Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे-भाग 3- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

दिशा अपने को प्रसन्न रखने का भरपूर प्रयास कर रही थी. स्वयं को सांत्वना देती रहती थी कि कभी न कभी समय और विक्रांत का मन बदल ही जायेगा. लेकिन सुधरना तो दूर विक्रांत की निर्लज्जता दिनों-दिन बढ़ रही थी. हद तो तब हुई जब वह कौल गर्ल्स को घर पर बुलाने लगा. दिशा के बैड-रूम में उसके पति की किसी और के साथ हंसने-खिलखिलाने की आवाज़ बाहर तक आती. जब एक दिन निराश हो दिशा ने इसका विरोध किया तो विक्रांत उसे संकीर्ण विचारधारा की पिछड़ी हुई औरत कहकर मज़ाक उड़ाते हुए बोला, “तुम जैसी कंज़र्वेटिव औरत के लिए मेरे दिल में कभी जगह नहीं हो सकती. चुपचाप घर के कोने में पड़ी रहा करो. पैसा जब चाहे मांग लेना, कभी मना नहीं करूंगा. बस उन पैसों के बदले सोसायटी में मेरी प्यारी सी संस्कारी धर्मपत्नी बनी रहना और मैं बना रहूंगा तुम्हारा शरीफ़ सा सिविलाइज़्ड हज़बैंड!”

गुस्से से थर-थर कांपती दिशा ने यह सुन घर छोड़ने में एक मिनट की भी देरी नहीं की. विक्रांत के क्षमा मांगने पर दिशा के माता-पिता ने उसे एक मौका और देने को कहा, लेकिन वह नहीं मानी. दिशा की कोई मांग नहीं थी इसलिए तलाक़ जल्दी हो गया. इक्नौमिक्स में एमए करने के बाद एक प्राइवेट बैंक में उसकी नौकरी लग गयी. पिछले तीन वर्षों से माता-पिता के साथ रह रही थी वह.

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अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई और दिशा को आभास हुआ कि वह गैस्ट हाउस में लेटे हुए न जाने कितने वर्ष पीछे चली गयी थी. ‘लगता है डायरेक्टर सर होंगे, मीटिंग को लेकर कुछ ज़रुरी बात करनी होगी.’ सोचते हुए दिशा ने दरवाज़ा खोला तो सामने अम्बर को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उसका मुंह खुला रह गया.

“कितने मैसजेस किये मैंने अभी तुम्हें व्हाट्सऐप पर, देखे भी नहीं तुमने….बहुत बिज़ी हो गयी हो.” बैड के पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए अम्बर स्नेह भरे शिकायती अंदाज़ में बोला.

“बस सिर दर्द था तो आंख लग गयी थी…..अरे, रात के दस बज गए!” दीवार घड़ी की ओर देखते हुए दिशा बोली.

“तभी तो आया था तुम्हारे पास. सोचा था अब तक तो डिनर भी कर लिया होगा तुमने. तुम्हारे साथ कुछ देर बैठने का मन था. चलो, कहीं बाहर चलते हैं, वैसे खाना मैंने भी नहीं खाया अब तक.” दिशा को मना करने का अवसर ही नहीं मिला. दोनों पास के एक रेस्टोरैंट में चले गए.

दिशा चाह रही थी कि उसके चेहरे पर पीड़ा की एक रेखा भी न आने पाये. अम्बर के सामने वह प्रसन्न दिखने की पूरी कोशिश कर रही थी. कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद अम्बर ने विक्रांत की चर्चा छेड़ दी. दिशा अधिक देर तक अम्बर के समक्ष संतुष्टि और प्रसन्नता का मुखौटा नहीं लगा सकी और पनीली आंखों से जीवन का कड़वा सच उसके सामने खोल कर रख दिया.

“क्या दिशा तुम भी…..! इतने दुःख झेले और मुझे ख़बर तक नहीं दी. आज भी हम नहीं मिलते तो मैं जान ही नहीं पाता कि तुम पर क्या बीती है.” दिशा की पीड़ा का असर अम्बर के दिल से होकर चेहरे पर झलक रहा था.

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डिनर के बाद कुछ देर बाहर टहलते हुए दोनों ने बीते समय की अन्य बातें शेयर की. अम्बर दिशा को गैस्ट हाउस तक छोड़ने आया. बाद में वे जितने दिन गोआ में रहे काम से समय निकालकर कहीं न कहीं घूमने निकल जाते. यूं तो समुद्री तटों के लिए विख्यात गोआ में घूमते हुए दिशा को वह पल याद आ ही जाता था जब वे स्टडी टूर पर गए थे, लेकिन ‘डोना पाउला’ के लवर पौइंट पर जाकर वह खो सी गयी. कहते हैं कि उस समय के वायसराय की बेटी ‘डोना पाउला डी मेनजेस’ एक मछुआरे से बहुत प्रेम करती थी. जब उसके पिता ने दोनों को विवाह की अनुमति नहीं दी तो उसने चट्टान से कूदकर अपनी जान दे दी थी. एक पुरुष और स्त्री की मूर्तियां भी हैं वहां पर. दिशा उनकी कहानी सुनकर उदास हो गयी. उसकी उदासी अम्बर से छुपी न रही और वह उसका मन बहलाने पास की एक मार्किट में ले गया. दिशा ने सीपियों और शंखों से बने कुछ गहने खरीदे और अम्बर ने पुर्तगाली हस्तशिल्प से तैयार नौका का एक शो-पीस. अगले दिन दिशा दिल्ली लौट गयी और तीन दिन बाद अम्बर भी आ गया.

वापिस दिल्ली आने के बाद अम्बर और दिशा अक्सर मिलने लगे. कभी शाम को औफ़िस के बाद वे एक साथ चाय-कौफ़ी पीते तो कभी रविवार के दिन मौल में मिलते. अपने घर में यह सब बताकर दिशा कोई बवंडर खड़ा नहीं करना चाहती थी, किन्तु एक दिन गौरव भैया ने दोनों को साथ-साथ देख लिया.

उन दोनों के एक मित्र, कुणाल का कुछ दिनों बाद विवाह होने वाला था. एक साथ कार्ड देने के उद्देश्य से उसने कुछ दोस्तों को रेस्टोरैंट में बुला लिया. सबसे पहले अम्बर व दिशा वहां पहुंचे. वे जाकर बैठे ही थे कि दिशा की नज़र सामने की टेबल पर पड़ गयी. गौरव अपने एक मित्र के साथ वहां बैठा हुआ था. कुणाल व अन्य मित्रों के आने तक वे दोनों गौरव के पास बैठ गए. सबके आ जाने पर गौरव वापिस चला गया. चाय पीते हुए वे सब कौलेज के दिनों को याद कर ठहाके लगा रहे थे. दिशा भी बातचीत और हंसी-मज़ाक में सबका साथ दे रही थी, लेकिन भीतर ही भीतर भयभीत थी कि घर पर जाने क्या होगा? गौरव भैया अम्बर को लेकर न जाने मम्मी-पापा से क्या कहेंगे?

रेस्टोरैंट से निकलकर दिशा ने अपने मन का डर जब अम्बर के सामने रखा तो उसने आश्वासन देते हुआ कहा कि किसी भी समय यदि उसकी आवश्यकता हो तो दिशा कौल या मैसेज कर दे. वह जल्द से जल्द उनके घर पहुंचकर उसके परिवारवालों को समझा देगा.

दिशा ने डरते हुए घर में कदम रखा. मां उसके लिए चाय लेकर आ गयीं. फिर गौरव और माता-पिता के बीच कानाफूसी होने लगी. कुछ देर बाद वे तीनों मुस्कुराते हुए दिशा के पास आये और बात शुरू करते हुए मां बोली, “बेटा, गौरव बता रहा था कि अम्बर की अभी तक शादी नहीं हो पायी है. हम चाहते हैं कि उसे कल घर पर बुला लो, हम रिश्ते की बात करना चाहते हैं.”

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“यह क्या कह रही हैं आप?” दिशा के माथे पर बल पड़ गए.

“मेरी और पापा की भी यही राय है.” गौरव मुस्कुरा रहा था.

दिशा उनके इस व्यवहार से भौंचक्की रह गयी. गुस्से से तमतमाया चेहरा लेकर वह कमरे से निकल ही रही थी कि पापा बोल उठे, “तुम्हारी भलाई की बात ही कर रहे हैं, बेटा.”

आगे पढ़ें- दिशा अब चुप नहीं रह सकी…..

Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे-भाग 2- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

“कितना सुन्दर है यह छोटा सा रेत का मकान, रंग-बिरंगी सीपियों से सजा हुआ! कैसे ढूंढ ली इतनी ख़ूबसूरत सीपियां इतनी जल्दी तुमने?” अम्बर घरौंदा देख सचमुच आश्चर्य चकित था.

“अपने बालू जैसे रूखे मन से भी ऐसे ही प्यार की चमकती सीपियां  निकालकर अब प्रेम-घर सजाना चाहती हूं.” अनायास ही दिशा के मुंह से निकल गया.

“मैं भी अपने प्यार का फूल सजा दूं क्या यहां?” पास से गुज़र रहे फूल बेचने वाले से रंग-बिरंगे फूलों का एक गुच्छा खरीदते हुए अम्बर बोला.

गुच्छे से दो फूल निकाल उसकी पंखुडियां अलग कर अम्बर ने घरौंदे पर बिखेर दीं और एक बड़ा सा जवाकुसुम का फूल दिशा के बालों में लगाता हुआ बोला, “फूल नहीं यह प्यार है मेरा, देखना अब मेरा इश्क़ तुम्हारे सिर चढ़कर बोलेगा.”

दिशा निगाहें नीची कर मुस्कुरा दी फिर अपना सिर अम्बर के कंधे पर टिका दिया. अम्बर ने उसके प्रेम में भीगे चेहरे को अपनी हथेलियों में समेट प्रेम की मोहर लगा दी.

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सचमुच अम्बर के प्यार का जादू दिशा के सिर चढ़कर बोलने लगा. दिन-रात अम्बर से मिलने को बेताब दिशा को उसके बिना जीना दुश्वार सा लगने लगा था. अम्बर भी दिशा के प्रेम में रंगा था, किन्तु वह अपने को संयत कर प्रेम को मन में ही दबाये रखता था. दिशा जब कभी भी उसे अपने मन की हलचल के विषय खुलकर बताती तो वह मुस्कुराकर कहता, “समय आने पर इस रिश्ते को नाम दे देंगे.”

दिशा अब इस बात को सोचकर बेचैन हो उठती कि उसके और अम्बर के परिवार वाले इस रिश्ते को सहमति देंगे या नहीं. वह अपने माता-पिता को सब कुछ बताकर भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाना चाहती थी. एक दिन जब वह हिम्मत जुटा अपनी भावनाएं मां से साझा करने पहुंची तो उनकी प्रतिक्रिया देख वह भीतर तक आहत हो गयी.

“यह क्या कह रही हो दिशा ? धीरे बोलो. अच्छा हुआ जो तुमने ये बात अपने भैया, गौरव के सामने नहीं की, वह तो तुम्हारे कौलेज जाने पर भी रोक लगवा देता.” कहते हुए मां ने कमरे का दरवाज़ा धीरे से बंद कर दिया. फिर थोड़ा क्षोभ प्रकट करते हुए बोलीं, “तुम्हें पता है न कि अम्बर नीची जाति से है. हमसे पाप करवओगी क्या नीची जातिवालों से सम्बन्ध बनावाकर?”

मम्मी की बातों से निराश दिशा शाम को पापा के आने की प्रतीक्षा करने लगी. उसे अपनी दुलारी बेटी कहने वाले पापा ने मां का समर्थन करते हुए उसके सामने अपने एक मित्र के बेटे, विक्रांत से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. विक्रांत का परिवार काफी संपन्न था, उनके विदेश तक फैले व्यापार का विक्रांत ही अकेला उत्तराधिकारी था.

दिशा की मां ने प्रसन्नता दर्शाते हुए कहा “मैं तो अब दिशा के लिए लड़के देखने की बात आपसे करने ही वाली थी. इसका बीए फाइनल इयर है. बस इसके बाद हाथ पीले कर देंगे. अच्छा हुआ कि आपकी पहचान में विक्रांत जैसा एक लड़का है.”

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“कल संडे है, मैं उन लोगों को फ़ोन कर घर आने का इनविटेशन दे देता हूं.” दिशा के पिता जेब से अपना मोबाइल निकालते हुए बोले.

“अभी मुझे बहुत पढ़ना है, अम्बर को तो मैं केवल पसंद करती हूं इसलिए आपको बताना चाहती थी. शादी के बारे में तो मैं अभी सोच ही नहीं रही थी.” दिशा ने इस प्रस्ताव को टालना चाहा.

“तो हम भी बस यूं ही मिलने के लिए बुला लेते हैं उन लोगों को.” दिशा की मां के कहते ही उसके पिता ने विक्रांत के घर फ़ोन लगा लिया. वे अम्बर से उसका सम्बन्ध किसी भी कीमत पर समाप्त करवा देना चाहते थे.

अगले दिन विक्रांत अपने परिवार के साथ आ गया. दिशा कुछ देर उन लोगों के पास बैठने के बाद अपने कमरे में चली गयी. इसी बीच उसके घरवालों ने विक्रांत के परिवार से दोनों के रिश्ते की बात कर ली. विक्रांत की मां ने अपने गले से सोने की मोटी चेन उतारकर दिशा के गले में डाल दी. दिशा जैसी कोमल गुड़िया सरीखी लड़की को वे कैसे छोड़ देतीं? दिशा को वह चेन फांसी के फंदे सी लग रही थी. उसके पिता ने नोटों की ढेर सारी गड्डियां विक्रांत की झोली में डाल दीं और दोनों के माता-पिता ने एक-दूसरे को शुभकामनाएं दे रिश्ता पक्का कर दिया. दिशा लुटी सी सब देखती रह गयी. रात का खाना खाकर उनके जाने के बाद दिशा टूटे वृक्ष सी अपने बिस्तर पर पड़ गयी. ‘अब क्या होगा? अम्बर से सब कैसे कहेगी? सोचा क्या था और क्या हो गया!’ दिशा का मन बहुत अशांत था. रात भर वह सुबकती ही रही.

सुबह होते ही वह जल्दी-जल्दी तैयार हो कौलेज के लिए निकल पड़ी और वहां पहुंचकर सीधा अम्बर के क्लास-रूम में चली गयी. अम्बर को देखते ही रुंधे गले से बात शुरू करते हुए बोली, “अम्बर, मेरे परिवार वालों के मन में मेरे लिए ज़रा सा भी स्नेह नहीं है. उनका असली चेहरा दिख गया है मुझे. अभी तक वे मुखौटे लगाकर रह रहे थे.” और दिशा ने रोते हुए पूरी बात बता दी.

अम्बर को कुछ नहीं सूझ रहा था. अभी तो वह अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हुआ था, फिर दिशा को अपने साथ घर बसाने को कैसे कह देता? दिशा की बेबसी और अपनी लाचारी देख उसने पीड़ा को भीतर छुपाते हुए मुस्कुराता चेहरा अपने उदास चेहरे पर चढ़ा लिया और दिशा को परिस्थिति से समझौता कर अपने माता-पिता की बात मान लेने का सुझाव दे दिया.

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दिशा ने भी दिल पर पत्थर रख लिया. वार्षिक परीक्षा के बाद विक्रांत से उसका विवाह हो गया. विवाह के दो माह बीतते-बीतते वह जान गयी कि विक्रांत का असली चेहरा कुछ और ही था. एक विनम्र, चरित्रवान और निश्छल व्यक्ति का मुखौटा लगाये वह सबको धोखे में रखता था. प्रतिदिन घर देर से आना, शराब पीकर दिशा को डांटना-फटकारना और अन्य स्त्रियों से सम्बन्ध उसकी आदत थी. मदिरा के मद में कभी दिशा पर प्यार भी आता तो बिस्तर से शुरू होकर बिस्तर पर ही समाप्त हो जाता. पत्नी तो मात्र देह थी उसके नज़रों में. देह की कभी भावनाएं होती हैं क्या? तभी तो दिशा का भावनात्मक होना उसे हास्यास्पद लगता था और पति के प्रति उसका प्रेम विक्रांत को कमज़ोरी की निशानी लगता था. दिशा उसके लिए हाथ आ चुकी वह वस्तु थी जो अब कभी छूटने वाली नहीं थी.

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सरहद पार से- भाग 1 : अपने सपनों की रानी क्या कौस्तुभ को मिल पाई

लेखिका- उषा रानी

‘इंडोपाक कल्चरल मिशन’ के लिए जिन 5 शिक्षकों का चयन हुआ है उन में एक नाम कौस्तुभ का भी है. अभी 2 साल पहले ही तो आई.आई.टी. कानपुर से एम. टेक. करने के बाद प्रवक्ता के पद पर सीधेसीधे यहीं आया था. स्टाफ रूम के खन्ना सर किसी न किसी बहाने लाहौर की चर्चा करते रहते हैं. वह आज तक इतने और ऐसे ढंग से किस्से सुनाते रहे हैं कि लाहौर और खासकर अनारकली बाजार की मन में पूरी तसवीर उतर गई है. इस चयन से कौस्तुभ के तो मन की मुराद पूरी हो गई.

सुनयनाजी बेटे कौस्तुभ की शादी के सपने देखने लगी हैं. ठीक भी है. सभी मातापिता की इच्छा होती है बेटे को सेहरा बांधे, घोड़ी पर चढ़ते देखने की. छमछम करती बहू घर में घूमती सब को अच्छी लगती है. सुबहसुबह चूडि़यां खनकाती जब वह हाथ में गरमागरम चाय का प्याला पकड़ाती है तो चाय का स्वाद ही बदल जाता है. फिर 2-3 साल में एक बच्चा लड़खड़ाते कदम रखता दादी पर गिर पड़े तो क्या कहने. बस, अब तो सुनयनाजी की यही तमन्ना है. उन्होंने तो अभी से नामों के लिए शब्दकोष भी देखना शुरू कर दिया है. उदयेशजी उन के इस बचकानेपन पर अकसर हंस पड़ते हैं, ‘क्या सुनयना, सूत न कपास जुलाहे से लट्ठमलट्ठा वाली कहावत तुम अभी से चरितार्थ कर रही हो. कहीं बात तक नहीं चली है, लड़का शादी को तैयार नहीं है और तुम ने उस के बच्चे का नाम भी ढूंढ़ना शुरू कर दिया. लाओ, चाय पिलाओ या वह भी बहू के हाथ से पिलवाने का इरादा है?’

‘आप तो मेरी हर बात ऐसे ही मजाक में उड़ा देते हैं. शादी तो आखिर होगी न. बच्चा भी होगा ही. तो नाम सोचने में बुराई क्या है?’

यह बोल कर सुनयना किचन में चली गईं और 2 कप चाय ले कर आईं. एक कप उन्हें पकड़ाया और दूसरा अपने सामने की तिपाई पर रखा. प्याला होंठों से लगाते हुए उदयेशजी ने फिर चुटकी ली, ‘अच्छा बताओ, क्या नाम सोचा है?’

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‘अरे, इतनी जल्दी दिमाग में आता कहां है. वैसे भी मैं नाम रखने में इतनी तेज कहां हूं. तेज तो सुमेघा थी. उस ने तो मेरी शादी तय होते ही मेरे बेटे का नाम चुन लिया था. उसी का रखा हुआ तो है कौस्तुभ नाम.’

‘अच्छा, मुझे तो यह बात पता ही नहीं थी,’ उदयेशजी की आवाज में चुहल साफ थी, ‘हैं कहां आप की वह नामकर्णी सहेलीजी. आप ने तो हम से कभी मिलवाया ही नहीं.’

‘क्यों, मिलवाया क्यों नहीं, शादी के बाद उस के घर भी हो आए हैं आप. कितनी बढि़या तो दावत दी थी उस ने. भूल गए?’ उलाहना दिया सुनयनाजी ने.

‘अरे हां, वह लंबी, सुंदर सी, बड़ीबड़ी आंखों वाली? अब कहां है? कभी मिले नहीं न उस के बाद? न फोन न पत्र? बाकी सहेलियों से तो तुम मिल ही लेती हो. विदेश में कहीं है क्या?’ उदयेशजी अब गंभीर थे.

‘वह कहां है, इस की किसी को खबर नहीं.’

बचपन की सहेली का इस तरह गुम हो जाना सुनयनाजी की जिंदगी का एक बहुत ही दुखदायी अनुभव है. वह अकसर उन की फोटो देख कर रो पड़ती हैं.

कौस्तुभ समेत 5 शिक्षकों और 50 छात्रों का यह दल लाहौर पहुंच गया है. लाहौर मुंबई की तरह पूरी रात तो नहीं पर आधी रात तक तो जागता ही रहता है. शहर के बीचोबीच बहती रोशनी में नहाई नहर की लहरें इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं. एक रात मेहमानों का पूरा दल अलमहरा थिएटर में नाटक भी देख आया.

लाहौर घूम कर यह दल पाकिस्तान घूमने निकला. हड़प्पा देखने के बाद दल ननकाना साहब भी गया. गुजरांवाला की गलियां और कराची की हवेलियां भी देखी गईं. पाकिस्तान का पंजाब तो उन्हें भारत का पंजाब ही लगा. वही सरसों के लहलहाते खेत और तंदूर पर रोटी सेंकती, गाती हुई औरतें. वही बड़ा सा लस्सी भर गिलास और मक्के की रोटी पर बड़ी सी मक्खन की डली. 55 भारतीयों ने यही महसूस किया कि गुजरे हुए 55 सालों में राजनेताओं के दिलों में चाहे कितनी भी कड़वाहट आई हो, आम पाकिस्तानी अब भी अपने सपनों में अमृतसर के गलीकूचे घूम आता है और हिंदू दोस्तों की खैरखबर जानने को उत्सुक है.

कौस्तुभ की अगवाई में 10 छात्रों ने लाहौर इंजीनियरिंग कालिज के 25 चुने हुए छात्रों से मुलाकात की. भारतपाक विद्यार्थी आपस में जितने प्रेम से मिले और जिस अपनेपन से विचारों का आदान- प्रदान किया उसे देख कर यही लगा कि एक परिवार के 2 बिछुड़े हुए संबंधी अरसे बाद मिल रहे हों. और वह लड़की हाथ जोड़ सब को नमस्ते कर रही है. कौस्तुभ के पूछने पर उस ने अपना नाम केतकी बताया. गुलाबी सूट में लिपटी उस लंबी छरहरी गोरी युवती ने पहली नजर में ही कौस्तुभ का दिल जीत लिया था.

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रात में कौस्तुभ बड़ी देर तक करवटें बदलता रहा. उस की यह बेचैनी जब डा. निरंजन किशोर से देखी नहीं गई तो वह बोल पड़े, ‘‘क्या बात है, कौस्तुभ, लगता है, कहीं दिल दे आए हो.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है पर न जाने क्यों उस लड़की के खयाल मात्र से मन बारबार उसी पर अटक रहा है. मैं खुद हैरान हूं.’’

‘‘देखो भाई, यह कोई अजीब बात नहीं है. तुम जवान हो. लड़की सुंदर और जहीन है. तुम कहो तो कल चल पड़ें उस के घर?’’ डा. किशोर हलके मूड में थे.

वह मन ही मन सोचने लगे कि ये तो इस लड़की को ले कर सीरियस है. चलो, कल देखते हैं. हालीडे इन में सभी पाकिस्तानी छात्रछात्राओं को इकट्ठा होना ही है.

डा. किशोर गंभीर हो गए. उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस प्रकरण को किसी न किसी तरह अंजाम तक जरूर पहुंचाएंगे.

दूसरे दिन डा. किशोर तब सकते में आ गए जब कौस्तुभ ने उन्हें केतकी से सिर्फ मिलवाया ही नहीं बल्कि उस का पूरा पता लिखा परचा उन की हथेली पर रख दिया. डा. किशोर भी उस लड़की से मिल कर हैरान रह गए. उस की भाषा में शब्द हिंदी के थे. वह ‘एतराज’ नहीं ‘आपत्ति’ बोल रही थी. उन्होंने आग्रह किया कि वह उस के मातापिता से मिलना चाहेंगे.

अगले दिन वे दोनों केतकी के घर पहुंचे तो उस ने बताया कि पापा किसी काम से कराची गए हैं. हां, ममा आ रही हैं. मिलने तब तक नौकर सत्तू की कचौड़ी और चने की घुघनी ले कर आ चुका था.

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सरहद पार से- भाग 3 : अपने सपनों की रानी क्या कौस्तुभ को मिल पाई

लेखिका- उषा रानी

‘‘यह सच है, अहमद मुझे पाना चाहता था पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे भगाता. एक औरत हो कर कुलसुम आपा ने मेरा जीवन नरक बना दिया. क्या बिगाड़ा था मैं ने उन का. हमेशा मैं ने सम्मान दिया उन्हें लेकिन…’’ और सुमेधा ऊपर देखने लगीं.

‘‘जज अंकल गए थे तेरे पास तो अहमद को क्या कहा उन्होंने?’’ बात की तह में जाने के लिए सुनयना ने पूछा.

‘‘उन्होंने पहले मुझ से पूछा कि अहमद ने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की. मेरे ‘न’ कहने पर वे बोले, ‘देखो बेटा, यह जीवन अल्लाह की दी हुई नेमत है. इसे गंवाने की कभी मत सोचना. इस के लिए सजा इस बूढ़े बाप को मत देना. तुम कहो तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं.’ लेकिन मैं ने मना कर दिया, सुनयना. मेरा तो जीवन इन भाईबहन ने बरबाद कर ही दिया था, अब मैं नवनीत, गरिमा और मम्मीपापा की जिंदगी क्यों नरक करती. ठीक किया न?’’ सुमेधा की आंखें एकदम सूखी थीं.

‘‘तो तू ने अहमद से समझौता कर लिया?’’

‘‘जज अंकल ने कहा कि बेटा, मैं तो इसे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा, हो सके तो तू कर दे. उन्होंने अहमद से कहा, ‘देख, यह मेरी बेटी है. इसे अगर जरा भी तकलीफ हुई तो मैं तुम्हें दोनों मुल्कों में कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’ दूसरी बार वह केतकी के जन्म पर आए थे, बहुत प्यार किया इसे. यह तो कई बार दादादादी के पास हो भी आई. दो बार तो अंसारी अंकल इसे मम्मी से भी मिलवा लाए.

‘‘जानती है सुनयना, अंसारी अंकल ने कुलसुम आपा को कभी माफ नहीं किया. आंटी उन से मिलने को तरसती मर गईं. आंटी को कभी वह लाहौर नहीं लाए. अंकल ने अपने ही बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया और जायदाद मेरे और केतकी के नाम कर दी. शायद आंटी भी अपने बेटेबेटी को कभी माफ नहीं कर सकीं. तभी तो मरते समय अपने सारे गहने मेरे पास भिजवा दिए.’’

सुमेधा की दुखभरी कहानी सुन कर सुनयना सोचती रहीं कि एक ही परिवार में अलगअलग लोग.

अंकल इतने शरीफ और बेटाबेटी ऐसे. कौन कहता है कि धर्म इनसान को अच्छा या बुरा बनाता है. इनसानियत का नाता किसी धर्म से नहीं, उस की अंतरात्मा की शक्ति से होता है.

‘‘लेकिन यह बता, तू ने अहमद को माफ कैसे कर दिया?’’

‘‘हां, मैं ने उसे माफ किया, उस के साथ निभाया. मुझे उस की शराफत ने, उस की दरियादिली ने, उस के सच्चे प्रेम ने, उस के पश्चात्ताप ने इस के लिए मजबूर किया था.’’

‘‘अहमद और शराफती?’’ सुनयना चौंक कर पूछ बैठीं.

‘‘हां सुनयना, उस ने 2 साल तक मुझे हाथ नहीं लगाया. मैं ने उसे समझने में बहुत देर लगाई. लेकिन फिर ठीक समझा. मैं समझ गई कि कुलसुम आपा इसे न उकसातीं, शह न देतीं तो वह कभी भी ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता. मैं ने उसे बिलखबिलख कर रोते देखा है.

‘‘अहमद ने एक नेक काम किया कि उस ने मेरा धर्म नहीं बदला. मैं आज भी हिंदू हूं. मेरी बेटी भी हिंदू है. हमारे घर में मांसाहारी भोजन नहीं बनता है. बस, केतकी के जन्म पर उस ने एक बात कही, वह भी मिन्नत कर के, कि मैं उस का नाम बिलकुल ऐसा न रखू जो वहां चल ही न पाए.’’

‘‘तू सच कह रही है? अहमद ऐसा है?’’ सुनयना को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था.

‘‘हां, अहमद ऐसा ही है, सुनयना. वह तो उस पर जुनून सवार हो गया था. मैं ने उसे सचमुच माफ कर दिया है.’’

‘‘तो तू पटना क्यों नहीं गई? एक बार तो आंटी से मिल आ.’’

‘‘मुझ में साहस नहीं है. तू ले चले तो चलूं. मायके की देहली के दरस को तरस गई हूं. सुनयना, एक बार मम्मी से मिलवा दे. तेरे पैर पड़ती हूं,’’ कह कर सुमेधा सुनयना के पैरों पर गिर पड़ी.

‘‘क्या कर रही है…पागल हो गई है क्या…मैं तुझे ले चलूं. क्या मतलब?’’

‘‘देख, मम्मी ने कहा है कि अगर तू केतकी को अपनाने को तैयार हो गई तो वह अपने हाथों से कन्यादान करेंगी. बेटी न सही, बेटी की बेटी तो इज्जत से बिरादरी में चली जाए.’’

‘‘तू लाहौर से अकेली आई है?’’

‘‘नहीं, अहमद और केतकी भी हैं. मेरी हिम्मत नहीं हुई उन्हें यहां लाने की.’’

‘‘अच्छा, उदयेश को आने दे?’’ सुनयना बोलीं, ‘‘देखते हैं क्या होता है. तू कुछ खापी तो ले.’’

सुनयना ने उदयेश को फोन किया और सोचती रही कि क्या धर्म इतना कमजोर है कि दूसरे धर्म के साथ संयोग होते ही समाप्त हो जाए और फिर  क्या धार्मिक कट्टरता इनसानियत से बड़ी है? क्या धर्म आत्मा के स्नेह के बंधन से ज्यादा बड़ा है?

उदयेश आए, सारी बात सुनी. सब ने साथ में लंच किया. सुमेधा को उन्होंने कई बार देखा पर नमस्ते के अलावा बोले कुछ नहीं.

उदयेशजी ने गाड़ी निकाली और दोनों को साथ ले कर होटल पहुंचे. सब लोग बैठ गए. सभी चुप थे. अहमद ने कौफी मंगवाई और पांचों चुपचाप कौफी पीते रहे. आखिर कमरे के इस सन्नाटे को उदयेशजी ने तोड़ा :

‘‘एक बात बताइए डा. अंसारी, आप की सरकार, आप की बिरादरी कोई हंगामा तो खड़ा नहीं करेगी?’’

अहमद ने उदयेश का हाथ पकड़ा, ‘‘उदयेशजी, सरकार कुछ नहीं करेगी. बिरादरी हमारी कोई है नहीं. बस, इनसानियत है. आप मेरी बेटी को कुबूल कर लीजिए. मुझे उस पाप से नजात दिलाइए, जो मैं ने 25 साल पहले किया था.

‘‘सरहद पार से अपनी बेटी एक हिंदू को सौंपने आया हूं. प्लीज, सुनयनाजी, आप की सहेली 25 साल से जिस आग में जल रही है, उस से उसे बचा लीजिए,’’ कहते हुए वह वहीं फर्श पर उन के पैरों के आगे अपना माथा रगड़ने लगा.

उदयेश ने डा. अंसारी को उठाया और गले से लगा कर बोले, ‘‘आप सरहद पार से हमें इतना अच्छा तोहफा देने आए हैं और हम बारात ले कर पटना तक नहीं जा सकते? इतने भी हैवान नहीं हैं हम. जाइए, विवाह की तैयारियां कीजिए.’’

सुनयनाजी ने अपने हाथ का कंगन उतार कर केतकी की कलाई में डाल दिया.

जब ऐसा मिलन हो, दो सहेलियों का, दो प्रेमियों का, दो संस्कृतियों का, दो धर्मों का तो फिर सरहद पर कांटे क्यों? गोलियों की बौछारें क्यों?

दिशा की दृष्टिभ्रम: क्या कभी खत्म हुई दिशा के सच्चे प्यार की तलाश

Short Story: तोहफा अप्रैल फूल का

लेखक- नरेश कुमार पुष्करना

अप्रैल की पहली तारीख थी. चंदू सुबह से ही सब से मूर्ख बननेबनाने की बातें कर रहा था. इसी कशमकश में वह स्कूल पहुंचा, लेकिन स्मार्टफोन पर बिजी हो गया. हमेशा गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया में खोया रहने वाला चंदू स्मार्टफोन से व्हाट्सऐप पर गुडमौर्निंग के मैसेजेस कौपीपेस्ट कर रहा था कि अचानक व्हाट्सऐप पर एक मैसेज आया. इस मैसेज को पढ़ने और इंप्लीमैंट करने के बाद जो नतीजा उस के सामने आया उस से वह ठगा सा रह गया. दरअसल, किसी ने उसे अप्रैल फूल बनाया था. वह खुद पर खिन्न था लेकिन तभी उसे खुराफात सूझी. अत: उस ने भी अपने सभी दोस्तों को अप्रैल फूल बनाने की सोची और अपने सभी कौंटैक्ट्स पर उस मैसेज को कौपी कर दिया.

उस के कौंटैक्ट्स में उस की क्लास टीचर अंजू मैडम का नंबर भी था, सो मैसेज उन के नंबर पर भी फौरवर्ड हो गया. मैसेज में लिखा था, ‘क्या आप किसी अमित कुमार को जानते हैं? वह कह रहा है कि वह आप को जानता है. उसे आप का फोन नंबर दूं या आप को उस का फोटो सैंड करूं. मेरे पास उस का फोटो है. आप बोलें तो दूं नहीं तो नहीं.’

संयोग से मैडम के वुडबी का नाम भी अमित था, सो उन्हें बड़ी हैरानी हुई. उन्होंने आननफानन में रिप्लाई किया कि फोटो भेज दो और उन्हें मेरा नंबर भी दे दो, लेकिन जवाब में चंदू ने उन्हें फोटो भेजा तो वे ठगी रह गईं. फिर नीचे लिखे मैसेज को पढ़ कर हैरान हुईं. लिखा था ‘अप्रैल फूल बनाया.’ उस फोटो में अंगरेजी फिल्म ‘द मम्मी’ के प्रेतात्मा वाले करैक्टर का भद्दा चित्र था. मैम को चंदू पर बहुत गुस्सा आया. सो उन्होंने उसे सबक सिखाने की सोची. ‘अपने से बड़ों से मजाक करता है. इसे सबक सिखाना ही होगा.’ लेकिन साथ ही वे संदेश भी देना चाहती थीं कि मजाक हमउम्र से ही करे.

चंदू, जिस का पूरा नाम चंद्रप्रकाश था, 11वीं कक्षा का छात्र था. पढ़ाई में निखद लेकिन बात बनाने में आगे. तिस पर उसे छोटेबड़े का भी लिहाज न था. हमेशा गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया में ही खोया रहने वाला चंदू स्मार्टफोन मिलने के बाद तो और खो गया था. हर समय, चैटिंग, व्हाट्सऐप, यूट्यूब में लगा रहता. प्रार्थना के बाद जब सब क्लासरूम में आए तो क्लास टीचर अंजू क्लास में आते ही बोलीं, ‘‘आज सुबह से ही तुम सब एकदूसरे को अप्रैल फूल बना रहे हो. चलो, मैं भी तुम्हें खेलखेल में फन के रूप में पढ़ाती हूं. मैं इतिहास विषय से कुछ प्रश्न पूछूंगी, जो सब से ज्यादा सही उत्तर देगा उसे इनाम दिया जाएगा. शर्त यह है कि वह किसी तरह मुझे अप्रैल फूल भी बनाए.’’

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मैम ने पहला प्रश्न पूछा, ‘‘बाबर का जन्म कब हुआ था?’’ सभी छात्र शून्य में देखने लगे लेकिन पीछे बैठा चंदू झट से बोला, ‘‘14 फरवरी, 1483.’’

‘‘सही जवाब,’’ मैम ने कहा और अगला प्रश्न दागा, ‘‘क्रीमिया का युद्ध कब से कब तक चला?’’

इतिहास की तिथियां किसे याद रहती हैं. अत: सभी चुप थे. तभी चंदू फिर बोला, ‘‘जुलाई 1853 से सितंबर 1855 तक.’’

‘‘बिलकुल सही,’’ एक बार फिर तालियां बजीं. तभी प्रीति बोल पड़ी, ‘‘मैम आप के बालों पर चौक लगा है.’’

‘‘हां, मुझे पता है,’’ कह कर वे चुप हो गईं. दरअसल, प्रीति ने मैम को अप्रैल फूल बनाना चाहा था. फिर मैम ने अगला प्रश्न पूछा, ‘‘कुतुबमीनार किस ने बनवाई थी?’’ इस बार कईर् छात्रों के हाथ खड़े थे, लेकिन अंजू मैडम ने जानबूझ कर चंदू से ही पूछा तो उस ने भी सटीक उत्तर बता दिया, ‘‘गुलाम वंश के संस्थापक कुतबुद्दीन ऐबक ने.’’

‘‘सही उत्तर,’’ कह कर मैम ब्लैक बोर्ड की ओर मुड़ीं तो राहुल बोल पड़ा, ‘‘मैम, आप की साड़ी के पल्लू पर छिपकली है.’’

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अंजू मैम जानती थीं कि अप्रैल फूल बनाया जा रहा है, सो बोलीं, ‘‘तुम हटा दो.’’ अब मैम जो भी प्रश्न पूछतीं पीछे डैस्क पर बैठा चंदू उस का सही जवाब बताता. 10 में से केवल एक सवाल का उत्तर अन्य छात्र ने दिया. बाकियों ने सिर्फ अप्रैल फूल बनाने की नाकाम कोशिश की. सभी छात्र इस बात से भी हैरान थे कि फिसड्डी चंदू आज इतनी आसानी से बिलकुल सटीक उत्तर कैसे दे रहा है? अंत में नतीजा सुनाती अंजू मैम बोलीं, ‘‘आज के इस चैलेंज में ज्यादा से ज्यादा सवालों के सही जवाब चंदू ने दिए और अप्रैल फूल भी उसी ने बनाया,’’ कहती हुई मैम चंदू की सीट पर गईं और उस के हाथ से मोबाइल छीनती हुई बोलीं, ‘‘देखो, यह सभी प्रश्नों के उत्तर नैट से गूगल सर्च कर के दे रहा था.’’

फिर वे चंदू की ओर मुखातिब होती हुई बोलीं, ‘‘चंदू, आखिरी पीरियड में आ कर मुझ से अपना मोबाइल और अप्रैल फूल का तोहफा ले जाना.’’ सभी बच्चे हैरान थे कि चंदू ने बैठेबैठे खेलखेल में इनाम जीत लिया. सभी को इस बात से चंदू से ईर्ष्या थी, लेकिन चंदू बहुत खुश था. आखिरी पीरियड में चंदू अंजू मैम के पास गया तो उन्होंने उसे एक बड़ा सा डब्बा थमा दिया, जिसे बहुत ही सुंदर पैकिंग से पैक किया हुआ था. ऊपर चिट लगी थी, ‘‘चंदू को अप्रैल फूल का तोहफा मुबारक.’’ चंदू ने खुशीखुशी तोहफा लिया और क्लासरूम में आ कर बड़े उत्साह से खोलने लगा. तोहफे का डब्बा खोलते समय वह फूला नहीं समा रहा था. चंदू ने पैकिंग पेपर हटाया औैर डब्बा खोला. वह तोहफा देखने को खासा उत्सुक था. उस के आसपास अन्य छात्र भी इकट्ठे हो तोहफा देखने को उत्सुक दिखे. डब्बे को खोलने पर उसे अंदर एक और छोटा डब्बा मिला. चंदू हैरान था. अब इस डब्बे को खोला तो अंदर एक और डब्बा था. चंदू नरवस हो गया. डब्बे में डब्बा खोलते उस के पसीने छूट गए. वह सोचने लगा, ‘मैम ने अच्छा तोहफा दिया है कि खोलते रहो.’

एक छात्र बोला, ‘‘लगता है चंदू को मैम ने अप्रैल फूल बनाया है, डब्बे में डब्बा ही खुलता जा रहा है.’’ ‘हां, शायद अप्रैल फूल के तोहफे में अप्रैल फूल ही बनाया है मैम ने,’ सोचता हुआ चंदू डब्बे खोलता गया लेकिन अंत में जो डब्बा मिला उसे पा कर वह फूला न समाया. यह अत्यंत महंगे मोबाइल फोन का डब्बा था.  चंदू खुश हो गया. उसे लगा मैम ने इतना महंगा फोन गिफ्ट किया है, लेकिन ज्यों ही उस ने मोबाइल फोन का डब्बा खोला, उस में मोबाइल के बजाय एक पत्र पा कर हैरान हुआ. फिर पत्र निकाल कर पढ़ने लगा. लिखा था,‘चंदू तुम्हें अप्रैल फूल का तोहफा मुबारक हो. तुम ने सुबह मुझे मैसेज कर अप्रैल फूल बनाया, मुझे बहुत पिंच हुआ. संयोग से मेरे वुडबी का नाम भी अमित है सो मैसेज का संबंध उन से जुड़ा, लेकिन बाद में तुम्हारे द्वारा भेजा ‘ममी’ का फोटो देख दिल धक्क रह गया. तुम्हें मजाक करते समय यह भी खयाल नहीं रहा कि तुम मजाक किस से कर रहे हो. उस की उम्र क्या है. तुम से संबंध क्या है. तुम्हें इस तरह की हरकतें अपने हमउम्र के साथ ही करनी चाहिए, बड़ों के  साथ नहीं. ‘दूसरे, तुम ने स्कूल में मोबाइल लाने की गलती की, क्योंकि स्कूल में मोबाइल अलाउड नहीं होता. तुम जानते ही हो. तिस पर तुम ने गूगल सर्च कर कर के प्रश्नों के उत्तर दिए और मुझे फूल बनाया. इस तरह तुम सटीक उत्तर दे पाए परंतु क्या खुद को परख पाए? परीक्षा खुद को परखने का पैमाना है. स्कूल परीक्षा में मोबाइल भी नहीं होगा, तब क्या करोगे? ‘समय से चेत जाओ और गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया से बाहर आ कर ऐक्चुअल में विचरण करो. गैजेट्स का सही इस्तेमाल सीखो. नैट से नकल के बजाय हैल्प लो और अपने नोट्स बनाओ. परीक्षा की तैयारी करो. मैं ने पहले भी जब क्लास टैस्ट लिए हैं तुम्हें मोबाइल सर्च करते पाया है, पर तुम्हारी बेइज्जती न हो इसलिए चुप थी. आज का नाटक भी तुम्हारे कारण किया. तभी मैं तुम से ही सब प्रश्न पूछ रही थी और तुम उत्साह में नैट से देख कर उत्तर देते रहे. मेरा फर्ज था समय रहते तुम्हें चेताऊं. आगे से मजाक हमउम्र लोगों से करना साथ ही पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन का इस्तेमाल करो इस से गैजेट्स का सही इस्तेमाल भी होगा और तुम्हारा भला भी. हैप्पी अप्रैल फूल.

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‘तुम्हारी क्लास टीचर

‘अंजू.’

चंदू ने पत्र फोल्ड कर के जेब में रख लिया लेकिन उस में लिखी बातों ने उस के हृदय को झकझोर कर रख दिया. सभी साथी भी उसे हमदर्दी की नजरों से देख रहे थे. उसे सबक मिल गया था. ‘वाकई अगर वह डिजिटल दुनिया से निकल कर ऐक्चुअल तैयारी करे तो परीक्षा में अच्छे अंक ही नहीं लाएगा बल्कि टौप भी करेगा. अगली परीक्षा में वह इन बातों पर जरूर अमल करेगा और अप्रैल फूल के इस तोहफे को जीवन का टर्निंग पौइंट मान कर संभाल कर रखेगा.’ यह संकल्प लेते हुए चंदू ने पत्र जेब में डाला और नैट पर परीक्षा सामग्री सर्च कर डायरी में नोट्स बनाने बैठ गया.

सरहद पार से- भाग 2 : अपने सपनों की रानी क्या कौस्तुभ को मिल पाई

लेखिका- उषा रानी

केतकी की ममा आईं तो उन को देख कर दोनों आश्चर्य में पड़ गए. सफेद सिल्क की चौड़े किनारे वाली साड़ी में उन का व्यक्तित्व किसी भारतीय महिला की तरह ही निखर रहा था. वह मंदमंद हंसती रहीं और एक तश्तरी में कचौड़ी- घुघनी रख कर उन्हें दी. उन्हें देख कर दोनों अभिभूत थे, जितनी सुंदर बेटी उतनी ही सुंदर मां.

‘‘देखिए मैडम, मेरे दोस्त को आप की केतकी बेहद पसंद है,’’ डा. किशोर बोले, ‘‘पता नहीं इस के घर वाले मानेंगे या नहीं, लेकिन आप लोगों को एतराज न हो तो मैं भारत पहुंच कर कोशिश करूं. आप कहें तो आप के पति से मिलने और इस बारे में बात करने के लिए दोबारा आ जाऊं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ केतकी की ममा बोलीं, ‘‘मुझे केतकी ने सबकुछ बता दिया है और हम दोनों को कोई एतराज नहीं, बल्कि मैं तो बहुत खुश होऊंगी अगर मेरी बेटी का ब्याह भारत में हो जाए.’’

‘‘क्यों? क्या आप लोग उधर से इधर आए हैं?’’ कौस्तुभ ने पूछा.

‘‘हां, हम बंटवारे के बहुत बाद में आए हैं. मेरे मातापिता तो अभी भी वहीं हैं.’’

‘‘अच्छा, कहां की हैं आप?’’

वह बहुत भावुक हो कर बोलीं, ‘‘पटना की.’’

डा. किशोर को लगा कि उन्हें अपने अतीत में गोता लगाने के लिए अकेले छोड़ देना ही ठीक होगा. अत: कौस्तुभ का हाथ पकड़ धीमे से नमस्ते कह कर वे वहां से चल दिए.

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घर में पूरा हंगामा मच गया. एक मुसलमान और वह भी पाकिस्तानी लड़की से कौस्तुभ का प्रेम. सुनयना ने तो साफ मना कर दिया कि एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में ऐसी मिलावट कैसे हो सकती है? डा. किशोर की सारी दलीलें बेकार गईं.

‘‘आंटी, लड़की संस्कारी है,’’

डा. किशोर ने बताया, ‘‘उस की मां आप के पटना की हैं.’’

‘‘होगी. पटना में तो बहुत मुसलमान हैं. केवल इसलिए कि वह मेरे शहर की है, उस से मैं रिश्ता जोड़ लूं. संभव नहीं है.’’

डा. किशोर मन मार कर चले गए. सुनयनाजी ने यह सोच कर मन को सांत्वना दे ली कि वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है, उस का भी भर जाएगा.

उस दिन शाम को उदयेशजी ने दरवाजा खोला तो उन के सामने एक अपरिचित सज्जन खड़े थे.

‘‘हां, कहिए, किस से मिलना है आप को?’’

‘‘आप से. आप कौस्तुभ दीक्षित के वालिद हैं न?’’ आने वाले सज्जन ने हाथ आगे बढ़ाया. उदयेशजी आंखों में अपरिचय का भाव लिए उन्हें हाथ मिलाते हुए अंदर ले आए.

‘‘मैं डा. अनवर अंसारी,’’  सोफे पर बैठते हुए आगंतुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स का प्रोफेसर हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में सिर्फ इसलिए आ गया कि आप से मिल सकूं.’’

‘‘हां, कहिए. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ उदयेश बहुत हैरान थे.

‘‘मैं अपने चचेरे भाई अहमद की बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं. ये रही उस की फोटो और बायोडाटा. मैं परसों फोन करूंगा. मेरा भाई डाक्टर है और उस की बीवी कैमिस्ट्री में रीडर. अच्छा खातापीता परिवार है. लड़की भी सुंदर है,’’ इतना कह कर उन्होंने लिफाफा आगे बढ़ा दिया.

नौकर मोहन तब तक चायनाश्ता ले कर आ चुका था. हक्केबक्के उदयेश को थोड़ा सहारा मिला. सामान्य व्यवहार कर सहज ढंग से बोले, ‘‘आप पहले चाय तो लीजिए.’’

‘‘तकल्लुफ के लिए शुक्रिया. बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं तो आप के यहां खानापीना बेअदबी होगी, इजाजत दें,’’ कह कर वह उठ खड़े हुए और नमस्कार कर के चलते बने.

सुनयना भी आ गईं. उन्होंने लिफाफा खोला. अचानक ध्यान आया कि कहीं ये वही पाकिस्तान वाले लोग तो नहीं हैं. फिर सीधे सपाट स्वर में उदयेश से कहा, ‘‘उन का फोन आए तो मना कर दीजिएगा.’’

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तभी कौस्तुभ आ गया और मेज पर चायनाश्ता देख कर पूछ बैठा, ‘‘पापा, कौन आया था?’’

‘‘तेरे रिश्ते के लिए आए थे,’’ उदयेशजी ने लिफाफा आगे बढ़ाया.

फोटो देख कर कौस्तुभ एकदम चौंका, ‘‘अरे, यह तो वही लाहौर वाली केतकी है. लाहौर से आए थे? कौन आया था?’’

‘‘नहीं, इलाहाबाद से उस के चाचा आए थे,’’ उदयेशजी बेटे की इस उत्कंठा से परेशान हुए.

‘‘अच्छा, वे लोग भी इधर के ही हैं. कुछ बताया नहीं उन्होंने?’’

‘‘बस, तू रहने दे,’’ सुनयना देवी बोलीं, ‘‘जिस गली जाना नहीं उधर झांकना क्या? जा, हाथमुंह धो. मैं नाश्ता भेजती हूं.’’

दिन बीतते रहे. दिनचर्या रोज के ढर्रे पर चलती रही, लेकिन 15वें दिन सुबहसुबह घंटी बजी. मोहन ने आने वाले को अंदर बिठाया. सुनयनाजी आईं और नीली साड़ी में लिपटी एक महिला को देख कर थोड़ी चौंकी. महिला ने उन पर भरपूर नजर डाली और बोली, ‘‘मैं केतकी की मां…’’

सुनयना ने देखा, अचानक दिमाग में कुछ कौंधा, ‘‘लेकिन आप…तु… तुम…सुमे…’’ और वह महिला उन से लिपट गई.

‘‘सुनयना, तू ने पहचान लिया.’’

‘‘लेकिन सुमेधा…केतकी…लाहौर… सुनयना जैसे आसमान से गिरीं. उन की बचपन की सहेली सामने है. कौस्तुभ की प्रेयसी की मां…लेकिन मुसलमान…सिर चकरा गया. अपने को मुश्किल से संभाला तो दोनों फूट कर रो पड़ीं. आंखों से झरते आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई सुनयना उन्हें पकड़ कर बेडरूम में ले गईं.

‘‘बैठ आराम से. पहले पानी पी.’’

‘‘सुनयना, 25 साल हो गए. मन की बात नहीं कह पाई हूं किसी से, मांपापा से मिली ही नहीं तब से. बस, याद कर के रो लेती हूं.’’

‘‘अच्छाअच्छा, पहले तू शांत हो. कितना रोएगी? चल, किचन में चल. पकौड़े बनाते हैं तोरी वाले. आम के अचार के साथ खाएंगे.’’

सुमेधा ने अपनेआप को अब तक संभाल लिया था.

‘‘मुझे रो लेने दे. 25 साल में पहली बार रोने को किसी अपने का कंधा मिला है. रो लेने दे मुझे,’’ सुमेधा की हिचकियां बंधने लगीं. सुनयना भी उन्हें कंधे से लगाए बैठी रहीं. नयनों के कटोरे भर जाएंगे, तो फिर छलकेंगे ही. उन की आंखों से भी आंसू झरते रहे.

बड़ी देर बाद सुमेधाजी शांत  हुईं. मुसकराने की कोशिश की और बोलीं, ‘‘अच्छा, एक गिलास शरबत पिला.’’

दोनों ने शरबत पिया. फिर सुमेधा ने अपनेआप को संभाला. सुनयना ने पूछा, ‘‘लेकिन तू तो उस रमेश…’’

‘‘सुनयना, तू ने मुझे यही जाना? हम दोनों ने साथसाथ गुडि़या खेल कर बचपन विदा किया और छिपछिप कर रोमांटिक उपन्यास पढ़ कर यौवन की दहलीज लांघी. तुझे भी मैं उन्हीं लड़कियों में से एक लगी जो मांबाप के मुंह पर कालिख पोत कर पे्रमी के साथ भाग जाती हैं,’’ सुमेधा ने सुनयना की आंखों में सीधे झांका.

‘‘लेकिन वह आंटी ने भी यही…’’ सुनयना उन से नजर नहीं मिला पाईं.

‘‘सुन, मेरी हकीकत क्या है यह मैं तुझे बताती हूं. तुझे कुलसुम आपा याद हैं? हम से सीनियर थीं. स्कूल में ड्रामा डिबेट में हमेशा आगे…?’’

‘‘हां, वह जस्टिस अंसारी की बेटी,’’ सुनयना को जैसे कुछ याद आ गया, ‘‘पापा पहले उन्हीं के तो जूनियर थे.’’

‘‘और कुलसुम आपा का छोटा भाई?’’

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‘‘वह लड्डन यानी अहमद न… हैंडसम सा लड़का?’’

‘‘हां वही,’’ सुमेधा बोलीं, ‘‘तू तो शादी कर के ससुराल आ गई. मैं ने कैमिस्ट्री में एम.एससी. की. तब तक वह लड्डन डाक्टर बन चुका था. कुलसुम आपा की शादी हो चुकी थी. उस दिन वह मुझे ट्रीट देने ले गईं. अंसारी अंकल की कार थी. अहमद चला रहा था. मैं पीछे बैठी थी. लौटते हुए कुलसुम आपा अचानक अपने बेटे को आइसक्रीम दिलाने नीचे उतरीं और अहमद ने गाड़ी भगा दी. मुझे तो चीखने तक का मौका नहीं दिया. एकदम एक दूसरी कार आ कर रुकी और अहमद ने मुझे खींच कर उस कार में डाल दिया. 2 आदमी आगे बैठे थे.’’

‘‘तू होश में थी?’’

‘‘होश था, तभी तो सबकुछ याद है. मुझे ज्यादा दुख तो तब हुआ जब पता चला कि सारा प्लान कुलसुम आपा का था. मैं शायद इसे अहमद की सफाई मान लेती लेकिन अंसारी अंकल ने खुद यह बात मुझे बताई. उन्हें अहमद का यहां का पता कुलसुम आपा ने ही दिया था. वह भागे आए थे और मुझे छाती से लगा लिया था.

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Romantic Story: कैसा यह प्यार है -भाग 3

लेखिका- प्रेमलता यदु 

यह पल मेरे लिए अत्यंत दुखद एवं आश्चर्य से परिपूर्ण था. आखिर कोई इतना अभिमानी कैसे हो सकता है. लायब्रेरी कार्ड बनाने के दौरान ज्ञात हुआ कि अनादि एम कौम फाइनल ईयर में है और वह इस कालेज का मेघावी छात्र है. उस पर फर्स्ट ईयर से ले कर फाइनल ईयर तक की लड़कियां मरती हैं. वह इस कालेज की शान व लड़कियों की जान है. पढ़ाईलिखाई, खेलकूद से ले कर सांस्कृतिक गतिविधियां सब में उस की जबरदस्त पकड़ है. इतनी जानकारी पर्याप्त थी उस के इस अप्रत्याशित बेरुखे बरताव को समझने के लिए.

सैशन स्टार्ट हो चुका था. मैं अपनी पढ़ाई, प्रैक्टिकल, थ्योरी इन सब पर ध्यान देने लगी. अलगअलग फैकल्टी होने के बावजूद अनादि से मेरा सामना रोज़ ही हो जाता. मैं अनादि को देख भावुक हो जाती. मुझे इस बात का डर था कहीं मेरे दिल में हिलोरे मार रहा प्यार, नज़रों से इज़हारे मोहब्ब्त का राज़ ज़ाहिर न कर दे, इसलिए मैं सदा अपनी पलकें झुकाए चुपचाप आगे निकल जाती. वह भी मुझे तिरछी नजरों से देखता, फिर व्यंग्यात्मक मुसकान के साथ अकड़ता हुआ चला जाता.

सैशन बीतने को था, फाइनल एग्जाम की डेट्स आ ग‌ई थीं, लेकिन अब तक मैं अनादि से हाले दिल न कह पाई थी. कहती भी कैसे, उस की बेवजह की बेरुखी व अहम आड़े आ जाते जो मुझे कुछ कहने या करने की इजाजत न देते.

एग्जाम से पहले कालेज में फाइनल ईयर के स्टूडैंट्स के लिए फेयरवेल पार्टी का आयोजन किया गया, जिस में सभी छात्रछात्राओं ने बड़ी ही शिद्दत से शिरकत की. पार्टी हौल में बज रहे इंस्ट्रूमैंटल म्यूजिक पर सभी के पांव डांसफ्लोर पर थिरक रहे थे. अनादि तो न जाने कब से डांस कर रहा था. हर लड़की उस के संग डांस करना चाह रही थी और वह भी हर किसी के साथ डांस करने में मगन था. उस का यह बेबाकपन मुझे हैरान और परेशान कर रहा था. दिल के हाथों मजबूर क‌ई बार खुद ही मेरे कदम अनादि की ओर उठते और फिर थम जाते. मैं नहीं चाहती थी अपने आत्मसम्मान को ताक में रख कर उस के करीब जाऊं.

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झुंझलाहट में मैं पार्टी बीच में ही छोड़ आई और रूही को फोन पर सारा वृतांत सुनाने बैठ गई. अपने जीवन में घटित हो रहे पलपल की खबर मैं रूही को देती. रूही हर बार कुछ ऐसा कहती कि मैं फिर अनादि में खोने लगती. इस दफा भी रूही अनादि के पक्ष में ही बोली- “अनादि केवल पार्टी एंजौय कर रहा था. उस ने तो किसी लड़की को मजबूर नहीं किया अपने साथ डांस करने को. यदि वे लड़कियां खुद ही उस के पास जा रही थीं तो वह क्या करता, तेरी तरह पार्टी छोड़ कर चला जाता.”

मैं ने रूही को कोई जवाब नहीं दिया लेकिन मुझ में गुस्सा और चिढ़ इतना भरा था कि मैं तीन दिनों तक कालेज नहीं गई यह जानते हुए कि इस के बाद प्रिप्रेशन लीव लग जाएगी. तीसरे दिन शाम को तकरीबन पांचसाढ़ेपांच बजे डोरबैल बजी. उस वक्त बाबूजी औफिस से आए नहीं थे. अम्मा किचन में थीं. जय हौल में और मैं मुंह फुलाए अपने रूम में औंधी पड़ी थी. दरवाजा जय ने खोला और उस ने मुझे आवाज़ लगाई- “दीदी, तुम्हारे कालेज से कोई आया है.”

यह सुनते ही मैं फौरन उठ हौल में आ गई और जय वहां से चला गया. मैं ने देखा, सामने अनादि का फ्रैंड हाथों में व्हाइट लिफाफा लिए खड़ा है. मुझे देख वह मेरी ओर लिफाफा बढ़ाते हुए बोला- ” यह अनादि ने भेजा है.”

यह सुनते ही मैं ने लपक कर वह लिफाफा लगभग उस के हाथों से छीन लिया. अनादि ने मेरे लिए भेजा है, इस खुशी में मैं शिष्टाचार ही भूल ग‌ई. मैं ने उसे बैठने तक को नहीं कहा. वह थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर “अच्छा, चलता हूं” कह वह चला गया.

मैं तुरंत अपने कमरे में आई और बिना रुके तेज सांसों के साथ लिफाफा खोलने लगी. लिफाफे में से हौल परमिट कार्ड निकला जो एग्जाम में बैठने के लिए अनिवार्य होता है. मैं अधीर हो लिफाफा को यह सोच कर उलटपुलट करने लगी कि शायद अनादि ने कुछ भेजा हो या इस में मेरे लिए कुछ लिखा हो लेकिन ऐसा कुछ नहीं था उस लिफाफे में. केवल हौल परमिट कार्ड ही था. उस को एक तरफ फेंक मैं धड़ाम से फिर पलंग पर लेट गई.

प्रिप्रेशन लीव शुरू हो गई थीं. कालेज जाना बंद हो गया था और फिर कुछ ही दिनों में फाइनल एग्जाम भी प्रारंभ हो गए. अलग फैकल्टी होने की वजह से एग्जाम के दौरान अनादि से आमनासामना नहीं होता. एग्जाम समाप्त हो गया और हम दादी के पास गांव आ ग‌ए. यहां गांव में मैं घंटों छत पर इस आशा में बैठी रहती कि शायद अनादि गांव आएगा लेकिन वह नहीं आया.

अब दादी की परियों वाली कहानियां भी अच्छी न लगतीं. शरारत करने का भी जी न करता. अचानक मेरे अंदर आए इस बदलाव से मैं स्वयं हैरान थी क्या प्यार में वाक‌ई ऐसा होता है… गरमी की छुट्टियां समाप्त हो गईं और हम घर लौट आए. फिर वही सिलसिला आरंभ हो गया, मैं रोज बुझेमन से कालेज जाती और फिर घर लौट आती.

सपनों की हसीन दुनिया से अब मैं हकीकत के धरातल पर आ पहुंची थी जहां वैसा कुछ भी नहीं था जैसा दादी अपनी कहानियों में सुनाया करतीं. मैं जान चुकी थी किस्सेकहानियां केवल किताबों में ही सच हुआ करते हैं, यथार्थ में नहीं. जब सपने सचाई की असलियत से टकराते हैं तो सारे ताश के पत्तों की तरह एक छोटी सी फूंक से ढह कर बिखर जाते हैं.

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अनादि को देखे पूरा वर्ष बीत गया था. बहुत प्रयासों के बाद भी अनादि की कोई जानकारी मेरे पास न थी. वह होस्टलर था और पढा‌ई पूरी करने के बाद वह यहां से चला गया. लेकिन उस के प्रति मेरे दिल में पनपा प्रेम कम होने के बजाय पूर्णमासी के चांद की भांति दिनोंदिन बढ़ने लगा. उस वक्त रूही थी जो मुझे भावनात्मक संबल प्रदान कर टूटने से बचाए हुए थी.

एक रोज जब मैं कालेज से घर आई, अम्मा ने मुझे गले से लगा लिया. मैं समझ न पाई क्या हुआ, फिर अम्मा मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई बोलीं- “पीहू, तू कितना भागोवाली है.”

मैं अश्चार्य से अम्मा को देखने लगी तो वे मेरा माथा चूमती हुई बोलीं- “तेरे लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आया है. लड़का जयपुर में बैंक अधिकारी है. आज शाम वह अपने मातापिता के साथ घर आ रहा है.”

यह सुनते ही मेरे पैरोंतले जमीन खिसक गई. मेरे नयन भीग गए. और मैं काफी देर तक रोती रही. रूही को बारबार फोन करने लगी लेकिन वह फोन रिसीव नहीं कर रही थी.

निर्धारित समय पर सब आ गए. लेकिन मैं अपने कमरे से बाहर न निकली. कुछ देर बाद अम्मा मेरे कमरे में आईं. मुझे और कमरे को अव्यवथित देख कर बोलीं- “अरे पीहू, यह क्या… तुम ने कमरे का क्या हाल बना रखा है और तू अब तक तैयार नहीं हुई. अच्छा चल अब, जल्दी से अपने बालों को संवार ले. लड़का तुझ से मिलना चाहता है. वह टेरेस में है जा उस से मिल ले.”

मैं बालों को बिना संवारे सूजी आंखों के साथ तमतमाती हुई टेरेस पर पहुंची. सामने औफ व्हाइट शर्ट और एश कलर की जींस पहने एक डैशिंग लड़का खड़ा था. मेरी आंखें चौड़ी हो गईं और मैं अपलक उसे देखती रही, यह तो अनादि है. मैं कुछ कहती, इस से पहले उस का मोबाइल बज उठा और उस ने फोन मेरी ओर बढ़ा दिया. मैं स्तब्ध रह गई. फोन पर रूही थी. मेरे हैलो कहते ही वह हंसती और शरारती अंदाज में बोली- “सपनों का राजकुमार मुबारक हो…”

रूही ने मुझे बताया अनादि तो अपना दिल उसी दिन हार बैठा था जब उस ने मुझे पहली बार छत पर अपने गीले बालों को झटकते देखा था. लेकिन वह मेरी जिंदगी में आने से पूर्व स्वयं को इस लायक बनाना चाहता था कि वह अम्मा, बाबूजी से मेरा हाथ मांग सके. रूही से बात कर के सारी बातें साफ हो चुकी थीं. रूही के फोन रखते ही मैं आंखों में असीम प्यार लिए हुए अनादि की ओर देखने लगी.

अनादि मेरी दोनों हथेलियों को थामते हुए बोला- “और कुछ जानना है?”

मैं ने हौले से न में सिर हिला दिया. बादलों में चांद निकल आया था. चांदनी रात थी. चांद की शीतल रोशनी हम पे पड़ने लगी. तारे जगमगा रहे थे. रात की रानी और रजनीगंधा की मदहोश कर देने वाली खुशबू फिज़ा को खुशगवार बना रही थी. बादल ने चांदसितारों की चादर हम पे तान दी और मैं अपने सपनों के राजकुमार की बांहों में सिमटने लगी.

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Romantic Story: कैसा यह प्यार है -भाग 2

लेखिका- प्रेमलता यदु 

निर्धारित समय पर हम रेलवे स्टेशन पहुंचे और जैसे ही हम अपने आरक्षित बर्थ के निकट पहुंचे, मैं ने लपक कर विन्डो सीट अपने भाई से हथिया ली. वह खिसियाया हुआ मुझे तिरछी नजरों से घूरने लगा. लेकिन मैं उस की परवा किए बगैर विन्डो सीट पर जम कर बैठ गई. कुछ समय बाद ट्रेन धीमी गति से चलने लगी और देखते ही देखते उस की रफ़्तार तेज़ हो गई.

एक के बाद एक सारे स्टेशन पीछे छुटते जा रहे थे और मैं खिड़की पर अपनी कुहनी टिकाए बाहर के नज़ारे व प्रकृति का मनोरम दृश्य देखने में लीन हो ग‌ई. गांव पहुंचे तो देखा बूआ भी अपने दोनों बच्चों के साथ आ चुकी थीं. सब से मिल कर सफ़र की सारी थकान उड़नछू हो गई और हम सब बच्चों की टोली भी पूर्ण हो गई.

रात के खाने और दादी की कहानियों के पश्चात दूसरे दिन जब मैं नहा कर अपने बालों को सुखाने छत पर गई और बेसुध हो अपने बालों को झटकने लगी तभी सहसा मेरी नज़रें सामने वाले छत पर जा टिकीं और मेरा जी धक से हुआ. मेरी सांसें थमने लगीं. ऐसा लगा जैसे किसी ने ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंक दिया हो. दिल में अजीब सी हलचल व तरंगें उठने लगीं. मैं ने देखा व्हाइट टीशर्ट और ब्लू जींस में एक हैंडसम डैशिंग लड़का आंखों में ऐनक चढ़ाए, हाथों में किताब लिए कुछ पढ़ रहा है. मेरी निगाहें उसी पर ठहर गईं. वह मेरे दिल में मच रही खलबली से बेखबर अपनी ही धुन में किताब पर आंखें गड़ाए बैठा था.

आज से पहले मैं ने उसे कभी इस गांव में नहीं देखा. यह कौनहै? मोहन काका की छत पर क्या कर रहा है? उस ने मेरी ओर देखा होगा या नहीं? ऐसे अनेक सवाल मेरे ज़ेहन में कौंध ग‌ए. तभी मेरी बूआ की बेटी रीमी आ गई और कहने लगी- “पीहू, जल्दी चलो, सब तुम्हारी राह देख रहे हैं.”

मैं हड़बड़ा कर उस के संग नीचे आ गई. बच्चों की टोली गांव की गलियों, खेतों और बागीचों पर ऊधम मचाने को तैयार खड़ी थी. लेकिन मेरा ध्यान छत पर बैठे, मेरे उस चितचोर पर जा अटका था जिस की एक छोटी सी झलक ने मुझे इंगित कर दिया कि यही मेरे सपनों का राजकुमार है जिस का मुझे बरसों से इंतज़ार था. मेरे मन ने मुझ से सवाल किया, क्या यही प्यार है…?

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मन में आए इस ख़याल को मैं शेयर करना चाहती थी किंतु यहां इस घर पर ऐसा कोई नहीं था जिस से मैं हालेदिल बयां कर सकूं. वैसे तो रीमी मेरी हमउम्र, सहेली और बहन सबकुछ थी लेकिन उस के बावजूद मुझे रूही की कमी महसूस हो रही थी. काश, वह इस वक्त यहां होती, मैं अपना दिल खोल कर रख देती.

किसी से कुछ कहे बगैर सब के साथ मैं घर से बाहर निकल तो आई परंतु मन छत पर ही छूट गया था और अब पहले जैसी शरारतें सूझ भी नहीं रही थीं. सब मौजमस्ती कर रहे थे और मैं मस्ती करने का नाटक. तभी चाचा का छोटा बेटा बंटी बोला, “पीहू दीदी, चलो हम सब मेड़ों पर अपने हाथों को ऊपर उठा कर चलते हैं. देखते हैं कौन जीतता है.”

सब मान गए और मेड़ों पर चलने लगे. मैं भी बेमन से हाथों को ऊपर उठा चलने लगी. हर बार की तरह इस बार मैं सब से आगे नहीं बल्कि सब से पीछे थी. अभी मैं बैलेंस बना कर कुछ दूर चली ही थी कि मैं ने देखा, वह प्रकृति की छटाओं में बिखरे रंगबिरंगे खूबसूरत नजारों को अपने कैमरे में कैद कर रहा है. उसे दोबारा अपनी नज़रों के समक्ष देख मैं अनबैलेंस हो कर गिरने ही वाली थी कि उस ने मुझे थाम लिया और मैं उस की बांहों में जा गिरी. दिल में धुकधुकी होने लगी और मेरा रोमरोम उस के स्पर्श मात्र से पुलकित हो उठा. मैं कुछ कहती, उस से पूर्व ही वह चिढ़ते हुए बोला- “जब मेड़ पर चलना नहीं आता तो चल क्यों रही हो?”

इतना कह वह मेरी ओर देखे बैगर वहां से मुंह बना कर चला गया. उस का यह व्यवहार अप्रिय व रूखा था. मैं अंदर ही अंदर तिलमिला उठी.

‘मेरी जैसी खूबसूरत मौडर्न लड़की जो स्कूल, महल्ले, सड़क जहां से भी गुज़र जाए, लड़के मुड़मुड़ कर देखा करते, बात करने व साथ पाने को लालायित रहते हैं और इस ने मुझे देखा भी नहीं. उसे किस बात का गरूर है,’ मैं मन में बुदबुदाई. उसे अपने ऊपर गरूर था या मुझे अपनी खूबसूरती पर नाज़, कुछ समझ नहीं आया. परंतु उस का यह व्यवहार अत्यंत ही अशोभनीय जरूर था, आज तक किसी ने मुझ से इस प्रकार बात नहीं की थी.

मैं रूही से ये सारी बातें बताना चाहती थी लेकिन इस गांव में केवल एक ही पीसीओ बूथ था और वह भी अकसर ख़राब ही रहता. मैं रूही से अपने दिल की बात तो कह नहीं पाई क्योंकि घर से ये बातें कह पाना संभव नहीं था लेकिन मैं अकेले ही तफतीश में जुट गई. काफी कोशिशों के बाद मैं केवल इतना ही जानकारी प्राप्त कर पाई कि उस का नाम अनादि है और वह मोहन काका की बहन का बेटा है जो पहली बार यहां गांव आया है.

12वीं का रिजल्ट घोषित हो गया और गरमी की छुट्टियां भी समाप्त हो गईं . इस बार की छुट्टियां बिलकुल भी वैसी नहीं बीतीं जैसे हर साल बीततीं. मन उदास था. अब उसे कभी न देख पाने की कशक मन में लिए मैं घर लौट आई. गांव से रेलवे स्टेशन के लिए निकलते वक्त जब मैं ने छत की ओर देखा तब वह छत पर ही लाइट ब्लू रंग की टीशर्ट और आंखों पर गौगल चढ़ाए खड़ा था. वह किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं लग रहा था. लेकिन उस ने एक बार भी नज़र उठा मेरी तरफ नहीं देखा. मेरी आंखें डबडबा गईं और मेरा पहला प्यार शुरू होने से पहले ही समाप्त हो गया.

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घर पहुंचते और मौका पाते ही मैं रूही को फोन पर सारी बातें बताने लगी और जब मैं ने उस से कहा कि उस ने मेरी ओर देखा तक नहीं, तो रूही हंसती हुई कहने लगी- “तुझे कैसे पता चला कि उस ने तेरी ओर देखा नहीं जबकि उस ने तो गौगल पहन रखा था.”

रूही की इस बात से तसल्ली हुई कि शायद उस ने मुझे देखा होगा. इस विचार मात्र से मेरे संपूर्ण शरीर में लहर सी दौड़ गई.

न‌ई उमंग, न‌ए जोश के साथ मैं कालेज की तैयारी में लग ग‌ई. आज कालेज में मेरा पहला दिन था. नया कालेज, नए फ्रैंड्स, नया क्लास और एक नए एहसास के साथ सबकुछ नयानया सा बहुत अच्छा लग रहा था. तभी पता चला कि कालेज लायब्रेरी में लायब्रेरीकार्ड बनाए जा रहे हैं. मैं और मेरी कुछ क्लासमेट मिल कर लायब्रेरी की ओर चल पड़े.

कौरीडोर पर पहुंचते ही मेरी धड़कन तेज और पैरों की रफ्तार धीमी हो गई. मैं ने देखा, अनादि लायब्रेरी के दरवाजे पर खड़ा है. यह हकीकत है या मेरी नज़रों का धोखा. यह जानने के लिए मैं धड़कते दिल के साथ हौलेहौले बढ़ने लगी. करीब पहुंची तो देखा मेरा पहला प्यार, मेरे सामने है.

दोबारा उसे अपने निकट पा कर यों लगा जैसे कुदरत ने मेरी सुन ली हो और मुझे मेरे अधूरी प्रेमकहानी को पूर्ण करने का अवसर प्रदान किया हो. वह अनादि ही था. मेरी नज़रों में चमक आ गई और मैं उसे देख अपने बालों को कान के पीछे लेती, नजरें झुका शरमाती हुई धीरे से मुसकरा दी, लेकिन उस ने मेरी तरफ देखा तक नहीं. उस ने मुझे इस प्रकार अनदेखा किया जैसे वह मुझे पहचानता ही न हो.

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