तू आए न आए : भाग 3- शफीका को क्यों मिला औरत का बदनुमा दाग

शरीर तो स्वस्थ है लेकिन दिल… छलनीछलनी, दूसरी पत्नी से छिपा कर रखी गई शफीका की चिट्ठियां और तसवीरों को छिपछिप कर पढ़ने और देखने के लिए मजबूर थे. प्यार में डूबे खतों के शब्द, साथ गुजारे गिनती के दिनों के दिलकश शाब्दिक बयान, 63 साल पीछे ले जाता, यादों के आईने में एक मासूम सा चेहरा दिखलाई देने लगता. डाक्टर हाथ बढ़ा कर उसे छू लेना चाहते हैं जिस की याद में वे पलपल मरमर कर जीते रहे. बीवी एक ही छत के नीचे रह कर भी उन की नहीं थी. दौलत का बेशुमार अंबार था. शानोशौकत, शोहरत, सबकुछ पास में था अगर नहीं था तो बस वह परी चेहरा, जिस की गरम हथेलियों का स्पर्श उन की जिंदगी में ऊर्जा भर देता.

मेरे अपनेपन में उन्हें अपने वतन की मिट्टी की खुशबू आने लगी थी. अब वे परतदरपरत खुलने लगे थे. एक दिन, ‘‘लैपटौप पर क्या सर्च कर रहे हैं?’’

‘‘बेटी के लिए प्रौपर मैच ढूंढ़ रहा हूं,’’ कहते हुए उन का गला रुंधने लगा. उन की यादों की तल्ख खोहों में उस वक्त वह कंपा देने वाली घड़ी शामिल थी, जब उन की बेटी का पति अचानक बिना बताए कहीं चला गया. बहुत ढूंढ़ा, इंटरनैशनल चैनलों व अखबारों में उस की गुमशुदगी की खबर छपवाई, लेकिन सब फुजूल, सब बेकार. तब बेटी के उदास चेहरे पर एक चेहरा चिपकने लगा. एक भूलाबिसरा चेहरा, खोयाखोया, उदास, गमगीन, छलछला कर याचना करती 2 बड़ीबड़ी कातर आंखें.

किस का है यह चेहरा? दूसरी बीवी का? नहीं, तो? मां का? बिलकुल नहीं. फिर किस का है, जेहन को खुरचने लगे, 63 साल बाद यह किस का चेहरा? चेहरा बारबार जेहन के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. किस की हैं ये सुलगती सवालिया आंखें? किस का है यह कंपकंपाता, याचना करता बदन, मगर डाक्टर पर उस का लैशमात्र भी असर नहीं हुआ था. लेकिन आज जब अपनी ही बेटी की सिसकियां कानों के परदे फाड़ने लगीं तब वह चेहरा याद आ गया.

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दुनियाभर के धोखों से पाकसाफ, शबनम से ज्यादा साफ चेहरा, वे कश्मीर की वादियां, महकते फूलों की लटकती लडि़यों के नीचे बिछी खूबसूरत गुलाबी चादर, नर्म बिस्तर पर बैठी…खनकती चूडि़यां, लाल रेशमी जोड़े से सजा आरी के काम वाला लहंगाचोली, मेहंदी से सजे 2 गोरे हाथ, कलाई पर खनकती सोने की चूडि़यां, उंगलियों में फंसी अंगूठियां. हां, हां, कोई था जिस की मद्धम आवाज कानों में बम के धमाकों की तरह गूंज रही थी, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी खालिद, हमेशा.

लाहौर एयरपोर्ट पर अलविदा के लिए लहराता हाथ, दिल में फांस सी चुभी कसक इतनी ज्यादा कि मुंह से बेसाख्ता चीख निकल गई, ‘‘हां, गुनहगार हूं मैं तुम्हारा. तुम्हारे दिल से निकली आह… शायद इसीलिए मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो गई. मेरे चाचा के बहुत जोर डालने पर, न चाहते हुए भी मुझे उन की अंगरेज बेटी से शादी करनी पड़ी. दौलत का जलवा ही इतना दिलफरेब होता है कि अच्छेअच्छे समझदार भी धोखा खा जाते हैं.

‘‘शफीका, तुम से वादा किया था मैं ने. तुम्हें लाहौर ला कर अपने साथ रखने का. वादा था नए सिरे से खुशहाल जिंदगी में सिमट जाने का, तुम्हारी रातों को हीरेमोती से सजाने का, और दिन को खुशियों की चांदनी से नहलाने का. पर मैं निभा कहां पाया? आंखें डौलर की चमक में चौंधिया गईं. कटे बालों वाली मोम की गुडि़या अपने शोख और चंचल अंदाज से जिंदगी को रंगीन और मदहोश कर देने वाली महक से सराबोर करती चली गई मुझे.’’

अचानक एक साल बाद उन का दामाद इंगलैंड लौट आया, ‘‘अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा. आप की बेटी के साथ ही रहूंगा. वादा करता हूं.’’

दीवानगी की हद तक मुहब्बत करने वाली पत्नी को छोड़ कर दूसरी अंगरेज औरत के टैंपरेरी प्यार के आकर्षण में बंध कर जब वह पूरी तरह से कंगाल हो गया तो लौटने के लिए उसे चर्चों के सामने खड़े हो कर वायलिन बजा कर लोगों से पैसे मांगने पड़े थे.

पति की अपनी गलती की स्वीकृति की बात सुन कर बेटी बिलबिला कर चीखी थी, ‘‘वादा, वादा तोड़ कर उस फिनलैंड वाली लड़की के साथ मुझ पत्नी को छोड़ कर गए ही क्यों थे? क्या कमी थी मुझ में? जिस्म, दौलत, ऐशोआराम, खुशियां, सबकुछ तो लुटाया था तुम पर मैं ने. और तुम? सिर्फ एक नए बदन की हवस में शादी के पाकीजा बंधन को तोड़ कर चोरों की तरह चुपचाप भाग गए. मेरे यकीन को तोड़ कर मुझे किरचियों में बिखेर दिया.

‘‘तुम को पहचानने में मुझ से और मेरे बिजनैसमैन कैलकुलेटिव पापा से भूल हो गई. मैं इंगलैंड में पलीपढ़ी हूं, लेकिन आज तक दिल से यहां के खुलेपन को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकी. मुझ से विश्वासघात कर के पछतावे का ढोंग करने वाले शख्स को अब मैं अपना नहीं सकती. आई कांट लिव विद यू, आई कांट.’’ यह कहती हुई तड़प कर रोई थी डाक्टर की बेटी.

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आज उस की रुलाई ने डाक्टर को हिला कर रख दिया. आज से 50 साल पहले शफीका के खामोश गरम आंसू इसी पत्थरदिल डाक्टर को पिघला नहीं सके थे लेकिन आज बेटी के दर्द ने तोड़ कर रख दिया. उसी दम दोटूक फैसला, दामाद से तलाक लेने के लिए करोड़ों रुपयों का सौदा मंजूर था क्योंकि बेटी के आंसुओं को सहना बरदाश्त की हद से बाहर था.

डाक्टर, शफीका के कानूनी और मजहबी रूप से सहारा हो कर भी सहारा न बन सके, उस मजलूम और बेबस औरत के वजूद को नकार कर अपनी बेशुमार दौलत का एक प्रतिशत हिस्सा भी उस की झोली में न डाल सके. शफीका की रात और दिन की आह अर्श से टकराई और बरसों बाद कहर बन कर डाक्टर की बेटी पर टूटी. वह मासूम चेहरा डाक्टर को सिर्फ एक बार देख लेने, एक बार छू लेने की चाहत में जिंदगी की हर कड़वाहट को चुपचाप पीता रहा. उस पर रहम नहीं आया कभी डाक्टर को. लेकिन आज बेटी की बिखरतीटूटती जिंदगी ने डाक्टर को भीतर तक आहत कर दिया. अब समझ में आया, प्यार क्या है. जुदाई का दर्द कितना घातक होता है, पहाड़ तक दरक जाते हैं, समंदर सूख जाते हैं.

मैं यह खबर फूफीदादी तक जल्द से जल्द पहुंचाना चाहता था, शायद उन्हें तसल्ली मिलेगी. लेकिन नहीं, मैं उन के दिल से अच्छी तरह वाकिफ था. ‘मेरे दिल में डाक्टर के लिए नफरत नहीं है. मैं ने हर लमहा उन की भलाई और लंबी जिंदगी की कामना की है. उन की गलतियों के बावजूद मैं ने उन्हें माफ कर दिया है, बजी,’ अकसर वे मुझ से ऐसा कहती थीं.

मैं फूफीदादी को फोन करने की हिम्मत जुटा ही नहीं सका था कि आधीरात को फोन घनघना उठा था, ‘‘बजी, फूफीदादी नहीं रहीं.’’ क्या सोच रहा था, क्या हो गया. पूरी जिंदगी गीली लकड़ी की तरह सुलगती रहीं फूफीदादी.

सुबह का इंतजार मेरे लिए सात समंदर पार करने की तरह था. धुंध छंटते ही मैं डाक्टर के घर की तरफ कार से भागा. कम से कम उन्हें सचाई तो बतला दूं. कुछ राहत दे कर उन की स्नेहता हासिल कर लूं मगर सामने का नजारा देख कर आंखें फटी की फटी रह गईं. उन के दरवाजे पर एंबुलैंस खड़ी थी. और घबराई, परेशान बेटी ड्राइवर से जल्दी अस्पताल ले जाने का आग्रह कर रही थी. हार्टअटैक हुआ था उन्हें. हृदयविदारक दृश्य.

मैं स्तब्ध रह गया. स्टेयरिंग पर जमी मेरी हथेलियों के बीच फूफीदादी का लिखा खत बर्फबारी में भी पसीने से भीग गया, जिस पर लिखा था, ‘बजी, डाक्टर अगर कहीं मिल जाएं तो यह आखिरी अपील करना कि वे मुझ से मिलने कश्मीर कभी नहीं आए तो मुझे कोई शिकवा नहीं है लेकिन जिंदगी के रहते एक बार, बस एक बार, अपनी मां की कब्र पर फातेहा पढ़ जाएं और अपनी सरजमीं, कश्मीर की खूबसूरत वादियों में एक बार सांस तो ले लें. मेरी 63 साल की तपस्या और कुरबानियों को सिला मिल जाएगा. मुझे यकीन है तुम अपने वतन से आज भी उतनी ही मुहब्बत करते हो जितनी वतन छोड़ते वक्त करते थे.’

गुनाहों की सजा तो कानून देता है, लेकिन किसी का दिल तोड़ने की सजा देता है खुद का अपना दिल.

‘तू आए न आए,

लगी हैं निगाहें

सितारों ने देखी हैं

झुकझुक के राहें…’

इस गजल का एकएक शब्द खंजर बन कर मेरे सीने में उतरने लगा और मैं स्टेयरिंग पर सिर पटकपटक कर रो पड़ा.

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रोमांस का तड़का: भाग 1- क्यों गलत है पति-पत्नि का रोमांस करना

लेखिका- प्रेमलता यदु

पुलिस स्टेशन पर पांव धरते ही मेरी सांसें तेज हो गईं. रोना तो तभी से आ रहा था जब से पुलिस ने पकड़ा था लेकिन अब तो आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे, उस पर जब इंस्पैक्टर साहब ने कहा-

“अपने पापा को फोन लगाओ और यहां आने को कहो.”

उन का यह कहना था कि मेरे हाथपांव कांपने लगे. अतुल के माथे पर भी पसीने की बूंदें दिखाई देने लगीं. अतुल ने इंस्पैक्टर साहब को बहुत समझाने की कोशिश की कि वे कम से कम मुझे जाने दें. लेकिन इंस्पैक्टर साहब मुझे छोड़ने को तैयार ही नहीं थे, वे तो इस बात पर अड़े रहे कि वे मुझे परिवार वालों को ही सौंपेंगे और मेरा यह सोचसोच कर बुरा हाल हो रहा था कि यदि पापा और घर के अन्य सदस्यों को पता चलेगा कि मैं अतुल के साथ शहर से दूर एक लव स्पौट पर पकड़ी गई हूं तो सब के सामने मेरी क्या इज्जत रह जाएगी. यही हाल अतुल का भी था. घर वाले हमें इस हाल में देखेंगे तो क्या सोचेंगे. अतुल ने जरूरी काम का बहाना बना कर औफिस से छुट्टी ली थी, इसलिए वह औफिस भी फोन नहीं कर सकता था. इस वक्त हमारे पास घर पर फोन करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था.

मैं बारबार उस घड़ी को कोस रही थी जब मैं घर पर सब से झूठ बोल कर निकली थी कि ग्रुप स्टडीज और एग्जाम की तैयारी के लिए अपनी फ्रैंड शालिनी के घर जा रही हूं.

मैं अतुल से मिलने जा रही हूं, यह बात मेरे चाचा की बेटी भूमि के अलावा कोई नहीं जानता था. भूमि केवल मेरी बहन ही नहीं, मेरी सब से अच्छी दोस्त भी है. मेरे और अतुल के बीच की सेतु भी इस वक्त वही है. भूमि के साथ ही मैं घर से निकली थी और उस ने ही घर पर सब से कहा था कि वह मुझे शालिनी के घर पर ड्रौप करने जा रही है. अब हमारे साथसाथ भूमि भी घर वालों के रडार पर थी, यह सोच कर मैं और भी परेशान थी.

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तभी इंस्पैक्टर साहब ने फिर कहा-

“तुम दोनों अपने घरों पर फोन लगाते हो या मैं नंबर डायल करूं.”

यह सुन कर अतुल ने कहा- “नहीं सर, हम फ़ोन लगाते हैं.”

जब हम ने घर पर फ़ोन कर के बताया कि हम पुलिस स्टेशन पर हैं तो मेरे पापा और चाचा फौरन पुलिस स्टेशन आ पहुंचे. पापा की आंखों में गुस्सा तैर रहा था जिसे देख कर मैं और अतुल सहम से ग‌ए. पापा और चाचा अभी इंस्पैक्टर साहब से बात कर ही रहे थे कि अतुल के पापा और बड़े भैया भी वहां आ ग‌ए. उन्हें देख कर मैं शर्म से पानीपानी हो गई और जमीन पर नजरें गड़ाए, हाथों को बांधे खड़ी रही. हमारे परिजनों से मिलने के बाद इंस्पैक्टर साहब ने हमें जाने की आज्ञा दे दी.

पापा पुलिस स्टेशन पर तो मुझ से कुछ नहीं बोले लेकिन अतुल के पापा, बड़े भैया उस से न जाने क्या कह रहे थे. मैं दूर खड़ी चुपचाप सब देख रही थी क्योंकि सुनाई तो कुछ दे नहीं रहा था. डर इस बात का था अतुल पापा से सब सचसच न बता दे. वह कहीं उन से यह न कह दे कि मैं ने उसे मिलने को बुलाया था.

थोड़ी देर बाद हम घर आ गए. सारे रास्ते खामोशी छाई रही, ना तो पापा ने कुछ कहा और ना ही चाचा ने. घर पहुंची, तो सभी बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रहे थे. मुझे देखते ही मां दौड़ती हुई मेरे करीब आ गईं. वे कुछ कहने वाली थीं कि दादी ने उन्हें रोक दिया और मुझे कमरे में जाने को कहा.

कमरे में जाते वक्त मैं ने देखा, भूमि मुंह लटकाए शांत कोने में खड़ी है. मैं बिना कोई सफाई दिए, सिर झुकाए अपने कमरे के भीतर आ गई. इस वक्त अतुल के घर पर क्या हो रहा होगा, यह बात मुझे सता रही थी लेकिन इस समय अतुल को फोन करना या वहां की जानकारी प्राप्त कर पाना संभव नहीं था. सो, मैं फोन एक ओर रख पलंग पर औंधेमुंह लेट गई और विचार करने लगी, यह मेरी कैसी नादानी है, यह जानते हुए कि एक महीने बाद मेरी शादी है, मैं बगैर कुछ सोचेसमझे अतुल से मिलने चली ग‌ई. अभी कुछ ही सप्ताह तो गुजरे हैं हमारी सगाई को और मैं… ऊफ… यह क्या पागलपन कर बैठी.

इस पागलपन का कारण यह था कि पीजी सोशल साइंस में यह मेरा फाइनल ईयर था और घर पर मेरी शादी की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी. संयुक्त परिवार होने की वजह से और परिवार की बड़ी बेटी होने के कारण मम्मीपापा और चाचाचाची चाहते थे कि मेरी शादी जल्द से जल्द करा दें. अभी मेरा ग्रेजुएशन कम्पलीट हुआ ही कि रिश्ते आने लगे थे. लेकिन मैं पोस्टग्रेजुएशन कम्पलीट करना चाहती थी जिस के लिए पापा ने अनुमति भी दे दी थी.

जब से मैं ने यौवन की दहलीज पर कदम रखा था तब से मेरी यही चाह थी कि मैं उस लड़के से शादी करूंगी जिसे देखते ही मेरा दिल तेजी से धड़कने लगेगा, मनमयूर झूम उठेगा और मैं उसी के संग डेट पर जाऊंगी, रोमांस करूंगी. लेकिन ऐसा कुछ भी करने का मौका नहीं मिला.

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जिसे देख कर पहली बार मेरा दिल तेजी से धड़का वह कोई और नहीं, अतुल ही था जो मुझे अपने परिवार के साथ शादी के लिए देखने आया था. अतुल की अभीअभी बैंक में नौकरी लगी थी. वह बैंक में अधिकारी था. उस का घरपरिवार सब अच्छा है. यह देख कर पापा और चाचा ने मेरी शादी अतुल से फिक्स कर दी. फिर क्या था, मेरी अतुल से सगाई भी हो गई और एक महीने बाद एग्जाम के बाद हमारी शादी भी तय हो गई.

इस वजह से डेटिंग और रोमांस की चाह मन के अंदर ही दम तोड़ने लगी. लेकिन मैं ऐसा होने नहीं देना चाहती थी, मैं शादी से पहले रोमांस का आनंद हर हाल में उठाना चाहती थी, इसलिए मैं ने भूमि के सामने अपने दिल के पन्ने खोल दिए. मेरा हाल ए दिल जान कर भूमि ने कहा-

‘डोंट वरी मा‌ई डियर टीना, तुम डेट पर भी जाओगी और रोमांस भी कर पाओगी, तुम देखती जाओ मेरा कमाल.’

इतना कह कर भूमि अतुल के मोबाइल नंबर के जुगाड़ में लग ग‌ई. मोबाइल नंबर तो मिल गया लेकिन हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम अतुल को फोन कर के कहें तो क्या कहें. दो दिनों बाद 14 फरवरी वेलैंटाइन डे था. यह अच्छा अवसर था अतुल को फोन करने और उस से मिलने का.

भूमि और मैं ने मिल कर वेलैंटाइन डे का सारा प्लान बना लिया और फिर भूमि ने अतुल को फोन किया. काफी देर तक रिंग बजती रही, उस के बाद अतुल ने फोन उठाया. अतुल के फोन उठाते ही भूमि ने कहा-

‘आप से टीना बात करना चाहती है.’

यह सुनते ही अतुल ने अश्चर्य से कहा- ‘कौन टीना? मैं किसी टीना को नहीं जानता.’

अतुल के ऐसा कहते ही भूमि ने शरारती अंदाज में कहा-

‘अरे वाह जी, सगाई कर ली, एक महीने बाद शादी करने जा रहे हो और अपनी होने वाली बीवी को नहीं जानते जीजा जी, प्रीषा ऊर्फ टीना आप से बात करना चाहती है.’

मैं अतुल से बात करना चाहती हूं, यह सुनते ही अतुल ने फौरन भूमि से मुझे फोन देने को कहा.

सगाई के बाद आज पहली बार हम दोनों ने काफी देर तक बात की थी और यह डिसाइड किया कि हम वेलैंटाइन डे पर पूरा दिन साथ बिताएंगे.

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मैं ने और भूमि ने मिल कर वेलैंटाइन डे के एक दिन पहले अपनी पौकेट मनी से अतुल के लिए शौपिंग भी कर ली. उस के लिए वेलैंटाइन कार्ड, रैड रोज़ और एक गौगल भी पर्चेज किए. अब, बस, कल का इंतज़ार था. दूसरे दिन सुबह होते ही मैं और भूमि निर्धारित समय पर तैयार हो कर घर वालों से झूठ बोल कर निकल पड़े अतुल से मिलने. यह मेरी पहली डेट थी. मन में थोड़ी घबराहट और थोड़ा उत्साह भी था. भूमि मुझे हमारे दुर्ग शहर की लोकप्रिय कौफी शौप कैफिनो के बाहर छोड़ कर चली गई क्योंकि इसी कौफी शौप पर अतुल से मिलना तय हुआ था.

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रोमांस का तड़का: भाग 2- क्यों गलत है पति-पत्नि का रोमांस करना

लेखिका- प्रेमलता यदु

मैं तेज़ सांसों के साथ कौफी शौप के अंदर धीरेधीरे बढ़ने लगी. तभी मैं ने देखा, अतुल कौर्नर की एक टेबल पर मेरा इंतजार कर रहा है. उसे देखते ही मेरी आंखों में चमक आ गई और अतुल के चेहरे पर भी मुसकान की लहर दौड़ गई. टेबल के करीब पहुंचते ही अतुल ने मुझे बैठने का इशारा किया और मैं अतुल के सामने वाली चैयर पर बैठ गई. मेरे बैठने के थोड़ी ही देर बाद वेटर हमारी टेबल पर एक चौकलेट केक ले कर आया जिस पर लिखा था ‘हैप्पी वेलैंटाइन डे’. उस केक को देख मैं सरप्राइज्ड हो गई. केक काटने के बाद हमारी टेबल पर मेरा फेवरेट कैफेचिनो आ गया, जो कि अतुल ने पहले से ही और्डर कर रखा था. सरप्राइज यहीं पर खत्म नहीं हुआ. अतुल ने मुझे वेलैंटाइन कार्ड और रैड रोज़ भी दिया. उस के बाद हम लोग ड्राइव पर निकल ग‌ए.

अतुल की बाइक के पीछे बैठते ही मेरा मन रोमांचित हो उठा. बाइक हवा से बातें करने लगी और मैं अतुल के प्यार में खोने लगी. शहर से दूर एक लव स्पौट पर आ कर अतुल ने बाइक रोक दी और हम सब से नजरें बचाते हुए एक पेड़ के नीचे जा बैठे. तब मैं ने अपने बैग से कार्ड, रोज़ और गौगल निकाल कर अतुल की ओर बढ़ा दिया. उन्हें लेते हुए जब अतुल ने मेरा हाथ थामा तो शर्म से मेरे चेहरे का रंग गुलाबी हो गया और जब अतुल मेरे बालों पर अपनी उंगलियां फेरने लगा, मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गईं और मैं उस से लिपट गई. उस के बाद अतुल के होंठों की छुअन से मेरे पूरे बदन में सिहरन सी दौड़ गई. दुनिया से बेखबर हम एकदूजे की आंखों में कुछ इस तरह डूबने लगे कि हमें इस बात का भी ख़याल न रहा कि अभी हमारी शादी नहीं हुई है और हम अपने घर के रूम में नहीं, पब्लिक प्लेस में हैं. तभी न जाने कहां से गश्त लगाती पुलिस वहां आ पहुंची और हम लव स्पौट से सीधे पुलिस स्टेशन आ पहुंचे.

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अभी मैं यह सब स्मरण कर ही रही थी कि मेरा मोबाइल बज उठा और मैं वर्तमान में आ पहुंची. फोन अतुल का था. मेरे फोन रिसीव करते ही अतुल ने कहा-

“टीना, मैं अभी घर नहीं आ पाऊंगा, बैंक में जरूरी काम है. तुम अकेले ही बंटी के स्कूल पेरैंट्स-टीचर्स मीटिंग के लिए चली जाना और शादी में जाने के लिए जो भी शौपिंग करनी हो, कर लेना.”

आज सुबह ही अतुल ने मुझ से प्रौमिस किया था कि वह बैंक के कुछ जरूरी काम निबटा कर जल्दी घर लौट आएगा लेकिन हर बार की तरह इस बार भी अतुल अपने काम में फंस गया. अतुल से यह सब सुन कर एक बार फिर मन उदास हो गया.

शादी के बाद न जाने अतुल के अंदर का रोमांस कहां गुम हो गया था और मैं भी घरगृहस्थी में कुछ ऐसी उलझी रहती कि अतुल के लिए कभी मेरे पास समय ही न होता. इस के अलावा एक और बात थी जो हमें एकदूसरे के प्रति बिंदास होने से रोकती थी. जब कभी भी हम रोमांटिक होने की सोचते या कोशिश करते, हमें मेरे पापा की घूरती निगाहें नज़र आने लगतीं. आज तक मैं और अतुल पापा की उन नज़रों को नहीं भुला पाए हैं जो हम ने पुलिस स्टेशन में देखा था और इस वजह से आज भी रोमांस के नाम पर हमारे हाथपांव फूलने लगते हैं.

जब भी मैं किसी कपल्स को रोमांस करते देखती या दुनिया से परे एकदूजे में खोए देखती तो मन में एक टीस सी उठती और ऐसा लगता इस दुनिया की बनाई रस्मोंरिवाज, लज्जा, स्त्री का गहना, परिवार की इज्जत, कुल की मर्यादा जैसे बड़ेबड़े शब्दों, जो पांव में बेड़ियां बन जकड़ी हुए हैं, को तोड़ कर, सबकुछ भूल कर मैं अपने अतुल की बांहों में समा जाऊं पर ऐसा कर पाना संभव न होता.

मैं सोचने लगी शादी को 5 साल बीत ग‌ए लेकिन फिर कभी मैं और अतुल डेट पर नहीं ग‌ए जैसा शादी से पहले उस रोज हम वेलैंटाइन डे पर गए थे. वही हमारी पहली और आख़री डेट थी क्योंकि उस दिन पुलिस स्टेशन से घर लौटने के बाद घर पर तो किसी ने कुछ नहीं कहा लेकिन उस दिन के बाद मैं ने कभी न तो अतुल को फोन किया और न ही कभी अतुल ने मुझे फोन किया या मिलने की कोशिश की और फिर मेरा पीजी का एग्जाम समाप्त होते ही हमारी शादी हो गई. उस के बाद फिर कभी हम डेट पर जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाए. जब कभी भी डेट के बारे में सोचते, पुलिस स्टेशन और परिवार वालों की तीखी, तिरछी नज़रें स्मरण हो आतीं और सारा रोमांस काफूर हो जाता. यहां तक कि क‌ई बार तो हम ऐसा व्यवहार करने लगते जैसे प्यार करना या रोमांस करना कोई गुनाह है. हम चाह कर भी अपने बैडरूम में भी एकदूसरे की आगोश में जाने से डरते. यों लगता जैसे किसी की नजरें हम पर गड़ी हुई हैं.

शादी के बाद सबकुछ बदल गया था. 23 साल की उम्र में मेरी शादी अतुल से हो गई. मांग में सिंदूर, माथे पर बिंदी और हाथों में चूड़ियां पहनते ही मैं 23 साल की आंटी बन गई. मुझ से दोचार साल छोटे लड़केलड़कियां भी मुझे आंटी बुलाने लगे थे. पहले तो बहुत बुरा लगता था लेकिन फिर धीरेधीरे आंटी सुनने की आदत पड़ गई और फिर जब मैं ने अपने बेटे को जन्म दिया और मां बनी तो मुझे आंटी सुनना अच्छा लगने लगा.

इन्हीं सब बातों को सोचते हुए अचानक मुझे याद आया कि मुझे पेरैंट्स-टीचर मीटिंग में जाना है और रिश्तेदारी में जो शादी है उस के लिए भी तो अभी कुछ शौपिंग करनी बाकी है. घर के सभी लोग तो पहले ही शादी में जा चुके थे. मेरा 4 साल का बेटा भी घरवालों के साथ ही चला गया था. अतुल के बैंक में काम होने की वजह से हम 2 दिनों के बाद जाने वाले थे.

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मैं अपना वार्डरोब खोल कुरती और लैगिंग्स निकाल तैयार होने लगी. मौडर्न ड्रैस के नाम पर मेरे वार्डरोब में अब यही कुरतियां और लैगिंग्स ही रह गई थीं. लेटेस्ट डिजाइन के कपड़े और वैस्टर्न ड्रैस कब हटती चली गईं, मुझे पता ही न चला. मैं खुस यह मानने लगी थी कि एक संस्कारी बहू, अच्छी बीवी और अच्छी मां को लेटेस्ट मौडर्न डिजाइनर कपड़े पहनना शोभा नहीं देता.

मुझे अतुल पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन मैं इस वक्त क्या कर सकती थी. मुझे स्कूल तो जाना ही था और शौपिंग भी करनी ही थी, इसलिए मैं तैयार हो कर घर से निकल पड़ी. स्कूल में मीटिंग अटेंड करने और शौपिंग करने के बाद मैं घर आ ही रही थी कि रास्ते में कौफी शौप कैफिनो पर मेरी नज़र पड़ी. इस कौफी शौप के साथ मेरी बहुत ही खूबसूरत यादें जुड़ी हैं, इसलिए मैं ने सोचा क्यों न उन यादों को ताजा किया जाए और थोड़ा सा टाइम स्पैंड किया जाए. यही सोच कर मैं कौफ़ी शौप के अंदर आ गई. इन 5 सालों में कुछ भी नहीं बदला था. हां, मैं ज़रूर बदल गई थी.

मैं उसी कौर्नर की टेबल पर जा बैठी जहां शादी से पहले अतुल के साथ बैठी थी. मैं ने एक कैफेचिनो और्डर किया और वेटर के आने का इंतजार करने लगी तभी बेबाक, उन्मुक्त हंसी ने मेरा ध्यान आकर्षित किया. मेरी टेबल से थोड़ी ही दूरी पर एक जोड़ा दुनिया से बेखबर अपने में ही खोया हुआ था. देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन की न‌ईन‌ई शादी हुई हो. दोनों की उम्र करीब 32-33 साल की लग रही थी. आजकल कैरियर बनाने में इतना वक्त तो लग ही जाता है और लोग अब लेट मैरिज भी करने लगे हैं.

न चाहते हुए भी मेरा ध्यान बारबार उन की ओर जा रहा था. तभी मेरे कानों में सुनाई पड़ा-

“तुम्हें पता है तुम से इस तरह मिलने के लिए मुझे अपने बौस से कितने झूठ बोलने पड़ते हैं, क्याक्या बहाने बनाने पड़ते हैं और आज तो हद ही हो गई, बौस तो मुझे छुट्टी देने के मूड में ही नहीं थे. मैं तबीयत ख़राब होने का बहाना बना कर तुम से मिलने आई हूं.”

“तुम मुझ से प्यार करती हो, तो इतना तो करना पड़ेगा. मैं तुम्हें जब भी बुलाऊंगा, तुम्हें मुझ से मिलने आना ही पड़ेगा.”

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रोमांस का तड़का: भाग 3- क्यों गलत है पति-पत्नि का रोमांस करना

लेखिका- प्रेमलता यदु

उन की बातें सुन कर मैं यह तो समझ गई कि ये दोनो पतिपत्नी नहीं हैं लेकिन शादीशुदा हो कर इस तरह अपने पार्टनर को धोखा देना..….! छी…छी… इंसान क‌ई बार अपने स्वार्थ में कितना गिर जाता है. मैं अभी यह सब सोच ही रही थी कि मेरा कैफेचिनो आ गया लेकिन मेरा पूरा ध्यान और कान उन्हीं की तरफ था.

तभी उस औरत ने कहा-

“मुझे आज जल्दी निकलना होगा क्योंकि बसस्टौप पर मेरा बेटा मेरा इंतजार कर रहा होगा.”

यह सुनते ही वह आदमी उस का हाथ थामते हुए बोला-

“तो क्या हुआ, थोड़ी देर और बैठो न प्लीज़, फिर चली जाना. रोज़रोज़ ऐसे मिलने का मौका कहां मिलता है और फिर मेरा बेटा भी तो मेरा इंतजार कर रहा होगा.”

ओह, मतलब, ये दोनों केवल शादीशुदा ही नहीं, बल्कि बालबच्चे वाले भी हैं और यह हाल है, इतनी बेशर्मी… मैं अपना कैफेचीनों फिनिश करती हुई यह सब सोच ही रही थी कि वह महिला घबराती हुई बोली-

“ओ माई गौड, लगता है आज हमारी चोरी पकड़ी जाएगी. यह रमा यहां कहां से आ धमकी. अगर इस ने हमें इस वक्त यहां साथ देख लिया न, तो सभी जगह ढिंढोरा पीटने में उसे वक्त नहीं लगेगा. अभी यह सब वह कह रही थी कि उस दूसरी महिला ने उन्हें दूर से ही देख लिया और हाथ हिलाने लगी, फिर करीब आ कर बोली-

“हाय, मीता तुम… इस वक्त औफिस औवर में यहां, ओह जीजाजी भी साथ हैं. नमस्ते जीजा जी. यहां कैसे?”

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जीजा जी सुनते ही यह बात तो साफ हो गई कि दोनों पतिपत्नी ही हैं लेकिन फिर ये ऐसी बातें क्योंकर रहे थे. तभी मैं ने सुना-

“रमा, वह क्या है न, हम दोनों ने मिल कर यह डिसाइड किया है कि हम महीने में एक दिन डेट पर जरूर जाएंगे चाहे कुछ हो जाए. जहां हम केवल प्रेमीप्रेमिका होंगे और कुछ नहीं. जिंदगी की आपाधापी में एकदूसरे से प्यार के दो शब्द कहने का वक्त नहीं है. बस, हम भाग ही रहे हैं अपने, अपने बच्चों, परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए. इसलिए हम ने सोचा, क्यों न लाइफ में रोमांस का तड़का लगाया जाए जो हमें रिफ्रैश कर दे.”

ऐसा कह कर दोनों ठाहके लगा कर हंस पड़े और मैं यह सब सुन अपना बिल पे कर, कौफी शौप से बाहर आ गई. आज मैं यह बात जान चुकी थी कि जिंदगी अपनी ही रफ्तार में चलती रहती है, लेकिन यदि हमें जिंदगी का मज़ा लेना है तो हमें दौड़तीभागती जिंदगी से कुछ लमहें चुराने होंगे और उन में रोमांस का तड़का लगाना होगा. तभी, जिंदगी मसालेदार और स्वादिष्ठ होगी. इस भागतीदौड़ती जिंदगी में रोमांस का तड़का जरूरी है.

आज की इस घटना, दृश्य और उन की बातों ने मेरा दृष्टिकोण बदल दिया था. मैं ने सोचा, अब अपनी नीरस व बोर होती शादीशुदा जिंदगी को रंगीन और हसीन बनाने के लिए रोमांस का तड़का तो लगाना ही पड़ेगा. यह सोच कर मैं घर जाने का आइडिया ड्रौप कर दोबारा मार्केट की तरफ मुड़ गई.

मार्केट से लौट कर मैं ने पूरे घर को एक रोमांटिक लुक दिया. अतुल की पसंद का कड़ाही पनीर, नौन, और वेज़ रायता औनलाइन और्डर कर, खुद तैयार हो कर अतुल का इंतजार करने लगी. आज शादी के बाद पहली बार मैं इस तरह तैयार हुई थी. दरवाजे पर दस्तक होते ही मैं ने दौड़ कर कर दरवाजा खोला. दरवाजा खोलते ही मुझे शिफौन के टू पीस गौउन और एक न‌ए रूप में देख अतुल हैरान रह गया और उस ने फौरन इस डर से दरवाजा बंद कर दिया कि अगर किसी ने मुझे इस रूप में देख लिया तो क्या सोचेगा.

घर के अंदर आते ही घर की सजावट देख, अतुल की आंखें खुली की खुली रह गईं. चारों ओर रंगबिरंगे जलती हुई कैंडल, रोज़ पेट्लस, सैंटर टेबल पर क्रिस्टल बौल में पेट्लस के साथ फ्लोटिंग कैंडल्स, उन पर धीमेधीमे बजता रोमांटिक इंस्ट्रुमैंटल सौंग और पूरे घर पर बिखरा बहुत ही प्यारा फ्रैगरेंस… यह सब देख अतुल के मुंह से निकला-

“वाऊ, इट्स सो ब्यूटीफुल एंड रोमांटिक टीना,” ऐसा कहते हुए अतुल ने मुझे अपने गले से लगा लिया. लेकिन अगले ही पल अतुल के चेहरे का रंग बदल गया और वह मुझ से कहने लगा-

“यह सब क्या है टीना और तुम ने ये कैसे कपड़े पहन रखे हैं. तुम तो इस तरह के कपड़े नहीं… फिर आज क्यों..? अगर घरवालों को पता चलेगा तो वे क्या सोचेंगे… शायद तुम यह भूल ग‌ई हो कि तुम इस घर की बहू हो, एक चार साल के बच्चे की मां हो, हमारे घर के कुछ संस्कार हैं और क्या तुम्हें यह भी याद नहीं कि इस रोमांस के चक्कर में हमें पुलिस स्टेशन तक के दर्शन करने पड़ ग‌ए थे. मैं आज भी उस दिन के बारे में सोच कर ही कांप जाता हूं.”

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अतुल से ऐसी बातें सुन कर मन थोड़ा उदास तो हो गया लेकिन आज कौफी शौप में रोमांस की जो ज्योति प्रज्ज्वलित हुई थी, अब वह बुझने वाली नहीं थी, इसलिए मैं ने अतुल की बातों पर गौर किए बिना अपनी बांहों का हार अतुल के गले में डालती हुई बोली-

“माई डियर, मैं कुछ भी नहीं भूली हूं, मुझे सब याद है, मुझे याद है कि मैं इस घर की बहू हूं, एक बच्चे की मां हूं लेकिन हम यह भूल गए थे कि हम पतिपत्नी भी हैं. संस्कारी होने का मतलब यह नहीं है कि पतिपत्नी एकदूसरे से प्यार नहीं कर सकते, रोमांस नहीं कर सकते या डेट पर नहीं जा सकते और फिर किसी एक घटना की वजह से हम एकदूसरे का हाथ थामना छोड़ दें, प्यार करना छोड़ दें, खुल कर जीना छोड़ दें या प्यार जताना छोड़ दें, यह तो सही नहीं है न. इस दौड़तीभागती जिंदगी में पतिपत्नी को प्यार का दामन थामे रखना बहुत जरूरी है. तभी तो पतिपत्नी का जीवन सुखमय होगा. ज़रा सोचो, अगर पतिपत्नी के बीच प्रेम करना ग़लत है तो फिर हमारे पौराणिक कथाओं में क‌ई जगहों पर रति और काम का उल्लेख क्यों किया गया है.”

मेरे समझाने का असर अतुल पर हुआ और आज पूरे 5 वर्षों बाद हम ने पूरी रात काफी रोमांटिक तरह से गुज़ारी. अगली सुबह भी अतुल के सिर पर रात की खुमारी छाई हुई थी, वह बैंक नहीं जाना चाहता था लेकिन शादी में जाने के लिए छुट्टी लेनी थी, इसलिए अतुल बैंक चला गया और मैं शादी में जाने की तैयारियों में जुट गई. शाम को जब अतुल बैंक से लौटा तो उसे देख कर आज मैं सरप्राईज रह गई. उस के हाथों में गुलाब का फूल था, जो मेरे लिए था. अतुल मुझे बांहों में भरते हुए बोला-

“अ ब्यूटीफुल रोज़ फार माई मोस्ट ब्यूटीफुल वाइफ.”

अतुल के ऐसा कहते ही मैं इतराती हुई खुद को अतुल से छुड़ाती हुई बोली-

“आप बैठो, मैं आप के लिए चाय लाती हूं.”

ऐसा कह कर मैं किचन की तरफ मुड़ी ही थी कि अतुल का मोबाइल बजा. मैं वहीं रुक गई. मम्मी जी का फोन था. वे जानना चाहती थीं कि हम शादी के लिए कब निकल रहे हैं. तभी अतुल गंभीर होते हुए बोला, “मम्मी, बैंक में काम बहुत है, हम शादी में नहीं आ पाएंगे.” ऐसा कह कर अतुल ने फोन रख दिया. यह सुनते ही मेरा चेहरा उतर गया और मैं शिक़ायतभरे अंदाज़ से अतुल की ओर देखने लगी. तभी अतुल ने मुझे अपनी ओर खींच कर सीने से लगा लिया और फिर मूवी के 2 टिकट मुझे दिखाते हुए बोला, “चलो जल्दी से तैयार हो जाओ, पहले मूवी, फिर डिनर. जब तक घर के सभी लोग शादी से नहीं लौटते, यह बंदा तुम्हारी सेवा में हाजिर है.”

मैं मुसकराती हुई अतुल के गालों पर अपनी उंगली फेरती हुई बोली, “और घरवालों के आने के बाद…”

अतुल मुझे अपने और करीब खींचता हुआ अपने लबों को मेरे लबों के पास ला कर बोला, “रोमांस तो अब तब भी जारी रहेगा.”

यह सुन कर मैं हंस पड़ी और खुद को अतुल से अलग कर तैयार होने अपने रूम में आ गई. तैयार होते हुए मैं यह सोचने लगी कि जिंदगी में रोमांस का तड़का लगाना बहुत जरूरी है तभी तो यह शादीशुदा जिंदगी मसालेदार, जायकेदार और चटपटी बनती है और जीने का मज़ा आता है.

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प्रेम तर्पण: भाग 1- क्यों खुद को बोझ मान रही थी कृतिका

लेखिका- कीर्ति दीक्षित

डाक्टर ने जवाब दे दिया था, ‘‘माधव, हम से जितना बन पड़ा हम कर रहे हैं, लेकिन कृतिकाजी के स्वास्थ्य में कोईर् सुधार नहीं हो रहा है. एक दोस्त होने के नाते मेरी तुम्हें सलाह है कि अब इन्हें घर ले जाओ और इन की सेवा करो, क्योंकि समय नहीं है कृतिकाजी के पास. हमारे हाथ में जितना था हम कर चुके हैं.’’

डा. सुकेतु की बातें सुन कर माधव के पीले पड़े मुख पर बेचैनी छा गई. सबकुछ सुन्न सा समझने न समझने की अवस्था से परे माधव दीवार के सहारे टिक गया. डा. सुकेतु ने माधव के कंधे पर हाथ रख कर तसल्ली देते हुए फिर कहा, ‘‘हिम्मत रखो माधव, मेरी मानो तो अपने सगेसंबंधियों को बुला लो.’’ माधव बिना कुछ कहे बस आईसीयू के दरवाजे को घूरता रहा. कुछ देर बाद माधव को स्थिति का भान हुआ. उस ने अपनी डबडबाई आंखों को पोंछते हुए अपने सभी सगेसंबंधियों को कृतिका की स्थिति के बारे में सूचित कर दिया.

इधर, कृतिका की एकएक सांस हजारहजार बार टूटटूट कर बिखर रही थी. बची धड़कनें कृतिका के हृदय में आखिरी दस्तक दे कर जा रही थीं. पथराई आंखें और पीला पड़ता शरीर कृतिका की अंतिम वेला को धीरेधीरे उस तक सरका रहा था. कृतिका के भाई, भाभी, मौसी सभी परिवारजन रात तक दिल्ली पहुंच गए. कृतिका की हालत देख सभी का बुरा हाल था. माधव को ढाड़स बंधाते हुए कृतिका के भाई कुणाल ने कहा, ‘‘जीजाजी, हिम्मत रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’’

तभी कृतिका को देखने डाक्टर विजिट पर आए. कुणाल और माधव भी वेटिंगरूम से कृतिका के आईसीयू वार्ड पहुंच गए. डा. सुकेतु ने कृतिका को देखा और माधव से कहा, ‘‘कोई सुधार नहीं है. स्थिति अब और गंभीर हो चली है, क्या सोचा माधव तुम ने ’’ ‘‘नहींनहीं सुकेतु, मैं एक छोटी सी किरण को भी नजरअंदाज नहीं कर सकता. तुम्हीं बताओ, मैं कैसे मान लूं कि कृतिका की सांसें खत्म हो रही हैं, वह मर रही है, नहीं वह यहीं रहेगी और उसे तुम्हें ठीक करना ही होगा. यदि तुम से न हो पा रहा हो तो हम दूसरे किसी बड़े अस्पताल में ले जाएंगे, लेकिन यह मत कहो कि कृतिका को घर ले जाओ, हम उसे मरने के लिए नहीं छोड़ सकते.’’

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सुकेतु ने माधव के कंधे को सहलाते हुए कहा, ‘‘धीरज रखो, यहां जो इलाज हो रहा है वह बैस्ट है. कहीं भी ले जाओ, इस से बैस्ट कोई ट्रीटमैंट नहीं है और तुम चाहते हो कि कृतिकाजी यहीं रहेंगी, तो मैं एक डाक्टर होने के नाते नहीं, तुम्हारा दोस्त होने के नाते यह सलाह दे रहा हूं. डोंट वरी, टेक केयर, वी विल डू आवर बैस्ट.’’

माधव को कुणाल ने सहारा दिया और कहा, ‘‘जीजाजी, सब ठीक हो जाएगा, आप हिम्मत मत हारिए,’’ माधव निर्लिप्त सा जमीन पर मुंह गड़ाए बैठा रहा. 3 दिन हो गए, कृतिका की हालत जस की तस बनी हुई थी, सारे रिश्तेदार इकट्ठा हो चुके थे. सभी बुजुर्ग कृतिका के बीते दिनों को याद करते उस के स्वस्थ होने की कामना कर रहे थे कि अभी इस बच्ची की उम्र ही क्या है, इस को ठीक कर दो. देखो तो जिन के जाने की उम्र है वे भलेचंगे बैठे हैं और जिस के जीने के दिन हैं वह मौत की शैय्या पर पड़ी है. कृतिका की मौसी ने हिम्मत करते हुए माधव के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘बेटा, दिल कड़ा करो, कृतिका को और कष्ट मत दो, उसे घर ले चलो.

‘‘माधव ने मौसी को तरेरते हुए कहा, ‘‘कैसी बातें करती हो मौसी, मैं उम्मीद कैसे छोड़ दूं.’’

तभी माधव की मां ने गुस्से में आ कर कहा, ‘‘क्यों मरे जाते हो मधु बेटा, जिसे जाना है जाने दो. वैसे भी कौन से सुख दिए हैं तुम्हें कृतिका ने जो तुम इतना दुख मना रहे हो,’’ वे धीरे से फुसफुसाते हुए बोलीं, ‘‘एक संतान तक तो दे न सकी.’’ माधव खीज पड़ा, ‘‘बस करो अम्मां, समझ भी रही हो कि क्या कह रही हो. वह कृतिका ही है जिस के कारण आज मैं यहां खड़ा हूं, सफल हूं, हर परेशानी को अपने सिर ओढ़ कर वह खड़ी रही मेरे लिए. मैं आप को ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता इसलिए आप चुप ही रहो बस.’’

कृतिका की मौसी यह सब देख कर सुबकते हुए बोलीं, ‘‘न जाने किस में प्राण अटके पड़े हैं, क्यों तेरी ये सांसों की डोर नहीं टूटती, देख तो लिया सब को और किस की अभिलाषा ने तेरी आत्मा को बंदी बना रखा है. अब खुद भी मुक्त हो बेटा और दूसरों को भी मुक्त कर, जा बेटा कृतिका जा.’’ माधव मौसी की बात सुन कर बाहर निकल गया. वह खुद से प्रश्न कर रहा था, ‘क्या सच में कृतिका के प्राण कहीं अटके हैं, उस की सांसें किसी का इंतजार कर रही हैं. अपनी अपलक खुली आंखों से वह किसे देखना चाहती है, सब तो यहीं हैं. क्या ऐसा हो सकता है

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‘हो सकता है, क्यों नहीं, उस के चेहरे पर मैं ने सदैव उदासी ही तो देखी है. एक ऐसा दर्द उस की आंखों से छलकता था जिसे मैं ने कभी देखा ही नहीं, न ही कभी जानने की कोशिश ही की कि आखिर ये कैसी उदासी उस के मुख पर सदैव सोई रहती है, कौन से दर्द की हरारत उस की आंखों को पीला करती जा रही है, लेकिन कोईर् तो उस की इस पीड़ा का साझा होगा, मुझे जानना होगा,’ सोचता हुआ माधव गाड़ी उठा कर घर की ओर चल पड़ा. घर पहुंचते ही कृतिका के सारे कागजपत्र उलटपलट कर देख डाले, लेकिन कहीं कुछ नहीं मिला. कुछ देर बैठा तो उसे कृतिका की वह डायरी याद आई जो उस ने कई बार कृतिका के पास देखी थी, एक पुराने बकसे में कृतिका की वह डायरी मिली. माधव का दिल जोरजोर से धड़क रहा था.

कृतिका का न जाने कौन सा दर्द उस के सामने आने वाला था. अपने डर को पीछे धकेल माधव ने थरथराते हाथों से डायरी खोली तो एक पन्ना उस के हाथों से आ चिपका. माधव ने पन्ने को पढ़ा तो सन्न रह गया. यह पत्र तो कृतिका ने उसी के लिए लिखा था :

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प्रेम तर्पण: भाग 2- क्यों खुद को बोझ मान रही थी कृतिका

लेखिका- कीर्ति दीक्षित

‘प्रिय माधव,

‘मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे लिए अबूझ पहेली ही रही. मैं ने कभी तुम्हें कोई सुख नहीं दिया, न प्रेम, न संतान और न जीवन. मैं तुम्हारे लायक तो कभी थी ही नहीं, लेकिन तुम जैसे अच्छे पुरुष ने मुझे स्वीकार किया. मुझे तुम्हारा सान्निध्य मिला यह मेरे जन्मों का ही फल है, लेकिन मुझे दुख है कि मैं कभी तुम्हारा मान नहीं कर पाई, तुम्हारे जीवन को सार्थक नहीं कर पाई. तुम्हारी दोस्त, पत्नी तो बन गई लेकिन आत्मांगी नहीं बन पाई. मेरा अपराध क्षम्य तो नहीं लेकिन फिर भी हो सके तो मुझे क्षमा कर देना माधव, तुम जैसे महापुरुष का जीवन मैं ने नष्ट कर दिया, आज तुम्हारा कोई तुम्हें अपना कहने वाला नहीं, सिर्फ मेरे कारण.

‘मैं जानती हूं तुम ने मेरी कोई बात कभी नहीं टाली इसलिए एक आखिरी याचना इस पत्र के माध्यम से कर रही हूं. माधव, जब मेरी अंतिम विदाईर् का समय हो तो मुझे उसी माटी में मिश्रित कर देना जिस माटी ने मेरा निर्माण किया, जिस की छाती पर गिरगिर कर मैं ने चलना सीखा. जहां की दीवारों पर मैं ने पहली बार अक्षरों को बुनना सीखा.

जिस माटी का स्वाद मेरे बालमुख में कितनी बार जीवन का आनंद घोलता रहा. मुझे उसी आंगन में ले चलना जहां मेरी जिंदगी बिखरी है. ‘मैं समझती हूं कि यह तुम्हारे लिए मुश्किल होगा, लेकिन मेरी विनती है कि मुझे उसी मिट्टी की गोद में सुलाना जिस में मैं ने आंखें खोली थीं. तुम ने अपने सारे दायित्व निभाए, लेकिन मैं तुम्हारे प्रेम को आत्मसात न कर सकी. इस डायरी के पन्नों में मेरी पूरी जिंदगी कैद थी, लेकिन मैं ने उस का पहले ही अंतिम संस्कार कर दिया, अब मेरी बारी है, हो सके तो मुझे क्षमा करना.

‘तुम्हारी कृतिका.’

माधव सहम गया, डायरी के कोरे पन्नों के सिवा कुछ नहीं था, कृतिका यह क्या कर गई अपने जीवन की उस पूजा पर परदा डाल कर चली गई, जिस में तुम्हारी जिंदगी अटकी है. आज अस्पताल में हरेक सांस तुम्हें हजारहजार मौत दे रही है और हम सब देख रहे हैं. माधव ने डायरी के अंतिम पृष्ठ पर एक नंबर लिखा पाया, वह पूर्णिमा का नंबर था. पूर्णिमा कृतिका की बचपन की एकमात्र दोस्त थी. माधव ने खुद से प्रश्न किया कि मैं इसे कैसे भूल गया. माधव ने डायरी के लिखा नंबर डायल किया.

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‘‘हैलो, क्या मैं पूर्णिमाजी से बात कर रहा हूं, मैं उन की दोस्त कृतिका का पति बोल रहा हूं,‘‘

दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘नहीं मैं उन की भाभी हूं. दीदी अब दिल्ली में रहती हैं.’’ माधव ने पूर्णिमा का दिल्ली का नंबर लिया और फौरन पूर्णिमा को फोन किया, ‘‘नमस्कार, क्या आप पूर्णिमाजी बोली रही हैं.’‘

‘‘जी, बोल रही हूं, आप कौन ’’

‘‘जी, मैं माधव, कृतिका का हसबैंड.’’

पूर्णिमा उछल पड़ी, ‘‘कृतिका. कहां है, वह तो मेरी जान थी, कैसी है वह  कब से उस से कोई मुलाकात ही नहीं हुई. उस से कहिएगा नाराज हूं बहुत, कहां गई कुछ बताया ही नहीं,’’ एकसाथ पूर्णिमा ने शिकायतों और सवालों की झड़ी लगा दी. माधव ने बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘कृतिका अस्पताल में है, उस की हालत ठीक नहीं है. क्या आप आ सकती हैं मिलने ’’ पूर्णिमा धम्म से सोफे पर गिर पड़ी, कुछ देर दोनों ओर चुप्पी छाई रही. माधव ने पूर्णिमा को अस्पताल का पता बताया. ‘‘अभी पहुंचती हूं,’’ कह कर पूर्णिमा ने फोन काट दिया और आननफानन में अस्पताल के लिए निकल गई. माधव निर्णयों की गठरी बना कर अस्पताल पहुंच गया. कुछ ही देर बाद पूर्णिमा भी वहां पहुंच गई. डा. सुकेतु की अनुमति से पूर्णिमा को कृतिका से मिलने की आज्ञा मिल गई.

पूर्णिमा ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया, कृतिका को देख कर गिरतेगिरते बची. सौंदर्य की अनुपम कृति कृतिका आज सूखे मरते शरीर के साथ पड़ी थी. पूर्णिमा खुद को संभालते हुए कृतिका की बगल में स्टूल पर जा कर बैठ गई. उस की ठंडी पड़ती हथेली को अपने हाथ से रगड़ कर उसे जीवन की गरमाहट देने की कोशिश करने लगी. उस ने उस के माथे पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘कृति, यह क्या कर लिया तूने  कौन सा दर्द तुझे खा गया  बता मुझे कौन सी पीड़ा है जो तुझे न तो जीने दे रही है न मरने. सबकुछ तेरे सामने है, तेरा परिवार जिस के लिए तू कुछ भी करने को तैयार रहती थी, तेरा उन का सगा न होना यही तेरे लिए दर्द का कारण हुआ करता था, लेकिन आज तेरे लिए वे किसी सगे से ज्यादा बिलख रहे हैं. इतने समझदार पति हैं फिर कौन सी वेदना तुझे विरक्त नहीं होने देती.’’ कृति की पथराई आंखें बस दरवाजे पर टिकी थीं, उस ने कोई उत्तर नहीं दिया.

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पूर्णिमा कृति के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी, कुछ देर उस की आंखों में उस की पीड़ा खोजते हुए पूर्णिमा ने धीरे से कहा, ‘‘शेखर, कृति की पथराई आंख से आंसू का एक कतरा गिरा और निढाल हाथों की उंगलियां पूर्णिमा की हथेली को छू गईं. पूर्णिमा ठिठक गई, अपना हाथ कृतिका के सिर पर रख कर बिलख पड़ी, तू कौन है कृतिका, यह कैसी अराधना है तेरी जो मृत्यु शैय्या पर भी नहीं छोड़ती, यह कौन सा रूप है प्रेम का जो तेरी आत्मा तक को छलनी किए डालता है.’’ तभी आवाज आई, ‘‘मैडम, आप का मिलने का समय खत्म हो गया है, मरीज को आराम करने दीजिए.’’

पूर्णिमा कृतिका के हाथों को उम्मीदों से सहला कर बाहर आ गई और पीछे कृतिका की आंखें अपनी इस अंतिम पीड़ा के निवारण की गुहार लगा रही थीं. उस की पुतलियों पर गुजरा कल एकएक कर के नाचने लगा था. कृतिका नाम मौसी ने यह कह कर रखा था कि इस मासूम की हम सब माताएं हैं कृतिकाओं की तरह, इसलिए इस का नाम कृतिका रखते हैं. कृतिका की मां उसे जन्म देते ही इस दुनिया से चल बसी थीं. मौसी उस 2 दिन की बच्ची को अपने साथ लेआई थीं, नानी, मामी, मौसी सब ने देखभाल कर कृतिका का पालन किया था. जैसेजैसे कृतिका बड़ी हुई तो लोगों की सहानुभूति भरी नजरों और बच्चों के आपसी झगड़ों ने उसे बता दिया था कि उस के मांबाप नहीं हैं. परिवार में प्राय: उसे ले कर मनमुटाव रहता था. कई बार यह बड़े झगड़े में भी तबदील हो जाता, जिस के परिणामस्वरूप मासूम छोटी सी कृतिका संकोची, डरी, सहमी सी रहने लगी. वह लोगों के सामने आने से डरती, अकसर चिड़चिड़ाया करती, लोगों की दया भरी दलीलों ने उस के भीतर साधारण हंसनेबोलने वाली लड़की को मार डाला था.

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प्रेम तर्पण: भाग 3- क्यों खुद को बोझ मान रही थी कृतिका

लेखिका- कीर्ति दीक्षित

कभी उसे बच्चे चिढ़ाते कि अरे, इस की तो मम्मी ही नहीं है ये बेचारी किस से कहेगी. मासूम बचपन यह सुन कर सहम कर रह जाता. यह सबकुछ उसे व्यग्र बनाता चला गया. बस, हर वक्त उस की पीड़ा यही रहती कि मैं क्यों इस परिवार की सगी नहीं हुई, धीरेधीरे वह खुद को दया का पात्र समझने लगी थी, अपने दिल की बेचैनी को दबाए अकसर सिसकसिसक कर ही रोया करती.

युवावस्था में न अन्य युवतियों की तरह सजनेसंवरने के शौक, न हंसीठिठोली, बस, एक बेजान गुडि़या सी वह सारे काम करती रहती. उस के दोस्तों में सिर्फ पूर्णिमा ही थी जो उसे समझती और उस की अनकही बातों को भी बूझ लिया करती थी. कृतिका को पूर्णिमा से कभी कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी. पूर्णिमा उसे समझाती, दुलारती और डांटती सबकुछ करती, लेकिन कृतिका का जीवन रेगिस्तान की रेत की तरह ही था.

कृतिका के घर के पास एक लड़का रोज उसे देखा करता था, कृतिका उसे नजरअंदाज करती रहती, लेकिन न जाने क्यों उस की आंखें बारबार कृतिका को अपनी ओर खींचा करतीं, कभी किसी की ओर न देखने वाली कृतिका उस की ओर खिंची चली जा रही थी.

उस की आंखों में उसे खिलखिलाती, नाचती, झूमती जिंदगी दिखने लगी थी, क्योंकि एक वही आंखें थीं जिन में सिर्फ कृतिका थी, उस की पहचान के लिए कोई सवाल नहीं था, कोई सहानुभूति नहीं थी. कृतिका के कालेज में ही पढ़ने आया था शेखर. कृतिका अब सजनेसंवरने लगी थी, हंसने लगी थी. वह शेखर से बात करती तो खिल उठती. शेखर ने उसे जीने का नया हौसला और पहचान से परे जीना सिखाया था. पूर्णिमा ने शेखर के बारे में घर में बताया तो एक नई कलह सामने आई. कृतिका चुपचाप सब सुनती रही. अब उस के जीवन से शेखर को निकाल दिया गया. कृतिका फिर बिखर गई, इस बार संभलना मुश्किल था, क्योंकि कच्ची माटी को आकार देना सहज होता है.

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कृतिका में अब शेखर ही था, महीनों कृतिका अंधेरे कमरे में पड़ी रही न खाती न पीती बस, रोती ही रहती. एक दिन नौकरी के लिए कौल लैटर आया तो परिवार वालों ने भेजने से इनकार कर दिया, लेकिन इस बार कृतिका अपने संकोच को तिलांजलि दे चुकी थी, उस ने खुद को काम में इस कदर झोंक दिया कि उसे अब खुद का होश नहीं रहता  परिवार की ओर से अब लगातार शादी का दबाव बढ़ रहा था, परिणामस्वरूप सेहत बिगड़ने लगी. उस के लिए जीवन कठिन हो गया था, पीड़ा ने तो उसे जैसे गोद ले लिया हो, रातभर रोती रहती. सपने में शेखर की छाया को देख कर चौंक कर उठ बैठती, उस की पागलों की सी स्थिति होती जा रही थी.

अब कृतिका ने निर्णय ले लिया था कि वह अपना जीवन खत्म कर देगी, कृतिका ने पूर्णिमा को फोन किया और बिलखबिलख कर रो पड़ी, ‘पूर्णिमा, मुझ से नहीं जीया जाता, मैं सोना चाहती हूं.’ पूर्णिमा ने झल्ला कर कहा, ‘हां, मर जा और उन लोगों को कलंकित कर जा जिन्होंने तुझे उस वक्त जीवन दिया था जब तेरे ऊपर किसी का साया नहीं था, इतनी स्वार्थी कैसे और कब हो गई तू  तू ने जीवन भर उस परिवार के लिए क्याक्या नहीं किया, आज तू यह कलंक देगी उपहार में ’

कृतिका ने बिलखते हुए कहा, ‘मैं क्या करूं पूर्णिमा, शेखर मेरे मन में बसता है, मैं कैसे स्वीकार करूं कि वह मेरा नहीं, मैं तो जिंदगी जानती ही नहीं थी वही तो मुझे इस जीवन में खींच कर लाया था. आज उसे जरा सी भी तकलीफ होती है तो मुझे एहसास हो जाया करता है, मुझे अनाम वेदना छलनी कर जाती है, मैं तो उस से नफरत भी नहीं कर पा रही हूं, वह मेरे रोमरोम में बस रहा है.’ पूर्णिमा बोली, ‘कृतिका जरूरी तो नहीं जिस से हम प्रेम करें उसे अपने गले का हार बना कर रखें, वह हर पल हमारे साथ रहे, प्रेम का अर्थ केवल साथ रहना तो नहीं. तुझे जीना होगा यदि शेखर के बिना नहीं जी सकती तो उस की वेदना को अपनी जिंदगी बना ले, उस की पीड़ा के दुशाले से अपने मन को ढक ले, शेखर खुद ब खुद तुझ में बस जाएगा. तुझ से उसे प्रेम करने का अधिकार कोई नहीं छीन सकता.

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कृतिका को अपने प्रेम को जीने का नया मार्ग मिल गया था, शेखर उस की आत्मा बन चुका था, शेखर की पीड़ा कृतिका को दर्द देती थी, लेकिन कृतिका जीती गई, सब के लिए परिवार की खुशी के लिए माधव से कृतिका का विवाह हो गया. माधव एक अच्छे जीवनसाथी की तरह उस के साथ चलता रहा, कृतिका भी अपने सारे दायित्वों को निभाती चली गई, लेकिन उस की आत्मा में बसी वेदना उस के जीवन को धीरेधीरे खा रही थी और वही पीड़ा उसे आज मृत्यु शैय्या तक ले आई थी, उसे ब्रेन हैमरेज हो गया था.

रात हो चली थी. नर्स ने आईसीयू के तेज प्रकाश को मद्धम कर दिया और कृतिका की आंखों में नाचता अतीत फिर वर्तमान के दुशाले में दुबक गया. पूर्णिमा ने माधव से कहा कि कृतिका को आप उस के घर ले चलिए मैं भी चलूंगी, मैं थोड़ी देर में आती हूं. पूर्णिमा ने घर आ कर तमाम किताबों, डायरियों की खोजबीन कर शेखर का फोन नंबर ढूंढ़ा और फोन लगाया, सामने से एक भारी सी आवाज आई, ‘‘हैलो, कौन ’’

‘‘हैलो, शेखर ’’

‘‘जी, मैं शेखर बोल रहा हूं.’’

‘‘शेखर, मैं पूर्णिमा, कृतिका की दोस्त.’’

कुछ देर चुप्पी छाई रही, शेखर की आंखों में कृतिका तैर गई. उस ने खुद को संभालते हुए कहा, ‘‘पूर्णिमा… कृतिका… कृतिका कैसी है ’’ पूर्णिमा रो पड़ी, ‘‘मर रही है, उस की सांसें उसी शेखर के लिए अटकी हैं जिस ने उसे जीना सिखाया था, क्या तुम उस के घर आ सकोगे कल ’’ शेखर सोफे पर बेसुध सा गिर पड़ा मुंह से बस यही कह सका, ‘‘हां.’’ कृतिका को ऐंबुलैंस से घर ले आया गया. घर के सामने लोगों की भीड़ जमा हो गई, सब की आंखों में उस माटी में खेलने वाली वह गुडि़या उतर आई, दरवाजे के पीछे छिप जाने वाली मासूम कृति आज अपनी वेदनाओं को साकार कर इस मिट्टी में छिपने आई थी.

दरवाजे पर लगी कृतिका की आंखों से अश्रुधार बह निकली, शेखर ने देहरी पर पांव रख दिया था, कृतिका की पुतलियों में जैसे ही शेखर का प्रतिबिंब उभरा उस की अंतिम सांसों के पुष्प शेखर के कदमों में बिखर गए और शेखर की आंखों से बहती गंगा ने प्रेम तर्पण कर कृतिका को मुक्त कर दिया.

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Romantic Story In Hindi: सुधा का सत्य- कौनसा सच छिपा रही थी सुधा

लेखिका- रमा प्रभाकर   

Romantic Story In Hindi: सुधा का सत्य- भाग 3- कौनसा सच छिपा रही थी सुधा

लेखिका- रमा प्रभाकर   

समय बीत रहा था, विनीत के साथ निधि ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया तो एक बार फिर सुधा को अपनी छूटी  हुई पढ़ाई का ध्यान आया. इस बार वह सबकुछ भूल कर अपनी पढ़ाई में जुट गई. धीरेंद्र के साथ उस के संबंध फिर से सामान्य हो चले थे. अब की बार सुधा ने पूरी तैयारी के साथ परीक्षा दी और पास हो गई. सुधा को धीरेंद्र ने भी खुले दिल से बधाई दी.

सुधा और धीरेंद्र के सामान्य गति से चलते जीवन में पल्लवी के पत्र से एक नया तूफान उठ खड़ा हुआ. एक दिन दुखी हो कर उस ने धीरेंद्र से पूछ ही लिया, ‘‘तुम कितनी बार मेरे धीरज की परीक्षा लोगे? क्यों बारबार मुझे इस तरह सलीब पर चढ़ाते हो? आखिर यह किस दोष के लिए सजा देते हो, मुझे पता तो चले…’’

‘‘क्या बेकार की बकवास करती हो. तुम्हें कौन फांसी पर चढ़ाए दे रहा है? मैं क्या करता हूं, क्या नहीं करता, इस से तुम्हारे घर में तो कोई कमी नहीं आ रही है. फिर क्यों हर समय अपना दुखड़ा रोती रहती हो? मैं तो तुम से कोई शिकायत नहीं करता, न तुम से कुछ चाहता ही हूं.’’

धीरेंद्र की यह बात सुधा समझ नहीं पाती थी. बोली, ‘‘मेरा रोनाधोना कुछ नहीं है. मैं तो बस, यही जानना चाहती हूं कि आखिर ऐसा क्या है जो तुम्हें घर में नहीं मिलता और उस के लिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. आखिर मुझ में क्या कमी है? क्या मैं बदसूरत हूं, अनपढ़ हूं. बेशऊर हूं, जो तुम्हारे लायक नहीं हूं और इसलिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. बताओ, आखिर कब तक यह बरदाश्त करती रहूंगी कि बाहर तुम से पहली बार मिलने वाला किसी सोना को, या रीना को, या पल्लवी को तुम्हारी पत्नी समझता रहे.’’

धीरेंद्र ने सुधा की इस बात का उत्तर नहीं दिया. इन दिनों धीरेंद्र के पास घर के लिए  कम ही समय होता था. उतने कम समय में भी उन के और सुधा के बीच बहुत ही सीमित बातों का आदानप्रदान होता था.

एक दिन धीरेंद्र जल्दी ही दफ्तर से घर आ गया. लेकिन जब वह अपनी अटैची में कुछ कपड़े भर कर बाहर जाने लगा तो सूचना देने भर को सुधा को बोलता गया था, ‘‘बाहर जा रहा हूं. एक हफ्ते में लौट आऊंगा.’’

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लेकिन वह तीसरे दिन ही लौट आया. 2 दिन से वह गुमसुम बना घर में ही रह रहा था. सुधा ने धीरेंद्र को ऐसा तो कभी नहीं देखा था. उसे कारण जानने की उत्सुकता तो जरूर थी, लेकिन खुद बोल कर वह धीरेंद्र से कुछ पूछने में हिचकिचा रही थी.

उस दिन रात को खाना खा कर बच्चे सोने के लिए अपने कमरे में चले गए थे. धीरेंद्र सोफे पर बैठा कोई किताब पढ़ रहा था और सुधा क्रोशिया धागे में उलझी उंगलियां चलाती पता नहीं किस सोच में डूबी थी.

टनटन कर के घड़ी ने 10 बजाए तो धीरेंद्र ने अपने हाथ की किताब बंद कर के एक ओर रख दी. सुधा भी अपने हाथ के क्रोशिए और धागे को लपेट कर उठ खड़ी हुई. धीरेंद्र काफी समय से अपनी बात करने के लिए उपयुक्त अवसर का इंतजार कर रहा था. अभी जैसे उसे वह समय मिल गया. अपनी जगह से उठ कर जाने को तैयार सुधा को संबोधित कर के वह बोला, ‘‘तुम्हें जान कर खुशी होगी कि पल्लवी ने शादी कर ली है.’’

‘‘क्या…’’ आश्चर्य से सुधा जहां खड़ी थी वहीं रुक गई.

‘‘पल्लवी को अपना समझ कर मैं ने उस के लिए क्या कुछ नहीं किया था. उस की तरक्की के लिए कितनी कोशिश मैं ने की है, यह मैं ही जानता हूं. जैसे ही तरक्की पर तबादला हो कर वह यहां से गई, उस ने मुझ से संबंध ही तोड़ लिए. अब उस ने शादी भी कर ली है.

‘‘उसी से मिलने गया था. मुझे देख कर वह ऐसा नाटक करने लगी जैसे वह मुझे ठीक से जानती तक नहीं है. नाशुकरेपन की कहीं तो कोई हद होती है. लेकिन तुम्हें इन बातों से क्या मतलब? तुम तो सुन कर खुश ही होगी,’’ धीरेंद्र स्वगत भाषण सा कर रहा था.

जब वह अपना बोलना खत्म कर चुका तब सुधा बोली, ‘‘यह पल्लवी की कहानी बंद होना मेरे लिए कोई नई बात नहीं रह गई है. पहले भी कितनी ही ऐसी कहानियां बंद हो चुकी हैं और आगे भी न जाने कितनी ऐसी कहानियां शुरू होंगी और बंद होंगी. अब तो इन बातों से खुश या दुखी होने की स्थितियों से मैं काफी आगे आ चुकी हूं.

‘‘इस समय तो मैं एक ही बात सोच रही हूं, तुम्हारी ललिता, सोना, रीना, पल्लवी की तरह मैं भी स्त्री हूं. देखने- भालने में मैं उन से कम सुंदर नहीं रही हूं. पढ़ाई में भी अब मुझे शर्मिंदा हो कर मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. फिर क्या कारण है कि ये सब तो तुम्हारे प्यार के योग्य साबित हुईं और खूब सुखी रहीं, जबकि अपनी सारी एकनिष्ठता और अपने इस घर को बनाए रखने के सारे प्रयत्नों के बाद भी मुझे सिवा कुढ़न और जलन के कुछ नहीं मिला.

‘‘मैं तुम्हारी पत्नी हूं, लेकिन तुम्हारा कुछ भी मेरे लिए कभी नहीं रहा. वे तुम्हारी कुछ भी नहीं थीं, फिर भी तुम्हारा सबकुछ उन का था. सारी जिंदगी मैं तुम्हारी ओर इस आशा में ताकती रही कि कभी कुछ समय को ही सही तुम केवल मेरे ही बन कर रहोगे. लेकिन यह मेरी मृगतृष्णा है. जानती हूं, यह इच्छा इस जीवन में तो शायद कभी पूरी नहीं होगी.

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‘‘पल्लवी ने शादी कर ली, तुम कहते हो कि मुझे खुशी होगी. लेकिन तुम्हारी इस पल्लवी की शादी ने मेरे सामने एक और ही सत्य उजागर किया है. मैं अभी यह सोच रही थी कि अपने जीवन के उन सालों में जब छोटेछोटे दुखसुख भी बहुत महसूस होते हैं तब मैं, बस तुम्हारी ही ओर आशा भरी निगाहों से क्यों ताकती रही? तुम्हारी तरह मैं ने भी अपने विवाह और अपने सुख को अलगअलग कर के क्यों नहीं देखा?

‘‘अगर पति जीवन में सुख और संतोष नहीं भर पा रहा तो खाली जीवन जीना कोई मजबूरी तो नहीं थी. जैसे तुम ललिता, सोना, रीना या पल्लवी में सुखसंतोष पाते रहे, वैसे मैं भी किसी अन्य व्यक्ति का सहारा ले कर क्यों नहीं सुखी बन गई? क्यों आदर्शों की वेदी पर अपनी बलि चढ़ाती रही?’’

सुधा की बातों को सुन कर धीरेंद्र का चेहरा सफेद पड़ गया. अचानक वह आगे बढ़ आया. सुधा को कंधों से पकड़ कर बोला, ‘‘क्या बकवास कर रही हो? तुम होश में तो हो कि तुम क्या कह रही हो?’’

‘‘मुझे मालूम है कि मैं क्या कह रही हूं. मैं पूरे होश में तो अब आई हूं. जीवन भर तुम मेरे सामने जो कुछ करते रहे, उस से सीख लेने की अक्ल मुझे पहले कभी क्यों नहीं आई. अब मैं यही सोच कर तो परेशान हो रही हूं.

‘‘पहले मेरी व्यथा का कारण तुम्हारे प्रेम प्रसंग ही थे. जब भी तुम्हारे साथ किसी का नाम सुनती थी, मेरे अंतर में कहीं कुछ टूटता सा चला जाता था. हर नए प्रसंग के साथ यह टूटना बढ़ता जाता था और उस टूटन को मेरे साथ मेरे बच्चे भी भुगतते थे.

‘‘अब तो मेरी व्यथा दोगुनी हो गई है. तुम्हीं बताओ, अगर मैं ने तुम्हारे जैसे रास्ते को पकड़ लिया होता तो क्या मैं भी पल्लवी की तरह सुखी न रहती? जब वह तुम्हारे साथ थी, तब तुम्हारा सबकुछ पल्लवी का था अब शादी कर के वह अपने घर में पहुंच गई है तो वहां भी सबकुछ उस का है. पल्लवी को प्रेमी भी मिला था और फिर अब पति भी मिल गया है, और मुझे क्या मिला? मुझे कुछ भी नहीं मिला…’’

सुधा इतनी बिलख कर पहले कभी नहीं रोई थी जितनी अपनी बात खत्म करने से पहले ही वह इस समय रो दी थी.

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Romantic Story In Hindi: सुधा का सत्य- भाग 2- कौनसा सच छिपा रही थी सुधा

लेखिका- रमा प्रभाकर   

पता नहीं ऐसा क्यों होता था. सुधा जब भी परेशान होती थी, उस के सिर में दर्द शुरू हो जाता था. इस समय भी वह हलकाहलका सिरदर्द महसूस कर रही थी. अभी वह अलमारी में कपड़े जैसेतैसे भर कर कमरे से बाहर ही आई थी कि पीछे से विनीत आ गया.

‘‘मां, मैं सारंग के घर खेलने जाऊं?’’ उस ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगे. बैठ कर पढ़ो,’’ सुधा ने रूखेपन से कहा.

‘‘लेकिन मां, मैं अभी तो स्कूल से आया हूं. इस समय तो मैं रोज ही खेलने जाता हूं,’’ उस ने अपने पक्ष में दलील दी.

‘‘तो ठीक है, बाहर जा कर खेलो,’’ सुधा ने उसे टालना चाहा. वह इस समय कुछ देर अकेली रहना चाहती थी.

‘‘पर मां, मैं उसे कह चुका हूं कि आज मैं उस के घर आऊंगा,’’ विनीत अपनी बात पर अड़ गया.

‘‘मैं ने कहा न कि कहीं भी नहीं जाना है. अब मेरा सिर मत खाओ. जाओ यहां से,’’ सुधा झल्ला गई.

‘‘मां, बस एक बार, आज उस के घर चले जाने दो. उस के चाचाजी अमेरिका से बहुत अच्छे खिलौने लाए हैं. मैं ने उस से कहा है कि मैं आज देखने आऊंगा. मां, आज मुझे जाने दो न,’’ विनीत अनुनय पर उतर आया.

पर सुधा आज दूसरे ही मूड में थी. उस का गुस्सा एकदम भड़क उठा, ‘‘बेवकूफ, मैं इतनी देर से मना कर रही हूं, बात समझना ही नहीं चाहता. पीछे ही पड़ गया है. ठीक है, कहने से बात समझ में नहीं आ रही है न तो ले, तुझे दूसरे तरीके से समझाती हूं…’’

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सुधा ने अपनी बात खत्म करने से पहले ही विनीत के गाल पर चटचट कई चांटे जड़ दिए. मां के इस रूप से अचंभित विनीत न तो कुछ बोला और न ही रोया, बस चुपचाप आंखें फाड़े मां को ताकता रहा.

चांटों से लाल पड़े गाल और विस्मय से फैली आंखों वाले विनीत को देख कर सुधा अपने होश में लौट आई. विनीत यदाकदा ही उस से पूछ कर सारंग के घर चला जाता था. आज सुधा को क्या हो गया था, जो उस ने अकारण ही अपने मासूम बेटे को पीट डाला था. सारा क्रोध धीरेंद्र के कारण था, पर उस पर तो बस चला नहीं, गुस्सा उतरा निर्दोष विनीत पर.

उस का सारा रोष निरीहता में बदल गया. वह दरवाजे की चौखट से माथा टिका कर रो दी.सुधा की यह व्यथा कोई आज की नई व्यथा नहीं थी. धीरेंद्र के शादी से पहले के प्रेमप्रसंगों को भी उस के साथियों ने मजाकमजाक में सुना डाला था. पर वे सब उस समय तक बीती बातें हो गई थीं, लेकिन ललिता वाली घटना ने तो सुधा को झकझोर कर रख दिया था. बाद में भी जब कभी धीरेंद्र के किसी प्रेमप्रसंग की चर्चा उस तक पहुंचती तो वह बिखर जाती थी. लेकिन ललिता वाली घटना से तो वह बहुत समय तक उबर नहीं पाई थी.

तब धीरेंद्र ने भी सुधा को मनाने के लिए क्या कुछ नहीं किया था, ‘बीती ताहि बिसार दे’ कह कर उस ने कान पकड़ कर कसमें तक खा डाली थीं, पर सुधा को अब धीरेंद्र की हर बात जहर सी लगती थी.

तभी एक दिन सुबहसुबह मनीष ने नाचनाच कर सारा घर सिर पर उठा लिया था, ‘‘भैया पास हो गए हैं. देखो, इस अखबार में उन का नाम छपा है.’’

धीरेंद्र ने एक प्रतियोगी परीक्षा दी थी. उस का परिणाम आ गया था. धीरेंद्र की इस सफलता ने सारे बिखराव को पल भर में समेट दिया था. अब तो धीरेंद्र का भविष्य ही बदल जाने वाला था. सारे घर के साथ सुधा भी धीरेंद्र की इस सफलता से उस के प्रति अपनी सारी कड़वाहट को भूल गई. उसे लगा कि यह उस के नए सुखी जीवन की शुरुआत की सूचना है, जो धीरेंद्र के परीक्षा परिणाम के रूप में आई है.

इस के बाद काफी समय व्यस्तता में ही निकल गया था. धीरेंद्र ने अपनी नई नौकरी का कार्यभार संभाल लिया था. नई जगह और नए सम्मान ने सुधा के जीवन में भी उमंग भर दी थी. उस के मन में धीरेंद्र के प्रति एक नए विश्वास और प्रेम ने जन्म ले लिया था. तभी उस ने निर्णय लिया था. वह धीरेंद्र के इस नए पद के अनुरूप ही अपनेआप को बना लेगी. वह अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करेगी.

सुधा के इस निर्णय पर धीरेंद्र ने अपनी सहमति ही जताई थी. अब घर के कामों के लिए उन्हें नौकर रखने की सुविधा हो गई थी. इसलिए सुधा की पढ़ाई शुरू करने की सुविधा जुटते देर नहीं लगी. वह बेफिक्र हो कर प्राइवेट बी.ए. करने की तैयारी में जुट गई.

कभी ऐसा भी होता है कि मन का सोचा आसानी से पूरा नहीं होता. सुधा के साथ यही हुआ. उस की सारी मेहनत, सुविधा एक ओर रखी रह गई. सुधा परीक्षा ही नहीं दे सकी. पर इस बाधा का बुरा मानने का न तो उस के पास समय था और न इच्छा ही थी. एक खूबसूरत स्वस्थ बेटे की मां बन कर एक तो क्या, वह कई बी.ए. की डिगरियों का मोह छोड़ने को तैयार थी.

विनीत 2 साल का ही हुआ था कि उस की बहन निधि आ गई और इन दोनों के बीच सुधा धीरेंद्र तक को भूल गई. उन के साथ वह ऐसी बंधी कि बाहर की दुनिया के उस के सारे संपर्क ही खत्म से हो गए.

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घर और बच्चों के बीच उलझी सुधा तक धीरेंद्र की गतिविधियों की उड़ती खबर कभीकभी पहुंच जाती थी कि वह अपने दफ्तर की कुछ महिला कर्मचारियों पर अधिक ही मेहरबान रहता है. पिछले कुछ सालों के धीरेंद्र के व्यवहार से सुधा समझ बैठी थी कि अब उस में उम्र की गंभीरता आ गई है और वह पुराने वाला दिलफेंक धीरेंद्र नहीं रहा है. इसलिए उस ने इन अफवाहों को अधिक महत्त्व नहीं दिया.

एक दिन सुहास आया, तब धीरेंद्र घर पर नहीं था. उस ने सुधा को घंटे भर में ही सारी सूचनाएं दे डालीं और जातेजाते बोल गया, ‘‘दोस्त के साथ गद्दारी तो कर रहा हूं, लेकिन उस की भलाई के लिए कर रहा हूं. इसलिए मन में कोई मलाल तो नहीं है. बस, थोड़ा सा डर है कि यह बात पता लगने पर धीरेंद्र मुझे छोड़ेगा तो नहीं. शायद लड़ाई ही कर बैठे. लेकिन वह तो मैं भुगत लूंगा. अब भाभीजी, आगे आप उसे ठीक करने का उपाय करें.’’

उस दिन सुधा मन ही मन योजनाएं बनाती रही कि किस तरह वह धीरेंद्र को लाजवाब कर के माफी मंगवा कर रहेगी. लेकिन जब उस का धीरेंद्र से सामना हुआ तो शुरुआत ही गलत हो गई. धीरेंद्र ने उस के सभी आक्रमणों को काट कर बेकार करना शुरू कर दिया. अंत में जब कुछ नहीं सूझा तो सुधा का रोनाधोना शुरू हो गया. बात वहीं खत्म हो गई, लेकिन सुधा के मन में उन लड़कियों के नाम कांटे की तरह चुभते रहे थे. तब उन नामों में पल्लवी का नाम नहीं था.

आगे पढ़ें- सुधा और धीरेंद्र के सामान्य गति से…

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