धर्म की गाड़ी तो पैसा चलाता है

भारत के गुरु, स्वामी, धर्माचार्य, महंत, पंडित, पुजारी इस मामले में अमेरिकी तरहतरह के चर्चों में पादरियों, प्रिस्टों, बिशपों, पेस्टरों से बेहतर हैं. भारत में शायद ही किसी पर सैक्सुअल ऐब्यूज करने का आरोप लगता हो पर अमेरिका के दक्षिण में चर्च के एक संप्रदाय साउदर्न बैपटिस्ट कनवैंशन के पास 2000 से 2019 तक के 700 चर्चों के पादरियों पर लगाए गए आरोपों की लंबी लिस्ट है.

वर्षों से साउदर्न बैपटिस्ट कनवैंशन चर्च इस लिस्ट में नए नाम जरूर जोड़ता रहा है पर इसे पब्लिक होने से रोकता रहा है. मई, 2022 में जब यह रिपोर्ट लीक हो गई और इस लिस्ट के चेहरे टीवी स्क्रीनों पर दिखने लगे तो चर्च ने माना कि इन लोगों ने सैकड़ों लोगों की जिंदगियों से खेला है और साउदर्न बैपटिस्ट कनवैंशन चर्च इन पादरियों के गुनाहों के शिकारों को कुछ न्याय दिलाने का वादा करता है. विदेशी चर्च को भारत में एक सम?ा जाता है जबकि विदेशों में चर्च सैकड़ों टुकड़ों में बंटा है, ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां हर मंदिर, हर आश्रम, हर मठ अपने एक गुरु या संप्रदाय की निजी संपत्ति होता है. न चर्च, न गुरुद्वारे, न बौद्ध मठ, न मंदिर किसी एक सत्ता के अंग हैं.

वे सब अलगअलग अस्तित्व रखते हैं और सब के पास अपार संपत्ति है और धर्म की गाड़ी ईश्वर नहीं वह पैसा चलाता है जिसे भक्त दान करते हैं. चर्च या धर्म की हर दुकान में काम करने वालों को सैक्स सुख पाने का अवसर खास दूसरा मोटिव होता है. कैलिफोर्निया के इस चर्च में कम से कम 700 लोगों पर दोष लगाया जा चुका है और जब से यह भंडाफोड़ हुआ है, नए नाम जुड़ रहे हैं. चर्च की चर्चा इसलिए की जा रही है कि भारत में धर्म की दुकानें आमतौर पर इन आरोपों से मुक्त रहती हैं.

हमारे भक्त अमेरिकी भक्तों से ज्यादा भक्तिभाव रखते हैं और अपने पंडितों, स्वामियों, गुरुओं के खिलाफ ज्यादा बोलते नहीं हैं. आसाराम बापू जैसे इक्कादुक्का मामलों में सजा हुई है पर आमतौर पर अगर मामला अदालत में चला जाता भी है तो जज या तो घबरा कर उसे टालते रहते हैं या फिर मामले में पूरे सुबूत नहीं हैं कह कर बंद कर देते हैं.

सैक्सुअल ऐब्यूज पर हर तरह के धर्म लाखों डौलर के सम?ौते हर साल आजकल कर रहे हैं. पीडि़तों को वे कहते हैं कि भगवान के काम में ज्यादा दखलंदाजी न करो, मरने के बाद ईश्वर को क्या जवाब दोगे? भक्त जो ईश्वर की काल्पनिक भक्ति में अगाध विश्वास रखता है आमतौर पर चुप रहता है. चर्च के पादरियों के सैक्सुअल ऐब्यूज का उस के पास वही उत्तर होता है जो एक हिंदू के पास है- ईश्वर सब देखता है, ईश्वर सब पापों का दंड खुद देगा. धर्म ने हर तरह के दुकानदारों, भक्तों को इस तरह भ्रमित कर रखा है कि वे संतों, महंतों, पादरियों, मुल्लाओं की हर ज्यादती को वरदान सम?ाते हैं.

वे तनमन और धन से की जाने वाली सेवा में तन से की जाने वाली सेवा का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहते. जिन गुनाहों पर सैक्युलर सरकार और कानून गुनहगारों को जेल में डाल देता है, उसी को धर्म केवल पाप कहता है और या तो प्रायश्चित्त करवाता है या फिर कह देता है कि न्याय मरने के बाद ईश्वर की अदालत में होगा. जब गुनहगार ईश्वर का अपना एजेंट हो तो कौन सा कानून उसे सजा देगा यह अमेरिका में स्पष्ट है, भारत में भी.

कलाकारों का कैरियर बरबाद करता कट्टरवाद

‘100करोड़ मूर्ख हिंदुओं के बीच 4 मुसलमान बौलीवुड में सुपर स्टार हैं तो गलती किस की.’’सोशल मीडिया पर यह पोस्ट सम्राट ‘पृथ्वीराज’ फिल्म के रिलीज होने के तुरंत बाद वायरल होनी शुरू हुई थी जिस में एक विदेशी युवती हाथ में एक तख्ती लिए खड़ी है, जिस में इस सवाल नसीहत या खिसियाहट कुछ भी कह लें लिखी हुई है. इस पोस्ट का मकसद यह मैसेज देना था कि हिंदुओ जागो और दौड़ कर ‘पृथ्वीराज’ फिल्म देख कर आओ नहीं तो हिंदू धर्म खतरे में पड़ जाएगा.

इस के पहले भी ऐसी दर्जनों पोस्टें वायरल हुई थीं, जिन में अपील की गई थी कि सभी सच्चे हिंदुओं को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए. इस से हिंदुत्व को ताकत मिलेगी. सभी पोस्ट हिंदू डिजिटल वारियर्स की देन हैं जो सोशल मीडिया के जरीए पौराणिक राज जिस में वर्ण व्यवस्था रामायण युग की हो लागू की जा सके.

अब 100 करोड़ हिंदुओं के बीच एक भी हिंदू सुपर स्टार नहीं है तो गलती किस की इस सवाल के कई सटीक जवाब हैं जिन में से पहला यह है कि आप मारमार कर गधे को घोड़ा नहीं बना सकते. दूसरा यह है कि इस देश में सच्चे या पौराणिकवादी हिंदुओं की तादाद 3-4 करोड़ भी नहीं है. तीसरा यह है कि इन दिनों हिंदू ही हिंदू को मूर्ख बना रहा है. सभी एकदूसरे को उकसाते रहे कि फिल्म जरूर देखना, लेकिन खुद देखने नहीं गए.

चौथा जवाब यह है कि बुढ़ाते अक्षय कुमार में अब वह बात नहीं है जो दर्शकों को आकर्षित कर पाए. 5वां जवाब यह है कि आम दर्शक वाकई मूर्ख नहीं हैं जो महंगाई के इस दौर में एक रद्दी फिल्म देखने के लिए मल्टीप्लैक्स में क्व500 खर्चता. हिंदुत्व को मजबूत करने के लिए तो किसी मंदिर की दान पेटी में क्व11 की दक्षिणा डालना ही बहुत है.

छठा जवाब यह है कि फिल्म में इतिहास तोड़मरोड़ कर पेश किया जाना है यह बात लोगों को इस के ताबड़तोड़ प्रमोशन से ही समझ आ गई थी कि अब इस फिल्म में इतिहास का कचरा बेचा जाएगा जो हमें नहीं खरीदना. 7वां जवाब यह है कि फिल्म के निर्देशक चंद्र प्रकाश द्विवेदी सहित निर्माता आदित्य चोपड़ा को यह गलतफहमी हो गई थी कि देश में हिंदुत्व का माहौल गरम है, इसलिए उस के नाम पर कुछ भी बना कर सिनेमाघरों में टांग दो अच्छा पैसा बन जाएगा.

ब्रैंड बने दिग्गज भी हाशिए पर

यह और बात है कि किसी को कुछ नहीं मिला सब बेबसी से हाथ मल रहे हैं और फिल्म के सुपर फ्लौप होने के बाद सभी एकदूसरे का मुंह ताक रहे हैं कि यह क्या हो गया. खासतौर से अक्षय कुमार जिन्हें पौराणिकवादी चारों खानों के मुकाबले हीरो बनने चले थे, लेकिन वे मुरारी साबित हो कर रह गए. रिलीज के पहले इस फिल्म को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा गृहमंत्री अमित शाह ने भी पत्नी सहित देखा और सभी ने उम्मीद के मुताबिक फिल्म की तारीफ की.

हालांकि यह वे बिना देखे भी कर सकते थे पर रिएलिटी के लिए जरूरी हो गया था कि पहले वे वाकई फिल्म देखें और फिर इस का हल्ला मचे और फिर वे इतराते हुए कहें ‘वी हैव सीन ए नाइस मूवी.’

इधर सोशल मीडिया पर मुसलमानों को कोसने वाली पोस्टों को फौरवर्ड करने में व्यस्त हिंदुओं के कान पर जूं तक नहीं रेंगी कि जब हिंदुत्व के ये बड़ेबड़े पैरोकार तारीफ कर रहे हैं, फिल्म को प्रमोट कर रहे हैं तो हम भी 100 रुपए की आहुति इस यज्ञ में डाल ही दें.

नतीजा सामने है कि यह फिल्म उतना पैसा भी नहीं बटोर पाई जितनी कि अक्षय कुमार की एक फिल्म की फीस होती है. यशराज फिल्म्स को झटका तो तगड़ा लगा है, लेकिन हारे हुए खिलाड़ी अक्षय कुमार का क्या होगा जो कट्टरता के झांसे में आ कर अपने कैरियर की सब से खराब फिल्म दे कर झींकते कह रहे हैं ‘ओ माई गौड.’

पाखंड और पाखंडियों को लताड़

अभी बहुत ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब 2012 में परेश रावल द्वारा अभिनीत फिल्म ‘ओ माई गौड’ रिलीज हुई थी. इस बौद्धिक और तार्किक फिल्म में अक्षय कुमार कृष्ण की भूमिका में थे. फिल्म हिट इसलिए हुई थी क्योंकि इस में न केवल ईश्वर के अस्तित्व पर सटीक सवाल उठाए गए थे बल्कि धर्म के दुकानदारों की भी जम कर बिना किसी डर या लिहाज के पोल खोली गई थी. ‘ओएमजी’ खूब चली थी क्योंकि इस ने दर्शकों को तबीयत से लताड़ते हुए उन की धूर्तता दर्शाई गई थी. चूंकि यह सच था और लोगों के इर्दगिर्द रोजरोज होता है इसलिए दर्शक खुद से जुड़ी बात देख प्रभावित भी हुए थे और उन्हें काफी कुछ सीखने को भी मिला था.

धर्म और उस के खोखले रीतिरिवाजों तथा पाखंडों की पोल शोमैन राजकूपर ने भी अपनी हर फिल्म में खोली है. याद करिए ‘प्रेम रोग’ फिल्म के वे 2 दृश्य जिन में हीरो ऋषि कपूर का मामा ब्राह्मण ओम प्रकाश कैसे शनि के नाम पर गांव वालों को चूना लगाया करता है और फिर भानजे से कहता है कि ये लोग डरेंगे तो हमारे घर का चूल्हा कैसे जलेगा. दूसरा दृश्य मार्मिक था जिस में विधवा हो गई नायिका पद्मिनी कोल्हापुरे का मुंडन करने ठाकुरों का पूरा कुनबा इकट्ठा हो जाता है. यह और इस तरह की तमाम फिल्में बौक्स औफिस पर अच्छा कलैक्शन कर गई थीं तो इस की वजह थी धर्म से जुड़ा सच दिखाया जाना.

सिलसिला जारी है

यह सिलसिला अब ओटीटी पर जारी है. आश्रम सरीखी वैब सीरीज में और अंदर का सच दिखाया जा रहा?है. इन का विरोध कट्टर हिंदूवादी करते हैं, इस के बाद भी ये देखी जाती हैं तो वजह इन में उस वीभत्स सचाई को दिखाया जाना है जिसे आज का सवर्ण हिंदू ढके रखना चाहता है क्योंकि इस से धर्म की पोल खुलती है.

इन फिल्मों और सीरीजों के निर्मातानिर्देशकों और अभिनेताओं को किसी पीएम, सीएम या हिंदुत्व के दूसरे ठेकेदार से मिलने की जरूरत नहीं पड़ी थी जैसीकि पिछले 3 साल से अक्षय कुमार को पड़ रही है. कभी वे पत्रकार बन नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू लेते हैं तो कभी लखनऊ में योगी आदित्यनाथ से गुफ्तगू करते नजर आते हैं. इन दोनों के बीच खिचड़ी पकी और भगवा गैंग के जाल में फंसे जा रहे अक्षय कुमार ‘रामसेतु’ फिल्म में काम करते दिखेंगे. हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर भगवा राज्यों में टैक्सफ्री होने के बाद भी इन का हश्र ‘पृथ्वीराज’ जैसा हो.

‘ओएमजी’ और ‘पीके’ नरेंद्र मोदी के राष्ट्रवाद के पहले की फिल्में हैं. अब ऐसी तो ऐसी, वैसी फिल्में भी बनाने का जोखिम कोई निर्मातानिर्देशक नहीं उठा रहा जिन में हिंदूमुसलिम यानी सांप्रदायिक एकता का संदेश दिया जाता था. ऐसी फिल्में जिन में हिंदू परिवार का खैरखाह कोई नेकदिल रहीम चाचा हुआ करता था. हीरो उन की बेटी से राखी बंधवाया करता था और ईद पर दोनों परिवार सेवइयां खाते दिखते थे.

शोहरत का फ्लौप टोटका

आदित्य चोपड़ा भूले नहीं होंगे कि यशराज बैनर तले ही 1959 में ‘धूल का फूल’ फिल्म बनी थी जिस का एक गाना आज भी शिद्दत से गुनगुनाया जाता है. इस गाने के बोल हैं ‘न हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है तू इंसान बनेगा…’ इस गाने की आज ज्यादा जरूरत है. लेकिन आदित्य ले आए सम्राट पृथ्वीराज चौहान जिन के बारे में कहा गया है कि यह आखिरी निडर हिंदू सम्राट की वीरता की कहानी है.

उन का और अक्षय कुमार का वह सपना टूट गया कि फिल्म रिलीज होते ही लोग टिकट खिड़कियों पर टूटे पड़ेंगे. टिकट ब्लैक में बिकेंगे और चारों तरफ पृथ्वीराज यानी अक्षय कुमार की जयजयकार हो रही होगी ठीक वैसे ही जैसे ‘रामायण’ सीरियल के वक्त राम बने अरुण गोविल की होती थी. यकीनन अक्षय कुमार गच्चा खा गए हैं.

गच्चा इसलिए खाया कि उन्होंने धर्म और वैचारिक हिंदुत्व के जरीए हिट होने की बात सोची और यह सोचते सोची कि उन्मादी हिंदू जैसाकि कह रहे हैं और जिस जनून से प्रचार कर रहे हैं इस फिल्म को 2-4 दफा नहीं तो एक बार जरूर देखेंगे.

धंधा चोखा है

धर्म और इतिहास बेच कर पैसा हरकोई नहीं कमा सकता. इस के लिए योग गुरु बाबा रामदेव की सी चालाकी चाहिए जिन्होंने पहले तो योग का धार्मिक ढिंढोरा पीटा और फिर धीरे से दवाइयां बेचने लगे. धंधा चल निकला तो वे अब सबकुछ बेचते हैं. अब लोग चकरा रहे हैं कि बाबा तो कहते थे कि योग भगाए रोग, फिर यह तरहतरह की आयुर्वेदिक दवाओं की मैन्युफैक्चरिंग क्यों? बाबा रामदेव बहुत बड़े कारोबारी बन गए और अक्षय कुमार फर्श पर आ गिरे.

यह हुनर वे श्रीश्री रवि शंकर और जग्गी बाबा से भी सीख सकते हैं.

दरअसल, अक्षय पृथ्वीराज का रोल चुन कर अपने कैरियर का कचरा कर बैठे हैं जिस से उन की आने वाली फिल्मों ‘राम सेतु,’ ‘रक्षा बंधन,’ ‘सैल्फी’ और ‘गोरखा’ पर भी संकट का साया लहराने लगा है. फिल्म इंडस्ट्री में जो एक बार बहुत बड़े बजट की भव्य फिल्म में काम कर फ्लौप होता है तो उस के दोबारा हिट होने की उम्मीदें बेहद कम हो जाती हैं.

‘जौली एलएलबी 2’ के बाद अक्षय एक हिट फिल्म के लिए तरस रहे हैं. उन की 2.0, ‘बैड मैन,’ ‘मिशन मंगल,’ ‘हाउस फुल 4’ और ‘बच्चन पांडे’ औंधे मुंह लुढ़कीं तो घबराहट और डिप्रैशन में वे पृथ्वीराज बन बैठे, लेकिन इस रोल में भी दर्शकों ने उन्हें भाव नहीं दिया.

कलाकारी पर हावी कट्टरता

मार्शल आर्ट और कुकिंग में माहिर अक्षय बेशक प्रतिभाशाली ऐक्टर हैं जिन के खाते में कई हिट और सफल फिल्में दर्ज हैं. इन में ‘खिलाड़ी’ 1992, ‘मोहरा’ 1994, ‘खिलाडि़यों का खिलाड़ी’ 1996, ‘हेराफेरी’ 2000, ‘वैलकम’ 2008, ‘हौलिडे’ 2014 उल्लेखनीय हैं.

अपने दौर के सुपर स्टार राजेश खन्ना उन के ससुर थे, लेकिन यह अक्षय की लगन और मेहनत ही थी कि उन्हें कभी राजेश खन्ना या उन के नाम के सहारे की जरूरत नहीं पड़ी. फिर क्यों कामयाबी के लिए उन्हें भगवा गैंग से हाथ मिलाना पड़ा और क्यों उन्हें कामयाबी नहीं मिली इस का जवाब हैं उन के दोहरे व्यक्तित्व के चलते ऐसा हुआ.

बचपन से ही अक्षय पेरैंट्स के साथ वैष्णोदेवी सहित तमाम ब्रैंडेड मंदिरों में जाते रहे हैं, लेकिन 2 साल पहले उन्होंने एक बयान में कहा था कि मैं किसी धर्म में विश्वास नहीं करता हूं. मैं केवल भारतीय होने में विश्वास करता हूं.

यह वह वक्त था जब हिंदू दर्शक उन्हें खान अभिनेताओं के विकल्प के तौर पर देखने और पेश करने लगे थे.

कट्टरवादियों की मंशा

चंद कट्टरवादियों की मंशा यह थी कि बौलीवुड भी खुलेतौर पर 2 हिस्सों में बंट जाए इस के लिए आए दिन आमिर, सलमान, शाहरुख और सैफ अली खान की फिल्मों के बहिष्कार की बात इस खोखली दलील के साथ सोशल मीडिया पर उठती रहती है कि हम हिंदुओं का पैसा मुसलमान अभिनेताओं की जेब में जा रहा है जो अपनी फिल्मों में हिंदू और हिंदुत्व को बदनाम करते रहते हैं.

अक्षय ने हड़बड़ाहट में और कुछ दौलत और शोहरत के लालच में इस दबाव को स्वीकार कर लिया जिस का नतीजा सामने है. दर्शक खान लोगों की फिल्में तो देखते रहे, लेकिन ‘पृथ्वीराज’ जैसी कट्टर हिंदूवादी फिल्म देखने की बारी आई तो उन्होंने अपना असली रंग दिखा दिया.

इतना ही नहीं भगवा गैंग से नजदीकियों का कोई मौका उन्होंने नहीं छोड़ा. कोविड-19 के दौरान जैसे ही नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री राहत कोष का एलान किया तो अक्षय ने तुरंत 25 करोड़ का भारीभरकम दान दे डाला. तालीथाली वाले पाखंड के दिन भी वे अपने घर के बाहर तालीथाली बजाते नजर आए थे.

ढलता कैरियर

जल्द ही उन पर भी कंगना राणावत की तरह भगवा गैंग का हिस्सा होने का ठप्पा लग गया. अब लगता नहीं कि इस ठप्पे से उन्हें आसानी से छुटकारा मिलेगा क्योंकि धार्मिक और ऐतिहासिक किरदार की पहचान में एक बार जो फंस गया दर्शक उसे फिर दूसरे किसी शेड में स्वीकार नहीं करते हैं. बीते दौर के धार्मिक भूमिकाओं वाले अभिनेता भारत भूषण और साहू मोडक और नए दौर के अरुण गोविल इस की बेहतर मिसाल हैं. कट्टरवाद किस तरह किसी अच्छेखासे कलाकार के कैरियर पर ग्रहण लगा सकता है नायिकाओं में कंगना इस का उदाहरण हैं.

धाकड़ ने निकाली हेकड़ी

कंगना ने अपने 16 साल के कैरियर में ऐसी कोई फिल्म नहीं दी है जिसे सुपरडुपर हिट कहा जा सके. 2006 में प्रदर्शित अपनी पहली फिल्म ‘गैंगस्टर’ से वे पहचानी जरूर जाने लगी थीं, लेकिन हमेशा उन्हें अभिनय के बजाय खूबसूरती के लिए देखा और सराहा गया.

‘फैशन’ फिल्म जो 2008 में प्रदर्शित हुई थी में जरूर उन्हें थोड़ी तारीफ मिली थी, लेकिन वह भी तात्कालिक थी. 2010 में आई ‘काइट्स’ फिल्म से भी काम चलाऊ रिस्पौंस उन्हें मिला था. पहली बार 2011 में ‘तनु वैड्स मनु’ फिल्म में उन्हें पसंद किया गया था, लेकिन इस का पार्ट 2 फ्लौप गया था.

2019 में ‘मणिकर्णिका’ को भी लोगों ने पसंद किया था पर यह फिल्म आम आदमी की नहीं थी. इस फिल्म की अर्ध सफलता के बाद कंगना को समझ आ गया था कि कुछ भी कर ले वह ज्यादा चलने वाली नहीं. इसलिए उन्होंने कट्टर हिंदुत्व धारण कर लिया जिस से उन्हें फिल्मों से ज्यादा स्पेस मीडिया और आम लोगों ने दिया. कट्टरवादियों ने उन्हें और उन के बड़बोलेपन को जम कर प्रोत्साहन दिया, लेकिन पिछले दिनों प्रदर्शित फिल्म ‘धाकड़’ को भाव नहीं दिया.

फिल्म की बदहाली

इस फिल्म की बदहाली तो रिलीज के पहले दिन ही उजागर हो गई थी जब कमाई का आंकड़ा क्व10 लाख भी नहीं छू पाया था. इस के बाद भी दर्शक नहीं मिले तो फिल्म को सिनेमाघरों से उतार लिया गया था. हाल तो यह था कि शुरू के 5 दिनों में ‘धाकड़’ का कलैक्शन क्व25 लाख के लगभग था.

समीक्षकों की निगाह में प्रदर्शन से पहले ही सुर्खियों में आई ‘धाकड़’ जैसा हश्र शायद ही किसी फिल्म का हुआ हो. अब तो उन की आने वाली फिल्म ‘इमरजेंसी’ को अभी से सुपर फ्लौप मान लिया गया है.

‘धाकड़’ के औंधे मुंह गिरने की वजह फिल्म की विषय वस्तु कम बल्कि दर्शकों की कंगना से ऐलर्जी ज्यादा है. उन की हिंदूवादी इमेज खुद उन हिंदूवादियों को ही रास नहीं आ रही जो उन्हें सूली पर चढ़ाने को उकसाते रहते हैं. साबित यह भी हुआ कि पर्सनल लाइफ में एक खास इमेज में बंध गए कलाकार को भी लोग देखने थिएटर तक नहीं जाते.

कंगना अगर राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के झमेले से दूर रहतीं तो शायद कामयाब हो भी सकती थीं. वे एक ऐसी सनक का शिकार हो कर रह गईं  जिस की गिरफ्त में लाखों आम लोग हैं जो यह नहीं देखते कि उन के किए का उन की ही जिंदगी, व्यवहार और कैरियर पर कितना बुरा असर पड़ रहा है.

‘पृथ्वीराज’ में अक्षय और ‘धाकड़’ में कंगना इसी सनक के चलते स्वभाविक अभिनय नहीं कर पाए. देश के करोड़ों लोग इसी चिंता और तनाव में सहज जिंदगी नहीं जी पा रहे. वे दिनरात नफरत की आग में झुलस रहे हैं जो धर्म की लगाई हुई है. अब इस से बचना लोगों के ही हाथ में है.

बड़बोली कंगना

खूबसूरत और सैक्सी अभिनेत्री कंगना राणावत अक्षय की तरह छिप कर या अप्रत्यक्ष रूप से भगवा गैंग, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की वकालत और प्रचार नहीं करतीं वे खुलेतौर पर मैदान में रहती हैं और कुछ भड़काऊ कहने के लिए खुद नएनए मौके पैदा कर लेती हैं.

पिछले दिनों जब भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने मुसलमानों के आराध्य पैगंबर मोहम्मद के बारे में अपमानजनक टिप्पणी की थी तो कंगना विवाद के तीसरे दिन ही बोल पड़ी थीं कि जब हिंदू भगवानों को अपमानित किया जाता है तो हम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते हैं, लेकिन यह सब के लिए एकजैसा होना चाहिए. अपनेआप को डौन समझने की कोशिश न करें. यह अफगानिस्तान नहीं भारत है. यहां सबकुछ एक सिस्टम के साथ होता है. यहां पर एक अच्छी सरकार है जिसे लोकतांत्रिक तरीके से तैयार किया गया है. यह बात उन लोगों के लिए है जो सारी बातें भूल बैठे हैं.

उन लोगों यानी मुसलमानों को नूपुर शर्मा जैसी नेत्री को तो कुछ भी बकने की आजादी इस देश का वह संविधान देता है जिसे लिखने की कोई जरूरत नहीं. समझने वाले सब समझते हैं. हिंदुत्व की पोस्टर गर्ल के खिताब से नवाज दी गई यह ऐक्ट्रैस नूपुर शर्मा को पछाड़ते कुछ भी बोलने का माद्दा रखती है मसलन:

– भारत को 1947 में आजादी नहीं बल्कि भीख मिली थी. आजादी 2014 में मिली है जब नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई.

– पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद कंगना ने एक ट्वीट में ममता बनर्जी को निशाने पर लेते हुए लिखा था- वे खून की प्यासी ताड़का हैं. जिन लोगों ने इन्हें वोट दिया उन के हाथ भी खून से रंगे हुए हैं. इस ट्वीट के बाद उन्हें हालांकि ट्विटर से हाथ धोना पड़ गया था लेकिन तब तक वे अपनी गंवारू, घटिया और छिछोरी मानसिकता प्रदर्शित कर चुकी थीं.

– सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या के बाद तो बौखलाई इस ऐक्ट्रैस ने मुंबई की तुलना पीओके से कर दी थी. इस पर शिवसेना नेता संजय राउत ने उन्हें मुंबई न आने की सलाह दी थी.

– किसान आंदोलन के दौरान भी बड़बोली कंगना ने ट्वीट किया था कि शाहीन बाग वाली दादी भी किसान आंदोलन से जुड़ गई है. किसान आंदोलन की सफलता नहीं पचा पा रही इस ऐक्ट्रैस ने यह आरोप भी लगाया था कि क्व100-100 में लोग इस आंदोलन में शामिल हो रहे हैं. मशहूर फिल्मकार जावेद अख्तर और करण जौहर पर भी अनर्गल आरोप लगा चुकीं कंगना पर करीब 10 मामले अदालतों में चल रहे?हैं, लेकिन उन्हें किसी की परवाह या चिंता नहीं.

भाजपा सरकार द्वारा इन बेतुके भड़काऊ बयानों के एवज में उन्हें पद्मश्री दे कर उपकृत किया जा चुका है पर कंगना की भूख और बढ़ रही है. वे और बड़ा कुछ चाहती हैं और इस के लिए वे किसी भी हद तक गिर सकती हैं. यह एक कलाकार का नहीं बल्कि कट्टरवाद की मानसिकता की गिरफ्त में आ गई एक ऐसी हिंदू युवती की भड़ास है जिस का बस चले तो वह कांग्रेस और मुसलमानों को देश निकाला दे दे लेकिन सोशल मीडिया पर मुंह चलाना आसान काम है जो देश के करीब 4 करोड़ सनातनी हिंदू रोज सुबह ब्रश करने के पहले करते हैं.

‘महिलाओं, बच्चों और यूथ के विकास जरुरी’ क्या कहती हैं सोशल वर्कर डॉ. किरण मोदी

जब कोई प्रियजन आपके जीवन से अचानक चला जाता है, जिससे आपकी जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है, आपकी जिंदगी उसके यादों के इर्द-गिर्द घूमती है,तब केवल एक ही रास्ता आपके जीवन में थोड़ी तसल्ली देती है, वह है गुजरे व्यक्ति की इच्छाओं को पूरा करना. दिल्ली की संस्था ‘उदयन केयर’ की सामाजिक कार्यकर्त्ता और फाउंडर मैनेजिंग ट्रस्टी डॉ. किरण मोदी ऐसी ही एक माँ है, जिन्होंने केवल 21 वर्ष के बेटे को एक दुर्घटना में खो दिया औरअपनी संस्था का नाम उन्होंने खोये हुए बेटे उदयन के नाम पर रखा. डॉ. किरण ने इसमें ‘मेकिंग यंग लाइफ शाइन’ कैम्पेन के द्वारा अनाथ, किसी बीमारी से पीड़ित बच्चों की देखभाल, महिला सशक्तिकरण को बढ़ाना आदि को ध्यान में रखते हुए हर बच्चे को आत्मनिर्भर बना रही है. शांत और स्पष्टभाषी 67 वर्षीय डॉ.किरण को इस काम के लिए शुरू में बहुत कठिनाई आई, पर वे घबराई नहीं और अपने काम को अंतिम रूप दिया. उनके साथ तीन ट्रस्टी जुड़े है, जो उन्हें पूरी तरह से सहयोग देते है.

किया संस्था का निर्माण

डॉ. किरण कहती है कि आज से 28 साल पहले मेरे जीवन में एक ऐसा मोड़ आया, जिसने मुझे हिला कर रख दिया. फिर मैंने महसूस किया किमुझे कुछ ऐसा करना है, जिससे मेरा दुःख कुछ समय के लिए कम कर सकूँ. मैंने बच्चों के लिए कुछ करने की योजना बनाईऔरयही से मैंने अपनी संस्था बनाई. धीरे-धीरे मेरे साथ अच्छे लोग जुड़ते गए और मेरा काम आसान होता गया. मेरे बेटे का नाम उद्यन था, वह अमेरिका में अकेले रहकर पढ़ाई कर रहा था और वहां उसकी मृत्यु एक दुर्घटना की वजह से हो गयी. जब मैं वहां उसके कमरे में गयी, तो वहां मुझे एक कागज मिला, जिसमे मैंने पाया कि वह किसी को बिना बताएं अफ्रीका और गरीब देशों की बच्चों के लिए अनुदान देता था, ऐसे में मैंने उसके काम को आगे बढ़ने की सोची और अपनी संस्था उदयन केयर बनाई.

मुश्किल था आगे बढ़ना

इसके आगे डॉ. किरण कहती है कि शुरू में संस्था में काम करना मुश्किल था, क्योंकि कहाँ से फंड आयेगे, कैसे काम करना है, क्या कार्यक्रम करने है आदि विषयों पर जानकारी कम थी. पहले एक साल तक तो मुझे कई संस्थाओं में जाना पड़ा. वहां उनके काम को समझने की कोशिश की.नॉन और डेवलपमेंट सेक्टर के बारें में जानकारी हासिल की. तब मुझे समझ में आने लगा कि बच्चों के लिए कैसे क्या करना है. उसी दौरान मैं एक संस्था में गई, वहां एक छोटी लड़की मेरी पल्लू पकड़ कर कहने लगी कि मुझे घर ले चलो. मुझे यहाँ मत छोड़ो. मैंने देखा है कि तब बच्चों को एक अनाथ की तरह पाला जाता था और वहां से निकलने के बाद भी वे फिर अनाथ ही रह जाते है. उनकी बोन्डिंग नहीं होती थी और वे 18 साल के बाद निकल जाते थे. इसे देखकर मैंने अपनी संस्था को एक परिवार की तरह बनाई, ताकि बच्चों को अनाथ महसूस न हो. यही से उदयन संस्था की रचना की गयी, जिसमे मैंने एक घर में 10 से 12 बच्चों के रहने का इंतजाम किया था. जिसमे आसपास के समुदाय के साथ उनका जुड़ाव अच्छा हो इसकी कोशिश किया जाने लगा, ताकि बड़े होने पर उन्हें समाज के साथ जुड़ने में आसानी हो. इसके अलावा हर बच्चों के लिए एक मेंटर की व्यवस्था की गई ताकि वे उन्हें आगे बढ़ने में उन्हें सही गाइडेंस दे सके. इसमें मैंने उन लोगों को चुना , जो अच्छे पढ़े-लिखे, जॉब करने वाले, बच्चों को सही दिशा में गाइडेंस देने वाले आदि को अपने पैनल पर रखा .

डॉ. किरण ने पहले दिल्ली में काम की शुरुआत की इसके बाद लोग जुड़ते चले गए और अब 16 होम सेंटर पूरे देश में है, जिसमे 18 साल के बाद बच्चे आते है. इसमें 29 मेंटर पेरेंट्स है . सभी बच्चों को पेरेंट्स की तरह मानते है, लेकिन वे वहां रहते नहीं, बच्चों को गाइड कर घर चले जाते है. बच्चो की देखभाल के लिए कुछ सर्वेन्ट्स है. सभी तरह के लोग हमारे साथ होते है, जो बच्चों की किसी समस्या का समाधान कर सकते है.

मानसिक विकास पर अधिक ध्यान

बच्चों को संस्था तक पहुँचने के बारें में पूछने पर वह कहती है हर जिले में चाइल्ड प्रोटेक्शन कमेटी होती है. उनके पास अपने बच्चों को सही पालन-पोषण न दे पाने वाले पेरेंट्स के बच्चे आते है, फिर कमिटी निश्चित करती है कि बच्चा किस संस्था में जाएगा. बच्चा आने पर उनके पेरेंट्स को बुलाकर उन्हें बच्चे को ले जाने के लिए कहा जाता है, ताकि पेरेंट्स बच्चे को सही तरह से पाल सकें, जिन्हें पैरेंटल सपोर्ट नहीं है,उन्हें सहयोग देते है. 16 होम्स में बच्चे 18 साल के उपर वाले आते है. इन बच्चों को ‘आफ्टर केयर’ दी जाती है. ऐसी सुविधा 3 जगह पर है. वहां बच्चे 18 साल के बाद रहकर, कॉलेज की पढाई करते है और जॉब की कोशिश करते है, जॉब मिल जाने के बाद वे निकल जाते है. बच्चे और युवा के तहत काम करने वाली 4संस्थाएं 4 राज्यों में है. इसके बाद मैंने इसे अधिक कारगर बनाने के लिए दो नए प्रोग्राम शुरू किये, जिसका काम परिवार को मजबूत बनाना था, ताकि बच्चे परिवार के साथ रहे . जिसमे पहला ‘उदयन शालीनी फेलोशिप’कार्यक्रम है, इसमें गरीब परिवार से आने वाली लड़कियां पढना चाहती है, लेकिन पेरेंट्स पैसे की कमी और सामजिक दबाव की वजह से उन्हें पढ़ाना नहीं चाहते, ऐसी लड़कियों को सरकारी स्कूल से लेकर स्नातक की पूरी पढाई करवाई जाती है. इसमें उस लड़की का पूरा खर्चा देने के साथ-साथ एक मेंटर भी दी जाती है, ताकि उसका मानसिक विकास अच्छी तरह से हो सकें, जिसमे लाइफस्टाइल, कैरियर काउंसलिंग, महिलाओं के अधिकार आदि होते है, जो किसी व्यक्ति की पूरी ग्रोथ को निर्धारित करती है और बाद में उन्हें जॉब दिलवाया जाता है. ये प्रोग्राम 26 शहरों में होती है. इस संस्था के साथ अधिकतर वोलेंटीयर्स काम करते है. इस प्रोग्राम में अभी मेरे पास 11 हजार बच्चियां है,जिनका ख्याल रखा जाता है.

बच्चों के घर को बसाना है मकसद

इसके आगे डॉ. किरण का कहना है कि तीसरा प्रोग्राम Information Technology and vocational Training  Centres (आईटी वीटी ) का है, जिसमें 19 आईटी सेंटर्स पूरे भारत में है, इसमें 2 वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर्स है. बहुत सारे बच्चे घर से बाहर मुंबई काम करने आ जाते है, उन्हें भी चाइल्ड वेलफेयर कमिटी के द्वारा ही मेरे पास भेजा जाता है. मेरी ये कोशिश होती है कि घर छोड़कर भागने वाले बच्चों के माता-पिता को खोजा जाय. घर प्रोग्राम में अनाथ तो कुछ भागकर या कुछ को पेरेंट्स गरीबी के कारण जान-बुझकर खो देते है. इन्हें पुलिस उठाकर ले जाती है और ऐसे ही संस्थाओं में छोड़ देती है, इसलिए मेरे पास भी हर तरह के बच्चे है. पहले हर जगह से बच्चे आ जाते थे, लेकिन अब इन बच्चों को उस राज्य के संस्थाओं में ही रखकर बड़ा किया जाता है. ऐसी संस्था दिल्ली में गाजियाबाद, गुडगांव, कुरुक्षेत्र आदि कई जगहों में है, जहाँ उस जिले के आसपास के बच्चे आते है.

हो जाती है गलती 

यहाँ से निकलकर 4 बच्चे विश्व की अलग-अलग युनिवर्सिटी में आगे पढने चले गए है. इसके अलावा उनकी संस्था से निकलकर कुछ बच्चे इंजिनियर तो कुछ वकील बन चुके है. इस काम में डॉ. मोदी के साथ मेंटर्स का काफी योगदान रहा. एक मेंटर कैंसर की कीमोथेरेपी के बाद काम करने आ गयी. इस तरह की डिवोशन सभी में है. हर बच्चा उनके लिए प्रिय होता है, उनका कहना है कि कोई भी बच्चा गलत नहीं हो सकता, उससे गलती हो जाती है. बच्चे ने गलती क्यों की, वजह क्या रही, इसे जानने पर उसे ठीक किया जा सकता है. एक 10 साल की लड़की को मैंने एक बार कहा था कि मैं तुमसे इतना प्यार करती हूँ, पर तुम मुझे नहीं करती. जाते समय उसने मुझे एक चिट्ठी दी और मुझे घर जाकर खोलने को कहा. मैने घर पहुंचकर जब उसे खोला तो उसमे लिखा था कि जब मैं खुद को प्यार नहीं करती तो आपको क्या प्यार करुँगी. इससे मुझे उनकी मानसिक दशा के बारें में जानकारी मिली, ये बच्चे बहुत दुखी होते है, क्योंकि घर से निकलने के बाद रास्ते में न जाने क्या-क्या होता होगा, घर में भी क्या हुआ होगा,फिर पुलिस के गंदे बर्ताव से होकर संस्था में आती है, ऐसे में बच्चा किसी को विश्वास नहीं कर पाता. दो साल बाद जब मैं उससे मिली, तो उसने दूसरी पत्र दी, इसे भी मैंने घर जाकर खोला, तो उस पर अब लिखा था, ‘आई लव यू’. इस तरह बच्चों से मैंने मनोवैज्ञानिक बहुत सारी बातें सीखी है. बाल सुरक्षा पर भी बहुत सारा काम बिहार और मध्यप्रदेश में यूनिसेफ, सरकार के साथ मिलकर किया जा रहा है. इस काम में फाइनेंस की व्यवस्था हो जाती है,डोनेशन मिलते है. बच्चों की उपलब्धि को देखकर वे भी खुश होते है और अच्छा डोनेशन देते है. अभी बहुत सारा काम आगे करने की इच्छा है.

हिंदी: शर्म नहीं गर्व कीजिए

हिंदी मीडियम से भी लहराया जा सकता है परचम

ऐसे बहुत से बच्चे हैं जो सरकारी स्कूलों में पढ़ कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं और नाम कमाते हैं. अरुण एस नायर एक ऐसे ही शख्स हैं जिन्होंने सरकारी स्कूल से पढ़ाई की और अपने दम पर डाक्टर और फिर यूपीएससी पास कर आईएएस अधिकारी बना. वह 55वीं रैंक ला कर आईएएस बने. वे केरल से संबंध रखते हैं. उन्होंने सरकारी स्कूल से पढ़ाई की और एक के बाद एक उपलब्धियां हासिल कीं.

महाराष्ट्र कैडर से आईपीएस मनोज शर्मा की कहानी भी इस देश के हर युवा के लिए मिसाल है. 12वीं कक्षा फेल मनोज शर्मा की परिस्थिति ऐसी थी कि पढ़ाई जारी रखने के लिए औटो चलाया, भिखारियों के साथ सोया. उन्होंने गांव में शुरुआती पढ़ाईलिखाई हिंदी मीडियम से की थी, जिस की वजह से अंगरेजी बहुत कमजोर थी. हिंदी मीडियम से पढ़ने वाले मनोज शर्मा से यूपीएससी के इंटरव्यू के दौरान पूछा गया कि आप को अंगरेजी नहीं आती तो फिर शासन कैसे चलाएंगे? मगर आज वे महाराष्ट्र के सफल और तेजतर्रार आईपीएस अधिकारियों में से एक हैं.

उत्तराखंड के देहरादून शहर के एक परिवार की बेटी गुलिस्तां अंजुम ने सरकारी व हिंदी मीडियम स्कूलों से परहेज करने वाले तमाम लोगों की तब बोलती बंद कर दी जब उन्होंने उत्तराखंड न्यायिक सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की. उन्होंने 2017 में भी पीसीएस-जे की परीक्षा दी थी पर कुछ अंकों से रह गईं. लेकिन दूसररी बार फिर पूरी शिद्दत से परीक्षा की तैयारी की और सफल हुईं.

निशांत जैन ने सिविल सेवा परीक्षा 2014 में दी थी, जिस में उन्होंने 13वीं रैंक हासिल की थी. वे यूपीएससी परीक्षा में हिंदी के टौपर थे. निशांत बेहद साधारण बैकग्राउंड में पलेबढ़े. वे अपना खुद का खर्चा उठाने में यकीन रखते थे. ऐसे में उन्होंने 10वीं कक्षा के बाद कोई न कोई नौकरी करने का फैसला किया. एमए के बाद निशांत जैन ने यूपीएससी की तैयारी करने का फैसला लिया. उन की पोस्ट ग्रैजुएशन तक की पढ़ाई हिंदी मीडियम से हुई थी. इसलिए उन्होंने यूपीएससी का सफर भी हिंदी मीडियम के साथ जारी रखने का प्लान बनाया. निशांत की हिंदी पर शुरू से ही कमांड रही. ऐसे में उन्होंने सोचा कि अगर यूपीएससी में भी अपने सवालों के जवाब प्रभावशाली तरीके से देने हैं तो हिंदी भाषा को ही मजबूत करना होगा. यूपीएससी 2014 की परीक्षा में उन्होंने 13 रैंक प्राप्त की. इस तरह एक हिंदी माध्यम का युवा आईएएस अफसर बन गया.

इसी तरह विस्थापित एक परिवार के बेटे अमन जुयाल ने सरकारी व हिंदी मीडियम स्कूलों से परहेज करने वाले तमाम लोगों को आईना दिखते हुए नीट व जीबी पंत विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा के बाद एम्स एमबीबीएस प्रवेश रीक्षा में भी प्रदेश में दूसरा स्थान हासिल किया.

‘‘कौ शिक मुझे नहीं लगता कि मैं इस इंटरव्यू में सफल हो पाऊंगा. सारे इंग्लिश मीडियम के कैंडिडेट्स भरे पड़े हैं जो फर्राटेदार इंग्लिश में बातें कर रहे हैं,’’ अमर ने थोड़ी घबराई हुई आवाज में कौशिक से कहा.

‘‘अगर तू ऐसा सोच रहा है तो मुझे यकीन है तू वाकई इंटरव्यू में फेल हो जाएगा,’’ कौशिक ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘यह क्या यार तू तो मेरा मनोबल और गिरा रहा है.’’

‘‘तो क्या करूं, जब तूने खुद ही यह कहना शुरू कर दिया है कि तू सफल नहीं होगा तो यकीन मान कोई तुझे नहीं जिता सकता. अगर सफल होना है तो अपने मन और दिमाग को बता कि तुझे बस जीतना है. तब तुझे कोई नहीं हरा सकता. मगर जब पहले से ही तू घबराया हुआ अंदर जाएगा तो जाहिर है तुझ से छोटीछोटी गलतियां होंगी. तू याद की हुई बातें भी भूल जाएगा. इतना भ्रमित दिखेगा कि वे चाह कर भी तुझे अपौइंट नहीं कर पाएंगे. ऐसे में तू असफल होगा, मगर हिंदी मीडियम की वजह से नहीं बल्कि कौन्फिडैंस की कमी की वजह से,’’ कौशिक ने समझया.

‘‘सच यार तूने तो मेरी आंखें खोल दीं. अब देखना तेरा दोस्त कैसे जीत कर आता है,’’ अमर ने उत्साह से कहा. उस की आंखों में विश्वास भरी चमक खिल आई थी.

यह एक सच्चा वाकेआ है और अकसर हमारे आसपास हिंदी मीडियम में पढ़े ऐसे बहुत से अमर दिख जाएंगे जो जीतने के पहले ही हार जाते हैं, इंटरव्यू बोर्ड के सामने जाने से पहले ही असफल हो जाते हैं. दरअसल, वे घबरा जाते हैं और सब जानते हुए भी सही जवाब नहीं दे पाते. आत्मविश्वास की कमी की वजह से उन की जबान लड़खड़ाने लगती है. कई ऐसे भी मिलेंगे जो हिंदी मीडियम वाले होने के बावजूद इंग्लिश में जवाब देने का फैसला करते हैं ताकि सामने वालों पर अच्छा प्रभाव पड़े. मगर होता उलटा है. उन्हें इंग्लिश के सही शब्द नहीं मिल पाते और सब जानते हुए भी सैटिस्फैक्टरी रिस्पौंस नहीं दे पाते.

दरअसल, हिंदी मीडियम के युवाओं को हमेशा ऐसा लगता है कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाले लोग बेहतर होते हैं. इस से उन के अंदर हीनभावना भर जाती है, आत्मविश्वास कमजोर हो जाता है. लेकिन सच यह है कि कोई हिंदी भाषा में बेहतर होता है तो कोई इंग्लिश भाषा में. कोई फर्राटेदार अंगरेजी बोल लेता है तो कोई धाराप्रवाह हिंदी. भाषा तो दोनों ही हैं. जरूरत होती है सामने वाले के आगे अपनी बात सही तरह से प्रस्तुत करने की. माना कि किसी एक भाषा पर कमांड हासिल करना आवश्यक है, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि हिंदी जानने वाले कमजोर हैं और इंग्लिश जानने वाले ज्ञानी हैं.

कुछ लोग यह सोचते हैं कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ने से अच्छा रुतबा, कैरियर, ओहदा, पैसा और नौकरी मिलती है. पर ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने भाषा को अहमियत न देते हुए कड़ी मेहनत से शोहरत के उस मुकाम को हासिल किया जहां तक पहुंचने की ज्यादातर लोग कल्पना भी नहीं कर पाते. इंसान के भीतर काबिलीयत होनी चाहिए, ज्ञान और आत्मविश्वास होना चाहिए. भले ही भाषा हिंदी ही क्यों न हो.

डिजिटल दुनिया में हिंदी सब से बड़ी भाषा

अगर हम आंकड़ों में हिंदी की बात करें तो 260 से ज्यादा विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है. 1 अरब, 30 करोड़ से ज्यादा लोग हिंदी बोलने और समझने में सक्षम हैं. 2030 तक दुनिया का हर 5वां व्यक्ति हिंदी बोलेगा. सब से बड़ी बात यह कि जो कुछ साल पहले इंग्लिश इंटरनैट की सब से बड़ी भाषा थी अब हिंदी ने उसे बहुत पीछे छोड़ दिया है. गूगल सर्वेक्षण बताता है कि इंटरनैट पर डिजिटल दुनिया में हिंदी सब से बड़ी भाषा है.

हिंदी बोलने पर शर्म नहीं गर्व कीजिए

अगर आप इंग्लिश में कंफर्टेबल महसूस करते हैं तो आप इंग्लिश में ही बात करिए. इसे ही अपनी बातचीत की प्राथमिक भाषा रहने दीजिए. लेकिन जब कभी आप को हिंदी बोलने का मौका मिले या आप को इंग्लिश में बात करना न आता हो तो इस में शर्म न करें.

अब जरा भारत के कुछ नेताओं की ही बात कर लें. बहुत से नेता हिंदी मीडियम से पढ़ाई कर के आए हैं. देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हों या वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बिहार के नीतीश कुमार हों, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव हों या फिर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ, ये सभी हिंदी मीडियम से पढ़ कर आए हैं पर देश की बागडोर संभाली. इन सभी नेताओं ने हर काम हिंदी भाषा में किया और हिंदी को ही तरजीह दी.

याद कीजिए 4 अक्तूबर, 1977 का वह दिन जब विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी पहुंचे थे. उन्होंने अपना भाषण हिंदी में दिया था. वैसे यह भाषण पहले इंग्लिश में लिखा गया था. लेकिन अटल ने उस का हिंदी अनुवाद पढ़ा था. उन के भाषण के बाद यूएन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. हिंदी की वजह से ही उन का यह भाषण ऐतिहासिक हो गया था.

इसी तरह मोदीजी भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर धाराप्रवाह हिंदी में भाषण देते हैं और विदेशी नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिला कर शिरकत करते हैं.

ज्ञान भाषा पर आधारित नहीं होता

कोई भी भाषा अपनी भावना व्यक्त करने का एक माध्यम भर है. यह किसी को अमीरगरीब नहीं बनाती. अरे यह तो आप के घर की भाषा है, आप के शहर और गांव की भाषा है. इसे बोलने में शर्म नहीं अपनापन महसूस होना चाहिए. हिंदी भाषा आप का स्टेटस छोटा नहीं दिखाती बल्कि आप के विद्वान होने का ऐलान करती है.

आप अपने आसपास नजर डालें तो यह महसूस करेंगे कि जो व्यक्ति इंग्लिश भाषा बोलने में सहज नहीं महसूस करता उसे कम पढ़ालिखा या कम समझदार माना जाता है. लेकिन याद रखें ज्ञान भाषा पर आधारित नहीं होता. ज्ञान तो आप की पढ़ाई, समझ और अनुभवों पर निर्भर करता है. हो सकता है कि कोई व्यक्ति इंग्लिश नहीं हिंदी में बोलता हो, लेकिन उस के पास बिजनैस, तकनीक या फिर किसी और क्षेत्र में ज्ञान का भंडार हो. यह भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति इंग्लिश न बोल पाता हो पर हिंदी भाषा में फिलौसफी से जुड़ी ऐसी बातों का रहस्य खोल सकता हो जो शायद देशविदेश के विद्वानों ने भी न खोला हो. किसी को उस की भाषा के आधार पर कम समझदार आंकना हमारी अपनी कमअक्ली को दर्शाता है.

हम ने इंग्लिश को हिंदी में इतना ज्यादा मिला दिया है कि शुद्ध हिंदी लिखना ही भूल गए हैं. हम आजकल हिंगलिश बोलने लगे हैं. यह न इंग्लिश है और न हिंदी. यह हर तरह से कमजोर लोगों की निशानी है. ऐसे लोग जिन्हें न खुद पर विश्वास है और न अपनी भाषा पर वे ही ऐसा जोड़तोड़ का रास्ता अपनाते हैं. इसी तरह आजकल व्हाट्सऐप पर ऐसी हिंदी लिखी जा रही है कि बेचारी हिंदी को ही शर्म आती होगी.

मातृभाषा की अहमियत समझें

याद रखें इंसान की कल्पनाशक्ति का विकास मातृभाषा में ही हो सकता है. हम जब इमोशनल या गुस्से में होते हैं तो हम मातृभाषा में ही बोलते हैं. जब धाराप्रवाह बोलने की जरूरत हो तो मातृभाषा में ही हम सहजता से बोल पाते हैं. जहां तक बात हिंदी की है तो इंग्लिश की तुलना में हिंदी इंसान को ज्यादा समृद्ध बना सकती है. हिंदी भारत में सब से ज्यादा बोली जाने वाली यानी राजभाषा है.

हमारे देश के 77% से ज्यादा लोग हिंदी लिखते, पढ़ते, बोलते और समझते हैं. हिंदी उन के कामकाज का भी हिस्सा है. इसलिए 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा घोषित किया और तब से संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाया जाता है.

किसी भी राष्ट्र की पहचान उस की भाषा और संस्कृति से होती है. हमें दूसरों की भाषा सीखने का मौका मिले यह अच्छी बात है, लेकिन दूसरों की भाषा के चलते हमें अपनी मातृभाषा को छोड़ना पड़े तो यह शर्म की बात है. हमें अपनी भाषा का सम्मान करना चाहिए.

शायद ही दुनिया में ‘हिंदी दिवस’ की तरह किसी और भाषा के नाम पर दिवस का आयोजन होती है क्योंकि पूरी दुनिया के लोगों को अपनी भाषा पर गर्व है. गर्व की बात है कि वे लोग सिर्फ बोलते ही नहीं बल्कि उसे व्यवहार में अपनाते भी हैं. लेकिन हम लोग हिंदी दिवस पर हिंदी हमारी मातृभाषा है, हमें हिंदी पर गर्व है जैसे रटेरटाए वाक्य बोल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. असलियत में हिंदी में बातचीत करने वालों को आज भी हेय दृष्टि से देखा जाता है. यदि कोई व्यक्ति 2-4 वाक्य फर्राटेदार अंगरेजी में बोलता है तो सब उसे बहुत होशियार समझते हैं.

आधुनिकता का भूत

हमारे यहां जब बच्चे का जन्म होता है तो घर के लोगों से हिंदी सुन कर बच्चा भी हिंदी बोलने और समझने लगता है. मगर आज की तथाकथित मौडर्न फैमिलीज में बच्चे को तुतलाना भी इंग्लिश में ही सिखाया जाता है. हर वक्त घर में पेरैंट्स उस के पीछे इंग्लिश के शब्द ले कर भागते रहते हैं ताकि गलती से भी वह हिंदी न सीख जाए. ऐसा लगता है जैसे हिंदी बोलने पर उस का भविष्य ही चौपट हो जाएगा.

जैसे ही बच्चे को स्कूल भेजने की बात आती हैं तो हिंदी मीडियम स्कूलों के हालात का रोना रोते हुए पेरैंट्स जल्दी से बच्चे को अंगरेजी स्कूल में भेजने के लिए हाथपैर मारने लगते हैं. इंग्लिश मीडियम वाले स्कूलों के बाहर इतनी लंबी लाइन रहती है कि लोग नर्सरी में एडमिशन के लिए भी लाखों खर्च करने से नहीं घबराते हैं. इतने रुपयों के सहारे इंग्लिश मीडियम में डाल कर वे बहुत खुश होते हैं. उन्हें लगता है जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो.

यहीं से बच्चे की रहीसही हिंदी भी कमजोर होने लगती है. यही वजह है कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ालिखा नौजवान सब्जी वाले से हिसाबकिताब करते वक्त उन्यासी और नवासी का फर्क तक नहीं समझ पाता. आम बोलचाल के हिंदी के छोटेछोटे शब्द उस की समझ से परे होते हैं. भले ही अंगरेजी की तुलना में हिंदी इंसान को ज्यादा समृद्ध बना सकती है लेकिन जौब मार्केट में अंग्रेजी का दबदबा कायम होने की वजह से सब इंग्लिश के पीछे भागते हैं और जो नहीं भाग पाए वे खुद को बेकार समझते हैं. मगर हकीकत में बहुत से हिंदी मीडियम वाले ज्ञान के मामले में इंग्लिश मीडियम वालों से बहुत आगे रहते हैं. हिंदी भाषा में हर तरह की पाठ्यसामग्री या दूसरे विषयों पर जानकारी उपलब्ध है. इसलिए हिंदी भाषी होने की वजह से घबराना बेमानी है. हिंदी भाषा उच्च कोटि की भाषा है. इसे गंवारों की भाषा समझना बहुत बड़ी भूल है.

हिंदी में पढ़ कर छू ली बुलंदी

पेटीएम आज पूरे देश का सब से लोकप्रिय डिजिटल पेमैंट ऐप्लिकेशन बन चुका है. पर आप को जान कर आश्चर्य होगा कि पेटीएम के फाउंडर विजय शेखर भारत के एक छोटे से शहर के बहुत ही साधारण परिवार से संबंधित हैं. उन्हें अंगरेजी का थोड़ा भी ज्ञान नहीं था परंतु इस के बावजूद इन्होंने पेटीएम जैसे ऐप्लिकेशन की खोज कर डाली.

इन्होंने एक साधारण हिंदी मीडियम स्कूल में दाखिला लिया था. पढ़ने में तेज होने के कारण अपनी 12वीं कक्षा की पढ़ाई को मात्र 14 साल की उम्र में ही पूरा कर लिया था. पढ़ाई में तेज होने के कारण इन्हें दिल्ली कालेज औफ इंजीनियरिंग में दाखिला तो मिल गया था पर हिंदी मीडियम से अंगरेजी वातावरण में जाने के कारण पढ़ाई में बहुत दिक्कत आई. मगर इन्होंने हार नहीं मानी और अंगरेजी सीखने का प्रयत्न करते रहे. ये एक ही किताब को अंगरेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में खरीद लेते और फिर पढ़ने का प्रयास करते.

विजय शेखर शर्मा समय के अनुसार काम करते थे. उन्हें कब क्या करना है वे बखूबी जानते हैं. इसलिए जब स्मार्टफोन का प्रयोग बढ़ा और हर युवक के पास स्मार्टफोन पाया जाने लगा तो इन्होंने कैशलैस की सोची अर्थात मोबाइल से ही पैसे ट्रांसफर करना. ये पेटीएम यानी पे थ्र्रू मोबाइल के कांसैप्ट पर काम करना चाहते थे. मगर किसी ने इन का साथ नहीं दिया क्योंकि ये एकदम नया व्यापार था और बहुत मुश्किल लग रहा था.

फिर इन्होंने अपनी इक्विटी में से 1% यानी 2 मिलियन डौलर बेच कर पेटीएम की स्थापना की और आज पेटीएम की लोकप्रियता का कोई ठिकाना नहीं है. 2017 में इकौनोमिक टाइम्स द्वारा शेखर शर्मा को इंडिया के हौटैस्ट बिजनैस लीडर अंडर 40 के रूप में चुना.

विजय शेखर जैसे लोगों की जिंदगी से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है. हमें यह समझ आता है कि हिंदी या इंग्लिश माने नहीं रखता बल्कि आप की लगन, अलग सोच और कुछ करने का जज्बा सफलता के लिए जरूरी है.

कब जागरूक होगी जनता

महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन जिस में शिव सेना के महाअगाड़ी विकास गठबंधन के उद्धव ठाकरे को डिफैक्शनों के जरिए जटा दिया गया और अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का फैसला कि उन के संविधान में औरतों का कोई गर्भपात का संवैधानिक अधिकार नहीं है, आम भारतीय घरों पर क्या कोई असर डालता है.

ये मामले कानूनी, राजनीतिक या पार्टीबाजी के हैं और एक आम घर, घरवाली, उस के बच्चों, रिश्तेदारों को इन 2 घटनाओं के बारे में ङ्क्षचता तो दूर इन के बारे मं जानने या सोचने की भी जरूरत नहीं है. काश यह सही होता. इन दोनों मामलों का भारत के भी हर घर पर असर पड़ेगा, अमेरिका के हर घर पर भी.

महाराष्ट्र का सत्ता परिवर्तन एक बार फिर याद दिलाता है कि आप किसी पर भी भरोसा नहीं कर सकते. वह यह भी साफ करता है कि जो अपने नेता, मालिक, मुखिया की पीठ में छुरा भौंकता है जरूरी नहीं अपराधी हो, वह महान हो सकता है, सुग्रीव की तरह भाई बाली को दगा देने वाला या विभीषण की तरह रावण से बेइमानी करने वाला. इस सत्ता बदलाव पर बहुत से चैनलों ने तालियां बजाईं, बहुत से नेताओं ने बधाई दी, जिस ने अपने नेता उद्धव ठाकरे के खिलाफ बगावत की उसे लड्डू खिलाए.

अगर बगावत सही है. अपने नेता के खिलाफ साजिश करना ठीक है तो माझी का ननद के खिलाफ साजिश करने मंं क्या हर्ज है, छोटे भाई का बड़े भाई को धोखा देकर पिता की सारी संपत्ति हड़प लेने में क्या बुराई है, युवा पत्नी को प्रैफ्रेंस देकर मांबाप को घर से निकाल देने में क्या गलत है. जब नेता किसी को धोखा दे सकते हैं भाई, बहन, रिश्तेदार, बेटे, बेटी क्यों नहीं दे सकते. उद्देश्य तो अपना फायदा ढूंढऩा है जो एकनाथ ङ्क्षशदे को मिल गया जो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए.

यथा राजा तथा प्रजा पुरानी फिसलती है. जो हमारे महान नेताओं ने कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा, अरुणाचल प्रदेश में किया तो हम अपने घरों में क्यों नहीं कर सकते. राजाओं के पदचिह्नïों पर ही तो प्रजा चलेगी.

ऐसा ही अमेरिका में किया गया है. एक औरत के वहा गया है कि उस का अपने बदन पर कोई अधिकार नहीं क्योंकि संविधान में, जो तब लिखा गया जब गर्भपात की तकनीक नहीं थी, नया है तो गलत ही होगा. कल को औरतों को पीटना भी अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट सही ठहरा सकती है क्योंकि धर्म कहता है कि पतिपत्नी को पीट सकता है और संविधान में पत्नी को स्पष्ट नहीं दिया गया कि नहीं पीट सकते. सुप्रीम कोर्ट कह सकती है  कि बाइबल के हिसाब से चलो तो जो फादर ने कहा वही अकेला सच है और चर्च का फादर पिटने वाली को यही कहता है कि पीटने वालों को ईश्वर दंड देगा, तुम भुगतते रहो. सुप्रीम कोर्ट यह भी कह सकता है कि अमेरिकी संविधान में रेप के खिलाफ कुछ नहीं है और इसलिए रेप भी हो सकते हैं.

इस तरह की बेतुकी बातें अदालतें नहीं करतीं, ऐसा नहीं है. अदालतों के निर्णय बेतुकी बातों से भरे पड़े हैं. राम मंदिर पर हमारी सुप्रीम कोर्ट अपने आदेश में साफ  कहती है कि अयोध्या की मसजिद गिराना गैरकानूनी है पर साथ ही कहती है कि यह जमीन हिंदू मंदिर के लिए दे दी जाएं.

दुनिया भर की अदालतें एकदूसरे के फैसलों को पढ़तीसमझती रहती और कल को भारत में जो गर्भपात की आधीअधूरी छूट मिली हुई है, छिन जाए तो बड़ी बात नहीं आजादी के 30 सालों तक भारत में भी गर्भपात गैरकानूनी ही था. भारतीय अदालतें ने कभी उसे संवैधानिक हक नहीं माना था. कोर्ई सिरफिरा अब बने कानूनों को गलत कहता हुआ अदालत चला जाए तो आज के जज क्या कहेेंगे पता नहीं. वे भी अमेरिकी उदाहरण को फौलों कर सकते हैं.

जनता अगर खुद जागरूक न हो तो इस तरह की उठापटक कब उस पर हावी हो जाए कहां नहीं जा सकता.

हिंदू और मुसलिम विवाह कानून

डाक्टर युवक, डाक्टर युवती. दोनों ने 2017 में विवाह किया. 2018 में झगड़ा हो गया. आज 2022 में भी वे अदालतों के बरामदों में खड़े है क्योंकि हमारा तलाक कानून बेहद क्रूर है और बिना चिंता किए अलग हुए पति और पत्नी के कठोर सजा देना है. 2018 में ही पत्नी की पति से नहीं बनी तो वह बर्दवान, पश्चिमी बंगाल से चली गई और पिता के घर शामली, उत्तर प्रदेश आ कर रहने लगी. पति ने बर्दवान में फैमिली कोर्ट में तलाक का दावा कर दिया. अब 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी की एप्लीकेशन पर मामले को शामली में ट्रांसफर कर के एक जीत तो पत्नी को पकड़ा दी पर किस कीमत पर? उस के 4 साल तो अदालतों के चक्करों में गुजर ही चुके हैं.

अब मामला शामली कोर्ट में चलेगा और पति बर्दवान से आएगा. 5-7 साल बाद फैसला होगा. दोनों में से एक उच्च न्यायालय जाएगा. अगर बीच में कोई फैसला नहीं हुआ तो फिर सुप्रीम कोर्ट जाना हो सकता है.

इस बीच दोनों की डाक्टरी तो प्रभावित होगी ही, बालों के रंग सफेद होने लगेंगे. बैंक बैलेंस वकीलों, रेलों, हवाई जहाजों और टैक्सियों के खातों में शिफ्ट होने लगेगा. बच्चे पैदा कर के सुखी परिवार के सपने भी देखने बंद हो जाएंगे. कानूनी घटाघोप अंधेरा उन की िजदगी पर रहेगा. जब कुछ घंटों में शादी हो सकती तो तलाक के लिए इतनी मुश्किल क्यों खासतौर पर तब जब दोनों के कोई बच्चा भी न हो. पहली अदालत पहले आवेदन पर बिना दूसरे पक्ष की सुने आखिर तलाक क्यों नहीं दे सकती? क्या नुकसान हो जाएगा अगर एक की ही शिकायत पर उन्हें मुक्त कर दिया जाए. जब दोनों में से एक भी साथ रहने को तैयार नहीं तो शादी की इन अदृश्य जंजीरों पर कानूनी ताले क्यों लगे रहें?

एक और मामले में तेजपुर असम में 17 जून 2009 को शादी हुई और 30 जून 2009 को पत्नी घर छोड़ कर चली गई. मामला अब सुप्रीम कोर्ट में फरवरी 2022 में 13 साल बाद तय हुआ. पति पर अगर 15 लाख रुपए का बोझ डाला गया तो वह सस्ता था क्योंकि इन 13 सालों में पतिपत्नी साथ न रहते हुए भी अपनी जवानी के दिन अदालतों के बैंचों पर बिता रहे थे. नरम बिस्तरों पर नहीं.

हिंदू विवाह कानून असल आज भी मुसलिम विवाह कानून से ज्यादा कट्टर है पर कमाल है नैरेटिव का कि आम हिंदू अपने को बहुत प्रोग्रेसिस मानता है और इस्लाम के दकियानूसी. विवाह दो व्यस्कों के सहमति से जीने की बात है. इस में तीसरे की जरूरत नहीं है, न पंडित की न काजी की, न कोर्ट की, पंडित के बिना भी साथ रहना शादी समान है और अदालत की डिग्री के बिना अलग रहना तलाक समान है. फिर दोनों अपनी फीस पाने के लिए बीच में क्यों आते हैं.

भारत में टिपिंग सिस्टम 

देश भर के रेस्तरां भी अपनेआप को खास कहते हैं, खाने के बिल के साथ 10′ सॢवस चार्र्ज भी जोड़ते हैं. जीएसटी से पहले यह चार्ज बिना सेल्स टैक्स के होता था पर जीएसटी के बाद उस पर टैक्स भी देना होता है. जीएसटी वाले इसे खाने की कीमत मानते है. सरकार का कंज्यूमर मंत्रालय कहता है कि यह अनावश्यक है क्योंकि सॢवस कैसी भी हो, उस पर चार्ज जबरन वसूलना गलत है.

सरकार ने आदेश दिया है कि रेस्तरां यह चार्ज लगाना बंद  करें पर रेस्तरां मालिकों में से कुछ ठीठ हैं और उन्होंने बाहर ही बोर्ड लगा दिया है कि सॢवस चार्ज तो लगेगा. सॢवस चार्र्ज के बाद टिव न देनी होती तो बात दूसरी होती पर इन रेस्तरांओं में वेटर इस मुद्रा में खड़े हो जाते हैं कि मोटी रकम खर्च कर के जाने वाला काफी कुछ छोड़ जाता है.

असल में टिपिंग  का सिस्टम ही गलत है चाहे यह टैक्सी में हो, जोमाटो या स्वीगी में हो या एयरपोर्ट पर व्हीलचेयर चलाने वाले के हो. अगर एंपलायर नौकरी का वेतन दे रहा हो तो टिपिंग  अपनेआप में गलत ही नहीं जुलह है. यह देनी और लेने वालों दोनों के लिए गलत है. देने वाला अपनेआप को राजा समझने लगता है और लेने वाले को भिखारी. दूसरी तरफ लेने वाला की सैल्फ एस्टीक कम होती है जब वह आशा से अधिक टिप्प पा कर ज्यादा जोर से सलाम मारता है.

टिपिंग  असल में राजाओं रजवाड़ों की छोड़ी गई प्रेक्टिस है. टिप लेने वाला खुशीखुशी जाए घर भावना ही गलत है. उसे तो खुशी इस बात की होनी चाहिए उस ने अच्छी सेवा दी. उस की असली टिप तो ग्राहक की संतुष्टि है. बहुत बार टिप देने के बाद भी लेने वाले के माथे पर बल पड़े रहते हैं और देने वाले को लगता है कि नाहक ही खर्च किया.

जहां सॢवस अच्छी न हो, वहां िटिपिंग  का फर्क नहीं पड़ता. अगर न ही जाए तो भी तो तय हुआ है या जो रेट है वह पैसा तो देना ही होगा ही. रेस्तरां में चम्मच गंदे थे, चाय प्लेट में छलकी थी, खाना देर से आया था, टैक्सी में ड्राइवर किसी से रास्ते भर मोबाइल पर झगड़ता रहा या अपने म्यूजिक का वैल्यूम तेज रखे रखा, टिप न देने से भी जो खीख है वापिस नहीं मिलेगा. यह भी कोई गारंटी नहीं कि सेवा देने वाला अगले ग्राहक को टिप न देने या अच्छी सेवा देगा क्योंकि यह तो उस की आदत बन चुकी है.

जापान में टिपिंग बिलकुल नहीं दी ली जाती. अब अच्छे रेस्तरां होटल ‘नो टिपिंग  प्लीज’ बोर्ड लगाने वाले है. वे नहीं चाहते कि टिप के बंटबारे पर वर्कस में झगड़ा है. मंत्रालय जो वहा वह सही है पर सरकार की सलाह गलत है क्योंकि सरकार तो वैसे ही बिना सेवा दिए मोटी कीमत वसूलने की आदी है और उस के कर्मचारी रिश्वत के तौर पर मोटी टिप जबरन ले लेते हैं.

हनी ट्रैप बिजनैस और कानून

यौन संबंधों को ले कर बने कानूनों का लाभ उठाने के लिए अपराधियों ने एक नया व्यवसाय खड़ा कर लिया है, हनी ट्रैप का. इस में बड़ी आसानी से सेक्स के भूखे पुरुषों को फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप आदि से पहले दोस्ती की जाती है और फिर फोन नंबर ले कर मिलने का न्यौता दिया जाता है.

यहां तक बात स्वाभाविक और 2 व्यस्कों का मामला है. हर पुरुष की चाहत होती है कि पत्नी हो या न हों, उस की गर्लफ्रैंड जरूर हो जिस से वह अपने सुखदुख बांट सके और संभव हो तो सेक्स संबंध बना सके. सिर्फ सेक्स संबंध बनाने के लिए यूं तो वेश्याओं का बड़ा बाजार है पर उस में जोखिम बहुत हैं और लोग कतराते है. हनी ट्रैप में वे फंसते हैं जो कोई झमेला नहीं चाहते और केवल बदलाव, उत्सुकता या श्रमिक आनंद की खातिर कुछ रोमांचक करने को तैयार हो जाते हैं.

हनी ट्रैप में आने पर लडक़ी पुरुष के साथ अपनी सैक्सी अदाएं दिखाती हैं और कभी सैल्फी से तो कभी छिपे कैमरे से फोटो खींच ली जाती है. कई बार ऐन क्रिटिवल समय पर दरवाजा खोल कर 3-4 लोग घुस जाते है जो लडक़ी के साथी होते है जो ब्लैकमेल, लूट, मारापीटी करने लगते हैं.

हाल के बने कानूनों ने हनी ट्रैप बिजनैस को खूब बढ़ावा दिया है. आजकल हनी ट्रैप के शातिर पुरुष पर किसी भी तरह का आरोप लगा सकती है और अगर मामला पुलिस में चला जाए तो न केवल पुरुष की जगहंसाई, जग प्रतारणा होती ही है और घर में भीषण गृहयुद्ध भी छिड़ जाता है, जेल भी हो सकती है. यदि पुरुष इस जिद पर अड़ जाए कि जो हुआ वह सहमति से हुआ और अपराध नहीं हुआ. पुलिस और अदालत उसे जेल पहले भेज देंगे और सफाई देने का मौका महीनों बाद मिलेगा और लंबी अदालती लड़ाई के बाद ही छुटकारा मिलेगा. यही ब्लैकमेल का अवसर पैदा करता है.

स्त्री पुरुष संबंध व्यस्क संबंध है और इन पर बनाए गए कानून असल में स्त्री को अधिकार नहीं देते, उसे और गुलामी की जंजीरों में बांध रहे हैं. जैसे जून में दिल्ली के एक मामले में हुआ जिस में 3 पुरुषों और एक युवती ने एक पुरुष को फंसाया.

उन पुरुषों को लूटा तो गया पर वह पुलिस में  चला गया और जो पता लगा उस से यह स्पष्ट है कि यह युवती जो अपराधियों के साथ है, खुद एक पीडि़त ही है. वह इस तरह के अपराध में किसी लालच या भय के कारण शामिल हुई होगी. उसे जबरन चुग्गा बना कर फेंका गया. जो कानून उसे बचाने के लिए बनाया गया था, उसी कानून के अनुसार वह सिर्फ एक अपराध का हथियार थी.

वेश्यावृत्ति समाप्त करने वाले ज्यादातर कानूनों में वेश्याओं को अपराधी नहीं माना गया पर पुलिस उन्हीं को सब से ज्यादा लूटती है. इन कानूनों के बावजूद कोठों में रह रहीं या स्वतंत्र रूप से देह बेचने वाली दोनों समाज व पुरुषों की शिकार हैं और कानूनों ने उन्हें और जकड़ दिया है.

कार्यक्षेत्र में यौन प्रतारण कानून ने औरतों की आजादी छीन ली है. वे पुरुषों की तरह हंसबोल भी नहीं सकती. क्योंकि पुरुष उन से डरते रहते हैं. उन्हें जोखिम का काम नहीं दिए जाते. उन की युवावस्था की अपील पर कोई विवाद न खड़ा हो जाए इसलिए कंपनियां उन्हें जिम्मेदारी वाले पद देने से कतराती हैं. जो कंपनियां उन्हें आगे रखने का जोखिम लेती हैं, वे उन का केबल सजावटी उपयोग करती है और सब कोशिश करते है कि उन्हें दूरदूर रखा जाए. अच्छे से अच्छे दफ्तर या कारखाने में औरतों के अलग गुट बन जाते हैं, जिन कानूनों से अपेक्षा थी कि वे ङ्क्षलग भेद समाप्त करके बराबर के अवसर देंगे, वे अब फिर उन्हें पुरातन औरतों के अलग बाड़ों में बंद कर रहे हैं.

औरतों का नहीं, समाज के विकास के लिए जरूरी है कि औरत का इस्तेमाल पुरुष के क्षणिक सुख के लिए नहीं हो, उसे समाज का बराबर का यूनिट समझा जाए. जो एक तरफा कानून बने हैं, वे ङ्क्षलग भेद को पहले से स्पष्ट कर देते है और औरतों के विकास के रास्ते बंद कर देते हैं. औरत साथी को पुरुष साथी की तरह सहजता से लिया जाए, यह भावना वहीं से पैदा नहीं करते.

मामला एम जे अकबर और तरुण तेजपाल जैसे पत्रकारों का हो या जौनी डैप और एंकर हस्र्ट का हो सैक्सटौर्थन के मामलों में औरतें विक्टिम ही बनी रहती हैं. ये मामले दिखाते हैं कि औरतें आज भी वीकर सैक्स हैं और नए कानूनों या नई कानूनी परिभाषाओं ने वीकर सैक्स के बल देेने के नाम पर उन के पैरों में ब्रेसख बांध दिए हैं जो उन्हें कमजोर ही दर्शाते हैं.

अबॉर्शन राइट्स के मामले में क्या अमेरिका से आगे है भारत?

अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने देश की महिलाओं को मिले अबॉर्शन यानी गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को खत्म कर दिया. कोर्ट ने 24 जून को पचास साल पहले के अपने ही उस फैसले को पलटकर रख दिया, जिसमें कहा गया था कि महिलाओं के लिए अबॉर्शन का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है. पचास साल पहले अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने जिस मामले में ये फैसला सुनाया था, उसे 1973 के चर्चित ‘रोए बनाम वेड’केस के तौर पर जाना गया. अब इस नए फैसले के बाद पचास साल पहले के इस मामले की खूब चर्चा हो रही है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से अमेरिका के साथ ही दुनियाभर में इसपर लगातार आलोचना हो रही है. अमेरिका के अलावा कई देशों में फैसले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे है. इस फैसले के बाद अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर कई जानी-मानी हस्तियों ने इसपर विरोध जताया है. अबॉर्शन यानि गर्भपात को लेकर भारत अमेरिका से कितना आगे है ये जानने से पहले आइए थोड़ा इस केस के बारे में जान लेते है.

‘रोए वी वेड’ का फैसला क्या था?

अमेरिका में गर्भपात हमेशा से एक बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है. महिलाओं के पास गर्भपात का अधिकार होना चाहिए या नहीं इसको लेकर अमेरिका में लगातार बहस होती रही है. साथ ही ये मुद्दा रिपब्लिकन्स (कंजरवेटिव) और डेमोक्रेट्स (लिबरल्स) के बीच भी विवाद का का कारण बनता आया है. बात साल 1971 की है. जब अमेरिका में रो जेन नाम की महिला ने तीसरी बार प्रेगनेंट होने के बाद कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. रो जेन पहले ही दो बच्चों की मां थी, और वो तीसरा बच्चा नहीं चाहती थी. लेकिन अमेरिका में अबॉर्शन की इजाज़त केवल विशेष परिस्थितियों में ही थी. जिसके कारण रो ने अबॉर्शन की इजाजत के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. जिसके बाद अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में अमेरिका की महिलाओं को अबॉर्शन का अधिकार दिया.

भारत में प्रेग्नेंसी कानून

भारत में 1971 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी कानून आया था. समय-समय पर इस कानून में संशोधन हुए. ये कानून एक सीमा तक महिलाओं को अबॉर्शन कराने की अनुमति देता है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि भारत में महिलाओं को अबॉर्शन कराने की खुली छूट है. एमटीपी एक्ट में कई टर्म्स एंड कंडीशन्स दी गई हैं. अगर आपका कारण उस क्राइटेरिया को पूरा करता है, तब ही आप गर्भपात करा पाएंगी.

भारत में अबॉर्शन से जुड़े कानून

एमटीपी एक्ट में अबॉर्शन राइट्स को तीन कैटेगरी में डिवाइड किया गया है.

1. जिसमे पहली कैटेगरी है प्रेग्नेंसी के 0 – 20 हफ्ते तक अबॉर्शन. इसके तहत अगर कोई महिला मां बनने के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं है. या फिर अगर कांट्रासेप्टिव मेथर्ड या डिवाइस फेल हो गया और ना चाहते हुए महिला प्रेग्नेंट हो गई तब वो गर्भपात करा सकती है. अबॉर्शन एक रजिस्टर्ड डॉक्टर द्वारा होना ज़रूरी है.

2. दूसरी कैटेगरी प्रेग्नेंसी के 20 – 24 हफ्ते तक अबॉर्शन. इसके तहत अगर मां या बच्चे की मानसिक या शारीरिक स्वास्थ को किसी भी तरह का खतरा है तब महिला गर्भपात करा सकती है. इसके लिए अबॉर्शन के दौरान दो रजिस्टर्ड डॉक्टरों का होना जरूरी है.

3. प्रेग्नेंसी के 24 हफ्ते बाद अबॉर्शन के लिए. यदि महिला रेप का शिकार हुई है और उस वजह से प्रेगनेंट हुई है तब वो प्रेग्नेंसी के 24 हफ्ते बाद भी अबॉर्शन करवा सकती है. या महिला विकलांग है तब वह 24 हफ्ते बाद भी गर्भपात की मांग कर सकती है. साथ ही बच्चे के जीवित बचने के चांस कम है या प्रेगनेंसी की वजह से मां की जान को खतरा हो तो भी करवाया जा सकता है अबॉर्शन.

24 हफ्ते के बाद गर्भपात पर फैसला लेने के लिए एमटीपी बिल में राज्य स्तरीय मेडिकल बोर्ड्स का गठन किया जाता है. इस मेडिकल बोर्ड में एक गायनेकोलॉजिस्ट, एक बाल रोग विशेषज्ञ, एक रेडियोलॉजिस्ट या सोनोलॉजिस्ट शामिल होते हैं. ये बोर्ड गर्भवती की जांच करता है और अबॉर्शन में महिला की जान पर कोई खतरा न होने की स्थिति में ही अबॉर्शन करने की इजाज़त देता है.

भ्रूण के लिंग की जांच के बाद गर्भपात करना भ्रूण हत्या के दायरे में आता है और कानून की नज़र में ये अपराध है.

भारत में से अबॉर्शन जुड़ी समस्याएं

भारत उन कुछ चुनिंदा देशों में से है जहां महिलाओं को क़ानूनी तौर पर गर्भपात का हक है, लेकिन यहां समस्याएं अलग तरह की हैं.

भारत में आमतौर पर प्रेग्नेंसी का फैसला सिर्फ महिलाओं का नहीं होता. शादीशुदा घरों में यहां बहुत कुछ पति और परिवार पर निर्भर करता है. यही बात अबॉर्शन केसेस पर भी लागू होती है. जैसे कानून तो ये कहता है कि अगर प्रेग्नेंसी की वजह से किसी महिला को मानसिक आघात पहुंचता है तो वो गर्भपात करवा सकती है. लेकिन भारत में जिस तरह का सोशल स्ट्रक्चर है उसमें परिवार का दबाव, समाज का दबाव इतना हावी होता है कि महिला पर बच्चा पैदा करने का भारी दबाव होता है. ऐसे में अगर वो मानसिक रूप से तैयार नहीं होने की बात कहकर अबॉर्शन करवाना चाहे भी तो परिवार वाले उसे ऐसा करने नहीं देते.

अक्सर इस तरह की बातें सुनने में आती हैं. ये अपने आप में बड़ी आयरनी है कि एक महिला जब अपनी मर्ज़ी से अबॉर्शन करना चाहती है तो उस पर बच्चा पैदा करने का दबाव बनाया जाता है. लेकिन अगर पता चल जाए कि पेट में लड़की है तो जीव हत्या, ऊपर वाले को क्या मुंह दिखाओगी कहने वाले रिश्तेदार झट से बच्चा गिराने की राय देने लगते हैं. UNFPA की रिपोर्ट बताती है कि 2020 में जन्म से पहले लिंग परीक्षण की वजह से भारत में करीब 4.6 करोड़ लड़कियां मिसिंग हैं.

ये तो विवाहित महिलाओं की बात थी, लेकिन जब बात अविवाहित लड़कियों की आती है तो उसे कई स्तरों पर नेगेटिव बातों से जूझना पड़ता है. चूंकि शादी के बिना बनाए गए शारीरिक संबंधों को भारतीय समाज स्वीकार नहीं करता है और स्टिग्मा की तरह देखता है. ऐसे में जब कोई लड़की गर्भपात कराने जाती है, तो डॉक्टर्स भी उससे शादीशुदा हो, बच्चे का बाप कौन है, मां बाप को इस बारे में पता है टाइप के गैरज़रूरी सवाल पूछते हैं कई डॉक्टर्स लड़कियों को डांटने भी लगते हैं कि घरवालों का भरोसा तोड़ दिया आदि आदि. ऐसे वक्त में जब एक लड़की को सपोर्ट की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है वो लोगों के जजमेंट झेल रही होती है.

और गर्भपात तो दूर की बात है, आप किसी नार्मल सी प्रॉब्लम के लिए भी गायनेकोलॉजिस्ट के पास जाओ तब भी वो दो चार गैर ज़रूरी सवाल पूछेंगी. सही समय पर शादी और बच्चा पैदा करने जैसी बिन मांगी सलाह दे देंगी.

अबॉर्शन के अधिकारों के मामले में इंडिया अमेरिका से आगे है?

बिल्कुल सही बात है…भारत इस मामले में अमेरिका से आगे है. यहां का कानून महिलाओं को ये फैसला लेने का हक देता है कि बच्चा रखना चाहती है या नहीं. लेकिन वजह फैमिली प्लानिंग वाली है. एक औरत का उसके शरीर पर अधिकार वाली नहीं. कानून तो हमारा दुरुस्त है लेकिन दिक्कत सोशल स्ट्रक्चर की है जहां पति और ससुराल वाले एक लड़की, उसके शरीर और उसके पूरे अस्तित्व पर अपना हक समझते हैं. इस वजह से कई महिलाएं अपने शरीर से जुड़े फैसले खुद नहीं ले पातीं, उसके लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जाती हैं.

कानूनी हक के बावजूद सुविधाओं की कमी और सामजिक दिक्कतों के कारण वो पूरी तरह अपने हक़ का इस्तेमाल नहीं कर पातीं. हमें ज़रूरत है सुविधाओं को महिलाओं तक पहुंचाने और सामजिक रूप से कुरीतिओं को खत्म करने की ताकि महिलाएं अपने हक़ का इस्तेमाल कर सकें.

जून में क्यों मनाते हैं प्राइड परेड, आइए जानते हैं इसका पूरा इतिहास

पूरी दुनिया खासतौर से लैटिन-अमेरिकन देशों में जून को ‘प्राइड मंथ’ के रूप में मनाया जाता है. कुछ विशेष समुदायों के द्वारा जून महीने को प्राइड परेड मंथ कहा जाता है. हर साल दुनिया भर में LGBTQ समुदाय और इसे समर्थन देने वाले लोग इसे बड़े  उत्साह से मनाते है. प्रदर्शन के दौरान ये लोग हाथो में एक झंडा लेकर चलते हैं जिसे इंद्रधनुष कहते हैं.

क्यों मनाया जाता है प्राइड मंथ?

28 जून 1969 को अमेरिका के मैनहट्टन के स्टोन वॉल में LGBTQ समुदाय के लोगों के ठिकानों पर छापेमारी की गई थी, यह छापेमारी गे समुदाय के लोगों के द्वारा लगातार किए जा रहे प्रदर्शनों और धरनों के विरोध में की गई थी. इस छापेमारी के दौरान ही पुलिस और वहां मौजूद लोगों के बीच हिंसक झड़प हो गई. इसके बाद पुलिस ने जब लोगों को गिरफ्तार करना शुरू किया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो गए. जिसके बाद इस समुदाय के लोगों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया और यह संघर्ष लगातार तीन दिनों तक चला. इस लड़ाई से न केवल अमेरिका में समलैंगिक आजादी के आंदोलन की शुरूआत हुई, बल्कि बहुत से देशों में आंदोलन शुरू हो गया. इसके बाद इस समुदाय के लोगों ने अपने अधिकारों की मांग और अपनी आइडेंटिटी पर गर्व करने के लिए प्रत्येक साल जून महीने में शांति रूप से प्राइड परेड करने का फैसला लिया.

प्राइड मंथ पर निकलती है लाखों लोगों की परेड

इस मंथ को LGBTQ समुदाय के खिलाफ हो रही यातनाओं के खिलाफ विरोध में भी देखा जाता है.  इस महीने का इस्तेमाल राजनैतिक तौर पर LGBTQ कम्युनिटी के बारे में पॉजिटिव प्रभाव डालने के लिए भी होता है. पूरे महीने ये लोग शहर में जगह-जगह परेड निकालते हैं. इस समुदाय के प्रति समर्थन जाहिर करने के लिए भी कई संस्थाएं इनकी परेड में शामिल होती हैं.

अमेरिका में प्राइड मंथ को कब मिली मान्यता?

बिल क्लिंटन साल 2000 ऑफिशियल तौर पर प्राइड मंथ को मान्यता देने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं.  साल 2009 से 2016 तक अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा रहें, तो इस दौरान इन्होंने जून माह को LGBTQ के लोगों के लिए प्राइड मंथ की घोषणा की.  मई 2019 में, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक ट्वीट के साथ प्राइड मंथ को मान्यता दी. इसमें घोषणा की गई थी कि उनके प्रशासन ने LGBTQ को अपराध की श्रेणी से हटाने के लिए एक वैश्विक अभियान शुरू किया है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी आधिकारिक रूप से ‘प्राइड मंथ’ की घोषणा की है. न्यूयॉर्क प्राइड परेड होने वाली सबसे बड़ी और सबसे प्रसिद्ध परेड में से एक है.

प्राइड परेड का झंडा कैसा होता है

प्राइड परेड का झंडा साल 1978 में अमेरिका के शहर सैन फ्रांसिस्को के कलाकार गिल्बर्ट बेकर द्वारा डिज़ाइन किया गया था. बेकर द्वारा बनाये गए झंडे में 8 रंग थे – गुलाबी, लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, इंडिगो और वायलेट, लेकिन अगले ही साल से इस झंडे में छह-रंग कर दिए गए जिसमें लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला और वायलेट रंग हैं. ये लोग इसे इंद्रधनुष मानते हुए परेड में शामिल करते हैं. महीने भर चलने वाली इस परेड में कार्यशालाएं, संगीत कार्यक्रम समेत कई अन्य कार्यक्रम शामिल हैं, जो हर जगह लोगों को आकर्षित करते हैं. इस समुदाय के लोग अपने उत्सव में शामिल होने के लिए वेशभूषा, श्रृंगार के साथ तैयार होते हैं.

किसने दिया प्राइड परेड नाम?

इस आंदोलन को ‘प्राइड’ कहने का सुझाव साल 1970 में समलैंगिक अधिकारों के कार्यकर्ता एल क्रेग शूनमेकर ने दिया था. इसका खुलासा उन्होंने दिए एक इंटरव्यू में किया इन्होंने कहा कि इससे जुड़े हुए लोग अंदर ही अंदर संघर्ष कर रहे थे और उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि खुद को समलैंगिक साबित कर अपने पर गर्व कैसे महसूस करें.

भारत में LGBTQ के कानूनी अधिकार क्या हैं?

भारत में आर्टिकल 377 के तहत समलैंगिकता अपराध की श्रेणी में था लेकिन साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता पर लगी धारा 377 को मान्यता दे दी. इस ऐतिहासिक फैसले के बाद भारत में  LGBTQ को संबंध बनाने का क़ानूनी अधिकार दे दिया गया. इस ख़ुशी के मौके पर इसे सेलिब्रेट करने के लिए LGBTQ समुदाय के लोगों ने पूरे देश में एक स्वतंत्र नागरिक होने की हैसियत से मार्च किया.

हालांकि अभी भी भारत में LGBTQ समुदाय के लोगों को शादी करने और बच्चे गोद लेने का अधिकार नहीं है जबकि ऑस्ट्रेलिया, माल्टा, जर्मनी, फिनलैंड, कोलंबिया, आयरलैंड, अमेरिका, ग्रीनलैंड, स्कॉटलैंड समेत 26 देशों में  LGBTQ समुदाय के लोगों को शादी करने और बच्चे गोद लेने का अधिकार है.

भारत में कब शुरू हुई प्राइड परेड और इसका इतिहास?

भारत में पहली प्राइड परेड 02 जुलाई, 1999 को कोलकाता में आयोजित की गई थी. इसे तब कोलकाता रेनबो प्राइड वाक नाम दिया गया था. सिटी ऑफ जॉय के नाम से मशहूर कोलकाता में हुई इस परेड में सिर्फ 15 लोग शामिल हुए थे जिसमें एक भी महिला नहीं थी. इसके बाद आने वाले सालों में देश के कई राज्यों में इसका आयोजन किया जाता है.

साल 2008 में दिल्ली और मुंबई में पहली बार LGBTQ समुदाय लोगों ने प्राइड परेड का आयोजन किया था. दिल्ली में इस समुदाय के द्वारा हर साल नवंबर के आखिरी संडे को प्राइड परेड का आयोजन किया जाता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें