दिल वर्सेस दौलत: क्या पूरा हुआ लाली और अबीर का प्यार

‘‘किस का फोन था, पापा?’’

‘‘लाली की मम्मी का. उन्होंने कहा कि किसी वजह से तेरा और लाली का रिश्ता नहीं हो पाएगा.’’

‘‘रिश्ता नहीं हो पाएगा? यह क्या मजाक है? मैं और लाली अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. नहीं, नहीं, आप को कोई गलतफहमी हुई होगी. लाली मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती है? आप ने ठीक से तो सुना था, पापा?’’

‘‘अरे भाई, मैं गलत क्यों बोलने लगा. लाली की मां ने साफसाफ मु झ से कहा, ‘‘आप अपने बेटे के लिए कोई और लड़की ढूंढ़ लें. हम अबीर से लाली की शादी नहीं करा पाएंगे.’’

पापा की ये बातें सुन अबीर का कलेजा छलनी हो आया. उस का हृदय खून के आंसू रो रहा था. उफ, कितने सपने देखे थे उस ने लाली और अपने रिश्ते को ले कर. कुछ नहीं बचा, एक ही  झटके में सब खत्म हो गया, भरे हृदय के साथ लंबी सांस लेते हुए उस ने यह सोचा.

हृदय में चल रहा भीषण  झं झावात आंखों में आंसू बन उमड़नेघुमड़ने लगा. उस ने अपना लैपटौप खोल लिया कि शायद व्यस्तता उस के इस दर्द का इलाज बन जाए लेकिन लैपटौप की स्क्रीन पर चमक रहे शब्द भी उस की आंखों में घिर आए खारे समंदर में गड्डमड्ड हो आए.  झट से उस ने लैपटौप बंद कर दिया और खुद पलंग पर ढह गया.

लाली उस के कुंआरे मनआंगन में पहले प्यार की प्रथम मधुर अनुभूति बन कर उतरी थी. 30 साल के अपने जीवन में उसे याद नहीं कि किसी लड़की ने उस के हृदय के तारों को इतनी शिद्दत से छुआ हो. लाली उस के जीवन में मात्र 5-6 माह के लिए ही तो आई थी, लेकिन इन चंद महीनों की अवधि में ही उस के संपूर्ण वजूद पर वह अपना कब्जा कर बैठी थी, इस हद तक कि उस के भावुक, संवेदनशील मन ने अपने भावी जीवन के कोरे कैनवास को आद्योपांत उस से सा झा कर लिया. मन ही मन उस ने उसे अपने आगत जीवन के हर क्षण में शामिल कर लिया. लेकिन शायद होनी को यह मंजूर नहीं था. लाली के बारे में सोचतेसोचते कब वह उस के साथ बिताए सुखद दिनों की भूलभुलैया में अटकनेभटकने लगा, उसे तनिक भी एहसास नहीं हुआ.

शुरू से वह एक बेहद पढ़ाकू किस्म का लड़का था जिस की जिंदगी किताबों से शुरू होती और किताबों पर ही खत्म. उस की मां लेखिका थीं. उन की कहानियां विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में छपती रहतीं. पिता को भी पढ़नेलिखने का बेहद शौक था. वे एक सरकारी प्रतिष्ठान में वरिष्ठ वैज्ञानिक थे. घर में हर कदम पर किताबें दिखतीं. पुस्तक प्रेम उसे नैसर्गिक विरासत के रूप में मिला. यह शौक उम्र के बढ़तेबढ़ते परवान चढ़ता गया. किशोरावस्था की उम्र में कदम रखतेरखते जब आम किशोर हार्मोंस के प्रभाव में लड़कियों की ओर आकर्षित होते हैं,  उन्हें उन से बातें करना, चैट करना, दोस्ती करना पसंद आता है, तब वह किताबों की मदमाती दुनिया में डूबा रहता.

बचपन से वह बेहद कुशाग्र था. हर कक्षा में प्रथम आता और यह सिलसिला उस की शिक्षा खत्म होने तक कायम रहा. पीएचडी पूरी करने के बाद एक वर्ष उस ने एक प्राइवेट कालेज में नौकरी की. तभी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर्स की भरती हुई और उस के विलक्षण अकादमिक रिकौर्ड के चलते उसे वहीं लैक्चरर के पद पर नियुक्ति मिल गई. नौकरी लगने के साथसाथ घर में उस के रिश्ते की बात चलने लगी.

वह अपने मातापिता की इकलौती संतान था. सो, मां ने उस से उस की ड्रीमगर्ल के बारे में पूछताछ की. जवाब में उस ने जो कहा वह बेहद चौंकाने वाला था.

मां, मु झे कोई प्रोफैशनल लड़की नहीं चाहिए. बस, सीधीसादी, अच्छी पढ़ीलिखी और सम झदार नौनवर्किंग लड़की चाहिए, जिस का मानसिक स्तर मु झ से मिले. जो जिंदगी का एकएक लमहा मेरे साथ शेयर कर सके. शाम को घर आऊं तो उस से बातें कर मेरी थकान दूर हो सके.

मां उस की चाहत के अनुरूप उस के सपनों की शहजादी की तलाश में कमर कस कर जुट गई. शीघ्र ही किसी जानपहचान वाले के माध्यम से ऐसी लड़की मिल भी गई.

उस का नाम था लाली. मनोविज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन की हुई थी. संदली रंग और बेहद आकर्षक, कंटीले नैननक्श थे उस के. फूलों से लदीफंदी डौलनुमा थी वह. उस की मोहक शख्सियत हर किसी को पहली नजर में भा गई.

उस के मातापिता दोनों शहर के बेहद नामी डाक्टर थे. पूरी जिंदगी अपने काम के चलते बेहद व्यस्त रहे. इकलौती बेटी लाली पर भी पूरा ध्यान नहीं दे पाए. लाली नानी, दादी और आयाओं के भरोसे पलीबढ़ी. ताजिंदगी मातापिता के सान्निध्य के लिए तरसती रही. मां को ताउम्र व्यस्त देखा तो खुद एक गृहिणी के तौर पर पति के साथ अपनी जिंदगी का एकएक लमहा भरपूर एंजौय करना चाहती थी.

विवाह योग्य उम्र होने पर उस के मातापिता उस की इच्छानुसार ऐसे लड़के की तलाश कर रहे थे जो उन की बेटी को अपना पूरापूरा समय दे सके, कंपेनियनशिप दे सके. तभी उन के समक्ष अबीर का प्रस्ताव आया. उसे एक उच्चशिक्षित पर घरेलू लड़की की ख्वाहिश थी. आजकल अधिकतर लड़के वर्किंग गर्ल को प्राथमिकता देने लगे थे. अबीर जैसे नौनवर्किंग गर्ल की चाहत रखने वाले लड़कों की कमी थी. सो, अपने और अबीर के मातापिता के आर्थिक स्तर में बहुत अंतर होने के बावजूद उन्होंने अबीर के साथ लाली के रिश्ते की बात छेड़ दी.

संयोगवश उन्हीं दिनों अबीर के मातापिता और दादी एक घनिष्ठ पारिवारिक मित्र की बेटी के विवाह में शामिल होने लाली के शहर पहुंचे. सो, अबीर और उस के घर वाले एक बार लाली के घर भी हो आए. लाली अबीर और उस के परिवार को बेहद पसंद आई. लाली और उस के परिवार वालों को भी अबीर अच्छा लगा.

दोनों के रिश्ते की बात आगे बढ़ी. अबीर और लाली फोन पर बातचीत करने लगे. फिर कुछ दिन चैटिंग की. अबीर एक बेहद सम झदार, मैच्योर और संवेदनशील लड़का था. लाली को बेहद पसंद आया. दोनों में घनिष्ठता बढ़ी. दोनों को एकदूसरे से बातें करना बेहद अच्छा लगता. फोन पर रात को दोनों घंटों बतियाते. एकदूसरे को अपने अनुकूल पा कर दोनों कभीकभार वीकैंड पर मिलने भी लगे. एकदूसरे को विवाह से पहले अच्छी तरह जाननेसम झने के उद्देश्य से अबीर  शुक्रवार की शाम फ्लाइट से उस के शहर पहुंच जाता. दोनों शहर के टूरिस्ट स्पौट्स की सैर करतेकराते वीकैंड साथसाथ मनाने लगे. एकदूसरे को गिफ्ट्स का आदानप्रदान भी करने लगे.

दिन बीतने के साथ दोनों के मन में एकदूसरे के लिए चाहत का बिरवा फूट चुका था. सो, दोनों की तरफ से ग्रीन सिगनल पा कर लाली के मातापिता अबीर का घरबार देखने व उन के रोके की तारीख तय करने अबीर के घर पहुंचे. अबीर का घर, रहनसहन, जीवनशैली देख कर मानो आसमान से गिरे वे.

अबीर का घर, जीवनस्तर उस के पिता की सरकारी नौकरी के अनुरूप था. लाली के रईस और अतिसंपन्न मातापिता की अमीरी की बू मारते रहनसहन से कहीं बहुत कमतर था. उन के 2 बैडरूम के फ्लैट में ससुराल आने पर उन की बेटी शादी के बाद कहां रहेगी, वे दोनों इस सोच में पड़ गए. एक बैडरूम अबीर के मातापिता का था, दूसरा बैडरूम उस की दादी का था.

अबीर की दादी की घरभर में तूती बोलती. वे काफी दबंग व्यक्तित्व की थीं. बेटाबहू उन को बेहद मान देते. उन की तुलना में अबीर की मां का व्यक्तित्व उन्हें तनिक दबा हुआ प्रतीत हुआ.

अबीर के घर सुबह से शाम तक एक पूरा दिन बिता कर उन्होंने पाया कि उन के घर में दादी की मरजी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता. उन की सीमित आय वाले घर में उन्हें बातबात पर अबीर के मातापिता के मितव्ययी रवैए का परिचय मिला.

अगले दिन लाली के मातापिता ने बेटी को सामने बैठा उस से अबीर के रिश्ते को ले कर अपने खयालात शेयर किए.

लाली के पिता ने लाली से कहा, ‘सब से पहले तो तुम मु झे यह बताओ, अबीर के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’

‘पापा, वह एक सीधासादा, बेहद सैंटीमैंटल और सुल झा हुआ लड़का लगा मु झे. यह निश्चित मानिए, वह कभी दुख नहीं देगा मु झे. मेरी हर बात मानता है. बेहद केयरिंग है. दादागीरी, ईगो, गुस्से जैसी कोई नैगेटिव बात मु झे उस में नजर नहीं आई. मु झे यकीन है, उस के साथ हंसीखुशी जिंदगी बीत जाएगी. सो, मु झे इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं.’

तभी लाली की मां बोल पड़ीं, ‘लेकिन, मु झे औब्जेक्शन है.’

‘यह क्या कह रही हैं मम्मा? हम दोनों अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. अब मैं इस रिश्ते से अपने कदम वापस नहीं खींच सकती. आखिर बात क्या है? आप ने ही तो कहा था, मु झे अपना लाइफपार्टनर चुनने की पूरीपूरी आजादी होगी. फिर, अब आप यह क्या कह रही हैं?’

‘लाली, मैं तुम्हारी मां हूं. तुम्हारा भला ही सोचूंगी. मेरे खयाल से तुम्हें यह शादी कतई नहीं करनी चाहिए.’

‘मौम, सीधेसीधे मुद्दे पर आएं, पहेलियां न बु झाएं.’

‘तो सुनो, एक तो उन का स्टेटस, स्टैंडर्ड हम से बहुत कमतर है. पैसे की बहुत खींचातानी लगी मु झे उन के घर में. क्यों जी, आप ने देखा नहीं, शाम को दादी ने अबीर से कहा, एसी बंद कर दे. सुबह से चल रहा है. आज तो सुबह से मीटर भाग रहा होगा. तौबा उन के यहां तो एसी चलाने पर भी रोकटोक है.

‘फिर दूसरी बात, मु झे अबीर की दादी बहुत डौमिनेटिंग लगीं. बातबात पर अपनी बहू पर रोब जमा रही थीं. अबीर की मां बेचारी चुपचाप मुंह सीए हुए उन के हुक्म की तामील में जुटी हुई थी. दादी मेरे सामने ही बहू से फुसफुसाने लगी थीं, बहू मीठे में गाजर का हलवा ही बना लेती. नाहक इतनी महंगी दुकान से इतना महंगी मूंग की दाल का हलवा और काजू की बर्फी मंगवाई. शायद कल हमारे सामने हमें इंप्रैस करने के लिए ही इतनी वैराइटी का खानापीना परोसा था. मु झे नहीं लगता यह उन का असली चेहरा है.’

‘अरे मां, आप भी न, राई का पहाड़ बना देती हैं. ऐसा कुछ नहीं है. खातेपीते लोग हैं. अबीर के पापा ऐसे कोई गएगुजरे भी नहीं. क्लास वन सरकारी अफसर हैं. हां, हम जैसे पैसेवाले नहीं हैं. इस से क्या फर्क पड़ता है?’

‘लेकिन मैं सोच रही हूं अगर अबीर भी दादी की तरह हुआ तो क्या तू खर्चे को ले कर उस की तरफ से किसी भी तरह की टोकाटाकी सह पाएगी? खुद कमाएगी नहीं, खर्चे के लिए अबीर का मुंह देखेगी. याद रख लड़की, बच्चे अपने बड़ेबुजुर्गों से ही आदतें विरासत में पाते हैं. अबीर ने भी अगर तेरे खर्चे पर बंदिशें लगाईं तो क्या करेगी? सोच जरा.’

‘अरे मां, क्या फुजूल की हाइपोथेटिकल बातें कर रही हैं? क्यों लगाएगा वह मु झ पर इतनी बंदिशें? इतना बढि़या पैकेज है उस का. फिर अबीर मु झे अपनी दादी के बारे में बताता रहता है. कहता है, वे बहुत स्नेही हैं. पहली बार जब वे लोग हमारे घर आए थे, दादी ने मु झे कितनी गर्माहट से अपने सीने से चिपकाया था. मेरे हाथों को चूमा था.’

‘तो लाली बेटा, तुम ने पूरापूरा मन बना लिया है कि तुम अबीर से ही शादी करना चाहती हो. सोच लो बेटा, तुम्हारी मम्मा की बातों में भी वजन है. ये पूरी तरह से गलत नहीं. उन के और हमारे घर के रहनसहन में मु झे भी बहुत अंतर लगा. तुम कैसे ऐडजस्ट करोगी?’’ पापा ने कहा था.

‘अरे पापा, मैं सब ऐडजस्ट कर लूंगी. जिंदगी तो मु झे अबीर के साथ काटनी है न. और वह बेहद अच्छा व जैनुइन लड़का है. कोई नशा नहीं है उस में. मैं ने सोच लिया है, मैं अबीर से ही शादी करूंगी.’

‘लाली बेटा, यह क्या कह रही हो? मैं ने दुनिया देखी है. तुम तो अभी बच्ची हो. यह सीने से चिपकाना, आशीष देना, चुम्माचाटी थोड़े दिनों के शादी से पहले के चोंचले हैं. बाद में तो, बस, उन की रोकटोक, हेकड़ी और बंधन रह जाएंगे. फिर रोती झींकती मत आना मेरे पास कि आज सास ने यह कह दिया और दादी सास ने यह कह दिया.

‘और एक बात जो मु झे खाए जा रही है वह है उन का टू बैडरूम का दड़बेनुमा फ्लैट. हर बार त्योहार के मौके पर तु झे ससुराल तो जाना ही पड़ेगा. एक बैडरूम में अबीर के पेरैंट्स रहते हैं, दूसरे में उस की दादी. फिर तू कहां रहेगी? तेरे हिस्से में ड्राइंगरूम ही आएगा? न न न, शादी के बाद मेरी नईनवेली लाडो को अपना अलग एक कमरा भी नसीब न हो, यह मु झे बिलकुल बरदाश्त नहीं होगा.

‘सम झा कर बेटा, हमारे सामने यह खानदान एक चिंदी खानदान है. कदमकदम पर तु झे इस वजह से बहू के तौर पर बहुत स्ट्रगल करनी पड़ेगी. न न, कोई और लड़का देखते हैं तेरे लिए. गलती कर दी हम ने, तु झे अबीर से मिलाने से पहले हमें उन का घरबार देख कर आना चाहिए था. खैर, अभी भी देर नहीं हुई है. मेरी बिट्टो के लिए लड़कों की कोई कमी है क्या?’

‘अरे मम्मा, आप मेरी बात नहीं सम झ रहीं हैं. इन कुछ दिनों में मैं अबीर को पसंद करने लगी हूं. उसे अब मैं अपनी जिंदगी में वह जगह दे चुकी हूं जो किसी और को दे पाना मेरी लिए नामुमकिन होगा. अब मैं अबीर के बिना नहीं रह सकती. मैं उस से इमोशनली अटैच्ड हो गई हूं.’

‘यह क्या नासम झी की बातें कर रही है, लाली? तू तो मेरी इतनी सम झदार बेटी है. मु झे तु झ से यह उम्मीद न थी. जिंदगी में सक्सैसफुल होने के लिए प्रैक्टिकल बनना पड़ता है. कोरी भावनाओं से जिंदगी नहीं चला करती, बेटा. बात सम झ. इमोशंस में बह कर आज अगर तू ने यह शादी कर ली तो भविष्य में बहुत दुख पाएगी. तु झे खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मारने दूंगी. मैं ने बहुत सोचा इस बारे में, लेकिन इस रिश्ते के लिए मेरा मन हरगिज नहीं मान रहा.’

‘मम्मा, यह आप क्या कह रही हैं? मैं अब इस रिश्ते में पीछे नहीं मुड़ सकती. मैं अबीर के साथ पूरी जिंदगी बिताने का वादा कर चुकी हूं. उस से प्यार करने लगी हूं. पापा, आप चुप क्यों बैठे हैं? सम झाएं न मां को. फिर मैं पक्का डिसाइड कर चुकी हूं कि मु झे अबीर से ही शादी करनी है.’

‘अरे भई, क्यों जिद कर रही हो जब यह कह रही है कि इसे अबीर से ही शादी करनी है तो क्यों बेबात अड़ंगा लगा रही हो? अबीर के साथ जिंदगी इसे बितानी है या तुम्हें?’ लाली के पिता ने कहा.

‘आप तो चुप ही रहिए इस मामले में. आप को तो दुनियादारी की सम झ है नहीं. चले हैं बेटी की हिमायत करने. मैं अच्छी तरह से सोच चुकी हूं. उस घर में शादी कर मेरी बेटी कोई सुख नहीं पाएगी. सास और ददिया सास के राज में 2 दिन में ही टेसू बहाते आ जाएगी. जाइए, आप के औफिस का टाइम हो गया. मु झे हैंडल कर लेने दीजिए यह मसला.’

इस के साथ लाली की मां ने पति को वहां से जबरन उठने के लिए विवश कर दिया और फिर बेटी से बोलीं, ‘यह क्या बेवकूफी है, लाली? यह तेरा प्यार पप्पी लव से ज्यादा और कुछ नहीं. अगर तू ने मेरी बात नहीं मानी तो सच कह रही हूं, मैं तु झ से सारे रिश्ते तोड़ लूंगी. न मैं तेरी मां, न तू मेरी बेटी. जिंदगीभर तेरी शक्ल नहीं देखूंगी. सम झ लेना, मैं तेरे लिए मर गई.’ यह कह कर लाली की मां अतीव क्रोध में पांव पटकते हुए कमरे से बाहर चली गईं.

मां का यह विकट क्रोध देख लाली सम झ गई थी कि अब अगर कुदरत भी साक्षात आ जाए तो उन्हें इस रिश्ते के लिए मनाना टेढ़ी खीर होगा. मां के इस हठ से वह बेहद परेशान हो उठी. उस का अंतर्मन कह रहा था कि उसे अबीर जैसा सुल झा हुआ, सम झदार लड़का इस जिंदगी में दोबारा मिलना असंभव होगा. आज के समय में उस जैसे सैंसिबल, डीसैंट लड़के बिरले ही मिलते हैं. अबीर जैसे लड़के को खोना उस की जिंदगी की सब से बड़ी भूल होगी.

लेकिन मां का क्या करे वह? वे एक बार जो ठान लेती हैं वह उसे कर के ही रहती हैं. वह बचपन से देखती आई है, उन की जिद के सामने आज तक कोई नहीं जीत पाया. तो ऐसी हालत में वह क्या करे? पिछली मुलाकात में ही तो अबीर के साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं उस ने. दोनों ने एकदूसरे के प्रति अपनी प्रेमिल भावनाएं व्यक्त की थीं.

पिछली बार अबीर के उस के कहे गए प्रेमसिक्त स्वर उस के कानों में गूंजने लगे, ‘लाली माय लव, तुम ने मेरी आधीअधूरी जिंदगी को कंप्लीट कर दिया. दुलहन बन जल्दी से मेरे घर आ जाओ. अब तुम्हारे बिना रहना शीयर टौर्चर लग रहा है.’

क्या करूं क्या न करूं, यह सोचतेसोचते अतीव तनाव से उस के स्नायु तन आए और आंखें सावनभादों के बादलों जैसे बरसने लगीं. अनायास वह अपने मोबाइल स्क्रीन पर अबीर की फोटो देखने लगी और उसे चूम कर अपने सीने से लगा उस ने अपनी आंखें मूंद लीं.

तभी मम्मा उस का दरवाजा पीटने लगीं… ‘‘लाली, दरवाजा खोल बेटा.’’

उस ने दरवाजा खोला. मम्मा कमरे में धड़धड़ाती हुई आईं और उस से बोलीं, ‘‘मैं ने अबीर के पापा को इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. सारा टंटा ही खत्म. हां, अब अबीर का फोनवोन आए, तो उस से तु झे कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं. वह कुछ कहे, तो उसे रिश्ते के लिए साफ इनकार कर देना और कुछ ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं. ले देख, यह एक और लड़के का बायोडाटा आया है तेरे लिए. लड़का खूब हैंडसम है. नामी एमएनसी में सीनियर कंसल्टैंट है. 40 लाख रुपए से ऊपर का ऐनुअल पैकेज है लड़के का. मेरी बिट्टो राज करेगी राज. लड़के वालों की दिल्ली में कई प्रौपर्टीज हैं. रुतबे, दौलत, स्टेटस में हमारी टक्कर का परिवार है. बता, इस लड़के से फोन पर कब बात करेगी?’’

‘‘मम्मा, फिलहाल मेरे सामने किसी लड़के का नाम भी मत लेना. अगर आप ने मेरे साथ जबरदस्ती की तो मैं दीदी के यहां लंदन चली जाऊंगी. याद रखिएगा, मैं भी आप की बेटी हूं.’’ यह कहते हुए लाली ने मां के कमरे से निकलते ही दरवाजा धड़ाक से बंद कर लिया.

मन में विचारों की उठापटक चल रही थी. अबीर उसे आसमान का चांद लग रहा था जो अब उस की पहुंच से बेहद दूर जा चुका था. क्या करे क्या न करे, कुछ सम झ नहीं आ रहा था.

सारा दिन उस ने खुद से जू झते हुए बेपनाह मायूसी के गहरे कुएं में बिताया. सां झ का धुंधलका होने को आया. वह मन ही मन मना रही थी, काश, कुछ चमत्कार हो जाए और मां किसी तरह इस रिश्ते के लिए मान जाएं. तभी व्हाट्सऐप पर अबीर का मैसेज आया, ‘‘तुम से मिलना चाहता हूं. कब आऊं?’’

उस ने जवाब में लिखा, ‘जल्दी’ और एक आंसू बहाती इमोजी भी मैसेज के साथ उसे पोस्ट कर दी. अबीर का अगला मैसेज एक लाल धड़कते दिल के साथ आया, ‘‘कल सुबह पहुंच रहा हूं. एयरपोर्ट पर मिलना.’’

लाली की वह रात आंखों ही आंखों में कटी. अगली सुबह वह मां को एक बहाना बना एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई.

क्यूपिड के तीर से बंधे दोनों प्रेमी एकदूसरे को देख खुद पर काबू न रख पाए और दोनों की आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ ही क्षणों में दोनों संयत हो गए और लाली ने उन दोनों के रिश्ते को ले कर मां के औब्जेक्शंस को विस्तार से अबीर को बताया.

अबीर और लाली दोनों ने इस मुद्दे को ले कर तसल्ली से, संजीदगी से विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब जो कुछ करना है उन दोनों को ही करना होगा.

‘‘लाली, इन परिस्थितियों में अब तुम बताओ कि क्या करना है? तुम्हारी मां हमारी शादी के खिलाफ मोरचाबंदी कर के बैठी हैं. उन्होंने साफसाफ लफ्जों में इस के लिए मेरे पापा से इनकार कर दिया है. तो इस स्थिति में अब मैं किस मुंह से उन से अपनी शादी के लिए कहूं?’’ अबीर ने कहा.

‘‘हां, यह तो तुम सही कह रहे हो. चलो, मैं अपने पापा से इस बारे में बात करती हूं. फिर मैं तुम्हें बताती हूं.’’

‘‘ठीक है, ओके, चलता हूं. बस, यह याद रखना मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं. शायद खुद से भी ज्यादा. अब तुम्हारे बिना मेरा कोई वजूद नहीं.’’

लाली ने अपनी पनीली हो आई आंखों से अबीर की तरफ एक फ्लाइंग किस उछाल दिया और फुसफुसाई, ‘हैप्पी एंड सेफ जर्नी माय लव, टेक केयर.’’

लाली एयरपोर्ट से सीधे अपने पापा के औफिस जा पहुंची और उस ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया. उस की बातें सुन पापा ने कहा, ‘‘अगर तुम और अबीर इस विषय में निर्णय ले ही चुके हो तो मैं तुम दोनों के साथ हूं. मैं कल ही अबीर के घर जा कर तुम्हारी मां के इनकार के लिए उन से माफी मांगता हूं और तुम दोनों की शादी की बात पक्की कर देता हूं. इस के बाद ही मैं तुम्हारी मां को अपने ढंग से सम झा लूंगा. निश्चिंत रहो लाली, इस बार तुम्हारी मां को तुम्हारी बात माननी ही पड़ेगी.’’

लाली के पिता ने लाली से किए वादे को पूरा किया. अबीर के घर जा कर उन्होंने अपनी पत्नी के इनकार के लिए उन से हाथ जोड़ कर बच्चों की खुशी का हवाला देते हुए काफी मिन्नतें कर माफी मांगी और उन दोनों की शादी पक्की करने के लिए मिन्नतें कीं.

इस पर अबीर के पिता ने उन से कहा, ‘‘भाईसाहब, अबीर के ही मुंह से सुना कि आप लोगों को हमारे इस 2 बैडरूम के फ्लैट को ले कर कुछ उल झन है कि शादी के बाद आप की बेटी इस में कहां रहेगी? आप की परेशानी जायज है, भाईसाहब. तो, मेरा खयाल है कि शादी के बाद दोनों एक अलग फ्लैट में रहें. आखिर बच्चों को भी प्राइवेसी चाहिए होगी. यही उन के लिए सब से अच्छा और व्यावहारिक रहेगा. क्या कहते हैं आप?’’

‘‘बिलकुल ठीक है, जैसा आप उचित सम झें.’’

‘‘तो फिर, दोनों की बात पक्की?’’

‘‘जी बिलकुल,’’ अबीर के पिता ने लाली के पिता को मिठाई खिलाते हुए कहा.

बेटी की शादी उस की इच्छा के अनुरूप तय कर, घर आ कर लाली के पिता ने पत्नी को लाली और अबीर की खुशी के लिए उन की शादी के लिए मान जाने के लिए कहा. लाली ने तो साफसाफ लफ्जों में उन से कह दिया, ‘‘इस बार अगर आप हम दोनों की शादी के लिए नहीं माने तो मैं और अबीर कोर्ट मैरिज कर लेंगे.’’ और लाली की यह धमकी इस बार काम कर गई. विवश लाली की मां को बेटी और पति के सामने घुटने टेकने पड़े.

आखिरकार, दिल वर्सेस दौलत की जंग में दिल जीत गया और दौलत को मुंह की खानी पड़ी.

वह चमकता सितारा : मशहूर होने के बाद भी क्यों वह गुमनाम जिंदगी जीने लगा

 Writer- सबा नूरी

सोने और हीरों की चकाचौंध वाली लाइट्स, छत से ले कर दीवारों तक अनेक कैमरे और कांच जैसे फर्श वाला विशाल मंच. मंच के एक ओर अनेक वाद्ययंत्र संभाले हुए वादक मंडली. मंच के बिलकुल सामने विराजमान 4 जजेस और उन के पीछे मौजूद दर्शकों का हुजूम.

यह दृश्य था एक सिंगिंग शो के सैट का. नाम की उद्घोषणा के साथ ही प्रियांश ने एक मीठी मुसकान लिए मंच पर प्रवेश किया. एक कर्णप्रिय धुन के साथ उस ने माइक के सामने खड़े हो कर अपनी सुरीली आवाज का जादू बिखेरना शुरू किया. उस की आवाज औडिटोरियम में खुशबू की तरह फैलने लगी थी. कुरसियों पर बैठे जज कानों में हैडफोन लगाए आंखे मूंदे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो उस के गायन को अपनी रूह में  उतार लेना चाहते हों और दर्शक भी जैसे सांस रोक कर गीत को महसूस कर रहे थे.

गाना खत्म हुआ और हाल तालियों से गूंज उठा. ऐंकर्स ने दौड़ कर मंच संभाला और एक ने तो उसे कंधे पर उठा लिया. दर्शक ‘वंस मोर’ ‘वंस मोर’ के नारे लगाने लगे. जजेस ने स्कोर कार्ड से पूरेपूरे नंबर देने का इशारा किया. प्रियांश ने सभी का अभिवादन किया और फिर

अगले प्रतिभागी की बारी आई.

दरअसल, यहां ‘सिंगिंग स्टार’ की खोज कार्यक्रम में देशभर से चुनिंदा गायकों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए बुलाया गया था. अनेक युवकयुवतियां यहां मौजूद थीं.

प्रियांश भी अपने गांव से ‘सिंगिंग स्टार’ बनने का सपना लिए यहां मुंबई आया था. हां वह अलग बात थी कि कुछ समय पहले तक उस का लक्ष्य एक अच्छी सरकारी नौकरी पाना ही था और उस की जीतोड़ मेहनत और उस के पिता की कोशिश से उसे ग्राम पंचायत में सहायक के तौर पर चयन होने का चयनपत्र मिल चुका था.

इसी बीच सिंगिंग स्टार वाले टेलैंट की खोज में गांव आए और उन्हें प्रियांश की आवाज इतनी भा गई कि उन्होंने उसे मुंबई बुला लिया और बचपन से गाने के शौकीन रहे प्रियांश को जैसे सपनो का जहान मिल गया. अब उसे सहायक पद की सरकारी नौकरी में कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था.

प्रियांश एक मृदुभाषी, होनहार और आज्ञाकारी युवक था. लेकिन न जाने इस ग्लैमर की दुनिया में क्या आकर्षण था कि मातापिता के न चाहते हुए भी वह गायकी की दुनिया में नाम कमाने मुंबई आ गया.

फिल्मसिटी की चकाचौंध ने उसे आसमान में उड़ने के पंख दे दिए थे. अपने गांव में रहते हुए वह कभी इस ग्लैमरस दुनिया का हिस्सा नहीं बन सकता था. बड़ीबड़ी गाडि़यों से उतरती छोटेछोटे कपड़े पहने हाई हील्स पर चलती हसीनाएं. महंगे जूतोंकपड़ों में इठला कर चलते आदमी. सबकुछ इतने नजदीक से देख और महसूस कर पाना कोई मामूली बात न थी. उसे भी स्टेज पर गाना गाने का और टीवी पर आने का मौका मिलने वाला था. कुछ ही समय बाद ये ऐपिसोड्स टीवी पर आएंगे यह सोच कर ही वह रोमांचित हो उठता.

आयोजकों की ओर से सभी प्रतिभागियों को फाइवस्टार होटल में ठहरने का अच्छा प्रबंध किया गया था. सैपरेट कमरों में सभी को रहनेखाने की उच्च स्तरीय सुविधाएं दी गई थीं. ऐसी भव्य इमारतों में एक दिन भी रहने को मिल जाए तो लगता है कि कहीं स्वर्ग में आ गए हों. ऐसे में यह अनुभव तो दुनिया बदलने वाला था.

होटल से शूटिंग साइट पर प्रतिभागियों को लाने ले जाने के लिए शो की तरफ से गाडि़यां उपलब्ध थीं. इस के अलावा कहीं और आनेजाने की अनुमति इन लोगों को नहीं थी. बस सप्ताह में एक बार प्रबंधक से अनुमति ले कर ये प्रतिभागी कहीं बाहर जा सकते थे.

उस दिन प्रियांश ने अपने साथियों रेहान, कुणाल और अमन के साथ मुंबई घूमने की योजना बनाई. रेहान बीटैक प्रथम वर्ष का छात्र था, जोकि पुणे में रह कर पढ़ाई कर रहा था, वहीं कुणाल के पिता का रामपुर में कपड़े का व्यापार था. चौकलेटी लुक वाले कुणाल को उस का सिंगिंग का शौक यहां खींच लाया था तो अमन ने बीकौम अंतिम वर्ष की परीक्षा दी थी और अपने घर जयपुर से ही मैनेजमैंट के कोर्स की तैयारी करना चाह रहा था. संगीत के साथसाथ शौहरत, ग्लैमर और वाहवाही किसे नहीं अच्छी लगती. बस इसी आकर्षण ने इन सब को यहां पहुंचा दिया था.

मैनेजर से अनुमति ले कर ये लोग निकल पड़े. दिनभर घूमफिर कर शाम को डूबते सूरज को निहारने के इरादे से ये सब जुहू चौपाटी पहुंच गए. समुद्र की चंचल लहरों और ठंडी हवा के साथ शाम कब रात में तबदील हो गई पता ही न चला. रंगबिरंगी रोशनियों में जुहू बीच और सुंदर लग रहा था. थोड़ी भूख लग आई थी  तो इन्होंने ने बीच पर ही स्थित एक रैस्टोरैंट का रुख किया. समुद्र के रेत पर आकर्षक रंगीन छतरियों के नीचे कुरसीमेज, हलका पार्श्व म्यूजिक इस स्पौट को और अधिक लुभावना बना रहा था.

‘‘क्या और्डर किया जाए?’’ प्रियांश ने पूछा.

‘‘कुछ हलका ही लेंगे डिनर तो होटल में ही करना है,’’ अमन ने उत्तर दिया तो रेहान ने भी हां में सिर हिला कर उस का साथ दिया.

‘‘ओके. 1-1 वड़ा पाव और चाय?’’

‘‘ठीक है,’’ प्रियांश के प्रस्ताव पर तीनों ने अंगूठे के इशारे से सहमति दी.

प्रियांश ने वहां इशारे से एक युवक को पास बुलाया और और्डर बता दिया. कुछ ही देर में वह युवक ट्रे में चाय और नाश्ता ले कर आता हुआ नजर आया और बहुत धीमेधीमे चाय और नाश्ते की प्लेटो को मेज पर रखने लगा. प्रियांश ने देखा कि उस युवकों के हाथ कांप रहे हैं. कांपते हाथों को देख कर उस ने उस युवक की ओर ध्यान दिया और बड़े गौर से उस के चेहरे की ओर देखा और फिर तो उछल ही पड़ा प्रियांश और उस युवक का हाथ अपने दोनों हाथों में थाम लिया. इस हरकत से युवक घबरा गया और हाथ छुड़ाने की कोशिश करने लगा और प्रियांश उसे देखते हुए कहता जा रहा था कि तुम. तुम तो अभि हो. तुम तो अभि हो न…

इसी बीच किसी तरह अपना हाथ छुड़ा कर वह युवक तेजी से रैस्टोरैंट में अंदर की ओर भाग खड़ा हुआ. प्रियांश भी खुद को उस के पीछे भागने से रोक न पाया और अंदर काउंटर तक पहुंच गया.

‘‘क्या हुआ क्या चाहिए?’’ एक भारी आवाज सुन कर वह पलटा. सफेद मलमल का कुरता, सफेद पाजामा, वजनदार काया, बालों और दाढ़ी में बराबर की सफेदी और सिर पर टोपी रजा साहब उसे वहां देख कर पूछ रहे थे.

‘‘सर वह जो अभी अंदर गया है वह.’’

‘‘कोई नहीं है वह जाओ यहां से…

‘‘सर वह मेरे गांव का ही है और मैं…’’

‘‘अरे कहा न जाओ यहां से.’’

रैस्टोरैंट के मालिक रजा साहब बात के पक्के थे और बड़े भले आदमी थे. कैसे बता देते जब मना किया गया था तो. किसी का भरोसा तोड़ना उन की फितरत न थी.

प्रियांश भारी कदमों से वापस आ गया. इधर रेहान और कुणाल प्रियांश की इस हरकत पर हंस हंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे.

‘‘यार कोई आशिक भी लड़की के पीछे ऐसे नहीं भागता जैसे तू उस लड़के के पीछे भागा है,’’ कुणाल जोरों से हंस रहा था.

‘‘हंस मत यार तू नहीं जानता वह कौन है.’’

‘‘होगा तेरे गांव का कोई लड़का और तू बेचारे की पोलपट्टी खोल देगा गांव में इसीलिए छिप रहा है तु?ा से,’’ अब रेहान की बात पर कुणाल ने भी हामी भरी.

‘‘ऐसा नहीं है,’’ प्रियांश ने जोर दे कर कहा.

‘‘ऐसा है हम लेट हो गए हैं, टाइम पर वापस होटल पहुंचना है,’’ अमन अपनी कुसी से उठ खड़ा हुआ और इन सब ने वापसी की राह पकड़ी.

 

रात के 2 बज गए थे मगर प्रियांश को नींद नहीं आ रही थी. उसे रहरह कर अभिलाष

का चेहरा याद आ जाता. हां अभिलाष ही था वह. कितना स्मार्ट दिखता था पहले वह और अब तो दुबला, शरीर सांवली पड़ चुकी रंगत, आंखों में सूनापन. कैसे सब गांव में मिसाल दिया करते थे अभिलाष की. फिर कहां गया वह कुछ पता न चला. रातोंरात मिली शोहरत तो नजर आती है लेकिन बाद में उस मशहूर शख्स के साथ क्या हुआ यह नहीं पता चलता.

अगली ही सुबह प्रियांश ने प्रबंधक से बाहर जाने देने का अनुरोध किया पर उसे अगले सप्ताह ही जाने की अनुमति मिल पाई. किसी तरह एक सप्ताह बीता और वह सीधा रैस्टोरैंट मालिक रजा साहब के पास जा पहुंचा. उसे भरोसा था कि वही उस की मदद कर सकते हैं. प्रियांश ने उन्हें अपने बारे में सबकुछ बताया. रजा साहब को अपनी नेक नीयत का यकीन दिलाना आसान नहीं था. प्रियांश ने अपने घर पर फोन कर के अपने पिता से उन की बात कराई और बताया कि वह उस युवक का भला चाहता है. तब वे प्रियांश को अंदर कमरे में ले गए और एक ठंडी सांस ले कर कहा, ‘‘हां, चला गया वह यहां से,’’ और फिर जो कुछ उन्होंने बताया उस के बाद तो प्रियांश के पैरों तले जमीन खिसक गई.

उन्होंने बताया, ‘‘ऐसे न जाने कितने लोग आते हैं मुंबई, वह भी आया था. अपनी पहचान छिपाए यहां काम कर रहा था. अब दिक्कत यह है कि कहीं छोटामोटा काम मिल जाता है तो तुम जैसे लोग पहचान लेते हो. फिर वही लोगों के सवालजवाब पिछली बातों को याद दिला देते हैं. पिछले 1 महीने से यहां काम कर रहा था वह, किसी तरह अवसाद से निकलने की कोशिश में. रीहैब सैंटर में कई माह बिताने के बाद इस लायक हुआ था कि अपने पैरों पर खड़ा हो सके.’’

प्रयांश ने अपना सिर पकड़ लिया. रजा साहब ने उस के कंधे थपथपाए और पानी पिलाया. फिर एक कपड़े का बैग उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह कुछ सामान उस का यहीं रह गया है. तुम कभी गांव जाओ तो उस के घर पर दे देना.’’

प्रियांश दुखी मन से होटल के कमरे पर वापस आ गया. वह रहरह कर अपराधी सा महसूस कर रहा था. उस ने उस थैले को दोनों हाथों में उठाया और सीने से लगा कर रो पड़ा. कुछ शांत हुआ तो उसे उस थैले में कुछ कागज जैसे रखे मालूम हुए. उस ने बैग को खोला कुछ पुराने कपड़े, दवाइयों के अतिरिक्त उस में एक लिफाफा भी था. लिफाफा खोलने पर मिली एक चिट्ठी आज के जमाने में चिट्ठी और उस पर भी कोई पता नहीं लिखा था. उस ने उस चिट्ठी को पढ़ना शुरू किया:

‘‘मेरे प्यारे साथियो,

‘‘यह चिट्ठी मैं तब लिख रहा हूं जब मेरे सभी चाहने वाले मु?ो भूल चुके हैं. नाम भी बता दूं तब भी शायद ही किसी को याद आऊं क्योंकि ऐसे न जाने कितने नाम रोशन हुए और खो गए. किसकिस को याद रखा जाए.

 

‘‘एक वक्त था जब मेरा सितारा बुलंदियों पर था. मैं था

‘सिंगिंग स्टार औफ इंडिया.’ चारों ओर मेरे सिंगिंग टेलैंट की धूम मची हुई थी. मु?ो चैनल्स से इंटरव्यू के लिए कौल आ रहे थे. सोशल मीडिया पर मैं ही छाया हुआ था. मु?ो जैसे रातोंरात किसी ने आसमान पर बिठा दिया था.

‘‘दरअसल, मैं बिहार के छोटे से गांव माधोपुर का आम सा लड़का. मु?ो बचपन से ही गाने का शौक था और लोकगीत मंडलियों में मैं गाया करता था. मेरे गांव में आए ‘सिंगिंग स्टार’ की खोज वालों को मेरी आवाज भा गई और उन्होंने मु?ो शो के लिए मुंबई आने का औफर टिकट के साथ दे दिया.

‘‘बस फिर क्या था? मैं मुंबई पहुंच गया. एक सुपरहिट सिंगिंग शो में कंटैस्टैंट के तौर पर मेरी ऐंट्री हुई. हर ऐपिसोड में अन्य प्रतिभागियों के साथ मेरा कंपीटिशन होता और मैं एक के बाद एक लैवल पार करता गया.

‘‘वहां कुरसी पर बैठे जजेस मेरे गाने और आवाज की भरपूर तारीफें करते, मेरी हरेक परफौर्मैंस पर फिदा हो जाते, अदाएं दिखाते और नएनए तरीकों से मेरे टेलैंट का बखान करते.

‘‘तब वहां ऐपिसोड की शूटिंग के दौरान मु?ो एक नई चीज पता चली जिसे ‘टीआरपी’ कहते हैं. चैनल को और अधिक टीआरपी चाहिए थी.

‘‘फिर एक दिन उन्होंने मु?ा से कहा कि मैं अपनी मां और बहन को मुंबई बुला लूं. वे मु?ो यहां स्टेज पर देख कर बहुत खुश होंगी. बस फिर तो मेरी मां और मेरी नेत्रहीन बहन भी अब शो के हर ऐपिसोड का हिस्सा बनने लगी. मेरी मां की गरीबी और बहन की नेत्रहीनता ने चैनल की ‘टीआरपी’ को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया. मैं बहुत खुश था. खुश तो मां भी बहुत थी.

‘‘अब जैसे ही मेरा गाना पूरा होता तो वहां बैठे दर्शक मेरी कहानी पर आंसू बहाते. मेरी मां और बहन की बेबसी टीवी पर हाथोंहाथ बिक रही थी. एक अच्छी बात यह थी कि उन में से कई जजेस ने मु?ा से शो के दौरान वादा किया कि वे मु?ो अपने आने वाले म्यूजिक अलबम्स में काम देंगे और मेरी आर्थिक मदद करेंगे.

‘‘दर्शकों के प्यार और जजेस की भरपूर प्रशंसा ने जैसे मु?ो पंख लगा दिए थे. लगभग हर ऐपिसोड में मेरी गरीबी और लाचारी की चर्चा होती. उन्होंने मेरे गांव के घर का वीडियो भी बनाया था, जिस में घर के परदों पर लगे पैबंदों को बड़ी बारीकी से दिखाया गया था. मेरे दोस्तों, रिश्तेदारों से बात भी कराई थी. सब ने भरभर कर मेरी तारीफें की थीं. सबकुछ किसी सपने जैसा लग रहा था. मु?ा जैसे आम से व्यक्ति को आज इन बुलंदियों पर पहुंचाने के लिए मैं इन शो वालों का बेहद एहसानमंद था.

‘‘और फिर वह दिन भी आया जब शो का फाइनल ऐपिसोड हुआ और ये वह खूबसूरत दिन था जब मैं ‘सिंगिंग स्टार औफ द इंडिया’ चुन लिया गया.

‘‘मु?ो शो जीतने के एवज में आयोजकों की ओर से एक अच्छी रकम का चैक दिया गया. खिताब जीतने के बाद तो मेरी दुनिया ही बदल गई.

‘‘सोशल मीडिया चैनल्स पर मेरे फोटो, वीडियो फ्लैश होते रहते. मेरी गरीबी और कामयाबी की कहानियां सुनाई जातीं. मु?ा से टीवी ऐंकर मेरी सुरीली आवाज के राज पूछते. लगभग रोज ही किसी न किसी शो में शामिल होने के लिए मेरे पास फोन आते रहते. इसी बीच मु?ो मेरे गांव की ओर से स्वागत निमंत्रण मिला.

‘‘गांव पहुंचने पर मेरा जोरदार स्वागत हुआ. फूलमालाओं से लाद कर मु?ो खुली जीप में घुमाया गया. अपने पीछे भीड़ चलती देख मैं खुशी से गदगद हो जाता.

‘‘मैं बहुत खुश था. अब हमने गांव में अपना पक्का मकान बना लिया और नए परदे भी लगा लिए थे. दोस्त, रिश्तेदार सभी बहुत इज्जत दे रहे थे. लेकिन अब काम के सिलसिले में मु?ो मुंबई में ही रहना था तो हम ने एक फर्नीश्ड फ्लैट किराए पर ले लिया. किराया काफी ज्यादा तो था लेकिन यह फ्लैट जरूरी था हमारे लिए. कई महीने हंसीखुशी में बीत गए. लेकिन वह कहते हैं न कि रातोंरात मिली कामयाबी ज्यादा देर तक नहीं टिकती, तो वही हुआ.

‘‘इनाम की धनराशि अब खत्म होने लगी थी. मु?ो चिंता होने लगी थी क्योंकि अभी तक मेरे पास कोई काम नहीं था. मुंबई जैसे बड़े शहर में रहनसहन के लिए अच्छी आमदनी का होना बहुत जरूरी था.

‘‘मैं ने 1-1 कर उन सभी म्यूजिक डाइरैक्टर्स को कौंटैक्ट किया जिन्होंने शो के दौरान मु?ो अपने फोन नंबर दिए थे और काम देने का वादा किया था. मगर फिर जो हुआ उस की मु?ो उम्मीद नहीं थी क्योंकि कोई भी मेरा फोन नहीं उठा रहा था.

‘‘किसी प्रोड्यूसर की पीए से बात हुई भी तो उस ने ‘सर बिजी हैं’ कह कर फोन काट दिया और बाद में तो वे सभी नंबर बंद ही आने लगे. मु?ो काम देने के जो कौंट्रैक्ट कैमरे के सामने साइन किए गए थे वे कागज मेरे सामने पड़े मुंह चिढ़ा रहे थे.

 

‘‘धीरेधीरे मेरी ख्याति कम होने लगी और साल खत्म होतेहोते मेरा

क्रेज बिलकुल खत्म हो गया. मैं बहुत परेशान रहने लगा. थक कर मैं अपने गांव वापस आ गया और फिर से अपनी मंडलियों का रुख किया. लेकिन वहां तो पहले ही बड़ा कंपीटिशन था. जो लोग गाने के लिए चयनित हो चुके थे वो किसी और को अपनी जगह नहीं दे रहे थे. कुल मिला कर मेरे पास कोई काम नहीं था. मेरी मां को वापस अपना सिलाई का काम शुरू करना पड़ा.

‘‘मैं अवसाद का शिकार हो चुका था. एक दिन मैं ने नींद की गोलियां खा कर अपनी जान देने की कोशिश की. मगर बचा लिया गया. मेरे कुछ साथियों ने मु?ो शहर ले जा कर मानसिक चिकित्सक को दिखाया. यहां से मु?ो रिहैबिलिटेशन सैंटर भेज दिया गया. कई महीने रिहैब में गुजारने के बाद मेरी स्थिति पहले से बेहतर तो हो गई, मगर पिछली जिंदगी में लौटने के भी सारे दरवाजे बंद हो चुके थे.लोग मु?ो पहचान जाते और हंसते मु?ा से तरहतरह के सवाल पूछते और आगे बढ़ जाते.

‘‘यह दुनिया सिर्फ उगते सूरज को सलाम करती है. मु?ो किसी से कोई शिकायत नहीं. अब मु?ो सम?ा आ चुका था कि यह कामयाबी यह शोर मेरा नहीं था. यह तो बस चैनल वालों का था. शो खत्म मैं भी खत्म. फिर किसी अगले शो के अगले सीजन में किसी मु?ा जैसे गरीब छोटे गायक को शिकार बनाया जाएगा. हां. मैं एक दिन इस अंधेरे से बाहर जरूर निकल आऊंगा. इंतजार में एक गुमनाम गायक ‘‘अभिलाष.’’

पत्र पढ़ कर प्रियांश की आंखों से आंसू बह निकले. जैसे अपना ही आने वाला कल उस की आंखों के सामने आ गया. साल दर साल कितने ही गायक ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेते हैं मगर कुछेक के अलावा बाकी सब न जाने कहां गुम हो जाते हैं. क्या वह खुद भी कल ऐसे ही… नहीं. ऐसा नहीं होगा. अपने मातापिता का चेहरा उस की नजरों के सामने घूम गया. तो फिर किया क्या जाए? क्या हाथ आए अवसर को ऐसे ही ठुकरा दे? उस के माथे पर पसीने को बूंदें उभर आईं.

तभी कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई. दरवाजा खोलने पर सामने अमन और रेहान तैयार खड़े थे, ‘‘क्या हुआ? रियाज करने नहीं चलना,’’ पूछते हुए अमन ने उस के हाथ से वह पत्र ?ाटक लिया और पढ़ने लगा. पत्र देख रेहान भी उस के साथ शामिल हो गया. तभी कुणाल भी वहीं आ गया और पत्र देख सारी बात सम?ाते उन्हें देर न लगी.

‘‘यार, तो उस दिन वह युवक अभिलाष था?’’ अमन ने पत्र रखते हुए अचरज से पूछा.

‘‘हां,’’ प्रियांश सोफे पर निढाल हो गया.

विशाल,कीर्ति, सिद्धार्थ… फिर तो कितने ही नाम याद आ गए जो किसी न किसी सीजन में विनर रहे थे मगर आज किसी को याद तक नहीं.

‘‘गाइज सब के साथ बुरा नहीं होता. आई एम श्योर वह और बाकी सब भी कहीं न कहीं सैटल हो ही गए होंगे लाइफ में,’’ अमन बोला.

‘‘औफकोर्स,’’ रेहान ने कहा.

‘‘लेकिन सवाल तो उन का है जो कहीं के नहीं रहे.’’

‘‘हां,’’ तीनों ने एक सुर में कहा, ‘‘और सवाल यह भी है कि हम क्या कर सकते हैं.’’

‘‘यार अभिलाष को अवसाद से निकालने की कोशिश तो हमें करनी चाहिए,’’ अमन ने कहा और फिर उन्होंने अगली शूटिंग के सैट पर आयोजकों से मिलने की योजना बनाई.

 

प्रोडक्शन टीम को लड़कों की कोशिश अच्छी लगी. इसीलिए उन्होंने

प्रोड्यूसर आदित्य सर के साथ मीटिंग कर के तय किया कि वे 2 ऐपिसोड्स इस शो के भूलेबिछड़े लेजैंड्स गायकों को केंद्र में रख कर प्लान कर लेंगे. लेकिन अभिलाष या उस जैसे और भी किसी लेजैंड को प्रोडक्शन टीम के पास लाने की जिम्मेदारी ये लोग लें तो. इन लड़कों ने इस के लिए हामी भर दी.

अगले ही दिन ये चारों रजा साहब के पास रैस्टोरैंट पहुंचे और पूरी बात बताई. उन्होंने यहां काम करने वाले सभी लड़कों को बुलाया और इन लोगों से मिलवाया उन में से एक ने उन्हें एक ‘एनजीओ’ का पता दिया. शहर के कोलाहल से कुछ दूर स्थित इस बिल्डिंग को खोजने में कोई खास दिक्कत न हुई. लेकिन असल दिक्कत तो अभी बाकी थी और वह थी और्गेनाइजेशन की निरीक्षक और डाक्टर माहिरा आलम जो किसी भी अपरिचित को अपने किसी पेशैंट से मिलने नहीं देती थीं. उन का कहना था कि अनजान लोग सिर्फ दिल्लगी के लिए ही इन अवसादग्रस्त लोगों के पास आते हैं और इन के जख्मों को छेड़ कर फिर से ताजा कर देते हैं.

कोई घंटे भर के इंतजार के बाद आखिरकार एक वार्ड बौय ने आ कर खबर दी कि डाक्टर अब फ्री हैं. अब वे उन से मिल सकते हैं. लंबे कद की उजली रंगत वाली डाक्टर माहिरा अपने सवालिया अंदाज में रूबरू थीं.

‘‘आज अचानक कैसे याद आ गई आप सब को? अभिलाष करीब 1 साल से यहां हैं और इतने अरसे में मैं ने आप में से किसी को नहीं देखा न ही आप के बारे में कुछ सुना. तो फिर अब कैसे? और जब वह अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करने बाहर की दुनिया में गया भी तो कुछ लोगों की मेहरबानी से वापस यहीं आ गया.’’

‘‘वे लोग हम ही थे,’’ प्रियांश, रेहान, अमन और कुणाल की चोर नजरों ने जैसे एकदूसरे से यही कहा.

डाक्टर का सवाल जायज था. लेकिन अब कैसे वे इन्हें सम?ाएं कि अभिलाष में खुद को देख रहे थे वे. इस आम से लड़के को जब शोहरत की बुलंदियों पर देखा था उस दिन के बाद वे और न जाने कितने लड़के उस जैसा बनने के सपने देखने लगे थे, जिसे आज तक टीवी पर गाते देखासुना उस की ऐसी दुर्दशा की कल्पना भी करना मुश्किल था और ऐसे में जब वह सामने आया तो उस की यह हालत देख कर यों ही छोड़ दें. यह इन से हो न सका और फिर यह कुदरत का करिश्मा है जो लोगों को एकदूसरे से मिला देती है.

मगर डाक्टर को इस से क्या. उन्हें थोड़े ही इस तरह तसल्ली हो जानी थी. उन के अनुसार तो लोग सिर्फ स्टोरी के लिए ही यहां आते हैं.

मगर ‘जहां चाह वहां राह’ तो लड़कों ने भी ठान ली थी कि ऐसे हार नहीं मानेंगे. उन्होंने सीधा प्रोडक्शन हाउस के ओनर आदित्य सर से संपर्क किया और डाक्टर माहिरा से उन की बात करा दी. बस फिर क्या था डाक्टर के पास इन की बात पर भरोसा करने के अलावा कोई चारा न था. इसीलिए कुछ जरूरी हिदायतें दे कर उन्होंने इन्हें मिलने की इजाजत दे दी.

थोड़ी औपचारिकताओं के बाद एक वार्ड बौय ने इन लोगों को एक हालनुमा कमरे पर पहुंचा दिया और वहां से चला गया. अंदर पहुंचने पर इन्होंने देखा कि वह दीवार की ओर मुंह किए बैठा था.

‘‘अभिलाष,’’ नाम पुकारने पर उस ने पलट कर देखा वही चेहरा, वही आंखें, वही अभिलाष.

‘‘हम तुम्हें लेने आए हैं. हमें पता है तुम इस अंधेरे से निकलना चाहते हो.’’

उस ने उन की बात को सुन कर भी अनसुना कर दिया. शायद ऐसी बातों से भरोसा टूट चुका था उस का.

‘‘अभिलाष मैं, मैं प्रियांश, पहचाना? मैं भी माधोपुर से हूं. हम जानते हैं तुम ने बहुत दुख देखे हैं लेकिन अब मुश्किल समय बीत चुका है और एक नई दुनिया तुम्हारा इंतजार कर रही है. हमारा विश्वास करो. कहो तो ‘सिंगिंग स्टार की खोज’ के प्रोडक्शन हाउस से बात करा दें?’’ अमन ने अभिलाष का हाथ पकड़ कर कहा.

 

वह अपनी जगह से उठा और बाहर की ओर जाने लगा. तभी रेहान ने अपना फोन उस

की तरफ घुमा दिया. दूसरी तरफ मां और बहन को देख कर यह टूटा दिल भी अपने जज्बात काबू में न रख सका और बिखर गया.

‘‘‘बेटा, ये लोग कई दिनों से मेरे से संपर्क में हैं. इन्होंने तेरे लिए अच्छा सोचा है. तू कोशिश कर और आगे बढ़ आगे सब अच्छा होगा. मेरा अच्छा बेटा,’’ मां ने विश्वास दिलाया.

उस के साथियों ने अभिलाष को उस का पत्र मिलने से ले कर प्रोडक्शन टीम से बात कर लेने तक की सारी कहानी सुनाई. उन्होंने बताया कि वे और पूरी टीम उसे गुमनामी के अंधेरे से निकालना चाहती है. सच्ची बात सच्चे दिल तक पहुंच ही जाती है और जब कोई खुद ही अंधेरे से निकलने की कोशिश में हो तो मदद के लिए मिला हाथ ठुकराने की हिम्मत नहीं होती.

उन्होंने अभिलाष का विश्वास जीत लिया था. उन की बातों से उस की आंखों में चमक नजर आई. साथ ही उन्होंने अभिलाष को खुशखबरी सुनाई कि डाइरैक्टर आदित्य सर ने एक स्कूल में भी संगीत शिक्षक के तौर पर तुम्हें काम दिलाने के लिए आवेदन करवा दिया है.

‘‘और तुम्हारा क्या? कहीं कल तुम भी मेरी तरह…’’ अभिलाष ने प्रियांश से सीधा सवाल किया.

‘‘दरअसल, हम चारों को ही सम?ा आ

गया है कि चाहे यहां से जीत के जाएं या बीच

में ही शो से बाहर हो जाएं हम अपनी जड़ों

को नहीं छोड़ेंगे. मैं यहां से जा कर अपनी

सहायक की नौकरी जौइन करूंगा और यह अपनी पढ़ाई पूरी करेगा और ये दोनों अपने पापा का बिजनैस देखेंगे.’’

‘‘मतलब लौट के बुद्धू …’’

‘‘न… न… लौट के सम?ादार अनुभव ले कर आए,’’ अमन के मुंह से निकले अनोखे मुहावरे पर वे सब हंस पड़े. यहां अब उम्मीद की एक नई किरण का उदय हो चुका था.

नोकझोंक : आदित्य अपनी पत्नी से क्यों नफरत करने लगा?

डोरबेल की आवाज सुन कर जैसे ही शिप्रा ने दरवाजा खोला. आदित्य उस के सामने खड़ा था. जैसेकि इंसान के बोलनेसमझने से पहले ही आंखें बहुत कुछ बोलसुन, समझ जाती हैं उसी तरह शिप्रा और आदित्य को पता चल गया था कि दोनों से गलती हुई है. दोनों में से किसी ने बात खत्म करने की नहीं सोची थी. बहस बहुत छोटी सी बात की थी.

उस दिन शिप्रा अपने भाईभाभी के शादी की सालगिरह पर जाने को तैयार बैठी थी. आदित्य ने भी 5 बजे आने को बोला था पर औफिस में ऐन मौके पर मीटिंग की वजह से भूल गया. फोन साइलैंट पर था तो आदित्य ने फोन उठाया नहीं. काम समेटते साढे 6 बज गए. काम खत्म कर फोन देखा तो शिप्रा की 13 मिस्ड कौल्स थीं. आननफानन में आदित्य घर की तरफ भागा पर घर पहुंचतेपंहुचते 7 बज गए.

उधर शिप्रा का गुस्सा 7वें आसमान पर था. आदित्य ने तुरंत शिप्रा को सौरी बोला पर शिप्रा ने तो जैसे सुना ही नहीं और अकेले ड्राइवर के साथ मायके चली गई. आदित्य भी तब तक नाराज हो चुका था कि यह भी कोई बात हुई कि सामने वाले को कुछ कहने का मौका ही न दो. वह भी पीछे से नहीं गया.

उधर शिप्रा से मायके में हरकोई आदित्य को पूछ रहा था. बहाने बनातेबनाते शिप्रा का मूड बहुत औफ हो गया. पार्टी खत्म होने के बाद सारे मेहमान चले गए तो शिप्रा ने गुस्से में ड्राइवर को घर भेज दिया और खुद मां के पास रुक गई.

‘‘आदित्य मीटिंग से लौटेगा तो तुम्हें मिस करेगा,’’ भाभी ने मजाक किया.

‘‘अरे नहीं भाभी, उस को मैं ने बता दिया है और क्या मैं अब इतनी पराई हो गई कि यहां रुक नहीं सकती,’’ शिप्रा ने बहाना बनाने के साथ एक भावनात्मक तीर भी छोड़ दिया.

‘‘यह तुम्हारा ही घर है बेटा. जब तक रुकना चाहो रुको. पर आदित्य को बता कर,’’ मां ने उसे गले लगाते हुए कहा. मां सम?ा गई थीं कि शिप्रा की आदित्य से कुछ तो अनबन हुई है. पर अनुभव से यह भी समझ गई कि सुबह तक सब ठीक हो जाएगा, नईनई शादी में इस तरह की नोक?ांक टौनिक का काम करती है. ऐसे में किसी और का कुछ न टोकना ही अच्छा है नहीं तो बात बनेगी नही बिगड़ जाएगी. मां बहुत सुलझ और सरल महिला थीं.

इधर ड्राइवर के खाली गाड़ी ले कर लौट आने पर आदित्य का मन और खिन्न हो गया. थोड़ा लेट ही सही, आ गया था और वह भी मेरे आने के बाद ही तो गई. इतनी भी क्या अकड़.

आदित्य सारी रात सो न सका. अभी शादी को 3 महीने भी तो नहीं हुए थे. वह शिप्रा को इतना मिस करने लगा कि वह अपनी सारी नाराजगी भूल गया. नींद तो शिप्रा को भी नहीं आ रही थी. उसे भी अब अपने ऊपर गुस्सा आने लगा था कि नाहक आदित्य पर इतना नाराज हुई. क्या हो जाता. थोड़ी वह ही सम?ादार बन जाती. रात आंखोंआंखों में कट गई. सुबह होते ही आदित्य शिप्रा के मायके पहुंच गया और शिप्रा भी जैसे उसी का इंतजार कर रही थी. डोरबैल की आवाज पर लपक कर दरवाजा खोला.

‘‘चलें,’’ आदित्य ने मुसकराते हुए कहा तो शिप्रा ने तुरंत उस की बांह थाम ली.

‘‘चले जाना… चले जाना, पर कम से कम नाश्ता कर लो वरना अब वहां तो टाइम नहीं मिलेगा. मेरा मतलब है नाश्ते का समय निकल जाएगा,’’ शिप्रा की भाभी ने चुटकी लेते हुए छेड़ा तो दोनों ?ोंप गए.

नाश्ता कर के सब से विदा ले ली. गाड़ी में बैठते ही शिप्रा ने आदित्य की आंखों में देखते हुए अपने दोनों कान पकड़ लिए तो आदित्य ने भी उस का माथा चूम लिया. बिन कहे, बिन सुने दोनों ने अपनीअपनी गलती भी मान ली और माफी भी मांग ली.

सिसकता शैशव: मातापिता के झगड़े में पिसा अमान का बचपन

लेखिका- विनोदिनी गोयनका

जिस उम्र में बच्चे मां की गोद में लोरियां सुनसुन कर मधुर नींद में सोते हैं, कहानीकिस्से सुनते हैं, सुबहशाम पिता के साथ आंखमिचौली खेलते हैं, दादादादी के स्नेह में बड़ी मस्ती से मचलते रहते हैं, उसी नन्हीं सी उम्र में अमान ने जब होश संभाला, तो हमेशा अपने मातापिता को लड़तेझगड़ते हुए ही देखा. वह सदा सहमासहमा रहता, इसलिए खाना खाना बंद कर देता. ऐसे में उसे मार पड़ती. मांबाप दोनों का गुस्सा उसी पर उतरता. जब दादी अमान को बचाने आतीं तो उन्हें भी झिड़क कर भगा दिया जाता. मां डपट कर कहतीं, ‘‘आप हमारे बीच में मत बोला कीजिए, इस से तो बच्चा और भी बिगड़ जाएगा. आप ही के लाड़ ने तो इस का यह हाल किया है.’’

फिर उसे आया के भरोसे छोड़ कर मातापिता अपनेअपने काम पर निकल जाते. अमान अपने को असुरक्षित महसूस करता. मन ही मन वह सुबकता रहता और जब वे सामने रहते तो डराडरा रहता. परंतु उन के जाते ही अमान को चैन की सांस आती, ‘चलो, दिनभर की तो छुट्टी मिली.’

आया घर के कामों में लगी रहती या फिर गपशप मारने बाहर गेट पर जा बैठती. अमान चुपचाप जा कर दादी की गोद में घुस कर बैठ जाता. तब कहीं जा कर उस का धड़कता दिल शांत होता. दादी के साथ उन की थाली में से खाना उसे बहुत भाता था. वह शेर, भालू और राजारानी के किस्से सुनाती रहतीं और वह ढेर सारा खाना खाता चला जाता.बीचबीच में अपनी जान बचाने को आया बुलाती, ‘‘बाबा, तुम्हारा खाना रखा है, खा लो और सो जाओ, नहीं तो मेमसाहब आ कर तुम्हें मारेंगी और मुझे डांटेंगी.’’

अमान को उस की उबली हुई सब्जियां तथा लुगदी जैसे चावल जहर समान लगते. वह आया की बात बिलकुल न सुनता और दादी से लिपट कर सो जाता. परंतु जैसेजैसे शाम निकट आने लगती, उस की घबराहट बढ़ने लगती. वह चुपचाप आया के साथ आ कर अपने कमरे में सहम कर बैठ जाता. घर में घुसते ही मां उसे देख कर जलभुन जातीं, ‘‘अरे, इतना गंदा बैठा है, इतना इस पर खर्च करते हैं, नित नए कपड़े लाला कर देते हैं, पर हमेशा गंदा रहना ही इसे अच्छा लगता है. ऐसे हाल में मेरी सहेलियां इसे देखेंगी तो मेरी तो नाक ही कट जाएग.’’ फिर आया को डांट पड़ती तो वह कहती, ‘‘मैं क्या करूं, अमान मानता ही नहीं.’’

फिर अमान को 2-4 थप्पड़ पड़ जाते. आया गुस्से में उसे घसीट कर स्नानघर ले जाती और गुस्से में नहलातीधुलाती. नन्हा सा अमान भी अब इन सब बातों का अभ्यस्त हो गया था. उस पर अब मारपीट का असर नहीं होता था. वह चुपचाप सब सहता रहता. बातबात में जिद करता, रोता, फिर चुपचाप अपने कमरे में जा कर बैठ जाता क्योंकि बैठक में जाने की उस को इजाजत नहीं थी. पहली बात तो यह थी कि वहां सजावट की इतनी वस्तुएं थीं कि उन के टूटनेफूटने का डर रहता और दूसरे, मेहमान भी आते ही रहते थे. उन के सामने जाने की उसे मनाही थी.

जब मां को पता चलता कि अमान दादी के पास चला गया है तो वे उन के पास लड़ने पहुंच जातीं, ‘‘मांजी, आप के लाड़प्यार ने ही इसे बिगाड़ रखा है, जिद्दी हो गया है, किसी की बात नहीं सुनता. इस का खाना पड़ा रहता है, खाता नहीं. आप इस से दूर ही रहें, तो अच्छा है.’’

सास समझाने की कोशिश करतीं, ‘‘बहू, बच्चे तो फूल होते हैं, इन्हें तो जितने प्यार से सींचोगी उतने ही पनपेंगे, मारनेपीटने से तो इन का विकास ही रुक जाएगा. तुम दिनभर कामकाज में बाहर रहती हो तो मैं ही संभाल लेती हूं. आखिर हमारा ही तो खून है, इकलौता पोता है, हमारा भी तो इस पर कुछ अधिकार है.’’ कभी तो मां चुप  हो जातीं और कभी दादी चुपचाप सब सुन लेतीं. पिताजी रात को देर से लड़खड़ाते हुए घर लौटते और फिर वही पतिपत्नी की झड़प हो जाती. अमान डर के मारे बिस्तर में आंख बंद किए पड़ा रहता कि कहीं मातापिता के गुस्से की चपेट में वह भी न आ जाए. उस का मन होता कि मातापिता से कहे कि वे दोनों प्यार से रहें और उसे भी खूब प्यार करें तो कितना मजा आए. वह हमेशा लाड़प्यार को तरसता रहता.

इसी प्रकार एक वर्र्ष बीत गया और अमान का स्कूल में ऐडमिशन करा दिया गया. पहले तो वह स्कूल के नाम से ही बहुत डरा, मानो किसी जेलखाने में पकड़ कर ले जाया जा रहा हो. परंतु 1-2 दिन जाने के बाद ही उसे वहां बहुत आनंद आने लगा. घर से तैयार कर, टिफिन ले कर, पिताजी उसे स्कूटर से स्कूल छोड़ने जाते. यह अमान के लिए नया अनुभव था. स्कूल में उसे हमउम्र बच्चों के साथ खेलने में आनंद आता. क्लास में तरहतरह के खिलौने खेलने को मिलते. टीचर भी कविता, गाना सिखातीं, उस में भी अमान को आनंद आने लगा. दोपहर को आया लेने आ जाती और उस के मचलने पर टौफी, बिस्कुट इत्यादि दिला देती. घर जा कर खूब भूख लगती तो दादी के हाथ से खाना खा कर सो जाता. दिन आराम से कटने लगे. परंतु मातापिता की लड़ाई, मारपीट बढ़ने लगी, एक दिन रात में उन की खूब जोर से लड़ाई होती रही. जब सुबह अमान उठा तो उसे आया से पता चला कि मां नहीं हैं, आधी रात में ही घर छोड़ कर कहीं चली गई हैं.

पहले तो अमान ने राहत सी महसूस की कि चलो, रोज की मारपीट  और उन के कड़े अनुशासन से तो छुट्टी मिली, परंतु फिर उसे मां की याद आने लगी और उस ने रोना शुरू कर दिया. तभी पिताजी उठे और प्यार से उसे गोदी में बैठा कर धीरेधीरे फुसलाने लगे, ‘‘हम अपने बेटे को चिडि़याघर घुमाने ले जाएंगे, खूब सारी टौफी, आइसक्रीम और खिलौने दिलाएंगे.’’  पिता की कमजोरी का लाभ उठा कर अमान ने और जोरों से ‘मां, मां,’ कह कर रोना शुरू कर दिया. उसे खातिर करवाने में बहुत मजा आ रहा था, सब उसे प्यार से समझाबुझा रहे थे. तब पिताजी उसे दादी के पास ले गए. बोले, ‘‘मांजी, अब इस बिन मां के बच्चे को आप ही संभालिए. सुबहशाम तो मैं घर में रहूंगा ही, दिन में आया आप की मदद करेगी.’’ अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें, दादी, पोता दोनों प्रसन्न हो गए.

नए प्रबंध से अमान बहुत ही खुश था. वह खूब खेलता, खाता, मस्ती करता, कोई बोलने, टोकने वाला तो था नहीं, पिताजी रोज नएनए खिलौने ला कर देते, कभीकभी छुट्टी के दिन घुमानेफिराने भी ले जाते. अब कोई उसे डांटता भी नहीं था. स्कूल में एक दिन छुट्टी के समय उस की मां आ गईं. उन्होंने अमान को बहुत प्यार किया और बोलीं, ‘‘बेटा, आज तेरा जन्मदिन है.’’ फिर प्रिंसिपल से इजाजत ले कर उसे अपने साथ घुमाने ले गईं. उसे आइसक्रीम और केक खिलाया, टैडीबियर खिलौना भी दिया. फिर घर के बाहर छोड़ गईं. जब अमान दोनों हाथभरे हुए हंसताकूदता घर में घुसा तो वहां कुहराम मचा हुआ था. आया को खूब डांट पड़ रही थी. पिताजी भी औफिस से आ गए थे, पुलिस में जाने की बात हो रही थी. यह सब देख अमान एकदम डर गया कि क्या हो गया.

पिताजी ने गुस्से में आगे बढ़ कर उसे 2-4 थप्पड़ जड़ दिए और गरज कर बोले, ‘‘बोल बदमाश, कहां गया था? बिना हम से पूछे उस डायन के साथ क्यों गया? वह ले कर तुझे उड़ जाती तो क्या होता?’’ दादी ने उसे छुड़ाया और गोद में छिपा लिया. हाथ का सारा सामान गिर कर बिखर गया. जब खिलौना उठाने को वह बढ़ा तो पिता फिर गरजे, ‘‘फेंक दो कूड़े में सब सामान. खबरदार, जो इसे हाथ लगाया तो…’’  वह भौचक्का सा खड़ा था. उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या? क्यों पिताजी इतने नाराज हैं?

2 दिनों बाद दादी ने रोतरोते उस का सामान और नए कपड़े अटैची में रखे. अमान ने सुना कि पिताजी के साथ वह दार्जिलिंग जा रहा है. वह रेल में बैठ कर घूमने जा रहा था, इसलिए खूब खुश था. उस ने दादी को समझाया, ‘‘क्यों रोती हो, घूमने ही तो जा रहा हूं. 3-4 दिनों में लौट आऊंगा.’’ दार्जिलिंग पहुंच कर अमान के पिता अपने मित्र रमेश के घर गए. दूसरे दिन उन्हीं के साथ वे एक स्कूल में गए. वहां अमान से कुछ सवाल पूछे गए और टैस्ट लिया गया. वह सब तो उसे आता ही था, झटझट सब बता दिया. तब वहां के एक रोबीले अंगरेज ने उस की पीठ थपथपाई और कहा, ‘‘बहुत अच्छे.’’ और टौफी खाने को दी. परंतु अमान को वहां कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. वह घर चलने की जिद करने लगा. उसे महसूस हुआ कि यहां जरूर कुछ साजिश चल रही है. उस के पिताजी कितनी देर तक न जाने क्याक्या कागजों पर लिखते रहे, फिर उन्होंने ढेर सारे रुपए निकाल कर दिए. तब एक व्यक्ति ने उन्हें स्कूल और होस्टल घुमा कर दिखाया. पर अमान का दिल वहां घबरा रहा था. उस का मन आशंकित हो उठा कि जरूर कोई गड़बड़ है. उस ने अपने पिता का हाथ जोर से पकड़ लिया और घर चलने के लिए रोने लगा.

शाम को पिताजी उसे माल रोड पर घुमाने ले गए. छोटे घोड़े पर चढ़ा कर घुमाया और बहुत प्यार किया, फिर वहीं बैंच पर बैठ कर उसे खूब समझाते रहे, ‘‘बेटा, तुम्हारी मां वही कहानी वाली राक्षसी है जो बच्चों का खून पी जाती है, हाथपैर तोड़ कर मार डालती है, इसलिए तो हम लोगों ने उसे घर से निकाल दिया है. उस दिन वह स्कूल से जब तुम्हें उड़ा कर ले गई थी, तब हम सब परेशान हो गए थे. इसलिए वह यदि आए भी तो कभी भूल कर भी उस के साथ मत जाना. ऊपर से देखने में वह सुंदर लगती है, पर अकेले में राक्षसी बन जाती है.’’ अमान डर से कांपने लगा. बोला, ‘‘पिताजी, मैं अब कभी उन के साथ नहीं जाऊंगा.’’ दूसरे दिन सवेरे 8 बजे ही पिताजी उसे बड़े से गेट वाले जेलखाने जैसे होस्टल में छोड़ कर चले गए. वह रोता, चिल्लाता हुआ उन के पीछेपीछे भागा. परंतु एक मोटे दरबान ने उसे जोर से पकड़ लिया और अंदर खींच कर ले गया. वहां एक बूढ़ी औरत बैठी थी. उस ने उसे गोदी में बैठा कर प्यार से चुप कराया, बहुत सारे बच्चों को बुला कर मिलाया, ‘‘देखो, तुम्हारे इतने सारे साथी हैं. इन के साथ रहो, अब इसी को अपना घर समझो, मातापिता नहीं हैं तो क्या हुआ, हम यहां तुम्हारी देखभाल करने को हैं न.’’ अमान चुप हो गया. उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. फिर उसे उस का बिस्तर दिखाया गया, सारा सामान अटैची से निकाल कर एक छोटी सी अलमारी में रख दिया गया. उसी कमरे में और बहुत सारे बैड पासपास लगे थे. बहुत सारे उसी की उम्र के बच्चे स्कूल जाने को तैयार हो रहे थे. उसे भी एक आया ने मदद कर तैयार कर दिया.

फिर घंटी बजी तो सभी बच्चे एक तरफ जाने लगे. एक बच्चे ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो, नाश्ते की घंटी बजी है.’’ अमान यंत्रवत चला गया, पर उस से एक कौर भी न निगला गया. उसे दादी का प्यार से कहानी सुनाना, खाना खिलाना याद आ रहा था. उसे पिता से घृणा हो गई क्योंकि वे उसे जबरदस्ती, धोखे से यहां छोड़ कर चले गए. वह सोचने लगा कि कोई उसे प्यार नहीं करता. दादी ने भी न तो रोका और न ही पिताजी को समझाया. वह ऊपर से मशीन की तरह सब काम समय से कर रहा था पर उस के दिल पर तो मानो पहाड़ जैसा बोझ पड़ा हुआ था. लाचार था वह, कई दिनों तक गुमसुम रहा. चुपचाप रात में सुबकता रहा. फिर धीरेधीरे इस जीवन की आदत सी पड़ गई. कई बच्चों से जानपहचान और कइयों से दोस्ती भी हो गई. वह भी उन्हीं की तरह खाने और पढ़ने लग गया. धीरेधीरे उसे वहां अच्छा लगने लगा. वह कुछ अधिक समझदार भी होने लगा. इसी प्रकार 1 वर्ष बीत गया. वह अब घर को भूलने सा लगा था. पिता की याद भी धुंधली पड़ रही थी कि एक दिन अचानक ही पिं्रसिपल साहब ने उसे अपने औफिस में बुलाया. वहां 2 पुलिस वाले बैठे थे, एक महिला पुलिस वाली तथा दूसरा बड़ी मूंछों वाला मोटा सा पुलिस का आदमी. उन्हें देखते ही अमान भय से कांपने लगा कि उस ने तो कोई चोरी नहीं की, फिर क्यों पुलिस पकड़ने आ गई है.

वह वहां से भागने ही जा रहा था कि प्रिंसिपल साहब ने प्यार से उस की पीठ सहलाई और कहा, ‘‘बेटा, डरो नहीं, ये लोग तुम्हें तुम्हारे मातापिता के  पास ले जाएंगे. तुम्हें कुछ भी नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. इन के पास कोर्ट का और्डर है. हम अब कुछ भी नहीं कर सकते, तुम्हें जाना ही पड़ेगा.’’ अमान ने रोतेरोते कहा, ‘‘मेरे पिताजी को बुलाइए, मैं इन के साथ नहीं जाऊंगा.’’ तब उस पुलिस वाली महिला ने उसे प्यार से गोदी में बैठा कर कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारे पिताजी की तबीयत ठीक नहीं है, तभी तो उन्होंने हमें लेने भेजा है. तुम बिलकुल भी डरो मत, हम तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे. पर यदि नहीं जाओगे तो हम तुम्हें जबरदस्ती ले जाएंगे.’’ उस ने बचाव के लिए चारों तरफ देखा, पर कहीं से सहारा न पा, चुपचाप उन के साथ जाने को तैयार हो गया. होस्टल की आंटी उस का सामान ले आई थी.  कलकत्ता पहुंच कर पुलिस वाली आंटी अमान के बारबार कहने पर भी उसे पिता और दादी के पास नहीं ले गई. उस का मन भयभीत था कि क्या मामला है? रात को उन्होंने अपने घर पर ही उसे प्यार से रखा. दूसरे दिन पुलिस की जीप में बैठा कर एक बड़ी सी इमारत, जिस को लोग कोर्ट कह रहे थे, वहां ले गई. वहां उस के मातापिता दोनों दूरदूर बैठे थे और काले चोगे पहने बहुत से आदमी चारों तरफ घूम रहे थे. अमान सहमासहमा बैठा रहा. वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या हो रहा है? फिर ऊंची कुरसी पर सफेद बालों वाले बड़ी उम्र के अंकल, जिन को लोग जज कह रहे थे, ने रोबदार आवाज में हुक्म दिया, ‘‘इस बच्चे यानी अमान को इस की मां को सौंप दिया जाए.’’

पुलिस वाली आंटी, जो उसे दार्जिलिंग से साथ लाई थी, उस का हाथ पकड़ कर ले गई और उसे मां को दे दिया. मां ने तुरंत उसे गोद में उठाया और प्यार करने लगीं. पहले तो उन का प्यारभरा स्पर्श अमान को बहुत ही भाया. परंतु तुरंत ही उसे पिता की राक्षसी वाली बात याद आ गई. तब उसे सचमुच ही लगने लगा कि मां जरूर ही एक राक्षसी है, अभी तो चख रही है, फिर अकेले में उसे खा जाएगी. वह घबरा कर चीखचीख कर रोने लगा, ‘‘मैं इस के साथ नहीं रहूंगा, यह मुझे मार डालेगी. मुझे पिताजी और दादी के साथ अपने घर जाना है. छोड़ दो मुझे, छोड़ो.’’ यह कहतेकहते डर से वह बेहोश हो गया. जब उस के पिता उसे लेने को आगे बढ़े तो उन्हें पुलिस ने रोक दिया, ‘‘कोर्ट के फैसले के विरुद्ध आप बच्चे को नहीं ले जा सकते, इसे हाथ भी न लगाएं.’’तब पिता ने गरज कर कहा, ‘‘यह अन्याय है, बच्चे पर अत्याचार है, आप लोग देख रहे हैं कि बच्चा अपनी मां के पास नहीं जाना चाहता. रोरो कर बेचारा अचेत हो गया है. आप लोग ऐसे नहीं मानेंगे तो मैं उच्च न्यायालय में याचिका दायर करूंगा. बच्चा मुझे ही मिलना चाहिए.’’ जज साहब ने नया फैसला सुनाया, ‘‘जब तक उच्च न्यायालय का फैसला नहीं होता है, तब तक बच्चा पुलिस की संरक्षण में ही रहेगा.’’

4 वर्ष का बेचारा अमान अकेला घर वालों से दूर अलग एक नए वातावरण में चारों तरफ पुलिस वालों के बीच भयभीत सहमासहमा रह रहा था. उसे वहां किसी प्रकार की तकलीफ नहीं थी. खाने को मिलता, पर कुछ खाया ही न जाता. टीवी, जिसे देखने को पहले वह सदा तरसता रहता था, वहां देखने को मिलता, पर कुछ भी देखने का जी ही न चाहता. उसे दुनिया में सब से घृणा हो गई. वह जीना नहीं चाहता था. उस ने कई बार वहां से भागने का प्रयत्न भी किया, पर बारबार पकड़ लिया गया. उस का चेहरा मुरझाता जा रहा था, हालत दयनीय हो गई थी. पर अब कुछकुछ बातें उस की समझ में आने लगी थीं. करीब महीनेभर बाद अमान को नहलाधुला कर अच्छे कपड़े पहना कर जीप में बैठा कर एक नए बड़े न्यायालय में ले जाया गया. वहां उस के मातापिता पहले की तरह ही दूरदूर बैठे हुए थे. चारों तरफ पुलिस वाले और काले कोट वाले वकील घूम रहे थे. पहले के समान ही ऊंची कुरसी पर जज साहब बैठे हुए थे.

पहले पिता के वकील ने खड़े हो कर लंबा किस्सा सुनाया. अमान के मातापिता, जो अलगअलग कठघरे में खड़े थे, से भी बहुत सारे सवाल पूछे. फिर दूसरे वकील ने भी, जो मां की तरफ से बहस कर रहा था, उस का नाम ‘अमान, अमान’ लेले कर उसे मां को देने की बात कही. अमान को समझ ही नहीं आ रहा था कि मातापिता के झगड़े में उस का क्या दोष है. आखिर में जज साहब ने अमान को कठघरे में बुलाया. वह भयभीत था कि न जाने अब उस के साथ क्या होने वाला है. उसे भी मातापिता की तरह गीता छू कर कसम खानी पड़ी कि वह सच बोलेगा, सच के सिवा कुछ भी नहीं बोलेगा. जज साहब ने उस से प्यार से पूछा, ‘‘बेटा, सोचसमझ कर सचसच बताना कि तुम किस के पास रहना चाहते हो… अपने पिता के या मां?’’ सब की नजरें उस के मुख पर ही लगी थीं. पर वह चुपचाप सोच रहा था. उस ने किसी की तरफ नहीं देखा, सिर झुकाए खड़ा रहा. तब यही प्रश्न 2-3 बार उस से पूछा गया तो उस ने रोष से चिल्ला कर उत्तर दिया, ‘‘मुझे किसी के भी साथ नहीं रहना, कोई मेरा अपना नहीं है, मुझे अकेला छोड़ दो, मुझे सब से नफरत है.’’

मैं पापी हूं : 40 साल बाद जब हुआ एक पाप का कबूलनामा

लेखिका- परबंत सिंह मैहरी

बात उन दिनों की है, जब मेरी जवानी उछाल मार रही थी. मैं ने ‘शहर के मशहूर समाजसेवी श्रीश्री डालरिया मल ने सभा की अध्यक्षता की…’ जैसी रिपोर्टिंग करतेकरते आगरा से निकलने वाली एडल्ट मैगजीन ‘मचलती जवानी’ के लिए भी लिखना शुरू कर दिया था. यह ‘मचलती जवानी’ ही मेरे पाप की जड़ है. एक दिन ‘मचलती जवानी’ के संपादक रसीले लाल राजदार की एक ऐसी चिट्ठी आई, जिस ने मेरी दुनिया ही बदल डाली.

उस चिट्ठी में उन्होंने लिखा था, ‘रहते हैं ऐसे महानगर में, जो सोनागाछी और बहू बाजार के लिए सारे देश मशहूर हैं, और आप हैं कि दमदार तसवीरें तक नहीं भिजवा सकते. भेजिए, भेजिए… अच्छी रकम दिलवा दूंगा प्रकाशक से.’

कैमरा खरीदने के लिए मैं ने सेठजी  से कहा कि कुछ पैसे दे दें. यह सुन कर सेठ डालरिया मल ‘होहो’ कर हंसे थे और शाम तक मैं एक अच्छे से कैमरे का मालिक बन गया था.

बहू बाजार की खोली नंबर 34 में एक नई लड़की सीमा आई थी. चेहरा  किसी बंबइया हीरोइन से कम न था. एक दिन सीमा नहाधो कर मुंह में पान रख अपने अधसूखे बालों को धीरेधीरे सुलझा रही थी, तभी मैं उस की खोली में जा धमका.

सीमा ने तुरंत दरवाजा बंद कर सिटकिनी लगा दी और बोली, ‘‘मेरा नाम सीमा है. आप अंदर आइए, बैठिए.’’ मैं पलंग पर बैठते हुए बोला, ‘‘देखो, मैं कुछ करनेधरने नहीं आया हूं. बात यह है कि…’’ ‘‘बेवकूफकहीं के… आज मेरी बोहनी खराब कर दी. चल, निकल यहां से,’’ सीमा चीखते हुए बोली थी.

मैं हकबका गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी. मैं बोला, ‘‘मैं तुम्हारी बोहनी कहां खराब कर रहा हूं? लो ये रुपए.’’

यह सुनते ही सीमा चौंकी. वह बोली, ‘‘मैं मुफ्त के पैसे नहीं लेती.’’’

‘‘मैं मुफ्त के पैसे कहां दे रहा हूं? इस के बदले मुझे दूसरा काम है.’’

‘‘दूसरा काम…? क्या काम है?’’

‘‘मैं तुम्हारी कुछ तसवीरें खींचना चाहता हूं…’’

यह सुनना था कि सीमा मेरी बात बीच में ही काट कर ठहाका मार कर हंसी, ‘‘अरे, मां रे. ऐसेऐसे मर्द भी हैं दुनिया में?’’

फिर सीमा मेरी ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘मेरे तसवीर देखदेख कर ही मजे लेगा… चल, ले खींच. तू भी क्या याद करेगा…

‘‘और पैसे भी रख अपने पास. जरूरत है, तो मुझ से ले जा 10-20.’’ सीमा ने अंगरेजी हीरोइनों को भी मात देने वाले पोजों में तसवीरें खिंचवाईं. वे छपीं तो अच्छे पैसे भी मिले. जब पहला मनीऔर्डर आया, तो उन पैसों से मैं ने उस के लिए साड़ी और ब्लाउज खरीदा.

जब मैं उसे देने गया, तो यह सब देख कर उस की आंखें भर आईं. वह बोली, ‘‘तुम आया करो न.’’ और मैं सीमा के पास आनेजाने लगा. यही मेरा पाप था. उस के लिए कुछ साल पीछे जाना होगा. बात शायद साल 1946 की है. मेरे मातापिता ढाका के धान मंडी इलाके में रहा करते थे, तब मैं प्राइमरी स्कूल की पहली क्लास में भरती हुआ था.

स्कूल घर से एक मील दूर था, लेकिन मैं ने जो रास्ता दोस्तों के साथ कंचे खेलते हुए पता कर लिया था, वह चौथाई मील से भी कम था. मेरे पिता लंबे रास्ते से ले जा कर मुझे स्कूल में भरती करा कर आए. लेकिन अगले दिन से मुझे अकेले ही आनाजाना था और इस के लिए मुझे शौर्टकट रास्ता ही पसंद आया.

बहुत दिनों के बाद देश के बंटवारे के बाद जब मैं कलकत्ता आ गया, तो मुझे पता चला कि उस शौर्टकट रास्ते का नाम गली चांद रहमान था. एक दिन मैं ने जब मां से पूछा, ‘‘मांमां, उस रास्ते में बहुत सारी दीदियां और मौसियां अपनेअपने घरों के सामने बैठी रहती हैं. वे कौन हैं?’’

यह सुन कर मां ने मुझे डपटा था, ‘‘खबरदार, जो दोबारा उस रास्ते से गया तो…’’ इस के बाद 2-3 दिनों तक मैं मेन रोड से आयागया, लेकिन फिर वही गली पकड़ ली.

एक दिन मैं ने मां को जब अच्छे मूड में देखा, तो अपना सवाल दोहरा दिया. वे बोलीं, ‘‘जा, उन्हीं से पूछ लेना.’’

एक मौसी मुझ से हर रोज बोला करती थीं, ‘‘ऐ लड़के, बदरू चाय वाले को बोल देना तो, लिली 4 कप चाय मांग रही है.’’ वे कभी मुझे एक पैसा देतीं, तो कभी 2 पैसे दिया करती थीं.

अगले दिन मैं ने हिम्मत कर के लिली से ही पूछ लिया, ‘‘मेरी मां ने पूछा है कि आप लोग कौन हैं?’’

मेरा यह सवाल सुन कर लिली के अलावा और भी मौसियां और दीदियां हंस पड़ीं. उन में से एक बोली थी, ‘‘बता देना, हम लोग धंधेवालियां हैं.’’

मां को जब एक दिन फिर अच्छे मूड में देखा, तो उन को बताया, ‘‘मां, वे कह रही हैं कि धंधेवालियां हैं.’’ लेकिन मां शायद अंदर से जलभुनी बैठी थीं. वे बोलीं, ‘‘जा, उन से यह भी पूछना कि कैसा चल रहा है धंधा?’’

मैं ने वाकई यह बात पूछ डाली थी. इस के जवाब में लिली ने हंस कर कहा था, ‘‘जा कर कह देना उन से कि बड़ा अच्छा चल रहा है. इतना अच्छा चल रहा है कि सलवार पहनने की भी फुरसत नहीं मिलती.’’ यह जवाब सुन कर मां ने इतनी जोर से तमाचा मारा था कि गाल सूज जाने की वजह से मैं कई दिनों तक स्कूल नहीं जा पाया था.

एक दिन पता नहीं क्या बात हुई कि लंच टाइम में ही छुट्टी हो गई. मास्टर ने कहा, ‘‘सभी सीधे घर जाना. संभल कर जाना.’’

जब मैं गली चांद रहमान से निकल रहा था, तो पाया कि सारी गली में सन्नाटा पसरा था. सिर्फ लिली मौसी ही दरवाजे पर खड़ी थीं और काफी परेशान दिख रही थीं. मुझे देखते ही वे बोलीं,  ‘‘तू हिंदू है?’’ हिंदू क्या होता है, तब मैं यह नहीं जानता था, इसलिए चुप रहा.

वे फिर बोलीं, ‘‘सब्जी वाले महल्ले में रहता है न. वहां दंगा फैल गया है. जब तक सब ठीक न हो जाए, तू यहीं छिपा रह.’’ कर्फ्यू लग गया था. 3 दिनों के बाद हालत सुधरी और कर्फ्यू में ढील हुई, तो लिली ने बताया, ‘‘सब्जी वाले महल्ले में एक भी हिंदू नहीं है. लगता है, जो मारे जाने से बच गए हैं, वे कहीं और चले गए हैं.’’

अगले दिन वे मुझे ले कर मेरे टोले में गईं, लेकिन वहां कुछ भी नहीं था, सिर्फ जले हुए मकान थे. यह देख कर मैं रोने लगा. वे मुझे अपने साथ ले आईं और अपने बेटे की तरह पालने लगीं.

तकरीबन सालभर बाद की बात है. मैं गली में गुल्लीडंडी खेल रहा था, तभी कानों में आवाज आई, ‘‘अरे सोनू, तू यहां है? ठीक तो है न? तुझे कहांकहां नहीं ढूंढ़ा.’’ देखा कि मेरी मां और पिता थे. पिता बोले, ‘‘चल, देश आजाद हो गया है. हम लोगों को उस पार के बंगाल जाना है.’’

तब तक लिली भी बाहर आ गई थीं.  उन की आंखों में छिपे आंसुओं को सिर्फ मैं ने ही महसूस किया था. अब आज में लौट आते हैं. सीमा ने पहले दिन के बाद मुझ से कभी कोई पैसा नहीं लिया, बल्कि हर बार देने की कोशिश की.

मैं उस के जरीए एक बच्चे का बाप भी बन गया और देखते ही देखते वह लड़का एक साल का हो गया. एक दिन दोपहर को उस के पास गया, तो वह बोली, ‘‘ऊपर से पेटी उतारना तो… मेरी मां ने मुझे चांदी के कंगन दिए थे. कहा था, तेरा बच्चा होगा तो मेरी तरफ से उसे पहना देना.’’

पेटी उतारी गई. कई तरह के पुराने कपड़े भरे हुए थे. उस ने सारी पेटी फर्श पर उलट दी और कहा, ‘‘लगे हाथ सफाई भी हो जाएगी.’’ ट्रंक के नीचे बिछाया गया अखबार उलट कर मैं पढ़ने लगा. तभी उस में से एक तसवीर निकल कर नीचे गिरी. मैं ने उठाई. चेहरा पहचाना हुआ लगा.

मैं ने पूछा, ‘‘ये कौन हैं?’’

‘‘मेरी मां है.’’

‘‘क्या तुम्हारी मां धान मंडी में रहती थीं?’’ मैं ने चौंक कर पूछा.

‘‘हां, तुम को कैसे मालूम?’’ सीमा ताज्जुब से मुझे देखने लगी.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या तुम्हारी मां का नाम लिली है?’’

‘‘हां, लेकिन यह सब तुम को कैसे मालूम?’’ सीमा की हैरानी बढ़ती जा रही थी.

लेकिन उस के सवाल के जवाब में मैं ने बहुत बड़ी बेवकूफी कर दी. मैं ने जोश में आ कर बता दिया, ‘‘मैं भी धान मंडी का हूं. बचपन में तुम्हारी मां ने मुझे अपने बेटे की तरह पाला था.’’

यह सुनना था कि सीमा का चेहरा सफेद हो गया. उस दिन के बाद से सीमा गुमसुम सी रहने लगी थी. एक दिन वह बोली, ‘‘भाईबहन हो कर हम लोगों ने यह क्या कर डाला? कैसे होगा प्रायश्चित्त?’’ पर इस का कोई जवाब होता, तब न मैं उस को देता.

कुछ दिनों बाद मुझे बिहार में अपने गांव जाना पड़ गया. तकरीबन एक महीने बाद मैं लौटा, तो पता चला कि सीमा ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली थी. हमारा बेटा कहां गया, इस का पता नहीं चल पाया. अनजाने में हो गए पाप का सीमा ने तो जान दे कर प्रायश्चित्त कर लिया था, लेकिन मैं बुजदिल उस पाप को आज तक ढो रहा हूं. मेरे घर के पास ही फकीरचंद रहता था. वह टैक्सी ड्राइवर था. वह एक अच्छा शायर भी था. मेरी तरह उस का भी आगेपीछे कोई नहीं था. सो, हम दोनों में अच्छी पट रही थी.

मैं जोकुछ लिखता था, उस का पहला पाठक वही होता था. एक दिन वह मेरे लिखे को पढ़ने लगा. वह ज्योंज्यों मेरा लिखा पढ़ता गया, उस की आंखें आंसुओं से भरती जा रही थीं और जब पढ़ना पूरा हुआ, तो देखा कि वह फफकफफक कर रो रहा था.  मैं ने हैरान होते हुए पूछा, ‘‘अरे, तुम को क्या हो गया फकीरचंद?’’

वह भर्राए गले से बोला, ‘‘हुआ कुछ नहीं. सीमा का बेटा मैं ही हूं.’’

मेरे चाचाजी: आखिर किस बीमारी से जूझ रहे थे चाचाजी

फोन की घंटी बजने पर मैं ने फोन उठाया तो उधर से मेरी बड़ी जेठानी का हड़बड़ाया सा स्वर सुनाई दिया, ‘‘शची, ललित है क्या घर में…चाचाजी का एक्सीडेंट हो गया है…तुम लोग जल्दी से अस्पताल पहुंचो…हम भी अस्पताल जा रहे हैं.’’

यह सुन कर घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल हो गया. मैं ने जल्दी से ललित को बताया और हम अस्पताल की तरफ भागे. अस्पताल पहुंचे तो बाहर ही परिवार के बाकी लोग मिल गए.

‘‘कैसे हैं चाचाजी?’’ मैं ने छोटी जेठानी से पूछा.

‘‘उन की हालत ठीक नहीं है, शची… एक पैर कुचल गया है और सिर पर बहुत अधिक चोट लगी है…खून बहुत बह गया है,’’ वह रोंआसी हो कर बोलीं.

मेरा मन रोने को हो आया. हम अंदर गए तो डाक्टर पट्टियां कर रहा था. चाचाजी होश में थे या नहीं, पर उन की आंखें खुली हुई थीं. ‘चाचाजी’ कहने पर वह बस अपनी निगाहें घुमा पा रहे थे. चोट के कारण चाचाजी का मुंह बंद नहीं हो पा रहा था. उन्हें देख लग रहा था जैसे वह कुछ बोलना चाह रहे हैं पर बोलने में असमर्थता महसूस कर रहे थे.

सारा परिवार परेशान था. विनय दादाजी के पास खड़ा हो कर उन का हाथ सहलाने लगा. उन्होंने उस की हथेली कस कर पकड़ ली तो उस के बाद छोड़ी ही नहीं.

‘‘आप अच्छे हो जाएंगे, चाचाजी,’’ मैं ने रोतेरोते उन का चेहरा सहलाया.

उस के बाद शुरू हुआ चाचाजी के तमाम टैस्ट और एक्सरे का दौर…अंदर चाचाजी का सीटी स्कैन हो रहा था और बाहर हमारा पूरा परिवार अस्पताल के बरामदे में असहाय खड़ा, जीवन व मृत्यु से जूझ रहे अपने प्रिय चाचाजी की सलामती की कामना कर रहा था. उस पल लग रहा था कि कोई हमारी सारी दौलत लेले और हमारे चाचाजी को अच्छा कर दे. रहरह कर परिवार का कोई न कोई सदस्य सुबक पड़ता. उन की हालत बहुत खराब थी तब भी मन में अटूट विश्वास था कि इतने संत पुरुष की मृत्यु ऐसे नहीं हो सकती.

78 साल के चाचाजी यानी मेरे चचिया ससुर वैसे हर प्रकार से स्वस्थ थे. उन को देख कर लगता था कि वह अभी बहुत दिनों तक हमारे बीच बने रहेंगे लेकिन इस दुखद घटना ने सब के दिलों को झकझोर दिया, क्योंकि चाचाजी के साथ परिवार के हर सदस्य का रिश्ता ही कुछ इस तरह का था. वह जैसे हर एक के बिलकुल अपने थे, जिन से हर सदस्य अपनी निजी से निजी समस्या कह देता था. वह हर एक के दोस्त थे, राजदार थे और मांजी के संरक्षक थे. देवरभाभी का ऐसा पवित्र व प्यारा रिश्ता भी मैं ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा था.

चाचाजी को गहन चिकित्सा कक्ष में रखा गया था. उन की हालत चिंताजनक तो थी पर नियंत्रण में थी. डाक्टरों के अनुसार चाचाजी का सुबह आपरेशन होना था. आपरेशन के लिए सभी जरूरी चीजों का इंतजाम हम ने रात को ही कर दिया. रात का 1 बज चुका था. परिवार के 1-2 सदस्यों को छोड़ कर बाकी सदस्य घर चले गए. अभी हम घर पहुंचे ही थे कि अस्पताल से फोन आ गया कि चाचाजी की हालत बिगड़ रही है. सभी लोग दोबारा अस्पताल पहुंचे…लेकिन तब तक सबकुछ समाप्त हो चुका था. हमारे प्यारे चाचाजी हम सब को रोताबिलखता छोड़ कर इस दुनिया से जा चुके थे.

हम चाचाजी का पार्थिव शरीर घर ले आए. रिश्तेदारों और जानने वालों का हुजूम उन के अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़ा. यह देख कर हमारा सारा परिवार चकित व हतप्रभ था. दरअसल, चाचाजी के पास सब की परेशानियों का निदान था, जिन्हें वह अपनी तरह से हल करते थे.

चाचाजी के संसार छोड़ कर जाने के सदमे को परिवार सहज नहीं ले पा रहा था. बच्चे अपने प्रिय दादाजी का जाना सहन नहीं कर पा रहे थे. परिवार का कभी कोई तो कभी कोई सदस्य फूटफूट कर रोने लगता. चाचाजी ने परिवार में रह कर सारे कर्तव्य पूरे किए लेकिन खुद एक वैरागी की तरह रहे. वह छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष, लालच आदि सांसारिक रागद्वेषों से बहुत दूर थे…सही अर्थों में वह संत थे. एक ऐसे संत जिन्होंने सांसारिक कर्तव्यों से कभी पलायन नहीं किया.

चाचाजी के कई रूप दिमाग में आजा रहे थे. जोरजोर से हंसते हुए, रूठते हुए, गुस्से से चिल्लाते हुए, बच्चों के साथ डांस करते हुए, अपनी लापरवाही से कई काम बिगाड़ते हुए, परिवार पर गर्व करते हुए. सब की सहायता को तत्पर…एक चाचाजी के अनेक रूप थे. आज चाचाजी की विदा की बेला पर उन से संबंधित सभी पुरानी बातें मुझे बहुत याद आ रही थीं.

चाचाजी से मेरा पहला परिचय विवाह के समय हुआ था. तब वह लखनऊ में कार्यरत थे और मेरी ससुराल व मायका देहरादून में था.

‘पैर छुओ शची…ये हमारे चाचाजी हैं,’ ललित ने कहा, तो मैं ने सामने देखा. दुबलेपतले, हंसमुख चेहरे वाले चाचाजी मेरे सामने खड़े थे. ललित के ‘हमारे चाचाजी’ कहने भर से ही परिवार के साथ उन के अटूट रिश्ते का एहसास मुझे मन ही मन हो गया था.

‘चाचाजी, प्रणाम,’ मैं उन के पैरों में झुक गई.

‘चिरंजीवी हो…खुश रहो,’ कह कर चाचाजी ने मेरी झुकी पीठ पर आशीर्वाद- स्वरूप दोचार हाथ मार दिए. मुझे यह आशीर्वाद कुछ अजीब सा लगा, पर चाचाजी के चेहरे के वात्सल्य भाव ने मुझे मन ही मन अभिभूत कर दिया. फिर भी मैं ने उन्हें आम चाचाजी की तरह ही लिया, जैसे सभी के चाचाजी होते हैं वैसे ललित के भी हैं.

मेरी नईनई शादी हुई थी. मुझे बस, इतना पता था कि ललित के एक ही चाचाजी हैं और वह भी अविवाहित हैं. पति 6 भाई व 1 बहन थे, 2 जेठानियां थीं. परिवार के लोगों के बीच गजब का तालमेल था, जो मैं ने इस से पहले किसी परिवार में नहीं देखा था.

‘मुझे तो यह परिवार फिल्मी सा लगता है,’ एक दिन मैं ननद से बोली तो उन्होंने यह बात हंसतेहंसते सब को बता दी. मैं नईनई बहू, संकोच से गड़ गई थी.

छुट्टियों में हमारा सारा परिवार देहरादून के अपने पुश्तैनी मकान में जमा हो जाता था. एक दिन सुबहसुबह घर में कोहराम मचा हुआ था. बड़ी जेठानी गुस्से में बड़बड़ाती हुई इधर से उधर, उधर से इधर घूम रही थीं.

‘क्या हुआ, भाभी?’ मैं ने पूछा.

‘चाचाजी ने रात में बाथरूम का नल खुला छोड़ दिया, सारी टंकी खाली हो गई… पता नहीं ऐसी लापरवाही क्यों करते हैं चाचाजी. मैं रोज रात में चाचाजी के बाथरूम जाने के बाद नल चेक करती थी, कल भूल गई और आज ही यह हो गया. अब इतने लोगों के लिए पानी का काम कैसे चलेगा?’

‘आदमी को शादी जरूर करनी चाहिए,’ मांजी अकसर चाचाजी की लापरवाही के लिए उन के अविवाहित होने को जिम्मेदार ठहरा देती थीं. सुन कर अजीब सा लगा कि इतने बुजुर्ग इनसान ने ऐसी बच्चों जैसी लापरवाही क्यों की और सब लोग उन पर क्यों बड़बड़ा रहे हैं. इन सब बातों से अलगथलग चाचाजी सुबह की सैर पर गए हुए थे.

‘चाचाजी ने शादी क्यों नहीं की?’ एक दिन मैं ननद से पूछ बैठी.

‘भाभी, सुनोगी तो हैरान रह जाओगी,’ ननद बोलीं, ‘मैं तब बहुत छोटी थी, मां बताती हैं कि पिताजी की अचानक मौत के कारण परिवार मझधार में फंस गया था, परिवार को संभालने के लिए चाचाजी ने विवाह न करने की कसम खा ली. तब से आज तक अपने बड़े भाई के परिवार की देखभाल करना ही उन के जीवन का मुख्य लक्ष्य बन गया.’

मैं हैरान हो ननद का चेहरा देखती रह गई. इतनी बड़ी कुर्बानी भी कहीं कोई देता है… पूरा जीवन ही ऐसे गुजार दिया. ऐसे संत पुरुष के प्रति उसी पल से मेरे हृदय में अथाह श्रद्धा का सागर लहराने लगा. तब मेरे पति की पोस्ंिटग कानपुर में थी और चाचाजी लखनऊ में नौकरी करते थे. हम दोनों उन को अपने पास आने के लिए जिद करते थे. मेरे पति मुझे उकसाते कि मैं उन्हें आने के लिए कहूं…पर डेढ़दो घंटे की दूरी तय कर के चाचाजी साल भर तक कानपुर नहीं आए.

मैं भी हताश हो कर चुप हो गई. सोचा, शायद वह आना ही नहीं चाहते हैं. परिवार के सदस्य, उन की आदतें जैसी थीं वैसी ही स्वीकार करते थे.

एक दिन सुबहसुबह डोरबेल बजी और मैं ने दरवाजा खोला तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. हाथ में अटैची और कंधे पर बैग लटकाए चाचाजी को सामने खड़ा पाया.

‘चाचाजी, आप…’ मैं अपनी खुशी को संभालते हुए उन के पैरों में झुक गई. मेरे चेहरे पर अपने आने की सच्ची खुशी देख कर उन्हें शायद संतोष हो गया था कि उन्होंने आ कर कोई गलती नहीं की.

‘हां, तुम लोगों को परेशान करने आ गया,’ वह हंसते हुए बोले थे.

‘आप कैसी बात कर रहे हैं चाचाजी, आप का आना हमारे सिरआंखों पर,’ मैं नाराज होती हुई बोली.

चाचाजी का हमारे पास आना तब से शुरू हुआ तो फिर बदस्तूर जारी रहा. जब भी कोई छुट्टी पड़ती या शनिवार, रविवार, वह हमारे पास आ जाते. विनय का जन्म हुआ तो उन की खुशी की जैसे कोई सीमा ही नहीं थी. बच्चे के लिए कपड़े…मेरे लिए साड़ी…उन का दिल करता था कि वह क्याक्या कर दें. नन्हा सा विनय तो जैसे उन की जान ही बन गया था. अब तो वह नहीं भी आना चाहते तो विनय का आकर्षण उन्हें कानपुर खींच लाता. हम तीनों हर शनिवार की शाम चाचाजी का बेसब्री से इंतजार करते और वह ढेर सारा सामान ले कर पहुंच जाते.

इस समय चाचाजी की जाने कितनी यादें दिमाग में आ कर शोर मचा रही थीं. वह परिवार के हर सदस्य पर तो खूब खर्च करना चाहते पर किसी का खुद पर खर्च करना वह जरा भी पसंद नहीं करते थे. कोई उन के लिए गिफ्ट खरीदता तो वह बहुत नाराज हो जाते. यहां तक कि चिल्ला भी पड़ते.

विवाह के शुरू के समय की एक घटना याद आती है. मैं ने चाचाजी के लिए नए साल पर खूबसूरत सा कुरता- पाजामा खरीदा और जब उन को दिया तो उन्होंने गुस्से में उठा कर फेंक दिया. मैं रोंआसी हो गई. चाचाजी यह कहते हुए चिल्ला रहे थे :

‘तुम लोग समझते नहीं हो…कर्जा चढ़ाते हो मेरे ऊपर. मैं यह सब पसंद नहीं करता.’

मैं आंसुओं से सराबोर, अपमानित सी कपड़े उठा कर वहां से चल दी. मैं ने मन ही मन प्रण किया कि भविष्य में उन को कभी कोई गिफ्ट नहीं दूंगी. यह बात मैं ने जब घर के लोगों को बताई तो सब हंसतेहंसते लोटपोट हो गए थे. बाद में मुझे पता चला कि उन के अनुभवों में तो ऐसी अनगिनत घटनाएं थीं और डांट खाने के बाद भी सब चाचाजी को गिफ्ट देते थे.

समय के साथ मुझे भी उन के स्वभाव की आदत पड़ गई. उन की डांट में, उन की नाराजगी में, उन के अथाह स्नेह को मैं ने भी महसूस करना सीख लिया. कुछ सालों बाद ललित का तबादला देहरादून हो गया और चाचाजी भी रिटायर हो कर देहरादून आ गए. बच्चे बड़े होने लगे तो सभी भाइयों के परिवार अलगअलग रहने लगे.

ससुराल के पुश्तैनी मकान में बस बड़े भाई का परिवार, मांजी व चाचाजी थे. लेकिन उस घर में हमारा सब का आनाजाना लगा रहता था. एक दिन मैं मांजी से मिलने गई थी. टीवी पर नए साल का बजट पेश हो रहा था. चाचाजी बड़े ध्यान से समाचार सुन रहे थे.

‘देखना शची, चाचाजी कितने ध्यान से बजट का समाचार सुन रहे हैं, पर इन का अपना बजट हमेशा गड़बड़ाया रहता है.’

बड़े होने के नाते चाचाजी घर में हर खर्च खुद ही करना चाहते थे. कोई दूसरा खर्च करने की पेशकश करता तो वह नाराज हो जाते. कोई सामान घर में खत्म हो जाए तो वह तुरंत यह कह कर चल देते कि मैं अभी ले कर आता हूं.

भतीजों के परिवार अलगअलग जगहों पर रहने के बावजूद वह परिवार के हर सदस्य के जन्मदिन पर ढेर सारी मिठाइयां, केक, पेस्ट्री ले कर पहुंच जाते. वह हर त्योहार पर सभी भतीजों के परिवारों को अपने पुश्तैनी घर में आमंत्रित करते. इस तरह सारे परिवार को उन्होंने एक डोर में बांधा हुआ था.

समय अपनी गति से खिसकता रहा. बच्चे बड़े और बड़े बूढ़े होने लगे. फिर परिवार में एक दुर्घटना घटी. मेरे सब से बड़े जेठजी का देहांत हो गया. इस से सारा परिवार दुख के सागर में डूब गया. जेठजी के जाने से चाचाजी अत्यधिक व्यथित हो गए. धीरेधीरे उन के चेहरे पर भी उम्र की थकान नजर आने लगी थी. फिर भी वह उम्र के हिसाब से बहुत चुस्तदुरुस्त थे. वह मांजी की तरफ से काफी चिंतित रहते थे कि अगर उन को कुछ हो गया तो उन का क्या होगा. वह बुढ़ापे में अकेले रह जाएंगे क्योंकि बड़ी भाभी का देरसवेर अपने बहूबेटे के पास जाना तय था.

हो सकता है यह मेरी खुशफहमी हो पर मैं उन का अपने प्रति विशेष अनुराग महसूस करती थी. एक दिन जब मैं ससुराल गई हुई थी तो चाचाजी काफी अलग से मूड में थे. मेरे पहुंचते ही मुझ से बोले, ‘शची, मैं ने भाभी से कह दिया है कि उन के बाद मैं तुम्हारे साथ रहूंगा.’

‘जी चाचाजी…’ इतना कह कर मैं धीरेधीरे मुसकराने लगी.

‘इस में हंसने की क्या बात है,’ उन्होंने मुझे जोर से डपटा, ‘मैं मजाक नहीं कर रहा हूं… मैं बिलकुल सच कह रहा हूं. मैं तुम्हारे साथ रहूंगा.’

मैं गंभीर हो कर बोली, ‘यह भी कोई कहने की बात है चाचाजी…आप का घर है. हमारी खुशकिस्मती है कि आप हमारे साथ रहेंगे,’ मेरे जवाब से चाचाजी संतुष्ट हो गए.

पर कौन जानता था कि मांजी से पहले चाचाजी इस दुनिया से चले जाएंगे.

‘‘चलिए भाभी, पंडितजी बुला रहे हैं चाचाजी को अंतिम प्रणाम करने के लिए,’’ मेरी देवरानी बोली तो मैं चौंक कर अतीत की यादों से वर्तमान में लौट आई.

चाचाजी का पार्थिव शरीर अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर दिया गया था. सभी रो रहे थे. मेरे कंठ में रुलाई जैसे आ कर अटक गई. कैसे देखेंगे इस संसार को चाचाजी के बिना… कैसा लगेगा हमारा परिवार इस आधारशक्ति के बिना…सभी ने रोतेरोते चाचाजी को अंतिम प्रणाम किया. भतीजों ने अपने कंधों पर चाचाजी की अरथी उठाई और चाचाजी अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़े.

रूठी रानी उमादे: क्यों संसार में अमर हो गई जैसलमेर की रानी

रेतीले राजस्थान को शूरवीरों की वीरता और प्रेम की कहानियों के लिए जाना जाता है. राजस्थान के इतिहास में प्रेम रस और वीर रस से भरी तमाम ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं, जिन्हें पढ़सुन कर ऐसा लगता है जैसे ये सच्ची कहानियां कल्पनाओं की दुनिया में ढूंढ कर लाई गई हों.

मेड़ता के राव वीरमदेव और राव जयमल के काल में जोधपुर के राव मालदेव शासन करते थे. राव मालदेव अपने समय के राजपूताना के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे. शूरवीर और धुन के पक्के. उन्होंने अपने बल पर  जोधपुर राज्य की सीमाओं का काफी विस्तार किया था. उन की सेना में राव जैता व कूंपा नाम के 2 शूरवीर सेनापति थे.

यदि मालदेव, राव वीरमदेव व उन के पुत्र वीर शिरोमणि जयमल से बैर न रखते और जयमल की प्रस्तावित संधि मान लेते, जिस में राव जयमल ने शांति के लिए अपने पैतृक टिकाई राज्य जोधपुर की अधीनता तक स्वीकार करने की पेशकश की थी, तो स्थिति बदल जाती. जयमल जैसे वीर, जैता कूंपा जैसे सेनापतियों के होते राव मालदेव दिल्ली को फतह करने में समर्थ हो जाते.

राव मालदेव के 31 साल के शासन काल तक पूरे भारत में उन की टक्कर का कोई राजा नहीं था. लेकिन यह परम शूरवीर राजा अपनी एक रूठी रानी को पूरी जिंदगी नहीं मना सका और वह रानी मरते दम तक अपने पति से रूठी रही.

जीवन में 52 युद्ध लड़ने वाले इस शूरवीर राव मालदेव की शादी 24 वर्ष की आयु में वर्ष 1535 में जैसलमेर के रावल लूनकरण की बेटी राजकुमारी उमादे के साथ हुई थी. उमादे अपनी सुंदरता व चतुराई के लिए प्रसिद्ध थीं. राठौड़ राव मालदेव की शादी बारात लवाजमे के साथ जैसलमेर पहुंची. बारात का खूब स्वागतसत्कार हुआ. बारातियों के लिए विशेष ‘जानी डेरे’ की व्यवस्था की गई.

ऊंट, घोड़ों, हाथियों के लिए चारा, दाना, पानी की व्यवस्था की गई. राजकुमारी उमादे राव मालदेव जैसा शूरवीर और महाप्रतापी राजा पति के रूप में पाकर बेहद खुश थीं. पंडितों ने शुभ वेला में राव मालदेव की राजकुमारी उमादे से शादी संपन्न कराई.

चारों तरफ हंसीखुशी का माहौल था. शादी के बाद राव मालदेव अपने सरदारों व सगेसंबंधियों के साथ महफिल में बैठ गए. महफिल काफी रात गए तक चली.

इस के बाद तमाम घराती, बाराती खापी कर सोने चले गए. राव मालदेव ने थोड़ीथोड़ी कर के काफी शराब पी ली थी.

उन्हें नशा हो रहा था. वह महफिल से उठ कर अपने कक्ष में नहीं आए. उमादे सुहाग सेज पर उन की राह देखतीदेखती थक गईं. नईनवेली दुलहन उमादे अपनी खास दासी भारमली जिसे उमादे को दहेज में दिया गया था, को मालदेव को बुलाने भेजने का फैसला किया. उमादे ने भारमली से कहा, ‘‘भारमली, जा कर रावजी को बुला लाओ. बहुत देर कर दी उन्होंने…’’

भारमली ने आज्ञा का पालन किया. वह राव मालदेव को बुलाने उन के कक्ष में चली गई. राव मालदेव शराब के नशे में थे. नशे की वजह से उन की आंखें मुंद रही थीं कि पायल की रुनझुन से राव ने दरवाजे पर देखा तो जैसे होश गुम हो गए. फानूस तो छत में था, पर रोशनी सामने से आ रही थी. मुंह खुला का खुला रह गया.

जैसे 17-18 साल की कोई अप्सरा सामने खड़ी थी. गोरेगोरे भरे गालों से मलाई टपक रही थी. शरीर मछली जैसा नरमनरम. होंठों के ऊपर मौसर पर पसीने की हलकीहलकी बूंदें झिलमिला रही थीं होठों से जैसे रस छलक रहा हो.

भारमली कुछ बोलती, उस से पहले ही राव मालदेव ने यह सोच कर कि उन की नवव्याहता रानी उमादे है, झट से उसे अपने आगोश में ले लिया. भारमली को कुछ बोलने का मौका नहीं मिला या वह जानबूझ कर नहीं बोली, वह ही जाने.

भारमली भी जब काफी देर तक वापस नहीं लौटी तो रानी उमादे ने जिस थाल से रावजी की आरती उतारनी थी, उठाया और उस कक्ष की तरफ चल पड़ीं, जिस कक्ष में राव मालदेव का डेरा था.

उधर राव मालदे ने भारमली को अपनी रानी समझ लिया था और वह शराब के नशे में उस से प्रेम कर रहे थे. रानी उमादे जब रावजी के कक्ष में गई तो भारमली को उन के आगोश में देख रानी ने आरती का थाल यह कह कर ‘अब राव मालदेव मेरे लायक नहीं रहे,’ पटक दिया और वापस चली गईं.

अब तक राव मालदेव के सब कुछ समझ में आ गया था. मगर देर हो चुकी थी. उन्होंने सोचा कि जैसेतैसे रानी को मना लेंगे. भारमली ने राव मालदेव को सारी बात बता दी कि वह उमादे के कहने पर उन्हें बुलाने आई थी. उन्होंने उसे कुछ बोलने नहीं दिया और आगोश में भर लिया. रानी उमादे ने यहां आ कर यह सब देखा तो रूठ कर चली गईं.

सुबह तक राव मालदेव का सारा नशा उतर चुका था. वह बहुत शर्मिंदा हुए. रानी उमादे के पास जा कर शर्मिंदगी जाहिर करते हुए कहा कि वह नशे में भारमली को रानी उमादे समझ बैठे थे.

मगर उमादे रूठी हुई थीं. उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वह बारात के साथ नहीं जाएंगी. वो भारमली को ले जाएं. फलस्वरूप एक शक्तिशाली राजा को बिना दुलहन के एक दासी को ले कर बारात वापस ले जानी पड़ी.

रानी उमादे आजीवन राम मालदेव से रूठी ही रहीं और इतिहास में रूठी रानी के नाम से मशहूर हुईं. जैसलमेर की यह राजकुमारी रूठने के बाद जैसलमेर में ही रह गई थीं. राव मालदेव दहेज में मिली दासी भारमली बारात के साथ बिना दुलहन के जोधपुर आ गए थे. उन्हें इस का बड़ा दुख हुआ था. सब कुछ एक गलतफहमी के कारण हुआ था.

राव मालदेव ने अपनी रूठी रानी उमादे के लिए जोधपुर में किले के पास एक हवेली बनवाई. उन्हें विश्वास था कि कभी न कभी रानी मान जाएगी.

जैसलमेर की यह राजकुमारी बहुत खूबसूरत व चतुर थी. उस समय उमादे जैसी खूबसूरत महिला पूरे राजपूताने में नहीं थी. वही सुंदर राजकुमारी मात्र फेरे ले कर राव मालदेव की रानी बन

गई थी. ऐसी रानी जो पति से आजीवन रूठी रही. जोधपुर के इस शक्तिशाली राजा मालदेव ने उमादे को मनाने की बहुत कोशिशें कीं मगर सब व्यर्थ. वह नहीं मानी तो नहीं मानी. आखिर में राव मालदेव ने एक बार फिर कोशिश की उमादे को मनाने की. इस बार राव मालदव ने अपने चतुर कवि आशानंदजी चारण को उमादे को मना कर लाने के लिए जैसलमेर भेजा.

चारण जाति के लोग बुद्धि से चतुर व वाणी से वाकपटुता व उत्कृष्ट कवि के तौर पर जाने जाते हैं. राव मालदेव के दरबार के कवि आशानंद चारण बड़े भावुक थे. निर्भीक प्रकृति के वाकपटु व्यक्ति.

जैसलमेर जा कर आशानंद चारण ने किसी तरह अपनी वाकपटुता के जरिए रूठी रानी उमादे को मना भी लिया और उन्हें ले कर जोधपुर के लिए रवाना भी हो गए. रास्ते में एक जगह रानी उमादे ने मालदेव व दासी भारमली के बारे में कवि आशानंदजी से एक बात पूछी.

मस्त कवि समय व परिणाम की चिंता नहीं करता. निर्भीक व मस्त कवि आशानंद ने भी बिना परिणाम की चिंता किए रानी को 2 पंक्तियों का एक दोहा बोल कर उत्तर दिया—

माण रखै तो पीव तज, पीव रखै तज माण.

दोदो गयंदनी बंधही, हेको खंभु ठाण.

यानी मान रखना है तो पति को त्याग दे और पति को रखना है तो मान को त्याग दे. लेकिन दोदो हाथियों को एक ही खंभे से बांधा जाना असंभव है.

आशानंद चारण के इस दोहे की दो पंक्तियों ने रानी उमादे की सोई रोषाग्नि को वापस प्रज्जवलित करने के लिए आग में घी का काम किया. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे ऐसे पति की आवश्यकता नहीं है.’’ रानी उमादे ने उसी पल रथ को वापस जैसलमेर ले चलने का आदेश दे दिया.

आशानंदजी ने मन ही मन अपने कहे गए शब्दों पर विचार किया और बहुत पछताए, लेकिन शब्द वापस कैसे लिए जा सकते थे. उमादे जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है, अपनी रूपवती दासी भारमली के कारण ही अपने पति राजा मालदेव से रूठ गई थीं और आजीवन रूठी ही रहीं.

जैसलमेर आए कवि आशानंद चारण ने फिर रूठी रानी को मनाने की लाख कोशिश की लेकिन वह नहीं मानीं. तब आशानंदजी चारण ने जैसलमेर के राजा लूणकरणजी से कहा कि अपनी पुत्री का भला चाहते हो तो दासी भारमली को जोधपुर से वापस बुलवा लीजिए. रावल लूणकरणजी ने ऐसा ही किया और भारमली को जोधपुर से जैसलमेर बुलवा लिया.

भारमली जैसलमेर आ गई. लूणकरणजी ने भारमली का यौवन रूप देखा तो वह उस पर मुग्ध हो गए. लूणकरणजी का भारमली से बढ़ता स्नेह उन की दोनों रानियों की आंखों से छिप न सका. लूणकरणजी अब दोनों रानियों के बजाय भारमली पर प्रेम वर्षा कर रहे थे. यह कोई औरत कैसे सहन कर सकती है.

लूणकरणजी की दोनों रानियों ने भारमली को कहीं दूर भिजवाने की सोची. दोनों रानियां भारमली को जैसलमेर से कहीं दूर भेजने की योजना में लग गईं. लूणकरणजी की पहली रानी सोढ़ीजी ने उमरकोट अपने भाइयों से भारमली को ले जाने के लिए कहा लेकिन उमरकोट के सोढ़ों ने रावल लूणकरणजी से शत्रुता लेना ठीक नहीं समझा.

तब लूणकरणजी की दूसरी रानी जो जोधपुर के मालानी परगने के कोटड़े के शासक बाघजी राठौड़ की बहन थी, ने अपने भाई बाघजी को बुलाया. बहन का दुख मिटाने के लिए बाघजी शीघ्र आए और रानियों के कथनानुसार भारमली को ऊंट पर बैठा कर मौका मिलते ही जैसलमेर से छिप कर भाग गए.

लूणकरणजी कोटड़े पर हमला तो कर नहीं सकते थे क्योंकि पहली बात तो ससुराल पर हमला करने में उन की प्रतिष्ठा घटती और दूसरी बात राव मालदेव जैसा शक्तिशाली शासक मालानी का संरक्षक था. अत: रावल लूणकरणजी ने जोधपुर के ही आशानंद कवि को कोटडे़ भेजा कि बाघजी को समझा कर भारमली को वापस जैसलमेर ले आएं.

दोनों रानियों ने बाघजी को पहले ही संदेश भेज कर सूचित कर दिया कि वे बारहठजी आशानंद की बातों में न आएं. जब आशानंदजी कोटड़ा पहुंचे तो बाघजी ने उन का बड़ा स्वागतसत्कार किया और उन की इतनी खातिरदारी की कि वह अपने आने का उद्देश्य ही भूल गए.

एक दिन बाघजी शिकार पर गए. बारहठजी व भारमली भी साथ थे. भारमली व बाघजी में असीम प्रेम था. अत: वह भी बाघजी को छोड़ कर किसी भी हालत में जैसलमेर नहीं जाना चाहती थी.

शिकार के बाद भारमली ने विश्रामस्थल पर सूले सेंक कर खुद आशानंदजी को दिए. शराब भी पिलाई. इस से खुश हो कर बाघजी व भारमली के बीच प्रेम देख कर आशानंद जी चारण का भावुक कवि हृदय बोल उठे—

जहं गिरवर तहं मोरिया, जहं सरवर तहं हंस

जहं बाघा तहं भारमली, जहं दारू तहं मंस.

यानी जहां पहाड़ होते हैं वहां मोर होते हैं, जहां सरोवर होता है वहां हंस होते हैं. इसी प्रकार जहां बाघजी हैं, वहीं भारमली होगी. ठीक उसी तरह से जहां दारू होती है वहां मांस भी होता है.

कवि आशानंद की यह बात सुन बाघजी ने झठ से कह दिया, ‘‘बारहठजी, आप बड़े हैं और बड़े आदमी दी हुई वस्तु को वापस नहीं लेते. अत: अब भारमली को मुझ से न मांगना.’’

आशानंद जी पर जैसे वज्रपात हो गया. लेकिन बाघजी ने बात संभालते हुए कहा कि आप से एक प्रार्थना और है आप भी मेरे यहीं रहिए.

और इस तरह से बाघजी ने कवि आशानंदजी बारहठ को मना कर भारमली को जैसलमेर ले जाने से रोक लिया. आशानंदजी भी कोटड़ा गांव में रहे और उन की व बाघजी की इतनी घनिष्ठ दोस्ती हुई कि वे जिंदगी भर उन्हें भुला नहीं पाए.

एक दिन अचानक बाघजी का निधन हो गया. भारमली ने भी बाघजी के शव के साथ प्राण त्याग दिए. आशानंदजी अपने मित्र बाघजी की याद में जिंदगी भर बेचैन रहे. उन्होंने बाघजी की स्मृति में अपने उद्गारों के पिछोले बनाए.

बाघजी और आशानंदजी के बीच इतनी घनिष्ठ मित्रता हुई कि आशानंद जी उठतेबैठे, सोतेजागते उन्हीं का नाम लेते थे. एक बार उदयपुर के महाराणा ने कवि आशानंदजी की परीक्षा लेने के लिए कहा कि वे सिर्फ एक रात बाघजी का नाम लिए बिना निकाल दें तो वे उन्हें 4 लाख रुपए देंगे. आशानंद के पुत्र ने भी यही आग्रह किया.

कवि आशानंद ने भरपूर कोशिश की कि वह अपने कविपुत्र का कहा मान कर कम से कम एक रात बाघजी का नाम न लें, मगर कवि मन कहां चुप रहने वाला था. आशानंदजी की जुबान पर तो बाघजी का ही नाम आता था.

रूठी रानी उमादे ने प्रण कर लिया था कि वह आजीवन राव मालदेव का मुंह नहीं देखेगी. बहुत समझानेबुझाने के बाद भी रूठी रानी जोधपुर दुर्ग की तलहटी में बने एक महल में कुछ दिन ही रही और फिर उन्होंने अजमेर के तारागढ़ दुर्ग के निकट महल में रहना शुरू किया. बाद में यह इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई.

राव मालदेव ने रूठी रानी के लिए तारागढ़ दुर्ग में पैर से चलने वाली रहट का निर्माण करवाया. जब अजमेर पर अफगान बादशाह शेरशाह सूरी के आक्रमण की संभावना थी, तब रूठी रानी कोसाना चली गई, जहां कुछ समय रुकने के बाद वह गूंदोज चली गई. गूंदोज से काफी समय बाद रूठी रानी ने मेवाड़ में केलवा में निवास किया.

जब शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर आक्रमण किया तो रानी उमादे से बहुत प्रेम करने वाले राव मालदेव ने युद्ध में प्रस्थान करने से पहले एक बार रूठी रानी से मिलने का अनुरोध किया.

एक बार मिलने को तैयार होने के बाद रानी उमादे ने ऐन वक्त पर मिलने से इनकार कर दिया.

रूठी रानी के मिलने से इनकार करने का राव मालदेव पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और वह अपने जीवन में पहली बार कोई युद्ध हारे.

वर्ष 1562 में राव मालदेव के निधन का समाचार मिलने पर रानी उमादे को अपनी भूल का अहसास हुआ और कष्ट भी पहुंचा. उमादे ने प्रायश्चित के रूप में उन की पगड़ी के साथ स्वयं को अग्नि को सौंप दिया.

ऐसी थी जैसलमेर की भटियाणी उमादे रूठी रानी. वह संसार में रूठी रानी के नाम से अमर हो गईं.

तू तू मैं मैं: क्यों अस्पताल नहीं जाना चाहती थी अनुभा

“जाओ फ्लेट नंबर सी 212 से कार की चाबी मांग कर लाओ. जल्दी आना. रोज इस के चक्कर में लेट हो जाती हूं,”अनुभा अपनी कार के पीछे लगी दूसरी कार को देख कर भुनभुनाई.

गार्ड अपनी हंसी रोकता हुआ चला गया. पिछले 6 महीने से वह इन दोनों का तमाशा देखता चला आ रहा है. एक महीने आगेपीछे ही दोनों ने इस सोसायटी में फ्लैट किराए पर लिया है, तभी से दोनों का हर बात पर झगड़ा मचा रहता है. फ्लैट नंबर 312 में ऊपरी मंजिल पर अनुभा रहती है. सोसायटी मीटिंग में भी दोनों एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप करते दिखाई देते हैं.

सौरभ ने शिकायत की थी कि उस के बाथरूम में लीकेज हो रहा है. इस के लिए उस ने प्लम्बर बुलवाया, छुट्टी भी ली और अनुभा को भी बता दिया था कि प्लम्बर आ कर ऊपरी मंजिल से उस का बाथरूम से लीकेज चेक करेगा, खर्चा भी वह खुद उठाने को तैयार है. पहले तो कुछ नहीं बोली, मगर जब प्लम्बर आ गया तो अपना फ्लैट बंद कर औफिस चली गई. आधा घंटा भी वह रुकने को तैयार नहीं हुई.

सौरभ ने सोसायटी की मीटिंग में इस मुद्दे को उठाया तो अनुभा ने उस पर अकेली महिला के घर अनजान आदमी को भेजने का आरोप लगा दिया.

बात बाथरूम के लीकेज से भटक कर नारीवाद, अस्मिता, बढ़ते बलात्कार पर पहुंच गई. यह देख सौरभ दांत किटकिटा कर रह गया. उस का बाथरूम आज तक ठीक न हो सका.

अब तो दोनों के बीच इतना झगड़ा बढ़ चुका है कि अब सामंजस्य से काम होना नामुमकिन हो चुका है.

इस वसुधा सोसायटी में शुरू में पार्किंग की समस्या नहीं थी. पूरब और पश्चिम दिशा में बने दोनों गेट से गाड़ियां आजा सकती थीं और दोनों तरफ पार्किंग की सुविधा भी थी, मगर पांच वर्ष पूर्व से पश्चिम दिशा में बनी नई सोसायटी वसुंधरा के लोगों ने पिछले गेट की सड़क पर अपना दावा ठोंक कर पश्चिम गेट को बंद कर ताला लगा दिया.

वैसे तो वह सड़क वसुंधरा सोसायटी ने ही अपनी बिल्डिंग तैयार करते समय बनवाई थी. जैसेजैसे वसुंधरा में परिवार बसने लगे, पार्किंग की जगह कम पड़ने लगी, तो उन्होंने वसुधा के पश्चिम गेट को बंद कर उस सड़क का इस्तेमाल पार्किंग के रूप में करना शुरू कर दिया.

वसुधा सोसायटी के नए नियम बन गए, जो ‘पहले आओ पहले पाओ’ पर आधारित थे. किसी की भी पार्किंग की जगह निश्चित न होने पर भी लोगों ने आपसी समझबूझ से एकदूसरे के आगेपीछे गाड़ी खड़ी करना शुरू कर दिया. जो सुबह देर से जाते थे, वे गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देते. जिन्हें जल्दी जाना होता, वे उस के पीछे खड़ी करते. सभी परिवार 15 साल पहले, सालभर के अंतराल में यहां आ कर बसे थे. सभी के परिवार एकदूसरे को अच्छे से पहचानते हैं. अगर किसी की गाड़ी आगेपीछे करनी होती तो गार्ड चाबी मांग कर ले आता. अभी भी कुछ फ्लैट्स खाली पड़े हैं, जिन के मालिक कभी दिखाई नहीं देते. कुछ में किराएदार बदलते रहते हैं. ऐसे किराएदारों के विषय में, पड़ोसियों के अतिरिक्त अन्य किसी का ध्यान नहीं जाता था, मगर सौरभ और अनुभा तो इतने फेमस हो गए हैं कि उन की जोड़ी का नाम “तूतू, मैंमैं ”रख दिया गया.

आंखें मलता हुआ सौरभ जब पार्किंग में आया, तो अनुभा को देखते ही उस का पारा आसमान में चढ़ गया. वह बोला, “जब तुम्हें जल्दी जाना था तो अपनी गाड़ी आगे क्यों खड़ी की? कुछ देर बाहर खड़ी कर, बाद में पीछे खड़ी करती.”

“मुझे औफिस से फोन आया है, इसलिए आज जल्दी निकलना है,” अनुभा ने कहा.

“झूठ बोलना तो कोई तुम से सीखे,” सौरभ ने कहा.

“तुम तो जैसे राजा हरिश्चन्द्र की औलाद हो?” अनुभा की भी त्योरी चढ़ गई.

“आज सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख लिया है. अब तो पूरा दिन बरबाद होने वाला है,” कह कर सौरभ ने गाड़ी निकाल कर बाउंड्रीवाल के बाहर खड़ा कर दी और अनुभा को कोसते हुए अपने फ्लैट की तरफ बढ़ गया.

मोहिनी अपने फ्लैट से नित्य ही यह तमाशा देखती रहती है. उस के बच्चे विदेश में बस गए हैं, अपने पति संग दिनभर कितनी बातें करे? उसे तो फोन पर अपनी सहेलियों के संग नमकमिर्च लगा कर, सोसायटी की खबरें फैलाने में जो मजा आता है, किसी अन्य पदार्थ में नहीं मिल सकता. उस के पति धीरेंद्र को उस की इन हरकतों पर बड़ा गुस्सा आता है. वे मन मसोस कर रह जाते हैं कि अभी मोहिनी से कुछ कहा, तो वह फोन रख कर मेरे संग ही बहसबाजी में जुट जाएगी.

“सुन कविता, आज फिर सुबहसुबह “तूतू, मैंमैं” शुरू हो गए. बस हाथापाई रह गई है, गालीगलौज पर तो उतर ही आए हैं.“

“अरे कुछ दिन रुक, फिर वे तुझे एकदूसरे के बाल नोचते भी नजर आएंगे,” कह कर कविता हंसी.

“मैं तो उसी दिन का इंतजार कर रही हूं,” मोहिनी खिलखिला उठी.

धीरेंद्र चिढ़ कर उस कमरे से उठ कर बाहर चला गया.

महीनेभर के अंदर ही सौरभ ने गार्ड से अनुभा की कार की चाबी मांग कर लाने को कहा, मगर अनुभा खुद आ गई.

“मेरी गाड़ी को गार्ड के हाथों सौंप कर ठुकवाना चाहते हो क्या?” आते ही अनुभा उलझ गई.

“ नहीं, गाड़ी को मैं ही बेक कर लगा देता, तुम ने आने का कष्ट क्यों किया?” सौरभ ने चिढ़ कर कहा.

“मैं अपनी गाड़ी किसी को छूने भी न दूं,” अनुभा इठलाई.

“मुझे भी लोगों की गाड़ियां बैक करने का शौक नहीं है, बस सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख कर अपना दिन खराब नहीं करना चाह रहा था, इसीलिए चाबी मंगाई थी,” सौरभ ने भी अपनी भड़ास निकाली.

“अपनी शक्ल देखी है कभी आईने में?” कह कर अनुभा कार में सवार हो गई और गाड़ी को बैक करने लगी.

“खुद जैसे हूर की परी होगी,” सौरभ गुस्से से बोला और अपने औफिस को निकल गया.

औफिस में सौरभ का मन न लगा. बहुत सोचविचार कर उस ने प्रिंटर का बटन दबा दिया. अगले दिन पार्किंग में पोस्टर चिपका हुआ था, जिस में सौरभ ने अपने पूरे महीने औफिस से आनेजाने की समयतालिका चिपका दी और फोन नंबर लिख कर अपनी गाड़ी दीवार से लगा दी.

दूसरे दिन अनुभा ने भी एक पोस्टर चिपका दिया, जिस में सौरभ को नसीहत देते हुए लिखा था कि किस दिन वह गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी करे और किस दिन उस की गाड़ी के पीछे.

लोग दोनों की पोस्टरबाजी पर खूब हंसते.

सोसायटी की मीटिंग में सौरभ ने पार्किंग का मुद्दा उठाया, तो सभी ने इसे आपसी सहमति से सुलझाने को कहा.

सौरभ ने अपने बाथरूम के लीकेज की बात जैसे ही उठाई, अनुभा गुस्से से बोल पड़ी, “इतनी ही परेशानी है, तो अपना फ्लैट क्यों नहीं बदल लेते? किराए का घर है… कौन सा तुम ने खरीद लिया है?”

“लगता है, यही करना पड़ेगा, जिस से मेरी बहुत सी परेशानी दूर हो जाएगी.”

फिर से झगड़ा बढ़ता देख लोगों ने बीचबचाव कर उन्हें शांत बैठने को कहा.

अगले दिन एक नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ ने फ्लैट बदलने के लिए लोगों से इसी सोसायटी के अन्य खाली फ्लैट की जानकारी देने का अनुरोध किया था.

अनुभा क्यों पीछे रहती, उस ने भी अपना फ्लैट बदलने के लिए पोस्टर चिपका दिया.

मार्च का महीना अपने साथ लौकडाउन भी ले आया. लोग घरों में दुबक गए. वर्क फ्रॉम होम होने से अनुभा और सौरभ का झगड़ा भी बंद हो गया. वे भी अपने फ्लैट्स में सीमित हो गए. अप्रैल, मई, जून तो यही सोच कर कट गए कि शायद अब कोरोना का प्रकोप कम होगा, मगर जुलाई आतेआते तो शहर में पांव पसारने लगा और अगस्त के महीने से सोसायटी के अंदर भी पहुंच गया. सोसायटी की ए विंग सील हो गई, तो कभी बी विंग सील हुई. सी विंग के रहने वाले दहशत में थे कि उन के विंग का नंबर जल्द लगने वाला है.

अनुभा और सौरभ सब से ज्यादा तनाव में आ गए. इस सोसायटी में सभी संयुक्त या एकल परिवार के साथ मिलजुल कर रह रहे हैं. घर के बुजुर्ग बच्चों के संग नया तालमेल बैठा रहे हैं. मगर, अनुभा और सौरभ नितांत अकेले पड़ गए.

अनुभा तो फिर भी आसपड़ोस के दोचार परिवारों का नंबर अपने पास रखे हुए थी, मगर सौरभ ने कभी इस की जरूरत न समझी, केवल सोसायटी के अध्यक्ष का नंबर ही उस के पास था. घर वालों के फोन दिनरात आते रहते थे. उस की बड़ी बहन समीक्षा दिल्ली के सरकारी अस्पताल में डाक्टर थी. वह लगातार सौरभ को रोज नई दवाओं के प्रयोग और सावधानियों के विषय में चर्चा करती. गुड़गांव में पोस्टेड सौरभ उस की नसीहत एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता. उधर मोहिनी और कविता की गौसिप का मसाला खत्म हो गया था. दोनों को किट्टी पार्टी के बंद होने से ज्यादा सौरभ और अनुभा की “तूतू, मैंमैं” का नजारा बंद हो जाने का अफसोस होता. पार्किंग एरिया शांत पड़ा था.

सौरभ को हलकी खांसी और गले में खराश सी महसूस हुई. उस ने अपनी दीदी समीक्षा को यह बात बताई, तो उस ने उसे तुरंत पेरासिटामोल से ले कर विटामिन सी तक की कई दवाओं को तुरंत ला कर सेवन करने, कुनकुने पानी से गरारा करने जैसी कई हिदायतों के साथ तुरंत कोविड टेस्ट कराने को कहा.

पहले तो सौरभ टालमटोल करता रहा, किंतु वीडियो काल के दौरान उस की बारबार होने वाली खांसी ने समीक्षा को परेशान कर दिया. वह हर एक घंटे बाद उसे फोन कर यही कहे “तुम अभी तक टेस्ट कराने नहीं गए?”

सौरभ को थकान सी महसूस हो रही थी, मगर अपनी दीदी की जिद के आगे उस ने हथियार डाल दिए.

पार्किंग एरिया में अपनी कार के पीछे अनुभा की गाड़ी देख कर सौरभ का मूड उखड़ गया. उस के अंदर अनुभा से बहस करने की बिलकुल भी एनर्जी नहीं बची थी. उस ने गार्ड से चाबी मांग कर लाने को कहा. अंदर ही अंदर वह बहुत डरा हुआ था कि अनुभा झगड़ा शुरू न कर दे, किंतु उस की सोच के विपरीत उस का फोन बजा.

“सौरभ, मेरी गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देना, अपनी गाड़ी पीछे लगा लो. मैं गार्ड के हाथ चाबी भेज रही हूं.”

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि लौकडाउन ने इस के दिमाग के ताले खोल दिए क्या, वरना तो यही कहती थी कि “मैं तो अपनी गाड़ी किसी को हाथ तक लगाने न दूं.“

गार्ड चाबी ले कर आया और उस ने बताया, “लगता है, मैडम की तबियत ज्यादा ही खराब है. कह रही थीं कि चाबी सौरभ को दे देना.”

सौरभ ने अपनी गाड़ी बाहर निकाली. जैसे ही वह सोसायटी के गेट तक पहुंचा, अचानक उसे खयाल आया कि अनुभा
से उस की बीमारी के विषय में पूछा ही नहीं. वह तुरंत लौट कर आया और अनुभा के फ्लैट में पहुंच गया.

“तुम चाबी गार्ड के हाथ भेज देते,“ अनुभा उसे देख कर चौंक गई.

“फीवर आ रहा है क्या?” सौरभ ने पूछा.

“हां, कल रात तेज सिरदर्द हुआ और सुबह होतेहोते इतना तेज फीवर आ गया कि पूरा शरीर दुखने लगा है. इतना तेज दर्द है मानो शरीर के ऊपर से ट्रक गुजर गया हो,” उस की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए. ऐसी दयनीय दशा में, कोरोना काल में, उस का हालचाल वही इनसान ले रहा था, जिस से उस ने सीधे मुंह कभी बात न की, उलटा लड़ाई ही लड़ी थी.

“चलो मेरे साथ, मैं कोविड टेस्ट कराने जा रहा हूं, तुम भी अपना टेस्ट और चेकअप करा लेना.”

“मुझे कोरोना कैसे हो सकता है? मैं तो कहीं आतीजाती भी नहीं हूं?” अनुभा ने कहा.

“मेरी दीदी डाक्टर हैं. उस ने तो मुझे खांसी होने पर ही टेस्ट कराने को कह दिया है. तुम्हें तो फीवर भी है. चलो मेरे साथ,” सौरभ के जोर देने पर अनुभा मना न कर सकी.

अनुभा कार की पिछली सीट पर जा कर बैठ गई. सौरभ ने कार का एसी बंद ही रखा और उस की विंडो खोल दी. अस्पताल से भी वही दवाओं का परचा मिला, जो समीक्षा ने बताया था. दवा, फल, पनीर खरीद कर वे वापस आ गए.

अनुभा तो ब्रेड के सहारे दवा निगल गई. उस के शरीर में देर तक खड़े हो कर खाना बनाने की ताकत नहीं बची थी.

सौरभ ने खिचड़ी बनाई. तभी समीक्षा ने वीडियो काल कर उसे अपने सामने सारी दवाएं खाने को कहा. उस ने अनुभा के विषय में बताया तो दीदी नाराज हो गईं कि उसे अपने साथ क्यों ले गए, टैक्सी करा देते. फिर शांत हो गईं और बोलीं, “चलो जो हो गया, सो हो गया. अब वीडियो काल कर के पूछ लेना, उस के फ्लैट में न जाना.”

दीदी से बात खत्म कर सौरभ सोचने लगा कि दीदी उसे मेरी गर्लफ्रेंड समझ रही हैं शायद, उन्हें नहीं पता कि हम दोनों एकदूसरे के दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन हैं.

सुबह सौरभ ने दलिया बनाया, तो उसे अनुभा की याद आ गई. उस ने वीडियो काल किया.

अनुभा ने कहा, “मेरा बुखार रातभर लगातार चढ़ताउतरता रहा. मैं दूधब्रेड खा कर दवा खा लूंगी. तुम्हारे क्या हाल हैं?“

“मेरी खांसी तो अभी ठीक नहीं हुई, छींकें भी आ रही हैं, गले में खराश भी बनी हुई है. दवा तो मैं भी लगातार खा रहा हूं,” सौरभ ने बताया.

“पता नहीं, क्या हुआ है?रिपोर्ट कब आएगी?” अनुभा ने पूछा.

“ कल शाम तक तो आ ही जाएगी. मैं ने दलिया बनाया है. तुम्हें दे भी नहीं सकता. हो सकता है, मैं पोजीटिव हूं और तुम निगेटिव हो.”

“इस का उलटा भी तो हो सकता है. रातभर इतने घटिया, डरावने सपने आते रहे कि बारबार नींद खुलती रही. एसी नहीं चलाया, तो कभी गरमी, कभी ठंड, तो कभी पसीना आता रहा,” बोलतेबोलते अनुभा की सांस फूल गई.

“अच्छा हुआ, उस दिन दीदी की जिद से औक्सीमीटर और थर्मल स्कैनर भी खरीद लिए थे. मैं तो लगातार चेक कर रहा हूं. तुम औक्सीमीटर में औक्सीजन लेवल चेक करो, नाइंटी थ्री से नीचे का मतलब, कोविड सैंटर में भरती हो जाओ.”

“क्यों डरा रहे हो? हो सकता है, मुझे वायरल फीवर ही हो.”

“ठीक है. रिपोर्ट जल्द आने वाली है, तब तक अपना ध्यान रखो.”

अनुभा सोच में पड़ गई. अगर रिपोर्ट पोजीटिव आ गई तो क्या होगा? सोसायटी से मदद की उम्मीद बेकार है. किसी कोविड सैंटर में ही चली जाएगी. उस की आंखों में आंसू आ गए. किसी तरह उस ने एक दिन और गुजारा.

अगले दिन उस के पास अनुभा का फोन आ गया, “हैलो सौरभ कैसे हो? तुम्हें फोन आया क्या?”

“हां, मेरा तो ‘इक्विवोकल…’ आया है.”

“इस का क्या मतलब है?” अनुभा ने पूछा.

“मतलब, वायरस तो हैं, पर उस की चेन नहीं मिली कि मुझे पोजीटिव कहा जाए यानी न तो नेगेटिव और न ही पोजीटिव ‘संदिग्ध’,” सौरभ ने बताया.

“मेरा तो पोजीटिव आ गया है. अभी मैं ने किसी को नहीं बताया,” अनुभा ने कहा.

“तुम्हारे नाम का पोस्टर चिपका जाएंगे तो सभी को खुद ही पता चल जाएगा, वैसे, अब तबियत कैसी है तुम्हारी?” सौरभ ने पूछा.

“बुखार नहीं जा रहा,” अनुभा रोआंसी हो उठी.

“रुको, मैं तुम्हारी काल दीदी के साथ लेता हूं, उन से अपनी परेशानी कह सकती हो.”

दीदी से बात कर अनुभा को बड़ी राहत मिली. उन्होंने उस की कुछ दवा भी बदली, जिन्हें सौरभ ला कर दे गया और उसे दिन में 3-4 बार औक्सीलेवल चेक करने और पेट के बल लेटने को भी कहा.

2-3 दिन बाद बुखार तो उतर गया, मगर डायरिया, पेट में दर्द शुरू हो गया. दवा खाते ही पूरा खाना उलटी में निकल जाता.

समीक्षा ने फिर से उसे कुछ दवा बताई. सौरभ उस के दरवाजे पर फल, दवा के साथ कभी खिचड़ी, तो कभी दलिया रख देता.

पहले तो अनुभा को ऐसा लगा मानो वह कभी ठीक न हो पाएगी. वह दिन में कई बार अपना औक्सिजन लेवल चेक करती, मगर सौरभ और समीक्षा के साथ ने उस के अंदर ऊर्जा का संचार किया. उसे अवसाद में जाने से बचा लिया.

2 हफ्ते के अंदर उस की तबियत में सुधार आ गया, वरना बीमारी की दहशत, मरने वालों के आंकड़े, औक्सिजन की कमी के समाचार उस के दिमाग में घूमते रहते थे.

अनुभा को आज कुछ अच्छा महसूस हो रहा है. एक तो उस के दरवाजे पर चिपका पोस्टर हट गया है. दूसरा, आज बड़े दिनों बाद उसे कुछ चटपटा खाने का मन कर रहा है वरना इतने दिनों से जो भी जबरदस्ती खा रही थी, वह उसे भूसा ही लग रहा था.

“सौरभ आलू के परांठे खाने हैं तो आ जाओ, गरमागरम खाने में ही मजा आता है,” अनुभा ने सौरभ को फोन किया.

”अरे वाह, मेरे तो फेवरेट हैं. तुम इतना लोड मत लो. मैं आ कर तुम्हारी मदद करता हूं.“

सौरभ फटाफट तैयार हो कर ऊपर पहुंचा, तो अनुभा परांठा सेंक रही थी. अनुभा के हाथ में वाकई स्वाद है. नाश्ता करने के बाद सौरभ ने कुछ सोचा, फिर बोल ही पड़ा, “अनुभा, तुम कोरोना काल की वजह से इतनी सौफ्ट हो गई हो या कोई और कारण है?”

“सच कहूं तो मैं ने नारियल के खोल का आवरण अपना लिया है. मैं बाहरी दुनिया के लिए झगड़ालू मुंहफट बन कर रह गई हूं. अब तुम ही बताओ कि मैं क्या करूं? अकेले रह कर जौब करना आसान है क्या? इस से पहले जिस सोसायटी में रहती थी, वहां मेरे शांत स्वभाव की वजह से अनेक मित्र बन गए थे, लेकिन सभी अपने काम के वक्त मुझ से मीठामीठा बोल कर काम करवा लेते, मेरे फ्लैट को छुट्टी के दिन अपनी किट्टी पार्टी के लिए भी मांग लेते. मैं संकोचवश मना नहीं कर पाती थी. मेरी सहेली तृष्णा ने जब यह देखा, तो उस ने मुझे समझाया कि ये लोग मदद देना भी जानते हैं या सिर्फ लेना ही जानते हैं? एक बार आजमा भी लेना. और हुआ भी यही, जब मैं वायरल से पीड़ित हुई, तो मैं ने कई लोगों को फोन किया. सभी अपनी हिदायत फोन पर ही दे कर बैठ गए.
मेरे फ्लैट में झांकने भी न आए, तभी मैं ने भी तृष्णा की बात गांठ बांध ली और इस सोसायटी में आ कर एक नया रूप धारण कर लिया. मेरे स्वभाव की वजह से लोग दूरी बना कर ही रखते हैं. वहां तो जवान लड़कों की बात छोड़ो, अधेड़ भी जबरदस्ती चिपकने लगते थे. यहां सब जानते हैं कि इतनी लड़ाका है. इस से दूर ही रहो,” कह कर अनुभा हंसने लगी.

“ओह… तो तुम मुझे भी, उन्हीं छिछोरों में शामिल समझ कर झगड़ा करती थी,” सौरभ ने पूछा.

“नहीं, ऐसी बात नहीं है,” अनुभा मुसकराई.

तभी सौरभ और अनुभा का फोन एकसाथ बज उठा. समीक्षा की काल थी.

“अरे सौरभ, आज तुम कहां हो? अच्छा, अनुभा के फ्लैट में…” समीक्षा चहकी.

“अनुभा ने पोस्ट कोविड पार्टी दी है, आलू के परांठे… खा कर मजा आ गया दीदी.”

“अरे अनुभा, अभी 15 दिन ज्यादा मेहनत न करना, धीरेधीरे कर के, अपनी ब्रीदिंग ऐक्सरसाइज बढ़ाती जाना. और सौरभ, तुम भी अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना.”

“थैंक्स दीदी, आप के कंसल्टेंट्स और सौरभ की हैल्प ने मुझे बचा लिया, वरना मुझे कोविड सैंटर में भरती होना पड़ता. अपनी बचत पर भी कैंची चलानी पड़ती. लाखों के बिल बने हैं लोगों के, हफ्तादस दिन ही भरती होने के,” अनुभा बोली.

“अरे छोड़ो कोरोना का रोना, तुम दोनों साथ में कितने अच्छे लग रहे हो,” समीक्षा बोली.

“अरे दीदी, वह बात नहीं है, जो आप समझ कर बैठी हैं,” सौरभ ने कहा.

“क्यों…? मैं ने कुछ गलत कहा क्या अनुभा?” समीक्षा पूछ बैठी.

“ नहीं दीदी, आप ने बिलकुल सही कहा है. मैं तो अब नीचे के फ्लोर में सौरभ के पास का, फ्लैट लेने की सोच रही हूं. ऐसा हीरा फिर मुझे कहां मिलेगा?”

“ये हुई न बात, बल्कि अगलबगल के फ्लैट ले लो,” समीक्षा ने सलाह दी.

“ये आइडिया अच्छा है,” दोनों ही एकसाथ बोल पड़े.

अगले दिन पार्किंग में नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ और अनुभा ने एक साथ 2 फ्लैट्स लेने की डिमांड रखी थी.

“अरे कविता, कुछ पता चला तुझे? सारा मजा खत्म हो गया,” कामिनी ने फोन किया.

“क्या हुआ कामिनी?” कविता पूछ बैठी.

“अरे, “तूतू, मैंमैं” तो अब “तोतामैना“ बन गए रे…”

जब हमारे साहबजादे क्रिकेट खेलने गए

हमारे साढ़े 6 वर्षीय बेटे को क्रिकेट खेलने का बहुत शौक है. यद्यपि इस खेल के संबंध में उन का ज्ञान इतना तो नहीं कि किसी खेल संबंधी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता में भाग ले सकें, पर फिर भी उन्हें खिलाडि़यों की पहचान हम से अधिक है और क्रिकेट की फील्ड की रचना कैसे की जाती है, इस बारे में भी वह हम से ज्यादा ही जानते हैं.

जब कभी टेस्ट मैच या एकदिवसीय मैच होता है तो वह बराबर टीवी के सामने बैठे रहते हैं. यदि कभी हमारा बाहर जाने का कार्यक्रम बनता है तो वह तड़ से कह देते हैं, ‘‘मां, मैं क्रिकेट मैच नहीं देख पाऊंगा, इसलिए मैं घर पर ही रहूंगा.’’ इस खेल के प्रति उन की रुचि व लगन पढ़ाई से अधिक है.

उन को इस खेल के प्रति रुचि अचानक ही नहीं हुई बल्कि जब वह मात्र 3 साल के थे तब से ही स्केल और पिंगपांग बाल को वह क्रिकेट की गेंद व बल्ला समझ कर खेला करते थे. अपनी तीसरी वर्षगांठ पर उन्होंने हम से बल्ला व गेंद उपहारस्वरूप झड़वा लिया. इस खेल में विकेट और पैड भी जरूरी होते हैं. इस की जानकारी उन्हें भारत और पाकिस्तान के बीच हुए मैच के दौरान हुई, जिस का सीधा प्रसारण वह टीवी पर देखा करते थे.

उन्होंने खाना छोड़ा होगा, पीना छोड़ा होगा, दोपहर में पढ़ना और सोना भी छोड़ा होगा, पर मैच देखना कभी छोड़ा हो, ऐसा हमें याद नहीं. हमारे देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री कौन है वह इस बात को भले ही न जानें, पर कपिलदेव, सुनील गावसकर, लायड, जहीर अब्बास को वह केवल जानते ही नहीं, उन के हर अंदाज से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं.

इस खेल के प्रति उन की रुचि तब और बढ़ गई, जब उन्होंने गावसकर को मारुति व रवि शास्त्री को आउडी कार मिलते देखी. उन्हें कार पाने का इस से सरल तरीका और कोई नहीं दिखा कि सफेद कमीज पहन लो, पैंट न हो तो नेकर पहन लो, ऊनी दस्ताने पहन लो तथा छोटीबड़ी कैसी भी कैप पहन लो और बस, चल दो बल्ला और गेंद उठा कर खेल के मैदान में.

कार के वह पैदाइशी शौकीन हैं. जब उन्होंने अपने जीवन के 4 महीने ही पूरे किए थे तब पहली बार कार का हार्न सुन कर बड़े खुश हुए थे. जब वह 8 महीने के थे तब घर के सदस्यों को पहचानने के बजाय उन्होंने सब से पहले तसवीरों में कार को पहचाना था.

तो जनाब, कार के प्रति उन के मोह ने उन्हें क्रिकेट की तरफ मोड़ दिया. फिर वह हमारे पीछे पड़ गए और बोले, ‘‘हम रोज घर पर खेलते हैं, आज हम स्टेडियम में खेलेंगे.’’

हम ने उन से कहा, ‘‘पहले आसपास के बच्चों के साथ घर के बाहर तो खेलो.’’ तो साहब, उन्होंने हमारी आज्ञा का पालन किया, अगले दिन शाम होते ही आ कर बोले, ‘‘आप लोग लान में खड़े हो कर देखिएगा, हम सड़क पर भैया लोगों के साथ खेलने जा रहे हैं.’’ हम मांबाप दोनों ही उन्हें दरवाजे पर इस तरह शुभकामनाओं के साथ छोड़ने गए जैसे वह विदेश जा रहे हों.

बहुत देर तक हम खेल शुरू होने का इंतजार करते रहे, क्योंकि करीबकरीब सभी बच्चे मय टूटी कुरसी के, जोकि उन की विकेट थी, सड़क पर पहुंच चुके थे. पर खेल शुरू होने के आसार न दिखने से हम अपना काम करने अंदर आ गए. करीब 20 मिनट बाद जब हम बाहर आए तो देखा, खिलाडि़यों में कुछ झगड़ा सा हो रहा है.

हम ने पतिदेव से, जोकि अपने बेटे के पहले छक्के को देखने की उम्मीद में बाहर खड़े थे, पूछा कि माजरा क्या है, अभी तक खेल क्यों नहीं शुरू हुआ तो उन्होंने कहा कि फिलहाल कपिल बनाम गावसकर यानी कप्तान कौन हो, का विवाद छिड़ा हुआ है.

4 बड़े लड़के कप्तान बनने की दलील दे रहे थे. एक कह रहा था, ‘‘विकेट (टूटी कुरसी) मैं लाया हूं, इसलिए कप्तान मैं हूं.’’ दूसरा कह रहा था, ‘‘अरे, वाह, बल्ला और गेंद तो मैं लाया हूं. मेरा असली बल्ला है, तुम्हारा तो टेनिस की गेंद से खेलने लायक है. अत: मैं बनूंगा कप्तान.’’ तीसरा जोकि अच्छी बल्लेबाजी करता था, बोला, ‘‘देखो, कप्तान मुझे ही बनाना चाहिए, क्योंकि सब से ज्यादा रन मैं ही बनाता हूं.’’

चौथा इस बात पर अड़ा हुआ था कि खेल क्योंकि उस के घर के सामने हो रहा था अत: बाल यदि चौकेछक्के में घर के अंदर चली गई तो उसे वापस वह ही ला सकता है, क्योंकि गेट पर उस की मां ने उस भयंकर कुत्ते को खुला छोड़ रखा था, जिस से वे सब डरते थे.

खैर, किसी तरह कप्तान की घोषणा हुई तो देखा बच्चे अब भी खेलने को तैयार नहीं, क्योंकि उन्हें उस की कप्तानी पसंद नहीं थी. यहां भी टीम का चयन करने में समस्या थी, क्योंकि जितने खिलाड़ी चाहिए थे, उस से 10 बच्चे अधिक थे. अब समस्या थी कि किसे खेल में शामिल किया जाए.

यहां कोई चयन समिति तो थी नहीं, जो इन की पहली कारगुजारी के आधार पर इन्हें चुनती. यहां तो हर कोई अपने को हरफनमौला बता रहा था.

खैर, साहब, जो बच्चे बल्ले नहीं लाए थे, उन्हें बजाय वापस घर भेजने के गली के नुक्कड़ पर खड़ा कर दिया गया ताकि अगर भूलेचूके गेंद वहां चली जाए तो वे उसे उठाने में मदद करें. जब टीम का चयन हो गया तो टास हुआ, 2 बार तो टास में अठन्नी पास की नाली में जा गिरी. तीसरी बार के टास से पता चला कि टीम ‘क’ पहले बल्लेबाजी करेगी तथा टीम ‘ख’ फील्डिंग.

हमारे सुपुत्र चूंकि हमें फील्ड में यानी सड़क पर कहीं नजर नहीं आए तो हम ने समझा शायद ‘क’ टीम में होंगे, पर शंका का समाधान थोड़ी देर में हो गया जब वह मुंह लटका कर द्वार में प्रविष्ट हुए.

हम ने उन से पूछा, ‘‘आप वापस कैसे आ गए?’’ इस पर वह बोले, ‘‘हम सब से छोटे हैं, फिर भी सब से पहले हम से बल्लेबाजी नहीं करवाई और बड़े भैया खुद खेले जा रहे हैं.’’

हम ने उन्हें हतोत्साहित नहीं होने दिया और कहा, ‘‘जल्दी ही आप की बारी आ जाएगी, आप वापस चले जाइए.’’

वह अंदर गए, लगे हाथ एक कोल्ड डिं्रक चढ़ाई और जब वह वापस आए तो उन के चेहरे के भाव उसी तरह थे, जैसे ड्रिंक इंटरवल के बाद खिलाडि़यों के चेहरों पर होते हैं. जब वह फील्ड पर पहुंचे तो पता लगा उन की बारी आ चुकी थी, पर वह मौके पर उपस्थित नहीं थे, अत: 12वें नंबर के खिलाड़ी को बल्लेबाजी करने भेज दिया गया यानी बल्लेबाजी तो वह कर ही नहीं पाए.

अब फील्डिंग की बारी थी. वहां भी शायद वह अपनी अच्छी छाप नहीं छोड़ सके, क्योंकि अगले दिन जब हम ने उन्हें शाम को तैयार कर के भेजना चाहा तो वह तैयार नहीं हो रहे थे. हम ने कहा, ‘‘अरे भई, आज हम बिलकुल कहीं नहीं जाएंगे, लान में खड़े हो कर आप का ही मैच देखेंगे.’’ पर वह टस से मस नहीं हुए. उलटे उन के हाथ में क्रिकेट के बल्ले की जगह बैडमिंटन रैकिट था. यानी उन्होंने क्रिकेट से तौबा कर ली थी.

खैर, किसी तरह हम ने उन्हें खेलने भेजा. हम अपनी सब्जी गैस पर बनने रख आए थे. उसे देखने अंदर आ गए. वह तो खैर जलभुन कर राख हो ही चुकी थी, ऊपर से इन्होंने बताया कि हमारे नवाबजादे टीम से निकाल दिए गए हैं, इसीलिए खेलने नहीं जा रहे थे.

हम ने उन से निकाले जाने का कारण पूछा तो पता चला कि फील्डिंग के समय उन्हें जो पोजीशन मिली थी, वह महत्त्व की थी और वहां पर चौकन्ना हो कर खड़े रहने की जरूरत थी. पर हमारे नवाबजादे जहां लपक कर कैच लेना था, वहां पर तो डाइव मार कर एक हाथ से कैच ले रहे थे. जैसा कभी उन्होंने गावसकर को आस्ट्रेलिया में लेते देखा था, और जहां पर डाइव लगानी थी, वहां सीधे हाथ आकाश में लिए खड़े थे. इस तरह वह 3-4 महत्त्वपूर्ण कैच छोड़ चुके थे, अत: कप्तान उन्हें गुस्से में घूरने लगा था.

जब 5वीं बार उन्हें एक खिलाड़ी को रन आउट करने का मौका मिला था तो उन्होंने गेंद बजाय खिलाड़ी को रन आउट करने के लिए विकेट पर मारने के अपने कप्तान के मुंह पर दे मारी, क्योंकि वह गुस्से में थे कि पारी की शुरुआत उन से क्यों नहीं करवाई गई. जब शाम से रात हुई और स्टंप उखाड़े गए, यानी कुरसी सरका ली गई तो उन्हें अगले दिन वहां आने से मना कर दिया गया.

हमारे लाड़ले का कहना था, ‘‘यह भी कोई क्रिकेट मैच है? पास में नाली बह रही है. इतने सारे मच्छर खाते हैं, न कोई ड्रिंक्स ट्राली आती है, न कोई फोटो खींचता है. हम तो विदेश जा कर ही खेलेंगे.’’

अंधेरे में घिरी एक और दीवाली

लेखक- शशि अरुण

सर्र… की आवाजें निरंतर गूंज रही थीं. हर ओर से आ रही पटाखों की आवाजों से लगता था जैसे कान के परदे फट जाएंगे. सुबह से सुंदर ने न तो कुछ खाया था और न ही उस का बिस्तर से उठने का ही मन हुआ था. हर पल वह एक अथाह समंदर में गहरे और गहरे पैठता ही गया. यादों का यह समंदर कितना गहरा है, कितनी लहरें उठती हैं इस में कोई थाह नहीं पा रहा था सुंदर.

मगर अब तो लेटे रहना भी असहनीय हो गया था. खिड़कियों से आसमानी गोलों की हरीलाल चमकभरी रोशनी जैसे बरबस ही आंखों में घुस जाना चाहती थी. सुंदर ने खीज कर आंखें बंद कर लीं. खूब कस कर पूरी शक्ति से आंखें बंद रखने की कोशिश करने लगा. मगर दूसरे ही क्षण तेज रोशनी की चमक से पलकें अपनेआप ही खुल जातीं. ठीक उसी तरह जैसे रजनी जबरदस्ती अपनी कोमल उंगलियों से उस की पलकें खोल देती थी.

उन दिनों खीज उठता था सुंदर लेकिन आज मन चाहता है चूम ले उन प्यारी सी कचनार की कलियों को. अनायास ही उस का अपना हाथ होंठों तक आ गया. होंठ एक खास अंदाज में सिकुड़े भी. लेकिन यह क्या. न वह गरमी और न वह सिहरन. घबरा कर सुंदर ने आंखें खोल दीं.

हां, यही तो होता था तब जब वह इस बंदायू में तैनात था. मकान उसे एक पुराना 3 कमेरे का मिला था. यह मकान शहर से बाहर था और थोड़ा हराभरा था. एक दिन सुबह जब वह सो कर उठा तो आदत के अनुसार बरामदे में पड़ी कुरसी पर आ कर बैठ गया. चाय बना कर सामने रखी और मोबाइल देखने लगा. सुंदर ने चाय का कप उठा कर अभी चुसकी ली ही थी कि चौंक गया. घर के लौन में बने पत्थर के फुहारे पर बहते पानी पर एक परी अपने गुलाबी पंख फड़फड़ा रही थी. सुंदर एकटक उसे देखता रह गया. वह हाथ का कप हाथ में ही पकड़े रहता कि तभी घर में सफाई करने आने वाली बाई की आवाज से चौंक गया.

‘‘यहां के पलंबर की भानजी है साहब, कल रात ही पौड़ी से आई है. बचपन से ही इस फुहारे पर नहाती है और अब इतनी बड़ी हो कर भी शरारत से बाज नहीं आती. इस का पिता ही इस फुहारे का पंप ठीक करता है.’’

बाई की आवाज से सिर्फ सुंदर ही नहीं वह परी भी चौंक गई. उस ने पैर हिलाना बंद कर दिया और इधर ही एकटक देखने लगी. सुंदर तो हक्काबक्का ही रह गया. कोई नारी

मूर्ति इतनी सुंदर भी हो सकती है, इस की तो उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. चेहरा गुलाबी रंग की कमीज के गुलाबी रंग से और भी खिल उठा था. पानी से भीगा सारा बदन दिख रहा था. क्या पहाड़ी औरतें भी इतने तीखे नैननक्श वाली होती हैं.

वह अभी सोच ही रहा था कि बाई की आवाज पुन: गूंजी, ‘‘रजनी, अब तो तुम बड़ी हो गई हो. क्या अभी तक फव्वारे में नहाने का शौक नहीं गया,’’ और फिर बाई उस की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘आप चाय पीजिए. मैं इसे आज ही मना कर दूंगी कि फुहारे में न आया करे.’’

‘‘नहीं मालती इस लड़की से कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ कहते हुए सुंदर ने चाय पीनी शुरू कर दी क्योंकि अब तक परी उड़ चुकी थी और फुहारे में लगता है अब पानी सूख गया वैसा ही सांवला रंग लिए खड़ा था. ‘कितना सुंदर है यह फुहारा जैसे सचमुच किसी पहाड़ का ?ारना हो,’ सुंदर मन ही मन बोला.

इस के बाद के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ने लगे. सुंदर ने मालती से पता लगा लिया कि रजनी की अभी कहीं शादी तय नहीं हुई है. रजनी थी तो शैड्यूल कास्ट पर हमेशा पढ़ने में तेज थी. उस के पिता ने पलंबर का काम सीख लिया था जिस से अच्छी कमाई हो जाती थी. रजनी ही ठेकों के हिसाबकिताब रखती थी. वह रजनी के मातापिता से मिला और उन के आगे रजनी से अपने विवाह का प्रस्ताव रखा.

सुंदर जैसे स्वस्थ और आकर्षक व्यक्तित्व वाले ऊंची जाति के डाक्टर को अपना दामाद बनाने में रजनी के मातापिता को भला क्या एतराज हो सकता था. सुंदर की मां भी रजनी की सुंदरता देख कर तुरंत उसे अपनी बहू बनाने को तैयार हो गईं. हालांकि उन को उस की जाति खल रही थी. पर सुंदर की मां जवानी में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ी थीं और जीवनभर उन्होंने स्कूलों में पढ़ाया है जहां हर तरह की लड़कियां आती रही हैं.

कुछ दिन रुक कर पट ब्याह वाली बात हुई. सुंदर रजनी को ब्याह कर अपने घर में ले आया. उस को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई थी. वह रातदिन रजनी के प्यार में ही डूबा रहता. नशा इतना गहरा था कि कुछ सोचने का वक्त ही नहीं मिला. उस के दोस्तों ने उस से वास्ता रखना बंद कर दिया पर इस से उसे कुछ असर नहीं पड़ता था. उसे तो रजनी में ही जिंदगी दिख रही थी.

सुंदर की रविवार को दिन में सोने की आदत थी. अभी शादी को 1 साल भी पूरा नहीं हुआ था. एक दिन अचानक ही सोते समय किसी ने अपनी उंगलियों से सुंदर की पलकें खोल दीं. सुंदर ने हड़बड़ा कर देखा, पास ही रजनी खड़ी मुसकरा रही थी. अभी सुंदर खीजते हुए यह कहना ही चाहता था कि सोने क्यों नहीं देतीं कि रजनी बोल पड़ी, ‘‘मुबारक हो.’’

‘‘क्या कह रही हो. इतनी जल्दी यह कैसे हो गया? अभी तो मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ सुंदर का चेहरा बु?ा गया.

‘‘तो क्या हर चीज जनाब के सोचने से ही होगी? अरे, मैं तो सोच रही थी आप सुन कर खुशी से उछल पड़ेंगे. मगर आप तो ऐसे डर रहे हैं जैसे कोई बहुत गलत काम हो गया हो. आखिर इस में डरने की क्या बात है? कोई चोरी तो नहीं है. आखिर हम पतिपत्नी हैं.’’

‘‘नहीं रजनी, यह ठीक नहीं. हमें अभी इतनी जल्दी बच्चा नहीं चाहिए,’’ सुंदर ने दृढ़ स्वर में कहा और फिर इस के बाद सबकुछ समाप्त हो गया. रजनी का क्रोध, उस के आंसू कुछ काम न आए. सुंदर ने इंजैक्शन दिलवा कर रजनी को मां बनने से रोक दिया. रजनी खोईखोई सी रहने लगी.

मगर कुछ दिन बाद फिर से सबकुछ सामान्य हो गया. रजनी भी सबकुछ भूल कर पति के सुख में सुखी रहने की कोशिश करने लगी और फिर 3 साल जैसे पलक झपकते गुजर गए.

3 साल बाद जैसे फिर से विस्फोट हो गया.

एक दिन अचानक सुंदर पूछ बैठा, ‘‘क्यों, सबकुछ ठीक है?’’ उसी दिन रजनी 1 महीने बाद अपने मायके से लौटी थी.

रजनी स्वयं ही बताना चाहती थी लेकिन सोच रही थी कि रात को बताएगी. जब उस ने देखा कि सुंदर ने खुद ही पूछ लिया है तो वह एक रहस्यमयी मुसकराहट के साथ बोली, ‘‘हां, सबकुछ ठीक है. इस बार तो जल्दी नहीं है न? अब तो आप को बातें बनने में शर्म नहीं आएगी न?’’

‘‘क्या कह रही हो? क्या फिर गड़बड़ हो गई. इसीलिए मैं मना कर रहा था कि ज्यादा दिन के लिए मत जाओ. खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. अभी तोे सिर्फ 7 सप्ताह ही हुए हैं. मु?ो तुम्हारी तारीख अच्छी तरह से याद है,’’ सुंदर आश्वस्त स्वर में बोला.

‘‘क्या कह रहे हैं आप? क्या फिर से…’’ रजनी अभी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि सुंदर बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘हां, अभी नहीं 5 साल से पहले हमें बच्चा नहीं चाहिए.’’

‘‘नहीं… नहीं. अब मैं यह नहीं कर सकूंगी,’’ रजनी डर से कांपने लगी. एक तो पहले ही की तकलीफ याद कर के उस के रोंगटे खड़े हो रहे थे दूसरे हर बार अपनी ममता का गला घोटा जाना वह सह नहीं पा रही थी.

‘‘अरे, तुम अभी बहुत छोटी हो. इतनी जल्दी बच्चे हो गए तो जानती हो क्या होगा? तुम्हारी सारी सुंदरता नष्ट हो जाएगी,’’ सुंदर समझते हुए बोला, ‘‘जिद मत करो. अपनी जाति के खोल से निकलो कि बच्चे पैदा करने में ही सुख है. देखा नहीं क्लीनिक में कितनी सुंदर लड़कियां 30 साल तक ऐनीमिया की शिकार हो जाती हैं.’’

मगर रजनी न मानी. उस ने सास को भी सारी बात बता दी. मां ने बेटे को बहुत

समझाया लेकिन बेटा टस से मस न हुआ और एक दिन अचानक लखनऊ मैडिकल कालेज में जा कर रजनी के गर्भाशय की सफाई करवा दी.

रजनी का मन रो उठा. वह बरदाश्त न कर सकी इस क्रूरता को. वह बिस्तर से लग गई और फिर ठीक होने में महीनों लग गए.

समय हर घाव को भर देता है. रजनी भी पिछला सबकुछ भूल कर पति के साथ सहयोग करने लगी. लेकिन अब उस में न पहले जैसा उत्साह रहा था, न अल्हड़ता और न सुंदरता ही. इधर सुंदर ने भी सरकारी अस्पताल की नौकरी छोड़ कर अपना निजी नर्सिंगहोम खोल लिया था. उस का नर्सिंगहोम जल्द ही खूब चलने लगा क्योंकि उस का असली काम तो अनचाही ममता का गला घोटना था. उस ने अपने यहां कई नर्सें और एक महिला डाक्टर भी रखी हुई थी.

सुंदर का अपने माली को सख्त आदेश था कि नर्सिंगहोम के बगीचे में कोई भी सूखा, मुर?ाया हुआ फूल न रहे. उसे हमेशा ताजे, खिले हुए फूल ही पसंद थे. हां, फूल चाहे जो हों बेला, गुलाब, चमेली, गेंदा बस ताजे होने चाहिए.

यही स्थिति उस के अपने नर्सिंगहोम की भी थी. कोई भी ऐसी नर्स या डाक्टर उसे पसंद नहीं थी जो उस की इच्छा के आगे सिर न ?ाका दे. अत: वह हमेशा ताजे फूल की तलाश में रहता और भयंकर बेकारी के कारण उसे एक से एक नायाब खुशबूदार फूल मिलता रहता.

रजनी को वह लगभग भूल ही चुका था. अपने पौरुष और संपत्ति के नशे में रजनी उसे एक मुर?ाया हुआ फूल ही दिखाई देती. लेकिन वह उसे तोड़ कर नहीं फेंक सकता था क्योंकि वह एक स्थायी बंधन, एक मजबूत जंजीर बन कर उस के गले में पड़ गई थी.

मगर शीघ्र ही इस बंधन से छुटकारा पाने का बहाना मिल गया. शादी को हुए 5 साल पूरे हो चुके थे. रजनी करीब 4 महीनों से अपने मायके में थी. सुंदर के बारबार कहने पर भी नहीं आ रही थी. सुंदर को कुछ खटका हुआ. वह स्वयं जा कर रजनी को लाना चाहता था लेकिन उसे वक्त ही नहीं मिल पा रहा था.

उस ने अपने नौकर को लाने भेजा तो रजनी ने कहलवा दिया कि वह अभी नहीं आ सकेगी. अब तो उस का संदेह विश्वास में बदलने लगा. उस ने फोन किया कि वह गंभीर रूप से बीमार है. यह सुनते ही रजनी के हाथपैर फूल गए. वह घबराई हुई फौरन लखनऊ के लिए चल दी.

रजनी ने आ कर देखा कि सुंदर तो पूरी तरह ठीक है. हां, रजनी को देख कर उस का पारा अवश्य चढ़ गया क्योंकि उसे समझते देर न लगी कि रजनी फिर से मां बनने वाली है. उस की तारीख तो वह हमेशा ही याद रखता था. अत: उसे पक्का विश्वास था कि 4 महीने का गर्भ होगा. इस बार उस ने रजनी से कुछ न पूछा. जब वह रात को सोई तो चुपचाप बेहोश कर के सब काम बड़ी तसल्ली से

पूरा कर के आराम से सो गया. सुबह जब रजनी की आंख खुली तो उस का गला बुरी तरह से सूख रहा था. सारे शरीर में जैसे जान ही नहीं थी. उस ने सिर उठाने की कोशिश की तो उसे लगा जैसे वह भारी बो?ा तले दबी हुई है. अभी वह कुछ सम?ा पाती कि किसी ने उस के मुंह में कोई गरमगरम चीज डाल दी. मुश्किल से निगल कर दोबारा आंख खोल कर देखने की कोशिश की तो एक धुंधला सा चेहरा दिखाई दिया लेकिन कुछ सम?ा न सकी. पता नहीं कितनी देर इसी हालत में पड़ी रही कि किसी ने एक इंजैक्शन लगा कर दोबारा मुंह में गरम चीज डाली. इस बार उसे आभास हुआ कि वह गरम चीज दूध है. हिम्मत कर के उस ने आंखें खोलीं. देखा पास ही नर्स और उस का पति सुंदर खड़ा है.

रजनी कांप गई. अनायास ही हाथ पेट पर गया. तीव्र पीड़ा हुई और वह चीख पड़ी, ‘‘नहीं…’’ इस के बाद फिर बेहोश हो गई.

सुंदर चौंक उठा. इस के बाद की सारी घटनाएं जैसे एक आंधी की तरह आईं. रजनी लगातार 1 महीने तक होश में आ कर चीखती और फिर डर कर बेहोश हो जाती. सुंदर परेशान हो गया. रजनी सूख कर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई थी. मजबूरन सुंदर ने रजनी के मांबाप और भाई को बुलवा लिया. मैडिकल कालेज के डाक्टरों ने एक राय से कहा कि रजनी को कोई भारी मानसिक आघात लगा है.

सुदंर ने सोचा भी नहीं था कि परिणाम इतना भयानक होगा. बड़ी मुशकिल से  रजनी 6 महीने में ठीक हो पाई. लेकिन अब उस ने सुंदर के साथ रहने से साफ मना कर दिया. वह अपने मांबाप के पास चली गई. कुछ दिन बाद सुंदर को अदालत का पत्र मिला कि रजनी तलाक चाहती है और जितनी जल्दी उन का विवाह हुआ था, उतनी ही जल्दी उन का तलाक भी हो गया क्योंकि दोनों ही पक्ष इस के लिए इच्छुक थे.

सुंदर ने रजनी से छुटकारा मिलने पर सांस ली. वह पहले ही इस सूखे, मुरझाए हुए फूल को तोड़ फेंकना चाहता था. अब वह मनमाने तरीके से रहने लगा. मां तो पहले ही मर चुकी थीं. अब पत्नी के भी न रहने से किसी तरह का बंधन नहीं रहा. नित नए स्वाद और नित नए शौक. वह शान से कहता, ‘‘अकेले की जिंदगी कितनी सुखदायी होती है. जब चाहा खाया, जब चाहा सोए, कोई रोकनेटोकने वाला नहीं.’’

जब भी कोई दोबारा शादी करने को कहता तो वह झिड़क देता, ‘‘अरे, छोड़ो भी. जब बाजार में तरहतरह के स्वादिष्ठ व्यंजन सहज ही मिल जाते हैं तो घर में सूखी रोटी खाने के लिए बीवी का ?ामेला करना बेवकूफी के सिवा और क्या है.’’

लोगों ने कुछ दिन तो कहा, फिर धीरेधीरे सब चुप हो गए. इसी तरह 15 वर्ष गुजर गए.

एक जगह रहतेरहते सुंदर का मन भी ऊब गया. अब उस की प्रैक्टिस भी पहले जैसी नहीं रही क्योंकि वह डाक्टर के रूप में काफी बदनाम हो चुका था. अत: तंग आ कर उस ने दिल्ली के एक नर्सिंगहोम में सर्विस कर ली. मकान भी उसे नर्सिंगहोम के पास मिल गया.

आने के दूसरे दिन ही वह कमरे में खड़ा खिड़की से बाहर देख रहा था कि  सामने के घर की बालकनी पर नजर पड़ते ही चौंक गया. सामने रजनी गुलाबी रंग की साड़ी में खड़ी बाल सुखा रही थी. रजनी पहले से कुछ मोटी हो गई थी. फिर भी उस के चेहरे की चमकदमक वैसे ही थी. सुंदर देखता ही रह गया.

अभी वह कुछ सोचता कि 2 प्यारेप्यारे बच्चे दौड़ते हुए आए और रजनी से लिपट गए. सुंदर का मन अजीब सा होने लगा. कितनी प्यारी गुडि़या सी लड़की जैसे नन्हीमुन्नी रजनी ही खड़ी हो और वह लड़का… उस की शक्ल उस लड़की से बिलकुल भिन्न थी. लड़की बिलकुल गोरी थी तो लड़का गेहुएं रंग का था. सुंदर का मन हुआ कि वह जा कर उन बच्चों के साथ खेलने लगे.

अभी वह उन्हें देख ही रहा था कि अंदर से एक लंबा हट्टाकट्टा खूबसूरत सा व्यक्ति स्टैथेस्कोप लिए निकला, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं,’’ कह कर उस ने रजनी को मुसकराते हुए भरपूर नजरों से देखा.

दोनोें बच्चे पिता से लिपट गए. जब पिता चलने को हुआ तो दोनों बच्चे जोरजोर से बोले, ‘‘पापा, जल्दी आना. आज इंडिया गेट चलेंगे.’’

‘‘ठीक है, तुम सब तैयार रहना और ए मेम साहब, तुम बढि़या सा मेकअप कर के वह नई साड़ी पहनना जो मैं कल लाया था,’’

वह बोला.

‘‘अच्छा बाबा, वही पहनूंगी,’’ रजनी भी चहकती हुई बोली.

सुंदर के दिल पर जैसे आरा चल गया. कितनी खुश है रजनी. कितने प्यार हैं उस के बच्चे और वह कितना हंस रहा था. मैं तो कभी इतना खुल कर नहीं हंस सका. सुंदर कमरे में जा कर धम्म से बिस्तर पर गिर गया. कोई भी तो नहीं है जो उस से जल्दी आने का आग्रह करे. किस से साथ चलने को कहे, सुंदर. किस से बातें करे. उठ कर चलने को हुआ तो ड्रैसिंग टेबल के सामने बाल संवारने लगा.

आधे से ज्यादा बाल पक चुके थे. चेहरे पर भी ?ार्रियां पड़ गई थीं. आंखों के नीचे का भाग कितना ज्यादा फूल गया था. क्या उम्र है अभी. कुल 45 वर्ष ही तो. लेकिन देखने में तो 60 से कम नहीं लगता.

और रजनी वह भी 35 से ज्यादा की हो गई होगी. लेकिन देखने में तो मुश्किल से 25-26 की लगती है. वह तो सम?ाता था बच्चे होने से स्त्री जल्दी बूढ़ी हो जाती है लेकिन यहां तो ज्यादा ही दिखाई दे रहा है. कहां रोक पाया वह उम्र को आगे बढ़ने से बल्कि उस का अपना चेहरा हमेशा तनावग्रस्त ही दिखाई देता है.

सुंदर रोज छिपछिप कर रजनी और उस के परिवार को देखता रहा. उस दिन जब बेचैनी बहुत बढ़ गई तो खिड़की पर जा खड़़ा हुआ. रजनी, उस का पति और दोनों बच्चे फुलझड़ी और पटाखे चला रहे थे.

उन का घर मोमबत्तियों की रोशनी से जगमगा रहा था. पूरा महल्ला ही नहीं पूरा शहर भी रोशनी से नहा गया था. धरती पर चरखी और आसमान में रंगबिरंगे सितारे बिखरे पड़े थे. यदि कहीं सूनापन या अंधेरा था तो सुंदर के घर में. रजनी, उस का पति और बच्चे अंदर जा चुके थे.

अचानक खिलखिलाहट की आवाज से सुंदर चौंक गया. रजनी का पति अपने दोनों बच्चों के साथ उस के फ्लैट की सीढि़यों की ओर वाली बालकनी में मोमबत्तियां लगा रहा था. वह बाहर निकल आया तो वह हंस कर बोला, ‘‘मुझे डाक्टर राकेश कहते हैं. आप के घर में अंधेरा देखा तो सोचा शायद आप कहीं गए हैं या बीमार है. हमारा रिवाज है कि दीवाली पर पड़ोसी के घर में दीया जरूर जलाते हैं. इसीलिए चले आए. क्या वास्तव में आप की तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, आप आए उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद,’’ कह कर वह कमरे में घुसा ही था कि रजनी की बेटी ने उछल कर स्विच औन कर दिया, जिस से कमरा रोशनी से भर गया. वह खिलखिला कर बोली, ‘‘आप को अंधेरे में रहना अच्छा लगता है क्या? मां कहती

हैं आज के दिन घर में अंधेरा रहना ठीक नहीं होता है.’’

सुंदर कैसे कहता कि उस की जिंदगी का यह अंधेरा उस का अपना ही किया हुआ है. सिर्फ एक दीवाली से क्या होगा, उस का तो सारा जीवन ही अंधेरे में घिरा हुआ है.

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