लिफाफाबंद चिट्ठी : ट्रेन में चढ़ी वह महिला क्यों मदद की गुहार लगा रही थी

मैंने घड़ी देखी. अभी लगभग 1 घंटा तो स्टेशन पर इंतजार करना ही पड़ेगा. कुछ मैं जल्दी आ गया था और कुछ ट्रेन देरी से आ रही थी. इधरउधर नजरें दौड़ाईं तो एक बैंच खाली नजर आ गई. मैं ने तुरंत उस पर कब्जा कर लिया. सामान के नाम पर इकलौता बैग सिरहाने रख कर मैं पांव पसार कर लेट गया. अकेले यात्रा का भी अपना ही आनंद है. सामान और बच्चों को संभालने की टैंशन नहीं. आराम से इधरउधर ताकाझांकी भी कर लो.

स्टेशन पर बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी. पर जैसे ही कोई ट्रेन आने को होती, एकदम हलचल मच जाती. कुली, ठेले वाले एकदम चौकन्ने हो जाते. ऊंघते यात्री सामान संभालने लगते. ट्रेन के रुकते ही यात्रियों के चढ़नेउतरने का सिलसिला शुरू हो जाता. उस समय यह निश्चित करना मुश्किल हो जाता था कि ट्रेन के अंदर ज्यादा भीड़ है या बाहर? इतने इतमीनान से यात्रियों को निहारने का यह मेरा पहला अवसर था. किसी को चढ़ने की जल्दी थी, तो किसी को उतरने की. इस दौरान कौन खुश है, कौन उदास, कौन चिंतित है और कौन पीडि़त यह देखनेसमझने का वक्त किसी के पास नहीं था.

किसी का पांव दब गया, वह दर्द से कराह रहा है, पर रौंदने वाला एक सौरी कह चलता बना. ‘‘भैया जरा साइड में हो कर सहला लीजिए,’’ कह कर आसपास वाले रास्ता बना कर चढ़नेउतरने लगे. किसी को उसे या उस के सामान को चढ़ाने की सुध नहीं थी. चढ़ते वक्त एक महिला की चप्पलें प्लेटफार्म पर ही छूट गईं. वह चप्पलें पकड़ाने की गुहार करती रही. आखिर खुद ही भीड़ में रास्ता बना कर उतरी और चप्पलें पहन कर चढ़ी.

मैं लोगों की स्वार्थपरता देख हैरान था. क्या हो गया है हमारी महानगरीय संस्कृति को? प्रेम, सौहार्द और अपनेपन की जगह हर किसी की आंखों में अविश्वास, आशंका और अजनबीपन के साए मंडराते नजर आ रहे थे. मात्र शरीर एकदूसरे को छूते हुए निकल रहे थे, उन के मन के बीच का फासला अपरिमित था. मुझे सहसा कवि रामदरश मिश्र की वह उपमा याद आ गई, ‘कैसा है यह एकसाथ होना, दूसरे के साथ हंसना न रोना. क्या हम भी लैटरबौक्स की चिट्ठियां बन गए हैं?’

इस कल्पना के साथ ही स्टेशन का परिदृश्य मेरे लिए सहसा बदल गया. शोरशराबे वाला माहौल निस्तब्ध शांति में तबदील हो गया. अब वहां इंसान नहीं सुखदुख वाली अनंत चिट्ठियां अपनीअपनी मंजिल की ओर धीरेधीरे बढ़ रही थीं. लेकिन कोई किसी से नहीं बोल रही थी. मैं मानो सपनों की दुनिया में विचरण करने लगा था.

‘‘हां, यहीं रख दो,’’ एक नारी स्वर उभरा और फिर ठकठक सामान रखने की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. गोद में छोटे बच्चे को पकड़े एक संभ्रांत सी महिला कुली से सामान रखवा रही थी. बैंच पर बैठने का उस का मंतव्य समझ मैं ने पांव समेट लिए और जगह बना दी. वह धन्यवाद दे कर मुसकान बिखेरती हुई बच्चे को ले कर बैठ गई. एक बार उस ने अपने सामान का अवलोकन किया. शायद गिन रही थी पूरा आ गया है या नहीं? फिर इतमीनान से बच्चे को बिस्कुट खिलाने लगी.

यकायक उस महिला को कुछ खयाल आया. उस ने अपनी पानी की बोतल उठा कर हिलाई. फिर इधरउधर नजरें दौड़ाईं. दूर पीने के पानी का नल और कतार नजर आ रहें थे. उस की नजरें मुड़ीं और आ कर मुझ पर ठहर गईं. मैं उस का मंतव्य समझ नजरें चुराने लगा. पर उस ने मुझे पकड़ लिया, ‘‘भाई साहब, बहुत जल्दी में घर से निकलना हुआ तो बोतल नहीं भर सकी. प्लीज, आप भर लाएंगे?’’

एक तो अपने आराम में खलल की वजह से मैं वैसे ही खुंदक में था और फिर ऊपर से यह बेगार. मेरे मन के भाव शायद मेरे चेहरे पर लक्षित हो गए थे. इसलिए वह तुरंत बोल पड़ी, ‘‘अच्छा रहने दीजिए. मैं ही ले आती हूं. आप थोड़ा टिंकू को पकड़ लेंगे?’’

वह बच्चे को मेरी गोद में पकड़ाने लगी, तो मैं झटके से उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं ही ले आता हूं,’’ कह कर बोतल ले कर रवाना हुआ तो मन में एक शक का कीड़ा बुलबुलाया कि कहीं यह कोई चोरउचक्की तो नहीं? आजकल तो चोर किसी भी वेश में आ जाते हैं. पीछे से मेरा बैग ही ले कर चंपत न हो जाए? अरे नहीं, गोद में बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कहां भाग सकती है? लो, बन गए न बेवकूफ? अरे, ऐसों का पूरा गिरोह होता है. महिलाएं तो ग्राहक फंसाती हैं और मर्द सामान ले कर चंपत. मैं ठिठक कर मुड़ कर अपना सामान देखने लगा.

‘‘मैं ध्यान रख रही हूं, आप के सामान का,’’ उस ने जोर से कहा.

मैं मन ही मन बुदबुदाया कि इसी बात का तो डर है. कतार में खड़े और बोतल भरते हुए भी मेरी नजरें अपने बैग पर ही टिकी रहीं. लौट कर बोतल पकड़ाई, तो उस ने धन्यवाद कहा. फिर हंस कर बोली, ‘‘आप से कहा तो था कि मैं ध्यान रख रही हूं. फिर भी सारा वक्त आप की नजरें इसी पर टिकी रहीं.’’

अब मैं क्या कहता? ‘खैर, कर दी एक बार मदद, अब दूर रहना ही ठीक है,’ सोच कर मैं मोबाइल में मैसेज पढ़ने लगा. यह अच्छा जरिया है आजकल, भीड़ में रहते हुए भी निस्पृह बने रहने का.

‘‘आप बता सकते हैं कोच नंबर 3 कहां लगेगा?’’ उस ने मुझ से फिर संपर्कसूत्र जोड़ने की कोशिश की.

‘‘यहीं या फिर थोड़ा आगे,’’ सूखा सा जवाब देते वक्त अचानक मेरे दिमाग में कुछ चटका कि ओह, यह भी मेरे ही डब्बे में है? मेरी नजरें उस के ढेर सारे सामान पर से फिसलती हुईं अपने इकलौते बैग पर आ कर टिक गईं. अब यदि इस ने अपना सामान चढ़वाने में मदद मांगी या बच्चे को पकड़ाया तो? बच्चू, फूट ले यहां से. हालांकि ट्रेन आने में अभी 10 मिनट की देर थी. पर मैं ने अपना बैग उठाया और प्लेटफार्म पर टहलने लगा.

कुछ ही देर में ट्रेन आ पहुंची. मैं लपक कर डब्बे में चढ़ा और अपनी सीट पर जा कर पसर गया. अभी मैं पूरी तरह जम भी नहीं पाया था कि उसी महिला का स्वर सुनाई दिया, ‘‘संभाल कर चढ़ाना भैया. हां, यह सूटकेस इधर नीचे डाल दो और उसे ऊपर चढ़ा दो… अरे भाई साहब, आप की भी सीट यहीं है? चलो, अच्छा है… लो भैया, ये लो अपने पूरे 70 रुपए.’’

मैं ने देखा वही कुली था. पैसे ले कर वह चला गया. महिला मेरे सामने वाली सीट पर बच्चे को बैठा कर खुद भी बैठ गई और सुस्ताने लगी. मुझे उस से सहानुभूति हो आई कि बेचारी छोटे से बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कैसे अकेले सफर कर रही है? पर यह सहानुभूति कुछ पलों के लिए ही थी. परिस्थितियां बदलते ही मेरा रुख भी बदल गया. हुआ यों कि टी.टी. आया तो वह उस की ओर लपकी. बोली, ‘‘मेरी ऊपर वाली बर्थ है. तत्काल कोटे में यही बची थी. छोटा बच्चा साथ है, कोई नीचे वाली सीट मिल जाती तो…’’

मेरी नीचे वाली बर्थ थी. कहीं मुझे ही बलि का बकरा न बनना पड़े, सोच कर मैं ने तुरंत मोबाइल निकाला और बात करने लगा. टी.टी. ने मुझे व्यस्त देख पास बैठे दूसरे सज्जन से पूछताछ आरंभ कर दी. उन की भी नीचे की बर्थ थी. वे सीटों की अदलाबदली के लिए राजी हो गए, तो मैं ने राहत की सांस ले कर मोबाइल पर बात समाप्त की. वे सज्जन एक उपन्यास ले कर ऊपर की बर्थ पर जा कर आराम से लेट गए. महिला ने भी राहत की सांस ली.

‘‘चलो, यह समस्या तो हल हुई… मैं जरा टौयलेट हो कर आती हूं. आप टिंकू को देख लेंगे?’’ बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह उठ कर चल दी. मुझ जैसे सज्जन व्यक्ति से मानो इनकार की तो उसे उम्मीद ही नहीं थी.

मैं ने सिर थाम लिया कि इस से तो मैं सीट बदल लेता तो बेहतर था. मुझे आराम से उपन्यास पढ़ते उन सज्जन से ईर्ष्या होने लगी. उस महिला पर मुझे बेइंतहा गुस्सा आ रहा था कि क्या जरूरत थी उसे एक छोटे बच्चे के संग अकेले सफर करने की? मेरे सफर का सारा मजा किरकिरा कर दिया. मैं बैग से

अखबार निकाल कर पढ़े हुए अखबार को दोबारा पढ़ने लगा. वह महिला तब तक लौट आई थी.

‘‘मैं जरा टिंकू को भी टौयलेट करा लाती हूं. सामान का ध्यान तो आप रख ही रहे हैं,’’ कहते हुए वह बच्चे को ले कर चली गई. मैं ने अखबार पटक दिया और बड़बड़ाया कि हां बिलकुल. स्टेशन से बिना पगार का नौकर साथ ले कर चढ़ी हैं मैडमजी, जो कभी इन के बच्चे का ध्यान रखेगा, कभी सामान का, तो कभी पानी भर कर लाएगा…हुंह.

तभी पैंट्रीमैन आ गया, ‘‘सर, आप खाना लेंगे?’’

‘‘हां, एक वैज थाली.’’

वह सब से पूछ कर और्डर लेने लगा. अचानक मुझे उस महिला का खयाल आया कि यदि उस ने खाना और्डर नहीं किया तो फिर स्टेशन से मुझे ही कुछ ला कर देना पड़ेगा या शायद शेयर ही करना पड़ जाए. अत: बोला, ‘‘सुनो भैया, उधर टौयलेट में एक महिला बच्चे के साथ है. उस से भी पूछ लेना.’’

कुछ ही देर में बच्चे को गोद में उठाए वह प्रकट हो गई, ‘‘धन्यवाद, आप ने हमारे खाने का ध्यान रखा. पर हमें नहीं चाहिए. हम तो घर से काफी सारा खाना ले कर चले हैं. वह रामधन है न, हमारे बाबा का रसोइया उस ने ढेर सारी सब्जी व पूरियां साथ रख दी हैं. बस, जल्दीजल्दी में पानी भरना भूल गया, बल्कि हम तो कह रहे हैं आप भी मत मंगाइए. हमारे साथ ही खा लेना.’’

मैं ने कोई जवाब न दे कर फिर से अखबार आंखों के आगे कर लिया और सोचने लगा कि या तो यह महिला निहायत भोली है या फिर जरूरत से ज्यादा शातिर. हो सकता है खाने में कुछ मिला कर लाई हो. पहले भाईचारा गांठ रही है और फिर… मुझे सावधान रहना होगा. इस का आज का शिकार निश्चितरूप से मैं ही हूं.

जबलपुर स्टेशन आने पर खाना आ गया था. मैं कनखियों से उस महिला को खाना निकालते और साथ ही बच्चे को संभालते देख रहा था. पर मैं जानबूझ कर अनजान बना अपना खाना खाता रहा.

‘‘थोड़ी सब्जीपूरी चखिए न. घर का बना खाना है,’’ उस ने इसरार किया.

‘‘बस, मेरा पेट भर गया है. मैं तो नीचे स्टेशन पर चाय पीने जा रहा हूं,’’ कह मैं फटाफट खाना खत्म करते हुए वहां से खिसक लिया कि कहीं फिर पानी या और कुछ न मंगा ले.

‘‘हांहां, आराम से जाइए. मैं आप के सामान का खयाल रख लूंगी.’’

‘ओह, बैग के बारे में तो भूल ही गया था. इस की नजर जरूर मेरे बैग पर है. पर क्या ले लेगी? 4 जोड़ी कपड़े ही तो हैं. यह अलग बात है कि सब अच्छे नए जोड़े हैं और आज के जमाने में तो वे ही बहुत महंगे पड़ते हैं. पर छोड़ो, बाहर थोड़ी आजादी तो मिलेगी. इधर तो दम घुटने लगा है,’ सोचते हुए मैं नीचे उतर गया. चाय पी तो दिमाग कुछ शांत हुआ. तभी मुझे अपना एक दोस्त नजर आ गया. वह भी उसी गाड़ी में सफर कर रहा था और चाय पीने उतरा था. बातें करते हुए मैं ने उस के संग दोबारा चाय पी. मेरा मूड अब एकदम ताजा हो गया था. हम बातों में इतना खो गए कि गाड़ी कब खिसकने लगी, हमें ध्यान ही न रहा. दोस्त की नजर गई तो हम भागते हुए जो डब्बा सामने दिखा, उसी में चढ़ गए. शुक्र है, सब डब्बे अंदर से जुड़े हुए थे. दोस्त से विदा ले कर मैं अपने डब्बे की ओर बढ़ने लगा. अभी अपने डब्बे में घुसा ही था कि एक आदमी ने टोक दिया, ‘‘क्या भाई साहब, कहां चले गए थे? आप की फैमिली परेशान हो रही है.’’

आगे बढ़ा तो एक वृद्ध ने टोक दिया, ‘‘जल्दी जाओ बेटा. बेचारी के आंसू निकलने को हैं,’’ अपनी सीट तक पहुंचतेपहुंचते लोगों की नसीहतों ने मुझे बुरी तरह खिझा दिया था.

मैं बरस पड़ा, ‘‘नहीं है वह मेरी फैमिली. हर किसी राह चलते को मेरी फैमिली बना देंगे आप?’’

‘‘भैया, वह सब से आप का हुलिया बताबता कर पूछ रही थी, चेन खींचने की बात कर रही थी. तब किसी ने बताया कि आप जल्दी में दूसरे डब्बे में चढ़ गए हैं. चेन खींचने की जरूरत नहीं है, अभी आ जाएंगे तब कहीं जा कर मानीं,’’ एक ने सफाई पेश की.

‘‘क्या चाहती हैं आप? क्यों तमाशा बना रही हैं? मैं अपना ध्यान खुद रख सकता हूं. आप अपना और अपने बच्चे का ध्यान रखिए. बहुत मेहरबानी होगी,’’ मैं ने गुस्से में उस के आगे हाथ जोड़ दिए.

इस के बाद पूरे रास्ते कोई कुछ नहीं बोला. एक दमघोंटू सी चुप्पी हमारे बीच पसरी रही. मुझे लग रहा था मैं अनावश्यक ही उत्तेजित हो गया था. पर मैं चुप रहा. मेरा स्टेशन आ गया था. मैं उस पर फटाफट एक नजर भी डाले बिना अपना बैग उठा कर नीचे उतर गया. अपना वही दोस्त मुझे फिर नजर आ गया तो मैं उस से बतियाने रुक गया. हम वहीं खड़े बातें कर रहे थे कि एक अपरिचित सज्जन मेरी ओर बढ़े. उन की गोद में उसी बच्चे को देख मैं ने अनुमान लगा लिया कि वे उस महिला के पति होंगे.

‘‘किन शब्दों में आप को धन्यवाद दूं? संजना बता रही है, आप ने पूरे रास्ते उस का और टिंकू का बहुत खयाल रखा. वह दरअसल अपने बीमार बाबा के पास पीहर गई हुई थी. मैं खुद उसे छोड़ कर आया था. यहां अचानक मेरे पापा को हार्टअटैक आ गया. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. संजना को पता चला तो आने की जिद पकड़ बैठी. मैं ने मना किया कि कुछ दिनों बाद मैं खुद लेने आ जाऊंगा पर उस से रहा नहीं गया. बस, अकेले ही चल पड़ी. मैं कितना फिक्रमंद हो रहा था…’’

‘‘मैं ने कहा था न आप को फिक्र की कोई बात नहीं है. हमें कोई परेशानी नहीं होगी. और देखो ये भाई साहब मिल ही गए. इन के संग लगा ही नहीं कि मैं अकेली सफर कर रही हूं.’’

मैं असहज सा महसूस करने लगा. मैं ने घड़ी पर नजर डाली, ‘‘ओह, 5 बज गए. मैं चलता हूं… क्लाइंट निकल जाएगा,’’ कहते हुए मैं आगे बढ़ते यात्रियों में शामिल हो गया. लिफाफाबंद चिट्ठियों की भीड़ में एक और चिट्ठी शुमार हो गई थी.

मुट्ठीभर बेर: माया ने मन में क्या ठान रखा था

घने बादलों को भेद, सूरज की किरणें लुकाछिपी खेल रही थीं. नीचे धरती नम होने के इंतजार में आसमान को ताक रही थी. मौसम सर्द हो चला था. ठंडी हवाओं में सूखे पत्तों की सरसराहट के साथ मिली हुई कहीं दूर से आ रही हुआहुआ की आवाज ने माया को चौकन्ना कर दिया.

माया आग के करीब ठिठक कर खड़ी हो गई. घने, उलझे बालों ने उस की झुकी हुई पीठ को पूरी तरह से ढक रखा था. उस के मुंह से काले, सड़े दांत झांक रहे थे. वह पेड़ के चक्र से बाहर देखने की कोशिश करने लगी, लेकिन उस की आंखों को धुंधली छवियों के अलावा कुछ नहीं दिखाई दिया. कदमों की कोई आहट न आई.

शिकारियों की टोली को लौटने में शायद वक्त था. उस ने अपने नग्न शरीर पर तेंदुए की सफेद खाल को कस कर लपेट लिया. इस बार ठंड कुछ अधिक ही परेशान कर रही थी. ऐसी ठंड उस ने पहले कभी नहीं महसूस की. गले में पड़ी डायनासोर की हड्डियों की माला, जनजाति में उस के ऊंचे दर्जे को दर्शा रही थी. कोई दूसरी औरत इस तरह की मोटी खाल में लिपटी न थी, सिवा औलेगा के.

औलेगा की बात अलग थी. उस का साथी एक सींग वाले प्राणी से लड़ते हुए मारा गया था. पूरे 2 पूर्णिमा तक उस प्राणी के गोश्त का भोज चला था. फिर औलेगा मां भी बनने वाली थी. उस भालू की खाल की वह पूरी हकदार थी जिस के नीचे वह उस वक्त लेट कर आग ताप रही थी. पर सिर्फ उस खाल की, माया ने दांत भींचते हुए सोचा.

आग बिना जीवन कैसा था, यह याद कर माया सिहर गई. आग ही थी जो जंगली जानवरों को दूर रखती थी वरना अपने तीखे नाखूनों से वे पलभर में इंसानों को चीर कर रख देते. झाडि़यों से उन की लाल, डरावनी आंखें अभी भी उन्हें घूरती रहतीं.

माया ने झट अपने 5 बच्चों की खोज की. उस से बेहतर कौन जानता था कि बच्चे कितने नाजुक होते हैं. सब से छोटी अभी चल भी नहीं पाती थी. वह भाइयों के साथ फल कुतर रही थी. सभी 3 दिनों से भूखे थे. आज शिकार मिलना बेहद जरूरी था. आसमान से बादल शायद सफेद फूल बरसाने की फिराक में थे. फिर तो जानवर भी छिप जाएंगे और फल भी नहीं मिलेंगे. ऊपर से जो थोड़ाबहुत मांस माया ने बचा कर रखा था, वह भी उस के साथी ने बांट दिया था.

माया परेशान हो उठी. तभी उस की नजर अपने बड़े बेटे पर पड़ी. वह एक पत्थर को घिस कर नुकीला कर रहा था, पर उस का ध्यान कहीं और था. माकौ-ऊघ टकटकी लगा कर औलेगा को देख रहा था सामक-या के धमकाने के बावजूद. क्या उसे अपने पिता का जरा भी खौफ नहीं? पिछले दिन ही इस बात पर सामक-या ने माकौ-ऊघ की खूब पिटाई की थी. माकौ-ऊघ ने बगावत में आज शिकार पर जाने से इनकार कर दिया और सामक-या ने जातेजाते मांस का एक टुकड़ा औलेगा को थमा दिया. वही टुकड़ा जो माया ने अपने और बच्चों के लिए छिपा कर रखा था. माया जलभुन कर रह गई थी.

एक सरदार के लिए सामक-या का कद खास ऊंचा नहीं था. पर उस से बलवान भी कोई नहीं था. एक शेर को अकेले मार डालना आसान नहीं. उसी के दांत को गले में डाल कर वह सरदार बन बैठा. और जब तक वह माया पर मेहरबान था, माया को कोई चिंता नहीं. ऐसा नहीं कि सामक-या ने किसी और औरत की ओर कभी नहीं देखा, पर आखिरकार वापस वह माया के पास ही आता. माया भी उसे भटकने देती, बस, ध्यान रखती कि सामक-या की जिम्मेदारियां न बढ़ें. नवजात बच्चे आखिर बहुत नाजुक होते हैं. कुछ भी चख लेते हैं, जैसे जहरीले बेर.

माया की इच्छा हुई एक जहरीला बेर औलेगा के मुंह में भी ठूंस दे, पर अभी उस के कई रखवाले थे, उस का अपना बेटा भी. पूरी जनजाति उस के पीछे पड़ जाएगी. खदेड़खदेड़ कर उसे मार डालेगी.

कुछ रातों बाद…

बर्फ एक सफेद चादर की भांति जमीन पर लेटी हुई थी. कटा हुआ चांद तारों के साथ सैर पर निकला था. मैमौथ का गोश्त खा कर मर्द और बच्चे गुफा के भीतर सो चुके थे. औरतें एकसाथ आग के पास बैठी थीं. कुछ ऊंघ रही थीं तो कुछ की नजर बारबार बाहर से आती कराहने की आवाज की ओर खिंच जाती. सुबह सूरज उगने से पहले ही औलेगा छोटी गुफा में चली गई थी और अभी तक लौटी नहीं थी. रात गहराती गई. चांद ने अपना आधा सफर खत्म कर लिया. पर औलेगा की तकलीफ का अंत न हुआ. अब औरतें भी सो चली थीं, सिवा माया के.

कदमों की आहट ने उस का ध्यान आकर्षित किया. औलेगा के साथ बैठी लड़की पैर घसीटते हुए भीतर घुसी. वह धम्म से आग के सामने बैठ गई और थकी हुई, घबराई हुई आंखों से माया को देखने लगी. तभी औलेगा की तेज चीख सुनाई दी. माया झट से उठी और मशाल ले कर चल पड़ी. दूसरी मुट्ठी में उस ने बेरों पर उंगलियां फेरीं.

औलेगा का नग्न शरीर गुफा के द्वार पर, आग के सामने लेटा, दर्द से तड़प रहा था. बच्चा कुछ ही पलों की दूरी पर था. और थोड़ी ही देर में एक नन्ही सी आवाज गूंज उठी. पर औलेगा का तड़पना बंद नहीं हुआ. शायद वह मरने वाली थी. माया मुसकरा बैठी और बच्चे को ओढ़ी हुई खाल के अंदर, खुद से सटा लिया. भूखे बच्चे ने भी क्या सोचा, वह माया का दूध चूसने लगा.

अचंभित माया के हाथ से सारे बेर गिर गए. वह कुछ देर भौचक्की सी बैठी रही, औलेगा को कराहते हुए देखती रही. उस की नजर सामने की झाडि़यों से टिमटिमाती लाल आंखों पर पड़ी. बस, आग ने ही उन्हें रोक रखा था. और आग ही ठंड से राहत भी दे रही थी. औलेगा की आंखें बंद हो रही थीं. माया ने आव देखा न ताव, मुट्ठीभर मिट्टी आग पर फेंकी, बच्चे को कस कर थामा, मशाल उठाई और चलती बनी. न औलेगा की आखिरी चीखें और न ही एक और बच्चे की पहली सिसकी उसे रोक पाई.

दूसरा प्यार : क्या शादी के बाद अभिषेक को भूल पाई अहाना

सुबह के 11 बजे थे. दरवाजे की घंटी बजी तो अहाना ने बाहर आ कर देखा. यह क्या. शादी का कार्ड? किस ने भेजा होगा? लिफाफा खोला तो लाल और सुनहरे अक्षरों में ‘अभिषेक वैड्स रौशनी’ देख कर आंखों से खुशी के आंसू छलक आए. नैनों से अकस्मात हुई वर्षा में मनमयूर नाच उठा. जब मन की चंचलता काबू में न रही तो वह अतीत की यादों में खो गई….

अभिषेक उस का सहपाठी था जिस के 2 ही अरमान थे. पहला आईएएस में चयन और दूसरा अहाना का जीवनपर्यंत का साथ. अभिषेक सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहा था और अहाना पोस्ट ग्रैजुएशन फाइनल ईयर में थी. दोनों के मन में एक ही सवाल आता कि उन की मुहब्बत अंजाम तक पहुंचेगी या नहीं? उन का साथ हमेशा के लिए होगा कि नहीं?

वह कहते हैं न कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. जब उन के प्यार की बात अहाना के पिता तक पहुंची तो वे बुरी तरह बिफर गए. कड़क कर बोले, ‘‘पढ़ने गए थे तो पढ़ाई करते. प्यार में पड़ने की क्या जरूरत थी?’’

वैसे भी ‘जाके पैर न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई’ जो इस राह पर चले ही न हों उन्हें पैरों में चुभने वाले कांटों का अंदाजा भला कैसे होता. अभिषेक के घर में भी लगभग वही प्रतिक्रियाएं थीं. सचाई तो यह थी कि उन के प्रेम को किसी ने नहीं सम?ा. दोनों का मासूम प्यार परिवार के हित में बलि चढ़ गया.

‘‘तुम्हारे पिता का आत्मसम्मान बहुत ज्यादा है. वे टूट जाएंगे पर ?ाकेंगे नहीं. अगर उन्हें कुछ हो गया तो मैं अकेली कैसे तुम सब की देखभाल करूंगी? मेरी पूरी गृहस्थी चरमरा जाएगी. तुम्हारे बहनभाइयों का क्या होगा?’’

मां ने हर संभव मानसिक दबाव बना डाला था, जबकि अहाना अभिषेक के प्यार में आकंठ डूबी थी. उस का स्थान किसी और को देने की सोच भी नहीं सकती थी. जननी व जनक के आशीर्वाद देने वाले हाथ याचना में जुड़े थे. जो हाथ आज तक देते आए थे वे कुछ मांगने के लिए जोड़े गए थे. पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी और दिमाग सुन्न हुआ जा रहा था. उसे अपनी खुशियां देनी थीं. अपने जीवन का हक अदा करना था. मातापिता से तो जिद भी कर लेती पर बहनभाइयों के प्रति अपराधबोध ले कर कहां जाती. बड़े ही बेमन से उस ने उन की इच्छा के आगे समर्पण कर दिया. उसे पता था कि उस की सांसें चलेंगी पर जीवन न होगा और ऐसा अनर्थ आजीवन होगा.

दूल्हा, बराती, गाजेबाजे जैसे सब तैयार ही बैठे थे. मन धिक्कारता रहा, मन रोता रहा. मगर उस ने खुद को मिटा कर दुलहन का लिबास पहन लिया. चट मंगनी पट ब्याह संपन्न हो गया. दर्द जब हद से बढ़ जाये तो साथ सैलाब लाता है. एक ऐसा सैलाब जो अपने साथ सब बहा ले जाता है और ऐसा ही हुआ जब पति ने पूछा, ‘‘तुम इतनी इंटैलीजैंट और स्मार्ट हो, तुम्हारी शादी तो ‘क्लास वन अफसर’ से हो सकती थी तुम खुद भी कुछ बन सकती थी. ऐसे में मु?ो क्यों चुना? क्या तुम्हारे पेरैंट्स तुम से प्यार नहीं करते?’’

यह सुनते ही अहाना फूटफूट कर रो पड़ी. फिर तो आंसुओं के साथ सारा गुबार बाहर आ गया.

‘‘पसंद तो मैं ने भी आईएएस ही किया था भावी आईएएस पर अपने सम्मान के लिए मेरे अपनों ने मेरे सपनों पर पानी फेर दिया.’’

आकाश उस के पति के लिए यह सुनना और सम?ाना आसान न था. कुछ पलों की खामोशी के बाद अहाना को शांत करते हुए बोला, ‘‘आज से हमारे सुखदुख एक हैं. मैं तुम्हारे जीवन में खुशियां लाऊंगा.’’

अहाना आश्चर्य से उस की ओर देखते हुए पूछ बैठी, ‘‘आप को मेरे प्यार की बात बुरी नहीं लगी? मैं ने तो इस विषय पर आज तक आलोचना ही सही है?’’

‘‘नहीं. प्यार तो दिलों का मेल है जो जानेअनजाने में हो जाता है. लड़कों को भी होता है. लड़कियां दिल से लगा बैठती हैं और लड़के व्यावहारिकता अपनाते हैं. तुम तो मु?ो बस यह बताओ कि मैं तुम्हारी मदद कैसे करूं?’’

‘‘यह तो मु?ो भी नहीं पता पर अपना पक्ष रखने का भी अधिकार नहीं मिला मु?ो. काश कि मैं एक बार उस से मिल पाती. उस से किया वादा न निभाने के लिए क्षमा मांग पाती…’’

पत्नी की सचाई ने मन मोह लिया. जाने कैसे पर एक दर्द का रिश्ता जुड़ गया. उसे समझ में आ गया कि जबरन हुए विवाह से अहाना घुट रही है. वर्तमान को स्वीकार करने में अभिषेक ही मददगार साबित होगा. यह सोच कर आकाश ने अहाना को उस की खोई हुई खुशियों से रूबरू कराने का फैसला किया. उस ने कालेज रिकौर्ड्स से अभिषेक का पता किया.

अभिषेक ने एअरफोर्स जौइन कर लिया था और ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद गया था. यह जानकारी मिलते ही आकाश ने दफ्तर से 1 हफ्ते की छुट्टी ली और अहाना से हनीमून के लिए सामान पैक करने के लिए कहा. आकाश की मंशा से अनजान अहाना ने सामान पैक कर लिया. वहां जा कर जो खुशियां मिलीं उस से तो वह हमेशा के लिए आकाश की हो कर रह गई.

आकाश ने अभिषेक को होटल में मिलने के लिए बुलाया. यह अहाना के लिए बहुत बड़ा सरप्राइज था. अभिषेक को देख कर बहुत खुश हुई. उसे खुश देख कर आकाश को मानसिक शांति मिल रही थी. अभिषेक थोड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ था पर जल्द ही आकाश के स्वभाव ने उसे भी कंफर्टेबल कर दिया. वह दिन में अपनी ट्रेनिंग खत्म कर रोज शाम को मिलने आता. रात का खाना सब साथ खाते, हंसतेगुनगुनाते और फिर लंबी वाक पर निकल जाते. अभिषेक और आकाश की खूब बातें होतीं और यह देख कर अहाना को लगता जैसे उस की दुनिया फिर से खूबसूरत हो गई है.

इस तरह 5 दिन निकल गए तो छठे दिन आकाश ने अपनी खराब तबीयत का बहाना बना कर दोनों को एकसाथ टहलने भेज दिया. जानता था कि एक बार अकेले में मिल कर ही वे अपना मन हलका कर सकेंगे. अहाना का अपराधबोध से बाहर आना उन के सुखी दांपत्य के लिए जरूरी था.

‘‘तुम्हें तो आईएएस बनना था फिर एअरफोर्स क्यों जौइन कर लिया अभिषेक?’’ अहाना ने पूछा.

‘‘तुम से बिछड़ने के बाद आसमान से इश्क हो गया… देखो. कैसे सुखदुख में एक सी छत्रछाया देता है हमें…’’ अभिषेक ने कहा.

‘‘उफ, फिलौस्फर, मु?ा से नाराज हो? हम दोनों के जीवन का फैसला मैं ने न जाने अकेले क्यों ले लिया…’’ अहाना ने कहा.

‘‘न अहाना. बिलकुल नहीं. मैं जानता हूं, तुम ने हर संभव कोशिश की होगी. गलती हमारी नहीं बल्कि हमारे परिवार वालों की है जिन्होंने हमारी खुशियों पर अपनी खुशियों को तरजीह दी. उन के निर्णय का हमारी जिंदगी पर क्या असर होगा इस की भी परवाह नहीं की.’’

‘‘आखिर हम ने ऐसा क्या मांग लिया था अभि?’’

‘‘उन का अभिमान हमारे स्वाभिमान से बहुत बड़ा है सो उन्होंने अपनी ही बात ऊपर रखी. खैर, जो हो न सका उस का कितना रोना रोया जाए. बेहतरी इसी में है कि जो मिला है उस की कद्र करो. आकाश बहुत अच्छा इंसान है जिस ने तुम्हारा इतना खयाल रखा और हमारे रिश्ते को सम्मान की नजर से देखा. यह जो आज हम मिल रहे हैं यह उसी महान इंसान की बदौलत है… जो मिला है वह भी कम तो नहीं.’’

अहाना और अभिषेक इन खूबसूरत पलों को हमेशा के लिए संजो लेना चाहते थे. तभी एक जरूरतमंद इंसान ‘जोड़ी सलामत रहे’ की दुआ देते हुए पैसे मांगने लगा.

‘‘इस बार पैसे तू देगी अहाना,’’ अभि ने छूटते ही कहा तो अहाना खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘यों ही हंसती रहा कर.’’

‘‘मेरी छोड़ो अपनी बताओ अभिषेक. तुम क्या करोगे अकेले?’’ उस के स्वर में दर्द था, उस की चिंता थी.

‘‘शादी करूंगा और क्या… स्मार्ट आदमी हूं. इतनी बुरी शक्ल तो नहीं है मेरी…’’

‘‘हा… हा… हा…’’ अहाना तो उस के सैंस औफ ह्यूमर की फैन थी.

दोनों के कहकहे देर तक उन वादियों में गूंजते रहे. ऐसा लग रहा था मानो सब पर तरुणाई छा गई हो. ठंडी हवाएं उन्हें छू कर वापस लौट आती मानो पकजमपकड़ाई खेल रही हों. चांद जो उन के अद्भुत प्रेम का सब से बड़ा गवाह था, वह भी उन के मधुर वार्त्तालाप को सुन कर मंदमंद मुसकरा रहा था.

कितनी पवित्रता थी उन की सोच में… वे साथ थे और नहीं भी. ऐसे निश्छल प्रेम पर आकाश भला क्या संदेह करता. वह तो बस इतना चाहता था कि विरही व अतृप्त हृदय तृप्त हो जाएं ताकि अहाना खुशीखुशी अपनी नई जिंदगी जी सके.

अभिषेक ने घड़ी देखी 10 बज गए थे. उस ने अहाना को होटल तक

छोड़ा और उस से विदा लेते हुए एक वादा लिया, ‘‘वादा कर हमेशा खुश रहेगी?’’

‘‘वादा.’’

‘‘मेरी दुनिया भी रौशन हो जाए ऐसी दुआ करना. सुना है अपनों की दुआओं में बड़ी ताकत होती है,’’ जातेजाते अभिषेक ने अहाना से कहा.

‘‘जरूर,’’ अहाना ने हामी भरी.

इस बात के 6 महीने ही बीते और आज शादी का निमंत्रणपत्र पा कर वह अपराधबोध से बाहर आ गई. वह अभिषेक की खुशी में बहुत खुश थी. उस की दुआ जो कुबूल हो गई थी.

‘‘उफ सोचतेसोचते शाम हो गई. आकाश आते ही होंगे.’’

वह आकाश की पसंद की पोशाक पहन कर तैयार हो गई. महीनों बाद उस का मन आजाद पंछी सा उड़ना चाह रहा था.

कौन कहता है कि प्यार दोबारा नहीं होता. वह आकाश से यों ही तो नहीं जुड़ गई है. हां. इस में थोड़ा वक्त लगा. किसी भी रिश्ते की मजबूती के लिए प्यार, विश्वास व वक्त तीनों लगते हैं. रिश्ते की नींव रखते वक्त ही निवेश करना पड़ता है. आकाश ने जिस सम?ादारी से अहाना को संभाला ऐसा कम ही देखने को मिलता है.्र

सच जब 2 दिल एकदूसरे के दर्द को जीने लगते हैं तो प्यार गहरा होता जाता है. ऐसे में पहला प्यार बचपना और दूसरा ज्यादा अपना लगता है.

मुसकान: सुनीता की जिंदगी में क्या हुआ था

‘‘आंटी, आप बारबार मुझे इस तरह क्यों घूर रही हैं?’’ मेघा ने जब एक 45 साल की प्रौढ़ा को अपनी तरफ बारबार घूरते देखा तो उस से रहा न गया. उस ने आगे बढ़ कर पूछ ही लिया, ‘‘क्या मेरे चेहरे पर कुछ लगा है?’’

‘‘नहीं बेटा, मैं तुम्हें घूर नहीं रही हूं. बस, मेरा ध्यान तुम्हारी मुसकराहट पर आ कर रुक जाता है. तुम तो बिलकुल मेरी बेटी जैसी दिखती हो, तुम्हारी तरह उस के भी हंसते हुए गालों पर गड्ढे पड़ते हैं,’’ इतना कह कर सुनीता पीछे मुड़ी और अपने आंसुओं को पोंछती हुई मौल से बाहर निकल गई. तेज कदमों से चलती हुई वह घर पहुंची और अपने कमरे में बैड पर लेट कर रोने लगी. उस के पति महेश ने उसे आवाज दी, ‘‘क्या हुआ, नीता?’’ पर वह बोली नहीं. महेश उस के पास जा कर पलंग पर बैठ गया और सुनीता का सिर सहलाता रहा, ‘‘चुप हो जाओ, कुछ तो बताओ, क्या हुआ? किसी ने कुछ कहा क्या तुम से?’’

‘‘नहीं,’’ सुनीता भरेमन से इतना ही कह पाई और मुंह धो कर रसोई में नाश्ता बनाने के लिए चली गई. महेश को कुछ समझ में नहीं आया. वह सुनीता से बहुत प्यार करता है और उस की जरा सी भी उदासी या परेशानी उसे विचलित कर देती है. वह उसे कभी दुखी नहीं देख सकता. वह प्यार से उसे नीता कहता है. वह उस के पीछेपीछे रसोई में चला गया और बोला, ‘‘नीता, देखो, अगर तुम ऐसे ही दुखी रहोगी तो मेरे लिए बैंक जाना मुश्किल हो जाएगा. अच्छा, ऐसा करता हूं कि आज मैं बैंक में फोन कर देता हूं छुट्टी के लिए. आज हम दोनों पूरे दिन एकसाथ रहेंगे. तुम तो जानती ही हो कि जब तुम्हारे होंठों की मुसकान चली जाती है तो मेरा भी मन कहीं नहीं लगता.’’

‘‘मुसकान तो कब की हमें छोड़ कर चली गई है,’’ सुनीता के इन शब्दों से महेश को पलभर में ही उस की उदासी का कारण समझ में आ गया. आखिरकार, जिंदगी के 20 साल दोनों ने एकसाथ बिताए थे, इतना तो एकदूसरे को समझ ही सकते थे.

‘‘उसे तो हम मरतेदम तक नहीं भूल सकते पर आज अचानक, ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें उस की याद आ गई?’’

सुनीता ने मौल में मिली लड़की के बारे में बताया, ‘‘वह लड़की हमारी मुसकान की उम्र की ही होगी, यही कोई 16-17 साल की. पर जब वह मुसकराती है तो एकदम मुसकान की तरह ही दिखती है. वही कदकाठी, गोरा रंग. मैं तो बारबार चुपकेचुपके उसे देख रही थी कि उस ने मेरी चोरी पकड़ ली और पूछ लिया, ‘आंटी, आप ऐसे क्या देख रहे हैं?’ मैं कुछ कह नहीं पाई और घर वापस आ गई,’’ सुनीता ने फिर कहा, ‘‘चलो, अब तुम तैयार हो जाओ. मैं तुम्हारा खाना पैक कर देती हूं. अब मैं ठीक हूं,’’ और वह रसोई में चली गई. महेश तैयार हो कर बैंक चला गया पर सुनीता को रहरह कर बेटी मुसकान का खयाल आता रहा. एक जवान बेटी की मौत का दर्द क्या होता है, यह कोई सुनीता व महेश से पूछे. मुसकान खुद तो चली गई, इन से इन के जीने का मकसद भी ले गई. 4 साल पहले उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को एक दुर्घटना में खो दिया था. हर समय उन के दिमाग में यही खयाल आता था कि क्यों किसी ने मुसकान की मदद नहीं की? अगर कोई समय रहते उसे अस्पताल ले गया होता तो शायद आज वह जिंदा होती. उस पल की कल्पना मात्र से सुनीता के रोंगटे खड़े हो गए और वह फफकफफक कर रोने लगी.

जी भर कर रो लेने के बाद सुनीता जब उठी तो अचानक उसे चक्कर आ गया और वह सोफे का सहारा ले कर बैठ गई. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ. थोड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी तो वह बैडरूम में जा कर पलंग पर ढेर हो गई और फिर उसे याद नहीं कि वह कब तक ऐसे ही पड़ी रही. दरवाजे की घंटी की आवाज से वह उठी और बामुश्किल दरवाजे पर पहुंची. महेश उस के लिए उस का मनपसंद चमेली के फूलों का गजरा लाया था. चमेली की खुशबू उसे बहुत अच्छी लगती थी. पर आज ऐसा न था. आज उसे कुछ अच्छा न लग रहा था, चाह कर भी वह उस गजरे को हाथों में न ले पाई. जैसे ही महेश उस के बालों में गजरा लगाने के लिए आगे बढ़ा तो उस ने उसे रोक दिया, ‘‘प्लीज महेश, आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ? क्या तुम अभी तक सुबह वाली बात से परेशान हो?’’ महेश ने कहा और उस का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर अपने पास बैठा लिया. ‘‘आज सुबह से ही कमजोरी महसूस कर रही हूं और चाह कर भी उठ नहीं पा रही हूं,’’ सुनीता ने बताया. महेश ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘अरे कुछ नहीं है. वह सुबह वाली बात ही तुम सोचे जा रही होगी और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम ने खाना भी नहीं खाया होगा.’’सुनीता चुपचाप अपने पैरों को देखती रही.

‘‘अच्छा चलो, आज बाहर खाना खाते हैं. बहुत दिन हुए मैं अपनी बीवी को बाहर खाने पर नहीं ले कर गया.’’ महेश सुनीता को उस उदासी से छुटकारा दिलाना चाहता था जो हर पल उसे डस रही थी. उस के लिए शायद यह दुनिया की आखिरी चीज होगी जो वह देखना चाहेगा – सुनीता का उदास चेहरा. उस के तो दो जहान और सारी खुशियां सुनीता तक ही सिमट कर रह गई थीं, मुसकान के जाने के बाद. दोनों तैयार हो कर पास के होटल में खाना खाने चले गए. महेश ने उन सभी चीजों को मंगवाया जो सुनीता की मनपसंद थीं ताकि वह उदासी से बाहर आ सके.

‘‘अरे बस करो, मैं इतना नहीं खा पाऊंगी,’’ जब महेश बैरे को और्डर लिख रहा था तो उस ने बीच में ही कह कर रोक दिया.

‘‘अरे, तुम अकेले थोडे़ ही न खाओगी, मैं भी तो खाऊंगा. भैया, तुम जाओ और फटाफट से सारी चीजें ले आओ. मैं अपनी बीवी को अब और उदास नहीं देख सकता.’’ एक हलकी मुसकान सुनीता के होंठों पर फैल गई. यह सोच कर कि महेश उस से कितना प्यार करता है और अपनेआप पर उसे गर्व भी हुआ ऐसा प्यार करने वाला पति पा कर. खाना खाने के बाद सुनीता की तबीयत कुछ संभल गई. दोनों मनपसंद आइसक्रीम खा कर घर लौट आए. इतनी गहरी नींद में सोई सुनीता कि सुबह देर से आंख खुली. उस ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो बादल घिरे हुए थे. फिर उस ने पास लेटे महेश को देखा. वह चैन की नींद सो रहा था. एक रविवार को ही तो उसे उठने की जल्दी नहीं होती बाकी दिन तो वह व्यस्त रहता है. फ्रैश हो कर वह रसोई में चली गई चाय बनाने. जब तक चाय बनी, महेश उठ कर बैठक में अखबार ले कर बैठ गया. रोज का उन का यही नियम होता था-एकसाथ सुबहशाम की चाय, फिर अपनेअपने काम की भागदौड़. बाहर बादल गरजने लगे और फिर पहले धीरे, फिर तेज बारिश होने लगी. अचानक सुनीता को लगा कि कोई बाहर खड़ा है. उस ने खिड़की में से झांका. एक लड़की खड़ी थी. उस ने जल्दी से दरवाजा खोला तो देखा वह वही मौल वाली लड़की थी. उसे दोबारा देख कर सुनीता बहुत खुश हुई, ‘‘अरे बेटा, तुम आ जाओ, अंदर आ जाओ.’’

‘‘नहीं आंटी, मैं यहीं ठीक हूं,’’ उस ने डरते हुए कहा. वह कौन सा उसे जानती थी जो उस के घर के अंदर चली जाती. सुनीता ने बड़े प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उसे खींच कर अंदर ले आई.

‘‘आंटी, आप यहां रहती हैं? मैं तो कई बार इधर से गुजरती हूं पर मैं ने आप को नहीं देखा.’’ ‘‘हां बेटा, मैं जरा घर में ही व्यस्त रहती हूं.’’

‘‘आंटी, आई एम सौरी. शायद मैं ने आप का दिल दुखाया,’’ मेघा ने कहा.

महेश एक पल को मेघा को देख कर हतप्रभ रह गया. उसे अंदाजा लगाते देर नहीं लगी कि वह मौल वाली लड़की ही है, ‘‘आओ बेटा बैठो, हमारे साथ चाय पियो.’’ उस ने घबराते हुए महेश से नमस्ते की और बोली, ‘‘अंकल, मैं चाय नहीं पीती.’’

‘‘मुसकान भी चाय नहीं पीती थी. बस, कौफी की शौकीन थी. आजकल के बच्चे कौफी ही पसंद करते हैं,’’ ऐसा बोल कर सुनीता रसोई में चली गई. मेघा भी उस के पीछेपीछे रसोई में चली गई.

‘‘तुम्हारा घर पास में ही है शायद?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘हां आंटी, अगली गली में सीधे हाथ को मुड़ते ही जो तीसरा छोटा सा घर है वही मेरा है,’’ मेघा ने बताया. ‘‘अच्छा, वह नरेश शर्मा के साथ वाला?’’ महेश ने पूछा.

‘‘जी हां, वही. मैं रोज यहां से अपने कालेज जाती हूं. आज रविवार है सो अपनी सहेली से मिलने जा रही थी. बारिश तेज हो गई, इसलिए यहीं पर रुक गई.’’ ‘‘कोई बात नहीं बेटा, यह भी तुम्हारा ही घर है. जब मन करे आ जाया करना, तुम्हारी आंटी को अच्छा लगेगा,’’ महेश ने कहा, ‘‘जब से मुसकान गई है तब से इस ने अपनेआप को इस घर में बंद कर लिया है, बाहर ही नहीं निकलती.’’ ‘‘मेरा नहीं मन करता किसी से भी बात करने का. जब से मुसकान गई है…’’ इतना बोलते ही सुनीता की रुलाई छूट गई तो मेघा ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आंटी, यह मुसकान कौन है?’’

‘‘मुसकान हमारी बेटी थी जिसे 4 साल पहले हम ने एक ऐक्सिडैंट में खो दिया.’’ मेघा ने देखा सुनीता आंटी लाख कोशिश करे अपना दुख छिपाने की पर फिर भी उदासी उन पर, अंकल पर और पूरे घर पर पसरी हुई थी.

इस बीच महेश बोले, ‘‘हौसला रखो नीता, मैं हूं न तुम्हारे साथ, बस मुसकान का इतना ही साथ था हमारे साथ.’’ इधर, मेघा ने अब जिज्ञासा जाहिर की, ‘‘आंटी, आप मुझे विस्तार से बताइए, क्या हुआ था.’’ ‘‘बेटा, हमारी शादी के 3 साल बाद मुसकान हमारे घर आई तो हमें ऐसा लगा कि इक नन्ही परी ने जन्म लिया है. हमारे घर में उस की मुसकराहट हूबहू तुम्हारे जैसी थी, ऐसे ही गालों में गड्ढे पड़ते थे.’’

‘‘ओह, तो इसलिए उस दिन आप मुझे मौल में बारबार मुड़मुड़ कर देख रही थीं.’’ ‘‘हां बेटा, अब तुम्हें सचाई पता चल गई, अब तो तुम नाराज नहीं होना अपनी आंटी से,’’ महेश ने कहा.

‘‘नहीं अंकल, वह तो मैं कब का भूल गई.’’

‘‘खुश रहो बेटा,’’ कहते हुए महेश चाय पीने लगे. सुनीता ने मेघा को बताना जारी रखा, ‘‘मुसकान को बारिश में घूमना बहुत पसंद था. हमारे लाड़प्यार ने उसे जिद्दी बना दिया था. इकलौती संतान होने से वह अपनी सभी जायजनाजायज बातें मनवा लेती थी. जब उस ने 10वीं की परीक्षा पास की तो स्कूटी लेने की जिद की. हम ने बहुत मना किया कि तुम अभी 15 साल की हो, 18 की होने पर ले लेना, पर वह नहीं मानी. खानापीना, हंसना, बोलना सब छोड़ दिया. हमें उस की जिद के आगे झुकना पड़ा और हम ने उसे स्कूटी ले दी. मैं ने उसे ताकीद की कि वह स्कूटी यहीं आसपास चलाएगी, दूर नहीं जाएगी. इसी शर्त पर मैं ने उसे स्कूटी की चाबी दी. वह मान गई और हम से लिपट गई. ‘‘उस दिन वह जिद कर के स्कूटी से अपनी सहेली के घर चली गई. हम उस का इंतजार कर रहे थे. उस दिन भी ऐसी ही बारिश हो रही थी. 2 घंटे बीत गए तब सिटी अस्पताल से फोन आया, ‘जी, हमें आप का नंबर एक लड़की के मोबाइल से मिला है. आप कृपया कर के जल्द सिटी अस्पताल पहुंच जाएं.’ ‘‘डर और घबराहट के चलते मेरे पैर जड़ हो गए. हम दोनों बदहवास से वहां पहुंचे. देखा, हमारी मुसकान पलंग पर लेटी हुई थी, औक्सीजन लगी हुई थी, सिर पर पट्टियां बंधी हुई थीं और साथ वाले पलंग पर उस की सहेली बेहोश थी. जब उसे होश आया तो उस ने बताया, ‘हम दोनों बारिश में स्कूटी पर दूर निकल गईं. पास से एक गाड़ी ने बड़ी तेजी से ओवरटेक किया, जिस से हमें कच्चे रास्ते पर उतरना पड़ा और उस गीली मिट्टी में स्कूटी फिसल गई. हम दोनों गिर गए और बेहोश हो गए. उस के बाद हम यहां कैसे पहुंचे, नहीं मालूम.’ ‘‘इसी बीच डाक्टर आ गए. उन्होंने मुझे और महेश को बताया कि सिर पर चोट लगने से बहुत खून बह गया है. हम ने सर्जरी तो कर दी है पर फिर भी अभी कुछ कह नहीं सकते. अभी 48 घंटे अंडर औब्जर्वेशन में रखना पड़ेगा. डाक्टर की बात सुन कर हम रोने लगे. ये भी परेशान हो गए. पलभर में हमारी दुनिया ही बदल गई. नर्स ने कहा, ‘घबराइए नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’ तकरीबन 2 घंटे बाद मुसकान को होश आया,’’ बोलतेबोलते सुनीता का गला रुंध आया तो वह चुप हो गई.

‘‘फिर क्या हुआ अंकल? प्लीज, आप बताइए?’’ मेघा ने डरते हुए पूछा. महेश के चेहरे पर अवसाद की गहरी परत छा गई थी तो सुनीता ने कहा, ‘‘वह जब होश में आई तो उस से कुछ कहा ही नहीं गया. बस, अपने हाथ जोड़ दिए और हमेशा के लिए शांत हो गई.’’ और फिर सुनीता फूटफूट कर रोने लगी. उन का रुदन देख कर मेघा की भी रुलाई छूट गई. उसे समझ नहीं आया कि वह उन से क्या कहे. उस ने सुनीता और महेश का हाथ अपने हाथों में ले कर बस इतना ही कहा, ‘‘मुझे अपनी मुसकान ही समझिए और मैं पूरी कोशिश करूंगी आप की मुसकान बनने की.’’

उन दोनों के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘खुश रहो बेटा.’’ बाहर बारिश थम चुकी थी और अंदर तूफान गुजर चुका था. मेघा वापस आने का वादा कर के वहां से चली गई. उस से बातें कर के दोनों बहुत हलका महसूस कर रहे थे. दोनों रविवार का दिन अनाथ आश्रम में गरीब बच्चों के साथ बिताते थे. दोनों कपड़े बदल कर वहां चले गए. मेघा जब भी कालेज जाती तो अकसर सुनीता और महेश को बाहर लौन में बैठे देखती तो कभी हाथ हिलाती, कभी वक्त होता तो मिलने भी चली जाती थी. वक्त गुजरने लगा. मेघा के आने से सुनीता अपनी सेहत को बिलकुल नजरअंदाज करने लगी. यदाकदा उसे चक्कर आते थे, कई बार आंखों के आगे धुंधला भी नजर आता तो वह सब उम्र का तकाजा समझ कर टाल जाती. इंतजार करतेकरते 10 दिन हो गए पर मेघा नहीं आई, न ही वह कालेज जाती नजर आई. दोनों को उस की चिंता हुई और जब दोनों से रहा नहीं गया तो वे एक दिन उस के घर पहुंच गए. दरवाजे की घंटी बजाई तो एक 49-50 साल की अधेड़ महिला ने दरवाजा खोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘क्या मेघा यहीं रहती है?’’ महेश ने पूछा.

‘‘जी हां, आप सुनीता और महेशजी हैं?’’

सुनीता ने उत्सुकता से जवाब दिया, ‘‘हां, मैं सुनीता हूं और ये मेरे पति महेश हैं.’’

‘‘आप अंदर आइए. प्लीज,’’ बोल कर सुगंधा उन्हें कमरे में ले आई. पूरा घर 2 कमरों में सिमटा था. एक बैडरूम और एक बैठक, बाहर छोटी सी रसोई और स्नानघर. मेघा यहां अपनी मां सुगंधा के साथ अकेली रहती थी उस के पिताजी, जब वह बहुत छोटी थी तब ही संसार से जा चुके थे. सुगंधा एक स्कूल में अध्यापिका थी जिस से उन का घर का गुजारा चलता था. ‘‘मेघा कहां है? बहुत दिन हुए, वह घर नहीं आई तो हमें चिंता हुई. हम उस से मिलने आ गए,’’ सुनीता ने चिंता व्यक्त की.

‘‘वह दवा लेने गई है,’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘आप को क्या हुआ बहनजी?’’ महेश ने पूछा.

सुगंधा उदास हो गई, ‘‘मेरी दवा नहीं भाईसाहब, वह अपनी दवा लेने गई है.’’

‘‘उसे क्या हुआ है?’’ दोनों ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘2-3 साल पहले की बात है. इसे बारबार यूरीन इनफैक्शन हो जाता था. डाक्टर दवा दे देते तो ठीक हो जाता पर बाद में फिर हो जाता. पिछले 10 दिनों से इनफैक्शन के साथ बुखार भी है. पैरों में सूजन भी आ गई है. मैं ने बहुत मना किया पर फिर भी जिद कर के दवा लेने चली गई. अभी आ जाएगी.’’

‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘डाक्टर को डर है कि कहीं किडनी फेल्योर का केस न हो,’’ कह कर वे रोने लगीं. सुनीता ने उठ कर उन्हें गले से लगा लिया और सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘सुगंधाजी, ऐसा कुछ नहीं होगा. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘सुनीताजी, डाक्टर ने कुछ टैस्ट करवाए हैं. कल तक रिपोर्ट आ जाएगी,’’ सुगंधा ने बताया. इतने में मेघा आ गई. उस की मुसकान होंठों से गायब हो चुकी थी, रंग पीला पड़ गया था, आंखों के आसपास सूजन आ गई थी, वह बहुत कमजोर लग रही थी. सुनीता और महेश उसे देख कर सन्न रह गए. वे वहां ज्यादा देर न बैठ सके. चलते समय महेश ने मेघा के सिर पर हाथ रखा और सुगंधा से कहा, ‘‘बहनजी, कल हम आप के साथ रिपोर्ट लेने चलेंगे,’’ ऐसा कह कर वे दोनों अपने घर लौट आए. घर आ कर सुनीता सोफे पर ऐसी ढेर हुई कि काफी देर तक हिली ही नहीं. जब महेश ने उस से अंदर जा कर आराम करने को कहा तो वह अपनेआप को चलने में ही असमर्थ पा रही थी. महेश उसे सहारा दे कर अंदर ले गया, ‘‘परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा.’’ अगले दिन दोनों सुगंधा के साथ अस्पताल चले गए. उन पर पहाड़ टूट पड़ा जब डाक्टर ने बताया, ‘यह केस किडनी फेल्योर का है. अब मेघा को डायलिसिस पर रहना होगा जब तक डोनर किडनी नहीं मिल जाती.’ सुगंधा तो बेहोश हो कर गिर ही जाती अगर महेश ने उसे सहारा न दिया होता. उस ने उसे कुरसी पर बैठाया और पानी पिलाया, ‘‘हिम्मत रखिए सुगंधाजी, अगर आप ऐसे टूट जाएंगी तो मेघा को कौन संभालेगा? हम जल्दी मेघा के लिए डोनर ढूंढ़ लेंगे, आप चिंता न करें.’’

मेघा की बीमारी से दोनों परिवारों पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा. सुनीता तो अब ज्यादातर बीमार ही रहने लगी और अचानक एक दिन बेहोश हो कर गिर पड़ी. महेश अभी बैंक जाने के लिए तैयार ही हो रहा था कि धम्म की आवाज से रसोई में भागा तो देखा सुनीता नीचे फर्श पर बेहोश पड़ी हुई है. उस के हाथपैर फूलने लगे पर फिर हिम्मत कर के उस ने एंबुलैंस को फोन कर के बुलाया. इमरजैंसी में उसे भरती किया गया और सारे टैस्ट किए गए पर कुछ हासिल न हो सका. सुनीता हमेशा के लिए चली गई. डाक्टर ने जब कहा, ‘‘यह केस ब्रेन डैड का है, हम उन्हें बचा न पाए,’’ तो महेश धम्म से कुरसी पर गिर गया और सुनीता का चेहरा उस की आंखों के आगे घूमने लगा. पता नहीं वह कितनी देर वहीं पर उसी हाल में बैठा रहा कि अचानक वह फुरती से उठा और डाक्टर के पास जा कर बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मैं सुनीता के और्गन डोनेट करना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि सुनीता की किडनी मेघा को लगा दी जाए.’’ डाक्टर ने फटाफट सारे टैस्ट करवाए और सुगंधा व मेघा को अस्पताल में बुला लिया. संयोग ऐसा था कि सुनीता की किडनी ठीक थी और वह मेघा के लिए हर लिहाज से ठीक बैठती थी. खून और टिश्यू सब मिल गए. औपरेशन के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘औपरेशन कामयाब रहा. बस, कुछ दिन मेघा को यहां अंडर औब्जर्वेशन रखेंगे और फिर वह घर जा कर अपनी जिंदगी सामान्य ढंग से जिएगी.’’

सुगंधा ने आगे बढ़ कर महेश के पांव पकड़ लिए और रोने लगीं. महेश ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘सुगंधाजी, आप रोइए नहीं. बस, मेघा का खयाल रखिए.’’ घर आ कर सब क्रियाकर्म हो गया. बारीबारी से लोग आते रहे, अफसोस प्रकट कर के जाते रहे. अंत में महेश अकेला रह गया सुनीता की यादों के साथ. उस ने उठ कर सुनीता की फोटो पर हार चढ़ाया. अपने चश्मे को उतार कर अपनी आंखों को साफ करते हुए बोला, ‘‘देखा नीता, हमारी मुसकान को तो मैं बचा नहीं पाया, पर इस मुसकान को तुम ने बचा लिया.’’ जैसे ही महेश पलटा तो उस ने देखा कि उस के पीछे मेघा खड़ी थी और उसी ‘डिंपल’ वाली मुसकान के साथ जैसे कह रही हो कि आप अकेले नहीं हैं, यह ‘मुसकान’ है आप के साथ.

मैट्रिमोनियल: पंकज को क्यों दाल में कुछ काला नजर आ रहा था

पंकज कई दिनों से सोच रहा था कि रामचंदर बाबू के यहां हो आया जाए, पर कुछ संयोग ही नहीं बना. दरअसल, महानगरों की यही सब से बड़ी कमी है कि सब के पास समय की कमी है. दिल्ली शहर फैलता जा रहा है.

15-20 किलोमीटर की दूरी को ज्यादा नहीं माना जाता. फिर मैट्रो ने दूरियों को कम कर दिया है. लोगों को आनाजाना आसान लगने लगा है. पंकज ने तय किया कि  कल रविवार है, हर हाल में रामचंदर बाबू से मुलाकात करनी ही है.

किसी के यहां जाने से पहले एक फोन कर लेना तहजीब मानी जाती है और सहूलियत भी. क्या मालूम आप 20 किलोमीटर की दूरी तय कर के पहुंचें और पता चला कि साहब सपरिवार कहीं गए हैं. तब आप फोन करते हैं. मालूम होता है कि वे तो इंडिया गेट पर हैं. मन मार कर वापस आना पड़ता है. मूड तो खराब होता ही है, दिन भी खराब हो जाता है. पंकज ने देर करना मुनासिब नहीं समझा, उस ने मोबाइल निकाल कर रामंचदर बाबू को फोन मिलाया.

रामचंदर बाबू घर पर ही थे. दरअसल, वे उम्र में पंकज से बड़े थे. वे रिटायर हो चुके हैं. उन्होंने 45 साल की उम्र में वीआरएस ले लिया था. आज 50 के हो चुके हैं.

‘‘हैलो, मैं हूं,’’ पंकज ने कहा.

‘‘अरे वाह,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘काफी दिनों बाद तुम्हारी आवाज सुनाई दी. कैसे हो भाई.’’

‘‘मैं ठीक हूं. आप कैसे हैं?’’

‘‘मुझे क्या होना है. बढि़या हूं. कहां हो?’’

‘‘अभी तो औफिस में ही हूं, कल क्या कर रहे हैं, कहीं जाना तो नहीं है?’’

‘‘जाना तो है. पर सुबह जाऊंगा. 10-11 बजे तक वापस आ जाऊंगा. क्यों, तुम आ रहे हो क्या?’’

‘‘हां, बहुत दिन हो गए.’’

‘‘तो आ जाओ. मैं बाद में चला जाऊंगा या नहीं जाऊंगा. जरूरी नहीं है.’’

‘‘नहीं, नहीं. मैं तो लंच के बाद ही आऊंगा. आप आराम से जाइए. वैसे जाना कहां है?’’

‘‘वही, रिनी के लिए लड़का देखने. नारायणा में बात चल रही थी न. तुम्हें बताया तो था. फोन पर साफ बात नहीं कर रहे हैं, टाल रहे हैं. इसलिए सोचता हूं एक बार हो आऊं.’’

‘‘ठीक है, हो आइए. पर मुझे नहीं लगता कि वहां बात बनेगी. वे लोग मुझे जरा घमंडी लग रहे हैं.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. मुझे भी यही लगता है. कल फाइनल कर ही लेता हूं. फिर तुम अपनी भाभी को तो जानते ही हो.’’

‘‘ठीक है, बल्कि यही ठीक होगा. भाभीजी कैसी हैं, उन का घुटना अब कैसा है?’’

‘‘ठीक ही है. डाक्टर ने जो ऐक्सरसाइज बताई है वह करें तब न.’’

‘‘और नीरज आया था क्या?’’

‘‘अरे हां, आजकल आया हुआ है. एकदम ठीक है. तुम्हारे बारे में आज ही पूछ भी रहा था. खैर, तुम कितने बजे तक आ जाओगे?’’

‘‘मैं 4 बजे के करीब आऊंगा.’’

‘‘ठीक है. चाय साथ पिएंगे. फिर खाना खा कर जाना.’’

‘‘रिनी की कहीं और भी बात चल रही है क्या? देखते रहना चाहिए. एक के भरोसे तो नहीं बैठे रहा जा सकता न.’’

‘‘चल रही है न. अब आओ तो बैठ कर इत्मीनान से बात करते हैं.’’

‘‘ठीक है. तो कल पहुंचता हूं. फोन रखता हूं, बाय.’’

मोबाइल फोन का यही चलन है. शुरुआत में न तो नमस्कार, प्रणाम होता है और न ही अंत में होता है. बस, बाय कहा और बात खत्म.

रामचंदर बाबू के एक लड़का नीरज व लड़की रिनी है. रिनी बड़ी है. वह एमबीए कर के नौकरी कर रही है. साढे़ 6 लाख रुपए सालाना का पैकेज है. नीरज बीटैक कर के 3 महीने से एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब कर रहा है. रामचंदर बाबू रिनी की शादी को ले कर बेहद परेशान थे. दरअसल, उन के बच्चे शादी के बाद देर से पैदा हुए थे. पढ़ाई, नौकरी व कैरियर के कारण पहले तो रिनी ही शादी के लिए तैयार नहीं थी, जब राजी हुई तब उस की उम्र 28 साल थी. देखतेदेखते समय बीतता गया और रिनी अब 30 वर्ष की हो गई, लेकिन शादी तय नहीं हो पाई. नातेरिश्तेदारों व दोस्तों को भी कह रखा था. अखबारों में भी विज्ञापन दिया था. मैट्रिमोनियल साइट्स पर भी प्रोफाइल डाल रखा था. अब जब अखबार ने उन का विज्ञापन 30 प्लस वाली श्रेणी में रखा तब उन्हें लगा कि वाकई देर हो गई है. वे काफी परेशान हो गए.

पंकज जब उन के यहां पहुंचा तो 4 ही बजे थे. रामचंदर बाबू घर पर ही थे. पंकज का उन्होंने गर्मजोशी से स्वागत किया. उन के चेहरे पर चमक थी. पंकज को लगा रिनी की बात कहीं बन गई है.

‘‘क्या हाल है रामचंदर बाबू,’’ पंकज ने सोफे पर बैठते हुए पूछा.

‘‘हाल बढि़या है. सब ठीक चल रहा है.’’

‘‘रिनी की शादी की बात कुछ आगे बढ़ी क्या?’’

‘‘हां, चल तो रही है. देखो, सबकुछ ठीक रहा तो शायद जल्द ही फाइनल हो जाएगा.’’

‘‘अरे वाह, यह तो बहुत अच्छा हुआ. नारायणा वाले तो अच्छे लोग निकले.’’

‘‘नारायणा वाले नहीं, वे लोग तो अभी भी टाल रहे हैं. मैं गया था तो बोले कि 2-3 हफ्ते में बताएंगे.’’

‘‘फिर कहां की बात कर रहे हैं?’’

रामचंदर बाबू खिसक कर उस के नजदीक आ गए.

‘‘बड़ा बढि़या प्रपोजल है. इंटरनैट से संपर्क हुआ है.’’

‘‘इंटरनैट से? वह कैसे?’’

‘‘मैं तुम्हें विस्तार से बताता हूं. इंटरनैट पर मैट्रिमोनियल की बहुत सी साइट्स हैं. वे लड़के और लड़कियां की डिटेल रखते हैं. उन पर अकाउंट बनाना होता है, मैं ने रिनी का अकाउंट बनाया था. मुंबई के बड़े लोग हैं. बहुत बड़े आदमी हैं. अभी पिछले हफ्ते ही तो मैं ने उन का औफर एक्सैप्ट किया था.’’

‘‘लड़का क्या करता है?’’

‘‘लड़का एमटैक है आईआईटी मुंबई से. जेट एयरवेज में चीफ इंजीनियर मैंटिनैंस है. 22 लाख रुपए सालाना का पैकेज है. तुम तो उस का फोटो देखते ही पसंद कर लोगे. एकदम फिल्मी हीरो या मौडल लगता है. अकेला लड़का है. कोई बहन भी नहीं है.’’

‘‘चलिए, यह तो अच्छी बात है. उस का बाप क्या करता है?’’

‘‘बिजनैसमैन हैं. मुंबई में 2 फैक्टरियां हैं.’’

‘‘2 फैक्टरियां? फिर तो बहुत बड़े आदमी हैं.’’

‘‘बहुत बड़े. कहने लगे इतना कुछ है उन के पास कि संभालना मुश्किल हो रहा है. लड़के का मन बिजनैस में नहीं है, नहीं तो नौकरी करने की कोई जरूरत ही नहीं है. कह रहे थे बिजनैस तो रिनी ही संभालेगी, एमबीए जो है. घर में 3-3 गाडि़यां हैं,’’ रामचंदर बाबू खुशी में कहे जा रहे थे.

‘‘इस का मतलब है कि आप की बात हो चुकी है.’’

‘‘बात तो लगभग रोज ही होती है. एक्सैप्ट करने के बाद साइट वाले कौंटैक्ट नंबर दे देते हैं. जितेंद्रजी कहने लगे कि जब से आप से बात हुई है, दिन में एक बार बात किए बिना चैन ही नहीं मिलता. कई बार तो रात के 12 बजे भी उन का फोन आ जाता है. व्यस्त आदमी हैं न.’’

‘‘कुछ लेनदेन की बात हुई है क्या?’’

‘‘मैं ने इशारे में पूछा था. कहने लगे, कुछ नहीं चाहिए. न सोना, न रुपया, न कपड़ा. बस, सादी शादी. बाकी वे लोग बाद में किसी होटल में पार्टी करेंगे. होटल का नाम याद नहीं आ रहा है. कोई बड़ा होटल है.’’

‘‘घर में और कौनकौन है?’’

‘‘बस, मां हैं और कोई नहीं है. नौकरचाकरों की तो समझो फौज है.’’

‘‘आप ने रिश्तेदारी तो पता की ही होगी. कोई कौमन रिश्तेदारी पता चली क्या?’’

‘‘मैं ने पूछा था. दिल्ली में कोई नहीं है. मुंबई में भी सभी दोस्तपरिचित ही हैं. वैसे बात तो वे सही ही कह रहे हैं. अब हमारी ही कौन सी रिश्तेदारियां बची हैं. एकाध को छोड़ दो तो सब से संबंध खत्म ही हैं. मेरे बाद नीरज और रिनी क्या रिश्तेदारियां निबाहेंगे भला. खत्म ही समझो.’’

‘‘चलिए, ठीक ही है. बात आगे तो बढ़े.’’ वैसे मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, ‘‘शादीब्याह का मामला है, कुछ सावधानियां तो बरतनी ही पड़ती हैं.’’

‘‘हां, सो तो है ही. मैं सावधान तो हूं ही. पर सावधानी के चक्कर में इतना अच्छा रिश्ता कैसे छोड़ दूं. रिनी की उम्र तो तुम देख ही रहे हो.’’

‘‘नहीं, मेरा यह मतलब नहीं था. फिर भी जितना हो सके बैकग्राउंड तो पता कर ही लेना चाहिए.’’

‘‘वो तो करूंगा ही भाई.’’

चायवाय पी कर पंकज वापस चला गया. सबकुछ तो ठीक था पर एक बात थी जो अजीब लग रही थी उसे. आखिर उन लोगों को रिनी में ऐसी कौन सी खासियत नजर आ गई थी जो वे शादी के लिए एकदम तैयार हो गए. बहरहाल, शादीब्याह तो जहां होना है वहीं होगा, फिर भी चलतेचलते उस ने इतना कह ही दिया कि आप एक बार मुंबई जा कर परिवार, फैक्टरियां वगैरह देख आइए. कम से कम तसल्ली तो हो जाएगी. उन्होंने जाने का वादा किया.

अगले शनिवार रामचंदर बाबू ने पंकज को फोन किया.

‘‘अरे, कहां हो भाई? क्या हाल है?’’ मुझे उन का स्वर उत्तेजित लगा.

‘‘मैं घर पर ही हूं,’’ पंकज ने कहा, ‘‘क्या हुआ. सब ठीक तो है.’’

‘‘हां, सब ठीक है. कल का कोई प्रोग्राम तो नहीं है?’’

‘‘नहीं. पर हुआ क्या, तबीयत वगैरह तो ठीक है न?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है. अरे, वह रिनी वाला संबंध है न. वही लोग कल आ रहे हैं.’’

‘‘आ रहे हैं? पर क्यों?’’

‘‘अरे, लड़की देखने भाई. सब ठीक रहा तो कोई रस्म भी कर देंगे.’’

‘‘जरा विस्तार से बताइए. पर रुकिए, क्या आप मुंबई हो आए, घरपरिवार देख आए क्या?’’

‘‘अरे, कहां? मैं बताता हूं. तुम्हारे जाने के बाद उन का फोन आ गया था. काफी बातें होती रहीं. पौलिटिक्स पर भी उन की अच्छी पकड़ है. बडे़ बिजनैसमैन हैं. 2-2 फैक्टरियां हैं. पौलिटिक्स पर नजर तो रखनी ही पड़ती है. फिर मैं ने उन से कहा कि अपना पूरा पता बता दीजिए, मैं आ कर मिलना चाहता हूं. कहने लगे आप क्यों परेशान होते हैं. लेकिन आना चाहते हैं तो जरूर आइए. वर्ली में किसी से भी स्टील फैक्टरी वाले जितेंद्रजी पूछ लीजिएगा, घर तक पहुंचा जाएगा. कहने लगे कि फ्लाइट बता दीजिए, ड्राइवर एयरपोर्ट से ले लेगा.’’

‘‘बहुत बढि़या.’’

मैं ने कहा, हवाईजहाज से नहीं, मैं तो ट्रेन से आऊंगा. तो बोले टाइम बता दीजिएगा, स्टेशन से ही ले लेगा. बल्कि वे तो जिद करने लगे कि हवाईजहाज का टिकट भेज देता हूं. 2 घंटे में पहुंच जाइएगा. मैं ने किसी तरह से मना किया.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या. मैं रिजर्वेशन ही देखता रह गया और कल सुबहसुबह ही उन का फोन आ गया.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘हां. उन्होंने बताया कि वे 15 दिनों के लिए स्वीडन जा रहे हैं. वहां उन का माल एक्सपोर्ट होता है न. पत्नी भी साथ में जा रही हैं. पत्नी की राय से ही उन्होंने फोन किया था. उन की पत्नी का कहना था कि जाने से पहले लड़की देख लें. और ठीक हो तो कोई रस्म भी कर देंगे. सो, बोले हम इतवार को आ रहे हैं.’’

‘‘बड़ा जल्दीजल्दी का प्रोग्राम बन रहा है. क्या लड़का भी साथ में आ रहा है?’’

‘‘ये लो. लड़का नहीं आएगा भला. बड़ा व्यस्त था. पर जितेंद्रजी ने कहा कि आप ने भी तो नहीं देखा है. लड़कालड़की दोनों एकदूसरे को देख लें, बात कर लें, तभी तो हमारा काम शुरू होगा न.’’

‘‘यह तो ठीक बात है. कहां ठहराएंगे उन्हें.’’ पंकज जानता था कि रामचंदर बाबू का मकान बस साधारण सा ही है. एसी भी नहीं है. सिर्फ कूलर है.

‘‘ठहरेंगे नहीं. उसी दिन लौट जाएंगे.’’

‘‘पर आएंगे तो एयरपोर्ट पर ही न.’’

‘‘नहीं भाई, बड़े लोग हैं. उन की पत्नी ने कहा कि जब जा ही रहे हैं तो लुधियाना में अपने भाई के यहां भी हो लें. अब उन का प्रोग्राम है कि वे आज ही फ्लाइट से लुधियाना आ जाएंगे. ड्राइवर गाड़ी ले कर लुधियाना आ जाएगा. कल सुबह 8 बजे घर से निकल कर 11 बजे तक दिल्ली पहुंच जाएंगे व लड़की देख कर लुधियाना वापस लौट जाएंगे. वहीं से मुंबई का हवाईजहाज पकडेंगे. ड्राइवर गाड़ी वापस मुंबई ले जाएगा.’’

‘‘बड़ा अजीब प्रोग्राम है. उन के साले के पास गाड़ी नहीं है क्या, जो मुंबई से ड्राइवर गाड़ी ले कर आएगा. उस की भी तो लुधियाना में फैक्टरी है.’’

‘‘बड़े लोग हैं. क्या मालूम अपनी गाड़ी में ही चलते हों.’’

‘‘क्या मालूम. लेकिन आप जरा घर ठीक से डैकोरेट कर लीजिएगा.’’

‘‘अरे, मैं बेवकूफ नहीं हूं भाई, मेरा घर उन के स्तर का नहीं है. होटल रैडिसन में 6 लोगों का लंच बुक कर लिया है. पहला इंप्रैशन ठीक होना चाहिए.’’

‘‘चलिए, यह आप ने अच्छा किया. नीरज तो है ही न.’’

‘‘वह तो है, पर भाई तुम आ जाना. बड़े लोग हैं. तुम ठीक से बातचीत संभाल लोगे. मैं क्या बात कर पाऊंगा. तुम रहोगे तो मुझे सहारा रहेगा. तुम साढ़े 10 बजे तक रैडिसन होटल आ जाना. हम वहीं मिल जाएंगे.’’

‘‘मैं समय से पहुंच जाऊंगा. आप निश्चित रहें.’’

सारी बातें उसे कुछ अजीब सी लग रही थीं. पंकज ने मन ही मन तय किया कि रामचंदर बाबू से कहेगा कि कल कोई रस्म न करें. जरा रुक कर करें और हो सके तो मुंबई से लौट कर करें.

पंकज घर से 10 बजे ही होटल रैडिसन के लिए निकल गया. आधा घंटा तो लग ही जाना था. आधे रास्ते में ही था कि मोबाइल की घंटी बजी. नंबर रामचंदर बाबू का ही था.

‘‘क्या हो गया रामचंदर बाबू. मैं रास्ते में हूं, पहुंच रहा हूं.’’

‘‘अरे, जल्दी आओ भैया, गजब हो गया.’’

‘‘गजब हो गया? क्या हो गया.’’

‘‘तुम आओ तो. लेकिन जल्दी आओ.’’

‘‘मैं बस 10 मिनट में रैडिसन पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘रैडिसन नहीं, रैडिसन नहीं. घर आओ, जल्दी आओ.’’

‘‘मैं घर ही पहुंचता हूं, पर आप घबराइए नहीं.’’

अगले स्टेशन से ही उस ने मैट्रो बदल ली. क्या हुआ होगा. फोन उन्होंने खुद किया था. घबराए जरूर थे पर बीमार नहीं थे. कहीं रिनी ने तो कोई ड्रामा नहीं कर दिया.

दरवाजा नीरज ने खोला. सामने ही सोफे पर रामचंदर बाबू बदहवास लेटे थे. उन की पत्नी पंखा झल रही थीं व रिनी पानी का गिलास लिए खड़ी थी. पंकज को देखते ही झटके से उठ कर बैठ गए.

‘‘गजब हो गया भैया, अब क्या होगा.’’

‘‘पहले शांत हो जाइए. घबराने से क्या होगा. हुआ क्या है?’’

‘‘ऐक्सिडैंट…ऐक्सिडैंट हो गया.’’

‘‘किस का ऐक्सिडैंट हो गया?’’

‘‘जितेंद्रजी का ऐक्सिडैंट हो गया भैया. अभी थोड़ी देर पहले फोन आया था. अरे नीरज, जल्दी जाओ बेटा. देरी न करो.’’

नीरज ने जाने की कोई जल्दी नहीं दिखाई.

‘‘एक मिनट,’’ पंकज ने रामचंदर बाबू को रोका. ‘‘पहले बताइए तो क्या ऐक्सिडैंट हुआ, कहां हुआ. कोई सीरियस तो नहीं है?’’

‘‘अरे, मैं क्या बताऊं,’’ रामचंदर बाबू जैसे बिलख पड़े, ‘‘कहीं वे मेरी रिनी को मनहूस न समझ लें. अब क्या होगा भैया.’’

‘‘मैं बताता हूं अंकल,’’ नीरज बोला जो कुछ व्यवस्थित लग रहा था, ‘‘अभी साढ़े 9-10 बजे के बीच में जितेंद्र अंकल का फोन आया था. उन्होंने बताया कि ठीक 8 बजे वे लुधियाना से दिल्ली अपनी कार से निकल लिए थे. उन की पत्नी व बेटा भी उन के साथ थे. दिल्ली से करीब 45 किलोमीटर दूर शामली गांव के पहले उन की विदेशी गाड़ी की किसी कार से साइड से टक्कर हो गई. कोई बड़ा एक्सिडैंट नहीं है. सभी लोग स्वस्थ हैं. किसी को कोई चोट नहीं आई है.’’

‘‘तब समस्या क्या है, वे आते क्यों नहीं?’’

‘‘कार वाले ने समस्या खड़ी कर दी. वह पैसे मांग रहा है. कोई दारोगा भी आ गया है.’’

‘‘फिर?’’

‘‘कार वाले से 50 हजार रुपए में समझौता हुआ है.’’

‘‘तो उन्होंने दे दिया कि नहीं.’’

‘‘उन के पास नकद 25 हजार रुपए ही हैं. उन्होंने बताया कि पास में ही एक एटीएम है. पर अंकल का कार्ड चल ही नहीं रहा है.’’

‘‘अरे, तुम जा कर उन के खाते में 25 हजार डाल क्यों नहीं देते बेटा.’’ रामचंदर बाबू कलपे, ‘‘अब तक तो डाल कर आ भी जाते.’’

पंकज ने प्रश्नसूचक दृष्टि से नीरज की तरफ देखा.

‘‘अंकल के ड्राइवर का एटीएम कार्ड चल रहा है. पर उस के खाते में रुपए नहीं हैं. अंकल ने पापा से कहा है कि वे ड्राइवर के खाते में 25 हजार रुपए जमा कर दें, वे दिल्ली आ कर मैनेज कर देंगे. ड्राइवर का एटीएम कार्ड भारतीय स्टेट बैंक का है. मैं वहीं जमा कराने जा रहा हूं.’’

‘‘एक मिनट रुको नीरज. मुझे मामला कुछ उलझा सा लग रहा है. रामचंदर बाबू आप को कुछ अटपटा नहीं लग रहा है?’’

‘‘कैसा अटपटा?’’

‘‘उन्होंने अपने साले से लुधियाना, जहां रात में रुके भी थे, रुपया जमा कराने के लिए क्यों नहीं कहा?’’

‘‘शायद रिश्तेदारी में न कहना चाहते हों.’’

‘‘तो आप से क्यों कहा? आप से तो नाजुक रिश्तेदारी होने वाली है.’’

‘‘शायद मुझ पर ज्यादा भरोसा हो.’’

‘‘कैसा भरोसा? अभी तो आप लोगों ने एकदूसरे का चेहरा भी नहीं देखा है. फिर 2-2 फैक्टरियों के किसी मैनेजर को फोन कर के रुपया जमा करने को क्यों नहीं कहा?’’

‘‘अरे, दिल्ली से 45 किलोमीटर दूर ही तो हैं वे. मुंबई दूर है.’’

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‘‘क्या बात करते हैं? कंप्यूटर के लिए क्या दिल्ली क्या मुंबई. लड़का भी तो साथ है. उस का भी कोई कार्ड नहीं चल रहा है. आजकल तो कईकई क्रैडिटडैबिट कार्ड रखने का फैशन है.’’

‘‘क्या मालूम?’’ रामचंदर बाबू भी सोच में पड़ गए.

‘‘किसी का कार्ड नहीं चल रहा है. सिर्फ ड्राइवर का कार्ड चल रहा है. बात जरा समझ में नहीं आ रही है.’’

‘‘तो क्या किया जाए भैया. बड़ी नाजुक बात है. अगर सच हुआ तो बात बिगड़ी ही समझो.’’

‘‘इसीलिए तो मैं कुछ बोल नहीं पा रहा हूं?’’

‘‘नहीं. तुम साफ बोलो. अब बात फंस गई है.’’

‘‘यह फ्रौड हो सकता है. आप रुपया जमा करा दें और फिर वे फोन ही न उठाएं तो आप उन्हें कहां ढूंढ़ेंगे?’’

‘‘25 हजार रुपए का रिस्क है,’’ नीरज धीरे से बोला.

‘‘मेरा तो दिमाग ही नहीं चल रहा है. इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है. बताओ, अब क्या किया जाए?’’

‘‘नीरज, तुम्हें अकाउंट नंबर तो बताया है न.’’

‘‘हां, ड्राइवर का अकाउंट नंबर बताया है. स्टेट बैंक का है. इसी में जमा करने को कहा है.’’

‘‘चलो, सामने वाले पीसीओ पर चलते हैं. तुम उन को वहीं से फोन करो और कहो कि बैंक वाले बिना खाता होल्डर की आईडी प्रूफ के रुपया जमा नहीं कर रहे हैं. कह देना मैं मैनेजर साहब के केबिन से बोल रहा हूं. आप इन्हीं के फैक्स पर ड्राइवर की आईडी व अकाउंट नंबर फैक्स कर दें. वैसे, ऐसा कोई नियम नहीं है. 25 हजार रुपए तक जमा किया जा सकता है. हो सकता है वे ऐसा कुछ कहें. तो कहना, लीजिए, मैनेजर साहब से बात कर लीजिए. तब फोन मुझे दे देना. मैं कह दूंगा कि अब यह नियम आ गया है.’’

‘‘इस से क्या होगा?’’

‘‘आईडी और अकाउंट नंबर का फैक्स पर आ गया तो रुपया जमा कर देंगे, वरना तो समझना फ्रौड है.’’

‘‘अगर वहां फैक्स सुविधा न हुई तो?’’ रामचंदर बाबू बोले.

‘‘जब एटीएम है तो फैक्स भी होगा. फिर उन्हें तो कहने दीजिए न.’’

‘‘ठीक है. ऐसा किया जाए. इस में कोई बुराई नहीं है.’’ रामचंदर बाबू के दिमाग में भी शक की सूई घूमी. पंकज व नीरज पीसीओ पर आए. उस का फैक्स नंबर नोट किया व फिर नीरज ने फोन मिलाया.

‘‘अंकल नमस्ते,’’ नीरज बोला, ‘‘मैं रामचंदरजी का बेटा नीरज बोल रहा हूं.’’

उधर से कुछ कहा गया.

‘‘नहीं अंकल, बैंक वाले रुपए जमा नहीं कर रहे हैं. कह रहे हैं अकाउंट होल्डर का आईडी प्रूफ चाहिए. मैं बैंक से ही बोल रहा हूं,’’ नीरज उधर की बात सुनता रहा.

‘‘लीजिए, आप मैनेजर साहब से बात कर लीजिए,’’ नीरज ने फोन काट दिया.

‘‘क्या हुआ,’’ मैं ने दोबारा पूछा.

‘‘उन्होंने फोन काट दिया,’’ नीरज बोला.

‘‘काट दिया? पर कहा क्या?’’

‘‘मैं ने अपना परिचय दिया तो अंकल ने पूछा कि रुपया जमा किया कि नहीं. मैं ने बताया कि बैंक वाले जमा नहीं कर रहे हैं, तो अंकल बिगड़ गए, बोले कि इतना सा काम नहीं हो पा रहा है. मैं ने जब कहा कि लीजिए बात कर लीजिए तो फोन ही काट दिया.’’

‘‘फिर मिलाओ.’’

नीरज ने फिर से फोन मिलाया लेकिन लगातार स्विच औफ आता रहा.

पंकज ने राहत की सांस ली. ‘‘अब चलो.’’

वे दोनों वापस घर आ गए व रामचंदर बाबू को विस्तार से बताया.

‘‘हो सकता है गुस्सा हो गए हों, परेशान होंगे,’’ वे सशंकित थे.

‘‘आप मिलाइए.’’ रामचंदर बाबू ने भी फोन मिलाया पर स्विच औफ आया.

‘‘15 मिनट रुक कर मिलाइए.’’

15-15 मिनट रुक कर 4 बार मिलाया गया. हर बार स्विच औफ ही आया.

‘‘ये साले वाकई फ्रौड थे,’’ आखिरकार रामचंदर बाबू खुद बोले, ‘‘नहीं तो हमारी रिनी कौन सी ऐसी हूर की परी है कि वे लोग शादी के लिए मरे जा रहे थे. उन का मतलब सिर्फ 25 हजार रुपए लूटना था.’’

‘‘ऐसे नहीं,’’ पंकज ने कहा, ‘‘अभी और डिटेल निकालता हूं.’’

उस ने अपने दोस्त अखिल को फोन किया जो एसबीआई की एक ब्रांच में था. उस ने उस अकाउंट नंबर बता कर खाते की पूरी डिटेल्स बताने को कहा. उस ने देख कर बताया कि उक्त खाता बिहार के किसी सुदूर गांव की शाखा का था.

‘‘जरा एक महीने का स्टेटमैंट तो निकालो,’’ पंकज ने कहा.

‘‘नहीं यार, यह नियम के खिलाफ होगा.’’

पंकज ने जब उसे पूरा विवरण बताया तो वह तैयार हो गया. ‘‘बहुत बड़ा स्टेटमैंट है भाई. कई पेज में आएगा.’’

‘‘एक हफ्ते का निकाल दो. मैं नीरज नाम के लड़के को भेज रहा हूं. प्लीज उसे दे देना.’’

‘‘ठीक है.’’

नीरज मोटरसाइकिल से जा कर स्टेटमैंट ले आया. एक सप्ताह का स्टेटमैंट 2 पेज का था. 6 दिनों में खाते में 7 लाख 30 हजार रुपए जमा कराए गए थे व सभी निकाल भी लिए गए थे. सारी जमा राशियां 5 हजार से 35 हजार रुपए की थीं. उस समय खाते में सिर्फ 1,300 रुपए थे. स्टेटमैंट से साफ पता चल रहा था कि सारे जमा रुपए अलगअलग शहरों में किए गए थे. रुपए जमा होते ही रुपए एटीएम से निकाल लिए गए थे. अब तसवीर साफ थी. रामचंदर बाबू सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘देख लिया आप ने. एक ड्राइवर के खाते में एक हफ्ते में 7 लाख से ज्यादा जमा हुए हैं. फैक्टरियां तो उसी की होनी चाहिए.’’

‘‘मेरे साथ फ्रौड हुआ है.’’

‘‘बच गए आप. कहीं कोई लड़का नहीं है. कोई बाप नहीं है. कोई फैक्टरी नहीं है. यहीं कहीं दिल्ली, मुंबई या कानपुर, जौनपुर जगह पर कोई मास्टरमाइंड थोड़े से जाली सिमकार्ड वाले मोबाइल लिए बैठा है और सिर्फ फोन कर रहा है. सब झूठ है.’’

‘‘मैं महामूर्ख हूं. उस ने मुझे सम्मोहित कर लिया था.’’

‘‘यही उन का आर्ट है. सिर्फ बातें कर के हर हफ्ते लाखों रुपए पैदा

कर रहे हैं. इस की तो एफआईआर होनी चाहिए.’’

रामचंदर बाबू सोच में पड़ गए और बोले, ‘‘जाने दो भैया. लड़की का मामला है. बदनामी तो होगी ही, थाना, कोर्टकचहरी अलग से करनी पड़ेगी. फिर हम तो बच गए.’’

‘‘आप 25 हजार रुपए लुटाने पर भी कुछ नहीं करते. कोई नहीं करता. किसी ने नहीं किया. लड़की का मामला है सभी के लिए. कोई कुछ नहीं करेगा. यह वे लोग जानते हैं और इसी का वे फायदा उठा रहे हैं.’’

‘‘हम लोग तुम्हारी वजह से बच गए.’’

‘‘एक बार फोन तो मिलाइए रामचंदर बाबू. हो सकता है वे लोग रैडिसन में इंतजार कर रहे हों.’’

रामचंदर बाबू ने फोन उठा कर मिलाया व मुसकराते हुए बताया, ‘‘स्विच औफ.’’

बाद में पंकज ने अखिल को पूरी बात बता कर बैंक में रिपोर्ट कराई व खाते को सीज करा दिया. पर एक खाते को सीज कराने से क्या होता है.

और बाद में, करीब 6 महीने बाद रिनी की शादी एक सुयोग्य लड़के से हो गई. मजे की बात विवाह इंटरनैट के मैट्रिमोनियल अकाउंट से ही हुआ. रिनी अपनी ससुराल में खुश है.

आसान किस्त: क्या बदल पाई सुहासिनी की संकीर्ण सोच

सुहासिनी का जी कर रहा था कि वह चीखचीख कर अपने दिल में छिपा दर्द सारे जहान के सामने रख दे. आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे तो अपमान की चोट खाया मन अंदर से सांप की तरह फुफकार रहा था. वह हाथ में रिसीवर थामे पत्थर की मूर्ति सी खड़ी रही.

कुछ महीने पहले यही एजेंट था जो आवाज में शहद की मिठास घोल कर बातें करता था. कहता था, ‘मैडम, गरीबी में जन्म लेना पाप नहीं, गरीबी में अपने को एडजस्ट करना पाप है. अब सोचें कि उस छोटी, गंदी सरस्वती बाई चाल में आप के बच्चे का भविष्य क्या होगा. ऐसा सुनहरा अवसर फिर हाथ नहीं आएगा इसलिए हर माह की आसान किस्तों पर इंद्रप्रस्थ कालोनी में एक फ्लैट बुक करा लीजिए.’ और आज वही एजेंट फोन पर लगभग गुर्राते हुए फ्लैट की मासिक किस्त मांग रहा था.

दरवाजे की घंटी बजते ही सुहासिनी का ध्यान उधर गया. उस ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने डाकिया खड़ा था, जिस ने एकसाथ 3 लिफाफे उसे पकड़ाए. पहला लिफाफा मिकी के पोस्टपेड सेलफोन के बिल का था. दूसरा मासिक किस्त पर खरीदी गई कार की किस्त चुकाने का था और तीसरा सोमेश के क्रेडिट कार्ड से की गई खरीदारी का विवरण था. इतनी देनदारी एकसाथ देख कर सुहासिनी का सिर चकरा गया और वह धम से वहीं बैठ गई. उसे लगा कि वह ऐसे चक्रव्यूह में फंस गई है जिस में अंदर घुसने का रास्ता तो वह जानती थी, बाहर निकलने का नहीं.

सुहासिनी को उस शाम की याद आई जब सोमेश उसे समझा रहे थे, ‘घर में सुखशांति बनाए रखने के लिए आलीशान चारदीवारी की नहीं संतोष और संतुष्टि की जरूरत है.’

सुहासिनी तब अपने पति की बात काटती हुई बोली थी, ‘सोमेश, यह हद और हैसियत की बातें पुराने जमाने की हैं. आज के जमाने का नया चलन है, असंतुष्टि का बीज बो कर हद और हैसियत की बाड़ पार करना और सुखसाधन के वृक्ष की जड़ों को जीवन रूपी जमीन में बहुत गहरे तक पहुंचाना.’

पत्नी की महत्त्वाकांक्षा की उड़ान को देख कर सोमेश को लगा था कि गिरने के बाद चोट उसे तो लगेगी ही उस की पीड़ा का एहसास उन्हें भी तो होगा, इसीलिए पत्नी को समझाने का प्रयास किया, ‘‘देखो, सुहास, बडे़बूढे़  कह गए हैं कि जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाओ.’’

इस पर सुहासिनी ने पलटवार किया, ‘‘सोमू, तुम अपना नजरिया बदलो, ऐसा भी तो हो सकता है कि पहले पैर फैला कर सो जाओ फिर जितनी चादर खींची जा सकती है उसे खींच कर लंबी कर लो, नींद तो आ ही जाएगी. समय के साथ दौड़ना सीखो सोमू, वरना बहुत पीछे रह जाओगे.

‘‘सोमू, मैं नहीं चाहती कि हमारे बच्चे तंगहाली की जिंदगी जीएं या आज की तेज भागती जिंदगी में किसी कमी के चलते पीछे रह जाएं. तंगहाली में रहने वालों की सोच भी तंग हो जाती है इसलिए आओ, हम उन्हें एक विशाल आसमान दें.’’

सुहासिनी शुरू से महत्त्वाकांक्षी रही हो ऐसा भी नहीं था. हां, वह जब से विभा के घर से आई थी, पूरी तरह

बदल गई थी. विभा के घर का ऐशोआराम, सुखसुविधाएं, आलीशान बंगला, शानदार सोफे, कंप्यूटर, महंगी क्राकरी देख कर सुहासिनी भौचक्की रह गई थी.

चाय पर विभा ने अपनी अमीरी का राज उस के सामने इस तरह से खोला, ‘‘नहींनहीं, हमारी ऊपर की कोई कमाई नहीं है. भई, हम ने तो जीवन में सुखसुविधा का लाभ उठाने के लिए जोखिम और दिमाग दोनों से काम लिया है.’’

सुहासिनी ने पूछा, ‘‘वह कैसे?’’

विभा विजय भरी मुसकान सब पर फेंकती हुई भाषण देने के अंदाज में बोली, ‘‘समाज का एक बहुत बड़ा तबका मध्यम वर्ग है, लेकिन यह तबका हमेशा से ही डरा, दबा और संकुचित रहा है, कुछ बचाने के चक्कर में अपनी इच्छाओं को मारता रहा है लेकिन जब से देश में उदारीकरण आया है और विश्व का वैश्वीकरण हुआ है, इस ने मध्यम आय वर्ग के लोगों के लिए तरक्की के नए द्वार खोल दिए हैं. आज वह हर वस्तु जो कल तक लोमड़ी के खट्टे अंगूर की तरह थी, हथेली पर चांद की तरह मध्यम आय वर्ग के हाथों में है, चाहे वह कार, फ्लैट, एसी, विदेश भ्रमण या फिर सेलफोन ही क्यों न हो,’’ विभा ने अपनी बात खत्म की तो उस के पति ने बात को आगे बढ़ाया, ‘‘भई, चार दिन की जिंदगी में शार्ट टर्म बेनिफिट्स ही सोचना चाहिए, लांग टर्म प्लानिंग नहीं.’’

सोमेश भी बहस के बीच में पड़ता हुआ बोला, ‘‘भाईसाहब, ये कंपनियां उन शिकारियों की तरह हैं जो भूखे कबूतरों को पहले दाना डालती हैं, फिर जाल बिछा कर उन को कैद कर लेती हैं. अब आप क्रेडिट कार्ड को ही ले लें, पहले तो वह हमें कर्ज लेने के लिए पटाते हैं, और आप पट गए तो उस कर्ज पर मनचाहा ब्याज वसूलते हैं.’’

डिनर के बाद पार्टी समाप्त हो गई. मेहमान अपनेअपने घरों को चले गए. उस पार्टी ने सुहासिनी की सोच में क्रांतिकारी बदलाव ला दिया. सुहासिनी और सोमेश ने पहले इंद्रप्रस्थ कालोनी में फ्लैट बुक करवाया, फिर कार, धीरेधीरे कंप्यूटर, एअर कंडीशनर, सोफे आदि सामानों से घर को आधुनिक सुखसुविधायुक्त कर दिया.

अब सोमेश के परिवार के सामने दिक्कत यह आई कि पहले जहां उस अकेले की आमदनी से घर मजे से चल जाता था, मासिक किस्तों को चुकाने के लिए सुहासिनी को भी नौकरी करनी पड़ी. सोमेश किस्तों को ले कर तनाव में रहने लगा. अच्छे खाने का उन्हें शुरू से ही शौक था, पर कर्र्जाें को पूरा करने के चक्कर में उन्हें अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ी.

सरस्वती बाई चाल से सोमेश का दफ्तर काफी पास था. यही वजह थी कि सोमेश हर शाम कभी मुन्नू हलवाई की कचौरी, कभी जलेबी का दोना ले कर घर जाते और सब मिल कर खाते थे. अब इंद्रप्रस्थ कालोनी से सोमेश का दफ्तर काफी दूर पड़ता था. ट्रैफिक जाम से बच कर वह घर पहुंचते तो इतना थके होते कि हंसने या बात करने का कतई मन न करता था.

सुहासिनी कभीकभी सोचती, आकाश के तारों से घर रोशन करने के लिए उस ने घर का दीपक बुझा दिया, किंतु कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, ऐसा सोच कर खयालों को झटक कर अलग कर देती.

एक दिन अचानक उस का सेलफोन बजा. सोमेश के दफ्तर से फोन था. सोमेश को अचानक हार्टअटैक हुआ था. दफ्तर वालों की मदद से सोमेश को स्थानीय नर्सिंगहोम में भरती करवा दिया गया था. सुहासिनी भागीभागी अस्पताल पहुंची. सोमेश गहन चिकित्सा कक्ष में थे. सुहासिनी की आंखें भर आईं. उसे लगा सोमेश की इस हालत की जिम्मेदार वह खुद है. अगले दिन सोमेश को होश आया. सुहासिनी उन से आंखें नहीं मिला पा रही थी.

उस को अब चिंता सोमेश की नहीं, अस्पताल का बिल भरने की थी. उन का बैंक बैलेंस तो निल था ही ऊपर से हजारों के पेंडिंग बिल पडे़ थे. अस्पताल का बिल कैसे चुकाया जाएगा, सोच कर उसे चक्कर आ रहे थे.

तिलांजलि: क्यों धरा को साथ ले जाने से कतरा रहा था अंबर

लेखिका- प्रेमलता यदु

धरा और अंबर की शादी को अभी सप्ताह भर भी नहीं गुजरा था कि उस के लौटने का वक्त आ गया. उसे आज ही बैंगलोर के लिए निकलना था. वह बैंगलोर की एक आईटी कंपनी में कार्यरत था. वहीं धरा अभी अंबर को ठीक से देख भी नहीं पाई थी, देखती भी कैसे…? पूरा घर नातेरिश्तेदारों से जो भरा हुआ था. हर दिन कोई न कोई रस्म अब भी जारी थी, जो समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही थी. इधर इतनी भीड़भाड़ और शोरशराबे के बीच भला धरा कैसे अंबर से अपने मन की बात कह पाती. कैसे कहती कि मुझे यहां छोड़ कर मत जाओ… या मैं भी तुम्हारे संग चलूंगी.

उधर अंबर भी सारा दिन दोस्तयारों में घिरा रहता. रात को कमरे में आता भी तो धरा उस के गंभीर स्वभाव और संकोचवश कुछ कह नहीं पाती. वह अंबर से पूछना चाहती थी. उस ने ज्यादा दिनों की छुट्टी क्यों नहीं ली? लेकिन पूछ न सकी, वैसे तो अंबर और धरा का मधुर मिलन हो चुका था, लेकिन अब भी दोनों के बीच एक लंबा फासला था, जो धरा के लिए अकेले तय कर पाना संभव नहीं था. हमारे यहां की अरेंज मैरिज‌ में यह सब से बड़ी खासियत है या विडंबना…? मालूम नहीं… दिल मिले ना मिले, लेकिन शरीर जरूर मिल जाते हैं.

वैसे, धरा अंबर को उसी दिन से दिल ही दिल में चाहने लगी थी, जिस दिन से उस की और अंबर की शादी तय हुई थी. कालेज में यह बात सभी जानने लगे थे. यहां तक कि धरा के स्टूडेंट्स भी क‌ई बार उसे अंबर के नाम से छेड़ने लगते. धरा गर्ल्स कालेज के हिंदी विभाग में हिंदी साहित्य की असिस्टेंट प्रोफेसर थी.

अंबर कुछ कहे बगैर और धरा से बिना मिले ही चला गया. इतने भरेपूरे और चहलपहल वाले घर में भी धरा स्वयं को अकेला महसूस करने लगी. वह अंबर के फोन का इंतजार करती रही. अंबर का फोन भी आया, परंतु बाबूजी के मोबाइल पर, सब ने उस से बात की बस… धरा रह गई. सासू मां ने केवल इतना बताया कि अंबर कुशलतापूर्वक बैंगलोर पहुंच गया है. यह सुन धरा चुप रही.

दिन बीतते ग‌ए, धरा यहां बिजनौर, उत्तर प्रदेश में और अंबर वहां बैंगलोर में, दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त रहने लगे, लेकिन धरा को हरदम अंबर से उस की यह दूरी खलने लगी. वह उस से मिलने और बातें करने को बेताब रहती, किंतु धरा के मोबाइल पर अंबर कभी फोन ही नहीं करता.

जब भी वह फोन करता, बाबूजी या सासू मां को ही करता. यदाकदा सासू मां धरा को फोन थमा देती, लेकिन सब के सामने धरा कुछ कह ही नहीं पाती, यह देख सासू मां और बाबूजी वहां से हट जाते. उस के बाद भी अंबर उस से कभी प्यारभरे दो शब्द नहीं कहता और धरा के मन में हिलोरें मार रहे प्रेम का सागर थम जाता.

अंबर का यह व्यवहार धरा की समझ से परे था. धरा अपनी ओर से पहल करती हुई जब कभी भी अंबर को फोन करती तो वह फोन ही नहीं उठाता, भूलेभटके कभी फोन उठा भी लेता तो कहता, “मैं मीटिंग में हूं. मैं अभी बिजी हूं.” और कभीकभी तो वह धरा को बुरी तरह से झिड़क भी देता. इन सब बातों की वजह से धरा के मन में उमड़तेघुमड़ते मनोभाव उसे चिंतित होने पर मजबूर करते, वह सोचती कोई भला इतना व्यस्त कैसे हो सकता है कि उस के पास अपनी नईनवेली पत्नी से बात करने तक का भी वक्त ना हो.

एक दिन तो हद ही हो गई, जब सासू मां ने कहा, “देखो बहू तुम बारबार अंबर को फोन कर के उसे परेशान ना किया करो. वहां वो काम करेगा या तुम से प्रेमालाप.”

ऐसा सुनते ही धरा तिलमिला उठी और उस दिन के उपरांत वह फिर दोबारा कभी अंबर को फोन नहीं की.

इन्हीं सब हालात के बीच हिचकोले खाती कालेज और गृहस्थी की गाड़ी चलती रही. अंबर अपनी मरजी से दोचार महीने में आता. 1-2 दिन रुकता और फिर वापस चला जाता, कभी धरा संग चलने की इच्छा जाहिर भी करती तो वह यह कह कर मना कर देता कि तुम साथ चलोगी तो यहां मांबाबूजी अकेले हो जाएंगे, उन की देखभाल कौन करेगा? और तुम्हारे कालेज से भी तुम्हें छुट्टी लेनी पड़ेगी.”

उस के आगे फिर धरा कुछ नहीं कहती. धरा अपनी नाकाम हो रही शादी को बचाने के लिए परिस्थितियों से समझौते करने लगी. उस का अधूरापन ही अब उस की नियति बन गई.

एक ही शहर में ससुराल और मायका होने के कारण छुट्टी वाले दिन कभीकभी धरा अपना अकेलापन दूर करने मायके चली जाती.

मां से जब भी वह अंबर के बारे में कुछ कहती, तो मां उलटा उसे ही समझाइश देने लगती, “कहती, अब जो है अंबर है और तुझे अपनी जिंदगी उसी के साथ ही गुजारनी है, इसलिए वह बेकार की बातों पर ध्यान ना दे, पूजापाठ करे, व्रत करे, भगवान में ध्यान लगाए, इसी में उस की भलाई और दोनों परिवारों का मान है.”

मां से यह सब सुन धरा मन मसोस कर रह जाती.

शादी के 2 साल बाद धरा की गोद हरी हो गई और उस ने सृजन को जन्म दिया. जिस ने धरा की जिंदगी के खालीपन को न‌ई उमंगों से भर दिया और धरा मुसकरा उठी. उस ने 6 महीने का कालेज से मातृत्व अवकाश भी ले लिया, लेकिन अंबर में अब भी कोई बदलाव नहीं था.

कुछ सालों के बाद धरा को कालेज की ओर से बैंगलोर में आयोजित हो रहे सेमिनार में मुख्य प्रवक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया. शादी के इतने साल बाद ही सही, कुछ दिनों के लिए तो उसे अंबर के साथ स्वतंत्र रूप से रहने को मिलेगा.

यह सोच कर वह मन ही मन पुलकित हो उठी.आंखों में प्रेम संजोए धड़कते दिल से अंबर को इत्तला किए बगैर सृजन के संग वह बैंगलोर जा पहुंची और जैसे ही उस ने डोर बेल बजाई…

अचानक मोबाइल का रिंग बज उठा, जिस से धरा की तंद्रा भंग हुई और वह वर्तमान में लौट आई.

सृजन का फोन था. फोन उठाते ही सृजन बोला, “मम्मी आप तैयार रहिए. बस, मैं कुछ ही देर में वहां पहुंच रहा हूं.”

सृजन के फोन रखते ही धरा अपना मोबाइल एक ओर रखती हुई होंठों पर हलकी सी मुसकान और नम आंखों के संग वहीं बिस्तर पर बैठी रही, उसे ऐसा लगा मानो उस ने जिंदगी की सब से अहम जंग जीत ली हो. यह उस की कड़ी मेहनत और संघर्ष का नतीजा था कि सृजन यूपीएससी उत्तीर्ण कर आईपीएस अधिकारी बन गया. वह उस मुकाम पर पहुंच गया, जहां वो सदा से ही उसे देखना चाहती थी. धरा के नयनों के समक्ष दोबारा एकएक कर फिर अतीत के पन्ने उजागर होने लगे.

उसे वह कठिन वक्त स्मरण हो आया, जब सृजन को ले वह अंबर के पास बैंगलोर पहुंची. वहां पहुंचने पर उस ने जो देखा उस के होश उड़ गए, उस के पैरों तले जमीन खिसक गई और इतने सालों का विश्वास क्षण भर में चूरचूर हो गया. अंबर की यहां अपनी एक अलग ही दुनिया थी, जहां धरा और सृजन के लिए कोई स्थान नहीं था.

धरा बोझिल मन से सेमिनार अटेंड कर बिजनौर लौट आई, लेकिन वह ससुराल ना जा अपने मायके आ गई. वह जिंदगी के उस दोराहे पर खड़ी थी, जहां एक ओर उस का आत्मसम्मान था और दूसरी ओर पूरे समाज के बनाए झूठे खोखले आदर्श, जिसे धरा के अपने ही लोग मानसम्मान का जामा पहनाए उसे स्त्री धर्म और मां के कर्त्तव्य का पाठ पढ़ा रहे थे.

विषम परिस्थिति में सब ने उस का साथ छोड़ दिया. यहां तक कि उस के अपने जिन से उस का खून का रिश्ता था, उन लोगों ने भी उस से मुंह मोड़ लिया. जिस घर में उस ने जन्म लिया, जहां वह खेलकूद कर बड़ी हुई, आज वही घर उस के लिए पराया हो ग‌या था.

धरा के पापा आराम कुरसी पर आंखों पर ऐनक चढ़ाए दोनों हाथों को बांधे, सिर झुकाए चुपचाप शांत भाव से बैठे सब देखसुन रहे थे और मां उन्हें उलाहना दिए जा रही थी, “और पढ़ाओ बेटी को, सुनो, क्या कह रही है वह. अपने ससुराल में अब वह नहीं रहेगी. अब क्यों बुत बने बैठे हो, नाक कटाने पर आमादा है तुम्हारी लाड़ली, उसे कुछ कहते क्यों नहीं?”

पूरा घर धरा को यह समझाने में लगा हुआ था कि परिवार को सहेजना और बनाए रखना हर नारी का परम धर्म है. स्त्री की पहचान और उस के बच्चे का उज्ज्वल भविष्य पति के संग हर परिस्थिति में समझौता करने में है.

उसी नारी की मान और पूछ होती है, जो अपने घर की दहलीज मृत्यु के उ‌परांत लांघती है, परंतु धरा ने तो जैसे हठ ही पकड़ ली थी कि वह अब ससुराल में किसी भी हाल में नहीं रहेगी.

धरा की सासू मां अपनी भौंहें मटकाती और हाथ नचाती हुई बोली, “औरत जात को इतना घमंड शोभा नहीं देता और कौन सा अंबर ने उस औरत के संग ब्याह रचा लिया है. साथ ही तो रह रहा है ना‌… तो क्या हुआ, मर्द ऐसा करते हैं? यहां तुझे किस बात की कमी है. तुम यहां हमारे साथ रहो, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा और समाज में भी मानप्रतिष्ठा बनी रहेगी.”

अंबर को अपने किए पर जरा भी अफसोस नहीं था. वह पिता के रुप में सृजन का सारा खर्च उठाने को तैयार था, लेकिन वह अभी भी यही चाहता था कि धरा पहले की तरह उस के घर में उस के मातापिता के साथ रहे, उन की सेवा करे. जिस से समाज में उन का मान बना रहे, लेकिन इस बार धरा यह ठान चुकी थी कि वह किसी की नहीं सुनेगी, केवल अपने मन का ही करेगी.

धरा ना ससुराल लौटी और ना ही अपने मायके में रही. उस ने अकेले ही सृजन की परवरिश की. धरा पूर्ण रूप से अतीत में डूब चुकी थी, तभी डोर बेल बजी.

धरा के दरवाजा खोलते ही सृजन धरा से लिपटते हुए बोला, ” डियर मम्मा ये क्या है…? आप अभी तक तैयार नहीं हुईं… हमें बस थोड़ी ही देर में निकलना है.”

धरा मुसकराती हुई बोली, “बस अभी तैयार होती हूं आईपीएस साहब.”

सृजन की पोस्टिंग लखनऊ हो गई थी और वह चाहता था कि उस की मां धरा उस के साथ ही रहे. तभी सृजन का मोबाइल बजा, फोन उस के पिता अंबर का था.

सृजन के फोन रिसीव करते ही अंबर करुणा और याचना भरे शब्दों में कहने लगा, “बेटा अब मेरी सेहत ठीक नहीं रहती है. मैं अकसर बीमार रहने लगा हूं और अब बहुत अकेला भी हो गया हूं. तुम मुझे भी अपने साथ ले चलो.”

सृजन बोला, “पापा, आप चिंता ना करें. आप की दवाओं का सारा खर्च मैं उठा लूंगा. आप की देखभाल के लिए पूरी व्यवस्था कर दूंगा, लेकिन अब आप हमारी दुनिया का हिस्सा नहीं बन सकते. आप हमारे साथ नहीं रह सकते,” कहते हुए सृजन ने फोन धरा को थमा दिया.

धरा के फोन पर आते ही अंबर बोला, “धरा, अब भी हम पतिपत्नी हैं. हमारे बीच तलाक नहीं हुआ है.”

अंबर के ऐसा कहने पर धरा लंबी सांस लेती हुई बोली, “कानूनी तौर पर भले ही हमारा रिश्ता टूटा नहीं है. हम अब भी पतिपत्नी हैं, किंतु मानसिक रूप से तो यह रिश्ता कब का टूट चुका है. मैं तो काफी पहले ही इस रिश्ते को तिलांजलि और तुम्हारा परित्याग कर चुकी हूं. अब इसे जोड़ पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं.”

प्रायश्चित: क्यों दूसरी शादी करना चाहता था सुधीर

आज सुधीर की तेरहवीं है. मेरा चित्त अशांत है. बारबार नजर सुधीर की तसवीर की तरफ चली जाती. पति कितना भी दुराचारी क्यों न हो पत्नी के लिए उस की अहमियत कम नहीं होती. तमाम उपेक्षा, तिरस्कार के बावजूद ताउम्र मुझे सुधीर का इंतजार रहा. हो न हो उन्हें अपनी गलतियों का एहसास हो और मेरे पास चले आएं. पर यह मेरे लिए एक दिवास्वप्न ही रहा. आज जबकि वह सचमुच में नहीं रहे तो मन मानने को तैयार ही नहीं. बेटाबहू इंतजाम में लगे हैं और मैं अतीत के जख्मों को कुरेदने में लग गई.

सुधीर एक स्कूल में अध्यापक थे. साथ ही वह एक अच्छे कथाकार भी थे. कल्पनाशील, बौद्धिक. वह अकसर मुझे बड़ेबड़े साहित्यकारों के सारगर्भित तत्त्वों से अवगत कराते तो लगता अपना ज्ञान शून्य है.

मुझ में कोई साहित्यिक सरोकार न था फिर भी उन की बातें ध्यानपूर्वक सुनती. उसी का असर था कि मैं भी कभीकभी उन से तर्कवितर्क कर बैठती. वह बुरा न मानते बल्कि प्रोत्साहित ही करते. उस दिन सुधीर कोई कथा लिख रहे थे. कथा में दूसरी स्त्री का जिक्र था. मैं ने कहा, ‘यह सरासर अन्याय है उस पुरुष का जो पत्नी के होते हुए दूसरी औरत से संबंध बनाए,’ सुधीर हंस पड़े तो मैं बोली, ‘व्यवहार में ऐसा होता नहीं.’

सुधीर बोले, ‘खूबसूरत स्त्री हमेशा पुरुष की कमजोरी रही. मुझे नहीं लगता अगर सहज में किसी को ऐसी औरत मिले तो अछूता रहे. पुरुष को फिसलते देर नहीं लगती.’

‘मैं ऐसी स्त्री का मुंह नोंच लूंगी,’ कृत्रिम क्रोधित होते हुए मैं बोली.

‘पुरुष का नहीं?’ सुधीर ने टोका तो मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

कई साल गुजर गए उस वार्त्तालाप को. पर आज सोचती हूं कि मैं ने बड़ी गलती की. मुझे सुधीर के सवाल का जवाब देना चाहिए था. औरत का मौन खुद के लिए आत्मघाती होता है. पुरुष इसे स्त्री की कमजोरी मान लेता है और कमजोर को सताना हमारे समाज का दस्तूर है. इसी दस्तूर ने ही तो मुझे 30 साल सुधीर से दूर रखा.

सुधीर पर मैं ने आंख मूंद कर भरोसा किया. 2 बच्चों के पिता सुधीर ने जब इंटर की छात्रा नम्रता को घर पर ट्यूशन देना शुरू किया तो मुझे कल्पना में भी भान नहीं था कि दोनों के बीच प्रेमांकुर पनप रहे हैं. मैं भी कितनी मूर्ख थी कि बगल के कमरे में अपने छोटेछोटे बच्चों के साथ लेटी रहती पर एक बार भी नहीं देखती कि अंदर क्या हो रहा है. कभी गलत विचार मन में पनपे ही नहीं. पता तब चला जब नम्रता गर्भवती हो गई और एक दिन सुधीर अपनी नौकरी छोड़ कर रांची चले गए.

मेरे सिर पर तब दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. 2 बच्चों को ले कर मेरा भविष्य अंधकारमय हो गया. कहां जाऊं, कैसे कटेगी जिंदगी? बच्चों की परवरिश कैसे होगी? लोग तरहतरह के सवाल करेंगे तो उन का जवाब क्या दूंगी? कहेंगे कि इस का पति लड़की ले कर भाग गया.

पुरुष पर जल्दी कोई दोष नहीं मढ़ता. उन्हें मुझ में ही खोट नजर आएंगे. कहेंगे, कैसी औरत है जो अपने पति को संभाल न सकी. अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मैं ने स्त्री धर्म का पालन किया. मैं ने उन वचनों को निभाया जो अग्नि को साक्षी मान कर लिए थे.

तीज का व्रत याद आने लगा. कितनी तड़प और बेचैनी होती है जब सारा दिन बिना अन्न, जल के अपने पति का साथ सात जन्मों तक पाने की लालसा में गुजार देती थी. गला सूख कर कांटा हो जाता. शाम होतेहोते लगता दम निकल जाएगा. सुधीर कहते, यह सब करने की क्या जरूरत है. मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ हूं. पर वह क्या जाने इस तड़प में भी कितना सुख होता है. उस का यह सिला दिया सुधीर ने.

बनारस रहना मेरे लिए असह्य हो गया. लोगों की सशंकित नजरों ने जीना मुहाल कर दिया. असुरक्षा की भावना के चलते रात में नींद नहीं आती. दोनों बच्चे पापा को पूछते. इस बीच भइया आ गए. उन्हें मैं ने ही सूचित किया था. आते ही हमदोनों को खरीखोटी सुनाने लगे. मुझे जहां लापरवाह कहा वहीं सुधीर को लंपट. मैं लाख कहूं कि मैं ने उन पर भरोसा किया, अब कोई विश्वासघात पर उतारू हो जाए तो क्या किया जा सकता है.

क्या मैं उठउठ कर उन के कमरे में झांकती कि वह क्या कर रहे हैं? क्या यह उचित होता? उन्होंने मेरे पीठ में छुरा भोंका. यह उन का चरित्र था पर मेरा नहीं जो उन पर निगरानी करूं.

‘तो भुगतो,’ भैया गुस्साए.

भैया ने भी मुझे नहीं समझा. उन्हें लगा मैं ने गैरजिम्मेदारी का परिचय दिया. पति को ऐसे छोड़ देना मूर्ख स्त्री का काम है. मैं रोने लगी. भइया का दिल पसीज गया. जब उन का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने रांची चलने के लिए कहा.

‘देखता हूं कहां जाता है,’ भैया बोले.

हम रांची आए. यहां शहर में मेरे एक चचेरे भाई रहते थे. मैं वहीं रहने लगी. उन्हें मुझ से सहानुभूति थी. भरसक उन्होंने मेरी मदद की. अंतत: एक दिन सुधीर का पता चल गया. उन्होंने नम्रता से विवाह कर लिया था. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. सुधीर इतने नीचे तक गिर सकते हैं. सारी बौद्धिकता, कल्पनाशीलता, बड़ीबड़ी इल्म की बातें सब खोखली साबित हुईं. स्त्री का सौंदर्य मतिभ्रष्टा होता है यह मैं ने सुधीर से जाना.

उस रोज भैया भी मेरे साथ जाना चाहते थे. पर मैं ने मना कर दिया. बिला वजह बहसाबहसी, हाथापाई का रूप ले सकता था. घर पर नम्रता मिली. देख कर मेरा खून खौल गया. मैं बिना इजाजत घर में घुस गई. उस में आंख मिलाने की भी हिम्मत न थी. वह नजरें चुराने लगी. मैं बरस पड़ी, ‘मेरा घर उजाड़ते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई?’

उस की निगाहें झुकी हुई थीं.

‘चुप क्यों हो? तुम ने तो सारी हदें तोड़ दीं. रिश्तों का भी खयाल नहीं रहा.’

‘यह आप मुझ से क्यों पूछ रही हैं? उन्होंने मुझे बरगलाया. आज मैं न इधर की रही न उधर की,’ उस की आंखें भर आईं. एकाएक मेरा हृदय परिवर्तित हो गया.

मैं विचार करने लगी. इस में नम्रता का क्या दोष? जब 2 बच्चों का पिता अपनी मर्यादा भूल गया तो वह बेचारी तो अभी नादान है. गुरु मार्ग दर्शक होता है. अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है. पर यहां गुरु ही शिष्या का शोषण करने पर तुला है. सुधीर से मुझे घिन आने लगी. खुद पर शर्म भी. कितना फर्क था दोनों की उम्र में. सुधीर को इस का भी खयाल नहीं आया. इस कदर कामोन्मत्त हो गया था कि लाज, शर्म, मानसम्मान सब को लात मार कर भाग गया. कायर, बुजदिल…मैं ने मन ही मन उसे लताड़ा.

‘तुम्हारी उम्र ही क्या है,’ कुछ सोच कर मैं बोली, ‘बेहतर होगा तुम अपने घर चली जाओ और नए सिरे से जिंदगी शुरू करो.’

‘अब संभव नहीं.’

‘क्यों?’ मुझे आश्चर्य हुआ.

‘मैं उन के बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

‘तो क्या हुआ. गर्भ गिराया भी तो जा सकता है. सोचो, तुम्हें सुधीर से मिलेगा क्या? उम्र का इतना बड़ा फासला. उस पर रखैल की संज्ञा.’

‘मुझे सब मंजूर है क्योंकि मैं उन से प्यार करती हूं.’

यह सुन कर मैं तिलमिला कर रह गई पर संयत रही.

‘अभी अभी तुम ने कहा कि सुधीर ने तुम्हें बरगलाया है. फिर यह प्यारमोहब्बत की बात कहां से आ गई. जिसे तुम प्यार कहती हो वह महज शारीरिक आकर्षण है.

एक दिन सुधीर का मन तुम से भी भर जाएगा तो किसी और को ले आएगा. अरे, जिसे 2 अबोध बच्चों का खयाल नहीं आया वह भला तुम्हारा क्या होगा,’ मैं ने नम्रता को भरसक समझाने का प्रयास किया. तभी सुधीर आ गया. मुझे देख कर सकपकाया. बोला, ‘तुम, यहां?’

‘हां मैं यहां. तुम जहन्नुम में भी होते तो खोज लेती. इतनी आसानी से नहीं छोड़ूंगी.’

‘मैं ने तुम्हें अपने से अलग ही कब किया था,’ सुधीर ने ढिठाई की.

‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे,’ मैं बोली.

‘इन सब के लिए तुम जिम्मेदार हो.’

‘मैं…’ मैं चीखी, ‘मैं ने कहा था इसे लाने के लिए,’ नम्रता की तरफ इशारा करते हुए बोली.

‘मेरे प्रति तुम्हारी बेरुखी का नतीजा है.’

‘चौबीस घंटे क्या सारी औरतें अपने मर्दों की आरती उतारती रहती हैं? साफसाफ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा मन मुझ से भर गया.’

‘जो समझो पर मेरे लिए तुम अब भी वैसी ही हो.’

‘पत्नी.’

‘हां.’

‘तो यह कौन है?’

‘पत्नी.’

‘पत्नी नहीं, रखैल.’

‘जबान को लगाम दो,’ सुधीर तनिक ऊंचे स्वर में बोले. यह सब उन का नम्रता के लिए नाटक था.

‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने बड़े पाखंडी हो. तुम्हारी सोच, बौद्धिकता सिर्फ दिखावा है. असल में तुम नाली के कीड़े हो,’ मैं उठने लगी, ‘याद रखना, तुम ने मेरे विश्वास को तोड़ा है. एक पतिव्रता स्त्री की आस्था खंडित की है. मेरी बददुआ हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी. तुम इस के साथ कभी सुखी नहीं रहोगे,’ भर्राए गले से कहते हुए मैं ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. भरे कदमों से घर आई.

इस बीच मैं ने परिस्थितियों से मुकाबला करने का मन बना लिया था. सुधीर मेरे चित्त से उतर चुका था. रोनेगिड़गिड़ाने या फिर किसी पर आश्रित रहने से अच्छा है मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हूं. बेशक भैया ने मेरी मदद की. मगर मैं ने भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए भरपूर मेहनत की. इस का मुझे नतीजा भी मिला. बेटा प्रशांत सरकारी नौकरी में आ गया और मेरी बेटी सुमेधा का ब्याह हो गया.

बेटी के ब्याह में शुरुआती दिक्कतें आईं. लोग मेरे पति के बारे में ऊलजलूल सवाल करते. पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. एक जगह बात बन गई. उन्हें हमारे परिवार से रिश्ता करने में कोई खोट नहीं नजर आई. अब मैं पूरी तरह बेटेबहू में रम गई. जिंदगी से जो भी शिकवाशिकायत थी सब दूर हो गई. उलटे मुझे लगा कि अगर ऐसा बुरा दिन न आता तो शायद मुझ में इतना आत्मबल न आता.

जिंदगी से संघर्ष कर के ही जाना कि जिंदगी किसी के भरोसे नहीं चलती. सुधीर नहीं रहे तो क्या सारे रास्ते बंद हो गए. एक बंद होगा तो सौ खुलेंगे. इस तरह कब 60 की हो गई पता ही न चला. इस दौरान अकसर सुधीर का खयाल जेहन में आता रहा. कहां होंगे…कैसे होंगे?

एक रोज भैया ने खबर दी कि सुधीर आया है. वह मुझ से मिलना चाहता है. मुझे आश्चर्य हुआ. भला सुधीर को मुझ से क्या काम. मैं ने ज्यादा सोचविचार करना मुनासिब नहीं समझा. वर्षों बाद सुधीर का आगमन मुझे भावविभोर कर गया. अब मेरे दिल में सुधीर के लिए कोई रंज न था. मैं जल्दीजल्दी तैयार हुई. बाल संवार कर जैसे ही मांग भरने के लिए हाथ ऊपर किया कि प्रशांत ने रोक लिया.

‘मम्मी, पापा हमारे लिए मर चुके हैं.’

‘नहीं,’ मैं चिल्लाई, ‘वह आज भी मेरे लिए जिंदा हैं. वह जब तक जीवित रहेंगे मैं सिं?दूर लगाना नहीं छोड़ूंगी. तू कौन होता है मुझे यह सब समझाने वाला.’

‘मम्मी, उन्होंने क्या दिया है हमें, आप को. एक जिल्लत भरी जिंदगी. दरदर की ठोकरें खाई हैं हम ने तब कहीं जा कर यह मुकाम पाया है. उन्होंने तो कभी झांकना भी मुनासिब नहीं समझा. तुम्हारा न सही हमारा तो खयाल किया होता. कोई अपने बच्चों को ऐसे दुत्कारता है,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘वह तेरे पिता हैं.’

‘सिर्फ नाम के.’

‘हमारे संस्कारों की जड़ें अभी इतनी कमजोर नहीं हैं बेटा कि मांबाप को मांबाप का दर्जा लेखाजोखा कर के दिया जाए. उन्होंने तुझे अपनी बांहों में खिलाया है. तुझे कहानी सुना कर वही सुलाते थे, इसे तू भूल गया होगा पर मैं नहीं. कितनी ही रात तेरी बीमारी के चलते वह सोए नहीं. आज तू कहता है कि वह सिर्फ नाम के पिता हैं,’ मैं कहती रही, ‘अगर तुझे उन्हें पिता नहीं मानना है तो मत मान पर मैं उन्हें अपना पति आज भी मानती हूं,’ प्रशांत निरुत्तर था. मैं भरे मन से सुधीर से मिलने चल पड़ी.

सुधीर का हुलिया काफी बदल चुका था. वह काफी कमजोर लग रहे थे. मानो लंबी बीमारी से उठे हों. मुझे देखते ही उन की आंखें नम हो गईं.

‘मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम सब को बहुत दुख दिए.’

जी में आया कि उन के बगैर गुजारे एकएक पल का उन से हिसाब लूं पर खामोश रही. उम्र के इस पड़ाव पर हिसाबकिताब निरर्थक लगे.

सुधीर मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े थे. इतनी सजा काफी थी. गुजरा वक्त लौट कर आता नहीं पर सुधीर अब भी मेरे पति थे. मैं अपने पति को और जलील नहीं देख सकती. बातोंबातों में भइया ने बताया कि सुधीर के दोनों गुर्दे खराब हो गए हैं. सुन कर मेरे कानों को विश्वास नहीं हुआ.

मैं विस्फारित नेत्रों से भैया को देखने लगी. वर्षों बाद सुधीर आए भी तो इस स्थिति में. कोई औरत विधवा होना नहीं चाहती. पर मेरा वैधव्य आसन्न था. मुझ से रहा न गया. उठ कर कमरे में चली आई. पीछे से भैया भी चले आए. शायद उन्हें आभास हो गया था. मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘इन आंसुओं को रोको.’

‘मेरे वश में नहीं…’

‘नम्रता दवा के पैसे नहीं देती. वह और उस के बच्चे उसे मारतेपीटते हैं.’

‘बाप पर हाथ छोड़ते हैं?’

‘क्या करोगी. ऐसे रिश्तों की यही परिणति होती है.’

भइया के कथन पर मैं सुबकने लगी.

‘भइया, सुधीर से कहो, वह मेरे साथ ही रहें. मैं उन की पत्नी हूं…भले ही हमारा शरीर अलग हुआ हो पर आत्मा तो एक है. मैं उन की सेवा करूंगी. मेरे सामने दम निकलेगा तो मुझे तसल्ली होगी.’

भैया कुछ सोचविचार कर बोले, ‘प्रशांत तैयार होगा?’

‘वह कौन होता है हम पतिपत्नी के बीच में एतराज जताने वाला.’

‘ठीक है, मैं बात करता हूं…’

सुधीर ने साफ मना कर दिया, ‘मैं अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मुझे जितना तिरस्कार मिलेगा मुझे उतना ही सुकून मिलेगा. मैं इसी का हकदार हूं,’ इतना बोल कर सुधीर चले गए. मैं बेबस कुछ भी न कर सकी.

आज भी वह मेरे न हो सके. शांत जल में कंकड़ मार कर सुधीर ने टीस, दर्द ही दिया. पर आज और कल में एक फर्क था. वर्षों इस आस से मांग भरती रही कि अगर मेरे सतीत्व में बल होगा तो सुधीर जरूर आएंगे. वह लौटे. देर से ही सही. उन्होंने मुझे अपनी अर्धांगिनी होने का एहसास कराया तो. पति पत्नी का संबल होता है. आज वह एहसास भी चला गया.

मैं यहीं रहूंगी: क्या था सुरुचि का फैसला

शादी के बाद सुरुचि ससुराल पहुंची. सारे कार्यक्रम खत्म होने के बाद 3-4 दिनों में सभी मेहमान एकएक कर के वापस चले गए. लेकिन, उस की ननद और उस के 2 बच्चे 2 दिनों के लिए रुक गए. उस के साससुसर ने तो बहुत पहले ही इस दुनिया से विदा ले ली थी, इसलिए उस की ननद ने, जितने दिन भी रहीं, सुरुचि को भरपूर प्यार दिया ताकि उस को सास की कमी न खले.

भाई के विवाह की सारी जिम्मेदारी वे ही संभाल रही थीं. सुरुचि ने उन के सामने ही घर के कामों को सुचारु रूप से संभालना शुरू कर दिया था. उस ने अपने स्वभाव से उन का दिल जीत लिया था. ननद इस बात से संतुष्ट थीं कि उन के भाई को बहुत अच्छी जीवनसंगिनी मिली है. अब उन्हें भाई की चिंता करने की जरूरत नहीं है.

विदा लेते समय ननद ने सुरुचि को गले लगाते हुए कहा, ‘‘मेरा भाईर् दिल का बहुत अच्छा है, तुझे कभी कोई तकलीफ नहीं होने देगा, तू उस का ध्यान रखना और कभी भी मुझ से कोई सलाह लेनी हो तो संकोच नहीं करना. मैं आती रहूंगी, दिल्ली से सहारनपुर दूर ही कितना है.’’

‘‘दीदी, आप परेशान मत होइए, मैं इन का ध्यान रखूंगी,’’ सुरुचि ने झुक कर उन के पैर छुए. उस की ननद तो औटो में बैठ गई लेकिन बच्चे खड़े ही रहे. सुरुचि ने उन से कहा, ‘‘जाओ, ममा के साथ बैठो.’’

‘‘नहीं, अब तो तुम आ गई हो, इसलिए ये यहीं रहेंगे…’’ ननद आगे कुछ और कहतेकहते जैसे रुक सी गईं.

सुरुचि यह सुन कर अवाक रह गई. अभी विवाह को दिन ही कितने हुए हैं, इसलिए कोई भी सवाल करना उसे ठीक नहीं लगा. उन के जाने के बाद उस के दिमाग में सवालों ने उमड़ना शुरू कर दिया था, कहीं दीदी इसलिए तो मुझ पर इतना स्नेह नहीं उड़ेल रही थीं कि अपने बच्चों की जिम्मेदारी मुझ पर डाल कर आजाद होना चाह रही थीं. उन के छोटे से शहर में अच्छी पढ़ाई होती नहीं है, लेकिन एक बार मुझ से अपनी योजना के बारे में बता कर मेरी भी तो मरजी जाननी चाहिए थी. जल्दी से जल्दी अपने शक को दूर करने के लिए वह पति के औफिस से लौट कर आने का इंतजार करने लगी.

सुंदर के आते ही उस ने उसे चाय दी. उस के थोड़े रिलैक्स होते ही, यह सोच कर कि उसे यह न लगे कि उस की बहन के बच्चे रखने में उसे आपत्ति है, उस ने धीरे से पूछा, ‘‘दीदी के बच्चे यहीं रहेंगे क्या?’’

‘‘दीदी के नहीं, वे मेरे ही बच्चे हैं. पत्नी की मृत्यु के बाद दोनों बच्चों को अपने पास रख कर उन्होंने ही उन को पाला है. तुम्हें…’’

‘‘क्या तुम शादीशुदा हो? तुम ने हमें पहले क्यों नहीं बताया? हमें धोखा दिया…? अपने पति की बात पूरी होने से पहले ही वह लगभग चीखती हुई बोली. उसे लगा जैसे वह किसी साजिश की शिकार हुई है, इस स्थिति के लिए वह बिलकुल तैयार नहीं थी.

सुंदर भौचक सा थोड़ी देर तक उस की तरफ देखता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘मैं ने तुम्हारे भाई से सबकुछ बता दिया था. उन्होंने तुम्हें नहीं बताया? मैं ने तुम्हें धोखा नहीं दिया. फिर भी तुम मेरी ओर से आजाद हो, कभी भी वापस जा सकती हो.’’

अब चौंकने की बारी उस की थी. ‘तो क्या, मेरे अपने भाई ने मुझे छला है.’ उस को लगा उस के माथे की नसें फट जाएंगी, उस ने दोनों हाथों से जोर से सिर पकड़ लिया और रोतेरोते, धम्म से जमीन पर बैठ गई. कहनेसुनने को अब बचा ही क्या था. उस के सारे सपने जैसे टूट कर बिखर गए थे. शरीर से जैसे किसी ने सारी शक्ति निचोड़ ली हो, वह किसी तरह वहां से उठ कर सोफे पर निढाल हो कर लेट गई.

सुरुचि के दिमाग में विचारों ने तांडव करना शुरू कर दिया था, अतीत की यादों की बदली घुमड़घुमड़ कर बरसने लगी. उस के पिता तो बहुत पहले ही चले गए थे, उस की मां ने ही उसे और उस के भाई को नौकरी कर के पढ़ायालिखाया. जब वह कालेज में पढ़ती थी, उस के भविष्य के सपने बुनने के दिन थे, तभी अचानक हार्टअटैक से मां की मृत्यु हो गई. भाई उस से 5 साल बड़ा था, इसलिए उस का विवाह मां के सामने ही हो गया था.

मां के जाने के बाद भाईभाभी का उस के प्रति व्यवहार बिलकुल बदल गया. वे उसे बोझ समझने लगे थे. गे्रजुएशन के बाद उस की पढ़ाई पर भी उन्होंने रोक लगा दी थी. भाभी भी औफिस जाती थी. सुरुचि सुबह से शाम घर के काम में जुटी रहती थी. उस के विवाह के लिए कई प्रस्ताव आए, लेकिन ‘अभी जल्दी क्या है’ कह कर भाईभाभी टाल दिया करते थे, मुफ्त की नौकरानी जो मिली हुईर् थी.

इसी बीच, उन के 2 बच्चे हो गए थे. जब पानी सिर से गुजरने लगा और रिश्तेदारों ने उन्हें टोकना शुरू कर दिया, तो उन्होंने उस की शादी के बारे में सोचना शुरू किया, जिस की परिणति इस रिश्ते से हुई. जिस उम्र की वह थी, उस में बिना खर्च के इस से अच्छा रिश्ता क्या हो सकता था. उस का मन भाईभाभी के लिए घृणा से भर उठा.

अचानक, सुंदर को सामने खड़े देख कर उस के विचारों को झटका लगा. सुंदर ने उस के पास बैठते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ. लेकिन दुखी होने से बीता वक्त वापस नहीं आएगा. अभी उठो और शांतमन से इस का हल सोचो. जो तुम चाहोगी, वही होगा. तब तक तुम मेरी मेहमान हो. तुम कहोगी तो मैं तुम्हारे भाई के पास छोड़ आऊंगा.’’

?‘‘भाई के पास जा कर क्या होगा. यदि, उन्हें मेरी खुशी की परवा होती तो ऐसा करते ही क्यों. मुझे नहीं जाना उन के पास,’’ वह बुदबुदाईर् और आंखों के आंसू पोंछ कर घर के काम में लग गई.

अगले दिन सुबहसुबह उस की ननद का फोन आया. सुरुचि समझ गई कि कल की घटना के बारे में वे जान चुकी हैं, इसीलिए उन का फोन आया है. उधर से आवाज आई, ‘‘सुरुचि बेटा, हम ने तुम्हारे भाई से कुछ भी नहीं छिपाया था. फिर भी यदि तुम्हें बच्चों से समस्या है, तो वे पहले की तरह मेरे पास ही रहेंगे, लेकिन मेरे भाई को मत छोड़ना, बहुत सालों बाद उस के जीवन में तुम्हारे रूप में खुशी आई है. बड़ी मुश्किल से वह विवाह के लिए राजी हुआ था.’’ वे भरे गले से बोलीं.

‘‘जी,’’ इस के अलावा वह कुछ बोल ही नहीं पाई. इस से पहले कि सुरुचि कुछ फैसला ले कर उन्हें बताए, उन्होंने ही उस की सोच को दिशा दे दी थी.

उस ने नए सिरे से सोचना शुरू किया कि भाई के घर वापस जा कर वह फिर से उस नारकीय दलदल में फंसना नहीं चाहती और बिना किसी सहारे के अकेली लड़की की इस दुनिया में क्या दशा होती है, यह सब जानते हैं. यदि उस का विवाह किसी कुंआरे लड़के से होता, तो क्या गारंटी थी वह सुंदर की तरह उसे समझने वाला होता. उस की कोई गलती नहीं है, फिर भी वह उसे आजाद करने के लिए तैयार है. इतना प्यार करने वाली मां समान ननद, कहां सब को मिलती है. भाईबहन का प्यार, जिस में दोनों एकदूसरे की खुशी के लिए कुछ भी त्याग करने के लिए तैयार हैं, जो उसे कभी अपने भाई से नहीं मिला.

बच्चे जो शुरू में उसे दूर से सहमेसहमे देखते थे, अब सारा दिन उस के आगेपीछे घूमते रहते हैं. इतने सुखी संसार को वह कैसे त्याग सकती है. जो खुशी प्यार और अच्छे रिश्तों से हासिल हो सकती है, बेशुमार धनदौलत या ऐशोआराम से नहीं मिल सकती. इतना प्यार, जिस की उस के जीवन में बहुत कमी थी, हाथ फैलाए उस के स्वागत के लिए तैयार है.

समाज में अधिकतर बहुओं को घर में निचला दर्जा दिया जाता है, वहां एक लड़की को विवाह के बाद इतना प्यार और मानसम्मान मिल जाए, तो उसे और क्या चाहिए. उसे अपने समय से समझौता कर लेने में ही भलाई लगी. शक व चिंता की स्थिति से वह उबर चुकी थी.

आत्मसंतुष्टि के लिए उस ने दोनों बच्चों को अपने पास बुलाया और पूछा, ‘‘बेटा, मैं जा रही हूं, तुम दोनों, पहले की तरह, अपनी बूआ के साथ रहोगे न?’’

‘‘नहींनहीं, वहां पापा नहीं रह सकते, हमें आप दोनों के साथ रहना है. आप हमें छोड़ कर मत जाइए, प्लीज. आप हमें बहुत अच्छी लगती हैं.’’ इतना कह कर दोनों सुबकने लगे.

सुरुचि ने दोनों को गले से लगा लिया. उस का भी दिल भर आया, इतना तो उसे कभी, उस के भतीजों ने महत्त्व नहीं दिया था, जिन को उस ने वर्षों तक प्यारदुलार दिया था.

सुरुचि ने अपनी ननद को अपने फैसले से अवगत कराने के लिए फोन मिलाया और बोली, ‘‘दीदी, मैं यहीं रहूंगी. कहीं नहीं जाऊंगी. दोनों बच्चे भी मेरे साथ रहेंगे.’’ अभी उस की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि उस की नजर पीछे खड़े, सुंदर पर पड़ी, जो उस की बात सुन कर मुसकरा रहा था. आंखें चार होने पर वह नवयौवना सी शरमा गई, भूल गई कि वह अपनी ननद से बात कर रही थी.

खाली हाथ: क्या सही था कविता का फैसला

राम सिंह ने कुछ दिनों से बीमार चल रहे बाघ को उस दिन मांस खाते देखा, तो राहत की सांस ली. यह अच्छी खबर नीरज साहब को बताने के लिए वह चिडि़याघर के औफिस की तरफ चल पड़ा.

तभी उस की बगल से एक युवक तेज चाल से चलता हुआ गुजरा. उस युवक के गुस्से से लाल हो रहे चेहरे को देख रामसिंह चौंक पड़ा.

वह युवक एक लड़की और लड़के की तरफ बढ़ रहा था. रामसिंह ने इन तीनों को साथसाथ पहले कई बार चिडि़याघर में देखा था. तीनों उसे कालेज के विद्यार्थी लगते थे.

गुस्से से भरे युवक ने अपने साथी युवक को पीछे से उस के कौलर से पकड़ा और रामसिंह के देखते ही देखते उन दोनों के बीच मारपीट शुरू

हो गई.

‘‘अरे, लड़ो मत,’’ रामसिंह जोर से चिल्लाया और फिर उन की तरफ दौड़ना शुरू कर दिया.

फिर उस ने उन युवकों को एकदूसरे से अलग किया. काफी चोट खा चुके थे. उन के साथ आई लड़की भय से कांप रही थी.

उन दोनों युवकों को फिर से लड़ने के लिए तैयार देख रामसिंह ने उन्हें सख्त लहजे में चेतावनी दी, ‘‘अगर तुम दोनों ने फिर से मारपीट शुरू की, तो पुलिस के हवाले कर देंगे. शांति से बताओ कि किस बात पर लड़ रहे थे?’’

उन दोनों ने एकदूसरे पर आरोप लगाने शुरू कर दिए. रामसिंह की समझ में बस उतना ही आया कि लड़ाई लड़की को ले कर हुई थी.

जिस युवक ने लड़ाई शुरू की थी उस का नाम विवेक था. दूसरा युवक संजय था और लड़की का नाम कविता था.

दरअसल, संजय करीब आधा घंटा पहले कविता को साथ ले कर कहीं गायब हो गया था. इस बात को ले कर विवेक बहुत खफा था.

रामसिंह को थरथर कांप रही कविता पर दया आई. उस ने उन दोनों को डपट कर पहले चुप कराया और फिर कहा, ‘‘तुम दोनों मेरे साथ औफिस तक चलो. सारी बातें वहीं होंगी और अगर रास्ते में झगड़े, तो खैर नहीं तुम दोनों की. तब पुलिस वालों के डंडे ही तुम्हें सीधा करेंगे.’’

रामसिंह की इस धमकी ने असर दिखाया और औफिस की इमारत तक पहुंचने के दौरान वे दोनों एक शब्द भी नहीं बोले.

नीरज चिडि़याघर में रिसर्च असिस्टैंट था. उस ने उन चारों को इमारत की तरफ आते खिड़की में से देखा तो उत्सुकतावश कमरे से बाहर आ कर बरामदे में खड़ा हो गया.

रामसिंह ने पास आ कर उसे रिपोर्ट दी, ‘‘साहब, ये दोनों लड़के बाघ के बाड़े के पास जानवरों की तरह लड़ रहे थे. लड़की साथ में है, इस बात का भी कोई शर्मलिहाज इन दोनों ने नहीं किया. ये तीनों यहां अकसर आते रहते हैं. अगर आप के समझने से न समझें, तो दोनों को पुलिस के हवाले कर देना सही होगा.’’

‘‘नहीं, पुलिस को मत बुलाना प्लीज,’’ कहते हुए कविता की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘पहले इन दोनों का हुलिया ठीक कराओ, रामसिंह. फिर इन्हें औफिस में ले कर आना,’’ नीरज ने रामसिंह से कहा. फिर कविता से कहा, ‘‘तुम मेरे साथ आओ,’’ और अंदर औफिस में चला गया.

उस के व्यक्तित्व ने संजय और विवेक को ऐसा प्रभावित किया कि वे दोनों बिना कुछ बोले रामसिंह के साथ चले गए. कविता पल भर को ?िझकी फिर हिम्मत कर के नीरज के पीछे औफिस में चली गई.

नीरज ने उसे पहले पानी पिलाया. फिर उस के कालेज व घर वालों के बारे में

हलकीफुलकी बातचीत कर उसे सहज बनाने की कोशिश की. फिर, ‘‘अब बताओ कि क्या मामला है? क्यों लड़े तुम्हारे ये सहपाठी आपस में?’’ कह कर नीरज ने हौसला बढ़ाने वाले अंदाज में मुसकराते हुए कविता से जानकारी मांगी.

‘‘सर, मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है,’’ कविता ने धीमी आवाज में बोलना शुरू किया, ‘‘हम तीनों अच्छे दोस्त हैं, पर आज विवेक ने झगड़ा शुरू कर के मेरे दिल को चोट पहुंचाई है. वे दोनों ही आज अजीब सी बातें कर रहे थे.’’

‘‘कैसी अजीब सी बातें?’’

‘‘मैं कैसे बताऊं, सर… हमारे बीच हमेशा ही हंसीमजाक चलता रहता था. हलकेफुलके अंदाज में. दोनों फ्लर्ट भी कर लेते थे मेरे साथ… मुझ से प्रेम करने का दावा भी दोनों करते रहे हैं, पर मजाकमजाक में… लेकिन आज…आज…’’

‘‘आज क्या नया हुआ है?’’

‘‘सर, आज मुझे एहसास हुआ कि वे मजाक नहीं करते थे. दोनों मुझे अपनी प्रेमिका समझ रहे थे, जबकि मेरे दिल में किसी के भी लिए वैसी भावनाएं नहीं हैं. मैं तो उन्हें बस अच्छा दोस्त समझती रही हूं.’’

‘‘तुम्हें उन दोनों में कौन ज्यादा पसंद है?’’

‘‘ज्यादाकम पसंद वाली बात नहीं है. मेरे मन में, सर. वे दोनों ही मेरी नजरों में बराबर हैं.’’

‘‘अच्छा, यह बताओ कि किस का व्यक्तित्व बेहतर है? क्या कमियां या अच्छाइयां हैं दोनों की?’’

कुछ पल खामोश रहने के बाद कविता ने कहा, ‘‘सर, विवेक अमीर घर का बेटा है. वह पढ़ने में तेज है और तहजीब से व्यवहार करता है.

‘‘संजय उस के जितना स्मार्ट तो नहीं है,

पर दिल का ज्यादा अच्छा है. क्रिकेट और फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी है. उसे गुस्सा कम आता है, लेकिन आज उसे गुस्से में देख कर मैं डर गई थी.’’

‘‘झगड़ा तुम्हारे कारण हुआ है, यह तो तुम समझ रही हो न?’’

‘‘जी, लेकिन मैं ने उन दोनों को कभी गलत ढंग से बढ़ावा नहीं दिया है, सर. मैं करैक्टरलैस लड़की नहीं हूं.’’

‘‘अब क्या करोगी? मेरी समझ से कि ये दोनों आसानी से तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगे. तुम दोनों में से किसी से भी प्रेम नहीं करती हो, तुम्हारा ऐसा कहना इन दोनों को तुम से दूर नहीं कर पाएगा.’’

‘‘अगर ये नहीं समझेंगे, तो मैं इन से

दोस्ती खत्म कर लूंगी,’’ कविता ने गुस्से से

जवाब दिया.

‘‘मेरी बातों का बुरा मत मानना, कविता. मैं जो कुछ तुम्हें समझ रहा हूं, वह तुम्हारे भले के लिए ही है. देखो, कोई लड़का प्रेम को ले कर गलतफहमी का शिकार न बने, इस की जिम्मेदारी लड़की को अपनी ही माननी चाहिए. आज के समय में हर इंसान तनाव से भरा जीवन जी रहा है. ऊपर से उस के मन में पुलिस, कानून आदि का खास भय भी नहीं है.

‘‘किसी गुमराह प्रेमी ने लड़की के मुंह पर तेजाब फेंका या उसे जान से मार डाला जैसी खबरें आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं. मुझे उम्मीद है कि तुम भविष्य में ज्यादा समझदारी दिखाओगी. लेकिन अभी तुम चुप रहना, मैं तुम्हारे दोस्तों को प्यार से समझने की और कुछ डर दिखा कर सही व्यवहार करने की समझ देने की कोशिश करता हूं.’’

नीरज की इन बातों को सुन कर कुछ शर्मिंदा सी नजर आ रही कविता ने अपनी नजरें फर्श की तरफ झका लीं.

रामसिंह के साथ जब विवेक और संजय ने औफिस में कदम रखा, तो दोनों ही कुछ तनावग्रस्त और सहमे से नजर आ रहे थे. उन के कुरसी पर बैठ जाने के बाद नीरज ने उन के साथ बात शुरू की.

‘‘क्या तुम दोनों अपनेअपने घटिया व्यवहार के लिए शर्मिंदा हो?’’ नीरज ने दोनों को घूरते हुए सख्त स्वर में सवाल पूछा.

‘‘जी हां, हमें लड़ना नहीं चाहिए था,’’ विवेक ने धीमे, दबे स्वर में जवाब दिया.

‘‘और तुम्हारा क्या जवाब है?’’ उस ने संजय से पूछा.

‘‘यह मुझ पर हाथ न छोड़ता, तो लड़ाई क्यों होती?’’ संजय की आंखों में गुस्सा भड़क उठा.

‘‘क्यों छोड़ा इस ने तुम पर हाथ?’’

‘‘यह गलतफहमी का शिकार था, सर. कविता और मैं जानबूझ कर इस से अलग नहीं हुए थे.’’

‘‘मुझे लगता है कि तुम दोनों ही कविता को ले कर जबरदस्त गलतफहमी के शिकार बने हुए हो. क्या इस ने तुम में से किसी को कभी अपना प्रेमी माना है?’’

वे दोनों जवाब में खामोश रहे तो नीरज ने कुछ शांत लहजे में उन्हें समझना शुरू किया,

‘‘हम इंसानों को प्यारमुहब्बत के मामले में जानवरों से ज्यादा समझदारी दिखानी चाहिए. पर तुम दोनों ने बड़ा घटिया व्यवहार दिखाया है. दोस्तों के बीच जो आपसी भरोसा होता है, उसे तोड़ा है तुम दोनों ने.

‘‘मैं यहां जानवरों के व्यवहार और आदतों पर रिसर्च कर रहा हूं. ये जानवर प्रेम में जोरजबरदस्ती नहीं करते. बहुत कुछ सीख

सकता है आज का मनुष्य इन जानवरों से.

‘‘भारीभरकम गैंडा बहुत सहनशक्ति

दिखाता है मादा का दिल जीतने के लिए.

15-20 दिनों तक इंतजार करता है मादा की रजामंदी का. मादा नर को खदेड़ती रहती है.

पर वह गुस्सा नहीं होता… हिंसा का रास्ता

नहीं अपनाता.

‘‘बाघों में मादा की रुचि सर्वोपरि होती है. वही पहल कर अपनी दिलचस्पी नर में दर्शाती है. हम इंसानों को भी लड़की की इच्छा व पसंद को महत्त्व देना चाहिए या नहीं?

‘‘भेडि़यों के बारे में जानना चाहोगे? सरदार भेडि़या आजीवन 1 मादा के साथ जुड़ा रहता है. वफादारी सीख सकते हैं हम इन भेडि़यों से. हंसीमजाक में फ्लर्ट करना प्रेम नहीं है, मित्रो. यों एकदूसरे को लहूलुहान कर प्रेम का प्रदर्शन न करो. ऐसा करना तो उस पवित्र भावना का मजाक उड़ाना होगा.

‘‘कविता तुम्हारे साथ पढ़ती है… तुम दोनों की दोस्त है. उसे अपने गलत व्यवहार से मानसिक कष्ट पहुंचा कर उस का दिल तो तुम दोनों क्या जीतोगे, उलटे उस की दोस्ती से भी हाथ धो बैठोगे. मेरी बात समझ रहे हो न तुम दोनों?’’

‘‘जी,’’ विवेक और संजय दोनों के मुंह से एकसाथ यह शब्द निकला.

‘‘गुड. चलो अब तुम दोनों हाथ मिलाओ.’’

संजय और विवेक ने उठ कर हाथ मिलाया और फिर गले भी लग गए. कविता ने मुसकरा कर

नीरज को आंखों से धन्यवाद दिया और फिर जाने को उठ खड़ी हुई.

नीरज के आदेश पर रामसिंह उन तीनों  को छोड़ने के लिए बाहर तक गया. कुछ दूर जा कर उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो पाया कि उस के साहब बरामदे में खड़े उन की तरफ ही देख रहे थे.

तभी कविता ने भी पीछे मुड़ कर देखा और नीरज को अपनी तरफ देखता पा कर उस ने हाथ हवा में उठा कर हिलाया. नीरज ने उस के अभिवादन में दूर से अपना हाथ बड़े जोशीले अंदाज में हिलाया.

इस घटना के लगभग 3 महीने बाद विवेक और संजय की चिडि़याघर में औफिस के

सामने रामसिंह से अगली मुलाकात हुई.

उन दोनों ने रामसिंह को अभिवादन कर हाथ मिलाए. फिर संजय बोला, ‘‘रामसिंह, कविता ने हम से 12 बजे यहां मिलने का प्रोग्राम फोन पर तय किया था. वह आई नहीं है क्या अभी तक?’’

‘‘वह आई तो थी लेकिन अब यहां नहीं है. पर मिठाई का डब्बा तो है. मैं अभी मुंह मीठा कराता हूं तुम दोनों का,’’ रामसिंह बहुत खुश नजर आ रहा था.

‘‘किस बात के लिए मुंह मीठा कराओगे, रामसिंह?’’ संजय उलझन का शिकार बन गया.

‘‘कविता कहां चली गई है?’’ विवेक ने माथे में बल डाल कर सवाल पूछा.

‘‘अरे, तुम दोनों को खबर नहीं है क्या?’’ रामसिंह चौंक पड़ा.

‘‘कैसी खबर?’’ विवेक और ज्यादा परेशान हो उठा.

‘‘भाई तुम लोग कब से कविता मैडम से नहीं मिले हो?’’

‘‘पिछले दिनों परीक्षाएं चल रही थीं, इसलिए परीक्षा के दिन ही मिल पाते थे. जो खबर है, उसे तो बताओ.’’

‘‘तुम दोनों को सचमुच कोई अंदाजा नहीं है कि मैं क्या खबर सुनाऊंगा… क्यों मुंह मीठा कराने की बात कर रहा हूं?’’

‘‘रामसिंह, अगर आप पहेलियां नहीं बुझओगे, तो मेहरबानी होगी,’’ विवेक

अचानक चिढ़ गया और उस की आवाज तीखी हो गई.

रामसिंह रहस्यमय अंदाज में कुछ देर

तक मुसकराने के बाद उन से बोला, ‘‘लगता

है कि मुझे सारी बातें शुरू से ही तुम्हें बतानी पड़ेंगी, नहीं तो तुम दोनों की समझ में कुछ

नहीं आएगा.’’

‘‘अब बताना शुरू भी कीजिए प्लीज.’’

‘‘तो सुनो. जब तुम दोनों यहां आपस में झगड़े थे, तो उस दिन मैं तुम सब को बाहर तक छोड़ने गया था. तुम दोनों बस से गए थे जबकि कविता मैडम को मैं ने औटो से भेजा था. उन के पास पैसे नहीं थे इसलिए मैं ने उन्हें क्व100 का नोट किराए के लिए दिया था. ये सब याद है न तुम दोनों को?’’

वे दोनों खामोश रहे, तो रामसिंह ने

आगे बोलना शुरू किया, ‘‘वही 100 रुपए

लौटाने के लिए कविता मैडम 3 दिन बाद

अकेली यहां आई थीं. तुम दोनों की आंखों में हैरानी के भाव देख कर मैं इस वक्त यह अंदाजा लगा रहा हूं कि उन्होंने यहां आने की बात तुम दोनों को कभी नहीं बताई. क्या मैं गलत कह

रहा हूं?’’

‘‘नहीं, पर उसे… खैर, आगे बोलो, रामसिंह,’’ विवेक अपने दोस्त संजय की तरह ही तनाव का शिकार बना हुआ था.

‘‘मेरी बातें सुन कर अपना दिल न

दुखाना तुम दोनों. देखो, जो भी होना होता है,

वह होता है. उस दिन कविता मैडम ने लंच

यहीं हमारे नीरज साहब के साथ किया था.

वह 4-5 दिन बाद फिर आई तो हमारे साहब

के लिए गोभी के परांठे अपने घर से बना कर लाई थी.

‘‘साहब ने जीवविज्ञान में पीएच.डी. कर रखी है और तुम सब इसी विषय में बी.एससी. कर रहे हो. आगे यह हुआ कि कविता मैडम सप्ताह में 2 बार साहब से पढ़ने के लिए आने लगीं.

‘‘उन दोनों के बीच इन बढ़ती मुलाकातों का नतीजा क्या निकला, वह बात वैसे तो खुशी की है, पर मुझे लग रहा है कि तुम दोनों का उसे सुन कर दिल बैठ जाएगा.

‘‘लेकिन सच तो मालूम पड़ना ही चाहिए. कल हमारे साहब और कविता मैडम की सगाई हो गई है. उसी खुशी में यहां सब मिठाई खा रहे हैं. कविता मैडम कुछ देर पहले साहब के साथ घूमने निकल गई है. शायद दिमाग से उतर गया होगा कि तुम दोनों पुराने दोस्तों को मिलने के लिए उन्होंने यहां बुलाया हुआ है. खैर मुंह मीठा कराने को मैं मिठाई…’’

‘‘वह लड़की तो…,’’ विवेक ने अचानक कविता को कुछ कहना चाहा तो रामसिंह को भी गुस्सा आ गया.

‘‘अब आगे जबान संभाल कर बोलना. कविता मैडम के लिए कोई गलत बात मैं नहीं सुनूंगा,’’ रामसिंह ने कठोर लहजे में विवेक को चेतावनी दी.

‘‘कविता ने हम दोनों को अंधकार में रख कर अच्छा नहीं किया है, रामसिंह. वह प्यार का अभिनय हमारे साथ भी करती थी. उस दिन हम आपस में यों ही नहीं लड़े थे. वह उतनी सीधी है नहीं जितनी दिखती है,’’ संजय ने मायूस से लहजे में पहले अपने दिल की पीड़ा जाहिर की और फिर विवेक के कंधे दबा कर उसे शांत रहने को समझने लगा.

‘‘मुझे तुम दोनों से गहरी सहानुभूति है,’’ रामसिंह का गुस्सा ठंडा पड़ने लगा, ‘‘उस दिन तुम आपस में न लड़ते, तो कविता मैडम तुम दोनों के ही साथ होतीं क्योंकि हमारे साहब से उन की मुलाकात ही न हुई होती.

‘‘हमारे साहब तुम दोनों से ज्यादा समझदार व होशियार निकले. न खून बहाया, न रुपए लुटाए लेकिन कविता मैडम को पा लिया.

‘‘तुम दोनों तो आपसी झगड़ों में ताकत खर्च करते रहे और कमजोर पड़ गए. साहब ने उन का दिल जीता और उन्हें पा लिया. आदमी की असली ताकत अब उस की बुद्धि है, न कि मजबूत मांसपेशियां. तुम दोनों खाली हाथ

मलते रह गए. इस का मुझे अफसोस है… पर आगे तुम जरा समझदारी से काम लेना. हमारे साहब की तरह कोई अच्छी लड़की कल को तुम्हारे साथ भी जरूर होगी. अब मैं मिठाई का डब्बा लाता हूं.’’

रामसिंह औफिस में से डब्बा ले कर बाहर आया तो विवेक और संजय वापस जा चुके थे.

‘‘बेचारे,’’ उस ने इस शब्द से उन दोनों के प्रति सहानुभूति दर्शायी और फिर उन्हें भुला कर काजू की 2 बरफियां इकट्ठी मुंह में रख कर बड़े स्वाद से खाने लगा.

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