Romantic Story In Hindi: चार मार्च- भाग 1- क्या परवान चढ़ा हर्ष और आभा का प्यार

लेखिका- आशा शर्मा

‘‘हर्ष,अब क्या होगा?’’ आभा ने कराहते हुए पूछा. उस की आंखों में भय साफ देखा जा सकता था. उसे अपनी चोट से ज्यादा आने वाली स्थिति को ले कर घबराहट हो रही थी.

‘‘कुछ नहीं होगा… मैं हूं न. तुम फिक्र मत करो,’’ हर्ष ने उस का गाल थपथपाते हुए कहा.

मगर आभा चाह कर भी मुसकरा नहीं सकी. हर्ष ने उसे दवा खिला कर आराम करने को कहा और फिर खुद भी उसी के बैड के एक किनारे अधलेटा सा हो गया.

आभा दवा के असर से नींद के आगोश में चली गई. मगर हर्ष के दिमाग में कई उलझनें एकसाथ चहलकदमी कर रही थीं…

कितने खुश थे दोनों जब सुबह रेलवे स्टेशन पर मिले थे. हर्ष की ट्रेन सुबह 8 बजे ही स्टेशन पर लग चुकी थी. आभा की ट्रेन आने में अभी

1 घंटा बाकी था. यह समय हर्ष ने उस से व्हाट्सऐप पर चैटिंग करते हुए ही बिताया था. जैसे ही आभा की ट्रेन के प्लेटफौर्म पर आने की घोषणा हुई, वह आभा के कोच की तरह बढ़ा. आभा ने भी उसे देखते ही जोरजोर से हाथ हिलाया.

स्टेशन की भीड़ से बेपरवाह दोनों वहीं कस कर गले मिले और फिर अपनाअपना बैग ले कर स्टेशन से बाहर निकल आए. एक होटल में कमरा ले कर दोनों ने चैक इन किया. अटैंडैंट के सामान रख कर जाते ही दोनों फिर एकदूसरे से लिपट गए.

थोड़ी देर तक एकदूसरे को महसूस करने के बाद वे नहाधो कर नाश्ता करने बाहर निकले. आभा का बाहर जाने का मन नहीं था. वह तो हर्ष के साथ पूरा दिन कमरे में ही बंद रहना चाहती थी. मगर हर्ष ने ही मनुहार की बाहर जा कर उसे जयपुर की प्याज की स्पैशल कचौरी खिलाने की जिसे वह टाल नहीं सकी थी. हर्ष को अब अपने उस फैसले पर अफसोस हो रहा था कि न वह बाहर जाने की जिद करता और न यह हादसा होता.

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होटल से निकल कर जैसे ही वे मुख्य सड़क पर आए, पीछे से आती एक अनियंत्रित कार ने आभा को टक्कर मार दी. वह लहूलुहान सी वहीं सड़क पर गिर पड़ी. हर्ष ऐंबुलैंस की मदद से उसे हौस्पिटल ले गया. ऐक्सरे जांच में आभा के पांव की हड्डी टूटी पाई गई. डाक्टर ने 6 सप्ताह के लिए पलस्तर बांध हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया.

तभी मोबाइल की आवाज से आभा की नींद टूटी. उस के मोबाइल में रिमाइंडर मैसेज बजा. लिखा था, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टु हर्ष.’ आभा दर्द में भी मुसकरा दी. पिछले साल उस ने हर्ष को विश करने के लिए यह रिमाइंडर अपने मोबाइल में डाला था. दोपहर

12 बजे जैसे ही रिमाइंडर मैसेज ने उसे विश करना याद दिलाया उस ने हर्ष को किस कर के अपने पुनर्मिलन की सालगिरह विश की और उसी वक्त इस में आज की तारीख सैट कर दी थी.

मगर आज वह चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाई थी, क्योंकि वह जख्मी हालत में बैड पर थी. उस ने एक नजर हर्र्ष पर डाली और रिमाइंडर में अगले साल की डेट सैट कर दी. हर्ष अभी भी आंखें मूंदे लेटा था. पता नहीं सो रहा था या कुछ सोच रहा था. आभा ने दर्द को सहन करते हुए एक बार फिर से अपनी आंखें बंद कर लीं. अब आभा का दिमाग भी यादों की बीती गलियों में घूमने लगा…

लगभग सालभर पहले की बात है. उसे अच्छी तरह याद है वह 4 मार्च की शाम. वह अपने कालेज की तरफ से 2 दिन का एक सेमीनार अटैंड करने जयपुर आई थी. शाम के समय टाइम पास करने के लिए जीटी पर घूमतेघूमते अचानक उसे हर्ष जैसा एक व्यक्ति दिखाई दिया.

वह चौंक गई, ‘हर्ष यहां कैसे हो सकता है?’ सोचतेसोचते वह उस व्यक्ति के पीछे हो ली. एक शौप पर आखिर वह उस के सामने आ ही गई. उस व्यक्ति की आंखों में भी पहचान की परछाईं सी उभरी. दोनों सकपकाए और फिर मुसकरा दिए.

हां, यह हर्ष ही था उस का कालेज का साथी, उस का खास दोस्त, जो न जाने उसे किस अपराध की सजा दे कर अचानक उस से दूर चला गया था. कालेज के आखिरी दिनों में ही हर्ष उस से कुछ खिंचाखिंचा सा रहने लगा था और फिर फाइनल परीक्षा खत्म होतेहोते बिना कुछ कहेसुने हर्ष उस की जिंदगी से चला गया था. कितना ढूंढ़ा था उस ने हर्ष को, मगर किसी से भी उसे हर्ष की कोई खबर नहीं मिली. आभा आज तक हर्ष के उस बदले हुए व्यवहार का कारण नहीं समझ पाई थी.

धीरेधीरे वक्त अपने रंग दिखाता रहा. डाक्टरेट करने के बाद आभा स्थानीय गर्ल्स कालेज में लैक्चरर लग गई और अपने विगत से लड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश करने लगी. इस बीच आभा ने अपने पापा की पसंद के लड़के राहुल से शादी भी कर ली.

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2 बच्चों की मां बनने के बाद भी आभा को राहुल के लिए अपने दिल में कभी प्यार वाली तड़प महसूस नहीं हुई. शायद अब भी दिल हर्ष के लिए ही धड़कना चाहता था.

शादी कर के जैसे एक समझौता किया था उस ने अपनी जिंदगी से. हालांकि समय के साथसाथ हर्ष की स्मृतियों पर जमती धूल की परत भी मोटी होती चली गई थी, मगर कहीं न कहीं उस के अवचेतन मन में हर्ष आज भी मौजूद था. शायद इसीलिए वह राहुल को कभी दिल से प्यार नहीं कर पाईर् थी. राहुल सिर्फ उस के तन को ही छू पाया था, मन का दरवाजा आभा उस के लिए नहीं खोल पाई थी.

जीटी में हर्ष को यों अचानक अपने सामने पा कर आभा को यकीन ही नहीं हुआ. हर्ष का भी लगभग यही हाल था.

‘‘कैसी हो आभा?’’ आखिर हर्ष ने ही चुप्पी तोड़ी.

‘तुम कौन होते हो यह पूछने वाले?’ आभा मन ही मन गुस्साई, मगर प्रत्यक्ष में बोली, ‘‘अच्छी हूं… आप सुनाइए… अकेले हैं या आप की मैडम भी साथ हैं?’’

‘‘अभी तो अकेला ही हूं,’’ हर्ष ने अपने चिरपरिचित अंदाज में मुसकराते हुए कहा और फिर आभा को कौफी पीने का औफर दिया. उस की मुसकान देख कर आभा का दिल जैसे उछल कर बाहर आ गया. दिल ने कहा कि कमबख्त यह मुसकान… आज भी वैसी ही कातिल है? लेकिन दिमाग ने सहज हो कर हर्ष का प्रस्ताव स्वीकार लिया. शाम दोनों ने साथ बिताई.

थोड़ी देर तो दोनों में औपचारिक बातें हुईं और फिर 1-1 कर के संकोच की

दीवारें टूटने लगीं. देर रात तक गिलेशिकवे होते रहे. कभी हर्ष ने अपनी पलकें नम कीं तो कभी आभा ने अपनी आंखें छलकाईं. हर्ष ने खुद को आभा का गुनहगार मानते हुए अपनी मजबूरियां बताईं. अपनी कायरता भी स्वीकार की और यों बिना कहेसुने चले जाने के लिए उस से माफी भी मांगी.

आभा ने भी जो हुआ सो हुआ कहते हुए उसे माफ कर दिया. फिर डिनर के बाद बिदा लेते हुए दोनों ने एकदूसरे को गले लगाया और अगले दिन शाम को फिर यहीं मिलने का वादा कर के दोनों अपनेअपने होटल की तरफ चल दिए.

अगले दिन बातचीत के दौरान हर्ष ने उसे बताया कि वह एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में साइट इंजीनियर है और इसी सिलसिले में उसे महीने में लगभग 15-20 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है और यह भी बताया कि उस के 2 बच्चे हैं और वह अपनी शादीशुदा जिंदगी से काफी संतुष्ट है.

‘‘तुम अपनी लाइफ से संतुष्ट हो या खुश भी हो?’’ एकाएक आभा ने उस की आंखों में देखते हुए पूछा.

‘‘दोनों स्थितियां अलग होती हैं क्या?’’ हर्ष ने भी प्रति प्रश्न किया.

‘‘वक्त आने पर बताऊंगी,’’ आभा ने टाल दिया.

आभा की ट्रेन रात 11 बजे की थी और हर्ष तब तक उस के साथ ही था. दोनों ने आगे भी टच में रहने का वादा करते हुए बिदा ली.

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अगले दिन कालेज पहुंचते ही आभा ने हर्ष को फोन किया. हर्ष ने जिस तत्परता से फोन उठाया उसे महसूस कर के आभा को हंसी आ गई. बोली, ‘‘फोन का ही इंतजार कर रहे थे क्या?’’

अब हर्ष को भी अपने उतावलेपन पर आश्चर्य हुआ. बातें करतेकरते कब 1 घंटा बीत गया, दोनों को पता ही नहीं चला. आभा की क्लास का टाइम हो गया. वह पीरियड लेने चली गईर्. वापस आते ही उस ने फिर हर्ष को फोन लगाया. फिर वही लंबी बातें. दिन कब गुजर गया पता ही नहीं चला. देर रात तक दोनों व्हाट्सऐप पर औनलाइन रहे और सुबह उठते ही  फिर वही सिलसिला.

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Romantic Story In Hindi: चार मार्च- भाग 3- क्या परवान चढ़ा हर्ष और आभा का प्यार

लेखिका- आशा शर्मा

राहुल ने आंखें तरेर कर पूछा, ‘‘कौन है यह? कब से चल रहा है ये सब?’’

‘‘यह हर्ष है… वही, जो मुझे छोड़ने आया था,’’ आभा अब राहुल के सवालों के जवाब देने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी.

‘‘तो तुम इसलिए बारबार जयपुर जाती थी?’’ राहुल ने फिर पूछा पर आभा ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘अपनी नहीं तो कम से कम मेरी इज्जत का ही खयाल कर लेती… समाज में बात खुलेगी तो क्या होगा, कभी सोचा है तुम ने?’’ राहुल ने उस के चरित्र को निशाना बनाते हुए चोट की.

‘‘तुम्हारी इज्जत का खयाल था इसीलिए तो बाहर मिली उस से वरना यहां इस शहर में भी मिल सकती थी और समाज? किस समाज की बात करते हो तुम? किसे इतनी फुरसत है कि इतनी आपाधापी में मेरे बारे में कोई सोचे? मैं कितना सोचती हूं किसी और के बारे में और यदि कोई सोचता भी है तो 2 दिन सोच कर भूल जाएगा. वैसे भी लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है,’’ आशा ने बहुत ही संयत स्वर में कहा.

‘‘बच्चे क्या सोचेंगे तुम्हारे बारे में? उन का तो कुछ खयाल करो,’’ राहुल ने इस बार इमोशनल वार किया.

‘‘2-4 सालों में बच्चे भी अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएंगे…? राहुल मैं ने सारी उम्र अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं. बिना तुम से कोई सवाल किए अपना हर फर्ज निभाया है, फिर चाहे वह पत्नी का हो या मां का. अब मैं कुछ समय अपने लिए जीना चाहती हूं. क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं?’’ आभा की आवाज लगभग भर्रा गई थी.

‘‘तुम पत्नी हो मेरी… मैं कैसे तुम्हें किसी और की बांहों में देख सकता हूं?’’ राहुल ने उसे झकझोरते हुए कहा.

‘‘हां, पत्नी हूं तुम्हारी… मेरे शरीर पर तुम्हारा अधिकार है… मगर कभी सोचा है तुम ने कि मेरा मन आज तक तुम्हारा क्यों नहीं हुआ? तुम्हारे प्यार के छींटों से मेरे मन का आंगन क्यों नहीं भीगा? तुम चाहो तो अपने अधिकार का प्रयोग कर के मेरे शरीर को बंदी बना सकते हो… एक जिंदा लाश पर अपने स्वामित्व का हक जता कर अपने अहम को संतुष्ट कर सकते हो, मगर मेरे मन को तुम सीमाओं में नहीं बांध सकते… उसे हर्ष के बारे में सोचने से तुम रोक नहीं सकते,’’ आभा ने शून्य में ताकते हुए कहा.

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‘‘अच्छा, क्या वह हर्ष भी तुम्हारे लिए इतना ही दीवाना है? क्या वह भी तुम्हारे लिए अपना सबकुछ छोड़ने को तैयार है?’’ राहुल ने व्यंग्य से कहा.

‘‘दीवानगी का कोई पैमाना नहीं होता. वह मेरे लिए किस हद तक जा सकता है, यह मैं नहीं जानती, मगर मैं उस के लिए किसी भी हद तक जा सकती हूं,’’ आभा ने दृढ़ता से कहा.

‘‘अगर तुम ने इस व्यक्ति से अपना रिश्ता खत्म नहीं किया तो मैं उस

के घर जा कर उस की सारी हकीकत बता दूंगा,’’ कहते हुए राहुल ने गुस्से में आ कर आभा के हाथ से मोबाइल छीन कर उसे जमीन पर पटक दिया. मोबाइल बिखर कर आभा के दिल की तरह टुकड़ेटुकड़े हो गया.

राहुल की आखिरी धमकी ने आभा को सचमुच डरा दिया. वह नहीं चाहती थी कि उस के कारण हर्ष की जिंदगी में कोई तूफान आए. वह अपनी खुशियों की इतनी बड़ी कीमत नहीं चुका सकती थी. उस ने मोबाइल के सारे पार्ट्स फिर से जोड़े तो पाया कि वह अभी भी चालू स्थिति में है. एक आखिरी मैसेज उस ने हर्ष को लिखा, ‘‘शायद नियति ने मेरे हिस्से खुशी लिखी ही नहीं… तुम ने जो खूबसूरत यादें मुझे दी हैं उन के लिए तुम्हारा शुक्रिया…’’ और फिर मोबाइल से सिम निकाल कर टुकड़ेटुकड़े कर दी.

हर्ष कुछ भी समझ नहीं पाया कि यह अचानक क्या हो गया. उस ने आभा को फोन लगाया, मगर फोन बंद था. फिर उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ा, मगर वह भी अनसीन ही रह गया.

अगले कई दिनों तक हर्ष उसे फोन ट्राई करता रहा, मगर हर बार फोन बंद है का मैसेज पा कर निराश हो उठता. उस के किसी भी मेल का जवाब भी आभा की तरफ से नहीं आया.

एक बार तो हर्ष ने जोधपुर जा कर उस से मिलने का मन भी बनाया, मगर फिर यह सोच कर कि कहीं उस की वजह से स्थिति ज्यादा खराब न हो जाए उस ने दिल पर पत्थर रख लिया. आखिर हर्ष ने सबकुछ वक्त पर छोड़ कर आभा को तलाश करना बंद कर दिया.

इस वाकेआ के बाद आभा ने अब मोबाइल रखना ही बंद कर दिया. राहुल के बहुत जिद करने पर भी उस ने नई सिम नहीं ली. बस कालेज से घर और घर से कालेज तक ही उस ने खुद को सीमित कर लिया. कालेज से भी जब मन उचटने लगा तो उस ने छुट्टियां लेनी शुरू कर दीं. मगर छुट्टियों की भी एक सीमा थी.

धीरेधीरे वह गहरे अवसाद में चली गई. राहुल ने बहुत इलाज करवाया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ. अब राहुल भी चिड़चिड़ा सा होने लगा था.

एक तो आभा की बीमारी ऊपर से उस की सैलरी भी कट कर आ रही थी, क्योंकि उस की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. राहुल को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ रही थी जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था.

पतिपत्नी जैसा भी कोईर् रिश्ता अब उन के बीच नहीं रहा था, यहां तक कि आजकल तो खाना भी अकसर या तो राहुल को खुद बनाना पड़ता या फिर बाहर से ही आता.

सारे उपाय करने के बाद अंत में डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर लिए. उन्होंने राहुल से कहा, ‘‘मरीज ने शायद खुद को खत्म करने की ठान ली है. जब तक ये खुद जीना नहीं चाहेंगी, कोई भी इलाज इन पर कारगर नहीं हो सकता.’’

आज शाम राहुल ने आभा से तलखी से कहा, ‘‘देखो, अब बहुत हो चुका… मैं अब तुम्हारे नाटक और नहीं सहन कर सकता… आज तुम्हारे प्रिंसिपल का फोन आया था. कह रहे थे कि तुम्हारे कालेज की तरफ से जयपुर में 5 दिनों का एक ट्रेनिंग कैंप लग रहा है. अगर तुम ने उस में भाग नहीं लिया तो तुम्हारा इंक्रीमैंट रुक सकता है. हो सकता है कि नौकरी भी हाथ से चली जाए. मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्यों अच्छीभली नौकरी को लात मारने पर तुली हो… मैं ने तुम्हारे प्रिंसिपल से कह कर कैंप के लिए तुम्हारा नाम जुड़वा दिया है. 2 दिन बाद तुम्हें जयपुर जाना है.’’

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आभा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. आभा के न चाहते हुए भी राहुल ने उसे ट्रेनिंग कैंप में भेज दिया. ट्रेन में बैठाते समय राहुल ने कहा, ‘‘यह लो अपना मोबाइल… इस में नई सिम डाल दी है. अपने प्रिंसिपल को फोन कर के कैंप जौइन करने की सूचना दे देना ताकि उन्हें तसल्ली हो जाए.’’

आभा ने एक नजर अपने पुराने टूटे मोबाइल पर डाली और उसे पर्स में धकेलते हुए टे्रन की तरफ बढ़ गई. सुबह जैसे ही आभा की ट्रेन जयपुर स्टेशन पहुंची वह यंत्रचालित सी नीचे उतरी और धीरेधीरे उसी बैंच की तरफ बढ़ चली जहां हर्ष उसे बैठा मिला करता था. फिर अचानक कुछ याद कर के आभा के आंसुओं का बांध टूट गया. वह उस बैंच पर बैठ कर फफक पड़ी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उसी होटल की तरफ चल दी जहां वह हर्ष के साथ रुका करती थी. उसे दोपहर बाद 3 बजे कैंप में पहुंचना था.

संयोग से आभा उस दिन भी उसी कमरे में ठहरी जहां उस ने पिछली दोनों बार  के साथ यादगार लमहे बिताए थे. वह कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी. उस ने रूम का दरवाजा तक बंद नहीं किया था.

तभी अचानक पर्स में रखे मोबाइल में रिमाइंडर मैसेज बज उठा, ‘से हैप्पी ऐनिवर्सरी टु हर्ष’ देख कर आभा एक बार फिर सिसक उठी, ‘‘उफ्फ, आज 4 मार्च है.’’

तभी अचानक 2 मजबूत हाथ पीछे से आ कर उस के गले के इर्दगिर्द लिपट गए. आभा ने अपना भीगा चेहर ऊपर उठाया तो सामने हर्ष को देख कर उसे यकीन ही नहीं हुआ. वह उस से कस कर लिपट गई.

हर्ष ने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘‘हैप्पी ऐनिवर्सरी.’’

आभा का सारा अवसाद आंखों के रास्ते बहता हुआ हर्ष की शर्ट को भिगोने लगा.

वह सबकुछ भूल कर उस के चौड़े सीने में सिमट गई.

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Romantic Story In Hindi: चार मार्च- भाग 2- क्या परवान चढ़ा हर्ष और आभा का प्यार

लेखिका- आशा शर्मा

अब तो यह रोज का नियम ही बन गया. न जाने कितनी बातें थीं उन के पास जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. कईर् बार तो यह होता था कि दोनों के ही पास कहने के लिए शब्द नहीं होते थे. मगर बस वे एकदूसरे से जुड़े हुए हैं यही सोच कर फोन थामे रहते. इसी चक्कर में दोनों के कई जरूरी काम भी छूटने लगे. मगर न जाने कैसा नशा सवार था दोनों ही पर कि यदि 1 घंटा भी फोन पर बात न हो तो दोनों को ही बेचैनी होने लगती.

ऐसी दीवानगी तो शायद उस कच्ची उम्र में भी नहीं थी जब उन के प्यार की शुरुआत हुई थी. आभा को लग रहा था जैसे खोया हुआ प्यार फिर से उस के जीवन में दस्तक दे रहा है. मगर हर्ष अब भी इस सचाई को जानते हुए भी यह स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि उसे आभा से प्यार है.

‘‘हर्ष, तुम इस बात को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि तुम्हें आज भी मुझ से प्यार है?’’ एक दिन आभा ने पूछा.

‘‘अगर मैं यह प्यार स्वीकार कर भी लूं तो क्या समाज इसे स्वीकार करने देगा? कौन इस बात का समर्थन करेगा कि मैं ने शादी किसी और से की है और प्यार तुम से करता हूं,’’ हर्ष ने तड़पते हुए जवाब दिया.

‘‘शादी करना और प्यार करना दोनों अलगअलग बातें हैं हर्ष… जिसे चाहें शादी भी उसी से हो जब यह जरूरी नहीं, तो फिर यह जरूरी क्यों है कि जिस से शादी हो उसी को चाहा भी जाए?’’ आभा ने अपना तर्क दिया. उस का दिल रो रहा था.

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‘‘चलो, माना कि यह जरूरी नहीं, मगर इस में हमारे जीवनसाथियों की क्या गलती है? उन्हें हमारी अधूरी चाहत की सजा क्यों मिले?’’ हर्ष ने फिर तर्क किया.

‘‘हर्ष, मैं किसी को सजा देने की बात नहीं कर रही… हम ने अपनी सारी जिंदगी उन की खुशी के लिए जी है… क्या हमारा अपनेआप के प्रति कोई कर्तव्य नहीं? क्या हमें अपनी खुशी के लिए जीने का अधिकार नहीं? वैसे भी अब हम उम्र की मध्यवय में आ चुके हैं. जीने लायक जिंदगी बची ही कितनी है हमारे पास… मैं कुछ लमहे अपने लिए जीना चाहती हूं. मैं तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं… मैं महसूस करना चाहती हूं कि खुशी क्या होती है,’’ कहतेकहते आभा का स्वर भीग गया.

‘‘क्यों? क्या तुम अपनी लाइफ से अब तक खुश नहीं थीं? क्या कमी है तुम्हें? सबकुछ तो है तुम्हारे पास,’’ हर्ष ने उसे टटोला.

‘‘खुश दिखना और खुश होना दोनों में बहुत फर्क होता है हर्ष. तुम नहीं समझोगे.’’

आभा ने जब यह कहा तो उस की आवाज की तरलता हर्ष ने भी महसूस की. शायद वह भी उस में भीग गया था. मगर सच का सामना करने की हिम्मत फिर भी नहीं जुटा पाया.

लगभग 10 महीने दोनों इसी तरह सोशल मीडिया पर जुड़े रहे. रोज घंटों बातें करने पर भी उन की बातें खत्म नहीं होती थीं. आभा की तड़प इतनी ज्यादा बढ़ चुकी थी कि अब वह हर्ष से प्रत्यक्ष मिलने के लिए बेचैन होने लगी. लेकिन हर्ष का व्यवहार अभी भी उस के लिए एक पहेली बना हुआ था.

कभी तो उसे लगता जैसे हर्ष आज भी सिर्फ उसी का है और कभी वह एकदम बेगानों सा लगने लगता. वह 2 कदम आगे बढ़ता और अगले ही पल 4 कदम पीछे हो जाता. वह आभा का साथ तो चाहता था, मगर समाज में दोनों की ही प्रतिष्ठा को भी दांव पर नहीं लगाना चाहता था. उसे डर था कि कहीं ऐसा न हो वह एक बार मिलने के बाद आभा से दूर ही न रह पाए… फिर क्या करेगा वह? मगर आभा अब मन ही मन एक ठोस निर्णय ले चुकी थी.

‘4 मार्च’ आने वाला था. आभा ने हर्ष

को याद दिलाया कि पिछले साल इसी दिन वे

2 बिछड़े प्रेमी फिर से मिले थे. उस ने आखिर हर्ष को मना ही लिया था यह दिन एकसाथ मनाने के लिए और बहुत सोचविचार कर के दोनों ने उस दिन जयपुर में मिलना तय किया.

हर्ष दिल्ली से और आभा जोधपुर से सुबह ही जयपुर आई. होटल में पतिपत्नी की तरह रुके. पूरा दिन साथ बिताया… जीभर कर प्यार किया और दोपहर ठीक 12 बजे आभा ने हर्ष को ‘हैप्पी ऐनिवर्सरी’ विश किया और फिर उसी समय अपने मोबाइल में अगले साल के लिए यह रिमाइंडर डाल लिया.

रात को जब बिदा लेने लगे तो आभा ने हर्ष को एक बार फिर चूमते हुए कहा, ‘‘हर्ष,

खुशी क्या होती है, यह आज तुम ने मुझे महसूस करवाया है… थैंक्स… अब अगर मैं मर भी जाऊं तो कोई गम नहीं.’’

‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन… अभी तो हमारी जिंदगी से फिर से मुलाकात हुई है… सच आभा मैं तो मशीन ही बन चुका था. मेरे दिल को फिर से धड़काने के लिए शुक्रिया. और हां, खुशी और संतुष्टि में फर्क महसूस करवाने के लिए भी,’’ हर्ष ने उस के चेहरे पर से बाल हटाते हुए कहा और फिर से उस की कमर में हाथ डाल कर उसे अपनी ओर खींच लिया.

‘‘अब आशिकी छोड़ो… मेरी टे्रन का टाइम हो रहा है,’’ आभा ने मुसकराते हुए हर्ष को

अपने से अलग किया.

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उसी शाम दोनों ने वादा किया था कि हर साल 4 मार्च को वे दोनों इसी तरह इसी जगह मिला करेंगे. इसी वादे के तहत आज भी दोनों यहां जयपुर आए थे और यह हादसा हो गया.

‘‘आभा, डाक्टर ने तुम्हारे डिस्चार्ज पेपर बना दिए. मैं टैक्सी ले कर आता हूं,’’ हर्ष ने धीरे से उसे जगाते हुए कहा तो आभा फिर से भयभीत हो गई कि कैसे वापस जाएगी अब वह जोधपुर? कैसे राहुल का सामना कर पाएगी? मगर फेस तो करना ही पड़ेगा. जो होगा, देखा जाएगा. सोचते हुए आभा जोधपुर जाने के लिए अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार करने लगी.

आभा ने राहुल को फोन कर के अपने ऐक्सीडैंट के बारे में बता दिया. राहुल ने सिर्फ इतना ही पूछा, ‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’

आभा के नहीं कहते ही राहुल ने अगला प्रश्न दागा, ‘‘सरकारी हौस्पिटल में ही दिखाया था न… ये प्राइवेट वाले तो बस लूटने के मौके ढूंढ़ते हैं.’’

सुन कर आभा को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि उसे राहुल से ऐसी ही उम्मीद थी.

आभा ने बहुत कहा कि वह अकेली जोधपुर चली जाएगी, मगर हर्ष ने उस की एक न सुनी और टैक्सी में उस के साथ जोधपुर चल पड़ा.

आभा को हर्ष का सहारा ले कर उतरते देख राहुल का माथा ठनका. आभा ने परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘ये मेरे पुराने दोस्त हैं… जयपुर में मेरे साथ ही थे.’’

राहुल ने हर्ष में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘टैक्सी से आने की क्या जरूरत थी? ट्रेन से भी आ सकती थी.’’

आभा को जोधुपर छोड़ उसी टैक्सी से हर्ष लौट गया.

आभा 6 सप्ताह की बैड रैस्ट पर थी. दिनभर बिस्तर पर पड़ेपड़े उसे हर्ष से बातें करने के अलावा और कोई काम ही नहीं सूझता था. कभी जब हर्ष अपने प्रोजैक्ट में बिजी होता तो उस से बात नहीं कर पाता था. यह बात आभा को अखर जाती थी. वह फोन या व्हाट्सऐप पर मैसेज कर के अपनी नाराजगी जताती. फिर हर्ष उसे मनुहार कर के मनाता. आभा को उस का यों मनाना बहुत सुहाता. वह मन ही मन अपने प्यार पर इतराती.

ऐसे ही एक दिन वह अपने बैड पर लेटीलेटी हर्ष से बातें कर रही थी और उस ने अपनी आंखें बंद कर रखी थीं. उसे पता ही नहीं चला कि राहुल कब से वहां खड़ा उस की बातें सुन रहा है.

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‘‘बाय… लव यू…’’ कहते हुए फोन रखने के साथ ही जब राहुल

पर उस की नजर पड़ी तो वह सकपका गई. राहुल की आंखों का गुस्सा उसे अंदर तक हिला गया. उसे लगा मानो आज उस की जिंदगी से खुशियों की बिदाई हो गई.

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Romantic Story In Hindi: हमकदम- भाग 1- अनन्या की तरक्की पर क्या था पति का साथ

अधिक खुशी से रहरह कर अनन्या की आंखें भीग जाती थीं. अब उस ने एक मुकाम पा लिया था. संभावनाओं का विशाल गगन उस की प्रतीक्षा कर रहा था. पत्रकारों के जाने के बाद अनन्या उठ कर अपने कमरे में आ गई. शरीर थकावट से चूर था पर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. एक पत्रकार के प्रश्न पर पति द्वारा कहे गए शब्द कि इन की जीत का सारा श्रेय इन की मेहनत, लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति को जाता है, रहरह कर उस के जेहन में कौंध जाते.

कितनी आसानी से चंद्रशेखर ने अपनी जीत का सेहरा उस के सिर बांध दिया. अगर कदमकदम पर उसे उन का साथ और सहयोग नहीं मिला होता तो वह आज विधायक नहीं गांव के एक दकियानूसी जमींदार परिवार की दबीसहमी बहू ही होती.

इस मंजिल तक पहुंचने में दोनों पतिपत्नी ने कितनी मुश्किलों का सामना किया है यह वे ही जानते हैं. जीवन की कठिनाइयों से जूझ कर ही इनसान कुछ पाता है. अपने वजूद के लिए घोर संघर्ष करने वाली अनन्या सिंह इस महत्त्वपूर्ण बात की साक्षी थी.

उस का मन रहरह कर विगत की ओर जा रहा था. तकिए पर टेक लगा कर अधलेटी अनन्या मन को अतीत की उन गलियों में जाने से रोक नहीं पाई जहां कदमकदम पर मुश्किलों के कांटे बिछे पड़े थे.

बचपन से ही अनन्या का स्वभाव भावुक और संवेदनशील था. वह सब के आकर्षण का केंद्र बन कर रहना चाहती थी. दफ्तर से घर आने पर पिता अगर एक गिलास पानी के लिए कहीं उस के छोटे भाई या बहन को आवाज दे देते तो वह मुंह फुला कर बैठ जाती. पूछो तो होंठों पर बस, एक ही जुमला होता, ‘पापा मुझ से प्यार नहीं करते.’

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बातबात पर उसे सब के प्यार का प्रमाण चाहिए था. कभीकभी मां बेटी की हठ देख कर चिंतित हो उठतीं. एक बार उन्होंने अनन्या के पिता से कहा भी था, ‘अनु का स्वभाव जरा अलग ढंग का है. अगर इसे आप इतना सिर पर चढ़ाएंगे तो कल ससुराल में कैसे निबाहेगी? न जाने कैसा घरपरिवार मिलेगा इसे.’

‘तुम चिंता क्यों करती हो, समय सबकुछ सिखा देता है. हम से जिद नहीं करेगी तो किस से करेगी?’ अनु के पिता ने पत्नी को समझाते हुए कहा था.

एक दिन अनन्या के मामा ने उस के लिए चंद्रशेखर का रिश्ता सुझाया तो उस के पिता सोच में पड़ गए.

‘अभी उस की उम्र ही क्या हुई है शिव बाबू, इंटर की परीक्षा ही तो दी है. इस साल आगे पढ़ने का उसे कितना चाव है.’

‘देखिए जीजाजी, इतना अच्छा रिश्ता हाथ से मत निकलने दीजिए, पुराना जमींदार घराना है. उन का वैभव देख कर भानजी के सुख की कामना से ही मैं यह रिश्ता लाया हूं. अनन्या के लिए इस से अच्छा रिश्ता नहीं मिलेगा,’ शिवप्रकाशजी ने समझाया तो अनन्या के पिता राजी हो गए.

पहली मुलाकात में ही चंद्रशेखर और उस का परिवार उन्हें अच्छा लगा था. उन्होंने बेटी को समझाते हुए कहा था, ‘चंद्रशेखर एक नेक लड़का है, तुम्हारी इच्छाओं का वह जरूर आदर करेगा.’

शादी के बाद अनन्या दुलहन बन कर ससुराल चली आई. गांव में बड़ा सा हवेलीनुमा घर, चौड़ा आंगन, लंबेलंबे बरामदे, भरापूरा परिवार, कुल मिला कर उस के मायके से ससुराल का परिवेश बिलकुल अलग था. मायके में कोई रोकटोक नहीं थी पर ससुराल में हर घड़ी लंबा घूंघट निकाले रहना पड़ता था. आएदिन बूढ़ी सास टोक दिया करतीं, ‘बहू, घड़ीघड़ी तुम्हारे सिर से आंचल क्यों सरक जाता है? ढंग से सिर ढंकना सीखो.’

चंद्रशेखर अंतर्मुखी प्रवृत्ति का इनसान था. प्रेम के एकांत पलों में भी वह मादक शब्दों के माध्यम से अपने दिल की बात कह नहीं पाता था और बचपन से ही बातबात पर प्रमाण चाहने वाली अनन्या उसे अपनी अवहेलना समझने लगी थी.

पुराना जमींदार घराना होने के कारण उस की ससुराल वाले बातबात पर खानदान की दुहाई दिया करते थे और उन के गर्व की चक्की में पिस जाती साधारण परिवार से आई अनन्या. सुनसुन कर उस के कान पक गए थे.

एक दिन अनन्या ने दुखी हो कर पति से कहा, ‘आप के जाने के बाद मैं अकेली पड़ी बोर हो जाती हूं. गांव में कहीं आनेजाने और किसी के साथ खुल कर बातें करने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं समय का सदुपयोग करना चाहती हूं. आप तो जानते ही हैं कि मैं ने प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया है. मैं और आगे पढ़ना चाहती हूं, पर मुझे नहीं लगता यह संभव हो पाएगा. बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी, दादी मां, बाबूजी क्या मुझे आगे पढ़ने देंगे?’

चंद्रशेखर ने पत्नी की ओर गहरी नजर से देखा. पत्नी के चेहरे पर आगे पढ़ने की तीव्र लालसा को महसूस कर उस ने मन ही मन परिवार वालों से इस बारे में सलाह लेने की सोच ली.

उधर पति को चुपचाप देख कर अनन्या सोच में पड़ गई. उस के अंतर्मन की मिट्टी से पहली बार शंका की कोंपल फूटी कि यह मुझ से प्यार नहीं करते तभी तो चुप रह गए. आखिर खानदान की इज्जत का सवाल है न.

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अनन्या 2-3 दिनों तक मुंह फुलाए रही. चंद्रशेखर ने भी कुछ नहीं कहा. एक दिन आवश्यक काम से चंद्रशेखर को पटना जाना पड़ा. लौटा तो चेहरे पर एक अनजानी खुशी थी.

रात का खाना खाने के बाद चंद्रशेखर भी अपने बाबूजी के साथ टहलने चला गया. थोड़ी देर में बाबूजी का तेज स्वर गूंजा, ‘शेखर की मां, देखो, तुम्हारा लाड़ला क्या कह रहा है.’

‘क्या हुआ, क्यों आसमान सिर पर उठा रखा है?’ चंद्रशेखर की मां रसोई से बाहर आती हुई बोलीं.

‘यह कहता है कि बहू आगे पढ़ने कालिज जाएगी. विश्वविद्यालय जा कर एडमिशन फार्म ले भी आया है. कमाता है न, इसलिए मुझ से पूछने की जरूरत भी क्या है?’ ससुरजी फिर भड़क उठे थे.

‘लेकिन बाबूजी, इस में गलत क्या है?’ चंद्रशेखर ने पूछा तो मां बिदक कर बोलीं, ‘तेरा दिमाग चल गया है क्या? हमारे खानदान की बहू पढ़ने कालिज जाएगी. ऐसी कौन सी कमी है महारानी को इस घर में, जो पढ़लिख कर कमाने की सोच रही है?’

‘मां, तुम क्यों बात का बतंगड़ बना रही हो? यह तुम से किस ने कहा कि यह पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती है? इसे आगे पढ़ने का चाव है तो क्यों न हम इसे बी.ए. में दाखिला दिलवा दें,’ चंद्रशेखर ने कहा तो अपने कमरे में परदे के पीछे सहमी सी खड़ी अनन्या को जैसे एक सहारा मिल गया.

पास ही खड़ी बड़ी भाभी मुंह बना कर बोलीं, ‘देवरजी, हम भी तो रहते हैं इस घर में, बी.ए. करो या एम.ए., आखिरकार चूल्हाचौका ही संभालना है.’

‘छोड़ो बहू, यह नहीं मानने वाला, रोज कमानेखाने वाले परिवार की बेटी ब्याह कर लाया है. छोटे लोग, छोटी सोच,’ अनन्या की सास ने कहा और भीतर चली गईं.

दरवाजे के पास खड़ी अनन्या सन्न रह गई, छोटे लोग छोटी सोच? यह क्या कह गईं मांजी? क्या अपने भविष्य के बारे में चिंतन करना छोटी सोच है? बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी यह क्यों भूल जाती हैं कि अच्छे खानदान की जड़ में अच्छे संस्कार होते हैं और शिक्षित इनसान ही अच्छे संस्कारों को हमेशा जीवित रखने का प्रयास करते हैं.

आगे पढ़ें- एक दिन चंद्रेशेखर बैंक से लौटा तो…

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Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत

Romantic Story In Hindi: प्रेम लहर की मौत- भाग 1

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

लड़की मेरे सामने वाली विंडो सीट पर बैठी थी. जबकि लड़का खिड़की की रौड पकड़कर प्लेटफार्म पर खड़ा था. दोनों मूकदृष्टि से एकदूसरे को देख रहे थे. लड़की अपने दाहिने हाथ की सब से छोटी अंगुली से लड़के के हाथ को बारबार छू रही थी, मानों उसे महसूस करना चाहती हो. दोनों में कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था. बस, अपलक एकदूसरे को ताके जा रहे थे. ट्रेन का हार्न बजा. धक्के के साथ ट्रेन खिसकी तो दोनों एक साथ बोल पड़े, ‘‘बाय…’’ और इसी के साथ लड़की की आंखों में आंसू छलक आए.

  ‘‘टेक केयर. संभल कर जाना.’’ लड़के ने कहा.

लड़की ने सिर्फ हांमें सिर हिला दिया. आंखों से ओझल होने तक दोनों की नजरें एकदूसरे पर ही टिकी रहीं. जहां तक दिखाई देता रहा, दोनों एकदूसरे को देखते रहे. न चाहते हुए भी मैं उन दोनों के व्यक्तिगत पलों को अनचाहा साझेदार बन कर देखता रहा. लड़की अभी भी खिड़की से बाहर की ओर ही ताक रही थी. मैं अनुभव कर रहा था कि वह आंखों के कोनों में उतर आए आसुंओं को रोकने का निरर्थक प्रयास कर रही है.

मुझ से रहा नहीं गया, मैं ने बैग से पानी की बोतल निकाल कर उस की ओर बढ़ाई. उस ने इनकार में सिर हिलाते हुए धीरे से थैंक्सकहा. इस के बाद वक्त गुजारने के लिए मैं मोबाइल में मन लगाने की कोशिश करने लगा. पता नहीं क्यों, उस समय मोबाइल की अपेक्षा सामने बैठी लड़की ज्यादा आकर्षित कर रही थी.

मोबाइल मेरे हाथ में था, पर न तो फेसबुक खोलने का मन हो रहा था. न किसी दोस्त से चैट करने में मन लगा. मेरा पूरा ध्यान उस लड़की पर था.

खिड़की से आने वाली हवा की वजह से उस के बालों की लटें उस के गालों को चूम रही थीं. वह बहुत सुंदर या अप्सरा जैसा सम्मोहन रखने वाली तो नहीं थी, फिर भी उस में ऐसा तो कुछ था कि उस पर से नजर हटाने का मन नहीं हो रहा था.

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आंखों में दर्द लिए मध्यम कदकाठी की वह लड़की सादगी भरे हलके गुलाबी और आसमानी सलवार सूट में बहुत सुंदर लग रही थी. उस ने अपना एक हाथ खिड़की पर टिका रखा था और दूसरे हाथ की अंगुली में अपने लंबे काले घुंघराले बालों को अंगूठी की तरह ऐसे लपेट और छोड़ रही थी, जैसे मन की किसी गुत्थी को सुलझाने का प्रयास कर रही हो.

कोई जानपहचान न होने के बावजूद ऐसा लग रहा था, जैसे वह मेरी अच्छी परिचित हो. शायद इसीलिए मुझ से रहा नहीं गया और मैं ने उस से पूछ लिया, ‘‘लगता है, आप ने अपने किसी बहुत करीबी को खोया है, कोई अप्रिय घटना घटी है क्या आप के साथ?’’

बाहर की ओर से नजर फेर कर उस ने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘हां, अकाल बाल मृत्यु हुई है, इस के बाद धीरे से बोली, ‘‘मेरे प्रेम की.’’

उस के ये शब्द मुझे अंदर तक स्पर्श कर गए थे. उस ने जो कुछ कहा वह मेरी समझ में नहीं आया था. इसलिए मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्याऽऽ?’’

  ‘‘अकाल बाल मृत्यु हुई है मेरे प्यार की.’’ उस ने फिर वही बात कही. और इसी के साथ उस की आंखों से आंसू छलक कर गालों पर आ गए. उस ने अश्रुबिंदु को अंगुली पर लिया और खिड़की के बाहर उड़ा दिया.

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मैं ने खुद को रोकने का काफी प्रयास किया, पर मुझ से रहा नहीं गया और मैं ने अंत में पूछ ही लिया, ‘‘आप का क्या नाम है?’’

उस ने मेरी ओर देख कर बेफिक्री से कहा, ‘‘क्या करेंगे मेरा नाम जान कर? वैसे असीम मुझे अनु कहता था.’’

  ‘‘मैं आप की कोई मदद…?’’ मैं ने बात को आगे बढ़ाने की कोशिश में पूछा, पर मेरी बात पूरी होने के पहले ही वह बीच में बोल पड़ी, ‘‘मेरी मदद…? शायद अब कोई भी मेरी मदद नहीं कर सकता.’’

  ‘‘पर इस तरह आप यह दर्द कब तक सहन करती रहेंगी? मैं अजनबी हूं, पर आप चाहें तो अपना दर्द मुझे बता सकती हैं. कहते हैं दर्द बयां कर देने से कम हो जाता है.’’ मैं ने कहा.

वह भी शायद हृदय का दर्द कम करना चाहती थी, इसलिए उस ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं और वैभवी रूममेट थीं. दोनों नौकरी करती थीं और पीजी में रहती थीं. असीम निकी का दोस्त था. दोस्त भी ऐसावैसा नहीं, खास दोस्त. दोनों की फोन पर लंबीलंबी बातें होती थीं. एक दिन शाम को निकी कमरे में नहीं थी, पर उस का मोबाइल कमरे में ही पड़ा था, तभी उस के फोन की घंटी बजी. मैं ने फोन रिसीव कर लिया. असीम से वह मेरी पहली और औपचारिक बातचीत थी.

  ‘‘हम दोनों एकदूसरे से परिचित थे. यह अलग बात थी कि हमारी बातचीत कभी नहीं हुई थी. निकी मुझ से असीम की बातें करती रहती थी तो असीम से मेरी. इस तरह हम दोनों एकदूसरे से परिचित तो थे ही. यही वजह थी कि पहली बातचीत में ही हम घुलमिल गए थे. हम दोनों ने मोबाइल नंबर भी शेयर कर लिए थे.

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  ‘‘इस के बाद फोन पर बातचीत और मैसेज्स का सिलसिला चल निकला था. औफिस की, घर की, दोस्ती की, पसंदनापसंद, फिल्में, हौबी हमारी बातें शुरू होतीं तो खत्म ही नहीं होती थीं. मुझे लिखने का शौक था और असीम को पढ़ने का शौक. मैं कविता या कहानी, कुछ भी लिखती, असीम को अवश्य सुनाती और उस से चर्चा करती.

  ‘‘हम लगभग सभी बातें शेयर करते. हमारी मित्रता में औरत या मर्द का बंधन कभी आड़े नहीं आया. इस तरह हम कब आपसे तुमपर आ गए और कब एकदूसरे के प्रेम में डूब गए. पता ही नहीं चला. फिर भी हम ने कभी अपने प्रेम को व्यक्त नहीं किया. जबकि हम दोनों ही जानते थे लेकिन दोनों में से किसी ने पहल नहीं की.

आगे पढ़ें- हम दोनों के इस प्यार की मूक साक्षी थी निकी…

Romantic Story: सार्थक प्रेम- कौन था मृणाल का सच्चा प्यार

Romantic Story: सार्थक प्रेम- भाग 1- कौन था मृणाल का सच्चा प्यार

 कहानी- मधु शर्मा

जून माह की दोपहर मृणाल घर के बरामदे में बैठी हुई सामने लगे नीम के पेड़ पर पक्षियों को दानापानी रखने के लिए टंगे मिट्टी के बरतन को देख रही थी. उस पर बैठी गिलहरी, छोटीछोटी चिडि़याएं खूब कलरव कर रही थीं. वे कभी दाना चुगतीं तो कभी पानी के बरतन में जा कर उस में खेलतीं. मृणाल यह सब बहुत ध्यान से देख कर मुसकराए जा रही थी.

तभी भीतर से आवाज आई, ‘अंदर आ जाओ, बाहर जलोगी क्या. कितनी गरमी है वहां, लू लग जाएगी.’ और मृणाल धीरे से उठ कर अंदर चली गई. पहले उस ने सोचा बैडरूम में जाए फिर उस का मन हुआ क्यों न चाय बना ली जाए.

वह रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. तभी प्रणय भी अंदर रसोई में आ गया और बोला, ‘‘चाय बना रही हो, पागल हो गई हो क्या? अभी तो 3 ही बजे हैं, कितनी गरमी है, तुम्हारा भी कुछ पता नहीं लगता. मैं सोचता हूं तुम्हारा इलाज साइको वाले से करवा ही लेता हूं.

‘‘पागल हो तुम, वैसे शुरू से ही थीं पर जब से दिल्ली से आई हो, बड़ी अजीबोगरीब हरकतें कर रही हो. मुझे तो अपना भविष्य अधर में लटका दिख रहा है. कैसे इस पागल के साथ पूरा जीवन काटूंगा,’’ बड़े लापरवाह लहजे में कहते हुए प्रणय फ्रिज में से आम निकाल कर काटने लगा.

मृणाल सब सुन रही थी और सिर्फ मुसकरा कर उस से बोली, ‘‘ज्यादा मत बोलो. बताओ, तुम्हारी भी चाय बनाऊं या नहीं?’’

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‘‘हां, ठीक है, आधा कप बना लो.’’ प्रणय ने जवाब दिया और मृणाल की मुसकराहट ठहाकों में बदल गई. इसी बीच उस ने प्रणय को अपनी बांहों में पीछे से पकड़ा और उस के गाल को चूमते हुए बोली, ‘‘इलाज मेरा नहीं, अपना करवाओ. आम के साथ चाय पीओगे क्या?’’

चेहरे पर हलकी मुसकराहट को छिपाने की कोशिश और दिखावटी गुस्से के साथ प्रणय बोला, ‘‘हां, मैं पीता हूं. तुम अभी कुछ दिन नहीं थीं तो यह एक्सपैरिमैंट किया. आम, तरबूज, खरबूजा सब के साथ चाय बहुत अच्छी लगती है. हम तो यों ही यह जंक फूड खा कर अपनी हैल्थ खराब करते हैं. फलों के साथ चाय पियो, देखो कितनी अच्छी लगती है.’’ कह कर वह कटे हुए आम को वापस फ्रिज में रख कर बिस्कुट निकालने लगा.

मृणाल बिना कुछ बोले मुसकराए जा रही थी. दोनों फिर बैठ कर चाय पीने लगे कि दरवाजे की घंटी बजी. मृणाल उठ कर दरवाजा खोलने गई तो देखा गेट के बाहर एम्बुलैंस खड़ी थी और अस्पताल के वार्डबौय ने कौल रजिस्टर्ड हाथ में ले रखा था. मृणाल को देख कर बोला, ‘‘मैडम, डाक्टर साहब हैं क्या? अस्पताल से इमरजैंसी कौल है. एक ऐक्सिडैंट केस आया है.’’ इतने में प्रणय भी अंदर से आ गया.

बार्डबौय ने प्रणय को देख कर कहा, ‘‘सर, इमरजैंसी है. ऐक्सिडैंट केस आया है.’’

‘‘ठीक है, चलता हूं.’’ बोल कर प्रणय अंदर चला आया और मृणाल वहीं उस वार्डबौय से बात करने लगी.

वह बोला, ‘‘क्या है न मैडम, इतनी गरमी है. ऐक्सिडैंट भी बहुत होते हैं. मारपीट के केस भी बहुत आते हैं. डाक्टर साहब को इसलिए बारबार बुलाने आना पड़ता है. वे भी परेशान होते हैं पर क्या करें, हमारी तो ड्यूटी है.’’ इतने में प्रणय कपड़े बदल कर आ गया और एम्बुलैंस में बैठ कर अस्पताल चला गया.

प्रणय पेशे से डाक्टर था. अभी एक साल ही हुआ था उसे इस शहर में ट्रांसफर हुए. मृणाल दरवाजा बंद कर के अंदर बैडरूम में आ कर लेट गई और सोचने लगी, हां, गरमी तो बहुत है पर न जाने क्यों उसे इस का एहसास नहीं हो रहा. शायद अभी 2 दिन पहले उस के मन को शीतलता मिली है, यह उस का असर है कि बाहरी वातावरण का असर उस के शरीर पर नहीं हो रहा. और लेटेलेटे मृणाल खयालों में डूब गई.

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अभी 7 दिन पहले वह अपने कोर्ट के किसी काम से दिल्ली गईर् थी क्योंकि मृणाल पेशे से एडवोकेट थी. प्रणय ने फ्लाइट से ही आनेजाने का टिकट करवा दिया था. और मृणाल उस व्यक्ति के बारे में सोचने लगी जो फ्लाइट में उस की बगल वाली सीट पर बैठा था और लगातार मृणाल की तरफ देख कर मुसकरा रहा था. जब मृणाल उस की तरफ देखती तो वह नजरें चुरा कर झुका लेता या कहीं और देखने लगता. मृणाल को यह सब बहुत असहज लग रहा था. तभी एयर होस्टेस ने आ कर पूछा, ‘सर, आप कुछ लेंगे?’

उस ने कहा, ‘हां, प्लीज मुझे कौफी दीजिए.’ एयर होस्टेस ने उसे कौफी ला कर दी.

कौफी के कप को उस ने मृणाल की तरफ बढ़ा कर पूछा, ‘मैम, आप कौफी लेंगी?’

मृणाल ने एक अनचाही मुसकराहट को अपने चेहरे पर लाते हुए मना किया, ‘नहीं सर, थैंक्यू. आप लीजिए, प्लीज.’ मृणाल की असहजता कुछ कम हुई और दोनों के बीच थोड़ीबहुत बातें होने लगीं.

वह व्यक्ति मृणाल से बोला, ‘मैम, आप दिल्ली जा रही हैं, आप तो राजस्थान से हैं.’ मृणाल ने उस की तरफ एकटक देखा और कहा, ‘आप कैसे कह सकते हैं?’

उस ने मृणाल की तरफ मुसकराहट के साथ देखा और कहा, ‘मैं तो यह भी कह सकता हूं कि आप उदयपुर से हैं.’

‘नहीं, मैं तो उदयपुर से नहीं हूं,’ मृणाल ने थोड़े सख्त लहजे में कहा.

‘तो क्या आप कभी उदयपुर में नहीं रहीं.’ बड़े गंभीर स्वर में उस व्यक्ति ने मृणाल की ओर देखते हुए कहा.

उस के चेहरे पर यह कहते हुए गंभीर और सौम्य भावों को देख कर मृणाल भी कुछ गंभीर हो गई और पूछने लगी, ‘सर, माफ कीजिए, मैं आप को पहचान नहीं पा रही हूं. हालांकि, जब से हम ने टेकऔफ किया है, मैं देख रही हूं आप लगातार मेरी तरफ देख मुसकराए जा रहे हैं. जैसे मुझे पहचान दिलाने की कोशिश कर रहे हों. सर, प्लीज आप अपने बारे में बताइए, क्या हम पहले मिल चुके हैं, और क्या करते हैं आप?’

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‘नहीं, आप मुझ से पहले कभी नहीं मिली हैं,’ उस ने मृणाल के पहले सवाल का जवाब दिया.

‘तो आप ने कभी मेरे साथ काम किया होगा, या आप मेरे क्लाइंट रहे होंगे. कहीं आप भी तो जुडिशियरी डिपार्टमैंट से तो नहीं हैं?’ मृणाल ने कहा.

‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है,’ उस ने धीरे और गंभीर आवाज में कहा और चुप हो गया. मृणाल उस की तरफ इस उम्मीद से देख रही थी कि शायद वह आगे कुछ और बोलेगा पर वह सिर झुका कर बैठा था.

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Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे-भाग 1- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

“अरे, अरे! दिला दीजिये न इसे बैलून. बचपन कहां लौटकर आता है?” वह दो-ढाई वर्षीय एक बच्चे को गुब्बारे के लिए मचलते देख उसकी मां से कह रहा था. गोआ के मीरामर बीच पर बैठी दिशा की ओर पीठ थी उस पुरुष की. उसे देख फिर से अम्बर की याद आ गयी दिशा को. वैसे भूली ही कब थी वह उसे ? अम्बर था ही ऐसा कि यादों से निकल ही नहीं पाता था. सबके दिल की बात समझने वाला, छोटी-छोटी बातों में खुशियां ढूंढने वाला, एक ज़िन्दा-दिल इंसान. दिशा सोच में डूबी हुई थी कि वही बच्चा एक हाथ से अपनी मां का हाथ पकड़े और दूसरे हाथ में बड़ा सा गुब्बारा थामे नन्हे कदमों से दूर तक चक्कर लगाकर फिर से आता हुआ दिखाई दिया. उसके पीछे पीछे वही पुरुष था. ‘अरे, यह तो अम्बर ही है!’ दिशा को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ.
अम्बर भी आश्चर्य चकित हो कुछ पलों के लिए दिशा को देखता ही रह गया. फिर बच्चे की ओर मुस्कुराकर हाथ हिलाने के बाद दिशा के पास आ उल्लासित स्वर में बोल उठा, “दिशा, तुम, यहां?…..अरे, यूं गुपचुप गुमसुम!”
दिशा भी अम्बर को देख अपनी प्रसन्नता पर काबू नहीं रख सकी, “तुमसे इतने सालों बाद यहां पर ही मिलना तय था शायद…. अम्बर, तुम तो अभी भी वैसे ही लग रहे हो जैसे पांच साल पहले कौलेज में लगते थे.”
“लेकिन तुम्हारा वह चुलबुलापन दूर हो गया तुमसे. पहले वाली दिशा यूं सागर किनारे चुपचाप बैठने वाली थोड़े ही थी.” अम्बर बिना किसी औपचारिकता के मन की बात कह उठा.

“यह बच्चा तुम्हारा है क्या ?” बैलून वाले बच्चे की ओर इशारा करते हुए दिशा ने पूछा.
“हा हा हा, इस बच्चे से तो अभी यहीं मुलाकात हो गयी थी.” अम्बर की हंसी छूट गयी. फिर संभलते हुए बोला, “मैं तो अभी सिंगल हूं. मम्मी-पापा को सौंप दी है जिम्मेदारी. वे जब जिसे चुन लेंगे, मैं उसका हाथ थाम लूंगा.”
“कहां हो आजकल? गोआ में जौब है क्या ?” दिशा अम्बर के विषय में सब कुछ जान लेना चाहती थी.
“अरे नहीं, मैं तो यहां एक वर्कशौप अटैंड करने आया हुआ हूं. मैं अभी भी दिल्ली में ही हूं. जब तुम्हारी बीए हुई थी उसी साल मेरी एमए कम्पलीट हो गयी थी और उसके बाद पीएचडी करने कनाडा की डलहौज़ी यूनिवर्सिटी चला गया था. फिर वापिस दिल्ली आ गया. दो साल से ‘सैंटर फौर अटमोसफ़ियरिक साइन्स’ में असिस्टेंट प्रोफेसर की पोस्ट पर हूं. तुम्हारा ससुराल तो इंदौर में है ना? यहां पतिदेव के साथ घूमने आई हो?”

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“नहीं अम्बर….मैं अब इंदौर में नहीं रहती. तीन सालों से दिल्ली में मम्मी-पापा के साथ रह रही हूं. प्राइवेट बैंक में जौब है. उसी की एक ब्रांच में कुछ प्रौब्लम्स थीं, इसलिए अपनी टीम के साथ आयी हूं यहां. फिर मिलूंगी तो सब बताऊंगी. अभी मुझे गैस्ट हाउस में शाम को चाय के लिए पहुंचना है. सभी कलीग्स वहीं पर होंगे. फिर मिलते हैं.”
दोनों ने एक-दूसरे को अपने मोबाइल नंबर दिए और फ़ोन पर बात करने को कह चल दिए.
गैस्ट हाउस पहुंच दिशा अपने कमरे में जाकर लेट गयी. अचानक तेज़ सिर-दर्द के कारण वह इवनिंग टी में सम्मिलित नहीं हो सकी. एक उदास सी सोच उस पर हावी होने लगी. ज़िंदगी ने कैसे-कैसे रंग दिखाये उसे? कैसा निरर्थक सा था वह एक वर्ष का विवाहित जीवन! विक्रांत का प्यार पाने के लिए क्या-क्या बदलने का प्रयास नहीं किया उसने स्वयं में? लेकिन विक्रांत की चहेती नहीं बन सकी कभी. विक्रांत की पसंद के कपड़े पहनना, उसकी पसंद का खाना कुक से बनवाना और स्वयं भी वही ख़ुशी-ख़ुशी खाना, उसके दोस्तों के आने पर सेवा में कोई कमी न रहने देना. आगे की पढ़ाई और नौकरी का सपना देखना भी छोड़ दिया था उसने. अपनी ओर से जी-जान न्योछावर करने पर भी वह विक्रांत की आंखों की किरकिरी ही बनी रही. इस रिश्ते का अंत तलाक नहीं होता तो क्या होता? दिशा का अपने माता-पिता से बार-बार एक ही सवाल करने को जी चाहता था कि क्या कमी थी अम्बर में? उसकी निम्न जाति खटक रही थी आंखों में तो उच्च जातीय विक्रांत ने कौन सा सुख दे दिया उसे? कितने ख़ुशनुमा थे वे दिन जो अम्बर के साथ बीते थे!

दिशा ने जब बीए में एडमिशन लिया था तो उसके सीनियर अम्बर के चर्चे कौलेज में खूब सुनाई देते थे. वह स्वयं भी उसके आकर्षक, संजीदा व बुद्धिजीवी चरित्र से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. पढ़ाई की बात हो या आम जिंदगी की, अम्बर सबकी मदद को तत्पर रहता था. दिशा को बीए के द्वितीय वर्ष में जब इक्नौमिक्स पढ़ते हुए कुछ गणितीय अवधारणायें समझने में मुश्किल हो रही थी तो अम्बर के पास मदद के लिए चली गयी. अम्बर यद्यपि उस समय जियोग्राफी में एमए कर रहा था, लेकिन अपने बीए में पढ़े ज्ञान के आधार पर उसने दिशा को सब समझा दिया. अपनी कठिनाईयों में अम्बर का साथ उसे संबल देने लगा और सूने दिल में अम्बर के नाम की बयार बहने लगी. इन झोंकों का असर अम्बर के ह्रदय-समुद्र पर भी हुआ और प्यार की तरंगे उसके मन में भी हिलोरें लेने लगीं.

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कौलेज में वे लगभग प्रतिदिन मिलते और अपने विचारों का आदान-प्रदान करते. उन दोनों के स्वभाव में अंतर था, शौक भी काफी अलग थे. फिर भी कुछ न कुछ ऐसा अवश्य था जो दोनों को आपस में जोड़े हुए था. शायद अम्बर का मर्यादित रहकर भी स्त्री-मन की समझ रखना, कभी हिम्मत न हारने की सलाह देते रहना और प्रेम की अहमियत समझना दिशा को उससे बांधे जा रहा था. दिशा की नारी-सुलभ मासूमियत अम्बर के मन को गुदगुदा देती थी. वह अम्बर की बातें सुन अपनी कमियों को तरशाने और स्वयं को बदलने के लिए हमेशा तैयार रहती. इतनी निकटता और जुड़ाव के बावज़ूद भी वे एक-दूसरे से अपने मन की बात कहने का साहस नहीं कर पा रहे थे.
दिल की बात अचानक ही दोनों की ज़ुबान पर तब आ गयी, जब कौलेज की ओर से उन्हें एजुकेशनल ट्रिप पर दक्षिण भारत ले जाया गया. उस दिन अपने-अपने अध्ययन क्षेत्रों में घूमने के बाद सभी विषयों के छात्र व अध्यापक शाम के समय कोवलम बीच पर चले गये. वहां जाकर कुछ लड़के-लड़कियां गप-शप में व्यस्त हो गए तो कुछ एक-दूसरे का हाथ थामे पानी में लहरों के आने-जाने का आनंद लेने लगे. दिशा बालू पर बैठ बड़ी तन्मयता से एक घरौंदा बनाने में मग्न थी. दोस्तों से बातें करते हुए अम्बर दूर से उसे देख रहा था. मन दिशा के पास बैठने को बेचैन था. कुछ देर बाद वह चाय बेचने वाले से दो कप चाय लेकर दिशा के पास चला गया.

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