का से कहूं: क्यों मजबूर थी सुकन्या

कहने को तो मैं बाजार से घर आ गई थी पर लग रहा है मेरी खाली देह ही वापस लौटी है, मन तो जैसे वहीं बाजार से मेरी बचपन की सखी सुकन्या के साथ चला गया था. शायद उस का संबल बनने के लिए. आज पूरे 3 वर्ष बाद मिली सुकन्या, होंठों पर वही सदाबहार मुसकान लिए. यही तो उस की विशेषता है, अपनी हर परेशानी, हर तकलीफ को अपनी मुसकराहट में वह इतनी आसानी, इतनी सफाई से छिपा लेती है कि सामने वाले को धोखा हो जाता है कि इस लड़की को किसी तरह का कोई गम है.

‘‘अरे भाई, आज जादू की सब्जी बना रही हो,’’ विवेक, मेरे पति, के टोकते ही मैं यथार्थ के धरातल पर आ गई. अब मुझे ध्यान आया कि मैं खाली कुकर में कलछी चला रही हूं. वे शायद पानी पीने के लिए रसोई में आए थे.

‘‘क्या बात है विनि, परेशान हो?’’ इन्होंने पूछा, ‘‘आओ, बैठ कर बातें करते हैं.’’

‘‘पर खाना,’’ मेरे यह कहते ही ये बोले, ‘‘तुम्हें भी पता है, मन में इतनी हलचल ले कर तुम ठीक से खाना बना नहीं पाओगी और मैं शक्कर वाली सब्जी खा नहीं पाऊंगा.’’

मैं अपलक विवेक का चेहरा देखती रही जो मुझे, मुझ से भी ज्यादा समझते हैं.

आज एक बार फिर प्रकृति को कोटिकोटि धन्यवाद देने को मन कर रहा है कि उस ने मुझे इतना समझने वाला पति दिया है.

‘‘फिर से खो गईं,’’ विवेक ने मेरे चेहरे के सामने चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘आने दो सासूमां को, उन से पूछूंगा कि कहीं आप अपनी यह बेटी कुंभ के मेले से तो नहीं लाई थीं. बारबार खो जाती है,’’ फिर इन्होंने मुझे सोफे पर बैठाते हुए कहा, ‘‘अब बताओ, क्या बात है?’’

‘‘आप को सुकन्या याद है?’’

‘‘कौन, वह शरारती लड़की जिस ने हमारे विवाह में मेरे दोस्तों को सब से ज्यादा छकाया था? क्या हुआ उसे?’’ इन्होंने पूछा.

‘‘आज बाजार में मिली थी. पता है, कालेज में हम 3 सखियों की आपस में बहुत घनिष्ठता थी. मैं, पारुल और सुकन्या. हम तीनों के विचार, व्यवहार तथा पारिवारिक स्थितियां एकदूसरे से एकदम अलग थीं. हम तीनों ने एक ही कालेज में ऐडमिशन लिया था. पारुल के पिताजी शहर के जानेमाने लोहे के व्यापारी थे. घर में धनदौलत की नदी बहती थी. पापा भी सरकारी महकमे में थे. हम पर दौलत की बरसात तो नहीं थी, पर कोई कमी भी नहीं थी. इस के विपरीत पितृविहीन सुकन्या के घर का खर्च मुश्किल से तब पूरा होता था जब वह और उस की मां सारा दिन सिलाई करती थीं. इन सब के बावजूद मैं ने कभी भी उस के माथे पर परेशानी की एक शिकन नहीं देखी थी.

‘‘शायद हमारी आर्थिक स्थिति जैसा ही हमारा स्वभाव था. नाजों में पली पारुल जरा सी तकलीफ में घबरा जाती थी तो दूसरी तरफ सुकन्या बड़ी से बड़ी परेशानी भी बिना उफ किए झेल जाती थी और बची मैं, जिस के लिए सुकन्या कहती थी, ‘अच्छा है कि तू मेरे और पारुल के बीच में रहती है वरना, यह पारुल तो मुझे भी अपनी तरह कमजोर बना देगी, कांच की गुडि़या.’ पारुल भी कहां चुप रहती, पलट कर जवाब मिलता, ‘हां, रहने दे मुझे कांच की गुडि़या की तरह नाजुक. मुझे नहीं बनना तेरी तरह पत्थर, सीने में दिल ही नहीं है.’ और बदले में सुकन्या यह शेर सुना कर लाजवाब कर देती थी :

‘आईने को तो बस टूट जाना है, आईना बनने से बेहतर है पत्थर बनो, तराशे जाओगे तो महान कहलाओगे.’

‘‘पर वक्त की मार देखो, मेरी दोनों सहेलियां टूट कर बिखर गईं जो पत्थर थी वह भी और जो कांच थी वह भी.’’

मेरी आंखों में रुके हुए आंसुओं का बांध टूट गया था. मैं बहुत देर तक विवेक की बांहों में सिसकती रही.

‘‘मुझे बताओ, क्या हुआ इस के बाद, तुम्हारा मन हलका हो जाएगा,’’ काफी देर की खामोशी के बाद विवेक बोले तो मैं ने सब कह दिया, ‘‘हमारा कालेज में पहला वर्ष ही था कि पारुल की सगाई हो गई शहर के ही व्यापारी के बेटे विजय से. वे दोनों रोज एकदूसरे से फोन पर घंटों बातें करते थे. वह अपनी सारी बातें हम से शेयर करती. पारुल की बातें खत्म नहीं होतीं और सुकन्या अकसर उसे चिढ़ाने के लिए कहती, ‘ओफ हो, जिस लड़की की सगाई हो गई हो उस के तो पास तो फटकना भी नहीं चाहिए.’ यह सुन कर पारुल रूठ जाती और मुझे बीचबचाव करना पड़ता था.

‘‘मुझे आज भी याद है जब पारुल के विवाह से ठीक 1 महीने पहले विजय ने शादी से मना कर दिया. परिणाम यह हुआ कि पारुल, जिस ने कभी छोटा सा दुख भी नहीं झेला था, ने उसी रात एक चिट्ठी में यह लिख कर ‘मैं विजय के बिना नहीं जी सकती हूं’ आत्महत्या कर ली.

‘‘उसी दिन सुकन्या ने मुझ से कहा था, ‘विनि, मैं शादी से पहले किसी को अपने इतने करीब नहीं आने दूंगी कि उस के दूर जाते ही मेरी जिंदगी ही मुझ से रूठ जाए.’ और अभी 2 महीने पहले ही तो उस ने मुझे फोन पर बताया था, ‘मेरी सगाई हो गई है, विनि.’ खुशी उस की आवाज से छलक रही थी. तो मैं ने भी पूछा, ‘क्या नाम है? बातेंवातें कीं?’

‘‘‘धीर नाम है उन का और हां, खूब बातें करते हैं.’

‘‘‘अच्छा जी, खूब बातें करते हैं तो आखिर पत्थर को भी बोलना आ ही गया. अब तो धीर जी से मिलना ही पड़ेगा.’ मैं ने चुटकी ली थी.

‘‘‘हां विनि, मुझे पता ही नहीं चला कब धीर ने मेरे पत्थर दिल को पिघला कर मोम बना दिया और उसे धड़कना सिखा दिया. 3 महीने बाद शादी है, तू जरूर आना.’

‘‘‘हांहां, जरूर आऊंगी,’ मैं ने कह दिया.

‘‘आज बाजार में मिली, होंठों पर वही सदाबहार मुसकान. मैं ने पूछा, ‘कहां जा रही है धूप में? शादी को 1 महीने से कम समय रह गया है. इतनी धूप में घूमेगी तो काली हो जाएगी.’

‘‘‘अरे, तुझे तो पता ही है पार्लर खोला है. उसी का सामान लेने जा रही हूं.’ वह जैसे मुझ से पीछा छुड़ाना चाह रही हो.

‘‘‘अरे पार्लरवार्लर छोड़, पिया के घर जाने की तैयारी कर,’ मैं ने उस का हाथ थामते हुए कहा.

‘‘तभी मेरी नजर उस की आंखों पर गई. शायद वह एक सैकंड का सौवां भाग जितना ही समय था जब उस की आंखों में दर्द की लहर गुजरी जिसे उस ने बहुत सफाई से छिपा लिया था क्योंकि अगले क्षण उस की सदाबहार मुसकराहट वापस उस के होंठों पर थी. वह मुझ से नजर नहीं मिला पा रही थी.

‘‘वह झटके से वापस जाने के लिए मुड़ी पर मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया. ‘नहीं एक्सरे, आज नहीं,’ कह कर वह अपना हाथ छुड़ाने लगी.

‘‘‘नहीं, आज ही,’ मैं ने जिद की.

‘‘हमेशा ही ऐसा होता था. उसे जब भी मुझ से अपनी कोई परेशानी छिपानी होती थी, मुझ से नजर मिलाने से कतराती थी, कहती थी, ‘मैं अपने हंसते चेहरे की आड़ में अपना दर्द सारी दुनिया से छिपा लेती हूं पर एक्सरे, तू फिर भी सब समझ जाती है.’ और तब वह मुझे विनी न कह कर एक्सरे बुलाती. आज भी ऐसा हुआ था.

‘‘‘कल धीर के घर वाले आए थे. उन्होंने अचानक ही अपनी डिमांड बढ़ा दी. अम्मा ने मजबूरी बताते हुए हाथ जोड़े तो उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया,’ उस ने अपना चेहरा घुमाते हुए कहा.

‘‘‘कल तेरा रिश्ता टूटा और आज तू पार्लर जा रही है,’ मुझे अपनी ही आवाज गले में फंसती हुई लग रही थी.

‘‘‘तू तो जानती है, हम दोनों बहनों ने कितनी मुश्किल से पैसे जोड़ कर यह पार्लर खोला है और अब अगर शादीविवाह के मौकों पर पार्लर बंद रखेंगे तो काम कैसे चलेगा.’

‘‘विवेक, समय की मार देखो, मेरी दोनों सहेलियों के साथ एकजैसे ही हादसे हुए. पारुल कांच की तरह टूट कर बिखर गई. उस का टूटना सब ने देखा और बिखरना भी. और दूसरी तरफ सुकन्या, वह न तो टूट सकी और न ही बिखर सकी, क्योंकि अगरवह कांच की तरह टूट कर बिखरती तो उन टूटी हुई किरचों से उस के अपने ही लहूलुहान हो जाते. घायल हो जाती उस की मांबहनें. तभी तो उस ने अपने टूटे हुए ख्वाबों को अपने दिल में ही दफन कर दिया. उस को तो दुखी हो कर शोक मनाने का अधिकार भी नहीं था. उस के ऊपर सारे घर की जिम्मेदारी जो थी.’’

विवेक ने मेरे मुख से दुखभरी कथा को सुन मुझ से अपनी सहेलियों के दर्द में शामिल होने को कहा. हालांकि अपने दिल की बात सुना कर मैं हलकी हो गई

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यादगार: कन्हैयालाल की क्या थी आखिरी इच्छा

पिछले कुछ महीने से बीमार चल रहे कन्हैयालाल बैरागी को गांव में उन के साथ रह रहा छोटा बेटा भरतलाल पास के शहर के बड़े अस्पताल में ले गया. सारी जरूरी जांचें कराने के बाद डाक्टर महेंद्र चौहान ने उसे अलग बुला कर समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटा भरत, आप के पिताजी की बीमारी बहुत बढ़ चुकी है और इस हालत में इन को घर ले जा कर सेवा करना ही ठीक होगा. वैसे, मैं ने तसल्ली के लिए कुछ दवाएं लिख दी हैं. इन्हें जरूर देते रहना.’’

डाक्टर साहब की बात सुन कर भरत रोने लगा. आंसू पोंछते हुऐ उस ने अपनेआप को संभाला और फोन कर के भाईबहनों को सारी बातें बता कर इत्तिला दे दी.

इस बीच कन्हैयालाल का खानापीना बंद हो गया और सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. दूसरे दिन बीमार पिता से मिलने दोनों बेटे रामप्रसाद और लक्ष्मणदास गांव आ गए. बेटियां लक्ष्मी और सरस्वती की ससुराल दूर होने से वे बाद में आईं.

कन्हैयालाल के दोनों बेटे सरकारी नौकरियो में बड़े ओहदों पर थे, जबकि  छोटा बेटा गांव में ही पिता के पास रहता था. बेटियों की ससुराल भी अच्छे  परिवारों मे थी. शाम होतेहोते कन्हैयालाल ने सब बेटेबेटियों को अपने पास बुला कर बैठाया, सब के सिर पर हाथ फेर कर हांपते हुए रोने लगे, फिर थोड़ी देर बाद वे धीरेधीरे कहने लगे, ‘‘मेरे बच्चो, मुझे लगता है कि मेरा आखिरी वक्त आ गया है. तुम सभी ने मेरी खूब सेवा की. मेरी बात ध्यान से सुनना. मेरे मरने के बाद सब भाईबहन मिलजुल कर प्यार से रहना.‘‘

ऐसा कहते हुए वे कुछ देर के लिए चुप हो गए, फिर थोड़ी देर बाद रूंधे गले से कहने लगे, ‘बच्चो, तुम्हें तो पता ही है कि तुम्हारी मां की आखिरी इच्छा और मेरा सपना पूरा करने के लिए मैं ने यहां गांव में एक मकान  बनाया है, ताकि तुम लोगों को गांव में आनेजाने और ठहरने में कोई परेशानी न हो,‘‘ कहतेकहते अचानक कन्हैयालाल को जोर की खांसी चलने लगी. कुछ दवाएं देने के बाद उन की खांसी रुकी, तो वे फिर कहने लगे, ‘‘बच्चो, ये मकान मिट्टीपत्थर से बना जरूर है, पर याद रखना, ये तुम्हारी मां और मेरी निशानी  है. मैं जानता हूं कि इस मकान की कोई ज्यादा कीमत तो नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि तुम लोग इस मकान को मांबाप की आखिरी निशानी मान कर मत बेचना…

‘‘आज तुम सब मेरे सामने ये वादा करोगे कि हम ये मकान कभी नहीं बेचेंगे. तुम वादा करोगे, तभी मैं चैन की सांस ले सकूंगा.‘‘

ऐसा कहते समय कन्हैयालाल ने पांचों बेटेबेटियों के हाथ अपने हाथ में ले रखे थे, वे बारबार कह रहे थे, ‘‘वादा करो मेरे बच्चो, वादा करो कि मकान नहीं बेचोगे.‘‘

लेकिन, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप मुंह लटकाए बैठे रहे, तभी अचानक कन्हैयालाल को एक हिचकी आई और उन के हाथ से बेटेबेटियों के हाथ छूट गए और वे एक तरफ लुढ़क गए.

कन्हैयालालजी को गुजरे अभी 15 दिन ही हुए हैं. आज उन के मकान के आसपास मकान खरीदने वालों की भीड़ लगी है. मकान की बोली लगाने में  दूर खड़ा एक नौजवान बहुत बढ़चढ़ कर बोली लगा रहा था. सब को ताज्जुब हो रहा था कि मकान की इतनी ज्यादा बोली लगाने वाला ये ऐसा खरीदार कौन है?

गांव के धनी सेठ बजरंगलाल जैन के बेटे ने युवक को इशारा कर के बुलाया और मकान की इतनी ज्यादा कीमत लगाने की वजह पूछी, तो वह बताने लगा, ‘‘मेरा नाम रुखसार खां है. हमारा परिवार भी इसी गांव में रहता था. मेरे वालिद हबीब खां और कन्हैयालाल अंकल दोनों दोस्त थे. उन की दोस्ती इतनी गहरी थी कि आसपास के गांवों में इन की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं.‘‘

‘‘दीपावली पर मिठाइयों की थाली खुद अंकल ले कर हमारे घर आते थे, तो होली पर घर भर को रंगगुलाल लगाना भी नहीं भूलते थे.

‘‘हमारी माली हालत अच्छी नहीं थी. लेकिन, अंकल हर बुरे वक्त में हमारे परिवार के लिए मदद ले कर खडे़ रहते थे.

‘‘मैं पास के शहर अजमेर में एक इलैक्ट्रिकल कंपनी में इंजीनियर हूं. इस गांव के स्कूल से मैं ने 12वीं जमात फर्स्ट डिवीजन में पास की. मैं ने घर वालों से इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग करने की इच्छा जताई, तो घर वालों ने घर  के हालात बताते हुए हाथ खड़े कर दिए. मेरे पास फीस भरने के लिए भी पैसे नहीं थे.

‘‘जब यह बात अंकल को पता चली, तो वे एक थैले में रुपए ले कर आए और मुझे बुला कर सिर पर हाथ फेर कर हिम्मत दिलाते हुए थैला मेरे हाथ मे दे कर कहा, ‘‘जाओ बेटा, अपनी पढ़ाई पूरी करो और इंजीनियर बन कर ही आना.

‘‘कल जब गांव के मेरे एक दोस्त ने कन्हैयालाल अंकल के मकान बिकने और उन के परिवार के बीच बंटवारे के विवाद के साथसाथ अंकल की आखिरी इच्छा के बारे में बताया, तो मैं सारे काम छोड़ कर गांव आ गया.

‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, सिर्फ और सिर्फ अंकल बैरागी की वजह से हूं. अगर वे नहीं होते, तो मैं कहां होता, पता नहीं,‘‘ ये कहतेकहते रुखसार खां फफकफफक कर रोने लगा.

वह रोते हुए फिर बोला, ‘‘इसीलिए आज यह सोच कर आया हूं कि अंकल बैरागी और आंटी की यादगार को अपने सामने बिकने नहीं दूंगा. मैं इसे खरीद कर उन की यादों को जिंदा रखना चाहता हूं.‘‘

आखिर रुखसार खां ने अंकल बैरागी के मकान की सब से ज्यादा बोली लगा कर 25 लाख रुपयों में वह मकान खरीद लिया और सभी कानूनी कार्यवाही पूरी होते ही मकान पर बोर्ड लगवा दिया. बोर्ड पर मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बैरागी  भवन’.

थोडी देर बाद कन्हैयालाल के बेटेबेटियां अपने मांबाप की आखिरी निशानी को बेच कर रुपयों से भरी अटैची ले गरदन झुकाए चले जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ रुखसार खां गर्व से बैरागी अंकलआंटी की यादगार को बिकने से बचा कर मकान पर लगे ‘बैरागी भवन’ का बोर्ड देख रहा था.

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डायन का कलंक : क्या दीपक बसंती की मदद कर पाया?

लेखक- सचिंद्र शुक्ल

आज पूरे 3 साल बाद दीपक अपने गांव पहुंचा था, लेकिन कुछ भी तो नहीं बदला था उस के गांव में. पहले अकसर गरमियों की छुट्टियों में वह अपने मातापिता और अपनी छोटी बहन प्रतिभा के साथ गांव आता था, लेकिन 3 साल पहले उसे पत्रकारिता पढ़ने के लिए देश के एक नामी संस्थान में दाखिला मिल गया था और कोर्स पूरा होने के बाद एक बड़े मीडिया समूह में नौकरी भी.

दीपक की बहन प्रतिभा को मैडिकल कालेज में एमबीबीएस के लिए दाखिला मिल गया था. इस वजह से उन का गांव में आना नहीं हो पाया था. पिताजी और माताजी भी काफी खुश थे, क्योंकि पूरे 3 साल बाद उन्हें गांव आने का मौका मिला था.

दीपक का गांव शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर बड़ी सड़क के किनारे बसा हुआ था, लेकिन सड़क से गांव में जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था. गरमी के दिनों में तो लोग पंडितजी के बगीचे से हो कर आतेजाते थे, मगर बरसात हो जाने पर किसी तरह खेतों से गुजर कर सड़क पर आते थे.

जब वे गांव पहुंचे, तो ताऊ और ताई ने उन का खूब स्वागत किया. ताऊ तो घूमघूम कर कहते फिरे, ‘‘मेरा भतीजा तो बड़ा पत्रकार हो गया है. अब पुलिस भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी.’’ दीपक के ताऊ की एक ही बेटी थी, जिस का नाम कुमुद था.

ताऊजी नजदीक के एक गांव में प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे. आराम की नौकरी. जब मन किया पढ़ाने गए, जब मन किया नहीं गए. वे इस इलाके में ‘बड़का पांडे’ के नाम से मशहूर थे. वे जिस गांव में पढ़ाते थे, वहां ज्यादातर दलित जाति के लोग रहते थे, जो किसी तरह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट पालते थे.

उन बेचारों की क्या मजाल, जो इलाके के ‘बड़का पांडे’ के खिलाफ कहीं शिकायत करते. शायद इसी का नतीजा था कि उन की बेटी कुमुद 10वीं जमात में 5 बार फेल हुई थी, पर ताऊ ने नकल कराने वाले एक स्कूल में पैसे दे कर उसे 10वीं जमात पास कराई थी.

दीपक का सारा दिन लोगों से मिलनेजुलने में बीत गया. अगले दिन शाम को वह अपने एक चचेरे भाई रमेश के साथ गांव में घूमने निकला. उस ने कहा कि चलो, अपने बगीचे की तरफ चलते हैं, तो रमेश ने कहा कि नहीं, शाम के समय वहां कोई नहीं जाता, क्योंकि वहां बसंती डायन रहती है.

दीपक को यह सुन कर थोड़ा गुस्सा आया कि आज विज्ञान कहां से कहां पहुच गया है, लेकिन ये लोग अभी भी भूतप्रेतों और डायन जैसे अंधविश्वासों में उलझे हुए हैं.

दीपक ने रमेश से पूछा ‘‘यह बसंती कौन है?’’

उस ने बताया, ‘‘अपने घर पर जो चीखुर नाम का आदमी काम करता था, यह उसी की पत्नी है.’’

चीखुर का नाम सुन कर दीपक को झटका सा लगा. दरअसल, चीखुर दीपक के खेतों में काम करता था और ट्रैक्टर भी चलाता था. उस की पत्नी बसंती बहुत सुंदर थी. हंसमुख स्वभाव और बड़ी मिलनसार. लोगों की मदद करने वाली. गांव के पंडितों के लड़के हमेशा उस के आगेपीछे घूमते थे.

दीपक ने रमेश से पूछा, ‘‘बसंती डायन कैसे बनी?’’ उस ने बताया, ‘‘उस के कोई औलाद तो थी नहीं, इसलिए वह दूसरे के बच्चों पर जादूटोना कर देती थी. वह हमारे गांव के कई बच्चों की अपने जादूटोने से जान ले चुकी है.’’

बसंती के बारे सुन कर दीपक थोड़ा दुखी हो गया, लेकिन उस ने मन ही मन ठान लिया कि उसे डायन के बारे में पता लगाना होगा.

जब थोड़ी रात हुई, तो दीपक शौच के बहाने लोटा ले कर घर से निकला और अपने बगीचे की तरफ चल पड़ा. बगीचे के पास एक कच्ची दीवार और उस के ऊपर गन्ने के पत्तों का छप्पर पड़ा था, जिस में एक टूटाफूटा दरवाजा भी था.

दीपक ने बाहर से आवाज लगाई, ‘‘कोई है?’’

अंदर से किसी औरत की आवाज आई, ‘‘भाग जाओ यहां से. मैं डायन हूं. तुम्हें भी जादू से मार डालूंगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘दरवाजा खोलो. मैं दीपक हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘कौन दीपक?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मैं रामकृपाल का बेटा दीपक हूं.’’

वह औरत रोते हुए बोली, ‘‘दीपक बाबू, आप यहां से चले जाइए. मैं डायन हूं. आप को भी मेरी मनहूस छाया पड़ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम बाहर आओ, वरना मैं दरवाजा तोड़ कर अंदर आ जाऊंगा.’’

तब वह औरत बाहर आई. वह एकदम कंकाल लग रही थी. फटी हुई मैलीकुचैली साड़ी, आंखें धंसी हुईं. उस के भरेभरे गाल कहीं गायब हो गए थे. उन की जगह अब गड्ढे हो गए थे.

उस औरत ने बाहर निकलते ही दीपक से कहा, ‘‘बाबू, आप यहां क्यों आए हैं? अगर आप की बिरादरी के लोगों ने आप को मेरे साथ देख लिया, तो मेरे ऊपर शामत आ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम्हें कुछ नहीं होगा. लेकिन तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?’’

वह औरत रोने लगी और बोली, ‘‘क्या करोगे बाबू यह जान कर?’’

दीपक ने उसे बहुत समझाया, तो उस औरत ने बताया, ‘‘तकरीबन 2 साल पहले मेरे पति की तबीयत खराब हुई थी. जब मैं ने अपने पति को डाक्टर को दिखाया, तो उन्होंने कहा कि इस के दोनों गुरदे खराब हो गए हैं. इस का आपरेशन कर के गुरदे बदलने पड़ेंगे, लेकिन पैसे न होने के चलते मैं उस का आपरेशन नहीं करा पाई और उस की मौत हो गई.

‘‘पति की दवादारू में मेरे गहने बिक गए थे और हमारी एक बीघा जमीन जगनारायण पंडित के यहां गिरवी हो गई. अपने पति का क्रियाकर्म करने में जो पैसा लगाया था, वह सारा जगनारायण पंडित से लिया था. उन पैसों के बदले उस ने हमारी जमीन अपने नाम लिखवा ली, पर मुझे तो यह करना ही था, वरना गांव के लोग मुझे जीने नहीं देते. पति तो परलोक चला गया था. सोचा कि मैं किसी तह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट भर लूंगी.

‘‘फिर मैं आप के खेतों में काम करने लगी, लेकिन जगनारायण पंडित मुझे अकसर आतेजाते घूर कर देखता रहता था. पर मैं उस की तरफ कोई ध्यान नहीं देती थी.

‘‘एक दिन मैं खेतों से लौट रही थी. थोड़ा अंधेरा हो चुका था. तभी खेतों के किनारे मुझे जगनारायण पंडित आता दिखाई दिया. वह मेरी तरफ ही आ रहा था.

‘‘मैं उस से बच कर निकल जाना चाहती थी, लेकिन पास आ कर उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘कहां इतना सुंदर शरीर ले कर तू दूसरों के खेतों में मजदूरी करती है. मेरी बात मान, मैं तुझे रानी बना दूंगा. आखिर तू भी तो जवान है. तू मेरी जरूरत पूरी कर दे, मैं तेरी जरूरत पूरी करूंगा.’

‘‘मैं ने उस से अपना हाथ छुड़ाया और उसे एक तमाचा जड़ दिया. मैं अपने घर की तरफ दौड़ पड़ी. पीछे से उस की आवाज आई, ‘तू ने मेरी बात नहीं मानी है न, इस थप्पड़ का मैं तुझ से जरूर बदला लूंगा.’

‘‘कुछ महीनों के बाद रामजतन का बेटा और मंगरू की बेटी बीमार पड़ गई. शहर के डाक्टर ने बताया कि उन्हें दिमागी बुखार हो गया है, लेकिन जगनारायण पंडित और उस के चमचे कल्लू ने गांव में यह बात फैला दी कि यह सब किसी डायन का कियाधरा है.

‘‘उन बच्चों को अस्पताल से निकाल कर घर लाया गया और एक तांत्रिक को बुला कर झाड़फूंक होने लगी. लेकिन अगले दिन ही दोनों बच्चों की मौत हो गई, तो जगनारायण पंडित ने उस तांत्रिक से कहा कि बाबा उस डायन का नाम बताओ, जो हमारे बच्चों को खा रही है.

‘‘उस तांत्रिक ने मेरा नाम बताया, तो भीड़ मेरे घर पर टूट पड़ी. मेरा घर जला दिया गया. मुझे मारापीटा गया. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए और सिर मुंड़वा कर पूरे गांव में घुमाया गया.

‘‘इतने से भी उन का मन नहीं भरा और उन लोगों ने मुझे गांव से बाहर निकाल दिया. तब से मैं यहीं झोंपड़ी बना कर और आसपास के गांवों से कुछ मांग कर किसी तरह जी रही हूं’’.

उस औरत की बातें सुन कर दीपक की आंखें भर आईं. उस ने कहा, ‘‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा करना. मैं तुम्हारे माथे से डायन का यह कलंक हमेशा के लिए मिटा दूंगा.’’

दीपक ने उसे धीमी आवाज में समझाया, तो वह राजी हो गई. दीपक ने गांव में यह बात फैला दी कि बसंती को कहीं से सोने के 10 सिक्के मिल गए हैं. पूरा गांव तो डायन से डरता था, लेकिन एक दिन जगनारायण पंडित उस के घर पहुंचा और बोला, ‘‘क्यों री बसंती, सुना है कि तुझे सोने के सिक्के मिले हैं. ला, सोने के सिक्के मुझे दे दे, नहीं तो तू जानती है कि मैं क्या कर सकता हूं.

‘‘जब पिछली बार तू ने मेरी बात नहीं मानी थी, तो मैं ने तेरा क्या हाल किया था, भूली तो नहीं होगी?

‘‘मेरी वजह से ही तू आज डायन बनी फिर रही है. अगर इस बार तू ने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं तेरा पिछली बार से भी बुरा हाल करूंगा.’’

वह बसंती को मारने ही वाला था कि दीपक गांव के कुछ लोगों के साथ वहां पहुंच गया. इतने लोगों को वहां देख कर जगनारायण पंडित की घिग्घी बंध गई. वह बड़बड़ाने लगा. इतने में बसंती ने अपने छप्पर में छिपा कैमरा निकाल कर दीपक को दे दिया.

जगनारायण पंडित ने कहा, ‘‘यह सब क्या?है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मेरा यह प्लान था कि डायन के डर से गांव का कोई आदमी यहां नहीं आएगा, लेकिन तुझे सारी हकीकत मालूम है और तू सोने के सिक्कों की बात सुन कर यहां जरूर आएगा, इसलिए मैं ने बसंती को कैमरा दे कर सिखा दिया था कि इसे कैसे चलाना है.

‘‘जब तू दरवाजे पर आ कर चिल्लाया, तभी बसंती ने कैमरा चला कर छिपा दिया था और जब तू इधर आ रहा था, मैं ने तुझे देख लिया था. अब तू सीधा जेल जाएगा.’’

यह बात जब गांव वालों को पता चली, तो वे बसंती से माफी मांगने लगे. जगनारायण पंडित को उस के किए की सजा मिली. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. भीड़ से घिरी बसंती दीपक को देख रही थी, मानो उस की आंखें कह रही हों, ‘मेरे सिर से डायन का कलंक उतर गया दीपक बाबू.’

दीपक ने अपने नाम की तरह अंधविश्वास के अंधेरे में खो चुकी बसंती की जिंदगी में उजाला कर दिया था.

नाइट फ्लाइट : ऋचा से बात करने में क्यों कतरा रहा था यश

मुंबई का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा. अभी शाम के 5 भी  नहीं बजे थे. यश की फ्लाइट रात के 8 बजे की थी. वह लंबी यात्रा में किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहता था. सो, एयरपोर्ट जल्दी ही आ गया था. उस ने टैक्सी से अपना सामान उतार कर ट्रौली पर रखा. हवाईअड्डे पर काफी भीड़ थी. वह मन ही मन सोच रहा था, आजकल हवाई यात्रा करने वालों की कमी नहीं है. यश ने अपना पासपोर्ट और टिकट दिखा कर अंदर प्रवेश किया.

यश ने एयर इंडिया के काउंटर से चेकइन कर अपना बोर्डिंग पास लिया. उस ने अपने लिए किनारे वाली सीट पहले से बुक करा ली थी. उसे यात्रा के दौरान विंडो या बीच वाली सीट से निकल कर वौशरूम जाने में परेशानी होती है. उस के बाद वह सुरक्षा जांच के लिए गया. सुरक्षा जांच के बाद टर्मिनल 2 की ओर बढ़ा जहां से एयर इंडिया की उड़ान संख्या ए/314 से उसे हौंगकौंग जाना था. वहां पर वह एक किनारे कुरसी पर बैठ गया. अभी भी उस की फ्लाइट में डेढ घंटे बाकी थे. हौंगकौंग के लिए और भी उड़ानें थीं पर उस ने जानबूझ कर नाइट फ्लाइट ली ताकि रात जहाज में सो कर गुजर जाए और सारा दिन काम कर सके. उस की फ्लाइट हौंगकौंग के स्थानीय समय के अनुसार सुबह 6.45 बजे वहां लैंड करती.

थोड़ी देर बाद एक बुजुर्ग आ कर यश की बगल में एक सीट छोड़ कर बैठ गए. बीच की सीट पर उन्होंने अपना बैग रख दिया. देखने में वे किसान लग रहे थे. उन्होंने अपना बोर्डिंग पास यश को दिखाते हुए पंजाबी मिश्रित हिंदी में पूछा, ‘‘पुत्तर, मेरा जहाज यहीं से उड़ेगा न?’’

यश ने हां कहा और अपनी किताब पढ़ने लगा. बीचबीच में वह सामने टीवी स्क्रीन पर न्यूज देख लेता. लगभग आधे घंटे के बाद एक युवती आई. यश की बगल वाली सीट पर बुजुर्ग का बैग रखा था. लड़की ने यश से कहा, ‘‘प्लीज, आप अपना बैग हटा लेते, तो मैं यहां बैठ जाती.’’

यश ने मुसकराते हुए बुजुर्ग की ओर इशारा कर कहा, ‘‘यह बैग उन का है.’’

उस बुजुर्ग को हिंदी ठीक से नहीं आती थी. लड़की के समझाने पर उन्होंने अपना बैग नीचे रखा. तब लड़की ने यश की ओर देख कर कहा, ‘‘मैं थोड़ी देर में वौशरूम से आती हूं.’’

इस बार यश ने सिर उठा कर उसे देखा और मुसकराते हुए, ‘इट्स ओके’ कहा. फिर लड़की को जाते हुए देखा. लड़की खूबसूरत थी. उस की पतली कमर के ऊपर ब्लू स्कर्ट और स्कर्ट के बाहर झांकती पतली टांगें उसे अच्छी लगी थीं. ऊपर एक सफेद टौप था. उस ने हाईहील सैंडिल पहनी थी.

करीब 10 मिनट के बाद एक हाथ में स्नैक्स और दूसरे में कोक का कैन लिए वह लड़की आ रही थी. पहले स्नैक्स खाती, फिर कोक सिप करती. यश ने देखा कि उसे हाईहील पहन कर चलने में कुछ असुविधा हो रही थी. वह जैसे ही अपनी कुरसी पर बैठने जा रही थी कि थोड़ा लड़खड़ा पड़ी. उस ने अपने को तो संभाल लिया पर कोक का कैन हाथ से छूट कर यश की गोद में जा पड़ा. कुछ कोक छलक कर उस की जींस पर गिरी जिस से जींस कुछ गीली हो गई थी.

यश ने खड़े हो कर कैन उसे पकड़ाया. लड़की बुरी तरह शर्मिंदा थी, बोली, ‘‘आई एम ऐक्सट्रीमली सौरी.’’ और बैग में से कुछ टिश्यूपेपर निकाल कर उस की जींस पोंछने लगी.

यश को यह अच्छा नहीं लगा, वह बोला, ‘‘आप रहने दें, मैं खुद कर लेता हूं.’’ और उस के हाथ से टिश्यू ले कर खुद गीलापन कम करने की कोशिश करने लगा.

थोड़ी देर बाद बोर्डिंग की घोषणा हुई. यह भी इत्तफाक ही था कि वह लड़की और बुजुर्ग दोनों यश की बगल की सीटों पर थे. बुजुर्ग को विंडो सीट और लड़की को बीच वाली सीट मिली थी.

विमान के कैप्टन ने यात्रियों का स्वागत करते हुए कहा कि मुंबई से हौंगकौंग तक की उड़ान करीब 8 घंटे 35 मिनट की होगी. पर लगभग 2 घंटे के बाद विमान एक घंटे के लिए दिल्ली में रुकेगा. जिन यात्रियों को हौंगकौंग जाना है, कृपया अपनी सीट पर बैठे रहें. विमान परिचारिका ने सुरक्षा नियम समझाए. बुजुर्ग यात्री पहली बार हवाई जहाज से यात्रा कर रहे थे. उन्हें बैल्ट बांधने में लड़की ने मदद की. उन्होंने बताया कि वे कनाडा जा रहे हैं. वे कुछ दिन हौंगकौंग में अपनी भतीजी की शादी के सिलसिले में रुकेंगे.

फिर उन्हें हौंगकौंग से वैंकुवर जाना है. उन के बेटे ने उन का ग्रीनकार्ड स्पौंसर किया है.

निश्चित समय पर विमान ने टेकऔफ किया. बातचीत का सिलसिला यश ने शुरू किया. वह लड़की से बोला, ‘‘मैं यश मेहता, सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं. मेरी कंपनी बैंकिंग सौफ्टवेयर बनाती है. अभी मैं एक प्रोडक्ट के सिलसिले में हौंगकौंग के बार्कले इन्वैस्टमैंट बैंक और एचएसबीसी बैंक जा रहा हूं.’’

‘‘ग्लैड टू मीट यू, मैं ऋचा शर्मा. हौंगकौंग में हमारा बिजनैस है.’’

‘‘तब तो आप अकसर वहां जाती होंगी.’’

‘‘जी नहीं, पहली बार जा रही हूं.’’

तब तक जलपान दिया गया. यश और ऋ चा ने देखा कि वे बुजुर्ग बारबार उठ कर बाथरूम जा रहे हैं जिस के चलते ऋचा को ज्यादा परेशानी हो रही थी. यश किनारे वाली सीट पर था तो वह अपने पैर बाहर की तरफ मोड़ लेता.

बुजुर्ग ने बताया कि उन्हें शुगर और किडनी दोनों बीमारियां हैं. उन की एक आदत यश और ऋ चा दोनों को बुरी लगी कि विमान परिचारिका जो भी कुछ सामान अगलबगल की सीट पर देती, वे अपने लिए भी मांग बैठते.

कुछ देर बाद विमान दिल्ली हवाई अड्डे पर उतर रहा था. करीब एक घंटे के बाद विमान ने हौंगकौंग के लिए उड़ान भरी. आधे घंटे के बाद डिनर सर्व हुआ. डिनर के बाद यश सोने की तैयारी में था. तभी ऋ चा ने अपने रिमोट से परिचारिका को बुलाने के लिए कौलबैल का बटन दबाया. थोड़ी देर में वह आई. ऋचा ने उस के कान में धीरे से कुछ कहा. परिचारिका ‘श्योर मैम, मैं देखती हूं,’ बोल कर चली गई.

कुछ ही देर बाद वह लौट कर आई. उस ने एक टिश्यू में लिपटा हुआ कुछ सामान ऋचा को दिया. बुजुर्ग ने कहा, ‘‘पुत्तर, एक मुझे भी दे दो.’’

परिचारिका बोली, ‘‘सर, यह आप के काम की चीज नहीं है.’’

‘‘तुम मुझे दो तो सही. मैं देख लूंगा, मेरे लिए है या नहीं.’’

ऋचा शरमा रही थी और अपनी हंसी भी नहीं छिपा पा रही थी. बारबार समझाने पर भी वे नहीं मान रहे थे. तब परिचारिका ने झुंझला कर कहा, ‘‘आप को भी मासिकधर्म है क्या?’’

बुजुर्ग बोले, ‘‘छि, क्या बोलती है?’’

तब जा कर उन की समझ में बात आई. यश ने कहा, ‘‘मैं देख रहा हूं आप हर चीज अपने लिए मांग रहे हैं?’’

‘‘आते समय मेरे बेटे ने समझाया था कि शर्म नहीं करना, सब चीजें जहाज में फ्री मिलती हैं.’’

यश हंस पड़ा. इसी बीच ऋचा सैनिटरी नैपकिन ले कर वौशरूम चली गई. 10 मिनट बाद वह लौट कर अपनी सीट पर आ रही थी. बगल की सीट पर बैठा यात्री सो रहा था और उस का हैडफोन नीचे गिरा था. ऋचा का पैर हैडफोन की तार में फंस गया, ऊपर से हाईहील, पैंसिल नोक वाली सैंडिल. ऋचा गिर पड़ी और उस की स्कर्ट भी कुछ इस तरह उठ गई थी कि उस का अधोवस्त्र भी झलकने लगा. वह उठने की कोशिश कर रही थी, पर दोबारा फिसल पड़ी थी. यश ने उसे सहारा दे कर अपनी सीट पर बैठाया और खुद बीच वाली सीट पर बैठ गया.

‘‘थैंक्स अ लौट,’’ ऋ चा बोली.

‘‘इट्स ओके. पर एक बात पूछूं, बुरा न मानिए.’’

ऋचा के पूछिए बोलने पर वह बोला, ‘‘आप हाईहील में सहज नहीं लगती हैं, फिर फ्लाइट में क्यों इसे पहन कर आई हैं?’’

‘‘हाईहील के बगैर मेरी हाइट 5 फुट से भी कम हो जाती है. वैसे, मैं रैगुलर इसे यूज नहीं करती.’’

थोड़ी देर बाद ऋ चा को नींद आ गई. उस ने नींद में यश के कंधे पर अपना सिर रख दिया. यश को उस का सामीप्य अच्छा लग रहा था. कंधे पर एक खुशनुमा बोझ तो था, पर उस के बदन और बालों की खुशबू यश को रोमांचित कर रही थी. वह यथावत स्थिति में बैठा रहा. उसे डर था कि कहीं हिलनेडुलने से ऋचा की नींद न टूट जाए और वह इस आनंद से वंचित रह जाए. बीच में कभी ऋचा की नींद खुलती तो वह सीधा हो कर बैठती, पर 5 मिनट के अंदर फिर यश के कंधों पर लुढ़क जाती.

इस बीच, यश ने दोनों सीटों के बीच वाले हिस्से को उठा कर खड़ा कर दिया. कभी तो ऋ चा का सिर उस के सीने पर भी आ जाता, तब उस की नींद खुलती और सौरी बोल कर सीधी हो जाती और बोलती, ‘‘मुझ से नींद बरदाश्त नहीं होती. मैं कहीं भी जाती हूं किसी तरह अपने सोनेभर की जगह बना ही लेती हूं.’’

यश ने कहा, ‘‘आप कहें तो मैं आप के लिए कुछ और जगह बना दूं. मेरे पैर पर तकिया रख कर सो लें.’’

‘‘ओह, नोनो.’’

पर 10 मिनट के अंदर उस का सिर यश के पैर पर रखे तकिए पर आ गया. यश को भी नींद आ रही थी, पर वह अपनी नींद कुरबान करने को तैयार था, बल्कि एकाध बार तो उस का दाहिना हाथ ऋ चा के बालों पर फिसलने लगता.

देखतेदेखते लैंडिंग की भी घोषणा हुई. तब यश ने धीरे से ऋचा का सिर हिला कर कहा ‘‘उठिए, बैल्ट बांधिए. हम हौंगकौंग पहुंच रहे हैं.’’

‘‘इतनी जल्दी आ गए. मुझे तो पता ही नहीं चला.’’ और फिर सीधा बैठ कर बैल्ट बांधती हुई बोली, ‘‘क्या मैं रातभर इसी तरह सोती आई? सौरी, आप को तकलीफ दी.’’

‘‘कोई बात नहीं, इट्स अ प्लेजर फौर मी. अगर सफर लंबा होता तो मुझे और खुशी होती.’’

ऋ चा मुसकरा कर रह गई. ऋ चा और यश दोनों का इमिग्रेशन और कस्टम एक ही डैस्क पर हुआ. वहीं लाइन में खड़े यश ने कहा, ‘‘आप के साथ का सफर बड़ा प्यारा रहा. क्या हम आगे भी मिल सकते हैं?’’

‘‘हां, मिलने में कोई बुराई नहीं है.’’

‘‘तो शाम को विंधम स्ट्रीट के इंडियन रैस्टोरैंट में मिलते हैं. जब हौंगकौंग आता हूं, वहां मैं अकसर डिनर करता हूं. लाजवाब स्वाद है वहां के खाने में.’’

ऋ चा हंस कर बोली, ‘‘तब तो वहां मैं जरूर मिलूंगी.’’

दोनों एयरपोर्ट से बाहर निकले. दोनों के लिए तख्तियां ले कर कार के ड्राइवर्स खड़े थे. दोनों अपनेअपने गंतव्य स्थान पर गए.

यश 2-3 घंटे होटल में आराम कर अपने काम पर चला गया. दिनभर वह शाम को ऋचा से होने वाली मुलाकात को सोच कर रोमांचित होता रहा.

यश ने शाम को उस इंडियन रैस्टोरैंट में अपने लिए टेबल बुक कर लिया था. होटल पहुंच कर वह अपने टेबल पर बैठा बारबार घड़ी देख रहा था. सोच रहा था कि ऋचा बोल कर भी क्यों नहीं आई. वह सोच ही रहा था कि तभी ऋचा एप्रन पहने सामने आ खड़ी हुई. उसे मेनू बुक देते हुए बोली, ‘‘गुड इवनिंग सर, आप खाने में क्या पसंद करेंगे?’’

यश उसे वेट्रैस की ड्रैस में देख कर घबरा गया और बोला, ‘‘तुम यहां वेट्रैस हो? यही तुम्हारा बिजनैस है?’’

‘‘रिलैक्स सर. अच्छा, आज मेरी पसंद का डिनर लें. आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

यश ने उस का हाथ पकड़ कर बैठाना चाहा तो वह बोली, ‘‘मैं डिनर ले कर आती हूं. दोनों साथ बैठ कर खाएंगे.’’

यश हैरानपरेशान सा बैठा था. थोड़ी देर में वह भरपूर खाना ले कर आई और एप्रन खोल कर रख दिया. दोनों खाते रहे. यश ने 2-3 बार पूछना चाहा कि क्या वह वेट्रैस है, पर हर बार वह टाल जाती.

खाना खत्म होते ही एक युवक उन के पास आया और उस ने ऋ चा से पूछा, ‘‘कुछ और चाहिए. खाना पसंद आया तुम्हारे वीआईपी गैस्ट को?’’

यश उस युवक की ओर देखने लगा. ऋ चा बोली, ‘‘मीट माई हस्बैंड, नीलेश.’’

यश भौचक्का सा कभी ऋचा, तो कभी नीलेश को देखता रहा. थोड़ी देर बाद नीलेश बोला, ‘‘हमारी शादी 2 महीने पहले इंडिया में हुई थी. इसे मायके में कुछ दिन रुकने का मन था. मैं यहां पहले चला आया. इस होटल में मेजर शेयर हमारा है. आप ने यात्रा में ऋचा की काफी सहायता की है. वह आप की बहुत तारीफ कर रही थी. दरअसल, इस टेबल की वेट्रैस आज छुट्टी पर है. ऋ चा बोली कि उस का एक खास गैस्ट आ रहा है, वह खुद मेहमाननवाजी करेगी. और आज का डिनर हमारी तरफ से कौंप्लीमैंट्री रहा.’’

यश अभी तक इस आश्चर्यजनक वाकए से उबर नहीं सका था, वह बोला, ‘‘ऋचा, आप ने पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘मैं ने कहा था कि मेरा बिजनैस है. पर जब आप ने इंडियन रैस्टोरैंट का नाम लिया तो मैं ने सोचा, क्यों न सरप्राइज दिया जाए, और आप को कुछ देर और रोमांचित होने का मौका दिया मैं ने.’’

‘‘नौट फेयर ऋचा, मुझे आप ने अपने बारे में अंधेरे में रखा.’’

ऋचा ने यश की पीठ थपथपाई और कहा, ‘‘वी विल रिमेन गुड फ्रैंड्स. इस होटल में जब भी चाहो, आ जाना. बिल नहीं भी देंगे तो भी चलेगा. पर हर बार मैं सर्व नहीं कर सकूंगी. होप यू डौंट माइंड.’’

नीलेश और ऋचा दोनों होटल के बाहर तक यश को छोड़ने आए.

यश ने टैक्सी ली और वापस अपने होटल आ गया. रिलैक्स हो कर सोफे पर बैठ गया. उसे एहसास हो रहा था कि हम बिना दूसरे के बारे में जाने न जाने क्याक्या सोच बैठते हैं. ऋचा को देख उस ने न जाने क्याक्या सोच लिया था. गलती तो उसी की थी. मन तो बावरा होता है, लेकिन अपनी सोच पर तो हमारी खुद की पकड़ होती है. यश को अपनेआप पर हंसी आ गई. फिर लंबी सांस भर कर बोला, ‘‘नौट अगेन.’’

बुझते दिए की लौ

अपने वीरान से फ्लैट से निकल कर मैं समय काटने के लिए सामने पार्क में चला गया. जिंदगी जीने और काटने में बड़ा अंतर होता है. पार्क के 2 चक्कर लगाने के बाद मैं दूर एकांत में पड़ी बैंच पर बैठ गया. यह मेरा लगभग रोज का कार्यक्रम होता है और अंधेरा होने तक यहीं पड़ा रहता हूं.

बाग के पास कुछ नया बन रहा था. वहां की पहली सीढ़ी अभी ताजा थी इसलिए उस को लांघ कर सीधे दूसरी सीढ़ी पर पहुंचने में लोगों को बहुत परेशानी हो रही थी. मैं लोगों की असुविधा को देखते हुए हाथ बढ़ा कर उन्हें ऊपर खींचता रहा. बडे़बूढ़ों का पांव कांपता देख मैं पूरी ताकत से उन्हें ऊपर खींच रहा था पर बेहद आहिस्ता से.

‘हाथ दीजिए,’ कह कर मैं लगातार उस औरत को आगे आने को कहता और वह हर बार हिचकिचा कर सीढि़यों की बगल में खड़ी हो जाती. हलके भूरे रंग के सूट के ऊपर सफेद चुन्नी से उस ने अपना सिर ढांप रखा था. मैं ने फिर से आग्रह किया, ‘‘हाथ दीजिए, अब तो अधेरा भी शुरू होने वाला है.’’

उस ने धीरे से मुझे अपना हाथ पकड़ाया. मैं ने जैसे ही उस के हाथ को स्पर्श किया उस के कोमल स्पर्श ने मुझे भीतर तक हिला दिया. इसी प्रक्रिया में उसे सहारा देते समय उस की चुन्नी सिर से ढलक कर कंधे पर आ गई. उस ने मुझे देखते ही कहा, ‘‘तब तुम कहां थे जब मैं ने इन हाथों का सहारा मांगा था?’’

‘‘तुम नूपुर हो न,’’ मैं ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘शुक्र है, तुम्हारे होंठों पर मेरा नाम तो है,’’ कहतेकहते उस की आंखों में पानी आ गया और वह सीढि़यों से हट कर एक कोने में चली गई. मैं भी उस के पीछेपीछे वहां आ गया. वह बोली, ‘‘मैं ने परसों तुम को पार्क में देखा तो इन आंखों को सहज विश्वास ही नहीं हुआ कि वह तुम हो…कैसे हो?’’

‘‘ठीक ही हूं,’’ मैं ने बुझे मन से कहा और उस का पता जानने के लिए अधीर हो कर पूछा, ‘‘यहां कहां रहती हो?’’

‘‘सेक्टर 18 में. मेरे बडे़ भाई वहीं रहते हैं. जब मन बहुत उदास हो जाता है तो यहां आ जाती हूं.’’

मैं उस के चेहरे को देखता रहा. उस के बाल समय से पहले सफेदी पर थे. पर उस की सफेद चुन्नी और सूनी मांग देख कर मैं सहम सा गया. कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सका. दोनों के बीच में एक गहरा सा सन्नाटा पसर गया था. भाव व्यक्त करने के लिए शब्दों का अभाव लगने लगा. वर्षों की चुप्पी के बाद भी शब्दों को तलाशने में बहुत समय लग गया. खामोशी को तोड़ते हुए मैं ने ही कहा, ‘‘चलो, दूर पार्क में चल कर बैठते हैं.’’

एक आज्ञाकारी बालक की तरह वह मेरे साथ चल दी थी. हमारे बीच का गहरा सन्नाटा मौन था. उस के बारे में सबकुछ जानने के लिए मैं बेहद उतावला हो रहा था पर बातें शुरू करने का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था.

मरकरी लाइट के पोल के पास नीचे हरी घास में हम दोनों ही एकदूसरे की मूक सहमति से बैठ गए. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में बैठा करते थे. उस के  शरीर से छू कर आने वाली ठंडी हवा मुझे भीतर तक सुखद एहसास दे रही थी.

‘‘और कौनकौन है यहां तुम्हारे साथ?’’ मैं ने डूबते हुए दिल से पूछा.

‘‘कोई नहीं. बस मैं, भैयाभाभी और उन की एक 8 साल की बेटी. और तुम्हारे साथ कौन है?’’

‘‘बस, मैं ही हूं,’’ मेरा स्वर उदास हो गया.

बातोंबातों में उस ने बताया कि शादी के 10 साल बाद ही उस के पति एक सड़क दुर्घटना में चल बसे थे. एक बेटी है जो वनस्थली में पढ़ती है और वहीं होस्टल में रहती है. संयुक्त परिवार होने के नाते सबकुछ वैसा चला जो नहीं चलना चाहिए था. उस घर में रहना और ताने सहना उस की मजबूरी बन चुकी थी. पति के गुजर जाने के बाद कुछ दिन तो सहानुभूति में कट गए, बस उस के बाद सब ने अपनेअपने कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.

पिछले साल बेटी के होस्टल जाने के बाद थोड़ी राहत सी महसूस की पर मन बहुत ही उदास और अकेला हो गया. जिंदगी की लड़ाइयां कितनी भयंकर होती हैं, मन बहुत उदास होता है तो कुछ दिनों के लिए यहां चली आती हूं. सच, बहुत कुछ सहा है मैं ने.’’ इतना कह कर वह बिलखती रही और मैं पाषण बना चुपचाप उस का रुदन सुनता रहा. मेरे मन में इस इच्छा ने बारबार जन्म लिया कि किसी न किसी बहाने उसे स्पर्श करूं, उस को सीने से लगाऊं, उस के लंबे केशों को सहला कर उसे चुप करा दूं पर शुरू से ही संकोची स्वभाव का होने के कारण कुछ भी न कर पाया.

मेरी आंखें भर आईं. मैं मुंह दूसरी तरफ कर के सुबकने लगा. एक लंबी ठंडी सांस ले कर मैं ने कहा, ‘‘पता नहीं यह संयोग है कि तुम्हें एक बार फिर से  देखने की हसरत पूरी हो गई.’’

बातों का क्रम बदलते हुए उस ने अपनी आंखों को पोंछा और बोली, ‘‘तुम ने अपने बारे में तो कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘मेरे पास तुम्हारे जैसा बताने लायक तो कुछ नहीं है,’’ मैं ने कहा तो गहरे उद्वेग के साथ कही गई मेरी बातों में छिपी वेदना को उस ने महसूस किया और मेरा हाथ जोर से दबा कर सबकुछ कह कर मन हलका करने का संकेत दिया.

‘‘अपने से कहीं ऊंचे स्तर के परिवार में मेरा विवाह हो गया. पत्नी के स्वछंद एवं स्वतंत्र होने की जिद ने मुझे डंस लिया. अत्यधिक धनसंपदा ने भी इस को मुझ से दूर ही रखा. बातबात पर झगड़ कर मायके जाना और मायके वालों का मेरी पत्नी पर वरदहस्त, कुल मिला कर हमारी बीच की दूरियां बढ़ाता ही रहा. वह चाहती थी कि मैं घरजमाई बन कर हर ऐशोआराम की वस्तु का उपभोग करूं मगर मेरे जमीर को यह मंजूर नहीं था. 1-2 बार मेरे मातापिता उसे मनानेसमझाने भी गए पर उन्हें तुच्छ एवं असभ्य कह कर उस ने बेइज्जत किया. फिर मैं वहां नहीं गया.

‘‘मेरे जुड़वां बेटाबेटी हैं, उसी के पास रहते हैं. जब कभी मेरा मन बच्चों से मिलने को चाहता है मैं उन्हें कहीं बाहर बुला कर मिल लेता हूं. उन के मन में मेरे प्रति न प्यार है न नफरत. जब से मेरे ससुरजी का देहांत हुआ है, उस ने दोनों बच्चों को होस्टल में भेज दिया है. पत्नी के मन में आज भी मेरे प्रति नफरत कूटकूट कर भरी है. सारा जीवन बस, यों ही बीत गया.

‘‘जीवन कैसा भी बीते, पर उसे छोड़ने का मन ही नहीं करता. धीरेधीरे यह दर्द मेरे जीवन का हिस्सा बन गया है, फिर तो अकेले ही जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई जो आज तक चल रही है. मैं पिछले 3 सालों से इसी शहर में हूं, और पास ही के एक बैंक में मैनेजर हूं. बस, यही है मेरी कहानी.’’

हम दोनों ही अतीत की यादों में खो गए. जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते रहे एवं एकएक पड़ाव जांचते रहे. यही भटकाव कभीकभी आदमी के भविष्य की दिशा तय कर देता है. रात काफी घिर चुकी थी. बड़े बेमन से हम ने एकदूसरे से विदा ली.

नूपुर से मिलने के बाद मेरा दिल बहुत बेचैन हो गया था. खाना खाने का मन नहीं था इसलिए महरी को दरवाजे से ही वापस भेज दिया. मैं चाय का गिलास लिए ड्राइंगरूम में बैठ गया. सहसा स्मृति कलश से पुन: एक स्मृति उभर कर मुझे कई बरस पीछे ले गई. मेरे विचारों के तार कब अतीत से जुड़ गए पता ही न चला.

उस छोटे से शहर में कालोनी के कोने वाले मकान में वे लोग नएनए आए थे. मां प्रतिदिन सवेरे टहलने जातीं तो नूपुर की मां का भी वही नित्यकर्म था. हम अपनीअपनी मां के साथ पार्क में आते और जब तक मां टहलतीं पार्क में एक तरफ बैठ कर बातें करते रहते. हमउम्र होने के कारण हमारी आपस में बहुत बनने लगी. खेलतेखेलते कब जवान हो कर एकदूसरे के करीब आ गए पता ही न चला.

दिन बीतते गए. हमारी खुशियों का कोई अंत नहीं था. मगर एक दिन सूर्योदय होने से पहले ही सूर्यास्त हो गया. उस के पिताजी को दिल का दौरा पड़ा और वे सदा के लिए संसार से कूच कर गए. इस तरह एक दिन उस परिवार पर कहर टूट पड़ा.

उस रोज की शाम हर रोज की तरह नहीं हुई. जब तक मैं कालिज से आया उन का सामान ट्रक में लादा जा चुका था, पता चला वे लोग पूना अपने घर जा रहे हैं, मैं नूपुर से मिल भी नहीं सका. उस से मिलने की हसरत बस, मन में सिमट कर रह गई. न तोप चली न तलवार, न सूई चली न नश्तर पर हृदय पर ऐसा गहरा आघात लगा कि मैं ठीक से संभल न पाया.

मेरे तो प्राण ही निकल गए. वह साल बेहद उदासी में बीता. मैं पार्क में बैठ कर पुरानी यादों को दोहराता रहता. मेरे पास उस का अब कोई संपर्क सूत्र भी नहीं था.

एम. काम. करने के बाद मेरी बैंक में नियुक्ति हो गई तो मुझे देहरादून जाना पड़ा. बातों का सिलसिला इस के बाद जा कर थम गया. लेकिन उस की यादें मेरे मन में बनी रहीं.

एक बार दीवाली पर घर आया तो मां ने यों ही दिल के तार छेड़ दिए, ‘तुझे याद है. हमारे पड़ोस में वर्माजी रहते थे, वही जिन की बेटी नूपुर के साथ तू अकसर खेला करता था.’

‘हां,’ मेरा दिल धक से कर गया, ‘कहां है वह?’

‘पिछले दिनों उस की मां का फोन आया था. अपनी बेटी के रिश्ते की बात करने लगीं.’

‘तो क्या कहा आप ने?’ मैं ने उत्सुकता से सांसें थाम कर पूछा.

‘मैं भला क्या कहती. जब भी तुझ से रिश्ते की बात करती, तू टाल जाता था. मुझे लगा तेरे मन में कोई है और जब समय आएगा तू खुद ही बता देगा.’

‘नहीं, मां, मेरे मन में ऐसा कुछ भी नहीं था, न है,’ मैं ने सारा संकोच त्याग कर मां से मनुहार की, ‘चाहो तो एक बार फिर से बात कर के देख लो.’

और जब तक मां ने बात की, बहुत देर हो चुकी थी. मां ने रोंआसी सी हो कर बताया कि नूपुर की शादी तेरे साथ करने को उन का बड़ा मन था और नूपुर की भी रजामंदी थी पर समय से मैं कुछ जवाब न दे सकी तो वह उदास हो गईं. अब तो नूपुर की सगाई भी हो चुकी है.

मेरा दिल भारी हो गया और अगले दिन ही मैं वापस देहरादून चला गया. उस जैसा फिर मन को कोई प्यारा न लगा. मैं ने उस का अस्तित्व ही भुला देना चाहा पर भूलने के लिए भी मुझे हमेशा याद रखना पड़ा कि मुझे उसे भूलना है जो सहज न हो सका.

आज इतने सालों के बाद सारी बातों की पुनरावृत्ति ने मुझे झकझोर कर रख दिया. मैं ने धीरे से आंखें मूंद लीं पर फिर भी आंसू का एक कतरा न जाने कहां से निकल कर मेरे गालों पर आ गया.

अगले दिन सुबह घूमने के लिए मैं बाहर जाने लगा तो दरवाजे पर नूपुर को देख कर रुक गया. हैरानगी से पूछा, ‘‘नूपुर, तुम?’’

‘‘घूमने जा रहे हो, चाय नहीं पिलाओगे, देखूं तो अकेले कैसे रह लेते हो.’’

उस के शब्दों के इस आक्रमण से मैं  सकपका सा गया परंतु उस के साथ रहने का कोई मौका भी गंवाना नहीं चाहता था सो बोला, ‘‘चलो, आज सैर रहने देता हूं.’’

‘‘नहीं, तुम जाओ, तब तक मैं चाय तैयार करती हूं,’’ अपने होंठों पर चिर- परिचित मुसकान के साथ नूपुर बोली, ‘‘नित्यकर्म नहीं छूटना चाहिए, चाहे शरीर छूट जाए,’’ उस ने यह उसी अंदाज में कहा जैसे पार्क का चौकीदार टहलने वालों से कहा करता था. हम दोनों बीती बातों को याद कर हंस पड़े.

वह मेरे साथ ही घर के अंदर आ गई. दिन पखेरू की तरह उड़ने लगे. जिंदगी ने खुद ही खुशनुमा वारदात की शुरुआत कर दी. हमारा मिलनाजुलना लगातार जारी रहा और निरंतर एकदूसरे को सहारा देते रहे. उस ने भी अपनी छुट्टियां बढ़वा लीं.

उस दिन दोपहर से ही मेरा मन बहुत बेचैन और क्षुब्ध था. शाम होतेहोते उस ने वह बात बता दी जो मैं पहले से ही जानता था. मेरे पास आते ही साड़ी के पल्लू को उंगलियों पर इस तरह लपेट रही थी जैसे कोई महत्त्वपूर्ण बात कहने की भूमिका सोच रही हो.

‘‘मेरे स्कूल की छुट्टियां समाप्त होने जा रही हैं, कल वापस चली जाऊंगी.’’ यह सुन कर मुझे काठ मार गया. मैं तड़प उठा. बेहद धीमी आवाज में डूबते हुए दिल से पूछा, ‘‘फिर कब लौटोगी, क्या फैसला किया है?’’

‘‘कुछ फैसले हिसाब लगा कर नहीं किए जाते, जिंदगी खुद ही कर देती है.’’

‘‘फिर भी,’’ मैं उस के मुंह से सुनना चाहता था.

‘‘मैं नहीं जानती,’’ वह रोंआसी सी हो गई, फिर स्वयं को नियंत्रित कर लड़खड़ाते शब्दों में पूछा, ‘‘तुम…’’

‘‘मेरा क्या है…जब तक मन चाहा रह लूंगा. फिर ढलते सूरज का क्या पता कब अस्त हो जाए.’’

‘‘ऐसा क्यों कहते हो,’’ कहते हुए नूपुर ने मेरे कंधे पर सिर टिका दिया. मेरी सिसकियां रुलाई में फूट पड़ीं. प्रेम का एहसास इतना गहरा होता है, मैं ने कभी सोचा भी न था. हम एकदूसरे के बाहुपाश में बंध गए.

आखिर वह मनहूस घड़ी आ ही गई. मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने गया. गाड़ी के जाने तक मैं भागदौड़ कर उस के लिए पानी और फलों का इंतजाम करता रहा. बड़े भारी मन से मैं ने उसे विदा किया. मुझे लगा, लगातार मेरे शरीर का एक हिस्सा कटता जा रहा है पर मुझे तो अपने हिस्से की पीड़ा भोगनी थी, उसे अपने हिस्से की.

नूपुर क्या गई मेरा सारा सुखचैन ही चला गया. मुझे सबकुछ वीराना सा लगने लगा. बरसों तक जो बात सीने में छिपी थी वह फिर से पपड़ी पड़े घाव को कुरेद गई. वह न मिलती तो अच्छा था. मैं जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहता था ताकि रास्ते में मुझे कोई रोता हुआ न देख ले.

नूपुर की यादों ने पुन: मुझे तोड़ कर रख दिया. उस के बिना कुछ भी करने को मन नहीं करता. जब मन ज्यादा बेचैन होने लगता तो उसे लंबेलंबे पत्र लिखता और फाड़ कर फेंक देता.

इस उम्र में जब मैं जिंदगी को समेटने में व्यस्त था, नूपुर के प्रति इतनी चाहत बनी रहेगी, यह पहले पता होता तो उस से कभी न मिलता. घंटे दिनों में बदल गए, दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में. हमारे बीच निरंतर संपर्क बना रहा. फोन की हर घंटी पर मैं दिल की धड़कन में तेजी महसूस करता.

मेरा वीआरएस (रिटायरमेंट) स्वीकृत हो गया. मैं ने शहर से दूर पहाड़ी पर बनी कालोनी में एक फ्लैट ले लिया और जब नूपुर को इस बारे में बताया तो वह बहुत खुश हुई. पूछा, ‘‘कब तक कब्जा मिलेगा?’’

‘‘वह सब तो मिल चुका है. बस, गृहप्रवेश बाकी है.’’

‘‘अच्छा, कब कर रहे हो गृह- प्रवेश?’’

‘‘जब तुम आ जाओ. मेरा इस दुनिया में और है ही कौन? 14 मार्च ठीक रहेगी.’’

‘‘समझ गई, तुम्हारे जन्मदिन वाले दिन. इस से अच्छा और कोई दिन हो भी नहीं सकता है. मैं कोशिश करूंगी पर मेरा इंतजार मत करना.’’

14 मार्च के दिन सुबह से ही मैं ने घर धुलवा कर 2 गेंदे की मालाएं दरवाजे पर लटका दी थीं और मौली में आम के पत्ते बांध कर ऊपर तोरण बांध दिया. मुझे मां के कहे शब्द अचानक याद आ गए. वह कहा करती थीं, ‘‘बाहर दरवाजे पर आम के पत्ते मौली में गूंथ कर जरूर बांधना क्योंकि आम हमेशा हराभरा रहता है.’’

आम के पत्ते बांधने के बाद मेरी गृहस्थी कितनी हरीभरी रही इस को देखने के लिए आज मां मेरे बीच नहीं थीं. उन के बारे में सोच कर मेरी आंखें भर आईं.

मैं मिठाई की दुकान से एक डब्बा काजू की कतली और नमकीन ले आया. दोनों ही नूपुर को बहुत पसंद थे. मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी था कि नूपुर यहां पहुंचने का हरसंभव प्रयत्न करेगी.

मुझे नूपुर का ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. वह सीधी मेरे फ्लैट पर आ गई. उस के साथ उस की बेटी भी थी. एकदम वैसी ही जैसे नूपुर को मैं ने बचपन में देखा था. मुझे देख कर उस का चेहरा खिल उठा तो मन में आया कि उसे सीने से लगा लूं. आज मेरे बच्चे भी इतने ही  बड़े होंगे. रुंधे गले से मैं इतना ही कह पाया, ‘‘काश, आज मेरे बच्चे भी होते.’’

‘‘यह भी तो तुम्हारी ही बच्ची है, फिर भी अपने बच्चों को देखना चाहते हो तो सामने देखो,’’ उस ने मेरे कंधों का सहारा ले कर सामने टैक्सी की तरफ इशारा किया, ‘‘मैं इन्हें होस्टल से ले कर आई हूं. मैं जानती थी कि पत्नी के मरने के बाद तुम इन की कमी महसूस करोगे.’’

‘‘क्या वह नहीं रही?’’ मैं चौंक गया.

‘‘उन्हें गुजरे तो 6 माह हो गए हैं. उन्होंने जानबूझ कर तुम को नहीं बताया,’’ फिर मुझे एक तरफ ले जा कर बोली, ‘‘इन बच्चों के मन में तुम्हारे प्रति यह कह कर जहर भर दिया गया है कि तुम उन की अंत्येष्टि में भी नहीं आए. बड़ी मुश्किलों और आश्वासनों के साथ इन को यहां लाई हूं.’’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. मैं झट से नूपुर को साथ ले कर टैक्सी के पास गया और कस कर बच्चों से लिपट गया.

थोड़ी देर साथ रहने के बाद नूपुर वापस जाने लगी तो मेरा मन टूटने लगा. किस अधिकार से उसे रोकूं. फिर भी भरे कंठ से बोला, ‘‘रुक जाओ, नूपुर. मुझे इस तरह अकेला छोड़ कर मत जाओ.’’

वह खामोश असहजता को छिपाने का असफल प्रयत्न करती रही. उस की चुप्पी मुझे निराश कर गई. एक दीर्घ ठंडी सांस ले कर मैं ने पूछा, ‘‘नूपुर, क्या मेरा कोई अधिकार है तुम पर?’’

‘‘ऐसा शरीर में कोई कोना नहीं जहां तुम्हारा अधिकार न हो,’’ वह मेरी आंखों में झांकते हुए बोली थी. उस के शब्द मेरे दिल की गहराइयों में उतर गए. जैसे इस छोटे से वाक्य में जीवन का सारा निचोड़ समाया हो. फिर डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं, नूपुर. क्या अब हम सब साथसाथ नहीं रह सकते?’’

‘‘तुम ने ऐसी वस्तु मांगी है जो पहले से ही तुम्हारी थी,’’ वह सिसकने लगी. शायद वह भी मुझ से सहारा चाहती थी.

मैं ने एक बार बच्चों की तरफ देखा. मेरे मन के भावों को पढ़ते हुए नूपुर बोली, ‘‘अब ये बच्चे इतने नादान नहीं हैं. मैं ने उन्हें अपने और तुम्हारे बारे में सबकुछ साफसाफ बता दिया है. कल पूरी रात बच्चे मेरे साथ थे. ये सबकुछ समझते हैं.’’

मैं ने दूर से बच्चों की तरफ देखा. तीनों बच्चे आंखों से इस रिश्ते को स्वीकार कर रहे थे. समय कब, कौन सी करवट बदले कोई नहीं जानता. इस नए बंधन की झुरझुरी हमारे मन के भीतर तक फैल गई.

911 : लव मैरिज क्यों बनीं जी का जंजाल

लेखक – श्री प्रकाश

रात के 2 बजे थे. हलकीहलकी ठंड पड़ रही थी. दशहरा और दिवाली की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. धनबाद स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 2 पर बहुत भीड़ थी. इस में ज्यादातर विद्यार्थियों की भीड़ थी, जो त्योहार में दिल्ली से धनबाद आए थे. धनबाद, बोकारो और आसपास के बच्चे प्लस टू के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली पढ़ने जाते हैं. इस एरिया में अच्छे कालेज न होने से बच्चे अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए स्कूल के बाद दिल्ली जाना चाहते हैं. दिल्ली में कोचिंग की भी अच्छी सुविधा है. वहां वे इंजीनियरिंग, मैडिकल आदि की कोचिंग भी लेते हैं. कुछ तो टेंथ बोर्ड के बाद ही दिल्ली चले जाते हैं. वे वापस दिल्ली लौट रहे थे.

वे सभी कालका मेल के आने का इंतजार कर रहे थे. अनेकों के पास रिजर्वेशन नहीं था. वे वेटिंग टिकट ले कर किसी भी थ्री टियर में चढ़ने वाले थे. जिस के पास रिजर्वेशन होता, उसी की बर्थ पर 4 या 5 जने किसी तरह एडजस्ट कर दिल्ली पहुंचते. इस तरह के सफर की उन्हें आदत थी. अकसर सभी छुट्टियों के बाद यही नजारा होता. कुछ अमीरजादे तत्काल या एजेंट से ब्लैक में टिकट लेते, तो कुछ एसी कोच में जाते. पर ज्यादातर बच्चे थ्री टियर कोच में जाते थे और सब के लिए रिजर्वेशन मुमकिन नहीं था.

रात के 11 बज रहे थे. अभी भी ट्रेन आने में एक घंटा रह गया था. ट्रेन कुछ लेट थी. रोहित कंधों पर बैकपैक लिए चहलकदमी कर रहा था. उस की निगाहें किसी जानपहचान वाले को तलाश रही थीं, जिस के पास रिजर्व टिकट हो. उस की नजर मनोज पर पड़ी, तो उस ने पूछा, “तुम्हारी बर्थ है क्या?“

“नहीं यार, पर अपने महल्ले वाली सुनीता को जानता है न? S-7 कोच में उस का रिजर्वेशन है. वो देख… आ रही है अपने पापा के साथ.”

प्लेटफार्म पर वे बेटी के साथ खड़े थे. मनोज ने उन से कहा, “अंकल नमस्ते. आप वापस जा सकते हैं. हम लोग हैं न. सुनीता को कोई दिक्कत नहीं होने देंगे.”

तभी अनाउंस हुआ, “कालका मेल अपने निश्चित समय से 45 मिनट की देरी से चल रही है. यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है.”

सुनीता ने कहा, “हां पापा, आप जाइए. अभी हमारे पड़ोस की मनीषा भी आ रही होगी. उस की बर्थ भी हमारे ही कोच में है. और भी जानपहचान के फ्रैंड्स हैं. आप परेशान न हों. घर लौट जाइए. हम लोग मैनेज कर लेंगे.”

सुनीता के पापा लौट गए. थोड़ी देर में मनीषा भी आ गई. रोहित, मनोज, सुनीता और मनीषा चारों एक ही कालोनी में रहते थे, पर अलगअलग सैक्टर में. दोनों लड़के इंजीनियरिंग सेकंड ईयर में थे और लड़कियां ग्रेजुएशन कर रही थीं. इन में सुनीता ही सब से ज्यादा धनी परिवार से थी. रोहित और मनोज दोनों के पिता कोल इंडिया में क्लर्क थे. मनीषा के पिता कोल इंडिया में ही लेबर अफसर और सुनीता के पिता ठेकेदार थे. देश के अनेक भागों में कोयला भेजते थे.

रोहित बोला, “मेरे और मनोज के पास रिजर्व टिकट नहीं हैं. तुम लोग मदद करना. तुम दोनों एक बर्थ पर हो लेना और दूसरी बर्थ पर हम दोनों रहेंगे. अगर कोस्ट शेयर करना हुआ तो वो भी शेयर कर लेंगे.”

सुनीता ने कहा, “क्या बेवकूफों जैसी बात कर रहे हो? ऐसा क्या पहली बार हुआ है? इस के पहले भी तुम लोग हमारी बर्थ पर गए हो. क्या हम ने पैसा लिया है कभी? फिर ऐसी बात न करना. मगर, इस बार हम दोनों को लेडीज कोटे से बर्थ मिली है.“

मनीषा बोली, “हां, S-7 में बर्थ नंबर 1 से 8 तक लेडीज कोटा है. हम तो शेयर कर लेंगे, पर बाकी औरतों ने कहीं शोर मचाया तब क्या करोगे? “

मनोज बोला, “हम लोग पहले भी ये सिचुएशन झेल चुके हैं. इस को हम पर छोड़ दो, हैंडल कर लेंगे.”

ट्रेन आने पर सभी कोच में जा बैठे. लेडीज कोटे में एक बुजुर्ग महिला भी थी. उस ने कहा, “तुम दोनों लड़के यहां नहीं बैठ सकते हो.”

सुनीता ने कहा, “आंटी, आप तो इधर की ही लगती हैं. आप को पता होगा इस पीरियड में यहां से दिल्ली स्टूडेंट्स जाते हैं और इतनी भीड़ में हमें एडजस्ट करना पड़ता है.”

“अच्छा ठीक है, चुपचाप बैठो. तुम लोग न खुद सोते हो और न औरों को सोने देते हो.”

थोड़ी देर में टीटी आया. टिकट चेक करने के बाद उस ने लड़कों से कुछ कड़ी आवाज में कहा, “तुम लोग यहां नहीं बैठ सकते हो. एक तो वेटिंग की टिकट और ऊपर से लेडीज कोटा में आ बैठो हो. अगले स्टेशन गोमो में तुम लोग उतर जाना.”

मनोज बोला, “शायद आप हमें नहीं जानते. आप का बेटा भी अगले साल दिल्ली जाएगा पढ़ने. उस की ऐसी रैगिंग करूंगा कि वह रोते हुए वापस इसी ट्रेन से धनबाद आएगा. बाकी आप की मरजी.”

टीटी ने कहा, “तुम लोग तो गजब ही हो. जो चाहे करो, पर मैं तो मुगलसराय में उतर जाऊंगा. उस के बाद तुम जानो.”

“आगे भी हम देख लेंगे. पर, आप अपने रिलीवर को भी हमें तंग न करने को कह देते तो अच्छा होता.”

सुबह के 7 बजे ट्रेन मुगलसराय पहुंची. वहां ट्रेन कुछ देर रुकती है. रोहित और मनोज दोनों प्लेटफार्म पर उतर कर टी स्टाल पर सिगरेट पी रहे थे. उन्हें देख सुनीता और मनीषा भी उतर गईं. सुनीता ने मनीषा से कहा, “चल, 1-2 फूंक हम भी मार लेते हैं.”

दोनों उन के निकटआईं. सुनीता बोली, “क्या अकेलेअकेले पी रहे हो?“

“आओ, तुम भी पीओ,” मनोज ने कहा और चाय वाले से 2 कप चाय ले कर उन की ओर बढ़ा दिया.

सुनीता बोली, “और सिगरेट? “

मनोज ने अपना सिगरेट बढ़ाते हुए कहा, “लो, दो कश तुम भी ले लो. अगर मनीषा को भी चाहिए तो…?“

“नहीं, मुझे नहीं चाहिए” मनीषा बोली.

सुनीता ने कहा, “मैं शेयर नहीं करूंगी. मुझे अलग से नया सिगरेट दो.”

मनोज ने उसे सिगरेट जला कर दिया. दोतीन कश लेने के बाद सुनीता ने सिगरेट फेंक कर उसे सैंडल से बुझा दिया.

यह देख कर मनोज बोला, “तुम्हें पीते देख कर यह नहीं लगा कि तुम पहली बार पी रही हो. फिर तुम ने नाहक ही मेरा सिगरेट बरबाद कर दिया.”

“पैसे चाहिए सिगरेट के?“

“तुम से बहस करना बेकार है.”

खैर, सभी वापस ट्रेन में जा बैठे. रात के करीब 9 बजे ट्रेन दिल्ली पहुंची. चारों एक टैक्सी में बैठे. मनीषा और सुनीता को उन के होस्टल में छोड़ मनोज और रोहित अपने होस्टल पहुंचे. चारों एक ही शहर और कालोनी के रहने वाले थे, इसलिए छुट्टियों में ट्रेन में आनाजाना अकसर साथ होता था.

मनोज और रोहित के ब्रांच अलग थे. मनीषा और सुनीता के कॉम्बिनेशन एक ही थे, इसलिए उन में कुछ दोस्ती थी. सुनीता नेचर से ज्यादा फ्रैंक और डोमिनेटिंग थी. किसी से अनचाहा एनकाउंटर होने से या कोई मनीषा को तंग करता तो वह मनीषा को प्रोटेक्ट किया करती थी. मनीषा अंतर्मुखी थी.

इसी तरह ये चारों कभी ट्रेन में मिलते, तो कभी किसी मौल या मल्टीप्लेक्स में तो देर तक आपस में बातें करते.

मनोज और मनीषा के स्वभाव में अंतर था, फिर भी दोनों एकदूसरे के करीब आए.

रोहित और मनोज दोनों ने बीटैक पूरा किया और मनीषा और सुनीता ने पीजी. मनोज ने नोएडा में नौकरी ज्वाइन किया.

मनोज और मनीषा ने मातापिता की मरजी के विरुद्ध कोर्ट मैरेज किया. रोहित और सुनीता उन की शादी में आए थे.

एक साल बाद दोनों अमेरिका चले गए. मनोज अपने जौब वीजा H 1 B पर गया था और मनीषा उस की आश्रित H 4 वीजा पर. कुछ दिनों बाद मनीषा को भी EAD मिला, जिस से वह भी नौकरी कर सकती थी. उस ने भी नौकरी ज्वाइन की. उन्हें 2 बेटियां थीं. मनीषा का काम वर्क फ्राम होम होता था. यह उस के लिए एक वरदान था, वह अपनी बेटियों का भी ध्यान रख सकती थी. उन दिनों रोहित और मनोज और सुनीता और मनीषा के बीच रेगुलर संपर्क बना रहा, विशेषकर मनीषा और सुनीता के बीच.

इधर रोहित और सुनीता दोनों ने पुणे में नौकरी ज्वाइन किया. कुछ महीने बाद दोनों की शादी हुई. इस शादी में उन के मातापिता की सहमति थी. कुछ दिनों के बाद रोहित और सुनीता कनाडा चले गए. यहां भी मनीषा और सुनीता के बीच अच्छा संपर्क बना रहा.

इधर कुछ समय से मनीषा और मनोज के रिश्ते में कुछ खटास आने लगी थी. मनोज रोज रात को शराब पीता और मनीषा को भी पीने को कहता. पर मनीषा ने उस के लाख कहने के बावजूद शराब को होठों से नहीं लगाया. इस के चलते मनोज उस से बहुत नाराज रहता. कभीकभी वह गालीगलौज पर भी उतर आता. धीरेधीरे उन के बीच कड़वाहट बढ़ती गई, पर मनीषा ने अपना दुख सुनीता के सामने जाहिर नहीं किया.

एक बार तो मनोज ने मनीषा पर हाथ तक उठा दिया था. इसी तरह लड़तेझगड़ते करीब 10 साल गुजर गए.

एक बार जब मनीषा और सुनीता वीडियो चैट कर रही थीं, उसी बीच मनोज ने कालबेल बजाया. मनीषा को दरवाजा खोलने में कुछ वक्त लगा. उस ने फोन हाथ में लिए दरवाजा खोला. दरवाजा खुलते ही मनोज उस पर गरज पड़ा, “बिच, तुम को डोर खोलने में इतना टाइम क्यों लगा?“

मनीषा ने झट से फोन काट दिया. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और सुनीता को मामला समझने में देर नहीं लगी.

सुनीता के मन में अपनी सहेली के लिए चिंता हुई. कुछ दिनों बाद वह खुद मनीषा से मिलने अमेरिका आई. वह दो दिनों तक रही. इस बीच मनीषा और मनोज में बातचीत हां, नहीं या यस, नो तक सिमट कर रह गई थी.

जब मनोज औफिस गया था और बच्चे स्कूल, तब सुनीता ने मनीषा से पूछा, “मनोज आजकल कुछ नाराज दिख रहा है. कुछ खास बात है तो मुझे बताओ.“

“नहीं, कुछ ख़ास नहीं. कल से ही हम दोनों एकदूसरे से नाराज हैं और बातचीत करीब बंद है. फिर अपने ही एकदो दिन में ठीक हो जाएगा.“

“आर यू श्योर ? तुम कहो तो मैं मनोज से कुछ बात करूं? “

“नहींनहीं, इस की जरूरत नहीं है. कहीं ऐसा न हो बात और बिगड़ जाए. मैं मैनेज कर लूंगी.“

“ओके. फिर भी देखना, जरूरत पड़ने पर मैं या रोहित अगर तुम्हारे कुछ काम आ सके तो बहुत खुशी होगी हमें.“

सुनीता कनाडा लौट आई. उस ने रोहित को मनोज और मनीषा के बारे में बताया. सुनीता बोली, “मैं मनीषा को बहुत पहले से और अच्छी तरह जानती हूं. वह अंतर्मुखी है, अपने मन की बात जल्द किसी को नहीं बताती है. रोहित क्या हमें उस की मदद नहीं करनी चाहिए.“

“जरूर करनी चाहिए बशर्ते वह मदद मांगे. मियांबीवी के बीच में यों ही दखल देना ठीक नहीं है. फिलहाल लेट अस वेट एंड वाच.“

कुछ दिनों बाद सुनीता ने मनीषा को फोन किया. फोन उस की बेटी ने उठाया. सुनीता को बेटी की आवाज सुनाई पड़ी, “मम्मा, सुनीता आंटी का फोन है. क्या बोलूं ?”

‘बोल दे, मम्मा अभी सो रही है.“

सुनीता ने फोन काट दिया. उसे दाल में कुछ काला लगा. एक तो यह उस के सोने का टाइम नहीं था और दूसरे मनीषा की आवाज रोआंसी थी. उस ने समझ लिया कि जरूर आज फिर मनीषा के साथ कुछ बुरा घटा होगा.

रोहित कभी मनोज को फोन करता, तो रोहित महसूस करता कि उसे बातचीत करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. थोड़ी देर इधरउधर की बात कर मनोज कहता, ‘और सब ठीक है, बाद में बात करते हैं,’ पर मनोज कभी काल नहीं करता था, बल्कि रोहित ही 10 – 15 दिनों में एक बार हालचाल पूछ लेता.

कुछ दिनों बाद एक बार सुनीता ने मनीषा को फोन कर पूछा, “कैसी हो मनीषा? तुम तो खुद कभी फोन करती नहीं हो.“

“क्या कहूं…? बस जीना एक मजबूरी हो गई है, इसलिए जिए जा रही हूं.“

“ऐसा क्यों बोल रही हो? अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है? अभी आगे बहुत लंबी जिंदगी पड़ी है. सुखदुख तो आतेजाते रहते हैं.“

“दुख हो तो झेल लूं, पर मेरा जीवन नासूर बन गया है सुनीता,“ मनीषा ने कहा.

“ऐसी कोई बात नहीं. आजकल हर ज़ख्म का इलाज है. तू बोल तो सही.“

मनीषा को कुछ देर खामोश देख कर सुनीता बोली, “तुम चुप क्यों हो गई हो? जब तक बोलोगी नहीं, मुझे तेरी तकलीफ का कैसे पता चलेगा. वैसे, मुझे कुछ अहसास है कि मनोज तुम्हें जरूरत से ज्यादा तंग करता है.“

मनीषा ने सिसकते हुए कहा, “2-2 बेटियां हैं, उन के लिए जीना मेरी मजबूरी है. पहले बात सिर्फ गालीगलौज तक रहती थी, अब तो अकसर बेटियों के सामने हाथ भी उठा देता है. वह भी बिना वजह.“

“आखिर वह चाहता क्या है? “

“तू तो जानती है, मेरा जौब वर्क फ्रॉम होम होता है. मुझे घर से बाहर ज्यादा जाने की जरूरत नहीं पड़ती है. मुझे ज्यादा तामझाम पसंद नहीं है.“

“तो इस से क्या हुआ?“

“मनोज को चाहिए कि मैं भी जींसशॉर्ट्स पहनूं, स्विमिंग सूट पहन कर स्विम करूं, उस के और उस के दोस्तों के साथ शराब पीऊं और डांस करूं. मुझ से यह सब नहीं होगा. उस के साथ कहीं पार्टी में जाती हूं, तो मैं अपने इंडियन ड्रेस में होती हूं.“

“इस में गलत क्या है, इस के लिए कोई तुम्हें फोर्स नहीं कर सकता है.“

“यह सब किताबों की बात है, प्रैक्टिकल लाइफ में नहीं. अब मनोज को साथ काम करने वाली शादीशुदा क्रिश्चियन औरत अमांडा मिल गई है, जो उस की मनपसंद है. कभी वह घर आती है तो उस के सामने भी मेरा अपमान करता है.“

“तो तुम बरदाश्त क्यों करती हो?“

“नहीं करूं तो रोज मार खाऊं? “

“तुम अमेरिका में रह कर ऐसी बात करती हो? एक काल 911 को कर, उस की सारी हेकड़ी निकल जाएगी.“

“नहीं, मुझ से नहीं होगा.“

“तो तू मर घुटघुट के,“ बोल कर सुनीता ने गुस्से में फोन काट दिया.

इस के कुछ ही दिनों के बाद सुनीता और रोहित अमेरिका गए. वे दोनों दूसरे शहर में होटल में रुके थे. सुनीता ने मनीषा को फोन किया. मनीषा का फोन बेडरूम में था. उस की बड़ी बेटी वहीं थी. उस ने कहा, “वन मिनट, मैं मम्मा को देती हूं.“

फोन वीडियो काल था. बेटी फोन लिए लिविंग रूम में आई, जहां मनोज और अमांडा शराब पी कर म्यूजिक पर डांस कर रहे थे. मनीषा मनोज को अमांडा को घर से बाहर निकालने के लिए बोल रही थी. इस पर मनोज मनीषा को गालियां दे रहा था और बोल रहा था, “यह नहीं जाएगी. तुझे जाना होगा,“ बोल कर वह मनीषा को घसीटने लगा. अमांडा भी उस का साथ दे रही थी. मनीषा को दरवाजे के बाहर निकाल कर मनोज ने दरवाजा बंद कर दिया. उधर सुनीता यह सब देख रही थी और रिकौर्ड कर रही थी.

सुनीता को यह सब सहन नहीं हुआ. उस ने फोन काट दिया और तुरंत 911 पर काल कर पूरी बात बता दी. कुछ ही मिनटों के अंदर मनीषा के घर पुलिस पहुंच गई, “यहां मनीषा कौन है?“

“मैं ही हूं. क्या बात है?“

“हमें सुनीता ने फोन कर आप की मदद करने के लिए कहा है. वैसे, सुनीता ने वीडियो क्लिप भी भेजी है. आप अपना स्टेटमेंट रिकौर्ड करवा दें. मनोज कौन है?“

“वे मेरे पति हैं और अंदर हैं.“

पुलिस के बेल दबाने पर मनोज ने दरवाजा खोला, तो उसे देख कर हक्काबक्का रह गया. पुलिस ने कहा, “आप को मेरे साथ थाने चलना होगा.“

मनोज को पुलिस ले गई. सुनीता ने फोन पर मैसेज भेजा था, “तुम दोनों बेटियों के साथ कनाडा आ जाओ. वहां से अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करना.“

राहुल बड़ा हो गया है: क्या मां समझ पाई

अमित से मैं अकसर इस बात पर उलझ पड़ती हूं कि राहुल अभी छोटा है. वह कभी हंस देते हैं, कभी झुंझला उठते हैं कि इतना छोटा भी नहीं है जितना तुम समझती हो.

अमित कहते हैं, ‘‘14 साल पूरे करने वाला है और तुम उसे छोटा ही कहती हो. मैं तो समझता हूं कि कल को उस के बच्चे भी हो जाएंगे तब भी राहुल तुम्हें छोटा ही लगेगा.’’

मैं इस तरह की बातें अनसुनी करती रहती हूं. बेटी मिनी, जो 16 की हुई है, वह भी अपने पापा के सुर में सुर मिलाए रखती है. वह भी यही कहती है, ‘‘छोटा है, हुंह, स्कूल में इस की मस्ती देखो तो आप को पता चलेगा कि यह कितना छोटा है.’’

मैं कहती हूं, ‘‘तो क्या हुआ, छोटा है तो मस्ती तो करेगा ही,’’ मतलब मेरे पास इन दोनों की हर बात का यही जवाब होता है कि राहुल अभी छोटा है. यह तो शुक्र है कि राहुल ने बहुत तेज दिमाग पाया है. कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान प्राप्त करता है. खेलकूद में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. जिस में भाग लेता है उसी में प्रथम स्थान प्राप्त करता है. यहीं पर अमित उस से बहुत खुश हो जाते हैं नहीं तो उसे मेरा छोटा कहना दोनों बापबेटी के लिए अच्छाखासा मनोरंजन का विषय रहता है. अब मैं क्या करूं, अगर वह मुझे छोटा लगता है. वैसे भी सुना है कि मां के लिए बच्चे हमेशा छोटे ही रहते हैं.

ठीक है, उस का कद मुझे पार कर गया है. मैं जो अच्छीखासी लंबी हूं, राहुल के कंधे पर आने लगी हूं. उस की हर समय खेलकूद की बातें, उस के चेहरे पर रहने वाली भोली सी मुसकराहट, बस, मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न घर में सब को पार करता उस का कद, न उस के होंठों के ऊपर हलकी सी उभरती मूंछों की कालिमा.

अभी एक हफ्ते पहले मैं ने राहुल का एक दूसरा ही रूप देखा जिसे देख कर मैं ने भी महसूस किया कि राहुल बड़ा हो गया है.

मेरी तबीयत अकसर ठीक नहीं रहती है. कभी कुछ, कभी कुछ, लगा ही रहता है. पिछले हफ्ते की बात है. एक दिन घर का सामान लेने बाजार जाना था. मेरी तबीयत सुबह से ही कुछ सुस्त थी. अमित टूर पर थे, मिनी की परीक्षाएं चल रही थीं. सामान जरूरी था, अत: राहुल और मैं शाम को 4 बजे के आसपास बाजार चले गए. यहां मुंबई में किसी भी दिन किसी भी समय कहीं भी चले जाइए भीड़ ही भीड़, लोग ही लोग. कोई कोना खाली नहीं दिखता.

मुंबई आए 7 साल होने को हैं लेकिन आज भी बाहर निकलती हूं तो हर तरफ भीड़ देख कर जी घबरा जाता है. साधारण हाउसवाइफ हूं, बाहर अकेले कम ही निकलती हूं.

खैर, उस दिन बाजार में सामान लेतेलेते एक जगह सिर बहुत भारी लगने लगा. अचानक ही मुझे तेज चक्कर आया और मैं पसीनेपसीने हो उठी. साथ ही पेट के अंदर कमर के पास तेज दर्द शुरू हो गया. राहुल मेरी हालत देख कर घबरा उठा. मैं ने उसे अपना पर्स व सामान थमाया और इतना ही कहा, ‘‘राहुल, तुरंत डाक्टर के पास चलो.’’

राहुल ने तुरंत आटो बुलाया और मुझे उस में बैठा कर मेरे फैमिली डाक्टर के नर्सिंग होम पहुंचा. रास्ते में मैं ने उसे मिनी को फोन कर के बताने को कहा. डाक्टर ने पहुंचते ही मेरा चेकअप किया और बताया, ‘‘ब्लडप्रेशर बहुत हाई है. मुझे कुछ टेस्ट करने हैं. दर्द के लिए इंजेक्शन दे रहा हूं, आज आप को यहां भरती होना पड़ेगा.’’

मैं यह सोच कर परेशान हो गई कि अमित शहर में नहीं हैं और परीक्षा की तैयारी में व्यस्त मिनी घर पर अकेली है.

मैं अपनी परेशान हालत में कुछ और सोचती इस से पहले ही राहुल बोल उठा, ‘‘अंकल, मम्मी आज यहीं रुक जाएंगी. मैं सब देख लूंगा,’’ आगे मुझ से बोला, ‘‘आप बिलकुल किसी बात की चिंता मत करो, मम्मी. मैं यहीं हूं, मैं हर बात का ध्यान रखूंगा.’’

दर्द से तड़पती मैं उस हाल में भी गर्वित हो उठी यह सोच कर कि मेरा छोटा सा बेटा कैसे मेरी देखभाल के लिए तैयार है. दर्द से मेरी जान निकल रही थी. शायद इंजेक्शन से थोड़ी देर में मुझे नींद भी आ गई. इस बीच राहुल ने मिनी को फोन कर के कुछ पैसे और मेरे लिए खाने को कुछ लाने के लिए कहा.

रात 8 बजे मेरी आंख खुली, तो देखा, दोनों बच्चे मेरे सामने चुपचाप उदास बैठे थे. मन हुआ उठ कर दोनों को अपने सीने से लगा लूं. दर्द खत्म हो चुका था, कमजोरी बहुत महसूस हो रही थी.

मैं बच्चों से बोली, ‘‘अब मैं ठीक हूं. तुम लोग अब घर चले जाओ, रात हो गई है.’’

मैं ने अपनी 2-3 सहेलियों के नाम ले कर कहा, ‘‘उन लोगों को बता दो, उन में से कोई एक यहां रुक जाएगा रात को.’’

मैं आगे कुछ और कहती, इस से पहले ही राहुल बोल उठा, ‘‘नहीं, मम्मी, जब मैं यहां हूं और किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. आप देखना, मैं आप का अच्छी तरह ध्यान रखूंगा. मिनी दीदी, आप जाओ, आप के पेपर हैं. मम्मी और मैं सुबह आ जाएंगे.’’

राहुल आगे बोला, ‘‘हां, एक बात और मम्मी, हम पापा को नहीं बताएंगे. वह टूर पर हैं, परेशान हो जाएंगे. वैसे भी 2 दिन बाद तो वह आ ही जाएंगे.’’

मैं अपने छोटे से बेटे का यह रूप देख कर हैरान थी. मिनी को हम ने समझा कर घर भेज दिया. वैसे भी वह एक समझदार लड़की है. राहुल ने अपने हाथों से मुझे थोड़ा खाना खिलाया और कुछ खुद भी खाया. मेरे राहुल ने कितनी देर से कुछ भी नहीं खाया था, सोच कर मैं लेटेलेटे दुखी सी हो गई.

कुछ दवाइयों का असर था शायद मैं फिर सो गई लेकिन रात को मैं ने जितनी बार आंखें खोलीं, राहुल को बराबर के बेड पर जागते ही पाया. सुबह मुझे पता चला कि किडनी में पथरी का दर्द था. खैर, उस का इलाज तो बाद में होना था. ब्लडप्रेशर सामान्य था.

अब मैं डाक्टर की हिदायतों के बाद घर जाने को तैयार थी. डाक्टर से दवाई समझता, सब बिल चुकाता, एक हाथ से मेरा हाथ, दूसरे में मेरा पर्स और बैग थामता राहुल आज मुझे सच में बड़ा लग रहा था.

एक अधूरा लमहा: क्या पृथक और संपदा के रास्ते अलग हो गए?

जिंदगी ट्रेन के सफर की तरह है, जिस में न जाने कितने मुसाफिर मिलते हैं और फिर अपना स्टेशन आते ही उतर जाते हैं. बस हमारी यादों में उन का आना और जाना रहता है, उन का चेहरा नहीं. लेकिन कोई सहयात्री ऐसा भी होता है, जो अपने गंतव्य पर उतर तो जाता है, पर हम उस का चेहरा, उस की हर याद अपने मन में संजो लेते हैं और अपने गंतव्य की तरफ बढ़ते रहते हैं. वह साथ न हो कर भी साथ रहता है.

ऐसा ही एक हमराही मुझे भी मिला. उस का नाम है- संपदा. कल रात की फ्लाइट से न्यूयौर्क जा रही है. पता नहीं अब कब मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं. मैं नहीं चाहता कि वह जाए. मुझे पूरा यकीन है कि वह भी जाना नहीं चाहती. लेकिन अपनी बेटी की वजह से जाना ही है उसे. संपदा ने कहा था कि पृथक, अकेले अभिभावक की यही समस्या होती है. फिर टिनी तो मेरी इकलौती संतान है. हम एकदूसरे के बिना नहीं रह सकते. हां, एक वक्त के बाद वह अकेले रहना सीख जाएगी. इधर वह कुछ ज्यादा ही असुरक्षित महसूस करने लगी है. पिछले 2-3 सालों में उस में बहुत बदलाव आया है. यह बदलाव उम्र का भी है. फिर भी मैं यह नहीं चाहती कि वह कुछ ऐसा सोचे या समझे, जो हम तीनों के लिए तकलीफदेह हो.

मैं उसे देखता रहा. पिछले 2 सालों से उस में बदलाव आया है यानी जब से मैं संपदा से मिला हूं. हो सकता है कि उस की बात का मतलब यह न हो, पर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, दुख हुआ.

संपदा ने मेरा चेहरा पढ़ लिया, ‘‘पृथक, तुम्हें छोड़ कर जाने से मैं बिलकुल अकेली हो जाऊंगी, इस का दुख मुझे भी है पर अब मेरे लिए टिनी का भविष्य ज्यादा जरूरी है.’’

‘‘टिनी होस्टल में भी रह सकती है… तुम्हारा जाना जरूरी है?’’ मैं ने संपदा का हाथ पकड़ते हुए कहा था. उस की भी आंखें देख कर मुझे खुद पर गुस्सा आ गया था. मनुष्य का मन चुंबक के समान है और वह अपनी इच्छित वस्तु को अपनी ओर आकर्षित कर उसे प्राप्त कर लेना चाहता है. परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों.

मैं कितना स्वार्थी हो गया हूं. वैसे भी मैं उसे किस हक से रोक सकता हूं? सब कुछ होते हुए भी वह मेरी क्या है? आज समझ में आ रहा है. हमदोनों की एकदूसरे की जिंदगी में क्या जगह है? दोनों के रिश्ते का दुनिया की नजर में कोई नाम भी नहीं है. समाज को भी रिश्तों में खून का रंग ज्यादा भाता है. अनाम रिश्तों में प्रेम के छींटे समाज नहीं देख पाता. अगर मेरी बेटी को जाना होता पढ़ने, तो मैं क्या करता? मैं उसे आसपास के शहर में भी नहीं भेज पाता.

मुझे चुप देख कर संपदा ने नर्म स्वर में कहा, ‘‘हमें अच्छे और प्यारे दोस्तों की तरह अलग होना चाहिए. इन 2 सालों में तुम ने बहुत कुछ किया है मेरे लिए… तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता है. तुम समझ सकते हो मुझे कैसा लग रहा होगा… तुम भी ऐसे उदास हो जाओगे…’’ उस के चेहरे पर उदासी छा गई.

कितनी जल्दी रंग बदलती है उस के चेहरे की धूप… रंग ही बदलती है, साथ नहीं छोड़ती. अंधेरे को नहीं आने देती अपनी जगह.

मैं उसे उदास नहीं देख पाता. अत: मुसकराते हुए कहा, ‘‘दरअसल, बहुत प्यार करता हूं न तुम्हें… इसीलिए पजैसिव हो गया हूं और कुछ नहीं. तुम ने बिलकुल ठीक फैसला किया है. मैं तुम्हें जाने से रोक नहीं रहा. पर इस फैसले से खुश भी कैसे हो सकता हूं,’’ यह कह कर मैं एकदम से उठ कर अपने चैंबर में आ गया. अपने इस बरताव पर मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आया कि मुझे उसे दुखी नहीं करना चाहिए.

यह वही संपदा है, जिस ने अपनी प्रमोशन पिछली बार सिर्फ इसलिए छोड़ दी थी कि उसे मुझे से दूर दूसरे शहर में जाना पड़ रहा था और वह मुझे छोड़ कर नहीं जाना चाहती. तब मैं उसे जाने के लिए कहता रहा था. तब उस ने कहा था कि तुम्हें कहां पाऊंगी वहां?

जब मैं अपनी कंपनी की इस ब्रांच में आया था अच्छाभला था. अपने काम और परिवार में मस्त. घर में सारी सुखसुविधाएं, बीवी और 2 बच्चों का परिवार, जो अमूमन सुखी कहलाता है… सुखी ही था. मेरी कसबाई तौरतरीकों वाली बीवी, जो शादी के बाद से ही खुद को बदलने में लगी है, पता नहीं यह प्रक्रिया कब खत्म होगी? शायद कभी नहीं. बच्चे हर लिहाज से एक उच्च अधिकारी के बच्चे दिखते हैं. मानसिकता तो मेरी भी पूर्वाग्रहों से मुक्त न थी.

एक दिन आपस में लंच टाइम में बैठे न जाने क्यों एक लैक्चर सा दे दिया. स्त्रीपुरुष के विकास की चर्चा सुन कर मुझ से संपदा ने जो कहा उस ने मुझे काफी हद तक बदल दिया था.

उस ने कहा था, ‘‘विकास के नियम स्त्रीपुरुष दोनों के लिए अलग नहीं हैं. किंतु पुरुष अविकसित पत्नी के होते हुए भी अपना विकास कर लेता है. लेकिन अविकसित पति के संग रह कर स्त्री अपना विकास असंभव पाती है, क्योंकि वह उस की प्रतिभा को पहचान नहीं पाता और व्यर्थ की रोकटोक लगाता है, जिस से स्त्री का विकास बाधित होता है. कम विकसित व्यक्तित्व वाली स्त्री जब अधिक विकसित परिवार में जाती है, तो वह अनुकूल विवाह है यह व्यावहारिक है, क्योंकि वहां उस के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध नहीं होता. लेकिन ऐसा परिवार जो उस के व्यक्तित्व की अपेक्षा कम विकसित है, उस परिवेश में उस का व्यक्तिगत विकास अधिक संभव नहीं होता तो यह अनुकूल विवाह नहीं है. वहां स्त्री का दम घुट जाएगा. विकास से मेरा तात्पर्य बौद्धिक, मानसिक, आत्मिक विकास से है. यह आर्थिक विकास नहीं है. ज्यादातर आर्थिक समृद्धि के साथ आत्मिक पतन आता है. स्त्री शक्ति है. वह सृष्टि है, यदि उसे संचालित करने वाला व्यक्ति योग्य है. वह विनाश है, यदि उसे संचालित करने वाला व्यक्ति अयोग्य है. इसीलिए जो मनुष्य स्त्री से भय खाता है वह अयोग्य है या कायर और दोनों ही व्यक्ति पूर्ण नहीं हैं…’’

मैं उस का मुंह देखता रह गया. मैं ने तो बड़े जोर से उसे इंप्रैस करने के लिए बोलना शुरू किया था पर उस के अकाट्य तर्कसंगत सत्य ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था. वह बिलकुल ठीक थी. कितनी अलग लगी थी संपदा ऐसी बातें करते हुए? पहले मैं क्याक्या सोचता था उस के बारे में.

इस औफिस में पहले दिन संपदा को देखा तो आंखों में चमक आ गई थी. चलो रौनक तो है. तनमन दोनों की सेहत ठीक रहेगी. पहले दिन तो उस ने देखा तक नहीं. बुझ सा गया मैं. फिर ऐसी भी क्या जल्दी है सोच कर तसल्ली दी खुद को. उस के अगले दिन फौर्मल इंट्रोडक्शन के बीच हाथ मिलाते हुए बड़ी प्यारी मुसकान आई थी उस के होंठों पर. देखता रह गया मैं. कुल मिला कर इस नतीजे पर पहुंचा कि मस्ती करने के लिए बढि़या चीज है. औफिस में खासकर मर्दों में भी उस के लिए कोई बहुत अच्छी राय नहीं थी. वह उन्हें झटक जो देती थी अपने माथे पर आए हुए बालों की तरह. खैर, कभीकभी की हायहैलो गुड मौर्निंग में बदली.

एक दिन उस ने ही चाय के लिए कहा. उसी के चैंबर में बैठे थे हम. मुझे बात बनती सी नजर आई. कई बातें हुईं पर मेरे मतलब की कोई नहीं हुई.

आगे चल कर चायकौफी का दौर जब बढ़ गया तो वैभव ने कहा कि तुम्हारी बात सिर्फ चाय तक ही है या आगे भी बढ़ी? मैं ने एक टेढ़ी सी स्माइल दी और खुद को यकीन दिलाया कि मैं उसे कुछ ज्यादा ही पसंद हूं. कभी कोई कहता कि सिगरेटशराब पीती है, तो कोई कहता ढेरों मर्द हैं इस की मुट्ठी में, तो कोई कहता कि देखो साड़ी कहां बांधती है? सैंसर बोर्ड इसे नहीं देखता क्या? जवाब आता कि इसे जीएम देखता है न.

ऐसी बातें मुझे उत्तेजित कर जातीं. कब वह आएगी मेरे हाथ? और तो और अब तो मुझे अपनी बीवी के सारे दोष जिन्हें मैं भूल चुका था या अपना चुका था, शूल की भांति चुभने लगे. उसे देखता तो लगता कैक्टस पर पांव आ पड़ा है. क्यों कभीकभी लगता है जिसे हम सुकून समझे जा रहे थे वह तो हम खुद को भुलावा दे रहे थे. कभी अचानक सुकून खुद कीमत बन जाता है सुख की… हर चीज की एक कीमत जरूर होती है.

ये बीवियां ऐसी क्यों होती हैं? कितना फर्क है दोनों में? वह कितनी सख्त दिल और संपदा कितनी नर्म दिल. वह किसी शिकारी परिंदे सी चौकस और चौकन्नी… और संपदा नर्मनाजुक प्यारी मैना सी. कोई खबर रखने की कोशिश नहीं करती कि कहां क्या हो रहा है, कोई उस के बारे में क्या कह रहा है.

संपदा की फिगर कमाल की है. और पत्नी को लाख कहता हूं ऐक्सरसाइज करने को, पर नहीं. कैसी लगेगी वह नीची साड़ी में? उस की कमर तोबा? शरीर में कोई कर्व ही नहीं है, परंतु इस के बाद भी घर में मेरा व्यवहार ठीक रहा. कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया.

एक दिन संपदा ने पूछ ही लिया परिवार के बारे में. मैं ने बताया बीवी के अलावा 1 बेटा और 1 बेटी है. तब उस ने भी बताया कि उस की भी 1 बिटिया है, टिनी नाम है. पति के बारे में उस ने न तो कुछ बताया और न ही मैं ने कुछ पूछा. पूछ कर मूड नहीं खराब करना चाहता था. हो सकता है कह देती कि मैं आज जो कुछ हूं उन्हीं की वजह से हूं या बहुत प्यार करते हैं मुझे. उन के अलावा मैं कुछ सोच भी नहीं सकती. अमूमन बीवियां या पति भी यही कहते हैं. हां, अगर वह ऐसा कह देती तो यह जो थोड़ीबहुत नजदीकी बढ़ रही है वह भी खत्म हो जाती.

लेकिन उस से बात करने के बाद, उसे जानने के बाद एक बात हुई थी. वह मुझे कहीं से भी वैसी नहीं लग रही थी जैसा सब कहते थे. पहली बार लगा संपदा मेरे लिए जिस्म के अलावा कुछ और भी है. क्या मेरी राय बदल रही थी?

औफिस की ओर से न्यू ईयर पार्टी रखी गई थी. संपदा गजब की सुंदर लग रही थी. लो कट ब्लाउज के साथ गुलाबी शिफौन की साड़ी पहनी थी. उस ने जिन भी पी थी शायद. मेरी सोच फिर डगमगा सी गई. अजीब सी खुशी भी हो रही थी. एक उत्तेजना भी थी. यह तो बहुत बाद में जाना कि डांस करने, हंसने, पुरुषों से हाथ मिलाने से औरत बदचलन नहीं हो जाती, अगली सुबह संपदा फिर वैसी की वैसी. पहले जैसी थोड़ी सोबर, थोड़ी चंचल.

चाय पीते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘कल तुम बहुत खूबसूरत लग रही थीं. मैं ने पहली बार किसी औरत को इतना खुल कर हंसते व डांस करते देखा था. कुछ खास है तुम में.’’

उस ने आंखें फैलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें डांस करते हुए ग्रेसफुल लगी? वैरी स्ट्रेज, बट दिस इज ए नाइस कौंप्लिमैंट. मैं तो उम्मीद कर रही थी कि आज सुनने को मिलेगा जानेमन कल बहुत मस्त लग रही थी या क्या चीज है यार यह औरत भी?’’

उस की हंसी नहीं रुक रही थी. अब मैं कैसे कहूं कि मैं भी उन्हीं मर्दों में से एक था. चीज तो मैं भी कहता था उसे.

अगले हफ्ते उस ने टिनी के जन्मदिन पर बुलाया था.

‘‘सुनो, मैं ने सिर्फ तुम्हें ही बुलाया है. मेरा मतलब औफिस में से.’’

मेरी उत्सुकता चौकन्नी हो गई थी. उस की चमकती आंखों में क्या था, मेरे प्रति भरोसा या कुछ और? क्यों सिर्फ मुझे ही बुलाया है? उसे ले कर वैभव से झगड़ा भी कर लिया था.

‘‘क्यों, पटा लिया तितली को?’’ कितने गंदे तरीके से कहा था उस ने.

‘‘किस की और क्या बात कर रहे हो?’’

‘‘उस की, जिस से आजकल बड़ी छन रही है. वही जिस ने सिर्फ तुम्हें दावत दी है. गजब की चीज है न.’’

बस बात बढ़ी और अच्छेखासे झगड़े में बदल गई. मैं यह सब नहीं चाहता था न ही कभी मेरे साथ यह सब हुआ था. खुद पर ही शर्म आ रही थी मुझे. मैं सोचता रहा, हैरान होता रहा कि ये सब क्या हो गया? क्यों बुरा लगा मुझे? खैर, इन सारी बातों के बावजूद मैं गया था. उस ने बताया कि इस साल टिनी 15 साल की हो जाएगी. मेरी आंखों के सामने मेरी बेटी का चेहरा आ गया. वह भी तो इसी उम्र की है. मैं ने देखा टिनी की दोस्तों के अलावा मैं ही आमंत्रित था. अच्छा भी लगा और अजीब भी. थोड़ी देर बाद पूछा था मैं ने, ‘‘टिनी के पापा कहां हैं?’’

‘‘हम अलग हो चुके हैं. उन्होंने दूसरी शादी कर ली है. मैं अपनी बिटिया के साथ रहती हूं.’’

कायदे से, अपनी मानसिकता के हिसाब से तो मुझे यह सोचना चाहिए था कि तलाकशुदा औरत और ऐसे रंगढंग? कहीं कोई दुखतकलीफ नजर नहीं आती. ऐसे रहा जाता है भला? जैसे कि तलाकशुदा या विधवा होना कोई कुसूर हो जाता है और ऐसी औरतों को रोतेबिसूरते ही रहना चाहिए. लेकिन यह जान कर पहली बात मेरे मन में आई थी कि तभी इतना आत्मविश्वास है. आज के वक्त में अकेले रह कर अपनी बच्ची की इतनी सही परवरिश करना वाकई सराहनीय बात है. वह मुझे और ज्यादा अच्छी लगने लगी, बल्कि इज्जत करने लगा मैं उस की. एक और बात आई मन में कि ऐसी खूबसूरत और अक्लमंद बीवी को छोड़ने की क्या वजह हो सकती है?

अब मैं उस के अंदर की संपदा तलाशने में लग गया. उस के जिस्म का आकर्षण खत्म तो नहीं हुआ था, पर मैं उस के मन से भी जुड़ने लगा था. मेरी आंखों की भूख, मेरे जिस्म की उत्तेजना पहले जैसी नहीं रही. हम काफी करीब आते गए थे. मैं कभीकभी उस के घर भी जाने लगा था. उस ने भी आना चाहा था पर मैं टालता रहा. अब उसे ले कर मैं पहले की तरह नहीं सोचता था. मैं उसे समझना चाहता था.

एक शाम टिनी का फोन मोबाइल पर आया,  ‘‘अंकल, मां को बुखार है, आप आ सकते हैं क्या?’’

कई दिन लग गए थे उसे ठीक होने में. मैं ने उस की खूब देखभाल की थी और वह मना भी नहीं करती थी. हम दोनों को ही अच्छा लग रहा था. इस दौरान मैं ने कितनी बार उसे छुआ. दवा पिलाई, सहारा दे कर उठायाबैठाया पर मन बिलकुल शांत रहा.

एक दिन चाय पी कर एकदम मेरे पास बैठ गई. उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कंधे से सिर टिका कर बैठ गई. मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. कभी उस का हाथ तो कभी बाल सहलाता रहा. यह बड़ी स्निग्ध सी भावना थी. तभी मैं उठने लगा तो वह लिपट गई मुझ से. पिंजरे से छूटे परिंदे की तरह. एक अजीब सी बेचैनी दोनों महसूस कर रहे थे. मैं ने मुसकरा कर उस का चेहरा अपने हाथों में लिया और कुछ पल उसे यों ही देखता रहा और फिर धीरे से उसे चूम लिया और घर आ गया.

मैं बदल गया था क्या? सारी रात सुबह के इंतजार में काट दी. सुबह संपदा औफिस आई. बदलीबदली सी लगी वह. कुछ शरमाती सी, कुछ ज्यादा ही खुश. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि उस के मन की कोमल जमीन को छू लिया है मैं ने. मुझे समझ में आ रही थी यह बात, यह बदलाव. उस से मिल कर मैं ने यह भी जाना था कि कोई भी रिश्ता मन की जमीन पर ही जन्म लेता और पनपता है. सिर्फ देह से देह का रिश्ता रोज जन्म लेता है और रोज दफन भी हो जाता है. रोज दफनाने के बाद रोज कब्र में से कोई कब तक निकालेगा उसे. इसलिए जल्द ही खत्म हो जाता है यह…

कितनी ठीक थी यह बात, मैं खुद ही मुग्ध था अपनी इस खोज से. फिर मन से जुड़ा रिश्ता देह तक भी पहुंचा था. कब तक काबू रखता मैं खुद पर. अब तो वह भी चाहती थी शायद… स्त्री को अगर कोई बात सब से ज्यादा पिघलाती है, तो वह है मर्द की शराफत. हां, अपनी जज्बाती प्रकृति के कारण कभीकभी वह शराफत का मुखौटा नहीं पहचान पाती.

उस का बदन तो जैसे बिजलियों से भर गया था. अधखुली आंखें, तेज सांसें, कभी मुझ से लिपट जाती तो कभी मुझे लिपटा लेती. यहांवहां से कस कर पकड़ती. संपदा जैसे आंधी हो कोई या कि बादलों से बिजली लपकी हो और बादलों ने झरोखा बंद कर लिया हो अपना, आजाद कर दिया बिजली को. कैसे आजाद हुई थी देह उस की. कोई सीपी खुल गई हो जैसे और उस का चमकता मोती पहली बार सूरज की रोशनी देख रहा हो. सूरज उस की आंखों में उतर आया और उस ने आंखें बंद कर लीं. जैसे एक मोती को प्रेम करना चाहिए वैसे ही किया था मैं ने. धीरेधीरे झील सी शांत हो गई थी वह. पर मैं जानता था कि वह अब इतराती रहेगी, कैद नहीं रह सकती…

इस वक्त तो मुझे खुश होना चाहिए था कि संपदा की देह मेरी मुट्ठी में है. उस के जिस्म की सीढि़यां चढ़ कर जीत हासिल की थी. ये मेरे ही शब्द थे शुरूशुरू में. पर नहीं, कुछ नहीं था ऐसा. संपदा बिलकुल भी वैसी नहीं थी. जैसा उस के बारे में कहा जाता था. यह रिश्ता तो मन से जुड़ गया था. मैं सोच रहा था कि क्यों पुरुष सुंदर औरत को कामुक दृष्टि से ही देखता है और जब स्त्री उन नजरों से बचने के लिए खुद को आवरण के नीचे छिपा लेती है तब वही पुरुष समाज उसे पा न सकने की कुंठा में कैसेकैसे बदनाम करता है. संपदा के साथ भी यही हुआ था. पर जब मैं ने उस के भीतर छिपी सरल, भोली और पवित्र औरत को जाना तब मैं मुग्ध था और अभिभूत भी…

संपदा ने धीरे से कहा, ‘‘अब तक तो खुले आसमान के नीचे रह कर भी उम्रकैद भुगत रही थी मैं. सारी खुशियां, सारी इच्छाएं इतने सालों से पता नहीं देह के किस कोने में कैद थीं? तुम्हारा ही इंतजार था शायद…’’

और यही संपदा जिस ने मुझे सिखाया कि दोस्ती के बीजों की परवरिश कैसे की जाती है वह जा रही थी.

उसी ने कहा था कि इस परवरिश से मजबूत पेड़ भी बनते हैं और महकती नर्मनाजुक बेल भी.

‘‘तो तुम्हारी इस परवरिश ने पेड़ पैदा किया या फूलों की बेल?’’ पूछा था मैं ने.

यही संपदा जो मेरे वक्त के हर लमहे में है. अब नहीं होगी मेरे पास. उस के पास आ कर मैं ने मन को तृप्त होते देखा है… मर्द के मन को देह कैसे आजाद होती है जाना… पता चला कि मर्द कितना और कहांकहां गलत होता है.

मुझे चुपचुप देख कर उस की दोस्त मीता ने एक दिन कहा, ‘‘उस से क्यों कट रहे हो पृथक? उसे क्यों दुख पहुंचा रहे हो? इतने सालों बाद उसे खुश देखा तुम्हारी वजह से. उसे फिर दुखी न करो.’’

दोस्ती का बरगद बन कर मैं बाहर आ गया अपने खोल से. मैं ने ही उस का पासपोर्ट, वीजा बनवाया. मकान व सामान बेचने में उस की मदद की. ढेरों और काम थे, जो उसे समझ नहीं आ रहे थे कि कैसे होंगे. मुझे खुद को भी अच्छा लगने लगा. वह भी खुश थी शायद…

उस दिन हम बाहर धूप में बैठे थे. टिनी इधरउधर दौड़ती हुई पैकिंग वगैरह में व्यस्त थी. संपदा चाय बनाने अंदर चली गई. बाहर आई तो वह एक पल मेरी आंखों में बस गया. दोनों हाथों में चाय की ट्रे पकड़े हुए, खुले बाल, पीली साड़ी में बिलकुल उदास मासूम बच्ची लग रही थी, पर साथ ही खूबसूरत और सौम्य शीतल चांदनी के समान.

‘‘बहुत याद आओगे तुम,’’ चाय थमाते हुए वह बोली थी.

मैं मुसकरा दिया. वह भी मुसकरा रही थी पर आंखें भरी हुई थीं दर्द से, प्यार से… कई दिन से उस की खिलखिलाहट नहीं सुनी थी. अच्छा नहीं लग रहा था. क्या करूं कि वह हंस दे?

चाय पीतेपीते मैं बोला, ‘‘चलो संपदा छोटी सी ड्राइव पर चलते हैं.’’

‘‘चलो,’’ वह एकदम खिल उठी. अच्छा लगा मुझे.

‘‘टिनी, चलो घूमने चलें,’’ मैं ने उसे बुलाया.

‘‘नहीं, अंकल, आप दोनों जाएं. मुझे बहुत काम है… रात को हम इकट्ठे डिनर पर जा रहे हैं, याद है न आप को?’’

‘‘अच्छी तरह याद है,’’ मैं ने कहा. फिर देखा था कि वह हम दोनों को कैसे देख रही थी. एक बेबसी सी थी उस के चेहरे पर. थोड़ा आगे जाने पर मैं ने संपदा का हाथ अपने हाथ में लिया, तो वह लिपट कर रो ही पड़ी.

मैं ने गाड़ी रोक दी, ‘‘क्या हो गया संपदा?’’

उस के आंसू रुक ही नहीं रहे थे. फिर बोली, ‘‘मुझे लगा कि तुम अब अच्छी तरह नहीं मिलोगे, ऐसे ही चले जाओगे. नाराज जो हो गए हो, ऐसा लगा मुझे.’’

‘‘तुम से नाराज हो सका हूं मैं कभी? नहीं रानी, कभी नहीं,’’ मैं जब उसे बहुत प्यार करता था तो यही कह कर संबोधित करता था, ‘‘प्रेम में नाराजगी तो होती ही नहीं. हां, रुठनामनाना होता है. मैं क्या तुम से तो कोई भी नाराज नहीं हो सकता. हां, उदास जरूर होंगे सभी. जरा जा कर तो देखो दफ्तर में, बेचारे मारेमारे फिर रहे हैं.’’

वह मुसकरा दी.

‘‘अब अच्छा लग रहा है रोने के बाद?’’ मैं ने मजाक में पूछा तो वह हंस दी.

‘‘संपदा तुम ऐसे ही हंसती रह… बिलकुल सब कुछ भुला कर समझीं?’’

उस ने बच्ची की तरह हां में सिर हिलाया. फिर बोली, ‘‘और तुम? तुम क्या करोगे?’’

‘‘मैं तुम्हें अपने पास तलाश करता रहूंगा. रोज बातें करूंगा तुम से. वैसे तुम कहीं भी चली जाओ, रहोगी मेरे पास ही… मेरे दिल का हिस्सा हो तुम… मेरा आधा भाग… तुम से मिल कर मुझ में मैं कहां रहा? तुम मिली तो लगा अज्ञात का निमंत्रण सा मिला मुझे…’’

‘‘और क्या करोगे?’’

‘‘और परवरिश करता रहूंगा उन रिश्तों की, जिन की जड़ें हम दोनों के दिलों में हैं.’’

‘‘एक गूढ़ अवमानना हो, कुछ जाना है कुछ जानना है. आदर्श हो, आदरणीय हो, चाहत हो स्मरणीय हो.’’

वह चुप रही.

मैं ने संपदा से कहा, ‘‘जानती हो, मैं तुम्हारे जाने के खयाल से ही डर गया था. प्यार में जितना विश्वास होता है उतनी ही असुरक्षा भी होती है कभीकभी… रोकना चाहता था तुम्हें… इतने दिनों तक घुटता रहा पर अब… अब सब ठीक लग रहा है…’’

संपदा शांत थी. फिर जैसे कहीं खोई सी बोली, ‘‘विवाहित प्रेमियों की कोई अमर कहानी नहीं है, क्योंकि विवाह के बाद काव्य खो जाता है, गणित शेष रहता है. गृहस्थी की आग में रोमांस पिघल जाता है. यदि सचमुच किसी से प्रेम करते हो, तो उस के साथ मत रहो. उस से जितना दूर हो सके भाग जाओ. तब जिंदगी भर आप प्रेम में रहोगे. यदि प्रेमी के साथ रहना ही है, तो एकदूसरे से अपेक्षा न करो. एकदूसरे के मालिक मत बनो, बल्कि अजनबी बने रहो. जितने अजनबी बने रहोगे उतना ही प्रेम ताजा रहेगा. यह जान लो कि रोमांस स्थाई नहीं होता. वह शीतल बयार की तरह है, जो आती है तो शीतलता का अनुभव होता है और फिर वह चली जाती है. प्रेम की इस क्षणिकता के साथ रहना आ जाए तो तुम हमेशा प्रेम में रहोगे.’’

मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर चूम लिया. वह मुसकरा दी.

संपदा ने कार रोकने के लिए कहा. फिर बोली, ‘‘हर रिश्ते की अपनी जगह होती है… अपनी कीमत… जो तुम्हें पहले लगा वह भी ठीक था, जो अब लग रहा है वह भी ठीक है. पर एक बात याद रखना यह प्यार की बेचैनी कभी खत्म नहीं होनी चाहिए. मुझे पाने की चाह बनी रहनी चाहिए दिल में… क्या पता संपदा कब आ टपके तुम्हारे चैंबर में… कभी भी आ सकती हूं अपना हिसाबकिताब करने,’’ और वह खिलखिला कर हंस दी, ‘‘पृथक, शुद्ध प्रेम में वासना नहीं होती, बल्कि समर्पण होता है. प्रेम का अर्थ होता है त्याग. एकदूसरे के वजूद को एक कर देना ही प्रेम है… प्रेम को समय नहीं चाहिए. उसे तो बस एक लमहा चाहिए… उस अधूरे लमहे में युगों की यात्रा करता है और वह लमहा कभीकभी पूरी जिंदगी बन जाता है.’’

मैं उसे एकटक देखता रह गया…

अफसोस: क्यों विजया से दूर हो गया वह

मैं औफिस में काफी रंगीनतबीयत माना जाता था और खुशमिजाज भी. हर रोज किसी को सुनाने के लिए मेरे पास नया व मौलिक लतीफा तैयार रहता था. मैं हाजिरजवाब भी गजब का था. कोई गंदा सा जोक अपने साथियों को सुना कर मैं इतनी बेशर्मी से आंख मारता और सारी बात इतनी गंभीरता से कहता कि हर कोई सच में मेरी बात मान लेता था.

वैसे तो मेरी कहानी सब लोगों के सामने एक खुली किताब रही है. मैं ने जिंदगी में जीभर कर ऐश की है. घर अच्छा था. मेरी बीवी भी कमाती थी. मैं ने सबकुछ खायापीया, घूमाफिरा. इतनी सारी औरतों से यारी की, रोमांस भी किया. वह मजेदार जिंदगी जी कर मजा आ गया.

मगर जनाब, असली बात तो यह है कि मैं ने गफलतभरी जिंदगी जी है. कोई ऐसा काम नहीं किया कि जिसे याद कर के दिल को कोई सुकून मिले. किसी ने मेरे अंदर की बात को कभी संजीदगी से नहीं लिया.

सभी सोचते रहे कि यह आदमी कितना मिलनसार और खुशमिजाज है. चलो, इस के पास चलते हैं. कुछ घड़ी बैठ कर गपें मारते हैं. मैं उन्हें ऐसी बातें बताता जो असल में सच नहीं थीं. कोरी कल्पनाएं थीं, वे सुन कर खुश हो जाते, ठहाके मार कर हंसते.

उन के जाने के बाद मैं उदास हो जाता. एक बलात्कार की सी स्थिति थी मेरे साथ. लगता था मानो इस बलात्कार को मैं ने खुद ही अरेंज करवाया है. रोजरोज मैं अपने अंतर्मन के साथ बलात ढोंग करता.

यह आदत मुझे बचपन से ही थी. लोग बताते हैं कि मेरे पिताजी को भी यही सनक थी, हरेक बात को बढ़ाचढ़ा कर बताना. अगर उन के पास हजार रुपए होते तो वे लोगों को बताते कि उन के पास 10 हजार रुपए हैं. मुझ में यह शेखी एक सनक की हद तक विकसित हो चुकी थी. अगर मैं कभी सच बोलता भी तो लोगों को यकीन न होता.

इस से बहुत नुकसान उठाए हैं, साहब, मैं ने. कई अधेड़ स्त्रियां तो मेरी अच्छी दोस्त बनीं मगर मेरी हमउम्र जवान औरतें मुझ से परहेज करतीं. कालेज में मुझे अपनी उम्र से बड़ी स्त्रियां भाती थीं जिन्हें हम दोस्त लोग आंटीज कह कर मजे लेते थे. एकदो तो मेरी चिकनी, हंसोड़ बातों में आ भी गई थीं. उन की गहरी जिस्मानी अंतरंगता भी मिली मुझे. वे मेरी शेखी भरी बातें सुन कर प्रभावित हो जाती थीं.

मगर ज्योंज्यों मेरी शादी पुरानी हुई, मुझे कच्ची उम्र की जवान, शोख लड़कियां अच्छी लगने लगीं. मगर मेरी बढ़ती हुई उम्र, आगे निकलती हुई तोंद और पकते जा रहे बालों ने उन्हें हमेशा मुझ से दूर ही रखा.

ऐसे में एक बार मुझे लगा कि मैं जिंदगी के सही अर्थ पा गया हूं. बात उन दिनों की है जब मैं अपने औफिस के स्टाफ टे्रनिंग कालेज में प्रशिक्षण अधिकारी था. एक बैच में एक लड़की थी जो मेरी हंसोड़, लच्छेदार तथा चुटीली बातों में आ गई थी. वह थोड़ी सांवली थी मगर हम हिंदुस्तानी लोग गोरे रंग पर टूट कर पड़ते हैं. अब मैं सोचता हूं कि मुझे उस का दिल दुखाना नहीं चाहिए था.

हां, तो जनाब, विजया, यही नाम था उस का. प्रशिक्षण पीरियड खत्म होने के बाद वह मुझ से मिलने मेरे सैक्शन में आई. वह 21 बरस की जवान लड़की थी और मैं 38 बरस का था. इतना अधेड़ तो न था मगर बाल जरूर पकने लगे थे मेरे और शरीर भी फूलने लगा था.

सारा सैक्शन हैरान नजरों से उसे देख रहा था. विजया को मैं ने साथ पड़ी कुरसी पर बिठाया. औपचारिकतावश चाय मंगवाई. हमारे बीच उम्र का बहुत बड़ा फासला था. वह कमसिन थी, जवानी की दहलीज पर अभी उस ने कदम रखा था मगर मैं उम्र की सीढि़यां उतर रहा था.

वह उस दिन मजाक के मूड में थी. मेरी नेमप्लेट देख कर बोली, ‘सर, आप का नाम तो लड़कियों जैसा है.’ मैं असंयत हो गया, जवाब में कुछ नहीं सूझा. मैं ने बस यही कहा, ‘तुम्हारा नाम भी तो लड़कों जैसा है.’

वह हंस पड़ी. अपने सैक्शन वालों के सामने मुझे पहली बार बेहद झिझक महसूस हुई. इसलिए नहीं कि वह लड़की थी बल्कि इसलिए कि वह उम्र में मुझ से बहुत छोटी थी. मेरी बगल वाली सीट पर हमेशा एक औरत बैठी रहती थी क्योंकि मैं इस बातकी कम ही परवा करता था कि लोग क्या कहेंगे.

लोग मुझे ठरकी कहते थे. यह बात मुझे पता थी. मेरी बगल में बैठने वाली तमाम औरतें लगभग संवेदनशून्य थीं, जो चाहे घटिया बात उन्हें कह लो, हाथवाथ लगा लो, कुछ बुरा नहीं मानती थीं. कुछ तो कोई न कोई बहाना लगा कर मेरी बगल वाली सीट पर विराजमान होने के लिए लालायित रहती थीं.

हां, तो विजया दूसरी बार आई, वह भी एक सप्ताह के अंदर. सैक्शन की बाकी औरतों को बहुत झुंझलाहट हुई. मन ही मन मैं खुश तो था मगर घबरा रहा था, डर रहा था. विजया की गलती यही थी कि जब वह मुझ से मिली थी तो मैं काफी उम्र जी चुका था. मैं 40 की तरफ जा रहा था और वह 20 पार कर रही थी. उस की बातें बेहद दिलचस्प होती थीं. मैं साफ देख रहा था कि यह लड़की मेरे प्रति कितना गहरा मोह पाले बैठी है.

एक जवान लड़की का साथ पाने की एक प्रकार की मेरी दिली इच्छा पूरी होने जा रही थी मगर मैं बेहद डर गया था, बुरी तरह हांफ रहा था, घबरा रहा था कि कहीं कुछ हो न जाए या लोग क्या सोचेंगे.

विजया सांवली थी, उस का शरीर गोलमटोल और गुदाज था. आंखें छोटी मगर बेहद कटीली और नशीली थीं. चुस्त, आधुनिक कपड़े पहनती थी. विचारों से वह काफी बोल्ड और साहसी थी. एमए इंगलिश कर रही थी. साहित्य में काफी शौक रखती थी. मैं ने भी बी ए औनर्स अंगरेजी साहित्य के साथ किया था. इसलिए लारैंस, कीट्स, बैकन और हक्सले की बहुत सी बातें मुझे अभी तक याद थीं.

सो, काफी देर तक हमारा वार्त्तालाप चलता. विजया के साथ मेरी कैफियत उस बच्चे के समान थी जो नंगे हाथों से दहकता हुआ गरम अंगारा उठा ले. विजया ने मेरे विश्वासों, मेरी मान्यताओं और मेरे विचारों को उलटपलट कर रख दिया था जैसे बरसात के बाद गलियों में बहने वाले पानी का पहला रेला अपने साथ तमाम बिखरे कागज, तिनके आदि बहा ले जाता है.

वह एक पहाड़ी नदी की तरह पगली थी, आतुर थी. उसे बह निकलने की बहुत जल्दी थी. उसे कई रास्ते, कई मोड़ पार करने थे. मैं एक सपाट मैदानी नाला था. मैं ने काफीकुछ देखा था.

इसी झिझक के मारे मैं ने कभी उस के सामने बाहर घूमने का प्रस्ताव नहीं रखा. विजया ने कई बार कहा, ‘सर, चलिए, कहीं चलते हैं, शिमला या मनाली, हिल स्टेशन पर मस्ती मारते हैं. चलो, बाहर नहीं तो यहीं अपने शहर के लेक व रौक गार्डन पर तो चलो.’ मगर मैं कोई न कोई बहाना लगा कर उसे टालता रहता.

3-4 बार मैं उस के साथ शहर के आसपास गया भी मगर कहीं उस से इत्मीनान से बात करने के लिए सुरक्षित जगह नजर नहीं आई. हर जगह मुझे कोई न कोई परिचित खड़ा नजर आया.

उस के साथ चल कर मुझे लगा कि मैं फिर से जवान हो गया हूं. मेरी उम्र कम हो गई है. फिर विजया की उम्र देख कर मुझे यह बोध होता कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूं. अपराधबोध के बिना सच्चा प्यार क्यों नहीं होता. प्यार तो समाज की धारा के खिलाफ चल कर ही किया जा सकता है.

मैं डर गया था लोगों से, समाज से, अपनेआप से. कहीं फंस गया तो? हालांकि मैं विजया के प्यार में फंसना चाहता था मगर इतना गहरा फंसने का मेरा इरादा नहीं था.

मैं तो बस उसे छू कर, महसूस कर के देखना चाहता था. मगर विजया तो दीवानगी की हद तक पागल थी. मैं उस की कमसिन उम्र से डर कर अजीब परस्परविरोधी फैसले करता था. कभी सोचता था कि आगे बढ़ूं तो कभी बिलकुल पीछे हट जाने की ठान लेता था. उसे कहीं मिलने का समय दे कर उस से मिलने नहीं जाता था.

फिर मैं ने विजया के साथ एक रात किसी होटल में गुजारने की सोची. मगर उस से पहले मैं उस के प्यार की परीक्षा लेना चाहता था कि क्या वह मेरे सामने समर्पण करेगी या वैसे ही कोरी भावुकता में बह कर वह ऐसी बातें करती है. अपने औफिस की कई औरतों के साथ मुझे उन के घर पर ही उन के साथ अंतरंग संबंध बना लेने में कोई दिक्कत पेश नहीं आई. मगर विजया के केस में मुझे 1 साल लग गया यह सब सोचने में कि शुरुआत कहां से करूं.

सच बात तो यह थी कि मैं उस के साथ सिर्फ प्यार का खेल ही खेलना चाहता था मगर वह दीवानी लड़की अपनी जवानी के आवेगों को रोक नहीं पा रही थी. हर रोज मुझे यही लगता कि वह मेरे सम्मुख समर्पण करने के लिए बेकरार है.

एक दिन जी कड़ा कर के मैं ने शिमला के ग्रैंड होटल में 2 लोगों के लिए एक कमरे की बुकिंग करवा ही दी. वोल्वो बस से शिमला जाने का प्लान बन गया मगर उस सुबह जिस दिन मुझे विजया के साथ निकलना था उस दिन मेरे मन में पता नहीं कैसे नैतिकता की ओछी सनक सवार हो गई कि इस तरह तो मैं उस का भविष्य खराब कर दूंगा. विजया बस स्टैंड से मोबाइल पर रिंग करती रही मगर मैं मोबाइल बंद कर के अपने रूम में सिरदर्द का बहाना कर के पड़ा रहा.

अब मेरी बात बहुत लंबी हो चली है. मैं अपनी बात यहीं खत्म करता हूं कि एक मौका जब मैं सच में किसी को दिल की गहराइयों से प्रेम करने लगा था, मैं ने जानबूझ कर गंवा दिया.

विजया को अपमानित किया, उसे बुला कर मिलने नहीं गया. वह मेरे पास आई तो मैं अधेड़ उम्र की सुरक्षित किस्म की खांटी व अधेड़ औरतों से बतियाने में मशगूल रहा. मैं ने विजया को भूल जाना चाहा. वह बारबार मेरे पास आई तो मैं ने जी कड़ाकर के उस की उपेक्षा की, अपनेआप को ऐसा दिखाया कि मैं औफिस के काम में बुरी तरह मसरूफ हूं.

आखिरकार, मैं ने अपनेआप को एक खोल में बंद कर लिया जैसे गृहिणियां अचार या मुरब्बे को एअरटाइट कंटेनरों में भर कर कस कर बंद कर देती हैं. अब मेरी कैफियत ऐसी थी कि जैसे मैं विजया के काबिल नहीं हूं और यह कि उस के साथ और कुछ दिन चला तो फिर संभलना मुश्किल था. मैं यह खेल बस इसी खूबसूरत मोड़ पर ला कर बंद कर देना चाहता था. उस के साथ जिस्मानी दलदल में धंसने का मेरा कोई इरादा न था.

इस तरह विजया धीरेधीरे मुझ से दूर होती गई. मगर अब इस उम्र में जब मैं 55 के काफी करीब जा रहा हूं, मुझे उन मधुर क्षणों की याद आती है कि जब मुझ में और विजया में जबरदस्त दीवानगी थी तो मैं बेहद मायूस हो जाता हूं. मैं सोचता हूं कि मैं ने कभी किसी से प्यार नहीं किया और एक प्यारभरा दिल तोड़ दिया. सचमुच सिर्फ एक लड़की जिस से मैं ने पहली और आखिरी बार मन की गहराइयों से प्यार किया था, उस का प्यार गंवा दिया, उस से निष्ठुरता दिखा कर बहुत बड़ा अपराध किया था.

हैलोवीन: गौरव ने कद्दू का कौनसा राज बताया

लेखक- अनीता सक्सेना

गौरव जब सुबह सो कर उठा तो देखा, बड़े पापा गांव जाने को तैयार हो चुके थे. वे गौरव को देखते ही बोले, ‘‘क्यों बरखुरदार, चलोगे गांव और खेत देखने? दीवाली इस बार वहीं मनाएंगे.’’

दादी बोलीं, ‘‘अरे, उस बेचारे को सुबहसुबह क्यों परेशान कर रहा है. थक जाएगा वहां तक आनेजाने में.’’

गौरव हंस कर बोला, ‘‘नहीं दादी, मैं जाऊंगा गांव. मैं तो यहां आया ही इसलिए हूं. मुझे अच्छा लगता है, वहां की हरियाली देखने में और आम के बगीचे घूमने में.’’

‘‘आम तो बेटा इस मौसम में नहीं होंगे, हां, खेतों में गेहूं की फसल लगी मिलेगी. दीवाली पर नई फसल आती है न.’’

‘‘तब फिर चाय पी कर और नाश्ता कर के जाना,’’ दादी बोलीं.

‘‘अच्छा गौरव, तुम्हारे यहां दीवाली कैसे मनाई जाती है?’’ बड़े पापा ने पूछा. ताईजी तब तक सब के लिए चाय ले आई थीं, वे भी वहीं बैठ गईं.

‘‘दीवाली तो हम सब क्लब में मनाते हैं, लेकिन बड़े पापा अमेरिका में एक त्योहार सब मिल कर मनाते हैं, वह है हैलोवीन डे.’’

‘‘अच्छा, हमें भी तो बताओ क्या है हैलोवीन?’’ सौरभ भी निकल कर बाहर आ गया. ताईजी ने उसे भी चाय दी.

गौरव बोला, ‘‘जिस तरह हमारे देश में दीवाली का त्योहार मनाया जाता है उसी तरह अमेरिका में 31 अक्तूबर की रात को हैलोवीन का त्योहार मनाया जाता है. इस को मनाने की तैयारी भी दीवाली की तरह कई दिन पहले से शुरू कर दी जाती है.’’

‘‘अच्छा, यह क्या अमेरिका में ही मनाया जाता है?’’ दादी ने पूछा.

‘‘नहीं दादी, हैलोवीन डे आयरलैंड गणराज्य, ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया सहित समस्त पश्चिमी देशों में मनाया जाता है. कहा जाता है कि बुरी आत्माओं को घरों से दूर रखने के लिए इसे मनाया जाता है इसलिए लोग कई दिन पहले से ही घर के बाहर एक बड़ा सा कद्दू ला कर रख देते हैं साथ ही घर के बाहर चुड़ैल, भूत, झाड़ू, मकड़ी और मकड़ी के जाले आदि खिलौने रख देते हैं.’’

‘‘कद्दू? कद्दू तो सब्जी के काम आता है?’’ सौरभ ने कहा.

‘‘नहीं सौरभ, ये कद्दू खाने वाले कद्दू नहीं होते बल्कि बीज बनने को छोड़े हुए बड़ेबड़े कद्दू होते हैं जो पके व सूख चुके होते हैं. कद्दू के अंदर का सारा गूदा निकाल कर उसे खोल बना देते हैं फिर ऊपर से खूबसूरत तरीके से चाकू से काट कर उस की आंखें, मुंह इत्यादि बनाते हैं और इस के अंदर एक दीपक जला कर रख देते हैं. दूर से देखने में ऐसा लगता है मानो किसी का चेहरा हो, जिस में से आंखें चमक रही हैं. बाजार में इन कद्दुओं के अंदर छेद करने और आंख इत्यादि बनाने के लिए कई औजार भी मिलते हैं. बच्चों के लिए इन हैलोवीन कद्दुओं की प्रतियोगिताएं भी आयोजित होती हैं.’’

‘‘पर जब भूतप्रेत होते ही नहीं, तो उन के लिए ये कद्दू क्यों?’’ दादी बोलीं.

‘‘नहीं दादी, दरअसल, हजारों साल पहले केल्ट जाति के लोग यहां आए थे. जो फसलों की खुशहाली के लिए प्रकृति की शक्तियों को पूजा करते थे. मूलत: यह त्योहार अंधेरे की पराजय और रोशनी की जीत का उत्सव है. नवंबर की पहली तारीख को केल्ट जाति का नया साल शुरू होता था. नए साल में कटी हुई फसल की खुशी मनाई जाती थी. उस के एक दिन पहले यानी 31 अक्तूबर को ये लोग ‘साओ इन’ नामक त्योहार मनाते थे. इन का मानना था कि इस दिन मरे हुए लोगों की आत्माएं धरती पर विचरने आती थीं और उन्हें खुश करने के लिए उन की पूजा होती थी. इस के लिए वे ‘द्रूइद्स’ नामक पहाड़ी पर जा कर आग जलाते थे. फिर इस आग का एकएक अंगारा लोग अपनेअपने घर ले जाते थे और नए साल की नई आग जलाते थे.’’

‘‘नए साल की आग का क्या मतलब हुआ?’’ बड़े पापा ने पूछा.

‘‘बड़े पापा, उस जमाने में माचिस का आविष्कार नहीं हुआ था. घर में जली आग को लगातार बचा कर रखना पड़ता था. इस रोज पहाड़ी पर अलाव जलाया जाता था और उस में कटी फसल का भाग जलाया जाता था. इस अलाव की आग का अंगारा घर तक ले जाने के लिए तथा हवा बारिश में बुझने से बचाने के लिए उसे किसी फल में छेद कर के उस में सहेज कर ले जाया जाता था. आग को हाथ में देख कर बुरी आत्माएं वार नहीं करेंगी ऐसी मान्यता थी. इस के लिए कद्दू के खोल में जलता दीया रख कर ले जाया जाता था. रात के अंधेरे में कद्दू में आंखें और मुंह काट कर दीया रखने से एकदम राक्षस के सिर जैसा लगता था. कहीं पर इसे पेड़ पर टांग दिया जाता था और कहीं खिड़की पर रख दिया जाता था. आजकल घर के बाहर रख देते हैं.

‘‘जिस तरह से हमारे देश में बहुरूपिए बनते हैं ठीक उसी तरह से यहां लोग हैलोवीन पर बहुरूपिया बनते हैं. 31 अक्तूबर की रात को बच्चेबड़े सभी तरहतरह की ड्रैसेज पहनते हैं और चेहरे पर मुखौटे लगाते हैं. ये ड्रैसेज और मुखौटे काल्पनिक या भूतप्रेतों के होते हैं जो काफी डरावने दिखते हैं. ये ड्रैसेज व मुखौटे बाजारों में कई दिन पहले से बिकने शुरू हो जाते हैं, कई लोग मुखौटा पहनने की जगह चेहरे पर ही पेंट करा लेते हैं.

‘‘हैलोवीन के दिन बच्चे घरघर जाते हैं. हर बच्चा अपने साथ एक बैग या पीले रंग का कद्दू के आकार का डब्बा लिए रहता है. ये बच्चे घरों के अंदर नहीं जाते बल्कि लोग घरों के बाहर बहुत सारी चौकलेट्स एक बड़े से डब्बे में रख कर इन के आने का इंतजार करते हैं. हर बच्चा बाहर बैठे व्यक्ति के पास आता है और कहता है, ‘ट्रिक और ट्रीट’ उसे जवाब मिलता है ‘ट्रीट’ (ट्रिक यानी जादू और ट्रीट यानी पार्टी), बच्चे जोकि हैलोवीन बन कर आते हैं वे घर वालों को डरा कर पूछते हैं कि आप मुझे पार्टी दे रहे हो या नहीं? नहीं तो मैं आप के ऊपर जादू कर दूंगा.

‘‘घर वाले हंस कर ‘ट्रीट’ कहते हुए उन के आगे चौकलेट का डब्बा बढ़ा देते हैं. बच्चे खुश हो कर बाउल में से एकएक चौकलेट उठाते हैं और थैंक्स कह कर आगे बढ़ जाते हैं. देर रात तक बच्चों के बैग में बहुत सी चौकलेट्स इकट्ठी हो जाती हैं.’’

‘‘वाह गौरव, तुम ने तो आज बड़ी रोचक कहानी सुनाई और एक नए त्योहार के बारे में भी बताया, मजा आ गया,’’ दादी बोलीं तो सब ने उन की हां में हां मिलाई.

गौरव हंस पड़ा, सब चाय भी पी चुके थे. ताईजी लंबी सांस लेती हुई बोलीं, ‘‘बस, अब जल्दी से नाश्ता बनाती हूं, खा कर गांव जाना और सुनो, वहां से कद्दू मत ले आना,’’ उन्होंने कहा तो सब जोरजोर से हंसने लगे.

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