सारा जहां अपना: मयंक ने अंजलि को कैसे समझाया

मयंक बेचैनी से कमरे में चहल- कदमी कर रहा था. रात के 10 बज चुके थे. वह सोने जा रहा था कि दीप के स्कूल से आए प्रधानाचार्य के फोन ने उसे परेशान कर दिया. प्रधानाचार्य ने कहा था कि दीप बीमार है और आप को याद कर रहा है.

‘‘उसे हुआ क्या है?’’ घबरा कर मयंक ने पूछा.

‘‘वायरल फीवर है.’’

‘‘कब से?’’

‘‘सुस्त तो वह कल शाम से ही था, पर फीवर आज सुबह हुआ है,’’ प्रधानाचार्य ने बताया.

‘‘क्या बेहूदा मजाक है,’’ मयंक के स्वर में सख्ती घुल गई थी, ‘‘तुरंत आप ने चैकअप क्यों नहीं करवाया? बच्चों की ऐसी ही देखभाल करते हैं आप लोग? मेरे बेटे को कुछ हो गया तो…’’

‘‘आप बेवजह नाराज हो रहे हैं,’’ प्रधानाचार्य ने उस की बात बीच में काट कर विनम्रता से कहा था, ‘‘यहां रहने वाले सभी बच्चों का घर की तरह खयाल रखा जाता है, पर उन्हें जब मांबाप की याद आने लगे तो उदास हो जाते हैं. यद्यपि हम पूरी कोशिश करते हैं कि ऐसा न हो, पर नए बच्चों के साथ अकसर ऐसी समस्या आ जाती है.’’

‘‘दीप अब कैसा है?’’ प्रधानाचार्य की विनम्रता से प्रभावित हो कर मयंक सहजता से बोला था.

‘‘चिंता की कोई बात नहीं है. डाक्टर के साथ मैं लगातार उस की देखभाल कर रहा हूं. आप सुबह आ कर उस से मिल लें तो बेहतर रहेगा.’’

वह तो इसी वक्त जाना चाहता था पर पिछले 2 घंटे से तेज बारिश हो रही थी. अब तक तो पूरा शहर टापू बन चुका होगा. रास्ते में कहीं स्कूटर फंस गया तो मुसीबत और बढ़ जाएगी. फिलहाल जाने का विचार छोड़ कर वह सोफे पर पसर गया. सामने फे्रम में जड़ी अंजलि की मुसकराती तसवीर रखी थी. उस के बारे में सोच कर उस के मुंह का स्वाद कसैला हो गया.

अंजलि सिर्फ बौस, आफिस और अपने बारे में ही सोचती थी और किसी विषय में सोचनेसमझने का उस के पास समय ही नहीं था. उस पर तो हर पल काम, तरक्की और अधिक से अधिक पैसा कमाने की धुन सवार थी. मशीनी युग में वह मशीन बन गई थी, शायद इसीलिए उस के दिल में बेटे और पति के लिए कोई संवेदना नहीं थी. अब तो मयंक अकेला रहने का अभ्यस्त हो गया था. कभीकभी न चाहते हुए भी समझौता करना पड़ता है. यही तो जिंदगी है.

अचानक बिजली चली गई. कमरा घने अंधकार के आगोश में सिमट गया. वह यों ही निश्चल और निश्चेष्ट बैठा अपने जीवन के बारे में सोचता रहा. अब उस के भीतर और बाहर फैली स्याही में कोई फर्क नहीं था. कुछ देर बाद गरमी से घुटन होने पर वह उठा और दीवार का सहारा लेते हुए खिड़की खोली. ठंडी हवा के झोंकों से उस के तपते दिमाग को राहत मिली.

बाहर बारिश का तेज शोर शांति भंग कर रहा था. सहसा तेज ध्वनि के साथ बिजली चमक कर कहीं दूर गिरी. उसे लगा कि ऐसी ही बिजली उस के आंगन में भी गिरी है, जिस में उस का सुखचैन, अंजलि का प्रेम और दीप का चुलबुला बचपन राख हो चुका है. उस ने तो सहेजने की बहुत कोशिश की पर सबकुछ बिखरता चला गया.

6 साल का दीप पहले कितना शरारती था. उस के साथ घर का हर कोना खिलखिलाता था पर अब तो वह हंसना ही भूल गया था. उस के और अंजलि के बीच आएदिन होने वाले झगड़ों में दीप का मासूम बचपन खो चुका था. विवाद टालने के लिए वह कितना एडजस्ट करता था और अंजलि थी कि छोटी से छोटी बात पर आसमान सिर पर उठा लेती थी. उस का छोटा सा घर, जिसे उस ने बड़े प्यार से सींचा था, ज्वालामुखी बन चुका था, जिस की आंच में अब वह हर पल सुलगता था. मयंक की आंखों में आंसुओं के साथ बीती यादें चुपके से उतर कर तैरने लगीं.

वह अपने आफिस की ओर से जिस मल्टी नेशनल कंपनी में फाइनेंशियल डील के लिए गया था, अंजलि वहां अकाउंटेंट थी. हायहैलो के साथ शुरू हुई औपचारिक मुलाकात रेस्तरां में चाय की चुस्कियों के साथ दिल की गहराई तक जा पहुंची थी. 1 साल के भीतर दोनों विवाह के बंधन में बंध गए. मयंक हनीमून के लिए किसी हिल स्टेशन पर जाना चाहता था. उस ने आफिस में छुट्टी के लिए अर्जी दे दी थी, पर अंजलि तैयार नहीं हुई.

‘पहले कैरियर सैटल हो जाने दो, हनीमून के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’

‘अच्छीखासी तो नौकरी है,’ मयंक ने उसे समझाने का प्रयास किया, ‘मोटी तनख्वाह मिलती है, और क्या चाहिए?‘

‘जो मिल जाए उसी में संतुष्ट रहने से इनसान कभी तरक्की नहीं कर सकता,’ अंजलि ने परोक्ष रूप से उस पर कटाक्ष किया, ‘मिडिल क्लास की सोच सीमित दायरे में सिमटी रहती है, इसीलिए वह हाई सोसायटी में एडजस्ट नहीं हो पाता.’

मयंक तिलमिला कर रह गया.

‘बड़ा आदमी बनने के लिए बड़े ख्वाब देखने पड़ते हैं और उन्हें साकार करने के लिए कड़ी मेहनत,’ अंजलि बोली, ‘अभी स्टेटस सिंबल के नाम पर हमारे पास क्या है? कार, बंगला, ए.सी. और नौकरचाकर कुछ भी तो नहीं. इस खटारा स्कूटर और 2 कमरे के फ्लैट में कब तक खटते रहेंगे?’

‘तुम्हें तो किसी अरबपति से शादी करनी चाहिए थी,’ मयंक कुढ़ कर बोला, ‘मेरे साथ यह सब नहीं मिल सकेगा.’

मयंक को मन मार कर छुट्टी कैंसिल करानी पड़ी. घर की सफाई और खाना बनाने के लिए बाई थी. कई जगह काम करने के कारण वह शाम को कभीकभार लेट हो जाती थी.

मयंक कभी चाय की फरमाइश करता तो अंजलि टीवी प्रोग्राम पर निगाह जमाए बेरुखी से जवाब देती, ‘तुम आफिस से आए हो तो मैं भी घर में नहीं बैठी थी. 2 कप चाय बनाने में थक नहीं जाओगे.’

‘ये तुम्हारा काम है.’‘मेरा क्यों?’ वह चिढ़ जाती, ‘तुम्हारा क्यों नहीं? तुम से पहले आफिस जाती हूं और काम भी तुम से अधिक टिपिकल करती हूं. अकाउंट संभालना हंसीखेल नहीं है.’

इस के बाद तो मयंक के पास 2 ही रास्ते बचते थे, खुद चाय बनाए या बाई के आने का इंतजार करे. दूसरा विकल्प उसे ज्यादा मुफीद लगता था. वह नारीपुरुष समानता का विरोधी नहीं था. पर अंजलि को भी तो उस के बारे में कुछ सोचना चाहिए. जब वह शांत हो जाता तो अंजलि अपने लिए एक कप चाय बना कर टीवी देखने में मशगूल हो जाती और वह अपमान के घूंट पी कर रह जाता था. उस के वैवाहिक जीवन की नौका डोलने लगी थी.

मयंक ने सदा ऐसी पत्नी की कल्पना की थी जो उस के प्रति समर्पित रहे. केवल अहं की तुष्टि के लिए समानता की बात न करे, बल्कि सुखदुख में बराबर की भागीदार रहे. उस के मन को समझे, हृदय की गहराई से प्यार करे और जिस के आंचल की छांव तले वह दो पल सुखशांति से विश्राम कर सके. बाई के बनाए खाने से पेट तो भर जाता था, पर मन भूखा ही रह जाता था. काश, अंजलि कभी अपने हाथ से एक कौर ही खिला देती तो वह तृप्त हो जाता.

एक सुबह अंजलि आफिस के लिए तैयार हो रही थी कि तेज चक्कर आने लगे. मयंक उसे तुरंत अस्पताल ले गया. चैकअप कर के डाक्टर ने बधाई दी कि वह मां बनने वाली है.

‘मैं अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकती.’

‘तो पहले से सेफ्टी करनी थी.’

‘आगे से ध्यान रखूंगी,’ उस ने लापरवाही से कंधे उचकाए, ‘फिलहाल तो इस बच्चे का गर्भपात चाहती हूं.’

‘ये खतरनाक हो सकता है,’ डाक्टर गंभीरता से बोली, ‘संभव है आप भविष्य में फिर कभी मां न बन सकें.’

‘अपना भलाबुरा मैं बेहतर समझती हूं. आप अपनी फीस बताइए.’

‘अंजलिजी,’ वह सख्ती से बोली, ‘डाक्टर के लिए मरीज का हित सर्वोपरि होता है. आप के लिए जो उचित था, मैं ने बता दिया. वैसे भी यहां भू्रणहत्या नहीं की जाती है.’

‘आप नहीं करेंगी तो कोई और कर देगा.’

‘बेशक, शहर में ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं है जो रुपयों के लालच में इस घिनौने काम को अंजाम दे देंगे, पर मैं ने कइयों को जिद पूरी होने के बाद औलाद के लिए तड़पते देखा है.’

उस दिन घर में तनाव का माहौल रहा. मयंक चाहता था कि आंगन मासूम किलकारियों से गुलजार हो. हो सकता है मां बनने के बाद अंजलि के स्वभाव में परिवर्तन आ जाए, तब गृहस्थी की बगिया महक उठेगी, पर अंजलि तैयार नहीं थी. उस का तर्क था कि यही तो उम्र है कुछ कर गुजरने की. अभी से बालबच्चों के भंवर में उलझ गई तो लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकेगी? सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए टैलेंट के साथ आकर्षक फिगर भी चाहिए, वरना कौन पूछता है.

मयंक बड़ी मुश्किल और मिन्नतों के बाद उसे राजी कर सका.

अंजलि ने ठीक समय पर स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. अपने प्रतिरूप को देख मयंक निहाल हो गया. बेटे ने उस का उजड़ा मन प्रकाश से भर दिया था इसलिए बड़े प्यार से उस का नाम दीप रखा. दिन में उस की देखभाल करने के लिए मयंक ने एक अच्छी आया का प्रबंध कर लिया था.

बेटे को जन्म तो अंजलि ने दिया था, पर मां की भूमिका मयंक निभा रहा था. दीप सुबहशाम उस की बांहों के झूले में झूल कर बड़ा होने लगा.

वह 4 साल का हो गया था.

रात के 10 बज चुके थे, अंजलि आफिस से नहीं लौटी थी. मयंक उस के मोबाइल पर कई बार फोन कर चुका था. घंटी जा रही थी, पर वह रिसीव नहीं कर रही थी. उस ने आफिस फोन किया, वहां से भी कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी इस वक्त वहां किसी को नहीं होना था. दीप को सुला कर वह जागता रहा. अंजलि 12 बजे के बाद आई.

‘कहां थी अब तक?’ मयंक ने सवाल दागा, ‘मैं कितना परेशान हो गया था.’

‘मेरा प्रमोशन बौस की प्राइवेट सेके्रटरी के पद पर हो गया,’ उस की चिंता से बेफिक्र वह मुदित मन से बोली, ‘कंपनी की ओर से शानदार बंगला और ए.सी. गाड़ी मिलेगी. प्रमोशन की खुशी में बौस ने पार्टी दी थी, वहीं बिजी थी.’

‘फोन तो रिसीव कर लेती.’

‘शोरशराबे में आवाज नहीं सुनाई दी.’

‘तुम ने ड्रिंक ली है?’ उस के मुंह से आती महक ने उसे आंदोलित कर दिया.

‘कम आन डियर,’ अंजलि ने लापरवाही से कहा, ‘बौस नहीं माने तो थोड़ी सी लेनी पड़ी. उन्हें नाराज तो नहीं कर सकती न, सब का खयाल रखना पड़ता है.’

‘शर्म आती है तुम्हारी बातें सुन कर. मेरी कभी परवा नहीं की और दूसरों की खुशी के लिए मानमर्यादा ताक पर रख दी.’

‘व्हाट नौनसेंस,’ वह बिफर पड़ी, ‘यू आर मेंटली इल. मेरा कद तुम से ऊंचा हो गया तो जलन होने लगी.’

‘तुम सिर्फ अपने बारे में सोचती हो इसलिए ऐसे घटिया विचार तुम्हारे दिमाग में ही आ सकते हैं.’

‘तुम ने मुझे नीच कहा,’ वह क्रोध से कांपने लगी.

‘अभी तुम होश में नहीं हो,’ मयंक ने विस्फोटक होती स्थिति को संभालने की कोशिश की, ‘सुबह बात करेंगे.’

‘तुम्हारा असली रूप देख कर होश में तो आज आई हूं. मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुम जैसे संकीर्ण इनसान के साथ मैं ने इतने दिन कैसे गुजार लिए.’

पानी सिर के ऊपर बहने लगा था. मयंक की इच्छा हुई कि उस का नशा हिरन कर दे, पर इस से बात बिगड़ सकती थी.

दीप जाग गया था और मम्मीपापा को चीखतेचिल्लाते देख सहमा सा खड़ा था. मयंक उसे ले कर दूसरे कमरे में चला गया. अंजलि इस के बाद भी काफी देर तक बड़बड़ाती रही.

अब वह अकसर देर रात को लौटती और कभीकभी अगले दिन. मयंक पूछता तो पार्टी या टूर की बात कह कर बेरुखी से टाल देती. अब तो डिं्रक लेना उस के लिए रोजमर्रा की बात हो गई थी. मयंक समझाने की कोशिश करता तो दंगाफसाद शुरू हो जाता था. इस दमघोंटू माहौल में दीप अंतर्मुखी होता जा रहा था. उस का बचपन जैसे उस के भीतर सिमट चुका था. मयंक ने हर संभव कोशिश की पर उस के होंठों पर मुसकान न ला सका. वह घबरा कर उसे मनोचिकित्सक के पास ले गया.

पूरी बात सुन कर डाक्टर बोले, ‘बच्चों में फूल सी कोमलता और मासूमियत होती है, जिस की खुशबू से घर का उपवन महकता है. वह जिस डाल पर खिलते हैं, उस की जड़ मातापिता होते हैं. जब जड़ को घुन लग जाए तो फूल खिले नहीं रह सकते.’

थोड़ा रुक कर डाक्टर फिर बोले,

‘मि. मयंक आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि बच्चा अपने आसपास के वातावरण को बारीकी से महसूस करता है और उसी के अनुरूप ढलता है. मांबाप के झगड़े में वह स्वयं को भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस करता है, इस स्थिति में उस के भीतर कुंठा या हिंसा की प्रवृत्ति पनपने लगती है. कभीकभी वह विक्षिप्त अथवा कई तरह के मानसिक रोगों का शिकार भी हो जाता है. पतिपत्नी के ईगो में उस का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय हो जाते हैं. मेरी राय में आप घर में शांति स्थापित करें या दीप को इस माहौल से कहीं दूर ले जाएं.’

मयंक ने अंजलि को सबकुछ बताया पर उस के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. उसे बेटे से अधिक अपने कैरियर से लगाव था. मयंक ने बहुत सोचसमझ कर उसे शहर से दूर आवासीय विद्यालय में एडमिशन दिला दिया था. इस के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था.

सफलता का नशा अंजलि के सिर इस कदर चढ़ कर बोल रहा था कि एक दिन मयंक से नाता तोड़ कर नए बंगले में शिफ्ट हो गई. उस ने मयंक को जीवन के उस मोड़ पर छोड़ दिया था जिस के आगे कोई रास्ता नहीं था. बेवफाई से वह टूट चुका था. वह तो दीप के लिए जी रहा था, वरना उस के मन में कोई चाह शेष नहीं थी.

बिजली आ गई थी. खिड़की बंद कर उस ने गालों पर ढुलक आए आंसू पोंछे और वापस सोफे पर आ कर बैठ गया.

वह सुबह स्कूल पहुंचा. बेटे को सहीसलामत देख कर उस की जान में जान आई. दीप भी उस से ऐसे लिपट गया मानो वर्षों बाद मिला हो.

‘‘पापा,’’ उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘आप भी यहीं आ जाओ. मैं आप के बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘तुझे लेने ही तो आया हूं, सदा के लिए,’’ उसे प्यार कर के वह बोला, ‘‘मेरा बेटा हमेशा पापा के पास रहेगा.’’

‘‘मैं घर नहीं जाऊंगा,’’ दीप की आंखों में आतंक की परछाइयां तैरने लगीं, ‘‘मम्मी से बहुत डर लगता है.’’

‘‘हम दोनों के अलावा वहां कोई नहीं रहेगा. अब सारा जहां अपना है, खूब खेलेंगे, खाएंगे और मस्ती करेंगे. दीप अपनी मर्जी की जिंदगी जिएगा.’’

‘‘सच, पापा,’’ वह खिल गया. मयंक ने उस का माथा चूम लिया.

वही खुशबू: आखिर क्या थी भैरों सिंह की असलियत

बहुत दिनों से सुनती आई थी कि भैरों सिंह अस्पताल के चक्कर बहुत लगाते हैं. किसी को भी कोई तकलीफ हो, किसी स्वयंसेवक की तरह उसे अस्पताल दिखाने ले जाते. एक्सरे करवाना हो या सोनोग्राफी, तारीख लेने से ले कर पूरा काम करवा कर देना जैसे उन की जिम्मेदारी बन जाती. मैं उन्हें बहुत सेवाभावी समझती थी. उन के लिए मन में श्रद्धा का भाव उपजता, क्योंकि हमें तो अकसर किसी की मिजाजपुरसी के लिए औपचारिक रूप से अस्पताल जाना भी भारी पड़ता है.

लोग यह भी कहते कि भैरों सिंह को पीने का शौक है. उन की बैठक डाक्टरों और कंपाउंडरों के साथ ही जमती है. इसीलिए अपना प्रोग्राम फिट करने के लिए अस्पताल के इर्दगिर्द भटकते रहते हैं. अस्पताल के जिक्र के साथ भैरों सिंह का नाम न आए, हमारे दफ्तर में यह नामुमकिन था.

पिछले वर्ष मेरे पति बीमार हुए तो उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा. तब मैं ने भैरों सिंह को उन की भरपूर सेवा करते देखा तो उन की इंसानियत से बहुत प्रभावित हो गई. ऐसा लगा लोग यों ही अच्छेखासे इंसान के लिए कुछ भी कह देते हैं. कोई भी बीमार हो, वह परिचित हो या नहीं, घंटों उस के पास बैठे रहना, दवाइयों व खून आदि की व्यवस्था करना उन का रोज का काम था. मानो उन्होंने मरीजों की सेवा का प्रण लिया हो.

उन्हीं दिनों बातोंबातों में पता चला कि उन की पत्नी भी बहुत बीमार रहती थी. उसे आर्थ्राइटिस था. उस का चलनाफिरना भी दूभर था. जब वह मेरे पति की सेवा में 4-5 घंटे का समय दे देते तो मैं उन्हें यह कहने पर मजबूर हो जाती, ‘आप घर जाइए, भाभीजी को आप की जरूरत होगी.’

पर वे कहते, ‘पहले आप घर हो आइए, चाहें तो थोड़ा आराम कर आएं, मैं यहां बैठा हूं.’

यों मेरा उन से इतनी आत्मीयता का संबंध कभी नहीं रहा. बाद में बहुत समय तक मन में यह कुतूहल बना रहा कि भैरों सिंह के इस आत्मीयतापूर्ण व्यवहार का कारण क्या रहा होगा? धीरेधीरे मैं ने उन में दिलचस्पी लेनी शुरू की. वे भी किसी न किसी बहाने गपशप करने आ जाते.

एक दिन बातचीत के दौरान वे काफी संकोच से बोले, ‘‘चूंकिआप लिखती हैं, सो मेरी कहानी भी लिखें.’’मैं उन की इस मासूम गुजारिश पर हैरान थी. कहानी ऐसे हीलिख दी जाती है क्या? कहानी लायक कोई बात भी तो हो. परंतु यह सब मैं उन से न कह सकी. मैं ने इतना ही कहा, ‘‘आप अपनी कहानी सुनाइए, फिर लिख दूंगी.’’

बहुत सकुचाते और लजाई सी मुसकान पर गंभीरता का अंकुश लगाते हुए उन्होंने बताया, ‘‘सलोनी नाम था उस का, हमारी दोस्ती अस्पताल में हुई थी.’’

मुझे मन ही मन हंसी आई कि प्यार भी किया तो अस्पताल में. भैरों सिंह ने गंभीरता से अपनी बात जारी रखी, ‘‘एक बार मेरा एक्सिडैंट हो गया था. दोस्तों ने मुझे अस्पताल में भरती करा दिया. मेरा जबड़ा, पैर और कूल्हे की हड्डियां सेट करनी थीं. लगभग 2 महीने मुझे अस्पताल में रहना पड़ा. सलोनी उसी वार्ड में नर्स थी, उस ने मेरी बहुत सेवा की. अपनी ड्यूटी के अलावा भी वह मेरा ध्यान रखती थी.

‘‘बस, उन्हीं दिनों हम में दोस्ती का बीज पनपा, जो धीरेधीरे प्यार में तबदील हो गया. मेरे सिरहाने रखे स्टील के कपबोर्ड में दवाइयां आदि रख कर ऊपर वह हमेशा फूल ला कर रख देती थी. सफेद फूल, सफेद परिधान में सलोनी की उजली मुसकान ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला. मैं ने महसूस किया कि सेवा और स्नेह भी मरीज के लिए बहुत जरूरी हैं. सलोनी मानो स्नेह का झरना थी. मैं उस का मुरीद बन गया.

‘‘अस्पताल से जब मुझे छुट्टी मिल गई, तब भी मैं ने उस की ड्यूटी के समय वहां जाना जारी रखा. लोगों को मेरे आने में एतराज न हो, इसीलिए मैं कुछ काम भी करता रहता. वह भी मेरे कमरे में आ जाती. मुझे खेलने का शौक था. मैं औफिस से आ कर शौर्ट्स, टीशर्ट या ब्लेजर पहन कर खेलने चला जाता और वह ड्यूटी के बाद सीधे मेरे कमरे में आ जाती. मेरी अनुपस्थिति में मेरा कमरा व्यवस्थित कर के कौफी पीने के लिए मेरा इंतजार करते हुए मिलती.

‘‘जब उस की नाइट ड्यूटी होती तो वह कुछ जल्दी आ जाती. हम एकसाथ कौफी पीते. मैं उसे अस्पताल छोड़ने जाता और वहां कईकई घंटे मरीजों की देखरेख में उस की मदद करता. सब के सो जाने पर हम धीरेधीरे बातें करते रहते. किसी मरीज को तकलीफ होती तो उस की तीमारदारी में जुट जाते.

‘‘कभी जब मैं उस से ड्यूटी छोड़ कर बाहर जाने की जिद करता तो वह मना कर देती. सलोनी अपनी ड्यूटी की बहुत पाबंद थी. उस की इस आदत पर मैं नाराज भी होता, कभी लड़ भी बैठता, तब भी वह मरीजों की अनदेखी नहीं करती थी. उस समय ये मरीज मुझे दुश्मन लगते और अस्पताल रकीब. पर यह मेरी मजबूरी थी क्योंकि मुझे सलोनी से प्यार था.’’

‘‘उस से शादी नहीं हुई? पूरी कहानी जानने की गरज से मैं ने पूछा.’’

भैरों सिंह का दमकता मुख कुछ फीका पड़ गया. वे बोले, ‘‘हम दोनों तो चाहते थे, उस के घर वाले भी राजी थे.’’

‘‘फिर बाधा क्या थी?’’ मैं ने पूछा तो भैरों सिंह ने बताया, ‘‘मैं अपने मांबाप का एकलौता बेटा हूं. मेरी 4 बहनें हैं. हम राजपूत हैं, जबकि सलोनी ईसाई थी. मैं ने अपनी मां से जिद की तो उन्होंने कहा कि तुम जो चाहे कर सकते हो, परंतु फिर तुम्हारी बहनों की शादी नहीं होगी. बिरादरी में कोई हमारे साथ रिश्ता करने को तैयार नहीं होगा.

‘‘मेरे कर्तव्य और प्यार में कशमकश शुरू हो गई. मैं किसी की भी अनदेखी करने की स्थिति में नहीं था. इस में भी सलोनी ने ही मेरी मदद की. उस ने मुझे मां, बहनों और परिवार के प्रति अपना फर्ज पूरा करने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया.

‘‘मां ने मेरी शादी अपनी ही जाति में तय कर दी. बड़ी धूमधाम से शादी हुई. सलोनी भी आई थी. वह मेरी दुलहन को उपहार दे कर चली गई. उस के बाद मैं ने उसे कभी नहीं देखा. विवाह की औपचारिकताओं से निबट कर जब मैं अस्पताल गया तो सुना, वह नौकरी छोड़ कर कहीं और चली गई है. बाद में पता चला कि  वह दूसरे शहर के किसी अस्पताल में नौकरी करती है और वहीं उस ने शादी भी कर ली है.’’

‘‘आप ने उस से मिलने की कोशिश नहीं की?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ भैरों सिंह ने जवाब दिया, ‘‘पहले तो मैं पगला सा गया. मुझे ऐसा लगता था, न मैं घर के प्रति वफादार रह पाऊंगा और न ही इस समाज के प्रति, जिस ने जातपांत की ये दीवारें खड़ी कर रखी हैं. परंतु शांत हो कर सोचने पर मैं ने इस में भी सलोनी की समझदारी और ईमानदारी की झलक पाई. ऐसे में कौन सा मुंह ले कर उस से मिलने जाता. फिर अगर वह अपनी जिंदगी में खुश है और चाहती है कि मैं भी अपने वैवाहिक जीवन के प्रति एकनिष्ठ रहूं तो मैं उस के त्याग और वफा को धूमिल क्यों करूं? अब यदि वह अपनी जिंदगी और गृहस्थी में सुखी है तो मैं उस की जिंदगी में जहर क्यों घोलूं?’’

‘‘अब अस्पताल में इतना क्यों रहते हैं? और यह कहानी क्यों लिखवा रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकता दिखाई.

भैरों सिंह ने गहरी सांस ली और धीमी आवाज में कहा, ‘‘मैं ने आप को बताया था न कि मैं उस का अधिक से अधिक साथ पाने के लिए उस की ड्यूटी के दौरान उस की मदद करता था, पर दिल में उस की कर्मनिष्ठा और सेवाभाव से चिढ़ता था. अब मुझे वह सब याद आता है तो उस की निष्ठा पर श्रद्धा होती है, खुद के प्रति अपराधबोध होता है. अब मैं मरीजों की सेवा, प्यार की खुशबू मान कर करता हूं और मुझे अपने अपराधबोध से भी नजात मिलती है.’’

भैरों सिंह की आवाज और धीमी हो गई. वह फुसफुसाते हुए से बोले, ‘‘अब मैं सिर्फ एक बात आप को बता रहा हूं या कहिए कि राज की बात बता रहा हूं. इस अस्पताल के समूचे वातावरण में मुझे अब भी वही खुशबू महसूस होती है, सलोनी के प्यार की खुशबू. रही बात कहानी लिखने की, तो मेरे पास उस तक अपनी बात पहुंचाने का कोई जरिया भी तो नहीं है. अगर वह इसे पढ़ेगी तो समझ जाएगी कि मैं उसे कितना याद करता हूं. उस की भावनाओं की कितनी इज्जत करता हूं. यही प्यार अब मेरी जिंदगी है.’’

संतुलन: क्या रोहित को समझाने में कामयाब हो पाई उसकी पत्नी?

झगड़ा शुरू कराने वाली बात बड़ी नहीं थी, पर बहसबाजी लंबी खिंच जाने से रोहित और उस के पिता के बीच की तकरार एकाएक विस्फोटक बिंदु पर पहुंच गई.

‘‘जोरू के गुलाम, तुझे अपनी मां और मेरी जरा भी फिक्र नहीं रही है. अब मुझे भी नहीं रखना है तुझे इस घर में,’’ ससुरजी की इस बात ने आग में घी का काम करते हुए रोहित के गुस्से को इतना बढ़ा दिया कि वे उसी समय अपने जानकार प्रौपर्टी डीलर से मिलने चले गए.

मैं बहुत सुंदर हूं और रोहित मेरे ऊपर पूरी तरह लट्टू हैं. मेरी ससुराल वालों के अलावा उन के दोस्त और मेरे मायके वाले भी मानते हैं कि मैं उन्हें अपनी उंगलियों पर बड़ी आसानी से नचा सकती हूं.

मेरे सासससुर ने अपनी छोटी बहू यानी मुझे कभी पसंद नहीं किया. वे दोनों हर किसी के सामने यह रोना रोते कि मैं ने उन के बेटे को अपने रूपजाल में फंसा कर मातापिता से दूर कर दिया है.

वैसे मुझे पता था कि रोहित की घर से अलग हो जाने की धमकी से घबरा कर मेरी सास बिगड़ी बात संभालने के लिए जल्दी मुझे से मिलने मेरे कमरे  में आएंगी. गुस्से में घर से अलग कर देने की बात मुंह से निकालना अलग बात है, पर मेरे सासससुर जानते हैं कि हम दोनों के अलावा उन की देखभाल करने वाला और कोई नहीं है. ऊपरी मंजिल पर रह रहे बड़े भैया और भाभी मुझ से तो क्या, घर में किसी से भी ढंग से नहीं बोलते हैं.

मैं बहुत साधारण परिवार में पलीबढ़ी थी. इस में कोई शक नहीं कि अगर मैं बेहद सुंदर न होती, तो मुझ से शादी करने का विचार अमीर घर के बेटे रोहित के मन में कभी पैदा न होता.

मेरे मातापिता ने बचपन से ही मेरे दिलोदिमाग में यह बात भर दी थी कि हर तरह की खुशियां और सुख पाना उन की परी सी खूबसूरत बेटी का पैदाइशी हक है. अपनी सुंदरता के बल पर मैं दुनिया पर राज करूंगी, किशोरावस्था में ही इस इच्छा ने मेरे मन के अंदर गहरी जड़ें जमा ली थीं.

रोहित से मेरी पहली मुलाकात अपनी एक सहेली के भाई की शादी में हुई थी.वे जिस कार से उतरे उस का रंग और डिजाइन मुझे बहुत पसंद आया था. सहेली से जानकारी मिली कि वे अच्छी जौब कर रहे हैं. इस से उन से दोस्ती करने में मेरी दिलचस्पी बढ़ गई थी.

उन की आंखों में झांकते हुए मैं 2-3 बार बड़ी अदा से मुसकराई, तो वे फौरन मुझ में दिलचस्पी लेने लगे. मौका ढूंढ़ कर मुझ से बातें करने लगते, तो मैं 2-4 वाक्य बोल कर कहीं और चली जाती. मेरे शर्मीले स्वभाव ने उन्हें मेरे साथ दोस्ती बढ़ाने के लिए और ज्यादा उतावला कर दिया.

उस रात विदा लेने से पहले उन्होंने मेरा फोन नंबर ले लिया. अगले दिन से ही हमारे बीच फोन पर बातें होने लगीं. सप्ताह भर बाद हम औफिस खत्म होने के बाद बाहर मिलने लगे.

हमारी चौथी मुलाकात एक बड़े पार्क में हुई. वहां एक सुनसान जगह का फायदा उठाते हुए उन्होंने अचानक मेरे होंठों से अपने होंठ जोड़ कर मुझे चूम लिया.

अपनी भावनाओं पर नियंत्रण न रख पाने के कारण मैं बहुत जोर से उन से लिपट गई. बाद में उन की बांहों के घेरे से बाहर आ कर जब मैं सुबकने लगी, तो उन की उलझन और बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई.

बहुत पूछने पर भी न मैं ने उन्हें अपने आंसू बहाने का कारण बताया और न ही ज्यादा देर उन के साथ रुकी. पूरे 3 दिनों तक मैं ने उन से फोन पर बात नहीं की तो चौथे दिन शाम को वे मुझे मेरे औफिस के गेट के पास मेरा इंतजार करते नजर आए.

उन के कुछ बोलने से पहले ही मैं ने उदास लहजे में कहा, ‘‘आई ऐम सौरी पर हमें अब आपस में नहीं मिलना चाहिए, रोहित.’’

‘‘पर क्यों? मुझे मेरी गलती तो बताओ?’’ वे बहुत परेशान नजर आ रहे थे.

‘‘तुम्हारी कोई गलती नहीं है.’’

‘‘तो मुझ से मिलना क्यों बंद कर रही हो?’’

उन के बारबार पूछने पर मैं ने नजरें झुका कर जवाब दिया, ‘‘मैं तुम्हारे प्यार में पागल हो रही हूं…तुम्हारे साथ नजदीकियां बढ़ती रहीं तो मैं अपनी भावनाओं को काबू में नहीं रख सकूंगी.’’

‘‘तुम कहना क्या चाह रही हो?’’ उन की आंखों में उलझन के भाव और ज्यादा बढ़ गए.

‘‘हम ऐसे ही मिलते रहे तो किसी भी दिन कुछ गलत घट जाएगा…तुम मुझे चीप लड़की समझो, यह सदमा मुझ से बरदाश्त नहीं होगा. साधारण से घर की यह लड़की तुम्हारे साथ जिंदगी गुजारने के सपने नहीं देख सकती है. तुम मुझ से न मिला करो, प्लीज,’’ भरे गले से अपनी बात कह कर मैं कुछ दूरी पर इंतजार कर रही अपनी सहेली की तरफ चल पड़ी.

बाद में रोहित ने बारबार फोन कर के मुझे फिर से मिलना शुरू करने के लिए राजी कर लिया. मेरी हंसीखुशी उन के लिए दिनबदिन ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती चली गई. मेरे रंगरूप का जादू उन के सिर चढ़ कर ऐसा बोला कि महीने भर बाद ही उन के घर वाले हमारे घर रिश्ता पक्का करने आ पहुंचे.

उस दिन हुई पहली मुलाकात में ही मुझे साफ एहसास हो गया कि यह रिश्ता उन के परिवार वालों को पसंद नहीं था. मेरी शादी को करीब 6 महीने हो चुके हैं और अब तक मेरे सासससुर और जेठजेठानी की मेरे प्रति नापसंदगी अपनी जगह कायम है.

अपने पिता से झगड़ा करने के बाद रोहित को घर से बाहर गए 5 मिनट भी नहीं हुए होंगे कि सासूमां मेरे कमरे में आ पहुंचीं. उन की झिझक और बेचैनी को देख कर कोई भी कह सकता था कि बात करने के लिए मेरे पास आना उन्हें अपमानित महसूस करा रहा है.

मेरे सामने झुकना उन की मजबूरी थी.

उन का अपनी बड़ी बहू नेहा से 36 का आंकड़ा था, क्योंकि बेहद अमीर बाप की बेटी होने के कारण वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझती थी.

मेरे सामने बैठते ही सासूमां मुझे समझाने लगीं, ‘‘ घर में छोटीबड़ी खटपट, तकरार तो चलती रहती है, पर तू रोहित को समझाना कि वह घर छोड़ कर जाने की बात मन से बिलकुल निकाल दे.’’

मैं ने बेबस से लहजे में जवाब दिया, ‘‘मम्मी, आप तो जानती ही हैं कि वे कितने जिद्दी इनसान हैं. मैं उन्हें घर से अलग होने से कब तक रोक सकूंगी? आप पापा को भी समझाओ कि वे घर से निकाल देने की धमकी तो बिलकुल न दिया करें.’’

‘‘उन्हें तो तब तक अक्ल नहीं आएगी जब तक गुस्से के कारण उन के दिमाग की कोई नस नहीं फट जाएगी.’’

‘‘ऐसी बातें मुंह से न निकालिए, प्लीज,’’ मेरा मन ससुरजी के अपाहिज हो जाने की बात सोच कर ही बेचैनी और घबराहट का शिकार हो उठा था.

कुछ देर तक अपनी व ससुरजी की गिरती सेहत के दुखड़े सुनाने के बाद सासूजी चली गईं. हम घर से अलग नहीं होंगे, मुझ से ऐसा आश्वासन पा कर उन की चिंता काफी हद तक कम हो गई थी.

उस रात मुझे साथ ले कर रोहित अपने दोस्त की शादी की सालगिरह की पार्टी में जाना चाहते थे. उन का यह कार्यक्रम खटाई में पड़ गया, क्योंकि ससुरजी को सुबह से 5-6 बार उलटियां हो चुकी थीं.

औफिस से आने के बाद जब उन्होंने मेरे जल्दी तैयार होने के लिए शोर मचाया, तो घर में क्लेश शुरू हो गया और बात धीरेधीरे बढ़ती चली गई.

सचाई यही है कि कुछ कारणों से मैं खुद भी रोहित के दोस्त द्वारा दी जा रही कौकटेल पार्टी में नहीं जाना चाहती थी. आज मैं जिंदगी के उसी मुकाम पर हूं जहां होने के सपने मैं हमेशा देखती आई हूं. संयोग से मैं ने जिस ऐशोआराम भरी जिंदगी को पाया है, उसे नासमझी के कारण खो देने का मेरा कोई इरादा नहीं था.

रोहित की एक निशा भाभी हैं, जिन के अपने पति सौरभ के साथ संबंध बहुत खराब चल रहे हैं. उन के बीच तलाक हो कर रहेगा, ऐसा सब का मानना है. मैं ने पिछली कुछ पार्टियों में नोट किया कि फ्लर्ट करने में एक्सपर्ट निशा भाभी रोहित को बहुत लिफ्ट दे रही हैं. यह सभी जानते हैं कि एक बार बहक गए कदमों को वापस राह पर लाना आसान नहीं होता है. रोहित को निशा से दूर रखने के महत्त्व को मैं अपने अनुभव से बखूबी समझती हूं, क्योंकि अपने पहले प्रेमी समीर को मैं खुद अब तक पूरी तरह से नहीं भुला पाई हूं.

वह मेरी सहेली शिखा का बड़ा भाई था. मैं 12वीं कक्षा की परीक्षा की तैयारी करने उन के घर पढ़ने जाती थी. मेरी खूबसूरती ने उसे जल्दी मेरा दीवाना बना दिया. उस की स्मार्टनैस भी मेरे दिल को भा गई.

उन के घर में कभीकभी हमें एकांत में बिताने को 5-10 मिनट भी मिल जाते थे. इस छोटे से समय में ही उस के जिस्म से उठने वाली महक मुझे पागल कर देती थी. उस के हाथों का स्पर्श मेरे तनमन को मदहोश कर मेरे पूरे वजूद में अजीब सी ज्वाला भर देता था.

एक रविवार की सुबह जब उस की मां बाजार जाने को निकलीं. मां के बाहर जाते ही समीर बाहर से घर लौट आया. हमें कुछ देर की मौजमस्ती करने के लिए किसी तरह का खतरा नजर नहीं आया, तो हम बहुत उत्तेजित हो आपस में लिपट गए.

फिर गड़बड़ यह हुई कि उस की मां पर्स भूल जाने के कारण घर से कुछ दूर जा कर ही लौट आई थीं. दरवाजा खोलने के बाद समीर और मैं अपनी उखड़ी सांसों और मन की घबराहट को उन की अनुभवी नजरों से छिपा नहीं पाए थे.

उन्होंने मुझे उसी वक्त घर भेज दिया और कुछ देर बाद आ कर मां से मेरी शिकायत कर दी. इस घटना का नतीजा यह हुआ कि मेरी शिखा से दोस्ती टूट गई और अपने मातापिता की नजरों में मैं ने अपनी इज्जत गंवा दी.

कच्ची उम्र में समीर के साथ प्यार का चक्कर चलाने की मूर्खता कर मैं ने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी. मेरे सजनेसंवरने पर भी पूरी तरह से पाबंदी लग गई. मां की रातदिन की टोकाटाकी और पापा का मुझ से सीधे मुंह बात न करना मुझे बहुत दुखी करता था.

उन कठिन दिनों से गुजरते हुए एक सबक मैं अच्छी तरह सीख गई कि अगर मेरी ऐशोआराम की जिंदगी जीने की इच्छा और सारे सपने पूरे नहीं हुए तो जीने का मजा बिलकुल नहीं आएगा. घुटघुट कर जीने से बचने के लिए मुझे फौरन अपनी छवि सुधारना बहुत जरूरी था.

‘‘केवल सुंदर होने से काम नहीं चलता है. सूरत के साथ सीरत भी अच्छी होनी चाहिए,’’

मां से रातदिन मिलने वाली चेतावनी को मैं ने हमेशा के लिए गांठ बांध कर अपने को सुधार लेने का संकल्प उसी समय कर लिया. तभी से अपने जीवन में आने वाली हर कठिनाई, उलझन और मुसीबत से सबक ले कर मैं खुद को बदलती आई हूं.

रोहित के विवाहेत्तर संबंध न बन जाएं, इस डर के अलावा एक और डर मुझे परेशान करता था. उन्हें सप्ताह में 1-2 बार ड्रिंक करने का शौक है. आज भी उन के गुस्से को बहुत ज्यादा बढ़ाने का यही मुख्य कारण था कि दोस्तों के साथ शराब पीने का मौका उन के हाथ से निकल गया. मेरे लिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि अगर हम अलग मकान में रहने चले गए, तो दोस्तों के साथ उन का पीनापिलाना बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा.

समीर वाले किस्से के बाद मेरी मां मेरे साथ बहुत सख्त हो गई थीं. उन की उस सख्ती के चलते मेरे कदम फिर कभी नहीं भटके थे. यहां मेरे सासससुर मां वाली भूमिका निभा रहे थे. रोहित और मुझे नियंत्रण में रख कर वे दोनों एक तरह से हमारा भला ही कर रहे थे. अब मुझे यह बात समझ में आने लगी थी.

पिछले दिनों तक मैं घर से अलग हो जाने की जरूर सोचती थी, पर अब इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मैं ने ऐसा करने का इरादा बदल दिया है.

रोहित 2 घंटे बाद जब लौटे, तब भी उन की आंखों में तेज गुस्सा साफ झलक रहा था. फिर भी मैं ने रोहित को अपनी बात कहने का फैसला किया.

उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना मैं ने आंखों में आंसू भर कर भावुक लहजे में पूछा, ‘‘तुम मुझे सब की नजरों में क्यों गिराना चाहते हो?’’

‘‘मैं ने ऐसा क्या किया है?’’ उन्होंने गुस्से से भर कर पूछा.

‘‘टैंशन के कारण पापा को ढंग से सांस लेने में दिक्कत हो रही है. आपसी लड़ाईझगड़े की वजह से उन्हें कभी कुछ हो गया, तो मैं समाज में इज्जत से सिर उठा कर कभी नहीं जी सकूंगी.’’

‘‘वे लोग बात ही ऐसी गलत करते हैं…पार्टी में न जाने दे कर सारा मूड खराब कर दिया.’’

‘‘पार्टी में जाने का गम मत मनाओ, मैं हूं न आप का मूड ठीक करने के लिए,’’ मैं ने उन के बालों को प्यार से सहलाना शुरू कर दिया.

‘‘तुम तो हो ही लाखों में एक जानेमन.’’

‘‘तो अपनी इस लाखों में एक जानेमन की छोटी सी बात मानेंगे?’’

‘‘जरूर मानूंगा.’’

मेरी सुंदरता मेरी बहुत बड़ी ताकत है और अब इसी के बल पर मैं सारे रिश्तों के बीच अच्छा संतुलन और घर में हंसीखुशी का माहौल बनाना चाहती हूं. इस दिशा में काफी सोचविचार करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि सासससुर के साथ अपने रिश्ते सुधार कर उन्हें मजबूत बनाना मेरे हित के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है.

अपने इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए मैं ने रोहित के कान के पास मुंह ले जा कर प्यार भरे लहजे में पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हें कभी किसी भी बात से नाराज हो कर सोने देती हूं?’’

‘‘कभी नहीं और आज भी मत सोने देना,’’ उन के होंठों पर एक शरारती मुसकान उभरी.

‘‘आज आप भी मेरी इस अच्छी आदत को अपनाने का वादा मुझ से करो.’’

‘‘लो, कर लिया वादा.’’

‘‘तो अब चलो मेरे साथ.’’

‘‘कहां?’’

‘‘अपने मम्मीपापा के पास.’’

‘‘उन के पास किसलिए चलूं?’’

‘‘आप उन के साथ कुछ देर ढंग से बातें कर लोगे, तो ही वे दोनों चैन से सो पाएंगे.’’

‘‘नहीं,’’ यह मैं नहीं…

मैं ने झुक कर पहले रोहित के होंठों पर प्यार भरा चुंबन अंकित किया और फिर उन की आंखों में प्यार से झांकते हुए मोहक स्वर में बोली, ‘‘प्लीज, मेरी खुशी की खातिर आप को यह काम करना ही पड़ेगा. आप मेरी बात मानेंगे न?’’

तुम्हारी बात कैसे टाल सकता हूं ब्यूटीफुल चलो,’’ रोमांटिक अंदाज में मेरा हाथ चूमने के बाद जब वे फौरन अपने मातापिता के पास जाने को उठ खड़े हुए, तो मैं मन ही मन विजयीभाव से मुसकराते हुए उन के गले लग गई.

चलो एक बार फिर से

‘कुछ तो था हमारे दरमियां… आज भी तुम्हें देख कर दिल की बस्ती में हलचल हो गई है…’

नेहा को देखते ही यह शायरी अमित के होठों पर खुद ब खुद आ गई थी. वही खुले लंबे बाल, बड़ीबड़ी झील सी गहरी आंखें, माथे पर लंबी सी बिंदिया और आंखों में कितने ही सवाल…अपनी साड़ी का पल्लू संभालती हुई नेहा मुड़ी तभी दोनों की नजरें टकरा गई थीं.

अमित एकटक उसे ही निहारता रह गया. नेहा की आंखों ने भी पल भर में उसे पहचान लिया था. अमित कुछ कहना चाहता था मगर नेहा ने खुद को संभाला और निगाहें फेर लीं.

अमित को लगा जैसे एक पल में मिली हुई खुशी अगले ही पल छिन गई हो. नेहा ने चोर नजरों से फिर उसे देखा. अमित अबतक उसी की तरफ देख रहा था.

“हैलो नेहा” अमित से रहा नहीं गया और वह उस के पास पहुंच गया.

“हैलो कैसे हो ?” धीमे स्वर में नेहा ने पूछा.

“जैसा छोड़ कर गई थीं.” अमित ने जवाब दिया तो नेहा ने एक भरपूर निगाह उस पर डाली और हौले से मुस्कुराती हुई बोली, “ऐसा तो नहीं लगता. थोड़े तंदुरुस्त हो गए हो.”

“अच्छा” अमित हंस पड़ा.

दोनों करीब 4 साल बाद एकदूसरे से मिले थे. 4 साल पहले ऐसे ही स्टेशन पर नेहा को गाड़ी में बिठा कर अमित ने विदा किया था. नेहा उस की जिंदगी से दूर जा रही थी. अमित उसे रोकना चाहता था मगर दोनों का ईगो आड़े आ गया था. वह गई तो मायके थी पर दोनों को ही पता था कि वह हमेशा के लिए जा रही है. लौट कर नहीं आएगी और फिर 2 महीने के अंदर ही तलाक के कागजात अमित के पास पहुंच गए. एक लंबी अदालती कार्यवाही के बाद दोनों की जिंदगी के रास्ते अलग हो गए.

“चाय पीओगी या कॉफी ?” पुरानी यादों का साया परे करते हुए अमित ने पूछा था.

“हां कॉफी पी लूंगी. तुम तो चाय पियोगे न. बट आई विल प्रेफर कॉफी.”

“ऑफकोर्स. अभी लाता हूं.”

नेहा अमित को जाता हुआ पीछे से देर तक देखती रही. तलाक के बाद उस ने शादी कर ली थी पर अमित अब तक अकेला था. वह नेहा को अपने दिलोदिमाग से निकाल नहीं सका था. शायद यही हालत नेहा की भी थी. मगर शादी के बाद प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और वैसा ही नेहा के साथ भी हुआ था.

“और बताओ कैसी हो? सब कैसा चल रहा है? ”

अमित चाय और कॉफी ले आया था. नेहा के पास बैठते हुए उस ने पूछा तो एक लंबी सांस ले कर नेहा बोली,” सब ठीक ही चल रहा है. बस आजकल अपनी तबीयत को ले कर थोड़ी परेशान रहती हूं.”

“क्यों क्या हुआ तुम्हें?” चिंतित स्वर में अमित ने पूछा.

“कुछ नहीं बस अस्थमा से थोड़ी प्रॉब्लम हो रही है. सांस की तकलीफ रहती है.”

“आजकल तो वैसे भी कोरोना फैल रहा है. तुम्हें तो फिर अपना खास ख्याल रखना चाहिए.”

“हां वह तो रखती हूं. बस 2 दिन का देहरादून में काम है और फिर वापस नागपुर लौटना है. सुजय अभी नागपुर में ही शिफ्टेड है न.”

“अच्छा. मैं भी दिल्ली काम से आया था. मुझे भी वापस कोटा जाना है.*

“मेरी ट्रेन सुबह 6.40 की है. अमित जरा तुम देखो न, ट्रेन कब आएगी? स्टेशन मास्टर से पूछ कर बताओ न जरा. ट्रेन टाइम पर है या लेट है?”

“हां अभी पूछता हूं.” कह कर अमित चला गया.

पूछताछ करने पर पता चला कि लॉकडाउन हो गया है और इस वजह से ट्रेनें रद्द हो गई हैं. नेहा घबरा गई.
“अब क्या होगा ट्रेन कब चलेगी?”

“देखो नेहा. अभी तो यही पता चल रहा है कि 31 मार्च तक ट्रेनें रद्द कर दी गई हैं. सब कुछ बंद है. लौकडाउन में ट्रेनों के परिचालन पर पाबंदी लग गई है.”

“अरे अब मैं कहां जाऊंगी? ऐसा कैसे हो गया? होटल खुले हैं या नहीं?”

नेहा घबरा गई थी. उसे शांत कराते हुए अमित बोला,” नेहा परेशान मत हो. मेरे कजिन ब्रदर का घर है यहां. वह आजकल मुंबई में जॉब कर रहा है. इसलिए घर की चाबी मुझे दी हुई है. मुझे अक्सर यहां आना पड़ता है तो मैं उसी घर में ठहर जाता हूं. डोंट वरी. तुम भी मेरे साथ चलो. अभी तुम्हें वहीं ठहरा देता हूं. इतना तो विश्वास कर ही सकती हो मुझ पर. ”

“ओके डन. चलो.” नेहा अमित के साथ चल दी.

अमित उसे ले कर कजिन के घर पहुंचा. एक बेडरूम के इस घर में बाहर बड़ी सी बालकनी और झूला भी था. अच्छाखासा लौन था. गलियारे में सुंदर पेड़पौधे भी लगे हुए थे. घर छोटा मगर काफी खूबसूरत था.

अमित के घर पहुंच कर नेहा ने सारी बातें अपने वर्तमान पति यानि सुजय को बता दीं. परेशानी के वक्त पुराने पति की मदद लेने और उस के घर पर ठहरने के फैसले को सुजय ने पॉजिटिव वे में लिया और उस के सुरक्षित होने की खबर पर खुशी जाहिर की.

“गुड. थैंक्स अमित.” नेहा ने घर का मुआयना करते हुए कहा

” चलो तुम फ्रेश हो जाओ. मैं खाना बनाता हूं. तुम मेरी गेस्ट हो ना.”

“अच्छा तो अब तुम बनाओगे खाना? जब हम साथ थे तब तो कभी किचन में झांकते भी नहीं थे.”

“वक्त और परिस्थितियां बहुत कुछ सिखा देती हैं नेहा मैडम. आप हमारे हाथ का खाना खा कर देखना. उंगलियां चाटती रह जाओगी.”

“क्या बात है. बातें बनाना तो तुम्हें खूब आता है.” न चाहते हुए भी नेहा की जुबान पर पुरानी यादों की तल्खी आ ही गई थी.

तुरंत बात सुधारती हुई बोली,” वैसे अमित काफी अच्छे बदलाव नजर आ रहे हैं तुम में.”

“थैंक्यू” अमित मुस्कुरा कर काम में लग गया. वाकई उस ने बहुत स्वादिष्ट खाना बनाया था.

नेहा ने स्वाद से खाना खाया. थोड़ी देर बातचीत करते हुए पुरानी यादें ताजा करने के बाद सोने की बारी आई. बेडरूम एक ही था. अमित ने बेड की तरफ इशारा करते हुए कहा,” नेहा तुम आराम से सो जाओ यहां.”

“तुम कहां सोओगे?”

“मेरा क्या है? मैं बैठक में सोफे पर एडजस्ट हो जाऊंगा.”

“ओके”

नेहा आराम से बैड पर लुढ़क गई. बहुत नींद आ रही थी उसे. थकी हुई भी थी फिर भी रात भर करवटें बदलती रही. मन के आंगन में पुरानी यादें, कुछ कड़वी और कुछ मीठी, घेरा डाले जो बैठी थीं. अमित का भी यही हाल था. सुबह 8 बजे नेहा की नींद टूटी. बाहर आई तो देखा कि अमित नहाधो कर नाश्ता बना रहा है.

“क्या बात है. आई एम इंप्रैस्ड. पूरी गृहिणी बन गए हो.”

“घरवाली छोड़ कर चली जाए तो यही हाल होता है मैडम जी.”

अमित ने माहौल को हल्का बनाते हुए कहा. नेहा लौन में टहलने लगी तभी अमित चाय ले कर आ गया. नेहा ने चाय पीते हुए कहा,” अमित मुझे अजीब लग रहा है. सारे काम तुम कर रहे हो. देखो कहे देती हूं. दोपहर का खाना मैं बनाऊंगी और रात का भी. तुम केवल बर्तन साफ कर देना.”

“जैसी आप की आज्ञा मोहतरमा.” हंसते हुए अमित बोला.

इस तरह दोनों मिल कर लौकडाउन के इस समय में एकदूसरे की सहायता करते हुए वक्त बिताने लगते हैं. अमित जितना संभव होता सारे काम खुद करता. उसे नेहा की तबीयत को ले कर चिंता रहती थी. झाड़ू पौंछा या सफाई का काम नेहा को छूने भी नहीं देता.

एक दिन सुबहसुबह नेहा की तबीयत ज्यादा ही खराब हो गई. नेहा ने बताया कि उस का इनहेलर नहीं मिल रहा है. अमित उसी वक्त बाजार भागा. बड़ी मशक्कत के बाद उसे एक मेडिकल शॉप खुली मिली. वहीं से इनहेलर और जरूरी दवाइयां खरीद कर भागाभागा घर लौटा. इस समय एकएक पल महत्वपूर्ण था. नेहा की तबीयत काफी बिगड़ रही थी. मगर समय पर इनहेलर मिल जाने से वह बेहतर महसूस करने लगी.

तब तक अमित ने जल्दी से एक बाउल में पानी गर्म किया और उस में लैवेंडर ऑयल की 5-6 बूंदें डालीं. इसे वह नेहा के पास ले आया और 5 -10 मिनट तक स्टीम लेने को कहा. इस से नेहा को काफी आराम मिला.

अब अमित ने एक गिलास गर्म पानी में शहद मिला कर उसे धीरेधीरे पीने को कहा. कुल मिला कर नेहा की तबीयत में काफी सुधार आ गया. अमित ने प्यार से नेहा का माथा सहलाते हुए कहा,” आज के बाद तुम्हें रोज शहद या हल्दी डाल कर गर्म पानी पीना है. इस से तुम्हें आराम मिलेगा.”

उस दिन नेहा को महसूस हुआ कि अमित वाकई उस से प्यार करता है और अलग हो कर भी वह दिल से उस से जुड़ा हुआ है. यह बात उस ने शिद्दत से महसूस की.

वह अमित के पास आ कर बैठ गई और उस के हाथों को थामते हुए बोली,” मैं अपना अतीत पूरी तरह भूल जाना चाहती हूं. आज से मैं केवल तुम्हारे साथ बिताए हुए ये खूबसूरत और प्यारे लम्हे याद रखूंगी. रियली आई मीन इट.”

“नेहा कौन कहता है कि एक्स हसबैंडवाइफ दोस्त नहीं हो सकते. अब तुम तो जिंदगी में आगे बढ़ चुकी हो. हमारा पुराना रिश्ता तो अब जुड़ नहीं सकता. फिर भी दोस्ती का एक नया रिश्ता तो हम बना ही सकते हैं न.”

उस दिन पहली बार दोनों गले लग कर खुशी के आंसू रोए थे.

अगले दिन सुबह नेहा एक फूल ले कर अमित के पास पहुंची.

“यह क्या है?” वह अचकचाया.

“फूल है गुलाब का.”

” वह तो है मगर इस नाचीज पर आज इतनी मेहरबान क्यों?”

“क्यों कि आज ही हम पहली दफा मिले थे. ईडियट भूल गए तुम?” शरारत से देखते हुए नेहा बोली.

“ओह याद आया. रियली मैं सरप्राइज्ड हूं. तुम्हें आज का दिन याद रह गया?”

“हां चलो, आज का दिन कुछ खास मनाते हैं.”

“फाइन ”

फिर दोनों ने मिल कर घर में एक शानदार डेट ऑर्गेनाइज की. घर को फूलों से सजाया. बरामदे में टेबल और कुर्सी लगा कर दोनों ने लंच किया. एकदूसरे की पसंद के कपड़े पहने. लंच में एकदूसरे की पसंद की चीजें ही ऑर्डर कीं गई. एक आर्डर करता और दूसरा किचन से सामान ले कर आता. दोनों ने पहली मुलाकात याद करते हुए एकदूसरे के लिए गाने गाए. शायरियां सुनाईं. गिफ्ट का आदानप्रदान किया. मजेदार बातें कीं और फिर एक खुशनुमा शाम का वादा कर एकदूसरे से विदा ली.

यह सब दोनों ने इतने मजे लेते हुए और फ्रेंडली अप्रोच के साथ किया कि उन के लिए यह डेट यादगार बन गई.

रात में नेहा ने अमित को अपने पास ही सो जाने का न्योता दिया और बोली,” आज मैं एक खूबसूरत भूल करना चाहती हूं . बस केवल आज के लिए अपने हस्बैंड को चीट करूंगी अपने दोस्त की खातिर.”
“तुम तो बड़ी पाप पुण्य की बातें करती थीं कि विवाह के बाद परपुरुष को देखने पर भी नर्क मिलता है या सती सावित्री ही आदर्श होती है वगैरह-वगैरह.” अमित बोला.

नेहा मुंह बिचकाकर बोली, “वे सब पाखंड तो मैं अपनी मौसी से सीख कर आई थी. पता  है उन्होंने मां को ही चूना लगा डाला था. उनका पैसा एक ऐसी जमीन में लगवा दिया था जो थी ही नहीं और सिर्फ कागज थे. बचपन से हम समझते थे कि वे सुबह तीन घंटे पूजा करतीं हैं तो सही ही होंगीं. उन्होंने मां का वह कागजी हिस्सा भी बेच कर पैसे बेटे बहू को दे दिए. मां बहुत रोई थीं. तब से मैंने फैसला कर लिया कि इस झूठ फरेब में नहीं पड़ूंगी और अपनी शर्तों पर अपनी समझ से जिऊंगी.”

“काश तुम्हें यह समझ पहले होती” कहता हुआ अमित कपड़े फेंकते हुए नेहा के साथ बिस्तर पर लेट गया.

दोनों की जिंदगी में लौकडाउन का वह पूरा दिन उम्र भर के लिए यादगार बन गया था. पुरानी गलतफहमियां और कड़वाहट दूर हो गई थीं. एकदूसरे के ऊपर अधिकार न होते हुए भी वे एकदूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. एक अलग सा कंफर्ट लेवल था जिस ने तकलीफ के उन दिनों को भी नए रंग में रंग दिया था.

गाड़ी बुला रही है: क्या हुआ मुक्कू के साथ

आजअकेले कार चलाने का अवसर मिला है. ये औफिस गए हुए हैं, मुक्कू बिटिया कालेज और मैं चली अपनी बचपन की सहेली से मिलने. अकेले ड्राइव पर जाने का आनंद कोई मुझ से पूछे. एसी के सारे वेंट अपने मुंह की ओर मोड़ कर कार के स्पीकर का वौल्यूम बढ़ा कर उस के साथ गाते हुए कार चलाने का मजा ही कुछ और होता है. एक नईर् ऊर्जा का संचार होने लगता है मुझ में. कितनी बार तो मैं ट्रैफिक सिगनल पर खड़ी कार में बैठीबैठी थोड़ा नाच भी लेती हूं. हां, जब पड़ोस की कारों के लोग घूरते हैं तो झेंप जाती हूं.

ड्राइविंग का कीड़ा मेरे अंदर शुरू से कुलबुलाया करता था. कालेज में दाखिला मिलते ही मेरा स्कूटी चलाने को जी मचलने लगा. मम्मीपापा के पास भी अब कोईर् बहाना शेष न था. मैं वयस्क जो हो गई थी. अब तो लाइसैंस बनवाऊंगी और ऐश से स्कूटी दौड़ाती कालेज जाऊंगी.

फिर भी मम्मी कहने लगीं, ‘‘खरीदने से पहले स्कूटी चलाना तो सीख ले.’’

‘‘ओके, इस में क्या परेशानी है. मेरी सहेली गौरी है न. अपनी स्कूटी पर उस ने कितनी बार मुझे पीछे बैठाया है. कई बार कह चुकी है कि एक बार हैंडल पकड़ कर फील तो ले. लेकिन इस बार जब मैं ने उस से मुझे स्कूटी सिखाने की बात कही तो वह बोली, ‘‘पर तुझे तो साइकिल चलानी भी नहीं आती है आकृति?’’

‘‘तो मुझे साइकिल नहीं स्कूटी चलानी है. तू सिखाएगी या नहीं यह बता?’’

‘‘नाराज क्यों होती है? सिखाऊंगी क्यों नहीं. पर पहले तू साइकिल चलाना सीख ले… तेरे लिए स्कूटी चलाना आसान रहेगा.’’

‘‘अब साइकिल कहां से लाऊं?’’

मेरी यह उलझन भी गौरी ने दूर कर दी. तय हुआ कि

पहले मैं उस की छोटी बहन की साइकिल चलाना सीखूं और फिर उस की स्कूटी.

साइकिल चलाना सीखना शुरू तो कर दिया पर हर बार बैलेंस बनाते समय मैं गिर पड़ती थी. एक बार पड़ोसिन रमा आंटी बोल पड़ीं, ‘‘आकृति, तुम्हें साइकिल चलानी नहीं आएगी, रहने दो. बेकार में कहीं लग न जाए, लड़की जात हो, चेहरा बिगड़ना नहीं चाहिए.’’

उन की इस बात ने मेरा मनोबल ही तोड़ दिया. कितना अच्छा होता कि आंटी मेरा हौसला बढ़ातीं, लेकिन उन्होंने मुझे निराश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

कुछ दिन हतोत्साहित होने के बाद जब मैं ने छोटेछोटे बच्चों को साइकिलें दौड़ाते देखा तो मेरे अंदर पुन: उम्मीद जाग उठी. मैं ने भी साइकिल सीख कर ही दम लिया. पहले साइकिल की सीट नीचे कर के, पांव जमीन पर टिका कर कौन्फिडैंस बनाया. फिर एक बार बैलेंस करना और फिर साइकिल चलाना सीख गई.

अब नंबर था स्कूटी का. मम्मी को मैं अपनी प्रोग्रैस से खबरदार करना न भूलती थी. उन्हीं से स्कूटी जो खरीदवानी थी. लेकिन पापा ने भांजी मार दी. कहने लगे, बिना गीयर का कोई स्कूटर होता है भला. जिद पर अड़ गए कि गीयर वाला स्कूटर ही दिलवाएंगे. लेना है तो लो वरना कालेज जाने के लिए मंथली बस पास बनवा लो. कितनी मिन्नते कीं पर पापा टस से मस न हुए. हर बार एक ही बात कह देते, ‘‘बेटा, मैं तेरे भले के लिए कह रहा हूं. गीयर वाला स्कूटर चलाने की फील ही अलग है. गीयर वाले स्कूटर के बाद कार चलाने में भी आसानी रहेगी…’’ न जाने क्याक्या दलीलें देते, लेकिन मेरी समझ में एक बात आ गई थी वह यह कि स्कूटी का पत्ता कट चुका था.

मैं बड़ी निराश थी, ‘‘अब किस से सीखूंगी मैं? गौरी के पास स्कूटी है, गीयर वाला स्कूटर नहीं.’’

‘‘अरे, तू परेशान क्यों होती है? मैं हूं न, मैं सिखा दूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, आप डांटोगे और मेरा कौन्फिडैंस खत्म कर दोगे. याद नहीं मुझे मैथ्स कैसे पढ़ाते थे? इतना डांटते थे कि आज तक मेरे मन से मैथ्स का डर नहीं गया. मुझे किसी और से सीखना है,’’ मेरी भी जिद थी.

मेरी इस जिद के आगे पापा को झुकना पड़ा, ‘‘अच्छा ठीक है, तो फिर जिस शोरूम से स्कूटर लेंगे, वहीं के मैकैनिक से कह कर सिखवा दूंगा तुझे.’’

वह दिन भी आ गया जब मैं और पापा स्कूटर लेने शोरूम पहुंचे. मुझे पिस्तई हरा रंग पसंद आया. स्कूटर लिया और साथ ही मैचिंग हैलमेट भी. पेमैंट करते समय पापा ने शर्त रखी कि कोई मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाना सिखा दे. तब तय हुआ कि 2 दिनों में मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाने के गुर सिखा देगा, फिर प्रैक्टिस करना मेरा काम.

पहली ट्रेनिंग उसी दिन हुई. मैकेनिक राजू ने मुझे स्कूटर के कलपुरजों से वाकिफ करवाया. फिर शोरूम के सामने वाले मैदान में स्कूटर ले जा कर मुझे ड्राइविंग सीट पर बैठाया और खुद पीछे बैठा. स्कूटर का हैंडल उसी के हाथों में था. उस ने स्कूटर स्टार्ट किया, और फिर मुझे पहला गीयर डाल कर दिखाया. क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा. मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा.

मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर भी दिखा दिया. अब स्कूटर का हैंडल संभालने की मेरी बारी थी. साइकिल से विपरीत स्कूटर का हैंडल एकदम सधा रहता है. डगमगाने का कोई डर ही नहीं, मैं आश्वस्त हो गई. पापा का डिसीजन मुझे सही लगने लगा. पहले दिन मैदान में चक्कर लगा कर हम घर लौट आए.

अगले दिन दूसरी और आखिरी क्लास के लिए शोरूम जाना था. पापा को मेरे उत्साह पर हंसी आ रही थी. आज की ट्रेनिंग राजू भाई सड़क पर लेना चाहता था ताकि मैं ट्रैफिक में भी सीख सकूं. सड़क तक स्कूटर राजू चला कर ले गया और वहां पहुंच कर मेरे हवाले करने लगा.

‘‘प्लीज, आप भी बैठे रहो न,’’ इतना ट्रैफिक और शोरगुल देख मैं थोड़ा डर गई.

मेरी रिक्वैस्ट पर राजू मेरे पीछे बैठ गया परंतु हैंडल से ले कर गीयर तक आज सब काम मुझे ही करने थे. मैं किक मारूं, लेकिन स्कूटर स्टार्ट ही न हो. राजू ने मुझे किक लगाने का सही तरीका बताया. अब की बार मुझ से किक लग गई. स्कूटर स्टार्ट कर मैं ने पहले गीयर में डाला और धीरेधीरे क्लच छोड़ते ही वह चलने लगा. वाह, मैं स्कूटर चला रही थी. लेकिन तभी साइड से जाती एक गाड़ी ने हौर्न बजाया और मैं डर गई. इतना डर गई कि चलते स्कूटर से उतर गई, किंतु उस का हैंडल नहीं छोड़ा. दोनों हाथों से हैंडल पकड़े मैं स्कूटर के संग भागने लगी.

अब डरते की बारी राजू की थी. मेरी इस हरकत पर उस ने फौरन ब्रेक लगाया. बाद में मुझे ऐसा डांटा कि पूछो मत. आज याद करती हूं तो हंसी आती है लेकिन सोचा जाए तो राजू की बात एकदम सही थी. चलती सड़क, पूरा ट्रैफिक, उस पर मैं चलते स्कूटर से उतर गई और संग भागने लगी. बड़ा ऐक्सीडैंट हो सकता था. चूंकि राजू साथ थे तो पापा या शोरूम के मालिक तो उन्हें ही जिम्मेदार ठहराते. राजू ने कानों को हाथ लगा कर मुझ से तोबा कर ली.

खैर, ड्राइविंग तो मुझे सीखनी ही थी पर अब मेरा कोई गौडफादर न था. मुझे आज भी याद है वह वसंत ऋतु की शाम. मौसम कितना खुशगवार था. दिल्ली में फरवरी से अच्छा मौसम शायद ही सालभर में कभी होता है. पर इतने खुशनुमा मौसम में भी मेरे चेहरे पर पसीना आ रहा था.

अपनी गली में हैलमेट लगा कर बहुत डरते हुए मैं ने स्कूटर को थामा. किक लगाई और धीरे से चलाना शुरू किया. 200 मीटर ही चली थी कि सामने से एक बाइक को अपनी ओर आता देख मैं फिर डर गई और सीधे हाथ से रेस कम करने के बजाय गलती से बढ़ा दी. फिर क्या था. स्कूटर उछलता हुआ भागा और सामने खड़ी एक कार से जा टकराया. मैं दर्द से कराह उठी. रोती हुई मैं घर आ गई. स्कूटर को महल्ले के लोगों ने घर पहुंचाया था. बस, वह मैं ने आखिरी बार स्कूटर चलाया था.

मगर ड्राइविंग के मेरे शौक को आराम न मिला. स्कूटर के बाद कार का नंबर लगा. कार चलाना सीखने की कहानी भी बड़ी मजेदार है. सुनेंगे?

कार सीखने तक मैं नौकरी करने लगी थी. मेरे मन में कार चलाने की इतनी तीव्र इच्छा जागने लगी कि मैं सपने में भी कार चलाया करती. जी हां, वह भी हर रात. जब प्रोफैशनल ड्राइविंग स्कूल से कार चलाना सीखना शुरू किया तो पहले दिन ट्रेनर ने मुझ से कहा, ‘‘लगाओ.’’

‘‘मैं ने पूछा, क्या?’’

‘‘गीयर, और क्या?’’

‘‘मुझे क्या पता कैसे लगाते हैं? बताओ तो सही.’’

मेरे उत्तर पर उस ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बिलकुल चलानी नहीं आती?’’

‘‘अगर आती तो सीखती क्यों?’’ मेरे इस उत्तर पर वह हंस पड़ा था. फिर उस ने बहुत अच्छी ट्रेनिंग दी. मुझे आज भी याद है कि शुरू में जब कार को रोकना होता था तो मैं स्ट्रैस में आ कर स्टीयरिंग व्हील कस कर पकड़ लेती. एक बार वह बोला, ‘‘कार इसे पकड़ने से नहीं रुकती.’’

आज भी उस की कही इस बात पर हंसी आती है. हां, उस की इस बात से मैं स्ट्रैस फ्री हो कर कार चलाना जरूर सीख गई.

मगर जिंदगी में एक बार ऐसी गलती कर बैठी थी जिस के बाद शायद कोई और होती तो कार को चलाने की हिम्मत फिर कभी न करती. बहुत पुरानी बात है, मुक्कू छोटी सी थी, गोदी में. मुझे आज भी साफसाफ याद है…

‘‘औरतें गाड़ी चलाती ही क्यों हैं?’’

‘‘जब चलानी नहीं आती तो कार ले कर निकलने की क्या जरूरत थी भला?’’

‘‘कैसी मां है… कलयुग है.’’

‘‘हा… हा… हा… अरे भाई यों ही नहीं डरते हम औरतों को ड्राइविंग सीट पर बैठे देख कर.’’

‘‘जरूर फोन में ध्यान होगा. इन फोनों ने तो दुनिया बिगाड़ कर रख दी.’’

जितने मुंह थे, उतनी बातें. दिल तो कर रहा था चीख कर सब की बातों का मुंहतोड़ जवाब दे डालूं. बता दूं सब को कि मैं कितनी अच्छी, सेफ और सधी हुई कार ड्राइव करती हूं. करीब 12 साल हो गए मुझे कार चलाते. इन सालों में 4 कारें बदली मैं ने और आज तक एक खरोंच नहीं आने दी मैं ने अपनी किसी भी कार की बौडी पर वह भी दिल्ली के ट्रैफिक में. लेकिन इस वक्त मेरी प्राथमिकता इन लोगों की बकवास नहीं, अपनी बच्ची थी जो मेरी गलती से कार में लौक हो गई थी.

नन्ही मुक्कू का चेहरा लाल पड़ता जा रहा था. हालांकि वह मुसकरा रही थी… शांत भी थी… उस के चेहरे या हावभाव से नहीं लग रहा था कि उसे कोई परेशानी हो रही है… पर उस का बदलता रंग… मेरी गोरी सी गुडि़या तांबाई होती जा रही थी. उस के पूरे शरीर पर उभर आई पसीने की बूदें उस के भीगे होने का एहसास करा रही थीं… मुक्कू की हालत देख मेरा भी हाल खराब हो रहा था. कितनी बड़ी गलती हो गई मुझ से आज, मेरे आसपास भीड़ जमा हो चुकी थी. हरकोई कार के अंदर झांकता, फिर मेरी ओर देखता. भीड़ खुसफुसा रही थी, आदमीऔरतें सभी.

मैं ने इन्हें फोन किया, ‘‘सुनो, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. मुक्कू को ले कर मार्केट के लिए निकली थी. सामान कार की बैक सीट पर रख, मुक्कू को पीलीयन सीट पर रखी उस की कार सीट में एडजस्ट किया और न जाने किस बेध्यानी में मुक्कू से खेलते हुए कार की चाबी उसे खेलने को पकड़ा दी. उस की चेन बहुत पसंद है न मुक्कू को. वह हंस रही थी. मैं ने उस की तरफ का डोर लौक किया और जैसे ही ड्राइवर डोर की ओर पहुंची तो मेरी घंटी बजी कि चाबी तो मैं ने अंदर ही लौक कर दी,’’ मैं एक ही सांस में बोलती चली गई.

‘‘मुक्कू कहां है?’’ इन का पहला रिस्पौंस था. आखिर अपनी 7 महीने की बच्ची के लिए कौन पिता चिंतित नहीं होगा.

‘‘मुक्कू अंदर ही है,’’ मैं रोने लगी, ‘‘इतनी गरमी में न जाने क्या हाल हो रहा होगा मेरी बच्ची का. लाल पड़ती जा रही है… पसीनापसीना हो गई है…’’

‘‘तो कार का शीशा तोड़ो और उसे बाहर निकालो फौरन. मैं अभी औफिस से निकल रहा हूं.’’ इन्होंने हल सुझाया.

मैं ने यही हल वहां खड़ी जनता को बताया, तो कुछ लोग कहने लगे, ‘‘शीशा तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है. बेकार नुकसान होगा और अगर बच्चे को शीशे के टुकड़े लग गए तो?’’

‘‘हां, एक स्केल लाओ तो मैं अभी दरवाजा खोले देता हूं.’’

फिर स्केल लाया गया और वह काफी देर तक दरवाजा खोलने की नाकाम कोशिश करता रहा.

‘‘भाई, ऐसा पुरानी गाडि़यों में हो पाता था. नई कारों में यह तरकीब न चलती.’’

‘‘चाबी वाले को बुला लो न कोई… नंबर नहीं है क्या?’’

मैं ने कार के अंदर झांका, मुक्कू अब कुछ कसमसाने लगी थी. उस का चेहरा और सुर्ख पड़ चुका था. मुझ से रहा नहीं गया. एक ईंट का टुकड़ा उठा कर मैं ने कार के शीशे पर दे मारा. लेकिन शीशे को कुछ न हुआ. फिर भीड़ को चीरता हुआ एक लड़का आगे आया और अपने हाथ में लिए हथौड़े से पीछे की सीट के शीशे तो तोड़ डाला. मुक्कू को कांच लगने का खतरा भी टल गया. पीछे का दरवाजा खोल कर वह कार के अंदर गया और मुक्कू वाला दरवाजा अंदर से अनलौक कर दिया.

न जाने मैं कितनी देर मुक्कू को चूमती रही. मेरे आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. कभी उस के मुंह पर फूंक मारती, कभी उस का पसीना पोंछती. वह दिन है और आज का दिन, मैं ने कार की चाबी को उंगली से तभी जाने दिया जब या तो कार स्टार्ट कर ली या फिर अपने हाथ से लौक. प्रण कर लिया कि ऐसी कोई गलती दोबारा कभी नहीं करूंगी.

मैं तो बुढ़ापे तक कार चलाना चाहती हूं. दिल्ली की सर्दी में जब धुंध को चीरती मेरी कार चलती है तब लगता है मानो बादलों में सवारी कर रही हो. क्या आनंद आता है उस समय ड्राइविंग का… मेरी ड्राइविंग सीखने की सारी मेहनत वसूल हो जाती है, होंठ मुसकराने लगते हैं और मैं गुनगुनाने लगती हूं.

सुहाना सफर और ये मौसम हंसी हमें डर है हम खो न जाएं कहीं.

श्रद्धांजलि: क्या था निकिता का फैसला

‘‘निक्की, पापा ने इतने शौक से तुम्हारे लिए पिज्जा भिजवाया है और तुम उसे हाथ भी नहीं लगा रही, क्यों?’’ अमिता ने झल्ला कर पूछा.

‘‘क्योंकि उस में शिमलामिर्च है और आप ने ही कहा था कि जिस चीज में कैपस्किम हो उसे हाथ भी मत लगाना,’’ निकिता के स्वर में व्यंग्य था.

अमिता खिसिया गई.

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गई थी कि तुझे शिमलामिर्ची से एलर्जी है. तेरे पापा को यह मालूम नहीं है.’’

‘‘उन्हें मालूम भी कैसे हो सकता है क्योंकि वे मेरे पापा हैं ही नहीं,’’ निकिता ने बात काटी.

अमिता ने सिर पीट लिया.

‘‘निक्की, अब तुम बच्ची नहीं हो, यह क्यों स्वीकार नहीं करतीं कि तुम्हारे अपने पापा मर चुके हैं और अब जगदीश लाल ही तुम्हारे पापा हैं?’’

‘‘मैं उसी दिन बड़ी हो गई थी मां जिस दिन मैं ने ही तुम्हें फोन पर पापा के न रहने की खबर दी थी, मेरी गोद में ही तो घायल पापा ने दम तोड़ा था. रहा सवाल जग्गी अंकल का तो आप उन्हें पति मान सकती हैं लेकिन मैं पापा नहीं मान सकती और मां, इस से आप को तकलीफ भी क्या है? आप की आज्ञानुसार मैं उन्हें पापा कहती हूं, उन की इज्जत करती हूं.’’

‘‘लेकिन उन्हें प्यार नहीं करती. जानती है कितनी तकलीफ होती है मुझे इस से, खासकर तब जब वे तेरा इतना खयाल रखते हैं. इतना पैसा लगा कर हमें यहां टूर पर इसलिए साथ ले कर आए हैं कि तू अपने स्कूल प्रोजैक्ट के लिए यह देखना चाहती थी कि छोटी जगहों में जिंदगी कैसी होती है. आज रास्ते में कहीं पिज्जा मिलता देख कर, ड्राइवर के हाथ तेरे लिए भिजवाया है, जबकि वे कंपनी के ड्राइवर से घर का काम करवाना पसंद नहीं करते.’’

‘‘इस सब के लिए मैं उन की आभारी हूं मां, बहुत इज्जत करती हूं उन की लेकिन पापा की तरह उन्हें प्यार नहीं कर सकती. बेहतर रहे कि आइंदा इस बारे में बात कर के न आप खुद दुखी हों, न मुझे दुखी करें. मैं वादा करती हूं, जग्गी अंकल की भावनाओं को मैं कभी आहत नहीं होने दूंगी,’’ निकिता ने पिज्जा को दोबारा पैक करते हुए कहा, ‘‘शाम को उन के पूछने पर कह दूंगी कि आप के साथ खाएंगे और फिर जब पिज्जा गरम हो कर आएगा तो आप मुझे खाने से रोक देना एलर्जी की वजह से. बात खत्म.’’ यह कह कर निकिता अपने कमरे में चली गई.

लेकिन बात खत्म नहीं हुई. निकिता को रहरह कर अपने पापा की याद आ रही थी. वह और पापा भी कालोनी के दूसरे लोगों की तरह अकसर कालोनी की सडक़ पर बैडमिंटन खेला करते थे. उस रविवार की सुबह मां बाजार गई थीं और निकिता पापा के साथ सडक़ पर बैडमिन्त्न खेल रही थी कि एक लौंग शौट मारने के चक्कर में उछल कर पापा एक नए बनते मकान की नींव के लिए रखे पत्थरों के ढ़ेर पर जा गिरे और उन का सिर फट गया. जब तक शोर सुन कर पड़ोस में रहने वाले डाक्टर चौधरी पहुंचे, पापा अंतिम सांस ले चुके थे.

मोबाइल पर निकिता से खबर मिलते ही मां ने शायद जग्गी अंकल को फोन कर दिया था क्योंकि वे मां से पहले पहुंच गए थे और विह्लïल होने के बावजूद उन्होंने बड़ी कुशलता से सब संभाल लिया था. मां और पापा के परिवार वालों का तो रोरो कर हाल बेहाल था. पापा के अंतिम संस्कार के बाद जग्गी अंकल ने सब से गंभीर स्वर में कहा था, ‘जो चला गया उस के लिए रोने के बजाय जिन्हें वह पीछे छोड़ गया है, उन की जिंदगी फिर से पटरी पर लाने के लिए क्या करना है, उस पर शांति से सोचिए.’

‘सोचना क्या है, इन्हें हम अपने साथ ले जाएंगे,’ अमिता की सास ने कहा.

‘मैं भी यही सोच रही हूं. अब अमिता की मरजी है, जहां चलना चाहे, चले,’ अमिता की मां बोली. ‘मेरा कहीं जाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि यहां मेरी स्थायी नौकरी है, निक्की का स्कूल है और हमारा अपना घर है. बीमे के पैसे से घर का लोन चुकता हो जाएगा और मेरे वेतन से हम मां बेटी का खर्च चल जाया करेगा,’ अमिता ने संयत स्वर में कहा.

‘फिर भी, छोटी बच्ची के साथ तुझे अकेले कैसे छोड़ सकते हैं?’ मां ने पूछा.

‘लेकिन फिलहाल आप न मिड टर्म में निक्की का स्कूल छुड़वा सकती हैं, न ही इतनी जल्दी अमिताजी की लगीलगाई नौकरी और न इस घर को बिकवा या किराए पर चढ़ा सकती हैं?’ अमिता के बोलने से पहले जग्गी ने पूछा, ‘बेहतर रहेगा कि अभी आप लोगों में से कोई बारीबारी इन के साथ रहे, मैं तो आताजाता रहूंगा ही. इस बीच इत्मीनान से कोई स्थायी हल भी ढूंढ लीजिएगा.’

‘जग्गी का कहना बिलकुल ठीक है,’’ अमिता के ससुर ने कहा. और सब ने भी उन का अनुमोदन किया.

निकिता की दादीनानी बारीबारी से उन के साथ रहने लगीं. जग्गी अंकल तो हमेशा की तरह आते रहते थे. पापा के बीमे, प्रौविडैंट फंड और अन्य विदेशों से पैसा निकलवाने में उन्होंने बहुत दौड़धूप की थी और उस रकम का निकिता के नाम से निवेश करवा दिया था. नानीदादी के रहने से और जग्गी अंकल के आनेजाने से पापा के जाने से कोई दिक्कत तो महसूस नहीं हो रही थी लेकिन जो कमी थी, वह तो थी ही. किसी तरह साल भी गुजर गया.

पापा की बरसी पर फिर सब लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने जो फैसला किया उस से निकिता बुरी तरह टूट गई थी.

सब का कहना था कि जगदीश लाल से बढ़ कर अमिता और निकिता का कोई  हितैषी हो ही नहीं सकता. सो, वे मांबेटी को उन्हें ही सौंप रहे हैं यानी दोनों की शादी करवा रहे हैं. जगदीश लाल और अमिता ने जिस नाटकीय ढंग से सब की आज्ञा शिरोधार्य की थी उस से निकिता बुरी तरह बिलबिला उठी थी. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि बंद करो यह नौटंकी, तुम दोनों तो कब से इस दिन के इंतजार में थे. आंखमिचौली तो पापा के सामने ही शुरू कर चुके थे.

पापा के दोस्त जगदीश लाल एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मार्केटिंग विभाग में काम करते थे. अकसर वे टूर पर उन के शहर में आते थे. पहले तो होटल में ठहरा करते थे, फिर पापा की जिद पर उन के घर पर ही ठहरने लगे. उन के आने से पापा तो खुश होते ही थे, निकिता को भी बहुत अच्छा लगता था क्योंकि अंकल उस के लिए हमेशा कुछ न कुछ ले कर आया करते थे. उस के साथ खेलते थे और होमवर्क भी करवा देते थे. शरारत करने पर डांटते भी थे जो निकिता को बुरा नहीं लगता था. लेकिन जगदीश लाल के आने पर सब से ज्यादा चहकती थीं मां. इंसान अपना गम तो किसी तरह छिपा लेता है मगर खुशी को स्वयं में समेटना शायद आसान नहीं होता, तभी तो मां ने एक दिन शीला आंटी के बगैर कुछ पूछे ही कहा था, ‘न जाने आजकल क्यों मैं बहुत तरोताजा महसूस कर रही हूं खुशी और उत्साह से भरी हुई.’

‘तो खुश रह, वजह ढूंढऩे की क्या जरूरत है?’ शीला आंटी ने लापरवाही से कहा.

लेकिन निकिता ने बताना चाहा था कि उसे वजह पता है, आजकल जगदीश लाल जो आए हुए हैं.

फिर मैनेजर बन कर अंकल की पोस्टिंग उन्हीं के शहर में हो गई थी. पापा के कहने पर कि ‘अब तो शादी कर ले’, अंकल ने कहा था, ‘करूंगा यार, मगर उम्र थोड़ी और बड़ी हो जाने पर ताकि बड़ी उम्र की औरत को अकेले रहते डर न लगे. मार्केटिंग का आदमी हूं, सो, शहर से बाहर जानाआना तो उम्रभर ही चलेगा.’

अंकल के आने के बाद मां का औफिस में देर तक रुकना भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था. अकसर उन का फोन आता था, ‘मैं तो 8 बजे से पहले नहीं निकल पाऊंगी, आप मुझे लेने मत आओ, निक्की का होमवर्क करवा कर उसे समय पर खाना खिला दो. मैं कैसे भी आ जाऊंगी या ठीक समझो तो जगदीश जी से कह दो.’ जगदीश अंकल भी उन लोगों को दावत पर बुलाते रहते थे और तब मां उस के और पापा के पहुंचने से पहले ही औफिस से सीधे वहां पहुंच चुकी होती थीं. कई बार मां अचानक ही कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम बना लेती थीं और वहां घूमते हुए जग्गी अंकल भी मिल जाते थे.

ऐसी छोटीछोटी कई बातें थीं जो तब तो महज इत्तफाक लगती थीं मगर अब सोचो तो लगता है कि पापा की आंखों में धूल झोंकी जा रही थी. जाने वह कब तक इस बारे में सोचती रहती कि मां के पुकारने पर उस की तंद्रा भंग हुई. ‘‘बाहर आओ निक्की, पापा आ गए हैं.’’

‘‘आज अनिता से फोन पर बात हुई थी. कह रही थी कि आधे रास्ते तक तो आए हुए ही हो, फिर मुझ से मिलने भी आ जाओ,’’ अमिता ने बताया.

‘‘बात तो सही है,’’ जगदीश ने कहा, ‘‘मौसी से मिलना है निक्की?’’ निकिता ने खुशी से सहमति में सिर हिलाया.

‘‘आप को छुट्टी मिल जाएगी?’’ अमिता ने पूछा.

‘‘टूर के दौरान छुट्टी लेना नियम के विरुद्ध है, कुछ दिनों बाद तुम्हें लिवाने के लिए छुट्टी ले कर आ सकता हूं. दिन का 7-8 घंटे का सफर है, एसी चेयर में आरक्षण करवा देता हूं, तुम दोनों आराम से चली जाना.’’

मौसी के बच्चे निकिता के समवयस्क थे. सो, उस का समय उन के साथ बड़े मजे में कट रहा था. लेकिन मौसी की आंखों से उस की उदासी छिपी न रह सकी. एक दोपहर जब अमिता सो रही थी, मौका देख कर उन्होंने पूछ ही लिया.

‘‘जग्गी का व्यवहार तेरे साथ कैसा है निक्की?’’

‘‘बहुत अच्छा. वे हमेशा ही मुझे बहुत प्यार करते हैं.’’

‘‘तो फिर तू खुश क्यों नहीं है, इतनी उदास क्यों रहती है?’’

‘‘पापा बहुत याद आते हैं मौसी.’’

‘‘वह तो स्वाभाविक ही है, उन्हें कैसे भुलाया जा सकता है.’’

‘‘लेकिन मां ने तो उन्हें भुला दिया है?’’

‘‘भुलाने का नाटक करती है बेचारी सब के सामने. हरदम रोनी सूरत बना कर कैसे रह सकती है?’’

‘‘रोनी सूरत बनाने का नाटक करती हैं,’’ निक्की फट पड़ी, ‘‘पापा की जिंदगी में ही उन की जग्गी अंकल के साथ लुक्काछिप्पी शुरू हो गई थी…’’ और उस ने धीरेधीरे अनिता को सब बता दिया.

‘‘मगर तेरे पापा की मृत्यु तो दुर्घटना ही थी न?’’

‘‘हां मौसी, वह तो मेरी आंखों के सामने ही हुई थी, उस के लिए तो किसी को दोष नहीं दे सकते लेकिन उस के बाद जो भी हुआ उस के लिए आप सब भी दोषी हैं.

आप सब ने ही तो मां की शादी जग्गी अंकल से करवा कर, पापा का अस्तित्व ही मिटा दिया उन की जिंदगी से.’’

अनिता सुन कर स्तब्ध रह गई. निक्की ने जो भी कहा उसे नकारा नहीं जा सकता था. लेकिन इस के सिवा कोई और चारा भी तो नहीं था. अकेले कैसे पालती अमिता निक्की को और अगर निक्की का जग्गी और अमिता के बारे में कहना सही है, तब तो उन लोगों ने समय रहते उन के रिश्ते पर सामाजिक मोहर लगवा कर परिवार की बदनामी होने को रोक लिया.

‘‘यह क्या कह रही है निक्की? अपने पापा की जीतीजागती धरोहर तू है न अमिता की जिंदगी में. कितने लाड़प्यार से पाल रहे हैं तुझे दोनों. और वैसे भी निक्की, तेरे पापा की यादों के सहारे जीना और तुझे पालना तो बहुत मुश्किल होता अकेली अमिता के लिए. याद है यहां पहुंचने के बाद तूने ही फोन पर जग्गी से कहा था कि तुम लोगों को लेने के लिए तो उसे आना ही पड़ेगा, तू अकेली अमिता के साथ सफर नहीं करेगी.’’

‘‘हां मौसी, हम दोनों को अकेली देख कर कुछ लोगों ने बहुत तंग किया था. रैक पर से सामान उतारने और रखने के बहाने बारबार हमारी सीट से सट कर खड़े हो जाते थे.’’

‘‘जब 7-8 घंटे के सफर में ही लोगों ने तुम्हारे अकेलेपन का फायदा उठाना चाहा तो जिंदगी के लंबे सफर में तो न जाने क्याक्या होता? मैं तुम्हें अपने पापा को भूलने को या उन के अस्तित्व को नकारने को नहीं कह रही निक्की, मन ही मन उन का नमन करो, उन से जीवन में आगे बढऩे की प्रेरणा मांगो, उन से उन की प्रिय अमिता और जिगरी दोस्त जग्गी को खुश करने की शक्ति मांगो. उन दोनों की खुशी के लिए तो तुम्हारे पापा कुछ भी कर सकते थे न?’’ अनिता ने पूछा.

‘‘जी, मौसी.’’

‘‘और उन्हीं दोनों को तू दुखी रखती है उदास रह कर. जानती है निक्की, अपने पापा के लिए तेरी सब से उपयुक्त श्रद्धांजलि क्या होगी?’’

‘‘क्या मौसी?’’ निक्की ने उतावली हो कर पूछा.

‘‘खुश रह कर अमिता और जग्गी को भी खुशी से जीने दे.’’

‘‘जी, मौसी,’’ निकिता ने सिर झुका कर कहा.

बेटा, पिता के मरने के बाद बच्चों से ज्यादा उन की कमी मां को खलती है. तुम तो 5-7 साल में बड़ी हो कर पर लगा कर उड़ जाओगी, पता है तुम्हारी मां अगले 30-40 साल कैसे गुजारेंगी? क्या तुम चाहती हो कि वे अकेले रहें, तुम्हें रातबिरात परेशान करें. हर समय अपनी बीमारियों का रोना रोएं? जग्गी अंकल हैं तो तुम्हें भरोसा है न, कि मां की देखभाल कोई कर रहा है. अपने साथी को खो चुकी मां को यह गिफ्ट तो दे ही सकती है तू.

नई शुरुआत: दिशा ने कौन सी गलती की थी

दिशा रसोई में फटाफट काम कर रही थी. मनीष और क्रिया अपनेअपने कमरों में सो रहे थे. यहीं से उस के दिन की शुरुआत होती थी. 5 बजे उठ कर नाश्ता और दोपहर का खाना तैयार कर, मनीष और 13 वर्षीया क्रिया को जगाती थी. उन्हें जगा कर फिर अपनी सुबह की चाय के साथ 2 बिस्कुट खाती थी. उस ने घड़ी पर निगाह डाली तो 6:30 बज गए थे. वह जल्दी से जा कर क्रिया को जगाने लगी.

‘‘क्रिया उठो, 6:30 बज गए,’’ बोल कर वह वापस अपने काम में लग गई.

‘‘मम्मा, आज हम तृष्णा दीदी के मेहंदी फंक्शन में जाएंगे.’’

‘‘ओफ्फ, क्रिया, तुम्हें स्कूल के लिए तैयार होना है. देर हो गई तो स्कूल में एंट्री बंद हो जाएगी और फिर तुम्हें घर पर अकेले रहना पड़ेगा,’’ गुस्से से दिशा ने कहा, ‘‘जाओ, जल्दी से स्कूल के लिए तैयार हो जाओ, मेरा सिर न खाओ.’’ क्रिया पैर पटकती हुई बाथरूम में अपनी ड्रैस ले कर नहाने चली गई. दिशा को सब काम खत्म कर के 8 बजे तक स्कूल पहुंचना होता था, इसलिए उस का पारा रोज सुबह चढ़ा ही रहता था. 7 बज गए तो वह मनीष को जगाने गई. ‘‘कभी तो अलार्म लगा लिया करो. कितनी दिक्कत होती है मुझे, कभी इस कमरे में भागो तो कभी उस कमरे में. और एक तुम हो, जरा भी मदद नहीं करते,’’ गुस्से से भरी दिशा जल्दीजल्दी सफाई करने लगी. साथ ही बड़बड़ाती जा रही थी, ‘जिंदगी एक मशीन बन कर रह गई है. काम हैं कि खत्म ही नहीं होते और उस पर यह नौकरी. काश, मनीष अपनी जिम्मेदारी समझते तो ऐसी परेशानी न होती.’

मनीष ने क्रिया और दिशा को स्कूटर पर बैठाया और स्कूल की ओर रवाना हो गया.

दिशा की झुंझलाहट कम होने का नाम नहीं ले रही थी. जल्दीजल्दी काम निबटाते भी वह 15 मिनट देर से स्कूल पहुंची. शुक्र है पिं्रसिपल की नजर उस पर नहीं पड़ी, वरना डांट खानी पड़ती. अपनी क्लास में जा कर जैसे ही उस ने बच्चों को पढ़ाने के लिए ब्लैकबोर्ड पर तारीख डाली 04/04/16. उस का सिर घूम गया.

4 तारीख वो कैसे भूल गई, आज तो रिया का जन्मदिन है. है या था? सिर में दर्द शुरू हो गया उस के. जैसेतैसे क्लास पूरी कर वह स्टाफरूम में पहुंची. कुरसी पर बैठते ही उस का सिरदर्द तेज हो गया और वह आंखें बंद कर के कुरसी पर टेक लगा कर बैठ गई. रिया का गुस्से वाला चेहरा उस की आंखों के आगे आ गया. कितना आक्रोश था उस की आंखों में. वे आंखें आज भी दिशा को रातरात भर जगा देती हैं और एक ही सवाल करती हैं – ‘मेरा क्या कुसूर था?’ कुसूर तो किसी का भी नहीं था. पर होनी को कोई टाल नहीं सकता. कितनी मन्नतोंमुरादों से दिशा और मनीष ने रिया को पाया था. किस को पता था कि वह हमारे साथ सिर्फ 16 साल तक ही रहेगी. उस के होने के 4 साल बाद क्रिया हो गई. तब से जाने क्यों रिया के स्वभाव में बदलाव आने लगा. शायद वह दिशा के प्यार पर सिर्फ अपना अधिकार समझती थी, जो क्रिया के आने से बंट गया था.

जैसेजैसे रिया बड़ी होती रही, दिशा और मनीष से दूर होती रही. मनीष को इन सब से कुछ फर्क नहीं पड़ता था. उसे तो शराब और सिगरेट की चिंता होती थी बस, उतना भर कमा लिया. बीवीबच्चे जाएं भाड़ में. खाना बेशक न मिले पर शराब जरूर चाहिए उसे. उस के लिए वह दिशा पर हाथ उठाने से भी गुरेज नहीं करता था. अपनी बेबसी पर दिशा की आंखें भर आईं. अगर क्रिया की चिंता न होती तो कब का मनीष को तलाक दे चुकी होती. दिशा का सिर अब दर्द से फटने लगा तो वह स्कूल से छुट्टी ले कर घर आ गई. दवा खा कर वह अपने कमरे में जा कर लेट गई. आंखें बंद करते ही फिर वही रिया की गुस्से से लाल आंखें उसे घूरने लगीं. डर कर उस ने आंखें खोल लीं.

सामने दीवार पर रिया की तसवीर लगी थी जिस पर हार चढ़ा था. कितनी मासूम, कितनी भोली लग रही है. फिर कहां से उस में इतना गुस्सा भर गया था. शायद दिशा और मनीष से ही कहीं गलती हो गई. वे अपनी बड़ी होती रिया पर ध्यान नहीं दे पाए. शायद उसी दिन एक ठोस समझदारी वाला कदम उठाना चाहिए था जिस दिन पहली बार उस के स्कूल से शिकायत आई थी. तब वह छठी क्लास में थी. ‘मैम आप की बेटी रिया का ध्यान पढ़ाई में नहीं है. जाने क्या अपनेआप में बड़बड़ाती रहती है. किसी बच्चे ने अगर गलती से भी उसे छू लिया तो एकदम मारने पर उतारू हो जाती है. जितना मरजी इसे समझा लो, न कुछ समझती है और न ही होमवर्क कर के आती है. यह देखिए इस का पेपर जिस में इस को 50 में से सिर्फ 4 नंबर मिले हैं.’ रिया पर बहुत गुस्सा आया था दिशा को जब रिया की मैडम ने उसे इतना लैक्चर सुना दिया था.

‘आप इस पर ध्यान दें, हो सके तो किसी चाइल्ड काउंसलर से मिलें और कुछ समय इस के साथ बिताएं. इस के मन की बातें जानने की कोशिश करें.’

रिया की मैडम की बात सुन कर दिशा ने अपनी व्यस्त दिनचर्या पर नजर डाली. ‘कहां टाइम है मेरे पास? मरने तक की तो फुरसत नहीं है. काश, मनीष की नौकरी लग जाए या फिर वह शराब पीना छोड़ दे तो हम दोनों मिल कर बेटी पर ध्यान दे सकते हैं,’ दिशा ने सोचा लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.

फिर तो बस आएदिन रिया की शिकायतें स्कूल से आती रहती थीं. दिशा को न फुरसत मिली उस से बात करने की, न उस की सखी बनने की. एक दिन तो हद ही हो गई जब मनीष उसे हाथ से घसीट कर घर लाया था.

‘क्या हुआ? इसे क्यों घसीट रहे हो. अब यह बड़ी हो गई है.’ दिशा ने उस का हाथ मनीष के हाथ से छुड़ाते हुए कहा.

मनीष ने दिशा को धक्का दे कर पीछे कर दिया और तड़ातड़ 3-4 चाटें रिया को लगा दिए.

दिशा एकदम सकते में आ गई. उसे समझ नहीं आया कि रिया को संभाले या मनीष को रोके.

मनीष की आंखें आग उगल रही थीं.

‘जानती हो कहां से ले कर आया हूं इसे. मुझे तो बताते हुए भी शर्म आती है.’

दिशा हैरानी से मनीष की तरफ सवालिया नजरों से देखती रही.

‘पुलिस स्टेशन से.’

‘क्या?’ दिशा का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘इंसपैक्टर प्रवीर शिंदे ने मुझे बताया कि उन्होंने इसे एक लड़के के साथ आपत्तिजनक स्थिति में पकड़ा था.’ दिशा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह रिया को खा जाने वाली नजरों से देखने लगी. रिया की आंखों से अब भी अंगारे बरस रहे थे और फिर उस ने गुस्से से जोर से परदों को खींचा और अपने कमरे में चली गई. मनीष अपने कमरे में जा कर अपनी शराब की बोतल खोल कर पीने लग गया. दिशा रिया के कमरे की तरफ बढ़ी तो देखा कि दरवाजा अंदर से बंद था. उस ने बहुत आवाज लगाई पर रिया ने दरवाजा नहीं खोला. एक घंटे के बाद जब मनीष पर शराब का सुरूर चढ़ा तो वह बहकते कदमों से लड़खड़ाते हुए रिया के कमरे के दरवाजे के बाहर जा कर बोला, ‘रिया, मेरे बच्चे, बाहर आ जा. मुझे माफ कर दे. आगे से तुझ पर हाथ नहीं उठाऊंगा.’ दिशा जानती थी कि यह शराब का असर है, वरना प्यार से बात करना तो दूर, वह रिया को प्यारभरी नजरों से देखता भी नहीं था.

रिया ने दरवाजा खोला और पापा के गले लग कर बोली, ‘पापा, आई एम सौरी.’

दोनों बापबेटी का ड्रामा चालू था. न वह मानने वाली थी और न मनीष. दिशा कुछ समझाना चाहती तो रिया और मनीष उसे चुप करा देते. हार कर उस ने भी कुछ कहना छोड़ दिया. इस चुप्पी का असर यह हुआ कि दिशा से उस की दूरियां बढ़ती रहीं और रिया के कदम बहकने लगे.

दिशा आज अपनेआप को कोस रही थी कि अगर मैं ने उस चुप्पी को न स्वीकारा होता तो रिया आज हमारे साथ होती. बातबात पर रिया पर हाथ उठाना तो रोज की बात हो गई थी. आज उसे महसूस हो रहा था कि जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उन के साथ दोस्तों सा व्यवहार करना चाहिए. कुछ पल उन के साथ बिताने चाहिए, उन के पसंद का काम करना चाहिए ताकि हम उन का विश्वास जीत सकें और वे हम से अपने दिल की बात कह सकें. पर दिशा यह सब नहीं कर पाई और अपनी सुंदर बेटी को आज के ही दिन पिछले साल खो बैठी.

आज उसे 4 अप्रैल, 2015 बहुत याद आ रहा था और उस दिन की एकएक घटना चलचित्र की भांति उस की आंखों के बंद परदों से हो कर गुजरने लगी…

कितनी उत्साहित थी रिया अपने सोलहवें जन्मदिन को ले कर. जिद कर के 4 हजार रुपए की पिंक कलर की वह ‘वन पीस’ ड्रैस उस ने खरीदी थी. कितनी मुश्किल से वह ड्रैस हम उसे दिलवा पाए थे. वह तो अनशन पर बैठी थी.

स्कूल से छुट्टी कर ली थी उस ने जन्मदिन मनाने के लिए. सुबहसवेरे तैयार होने लगी. 4 घंटे लगाए उस दिन उस ने तैयार होने में. बालों की प्रैसिंग करवाई, फिर कभी ऐसे, कभी वैसे बाल बनाते हुए उस ने दोपहर कर दी. जब दिशा उस दिन स्कूल से लौटी तो एक पल निहारती रह गई रिया को.

‘हैप्पी बर्थडे, बेटा.’

दिशा ने कहा तो रिया ने जवाब दिया, ‘रहने दो मम्मी, अगर आप को मेरे जन्मदिन की खुशी होती तो आज आप स्कूल से छुट्टी ले लेतीं और मुझे कभी मना नहीं करतीं इस ड्रैस के लिए.’ दिशा का मन बुझ गया पर वह रिया का मूड नहीं खराब करना चाहती थी. दिशा यादों में डूबी थी कि तभी क्रिया की आवाज सुन कर उस की तंद्रा भंग हुई.

‘‘मम्मा, मम्मा आप अभी तक सोए पड़े हो?’’ क्रिया ने घर में घुसते ही सवाल किया. दिशा का चेहरा पूरा आंसुओं से भीग गया था. वह अनमने मन से उठी और रसोई में जा कर क्रिया के लिए खाना गरम करने लगी. क्रिया ने फिर सुबह वाला प्रश्न दोहराया, ‘‘मम्मी, क्या हम तृष्णा दीदी के मेहंदी फंक्शन में जाएंगे?’’

दिशा ने कोई जवाब नहीं दिया. क्रिया बारबार अपना प्रश्न दोहराने लगी तो उस ने गुस्से में कहा, ‘‘नहीं, हम किसी फंक्शन में नहीं जाएंगे.’’ आज रिया की बरसी थी तो ऐसे में वह कैसे किसी फंक्शन में जाने की कल्पना कर सकती थी. क्रिया को बहुत गुस्सा आया. शायद वह इस फंक्शन में जाने के लिए अपना मन बना चुकी थी. उसे ऐसे फंक्शन पर जाना अच्छा लगता था और मां का मना करना उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा था.

‘‘मम्मा, आप बहुत गंदे हो, आई हेट यू, मैं कभी आप से बात नहीं करूंगी.’’ गुस्से से बोलती हुई क्रिया अपने कमरे में चली गई और उस ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

दरवाजे की तेज आवाज से मनीष का नशा टूटा तो वह कमरे से चिल्लाया, ‘‘यह क्या हो रहा है इस घर में? कोई मुझे बताएगा?’’

दिशा बेजान सी कमरे की कुरसी पर धम्म से गिर गई. उस की नजरें कभी मनीष के कमरे के दरवाजे पर जातीं, कभी क्रिया के बंद दरवाजे पर तो कभी रिया की तसवीर पर. अचानक उसे सब घूमता हुआ नजर आया, ठीक वैसे ही जब पिछले साल 4 तारीख को फोन आया था, ‘देखिए, मैं डाक्टर दत्ता बोल रहा हूं सिटी हौस्पिटल से. आप जल्द से जल्द यहां आ जाएं. एक लड़की जख्मी हालत में यहां आई है. उस के मोबाइल से ‘होम’ वाले नंबर पर मैं ने कौल किया है. शायद, यह आप के घर की ही कोई बच्ची है.’

यह सुनते ही दिल जोरजोर से धड़कने लगा, वह रिया नहीं है. अगर वह रिया नहीं हैं तो वह कहां हैं? अचानक उसे याद आया, वह तो 6 बजे अपने दोस्तों के साथ जन्मदिन मनाने गई थी. असमंजस की स्थिति में वह और मनीष हौस्पिटल पहुंचे तो डाक्टर उन्हें इमरजैंसी वार्ड में ले गया और यह जानने के बाद कि वे उस लड़की के मातापिता हैं, बोला, ‘आई एम सौरी, इस की डैथ तो औन द स्पौट ही हो गई थी.’ अचानक से आसमान फट पड़ा था दिशा पर. वह पागलों की तरह चीखने लगी और जोरजोर से रोने लगी. ‘इस के साथ एक लड़का भी था वह दूसरे कमरे में है. आप चाहें तो उस से मिल सकते हैं.’

मनीष और दिशा भाग कर दूसरे कमरे में गए. और गुस्से से बोले, ‘बोल, क्यों मारा तू ने हमारी बेटी को, उस ने तेरा क्या बिगाड़ा था?’

16 साल का हितेश घबरा गया और रोतेरोते बोला, ‘आंटी, आंटी, मैं ने कुछ नहीं किया, वह तो मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी.’

‘फिर ये सब कैसे हुआ? बता, नहीं तो मैं अभी पुलिस को फोन करता हूं,’ मनीष ने गुस्से में कहा. ‘अंकल, हम 4 लोग थे, रिया और हम 3 लड़के. मोटरसाइकिल पर बैठ कर हम पहले हुक्का बार गए…’

मनीष और दिशा की आंखें फटी की फटी रह गईं यह जान कर कि उन की बेटी अब हुक्का और शराब भी पीने लगी थी. फिर मैं ने रिया से कहा, ‘रिया काफी देर हो गई है. चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं. पर अंकल, वह नहीं मानी, बोली कि आज घर जाने का मन नहीं है. ‘मेरे बहुत समझाने पर बोली कि अच्छा, थोड़ी देर बाद घर छोड़ देना तब तक लौंग ड्राइव पर चलते हैं. तभी, अंकल आप का फोन आया था जब आप ने घर जल्दी आने को कहा था. पर वह तो जैसे आजाद होना चाहती थी. इसीलिए उस ने आगे बढ़ कर चलती मोटरसाइकिल से चाबी निकालने की कोशिश की और इस सब में मोटरसाइकिल का बैलेंस बिगड़ गया और वह पीछे की ओर पलट गई. वहीं, डिवाइडर पर लोहे का सरिया सीधा उस के सिर में लग गया और उस ने वहीं दम तोड़ दिया.’

दहशत में आए हितेश ने सारी कहानी रोतेरोते बयान कर दी. दिशा और मनीष सकते में आ गए और जानेअनजाने में हुई अपनी गलतियों पर पछताने लगे. काश, हम समय रहते समझ पाते तो आज रिया हमारे बीच होती. तभी अचानक दिशा वर्तमान में लौट आई और उसे क्रिया का ध्यान आया जो अब भी बंद दरवाजे के अंदर बैठी थी. दिशा ने कुछ सोचा और उठ कर क्रिया का दरवाजा खटखटाने लगी, ‘‘क्रिया बेटा, दरवाजा खोलो.’’

अंदर से कोई आवाज नहीं आई.

‘‘अच्छा बेटा, आई एम सौरी. अच्छा ऐसा करना, वह जो पिंक वाली ड्रैस है, तुम आज रात मेहंदी फंक्शन में वही पहन लेना. वह तुम पर बहुत जंचती है.’’ दिशा का इतना बोलना था कि क्रिया झट से बाहर आ कर दिशा के गले लग गई और बोली, ‘‘सच मम्मा, हम वहां बहुत मस्ती करेंगे, यह खाएंगे, वह खाएंगे. आई लव यू, मम्मा.’’ बच्चों की खुशियां भी उन की तरह मासूम होती हैं, छोटी पर अपने आप में पूर्ण. शायद यह बात मुझे बहुत पहले समझ आ गई होती तो रिया कभी हम से जुदा नहीं होती. दिशा ने सोचा, वह अपनी एक बेटी खो चुकी थी पर दूसरी अभी इतनी दूर नहीं गई थी जो उस की आवाज पर लौट न पाती. दिशा ने कस कर क्रिया को गले से लगा लिया इस निश्चय के साथ कि वह इतिहास को नहीं दोहराएगी.

अगले दिन उस ने अपने स्कूल में इस्तीफा भेज दिया इस निश्चय के साथ कि वह अब अपनी डोलती जीवननैया की पतवार बन कर मनीष और क्रिया को संभालेगी. सब से पहले वह अपनी सेहत पर ध्यान देगी और गुस्से को काबू करने के लिए एक्सरसाइज करेगी. घर बैठे ही ट्यूशन से आमदनी का जरिया चालू करेगी. काश, ऐसा ही कुछ रिया के रहते हो गया होता तो रिया आज उस के साथ होती. इस तरह अपनी गलतियों को सुधारने का निश्चय कर के दिशा अपनी जिंदगी की नई शुरुआत कर चुकी थी.प

दुर्घटना: क्या हुआ था समीर और शालिनी के साथ

समीर रोज की तरह घर से निकला और कुछ दूर खड़ी शालिनी को अपनी कार में बिठा लिया. दोनों एक निजी शिक्षा संस्थान में होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रहे थे. साथ पढ़ते थे इस कारण मित्रता भी हो गई थी.

कार अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी कि अचानक चौराहे के पास जमा भीड़ के कारण समीर को ब्रेक लगाने पड़े. उतर कर देखा तो एक आदमी घायल पड़ा था. लोग तरहतरह की बातें और बहस तो कर रहे थे लेकिन कुछ करने की पहल किसी ने नहीं की थी. खून बहुत बह रहा था.

‘‘मैं देखती हूं, शायद कोई अस्पताल पहुंचा दे,’’ शालिनी ने भीड़ के अंदर घुसते हुए कहा.

‘‘आप लोग कुछ करते क्यों नहीं,’’ शालिनी ने क्रोध से कहा, ‘‘कितना खून बह रहा है. बेचारा, मर जाएगा.’’

‘‘आप ही क्यों नहीं कुछ करतीं,’’ एक युवक ने कहा, ‘‘हमें पुलिस के लफड़े में नहीं पड़ना.’’

‘‘तो यहां क्यों खड़े हैं,’’ शालिनी ने प्रताड़ना दी, ‘‘अपने घर जाइए.’’

‘‘चले जाएंगे, तुम्हारा क्या बिगाड़ रहे हैं,’’ युवक ने धृष्टता से कहा और चल दिया.

धीरेधीरे भीड़ छंटने लगी और शालिनी अपनेआप को लाचार समझने लगी.

‘‘समीर, इसे अस्पताल पहुंचाना होगा,’’ शालिनी ने कहा.

‘‘बेकार में झंझट मोल मत लो,’’ समीर ने कहा, ‘‘पुलिस को फोन कर के चलना ठीक रहेगा. क्लास के लिए भी तो देर हो रही है.’’

‘‘नहीं, समीर, ऐसा है तो तुम जाओ,’’ शालिनी ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘पुलिस को फोन कर देना. तब तक मैं यहां खड़ी हूं.’’

समीर समझ गया कि शालिनी को इंसानियत का दौरा पड़ गया है. उसे अकेला छोड़ कर चले जाना कायरता होगी.

‘‘चलो, इसे कार में डालते हैं,’’ समीर ने कहा, ‘‘किसी की मदद लेनी होगी क्योंकि तुम्हारे बस का नहीं है इसे उठाना.’’

बचेखुचे कुछ लोगों में से 2 आदमी बेमन से मदद करने को तैयार हुए. उन्होंने बड़ी कठिनाई से उसे उठा कर कार की पिछली सीट पर लिटाया और जाने लगे.

समीर ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘भाई साहब, जरा अपना नाम, पता व फोन नंबर तो देते जाइए.’’

‘‘आज के लिए इतना काफी है,’’ कह कर दोनों चल दिए. अब कोई दर्शक नहीं था.

कुछ ही दूरी पर नर्सिंगहोम था. वहां पहुंच कर समीर ने दुर्घटना की जानकारी दी और घायल आदमी का इलाज करने को कहा. नर्सिंगहोम ह्वह्य आशा के विपरीत घायल को हाथोंहाथ लिया और तुरंत आपरेशन थिएटर में पहुंचा दिया.

नर्सिंगहोम के सुपुर्द कर के जैसे ही दोनों जाने लगे कि एक डाक्टर ने उन्हें रोक लिया.

‘‘खेद है, अभी आप नहीं जा सकते,’’ डाक्टर ने कहा, ‘‘पुलिस के आने तक आप को इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि पुलिस के सामने आप को अपना बयान देना होगा.’’

‘‘लेकिन हम ने तो कुछ नहीं किया,’’ शालिनी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘इस आदमी को केवल यहां पहुंचाने की गलती की है.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं,’’ डाक्टर मुसकराया, ‘‘लेकिन हमें तो कानून के हिसाब से चलना पड़ता है. थोड़ा रुकिए, पुलिस आती ही होगी. आप ने अपना काम किया और हम अपना काम कर रहे हैं… इंसानियत के नाते.’’

मजबूर हो कर दोनों को रुकना पड़ा. आज तो क्लास नहीं कर पाएंगे.

कुछ ही देर में 2 पुलिस वाले आ गए. पूरे विस्तार से जानकारी ली. नाम, पता, फोन नंबर व आप

से रिश्ता भी डायरी में लिखा.

‘‘आप घायल को जानते हैं?’’ इंस्पेक्टर ने पूछा.

‘‘जी नहीं,’’ समीर ने कहा, ‘‘पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘दुर्घटना के बारे में और क्या जानते हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ शालिनी ने कहा, ‘‘यह सड़क पर घायल पड़ा था. भीड़ तो जमा थी पर कोई कुछ कर नहीं रहा था. हम लोगों ने इसे उठा कर यहां पहुंचा दिया, बस.’’

‘‘यह तो आप ने बहुत अच्छा किया,’’ इंस्पेक्टर मुसकराया, ‘‘कौन करता है किसी अनजान के लिए.’’

‘‘हम जा सकते हैं?’’ समीर ने धीरज खो कर पूछा.

‘‘अभी नहीं,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘अपने बयान को पढि़ए और फिर अपनी चिडि़या बिठाइए.’’

‘‘चिडि़या?’’ शालिनी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मेरा मतलब हस्ताक्षर से है,’’ इंस्पेक्टर हंसा.

उसी समय नर्स ने बाहर आ कर घायल के पास से जो कुछ मिला था इंस्पेक्टर के सामने रख दिया. इंस्पेक्टर ने गहराई से सामान को देखा. शायद नाम, पता आदि मिले तो इस के रिश्तेदारों को खबर दी जा सकती है.

घायल का नाम सुमेर स्ंिह था और वह इलाज के लिए पास के गांव से आया था. रुक्मणी देवी अस्पताल की परची थी. वहां फोन किया, अधिक जानकारी नहीं मिली. गांव के 2-3 फोन नंबर थे. इंस्पेक्टर ने फोन लगाया. 2 जगह तो घंटी बजती रही. किसी ने नहीं उठाया. तीसरी जगह फोन करने पर बहुत देर बाद किसी ने उठाया.

‘‘हैलो,’’ उधर से एक महिला ने कहा.

‘‘मैं इंस्पेक्टर भूपलाल दिल्ली से बोल रहा हूं,’’ इंस्पेक्टर ने रोब से कहा.

महिला के स्वर में डर था, ‘‘जी, ये तो घर में नहीं हैं. थोड़ी देर बाद फोन कीजिए.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर इंस्पेक्टर ने पूछा, ‘‘आप किसी सुमेर स्ंिह को जानती हैं?’’

‘‘सुमेर सिंह?…ओह, सुमेर, हां, मेरे गांव का है. 8-10 मकान छोड़ कर रहता है,’’ महिला ने कहा, ‘‘सुना है, इलाज के लिए दिल्ली गया है.’’

‘‘वह बहुत गंभीर रूप से घायल है,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘उस के घर से किसी को बुलाइए.’’

‘‘वह तो अकेला रहता है,’’ महिला ने कहा, ‘‘उस की घरवाली तो छोड़ कर चली गई है.’’

‘‘तो कोई और रिश्तेदार होगा,’’ इंस्पेक्टर ने कहा.

‘‘हां, चाचावाचा हैं,’’ महिला ने कहा.

‘‘तो उन्हीं को बुलाओ,’’ इंस्पेक्टर ने कड़क कर कहा, ‘‘मैं 15 मिनट बाद फिर फोन करूंगा.’’

इंस्पेक्टर ने समीर और शालिनी को रोक रखा था. देर तो हो ही गइर््र थी, इन्हें अब यह भी कौतूहल था कि बेचारा बचेगा भी या नहीं.

नर्सिंगहोम की कैंटीन में चायनाश्ते के बाद इंस्पेक्टर ने फिर फोन मिलाया.

‘‘जी सर,’’ उधर से आवाज आई.

‘‘कौन बोल रहा है? सुमेर का चाचा?’’ इंस्पेक्टर ने कड़क स्वर में पूछा.

‘‘जी, मैं चाचा तो हूं, लेकिन सगा नहीं,’’ चाचा ने सहम कर कहा.

‘‘ठीक है, तुम कुछ तो हो,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘यहां नर्सिंगहोम का पता लिखो और फौरन बस पकड़ कर चले आओ. सुमेर स्ंिह घायल है.’’

‘‘तो हम क्या करेंगे?’’ चाचा ने हकला कर कहा.

‘‘तुम तीमारदारी करोगे और इलाज का खर्च उठाओगे,’’ इंस्पेक्टर ने डांट कर कहा, ‘‘अगर नहीं आए तो अंदर कर दूंगा.’’

इंस्पेक्टर की घुड़की खा कर चाचा और उस का बेटा 2 घंटे के भीतर पहुंच गए. वे सुमेर स्ंिह की गंभीर हालत देख कर डर गए.

‘‘हमें क्या करना है?’’ चाचा ने पूछा.

‘‘तुरंत खून की 2 बोतलों का इंतजाम करो,’’ नर्स ने कहा, ‘‘यह दवाएं लिख दी हैं. इन्हें ले कर आओ. हां, देर मत करना…और हां, यह फार्म है, इस पर अपने हस्ताक्षर कर दो.’’

‘‘मैं क्यों दस्तखत करूं?’’ चाचा ने पूछा.

‘‘अरे, कोई तो जिम्मेदारी लेगा,’’ नर्स ने डांट कर कहा, ‘‘जल्दी करो.’’

‘‘पहले दवा ले आते हैं,’’ चाचा ने कहा और अपने बेटे के साथ चला गया.

इस के बाद वे लौट कर नहीं आए. फोन करने पर पता लगा उन के घर पर ताला लगा है.

इधर समय निकलता देख नर्स ने समीर से कहा, ‘‘आप ही कोई बंदोबस्त कीजिए.’’

शालिनी और समीर दोनों उलझन में पड़ गए. अचानक घायल को बेसहारा देख पीछा छुड़ाने का मन नहीं हुआ. पास ही रेडक्रास का ब्लड बैंक था. दोनों ने अपनेअपने पर्स निकाले और रुपए गिने. दवाओं के पैसे भी देने थे. फिलहाल काम चल जाएगा. नर्स को अस्पताल से खून व दवा देने का आदेश दे कर ब्लड बैंक चले गए.

ब्लड बैंक ने खून देने से पहले इन दोनों के खून की जांच की और रक्तदान करने के लिए कहा. यह दान उन्होंने खुशी से दिया और अस्पताल पहुंच गए.

‘‘अब कैसी हालत है सुमेर स्ंिह की?’’ शालिनी ने नर्स से पूछा.

‘‘बचने की उम्मीद कम है.’’

नर्स ने कहा.

सुन कर दोनों को बहुत बुरा लगा. कुछ देर बैठे और फिर घर चले गए.

अगले दिन समीर को शालिनी ने फोन किया, ‘‘क्या उसे देखने जाओगे?’’

‘‘कोई फैसला नहीं ले पा रहा हूं,’’ समीर ने कहा, ‘‘पता नहीं क्या मुसीबत मोल ले ली.’’

‘‘अगर जाओ तो मुझे बता देना, कुछ अच्छा नहीं लग रहा है.’’

समीर कुछ पहले आ गया और नर्सिंगहोम के सामने रुका. अंदर जाए या नहीं? बेचारा.

‘‘सिस्टर, कैसा है मरीज?’’ समीर ने पूछा.

नर्स ने सिर हिलाया और मुंह बिचका दिया.

फोन करने पर शालिनी ने कहा, ‘‘तुम वहीं रुको, मैं आ रही हूं.’’

अनजान ही सही, इतना कुछ करने के बाद थोड़ाबहुत लगाव तो हो ही जाता है. शालिनी आई और ताजा जानकारी इस तरह से ली मानो मरीज कोई परिचित था. लगभग 1 घंटे बाद नर्स ने सूचना दी कि सुमेर स्ंिह को डाक्टर बचा नहीं सके. उस के अंतिम संस्कार का प्रबंध करें. लाश को कुछ घंटे ही रखा जा सकता था. दोनों स्तब्ध रह गए. ऐसा काम तो उन्होंने आज तक नहीं किया था. दोनों बहुत दुखी थे.

नर्सिंगहोम से एक ऐसी संस्था कापता लिया जो लावारिस लाशों का दाहसंस्कार किया करती है. फोन कर के समीर ने सारी जिम्मेदारी संस्था को सौंप दी.

उदासी ऐसी थी कि आज कोर्स में जाने का मन नहीं हुआ. एक रेस्तरां में बैठ कर दोनों ने कौफी का आर्डर दिया.

दोनों के मुंह उदासी से लटके हुए थे. मरने वाले सुमेर सिंह से न कोई रिश्ता था न ही कोई संबंध, लेकिन ऐसा लग रहा था मानो कोई आत्मीय जन अब इस दुनिया में नहीं रहा.

गिरफ्त : क्या सुशांत को आजाद करा पाई शोभा

मनीषा को सामान रखते देख कर प्रिया ने पूछ ही लिया, ‘‘तो क्या, कर ली अजमेर जाने की पूरी तैयारी?’’

‘‘अरे नहीं, पूरी कहां, बस जो सामान बिखरा पड़ा है उसे ही समेट रही हूं. अभी तो एक बैग ले कर ही जाऊंगी, जल्दी वापस भी तो आना है.’’

‘‘वापस,’’ प्रिया यह सुन कर चौंकी थी, ‘‘तो क्या अभी रिजाइन नहीं कर रही हो?’’

‘‘नहीं.’’

मनीषा ने जोर से सूटकेस बंद किया और सुस्ताने के लिए बैड पर आ कर बैठ गई थी.

‘‘बहुत थक गई हूं यार, छोटेछोटे सामान समेटने में ही बहुत टाइम लग जाता है. हां, तो तू क्या कह रही थी. रिजाइन तो मैं बाद में करूंगी, पहले पुणे में जौब तो मिल जाए.’’

‘‘अरे, मिलेगी क्यों नहीं, सुशांत जीजान से कोशिश में लग जाएगा, अब तुझे वह यहां थोड़े ही रहने देगा,’’ प्रिया ने उसे छेड़ा था और मनीषा मुसकरा कर रह गई.

मनीषा और प्रिया इस महिला हौस्टल में रूममेट थीं और दोनों यहां गुरुग्राम में जौब कर रही थीं. मनीषा की शादी अगले महीने होनी तय हुई थी, इसलिए वह छुट्टी ले कर जाने की तैयारी में थी.

‘‘बाय द वे,’’ प्रिया ने उसे फिर छेड़ा था, ‘‘तू अब सुशांत के खयालों में उलझी रह और अपनी पैकिंग भी करती रह, मैं नीचे जा रही हूं. क्या तेरे लिए कौफी ऊपर ही भिजवा दूं? अरे मैडम, मैं आप ही से कह रही हूं.’’ प्रिया ने उसे झकझोरा था.

‘‘हां…हां, सुन रही हूं न, कौफी के साथ कुछ खाने के लिए भी भेज देना, मुझे तो अभी पैकिंग में और समय लगेगा,’’ मनीषा बोली.

‘‘मैं सोच रही हूं कि आज रीना के कमरे में ही डेरा जमाऊं, कुछ काम भी करना है लैपटौप पर,’’ प्रिया बोली.

‘‘हां…हां…जरूर,’’ मनीषा के मुंह से निकल ही गया था.

‘‘वह तो तू कहेगी ही, अच्छा है रात को सुशांत से अकेले में आराम से चैट करती रहना.’’ मैं चली. हां, यह जरूर कह देना कि यह सब प्रिया की मेहरबानी से संभव हुआ है.’’

‘‘अरे हां, सब कहूंगी,’’ मनीषा हंस पड़ी थी. प्रिया के जाने के बाद उस ने बचा हुआ सामान समेटा और सोचने लगी, ‘चलो, अब ठीक है. छुट्टी के बाद ही लौटेंगे तो कम से कम सामान तो पैक ही मिलेगा.’

हाथमुंह धो कर उस ने कपड़े बदले. तब तक प्रिया ने कौफी के साथ कुछ सैंडविच भी भिजवा दिए थे. कौफी पी कर वह कमरे के बाहर बनी छोटी सी बालकनी में आ गई थी.

शाम को अंधेरा बढ़ने लगा था पर नीचे बगीचे में लाइट्स जल रही थीं जिस से वातावरण काफी सुखद लग रहा था. झिलमिलाती रोशनी को देखते हुए वह बालकनी में ही कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

तो आखिर शादी तय हो ही गई थी उस की. सुशांत को याद करते ही पता नहीं कितनी यादें दिलोदिमाग पर छाने लगी थीं.

पता नहीं उस के साथ लंबे समय तक क्या होता रहा. पापा ने कई लड़के देखे, कहीं लड़का पसंद नहीं आया तो कहीं दहेज की मांग, तो किसी को लड़की सांवली लगती.

चलचित्र की तरह सबकुछ आंखों के सामने घूमने लगा था. हां, रंग थोड़ा दबा हुआ जरूर था उस का पर पढ़ाई में तो वह शुरू से ही अव्वल रही. इंजीनियरिंग कर के एमबीए भी कर लिया. अच्छी नौकरी मिल गई. फिर आत्मनिर्भर होते ही व्यक्तित्व में भी तो निखार आ ही जाता है.

अब तो हौस्टल की दूसरी लड़कियां भी कहती हैं, ‘अरे, रंग कुछ दबा हुआ है तो क्या, पूरी ब्यूटी क्वीन है हमारी मनीषा.’

एकाएक उस के होंठों पर मुसकान खिल गई थी. सुशांत ने तो उसे देखते ही पसंद कर लिया था. फिर उस की मां और मौसी दोनों आईं और शगुन कर गईं.

अब तो 15 दिनों बाद सगाई और शादी दोनों एकसाथ ही करने का विचार था.

तय यह हुआ कि सुशांत का परिवार और रिश्तेदार 2 दिन पहले ही अजमेर पहुंच जाएं. पापा ने उन के लिए एक पूरा रिसौर्ट बुक करा दिया था. घर के रिश्तेदारों के लिए पास के एक दूसरे बंगले में ठहरने का इंतजाम था.

कल ही मां ने फोन पर सूचना दी थी, ‘मनी, सारी तैयारियां हो चुकी हैं. बस, अब तू छुट्टी ले कर आजा. घर पर तेरा ही इंतजार है.’

‘हां मां, आ तो रही हूं, परसों पहुंच जाऊंगी आप के पास,’ मां तो पता नहीं कब से पीछे पड़ी थीं.

‘बहुत कर ली नौकरी, अब घर आ कर कुछ दिन हमारे पास रह. शादी के बाद तो ससुराल चली ही जाएगी. और हां, लड़कियां शादी से पहले हलदीउबटन सब करवाती हैं. तू भी ब्यूटी पार्लर जा कर यह सब करवाना.’

‘चली जाऊंगी मां, 15 दिन बहुत होते हैं अपना हुलिया संवारने को,’ मनीषा बोली.

उस ने बात टाली थी. पर मां की याद आते ही बहुत कुछ घूम गया था दिमाग में. एक माने में मां की बात सही भी थी, अपनी पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में वह काफी समय घर से बाहर ही रही. और अब शादी कर के घर से दूर हो जाएगी तो वे भी चाहती हैं कि बेटी कुछ दिन उन के पास भी रह ले. चलो, अब मां भी खुश हो जाएंगी. कह भी रही थीं कि मेरी पसंद के सारे व्यंजन बना कर खिलाएंगी मुझे.

‘अरे मां, अब तो मैं ज्यादा तलाभुना खाना भी नहीं खाती हूं.’

‘हां…हां, पता है. पर यहां तेरी मनमानी नहीं चलेगी, समझी,’ मां ने उसे प्यारभरी फटकार लगाई.

‘अरे, फोन बज रहा है,’ कमरे में रखा उस का मोबाइल बज रहा था. लो, मां को याद किया तो उन का फोन भी आ गया. इसी को शायद टैलीपैथी कहते हैं. वह तेजी से अंदर गई. अरे, यह तो सुशांत का फोन है, पर इस समय कैसे. अकसर उस का फोन तो रात 10 बजे के बाद ही आता था और अगर पास में प्रिया सो रही हो तो वह बाहर बालकनी में बैठ कर आराम से घंटे भर बातें करती थी पर इस समय, वह चौंकी थी.

‘‘हां सुशांत, बस, मैं कल निकल रही हूं अजमेर के लिए, थोड़ाबहुत सामान पैक किया है,’’ मोबाइल उठाते ही उस ने कहा था.

‘‘मनीषा, मैं ने इसीलिए तुम्हें फोन किया था कि तुम अब अपना प्रोग्राम बदल देना, देखो, अदरवाइज मत लेना पर मैं ने बहुत सोचा है और आखिर इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि मैं अभी शादी नहीं कर पाऊंगा इसलिए…’’

‘‘क्या कह रहे हो सुशांत? मजाक कर रहे हो क्या?’’ मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि सुशांत कहना क्या चाह रहा है.

‘‘यह मजाक नहीं है मनीषा, मैं जो कुछ कह रहा हूं, बहुत सोचसमझ कर कह रहा हूं. अभी मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि शादी कर सकूं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो सुशांत, हम लोग सारी बातें पहले ही तय कर चुके हैं और अच्छीखासी जौब है तुम्हारी. फिर मैं भी जौब करूंगी ही. हम लोग मैनेज कर ही लेंगे और हां, यह तो सोचो कि शादी की सारी तैयारियां हो चुकी हैं. पापा ने वहां सारी बुकिंग करा दी है. कैटरिंग, हलवाई सब को एडवांस दिया जा चुका है.’’

‘‘तभी तो मैं कह रहा हूं…’’ सुशांत ने फिर बात काटी थी, ‘‘देखो मनीषा, अभी तो टाइम है, चीजें कैंसिल भी हो सकती हैं और फिर शादी के बाद तंगी में रहना कितना मुश्किल होगा. इच्छा होती है कि हनीमून के लिए बाहर जाएं. बढि़या फ्लैट, गाड़ी सब हों, मैं ने तुम्हें बताया था न कि मेरी एक फ्रैंड है शोभा, उस से मैं अकसर राय लेता रहता हूं. उस का भी यही कहना है, चलो, तुम्हारी उस से भी बात करा दूं. वह यहीं बैठी है.’’

शोभा, कौन शोभा. क्या सुशांत की कोई गर्लफ्रैंड भी है. उस ने तो कभी बताया नहीं… मनीषा के हाथ कांपने लगे. तब तक उधर से आवाज आई. ‘‘हां, कौन, मनीषा बोल रही हैं, हां, मैं शोभा, असल में सुशांत यहीं हमारे घर में पेइंगगैस्ट की तरह रह रहे हैं, तुम्हारा अकसर जिक्र करते रहते हैं. फोटो भी दिखाया था तुम्हारा. बस, शादी के नाम पर थोड़े परेशान हैं कि अभी मैनेज नहीं हो पाएगा. अपने घरवालों से तो कहने में हिचक रहे थे तो मैं ने ही कहा कि तुम मनीषा से ही बात कर लो. वह समझदार है, तुम्हारी तकलीफ समझेगी.’’

मनीषा तो जैसे आगे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. कौन है यह शोभा और सुशांत क्यों इसे सारी बातें बताता रहा है. उस का माथा भन्नाने लगा. ‘‘देखिए, आप सुशांत को फोन दें.’’

‘‘हां सुशांत, तुम अपने घरवालों से बात कर लो.’’

‘‘पर मनीषा…’’ सुशांत कह रहा था, पर मनीषा ने तब तक मोबाइल बंद कर दिया था. 2 बार घंटी बजी थी, पर उस ने फोन उठाया ही नहीं.

‘ओफ, क्या सोचा था और क्या हो गया. अब वह क्या करे. सुहावने सपनों का महल जैसे भरभरा कर गिर गया. अब अजमेर जा कर मांपापा से क्या कहेगी,’ उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था.

मोबाइल की घंटी लगातार घनघना रही थी. नहीं, उसे अब सुशांत से कोई बात नहीं करनी और वह गर्लफैंड. वह खुद को बुरी तरफ अपमानित अनुभव कर रही थी. कहां तो अभी इतनी तेज भूख लग रही थी, लेकिन अब भूखप्यास सब गायब हो गई थी. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे? मांपापा को फोन पर तो यह सब बताना ठीक नहीं रहेगा, वे लोग घबरा जाएंगे. मां तो वैसे ही ब्लडप्रैशर की मरीज हैं.

और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर वह शोभा है कौन? सुशांत उस के कहने भर से शादी स्थगित कर रहा है या फिर शादी के लिए मना ही कर रहा है.

ठीक है, उसे भी ऐसे आदमी के साथ जिंदगी नहीं बितानी है, अच्छा हुआ अभी सारी बातें सामने आ गईं और उस ने नौकरी से अभी रिजाइन नहीं दिया वरना मुश्किल हो जाती.

पर चारों तरफ सवाल ही सवाल थे और वह कोईर् उत्तर नहीं खोज पा रही थी. रोतेरोते उस की आंखें सूज गई थीं.

‘नहीं, उसे कमजोर नहीं पड़ना है, जब उस की कोई गलती ही नहीं है तो वह क्यों हर्ट हो,’ यह सोच कर वह उठी ही थी कि मोबाइल की घंटी फिर बजने लगी थी. सुशांत का ही फोन होगा. अब फोन मुझे स्विचऔफ करना होगा, यह सोच कर उस ने मोबाइल उठाया. पर यह तो सरलाजी थीं, सुशांत की मां. अब ये क्या कह रही हैं.

उधर से आवाज आ रही थी, ‘‘हां, मनीषा बेटी, मैं हूं सरला.’’

‘‘हां, आंटी,’’ बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी रुंधि हुई आवाज को रोका.

‘‘बेटी, यह मैं क्या सुन रही हूं, अभीअभी सुशांत का फोन आया था. अरे बेटे, शादी क्या कोई मजाक है. क्यों मना कर रहा है वह. उस के पापा तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस का फोन ही काट दिया. अब पता नहीं यह शोभा कौन है और क्यों वह इस के बहकावे में आ रहा है, पर बेटी, मेरी तुम से विनती है, तुम एक बार बात कर के उसे समझाओ.’’

‘‘आंटी, अब मैं क्या कर सकती हूं,’’ मनीषा ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘बेटा, तू तो बहुत कुछ कर सकती है, तू इतनी समझदार है, एक बार बात कर उस से. अब हम तो तुझे अपनी बहू मान ही चुके हैं.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं देखूंगी,’’ कह कर मनीषा ने मोबाइल स्विचऔफ कर दिया था. अब नहीं करनी उसे किसी से भी बात. अरे, क्या मजाक समझ रखा है. बेटा कुछ कहता है तो मां कुछ और, और मैं क्यों समझाऊं किसी को. मैं ने क्या कोई ठेका ले रखा सब को सुधारने का, मनीषा का सिरदर्द फिर से शुरू हो गया था, रातभर वह सो भी नहीं पाई.

फिर सुबहसुबह उठ कर बालकनी में आ गई. अभी सूर्योदय हो ही रहा था. ‘नहीं, कुछ भी हो उसे उस शोभा को तो मजा चखाना ही है, भले ही यह शादी हो या नहीं, पर यह शोभा कौन होती है अड़ंगे लगाने वाली. वह एक बार तो बेंगलुरु जाएगी ही,’ सोचते हुए उस ने मोबाइल से ही बेंगलुरु की फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया था. फिर तैयार हो कर उस ने सुशांत को फोन कर दिया, वह अब औफिस आ चुका था.

‘‘मैं बेंगलुरु आ रही हूं, तुम से तुम्हारे औफिस में ही मिलूंगी.’’

‘‘अच्छा, पर…’’

‘‘पहुंच कर बात करते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया था.

एकाएक यह कदम उठा कर उस ने ठीक भी किया है या नहीं, यह वह अब तक समझ नहीं, पा रही थी, पर जो भी हो फ्लाइट का टिकट तो बुक हो ही चुका है, पर बेंगलुरु में ठहरेगी कहां. एकाएक उसे अपनी सहेली विशु याद आ गई. हां, विशु बेंगलुरु में ही तो जौब कर रही है. उसे फोन लगाया, ‘‘अरे मनीषा, व्हाट्स सरप्राइज…पर तू अचानक…’’ विशु भी चौंक गई थी.

‘‘बस, ऐसे ही, औफिस का एक काम था, तो सोचा कि तेरे ही पास ठहर जाऊंगी, तुम वहीं हो न.’’

‘‘हां, हूं तो बेंगलुरु में, पर अभी किसी काम से मुंबई आई हुई हूं, कोई बात नहीं, मां है वहां, तू घर पर ही रुकना. तू पहले भी तो मां से मिल चुकी है, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. मुझे तो अभी हफ्ताभर मुंबई में ही रुकना है.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं, वहां पहुंच कर तुझे फोन करूंगी.’’

फिर उस ने मां को अजमेर फोन कर के कह दिया कि अभी छुट्टी मिल नहीं पा रही है, 2 दिनों बाद आ पाऊंगी.

बेंगलुरु पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई थी. सुशांत औफिस में ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया,’’ उसे देखते ही सुशांत बोला था.

मनीषा ने किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखा और कहा, ‘‘बस…शादी नहीं हो रही तो क्या, दोस्त तो हम हैं ही, सोचा कि मिल कर बात कर लेती हूं कि आखिर वजह क्या है शादी टालने की, फिर मुझे कुछ काम भी था बेंगलुरु में तो वह भी हो जाएगा.’’ आधा सच, आधा झूठ बोल कर उस ने बात खत्म की.

‘‘हांहां, चलो, पहले कहीं चल कर चायकौफी पीते हैं, तुम थकी हुई होगी.’’ कौफी शौप में कौफी पी कर बाहर निकले तो सुशांत ने कहा, ‘‘मैं ने शोभा को भी फोन कर दिया था तो वह घर पर हमारा इंतजार कर रही है, पहले घर चलें.’’

‘शोभा…पहले इस शोभा को ही देखा जाए,’ वह मन ही मन सोचते हुए मनीषा ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कहते हुए मनीषा के शब्द भी लड़खड़ा गए थे.

औफिस घर के पास ही था, घर के बाहर लौन में शोभा इंतजार करती मिली उन दोनों का.

‘‘आइए, आइए,’’ गेट पर खड़ी महिला को देख कर मनीषा चौंकी, तो यह है शोभा, यह तो

40-45 साल की होगी, हां, बनावशृंगार कर के खुद को चुस्त बना रखा है, पर यह सुशांत की फ्रैंड कैसे बनी, उस का दिमाग फिर चकराने लगा था.

‘‘मनीषा, यह है शोभा, बहुत खयाल रखती है मेरा, बेंगलुरु जैसे शहर में एक तरह से इस पर ही निर्भर हो गया हूं मैं.’’

‘‘हांहां, अंदर तो चलो,’’ शोभा कह रही थी. अंदर सीधे वह डाइनिंग टेबल पर ही ले गई. कौफीनाश्ता तैयार था. शोभा ने बातचीत भी शुरू की, ‘‘मनीषा, असल में सुशांत काफी परेशान थे कि तुम्हें कैसे मना करें शादी के लिए, क्योंकि तैयारी तो सब हो चुकी होगी, पर अभी शादी के लिए सुशांत खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. तो मैं ने ही इन से कहा कि तुम मनीषा से बात कर लो, वह सुलझी हुई लड़की है. तुम्हारी प्रौब्लम जरूर समझेगी. असल में ये तुम्हारी सारी बातें मुझे बताते रहते थे तो मैं भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जान गई थी,’’ कह कर शोभा थोड़ी मुसकराई.

मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला और फिर बोली, ‘‘शोभाजी, मैं बस 2 दिनों के लिए आई हूं और अपनी एक फ्रैंड के यहां रुकी हूं. मैं चाहती हूं कि मैं और सुशांत बाहर जा कर कुछ बात कर लें, अगर आप चाहें तो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, खाना खा कर जाना, खाना तैयार है.’’ फिर शोभा ने सुशांत की तरफ देखा था, ‘‘तुम्हारी पसंद की चिकनबिरयानी बनाई है, अगर मनीषा को नौनवेज से परहेज हो तो कुछ और…’’

‘‘नहींनहीं, हम लोग बाहर ही खा लेंगे, चलते हैं,’’ कह कर मनीषा उठ गई तो सुशांत को भी खड़ा होना पड़ा. उधर, मनीषा सोच रही थी कि सुशांत तो कहता था कि वह तो नौनवेज खाता ही नहीं है, फिर… पर हां, यह तो समझ में आ ही गया कि अच्छा खाना खिला कर सुशांत को फुसलाया जा रहा है.

शोभा का मुंह उतर गया था, पर मनीषा सुशांत को ले कर बाहर आ गई. ‘‘कहां चलें?’’ सुशांत ने मनीषा से पूछा.

‘‘कहीं भी, तुम तो इतने समय से बेंगलुरु में रह रहे हो, तुम्हें तो पता ही होगा कि कहां अच्छे रैस्तरां हैं. वैसे, अभी मुझे खाने की कोई इच्छा नहीं है, इसलिए पहले कहीं गार्डन में बैठते हैं.’’

कुछ देर पास में बगीचे में पड़ी बैंच पर ही दोनों बैठ गए.

मनीषा ने ही बात शुरू की, ‘‘हां, अब बताओ, क्या कह रहे थे तुम शोभाजी के बारे में.’’

फिर सुशांत ने जो कुछ बताया, मनीषा चुपचाप सुनती रही. पता चला कि शोभा के पति विदेश में हैं. यहां वह अपने 2 बच्चों के साथ रह रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं. सुशांत से शोभाजी को बहुत सहारा है. सुशांत उस की आर्थिक मदद भी कर रहा है. बातों ही बातों में मनीषा समझ गई थी कि सुशांत से काफी पैसा शोभाजी ने उधार भी ले रखा है. इसलिए सोच रही होगी कि ऐसे मुरगे को आसानी से कैसे जाने दें.

‘‘बहुत खयाल रखती है शोभा मेरा,’’ सुशांत बारबार यही कह रहा था.

‘‘देखो सुशांत, हो सकता कि शोभाजी जैसा बढि़या खाना मैं तुम्हें बना कर न खिला सकूं, पर फिर भी कोशिश करूंगी.’’  मनीषा ने मजाक किया तो सुशांत चौंक गया, ‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सुशांत ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘पुणे वाली जौब के लिए अप्लाई कर दिया था न तुम ने?’’

‘‘वह…मैं कर ही रहा था पर शोभा ने मना कर दिया कि अभी रहने दो.’’

‘‘हां, क्योंकि अभी शोभाजी को तुम्हारी जरूरत है,’’ न चाहते हुए भी मनीषा के मुंह से निकल ही गया. सुशांत अवाक था.

उधर, मनीषा कहे जा रही थी, ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, पर एक बात जरूर कहूंगी कि शोभाजी कभी भी तुम्हें बेंगलुरु से बाहर नहीं जाने देंगी, क्योंकि तुम जरूरत हो उन की. तुम्हारा इतना पैसा उन के बच्चों की पढ़ाई पर लगा है. अब तुम्हें जो करना है करो. अगर सोच सको तो शोभाजी के बारे में न सोच कर अपना हित सोचो. शोभाजी क्या, उन्हें और पेइंगगैस्ट मिल जाएंगे. बेंगलुरु में तो ऐसे बहुत लोग होंगे.’’

सुशांत एकदम चुप था.

‘‘चलो, अब खाना खाते हैं, फिर मुझे मेरी फ्रैंड के यहां छोड़ देना,’’ मनीषा ने बात खत्म की.

‘‘अभी तो तुम रुकोगी?’’

‘‘हां, कल शाम को मिलते हैं, फिर रात को मेरी फ्लाइट है, बस जो कुछ मैं ने कहा है, उस पर विचार करना. अब तक मनीषा ने अपनेआप को काफी संयत कर लिया था. उसे जो कहना था कह दिया. अब सुशांत जो चाहे करे पर वह इतना कमजोर इंसान होगा, इस की उस ने कल्पना नहीं की थी.’’

दूसरे दिन सुशांत सुबह ही उसे लेने आ गया था, ‘‘मैं तो रातभर सो ही नहीं पाया मनीषा, और आज औफिस से मैं ने छुट्टी ले ली है. आज पूरा दिन मैं तुम्हारे साथ ही बिताऊंगा और हां, रात को ही पुणे की पोस्ट के लिए भी मैं ने अप्लाई कर दिया है.’’

उस की बातें सुन कर मनीषा भी आश्चर्यचकित थी.

फिर रास्ते में ही सुशांत ने कहा, ‘‘मैं रातभर तुम्हारी बातों पर ही विचार करता रहा. शायद तुम ठीक ही कह रही हो. मैं आज मां से भी बात करता हूं. शादी की तारीख वही रहने दो…’’

‘‘नहीं सुशांत,’’ मनीषा ने उसे रोक दिया.

‘‘इतनी जल्दी भी नहीं है. तुम खूब सोचो और पुणे जा कर फिर मुझ से बात करना, अभी तो मैं भी शादी की डेट आगे बढ़ा रही हूं. जब तुम अपने भविष्य के बारे में सुनिश्चित हो जाओ, तभी हम बात करेंगे शादी की.’’

‘‘पर मनीषा…मैं…’’

‘‘हां, हम बात तो करते रहेंगे न, आखिर दोस्त तो हम हैं ही. कुछ जरूरत हो तो पूछ लेना मुझ से.’’

पूरा दिन सुशांत के साथ ही गुजरा, एअरपोर्ट पहुंच कर फिर उस ने कहा था, ‘‘तुम मेरा इंतजार तो करोगी न…’’

‘‘हां, क्यों नहीं…’’ कह कर मनीषा हंस पड़ी थी.

प्लेन के टेकऔफ करते ही वह अपनेआप को हलका महसूस कर रही थी. भविष्य में जो भी हो, पर फिलहाल शोभाजी की गिरफ्त से तो उस ने सुशांत को आजाद करा ही दिया.

प्रेम की सूरत: किस बात का था प्रीति को पश्चाताप

कहानी- धीरज राणा भायला

उस का कद लंबा था. अभिनेत्रियों जैसे नयन और रंग जैसे दूध और गुलाब का मिश्रण. वह लोगों की अपने इर्दगिर्द घूमती नजरों की परवा किए बिना बाजार में शौपिंग कर रही थी. उस के दोनों हाथ बैगों से भरे थे.

पिछले आधे घंटे में उस के पापा का 4 बार फोन आ चुका था और हर बार वह बस इतना बोलती, ‘‘पापा, बस 10 मिनट और.’’

आखिरकार वह बाजार की गली से बाहर मेन रोड पर खड़ी गाड़ी के पास पहुंची और सामान गाड़ी की डिकी में रखने लगी.

मौल से शौपिंग करने के बाद प्रीति थक गई थी. लंबी, पतली प्रीति देखने में बेहद खूबसूरत थी. उस का गोरा रंग उसे और मोहक बना देता था. उस के लंबे बाल बड़े सलीके से उस के मुंह पर गिर रहे थे.

उसी वक्त एक मोटरसाइकिल उस के करीब आ कर रुकी.

बाइकसवार ने जैसे ही हैल्मैट उतारा, वह चिल्लाई, ‘‘अब क्या लेने आए हो? अब तो मैं शौपिंग कर भी चुकी. 2 घंटे पहले फोन किया था. मैं कपड़े तुम्हारी पसंद के लेना चाहती थी मगर सब सत्यानाश कर दिया.’’

‘‘आ ही तो रहा था, मगर जैसे ही औफिस से निकला, बौस गेट पर आ धमका. उस को पता चल जाता तो डिसमिस कर देता. छिप कर आना पड़ता है, और रही बात पसंद की, वह तो हम दोनों की एकजैसी ही है.’’

‘‘राहुल, कब तक बहकाते रहोगे? प्रेम की बड़ीबड़ी बातें करते हो और जब भी तुम्हारी जरूरत पड़ी, बेवक्त ही मिले,’’ वह आगे बोली, ‘‘सरप्राइज भी तो देना था तुम्हें.’’

‘‘कैसा सरप्राइज?’’

‘‘मुझे देखने लड़के वाले आ रहे हैं?’’

सुनते ही राहुल के चेहरे का रंग जैसे उड़ गया. उस ने हाथ में थामा हैल्मैट बाइक के ऊपर रखा और प्रीति के पास जा कर उस का हाथ थाम कर बोला, ‘‘प्रीति, मजाक की भी हद होती है. लेट क्या हो गया, तुम तो जान लेने पर ही आ गईं.’’

‘‘क्या करूं, तुम्हारे बिना किसी काम में दिल जो नहीं लगता? जाने कितने लड़कों में नुक्स निकाल कर अभी तक तुम्हारे इंतजार में बैठी हूं. मगर कब तक?’’

‘‘बस, एक साल और, बहन की शादी हो जाए, फिर ले जाऊंगा तुम को दुलहन बना कर.’’

प्रीति ने गहरी सांस ली. उस ने धीरे से राहुल की पकड़ से अपना हाथ आजाद किया और गाड़ी में बैठ कर चल दी. जिस गति पर गाड़ी दौड़ रही थी उसी गति से पुरानी यादें प्रीति के दिमाग में आजा रही थीं.

राहुल 4 साल पहले अचानक से उस के जीवन में आया था तब, जब उस ने कालेज में दाखिला लिया था. कालेज की रैगिंग प्रथा से उस की जान बचाने वाला राहुल ही था. राहुल की इस दरियादिली ने प्रीति के दिल में राहुल के लिए एक अलग जगह बना दी थी. वे दोनों अकसर एकसाथ रहने लगे. कालेज कैंटीन तो ऐसी जगह थी जहां खाली समय में दोनों रोज घंटों बातें करते रहते. महीनों तक उन में से किसी ने उस प्रेम का इजहार न किया जो पता नहीं कब दोस्ती से प्रेम में बदल गया था. राहुल कुछ था भी ऐसा कि उस की दिलकश अंदाज में की गईं बातें सब को उस का दीवाना बना देती थीं. प्रीति तो उसे पहले दिन ही अपना दिल दे बैठी थी.

एक दिन दोनों कैंटीन में साथ बैठे बातें कर रहे थे कि राहुल ने कहा, ‘‘2 महीने बाद परीक्षा हो जाएगी और मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘कहां?’’ प्रीति खोई सी बोली.

‘‘घर और कहां? आखिरी साल है मेरा. परीक्षा के बाद तो जाना ही होगा.’’

‘‘मेरा क्या होगा?’’ पहली बार प्रीति ने राहुल का हाथ थाम कर पूछा. राहुल ने भी दोनों हाथों से उस का हाथ थाम लिया.

प्रीति की नजर झुक गई थी. उस ने अप्रत्यक्ष रूप से प्रेम का इजहार जो कर दिया था. फिर परीक्षा हो गई और साथ जीनेमरने का वादा कर राहुल ने कालेज छोड़ दिया. अब जब भी दोनों को समय मिलता, किसी पार्क या होटल में मिल लेते.

कभीकभी राहुल काम से छुट्टी ले कर उसे सिनेमा दिखाने ले जाता. कालेज आने और जाने तक तो दोनों साथ ही रहते. जिंदगी बड़ी हंसीखुशी गुजर रही थी. इस बीच, एक दिन उस के पापा ने खबर दी कि उस के लिए एक रिश्ता आया है. लड़का सरकारी डाक्टर था. लेकिन प्रीति ने लड़के को बिना देखे ही रिजैक्ट कर दिया था. उस के बाद तो यह सिलसिला चल पड़ा.

हर महीने रिश्ते वाले आते और प्रीति कोई न कोई बहाना बना कर मना कर देती.

एक दिन पापा ने मम्मी से कह कर पुछवाया कि वह किसी लड़के को पसंद करती हो, तो बता दे. लेकिन, प्रीति ने राहुल का जिक्र नहीं किया क्योंकि वह एक प्राइवेट कंपनी में छोटा सा मुलाजिम जो था.

प्रीति खयालों में इस कदर खोई थी कि उसे पता ही न चला कि कब गाड़ी गलत रास्ते पर चली गई. उस ने आसपास गौर से देखा, बहुत दूर निकल आई थी. खुलाखुला सा रोड संकरी गली में कब तबदील हो गया, उसे तो आभास ही न हुआ. किसी से रास्ता पूछने की गरज में उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई तो कुछ फासले पर 2 लड़के सिगरेट फूंकते दिखे. उस ने गाड़ी वहीं रोक दी और पैदल उन के पास पहुंची. दिन था इसलिए उसे जरा भी भय महसूस न हुआ, मगर अपनी ओर आते उन लड़कों के बदलते हावभाव देख कर गलती का एहसास हुआ.

‘‘मोहननगर जाना था, रास्ता भटक गई हूं. प्लीज हैल्प,’’ प्रीति ने विनयपूर्ण लहजे में कहा.

प्रीति उन लड़कों की आंखों में बिल्ली के जैसे भाव देख कर सिहर उठी. दोपहर का वक्त था और कालोनी की सड़कें सुनसान पड़ी थीं. तसल्ली यह कि दिन ही तो है.

एक लड़का सिगरेट फेंक कर आगे बढ़ा और अपने शिकार पर झपट पड़ने जैसे भाव छिपाता सहानुभूतिपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘आगे से राइट टर्न ले कर फिर लैफ्ट ले कर मेन रोड आ जाएगा, वहां से सीधे मोहननगर चली जाओगी.’’ उन लड़कों का आभार जता कर प्रीति गाड़ी में बैठ कर बताई दिशा में चल दी.

वह सोच रही थी कि कितने सज्जन थे वे लड़के और वह खामखां डर रही थी. आगे मोड़ घूमते ही सड़क इतनी तंग हो गई कि बराबर में साइकिल तक की जगह न थी. शुक्र था कि आवाजाही नहीं थी. पता नहीं कालोनी में कोई रहता भी था या नहीं.

फिर सामने वह मोड़ दिखा जिस के बाद मेन रोड आ जाना था. प्रीति ने राहत की सांस ली. फिर जैसे ही गाड़ी मोड़ पर दाएं मुड़ी, प्रीति का गला खुश्क हो गया और पैडल पर रखे पांव में कंपन होने लगा.

मोड़ घूमते ही सड़क 4 कदम आगे एक मकान के दरवाजे पर बंद थी.

उस ने पलभर कुछ सोच कर गाड़ी को रिवर्स करने के लिए पीछे गरदन घुमाई तो पीछे मोटरसाइकिल खड़ी दिखी. उस ने हौर्न बजाया, लेकिन कोई नहीं था. अचानक बगल से किसी ने दरवाजा खोल कर उस के मुंह पर हाथ रखा और अगले पल चेतना लुप्त हो गई.

आंख खुली तो उस ने खुद को अस्पताल के बैड पर पड़े पाया. उस का सारा शरीर ऐसे दुख रहा था जैसे उस के शरीर के ऊपर से कोई भारी वाहन गुजर गया हो.

धीरेधीरे चेतना लौटी तो उसे याद आने लगा कि वह किसी अनजान जगह किन्हीं अनजान बांहों के शिकंजे में फंस गई थी. आगे जो उस के साथ बीती उस की कल्पना मात्र से वह सिहर उठी.

तभी मां के हाथ का स्पर्श अपने माथे पर महसूस कर आंखें छलछला आईं.

‘‘मत रो, बेटी. जो हुआ वह एक दुर्घटना थी. हम चाहते हैं कि तू इस बात को भुला कर नई जिंदगी की शुरुआत करे,’’ कहतेकहते मां जोर से सिसकने लगी.

प्रीति अब होश में थी. जैसेजैसे उसे अपने साथ बीती घटना याद आती वैसेवैसे उस का दिल बैठता जाता. जीवन की सारी उम्मीदें, सारे सपने छोटी सी घटना की भेंट चढ़ गए थे. बस, बाकी बची थी तो एक शून्यता जिस के सहारे इतना बड़ा जीवन बिताना किसी तप से कम न था.

3 दिनों बाद अस्पताल से घर लौट आई. जो लोग उस के रिश्ते की बात करते थे, उसे देखने तक न आए. संकेत साफ था.

दिनभर प्रीति घर से बाहर न निकलती. अंधेरा घिर आता जब टैरेस पर खड़े हो कर बाहर की दुनिया को नजर भर कर देखती.

एक सुबह वह कमरे में लेटी थी. पापा और मम्मी बाहर बैठे वस्तुस्थिति पर विलाप करते गुमसुम बैठे थे. उस ने सुना, दरवाजे पर दस्तक हुई थी.

पिछले 10 दिनों में पहली बार था कि कोई उस घर में आया था.

पता नहीं किस ने दरवाजा खोला होगा. बाहर कोई वार्त्तालाप भी न हुआ, जिस से प्रीति अनुमान लगाती कि कौन आया था.

फिर कमरे में कोई दाखिल हुआ तो वह सिमट कर उठ बैठी. उस ने डरतेझिझकते सिर उठाया. राहुल उस के करीब खड़ा था हाथ में प्रीति की पसंद के फूल थामे. पीछे दरवाजे पर मम्मीपापा खामोश जड़वत खड़े थे.

राहुल ने फूल प्रीति के करीब बैड पर रख दिए और एक किनारे पर बैठ गया.

‘‘मैं काम के सिलसिले में शहर से बाहर था. कल ही लौटा हूं. काश कि मैं बाहर न गया होता? ऐसा हम अकसर सोचते हैं, हम सोचते हैं कि हम हर जगह रह कर किसी भी अनहोनी को होने से रोक देंगे. यह सोचना अपनेआप को दिलासा देने की कोशिश के सिवा कुछ नहीं. एक घटना जीवन की दशा और दिशा दोनों को बदल देती है लेकिन जिधर भी दिशा मिले, चलते जाना है, यही जीवन है. मैं काफी मुसीबतों के दौर से गुजरा हूं. अब कुछ कमा रहा हूं और इस मुकाम पर हूं कि जीवन को ले कर सपने बुन सकूं. मैं सपने बुनता हूं और उन सपनों में हमेशा तुम रही हो, प्रीति. मैं चाहता हूं कि वे सपने जस के तस रहें, जिन में हंसतीमुसकराती प्रीति हो. ऐसी मायूस और हारी हुई नहीं,’’ कहतेकहते राहुल भावुक हो गया. उस ने प्रीति का हाथ थाम लिया.

एक पल के लिए प्रीति को कुछ समझ न आया कि क्या प्रतिक्रिया दे. लेकिन राहुल के बेइंतहा प्रेम को देख कर उस की आंखें भर आईं. वह राहुल से लिपट कर रो पड़ी. दिल में दबी उम्मीदों के ऊपर पड़ी पश्चात्ताप की बर्फ आंसुओं के रूप में बह रही थी.

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