा आंटी के साथ कालेज के समय की यादों को ताजा करने लगे. उन के भैयाभाभी व बेटीदामाद ने मुझ से मेरे बारे में जानकारी लेनी शुरू कर दी. नीता भाभी नाश्ते की तैयारी करने अंदर रसोई में चली गईं. राजीव भैया खामोश रह कर हम सब की बातें सुन रहे थे.

उन लोगों के साथ 2 घंटे का समय कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. पापा तो ऐसे खुश नजर आ रहे थे मानो यह रिश्ता पक्का ही हो गया हो.

सीमा आंटी ने चलने से पहले पापा के सामने हाथ जोड़ दिए और भावुक लहजे में बोलीं, ‘‘राजेंद्र, मेरे पास दहेज में देने को ज्यादा कुछ नहीं है. गुंजन के पापा के बीमे व फंड के पैसों से मैं ने बड़ी बेटी की शादी की है और अब छोटी की करूंगी. तुम्हारी कोई खास मांग हो तो अभी…’’

‘‘मुझे जलील करने वाली बात मत करो, सीमा,’’ पापा ने बीच में टोक कर उन्हें चुप करा दिया, ‘‘रवि को गुंजन पसंद आ जाए…और मुझे विश्वास है कि तुम्हारी बेटी इसे जरूर अच्छी लगेगी, तो यह रिश्ता मेरी तरफ से पक्का हुआ. दहेज में मुझे एक पैसा नहीं चाहिए. तुम दहेज की टैंशन मन से बिलकुल निकाल दो.’’

सीमा आंटी बोलीं, ‘‘राजेंद्र, किन शब्दों में तुम्हारा शुक्रिया अदा करूं? अब आप सब लोग हमारे घर कब आओगे?’’

‘‘अगले संडे की शाम को आते हैं,’’ पापा ने उतावली दिखाते हुए कहा.

‘‘ठीक है. अब हम चलेंगे. तुम से मिल कर मन बहुत खुश है और बड़ी राहत भी महसूस कर रहा है. तुम्हारा बेटा रवि हमें तो बहुत भाया है. मेरी दिली इच्छा है कि इस घर से हमारा रिश्ता जरूर जुड़ जाए.’’

पापा के चेहरे के भाव साफ बता रहे थे कि उन की वही इच्छा है जो सीमा आंटी की है.

उन सब के जाने के बाद राजीव भैया पापा से उलझ गए, ‘‘आप को यह कहने की क्या जरूरत थी कि हमें दहेज में एक पैसा भी नहीं चाहिए? उन्हें इंजीनियर लड़का चाहिए तो शादी अच्छी करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अपनी बेटी की अच्छी शादी तो हर मांबाप करते ही हैं. सीमा से जानपहचान ही ऐसी निकल आई कि अपने मुंह से कुछ मांग बताने पर मैं अपनी ही नजरों में गिर जाता,’’ पापा ने शांत स्वर में भैया को समझाया.

‘‘कालेज के दिनों में आप का उन के साथ कोई प्यार का चक्कर तो नहीं चला था न?’’ राजीव भैया ने उन्हें छेड़ा.

‘‘अरे, नहीं,’’ पापा एकदम से शरमाए तो हम तीनों ठहाका मार कर हंस पड़े थे.

‘‘आगे से बिलकुल दहेज न लेने की बात मत करना, पापा,’’ ऐसी सलाह दे कर राजीव भैया अपने कमरे में चले गए थे.

पापा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए मुझ से कहा, ‘‘तेरा बड़ा भाई उन लोगों में से है जिन का पेट कभी नहीं भरता. लेकिन तू चिंता न कर बच्चे, अगर सीमा की बेटी सूरत, सीरत से अच्छी हुई तो मैं तेरे भाई की एक न सुनते हुए रिश्ता पक्का कर दूंगा.’’

‘‘ठीक कह रहे हैं आप, पापा. सीमा आंटी के नोट्स पढ़ कर आप ने जो गे्रजुएशन किया है, अब उस एहसान का बदला चुकाने का वक्त आ गया है. आप गुंजन को देखे बिना भी अगर इस रिश्ते को ‘हां’ करना चाहें तो मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा.’’

मेरी इस बात को सुन पापा बहुत खुश हुए और दिल खोल कर खूब हंसे भी.

रविवार को हम लोग शाम के 5 बजे के करीब सीमा आंटी के घर पहुंच गए. उन के भैयाभाभी और बेटीदामाद ने हमारा स्वागत किया. कुछ देर बाद गुंजन भी हम सब के बीच आ बैठी थी.

पहली नजर में उस ने मुझे बहुत प्रभावित किया. वह मुझे सुंदर ही नहीं बल्कि स्मार्ट भी लगी. हम सब के साथ खुल कर बातें करने में वह जरा भी नहीं हिचक रही थी.

मेरे बारे में कुछ जानने से ज्यादा उसे पापा से अपनी मम्मी के कालेज के दिनों की बातें सुनने में ज्यादा दिलचस्पी थी. पापा एक बार उन दिनों के बारे में बोलना शुरू हुए तो उन्हें रोकना मुश्किल हो गया. उन के पास सुनाने को बहुत कुछ ऐसा था जिस से हम दोनों भाई भी परिचित नहीं थे. पापा को खूब बोलते देख राजीव भैया मन ही मन कुढ़ रहे थे, यह उन के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था. मुझे तो पापा के चेहरे पर नजर आ रही चमक बड़ी अच्छी लग रही थी. उन के कालेज के दिनों की बातें सुनने में मुझे सचमुच बहुत मजा आ रहा था.

‘‘उन दिनों साथ पढ़ने वाली लड़कियों के साथ लड़कों का बाहर घूमने या फिल्म देखने का सवाल ही नहीं पैदा होता था. लड़कियां कभी कालेज की कैंटीन में चाय पीने को तैयार हो जाती थीं तो लड़के फूले नहीं समाते थे.’’

‘‘तब अधिकतर एकतरफा प्यार हुआ करता था. कोई हिम्मती लड़का ही गर्लफ्रैंड बना पाता था, नहीं तो अधिकतर अपने दिल की रानी के सपने देखते हुए ही कालेज की पढ़ाई पूरी कर जाते थे,’’ पापा ने बड़े प्रसन्न व उत्साहित लहजे में हम सब को अपने समय की झलक दिखाई थी.

‘‘तब लड़कों के मुंह से प्यार का इजहार करने की हिम्मत तो यकीनन कम होती थी पर वे प्रेमपत्र खूब लिखा करते थे. गुमनाम प्रेमपत्र लिखने की कला में तो राजेंद्र, तुम भी माहिर थे,’’ सीमा आंटी ने अचानक यह भेद खोला तो पापा एकदम से घबरा उठे थे.

‘‘मैं ने किसे गुमनाम प्रेमपत्र लिखा था?’’ पापा ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अनिता तुम्हारे सारे प्रेमपत्र हम सहेलियों को पढ़ाया करती थी.’’

‘‘जब मैं ने किसी पत्र पर अपना नाम लिखा ही नहीं था तो तुम कैसे कह सकती हो कि वे…अरे, यह तो आज मैं ने अपनी पोल खुद ही खोल दी.’’

पापा हम से आंखें मिलाने में शरमा रहे थे. हमारी हंसी बंद होने में नहीं आ रही थी. मुझे शरमातेमुसकराते पापा उस वक्त बहुत ही प्यारे लग रहे थे.

चायनाश्ते के बाद गुंजन और मुझे आपस में खुल कर बातें करने के लिए पास के पार्क में भेज दिया गया. पार्क में पहुंचते ही गुंजन ने साफ शब्दों में मुझ से कहा, ‘‘मेरी बात का बुरा न मानना, मैं तुम से अभी शादी नहीं कर सकती.’’

‘‘अभी से तुम्हारा क्या मतलब है?’’ मैं ने कुछ चिढ़ कर पूछा.

‘‘मुझे पहले एमबीए करना है और बहुत अच्छे कालेज से करना है. उतनी तैयारी शादी के बाद नहीं हो सकती है.’’

‘‘यह बात तुम ने पहले सब को क्यों नहीं बताई?’’

‘‘मम्मी शादी करने के लिए मेरे पीछे पड़ी रहती हैं. उन से जान छुड़ाने के लिए मैं 2-3 महीनों में एक लड़के से मिलने का नाटक कर लेती हूं.’’

‘‘और तुम्हें उसे रिजैक्ट करना होता है…जैसे अब मुझे करोगी. वाह, तुम ने अपने मनोरंजन के लिए बढि़या खेल ढूंढ़ा हुआ है.’’

‘‘अगर तुम्हें पूरी तरह से रिजैक्ट करूंगी भी तो आज नहीं, कुछ दिनों के बाद करूंगी.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैं ने चौंक कर उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘मैं तसल्ली से तुम्हें सब समझाती हूं,’’ उस ने उत्साहित अंदाज में मेरा हाथ पकड़ा और पास में पड़ी बैंच की तरफ बढ़ चली.

उस बैंच पर घंटे भर बैठने के बाद हम दोनों घर लौट आए थे. जब हम ने ड्राइंगरूम में कदम रखा तब सब की नजरें हम पर टिकी यह सवाल पूछ रही थीं, ‘क्या तुम दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया है?’

गुंजन का इशारा पाने के बाद मैं ने सब को सूचित किया, ‘‘अभी हम दोनों किसी फैसले पर नहीं पहुंच पाए हैं. एकदूसरे को समझने के लिए हमें कुछ और वक्त चाहिए.’’

‘‘रवि वैसे दिल का बहुत अच्छा है पर थोड़ा पुराने खयालों का है. मेरे लिए अपना कैरियर…’’

‘‘जरूरत से कुछ ज्यादा ही अहमियत रखता है,’’ रवि ने मुसकराते हुए गुंजन को टोका, ‘‘इस मसले पर हमारे बीच काफी बहस हुई है, लेकिन वह बहस एकदूसरे को नापसंद करने का कारण नहीं बनी है. अगली कुछ मुलाकातों में अगर हम ने अपने मतभेद सुलझा लिए तो दोनों परिवारों के बीच में रिश्ता जरूर बन जाएगा.’’

‘‘आजकल के बच्चों की बस पूछो मत,’’ पापा ने माथे पर बल डाल कर सीमा आंटी से कहा, ‘‘मेरी समझ से गुंजन बहुत अच्छी लड़की है. मैं घर जा कर रवि से बात करता हूं. इसे मेरी खुशी की चिंता होगी तो जल्दी ही तुम तक खुशखबरी पहुंच जाएगी.’’

पापा के यों हौसला बढ़ाने पर सीमा आंटी मुसकराईं तो पापा का चेहरा भी खिल उठा था.

घर लौटने के बाद से पापा ने सवाल पूछपूछ कर मेरा दिमाग खराब कर दिया. ‘‘क्या कमी नजर आई तुझे गुंजन में? वह सुंदर है, स्मार्ट है, शिक्षित है और अच्छा कमा रही है. और क्या चाहिए तुझे?’’

‘‘वक्त, पापा, वक्त. हम एकदूसरे को और ज्यादा अच्छी तरह से समझना चाहते हैं.’’

‘‘मन में बेकार की उलझन पैदा करने का क्या फायदा है? वह अच्छी लगी है न तुझे?’’

‘‘दिल की तो वह बहुत अच्छी है पर…’’

‘‘बस, शादी के लिए हां करने को यही बात काफी है. बाद में किसी भी शादी को सफल बनाने के लिए पतिपत्नी दोनों को समझौते तो करने ही पड़ते हैं.’’

‘‘आप गुंजन को समझाने के लिए भी कुछ बातें बचा लो, पापा,’’ मैं उन के पास से जान बचा कर भाग खड़ा हुआ था.

गुंजन और मेरी अगली मुलाकात उस के घर में सीमा आंटी के जन्मदिन पर अगले शनिवार को हुई. हमें किसी ने बुलाया नहीं था. मैं ने पापा को जिद कर के तैयार किया और सुंदर सा फूलों का गुलदस्ता ले कर हम उन के घर पहुंच गए. अपने आने की सूचना सिर्फ आधे घंटे पहले मैं ने फोन पर गुंजन को दी थी.

उन लोगों के यहां हमारी खातिर करने की कोई तैयारी नहीं थी. गुंजन की दीदी और जीजाजी देर से डिनर पर आने वाले थे. तब मैं ने बाजार से खानेपीने का सामान लाने की जिम्मेदारी ले ली. गुंजन भी मेरे साथ बाजार चली आई थी. वे लोग नहीं चाहते थे कि खानेपीने की चीजों पर मैं खर्च करूं. हम लोग लौट कर घर आ गए. घर में पार्टी की गहमागहमी थी.

पापा की आवाज अच्छी है. उन्होंने हमारी फरमाइश पर 4 पुराने फिल्मी गाने सुनाए तो पार्टी में समा बंध गया. सीमा आंटी के बनाए सूजी के हलवे की जितनी तारीफ की जाए कम होगी.

वे सचमुच बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती हैं, इस का एहसास हमें डिनर करने के समय हो गया था. हम तो डिनर के लिए रुकना ही नहीं चाहते थे पर गुंजन ने जबरदस्ती रोक लिया था. उस की दीदी व जीजाजी के साथ भी उस रात हमारे संबंध और ज्यादा मधुर हो गए.

 

डिनर के बाद गुंजन और मैं घर के बाहर की सड़क पर घूमने निकल आए. मैं उस की मम्मी की और गुंजन मेरे पापा के व्यक्तित्व व व्यवहार की खूब तारीफ कर रहे थे. अचानक उस ने मेरा हाथ पकड़ा और बगीचे में खुलने वाली खिड़की की तरफ चल पड़ी.

‘‘मैं कुछ देखना और तुम्हें दिखाना चाहती हूं,’’ मैं कुछ पूछूं, उस से पहले ही उस ने मुझे अपने मन की बात बता दी थी.

बैठक में रोशनी होने के कारण हम तो अंदर का दृश्य साफ देख सकते थे पर अंदर बैठे लोगों के लिए हमें देखना संभव नहीं था.

बैठक में गुंजन के जीजाजी किसी पत्रिका के पन्ने पलट रहे थे. उस की बहन टीवी देख रही थी. सीमा आंटी और पापा आपस में बातें करने में पूरी तरह से मशगूल थे.

अचानक पापा की किसी बात पर सीमा आंटी खिलखिला कर हंस पड़ीं. पापा ने अपनी मजाकिया बात को कहना जारी रखा तो सीमा आंटी के ऊपर हंसी का दौरा सा ही पड़ गया था.

वे बारबार इशारे कर पापा से चुप होने का अनुरोध कर रही थीं पर वे रुकरुक कर कुछ बोलते और सीमा आंटी फिर जोर से हंसने लगतीं.

‘‘मैं ने अपनी मम्मी को इतना खुश पहले कभी नहीं देखा,’’ गुंजन भावुक हो उठी.

‘‘इस वक्त दोनों के चेहरों पर कितनी चमक है,’’ मैं ने प्रसन्न स्वर में कहा, ‘‘लगता है कि हम ने इन दोनों के बारे में जो सपना देखा है, वह बिलकुल ठीक है.’’

‘‘इस उम्र में ही तो इंसान को एक हमसफर की सब से ज्यादा जरूरत होती है.’’

‘‘मुझे तो लगता है कि ये दोनों एकदूसरे से शादी करने का फैसला कर ही लेंगे.’’

‘‘जब तक ये ऐसा फैसला नहीं करते, हम अपनी शादी के मामले को लटकाए रख कर इन्हें मिलनेजुलने के मौके देते रहेंगे.’’

‘‘तुम्हारी जैसी समझदार दोस्त को पा कर मुझे बहुत खुशी होगी. इन दोनों की शादी कराने का तुम्हारा आइडिया लाजवाब है, गुंजन.’’

‘‘तुम्हारे भैयाभाभी इस शादी का ज्यादा विरोध तो नहीं करेंगे?’’ गुंजन की आंखों में चिंता के भाव उभरे.

‘‘भैया को इस बात की चिंता तो जरूर सताएगी कि सीमा आंटी हमारी नई मां बन कर पापा की जायदाद में हिस्सेदार बन जाएंगी.’’

‘‘फिर बात कैसे बनेगी?’’

‘‘तुम्हारे इस सवाल का जवाब सीमा आंटी और पापा के चेहरे की चमक दे रही है. उन की खुशी और हित को ध्यान में रख मैं अपना हिस्सा भैया के नाम कर दूंगा,’’ इस निर्णय को लेने में मेरे दिल ने रत्ती भर हिचकिचाहट नहीं दिखाई थी.

‘‘तुसी तो गे्रट हो, दोस्त.’’

‘‘थैंक यू,’’ पापा के सुखद भविष्य की कल्पना कर मैं ने जब अचानक गुंजन को गले से लगाया तब हम दोनों की पलकें नम हो रही थीं.

कहीं मेला कहीं अकेला- संयुक्त परिवार में शादी से क्यों डरती थी तनु?

‘‘यह रिश्ता मुझे हर तरह से ठीक लग रहा है. बस अब तनु आ जाए तो इसे ही फाइनल करेंगे,’’ गिरीश ने अपनी पत्नी सुधा से कहा.

‘‘पहले तनु हां तो करे, परेशान कर रखा है उस ने, अच्छेभले रिश्ते में कमी निकाल देती है…संयुक्त परिवार सुन कर ही भड़क जाती है. अब की बार मैं उस की बिलकुल नहीं सुनूंगी और फिर यह रिश्ता उस की शर्तों पर खरा ही तो उतर रहा है. पता नहीं अचानक क्या जिद चढ़ी है कि बड़े परिवार में विवाह नहीं करेगी, क्या हो गया है इन लड़कियों को,’’ सुधा ने कहा.

‘‘तुम्हें तो पता ही है न, यह सब उस की बैस्ट फ्रैंड रिया का कियाधरा है… ऐसी कहां थी हमारी बेटी पर आजकल के बच्चों पर तो दोस्तों का प्रभाव इतना ज्यादा रहता है कि पूछो मत,’’ गिरीशजी बोले.

दोनों पतिपत्नी चिंतित और गंभीर मुद्रा में बातें कर ही रहे थे कि तनु औफिस से

आ गई. मातापिता का गंभीर चेहरा देख चौंकी, फिर हंसते हुए बोली, ‘‘फिर कोई रिश्ता आ गया क्या?’’

उस के कहने के ढंग पर दोनों को हंसी आ गई. पल भर में माहौल हलकाफुलका हो गया. तीनों ने साथ बैठ कर चाय पी. फिर गिरीश का इशारा पा कर सुधा ने कहा, ‘‘इस रिश्ते में कोई कमी नहीं लग रही है, यहीं लखनऊ में ही लड़के के मातापिता अपने बड़े बेटेबहू के साथ रहते हैं. छोटा बेटा मुंबई में ही कार्यरत है, वह दवा की कंपनी में प्रोडक्ट मैनेजर है.’’

तनु पल भर सोच कर मुसकराती हुई बोली, ‘‘अच्छा, वहां अकेला रहता है?’’

‘‘हां.’’

‘‘फिर यह तो ठीक है. बस, उस के मातापिता बारबार मुंबई न पहुंच जाएं.’’

‘‘क्या बकवास करती हो तनु,’’ सुधा को गुस्सा आ गया, ‘‘उन का बेटा है, क्या वे वहां नहीं जा सकते? कैसी हो गई हो तुम? ये सब क्या सीख लिया है? हम आज भी तरसते हैं कोई बड़ा हमारे सिर पर होता तो कितना अच्छा होता पर सब का साथ सालों पहले छूट गया और एक तुम हो… क्या ससुराल में बस पति से मतलब होता है? बाकी रिश्ते भी होते हैं, उन की भी एक मिठास होती है.’’

‘‘नहीं मां, मुझे घबराहट होती है, रिया बता रही थी…’’

सुधा गुस्से में  खड़ी हो गईं, ‘‘मुझे उस लड़की की कोई बात नहीं सुननी… उस लड़की ने हमारी अच्छीभली बेटी का दिमाग खराब कर दिया है…हमारे परिवार में हम 3 ही हैं. थोड़े दिन पहले तुम जौइंट फैमिली में हर रिश्ते का आनंद उठाना चाहती थी पर इस रिया ने अपनी नैगेटिव बातों से तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है.’’

तनु को भी गुस्सा आ गया. वह भी पैर पटकती हुई अपने रूम में चली गई.

गिरीश और सुधा सिर पकड़े बैठे रह गए.

तनु की बैस्ट फ्रैंड रिया का विवाह 6 महीने पहले ही दिल्ली में हुआ था. उस की ससुराल में सासससुर और पति अनुज थे, समृद्ध परिवार था. रिया भी अच्छी जौब में थी. तनु से ही रिया के हालचाल मिलते रहते थे. दिन भर दोनों व्हाट्सऐप पर चैट करती थीं. अकसर छुट्टी वाले दिन दोनों की बातें सुधा के कानों में पड़ती थीं तो वे मन ही मन बेचैन हो उठती थीं. उन्होंने अंदाजा लगा लिया था कि रिया सासससुर की, यहां तक कि अनुज की भी कमियां निकाल कर तनु को किस्से सुनाती रहती है. वह तनु की बैस्ट फ्रैंड थी,  जिस के खिलाफ एक शब्द भी सुनना तनु को मंजूर नहीं था. तनु को हर बात सुधा से भी शेयर करने की आदत थी इसलिए वह कई बातें उन्हें खुद ही बताती रहती थी.

कभी तनु कहती, ‘‘आज रिया का मूड खराब है मम्मी, उसे अनुज ने मौर्निंग वाक के लिए उठा दिया, उसे सोना था, बेचारी अपनी मरजी से सो भी नहीं सकती.’’

एक दिन तनु ने बताया, ‘‘रिया की सास हैल्थ पर बहुत ध्यान देती हैं… उसे वही बोरिंग टिफिन खाना पड़ता है.’’

सुधा ने पूछा, ‘‘उस की सास ही टिफिन बनाती हैं?’’

‘‘हां, रिया औफिस जाती है तो वे ही घर का सारा काम देखती हैं. उन के यहां कुक है पर उस की सास अपनी निगरानी में ही सब खाना तैयार करवाती हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है. रिया को खुश होना चाहिए, इस में शिकायत की क्या बात है?’’

क्या खुश होगी बेचारी, उसे वह टिफिन अच्छा नहीं लगता. वह किसी और को खिला देती है. अपने लिए कुछ मनचाहा और्डर करती है बेचारी.

‘‘इस में बेचारी की क्या बात है? उस की सास हैल्दी खाना बनवा कर क्या गलत कर रही है?’’

तनु को गुस्सा आ गया, ‘‘आप उस की परेशानी क्यों नहीं समझतीं?’’

‘‘यह कोई परेशानी नहीं है. बेकार के किस्से सुना कर तुम्हारा टाइम और दिमाग दोनों खराब करती है वह लड़की.’’

2 दिन तो तनु चुप रही, फिर आदतन तीसरे दिन ही शुरू हो गई, ‘‘रिया के सारे रिश्तेदार दिल्ली में ही रहते हैं. कभी किसी के यहां कोई फंक्शन होता है, तो कभी किसी के यहां. पता नहीं  कितने तो रिश्ते के देवर, ननदें हैं, जो छुट्टी वाले दिन टाइमपास के प्रोग्राम बनाते रहते हैं. रिया थक जाती है बेचारी.’’

सुधा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. रिया की बातें सुनसुन कर थक गई थीं. तनु की सोच बिलकुल बदल गई थी. अच्छीखासी स्नेहमयी मानसिकता की जगह नकारात्मकता ने ले ली थी.

कुछ दिन बाद तनु के उसी रिश्ते की बात को आगे बढ़ाया गया. तनु और रजत मिले. दोनों ने एकदूसरे को पसंद किया. सब कुछ सहर्ष तय कर दिया गया. रजत मुंबई में अकेला रह रहा था, इसलिए उस के मातापिता गौतम और राधा को उस के विवाह की जल्दी थी. विवाह अच्छी तरह से संपन्न हो गया था.

रिया भी अनुज के साथ आई थी. वह तनु से कह रही थी, ‘‘तुम्हारी तो मौज हो गई तनु. सब से दूर अकेले पति के साथ रहोगी. काश, मुझे भी यही लाइफ मिलती पर वहां तो मेला ही लगा रहता है.’’

इस बात को सुन कर सुधा को गुस्सा आया था. सब रस्में संपन्न होने के बाद 1 हफ्ते बाद तनु और रजत मुंबई जाने की तैयारी कर रहे थे. तनु के औफिस की ब्रांच मुंबई में भी थी. उस की योग्यता को देखते हुए उस का ट्रांसफर मुंबई ब्रांच में कर दिया गया. रजत के भाई विजय, भाभी रेखा और 3 साल का भतीजा यश और स्नेह लुटाते सासससुर सब के साथ तनु का समय बहुत अच्छा बीता था.

बीचबीच में  रिया भी निर्देश देती रहती थी, ‘‘मुंबई आने के लिए कहने की फौर्मैलिटी में मत पड़ना, नहीं तो वहां सब डट जाएंगे आ कर.’’ भरपूर स्नेह और आशीर्वाद के साथ दोनों परिवार उन्हें एअरपोर्ट तक छोड़ने आए.

तनु ने मुंबई पहुंच कर रजत के साथ नया जीवन शुरू किया. रजत के साथ ने उस का जीवन खुशियों से भर दिया. दोनों सुबह निकलते रात को आते. वीकैंड में ही दोनों को थोड़ी राहत रहती. सुबह लताबाई आ कर घर का सारा काम कर जाती. तनु फटाफट किचन का काम देखते हुए तैयार होती. 2 जनों का काम ज्यादा नहीं था पर रात को लौट कर किचन में घुसना अखर जाता.

रजत ने कई बार कहा भी था, ‘‘डिनर के लिए भी किसी बाई को रख लेते हैं.’’

‘‘पर हमारा कोई आने का टाइम तय नहीं है न और फिर घर की चाबी देना भी सेफ नहीं रहेगा.’’

‘‘चलो, ठीक है, मिल कर कुछ कर लिया करेंगे.’’ तनु की रिया से अब भी लगातार चैट चलती रहती थी. रिया उस के आजाद जीवन पर आंहें भरती थी. 5 महीने बीत रहे थे. रजत को 1 हफ्ते की ट्रैनिंग के लिए सिंगापुर भेजा जा रहा था. उस ने कहा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी? लखनऊ से मातापिताजी को बुला लेते हैं…वैसे भी अभी तक घर से कोई नहीं आया.’’

‘‘नहीं, अकेली कहां, रिया का बहुत मन कर रहा है आने का, वह आ जाएगी… मातापिताजी को तुम्हारे लौटने के बाद बुला लेंगे,’’ तनु ने अपनी तरफ से बात टालने की कोशिश की तो रजत मान गया.

तनु ने मौका मिलते ही रिया को फोन किया, ‘‘अपना प्रोग्राम पक्का रखना, कोई बहाना नहीं.’’

‘‘अरे, पक्का है. मैं पहुंच जाऊंगी. मुझे भी इस भीड़ से छुट्टी मिलेगी. तेरे पास शांति से रहूंगी 1 हफ्ता.’’

जिस दिन रजत गया, उसी दिन शाम तक रिया भी मुंबई पहुंच गई. दोनों सहेलियां गले मिलते हुए चहक उठी थीं. बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. देर रात तक रिया के किस्से चलते रहे. सासससुर की बातें, देवरननदों में हंसीमजाक के किस्से, रिश्तेदारों के फंक्शनों के किस्से.

अगले दिन तनु ने छुट्टी ले ली थी. दोनों खूब घूमीं, मूवी देखी, शौपिंग की, रात को ही घर वापस आईं.

रिया ने कहा, ‘‘हाय, ऐसा लग रहा है दूसरी दुनिया में आ गई हूं. तेरे घर में कितनी शांति है तनु, दिल खुश हो गया यहां आ कर.’’

तनु मुसकरा दी, ‘‘अब थक गई हैं, सोती हैं. कल औफिस जाऊंगी, शाम को जल्दी आ जाऊंगी. सुबह मेड आ कर सब काम कर देगी, अपने टिफिन के साथ तेरा खाना भी बना कर रख दूंगी, आराम से उठना कल.’’

अगले दिन सब काम कर के तनु औफिस चली गई. बारह बजे रिया का फोन आया, ‘‘तनु, क्या बताऊं, मजा आ गया अभी सो कर उठी हूं, कितनी शांति है तेरे घर में, कोई आवाज नहीं, कोई शोर नहीं.’’

थोड़ी देर बातें कर रिया ने फोन काट दिया. तनु सुधा को भी रिया के आने का प्रोगाम बता चुकी थी. सुधा ने कहा था, ‘‘कितने अच्छे लोग हैं, बहू को आराम से 1 हफ्ते के लिए फ्रैंड से मिलने भेज रखा है, फिर भी रिया कद्र नहीं करती उन का.’’

रिया ने आराम से फ्रैश हो कर खाना खाया, टीवी देखा, फिर सो गई. शाम को तनु आई तो दोनों ने चाय पीते हुए ढेरों बातें कीं. रिया की बातें खत्म ही नहीं हो रही थीं.

अचानक रिया ने कहा, ‘‘तू भी तो बता कुछ…कुछ किस्से सुना.’’

‘‘बस, किस की बात बताऊं, हम दोनों ही तो हैं यहां, सुबह जा कर रात को आते हैं, पूरा हफ्ता ऐसे ही भागतेदौड़ते बीत जाता है, वीकैंड पर ही आराम मिलता है. घर में तो कोई बात करने के लिए भी नहीं होता.’’

‘‘हां कितनी शांति है यहां. वहां तो घर में घुसते ही सासूमां चाय, नाश्ता, खाने की पूछताछ करने लगी हैं. मैं तो थक गई हूं वहां. आए दिन कुछ न कुछ चलता रहता है.’’

तनु आज अपने ही मनोभावों पर चौंकी. उस ने दिल में एक उदासी सी महसूस की. उस ने रिया की बातें सुनते हुए डिनर तैयार किया, बीचबीच में रिया के पति और उस के सासससुर फोन पर बातें करते रहे थे.

दोनों जब सोने लेटीं तो दोनों के मन में अलगअलग तरह के भाव उत्पन्न हो रहे थे. रिया सोच रही थी वाह, क्या बढि़या लाइफ जी रही है तनु. घर में कितनी शांति है, न कोई शोरआवाज, न किसी की दखलंदाजी कि क्या खाना है, कहां जाना है, अपनी मरजी से कुछ भी करो. वाह, क्या लाइफ है. उधर तनु सोच रही थी रिया इतने दिनों से ससुराल का रोना रो रही है कि काश, वह अकेली रह पाती पर मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा कि अकेले रहने में क्या सुख है? यहां तो हम दोनों के अलावा सुबह बस बाई दिखती है जो मशीन की तरह काम कर के चली जाती है. हमारी चिंता करने वाला तो कोई भी नहीं यहां. मायके में भी हम 3 ही थे, कितना शौक था मुझे संयुक्त परिवार की बहू बन कर हर रिश्ते का आनंद उठाने का. यहां हर वीकैंड में किसी मौल में या कोई मूवी देख कर छुट्टी बिता लेते हैं. घर आते हैं तो थके हुए. कोई भी अपना नहीं दिखता. इस अकेले संसार में ऐसा क्या सुख है, जिस के लिए रिया तरसती रहती है. ऐसे अकेलेपन का क्या फायदा जहां न देवर की हंसीठिठोली हो न ननद की छेड़खानी और न सासससुर की डांट और उन का स्नेह भरा संरक्षण.

दोनों सहेलियां एकदूसरे के जीवन के बारे में सोच रही थीं. पर तनु मन ही मन फैसला कर चुकी थी कि वह कल सुबह ही लखनऊ फोन कर ससुराल से किसी न किसी को आने के लिए जरूर कहेगी. उसे भी जीवन में हर रिश्ते की मिठास को महसूस करना है. अचानक उस की नजर रिया की नजरों से मिली तो दोनों हंस दीं.

रिया ने पूछा, ‘‘क्या सोच रही थी?’’

‘‘तुम्हारे बारे में और तुम?’’

‘‘तुम्हारे बारे में,’’ और फिर दोनों हंस पड़ीं, पर तनु की हंसी में जो रहस्यभरी खनक थी वह रिया की समझ से परे थी.

खेल खेल में- नीरज के प्रति शिखा का आकर्षण देख क्यों परेशान हुई अनिता?

शिखा के पास उस समय नीरज भी खड़ा था जब अनिता ने उस से कहा, ‘‘मैं ने तुम्हारी मम्मी को फोन कर के उन से इजाजत ले ली है.’’

‘‘किस बात की?’’ शिखा ने चौंक कर पूछा.

‘‘आज रात तुम मेरे घर पर रुकोगी.

कल रविवार की शाम मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ आऊंगी.’’

‘‘कोई खास मौका है क्या?’’

‘‘नहीं. बस, बहुत दिनों से किसी के साथ दिल की बातें शेयर नहीं की हैं. तुम्हारे साथ जी भर कर गपशप कर लूंगी, तो मन हलका हो जाएगा. मैं लंच के बाद चली जाऊंगी. तुम शाम को सीधे मेरे घर आ जाना.’’

नीरज ने वार्त्तालाप में हिस्सा लेते हुए कहा, ‘‘अनिता, मैं शिखा को छोड़ दूंगा.’’

‘‘इस बातूनी के चक्कर में फंस कर ज्यादा लेट मत हो जाना,’’ कह कर अनिता अपनी सीट पर चली गई.

औफिस के बंद होने पर शिखा नीरज के साथ उस की मोटरसाइकिल पर अनिता के घर जाने को निकली.

‘‘कल 11 बजे पक्का आ जाना,’’ नीरज ने शिखा को अनिता के घर के बाहर उतारते

हुए कहा.

‘‘ओके,’’ शिखा ने मुसकरा कहा.

अनिता रसोई में व्यस्त थी. शिखा उन किशोर बच्चों राहुल और रिचा के साथ गपशप करने लगी. अनिता के पति दिनेश साहब घर पर उपस्थित नहीं थे. अनिता उसे बाजार ले गई. वहां एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान में घुस गई. अनिता और दुकान का मालिक एकदूसरे को नाम ले कर संबोधित कर रहे थे. इस से शिखा ने अंदाजा लगाया कि दोनों पुराने परिचित हैं.

‘‘दीपक, अपनी इस सहेली को मुझे एक बढि़या टीशर्ट गिफ्ट करनी है. टौप क्वालिटी की जल्दी से दिखा दो,’’ अनिता ने मुसकराते हुए दुकान के मालिक को अपनी इच्छा बताई.

 

शिखा गिफ्ट नहीं लेना चाहती थी, पर अनिता ने उस की एक न सुनी. दीपक खुद अनिता को टीशर्ट पसंद कराने के काम में दिलचस्पी ले रहा था. अंतत: उन्होंने एक लाल रंग की टीशर्ट पसंद कर ली.

शिखा के लिए टीशर्ट के अलावा अनिता ने रिचा और राहुल के लिए भी कपड़े खरीदे फिर पति के लिए नीले रंग की कमीज खरीदी.

दुकान से बाहर आते हुए शिखा ने मुड़ कर देखा तो पाया कि दीपक टकटकी बांधे उन दोनों को उदास भाव से देख रहा है. शिखा ने अनिता को छेड़ा, ‘‘मुझे तो दाल में काला नजर आया है, मैडम. क्या यह दीपक साहब आप के कभी प्रेमी रहे हैं?’’

‘‘प्रेमी नहीं, कभी अच्छे दोस्त थे… मेरे भी और मेरे पति के भी. इस विषय पर कभी बाद में विस्तार से बताऊंगी. पतिदेव घर पहुंच चुके होंगे.’’

‘‘अच्छा, यह तो बता दीजिए कि आज क्या खास दिन है?’’

‘‘घर पहुंच कर बताऊंगी,’’ कह कर अनिता ने रिकशा किया और घर आ गईं.

वे घर पहुंचीं तो दिनेश साहब उन्हें ड्राइंगरूम में बैठे मिले. शिखा को देख कर उन के होंठों पर उभरी मुसकान अनिता के हाथ में लिफाफों को देख फौरन गायब हो गई.

‘‘तुम दीपक की दुकान में क्यों घुसीं?’’ कह कर उन्होंने अनिता को आग्नेय दृष्टि से देखा.

‘‘मैं शिखा को अच्छी टीशर्ट खरीदवाना चाहती थी. दीपक की दुकान पर सब से

अच्छा सामान…’’

‘‘मेरे मना करने के बावजूद तुम्हारी हिम्मत कैसे हो गई उस की दुकान में कदम रखने की?’’ पति गुस्से से दहाड़े.

‘‘मुझ से गलती हो गई,’’ अनिता ने मुसकराते हुए अपने हाथ जोड़ दिए, ‘‘आज के दिन तो आप गुस्सा न करो.’’

‘‘आज का दिन मेरी जिंदगी का सब से मनहूस दिन है,’’ कह कर गुस्से से भरे दिनेशजी अपने कमरे में चले गए.

‘‘मैडम, जब आप को मना किया गया था तो आप क्यों गईं दीपक की दुकान पर?’’

आंखों में आंसू भर कर अनिता ने उदास लहजे में जवाब दिया, ‘‘आज मैं तुम्हें 10 साल पुरानी घटना बताती हूं जिस ने मेरे विवाहित जीवन की सुखशांति को नष्ट कर डाला. मैं कुसूरवार न होते हुए भी सजा भुगत रही हूं, शिखा.

‘‘दीपक का घर पास में ही है. खूब आनाजाना था हमारा एकदूसरे के यहां. दिनेश साहब जब टूर पर होते, तब मैं अकसर उन के यहां चली जाती थी.

‘‘दीपक मेरे साथ हंसीमजाक कर लेता था. इस का न कभी दिनेश साहब ने बुरा माना, न दीपक की पत्नी ने, क्योंकि हमारे मन में खोट नहीं था.

‘‘एक शाम जब मैं दीपक के घर पहुंची, तो वह घर में अकेला था. पत्नी अपने दोनों बच्चों को ले कर पड़ोसी के यहां जन्मदिन समारोह में शामिल होने गई थी.’’

 

अपने गालों पर ढलक आए आंसुओं को पोंछने के बाद अनिता ने आगे बताया, ‘‘दीपक अकेले में मजाक करते हुए कभीकभी रोमांटिक हो जाता था. मैं सारी बात को खेल की तरह से लेती क्योंकि मेरे मन में रत्ती भर खोट नहीं था.

‘‘दीपक ने भी कभी सभ्यता और शालीनता की सीमाओं को नहीं तोड़ा था.

‘‘दिनेश साहब टूर पर गए हुए थे. उन्हें अगले दिन लौटना था, पर वे 1 दिन पहले

लौट आए.

‘‘मेरी सास ने जानकारी दी कि मैं दीपक के घर गई हूं. वह तो सारा दिन वहीं पड़ी रहती है. ऐसी झूठी बात कह कर उन्होंने दिनेश साहब के मन में हम दोनों के प्रति शक का बीज बो दिया.

‘‘उस शाम दीपक मुझे पियक्कड़ों की बरात की घटनाएं सुना कर खूब हंसा रहा था. फिर अचानक उस ने मेरी प्रशंसा करनी शुरू कर दी. वह पहले भी ऐसा कर देता था, पर उस शाम खिड़की के पास खड़े दिनेश साहब ने सारी बातें सुन लीं.

‘‘उस शाम से उन्होंने मुझे चरित्रहीन मान लिया और दीपक से सारे संबंध तोड़ लिए. और… और… मैं अपने माथे पर लगे उस झूठे कलंक के धब्बे को आज तक धो नहीं पाई हूं, शिखा.’’

‘‘यह तो गलत बात है, मैडम. दिनेश साहब को आप की बात सुन कर अपने मन से गलतफहमी निकाल देनी चाहिए थी,’’ शिखा ने हमदर्दी जताई.

‘‘वे मुझे माफ करने को तैयार नहीं हैं. वे मेरे बड़े हो रहे बच्चों के सामने कभी भी मुझे चरित्रहीन होने का ताना दे कर बुरी तरह शर्मिंदा कर देते हैं.’’

‘‘यह तो उन की बहुत गलत बात है, मैडम.’’

‘‘मैं खुद को कोसती हूं शिखा कि मुझे खेलखेल में भी दीपक को बढ़ावा नहीं देना  चाहिए था. मेरी उस भूल ने मुझे सदा के लिए अपने पति की नजरों से गिरा दिया है.’’

‘‘जब आप को पता था कि दिनेश साहब बहुत गुस्सा होंगे, तब आप दीपक की दुकान पर क्यों गईं?’’

शिखा के इस सवाल के जवाब में अनिता खामोश रह उस की आंखों में अर्थपूर्ण अंदाज में झांकने लगी.

कुछ पल खामोश रहने के बाद शिखा सोचपूर्ण लहजे में बोली, ‘‘मुझे दिनेश साहब का गुस्सा… उन की नफरत दिखाने के लिए आप जानबूझ कर दीपक की दुकान से खरीदारी कर के लाई हैं न? मेरी आंखें खोलने के लिए आप ने यह सब किया है न?’’

‘‘हां, शिखा,’’ अनिता ने झुक कर शिखा का माथा चूम लिया, ‘‘मैं नहीं चाहती कि तुम नीरज के साथ प्रेम का खतरनाक खेल खेलते हुए मेरी तरह अपने पति की नजरों में हमेशा के लिए गिर जाओ.’’

‘‘मेरे मन में उस के प्रति कोई गलत भाव नहीं है, मैडम.’’

‘‘मैं भी दीपक के लिए ऐसा ही सोचती थी. देखो, तुम्हारा पति भी दिनेश साहब की तरह गलतफहमी का शिकार हो सकता है. तब खेलखेल में तुम भी अपने विवाहित जीवन की खुशियां खो बैठोगी.

‘‘तुम अपने पति से नाराज हो कर मायके में रह रही हो. यों दूर रहने के कारण पति के मन में पत्नी के चरित्र के प्रति शक ज्यादा आसानी से जड़ पकड़ लेता है. पति के प्यार का खतरा उठाने से बेहतर है ससुराल वालों की जलीकटी बातें और गलत व्यवहार सहना. तुम फौरन अपने पति के पास लौट जाओ, शिखा,’’ अत्यधिक भावुक हो जाने से अनिता का गला रुंध गया.

‘‘मैं लौट जाऊंगी,’’ शिखा ने दृढ़ स्वर में अपना फैसला सुनाया.

‘‘तुम्हारा कल नीरज से मिलने का कार्यक्रम है…’’

‘‘हां.’’

‘‘उस का क्या करोगी?’’

शिखा ने पर्स में से अपना मोबाइल निकाल कर उसे बंद कर कहा, ‘‘आज से यह खतरनाक खेल बिलकुल बंद. उस की झूठीसच्ची प्रशंसा अब मुझे गुमराह नहीं कर पाएगी.’’

‘‘मुझे बहुत खुशी है कि जो मैं तुम्हें समझाना चाहती थी, वह तुम ने समझ लिया,’’ अपनी उदासी को छिपा कर अनिता मुसकरा उठी.

‘‘मुझे समझाने के चक्कर में आप तो परेशानी में फंस गईं?’’ शिखा अफसोस से भर उठी.

‘‘लेकिन तुम तो बच गईं. चलो, खाना खाएं.’’

‘‘आप को शादी की सालगिरह की शुभकामनाएं और कामना करती हूं कि दिनेश साहब की गलतफहमी जल्दी दूर हो और आप उन का प्यार फिर से पा जाएं.’’

‘‘थैंक यू,’’ शिखा की नजरों से अपनी आंखों में भर आए आंसुओं को छिपाने के लिए अनिता रसोई की तरफ चल दी.

शिखा का मन उन के प्रति गहरे धन्यवाद व सहानुभूति के भाव से भर उठा था.

छलना- क्या थी माला की असलियत?

शलभ ने अपने नए मकान के बरामदे में आरामकुरसी डाली और उस पर लेट गया. शरद ऋतु की सुहानी बयार ने थपकी दी तो उस की आंख लग गई. तभी बगल वाले घर से स्त्रीपुरुष के लड़ने की तेज आवाज आने लगी. जब काफी देर तक पड़ोस का महाभारत बंद नहीं हुआ तो उस ने पत्नी को आवाज लगाई.

‘‘रमा, जरा देखो तो यह कैसा हंगामा है…’’

पत्नी के लौटने की प्रतीक्षा करते हुए शलभ सोचने लगा कि अपनी ससुराल के रिश्तेदारों से त्रस्त हो कर शांति और सुकून के लिए वह यहां आया था. बड़ी दौड़धूप करने के बाद दिल्ली से वह मेरठ में ट्रांसफर करवा सका था. उसे दिल्ली में पल भर भी एकांत नहीं मिलता था. रोज ही दफ्तर जाने के पहले व शाम को दफ्तर से लौटने पर कोई न कोई रिश्तेदार उस के घर आ टपकता था.

तनाव के कारण 33 वर्ष की आयु में ही उस के बाल खिचड़ी हो गए थे. अपनी उम्र से 10 वर्ष बड़ा लगता था वह. नौकरी की टैंशन, राजधानी के ट्रैफिक की टैंशन, रोजरोज की भागमभाग, ऊपर से पत्नी के नातेरिश्तेदारों का दखल.

10 मिनट बाद रमा आते ही चहक कर बोली, ‘‘सरप्राइज है, तुम्हारे लिए. सुनोगे तो झूम उठोगे. बगल वाले घर में मेरी मुंहबोली बहन माला है. उस का 2 वर्ष पहले ही विवाह हुआ है.’’

शलभ का चेहरा मुरझा गया. उस के मुंह से अस्पष्ट सी आवाज निकली, ‘‘यहां भी… ’’

रमा आगे बोली, ‘‘नहीं समझे  भई, मां की सहेली अनुभा मौसी की लड़की है यह. इस के विवाह में मैं नहीं जा पाई थी. अपना दीपू पैदा हुआ था न. मैं वहीं से अनुभा मौसी से फोन पर बात कर के आ रही हूं. कह दिया है मैं ने कि माला की जिम्मेदारी मेरी…’’

और सुनने की शक्ति नहीं थी शलभ में. पत्नी की बात काट कर उस ने विषैले स्वर में पूछा, ‘‘तो वही दोनों इतनी बेशर्मी से झगड़

रहे थे… ’’

आग्नेय नेत्रों से पति को घूरते हुए रमा बोली, ‘‘दोनों पैसे की तंगी से परेशान हैं. भलीचंगी नौकरी थी दोनों के पास. माला की कौलसैंटर में और महेश की एक प्राइवेट कंस्ट्रक्शन कंपनी में. माला देर से घर लौटती थी इसलिए महेश ने उस की नौकरी छुड़वा दी. माला के नौकरी छोड़ते ही महेश की कंपनी भी अचानक बंद हो गई. 2 माह से बेचारों को वेतन नहीं मिला है… मैं ने फिलहाल 10 हजार रुपए देने का वादा…’’

चीख पड़ा शलभ बीच में ही, ‘‘बिना मुझ से पूछे किसी भी ऐरेगैरे को…’’

‘‘ऐरीगैरी नहीं, मेरी मौसी की बेटी है वह…’’ रमा दहाड़ी.

‘‘तो तुम्हारी मौसी क्यों नहीं…’’ बोलतेबोलते रुक गया शलभ. सामने गेट के अंदर प्रवेश कर रहा था एक अत्यंत सुंदर, आकर्षक सजाधजा जवान जोड़ा.  दोनों एकदूसरे के लिए बने दिख रहे थे. शलभ ठगा सा उन्हें देखने लगा.

तभी रमा ऊंचे सुर में चिल्लाई, ‘‘आओ, माला, महेश…’’

अपने शांत जीवन में अनाधिकार प्रवेश कर के खलल उत्पन्न करने वाले इस खूबसूरत जोड़े को नापसंद नहीं कर सका शलभ. सौंदर्य निहारना उस की कमजोरी थी. चायपानी के बाद माला धीरे से बोली, ‘‘दीदी… आप ने पैसे…’’

‘‘हांहां,’’ कहते हुए रमा ने रखे 10 हजार रुपए ला कर माला को दे दिए.

रुपए मिलते ही दोनों हंसते हुए गेट से बाहर हो गए और स्कूटर पर फौरन फुर्र हो गए. शाम को दोनों देर से लौटे और आते ही सीधे रमा के पास आ गए.

घर में प्रवेश करते ही माला सोफे पर पसर गई और बोली, ‘‘खाना हम दोनों यहीं खाएंगे. बिलकुल हिम्मत नहीं है कुछ करने की. बहुत थक गई हूं मैं…’’

‘‘कहां थे तुम दोनों अभी तक ’’ उत्सुकता से पूछा रमा ने.

‘‘पूरा समय ब्यूटीपार्लर में निकल गया,’’ चहक उठी माला, ‘‘पैडीक्योर, मैनीक्योर, फेशियल, हेयर कटिंग, सैटिंग व बौडी मसाज…’’

‘‘तुम तो वैसे ही इतनी सुंदर हो. तुम्हें इन सब की क्या जरूरत है  बहुत पैसे खर्च हो गए होंगे…’’ मरी सी आवाज निकली रमा के मुख से.

‘‘कुछ ज्यादा नहीं, बस 15 सौ रुपए ही लगे हैं,’’ लापरवाही से अपने खूबसूरत केशों को झटका देते हुए बोली माला, ‘‘मैंटेन न करो तो अच्छाखासा रूप भी बिगड़ जाता है. अपनी ओर तो तनिक देखो दीदी, क्या हुलिया बना रखा है आप ने  आप के रूप की मिसाल तो मां आज तक देती हैं. ऐसा लगता है कि आप ने कभी पार्लर में झांका तक नहीं है. या तो पैसा बचाओ या रूप… पैसा तो हाथ का मैल है. आज है कल नहीं…’’

शलभ की सहनशक्ति जवाब दे गई. उस ने कटाक्ष किया, ‘‘क्या महेश भी दिन भर ‘मैंस पार्लर’ में था ’’

‘‘नहींनहीं,’’ बोली माला, ‘‘उसे कहां फुरसत थी. तमाम बिल जो जमा करने थे. घर का किराया, बिजली का बिल, टैलीफोन का बिल…’’

घबरा गई रमा, ‘‘तब तो पूरे 10 हजार…’’

‘‘हां, पूरे खत्म हो गए. अभी दूध वाले का बिल बाकी है. साथ में रोज का जेब खर्च,’’ बेहिचक माला बोली.

शलभ क्रोध से मन ही मन बुदबुदाया, ‘हाथ में फूटी कौड़ी नहीं, अंदाज रईसों के…’

पति का क्रोधित रूप देख कर रमा घबरा कर बोली, ‘‘माला, तुम थकी हो दिन भर की. जा कर आराम करो. मैं आती हूं…’’

माला के जाते ही शलभ के अंदर दबा आक्रोश ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा, ‘‘कहीं नहीं जाओगी तुम. तुम्हारे रिश्तेदारों से बच कर मैं यहां आया था सुकून की जिंदगी की तलाश में. लेकिन आसमान से गिरा खजूर में अटका.’’

पति से नजरें बचा कर रमा चुपके से 1 हजार रुपए और दे आई माला को और साथ में शीघ्रातिशीघ्र नौकरी ढूंढ़ने की हिदायत भी. उसे पता चला कि माला और महेश ने आसपास के कई लोगों से उधार लिया हुआ था. पैसा हाथ में नहीं रहने पर आपस में झगड़ते थे और पैसा हाथ में आते ही दोनों में तुरंत मेल हो जाता और हंसतेखिलखिलाते वे मौजमस्ती करने निकल पड़ते. स्कूटर में ऐसे सट कर बैठते मानो इन के समान कोई प्रेमी जोड़ा नहीं है. ऐसा लगता था कि उस समय झगड़ने वाले ये दोनों नहीं, कोई दूसरे थे. इन दोनों के आपसी झगड़े के कारण पड़ोसी भी 2 खेमों में बंट गए थे. कुछ माला का दोष बताते थे तो कुछ महेश का. इन दोनों का प्रसंग छिड़ते ही दोनों खेमे बहस पर उतारू हो जाते.

धीरेधीरे 6 माह गुजर गए. इस खूबसूरत जोड़े की असलियत जगजाहिर हो चुकी थी, इसलिए सब से कर्ज मिलना बंद हो गया था. अब मकानमालिक भी इन्हें रोज आ कर धमकाने लगा था. 6 माह से उस का किराया जो बाकी था. एक दिन क्रोधित हो कर मकानमालिक ने माला के घर का सामान सड़क पर फेंक दिया और कोर्ट में घसीटने की धमकी देने लगा. पड़ोसियों के बीचबचाव से वह बड़ी मुश्किल से शांत हुआ.

रोज की अशांति और फसाद से शलभ त्रस्त हो गया. उस का मेरठ से और नौकरी से मन उचाट हो गया. न तो वह मेरठ में रहना चाहता था, न ही दिल्ली वापस जाना चाहता था. इन 2 शहरों को छोड़ कर उस की कंपनी की किस अन्य शहर में कोई शाखा नहीं थी. आखिर नौकरी बदलने की इच्छा से शलभ ने मुंबई की एक फर्म में आवेदनपत्र भेज दिया.

एक शाम शलभ दफ्तर से अपने घर लौटा तो अपने गेट के बाहर पुलिया पर अकेली माला को उदास बैठा पाया. रमा अपनी परिचित के यहां लेडीज संगीत में गई हुई थी. देर रात तक चलने वाले कार्यक्रम के कारण वह शीघ्र लौटने वाली नहीं थी. पूछने पर माला ने बताया कि 6 माह से किराया नहीं देने के कारण मकानमालिक ने उस की व महेश की अनुपस्थिति में मकान पर अपना ताला लगा दिया है. महेश उसे यहां बैठा कर मकानमालिक को मनाने गया था.

शुलभ कुछ देर तो दुविधा की स्थिति में खड़ा रहा फिर उस ने माला को अपने घर के अंदर बैठने के लिए कहा. घर के अंदर आते ही माला शलभ के गले लग कर बिलखने लगी. हालांकि शलभ बुरी तरह चिढ़ा हुआ था मालामहेश की हरकतों से पर खूबसूरत माला को रोती देख उस का हृदय पसीज उठा.

माला का गदराया यौवन और आंसू से भीगा अद्वितीय रूप शलभ को पिघलाने लगा. माला के बदन के मादक स्पर्श से शलभ के तनबदन में अद्भुत उत्तेजना की लहर दौड़ गई. माला के बदन की महक व उस के नर्म खूबसूरत केशों की खुशबू उसे रोमांचित करने लगी.

शलभ के कान लाल हो गए, आंखों में गुलाबी चाहत उतर आई और हृदय धौंकनी के समान धड़कने लगा. तीव्र उत्तेजना की झुरझुरी ने उस के बदन को कंपकंपा दिया. पल भर में वह माला के रूप लावण्य के वशीभूत हो चुका था.

अपने को संयमित कर के शलभ ने माला को अपने सीने से अलग किया और धीरे से सोफे पर अपने सामने बैठा कर सांत्वना दी, ‘‘शांत हो जाओ. सब ठीक हो जाएगा…’’

माला ने अश्रुपूरित आंखों से शलभ की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘पैसा नहीं है हमारे पास… कैसे ठीक होगा ’’

‘‘मैं कुछ करता हूं…’’ अस्फुट भर्राया सा स्वर निकला शलभ के गले से.

‘‘आता हूं मैं बस अभी, तब तक तुम यहीं बैठो…’’ कह कर शलभ ने एटीएम कार्ड उठाया और गाड़ी से निकल पड़ा.

लौट कर शलभ ने माला के हाथ में 6 माह के किराए के 9 हजार जैसे ही थमाए उस ने खुशी से किलकारी मारी. शलभ सोफे पर बैठ कर जूते उतारने लगा तो वह अपने स्थान से उठी, खूबसूरत अदा से अपना पल्लू नीचे ढलका दिया और शलभ के एकदम करीब जा कर उस के कान में मादक स्वर में फुसफुसाई, ‘‘थैंक्यू जीजू, थैंक्यू.’’

माला के उघड़े वक्षस्थल की संगमरमरी गोलाइयों पर नजर पड़ते ही शलभ का चेहरा तमतमा गया और उस के मुख से कोई आवाज नहीं निकली. वह मुग्ध हो उसे देखने लगा. घर में माला महेश के विरुद्ध शलभ के स्वर एकाएक बंद हो गए. पति के रुख में अचानक बदलाव पा कर रमा को आश्चर्य तो हुआ पर वास्तविकता से अनभिज्ञ उस ने राहत की सांस ली. रोजरोज की तकरार से उसे मुक्ति जो मिल गई थी. नहीं चाहते हुए भी शलभ ने पत्नी से माला को 9 हजार रुपए देने की बात गुप्त रखी.

माला को भी इस बात का एहसास हो गया था कि उसे देख कर सदैव भृकुटि तानने वाला शलभ उस के रूप के चुंबकीय आकर्षण में बंध कर मेमना बन गया था. वह उसे अपने मोहपाश में बांधे रखने के लिए उस पर और अधिक डोरे डालने लगी. जब भी रमा किसी काम से बाहर जाती, सहजसरल भाव से वह माला के  ऊपर घर की देखरेख का जिम्मा सौंप देती. इस का भरपूर फायदा उठाती माला.

उस के दोनों हाथों में लड्डू थे. रमा के सामने आंसू बहा कर माला पैसे मांग लेती और शलभ उस पर आसक्त हो कर अब स्वयं ही धन लुटा रहा था. अपने सहज, सरल स्वभाव वाले निष्कपट अनुरागी पति को अपने प्रति दिनप्रतिदिन उदासीन व ऊष्मारहित  होते देख कर रमा का माथा ठनका पर बहुत सोचनेविचारने के बाद भी वह सत्य का पता नहीं लगा पाई.

माला केवल पैसे ऐंठने के लिए शलभ पर डोरे डाल रही थी. उस की तनिक भी रुचि नहीं थी शलभ में. पर एक दिन शलभ अपना संयम खो बैठा और माला के सामने प्रणय निवेदन करने लगा. पहले तो माला घबरा गई फिर उसे विचित्र नजरों से घूरने लगी फिर बोली, ‘‘जीजू फौरन 10 हजार रुपयों का इंतजाम करो, नहीं तो मैं आप का कच्चाचिट्ठा रमा दीदी के सामने खोलती हूं…’’

मरता क्या न करता. रुपए पा का माला प्रसन्न हुई. फिर उस का लोभ बढ़ता गया. उस ने रमा पर भी अपना भावनात्मक दबाव बढ़ा दिया. शीघ्र ही रमा के घर में आर्थिक तंगी शुरू हो गई. त्रस्त हो कर रमा ने अनुभा मौसी को वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए शीघ्र ही रुपए भेजने को कहा तो उन्होंने तमक कर उत्तर दिया, ‘‘छोटी बहन मानती हो न उसे. थोड़ी सी सहायता कर दी तो मुझ से पैसे मांगने लगीं तुम.’’

रमा ने फिर सारी बात मां को बताई तो मां ने भी उसे जम कर खरीखोटी सुना दी, ‘‘मुझ से पहले सलाह क्यों नहीं ली  पैसे लुटाने के बाद अब उस का रोना क्यों रो रही हो  अनुभा और उस के परिवार के काले कारनामों से त्रस्त हो कर हम ने सदा के लिए उन्हें त्याग दिया है.’’

रमा के दिलोदिमाग से मायके के रिश्तेदारों का नशा काफूर हो चुका था. उधर शलभ का मन माला की ओर से उचट हो गया था. लेकिन वे न तो पत्नी को सत्य बताने की हिम्मत जुटा पाए थे, न ही माला की रोज बढ़ती मांगों को पूरा कर पा रहे थे. उन की स्थिति चक्की के दो पाटों में फंसे अनाज जैसी थी. जिस की यंत्रणा वे भोग रहे थे. उन की नींद व चैन छिन गए थे. उन के द्वारा मुंबई की एक फर्म में भेजे गए आवेदनपत्र का अभी तक कोई जवाब भी नहीं आया था.

धीरेधीरे माला ने पुन: कौलसैंटर में कार्य करना शुरू कर दिया. महेश ने एक सिविल ठेकेदार के जूनियर सुपरवाइजर के रूप में काम पकड़ लिया. पर आय कम थी, उन के खर्चे अधिक. धीरेधीरे दोनों की जीवन की गाड़ी पटरी पर आने लगी.

तभी अचानक एक दिन माला कौलसैंटर से अचानक गायब हो गई. काम पर गई तो अपने घर नहीं लौटी. पुलिस ने चप्पाचप्पा छान मारा पर वह कहीं नहीं मिली. पता चला कि वह उस दिन कौलसैंटर पहुंची ही नहीं थी. बदहवास महेश इधरउधर मारामारा फिरता रहा. फिर कुछ दिनों बाद वह भी कहीं चला गया. लोगों ने अंदाजा लगाया कि वह अपने मातापिता के पास लौट गया होगा. पड़ोस के घर में सन्नाटा पसर गया. इस दंपती का क्या हश्र हुआ होगा, इस के बारे में लोग तरहतरह की अटकलें लगाने लगे. सब को अपना पैसा डूबने का दुख तो था ही, इस खूबसूरत युवा जोड़े का चले जाना भी कम दुखद नहीं था सब के लिए.

तभी अनुभा मौसी ने शलभ और रमा पर इलजाम मढ़ दिया कि इन्हीं दोनों की मिलीभगत ने मेरी बेटी और दामाद को गायब कर दिया है. बड़ी मुश्किल से जानपहचान वालों के हस्तक्षेप से ये दोनों पुलिस के चंगुल में आने से बचे.

अचानक एक दिन मुंबई की फर्म से इंटरव्यू के लिए शलभ को बुलावा आ गया. बच्चों की छुट्टियां थी. इंटरव्यू के साथ घूमना भी हो जाएगा, इस उद्देश्य से शलभ ने रमा और दोनों बच्चों को भी अपने साथ ले लिया.

पहले दिन इंटरव्यू संपन्न होने के बाद अगले दिन के लिए शलभ ने टूरिस्ट बस में चारों के लिए बुकिंग करवा ली. अगले दिन सुबह 10 बजे चारों मुंबई भ्रमण के लिए टूरिस्ट बस में सवार हो कर निकल पड़े. भ्रमण में फिल्म की शूटिंग दिखलाना भी तय था. पास ही के एक गांव में ग्रामीण परिवेश में एक लोकनृत्य का फिल्मांकन हो रहा था. करीब 75 बालाएं रंगबिरंगे आकर्षक ग्रामीण परिधानों में सजी संगीत पर थिरक रही थीं.

अचानक नन्हा दीपू चीख पड़ा, ‘‘मम्मा, वह देखो, सामने माला मौसी…’’

उसे पहचानने में रमा को देर नहीं लगी. वही चिरपरिचित खूबसूरत मासूम चेहरा. वह पति के कान में फुसफुसाई, ‘‘मैं इसे अनुभा मौसी को लौटा कर अपने नाम पर लगा हुआ दाग अवश्य मिटाऊंगी…’’

लताड़ लगाई शलभ ने, ‘‘खबरदार, अब इस पचड़े से दूर रहो. बाज आया मैं तुम्हारे रिश्तेदारों से…’’

लेकिन रमा नहीं मानी. पति की इच्छा के विरुद्ध उस ने टूरिस्ट बस का बकाया भ्रमण कैंसिल कर के टैक्सी किराए पर ले ली और शूटिंग के उपरांत उस का पीछा करते उस के घर जा पहुंची.

शलभ और रमा को एकाएक सामने पा कर माला अनजान बन गई. दोनों को पहचानने से इनकार कर दिया उस ने. सब्र का बांध टूट गया रमा का. क्रोध से चीखी वह, ‘‘तू यहां ऐश कर रही है और तेरी मां ने हम दोनों को पुलिस के हवाले कर दिया कि तुझे गायब करने में हमारा हाथ है. चल अभी मेरे साथ इसी वक्त. तुझे मैं मौसी के पास ले चलती हूं.’’

माला ने मौन व्रत धारण कर लिया. क्रोध से आपा खो बैठी रमा. उस के केश पकड़ कर चिल्लाई, ‘‘जो अपने पति की नहीं हुई हमारी कैसे होती. तुझे मालूम है तेरे जाने के बाद तेरा महेश बदहवास हालत में लुटालुटा सा तुझे खोजा करता था. पता नहीं कहां है वह बेचारा.’’

माला ने अचानक चुप्पी तोड़ी और चीखने लगी, ‘‘बचाओ, बचाओ…’’

उस की चीखपुकार सुनते ही वहां भीड़ इकट्ठा होने लगी. घबरा कर रमा ने माला के केश छोड़ दिए. वहां रुकना उचित न समझ कर शलभ ने रमा की बांह पकड़ी और उसे टैक्सी की ओर खींच कर ले चला.

चलतेचलते वह बोला, ‘‘यहां तमाशा खड़ा न कर के हमें चुपचाप मेरठ में इस के तमाम कर्जदारों को इस का अतापता बता देना चाहिए, वही आगे की कार्यवाही करेंगे.’’

‘‘अतापता ’’ इधरउधर देखते हुए दोहराया रमा ने, ‘‘अरे, यह कौन सी जगह है हमें तो मालूम ही नहीं. रुको अभी आती हूं घर का नंबर, गलीमहल्ला सब पता कर के…’’

रमा जैसे ही पलट कर माला के घर के पास पहुंची तो जड़ हो गई. माला ताली पीटपीट कर हंसते हुए पूछ रही थी, ‘‘कहो मां, कैसी थी मेरी ऐक्टिंग  छुट्टी कर दी न मैं ने माला दीदी की  अब इधर आने की दोबारा जुर्रत नहीं करेंगी…’’

अनुभा मौसी ने शाबासी दी बेटी को, ‘‘मान गए भई, तू ने तो टौप हीरोइंस को भी मात कर दिया. क्या ऐक्टिंग थी तेरी. अब तो तू हीरोइन बनेगी…’’

सामने खड़े हीही कर रहे थे महेश व माला के पिता. रमा को काटो तो खून नहीं. उस में कुछ पूछने और सुनने की शक्ति नहीं थी. लौट कर आ बैठी कार में. पति को सारा वृत्तांत सुना कर वह फफकफफक कर रो पड़ी. सब की मिलीभगत थी. धोखा दे कर पैसा ऐंठने की अपनी सफलता पर जश्न मना रहे थे वे सब. बड़ी ही मासूमियत से सरल हृदयी लोगों की सहानुभूति प्राप्त कर के छला था माला महेश ने.

आफत- सासूमां के आने से क्यों दुखी हो गई रितु?

औफिस से घर पहुंचते ही मैं ने छेड़ने वाले अंदाज में रितु से कहा, ‘‘हम 2 से 3 होने जा रहे हैं, मैडम.’’

रितु फौरन मेरे गले में बांहों का हार डाल कर बोली, ‘‘ओह, सुमित, मेरी खुशियों को ध्यान में रखते हुए आखिरकार तुम ने उचित फैसला कर ही लिया न. मैं अभी सारी गर्भनिरोधक गोलियां कूड़े की टोकरी के हवाले करती हूं.’’

‘‘इतनी जल्दी भी न करो, स्वीटहार्ट,’’

मैं ने उस का हाथ पकड़ कर उसे शयनकक्ष में जाने से रोका, ‘‘हम 2 से 3 होने जा रहे हैं, क्योंकि तुम्हारी मम्मी कुछ दिनों के लिए हमारे पास रहने…’’

‘‘ओह नो…’’ रितु ने जोर से अपने माथे पर हाथ मारा.

‘‘अरे, वे तुम्हारी सगी मम्मी हैं, कोई सौतेली मां नहीं… उन के आने की खबर सुन कर जरा मुसकराओ, यार,’’ मैं ने उसे छेड़ना चालू रखा.

‘‘मेरी सगी मां किसी सौतेली मां से ज्यादा बड़ी आफत लगती हैं मुझे, यह तुम अच्छी तरह जानते हो न. उन का आना टालने के लिए कोई बहाना बना देते तो क्या बिगड़ जाता तुम्हारा?’’ यों शिकायत करते हुए वह मुझ से झगड़ने को तैयार हो गई.

‘‘अरे, मैं क्यों कोई झूठा बहाना बनाता? मुझे तो उन के आने की खबर ने खुश कर दिया है, यार.’’

‘‘मुझे पता है कि जब वे मेरी खटिया खड़ी करेंगी तो तुम्हें खुशी ही होगी. मेरी तबीयत वैसे ही ढीली चल रही है और अब ऊपर से नगर निगम की चेयरमैन मेरे घर में पधार रही हैं,’’ वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई.

‘‘अब ज्यादा नाटक मत करो और एक कप गरमगरम चाय पिला दो.’’

मैं ने हंसते हुए उसे बाजू से पकड़ कर उठाना चाहा तो उस ने मेरा हाथ जोर से झटका और तुनक कर बोली, ‘‘अब अपनी लाड़ली सासूमां के हाथ की बनी चाय ही पीना.’’

‘‘तुम गुस्से में बहुत प्यारी लगती हो,’’ मैं ने आंखें मटकाते हुए उस की तारीफ की तो वह मुंह बनाती हुई रसोई में मेरे लिए चाय बनाने चली गई.

मेरी सासूमां स्कूल टीचर हैं. पिछली गरमियों की छुट्टियों में वे हमारे पास 2 सप्ताह रह कर गई थीं. अब दशहरे की छुट्टियों में उन्होंने फिर से आने का कार्यक्रम बनाया है. मेरे मातापिता नहीं रहे हैं, इसलिए मुझे उन का आना अच्छा लगता है, लेकिन रितु की हालत पतली हो रही है.

‘‘मैं शादीशुदा हूं, पराए घर आ गई हूं पर अभी भी मम्मी के सामने पड़ते ही मन अजीब सा डर व घबराहट का शिकार हो जाता है. कोई गलती नहीं की है, लेकिन ऐसा लगता है कि किसी गलत काम को करने के बाद प्रिंसिपल के सामने पेशी हो रही है. मेरी इस दशा का फायदा उठा कर ही वे मुझ पर हिटलरी अंदाज में हुक्म चला लेती हैं,’’ रितु ने पिछली बार अपनी मम्मी के आने के अपने मनोभावों से मुझे  अवगत कराया.

मेरी सासूमां अनोखे व्यक्तित्व की मालकिन हैं. घर में अधिकतर जीन्स व टौप पहनती  हैं. नियम से ऐरोबिक्स करने की शौकीन हैं और पार्क में कभी भी घूमने जाने के लिए तैयार रहती हैं. उन्हें घर में गंदगी बिलकुल बरदाश्त नहीं. आलसी व लापरवाह इंसान उन्हें दुश्मन नजर आते हैं.

पिछली बार सासूमां आई थीं तो रितु को खूब खींच कर गई थीं. रितु आरामपसंद इंसान है पर अपनी मां के सामने डट कर काम करने को बेचारी मजबूर हो गई थी. उसे मेरी सासूमां ने शनिवारइतवार की छुट्टियों में 1 मिनट भी आराम नहीं करने दिया था.

वे सारे घर का कायापलट करा गई थीं. परदे, सोफे के कवर, चादरें, पंखे, खिड़कियां आदि सब की साफसफाई हुई थी. घर का फर्श सारे समय जगमगाता रहा था. रसोई में हर चीज अपनी जगह पर मिलने लगी थी. धूलमिट्टी ढूंढ़ने पर भी घर में कहीं नजर नहीं आती थी.

यह तो रही घर में आए बदलाव की बात, इस के अलावा उन्होंने आते ही अपनी बेटी को तंदुरुस्त करने की भी मुहिम छेड़ दी थी.

‘‘शादी के बाद अगर तेरा वजन इसी स्पीड से बढ़ता रहा तो तू एकदम बेडौल हो जाएगी, रितु. फिर अगर अमित ने नई गर्लफ्रैंड बना ली तो क्या करेगी? नो, नो, ऐसी लापरवाही बिलकुल नहीं चलेगी. आज से ही अपनी फिटनैस ठीक करने को कमर कस ले,’’ सासूमां की आंखों में सख्ती के ऐसे भाव मौजूद थे कि रितु चूं भी नहीं कर पाई थी.

घर के सफाई अभियान के साथसाथ रितु की सेहत सुधारने का बीड़ा भी सासूमां ने उठा लिया था. रातदिन बेचारी का पसीना बहता रहता था. ऊपर से खाने में से सारी तलीभुनी चीजें भी गायब हो गई थीं. सासूमां खड़ी हो कर अपनी बेटी से सिंपल व पौष्टिक खाना बनवाती थीं.

मैं बहुत खुश था, अपने घर व रितु में आए परिवर्तन को देख कर. सासूमां की प्रशंसा करते हुए मेरी जबान नहीं थकती थी. ऐसे मौकों पर अपनी मां की नजरें बचा कर रितु मुझे यों घूरती थी मानो कच्चा चबा जाएगी, पर अपनी मां के सामने उस बेचारी की मुझ से लड़ने की हिम्मत नहीं होती थी.

अगले दिन रविवार की सुबह सासूमां 9 बजे के करीब हमारे घर आ पहुंचीं. मैं प्रसन्न था जबकि रितु कुछ बुझीबुझी सी नजर आ रही थी.

‘‘तेरी शक्ल पर क्यों 12 बज रहे हैं, गुडि़या?’’ मुझे ढेर सारे आशीर्वाद देने के बाद उन्होंने पहले अपनी बेटी का ऊपर से नीचे तक मुआयना किया और फिर माथे पर बल डाल कर यह सवाल पूछा.

‘‘आप के सुपरविजन में अब इसे जो ढेर सारे घर के काम करने पड़ेंगे, उन के बारे में सोचसोच कर ही इस बेचारी की जान निकल रही है, मम्मी,’’ मैं मजा लेते हुए बोला.

‘‘नहीं, दामादजी, इस बार तो यह मुझे बहुत कमजोर और उदास लग रही है. क्या तुम मेरी बेटी का ठीक से खयाल नहीं रख रहे हो?’’ वे अचानक मुझ से नाखुश नजर आने लगीं तो मैं हड़बड़ा गया.

‘‘ऐसी बात नहीं है, मम्मी. इस की तलाभुना खाने की आदत इसे स्वस्थ नहीं रहने…’’ मुझे आधी बात बोल कर चुप होना पड़ा, क्योंकि उन्होंने मुझ पर से ध्यान हटा लिया था.

सासूमां ने अपनी बेटी का हाथ पकड़ा और कोमल स्वर में बोलीं, ‘‘अपने मन की हर चिंता को तू मुझे खुल कर बताना, गुडि़या. इन 10 दिन में मैं तेरे चेहरे पर भरपूर रौनक देखना चाहती हूं.’’

‘‘जब ये परदे, सोफे के कवर वगैरह धुल जाएंगे और…’’

‘‘लगता है कि इस बार मुझे घर के बजाय तेरे व्यक्तित्व को निखारने पर ध्यान देना पड़ेगा.’’

‘‘और व्यक्तित्व निखारने के लिए सुबहशाम घूमने जाने से बढि़या तरीका और क्या हो सकता है, मम्मी?’’

‘‘तू थकीथकी सी लग रही है, बेटी. मैं जब तक यहां हूं, तू खूब आराम कर. कुछ दिनों की छुट्टी जरूर ले लेना. हमें अपने मनोरंजन के पक्ष को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.’’

‘‘इंसान जितना ज्यादा प्रकृति के साथ रहेगा, उतना ज्यादा स्वस्थ…’’

‘‘जब 2-4 फिल्में देखेंगे, खूब घूमेंगेफिरेंगे, कुछ मनपसंद शौपिंग करेंगे तो देखना, तेरे मन की सारी उदासी छूमंतर हो जाएगी, मेरी गुडि़या.’’

मेरे जोश के गुब्बारे की हवा सासूमां की बातें सुन कर निकलती चली गई तो मैं ने अपना राग अलापना बंद कर दिया. मेरी समझ में बिलकुल नहीं आ रहा था कि वे इस बार ऐसी अजीबोगरीब बातें रितु से क्यों कर रही हैं.

‘‘ओह, मम्मी, यू आर गे्रट,’’ रितु उछल कर अपनी मां के गले लग गई और साथ ही मुझे जीभ चिढ़ाना भी नहीं भूली.

मैं कुछ बुझाबुझा सा हो गया तो सासूमां ने हंस कर कहा, ‘‘दामादजी, चिंता मत करो. हमारे साथ मौजमस्ती करने तुम भी साथ चलोगे. मैं तुम्हें अपनी बेटी से ज्यादा पसंद करती हूं, कम नहीं. लेकिन मुझे ऐसा लग रहा है जैसे इस बार तुम्हारे घर में मेरा मन नहीं लगेगा.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही हैं आप?’’ मैं ने औपचारिकतावश पूछा.

‘‘अब बिना नाती या नातिन के घर सूना सा लगता है.’’

‘‘मम्मी, अभी तो हमारी शादी को साल भर ही हुआ है. जब 3 साल बीत जाएंगे, तब आप की यह इच्छा भी पूरी हो जाएगी.’’

‘‘हां, मुझे मालूम है कि आजकल की पीढ़ी पहले खूब धन जोड़ना चाहती है, जी भर कर मौजमस्ती करना चाहती है. उन की प्राथमिकताओं की सूची में बड़ा मकान, महंगी कार और तगड़े बैंक बैलैंस के बाद बच्चे पैदा करने का नंबर आता है.’’

‘‘यू आर राइट, मम्मी. जिस बात को आप इतनी आसानी से समझ गईं, उसे मैं रितु को आज तक नहीं समझा पाया हूं.’’

‘‘मम्मी, मैं ने 28 साल की उम्र में शादी की है, 22-23 की उम्र में नहीं. मेरा कहना है कि अगर मैं जितनी ज्यादा बड़ी उम्र में मां बनूंगी, बच्चा स्वस्थ न पैदा होने की संभावना उतनी ज्यादा बढ़ जाएगी. शादी के 3 साल बाद बच्चा पैदा करना चाहिए, ऐसा कोई नियम थोड़े ही है. इंसान के अंदर समझदारी नाम की भी तो कोई चीज होती है,’’ मौका मिलते ही रितु भड़की और मेरे साथ बहस शुरू करने के मूड में आ गई.

‘‘मम्मी, इस मामले में आप इस की तरफदारी मत करना, प्लीज,’’ मैं ने नाराजगी भरे अंदाज में एक बार रितु को घूरा और फिर ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में चला आया.

मैं घर में मुंह फुला कर घूम रहा हूं, इस बात की मांबेटी को कोई चिंता ही नहीं हुई. दोनों नाश्ता करने के बाद तैयार हुईं और घूमने निकल गईं. मुझ से 2-3 बार साथ चलने को कहा मगर मैं ने नाराजगी भरे अंदाज में इनकार किया तो दोनों ने खास जोर नहीं डाला था.

लंच के नाम पर मेरे लिए रितु ने आलू के परांठे बना दिए. वे दोनों 12 बजे के करीब घूमने निकलीं और रात को 8 बजे लौटी थीं. इन 8 घंटों में मेरा कितना खून फुंका होगा, इस का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है.

उन के घर में घुसते ही मैं ने 2 बातें नोट की थीं. पहली तो यह कि वे दोनों 7-8 लिफाफे पकड़े घर लौटी थीं और दूसरी यह कि दोनों के चेहरे जरूरत से ज्यादा दमक रहे थे.

कुछ ही देर में मुझे पता लग गया कि उन दोनों ने 8 हजार की खरीदारी एक दिन में कर ही डाली. रही बात चेहरों पर नजर आते नूर की तो खरीदारी करने से पहले दोनों ब्यूटीपार्लर गई थीं. कुल मिला कर 10 हजार का खर्चा मांबेटी ने 1 दिन में ही कर डाला था.

‘‘देखा, दामादजी, इस वक्त रितु कितनी खुश और स्वस्थ दिख रही है. 10 दिन में तो देखना, यह फिल्मी हीरोइनों को मात करने लगेगी,’’ सासूमां अपनी बेटी को प्रशंसा भरी नजरों से निहार रही थीं.

‘‘मम्मी, 10 दिन में 10 हजार रोज के हिसाब से 1 लाख खर्च कर के अगर इस ने फिल्मी हीरोइनों को मात कर भी दिया तो मैं इस की तारीफ करने के लिए जिंदा कहां रहूंगा? सदमे से मेरी जीवनलीला समाप्त हो चुकी होगी न,’’ मैं दुखी अंदाज में मुसकराया तो सासूमां ठहाका मार कर हंस पड़ीं.

‘‘कभीकभी बड़ा अच्छा मजाक करते हो, दामादजी. अच्छा, तुम दोनों बैठ कर गपशप करो. मैं बढि़या सा पुलाव बनाने रसोई में जाती हूं,’’ सासूमां रसोई में चली गईं.

मेरे कुछ कहने से पहले ही रितु ने तीखे लहजे में सफाई देनी शुरू कर दी, ‘‘मैं ने तो मम्मी को बहुत मना किया, पर वे तो कुछ भी सुनने का तैयार नहीं थीं. कह रही थीं कि खरीदारी करने के कारण वे आप को नाराज नहीं होने देंगी. अब आप को जो भी कहना हो, उन्हीं से कहना. मैं तो पहले ही कह रही थी कि इन के यहां आने के कार्यक्रम को कोई बहाना बना कर टाल दो. आप ही अपनी लाड़ली सासूमां को बुलाने का भूत सवार था, अब भुगतो.’’

आगे की बहस से बचने के लिए उठ कर वह शयनकक्ष की तरफ चल दी. मैं ने नाराज स्वर में उसे हिदायत दी, ‘‘अब आगे से एक पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मम्मी तो कह रही हैं कि मैं उन के साथ घूमनेफिरने के लिए औफिस से हफ्ते भर की छुट्टियां ले लूं. अब इस बाबत जो कहना हो, आप उन से कहो. आप को पता तो है कि उन के सामने मुंह खोलने की मेरी हिम्मत नहीं होती है,’’ अपनेआप को साफ बचाती हुई रितु मेरी आंखों से ओझल हो गई.

मैं रितु को औफिस से छुट्टियां लेने से नहीं रोक सका. वे दोनों अगले दिन भी शौपिंग करने गईं और इस बार सासूमां ने रितु को 40 हजार की सोने की चेन खरीदवा दी.

‘‘मम्मी, आप क्या इस बार मुझे कंगाल करने का कार्यक्रम बना कर यहां आई हैं?’’ मैं ने दोनों हाथों से सिर थाम कर उन से यह सवाल पूछा तो वे उदास सी हंसी हंस पड़ीं.

‘‘दामादजी, आज सोने की चेन तो सचमुच मैं ने जबरदस्ती रितु को खरीदवाई है. मन सुबह से बड़ा उचाट था. रात को नींद भी अच्छी नहीं आई थी. सच बात तो यह है कि मन की उदासी दूर करने के चक्कर में ही मैं ने 40 हजार खर्च किए हैं. मन लग ही नहीं रहा है इस बार तुम्हारे यहां. अगर खेलने के लिए कोई नातीनातिन होती…’’

‘‘मम्मी, आप फालतू के खर्च को बंद कर मुझे कंगाल होने से बचाइए और मैं आप से वादा करता हूं कि बहुत जल्द ही आप का कोई नातीनातिन घर में नजर आएगा.’’

मेरे मुंह से इन शब्दों का निकलना था कि मांबेटी दोनों ने पहले खुशी से उछलते हुए तालियां बजानी शुरू कर दीं, फिर सासूमां ने उठ कर मुझे छाती से लगा लिया और रितु मेरा हाथ उठा कर उसे बारबार चूमे जा रही थी.

‘‘थैंक यू, दामादजी,’’ खुशी के मारे सासूमां का गला भर आया, ‘‘मुझे तुम ने इतना खुश कर दिया है कि कल और आज का सारा खर्चा मेरे खाते में गया.’’

‘‘सच?’’ मेरे मन की सारी चिंता पल भर में खत्म हो गई.

‘‘तुम ने जो मुझे नानी बनाने का वादा किया है, वह सच है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो मैं भी सच बोल रही हूं, दामादजी. अब लगे हाथ जल्दी पापा बनने की पेशगी मुबारकबाद भी कबूल कर लो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ सासूमां को रहस्यमय अंदाज में मुसकराते देख मैं चौंक पड़ा.

‘‘जल्द ही इस घर में नन्हेमुन्हे किलकारियां जो गूंजने वाली हैं.’’

‘‘क्या मम्मी सच कह रही हैं?’’ मैं ने रितु से पूछा.

उस ने गरदन ऊपरनीचे हिला कर ‘हां’ कहा  और टैंशन भरी नजरों से मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगी.

‘‘रितु तुम्हें यह खुशखबरी सुनाने से डर रही थी, दामादजी. यह बेवकूफ सोचती थी कि तुम 3 साल बाद बच्चा पैदा करने वाली अपनी जिद पर अड़ कर इस के ऊपर गर्भपात कराने के लिए दबाव डालोगे. तब इस की तसल्ली के लिए मुझे 50 हजार खर्च कर तुम्हारे मुंह से यह कहलवाना पड़ा कि तुम पापा बनने को तैयार हो. मेरे लिए तो यह बड़ा फायदेमंद सौदा रहा है. मैं बहुत खुश हूं, दामादजी,’’ सासूमां ने हम दोनों को इस बार एकसाथ गले लगा लिया.

मैं ने रितु की आंखों में प्यार से झांकते हुए भावुक लहजे में कहा, ‘‘रितु, मैं कंजूस हूं. पैसे जोड़ने के लिए बहुत झिकझिक करता हूं, क्योंकि मातापिता के न रहने से मेरा बचपन बहुत अभावों और दुखों से भरा हुआ था. असुरक्षा का एहसास मेरे मन में बहुत गहरे बैठा हुआ है और उसी के चलते मैं पहले अपनी आर्थिक जड़ें मजबूत कर लेना चाहता था. लेकिन मैं ऐसा पत्थरदिल इंसान नहीं हूं कि आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए तुम्हारी कोख में पल रहे अपने बच्चे को मारने का फैसला…’’

‘‘मैं ने आप को समझने में भारी भूल की है. मुझे माफ कर दीजिए, प्लीज,’’ मेरी आंखों में भर आए आंसुओं को देख रितु फफकफफक कर रोने लगी.

मेरे कुछ बोलने से पहले ही सासूमां शुरू हो गईं, ‘‘रितु, कल से घर की सफाई का काम शुरू हो जाएगा. सुमित, तुम परदे उतरवाने में मेरी हैल्प करना. कल से ही पार्क घूमने भी चला करेंगे हम सब. सेहत को ठीक रखना अब तो और ज्यादा जरूरी हो गया है तुम्हारे लिए, रितु. सिर्फ सप्ताह भर ही है मेरे पास और कितने सारे काम…’’

सासूमां अपनी पुरानी फौर्म में लौट आई हैं, यह देख कर रितु ने ऐसा मुंह बनाया मानो कोई बहुत कड़वी चीज मुंह में आ गई हो और फिर हम तीनों एकसाथ ठहाका मार कर हंसने लगे.

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